साहित्य नंदिनी अक्टूबर 2021

 



डाॅ. अवध विहारी पाठक, सेवढ़ा, दतिया, मध्य प्रदेश, मो. 9826546665

समीक्षा

कथाकार मंटों के अंतद्र्वन्द्व

‘हम उन मोरियों और बंद रोंओं का ज़िक्र क्यों नहीं करते जो हमारे बदन का मैल पीती हैं। -मंटो 
कामू ने अपनी अमर कृति ‘द रिबेल‘ में लिखा है कि ‘सम्वेदनशील कथाकार ईश्वर की विफल सृष्टि से असंतुष्ट होकर उसे अपने नियंत्रण में लाकर आदर्श सम्भावनाओं के क्षेत्र में लागू करना चाहता है।‘ कथाकार मंटों एक ऐसे ही विचारक थे, जो इंसानियत के दमन से दुखी थे। आदमी अपने काइयांपन से खुद की सारी गंदगी नालियों-नाबदानों मोरियों की ओर बहा देता है। मंटों ने जिन नालियों का प्रतीक दिया है वे समाज के दबे-कुचले, अभावग्रस्त इंसान हैं, जो आभिजात्य वर्ग की मज़हबी, सियासी, समाजी, बदग़्ाुमानियों का खामियाज़ा भुगतने को विवश हैं, जबकि वे खुद इन चालाकियों से बहुत दूर रहते हैं। इन चालों में हमेशा पिसता है निर्दोष ही, आखिर क्यों?
        एक रचना में नहीं, मंटों की सारी रचनाओं में खो गयी इंसानियत को स्थापित करने की बेचैनी है। ऊपर लिखित मंटों का कथन साहित्यकारों के लिए एक संदेश है, कि साहित्य का लक्ष्य केवल उजला-उजला बखान या कल्पनाओं के रूमानी मायालोक के बिम्बों को उकेरना नहीं है। उसका लक्ष्य इंसानियत की स्थापना होना चाहिए। मंटों ने एक सटीक पर्यायवाची दृष्टि से अपने आसपास की विसंगतियों को देखा, जमाने भर का दुख उनका निजी दुख बन गया। 
        परिणामस्वरूप उनके लेखन में समाज का सच सामने आया, जिससे रूबरू होने पर हम इंसान कहे जाने के हक़दार नहीं रहते। मंटो खुद, निराला, मुक्तिबोध, उग्र आदि कवि-लेखकों की एक ऐसी ही श्रृंखला है, जिसने तथाकथित सभ्य, सुसंस्कृत आदमी को नंगा ही किया है। सियासी, मज़हबी एवं समाजी बिंदुओं पर मंटो की एक-एक रचना के आलोक में उनकी बेचैनी को रेखांकित किया जा सकता है।
        मंटो की कहानी ‘टोबा टेकसिंह‘ सियासती, बदग़्ाुमानियों की गम्भीर शिनाख्त करती है। तवारीख देखें, भारत की धरती ने सभी धर्मों को अपने आगोश में जगह दी। इस्लाम एवं हिन्दू धर्म के अनुयायियों में प्यार था, परंतु सियासत ने एक रेखा खींचकर अखण्ड स्नेह को टुकड़े-टुकड़े कर दिया। टोबा टेकसिंह नामक गांव का रहने वाला बिशन सिंह देश के बंटवारे के हादसे में पागल हो गया। उसका गांव पाक सीमा में था। वह उसे हिन्दू होने के नाते छोड़कर भारतीय सीमा में आना चाहता था। नागरिकों की अदला-बदली के बाद जब पागलों की अदला-बदली की जाने लगी, तो वह पाक सीमा से भारतीय सीमा में नहीं आया। उसका गांव पाक सीमा में है, यह सुनकर वह बिफर पड़ता-‘ओ पड़ दी गिड़गिड़ दी एक्स दी वेध्याना दी मुंग दी दाल आॅफ दी पाकिस्तान एण्ड हिंदुस्तान आॅफ दी दुर भिटे मुँह‘ अपनी धरती, वहां के सभी धर्मों के रहवासियों के बीच में यह सियासी विभाजन उसे स्वीकार न था। लोग उसे पागल कहते पर यह इंसानी सच था। उससे मिलने के लिए जब पाक सीमा में रहने वाला फजलुद्दीन आया, क्योंकि उसका मित्र बिशन सिंह उससे अलग हो रहा था, कहने लगा-‘अब तुम हिन्दुस्तान जा रहे हो, भाई बलवीर सिंह और बधवा सिंह से मेरा सलाम कहना और बहिन अमृत कौर से भी। मेरे लायक जो सेवा हो कहना. हर समय तैयार हूँ।‘ इन दोनों कथनों को सुनकर कौन कहता है कि मुस्लिमों और हिन्दुओं में द्वेष है? मंटो ने इस कहानी से यह स्थापना की है कि भारत-पाक का बंटवारा, सियासती चाल है, खेल है सियासत के लोगों का। वस्तुतः इन दोनों में न कभी द्वेष मज़हब को लेकर था और सामान्य जन में आज भी नहीं है। दोनों देशों के हुक़्मरानों को अब भी चेत जाना चाहिए, आज भी यह कहानी प्रासंगिक है।
        इस्लाम धर्म में उसके कट्टर पोंगापंथी अनुयायियों ने जो छद्म फैला रखा है और पवित्रता, इंसानियत जिस तरह इंसान से दूर होती गयी, इस ओर मंटो का ध्यान गया। उनकी कहानी ‘शाहदोले का चूहा‘ इसी थीम पर केन्द्रित है। कथा के अनुसार गुजरात में शहदोले सा. की मजार पर बांझ स्त्रियों को कुन्दस करने पर संतान प्राप्त होती है। यह प्रवाद मजार के कार्यकर्ताओं ने फैलाया कि जब पहली संतान होगी, माता-पिता को शहदोले सा. की सेवा में दान करनी होगी। कहानी की नायिका सलीमा मजार पर जाती है। उसकी कई संतानें होती हैं। नियमानुसार पहली संतान लड़का उसे बड़े बेमन से दान करना पड़ा। मां का प्यार बहुत तरसा, परंतु भूलना पड़ा उस पुत्र को। कुछ वर्ष बाद उसे खेल-तमाशा दिखाकर भीख मांगने वाले के साथ उसे अपना दान किया हुआ पुत्र दिखा, जिसे उसने तिल देखकर पहचान लिया। पुत्र मोह उमड़ा। उसने पैसे देकर उन लोगों से वह बालक 100 रूपये में खरीदना चाहा, तो खेल कराने वाला नर पिशाच उसे उत्तर देता है-‘इतनी कम कीमत पर मै अपनी रोजी का साधन नहीं बेच सकता।‘ मां बालक को लेकर अंदर गयी। उसे छोड़ पांच सौ रूपये देने को उस आदमी के पास आयी। परंतु तब तक बालक अपनी मां को न पहिचानता हुआ पिछले दरवाजे से भाग चुका था। कहानी धर्म की ओट में होने वाले घृणित क्रियाकलापों का पर्दाफाश करती है। यह मंटो का ही साहस था जो उसने खुद मुसलमान होकर इस धर्म में व्याप्त विडम्बनाओं को उजागर किया कि किस तरह छोटे बच्चों का उपयोग उन्हें प्रताड़ित कर बौद्धिक रूप से कुंद करके भीख मांगने को विवश किया जाता है। उनसे रोजी-रोटी कमायी जाती है। मंटो का ध्यान समाज की उस सड़न की ओर भी बड़ी शिद्दत से गया, जहां औरत अस्मिता को खोकर मात्र रोटी-कपड़े की निहायत आवश्यक, जरूरत के चलते वेश्यावृत्ति की ओर जाने को विवश है। सदियों से समाज इस रोग से पीड़ित है, परंतु विकसित और सभ्य होने का लबादा ओढ़कर हम उनकी ओर देखना भी नहीं चाहते। ‘काली सलवार‘ कहानी की वेश्या सुल्ताना ग्राहक न आने से खाने-पीने की तंगी भोग रही है। खुदाबख्श उसका साथी जब उसकी नहीं सुनता तब एक ग्राहक शंकर उससे पूछता है कि ‘तुम यहां क्या करती हो?‘ तब उसका उत्तर-‘यहां मैं झक मारती हूँ‘, सारी इंसानियत को शर्मसार करता नज़र आता है। सुल्ताना और मुख्तार दोनों ही वेश्याएं शंकर द्वारा दिये गये मुगालते से ‘काली सलवार‘ और ‘बुंदे के प्रसंग‘ से हतप्रभ हैं। दोनों समाज को मुंह चिढ़ाती है और मंटो यहां समाज के सच को नंगा कर देता है कि किस प्रकार सम्वेदनशील व्यक्ति शंकर कितने टूटते-डूबते लोगों का सहारा बनता है।
        हिन्दू-पाक बंटवारे को मंटो ने अपने वैचारिक स्तर पर कभी स्वीकार नहीं किया। बंटवारे की उथल-पुथल में सकीना जैसी असहाय खोयी हुई लड़कियों के साथ रजाकार दरिंदों ने क्या नहीं किया। कहानी ‘खोल दो‘ इस मुद्दे पर बहुत कारूणिक है। ऐसी कहानियों को लेकर अभी तक मंटो पर अश्लीलता का आरोप लगाया जा रहा है, लगे, पर यह आदमी की कमीनगी को मूर्त रूप देने में सफल है। मंटो यथार्थ की धरती पर खड़ा होकर जिस मानवतावाद का पक्षधर था, इसकी ओर उन्हें कथाकार होने के कारण भारत में और भारतीय मुसलमान होने के कारण पाकिस्तान में कभी अच्छे भाव से नहीं देखा गया। कृष्ण चन्दर और डॉ. अनवर अहमद जैसे लोग भी मंटो की लेखकीय चेतना का समुचित मूल्यांकन नहीं कर सके। मंटो ने लगभग 240 कहानियां लिखीं। उनमें से उठाकर देखा जाए तो अधिसंख्य कहानियां आज भी किसी न किसी चेतना बिन्दु पर प्रासंगिक है। ये कहानियां आज के व्यक्ति को चुनौती देती हैं। बशर्ते वह उनका तार-तार देखें। इस कहानीकार के ऊपर वक्त ने इतने कहर ढाये हैं कि अमृतसर में उपेक्षा और बेरोजगारी के कारण उसे बम्बई-आज की मुंबई-की ओर रूख करना पड़ा। यहां आकर वह उर्दू अखबार ‘मुसव्वरे‘ का संपादक बन गया। उसे कहां चैन पड़ता था। उसने इस अखबार में ‘नित नयी‘ और ‘बाल की खाल‘ दो स्तम्भों में बड़ी हस्तियों को उधेड़ना शुरू किया। परिणामतः उसके शत्रु बढ़ गये। जीना ही कठिन हो गया, परंतु सामान्यजन उसकी बेबाकी से मित्र बने। अन्ततः वह बिना किसी को बताये पाकिस्तान चला गया। वहां की साहित्यिक पत्रिकाओं में हिन्दुस्तानी मुसलमान होने के कारण हिकारत ही मिली। एक-एक बोतल शराब के लिए उसे एक कहानी लिखनी पड़ी। और फिर कहा जाता है कि वह वहां पागलों जैसा घूमता रहता था।
        यथार्थवादी कथाकार चिंतक अपनी एक आदर्श दुनिया अलग देखना चाहता है और उसे ही वह मानवीय दुनिया की अराजकता पर स्थापित करना चाहता है। किन्तु जब वह वैचारिक दुनिया से बहुत दूर उन विसंगतियों को अतिक्रमित नहीं कर पाता तो वह उसे खुद पर चुनौती समझने लगता है। उसे स्वीकार करते हुए अंतराभिमुख होते हुए इस स्थिति में पहुंच जाता है कि खुद को ही गलाने लगता है। ठीक इसी मनोदशा से मंटो, हां, सहादत हसन मंटो को गुजरना पड़ा। उसने अपनी एक आदर्शवादी यथार्थोत्तर दुनिया के लिए नाम के अनुरूप सहादत स्वीकार की।
        जन्मशती के अवसर पर भारतीय साहित्यिक हल्कों को मंटो की याद आयी, जिसे हमने जीते जी न पूछा। आज उसकी याद में जलसे हो रहे हैं। उसके रहते हमेशा उसे बदनाम साहित्यिकार माना जाकर हर बिन्दु पर उपेक्षा की गयी। देश का बंटवारा उसकी चेतना ने कभी स्वीकार नहीं किया। उसकी कहानियां जिन्हें अश्लील कहा जाता है, हमारी सामाजिक सच्चाई है और हमारी जड होती हई संवेदना का हाहाकार। प्रसिद्ध आलोचक नीलाभ ने एक जगह लिखा है कि ‘व्यक्ति का हिमायती मंटो ताकत के साथ तकलीफ के सही मुकाम पर उंगली रखता था। मंटो ने जो भी लिखा, तकलीफ के समंदर में गोता लगाकर लिखा।‘
ऐसे महान कथाकार के प्रति सही श्रद्धांजलि यही होगी कि हम जाति-धर्म को भुलाकर इंसान को इंसान की तरह देखें। उसके साथ व्यवहार करें। मंटो भले ही नौ मन खाक तले सो रहा हो, परंतु उसका कथन कि ‘जहां फितरत के खिलाफ उसूल बनाकर इंसानों को एक लकीर पर चलाया जाए, मेरी नजर में कोई वकअत नहीं रखते।‘ हमें अपनी मानसिक जड़ता को तोड़ने का संदेश दे रहा है। 

स्मृतिशेष डाॅ. नरेन्द्र मोहन द्वारा संपादित मंटो साहित्य




श्री मुकेश कुमार सिन्हा, कोयली पोखर, गया, मो. 9304632536

समीक्षा

पुुरुषवादी समाज को आईना दिखाती लेखनी

‘पारो-उत्तरकथा’ में स्त्री की सचबयानी

कृतिः पारो-उत्तरकथा (उपन्यास)

कृतिकार: सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक: सभ्या प्रकाशन

वसंतकुंज, नयी दिल्ली-110070

पृष्ठः 336 मूल्यः 450/-

कोई यह कह ले कि कोठियों की महिलाएँ सुखी होती हैं, उन्हें कोई दुःख नहीं होता, किसी चीज की कभी कोई कमी नहीं होती, तो यह मिथ्या है! यथार्थ है कि वो भी सिसकती हैं, बिलखती हैं। आँसुओं को छिपाती हैं। कुछ कहने से झिझकती हैं। या यूँ कहें कि उन्हें डराती हैं दीवारों की रीति-रिवाजें!

सुदर्शन प्रियदर्शिनी रचित उपन्यास ‘पारो-उत्तरकथा’ में कोठियों में रहने वाली महिलाओं की स्थिति का जीवंत वर्णन है! नारी समस्याओं को प्रमुखता से उठाया गया है। आखिर पुरुषवादी समाज में नारियों के साथ भेदभाव क्यों है? क्यों नारी को ही हर दोष के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है? आखिर क्यों नारी को बचपन से ही नारीत्व की घुट्टी पिलाकर उसे एक स्थिति विशेष में गढ़ दिया जाता है कि वह दासी है, पति का घर उसका अंतिम पड़ाव है? उसको लाँघना नरक में जाने के बराबर है। आखिर नारी का दर्जा दोयम क्यों? पुरुष सत्ता के आतंक से वो कब तक बच पायेगी और सुरक्षित रह पायेगी उनकी आबरू?

‘पारो-उत्तरकथा’ की मुख्य नायिका है पारो या पार्वती। राय साहेब वीरेन की पहली पत्नी राधा की मौत के बाद पार्वती दूसरी पत्नी बनकर बंगले में आयी थी। पारो गरीब थी और वह बालमित्र देव को चाहती थी। हालाँकि दोनों के बीच दैहिक संबंध नहीं था। पारो और देव की पढ़ाई साथ-साथ हुई और दोनों के बीच साथ-साथ खेलते हुए प्यार के बीज पनपे। देव का भी संबंध उच्च घराने से था। उसकी ही कोठी के बगल में पारो का घर था, लेकिन दोनों के बीच की दीवारें रिश्तों को मजबूती नहीं दे पायी।

बचपन का प्यार पूर्णतः को पा नहीं पाया। पारो को अफसोस रहा। कहती-जब वो दोनों बचपन में साथ-साथ खेलते हुए बड़े हुए तब तो कभी यह प्रश्न नहीं उठे कि कौन बड़ा है और कौन छोटा। दोनों के एक हो जाने के प्रश्न से ही ये पैसे की, जाति की, ऊँच-नीच की दीवारें क्यों उठ खड़ी हुईं? वाजिब सवाल है, आखिर प्यार पर पहरा क्यों? क्यों यह संसार प्यार का दुश्मन है?

बचपन का प्यार कहाँ कोई भूल पाता है? पारो भी नहीं भूल पायी थी पहले प्यार को, वीरेन से शादी के बाद भी। पारों की जिंदगी में उठते-बैठते, सोते-जागते कोई था, तो वो था देव। पारो अपनी शादी से खुश नहीं थी, क्योंकि उसके लिए यह समझौता था, बस समझौता। कद में, काठी में, दिखने में, रंग में, ढंग में, प्रकृति में, व्यवहार में देव साधारण था, लेकिन पारो के लिए अनूठा! कहती-मेरे लिए देवदास कोई व्यक्ति नहीं, एक भावना है। आभास है, अस्तित्व नहीं। मेरे शरीर के रोम-रोम को छूकर देखो तो पारो नहीं देवदास का स्पर्श मिलेगा। मेरे रोम-रोम में इन ध्वनियों की आहट है, जो पारो-पारो कह मुझे हर रोज जगाती है, मेरी साँसों को महकाती है।

देव और पारो का प्यार आज की तरह नहीं है। दोनों के बीच कभी दैहिक संबंध नहीं रहा। आजकल का प्यार तो ‘फास्ट फूड‘ की तरह है! न अपनत्व है और न समर्पण! बस देह भर का रिश्ता है प्यार। प्यार में देह का कोई स्थान नहीं है। यह सीख दे जाती है लेखनी नयी पीढ़ी को।

देव आत्मा रूप में आकर पारो को समझाता है और परिवार को स्वीकार करने का अनुनय-विनय करता है। कहता है-तुम्हारे कारण मुक्ति नहीं मिली पारो। तुम जिस दिन मुझे त्राण दोगी, मैं शाश्वत हो जाऊँगा। मेरा आवागमन का चक्कर समाप्त हो जाएगा। तुम्हें अपने जीवन में आत्मसात होते देखना चाहता हूँ। राय साहेब को स्वीकार करते देखना चाहता हूँ...। मगर, पारो का प्रण था, प्रेम था, साधना थी, स्वार्थ था कि वह देव के पार कुछ देख ही नहीं पाती। यही सच्चा प्रेम है! पत्नी प्रेम में तो दशरथ माँझी ने पहाड़ के सीना को नेस्तनाबूद कर दिया था। मुमताज की याद में शाहजहाँ ने ताजमहल की नींव रखी।

पारो की तरह वीरेन भी राधा को भूल नहीं पाया था। मसलन, दोनों के बीच देवदास था, तो राधा थी। वीरेन राधा को दिल से चाहता था, इसलिए वह पार्वती के प्रति असंवेदनशील हो गया था। राधा यूँ ही वीरेन की पत्नी नहीं बनी। वो वीरेन से दस साल बड़ी थी। प्रोफेसर थी, लेकिन वीरेन की जिद ने उसे शादी करने को मजबूर कर दिया। वीरेन पूर्णतः राधामय हो गया था, पर राधा वीरेन की नहीं हुई थी। हकीकत है कि तन के साथ मन का मिलना जरूरी है। यह पुरुषवादी सोच का जीता-जागता उदाहरण नहीं तो क्या है? प्यार में कोई आड़े नहीं आये, इसलिए फूल-सी बिटिया कंचन को ननिहाल भेज दिया गया। कहाँ कोई जान पाया था राधा की पीड़ा, उसे ममत्व सुख से वंचित कर दिया गया? कंचन भी कहाँ कह पायी थी माँ को माँ...! माँ-पिता के रहते उसे नानीघर में रहना पड़ा। बाद में, जिससे शादी हुई, वो भी लंपट निकला। कंचन घुटती थी, क्योंकि उसका पति कोठे पर जाता, देर-सबेर लौटता। दारू पीता, दोस्तों को भी घर बुलाकर पिलाता।

लेखिका लिखती हैं-पति चाहे हर रात को वेश्या के कोठे से ही क्यों न लौटे, फिर भी उसे हाथ-मुँह धुलाकर पीढ़े पर बिठाकर गर्म-गर्म खाना परोसती है। सेवा सुश्रुषा करना और फिर रात का कर्ज उतारना उसकी दिनचर्या को पूरी करता है। सच में, नारी की विवशता है इस समाज में। वह अपने मुँह से कुछ नहीें कहती या कह सकती। माता-पिता की आज्ञा के समक्ष उसकी घिग्घी बँध जाती है। पति के समक्ष उसकी आँख नहीं उठती और इसी में उसके जीवन के वर्ष युगों की छलांगे भरते निकल जाते हैं।

वैधव्य की पीड़ा को भी लेखिका ने कलमबद्ध की। यह समाज है, जहाँ बड़े भाई की मौत के बाद उसके छोटे भाई से वैधव्य की शादी कराने की परंपरा-सी बन गयी है। कंचन के पति की मौत के बाद उसके ससुरालवाले भी यही चाहते थे। कहाँ कोई कंचन से पूछा कि वह क्या चाहती है? पुरुषवादी निर्णय क्यों?

सोचने को विवश करती है लेखनी। आखिर क्यों समाज में विधवा का मुख दिख जाना, उसका कहीं रास्ते में मिल जाना या किसी से उसका बात कर लेना-सब वर्जनायें हैं। किसी शुभ कार्य के समय विधवा को कमरे में बंद कर दिया जाता है। शगुन के समय तो उसका पूर्ण बहिष्कार ही कर दिया जाता है। ऐसा क्यों? क्या विधवा को जीने का अधिकार नहीं है? क्यों विधवा के हँसने पर पाबंदी है? समाज को सोचना होगा।

औरत पालनहारी होती हैं, दुलार करने वाली होती हैं, लेकिन किस्मत देखिए, झूला झुलाते-झुलाते एक दिन स्वयं औरत शून्य में झूल जाती हैं, किंतु तब भी उसके त्याग को कोई नहीं आँकता। कंचन सच सोचा करती कि संसार में अगर कोमलता बची है, तो नारी के कारण। अगर नारी न हो, तो अब तक संसार रसाताल में विलीन हो गया होता। कोमल स्पर्श से नारी रिश्तों को बचाती है। नारी से घर महकता है, मुहल्ला सुवासित होता है।

उपन्यासकार की यह पंक्ति सोचने को मजबूर करती है कि स्त्री शरीर एक प्रयोग की वस्तु है। झुनझुने की तरह बजाओ-हँसों, खेलों और मसलो...। आखिर क्यों दुनिया में पुरुष के सौ गुनाह माफ हैं और स्त्री के लिए एक गुनाह भी नरक।

उपन्यास की मुख्य पात्रा पारो की जिंदगी भी कहाँ खुशियों से भरी थी। पारो का परिवार गरीब था। गरीब होने से क्या स्त्री की मर्यादा कम हो जाती है। नहीं न, फिर वीरेन की यह सोच कैसे बनी कि पार्वती की माँ की सोच छोटी होगी, इसलिए पार्वती को जैसे-तैसे अपने हाथ में रखा जा सकता है। उसे जैसे चाहे घुमाया जा सकता है। क्या यह पुरुषवादी सोच की पराकाष्ठा नहीं है?

पारो वैसी नहीं थी। पार्वती में चरित्र की गरिमा थी, धैर्य था और साथ में स्थिति को समझने और उससे लड़ने का साहस भी। उसे मामूली घराने की लड़की कहकर नकारा नहीं जा सकता। पारो की शक्ति का अंदाजा लगाइए, पत्नीत्व का पद न देने की घोषणा पर भी वह चुप और गंभीर रही। उसने न कुछ कहा, न हंगामा किया, न ही परिवार की गरिमा पर आँच आने दी। उल्टे अपने कर्तव्य बड़े धैर्य और प्यार से निभाती रही। ऐसी ही होती है स्त्री! पारो ने न केवल कंचन की जिंदगी को रंगीनी प्रदान की, बल्कि उदास महेन को खिलखिलाने का अवसर भी दिया। ननद शोभना के अंदर के मैल को दूर किया। राय साहेब की हर परेशानी को दूर करने वाली साबित हुई-पारो।

उपन्यासकार ने सरल शब्दों में उपन्यास की रचना की है। यह उपन्यास सोचने को बाध्य करता है कि आखिर स्त्री को ही अग्निपरीक्षा से क्यों गुजरना पड़ता है? क्यों ताउम्र पुरुषवादी सोच की जकड़न से स्त्री मुक्त नहीं हो पाती? महिलाओं के भी अरमान हैं, वो भी चाहती हैं स्वच्छंद भाव से उड़ना, पंख फैलाना। आज यदि यह धरती है, तो स्त्री की वजह से, अन्यथा यह सृष्टि गुम हो जाती! स्त्री के मन की पीड़ा को अभिव्यक्त करता यह उपन्यास पुरुषवादी सोच को आईना दिखाने के लिए काफी है।

‘पारो-उत्तरकथा‘ यथार्थवादी उपन्यास है। कथा में काल्पनिकता नहीं है, बल्कि यथार्थ है। आप जब उपन्यास से रू-ब-रू होंगे, तो महसूस होगा कि उपन्यास के मुख्य पात्र और गौण पात्र हमारे आस-पास ही हैं। उपन्यास में प्रवाहमयता है, कौतूहलता है। शब्दों का प्रयोग खूबसूरती के साथ किया गया है, जो अंत तक पाठकों को बाँधे रखने में सक्षम है।

उपन्यासकार सुदर्शन प्रियदर्शिनी चार दशक से अमेरिका में हैं। अमेरिका में रहकर भारतीय स्त्री की पीड़ा को जान-समझकर अपनी लेखनी से आवाज दी। यह आवाज पुरुषवादी समाज के कानों तक पहुँचे, यही कामना है।



डाॅ. मनोहर अभय, नवी मुम्बई, मो. 9167148096

व्यक्तित्व

‘‘मारीशस के गूंगे इतिहास की आवाज़’’ कमल किशोर गोयनका

वैश्विक क्षितिज पर ज्वाजल्यमान नक्षत्र की तरह दीप्त अभिमन्यु अनत मारीशस के उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। उन्हें मारीशस का प्रेमचंद भी कहा जाता है। दोनों महान लेखकों की संवेदना शोषित वर्ग से जुडी है। दोनों सामंती व्यवस्था के घोर विरोधी। लेकिन, जहाँ मुंशी प्रेमचंद प्रगतिशील कथा-उपन्यासकार हैं, अनत ठेठ प्रगतिकामी साम्यवादी दल के ‘‘कार्ड होल्डर‘‘। मुंशी प्रेमचंद ने प्रगतिशील लेखक सम्मेलनों में भाग अवश्य लिया किन्तु दलीय राजनीति से तटस्थ रहे। एक बात और। मुंशी प्रेमचंद का लेखन कथा-उपन्यासों और तत्सबंधी आलेखों तक सीमित रहा। लेकिन अभिमन्यु अनत को जितना सम्मान मारीशस में मिला, उससे कहीं अधिक भारत में। साहित्य अकादमी ने उन्हें ‘‘महत्तर सदस्य्ता‘‘ के सर्वोच्च सम्मान से अलंकृत किया तो उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान ने उन्हें ‘‘साहित्य भूषण‘‘ की मानद उपाधि से विभूषित किया। वर्ष 2020 में आयोजित 11 वें विश्व हिंदी सम्मलेन के अवसर पर भारत सरकार के केंद्रीय हिंदी निदेशालय ने अपनी ‘भाषा’नामक पत्रिका का विशिष्टांक प्रकाशित किया। इसके लोकार्पण से पूर्व अनत की कविता ‘‘गुलमोहर खौल उठा‘‘ की कुछ पंक्तियों का वाचन करते हुए, उन्हें श्रद्धा-सुमन अर्पित किए गए। अनत के अन्तरपट में एक हठी, गर्वीला,आक्रोशी किन्तु भावप्रवण कवि रहता था। उन्होंने जितनी धारदार कहानियाँ या उपन्यास लिखे,उससे भी अधिक तेज-तर्रार कविताएँ। शब्द क्या अँगारे थे। अँगारे जिन पर राख की परतें नहीं, विद्रोह की चिंगारियाँ लिपटी थीं। शोषण, दमन और अत्याचार के जंगलों को फूँक देने वाली चिंगारियाँ। अंतःकरण के ज्वालामुखी से फूटी चिंगारियाँ। उनकी कविता को विद्रोही या एक वागी का हलफनामा कहा जा सकता है। वे न केवल अमानुषी सत्ता के विरोधी थे, बल्कि सामाजिक विद्रूपताओं, विगलित परम्पराओं, रीति-रिवाजों के भी। उनका विद्रोही स्वर उन परिस्थितयों को परत-दर-परत उधेड़ कर रख देता है जिनकी वजह से तत्कालीन साम्राज्यवादी ब्रिटिश सत्ता ने लाखों भारत वासियों को जर-जमीन और जन्मस्थली छोड़ कर बाँसों के जंगलों में भटकना पड़ा। पीड़ा घर छोड़ने की ही नहीं, उन बहशी और अमानुषी अत्याचारों की है जो इन अप्रवासी भारतियों को झेलनी पड़ी। देखिए उनकी प्रसिद्ध कविता ‘अधगले पंजरों पर‘ धरती के फटने पर/जब दफनाई हुई सारी चीजें ऊपर आएँगी/जब इतिहास के ऊपर से/मिट्टी की परतें धुल जाएँगी/मारीशस के लिखा नहीं जाता, लिखवाया जाता है। ऊँची गद्दी पर बैठा वाचक बोलता जाता है और लेखक अपना जमीर बेच कर जस का तस लिखता जाता है। किस की हिम्मत जो अत्याचारी वाचक के अत्याचारों पर कलम चलाए। यह तो कवि है जो समय की वास्तविकता को उकेरता है।


अभिमन्यु अनत

अनत ने शब्द दिए इस ‘‘गूँगे इतिहास‘‘ को ध्यतव्य हैं ये पंक्तियाँः ‘‘फिर याद आ गया अचानक/वह अनलिखा इतिहास मुझे/इतिहास की राख में छुपी/गन्ने के खेतों की वे आहें/याद आ गयीं/जिन्हें सुना बार-बार द्वीप का/प्रहरी मुड़िया पहाड़ दहल कर काँपा/बार-बार डरता था/वह भीगे कोड़ों की बौछारों से/इसलिए मौन साधे रहा/आज जहाँ खामोशी चीत्कारती है/हरियालियों के बीच की तपती दोपहरी में/आज अचानक फिर याद आ गये/मजदूरों के माथे के माटी के वे टीके/नंगी छाती पर चमकती बूँदें/और धधकते सूरज के ताप से/गुलमोहर की पंखुड़ियाँ ही जैसे/ उनके कोमल सपने भी हुए थे राख/आज अचानक/हिन्द महासागर की लहरों से तैर कर आयी / गंगा की स्वर-लहरी को सुन/.......अन्धे इतिहास ने न तो उसे देखा था/न तो गूँगे इतिहास ने कभी सुनाई उसकी पूरी कहानी हमें/न ही बहरे इतिहास ने सुना था/उसके चीत्कारों को /जिसकी इस माटी पर बही थी/पहली बूँद पसीने की/जिसने चट्टानों के बीच हरियाली उगायी थी/नंगी पीठों पर सह कर बाँसों की बौछार/ बहा-बहाकर लाल पसीना’’।

उक्त कविता में प्रयुक्त बिम्ब लोमहर्षक अत्याचारों की जीवंत तस्वीर खींच कर रख देते हैं। अनत के मन में सदा करवट लेती रहीं अप्रवासी भारतीयों की मर्मान्तक वेदना जो उनकी अनेक कविताओं में समायी है। वेदना, जो पहले अप्रवासी ‘गिरमिटियों‘ से लेकर अगली पीढ़ियों ने झेली। ‘गिरमिटिया‘ अपमान जनक शब्द नहीं है। लेकिन जिस तरह अनत ने इसका प्रयोग किया है उसमें तिरस्कार ध्वनित होता है।

गुलमोहर और उसके फूलों में नैसर्गिक सौंदर्य के साथ रूमानियत की हल्की सी छुअन है। बच्चन का रूमानी गीत है: ‘‘सुधि में संचित वह साँझ कि जब/रतनार प्यारी साड़ी में/तुम प्राण मिलीं/नत लाज भरी/खुल कर फूले/गुलमोहर तले‘‘। किंतु अभिमन्यु अनत को लगता है कि गुलमोहर खौल उठा (है)। द्रष्टव्य है इसी नाम के संकलन की प्रसिद्ध कविता ‘‘छुईमुई से लजीले उन फूलों को/जब तुम आँखें झुकाए तोड़ रही थीं/तो आँखें मेरी टिकी हुई थीं ऊपर को/जहाँ मेरी धमनियों के खून-सी / अकुलाहट लिये उफन आए थे/ मेरे खून से भी लाल गुलमोहर के फूल। तुम जितनी शांत बैठी रहीं/पूजा पर/मैं अपने में उतनी ही खलबली लिये रहा/तुम्हारे सामने थाली में/तुम्हारे ही बटोरे हुए/कई रंगों के फूल थे/मेरी छाती पर कौंध रहे थे/उष्णता, अकुलाहट/और विद्रोह के गुलमोहर। तुम आज भी सोचती हो/भगवान को रिझा लोगी/और मैं फाँसी की सजा से बच जाऊँगा/तुम कभी नहीं समझोगी मेरी बात/अपने इन हाथों को मैंने /बकरे की बलि से लाल नहीं किया है/ये तो रंगे थे उस भेड़िये के खून से/जिसे मैंने और तुमने/ भेड़ समझकर/दिखा दिया था बस्ती का रास्ता। मेरे अपने भीतर/आज फिर खौल उठा है गुलमोहर/और मैं अपने हाथों को एक बार फिर /लाल करना चाह रहा हूँ/उस मूर्तिकार और उस कवि के खून से/जो शाही खजाने से/बना रहे हैं/उस भेड़िये की मूर्ति और लिख रहे हैं उस पर एक दूसरा पृथ्वी रासो’’।

यहाँ फूलों की मृदुलता की बात यकायक अत्याचार- जनित बौखलाहट बन जाती है। दूसरी ओर प्रहार करती है व्यवस्था पर जो सत्कार करती है अपराधियों का। देती है दण्ड, सत्य को उजागर करने वालों को। एक बात यह भी कि मन्नत-मनौतियों तथा आस्थावादी सोच बचा नहीं सकती सत्ता के शिकार निर्दोषियों को।कवि मारीशस में है, और ‘पृथ्वी रासो‘ भारत की ऐतिहासिक घटना को मिथक रूप में प्रयुक्त करता है।

ब्रिटिश सत्ता से मुक्त तो हो गया मारीशस। लेकिन, स्वाधीनता के कवच के बाद भी कवि के लिए-’’हम निस्सहाय हैं-/बरगद के पेड़ की तरह/जमीन को दूर तक/अपने शिकंजों में लिये हुए/तूफानों के इस देश में/बरगद का विस्तृत और संपन्न वृक्ष/धराशायी हो जाता है/अन्यवृक्षों से पहले ही/सभी सुविधाओं के बावजूद कि/लिजलिजेपन की हमारी स्थिति/हमें निहत्थेपन को ढकेले जा रही/और हम /अपने रंग-बिरंगे कपड़ों के भीतर भी/नंगे हैं। और/ अपनी विस्तृत फैली जड़ों के बावजूद/हम उखड़ते चले जाते रहे हैं /हमारे ऊपर से गुजर रहा है/दीमकों का लंबा जलूस’’ (देखें कविता ‘’दीमकों का जलूस)।’’ कवि के लिए जिस स्वतंत्रता की चाहत थी, वह नहीं मिली। जिस सुबह की आशा थी उसका उदय हुआ ही नहीं। याद आ गए फैज अहमद फैजः ‘‘ये वो सहर तो नहीं कि जिसकी आरजू लेकर/चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं न कहीं/चले चलो कि वो मंजिल अभी नहीं आई‘‘। असली मंजिल तो समता-समरसता की है। हाँ, रस्मी तौर पर स्वतन्त्रता की सालगिरह तो मनाई जा सकती है। ध्वजारोहण होगा। राज नेता करे, या कोई और। जब कोई राष्ट्रीय संकट नहीं तब-‘‘क्या हुई राष्ट्रीयता की परिभाषा/झुक गये, जमीन पर लुढ़क गये झंडे को/कोई निर्भिक और फौलादी हाथ बढ़ कर आगे/उसे ऊपर उठा सके फिर से/हवाओं से बातें करवा सके उसे/पर तब तो खेल-कुद प्रतियोगिता और / स्वतन्त्रता की सालगिरह वाले हाथ/झंडे की रस्सी के बदले थामे होते हैं/एक हाथ में जाम और दूसरे हाथ में ब्लाउज के फीते‘‘।   

हिन्द महासागर का मोती कहे जाने वाले मारीशस की नैसर्गिक सुषमा अनन्त है। सैलानियों के लिए यह इंद्रधनुष का देश। लेकिन, इस इंद्रधनुषी देश को किस तरह रौंद कर लौटते ये भारी पॉकिट वाले सैलानी। अजीब सी जुगुप्सा उभार देता इनका आचरण, इनकी दौलत का नशा। द्रष्टव्य है कविता‘ ‘’इंद्रधनुष का देश‘‘: नीले समुद्र का दूधिया किनारा/अमरीकी सैलानी के साथ साँवली वेश्या/मुँह बाए जापानी कैमरा/जींस की जेब में अकुला रहे/हरे-भरे डालर /आगे फैला पीला हाथ भिखारी का/खाली का खाली/ चमचमाती सफेद रेत पर पसरे/गेहुँए उरोज/गुलाबी जाँघें /टहल रहे मनचलों की पिपासित आँखें/मछुओं के बच्चों की काली मुसकानें/वाटर-स्की से चिरी छाती लहरों की/ उन्हें कराहते छोड़ झागों में/नारंगी क्षितिज से/भाग गया सूरज’’।

देखा क्या करते हैं, इस इंद्रधनुष के देश में आकर वासना के अंधे रईसजादे। इन्हें रमणीक झीलें नहीं, नीले समुद्र का दूधिया तट नहीं, कुछ ऐसा चाहिए जिसे देख कर लज्जित होकर भगवान भास्कर मुँह छुपा लें। ऐसी ही एक अन्य कविता है ‘‘समानता‘‘जिसमें खुशहाली के वायदे की बात पूरी गर्माहट के साथ कही गईः ‘‘माँ-स्वाजी के समंदर से/चार कदम आगे/देख आया मैं/चुनाव के दौरान/दिए गए वायदे पूरे होते/गरीब धनी के भेद को मिटते/गरीब तो नहीं मिला वहाँ/पर धनी सैलानियों को बालू पर पसरे/धूप में नंगे देख आया/अपने ही गाँव के/जमनी चाची के बच्चों जैसे/जमनी चाची के बच्चे अब नंगे नहीं रहते/सैलानियों की मेहबानी को /वे दिन-रात पहने होते हैं‘‘। कैसी है ये मेहबानी। बच्चोँ पर या अपनी अस्मिता बेचती ‘जमनी चाची के उपकारों पर‘।

कवि को लगता है आजादी के आलोक में नहाते इस देश में भरी दुपहरी रात घिर आई हैः ‘‘यहाँ दोपहर में रात हो गयी/गुलर का फुल खिल कर काफुर हो गया/गिद्ध के डैनों के नीचे/गोरैया की जिन्दगी कानून बन गयी/कैक्ट्स के दाँतों पर खून का दाग आ गया। पंखुड़ी से फिसल कर/ चाँदनी अटक गयी है काँटों की नोक पर/ओस की लाल बूँदों पर/काली रात तैरती रह गयी। उजाले के गल गये तन पर/काला कुत्ता जीभ लपलपाता रहा/गंधलाती रही सूरज की लाश/काली चादर के भीतर/अंधे दुल्हे ने काजल से भर दी मांग दुल्हन की / यहाँ दोपहर में रात हो गयी/सुहाग-रात बन्द रह गयी/सिदरौटै के भीतर‘‘। (देखें-दोपहर की रात) एक और कविता है ‘इश्तहारों के वायदे‘। जो ऐसी ही स्थिति को व्याख्यायित करती है: ‘‘उस सरगर्मी की याद दिलाते/कई परचे कई इश्तहार आज भी गलियों की दीवारों पर घाम-पानी सहते/चिपके है अपनी अस्तित्व-रक्षा के लिए /उन पर छपे लंबे-चैड़े वायदों पर/परतें काई की जमीं जा रही है। जिन्हें देखते-देखते / आँखें लाल हो जाती है। तुम्हारे पास पुलिस है/हथकड़ियाँ हैं/लोहे की सलाखें वाली चार दिवारी है/मुझे गिरफ्तार करके चढ़ा दो सूली पर/उसी माला को रस्सी बनाकर/जो कभी तुम्हें पहनायी थी/क्योंकि मैंने तुम्हारे ऊपर के विश्वास की/बड़ी बेरहमी से हत्या कर दी है/इस जुर्म की सजा मुझे दे दो। मैं इन इश्तहारों को/अब सह नहीं पा रहा हूँ’’। देश में जगह-जगह चमचमाते संगमरमरी अस्पताल हैं। लेकिन समय पर न डॉक्टर आते हैं, न परिचारिकाएँ। रोग की विभीषिका से पीड़ित बूढ़े-बेदम रोगी घंटों प्रतीक्षा करते है या खाली हाथ लौट जाते है। कुछ ऐसा ही शब्दांकित करती है अनत की कविता ‘वह अनजान आदमी‘‘। अनत किसी भी कीमत पर आदमी की अस्मिता से खेलना नहीं चाहते। उसकी गरिमा को समृद्ध करती है उनकी हर कविता। उनका आदमी असहाय भी नहीं। वह जीवन समर का अजेय सेनानी है। सब कुछ खो कर भी उत्फुल्ल है। उल्लसित है- ‘’जिस मजदूर के हाथ से/तुमने मोती छीन लिया था/पगडंडी से लौटते/उसने कच्चू के पत्ते से/ओस की बूँद को/मुट्ठी में बाँध लिया है/उल्लसित वह उतना ही है/जितना तुम हो। (कैक्टस के दाँत)। छीन कर ले जाने वाला तो ‘’उल्लसित‘‘ होगा ही। लेकिन, अनत का लुटा-पिटा आदमी छटपटाता नहीं है। इसलिए कि वह श्रमधर्मी है।उसने पसीना बहा कर अर्जित किया है मोती (मोती जैसी कीमती वस्तु)। वह सिद्धहस्त है ऐसी कीमती वस्तु अर्जित करने में जबकि लुटेरा अक्षम है। ऐसा नहीं कि अनत की दृष्टि मारीशस की व्यवस्था की कुरूपता पर ही टिकी हो। वह उसी विद्रोही अंदाज में वैश्विक क्षतिज को भी टटोलती है। आज अमन-चैन के नाम पर विश्व की महाशक्तियाँ के करतबों को बड़ी बेवाकी से व्यंजित करती है अनत की कविता ‘‘विश्व शांति‘‘-‘‘हर सीमा पर गोलियाँ चल रहीं/धमाके हो रहे जब शहर-शहर में/उपज रहीं परमाणु शक्तियाँ/बड़े देशों में/खून के प्यासे जब हो रहे हम मजहबी/तब महाशक्तियाँ हाथों में सूई-धागा लिये/ भाईचारे के फट चुके चीथड़ों को जोड़ने/शांति स्थापना के नाम, खालीपन में/हवा के टुकड़ों को सीने में लगी हुई हैं।‘‘

अपनी कविता ‘‘कुहासे में‘‘ अनत कहते हैं-‘‘कुहासे को गले में लपेटे/झूल रहा आदमी/सहम गई है हवा संकुचित अँधियारे में/सूरज को ओढ़ा आया है आदमी/एक काली चादर/सेंहुड़ पर रख आया है नवजात शिशु को/तान रहा आदमी/समय को प्रलय-रेखा के उस पार/आपाधापी में समय जा गिरा/कड़ाह के खौलते पानी में/रेत के पहाड़ पर ध्वजा गाड़ आया/दहाड़ते ज्वारभाटे के मुँह में/चिराग जला आया आदमी/दम तोड़ते परिंदे के डैनों को अपने में जोड़कर /ऊपर जा पहुँचा उड़कर आदमी/विस्फोट के बाद/ताकि देख सके वह नीचे के प्रज्वलित दृश्यों को/अपनी साँसों के कुहासे में! ”यह कविता आज के उस आदमी की तस्वीर है जो है तो दुर्दांत, किन्तु दिखता है शांति पुरुष (गले में शीतल कुहासा लपेटना) यही शांति पुरुष झूठा, निर्मम और निरंकुश है (सूर्य पर काला पर्दा अर्थात सत्य को दबाना, नवजात शिशु को सेंहुड़ (कांटेदार झाड़ी की बाड़ पर रखना है  अर्थात  नई पीढ़ी के लिए काँटे बोना, ज्वार-भाटों पर दीप जलाना, शान्ति का नाटक; आपाधापी में समय का खौलते पानी में गिरना, विध्वंस की तैयारी जबकि दम तोड़ते परिंदे के डैनों में अपने को जोड़ना अर्थात असहाय व्यक्तियों के कंधों पर चढ़ कर ऊँचाई पाना, जहाँ से वह अपनी रची विनाश लीला देख सके। बात चाहे विनाश लीला की हो या गिरमिटियों के शोषण की अनत की कवितायेँ पाठक के मन में कभी आक्रोश-असंतोष पैदा करती हैं तो कभी प्रतिरोध और सत्ता के विरुद्ध विद्रोह। विचार प्रधान होते हुए भी ये ऐसा भावोद्रेक पैदा करती हैं कि पाठक प्रतिरोधी शक्तियों से सीधी मुठभेड़ करने को उतारू हो जाता है। उनके शिल्प विधान में प्रतीक हैं, बिम्ब हैं और है शब्द शक्ति। एक जागरूक और जूझारू व्यक्ति का उद्बोधन है उनकी कविता। मुंशी प्रेमचन्द अपने प्रसिद्ध उपन्यास गोदान में कहते हैं-‘‘लिखते तो वे लोग हैं, जिनके अंदर कुछ दर्द है, अनुराग है, लगन है और हैं विचार‘‘। इस निकष पर अनत की कविताएँ खरी उतरती है। ऋषभ देव शर्मा कहते हैं अनत के साहित्य में सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक प्रश्नों की गहरी समझ परिलक्षित होती है। वे एक ओर जहाँ उन तमाम त्रासद स्थितियों की गवाही देते हैं जिनसे मॉरिशस के खेतों में सचमुच सोना उपजाने वाले भारत वंशियों को गुजरना पड़ा है; वहीं दूसरी ओर उस जिजीविषा का भी पता देते हैं जिसकी जड़ें भारतीय संस्कृति में गहरे पैठी हुई हैं। (देखें ‘प्रवासी जगत‘, 1982 अ: 2 केन्द्रीय हिंदी संस्थान) उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद के समग्र साहित्यिक अवदान के प्रसिद्ध मीमांसक डॉ. कमल किशोर गोयनका ने कवि अनत की कविता को ‘’मारिशस के गूंगे इतिहास की आवाज’’ की संज्ञा दी। वर्ष 2020 में आयोजित 11 वें विश्व हिंदी सम्मलेन के अवसर पर एक साक्षात्कार में डॉ. गोयनका ने कहा- ‘‘अभिमन्यु अनत सत्ता से प्रश्न करने का साहस रखते हैं। वह मारिशस के गूंगे इतिहास की आवाज हैं। वह अपने साहित्य से अज्ञात दरवाजों को खोलकर उसमें दबी-ढकी-बँधी-बाँसोँ और कोड़ों की अनुगूँजों और प्रतिध्वनियों को साहित्य का रूप देते है‘‘।                            


संतोष श्रीवास्तव, भोपाल, मो. 9769023188

समीक्षा
लघुकथा जीवन का सत्य है


लघुकथा का संसार अब लघु नहीं रह गया है वह भारत भर में देखा जा सकता है। जैसे आप इंद्रधनुष को आकाश में देखते हैं और पूरा भारत एक साथ देखता है। लघुकथा जीवन का राग विराग रहित जीवन का सत्य है। लेकिन सत्य ऐसा जो मर्म का स्पर्श करे मन को विफल कर दे और पाठक को सोचने तथा कहने को विवश करे। लघुकथा भी साहित्य की अन्य विधाओं के साथ कला की साधना है। यह साधना ऐसी हो जो हर लघुकथा को रचना बना दे और उसमें जीवन का सत्य उभरता, चमकता दिखाई दे।

आज लघुकथाकारों की लंबी सूची दिखाई देती है। इनमें काफी  अलघुकथाकार भी हैं पर वे भी लघुकथा आंदोलन को व्यापक बनाते हैं।

लघुकथा  के प्रति मैं बहुत आशावान हूँ। कमल चोपड़ा जैसे लघुकथाकार यश के बिना ही लघुकथा संसार का विस्तार कर रहे हैं और बलराम अग्रवाल लघुकथा को स्वच्छ शास्त्र देने का प्रयत्न कर रहे हैं और भी अनेक लघुकथाकार है जो निष्ठा से लघुकथा की आत्मा को भारतीयता से ओतप्रोत कर रहे हैं। संतोष श्रीवास्तव उन्हीं में से एक नाम है।

उनकी लघुकथा अपने पराए  संवाद पर रची गई है। विदेश में एक भारतीय और पाकिस्तानी अपने पराए की बात करते हैं और विभाजन के लिए स्वयं अपनों को ही दोषी ठहराते हैं। इसमें सच्चाई है पर यह पाकिस्तान की ओर से अधिक है। सरहदें मनुष्य ही बनाता है। उनकी रक्षा के लिए भी मनुष्य ही लड़ता है और अपने-अपने पक्ष के सैनिकों के मरने पर शहीद मानता है। दोनों देशों में जनता शांति से रहना चाहती है लेकिन यह भी ध्यान रखना होगा कि पाक की आतंकवादी हरकतें अब बर्दाश्त के बाहर हैं। गंगा जमुनी संस्कृति की चर्चा होती है पर गंगा का सौहार्द से यह संस्कृति नहीं बनती इसमें जमुना को भी मन से हिंदुओं के साथ जुड़ना होगा।

‘औरंगजेब’ लघुकथा पिता विरोधी पुत्र को औरंगजेब के रूप में प्रस्तुत करती है। औरंगजेब इतिहास का सबसे काला चरित्र है। उसने पिता को कैद में रखा और शिवाजी को भी धोखे से बंदी बनाया और असंख्य हिंदुओं पर अत्याचार किए। यह लघुकथा पुत्र के पिता के प्रति कर्तव्यों का स्मरण दिलाती है। लेकिन बेटों की दुनिया पिता से भिन्न होती है और भारत में तो बेटे पिता की संपत्ति पर अपना अधिकार समझते हैं। युवा पीढ़ी को पारिवारिक मूल्यों को समझने तथा जीवन में उतारने की आवश्यकता है।


‘जोखिम’ लघुकथा पुलिस के अत्याचार तथा स्त्री की व्यवस्था की दयनीय लघुकथा है ।पुलिस द्वारा निर्दोष व्यक्ति को जबरदस्ती जीप में बैठाने का दृश्य मैंने आपातकाल में तिहाड़ जेल से निकलते हुए देखा था और इसी प्रकार पत्नी और बच्चे बापू कहते हुए दौड़ती जीप के पीछे भागे थे। ठेकेदार के रूप में आदमी का ऐसा ही चरित्र प्रायः होता है। लेकिन स्त्री अपने सतीत्व की रक्षा के लिए मजबूरी छोड़कर अंधेरे में गांव से चली जाती है। पर उसका भविष्य कैसा होगा लघुकथा में स्पष्ट न होकर भी स्पष्ट है। कि स्त्री आज भी अकेली है। उसे अपने यौन शोषण से बचना है और बच्चों को भी पालना है और शिकारियों के बीच ही जीना है। यह नियति कब बदलेगी।

‘डाली से टूटा पत्ता’ एक अपंग स्त्री की जिजीविषा की लघुकथा है। ऐसी स्त्री होती है और सारे कष्टों के साथ जीती है। यह मनुष्य की ताकत है। अवरोधों और बाधाओं के बीच जीने की ताकत। मनुष्य को ऐसा ही होना चाहिए। इसमें प्रकृति का सौंदर्य भी देखा जा सकता है।

‘झूठ का सच’ कहानी वृद्धों की त्रासदी की लघुकथा है। एक पिता 6,7 बच्चों का पालन पोषण कर रहा है परंतु 6, 7 बच्चे एक पिता का पालन पोषण नहीं करते। यह हमारे पारिवारिक जीवन तथा मूल्यों के क्षय होने की त्रासदी है। इस प्रसंग में उषा प्रियंवदा की कहानी वापसी बड़ी प्रसिद्ध हुई। वृद्ध जीवन पर कम लिखा गया है। लेकिन जो लिखा गया है वह त्रासद है। वृद्ध सबको होना है पर युवावस्था में आदमी सोचता है कि वह वृद्ध नहीं होगा। इस सत्य से भागना जीवन से भागना है।

‘नकाब’ लघुकथा मुस्लिम समाज पर एक तीखा व्यंग्य है। नकाब जीवन नहीं है क्योंकि वह जीवन को छुपाता है। उसे आवरण में रखता है। ईश्वर की रचना को आदमी अपनी तरह से लपेट कर जीना चाहता है और वह यह इच्छा तथा बंधन दूसरों पर लगता है। यह नकाब स्त्री की मौलिक स्वतंत्रता एवं मानवाधिकार पर चोट है। यह तीखा व्यंग्य है कि जो नकाब  का विरोध करती है वही नकाब बनाने का काम करती है।

‘नया मोड़’ आज की लड़की की नई आवाज है। बलात्कार के दंश से दशकों शताब्दियों से पीड़ित स्त्री उस से मुक्त होने के लिए नई नैतिकता रचती है। बलात्कार शरीर का होता है आत्मा का नहीं। शरीर बेचना अपराध है पर बलात्कार होने पर स्त्री का क्या अपराध है। लघुकथा की नायिका एक नया जीवन शुरु करती है।

‘बारिश’ में भारतीय समाज की शुद्ध मानसिकता का चित्रण है। हम अपने स्वार्थों के साथ जीते हैं और आवश्यकता न हो तो दूसरे व्यक्ति के अधिकारों को ठुकरा देते हैं पर अब स्थिति बदल रही है। सोच बदल रही है लेकिन छोटे शहरों ,कस्बों में ऐसी मानसिकता अभी दिखाई देती है।

भारतीय समाज में ‘ऑनर किलिंग’ की घटनाएं होती रहती हैं यह पहले भी होती थी और अब भी होती हैं। प्रेमचंद्र जी की ही एक कहानी है जो ऑनर किलिंग पर लिखी गई है। समाज में ऊंच-नीच की प्रवृत्ति इतनी गहरी है कि अभी उसे मिटने में काफी समय लगेगा। ईश्वर सबको समान रूप से पैदा करता है और सभी एक समान जीवन जीवित जीते हैं और मरते हैं। यह भेदभाव मनुष्य ने बनाया है और अब तक असंख्य लोगों की हत्या कर चुका है। जीवन महत्वपूर्ण है लेकिन जीवन से बड़ा सम्मान हो जाता है। यह हमारे जीवन की त्रासदी है। फैसला लघुकथा ‘ऑनर किलिंग’ की अच्छी लघुकथा है। -डॉ कमल किशोर गोयनका, मुस्कुराती चोट लघुकथा संग्रह, लेखिका संतोष श्रीवास्तव, प्रकाशक वनिका पब्लिकेशन बिजनौर, दिल्ली।


अभिनव इमरोज़ एवं साहित्य नंदिनी परिवार की ओर से हार्दिक अभिनन्दन



निशा चंद्रा, मो. 9662095464
समीक्षा
हरे स्कर्ट वाले पेड़ों के तले स्लम से लेकर रिसॉर्ट तक,  धड़कते जीवन की कहानियाँ...

पुस्तक: ‘‘हरे स्कर्ट वाले पेड़ों के तले’’ (कहानी संग्रह),

लेखिका: नीलम कुलश्रेष्ठ 

प्रकाशक: शिवना प्रकाशन

ये नाम ही बहुत है कहानी संग्रह पढ़ने की उत्सुकता जगाने के लिए। जब मेरे हाथ में पार्सल आया तो खोलने पर मैं सुखद आश्चर्य से भर उठी क्योंकि, शिवना प्रकाशन से प्रकाशित इस पुस्तक की दो ही प्रतियां अभी नीलम कुलश्रेष्ठ जी के पास पहुंची थीं। उसमें से एक उन्होंने मुझे भिजवा दी। ये मेरे लिए सम्मान की बात थी। सबसे पहले एक सांस में, मैं अंतिम कहानी ‘हरे स्कर्ट वाले पेड़ों के तले‘ पढ़ गई। जानना चाहती थी, क्या ऐसे पेड़ भी होते हैं, जिन्हें देख कर ये आभास हो कि उन्होंने स्कर्ट पहन रखी है। बहुत कुछ है इस कहानी में.... हमें मुंबई के कॉर्पोरेट जगत की झलक मिलती है। खासकर एक न भूलने वाला ब्रिटिश एग्जेक्युटिव किरदार। मुंबई की गलियों में पानी पूरी खाते हुए, जेनेट का हाइजिन सेंस कहां चला जाता था ? ये ब्रिटिश महिला जेनेट-की अंत तक बांधे रखने वाली बातें, शनाया के साथ की उनकी टूटी फूटी हिंदी में की हुए बातें मन को गुदगुदा देती हैं, सुहाना मौसम, इतिहास के पन्नों पर अंकित हो गए कुछ किस्से। कुछ कुछ रहस्यमय सी बातें, लगता है कुछ ऐसा पढ़ रहे हैं, जो पहले कभी नहीं पढ़ा।

कहते हैं एक मुक्कमल कहानी वो होती है, जिसमें  इतिहास की धड़कनें सुनाईं दें, आधुनिकता का बोध दे, सशक्त कथानक हो। सुंदर भाषा का प्रवाह हो। शीर्षक कथा में लार्ड मैकाले के 2 फरवरी 1835  में दिये ब्रिटिश पार्लियामेंट में दिए लॉर्ड मैकाले के भाषण के अंशों से पता लगता है कि भारत को गुलाम बनाने  की  कूटनीति क्या थी ? अंत तक इस कहानी ने मुझे बांधे रखा। और अंत में भी बहुत कुछ सोचने के लिए अपने साथ ले उड़ी।

इस कहानी संग्रह के ‘शीर्षक’ जैसे ही कहानियों के शीर्षक बहुत आकर्षक हैं। नीलम कुलश्रेष्ठ ने कथा जगत में अपनी पहचान बिल्कुल अलग विषयों पर कहानियां लिखकर बनाई है। वे इसी तेवर में इस संग्रह में उपस्थित हैं। हर कहानी का कथानक नया व अलग है जैसे ‘‘आर्तनाद’’, ‘पकड़ कर चलो’, ‘कसकता असोनिया’, ‘बस एक अजूबा’, ‘तोड़’,‘तोड़’ कहानी की नायिका हीरे के शो रूम में वाली करने वाली लड़की है। इसी कहानी  से मुझे पता लगा कि भारत में, सोने के गहने सबसे ज्यादा बंगला देशी मुस्लिम कारीगर काम करते हैं। एक बात चैंका देती है की इनमें से कुछ अवैध रूप  से भारत में रहे कारीगरों को मालिक के शोषण बनना पड़ता है। यहां भी नीलम जी की लेखनी अपने चिर परिचित पूरे शोष के साथ उपस्थित है।

प्रथम कहानी ‘पकड़ कर चलो तो.... ‘की बाई सुहानी,जो एक सांस में अपनी कहानी सुनाने को व्याकुल है। मुम्बई में कानून है कि यदि कोई स्लम खाली करवाकर बिल्डर बहुमंजिली इमारत बनवाना चाहता है तो उसे स्लम में रहने  वालों को इमारत बनवा कर देनी होगी। बिल्डर इमारत तो बनवा कर दे देतें हैं किन्तु इन्हें किस तरह तंग करने के हथकंडे अपनाते हैं पढ़कर हैरान रह जाना पड़ता है। ‘पकड़ कर चलो’ सुहानी जो स्लम वालों की यूनियन लीडर है आपको बतायेगी कि उसके इस तकिया कलाम का या निम्न वर्ग के जीवन का दर्शन क्या है ?

संग्रह में कुल दस कहानियां हैं। सभी पृथक विषय पर आधारित। झोपड़पट्टी से लेकर रिसॉर्ट तक कि कहानियां इस संग्रह में है। ये इस संग्रह की ख़ूबसूरती है। एक एक कहानी, कहानी के पात्र, उनकी भाषा, सभी को नीलम जी ने बड़ी ख़ूबसूरती से अपने शब्दों की माला में पिरोया है।

सच कहूं तो ना तो मैं समीक्षक हूँ और ना ही किसी पुस्तक की समीक्षा कर सकती हूं। बस पढ़ने के बाद अपनी भावनाओं को शब्दों का जामा पहना देती हूँ और कागज पर मुखरित हो उठती हैं कुछ किरणें...कुछ किरचें...।

‘‘मेरा नाम रत्नागिरि की सुहानी शिंदे’’

‘‘मैं शनाया’’

‘‘मैडम, आई एम् मीरा’’

‘‘मीरा!? तुम तो मुस्लिम हो और मीरा?’’

मीरा नाम सुन कर मेरी आंखों में कुछ दप्प से बुझा या चमका, नहीं जानती।

‘‘मैं मनदेवी’’

राजस्थान के गाँव की मन देवी की कहानी,कहानी नहीं दरिंदगी और मानव आर्तनाद का  जीता जागता वसीयतनामा ‘आर्तनाद’ कहानी की नायिका की मर्मान्तक स्थिति देखकर दिल व दिमाग दोनों ही आर्तनाद करने लगते  हैं। हम सभी सुनते हैं कि गाँवों में स्त्री को निर्वस्त्र करके गधे पर बिठाकर जुलूस निकाला जाता है लेकिन उसके बाद क्या बीतती है  उस स्त्री पर? उस  पर या कहना चाहिये कि  पूरे गाँव पर-इस सामाजिक अपराध का पूरा चित्रण ही कर दिया है। इस कहानी को  मैं पूरा पढ़ ही नहीं पाई। धुंधली होती दृष्टि से आखिर कोई कितना पढ़ सकता है ? कितनी मानसिक तकलीफ झेल सकता है ?


इस संग्रह में शामिल है एक सुंदर कहानी ‘दीव के तट पर‘। मेरी  पढ़ी प्रथम कहानी है जिसमें केंद्र शासित द्वीपों को दी हुई सरकार की ग्रांट पर बात की गई है। यहाँ के लोगों  की मानसिकता क्या है या धर्म के गुरु घंटाल किस तरह दूर दराज तक अपना जाल फैलाये रखते हैं।

उत्तरी पूर्वी भारत की एक लड़की की एक कहानी ‘कसकता असोनिया‘ में वहां की समस्या उठाने की कोशिश तो की है, लेकिन उसमें कुछ अधूरापन लगता है। लॉकडाउन के समय में जिंदगी को किसने ने किस तरह भुगता है। शनाया भी समस्या में घिर गई थी। ‘‘जीवन/शटडाऊन’’ की नायिका  शनाया कितनी चतुर है, आज की इक्कीसवीं सदी की लड़की -ये कहानी आपको विस्मय से भर देगी। 

‘‘एल्युमिनी मीट’’ कहानी वॉट्स एप  के संवादों से  बढ़ती है।  पैंतालीस वर्ष बाद  जब  एम. एस. सी करने वाले  लड़के,  लड़कियों का वॉट्स एप ग्रुप बनता है तो क्या होता है ?

‘‘बस एक अजूबा’’ की कलात्मकता ये है कि दुनियां के सात अजूबों की चर्चा करके एक सार्वभौमिक सत्य को उद्घाटित किया गया है। मानव के सारे कार्यकलाप या कलायें  जींस के जेनेटिक कोड से  संचालित है।  नीलम जी की ये व्याख्या पढ़िये  जो इस कहानी की जान है; ‘‘कितने अजूबे हमारी जिन्दगी में वैसे ही घटते रहते हैं’’ नित नईं   घटनायें... नित। नए खुलते रह्स्य के पर्दे... लेकिन हमारी इंद्रिया (या कहें जींस)... उनकी पसंदगी वही संग्रह करती है जो हमारे अन्दर छिपा होता है (जींस के जेनेटिक कोड में गुप चुप)। हमें  स्वयं  पता नहीं  होता कि यही अन्दर छिपा  कुछ ही हमें कुछ करने को प्रेरित करेगा या हम कभी ना कभी इसी रास्ते पर चल पड़ेंगे। हर तरफ संगीत, कला गीत, सहित्य या विज्ञान के रोल मॉडल्स बिखरे होते हैं जिन्हें समाज सिर आंखों पर बिठा लेता है लेकिन उनमें से वही हमारे प्रिय होते हैं जिनके रास्ते पर चलने की हमारी दबी छिपी चाहना होती है या हम उन रास्तों पर चल चुके होते हैं... या हम उनके  फैन या दर्शक भर होते हैं।’
तीस बरस पहले की पदचाप की स्त्री पुरुष  संबंधों की भावभीनी संवेदनशीलता हो, सभी कहानियां अंत तक पाठक को बांधे रखने में सक्षम हैं। शिवना प्रकाशन ने खूबसूरत कवर बनाकर इसे  प्रकाशित  किया है। प्रकाशक  शहरयार जी  और  लेखिका नीलम कुलश्रेष्ठ जी बधाई की पात्र  हैं।

कभी कभी मुझे लगता है,प्रत्येक औरत की व्यथा लगभग एक जैसी ही होती है,चाहे वह झोपड़पट्टी में रहती हो या आलीशान महल में। बस दुख व्यक्त करने की परिभाषा अलग होती है। यदि ऐसा न होता तो आंखों का खालीपन.... दिल में उठती टीस... पलकों पर ठहरे मोती... सबके एक जैसे ना होते। हवा की बारीक लहरें मेरे मन को हरे पेड़ों के तले ऐसे ना बांध लेती....।  



आर. डी. आनंद, आयोध्या (यू.पी), मो. 94512 03713
समीक्षा

‘वैचारिक आंदोलन का निर्माण करती कविताएँ’

युवा कवियों में बहुख्यातिप्राप्त कवि नरेंद्र वाल्मीकि द्वारा संपादित कविता-संग्रह ‘‘कब तक मारे जाओगे‘‘ वर्ष 2020 के जुलाई माह में सिद्धार्थ बुक्स, दिल्ली  द्वारा प्रकाशित होकर हमारे हाथों में हैं। पुस्तक के प्रथम फ्लैप पर डॉ. जय प्रकाश कर्दम और द्वितीय पर डॉ. कर्मानंद आर्य की महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ हैं। यह पुस्तक 240 पृष्ठों में 62 कवियों की 129 रचनाओं के साथ फैली हुई है। इसके प्रथम कवि स्मृति शेष ओमप्रकाश वाल्मीकि जी वरिष्ठतम कवि हैं तथा सूरज कुमार बौद्ध सबसे युवा कवि हैं जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र और छात्र नेता हैं। एक में आक्रोश है तो दूसरे ने ललकार है। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने क्रान्ति के लिए पत्थरों की तरफ इशारा किया है तो युवा पीढ़ी ने कलम पकड़ने को ही क्रान्ति समझा है। इन कविताओं में तीन पीढ़ियों के द्वंद्व उपस्थित है।

इस संग्रह की विशेषता के बारे में संपादक नरेंद्र वाल्मीकि ने अपने संपादकीय में लिखा है, ‘‘यह संग्रह उस समाज की समस्याओं पर केंद्रित है जो आज भी कई स्थानों पर हाथ से मानव मल उठाने को मजबूर हैं। आज भी सफाई से जुड़े पेशे में संलग्न हैं। यूँ तो हम विश्व शक्ति बनने का दावा कर रहे हैं लेकिन वहीं एक जाति विशेष के लोग आज भी देश में घोर अमानवीय कार्य को बिना किसी सुरक्षा के करने को मजबूर हैं।‘‘ (संदभर्ः कब तक यारे जाओगे, पेज 5)

मैंने अपने बहुत से आलेखों में लिखा है और लिखते रहते हैं कि हमारे समाज में समस्याएँ बहुत हैं और लोग उन समस्याओं को अपने-अपने तरह से परिभाषित भी करते रहते हैं लेकिन प्रश्न है ये समस्याएँ खत्म कैसे हों। इसी संदर्भ की कविता है ‘‘बस्स! बहुत हो चुका‘‘ जिसमें ओमप्रकाश वाल्मीकि का आक्रोश परिलक्षित होता है। आक्रोश बताता है कि बात समझ में आ गई है। वाल्मीकि जातियों की स्थिति के लिए जिम्मेदार भारतीय जातिप्रथा है। भारतीय जातिप्रथा के लिए भारत की सर्वोच्च जाति ब्राह्मण है। ब्राह्मण परजीविता पर आधारित जाति है। इसी जाति ने अपने जैसे मनुष्य को एक विशेष जाति में तब्दील कर एक विशेष गंदा कार्य करने पर सामाजिक रूप से मजबूर कर रखा है। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने वाल्मीकि जातियों के हाथ में झाड़ू, मल से भरे बाल्टी-कनस्तर और सिर पर मल से भरी टोकरी का दृश्य उपस्थित करते हुए अपने आक्रोश को व्यक्त किया है। आक्रोश भी ऐसा जो आग सा दहक रहा है। ओमप्रकाश वाल्मीकि इतने संतप्त हो उठते है कि उन्हें डॉ. आम्बेडकर के अहिंसा का दर्शन भी लिखने से नहीं रोक पायाः

बस्स!

बहुत हो चुका चुप रहना

निरर्थक पड़े पत्थर

अब काम आएंगे

संतप्त जनों के।      (कब तक मारे जाओगे, पेज 14)

परिवर्तन की इसी माँग को रेखांकित करती हुई डॉ. सुशीला तकभौंरे की कविता ‘‘मेरा अस्तित्व‘‘ व्यक्ति के अस्तित्व को उसके समाज के अस्तित्व के साथ जोड़ती है। व्यक्ति खूब रुपया-पैसा कमा ले, ऊँची हबेली बनवा ले, गाड़ी-मोटर से चलने लगे, खूब सूटेड-बूटेड हो लेकिन जाति है जो पीछा नहीं छोड़ती है। तिमंजिला पर खड़ा वाल्मीकि सड़क पर झाड़ू लगाने वालीध्वाले वाल्मीकि का सामाजिक मूल्य समरूप है। इस कविता में आक्रोश तो नहीं है लेकिन संताप और लज्जा है। यह कविता भी तत्काल परिवर्तन की गोहार लगाती है। इस कविता का एक मार्मिक दृश्य हैः

मैं निश्चिंत नहीं रह सकती

अपने अस्तित्व की चिंता में डूबी

पुकारती हूँ मदद के लिए

कोई तो आओ

मेरी बिरादरी को समझाओ। 

(कब तक मारे जाओगे, पेज 29)

समस्या का समाधान कैसे हो? लगभग सभी कवियों की राय है कि हम मिलजुल कर समस्या के विरुद्ध आंदोलनरत रहें। धर्मपाल सिंह चंचल की कविता ‘‘कब तक मारे जाओगे‘‘ में वाल्मीकियों द्वारा निष्पादित कार्यों को त्यागने का आह्वान किया है। कवि के कविता का शीर्षक ही प्रश्न है कि कब तक मारे जाओगे अर्थात कवि कहना चाहता है कि वाल्मीकि जातियाँ आए दिन सुनियोजित तरीके से गटर में भेज कर मरवा दी जाती हैं। सुनने में यह आरोप गलत लगता है लेकिन यह आरोप इसलिए सत्य है क्योंकि सरकार और उसके संचालक सवर्ण जातियाँ यह जानती हैं कि किसी भी गंदे नाले, सीवर, टैंक इत्यादि जगहों में जहरीली गैस होती हैं। उसमें उतरने पर व्यक्ति मर सकता है। फिर भी जानबूझकर वाल्मीकियों को गटर में उतार दिया जाता है। आखिर में वह इसलिए उत्तर जाता है क्योंकि वही उसको मात्र जीवन-यापन का साधन लगता है। जब सवर्ण जातियाँ व सरकार जानती है कि गटर के उत्पन्न गैस से व्यक्ति मर जाता है तो उसमें व्यक्ति को उतारने का अर्थ है जानबूझ कर उसे मृत्यु के मुँह में झोंक देना। अतः यह आरोप सत्य आरोप है कि वाल्मीकि जातियों की हत्या कर दी जाती है। कवि इसीलिए सवाल करता है कि कब तक मारे जाओगे। दूसरी सबसे बड़ी बात यह है कि विज्ञान के इस युग में ऐसे घिनौने कार्य व्यक्ति से करवाया ही क्यों जाता है? तीसरी और अहम बात, आखिर वाल्मीकि जातियों से ही घिनोंने कार्य क्यो करवाए जाते हैं? यही तो जातिवाद। यही तो है सवर्ण बरजोरी। यही तो है भेदभाव। इस कुप्रथा को खत्म किया जाना नितांत आवश्यक है।

स्वच्छता के कार्य स्वरूप पर सभी कवियों ने कलम चलाया है। थूक, गंदगी, कूड़ा, कचरा, मल, मूत्र, गोबर, गटर, शौचालय, सड़क, कालोनी, बस्ती, कोठी, गलियों, मृत जानवर, झाड़ू, तसला, पंजर, जूठन, ठेला, नाला, नाली, सूप, तांत, सुअर, लाश, श्मशान, खून, मवाद, रक्त, वीर्य, मांस, मज्जा इत्यादि पर कार्य वाल्मीकि जातियों के नाम कर दिया गया है। लगभग सभी कवियों ने एक स्वर से वाल्मीकि जातियों की दशा, दुर्दशा, भौतिक परिस्थिति और मनोगत स्थितियों पर कविताएँ लिखी हैं। सभी झाड़ू, तसला, ठेला, पंजर, टोकरी और मैला छोड़कर हाथ में कलम पकड़ने की पुरजोर आह्वान कर रहे हैं। सभी एक स्वर से अपील कर रहे हैं कि नस्लवादी और वर्चस्वदियों कभी भी दलित जातियों पर दया नहीं कर सकते हैं। दलित जातियों को अपना स्वाभिमान का मार्ग स्वयं बनाना होगा और यह तभी संभव हो सकता है जब वाल्मीकि जातियाँ गंदे कार्य को स्वयं और स्वेछा से करना बंद करें। वाल्मीकि जातियों को जातिगत कार्य और धंधे को अपना कार्य और अपना धंधा मानना बन्द कर देना होगा। डॉ. आम्बेडकर ने भी यही कहा है। ‘‘मैं भंगी हूँ‘‘ के लेखक भगवान सिंह ने भी यही कहा है। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भी गंदे कार्यों को करने से मना किया है। वर्तमान में मोहनदास नैमिशराय, कँवल भारती, जयप्रकाश कर्दम, श्योराज सिंह बेचैन, सुशीला टाकभौंरे, रजतरानी मीनू, पूनम तुषामढ़, राधा वाल्मीकि, तारा परमार, कर्मशील भारती, कुसुम वियोगी इत्यादि चिंतकों ने एकसुर में यही कहा है कि वाल्मीकि जातियों को झाड़ू, मल, गटर शौचालय आदि का कार्य करना बन्द कर देना चाहिए।

इस संग्रह में एक तीसरी जोरदार बात है जिसे स्वयं पुस्तक के संपादक ने उठाया है। वे ‘‘खोखली बातें‘‘ नाम की कविता लिखते हैं। उस कविता की छाया उनके संपादकीय के इन पंक्तियों में दिखाई पड़ता है, ‘‘क्या यह सब उनको नजर नहीं आता? सफाई कर्मचारियों के मात्र पैर धो देने से इस वर्ग का भला नहीं हो सकता है साहब! इस समाज के सर्वांगीण विकास पर भी ध्यान देना होगा। मात्र बातें करने से किसी का भला नहीं हो सकता। हमारे देश के एक संत मैलाप्रथा जैसे निंदनीय कार्य करने को आध्यात्मिक सुख की अनुभूति बताते हैं तथा मैला ढोने व सफाई के कार्य को सेवा का कार्य मानते हैं। स्वच्छता को सेवा बताने वाले घोर जातिवादी हैं। सदियों से जघन्य और अमानवीय कार्य को दलितों में पददलित जाति विशेष पर थोप दिया गया है, जिसे सफाई समुदाय कहा जाता है। यदि इस कार्य को करने से सुख प्राप्त होता है तो बहरूपिए अब इस कार्य को खुद करो और इस इस सुख का भरपूर आनंद लो।‘‘

यह न समीक्षा है न आलोचना, इस पुस्तक पर यह एक जरुरी विशेष टिप्पणी मात्र है। इसमें अनेक युवा कवियों की अच्छी कविताओं की अभी चर्चा नहीं हो पाई है। बाद में मैं इस पुस्तक का सिलसिलेवार अध्ययन प्रस्तुत करूँगा। वाल्मीकि जातियों के विभिन्न कार्य, स्वरूप, मन, मस्तिष्क, दबाव, किंकर्तव्यविमूढ़ता, जातिवादी संस्कृति, रुझान, विज्ञान आदि पर संग्रह में शामिल कवियों के उद्देश्य, भाषा, कला, काव्य, नैरेशन, शैली, संघर्ष, आंदोलन, एकरूपता, आम्बेडकरवादी विचार-संकल्प, राजनीति और साहित्य का अंतरसंबंध, लोकतांत्रिक विचार, संसदीय लोकतंत्र, बुद्ध का अष्टांगिक मार्ग, डॉ. आम्बेडकर का राजकीय समाजवाद इत्यादि पर विचार किया जाएगा।
संपादक नरेंद्र वाल्मीकि एक प्रबुद्ध, संघर्षशील, व्यवहार कुशल शोधछात्र हैं। उनका शोध कार्य पूरा हो चुका है। अब वे समाज के निचले पायदान की जाति दलित जातियों पर शोध कार्य कर रहे हैं। उनका यह कार्य वैचारिक क्रान्ति में योगदान करेगा। वैचारिक क्रान्ति से उद्देश्य की एकरूपता और चिंतन की एकरूपता उत्पन्न होगी। नरेंद्र वाल्मीकि की मेधा प्रसंशनीय है। उम्मीद है नरेंद्र वाल्मीकि भविष्य में लोगों को एकसूत्र में बाँधने में सफल व्यक्तित्व ग्रहण करेंगे। इस संग्रह के संपादन में जिन अनेक कवियों का चुनाव किया है निश्चित यह एक चैलेंजिंग कार्य है। कोई प्रसंशा करे न करे लेकिन अनेक छूटे हुए कवियों से नाराज होंने का जोखिम भरा हुआ है। इस संग्रह के लिए जितने भी कवियों को नरेंद्र वाल्मीकि ने संग्रह में लिया है उनकी कविताएँ उत्कृष्ट कविताएँ हैं। कवि नरेंद्र कुमार वाल्मीकि, जो विज्ञान सम्मत विचारों के समर्थक हैं, को वैचारिक आंदोलन की कविताओं के संग्रह के लिए बहुत-बहुत बधाई।   


अजित कुमार राय, -कानपुर, मो. 9839611435
समीक्षा

विभाजन के संकल्पक अल्लामा इकबाल
मै डेढ़ बजे विद्यालय से घर लौट रहा था। पानी की तरह चमकते हुए हरे पत्तों वाले पेड़ों की छाँव मे गर्म हवाएँ चल रही थी। मैं समझ गया कि मंै मो. इक़बाल के काव्य-प्रदेश से गुज़र रहा हँू। चेतना की तलस्पर्शी गहराइयों तक शरीर की सेकाई करने वाला शीतोष्ण पवन कहीं रुधिर को गर्म रखने का बहाना तो नहीं!...

हमामो कबूतर का भूखा नही मैं ,

कि है ज़िन्दगी बाज़ की जाहिदाना।

झपटना, पलटना, पलटकर झपटना,

लहू ग्र्म रखने का है इक बहाना।।

इस्लाम के धार्मिक और राजनैतिक दर्शन का पुनर्गठन करने वाले अल्लामा की इस स्वीकारोक्ति को प्रायः हर मुसलमान के इक़बालिया बयान के रूप मे पढ़ज्ञ जा सकता है। एक चैथाई उदारवादी मुस्लिम समाज को छोड़ दे तो बहुसंख्यक कट्टर मुसलमानो। की टोपी उतार कर आप इस सच को देख सकते है। इसके पीछे उनमे असुरक्षा का बोध ही सक्रिय है। जबकि मेधावी यायावर इक़बाल ने आमेखला 

धरती को घूमकर देखने के बाद निष्कर्ष दिया...

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ता हमारा।।

इराक, सीरिया, अरब या पाकिस्तान और अफगानिस्तान के मुस्लिम समाज से कही अधिक सुरक्षित है भारतीय मुसलमान। और उसे सुरक्षित रहने दीजिए। विश्वास की कमी पहले मानसिक विभाजन और फिर ज़मीनी विभाजन को अंजाम देती है। क्या वजह है कि हिन्द को सारे जहाँ से अच्छा बताने वाला शायर लिखने लगता है...

चीनो अरब हमारा, हिन्दोस्ता। हमारा।

मुस्लिम है हम वतन है, सारा जहाँ हमारा।

आत्म-गौरव के बोध से ‘हिन्दी है हम‘ कहने वाला शायर खुद को भारतीय कहने के बजाय मुस्लिम कहने लगे तो समझ लेना चाहिए कि दाल मे कुछ काला है। कवि तो बड़ा ईमानदार होता है। आइना झूठ नही बोलता। हम अपने कवियो को नहीं सहेज पाए, हम अपने वैग्यानिको को नही सहेज पाए और वे आज अमेरिका को समृद्ध कर रहे है। किन्तु मै यहाँ इक़बाल के चरमपंथी सैद्धान्तिकी मे पर्यवसान के लिए उन्हे माफ नही कर पाउँगा।...

ऐ आबरूदे गंगे ! वह दिन है याद तुझको ?

उतरा तेरे किनारे जब कारवाँ हमारा।

कहने वाला विद्वान शीर्षासन कर गया...

ऐ आबरूदे टैगस ! है याद दिन वह तुझको ?

था तेरी वादियों में जब आशियाँ हमारा।।

यहाँ इकबाल झूठ क्यो बोलने लगे ? उनके दादा सहज सप्रू हिन्दू कश्मीरी पंडित थे। और यही लगभग हर भारतीय मुसलमान की नियति है। यदि ये अपना वंशवृक्ष खंगाले तो कटुता थोड़ी कम हो जाएगी। और भारतीय अद्वैत दर्शन सूफियाना अंदाज मे इन्हे समझ मे आएगा। महाकवि दिनकर ने संस्कृति के चार अध्याय में संस्कृतियों के संश्लेष का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य मे विशद वर्णन किया है। किन्तु लंदन विश्वविद्यालय का प्रोफेसर और स्वर्ण पदक प्राप्त दार्शनिक इक़बाल की चिन्तन-पद्धति मे यह विचलन विस्मित करता है। क्या वजह है कि 1931 मे फिलीस्तीन मे विश्व मुस्लिम सम्मेलन मे तो भाग लिया ही, सन् 1929 मे अलगाव वादी इस्लाम -दर्शन पर अपने छः व्याख्यानों के लिए उन्होने उस्मानिया विश्वविद्यालय हैदराबाद और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को ही चुना। सन् 1930 मे इलाहाबाद मे अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के अध्यक्षीय संबोधन मे जब उन्होने भारत के विभाजन और पाकिस्तान की स्थापना का प्रस्ताव रखा, तब जिन्ना का मुस्लिम लीग में पदार्पण भी नही हुआ था। बाद मे जिन्ना को प्रेरित कर लीग मे शामिल करने वाले पुरोहित इक़बाल ही थे। उन्होने देश के विभाजन के लिए जिन्ना के साथ मिलकर काम किया। पंजाब, उत्तर-पश्चिम फ्रन्टियर प्रान्त, सिन्ध और बलूचिस्तान को मिलाकर एक राज्य बनाने की अपील करने वाले पहले व्यक्ति इक़बाल ही थे। फिर भी.. सारे जहाँ से अच्छा भारतीय मनस्तंत्र की राष्ट्रीय चेतना मे पाश्र्व संगीत की तरह बजता रहता है। अब जिन्ना के फोटो की तरह इसे भी निकाल फेंकिए न !

यह भी इस देश की सांस्कृतिक विडंबना ही है कि वंदेमातरम् तो अस्पृश्य है परंतु एक लाॅर्ड वाॅयसराय की अभ्यर्थना मे लिखा गया... स्वागत - गीत आज भी हमारे देश का राष्ट्रगान है। हमारी सदाशयता धन्य है।

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा

एक छद्म राष्ट्रवादी सोच है। ठीक वैसे ही, जैसे ‘अच्छे दिन आ गये‘। मै छद्म धर्म निरपेक्षता के भी खिलाफ हूँ। सन् 1931 और 1932 के लंदन के गोलमेज सम्मेलनो मे क्या गोलमाल हुआ कि भारत-विभाजन की भूमिका बन गयी। गये तो वहाँ इकबाल ही थे। यह बंग भंग था या भारत - भंग ? सन् 1933 मे वे रोम मे मुसोलिनी से मिले। और इस्लाम की हिन्सक चेतना उनके दिलोदिमाग़ के दरवाज़े पर दस्तक देने लगी। परंतु इस हिन्सा-वृत्ति को उकसाने मे वीर सावरकर जैसे हिन्दूवादी नेताओं की भी भूमिका थी। सावरकर का बलिदान या आत्मोत्सर्ग अप्रतिम है। किन्तु इस गुलसिताँ को उजाड़ने में सावरकर ही नहीं, मेरे पूज्य बापू को भी ज़िम्मेदारी लेनी पडेगी खैर, अब तो बुलबुले उड़ गयीं। सियासत के इस सियालकोट में इकबाल बौद्धिक देश के गुलाम नागरिक बनकर ही मर गये। या यो कहे कि वही उनकी स्वाधीन चेतना थी। अपने एक पूर्वज, तेजस्वी पुरखे के इतने भयानक हश्र पर रोना आता है। शायद यही मेरी श्रद्धान्जलि भी होगी। पंडित जवाहर लाल नेहरू भी सन् 1938 मे उनकी मृत्यु से पूर्व उनसे मिलने गये थे। 

मै भी उनसे मिल रहा हूँ, पर अपने ढंग से का बरशा जब कृषी सुखाने ?

लेकिन इस अपील के साथ कि देश का कोई दूसरा विभाजन न होने पाए। फिर कोई कन्हैया नटखट न हो जाए ! और इक़बाल दस लाख लोगो के संहार की भूमिका रचते इस्लाम का पैग़ाम सुनाते नज़र न आए...

ज़रे खंजर भी यह पैग़ाम सुनाया हमने/दस्त तो दस्त है, दरिया भी न छोडे हमने/बहरे जुल्मात में दौड़ा/दिए घोडे हमने और तब स्वयंभू लेखक त्रिभुवन के व्यंग्य के उलट प्रसाद का आह्वान करना पडे़गा/अरुण यह मधुमय देश हमारा/ जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा। 



अमिता अम्बस्ट, राँची (झारखंड), मो. 9905159020, ई-मेलः- amita.ambasta70@gmail.com

समीक्षा

उपन्यास सम्राट "प्रेमचंद" सेवा सदन से गोदान तक!

31 जुलाई 1880 बाराणसी जिले के ‘लमही‘ ग्राम में एक साधारण से परिवार में जन्मे ‘घनपत राय‘ के विषय में किसे यह मालूम था कि आगे चलकर यह व्यक्ति  ‘अमर कथा शिल्पी‘ और उपन्यास सम्राट के नाम से विख़्यात होगा। अल्पायु में पितृ-विछोह ने जहाँ आर्थिक अवस्था जर्जर की वहीं ‘मैट्रिक‘  की परीक्षा पास कर ‘प्रायमरी स्कूल‘ में अध्यापक बनने को बाध्य किया। ‘ होनहार  बिरवान के होत हैं चिकने पात‘ यह उक्ति धनपत राय के विषय में एकदम खरी उतरती है। नौकरी करते हुए उन्होंने बी ए की परीक्षा उत्तीर्ण की और सब-डिप्टी इंस्पेक्टर आॅफ स्कूल हो गए, किन्तु विधाता को तो इन्हें ‘साहित्य-मनिषि‘ बनाना था फिर नौकरी कहाँ रास आती। नौकरी छोड़कर इन्होंने अपना जीवन साहित्य- साधना में  लगा दिया और अपनी कहानियाँ घनपत राय के नाम से लिखना शुरू किया। पर जब अंग्रेज सरकार को इसमें देश-द्रोह की गंध मिलने लगी तो इन्होंने इसे बदल कर पहले ‘नवाब राय‘ फिर प्रेमचंद रख लिया, जिसे अंत तक अपनाये रखा।

प्रेमचंद गाँव की मिट्टी में जन्मे, पले, और बढ़े थे अतः उनकी कथाओं के ग्रामीण पात्र महज एक कल्पना नहीं बल्कि वास्तविक जीवन के एकदम निकट लगते हैं। उनकी कथाओं के एक-एक पात्र मानव-मर्म को छूते हुए भारतीय ग्रामों के धरा पर उतर आते हैं।चाहें वह ‘पूस की रात‘ का ‘‘हल्कू‘‘ हो या ‘गोदान‘ का ‘होरी‘, ऐसा लगता है जैसे इन पात्रों  में स्वयं प्रेमचंद जी रहे हों। उनके निजी अनुभवों ने उनके विचारों का निर्माण किया था। जीवन में जनवादी, साहित्य में यथार्थवादी प्रेमचंद ने जीवन को जैसा देखा वैसा ही चित्रित किया। यद्यपि आलोचकों ने ‘ सेवा सदन‘ को पहला उपन्यास माना है किन्तु इसके पहले 1901 के आस-पास उन्होंने उपन्यास ‘श्यामा‘ लिखा था जिसमें बड़े  सतेज, साहसपूर्ण स्वर में ब्रिटिश   कुशासन की निंदा की गई है।

उसी भावधारा में लिखी कहानियों का संग्रह संभवतः 1906 में ‘सोजे वतन‘ के नाम से छपा जिसे तुरंत जब्त कर लिया गया।

‘सेवासदन‘ से लेकर  गोदान तक लेखक ने एक लंबा सफर तय किया है। एक ओर जहाँ ‘सेवा सदन‘ के पात्रों में प्रायश्चित की प्रवृति है, संघर्ष की नहीं,वहीं दूसरी ओर लेखक की दृष्टि नगर तक ही रही। गाँव की ओर उन्होंने कम ही दृष्टि डाली। ‘ प्रेमाश्रम‘ तक पहुँचते-पहुँचते गाँव प्रमुख़ता पाने लगा सेवासदन के पात्र सीधे,भोले, भूल अथवा पाप करके पछताने वाले हैं वहीं ‘प्रेमाश्रम‘ के पात्रों  के एक वर्ग में जहाँ सहजता है वहाँ दूसरे में कुटिलता भी है, पर वह सीमाओं के असंतोष की अभिव्यक्ति नहीं, दरिद्रता की चीत्कार नहीं, वह है विलास-वैभव की लिप्सा !!
 
‘प्रेमाश्रम‘ तक आकर लेखक का चिंतन स्थिर और लक्ष्य निश्चित हो चुका था। ‘ गोदान‘ इसी रूपरेखा का विकसित चित्र है। ‘गबन‘ ‘ कायाकल्प‘  ‘रंगभूमि‘ ‘कर्मभूमि‘ में एक निश्चित विस्तार दिखाई देता है और सामाजिक असंतोष व्यापक बनकर राष्ट्रीय आंदोलन में बदल जाता है।

‘गोदान‘ प्रेमचंद के परिपक्व  चिंतन का परिणाम है‘‘ इसे हिंदी उपन्यास के इतिहास में ‘‘मील का पत्थर‘‘ माना जा सकता है। बड़ी ही कौशल और कलात्मक ढंग से लेखक ने उपन्यास साहित्य की पूरी परंपरा को अपनी भुजाओं में समेट लिया है। जिस समय प्रेमचंद ने गोदान की रचना की उस समय सामंती प्रथा टूट रही थी। और सामंती प्रथा टूटने या विखरने का अर्थ ही होता है जमीन के प्रति किसान का मोह टूटना। जमीन का मोह टूटने का दूसरा अर्थ होता है-मजदूर बनना।

यही मजदूर वर्ग आगामी ‘समाजवादी‘ प्रथा का आधार स्तंभ बनता है। कहानी का नायक ‘होरी‘ एक ओर सामंती मान्यताओं से लड़ता है तो दूसरी ओर मजदूर वर्ग की सत्ता पर आधारित समाजवादी प्रथा अपनाने से इंकार करता है। परंतु अंत में उसे जमीन का मोह त्यागना पड़ता है। सामंतवादी विकृतियों से लड़ता-लड़ता वह टूट जाता है।

एक पीढ़ी (होरी) टूटकर भावी जीवन (समाजवादी) की आस्था की ओर संकेत देती है और दूसरी पीढ़ी  (गोबर) उस आस्था को जीवन में उतार कर उसे कर्मक्षेत्र (समाज) से स्थापित करने की ओर सचेष्ट हो उठता है। सही मायने में ‘गोदान‘ ‘‘कृषक जीवन का महाकाव्य है‘‘। कष्ट,भूख, जमींदारों, महाजनों से मिले तनाव को कुछ समय तक तो कृषक-समाज अवश्य सही लेता है पर लगातार विषमताओं की कटू मार उसे जमीन से मोह छोड़ देने को बाध्य कर देती है। ‘पूस की रात‘ का हलकू को भी परिस्थितियों की विषमता और सत्य की कटूता मजदूरी करने पर बाध्य करती है और उसे इस तथ्य का बोध हो जाता है कि उसके सभी प्रताड़णाओं  का मूल स्रोत सामंती व्यवस्था है।
प्रेमचंद साहित्य में तीन युगों के मर्मस्पर्शी चित्र हमें देखने को मिलते है। चाहें वह भारतीय ग्राम व्यवस्था के गौरव को प्रदर्शित करती ‘ पंच परमेश्वर‘ हो, रंगभूमि में औद्योगिक व्यवस्था के आगमन की सूचना हो, ‘गोदान‘ की पूंजीवादी व्यवस्था हो या फिर ‘मंगलसूत्र‘ में साम्यवाद के आगमन की सूचना हो, यह एक ‘‘युग प्रतिनिधि‘‘ कलाकार ही रच सकता था!!



देवेन्द्र कुमार बहल, संपादक, मो. 9910497972



आदरणीय पंकज भाई,   नमस्ते!

आज बासठ साल बाद ‘अकाल में उत्सव’ पर होरी और ‘धनिया’ से मुलाकात हुई। शायद ये ‘उनका राम प्रसाद‘ और ‘कमला’ के नाम से पुनर् जन्म हुआ होगा। कमोवेश, परिवेश वही है जो 86 साल पहले था। एक उत्सव का गवाह मैं तब बना जब अपनी बी.ए. की क्लास में ‘गोदान’ के अंतिम पृष्ठों का पाठ करते-करते रोया था। और आज ‘‘अकाल में उत्सव’’ पढ़ मेरी आँखें फिर एक बार नम हो गयीं।

आज आपकी संवेदनशीलता से परिचय पा कर मेरे दोस्तों की गिनती में इज़ाफा हुआ है। यह मेरा सौभाग्य है।
हाँ ‘‘अकाल में उत्सव’’ पढ़ने की प्रेरणा मुझे अतुल वैभव की समीक्षा पढ़ने के बाद मिली थी जो हमारी ‘साहित्य नंदिनी’ के जुलाई अंक में छपी थी।

धन्यवाद एवं शुभकामनाएँ

अब मैंने ‘‘जिन्हें जुर्म-ए-इश्क पे नाज़ था’’ पढ़नी शुरु कर दी है। 




प्रो. अपूर्वानंद, दिशा ग्रोवर, हिंदी साहित्य सभा, हिंदूकॉलेज, दिल्ली विश्विद्यालय, दिल्ली


प्रैस विज्ञप्ति

आवाज में भी रोशनी होती है - प्रो अपूर्वानंद हिंदू कॉलेज में
प्रेमचंद जयंती पर वेबिनार

दिल्ली। ‘हम भी इस घृणा, नफरत, छोटेपन और ओछेपन से बाहर निकल आएंगे और हम उस सफर को जारी रख सकेंगे जो मनुष्यता का सच्चा सफर है। किन्तु प्रेमचंद की बातों को याद रखें कि इंसान होने का भरपूर आनंद तभी ले पाएंगे जब यह आनंद समूचे समाज और समूह को मिले।‘ महान कथाकार प्रेमचंद की 141 जयंती के अवसर पर हिंदी साहित्य सभा, हिंदू कॉलेज द्वारा आयोजित ऑनलाइन वेबिनार में जाने माने आलोचक और हिंदी साहित्य के आचार्य डॉ अपूर्वानंद ने उक्त विचार व्यक्त किए। ‘प्रेमचंद को क्यों पढ़ें?‘ विषय पर प्रो अपूर्वानंद ने कहा कि प्रेमचंद पर बात करते हुए कुछ भी नया नहीं कहा जा सकता बल्कि सब दोहराया ही जाता है किंतु दोहराने का शिक्षा और साहित्य दोनों में ही बहुत महत्त्व  है। प्रेमचंद को पढ़ते हुए उनके विचार से शायद ही प्रेमचंद के साहित्य का कोई कोना है जो महादेवी वर्मा, जैनेंद्र, अज्ञेय, निराला, बेनीपुरी, दिनकर, नागार्जुन, भीष्म साहनी जैसे पुराने साहित्यकार व लेखकों से छूटा होगा। प्रेमचंद समस्याओं के कारण लेखक नहीं बने अपितु याद रखना चाहिए कि रचनाकार जब लिखता है तो वह दरअसल किसी राष्ट्रीय कत्र्तव्यवश या किसी सामाजिक सुधार के  कत्र्तव्यवश नहीं लिखता है बल्कि इसलिए लिखता है क्योंकि उसे लोगों में दिलचस्पी हैं, उसे आसपास की जिंदगी में लुत्फ आता है। प्रेमचंद को भी इस जिंदगी में अत्यधिक आनंद आता है और उनकी गहरी दिलचस्पी चलते-फिरते लोगों में है कि यह काम करते हुए क्या सोच रही है?, इसका दिल कैसे धड़क रहा है? उन लोगों के भाव भंगिमाओं अंदाज, मनोभावों में बहुत दिलचस्पी है । प्रेमचंद की साहित्य की परिभाषा के अनुसार  मनोभावों का चित्रण करने वाला ही लेखन साहित्य है। 

उन्होंने कहा कि गोदान केवल भारतीय किसान की त्रासदी नहीं बल्कि होरी, धनिया, गोविंदी, मालती, मिर्जा साहब, राय साहब आदि तमाम लोगों के जीवन की कहानी है इसलिए केवल एक सूत्र देखना प्रेमचंद और गोदान दोनों के साथ अन्याय हैं। अपने मित्र डॉ यशपाल की बात याद करते हुए हमें कहते हैं चलते समय लक्ष्य पर निगाह रखो पर रास्ता है जिस पर चलना है तो उसे पकड़कर मत रहो, रुक-रुक कर चलो रास्ते का आनंद लो, आप सिर्फ अंतिम बिंदु लक्ष्य पर निगाह रखने की हड़बड़ी ना करें। यही उपन्यासकार की दृष्टि है जिसमें वे जीवन के विस्तार को उसकी विविधता को प्रस्तावित करता है। अतः सही कहा गया है प्रेमचंद उपन्यास पढ़ने वालों का एक समाज बनाते थे। 

प्रो अपूर्वानंद ने कहा कि साहित्य की भाषा विद्वानों के बीच बनती है अर्थात जो भाषा के साथ अदब से पेश आते हैं ना कि सड़क किनारे बनती हैं। उस भाषा के लिए रचनाकार को अत्यधिक जतन करना होता है। महादेवी वर्मा भी प्रेमचंद की भाषा पर कहती हैं कि एक तरफ उनकी भाषा में जल है और दूसरी तरफ ज्वाला है। प्रेमचंद भाषा को जिस नजरिए से गढ़ रहे हैं उस नजरिए को ध्यान रखना चाहिए ,वह भाषा में आनंद लेने योग्य है। प्रेमचंद के लेख ‘दास्तान ए आजादी‘ में भाषा का आनंद  देखा जा सकता है।

प्रो अपूर्वानंद ने कहा कि इंसान होना बहुत कठिन काम है यह प्रेमचंद बार-बार अपने कहानियों- उपन्यासों से हमें याद दिलाते हैं। ‘पंच परमेश्वर‘ कहानी के अमर प्रश्न ‘क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात ना कहोगे?‘ के माध्यम से नैतिकता की शिक्षा देने का प्रयास करते हैं। प्रेमचंद का साहित्य धर्मनिरपेक्ष है, वे अपने लेखन में हिंदू -मुसलमान की बराबर सहारना एवं आलोचना करते हैं। प्रेमचंद की वैचारिकी और भाषा को समझाने के लिए प्रो अपूर्वानंद ने अनेक सूत्र रखते हुए प्रेमचंद के संदर्भ में लिखे गए अनेक हिंदी साहित्यकारों के लेखों का उन्होंने अपने व्याख्यान में जिक्र किया। प्रश्नोत्तरी सत्र में विद्यार्थियों के जिज्ञासा पूर्ण प्रश्नों के उत्तर देते हुए प्रो अपूर्वानंद ने कहा प्रत्येक साहित्य का यही उद्देश्य है कि वह मनुष्य को मनुष्य होने का एहसास दिला सके। प्रश्नोत्तरी सत्र का संयोजन विभाग के अध्यापक डॉ नौशाद द्वारा किया गया।

इससे पहले हिंदी विभाग के अध्यक्ष डॉ रामेश्वर राय ने प्रो अपूर्वानंद का स्वागत और विषय प्रवर्तन किया। उन्होंने प्रो अपूर्वानंद की सद्य प्रकाशित पुस्तक ‘यह प्रेमचंद हैं‘ का उल्लेख कर बताया कि साधारण पाठकों को ध्यान में रखकर प्रेमचंद के महत्त्व की पुनर्स्थापना करने वाली यह पहली आलोचना पुस्तक है। विभाग के वरिष्ठ अध्यापक डॉ विमलेन्दु तीर्थंकर ने प्रो अपूर्वानंद का परिचय दिया। हिंदी साहित्य सभा के परामर्शदाता डॉ पल्लव ने सभा के इतिहास और गतिविधियों का परिचय दिया। उन्होंने कहा कि नयी पीढ़ी को साहित्य की विरासत से जोड़कर संवेदनशील पाठक और नागरिक बनाना ही सभा का उद्देश्य है। आयोजन में विभाग के डॉ अभय रंजन, डॉ हरींद्र कुमार, डॉ रचना सिंह सहित दूरदराज के अनेक लेखक- पाठक और विद्यार्थी -शोधार्थी भी शामिल हुए। वेबिनार का संयोजन डॉ धर्मेंद्र प्रताप सिंह ने किया। 


डाॅ. रवि शर्मा ‘मधुप’, रानी बाग, दिल्ली, मो. 9811036140

प्रैस विज्ञप्ति

दिल्ली हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा आयोजित राष्ट्रीय ई-संगोष्ठी
(सभी हिंदी सेवी संस्थाएँ एकजुट हों-अनिल जोशी)

नई दिल्ली। “संपूर्ण भारत की सभी सरकारी तथा गैर सरकारी संस्थाएँ हिंदी हित में एकजुट हों और हिंदी भाषा एवं साहित्य के विकास के लिए भावी योजनाएँ बनाएँ। जरूरतमंद साहित्यकारों की आर्थिक सहायता की जाए, सभी हिंदी सेवी नवीनतम तकनीक से जुड़ें और हिंदी में विभिन्न भाषाओँ से अनूदित रचनाएँ ई-पोर्टल पर उपलब्ध करवाई जाएँ।” केंद्रीय हिंदी शिक्षण मंडल, आगरा के उपाध्यक्ष अनिल जोशी ने दिल्ली हिंदी साहित्य सम्मेलन की राष्ट्रीय ई-संगोष्ठी के मुख्य अतिथि के रूप में ये विचार व्यक्त किए। ‘हिंदी के विकास में सरकारी संस्थानों का योगदान’ विषय पर आयोजित इस राष्ट्रीय ई-संगोष्ठी में देश के विभिन्न क्षेत्रों से विद्वान वक्ताओं को आमंत्रित किया गया था।

राष्ट्रीय ई-संगोष्ठी के संयोजक और दिल्ली हिंदी साहित्य सम्मेलन के उपाध्यक्ष डॉ. रवि शर्मा ‘मधुप’ ने कार्यक्रम की रूपरेखा बताई। सभी उपस्थित विशिष्ट अतिथियों, मुख्य अतिथियों का स्वागत किया। ई-संगोष्ठी की अध्यक्षता दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड के अध्यक्ष डॉ. रामशरण गौड़ ने की। कार्यक्रम का शुभारंभ सुरम्या शर्मा द्वारा सरस्वती वंदना से हुआ।

अपने स्वागत वक्तव्य में दिल्ली हिंदी साहित्य सम्मेलन की कार्यकारी अध्यक्ष श्रीमती इंदिरा मोहन ने संगोष्ठी में सम्मिलित सभी मुख्य वक्ताओं, अतिथियों तथा अध्यक्ष महोदय तथा प्रतिभागी श्रोताओं का हृदय से स्वागत किया। उन्होंने कहा कि सम्मेलन विगत 76 वर्षों से हिंदी के प्रचार-प्रसार में रत है। कोरोना काल में भी विभिन्न आयोजनों के द्वारा यह संस्था अनवरत हिंदी की सेवा में लगी हुई है, उसी कड़ी में यह राष्ट्रीय ई-संगोष्ठी कराई जा रही है। उन्होंने स्पष्ट किया कि जब तक हिंदी का राष्ट्रीय स्तर पर स्वागत नहीं होगा, प्रयोग नहीं होगा तब तक यह भाषा अपना उचित स्थान प्राप्त नहीं कर पाएगी। इसलिए हमें हिंदी के प्रति राष्ट्रीय प्रेम को जगाना होगा।

मुख्य वक्ता के रूप में दिल्ली हिंदी अकादमी, दिल्ली संस्कृत अकादमी तथा गढ़वाली-कुमाऊँनी अकादमी के सचिव डॉ. जीतराम भट्ट ने बताया कि हिंदी अकादमी के दो कार्य हिंदी के प्रचार प्रसार में प्रमुख हैं- लाल किले का कवि सम्मेलन और विभिन्न क्षेत्रों में हिंदी में श्रेष्ठ कार्यों के लिए पुरस्कारों की योजना। इन योजनाओं में शलाका सम्मान सर्वप्रमुख है। भट्ट जी ने आगे कहा कि हिंदी अकादमी हिंदी-प्रचार प्रसार के लिए विभिन्न केंद्रों द्वारा अनेक कार्यक्रम चलाती है। कवियों, साहित्यकारों के साथ-साथ छात्रों को भी विभिन्न स्तरों पर प्रोत्साहित किया जाता है।

द्वितीय मुख्य वक्ता के रूप में उपस्थित राजस्थानी हिंदी ग्रंथ अकादमी, जयपुर के निदेशक डॉ. बजरंग लाल सैनी ने बताया कि हिंदी माध्यम से शिक्षण हेतु विभिन्न महत्त्वपूर्ण ग्रंथों, पांडुलिपियों के प्रकाशन का कार्य विगत 50 वर्षों से हो रहा है। अकादमी कम कीमत पर सभी विषयों की पुस्तकें प्रकाशित करवा कर पाठकों तक पहुँचाने का प्रयास करती है। उन्होंने बताया कि उनके गत दो वर्ष के कार्यकाल के अंदर राजस्थान की विभिन्न बोलियों की पुस्तकें हिंदी भाषा में प्रकाशित की हैं और नवोदित लेखकों के लिए दो दिवसीय कार्यशाला चलाने पर विचार हुआ है।

तृतीय मुख्य वक्ता के रूप में हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकूला के निदेशक डॉ. चंद्र त्रिखा ने बताया कि सूचना प्रौद्योगिकी की आज अत्यंत आवश्यकता है, परंतु अभी यह तंत्र पूर्ण रूप से न परिपक्व है, न प्रामाणिक। हरियाणा साहित्य अकादमी ने इस दिशा में कदम बढ़ाते हुए अपना यू ट्यूब चैनल तथा ई-बुक का प्रकाशन शुरू किया है। उन्होंने कहा कि साहित्यकारों और अनुवादकों को उचित मानदेय/पारिश्रमिक अवश्य देना चाहिए, जिससे उनकी रुचि हिंदी साहित्य में बनी रहे।

मुख्य अतिथि के रूप में केंद्रीय हिंदी शिक्षण मंडल, आगरा के उपाध्यक्ष डॉ. अनिल जोशी ने कहा कि पुरानी परंपरा में से कुछ लोग ऐसे हैं, जो अभी तक सेवा कर रहे हैं। उनमें से सम्मेलन की कार्यकारी अध्यक्ष श्रीमती इंदिरा मोहन जी भी हैं, जो अभी भी अपनी पूर्ण ऊर्जा के साथ सम्मेलन की सेवा में लगी हुई हैं। उन्होंने राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन जी का एक उदाहरण देते हुए कहा कि मृत्यु निकट होने पर पुरुषोत्तम दास जी ने श्री गोपालप्रसाद व्यास जी का हाथ पकड़कर कहा - ‘‘तुम्हें हिंदी का प्रचार प्रसार निरंतर करना है।‘‘

केंद्रीय हिंदी संस्थान द्वारा हिंदीतर क्षेत्रों में हिंदी के उत्थान के लिए विभिन्न कार्य किए जाते हैं। ‘गवेषणा’, ‘भावक’ आदि पत्रिकाओं के माध्यम से हिंदी का प्रचार-प्रसार किया जाता है। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि देश के प्रसिद्ध साहित्यकारों के जन्म स्थान, व्यक्तित्व, कृतित्व को जन सामान्य तक पहुँचाने के लिए प्रकाशन आवश्यक है। सभी सरकारी एवं गैर-सरकारी संस्थाओं को हिंदी की भलाई के लिए एक साथ मिलकर योजनाएँ बनानी चाहिए। वर्तमान समय की पुकार को देखते हुए कार्यक्रमों को ऑफलाइन से ऑनलाइन प्रतिष्ठित करना चाहिए और हमें नवीन प्रौद्योगिकी से दोस्ती करनी चाहिए।

अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड के अध्यक्ष डॉ. रामशरण गौड़ ने कहा कि हिंदी को भारतीय वाङ्मय की भाषा बनाना समय की माँग है। हिंदी को अध्ययन-ध्याप्न का माध्यम बनाने से ही हिंदी का उद्धार होगा। हिंदी के तीन स्वरूप हैं -राजभाषा, संपर्क भाषा और राष्ट्रभाषा। गौड़ साहब ने बताया कि राजभाषा के लिए सरकारी प्रयासों के द्वारा अनुवादक तो उपलब्ध हो जाते हैं, परंतु संपर्क भाषा व राष्ट्रभाषा यानी साहित्य की भाषा के अनुवादक उपलब्ध नहीं होते, जिसके कारण हिंदी के पूर्ण प्रचार-प्रसार में बाधा पहुँचती है। भारतीय संस्कृति से जुड़े रहने का सशक्त माध्यम हिंदी ही है।
 
कार्यक्रम के अंत में हिंदी साहित्य सम्मेलन के प्रबंध मंत्री आचार्य अनमोल ने इस राष्ट्रीय ई-संगोष्ठी में उपस्थित हुए मुख्य अतिथि, मुख्य वक्ताओं, अध्यक्ष महोदय के साथ-साथ उपस्थित प्रतिभागी श्रोताओं का धन्यवाद ज्ञापन किया। उन्होंने बताया कि आज की इस संगोष्ठी में विद्वत मंडल का उद्बोधन विषय की गहराई से जुड़ा हुआ रहा है, जिसका लाभ सभी को मिलने वाला है। यह संस्था सभी सुझावों के अनुरूप भविष्य में भी ऐसे आयोजन करने में संलग्न रहेगी। कार्यक्रम के संयोजक व संचालक डॉ. रवि शर्मा ‘मधुप’ को उन्होंने विशेष बधाई देते हुए कहा कि मधुप जी ने बड़ी ही वाक्पटुता और कुशलता के साथ इस राष्ट्रीय ई-संगोष्ठी संचालन किया है। 




रंजना भाटिया,  दिल्ली, मो. 9991780817
समीक्षा

पारो उत्तरकथा (समीक्षा)

देवदास नाम लेते ही, दिल दिमाग में  सबसे पहले शरतचंद्र और उसके बाद उनके इस उप्न्यास पर बने चलचित्र याद आने लगते हैं। शरतचंद्र ने बहुत ही बेहतरीन उपन्यास लिखे जिसमे से देवदास भी सबसे अधिक लोकप्रिय ही हुआ, वैसे उनकी लिखे में कई पर सिनेमा में पिक्चर बनी, जो बहुत लोकप्रिय भी रही हैं।
 
यह शरतचन्द्र का पहला उपन्यास है। लिखे जाने के सोलह साल बाद तक यह अप्रकाशित रहा। शरत स्वयं इसके प्रकाशन के लिए उत्साही नहीं थे, लेकिन 1917 ई. में इसके छपने के साथ ही व्यापक रूप से इसकी चर्चा शुरू हो गई थी। विभिन्न भारतीय भाषाओं में इसके अनेक अनुवाद हुए। अनेक भारतीय भाषाओं में इस पर फिल्में बनीं। आखिर देवदास की इतनी लोकप्रियता के क्या कारण हैं? यह कृति क्यों कालजयी बन गई? असल में देवदास सामंती ढाँचेवाले भारतीय समाज में घटित एक ऐसी प्रेमकथा है जिसमें गहरी संवेदनशीलता है। शरत ने उसे इतनी अन्तरंगता से लिखा है कि देवदास की कहानी में सबको कहीं-न-कहीं अपनी जिन्दगी भी दिखाई दे जाती है।

देवदास की यह कहानी हमारे भारतीय समाज-व्यवस्था की अनेक विसंगतियों को भी बताती है। दुनिया की सबसे सरल प्रेम कहानी होने के बावजूद यह कभी पुरानी न पड़ने वाली कहानी भी है। देवदास लिखा गया किरदार कभी न भूलने वाले किरदारों में शामिल हो गया है। देवदास के किरदार की खासियत यह है कि उसमें हर प्रेमी को अपना अक्स दिखता है। इसी वजह से 1917 में प्रकाशित शरतचंद के इस नॉवल को पीढ़ी-दर-पीढ़ी पढ़ा गया है। शायद यह दुनिया की इकलौती किताब होगी, जिस पर कई बार कामयाब फिल्में बन चुकी हैं। इस उपन्यास की कहानी देवदास, पारो और चन्द्रमुखी की कहानी के साथ और भी अनेक चरित्रों की कहानी है, जो हमारे आसपास ही मौजूद है और इसलिए इस उपन्यास में सबको अपने जीवन का अक्स दिखाई देता है।  तालसोनापुर गाँव के देवदास और पार्वती बालपन से अभिन्न स्नेह सूत्रों में बँध जाते हैं, किन्तु देवदास की भी प्रवृत्ति और उसके माता-पिता के मिथ्या कुलाभिमान के कारण दोनों का विवाह नहीं हो पाता। दो तीन हजार रुपये मिलने की आशा में पार्वती की माँ तेरह वर्षीय पार्वती को चालीस वर्षीय दुहाजू भुवन चैधरी के हाथ बेच देती हैं, जिसकी विवाहिता कन्या उम्र में पार्वती से बड़ी थी। विवाहोपरान्त पार्वती अपने पति और परिवार की पूर्णनिष्ठा व समर्पण के साथ देखभाल करती है। निष्फल प्रेम के कारण नैराश्य में डूबा देवदास मदिरा सेवन आरम्भ करता है,जिस कारण उसका स्वास्थ्य बहुत अधिक गिर जाता है। कलकत्ता  में चन्द्रमुखी वेश्या से देवदास के घनिष्ठ संबंध स्थापित होते हैं। देवदास के सम्पर्क में चन्द्रमुखी के अन्तर में सत प्रवृत्तियाँ जाग्रत होती हैं। वह सदैव के लिए वेश्यावृत्ति का परित्याग कर अशथझूरी गाँव में रहकर समाजसेवा का व्रत लेती है। बीमारी के अन्तिम दिनों में देवदास पार्वती के ससुराल हाथीपोता पहुँचता है किन्तु देर रात होने के कारण उसके घर नहीं जाता। सवेरे तक उसके प्राण पखेरू उड़ जाते हैं। उसके अपरिचित शव को चाण्डाल जला देते हैं। देवदास के दुखद अन्त के बारे में सुनकर पार्वती बेहोश हो जाती है। बस हम सब यहाँ तक ही देख पाते हैं समझ पाते हैं उपन्यास पढने से पर आखिर इसके बाद क्या हुआ होगा ?

जब जब इस उपन्यास को पढ़ा तब तब लगा मुझे महसूस हुआ कि आखिर फिर पारो उर्फ पार्वती का क्या हुआ होगा। हर किसी पढने वाले ने तो एक बार अवश्य ही पारो और बाकी बचे जीवन की कहानी को जानने कि जिज्ञासा रही होगी और अपने अपने कयास लगायें होंगे। ‘‘पारो उत्तरकथा’‘ सुदर्शन प्रियदर्शनी द्वारा लिखित यह उपन्यास, देवदास और पारो की कहानी के बाद की बात को बहुत अच्छे से बताता है। बहुत से ऐसे प्रश्न जो कम से कम उस उपन्यास को पढ़ते हुए मेरे दिल दिमाग में रहे, यह उपन्यास पूरी तरह से उन के उत्तर देने में सफल रहा है।

“सुदर्शन प्रियदर्शनी” जी का यह मैंने पहला उपन्यास पढ़ा है। और उनके लेखन की मुरीद हो गयी हूँ। सुदर्शन जी एक प्रवासी लेखिका हैं। जिनके कई सफल उपन्यास, कहानी संग्रह आ चुके हैं। और बहुत सफल भी रहे हैं... पारो उत्तरकथा में उन्होंने पारो रानी साहिबा, कंचन, चन्द्रमुखी और अन्य स्त्री पात्रों के साथ पुरुष चरित्रों को जैसे राय साहब, महेन, धर्मदास, प्रमोद आदि को भी बखूबी विस्तार दिया है जो देवदास के बाद की कहानी को समझने में सम्पूर्ण रूप से सफल रहे हैं।

यह उपन्यास शुरू ही उस प्रसंग से होता है जहाँ शरतचंद्र का देवदास खत्म हुआ और पारो सुधबुध खो बैठी अपनी। विवाह उसके लिए खुशी का विषय वैसे भी नहीं रहा था, पर देवदास की उसके दरवाजे पर मौत ने उसको और उसके समाज द्वारा माने जाने वाले वैवाहिक जीवन को और भी दुष्कर बना दिया। वह अपने हर ख्याल में देवदास से मिलती और बात करती उन प्रश्नों के उत्तर तलाश करती रहती है जो एक आम पढने वाले पाठक के भी प्रश्न हैं। समाज, मर्यादा, बेबसी और अपने कर्तव्य को सम्पूर्ण रूप से निभाने की हर बात के उत्तर देता हुआ यह उपन्यास ‘‘पारो उत्तर कथा‘‘ वाकई प्रणय, प्राण और प्रारब्ध‘‘ का एक अनूठा दस्तावेज बन गया है। देवदास पारो के उतरने वाले ख्यालों के माध्यम से उस हर बात को इतनी गहराई से कहता है कि हर चरित्र जैसे असल उपन्यास के बाद का लिखा जाने वाले चरित्र की एक अलग ही कहानी बन गया है इस उत्तर कथा में।

शुरुआत के पहले पन्नों में लीलावती का पारो को समझना और उस से जीवन की तुलना करना जो एक स्त्री होने के नाते वह समझ पाती है वाकई काबिल तारीफ है जैसे पेज 20 पर इस उपन्यास के ‘‘आज सोचती हूँ कि नारी की वैदिक जाग्रति आदि युग की विश्वारालोपा, अनुसुइया, गायत्री, की अदम्य साहसकिता कहाँ विलुप्त हो गयी ? समझ में आता है कि खेबरी दर्रों से उतरने वाले सिकन्दरी नुमा आक्रमणों ने स्त्री को पर्दों के पीछे धकेल दिया। नारी अन्दर ही अन्दर धंसती धंसती कहीं जमीन में गढ़ गयी, जो आज तक नहीं निकल सकी है। बड़े बड़े क्रांतिकारी भी उसको उस बेड़ियों से छुटकारा नहीं दिला पाए। स्वयम शरतचंद्र नारी पर दया करते रहे। यह उनकी कायरता नहीं, पुरे युग की कायरता है।

यह पूरी पंक्तियाँ पढ़ी जाएँ तो यह आज भी स्त्री जाती कि व्यथा को बखूबी बताती है। लीलावती पारो की पीड़ा को समझती है और उसका सहारा भी बनती है। वहीं पारो भी अपनी सास के बीते जीवन के दर्द को महसूस करती है। 
राधा‘‘ वीरेन रायसाहब की पहली पत्नी का दर्द भी बखूबी इस उपन्यास में उकेरा गया है। उसकी बचपन के वीरेन के प्रति की स्नेह भावना को किस तरह से उसकी बाकी जिन्दगी को एक सजा के रूप में उनकी पत्नी बन कर चुकाना पड़ता है वह पढ़ते हुए आँखे नाम हो जाती है। स्त्री जो एक माँ है, बहन है, पत्नी है, बेटी है, बन कर अपना पूरा स्नेह और जीवन पुरुष पर लुटा देती है पर पुरुष कहाँ समझ सकता है उसके इस भावपूर्ण जीवन के हर क्षण को और कुछ स्त्री पात्र भी ऐसे होते हैं जो स्त्री के ही दुश्मन बन जाते हैं, अपने बड़े होने की चाह को किस तरह से बेटी को अपने बाप की उम्र से ब्याह देती है, यह बहुत ही पीड़ा देने वाला विषय है। मेरी पारो सोने की पालकी में बैठ कर जायेगी ‘‘यह दो परिवारों के दम्भ दो प्रेम करने वालों को जिंदगी भर की सजा सुना देते हैं। फिर चाहे उसको नियति का खेल मान कर बाकी का जीवन यह देवदास और पारो और उनके साथ जुड़े कैसे जीते हैं यह सब एक दर्दनाक कहानी में ढल जाते हैं।
 
राधा से विवाह करके राय साहब इतने अधिक  राधा के प्रति असक्त हो जाते हैं कि फिर उन्हें अपनी बेटी कंचन का साथ रहना भी नहीं सुहाता उस पीड़ा को सुदर्शन प्रियदर्शनी ने बखूबी अपनी कलम से उकेरा है। बेटी से जुदाई की तड़प ने राधा को उस पीड़ा में डाल दिया जहाँ वह अपनी ही बेटी की अपराधी सी लगती है, और कंचन जिसने न बचपन सुख से जीया न फिर आगे का जीवन प्रमोद से ब्याह कर उम्र से पहले ही स्त्री होने के दर्द से वाकिफ हो जाती है। वह पारो को अपनी माँ कैसे कहे जो कि उसकी हमउम्र है, इस पीड़ा से पारो उसको निकाल कर अपनी सहेली बना कर माँ का कर्तव्य भी बखूबी पूरा करती है। वह उसको जिस तरह से विधवा होने पर संभालती है, एक स्त्री होने के नाते, पारो की सास तो उसकी कायल है ही, पर वह पति वीरेन जो पुरुष दंभ से भरा हुआ, पारो के एक देवदास नाम और राधा के मोह में जकड़ा हुआ पुरुष भी पारो के एक चरित्र के सामने नतमस्तक हो जाता है।

 चन्द्रमुखी, देवदास की माँ, धर्मदास, और भी कई चरित्र जो इस पारो उत्तरकथा में लिखे गए हैं वह बखूबी सुन्दर ढंग से अपनी बात को कहते हैं। राय साहब का कंचन के विधवा होने पर दर्द से तडपना, और पारो की पीड़ा को, राधा की पीड़ा को, और बेटी के उस अनकहे दर्द को समझना जैसे दिल में एक शान्ति सी देता है। देवदास की माँ का भी पारो से मिलने पर अपने जाति दंभ से उपर उठ कर उसको गले लगाना इस समाज को समझने की प्रक्रिया से गुजरने जैसा लगता है। पृष्ठ 109 में देवदास पारो के वार्तलाप की इन पक्तियों में यह बात हम पढ़ते हुए बखूबी महसूस कर सकते हैं, ‘‘यह बेचैनी तो आजकल में चली जायेगी पारो! पर जो दोनों तरफ घाव लगें हैं-जो अन्दर तक दिलों की चिराई हुई है- इसमें कहीं जगहंसाई भी शामिल है। उन सब की दूवेछा भी -इसमें शामिल है-वह क्या सब जुड़ सकेगा !‘‘

देवदास की आत्मा मर कर भी चैन नहीं पा रही है, और इधर जी कर पारो भी देवदास के साथ मर रही है। मुक्ति दोनों की नहीं हो पा रही है। देवदास चाहता है कि पारो अब उस के मोह से मुक्त हो कर अपने जीवन को सही तरीके से जीए, उधर पारो देवदास के साथ इस कद्र जुडी है कि वो हर सांस में हर परछाई में सिर्फ देवदास को ही तलाश करती है। देवदास मर कर भी अधूरेपन को लिए मुक्ति का मार्ग ढूढ़ रहा है जो पारो के राय साहब को स्वीकार करने पर ही मिल सकता है और उधर पारो भी झूठ और प्रेम के अधूरेपन को जीती हुई जीए जा रही है। पर इस उपन्यास के अंत तक आते आते इस तरह से शब्दों का ताना बाना लेखिका द्वारा बुना गया है कि वह हर एक लिखे शब्द को अपने जिन्दगी के लम्हे में जी लेता है। और अपने सब सवालों के जवाब पा लेता है जो उस वक्त के लिखे देवदास और पारो की कहानी में आज भी उतने ही सच है।
 
लेखिका ने इस उत्तर कथा को एक  समोह लेने वाली विधा से लिखा है, जो हर पन्ना पढ़ते हुए और भी रोमंचित करता जाता है, “देवदास उपन्यास को पढने वाले और देखने वाले दर्शक, पाठक इस उत्तरकथा” में देवदास पारो और अन्य चरित्र के माध्यम से खुद को रूबरू पाते जाते हैं। बेशक कई जगह यह पर बहुत कम कहूँगी कि यह उत्तरकथा थोड़ी बोझिल भी हुई है, कई जगह पढ़ते हुए एक भ्रम सा भी बना है कि यह वाकई क्या ऐसा सच हो सकता है ? जैसे चन्द्रमुखी और पारो का मिलना और उनकी बातचीत, आदि फिर भी मैं  यही कहूँगी कि यह उत्तरकथा पढने लायक है समझने लायक है जिन्दगी के उन सभी पहलुओं को जो आपके जीवन में प्रभाव डालते हैं, इन्ही लिखे संवादों में आप कहीं उन पलों को भी जी लेतें हैं जो सच के करीब से निकल जाते हैं पर आपके हृदय पर अपनी दस्तक देते रहते हैं। लिखना बहुत कुछ चाहती हूँ इस पर किन्तु चाहती हूँ कि आप स्वयम पढ़े इस को और इसके तिस्लिम को जीयें जो शब्दों से सीधे उतर कर आपके दिल में बस जाते हैं। और पारो, देवदास के इस दर्दनाक प्रेम का अंत आखिर क्या होता है? क्या देवदास को मुक्ति मिल जायेगी ? क्या रायसाहब अपने पुरुष दंभ से बाहर आ कर पारो के दर्द को भी समझ पायेंगे ? क्या पारो कंचन, महेन की माँ बनते हुए उस स्त्री जीवन को भी पूर्ण जी पाई जो अधूरापन देवदास के जाने से उसको मिला था ? चन्द्रमुखी का प्रेम पारो से कितना कम और कितना गहरा था या नहीं ? आदि ऐसे बहुत से प्रश्न होंगे न आपके दिल में भी ? तो यह उपन्यास जरुर पढ़े और इसको पढ़ के आप इसको खुद जाने तो बेहतर होगा। यह उत्तरकथा आपको “शरतचंद्र के लिखे देवदास” की तरह बार बार पढने को उकसाती रहेगी।

सुदर्शन प्रियदर्शनी का लिखा यह अदभुत उपन्यास ‘‘पारो उत्तरकथा‘‘ आप सम्या प्रकाशन से ले सकते हैं। 




समीक्षा

असफल प्रणय और सफल प्रारब्ध का दस्तावेज है सुदर्शन प्रियदर्शिनी का उपन्यास ‘पारो उत्तरकथा’

शरतचन्द्र के उपन्यास देवदास के पात्र मिथक बन चुके हैं। चाहे देवदास हो, पारो हो या चंद्रमुखी। सभी पात्र अपनी छवि के अनुसार अमर हो चुके। कोई प्रेम में असफल तो कोई प्रेम की पराकाष्ठा के लिए। गाहे-बगाहे विशेषण के रूप में इनका प्रयोग भी हमें देखने को मिल जाता है। समय समय पर इसे आधार बनाकर बनने वाली फिल्में भी इन चरित्रों का गुणगान करती नजर आती है।

इसी विषयवस्तु को लेकर इसके एक पात्र पारो को आधार बनाकर एक उपन्यास सामने आया है सुदर्शन प्रियदर्शिनी का ‘पारो उत्तरकथा‘। शरतचन्द्र का उपन्यास देवदास जहां देवदास के पारो की चैखट पर दम तोड़ने के साथ समाप्त होता है, वहीं प्रियदर्शिनी का उपन्यास वहां से शुरू होता है। इस उपन्यास के पात्रों पार्वती या पारो, रायसाहब विरेन, रानी मां, कंचन, शोभना और महेन आदि के इर्द-गिर्द के इसकी विषयवस्तु रची गई है। सभी पात्र परिवार से अधिक अपनी ही समस्याओं से जुझते नजर आते हैं। हर एक दो पेज के बाद कोई न कोई पात्र एकालाप करता नजर आता है, जिसके माध्यम से कहानी को वर्तमान और बीते हुए कल को जोड़ने के प्रयास किया गया है। पारो अपने प्रेमी को भुला नहीं पा रही और देव उसे बीते कल को भुलाकर आगे बढ़ने के सीख पारो के अंतर्मन के साथ वार्तालाप के माध्यम से देता रहता है। पारो के सामने कंचन जो कि रायसाहब विरेन की प्रेमिका और पत्नी राधा की बेटी है, के जीवन में भूचाल खड़ा हो जाने के कारण वह अपने अंतर्द्वंद्व से उबरकर परिवार से जुड़ने का प्रयास करती है जिसमें वह कितनी सफल होती है, यह इस उपन्यास को पढ़कर ही आप पा सकेंगे। रायसहाब खुद भी अपनी पहली पत्नी राधा को नहीं भुला पाते, परन्तु याद रखकर भी जीवन नहीं चलता। रानी मां दो पाटों के बीच पिसता एक पात्र है, जिसने पहले अपने पति को सहा और अब बेटे को सुधारने का प्रयास कर रही है। कंचन जिस घर में कभी सुखी नहीं रहती उसी की इज्जत बचाने के लिए उसी घर में रहने का फैसला कर लेती है। महेन का अपना दुःख है, जो किसी के साथ नहीं बांटना चाहता और अंदर ही अंदर घुटता रहता है। पारो का स्पर्श पाकर वह पिघलता है और आगे बढ़ने का फैसला करता है। हर कोई अपने दुःख दर्द से जुझता हुआ परिवार को बांधे रखने के प्रयास में है और इन सब के बीच सेतु का पारो करती है।

इस उपन्यास के माध्यम से प्रियदर्शिनी ने शरतचन्द्र के देवदास की कथा को आगे बढ़ाने का प्रयास किया है। इस कोशिश में उन्होंने उसी प्रकार की भाषा शैली, चरित्र चित्रण और देश-काल का वर्णन भी किया है। मानसिक द्वंद्व का चित्रण करने के प्रयास में कथानक लम्बा और बोझिल भी हो गया है। कई जगह भाषागत अशुद्धियां भी दृष्टिगोचर होती है। इसकी लम्बाई और लम्बा कथानक तारतम्य नहीं बना पाता। जिसका परिणाम यह भी निकलता है कि एक आम पाठक के लिए यह पढ़ने से विमुख करने वाला भी सिद्ध हो सकता है।

सार रूप में यही कहा जा सकता है कि यदि इसे कथानक के स्तर पर थोड़ी कसावट के साथ लिखा जाए तो गल्फ और प्रणय पर आधारित उपन्यास पढ़ने वालों के लिए अच्छा उपन्यास सिद्ध हो जाए।

पुस्तक: पारो - उत्तरकथा
विधा: उपन्यास
रचनाकार: सुदर्शन प्रियदर्शिनी
प्रकाशक: सभ्या प्रकाशन दिल्ली
मूल्य: 450/-
रामकुमार भाम्भू सूरतगढ़ श्रीगंगानगर।


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