प्रेम के भोजपत्र पर लिखीं यामिनी नयन की कविताएँ: ‘शिलाएं मुस्काती हैं’


   डॉ. मनोहर अभय, नेरुल, नवी मुम्बई, मो. 9167148096

  यामिनी गुप्ता, रामपुर (उत्तर प्रदेश), मो. 9219698120


काव्य संग्रह का नाम: शिलाएं मुस्काती हैं

लेखिका: यामिनी नयन गुप्ता

पब्लिशर: प्रखरगूंज पब्लिकेशन

मूल्य: 195/-

पृष्ठ संख्या: 108

काव्य संग्रह की भूमिका लिखी है डाॅ. लालित्य ललित जी, नेशनल बुक नई दिल्ली-110070

मुखपृष्ठ डिजाइन किया है बंशीलाल परमार जी ने जिनके डिजाइन हंस, परिकथा, उद्भावना एवं परिकथा जैसी प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं के मुखपृष्ठ पर आते रहे हैं।

नारी की काया में प्रवेश कर कोई भी रचनाकार स्त्री की पीड़ा को उतनी साफगोई से व्यक्त नहीं कर सकता जितनी वाक् निपुणता से एक महिला सृजनधर्मी। फिर भी यह आवश्यक है कि यह पीड़ा उसकी झेली या भोगी हुई हो। आत्मसात की हो संत्रस्त महिला की त्रासदी। आजकल समय के शिलाखंड पर प्रेम की अभीप्सा से लेकर प्रेम में छली गई किशोरियों, परित्यक्ताओं, भुलाई हुई स्त्रियों या खुरदरे  दाम्पत्य जीवन पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है। इस में  भोगा और ओढ़ा हुआ दोनों हैं। विमर्शवादियों का हल्ला-गुल्ला भी।

यामिनी नयन गुप्ता हिंदी कविता की ऐसी स्थापित साहित्यधर्मी है जो महिलाओं के मन की उथल-पुथल, बदलती सामाजिक जीवन शैली से पैदा हुई बेचैनी और नए समीकरणों को सशक्त स्वर दे रही हैं। उनके स्वर में छिछली भावुकता नहीं, महिलाओं के हर्ष-विषाद की गहरी अनुभूति है। साक्षी हैं ‘शिलाएँ  मुस्काती हैं‘ नामक संकलन की बासठ कविताएँ। चाहे सामाजिक सरोकार हों या जीवन की निजता के प्रश्न; इनमें  जुड़ा है ‘‘प्रेम, नेह, और देह का त्रिकोण‘‘। ‘‘व्याकुल मन का संगीत‘‘ और प्रेम में पड़े होने का एहसास। ‘‘प्रेम, नेह और देह‘‘ की इस यात्रा में कभी देह पिछड़ जाती है ‘अदेह‘ को जगह देने हेतु, तो कहीं सशक्त  साम्राज्ञी बन बैठती है (अब मैंने जाना-क्यों तुम्हारी हर आहट पर मन हो जाता है सप्तरंग/ मैं लौट जाना चाहती हूँ / अपनी  पुरानी दुनिया में देह से परे...बार बार तुम्हारा आकर कह देना /यूँ ही / मन की बात / बेकाबू जज्बात/ मेरे शब्दों में जो खुशबू है / तुम्हारी अतृप्त बाँहों की गंध है)। कहाँ देह से परे की पुरानी दुनिया, कहाँ ‘अतृप्त बाँहों की गंध‘। हर मंजर बदल गया। छा गई प्रेम की खुमारी... (तुम संग एक संवाद के बाद / पृष्ठों पर उभरने लगती हैं / सकारात्मक कविताएँ / निखरने लगते हैं उदासी के घने साये / छा जाता है स्याह जीवन में /इंद्रधनुषी फाग)।

प्रेम में डूबी स्त्री को प्रेम के अतिरिक्त और कुछ दीखता ही नहीं। वह प्रेमास्पद से नहीं, उसके प्रेम से प्रेम करती है (मुझे तुम से नहीं / तुम्हारे प्रेम से प्रेम है / तुम खुद को-प्रेम से नहीं कर पाते हो अलग / और अर्जुन के लक्ष्य सदृश्य / मुझे दीखता है बस प्रेम)। स्त्री ‘‘हर काल, हर उमर  में‘  बनी रहना चाहती है प्रेयसी। वैवाहिक जीवन उसके लिए विडंबना है, जिसमें हैं ‘‘गृहस्थी की उलझने / पौरुष दम्भ से जूझती पति की लालसाए...जबकि ये चाहती हैं ‘‘कि बची रहे जीने की ख्वाइशों की जगह / यांत्रिक जीवन से परे / बनी रहे नींदों में ख्वाबों की जगह। ‘नारी विमर्शवादी अनामिका कहती हैं...‘बच्चे उखाड़ते हैं/डाक टिकट/पुराने लिफाफों से जैसे-/वैसे ही आहिस्ता-आहिस्ता/कौशल से मैं खुद को/हर बार करती हूँ तुमसे अलग‘‘! अनामिका जी भूल गईं कि प्रेम संबंधों को जोड़ता है,उखड़ता नहीं। खटास से भरे होते हैं प्रेम विहीन सम्बन्ध। पर समय बदल रहा है। अलग कर लेना सरल हो चुका है। सुलभ हैं ‘‘मनचाहे साथी‘‘ जिनकी ‘‘प्रेमिकाएँ / कभी बूढ़ी न हुईं / साल दर साल बीतते / वर्षों बाद भी रहीं प्रेमी के दिल में / स्मृति में कमसिन, कमनीय / उस उम्र की तस्वीर बन कर / महकती रहेंगी वो स्त्रियां / किताबों में रखे सुर्ख गुलाब की तरह।" 

सीधी बात है विवहिता स्त्री की उलझनों से मुक्त, कमनीय जीवन बिताया जाय। फिर परिवार का क्या होगा? स्त्री पुरुष का मिलन नैसर्गिक है-कुछ नैसर्गिक आवश्यक्ताओं की पूर्ती के लिए। ‘अतृप्त बाँहोँ की गंध‘ से कहीं अधिक गंधमयी सुगन्ध से प्लावित जीवन।  

डॉ. पद्मजा शर्मा को दिए एक साक्षात्कार में प्रसिद्ध कथाकार साहित्यभूषण सूर्यबाला ने कहा- ‘‘देह पर आकर स्त्री मुक्ति का सपना टूट जाता है और एवज में बाजार की गुलामी मिलती है, स्त्री को। पुरुष से मुक्ति की कामना पुरुष वर्चस्वी बाजार की दासता से आ जुड़ती है। स्वयं को वस्तु  (कमोडिटी) बनाने के विरोध को लेकर चलने वाली स्त्री आज स्वयं अपने शरीर की सबसे अनमोल पूँजी को वस्तु (कमोडिटी) बना कर बाजार के हवाले कर रही है।‘‘ यामिनी का कवि  वस्तु या कमोडिटी के जंजाल से बचा कर प्रेम की शुचिता को बनाए रखना चाहता है। यद्यपि वह चूकता नहीं प्रश्न उठाने से... ‘‘मेरी छवि, मेरे बिम्ब और संकेतों  में / गर तुम बांच नहीं सकते प्रेम / तो कैसा है तुम्हारा प्रेम/और कैसा समर्पण / रास नहीं आ रहा है मुझे / तुम्हारा होकर भी,न होने का भाव।’’

एक प्रश्न और...पत्नी बड़ी या प्रेमिका? विमर्शवादी मंतव्य है कि पत्नियाँ कभी प्रेमिका नहीं बन पातीं। कंचन कुमारी कहती हैं ‘’तुम्हारी दुनियाँ में पत्नियाँ प्रेमिकाएँ नहीं होती। पत्नियाँ नहीं पहुँचती चरमसुख तक / यह हक है सिर्फ प्रेमिकाओं का / पत्नियाँ डरती है तुम्हारे ठुकराने से? /प्रेमिकाएँ नहीं डरा करती / वहाँ  होता है विकल्प / सदैव किसी और साथी का.. अर्थात सब कुछ अस्थायी है। एक देह का चरमसुख नहीं दे पाया, तो दूसरा सही, दूसरा नहीं तो तीसरा। प्रेम न हुआ तीहर है, जब चाही बदल ली। फिर यह कहना व्यर्थ है कि प्रेम में पड़ी स्त्री के मन में, दिल की गहराई में, उनींदी आँखोँ में हर पल हर क्षण प्रेमी की सुखद छुअन के एहसास भरे होते हैं। क्या जरूरत थी कबीर को यह कहने की ‘‘प्रेम न बाड़ी ऊपजे, प्रेम न हाट बिकाई, राजा परजा जेहि रुचे, सीस देहि ले जाई।’’ शायद आयातित आधुनिकता और  बाजारी संस्कृति में बुढ़िया गए हैं कबीर। कोरोना संक्रमण से हाल ही में दिवंगत हुए जाने-माने साहित्यकार प्रभु जोशी ने अपने अंतिम लेख में कहा कि ‘‘मेरा शरीर मेरा’’ जैसा  नारा‘‘ (स्लोगन) अश्लील साहित्य के व्यवसायियों की कानूनी लड़ाई लड़ने वाले वकीलों ने दिया था। उसे हमारे साहित्यिक बिरादरी में राजेन्द्र यादव ने उठा लिया और लेखिकाओं की एक बिरादरी ने अपना आप्त वाक्य बना लिया’’।

विमर्शवादी मंतव्य को स्पष्ट करते हुए कवि की कहन हैं कि पत्नियाँ के लिए ‘‘मन चाहे स्पर्श, आलिंगन / चरम उत्कर्ष के वह  पल / सदा रहे कल्पना में ही / कभी उतर नहीं पाते वास्तविकता के धरातल पर‘‘। देहातीत संबंधों की बात सिमट कर रह जाती है चरमसुख और प्रणयी की मुलायम छुअन में। विमर्शवादियों की ऐसी बातें कवि ने बहुत ही संयत और शालीनता के साथ स्पष्ट की हैं। ये नारेवाजी से कहीं अधिक शिष्ट और सार्थक हैं। उसके लिए प्रेम तर्क-कुतर्क का विषय नहीं है ‘‘एक बारगी प्रेम-/ मौन से जीत जाता है /किन्तु तर्क से जाता है हार।‘‘ कवि अनभिज्ञ नहीं है गृहस्थ जीवन की सुखानुभूति से। पढ़िए ‘सफरनामा‘ या ‘पुस्तैनी घर‘ जैसी मार्मिक कविताएँ। ‘गंतव्य’ नामक कविता का माधुर्य ही अलग है (प्रेममय मेरे मन का / तुम ही हो गंतव्य / मेरी तृप्त  कामनाओं का / तुम ही तो मंतव्य हो / प्रेम मिश्रित मुस्कान का / क्या मैं प्रतिदान दूँ / उन्मुक्त हँसी के बदले / कहो तो प्रान दूँ)। प्रेम में एकाकार होना आवश्यक है। नहीं चाहिए दान -प्रतिदान। खलील जिब्रान कहते हैं ‘‘प्रेम की कोई आकांक्षा नहीं होती, सिवाय इसके कि उसकी सम्पूर्ति हो। अगर तुम आकाँक्षाओं के साथ प्रेम करते हो, तो करो उनकी  पूरी  वेदना और नाजुकी के साथ‘‘। कवि कथन है ‘‘सफर पर चलते चलते / अब महसूस ये होता है कि तुम होने लगे हो मुझ जैसे / और मैं-मैं रही / अपनी सी ही / उम्र के इस मोड़ पर आकर एक हो गए हैं हम दोनों के चश्मे / और-नजरिया भी‘‘। प्रेम की सबसे बड़ी बाधा है ‘मैं‘ (अहम)-(जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं) खलील ने कहा- ‘‘तुम एक साथ पैदा हुए और इस से भी अधिक एक साथ ही रहोगे सदा, किन्तु खालीपन भी रहे तुम्हारे एकत्व में। दोनों एक दूसरे को प्यार करो लेकिन, प्रेम का कोई बंधन ना बाधें: बल्कि इसे अपनी आत्माओं के किनारों के बीच एक बहते हुए सागर के समान रहने दें।‘‘

कविताएँ और भी हैं, विविध विषयों पर। लेकिन जिनमें प्रेम की प्रतीति है उनकी मिठास ही कुछ अलग है। प्रेम भी ऐसा जिसमें मिलन और विरह की धूप- छाईं है। विरह में  शोक नहीं, मिलन की प्रत्याशा के श्लोक हैं।

अरे! प्रेम तो मृदुल और मधुर होता है। इसकी अगवानी में बिछ जाते हैं सैकड़ों इंद्रधनुष। हजारों सुकुमार पुष्प जिनकी पंखुरियाँ कुचल कर रख देतीं हैं हीरे के शिलाखंडों को (हीरे- सा हृदय हमारा कुचला शिरीष कोमल ने...प्रसाद)। यामिनी की कविताओं में यदि प्रेम का स्पर्श न होता, तो शिलाएँ कैसे भर पातीं मुस्कान। इन कविताओं में इतनी ‘‘हिमशीतल प्रणय अनल‘‘ है कि हिमवंत पिघल कर पानी-पानी हो जाते हैं।

प्रसाद गुण से सम्पन्न सरल, सहज सम्प्रेषणीय भाषा है यामिनी की कविताओं की। यहाँ आपको मिलेंगे...अनुभूति के हलन्त हैं, आवेग के अनुस्वार, नेह का उजास, किरकिराता  अकेलापन, संवेदना की वीथिका या गवाक्ष, यकीन की चादर,मृगतृष्णा के लंगर, पीड़ा के पिरामिड आदि। कवि ने अज्ञेय से उधार ले लिया है उनका वाक्य, थोड़े बदलाव के साथ ‘दुःख ही सबको मांजता है‘‘ (दुःख सब को माँजता है--अज्ञेय)। ऐसा कहना कि ‘‘हर स्त्री लिखा कर लाती है लेखे में ? कोई न कोई अपजस अपने नाम‘‘ बात के साधारणीकरण का संकेत देता हैं। अच्छा होता यदि ‘‘प्रिय के जाने पर मन का बुद्ध होने ‘‘की जगह, यशोधरा के मन की बात कही होती। उस निर्दोष को भरी नींद में छोड़, सिद्धार्थ तथागत बनने निकल पड़े। एक स्त्री ही उसकी वेदना को गहरायी से समझ सकती है।

कुछ भी हो कवि ने अपने प्रथम प्रकाशन के माध्यम से सिद्ध कर दिया कि उसकी कविताएँ बाध्य करती हैं शिलाओं को मुस्काने के लिए। सार्थक है कवि का श्रम और उसकी सारस्वत साधना। आने वाली सुबह और भी उजली होगी, जब शिलाओं की कोख से दूधिया  झरने, झर-झर करते गुनगुनायेंगे कवि की प्रेमासिक्त कविताएँ। 

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