आत्मगत को वस्तुगत बनाना ही साहित्य का काम है : राजी सेठ


अभिनव इमरोज़ एवं साहित्य नंदिनी परिवार की ओर से राजी सेठ जी को जन्मदिन की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं


डॉ. आरती स्मित राजी सेठ के साथ
                                                      

बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में और अपने जीवन का चार दशक गुज़ारने के बाद, वर्षों से इकट्ठी संवेदना एकबारगी बहाकर हिंदी साहित्य समाज को चकित कर देने वाली अद्भुत लेखिका राजी सेठ कहानी-कविता को माध्यम बनाकर उन तमाम समकालीन समस्याओं, विमर्शों और क्रांतियों को रूप देती हैं जो हाशिए पर टँगे भी थे तो मर-खप गए से थे या जिन्हें सरोकारों की भीड़ में जगह नहीं मिली थी। उनकी संवेदना की गठरी से छलकती कहानियाँ इतनी यथार्थ, इतनी मर्मस्पर्शी, इतनी बेंधने वाली और अंतस्तल को झकझोरनेवाली हैं कि पाठक देर तक उब-डूब करता रह जाता है, फिर मैं भला कैसे बचती! इसलिए अपनी जिज्ञासाओं की पोटली थामे एक दिन उनसे मिलने चली गई। दूधिया जलधार की तरह आभामयी राजी सेठ जिस आत्मीयता से मिलीं कि आत्मीय संवाद घंटों चला… औपचारिकता के लिहाफ़ से बिलकुल बेलाग सरल संवाद।... और इसलिए यह समालाप अधिक महत्वपूर्ण है मेरे लिए। उनसे हुई बातचीत की झलक प्रस्तुत करने से पहले एक नज़र उनके कृतित्व पर, जो गागर में सागर जैसा है..... 

राजीजी के दस कहानी संग्रहों-- दूसरे देश काल में, रुको इंतज़ार हुसैन, गमे हयात ने मारा, खाली लिफाफा, यहीं तक, किसका इतिहास, यात्रा-मुक्त आदि के साथ ही ‘निष्कवच’ और ‘तत-सम’ महत्वपूर्ण उपन्यासों का उल्लेख करना आवश्यक है। आपने जर्मन कवि रिल्के के सौ पत्रों का हिंदी अनुवाद करके हिंदी साहित्य को अनूठा उपहार दिया है। अंग्रेज़ी सहित कई भाषाओं में आपकी कृतियाँ अनूदित हैं और कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जा रही हैं। भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला की फेलो रही राजी सेठ कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित हुईं, मगर न दर्प पनपा न आडंबर! निश्छलमना! अब एक नज़र बातचीत पर .... 

कहते हैं, बचपन की यादें कभी जाती नहीं। नौशेहरा छावनी में आपके बचपन का कितना हिस्सा गुज़रा?  

सब सपना –सा लगता है! पर भूल नहीं सकते। नौशहरा, पठानों का देश! यह पश्चिमी सीमांत, पेशावर के पास है, वहाँ हमारा जन्म हुआ। बाद में लाहौर आ गए थे। हमारे पिताजी को भरोसा था कि लाहौर नहीं छोड़ना पड़ेगा। सरकार ने लाहौर का फैसला सबसे अंत में किया था। तबतक पता नहीं था कि लाहौर हिंदुस्तान में रहेगा या पाकिस्तान में जाएगा। सारे मुहल्ले खाली हो गए, मगर पिताजी टस से मस नहीं हुए। वे कहते, इससे क्या फरक पड़ता है! मगर.... ! पिताजी नॉर्थ फ़्रंटियर से पंजाब आना चाहते थे। पंजाब आकर लाहौर में अपना मकान बनाया। उन दिनों पंजाब की राजधानी थी लाहौर। उस समय मैं नौ-दस साल की रही होऊँगी। 

विभाजन की घोषणा के साथ ही देश में अमानवीयता का तांडव शुरू हुआ, उसे समझ पाने के लिहाज़ से आप बहुत छोटी थीं, फिर भी आपके बालमन पर जो असर पड़ा,  क्या आज भी वे यादें आपको अपनी ओर खींचतीं हैं?

माँ-पिताजी की ज़िद थी कि ठीक है, देश को आज़ादी मिली है, मगर हम यहीं रहेंगे। हम क्यों जाएँ? वे कट्टर देशभक्त थे। जिस दिन बलूची मिलिटरी आ गई और उन्होंने घरों से आदमियों को बाहर खींचकर पेड़ से बाँधना और उनकी आँखों के सामने औरतों की आबरू से खेलना शुरू किया तब पिताजी का विश्वास डगमगा गया। एक दिन जैसे ही अपने इलाके में मिलिटरी के आने की ख़बर सुनी, वे घर आए और माँ को बोले, “चलो! अभी निकलना है।” “लेकिन अभी खाना तो पका नहीं है। दाल चढ़ी है।” पिताजी ने अब माँ को ज़वाब नहीं दिया, हैंडपंप से एक बाल्टी पानी भरकर चूल्हे में उड़ेल दिया, फिर बोले “अब अकाध कपड़े रख और चल!” “लेकिन जाएँगे कहाँ” “जा रहे हैं पं. नेहरू को बधाई देने। अब चुपचाप चल!” “रहेंगे कहाँ?”“सरकार ने डीएवी कॉलेज में कैंप बनाया हुआ है। अभी वहाँ चलते हैं, बाद में घर लौट आएँगे।” तीन-चार महीने रिलीफ़ कैंप चलती रही। रास्ते में ट्रेनों में लोगों को काट देते। जिस ट्रेन से हमारे माँ-पिताजी आए थे, उसमें ख़ून जमे हुए थे पटरी पर। हमें पहले ही दिल्ली भेज दिया गया था। हमें रेडियो से पता चला था कि माँ-पिताजी आ रहे हैं। सारी घटनाएँ मेरी कहानियों में ज़िंदा हैं।

दिल्ली कब, कैसे आना हुआ? 

मेरी भाभी प्रेग्नेंट थीं। रोज़ ख़बरें आती थीं कि यहाँ आग लगा दी गई, वहाँ दंगे हो रहे तो पिताजी ने पहले ही उन्हें और उनके साथ ही हमलोगों को भी दिल्ली, उनके मायके भेज दिया। हम रोज़ उनका इंतज़ार करते थे। कोई-कोई आकर बताता कि आपके मकान पर हमला हुआ है और आपके माँ-बाबूजी मारे गए। बीतते दिन के साथ, हमने तो उम्मीद ही छोड़ दी थी।  

जिस दिन माँ-पिताजी के आने की ख़बर मिली और हम उन्हें लिवाने गए... उन्हें और बाक़ी विस्थापित लोगों को जिस हालत में देखा....!  हमारे फुफेरे भाई ऑर्डिनेंस फैक्टरी में ओवरसियर थे, पिताजी ने उन्हें ख़बर दी और मकान का इंतज़ाम करने कहा।

विस्थापन की पीड़ा का दंश जो आपके परिवार ने झेला, जो आपने उस दौर में महसूस किया, राजनीतिक बदलाव के कारण विस्थापित लोगों के सामाजिक और आर्थिक संकट के बारे में कुछ बताना चाहेंगी?  

 आर्थिक संकट उत्पन्न होना तो स्वाभाविक ही था। सामाजिक पहचान भी खोकर आए थे सब। बसे-बसाए घर से उजड़कर, अपनी पहचान खोकर आना.... शब्द देना मुश्किल है! पिताजी ने सारा सामान देव समाज को दे दिया था। जब उनसे माँगे तो वे मुकर गए। काफ़ी तकलीफ़ें झेलीं, मगर परिवार एकजुट था तो धीरे-धीरे सब संभल गया। माँ-पिताजी ने शाहजहाँपुर में, एक छोटे-से मकान में गृहस्थी जमाई। शाहजहाँपुर के कलेक्टर दयालु थे। वे बाहर से आए लोगों को गृहस्थी बसाने में उनकी मदद कर रहे थे। लोगों के कहने पर पिताजी जी भी मिलने गए थे। वहाँ कई लोग इंतज़ार में थे। थोड़ी देर में कलेक्टर ने बुलाया, बिठाया और पूछा तो पिताजी बोले ‘काम चाहिए’। कलेक्टर ने चपरासी को इशारा किया और वह थोड़े-थोड़े राशन से भरा एक कार्टून लेकर आया, पिताजी बोले, “यह नहीं, काम चाहिए काम!” वे परेशान हुए। थोड़ी देर बाद फिर बोले, “बैठे क्यों हैं श्रीमान! इसे ले जाइए” “मैं इसे तो नहीं ले जाऊँगा। भीख माँगने नहीं आया हूँ, काम माँगने आया हूँ।” कहते हुए पिताजी की आँखें छलक आई थीं। ‘मुलाक़ात’ कहानी में उसकी झलक है। वह कलेक्टर सचमुच भला था। उसने हर एक की कुछ न कुछ मदद करने की कोशिश की थी।

तो आपकी पढ़ाई-लिखाई फिर शाहजहाँपुर में ही हुई होगी? इतने संकटों के बीच पढ़ाई में बाधाएँ भी आई होंगी?

मेरे पिता और भाइयों ने ख़ुद संकट सहे, मगर हमें पढ़ाया। मेरे भाइयों ने पढ़ाई छोड़ दी, काम में लग गए, मगर हमें पढ़ाया, म्यूजिक सिखाया। इंटर तक शाहजहाँपुर से पढ़ाई की। स्कूल इंटर कॉलेज कहलाता था। ग्रेजुएशन लखनऊ से, हॉस्टल में रहकर पढ़ाई पूरी की। उन्होंने हमारी पढ़ाई के रास्ते में कभी बाधा नहीं आने दी। पिताजी हमें फूल की तरह रखते।  मुझे हमेशा यही लगता है कि उनके कॉस्ट पर यह पाया। भाई-भाभी बहुत प्यार करते थे।  

पढ़ाई में बाधा घर से कभी नहीं हुई। इंटर कॉलेज में थी, तभी सेठ साहब की माँ ने मुझे बहू बनाने का मन बना लिया और शादी के लिए ज़ोर देने लगीं। रईस परिवार था, मगर भैया ने टालने के लिए कहा, ‘जब निरंजन (सेठ साहब)की नौकरी लगेगी, तब शादी करेंगे’। मैं एमए प्रथम वर्ष में थी कि उनकी नौकरी लग गई, फिर तो उनलोगों ने शादी के लिए दबाव बना दिया।   

तो आपने बीच में ही पढ़ाई छोड़ दी?

छोड़नी पड़ी। उनकी पोस्टिंग अहमदाबाद, गुजरात में हुई थी। मैं लखनऊ से ही फिलॉसफी से एमए कर रही थी। शादी के बाद गुजरात गई तो पढ़ाई छूट ही गई। लंबे समय बाद गुजरात से ही मैंने अंग्रेज़ी से एमए किया।  

वहाँ की कोई स्मृति

एक दिन क्लास में अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर आर.के.भट्ट ने एक जटिल सवाल पूछ लिया। वे स्ट्रीम ऑफ कॉन्शसनेस मेथड पढ़ा रहे थे। वे बोले, “है कोई जो ज़वाब दे?” मैंने धीरे से कहा, “आई थिंक आई कैन एक्सप्लेन इट।” वे बोले, ‘बताइए’, फिर मैंने बताना शुरू किया... “ये हमारी चेतना जो है जैसे हम यहाँ बैठे हैं, लेकिन घर के बारे में सोच रहे हैं। इसका मतलब मेरी चेतना यहाँ नहीं है, वहाँ चली गई है। फिर मुझे लगता है, अरे वापस आना है तो क्लास में ध्यान लगाते हैं... फिर वही... तो जब हमारी चेतना भूत, वर्तमान और भविष्य में भ्रमण करती है... दैट इज़ स्ट्रीम ऑफ़ कॉन्शसनेस। हम एक जगह बैठे-बैठे तीनों काल की यात्रा करते हैं... इज़ इट दैट ?” मेरे ज़वाब से वे बहुत ख़ुश हुए।  

उस समय सी.एन. वकील उस समय विश्वविद्यालय के कुलपति थे। उन्होंने नियम बनाया था 60% रिटेन और 40% क्लास वर्क/असाइनमेंट पर मार्क्स दिए जाएँगे। मेरे असाइनमेंट दूर-दूर गाँवों में भेजे जाते थे, यह बात मुझे बाद में पता चली।  

बड़ी बात है मैम!  दर्शन-तत्व जानना-समझना आपको हमेशा प्रिय रहा।‘युगसाक्षी’ से भी जुड़ी रहीं, कुछ उन अनुभवों को साझा करें  

हाँ, साढ़े आठ साल मैंने ‘युगसाक्षी’ में काम किया। डॉ. देवराज की फिलॉसफी मुझे बहुत पसंद थी। डॉ. देवराज के साथ मेरी बातचीत को जमनालाल बजाज के सस्ता साहित्य मंडल ने प्रकाशित किया है। मैं मानती हूँ डॉक्टर साहब की फिलॉसफी कि ‘हर इंसान के भीतर एक तिरोहित चेतना होती है, जिसको ऊपर की तरफ़ ले जाना होता है’। इसी विषय को लेकर  मैंने डॉ. देवराज से बातचीत की थी।

अज्ञेय जी से भी आपका पारिवारिक संबंध रहा 

पिता तुल्य अज्ञेय जी का स्नेह हमदोनों ने पाया है। ‘जहाँ से उजास’ में डॉ. देवराज, अज्ञेय, निराला, जैनेन्द्र, शैलेश मटियानी, नरेश मेहता, फ़िराक़ गोरखपुरी और प्रभाकर श्रोत्रिय से जुड़े संस्मरण हैं। अज्ञेय जी पर संस्मरण है... ‘कितने ठौर ठिकाने’। वात्स्यायन जी चाहते थे कि सब उनसे मिलें, बात करें मगर लोग उनसे डरते थे।

मैंने सुना है, वे बहुत गंभीर स्वभाव के थे 

गंभीर! अरे उनके जैसा ख़ुशमिजाज़ कोई होगा नहीं। इतना हँसते थे-इतना हँसते थे कि क्या बताऊँ! चाय पीने के दौरान जो भी नज़र आ जाता, सबको आवाज़ देकर पास बुला लेते। वे हमेशा कहते, “अपने को खाली करो। फालतू चीज़ों से मत भरो।.... आपको अपने बुद्धि-विवेक से काम लेना है। इसको (दिमाग को) स्वस्थ रखो हमेशा। कूड़ा मत डालो। चिंता, परनिंदा ... ये कुछ नहीं। विवेक से आपको सारी उमर काम लेना है। इसको स्वस्थ रखो।”

   मैं कभी कोई रचना पढ़ने देती तो पढ़कर कहते थे, ‘अच्छा है’ फिर कहीं कोई कमी होती तो बता देते थे। कहते थे, “जिस भाषा का उपयोग करो, उसे पूरी तरह समझकर। यह नहीं कि थोड़ी पंजाबी, थोड़ी गुजराती। वे तरीका बताते थे। बहुत कुछ सीखा उनसे। प्रूफ़रीडिंग भी उनसे ही सीखी। अभी वे सब काग़ज़ पड़े हैं। कैसे नष्ट कर सकते हैं उन्हें ! मुझे जीवन में हमेशा अच्छे लोग मिले।

आपने स्त्रियों को केंद्र में रखकर अधिक कहानी लिखी है। फिर भी कुछ ऐसी मर्मस्पर्शी कहानियाँ भी हैं जिनके केंद्र में पुरुष है और कुछ को किनारे कर दूँ तो अधिकांश संवेदना से भरी, पोर-पोर भिगोने वाली कहानियाँ हैं। ऐसी संवेदना कोरी कल्पना की कथावस्तु से नहीं उपज सकती! उन कहानियों को पढ़कर लगता है, आपने उन स्थिति-परिस्थितियों के दर्द को कहीं गहरे तक जज़्ब किया है, तभी इस रूप में फूटकर निकली हैं वे।               

यह तो लेखन की पहली माँग है। किसी घटना या विषयवस्तु को आत्मसात करना और फिर आत्मगत को वस्तुगत बनाना ही तो साहित्य का काम है। तुम संवेदनशील हो, इसलिए इतनी बारीक़ी से पकड़ पाई। और एक हद तक ठीक ही अनुमान किया। ‘खाली लिफाफा’ मेरे जीवन के निकट की कहानी है।... ‘मुलाक़ात’ भी। दोनों कहानियाँ मैंने एक ही दिन लिखी। 

माँ  लिफाफे पर सबके पते लिखवाकर ट्रंक के नीचे रखती थी; कहती थी, ‘अगर खाली लिफाफा तुम तक पहुँचे तो समझ जाना माँ मुसीबत में है। ... और अगर मैं मर जाऊँ तो और तुम्हें ख़बर मिले तो आने की ज़रूरत नहीं है। मिट्टी का कोई धर्म नहीं होता। लेकिन अगर खाली लिफाफा मिले तो ज़रूर आना’। उन्हें लगता था जब मर गए तो मिट्टी हो गए और मिट्टी का कोई धर्म नहीं होता, लेकिन मरने से पहले कितनी तकलीफ़ें होती हैं। आदमी घिसट-घिसटकर चलता है, उसकी तकलीफ़; कोई इच्छा बाक़ी रह गई, उसकी तकलीफ़। वही असली दुख है। मरना कोई दुख नहीं है।

हम जब माँ से पूछते कि ‘तुम बेटियों के ही पते क्यों लिखवाती हो?’ तो माँ कहती, ‘बेटियाँ नदी होती हैं, बेटे पहाड़। नदी पर पुल बन सकता है, पहाड़ पर नहीं।’  

बहुत गहरी बात! आपने ‘खाली लिफाफा’ में सास-बहू के बीच अद्भुत प्रेम और संवेदना के स्तर पर सामंजस्य दर्शाया है, जबकि समाज में इस रिश्ते को बदनाम स्वरूप प्राप्त है। ऐसी प्रस्तुति निश्चित तौर पर समाज को दिशा देगी।

 मेरी बड़ी भाभी बहुत अच्छी थी। सास-बहू का ऐसा प्रेम! मेरी भाभी माँ को पढ़ना सिखाती थीं। जब बड़ी भाभी फुरसत पातीं तो वे दोनों सिर मिलाकर बैठी रहतीं। मैं तो हैरान होती कि गंगा और जमुना के बीच सरस्वती की धारा बह रही है। हमारी बड़ी भाभी और माँ में ऐसा प्रगाढ़ रिश्ता था कि शब्द देना मुश्किल है। 

 एक घटना बताती हूँ।...  एक दिन भाभी माँ के कपड़े बदल रही थी तो माँ भाभी से बोली, ‘श्यामा! तू बैठ जा यहाँ।’ अभी ऐसे क्यों कहते हो? अभी तो कितने काम करने हैं!’ भाभी बोलीं तो माँ बोली, ‘अच्छा, काम कर ले, लेकिन जब मैं मरने लगूँ तो मेरे पास रहना’।    ... उनके पास से भाभी जातीं, इससे पहले माँ ने दम तोड़ दिया।

सास-बहू का ऐसा रिश्ता वाक़ई दुर्लभ है!

कहानी में वही लिखा है जो देखा, महसूस किया। सास-बहू जैसे बदनाम रिश्ते में मैं देख रही थी कि कैसे गंगा जमुना के बीच सरस्वती की धारा बहती है! वे कहतीं, ‘इतना तो आदमी को आए कि रामायण पढ़ सके; अपने बच्चों को चिट्ठी लिख सके!’    

‘उसी जंगल में’ कहानी स्त्री की जिस मनःस्थिति और सामाजिक स्थिति को दर्शाती है, वह यों तो व्यापक परिप्रेक्ष्य में है, मगर क्या कोई ऐसी घटना आपके आसपास घटी जिसे चेतना ने जज़्ब कर लिया?

यह सच्ची घटना को लेकर बुनी गई कहानी है। उसका पति उसके साथ बदसलूकी करता था। जब उसने घर छोड़ा था, तब वह प्रेग्नेंट थी। 

‘यह कहानी नहीं’ बहुत ही मार्मिक कहानी है। भीतर तक झकझोर देती है। 

 अपनी भांजी को हमने पाला, पढ़ाया-लिखाया, ऊँचे परिवार में शादी दी। सुखी थे वे लोग। एक दिन, बर्थ डे पार्टी से अपनी गाड़ी में लौट रहे थे कि रोड एक्सीडेंट हो गया। पति-पत्नी, दोनों बच्चे सब चल बसे। यह कहानी उन्हें समर्पित है।इसी तरह मेरी एक कहानी है ‘अंतर्द्वंद्व’ । उसे पढ़ा न हो तो पढ़ना। तुम समझ पाओगी।  

मैंने ‘गमे हयात’ की सारी कहानियाँ पढ़ी हैं। इस संग्रह की कहानियाँ कलेजे में लगती है... मर्म को हिलोरती हुई। ‘दलदल’ की अनुभूति आपसे सुनना चाहूँगी 

लिखना क्या है, जब हम घटना को अनुभव में बदल देते हैं और विश्वसनीयता लाते हैं कि ‘हाँ! यह हो रहा है’ तो संवेदना फूटती है।

‘विदेश में भारतीय पिता’, निष्कवच’ और ‘मार्था के देश में’ कहानियों को पढ़कर ऐसी प्रतीति होती है मानो विदेश जाकर बसने वाले या बसने की इच्छा रखने वाले युवाओं को आपने इन कहानियों के माध्यम से सचेत करने की कोशिश की है कि वे विदेश प्रवास के लिए संकल्पित होने से पहले एक बार पुनर्विचार करें

पाठक अपने हिसाब से अर्थ निकाल ले, यह ज़्यादा अच्छा नहीं?’  

जी! ‘दूसरे देशकाल में’ कहानी संग्रह की कुछ कहानियों, जैसे--- गलियारा, निर्णय और दूसरे देशकाल में’—इनमें जो संवेदना काम कर रही है, उसे आप क्या नाम देना चाहेंगी?

 मेरे गुरुजी कहा करते थे, ‘तुम संवेदना की धनी हो’।

सच ही कहा करते थे। कहानियों से गुज़रते हुए/ गुजरने के बाद भी  मैं कोई शब्द ही नहीं चुन पाई कि उन्हें रेखांकित कर सकूँ। भाषा-शैली और शिल्प के अनूठेपन से भी चकित होना पड़ता है। आपका कई भाषाओं पर अधिकार है। उन भाषाओं की रचनाओं से भी गुज़रीं। क्या इनका भी सूक्ष्म प्रभाव आपकी रचनाओं पर है?   

जीवन में कितनी ही घटनाएँ आती हैं। सारी अपने ऊपर थोड़े ही होती है। कहा न, ‘आत्मगत को वस्तुगत बनाना ही साहित्य का काम होता है’। अंग्रेज़ी पढ़ने से भाषा का जो ज्ञान मिला, उसका मेरे लेखन को बहुत लाभ मिला। मैं गुजराती, पंजाबी, उर्दू जानती हूँ। पिताजी सिर्फ़ उर्दू जानते थे तो बाहर जाते समय मैंने उर्दू लिखना-पढ़ना सीखा ताकि पिताजी को ख़त लिख सकूँ और हमारे बीच संवाद हो सके। उस समय फोन तो था नहीं उतना।  

मैंने कहीं पढ़ा है कि आप अपनों की मृत्यु सोचकर बुरी तरह डर जाती थीं। क्या यह सच है?

विभाजन के समय की लाहौर की घटना ने मन में एक डर बिठा दिया था। मुझे डर लगता था कि कब हमारे माँ-बाप छूट जाएँगे? कब क्या हो जाएगा? मुझे हमेशा यही लगता था कि ये नहीं रहेंगे तो हम कैसे रहेंगे... तो इससे पहले हम ही मर जाएँ। हमें यही था कि हम किसी अपने को मरते हुए न देखें।

मुझे ताज़्ज़ुब तब हुआ जब हमारे दादाजी की मृत्यु हुई और मुझे  लखनऊ से बुलाया गया। दादाजी के एक तरफ़ दादी बैठी थीं। मैंने देखा तो लगा कि दादाजी तो वैसे ही हैं --- वही शक्ल, वही सुंदरता, वही सबकुछ। मुझे लगा कि डर से निपटने का रास्ता दूसरा है और वह ये कि मौत के नज़दीक जाओ और उसे समझो। दिमाग से ‘मरण’ को समझना।  

हम्म! मैंने भी महसूस किया है कि किसी अपने की मृत्यु ऐसे जीवन-दर्शन की ओर रुझान बढ़ाती है। … मैंने आपकी कविताओं के साथ भी यात्राएँ की हैं। आपकी कविताओं का जो स्तर है, उसमें गूँजती जो संवेदनाएँ हैं, वे उन्हें ख़ास बनाती हैं। ऐसी विशिष्ट या कहूँ कि विलक्षण कविताओं को आपने पुस्तक रूप क्यों नहीं लेने दिया?

लोगों ने कहानीकार का ठप्पा जो लगा दिया। कुछ शुभचिंतकों ने कहा, कविता को रहने दो.... 

और आपने छोड़ दिया! कुछ एक कविताएँ पत्रिकाओं में न  आ जातीं तो हम पाठक इनके मर्म से अछूते ही रह जाते। अब जैसे कि ‘बचते-बचाते ही.....’ कविता जीवनसाथी के लिए जिस भावबोध के साथ लिखी गई, वह दुर्लभ है। मैंने अब ऐसी मर्मस्पर्शी संवेदनशील कविता नहीं पढ़ी जो पति के लिए लिखी गई हो। इसी तरह ‘दौड़ता चला आया’ कविता जितनी बार पढ़ती हूँ, हर बार अर्थों के नए दरवाज़े खुलते हैं, फिर भी लगता है जैसे कुछ छूट रहा, जिसे मैं पकड़ नहीं पा रही

देखो ... एक घर था।....जिनका बचपन मेरे पीछे दौड़ता चला आया.... नई पीढ़ी। घर उसी नगर में ... भूरे रंग के...  भूरे दरवाज़े के भीतर। एक ही मकान में कई पीढ़ियाँ पलती हैं! मकान कहीं नहीं जाता। उसके भीतर बसा घर भी अपना रूप बनाए रखता है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी बच्चे पलते-बढ़ते और बाहर चले जाते हैं। मेरा बचपन गुज़रा तो बाद की पीढ़ी का बचपन .... 

तो भूरा रंग प्रतीकात्मक नहीं है, बस बिंब उभारने के लिए प्रयुक्त हुआ। अब स्पष्ट हो गया। ‘आत्मन्’ भी स्त्री विमर्श की सशक्त कविता है।

तुमने तो बहुत कुछ पढ़ डाला। तुम संवेदनशील हो, इसलिए गहरे तक जुड़ पाई।

बहुत-बहुत आभार मैम! आपसे बात करते हुए समय का पता ही न चला। 

मुझे भी अच्छा लगा। जब भी समय मिले, आना।

जी, ज़रूर! ... प्रणाम! 

डॉ. आरती स्मित, नई दिल्ली, मो. 83768 37119 

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