साहित्य नंदनी सितंबर अंक 2021





समीक्षक प्रौमिला अरोड़ा, कपूरथला, मो. 9814958386

समीक्षा

मैं फिर मिलूंगी ( उपन्यास )

डॉ. उमा त्रिलोक हिंदी व अंग्रेजी लेखन में एक परिचित हस्ताक्षर है उनकी रचनाओं पर आधारित नाटक भी खेले जा चुके हैं।

उनके लेखन में मासूमियत रवानगी व गंभीरता है। विषय वस्तु का चुनाव भाषा की सरलता पाठक के मन को छू जाती है।

इनका उपन्यास ‘‘मैं फिर मिलूंगी‘‘ पढ़ते वक्त मुझे विष्णु प्रभाकर की लिखी पंक्तियां याद आ गई कि जिन बातों का हम विरोध करते हैं, एक समय आता है जब हम उन्हें चुपचाप स्वीकार कर लेते हैं। उमा त्रिलोक ने इस उपन्यास में इसे सिद्ध करते हुए, जो मानवीय मन और मस्तिष्क की परतें इस उपन्यास में उधेड़ी है उनसे मानव मन में रचे बसे शाश्वत प्रेम और मस्तिष्क में बसी पारम्परिक रूढ़िवादिता के द्वंद्व में एक अद्वितीय अनुभूति होती है। जिसमे प्रेम पूर्ण समर्पण और उसका जुनून हर परिस्थिति में जीवन जीने की प्रेरणा बन उभरता है जो जाति, धर्म के बंधनों से मुक्त एवं ऊपर उठने में सक्षम है।

यह उपन्यास तनुश्री और असलम के प्रेम में डूबा हुआ है जो प्रेम निस्वार्थ है, त्याग है, मर्यादा है,विश्वास है , धुवसत्य है, एक ऐसा प्रवाह है जिसमे धर्म जाति की मर्यादाएं गतिरोध करने की चेष्टा करती हैं परन्तु यह उन बंधनों से ऊपर उठ कर प्रवाहित रहता है। गजाला की सच बोलने की हिम्मत कि असलम नशे की हालत में उससे शारीरिक संबंध बनाते वक्त उसके जेहन में तनु थी और तनु का बिना झिझक कबीर को अपना पुत्र मान स्वीकार कर लेना प्रेम की चरम सीमा ही तो है। कबीर इस प्रेम कथा में ऐसी कड़ी बनता है जो पाठक को उसकी पहचान जानने की उत्सुकता वश में बांधे रखती है और घटनाक्रम को जन्म देती है जिसमे अतीत, वर्तमान और भविष्य उभरते है।

यह उपन्यास जहां प्रेमाभिव्यक्ति से अभिभूत करता है वहां जाति धर्म के भेदभाव के विरुद्ध आवाज बुलंद करता है। असलम के मुंह से अपने पूर्वजों के जाति धर्म भेदभाव से ऊपर होने के उदाहरण देना जैसे अकबर जोधाबाई आदि और प्रेम में राधा कृष्ण के प्रेम को आदर्श मान कर उसकी गहराई का वर्णन करना निश्चय ही सजग और परिपक्व सन्देश देता है।

उपन्यास में लेखिका ने शिद्दत से असलम और तनु के प्रेम में जिस खूबसूरती, ईमानदारी और वफा का वर्णन किया है वह मर्मस्पर्शी है।

लेखिका ने बहुत सुंदर सहज भाषा में प्राकृतिक ढंग से प्रेम को अभिव्यक्त किया है। प्रेम एक पूजा, त्याग, समर्पण,एक निर्मल जल का प्रवाह है यह बात सिद्ध करने में लेखिका सक्षम रही है। उपन्यास में प्रेम को भारी भरकम शब्द व दार्शनिक भाषा का प्रयोग न करके अति सहज भाव से प्रवाहित किया गया है जो इस उपन्यास की खूबसूरती है ।

कबीर की पहचान को जिज्ञासा का विषय बना कर उपन्यास को अंतिम शब्द तक पठनीय बनाया है।

असलम, तनु, गजाला व कबीर के स्तंभों पर खड़ी यह प्रेम कथा लेखिका की रचनाधर्मिता का ऐसा दस्तावेज है जो साहित्य की अमूल्य निधि में सोहनी महिवाल, हीर रांझा की भांति पढ़ा जाएगा।

 


डॉ. उमा त्रिलोक को ऐसे सृजन के लिए शुभकामनाएं।

***


समीक्षक प्रौमिला अरोड़ा, कपूरथला, मो. 9814958386

Review

".....and beyond "

उस पार का अनुवाद

Dr. Uma Trilok is an author with a difference.

Reading her books takes the reader to a transcendental level.

Her writings are drenched in love and the narrative is so eloquent that one feels each and every word directly goes deep into the heart and then seeps into the soul.

Her novel

"....and beyond"

Can be described in seven words

" it is indeed beyond this mundane world "

The story of this novel is quite different. It deals with love between two loving and mature persons, who, like ripples in a lake, express their deep emotions for each other in a very tranquil manner.

The emotions and events are revealed in letters of Vikram and Nayantara in simple flowing and touchy language that flows from words to heart and touches the soul.

Retired Brigadier Vikram Singh and Nayantara, a former Tennis star meet during the last phase of their lives .Both have similar tastes.Both love gardening, music and poetry,which bring them close. Longing for love, they both have torn hearts.

What makes this novel a classic piece of art is the artistry of the love letters which they write to each other.

Suddenly then, Nayantara leaves for an alien land after spending four months in platonic togetherness with Vikram.

The author has captivated the readers in suspense to know the reason of her sudden disappearance.

Then follows a treat

of love-lorn letters.

Cherishing each and every word of these letters, the readers move to another planet which is beyond this material world.

The letters carry the storyline of the novel reminiscing the moments spent together and sharing

the events of their earlier life especially of Vikram's life who had been sacrificing his emotions of love for the sake of his friends reveal the tenderness of his heart.

Nayantara being a tennis star had been in limelight and suffered desertion from her foreign lover.

The minutest observations of Nayantara's house , her garden , her treatment with her attendants, her persona, her mannerism, her living style reveal the author's taste for gracious and elegant life style.

The theme of the novel is mature love that creeps into the heart and soul. The narrative is so subtle, simple, gripping and absorbing that reader is unable to leave the book once started till the last word is read.

In the last letter Nayantara exposes the mystery of her sudden departure....

It is at this point that the novel reaches its climax....leaving the readers in a mixed feeling of amazement and disbelief yet it opens an unknown door for them to look beyond,

Life is mortal but love is beyond life .Yes it is .......and beyond.

Overall the theme, the narrative and the presentation of events and the letters peeping into the inner hearts of lovers, make the novel an excellent piece of literature.


Congratulations and best wishes to Dr. Uma Trilok ji


***


सागर सियालकोटी (समीक्षक), वरिष्ठ साहित्यकार, 
लुधियाना (पंजाब), मो. 98768 65957


समीक्षा

पूर्ण-विराम से पहले...!!

मैं अपनी बात ओशो के इस कथन से करूंगा। वह अपनी पुस्तक “भय-मुक्त जीवन” में लिखते हैं..

“जिसे तुम प्रेम करते हो उसको, उसके ऐब-ओ-सबाब के साथ स्वीकार करो। अगर तुम्हारा प्रेम प्रगाढ़ है तो तुम्हारी प्रेम की प्रगाढ़ता के अनुपात में ही उस व्यक्ति में परमात्मा का जन्म होना शुरू हो जाता है।” यही इस उपन्यास का सार है। बात यहाँ लेखिका के ज़ाविये की है जो किस तरह बयान करती हैं।

देश भर की तमाम प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं और अखबारों में छपने वाली लेखिका के सम्मान और पुरस्कारों की फेहरिस्त का ज़िक्र करने में कई पन्ने सियाह करने पड़ेंगे। साहित्य जगत में आपका बहुत बड़ा योगदान है। आप बहुत ही संवेदनशील लेखिका हैं और तमाम सामाजिक पहलुओं पर पैनी नज़र रखती हैं। ज़िंदगी के हर पहलू को अपने लेखन में पेश किया है। उनके लेखन में उनकी दानिशवाराना तबीयत का इज़हार होता है। उनकी शख़्सियत बहुत वसीह है। 

उनकी शख्सियत का रद्दे अमल करने वाला एक शेर कहूँगा- 

“जितनी बार भी देखा उनको एक नया अंदाज मिला/इतने रंग कहां होते हैं एक शख्स की शख्सियत में।”  

उपन्यास की शुरुआत कुछ इस तरह होती है- 

‘‘सुभोर प्रखर! कल रात तुमने मेरे व्हाट्सएप मैसेज को देख लिया पर कोई जवाब लिखकर नहीं भेजा। तुम मेरे किसी भी मैसेज को बगैर पढ़े और जवाब दिए सो जाओगे, मैं यह सोच भी नहीं सकती।”...सवेरे-सवेरे शिखा की फोन पर आवाज़ सुनकर प्रखर के चेहरे पर आई मुस्कुराहट उसके चाय के स्वाद को और बढ़ा देती। 

ये उपन्यास का फ्लैश-बैक है, जो कथानक को आगे ले जाता है। लेखिका ने प्यार को जिन ऊंचाइयों पर पहुंचाया है, वह लाजवाब है। लेखिका कहती हैं कि पुराने वक्त में घरों में खिड़कियां हुआ करती थी, छत की दीवारों पर झरोखें हुआ करते थे। गांव में नीम पर पीपल के पेड़ हुआ करते थे। जो अपनी मस्ती में झूमा करते थे। तब खिड़कियों से प्रेम झाँकता था ना कि अश्लीलता। लेखिका ने प्रखर और शिखा के माध्यम से यह ख्याल दर्शाया है कि तब प्यार में पाप नहीं हुआ करता था। जैसे पन्ना संख्या 21 पर लिखा है...

“दरअसल शिखा तुम डरती हो मुझे स्वीकारने से क्योंकि स्वीकारते ही तुम खुद को छुपाकर नहीं रख पाओगी। अतीत तुमको कुछ भी स्वीकारने नहीं देता। जबकि आज स्थितियां बिल्कुल अलग है। तुम हमेशा से ही बहुत समर्पित थी। और आगे भी रहोगी। हमारी मूल प्रवृत्ति कभी नहीं बदलती। कुछ भी गलत सोचना तुम्हारी प्रकृति नहीं, तुमसे ज्यादा मैं तुम को पहचानता हूं।”...

लेखिका इस बात को सिद्ध करती हैं अगर तुम्हारा नज़रिया साफ  और शफ़्फ़ाफ़ है, तो यह समाज यकीनन तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। लेखिका इस बात का भी ख़्याल रखती है कि किरदार कहीं पर भी कमज़ोर ना पड़े। शिखा ने पारिवारिक मर्यादाओं को निभाते हुए समीर के लिए करवाचैथ, गणगौर और तीज के व्रत रखे। समीर इनको मानता नहीं था मगर चुप रहा। इसके उलट प्रखर ने यह सब प्रीति को नहीं करने दिया। ऐसी बातें कहीं ना कहीं नारी के अहम पर चोट करती हैं। लेखिका के इस ख्याल से जुड़ी प्रस्तुति कमाल है।  

“अब एक अरसे बाद ईश्वर निमित्त के अधीन मिली हो- तो हमेशा मेरे अकेलेपन की साथी बनी रहना। अब कहीं वापस खो न जाना शिखा।....” “मैं भी तुम्हें कभी भूली ही नहीं थी प्रखर।”

जब मोबाइल का युग नहीं था प्रेम में पागलपन ज़रूर था, मगर अंधापन नहीं था। आज प्रेम जिस्म का बाज़ार और व्यापार हो गया है। इस उपन्यास के किसी भी किरदार ने अपनी लक्ष्मण-रेखा को पार नहीं किया है। प्रेम को गंगा जल की तरह पवित्र समझा। रिश्तों की डोर को बांधकर अंतिम श्वास तक निभाया। उपन्यास में कहीं भी अश्लीलता नहीं है। हालांकि कुछ जगह शिखा और प्रखर अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख पाते। वह दोनों भावनाओं में बहते हैं मगर संभल जाते हैं। जैसे पन्ना संख्या-86

‘प्रखर ने जैसे ही शिखा को देखा, उसने उठकर गले लगा लिया। पहले तो शिखा थोड़ा सकुचाई पर वह स्वयं को प्रखर की बाहों में समा जाने से ना रोक पाई।’

यह स्वाभाविक है कि नारी तत्व मनुष्य को अपनी ओर खींचता है। यदि आदमी औरत की भावना और बहते वेग को समझ जाए, तो धरती स्वर्ग बन सकती है। शिखा ने भी समीर के साथ पूरी तरह न्याय किया। कभी अपने प्रेम की दुहाई नहीं दी। प्रखर और प्रीति ने भी अपने वैवाहिक जीवन को अच्छे से निभाया। 

लेखिका एक समाजशास्त्री और मरीजों की काउंसलिंग भी करती हैं। वह समझ सकती हैं कि जब एक वरिष्ठ नागरिक अकेला रह जाता है, तो उसकी मनोदशा क्या हो सकती है। चाहे पुरुष हो या स्त्री दोनों को एक दूसरे के सहारे की सख्त जरूरत होती है। खासतौर पर जीवन-साथी की मृत्यु के बाद। आजकल कुछ संस्थाएं ऐसा काम कर रही हैं। पन्ना संख्या 140-141 पर लेखिका लिखती है... “प्रणय का क्या रिएक्शन होगा?”... “यह सब तुम्हें नहीं मुझे सोचना है शिखा। हम दोनों को एक दूसरे की जरूरत है। तुमको पाकर खुद के जीते जी खोना नहीं चाहता। मेरे जीवन में पूर्ण-विराम लगने से पहले एक बार फिर से जीना चाहता हूं। उसी शिखा के साथ जो मेरी जिंदगी थी और हमेशा मेरे साथ-साथ चलती रही।” शिखा ने सहमति से अपना सर हिलाकर प्रखर को वापस गले लगा लिया और वह कविता भी मुकम्मल हुई। 

इस उपन्यास की आलोचनात्मक पहलू देखें तो मुझे लगा कि प्रखर का कविता ज़िक्र कुछ ज्यादा है। दूसरी बात क्या समाज के प्रति प्रखर और शिखा सजग है? हालांकि उपन्यास का कथानक बहुत अच्छा है। घटनाक्रम और संवाद भी  बहुत अच्छे हैं। उपन्यास समाज को सचेत करता है कि वरिष्ठ नागरिकों को भी अपनी भावनात्मक जिंदगी को जीने का हक़  है। वह घर का पुराना सामान नहीं है कि नौजवान या भावी पीढ़ी उनकी भावनाओं को किसी स्टोर में दफ़न कर दें। प्रगति गुप्ता जी ने सही मुद्दे को उठाया है। इस विषय पर समाज को सोचना पड़ेगा। 

मैं प्रगति गुप्ता जी को इस कोशिश के लिए दिली मुबारक़बाद देता हूं। और भविष्य में कामना करता हूं कि कुछ और नया पढ़ने को भी मिलेगा। उपन्यास का शीर्षक बहुत अच्छा है मेरी तरफ से देवप्रभा प्रकाशन को भी मुबारक़बाद।

  


लेखक : प्रगति गुप्ता, मो. 94602 48348
***



समीक्षक अमिता अंबस्ट, राँची, (झारखंड), मो. 9905159020

समीक्षा

रंग, रस और अनुभूतियों की कलकल धारा - ‘ साहित्य क्षितिज’

‘हम हैं इसलिए मैं हूँ‘ की अवधारणा लेकर एक माली पुणे की उस सांस्कृतिक धरा पर जिसे ‘‘ऑक्सफोर्ड ऑफ दि ईस्ट‘‘ कहा गया है, भारतीय भाषाओं, विशेषकर हिंदी साहित्य के प्रचार एवं प्रसार हेतु ‘हिंआंप‘ नामक संस्था का बीजारोपन कर उसे सींचता-पोषण करता है, पच्चीस वर्षों की सुदीर्घयात्रा का परितोष जब उसे पल्लवित पुष्पों के रूप में व्योममंडल में टंके झिलमिल नक्षत्रों से सुशोभित पंद्रह रचनाकारों के अलग-अलग भावों के प्रतिबिम्ब ‘साहित्य क्षितिज‘ रूप में मिलता है तो इस बाग में विरवाई लगाने वाला माली मुस्कुरा उठता है एवं ‘हिंआंप का साहित्य क्षितिज‘ के पन्नों पर अपना ‘अभिमत‘ लिखता है।

हमारी विनम्र अवचेतना विराट की अति उच्चतम संचेतना की सदैव अनुगामिनी रहती है और यहीं से प्रारंभ होती है ‘मृण्मय से चिन्मय होने की यात्रा...

अपने ‘निज‘ स्वरूप का ज्ञान , चिंतन, अभिनंदन जबतक नहीं होगा तब तक ‘पूर्णमिद् म‘ से अपने ‘स्व‘ की शाश्वत एकता के सात्विक भाव जनमानस को आलोकित नहीं कर पाएंगे। संकल्प से ही सृजन-संसार फलता-फूलता है और साहित्य की विविध विधाओं से सज्जित ‘साहित्य क्षितिज‘ के रचनाकारों नें कविता, कहानी, संस्मरण, लघुकथा, हास्य-व्यंग्य एवं अध्यात्म के प्रत्येक सोपान पर प्रबल औत्सुक्य जगाए रखा है।

मनुष्य के भीतर का भाव जब अनहद नाद बन जाता है तो बोल मुखर हो उठते हैं- ‘गंगोत्री धरती पर उतरी... भागीरथ के निर्मल तप से। नमामि गंगे...विपुल तरंगे...‘ रसवंती भागीरथी की भाँति भाव प्रवहमान होने लगता है और- सृजित होती है कविता संसार!

सृजक और पोषक के रूप में- ‘समय के नव पल्लव पर‘ पूरा सौरमंडल साथ लिए‘ ....बहुजन हिताय -बहुजन सुखाय का भाव ले कर।

जीवनदायी प्रकृति मानव को अनवरत अनेक उपहारों से नवाजती है - वसंत की मादकता का तो कहना ही क्या- कवि विद्यापति की पंक्तियाँ ‘आएल ऋतुपति राज वसंत‘...

पहली बारिश के बूँदों की टप्प-टप्प से मन में जलतरंग सी बजने लगती और तब प्रसन्न होकर वसुंधरा भी नाच उठती है, शरद पूर्णिमा की रात, शांत धरा पर बरसती धवल चाँदनी के प्रकाश-पथ को माँ वाग्देवी की कृपा रस भर देती हैं, वसंत के विविध रूपों की छटा ‘क्षितिज‘ पर छाने लगती है। नारी अस्तित्व की क्षमता अपने गहराई भरे अनुभव प्रदेश में विचरने लगती है तब फूट पड़ता है- ‘नही डिगता कभी भी, उसका आत्मविश्वास...‘

जीवन कविता बन कह उठती है- ‘जीवन ऊर्जा है कविता / रहे उर्जित यह कविता संसार...‘

हम जैसे-जैसे जीवन के भीतरी तहों में घुसते हैं, नये-नये रंग खुलने लगते हैं। कभी कविताओं के रूप में तो कभी कहानियों-लघुकथाओं के रूप में। साहित्य के हर विधा में हमें वैराट्य के दर्शन होते हैं।

‘‘बदलाव पर्व शुरु हो चुका था...‘‘ बदलाव की बयार जब चलती है तो उसका प्रभाव सभी को अपने चपेट में लेने का प्रयास करती है किंतु सत्यमार्ग पर चलनेवाला सरलचित्त व्यक्तित्व उससे उबरने का मार्ग ढूंढ ही लेता है...कभी-कभी सपनों को साकार रूप देने में ऐसा कुछ घटित हो जाता है जिसकी कल्पना भी नहीं होती। जीवन क्षणभंगुर है किंतु मनुष्यता अभी मरी नहीं है, विधाता कभी राघव के रूप में तो कभी किसी अन्य रूप में सहाय होते ही हैं।

जीवन के आपाधापी में ‘आज भी ‘ मानवीय संवेदना जीवित है ‘ जरूरतमंद की मदद करने के बाद हृदय को जो अनिर्वचीय सुख का अनुभव होता है वह कल्पनातीत है- ‘ जिन्हें हमलोग सामान्य कहते हैं , वे ही लोग असामान्य काम कर जाते हैं ‘ ...और विकास यात्रा का पथ सुगम हो उठता है।

प्रतिकूल परिस्थितियों में दृढ निर्णय लेने की क्षमता देकर ईश्वर ने नारी को अलंकृत किया है- ‘ उमा के विवेक ने पलकें खोलीं-पति, पुत्र, पुत्री, दौहित्र का कवच बनी परिस्थितियों का सामना करने को तैयार...‘ अंतश्चेतना के संकल्प को मूर्त रूप एक सुदृढ़ इच्छाशक्ति से भरपूर नारी ही दे सकती है। मनुष्य का दुर्वह संघर्षों से भरा जीवन ही बार-बार उससे उपर उठने का निश्चय प्रदान करता है।

परिवर्तन जीवन का नियम है, बड़ी कहानियों के साथ लघुकथाओं में भाव व्यक्त होने लगे - वर्तमान कोरोनाकाल की विपरीत परिस्थितियों से लेकर हृदय के कोने में व्याप्त प्रेम तक को समेटे हुए - ‘देखन में छोटै लगे, घाव करे गंभीर‘ बिहारी जी की उक्ति को चरितार्थ करता हुआ।

हमारे समाज में कदम-कदम पर जीवन के अनेक रंग दिखते हैं - कहीं भाई का बहन के लिए त्याग तो कहीं अपनी पीड़ा शिव के गरल की भाँति पी कर दूसरों के दर्द को आत्मसात करना। कहीं वर्ताव का दोहरापन तो कहीं एक दूसरे पर दोषारोपण की चिंता में वास्तविक समस्या को नज़रअंदाज़ करना कहीं स्वार्थ में लिप्त बेटा-बहू मन में खिन्नता भरते हैं तो कहीं कथनी और करनी का अंतर हृदय को तार-तार करता है पर अंतस प्रसन्न हो उठता है जब विपत्ति में जाति-धर्म को भूलकर एक दूसरे के प्राण के प्यासे भी एक हो जाते हैं और ‘ अवांछित ठूँठ हटा देने पर बेल को विकसित होने का अवसर मिलेगा...‘ कठिन परिस्थितियों में लिया गया सही निर्णय जीवनधारा का रुख मोड़ देता है तब आत्मसंतुष्टी का आभास होता है।

यादें जीवन का अभिन्न हिस्सा होती हैं। जब-तब स्मृतियों के गवाक्ष खुलते हैं और एक बार फिर सबकुछ सजीव हो उठता है-

‘‘साहित्य क्षितिज‘‘ का प्रत्येक संस्मरण अपने अनूठे रूप में क्षितिज पर पंख फैलाए दिखता है चाहें वह रेलयात्रा में ‘कुलीओं का यात्रियों के चेहरे के मनोभावों को पढ़कर मनमाना पैसा वसूलना हो अथवा समस्त भारत को ‘रंग-बिरंगे‘ परिधानों में जीवंत करना हो या सफर में एक परिवार का रुप बन भारतीय संस्कृति का जयघोष करना हो।

उम्र के साथ भावनाएँ नहीं बदलतीं ‘ अब मैं पुत्रवत से पितृवत होने लगा था‘, अपने दाय निर्वाह की प्रतिबद्धता एवं पितृवात्सल्य को सर्वोच्च पद प्रदान करती है।

मूक प्राणियों में अपने स्वामी के प्रति प्रेम और निष्ठा के भाव के प्राबल्य का जीवंत चित्रण हमें ‘ जिमी और जिप्सी ‘ सिखा जाते हैं।

कुछ अनमोल धरोहरें भले ही इतिहास के पन्नों पर अंकित न हुई हों पर हृदय के निरापद कोने में दीपक की लौ-सी रौशन रहती हैं- लखनऊ के राजा ‘इमामवख्श‘, उनकी विराट कोठी, देश की स्वतंत्रता से जुड़े कार्य, लखनवी तहजीब, गंगा-जमुनी संस्कृति, सचमुच महसूस करने का सफर है...।

जीवन में हास्य-व्यंग्य का पुट न हो तो सबकुछ नीरस सा लगता है। वर्तमान कोरोनाकाल में मध्यमवर्गीय परिवार के पति-पत्नी के मध्य नोंक-झोंक मन को गुदगुदाता है।

हमारे अनुभव और अंतरमन के भाव जब तप कर बाहर निकलते हैं तो शब्दों में शिवत्व का सौंदर्य मुखरित होने लगता है.‘‘साहित्य क्षितिज‘‘ के पंद्रह रचनाकारों- डा. रमेश गुप्त‘ मिलन‘, डा. रमेश यादव, अलका अग्रवाल, आशु सुदामा गुप्ता, ऋता सिंह, डा. लतिका जाधव, सत्येंद्र सिंह, स्वरांगी साने , रेखा सिंह, माया मीरपुरी, डा. नंदिनी नारायण, अरविंद तिवारी, डा. मंजू चोपड़ा, वीनु जमुआर एवं सुधा भारद्वाज के भावों और विचारों का दर्पण- परिवार रूपी संस्था का यह साझा प्रयास स्वयं में एक अद्भुत मिसाल है।

श्रीमती सुधा भारद्वाज कृत पुस्तक का आवरण क्षितिज के विस्तार का परिचायक है। कागज एवं मुद्रण की गुणवत्ता सराहनीय है ।

संपादक द्वय - वीनु जमुआर एवं सुधा भारद्वाज द्वारा किया गया उत्कृष्ट संपादन इस पुस्तक को विशिष्ट बनाता है.

‘‘साहित्य क्षितिज‘‘ के सभी रचनाकार बधाई के पात्र हैं। गुलाब की सुंदर माला में गूँथे , पुस्तक के पन्नों द्वारा वे जीवन की खुशबू बिखेरते हैं ।

सकल संसार के सृष्टिकर्ता को सादर नमन जिनकी कृपा से यह संसार चलायमान है -

‘पाया ब्रह्मानंद आनंदोत्सव का / ब्रह्मांड के कण-कण में, / व्याप्त ब्रह्म का...‘ इति-

***


डाॅ. अशोक प्रियदर्शी, (पूर्व प्रोफेसर, हिन्दी विभाग,
राँची वि. वि.  राँची, झारखंड), मो. 09430145930

समीक्षा

ये घी के लड्डू हैं...

हिन्दी में एक कहावत चलती है- ‘घी के लड्डू टेढ़े भी भले‘, फिर ये तो टेढ़े भी नहीं, प्रायः सही आकार के गोल-गोल हैं। मैं बात कर रहा हूँ पुणे के हिन्दी आंदोलन परिवार के पंद्रह सदस्यों  की बहुरंगी रचनाओं के समवेत संकलन ‘साहित्य क्षितिज‘ की। इन्हें मैंने घी के लड्डूू क्यों कहा? इसलिए कि हिन्दीतरभाषी राज्य महाराष्ट्र के पुणे के हिन्दीसेवियों ने यह पहल की है। ज़ाहिर है, ये सब राजभाषा हिन्दी के पैरोकार हैं। विभिन्न राज्यों का क्षेत्रीय आग्रह इन दिनों कुछ ज़्यादा ही दिखता है, तिसपर मराठी के अतिरिक्त स्वाभिकरन से भरे लोग, जिनका भाषाई आग्रह भी कुछ अधिक ही मुखर है। मराठी बहुत समृद्ध भाषा है, किन्तु देश की राजभाषा, जो व्यावहारिक रूप से राष्ट्रभाषा है, उसके स्वाभिमान की भी तो रक्षा होनी चाहिए!

जब इस समवेत संकलन को मैंने पढ़ना शुरू किया तो मैं इसमें रमता गया, हालाँकि यह स्मरण रहा कि रचनाओं के पठन का सुख अपनी जगह, पंद्रह लेखक-लेखिकाओं की बहुविध रचना पर एकत्र टिप्पणी करना या अपनी राय बनाना वैसा सरल भी नहीं है। यह भी कि हिन्दी के इन सिपाहियों का तटस्थ मूल्यांकन करने के बावजूद इनकी श्रेष्ठता के आधार पर वरीयता का निर्धारण उचित नहीं होगा। आंदोलन सामूहिक होता है, ऐसे में यह नहीं देखा जाता कि किसकी आवाज़ कितनी प्रभावी रही। आकलन सामूहिक प्रभाव का करना होता है। अस्तु। एक और बात! हिन्दी का परचम लहराने वाले इन पंद्रह आंदोलन- कारियों में ग्यारह महिलाएँ हैं, कुल जमा चार पुरुष। गोया यह परिवार महिलाओं को विशेष समादर देने में भी अग्रणी है।

संकलन का संपादन  किया है वीनु जमुआर और सुधा भारद्वाज जी ने। रचनाकारों को इन संपादिकाओं ने यथावत जाने दिया या उनकी भाषा को यत्किंचित सँवारने का भी कष्ट उठाया, मैं नहीं जानता, हालाँकि यत्र-तत्र मराठी शब्दों की छौंक और भाषा का थोड़ा विचलन इन्हें और आकर्षक बनाता है, बालकृष्ण की उस मनोहारी छवि की तरह- ‘घुटरुनि चलत रेनु तन मंडित, मुख दधि लेप किए! ‘संपादिका वीनु जी की ‘उमा‘ शीर्षक की एक ही लंबी कहानी संकलन में है, जो पूर्वी बंगाल (आज के बांग्ला देश) के चटगाँव से शुरू होती है, फिर कलकत्ता (आज के कोलिकाता), पटना होती हुई बंबई (आज की मुंबई) में विराम पाती है। कथा के विस्तार में मैं नहीं जाऊँगा, इतना भर निवेदन करूँगा कि इस कहानी में औपन्यासिकता है, चरित्रों का आकर्षक, यत्र-तत्र करुण, वैविध्य है। क्यों न उम्मीद करें कि वीनु जी उपन्यास लिखें। इनमें प्रतिभा और क्षमता है। कहानी आप पढ़ें, यह आपको  बाँधेगी। दूसरी संपादिका सुधा जी की सात लघुकथाएँ, एक संस्मरणात्मक कहानी तथा ‘रामप्पा‘ शीर्षक का एक संस्मरण है। यह संस्मरण मन को छूता है और रामप्पा की तसवीर आँखों में उतर आती है। सभी लघुकथाओं का भी अपना आकर्षण है, सभी नितांत पठनीय हैं, एक नमूना देखें- ‘वह माँ की आँखों का तारा सी...एक लघुकथा की तरह घर भर में...दौड़ती फिरती थी। आज पन्ने पलटे तो समझ ही नहीं आया कि लघुकथा कब एक उपन्यास में तब्दील हो गई।‘  नारी-जीवन की समग्र दास्तान। और हाँ, दो कविताएँ भी हैं। ‘सर्वव्यापी शीर्षक कविता संकलन की आखिरी रचना, परंतु विशिष्ट महिलाओं के लेखन में आने वाले अवरोधों (ब्रेकर्स) का कवित्वपूर्ण आख्यान। वाह!

अब शुरू से शुरू करता हूँ। इस संकलन का ‘अथ‘ होता है  डाॅ. रमेश गुप्त ‘मिलन‘ के रोचक संस्मरण‘ मेरी रेल यात्रा और चार कविताओं (दो बाल गीत सहित) से। रेल यात्रा में भारतीय रेल के सफर की प्रामाणिक दास्तान है, दिल्ली से मुंबई तक की यात्रा। बड़ी बात यह कि सांप्रदायिक सौहार्द का भी संदेश दे जाती है यह यात्रा-कथा, कविताएँ ठीक-ठाक हैं, ‘गौरैया‘ बालगीत विशेष रूप से प्यारा है, बच्चों की पाठ्य पुस्तक में डाले जाने लायक।

क्रम से दूसरे रचनाकार हैं डाॅ. रमेश यादव, जिनके बारे में बताया गया है कि ये हिन्दी एवं  मराठी के बीच सेतु का काम कर रहे हैं। भाषाओं के बीच से पुल बनें तो दिलों की दूरियाँ घटें। बहरहाल, डाॅ. यादव की एक कहानी ‘मैं सिर्फ बीज बेचता हूँ‘ और हास्य व्यंग्य की एक रचना ‘अनलाॅक के बाद शाॅपिंग‘ संकलन में है। कहानी की सांकेतिकता प्रभावित करती है, भगवान कहते हैं कि वे सिर्फ बीज बेचते हैं फल नहीं, याने बीज तो वही है, यह आप के कौशल पर निर्भर करता है कि आप उस बीज से कैसे फल उगाते हैं, सुख, शांति, खुशी और सफलता के फल! विनोद भी रोचक है। महिलाओं के आगे पुरुष की सारी चतुराई धरी रह जाती है।

अगली रचनाकार हैं अलका पवन कुमार अग्रवाल। इनकी एक कहानी ‘जीवन बूँद‘ चार कविताएँ और तीन कुंडलियाँ (हालाँकि ये भी कविताएँ ही हैं) संकलन में हैं। कहानी संस्मरणात्मक और शिक्षाप्रद है तथा जल के महत्व को रेखांकित करती है। कविताओं में वासंतिक सौन्दर्य नारी की गरिमा, कविता क्या है, यह बतलाती तथा राम-जन्म का आख्यान सुनाती है। कुंडलियों में थोड़े मार्जन की गुंजाइश है।

आशु सुदामा गुप्ता जी की आठ कविताएँ एक बालगीत और ‘बाबूजी‘ शीर्षक का संस्मरण है। ‘होली सजे‘  शीर्षक कविता प्यारी है, ‘सम्मान भारती का‘ शीर्षक कविता में प्रवाह भी है, संदेश भी। संस्मरण करुण है, पिता की स्मृति को समर्पित।

ऋता सिंह जी का प्यारा -सा संस्मरण है ‘भूली बिसरी बातें‘, जो मूलतः श्वान की स्वामी-भक्ति का करुण आख्यान है। लघुकथा  ‘निर्णय‘ बहन के लिए भाई के निःस्वार्थ त्याग की करुण कथा है। बालकथा ‘स्वार्थ का फल‘  बच्चों को रोचक ढंग से यह बतलाती है कि स्वार्थांध होकर हम पर्यावरण को बिगाड़ रहे हैं, परिणाम सामने है। एक लंबी कविता भी है, कहें- स्मृतिगंधा।

डाॅ. लतिका जाधव मूलतः मराठी हैं इसलिए इनका हिंदी- प्रेम विशेष ध्यान खींचता है। इनकी दो नितांत परिपक्व कहानियाँ संकलित हैं। पहली कहानी स्कूल के स्याह-सफेद पक्ष को उकेरती है। ऐसे भी शिक्षक होते हैं जो योग्य शिष्य गढ़ते हैं, ऐसे भी व्यवस्थापक होते हैं जिनका शिक्षा से कोई भावात्मक लगाव नहीं होता। ‘एक रात‘ कहानी हादसे की करुण गाथा है, सांप्रदायिक सद्भाव की भी। कहानी आप स्वयं पढ़ें। यह आपको भिगो देगी।

श्री सत्येन्द्र सिंह की कुल सात लघुकथाएँ संकलन में हैं, प्यारी हैं। ‘अंतर्गमन‘  कोरोना-वारियर्स को समर्पित है।  ‘मंदाकिनी‘ परहित, दूसरों के लिए जीने का प्रस्ताव करती है। ‘चिन्ता‘ पानी की बरबादी पर आगाह करती है। ‘ ‘यात्रा-गाथा’ कोरोना-काल में सावधानी बरतने का संदेश देती है। ‘बड़े हुए तो क्या हुआ  ‘पद के अहंकार की व्यर्थता को रेखांकित करती है। ‘गूँज‘ नशा, कन्या के विक्रय और बहु-विवाह की त्रासद कथा है। ‘परिणाम‘ कोरोना की सावधानियों- एस. एस. पी. बेटे का दूरी पालन, स्वच्छता की याद दिलाता है। श्री सिंह की लघुकथाएँ  सामयिक समस्याओं से जुड़ती हैं।

स्वरांगी साने की कुल दस कविताएँ संकलन में हैं। ये परिपक्व, प्रौढ़ कविताएँ हैं। कविताओं जैसी कविताएँ। ‘माँग‘  शीर्षक कविता स्त्री के आत्मोत्सर्ग का.... आख्यान है-  ‘ तुम्हारी हर इच्छा/पूरी होने की/कामना की है... मैंने/ईश्वर से अपने लिए/कुछ नहीं माँगा।‘  गर्भस्थ शिशु की हत्या पर बहुत लिखा गया है। साने की दृष्टि नई है- ‘दुनिया बहुत सुंदर है/पर तुम्हें गिद्धों से नहीं बचा सकती मैं/...तुम्हें पैदा करने की हिम्मत/मुझमें नहीं..।‘ साने जी की हर कविता अर्थमय है । आप स्वयं पढ़ें।

रेखा सिंह जी की पाँच कविताएँ और चार लघुकथाएँ संकलन में हैं। प्रभावित करती हैं इनकी रचनाएँ। सारी कविताएँ पठनीय हैं, विशेषकर ‘स्वतंत्रता‘। जिसे आपने लंबे समय तक बेड़ियों से जकड़ रहा हो वह स्वतंत्रता का सुख नहीं उठा पाता, कैद का अभ्यस्त हो चुका होता है वह।

लोकतंत्र पर भी यह सांकेतिक कटाक्ष है। लघुकथाओं का भी विशेष रंग है। बेटे को माँ से करुण्य का संस्कार मिलता है। बच्चा निर्गंध ‘अगरबत्तियों‘ के पांच पैकेट इसलिए खरीद लाया है कि उसे बेचने वाला गरीब और वृद्ध था।‘ जली रोटियां‘ मन को छूती हैं। इसमें गृहणी का उत्सर्ग भाव भी है और माँ के मनोभाव को समझने वाले बेटे का मन भी।

माया मीरपुरी जी की तीन कविताएँ, एक लघुकथा और लघुकथाओं जैसे लघु कलेवर वाली दो कहानियाँ हैं। दो वार्षिक टिप्पणियाँ हैं। संस्मरण, स्मृतियाँ, टिप्पणियाँ जैसे कुल पांच आलेख हैं। इनकी ये काव्य पंक्तियाँ देखें- ‘शब्द ब्रह्म की पहचान है कविता‘ या ‘प्रकृति की सर्वोत्तम रचना है नारी‘ और यह ब्रह्मानंद का अनुभव करें तो अवसाद पास फटकेंगे भी नहीं ‘इकरारनामा‘ में ये कहती हैं कि ये धोखा सह लेती हैं, धोखा दे नहीं सकतीं!- वाह! शेष सभी रचनाएँ भी ध्यान खींचती हैं और बड़ी बात यह कि अपने हिंदी आंदोलन परिवार को इन्होंने पुनः-पुनः सराहा है। संभवतः ये पाकिस्तान से विस्थापित होकर भारत आईं। सो इनके हिंदी प्रेम के लिए सलाम।

डाॅ. नंदिनी नारायण ने पाँच कविताओं, एक संस्मरण और एक वैचारिक आलेख से इस संकलन में योगदान किया है। वसंत का उत्सव-सा मनाते हैं पलाश, नवस्फुट पुष्पों के द्वारा, ऐसे में नंदिनी जी के स्नेहिल हृदय को पता देती हैं ये काव्यात्मक पंक्तिया- ‘... अब/न है कुछ कहने को/ न सुनने को/हैं तो बस/चीखते -चिल्लाते हुजूम.../क्षमा हे वाग्देवी ! बस यही है/वसंत का/हमारा उपहार ! 

‘स्मरणीय है कि वसंत की पंचमी को हम वाग्देवी की पूजा का विधान करते हैं। ‘स्त्री‘ कविता कवीन्द्र रवीन्द्र का स्मरण कराती है - काल के गाल पर आँसू की एक बूँद है ताज!  ताज भी तो स्त्री से प्रेम की निशानी है । ‘ इंतजार ‘ का भी अपना आकर्षण है ।  शेष आप पढ़ें। इनका संस्मरण भी प्रीत करता है, अन्य रचनाएँ भी।

अरविंद तिवारी जी ने आठ कविताओं और एक स्मृति-चित्र से सहयोग किया है। प्यारी हैं कविताएँ, विशेषकर  ‘हिन्दी आंदोलन परिवार‘। एक-एक व्यक्ति पर गुलाल छींटना सरल नहीं होता। इनकी  ‘अनुभूति‘ शीर्षक कविता की चार पंक्तियाँ- माँ का बड़े हो गए, दूर रह रहे बेटे से कथन-  ‘... आँखें बंद करना शांत मन से/मैं तुम्हें लोरी सुनाती/बालों को सहलाती मिलूँगी/बस अनुभूति की जरूरत है।‘ सारी कविताएँ शुद्ध कविताएँ हैं। और कोरोना-काल का दंश- पुलारानी जी का जाना!- क्या कहा जा सकता है, आँखें गीली कर लेने के अलावा !

और अब डाॅ. मंजु चोपड़ा। दो संस्मरण और दो खंडों में एक लंबी कविता। मंजु जी का जन्मस्थान नागपुर है और नागपुर के  हिन्दी/मराठी प्रेम का मुझको व्यक्तिगत अनुभव है। रेलवे स्टेशन के ओवरब्रिज पर ऊपर गया तो दोनों ओर रास्ता जाता था। एक व्यक्ति से मैंने पूछा- ए. आई. आर-आॅल इंडिया रेडियो के मुख्यालय की ओर कौन सा रास्ता जाएगा? वे बोले ए. आई. आर.. बोले तो आकाशवाणी ? इधर से। मैं शरमा गया। नागपुर मे मैं अंगरेजी बोल रहा था और वे हिन्दी!  ‘एक मांडनी की चाहत ‘शीर्षक संस्मरण कई-कई अर्थों में मन को छूता है- लड़की की नई ससुराल, पति का प्यार, लड़की का बड़की हो जाने पर  अपनी नहीं, आने वाली बहू की चिंता! 

दूसरा संस्मरण रोचक भी है, रोमांचक भी और इसकी कथन-भंगिमा प्रीत करती है- ‘अभी तक चोपड़ा साहब इन बातों से अनभिज्ञ हैं...यदि आप हरी झंडी दिखा देंगे तभी बात आगे बढ़ेगी न!‘  ‘पहला प्यार‘ शीर्षक कविता को आप स्वयं पढ़ें - ‘ पहले प्यार का सुखद अंदाज !‘

तो इति। संजय भारद्वाज जी का ‘अभिमत‘, वीनु और सुधा जी के टीप भी आकर्षक हैं। इतना निवेदन करने की अनुमति चाहता हूँ कि यह संकलन सिर-माथे, किंतु सामूहिक संकलन से लेखकीय पहचान नहीं बनती। संकलन के सभी सहयोगी रचनाकारों में पर्याप्त क्षमता है। मैं आशा करूँगा  मेरी शुभकामना भी है कि ये अपनी प्रिय विधा में  अपनी किताब लेकर आएँ। मुझको प्रतीक्षा रहेगी।       

***


समीक्षक: नीरज नीर, राँची - 834002 ,  मो. 8797777598

समीक्षा

खारा पानी: समस्या नहीं, समाधान की कहानियाँ

कहानियाँ सिर्फ यथार्थ का चित्रण ही नहीं बल्कि यथार्थ की कलात्मक व रोचक अभिव्यंजना होती है। आशा पांडे की कहानियों से गुजरते हुये हम पाते हैं कि उनका कथ्यात्मक कौशल बहुत ही संवेदनशील तरीके से ग्रामीण जीवन में व्याप्त असमानता, भूख, गरीबी, जहालत और बदहाली की तार्किक पड़ताल करते हुये मनुष्यता के लिए स्पेस की तलाश करता है लेकिन इस तलाश में ये कहानियाँ कहीं भी अभिव्यंजना व रंजकता की सतह पर  कमजोर नहीं पड़ती हैं। जीवन की विसंगतियों के बीच इंसानियत के लिए थोड़ी सी जगह की तलाश करने के क्रम में  आशा पांडे अपनी कहानियों का जो गझिन ताना-बाना बुनती हैं वह पाठको के अन्तर्मन में अन्तः सलिला की भांति प्रवाहमान होने लगता है।

 “खारा पानी” शीर्षक से आए आशा पाण्डेय के नवीन कहानी संग्रह की कई कहानियाँ स्त्री विमर्श की धारदार  कहानियाँ हैं, जो बहुत ही मजबूती से से न केवल स्त्रियों के स्त्री होने की पीड़ा व यंत्रणा की विवेचना करती हैं बल्कि उनसे जूझना, लड़ना और जीतना भी सीखाती है। इनमें ज्यादातर कहानियाँ ग्रामीण परिवेश की हैं, लेकिन गाँव से  शहर जाने के प्रवास की पीड़ा भी कुछ कहानियों में बहुत ही मुखर होकर प्रतिबिम्बित हुई हैं। 

यूं तो किसानों की स्थिति 

सम्पूर्ण देश में एक सी ही है एवं सभी जगह वे अनेक तरह की कठिनाइयों से जूझ रहे हैं लेकिन महाराष्ट्र में लगातार होते किसानों की आत्महत्या ने सभी को  चिंतित एवं द्रवित किया है। विडंबना  यह है कि किसानों की जो मूल समस्या है,  उसकी ओर ध्यान नहीं देकर उसे खैरात देने की कोशिश की जाती है। अगर किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य मिले, उन्हें सस्ते दर  पर बीज मिले, कीटनाशकों का छोटा डोज उपलब्ध हो, अनाजों के भंडारण व ट्रांसपोर्टेशन की उपयुक्त व्यवस्था हो तो किसानों को खैरात देने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। किसान इस देश का सबसे स्वाभिमानी समुदाय है, जो देश के लिए 

सर्वाधिक योगदान देता है, न केवल अपने श्रम एवं कृषि उत्पादों के द्वारा बल्कि सीमा पर लड़ने वाले अपने सैनिक बेटों के द्वारा भी। संग्रह की एक कहानी “जागते रहो” इस विषय को बहुत ही पैने तरीके से उद्भाषित करती है। व्यापारियो द्वारा संतरा उगाने वाले किसानों को अनेक वर्षों से एक ही तरीके से छला  जा रहा है और किसान यह सब जानते हुये भी हर बार छले जा रहे हैं। यह कैसी मजबूरी है...  कैसी बेचारगी?  जितनी पूंजी वे लगाते हैं,  जब उतना भी वापस नहीं मिलता तो कर्ज में डूबा हुआ किसान अत्महत्या करने को मजबूर हो जाता है।  जिस तरह से किसी जानवर के मरने पर लाश के कीड़े चले आते हैं...  उसी तरह किसी किसान की आत्महत्या पर झुंड के झुंड मीडिया वाले चले आते हैं, जिनको मृतक से या मृतक के परिवार जनों से जरा भी संवेदना नहीं होती। वे तो लाशों के व्यापारी हैं... लाशों से उनकी टीआरपी बढ़ती है। एक जगह एक किसान आत्म हत्या कर रहा था, कुछ लोग उसकी विडियो बनाते रहे, किसी ने उसे बचाने की कोशिश नहीं की। यह कैसा अधम समाज है, पढे लिखे लोगों का, तथाकथित सभ्य लोगों का समाज? कोट, टाइ लगाए लाश के कीड़ों का समाज। आशा पांडे की यह कहानी आज के भारतीय गाँव की एक दारूण कहानी है, एक भयावह सच एक ऐसा सच जिससे आज का हिन्दी साहित्य नजरें चुरा रहा है, जो आज के मध्य वर्गीय समाज का केंद्र बिन्दु नहीं है, जिसकी पीड़ा अलग है, जिसका दुख अलग है। किसानी जीवन की इस पीड़ा को प्रकट करती  कहानी में प्रथमेश और नन्दा की एक प्रेम कहानी भी गुथी हुई है, जो मुख्य कहानी के साथ साथ चुपचाप चलती रहती है।   एक ऐसी कहानी जो यद्यपि कि संसार के लिए शुरू होने से पहले समाप्त हो गयी लेकिन आत्मा के स्तर पर  जो कभी समाप्त नहीं हुई, नन्दा की मृत्यु के बाद भी प्रथमेश के जीवन के अँधियारे कोने में सुबकती हुई दुबकी हुई जिंदा रही।

आशा पांडे के इस  इस नए कहानी संग्रह  की कई कहानियाँ  नारी के अन्तर्मन की गहरी व सूक्ष्म पड़ताल करती है। ऐसी ही एक कहानी है,  संग्रह की पहली कहानी “यही एक राह”, जो  एक ग्रामीण विधवा वैदेही की कहानी है। गाँव में आज भी एक विधवा को अपनी जमीन और अपनी देह दोनों बचानी होती है। कभी कभी देह की लूट ,जमीन लूटने का साधन बन जाती  है तो कभी जमीन हड़प लेना देह लूटने का साधन। इन दोनों को बचाकर चलना एक तनी हुई रस्सी पर चलने के समान होता है और इस पूरे प्रकरण में व्यवस्था दर्शक के रूप में खड़े रहकर ताली पीटने का काम करती है। आशा पाण्डेय की यह कहानी न केवल एक स्त्री की अंतर्शक्ति की पहचान कराती है बल्कि उसके संकल्प के आगे कैसे एक निकृष्ट , कायर व स्वार्थी समाज झुक जाता है यह भी दिखाती है। 

इसी तरह से एक कहानी है “चीख” , गाँव की एक परित्यक्ता हंसा की कहानी, जिसके जीवन में तमाम तरह के दुख, तकलीफ और कड़वाहट के बीच प्रेम मीठे जल के सोते की तरह फूटता है  और उसकी जिंदगी को सराबोर करने लगता है, वह अपनी तकलीफों को कम तकलीफदेह पाने लगती है, उसकी पीड़ा कम पीड़ादायक होने लगती है । लेकिन समाज को प्रेम भला कब मंजूर हुआ है .....?  कहते हैं  प्रेम की समाज में सबसे ज्यादा जरूरत है लेकिन विडम्बना देखिये कि प्रेम  समाज के लिए सबसे अवांछित तत्व है। हंसा की लाश एक दिन अपने ही बगीचे के कुएं में पाई जाती है। प्रेम में मार दी गयी स्त्री की लाश दरअसल स्त्री की लाश नहीं बल्कि समाज की लाश होती है। जब जब एक स्त्री प्रेम में मारी जाती है तब तक समाज थोड़ा और मरता है। स्त्री मन की अंतरतम परतों को उधेड़ती कहानीकार की यह कहानी आद्यांत मन के कोरों को भिगोती रहती है। दुनियाँ में स्त्री को प्रेम से वंचित करने की ऐसी न जाने कितनी कहानियाँ लिखी गयी होंगी लेकिन आशा पाण्डेय की यह कहानी अपने विशिष्ट कलेवर और भावनाओं के मर्मांतक उत्स के लिए अलग से पहचान बनाती है।

शहर में रहने वाले बड़ी बड़ी गाड़ियों में घूमने वाले तथाकथित सभ्य समाज के बरक्स जंगल में रहने वालों की मानवीय संवेदनाओं से परिचित कराती एक कहानी है “जंगल”। नागरीय सभ्यता जंगल में रहने वालों के प्रति एक पूर्वाग्रही अवधारणा से ग्रसित है, जो उन्हें उनके प्रति भय, शंका और घृणा से भर देती है। लेकिन कहानी का मुख्य पात्र जो होटल में प्लेटें  धोने वाला एक लड़का है जब उनके बीच फंस जाता है या यूं कहें कि शहरी  सभ्यता के सबसे चमकदार पात्रों के द्वारा छोड़ दिया जाता है तो उसे इस  बात की अनुभूति होती है कि असल में जो शहर है वही जंगल है  और जंगल में इंसानी सभ्यता का वास है। इस संदेश के हेतु से रचित इस कहानी में कहानीकार अपने उद्देश्य में पूर्णतया  सफल रही हैं। बहुत ही खूबसूरती से बुनी गयी यह कहानी पूर्वाग्रह की बेड़ियों को तोड़ने व शहरों में संवेदना शून्य होती युवा पीढ़ी के चरित्र को अभिव्यक्त करने का अत्यंत सार्थक प्रयास है। 

भूख जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई है लेकिन यह भी सच है कि जैसे  ही पेट की भूख मिटती है, अन्य तरह की भूख जन्म लेती है और साथ ही  जन्म लेने लगते है संदेह,  संशय, ईर्ष्य, लोभ, और लालच के कीड़े जो आदमी को आदमी नहीं रहने देते। संग्रह की कहानी “दंश” गाँव से शहर आए एक ऐसे परिवार की कहानी है, जिसमें पेट भरने का इंतजाम होने के बाद एक पति अपनी पत्नी पर व्यर्थ के संदेह करने लगता है और इसके कारण जमी जमाई गृहस्थी बिखर जाती है। 

आशा पाण्डेय यद्यपि कि महाराष्ट्र में रहती है पर उत्तर प्रदेश उनके दिल के करीब है। रोजगार हेतु उत्तर प्रदेश के लोगों के प्रवास की पीड़ा वह अपने दिल में महसूस करती है। संग्रह की कहानी “खारा पानी” जिसके नाम पर इस किताब का शीर्षक भी है ऐसे ही एक प्रवासी मजदूर बच्चे की कहानी है। लड़का नौकर है। नौकर की उम्र पर ध्यान बाद में जाता है, उसके काम पर पहले। वह डांट खाता है, झिड़की खाता है, खाना खाता है। लड़का सब कुछ पचाता  है। एक चमक-दमक से भरे घर में कीमती सामानो व छोटे दिल वाले घर में वह कई कारणों से डांट खाता है। डांट खाते-खाते वह भ्रम में रहने लगता है कि क्या सही है और क्या गलत। जिसे वह सही समझता है वह गलत हो जाता है। एक छोटे बच्चे  की जिज्ञासा को, उसके मनोभावों को, उसकी पीड़ा को एवं  घरवालों का  उसके साथ के व्यवहार को आशा पांडे ने जितनी सूक्ष्मता से पकड़ा है उतनी ही खूबसूरती से उसे बयान भी किया है।

आशा पाण्डेय की कहानियों की विशेषता है कि वे अपनी कहानियों के कथ्य कहीं बाहर नहीं तलाश करती बल्कि  अपने वर्तमान व विगत जीवन से यादों के मोती सँजोती है और उन्हें कल्पनाओं के धागों में गूँथकर कहानी रूपी माला में प्रस्तुत करती हैं।

संग्रह की एक कहानी “वसीयत” वर्तमान काल के महानगरीय जीवन में स्वार्थों एवं भौतिक लिप्सा के मध्य आपसी पारिवारिक रिश्तों के दरकने की मर्मस्पर्शी कहानी है।  महानगरों में छोटे होते घरों के आकार के साथ ही लोगों के हृदय भी छोटे होते जा रहे हैं जो पारिवारिक सम्बन्धों की मर्यादा को भी अपने भीतर समा पाने में समर्थ नहीं है। 

आशा पांडे की कहानियों की विशेषता है कि ये सिर्फ समस्या गिनवाकर पाठकों की करुणा नहीं बटोरती बल्कि समस्याओं के समाधान भी प्रस्तुत करती हैं। 

संग्रह में कुल जमा बारह कहानियाँ संकलित हैं और सभी बारह की बारह कहानियाँ पठनीयता एवं कथ्यात्मकता की दृष्टि से उत्कृष्ट हैं। इन कहानियों को अवश्य ही  पढ़ा जाना चाहिए। 

आजकल कई किताबों को पढ़ना हुआ है, सभी किताबों में प्रिंटिंग, व्याकरण दोष एवं वाक्य विन्यास  की इतनी गलतियाँ देखने को मिलीं कि पढ़ने का मन ही उचाट हो जाता है। जबकि सभी तथाकथित बड़े प्रकाशकों की किताबें थी। यह देखकर अत्यंत प्रसन्नता हुई है कि इस कहानी संग्रह में ऐसी कोई दिक्कत नहीं है। प्रिंटिंग त्रुटिहीन  है एवं प्रिंटिंग की गुणवत्ता भी अच्छी है। आशा पाण्डेय को इस कहानी संग्रह की लिए बारंबार बधाई। मैं यह आशा करता कि यह कहानी संग्रह पाठकों को अवश्य ही पसंद आएगा।  

 

लेखिका: आशा पाण्डेय, कहानी संग्रह का नाम: खारा पानी, प्रकाशक: बोधि प्रकाशन,  मूल्य 120 रुपये 

***



समीक्षा

अभिनव इमरोज़

डिकोरपेक इण्डिया प्रा. लि., गुरुग्राम, हरियाणा से मुद्रित एवं वसंत कुंज नई दिल्ली से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘अभिनव इमरोज़’ के दिसम्बर 2020 के ‘डाॅ. अहिल्या मिश्र विशेषांक’ को पढ़ने का अवसर मिला। ऐसा कोई भी हिन्दी साहित्य प्रेमी नहीं होगा, जो डाॅ. अहिल्या मिश्र के नाम से परिचित न हो। फिर भी ‘पत्थर-पत्थर-पत्थर’, ‘कैक्टस पर गुलाब’, ‘विद्यापति की पदावली का शैलीतात्विक अध्ययन’, ‘आखर अंतःदीप के’, ‘नारी दंश दलन दायित्व’, ‘भारतीय नारी तेरी जय हो’ (नाटक संग्रह), ‘स्त्री सशक्तीकरण के विविध आयाम’, ‘फाँस की काई’ (कहानी संग्रह), ‘मेरी इक्यावन कहानियाँ’, ‘स्त्री संघर्ष’, ‘श्वास से शब्द तक’, ‘साँची कहूँ’, ‘जिनको मैंने जाना’, ‘बिहार साहित्यिक -सांस्कृतिक विरासत’, ‘मील का पत्थर’ जैसी रचनाएँ साहित्य जगत को देने वाली अपनी पसंदीदा साहित्यकार डाॅ. अहिल्या मिश्र के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के बारे में जानने की जिज्ञासा काफी हद तक इस विशेषांक ने पूरी कर दी है। इसके लिए पत्रिका के स्वामी, मुद्रक, प्रकाशक एवं संपादक श्री देवेन्द्र कुमार बहल एवं अतिथि संपादक डाॅ0 उषा रानी राव को बहुत-बहुत साधुवाद।     

हिन्दी और साहित्य के अलावा विभिन्न सामाजिक संस्थाओं से सरोकार रखने वाली डाॅ. अहिल्या मिश्र की साहित्यिक सृजन-यात्रा एक अथक परिश्रम का परिणाम है, जो अनवरत जारी है।     

डाॅ. अहिल्या मिश्र लिखती हैं-”पूछते हो ज़मीन का ज़मीर क्या है/गर्वीले हिमालय को देखते हो/जो सिर ऊँचा किये सीना ताने खड़ा है/और अपने बड़प्पन का आभास दिलाता है/लेकिन क्षण भर को ऐसा सोचो/जरा-सी जमीन अगर खिसक जाए/तो समूचे का समूचा हिमालय अपना/पता ठिकाना तक खो देता है/यही है ज़मीन का ज़मीर।“ 

डाॅ. अहिल्या मिश्र की सृजनात्मक शक्ति लेखकीय सरोकारों को नई अभिव्यक्ति  देने में पूर्णतः सक्षम है। डाॅ. मिश्र के साहित्य के पात्र अन्याय के खिलाफ लड़कर समाज में परिवर्तन लाने की हिम्मत रखते हैं। 

आपसे आपकी बातें... शीर्षक के अनतर्गत डाॅ. अहिल्या मिश्र से अतिथि संपादक डाॅ. उषा रानी राव का संवाद डाॅ. मिश्र के व्यक्तिगत एवं साहित्यिक जीवन के अनेक पहलुओं पर प्रकाश डालता है। साक्षात्कार का प्रस्तुतीकरण देखते ही बनता है। पाठकगणों को उनके बारे में अनेक जानकारियां प्राप्त होती हैं, जैसे उनकी पहली प्रकाशित रचना कौन-सी है, हिंदीतर भाषी प्रदेश हैदराबाद में रहते हुए हिंदी शिक्षण के कार्य को चुनने के पीछे क्या कारण थे, स्त्री विमर्श के संदर्भ को देह से और यौन मुक्ति की अभिव्यक्ति से मुखर किया जा रहा है, आप क्या कहना चाहेंगी आदि-आदि। 

‘स्त्री सशक्तीकरण के विविध आयाम’ में डाॅ. मिश्र की पंक्तियाँ दिल को झकझोरकर रख देती हैं-

जीवन के खुरदरे रास्ते पर / चलते जाना आसान नहीं दोस्त! / कहीं साँस बिकती है, कहीं लाश / व्यापारी हैं जो जग में / खरीदते हैं वे हर पल पैसों के बल / जमीर क्या चीज है? / आत्मा भी बेची-खरीदी जाती है। 

‘डाॅ0 अहिल्या मिश्र विशेषांक’ का प्रयास यही है कि पाठक डाॅ. मिश्र के लेखन की हर विधा से रूबरू होेेकर उनके चिंतन-मनन और सोच के बारे में अधिक से अधिक जान सके। विशेषांक में अनेक लेखकों ने उनकी कृतियों पर सहज और सरल भाषा में प्रकाश डाला है। डाॅ. मिश्र का हिन्दी के प्रति प्रेम ही है कि उनकी कृतियों के बारे में जानकर आश्चर्य होता है कि एक हिंदीतर भाषी लेखिका/कवयित्री हिन्दी में इतना श्रेष्ठ कैसे लिख लेती हैं? चाहे नाटक हो, गीति काव्य हो, या गद्य हो या फिर कहानी, सभी विधाओं में डाॅ. मिश्र को महारत हासिल है। डाॅ. अहिल्या मिश्र के साहित्य सृजन को समर्पित यह विशेषांक पाठकों को अवश्य पसन्द आएगा, ऐसा मेरा विश्वास है। एक बार विशेषांक के संपादक मंडल को पुनः बधाई!

-डाॅ. मधु भारद्वाज, वरिष्ठ साहित्यकार, निवर्तमान सहायक निदेशक (रा. भा.), राष्ट्रीय जालमा कुष्ठ एवं अन्य माइकोबैक्टीरियल रोग संस्थान, ताजगंज, आगरा, पता-7, अमरलोक काॅलोनी, ताजगंज, आगरा-282 004 (उ0प्र0), भारत, ईमेल- madhu_garima@yahoo.com, मो. 91.9412813819

***


रूपेंद्र राज

समीक्षा

अतीत के झरोखों में झांकती कहानियाँ

देवी नागरानी जी हिंदी साहित्य में कोई नया नाम नहीं है, आपने सिंधी में हिंदी साहित्य का अनुवाद किया, साथ ही हिंदी साहित्य का भी हिंदी अनुवाद कर सिंधी साहित्य को समृद्ध किया।

आप साहित्य की गद्य और पद्य दोनों विधाओं में समान रूप से अधिकार रखती हैं। आप केवल मुक्त कविताएं ही नहीं वरन गजल जैसी कठिन विधा भी कहती हैं। ना केवल हिंदी बल्कि सिंधी भाषा में भी आप गजल कहती हैं। मुझे देवी नागरानी जी के कहानी संग्रह ‘परछाइयों का जंगल’ पढ़ने का अवसर मिला। यह मेरे लिए एक महत्वपूर्ण संग्रह इसलिए भी है कि एक सिंध प्रांत से ताल्लुक रखने वाली लेखिका को पढ़ना सिंध संस्कृति से भी परिचित होना है।

ऐसा नहीं कि देवी नागरानी जी किसी टिपीकल सिंधी लेखक का प्रतिनिधित्व करती हैं,  किंतु फिर भी अपने विरसे की, अपनी मिट्टी की महक से कवि, लेखक कहीं न कहीं जरूर जुड़ा होता है, वही एक महक आप की इन कहानियों में भी अनुभव की बात करते हैं।  इस संग्रह में बीस कहानियां है। जिस कहानी के शीर्षक पर इस संग्रह का नामकरण हुआ है, वह कहानी अतीत के झरोखों में झांकती ज़िन्दगानियों की कहानी है।

कहानी ‘परछाइयों का जंगल’ में मां-बेटी का एक ऐसा सफर है जो चलता रहा पर कहीं भीतर ठहरा भी रहा। एक दुर्घटना जो जीवन भर सालती रही, मां के जीवन को ग्रहण तो लगा ही,  बेटी को भी दोहरा ग्रहण लगा।

पिता का एक सफर में खो जाना और फिर कभी न मिलना,  इस गम में माँ का विक्षिप्त हो जाना और बेटी का उस दोहरी विक्षिप्तता को सहना। कहानी आत्मकथ्य शैली में कही गई है। मार्मिक परिस्थितियों को कहने के लिए उस अवसाद से आत्मसात होना पड़ता है, देवी जी ने बहुत कुशलता से भावों का निर्वहन किया, एक कहानी जो सालों साल पाठक के मस्तिष्क में बनी रह सकती है बशर्ते शिद्दत से अनुभव की जाए।

संग्रह की दूसरी कहानी काले स्याह बादलों की मुसलाधार बारिश के बाद जब सूरज उगता है तो आसमान और भी स्वच्छ लगने लगता है। यह कहानी भेदभाव की राजनीति लगी। इस कहानी में विशिष्ट जाति की अंतर व्यथाओं का,  समाज के साथ अपने अस्तित्व की दोहरी लड़ाई तथा अपनी जिजीविषा की कहानी है।  इस कहानी का फलक बहुत बड़ा है, एक उपन्यास के तत्व इस कहानी में निहित हैं। समाज के ऐसे तबके के संघर्ष में पीढ़ियों के बाद जब उस संघर्ष का सकारात्मक परिणाम मिलता है तो समाज भी नतमस्तक हो जाता है। अवसर मिले तो अभावग्रस्त भी समाज में उचित स्थान प्राप्त कर सकता है। सामाजिक व्यवस्थाओं का जातिगत ढांचा पूजीपतियों की देन है, या यूं कहें कि वर्चस्व की राजनीति चाहे धर्म, उच्च जाति व्यवस्था अथवा आर्थिक स्तर ही क्यों न हो,  आधुनिक युग में जैसे-जैसे पैतृक व्यवसाय अथवा जीविका के साधन बदलते गए स्तर ऊंचे होते गए साथ ही जातीय भेदभाव भी घटते गए। इस कहानी के पात्र नायक आदित्य व उसके पिता के साथ -साथ नायिका सुजाता तथा उसके पिता सुखीराम की विचारधारा ही इस रूढ़िवादिता तथा जातीय भेदभाव को समाप्त कर सकती है। कहानी का अंत बहुत सटीक हुआ जिस परिवर्तन की समाज में दरकार है उसी परिवर्तन को कहानीकार ने स्थापित किया है।

यूँ तो बँटवारे के दर्द को शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता, फिर भी इस बंटवारे के दर्द को बयां करती अनगिनत कहानियां है। मंटो से लेकर अमृता प्रीतम तक मोहन राकेश, भीष्म साहनी, यशपाल, कृष्णा सोबती तक की कलम उस त्रासदी को लिखकर लहू उगलती रही।  

देवी नागरानी जी की कहानी ‘गुलशन कौर’ एक ऐसी लड़की की कहानी जिसे बंटवारे के समय त्रासदी से बचाने के लिए उसे मुस्लिम दादी ने एक सिख परिवार की झोली में डाल दिया।  बेटी को एक नजर देखने की ख्वाहिश उस जरीन बेगम को हिंदुस्तान की सरजमी पर ले आई और गुलशन को गुलशन कौर के रूप में देखकर तसल्ली कर लेती है।  

उधर सुरजीत के मन में खटका रहता है कि यह जरीन अपनी अमानत वापस न मांग ले, पर जरीन गुलशन कौर को सही हाथों में देखकर अकेली वापस लौट जाती है। इस बात पर दोनों सहमत होती हैं कि भले ही जमीनों पर सरहदों की लकीरें पड़ गईं पर दिलों की लकीरें अब भी जुड़ी हैं। बहुत सुंदर और सकारात्मक अंत किसी हद तक बंटवारे के घावों को प्यार से सहलाता हुआ लगता है।

‘दीवार हिल गई’, एक ऐसी कहानी जो रिश्तो की मजबूती के दंभ को कुचलाती है। यह कहानी पुरुष के प्रति फिर एक बार अविश्वास और घृणा से भर देती है। अविश्वास का गहरा घाव, शंका का नासूर इतना पीड़ादायक होता है कि अपनी जिंदगी तो तबाह करता ही है,  निर्दोषों को जिंदगी भर की सजा भुगतने पर विवश कर देता है। एक सुखी परिवार किस तरह तबाह ओ बर्बाद होता है इस कहानी में उसका विवरण है। मार्मिक अंत, जब एक बेगुनाह औरत अपने पति का ताउम्र इंतजार करती है कि एक बार तो वह पलट कर आए और उसकी बेगुनाही पर मोहर लगा दे। लेकिन पति की मृत्यु की खबर सुनकर उसकी वह आस भी टूट जाती है,  और टूटी हुई आस से उसकी सांसें उखड़ जाती है। क्यों प्रतिरोध नहीं किया?  क्यों अपनी बेगुनाही के लिए नहीं लड़ी? क्या था ऐसा जो उसके स्वाभिमान को ललकार गया? अपनी अना के लिए त्याग दिए सारे रिश्ते बंधन और चुना एकाकीपन।...बहुत मार्मिक और अप्रत्याशित अंत के साथ उम्दा कहानी।

‘रखैल की बेटी’, कहानी की पृष्ठभूमि दक्षिण भारत के मूल की नायिका पर आधारित है।  एक स्त्री जो परिस्थितियों वश अपने अना के बदले अपने परिवार की खुशियां चाहती है, लेकिन समाज इस अवस्था को कतई नहीं स्वीकारता। पति की अपाहिजता,  बेटे की शिक्षा का खर्च, किसी दूसरे आदमी की हवस मिटा कर पूरा करती राजम्मा की माँ अपने बच्चों के सुख और आवश्यकताएं पूरी करती जीवन भर लोगों के ताने सुनती रही।  जवान बेटी को सिखा गई कि पूरा शृंगार ही उसे बुरी नजर से बचा सकता है। उसके सुहागिन होने का भ्रम बना रहता है।  मरने से पहले बेटे को पत्र लिख बेटी के भविष्य की चिंता में संसार त्याग, एक माँ के दो पुरुषों की दो संतानों का माँ के प्रति श्रद्धा ही दोनों के सौतेलेपन को हावी नहीं होने देती और बहन भाई का मिलाप पवित्र दायित्व में बंधा रहा। कहानी कुछ कृत्रिम सी लगी,  यथार्थ जीवन को नाटकीयता से दर्शाया गया, किंतु टूटे हुए सिरों को जोड़ पाई और अंत तक पहुंची।  कहानी जहां स्त्री विमर्श को कहती है वही अच्छे संस्कारों के पुरुष को भी दर्शाती है। संस्कार किसी पवित्रता के बने हुए नहीं होते। राजम्मा की माँ भले ही किसी धनाड्य की रखैल थी किंतु उसने अपने जिस्म का व्यापार नहीं किया, अपाहिज पति की मृत्यु के बाद बेटे की शिक्षा, उसकी विवशता थी जिसे रखैल बनकर पूरा किया। लेकिन नारायण के अत्याचार से डरकर कहीं अन्यत्र नहीं भागी। यह भी राजम्मा की माँ की ईमानदारी ही थी।

कहानी ‘कमली’ की पृष्ठभूमि भी बंटवारे के बाद की सिंध से भारत आए विस्थापितों की कहानी है। विस्थापन सारा सुख छीन लेता है लेकिन कसक बाकी रह जाती है। कमली को सहारा देकर उस पर एहसान जताने की ठसक ने दादी के हृदय को कठोर कर दिया था, लेकिन कमली जो कि एक मुस्लिम लड़की कमसिन थी,  उसकी सेवा प्रेम और भोलापन ने दादी का ह्रदय जीत लिया। एक बढ़िया कहानी जिसमें दादी के पात्र का सजीव चित्रण सिंध के बुजुर्गों का एक रूढ़िवादी चरित्र समक्ष रखती है।

इस संग्रह की कहानी ‘पैबंद’ की संरचना बहुत सघन है। एक मोची के जीवन की दुरूहता को बहुत विस्तार से चित्रित किया गया। विवरण अत्यंत विस्तार से दिया गया,  दीन दयाल का जीवन संघर्षों से भरा था ,रामकली बच्चों की शिक्षा की चिंता में हल निकालती है,  लेकिन गरीबी बड़ी बेटी को लील लेती है। लील तो रामकली को भी लेती है,  इज्जत तार-तार होने के बाद कहां बचती है स्वाभिमानी रामकली। रह जाता है दीनदयाल अपनी गरीबी और दो छोटे बच्चों के साथ अकेला, पर अकेला कहां था,  यादें थी सुनैयना और रामकली की,  जो जीने का सहारा और छोटे बच्चों को पालने की जिजीविषा को बनाए रखती है। कहां छोड़ पाता है उम्मीद आदमी मरते दम तक। कहानी की शैली संप्रेषण से भरपूर है।

सुहाना बहुत से प्रश्न खड़े करती है। यदि कहानी को यथार्थ के धरातल पर देखें तो कहानी कोरी कल्पना लगती है। एक डॉक्टर लड़की जो कुंवारी है, उससे एक कार दुर्घटना हो जाती है। क्या सुहाना खुद को उस एक्सीडेंट से बचाना चाहती थी? आखिर क्या था जिसे उसे झूठ बोलने पर विवश किया? वे एक जिम्मेदार डॉ थी सच भी बोल सकती थी क्योंकि उसने राकेश से झूठ बोलकर मदद ली?  क्या  बच्ची का उस दुर्घटना में मर  जाना सुहाना को आत्मग्लानि में धकेल गया?  अमित की याददाश्त खो जाना और अमित को सच में पति मान लेना भी कोरी कल्पना लगती है। उसका भी अतीत होगा, उसका भी परिवार होगा। आज तकनीक की इस दुनिया में किसी का भी पता मिलना मुश्किल नहीं। आखिर सुहाना इस झूठ के साथ कब तक स्वच्छंद उड़ान भरती रहेगी और यह भी धोखा है,  उसके प्रोफेशन पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। बहरहाल कहानी तो कहानी होती है यथार्थ के साथ कल्पना की उड़ान। 

‘एक मैं और एक वह’ कहानी एक स्त्री का दूसरी स्त्री के प्रति सौहार्द इस कहानी में दिखाई देता है। आज भी समाज में पत्नी की दुर्दशा के अनगिनत उदाहरण है। सीता आज भी समाज के समक्ष लांछित होती है। आज भी अग्नि परीक्षा उसकी प्रतीक्षा करती है किंतु अब स्त्री ने स्वाभिमान से जीना सीख लिया है।

इस कहानी का पूर्वार्ध किसी रहस्य की कल्पना करवाता है। विवरण इतना रोचक की कहानी को बरबस पाठक पढ़ते चला जाता है। स्त्री की मूक भाषा को समझने का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण इस कहानी का मुख्य तत्व है। कहानी अंत में आते-आते अपने उद्देश्य को पूरा करती, एक अनपढ़ लगभग टूटी हुई औरत जब अक्का बनती है तो न केवल स्वयं को संभालती है बल्कि कईयों का संबंल भी बनती है। 

‘अपने घर’ की परिकल्पना सिंधी कथाकार ईश्वर चंद की कहानी से प्रेरित है, किंतु कहानी यथार्थ के साथ न्याय करती हुई लगी। माँ बाप के सामने ऐसे कई पड़ाव आते हैं जो अपनी  संतान से अपनी वास्तविक स्थिति छुपाते हैं इसके पीछे उससे संबंध तोड़ देना नहीं होता, एक दायित्व बोध होता है जो अभिभावकों के स्वाभाविक रूप से देखा जाता है। लड़की ससुराल से सुख संपन्नता से हो तो मायके के अभाव उसे अंदर तक तोड़ देते हैं। इस कहानी के अंत में अपने मायके का बदलता व्यवहार सच्चाई जानकर मुन्नी को विह्वल कर देता है। पिता की मजबूरी को मुन्नी समझते हुए दो दिन में ही ससुराल लौट जाने का फैसला करती है। यह कहानी परिवार के अंतर्द्वंद की कहानी है, एक दूसरे की परिस्थितियों को समझने की कहानी है। पिता नहीं समझ पाए बेटी स्नेह खोजते हुए मायके पहुंचती है और बेटी नहीं समझ पाई कि पिता अभाव के कारण किस शर्मिंदगी से गुजर रहे हैं। रिश्ते के ताने-बाने इतने कमजोर नहीं होते। समय सभी घाव भर देता है। कहानी वर्तमान से भविष्य की ओर सोचने पर मजबूर करती है। 

‘खोई हुई पहचान’ का पूर्वार्ध एक बिखरते परिवार की दो स्त्रियों के इर्द-गिर्द घूमता है, किंतु मध्य में कहानी नया मोड़ लेती है और सलमा विद्रोह कर देती है। घर  से  निकल तो जाती है लेकिन बाहर की दुनिया का सच उसे मानसिक रूप से विक्षिप्त कर देता है। शकूर का फरिश्ता बनकर उसकी जिंदगी में आना और सलमा का जीवन नई राह पर चल पड़ना इस के बीच कहानी में अनेक पड़ाव अकेली लड़की के संघर्ष को कहते हैं। यदि शकूर जैसा लड़का उसकी जीवन में नहीं आता तो मुमकिन था कि जिस डर से शादी से भागी थी वही डर उसके सामने और भी भयानक रूप से खुलता।

‘प्रायश्चित’ एक क्रूर व्यक्ति की कहानी जिसके लिए औरत उसकी जिंदगी की सारी नाकामियों का ठीकरा फोड़ने का एकमात्र साधन हो जाता है। अंत में अपनी पत्नी पर किए गए व्यर्थ के अत्याचार पर उसी की बेटी द्वारा तिरस्कृत करने पर उसे अपनी गलती का एहसास होता है सुखद अंत की कहानी में एक स्त्री का पति पर निर्भर होना तथा स्वयं सक्षम न होना उसे निरंतर पति के अत्याचारों को चुपचाप रहने का कारण बनता चला जाता है।

वास्तव में ऐसा हमारी प्राचीन परम्पराओं से ही स्त्री की नियति मान लेना है, किंतु अब समय बदल रहा है। अपने अस्तित्व, अस्मिता को स्त्री समझ रही है।

‘स्पंदन’ कर्म की गति को कहती कहानी, किसी ऐसी बेला में लिखा भाग्य जब सारे सितारे डूबने को हों। जीवन में सुख, ऐश्वर्य, समृद्धि लिखी ही नहीं चाहे राजघराने में ही क्यों न गई हो स्त्री। जीवन भर दुख और अभाव होते हैं। पति का           विश्वासघात, घर से जवाबदारी से मुक्ति की चाह में भाग जाना और बेटियों के सहारे संबंल तो देता है लेकिन जीवन में शून्य को नहीं भर पाता। 

‘बूंद बूंद जहर पिया का’ ऐसी कहानी जिसमें नारी सशक्तिकरण का रूप एक मिसाल बन कर सामने आता है। अपने पर किए गए अप्रत्याशित अत्याचारों को जब नारी नहीं सहना चाहती तो वह और भी सुदृढ़ होकर अपना रास्ता अलग बना लेती है।

‘मौसमों का सफर’ एक बहुत ही मार्मिक कहानी एक बुजुर्ग जो अपने पत्नी की मृत्यु के बाद पूरे परिवार में भी अकेला हो जाता है, और बहू- बेटों की दया का पात्र बन जिंदगी जीता है और उनकी चाकरी में लग जाता है। अपने अतीत को याद करता हुआ बुजुर्ग जब आंसू बहाता है तो पत्नी की याद का बहाना करता है। और एक दिन चुपचाप इस दुनिया से चला जाता है और उसके जीते जी जो उसे मान सम्मान नहीं दे सके उसके मरने के बाद ढोंग करके दुनिया को दिखावा करके सारे क्रिया कर्म करते हैं। यह विडंबना मार्मिकता से अधिक ऐसे औलादों पर रोष व्यक्त करती है जो जीते जी मान सम्मान नही देते किंतु मरने के बाद उन्हें याद करने का दिखावा करते हैं।

‘श्रद्धा के फूल बहुत ही खूबसूरत कहानी, भाई-बहन और प्रेमिका के त्याग की एक मिसाल। भाई बहन के लिए त्याग करना चाहता है, बहन भाई के लिए और प्रेमिका अपने प्रेमी के दायित्व को समझकर त्याग करने के लिए तैयार हो जाती है। किंतु अंत बहुत ही सुहावना बन पड़ा जब बहन भाई के प्रेम को समझकर उसे उसका प्रेम सौंप देती है।

‘स्वाभिमान’ एक बांझ औरत की कहानी जो संतान न होने की पीड़ा को तो चुपचाप सह लेती है लेकिन सौतन लाने की बात को हज़म नहीं कर पाई, जबकि वह परिवार के लिए अपने आपको निछावर कर देती है। चुपचाप निकल आती है उस अन्याय भरे माहौल से। ईश्वर उसकी झोली भर देता है किसी अनाथ बच्चे के माध्यम से। ईश्वर के न्याय में देर भले हो किंतु इंसानों के जैसे अंधेर नहीं है।

‘पेंइग गेस्ट’, ‘सूर्यास्त के बाद’, ‘मैं माँ बनना चाहती हूँ,’ ऐसी कहानियां जो स्त्री विमर्श को सीधे-सीधे कहती हैं , देवी नागरानी जी की कहानियां कई विषयों को छूती है। सामाजिक विसंगतियों से लेकर स्त्री विमर्श तथा समाज में स्त्रियों की दुर्दशा को बहुत बेबाकी से कहते हैं। देवी नागरानी जी का कहानी लेखन संप्रेषण से भरपूर है। बंटवारे  से लेकर आज तक के वर्तमान स्थिति पर बहुत ही सूक्ष्म दृष्टि रखती है, तथा घटनाओं को वृहद रूप से रचती है और एक बड़ा कैनवास रखकर कहानियां लिखती हैं। कहानियों में महत्वपूर्ण उद्देश्य होते हैं और साथ ही यथार्थ और कल्पना का सम्मिश्रण भी है जो कहानियों का एक महत्वपूर्ण तत्व है।

देवी नागरानी जी की भाषा शैली बहुत सहज, सरल और हिंदी-उर्दू सम्मिश्रण है। आपकी कहानियों में सिंध की परंपराओं का भी उल्लेख मिलता है जैसा कि पूर्व में ही कहा जा चुका है। इन कहानियों के माध्यम से सामाजिक, धार्मिक,आर्थिक दृष्टिकोण अलग-अलग कथन में गहन रूप से गुंफित होकर मिलते हैं।

देवी नागरानी जी का देश, काल, परिस्थितियों पर उनकी मजबूत पकड़ के साथ-साथ कहानी कहने के उनके विशिष्ट अंदाज को भी कहता है। आपकी रचनाशीलता निरंतर, निर्बाध चलती रहे आपको हार्दिक शुभकामनाएँ। 

लेखिकाः देवी नागरानी


पुस्तकः परछाइयों का जंगल, लेखिकाः देवी नागरानी, वर्ष: 2019  मूल्यः 350,  पन्नेः 160,  प्रकाशकः भारत श्री प्रकाशन, पटेल गली, विश्वास नगर, शहादरा, दिल्ली, 110032. EMAIL : shilalekhbooks@rediffmail.com

समीक्षकः रूपेंद्र राज तिवारी, पता:प्रमोद तिवारी, वोल्लीबाल ग्राउंड के सामने, इंदिरा चैंक, श्याम नगर, रायपुर (छत्तीसगढ़), ईमेलः rupendratiawri19@gmail.com

***


लतिका यादव, पुणे, महाराष्ट्र (भारत)

समीक्षा

परछाइयों का जंगल (कहानी संग्रह)

देवी नागरानी जी का यह कहानी संग्रह उनकी सिंधी कहानियों का हिंदी अनुवाद है। अपनी बात कहते हुये यहां उनका अपना एक विशाल दृष्टिकोण स्पष्ट होता है। जैसे कि आनेवाली पीढियां सिंधी भाषा की अरबी लिपि शायद ही पढ ना सके तो उनके लिए सिंधी भाषा की  कहानियों का हिंदी में अनुवाद करना उन्होंने जरूरी समझा। जो हम सब भी उनके साथ पढ सकेंगे।

मैं यह बात अपने अनुभव से कहना चाहूंगी, आज सभी भारतीय प्रादेशिक भाषाओं, बोलियों पर यह खतरा मंडरा रहा है। बच्चों का अपनी बोली भाषा, प्रादेशिक भाषा से जो जुड़ाव होना चाहिये, शायद कम हो गया है। इसलिये देवी नागरानी जी के द्वारा  इस अनुवाद के पहल का मैं स्वागत करती हूं। साहित्य अपने समाज , संस्कृति, परिवर्तन, संघर्ष तथा बदलाव का दर्शन करता है, तो ऐसा साहित्य ही जीवन प्रवाह का दर्पण कहलाता है।

देवी नागरानी जी कहानियों पर विचार करते समय गंभीरता इन कहानियों का स्थायी भाव है, यह बात समझना मुझे बेहद जरूरी लगता है।

शीर्षक कहानी ‘परछाइयों का जंगल‘ पारिवारिक रिश्तों में उलझे पात्रों की व्याकुलता का दर्शन है। पहले पिता की याददाश्त चली जाती है। वह इसी कारण रास्ते में हादसे का शिकार हो गुजर जाते हैं। मां यह हादसा सह नहीं सकती। बेटी मां को इस दुख से निकालने की बहुत कोशिश करती है और वह इस कश्मकश मे अपने आप को बेसहारा होते देखती है। इस कहानी में मनोरोग से जुड़े पात्रों का सजीव चित्रण, दिल को झंझोड़ देनेवाला है।

‘भेद -भाव कि राजनीति‘ इस कहानी मे जातिवाद पर प्रहार किया है, लेकिन सौम्यता से यहां समाधान भी दिया है। यदि समाज का शिक्षित और आधुनिक विचार करने वाले लोगों ने दृढ़ संकल्प किया तो समानता आ सकती है। आदित्य और सुजाता अपने साहस से जातिवाद का कलंक तोड़ते है। लेकिन इस संघर्ष में सुजाता के पिता सुखीराम जी ने जो सबको साथ लिये उनका विवाह रचाया, ऐसा होता है, तो झूठी प्रतिष्ठा का स्वांग खत्म हो सकता है। यह संदेश इस कहानी का मर्म है।

‘गुलशन कौर‘ विभाजन के समय की त्रासदी का दस्तावेज है। दो भिन्न धर्मों की औरतों ने उस समय जो दरिंदगी देखी, अपने आप को बच्चों को सरहद पार कर बचाया, यह उनकी कहानियां कभी कभी इंसानियत की चैंकानेवाली दास्तान लगती है। 

‘दीवार हिल गयी‘ इस कहानी मे अभी भी नारी को विश्वासपात्र बनने के लिये गंभीर  हालात से गुजरना पड़ता है, इस प्रतिगामी सामाजिक दृष्टिकोण से परिचय कराया गया है।

‘रखैल की बेटी‘ केवल प्रादेशिक सीमाओं से बंधी हुई नहीं है, यह हर नारी के ममता और कर्तव्य की कहानी है। जो अपने बच्चों के लिये उनके बेहतर भविष्य के लिये त्याग करती है। 

‘कमली‘ विभाजन का दौर भुगतने वाले जन सामान्य से जुडी कहानी है। सिंध प्रांत से  निकल भारत में आने के बाद सिंधी लोगों को यहां अपने आप को जोडने के लिये काफी मेहनत और भावनात्मक आंदोलन से गुजरना पड़ा है। यहां एक यतीम मुस्लिम लडकी कमली का नौकर से घर की बेटी तक का सफर  संवेदनशील लगता है। विभाजन का मानवी संवेदनाओ पर गहरा असर दिखायी देता है। लेकिन अच्छाई खत्म नहीं हो गयी।

‘पैबंद‘ गरीब मोची की कहानी है। जिसके जीवन में मेहनत है, लेकिन उसका फल नहीं है। अपने परिवार को वह खुशियों से संवारना चाहता है, लेकिन हमारे समाज में ऐसे मेहनती लोगों को इज़्जत की रोटी भी नसीब नहीं है। लोगों को दिल मे किसी को काम का मुआवज़ा देने की नीयत नहीं है। जिस कारण दीनूकाका का संघर्ष समाज की इस घिनौनी असलियत उजागर करता है। उनकी पत्नी की दर्दनाक मृत्यु, बडी बेटी का बीमारी से मृत्यु इन कारणों से वह टूट गया था। एक उम्मीद की किरण आती है, किसी बच्चीका खुशी से मिला काम का मुआवज़ा, उसके बच्चों को दिया उपहार उसके दिल की चमक बढ़ा देता है। यह छोटी-सी खुशी उनके लिये दिलासा बन जाती है।

‘सुहाना‘ हादसे में मिले अजनबी के रिश्ते की कहानी है। जो सचमुच पहेली है। इस कहानी मे रहस्य बरकरार रखा है, पाठक इस बात पर स्वयं विचार कर सकते हैं। किसी अजनबी को जिसकी याददाश्त चली जाती है, उसको पति मानकर जीने का सपना सुहाना कैसे ठान लेती है।

‘एक मैं और एक वो‘ यहां इस कहानी मे भी पुरुषसत्तात्मक रचना में संघर्ष करती औरत का चित्रण है। शादी का पवित्र रिश्ता संशय का भूत जब बढता है, तो टूट जाता है। जुल्म की शिकार यह  औरत अपने साथ मासूम अनाथ बच्चों को जोड़ शांति से जीवन व्यतीत करती है। ऐसे कई रास्ते इन कहानियों की नायिकाएं अपनाती है, जो आज के दौर की जरूरत है।

‘अपना घर‘ सिंधी भाषा के विख्यात लेखक ईश्वर चंद्र की कहानी का निरूपण है। जहाँ गरीब पीहर से ममता की प्यासी बेटी मां-पिता का बदहाल जीवन देख न चाहकर भी ससुराल वापसी करती है। 

‘खोई हुई पहचान‘ एक लडकी सलमा के संघर्ष की कहानी है। मां-बाप, चाचा सब गुजरने के बाद केवल चाची उसका सहारा थी। वह किसी अच्छे भविष्य का सपना देखती है। चाची उसका ब्याह किसी गुंडे से तय करती है। वह घर से भागती है। शकूर से अचानक सामना हो जाता है, वह उसको अगवा करने आये गुंडों से बचाकर एक नया जीवन जीने का रास्ता दिखाता है। लड़कियों का संघर्ष और दृढता का परिचय देती कहानी है। सपने देखने की और संघर्ष करने की क्षमता दिलासा देती है।

‘प्रायश्चित‘ कहानी स्त्री के दमन, आश्रित होने की कुंठा पर आधारित है। फिर भी बच्ची का माँ के प्रति प्रेम पिता को अपनी गलतियों का अहसास दिलाता है। बच्चों में उभरी जागृति कि लहर का दर्शन मन को छू लेता है।

‘स्पंदन‘ आज के दौर में भी पाखंडी बाबा के आश्रम लोगों को भ्रमजाल मे फंसा रहे हैं। इस जाल का चित्रण, परिवारों का ग़म इस वास्तविकता से जुड़ी कहानी है। यह कहानी समाज में आज भी जो अंधविश्वास को बढावा देनेवाले जाल है, उनका परिचय कराती है।

‘बूंद बूंद जहर पीया, पिया के नाम‘ यह कहानी रूप जैसी शिक्षित, नौकरी करनेवाली स्त्री के आत्मसम्मान की कहानी है। शादी के बाद पति की असलियत पता चल जाती है। उसके साथ रहना मतलब अपने जीवन मूल्यों का अपमान था, वह दृढता से घर छोडकर अपना अलग बसेरा बसाती है, बाद में उसका पति फिर उसके साथ रहना चाहता है, लेकिन वह इंकार कर देती है। शिक्षा और आर्थिक स्वतंत्रता, स्त्री के लिए बहुत जरूरी है, इस बात का अहसास दिलाने का कार्य यह कहानियां करती है।

‘मौसमों का सफर‘ वृद्धावस्था का जीवन कभी कभी अपने ही घर के लोगों के लिये बोझ बन जाता है, सरलता से कोई बात समझता नहीं। ऐसे सफर का दर्द इस कहानी मे निराश होते बुजुर्गों का हाल बयान करती है। जिसपर गंभीरतापूर्वक विचार करने की जरुरत है।

‘श्रद्धा के फूल‘ कहानी प्रेम और त्याग जैसी भावनाओं का दर्शन है। सुखांत का कारण समझदारी है, बहन का त्याग तथा प्रेमिका का प्यार इनकी महत्ता तोली नहीं गयी, महसूस किया गया।

‘स्वाभिमान‘ कहानी मे बांझ स्त्री का दर्द स्वाभिमान मे बदल गया तो वह कैसे नया जीवन शुरू कर सकती है, यही आशावादी दृष्टिकोण कहानी को अर्थपूर्ण करता है। 

‘पेइंग गेस्ट‘ मानसिक तनाव का परिणाम दूसरों को कैसे भुगतना पड़ता है, इस बात का परिचय इस कहानी में होता है। बडे शहरों में जरूरत के कारण लोगों को पेईंग गेस्ट के रूप में रहना पड़ता है। लेकिन जिस मानसिक तनाव को झेलना पड़ता है, इस समस्या का इस कहानी मे वर्णन है।

‘सूर्यास्त के बाद‘  पति का प्यार, उसकी वापसी के लिये रमिया किस तरह जिद्दी होकर, अपने पति को घर लाती है, उसका अनूठा संघर्ष जो कहानी को जानदार बनाता है।

‘मैं मां बनना चाहती हूँ‘ इस कहानी मे आम औरत के  जीवन मे मां बनने की इच्छाओं का संवेदनशील हो जाना स्वाभाविक लगता है। उसके लिये वह बहुत संघर्ष करती है। जो शायद हर किसी के बस का नहीं है।

‘परछाइयों का जंगल‘ इस कहानी संग्रह मे बीसवीं सदी के मनुष्य जीवन का बदलता रूप स्पष्ट होता है। सबसे दर्दनाक विभाजन का हादसा जिन लोगों ने भुगता उनकी दास्तान पढ़कर दिल सहम जाता है। फिर भी यहां इन्सानियत जिं़दा है, ऐसे उदाहरण भी है, ‘गुलशन कौर‘ कहानी इसका बेमिसाल उदाहरण है। यह बात सच है कि जातिवाद, धर्मांधता निरंतर समस्या बनी है, लेकिन शिक्षा और आर्थिक स्वतंत्रता ही इस समस्याओं से मुक्ति का मार्ग दिखाने में सक्षम साबित हो सकती है। यह आशावादी दृष्टिकोण इस संग्रह में है।

देवी नागरानी जी अपनी संयत फिर भी प्रवाही रचना तंत्र से कहानियों को हमारे इर्दगिर्द की घटित होने वाली दास्तान बना देती है। जो उनके कलम कि विशेषता लगती है। कहानियों में जो  संवाद है वह भी पात्रों का सशक्त अस्तित्व निर्माण करते हैं।

कुल मिलाकर यह कहानियां हमारी संस्कृति, इतिहास, भाषाओं और जन जीवन के संघर्ष का दस्तावेज हैं, इसलिये मैं लेखिका देवी नागरानी जी को बधाई देती हूं। धन्यवाद!

पुस्तकः परछाइयों का जंगल, लेखिकाः देवी नागरानी, वषर्ः 2019  मूल्यः 350,  पन्नेः160,  प्रकाशकः भारत श्री प्रकाशन, पटेल गली, विश्वास नगर, शहादरा, दिल्ली, 110032. email : shilalekhbooks@rediffmail.com

द्वारा - डॉ. लतिका जाधव, पुणे, महाराष्ट्र (भारत)

***


शाहिद हस्न शाहिद, जलंधर (पंजाब), मो. 9888025001

खुदकलम

मेरा क़बूलनामा


प्रिय बुद्धिजीवी व साहित्यप्रेमी बन्धुओ...!

अपना प्रथम लघु व्यंग्यात्मक कहानी-संग्रह ‘‘दीवार पर लिखी गालियाँ’’ आप के समक्ष प्रस्तुत करने से पहले मैं अपनी ओर से कुछ क़बूल (बवदमिेेपवद) करना चाहता हूँ, जो मेरे लिए बहुत अनिवार्य भी है।

प्रथम यह कि उपरोक्त कहानी-संग्रह मूल रूप से व्यंग्य पर आधारित है, हास्य पर नहीं। हास्य का पुट इस कारण नहीं कि मेरे मन व मस्तिष्क में यह धारणा घर कर गई है कि हमारी ज़िंदगी स्वयं एक भट्दा मज़ाक बन कर रह गई है; जिस पर अब और अधिक हँसने की गुंजाइश बाक़ी नहीं बची है। परिस्थितियाँ मजबूर कर रही हैं कि हम जीवन के स्वामित्व को गंभीरता से समझते हुए, अगर कुछ आँसू आँखों में बचे हैं, तो वे अवश्य बहाएं वरना हमारे पास खोखली हंसी और खोखले जीवन के अतिरिक्त बाक़ी कुछ नहीं बचेगा।

मैंने संग्रह में अपने हिस्से के आँसू बड़ी निष्ठा व ईमानदारी के साथ बहा दिए हैं। अब आपकी बारी है। अगर आपके मन-मस्तिष्क में मेरी क़लम की दस्तक हल्के से हलके स्वर में भी सुनाई दे, तो मेरा आप से विनम्र निवेदन है कि आप अपने दरवाजे़ को तुरन्त खोल दीजिएगा। किसी के आने की प्रतीक्षा में देर नहीं कीजिएगा, क्योंकि दरवाज़ा खोलने के लिए अब कोई नहंी आने वाला है, और न ही कोई चमकत्कार होने वाला है। यह पहल आपको स्वयं ही करनी पड़ेगी।

कहानी-संग्रह के सन्दर्भ में मेरा दूसरा क़बूलनामा यह है कि भले ही मैंने अपने संग्रह के शीर्षक में शब्द ‘गालियाँ प्रयोग किया है, परन्तु किसी भी प्रकार की कोई गाली मेरी कहानी का कोई भी पात्र आप को प्रयोग करता हुआ नहीं मिलेगा, जबकि कहानी के परिवेश में समाज की हर नई व पुरानी दीवार पर गालियों को किसी अमर बेल की तरह अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हएु आप अवश्य पाएंगे; क्योंकि मेरी दृष्टि में....

ये वो गालियाँ हैं- जिन्होंने सामाजिक मूल्यों, मान-मर्यादा व सभ्यता को सूली पर चढ़ा रखा है। 

वो गालियाँ हैं- जिन्होंने रिश्तों की गरिमा को तार-तार कर रखा है। 

वो गालियाँ हैं- जिन्होंने मजबूरी, निराशा, अशिक्षा व संवेदनहीनता के पेट से जन्म लिया है। 

वो गालियाँ हैं- जिन्होंने पेट और देह की भूख बनकर इन्सान को कार्टून बना दिया है। 

वो गालियाँ हैं- जिन्होंने हिंसा, आतंकवाद, भाषा व क्षेत्रवाद के ज़हर को अमृत की भांति परोस दिया है। 

ये वो गालियाँ हैं- जिन्होंने आत्मसम्मान, स्वाभिमान, निष्ठा, राष्ट्रवाद व अखंडता को अपने नापाक कदमों से कुचल रखा है। 

ये वो गालियाँ है- जिन्हें सड़कों, कूड़ेदानों और वीरानों में तड़पता हुआ देखा जा सकता है। ये वो गालियाँ हैं- जिन्होंने अपने अभिशाप के साये में कई नस्लों को जवान से बूढ़ा होते देखा है । मैंने जब खरे सिक्के की भांति चलने वाली इन गालियों का बौद्धिक अध्ययन किया, तो मेरी हैरत की सीमा नहीं रही, क्योंकि यह गालियाँ अपने हर चरित्र में भीषण तबाही मचाने वाले किसी विस्फोट से कम ख़तरनाक नहीं थीं। तभी मैंने इन गालियों की जड़ों और उनकी पीड़ा को समझने के लिए इनको शब्द यानी जुबान देने के बारे में सोचा, ताकि वे भी हमारी तरह शब्दों की शक्ति पाकर हमारे मुर्दा दिलों पर दस्तक देते हुए अपना दुःख प्रकट कर सकें, अपने साथ हो रहे हर जुल्म, धक्के व शोषण के विरुद्ध आवाज उठा सकें और न्याय के लिए किसी उचित या अनुचित उपाय की ओर बढ़ सकें।

गालियों की परिभाषा को समझने के उद्देश्य से ही मैंने समाज के माथे पर उकेरी गालियों को कहानियों का रूप देने का निर्णय लिया।

कहानियां लिखना मेरी पहली पसंद है। इसी कारण कहानियां लिखते समय मैंने इन को साहित्यिक धरोहर मानते हुए साहित्य की उन समस्त विधि-विधानों का भी पूरी तरह ध्यान रखा, जो साहित्य रचना के लिए आवश्यक हैं। इनमें कहानी की पटकथा, पात्र, पात्रों का चित्रण, संवाद, भाषा-शैली, भाषा की सरलता, विषय की विश्वसनीयता, साहित्य की गरिमा के साथ-साथ लेखक के अपने विचारों को भी प्राथमिकता दी, ताकि किसी समाधान तक पहुँचने में आसानी हो सके। अपनी भावनाओं को कहानी का रूप देने के पश्चात् मैंने स्वयं से कुछ प्रश्न भी पूछे -

‘यह कि ये शल्यकारी मैं समाज या देश की दशा या दिशा बदलने के लिए कर रहा हूँ ?‘ 

‘यह कि राजनीति, समाज व साहित्य के गिरते मूल्यों की दीवार को सहारा देने के लिए कर रहा हूँ ?‘

‘यह कि देश व समाज को सीधा मार्ग दर्शाने के लिए कर रहा हूँ ?‘ ‘यह कि स्वयं को एक समाज सुधारक या 

बौद्धिक वर्ग का सदस्य साबित करने के लिए कर रहा हूँ ?‘

‘यह कि स्वयं की प्रशंसा, बड़ाई, शृंगार या प्रसिद्धि के लिए कर रहा हूँ ?‘ ‘यह कि साहित्य रचना या साहित्य को जीविका बनाने के लिए कर रहा हूँ, आखिर क्यों करना चाहता हूँ ?‘

उपरोक्त सभी प्रश्न गंभीर थे और एक अर्थ रखते थे, परन्तु मेरे लिए यह सब अर्थहीन थे, क्योंकि इन प्रश्नों के मायाजाल में मैं स्वयं को बंधा हुआ नहीं देखना चाहता था। तभी मेरे अन्दर मौजूद लेखक ने मुझ से कहा-

‘समाज के प्रति अपनी जवाबदेही के लिए वह लिखना चाहता है। वह एक भावहीन मनुष्य की भांति नहीं रह सकता। इसी कारण उस ने स्वयं से वायदा किया है कि वह गहरी नींद सोए हुए समाज को जागरूक करने का प्रयास अवश्य करेगा।‘

अपनी इसी भावना के तहत जब-जब उस लेखक ने पूर्ण विश्वास और साहस के साथ कलम उठाई, तो उसके अन्दर का आक्रोश कहानियाँ बन कर बाहर आने लगा। जबकि इस सच्चाई को मैं अच्छी तरह जानता हूं कि मेरे अन्दर रहने वाला लेखक कोई बुद्धिजीवी नहीं है। वह केवल एक भावुक व्यक्ति है, जिसको दुनिया की चालबाज़ियों की समझ बिल्कुल नहीं है। - वह इस सच्चाई को कभी स्वीकार नहीं कर पायेगा कि पानी पर लकीरें नहीं खींची जा सकतीं।

वह यह भी नहीं स्वीकार कर पायेगा कि उस के लिखने से हवाएं अपना चरित्र नहीं बदलेंगी।

वह यह भी नहीं स्वीकार कर पायेगा कि उसके परामर्श से वातावरण का प्रदूषण समाप्त नहीं होगा।

वह यह भी नहीं स्वीकार कर पायेगा कि उस के ‘इंक़लाब-जिन्दाबाद‘ कहने से इंकलाब नहीं आएगा, बल्कि उस के लिखने के पश्चात् भी हालात ज्यों के त्यों ही बने रहेंगे, क्योंकि इन परिस्थितियों को हम पर जबर्दस्ती थोपा नहीं गया है। बल्कि हमने स्वयं वर्षों की कड़ी मेहनत व कठोर परिश्रम के बाद एक राष्ट्रीय पहचान की तरह इनको स्वीकार किया है।

साहित्य के संदर्भ में अगर बात की जाए तो वह यह भी स्वीकार नहीं कर पायेगा कि बुद्धिजीवी वर्ग उस की रचनाओं को पढ़ना तो दूर की बात, देखना भी स्वीकार नहीं करेगा,क्योंकि वह अपनी आभा से बाहर निकल कर खुली सांसें लेना ही नहीं चाहता। 

इन समस्त परिस्थितियों को दर-किनार करते हुए इस नादान ने जैसे ही ठहरे हुए पानी पर पहला पत्थर फेंका, तो कागज पर भूचाल आ गया। सुनामी जैसी दैव काली लहरें भंवर के अंदर भंवर बनाती हुई कागज के चारों कोनों को छूने लगीं। उन किनारों को, जिन्होंने एक-दूसरे के गले न मिलने का प्रण कर रखा है। 

इसी अवधि में कुछ मासूम बच्ची जैसी लहरें भी उभरीं, उस के बाद इन लहरों के अंदर कई दूसरी लहरें वृद्ध महिलाओं की तरह उभरीं और जल समाधि ले गयीं, परन्तु जाते-जाते उसको जीवन का फलसफा समझा गयीं। फिर कुछ लहरें ऐसी भी उभरीं, जो उस को बहा ले गयीं उस समुद्र की ओर, जहां भूख थी, गरीबी थी और शोषण था। वह भी किसी गर्भवती के पेट की तरह फूला हुआ। 

मेरे लेखक ने उस फूले हुए पेट को ध्यानपूर्वक देखा, जिस में भांति-भांति की गंदगी मौजूद थी। लेखक ने उस पर घृणात्मक या शर्मिंदा होने वाली दृष्टि तो डाली, परन्त उस पर लात नहीं मारी। जबकि वह जानता था कि इस गर्भ में पलने वाली पीढ़ी से कोई अच्छी आशा नहीं रखी जा सकती।

वह यह भी जानता था कि समाज के इस पेट में गन्दे व बहुत गन्दे केंचुए हैं, जो अपनी गन्दगी से भविष्य को ख़राब ही करेंगे। इस के पश्चात् भी उसने अपनी शल्यचिकित्सा जारी रखी और बडी महारत व कठोर परिश्रम से इन गन्दे घणात्मक केंचओं को पेट से बाहर निकाला, उन को साफ किया और उनको संख्याबद्ध करते हुए उनका नामकरण किया। इस प्रक्रिया के बाद उस ने रोगी के लिए स्वास्थ्य-कामना की, फिर इन केंचुओं को शब्दों की ओढ़नी पहना कर, उनको अपनी कहानियों की मूल पटकथा में स्थान देकर अपने संग्रह को ‘दीवार पर लिखी गालियाँ‘ शीर्षक दे दिया। 

कहानी लिखते समय उस ने प्रयास किया कि वह अपनी कहानियों के माध्यम से किसी घटना, किसी चरित्र, किसी एक क़िस्से, किसी एक भावना एवं ज़िन्दगी के किसी एक पहलू को उस कोण से पेश करे, जहां अन्य कहानी, क़िस्सा, घटना या दुर्घटना समाप्त हो कर दम तोड़ जाती है।

उस ने कोशिश की कि वह किसी घटना या दुर्घटना या सच्चाई में लुप्त चरित्रों व भावनाओं की तलाश करे। उसने कोशिश की वह लघु कहानियों को प्रारूप बदलकर उन को लतीफा, चुटकला या एस.एम.एस. बनाने का दोषी न बन जाए। 

उस ने कोशिश की वह मनोरंजन के वास्ते केवल एक कथावाचक न बन कर रह जाए। 

उसने यह भी कोशिश की कि वह वातावरण में फैली ज़हरीली हवाओं के आतंक से सुरक्षित रहते हुए, ज़िंदगी के यथार्थ को तितलियों के रंगीन पंखों में तलाश करे। जिस की तलाश में वह दौड़ता फिरा, इन रंगीन विचारों के मृगजाल में, परन्तु जब थक-हार कर उसने परिस्थितियों व समय का विश्लेषण किया, तो स्वयं को बरगद के उस पेड़ के चारों ओर परिक्रमा करता हुआ पाया, जिस की बूढ़ी जटाएं एक बार फिर धरती का सीना चीर कर उस में समाधिलीन हो चुकी थीं। अब आवश्यकता थी इन बूढ़ी जटाओं को ज़मीन से बाहर निकालने की, जिस के लिए उस के पास पत्थर-युग के बने वे पत्थर-शस्त्र थे, जो उस को अपने पिता के आंगन से परम्परा में मिले थे और जो अब अनुपयोगी हो चुके थे। संक्षेप यह कि परिस्थितियों का स्वाभिमान ऊंचा रहा, परन्तु मेरे अन्दर के लेखक ने हार स्वीकार नहीं की। उसने बड़ी निष्ठा व साहस के साथ स्वयं से किया वायदा ‘दीवार पर लिखी गालियाँ‘ संग्रह लिख कर पूरा कर दिया है। अब संग्रह आप के रू-ब-रू है। फैसला भी आप को करना है कि आप उस को पास करते हैं या फेल। 

बात समाप्त करने से पूर्व अपने परिचय के संघर्ष में एक कबूलनामा और करना चाहूंगा, वह यह कि मेरा साहित्यिक व मशहूर नाम, जिस के कारण मैं अच्छी व बुरी नजर से पहचाना जाता हूं, एस.एस. हसन है। 

इस नाम और इस से मिली बदनामी से मैं काफी खुश भी हूँ, क्योंकि हिन्दी, उर्दू और पंजाबी पत्रकारिता-जगत् मुझे इसी नाम से पहचानता है। आपने भी उर्दू समाचारपत्र ‘हिन्द समाचार‘ जालंधर का स्तम्भ ‘ख़बरों की मरम्मत‘ व अफसाने, ‘दैनिक भास्कर‘ का स्तम्भ ‘बुजुर्गों के लिए व कला साहित्य में उर्दू साहित्यकारों के रेखाचित्र, उर्दू साहित्य पर चर्चा एवं धार्मिक त्यौहारों पर लेख, इंग्लैंड से प्रकाशित साप्ताहिक समाचारपत्र ‘समाज वीकली‘ का स्तम्भ ‘ख़ास ख़बर पर खास नजर‘ लखनऊ से प्रकाशित साप्ताहिक ‘उजाला‘ एवं ऑन लाइन सिटी न्यूज का स्तम्भ ‘खबर यह है‘, पंजाबी मासिक ‘जनता संसार‘ का स्तम्भ ‘हींग का तड़का‘ के अतिरिक्त उर्द, हिन्दी व पंजाबी के अन्य मुख्य समाचार पत्रों व मासिक पत्रिकाओं के साहित्यिक कॉलमों, रेडियो पर प्रसारित चर्चाओं व दूरदर्शन के अनेक कार्यकर्मों में मुझे इसी नाम से पढ़ा सुना व देखा होगा। मेरे कुछ साहित्यिक मित्र ऐसे भी हैं, जिन्हें इस नाम पर आपत्ति है। उन का विचार है कि एस.एस.हसन एक गैरसाहित्यिक नाम है। इसकी शुद्धि आवश्यक है। अपने मित्रों का सम्मान करते हुए मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि माह सितम्बर 1954 को जब मुझे रूहेलखण्ड के प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी एवं साहित्यकार, पत्रकार व उस्ताद शायर जनाब सय्यद इब्राहीम हसन ‘रसा बरेलवी’ का ज्येष्ठ पुत्र होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, तो माता-पिता की आध्यात्मिकता ने उनको पहले ही आभास करा दिया था कि बच्चा साहित्य में रुचि रखने वाला होगा। अपने इसी विश्वास की दृढ़ता के कारण उन्होंने मेरा नाम सय्यद शाहिद हसन रख दिया था।

1972 से 1975 तक की मेरी समस्त रचनाएं समकालीन समाचार पत्रों व मासिक पत्रिकाओं में इसी नाम से प्रकाशित होती रहीं। बरेली (उत्तर प्रदेश) से प्रकाशित होने वाली साप्ताहिक व मासिक पत्रिका ‘नुदरत’ का सम्पादन भी मैंने इसी नाम से किया। 1979 में सरकारी नौकरी में आने के पश्चात् सितम्बर 1993 तक दिल्ली व उसके बाद जालंधर स्थानान्तर हो जाने के बाद लोगों ने अपनी आसानी व सहूलत के लिए मेरा नाम एस.एस. हसन बना दिया, जो आज तक एक सच्चे मित्र की तरह मेरा साथ निभा रहा है।

अपने बुद्धिजीवी मित्रों का परामर्श स्वीकार करते हुए मेरा यह भी एक क़बूलनामा है कि भविष्य में अपनी साहित्यिक यात्रा अपने नाम ‘शहिद हसन शाहिद’ के साथ ही जारी रखूंगा।

अन्तिम क़बूलनामा जो मेरे लिए बहुत ज़रूरी है, वह भी करता चलूँ कि इस संग्रह के प्रकाशन में मेरा हौसला बढ़ाने में हिन्दी के प्रख्यात कवि लेखक डाॅ. नरेन्द्र मोहन (दिल्ली), चर्चित कवि श्री मोहन सपरा (जालंधर), उर्दू साहित्य का गौरव डाॅ. मोहम्मद तहसीन अब्बासी, (आल इंछिया रेडियो जालंधर), साहित्यकार श्री जगदीश चन्द्र जोशी (जालंधर), वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री दीपक जालंधरी, पंजाबी साहित्यकार श्री देसराज काली, उत्तर प्रदेश छायाकार क्लब के अध्यक्ष व वरिष्ठ पत्रकार श्री एस.एम. पारी (लखनऊ), दैनिक भास्कर मैगज़ीन की पूर्व सम्पादिका रूहे सना हसन व प्रोफेसर डाॅ. मेराजुद्दीन अहमद बाली (इन्डोनेशिया), साॅफटवेयर इन्जीनियर बेटा सय्यद मोहम्मद अली व छोटा बेटा सय्यद अर्श-उल-हसन और अपनी अर्धांगनी श्रीमती रूपी हसन व समस्त मित्रों का आभार प्रकट करता हूँ, जिनके प्रोत्साहन व सहयोग के बग़ैर ‘दीवार पर लिखीं गालियाँ’ संग्रह प्रकाशित करना मेरे लिए सम्भव ही नहीं था।  

***


हरिशंकर राढ़ी, नई दिल्ली, मो. 9654030701

समीक्षा

युधिष्ठिर का कुत्ता

मैं धर्मराज युधिष्ठिर का कुत्ता बोल रहा हूँ। पूरी सृष्टि और पूरे इतिहास का वही एक्सक्ल्यसिव कुत्ता जो उनके साथ स्वर्ग गया था। अब मैं स्वर्ग में नहीं हूँ। धरती जैसे किसी ग्रह पर मैं वापस आ गया हूँ और समझने का प्रयास कर रहा हूँ कि उसी भारतवर्ष में तो नहीं हूँ जहाँ से युगों पहले स्वर्ग गया था। ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि यहाँ के बारे में यह प्रचार है कि धरती का स्वर्ग भारतवर्ष ही है, देवभूमि है। जब बिना सत्कर्म के ही मैं धरती से स्वर्ग ले जाया जा सकता हूँ तो वहाँ से अकारण तो मैं नर्क में फेंका नहीं जा सकता। जो भी हो, जब मैं अपने महाभारत काल की पारिवारिक, सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियों का मिलान यहाँ की आज की पस्थितियों से करता हूँ तो लगता है कि मैं उस देश ही नहीं अपितु उसी काल में वापस लौट आया हूँ। कभी-कभी तो भ्रम होने लगता है कि मैं धर्मराज के साथ स्वर्ग गया भी था या नहीं! कहीं गहरी नींद में सो तो नहीं रहा था?

मैं धरती का सबसे सफल कुत्ता हूँ। ऐसा कुत्ता जिसके भाग्य से बड़े-बड़े लोग ईर्ष्या रखते हैं। वैसे भी ईष्र्या रखना बडे लोगों का प्रमख कार्य है। यहाँ तक कि धर्मराज के भाई मुझसे जलते हैं क्योंकि वे भी वह पद न पा सके जो मुझे मिला है। अब यह बात अलग है कि यहाँ तक पहुँचने में मुझे कितना कुत्तापन करना पड़ा, यह मैं ही जानता हूँ। इतने युगों बाद जाकर मैं समझ पाया हूँ कि स्वर्ग का सुख पाने के लिए कितना झुकना पड़ता है और आत्मा को कितना मारना पड़ता है। मुझसे तो अच्छे वे हैं जो सशरीर आने के विषय में नहीं सोचते। दरअसल, बात यह है कि स्वर्ग में आने के लिए जीव को या तो अपना शरीर त्यागना पड़ता है या फिर आत्मा। मेरे बारे में आपको जानकारी है ही कि मैं कैसे आया, इसलिए आप मेरे त्याग का अंदाजा लगा सकते हैं।

मेरे प्रसंग से आप इतना तो अवश्य जान गए होंगे कि बड़े आदमी का कुत्ता होना एक खास आदमी होने से बेहतर है। पूर्व जन्म के पुण्य और बड़े सौभाग्य से कोई आत्मा किसी रईस के कुत्ते के रूप में अवतरित होती है। जिस वैभव और सुविधा में बड़े-बड़े ज्ञानी, विद्वान और महात्मा नहीं पहुँचे पाते, वहाँ रईस का कुत्ता पहुँच जाता है। उसे अधिकार मिल जाता है कि वह किसी पर भी भौंक सके, किसी को भी देखकर गुर्रा सके और किसी को भी काट सके। वह ऐसा कुछ भी कर सकता है जिससे कि उसका स्वामी खुश हो जाए! और स्वामी का कुत्ता होना अपने आप में एक उपलब्धि है। व्यवस्था चाहे राजतंत्र की हो या लोकतंत्र की, सुखी वही होता है जो स्वामी को खुश कर ले। 

हो सकता है कि मेरे स्वर्ग जाने की उपलब्धि से मेरी जाति वाले गौरवान्वित हों। ऐसा आजकल हो रहा है। आप कितने भी पतित और शोषित समाज से हों, आपकी पूरी बिरादरी दाने-दाने को तरस रही हो, किन्तु अपनी बिरादरी का कोई इकलौता प्राणी भी सिंहासनारूढ़ हो जाए तो आप स्वयं को सिंहासनारूढ़ समझने लग जाते हैं। आपको अपनी भुखमरी भूल जाती है। किंतु मेरी बिरादरी में भी ऐसा ही हो, जरूरी नहीं। हम लोग तो अपना सारा जीवन अपनी बिरादरी पर भौंक कर ही निकाल देते हैं। मैं अभी भी गलियों में निकलूँ तो मेरे भाई मुझ पर तुरंत ही झपट्टा मारेंगे। उन्हें सामाजिक चेतना से कुछ भी लेना-देना नहीं है।

हाँ, हमारे और आदमियों के बीच एक समानता जरूर है। हम दोनों ही अपने अधिकार क्षेत्र में किसी की दखलन्दाजी पसंद नहीं करते। यदि हम एक बार किसी उच्च पद पर पहुँच जाएँ तो वहाँ किसी और को पहुँचने नहीं देना चाहते। मैं स्वयं किसी कुत्ते को स्वर्ग आते देखना पसंद नहीं करूँगा। उच्च पद की तो बात छोड़िए, हमें यह भी नहीं पसंद कि कोई हमारी गली में आए, भले ही उसकी नीयत हमारा नुकसान करने की न हो। हम यह भी नहीं पसंद करते कि कोई हमारे शहर में आए। हमें डर है कि वह हमारी राजनीति और वोट बैंक पर असर डालेगा। वैसे हम प्रचारित यही करते हैं कि वह हमारी रोटी खा जाएगा। इससे हमें पूरे शहर के मूल कुत्तों का समर्थन मिलता है और मरियल से मरियल कुत्ता भी भौंकने के लिए आगे आ जाता है। हमारे दक्षिण के कुछ भाइयों ने ऐसा काम अभी बड़े पैमाने पर किया है जब उन्होंने उत्तर के कुत्तों को भौंक-भौंककर अपने शहर से भगा दिया। ऐसा काम आदमी भी करते हैं।

अपनी जाति पर भौंकने में हमें बड़ा मज़ा आता है। कोई भी अपरिचित मिल जाए, हम अपने मुँह का निवाला छोड़कर उस पर भौंकने निकल पड़ते हैं। मुझे लगता है कि अपनी बिरादरी पर भौंकने से हमारी अच्छी छवि बनती है। हम लोग जातिवादियों की श्रेणी में नहीं आते और धर्मनिरपेक्ष होने का लाभ सहज ही प्राप्त कर लेते हैं। लड़ते दूसरी बिरादरी के लोग भी हैं, परंतु अकारण ही नहीं। कोई न कोई स्वार्थ होने पर ही सींग भिड़ाते हैं। निःस्वार्थ लड़ाई तो केवल हम लोग यानी कुत्ते ही लड़ते हैं। यह बात अलग है कि हमारी इस अनावश्यक लड़ाई का खामियाज़ा हमारे हर भाई को भुगतना पड़ता है। लोग कहते हैं कि अगर एक दूसरे पर न भौंकें तो एक दिन में हम चालीस मील तक जा सकते हैं, परंतु जा पाते हैं केवल चार मील ही! बाकी का समय कभी भौंकने, कभी दुम दबाने और कभी दाँत निपोरने में चला जाता है। सच तो यह है कि अपनी गली में आए अपरिचित कुत्ते पर भौंकने से अजीब संतोष की अनुभूति होती है और आत्मविश्वास पैदा होता है।

यह भी एक शाश्वत सत्य है कि अपनी जाति एवं समाज की चिंता करने वाला कभी भी व्यक्तिगत विकास नहीं कर पाता है। यदि अपनी जाति के स्वाभिमान की चिंता मैं ही करता तो आज स्वर्ग पहुँच पाने वाला इकलौता आदरणीय कुत्ता नहीं बन पाता। मैं भी किसी पुरातन समाजवादी की भांति इधर-

उधर के धक्के खाकर अब तक मर चुका होता या अज्ञातनामा ज़िन्दगी जी रहा होता। स्वर्ग का सुख शोषित समाज का साथ देकर नहीं पाया जा सकता और न ही अपनी जाति का उपकार करने वाले से प्रतिशोध की भावना रखकर। स्वर्ग का सुख या तो ऐसे लोगों (शोषकों) की शरण में जाकर पाया जा सकता है या फिर अपनी जाति के लोगों को स्वर्ग का सपना दिखाकर। कम से कम लोकतंत्र में तो ऐसा ही होता है। 

इस तथ्य के प्रमाण में आपको मुझसे अच्छा दूसरा उदाहरण नहीं मिल सकता है। मैं युधिष्ठिर का घोर समर्थक रहा जिन्होंने धर्मराज होने के बावजूद मेरी पूरी जाति को सदैव के लिए नंगा कर दिया। मुझे मालूम था कि धर्मराज ने मेरी जाति को खुले यौन संबंध का श्राप दिया था क्योंकि मेरे एक भाई की वजह से उन पति-पत्नी के निजी संबंधों में विघ्न पड़ा था। बडा आदमी सब कुछ बर्दाश्त कर लेगा किंतु यौन संबंध में विघ्न बर्दाश्त नहीं कर सकता। आपको स्मरण होगा कि मेरे एक भाई ने स्वभाववश उस समय उनका जूता (और यह जूता उनके लिए रतिक्रीड़ा का पोषक हुआ करता था) इधर-उधर कर दिया था। अब कोई शक्तिशाली व्यक्ति अपने प्रति किए गए अपराध का दंड केवल दोषी को तो देता नहीं, उसकी नजर में तो अपराधी की पूरी जाति ही दोषी होती है और फिर दंड पूरे समाज को मिलता है। लो भाई, श्राप मिल गया कि तुम्हारी जाति का यौन संबंध सभी लोग देखें। बिल्कुल लाइव टेलीकास्ट! पता नहीं कुछ लोगों को खुले यौन संबंधों से इतना लगाव क्यों होता है? अवसर तलाशते रहेंगे कि कोई रतिक्रीड़ारत हो और हम नेत्रसुख लें। उन्हें तो अपनी भावी पीढ़ी की भी चिन्ता नहीं होती कि उनके इस आनन्द का बालमन पर क्या प्रभाव पड़ेगा!

खैर, मुझे आज इस बात का संतोष है कि जिस प्रकार का श्राप हमें मिला था, उसी प्रकार का कार्य आज मानव जाति भी करने लग गई है। उनका खुलापन देखकर मन को शांति मिली है। भविष्य में जब ये यौन संबंधों में पूरी तरह हमारा अनुसरण करने लगेंगे तो हमारे श्राप का परिहार हो जाएगा। अगर विकास ऐसे ही होता रहा हो तो वह दिन ज्यादा दूर नहीं है।

मानिए तो मैं किसी भी प्रकार युधिष्ठिर से कम 

धर्मपरायण नहीं हूँ। किसी भी परिस्थिति में मैंने उनका साथ नहीं छोड़ा और न कभी उनका विरोध किया। यहाँ तक कि उनके भाइयों ने भी समय पड़ने पर उनको भला-बुरा कहने में कसर नहीं छोड़ी। उन पर आरोप भी लगाया। वैसे आरोप तो आप भी लगाते रहते हैं- धर्मराज ने ये किया, धर्मराज ने वो किया। अमुक बात के लिए इतिहास धर्मराज को कभी माफ नहीं करेगा और अमुक बात का जवाब नारीवादी माँग रहे हैं। वैसे क्या माँग रहे हैं, अंधेरे में पत्थर मार रहे हैं। उनकी भी अपनी समस्याएँ और आवश्यकताएँ हैं। अगर इतना चीख लेने से कुछ नारियाँ प्रभाव में आ जाएँ तो बुरा ही क्या है? किसी ने यह प्रश्न नहीं उठाया कि धर्मराज ने अपने सगे भाइयों को भी तो दाँव पर लगाया था, इसका उन्हें क्या अधिकार था? पर इस प्रश्न से कोई स्वार्थ नहीं सधता, कोई आंदोलन नहीं बनता।

आज तक तो धर्मराज ने ऐसी किसी बात का जवाब नहीं दिया। क्यों दें? स्वर्ग में बैठा हुआ एक महान इंसान धरती पर कीड़े-मकोड़ों की भांति जीने वाले प्राणी की बात का जवाब क्यों दे? सारे लोकतंत्र और राष्ट्रसंघ के दबाव के बावजूद आप पड़ोसी मुल्क से एक अपराधी का प्रत्यर्पण तो करा ही नहीं सकते और चाहते हैं कि धर्मराज स्वर्ग से कूदकर आपके बीच उत्तर देने आ जाएँ! अनगिनत द्रौपदियों और बंधु-बांधओं को दाँव पर लगाने वाले हजारों लोग तुम्हारे बीच में ही हैं। इन्होंने आज तक कोई जवाब दिया है क्या? इन नारीवादियों से पूछो कि साझा सम्पत्ति की रक्षा वे कितने मन से करते हैं? क्या वे इतना भी नहीं जानते कि साझे की खेती तो गदहा भी नहीं चरता। बिना श्रम के मिली संपत्ति के लुटने पर कितना दर्द होता है? चले हैं धर्मराज पर आरोप लगाने! पर वह आदमी ही क्या जो दूसरों पर आरोप न लगाए! 

धर्मराज स्वर्ग जाने के अधिकारी थे। उन्होंने कभी झूठ नहीं बोला था। आप कह सकते हैं कि झूठ तो नकुल, सहदेव ने भी नहीं बोला था। और भी बहुत से लोग हैं जो झूठ नहीं बोलते। परंतु आप इस बात पर विचार नहीं कर रहे कि वे सम्राट थे। ऐसा पहली बार हो रहा था कि एक सम्राट झूठ नहीं बोल रहा था। राजनीति में तो एक टुच्चा आदमी और एक छोटा मंत्री भी झूठ बोले बिना जीवन निर्वाह नहीं कर सकता। इस प्रकार उन्होंने असंभव को संभव कर दिखाया था। नकुल-सहदेव या किसी सामान्य प्रजाजन के झूठ या सच बोल देने से क्या बिगड़ जाता है? आप को याद होगा कि नरो-कुंजरो वाले मामले में झूठ का एक पुट आ जाने से क्या से क्या हो गया था? एक राजा सच बोलकर कई बार बड़ी हानि उठा लेता है। अब एक नॉन वीआईपी सच बोलकर क्या नुकसान कर लेगा? आचरण तो बड़े लोगों का ही देखा जाता है और पुरस्कार भी बड़े लोगों को ही मिलता है। मुझे तो लगता है कि आप पति-पत्नी के बीच लड़ाई शांत कराने वाले को शांति का नोबेल पुरस्कार दिलाना चाहते हैं।

इधर जब से राजतंत्र का पतन होना शुरू हुआ है और प्रजातंत्र का आविर्भाव हुआ है, कुत्तों का बोलबाला हो गया है। हमारी यह विशेषता होती है कि हम एक स्वर में अकारण हंगामा कर सकते हैं और भीड़ जमा कर सकते हैं। अगर हम भौंकने लग जाएँ तो अच्छी से अच्छी बात भी दब जाती है और प्रजातंत्र में सत्ता और सफलता का यही राज़ है। हमारे साथ तो यह भी साख है कि हम किसी पर भौंक दें तो उसे चोर मान लिया जाता है। दूसरी बात यह है कि हमारी प्राणशक्ति इतनी तेज है कि हम खाद्य पदार्थ की किसी भी संभावना का पता लगा लेते हैं और संभाव्य स्थल पर तत्काल जुट भी जाते हैं। हमारी सफलता में इस शक्ति का भी बहुत बड़ा हाथ है।

हम एक और चीज़ में आदमियों से बेहतर हैं और वह यह है कि हम देशी विदेशी में भेदभाव नहीं करते। कुत्ता देशी हो या विदेशी, हम उस पर बराबर ताकत से भौंकते हैं। हमारे यहाँ का तो पिल्ला भी विदेशी बुलडॉग और हाउण्ड पर भौंकने से नहीं चूकता। यह बात अलग है कि अपनी औक़ात कम देखता है तो सुरक्षित दूरी बनाकर भौंकता है। पर यहाँ के आदमियों के साथ ऐसी बात नहीं है। वे विदेशी को सदैव ही अपने से बेहतर मानते हैं। कई तो विदेशी भिखमंगों को भी हसरत की निगाह से देखते हैं और उनकी आलोचना के विषय में सोच भी नहीं सकते। उन्हें तो शासन करने तक का मौका प्रदान करते रहते

वैसे कई लोग अब तक यही मानते हैं कि स्वर्ग में रहने वाला कुत्ता मैं इकलौता हूँ। पर यह सच नहीं है। यह तो अपना-अपना भाग्य है। आज भी ऐसे कुत्तों की संख्या मनुष्यों से ज्यादा है जो स्वर्ग में रह रहे हैं, वातानुकूलित विमानों में पूँछ निकाल कर घूम रहे हैं, इन्द्र के नन्दन कानन की हवा ले रहे हैं, देशी-विदेशी गायों का दूध पी रहे हैं और न जाने कितनी उर्वशियों, रम्भाओं और मेनकाओं के गोद में खेल रहे हैं! 






Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य