अभिनव इमरोज़ अक्टूबर 2021





विनोद प्रकाश गुप्ता, ‘शलभ’,
जीरकपुर, पंजाब , मो. 9811169069

ग़ज़ल

ख़्वाबों की ताबीर करना, है कहाँ आसान साथी,

हो सके तो मेरी ग़ज़लों से मुझे पहचान साथी।

जिनकी ख़ातिर ठूँठ बनकर है शजर क़िस्मत को रोता,

मानते कब हैं ये पंछी उसका अब अहसान साथी।

पूछिएगा आईने से आप अगर अपनी हक़ीक़त,

मुस्कुरा कर कह उठेगा आपको नादान साथी।

ले चलो ऊँगली पकड़ कर मुझको उसके आस्ताँ तक,

अब उसी दर से मिलेगा मुझको हर सम्मान साथी।

पाप औ’ धन का बराबर एक रिश्ता तो रहा है,

वो बना भगवान साथी ये हुआ धनवान साथी।

सागरों को ये ग़लतफहमी रही अक्सर जहां में,

उनके बिन हो जायेगी जैसे धरा वीरान साथी।

सूर्य में है आग जब तक, चाँद से चाँदी बरसती,

है ‘शलभ’ तब तक धरा को जीने का वरदान साथी।


हर तरफ से हो रही है खींचातानी आजकल,

फेसबुक पर ट्रोल होते ‘राजा-रानी’ आजकल।


पटकथा सी फिक्स है अपनी कहानी आजकल,

खुद में सिमटी जा रही है ज़िंदगानी आजकल।


घर के अंदर ही रहें या हम रहें बाहर कहीं,

हर तरफ छाई है मर्गें नागहानी आजकल।


अब ‘गुलों’ पर हर तरह के जुल्म बरपा हैं यहाँ,

‘बागबाँ’ खुद कर रहा है ‘पासबानी’ आजकल।


सच की बोली एक है तो झूठ के चेहरे हज़ार,

कौन फिर समझे है सच की बेजुबानी आजकल।


तथ्य हों मज़बूत कितने, साक्ष्य हों कितने अचल,

हर तरह से अब निरर्थक हक़बयानी आजकल।


था ‘शलभ’ बेशक बरसता ओस की बूँदों- सा जो,

सूख कर बंजर हुआ आँखों का पानी आजकल।


अब पतंगें इश्क़ की जम कर उड़ाओ दोस्तो,

अपने हाथों का हुनर कुछ तो दिखाओ दोस्तो।


आजकल क़िस्से कहानी गढ़ रहे ‘कक्का कहिन’,

लुत्फ ‘नंगे झूठ’ का जी भर उठाओ दोस्तो।


काठ की घोड़ी ने जा कर चाँद तारों से कहा,

इस गगन की सैर मुझको भी कराओ दोस्तो।


सूर्य को था भेद पाया कर्ण ही का तीर कब,

ऐसी गाथा से सियासी लक्ष्य पाओ दोस्तो।


एक ठण्डी रात में सूरज को सर्दी लग गई,

दुनिया भर में वाइ’रल क़िस्सा कराओ दोस्तो।


हर नफ़स के भाव का हम खुद करेंगे आकलन,

आज का ये सच सभी को तुम रटाओ दोस्तो।


भूख औ’ बेरोज़गारी कल्पनाएँ हैं ‘शलभ’,

ये नगाड़े जोर से अब तुम बजाओ दोस्तो।


तुम्हारी रौशनी से ही तो मैं गुलज़ार होता हूँ,

मैं अपनी तीरगी से इस तरह दो-चार होता हूँ।


हज़ारों हैं भँवर दरिया में, लाखों ज़िंदगानी में,

यही दुश्वारियाँ खेने को मैं पतवार होता हूँ।


कहाँ तक आप अगुवाई करेंगे उनके जख्मों की,

मैं हर मुफ़लिस के ग़म का ख़ुद छपा अख़बार होता हूँ।


हमारी इसलिए पटरी कभी बैठी नहीं तुमसे,

सियासी शौक़ की छाती पे मैं तलवार होता हूँ।


तेरी दहलीज़ तक उनकी नहीं कोई पहुँच अब तक,

मैं ही ग़मखार हूँ उनका मैं ही दरबार होता हूँ।


जो दीपक रात भर जलते हैं शलभों के तसव्वुर में,

उन्हीं के इश्क़ की शिद्दत से मैं सरशार होता हूँ।


गुलाबों में कभी महकूँ कभी कलियों की पुरशिस में,

मैं इनकी शानो- शौक़त की ‘शलभ’ दस्तार होता हूँ।



सूर्य प्रकाश मिश्र, वाराणसी, मो. 9839888743


साथी 


बाबूजी के सारे साथी 

एक -एक करके चले गये 

वहाँ पर जहाँ से 

कोई कभी वापस नहीं आता 

बस एक बचा है 

गाँव के सीवान पर खड़ा 

बूढ़ा बरगद 


बाबूजी रोज सुबह शाम 

उसके पास जाते हैं 

उसकी सुनते हैं अपनी सुनाते हैं 

जाते हैं उदास -उदास 

पर लौटते हैं तो 

मुस्कुराते हैं 


किसी और को 

बाबूजी से या बूढ़े बरगद से 

मिलने की फुरसत नहीं 

या कहिये जरूरत नहीं 


कल कई मोटरों पर चढ़ कर 

विकास आया था 

उसकी बातें सुनकर बरगद उदास था 

उसने गम बाँटने के लिये 

या शायद आखिरी बार 

मिलने के लिये 

बाबूजी को बुलाया था 


बाबूजी मिल कर आये हैं 

उनकी निगाहों में रातों के साये हैं 

कुछ बोलते नहीं 

ये दर्द सहने की तैयारी है 

लगता है आखिरी साथी के 

बिछड़ने की बारी है 


पीला गुब्बारा 


बच्चे ने पीले गुब्बारे की डोर 

उंगली में लपेटी 

उसे सीने से लगाया हँसकर 

गुब्बारे को भी मजा आया 

उसकी धड़कन बनकर 

उसकी नन्हीं बाहों के घेरे में फँसकर 

उसके कई साथी आजाद हो गये 

उड़ गये नील गगन की ओर 

हवा उन्हें ले गई अपने साथ 

दिखाने के लिए 

दुनिया का दूसरा छोर 

उन्होंने पीले गुब्बारे को बहुत बुलाया 

हवा की दोस्ती और 

आजादी का मतलब समझाया 

पर पीले गुब्बारे को नहीं आना था 

वह नहीं आया 


चुपचाप देखता रहा 

अपने साथियों को जाते 

उन्हें हँसते खिलखिलाते 

उसकी आँखों में पानी भर आया 

पर उसके दिल को 

किसी बच्चे का दिल तोड़ना 

नहीं भाया 


उसे खूब पता है 

हवा से दोस्ती का सबब 

वह जानता है 

आसमान में उड़ने का मतलब 

उसे भी भाता है स्वच्छन्द जीवन 

पर वह तोड़ नहीं पाया 

बच्चे का मासूम दिल 

उसकी नाजुक सी बाहों का 

कमजोर सा बन्धन 


श्रद्धा व्यास, बड़ोदरा, मो. 82387 41058


आत्मा पर निर्भर

यूँ ही नहीं कहते लोग

अपनी खुशी की चाबी

रखो हिफाज़त से

कोई दूसरा इसे छीन ना पाए 

मत अपने दुख ज़ाहिर करते फिरो

ईश्वर से मत फरियाद करो

तुम्हे जो मिला वो तुम्हारा कर्म

कोई तुम्हारे किए कर्म बदल नही सकता 

वर्तमान को सजाओ सुबोल के पुष्पों से

विनम्रता और ईमानदारी से व्यक्तित्व को करीने से निर्मित करो

मुश्किलों में खुद को आवाज़ दो 

हर जटिल प्रश्न का जवाब

आईने में है

हर कसौटी की जीत

तुम्हारे भीतर है

तुम्हारी आत्मा से बड़ा कोई

दोस्त नही या प्रेमी भी नही

कभी तो आत्मा पर निर्भर रहो

अंतर की यात्रा में विलीन हो जाओ 

मत सहारा ढूंढो बाहर

तुम खुद के आधार बनो

और नहीं तो तुम्हारी छाया से

दिल का वार्तालाप करो

अपमान के घूँट भी मिलेंगे

भगवान के दरबार में

रखो श्रद्धा कि इंसाफ मिलेगा

तुम्हे अपमानित करनेवाला खुद शर्मसार बनेगा

मेरे शब्दों में मेरी आपबीती है

तुम भी इस सत्य से अनजान ना रहो

हर पल ईश्वर साक्षी है

आत्मनिर्भर बनो


यामिनी नयन गुप्ता, रामपुर (उ.प्र.) मो. 9219698120


धरती की कोख          

अपने गाँवों, कस्बों की 

नदियां और ताल तलैया 

अब बनकर रह गए हैं एक याद 

कंक्रीट के जंगलों में बदलते शहर भी 

कर रहे हैं फरियाद।


सरकारी दस्तावेजों से भी 

गायब होतीं छोटी नदियां और तालाब ,

एक रोज हम सुनाएंगे नवागत पीढ़ी को कहानीी

जल से छलछलाते पोखरों की और 

जीवनदायी कुओं की आब।


झीलें, गीली जमीनें, तालाब की श्रंखलाएं 

बन गयीं हैं अब बीते समय के अध्याय,

खंडित होतीं बारहमासी नदियां 

सिसकती बाबड़ियों की आह  

बनेंगी सर्वनाश का पर्याय।


पृथ्वी की कोख बंजर होने का पहला कदम है

कल-कल बहती छोटी नदियों का 

रुक रुक कर मौसमी नदियां बनकर बहना ,

हे मानव !! मत भूलो 

कि नदियां ही हैं पृथ्वी का गहना।


जहरीले अपशिष्टों से लुप्त होते कछुए, मछलियाँ

जैविक रुप से मृत इन नदियों का 

अब कौंन बनेगा पालनहार,

सतयुग में अहिल्या को तारा श्रीराम ने 

कलयुग में कौन आएगा बनकर तारणहार ।


संपादकीय

प्रो. दिनेश चमोला ‘शैलेश’


जल और वायु किसी भी प्रदेश, देश अथवा परिवेश की हो, वह समानधर्मा होती है। उसके भीतर परोपकार व लोक कल्याण का सर्जनात्मक भाव उसी अनुपात में धड़कता रहता है। अभिव्यक्ति को देह भले ही पृथक हो, किंतु अनुभूति की आत्मा एक सी होती है....यानी भाषा कोई भी हो....संवेदना का तत्त्व व रचना की प्रक्रिया का मंथन सभी में लगभग समान होता है।

उसी प्रकार साहित्यकार  किसी भी प्रदेश, देश अथवा परिवेश का हो उसके भीतर संवेदना का पेंडुलम उस अनुपात में आंदोलित-उद्वेलित होता रहता है। सत्यपथ का अन्वेषी होने के कारण वह अपने आदर्शों व आदर्श सिद्धांत-व्यवस्था से ही अधिशासित होता है। परिकल्पित व स्वयं उसकी आरेखित आदर्श-संरचना में किंचित भी परिवर्तन होने की स्थिति में उसकी असंतुष्टि व असहमति का भावनात्मक ग्राफ डगमगाने लगता है....डगमगाने ही नहीं लगता, बल्कि प्रतिरोध भी करने लगता है। यह प्रतिरोध कभी स्वयं का स्वयं से होता है तो कभी व्यवस्थाओं व परिवेशजन्य परिस्थितियों व प्रतिकूलताओं से। इसी संघर्ष के मंथन से रचना जन्म लेने लगती है। वैचारिक सकारात्मकता व नकारात्मकता का यह संघर्ष रचना व चिंतन को माँजता ही नहीं, बल्कि उसके वैचारिक व संवादात्मक फलक को भी विस्तृत करता है। उस वैचारिक संघर्ष की परिणति के रूप में रचनाकार अपने अभीष्ट को प्राप्त कर ही चैन की साँस ले पाता है। अपनी उस संभावित अवसंरचना के विन्यास में किन्हीं भी स्थितियों-परिस्थितियों के समक्ष वह घुटने नहीं टेकता, न अन्यत्र के लादे गए का हस्तक्षेप को किसी भी रूप में स्वीकृति का संकेत ही देता है, इसलिए प्रतिक्रियास्वरूप अपने उस चिंतन को वह अलग-अलग विधाओं में अभिव्यक्त करने का प्रयास करता है।

साहित्य, महज व्यष्टि हित-चिंतन नहीं, बल्कि समष्टि के कल्याण का पक्षधर व पर्याय भी है। रचनाकार समाज का अति विश्वसनीय व पारदर्शी प्रतिवेदक होता है। वह अपने निजी जीवन की उन्हीं समस्याओं व चिंताओं को अपनी अनुभूति व अभिव्यक्ति का माध्यम बनाता है जो समाज के अधिसंख्य वर्ग की चिंताओं व संवेदनाओं का प्रतिनिधित्व करतीं हों। उसकी सोद्देश्यता व प्रामाणिकता इसी बात में समाहित रहती है कि वह किसी भी तरीके से उस विषमता से पार पा ले।

चिंतक, विचारक अथवा लेखक का कोई भी संघर्ष उसके नितांत अपने लिए नहीं होता। वह जन सरोकारों का प्रतिनिधि है। जनाकांक्षाओं की लब्धि ही उसकी भावनाओं व संभावनाओं में तुष्टि के ग्राफ को घटाती-बढ़ाती है। सामाजिक कुरीतियों, विषमताओं व विभेदक स्थितियों को वह अपने रचनात्मक व भावनात्मक गणित से सुलझाना व सुलटाना चाहता है।

रचनाकार का लेखन, या तो उसके भोगे हुए यथार्थ का प्रतिबिंब होता है या फिर परिवेशगत देखे-परखे या बुने-गुने चिंतन की समाधान प्रस्तुत करती रिपोर्टिंग।

बहरहाल, रचना के पूर्व व पश्च की यह भावभूमि अनुभूति व अभिव्यक्ति के केनवस का सांकेतिक मानचित्रण कर, रचनाकार के सशक्त व्यक्तित्व व कृतित्त्व से परिचय कराती है। साक्षात्कार शृंखला की पांचवीं कड़ी के रूप में बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी, वृत्तिपरक विवशताओं के चलते भी अपने रचनाकर्म से किसी प्रकार का समझौता न करने वाले उस महनीय कलमकार पर केंद्रित है, जिसने स्वाधीनता के एक वर्ष पश्चात इस चिन्तन भूमि पर चरण रख न अभी तक अपने चिंतन को विराम दिया है न लेखन के वैविध्य को ही। वह मराठी से अधिक हिंदी व हिंदी से अधिक मराठी को प्रेम करते हैं, कविता से अधिक कहानी, कहानी से अधिक उपन्यास, यात्रा वृतांत, कार्यालयीन व अनुवाद साहित्य को....उस अथक व सतत सृजनरत हिंदीसेवी का नाम है दामोदर खड़से। पिछले पैंतीस-चालीस वर्षों से साथ छपने-लिखने के सान्निध्य व भौतिक अपरिचय (अभी के पंद्रह-बीस वर्षों को छोड़कर) के बावजूद भी साहित्य-साधना का यह आकर्षण उन्हें इस शृंखला से सम्बद्ध करने का आधार बना। वह अच्छे रचनाकार से अधिक भले मानव हैं, उनके चिंतन व मानवीय उत्कृष्टता को प्रतिबिंबित करता यह आयोजन उनकी उन अप्रकट व अव्यक्त अनुभूतियों व भावनाओं को भी उकेरेगा, जो पाठकों को अन्यत्र नहीं मिला होगा।

बहल जी की उत्साह-जीवटता भी इसके समानांतर ‘अभिनव इमरोज़‘ की ऐतिहासिक परंपरा का पर्याय बनती जा रही है। उनकी उत्कंठा ‘अगला कौन?‘ का समाधान, आगामी शृंखला में किसी अन्य विरल व्यक्तित्व की जीवन-झांकियों के साथ.....

पुनः शुभकामनाओं के साथ, सस्नेह आपका,

आपका,

प्रोफेसर (डॉ.) दिनेश चमोला ‘शैलेश,‘’, डीन,  आधुनिक  ज्ञान  विज्ञान संकाय एवं अध्यक्ष,  

भाषा एवं आधुनिक ज्ञान विज्ञान विभाग, उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय, हरिद्वार

*23, गढ़ विहार,  फेज -1, मोहकमपुर, देहरादून -248005, मो. 09411173339


साक्षात्कार

डाॅ. दामोदर खड़से, महाराष्ट्र, मो. 9411173339

कवि, कहानीकार, उपन्यासकार तथा अनुवादक के रूप में चर्चित, डॉ. दामोदर खडसे जी का जन्म 11 नवंबर, 1948 को हुआ । 11 कहानी संग्रह- ‘भटकते कोलंबस’, ‘पार्टनर’, ‘आखिर वह एक नदी थी’,  ‘जन्मांतर गाथा’, ‘इस जंगल में’, ‘निखडलेली चाकं’, ‘उत्तरायण’,  ‘संपूर्ण कहानियां’,  ‘यादगारी कहानियां’,  ‘गौरैया को तो गुस्सा नहीं आता’, ‘चुनी हुई कहानियां’,  उपन्यास- ‘काला सूरज’,  ‘भगदड़’, ‘खंडित सूर्य’, ‘कोलाहल’, ‘बादल राग’, बादल राग (मराठी), ‘खिड़कियां’, कविता संग्रह- ‘अब वहां घोंसले हैं’, ‘जीना चाहता है मेरा समय’, ‘सन्नाटे में रोशनी’, ‘तुम लिखो कविता’, ‘अतीत नहीं होती नदी’, ‘प्रकाश पेरताना’, ‘रात’, ‘नदी कभी नहीं सूखती’, ‘पेड़ को सब याद है’, ‘तू लिही कविता (मराठी),’ नदीची रात’ (मराठी), ‘लौटती आवाजें’, ‘लौट आओ तुम’;  ‘सृजन के सरोकार’ (समीक्षा); ‘जीवित सपनों का यात्री’, ‘एक सागर और ’, ‘संवादों के बीच’, ‘आईने के सामने’ (यात्रा और भेंटवार्ताएँ), ‘ राजभाषा प्रबंधनः  संदर्भ व आयाम’,  ‘व्यावहारिक अनुवाद’, ‘कार्यालयीन व व्यावहारिक हिंदी’,  ‘बैंकों में हिंदीः विविध आयाम’, ‘संवैधानिक प्रावधान’, ‘कार्यालयीन हिंदी’,  ‘आलेखन व टिप्पण’ व  ‘प्रशासनिक शब्दावली’ आदि  लगभग 86 मौलिक व संपादित पुस्तकें । 

साहित्य अकादमी, दिल्ली का मराठी उपन्यास ‘बारोमास’  पर 2015 का अनुवाद पुरस्कार, महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी मुंबई द्वारा महाराष्ट्र भारती सम्मान, आचार्य रामचंद्र शुक्ल सम्मान, भोपाल, आचार्य आनंद ऋषि सम्मान, हैदराबाद, सौहार्द सम्मान, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ, गंगा शरण सिंह पुरस्कार, केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा, अपनी भाषा सम्मान कोलकाता, नई धारा सम्मान, पटना, हिंदी भूषण सम्मान, पुणे, कमलेश्वर समिति कथा सम्मान, मुंबई तथा ‘बादल राग’ उपन्यास पर गोयन्का फाउंडेशन सम्मान, 2021 सहित अनेक राष्ट्रीय स्तर के सम्मान व पुरस्कार प्राप्त । प्रस्तुत है उनसे लंबी बातचीत के कुछ अंश -



‘‘स्थितियाँ व्यक्ति को शक्ति देती हैं और चुनौतियां दरवाज़े खोलती हैं- ’’डॉ. खड़से 

प्रो. चमोलाः खड़से जी, आप अपने जन्म और प्रारंभिक शिक्षा एवं पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में कुछ बताएं। यह भी बताएं कि माता-पिता ने आपका नाम दामोदर क्यों रखा?

डॉ. खड़से: मेरा जन्म तत्कालीन मध्य प्रदेश के सरगुजा जिले के छोटे से कस्बा पटना में हुआ, जो अब छतीसगढ़ के कोरिया जिले के अंतर्गत आता है। 11 नवंबर 1948 को दीवाली के दूसरे दिन मेरा जन्म हुआ। पटना के कपड़ा व्यापारी श्री अग्रवाल के घर हम किराये पर रहते थे। पिता जी स्वतंत्रता सेनानी थे। अधिकांश समय वे गांधी जी के साथ स्वतंत्रता आंदोलन में होते। कई बार उन्हें जेल भी जाना पड़ा। आजादी के बाद स्वतंत्र राष्ट्र में उन्हें खादी ग्रामोद्योग कमिशन में बतौर निरीक्षक सेवा में समाहित किया गया। पटना में उनकी तैनाती हुई। इससे पूर्व वे रामपुर में कार्यरत थे। पटना में मेरा जन्म हुआ। पटना में रहते हुए वहाँ के तत्कालीन विधायक श्री ज्वालाप्रसाद शुक्ला से उनका गहरा परिचय हो गया। फिर जब पटना से कहीं और तबादला हो गया तो ज्वालाप्रसाद शुक्ला कुछ अनमने हो गए। उन्होंने प्रस्ताव दिया कि यदि पिता जी चाहें तो उन्हें बतौर शिक्षक वे नौकरी दिलवा सकते हैं। पिता जी ने कमिशन की नौकरी छोड़ दी और पटना से लगभग चार किलोमीटर दूर रामपुर नामक गांव के स्कूल में प्रधानाध्यापक के रूप में कार्यग्रहण कर लिया। हम रामपुर आ गए। गांव में पहली बार स्कूल शुरु हुई थी। शुरुआत पिता जी से ही होनी थी। बाद में, उनके साथ चैबे नामक शिक्षक की भी नियुक्ति हुई। हम एक आदिवासी गोविंद सिंह के घर रहते थे। उन्होंने कोई किराया नहंी लिया। उनके बेटे रामचरण सिंह के साथ खेलते हुए मैं बड़ा हुआ और हम दोनों का दाखिला पिता जी के स्कूल में हो गया। वहाँ खिलौने के नाम पर हमारे पास केवल गेंद थी। रामचरण के साथ खेलते थे। गाँव के बच्चों के लिए गेंद भी एक आश्चर्य का विषय था। हमारे तीसरी में पहुंचते ही चैबे जी के स्थान पर कमलाप्रसाद दुबे नामक शिक्षक आ गए। यहां चैथी तक ही कक्षाएं थीं। पर बाद में नियम आया कि पांचवीं तक प्राथमिक स्कूल होगी। अतः हमारे पांचवीं में आते ही नई कक्षा इसी स्कूल को मिल गई। पिता जी और दुबे जी दोनों मिलकर पांचों कक्षाओं के सारे विषय पढ़ाते। आज जब संसार के बड़े-बड़े शहरों को देखने के बाद लगता है कि मैं कितनी छोटी दुनिया में अपना बचपन छोड़ आया हूँ। पर जब बचपन की दुनिया में याद में प्रवेश करते ही लगता है कि कितने बड़े लोगों के बीच में बड़ा होता गया... इतनी आत्मीयता, इतना प्यार, इतना सम्मान पिता जी के साथ हमें मिला कि आज भी मेरे एकांत में वह गांव पीछा करता है, सपनों में, आज जागी आंखों में भी। इसीलिए आज भी पांच-छह वर्षों में मैं उस गांव में जाकर अपना बचपन पाता हूँ। हालांकि अब न रामचरण सिंह है न और संगी-साथी। केवल कांतिकुमार साहू से मिलकर गांव के हाल-समाचार लेकर लौट आता हूँ।

माता-पिता ने मेरा नाम दामोदर क्यों रखा? आपका यह प्रश्न मुझे दशकों बाद मिला। कैसे बताऊँ, किससे पूछूं...! पर एक बात याद आती है, जिससे आपके प्रश्न का कुछ समाधान हो सकता... शायद! पिता कृष्ण भक्त थे। रोज पूजा करते थे और मैं निरंतर दो पांक्तियाँ उनसे रोज सुना करता था: 

‘अच्चुतम् केशवं कृष्ण दामोदरं, राम नाराणमं जानकी बल्लभम्!’

संभवतः इन्हीं पंक्तियों में से दामोदर मेरे हिस्से आया। ‘नारायण’ मेरे छोटे भाई के साथ जुड़ा। उससे छोटे का जन्म 2 अक्टूबर को हुआ, इसलिए वह ‘मोहन’ हुआ!

पांचवीं तक पिता जी के मार्गदर्शन में गांव ही में शिक्षा हुई। इसके बाद चार किमी दूर पटना के माध्यामिक स्कूल में दाखिला हुआ। इस बीच पिता जी की पुरानी नौकरी वाले कमीशन के लोग उनसे मिले। मेरे छोटे भाई के पैर में कुछ कमी थी, जिसका इलाज बड़े शहर में संभव था। इसलिए पिता जी ने फिर कमीशन की नौकरी के लिए हां कह दी। हम अंबिकापुर आ गए। अब मेरी पढ़ाई अलग-अलग जगहों पर होने लगी। मैट्रिक अंबिकापुर, बीए अकोला और पीएचडी तक की पढ़ाई निजी तौर पर। इस तरह तबादलों के बारण शिक्षा में बिखराव होता रहा। पारिवारिक स्थितियों के चलते बीस साल की उम्र में ही नौकरी करनी पड़ी। नौकरी में रहते हुए एम.ए. एम.एड् और पीएच.डी तक की यात्रा पूरी हो सकी।

प्रो. चमोलाः आपने कब महसूस किया कि सामान्य परिवेश में पल-बढ़ रहे ग्रामीण बालक दामोदर के मनोमस्तिष्क के भीतर एक कल्पनाशील रचनाकार पनपने लगा है... जो बराबर आपको सभी भाई बहनों से कुछ अलग रहकर गम्भीर प्रकृति का बनाकर, चिंतन के एकाकी व उबाऊ (दूसरों के अनुसार) क्षेत्र में घुस आने के लिए विवश कर रहा था, इस पर कुछ विस्तार से प्रकाश डालिए?

डॉ. खड़सेः बचपन में पिता जी ‘कल्याण’ पत्रिका घर में मंगवाते थे। बहुत देर से वह पत्रिका हम तक पहुंचती थी। पटना में रविवार को बाजार लगता था। किसी के हाथों वह हम तक पहुंचती थी, क्योंकि रामपुर के लिए पोस्ट ऑफिस पटना ही पड़ता था। ‘कल्याण’ को मैं पढ़ने लगा था। उसमें धार्मिक कथाएं ही आती थीं। एक अंक में एक चित्र था, जिसने मन में कुतूहल खूब मचा। कहानी और व्यौरा भी था। पर बहुत सारी बातें उम्र से आगे की थीं....। एक कुआं है, सूखा हुआ, जिसमें फन फैलाए सांप है। कुएँ की जगत के पास एक सूखा पेड़ है, जिसकी डाल को पकड़कर एक आदमी अपने को कुएं में गिरने से बचा रहा है। कुएं की जगत पर एक हाथी है, जो उस व्यक्ति को मारने के लिए तैयार खड़ा है। जिस डाल को थामकर वह कुंए में गिरने से बच गया, उस डाल को सफेद और काला चूहा कुतर रहा है। उसी डाल पर मधुमक्खियों का छत्ता भी है। उसमें से शहद का एक बूंद उस आदमी के मंुह में गिरता है और वह सब कुछ भूलकर आँखें मूंदे हुए हैं... उस समय मेरी समझ में कुछ खास नहीं आया। मैंने पिता जी से पूछा, उन्होंने बताया...जो आदमी पेड़ की डाल के सहारे झूल कर अपने आपको सांप से बचा रहा है- वह जीवन है। सांप-मृत्यु, कुआं संसार, हाथी संकट और डाल को काट रहा सफेद-काला चूहा-दिन और रात हैं, शहद का छत्ता-सांसारिक मोह-माया है, जिसका एक बूंद मुंह में लगते ही मनुष्य सब कुछ भूल जाता है...

....कितना गहन अर्थ और कौमार्य अवस्था... लेकिन यह दृश्य, चित्र मन में बहुत गहरे उतर गया। भूले नहीं भूलता... फिर एकांत में जब मैंने इस चित्र को शब्दों में बांधना चाहा, तब भावना, भावुकता, शब्द और सोच का तालमेन बिठाने में जबरदस्त लड़खड़ाहट रही। पंद्रह वर्ष की उम्र इसे ढोने से मना कर रही थी पर एक दिन कलम को मुझ पर दया आ गई और वह मेरी इस बात को कागज पर उतार ले गई। यह मेरा पहला चित्र-शब्द था...। फिर जब हमको अंबिकापुर से अकोला आना पड़ा तब अपने अभिन्न मित्र कृष्णा के बिछोह में जो शब्द घुमड़े, वे मेरी पहली कविता के गवाह रहे... पर अब ये दोनों बातें मेरे पास नहीं रह पाईं। पहले पिता जी के तबादले, फिर मेरे-किसी यात्रा की वे भेंट चढ़ गईं। पूरी डायरी ही कहीं खो गई। न कृष्णा को कभी सुना पाया, क्योंकि न फोन था, न मोबाईल पत्र मेें भेज भी नहीं पाया.... कविता-बात मन के मन में रह गई... पर यहंी से लगता रहा कि जो मन में आता है उसे कलम बयान कर सकती है।

फिर जीवन की चुनौतियां, संघर्ष और मंजिल की तलाश में लेखन मेरे साथ रहा। कविता से प्रारंभ होकर कथा-उपन्यास और विविध विषय पर लेखन निरंतर जारी रहा, जो अब तक चल रहा है।

प्रो. चमोलाः आपका लालन-पालन मराठी परिवेश में हुआ? तो क्या आपके लेखन की शुरुआत भी सामान्यतः प्रकृति से ही प्ररेरित होकर हुई... यानी कि खेत-खलिहान में? कृपया बताएं कि इसकी शुरुआत कब व कैसे हुई? कोई ऐसी दिलचस्प घटना या कोई अन्य वृतांत...?

डॉ. खड़सेः मैंने पहले प्रश्न के उत्तर में कृष्णा से बिछड़ने का ज़िक्र किया है। हम अंबिकापुर से स्थायी रूप से बिदा हो रहे थे। उस समय अंबिकापुर से सुबह सात बजे एक ही बस बिलासपुर के लिए चलती थी। हम चारों भाई-बहन और माता-पिता इसी बस से चलने वाले थे। सुबह सुबह साढ़े छह बजे पूरा परिवार बस स्टैण्ड पहुंच गया। सारा सामान बस के ऊपर रखा जाना था। सभी सदस्यों पर दबाव था, एक अनिश्चित-सी यात्रा के लिए निकलना था। बिलासपुर से भोपाल के लिए दूसरी बस पकड़नी थी। मेरे मन में कुछ और ही चल रहा था; कृष्णा से अंतिम बार मिलने के लिए मन बेचैन था। मैंने पिता जी से कहा- मैं भागते हुए जाकर कृष्णा से जल्दी मिल कर आता हूँ। पिता जी असमंजस में थे। समय कम था। पर सिर हिलाकर सहमति देते हुए बोले- जल्दी आना। समय कम है। मैं तेजी से भागा। कृष्णा से ऐसे मिला कि समय का भान ही नहीं रहा... बस पर चढ़ाया समान उतारना पड़ा। पूरा परिवार बस स्टैण्ड पर उदास मन से बैठा रहा। मैं अपराधी सा सबके सामने सिर झुकाए खड़ा रहा। पिता जी ने कहा तो कुछ नहीं, पर मैं बहुत शर्मिंदा हुआ। मेरे कारण सबको भयंकर तकलीफ हुई। पूरी यात्रा में मैं बहुत पछताता रहा और कृष्णा की यादें पीछा करती रहीं। एक साल हो गया... न मैं अपराध बोध से मुक्त हुआ और न ही कृष्णा की याद से पीछा छुड़ा पाया... उस समय पंद्रह वर्ष का रहा हूँगा... बस एक भावना का सैलाब आया और कवितानुमा कोई बात सामने थी। मैं बार-बार उसे पढ़कर कृष्णा से मिल लेता...।

जहाँ तक लालन-पालन की बात है- घर में मराठी और बाहर हिंदी। मित्र, पढ़ाई लिखाई सब हिंदी। घर में मराठी। जहाँ भी रहे हमारा अकेला घर-मराठी रहा। फिर भी माता-पिता ने हमें मराठी के साथ जोड़े रखा। इसीलिए दोनों भाषाएं समान रूप से साथ बनी रहीं।

बचपन खेत-खलिहान से भरपूर रहे। पिता जी ने रामपुर में खेत खरीदा था। बहुत कम था, पर पर्याप्त था। गांव में एक वृद्धा मुखियारिन थी। बहुत धनी-सम्पन्न। मेरा बहुत लाड़ करती थी। एक दिन उसने अपना बेहतरीन उपजाऊ खेत, दो एकड़ मेरे नाम कर दिया। हम उसमें धान बोते थे। वह बहुत खुश होती थी। वह निःसंतान थी। बहुत उदारमना थी। वहां रामपुर में एक कदम्ब का पेड़ था, हम उसका खट्टा-मीठा फल खाते थे। आम के पेड़ों का एक बहुत बड़ा बगीचा था। नदियां थीं। बरसात के बाद धान के खेतों की मेड़ों पर चलने से चावल की गंध आती थी। अब तक वह गंध मन-मस्तिष्क में बसी हुई है। प्रकृति, लोगों का सादगी भरा प्रेम बहुत लुभाते रहे और बाद में लेखन में यहां-वहां झांकते रहे हैं। गांव के इस जीवन ने बहुत गहरी अनुभूतियां दी हैं। खेत-खलिहानों में रमने का आनंद भी स्मृतियों मंे स्थायी रूप से बसा है मन में। मुझे याद नहीं आता कि आमों के मौसम में हमने कभी आम खरीदे हों। इतने आम के पेड़ आसपास थे कि इसकी कभी कोई कमी महसूस नहीं हुई।

प्रो. चमोलाः मराठी आपके जीवन के अंग-संग रही, निश्चित रूप से आपने पहले मराठी में ही लिखना शुरु किया होगा। मराठी से हिंदी की ओर आप कैसे अग्रसर हुए? इसकी प्रेरणा का श्रेय आप किसे देना चाहते हैं?

डॉ. खड़सेः मराठी मेरे जीवन के अंग-संग निश्चित रही। लेकिन मेरी शिक्षा-दीक्षा, मित्र-परिवार, परिसर-परिवेश हिंदी ही रहा। अतः मेरा लेखन हिंदी से ही प्रारंभ हुआ और हिंदी में ही निरंतर चलता रहा। हिंदी की ओर झुकाव का श्रेय माध्यमिक स्कूल के शिक्षक केशवचंद्र गुप्त को है। कक्षा सातवीं में पढ़ते हुए एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में संभाषण प्रतियोगिता में मेरे भाग लेने पर उन्होंने मुझे बहुत प्रेरित किया और पुरस्कार-स्वरूप एक पुस्तक भेंट की-‘प्रेम दर्शन’। हिंदी के प्रति रुचि बढ़ती गई। यह बात पटना मंे सातवीं कक्षा में पढ़ते हुए घटी। फिर काॅलेज में अकोला में पढ़ते हुए डॉ. सुभाष पटनायक और श्रीनिवास शर्मा का निरंतर प्रोत्साहन और प्रेरणा से मैं लाभान्वित हुआ। उन दिनों सीताबाई काॅलेज के प्राचार्य के रूप में रामकृष्ण श्रीवास्तव थे, जो स्वयं बहुत प्रभावी और लोकप्रिय कवि थे। उनकी कविताओं ने भीतर तक बहुत प्रभावित किया। मुझे लगता है प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष इन गुरुजनों के सान्निध्य और प्रेरणा ने लेखन की ओर मुड़ने के लिए दिशा दी।

मूल रूप से मैंने मराठी में कुछ नहीं लिखा। लेकिन, कालांतर में मैंने मराठी से हिंदी में खूब अनुवाद किए। लगभग बीस मराठी पुस्तकों के हिंदी अनुवाद मैं कर सका। सदानंद देशमुख का मराठी उपन्यास ‘बारोमास’, जिसे मराठी का ‘गोदान’ कहा जाता है, इसका हिंदी अनुवाद मैंने इसी शीर्षक से किया जो साहित्य अकादेमी द्वारा प्रकाशित और पुरस्कृत हुआ है। यह बात और है कि मराठी भाषी होने के बावजूद मैं मराठी मंे नहीं; हिंदी में लिखता रहा हूँ। मेरे कई उपन्यास, कहानी संग्रह, कविता संग्रह आदि दूसरों ने मराठी में अनुवाद किए हैं। प्रभाकर माचवे जैसे बिरले ही लेखक होते होंगे, जो मराठी-हिंदी और अन्य भाषाओं में समान रूप से लिखते रहे होंगे। मैंने हिंदी में ही अपने आपको सहज अनुभव किया।

प्रो. चमोलाः उन दिनों मराठी लेखन की क्या स्थिति थी... किन-किन लेखकों ने लिखना शुरु किया था... उनकी लेखन यात्रा का अंतिम पड़ाव क्या रहा... यानी वे मराठी में ही लिखते रहे या फिर आपकी तरह मराठी से हिंदी में भी उनके लेखन का विस्तार हुआ... आप मराठी से हिंदी में किन हिंदी लेखकों की प्रेरणा से बढ़े।

डॉ. खड़सेः मैंने कहीं एक स्थान पर कहा है कि मैंने मूलतः हिंदी में ही लिखना शुरु किया। इसका मुख्य कारण था कि मेरी शिक्षा-दीक्षा हिंदी में ही हुई। मराठी मेरी केवल मातृभाषा है, लेकिन जिस परिवेश में मैं पला-बढ़ा वह पूर्णतः हिंदी भाषी इलाका रहा। इंदौर, भोपाल, बिलासपुर, अंबिकापुर जैसे शहरों में मेरा बचपन और किशोरावस्था बीती। यह वह उम्र होती है जब मनुष्य भाषा के सभी आयामों को तीव्रता से ग्रहण करने की प्रक्रिया में होता है। बाद में, महाराष्ट्र के अकोला शहर में आने पर भी अधिकांश वातावरण हिंदी ही रहा क्योंकि मेरा दाखिला, काॅलेज में भी हिंदी माध्यम में ही हुआ। हिंदी ही मुख्य विषय होने के कारण अध्यापन के लिए भी मुझे हिंदी विषय ही दिया गया। परिणामतः प्रारंभ से नौकरी तक मैं हिंदी से ही जुड़ा रहा। अध्यापन छोड़कर जब मैं बैंक की नौकरी में आया तब राजभाषा विभाग में अधिकारी के रूप में रहा। कुल मिलाकर मेरा समस्त कामकाज हिंदी में ही होने के कारण, मेरी रुचि ही मुझे हिंदी में लेखन करने की प्रेरणा देती रही और पूरा परिवेश तो हिंदीमय था ही। इसलिए मराठी लेखकों के साथ-साथ लेखन यात्रा का संयोग उतनी तीव्रता के साथ विकसित नहीं हो पाया। पर पुणे आने के बाद और मुंबई निवास के दौरान कई मराठी लेखकों का सान्निध्य मिला और उनकी लेखन-यात्रा से मैं निश्चित ही प्रभावित हुआ। मुंबई में जयवंत दलवी, विजय तेंडुलकर जैसे नाटककारों से परिचय हुआ। उनके नाटक देखें और उनके नाटकों के अनुवाद भी किए। ‘पुरुष’ नामक नाटक में नाना पटेकर ने मुख्य भूमिका निभाई, नाटक के प्रारंभ में कैलाश सेंगर के साथ उनसे मुलाकात हुई। जयवंत दलवी के ‘कालचक्र’ नाटक का हिंदी अनुवाद किया, जिसे वाणी प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। यह नाटक लगभग पैंतीस वर्षों से पृथ्वी थियेटर्स पर मंचित हो रहा है। पुणे आने के बाद शिवाजी सावंत, आनंद यादव, शरणकुमार लिंबाले, भारत सारणे जैसे सुविख्यात लेखकों का सान्निध्य मिला। इन लेखकों की कृतियों का अनुवाद करने का भी मुझे अवसर मिला। हाँ, मेरे समकालीन प्रफुल्ल शिलेदार एक ऐसे मराठी रचनाकार हैं, जिन्होंने मराठी के साथ-साथ हिंदी में भी लेखन किया और उनकी मौलिक कृतियां हिंदी में भी प्रकाशित हुईं और वे मराठी के सुपरिचित सृजक बने रहे। उनका सान्निध्य भी मिलता रहा। साथ ही, आसावरी काकड़े, डॉ. विजया, संजीवनी बोकील ने भी मराठी के साथ साथ हिंदी में भी मौलिक लेखन किया है।

प्रो. चमोलाः हिंदी में आपके लेखन की शुरुआत कब व कैसे हुई? आपकी पहली रचना क्या थी? उसका प्रकाशन कब व किस पत्र अथवा पत्रिका में हुआ? उसके बाद विद्यार्थी काल में आपके हिंदी लेखन की प्रगति क्या रही ?

डॉ. खड़सेः जैसा कि मैंने पहले कहा कि पहली रचना 1963 में कृष्णा गुप्ता पर 15 वर्ष की उम्र में लिखी। इसके बाद छोटी-छोटी रचनाएं लिखता रहा। जीवन के संघर्ष कविताओं में आते रहे और बीस पार करते-करते कहानियों ने दस्तक दी। काॅलेज की पत्रिका में कुछ रचनाएं आईं... पर ये रचनाएं मूलरूप से संघर्ष को शब्दबद्ध करने का माध्यम लगता रहा। लेकिन लेखन जारी रहा। वर्ष 1976 से रचनाओं का प्रकाशन शुरु हुआ। प्रारंभ में अकोला और नागपुर के स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं से यह सिलसिला शुरु हुआ। पर 1977 से नवभारत टाईम्स, नई दुनिया, आज, सारिका, धर्मयुग, कादम्बिनी, नवनीत, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, रविवार, साक्षात्कार, इन्द्रप्रस्थ भारती, अवकाश, आजकल, वागर्थ, आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन प्रारंभ हो गया। विद्यार्थी काल में थोड़ा-बहुत ही लिखा गया। पर बाद में गति बढ़ी और प्रकाशन भी बढ़ता गया।

मेरी पहली कहानी ‘चुभता हुआ घोंसला’ कादम्बिनी में छपी। बात 1978 की है। खुशी का ठिकाना नहीं। कविताएं ‘नवभारत टाइम्स’ में सबसे पहले छपीं 1977 में... फिर निरंतर प्रकाशन होता रहा।

अकोला में मित्रों ने ‘अक्षर’ नामक एक साहित्यिक संस्था का गठन किया था। जब भी कोई रचना लिखी जाती तब उस पर चर्चा होती। इस संस्था की स्थापना से कैलाश सेंगर, घनश्याम अग्रवाल, अशोक गुजराती, प्रमोद शुक्ल, प्रकाश पुरोहित जुड़े रहे। कालांतर में कैलाश सेंगर एक स्थापित कथाकार सिद्ध हुए। जो बाद में ‘धर्मयुग’ में सहायक सम्पादक नियुक्त हुए। घनश्याम अग्रवाल चर्चित व्यंग्यकार के रूप में सर्वपरिचित हैं। अशोक गुजराती भी आज स्थापित उपन्यासकार हैं। इस तरह सृजनात्मकता को एक अच्छा परिवेश मिला।

कॉलेज के बाद, नौकरी के सिलसिले में अकोला से बाहर निकलने पर नये मित्रों का सान्निध्य मिला और निरंतर चर्चा में मित्र विजय दामले का जुड़ना बहुत गतिशील बन गया। विजय दामले मूल रूप से वाराणसी के हैं, नाट्य-मंच से जुड़े हैं, कहानियों में उनकी रुचि रही। उनकी निकटता जीवन और लेखन के विभिन्न पहलुओं का उद्घाटन करती रही। इस तरह साहित्य यात्रा चल निकली।

प्रो. चमोलाः जैसे किसी खास उम्र में लड़कियों के जीवन में दैहिक परिवर्तन आने शुरु हो जाते हैं, क्या उसी तरह का कोई बौद्धिक परिवर्तन, भावुकता के स्तर पर, अन्य भाई-बहनों की तुलना में बालक दामोदर के मस्तिष्क में भी आने लगा था, इस बात को आपने कब और कैसे महसूस किया ?

डॉ. खड़सेः परिवर्तन अवश्य होते हैं। जब जिम्मेदारी असमय सिर पर आ पड़े, तब न सिर्फ भावुकता के स्तर पर बल्कि बौद्धिक स्तर पर भी स्थितियों को समझने और उससे जूझने की समझदारी भीतर अनुभव होने लगती है। बात उस जमाने की है, जब मोबाईल नहीं थे। हमारे घरों में फोन नहीं थे। मैं घर में भाई-बहनों में बड़ा था। दीवाली का समय था। पिता जी बुरहानपुर में नौकरी पर थे। वे इस अवसर पर घर नहीं आ पाए। मैं अनमना-सा घर के पास के पार्क में अकेला बैठा दूसरों की दीवाली की तैयारियां देख रहा था। मन बहुत उदास था। घर में भाई-बहन बहुत निराश थे। पिता जी नहीं आए और तैयारियों के लिए उस समय कोई साधन घर पर नहीं था। मां की आंखों में आंसू थे। मैं किंकर्तव्यविमूढ़। पार्क में बैठा-बैठा मैं इन स्थितियों से जूझ रहा था। मन ने तय किया कि कुछ करना चाहिए। पिता जी की जिम्मेदारियों में हाथ बंटाना चाहिए। उम्र सत्रह वर्ष थी। दीवाली तो बुझ चुकी थी। पर स्थितियां नहीं बदलीं। मैने एक निजी फर्म में दूसरे ही दिन से काम करना शुरु कर दिया। एक हफ्ते बाद पिता जी आए। उनकी अपनी कठिनाइयां थीं। उनकी पगार नहीं हो पाई थी। जब उन्हें मेरे काम पर जाने की बात मालूम हुई तो उनकी आंखें भर आईं। उन्होंने गले से लगा लिया और कहा-इससे आगे तुम्हें इस तरह काम नहीं करना पड़ेगा। कल से वहां जाना बंद कर दो...

इस घटना ने मेरे भीतर बहुत कुछ बदल दिया। एक ओर जहां जिम्मेदारी का भाव उभरा वहीं परिवार के प्रति पूरी तरह समर्पित होने जाने की भावना जगी। चंूकि भाई-बहन मुझसे बहुत छोटे थे, इसलिए मुझे ही कुछ न कुछ करना था। स्थितियां व्यक्ति को शक्ति देती हैं। चुनौतियां दरवाजे खोलती हैं। आत्मविश्वास कदम उठाने में मदद करता है, ऐसे ही किसी दौर से किशोरावस्था गुजर रही थी। तबादलों के कारण पिता जी विभिन्न शहरों मंे जाते रहे। हमारी शिक्षा व्यवस्थित हो इसलिए हम अकोला में किराये के मकान में रहते थे। बड़ा होने के कारण सारे परिवार की ओर ध्यान देने की जिम्मेदारी थी। मुझसे छोटे भाई यदि मान लें कि मुझसे बड़े होते तो यह जिम्मेदारी वे उठाते। यह तो स्पष्ट हुआ मेरे भीतर कि आसपास को सामान्य दृष्टि से देखने की बजाय जिम्मेदारी की दृष्टि से देखना होगा। केवल भावुक होकर नहंी व्यावहारिक रूप में स्थितियों से निपटना होगा। वैचारिक परिवर्तन हुआ ही स्थितियां केवल दर्शक नहीं बनने दे रही थी.... लगभग सब कुछ बदल गया था।

प्रो. चमोलाः सामान्य दामोदर का मन जितना पढ़ाई-लिखाई की किताबों में रमता, उससे ज्यादा गंवई प्रकृति के रंगीले खेत-खलिहानों में.... या प्रारम्भ से ही कविता, गीत आदि गुनगुनाने में.... इसके पीछे कोई दिलचस्प किस्सा? क्या बचपन के दिनों की स्मृतियों का प्रतिबिंब ही है, आपका बाद का साहित्य?

डॉ. खड़सेः पढ़ाई लिखाई में मन रमता। आज की ट्यूशन-क्लासेस-कोचिंग जैसी कोई बात नहीं थी। खेत-खलिहानों, बाग-बगीचे, नदी-पोखर के आसपास का बचपन कभी नहीं भूलता। ठंड के दिनों में उथली कटोरी में पानी भर कर पुआल पर रख देते सुबह बर्फ जम जाती, वही आइसक्रीम थी। हमारे घर को लगकर खलिहान था। वहां एक कुतिया थी। वह पिल्ले जनती और वे सब पुआल मंे रात में सो जाते। एक रात सियार आया और उसका एक पिल्ला उठा ले गया। सुबह देखा तो एक कम था। मेरा बाल-मन धड़कने लगा। उनमें से एक मुझे बेहद प्यारा था। मैंने मना लिया घर में और उसे ले आया। उसी से खेलता। पर दूसरे पिल्ले एक एक सियार रात में उठाता रहा। मन खिन्न हो जाता। एक को ही बचा पाया था मैं।

गीत-कविता की गुंजाइश नहीं थी। गांव में लोग होली के दिन फाग गाते थे। विवाह के समय गीत गाते थे। इसके अलावा गुनगुनाने का कोई अवसर नहीं था। न टीवी, न रेडियो... पर विभिन्न अवसरों पर खासकर ‘करमा’ उत्सव में गांव के स्त्री-पुरुष गीत गाते हुए नाचते। मांदर की थाप पर और झांझ की झंकार पर वातावरण थिरकने लगता। ‘सैला’ भी गाँव-गाँव खेला जाता। डांडिया की तरह ही यह होता है। केंद्र में मांदर और झांझ की थाप पर चारों ओर घूमते हुए नृत्य होता है। मैं भी इसमें शामिल होता।

सातवीं-आठवीं में पढ़ते हुए मुझे फुटबाॅल खेलने का बड़ा शौक था। जैसा कि पहले कहा गया है कि हमारी स्कूल गांव से लगभग चार किमी दूर थी। वहां जाने के लिए एक मरघट और तीन नदियां लांघनी होतीं। हम तीन चार लड़के साथ-साथ स्कूल जाते और आते थे। एक शाम स्कूल छूटने के बाद मैं दूसरे लड़कों के साथ फूटबाॅल खेलने में मग्न हो गया। पता नहीं कैसे गांव के लड़के चले गए थे। शाम का झुरमुट उतर आया था। फुटबाॅल जब आंखों से ओझल होने लगा तो खेल बंद हुआ। केवल खिलाड़ी बचे थे, जो दूसरे गांवों के थे। अब मैं अकेला ही घर की ओर चला। गांव में भूत-प्रेत के किस्से बहुत प्रचलित थे। कुछ मान्यताएं भी थीं। चमड़ा लोहा पास हो तो भूत-प्रेत नहीं फटकते... पैरों में चमड़े की सेंडिल थी और उसकी क्लिप में लोहा जड़ा था... सहारा.... ऊपर से हनुमान चालीसा। एक नदी भी पार नहीं हुई और अंधेरा उतरने लगा। पर चांदनी रात थी। रात तो रात थी। निर्जन रास्ता। मैं अकेला। मैं जब दूसरी नदी की ढलान पर पहुंचा तो चांदनी की रोशनी मं एक विशाल राक्षसनुमा आकृति पसरी पड़ी दिखाई दी। धड़कनों में गति बढा दी। न चमड़ा काम आया न लोहा.... हनुमान चालीसा की पंक्तियां भी विस्मृत हो गईं। आगे धंुधलका, पीछे अंधेरा, सिट्टी पिट्टी गुम। नदी में उतरते समय बायीं ओर श्मशान था। मुर्दे कुछ जलाए जाते थे कुछ गाड़े जाते थे।  उस स्थान पर उस व्यक्ति की खाट उल्टी रख दी जाती थी। दूर से ये दृश्य बहुत डरावने लगते। रात है, चांदनी है, पर साफ कुछ दिखाई नहीं देता... तभी नदी के किनारे में कुछ चमकता हुआ दिखाई दिया। वह जुगनू नहीं था, बल्कि आलू-प्याज जितना बड़ा गोला पानी में रेडियम की तरह जगमगा रहा था। हालात और पतली हुई। चारों ओर नीरवता। केवल नदी झर-झर बह रही थी। मैं ऊँचाई पर खड़ा था और तराई में मेरे रास्ते पर ही राक्षसनुमा आकृति। तभी मैंने किसी के गुनगुनाने की आवाज सुनी। मन और सशंक हो गया। पर उस दिशा में मैं गया। एक व्यक्ति नदी के बहाव में बांस के जालनुमा आकार में मछली पकड़ रहा था। धुंधलके में उसने मेरा चेहरा पढ़ा और ढाढ़स बंधाया। वह केवट था। पिता जी को जानता था। उसने बताया कि नदी किनारे भैंस मरी पड़ी है, जिसका चमड़ा निकाल लिया गया है। नदी में शव की राख फेंक दी होगी, उसी का कुछ पानी में चमकता दिखता है.... मेरी घबराहट और पिता जी के परिचय के कारण उस व्यक्ति ने मुझे दूसरी ओर से नदी पार करा दी। नदी पर कोई पुल नहीं था। पानी से ही पार करना होता है... तबसे मैंने तय किया कि सब लड़कों के साथ रहेंगे और शाम से पहले घर की ओर चल पड़ेंगे।

आठवीं में मुझे होस्टल में रहना पड़ा-पटना में ही। होस्टल क्या था-दस-बारह लड़कों के लिए एक साथ रहने की व्यवस्था ओसारे में। लम्बा पुआल बिछाया हुआ। सबके पास एक बिछावन और एक ओढने की चादर। पास के कुंए पर नहाना। आपस में खाना बनाना। मैं कभी चने भिंगोकर रखता। पास वाला लड़का सुबह जल्दी उठकर खा जाता। तंग आकर मैं अपने बक्से में, लोटे मंे चने भिंगोता। उसी बक्से में मेरी किताबें और एक जोड़ी कपड़े होते। मैं उसमें ताला भी लगा देता। जब उसे चने नहीं मिले तो उसने बक्से को जोरदार लात मारी। बक्सा उलट गया। लोटे का पानी किताबें, कापियां और कपड़े भिगो गया। तबसे चना भिगोना बंद हो गया। उसकी जगह मन मुटाव ने ले ली थी।

हम खाना, लकड़ी जलाकर बनाते थे। एक दिन लकड़ियां नहीं थीं। हमने देखा कि सड़क बनाने के लिए कोलतार को जलाते हैं। सड़क हमारे होस्टल के पास ही थी। बड़ा-सा कोलतार का ड्रम था। उसके टुकड़े पास में पड़े थे। हमने उठाए और तीन ईटों से बने चूल्हेे में उसे जला दिया। अपनी डेक्ची उस पर रख दी। निश्ंिचत हो गए। एक चूल्हे पर चावल और दूसरे पर दाल। सबको जोरदार भूख लगी थी। थाली में करछुल से भात डाला गया। भात में इतनी तीव्र गंध उठी की सब सन्न रह गए। कोलतार की सारी गंध भात में रिस रही थी। कोई भी नहीं खा पाया। उस रात हम भूखों सोए। चने भी नहीं थे। यह घटना मन - मस्तिष्क में उतर गई। कई दिनों तक चावल देखते ही इस घटना और गंध का स्मरण हो आता है। कालांतर में मैंने एक कहानी लिखी- ‘गंध’। यह कहानी 

‘धर्मयुग’ में प्रकाशित हुई। इसके प्रकाशन के बाद एक रात साढ़े ग्यारह बजे रिजर्ब बैंक के एक महाप्रबंधक का फोन आया कि मेरे जीवन की यह घटना आपको कैसे पता चली ?...

प्रो. चमोलाः आपके साहित्य में आपका खिलंदड़ा व शरारती बचपन क्या किसी तरह से प्रतिबिंबित हुआ.... और दामोदर का जीवंत किरदार किस रूप में आपने अपने साहित्य में प्रतिस्थापित किया ?

डॉ. खड़से: ऐसा कोई खिलंदड़ा और शरारती बचपन तो कहीं प्रतिबिंबित हुआ याद नहीं आता। हां, एक वाकया जरूर याद आता रहता है। मुझे पंछी पालने का बड़ा शौक था। खासकर मैंना पालता था। पलाश के पेड़ की खोह में मैंना अंडे देती थी। हम उसके घांेसले के पास छोटी-सी कील ठोंककर नन्हीं मैंना के पैर में सुतली बांध देते थे और उसके बड़ा होने पर पकड़कर घर में ले आते और पिंजड़े में रखकर देखते रहते। उसे फुलाएं हुए दाने खिलाते। पिता जी को यह बिलकुल पसंद नहीं था। एक बार हम सभी मित्र पलाश के खोह के पास गए। मैं पेड़ पर चढ़ा। मैना का बच्चा पकड़ने के लिए खोह में हाथ डाला। मेरे हाथ में ठंडी-ठंडी सरसराहट महसूस हुई और उस खोह के घोंसले से सांप निकला.... पेड़ से मैं उतरते-उतरते नीचे गिर पड़ा.... बस यह मैना पकड़ने का अंतिम दिन था।

अपने लेखन में लेखक का जीवंत किरदार कहीं न कहीं होता ही है। लेकिन अपने आपको पूरी तरह प्रतिस्थिापित करने की बात विशुद्ध रूप से हूबहू हो, ऐसा नहीं लगता। यहां वहां प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष में हो सकता है। कई कहानियों, उपन्यासों में इसकी झलक देखी जा सकती है। घटनाएं आसपास की परिवेश की, स्थितियों की होती है। जाने-पहचाने लोग जब पात्र के रूप में लेखक से मिलते हैं, लेखक उस चित्र में अपना रंग मिलाकर कैनवास रंगता है। लेखक कहीं न कहीं से झांकता है। मुझे लगता है, जब पाठक यह मानने लगता है कि यह लेखक का जीवंत किरदार है; या पाठक को लगता है कि किसी पात्र विशेष में पाठक का ही किरदार है। शायद यह लेखन के यशस्वी होने का चरम-बिंदु है। मैंने ‘गंध’ कहानी का उल्लेख किया है। वह मेरी अपनी कहानी तो है, पर एक पाठक भी उससे अपने आपको जुड़ा पाता है।

प्रो. चमोला : कहा जाता है कि हर रचनाकार के लेखन की शुरुआत प्रायः कविता से होती है... और आपकी तो हुई ही उसी में.... फिर कविता की कोमल जमीन में साहित्य की अन्य विधाओं का स्फुरण किस प्रकार हुआ... या फिर एक भाषा से द्विभाषा में कविता सृजन स्विच होने की वजह?

डॉ. खड़सेः मेरे लेखन की शुरुआत भी कविता से ही हुई..... कविता में एक आवेग होता है। अनुभव, अनुभूति से अभिव्यक्ति के बीच एक तेज धारा बहती है। संवेदना के धरातल पर कविता शीघ्र प्रवाहित होने वाली होती है। कविता, दो पंक्तियों के बीच, अल्पविराम और दो शब्दों के अंतर में भी एक अभिव्यक्ति लिए होती है। कई बार छिपे अर्थों का भी वहन करती है-कविता! कविता में एक लय होती है, मुक्त-छंद के बावजूद... छंदबद्ध है तो उसकी सरसता में एक और आयाम जुड़ जाता है। कविता में अर्थ जितना उजागर होता है, उससे कहीं अधिक अर्थ छिपा हुआ भी हो सकता है। विषय के अनुसार अभिव्यक्ति की विधा आकार लेती है। कभी-कभी कविता में एक कहानी गुंथी होती है, कभी-कभी कोई कहानी कवितामय हो जाती है। फिर लगता है कि विस्तार और व्यापक अभिव्यक्ति की आवश्यकता है। फिर कहानी-उपन्यास की कल्पना का स्फुरण हुआ।

कहानी-उपन्यास में जीवन की यात्रा को विस्तार से व्यक्त करने की सुविधा होती है। घटनाओं, समय का, देश-काल, पीढ़ियों और समसामयिक जीवन सहित इतिहास और पौराणिक पात्रों को नये रूप में व्याख्यायित कर समाज-जीवन के साथ जोड़ा जा सकता है। ऐसी कई कहानियां हैं, जिन्हें कविता 

विधा न्याय नहीं दे पाती। अतः ऐसी बातों के लिए कहानी विधा को ही अपनाना हुआ। ‘उखड़े पहिये’, ‘साहब फिर कब आएंगे मां’, ‘आखिर वह एक नदी थी’, ‘श्रवण कुमार का अंत’, ‘चुभता हुआ घोंसला’, ‘अनचाहे मोड़’ ऐसी ही कुछ कहानियां हैं, जिन्हें कविता में ढालना मेरे लिए असंभव था। मुझे इन कहानियों, घटनाओं, पात्रों या स्थितियों ने भीतर तक उद्वेलित किया। इसी प्रकार जब मैं मुंबई जैसे महानगर का जनजीवन देखता हूँ तो मेरे सामने मध्यवर्ग की आकांक्षा, आर्थिक-गणित, टूटते-बनते रिश्ते, दैनिक जीवन का संघर्ष उभरकर आता है। पात्रों के माध्यम से रिश्तों के बीच आर्थिक-संघर्ष से उभरते निर्णय दिखाई देते हैं। इन सभी चरमराहट को व्यक्त करने के लिए मेरा उपन्यास ‘भगदड़’ सामने आता है।

कई बार लगता रहा कि कहानी-उपन्यास के साथ एक विधा ऐसी है, जो व्यंग्यात्मक रूप में अपनी बात कह सकती है। सामाजिक विसंगति, सत्ता और व्यवस्था की असंगतियाँ, समाज के विरोधाभास, राजनीति की चालाकियां जैसी बातों को कम शब्दों में व्यक्त करने के लिए लघुकथा अधिक समर्थ लगती है। ऐसी लघुकथाएं भी बड़ी मात्रा में लिखी गईं। विषयानुकूल कैनवास चुनने से मुझे अभिव्यक्ति में सुविधा होती है।

प्रो. चमोलाः साहित्य के वैविध्य के सामानांतर आपको रूप भी प्रकृति से उपहार में मिला है.... तो ऐसे में निश्चित है कि इस रोमानी सौंदर्य का साक्षात्कार कभी प्रेम से हुआ ही होगा.... तो जीवन के उस पहले प्रेम की उस रोमानियत की व्याख्या आप किस रूप में करना चाहेंगे? क्या उस प्रेम के ऋण से अपने लेखन में आप आगे उऋण हो पाए... क्या उन कहानियों के आप संकेत करना चाहेंगे?

डॉ. खड़सेः प्रेम स्वतः ही एक रोमानी सौंदर्य है, रूप-रंग से परे! प्रेम में जीवन और जीवन में प्रेम... अद्भुत अनुभूति है। प्रेम प्रकृति का एक ऐसा वरदान है, जो व्यक्ति को आत्मीय बनाकर रोमांच से भर देता है। प्रेम, प्रकृति की प्रक्रिया को प्रगति प्रदान करता है। रूप तो समय के साथ ढल जाता है। पर, प्रेम, हमेशा अमर, अटल होता है। एक उम्र विशेष में इस अनुभूति के प्रवेश-द्वार खुलते हैं और तमाम उम्र भर इसका अहसास बना रहता है। सुनीता जैन ने कहा, ‘प्रेम मंे स्त्री ने छुआ कलम को। वह बजने लगी बांसुरी-सी’ दुनिया की सभी भाषाओं में रचा गया साहित्य, प्रेम को प्रमुखता देता रहा है। आदि कवि वाल्मीकि ने क्रौंच-बध की कथा काव्य में कही। प्रेम मंे कई राज्य बने, लड़ाइयां हुई और कई राज्य उजड़े भी। लेकिन सच्चा प्रेम देहमय भी है और देहातीत भी। निर्माण उसका स्वभाव है। प्रेम में अनंत शक्ति होती है। प्रेम आधे-अधूरे मनुष्य को पूर्णता प्रदान करता है। क्योंकि प्रेम देह तक सीमित नहीं वह मन और आत्मा को छूता है। प्रेम में व्यक्ति दो होने के बावजूद, युग्म शब्द का विसर्जन होकर, ‘अद्वैत’ की स्थिति बन जाती है। भाषा जहां चुप हो जाती है, प्रेम साहित्य में मुखर हो जाता है। प्रेम में भाषा कम, अनुभूति अधिक होती है। एकत्व को पाकर प्रेम पूर्णता का अनुभव करता है। मनुष्य के समस्त भावों का उत्प्रेरक प्रेम ही है। प्रेम में समग्रता है। वह यदि देह तक सीमित है तो क्षणिक है। पर आत्मा तक उसकी पहुंच है, तो वह अलौकिक है।

किशोरावस्था में उपजा रोमानी भाव समय के साथ प्रेम में परिवर्तित होता हैं देश-काल, समाज-परिवेश के अनुसार इसमें कुछ बंदिशें भी होती हैं। इन्हे ंपार करना, लांघना या इसके साथ आगे बढ़ना यह व्यक्तिनुसार भिन्न भी होता है। पर यह सच है कि इसकी अनुभूति जितनी गहरी होगी, सीमाएं अपने आपको कमजोर पाएंगी। मेरे लेखन में पे्रम ने अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है। कहीं एकाकार होकर, कहीं विवश होकर ‘पराया साथ’, ‘सीढ़ियों पर, ‘अजंता के जख्म’, ‘केंकड़ा’, ‘अंधी सुरंग’, ‘भटकती राख’ जैसी कुछ कहानियां हैं। ‘पार्टनर’ भी इसी क्रम में अलग भावभूमि की कहानी है। उपन्यासों में ‘कालासूरज’ और ‘बादल राग’ प्रेम की सत्ता की दुहाई देते हैं। कविताओं में ‘नदी कभी नहीं सूखती’? ‘तुम लिखो कविता’, ‘लौटती आवाजें’ प्रेम की धाराणाओं को व्यक्त करती हैं। अनुभव, अनुभूति और अभिव्यक्ति का यह सिलसिला जीवन और साहित्य में निरंतर चलता रहता है।

प्रो. चमोलाः मायानगरी के निकट होने से उन दिनों आपको यह एहसास तो नहीं हुआ होगा कि आपको अपने जीवन का कार्य व्यापार फिल्मोद्योग में परखकर देख लेना चाहिए... कि शायद यह आपका व्यक्तित्व वृत्ति का पर्याय सिद्ध हो जाए। यौवन के उन सपनीले दिनों में जीवन विकास व दिशा निर्धारण के कौन-कौन से विकल्प आपके युवा मस्तिष्क में उपस्थित थे? तब कौन-सा मार्ग आपको अर्थोपार्जन व जीविकोपार्जन या फिर यश, मान, ख्याति आदि का उपयुक्त गन्तव्य प्रतीत होता था ?

डॉ. खड़सेः उन दिनों निकट ही नहीं चमोला जी, मैं तो मायानगरी मुंबई में ही था। जीवन में कुछ कर गुजरने के लिए मुंबई एक प्रेरक लक्ष्य होता है। क्षेत्र कोई भी हो; व्यापार, कला, संगीत या साहित्य भी.... साहित्य से जुड़े होने के कारण फिल्मों, सीरियलों में लिखने का मन किसे नहीं होता। मुझे भी हुआ। उस समय ‘टाइम्स आॅफ इंडिया’ की पत्रिका में कहानी, इंटरव्यू काफी आए। फिल्म से जुड़ी कई हस्तियों के इंटरव्यू किए, छपे भी। लेकिन अवसर सामने नहीं आए। संबंधित लोगों ने मेरे उपन्यास ‘कालासूरज’ की कहानी-प्रस्तुतिकरण का कार्यक्रम भी रखा, पुस्तक मंगवायी पर बात आगे नहीं बढ़ी। ‘नवभारत टाइम्स’, ‘फिल्म सिटी’ जैसी पत्रिकाओं में भी कुछ लिखा। कुछ बना नहीं।

तभी ‘एयर इंडिया’ की ओर से सांताक्रूज के ‘होटल सेंतूर’ में एक कार्यक्रम आयोजित किया था। मैं वक्ता के रूप में था। कार्यक्रम के बाद भोजन के समय एक अधिकारी मेरे पास आए और अपना परिचय दिया- अरुण दुग्गल। परिचय बढ़ता गया वे मेरे आॅफिस भी आने लगे। उन्होंने बताया कि वे फिल्मी दुनिया के परिवार से हैं। वे फिल्मों में गीत लिखने वाले जाने-पहचाने राजेन्द्र कृष्ण के भतीजे हैं। बातचीत के दौरान एक बात उभर कर आई कि हम दोनों मिलकर एक सीरियल लिखेंगे.... नेकी और पूछ-पूछ! मैं बहुत उत्साहित था। विषय था-बहादुर बच्चों के जीवन पर एक-एक एपिसोड। जिन बच्चों को बहादुरी के लिए भारत सरकार की ओर से पुरस्कार दिए जाते हैं। वे बचपन में कैसे थे और अब क्या कर रहे हैं, कैसे हैं... इसके लिए ऐसे बच्चों की विस्तृत जानकारी की आवश्यकता थी। यह सरकार से हासिल करनी थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री नरसिंम्हा राव के निजी सचिव श्री खांडेकर से मेरा कुछ परिचय था। उनसे सम्पर्क हुआ और उन्होंने पच्चीस बच्चों की जानकारी उपलब्ध करवा दी। हमने यानी अरुण दुग्गल और मैंने इसका अध्ययन किया और सीरियल का खाका तैयार किया। दो एपिसोड तैयार किये। प्रायोजक भी तय किया। काफी मेहनत हुई। फिर हमने टीवी को प्रस्तुत कर दिया। छह महीने हो गए, कोई निर्णय-सूचना नहीं। सम्पर्क करने पर बताया गया कि ऐसा सीरियल साल भर पहले ही स्वीकृत किया गया है.... मन खट्टा हो गया, मन उचट गया। 

यह मायानगरी थी। उत्साह ठंडा हो चुका था। लगा अपना लेखन ही अच्छा है। हम अपनी मर्जी के मालिक हैं। मेरे एक बड़े आत्मीय मित्र रहे आलोक भट्टाचार्य। वे फिल्मों में लिखते थे। एक दिन उन्होंने डिनर पर बांद्रा के एक होटल में आमंत्रित किया। बातों ही बातों में फिल्मों में लेखन की बात चली। किसी फिल्म के लेखन के लिए ही उन्हें बुलाया गया था। उनके लिए होटल में सारी सुविधाएं मुहैया की गई थीं। उन्होेंने बताया, यहां लेखन को लेकर कोई खास सम्मान नहीं है। शूटिंग के दौरान उपस्थित रहना होता है और अभिनेता व डाइरेक्टर की मर्जी के अनुसार संवाद लिखकर तुरंत देना होता है.... तमाम तरह की भीतरी दास्तां आलोक ने सुर्नाइं.... सीरियल का झटका तो लग ही चुका था, अब यह स्थिति सारे आकर्षण को लील गई। इस तरह एक सपनीले आकर्षण से हमेशा के लिए तौबा कर ली।

अर्थोपार्जन और जीविकोपार्जन के लिए मेरे पास बैंक में वरिष्ठ अधिकारी का पद था। बस अब यह मान रहा कि इस महानगर मंे नौकरी के साथ साहित्य में कुछ कर सकूं। तब तक 

‘धर्मयुग’ ‘नवभारत टाइम्स’, ‘नवनीत’ आदि में, मुंबई में रचनाएं प्रकाशित होने लगी थीं, साथ ही, दिल्ली, लखनऊ, भोपाल, कोलकता, पटना आदि नगरों से प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं को स्थान मिलने लगा था। यश, मान, ख्याति की दिशा में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से कुछ नहीं किया.... पर अब पुस्तक रूप में प्रकाशित होने की खुशी मिलती रही। मुंबई की एक पत्रिका ने ‘कालासूरज’ उपन्यास धारावाहिक रूप में डेढ़ वर्षों तक प्रकाशित किया। साथ ही मुंबई के जनजीवन पर मैंने एक उपन्यास लिखा ‘भगदड़’ जो एक दीवाली अंक सम्पूर्ण रूप से प्रकाशित हुआ। मुंबई निवास पर एक मेरे लिए ये उपलब्धियां कम नहीं थीं।

मुंबई ने मुझे संघर्ष करना सिखाया। विपरीत स्थितियों में जीना सिखाया। चमक-दमक और चकाचैंध किसे नहीं लुभाते। पर सिनेमा की फ़्लैश लाइटों ने मुझे अंधेरा ही दिखाया, यह मेरी व्यक्तिगत असफलता रही... शायद इसके लिए मैं बना ही नहीं था। कमलेश्वर, जगदम्बाप्रसाद दीक्षित जैसे स्थापित लेखकों ने इस क्षेत्र में अपनी जगह बनाई और साहित्य में भी उनका स्थान अडिग रहा। पर ऐसी बात बिरले लोगों को ही हासिल हो सकी। लेकिन साहित्य के क्षेत्र में काम कर रहे हर व्यक्ति को किसी न किसी समय फिल्म अपनी ओर आकर्षित करती रही हैं। वहाँ मान तो पता नहीं पर यश और ख्याति है, साथ ही धन की सम्भावना भी बड़ी मात्रा में है।

प्रो. चमोलाः आपने हिंदी साहित्य की अनेक विधाओं में व्यापक लेखन-कार्य किया है... ऐसे में कविता, कहानी, आलोचना ही क्या आपकी सबसे पसंदीदा विधाएं रही हैं... इसकी कोई खास वजह?

डॉ. खड़सेः कविता, कहानी मेरी पसंदीदा विधा है। मैं आलोचना के क्षेत्र में बहुत काम नहीं पर पाया। लेकिन उपन्यास अब मेरी सबसे अधिक पसंदीदा विधा हो गई है। इसमें जीवन की लम्बी यात्राओं के आख्यान को समेटा जा सकता है। समकालीन स्थितियों को विस्तार से विश्लेषित किया जा सकता है। इसके पाठकों ने भी मुझे बहुत प्रेरित कर अपने साथ जोड़ लिया है। भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित मेरे ‘बादल राग’ उपन्यास को पाठकों का बहुत प्यार मिला। समीक्षकों ने भी इस पर बहुत लिखा। शोध भी हुए और कई भाषाओं में इसके अनुवाद हुए। मराठी, कन्नड़, गुजराती, डोगरी, राजस्थानी में इसके अनुवाद हुए। अंग्रेजी में राइटर्स प्रेस प्रकाशित कर रहा है। साथ ही मलयालम और तेलुगू में इसका अनुवाद जारी है।

यहाँ मैं यह भी उल्लेख करना चाहूंगा कि अनुवाद को लेकर भी मैं निरंतर कार्यरत रहा हूं। मूलरूप से मराठी से हिंदी अनुवाद कई कृतियों के कर पाया। लगभग 20 कृतियों का अनुवाद हो सका। इसमें मराठी के प्रमुख साहित्यकारों का समावेश है। विजय तेंडुलकर, जयवंत दलवी, शिवाजी सावंत, विंदा करंदीकर, दया पवार, भारत सासते, शरण कुमार लिंवाले, अनिल गांधी आदि लेखकों की कृतियों का अनुवाद हिंदी में कर सका। जब कभी मूल लेखन में कुछ विराम रहा अनुवाद-कार्य अवश्य होता रहा है।

कथेत्तर लेखन में भी रुचि रही है। ‘जीवित सपनों का यात्री’ संग्रह में ऐसे लेख संगृहीत हैं। साथ ही, विशिष्ट लेखकों से मिलने, उनसे बातचीत करने और उन पर लिखने का मोह संवरण नहीं हो पाता। इससे काफी कुछ सीखने की गुंजाइश छिपी होती है। निर्मल वर्मा, अमृता प्रीतम, भालचंद्र नेमाड़े, प्रतिभा राय, चित्रा मुद्गल, शिवाजी सावंत आदि से मिलना, उन पर लिखना मेरे लिए सुखद अनुभूति रही है। इसी लेखन में से एक पुस्तक आ गई है- ‘संवादों के बीच, जिसमें कई लेखकों से हुई बातचीत का लेखा-जोखा संकलित है। नाटक को छोड़कर सभी विधाओं में मन रमता रहा। हाँ, मराठी के विशिष्ट नाटकों का हिंदी अनुवाद मैंने अवश्य किया है।

प्रो. चमोलाः आप देश की असंख्य पत्र-पत्रिकाओं में लगभग पांच दशकों से अनवरत लिख रहे हैं। इससे आपको क्या मिला यानी आपका कैसा अनुभव रहा ?

डॉ. खड़सेः चमोला जी, मुझे देश की लगभग सभी प्रमुख हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में लिखने का अवसर मिला। यह एक सुखद अनुभूति रही। कई पत्र-पत्रिकाओं में लगातार लिखते रहने का मौका भी मिला। इसे मैं अपना सौभाग्य ही मानता हूं कि सम्पादकों की पीढ़ियां बदलीं और मुझे हर पीढ़ी के सम्पादक के साथ अपनी बात साझा करने का अवसर मिला।

पत्र-पत्रिकाओं का एक व्यापक पाठक-वर्ग है। कोई कहानी, उपन्यास अंश, धारावाहिक उपन्यास या कविता के प्रकाशन के बाद पाठकों के पत्र-फोन बहुत संतोष लेकर आते हैं। कई सुझाव, कई सराहनाएं और कुछ असहमतियां नये लेखन को ऊर्जा और दिशा देने के साथ प्रेरणा भी देती हैं। बरसों पहले ‘धर्मयुग’ में मेरी एक कहानी छपी ‘केकड़ा’। इसे पढ़ने के बाद एक पाठक का लम्बा पत्र आया, जिसमें उसने लिखा था कि यह कहानी लगता है आपके उपन्यास का अंश है। अथवा आप इसके आगे इस कथा का विस्तार दे रहे होंगे; यदि ऐसा नहीं है तो इस बात पर अवश्य विचार करें। ऐसा  तो कुछ नहीं था। मैं कहानी लिख कर मुक्त हो चुका था। पर मन में विचार आया कि शायद पाठक का सुझाव उचित है। एक ऐसा पाठक जिसको मैंने कभी देखा नहीं, कभी बात नहीं की और वह बहुत आत्मीयता से कहानी के माध्यम से जुड़कर सुझाव दे रहा है; कितनी सुखद बात है। मैंने कहानी को आगे बढ़ाने की ठान ली। एक अगला हिस्सा जुड़ गयाः वही परिवेश, पात्रों के नाम वही और उसकी अगली कड़ी के रूप में ‘डूबते प्रतिबिंब’ कहानी मेरे सामने थी। वह भी ‘धर्मयुग’ में ही छपी। उस पाठक ने पढ़कर मुझे धन्यवाद दिया कि मैंने उसके सुझाव पर विचार किया। इस तरह लेखक का पाठक से रिश्ता पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से बनता है, यह सबसे बड़ी उपलब्धि लगती है। यह बात और है कि मैं उस कथावस्तु को और आगे नहीं बढ़ा सका।

लेखन एक निरंतर प्रक्रिया है। पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से अपने पाठकों से सीधा तादात्म्य होना सबसे बड़ी उपलब्धि है। मेरे लिए यह एक सुखद, संतोषप्रद और प्रेरक स्थिति है। पत्र-पत्रिकाओं के जरिए मित्र-परिवार में वृद्धि होती रही है। 

प्रो. चमोलाः आप पुणे की साहित्य की उस उर्वरा धरती से आते हैं, जिसकी मिट्टी ने देश को अनेक नामी साहित्यकार कवि और रचनाकार दिए हैं। ऐसे में आप अपनी रचनाओं में पुणे के जीवन को किस तरह याद करते हैं... क्या आपने बचपन के अपने उन रोमानी दिनों के अनुभवों को अपने साहित्य में यानी बाल साहित्य में चित्रित करने का प्रयास किया है? आजकल, बाल साहित्य के प्रति लोगों का रुझान घट रहा है, पत्र-पत्रिकाओं से यह दिन-ब-दिन गायब हो रहा है। इसके पीछे आप क्या कारण समझते हैं ?

डॉ. खड़सेः पुणे महानगर, साहित्य, संगीत, क्रीडा, अभिनय, नाटक, फिल्म आदि का गढ़ रहा है। संगीत में भीमसेन जोशी, नाटक-फिल्म में अमोल पालेकर, श्रीराम लागू, मोहन आगाशे आदि का मूल आवास पुणे ही है। फिल्म एण्ड टेलीविजन संस्थान, पुणे में है। साहित्य के क्षेत्र में भी पुणे के लेखकों की बड़ी संख्या है। ‘महाराष्ट्र साहित्य परिषद’ का कार्यालय यहीं है। मराठी पुस्तकों के अधिकांश प्रकाशक पुणे में हैं। दीवाली के अवसर पर लगभग 400 दीवाली अंक मराठी में प्रकाशित होते हैं। कई अंक पुणे से ही प्रकाशित होते हैं। मराठी साहित्य का अविभाज्य अंग है नाटक.... नाटकों के लिए फिल्म की तरह भीड़ होती है। पुणे में चार ऐसे नाट्य मंच हैं, जहाँ प्रतिदिन एक नाटक मंचित होता है, कभी-कभी दिन-रात मिलाकर दो नाटक भी खेले जाते हैं।

जिस नगर में व्यक्ति रहता है, उसका प्रभाव उसके मन-मस्तिष्क तक होता ही है। मैंने कई कहानियां पुणे के पाश्र्वभूमि पर लिखी है- ‘साहब फिर कब आएंगे माँ’ ‘चेहरा-दर-चेहरा’, ‘गौरैया को तो गुस्सा नहीं आता’, ‘लौटते हुए’, ‘इस जंगल में’, ‘तेंदुआ’, ‘अनचाहे मोड़’ ‘लहरों के बीच’ जैसी कहानियां पुणे के परिवेश, जन-जीवन से निकली कहानियां हैं। मेरे ‘बादल राग’, ‘उपन्यास में पुणे का काफी चित्रण उभरकर आया है।

मैं बाल साहित्य के क्षेत्र में बहुत काम नहीं कर पाया। 

‘धर्मयुग’ के तत्कालीन उपसंपादक कैलाश सेंगर के आग्रह पर ‘हिमालय आया’ नामक एक बाल कहानी लिखी, साथ ही, ‘बंद दरवाज़े’ नामक कहानी को बाल समस्याओं की कहानी कह सकते हैं। पर वह बालकों पर है, बालकों के लिए संभवतः उनके भविष्य की कहानी होगी। पर हाँ कुछेक कविताएं, हैं-गिनती की। इसके अलावा मैं बाल साहित्य के क्षेत्र में अधिक कुछ नहीं कर पाया।

प्रो. चमोलाः आपको लेखक बनाने में किसका प्रमुख योगदान रहा, परिस्थितियों का या अपने जिद्दी अथवा हठी स्वभाव का?

डॉ. खड़सेः किसी व्यक्ति को लेखक बनाने में बहुत सारे तत्वों का योगदान होता है। परिस्थितियां, परिवेश, चुनौतियां संग-साथ, मार्गदर्शन, सहयोग, प्रेरणा जैसे तत्वों की भूमिका होती है। कई बार भीतरी कसाब, संघर्ष से मुक्ति के लिए भी लेखन सहायक बन जाता है। पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, अतिव्यैक्तिक संबंध, न्याय-अन्याय जैसी स्थितियां लेखन को चुनौती देती हैं। संभवतः ये तत्व ही लेखक को लिखने के लिए उकसाते हैं। साथ ही, आसपास का वातावरण भी अपनी भूमिका निभाता है। लेखन के प्रारंभिक दौर में लेखक का अपना परिवेश प्रेरित करता है। वैचारिक ऊहापोह में, विमर्शी में संग-साथ का काफी परिणाम होता है। जैसा कि मैंने कहा है अकोला की साहित्यिक संस्था ‘अक्षर’ का योगदान कम नहीं है। नागपुर आने के बाद ‘विचार-वीथी’ के माध्यम से लिखने पढ़ने का रूझान बढ़ता गया। कमलेश्वर से जुड़ने के बाद ‘समांतर सम्मेलन’ के माध्यम से अखिल भारतीय स्तर पर विभिन्न भाषाओं के लेखकों से सम्पर्क हुआ। नये विषयों, नये विचारों और नये लेखकों के मंच पर आकर सोचने-समझने और लिखने के नये आयामों से रूबरू होकर फलक का विस्तार होता गया। इसी दौरान बलराम से मुलाकात हुई, जो प्रसिद्ध कथाकार तो हैं ही, समर्थ संपादक भी हैं। ‘सारिका’ से प्रारंभ कर कई पत्रिकाओं के सम्पादन के बाद वर्तमान में बलराम समकालीन भारतीय साहित्य के संपादक हैं। साहित्यिक मित्रों को अपार स्नेह और सहयोग बलराम का निरंतर मिलता रहता है। उन्होंने कुछ नये कथाकारों का एक संकलन ‘काफिला’ सम्पादित किया। पहली बार मेरी कहानी किसी संग्रह में शामिल हुई- ‘चुभता हुआ घोंसला’। कमलेश्वर ने पहला अनुवाद करवाया- दया पवार के आत्मकथ्य का- ‘सारिका’ के लिए। इस पर इतने पत्र आए कि अगले अंक का ‘पाठकों का पन्ना’ दया पवार के आत्मकथ्य पर प्रतिक्रिया से ही भर गया। कमलेश्वर के कहने पर दया पवार ने अपने आत्मकथ्य को आत्मकथा के रूप में व्यापकता दी। मराठी में वह खूब चर्चित हुई और मील का पत्थर साबित हुई- ‘अछूत’ शीर्षक से यह राधाकृष्ण प्रकाशन से 1980 में प्रकाशित हुई थी। इसका अनुवाद हिंदी में करने का अवसर मुझे मिला और हिंदी से सात भारतीय भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ। मूल लेखन के साथ अनुवाद करने का यह सिलसिला निरंतर चलता रहा। अतः यह कहना अनुचित न होगा कि परिस्थितियों ने झिंझोड़ा, घर-परिवार ने साथ दिया, मित्रों ने सहयोग किया और संघर्ष तथा भीतरी छटपटाहट ने लेखन के क्षेत्र में मुझे निरंतर सक्रिया रखा।

प्रो. चमोलाः आपके साहित्य पर देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में पीएच.डी. और एम.फिल स्तरीय कई शोध-कार्य सम्पन्न हुए हैं, इसे आप क्या मानते हैं? शोध मूल लेखक के रचनाकर्म को विस्तारित करता है अथवा उसके मूल्यांकन में आपको शोधार्थियों की किसी प्रकार की कोई अल्पज्ञता नजर आती है ?

डॉ. खड़से - विभिन्न विश्वविद्यालयों में मेरे साहित्य पर शोध हुआ है और कई स्थानों पर हो रहा है। अच्छा तो लगता ही है, नई पीढ़ी की रुचि देखकर संतोष होता है। यह उचित ही लगता है कि लेखक के रचनाकर्म को विस्तार मिलता है। साहित्य का विश्लेषण होता है। कई बार लेखक को अपने ही लेखन का नया आयाम रेखांकित होते दिखता है। शोध-कार्य प्रकाशित होने के बाद स्थायी मूल्यांकन के रूप में उसका उपयोग अध्ययनकत्र्ता या संदर्भों के लिए हो सकता है। 

शोधार्थी अपने कार्य को पूर्णता देने के लिए समर्पित होते हैं। लेखक को चाहिए कि उनके साथ सहयोग करे। वे ज्ञानार्थी होते हैं, उनकी कुछ सीमाएं हो सकती हैं। अधिकांश शोधार्थी पूरी तैयारी से मिलते हैं। उनका अध्ययन, उनका दृष्टिकोण, उनकी मेहनत सराहनीय होती है। पूरी तैयारी के साथ वे साक्षात्कार लेते हैं और बड़ी निपुणता से निष्कर्ष प्रस्तुत करते हैं।

प्रो. चमोलाः जब आपके लेखन का नोटिस उच्च शैक्षणिक संस्थाएं एवं प्रबुद्ध साहित्यकार, हिंदी सेवी व आलोचक प्रभृति लोग लेने लगते हैं तो आपके लिए अपने कर्तव्य-पथ पर अधिक तीव्रता व सजगता से बढ़ने का दायित्वबोध भी उसी अनुपात में बढ़ जाता है। यह लेखन धीरे-धीरे प्रसिद्धि के साथ साथ सामाजिक स्वीकृति का भी प्रतीक व पर्याय बनता चला जाता है। क्या आप इस बात से सहमत हैं ?

डॉ. खड़से - जी हाँ मैं सहमत हूँ।

आठवीं से बारहवीं के पाठ्यक्रमों में रचनाओं का समावेश है, साथ ही स्नातक व स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में भी रचनाएं संकलित हैं। एम.फिल. और पीएच.डी की डिग्रियां भी शोधार्थियों द्वारा हासिल की गई है। ऐसे में निश्चित ही दायित्वबोध बढ़ जाता है। समाज के प्रति उत्तरदायित्व बढ़ जाता है।

प्रो. चमोलाः जब आप युवा थे तब के युवा कैसे थे.... उनकी कविताएं कैसी थीं? आज आप युवाओं के लिए प्रेरणा-स्रोत हैं, इस संबंध में आप कुछ कहना चाहेंगे? या फिर दूसरे शब्दों में कहूं कि सात आठ दशक पहले की कविता से लेकर आज तक की कविताओं में युवाओं के चिंतन, लेखन, शिल्प, अध्ययन एवं गाम्भीर्य में आए परिवर्तन को आप किस रूप में देखते हैं ?

डॉ. खड़से: युवाओं की अपनी एक पीढ़ी होती है। उनकी सोच और उनकी चुनौतियां लगभग एक समान होती है। स्वतंत्रता के बाद उम्मीदों के भ्रमभंग से उपजी कविताओं को उस खण्ड का सच्चा इतिहास कहा जा सकता है। क्योंकि कोई भी साहित्य गुजरते समय में अपने कालखण्ड का सही इतिहास हुआ करता है। मेरे समकालीन युवा-साहित्यकार अपने समय की व्यवस्था का विश्लेषण कर अन्याय, शोषण और अत्याचारों का विरोध अपनी रचनात्मकता के माध्यम से कर रहे थे। गद्य और पद्य दोनों में समाज की विसंगतियों पर टिप्पणियां देखी जा सकती हैं। बलराम की कहानियों में ग्रामीण पात्रों की विद्रुपता, उनकी ‘कलम हुए हाथ’ में देखी जा सकती है। शिवमूर्ति के ‘त्रिशूल’ उपन्यास में साम्प्रदायिक संघर्ष को देखा जा सकता है। संजीव की कहानी ‘अपराध’ स्थापित समाज के हाथों कठपुतली बनी व्यवस्था द्वारा शोषण करने की कुत्सित वृत्ति को जाना जा सकता है। कविता और गीत-गजलों में भी व्यवस्था पर आलोचनात्मक टिप्पणियों की भरमार रही। गजलों में दुष्यंतकुमार ने अपने समय को उल्लेखनीय रूप में पिरोया है। लीलाधर मंडलोई, राजेश जोशी जैसे कवियों ने अपने समय को शब्दबद्ध किया है। साहित्य की अन्यन्य विधाओं में युवा-पीढ़ी ने खूब भागीदारी की है-चिंतन, शिल्प में अपनी प्रतिमा का परिचय दिया है। आलोक भट्टाचार्य ने अपना विद्रोही-राग बखूबी प्रस्तुत किया। विजयकुमार ने अपनी कविताओं में अपने वर्तमान की विसंगतियों, चुनौतियों और व्यवस्था की साजिशों को उजाकर किया है। कैलाश सेंगर ने पहले अपने गीतों में प्रेम राग गाया फिर गजलों-गीतों में राजनीति की समाज पर गड़ी गिद्ध-दृष्टि को लोगों को दिखाया। घनश्याम अग्रवाल, प्रेम जनमेजय जैसे व्यंग्यकारों ने अपने समय की विसंगतियों का लेखा-जोखा समाज के सामने रखा। सूर्यबाला, सूर्यकांत नागर, तेजेन्द्र शर्मा, हरि भटनागर, अशोक गुजराती, राजेन्द्र श्रीवास्तव जैसे कथाकारों ने मानवीय रिश्तों की कहानियां कहीं... कुल मिलाकार अपने समय के रचनाकारों ने अपने आसपास को, परिवेश को गम्भीरता से सामने रखा। आर्थिक, प्रौद्योगिक, राजनैतिक परिवर्तनों का भी बड़ी मात्रा में रेखांकन हुआ है। भूमंडलीकरण से उपजे सांस्कृतिक चुनौतियों को, उपभोक्तावाद के दुष्परिणामों को भी इस पीढ़ी ने बखूबी उभारा है।

प्रो. चमोलाः क्या साहित्यकार होना अपने भावनात्मक ऋणों से उऋण होना है? इतनी दीर्घ सृजन यात्रा के उपरांत आपको क्या ऐसी अनुभूति जो नहीं होती कि ‘मुझे साहित्यकार नहीं, अपितु कुछ और होना चाहिए था.... संभवत इस कुछ और होने में मैं राष्ट्र, जीवन और समाज को एक लेखक के अवदान से अधिक अवदान देने में सक्षम हो सकता था.... क्या इस मुकाम पर पहुंचकर आपको ऐसा महसूस होता है?

डॉ. खड़सेः साहित्यकार होना मेरे लिए अपने भीतर के संवादों और सरोकारों को शब्दबद्ध करना है। केवल लिख देने मात्र से उऋण तो नहीं हुआ जा सकता, लेकिन कुछ संतोष और सुखद अनुभूति अवश्य होती है। समय मनुष्य को गढ़ता रहता है। आपके सपने, आपकी इच्छाएँ, आपकी मनोकामनाएं अपनी जगह अवश्य आपको संचालित करती रहती हैं। लेकिन, पल-पल एक अनुपात स्थितियों और प्रयासों का साथ-साथ चलता रहता है। मैं अपने घर परिवार और कामकाज के साथ लेखन कार्य भी करता रहा। मुझे ऐसा लगता है कि जो जहां भी अपना काम ईमानदारी से करता है, काम चाहे जो भी हो; वह राष्ट्र और समाज को समर्पित कार्य कर रहा होता है। जो जहाँ भी कार्यरत है, वह अपना श्रेष्ठ अवदान दे, यही सर्वोत्तम सेवा है।

वैसे उम्र  के उभरते पड़ाव पर मेरी इच्छा थी कि सेना में भर्ती होकर सीधे देश-सेवा के साथ जुड़ूँ। लेकिन किन्हीं कारणों से यह हो न सका। कुछ वर्ष अध्यापन का कार्य किया और बैंक में सेवा-निवृत्त होने तक नौकरी करता रहा। लेखन नहीं छोड़ पाया। बचपन से अब तक लिखने का मन अनवरत जारी है। समय के किसी भी मोड़ पर यह सोचा ही नहीं कि लेखन छोड़ मैं किसी अन्य कार्य में अधिक अवदान दे सकूंगा। लेखन में भी अवदान क्या और कैसा है, यह तय करना तो समय का काम है। अपना काम तो लिखते रहना है। पाठकों की प्रतिक्रियाएं प्रेरक लगती हैं। इस इतर कुछ और होने की न तो कोई मंशा रही और न ही मैंने कोई प्रयास किए।

प्रो. चमोलाः आप अपने लेखन के उत्प्रेरक के रूप में किसे याद करते हैं....कौन-सी ऐसी परिस्थितियां थीं या प्रेरक व्यक्ति थे.... जिनके सम्पर्क में आकर आपने लिखने की ओर तीव्रता से कदम बढ़ाया?

डॉ. खड़सेः आसपास का परिवेश, समाजिक-राजनैतिक विसंगतियां, पिता जी के, फिर मेरे निरंतर होते रहते तबादले के कारण बार-बार जड़ों से उखड़ने की पीड़ा, रिश्तों में खड़खड़ाहट जैसे कारक प्रभावित करते रहे। लेकिन, उम्मीद का उत्प्रेरक निरंतर आगे चलाता रहा। हरिनारायण व्यास का व्यक्तित्व और सान्निध्य लिखने के लिए उकसाता रहा। श्री व्यास के अलावा मित्रपरिवार भी लेखन को लेकर बहुत सहयोग देता रहा। जब प्रकाशन का प्रारंभ हुआ और लेखन को मान्यता मिलती गई तब गति मिलती चली गई।

प्रो. चमोलाः युवा काल में किस महान रचनाकारों के संपर्क में आप आए... तथा किसकी किन बातों ने आपके युवामन को प्रेरित किया और आकर्षणों भरे वृत्ति के प्रलोभनों से इतर कर आपको साहित्य की दुनिया और विशेषकर हिंदी क्षेत्र की सेवा करने के लिए उत्साहित कर दिया?

डॉ. खड़सेः युवा काल में कई प्रेरक व्यक्तित्वों के सम्पर्क में आया। प्रारंभ में, दशरथ ओझा, चंद्र किरण सौनरेक्सा, हरेकृष्ण देवसरे आदि के मार्गदर्शन और सान्निध्य का लाभ मिला। डॉ. इंद्रनाथ चैधरी, प्रभाकर क्षोत्रिय, रवीन्द्र कालिया, प्रभाकर माचवे, सूर्यकांत नागर आदि का सान्निध्य भी मिला। सारिका के तत्कालीन सम्पादक कमलेश्वर के माध्यम से हिंदी मराठी और भारतीय भाषाओं के लेखकों से सम्पर्क हुआ। धीरे-धीरे परिचय की व्यापकता बढ़ती गई। कमलेश्वर ने सारिका गंगा आदि पत्रिकाओं में खूब स्थान दिया। ‘धर्मयुग’ के तत्कालीन सम्पादक डॉ. धर्मवीर भारती से भी मुलाकातें होती रहतीं। 

धर्मयुग में कहानियों का प्रकाशन होता रहा। नवभारत टाइम्स और अब ‘नवनीत’ के सम्पादक विश्वनाथ सचदेव ने खूब प्यार दिया और रचनाएं प्रकाशित कर प्रोत्साहित करते रहे हैं। इन सभी वरिष्ठ साहित्यकारों के प्रेरक मेल-मुलाकातों ने सीखने  के अवसर उपलब्ध कराए। पुणे में हरिनारायण व्यास (दूसरे सप्तक के कवि) का स्नेह न सिर्फ घर परिवार का मिला, बल्कि मेरे लेखन को संवारने में उनका अमूल्य योगदान रहा है। इसी प्रकार प्रकाण्ड पंडित, प्रखर चिंतक, भाषाशास्त्री और स्पष्ट वक्ता प्रो. डॉ. आनंद प्रकाश दीक्षित से हर मुलाकात में एक ऊर्जा, उत्साह का उपहार मिलता रहा। हर दृष्टि से इन विद्वानों से मैंने अपरिमित संस्कार पाए।

सामाजिक क्षेत्र में कुष्ठ रोगियों के तारणहार बाबा आमटे के शिविर में मैं दस दिनों तक रहा। रोज श्रमदान और मराठी के साहित्यकारों-चिंतको के व्याख्यानों ने सामाजिक रूप से नई चेतना जगाई। देश-विदेश से लोग बाबा आमटे का सामाजिक समर्पण और कुष्ठ रोगियों के पुनर्रोत्थान के लिए किए जा रहे कार्यों को देखने आते। देह और दुनिया से दुत्कारे लोगों में नई शक्ति फूंकने का कार्य बाबा आमटे करते। वहां रहते हुए मैंने दस लेख लिखे। एक लेख ‘धर्मयुग’ में धर्मवीर भारतीय के सम्पादन में छपा। इसका कई भाषाओं में अनुवाद हुआ, पाठ्यक्रम में आया और ब्रेल में भी इसका प्रकाशन हुआ। ऐसे व्यक्तित्व से मिलने के बाद भौतिक आकर्षण और प्रलोभन को स्थान नहीं मिला। लगता उन जैसा तो शायद नहीं बन पाएंगे, पर ऐसे व्यक्तित्वों को लेखन के माध्यम से दूसरों तक पहुंचा तो सकते हैं।

कालांतर में, चित्रा मुद्गल, प्रतिभा राय, भालचंद्र नेमाड़े, शिवाजी सावंत, जयवंत दलवी, दया पवार जैसे लब्ध-प्रतिष्ठ साहित्यकारों का सान्निध्य बहुत प्रभावित कर गया।

प्रो. चमोलाः आपने किससे प्रेरित होकर हिंदी विषय पढ़ना चाहा... हिंदी साहित्य को पढ़ते हुए किन-किन व्यक्तित्वों से आपका संपर्क हुआ और उनके चिंतनर्ढन एवं अध्यापन की प्रभावी तकनीक ने आपकी संशययुक्त युवामन को किस प्रकार हिंदी के क्षेत्र में आगामी अध्ययन व अनुसंधान करने के लिए प्रेरित किया ? उन दिनों की सम्मानित विद्वानों या प्राध्यापकों में किन-किन को महनीय साधना को आप याद करना चाहेंगे, जिन्होंने आपको हिंदी संसार की इस उर्वरा रत्नप्रसू भाव-वसुंधरा में गहनता से वैचारिक कृषि करने के लिए उत्साहित किया ?

डॉ. खड़सेः स्कूली जीवन में केशवचंद्र गुप्त नामक शिक्षक का व्यक्तित्व और अध्यापन की पद्धति इतनी रोचक और जीवंत रही कि हिंदी भाषा के प्रति आकर्षण पैदा हुआ। साथ ही, वे संस्कृत भी पढ़ाया करते। दोनों विषयों में मेरा ध्यान विशेष रूप से लगता। उन्होंने मुझे हिंदी के लिए बहुत प्रोत्साहित किया। कॉलेज में आने के बाद प्राचार्य रामकृष्ण श्रीवास्तव और डॉ. सुभाष पटनायक के अध्यापन और मार्गदर्शन ने हिंदी के प्रति और साहित्य के प्रति रुचि जगाई। उन्होंने ही पहली बार ‘सारिका’ से परिचय करवाया। डॉ. सुभाष पटनायक आचार्य रजनीश की पुस्तकंे खूब पढ़ा करते। वे हमसे कहते हिंदी भाषा की विशिष्टता जानने के लिए रजनीश की पुस्तकें बहुत लाभकारी हैं। वे रजनीश के प्रवचनों के लिए अपने खर्चे पर दूसरे शहर भी साथ ले जाते। प्राचार्य रामकृष्ण श्रीवास्तव स्वयं एक उत्कृष्ट कवि थे, वे डूबकर पढ़ाते। कबीर को पढ़ते हुए जीवन कबीरमय होता गया। मैं कबीर की रचनाओं में पूरी तरह सराबोर हो गया। मुझे अनुसंधान के लिए डॉ. विकल गौतम ने प्रेरित किया। नौ वर्षों तक मैंने अध्यापन किया और बाद में बैंक में जवाइन कर लिया। यहां वैसे पीएचडी अपेक्षित नहीं थी। लेकिन डॉ. गौतम की प्रेरणा से मैंने अपना शोधकार्य जारी रखा और नागपुर से तबादला होने से पहले मेरा 

शोधकार्य पूरा हो गया। इसका श्रेय डॉ. गौतम को ही है। नागपुर से पुणे आने के बाद डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित के सम्पर्क में आने से हिंदी के प्रति एक विशिष्ट रूझान पैदा हुआ। साहित्य को लेकर कविश्री हरिनारायण व्यास का मार्गदर्शन और प्रेरणा एक उपलब्धि के रूप में है। उनके पास हिंदी की काफी पत्रिकाएं आती थीं। इन पत्रिकाओं के माध्यम से कई कई जानकारियों से रूबरू होने का अवसर मिला। मुझे लगता है, इन गुरुजनों के सान्निध्य और मार्गदर्शन ने हिंदी के प्रति विशिष्ट रुचि जगाई और मेरे लेखन को प्रोत्साहित कर प्रेरणा दी।

प्रो. चमोलाः आपने न केवल लेखन क्षेत्र में हिंदी को अपनाया बल्कि अपने जीवन वृति के पर्याय के रूप में भी हिंदी को ही चुना। कृपया अभी तक की गई अपनी हिंदी सेवा के बारे में विस्तार से बताएं।

डॉ. खड़सेः चमोला जी! जैसा कि मैंने पहले ही कहा है कि मेरा बचपन हिंदी परिवेश में बीता इसलिए हिंदी पूरी तरह रच बस गई। फिर जब लेखन की सुगबुगाहट हुई तो हिंदी माध्यम के रूप में मेरे साथ रही। हिंदी ने मुझे अपना लिया। यह संयोग ही रहा कि बाद में मैं बैंक के हिंदी विभाग में अधिकारी के रूप में चुन लिया गया। बैंक ऑफ महाराष्ट्र के राजभाषा प्रभारी श्री मुं. मा. जगताप के मार्गदर्शन में कार्यारंभ करने का सौभाग्य मिला। श्री जगताप हिंदी प्रचार के क्षेत्र से आए थे। उन्होंने बड़ी सूझ बूझ के साथ हिंदी कार्यान्वयन को गति दी थी। उनके सेवा निवृत होने के बाद मुख्य अधिकारी के रूप में मुझे अवसर दिया गया। अध्यापन की तुलना में तकनीकी क्षेत्र में हिंदी सर्वथा भिन्न थी। प्रशासनिक कार्य भी काफी था। अनुवाद प्रशिक्षण प्रकाशन और सरकार की नीतियों के कार्यान्वयन का उत्तरदायित्व निभाना होता। पचास से अधिक प्रकाशनों पर काम किया गया। बैंक से शाखा स्तर से केन्द्रीय कार्यालय और भारतीय रिजर्व बैंक और भारत सरकार के साथ समन्वय कर सरकारी नीतियों के कार्यान्वयन के लिए प्रयास किए जाते रहे। बैंक की पत्रिका का प्रकाशन बैंकिंग शब्दावली के निर्माण के लिए भारतीय रिजर्व बैंक की समीति पर कार्य, भारतीय बैंक संघ की हिंदी समिति पर उपाध्यक्ष के रूप में योगदान, महाराष्ट्र राज्य की बैंकर समिति के सचिव की हैसियत से सेवाएं देता रहा। नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति बैंक-मुंबई देश की पहली समिति है, जिसके संस्थापक सचिव के रूप में मेरी नियुक्ति हुई। संसदीय राजभाषा समिति के निरीक्षण दौरे का समन्वय करने की जिम्मेदारी का भी निर्वहन मेरे द्वारा किया गया। राजभाषा की विभिन्न समितियों पर काम करने का अवसर मिला।

बैंक के राजभाषा कार्यान्वयन के अलावा विभिन्न मंत्रालयों की हिंदी सलाहकार समितियों के सदस्य के रूप में कार्य किया। केंद्रीय हिंदी समिति (अध्यक्ष प्रधानमंत्री, भारत सरकार) का दो अवधि वर्ष 2011 से 2014 और 2014 से 2017 तक सदस्य रहा। केंद्रीय हिंदी निदेशालय की पत्रिका भाषा के परामर्श मंडल का सदस्य रहा। और केंद्रीय हिंदी संस्थान के शासी परिषद का सदस्य हूँ। इस प्रकार हिंदी के लिए विभिन्न स्तरों पर सेवाएं देने का अवसर मुझे मिला।

प्रो. चमोलाः आपने मराठी में लेखन के साथ-साथ हिंदी में भी पर्याप्त लेखन किया है। कृपया अपने हिंदी लेखन की रचना यात्रा पर विस्तार से प्रकाश डालें।

डॉ. खड़सेः मैं एक बात स्पष्ट कर दूं कि मैंने मराठी में नहीं के बराबर लिखा है। हाँ मराठी से हिंदी अनुवाद बहुत किए हैं। लगभग 21 मराठी कृतियों के अनुवाद किए हैं- जिनमें विजय तेंडुलकर, जयवंत दलवी, विंदा करंदीकर, कुसुमाग्रज शिवाजी सावंत, आनंद वादन, दया पवार, अरुण खोरे, अश्विद गोखले, ज्ञानेश्वर मुले, गोविद तत्मलकर, सदानंद देशमुख आदि लेखकों की कृतियों का समावेश है। सदानंद देशमुख के ‘बारोमास’ उपन्यास के लिए साहित्य अकादेमी नई दिल्ली का अनुवाद पुरस्कार भी प्रदान किया गया है। ‘रामनगरी’ के हिंदी अनुवाद के लिए म. प्र. साहित्य परिषद का आचार्य रामचंद्र शुक्ल सम्मान प्रदान किया गया। साथ ही मेरी कृतियों का दूसरे अनुवादकों द्वारा हिंदी से मराठी में अनुवाद किया गया है। उपन्यासों और कहानियों के अनुवाद चंद्रकांत औंजाल द्वारा गजानन चवाण द्वारा कविताओं के अनुवाद प्रकाशित हैं।

मूल रूप से मैंने अपना लेखन हिंदी में ही किया है। 1976 से प्रकाशन प्रारंभ हुआ। प्रारंभ में कुछ संकलनों में रचनाएं आईं। बलराम द्वारा सम्पादित कथा-संग्रह। ‘काफिला में चुभता हुआ घोंसला’ कहानी छपी। और संग्रहों में भी कहानी कविताएं आईं। पहला कथा संग्रह ‘भटकते कोलंबस’ 1980 में प्रकाशित हुआ और फिर नौ कथा संग्रहों ने आकार लिया। ये सारी कहानियां पहले पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित वहीं है। समीक्षकों ने काफी स्नेह दिया और उत्साह बढ़ता गया। ‘चुनी हुई कहानियां 2017 में प्रकाशित है। जहाँ तक उपन्यासों की बात है- 1980 में मेरा पहला उपन्यास ‘काला सूरज’ प्रकाशित हुआ। इसे केंद्रीय हिंदी निदेशालय का पुरस्कार राष्ट्रपति भवन में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा द्वारा प्रदान किया गया। फिर ‘भगदड़’ उपन्यास राधाकृष्ण प्रकाशन से आया। उसके बाद ‘बादल राग’ उपन्यास भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ। इसकी चर्चा ने बहुत उत्साहित किया। इसका मराठी, गुजराती, कन्नड़, अंग्रेजी, राजस्थानी, डोगरी, तलुगू, मलयालम में अनुवाद हुआ और इसे गोयनका फाउंडेशन का पुरस्कार भी मिला। बाद में वाणी प्रकाशन से ‘खिड़कियां’ उपन्यास छपा, जिसका मराठी अनुवाद भी प्रेस में है। सन् 2000 में पहला कविता संग्रह-अब वहीं घोंसले हैं। प्रकाशित हुआ। इसके बाद लगातार 9 कविता संग्रह छपते रहे। दसवां कविता संग्रह - 2019 में प्रकाशित हुआ। तीन संग्रहों का हिंदी से मराठी में अनुवाद है। एक पुस्तक ‘सृजन के सरोकार’ समीक्षा की है। चार भेंटवार्ता और यात्रा संस्मरणों की है। राजभाषा विषयक आठ  और लगभग 21 कृतियों का मराठी से हिंदी अनुवाद की कृतियां है। मेरी इस रचना यात्रा पर लगभग छह पुस्तकें विभिन्न लेखकों द्वारा सम्पादित, लिखित हैं। 

प्रो. चमोला - जीवन के प्रारंभिक दिनों में प्रेम के कुछ यादगार पन्नों के बारे में कुछ बताएं।

डॉ. खड़सेः जीवन के प्रारंभिक दिन अत्यंत संघर्ष भरे थे। जिम्मेदारियों से बोझिल थे। कसे हुए थे। आर्थिक अभाव और निरंतर तबादलों से एक अस्थिर जीवन का मैं गवाह रहा। तीन छोटे-भाई बहन है। और पिता जी की सेवा निवृत्ति मुझे असमय ट्यूशन और काम करने के लिए तैयार कर रही थी। मैंने वही किया। ऐसे कोई यादगार पल बन ही नहीं पाए और जीवन जिम्मेदारियों के साथ तेज गति से आगे बढ़ता गया। कॉलेज का जीवन भी पूरा नहीं कर कर पाया। अतः स्नातक और स्नातकोतर पढ़ाई मुझे निजी तौर पर करनी पड़ी। पीएचडी. नौकरी में आने के बाद की। इन अवस्थाओं की कुछ रचनाएं जरूर लिखीं उनमें से कुछ कविताएं और ‘भटकते कोलंबस ’चुभता हुआ घोंसला’ जैसी कहानियां बाहर आ गईं।

प्रो. चमोलाः खड़से जी, अपने जीवन की उन तमाम सत्य घटनाओं जिनमें पे्रम, शराब, मित्र, प्रकृति, प्रवृत्ति आदि बहुत कुछ शामिल है, को अपनी रचनाओं मंे कितनी दृढ़ता से प्रस्तुत करते हैं? आपके जीवन के यथार्थ हादसों, चित्रों, घटनाओं का शत-प्रतिशत निरूपण करने में कितने सफल हुए हैं ?

डॉ. खड़सेः चमोला जी, जीवन में बहुत कुछ घटता रहता है, उसका प्रभाव रचनाओं में दिखाई देता ही है। पर केवल अपने ही जीवन का चित्र रचनाकार नहीं खींचता। उसके सामने एक व्यापक फलक होता है। परिवेश और आसपास, समाज और रिश्ते रचनाकार को ललकारते हैं और रचना समग्रतः उसे अपनी परिधि में समेटती है। इस परिधि में प्रेम, शराब, मित्र, प्रकृति, प्रवृत्ति आदि अवश्य शामिल होते हैं। 

‘अंधी सुरंग’ कहानी में प्रेम और शराब की स्थिति का बयान है। कई कहानियों और उपन्यासों में इस तरह के विवरण आए हैं। इन सारी बातों को निजी जीवन से जोड़ने का औचित्य अप्रासंगिक लगता है। जीवन में मित्रों की भूमिका बहुत अहम होती है। पूर्व इसका उल्लेख यहाँ वहां हुआ है। ‘भगदड़’ और ‘खिड़कियां’ उपन्यास में मित्रों का संग-साथ विस्तार से उभरा है। प्रकृति में विचरण एक अंतहीन यात्रा होती है। बहुत अच्छा लगता है। इसकी प्रतिध्वनियां तमाम कविताओं में सुनाई दे सकती है। नदी, पहाड़, आकाश, बादल, समुद्र, फूल, पेड़, पौधे जीवन में उम्मीद जगाते हैं। मनुष्य की प्रवृत्तियों की विविध छटाएं रचनाओं में उभरी हैं। मेरी माँ को कैंसर का प्रभाव था। मैं एक महीना मुंबई के कैंसर टाटा हास्पिटल में आता जाता रहा और कालांतर में ‘भगदड़’ उपन्यास में इस हादसे की छाया शब्दबद्ध होती रही। जहां तक शराब की बात है, वह क्षणिक उत्तेजना तो दे सकती है पर लेखन पर स्थाई प्रभाव नहीं, पर प्रेम और मित्र सदा साथ रहते हैं।

प्रो. चमोलाः आपकी रचना-प्रक्रिया क्या है? जिस प्रकार जन्म दात्री माँ अपने गर्भास्थ शिशु का नौ महिने अपने गर्भ में रखकर उसकी देखभाल व लालन पालन करती है, क्या एक रचनाकार भी रचना से पूर्व रचना का संरक्षण कुछ इसी प्रकार धैर्य व सावधानी से करता है? अपनी किसी औपन्यासिक कृति की रचना प्रक्रिया के बारे में आप अपने अनुभवों पर विस्तार से प्रकाश डालें।

डॉ. खड़सेः रचना प्रक्रिया भीतर ही भीतर चलती रहती है। आसपास की विसंगतियां, संघर्ष, छल-कपट, स्वार्थ और अन्याय को देखकर मन उद्वेलित हो उठता है। तब भीतर एक लावा पंक्तियों को जन्म देता है- ‘मैंने/गोल्ड मेडल के साथ/डिग्रियां लीं/ मेरे देश ने मुझे / आधी पगार पर नौकरी दी/ फिर मैंने यूनिवर्सिटी/बंद करखाने की लीडरी की / मेरे देश ने मुझे एज्युकेशन मिनिस्ट्री दी।’ कविता का यह प्रवाह तेजी से बाहर आता है। कविता में गति होती है, उद्वेग होता है। या ‘जब भी मैंनेे/डुबकी लगानी चाही/ सारा मानसरोवर/चुल्लू हो गया।’ भीतरी विचारों का प्रवाह शब्दों में उतरता है। कई बार उसमें सुधार करने की आवश्यकता भी मुझे नहीं लगती। मनुष्य की भीतरी सतह के वैचारिक ऊहापोह कविता में तेज प्रवाह-सी उभरती है। प्रेम के भाव भी इसी तरह, लेकिन कभी तेज, कभी धीरे-धीरे और कभी ठहरकर शब्दों में प्रस्फुटित होते हैं। कविता की पहली पंक्ति अनायास ही भीतर घुमड़ती हैं और लिखने के लिए बैठते ही धाराप्रवाह निकल पड़ती है। कविता में शायद ही कभी मैंने कोई बात जोड़ी-घटायी है। एक रौ में कविता अवतरित होती है।

पर गद्य की बात कुछ अलग है। कहानी भीतर अंकुरित तो होने लगती हैं, पर एक साथ, एक ही प्रवाह में कागज पर नहीं उतरती। इसके लिए मैं समय समय पर छोटे-छोटे नोट्स लेता हूँ। पात्रों के साथ उठते-चलते, सोते-जागते संवाद होता रहता है। कोई चेहरा मेरे पात्र पर छा जाता है, उसके इर्द-गिर्द घटनाओं का ताना-बाना बुनना शुरु हो जाता है। पात्र का चरित्र उसके संवाद निषकर्ष तक पहुंचते हैं और कहानी अपना आकार लेने लगती है। कई बार कहानी के सूत्र समय के साथ खो जाते हैं और उन्हें पिरोना मुश्किल-सा हो जाता है- मेरा एक कहानी ‘भटकते राख’ प्रारंभ से समापन तक के बीच पांच साल का अंतराल ले गई। कई बार शैलियों के दुहराव से अपने-आपको बचाना होता है। विषय में विविधता की तलाश आवश्यक हो जाती है।

उपन्यास के बारे में रूपरेखा पर काम करना मेरे लिए आसान हो जाता है। अध्यायों में कथा-सूत्र को विभाजित कर काम करना एक क्रम बन जाता है। आमतौर पर मेरे पात्र आसपास के जीवंत पात्र ही होते हैं। कथारूप देने के लिए घटनाएं और ट्रीटमेंट का संतुलन बनाकर स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में पात्र तैयार हो जाता है। कई चेहरों, व्यक्तियों और आदतों को मिलाकार एक चेहरा बनता लगता है। मेरी कोशिश होती है कि पात्र सहज हों और स्वभविक रूप से उनका विकास हो। कठपुतली न हों। इसीलिए अध्याय और रूप रेखा बन जाने के बाद भी कोई पात्र ‘नियंत्रित’ नहंी होता, वह स्वतः अपनी छवि बनाता हुआ विकसित होता है। मैंने कभी सिद्धान्त थोपने की कोशिश नहीं की। सामान्य व्यक्ति-सा पात्र अपनी सहजता के साथ उपन्यास में अपनी भूमिका अदा करता है। सामान्यतः अचानक ‘झटका’ देने से मेरे पात्र दूर रहते हैं। ‘बादल राग’ का विकास और नायिका सुनिधि अपनी कमजोरियों और विशेषताओं को अपने साथ लिए चलती हैं। कथा का अंत सुखांत होगा या दुखांत यह पहले से कभी तय नहीं रहता। ‘बादल राग’ का अंत मुझे कई बार लिखना पड़ा। फिर भी कई पाठकों को संतोष नहीं हुआ। मुझे लगता है कि उपन्यास की यात्रा में पाठक पात्रों के साथ तादात्म्य स्थापित कर जाते हैं। उनसे उनका संवाद शुरु हो जाता है। उम्मीद बंध जाती है कि अमुक पात्र का व्यवहार इस तरह ही होना चाहिए। कई पात्रों के साथ पाठकों की सहानुभूति जुड़ जाती है। पर बतौर लेखक मैं पहले से इस बात को सोचकर आगे नहीं बढ़ता। पात्र अपनी आजादी से अपना विकास चुनते हैं।

अभी भी मैं लेखन को सीधे कम्प्यूटर पर नहीं चढ़ा पाया। क्योंकि कम्प्यूटर की वह गति नहीं साध पाया, जिसमें मशीन और विचार तेज गति से साथ-साथ चल सकें। मैं हाथ से लिखकर यह समन्वय साधने की कोशिश करता हूँ। मित्र कहते हैं कि कम्प्यूटर पर सीधे लिखने से परिवर्तन, 

परिवर्धन, सुधार करने में आसानी होती है। मैं इसके साथ गति के बारे में ‘फ्रैंडली’ नहीं हो पाया इसलिए हाथ से लिखता हूं। आलस्य कहें या और कुछ, मैं ड्राफ्ट कई बार नहीं बदल पाता। इसीलिए मित्र कहते हैं, ‘काश कुछ और मांज लेते!’ पात्र और कथानक के अनुरूप शैली निर्धारित करने की कोशिश अवश्य होती है। कुछ कहानियां संवादशैली में है। एक वाक्य भी ब्यौरे के रूप में नहीं। केवल संवाद-‘बगुले’ कहानी में यही शैली है। ‘पार्टनर’ कहानी में मृत पात्र अपने जीवन की कहानी बयान करता है। विषय के साथ शैली में विविधता अतिरिक्त संतोष दे जाती है।

प्रो. चमोलाः एक विधा में प्रावाहपूर्ण लेखन करने वाले साहित्यकार को एकाएक दूसरी विधा में क्यों चले जाना पड़ता है? इसके पीछे क्या साहित्यकार अपनी प्रतिभा को अनेकानेक माध्यमों से प्रदर्शित करना चाहता है अथवा यह पूर्व की विधा में कुछ और न लिख पाने की उसकी असमर्थता का द्योतक होती है, कृपया इस बारे में कुछ बताएं।

डॉ. खड़सेः कई लेखक बहुविधाओं में लेखन कार्य करते हैं। जहां तक मेरा प्रश्न है, कई अभिव्यक्तियाँ स्वयं अपनी विधा चुनती हैं। कुछ अनुभूतियां कविता में व्यक्त होती हैं और कुछ कहानी-उपन्यास में। दरअसल अधिकांश रचनाकारों की शुरुआत कविता से होती है और कालांतर में गद्य की ओर मुड़ जाते हैं। मुझे नहीं लगता कोई सायास विधा बदलने में रुचि रखता हो। यह भी नहीं है कि अधिकाधिक विधा में प्रदर्शित होने का कोई खास कारण रहता होगा। दरअसल एक विधा में स्थिर रहने पर लेखक की पहचान के साथ वह विधा जुड़ जाती है। दूसरी और कई विधाओं में एक साथ लेखन करने में पहचान में बिखराव की संभावना होती है। हाँ, यह हो सकता है कि कालांतर में कोई विधा इतनी निकट हो जाए कि वह उसी विधा में अधिक सहजता का अनुभव करे या उसका विषय, उसकी सेाच, उसकी अभिव्यक्ति किसी विशेष विधा के अनुकूल हो।

प्रो. चमोलाः खड़से जी, आप एक साथ सफल कथाकार, लेखक, कवि व समीक्षक आदि भी रहे हैं। इन सभी विधाओं में आपको कोई खास वजह क्या है? किस विधा में लिखते हुए आपका लेखक मन अधिक रमता है ?

डॉ. खड़सेः चमोला जी, विषय के अनुसार विधा तय हो जाती है-अपने आप... लेकिन कविता और कथा में मन अधिक रमता है। उपन्यास लेखन में एक लम्बा समय लगता है। तब मन उन पात्रों के साथ जीता है। मन उपन्यास के व्यापक फलक पर कई-कई दिनों तक रहता है। पात्र अपना रास्ता खुद बनाते हैं, उनके साथ यात्रा करने में बहुत सुखद अनुभूति होती है। संक्षेप में, कह सकता हूँ कि मन कथा साहित्य में अधिक रमता है। परंतु, कविता का संग-साथ भी छूटा नहीं है।

प्रो. चमोलाः महाराष्ट्र के साहित्यकारों का हिंदी साहित्य में विशिष्ट स्थान रहा है। क्या आप अपनी स्मृति-कोश से यहां के अपने उन समकालीन प्रतिनिधि साहित्यकारों की रचना-यात्रा का उल्लेख करेंगे, जिन्होंने गांव की माटी में जन्म लिया, लेकिन वह हिंदी की ऊध्र्वमुखी रचना-यात्रा में भारत तथा विश्व के अन्यन्य देशों में जाकर बस गए या वहां जाकर रचना करने लगे। उन्होंने अपनी जन्म भूमि को ही अपनी रचना यात्रा की कर्मभूमि क्यों नहीं माना या फिर किन कारणों से उनको वहां से पलायन कर देना पड़ा.... अपनी रचनाधर्मिता में निखार लाने के लिए अथवा इसे व्यापक फलक तक पहुंचाने अथवा वृत्ति या जीवकोपार्जन के लिए? हिंदी साहित्य में जो एक बड़ी सूची आपके समकालीन अंग्रणी साहित्यकारों की है, उनकी रचना-यात्रा पर कृपया विस्तार से प्रकाश डालिए।

डॉ. खड़सेः महाराष्ट्र, हिंदी की विकास यात्रा में अहिंदी भाषी प्रदेशों में सदैव अग्रणी रहा है। लोकमान्य तिलक ने राष्ट्र के लिए हिंदी की पैरवी की। महाराष्ट से दूसरे राज्य में गए बाबूराव विष्णु पराड़कर ने हिंदी पत्रकारिता की नींव रखी। हिंदी कहानी के क्षेत्र में माधवराव सप्रे ने ‘एक टोकरी मिट्टी’ कहानी के माध्यम से प्रथम हिंदी कथाकार का श्रेय पाया। इनसे भी पहले नामदेव महाराष्ट्र से निकल कर यात्रा करते हुए हिंदी और पंजाबी में रचनाएं रचते हुए लोक-कल्याण की मनोभूमि तैयार करते हुए घुमान में स्थिर हुए। घूमते-घूमते पंजाब के जिस स्थान पर ठहरे, वह स्थान घुमान बना। उनकी रचनाएं गुरुग्रंथ साहिब में समाहित हैं। स्वतंत्रता के बाद बने ‘राजभाषा आयोग’ के अध्यक्ष बालासाहब खेर थे और गो. प. नेने आयोग के सदस्य थे। आयोग की सिफारिशों के माध्यम से राजभाषा को गतिशीलता देने में मदद मिली। बाद में, महाराष्ट्र आकर बसे कई लेखकों ने मराठी माटी के साथ एकाकार होकर यहां सृजन किया। तेजेंद्र शर्मा उन्हीं में से एक हैं। सार्थक और मार्मिक कहानियों के कथाकार कालांतर में जीविकोपार्जन के लिए लंदन बस गए, पर कहानियों में भारतीयता प्रतिबिंबित होती रही। उषादेवी विजय कोल्हटकर का लेखन महाराष्ट्र से शुरु हुआ और बाद में वे न्यूयार्क अमरीका में विवाह के बाद बस गईं। लेकिन महाराष्ट्र की संस्कृति को भूल नहीं पाईं। उनके लेखन में अमरीकी जनजीवन को भारतीयता की नजर से देखने पर जो विसंगतियां उभरीं उसका व्यापक लेखा-जोखा मिलता है।

गजानन माधव मुक्ति बोध महाराष्ट्र की माटी से उभरे और हिंदी साहित्य के फलक पर छा गए। बहुभाषी प्रभाकर माधवे ने साहित्यिक क्षेत्र में अपनी विशिष्ट छाप छोड़ी। अनंत गोपाल शेवडे ने कथा साहित्य में अपना विशिष्ट योगदान दिया। दत्तात्रय पुरुषोत्तम हरदास, शंकर पुणतांबेकर, मुरलीधर जगताप, रज्जन त्रिवेदी, नीर शबनम, भगवान वैद्य प्रखर माधुरी छेडा, करुणाशंकर उपाध्याय, सलिला सुधाकर, सुधाकर मिश्र, रमेश यादव, संजीव निगम, सूर्यभानु गुप्त, वागीश सारस्वत, श्याम सुंदर पांडेय, सुलमा कोरे, धन्यकुमार बिराजहार, हरीश पाठक, हरि मृदुल, सरदार मुजावर, अशोक गुजराती, कैलाश सेंगर, घनश्याम अग्रवाल, प्रमोद शुक्ल, प्रकाश पुरोहित, नीरज व्यास, मधुप पांडेय, सागर खादीवाला गणेश गायकवाड, सोनू जेसवानी, मधु व्यास, सूर्यनारायण रणसुभे, संजय नवले, पद्मा पाटील, भारती गोरे, हस्तीमल हस्ती ऋचा शर्मा जैसे कितने ही रचनाकार हैं, जिन्होंने महाराष्ट्र की धरती की साहित्यिक-उर्वरा को अखिल भारतीय रूप दिया। चित्रा मुद्गल, विश्वनाथ सचदेव, धीरेन्द्र आस्थाना, रमाकांत शर्मा पुष्पकुमार, विजयकुमार, अनूप सेठी, हृदयेश मयंक, आलोक भट्टाचार्य, देवेश ठाकुर, अनुरण चतुर्वेदी, मुकेश गौतम, सुधा अरोड़ा, सुभाष काबरा, सूरज प्रकाश, राजम नटराजन पिलै, डॉ. विजया, डॉ. मनोहर, नंदलाल पाठक, शीतलाप्रसाद दुबे, राजेश रेड्डी, मुरलीधर पांडेय जैसे कई लेखकों ने मुंबई मे ंरहकर अपनी साहित्य साधना की है। इस दृष्टि से महाराष्ट्र हिंदी के योगदान में हमेशा आगे रहा है।

महाराष्ट्र में देश की प्रमुख राष्ट्रभाषा प्रचार की संस्थाएं हैं। राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा और राष्ट्रभाषा प्रचार सभा पुणे राष्ट्रीय स्तर की प्रचार संस्थाएं हैं, जिनकी राज्यभर ही नहीं देशभर में शाखाएं फैली हुई हैं। इनके अलावा मंुबई में हिंदुस्तानी प्रचार सभा, मुंबई प्रांतीय राष्ट्रभाषा प्रचार सभा, महाराष्ट्र विकास समिति, मुंबई, जैसी संस्थाएं हिंदी के विकास के लिए प्रयासरत हैं। साथ ही, महाराष्ट्र सरकार की ‘महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी’ की स्थापना की गई है। अकादमी महाराष्ट्र में हिंदी साहित्य-सृजन के लिए विविध योजनाओं का संचालन करती है और श्रेष्ठ कृतियों और रचनाकारों को पुरस्कार प्रदान कर सम्मानित करती है। हिंदी की कई साहित्यिक संस्थाएं पूरे महाराष्ट्र में-विविध नगरों में कार्यरत हैं। साथ ही, हिंदी की कई साहित्यिक पत्रिकाएं भी प्रकाशित होती हैं-‘यथा-‘काव्या’ (सं. हस्तीमतल हस्ती) ‘चिंतन दिशा’ (सं. हृदयेश मयंक) ‘हम लोग’ (सं. संजय 

भारद्वाज) ‘संयोग, साहित्य’ (सं. मुरलीधर पांडेय) ‘कथा बिंब’ (सं. माधव सक्सेना अरविंद’) ‘दमखम’ (सं. मनहर चैहान) नवनीत (सं. विश्वनाथ सचदेव) ‘अनुष्का’ (सं. रासबिहारी पांडेय) ‘प्रक्षेप’ (सागर खादीवाला) ‘लोकमत समाचार वार्षिकांक (विकास मिश्र) आदि। साथ ही हिंदी के कई अखबार महाराष्ट्र से प्रकाशित होते हैं। ‘रंगमंच की एक समृद्ध परंपरा मुंबई और शेष महाराष्ट्र में है।

जगदम्बा प्रसाद दीक्षित, वसंत देव, कमलेश्वर, धर्मवीर भारती, सूर्यबाला, हरिनारायण व्यास, आनंद प्रकाश दीक्षित, दिलीप चित्रे जैसे व्यक्तित्वों के सान्निध्य ने मेरी साहित्यिक यात्रा को विेशेष रूप से सम्पन्न किया है।

प्रो. चमोलाः एक संवेदनशील रचनाकार अपने अतीत के दिनों से ऊर्जा ग्रहण कर उन्नति व उत्कर्ष की सीढ़ियां चढ़ता है और फिर उसके बाद लौट कर पीछे नहीं देखता। क्या उसकी रचनाओं में उसका अतीत सुरक्षित रहता है या फिर जिस माटी ने उसको व उसकी रचनाधर्मिता व चिंतन को पाला-पोसा, उस ऋण से एक विवेकशील रचनाकार स्वयं को कैसे उऋण कर पाता है? गांव आपकी रचना-यात्रा का प्राण है.... मन आपका सदैव उन्हीं खेत-खलिहानों में विचरण करता है.... लेकिन आप तन से रहते महानगरों में हैं... क्या आप वहा रहते तो अधिक संवेदनशीलता से उस जीवन को करीबी से चित्रित करते.... इस अंतर की क्षतिपूर्ति आप कैसे करते हैं?

डॉ. खड़सेः सच है, एक संवेदनशील रचनाकार अपने अतीत के दिनों से ऊर्जा ग्रहण करता है। अतीत सुंदर और यादगार है, तब भी और संघर्ष और पराजय का मोड़ है तब भी। दोनों स्थितियों में रचनाकार लेखन में कहीं न कहीं उन चित्रों को ले ही आता है। कभी प्रत्यक्ष और कभी अप्रत्यक्ष-कभी अनयास-अनजाने में भी। रचनाओं में अतीत सुरक्षित होता है। उऋण होने जैसी कोई बात मुझे नहीं लगती, क्योंकि वह ऋण नहीं अहसास होता है। बचपन गांव में बीता, इसलिए खेत, खलिहान, नदी, पहाड़, बाग-बगीचे रचनाओं में उभरते रहते हैं। मन अनयास ही उन मेड़ों, खेतों, नदियों और हरियाली मे, मेरे शून्यकाल में उभरते ही रहते हैं। यह कहना बहुत मुश्किल है कि यदि ताउम्र वहीं होते तो क्या अधिक संवेदनशील होते... क्योंकि मनुष्य को जो नहीं मिल पाता, उसके वह अधिक करीब होता है। मिल जाने पर उसका आकर्षण कम होता जाता है। दूसरी बात यह भी है कि संवेदनशील मन कहीं भी रहा तो उसकी संवेदना बरकरार रहती है।

प्रो. चमोलाः आपकी रचना-यात्रा चार-पांच दशकों के लंबे अंतराल को समेटती है। आप स्वयं सफल आलोचक भी हैं... क्या अपने सृजनधर्मी व्यक्तित्व से आप संतुष्ट हैं? एक आलोचक के रूप मं आप क्या सोचते हैं कि रचनाकार को केवल अपनी रचना-प्रक्रिया या सर्जन में तत्लीन रहना चाहिए अथवा स्वयं को स्थापित करने की जुगाड़ में आलोचना और आलोचकों के इर्द-गिर्द मंडराना भी आवश्यक है? कृपया आप अपने संदर्भ में विस्तार से इस बात का उल्लेख कीजिए।

डॉ. खड़सेः आलोचना के क्षेत्र में मेरा काम बहुत सीमित है। जो कुछ सृजन मुझसे हो पाया है, इससे मैं तो संतुष्ट हूँ, पर रचनाकार अपनी संतुष्टि अपने भावी सृजन में ढूंढता है। संतुष्टि का अर्थ ठहराव भी हो सकता है पर अभी लेखन जारी है। जो लिखा गया है, उससे संतोष है। मुझे यही लगता है कि रचनाकार को अपने सृजन में ही तल्लीन रहना चाहिए। मुझे नहीं लगता कि आलोचकों का साथ हासिल करने के प्रयास होने चाहिए। यदि सृजन में कुछ विशेषता है तो कृति को समाज की स्वीकृति अवश्य मिलेगी। कृति लेखक का प्रतिनिधित्व करती है।

प्रो. चमोलाः किसी भी रचना का जन्म होता है तो देर-सबेर अवश्य एक दिन उसका मूल्यांकन होगा ही। साहित्य की विशद परंपरा हमारे सम्मुख साक्ष्य है कि यहां सैकड़ों वर्षों की उपेक्षा के बाद भी किसी बड़े रचनाकार को रचनात्मकता की दृष्टि से पुनर्जीवन मिलता ही है अथवा उसके साहित्य-सरोकारों के प्रति समाज व आलोचकों का ध्यानाकर्षन बढ़ने लगता है या उसमें फिर से गहनता से सभी रुचि लेने लगते हैं। अच्छी रचना स्वार्थी व अवसरवादी आलोचकों की दृष्टि से मूल्यांकन होने से भले ही चुक जाय, किंतु समय का आलोचक एक दिन पारदर्शी मानदंडों पर उसका मूल्यांकन अवश्य करता है। इस बारे में आपका क्या सोचना है?

डॉ. खड़सेः सही है। आपके प्रश्न में ही मेरा उत्तर छिपा है। मैं आपकी बात से सहमत हूँ।

प्रो. चमोलाः एक रचनाकार के जीवन में उसकी रचनाधर्मिता के संवर्धन में उसके परिवार, मित्रों हितैषियों, शुभचिंतकों अथवा अग्रणी लेखकों की क्या भूमिका हो सकती है? इतनी लंबी रचना-यात्रा का विशेष श्रेय आप किसे सर्वाधिक देना चाहेंगे... जो परिवार अथवा संसार आपके ख्वाबों का था, या फिर जो नियति ने वास्तव में आपके सामने रचकर रख दिया, उसको? क्या आपकी किसी रचना का जन्म प्रेम या विछोह की गहरी खरौंच के निकष पर हुआ है? यदि हाँ तो विस्तार से बताएं?

डॉ. खड़से: लेखक पर सर्वाधिक प्रभाव उसके परिवेश का होता है। इस परिवेश की परिधि में परिवार, मित्र, हितैषी, शुभचिंतकों और अग्रणी लेखकों के साथ समाज की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। उन सबको मेरे लेखन का श्रेय जाता है। परिवार वातावरण देता है, समझता है आपको, प्रोत्साहित करता है। मित्र सराहना करते हैं, हितैषी और शुभचिंतन-शुभकामनाएं देते हैं। अग्रणी लेखकों का मार्गदर्शन व स्नेह-प्रोत्साहन मिलता है। समाज का कई अर्थों में योगदान होता है। सामाजिक विसंगतियां प्रेरित करती हैं लिखने के लिए और समाज की स्वीकृति आपको प्रोत्साहित भी करती हैं। लेखन केवल अपने घर-परिवार या अपने सपनों तक सीमित नहीं होता। समाज और देश में घट रही घटनाएं लेखन को प्रभावित करती हैं। नियति कभी-कभी कठोर हो जाती है। कोई दुर्घटना, कोई जानलेवा बीमारी, कुछ अनहोनी व्यक्ति को झकझोर जाती है। लेखक पर भी इसका प्रभाव तो होता ही है। मेरे व्यक्तिगत जीवन की यदि आप बात कर रहे हैं तो मैं बता दूं कि नागपुर निवास के दौरान मेरी मां कैंसरग्रस्त हो गई। मैं उसे एक महीना इलाज के लिए मुंबई के टाटा कैंसर अस्पताल में जाता-आता रहा। मेरे मित्र प्रकाश बोधड़े ने बहुत मदद की। प्रख्यात लेखक दया पवार का साथ मिला। संपादक विश्वनाथ सचदेव की सहानुभूति मिली। छोटे भाई मोहन का निरंतर साथ मिला। माँ स्वस्थ हो गई। इसी झमेले के बीच मेरा स्नांतरण नागपुर से पुणे हो गया। एक विसंगत समय था। आर्थिक विवेचनाओं ने भी घेरा। बैंक में हमारे मुख्य अधिकारी ने बहुत सहयोग किया और मेरा स्थानांतरण मेरे गृहनगर में हो गया। धीरे-धीरे स्थितियां सामान्य होने लगीं। नियति ने मेरे लेखन जीवन का एक बड़ा समय मुझसे छीन लिया था। पर सब कुछ सामान्य होने के बाद एक उपन्यास ‘भगदड़’ ने इसी पाश्र्वभूमि पर जन्म लिया। मुंबई में बीमारी के चलते भागदौड़, जीवन और अफरातफरी को मैं ‘भगदड़’ में समेट सका।

प्रो. चमोलाः महाराष्ट्र के हिंदी साहित्य-यात्रा के साथ-साथ पुणे की हिंदी साहित्य-यात्रा के बारे में भी विस्तार से बताएं कि हिंदी के योगदान में इस नगर की क्या भूमिका रही है ?

डॉ. खड़सेः पुणे की साहित्यिक पृष्ठभूमि हिंदी को लेकर बहुत ऊर्जापूर्ण और उत्साहजनक रही है। ‘दूसरा सप्तक’ के कवि हरिनारायण व्यास और पुणे विश्वविद्यालय के पहले हिंदी विभागाध्यक्ष भागीरथ मिश्र और बाद में डॉ. आनंद प्रकाश दीक्षित ने हिंदी साहित्य-यात्रा में चार चांद लगाए। उनके मार्गदर्शन और प्रेरणा से हिंदी साहित्य फलता-फूलता रहा। डॉ. सुनील देवधर के आकाशवाणी में आने के बाद आकाशवाणी में हिदी कार्यक्रमों को जीवनदान मिला। वे स्वयं भी उत्कृष्ट कवि और लेखक होने के साथ ऊर्जामय वक्ता भी हैं। कहानी, कविता, लेख नाटक, अनुवाद जैसी विधाओं में योगदान देनेवालों की लम्बी सूची है। डॉ. राजेन्द्र श्रीवास्तव की कहानियां राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में प्रकाशन संस्थाओं से प्रकाशित हैं। साथ ही, स्मिता दाते, ओमप्रकाश शर्मा, टी कम शेखावत, सदानंद भोसले, स्वरांगी साने, समीक्षा तैलंग, पद्भजा घोरपड़े, रजनी राजदान, मोनिका सिंह, प्रभा माथुर, दीप्ति गुप्ता, संजय भारद्वाज जैसे साहित्यकारों के योगदान से पुणे में हिदी की साहित्य-यात्रा उत्कृष्ट रूप में आगे बढ़ रही है। इन साहित्यकारों में अधिकांश मराठी से हिंदी में अनुवाद के कार्य से भी जुड़े हैं। मराठी की उत्कृष्ट कृतियों को हिंदी में लाने के लिए डॉ. गोरख थोरात का योगदान भी सराहनीय रहा है। मालती शर्मा ने अपने जीवन काल में पुणे में रहकर कई महत्वपूर्ण कृतियां हिंदी साहित्य को दी। डॉ. गजानन चव्हाण का गद्य लेखन व अनुवाद के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान है। और सेवक नैयर की ग़ज़ल, लघुकथाएं और कहानियां विशिष्ट शैली और परिवेश की परिचायक हैं। हिंदी से अंग्रेजी में कृतियों के अनुवाद उनके द्वारा किए गए हैं।

प्रो. चमोलाः आप महाराष्ट्र साहित्य आकादमी के अध्यक्ष रहे। कृपया महाराष्ट्र के हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा पर विस्तार से प्रकाश डालने का कष्ट करें।

डॉ. खड़सेः जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है कि महाराष्ट्र में हिंदी साहित्य लेखन की एक सुदीर्घ परम्परा रही है। महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष के नाते मुझे साहित्य के क्षेत्र में व्यापक कार्य करने का अवसर मिला। मैंने 2011 में अध्यक्ष के रूप में कार्यभार संभाला और 2015 तक काम करता रहा। इस दौरान पूरे महाराष्ट्र के महानगर से दूरदराज के इलाकों तक 93 कार्यक्रम आयोजित किए गए। इन कार्यक्रमों में महाराष्ट्र के विद्वानों के साथ राष्ट्रीय स्तर के हिंदी लेखकों, में महाराष्ट्र के विद्वानों के साथ राष्ट्रीय स्तर के हिंदी लेखकों, पत्रकारों, भाषाविदों विद्वानों को कार्यक्रमों में आमंत्रित कर हिंदी के प्रति लोगों में और आस्था, रुचि और प्रेरणा जगाने में सुविधा हो सकी। पुरस्कारों के माध्यम से हिंदी साहित्य की प्रतिभाओं को सम्मानित किया जाता रहा। दो पुरस्कार राष्ट्रीय स्तर के रहे और आठ राज्य स्तर के थे। सोलह पुरस्कार विधा पुरस्कार थे, जिनमें तीन श्रेणियां थीं। इस तरह हर वर्ष कई पुरस्कार दिए जाते रहे। साथ ही, पांच मराठी पुस्ताकें के हिंदी अनुवाद कर दिल्ली की एक प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्था से इसका प्रकाशन किया गया। हिंदी की लगभग तीस पत्रिकाओं की कई प्रतियां खरीद कर महाराष्ट्र के हिंदी विद्वानों तक भिजवाने की व्यवस्था की गई। नौवां विश्व हिंदी सम्मेलन जोहान्सबर्ग, दक्षिण आफ्रीका में आयोजित किया गया था। महाराष्ट्र सरकार के पांच प्रतिनिधि-मंडल का नेतृत्व अध्यक्ष के नाते खाकसार ने किया था। देश की अन्य हिंदी अकादमियों मे हो रहे बेहतर कार्यों को जानने-समझने और अध्ययन करने के उद्देश्य से अकादमी के सदस्यो को विभिन्न अकादमियों के भेंट देने की योजना तैयार की गई थी। वह कार्यान्वित हुई और सदस्यों के सार्थक सुझाव भी प्राप्त हुए। कई लेखकों की जन्मशती पर विशेष कार्यक्रमों के आयोजन भी किए गए। महाराष्ट्र में हिंदी भाषा और साहित्य के प्रति पुनर्जागरण और हिंदी के व्यापक प्रचार-प्रसार के लिए विभिन्न शैक्षिक संस्थाओं, विश्वविद्यालयों, स्वेच्छिक संस्थाओं और साहित्यिक संस्थाओं के सहयोग और सहभागिता से अकादमी को दूरदराज तक पहुंचाने और हिंदी भाषा और साहित्य के प्रति रुचि जगाने में सहायता हुई।

प्रो. चमोलाः अपनी रोजी-रोटी की यात्रा के साथ-साथ अपने साहित्य की ऊध्र्वमुखी यात्रा पर भी प्रकाश डालें। यदि मैं कहूं कि पुणे आपके लेखन की उपलब्धि रहा है.... इस बात को आप अपने किन लेखकीय प्रमाणों के आधार पर सिद्ध करना चाहेंगे?

डॉ. खड़सेः रोजी-रोटी की यात्रा बहुत कम उम्र में शुरु करनी पड़ी। उम्र के 21वें वर्ष में अध्यापन करने लगा और पढ़ाई निजी तौर पर जारी रही। नौकरी आसानी से लगती गई। हाई स्कूल में पढ़ाते हुए एक मित्र ने विज्ञापन दिया कि यह तुम्हारे लिए हो सकता है। नौकरी में रहते हुए स्नातक से एम.एड् परास्नातक हो गया था। इसी समय दूरदराज के एक कॉलेज में नियुक्ति का तार मिला। इसी समय बैंक में भी अधिकारी के रूप में नियुक्ति का प्रस्ताव आया। मैंने नागपुर में बैंक में कार्यग्रहण कर लिया। कहानियां और कविताओं का प्रकाशन शुरु हो गया था। नागपुर के ‘युगधर्म’ नामक अख्बार में मेरा साप्ताहिक कॉलम शुरू हुआ। इसे मैंने तीन वर्षों तक चलाया। नागपुर से ही मेरा पहला संग्रह ‘भटकते कोलंबस’ प्रकाशित हुआ। यह पहली पुस्तक मेरे लिए अत्यंत प्रेरक घटना थी। इस बीच मेरा सम्पर्क कमलेश्वर जी से हुआ और धीरे-धीरे मैं ‘सारिका’ से जुड़ा। इसी दौरान कमलेश्वर जी के आग्रह पर मैंने दया पवार की आत्मकथा ‘अकूत’ (मराठी-बलुतं’) का हिंदी में अनुवाद किया। इसके कुछ अंश ‘सारिका’ में और कुछ ‘कथा यात्रा’ में छपे। पुस्तक रूप में राधाकृष्ण प्रकाशन ने इसे प्रकाशित किया। हिंदी जगत् में इसकी खूब चर्चा हुई और मेरा उत्साह बढ़ता गया।

मेरे तबादले होते रहे- नागपुर से पुणे, अकोला, ठाणे, मुंबई और फिर पुणे। दूसरी बार पुणे आकार मैं कुछ स्थिर हो गया। मुख्य अधिकारी के रूप में पदोन्नत होकर निरंतर योग बढ़ा और सहायक महाप्रबंधक के रूप में सेवा निवृत हुआ। अंततः पुणे ही स्थायी निवास बन गया। रोजी-रोटी की यात्रा के साथ साहित्य की यात्रा निरंतर जारी रही। कई कथा-संग्रह, कविता-संग्रह, संस्मरण आदि की कई पुस्तकें प्रकाशित हुईं। आप कह सकते हैं कि पुणे में मेरी साहित्यिक उपलब्धियां उल्लेखनीय रहीं। साथ ही, मेरी कृतियों के मराठी, गुजराती, कन्नड़, महलयालम, तेलुगू, पंजाबी, डोगरी, अंग्रेजी भाषाओं में अनुवाद हुए। ‘बादल राग’ और ‘खिड़कियां’ उपन्यास मैंने पुणे में ही लिखे। ‘बादल राग’ उपन्यास, कई भाषाओं के अनुवाद के माध्यम से पाठकों तक पहुंचा।

प्रो. चमोलाः आपके उपन्यासों के विषय क्या-क्या रहे? आपने कोरोना के इस दौर से महाराष्ट्र में जीता-जागता विध्वंस देखा है.... क्या इस लोमहर्षक दृश्य भी आपके उपन्यासों का विषय-वस्तु बना? कृपया इस पर विस्तार से प्रकाश डालने का कष्ट करें।

डॉ. खड़सेः चमोला जी, मेरे पहले उपन्यास ‘काला सूरज’ का विषय युवा पत्रकार के सामाजिक और पत्रकारिता के सरोकारों पर केद्रित है। पर पत्रकारिता तिलक के काल की नहीं रही। पत्रकारिता में पूंजी ने प्रवेश किया और समर्पित पत्रकार भी व्यवसाय के पुर्जे बनते गए। सूरज की प्रखरता को सुविधाओं की चादर ढंकती चली गई और सूरज कालिमा ओढ़ बैठा.... असमय एक प्रतिबद्ध पत्रकार अपने व्यक्तिगत यश और सुविधाओं की खातिर सोने के पिंजड़े में कैद हो गया। निजी जीवन में भी वह बिखर गया। प्रतिष्ठा दांव पर लग गई.... चमकता सूरज ग्रहणग्रस्त होकर ‘काला सूरज’ हो गया।

दूसरा उपन्यास ‘भगदड़’ शीर्षक से है जो मूंबई के निम्न मध्यवर्ग की जिजीविषा को समेटे हैं और टूटते-विस्थापित परिवार के बिखराव की कहानी लिए हुए हैं। निम्न मध्यवर्ग में नौकरीपेशा व्यक्ति अपनी मासिक आय में खींचतान कर बजट बैठाता है। पर यदि ऐसे में परिवार के किसी सदस्य को गंभीर बीमारी हो जाती है तब न सिर्फ उसका बजट फट जाता है, बल्कि उससे जीवन में तूफान उठ खड़ा होता है और उसके भीतर ‘भगदड़’ मच जाती है। यहीं विषय इस उपन्यास के केंद्र में हैं ‘बादल राग’ उपन्यास में स्त्री जीवन के विविध पहलुओं को उजागर करने की कोशिश की गई। जीवन में कार्पोरेट जगत् के शीर्ष पद पहुंचने के संघर्ष और प्रयासों की कहानी इसमें उभर कर आई है। पुरुष-प्रधान समाज में स्त्री को अपनी प्रतिभा के बल पर अपनी आकांक्षाओं को लांघने की कोशिश के रास्ते तमाम अवरोध और चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। कदम-कदम पर संघर्ष, रुकावट और कहीं-कहीं मायावी आकर्षण से सतर्क रहकर यात्रा करनी होती हैं। साथ ही, स्वभाव, भावुकता और संवेदना को समझनेवाला कोई साथी मिल जाए तो तमाम विसंगतियों के बीच जीने का सहारा मिल जाता है। और अप्रत्यक्ष एक प्रेम-कथा उपस्थित  विरोधाभासों के बावजूद स्थितियों के भयानक रौद्र बाढ़ के बीच तिनके का सहारा बन जाती है। समाज, संस्थाओं के भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, अवसरवाद के बीच नायिका राह निकालती अपनी सीधी राह पर निकल पड़ती है। एक अहसास उसके हृदय में ‘बादल राग’ की तरह निरंतर गुनगुनाता रहता है।

एक उपन्यास अकेलेपन और एकांत के बीच ‘खिड़कियां’ से झांकने का प्रयास है। जीवन में दाम्पत्य-प्रेम हो और एक अचानक साथ छोड़कर दुनिया से विदा हो जाता है, तब जीवन कितनी भटकन में विसर्जित होकर अकेलेपन की खोह में खो जाता हैं, एकालाप, मानसिक हताशा, निर्वेद, वैराग्य, जगत असार की भावना एक भयंकर टूटन सौंप जाती है। लेकिन जब व्यक्ति अपने दुःख, अपने अकेलेपन और अपनी असहायता से बाहर निकलकर समाज में उससे भी अधिक किसी की दुरावस्था देखता है, एकांत में दूसरों को दुःखों से मुक्ति दिलाने के लिए सहारा बनने की कोशिश करता है, तब आसपास की ‘खिड़कियां’ खुलने लगती हैं। देश और विदेश मंे भी अपने प्रियजनों को खोये लोगों का अकेलापन नायक को अपने अकेलेपन से अधिक पीड़ा-दायक लगता है। इन्हीं सारी विषय-वस्तुओं को ‘खिड़कियां’ उपन्यास में समाहित किया गया है।

कोरोना की दूसरी लहर में महाराष्ट्र में बहुत विध्वंस हुआ। सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक मोर्चे पर इस विध्वंस की गहरी मार पड़ी है। लोगों ने अपनी नौकरियां खोईं। सामान्य रूप से काम करने वाले मजदूर, कामगार और दिहाड़ी मजदूरों को मुंबई, पुणे और दूसरे शहरों से पलायन को विवश होना पड़ा। परिवार उजड़ गए। सपने बर्फ हो गए। अर्थ-व्यवस्था की कमर टूट गई। कारखाने बंद, फैक्टरियों में ताले लग गए। कोरोना की ‘सामाजिक दूरी’ की सलाह ने वाकई समाज के आपसी सम्बन्ध तोड़ दिए। मिलना-जुलना, घर जाना-आना लगभग बंद हो गया। सामाजिकता को ग्रहण लग गया। दुनियाभर मे लोक-जीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ। लोगों में आर्थिक समस्याओं के अलावा मनोवैज्ञानिक समस्याओं ने कदम रखा है। इस संदर्भ में मेरी कुछ कहानियां शब्दबद्ध हुईं। जिनमें ‘बर्फ होते सपने’, ‘अजनबी’, और ‘काठ का घोड़ा’ सामने आई हैं। इस महामारी के आघात की प्रतिध्वनियाँ मेरे एक नये उपन्यास में जल्दी ही सुनाई देंगी।

प्रो. चमोलाः भारतीय परिप्रेक्ष्य में महाराष्ट्र के किन समालोचकों एवं साहित्यकारों को आप रचानाकार दृष्टि से अग्रणी भूमिका में देखते हैं ? महाराष्ट्र में हिंदी की दशा और दिशा के बारे में विस्तार से बताइए।

डॉ. खड़सेः भारतीय परिप्रेक्ष्य में महाराष्ट्र में कई महत्वपूर्ण समालोचक अपनी भूमिका निभाते रहे, जिन्होंने राष्ट्रीय फलक पर अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है। इसमें आनंद प्रकाश दीक्षित, चंद्रकांत बांदिवडेकर, रामजी तिवारी, विजयकुमार, सूर्यनारायण रणसुभे, निशिकांत ठकार, चंद्रकांत पारीख, धीरेन्द्र आस्थाना, भुवनेश त्यागी, हरि मृदुल, करुणाशंकर उपाध्याय, सुनील देवधर, गजानन चव्हाण , सदानंद भोंसले आदि प्रमुख हैं। महाराष्ट्र के साहित्यकारों की रचनात्मक भूमिका के संदर्भ में विस्तार से अन्यत्र चर्चा की जा चुकी है।

महाराष्ट्र में हिंदी की दशा और दिशा का जहां तक सम्बन्ध है, महाराष्ट्र हमेशा ही हिंदी के प्रचार-प्रसार और सृजनात्मक योगदान में अग्रणी रहा है। महाराष्ट्र के पुरोधाओं ने हिंदी को हमेशा ही राष्ट्रीय भावना से जोड़ा है। लोकमान्य तिलक,गोपाल कृष्ण गोखले जैसे शीर्ष नेताओं ने हिंदी का समर्थन किया। मराठी और हिंदी की लिपि देवनागरी है, समान है। कई शब्द भी समानार्थी हैं, इसलिए मराठी भाषी व्यक्ति को हिंदी पढ़ने-लिखने और बोलने में कोई कठिनाई नहीं है। महाराष्ट्र में हिंदी बहुत अच्छी तरह फल - फूल रही है। अनुवाद के माध्यम से हिंदी-मराठी के बीच रचनात्मक आदान-प्रदान सहजता से होता रहा है। मराठी के कई साहित्यकार हिंदी में उतने ही सुप्रतिष्ठ हैं-जिनमें वि. स. खांडेकर, विजय तेंडुलकर, शिवाजी सावंत, गंगाधर गाडगिल भारत सासणे शरण कुमार लिंबाल आदि का नाम विशेष रूप से लिया जा सकता है। हिंदी से मराठी में प्रेमचंद, जैनेन्द्र कुमार, उदयप्रकाश, सूर्यबाला, चित्रा मुद्गल, कमलेश्वर, धर्मवीर भारती, निर्मल वर्मा आदि की कृतियों के विशेष रूप से अनुवाद हुए हैं। महाराष्ट्र में स्वस्थ और अनुकूल वातावरण है। अतीत में खूब समर्थन और सहयोग रहा है और भविष्य में अपार संभावनाएं हैं।

प्रो. चमोलाः सर्जनात्मक साहित्य से इतर संक्षेप में आप अपनी रचनाओं के बारे में बताएं।

डॉ. खड़सेः सृजनात्मक साहित्य के अलावा संस्मरणात्मक पुस्तकें हैं-‘एक सागर और’ यह अमरीकी-भारतियों के जीवन व समाज के संबंध में है। यह केवल यात्रा-वर्णन नहीं बल्कि अमेरिका में स्थाई रूप से बसे भारतीयों के सामाजिक, पारिवारिक और सांस्कृतिक-साहित्यिक गतिविधियों का लेखा-जोखा है। ‘जीवित सपनों का यात्री’ में रेखाचित्र है। साथ ही, राजभाषा पर कुछ पुस्तकें लिखी गई है। कई साहित्यकारों से हुए संवाद ‘संवादों के बीच’ में संकलित हैं। कुछ सम्पादित पुस्तकें हैं- यथा-‘सूर्यबाला का सृजन-संसार, ‘मराठी कहानियां’, ‘मराठी कविता’ ‘बहुवचन का’ ‘मराठी विशेषांक’ समीक्षा की एक पुस्तक है- ‘सृजन के सरोकार’ आदि.... और.... लगभग 150 से अधिक विभिन्न विषयों पर लेख लिखे गए हैं।

प्रो. चमोलाः खड़से जी, आप कवि कथाकार के साथ-साथ अच्छे अनुवादक भी हैं, कृपया इस पर संक्षेप में प्रकाश डालें।

डॉ. खड़सेः जी कुछ अनुवाद मैं कर सका। लगभग 20 से अधिक मराठी कृतियों के अनुवाद कर सका। पहला अनुवाद दया पवार की आत्मकथा ‘अछूत’ हैं, जो हिंदी में अत्यंत चर्चित रहा और हिंदी के माध्यम से कई भारतीय भाषाओं तक यह पुस्तक पहुंची। विदर्भ के किसानों के जीवन पर सदानंद देशमुख के उपन्यास ‘बारोमास’ का अनुवाद भी मैंने किया, जिसे साहित्य अकादमी, नई दिल्ली ने पुरस्कृत किया। नाटक, उपन्यास, आत्मकथा, जीवनी, कथा-संग्रहों का समावेश मेरे अनुवाद में है। मराठी के विशिष्ट साहित्यकारों की कृतियों को मैं अनुवाद में समाविष्ट कर सका। इसमें विजय तेंडुलकर, जयवंत दलवी, भारत सासणे, गोविंद तलवलकर, शिवाजी सावंत, अरुण खोरे, ज्ञानेश्वर मुले जैसे शामिल हैं। ‘सरस्वती सम्मान’ से पुरस्कृत लेखक डॉ. शरणकुमार लिंबाले के एक उपन्यास का अनुवाद मेरे द्वारा किया गया है।

प्रो. चमोलाः पुरस्कारों की राजनीति या राजनीति के पुरस्कार पर आपकी कोई खास राय?

डॉ. खड़सेः पुरस्कार, साहित्यकार की प्रतिभा और योगदान की सार्वजनिक मान्यता के रूप में होते हैं। समाज विविध विचार-धारा का समुच्चय होता है। कई बार प्रतिस्पद्र्धा बहुत कड़ी हो जाती है। विचारधारा प्रभावित भी करती है। मत-मतांतर होते हैं और राजनीति प्रवेश कर जाती है; विशेषतः बड़े पुरस्कारों मंे ऐसी प्रतिद्वन्द्वितता की स्थिति में निष्पक्षता की आवश्यकता होती है। राजनीति के दखल से पुरस्कार की गरिमा को ठेस पहुंचती है। इसलिए पुरस्कारों में न राजनीति हो और न ही राजनति के पुरस्कार हों।

प्रो. चमोलाः अनुवाद मौलिक सृजन से अधिक परिश्रम साध्य है, क्या आप यह मानते हैं ?

डॉ. खड़सेः मौलिक लेखन और अनुवाद दोनों अलग-अलग बातें हैं। दोनों की एक साथ तुलना नहीं हो सकती। मौलिक लेखन में लेखक की अपनी उड़ान होती है। उनकी कल्पना, उसकी शैली और चरित्र-चित्रण.... उसे एक निद्र्वन्द्व आकाश मिलता है। हालांकि उसमें भी परिश्रम तो है, लेकिन अनुवाद में मूल लेखक की शैली, उड़ान, कल्पना की सीमाओं में रहकर अनुवाद करता है, उसे अपनी बात नहीं कहनी होती है। उसे इस सांचे को ध्यान में रखना होता है कि ‘न कुछ छोड़ा जाए, न कुछ जोड़ा जाए’। कई बार, कई अर्थों में अनुवाद भरपूर परिश्रम की मांग करता है।

प्रो. चमोलाः खड़से जी, आप अनुवाद और मौलिक लेखन के दोनों पक्षों से जुड़े रहे हैं- इनमें आपको सबसे प्रभावी माध्यम कौन लगता है व उसकी विशेष वजह? 

डॉ. खड़सेः जैसा कि मैंने ऊपर कहा है। दोनों की अपनी विशेषताएं हैं। कोई कृति मन मोह लेती है- उसका अनुवाद करना अच्छा लगता है। ऐसे अनुवाद मैंने किए हैं। जो मैं नहीं लिख सका उसका अनुवाद करना अच्छा लगता है। नाटकों के अनुवाद मंे मैंने यह अनुभव किया। अपना मौलिक लेखन अधिक अपने निकट लगता है। अनुवाद में परिश्रम की अनुभूति होती है, अपने लेखन में कोई बोझ महसूस नहीं होता। क्योंकि, इसमें अपनी बात कहनी होती है। अनुवाद में परकाया प्रवेश करना होता है। इसलिए मौलिक लेखन में प्रभावोत्पादकता अधिक लगती है। अनुवाद में दूसरी भाषा का पुल बनने की संतुष्टि होती है।

प्रो. चमोलाः अनुवाद में परिश्रम, मौलिक की अपेक्षा अधिक है, जबकि पुरस्कार या सम्मान अपेक्षाकृत कम, उसके बारे में आपका क्या तर्क है ?

डॉ. खड़सेः आपका प्रश्न काफी हद तक सही है। कई कृतियों में तो मुखपृष्ठ पर अनुवादक का नाम तक दर्ज नहीं होता, जबकि होना ही चाहिए, उसी के परिश्रम से वह कृति दूसरी भाषाओं में जा सक रही है। अनुवादक को मूल लेखक-सा सम्मान मिलना चाहिए। भले लेखक से उसकी बराबरी न की जाए, पर उसे दोयम दर्जा देकर उसके परिश्रम को न झुठलाया जाए। अनुवादक मौलिक कृति को न्याय देता है। इसलिए इसे मूल लेखक के साथ-साथ रखना अन्यथा नहीं होगा।

प्रो. चमोलाः वैश्विक संदर्भ में अनुवाद की क्या भूमिका है ?

डॉ. खड़सेः भूमंडलीकरण के इस दौर में अनुवाद की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो गई है। दुनिया के किसी भी कोने में हो रहा कोई अन्वेषण, अनुसंधान तत्काल दुनिया के दूसरे छोर पर अनुवाद के माध्यम से पहुंचता है। साहित्य-चिंतन के बारे में भी यही कहा जा सकता है। मीडिया के इस युग में अनुवाद की भूमिका बहुत सार्थक हो उठी है। साहित्य के ही क्षेत्र की बात करें तो किसी भाषा के लेखक को जब नोबल पुरस्कार प्राप्त होता है तो उसकी कृतियों का अनुवाद दुनिया की लगभग सारी भाषाओं में हो जाता है। वैश्विकरण के इस युग में अनुवाद एक आवश्यकता बनकर उभरा है।

प्रो. चमोला - अनुवाद के क्षेत्र में रोजगार की क्या संभावनाएं हैं ?

डॉ. खड़सेः अनुवाद के क्षेत्र में रोजगार की अनंत सम्भावनाएं हैं। इलेक्ट्राॅनिक मीडिया, मुद्रित पत्र-पत्रिकाओं, टीवी, इंटरनेट अंतराष्ट्रीय व्यापार, मनोरंजन, विज्ञापन जैसे अनेक ऐसे क्षेत्र हैं, जहां अनुवाद की आवश्यकता होती है, जहां रोजगार की भरपूर सम्भावना है। इसके अलावा सरकार की नीति के अनुसार अनुवादक के लिए रोजगार के कई द्वार खुले हैं।

प्रो. चमोलाः प्रयोजनमूलक हिंदी के भविष्य के बारे में आपका क्या कहना है?

डॉ. खड़सेः प्रयोजनमूलक हिंदी का भविष्य बहुत उज्वल है, क्योंकि यह रोजगारोन्मुख हैं। सरकारी विभागों में राजभाषा नीति के अनुसरण में अनुवाद और प्रयोजनमूलक हिंद की आवश्यकता बड़ी मात्रा में रहती है।

प्रो. चमोलाः अनुवाद सिद्धान्त पर भी क्या आपने लिखा है? 

डॉ. खड़सेः जी हाँ, अनुवाद सिद्धान्त पर एक पुस्तक लिखी है साथ प्रयोजनमूलक हिंदी से सम्बन्धित कई पुस्तकें लिखी हैं। भाषा का यह रूप सीधे रोजगार से जुड़ा है, इसलिए तमाम पाठ्यक्रमों में इन पुस्तकों को समाविष्ट किया गया है।

प्रो. चमोलाः आपकी भावी योजनाएं क्या हैं?

डॉ. खड़से - योजनाएं तो बहुत होती हैं। अब मानस यह है कि अपने आपको कथा-जगत तक ही रखा जाए। विशेषतः उपन्यास लेखन में ही केंद्रित होना चाहता हूं। फिलहाल एक उपन्यास पर काम कर रहा हूँ। मेरे ‘बादल राग’ उपन्यास का अनुवाद कई भाषाओं में हो गया है। यह बात बहुत उत्साहित करती है कि अपनी कृति हिंदी के अलावा दूसरी भाषा के पाठकों तक पहुंच रही है। निकट भविष्य में एक कथा-संग्रह और एक उपन्यास पाठकों के सामने आने की संभावना है। 


दीपक शर्मा, -लखनऊ (यू.पी.), मो. 9839170890

कहानी

ढलवाँ लोहा

“लोहा पिघल नहीं रहा,” मेरे मोबाइल पर ससुरजी सुनाई देते हैं, “स्टील गढ़ा नहीं जा रहा.....”

कस्बापुर में उनका ढलाईघर है: कस्बापुर स्टील्ज।

“कामरेड क्या कहता है?” मैं पूछता हूँ। 

ढलाईघर का मैल्टर, सोहनलाल, कम्युनिस्ट पार्टी का कार्ड-होल्डर तो नहीं है लेकिन सभी उसे इसी नाम से पुकारते हैं। 

ससुरजी की शह पर: ‘लेबर को यही भ्रम रहना चाहिए, वह उनके बाड़े में है और उनके हित सोहनलाल ही की निगरानी में हैं..... जबकि है वह हमारे बाड़े में.....’

“उसके घर में कोई मौत हो गयी है। परसों। वह तभी से घर से गायब है.....”

“परसों?” मैं व्याकुल हो उठता हूँ लेकिन नहीं पूछता, ‘कहीं मंजुबाला की तो नहीं?’ मैं नहीं चाहता ससुरजी जानें सोहनलाल की बहन, मंजुबाला, पर मैं रीझा रहा हूँ। पूरी तरह। 

“हाँ, परसों! इधर तुम लोगों को विदाई देकर मैं बँगले पर लौटता हूँ कि कल्लू चिल्लाने लगता है, कामरेड के घर पर गमी हो गयी.....”

हम कस्बापुर लौट आते हैं। मेरी साँस उखड़ रही है।  विवाह ही के दिन ससुरजी ने वीणा को और मुझे इधर नैनीताल भेज दिया था। पाँच दिन के प्रमोद काल के अन्तर्गत। यह हमारी दूसरी सुबह है। 

“पापा,” वीणा मेरे हाथ से मोबाइल छीन लेती है, “यू कांट स्नैच आर फन। (आप हमारा आमोद-प्रमोद नहीं छीन सकते) हेमन्त का ब्याह आपने मुझसे किया या अपने कस्बापुर स्टील्ज से?”

उच्च वर्ग की बेटियाँ अपने पिता से इतनी खुलकर बात करती हैं क्या? बेशक मेरे पिता जीवित नहीं हैं और मेरी बहनों में से कोई विवाहित भी नहीं लेकिन मैं जानता हूँ, उन पाँचों में से एक भी मेरे पिता के संग ऐसी धृष्टता प्रयोग में न ला पातीं। 

“पापा आपसे बात करेंगे,” वीणा मेरे हाथ में मेरा मोबाइल लौटा देती है; उसके चेहरे की हँसी उड़ रही है। 

“चले आओ,” ससुरजी कह रहे हैं, “चैबीस घंटे से ऊपर हो चला है। काम आगे बढ़ नहीं रहा। ”

“हम लौट रहे हैं,” मुझे सोहनलाल से मिलना है। जल्दी बहुत जल्दी। 

“मैं राह देख रहा हूँ,” ससुरजी अपना मोबाइल काट लेते हैं। 

“तुम सामान बाँधो, वीणा,” मैं कहता हूँ, “मैं रिसेप्शन से टैक्सी बुलवा रहा हूँ.....”

सामान के नाम पर वीणा तीन-तीन दुकान लाई रही: सिंगार की, पोशाक की, जेवर की। 

“यह कामरेड कौन है?” टैक्सी में बैठते ही वीणा पूछती है। 

“मैल्टर है,” सोहनलाल का नाम मैं वीणा से छिपा लेना चाहता हूँ, “मैल्ट तैयार करवाने की जिम्मेदारी उसी की है.....”

“उसका नाम क्या है?”

“सोहनलाल,” मुझे बताना पड़ रहा है। 

“उसी के घर पर आप शादी से पहले किराएदार रहे?”

“हाँ..... पूरे आठ महीने.....”

पिछले साल जब मैंने इस ढलाईघर में काम शुरू किया था तो सोहनलाल से मैंने बहुत सहायता ली थी। कस्बापुर मेरे लिए अजनबी था और मेरे स्त्रोत थे सीमित। आधी तनख्वाह मुझे बचानी-ही-बचानी थी, अपनी माँ और बहनों के लिए। साथ ही उसी साल मैं आई. ए. एस. की परीक्षा में बैठ रहा था। बेहतर अनुभव के साथ। बेहतर तैयारी के साथ। उससे पिछले साल अपनी इंजीनियरिंग खत्म करते हुए भी मैं इस परीक्षा में बैठ चुका था लेकिन उस बार अपने पिता के गले के कैंसर के कारण मेरी तैयारी पूरी न हो सकी थी और फिर मेरे पिता की मृत्यु भी मेरे परीक्षा-दिनों ही में हुई थी। ऐसे में सोहनलाल ने मुझे अपने मकान का ऊपरी कमरा दे दिया था। बहुत कम किराए पर। यही नहीं, मेरे कपड़ों की धुलाई और प्रेस से लेकर मेरी किताबों की झाड़पोंछ भी मंजुबाला ने अपने हाथ में ले ली थी। मेरे आभार जताने पर, बेशक, वह हँस दिया करती, “आपकी किताबों से मैं अपनी आँखें सेंकती हूँ। क्या मालूम दो साल बाद मैं इन्हें अपने लिए माँग लूँ?”

“उसके परिवार में और कितने जन थे?”

“सिर्फ दो और। एक, उसकी गर्भवती पत्नी और दूसरी, उसकी कॉलेजिएट बहन.....”

“कैसी थी बहन?”

“बहुत उत्साही और महत्वाकांक्षी.....”

“आपके लिए?” मेरे अतीत को वीणा तोड़ खोलना चाहती है।

“नहीं, अपने लिए,” अपने अतीत में उसकी सेंध मुझे स्वीकार नहीं, “अपने जीवन को वह एक नयी नींव देना चाहती थी, एक ऊँची टेक.....”

“आपको जमीन पर?” मेरी कोहनी वीणा अपनी बाँह की कोहनी के भीतरी भाग पर ला टिकाती है, “आपके आकाश में?”

“नहीं,” मैं मुकर जाता हूँ।

“अच्छा, उसके पैर कैसे थे?” वीणा मुझे याद दिलाना चाहती है उसके पैर उसकी अतिरिक्त राशि हैं। यह सच है वीणा जैसे मादक पैर मैंने पहले कभी न देखे रहे: चिक्कण एड़ियाँ, सुडौल अँगूठे और उँगलियाँ, बने-ठने नाखून, संगमरमरी टखने।

“मैंने कभी ध्यान ही न दिया था,” मैं कहता हूँ। वीणा को नहीं बताना चाहता मंजुबाला के पैर उपेक्षित रहे। अनियन्त्रित। ढिठाई की हद तक। नाखून उसके कुचकुचे रहा करते और एड़ियाँ विरूपित।

“क्यों? चेहरा क्या इतना सुन्दर था कि उससे नजर ही न हटती थी!..... तेरे चेहरे से नजर नहीं हटती, तेरे पैर हम क्या देखें?” वीणा को अपनी बातचीत में नये-पुराने फिल्मी गानों के शब्द सम्मिलित करने का खूब शौक है।

“चेहरे पर भी मेरा ध्यान कभी न गया था,” वीणा से मैं छिपा लेना चाहता हूँ, मंजुबाला का चेहरा मेरे ध्यान में अब भी रचा-बसा है: उत्तुंग उसकी गालों की आँच, उज्ज्वल उसकी ठुड्डी की आभा, बादामी उसकी आँखों की चमक, टमाटरी उसके होठों का विहार, निरंकुश उसके माथे के तेवर..... सब कुछ। यहाँ तक कि उसके मुँहासे भी।

“पुअर थिंग (बेचारी)” घिरी हुई मेरी बाँह को वीणा हल्के से ऊपर उछाल देती है।

“वीणा के लिए तुम्हें हमारी लांसर ऊँचे पुल पर मिलेगी” ससुरजी का यह आठवाँ मोबाइल कॉल है- इस बीच हर आधे घंटे में वे पूछते रहे हैं “कहाँ हो?” ‘कब तक पहुँचोगे?’ “ड्राइवर के साथ वीणा बँगले पर चली जाएगी और तुम इसी टैक्सी से सीधे ढलाईघर पहुँच लेना.....”

“डेड लौस, माए लैड,” ढलाईघर पहुँचने पर ससुरजी को ब्लास्ट फरनेस के समीप खड़ा पाता हूँ। लेबर के साथ।

ढलाईघर में दो भट्टियाँ हैं: एक यह, झोंका-भट्टी, जहाँ खनिज लोहा ढाला जाता है, जो ढलकर आयरन नौच्च, लोहे वाले खाँचे में जमा होता रहता है और उसके ऊपर तैर रहा कीट, सिंडर नौच्च में- कांचित खाँचे में। स्टील का ढाँचा लिये, ताप-प्रतिरोधी, यह झोंका-भट्टी 100 फुट ऊँची है। आनत रेलपथ से छोटी-छोटी गाड़ियों में कोक, चूना-पत्थर और खनिज लोहा भट्टी की चोटी पर पहुँचाए जाते हैं, सही क्रम में, सही माप में। ताकि जैसे ही चूल्हों और टारबाइनों से गरम हवा भट्टी में फूँकी जाए, कोक जलकर तापमान बढ़ा दे- खनिज लोहे की ऑक्सीजन खींचते-खींचते- और फिर अपना कार्बन लोहे को ले लेने दे। बढ़ चुके ताप से चूना-पत्थर टुकड़े-टुकड़े हो जाता है और खनिज लोहे के अपद्रव्यों और कोक से मिलकर भट्टी की ऊपरी सतह पर अपनी परत जा बनाता है और पिघला हुआ लोहा निचली परत साध लेता है। दूसरी भट्टी खुले चूल्हे वाली है- ओपन हार्थ फरनेस। यहाँ ढलवें लोहे से स्टील तैयार किया जाता है जो लेडल, दर्बी, में उमड़कर बह लेता है और उसके ऊपर तैर रहा लोह-चून, स्लैग, थिम्बल, अंगुश्ताना में निकाल लिया जाता है।

“क्या किया जाए?” ससुरजी बहुत परेशान हैं, “आयरन नौच्च खाली, सिंडर नौच्च खाली लेडल खाली, थिम्बल खाली.....”

“मैल्टर साहब अब यहाँ हैं नहीं,” लेबर में से एक पुराना आदमी सफाई देना चाहता है, “हम भी क्या करें? न हमें तापमान का ठीक अन्दाजा मिल रहा है और न ही कोक, चूना-पत्थर और खनिज लोहे का सही अनुपात.....”

ब्लास्ट फरनेस में तापमान कम है, भट्टी ढीली है जबकि तापमान का 2800 से 3500 डिग्री फाहरनहाइट तक जा पहुँचना जरूरी रहता है।

पीपहोल से अन्दर गलने हेतु लोहे पर मैं नजर दौड़ाता हूँ।

लोहा गल नहीं रहा।

भट्टी की कवायद ही गड़बड़ है। मेरे पूछने पर कोई लेबर बता नहीं पाता भट्टी में कितना लोहा छोड़ा गया, कितना कोक और कितना लाइमस्टोन।

ससुरजी के साथ मैं दूसरी भट्टी तक जा पहुँचता हूँ।

इसमें भी वही बुरा हाल है सब गड्डमड्ड।

यहाँ भी चूना-पत्थर, सटील स्क्रैप और कच्चा ढलवाँ लोहा एक साथ झोंक दिया गया मालूम देता है जबकि इस भट्टी में पहले चूना-पत्थर गलाया जाता है। फिर स्क्रैप के गट्ठे। और ढलवाँ लोहा तभी उँडेला जाता है जब स्क्रैप पूरी तरह से पिघल चुका हो।

“कामरेड को बुला लें?” मैं सोहनलाल के पास पहुँचने का हीला खोज रहा हूँ। उसे मिलने की मुझे बहुत जल्दी है।

“मैं भी साथ चलता हूँ,” ससुरजी बहुत अधीर हैं।

सोहनलाल अपने घर के बाहर बैठा है। कई स्त्री-पुरुषों से घिरा।

“आप यहीं बैठे रहिए,” ससुरजी को गाड़ी से बाहर निकलने से मैं रोक देता हूँ, “कामरेड को मैं इधर आपके पास बुला लाता हूँ.....”

भीड़ चीरकर मैं सोहनलाल के पास जा पहुँचता हूँ।

मैं अपनी बाँहें फैलाता हूँ।

वह नहीं स्वीकारता।

उठकर अपने घर में दाखिल होता है।

मैं उसके पीछे हो लेता हूँ।

फर्श पर बिछी एक मैली चादर पर उसकी गर्भवती पत्नी लेटी है।

सोहनलाल अपने घर के आँगन में शुरू हो रही सीढ़ियों की ओर बढ़ रहा है।

मैं फिर उसके पीछे हूँ।

सीढ़ियों का दरवाजा पार होते ही वह मेरी तरफ मुड़ता है। एक झटके के साथ मुझे अपनी तरफ खींचता है और दरवाजे की साँकल चढ़ा देता है।

सामने वह कमरा है जिसमें मैंने आठ महीने गुजारे हैं।

अपनी आई. ए. एस. की परीक्षा के परिणाम के दिन तक।

वह मुझे कमरे के अन्दर घसीट ले जाता है।

“यह सारी चिट्ठी तूने उसके नाम लिखीं?” मेरे कन्धे पकड़कर वह मुझे एक जोरदार हल्लन देता है और अपनी जेब के चिथड़े कागज मेरे मुँह पर दे मारता है, “वह सीधी लीक पर चल रही थी और तूने उसे चक्कर में डाल दिया। उसका रास्ता बदल दिया। देख। इधर ऊपर देख। इसी छत के पंखे से लटककर उसने फाँसी लगायी है.....”

मेरे गाल पर सोहनलाल एक जोरदार तमाचा लगाता है।

फिर दूसरा तमाचा।

फिर तीसरा।

फिर चैथा।

मैं उसे रोकता नहीं।

एक तो वह डीलडौल में मुझसे ज्यादा जोरवार है और फिर शायद मैं उससे सजा पाना भी चाहता हूँ।

अपने गालों पर उसके हाथों की ताकत मैं लगातार महसूस कर रहा हूँ।

मंजुबाला की सुनायी एक कहानी के साथ:

रूस की 1917 की कम्युनिस्ट क्रान्ति के समय यह कहानी बहुत मशहूर रही थीय जैसे ही कोई शहर क्रान्तिकारियों के कब्जे में आता, क्रान्ति-नेता उस शहर के निवासियों को एक कतार में लगा देते और बोलते, “अपने-अपने हाथ फैलाकर हमें दिखाओ।” फिर वे अपनी बन्दूक के साथ हर एक निवासी के पास जाते और जिस किसी के हाथ उन्हें ‘लिली व्हाइट’ मिलते उसे फौरन गोली से उड़ा दिया जाता, “इन हाथों ने कभी काम क्यों नहीं किया?”

मंजुबाला मेरे हाथों को लेकर मुझे अक्सर छेड़ा करती, “देख लेना। जब क्रान्ति आएगी तो तुम जरूर धर लिये जाओगे।”

और मैं उसकी छेड़छाड़ का एक ही जवाब दिया करता, “मुझे कैसे धरेंगे? अपनी नेता को विधवा बनाएँगे क्या?”

बाहर ससुरजी की गाड़ी का हॉर्न बजता है। तेज और बारम्बार।

बिल्कुल उसी दिन की तरह जब मेरी आई. ए. एस. की परीक्षा का परिणाम आया था। और वे मुझे यहाँ से अपनी गाड़ी में बिठलाकर सीधे मेरे शहर, मेरे घर पर ले गये थे, मेरी माँ के सामने। वीणा का विवाह प्रस्ताव रखने।

मुझसे पहले सोहनलाल सीढ़ियाँ उतरता है।

मैं प्रकृतिस्थ होने में समय ले रहा हूँ। मंजुबाला की अन्तिम साँस मुझे अपनी साँस में भरनी है।

नीचे पहुँचकर पाता हूँ, ससुरजी अपने हाथ की सौ-सौ के सौ नोटोंवाली गड्डी लहरा रहे हैं, “मुझे कल ही आना था लेकिन मुझे पता चला तुम इधर नहीं हो। श्मशान घाट पर हो।”

“हं..... हं.....” सोहनलाल की निगाह ससुरजी के हाथ की गड्डी पर आ टिकी है। लगभग उसी लोभ के साथ जो मेरी माँ की आँखों में कौंधा था जब ससुरजी ने मेरे घर पर पाँच-पाँच सौ के नोटोंवाली दो गड्डियाँ लहराई थीं, “यह सिर्फ रोका रूपया है। बाकी देना शादी के दिन होगा। वीणा मेरी इकलौती सन्तान है.....”

“मेरे साथ अभी चल नहीं सकते?” ससुरजी के आदेश करने का यही तरीका है। जब भी उन्हें जवाब ‘हाँ’ में चाहिए होता है तो वे अपना सवाल नकार में पूछते हैं। विवाह की तिथि तय करने के बाद उन्होंने मुझसे पुछा था, “सोलह मई ठीक नहीं रहेगी क्या?”

“जी.....” सोहनलाल मेरे अन्दाज में अपनी तत्परता दिखलाता है।

“गुड.....” ससुरजी अपने हाथ की गड्डी उसे थमा देते हैं, “सुना है तुम्हारे घर में खुशी आ रही है। ये रुपये अन्दर अपनी खुशी की जननी को दे आओ।”

“जी.....”

“फिर हमारे साथ गाड़ी में बैठ लो। उधर लेबर ने बहुत परेशान कर रखा है। निकम्मे एक ही रट लगाये हैं, मैल्टर साहब के बिना हमें कोई अन्दाज नहीं मिल सकता, न तापमान का, न सामान का.....”

“जी.....”

“गुड। वेरी गुड।”

मालिक के लिए ड्राइवर गाड़ी का दरवाजा खोलता है और ससुरजी पिछली सीट पर बैठ लेते हैं।

‘‘आओ, हेमन्त.....”

मैं उनकी बगल में बैठ जाता हूँ।

ड्राइवर गाड़ी के बाहर खड़ा रहता है।

“जानते हो?” एक-दूसरे के साथ हमें पहली बार एकान्त मिला है, ‘‘गायब होने से पहले इस धूर्त ने क्या किया?”

“क्या किया?” मैं काँप जाता हूँ। मंजुबाला के साथ मेरे नाम को घंघोला क्या?

“लेबर को पक्का किया, लोहा पिघलना नहीं चाहिए.....”

“मगर क्यों?” मेरा गला सूख रहा है।

“कौन जाने क्यों? इसीलिए तो तुम्हें यहाँ बुलाया.....”

“मुझे?”

“सोचा तुम्हारी बात वह टालेगा नहीं। तुम उसे अपनी दोस्ती का वास्ता देकर वापस अपने, माने हमारे, बाड़े में ले आओगे.....”

“लेकिन आपने तो उसे इतने ज्यादा रुपये भी दिये?”

“बाड़े में उसकी घेराबन्दी दोहरी करने के वास्ते। वह अच्छा कारीगर है और फिर सबसे बड़ी बात, पूरी लेबर उसकी मूठ में है.....”

उखड़ी साँस के साथ सोहनलाल ड्राइवर के साथ वाली सीट ग्रहण करता है।

जरूर हड़बड़ाहट रही उसे।

इधर कार में हमारे पास जल्दी पहुँचने की।

“तुम क्या सोचते हो, कामरेड?” ससुरजी उसे मापते हैं, “लोहा क्यों पिघल नहीं रहा? मैल्ट क्यों तैयार नहीं हो रहा है?”

“ढलाईघर जाकर ही पता चल पाएगा। लेबर ने कहाँ चूक की है.....”

सोहनलाल साफ बच निकलता है।

ससुरजी मेरी ओर देखकर मुस्कराते हैं, “तुम बँगले पर उतर लेना, हेमन्त। कामरेड अब सब देखभाल लेगा। उसके रहते लोहा कैसे नहीं पिघलेगा? स्टील कैसे नहीं गढ़ेगा.....”

“जी,” मैं हामी भरता हूँ।

मुझे ध्यान आता है, बँगले पर वीणा है। उसका वातानुकूलित कमरा है.....

‘वीणा के हाथ कैसे हैं?’

सहसा मंजुबाला दमक उठती है।

‘लिली व्हाइट!’

‘और आप उसे मेरी कतार में लाने की बजाय उसकी कतार में जा खड़े हुए?’

‘मैं खुद हैरत में हूँ, मंजुबाला! यह कैसी कतार है? जहाँ मुझसे आगे खड़े लोग मेरे लिए जगह बना रहे हैं?’



प्रभा कश्यप डोगरा, पंचकूला, पंजाब

मो. 9501137575



जीवन पुष्प

जीवन पुष्प दिया है तुमने;

स्निग्ध पराग  रस कण कण में!

सिंचित हुई मधु बालाऐं!

झूम झूम रस गंध मत्त  विसुद्ध!!

नवल रंग, नव जीवन पाया;

नाच उठा था, मधुबन तब!!

महामारी को क्योंकर सौंपें

वह मधु-घट य जो भरा;-

जीवनभर ,बूँद बूँद कर!!

आज ये क्यों तोड़े हैं सबने;-

बिखर रहे मधु घट हैं सब !!

एक अनोखे ख़ौफ का साया य-

क्यूँ पसरता जाता सब ओर !!!

जीवन पुष्प खिले हैं हरदम;-

खिलते रहेंगे विश्वास यही !!

मधु पराग होगा फिर संचित;-

मधु-घट फिर होगा सिंचित !!!!



प्रो. फूलचंद मानव, ज़ीरकपुर (चंडीगढ), मो. 9316001549


आलेख

बंदा सिंह बहादुर का शीर्ष शौर्य

भारत का इतिहास, उसमें पंजाब का योगदान शूरवीरों, बहादुरों की गौरव गाथाओं से भरा पड़ा है। ‘बंदा सिंह बहादुर’ का नाम आते ही सिक्ख इतिहास में गुरु अर्जुन देव, तेग बहादुर, गुरु गोविन्द सिंह जैसे बलिदानियों की गाथाएँ स्मरण हो आती हैं। हिन्दु समाज की अन्य जातियों में भी शौर्य पुरुषों की कोई कमी तो नहीं, मगर बंदा बहादुर का नाम आते ही मैथिली शरण गुप्त की उल्लेखनीय कविता सामने आती हैं, कैसी मृत्यु चाहिए? बोलो! 

चंडीगढ़ में, मैं मोहाली के समीप चप्पड़चिड़ी (छपर चिरी) से ही बंदा सिंह बहादुर का प्रसंग उठाना चाहूँगा, जहाँ पत्नी प्रो. योगेश्वर जी के साथ, गत माह इस स्मारक हम घूमकर आए हैं, श्री मोदीजी माननीय प्रधान मंत्री ने बादल प्रकाश सिंह के सहयोग से इस पर्यटन स्थल का उद्घाटन किया था और असंख्य सैलानी प्रतिदिन यहाँ आते, शौर्य गाथावीर बंदा बहादुर का स्मरण कर जाते हैं। 9 जून बंदा सिंह बहादुर का बलिदान दिवस मनाया जाता है। छप्पड़ चिड़ी गाँव में गुलजार यही बंदा सिंह बहादुर स्मारक पंजाब की गौरव गाथाओं में एक अद्भूत उदाहरण है।

साका सरहिन्द, लौहगढ़, मुगल सेना के साथ संघर्ष, दलखालसा की स्थापना और यंत्रणा की अद्वितीय मिसाल बंदा सिंह बहादुर की, शौर्य कथा का रेखांकित चित्रण प्रस्तुत करने वाले हैं। सिक्ख सेनानायक बंदा बहादुर लच्छमन दास व माधो दास सरीखे पूर्व नामों से आगे आकर गुरु गोविंद सिंह की शरण में पहुँचे थे। मुगल स्वयं को अजेय मानते थे। उनके भ्रम को तोड़कर युद्ध में व्यूह रचना और रण कौशल दिखाकर बंदा वैरागी ने मुगलों को पराजित किया। घोडे़, हाथी, तोपें और हाथापाई की वह ऐसी मिसाल है जो गुरु पंथ को भी गौरवान्वित करने वाली है।

बंदा वैरागी ने गुरु नानक देव व गोविंद सिंह जी के नाम के सिक्के जारी करवाए, उनके नाम की मोहर भी चलवाई। निम्न वर्ग के लोगों को उच्च पद दिलाने में इनकी भूमिका रही। हल चलाने वाले किसान मजदूरों को बंदा बहादुर ने ज़मीन का मालिक बनाया। गुरु गोविंद सिंह के छोटे साहिजादों की शहादत का बदला लेकर अपने पराक्रम का सिक्का भी जमाया। उन्होंने संकल्प पुरुष गुरु गोविंद सिंह के प्रभुसत्ता सम्पन्न जन राज्य के लिए लोहगढ़ को चुनकर वहाँ खालसा राज की नींव स्थापित की। दशम गुरु गोविंद सिंह ने नांदेड़ में 3 सितम्बर 1708 ई. को एक आश्रम में बंदासिंह बहादुर का नाम उनके पराक्रम के कारण ठीक ही रखा था। सरहद के नवाब वजीर खान ने गुरु गोविंद सिंह के सात साल और नौ साल के बेटों को दीवारों में चिनवाया था। इसका प्रतिशोध लेने वे पंजाब आए। बंदा बहादुर ने सिखों के सहयोग से मुगल अधिकारियों को हराकर मई 1710 के सरहिंद पर उन्होंने विजय पायी। सतलुज नदी की दक्षिणी भाग में सिख राज्य स्थापित किया। खालसा नाम से वे शासन करते रहे और गुरु मर्यादा का प्रचार भी किया।

कश्मीर स्थित जिला पुंछ के राजौरी इलाके में सन् 1670 ई. को बंदा बहादुर का जन्म हुआ। कुश्ती और शिकार के शौक में शिक्षा अधिक प्राप्त नहीं कर पाए। कहते हैं कि पंद्रह साल के ही थे कि हिरनी गर्भवती थी, जिसके शिकार ने उन्हें प्रभावित किया और वे शोक ग्रस्त हो गए। घर वार त्याग कर वे वैरागी बन गए। वहां उनके गुरु जानकी दास ने अपने शिष्य को माघोदास का नाम दिया। एक अन्य वैरागी बाबा रामदास का भी शिष्यत्व स्वीकारा। उनके बाद वे नासिक, पंचवटी में समय गुजारने लगे। एक औधड़नाथ ने उन्हें योग की शिक्षा दी। वहाँ से वे पूर्व दिशा में नांदेड़ की तरफ चले गए और गोदावरी नदी के किनारे अपना आश्रम भी स्थापित किया। बाल वैरागी के, बंदा वैरागी होने की घटनाएं, शौर्य पराक्रम, वीरता से भरपूर हैं। मुगल बादशाह के फरमान से हिंदुओं, सिखों को बलात् मुसलमान बनाया जा रहा था। इस दिशा में पहल और विरोध करके, बंदा वैरागी ने गुरु गोविंद सिंह का सच्चा शिष्य होकर, सेनापति के नाते विरोध और विद्रोह का सामना किया। ‘दल खालसा’, सिक्ख मत के प्रचार में अपने शरीर का पुर्जा-पुर्जा होम किया।

गुरुदास नंगल की गढ़ी से दिल्ली तक एक जलूस निकाला था। घटनाक्रम में सिक्खों को शहीद करके मुगल मनमानी कर रहे थे। सिखों का नामो निशान तक मिटाने पर मुगल सम्राट तुले हुए थे। लेकिन इसी युद्ध में गुरु के रंगरेटे, बंदा बहादुर ने उन्हें सफल नहीं होने दिया- निडरता, निर्भयता के उदाहरण बन्दा वैरागी के युद्ध कौशल, संषर्घ और बलिदान के मंज़र रौंगटे खड़े कर देने वाले हैं। उन्हें लालच दिया गया; इस्लाम धर्म उन्होंने स्वीकार नहीं किया। वैरागी सहमत नहीं थे वैरागी बंदा के चैदह वर्ष के बेटे को उनकी ही गोद मंे बिठाया और मासूम पुत्र का कत्ल करने का हुक्म सुनाया। सिख धर्म के प्रति समर्पित बंदा सिंह वैरागी अडोल थे। जल्लाद ने खंजर से मासूम बेटे अजै सिंह को शहीद कर दिया।

-जल्लाद ने अजै सिंह के शरीर के टुकड़े-टुकड़े किए

-बेटे की अतड़िया निकाल उनका हार बंदा बहादुर के गले में डाला गया

-बच्चे का तड़प रहा दिल बंदा वैरागी के मुंह में ठूंसा

-तिलमिलाए बादशाह ने वैरागी बाबा को तड़पाकर मारने का आदेश दिया।

-उनकी दायीं और बायीं आँख बारी-बारी निकाली गई।

-जीभ भी कटवा दी कि वैरागी ‘वाई गुरु’ का उच्चारण पाठ न कर पाए।

-बंदा सिंह के पैरों से धड़ अलग कर दिया गया।

-शीश धड़ से अलग करवाया गया।

गुरु का बंदा, शहीद हो गया। धर्म के प्रति निष्ठा, वीरता प्यार और समर्पण की यह एक अद्वितीय उदाहरण सिद्ध होती है। सन! 1715 ई. में फरुखसियर नामकवादशाह की शाही फौज ने अब्दुल समद खां की निगरानी में धारीबाल गुरदासपुर नंगल पर हमला किया तो उस क्षेत्र की घेराबंदी कुछ मास तक जारी रही। खान पान की सामग्री चूकने के कारण 7 दिसम्बर का आत्म समर्पण हुआ। सन् 1716 की फरवरी में वे लगभग आठ सौ सिक्खों के साथ दिल्ली लाए गए। यहाँ भी लगभग एक सौ सिक्खों ने अपना बलिदान किया, वहीं फार्रूख सियार के हुक्म पर बंदा बहादुर और उनके खास सैनिक अधिकारियों के शरीर नोंच कर टुकड़े-टुकड़े करने की गवाही मिलती हैं। अपने काल में बन्दा वैरागी ने कत्र्तव्य निष्ठा, धर्मपालन का परिचय देकर दल खालसा की आन-बान और शान को डिगने नहीं दिया।

बंदा वैरागी ने मिर्जा जान की जगह पर कच्चे किले का निर्माण करवाया। मुगल सेना के हमले से यह काम बीच में ही रह गया। मुगल सैनिक बंदा सिंह से इस कदर डरे थे कि अपनी सेना के साथ ‘मौलबियों, काजियों को भी रखने लगे जो कलमा पढ़कर बादशाह की विजय की कामना भी करते थे। अल्लाह-अल्लाह की आवाजें तक मुगल सेना के भयभीत होने की साक्षी बनीं। लूट, ईनाम के लालच मंे मुस्लिम फौज मैदान छोड़ छू मंतर होने लगी। दुनीचंद की एक हवेली में वही वैरागी बंदा ने अपने सैनिकों को ठहराया। यही चार दीवारी वाली गढ़ी गुरदासपुर में कायम है, बंदा बहादुर ने दीवारों को पक्का करवाकर हवेली के चहुँओर खाई खुदवाई थी। शाही नहर व समीपवर्ती नदी का बंध तुड़वाकर भाई बंदा वैरागी ने खाई में पानी भरवाया कि कोई शत्रु अंदर न आ सके या घोड़े आदि गढ़ी में न पहुँच पाएं। मुगल सेना ने गढ़ी घेर ली। चैबीस हजार फौजियों के साथ अव्दुसमद वहाँ डेरा डाल बैठ गया। सेना और खाद्य सामग्री के अभाव में बंदा वैरागी विवश नजर आए। यहीं लड़ाई में एक-एक सिंह सैनिक ने मुगलों के 20-20 सिपाहियों को मार गिराया। मुगलों के तम्बू नीची जगह पर थे। वैरागी की गढ़ी ऊपर, ऊँचे स्थान पर होने के कारण मुगलों तीरों से आक्रमण कर रहे थे। आठ माह यह युद्ध चलता रहा। सिक्खों ने पेड़ों की छाल, पत्ते आदि खाकर वीरता का परिचय दिया। बारुद या तीर आदि खत्म होने पर भी वैरागी के नेतृत्व में सिक्खों ने जुझारू स्वभाव का परिचय दिया। 

तेरा कीआ मीठा लागे की भावना ने सिंह सैनिकों को कायम रखा। यहीं तीन सौ सिंह के सिर बादशाह फर्रुखसयार ने भेंट स्वरूप भेजे थे। बंदी बनाकर धोखे में बंदा वैरागी ने बुजदिली वाले मुगल सैनानियों के सामने घुटने टेके नहीं। सिक्खों के शव पेड़ों पर लटकाए जा रहे थे। खून-खराबा हो रहा था। लेकिन शहादत पा रहे सिखों का मनोबल जोश कायम था। बंदा वैरागी के अप्रतिम शौर्य का परिचय इन्हीं घटनाओं से मिलता है। पराक्रम भी, साहस भी तेजस्विता भी मरते दम तक आस्थाबद्ध समर्पण और पुर्जा-पुर्जा अंग कटवाकर भी ‘उफ्’ न करने वाले शीर्ष शौर्य नायक बंदा बहादुर को प्राणाम। पंजाब की धरती ऐसे असंख्य शौर्य वीरों से भरी मिलती है।


सुशांत सुप्रिय, इंदिरापुरम्, गाजियाबाद, मो. 8512070086


प्रेम-कथा

‘टिप-टिप बरसा पानी’ वाली लड़की

"टिप -टिप बरसा पानी

पानी ने आग लगाई

आग लगी दिल में तो

दिल को तेरी याद आई ..."

जितनी बार मैं इस गीत को बजते हुए सुनता हूँ, मेरी स्मृति में भी एक लड़की चहलकदमी करने लगती है। बरसों पहले 1994 में भी यही होता था। आज 2018 में भी यही होता है। लेकिन मेरे जहन में मौजूद अपनी छवि में सुरक्षित वह लड़की समय के अथाह समुद्र में तैरती-उतराती रहती है। उस छवि में वह अठारह-उन्नीस साल की पतली, लम्बी, सलोनी लड़की है जिसके बालों की पोनी-टेऽल आकर्षक अंदाज में इधर-उधर थिरकती रहती है। मेरी स्मृति में वह आज भी अठारह-उन्नीस साल की चिर-युवा ही है।

मैं आज तक यह नहीं समझ पाया कि कि यह गीत ‘टिप-टिप बरसा पानी ... ‘ मुझे उस 1994/2018 वाली लड़की की याद क्यों दिलाता है। उसका ‘मोहरा‘ फिल्म से कुछ लेना-देना नहीं। न ही उसका रवीना टंडन से कोई साम्य है। ऐसा नहीं है कि मैंने कभी हकीकत में उस लड़की को रिम-झिम फुहारों के बीच भीगे वस्त्रों में देखा हो। उस ‘टिप-टिप बरसा पानी‘ वाली लड़की ने मेरे स्मृति के जल में न जाने कौन से पत्थर फेंके होंगे जिनकी गुड़ुप् से पैदा हुई तरंगें वहाँ आज भी जीवंत हैं। अक्सर मैं 1994/2018 वाली यानी ‘टिप-टिप बरसा पानी‘ वाली लड़की को अपनी स्मृति के जल में पीली बिकनी पहन कर तैराकी करते हुए देखता हूँ, और मुझे लगता है जैसे मैं साहिल पर खड़ा-खड़ा ही उसके ख़्यालों के जल में डूब रहा हूँ। जब वह किनारे पर आती है तो मैं उसे ‘हलो‘ कहता हूँ। जवाब में वह भी मुझे ‘हलो‘ कहती है, और मेरे भीतर-बाहर सूर्योदय हो जाता है। रंग-बिरंगी तितलियाँ फिज़ा में तैरने लगती हैं। फूलों पर मँडराते हुए भँवरे मधुर गीत गुनगुनाने लगते हैं। एक सलोना इंद्रधनुष मेरे मन के आकाश में उग आता है, और मैं ओस-भरी मख़मली घास पर नंगे पैर चलने के गुदगुदाते सुखद अहसास से भर जाता हूँ।

‘‘मैं आप को रोज़ तैरते हुए देखता हूँ। आप अच्छी तैराक हैं। ‘‘मेरे मन में कोई चीज़ छलाँगें मार रही है।

‘‘जी, मुझे तैरना पसंद है।‘‘ अब 2018 में वह मुस्करा कर मुझसे कहती है, हालाँकि 1994 में वह मुझे अनदेखा करके आगे बढ़ जाती थी।

वह जब शावर ले कर फ्रेश होने के बाद चेंजिंग-रूम से बाहर आती है तो मैं उसे तरण-ताल के बगल में स्थित कैफे में साथ कॉफी पीने का आमंत्रण देता हूँ, जिसे वह सहर्ष स्वीकार कर लेती है। आज 2018 में भी वह उतनी ही सलोनी है जितनी वह बरसों पहले 1994 में थी, और मुस्कुराने पर अब भी उसके गालों में डिम्पल पड़ते हैं।

‘‘आप अब भी बरसों पहले जैसी लगती हैं, ‘‘मैं कहता हूँ। जवाब में वह खिलखिला उठती है। मुझे जैसे पंख लग जाते हैं, और मैं मानो पूर्णिमा की चाँदनी रात में बादलों में तैरने लगता हूँ। मुझे उसकी खिलखिलाहट में से भी ‘टिप-टिप बरसा पानी ...‘ की मादक धुन आती सुनाई देती है ।

‘‘कॉफी के लिए शुक्रिया,‘‘ वह एक लुभावनी अदा के साथ कहती है और मैं बिन पिए ही ज़मीन से डेढ़ इंच ऊपर उठ जाता हूँ...

यदा-कदा मेरी स्मृति के ताल पर जमी काई के साफ होने पर मुझे एक और लड़की का धुँधला-सा चेहरा नज़र आता है। वह कौन है ? मेरा कोई सहपाठी ? जानी-पहचानी शक्ल वाला एक लड़का धुँधले चेहरे वाली उस लड़की के लिए रोज़ गुलाब के फूल तोड़ कर लाता है, पर संकोच के कारण कभी उस लड़की को वे फूल नहीं दे पाता है। वह लड़का अक्सर उस लड़की के लिए प्रेम-पत्र लिखता है, पर कभी अपने वे प्रेम-पत्र उस लड़की को देने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है। वह लड़का उस लड़की को बेहद चाहता है, पर हिचकने के कारण वह कभी उस लड़की को कॉलेज की कैंटीन में साथ चाय-कॉफी पीने के लिए आमंत्रित नहीं कर पाता है। उस लड़की की शादी तय हो जाने की ख़बर सुनकर वह लड़का अकेले में रोता है, पर कभी किसी के सामने अपना ग़म ज़ाहिर नहीं कर पाता है ...

पहले कभी-कभार 1994/2018 वाली यानी ‘टिप-टिप बरसा पानी‘ वाली वह लड़की मुझे अपनी स्मृति के किसी मेट्रो-स्टेशन या किसी मॉल में दिखाई दे जाती थी। हमेशा उसके चेहरे पर ‘थैंक्स फॉर द कॉफी‘ वाली मोहक मुस्कान होती थी। उसे देखकर सावन के महीने में सुंदर पंख फैलाए मोर को नाचते देखने का सुखद अहसास होता था। वह एक खिलता गुलाब है। वह जैसे शायर का ख़वाब है। वह एक उजली किरण है। वह जैसे वन में कुलाँचे भरती हिरणी का मस्त यौवन है। वह जैसे मेरे मन के आकाश में चमकता पूरा माहताब है। वह जैसे चंदन की आग है।

अब अक्सर ‘टिप-टिप बरसा पानी ‘ वाली वह लड़की मेरी प्रेयसी बन कर मेरे ख़ुशनुमा सपनों में आती है । मैं उसके चेहरे पर गिर आई बालों की लटों को पीछे हटाकर उसका माथा चूम लेता हूँ। उसका चेहरा मेरा स्पर्श पा कर धीरे-धीरे और नरम पड़ने लगता है। तब उसके चेहरे पर एक सलोनी मुस्कान आ जाती है जिसका मैं दीवाना हूँ। हमारे भीतर इच्छाओं के निशाचर पंछी पंख फैलाने लगते हैं। फिर कमरे की ट्यूब-लाइट बुझ जाती है और जीरो वॉट का बल्ब जल जाता है। एक चाहत भरी फुसफुसाहट उभरती है। फिर एक मादक हँसी गूँजती है।

खिड़की के बाहर एक सलेटी रात रोशनी के बचे-खुचे क़तरे बीनकर ले जा रही होती है। लेकिन कमरे के भीतर हमारे अन्तर्मन रोशन होते हैं।

धीरे-धीरे हवा कसाव से भर जाती है। दीवार पर दो छिपकलियाँ आलिंगन-बद्ध पड़ी होती हैं। मैं अपनी प्रिया के स्नेह-पाश में होता हूँ। जैसे सबसे ज्यादा चमकता हुआ नक्षत्र मेरे आकाश में होता है। उसके भीतर से सम्मोहक ख़ुशबुएँ फूट रही होती हैं। जीरो वॉट के ताँबई उजाले में मांसल सुख अपने पैर फैला रहा होता है। मेरी धानी-परी मेरी बाँहों में होती है। मेरी मरमेड मेरी निगाहों में होती है। ऊपर गेंहुआ शंख-से उसके उत्सुक वक्ष होते हैं जिनकी जामुनी गोलाइयों में अपार गुरुत्वाकर्षण होता है। नीचे ठंडी सुराही-सी उसकी कमनीय कमर होती है जहाँ पास ही महुआ के फूलों से भरा एक आदिम जंगल महक रहा होता है। बीच समुद्र में भटकता हमारा जहाज एक हरे-भरे द्वीप पर पहुँच गया होता है।

एक ऐसा समय होता है जब तन और मन के घाव भरने लगते हैं, जब सपने सच होने लगते हैं, जब सुख अपनी मुट्ठी में होता है और मुँदी आँखें फिर से नहीं खुलना चाहतीं । जब सारी चाहतें ख़ुशबूदार फूलों में बदल जाती हैं और जीभ पर शहद का स्वाद आ जाता है। वह एक ऐसा ही पल होता है-घनत्व में भारी किंतु फिर भी बेहद हल्का। समय का रथ एक उत्सव की राह पर से गुजर रहा होता है।

हमारा पहला चुम्बन जादुई था। हमारा पहला मिलन तिलिस्मी। उस स्पर्श से हमारे तन-मन में हजारों सूरजमुखी खिल उठे थे। उसके बाद तो हर बार हम एक नई भाषा और नए शिल्प में अपने मिलन की कथा लिखते थे। हम एक-दूसरे को जितना अधिक पीते थे, हमारी प्यास उतनी ही बढ़ती जाती थी। कभी वह शहद-सी होती, कभी चाशनी-सी, कभी गुड़-सी, कभी गन्ने-सी, कभी खोए-सी, कभी मलाई-सी। कभी वह पायल की झंकार-सी होती, कभी पियानो-सी, कभी वायलिन-सी, कभी माउथ-ऑर्गन-सी, कभी जलतरंग-सी। कभी वह भोर-सी होती, कभी गोधूलि-सी, कभी शिखर-दुपहरी-सी, कभी गुलजार रात-सी। कभी वह शोलों-सी होती, कभी शबनम-सी, कभी सरगम-सी, कभी मधुबन-सी।

हम जितना अधिक एक -दूसरे में डूबते जाते, उतने ही अच्छे तैराक बनते जाते। हमारा तन-मन एक मीठे दर्द से भर जाता। तब उसकी आँखों में उतर आए आकाश का रंग गहरा नीला हो जाता और मेरी आँखों में हहराता समन्दर शीशे-सा पारदर्शी लगने लगता। तब धरती की हरियाली जरा और बढ़ जाती और क्षितिज हमसे बस दो कदम दूर लगता। तब दिन भर गुनगुनाते रहने का मन करता और रात की देह पर गिरी ओस की बूँदें मोतियों-सी चमकतीं । तब हमारे भीतर वसंत की ख़ुशबुएँ महकने लगतीं और एक-दूसरे के भीतर टहलते हुए हम जागती आँखों से सपने देख रहे होते...

मेरी स्मृति में मौजूद ‘टिप-टिप बरसा पानी‘ वाली यह लड़की क्या केवल मेरे ख़्यालों की उपज है ? मेरी कल्पना मात्र है ? उसका चेहरा मेरे अतीत में मौजूद एक लड़की के धुँधले चेहरे में क्यों बदल जाता है ? जो भी हो, वह कितनी वास्तविक लगती है। कुछ है जो हम दोनों को आपस में जोड़ता है। शायद किसी और ही जीवन में। किसी और ही दुनिया में। एक ऐसी दुनिया में जहाँ मैं खुद अपने-आप से भी जुड़ जाता हूँ। जहाँ मैं खुद से भी मिल पाता हूँ। ‘टिप-टिप बरसा पानी‘ वाली लड़की जहाँ मेरी एकमात्र स्त्री-मित्र है।


श्रीमती रश्मि रमानी, 30, पलसीकर कॉलोनी, मानस मेंशन, फ्लैट नं. 201, द्वितीय तल जूनी इंदौर थाने के सामने, इंदौर-म. प्र. 452004. मो.नं. 9827261567


आलेख

कविता एवं गद्य की अनुवाद प्रक्रिया

विचार और वस्तु के विनिमय में सम्प्रेषण के साधन के रूप में अनुवाद की शुरूआत हुई। वस्तु और विचार के विनिमय के अलावा मत, धर्म एवं मान्यताओं के प्रचार में अनुवाद ने अपना योगदान दिया। धीरे-धीरे, अनुवाद ज्ञान को जनसुलभ बनाने में अपना योगदान देने लगा, फिर शासन-कार्य में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण हो गई। सांस्कृतिक संचरण का आधार तो अनुवाद बना ही, समाज-व्यवस्था और सांस्कृतिक पद्धतियों में बदलाव के कारण, अनुवाद एक महत्वपूर्ण उपक्रम बन गया। एक ऐसा उपक्रम जिसमें प्राचीन काल से लेकर अब तक के अनुवाद हैं।

प्राचीन काल में अनुवाद-चिन्तन के फलक, केवल धार्मिक-पौराणिक, शैक्षिक ग्रन्थों के भाष्य-टीका के लिये महत्वपूर्ण नहीं होते थे, समकालीन शासकों की नीतियों, साम्राज्य के विस्तार के प्रयासों, प्रयाणों, सोपानों, सामरिक नीतियों राजदरबार में नियुक्त आचार्यों के अभिकर्मों में भी शासकों, मन्त्रियों और आचार्यों के अनुवाद-चिन्तन की स्थिति दिखती थी। जैन धर्म और बौद्ध धर्म के संदर्भ में विचार करने पर पाते हैं कि दोनों धर्मों के प्रचारकों का अनुवाद-चिन्तन प्रखर था। भारत की प्राचीन अनुवाद चिन्तनशीलता का प्रमाण अनेक स्थानों पर देखने को मिलता है।

कालान्तर में जब विदेशी भारत आये, जैसे चीनी राजदूत फाहियान, चीनी पर्यटक ह्वेनसांग, अरबी विद्वान अलबरूनी आदि तो, चीनी, अरबी, तिब्बती आदि भाषाओं के अनुवाद-कार्य को गतिशीलता मिलने के साथ ही साथ, बौद्ध मत और योगशास्त्र को भी दूसरे देशों में प्रचार मिला। बाहर से आने वाले विद्वानों में भले ही प्रखर अनुवाद-दृष्टि रही हो, किन्तु उन विद्वानों के अनुवाद-उद्यम में स्थानीय बुद्धिजीवियों और राजाओं के बौद्धिक, आर्थिक सहयोग-समर्थन की भी बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका रही होगी, जो उनके अनुवाद-चिन्तन की विलक्षणता और दूरगामिता का बोधक है।

मुगल काल में अनेक ग्रन्थों का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद हुआ। बाबर से लेकर दाराशिकोह तक के बादशाह अच्छे अनुवादक थे, जिनमें गम्भीर अनुवाद-चिन्तन के सूत्र दिखते हैं। मुगल काल में ही भारतवर्ष से जितने भी यात्री वाणिज्य के लिये पड़ोसी देशों में गये, वहाँ उन्होंने रामकथा का प्रचार, प्रसार किया। यही कारण है कि आज भी रामचरित मानस का आत्मसातीकरण निरन्तर जारी है। यह एक ऐसा धर्म निरपेक्ष ग्रन्थ है जो हिन्दुओं के लिये वेद की तरह पूजनीय है तो मुसलमानों के लिये कुरान के समकक्ष। इंडोनेशिया में रामायण आज भी पवित्र ग्रन्थ की तरह पूजित है, न्यायालयों में रामायण पर हाथ रखकर शपथ ली जाती है। थाईलैण्ड, कंबोडिया, जावा, लाओस, वियतनाम, सुमात्रा, बाली आदि देशों में भी रामकथा की लोकप्रियता आज भी कम नहीं हुई है, और इसका श्रेय निःसंदेह अनुवाद को जाता है। अनुवाद की परम्परा निरन्तर विकसित होते हुए आज तक न सिर्फ जारी है, वरन् अनुवाद के महत्व एवं उपादेयता दोनों में निरन्तर वृद्धि हुई है। अनुवाद के महत्व को रेखांकित करते हुए गेटे ने कार्लाइन को लिखा था- ‘अनुवाद की अपूर्णता के बारे में तुम चाहे कुछ भी कहो, परन्तु सच्चाई यह है कि संसार के व्यावहारिक कार्यों के लिये उसका महत्व असाधारण और बहुमूल्य है।‘

17 वीं सदी में प्राचीन यूनानी कवि होमर के महाकाव्य, ‘इलियड‘ का जब अंग्रेजी में अनुवाद किया गया, तो आलोचक सैमुअल जानसन ने इसे ‘मूल कृति की एक सर्जनात्मक व्याख्या‘ कहा था। फिज्जेराल्ड द्वारा उमर खैय्याम की रूबाईयां के अनुवाद को संदर्भ में उद्धृत किया जा सकता है, विद्वानों का मत है कि यह अनुवाद खैय्याम की काव्य-प्रतिभा की अपेक्षा फिज्जेराल्ड की निजी प्रतिभा का प्राणवंत, उत्कृष्ट और पठनीय उदाहरण है। मिखाइल बाख्तिन जैसे विचारकों ने तो इस बहस को उठाया था कि हर अनुवाद एक साहित्यिक पुर्नजन्म है, और वह मूल कविता के साथ एक संवाद है। कोई भी अर्थ लेखक केन्द्रित नहीं है, और पीढ़ियाँ अपने अर्थों की पुनप्र्राप्ति करती हैं। यदि कविता एक तरह का संवाद है तो, अनुवाद एक नयी जमीन पर दूसरी तरह का संवाद। इस तरह अनुवाद की गुणवत्ता के बारे में किया गया फैसला सबसे जटिल होता है, और कोई भी अनुवाद अंतिम नहीं हो सकता, दो संस्कृतियों के बीच का अंतराल भी कई बार मुश्किलें पैदा करता है। इसके बावजूद सदियों से एक भाषा और संस्कृति में जन्मी कविता का दूसरी भाषा में अनुवाद होता रहा है। होमर, दांते, गेटे, कवाफी, बोर्हेस, मेलार्मे, मायकोव्स्की, उमर खय्याम, अन्ना आमातोवा, नाजिम हिकमत, नेरूदा, रित्सोस, रिल्के, लोर्का, यहूदा अमीखाई और शिम्बोर्का जैसे विश्व कवियों की कविताओं को हमने अनुवाद के माध्यम से ही जाना और पढ़ा। साठ के दशक में जब प्रसिद्ध कवि ‘टेड ह्यूज‘ द्वारा किये गये यूरोपीय कवियों के अनुवाद मॉडर्न पोएट्री इन ट्रांसलेशंस‘ जैसी अनुवाद की महत्वपूर्ण पत्रिका के अंकों में लगातार प्रकाशित हुए तो दुनिया भर को दूसरे महायुद्ध के बाद के अनेक प्रख्यात कवियों के बारे में पता चला था। आज इनके बिना बीसवीं सदी की कविता की कोई भी चर्चा अधूरी है।

शुरू से ही यह शिकायत रही है कि दुनिया का अच्छे से अच्छा अनुवाद भी मूल कविता के साथ पूरा न्याय नहीं कर पाता, इसके बावजूद किसी भी प्रौढ़ भाषा में अनुवाद का काम आज तक कभी रूका नहीं, आज दुनिया की कोई ऐसी भाषा नहीं, जिसमें उसके अपने साहित्य के साथ श्रेष्ठ अनूदित साहित्य का विशाल भण्डार न हो। अनुवादों का इतिहास भी उतना ही पुराना है, जितना भाषाओं का है। अकादमिक क्षेत्र में अनुवाद अध्ययन भले ही मुख्यधारा में नहीं रहा हो किन्तु अनुवाद ने हर सभ्यता और संस्कृति के प्रचार में अभूतपूर्व योगदान दिया है। ऐतिहासिक परिदृष्य में देखें तो कई-कई देश कई-कई कारणों से कई बार बर्बादी का शिकार हुए। मगर अनुवाद के सहारे उन देशों की सभ्यता जो सुदूर जगहों पर सुरक्षित हो गयी थी, उसने उन्हें उन बर्बादियों से उबरने का अवसर दिया, उन्हें फिर से बसाया।

मूल भाषा के विषय, भाव तथा संवेदनाओं को लक्ष्य भाषा में यथासंभव रूपान्तरित करना अनुवाद कहलाता है। अनुवाद की प्रक्रिया अपने आप में एक संश्लिष्ट कार्य व्यापार है। हरेक भाषा की अपनी प्रकृति, बुनावट और बनावट होती है। प्रत्येक भाषा का अपना पद-विन्यास, शैली और शब्द-संपदा होती है। अतः अनुवादक का कार्य सदैव कठिन होता है। मूल भाषा के वाक्य में छिपे सूक्ष्म अर्थ का लक्ष्य भाषा में सही अनुवाद सरल नही होता, स्रोत भाषा के शब्द, वाक्य-रचना आदि का समान रूप लक्ष्य भाषा में कई बार नहीं मिलता। प्रत्येक भाषा का अपना एक विशिष्ट सांस्कृतिक परिवेश होता है, इसलिये दो भाषाओं में वैचारिक और अभिव्यक्तिपरक भिन्नता होना आम बात है, सरल वाक्यों को छोड़कर जब अनुवादक जटिल वाक्यों की संरचनाओं की ओर जाता है तथा तत्सम शब्दों को छोड़कर देशज शब्दों की ओर बढ़ता है तो दोनों भाषाओं की समस्याएं सामने आती हैं।

मौलिक सृजन की तरह ही अनुवादक, अनुवाद करते समय, सृजन के विभिन्न सोपानों से गुजरता है और अन्ततः एक उत्कृष्ट अनूदित कृति का निर्माण करता है। इस सारी प्रक्रिया में उसके चिंतन-मनन की खासी भूमिका रहती है। डॉ. आदिनाथ सोनटक्के के अनुसार‘अनुवादक को भी जब कोई रचना प्रभावित करती है, तब वह अंतर्बाह्य अभिभूत हो उठता है। यहाँ तक तो अनुवादक और अन्य पाठक की मनोदशा समान-सी होती है, किन्तु अनुवादक जब अपनी आनंदानुभूति में अन्य को भी सहभागी करने का इच्छुक होने के कारण, अनुवाद करने को विवश हो उठता है, जैसे सर्जक अपने भाव-स्पंदन को शब्दांकित करता है। सृष्टा कथ्य को मन में घोलता रहता है। अनुवादक भी अनुवाद-सामग्री को लक्ष्य भाषा में उतारने को घुटता रहता है। एक-एक शब्द का चयन करते समय श्रेष्ठ अनुवादकों को कितना संघर्ष करना पड़ता है, यह सर्वविदित है। एक प्रकार से अनुवादक अंतःस्फूर्ति एवं अंतः प्रेरणा से जब ओतप्रोत होगा, तब उसकी रचना चैतन्यदायी तथा प्राणवान होगी।‘

अनुवाद-कर्म में दोनों, मूल सृजक और अनुवादक, अनुभव, भाषा और अभिव्यक्ति कौशल के स्तर पर एक-सी रचना प्रक्रिया से गुजरते हैं, अतः अनुवाद-कार्य को मौलिक सृजन न सही उसे मौलिक सृजन के बराबर का सृजन व्यापार समझा जाना चाहिये। अनुवाद की प्रक्रिया अपने आप में एक संश्लिष्ट कार्य-व्यापार है, मौलिक सृजन की तरह ही अनुवादक, अनुवाद करते समय सृजन के विभिन्न सोपानों से गुजरता है, इस सारी प्रक्रिया में उसके चिंतन-मनन की ख़ासी भूमिका रहती है।

प्रसिद्ध अनुवाद-विज्ञानी नाइडा ने चिंतन-मनन की इस स्थिति को अनुवाद-प्रक्रिया के संदर्भ में तीन सोपानों में यों विभाजित किया है, 1-विश्लेषण (।दंसलेपे) 2-अंतरण (ज्तंदेमित) 3-पुर्नगठन (त्मंततंदहमउमदज)। अनुवाद करते समय अनुवादक को क्रमशः उक्त तीनों प्रक्रियाओं से होकर गुजरना पड़ता है। सर्वप्रथम अनुवादक स्रोत भाषा के पाठ का चयन कर, उसमें निहित संदेश या आशय का विश्लेषण करता है, इस दौरान वह स्रोत भाषा के मूलपाठ का अर्थ ग्रहण करता है। अर्थ ग्रहण कर लेने के पश्चात् वह लक्ष्य भाषा में अंतरित करने की प्रक्रिया में आता है, और लक्ष्य भाषा में उसके स्वरूप को निर्धारित कर लेता है। इसके बाद वह लक्ष्य भाषा के स्वरूप/स्वभाव के अनुसार उस कथ्य को पुनर्गठित करता है और इस तरह अनुवाद अपने परिसज्जित (थ्पदपेीमक) रूप में पाठक के समक्ष पहुँचता है। दरअसल पुनर्गठन अनुवाद का अत्यंत महत्वपूर्ण पक्ष रहा है। यह अनुवाद का तीसरा महत्वपूर्ण चरण है। हर भाषा की अपनी एक विशिष्ट कथन-शैली या अभिव्यक्ति प्रणाली होती है, स्रोत भाषा के पाठ को लक्ष्य भाषा के संस्कार के साथ सफलतापूर्वक जोड़ते हुए एक नया/पठनीय पाठ तैयार करना, वास्तव में अनुवादक के लिये एक चुनौती भरा काम होता है। इसके लिये वह पद्य में लिखी मूलकृति का अनुवाद गद्य में कर सकता है, लम्बे-लम्बे वाक्यों को तोड़कर अनुवाद कर सकता है, व्याकरणिक संरचना में फेरबदल कर सकता है, आदि। इस सारी प्रक्रिया में अनुवादक को इस बात का विशेष ध्यान रखना होता है कि मूल पाठ के संदेश/आशय में कोई फर्क न आने पाये।

डॉ. एन. ई. विश्वनाथ अय्यर ने अनुवाद प्रक्रिया को तीन चरणों में बाँटा है-अर्थग्रहण, मन में भाषांतरण और लिखित अनुवाद। अनुवाद प्रक्रिया के अंतर्गत अनुवादक को दो तरह के पाठों से गुजरना पड़ता है, पहला पाठ जो लिखित भाषा के रूप में उसके सामने पहले से ही होता है, जिसका रचयिता कोई और होता है, और उसके पाठक भी कोई और होते हैं, इसी पाठ को अच्छी तरह से समझकर, दूसरे चरण में अनुवादक न सिर्फ मूल कृति के समझे हुए आशय/संदेश को भाषांतरित करता है अपितु एक नए पाठ के रूप में प्रस्तुत भी करता है। इस सारी प्रक्रिया में अनुवादक का कई तरह के दबावों से गुजरना स्वाभाविक है। चूंकि अनुवादक मूल पाठ का रचयिता नहीं होता, अतएव संप्रेषण-व्यापार की कई समस्याओं से उसे जूझना होता है। उसके सामने तो मूलपाठ का प्रारूप/फॉर्मेट मात्र होता है जिसके समानांतर उसे लक्ष्य भाषा में एक नया/अंतरित पाठ तैयार करना होता है। लक्ष्य भाषा के पाठक वर्ग की अपेक्षाओं एवं भाषिक मानसिकता का उसे पूरा ध्यान रखना पड़ता है।

अनुवाद-प्रक्रिया में दो मूलभूत तत्व माने गये हैं ये हैं- कथ्य एवं शिल्प। अनुवादक के दायित्व एवं योग्यताओं पर चर्चा करते हुए, सबसे पहले अनुवादक की कथ्यपरक विशेषताओं को जानना आवश्यक है।

अनुवाद-कर्म को पूर्ण करने के लिये कथ्य की समग्र जानकारी आवश्यक है। यह जानकारी अनुवाद को सहज एवं सरल बनाती है। सृजनात्मक साहित्य का अनुवाद करने के पूर्व कथ्य को पूर्ण जानकारी के साथ आत्मसात करना आवश्यक है, कथ्य के विविध रूपों की जानकारी, शब्द एवं उसकी व्यापकता का बोध एवं उससे संबंधित चिंतन-मनन करना भी अनुवाद के संदर्भ में जरूरी है।

ज्ञानपरक साहित्य की दृष्टि से देखा जाये तो अनुवाद के विषय दो वर्गों में दिखाई देते हैं- सृजनात्मक साहित्य तथा असृजनात्मक साहित्य के अंतर्गत अनुवाद। सृजनात्मक साहित्य में गद्य एवं पद्यपरक अनुवाद आता है पद्य का स्वरूप तो लय-सुर पर आधारित होता है, जबकि गद्यपरक अनुवाद के अंतर्गत कहानी, नाटक, एकांकी, निबंध, आलोचना, आत्मकथा इत्यादि विविध लेखन विधाएं देखी जा सकती हैं।

कविता के अनुवाद को लेकर जितनी चर्चायें विश्व-साहित्य में होती रही हैं उतनी किसी अन्य विधा के अनुवाद की नहीं। कविता के अनुवाद को लगभग असंभव कार्य माना जाता है, क्योंकि कविता का अर्थ भाषा में होते हुए भी भाषा के पार चला जाता है। कविता सिर्फ शब्दों में ही नहीं, उनके बीच छूटी जगहों में भी बसी होती है। रॉबर्ट फ्रॉस्ट ने जब यह कहा था कि ‘कविता वह है जो अनुवाद में खो जाती है।‘ तो उन्हीं के बरक्स रूसी कवि जोसेफ ब्रॉडस्की कहते हैं कि कविता वह है जो अनुवाद के बाद भी बची रहती है।‘

कविता में शब्द विशेष को लय, सुर, बिंब, कल्पना एवं रस से सराबोर करके अभिव्यक्त किया जाता है। अतः काव्यानुवाद करते हुए अनुवादक का कवि होना आवश्यक है, तभी वह कविता के विभिन्न तत्वों यथा- प्रतीकों, बिंबों, अर्थ छवियों आदि की रक्षा करते हुए, मूल कथ्य के भावानुरूप अनुवाद कर सकेगा। कवि हृदयी अनुवादक, काव्यानुवाद को उत्कृष्ट बना सकता है। अनुवाद का अर्थ कविता की भाषाई पोशाक को बदलना भर नहीं होता, बल्कि उस कविता के अंतरंग अनुभव तक पहुँचना होता है, जो उसे कविता बनाता है। अनुवाद की भाषा में पहुँच कर भी मूल कविता के लिए एक विशिष्ट जगह (ैचमबपंस ैचंबम) निर्मित करना अच्छे अनुवाद की विशेषता होती है।

कुंवर नारायण के अनुसार- ‘कविता की दुनिया बहुत बड़ी होती है, और उसमें प्रवेश के रास्ते भी कई हो सकते हैं। और मेरी कोशिश मूल के उस विशेष अनुभव को स्पर्श कर पाने की रही है, जो उसे कविता का रूप देती है। कविता के अनुवाद में कई समस्याएँ ख़ासकर आती हैं कि कुछ कविताएँ अपनी भाषा की मूल संस्कृति और आबो-हवा में इतनी गहरी डूबी हुई होती हैं कि अनुवाद में उन्हें हूबहू ला पाना लगभग असंभव हो जाता है।‘

अनुवाद की प्रक्रिया में केवल भाषा या प्रतीकों का अनुवाद नहीं होता अपितु संस्कृतियों का भी अनुवाद होता है। सूसन बेसनेट और आंद्रे लेफेवेयर ने अपनी संपादित पुस्तक ‘ट्रांसलेशन हिस्ट्री एण्ड कल्चर‘ में स्पष्ट किया कि अनुवाद केवल भाषिक व्यापार तथा मूल पाठ तथा अनूदित पाठ के बीच समतुल्यों की तलाश से कहीं आगे दो संस्कृतियों के बीच संवाद का माध्यम है। अनुवाद के माध्यम से विश्व की सभ्यताएं और संस्कृतियां गहरे रूप से प्रभावित हो रही हैं। वे एक दूसरे से जुड़ रही हैं। प्रौद्योगिकी और बाजार के मौजूदा वर्चस्ववादी समय में सभ्यताओं के बीच संवाद और सौहार्द का सिलसिला शुरू करने और विकास के पथ प्रशस्त करने में अनुवाद की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई है।

अनुवाद में एक भाषा-संरचना के अभिप्राय को दूसरी भाषा-संरचना में फिर से रचा जाता है। यह काम दो भाषाओं के बीच अभिव्यक्ति तथा भाव के स्तर पर संवाद तथा संतुलन स्थापित कर किया जाता है। इस क्रम में एक भाषा का दूसरी भाषा के साथ शब्द, अर्थ भाव और शैली के धरातल पर अंतरण का रिश्ता कायम होता है। दो भाषाओं यानि स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा के बीच आंतरभाषिक पुल निर्मित होता है। आज के सूचना-विस्फोट के समय में भी यह भिन्न भाषाभाषी सभ्यताओं के बीच आपसदारी कायम करने का जरूरी जरिया है। अनुवाद केवल सर्जनात्मक साहित्य का नहीं होता, वैज्ञानिक और तकनीकी साहित्य का भी होता है। विकासशील समाज के लिये वैज्ञानिक और तकनीकी ज्ञान बेहद जरूरी है, इसे ऐसे साहित्य के अवगाहन से ही पूरा किया जा सकता है। विकासशील समाज में ऐसे साहित्य के अभाव को अनुवाद पूरा करता है। ऐसे में मशीन ट्रांसलेशन की भूमिका बढ़ जाती है। हालांकि मशीन ट्रांसलेशन की सफलतम स्थिति में भी, मशीन से ‘आउटपुट‘ के रूप में प्राप्त होने वाला अनुवाद, कभी भी वैसा नहीं हो पाएगा, जैसा आदमी करता है। मशीन का अनुवाद वैसा ही होगा, जैसा मशीन का शब्दकोश और विश्लेषण-व्याकरण होगा, सर्वांग संपूर्ण होने पर भी मशीन किसी रचना की पुर्नरचना नहीं कर सकती। अनुवाद में पाठ या कथन के विश्लेषण के साथ-साथ अनुवादक के ज्ञान, अनुभव, चिंतन मनन और कल्पनाशीलता की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। आदमी सृजन के समांतर सृजन कर लेता है।

वैज्ञानिक तथा तकनीकी साहित्य के अनुवाद में यथार्थ और स्पष्टता का होना महत्वपूर्ण: होता है। इसके उलट सर्जनात्मक साहित्य में भाषागत और भावगत व्यंजना महत्वपूर्ण होती है। यह अनुवादक की निजी भाषिक क्षमताओं, अनुभव एवं प्रतिभा पर भी निर्भर है कि उसका अनुवाद कितना सटीक, सहज और सुंदर और पठनीय बनता है।


जयश्री बिरमी, सेवा निवृत्त शिक्षिका, अहमदाबाद, मो. 9428123188


विकास और  औद्योगिक सहूलते गुजरात में

गुजरात स्थान औद्योगीकृत राज्यों में रहा हैं, प्रति व्यक्ति आय अधिक होने की वजह से निर्धनता औसतन से कम हैं, मुंबई के बाद गुजरात में पर प्रांतीय लोग आजीविका के लिए आते हैं। यहां का आर्थिक विकास का असर सामाजिक विकास में रूपंतरण देख सकते हैं।

आज पूरे देश में गुजरात का विकास मॉडल उदाहरणीय हैं। जिस गुजरात ने बड़े बड़े उद्योगपति दिए हैं,जिसमे धीरूभाई अंबानी और करसनभाई पटेल जैसे बीसियों नाम हैं। गुजरात के उद्योगपतियों और व्यापारियों को ये खून में मिलता हैं, ये जन्म से सब सीखते हैं की व्यापार धंधा कैसे होता हैं। उसमें भी अगर सरकार की नीति और रीति से मदद मिलने से प्रोत्साहित होते हैं।

वैसे गुजरात का विकास की कहानी 2001 से हुई हैं। भयंकर भूकंप के बाद जो राज्य में अवर्णीय हालत थे, सब से ज्यादा कच्छ प्रांत में नुकसान हुआ था, जान माल दोनॉ का। ये नुकसान का बयान  बहुत सुने किंतु उसके बाद जो राज्य ने प्रगति की वह पूरे देश में चर्चित हैं। एक शिक्षिका होते हुए मैं बताती हू कि पहले हमारी तनख्वाह कभी समय पर नहीं मिली किंतु 2001 के बाद सही समय, पहली तारीख को ही मिलनी शुरू हो गई और आज पेंशन भी सही तारीख को मिल जाती हैं। शायद यही समय था गुजरात की प्रगति शुरू होने का।

ये भी सुना था कि सिंगापोर से आते एन. आर. आई सूरत के पास कोई उद्योग की स्थापना करने आए थे किंतु अफसरशाही के आदी अफसरों ना ठीक से प्रतिभाव नहीं दिया तो मन से नाराज, निरुत्साह हो वापस चला गया और वहां से मुख्य मंत्री जी को ईमेल लिखा और अपनी आपबीती बताई। मुख्य मंत्री कार्यालय से तुरंत जवाब गया, जिसमें गुजरात की फिर से मुलाकात लेने के आमंत्रण के साथ वो अफसरों के नाम और फोन नंबर भी थे जो महाशय को मदद करने वाले थे।

गुजरात के औद्योगिक ढांचे में क्रमशः बदलाव रहे है। यह रसायन, पेट्रो रसायन, उर्वरक, इंजीनियरिंग, इलेक्टोनिक्स आदि उद्योगों के विकास के लिए काफी पृष्टभूमि हैं। 2004 के अंत में पंजीकृत  कारखानों की संख्या 21536 (अस्थाई) थी जो औसतन 9.27 लाख लोगों को रोजगार देती हैं। सूती कपड़ों के उत्पादन में देश में दूसरे क्रम पर हैं गुजरात। ये तो हुई भूतकाल की बाते।

अब करोना की विकट परिस्थितियों में भी उद्योगों को बहुत ही प्रोत्साहन दिया जा रहा हैं। हाल ही में मुख्य मंत्री श्री ने एक पैकेज की उद्घोषणा की है। चीन से दुनियां सारी की जो तनातनी चल रही है उसके मध्य में मुख्य मंत्री ने विदेशी कंपनियों को आमंत्रित कर एक बड़ा ऑफर दिया हैं। नई पॉलिसी का एलान करते हुए कहा है कि अगर कोई उद्योगपति चीन से अपना व्यापार गुजरात में शिफ्ट करना चाहता है तो सरकार उन्हें विशेष मदद दी जाएगी। सरकार के इस कदम से राज्य में विकास और नौकरियों के अवसर पैदा होंगे। और राज्य में बेहतर परिणामों की उम्मीद भी कर सकते हैं। वैसे भी गुजरात के राज्य गीत जैसा हैं ये- जय जय गरवी गुजरात, 

जय हो भद्र गुजरात!!!


संजय कुमार सिंह, प्रिंसिपल पूर्णिय महिला काॅलेज पूर्णिया, मो. 9431867283


लघु-कथा

तितलियों का नव जीवन

शब्दों के पंख नोचोगी तो उड़ना भूल जाओगी... रहने दो वह एक मासूम सी आरजू थी कि फूल बनूँ,पर उस चाहत की आराइश में कहाँ से कहाँ पहुँच गया मैं?  भावोन्मेष के रोमांच से जब दिल ढोलक सा धड़क रहा था....एक गरजती आवाज़ ने सब ख़त्म कर दिया। मन का ताजमहल काँच सा झनझना कर टूट गया... हवा क्यों गुम हो गयी... ? नदी कैसे मर गयी...? आसमान कैसे मट-मैला धूसर हो गया...? यह तुम मुझसे क्यों पूछ रही हो? खुद से पूछो! किसकी नाक कट गयी? कैसी नाक कट गयी? ज़माना हो गया। हर एक की नाक अपनी जगह पर दुरुस्त है। 

...तुम्हें याद होगा मैंने बड़े भैय्या के उस गुस्से के बाद भी तुम्हें पत्र लिखा था इस इल्तिजा के साथ कि अगर मेरा यह पत्र नहीं पढ़ा गया, तो मेरा दिल हज़ार टुकड़ों में टूट कर बिखर जाएगा, फिर तुम चाह कर भी उसे समेट नहीं पाओगी... वैसा ही हुआ... प्रेम को खेल समझ कर उम्मीदों को तोड़ दिया तुमने.... जिसका ऐतबार तुमसे था, उसे जब तुमने मान नहीं दिया...तो अब भैय्या को दोष  देने से फायदा? जानती हो तुम्हारी तरह...एक दिन हमारी बैचमैट सुपर्णा ने कहा कि फूल खिलने का , चिड़िया के उडने का  है और नदी के बहने का कोई समय नहीं होता  है। एक लड़की सपने में हमेशा किसी  अच्छे लड़के का इन्तजार कर रही होती है....पर मुझमें हसरत ही पैदा नहीं हुई.... शालिनी उदास सपनों के साथ एक जगमगाते जहाज पर चली गयी। आज भी मुझे लगता है दूर डेक पर खड़ी वह हाथ से रूमाल हिला रही हो...उस रुमाल से हजारों-लाखों  रंग-बिरंगी तितलियाँ निकल कर समुद्र में डूब रही हों!

सुपर्णा कहती है, फूल के जिगर पर रखा खंजर है प्रेम! 

मैं हँस कर कहता हूँ तब भी लोग करते हैं.... कितना भयानक और दुर्निवार है यह...वह भी ठठा कर हँसती है, मीलों दूर  उसकी हँसी चली जााती है ...रंग-बिरंगे फूलों की पंखुडियाँ टूट कर बिखर जाती हैं उन रास्तों में...एक अंतहीन रंगोली...

आतिशी शोलों की फूलझड़ियाँ...

...पहली बार जब तुम भाभी के साथ आयी थी, तो उन पाँच-सात दिनों में एक सहज आकर्षण तुम तक खींच ले गया था। तुमने भी मौन सहमति देकर मुझे दुस्साहस से भर दिया था, फिर जाने कैसे हमारी आँख-मिचैली को भाभी ताड़ गयी थी...आज भी मुझे लगता है उनकी आँखों में एक उकाब उड़ कर आ बैठा था, जिसने  उस नवांश को नोच कर खा लिया और फिर वहाँ दूसरा नाटक रख दिया... बात भैय्या तक  पहुँचायी गयी। भैय्या। उनका रूतबा था घर में। वे सबको पाल-पोस रहे थे। उन्हौंने मेरी एक नहीं सुनी। तब मैं बेकार मारा-मारा फिर रहा था। इसे इत्तेफ़ाक़ कहा जाए कि इतने विध्वंस के बाद उसी साल मैं प्रशासनिक सेवा में चुन लिया गया था। भैय्या गुस्सा में थे। फिर जब वक्त गुजरने लगा और उन्हें मेरे फैसले का आभास होने लगा, तो वे चैंके। उन का दुख झड़ता रहता है अतीत के हर कोने से...उनकी आवाज मुझ तक आते-आते पिघल जाती है... रही बात मेरे दर्द की,तो जीवन रूपी महासमुंद्र में बहती हुई मेरी नाव एक अजनबी दुनिया में ले आयी है मुझे...अब कोई अफसोस नहीं है मुझे...यह शहर बेखुदी के संगीत में डूबी एक ऐसी जगह है, जहाँ करोड़ों टूटे कांच को जोड़ कर एक शीशे का ताजमहल बनाया गया है। सपने का ताजमहल! हजारों परियों का मेला लगा रहता है, इच्छाएँ रश्क करती हैं....हजारों कल्पनाओं और सपनों की सरगोशियाँ...यह अनुभव  मैं तुमसे शेयर रहा हूँ, यहाँ कुछ पलों के लिए हर खोयी हुई चीज मिलती है... मेरे जैसे हजारों लोग यहाँ इसी उम्मीद में आते हैं, तितलियों का देश कहते हैं सब इस जगह को...जानती हो जहाँ मैं तुम्हारा इन्तजार करता हूँ, वहीं एक दिन बगल में एक लड़की बेजार रो रही थी, उसकी रुलाई में एक नदी रो रही थी। यह कुछ पल की एक अनोखी मुलाकात थी,जिसमें लड़की कह रही थी,‘‘ हम जब अगले जन्म में  मिलेंगे, यह दुनिया बदल जाएगी... फिर किसी को यहाँ आने की जरूरत नहीं होगी।‘‘

...पर लड़का कह रहा था,‘‘ अगले जन्म में मेरा विश्वास नहीं...‘‘

लड़की की हिचकियाँ थम नहीं रही थीं,‘‘ सिर्फ एक बार मेरा दिल रखने के लिए, कह दो न?‘‘

‘‘नहीं, मैं झूठ नहीं बोलूँगा।‘‘ लड़का बजिद था।

सपनों से सुंदर करोड़ों तितलियाँ दम तोड़ रही थीं। लड़की की रूलाई रुक नहीं रही थी.... 

... इति! मैं भी झूठ नहीं बोलूँगा। जब इस अजीब अजनबी जगह पर तुम मिल ही जाती हो, तो विवाह करने का कोई मतलब नहीं रहा? 

... जानती हो सुपर्णा पहले बहुत रोती थी, पर जिस दिन से वह उस दुनिया में आयी ,उसका रोना थम गया! वह खूब हँसती है....नाचती-गाती है.... फिर खुशी में बेहोश हो जाती है!

तुम नाहक दिल को परेशान न करो, हम चाँद के पहलू में रहते  हैं.. परियाँ हमारा तिलिस्म रचती हैं.... हमें आगोश में लेकर दुलराती हैैं... मैं भी अब खुश हूँ.... हाँ, तुमसे एक इल्तिजा है सुपर्णा के लिए ओछी बातें कभी नहीं कहना, उसके साथ तो एक अजीब वाकया हुआ, वह जिस लड़के को चाहती थी, वह किसी और लड़की को भी ब्लैकमेल करता था, वह लड़की देर तक रोती रही इस फ्राॅड पर,। लड़का राजी था ,पर उसने रजनी के लिए  इनकार कर दिया...उसके बारे में जब भी सोचता हूँ यादों के समुद्र से निकल कर हजारों तितलियाँ मेरे गिर्द उड़ने लगती हैं! मैं हैरान हो जाता हूँ इन तितलियों के नव जीवन पर!सचमुच तितलियाँ नाचती हैं, तो कितना अच्छा लगता है! 



पुश्किन सम्मान 2017 की घोषणा


पंकज सुबीर


प्रेस विज्ञप्ति

भारत मित्र समाज, मास्को, रूस, 49/2 निकलायामस्कया उलित्सा, मास्को, रूस, फोन 007-916-6114864,
007-925-6124560

30 अगस्त 2021, पंकज सुबीर को रूस का पुश्किन सम्मान, मास्को। मानवीय सरोकारों के पैराकार हिन्दी के चर्चित लेखक पंकज सुबीर को रूस का पुश्किन सम्मान-2017 दिये जाने की घोषणा की गई है। रूस के ‘भारत मित्र समाज‘ की ओर से प्रतिवर्ष हिन्दी के एक प्रसिद्ध लेखक-कवि को मास्को में हिन्दी साहित्य का यह महत्त्वपूर्ण सम्मान दिया जाता है। इस क्रम में समकालीन भारतीय लेखकों में अपना विशिष्ट स्थान रखने वाले और कथा लेखन के प्रति विशेष रूप से समर्पित पंकज सुबीर को जल्द ही यह सम्मान मास्को में आयोजित होने वाले गरिमापूर्ण कार्यक्रम में दिया जाएगा। उल्लेखनीय है कि पहली बार यह सम्मान किसी युवा लेखक को मिला है।

मूल रूप से मानवीय संवेदना के पक्ष में खड़े नजर आने वाले लेखक पंकज सुबीर के अब तक सात कहानी संग्रह, तीन उपन्यास, और संपादन की चार पुस्तकों सहित विविध विधाओं की कुल 17 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हिन्दी साहित्य के अनेक महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित पंकज सुबीर को 2009 में भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार मिला था। उसके बाद उन्हें वागीश्वरी पुरस्कार, वनमाली कथा सम्मान, शैलेश मटियानी पुरस्कार, कमलेश्वर सम्मान आदि दस से ज़्यादा पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हो चुके हैं।

भारत मित्र समाज के महासचिव अनिल जनविजय ने मास्को से जारी विज्ञप्ति में यह सूचना दी है कि प्रसिद्ध रूसी कवि अलेक्सान्दर सेंकेविच की अध्यक्षता में हिन्दी साहित्य के रूसी अध्येताओं व विद्वानों की पाँच सदस्यीय निर्णायक-समिति ने पंकज सुबीर को वर्ष 2017 के पुश्किन सम्मान के लिए चुना है। इस निर्णायक-समिति में हिन्दी साहित्य की प्रसिद्ध रूसी विद्वान ल्युदमीला ख़ख़लोवा, रूसी कवि ईगर सीद, कवयित्री और हिन्दी साहित्य की विद्वान अनस्तसीया गूरिया, कवि सेर्गेय स्त्रोकन और लेखक व पत्रकार स्वेतलाना कुज्मिना शामिल हैं। सम्मान के अन्तर्गत पंकज सुबीर को पन्द्रह दिन की रूस-यात्रा पर बुलाया जाएगा। उन्हें रूस के कुछ नगरों की साहित्यिक यात्रा कराई जाएगी तथा रूसी लेखकों से उनकी मुलाकातें आयोजित की जाएँगी।

इससे पहले यह सम्मान हिन्दी के कवि विश्वनाथप्रसाद तिवारी, उदयप्रकाश, लीलाधर मंडलोई, बुद्धिनाथ मिश्र, पवन करण, कहानीकार हरि भटनागर और महेश दर्पण आदि को दिया जा चुका है। पंकज सुबीर इन दिनों सीहोर, मध्यप्रदेश में रहते हैं और उनसे 9806162184 पर संपर्क किया जा सकता है।

रूस स्थित ‘भारत मित्र समाज‘ द्वारा 30 अगस्त 2021 को प्रेस के लिए जारी विज्ञप्ति।

अनिल जनविजय, महासचिव, भारत मित्र समाज, मास्को, रूस


डाॅ. लक्ष्मी पाण्डेय, हिन्दी विभाग, डाॅ. हरीसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय सागर म.प्र., पता-श्रीसूर्यम्, कुलपति निवास के पास, कोर्ट रोड , 10 सिविल लाइन सागर म.प्र. - 470001, मो. 9753207910

कहानी

अहमियत

वो उसके आने की खबर सुनकर नाच उठा....। इतना प्रसन्न, इतना उत्साहित था, जितना शायद मेरे जाने की बात सुनकर हो जाता है। उसके स्वागत में एक-एक चीज सँवारता रहा, वैसे ही जैसे मेरे जाने से पहले वह तय कर लेता है कि मेरे न रहने वाले दिनों में वो क्या-क्या करेगा, किस-किस से मिलेगा। कितने समय तक बाहर रहेगा और कब घर पहुँचेगा। वो पूरी शाम बाहर गुजारेगा ताकि उसे बता सके, या वो ये समझ सके कि अभी वो जहाँ शामें गुजार रहा है तब भी वहीं गुजारता था जब मैं यहाँ थी। यानी कि उसकी शामों का, उसका और मेरा आपस में कहीं कोई तालमेल नहीं है। इस तालमेल को न दिखाने की प्रक्रिया के बीच, उसके भीतर, उसके नीचे मेरे प्रति कैसी अपमान की धारा प्रवाहित होती रहती है निरंतर.....

उफ्......मेरे कान पक गए हैं इस धारा की कलकल ध्वनि सुनकर......। वो आती है....और उसका मन हल्का-फुलका होकर हवा में तैरने लगता है...... चेहरे पर...और रोम -रोम से टपकती प्रसन्नता को देखकर लगता है, सुखों के रंग-बिरंगे फूलों से उसका दामन भर गया है। उसे ऐसे देखकर अच्छा लगता है...... मन सिकुड़ जाता है....डर से...नहीं ...लज्जा से.... वो धीरे से.....उसके सिर पर हाथ फेरता है....माथा चूम लेता है....हाथ थाम कर अपनी भरी हुई आँखंे उसकी आँखेंा में डाल देता है....फुसफुसा कर कहता है ...तू मेरा जीवन है यह बात ध्यान रखना...। मैं तुझसे दूर नहीं था.....कहते-कहते उसकी देह को प्यार से सहलाता है...पीठ, पेट, छाती, गर्दन, हाथ आँखें, ओंठ सहलाता है...। पैरों को सहलाकर अपनी छाती में दबा लेता है। एक-एक अंगुलियाँ छूता है... बिछुओं को, पायल को चूम लेता है.... उसकी एक आवाज पर एक पाँव से दौड़ता है और चाहता है कि सारा घर, संसार यही करे। उसकी शामें महक उठती हैं....आँखों में स्वप्न लाल डोरे बनकर तैरने लगते हैं। जब रात अपने पूरे यौवन के साथ अंगड़ाइयाँ लेती है तो वह उसे अपने अंदर समेटकर सो जाता है...निश्चिन्त....संतुष्ट ...किसी मासूम बच्चे की तरह....।

सोते-सोते किसी झटके से आँख खुल गई है,...... खिड़की के पास आकर देखती हूँ पूर्णिमा का चाँद आकाश पर अपनी पूरी आभा के साथ मुस्कुरा रहा है। ......घर के बाहर दीनमुद्रा में एक कुत्ता चक्कर लगा रहा है, शायद इस आशा से कि घर के लोग जब खा-पीकर संतुष्ट हो जाएँगे तो बचा -खुचा (अगर होगा तो) उसे भी मिल जाए शायद... किसी को वो घूमता दिख जाए....शायद...उसे भी कुछ देने की इच्छा हो जाए शायद.....जैसे उसकी नींद खुलेगी तो किसी क्षण फुर्सत पाकर उसे मेरा ध्यान आएगा...। उफ्......उफ्....ये क्या सोच लिया मैंने? फिर झाँककर बाहर देखती हूँ...वो कुत्ता शांत मुद्रा में बैठा है....मन करूणा से भर गया,उसके प्रति भी और अपने प्रति भी....। बादल का छोटा सा टुकड़ा चाँद को छेड़ता हुआ निकल गया...सारी खिड़कियाँ खोलकर अँधेरे में बिस्तर पर बैठ जाती हूँ....प्यास से ओंठ सूखने लगते हैं...उठकर एक ग्लास पानी भरकर धीरे-धीरे पीती जाती हूँ और पूरे घर का एक चक्कर लगा लेती हूँ... हर कमरा अंधेरे में डूबा हुआ। सोचों में मग्न ...अपने ही दर्द के भार से दबा हुआ एकाकी... किसी विधुर की तरह ...किसी परित्यक्ता की तरह ...। लौटकर बिस्तर पर बैठती हूँ तकिए को छाती में दबाए...। शीतल, मंद,सुगंधित हवा रातरानी की सुगंध से घर भर देती है मेरा...बदले में मेरा चैन ले लेती है ...। मैं बेचैन होकर पहलू बदलती हूँ ...पैरों पर चादर डालकर सिरहाने टिककर बैठती हूँ...चाँद हँसता है....जैसे मुझे सीख दे रहा हो कि मेरी तरह हँसो संसार पर...इस मायावी संसार से जुड़ने की अपनी इच्छा पर हँसो और संसार की ठोकरों से दुखी होने की मूर्खता पर हँसों...ये संसार ऐसा ही है पगली...। हवाएँ मेरे बालों को बिखेर रही हैं अपने झोंकों से, जैसे मुझे सीख दे रही हों कि अपने बंधनों को यूँ ही बिखेर दे...बिखरने दे...कोई बंधन शाश्वत नहीं है संसार में.... मेरा मन जैसे इन सीखों को स्वीकारता है.....चाँद को देखते-देखते पलकें बंद हो जाती हंै और चाँद मेरे मन के आकाश में जगमगाने लगता है...बरसों पुरानी स्मृति किसी स्वप्न की तरह लहराती है-बस में कंडक्टर सीट पर अकेली बैठी हूँ...शाम सात बजे से सुबह सात बजे तक की यात्रा थी...सारा सामान व्यवस्थित कर ठीक से पाँव फैला लिए थे मैंने ..। पूर्णिमा की रात ऐसी ही ...ऐसा ही चमकता हुआ चाँद आकाश पर.....। सात बजे बस अपने गंतव्य के लिए चली ...रात के दस बजते-बजते सारे यात्री खा-पीकर कुछ सोने लगे, कुछ यूँ ही उँघने रहे...। ड्राइवर ने बस की सारी बत्तियाँ बुझा दीं। उसके पास ही कंडक्टर अपनी लिखा-पढ़ी समाप्त कर बैठ गया। एक लड़का जो लगातार कंडक्टर और ड्राइवर के इशारे पर नाच रहा था, वह भी सारे काम निबटाकर गेट पर खड़ा हो गया। बस में चलते टेपरिकार्डर पर कैसेट बदलते रहना भी उसकी ड्यूटी थी शायद ...। आश्चर्य उसकी पसंद पर हो रहा था कि यह नयी उम्र का लड़का जो क्लीनर है शायद,वह ऐसे पुराने संजीदा फिल्मी गीत पसंद करता है ? अक्सर ऐसे लोग फूहड़, शोर-शराबे वाले नये पाॅप संगीत को पसंद करते हैं। मन-ही-मन मैंने उसकी पसंद को सराहा .....। बस के अंदर फैले अंधेरे को चाँद की दूधिया रौशनी हरा रही थी। खुली खिड़कियों से आती हवा के झोंकों के साथ मिलकर मुकेश,तलत, लता, नूरजहाँ, रफी की आवाजें एक जादुई से वातावरण की सृष्टि कर रही थीं। बड़ा मुलायम सा अंधेरा, बड़ी स्निग्ध सी चाँदनी रात और बार-बार बजने वाला यह गीत...जी में आता है कि जी भर के तुझे प्यार करूँ... अपनी आँखों में बसाकर कोई इकरार करूँ...। और यह भी-चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों...। मन अनजानी सी लहरों में डूबता -उतराता रहा। तभी ध्यान आया कि वह क्लीनर जो गेट पर खड़ा था, अब वहीं गेट पर ही अधलेटा सा बैठ गया है और लगातार मेरे पैरों को देख रहा है.... ध्यान से देखा उसे, अंधेरे में उससे नजरें बचाकर...। अठारह-बीस वर्ष का लड़का,गोरा रंग, गठीला बदन... ऊँचा भरा-पूरा...बड़ी-बड़ी आँखें,चैड़ा माथा, काले बाल, गंदा सा पेंट और पुरानी उड़े रंगों वाली टी-शर्ट, जिसके बटन खुले होने से उसकी चैड़ी गोरी छाती झाँक रही थी....। सोचती रही शायद  किसी अच्छे लेकिन गरीब घर का बेटा हो.....कोई विवशता होगी....ज्यादा पढ़ नहीं पाया... इसका घर कहाँ होगा ? इसके अपने कौन-कौन होंगे ? मन में कुछ उमड़ने लगा उसकी गंभीर, विवश मुद्रा को देखकर... । तभी उसकी नजरें मेरे पैरों से उठकर मेरे चेहरे पर आईं, मैं अनजान सी  बनकर खिड़की के बाहर देखने लगी, शायद उसे मेरा इस तरह चाँद को देखना अच्छा लगा। मैं उसकी आँखों की चुभन सिर से पाँव तक अनुभव करती रही। फिरोजी काॅटन की साड़ी, फिरोजी ब्लाउज, पीठ पर फैली आधी खुली चोटी के खुले बाल, काले सैंडल में फँसे गुलाबी पैर और गुलाबी नेल पाॅलिश से रंगे नाखून..... सभी उसकी दृष्टि की उष्मा को अनुभव कर रहे थे। घबराहट सी हुई। मैंने पहलू बदलना चाहा, तो आँखें उसकी आँखों से टकरा गईं। वो निश्चिन्त भाव से देखता रहा...। उसके चेहरे पर विवशता के भाव, पीड़ा की लकीरें चाँद की रौशनी में छिप नहीं पा रही थीं। गेट की सीढ़ियों पर कुहनी टिकाए बाईं हथेली पर गाल टिकाकर बैठा वह उस शांत अंधेरे एकांत में किसी योगी की तरह दिखाई देता तो कभी किसी बच्चे की तरह...। उस अंधेरे एकांत में स्मृतियों में घिरी मैं... अपने साथ-साथ उसके दर्द को भी पी जाने की कोशिश करने लगी...। टेपरिकार्डर पर बजता संगीत मन को सहलाता रहा... अचानक पैरों के पास साड़ी के चाँदी से चमकते बार्डर को किसी ने छुआ हो ऐसा स्पर्श..., सिर से पाँव तक सिहर गई... देखा... वह मेरे पैरों के पास कुहनी टिकाकर हथेली पर गाल रखे शायद आँखें बंद किए सोने की कोशिश कर रहा है...। साथ छूटे ना कभी तेरा ये कसम ले लूँ....देके सब खुशियाँ तुझे, तेरे सनम गम ले लूँ... उस समय बजती हुई गीत की पंक्तियाँ उसे बहका रही थीं शायद... क्योंकि कुछ क्षणों के बाद वह फिर अपनी पहले वाली मुद्रा में सीधा अधलेटा बैठकर कभी मुझे, कभी चाँद को देखता रहा...विवश भाव से...। इसी कोशिश एवं कशिश में रात गुजरती रही... उसे शायद मालूम था मुझे कहाँ उतरना है... शायद मुझे बस से उतरते वह देख नही सकता था, देखना नहीं चाहता था इसलिए एक घंटे पहले ही वह उठा ...गेट पर मेरे सामने खड़ा, मुझे दीन भाव से देखता रहा, ठीक वैसे ही जैसे चाँद को हसरत भरी नजरों से देखते हुए हम अक्सर उसे न पा सकने की पीड़ा से दीन हो उठते हैं...फिर धीरे-धीरे पीछे जाकर किसी खाली सीट पर सो गया...। मैं अपने गंतव्य पर बस से उतर गई लेकिन लगा जैसे उसकी बड़ी-बड़ी सुंदर, पीड़ा भरी, प्रेम से लबालब भरी आँखें मेरा पीछा कर रही हैं। स्मृतियों में दो बड़े-बड़े चाँद बनकर, मेरे मन के आकाश पर जड़ गई हैं। कभी उन्हें देखकर मैं ममता से भर उठती हूँ,कभी पीड़ा से...। 

वो रात पूर्णिमा की....ये रात पूर्णिमा की...ये दीन भाव से बाहर बैठा हुआ कुत्ता.... ये आकाश पर मुस्कुराता चाँद... वो मासूम लड़का...क्लीनर... वो आकाश पर मुस्कुराता चाँद...वो ...वह...पता नहीं कैसा तालमेल है... है भी या नहीं ? मैं इन सबके बीच कहाँ हूँ ? चाँद सबके हृदयों में बसी चिरकाल की कामना....। कुत्ता.... उपेक्षित, तिरस्कृत, घृणित जीवन....। चाँद और कुत्ता,....कुत्ता और चाँद..., कहीं कोई तालमेल नहीं ..., फिर भी तालमेल है। मायावी संसार में कब, कहाँ, कोई किसी के लिए चाँद हो, और कब कहाँ वही किसी के लिए कुत्ते से ज्यादा अहमियत न रखता हो-कहा नहीं जा सकता....,। ठंड बढ़ने लगी है.... दर्द जमने लगा है... धीरे-धीरे रात अपनी काली साड़ी का आँचल समेटती है...., अपने आप में सिमटकर धीरे-धीरे पग रखती हुई आती है...मेरे मन के एक कोने में समा जाती है..., मैं चाँद बनकर हँसती हूँ... खो जाने के लिए चल पड़ती हूँ...आकाश के दूसरे छोर पर...




       आत्मगत को वस्तुगत बनाना ही साहित्य का काम है : राजी सेठ                                                  

बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में और अपने जीवन का चार दशक गुज़ारने के बाद, वर्षों से इकट्ठी संवेदना एकबारगी बहाकर हिंदी साहित्य समाज को चकित कर देने वाली अद्भुत लेखिका राजी सेठ कहानी-कविता को माध्यम बनाकर उन तमाम समकालीन समस्याओं, विमर्शों और क्रांतियों को रूप देती हैं जो हाशिए पर टँगे भी थे तो मर-खप गए से थे या जिन्हें सरोकारों की भीड़ में जगह नहीं मिली थी। उनकी संवेदना की गठरी से छलकती कहानियाँ इतनी यथार्थ, इतनी मर्मस्पर्शी, इतनी बेंधने वाली और अंतस्तल को झकझोरनेवाली हैं कि पाठक देर तक उब-डूब करता रह जाता है, फिर मैं भला कैसे बचती! इसलिए अपनी जिज्ञासाओं की पोटली थामे एक दिन उनसे मिलने चली गई। दूधिया जलधार की तरह आभामयी राजी सेठ जिस आत्मीयता से मिलीं कि आत्मीय संवाद घंटों चला… औपचारिकता के लिहाफ़ से बिलकुल बेलाग सरल संवाद।... और इसलिए यह समालाप अधिक महत्वपूर्ण है मेरे लिए। उनसे हुई बातचीत की झलक प्रस्तुत करने से पहले एक नज़र उनके कृतित्व पर, जो गागर में सागर जैसा है..... 

राजीजी के दस कहानी संग्रहों-- दूसरे देश काल में, रुको इंतज़ार हुसैन, गमे हयात ने मारा, खाली लिफाफा, यहीं तक, किसका इतिहास, यात्रा-मुक्त आदि के साथ ही ‘निष्कवच’ और ‘तत-सम’ महत्वपूर्ण उपन्यासों का उल्लेख करना आवश्यक है। आपने जर्मन कवि रिल्के के सौ पत्रों का हिंदी अनुवाद करके हिंदी साहित्य को अनूठा उपहार दिया है। अंग्रेज़ी सहित कई भाषाओं में आपकी कृतियाँ अनूदित हैं और कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जा रही हैं। भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला की फेलो रही राजी सेठ कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित हुईं, मगर न दर्प पनपा न आडंबर! निश्छलमना! अब एक नज़र बातचीत पर .... 

कहते हैं, बचपन की यादें कभी जाती नहीं। नौशेहरा छावनी में आपके बचपन का कितना हिस्सा गुज़रा?  

सब सपना –सा लगता है! पर भूल नहीं सकते। नौशहरा, पठानों का देश! यह पश्चिमी सीमांत, पेशावर के पास है, वहाँ हमारा जन्म हुआ। बाद में लाहौर आ गए थे। हमारे पिताजी को भरोसा था कि लाहौर नहीं छोड़ना पड़ेगा। सरकार ने लाहौर का फैसला सबसे अंत में किया था। तबतक पता नहीं था कि लाहौर हिंदुस्तान में रहेगा या पाकिस्तान में जाएगा। सारे मुहल्ले खाली हो गए, मगर पिताजी टस से मस नहीं हुए। वे कहते, इससे क्या फरक पड़ता है! मगर.... ! पिताजी नॉर्थ फ़्रंटियर से पंजाब आना चाहते थे। पंजाब आकर लाहौर में अपना मकान बनाया। उन दिनों पंजाब की राजधानी थी लाहौर। उस समय मैं नौ-दस साल की रही होऊँगी। 

विभाजन की घोषणा के साथ ही देश में अमानवीयता का तांडव शुरू हुआ, उसे समझ पाने के लिहाज़ से आप बहुत छोटी थीं, फिर भी आपके बालमन पर जो असर पड़ा,  क्या आज भी वे यादें आपको अपनी ओर खींचतीं हैं?

माँ-पिताजी की ज़िद थी कि ठीक है, देश को आज़ादी मिली है, मगर हम यहीं रहेंगे। हम क्यों जाएँ? वे कट्टर देशभक्त थे। जिस दिन बलूची मिलिटरी आ गई और उन्होंने घरों से आदमियों को बाहर खींचकर पेड़ से बाँधना और उनकी आँखों के सामने औरतों की आबरू से खेलना शुरू किया तब पिताजी का विश्वास डगमगा गया। एक दिन जैसे ही अपने इलाके में मिलिटरी के आने की ख़बर सुनी, वे घर आए और माँ को बोले, “चलो! अभी निकलना है।” “लेकिन अभी खाना तो पका नहीं है। दाल चढ़ी है।” पिताजी ने अब माँ को ज़वाब नहीं दिया, हैंडपंप से एक बाल्टी पानी भरकर चूल्हे में उड़ेल दिया, फिर बोले “अब अकाध कपड़े रख और चल!” “लेकिन जाएँगे कहाँ” “जा रहे हैं पं. नेहरू को बधाई देने। अब चुपचाप चल!” “रहेंगे कहाँ?”“सरकार ने डीएवी कॉलेज में कैंप बनाया हुआ है। अभी वहाँ चलते हैं, बाद में घर लौट आएँगे।” तीन-चार महीने रिलीफ़ कैंप चलती रही। रास्ते में ट्रेनों में लोगों को काट देते। जिस ट्रेन से हमारे माँ-पिताजी आए थे, उसमें ख़ून जमे हुए थे पटरी पर। हमें पहले ही दिल्ली भेज दिया गया था। हमें रेडियो से पता चला था कि माँ-पिताजी आ रहे हैं। सारी घटनाएँ मेरी कहानियों में ज़िंदा हैं।

दिल्ली कब, कैसे आना हुआ? 

मेरी भाभी प्रेग्नेंट थीं। रोज़ ख़बरें आती थीं कि यहाँ आग लगा दी गई, वहाँ दंगे हो रहे तो पिताजी ने पहले ही उन्हें और उनके साथ ही हमलोगों को भी दिल्ली, उनके मायके भेज दिया। हम रोज़ उनका इंतज़ार करते थे। कोई-कोई आकर बताता कि आपके मकान पर हमला हुआ है और आपके माँ-बाबूजी मारे गए। बीतते दिन के साथ, हमने तो उम्मीद ही छोड़ दी थी।  

जिस दिन माँ-पिताजी के आने की ख़बर मिली और हम उन्हें लिवाने गए... उन्हें और बाक़ी विस्थापित लोगों को जिस हालत में देखा....!  हमारे फुफेरे भाई ऑर्डिनेंस फैक्टरी में ओवरसियर थे, पिताजी ने उन्हें ख़बर दी और मकान का इंतज़ाम करने कहा।

विस्थापन की पीड़ा का दंश जो आपके परिवार ने झेला, जो आपने उस दौर में महसूस किया, राजनीतिक बदलाव के कारण विस्थापित लोगों के सामाजिक और आर्थिक संकट के बारे में कुछ बताना चाहेंगी?  

 आर्थिक संकट उत्पन्न होना तो स्वाभाविक ही था। सामाजिक पहचान भी खोकर आए थे सब। बसे-बसाए घर से उजड़कर, अपनी पहचान खोकर आना.... शब्द देना मुश्किल है! पिताजी ने सारा सामान देव समाज को दे दिया था। जब उनसे माँगे तो वे मुकर गए। काफ़ी तकलीफ़ें झेलीं, मगर परिवार एकजुट था तो धीरे-धीरे सब संभल गया। माँ-पिताजी ने शाहजहाँपुर में, एक छोटे-से मकान में गृहस्थी जमाई। शाहजहाँपुर के कलेक्टर दयालु थे। वे बाहर से आए लोगों को गृहस्थी बसाने में उनकी मदद कर रहे थे। लोगों के कहने पर पिताजी जी भी मिलने गए थे। वहाँ कई लोग इंतज़ार में थे। थोड़ी देर में कलेक्टर ने बुलाया, बिठाया और पूछा तो पिताजी बोले ‘काम चाहिए’। कलेक्टर ने चपरासी को इशारा किया और वह थोड़े-थोड़े राशन से भरा एक कार्टून लेकर आया, पिताजी बोले, “यह नहीं, काम चाहिए काम!” वे परेशान हुए। थोड़ी देर बाद फिर बोले, “बैठे क्यों हैं श्रीमान! इसे ले जाइए” “मैं इसे तो नहीं ले जाऊँगा। भीख माँगने नहीं आया हूँ, काम माँगने आया हूँ।” कहते हुए पिताजी की आँखें छलक आई थीं। ‘मुलाक़ात’ कहानी में उसकी झलक है। वह कलेक्टर सचमुच भला था। उसने हर एक की कुछ न कुछ मदद करने की कोशिश की थी।

तो आपकी पढ़ाई-लिखाई फिर शाहजहाँपुर में ही हुई होगी? इतने संकटों के बीच पढ़ाई में बाधाएँ भी आई होंगी?

मेरे पिता और भाइयों ने ख़ुद संकट सहे, मगर हमें पढ़ाया। मेरे भाइयों ने पढ़ाई छोड़ दी, काम में लग गए, मगर हमें पढ़ाया, म्यूजिक सिखाया। इंटर तक शाहजहाँपुर से पढ़ाई की। स्कूल इंटर कॉलेज कहलाता था। ग्रेजुएशन लखनऊ से, हॉस्टल में रहकर पढ़ाई पूरी की। उन्होंने हमारी पढ़ाई के रास्ते में कभी बाधा नहीं आने दी। पिताजी हमें फूल की तरह रखते।  मुझे हमेशा यही लगता है कि उनके कॉस्ट पर यह पाया। भाई-भाभी बहुत प्यार करते थे।  

पढ़ाई में बाधा घर से कभी नहीं हुई। इंटर कॉलेज में थी, तभी सेठ साहब की माँ ने मुझे बहू बनाने का मन बना लिया और शादी के लिए ज़ोर देने लगीं। रईस परिवार था, मगर भैया ने टालने के लिए कहा, ‘जब निरंजन (सेठ साहब)की नौकरी लगेगी, तब शादी करेंगे’। मैं एमए प्रथम वर्ष में थी कि उनकी नौकरी लग गई, फिर तो उनलोगों ने शादी के लिए दबाव बना दिया।   

तो आपने बीच में ही पढ़ाई छोड़ दी?

छोड़नी पड़ी। उनकी पोस्टिंग अहमदाबाद, गुजरात में हुई थी। मैं लखनऊ से ही फिलॉसफी से एमए कर रही थी। शादी के बाद गुजरात गई तो पढ़ाई छूट ही गई। लंबे समय बाद गुजरात से ही मैंने अंग्रेज़ी से एमए किया।  

वहाँ की कोई स्मृति

एक दिन क्लास में अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर आर.के.भट्ट ने एक जटिल सवाल पूछ लिया। वे स्ट्रीम ऑफ कॉन्शसनेस मेथड पढ़ा रहे थे। वे बोले, “है कोई जो ज़वाब दे?” मैंने धीरे से कहा, “आई थिंक आई कैन एक्सप्लेन इट।” वे बोले, ‘बताइए’, फिर मैंने बताना शुरू किया... “ये हमारी चेतना जो है जैसे हम यहाँ बैठे हैं, लेकिन घर के बारे में सोच रहे हैं। इसका मतलब मेरी चेतना यहाँ नहीं है, वहाँ चली गई है। फिर मुझे लगता है, अरे वापस आना है तो क्लास में ध्यान लगाते हैं... फिर वही... तो जब हमारी चेतना भूत, वर्तमान और भविष्य में भ्रमण करती है... दैट इज़ स्ट्रीम ऑफ़ कॉन्शसनेस। हम एक जगह बैठे-बैठे तीनों काल की यात्रा करते हैं... इज़ इट दैट ?” मेरे ज़वाब से वे बहुत ख़ुश हुए।  

उस समय सी.एन. वकील उस समय विश्वविद्यालय के कुलपति थे। उन्होंने नियम बनाया था 60% रिटेन और 40% क्लास वर्क/असाइनमेंट पर मार्क्स दिए जाएँगे। मेरे असाइनमेंट दूर-दूर गाँवों में भेजे जाते थे, यह बात मुझे बाद में पता चली।  

बड़ी बात है मैम!  दर्शन-तत्व जानना-समझना आपको हमेशा प्रिय रहा।‘युगसाक्षी’ से भी जुड़ी रहीं, कुछ उन अनुभवों को साझा करें  

हाँ, साढ़े आठ साल मैंने ‘युगसाक्षी’ में काम किया। डॉ. देवराज की फिलॉसफी मुझे बहुत पसंद थी। डॉ. देवराज के साथ मेरी बातचीत को जमनालाल बजाज के सस्ता साहित्य मंडल ने प्रकाशित किया है। मैं मानती हूँ डॉक्टर साहब की फिलॉसफी कि ‘हर इंसान के भीतर एक तिरोहित चेतना होती है, जिसको ऊपर की तरफ़ ले जाना होता है’। इसी विषय को लेकर  मैंने डॉ. देवराज से बातचीत की थी।

अज्ञेय जी से भी आपका पारिवारिक संबंध रहा 

पिता तुल्य अज्ञेय जी का स्नेह हमदोनों ने पाया है। ‘जहाँ से उजास’ में डॉ. देवराज, अज्ञेय, निराला, जैनेन्द्र, शैलेश मटियानी, नरेश मेहता, फ़िराक़ गोरखपुरी और प्रभाकर श्रोत्रिय से जुड़े संस्मरण हैं। अज्ञेय जी पर संस्मरण है... ‘कितने ठौर ठिकाने’। वात्स्यायन जी चाहते थे कि सब उनसे मिलें, बात करें मगर लोग उनसे डरते थे।

मैंने सुना है, वे बहुत गंभीर स्वभाव के थे 

गंभीर! अरे उनके जैसा ख़ुशमिजाज़ कोई होगा नहीं। इतना हँसते थे-इतना हँसते थे कि क्या बताऊँ! चाय पीने के दौरान जो भी नज़र आ जाता, सबको आवाज़ देकर पास बुला लेते। वे हमेशा कहते, “अपने को खाली करो। फालतू चीज़ों से मत भरो।.... आपको अपने बुद्धि-विवेक से काम लेना है। इसको (दिमाग को) स्वस्थ रखो हमेशा। कूड़ा मत डालो। चिंता, परनिंदा ... ये कुछ नहीं। विवेक से आपको सारी उमर काम लेना है। इसको स्वस्थ रखो।”

   मैं कभी कोई रचना पढ़ने देती तो पढ़कर कहते थे, ‘अच्छा है’ फिर कहीं कोई कमी होती तो बता देते थे। कहते थे, “जिस भाषा का उपयोग करो, उसे पूरी तरह समझकर। यह नहीं कि थोड़ी पंजाबी, थोड़ी गुजराती। वे तरीका बताते थे। बहुत कुछ सीखा उनसे। प्रूफ़रीडिंग भी उनसे ही सीखी। अभी वे सब काग़ज़ पड़े हैं। कैसे नष्ट कर सकते हैं उन्हें ! मुझे जीवन में हमेशा अच्छे लोग मिले।

आपने स्त्रियों को केंद्र में रखकर अधिक कहानी लिखी है। फिर भी कुछ ऐसी मर्मस्पर्शी कहानियाँ भी हैं जिनके केंद्र में पुरुष है और कुछ को किनारे कर दूँ तो अधिकांश संवेदना से भरी, पोर-पोर भिगोने वाली कहानियाँ हैं। ऐसी संवेदना कोरी कल्पना की कथावस्तु से नहीं उपज सकती! उन कहानियों को पढ़कर लगता है, आपने उन स्थिति-परिस्थितियों के दर्द को कहीं गहरे तक जज़्ब किया है, तभी इस रूप में फूटकर निकली हैं वे।               

यह तो लेखन की पहली माँग है। किसी घटना या विषयवस्तु को आत्मसात करना और फिर आत्मगत को वस्तुगत बनाना ही तो साहित्य का काम है। तुम संवेदनशील हो, इसलिए इतनी बारीक़ी से पकड़ पाई। और एक हद तक ठीक ही अनुमान किया। ‘खाली लिफाफा’ मेरे जीवन के निकट की कहानी है।... ‘मुलाक़ात’ भी। दोनों कहानियाँ मैंने एक ही दिन लिखी। 

माँ  लिफाफे पर सबके पते लिखवाकर ट्रंक के नीचे रखती थी; कहती थी, ‘अगर खाली लिफाफा तुम तक पहुँचे तो समझ जाना माँ मुसीबत में है। ... और अगर मैं मर जाऊँ तो और तुम्हें ख़बर मिले तो आने की ज़रूरत नहीं है। मिट्टी का कोई धर्म नहीं होता। लेकिन अगर खाली लिफाफा मिले तो ज़रूर आना’। उन्हें लगता था जब मर गए तो मिट्टी हो गए और मिट्टी का कोई धर्म नहीं होता, लेकिन मरने से पहले कितनी तकलीफ़ें होती हैं। आदमी घिसट-घिसटकर चलता है, उसकी तकलीफ़; कोई इच्छा बाक़ी रह गई, उसकी तकलीफ़। वही असली दुख है। मरना कोई दुख नहीं है।

हम जब माँ से पूछते कि ‘तुम बेटियों के ही पते क्यों लिखवाती हो?’ तो माँ कहती, ‘बेटियाँ नदी होती हैं, बेटे पहाड़। नदी पर पुल बन सकता है, पहाड़ पर नहीं।’  

बहुत गहरी बात! आपने ‘खाली लिफाफा’ में सास-बहू के बीच अद्भुत प्रेम और संवेदना के स्तर पर सामंजस्य दर्शाया है, जबकि समाज में इस रिश्ते को बदनाम स्वरूप प्राप्त है। ऐसी प्रस्तुति निश्चित तौर पर समाज को दिशा देगी।

 मेरी बड़ी भाभी बहुत अच्छी थी। सास-बहू का ऐसा प्रेम! मेरी भाभी माँ को पढ़ना सिखाती थीं। जब बड़ी भाभी फुरसत पातीं तो वे दोनों सिर मिलाकर बैठी रहतीं। मैं तो हैरान होती कि गंगा और जमुना के बीच सरस्वती की धारा बह रही है। हमारी बड़ी भाभी और माँ में ऐसा प्रगाढ़ रिश्ता था कि शब्द देना मुश्किल है। 

 एक घटना बताती हूँ।...  एक दिन भाभी माँ के कपड़े बदल रही थी तो माँ भाभी से बोली, ‘श्यामा! तू बैठ जा यहाँ।’ अभी ऐसे क्यों कहते हो? अभी तो कितने काम करने हैं!’ भाभी बोलीं तो माँ बोली, ‘अच्छा, काम कर ले, लेकिन जब मैं मरने लगूँ तो मेरे पास रहना’।    ... उनके पास से भाभी जातीं, इससे पहले माँ ने दम तोड़ दिया।

सास-बहू का ऐसा रिश्ता वाक़ई दुर्लभ है!

कहानी में वही लिखा है जो देखा, महसूस किया। सास-बहू जैसे बदनाम रिश्ते में मैं देख रही थी कि कैसे गंगा जमुना के बीच सरस्वती की धारा बहती है! वे कहतीं, ‘इतना तो आदमी को आए कि रामायण पढ़ सके; अपने बच्चों को चिट्ठी लिख सके!’    

‘उसी जंगल में’ कहानी स्त्री की जिस मनःस्थिति और सामाजिक स्थिति को दर्शाती है, वह यों तो व्यापक परिप्रेक्ष्य में है, मगर क्या कोई ऐसी घटना आपके आसपास घटी जिसे चेतना ने जज़्ब कर लिया?

यह सच्ची घटना को लेकर बुनी गई कहानी है। उसका पति उसके साथ बदसलूकी करता था। जब उसने घर छोड़ा था, तब वह प्रेग्नेंट थी। 

‘यह कहानी नहीं’ बहुत ही मार्मिक कहानी है। भीतर तक झकझोर देती है। 

 अपनी भांजी को हमने पाला, पढ़ाया-लिखाया, ऊँचे परिवार में शादी दी। सुखी थे वे लोग। एक दिन, बर्थ डे पार्टी से अपनी गाड़ी में लौट रहे थे कि रोड एक्सीडेंट हो गया। पति-पत्नी, दोनों बच्चे सब चल बसे। यह कहानी उन्हें समर्पित है।इसी तरह मेरी एक कहानी है ‘अंतर्द्वंद्व’ । उसे पढ़ा न हो तो पढ़ना। तुम समझ पाओगी।  

मैंने ‘गमे हयात’ की सारी कहानियाँ पढ़ी हैं। इस संग्रह की कहानियाँ कलेजे में लगती है... मर्म को हिलोरती हुई। ‘दलदल’ की अनुभूति आपसे सुनना चाहूँगी 

लिखना क्या है, जब हम घटना को अनुभव में बदल देते हैं और विश्वसनीयता लाते हैं कि ‘हाँ! यह हो रहा है’ तो संवेदना फूटती है।

‘विदेश में भारतीय पिता’, निष्कवच’ और ‘मार्था के देश में’ कहानियों को पढ़कर ऐसी प्रतीति होती है मानो विदेश जाकर बसने वाले या बसने की इच्छा रखने वाले युवाओं को आपने इन कहानियों के माध्यम से सचेत करने की कोशिश की है कि वे विदेश प्रवास के लिए संकल्पित होने से पहले एक बार पुनर्विचार करें

पाठक अपने हिसाब से अर्थ निकाल ले, यह ज़्यादा अच्छा नहीं?’  

जी! ‘दूसरे देशकाल में’ कहानी संग्रह की कुछ कहानियों, जैसे--- गलियारा, निर्णय और दूसरे देशकाल में’—इनमें जो संवेदना काम कर रही है, उसे आप क्या नाम देना चाहेंगी?

 मेरे गुरुजी कहा करते थे, ‘तुम संवेदना की धनी हो’।

सच ही कहा करते थे। कहानियों से गुज़रते हुए/ गुजरने के बाद भी  मैं कोई शब्द ही नहीं चुन पाई कि उन्हें रेखांकित कर सकूँ। भाषा-शैली और शिल्प के अनूठेपन से भी चकित होना पड़ता है। आपका कई भाषाओं पर अधिकार है। उन भाषाओं की रचनाओं से भी गुज़रीं। क्या इनका भी सूक्ष्म प्रभाव आपकी रचनाओं पर है?   

जीवन में कितनी ही घटनाएँ आती हैं। सारी अपने ऊपर थोड़े ही होती है। कहा न, ‘आत्मगत को वस्तुगत बनाना ही साहित्य का काम होता है’। अंग्रेज़ी पढ़ने से भाषा का जो ज्ञान मिला, उसका मेरे लेखन को बहुत लाभ मिला। मैं गुजराती, पंजाबी, उर्दू जानती हूँ। पिताजी सिर्फ़ उर्दू जानते थे तो बाहर जाते समय मैंने उर्दू लिखना-पढ़ना सीखा ताकि पिताजी को ख़त लिख सकूँ और हमारे बीच संवाद हो सके। उस समय फोन तो था नहीं उतना।  

मैंने कहीं पढ़ा है कि आप अपनों की मृत्यु सोचकर बुरी तरह डर जाती थीं। क्या यह सच है?

विभाजन के समय की लाहौर की घटना ने मन में एक डर बिठा दिया था। मुझे डर लगता था कि कब हमारे माँ-बाप छूट जाएँगे? कब क्या हो जाएगा? मुझे हमेशा यही लगता था कि ये नहीं रहेंगे तो हम कैसे रहेंगे... तो इससे पहले हम ही मर जाएँ। हमें यही था कि हम किसी अपने को मरते हुए न देखें।

मुझे ताज़्ज़ुब तब हुआ जब हमारे दादाजी की मृत्यु हुई और मुझे  लखनऊ से बुलाया गया। दादाजी के एक तरफ़ दादी बैठी थीं। मैंने देखा तो लगा कि दादाजी तो वैसे ही हैं --- वही शक्ल, वही सुंदरता, वही सबकुछ। मुझे लगा कि डर से निपटने का रास्ता दूसरा है और वह ये कि मौत के नज़दीक जाओ और उसे समझो। दिमाग से ‘मरण’ को समझना।  

हम्म! मैंने भी महसूस किया है कि किसी अपने की मृत्यु ऐसे जीवन-दर्शन की ओर रुझान बढ़ाती है। … मैंने आपकी कविताओं के साथ भी यात्राएँ की हैं। आपकी कविताओं का जो स्तर है, उसमें गूँजती जो संवेदनाएँ हैं, वे उन्हें ख़ास बनाती हैं। ऐसी विशिष्ट या कहूँ कि विलक्षण कविताओं को आपने पुस्तक रूप क्यों नहीं लेने दिया?

लोगों ने कहानीकार का ठप्पा जो लगा दिया। कुछ शुभचिंतकों ने कहा, कविता को रहने दो.... 

और आपने छोड़ दिया! कुछ एक कविताएँ पत्रिकाओं में न  आ जातीं तो हम पाठक इनके मर्म से अछूते ही रह जाते। अब जैसे कि ‘बचते-बचाते ही.....’ कविता जीवनसाथी के लिए जिस भावबोध के साथ लिखी गई, वह दुर्लभ है। मैंने अब ऐसी मर्मस्पर्शी संवेदनशील कविता नहीं पढ़ी जो पति के लिए लिखी गई हो। इसी तरह ‘दौड़ता चला आया’ कविता जितनी बार पढ़ती हूँ, हर बार अर्थों के नए दरवाज़े खुलते हैं, फिर भी लगता है जैसे कुछ छूट रहा, जिसे मैं पकड़ नहीं पा रही

देखो ... एक घर था।....जिनका बचपन मेरे पीछे दौड़ता चला आया.... नई पीढ़ी। घर उसी नगर में ... भूरे रंग के...  भूरे दरवाज़े के भीतर। एक ही मकान में कई पीढ़ियाँ पलती हैं! मकान कहीं नहीं जाता। उसके भीतर बसा घर भी अपना रूप बनाए रखता है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी बच्चे पलते-बढ़ते और बाहर चले जाते हैं। मेरा बचपन गुज़रा तो बाद की पीढ़ी का बचपन .... 

तो भूरा रंग प्रतीकात्मक नहीं है, बस बिंब उभारने के लिए प्रयुक्त हुआ। अब स्पष्ट हो गया। ‘आत्मन्’ भी स्त्री विमर्श की सशक्त कविता है।

तुमने तो बहुत कुछ पढ़ डाला। तुम संवेदनशील हो, इसलिए गहरे तक जुड़ पाई।

बहुत-बहुत आभार मैम! आपसे बात करते हुए समय का पता ही न चला। 

मुझे भी अच्छा लगा। जब भी समय मिले, आना।

जी, ज़रूर! ... प्रणाम! 

डॉ. आरती स्मित, नई दिल्ली, मो. 83768 37119              


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