शब्द-साधक डॉ. नरेन्द्र मोहन

   डाॅ. रजनी बाला, डाॅ. रजनी बाला (अध्यक्ष) हिन्दी विभाग, जम्मू विश्वविद्यालय, जम्मू, मो. 9419106436

अक्सर बचपन बड़ा अजीज होता है। बेफिक्री और शरारत से भरा-पूरा बचपन सारी जिन्दगी के लिए एक मिथक बनकर रह जाता है। लेकिन डॉ. नरेन्द्र मोहन का बचपन हादसों की गवाही हमेशा लेखन में देता रहा है। माता श्रीमती विद्यावती की कोख में नरेन्द्र मोहन ने ‘अल्लाह हो अकबर‘ किसी अजान या ‘हर हर महादेव‘ के नारे किसी मन्दिर की घंटियों के बीच नहीं बल्कि तलवार और त्रिशूल से एक दूसरे को हलाक करते नृशंसों के कौमी जुनून की चीख़ में सुने थे। ऐसे वक्त में माँ सोचती शिशु बाहर की दुनिया की दरिन्दगी कैसे देख सकेगा और शिशु था कि दुनिया जैसी भी हो उसे देखने को लालायित। पिता श्री रूपलाल शर्मा आधी रात कफ्र्यू के माहौल और बेचैनी की हालत में दाई को ढूँढ़ते फिरे। दहशत और चुप्पी की एक सिल वहीं से बालक नरेन्द्र मोहन में सरक आयी। 30 जुलाई 1935 लाहौर में जन्मे इस शिशु का बचपन दहशत खौफ़ से भरा था। संवेदनशीलता का यह आलम कि रावण के पुतले को जलता देखकर बालक निंदर को चक्कर आने लगते और वह बेहोश तक हो जाता। 10-11 साल की उम्र में अपने मास्टर को तकसीम के नाम पर अपने ही शरीर पर कैंची से जख्म करते देखा तो वही मास्टर यूसुफ जीवन भर उनका पीछा करता रहा। यकायक वह बालक इन काले सायों के बीच बड़ा हो गया।

हौलनाक हादसों का यह मंज़र कि बालक नरेन्द्र मोहन गूंगे तक हो गये और काफी बाद में चाबीदार खिलौनों की हरकतों से जुबान में जुंबिश हुई। कालान्तर में यही चुप्पी उनकी रचनाओं - ख़ास तौर पर लम्बी कविताओं और नाटकों में हरक़त भरे शब्दों में बयाँ हुई। 12 साल की उम्र में अपना वतन, अपनी धरती, अपना घर छोड़ने को विवश, शरणार्थी जीवन जीने को अभिशप्त, रावी, चनाव की ममतामयी गोद से बिछड़ कर अन्ततः दिल्ली की यमुना तक आ गये। इस सारे परिदृश्य को उन के घरेलू नाम निंदर ने कुछ इस तरह देखा, झेला और महसूसा कि नरेन्द्र मोहन की लेखकीय मानसिकता नियन्ता यही निंदर हो गया।

रोजी-रोटी की जुगाड़ में खालसा कालेज लुधियाना से होते हुए पंजाब के विभिन्न कॉलेज में सात वर्ष कार्य करने के बाद 1967 में गुरु तेग बहादुर खालसा कॉलेज दिल्ली में आने के बाद 1988 में दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में असोसिएट प्रोफेसर नियुक्त और वहीं से सन् 2000 में सेवानिवृत हुए। इस क्रम में शरणार्थी और बाहर से आये हो उन्हें हमेशा सुनना पड़ा- अमृतसर में आये तो लाहौरिए हो, हिसार में आये तो अमृतसरी हो और दिल्ली में आये तो हरियाणवी हो, लेकिन हिन्दुस्तानी कहीं नहीं हैं। यह कैसा मंज़र है अपने देश में कि देश के ही नहीं हो बाकी सब कुछ हो।

लेखकीय धरातल पर पहली कविता और लेख 1954 में प्रकाशित हुए। आलोचना विशेष रूप से नाट्यालोचना में अकाल की स्थिति मानने वाले नरेन्द्र मोहन ने आलोचना से साहित्य जगत में अपनी पहचान बनाई। उनका मानना है कि आलोचना से साहित्य की बारीकियाँ बेहतर ढंग से समझी जा सकती हैं। संभवतः इसीलिए विचार कविता को एक अभिव्यक्ति माध्यम के रूप में वह रख सके। कविता में विचार के दखल से नाक-मुँह सिकोड़ने वालों के बीच विचार कविता को लाना किसी चुनौती से कम नहीं था। दूसरी ओर उन्होंने लम्बी कविता को व्याख्यायित और स्थापित किया। बेशक लम्बी कविता के सर्जक के रूप में मुक्तिबोध का नाम ही सबसे पहले कौंधता है किन्तु उसके कलेवर और जरूरत का अहसास कराते हुए कुछ पैमानों के आधार पर इस माध्यम की पहचान के पुख्ता अवयव नरेन्द्र मोहन ने सामने रखे। कविता को भाव-स्फूर्त, आवेग त्वरित, स्फुट और मुक्तक जैसे विशेषणों के बाड़े तक सीमित करने वाले खेमों के बावजूद उनकी एक के बाद एक पाँच लम्बी कविताओं के अतिरिक्त चैदह काव्य संग्रह प्रकाशित हुए। दरअसल, आत्म, स्मृति और इतिहास या यों कहें इतिहास, स्मृति और आत्म का ताना-बाना उनके अवचेतन में कुछ इस तरह बुना है कि घटना हो या पात्र उनके यहाँ रचना का हिस्सा बन मिथक का सा रूप ले लेते हैं।

कविता के साथ ललित कलाओं का सम्बन्ध एक नये प्रकार के सौन्दर्य बोध को जन्म देता है, इस मान्यता को मानते हुए उन्होंने चित्र और कविता, नृत्य और कविता, कठपुतली और कविता, पेंटिंग्स और कविता को एक सुलगती खामोशी, रंग दे शब्द और रंग आकाश में शब्द संग्रहों में इस तरह सहेजा कि चित्र और पेंटिंग्स में कविता के शब्द बोलने लगे और कविता में नृत्यांग्ना के धुंघरूओं की रुनझुन और भाव मुद्राएँ मुखर हो उठीं। इस तरह उन्होंने कविता के संदर्भ में सनातन तौर पर घोषित कर दी गयी सामन्ती मान्यताओं को न केवल तोड़ा है बल्कि उनके स्थान पर बहुत कुछ रचनात्मक और मौलिक प्रदान भी किया कविता और कलाओं के साथ नरेन्द्र मोहन कुछ इस तरह जुड़े और समकालीन परिवेश ने ऐसी दस्तक उन्हें दी कि कलाओं का समग्रतः प्रयोग करने वाले अभिव्यक्ति माध्यम नाट्य सृजन की ओर वह 1980 से गतिशील हुए। कुल नौ नाटकों के इस रचयिता को सच का जोखिम उठाने और उसके लिए सिर हथेली पर सजाकर चलने वाले चरित्र- चाहे वह ऐतिहासिक हो या अपने दौर के- हमेशा ही प्रभावित करते रहे हैं। दूसरे अपनी ही राख से फीनिक्स पक्षी की तरह फिर से अस्तित्व सम्पन्न होने वाले विद्रोही उनके नाटकों में कभी कबीर तो कभी तुकाराम कभी रंगनाथ और उसका परिवार तो कभी मलिक अंबर जैसे केन्द्रीय चरित्र बन जाते हैं। विद्रोह और मौन, सच और स्वप्न, तख्त और तख्ता, व्यक्ति और व्यवस्था के विरोधी छोर के बीच उनके नाटक आज के विसंगत माहौल में हरकत भरे शब्दों के माध्यम से जिन्दा रहने का अहसास कराते हैं। सच कहने का यही जोखिम उन्होंने मिस्टर जिन्ना में उठाया। नतीजा वही, जिसकी उम्मीद की जा सकती है! मंचन से एक दिन पहले तथाकथित रूप से घोषित राष्ट्र-प्रेमियों ने नाटक को प्रतिबन्धित कर दिया। यह आकस्मिक नहीं है कि इस घटना के बाद उनका मंच अंधेरे में नाटक आया। साथ ही गुलाम से शासक बनने का सफर तय करने वाले मलिक अंबर नाटक की रचना हुई।

नरेन्द्र मोहन की शख्सीयत की भरपूर पहचान करनी हो तो डायरियाँ साथ-साथ मेरा साया, साये से अलग और साहस और डर के बीच एवं आत्मकथाओं के दो खण्डों कमबख़्त निंदर और क्या हाल सुनावाँ को पढ़ जाइये। इनमें आत्म के साथ के पूरा युग और इतिहास समाया है। अपने जीते जी डायरी और आत्मकथा छापने का जोखिम वही उठा सकता है जिसने अपनी लकीर को बड़ा दिखाने के लिए दूसरे की लकीर को छोटा करने का षड्यन्त्र न किया हो।

नरेन्द्र मोहन अपने दो और कामों के लिए साहित्य जगत में विशेष तौर पर पहचाने जाते हैं - एक विभाजन और दूसरा मंटो। दोनों पर उन्होंने ऐतिहासिक दस्तावेजी काम किया है। विभाजन की पीड़ा से मुक्ति पाने के प्रयास में उन्होंने सिक्का बदल गया, बीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध हिन्दी कहानी, दो खण्डों में भारतीय भाषाओं की कहानियाँ, विभाजन की त्रासदीः भारतीय कथा दृष्टि एक के बाद समीक्षात्मक पुस्तकें दी और विभाजन सम्बन्धी भारतीयों भाषाओं की कहानियों को हिन्दी में अनूदित करवा कर प्रकाशित किया। इन की भूमिकाओं और मिस्टर जिन्ना नाटक में बिना लागलपेट के ऐतिहासिक तथ्यों का शोधपरक अध्ययन करते हुए उन्होंने स्थापित किया कि विभाजन के लिए एक चेहरे पर कालिख पोतनी थी, सो हमें जिन्ना मिल गया, काईंयाँ किस्म के गहरे कूटनीतिज्ञ लार्ड माउंटबेटन की अंग्रेजीयत के हम प्रशंसक बने रहे और नेहरू- पटेल के सामने नतमस्तक हो गये।

मंटो पर काम करने का नरेन्द्र मोहन का बड़ा कारण रहा कि कई धरातल पर वह उनके साथ अपना जुड़ाव महसूस करते हैं। क्या संयोग है कि मंटो का यह दीवाना मंटो के जन्मदिन वाले दिन 11 मई 2021 को अनन्त लोक की ओर सांसारिक जाल को समेट चला गया। एक लम्बे समय से मंटो की शख्सीयत और लेखन से जुड़े और प्रभावित रहे नरेन्द्र मोहन नो मैंस लैंड नाटक की भूमिका में मंटो की कहानियों को प्रेरणा रूप में स्वीकारते हैं। मंटो की कहानियाँ और मंटो के नाटक का संपादन करते हुए उन्होंने भूमिका स्वरूप लम्बी समीक्षाएँ लिखीं। उनका यह संवेदनशील लेखकीय सम्बन्ध इस सीमा तक पहुँचा कि मंटो के साथ प्रत्यक्ष सम्बन्ध न होने के बावजूद सआदत हसन मंटो की जिन्दा शख्सीयत को उन्होंने मंटो जिन्दा है शीर्षक से जीवनी में उतारा। ऐसा लगता है मंटो के बहाने नरेन्द्र मोहन ने उनके युग, साहित्यिक-राजनीतिक परिवेश और खुद को तलाशने की मुहिम में पाठक को भी शामिल कर लिया है। ऐसा करते हुए उन्होंने व्यक्ति और रचनाकार के तौर पर मंटो और उनके युग की भीतरी सतहों की गहराई तक ‘ड्रीलिंग‘ कर जीवनी-फॉर्म को नयी कलात्मकता प्रदान की है।

उनके साहित्यिक स्थापत्य के बेजोड़ नमूने की बानगी उनकी अंग्रेजी पुस्तक The Eternal No: Protest & Literature तथा दूरदर्शन पर 26 कड़ियों में प्रसारित हो चुके धारावाहिक उजाले की ओर में मिलती है। इसी के साथ फ्रेम से बाहर आती तस्वीरें के संस्मरण संवेदनात्मक सम्बन्धों को खोलते हैं। 

संस्मरणकार के तौर पर वह कई बार पाठक और सम्बन्धित लेखक के बीच समीक्षक की भूमिका निभाते हुए सेतु का काम करते है। उनके मित्रों का एक बड़ा घेरा है जिनके साथ बिताए सम्मोहनपूर्ण पल उनके व्यक्तित्व को एक रागात्मक संवेदना से भर देते हैं। बात से बात चले, मंटो का इन्तजार और सृजन की मनोभमि में साक्षात्कार का सिलसिला उनके वैयक्तिक और साहित्यिक सम्बन्धों को उजागर करता है। साहित्यकार प्रबुद्ध और बुद्धिजीवी होता है अतः प्रश्नकर्त्ता और लेखक के लिए मर्यादा का निर्वाह जरूरी हो जाता है। नरेन्द्र मोहन से उनके समकालीन रचनाकारों, मित्रों की बातचीत और अपने दौर के साहित्यकारों से नरेन्द्र मोहन की बातचीत में इस बात पर बराबर ध्यान दिया गया है।

ज़हिर है इतना बडा लेखक है तो क्षेत्रीय, राष्टीय सम्मानों और पुरस्कारों से तो उसकी झोली भरी है। नट सम्राट का सर्वश्रेष्ठ नाटककार सम्मान (2008), हरियाणा साहित्यिक अकादमी का आजीवन साहित्य साधना राष्ट्रीय सम्मान (2015), परम्परा ऋतुराज वरिष्ठ सम्मान दिल्ली (2016) जैसे महत्वपूर्ण सम्मान दरअसल उन्हें सम्मानित करके स्वयं गौरवान्वित हुए हैं।

आत्मकथा क्या हाल सुनावों में नरेन्द्र मोहन ने लिखा है ‘आखिर क्या बचेगा मेरे जाने के बाद? बचेगा तो मेरा काम ही अगर वह बचने लायक हुआ। बचेगा तो मेरा शब्द ही अगर उसमें वैसी शक्ति हुई।‘ आप जहाँ पर भी हैं वहाँ से जरा झाँक कर देखिए आपके लिए आपका परिवार, आप की लेखकीय बिरादरी, आपका पाठक समुदाय और प्रशंसक अभी भी स्तब्ध हैं। हे शब्द-साधक! आपके शब्दों की गूंज-अनुगूंज, ध्वनि-प्रतिध्वनि दिग्दिगान्त तक सुनी जाती रहेगी, कालयात्री है आपका लेखन और आपकी स्मृतियाँ..!   

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