कितने लाहौर...?

 

यात्रा संस्मरण

नरेन्द्र मोहन, 239 डी, एम.आई.जी. फ्लैट्स राजौरी गार्डन, नयी दिल्ली-110027 मो.: 9818517717 Email : nmohan1935@gmail.com

लाहौर में वल्र्ड पंजाबी कान्फ्रेंस में शरीक होने के लिए वर्ल्ड पंजाबी कांग्रेस, लाहौर (चेयरमैन फखर जमां) का निमन्त्रण, कुछ दिन पहले पंजाबी अकादमी, दिल्ली की मार्फत मुझे मिला, तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। लाहौर कभी हवा में खुशबू की तरह, कभी लम्बे बालों वाले जिन्न की तरह मेरा पीछा करता रहा है। गाहे-बगाहे वह मेरी रचनाओं में भी सरक आता है-मुँह उठाये। इस बार सोचा, क्यों न मैं उसका पीछा करूँ ? इतिहास और स्मृति का खेल भी अजब है। कई बार आमने-सामने आ खड़े होते हैं तो बड़ी आफत मचाते हैं। सोचता हूँ इस खेल को खूबसूरत अन्जाम देकर मोड़ दूं या छोड़ दूँ। हाँ, यह तय पाया कि लाहौर जाकर ही मैं लाहौर से बाहर आ सकता हूँ।

मैं कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहा, मगर सवाल वीजा का है। सुना है वीजा का मामला पाकिस्तान की इंटीरियर-मिनिस्टरी से क्लीयरेंस के लिए अटका हुआ है। आखिरी दिन और निश्चित कुछ भी नहीं। ‘जाना है, नहीं जाना है‘ के बीच तरह स्थगित पड़ा हूँ। अकेला तो हूँ नहीं, पच्चीस लोग दिल्ली से, इससे चैगुने चंडीगढ़ और पंजाब से हैं। क्या महसूस करते होंगे इधर-उधर से सब लोग, वे जानें! लेकिन मुझे बार-बार क्यों चुभती है अनिश्चय की सुई ? घिरा-सा बैठा हूँ कि फोन की घंटी बजती है: ‘तैयार हो जाओ, डाक साहब । वीजा लग गया है‘, पंजाबी अकादमी के सक्रेटरी खेल सिंह की आवाज़ है।

29 जनवरी, 2004 की सुबह ग्यारह बजे वाघा बार्डर पर! कस्टम और दूसरी औपचारिकताओं को पूरा करते-करते दो बज गये। फखर जमा और उनके साथी स्वागत के लिए आये हुए हैं। 2.15 पर हम लाहौर के लिए चल पड़े। वाघा-अटारी दोनों तरफ इक्के-दुक्के पेड़ों के हरियाली के छोटे-बड़े टुकड़े और तेजी से निकलती छोटी-छोटी बस्तियाँ! ढाबे और तंदूरी रोटी की गंध सरगम-सी बजने लगती है खाली पेट में। चारा काटने की मशीनें। हाथ में नाल लिये घोड़े के पाँव का नाप लेता लड़का और नथुने फुलाता हिनहिनाता घोड़ा। साथी लेखक झकझोरता है, ‘कहाँ खो गये हो ? लाहौर, लाहौर रटते रहते हो, लो आ गया तुम्हारा लाहौर।‘ मैंने देखा जिला लाहौर शुरू हो चुका है। हाँ, मेरा लाहौर- मेरी जन्मभूमि, माँ-सी जो दुलारती रही मुझे- यहीं कहीं है मेरी साँसों की सिफनी, मेरी भाषा, मेरी जड़ें... करीब से निकलता कोई कह रहा है- जा, जा, बड़ा आया, दिल्ली जा कर ढूँढ़ अपनी जड़ें। मैं पलट कर देखता हूँ- वहाँ कोई नहीं है... तो, यह कौन सा लाहौर है जो मेरे भीतर अंटा पड़ा है- मेरी स्मृतियों में लिपटा लाहौर - मास्टर युसूफ और निंदर के सपनों का लाहौर, मेरे जे़हन में खलबली मचाए है मेरा पीछा करता आज भी। कितने लाहौर एक रील की मानिंद मेरे सामने से गुजर गये हैं। एक लाहौर को मैंने जिया 70 साल पहले, आज एक और लाहौर मेरे सामने है जो मेरा है भी और नहीं भी। मेरे भीतर का निंदर उचक कर देखता है। उसके अवचेतन में सोया पड़ा लाहौर करवट लेता है। वह देखता है बस नहर के साथ-साथ चल रही है - नहर, जो रावी की बेटी है और रावी उसके बचपन की नदी है। वह खिड़की से मुँह निकाल उसमें झाँकता हूँ - थोड़ा-सा पानी, ढेरों कचरा और आसपास बेइन्तहा सूनापन! नहर के बाईं तरफ एक फर्लाग के फासले पर महन्तों का किला चैबच्चा साहब होगा अभी ? होगा वहाँ क्या वह घर ? निंदर सोचता है और मैं हँसता हूँ। बाईं दिशा में वह दूर तक आँखें गड़ाता है- शायद वह गली दिखे, किले के दरवाजे से तीसरी, जहाँ वह जन्मा-पला ? आर-पार कुछ नहीं दिखता।

सत्तावन साल बाद यहाँ आया हूँ। धुंधला-धुंधला उभरता है कुछ और मिट जाता है। आसमान बादलों से अटा पड़ा है। माल रोड को चीरकर बस आगे बढ़ी है और एक मोड़ घूमते-न-घूमते फलैटी होटल में दाखिल हो गयी है। हम सामान ढेलते कमरा नं. 24 में आ गये हैं।

लाहौर में पहली शाम! लगातार बूंदाबांदी ! हम अनारकली बाजार के लिए चल पड़े - इतिहास और मिथ के कई धागों से बुना हुआ, मिला-जुला यह बाजार दिल्ली के करोल बाग, अजमलखां रोड जैसा दिखता है, मगर मिथिकल यादों से बिंधा होने से बिल्कुल वैसा नहीं है। मिथ और रियल्टी का अजब मेल है यह शहर! बारीक बौछार पड़ने लगी है। क्या इस मिट्टी में कुछ है या बौछार में, या दोनों के मिलाप से उठती गंध में जो मुझे बचपन में ले जा रही है?

वल्र्ड पंजाबी कांफ्रेस का पहला दिन। सेमिनार हॉल के पहले लॉबीनुमा एक चैरस हॉल है जहाँ लेखक-बुद्धिजीवी इकट्ठे हुए हैं। यह हॉल, काॅफी/टी-ब्रेक और लंच के लिए इस्तेमाल होता है लेकिन इस वक्त यह जगह पुस्तकों/चित्रों की प्रदर्शनी के काम में लायी गयी है। पुराने लाहौर को लेकर अनवर ऐजाज के फ्रेमों में जड़े बड़े-बड़े आकर्षक चित्र दीवारों पर टंगे हैं। इन चित्रों में एक-एक चीज विस्तार और गहराई के आयाम में, सार्थक ब्यौरों के साथ नुमायां है। विशाल परिदृश्य के चित्रण में वाटर कलर का ऐसा कमाल कम देखने को मिलता है। पुरानी हवेलियों, हरे रंग की बाल्कनियों वाली हवेलियों, मंडियों, मस्जिदों, कश्मीरी बाजार, अनारकली बाजार, लाहौरी गेट के अन्दर-बाहर की शान-औ-शौकत, बसन्त उत्सव के दिनों का उल्लास और पतंगो भरा आसमान....! पेंटिंग्स में दूर झाँकने से डरता हूँ, कहीं पुराने लाहौर के माहौल में गुम न हो जाऊँ। सो, ऐजाज के साथ इन चित्रों को लेकर बातचीत में मुब्तिला हो जाता हूँ। ऐजाज 33 कलर प्लेट्स वाली ओल्ड लाहौर पुस्तक मुझे देते हैं। मेरे लिए यह एक चित्रकार मित्र की अमूल्य भेंट है।

तभी देखता हूँ, महीप सिंह कई कंधों के ऊपर से, संकेत से मुझे बुला रहा है। करीब जाने पर इलियाज घुम्मन की तरफ इशारा करता है जो मुस्कराता हुआ लपककर मिलता है। अजीत समाचार‘ में प्रकाशित उसकी रचनाओं से उसे जानता हूँ। फारसी, गुरुमुखी दोनों लिपियों में उसे महारत हासिल है। आँखों में गहरा अपनापन लिए वह लेखक-मित्रों के बारे में ऐसे पूछता हे जैसे वे उसके घर के आत्मीय सदस्य हों।

साथ-साथ हॉल में दाखिल होते हैं तो देखते हैं, चीफ मिनिस्टर परवेज इलाही अपने दो-तीन वजीरों के साथ पहुंच गये हैं। उनके साथ मंच पर फखर जमां, सतिंदरसिंह नूर, दीपक मनमोहन सिंह, मुनीर नियाजी, एक-दो और लोग बैठे हैं। फखर जमां बताते हैं - यह नौंवीं वर्ल्ड पंजाबी कांफ्रेंस है - उसके लफ़्ज़-लफ़्ज़ में ठेठ पंजाबी है तो पंजाबी जमीन भी, पंजाबी में रसे-पगे लोग हैं तो सूफी कल्चर और साहित्य का सरमाया भी, लेकिन बड़े फलक पर पंजाबी के इस्तेमाल के हक की इजाज़त के बिना खाली हाथ वह क्या करे ? हक़ से वंचित किये जाने की बात वह बड़े दर्द से कहता है। उसका दर्द कहीं छू जाता है। यह दर्द सतिंदरसिंह नूर के सम्बोधन में भी है। वह कहता है: इधर की पंजाबी ज़ुबान लोक ज़िन्दगी के करीब है-अपनी रंगत में, बन्दिश में, मुहावरे में और तेवर में, जबकि हमारी पंजाबी लोक से दूर हटती जा रही है।

चीफ मिनिस्टर परवेज इलाही ने सादगी भरे पैगाम में ‘इस्टीट्यूट ऑफ आर्ट एण्ड कल्चर इन पंजाबी‘ की स्थापना की घोषणा की और पंजाबी को उसका हक़ दिलाने और पंजाबी में एम.ए. कर चुके लोगों को नौकरी देने का वायदा किया।

इधर और उधर के पंजाब की एक विरासत, एक भाषा, साहित्य और कल्चर को लेकर एक तरफ परवेज इलाही ने, दूसरी तरफ हमारे चीफ मिनिस्टर अमरिंदर सिंह ने इधर के पंजाब और उधर के पंजाब में बड़े-बड़े सम्मेलनों के आयोजन के जरिए दोनों पंजाबों के साझा सुरों के भीतर से एक सिफनी की रचना पर बल दिया। यह सब सुनते हुए मुझे लगा इतिहास और स्मृति का खेल इस वक्त एक दिलचस्प मोड़ पर है। मैं सोचने लगा क्यों न स्मृति को इतिहास से बाहर रखने वालों की ख़बर ली जाये और स्मृतियों से भरपूर रचनाओं के जरिये चले आ रहे इतिहास को बदला जाये। सेमिनार हॉल से बाहर आकर मैं जैसे ही किताबें देखने लगा कि महीप सिंह मेरे करीब आया और एक तरफ इशारा करते हुए हौले से कहा- ‘‘लगता है, अहमद अहसन रंधावा है।‘‘ इतने में ही अहमद अहसन रंधावा ने तपाक से हाथ मिलाते हुए कहा-  “ओय नरिंदर मोन! याद नहीं मैंने तेरे साथ, दिल्ली माता सुन्दरी कॉलेज में नज्में पढ़ी थीं, गगन गिल ने भी।‘‘ उसकी आँखों में एक चमक आयी और चली गयी। मैं उसकी कहानी ‘खोई हुई खुशबू‘ की इन सतरों में खो गया- “मेरी कहानियाँ लहूलुहान हैं, उनके सिर नंगे हैं, बाल-बिखरे हुए और बदन जख्मी हैं। मेरे हाथों में टूटा हुआ कलम है और टूटा हुआ पात्र है, जिसमें मैं अपनी कहानियों के लिए खुशियाँ लेने घर से निकला था। मेरी आँखों में आँसू हैं। मैं अपना रास्ता भी नहीं देख सकता। मेरा हाल मेरी कहानियों जैसा ही है।‘‘ मुझे मेरा बचपन याद आ गया। मुझे लगा उसका ही नहीं, मेरा हाल भी उसकी कहानियों जैसा ही है।

डॉ. परवेज हसन के बारे में, एन्वायरमेंटल लॉ की दिशा में उनके काम के बारे में, पंजाब यूनिवर्सिटी (लाहौर) में उनके नाम से चल रहे एन्वायरमेंटल लॉ सेंटर के बारे में सुना जरूर था, लेकिन उनसे कभी मुलाकात होगी, वह भी लाहौर में उनके घर पर सोचा न था। पहली मुलाकात में ही वह बड़े सूझ-बूझ वाले और सुरुचि संपन्न लगे। बातचीत से लगा, उनकी रुचियों का विस्तार पर्यावरण के अलावा, पेंटिंग से पॉलिटिक्स और भाषा से संस्कृति के मसलों तक है।

बात-बात में मैं उनसे रावी का हाल पूछ बैठा तो कहने लगे- “बुरा हाल है, रावी नहर का। एक स्कीम बनाई है। नहर से काम शुरू कर रहे हैं। आप उधर से मदद करें, पानी छोड़े तो आपकी यादों में बसी रावी को वापस ले आयें।‘‘ भविष्य में देखती उनकी आँखों में झाँकते हुए मुझे अच्छा लगा।

शाम को कल्चरल प्रोग्राम कल्चरल कॉम्पलेक्स अलहमरा में। हम पहुँचे तो कार्यक्रम अपने शबाब पर था। हमारे पाँव लोकधुनों पर थिरकने लगे और सिर बेसाख्ता हिलने लगे, पर मजबूरन हमें उठना पड़ा। इम्तियाज आलम ने, जो सफमा (साउथ एशिया फ्री मीडिया एसोसिएशन) के महासचिव हैं, कार भिजवा दी है।

हम उनके घर पहुंचे तो देखा, महफिल सजी है। मुद्दा वही हिन्दुस्तान-पाकिस्तान की दोस्ती! कब तक टिकेगा यह जज्बा ? क्या रंग लायेगी यह दोस्ती ? अमरीका चाहेगा तो दोस्ती, अमरीका चाहेगा तो दुश्मनी, अमरीका हीरो, अमरीका विलेन! मैं सोचता हूँ, अमरीका को जरा अलग करके क्यों न देखें ? दोनों तरफ लम्बी तनातनी के बावजूद यह अहसास नहीं बढ़ रहा कि अगर हमें चैन से रहना है तो अपनी समस्याओं का हल हमें खुद ढूँढ़ना होगा। आतंकवाद के आत्मघाती नतीजों से पाकिस्तान बाख़बर हो चुका है और अब यह जानलेवा ग्लोबलाइजेशन, न उगलते बने न निगलते! खैर, जो है, उसका सामना तो करना ही होगा। पंजाबी के साथ सिरायकी का मुद्दा भी उठा। यह कौन है जावेद या जौहरी जो फर्राटे से सिरायकी में ग्लोबलाइजेशन की चूलें हिला रहा है? सिरायकी वहाँ, उसकी जमीन वहाँ, फिर भी पूरे माहौल में सिरायकी बोल रहा वह कितना अलग-थलग दिख रहा है ? पता नहीं केसे बातचीत जिन्ना पर खिसक आयी। मैं बताता हूँ- “जिन्ना पर एक नाटक लिख रहा हूँ।‘‘

‘‘किस एंगल से, किस परस्पेक्टिव से ?‘‘ कोई पूछता है।

‘‘उस वक्त की ऐतिहासिक परिस्थिति और कई तरह के दबावों में जिन्ना की साइकी को टटोलना क्या एक नजरिया नहीं हो सकता ?‘‘ मैं प्रति प्रश्न करता हूँ।

‘‘साइकी भी अजब गोरखधंधा है। कई बार इसे पॉलिटिकली देखा जाता है, कई बार ह्यूमनिष्ट (मानवीय) एंगल से, और कई बार लोग-बाग इसे रैशनॅल-अन्कॉन्शस तक घसीट ले जाते हैं।‘‘ यह बात शायद जावेद ने उठाई है।

मैं उसकी तरफ देखता हूँ- “पॉलिटिकल, ह्यूमनिष्ट या साइकिक, जो कह लो। पर्सनल से पॉलिटिकल, पॉलिटिकल से पर्सनल चीजें कैसे उलटती-पलटती रहती हैं, एक छोटी-सी बात कैसे जी का जंजाल बन जाती है और सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं और त्रासदियों का कारण, यह हममें से कौन नहीं जानता ? ऐसी कई बातें जो जिन्ना के जी का जंजाल बनीं, उन्हें लेकर जिन्ना को नयी तरह से जानने-समझने की कोशिश क्यों न हो ? यह तो आप मानेंगे कि एक नाटक को खड़ा करने के लिए जिन्ना की ज़िन्दगी के ऐसे प्रसंग बड़े दिलचस्प हो सकते हैं।‘‘ ।

मैं मूड को हल्का करने के लिए पूछता हूँ- “यारो, यह तो बताओ रावी का क्या हाल है ?‘‘ कोई तल्खी से कहता है - ‘‘आपको रावी से क्या लेना-देना, वह जिये या मरे ?‘‘

‘‘मुझे नहीं तो और किसे है ?‘‘ मैं अपने आक्रोश को दबाकर कहता हूँ- “मेरा कसूर इतना भर है न कि इस पूरे दौर में मैं रावी को अपने अन्दर बहने से रोक न सका। एक ऐसे दरिया को सीने से चिपकाये रहा जो मेरा होने के बावजूद, मेरा न रहा !‘‘

‘‘और आप लोगों ने वह दरिया हमारा भी कहाँ रहने दिया ? सारा पानी अपनी तरफ रोक लेते हो और रावी अब गंदले-सड़े पानी का नाला हो गया है।‘‘

इम्तियाज आलम के लफ्जों में थोड़ा-सा अफसोस, जरा-सी झल्लाहट झलक रही थी। मैं चुप रहा। मैंने देखा- मेरे अन्दर एक नदी मर रही है।

ननकाना साहब के लिए चल पड़े हैं। छोटी-सी बस है, जिसमें दिल्ली के बीस-बाईस लेखक हैं। सरकारी मेहमानों की तरह विशेष सुरक्षा व्यवस्था में हमें ले जाया जा रहा है। एक गाईड साथ में है, जो हमें ऐतिहासिक और दूसरी इमारतों के बारे में बताता जा रहा है- इकबाल अकादमी, अलहमरा, चिड़ियाघर, पंजाब विधानसभा, मीनारे-पाकिस्तान, जी.पी.ओ., पंजाब यूनिवर्सिटी! मैं देखता हूँ- कीकर और नीम और बेरी के पेड़ एक-एक कर निकलते जा रहे हैं और मेरे बचपन की बन्द रील चलने लगी है। वेदना से भरपूर स्वर में कोई हीर‘ गा रहा है और मुझे लगता है कि जैसे मेरे वजूद पर चढ़ी गर्द की मोटी-मोटी परतें हटती-गिरती जा रही हों। एक भीतरी दुनिया के बरक्स एक बाहरी दुनिया- भीतरी दुनिया के बिम्बों-प्रतिबिम्बों की कभी याद दिलाती, कभी उन यादों को तहस-नहस करती, पहचानने की कोशिश में पहचान से बाहर होती जाती चीजें और जगहें! यादों पर चढ़ी यादें और सामने यादों के मकबरे!

गाईड की आवाज गूंजती है, ‘‘हम रावी नदी के करीब पहुंच रहे हैं।‘‘ मैं देखता हूँ, दोनों तरफ, दो दिन की बारिश के बाद धूप बिछी है। हल्की-हल्की धुंध है और चमकती रेत के जरें हैं जो मेरे बचपन की मुट्ठियों से कभी फिसलते गये थे। उँगलियों से झरते इन चमकते जरों में तब कितना कुछ दिखता था! आज उनमें दिख रहा है- निचाट सूनापन जैसे धुंध में लिपटा कोई उदास चेहरा !

बस रावी के पुल से गुजर रही है- पानी के धब्बे, पानी की लकीरें भागती हुई बस की रफ्तार के साथ! हम रावी लाँघकर दूसरी तरफ आ गये हैं। मेरे बचपन की नहीं, कोई और ही नदी है यह जो मैं लाँघकर आया हूँ। मेरे अन्दर बहता रावी का प्रवाह ठिठक कर थम क्यों गया है ? मैं किसी की तरफ नहीं देख रहा, न चाहता हूँ कि कोई मेरी तरफ देखे। कुछ है जो मुझसे कट रहा है और मैं टूट रहा हूँ। कटने और टूटने के इस अहसास में मैं नहीं चाहता कोई मुझे देखे। क्यों न देखे ? आखिर क्या है मेरा उसका रिश्ता ? वर्षों से रावी को अपने भीतर उमड़ता देख मैं जो उल्लास महसूस करता था, अपने होने की गवाही-सी, उस पर पत्थर क्यों पड़ गये? उदास और अनमना-सा मैं खालीपन में डूबने लगता हूँ। निचाट सूनी आँखों से दरिया-ए-रावी मुझे ताक रहा है और में उसे देख रहा हूँ- हाँफता खाली होता।

बस जिला शेखूपुरा में दाखिल हो गयी है। बोलियों और लोकगीतों का सिलसिला फिर शुरू हो गया है। गाईड की आवाज- ‘हम ननकाना साहब, गुरुनानक के जन्म स्थान पर पहुँच गये हैं।‘‘

विशाल परिसर है। सामने गुरुद्वारा: ‘सत् गुरु नानक प्रकटिया। मिटी धुंद जग चानण होया! यहाँ थोड़े से पंजाबी परिवार हैं। उन्हीं में से कुछ पीढ़ी-दर-पीढ़ी कीर्तन और शबद पाठ करते चले आ रहे हैं। धूप खिली है। चानण यानी प्रकाश का पसारा है। जानता हूँ, उसी में मैं हूँ, उसी का हिस्सा, मगर यह धुंध मुझे जकड़े है। खुलना चाहता हूँ, पर यह मुझे खुलने नहीं देती। धुंध मिटे तो सच का चानण हो या सच का चानण हो तो धुंध मिटे! खुद को लताड़ता हूँ, सच को पाने के लिए मैंने क्या किया ? कितना भटका, भ्रमण किया और पैरों में कितने फफोले पड़े ? कितनी मार खायी ? क्या किया-धरा ? कुछ भी तो नहीं। चानण अपने रोएँ-रोएँ में महसूस करूँ तो कैसे ?

छोटी-छोटी बच्चीयाँ शबद गा रही हैं। मैं सुनने लगता हूँ। महसूस करता हूँ, शब्द ही मुझे उबार सकता है। मेरे लिए शब्द के सिवा कोई रास्ता नहीं है मुक्ति का।

शाम को कसूर के लिए चल पड़े- बाबा बुल्लेशाह की मजार के लिए। पूरा शहर उमड़ पड़ा है। लोग उचक-उचककर हमारी ओर देख रहे हैं। प्यार और उमंग से, उत्साह और सम्मान से। लोग हमें दरगाह के अन्दर ले जाते हैं।

हमने देखा एक तरफ एक सूफी मस्त होकर बल्लेशाह की काफी गा रहा है। हम तल्लीन होकर सुनने लगते हैं:

अपने तन दी खबर ना कोई, 

साजन दी खबर लिआवे कौण ? 

इक जम्मदे इक मर मर जांदे, 

एहो आना गौण। 

न हम साकी न हम आतिश, 

न पाणी न पौण। 

कुप्पी दे बिच रोड़ खड़कता, 

मूरख आखे बोल कौण। 

बुल्ला साईं घट घट रविया, 

ज्यों आटे बिच लौण।

साजन दी खबर लिआवे कोण ? 

जैसे ही हम आगे बढ़े, एक सूफी संत नाच रहा है और गा रहा है:

राँझा राँझा करदी नी मैं, 

आपे राँझा होई। 

सदो नी मैंनू दीदो राँझा. 

हीर न आखो कोई। 

राँझा मैं विच्च मैं राँझे विच्च, 

मैं नहीं ओह आप है आपणी, 

आप करे दिलजोई। 

राँझा राँझा करदी नी मैं, 

आपे राँझा होई। 

काफियों के गायनों के साथ नाचते हुए उस फकीर ने अद्भुत समां बाँध दिया था। इस तरह के गायन और नर्तन को देखते हुए रात का एक बज गया।

बस लाहौर की तरफ भागी जा रही है। बुल्लेशाह की काफियाँ एक के बाद एक दिल-दिमाग में घुमड़ रही हैं। बस एक जगह अचानक रुक गयी है। कहते हैं, यह पुराना ऐतिहासिक पिंड लिलयानी है। इसे खोजगढ़ (पंजाबी रिसर्च सेंटर) नाम दिया गया है। अँधेरे में कुछ सूझ नहीं रहा। तारों पर दो-तीन बल्ब जल रहे हैं। पचास गज के फासले पर एक तम्बू तना है। कोई कह रहा है - वहाँ अभी तत्काल कवि दरबार का आयोजन है। हमारे कवि और कविता-स्थल के बीच एक नाला बह रहा है जिसे ऊबड़-खाबड़ तख्तियों पर पाँव रखते हुए गिरते-न-गिरते हम पार करते हैं। ठंड बढ़ गयी है। मैं महीप सिंह से कहता हूँ - ‘‘चलो, नहीं तो कुल्फी जम जायेगी।‘‘

सुरक्षाकर्मी हाथ पकड़कर, एक-एक करके हमें नाला पार करवाता है। बस मैं आता हूँ तो देखता हूँ, इकबाल दीप चुपचाप बैठा है, अपने में खोया! मुझे उर्दू के अफसानानिगार जोगिंदर पाल की याद आ गयी- दुनिया- जहाँ में जैसे कोई हो, फिर भी न हो जैसा कि हुआ जाता है। बस में, ट्रेन में, महफिल में जहाँ कहीं इस तरह के, अपने खोये, बेहद अकेले और फकीरी में अमीर चेहरों को देखता हूँ तो भुला नहीं पाता। आधे घंटे में सभी आ जाते हैं। कवि दरबार की रस्म अदायगी हो चुकी है। कोई दूसरा कह रहा है - कविता कितनी ठिठुरी होगी रात-भर!

दिल्ली से लाहौर के लिये चलते वक्त एक थ्रिल और लगातार सुई की चुभन-सी ! लाहौर में चैबच्चा साहब , धर्मपुरा, रेलवे क्रासिंग, कैंट में डूंगर मौहल्ला मेरे चेतन-अवचेतन में आते-जाते रहते हैं - मैं उनमें बसा हुआ, वे मुझमें ! बारह वर्ष की उम्र में एक लड़का अपने परिवार के साथ मुगलपुरा (लाहौर से अगला स्टेशन चैबच्चा साहब से फर्लाग-भर) से गाड़ी पकड़ता है अमृतसर के लिये। लगता है कल की बात हो। इतने सालों में इतिहास के कई चक्र घूम गये, लेकिन कुछ पलों के लिए मैं जैसे वही ठिठका रह गया।

मैं और महीप सिंह एक ऑटो पर सवार होकर चैबच्चा साहब जा रहे हैं। नहर की तरफ से हम बाहरी चैबच्चा साहब में दाखिल हो गये हैं। मैं ऑटो वाले से कहता हूँ- ‘‘हमें चैबच्चा साहब किले में जाना है-महन्तों के किले में !‘‘

ऑटो वाला एक-दो दुकानों से दरयाफ्त करके दो-चार गलियों से घुमाता हुआ, एक तंग गली को पार कर एक गेट के सामने ले जाता है - ‘चलिए जनाब, यह है चैबच्चा साहब के किले का बड़ा दरवाजा।‘‘

मैं गर्दन ऊँची करके देखता हूँ। हम दोनों उतर पड़ते हैं। देखता हूँ, जर्जर हालत में किले का पुराना दरवाजा याद दिलाता-यहाँ कभी एक किला था! न बुर्ज है, न छोटी ईंट की मजबूत दीवारें !

एक नौजवान लड़का तेजी से हमारी तरफ बढ़ आता है- ‘‘आइये, आइये !‘‘ वह मेरी तरफ देखता है।

‘‘मैं यहीं, किसी गली में जन्मा-पला हूँ‘, मैं कहता हूँ। 

‘‘देखिये, गलियों में गलियाँ मिल-जुल गयी हैं। रास्ते और तंग हो गये हैं। पहचानने की कोशिश कीजिए, शायद आप के घर के निशान कहीं दिख जायें !‘‘ ।

तंग, ऊबड़-खाबड़ गलियों से बचता-बचाता मैं उसके साथ चल रहा हूँ। एक जगह गली थोड़ी खुली है। वह बाईं तरफ हाथ बढ़ाकर कहता है - यहाँ कभी किले की दीवार थी। वक्त के साथ टूटती-फूटती गयी। पहले लोग उसमें से रास्ते बनाते गये, फिर रास्ते मकानों में तब्दील होने लगे और अब देखो, ‘‘वह एक तरफ इशारा करता है - ‘‘घरों में दीवार अड़ी है और दीवार में घर दिखते हैं।‘‘

हम उधर देखते हैं। महसूस करता हूँ, मेरे भीतर एक किला धीमे-धीमे ढह रहा है, आखिरी साँस ले रहा है।

दो-तीन लड़के उस नौजवान के साथ हो लिये हैं। वे हमें अपने घर ले जाते हैं। पुरानी तरह का घर है। कमरे के एक तरफ रसोई बना ली गयी है। नौजवान की माँ वहीं बैठी खाना बना रही है। वह पूछती है- “आप कहाँ से आये हैं ?‘‘

“दिल्ली...!‘‘ कहता-कहता रुकता हूँ, ‘‘मैं यहीं का हूँ। चैबच्चा साहब में मेरा जन्म हुआ। यहीं से मैं बस्ता बगल में लटकाये, रेलवे क्रासिंग पार पर केन्टोनमेंट हाई स्कूल जाता था।‘‘

‘‘धर्मपुरा के बाद बाईं तरफ कैंट को जाते हुए जो क्रासिंग है, क्या वहीं सांवली-सलोनी लड़की पूछती है।

‘‘हाँ, वहीं,‘‘ में उसकी माँ की तरफ मुखातिब होता हूँ, ‘‘आप लोग क्या यहीं के हैं ?‘‘ . नहीं झाँसी के हैं। उन्हीं दिनों यहाँ आकर बसे, जिन दिनों आप यहाँ से गये।‘‘ 

मैं पूरे परिवार के दो फोटोग्राफ लेता हूँ। चाय आ गयी है। मुझे लगता है - यहीं कहीं हूँ इन बच्चों में। यहीं मेरा घर है। और कहाँ देखू अपने घर के निशान ?

भारी मन से उस घर से उदास आता हूँ। गहरी उदासी में घिरा-घिरा किले के बड़े दरवाजे से बाहर आ जाता हूँ। मजबूत दीवारों और बुर्जियों सहित जो कभी एक किला था, अब कहीं नहीं दिखता। ऑटो वाला हमारे इन्तजार में खड़ा है। मैं उसे धर्मपुरा की मेन मार्किट से निकलने के लिए कहता हूँ। मेरे अवचेतन की कई सीवनें उधड़ती जाती हैं और मैं चारों तरफ के शोर से बेखबर अपनी जन्म घड़ी को याद करने लगता हूँ।

मैं फलैटी होटल से यों ही बाहर निकला तो माल रोड पर पहुँच गया और फिर दोनों तरफ की मार्किट निहारता चला गया। 1927 में बनी बाबा डिंगा सिंह बिल्डिंग से आगे बढ़ा तो एक तरफ पटरी पर दिखीं किताबें-ही-किताबें। एक-एक करके किताबें देखते-छूते एक किताब हाथ लग गयी- ‘क्रियेशन ऑफ पाकिस्तान ।‘ पन्ने पलटने लगा। तभी एक बूढ़ा चिथड़ों में चिथड़ा-सा आदमी मुझे धकेलता तेजी से निकला बड़बड़ाता हुआ। एक लम्हे मैं उसकी तरफ देखता रह गया - अरे, मास्टर यूसुफ! ठीक से याद नहीं- स्कूल में दर्जा चार में था या पाँच में, हाँ, इतना याद है कि ‘‘पगड़ी संभाल ओ जट्टा, पगड़ी संभाल आऐ‘ के बागी तरानों से माहौल थर्राता रहता जब मास्टर यूसुफ हमें हिसाब पढ़ाया करता। एक दिन मैं क्या देखता हूँ कि वह तकसीम के नाम पर जमा और जर्ब कराने लगा है, किसी चीज को दो फांकों में बंटा देख बौखलाने लगा है और उसने कैंची चलाकर अपने जिस्म पर सैकड़ों जख्म कर लिये हैं।

सत्तावन साल पहले की याद और सामने वह बूढ़ा बड़बड़ाता हुआ। नहीं, यह मास्टर यूसुफ नहीं हो सकते। अन्दर से आवाज आती है - वही हैं। मैं उसके पीछे-पीछे चलने लगता हूँ। वह पीछे मुड़कर मुझे घूरता है और हँसता है। दुकान के बाहर एक तरफ तंदूर सुलगा दिया गया है। वह तंदूर की तरफ देखता है, बदहवास हो पीछे भागने लगता है। मैं अपनी तरफ से जोर से पुकारता हूँ- “मास्साब... यूसुफ लेकिन मेरी आवाज फुसफुसाहट-भर रह जाती है। मैं तेज कदमों से उसकी ओर बढ़ता हूँ। तभी किताबों वाला हैदर लपककर मेरे पास आता है -जनाब, यह कोई यूसुफ-वूसुफ नहीं, यह पागल है। आप इसके पीछे क्यों भाग रहे हैं ?‘‘

मैं रुक जाता हूँ। मुझे याद आता है, यूसुफ तो हिन्दुस्तान में है। कई-कई हादसों से गुजरता वह लाहौर से अमृतसर और अमृतसर से बटाला वाले अपने पुश्तैनी मकान में और मकान को मलबा बना देख वह दिल्ली दौड़ आया था। मैंने उसे देखा है-लगातार बड़बड़ाते ! मैंने उसकी आँखों में देखी है पथराई हुई दहशत! देखा है उसे दिनोंदिन बूढ़ा और गरीब होते! ‘आग‘ का नाम सुनते ही मैंने उसे घंटों कंपकंपाते देखा है- बार्डर के इधर, बार्डर के उधर और फिर नार्मल, सहज, प्यार से सराबोर जैसे कुछ हुआ ही न हो!


डायरी के लिए आखिरी पन्ना

हाँ, मैं चैरासीवें साल में हूँ मगर चाहे चैरासी बीत गया, इतिहास में कहीं दर्ज हो गया, मेरी स्मृति में रह गया कत्लोगारत, आगज़नी, उजड़ते, बेघर हो जाने का एक साल। किसी ने सोचा न था कि क्या चैरासी दोहराया जाएगा कि दिल्ली में इस तरह के भयावह दंगे होंगे 2020 में, मुझे अपना बचपन याद आ गया और 1947 के भयावह दंगे।

जो परिवर्तन चाहते हैं, जीने की जगह चाहते हैं, अहसमति व्यक्त करते हैं, उनके सिर कटते ही हैं। वे यह जानते हैं मगर सच के लिए अड़े रहते हैं। ‘पाश’ अड़ा रहा आतंक के खिलाड़। उसका ‘शब्द’ खतरनाक हो गया और आतंकवादी भयभीत हो गए और उसके गोलियों का निशाना बना दिया। वह कवि जिसे जीने की बड़ी लालसा थी, जो गले तक ज़िन्दगी में डूबना चाहता था उसे ही ज़िन्दगी से बेदखल कर दिया गया। ऐसे इक्के-दुक्के लेखक टपकते ही रहेंगे आतंक और आतंकवादी जेहनियत के खिलाफ विरोध करते हुए.... 


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