जीवन के सभी रसों और रंगों में भीगी कविताएँ

 सुधा ओम ढींगरा, -101 Guymon Ct., Morrisville, NC-27560,USA, Email : sudhadrishti@gmail.com

   रेखा भाटिया


कविता संग्रह: सरहदों के पार दरख्तों के साये में

लेखिका: रेखा भाटिया, समीक्षक: सुधा ओम ढींगरा

प्रथम संस्करण-2021, 

मूल्य -250 रुपये

प्रकाशक: शिवना प्रकाशन, सीहोर, म.प्र., 466001, मो. 07562405545,

ईमेल : shivna-prakashan@gmail.com

रेखा भाटिया का नया काव्य संग्रह ‘सरहदों के पार दरख़्तों के साये में‘ मिला। एक ही बैठक में उसे पढ़ लिया। सबसे पहले तो मैं उसके शीर्षक से बहुत प्रभावित हुई। कहीं वैश्विक या प्रवासी शब्द नहीं, लेकिन फिर भी पाठकों को पता चल जाता है कि यह किसी दूर देश का कविता संग्रह हैं। ‘सरहदों के पार दरख़्तों के साये में‘यानी प्रकृति के सान्निध्य में। रेखा भाटिया अमेरिका की उभरती युवा कवयित्री है और शार्लेट शहर में रहती हैं। दरख्तों से घिरी ख़ूबसूरत वादी जैसे शहर में, कथक नृत्य करती हैं और चित्रकला से बहुत प्यार है। स्कूल में प्राध्यापिका हैं और साथ ही सामाजिक कार्य भी करती हैं। उनके व्यक्तित्व के सभी पहलुओं का उनकी कविताओं में गहरा प्रभाव महसूस किया जा सकता है। प्रकृति प्रेम भी रेखा जी की कविताओं में झलकता है।

‘जिंदगी मेरी जीवन सखी‘ कविता में रेखा जी ने जिंदगी को सखी के रूप में देखा है और उससे पूछती हैं-  

मैं भी बूझूँ, मैं भी जानूँ / व्यक्तित्व कैसा है तुम्हारा! / कहानियाँ कई कह गई / रिश्ते कई बना गई / कुछ कहानियों के पात्र हम / कुछ रिश्ते निभाना सिखा गई।

जिंदगी भर हम कितने पात्र निभाते है। कितनी कहानियों को जन्म देते हैं। इसी कविता में लेखिका अपनी सखी जिंदगी से गिला भी करती है-

कभी चलने दो मेरी भी तुम सखी /आगे -आगे तो तुम्हीं चलती रही....

जिंदगी का एक अलग पहलू वह ‘मूल कारण‘ कविता में अभिव्यक्त करती हैं।

‘सरहदों के पार दरख्तों के साये में‘ पढ़ते हुए महसूस किया, रेखा भाटिया बहुत संवेदनशील हैं। जन्मभूमि और कर्मभूमि के अंतर्द्वंद्व में उलझकर नए रास्ते तलाश रही हैं। जन्मभूमि की विसंगतियों, विद्रूपताओं, सरोकारों के लिए चिंतित हो उठती हैं। कहीं समाज, मानवजात, पुरुषसत्ता से शिकवे- शिकायतें हैं तो कहीं रूढ़ियों, झूठी मान्यताओं को बदलना चाहती हैं।

कर्मभूमि में मानवीय भेदभाव और नस्लवाद उन्हें दुखी करता है। वर्षों से अमेरिका में रह रही हैं, अमेरिका की जहाँ प्रकृति का वह आनन्द लेती हैं, वहीं अन्याय के खिलाफ भी उनकी आवाज बुलंद होती है।

‘स्वागत को आतुर‘ कविता में वे वसंत ऋतु का स्वागत करती हैं-

सजने दो बसुंधरा को स्वर्ण-वसंत से / दमकने दो घरती को सूर्य-रश्मियों से / खिल आएँगे पुष्प, महक जाएगी बगिया / बज उठेगा संगीत भौरों की गुनगुनाहट से।

तो कहीं ‘प्रकृति से छिपा लूँ वसंत बहार‘ कविता लिखती हैं...

‘बहारों बैठो आसपास‘, ‘बावरा मन मौसम‘, ‘पंछी सिखलाते‘ कविताएँ भी प्रकृति को समर्पित हैं।

‘क्या रोक पाओगे यह खेल‘ कविता में रेखा जी युद्ध से पीड़ित हो कहती हैं-

हथियारों के पहाड़ों नीचे खोदों / कहीं घायल पड़ी मिलेगी मानवता

.......

किसी झंडे में छिपा छलनी शरीर / कई दिन रातें बिलबिलाते / नेताओं से सवाल पूछ -पूछ चिल्लाते / नया क्या है यह सदियों का खेल / राजे रजवाड़े गए प्रजा की वही लड़ाई

अपनी जात से तो रेखा भाटिया बेहद खफा हैं, क्यों न पूछा अपना हाल...कविता में लिखती हैं-

क्या महज साँस लेता जिस्म... / क्या यही मायने हैं स्त्री के

.....

आत्मा मरने लगी अब मेरी! / छत -दीवारें, गली चैबारे / हृदय का चैराहा, / सब हुए हैं अब लहूलुहान / किन्तु कब तक चुप बैठूँगी!  

....

शर्मिंदा तुम नहीं पुरुष, मैं हूँ / क्यों न पूछा अब तक अपना हाल / देवी, शक्ति, मूर्ति से निकल बाहर, / तीन सौ पैंसठ नारी दिवस मना।

‘मुखौटा‘ कविता में रेखा जी भगवान् से कहती हैं कि मुझे दुनियादारी का नकली मुखौटा क्यों नहीं दिया? मैं क्यों बाजारवाद और समाज में व्याप्त सौदेबाजी से पिछड़ जाती हूँ। बेटी और स्त्री को लेकर रेखा जी ने कई कविताएँ लिखी हैं। अपनी ही जात की प्रतिष्ठा का सम्मान करते हुए स्त्री की अस्मिता, अस्तित्व पर बड़े धड़ल्ले से लिखा है।

कई विषय और बातें ऐसी होती हैं, जिन पर कहानी लिख कर भी अभिव्यक्ति की संतुष्टि नहीं होती पर कविता में बड़ी सहजता और सरलता से स्वाभाविक ही उन भावों का संचार हो जाता है। रचनाकार की दृष्टि समाज के उन कोनों तक भी पहुँच जाती है, जिनकी अवहेलना कर वर्जित कर दिए जाते हैं। कवि अपनी कल्पना से नई राहें तलाशता है, हृदय को छूकर जीवन को सतरंगी कर देता है।

सरहदों के पार दरख्तों के साये में‘ कविता संग्रह में रेखा भाटिया ने तकरीबन जीवन के सभी रसों और रंगों में भीगी कविताएँ लिखी हैं। कहीं मन की पीड़ा ‘रिश्ते झरे पत्ते‘, ‘वह गम कभी छिपा नहीं‘, ‘खुरदरी सी हो गई जिंदगी‘, ‘मन क्यों उदास होता है,‘ ‘रिश्ते छूट जाते घाटों पर‘, ‘आस में मिटती‘, कविताओं में झलकती है तो कहीं समाज में हो रहे अन्याय के प्रति आक्रोश ‘मैं स्त्री बन पैदा हुई‘ में टपकता है। नारी को दोयम दर्जे का समझे जाने से वह तड़पी है ‘संसार बदलने चली है बेटी‘ कविता में। कहीं कवयित्री ‘भविष्य में आने वाले कल की नींव‘ का जिक्र करती है और कहीं रेखा जी पाठक को ‘चलिए अतीत में चला जाए‘ कविता में अपने इतिहास को खंगालने के लिए बाधित करती है। प्रेम, बेवफाई, राष्ट्रप्रेम, अंतिम सत्य खोजती ‘देह यात्रा‘, हर दिन त्योहार, पिता, माँ, बेटी, रिश्ते, अलौकिक प्रेम, हर विषय पर इस संग्रह में कविताएँ हैं। कुछ कविताएँ दिल को छूती निकलती हैं, कुछ विवेक को झंझोड़ती हैं। कई कविताएँ सोचने पर बाध्य करती हैं। 143 पृष्ठों और 72 कविताओं का संग्रह ‘सरहदों के पार दरख़्तों के साये में‘ पठनीय है और कवयित्री रेखा भाटिया का यह पहला प्रयास है, जो सराहनीय है।

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