अभिनव इमरोज़ दिसंबर 2021 अंक






डाॅ. दामोदर खड़से, पुणे, मो. 9850088496

कविता

उम्मीद

कभी-कभी लगता रहा मुझे

समय कैसे कटेगा ज़िंदगी का

जब होगा नहीं कोई फूल

बहेगी नहीं कोई नदी

पहाड़ हो जाएंगे निर्वसन

मौसम में न होगा कोई त्यौहार

हवाओं में होगी नहीं कोई गंध

समुद्र होगा खोया-खोया उदास

शामें गुमसुम-गुमसुम

और सुबह में ना कोई उल्लास...

कैसे कटेगा तब समय ज़िंदगी का ?

मैं होता रहा सदा अकेला....

पर ऐसे में आ जाती है

कोई आवाज भीतर से

मंदिर की घंटी की तरह....

ज्यों जाग गए हो देवता सारे!

चारों ओर

हो रहे मंत्रोच्चार से

लद गए हों वृक्ष-वनस्पतियां

धूप की रोशनी में

दिख रहा हो सब पारदर्शी

जाग गई हो प्रकृति सारी

और समय मेरे कानों में

फुसफुसता है जोर से

मैं थाम लेता हूं अचकचा कर

पानी से भरे बादलों को

और नमी मेरे भीतर तक


दौड़ जाती है...

अपनी धरती से उठती आवाज़

जगाती उम्मीद बहुत है

फिर लगता है

बहुत सहारे बाकी हैं अभी!


डाॅ. कुसुम अंसल, नई दिल्ली, मो. 9810016006

मेरे मित्र

।। एक ।।

मेरे मित्र...

तुम देह नहीं स्वर थे-

एक सूफ़ियाना कलाम

साधना जो आंतरिक थी

संकल्प... कविता के स्वर के प्रति 

तुम्हारे स्वर, स्पेस की शून्यता में

निःस्वर-स्थिति को उभारते थे

तभी तो... अभी तक... वह, प्राणवायु से

संगीत की तरंगित लहरों में बहते

ब्रह्माण्ड में सरसरा रहे हैं, निरन्तर

व्योम में तैरते हुए.... अमर, अजर...


किसी ने कहा तुम चले गये हो...

परन्तु मैं; मैं जानती हूँ... मेरे मित्र

अनेक कष्टसाध्य इलाजों से जूझते

छलनी-छलनी हुए शरीर के बावजूद

बीमारी की सूली पर लटक कर भी 

तुम जीना चाहते थे

गुनगुनाना चाहते थे कोई गीत।


मैं जानती हूँ तुम्हारे जैसे संकल्पवान पलायन नहीं करते

पर क्या तुम इस कारण चले गये हो

कि मृत्यु के अनुभव से गुज़रकर

जीने का पूरा अर्थ जान सको ?

शरीर के रूपान्तरण का कोई अनिवार्य चरण। 



वेलेंटाइन नोकॉविस बेलग्रेड की एक स्थापित लेखिका है, जिन्होंने अनेक कविताएँ और कहानियाँ लिखी है और उनके लिए अनेक सम्मान पाएँ हैं ! उनकी कविताओं के अंग्रेजी, रूसी, रोमानियन, उजबेकी, कोरियन और बांग्ला आदि भाषाओं में अनुवाद हो चुके हैं !

डाॅ. दीप्ति गुप्ता, पुणे, मो.  9890633582


ज़ख्म (Scars)

आज़ादी के लिए

निरर्थक संघर्ष करने के बाद

जिसमें कि अधिकतर

शाश्वतता और

चापलूसी भरी मुस्कुराहट नज़र आती है

निरर्थकता को खोती हुई टोपियाँ...!

कर्कश शब्दों के शोर में बहाने खोजती

करुणा और सहानुभूति की संकुचित आँखें

असहाय को कौन नहीं पहचानता ?

विजय के कारण, जीत का नशा

वह हथेलियों से नहीं संभाला जा सकता

पराजित और कमज़ोर लोगों के अभिशप्त प्याले

जिनमें पेय के साथ ज़हर भी मिला हुआ था...!

दरवाज़े के सामने दरबानों और तालों के बिना

ज़ख्म प्रार्थनाओं से ख़ुद-ब-ख़ुद भर जाते हैं !


वक्तों की चतुराई (Trick of Times)

वह गति से प्रविष्ट होती है

वह पहचानती नहीं है !

सुकून और मेज़ पर

मदिरा का एक गिलास

वह उन पेंसिलों और चैकलेट के

उस कागज़ से तनिक भी

विचलित नहीं हुई थी,

जिस पर मैंने लिखा था कि

फिज़ाएं अब मुझसे मुहब्बत

नहीं करती हैं...!

वो एक मुलायम ऊनी कालीन

पर बैठी हुई है

वह तीसरे किनारे पर,

एक खींची हुई हँसी के साथ

बैठी हुई है

वह ज़रा भी परवाह नहीं करती

कि क्रोधित कौवे क्या कहेंगे

क्योंकि सूर्य जल्दी ही

अस्त होने जा रहा है

उन्हें पता ही नहीं चलेगा कि मैं

उलूकों की हँसी और गिलहरियों

की उस लड़ाई

को जानती और समझती हूँ

जो दरख्त पर बने एक कोटर पर

उनके बीच होती है

बस, ये ही सब मेरा वजूद है....

जो सौ साल पुराने

दरख्त की छाल पर

अपने बारे में लिखे जाने की

प्रतीक्षा कर रहा है

उन लोगों की यादों मे जगह

बनाने के लिए

जो वर्तमान में मौजूद है

जैसे कि मेरी मौजूदगी

हम दोनों के प्रेम से है

जो हर स्थान में पसर जाती है

समय की चतुराई को जाने बिना....!


मूल रचनाकार - वेलेंटाइन नोकॉविस

अनुवादक - डॉ. दीप्ति



 -नई दिल्ली, मो. 9818769339

पलकें बिछाए तो नहीं बैठीं

कटीले शूल भी दुलरा रहे हैं पाँव को मेरे,

कहीं तुम पथ पर पलकें बिछाए तो नहीं बैठीं

हवाओं में न जाने आज क्यों कुछ-कुछ नमी सी है,

डगर की उष्णता में भी न जाने क्यों कमी-सी है,

गगन पर बदलियाँ लहरा रही हैं श्याम आँचल-सी

कहीं तुम नयन में सावन छिपाए तो नहीं बैठीं!


अमावस की दुल्हन सोई हुई है अवनि से लग कर,

न जाने तारिकाएँ बाट किसकी जोहतीं जग कर,

गहन तम है डगर मेरी मगर फिर भी चमकती है,

कहीं तुम द्वार पर दीपक जलाए तो नहीं बैठीं!


हुई कुछ बात ऐसी फूल भी फीके पड़े जाते,

सितारे भी चमक पर आज तो अपनी न इतराते,

बहुत शरमा रहा है बदलियों की ओट में चन्दा,

कहीं तुम आँख में काजल लगाए तो नहीं बैठीं!


कटीले शूल भी दुलरा रहे हैं पाँव को मेरे,

कहीं तुम पंथ पर पलकें बिछाए तो नहीं बैठीं।


गीत और मैं

     मैं न बुलाने गया कभी गीतों को इनके द्वार,

     ये ही पता पूछते सबसे, आए मेरे पास!

 

जाने इनके कानों में कह दी किसने यह बात-

‘उसे सुला आओ वह ही जगता है सारी रात!’

मैं तो बचपन से एकाकी रहने का अभ्यस्त,

मुझे रास आता है केवल सूनेपन का साथ!


     पर यह तो नटखट गीतों की बहुत पुरानी टेप,

     जान-जान कर उसे छेड़ते, देखें जिसे उदास!


मेरी ऐसी पीर कि जिसका मुझसे ही सम्बन्ध,

फूल अगर हूँ मैं गुलाब का, वह है मेरी गन्ध,

मैं न कभी चाहूँगा धर कर वह जोगिन का वेश,

द्वार-द्वार पर अलख जगाए, बन दर्दीले छन्द!


     मेरी पीर बहुत कोमल है, दुनिया बड़ी कठोर,

     वह दुलार पाएगी सबका, इसका क्या विश्वास!


एक शाम मेरे घर आकर बोले मुझसे गीत-

‘राज़ तुम्हारा कभी किसी से हम न कहेंगे मीत!’

पहले तो बहला-फुसला कर जान लिया सब भेद,

अब प्रचार करते फिरते हैं मेरे ही विपरीत।


     आँगन-आँगन मेरी बदनामी करते हर रोज़,

     गली-गली में करवाते हैं ये मेरा उपहास!


उतने ही वाचाल गीत हैं मैं जितना गम्भीर,

मन के काले हैं ऊपर से दीखें भले फ़क़ीर,

इनसे दर्द कहे मत कोई, ये ऐसे हमदर्द,

जितनी पीर बाँटते उससे अधिक अधीर!


     ये जो जनम-जनम के छलिया, इनसे कैसा मोह,

     जितना अमृत पिलाते उससे अधिक बढ़ाते प्सास!


मैं न बुलाने गया कभी गीतों को इनके द्वार,

ये ही पता पूछते सबसे, आए मेरे पास!




                              संपादकीय


वर्ष 2021 का अंत यानि जीवन में एक अध्याय का अंत तो आने वाले एक और का इज़ाफा। अभिनव इमरोज़ ने 10 साल पूरे कर लिए हैं। यह दस साल मेरे 80 साल के जीवन में सब से बेहतरीन वक़्त के गवाह बने। मेरी सक्रियता, साकारात्मकता, सृजनशीलता और सोद्देश्यता जैसे विकासोन्मुखी तत्व मेरी चेतना के स्तर पर संपादित हुए, जिसका श्रेय मेरे लेखकों और पाठकों को ही जाता है। यह साहित्यिक वर्ग मेरे लिए बिल्कुल नया था जब मैंने अभिनव इमरोज़ की 2012 में शुरुआत की थी। यह मेरी खुशकिस्मती है कि ‘अभिनव इमरोज़’ एवं ‘साहित्य नंदिनी’ के पुस्तक संस्कृति के दायरे में स्थापित होने में मेरे लेखकों ने तहेदिल से सहयोग दिया। आप सब का प्रेम और प्रोत्साहन इस कद्र हासिल हुआ कि मेरे मनोबल का ग्राफ इन दस सालों में कभी नीचे की ओर नहीं झुका। मैं तहेदिल से आप सब का शुक्रगुजार हूँ। और पुख्ता उम्मीद रखता हूँ कि आप का सहयोग, मार्गदर्शन एवं आशीर्वाद आने वाले वक़्त में भी मुझे मिलता रहेगा और मैं अपने मिशन ‘‘शम्अ़ हर रंग में जलती है सहर होने तक’’ पूरा करने में कामयाबी की ओर बढ़ता रहूँगा। 

श्रीमती वीनु जमुआर जी ने पूणे से एक लेख के माध्यम से ‘अभिनव इमरोज़’ एवं ‘साहित्य नंदिनी’ की साहित्यिक वैलेंस शीट भेजी है जिसे मैं अपने संपादकीय का हिस्सा बना रहा हूँ-  नववर्ष की शुभकामनाओं के साथ:-

नव वर्ष मंगलमय हो।

यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते निघर्षणच्छेदनताप ताडनैः ।

तथा चतुर्भिः पुरुषं परीक्ष्यते त्यागेन शीलेन गुणेन कर्मणा ।। 

(चाणक्यनीति दर्पण)

अथ एवं इति ! इसके मध्य मनुष्य के जीवन संघर्ष, इनसे प्राप्त अनुभवों से परिपक्व हो दृढ़ प्रतिज्ञ, कत्र्तव्यनिष्ठ, मोह माया से दूर, सेवाभाव से परिपूर्ण मनुष्य बनने की प्रक्रिया की तुलना-रगड़ाने, काट-छाँट-पीट कर अग्नि में तपने वाले सोने से की जा सकती है।

मुझे अपने पिता की कही बात याद आती है। वे कहा करते थे- ‘जब ‘स्वयंम्‘ व्यापकता की ओर क़दम बढ़ाने लगता है तो स्वांतःसुखाय स्वतः लोकहिताय में परिवर्तित होने लगता है...‘

बचपन से ही ‘‘सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु‘‘ की चाह रखने वाले, अभिनव इमरोज़ एवं साहित्य नंदिनी पत्रिका के जनक आदरणीय देवेन्द्र कुमार बहल जी इसी श्रेणी के व्यक्तियों में से एक कहे जा सकते हैं।

कहा गया है-

‘न चोरहार्य न च राजहार्यन भ्रातृभाज्यं न च भारकारी ।

व्यये कृते वर्धते एव नित्यं विद्याधन सर्वधन प्रधानम् ।।

संस्कृत के इस सुभाषित को आत्मसात कर अपने परम आदरणीय गुरु डाॅ. त्रिलोक तुलसी जी की बात ‘जीवन में जो कुछ भी करना चाहो, उसके पीछे सच्चा जुनून होना चाहिए‘ को गाँठ बाँध साहित्य सेवा में जुट जाने वाले, ‘पंडित बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान से सम्मानित साहित्यकार बहल जी ने जब दृढ़निष्ठा के संग साहित्य के भाषा के विकास हेतु पत्रिका प्रकाशन का विरवा रोपा तो संभवतः उन्होंने भी नहीं सोचा होगा कि साहित्य की विविध विधाओं से सजी संवरी ‘प्रेम-प्रोत्साहन-प्रतिभा का प्रतीक‘ ‘अभिनव इमरोज़’ एवं ‘साहित्य नंदिनी’ राष्ट्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय क्षितिज पर भी अपना परचम इतने अल्पकाल में लहरानें लगेंगी।

बात कुछ वर्ष पूर्व की है -

मुंबई के चर्चित रचनाकार, जाने-माने अनुवादक, डाॅ. रमेश यादव जी ने अभिनव इमरोज़ से मुझे परिचित कराया तथा बहल जी के विषय में बताया।

वाचन की घुट्टी हम बहन-भाइयों ने बचपन में ऐसी पी है कि पढ़ने की ललक आज भी बनी है। बहरहाल पत्रिका की सदस्यता ली और पत्रिका प्रत्येक मास की एक निश्चित तिथि को मेरे पास आने लगी। तब साहित्य नंदिनी का आविर्भाव नहीं हुआ था।

आरंभ से ही आवरण एवं कागज की गुणवत्ता काबिले तारीफ होती थी। भीतर के पृष्ठ अत्यंत ज्ञानवर्धक एवं विविध विधाओं की नवीनतम रचनाएँ लिए। धीरे-धीरे अभिनय इमरोज़ को इन्द्रधनुषी होते मेरे संग उन सभी पाठकों नें देखा होगा जो प्रकाशन के आरंभिक वर्षों से पत्रिका से जुड़े होंगे।

‘होनहार बिरवान के होत चिकने पात‘ वाली कहावत को चरितार्थ करती चरेवती चरेवती...यात्रा आरंभ हो चुकी थी।

सम्माननीय बहल जी जीवन के कई वसंत पार कर चुके हैं। अनुभवों के अंबार लिए जब उन्होंने साहित्य के विस्तृत डगर पर चलने की ठानी तो ‘अभिनव इमरोज़‘ का जन्म हुआ था, अब चंद वर्ष बीत चुके थे, अनुजा साहित्य नंदिनी के आने की शुभ खबर आई... और कारवां चल पड़ा।

साहित्य (स-हित) संस्कृति-संवेदना/सृजन/अभिव्यक्ति! समृद्ध इतिहास परंपराओं की, गाथाएँ धरोहरों की, चर्चा आज की/आने वाले कल की!

लोककथाओं/श्रुतकथाओं/दंतकथाओं से आरंभ हुई यात्रा ताड़पत्रों से होती हुई पत्थरों पर शिलालेख बनती, कागज़ के पन्नों पर उतरती रही थी, है और रहेगी के विश्वास को बल देती-कभी परदेश बसे रचनाकारों की रचनाओं के गुलदोज़ी से सजे पन्ने तो कभी ‘मेरे वारिस मेरे रचनाकार‘ की महकती बगिया, कभी वरिष्ठ रचनाकारों की जीवनियों से 

धूप/लोबान से निकलते पवित्र धुएँ की भाँति गमगमाते पन्ने तो कभी ‘हिन्दी कहानियों का झरोखा‘ ! विशेषांक एवं साक्षात्कार की श्रृंखलाएँ, सह संपादक/अतिथि संपादक/के रूप में पग-पग पर साथ देते मित्र एवं हितैषी! अंक-दर-अंक पुरातन के संग-संग नवीन का अंकुरण!!

‘‘मौलिक चिंतन और उभरती प्रतिभा को प्रोत्साहन‘‘ के तहत फरवरी 2021 अंक की ताजा स्मृतियाँ जेहन में हैं। यहाँ मैं दोहराना चाहूँगी- संभवतः साहित्यिक पत्रिकाओं में अभिनव इमरोज़ की यह पहली पहल थी जहाँ तीन पीढ़ियों को एक ही अंक में प्रकाशित होने का सम्मान मिला था।

वय के आखिरी पायदान पर खड़ी बहुविध वरिष्ठ रचनाकार सास, वर्तमान का सुंदर प्रतिनिधित्व करती बहू और वर्तमान के कंधे से झाँकती, कोमल पुष्प-सी खिलखिलाती- आने वाले भविष्य की झलक-पौत्री!

दृष्टव्य है इस अंक के संपादकीय पंक्तियों में भावनाओं के गवाक्ष- ‘...ऐसा आभासित हो रहा है कि वर्ष 2021 अभिनव इमरोज एवं साहित्य नंदिनी के लिए शुभ होगा.../उभरती हुई प्रतिभाएँ जिनका निरंतर संवर्द्धन हो रहा है, जो हमारी पत्रिका के मिशन को संपूर्णता की ओर ले जाते हुए/हमारे भविष्य का संबल हैं/इस से बढ़कर एक पत्रिका के प्रारब्ध की/खुशहाली का और क्या कोई दूसरा मापदंड हो सकता है...निश्चय ही नहीं।‘

उदार, पारदर्शी व्यक्तित्व, समय के संग चलना कोई बहल जी से सीखे।

वे उज्जैन से प्रकाशित, प्रतिष्ठित पत्रिका समावर्तन के ‘आदरणीय प्रभात कुमार भट्टाचार्य जी को पत्रिका के सफलतापूर्वक 100वें अंक के प्रकाशन पर हार्दिक बधाई देते दिखते हैं तो वहीं समावर्तन परिवार के सभी बुद्ध-प्रबुद्ध सदस्यों का भी अभिनंदन करते हैं। सम्माननीया श्रीमती नासिरा शर्मा आपा, दिनेश जी चमोला ‘शैलेश‘ तथा अन्य सभी मित्रों एवं हितैषियों के प्रति बहल जी की भावनाओं के शब्द-पुष्प उनके संपादकीय पृष्ठों पर हम यत्र तत्र सर्वत्र देखते/पढ़ते ही हैं।

वे कह उठते हैं -

‘‘आज मेरे जीवन की बैलेंस सीट पर अगर असैट्स की भरमार है तो वे मेरे दोस्त हैं। अभिनव इमरोज के माध्यम से मेरी दोस्ती का इन्द्रधनुषी दाइरा और भी व्यापक हुआ है...‘‘

कहा जा रहा है ‘पेपरलेस‘ युग प्रारंभ हो चुका है। किंतु हम जैसे पाठक आज भी कागज पर छपी हुई पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाओं के आवरण पृष्ठों की, लिखित पन्नों पर प्रकाशित सामग्री को देखने/पढ़ने के लिए लालायित रहते हैं। तात्पर्य यह कि आज भी पाठकों का एक ऐसा वर्ग जीवित है चाहे सीमित मात्रा में ही सही जिसे हाथों में पुस्तक लेकर पढ़ना प्रिय है।

मित्रो, साहित्य के अनंत सागर की हम एक बूँद बने रहें, नववर्ष मंगलमय हो! अभिनव इमरोज़ एवं साहित्य नंदिनी के माध्यम से साहित्य सरिता अविरल प्रवाहित होती रहे, आदरणीय बहल जी की सकारात्मकता बनी रहे। इन्हीं शुभकामनाओं के संग -


       सुश्री वीनु जमुआर, 15, वृंदावन, मुकुंद नगर, पुणे

         मो. 8390540808

आज का वातावरण कागज के पन्नो पर विलुप्त होती पठन सामग्री ! ऐसे में सभी विधाओं से युक्त पत्रिका। सुन्दर,सरस एवम् ज्ञानवर्धक सामग्री का समावेश। सराहनीय कार्य। सरलता से कही गई संपादकीय, साक्षात्कार, कथा, कविताएं, ग़ज़ल और भी अलग अलग विधाएं अपने आप में पूर्णता समेटे हुए अभिनव इमरोज़ एवं साहित्य नंदिनी के समस्त टीम को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ ।

अनुजा, सुश्री विनीता सिन्हा, मुंबई, मो. 9967448399






ये सियासत अवाम बदलेंगे

जब मुहब्बत के जाम बदलेंगे


कुछ परिन्दे इधर उधर जा कर

नफ़रतों का निज़ाम बदलेंगे


दाग़ तारीख के मिटा देंगे

वक़्त को हम-कलाम बदलेंगे


धर्म कोई बदल नहीं सकता

आप तो सिर्फ़ नाम बदलेंगे


बन्द क्यों हैं घरों के दरवाज़े

कायदे हम तमाम बदलेंगे


जब गले से मिलेंगे दैरो-हरम

आपके सुब्हो-शाम बदलेंगे


सूफ़ियाना कलाम सुनने को

मैकदे इन्तज़ाम बदलेंगे


जिस्म है तर-ब-तर

सोच के पर कतर


आसमां देख कर

काँपते है शजर


पाँव में बिछ गए

रास्ते पुरख़तर


हम कहाँ आ गये

कौन-सा है नगर


लोग सहमे हुए

है यहाँ डर निडर


पीठ पीछे नहंी

रू-ब-रू बात कर


बात जो भी करो

बात में हो असर


साधना


जो

आवाज़ मेरी है

वही 

आवाज़ तेरी है

जैसी 

आवाज़ उसकी है

वैसी 

आवाज़ सबकी है

प्रेम में

आश्चर्य में

डर में

शून्यता में

क्या कहीं कोई

अन्तर अथवा परायापन है ?


तो उस अहम् केन्द्रित 

अलगाव में

दृश्य और दृष्टि को

और निखराना

और सम्यक बनाना है


मुझे

तुम्हें

हम सबको 


औरत

सदियों पुरानी

इसकी कहानी


किस चँदरे ने

राह हमारे

इतनी तपिश बिछाई

अन्दर लावा बाहर लपटें

जून अग्नि की पाई 

चलते चलते

रुकी नहीं जो

किसने मंज़िल पाई

   मोगा (पंजाब), मो 09876428718





डाॅ. उमा त्रिलोक, मोहाली (पंजाब), मो. 98111 56310

लहर हूँ

उमड़ती, उचकती, हिलोरती, किलोलती

सागर में

लहर हूँ


तिलस्मी रूप रंग बदल-बदल

इठलाती, इतराती, लहराती, सागर में

लहर हूँ


‘‘तुम स्वयं तो कुछ भी नहीं’’

बाला था कोई 

‘‘और, सागर है वह

हो गया शान्त जो

तब क्या करोगी ?’’


‘‘भूलते हो तुम’’

बोली थी मैं

‘‘मैं न उमड़ी, मैं न उभरी

मैं न उसरी

तो विशालता उसकी

सिमट जायेगी एक ताल में’’


‘‘मैं न गाई, मैं न नाची

नृत्यांगना इस रास में

तो भव्यता, उसकी सिमट जायेगी

एक ताल में


मैं ही हूँ उसकी भव्यता

मैं ही हूँ उसकी विशालता

मैं ही हूँ गति उसकी उल्लास में’’


मैं ही हूँ सागर

सागर में

लहर हूँ




सुश्री उषा आर. शर्मा, मोहाली (पंजाब), मो. 9915502424


अपराह्न

प्राणों में छिपे महाप्राण

अनन्तकाल से तुम तो

मुझ ही में छिपे थे

मैं यूँ ही बाट जोहती रही।


तुम निकट आते गए

मैं दूर-दूर होती रही

तुम मुझे भाते रहे

मैं अपना आप खोती रही।


आए थे बन

आशा किरण तुम

सुन के भी दस्तक 

मैं बेखबर सोती रही।


तुम्हारे अनछुए स्पर्श ने

यूँ मुझे सहला दिया

तुम खुशी देते रहे

मैं हर समय रोती रही।


वक्त की बालू पर

संग चले कुछ दूर हम

और पैरों के निशान

मैं उम्र भर धोती रही।



डाॅ. सुषमा मुनीन्द्र , सतना (म.प्र.), मो. 08269895950

2020 के आरम्भ से लेकर 2021 अंत तक हम सभी ने कोरोना का कहर देखा और देख रहे हैं। कहर ने हमसे बहुतों को छीन लिया। यह समय हमने संयम, संतुलन, सहयोग, सहकार को अपनाते हुये अत्यन्त सीमित जरूरतों में व्यतीत किया। जाहिर है जीने के लिये बहुत अधिक नहीं चाहिये। हम व्यर्थ ही नैतिक-अनैतिक, कानूनी, गैर कानूनी, सामाजिक-असामाजिक तरीके से इतने संरजाम जोड़ते जा रहे हैं। यहाँं से हमें सीमित, संयमित, शांत जीवन शैली की ओर प्रवृत्त होना चाहिये। यदि ऐसा होता तो उन मानवीय, नैतिक, सामाजिक, पारिवारिक मूल्यों को बचाया जा सकता है जिन्हें हम निरंतर खोते जा रहे हैं। अभिनव इमरोज़ एवं साहित्य नंदिनी के पाठकों को नव वर्ष की अग्रिम शुभकामनायें। -सुषमा मुनीन्द्र     


कहानी

पापा ने गलती नहीं की


अच्छे शहर की अच्छी आवासीय बस्ती का यह अच्छा मकान।

अच्छे मकान में रहने वाले सेवानिवृत्त वन अधिकारी पंचशील के पास आर्थिक सुरक्षा, सकारात्मक-दृष्टिकोण, उत्तम स्वास्थ्य, विवाहित दो बेटियाँं, एक बेटा व एकाकी लोगों के लिये स्थापित क्लव जहाँं पैंतालिस साल से ऊपर वालों को प्रवेश मिलता है, की सदस्यता है। बड़ी बेटी जलज अमेरिका, बेटा राजीव पुणे, छोटी बेटी अम्बुज भुसावल में अपने-अपने परिवार के साथ तरक्की कर रहे हैं। पत्नी को इहलोक छोड़े हुये पाँंच बरस हो रहे हैं। इस अवधि में आपने रोमांच और रोचकता जैसे विकार का ख्याल नहीं किया पर क्या कहें दो वर्ष पूर्व क्लब में आई उच्चतर माध्यमिक विद्यालय की उच्चतर कक्षाओं को पढ़ाने वाली बावन वर्षीया भारती को? विकार का मूल यही स्त्री है। आपका ध्यान उसकी कलफ लगी सूती साड़ियों जो उसे स्मार्ट बनाती हैं से होते हुये उसके अविवाहित होने जैसे बिंदु पर अटक गया। एकाएक लगने वाला आयु ऐसी नहीं बीत गई है कि रोमांच और रोचकता की कामना को नष्ट हो जान दें। नष्ट हो जाने देते यदि आपका रूझान देखकर भारती खफा हो जाती। भारती का विधिवत हाथ माँंगने से पूर्व आपको जरूरी लगा किसी सलीकेदार समझदार व्यक्ति की राय ली जाये। पड़ोस में रहने वाले प्रातः भ्रमण के साथी समवयस्क योगेश्वर राय के लिये उपयुक्त पात्र हैं। भ्रमण पर आपने दास्तान शुरू की-

‘आजकल रोमांच और रोचकता महसूस करता हूँ।’ 

‘साठ पार कर चुके हो।‘  

‘साठ को मैं उम्र का खात्मा नहीं मानता। शारीरिक, मानसिक तौर पर दुरूस्त हूँ।’   

‘तंदरूस्ती लेकर पर्वतारोहण के लिये चले जाओ।‘ 

‘शादी का इरादा बन रहा है।‘ 

‘मानसिक अस्थिरता में कभी-कभी मूर्खों वाला इरादा  बन जाता है।’  

’बच्चे भूले-बिसरे याद करते हैं। अकेलापन लगता है।‘

‘मानता हूँ पर इतने बरस साथ रहने वाली पत्नी जो मानसिक सम्बल देती है, नई आने वाली नहीं दे सकती।‘

‘मानता हूँ।’ 

आपने कहा जरूर लेकिन अल्प शिक्षित, अल्पज्ञानी पत्नी सुखरानी को आपने इतना भर स्वीकार किया था कि वह आपके बच्चों की माँं बन जाये। 

‘मुझे तो पत्नी से पूछ कर दैनिक काम करने की आदत हो गई है। नहा लूँ क्या ? टहल आऊ   क्या ? थोड़ा मीठा खा लूँ क्या ? नुकसान तो नहीं करेगा ? जबकि जानता हूँ नुकसान करेगा।’  

‘सोचता हूँ मीठा कम खाओ कहने वाली कोई मेरे जीवन में आये।’ 

‘पत्नी की निष्ठा अलग होती है। इस उम्र में जीवन में आने वाली तुमसे निष्ठा नहीं जोड़ेगी।’  

‘मैंने अभी निष्ठा तक नहीं, कैम्पेनियनशिप तक ही सोचा है।‘

‘कोई मिल गई है तो मेरी शुभकामना लो।’  

भारती से आपका अच्छा संवाद होता है पर हाथ माँंगने जेसा उपक्रम सरल नहीं है। आपने चतुरता से प्रस्ताव रखा-

‘नहीं पूँछूगा आपने शादी क्यों नहीं की। सम्भावना बने तो करना चाहेंगी ?’

भारती को आभास था आप ऐसा सवाल कर सकते हैं। 

‘’सम्भावना पर विचार करूँगी।’ 

‘कोई इच्छा ?’ 

‘सुकून भरी ज़िंदगी। पिता जी नहीं हैं। अम्मा वृद्ध हैं। दोनों छोटे भाई अपने फल-फूल रहे संसार में व्यस्त हैं। क्लब ज्वाँंइन किया कि अपने एज ग्रुप में कम्पैटीबिलिटी रहती है।’  

‘आप अम्मा से पूछ लो।’ 

‘आप बच्चों से पूछ लो।’   

चूँकि यह आम प्रसंग नहीं है बच्चों को सूचित करने में आपका पितृधर्म बाधा डाल रहा है। असमंजस में सप्ताह बिता कर आपने जलज को फोन काँंल किया। औपचारिक खैरखबर लेकर मुद्दे पर आये-

‘शादी करना चाहता हूँ।’ 

जलज का स्वर बताता है सुनकर उस पर तड़ित गिरा है।

‘पापा, तुम बौरा गये हो।‘

‘अभी तक नहीं पर अकेले रहते हुये बौरा जाऊँगा। तुम अमेरिका के खुले समाज में रहती हो। मुझे खुलकर सपोर्ट करोगी तो राजीव और अम्बुज की सहमति बन जायेगी।’

‘सोचो पापा। तुम्हारे फैसले का असर हम भाई-बहनों के इर्द-गिर्द पड़ेगा।’ 

‘कैसा असर......’ 

‘यहाँं अभी रात है। मुझे नींद आ रही है।’ 

काँंल डिसकनेक्ट कर जलज ने अरूचि दिखा दी।

आप भौचक हैं। दो टूक बात की। विस्तार से कुछ तो पूछती। साठ पार क्या हुये अपने लिये बंदोबस्त करना जुर्म हो गया। आप भारती को भरोसा दे चुके हैं। उसके भरोसे को तोड़ना मानवीय न होगा। ठीक है। आप बच्चों की सहमति नहीं लेंगे। मानसिक तैयारी करेंगे। 

आप मानसिक तैयारी को बल दे रहे हैं उधर जलज और राजीव की लम्बी टेलीफोनिक वार्ता हुई-

‘राजीव, पापा को समझाओ। इस उम्र में सेहरा बाँंधेंगे।‘

‘दीदी, पापा को प्राब्लम क्या है ?’ 

‘जो लोग बहुत सुखी होते हैं ऊब जाते हैं। जीवन में ऐसी परेशानियाँं आती रहना चाहिये जो सचमुच परेशान करती हों।‘

‘नाती-पोतों वाले को कौन मिल गई ?

‘पापा की पाँंजिटिव एप्रोच और फिटनेस देखते तो हो। यंगस्टर्स को मात देते हैं।’ 

‘पापा की फिजिकल फिटनेस प्राण लिये लेती है। न होती तो शुगर या मोतियाबिंद लिये ईजी चेयर पर पड़े होते। सकारात्मक-दृष्टिकोण अलग आफत है। यह न होता तो पापा शादी करने जैसी खुराफात न करते।’ 

‘कई बार कहा उनका हाल-समाचार ले लिया करो पर नहीं। समझाओ वरना खुराफात कर डालेंगे।’ 

‘मैं गोली मार दूँगा।‘

‘उनसे ठंडे दिमाग़ से बात करना।‘

राजीव ने आपके सेल फोन पर काँंल कर आपकी मानसिक तैयारी को भंग करने का भरपूर प्रयास किया-

‘इस उम्र में शादी ? पापा तुम ठीक तो हो।’  

‘ठीक हूँ।’

‘हम तीनों माँं-बाप बन चुके हैं। इस उम्र में हमें माँं मिले कितनी अजीब बात होगी।’  

‘इतनी भी अजीब न होगी।’   

‘तुम्हारी चिंता हो रही है।’  

‘होती तो आवाजाही रखते।’ 

‘’कुछ दिन के लिये पुणे आ जाओ। फितूर भूल जाओगे।’ 

‘फितूर नहीं फैसला है।’

‘खाली समय के लिये साथी चाहिये तो एक स्मार्ट केयर टेकर रख लो।’ 

‘तत्व ज्ञान मत दो।’ 

‘विकल्प बता रहा हूँ। लिव इन रिलेशनशिप जैसा कान्ट्रैक्ट चलन में है। संगत करो, जी भर जाये, किक आउट।’ 

आपने सेल स्विच्ड आँंफ कर दिया।

राजीव बहुत कुछ कहना चाहता था। स्विच्ड आँंफ के कारण जो न कह सका वह अम्बुज को मोबाइल पर कहा। यही कि- समकालीन दो बूढ़ों का मिलन होता है तो ऐसी 

प्रेरणायें व्यक्ति, परिवार, समाज के लिये हानिकारक साबित होंगी। शादी वाली, पापा की प्रापर्टी हड़पेगी। अम्बुज चूँकि शैशव काल से पापा की चमची रही है, उसका दायित्व बनता है इस हानिकारक मिलाप को रोके।

दायित्व के मद्देनजर अम्बुज ने सेल फोन पर आपको तलब किया-

‘पापा, क्या सुन रही हूँ ?’ 

‘ठीक सुन रही हो।’

‘ससुराल में मेरी पोजीशन खराब हो जायेगी। जब समय मिलता है दो-चार दिन के लिये तुम्हारे पास आ जाती हूँ। अब आने वाली का रूख देख कर आना-जाना पड़ेगा।’

‘तुम्हारा घर है। तुम्हें कोई नहीं रोक सकता।’

‘रोके तो तलाक लोगे ? सिर्फ अपना सोच रहे हो।’ 

‘तुम तीनों भी अपना सोचते हो।’

‘जैसा तुम्हारा जमीर कहे।’

आप समझ रहे हैं। बच्चों की नज़रों में आप वह नहीं रहेंगे जो अब तक थे। आपको वे गलत नहीं लग रहे हैं। आप स्वयं भी गलत नहीं लग रहे हैं। दोनों पक्ष सही हों तो वह कर लेना चाहिये जो जमीर कहे। आप बाकायदा हाथ माँंगने भारती के दर पर गये। प्रस्ताव देकर आप जैसे ही रूखसत हुये दोनों अनुजों ने भारती की भर्त्सनी की-‘जिज्जी तुम दिल बहलाने नहीं दिल देने क्लब जाती हो। डी.एफ.ओ. शादी के बहाने तुम्हारा बैंक खाता लूटना चाहता है।’  

भारती आपकी प्रबल प्रक्षधर- 

‘पंचशील अच्छे इंसान हैं।’

‘अम्मा समझाओ ...........

मौका निकालकर अम्मा ने समझाया-

‘भारती, काहे हमारी और भाईयों की नाक काटती हो ?’

‘अम्मा, दोनों मुझसे छोटे हैं पर अपनी मर्जी चलाते हैं। घर में बहुओं का कब्जा है।’

‘घर तुम्हारा भी है।’ 

‘अब तो पूरी तरह तुम्हारा ही नहीं रहा अम्मा’।’

‘हाथ-पैर न चलें तो हक कम हो जाता है लेकिन अपना घर अपना होता है। वहाँं डी.एफ.ओ. की सेवा बजाओगी।’

‘यहाँं नहीं बजाती हूँ ? आधा वेतन देती हूँ कि रहम-करम बना रहे। घर में मेरा हिस्सा है पर बहुयें ऐसा दिखाती हैं जैसे मुझ पर एहसान कर रही हैं।’     

‘तुम्हारा आसरा है बेटी। बहुयें कहेंगी बड़ा गुरूर था कि लड़की सेवा करेगी।’ 

‘आती-जाती रहूँगी। सब ठीक रहेगा तो तुम्हें अपने साथ रखूँगी।’ 

‘हमें क्या रखोगी ? डी.एफ.ओ. तुम्हें ही साल, दो साल से ज़्यादा न रखेगा।’ 

‘लौट आऊँगी। कमाती हूँ।’ 

‘भगवान मुझे उठा ले।’

कहकर-दृढ़ प्रतिज्ञ भारती के समक्ष अम्मा ने पराजय स्वीकार की। पराजय पर बड़े भाई ने उससे दूरी बना ली। छोटा तेजी से सोचने लगा- अब तक लगता था जिज्जी बोझ हैं। अब लग रहा है हुण्डी हैं। दोनों सहोदर काला कोट 

धारण कर अदालत में वकालत कर रहे हैं पर सच यह है जिज्जी का आधा वेतन वकालत की असफलता को मूँदे रहता है। शादी करती हैं तो इनका बुढ़ापा नहीं ढोना पड़ेगा लेकिन एफ0डी0आर0, रेकरिंग, सेवानिवृत्ति पर मिलने वाला फण्ड, पेंशन हाथ से निकल जायेगी। उसने कौटिल्य की भाँंति भारती को समझाया-

‘जिज्जी, नये संबंध का एक दबाव और संकोच होता है। संकोच में पड़ कर डी.एफ.ओ. को बता न देना तुम्हारे पास कितनी पूँजी है।’

‘मैं बेवकूफ नहीं हूँ छोटे।’

- जो कि हो जिज्जी।

‘पैसे को लेकर क्या प्लान करोगी ?’

‘सोचूँगी छोटे।’ 

- कितना सोचती हो जिज्जी। 

रजिस्ट्रार दफ्तर से तारीख मिलने तक छोटा पछियाया रहा कि बड़े और उसके मिला कर जो कुल पाँंच बच्चे हैं भारती बचत खाते की रकम से उनके नाम एफ.डी. करा दे पर भारती ने स्पष्ट रूख नहीं दिखाया। परिणामतः बडे़ की तरह उसने भी दूरी बना ली।

आपके साथ रजिस्ट्रार दफ्तर जाते हुये भारती कातर है- 

‘चाहती थी भाई साथ आते।’

 ‘कोई बात नहीं।’

‘आपके बच्चे आ गये ?’

‘जलज अमेरिका में है। राजीव खफा है। उम्मीद थी अम्बुज आयेगी। नहीं आई। योगेश्वर और उसकी पत्नी गवाह बनेंगे।’

‘बच्चे मुझे एक्सेप्ट कर लेंगे न ?’

‘मैंने कर लिया है।’

आज से भारती आपकी भार्या है।

थोड़ा जोखिम, थोड़ा हासिल, थोड़ा अचम्भा, थोड़ी तसल्ली, थोड़ी झिझक, थोड़ी अधीरता लिये वह आपके अच्छे मकान में दाखिल हुई। लगा ठीक रहा जो बच्चे नहीं आये। एकाएक उनका सामना करना कठिन होता। सर्वेन्ट क्वार्टर में रहने वाले मुरली ने स्वागत किया। भारती घर को देख कर तृप्त हुई-

‘घर इतना व्यवस्थित है कि लगता नहीं यहाँं स्त्री नहीं रहती।’

‘रसोई से लेकर बगीचा तक सब कुछ मुरली सम्भालता है। आपको घर दिखा दूँ।’ 

साम्राज्य दिखाते हुये आपने भोजन कक्ष की पूर्वी बड़ी सफेद दीवार पर चिपके विशाल बोर्ड में कलात्मक विधि से लगाई गई सुखरानी से लेकर नाती-पोतों तक की तस्वीरों को दिखा कर परिजनों का परिचय दिया। भारती ने माना उसने सही फैसला किया है। बस स्थितियों को सम्भालना होगा। उसके अनुज चाहते हैं स्थिति न सम्भले। छोटे ने अपने मोबाइल से भारती के मोबइल का नम्बर लगा कर अम्मा को पकड़ाया-

‘जिज्जी को थोड़ा सलाह मशवरा दो।’  

अम्मा झिझक रही हैं पर छोटे के सवालों को भारती के कान में पहुँचना उन्हें मातृ धर्म लगा-

‘कैसी हो भारती ?’    

‘खुश हूँ अम्मा।’ 

‘बैंक खाते खाली न कर देना।’

‘पंचशील मेरे खाते नहीं पूछते।’

‘उन्हें कितनी पेंशन मिलती है ?’ 

‘मैं नहीं पूछती।’

‘पूछो। तुम्हारा हक है।’

‘उनका हक पहले है जो इस घर में जन्मे हैं।’    

कह कर भारती ने आभास दे दिया प्रपंच में न पड़ स्थितियों को सम्भालेगी। आपसे आग्रह  किया -   

‘जलज से बात करना चहाती हूँ।’ 

‘कोई फायदा नहीं।’

‘बात करने से बात बनती है।’

‘काँंल लगा देता हूँ।’

जलज का हैलो सुन भारती हड़बड़ा गई लेकिन कहा-‘जलज, आपके पापा आप लोगों को मिस करते हैं। कभी आने का कार्यक्रम बनाइये।’   

‘इसी जनवरी में भारत आई थी। तीसरे साल आती हूँ।’

‘मैंने आप सभी के फोटोग्राफ्स देखे। आयेंगी तो तुरंत पहचान लूँगी।’

‘मैं परिचय नहीं बढ़ाना चाहती।’

जलज ने काँंल डिसकनेक्ट कर दी। भारती का क्लान्त मुख देख आप बोले-

‘बच्चे नहीं समझेंगे।’

‘धीरे-धीरे समझेंगे।’

भारती चाहती है बच्चे स्थिति समझ लें लेकिन जलज की राय में यह समझने लायक स्थिति नहीं है। उसने नींद ले रहे राजीव को फोन काँंल किया-

‘राजीव, पापा चाहते होंगे उनके एकांत में खलल न पड़े। तुम यही कर रहे हो।’

‘क्या हुआ ?’  

‘शादी वाली ने मुझे काँंल किया। पापा को पोषक तत्व देते-देते वह उनकी प्रापर्टी हँथिया लेगी। पापा के न रहने पर अपने कुनबे को बसा लेगी।’

‘ऐसा हुआ तो मैं शादी वाली की कनपटी फोड़ूँगा।’

‘एक विज़िट मारो। देखो क्या पाँंलिटिक्स चल रही है।’

‘ठीक कहती हो।’

राजीव की पत्नी निमिषा ने राजीव को कुछ देर फनफनाने दिया फिर बोली-

‘राजीव, पापा ने अपने लिये सहकर्मी का इंतज़ाम कर गलत नहीं किया। जलज दीदी अमेरिका में रहती हैं। अम्बुज के पास जुड़वाँं बच्चियों का बहाना है। पापा की हारी बीमारी में तुम, मुझे पठा देते हो। अब शादी वाली उनका बेड़ा पा करेगी।’  

‘उसका बेड़ा कौन पार करेगा ?’

‘उसका पावर तभी तक है, जब तक पापा हैं। पापा को पटा कर रखो वरना घर दुआर हाथ से निकल जायेगा।’ 

‘यह खुराफात तुम्हारे पिता ने की होती तो तुम इस तरह सलाहकार न बनती।’

‘पापा खुश हैं।’

‘हमारा तमाशा बना कर ? उन्होंने मेरा दिमाग़ खाली किया है, मैं उनका एकाउण्ट खाली करूँगा।’ 

राजीव ने आपको काँंल करने में वक्त न लगाया-

‘पापा, मैंने फ्लैट बुक किया है। कुछ पैसा चाहिये।’

आपने अमन पाया। काँंल तो किया-

‘कितना चाहिये ?’ 

‘कितना दे सकते हैं ?’

‘कितना चाहिये ?’ 

‘पाँंच लाख।’

‘देखता हूँ।’

पाणि ग्रहण कर आप दवाव में हैं अन्यथा पैसा न देते या फटकारते हुये देते। आप जानते हैं उसके पास अच्छा पैसा है। आपको पास बुक चेक करते हुये भारती ने पूँछा-‘बैंक जा रहे हैं ?

‘राजीव पाँंच लाख माँंग रहा है। मैंने एफ.डी.आर., एल.आई.सी., इंश्योरेन्स आदि में पैसा लगा रखा है। खाते में इतनी लिक्विड मनी नहीं है।’

‘मेरे खाते में है।’

‘आपके परिवार वाले क्या सोचेंगे ?’  

‘मेरा पैसा है।’ 

पाँंच लाख प्राप्त कर राजीव ने आगामी योजना बनाई-‘निमिषा, पापा ने जो किया कर ही लिया। हमें उनके सम्पर्क में रहना चाहिये वरना शादी वाली दावेदारी बना लेगी।’

‘ठीक बात। एक साल हो गया। हम झाँंकने न गये। रिजर्वेशन करा लो। अम्बुज को भी कह देती हॅू।’   

राजीव और निमिषा ने पुणे-पटना एक्सप्रेस से प्रस्थान किया। अपनी दो साल की आइडियेन्टिकल ट्विन्स बेटियों के साथ अम्बुज ने उन्हें भुसावल में ज्वाँंइन कर लिया। सुबह नौ बजे घर पहुँच कर तीनों ने देखा भाल पर छोटी बिंदी लगाये, अच्छे कद वाली भारती स्मार्ट और सक्षम लग रही है। राजीव और अम्बुज ने उसे उपेक्षित किया। निमिषा ने औपचारिकता दिखाई- 

‘नमस्ते आंटी।’

‘नमस्ते। खुश रहो।’

राजीव ने अम्बुज को देखा- हमें गम में डाल कर कहती है खुश रहो। 

आप भारती के साथ बच्चों के सत्कार में लगे हैं। अम्बुज रसोई में भेद ले रही है-

‘मुरली क्या बना रहे हो ?’

‘बाई जी ने आप लोगों की पसंद का खाना बनाने को कहा है।’                        

‘मुझे पापा की फिक्र रहती है। बाई जी पर नजर रखना। अपना मोबाइल नम्बर तुम्हें दे जाऊँगी। गड़बड़ देखो तो काँंल करना।’

‘फिकिर न करो छोटी दीदी। बाई जी के आ जाने से साहब की ब्लड पेसर और सिर दर्द की दवाई कम हो गई है। साहब को टमाटर का सुरूआ (सूप) पसंद है न। बाई जी रोज बनाती हैं।’

‘शादी वाली, पापा का स्वास्थ विभाग सम्भाल रही है।’

‘जी।’

‘खाना लगाओ।’

डायनिंग टेबुल पर खाना परोस दिया गया। भारती ने सलाह दी-

‘आप बच्चों के साथ खायें। दिनों बाद मौका मिला है। मैं रोटियाँं सेंक कर देती हूँ।’  

निमिषा ने मर्यादा दिखाई ‘मैं आपकी मदद करती हूँ। आपके साथ बाद में खा लूँगी।’

वह नई सास के साथ समय बिता कर स्थिति का जायजा लेना चाहती है। सबके उपरांत दोनों खाने लगीं। निमिषा ने पूँछा ‘आण्टी, पापा  के स्वभाव में आपको सबसे अच्छा क्या लगा ?’

‘वे अच्छे इंसान हैं।’

‘इतने अच्छे कि शादी का मन बना लिया ?’

‘आपके पापा ने प्रस्ताव दिया। मुझे लगा यह एक मौका है। वहाँं भाईयों की गृहस्थी है। यहाँ थोड़ा कुछ अपने मन का कर पाती हूँ। आप जानती ही हैं गृहस्थी के छोटे-छोटे फैसले करना कितना संतोष देता है। मेरे लिये मेरा वेतन पर्याप्त है। अधिक नहीं चाहिये। यदि जानती आप लोग अपने पापा से नाराज हो जायेंगे, शादी न करती।’

निमिषा की इच्छा हुई भारती के चरण गहले- पापा को सोहबत देकर दरअसल आप मुझे सुविधा दे रही हैं। 

‘पापा को खुश देख कर अच्छा लग रहा है।’

शाम को राजीव, अम्बुज के कमरे में मंत्रणा कर रहा था। निमिषा ने भिन्न बात की-

‘मुझे आंटी फेयर लगती हैं।’

अम्बुज चैंक गई ‘भाभी वे बहुत कम बोलती हैं। पता लगाना कठिन है कितनी फेयर हैं।’

राजीव ने मंतव्य कहा ‘हमें कल सुबह लौटना है। आज रात पापा से साफ बात करूँगा। हमें छोड़ें या शादी वाली को।’ 

निमिषा सहमत नहीं है। ‘पापा की अच्छी देख भाल करती हैं।’

‘निमिषा तुम उनकी श्रेष्ठता मत देखो। पापा के बाद हमारे सिर पड़ेंगी।’

अम्बुज बोली - 

‘भाई, पापा के बाद हम उन्हें किक आउट कर देंगे।’

इधर बैठक चल रही है। उधर आप और भारती बगीचा सींच रहे थे। सिंचाई पूरी कर आप गलियारे में लगे स्टार्टर (बोर का स्टार्टर) को बंद करने आये। अम्बुज के कमरे का द्वार गलियारे में खुलता है। द्वार से आती उत्तेजित आवाजों ने आपको चुनौती दी। आप पाणिग्रहण कर दबाव में न होते तो बच्चों को तत्काल घर बदर कर देते। आपने धीरज धारण किया। रात के भोजन के बाद राजीव और अम्बुज को छत पर खसेल ले गये-

‘राजीव, मैं किसी की बात छिप कर नहीं सुनना चाहता पर तुम और अम्बुज तेज बोल रहे थे। नहीं जानता मैं कब मरूँगा और भारती जी को किक आउट कर तुम लोग कहाँं फेंकोगे। तुम लोग कभी झाँंकने नहीं आते। जानना नहीं चाहते मैं किस तरह समय बिताता हँं।’ 

आपका चेहरा बता रहा है आपको आघात लगा है। 

अम्बुज मंद पड़ गई ‘पापा वह...... 

‘अम्बुज मुझे बोलने दो। राजीव, मैंने तुम्हें जो पाँंच लाख दिये उसमें दो लाख भारती जी के हैं। मेरे खाते में इतनी रकम नहीं थी। मेरे धन में न भारती जी की रूचि है, न उनके धन में मेरी। पैसा सारे सुखों की पूर्ति नहीं कर सकता। मानसिक शांति पैसे से बड़ी होती है। मैं तुम लोगों का अधिकार नहीं छींनूँगा, बस जीना चाहता हूँ .............।’ 

सन्नाटा।

सन्नाटे में बीती रात।

पटना-पुणे एक्सप्रेस से वापसी।

भारती ने वहीं प्रबंध किया जो सुखरानी करती रही होगी। झोला भर खाना-पीना साथ रखा। निमिषा को साड़ी और अँगूठी दी-

‘आपको पहली बार देख रही हूँ। अगली बार बच्चों को भी लायें।’

‘दोनों का स्कूल है। नानी के पास छोड़ना पड़ा।’

अम्बुज को साड़ी और टाँंप्स दिये। बच्चियों को चाँंदी के गिलास। 

‘मायके से बेटी खाली हाथ नहीं जाती। आप इन दोनों को पहचानती कैसे हैं ?’

राजीव से बोली ‘आपको क्या दूँ ? सब आपका है।’ 

तीनों ने भारती को देखा- इस स्त्री को जगत नहीं थोड़ी सी जगह चाहिये।

तीनों ने आपको देखा- पापा खुश हैं। खुशी पर इनका हक है। तीनों ने आप दोनों को संयुक्त भाव में देखा- अपनी-अपनी आस्था के साथ अनौपचारिक भागीदारी चाहते हैं। मिले इन्हें इनके हिस्से का प्रकाश, पानी, पवन, पर्यावरण। 

भारती ने विदाई वाक्य कहा ‘सभी बच्चे एक साथ आने का प्लान करो। छोटी पार्टी रखेंगे।’

बहुत जब्त किया पर अम्बुज की वाणी फिसल गई-

‘आपके साथ समय बिताना अच्छा लगा।’ 

पापा ने गलती नहीं की- यह उसने संकेत में राजीव से कहा।        


श्री श्यामबाबू शर्मा, शिलाॅग, मो. 98635 31572

लघुकथा

बुलाकी चाचा

‘आलता ले लो, लिपस्टिक ले लो, कांटा फीता कंगन-चूड़ी ले लो।‘

बुलाकी की आवाज सुनते ही अजिया काकी धेरिया-बहुरिया उसे घेर लेतीं। बड़ा झउवा उसमें करीने से लगी इसनो, पवडर, मिस्सी, काजल, सुरमा, लाली, चिमटी- कांटा, फीता, कंगन-चूड़ी और तमाम सुहाग का सामान। किसी की अपनी पसंद नहीं; सब एक दूसरे से पसंद करवातीं। ‘देखो ना भौजी..‘लजातीं। हंसउवा ठिल्लहाव और मोलतोल के बाद खरीदारी। बड़े बुजुर्ग ओट हो जाते।

‘मारु गोसइयां तोरिही आस।‘ सुंदारा को दो-चार दिन के लिए छोटे बेटे शुभं के संग सावन में मायके जाने की मोहलत मिली थी। कल्पनाओं ने  उड़ान भरी.. कोई सखी सहेली मिल ही जाए। देखो ना बिचारी बचपन में जितना हंसमुख थी ससुराल उतनी ही..?

‘सुंदारा बिटिया कब आई?

कल सांझ को बुलाकी चाचा।‘

छोटे, बड़े, हम उम्र सब बुलाकी को बुलाकी चाचा ही बुलाते। सत्तर साल से न जाति की बात हुई न कौम का सवाल। इस महीने चूड़ियां पहनना शुभ माना जाता। बुलाकी ने सुंदारा, सुंदरा की भौजी और पास-पड़ोस की औरतों को चूड़ियां पहनाईं, ज्वारा लाखा। चूड़ी पहनाते समय जो चूड़ी टूट गईं उन्हें बुलाकी ने हिसाब में न गिना। सबको एक-एक चूड़ी अपनी तरफ से दी जिसे उसका आशीर्वाद समझकर सबने माथे से लगा लिया। चूड़ी पहन कर सास जेठानी ननद का आशीर्वाद लिया गया। बुलाकी ने वहीं दहलीज में बैठकर कुछ पूरी पुवा खा लिये कुछ बच्चों के लिए रख लिये। खोंची भरी झउवा उठाया...

‘चूरिहार कौन होते हैं, मम्मी!‘

काले बादल गरजे कउंधा लपका।

‘बुलाकी चाचा मौसम बदल रहा है।‘

हां बिटिया देख रहा हूं।

...‘आलता ले लो, लिपस्टिक ले लोकृ।



श्री शैलेन्द्र शैल, नई दिल्ली, मो. 98110 78880

उपन्यास अंश

रावी से यमुना तक


पूर्व-दीप्ति

इंग्लैंड-2005 

लन्दन से लगभग चालीस मील दूर वरिष्ठ नागरिकों के लिए बनाए गए ‘‘चेशायर होम‘‘ के लॉन में आराम-कुर्सी पर बैठ कर ‘‘टाइम‘‘ पत्रिका पढ़त.पढ़ते सेवानिवृत्त कुलपति रमाकान्त प्रभाकर की आँख लग गई। पत्रिका उनके हाथ से छूट कर हरी मखमली घास पर गिर गई। पत्रिका के चमकीले मुखपृष्ठ पर धूप की किरणें नाच रही हैं। यहाँ जब धूप निकलती है, लोग जश्न मनाते हैं। यहाँ छतरियों का उपयोग धूप के लिए नहीं वर्षा के लिए ही किया जाता है। छुट्टी के दिन लोग उसका आनन्द उठाने के लिए लॉन में बैठते हैं। बच्चे मजे से अपनी-अपनी साइकिलें सड़क के किनारे बने साइकिल-पथ पर चलाते हैं। कुछ घास के मैदान में फुटबॉल या फ्रिकेट खेलते हैं। अगस्त, सितम्बर और अक्तूबर के महीनों में मौसम अपेक्षतया सुहावना होता है। बीच-बीच में वर्षा की हल्की फुहार पड़ती है पर कुछ ही देर में धूप फिर खिल उठती है। लॉन के चारों ओर ओक और बर्च के लंबे पेड़ प्रहरियों की तरह खड़े हैं। एक पेड़ की टहनियों पर कुछ चिड़ियाँ बैठी चहचहा रही हैं। एक नटखट गिलहरी ओक के तने पर इधर-उधर फुदक रही है। हल्की-धूप में उसकी धारिया अधिक चमक कर उभर रही हैं जैसे किसी चितेरे ने उसकी पीठ पर पेंट से रेखाएँ खींच दी हों। अब वह नीचे गिरी पत्रिका पर दो पैरों पर खड़ी हो गई है।

रमाकान्त प्रभाकर एक दिवास्वप्न सा देख रहे हैं। अपने अतीत की सारी बातें एक-एक कर उन्हें याद आ रही हैं। उनका जीवन आरम्भ से ही संघर्षपूर्ण रहा है। उन्हें एक प्रकार का आत्मतोष भी है। उनके तीनों बेटे आज अच्छे पदों पर आसीन हैं। खेद है तो केवल इस बात का कि प्रभा देवी दस वर्ष पहले उनका साथ छोड़ गई।

‘‘सूप‘ .... नर्स ने उनके कान के पास आ कर कहा।

‘‘मुझे सुनता है। नीचे रखो अभी पीता हूँ‘‘ कुछ वर्षों से उन्हें लँचा सुनने लगा है। वे अतीत से वर्तमान में लौटे। शायद उन्हें अच्छा नहीं लगा। वे कुछ देर और अतीत में ही विचरना चाहते थे। 

‘‘गिलहरी धमा चैकड़ी मचा रही है, गिरा देगी‘‘ नर्स बोली। कप उन्होंने पकड़ लिया। उन्हें पता चल गया कि दोपहर के भोजन का समय हो गया है। छोटी-छोटी बातों से उन्हें समय का भान हो जाता है। घड़ी पहनना उन्होंने वर्षों पहले छोड़ दिया है। उन्होंने आँखें खोल कर देखा सभी सूप पी रहे हैं।

‘‘सूप पी कर लंच के लिए आ जाइएगा। धीरे-धीरे। या कहें तो मैं मदद करूं?‘‘ ‘‘नहीं ठीक है मैं आ जाऊँगा।‘‘

रमाकान्त को कुछ वर्ष पहले संधिवात रोग ने आ घेरा है। दर्द सबसे अधिक घुटनों में होता। बेटों के बार-बार कहने पर ही उन्होंने छड़ी का सहारा लेना आरम्भ किया। बायाँ घुटना अधिक दुखता है। वे सदा उस पर नी-कैप पहने रहते हैं।

चेशायर होम की यह इमारत लगभग 50-55 वर्ष पहले बनी थी। वास्तुकार ने इसका निर्माण विक्टोरियन स्थापत्य शैली में किया था। ग्रुप कैप्टेन लियोनार्द चेशायर ने द्वितीय महायुद्ध के बाद अकेले रहने वाले वरिष्ठ नागरिकों के लिए इस संस्था की स्थापना की। आरम्भ में लन्दन में किराए के एक छोटे मकान से यह प्रयोग आरम्भ हुआ और धीरे-धीरे सफल हो गया। आज इसकी शाखाएँ सारे इंग्लैंड में फैली हुई हैं। एक न्यास इसका संचालन करता ‘‘बैठिए‘‘- नर्स ने कुर्सी पीछे खिसकाते हुए कहा। ‘‘भूख नहीं है, सूप काफी अच्छा था।‘‘ ‘‘मैं कुक को बतलाऊँगी, वह बहुत खुश होगा। एक कटलेट खा लीजिए या थोड़े बीन्स और आलू।‘‘

‘‘वे बिल्कुल बकबके होते हैं-फीके फीके, बस नमक और काली मिर्च। यहाँ और मसाले नहीं मिलते क्या? मेरी माँ जब खाना बनाती थी तो मैं घर के बाहर से ही बता देता था कि आज हींग में बघारी हुई अरहर की दाल बनी है।‘‘

तब तक नर्स किचन में चली गई थी। नर्स के दरवाज़े पर आते ही उन्हें पता चल जाता है कि सिंथिया आ रही है। वह सदा एक ही परफ्यूम लगाती है। उसे देख कर वे अक्सर प्रभा देवी के बारे में सोचते लगते हैं। उनके बदन की गंध को याद करते हैं।

‘‘चलिए एक कप सूप और पी लीजिए।‘‘ । ‘‘ठीक है, सूप और एक पीस ब्रेड। सिंका हुआ, बस।‘‘

आजकल भूख उन्हें बहुत कम लगती है। नर्स लॉन में धीरे-धीरे टहलने के लिए कई बार कह चुकी है। पर वह इस मामले में आरम्भ से ही आलसी रहे हैं। भोजन समाप्त कर वह पुडिंग की प्रतीक्षा करने लगे।

‘‘मीठे में क्या है..... वट इज इन द पुडिंग‘‘ ‘‘मीठा आप को मना है - नो स्वीट्स‘‘ ‘‘मैं दूध, दही, चाय, कॉफी किसी में भी चीनी नहीं लेता। कम से कम एक चम्मच कस्टर्ड तो ले ही सकता हूं‘‘ ‘‘ओ.के. पर एक ही चम्मच, मैं यहीं खड़ी हूं।‘‘ उन्होंने जल्दी-जल्दी दो तीन चम्मच खाए और नेपकिन से मुँह पोंछते हुए मेज से उठ खड़े हुए।

अब उनका सुस्ताने का समय है। सोते इसलिए नहीं कि कहीं रात को नींद ही न आए। उन्हें अनिद्रा रोग है। उनके पलंग के दाईं वाली साइड टेबल पर एक टेबल लैंप है और पहले दराज में दवाइयाँ। दो पुस्तकें भी हैं- ‘‘भगवद्गीता‘‘ और महात्मा गाँधी की आत्मकथा ‘‘सत्य के प्रयोग‘‘। वह प्रतिदिन सुबह गीता के दो पृष्ठ पढ़ते हैं। कभी कभार गाँधी जी की आत्मकथा का कोई अंश। उन्होंने गीता के कई श्लोक रेखांकित कर रखे हैं। गाँधी जी के एक वाक्य को तो दो बार रेखांकित किया है।

‘‘मनुष्य अपने विचारों से निर्मित प्राणी है, वह जो सोचता है वही बन जाता है।‘‘

ठीक चार बजे स्वाधीन की कार चेशायर होम के पोर्च में आकर रुकी। कार की अवाज सुनकर उन्होंने पुस्तक साइड टेबल पर रख दी और उठ कर बैठ गए। आजकल वे पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव का आत्मकथात्मक उपन्यास ‘‘इन साइडर‘‘ पढ़ रहे हैं। शीर्षक अल्बेयर कामू के ‘‘आउट साइडर‘‘ का स्मरण कराता है। रविवार को स्वाधीन कार स्वयं चलाता है। लन्दन से आने में उसे केवल आधा घंटा ही लगता है। इस दिन रमाकान्त चाय कमरे में न मंगवा कर डाइनिंग हॉल में स्वाधीन के साथ पीते हैं। स्वाधीन ने कमरे में घुसते ही पांव छुए।

-‘‘प्रणाम पिता जी‘‘-‘‘जीते रहो बेटा‘‘ ये दो वाक्य वे न जाने कितने वर्षों से एक-दूसरे को कहते आ रहे हैं। ‘‘आप कैसे हैं‘‘ पास रखी कुर्सी पर बैठते हुए स्वाधीन ने पूछा। ‘‘मैं ठीक हूी आज सुबह लगभग दो घंटे धूप में बैठा था।‘‘ ‘‘और घुटने का दर्द?‘‘ ‘‘वह तो अब देह के साथ ही जाएगा।‘‘ ‘‘ऐसा क्यों कहते हैं? आप कहें तो घुटने की रिप्लेसमेंट करा देते हैं।‘‘ उन्हें शायद सुना नहीं। कई बार वे जानबूझ कर भी अनसुना कर देते हैं- विशेषकर वे बातें जो उन्हें अप्रिय लगती हों। स्वाधीन ने और पास आकर वाक्य दुहराया। ‘‘अब इस उम्र में ऑपरेशन करवा के क्या करूँंगा।‘‘ वे बोले‘‘यहाँ तो नब्बे वर्ष के लोग भी करवाते हैं और भले चंगे हो कर चलने-फिरने लगते हैं।‘‘ ‘‘अभी तो छड़ी से काम चल रहा है‘‘ कोने में रखी छड़ी उठाते हुए उन्होंने कहा। ‘‘चलो डाइनिंग हॉल में चाय पीते हैं।‘‘

स्वाधीन ने पिता के लिए कुर्सी पीछे कर दी। ‘‘चाय पी लो ठंडी हो जाएगी‘‘ टी-पॉट की ओर इशारा करते हुए रमाकान्त ने कहा। स्वाधीन ने दोनों कपों में चाय उंडेली। ‘‘लो बिस्कुट लो‘‘- बिस्कुट की प्लेट आगे खिसकाते हुए उन्होंने कहा। एक बिस्कुट स्वयं उठा लिया। ‘‘सनातन कैसा है और कहाँ है? उन्होंने अचानक पूछा‘‘। ‘‘वह ठीक है, न्यूयॉर्क में है, गूगल में काम करता है। मैंने पिछली बार आपको बताया था।‘‘ ‘‘गूगल वही इंटरनेट वाली कंपनी।‘‘ ‘‘हां वही‘‘

‘‘मुझे पुरानी बातें तो याद रहती हैं पर नई नहीं। जैसे स्कूल की सारी बातें... मेरा बेंच और वह खिड़की जिसके सामने जामुन का एक घना पेड़ था। मेरा मित्र बलदेव जो मेरी ही बैंच पर बैठता था।‘‘

‘‘आप अपनी दवाइयाँ तो समय पर ले रहे हैं न? स्वाधीन पिता को फिर से वर्तमान में खींच लाया।‘‘ ‘‘क्या?‘‘ ‘‘मैं दवाइयों के बारे में पूछ रहा हूँ‘‘ ‘‘हां मैंने एक कागज पर लिख कर रख लिया है‘‘ ‘‘आप कान की मशीन क्यों नहीं, लगाते?‘‘ ‘‘लगता है कुछ खराब हो गई है। बात कम सुनाई देती है, सां...सां... की आवाज़ अधिक आती है।‘‘ ‘‘कोई बात नहीं, मैं अगली बार नई ले आऊँगा। ‘‘ ‘‘नहीं जब से तुम्हारी माँ साथ छोड़ गई है, मुझे इसकी जरूरत नहीं रही। जरूरी बातें मैं समझ ही जाता हूँ‘‘ ‘‘कमरे पर चलें? स्वाधीन उठते हुए उनकी बांह पकड़ने के लिए आगे बढ़ा।‘‘ ‘‘नहीं मैं अभी स्वयं उठ सकता हँू‘‘ -स्वाधीन का हाथ छिटकते हुए उन्होंने कहा। छड़ी उठाई और ठक ठक करते हुए कमरे तक पहुंच गए। ‘‘सुधीर और समीर का कई दिनों से कोई पत्र नहीं आया‘‘- पलंग पर बैठते हुए उन्होंने कहा‘‘वे ठीक हैं, उन्हें फोन करने को कहूंगा‘।

‘‘उन्हें कहना कि पत्र लिखें। पत्र में एक आत्मीयता होती है। पत्र मिलता है तो लगता है मैं स्वदेश पहुँच गया हूँ फोन पर ठीक से बात नहीं हो पाती। और फिर पत्र को बार-बार पढ़ा जा सकता है। उसे छुआ जा सकता है। उसमें लिखने वाले की गंध बसी होती है।‘‘

‘‘ठीक है, आज ही उन्हें कह दूंगा। अब मैं चलूं? अँधेरा होने से पहले लन्दन पहुँच जाऊँगा।‘‘ स्वाधीन उठ खड़ा हुआ और पिता के पाँव छू कर दरवाजे की ओर मुड़ गया।

‘‘अगले रविवार को आओगे न?।‘‘ ‘‘हां अवश्य आऊँगा‘‘ कह कर वह पोर्च की ओर बढ़ गया।

अपनी ओशन ग्रीन रंग की मर्सिडीज स्टार्ट करते हुए उसने सोचा-पिता कितना बूढ़ा हो गए हैं और कमज़ोर। मैं भी तो साठ पार कर गया हूँ। कार पर राजनयिक नंबर प्लेट है और बोनेट के दाई ओर तिरंगा। भारत के विदेश सचिव पद से सेवानिवृत्ति से पहले ही विदेश मंत्री ने प्रधानमंत्री को उसका नाम लन्दन में उच्चायुक्त पद के लिए सुझाया था। उन्होंने सुझाव मान लिया था। विदेश सचिव के रूप में उसने भारत-पाक सम्बन्धों को सुधारने का प्रयास किया था। इंग्लैंड में लगभग बीस लाख भारतीय मूल के लोग हैं। अब वह उनके और अंग्रेज उद्योगपतियों द्वारा भारत में निवेश के लिए प्रयासरत हैं।

वह पिता को भारत से अपने साथ ही ले आया था। दिल्ली में उनकी देख रेख ठीक से हो पाना कठिन हो रहा था। सबसे बड़ा बेटा होने के नाते आरम्भ से ही रमाकान्त स्वाधीन के काफी निकट थे और वह उनकी बात भी मान लेते थे।

रास्ते भर स्वाधीन सोचता रहा। आज पिता शांत थे, उद्विग्न नहीं। लगता है इतने वर्षों में उन्होंने स्थितियों से समझौता कर लिया है। अचानक उसे पिता पर प्यार हो आया और ऐसा बहुत दिनों बाद हुआ। बीच में उसके अपने झंझट थे। अब वह चाहता था कि जितने दिन पिता हैं, स्वस्थ रहें, प्रसन्न रहें। वह स्वस्थ शब्द पर आकर ठिठक गया। क्या पिता स्वस्थ हैं? घुटनों के कारण चलने फिरने में परेशानी, मोटा चश्मा, ऊँचा सुनना, जो उन्हें अर्थपूर्ण संवाद में बाधा पहुँचा रहा था। मशीन मेज़ पर पड़ी थी पर उन्होंने कान में न लगाने की ज़िद पकड़ ली थी। स्वाधीन सोच रहा था पिता दिन भर क्या सोचते रहते होंगे। पुरानी बातें.... और फिर कितनी पुरानी बातें। क्या वाकई हम अपने अतीत को पूरी तरह भुला पाते हैं। उसके पास इसका कोई संतोषजनक उत्तर न था। क्या वह कभी अपनी कोई पुरानी कविता गुनगुनाते होंगे। माँ की कोई तरल, कोमल और स्नेहिल छवि सहेज कर रखी होगी उन्होंने? इस बात का उसे अहसास था कि माँ को जिस रूप में वह याद करता है, पिता उससे भिन्न स्मृति कोष को संजोए हुए हैं। यह स्वाभाविक था। दाहिने मुड़ कर उसने कार इंडिया हाउस की ओर घुमा ली। 



07 अक्टूबर, 2021

आदरणीय देवेन्द्र कुमार बहल जी, नमस्कार!

एक दशक पहले जन्मा ‘अभिनव इमरोज़’ शिशुं नहीं पौढ़ है। मौलिक चिन्तन और उभरती प्रतिभा को प्रोत्साहित करता हुआ, प्रेम और प्रतिभा का प्रतीक है।

अनगिनत कवियों, कहानीकारों और प्रतिभाशाली स्वदेशी और विदेशों में रहने वाले लेखकों से हम सब अनभिज्ञ थे। ‘अभिनव इमरोज़’ उन सभी स्वदेशी और प्रवासी प्रतिभाशाली साहित्यकारों को हिन्दी प्रेमियों के घर घर में पहुँचाया। एक दशक में साहित्य प्रेमियों के इष्ट रूप में उभर कर आया है। 

साहित्य जगत के महान सेवक के रूप में आप की सराहना करते हुए- आपको बहुत बहुत बधाई!

शुभकामना साहित

शुभचिन्तक


   अमृत नागपाल, लुधियाना, मो. 98726 55110


संदेश

‘अभिनव इमरोज़‘ के पाठकों के लिए आगामी वर्ष स्वास्थ्य, सौहार्द और रचनात्मक बदलाव लेकर आए। इस पाठक-परिवार को नए साल की असीम शुभकामनाएँ। 

मीरा कांत


बहल साहब बहुत बहुत शुक्रिया, कई भूले जमाने याद आ गए, कमला दत्त की ये मेरी पहली छपी कहानी थी, कमलेश्वर जी ने छापी थी लिख कर इंडिया मेें डॉ. कुंतल मेघ जी के घर पहुँच गई थी, उन का बड़प्पन है कि उन्होंने सुनी और कहा लिखती रहो, अगर कमलेश्वर जी न छापते तो लिखना वहीं खत्म हो जाता, ढेर सारे आदर एवं नव वर्ष की शुभकामनाएँ -कमला दत्त, Georgia, USA, kdutt1769@gmail.com



अंतिम पत्र


सुश्री मल्लिका मुखर्जी, अहमदाबाद, मो. 97129 21614

अश्विन मैकवान

प्रिय अश्विन,

सुनते ही आई थी कि प्रेम एक अद्भुत एहसास है। मैं भी इस अहसास से गुज़रना चाहती थी। मेरी किस्मत की किताब तो खूब लिखी नियति ने, जिस पृष्ठ पर ‘प्रेम’ लिखा था उस पृष्ठ को जोड़ना ही भूल गई! मैं प्रेम ही लिखना चाहती थी। कितना कुछ था मेरे पास प्रेम लिखने के लिए, नहीं थे तो बस तुम!  

मैं कैसे भूल सकती हूँ? मेरी उम्र का सोलहवाँ साल। वर्ष 1972, अहमदाबाद की भवन्स कॉलेज में मेरा पहला वर्ष। तुम्हें कॉलेज के बाहरी गेट से, भवन के गेट तक आते हुए देखने के लिए मैं कॉलेज की तीसरी मंजिल के कोरिडोर में खड़ी रहती। तुम्हारा व्यक्तित्व इतना आकर्षक था कि मैं खुद को तुम्हारे सामने कहीं भी नहीं रख पाती थी। तुम्हारे प्रति मेरी बढ़ती दीवानगी के एहसास को शब्दों में बयां करना संभव नहीं है। साबरमती नदी के तट पर खड़ी यह कॉलेज मुझे किसी प्रेम की इमारत से कम न लगती! 

तुम एक अभिनेता थे। यूथ फेस्टिवल के कार्यक्रमों में तुम्हें स्टेज पर पॅर्फ़ाॅर्म करते देखना मेरे लिए एक रोमांचकारी अनुभव था। तुम नाटकों में, टीवी सीरियलों में, टेलीफिल्म्स में अभिनय करते इसलिए नियमित रूप से कॉलेज नहीं आ पाते। जिस दिन तुम नहीं आते, मेरी निगाहें तरसती रह जाती तुम्हारे इंतजार में! मेरे सहपाठी थे तुम, कभी-कभी कुछ औपचारिक बातें हो पाईं तुमसे, लेकिन कभी भी अपने मन की बात कहने का साहस नहीं जुटा पाई। कॉलेज की अवधि समाप्त हो गई और तुम्हें एक नज़र भर देखने का कोई उपाय नहीं बचा। 

मेरे एकतरफा प्रेम ने मेरे अस्तित्व पर हमला किया, लेकिन मेरे दर्द ने कभी शोर नहीं मचाया। तुम्हें देख पाने का एक मात्र ज़रिया कॉलेज की “आकार” पत्रिका थीं, जिसमें एक अभिनेता के रूप में तुम्हारी तस्वीरें थी। मैंने उस पत्रिका को अपने पास सुरक्षित रखा। मंज़िल का पता नहीं था, जो राह मिली उस पर मैं चलती रही। मैंने अकेले प्यार किया, अकेले ही इंतज़ार किया, चलती रही तो भी अकेले। धीरे-धीरे तुम्हारे प्रति मेरा आकर्षण समाप्त हो गया और वहीं से तुम्हारे लिए मेरा प्रेम शुरू हुआ, इतना ही नहीं लगातार हावी होता चला गया। कितना गुणा-भाग, जोड़-घटाव कर लिया, पर तुम्हारा नाम अपने दिल से नहीं मिटा पाई। 

देखो, क्या चमत्कार हुआ! नियति ने फिर से मेरे जीवन की किताब खोली और उस गुमशुदा पृष्ठ को जोड़ दिया! वह पृष्ठ जो बरसों तक हवाओं में, फिजाओं में तिनके की तरह उड़ता रहा; लेकिन गिरा नहीं। मेरे सपने भी कहाँ मिटे थे जो ‘प्रेम’ से जुड़े थे? कॉलेज की अवधि समाप्ति के लगभग इकतालीस वर्ष के बाद वर्ष 2018 में सोशल मीडिया पर तुम्हें देखा! 

तुम्हें पाकर मेरे दिल में खामोशी का आवरण ओढ़े, दफ़न प्रेम का बाँध ऐसे टूटा कि मेरा समूचा अस्तित्व केवल एक स्त्री के रूप में उभरकर आया। एक नया रूप जो न माँ थी न बेटी थी, न बहन थी न पत्नी। केवल एक स्त्री, सभी सांसारिक बन्धनों से मुक्त। प्रेम का वह शिलाखंड जो युगों से मेरे हृदय की सूखी सतह पर खड़ा था, पिघलने लगा और प्रेम की वह पवित्र धारा बह निकली, जो मेरे सारे पथरीले अस्तित्व को पिघलाकर अपने साथ ले चली! 

आज तक तुम मौन बनकर मेरे हृदय में छुपे रहे, मैं भी खामोश रही। जब तुम शब्दों के रूप में मेरे सामने आए, मैं भी तुम्हारे शब्दों की मिठास में घुलकर वाचाल होती चली गई। दिल को यह एहसास हुआ कि सपने तो कई थे मेरे पास, कभी उन सपनों को सजाने का अवसर नहीं मिला। याद किया तो याद आया, न जाने कितने सपने बिखर चुके हैं। कुछ टूटे हैं, कुछ मैंने तोड़े हैं। कुछ छूट गए हैं, कुछ मैंने छोड़ दिए हैं। कुछ खो गए हैं, कुछ जल गए हैं। कुछ ने धोखा दिया है। न जाने क्यों, तुम्हें अपने मन की बात कहने का एक असंभव सपना मेरे दिल के वीराने में कहीं साँस ले रहा था! 

तुम मिले इतना ही नहीं, अतीत में लौटकर मुझे अहमदाबाद की उसी भवन्स कॉलेज के प्रांगण में ले गए, जहाँ मैं सोलह वर्ष की मुग्धा बन खड़ी थी! तुमने मेरी पीड़ा को महसूस किया और मुझे इस पीड़ा से मुक्ति दिलाने हेतु सारे सांसारिक बंधनों को लाँघकर मेरे प्रेम को स्वीकार किया। मुझे प्रेम की मेरी धारणा को बदलने से बचा लिया कि प्रेम सबसे ऊपर है, प्रेम से ऊपर कुछ नहीं। साथ ही मुझे इस बात से भी अवगत कराया कि जीवन में प्रेम ही एक ऐसा अनुभव है जहाँ समय और स्थान दोनों व्यर्थ हो जाते हैं। प्रेम ने हमारे बीच 13500 कि.मी. के अंतर और इकतालीस वर्ष के समय को मिटा दिया। 

तुम्हारे संवादों में प्रेम का ऐसा अद्भुत अहसास हुआ जिसे शब्दों में बयां करना नामुमकिन है। तुम्हारी मासूमियत, तुम्हारी शरारत, तुम्हारा अल्हड़पन, तुम्हारा प्यार, तुम्हारा दुलार... उम्र के उस नाजुक मोड़ पर खड़ी कौन युवती नहीं चाहेगी ऐसा युवक! तुम्हारे कारण मेरे वजूद में आमूल परिवर्तन आया। तुम काल के महासागर में डूबकी लगाकर उन सारे उत्सर्जित सपनों को, जिनकी अब कोई अहमियत नहीं थी, मेरे वर्तमान की सतह पर ले आए, और उन सपनों में जैसे जान डाल दी। 

हमने अपने जीवन की अपूर्णता को अपने शब्दों में खोजा। हमने अपना बचपन साथ जिया, किशोरावस्था में गोते लगाये, युवावस्था के झंझावातों की बातें की। कभी आम लोगों की तरह व्यवहार किया, कभी अल्हड़ बन गए, कभी गंभीर हो गए। पता नहीं क्यों तुमसे संवाद करते-करते समय मुझे एहसास हुआ कि शब्दों की ताकत कितनी हसीन होती है। तुमने मुझसे मेरा परिचय करवाया। 

प्रेम, सौन्दर्य, देवत्व और सत्य की उस अनंत मधुरता का पूर्ण स्वाद मुझे संवाद से ही प्राप्त हुआ। तुमसे बात करते हुए हर बार मुझे लगा, जैसे मैं बादलों, नदियों, महासागरों, पहाड़ों, पंछियों, तितलियों, फूलों की वादियों, चांद- सितारों से बात कर रही हूँ। तुम ही हो जिसने मुझे इस सृष्टि में हर जगह बिखरे प्रेम की अतुलनीय सुंदरता से परिचित कराया। हम दोस्ती के उस शिखर पर पहुँच गए जहाँ प्यार का सर्वोच्च रूप होता है। 

हमने हर परिस्थिति में अपने-अपने जीवन साथी का साथ भी उतनी ही इमानदारी से निभाया, हमारे भीतर मौजूद प्रेम की तीव्र भावना ने ही हमारे बंधन और साहचर्य को मज़बूत बनाया। हमने लाख मुश्किलें सहकर भी अपने दिमाग़ को कभी अपने दिल पर हावी नहीं होने दिया! जीवन में गहन उदासी के पलों में भी हम मुस्कुराते रहे। हमारा प्रेम असीम था लेकिन हमारी मुस्कुराने की सीमा तय थी दोस्त! 

वह दिन भी आ गया जब तुम यह नहीं कह पाए, ‘कल फिर मिलेंगे कोई नई बात लेकर।’ सोशल मीडिया पर मुझसे मिलने से तीन महीने पहले तुम्हारा कोलोन कैंसर का ऑपरेशन हुआ था। तुमने यह भी लिखा था कि अब ज़िदगी का कोई भरोसा नहीं रहा। मुझे भरोसा था, लेकिन पता नहीं था कि नियति ने मेरे जीवन की किताब में उस गुमशुदा पृष्ठ को जोड़ते हुए हमारी साथ चलने की यात्रा की अवधि भी लिख दी थी। मैं हैरान हूँ कि तुमने अपनी यात्रा के अंतिम चरण को कितनी सिफत से उत्सव बना दिया!

जनवरी 2020 से ही तुम फिर से उस महा रोग की चपेट में आने लगे। डॉक्टर ने इस बात की जानकारी दी थी कि तुम्हारा कैंसर अब स्टमक में फैल गया है। तुम मुझसे बिलकुल स्वाभाविक रूप से बात करते रहे, लेकिन मेरे दिल में भी आँखें हैं, दोस्त! तुम्हें अपना हाल बताना पड़ा। तुम खा नहीं पा रहे थे, तुम्हारा वज़न कम होने लगा था। अब मुझसे बात करने का समय कम होता जा रहा था क्योंकि तुम्हारे गले में भी दर्द बढ़ रहा था। तुम्हारा परिवार हर पल तुम्हारे साथ था, लेकिन कोरोना महामारी के के कारण तुम्हारे इलाज में कई समस्याएं आने लगीं। तुम्हारी बेटी हीरवा ने जी जान से कोशिश की।

तुम्हें पता चल चुका था कि तुम्हारी सेहत के बारे में जानकर मैं टूट चुकी हूँ। जब भी मैंने फोन पर पता लगाने की कोशिश की, तुमने कहा कोई और बात करो। मैं दिल पर पत्थर रखकर यहाँ हो रही विभिन्न साहित्यिक गतिविधियों के बारे में बात करती। 6 जून के दिन तुमने लिखा, ‘हीरवा की सहेली के देवर जो डॉक्टर हैं, वे भी तुम्हारे केस में रुचि ले रहे हैं। उन्होंने कहा है कि इस तरह के कैंसर का ट्रीटमेन्ट संभव है। यह एक गुड न्यूज है जो मैं तुम्हें दे रहा हूँ।’ 

घोर निराशा में भी मेरे हृदय में आशा की एक किरण जगी थी, ऐश। मुझसे बात करते-करते एक बार अपनी जन्मभूमि को देखने की तुम्हारी इच्छा तीव्रतर हो चली थी। पिछले तैंतीस साल से तुम अपने शहर अहमदाबाद नहीं आ सके थे। तुम मौत से नहीं डरते थे, बस एक बार अपनी मातृभूमि की जमीन को छूना चाहते थे। यह तुम्हारा आखिरी सपना था, जिसे मैं पूरा करना चाहती थी। पर नियति कुछ और चाहती थी। 10 जून शाम को तुमने लिखा, ‘अब मुझे पानी पीने में भी दिक्कत हो रही है। इज वाटर थिकर देन ब्लड?’ 

‘हिम्मत रखो दोस्त, तुम बहुत स्ट्रोंग हो।‘ मैंने लिखा लेकिन रातभर मैं तुम्हारे गले में हो रहे भयानक दर्द को महसूसती रही।   

 ‘मेरे लिए उम्मीद न छोड़ना। मैं अभी बहुत जीऊंगा, देख लेना।’ दूसरे दिन मिले तुम्हारे जवाब से मैं आश्वस्त हुई थी, डियर। सारी मेडिकल कार्रवाई के बाद तुम्हें हॉस्पिटल में भर्ती होना पड़ा। दो दिन तुम्हारी तरफ से कोई कॉल या मैसेज नहीं आया। मैं गुड मॉर्निंग, गुड नाईट लिखती रही।

22 जून को हम मिले! यहाँ की सुबह 4.50 बजे तुमने मुझे वीडियो कॉल किया। मेरा दिल धक् से रह गया! इन दो साल में यह तुम्हारा पहला वीडियो कॉल था! मैंने रिसीव किया। मेरे कमरे में नाइट लैम्प की धुँधली रौशनी थी। आज तक तुम्हें डर था कि अगर मैं तुम्हारा बुढ़ापा देख लूँ तो मेरे मन में अंकित तुम्हारी वह तस्वीर खंडित हो जायेगी जो पिछले पैंतालीस साल से मेरी आँखों में कैद है, मेरे दिल में सुरक्षित है। ये भी हो सकता है, तुम्हारे प्रति मेरा प्रेम भी न रहे। आज तुम्हें डर क्यों नहीं लगा, अश्विन?

मैं उठकर बैठ गई और कहा, ‘तुम कॉल काटना नहीं, मैं लाईट ऑन करती हूँ।’ मैंने कमरे की मुख्य लाइट जलाई और फोन स्टैंड पर रख दिया। हम स्क्रीन पर मिले, कैसे हमने एक-दूसरे को देखा ऐश! मैं अहमदाबाद में एक घर में, साधारण से गाउन में, नींद को तरसती बोझिल आँखे, बिखरे बाल... और तुम एल.ए. में एक मरीज के रूप में हॉस्पिटल के एक कमरे में...! इस पल हमारे बीच कोई नहीं था सिवाय सन्नाटे के! तुम्हें अंदाजा था ही कि उस पल मेरे मनमें क्या चल रहा था!

कुछ पल पल के बाद मैंने पूछा, ‘क्या बात है, तुमने आज वीडियो कॉल किया?‘

‘ऐसे ही मुझे लगा कि पिछले दो दिनों से मैंने तुमसे बात नहीं की है। तुम नाराज न हो जाओ।’ 

‘मैं नाराज क्यों होऊं, अश्विन? क्या मुझे नहीं पता, तुम हॉस्पिटल में हो। तुम्हारी सर्जरी होने वाली है।’

कुछ पल के लिए हम दोनों के बीच खामोशी छा गई। बस मैं इतना ही कह पाई, ‘तुम बहुत वीक दिख रहे हो।’ 

‘कवि हूँ, इसलिए वीक हूँ।’ 

‘उफ्फ!’ मैंने मन ही मन यह शब्द कहा। तुमने मोबाइल का कैमरा घुमाया और मुझे अपना कमरा दिखाया, फिर कैमरा अपनी तरफ ले आये। तुम्हारे निस्तेज चेहरे के साथ-साथ तुमने मुझे अपने शरीर पर लगे सारे उपकरण भी दिखाए। तुम्हारे गले में लगी उस फीडिंग मशीन को देखकर मेरे गले में जो दर्द उठा था! मेरी आवाज मेरे गले में ही अटककर रह गई थी। अभी तो दो मिनट ही हुए होंगे कि तुमने कहा, ‘मैं फोन हाथ में नहीं पकड़ पा रहा हूँ। मैं फोन साइड में रखता हूँ, तुम कुछ बात करो।’  

मेरे प्रेम की ये कैसी परीक्षा थी, अश्विन? तुमने फोन को साईड में रख दिया था। कैमरे में तुम मुझे छत की तरफ तकते हुए दिखाई दे रहे थे। पहली बार ऐसा हुआ कि तुमसे बात करने के लिए एक शब्द भी नहीं मिल रहा था, सदमें से सारे शब्द स्तब्ध थे; फिर भी मैं बोलती रही, मैं जैसे आसमा से बात कर रही थी! मुझे याद नहीं कि मैं किस बारे में बात कर रही थी। नर्स तुम्हारे कमरे में आईं और तुमने फोन काट दिया। मैंने समय देखा, कुल मिलाकर तुमने 6 मिनट 39 सेकेंड तक बात की। तुम्हें पता चल गया था कि अब तुम्हें अपनी अंतिम यात्रा पर निकलना है और अब तुम अपने वतन नहीं आ पाओगे। तुम एक अभिनेता थे, ऐश। कैमरे पर ही सही, मुझे देखकर तुमने अपनी जन्मभूमि को मिलने की ख्वाहिश पूरी कर ली।

22 जून की रात, तुमने सिर्फ 29 सेकंड बात की, यह कहने के लिए कि तुम्हें न्युमोनिया का असर है और सर्जरी तीन दिनों के लिए पोस्टपोन हुई है। मैंने तुम्हें डिस्टर्ब करना उचित नहीं समझा। 

23 जून का दिन, दोपहर के करीब 12.43 का समय था यानि एल.ए. में रात के 12.13 बजे थे। मेरा कंप्यूटर ऑन था, स्क्रीन पर नजर थी और दिमाग में उथल पुथल मची थी। तभी मैसेंजर में फोन की रिंग बजी। मैं हैरान थी इतनी रात तक तुम कभी नहीं जागते। पहले की तरह बुलंद आवाज में तुमने पूछा, ‘क्या कर रही हो?’ आज तुम्हारी आवाज में गले का कोई दर्द भी नहीं था! अपने मन पर काबू रखते हुए मैंने कहा, ‘क्या बात है, इतनी रात को जाग रहे हो तुम? 

तुमने अपनी दिलकश आवाज में कहना शुरू किया, ‘मन हुआ कि तुमसे थोड़ी बात करूँ...’ इस बार तुम ही बोल रहे थे, मैं सुन रही थी। तुमने तुम्हारी जीवन संगिनी स्मृति, बेटियाँ हीरवा और प्रिया के बारे में लगातार बात की और मुझे अपने परिवार के संपर्क में रहने के लिए कहा। साथ ही कहा कि मैं हमारे हिन्दी चैट उपन्यास का गुजराती भाषा में अनुवाद करवाऊं। उपन्यास का दूसरा भाग प्रकाशित करने में जल्दबाजी जल्दबाजी न करूँ....मैं दुविधा में थी अश्विन, उस दिन तुम कुछ अलग तरह की बात कर रहे थे। तुम्हारी आवाज बहुत साफ थी और मानो दूर से गूँज रही हो!

पता नहीं क्यों, तुम्हारी सारी बातें सुनने के बाद मैंने तुमसे कहा, ‘अश्विन, आज एक वाक्य कहने को मन हो रहा है, जो मैंने अपने जीवन में कभी किसी से नहीं कहा।‘

तुमने पूछा, ‘क्या?’ 

‘आई लव यू’ 

यह सुनकर तुमने अपने सुहाने अंदाज में कहा, ‘ये हुई न बात!’ 

प्रेम के ढाई आखर समेटे ये तीन शब्द, जो मैं सिर्फ और सिर्फ तुमसे कहना चाहती थी, आज तक मैंने तुम्हारे लिए सलामत रखे थे। मैंने ये शब्द हमारी चैट के दौरान कभी लिखे भी लेकिन अपनी जुबान से कभी नहीं कहा। फिर 23 जून 2020 को ऐसा क्या हुआ कि मैं अचानक भवन्स कॉलेज के प्रांगण में पहुँच गई? 

वह दिन 23 जून 1972 जैसा हो गया! मैं कॉलेज की तीसरी मंजिल के कोरिडोर में खड़ी हूँ। तुम ठीक मेरे सामने खड़े हो और कह रहे हो, ‘बहुत हो गया लड़की, अब तो कह दो।’ और मैंने कह दिया, ‘आई लव यू।‘ मुझे ऐसा लग रहा था कि ‘आई लव यू’ की गूँज अनन्त आसमान में फैल रही है! क्या यही मेरे प्रेम की पराकाष्ठा थी, ऐश?

उस दिन तुमने मुझसे दस मिनट और चार सेकण्ड तक बात की, जबकि तुम एक मिनट भी बात करने की स्थिति में नहीं थे! देर रात तुम्हारे प्रिय मित्र संजीव भाई ने मुझे मैसेज भेजा कि तुम कोमा में चले गए हो और वेंटीलेटर पर हो। मैंने यह मैसेज सुबह पढ़ा। समय का अंदाज लगाकर मैं स्तब्ध थी! मुझसे बात करने के कुछ कुछ देर बाद ही तुम्हारे साथ यह हादसा हुआ था। तुमने आखिरी बात मुझसे की थी इसकी पुष्टि बाद में संजीव भाई और तुम्हारी बेटी हीरवा ने भी की। मेरे प्रिय, मुझे ‘आई लाइक यू‘ से ‘आई लव यू‘ तक पहुँचने में पैंतालीस साल लग गए, जब बीच में केवल एक शब्द बदलना था। इस एक शब्द का भार क्या इतना ज्यादा था कि इसे सुनकर तुम कुछ ही समय में अपनी अनन्त यात्रा पर निकल पड़े? 

तुमने मुझसे कहा था, ‘तुमसे बेहतर कौन मिलता, जो मेरे हर शब्द को सुनता, उन शब्दों को महसूसता!’ आज भी, मुझसे बेहतर कोई नहीं है, जो तुम्हारे हर शब्द को सुने, उन शब्दों को महसूसे। फिर, मुझसे बेहतर कौन मिला तुम्हें, जो तुम्हारे हर शब्द को सुने, उन शब्दों को महसूसे? कौन तुम्हें मुझसे ज्यादा प्रेम करने लगा? 

कितने करीने से उम्मीद बनकर, तुम्हारी पलकों को सजाया मैंने,

कितने सलीके से तसल्ली बनकर, मेरी आँखों को हँसाया तुमने।

किस्मत की लकीरों में है, धरती के किसी छोर पर मिलेंगे हम, 

दूरियाँ भी हैं शर्मिंदा, रूहानी रिश्ते को इस कदर निभाया हमने! 

फिर ये लकीरें किसने मिटा दी अश्विन? मैं बहुत देर तक सोचती रही, बस सोचती ही रही। अपनी अंतरात्मा से मिला जवाब सुनकर तुम भी हैरान रह जाओगे। मैं तुमसे प्रेम करती थी, लेकिन मैं तुम्हारे प्रेम को पूर्ण रूप में पाना चाहती थी। यह एक असंभव सी चाहत थी, पर यही मेरा सपना था। नियति ने मेरी वही प्रार्थना कबूल की थी, जो मैंने चाहती थी!

तुम्हारे लिए मेरा प्रेम जैसे भीतर से प्रकट हुआ था। मेरे इस प्रेम को देह के धरातल पर पाकर मैं इसे कोई रिश्ते का रूप नहीं देना चाहती थी, मैं अपने मन की एक अवस्था के रूप में प्रेम को पाना चाहती थी। हम किसी भी मानवीय संबंध में प्रेम के अस्तित्व से इनकार नहीं कर सकते हैं, लेकिन अनजाने में ही सही, मानवीय संबंधों के पार भी प्रेम के लिए कोई संभावना हो मैं खोजना चाहती थी। मेरी इस खोज को परिपूर्ण करने ही तुम मुझे मिले और प्रेम पूर्ण होने की मेरी खोज में तुमने मेरा साथ दिया। तुमने मुझे एहसास कराया कि प्रेम चेतना की अवस्था है और 24 जून 2020 को ही तुमने इस जहाँ को अलविदा कह दिया। 

तुमसे बात करते हुए मैंने प्रेम में पूर्णता पा ली। तुम मुझे प्रेम के उस अंतिम छोर तक ले गए जहाँ पहुँचकर सब कुछ मिट जाता है। पूर्ण प्रेम और पूर्ण समर्पण। मुझे यह अनुभूति हुई कि प्रेम, आत्मा की तरह अमर है। हमारा आत्मबंधन एक रहस्य रहा है और रहेगा क्योंकि इस बंधन को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। अगर किया भी तो जो लोग प्रेम नहीं जानते, वो इसे समझ नहीं पायेंगे। 

असल में मैं राधा या मीरा की तरह प्रेम करना चाहती थी, ऐश। देखो, तुम्हें प्रेम करने की मेरी यात्रा राधा से मीरा बनने की रही। मेरा एकतरफा प्रेम भी रहा तो राधा का ही, आज मैं स्थान और समय की दूरी का उल्लंघन कर दोनों के पार हो गयी, आज मैं मीरा बन गई! अब तुम चांद-तारों के पार हो, फिर भी तुम मेरे साथ हो। तुम मेरे हर कार्य, मेरे हर विचार और मेरे हर निर्णय में साथ हो और रहोगे जैसे आज तक रहे हो। मैं तुमसे आज भी वैसे ही बात करती हूँ जैसे पहले किया करती थी। जब भी मैं कुछ लिखते-लिखते तुम्हारी यादों में खो जाती हूँ, तो ऐसा लगता है जैसे तुमने मेरे कंधे पर हाथ रखा और कहा, ‘इतनी उदास क्यों हो?’ मेरी आँखों में कैद उस तस्वीर में मैं तुम्हारी आँखों से टपकते प्रेम को महसूस कर सकती हूँ। न तुम्हारा प्रेम कभी मर सकता है, न तुम। जिन्होंने तुम्हें चाहा, वे सब तुम्हारे इस प्रेम को महसूस कर चुके हैं। 

ओशो ने कहा कि मैं मृत्यु सिखाता हूँ, तुमने कहा कि मैं जीवन सिखाता हूँ। और देखो, मैंने मृत्यु को जीना सीख लिया! अब मैं तुम्हारी मृत्यु को जी रही हूँ, दोस्त। जब तक जीवन है, मैं तुम्हारी मृत्यु को जीऊँगी। मैं तुम्हें लिखती रहूंगी, मैं प्रेम लिखती रहूंगी। तुम्हें चाहकर मेरा जीवन सार्थक हो गया। तुम्हारा प्रेम मेरे साथ रहेगा और मेरी मौत भी सार्थक होगी। हम फिर मिलेंगे, ईश्वर के उस बगीचे में जहाँ प्रेम के सिवा कुछ नहीं। 

इस बार हमारे बीच समय का कोई फासला नहीं होगा। ‘न भूत न भविष्य’ अनंत आसमा में वर्तमान का बस एक स्थिर क्षण होगा। सितारे बनकर हम इस मैत्री को ब्रह्मांड में अनंत काल तक बनाए रखेंगे। हमारा अस्तित्व प्रेम बन जाएगा और आकाशगंगा बन ब्रह्माण्ड में व्याप्त रहेगा। प्रेम के अर्थ तक पहुँचने के बाद हमने जिस प्रेम की आध्यात्मिकता का अनुभव किया, वह प्रेम आज मेरी प्रार्थना बन गया है और ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग भी। मैं अनंत से जुड़ गई! आई लव यू अश्विन, आई लव यू।


डाॅ. आशुतोष आशु ‘निःशब्द’, सत्कीर्ति-निकेतन, गुलेर, काँगड़ा, हिमाचल प्रदेश, मो. 9418049070


आलेख

आत्मनिर्भरता का अर्धसत्य

गत दो वर्ष अपने साथ अनेक चुनौतियाँ लेकर आए। मानवीय-जीवन पर मंडराता हुआ संभावित खतरा परोक्ष रुप से शायद प्रकृति के संरक्षण के लिए मददगार साबित हुआ है। कथित वैश्विक-प्रगति का पहिया थम गया। रफ्तार थमने से गाड़ी के इंजन को आराम मिलता है। घर्षण कम होता है। तापमान नियंत्रित हो जाता है। यह पृथ्वी हमारे अस्तित्व का आधारभूत यंत्र ही तो है। जाने-अनजाने इसकी सतह पर हम कितना घर्षण उत्पन्न करते हैं! 

वर्षों से पर्यावरण वैज्ञानिक चिंतित थे। ग्लोबल वार्मिंग वैश्विक समस्या बन चुकी थी। समाधान प्रकृति ने शायद स्वयं खोज लिया। महामारी के प्रथम चरण में विश्व मानो थम सा गया। सब कुछ एकदम रुक जाने के कई नुक्सान भी हुए। वैश्विक धरातल पर सर्वाधिक नौकरियाँ सृजित करने वाले पर्यटन उद्योग को सबसे बड़ा आघात पहुंचा। वैश्विक अर्थव्यवस्था को इस खतरे से उबरने में अभी लम्बा समय लगेगा। आशा है प्रकृति को कुछ आराम अवश्य मिला होगा। शायद मनुष्य भी मूलभूत आवश्यकताओं और व्यर्थ की तड़क-भड़क में अन्तर करना सीख पाए! 

इस बीच भारत-चीन गतिरोध भी सामने आया। आपदा में अवसर भी खोजे हमने। आत्मनिर्भरता की आवश्यकता जान पड़ी। लेकिन यदि देर आए तो भी दुरुस्त आए। परन्तु कहने भर से यदि लोग आत्मनिर्भर हो जाते तो शायद मानवता को उत्पादकता के लिए इतने यांत्रिक तामझाम खोजने की आवश्यकता ही न पड़ती। 

निजी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपने श्रम पर निर्भर होना सही मायनों में आत्मनिर्भरता कहलाती है। अन्न बाजार से खरीदने की जगह उसे उगाने का सामर्थ्य रखना आत्मनिर्भरता है। घर की साफ-सफाई के लिए बाई पर निर्भर न रहना, अपना काम स्वयं कर लेना। अपने बर्तन धो लेना, दफ्तरमें अपनी टेबल पर खुद कपड़ा मार लेना इत्यादि को ही आत्मनिर्भरता की श्रेणी में रख लें तो जीवन सुलभ जान पड़ेगा।    

देशके प्रत्येक सुधी नागरिक को अवश्य आत्मनिर्भर होना चाहिए। महात्मा गाँधी का स्वप्न था कि देश का प्रत्येक गाँव अपनी आवश्यकताएँ पूरी करने में सक्षम हो। पंचायतीराज व्यवस्था में इसी सपने को सच बनाने के उद्देश्य से गाँवोंको पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की गई थी। प्रशासनिक-स्वतंत्रता का अधिकार पंचायती-राज का उल्लेखनीय बिंदु बना। गाँव अपने मसले स्वयं सुलझा लें। नैसर्गिक-न्याय के अधिकार पर आधारित न्याय स्थापना के उद्देश्य से गाँवों को सर्वाधिकार सुनिश्चित किये गए। राजनीतिक दुर्भावना इस व्यवस्था को प्रभावित न करे, इस दृष्टिकोण से पंचायत-चुनावों को राजनीतिक बैनर से अलग रखने की दूरदृष्टि प्रशंसनीय थी। आत्मनिर्भरता का सन्देश संवैधानिक व्यवस्था में आलोकित हो रहा था। निकाय चुनाव यदि राजनीतिक बैनर तले होने लगें तो आत्मनिर्भरता पर पुनर्विचार करना होगा।

दलगत प्रतिस्पर्धा के कारण ग्रामीण-संस्थाएँ भी राजनीतिकरण की चपेट में आ जाएँगी। स्थानीय विद्यालयों, स्वास्थ-केंद्रों तथा अन्य प्रशासनिक नियुक्तियों में ग्रामप्रधानों का हस्तक्षेप कमतर हो जाएगा। राजनीतिक प्रतिद्वंद्वता के कारण भेदभाव की अघोषित पँचवर्षीय योजनाएँ गाँव-गाँव फैलने लगेंगी। राजनीतिक महत्वकांक्षाएँ ग्रामीण आत्मनिर्भरता पर सवार हुईं तो आत्मनिर्भरता का सन्देश बेमानी प्रतीत होगा।  

मुक्त-वैश्विक-व्यापार व्यवस्था में भी आत्मनिर्भरता का विचार एक देश के लिए कितना व्यवहारिक है, इस पर खुली बहस होनी चाहिए। वर्तमान विश्व एक बृहद् संघीय व्यवस्था बन कर रह गई है। देश-देशांतर के प्राकृतिक संसाधनों, तकनीक, ऊर्जा, उत्पादन इत्यादि के आदान-प्रदान से वैश्विक आर्थिकी के पहिये चलायमान हो रहे हैं। ऐसी वैश्विक-संगठनात्मक प्रणाली में किसी एक देश की आत्मनिर्भरता का सत्य समय के साथ ही समझ आ सकता है। अभीहाल वास्तविकता विपरीत है। उत्पादन की आत्मनिर्भरता भी दूसरे देशों की संकल्पना और तकनीक पर निर्भर है। सेमीकंडक्टर की अनुपलब्धता ने बिजली से चलने वाले संयंत्रों की उत्पादकता में हाहाकार मचाया हुआ है। इसलिए विचार और विवेक दोनों को नियंत्रित करना होगा। 

ब्रिटिश शासन की जड़ें हिलाने के लिए गाँधी जी ने स्वदेशी आंदोलन छेड़ा था। उनकी अर्थव्यवस्था को झटका देने का यह कारगर तरीका था। उस समय देश में समुचित संसाधन नहीं होने के कारण लोगों को आत्मनिर्भर बनाना एक मजबूरी थी। कपड़ा खुद बनाने के लिए लोगों को चरखा चलाना सिखाया गया। परन्तु वर्तमान में इस प्रकार की आत्मनिर्भरता की व्यावहारिकता को परखना आवश्यक है।

वस्तुतः चीन की अर्थव्यवस्था को टक्कर देने के लिए चीनी-उत्पादों के बहिष्कार की कवायद में आत्मनिर्भरता को अपनाने पर जोर दिया जा रहा है। जबकि वास्तव में विदेशी अर्थव्यवस्था को मात देने के लिए ‘स्वदेशी’ को अपनाया जाना आवश्यक है। शायद मंतव्य भी यही रहा हो। अन्यथा आत्मनिर्भरता के आलोक में मुद्रा की दमक फीकी पड़ने का खतरा है। 

जिस रोज प्रत्येक व्यक्ति अपने कपड़े स्वयं धोने लग गया, घरों में वाशिंगमशीन की उपयोगिता नहीं रहेगी। बिजली की खपत कम होगी। परिवार योग्य सब्जी-भाजी उगा लेने से बाजार पर निर्भरता कम हो जाएगी; शारीरिक व्यायाम हो जाने से स्वास्थ्य सुधरेगा सो अलग। रोजमर्रा की जरूरतों के लिए कदमों पर आत्मनिर्भरता से पेट्रोल-डीजल का खर्चा कम हो जाएगा। इतने सारे खर्चे कम होते ही मुद्रा पर निर्भरता कम होने की संभावना है। मुद्रास्फीति भी नियंत्रित हो सकती है। आयात कम हो सकता है। मुद्रा विनिमय घटाया जा सकता है। अर्थव्यवस्था सुदृढ़ हो सकती है। परन्तु सवाल तो व्यवहारिकता का है। और समाज है कि इन विषयों पर सार्थक संवाद से कतरा जाता है।

पांच  ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था का सपना अवश्य देखा जाना चाहिए। और मालूम होता है कि वर्तमान पेट्रोल और डीजल की कीमतें इस सपने को यथाशीघ्र पूरा करने को तत्पर हैं। परन्तु बढ़ती मंहगाई कहीं आत्मनिर्भरता के सपने को धूमिल न कर दे। स्वदेशी निर्माण को देश में बल मिलना चाहिए। परन्तु लागत में बढ़ोतरी हो जाने पर छोटे एवं मंझोले उद्योग किस प्रकार आत्मनिर्भरता की जंग लड़ेंगे, विचार करना होगा। 

दूसरी ओर, वैश्विक कम्पनियाँ अपने उद्योग भारत में लगाएँ। विभिन्न उत्पादों का देश में निर्माण हो। इससे आयात शुल्क हटने से विक्रय मूल्य में कमी का लाभ उपभोक्ताओं को मिलेगा। गुणवत्तायुक्त सामान उचित मूल्य पर मिलने से उपभोक्ता-संतुष्टि भी बढ़ेगी, और देश के कामगारों को संकल्पना और कौशल का लाभ मिलेगा सो अलग। स्थानीय इंडस्ट्री में भी प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी। 

यह सब होने के लिए देश की मानसिकता को बदलना होगा। निजीकरण को औद्योगिक क्रांति या उद्यमिता का उदय मान लेना बड़ी भूल है। भारत जैसे देश में जहाँ नौकरी मिलना टेढ़ी खीर है। ऐसे में रोजगार को केवल निजीकरण के भरोसे छोड़ देना बकरी के सामने घास रखकर उसे बाघ के पिंजरे में छोड़ देने जैसा सिद्ध होगा। श्रम कानूनों पर बहस जारी है। परन्तु इन कानूनों का धरातल पर कितना कार्यान्वयन हो पाया है, इसकी पुनर्समीक्षा की जानी चाहिए। गाँव-देहात के निजी शिक्षण संस्थानों में शिक्षकों के हालात श्रम कानूनों की अवस्था स्वयं बयान कर देंगे।  

रोटी ही मानव-जीवन की मूलभूत आवश्यकता है और रोटी का मूल रोज़गार है। निजीकरण में बुराई नहीं, परन्तु श्रम-कानून के रिस्ते जख्मों पर निजीकरण करते चले जाना कितना दूरदर्शी है, यह विचारणीय विषय है। 

अंत में, पश्चिमी देशों में वृद्धावस्था प्राप्त कर लेने के उपरांत नागरिक देश की जिम्मेदारी बन जाता है। परन्तु भारत में परिस्थिति विपरीत है। बुढ़ापे में आर्थिक असुरक्षा वर्तमान का कड़वा सच है। इस सूरत-ए-हाल को देखकर भावी पीढ़ियों की चिंता सताने लगती है। विकसित देशों का अनुकरण करने के साथ-साथ वहाँ के मूलभूत ढाँचे का भी अध्ययन कर लेना चाहिए। क्योंकि सामर्थ्यशाली धरातल पर ही उज्जवल भविष्य की नींव रखी जानी चाहिए ताकि विकास भी पुख्ता हो सके।    


श्री राकेश भारतीय, नई दिल्ली 9968334756 

उम्र

हो गया हूँ बूढ़ा, पर उतना बूढ़ा भी नहीं 

बाकी अब भी है बहुत ऊर्जा कहीं न कहीं 

अपनी मुश्किलों से तो निपटता ही हूँ हर वक़्त 

दूसरे की मदद को भी तैयार रहता हूँ वक़्त-बेवक़्त 

अरे ओ! शिकायती मुद्रा में हर तरफ फिरते नौजवानों 

ख़ामियां-कमियाँ ही हर वक़्त गिनाते रहते नौजवानों 

शिकायतों की वजह हमारे पास भी हुआ करती थी 

जिस उम्र में तुम हो, वो उम्र हमारी भी हुआ करती थी 

पर उस उम्र में हम अपने ही दम पर उनसे निपटते थे 

पीछे-आगेवाली पीढ़ियों की मुश्किलें भी सुलझाते चलते थे 

तुम भी ज़रा अपने पीछे और आगेवालों को साथ लेकर चलो 

पूरे ही आसमान से अपना छोटा सा आसमान जोड़ते हुए चलो 

आज का ही कोई नौजवान तो कल-परसों का कोई बूढ़ा बनेगा 

आज दुरुस्त रहेगी सोच तो कल-परसों भी दुरुस्त ही रहेगा 

कुछ करने की बात करो, बहुत कह लिये ‘यह नहीं-वह नहीं’

उम्र कुव्वत और हिम्मत से दिखती है, चेहरे से नहीं ।



सुश्री नीलम कुलश्रेष्ठ, अहमदाबाद, मो,  09925534694

आलेख

किर्च  किर्च  होती इंसानियत के बीच, इन्सान बनकर जीने की कोशिश

कुछ दिन पहले ही टीवी पर एक बात पर मेरा ध्यान अटक गया-‘राष्ट्रीयता से बढ़कर है इंसानियत‘। सच है राष्ट्र भी इंसानों से ही बनता है। मेरी हर समय कोशिश रहती है कि मैं एक इंसान की तरह जीऊं। मुझसे जो मिले उसे लगे कि मैं एक इंसान से मिला हूँ लेकिन क्या ये हर समय संभव हो पाता है? सभी जानते हैं कि कभी कभी इंसानियत एक तरफ  रखकर उन लोगों के स्तर  पर उतरना पड़ता है  जो इस शब्द की भाषा नहीं जानते। इसलिए मैंने ‘धवल चाँदनी सी वे‘ संस्मरण में अपना सच लिखा है-‘ उसका मन हमेशा संसार को साफ  सुथरा, निर्मल, निष्कपट देखना चाहता है। सत्य को कहना सुनना चाहता है। जहाँ तक हो वह अपनी आत्मा की निर्मलता पर पड़ गई कीचड़ को उलीचती रहती है। संसार के छल, कपट, झूठ से उसकी आत्मा लहुलुहान होती है। कभी ‘टिट फॉर टैट’ करने की मज़बूरी के कारण दूसरे को तकलीफ देकर स्वयं को भी पीड़ा होती है।‘

आगरा में सन 1975 में प्रगतिशील लेखक संघ का तीन दिवसीय सम्मलेन होना था।  संयोजकों ने स्थानीय लेखकों को आमंत्रित कर एक मीटिंग रक्खी थी. सभी बढ़ चढ़कर  सुझाव दे रहे थे। बार बार एक शब्द सुनाई दे रहा था ‘आम आदमी‘ ‘आम आदमी‘।

मैं तमतमा कर खड़ी हो गई थी, ‘‘आप बार बार जिस आम आदमी की चिंता कर रहे हैं, उसके लिए लेखक स्वयं क्या कर रहे हैं ?‘‘

उस मीटिंग में एक क्षण सन्नाटा छा गया था कि लगभग सबसे छोटी उम्र की ये क्या  कह रही है, फिर सब हंस पड़े थे। अध्यक्ष महोदय ने बात सम्भाली थी,‘‘ ये सही कह रहीं हैं। लेखकों को भी आम आदमी की समस्यायों पर लिखने के साथ कुछ करना  भी  चाहिए।‘‘

तब मुझे नहीं पता था ये छोटी सी घटना मेरी अपनी आत्मा का एक ‘जज़्बा‘ थी, मेरी विचारशीलता का एक नन्हा बीज, मेरे जीवन का दर्शन था। आगरा में मैंने थोड़ी बहुत पत्रकारिता आरम्भ कर दी थी। उत्तर प्रदेश की होते हुए भी मेरे परिवार की पिछली पीढ़ी की महिलायें उच्च पदों पर थीं। वे नौकरी के साथ किसी न किसी रूप में सांस्कृतिक कार्यक्रम व समाज सेवा से जुड़ीं हुईं थीं।

शादी के बाद वड़ोदरा आई तो बहुमंजिली इमारतों में आयायों की गोद में बोतल से दूध पीते बच्चों को देखकर मैंने पहला निर्णय ये लिया कि मेरे बच्चे ऐसे नहीं पलेंगे। मैं इस शहर में ये देखकर हैरान थी कि इतने लोग, इतनी संस्थाएं आम आदमी के उत्थान के लिए काम कर रही हैं। मैं सर्वे, साक्षात्कार कर इनका लेखा जोखा हिंदी पत्रिकाओं के लिए तैयार करने लगी। मेरे लिए ये आसान नहीं था क्योंकि जानकारी अंग्रेजी या गुजराती में मिलती थी, उन दस्तावेजों या ब्रोशर्स का अध्ययन कर मुझे हिंदी में लिखना होता था। ऊपर से अहिन्दीभाषी क्षेत्र में हिंदी लेखन जैसे काले पानी की सजा। एक दृढ़ संकल्प, एक निष्ठा या एक ऑब्सेशन मेरे मन में जागृत हो गया कि कोई यदि आम आदमी के लिए काम करना चाहता है तो ये काम एक मॉडल वर्क है।  

मैं ये नहीं समझ पाई थी कि अहिन्दीभाषी प्रदेश में हिंदी स्वतंत्र पत्रकारिता व लेखन का निर्णय अपने लिए खतरनाक निर्णय साबित होगा। दिल्ली, मुंबई बैठे सम्पादकों को समझ नहीं आ रहा था कि  मैं ये क्या लिख रहीं हूँ। छः महीने  से लेकर दो-तीन बरस तक भी मेरा कोई लेख नहीं प्रकाशित होता था। आप हँसेंगे तब भी मैं अपनी खोज नहीं छोड़ती थी। ऊपर वाले का आशीर्वाद ही था कि मैंने जो लिखा वह काम अवश्य आया। लगभग चालीस वर्ष पूर्व मैंने कचरा बीनने वालियों की संस्था पर लेख लिखा। तब इनकी बात भी कोई नहीं करता था। अब तो इन पर रचनायें मिल जाएंगी। ये लेख अप्रकाशित रहा लेकिन मेरी इन पर कहानी ‘तू पन कहाँ जाएगी ?’’ प्रकाशित ‘कथादेश‘ में हुई थी। तब मैं कहाँ सोच पाई थी कि अपने जिस जीवन दर्शन के तहत मैंने कहानी का आरम्भ खुले में स्त्रियों के शौच ‘के साथ किया है, वह मोदी जी के राज्य में एक राष्ट्रीय मुद्दा बन जाएगी।  

मैं अपने जूनून के साथ चलती रही, कुछ पाती भी रही। अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त नृत्यांगना प्रतिभा पंडित द्व्रारा निदेशित   नृत्य नाटिका ‘कृष्ण की लिलहारी लीला‘ पर लिखा। वह भी किसी ने प्रकाशित नहीं किया तो रेलवे केम्पस के एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में मैंने व सखियों ने मंचित ही कर लिया। मेरा ‘स्नेक फोबिया‘ वड़ोदरा की साँपों को पकड़ने वाली लड़की ‘स्नेहल भट्ट से मिलकर चला गया। अपने जीवन दर्शन के संकल्प को पूरा करने के लिए बहुत से लोगों से मिलना होता था लेकिन बच्चों को अच्छी तरह पालती रही क्योंकि सप्ताह में एक बार या दो बार या कभी पंद्रह दिन में एक बार साक्षात्कार लेने जाती थी। मेरे माध्यम से मेरे बच्चे दुनियां देख रहे थे इसलिये ‘पेज-थ्री‘ फिल्म ने उन्हें चकित नहीं किया था। इस फिल्म की पत्रकार नायिका ग्लैमर की दुनियां देखने के बाद निर्णय लेती है कि झूठी व नकली दुनियां से बेहतर है समर्पित संस्थाओं पर लिखा जाये। मेरे लेखन का आरम्भ तो मेरी अपनी फिलॉसफी के कारण यहीं से हुआ था।  

वे दिन मेरे किस कदर संघर्ष के थे बयाँ करना सम्भव नहीं है क्योंकि बड़े परिवार में शादी होने की घरेलु समस्याएं थीं। तब महिला पत्रकार नहीं के बराबर थीं तो एक फास्ट महिला होने की छवि तो तोड़ने की जद्दोजेहद, ‘हुक‘ करने वालों की अक्ल ठीक करने की जिद। अपने जीवन दर्शन के कारण ऐसा दुश्मन पाया जो ताउम्र बहुत वफादारी से दुश्मनी निबाहता रहा। जिसने मुझे ढाई वर्ष बिलकुल आराम करवा दिया था, सारी जिंदगी ‘हर्डल रेस‘ बना दी थी। परिचय के आरम्भ में पत्रिकाएं विज्ञापन से रंग दी गईं ‘वैलकम टु गुजरात ‘दरअसल ये कैरियर खराब करने का हथकंडा था। ये सब इसलिए लिख पा रहीं हूँ कि मेरे एक फेसबुक लाइव में मैंने जब ये बताया था तो वहां प्रमाण स्वरुप दो महिलायें मौजूद थीं। न-न-न मुझे अपने ख़ूबसूरत होने की गलतफहमी नहीं है, ये ईगो हर्ट होने का मामला था।

ये सब मैं इसलिए झेलती रही क्योंकि मैं अपने माता पिता की अकेली बेटी थी। मेरी माँ मेरे पीछे सुद्रढ़ चट्टान सी खड़ी थी। इकलौते भाई हेमंत मेरे पत्रकारिता आरम्भ करते ही कुछ बरस तक विजिटिंग कार्ड प्रिंट करवाकर देता रहा। ये निजी गम इसलिए भी गलत होते रहे क्योंकि पति को पर्यटन का, सामाजिक मेल मिलाप का शौक था। रेलवे के कार्यक्रम व अस्मिता की स्थापना अकेलेपन की दवा बन रहीं थीं। योग से बार बार टूटता संतुलन स्थापित होता था।

कैरियर खराब होना वह भी स्त्री होने के कारण-बहुत बड़ी चोट थी मेरे अस्तित्व पर, शायद कोई वह पीड़ा न समझ पा मुझे एक विरक्ति सी हो गई थी पुस्तक प्रकाशित करवाने के लिए। मेरा दर्शन मुझे बैठने नहीं देता था। यदि मैं कहानी संग्रह प्रकाशित करवाने, उनकी समीक्षा लिखवाने व साहित्य में स्थापित होने की जुगाड़ में लग जाती तो दुनियां को बेहतर बनाने वाले लोगों के सुंदर जीवन मूल्यों को कैसे सामने लाती ? 

अब मेरे जीवन दर्शन में स्त्री को प्रतिष्ठा दिलवाना भी शामिल हो गया था। जब मैं ‘स्त्री अंगों से स्त्री विमर्श‘ पर कहानी संग्रह सम्पादित कर रही थी तो आदरणीय नमिता सिंह जी व सुधा अरोड़ा जी ने अचरज से कहा था कि स्त्री अंगों से कैसे स्त्री विमर्श रचोगी ? लेकिन मेरा ये कहानी संग्रह ‘रिले रेस‘ (वनिका प्रकाशन) दिल्ली, बहुत सफल रहा। अपने  कैरियर की हर्डल रेस के कारण मैंने स्त्री विमर्श को ‘रिले रेस‘ का नाम भी दिया है।   

मैं इस प्रतिष्ठा के लिए दो लोगों से एक राजेंद्र यादव जी व दिल्ली प्रेस के श्री परेशनाथ जी-बहुत भिड़ती रहती थी,उनका खून खौलाती रहती थी, जब उनका गुस्सा शांत होता तब स्वीकृति मिलती थी। मैं इन्हें पत्र के माध्यम से कहती थी कि जब आप शीर्षस्थ सम्पादक स्त्रियों के प्रति अपनी मानसिकता बदलेंगे तब ही समाज बदलेगा। मुझे खुशी है उन्होंने बाद में स्वीकार भी किया कि स्त्रियां हमारी मानसिकता बदल रहीं हैं।

जब मेरा वड़ोदरा में डॉ जी .एम. ओझा से परिचय हुआ जिन्होंने भारत में प्रथम पर्यावरण के लिए संस्था ‘इनसोना‘ बनाई थी। उनकी पत्नी प्रेमलता एशिया की प्रथम ऐसी पत्रिका सम्पादित करतीं थीं जिसके संपादन मंडल में विश्व के जाने माने वैज्ञानिक थे। मैं बेहद बेचैन हो गई थी पर्यावरण के अंगों का अपने देश के लोगों को परिचय देने के लिए क्योंकि बीस वर्ष पहले लोग ये शब्द पर्यावरण जानते थे लेकिन ये नहीं जानते थे कि हरे भरे पेड़ों के अलावा इसमें किन को गिना जा सकता है। इस नाचीज ने दुनियां की सर्वश्रेष्ठ इमारत बनाने के लिए तीन बार पुरस्कार लेने वाले वड़ोदरा के आर्कीटेक्ट श्री कर्ण ग्रोवर का साक्षात्कार लेकर उसकी सरंचना को समझा है।  

मैं कहीं भी जुड़तीं हूँ तो शायद वह मेरा अपना जीवन दर्शन ही था जो कुछ अलग करवा लेता था। वड़ोदरा  अस्मिता, महिला बहुभाषी साहित्यिक मंच, में अनेक हिंदी विद्वान पी. एचडी महिलायें थीं लेकिन मैंने ही वहां उनकी कविताएं सुनकर धर्म के स्त्री शोषण व मिथक स्त्री पात्रों की पीड़ा पर पुस्तक सम्पादित कीं ,देश की दिग्गज लेखिकाओं को जोड़कर, वो भी एक नहीं, तीन पुस्तकें।

सम्पादक आदरणीय देवेंद्र बहल जी ने मुझे मेरे जीवन दर्शन पर लिखने का मौका दिया है, आभार शब्द तो छोटा है। कहते हैं जब लेखक की मौत होती है तब उसके जीवन दर्शन को लोग समझ पाते हैं लेकिन आज साहित्यिक पत्रकाएँ भी एन जी ओज के रोल को स्वीकार कर रहीं हैं, स्त्री प्रश्न स्वीकारे जाने लगे हैं। मेरी गुजरात को समझने की यात्रा पर आधारित पुस्तक ‘गुजरात: सहकारिता, समाज सेवा और संसाधन ‘किताबघर’, दिल्ली, की प्रस्तावना गांधी प्रतिष्ठान के निदेशक स्वर्गीय अनुपम मिश्र जी ने लिखकर मुझे अनुग्रहित किया था। अब तो गुजरात की पृष्ठभूमि पर आधारित मेरे कहानी संग्रह आ चुके हैं। एक उपन्यास आने वाला है यानि कि मेरी इस सनक  भरी, थ्री ईडियट्स टाइप लेखन यात्रा का कुछ सदुपयोग हुआ है। वड़ोदरा जैसे एक छोटे शहर में मैं ऐसी बत्तीस महिलाओं को खोजने में सफल हुईं हूँ जो कि भारत में या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने क्षेत्र में प्रथम बार कार्य करने वाली महिला हैं। इनके विषय में आप ‘वड़ोदरा नी  नार‘ (शिल्पायन प्रकाशन) दिल्ली, से जान सकते हैं। ‘ 

मैं एक स्त्री हूं मेरा निजी जीवन से जुड़ा दर्शन है कि परिवार को संतुलित आहार देना। अब तो दूसरी पीढ़ी भी परिवार में आ चुकी है। ये जीवन दर्शन किसी जुनून की हद तक मेरे साथ है ।

मैंने क्या पाया है ? बहुत गहरी आंतरिक समृद्धि व शांति मेरे ख्याल से इससे अधिक दुर्लभ उपलब्धि क्या होगी ?


डॉ. प्रणव भारती, अहमदाबाद, मो. 99405  16484 

जिंदगी-गीत सी

दूरियाँ बुनते रहे, नज़दीकियाँ गुनते रहे 

जाने कितने हौसलों के गीत भी पलते रहे

दूरियां बुनते रहे...

मौन विगलित सी दिशाएं, चीरती हर क्षण रहीं 

और भ्रम के बीच दूरी साथ ही चलती रही 

देह का मौसम तो आता और जाता ही रहा 

प्राण का  बेकल पपीहा गीत गाता ही रहा 

श्वांस के भीतर सुलगते छंद सब गलते रहे 

समय के इस चक्र में हम साथ ही चलते रहे 

श्रावणी मौसम के पहरे भाल पर मलते रहे  

दूरियाँ बुनते रहे, नज़दीकियाँ गुनते रहे


साँस के इस प्रबंधन में उठती, गिरती आस होती 

मौन के गुपचुप क्षणों में यातना अनुप्रास होती 

सुप्त सब तारे यहाँ पर, कामना दृग में भरे हैं 

और बोझिल हैं दिशाएं, आस के कुछ बुलबुले हैं 

देह-रथ से झांकती हैं कुछ सुकोमल कल्पनाएँ 

और आँसू की न पूछो बहती केवल वर्जनाएँ 

उलझनों के चक्र में फँस यातना चुनते रहे...

दूरियाँ बुनते रहे, नज़दीकियाँ गुनते रहे 

 

मन-समुन्दर है यहाँ से झाँकती कुछ सीपियाँ हैं 

प्रेम में बोए क्षणों से उजली सारी वीथियाँ हैं 

प्रश्न स्कन्धों पर उठाए, अर्थ पर दृष्टि गड़ाए  

दूर से हम तक रहे हैं, अब ज़रा नज़दीक आएँ 

साधना के इन क्षणों में प्रेम के इन गुहवरों में

साँस के बँधन से छुटकर कर आत्मा भरते रहे      

हैं बहुत नजदीक खुद से दूरियाँ छलते रहे....

दूरियाँ बुनते रहे, नज़दीकियाँ गुनते रहे....



डाॅ. रेखा बैजल, -जालना, (महारष्ट्र), मो. 9550347252

कहानी

पाषाण

एक गधे पर घर का सामान लादकर वे उस साधारण से गाँव की सीमा के अंदर आ गए। वहीं से वे गाँव निहार रहे थे। मध्यम बस्ती, पश्चिम की ओर सरकारी कार्यालय, शहर की ओर जाता हुआ बड़ा मार्ग।...पूरब की ओर कालोनी...कालोनी की बगल में बसी झुग्गियों की बस्ती। रास्ते के किनारे अपने-अपने ठेले लेकर बैठे हुए सब्जी वाले। 

वे खुश हो गए। उन्हें जैसा चाहिए था, वैसा ही आहाता था। गाँव के भीतर जाने की जरूरत थी ही नहीं। हर तरह के लोग वहाँ दिखाई दे रहे थे। और वहीं एक मंदिर। मंदिर के बाहर दीवार से सटा हुआ पीपल का वृक्ष।

रास्ते पर आने-जाने वालों की भीड़ देखकर बापू खुश हो गया।

पीपल के पेड़ के तने से उन्होंने गधे को बाँधा।...

गधा कुदरत से तोहफे स्वरूप मिली शून्यावस्था में खड़ा था। 

“चलो बच्चों।‘‘ कहते ही दोनों लड़कियाँ भागती हुई पिता के पास आ गईं। 

हाँ बाबा?...‘‘

“चलो, गधे पर लदा हुआ सामान निकालें। सामान क्या था...दो-चार बर्तन, दो थालियाँ....तवा...चार बाँस, दो डोर...

संत्या ने पिता की पुकार अनसुनी कर दी। ‘‘क्यों संत्या, सुनाई नहीं दे रहा...चल आ जा इधर। अब संत्या अपनी बहनों की मदद करने लगा। तब तक उनकी माँ तीन पत्थर ढूँढ लाई। पत्थर का चूल्हा बना लिया। अब बच्चे छोटी-बड़ी लकड़ियाँ, भूसा ढूँढने लगे।

“अरे छोटी...जा यह घड़ा लेकर। मंदिर में पानी है, क्या देख।...‘‘

जीवनावश्यक चीजें ढूँढने की बच्चों की आदत थी। जहाँ दिखें वहाँ से चीज उठा लेते थे। बिना दिक्कत लेकर आते थे।

पूरी कायनात को ईश्वर ने उन्हीं के लिए जो निर्माण किया था।

....उनकी माँ फटे हुए पल्लू से पसीना पोंछ रही थी। “जा री...वहाँ पास वाले घरों में कुछ खाने को माँग।...‘‘

बच्चियाँ घर-घर जाकर रोटी माँगने लगीं। 

‘‘कौन हो तुम लोग? नए दिख रहे हो।...‘‘ 

‘‘हाँ माँ जी...हम मदारी हैं।...भूख लगी है, दो कुछ खाने को।‘‘ 

...सबेरे का बचा-खुचा खाना उनके टोकरे में जमा होने लगा।

इधर संत्या और बाबा गड्ढा बनाने लगे।...चार गड्ढों में चार बाँस कस दिए गए। बाँस के ऊपर एक लंबा डोर कस दिया गया।

बाँस और डोर...उनके ‘घर‘ का सबसे कीमती सामान था। 

...चलो, बस गया अपना ठिकाना। कल से हमारे करतब शुरू हो जाएँगे।

बहनें, संत्या खुशी से हँस रहे थे। माँ ने बर्तन में पानी उबालने रखा।...पानी उबलते ही माँगकर लाया हुआ पूरा अन्न उसमें डाल दिया। उबलने के उपरांत जो कुछ बना वह अन्न एक थाली में परोसा गया। सभी उस थाली के अगल-बगल बैठ गए। भूखा पेट अन्न ग्रहण से शांत होने लगा।

...‘‘अच्छा गाँव है।‘‘

‘‘हाँ, मंदिर वाले बाबा ने भी बिना हिचकिचाहट के पानी दिया। नहीं तो और जगह मंदिर में पैर नहीं रखने देते।‘‘ लड़की ने कहा।

‘‘क्या उम्र है उसकी...‘‘ 

“बुड्डा आदमी है।...‘‘

‘‘हं...संभल कर रहना। पानी लेकर तुरंत वापिस आ जाना। किसी का क्या भरोसा?‘‘ माँ लड़कियों को हिदायत दे रही थी।

...रात में फटी हुई चटाई पर सभी सो गए। सोने से पहले माँ ने सभी दिशाओं को, आसमान व जमीन को प्रणाम किया।

“संभाल लो अपने बच्चों को‘ रोज़ की तरह उसने प्रार्थना की।

दूसरे दिन सबेरे ही दोनों लड़कियाँ पास वाली कॉलोनी में गईं। बासा बचा हुआ खाना लेकर आईं। 

दोपहर ढलते-ढलते बाबू ने संत्या के हाथ में लोहे का बड़ा कड़ा दे दिया। संत्या ने उसे खड़ा करके जमीन पर कसकर पकड़ा। बापू ने अपनी धोती कसकर बाँध ली।...दूर से भागते हुए आकर उस कड़े के पार उसने छलांग लगाई।

“एक...दो...” संत्या अंक गिन रहा था। दस तक अंक हुए और बापू निढाल होकर जमीन पर बैठ गए। उनका दम भर आया था।

“क्या हुआ? क्यों हाँफ रहे हो?‘‘... माँ ने पूछा।

“संत्या की माँ। अब जवानी चली गई। बुढ़ापा करीब आ रहा है। अब उतनी ताकत कहाँ?...न ही आराम...न खाने को कुछ पौष्टिक आहार जिससे ताकत बढ़े।....छाती तो जैसी धौंकनी बनी है।‘‘

“ऐसा मत कहो। हम मदारी लोग। इन खेलों के बिना तो हमारा गुजारा नहीं होगा। अब तो अपनी बेटियाँ भी डोर पर कसरत कर लेती हैं।‘‘ 

‘‘कब तक करेंगी छोरियाँ। बड़ी हो जाएँगी तो उन्हें रोकना ही पड़ता है।’’

“हाँ तो...संत्या को सिखा दो, वह आग वाला खेल।‘‘

“नहीं नहीं। वह कसरत तो मैं ही करूँगा। बेटे को कैसे धकेलूँ आग के चक्र में?‘‘

“...तुम्हें क्या लगता है, कि संत्या को वह कसरत नहीं आती? तुम्हारे बाहर जाते ही दोनों छोरियों के साथ वह कड़े से छलांगें मारते रहता है।‘‘

‘‘क्या कहती हो!‘‘ 

‘‘हाँ। दनादन छलाँग लगाता है छोरा।‘‘

‘‘यह ठीक हुआ। अब उसे सुलगे हुए कड़े में से छलाँग लगाना भी सिखाऊँगा। उसे बड़ा तो होना ही है।...आज नहीं तो कल।‘‘

बाँस हाथ में लिए छोरियाँ डोर पर चल रही थीं। चलते-चलते झूलने लगीं। पूरा शरीर आड़ा करके झूल रही थीं।

देखने वाले का दिल पलभर के लिए धड़कता था। कहीं गिर न जाएँ। सात-आठ साल की उम्र वे छरहरे शरीर, धूप चढ़ी हुई काली काया, लेकिन आँखों में खेल दिखाते समय आत्मविश्वास की चिंगारियाँ।

संत्या डफली बजाते हुए बोलता था-

वाह क्या झूल रही है, मेरी बहना 

क्या झूल रही है मेरी गहना 

...भगवान के द्वार पर खिलती है...

जैसे ही अँधेरा छाने लगा बापू ने मशालें सुलगाईं। उस कड़े पर मशालें अटकाईं...

‘‘दिल थाम कर देखो...आग का खेल... 

जिंदा आदमी आग से कूदेगा रे...जमुरे ऽऽ...‘‘ 

संत्या ऊँची आवाज में कह रहा था।

बापू कड़े की ओर भागते हुए आते और एक छलांग लगा देते। तेल लगा हुआ उनका शरीर पलभर के लिए ज्वाला की तरह दिखता था।

“एक...दो...तीन...चार...पाँच।‘‘ संत्या गिनती कर रहा था, कि अचानक बापू रुक गए। वे हाँफ रहे थे।

संत्या खेल को संभालना चाहता था। बापू की विवशता वह देख रहा था। ‘

‘क्यों, रुक गए जमूरे?‘‘

अपने दर्द को छुपाते हुए, बापू ने हँसते हुए कहा-‘‘हाँ जमूरे....मोच आ गई रे।‘‘

‘‘तो डाक्टर के पास जाना होगा...‘‘ 

‘‘नहीं, नहीं, वह सुई चुभाएगा...मुझे डर लगता है।‘‘

‘‘जमूरे, आग में से कूद पड़ते हो...तब डर नहीं लगता...सुई से डरते हो...‘‘

भीड़ हँस पड़ी। 

‘‘डॉक्टर के पास जाने को पैसा लगता है। वह कौन तेरा बाप देगा?‘‘ 

‘‘हाँ, हमारे माइबाप तो ये सब लोग है...दोगे ना भैया...दोगे न चाचा।‘‘

छोरियाँ थाली लेकर सबके सामने फैला रही थीं। किसी ने पैसे दिए...कोई धीरे से खिसक गया।

रात हो गई। परा गाँव दरवाजे बंद करके सो गया था। केवल मंदिर के दिये का उजाला दृष्टि को सहारा दे रहा था। 

माँ-बापू के पाँव को मालिश कर रही थीं। बापू कराह रहे थे।

‘‘बहुत दुख रहा है पाँव। पहले दिन ही मोच आ गई...। पता नहीं आने वाले दिन कैसे निकालेंगे? देखिए कई दिनों से मैं तुम्हारी बिगड़ती हालत देख रही हूँ।...एकाध अंडा लाती हूँ, तुम्हें खिलाती हूँ। आज पहले ही दिन कमाई अच्छी हुई...’’ 

दूसरा दिन। सवेरे ही पंछियों की कलकल शुरू हो गई। माँ पानी लाने मंदिर गई।

पुजारी बहस करने लगा। 

‘‘क्या हर रोज़ पानी लेने आओगी? कौन-सी जात है?‘‘ 

‘‘जात का नाम मत निकालो भैया। सीधा थानेदार के पास जाऊँगी।‘‘ 

“सिर पर बैठा रखा है तुम लोगों को।‘‘ 

‘‘कितने दिन पाँव तले रहना भैया? पानी ही तो माँग रही हूँ।...‘‘ 

‘‘ले जाओ...कौन तुम्हारे मुँह लगे।‘‘ 

माँ पानी लेकर आई। संत्या ने अपनी जेब से अंडा निकाला। 

‘‘लो माँ। बापू को खिलाओ।‘‘

“कहाँ से लाया?...‘‘ 

“घर के पास एक मुर्गी सुस्त बैठी थी। मैंने नज़र रखी। अंडा देते ही ले आया।‘‘

‘‘चलो अच्छा हुआ। संत्या ऐसे ही एकाध बार मुर्गी उठा लाना। तुम्हें तो मुर्गी उठाने का करतब मालूम है।...‘‘

‘‘हाँ माँ...‘‘

“लेकिन अभी नहीं। कुछ दिन निकल जाने दो। अभी चुराओगे तो लोगों को अपने पर ही शक आएगा।‘‘ बापू ने अपनी राय दी।

शाम होने को आई लेकिन बापू का दर्द कम नहीं हो रहा था। 

माँ चिंता में पड़ गई। “आज तुम्हारा मशाल का खेल नहीं होगा, ऐसा लग रहा है।‘‘

“माँ, मैं करूँ वह खेल?...‘‘

‘‘तू?...

‘‘हाँ माँ, मैं तो कई बार कड़े में से कूद पड़ता हूँ। बात रही मशाल की।‘‘

‘‘वही तो मुश्किल है। जरा-सी गलती हुई या गति कम हुई तो चटके लगते हैं। नजर और डर दोनों मरने चाहिए। तब कहीं आग से गुजरते हैं।‘‘ बापू

‘‘देखो जी, मेरी राय में तो बच्चे को करने दो वह करतब। आज नहीं तो कल उसे आग से कूदना ही है; तो आज क्यों नहीं?‘‘

“ठीक है।...इधर आओ।‘‘ 

बापू ने संत्या के स्नायू दबाकर देखे।

“बेटे, तुम्हारी त्वचा बहुत मुलायम है...इसे गेंडे की तरह मजबूत बनानी होगी। खेल के समय कितना भी दर्द हो तब भी रोना छुपाकर हँसना पड़ता है।...हाथ जल भी जाए तो लोगों को मालूम न पड़े। लोगों को हमारी आँख का पानी नहीं बल्कि हमारा आग के साथ खेलना पसंद है। आग सह लेना बेटा...।‘‘

बापू की केवल एक बात संत्या समझ गया कि कुछ भी हो...रोना नहीं।

शाम हो गई। आज डफली बापू के हाथों में थी। उनके जबान से शब्द जैसे लाई की तरह फूटने लगे।

छोरियों ने डोर पर कसरत की। 

अंधियारा छाने लगा तब बापू ने ललकारा, “जमूरे...तैयार हो? 

‘‘हाँ‘‘ 

“आज क्या करने वाले हो?‘‘ 

“आज आग में से छलांग लगाऊँगा।‘‘

“पहले कभी लगाई थी?‘‘ 

‘‘नहीं...‘‘ 

‘‘तो भगवान से प्रार्थना करो।‘‘ 

“कहाँ है भगवान?‘‘ 

“यहीं हैं। हमारे दर्शक।‘‘

संत्या ने दर्शकों को झककर प्रणाम किया। सब लोग खश हो गए। कुछ लोग उत्तेजित।

बापू डफली बजाने लगा। 

संत्या भागते हुए आया और ठिठक गया। 

जलती हुई मशालें...! 

“क्या हुआ जमूरे? डर गया?...‘‘ 

‘‘नहीं...‘‘ संत्या की आवाज धीमी पड़ गई।

“जमूरे, आग से डरना नहीं... । जिंदगी आग के समान ही होती है। भूख की आग, गरीबी की आग,...न जाने कौन-कौन-सी आग...सच कह रहा हूँ ना माइ-बाप?‘‘

भीड़ ने ‘हाँ‘ कहा। धीरे से माँ संत्या के करीब आई।

“संत्या, होश में आ...मार छलाँग। उधर चूल्हे पर मैंने मुर्गी पकाई है। खानी है न।‘‘

अब संत्या जोश में आया। 

भागते हुए आकर उसने मशाल में से छलाँग लगाई। 

माँ, बापू साँस रोककर देख रहे थे।

संत्या के जंघा को मशाल छूते हुए उन्होंने देख लिया। दर्शकों ने तालियाँ बजाईं...

‘‘दो ऽ‘‘ 

संत्या ने दर्द छिपाते हुए फिर छलाँग लगाई। 

जरा-सी गलती हो गई...पीठ को चटका लगा, बापू की आवाज भर्राई। 

‘‘जमूरे...तीऽऽन?‘‘ 

‘‘हाँ बापू तीन...”

संत्या के छलाँग लगाते ही बालों के जलने की बदबू आई। संत्या ने बाल झटक दिए...। आँखों के आँसू उसने रोक लिए।

‘‘जमूरे...कहीं जला है?...‘‘ 

“कौन परवाह करता है। मैं आग से नहीं डरता।‘‘ निडर होकर संत्या ने  कहा।

“वाह रे मेरे पठ्ठे...‘‘

खेल खत्म हो गया। दोनों छोरियाँ लोगों के बीच थालियाँ लेकर घूमने लगीं। थाली में गिरे सिक्कों की आवाज से संत्या खुश हो रहा था।

भीड़ चली गई। 

माँ ने राई नमक से संत्या की नजर उतारी। 

‘‘...चलो, बस करो तुम्हारा नज़र उतारना! पहले तेल और हल्दी लाओ। 

बापू संत्या के पास आया। 

“जमूरे...क्या हाल है?‘‘

‘‘बहुत अच्छे‘‘, संत्या ने दर्द छिपाते हुए कहा। बापू ने उसे बाँहों में ले लिया।

नहीं बेटे, अब पराए लोग चले गए। माँ बापू को सही-सही बोल दे... । कहाँ हो रहा है दर्द?‘‘

बापू याद कर रहे थे... 

पहली छलाँग...जंघा पर चटका..उन्होंने वहाँ हल्दी तेल लगाया। 

‘‘माँ ऽऽऽ” 

‘‘सह लो बेटा...‘‘ 

दूसरी छलॉग...पीठ पर चटका। तीसरी छलाँग सिर पर चटका।‘‘ 

हल्दी तेल का चटका संत्या सह नहीं पा रहा था।

‘‘मेरे जमूरे...डर रहे हो?...ऐसे कई चटके अब तुझे सहने हैं। तब जाकर शरीर मजबूत पत्थर-सा हो जाएगा। वड्डर जात है अपनी। पत्थर को तराशकर मूर्तियाँ बनाते हैं हम। हमारा शरीर भी पत्थर की तरह कठिन और मजबूत होना चाहिए।‘‘ बापू उसे समझा रहे थे।

आज कुछ विपरीत हो रहा था। पाषाण से भगवान की मूर्ति, इंसान के पुतले बनते हैं। लेकिन आज...एक जीव पाषाण में गढ़ा जा रहा था। 



 सूर्य प्रकाश मिश्र, वाराणसी, मो. 09839888743

आश्रम 

आश्रम खुल गया तिवारी का

बन गया फेस बुक पर पन्ना 

जो चलन है दुनियादारी का 

बंजर पर लगा दिया झण्डा 

डेरा बना लिया स्थायी 

इस मुद्दे पर पंचायत भी 

जागी पर बोल नहीं पायी

अब दोनों पहर भजन कीर्तन 

मुँह चिढ़ा रहे बेकारी का

इस जग में मानव सेवा से 

बढ़ कर है कोई काम नहीं 

लेकिन सरकारी सूची में 

इस स्टार्ट अप का नाम नहीं 

पर इस पर अब होगा विचार 

रुख बदल गया पटवारी का 

ये आश्रम सारी दुनिया को 

नवजीवन नव विचार देगा 

जब जड़ें जमा लेगा अपनी 

बहुतों को रोजगार देगा 

गेरूए रंग के बाने में 

हो गया उदय व्यापारी का



डॉ. सीमा शाहजी, थांदला जिला झाबुआ मप्र, मो. 7987678511


कविता

मौन की यात्रा पर

मौन केवल खामोशी नहीं

चुप्पी नहीं 

क्षणांश भर की

एक पूरा रास्ता है

संसार के पार

आध्यात्म की मंजिल तक 

अध्यात्म, जो ले जा सकता है

ईश्वरीय सत्ता के पार,

ईश्वर की तमाम लीलाओं तक

चलो मौन के मार्ग पर

चलते है

अपना भी जीवन

अपना एक नया 

लक्ष्य लेकर....

तमाम सम्बोधनों

आवाजों के साथ

चल तो रहा है

यह जीवन भी

पर इसमे ईश्वर कहाँ ....?

चलो थोड़ी देर खामोश रहें

एक यात्रा करें

मौन के साथ

दुनिया की आवाजों से

चलें परे

ताकि इस जीवन के साथ

देख सकें

स्वयम के भाग्य के 

पुरुषार्थ के

निर्धारित कर्ता को

एक परा शक्ति को

चलो चलें फिर

मौन की यात्रा पर ....


वह तोड़ती है पत्थर

आज भी वह

तोड़ती है पत्थर,

अपने ही हाड़ को,

खेत खलिहान मकान में

काम करती है

तगारियां उठाती है

श्रम बेचती है

देश के कोने कोने में ....

अंचल की हुई 

तो क्या हुवा

उसमें भी ममत्व  है

सम्वेदनाएँ है

अभिव्यक्ति है

कद्दावर क्षमता की

अपूर्व शक्ति है

क्योंकि वह तोड़ती है पत्थर


हफ्ते भर की मजूरी

फटी साड़ी के कोने में समेटे

लौटती है घर

पति तनकर खड़ा है

पैसे लपकने को

शराब की तलब के लिए

जमकर अड़ा है 

मूंछे निपोरता है...

छीन लेता है

अकड़कर रखता है जेब मे,

एक क्षण

वह सोचती है

क्या ? लुगाई होने की

यही कीमत है

ओछा है ओहदा

बुरा वक्त है..

मिट्टी की ढिबरी जलाकर

रोशनी को 

आने का आग्रह करती है

किसी कोने में

रख देती है

हंसिया खुरपी

उठा लेती है स्नेह से

दौड़ कर पास आती

मिट्टी में सनी अपनी

बिटिया को

पति अभी अभी

धम्म से पसरा है

खटिया पर

वह मांजती है बर्तन

काटती है भाजी

गूंधती है आटा

सुलगाती है चूल्हे की चिलकन

जबकि जल रही है

धीमी धीमी आग भीतर भी

पोंछती है आंसू

सेंकती है रोटी

बिटिया रोटी को

टुकुर टुकुर देखती है

पक जाने पर भाजी

बन जाने पर रोटी

लोटा भर पानी 

रख देती है 

पति के सामने

जो अद्दी चढ़ाकर

खो चुका है अपना होश

खा गया सारी रोटियाँ

दो रोटी को छोड़कर

जो चूल्हे की 

राख के नीचे

चुरा कर रख दी थी

बच्ची के लिए

पति उसे 

गरियाता है

लताड़ता है

और, ओद्ध जाता है खाट पर

निकालती है

वह, राख में दबी रोटियां

खिलाती है मुनिया को 

हंस हंस कर

नन्ही उंगलियां भी

माँ के मुंह मे

डालती है रोटियों के कौर

सुनाती है नन्ही को

चिड़े चिड़ी की कहानी

न जाने कब 

फिर, आ जाती निंदिया रानी

कल.......

उठना है सुबह

जल्दी बुहारना है घर

गैया का दूध दुहना है

पोतना है, पीली मिट्टी से चूल्हा

मांजना है बर्तन

सेंकना है रोटियाँ

और फिर निकल जाना है

मजूरी पर

वह है देश की श्रमवीरा 

खुशनुमा आकाश में

जैसे टिमटिमाते तारों का जखीरा

जब भी वह

लिखेगी क ख ग

करेगी क्रांति का सूत्रपात ....

वह नारी है

कब बनेगी नारायणी ??

कब पत्थर तोड़ते हाथ

बनेंगे ख़ुद के निर्माता ??


श्री वीरेन्द्र एवं सुश्री मीनाक्षी मेनन, होशियारपुर (पंजाब), मो. 9417477999


यात्रा-संस्मरण

‘‘एक लहर हूँ बस...’’

जाने क्यों हमेशा से ऐसा महसूस होता है कि समंदर से मेरा गहरा नाता है। मेरे भीतर रहता है जैसे वो और अपने मन के गहरे राज़्ा मुझसे कहता रहता है। बिछा जाता है मेरी नींद की रेत पे बेशुमार शंख और सीपियाँ और उसे कभी खुली आँखों से देखूँ, उस के तट पर बिखरी सीपियाँ अपने हाथों से उठाऊँ, यह कसक और बढ़ जाती है। बचपन में जब भी पंडित जी को शंख बजाते देखती तो मेरे छोटे-से हाथ शंख को छू कर देखने को लालायित हो उठते। अक्सर कहा करती थी, खूब गहरे पानियों में गोते लगाती रही थी, लेकिन कई बार अपनी इस बात से मुकर जाती और कहती, ‘न, न, मैं तो वो घोंघा (ेदंपस) थी जो शंख बनाता है। अल्हड़ मन की अजीबों गरीब कल्पनाओं की अनोखी कशीदाकारी, जाने क्या-क्या बुनता रहता था मन।

जब भी मेरी कोई सहेली स्कूल की छुट्टियों में किसी तटीय स्थान पर जाती तो मेरी हिदायत रहती उसे ‘‘देख, मेरे लिए समंदर से खुद चुन के सीप और मोती लाना।’’ शादी हो गई, बच्चे हो गए। बहुत कुछ बदला, बहुत कुछ छूटा, अगर कुछ नहीं छूटा तो वो था-मेरा समंदर के प्रति अगाध आकर्षण, उस से मिलने की एक अनजानी कसक। वीरेन्द्र मेरे पति का विशेष प्रेम है पहाड़ों से, सो हर साल किसी पहाड़ी स्थान पर ही जाते थे हम लोग, सारा हिमाचल घूमा, वहाँ भी बहता पानी, पहाड़ों से झर-झर निकलते झरने ख़ूब देखे, श्रीनगर में डल लेक में शिकारे में ख़ूब मस्ती करते, पर वो विशाल सागर के सीने पर उफनती लहरों में खुद को भिगोने और सीपियां छूने की कसक बादस्तूर बनी रही मन में।

समंदर से मिलने की साध पूरी हुई अभी अक्टूबर 2021 में। मेरी बड़ी बेटी अंकिता ने जब फोन पर मुझे कहा, ‘‘माँ, सामान पैक कर लो, हम गोवा जा रहे हैं, सुखद आश्चर्य लेकिन साथ ही साथ अविश्वसनीय भी लगा। सोचा मज़ाक कर रही है। लेकिन नहीं। शब्दों में कह पाना मुश्किल है-वो सफ़र कैसे कटा-अलग ही तरह की अनुभूति, जैसे जन्मों से बिछड़े किसी आत्मीय से मिलने की व्याकुलता। भावुक हो गई मैं उस रेत को छू कर जिस पर बिछे थे अनगिनत शंख और सीपियां। गले लगाया जब लहरों ने तो कैसा सुकून मिला कहना मुश्किल है। मुट्ठी भर-भर के शंख, सीपियां इकट्ठे किये सागर की विशालता जैसे अचंभित कर रही थी मुझे, जैसे बरसों से सूखा कोई कोना मन का भीग गया, पा गया वो सब कुछ जिसके लिए जाने कब से बेचैनी थी भीतर।

वहाँ जा के लगा न तो मैं मछली थी, न घोंघा, बस एक लहर हूँ और जीवन के इस अनंत आवागमन के सागर में उठती, मिटती लहर हूँ बस।   


सुश्री सीमा सिंह ‘स्वस्तिका’, डरबी चाय बगान सिलचर, असम, मो  9435079900

संस्मरण

पारण (उपवास अंत)

माताजी की तबीयत दिन ब दिन खराब होती जा रही थी। कई डाक्टर दिखाए ले किन कोई लाभ नही हो रहा था इसिलिये हम लोगो ने उन्हे शिलोंग ले जाने का निर्णय लिया। सबकुछ तय होते ही अगले दिन हम रवाना हो गये। माता जी की आदत है कि वे यात्रा के दौरान कुछ खाना नहीं चाहती। मगर उनके दुर्बल शरीर को देखते हुए हमने कई मर्तबे उन्हे खाने का आग्रह किया लेकिन वे नहीं मानी। ख़ैर, जैसे तैसे कभी बैठाकर तो कभी सुलाकर उन्हे लेकर मैं, मेरे पति, मेरी तीन साल की बेटी मीठी और उसकी परिचारिका सोनी आखिरकार शिलोंग पहुंच गये। अगले दिन हम उन्हे खाली पेट हास्पिटल ले गये ताकि जांच के लिये खून वगैरा दिया जा सके। लेकिन सारी औपचारिकताएं पूरी करते करते हमे इतना वक्त लग गया कि ओपिडी बंद हो गया। तब तक दिन के तीन बज चुके थे। हमने मां को किसी तरह घर लाकर खाना खिलाया। लगभग यही क्रम अगले दो तीन दिन तक चलता रहा। इसी बीच मेरा भी इलाज चल रहा था। तभी मेरे पति को बहुत जरूरी काम से घर वापस आना पड़ा। हम शिलोंग रह गये। उसके अगले ही दिन जिताष्टमी (जिउतिया अथवा जीवितपुत्रिका व्रत) था। घर से पिताजी ने फोन कर के बताया कि मां जैसे भी हो वह व्रत करें। इधर माताजी की हालत मेरे आंखों के सामने थी। वह किसी भी हाल में व्रत रखने के लायक नहीं थीं। अब मैं क्या करती। मेरे सामने धर्मसंकट था। मै किसे रोकती? फिर बहुत सोच विचार कर मैंने गुरुजी को फोन लगाया, मां की स्थिति बताई, पापा का फरमान भी बताया और कोई उपाय बताने का आग्रह किया। गुरुजी ने कहा कि इस स्थिति मे उनका निर्जला व्रत करना कतई उचित नही है। इसके अलावा वे छप्पन सालों से यह व्रत करती आ रही हैं इसलिये अब उन्हे यह व्रत करना छोड़ ही देना चाहिये।


मैंने यह बात भी उनको बताई लेकिन वे अपनी निर्णय पर अटल रहीं। हाँ, पर उन्होंने इतना जरूर कहा कि अभी उपवास रख लेती हूं, अगर नहीं रहा गया तो कुछ खाकर व्रत तोड़ दूंगी। या फिर शाम ढलने के बाद मैं कुछ खा लूंगी। तुम चिंता मत करो। अब मैं क्या करती। मुझे उनकी बात माननी ही पड़ी। अगले दिन उपवास की स्थिति में ही वे मेरे साथ हास्पिटल गयीं। सारा दिन हमारा वहीं बीता। शाम को गेस्ट हाउस में वापस आकर उन्होंने नहाकर पूजा किया और सो गयीं। जब डिनर का वक्त हुआ तब मैंने उन्हे जगाकर खाना खिलाने की कोशिश करने लगी। मैंने उन्हें कई तरह से समझाने की कोशिश की, यह भी कहा कि अब तो दिन बीत चुका है अब वे वादे के अनुसार अपना व्रत तोड़ दें लेकिन अब उनका इरादा बदल चुका था। इसबार उन्होंने कहा कि अब तो दिन बीत ही चुका है, अब तो सो जाना है। ‘‘भोर के तीन बजे तुम मुझे गर्म पानी और बिस्किट खिला देना।‘‘ मेरे पास उनकी बात मानने के अलावा और कोई चारा नहीं था। सो हम सब खा पीकर सो गये। बड़ी मुश्किल से मुझे नींद आई। लेकिन जैसी मेरी आदत है मैं कभी भी अलार्म लगाकर नहीं सोती फिर भी जितने बजे उठना चाहूँ उठ जाती हूँ। आज भी वही हुआ। मेरी आँख खुलते ही मैंने घड़ी देखी। ठीक तीन बज रहे थे। माँ गहरी नींद में सो रही थीं। मैं वाशरूम गई। हाथ-मूंह धोकर वापस आई और वाटर हीटर ऑन किया। लेकिन यह क्या? बिजली गुल थी। हालांकि इनवर्टर ऑन था लेकिन उससे हीटर का स्विच जुड़ा नहीं था। मैने रूम के बाकी स्विचों को इस्तेमाल किया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। हमारे साथ थरमस तो था लेकिन आज उसमें भी गरम पानी नही रखा गया था। इन्टरकाम से रिसेप्शन में फोन लगाया। लेकिन वहाँ इतनी रात गये कौन जगा रहता। मैंने सोचा शायद रिसेप्सनिस्ट वहीं सो रहा होगा। जाकर देखती हूं। अभी तक रूम में सभी सो रहे थे। सभी मतलब माताजी,मेरी बच्ची और उसकी आया सोनी। सोनी को लेकर मैं आश्वस्त थी। क्योंकि मुझे पता है कि उसे जब तग जगाया न जाये वह नहीं जागेगी। डर था कि कहीं मेरे जाते ही माताजी जाग जायें और इस अंधेरे कमरे में मुझे न पाकर घबरा न जायें। फिर भी मैं उनके जागने से पहले की सभी संभावित कोशिश कर लेना चाहती थी। मैं डरते डरते दबे पांव रिसेप्शन तक पहूंची। वहाँ लाईट थी पर आस पास कोई इन्सान नहीं दिखा। पूरा लाउंज सुनसान। डाईनिंग हाल खुला था। मैं सीढियाँ उतरी। इस उम्मीद से कि वहाँ कोई मिल जाये और मुझे माँ के लिये थोड़ा सा गरम पानी मिल जाये। लेकिन यहाँ भी कोई नहीं था।


मैं वापस आई। मुझे पता था कि मेरे बगल वाले कमरे में कल रात तीन लड़कियाँ आकर ठहरी हैं। सोचा उन्हे जगाकर कुछ मदद माँग लूं। दरवाजा भी खटखटाया, पर कोई बाहर नहीं आया। मैं निराश, भारी कदमों से कमरे में घुसी। माँ अभी तक सो रही थीं। मैने भगवान का शुक्रिया अदा किया और चुपचाप बिस्तर में घुसकर बिजली के आने की प्रतीक्षा करने लगी। अभी तक साढ़े चार बज चुके थे। रात थरमस में पानी न रखने की गलती अपराधबोध को बढ़ाये जा रही थी। दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था। इतने में पाँच बज गये। माताजी खाँसते हुए उठकर बैठ गईं। अब मुझे काटो तो खून नहीं। गला सूख गया था। होंठ चिपक गये। बड़ी कठिनाई से इतना बोल पाई कि अभी बिजली नहीं है। पानी गर्म नहीं हो पाएगा। माँजी थोड़ी देर मेरी तरफ देखती रहीं। फिर बोली ‘‘कोई बात नहीं, मैं ठंडा पानी ही पी लेती हूं लेकिन मैं नहीं चाहती थी कि वे ठंडे में ठंडा पानी पियें। इससे गला बैठ जाने का डर था। इसलिये मैंने उनसे कहा ‘‘तब तक आप हाथ-मुंह धोइये और मैं रिसेप्शन से पानी लेकर आती हूँ। ‘‘ ऐसा कहकर मैं अपनी तरफ से एक आखिरी कोशिश कर लेना चाहती थी। बच्ची और सोनी अभी तक सो रहे थे। अंधेरा छंट चुका था। मैं तेज कदमों से रिसेप्शन की ओर भागी। पर वहां तो अभी भी कोई नहीं था। अलबत्ता एक और सज्जन वहाँ किसी का इन्तजार करते हुए मिले। लम्बाकद, चैड़ा माथा, लम्बी नाक, गौरवर्ण। उम्र लगभग पचास-पचपन की। शक्ल-सूरत से सभ्य दिखने पर मैंने उनसे रिसेप्शनिस्ट विपुल के बारे में पूछा। ‘‘पता नहीं,‘‘ उन्होंने कहा। सर, आप जा रहे हैं या अभी आये हैं ? मैंने पूछा। नही, मैं तो सात-तीस पर निकलूंगा। अभी वाक पर जाना है। पर यहाँ तो कोई नहीं दिख रहा। उन्होंने कहा। बिजली भी गुल है।

क्या करूँ, मैं तो अपने कमरे में पानी भी गरम नहीं कर पा रही हूं। मैंने लगे हाथों टोह लेने के लिये उनके सामने अपनी समस्या रख दी। क्योंकि एक तो उनके अलावा मेरे सामने कोई दूसरा जीता-जागता इंसान खड़ा नहीं था और दूसरे मुझे उनसे कुछ मदद मिलने की उम्मीद बंध गयी थी।


मेरी बात पर उन्हें थोड़ी सी हैरत हुई। उन्होंने शायद सोचा होगा कि मुझे अपने रुम का वाटर हीटर चलाना नहीं आता या फिर जो भी हो, उन्होंने कहा ‘‘आपके रुम में भी तो वाटर हीटर होगा ही, जाकर देखिये।‘‘ फिर मैंने सारी बातें संक्षेप में बताई। ‘‘अच्छा! लेकिन मेरे रुम में तो चल रहा है, मैंने तो अभी चाय पी है‘‘ उन्होंने कहा। अब मैं हैरान। ‘‘तो शायद हमारी तरफ कोई तकनीकी गड़बड़ी होगी‘‘, मैने कहा। ‘‘आपको कितना पानी चाहिये‘‘, उन्होने पूछा। उनका यह सवाल सुनकर मुझे ऐसा लगा मानो मै सातवें आसमान पर हूँ। मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। मैने कहा ‘‘ अभी के लिये तो एक-दो ग्लास मिलने से भी चलेगा।‘‘ ‘‘ आइये, मैं देखता हूँ। ‘‘ कहकर वे सीढियों से उपर अपने कमरे में जाने लगे। अब मैं फिर धर्म संकट में पड़ गयी। जाऊँ या न जाऊँ। अलसुबह एक परिंदा भी नहीं दिख रहा। ऐसे में इनके कमरे में जाते हुए अथवा निकलते हुए भी किसी ने देख लिया तो क्या सोचेगा! और अगर न जाऊँ तो फिर गरम पानी मिलने का एकमात्र उम्मीद भी जाती रहेगी। मैंने हिम्मत बाँधते हुए आखरी कोशिश करनी चाही। मैने कहा‘‘ सर, आप चलिए, मै थरमस लेकर आती हूँ। ‘‘ कमरे मे आई तो देखा माँ आभी भी वाशरूम मे ही हैं। थोड़ा आश्वस्त हुई। मैने बाहर से ही उन्हे आवाज लगाई, ‘‘माँ, पानी मिल गया है. मै अभी लाई।‘‘ मै दौड़ते हुए सीढियाँ चढी और उस महानुभाव के कमरे के सामने खड़ी हो गयी। उन्हें भी शायद मेरे पदचाप से मेरे आने का पता चल गया था। उन्होने अंदर से ही आवाज लगाई,‘‘ पानी तैयार है, ले जाइये‘‘। ‘ले जाईये, ‘मतलब! कहीं इसके मन में कोई खोट तो नही! मैने दरवाज़े से अंदर झांककर देखा। पहले ड्राइंग रूम, फिर बगल में बेडरुम था। उनकी आवाज बेडरुम से आ रही थी। पर मैं अब एक भी कदम आगे बढनेवाली नहीं थी। मैंने सोचा जब पानी गरम हो ही चुका है तो ये मुझे लाकर भी देंगे ही, और ऐसा ही हुआ। मिनटों में वे पानी की केटली लेकर बाहर आये। मैंने थरमस को पूरा भर लिया और उन्हे दिल से आभार व्यक्त करते हुए सीढियाँ उतरने लगी। मेरी साँसें सामान्य हो रही थीं। अंदर ही अंदर ईश्वर को धन्यवाद दिया और तेज कदमों से कमरे में प्रवेश की। माताजी मेरा ही इंतज़ार कर रही थीं। मैंने उन्हे बिस्किट और पानी पिलाया और एक गहरी साँस छोड़ते हुए बिस्तर पर लेटी अपनी बेटी के बालों को सहलाने लगी। माताजी का पारण हो चुका था। उन्होंने पूछा, ‘‘पानी कहाँ से मिला बाबू?‘‘ वे बहुओं को बाबू कहकर ही बुलाती हैं। मैंने संक्षेप में बस इतना ही कहा,‘‘बाहर एक सज्जन मिल गये थे, उन्होंने ही दिया माँ।‘‘ माताजी उन्हें ढेरों आशीर्वाद देने लगी। थोड़ी देर में बच्ची उठ गयी और हम सब जल्दी से तैयार होकर नीचे ब्रेकफास्ट लेने उतरे। तभी गेट के पास वही महानुभाव खड़े मिले। मैं उनके पास गयी। उन्हें प्रणाम किया और एकबार फिर मेरी सहायता करने के लिए धन्यवाद दिया। साथ में यह भी बताया कि माताजी ने उन्हें ढेरों आशीर्वाद दिया है। उन्होंने माताजी को प्रणाम कहने को कहा और अपने पर्स से एक तस्वीर निकाल कर दी और कहा, इस तस्वीर को हमेशा अपने पास रखना। वह उनके गुरू की तस्वीर थी। तस्वीर के नीचे लिखा था,‘‘जिं़दगी में जहाँ कहीं भी रहो किसी जरूरतमंद की सहायता अवश्य करना। ‘‘

मैं तस्वीर हाथ में लिये डाइनिंग हाल की सीढियाँ उतर रही थी। उन्होंने अपने गुरू के बारे में गूगल पर जाकर सर्च करने की सलाह दी थी लेकिन मेरा मन उन्हीं को सर्च कर रहा था- कौन था यह? मैंने उसके बारे में कुछ भी तो नहीं जानना चाहा। नाम तक नहीं! और उन्होंने भी तो मेरे बारे में कुछ भी नहीं पूछा! मैं कौन हूं? कहाँ से आई? यहाँ क्यों ठहरी हूँ, वगैरा, वगैरा। फिर भी मेरे मन में कुछ अच्छा लगने जैसा भाव पैदा हो गया था। मन प्रसन्न था। अस्वस्थ सासु माँ को सफलता पूर्वक उपवास करा पाने की खुशी मन को शांति दे रही थी। होठों पर मृदु मुस्कान लिये मैं सोच रही थी- शायद ऐसे लोगों के लिए इंसान का व्यक्तिगत परिचय मायने नहीं रखता। शायद महान लोगों के लिये सिर्फ इंसान बने रहना ही काफी होता है। मैं मन ही मन उनके गुरू के सुझाए हुए आदर्शों पर चलने का संकल्प ले रही थी। 


सुश्री मुक्ति वर्मा, नोएडा, मो. 9818386807

उत्तर दायित्व

मैं नारी हूँ, मैं धरती भी हूँ

संसार भरके ढेलों का बोझ ढोती 

कीट पतंगों का चलन सहती

विकराल प्रलय में विनाश झंझाबात से गुज़रती

इस संसार का आरामगाह हूँ

क्योंकि मैं धरती हूँ

यह मेरा उत्तरदाियत्व है

माँ, बहिन, पत्नी कहलाना, यह मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।

दादी व नानी कहलाने में भी कोई हिचक नहीं

क्योंकि ...... 

यह मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।

आज के वैज्ञानिक युग में

अध्यापक, इंजीनियर, सांईटिस्ट

मन्त्री, मज़दूर, एक्टर, डाईरेक्टर,

डी सी, एस पी, रिक्शाचालक, विमान चालक

इन सब पदवियों पर आसीन होना भी

मेरा श्रेय है........                     मेरा उत्तरदायित्व है।

माँ बन प्रसव पीड़ा से ओतप्रोत हो,

गाँधी, जवाहर, राम, रहीम व नानक जैसे लाल

संसार में लाना भी मेरा ही श्रेय है।

और रहेगा भी

यह मेरे व्यक्तित्व की पहचान है

ऊपरवाले की देन है

उसका करम है।

यह सब मेरे साहस और मेरे विश्वास की पहचान है

जो, मैं जन्म से अपने साथ लाती हूँ,

और किसी भी परिस्थिति में, निबटने की क्षमता रखती हूँ।

क्योंकि यह मेरा उत्तदायित्व है।

इतिहास साक्षी है, पलटो पन्ने और देखो,

कोमलंगिनी दिखने वाली आप, कब लक्ष्मी बाई बन जायेगी

चाँद बीबी सा साहस बटोर, कब दुश्मनों को पछाड़ देगी।

क्या गार्गी और मैत्रेयी के शास्त्रार्थ आप भूल गये

याद करो इन्दिर, विजय लक्ष्मी व महादेवी को,

कौन सा उत्तरदायित्व था जो उन्होंने नहीं निभाया।

ऐ मानव, यही है तेरे तिलमिलाने का भूल मुद्दा,

अपनी डींगे हाँकने में, और

नारी को अबला कह उसका मान घटाने में

तुझे आनन्द मिलता है।

पर सुन, आज मैं फिर यह विश्वास दिलाती हूँ।।

कि, हम ने नारी बन कोई गुनाह नहीं किया

ऊपर वाले की रजामन्दी से आये हैं

और आते रहेंगे।।

और अपना उत्तरदाियत्व निभाते रहेंगे।

लेकिन ऐ मानव मन, सुन

तू, पिता, भाई, पति का सम्बन्ध निभाना कब सीखेगा

तेरे रोम-रोम में रिश्तों की महत्ता कब जागेगी

कब तेेरे अन्दर इख़लाक़ का जज़्बा पैदा होगा।

अरे इस उतरदायित्व को समझ 

देख- खेत-खलिहान गली कूचे

तेरे इस नीच इख़लाक़ से

ज़ार-ज़ार हो चीख रहे हैं।

उठ अपने को ऊबार और, अपना उत्तरदायित्व समझ।


सुश्री संगीता कुजारा टाक, राँची, मो. 9234677837


त्रिवेणियाँ

एक कोलंबस होता है

हम सबके अंदर


बस प्यास चाहिए

*****


बर्फ के बीच चुनाव दी गई हूँ जैसे

ग्लेशियर की तरह है


तेरा हिज्र........

*****


तमन्ना नहीं की

ज्यादा की मैंने


आधे चाँद से खुश रही

*****


खंजर खाया जब मैंने

तब एहसास हुआ


एक अदद पीठ भी है मेरे पास

*****


सूरज! तेरा एहसान सिर माथे

सलामत रहें


मेरे आँखों के तारे

*****

कोई गलत कहाँ होता है पहचान के पहले

फिर, मैं कैसे कह दूँ


वो अच्छा नहीं

*****

कुछ समझ में नहीं आता

बहुत बेचैनी रहती है


इश्क ने अपना बंदी बना लिया है

*****


सदके में दिया था

उसे दिल अपना


सब कुछ एकतरफा था

*****


इश्क ने देख लिया था

हम दोनों को इकट्ठे


हथकड़ी तो लगनी ही थी

*****


कुछ आहों को मेरे

आवाज भी नसीब न हुई


ये दर्द भी है मेरी जिंदगी में

*****


आँखों को आदत है

तुझे देखने की


तेरे बिन बेदीदा हैं ये

*****


सुश्री दीपक शर्मा, लखनऊ, मो. 9839170890

कहानी

खेमा

बाबा के संग पहली बार किस्सा खड़ा तो किया था मैंने उन्नीस सौ पैंसठ में मगर उसकी तीक्ष्णता आज भी मेरे अन्दर हाथ-पैर मारती है और लंबे डग भर कर मैं समय लांघ जाता हूँ... लांघ रहा हूँ...

“कलाई और कंधे वाली बात याद है न?” हमारे पुराने घर की खाने की कुर्सी पर बाबा बैठे हैं। अपनी दाहिनी कुहनी मेज़ पर टिकाये। पेट मेज़ के निकट चिपकाये। दांये कुल्हे और पैर को आगे बढ़ाये। मेरे संग बाँह की कुश्ती करने को आतुर।

“याद है न? तुम्हारी और मेरी कलाई का एक-दूसरे से संपर्क छूटना नहीं चाहिये। तुम्हारे कंधे और तुम्हारी समूची देह तुम्हारी कुश्ती वाली बाँह के साथ-साथ उसी तरफ घूमनी चाहिये, जिस तरफ तुम उसे ले जाना चाहते हो...।” अपनी बगल वाली कुर्सी थपथपाते हुए वह मेरे चेहरे पर अपनी आँखें ला टिकाते हैं। शायद जानना चाहते हैं मुझे मेरे सहज और स्नेही रूप में लौटाते हुए इन पिछले दो घंटों में किये गए उनके प्रयास सफल रहे हैं या नहीं।

दो घंटे पहले फूफाजी ने हमारा वह खेमा उखाड़ फेंका था जिसके अंदर हम बाप-बेटा अभी तक सुरक्षित बैठे रहे थे। बाबा की टकटकी तभी से जमा हो रहे मेरे गुस्से के अंबार को पट से बाहर ले आती है और मैं उनकी बगल वाली कुर्सी पर बैठने की बजाय उसे जमीन पर पटककर चिल्ला पड़ता हूँ-“आपके यह खेल-तमाशे आपका मन बहला सकते है, मेरा नहीं...।”

और मैं अपने क्वार्टर के सोने वाले कमरे में बिछे बिस्तर पर जा लेटता हूँ। औंधे मुँह।

पांच साल पहले तपेदिक से हुई माँ की मृत्यु के बाद ही से क्वार्टर में अब केवल बाबा और मैं ही रहते हैं। रसोईदारी उनके जिम्मे है और सफाई मेरे। दो कमरों का यह क्वार्टर उसी स्कूल के परिसर में है जहाँ बाबा गेम्स टीचर हैं और मैं छठी जमात का विद्यार्थी। “सुबह वाली बात पर तुम्हें अपने उस फूफाजी से बायकाट करना चाहिए या मुझसे...?” बाबा मेरे पास चले आये हैं।

बाबा के लिए ‘बायकाट’ शब्द बहुत अर्थ रखता है। स्वतंत्रता संग्राम के समय में वह बड़े हुए थे और संग्राम से इतने अधिक प्रभावित रहे थे, कि उन दिनों जब विदेशी चीज़ों के ‘बायकाट’ के अंतर्गत हर गली, हर नुक्कड़ तथा हर बाज़ार में विदेशी कपड़े जलाए जा रहे थे, तो उन्होंने भी विदेशी अपने सारे कपड़े जला डाले थे तथा स्वतंत्रता मिलने तक केवल खादी का ही उपयोग करते रहे थे, किन्तु बायकाट शब्द जरूर उनके साथ बराबर बना रहा था और उन्हें किसी से भी जब अपना रोष प्रकट करना होता, वह यही कहते-“मैं तुम्हारा बायकाट करता हूँ।” स्कूल में मैच के दौरान यदि किसी लड़के का फाउल प्ले देखते, तो उसे तत्काल मैच से ही नहीं, उस मैच की टीम से ही हमेशा के लिए बायकाट कर देते।

“आपके बायकाट करने से फूफा जी को कोई अंतर नहीं पड़ने वाला...”-मैं फिर टनटनाता हूँ, “बल्कि मान जाइये आज आपने उनका बायकाट नहीं किया है, बायकाट उन्होंने आपका किया है।”

उस दिन बुआ की ननद की शादी थी और हम दोनों जैसे ही बारात के आने के समय से कुछ देर पहले शादी के मंडप स्थल पर पहुँचे थे। फूफाजी बड़बड़ाये थे- “लो, गेम्स मास्टर भी फैमली समेत आन पधारे हैं...”

तिरस्कारक अपने भाव को मौजी अपने स्वर शैली में ढालते हुए।

बुआ की शादी सन छियालीस के लाहौर में हुई थी जहाँ मेरे दादा के पास मर्फी रेडियो की अपनी दुकान थी तथा उस समय उनकी आर्थिक स्थिति फूफाजी के अमृतसर स्थित बर्फ के कारखाने वाले परिवार से किसी भी प्रकार कम नहीं रही थी, मगर बंटवारे के समय हुए दंगे सब लील ले गए थे, जान-माल समेत। बाबा को छोड़कर, जो उस समय अमृतसर के खालसा कॉलेज में बी.ए. के विद्यार्थी थे और वहीँ छात्रावास में रहते थे।

“मैं आप लोग ही की राह देख रही थी।” बुआ तत्काल हमारी ओर बढ़ आयी थी।

“हमें तो आना ही था”, बाबा बोले थे।

जभी फूफाजी हमारे पास पहुँच लिए थे और बुआ को एक कोने में ले जाकर कहे थे, “कम अज कम आज तो तुम्हारे इन गेम्स मास्टर को टाई-सूट में आना चाहिए था, इस तरह के फटीचर कोट-पतलून में नहीं। तिस पर जनाब टाई की जगह मफलर लगाये हैं। अरे भाई उसके पास ढंग का टाई-सूट नहीं था, तो तुम्हीं उसे न्यौता देते समय मेरा कोई पुराना टाई सूट पकड़ा आती...।”

“मगर आपका पुराना सूट भाई पहन लेता क्या...?” बुआ ने प्रतिवाद किया था।

“तो मैं ही उसे नया सूट सिलवा देता। अब उधर लोग-बाग इन्हें देखेंगे, तो यही बोलेंगे कि दुल्हन के रिश्तेदार ऐसे छोटे आदमी हैं।” फूफाजी का जवाब आया था।

तभी बाबा उनके पास पहुँच लिए थे और अपनी कोट की जेब का लिफाफा बुआ की ओर बढ़ा दिए थे, “जीजी, हम दोनों आपको यह शगुन पकड़ाने आये थे। हमारे स्कूल में आज हॉकी का मैच है। हम यहाँ और रुक नहीं पाएंगे...”

“मगर भाई...”, बुआ की आँखों में आँसू छलक आये थे।

“मैं जानता हूँ जीजी...” बाबा का गला भी भर आया था, “आपकी जरब-मनफी रुपये-पैसों तक सीमित नहीं है। आपसी रिश्ते आप उस हिसाब से ऊपर रखती हैं...”

“क्या है इस लिफाफे में?” फूफाजी ने बाबा के हाथ से वह लिफाफा झपट लिया था।

“जीजी, आप देख लेना।” बाबा ने फूफाजी की ओर अपनी पीठ फेर ली थी और मेरा हाथ पकड़कर शादी के मंडप से बाहर निकल आये थे।

उस लिफाफे को तैयार करने में बाबा को पूरे दो दिन लगे थे। सौ-सौ के ग्यारह नये नोट इकट्ठे करने के वास्ते उन्हें अपने बैंक के तीन चक्कर काटने पड़े थे। उन दिनों उनका वेतन कुल जमा दो सौ सत्तर रूपया माहवार था और ग्यारह सौ रूपया उनके लिए बड़ी रकम रही थी।

घर लौटते समय बाबा ने दो बार रिक्शा लिया था घर के लिए दूसरी बार।

पहली से उस जलपान गृह तक गए थे, जहाँ मेरे मनपसंद भोजन की थाली मिलती थी और जिसके बाहर आइसक्रीम कोन।

उनके साथ मैंने भी भरपेट खाया था और उन्हें अपने लिये कोन भी खरीद लेने दिया था।

बेशक पूरी इस अवधि में शुरू से लेकर अंत तक हमारे बीच विछिन्न-सी एक चुप्पी घिरी रही थी, जिसे तोड़ने हेतु बाबा अब घर लौटते ही अपनी इस कुश्तीबाजी को परिदृश्य में खिसका लाना चाहते थे। बाँह की कुश्ती में वह पारंगत थे और प्रादेशिक स्तर पर उसमें कई पुरस्कार भी जीत चुके थे।

“चलो बिस्तर से उठो। उधर बैठक में चलते हैं। वहाँ बैठकर बात करेंगे”, बाबा मेरे बालों में उँगलियाँ फिरा रहे हैं।

“बात क्या करेंगे”, बाबा का हाथ मैं अपने बालों से अलग कर चिटक देता हूँ, “अपने को ऊँचा सिध्द करने की कोशिश करेंगे और फूफाजी को नीचा। जबकि पूरी दुनिया उन्हें आप से ऊँचा दरजा देती है। आप मान क्यों नहीं लेते, घर से बाहर आपको कोई बड़ा आदमी नहीं समझता। सब छोटा समझते हैं। बहुत छोटा समझते हैं।”

“जब तक मैं अपने को छोटा नहीं समझता, मैं बड़ा ही बना रहूँगा।” बाबा की आवाज़ लरजी है। उसमें वह कंपन उतर आया है जो वह अपनी बात मजबूती से कहने से पहले अपने अंदर महसूस करते हैं।

“किसके लिए बड़े बने रहेंगे? उन छोटे बच्चों के लिए जिन्हें आप हॉकी सिखाते हैं? फुटबाल खेलाते हैं? ऊँची छलांगे लगवाते हैं? जिनकी नज़र में शरीर की फुर्ती ही सबकुछ है?” मैं चिल्लाता हूँ।

“तुम अभी गुस्से में हो”, बाबा मेरा कंधा थपथपाते हैं, “तुम से बाद में बात करता हूँ। सब समझाता हूँ...”

“मुझे आपसे कुछ नहीं सुनना-समझना”, अपना चेहरा मैं उनसे विपरीत दिशा में घुमा ले जाता हूँ, उनकी ओर अपनी पीठ फेरता हुआ। लगभग उसी बेरुखी के साथ जो उन्होंने फूफाजी की ओर पीठ फेरते समय उस दिन बरती थी।

बाबा अब कुछ नहीं कहते। चुप्पी साधकर बैठक की ओर बढ़ जाते हैं।

मेरे अंदर का बगूला और उग्र हो रहा है। मेरे थमाये नहीं थम रहा है।

बाबा समझ क्यों नहीं रहे, स्कूल की उनकी इस दुनिया के बाहर एक और दुनिया भी है जहाँ उनका कोई महत्व नहीं, कोई मोल नहीं।

बिस्तर पर बने रहना मेरे लिए असंभव हो आया है। लपककर मैं भी बैठक की ओर चल देता हूँ।

बाबा वहाँ की आरामकुर्सियों के पीछे वाले कोने में खड़े अपने पौमेल हॉर्स पर सवार हैं। यह उनका वह वरजिशी घोड़ा है जिसके मेज जैसे ढाँचे की दोनों टांगें फर्श से चिपकी हैं और जिसके ऊपरी ताल पर दो हत्थे जड़े हैं।

इस समय बाबा उन हत्थों के सहारे अपने पैर जोड़कर गोलाई में चक्कर काट रहे हैं। दांये से बांये। बांये से दांये।

असमंजस एवं तनाव के अपने क्षण वह इसी पौमेल हॉर्स पर बिताया करते हैं।

मुझे सामने पाकर वह तत्काल उससे नीचे उतर लेते हैं।

“मैं जानता था, तुम मेरे पास आये बिना नहीं रह सकते। सारी दुनिया मुझसे बायकाट कर दे, मुझे कोई परवाह नहीं, मगर तुम बायकाट करोगे, तो मेरा हौसला टूट जाएगा। हिम्मत चुक जायेगी...”

और वह रोने लगते हैं। उसी वेग से जिस वेग से वह माँ की मृत्यु पर रोये थे... ‘कैसे हमसे बायकाट करके चली गयी!’

“मैंने आपका कोई बायकाट नहीं किया,” बैठक के बाहर बने उस बरामदे में मैं चला आता हूँ, जहाँ मेरी साइकिल खड़ी है। मैं उसे लेता हूँ और स्कूल का परिसर पारकर आता हूँ। स्कूल के गेट के बाहर वाली उस दुनिया में मैं पहली बार बाबा के बिना निकला हूँ। तिस पर बिना उन्हें बताये मैं कहाँ जा रहा हूँ?                 



सुश्री विभा रंजन ‘कनक’, नई दिल्ली, मो. 9911809003

कहानी

‘‘अंकुर’’

अपनी सोच में मैं इतनी उलझ गईं कि, मुझे पता ही नहीं चला कि शाम कब रात की बांहों में जा गिरी। मैंनेे खिड़की से बाहर झांका, अंधेरा होने को आ रहा है। बाहर से आते ही अंकुर ने बत्ती जलायी। मुझे देखकर थोड़ी घबरा सी गई। बोली,

‘‘क्या बात है मम्मी.. अंधेरे में क्यों बैठी हो..? क्या फिर सर में दर्द है..?‘ उसे हमेशा मेरे माइग्रेन की फिक्र लगी रहती थी।

‘‘नहीं बेटा.. मुझे कुछ भी नहीं हुआ है.. बस ऐसे ही.. !‘‘

‘‘क्या ऐसे ही.. जब देखो तब.. बेकार की बातें सोचती रहती हो.. अच्छा बताओ.. मैं अभी क्या खुशखबरी ले कर आई हूंँ..?‘‘

मैं जानती थी, उसकी खुशखबरी के बारे में, मैं उसके मुंँह से सुनना चाहती थी। मैने उससे कहा,

‘‘नहीं..तुम बता दो क्या खुशखबरी है..?‘‘

‘‘माॅम... ओह माॅम... राहुल की मम्मी मान गई हैं.. आज मैं बहुत खुश हूंँ...!‘‘

उसने ख़ुशी के मारे अपनी बांहंे, मेरे गले में डाल दी। फिर बोली,

‘‘ये बात एकदम कन्फर्म्ड है.. इसलिये राहुल कल.. तुमको बताने के लिए आ रहा है..!‘‘

उसकी बात सुन कर मेरे दिल को, एक ठंडक सी महसूस हुई। मतलब, सब ठीक है, मैं र्निर्दोष करार कर दी गई हूंँ। पर, न जाने क्यों, अचानक, मेरा मन बचैन सा होने लगा था। ‘राहुल की मां मान गई हैं‘, अंकुर के ये शब्द मेरे कानों में गूंज रहे थे। मैं इतना परेशान क्यों हूंँ? मैं भी तो यही चाहती थी, तो फिर इतनी बेचैनी किस लिये? हां, मन में एक प्रश्न जरुर घूम रहा था, राहुल की माँ मान कैसे गई ? शायद, राहुल की मां को अपने बेटे के आगे झुकना पड़ा हो ? वह एक मां हैं, बेटे की इच्छा के आगे वह विवश हो गई हो ? और भी न जाने कितने मेरे मन में हजारों तरह के प्रश्न उठ रहे थे ? मैं आकर बिस्तर पर लेट गई। नींद मुझसे कोसों दूर थी। अतीत आज फिर मेरे सामने आकर खड़ा हो गया था।

मैं सताइस बरस पीछे जाने लगी। मैं बहुत सुंदर थी,कॉलेज में कुछ लड़कियांँ इस बात को लेकर मुझे नीचा दिखाने की कोशिश करती रहती थीं। मध्यम परिवार की होने के कारण मुझमें उनसे जुझने की ताकत नहीं होती। मेरी दो सहेलियां रमा और सगुना, जो हमेशा मेरा मनोबल बढ़ाती रहतीं, कहतीं, ‘‘तू बहुत सुन्दर है, जिससे भी तेरी शादी होगी.. वह बड़ा लकी होगा!‘‘

यौवन से भरपूर वह दिन कुछ और ही थे, जहां हर युवा-युवतियां स्वप्नों की एक अपनी दुनियां बनाकर उसमें रहते हैं। मैं भी उन्हीं कल्पनाओं में डूबी रहती थी। इंटर पास करने के बाद जब मैं बी. ए. में गई, तो मेरा रूझान उपन्यासों की ओर हुआ। मैं उपन्यास पढ़ने लगी। उनके प्रेम प्रसंगों को पढ़कर, मुझे लगने लगा कि मेरा भी कोई राजकुमार होगा। जो घुटनों के बल बैठ मुझसे अपने प्रेम का इज़हार करेगा।

मेरे घर के पास ही परेश नाम का लडका रहता था। जब भी मैं काॅलेज जाती वह रोज़ पीछा करता था। मेरी सहेली रमा ने उसका नाम रोमियो रख दिया था। उनको तो पता भी न चला कि कब, मैं और परेश मिले, कब प्यार हुआ, कब, हमनें साथ जीने मरने की कसमें खाईं। परेश हर तरह से मुझसे ही विवाह करने को वचनबद्ध था। परिवार की रज़ामंदी ना हो तब वह उनका विरोध कर देगा, पर विवाह तो वह मुझसे ही करेगा। मैं उसके प्यार में पागल एक प्रेमिका बनती जा रही थी। सारी दुनियांँ मुझे बस उसी के आस-पास घुमती नज़र आती थी। मैं आश्वस्त थी, माता-पिता की निर्धनता और चिंता मैं एक पल में दूर कर दूंगीं। मेरा विवाह परेश से हो जाने के उपरांत, मैं इतनी आत्म र्निर्भर हो जाऊंगी कि, मेरे माता पिता को मेरी छोटी बहन की भी चिंता नहीं करनी पड़ेगी। बस, परेश की प्रतिपल बढ़ती महत्वाकांक्षायें मुझे डरा दिया करतीं। उसकी अमेरिका जाने की इच्छा, वहां से खुब सारा धन कमाने की इच्छा, अपना अलग ब्यवसाय जमाने की बातें, मुझे लगता मै उसकी इन महात्वाकांक्षी राहों में कहीं दिखाई नहीं देती। मुझे अपना अस्तित्व नहीं दिखाई देता। मैं डर अवश्य जाती, फिर भी, पागल प्रेमिका की तरह विश्वास नहीं खोना चाहती। अंतर में उठते अविश्वास को झटक कर दूर भगा देती। मन की यही तो स्थिति होती है, हम वही सोचना चाहते हैं, जो हम चाहते हैं। सच हमारे द्वार पर खडा होता है पर, हम चाहते हैं जितनी देर हो, हम इस द्वार को बंद रखें।

मेरी बुआ की नज़र बचपन से मुझ पर थी। वह बराबर पापा को बोला करती थी शील के विवाह की ज़िम्मेदारी मेरी। उन्होंने मेरा विवाह दिल्ली के बहुत रईस परिवार के एकलौते बेटे सुयश से तय करा दिया। मैंने परेश को सब बताया पर वह चुप रहा। मेरे आँखों से गिरते आँसुओं का भी उसपर कोई असर न हुआ। प्यार में पागल हो, अपने आत्म-सम्मान को बेच मैं उसके सामने गिडगिडाई तक, पर उसने जैसे अपने कान ही बंद कर लिये थे। ऐसी विषम घड़ी में वह मुझे अकेला रोता तड़पता छोड़ अमेरिका जा रहा था। बड़ा पत्थर दिल निकला वह। इतना धन उसके पास अचानक से कहाँ से आ गया, यह प्रश्न मुझें कौंधता रहा। यह सब कैसे हुआ, मैं समझ नहीं पाई। मैं उस पर शक नहीं कर पाई क्योंकि, सपने बिकते हैं, यह मुझे मालूम नहीं था। उस दिन मैने गरीबी को बहुत करीब से देखा। मेरे रुप का दर्प उस क्षण मोम की तरह पिघल गया।

बहुत सादे ढ़ग से विवाह हुआ। रोती बिलखती मैं पहली बार पति के साथ हवाई जहाज में बैठी। साथ बैठे सुयश को पहली बार ठीक से देखा। मुझे परेश याद आ गया। सुयश मुझे बहुत सभ्य लगे। वह बहुत शिष्टता से बातें कर रहे थे। ससुराल पहुँच कर घूँघट की ओट से ही मुझे पूरे वैभव का अंदाजा लग गया था। मुझे सजाने की तैयारी चल रही थीं। लडकियाँ बार-बार मेरे सौन्दर्य की तारीफ कर रही थी। ‘सुयश भईया बहुत लकी है, बहुत सुंदर पत्नि मिली है‘! मुँह दिखाई में भी यही बात सुनाई दे रही थी ‘बहू तो आप बहुत सुंदर लाई हैं! मेरा रुप का दर्प जो चकनाचूर हो गया था, एक बार फिर से नये दर्पण की भांति जगमगाने लगा था। जी चाह रहा था एक बार मैं भी दर्पण देख लूँ, पर देख न सकी। मुँह दिखाई के बाद मुझे अपने कमरे में लाया गया। सारे कमरे में रजनगंधा के फूलों की खुशबू फैली थी। आज मेरी सुहागरात थी। जिस पल का इतंजार हर लड़की को हुआ करता है, पर मेरा मन रीता था। मुझे अकेला छोड़ सब चले गये मैं बिस्तर पर लेटी थी कि, झपकी सी आ गई। तभी सुयश आ गये,मैं हड़बड़ा कर उठी। वह बड़ी शिष्टता से बोले, 

‘‘मेरे एक मित्र के साथ दुर्घटना हो गई है.. वह घायल है..उसका ब्लड ग्रुप मुझसे मैच करता है.. हो सकता है आज रात में न आ सकूँ.. आप बुरा तो नहीं मानेगीं..?‘‘

मैं क्यों बुरा मानती? किसी का जीवन बचाना कितना पुन्य का काम है, मैंने सोचा!

‘‘कोई बात नहीं आप आराम से जाइये..!‘‘

सुयश चले गये, मैं परेश के साथ सुयश को तौलने लगी।

परन्तु, सुयश का हर रोज़ कोई न कोई बहाना बनाकर, रात को कमरे में न सोना, मुझे हैरत में डाल रहा था। दिन में भी वह बहुत कम मेरे पास आते। मैं कहती तो किससे कहती ? यहाँ सोने की झँकार में आहों और सिसकियों की बात कौन सुनता ? और में कहती भी तो क्या कहती ? महँगीं साड़ी,भारी गहनें, शोफर सहित गाड़ी, हर सुख सुविधा उपलब्ध, तब शिकायत कैसी ? यौनावस्था की भूख की या पत्नित्व की माँग की ? ऐसे अधिकारों की बात करना, जहाँ अपराध माना जाता हो ? कभी सोचती कहीं, सुयश भी तो प्रेम में घायल नहीं है?उसे भी अपनी प्रेयसी की याद सताती होगीं ?

जब भेद खुला, तो मैं अवाक रह गई। मैंने परेश को चाहा था, किसी अपुरुष की कल्पना नहीं की थी। मेरा पति अपुरुष था, इस खबर ने मुझे संज्ञाशून्य बना दिया था। मैंने पहली बार चोरी से तार देकर अपने पापा को बुलवाया। वो आये मैने पीहर जाने की इच्छा जताई। मेरे ससुर ने बात फैलने के ड़र से भेजने से इन्कार कर दिया। मेरे पापा वहाँ के वैभव देख अचंभित थे, उन्हें लगा नहीं कि मुझे कोई तकलीफ हो सकती है। मैं जब भी मुँह खोलती वह मुझे भाग्यशाली बताने लगते। मुझे जीवन भर इन लोगों का उपकार न भूलने की सलाह देने लगते, मैं खामोश हो जाती। मैं उनकी खुशी कैसे बरबाद कर देती ? मेरे ससुराल वालों ने मेरी बहन के विवाह की चिंता न करने की सलाह देकर, मेरे पापा को कृतज्ञ बना दिया था। जाते समय पापा बगल के पड़ोसी शर्मा अंकल के घर का फोन न. दे गये।

‘‘परसों करना माँ को वहीं लाऊँगा ?‘‘

मन में एक उम्मीद जरुर जगी। माँ मेरी वेदना जरुर समझेगी? माँ का फोन आया, मंने उठाया। अभी हेलो बोला था, तीव्र गति से आती सास की आया को देखा। फोन उठाते माँ ने मेरे ससुराल की बड़ाई के साथ शुरु की, मैं समझ गई कि पापा ने खुब बड़ाई की होगी। मुझे लगा मैं बोलूं, मुझे बुला ले, तभी मेरी नजर मेरी सासू माँ की खास आया पर पडी।वह बहाना कर वहीं इधर-उधर कर रही थी। फिर, वह वहाँ पर सफाई करने लगी। मैं समझ गई, इसे सासू माँ ने मेरी बात सुनने के लिये भेजा है। माँ ने मुझे समझाते हुए कहा,

‘‘बेटा.. शुरु में लोग जल्दी मैके नहीं जाने देते है.. घबड़ा मत..मन लगा कर रह.. अब वही तेरा घर है.. सास ससुर की सेवा कर.. दामाद जी का ख्माल रखना..मैं फोन करती रहूँगीं..!‘‘

मेरा मन कर रहा था कि मैं चीख कर उसे बताऊँ.. माँ.. एक बार तो मेरी भी सुन लो..पर बेचारी सुने कैसे.. जब बताने वाला ही चुप हो जाये..। मैं अब भाग्यवादी बनती जा रही थी।  रोकर अब थक चुकी थी, रेडियो और उपन्यास मेरे जीने का सहारा था मैने सासू माँ से आगे पढने  की इच्छा जताई, ‘‘पढ़ कर क्या करना है कौन सी नौकरी करनी है‘‘ कह वह द्वार भी बंद कर दिया गया। सारे रास्ते बंद हो रहे थे, मैं एक सोने के पिजरें मैं कैद हो कर रह गई थी, माँ से बातें भी नहीं हो पाती थी, मेरा मन हर समय नई आशंकाओं से घिरा रहता था।

सुयश अब पुरी तरह अलग कमरे में रहने लग गये,बात-चीत न के बराबर थी। शायद, वो मेरा सामना नहीं करना चाहते थे, मुझे उनसे बात करनी थी। एक दिन मैं साहस कर उनके कमरे में जा पहुँची। मुझे सामने देख कर वो थोडा सकपकाये, हिम्मत कर बोले,

‘‘ कुछ चाहिये..?‘‘

‘‘ मुझे जो चाहिये..वो आप नहीं दे सकते..!‘‘ मैंने उनके पुरुषत्व पर प्रहार किया। उनका चेहरा लज्जा एवं दुख से 

विवर्ण हो गया, जिसे देख मेरे दग्ध अंर्तमन को बड़ा अच्छा लगा।

‘‘क्या मैं सिर्फ दो मिनट आपसे बात कर सकती हूँ?

मैने ‘सिर्फ‘ पर जोर देकर कहा।

‘‘बोलिये..?‘‘

उन्होंने बैठने का इशारा किया मैं बैठ गई।

‘‘मैं एक बार माँ से मिलना चाहती हूँ..!‘‘

‘‘इसके लिए आपको मम्मी-डैडी से पुछना होगा..?‘‘

‘‘आपके कारण वो मना कर देगें.. मैं जानती हूँ..आपने मेरी माँग भरी है.. मैं आपकी पत्नी हूँ... कह कर मैने लम्बी सांस ली। फिर बोली, ‘‘मेरा सुख-दुख आपकी जिम्मेदारी बनती है..

अगर.. आप मेरे साथ चलेगें.. तब वो लोग जरुर मुझे जाने देगें..!‘‘

सुयश सोच में पड़ गये, वह हताश लगने लगे।

फिर बोले,

‘‘ ठीक है..बस एक दिन के लिये..!‘‘

मैं खुश थी, मेरी जीत हुई, इस आदमी को मैने झुका दिया था। मुझे नहीं पता, सुयश ने क्या कह कर अपने मम्मी डैडी को मनाया होगा? पर, मैने पुरी तैयारी कर ली थी, अब लौट कर वापस नहीं आऊँगीं! पर, सोचने से सब ख्वाब पूरे नहीं होते! उसी सुबह मेरी माँ को हार्ट अटैक आया था। हम जब पहुँचे तब वो आई.सी.यू. में थी। मेरे ससुराल में खबर चली गई थी। अस्पताल में पूरी रकम जमा हो गई थी। मेरे पापा को मेरे ससुराल और दामाद पर पूरा भरोसा था। अच्छे अस्पताल में माँ को रखा गया, जो मेरे पापा के बस की बात नहीं थी। अब हम वहाँ रुक गये, इससे मेरे पापा बहुत प्रभावित हुये कि दामाद हीरा है। सुयश ने एक अच्छे दामाद की तरह, अस्पताल का ज़िम्मा ले लिया था।

अब मैं क्या करुं, मैं जहाँ जाती हूँ, मेरा र्दुभाग्य वहाँ पहले पहुँच जाता है! घर में ऐसी समस्यायें हैं ? मैं अपना दुख क्या बताऊँ ? यह बात बताना माँ के लिये तो यह बहुत घातक होगा ? मैं बता दूँ ? माँ को फिर से कहीं ? नहीं ?.. मैं बता सकती ? मैं माँ को खोना नहीं चाहती ? मुझे भी अहिल्या की तरह पत्थर बनना होगा ? शायद कहीं कोई राम, मेरे जीवन में भी हो! पापा, मेरे सामने मेरे ससुराल का गुन गाते नहीं थकते, अब तो सुयश भी उसमें शामिल हो गया था। छोटी बहन और पापा को बहुत भरोसा था कि मेरे ससुराल वाले रसूख वाले हैं उनके दखलंदाजी से माँ का अच्छा इलाज हो जायेगा। दिल्ली से बड़ा डॉक्टर आया, उसका फीस रहने का इतंजाम मेरे ससुराल वालों ने लिया। ठीक होकर माँ घर आ गई वह बहुत कमज़ोर हो गई थी, डॉक्टर ने उन्हें चिंता से दूर रहने की सलाह दी थी। माँ को ठीक देख कर मैं, अपना दुख भूल गई। मुझे अपना दर्द नहीं आया। एक दिन रह कर हम  वापस चले आये,सुयश उस रात में होटल चला गया था। पापा बोले,

‘‘जाने दो आराम कर लेगा बहुत थका है!‘‘

मैके से लौटने के बाद मैने सासू माँ में बड़ा परिवर्तन देखा। उन्होंने मेरी माँ का हाल पुछा साथ ही उनके स्वास्थ्य को लेकर चिंता जाहिर की। वैसे उन्हें वहाँ की सारी जानकारी मिल चुकी थी। सुयश शायद रोज़ बात करता रहा होगा!  उनका ब्यवहार अब मेरे प्रति नर्म हो चला था। जो भय उनके मन में था, वह निकल गया था। उन्होंने बताया कि सुयश पहले ठीक था। हमलोग सुयश के अपने दादा जी के बरसी में गाँव गये थे, तब सुयश को जाँघ के पास, लिंग के निकट,कारबंकल घाव हो गया था। सुयश दर्द से परेशान था, फोड़ा फट गया था। गाँव के अस्पताल में डॉक्टर आता नहीं था। हार कर कम्पाउंडर को बुलाया गया। पता नहीं उसने कहाँ काटा? कौन सा नस काट दिया? वह ऐसा हो गया, हमने सब बड़े-बड़े डॉक्टर को दिखाया, सबने कहा उस कम्पाउंडर ने गड़बड़ कर दिया। अब कुछ नहीं हो सकता है, यह सब काम कर सकता है, बस इसका वैवाहिक जीवन ? मन में आया कि पूछूं, क्यों आपने विवाह किया ? पर इस प्रश्न का अब औचित्य नहीं रहा ? सासू माँ ने बताया, मुझे और सुयश को एक साल के लिये लंदन जाना है। मैं सुयश के साथ जाकर क्या करुगीं? पर, मेरे अंदर विद्रोह की आग ठंडी हो चुकी थी।


हम लंदन आ गये, लंदन आने के बाद सुयश अचानक एकदम बदल गया। मेरी माँ का सेवा करने वाला, मेरे पापा और बहन का हृदय जीतने वाला सुयश, कठोर हो गया था। अपनी अपूर्णता से खीजा, मेरे सौन्दर्य से घायल, और उसे न भोग पाने का दंश, उसे खूँखार बना रहा था। उसके मित्र मुझे ‘इन्डियन ब्यूटी‘ कह उसे भाग्यशाली बताने लगते, तब वह चिढ़ जाता। अपनी कमज़ोरी छुपाने के लिये वह मुझे लज्जित करने से नहीं चूकता। मेरे पिता की गरीबी का बाज़ार खोल देता, वह बताने की कोशिश करता कि, यह सौन्दर्य बिकाऊ है, उसने मोल देकर खरीदा है। मुझे यह सब बहुत चुभता था,मैं जानती थी वह किसी को अपनी कमी  नहीं बता पायेगा वह कभी नहीं कह पायेगा कि वह स्वयं एक नपुंसक है।

सुखे टहनियों में नये पत्ते आ गये थे, छोटे पेड़ अपने यौवन पर आ गये थे। कली फूल बन गये थे, पर मैं वहीं खड़ी थी। अब मुझे भी कुछ निर्णय लेना होगा ? कब तक सुलगती रहूँगीं मैं ? अगर परेश जी सकता है ? सुयश जी सकता है? तो मैं क्यों नहीं ? मन में एक इच्छा जागी कि एक जगह से मैं अपूर्ण थी, पर इसे पूर्णता में बदलना असभंव नहीं था। लंदन में रह कर मैने कुछ मित्र बनाये थे। उन सबने मुझे वहाँ की डॉक्टर भावना मोदी से मिलवाया। मैने भावना से अपनी इच्छा बताई। पर, जो मैं चाहती थी उसके लिये पति की सहमति आवश्यक थी, तब मैने भावना को अपनी सारी कहानी बता दी। भावना मेरी कहानी सुन कर द्रवित हो गई, उसने मेरा परिक्षण किया और अगले दिन आने को कहा। अपने फैसले पर मैं बहुत खुश थी। पहली बार मुझे अपनी स्वतंत्रता का अहसास हुआ। मेरे गर्भ में पल रहे, अंकुर से अनजान सुयश अब भी अपनी राह पर था। तब एक दिन घर में हो रहे पार्टी में मैने बड़े गर्व से अपने गर्भवती होने की बात बताई, सुयश बिल्कुल खामोश था। लोग उसे बधाईयां दे रहे थे, पर उसके हृदय के अंदर होने वाले हलचल को मैं अच्छी तरह से समझ रही थी। जीवन के अंधेरे क्षण में अपनी सार्थकता के लिये ये क्षण, मुझे बहुत बहुमूल्य लगे। तभी मेरे दर्प ने यह निश्चय लिया, यह सच मैं सुयश को तो बिल्कुल ही नहीं बताऊँगी? यह खबर मैने स्वयं अपने ससुराल में बताया। किसी की भी हिम्मत नहीं पड़ी कोई मुझसे पूछ सके कि यह बच्चा किसका है ? मंैने जो भी किया वह शरीर की भूख मिटाने के लिये नहीं किया। पुरुषों के समाज ने मुझे बेचा और खरीदा। मेने तो बस इस वर्ग से थोड़ा सा बीज खरीदा था। सुयश को मैं यह दर्शाती रही कि, मेरे जीवन में भी कोई है। पहली बार मैने सुयश को रोते हुये देखा, मुझे उस पर तरस नहीं आया, क्योंकि मैं पत्थर जो हो चुकी थी। हमें जाना एक साल बाद था पर गर्भ के कारण नहीं जा पाये। वहीं मैने अंकुर को जन्म दिया। मैने समय के बदलाव और रिश्तों की पीड़ा को, अपनी शक्ति बना लिया था, पर सुयश के लिये यह अवस्थायें बहुत दुखदाई थीं। फिर भी, वह मुझसे छुप कर अंकुर को प्यार करता था

हम भारत आ गये, यहाँ अंकुर का बहुत भब्य स्वागत हुआ, उसे बहुत प्यार मिलने लगा। मैं अब हर तरह से स्वतंत्र थी। सुयश बीमार रहने लगा था, अब किसी में इतना साहस नहीं था मुझसे अंकुर की सत्यता के बारे में पुछ सके।

निर्बल मानव का अंहकार बडा होता है पर जब टूटता है तो धराशायी हो जाता है। सास के गुज़र जाने के बाद, सुयश भी जल्दी परलोक वासी हो गया। मुझे उसके गुज़रने का दुख था, क्योंकि वह अंकुर का पापा था। अंकुर के जीवन में पापा की रिक्तता के लिये मुझे दुख हुआ! इसलिये, जब अंकुर ने राहुल के बारे में मुझे बताया, तब मैने फैसला लिया मैं  यह सच्चाई  राहुल की माँ को जरुर बताऊँगीं? मैं अंकुर को पत्थर बनने नहीं देना चाहती थी। राहुल की माँ ने ‘हाँ ‘करने में काफी समय लिया। अब आने वाला समय, अंकुर का होगा,राहुल का होगा, उनके सुनहरे भविष्य का होगा..!

डाॅ. मीरा रामनिवास, गाँधीनगर, मो. 9978405694


पत्ते की आत्मकथा

‘‘पत्ते का जीवन’’

गीता में श्री कृष्ण कहते हैं ‘‘पत्रं पुष्पं फलं तोयं‘‘ अर्थात मैं पत्र, फूल, जल अर्पण करने पर भी खुश हो जाता हँू।

मैं खुश किस्मत हँू। मैं पत्ता हँू। मुझे पान पत्र, पर्ण आदि नामों से भी जाना जाता है। मेरा जन्म वृक्ष की शाख पर होता है। वृक्ष मेरा घर है। कली, फूल, पत्ते, एवं वृक्ष पर रहने वाले पंछी मेरा परिवार हैं।

मैं कोंपल के रूप में जन्म लेता हूँ। मेरा ये रूप अति कोमल होता है। मेरी बाल अवस्था किसलय कहलाती है। मेरा रंग हरा है। इसी हरे रंग को धन-धान्य की समृद्धि के रूप में भारतीय झंडे में शामिल किया गया है। 

इस धरा पर शायद ही कोई और होगा जिसके मेरे जितने रूप और आकार होंगे। हर पेड़, पौधे पर मेरा अलग रुप होता है। छोटा, बड़ा, गोल, लंबा मेरे अनेक स्वरूप (आकार) हैं। मैं वृक्षों की शोभा व सुंदरता बढाता हँू। मेरे रंगरूप से ही वृक्षों की पहचान बनती है। पत्तों को देखकर आप वृक्ष की कल्पना कर लेते हैं।

फूलों की तरह मेरी भी अपनी सुगंध है। तुलसी, मरूवा, पुदीना, धनिया पत्ते स्वाद के साथ सुगंध भी देते हैं। हर पेड़ के पत्ते के रूप में मेरे स्वाद भी अलग अलग हैं। इमली के पत्ते में अम्ल (खट्टा) नीम के पत्ते में कटु (कड़वा) पालक, मेथी पत्ते में लवण, शतावरी, शालपर्णी के पत्ते में मधुर स्वाद लिए रहता हँू।

पंक्षी मेरे दोस्त हैं। मधुर कलरव से मेरा दिल बहलाते हैं। हवा मुझे रवानगी देती है। उसके संग खेलता हँू। गिलहरी मुझे गुदगुदाती है। 

मैं ब्रह्म मुहूर्त में जाग कर सूरज के आने की प्रतीक्षा करता हँू। सूरज को देखते ही मैं खुश हो जाता हँू। सूरज से मुझे ऊर्जा मिलती है। सूरज के प्रकाश से ‘‘प्रकाश संश्लेषण‘‘ क्रिया द्वारा भोजन बनाता हँू। पृथ्वी से कार्बन डाइऑक्साइड लेता हँू, बदले में आक्सीजन देता हँू। 

मेरा जीवन परोपकार के लिए बना है। जीवन भर सबके काम आता हँू। मैं पत्ता पशु पंछियों का भोजन बनकर उनकी भूख मिटाता हँू। मेरी उपस्थिति से ही वृक्ष छांव देते हैं। छांव में पशु, पक्षी, पथिक आश्रय पाते हैं। 

मनुष्य के जीवन में मेरा महत्वपूर्ण योगदान है। मनुष्य विविध पेड़ पौधे के पत्तों को औषधि के रूप में खाते हैं। तुलसी, नीम, आम, अशोक, पपीते पालक, मेथी के पत्ते का प्रयोग घर घर में होता है।

तुलसी, नीम, पुदीना, पपीता आदि के पत्तों में बहुत से औषधीय गुण हैं, इनके पत्तों का रस एवं चूर्ण बनाकर औषधि के रूप में उपयोग लिया जाता है। पान के रूप में मुख शुद्धि के लिए खाया जाता हँू। तमाल पत्र के रूप में रसोई में मसाले के रूप में खाने का जायका बढ़ाता हँू।

तुलसी पत्ता श्री हरि और बेल पत्र शिवजी को चढ़ाया जाता है। कोई भी शुभ प्रसंग हो, त्योहार हो घरों में अशोक और आम के पत्तों की वंदनवार बन कर दरवाजों पर सजता हँू। 

पलाश आदि के पत्तों से पत्तल (पत्तों की थाली) बनाने में मेरा उपयोग किया जाता है। पहले सामाजिक प्रसंगों में पत्तलों पर ही भोजन परोसा जाता था। दक्षिण भारत में आज भी केले के पत्ते का थाली की तरह उपयोग किया जाता है। 

मैं आप सब की तरह बाल्यावस्था युवावस्था और 

वृद्धावस्था जीता हँू। बसंत ऋतु मुझे सबसे प्रिय है। ये मेरा बचपन है। ग्रीष्म, वर्षा और शरद ऋतु मेरी युवावस्था एवं पतझड़ मेरी वृद्धावस्था है। पतझड़ के आने पर मैं पककर डाल से गिर जाता हँू। 

....डाल से बिछड़ते ही मेरी जीवन लीला समाप्त हो जाती है। कितनी बार पैरों तले रौंदा जाता हँू। सूख कर पशुओं का चारा बनता हँू। अंततः खाद बन मिट्टी में मिल जाता हूँ। 

डाल से जब कोई पत्ता गिरता है, दूसरे पत्ते भयभीत हो जाते हैं। न जाने अब किस की बारी है। प्रकृति के नियम अनुसार हम पत्ते एक एक करके गिरते रहते हैं।

पत्ते गिरने की प्रक्रिया मनुष्य को सीख देती है। सृष्टि में कुछ भी स्थाई नहीं है। जो आया है उसे समय आने पर जाना भी पड़ता है। पर्णकुटी (पत्तों से बनी कुटिया) के निर्माण में मेरा उपयोग किया जाता है!

श्रीराम भी वनवास के दौरान पर्णकुटी बनाकर रहते थे। आज भी भारत के कुछ क्षेत्रों में आदिवासी जनजाति समुदाय पर्णकुटी बनाकर रहते हैं।

जब कपड़ों का आविष्कार नहीं हुआ था तब मानव मुझसे ही अपने तन ढंकता था। आज भी जंगलों में बसते कुछ समुदाय पत्तों से तन ढकते हैं। 

कुछ कहावतें पत्तों पर बनी हैं। जैसे ‘‘ईश्वर की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता‘‘ ,‘‘तू डाल डाल मैं पात पात‘‘

हरि व्यापक सर्वत्र समाना अर्थात ईश्वर सब में रहते हैं। मेरे अंदर भी ईश्वर रहते हैं।‘‘पत्रे पत्रे सर्वो देवाः ‘‘पीपल के संदर्भ में कहा गया है कि पीपल के पत्तों में सभी देव निवास करते हैं।

अंत में मैं पत्ता आप सबसे नम्र निवेदन कर रहा हँू, कि मुझे जीवन देने के लिए ज्यादा से ज्यादा वृक्ष लगाएं। क्योंकि हरियाली से ही धरा पर खुशहाली है।  


डाॅ. सांत्वना श्रीकांत, नई दिल्ली, मो. 8826667950

संकीर्णता तोड़तीं औरतें

चाहे पूरे लिबास में

रहो या फिर उघड़ी,

तुम ताने बनती हो या

फिर बुनती हो ताने।

परिवार को समेटती

बिखर जाती हैं

इसी समाज में ये औरतें।

मर्यादा की ओट में

हर रोज बलात्कार का

दंश झेलती हैं औरतें।

शून्य होकर भी 

बचा लेती हैं अस्तित्व

इस खोखले समाज का

और रच लेती हैं

एक भरा-पूरा संसार।

स्वयंसिद्धा है वह,

पिता के न होने का

गम भी ढो लेती हैं,

परिवार के लिए निभाती हैं

कई-कई किरदार,

पिता की देहरी लांघ

चुनौतियां देती हैं यही औरतें

अपनत्व लुटा कर भी

रह जाती हैं खाली हाथ।

कभी तीक्ष्ण, कभी मध्यम

सहती हैं कई प्रकार,

फिर भी दृढ़ प्रतिज्ञ

रहती हैं ये औरतें।

कभी तिरस्कृत होतीं

तो कभी देतीं अग्निपरीक्षा,

कभी कही जाती हैं

कुलटा और कर्कशा।

मगर सुनो समाज-

संकीर्णता को तोड़ती हैं

असीम संभावनाओं से भरी

हम सभी औरतें।

जितना करोगे दमन उसका,

बन कर देवी स्वरूपा,

खड़ी होंगी तुम्हारे सामने

कई रूपों में

हर बार ये औरतें



श्री प्रकाश सिंह उर्फ मनोज कुमार सिंह, मेघालय, मो. न. 9436193458

कहानी

घर वापसी

मैंयूदीन गाँव मुस्लिम बहुल आबादी वाला गाँव है, जहाँ कभी हिंदुओं की भी अच्छी-खासी आबादी रहती थी। गंगा-जमुनी तहजीब की खूबसूरती वाला यह गाँव सांप्रदायिक सौहार्द का जीता-जागता उदाहरण था। 

लगभग पंद्रह हजार आवादी वाले इस गाँव में अब आधे से कुछ ही अधिक की अवादी रह गई है, जिसमें मुस्लिम आवादी अधिक है। हिंदुओं की आवादी अब ना के बराबर है। मुस्कुराते रहने वाला यह गाँव अब अवसाद में डूबा नज़र आता है। हरा- भरा यह गाँव अब विरान-सा है। कभी जगमगाता यह गाँव अब जलकर काला पड़ गया है। चहल-पहल से भरे अनेक घरों में अब मौन चीख सुनाई पड़ती है, एक झटके में गाँव का सबकुछ लूट जाने के बाद अगर कुछ शेष है तो वह है- अतीत की खट्टी-मीठी स्मृतियाँ। रहमान चाचा का अपना तो कुछ नही लूटा, पर जो लूटा वह अपनो से  कम भी नही था। उसे खो जाने का ग़म उनके हृदय को तार- तार करके रख दिया था।

रहमान चाचा का परिवार उस गाँव के सभ्य परिवारों में से एक है। गाँव के सभी लोग उस परिवार को बहुत आदर की दृष्टि से देखते हैं। रहमान खाँ अब पच्चपन-साठ साल के वयोवृद्ध हैं, सम्मान से सभी उन्हें रहमान चाचा पुकारते हैं। उन्हीं के पड़ोस में रामाकाँत पाँडे का भी परिवार रहता था। रहमान चाचा और रामाकाँत पाँडे दोनों घनिष्ट दोस्त थे। चाहे ईद हो या होली अथवा दीपावली, दोनों के बिना दोनों का त्योहार अधूरा ही रहता था। इनके रिश्तों में इनका धर्म- मजहब कभी आड़े नही आए। समय बीतने के साथ-साथ इन दो परिवारों की घनिष्ठता भी परवान चढ़ रही थी। और खास बात यह थी कि इन दोनों परिवारों की नई पीढ़ियाँ भी इस रिश्ते को आगे बढ़ाने में किंचित पीछे नही थीं। जिससे कि यह परवान चढ़ता रिश्ता अब आसमान छूने लगा था।

इन्हीं नई पीढ़ियों में रहमान चाचा की सबसे छोटी लड़की सकीना और रामाकाँत पाँडे का इकलौता पुत्र-सौरभ का नाम काफी चर्चित और यादगार है। ये दोनों बचपन से ही एक दूसरे से काफी हिल-मिल गये थे। एक साथ खेलना- खाना, हंसना-बोलना बरबस देखा जा सकता था। दोनों बचपन से ही बहुत शरारती थे-दोनों के बीच नोक-झोक और लड़ाई-झगड़े भी खूब होते थे। सकीना पढ़ने मदरसे जाया करती थी और सौरभ गाँव के ही एक काँन्वेंट स्कूल में जाता था। स्कूल से छुटते ही दोनों फिर से एक साथ हो जाते। धर्म-मजहब, सामाजिक रीति-रिवाज, एवं दुनियादारी से अनभिज्ञ दोनों मासूम बच्चे अपनी छोटी-सी दुनिया में बहुत खुश थे। उनके लिये मंदिर- मस्जिद में कोई भेद नही था। इस प्रकार ये दोनों बच्चें अपने दोनों परिवारों के साथ उस गाँव में एक ऐसे मजहब की नींव रख रहे थे जिसमें अल्लाह की इबादत और ईश्वर की पूजा दोनों ही शामिल थीं। उनकी मासूम खिलखिलाहट में अज़ान और स्तुति के छंद फूटते थे।

समय बीतने के साथ-साथ दोनों बच्चे बड़े हो गये। दोनों गाँव के हाई स्कूल में ही एक साथ पढ़ते थे। लेकिन उनकी मासूमियत, उनकी शरारत यथावत बनी रही, या यूं कहंे कि इसमे और इज़ाफा हो गया था। एक-दूसरे को तंग करने में दोनों को बहुत मज़ा आता था। और उनकी यह हरक़त स्कूल, घर, हाट, बाज़ार हर जगह देखने को मिल जाती थी। दोनों दुनियादारी से बे-खबर अब भी अपनी ही दुनिया में मशगूल रहते थे। पर दुनियादारी का चश्मा पहने उस गाँव में धर्म और मज़हब के कुछ ठेकेदरों की नजरों में सक़ीना और सौरभ की मासूमियत में अब कुछ दाग़ दिखने लगे थे। उन दाग़ों को समाज में आये दिन घटित कुछ घटनाएं जैसे लव जिहाद, सांप्रदायिक दंगे आदि और गाढ़ा कर रहे थे, जिसे अपने-अपने तरिके से धोने के लिए दोनों समुदाय के कुछ सामाजिक ठेकेदार अपनी ओछी मानसिक पृष्ठभूमि के जहरीले तालाब का इस्तेमाल करने का प्रयास करने लगे।

रहमान चाचा को यह अनायास ही सुनने को मिल जाता कि सकीना सयानी हो गई है, अब बच्ची नही रही, उसे किसी गैर धर्म के लड़के से इस कदर मिलना- जुलना ठीक नही है- समय खराब हो चला है। कहीं कुछ उंच- नीच हो गयी तो......?“ 

ऐसा कहने और सोचने वालों का इशारा सौरभ के लिए होता था। ऐसी बचकानी बातें सुनकर रहमान चाचा को गहन पीड़ा होती, पर किसी की सोच को वे बदल तो नही सकते- बेचारे मन मारकर रह जाते।

इसी तरह हिंदू समुदाय के भी कुछ बिन बुलाये मेहमान बिन माँगे उपदेश देने रामाकाँत पाँडे जी के पास आ जाते और सौरभ तथा सकीना के बारे में अनाप-शनाप बकने लगते। उनकी बातंे सुनकर रामाकाँत पाँडे को दुख भी होता और हंसी भी आती। वे भी रहमान चाचा की तरह एक कान से सुनते और दूसरे कान से निकाल देते। क्योंकि दोनों परिवारों के संबंधों की पृष्टिभूमि आत्मिक थी। और यही आत्मियता उन दोनों बच्चों की मासूमियत में दिखती जिसे रहमान चाचा, रामाकाँत पाँडे तथा उनके परिवार के अतिरिक्त कोई अन्य नहीं समझ सकता था। समझे  भी कैसे, जो जिस ज़मीन पर खड़ा होता है, वैसा ही उसका ज़मीर भी होता है।

समय बीतने के साथ-साथ दोनों समुदाय के कुछ लोगों की आँखे दिन-प्रतिदिन अंधी होती गईं और सकीना तथा सौरभ के प्रति उनकी विषाक्त सोच पत्थर बनकर उनके खुद की आँखों में चुभने लगी। अब उनके मन के अंदर सांप्रदायिक सोच की चिंगारी जन्म ले चुकी थी जिसमें घी डालने का काम कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने के उद्देश्य से फैलाये जाने वाले अवाँछित सांप्रदायिक अफवाह जैसे गो हत्या, लव जेहाद आदि ने किया। सांप्रदायिक सौहार्द के लिए जाने वाला यह गाँव देश के विभिन्न हिस्सों में घटने वाली कुछ तथाकथित घटनाओं एवं उस पर अपनी सियासी रोटी सेकने वाले राजनीतिज्ञों अथवा धर्म एवं मजहब के ठेकेदारों के विवादित तथा भड़काऊ बयानों के पड़ने वाले मनोवैज्ञानिक प्रभावों से अछूता नहीं रह सका। परिणामतः सकीना और सौरभ दोनों ही दोनों समुदाय के धर्म और मजहब की लड़ाई के मुख्य किरदार बन गये थे।

उस गाँव में हर वर्ष एक बहुत बड़ा मेला लगता था। इस मेले की शुरूआत वर्षों पहले क्षेत्रीय लोगों के परस्पर सहयोग से आपसी भाईचारा एवं सांप्रदायिक सौहार्द को बढ़ावा देने के उद्देश्य से आयोजित किया जाता था, जिसमे हिंदू और मुस्लिम बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे। बड़े-बड़े धर्माचार्य और मौलबी एक ही मंच से हिंदू- मुस्लिम दर्शकों को मानवता, भाईचारे तथा साँप्रदायिक सौहार्द को बनाये रखने का उपदेश देते  और धर्म के वास्तविक रूप से अवगत कराते थे। 

उस वर्ष भी हर वर्ष की भाँति मेला लगा हुआ था। हर बार की तरह इस बार भी धार्मिक एवं सामाजिक मंच सजे थे, लेकिन परम्परा से हटकर मुस्लिम और हिंदु धर्गुरूओं के लिए अलग-अलग मंच थे, और दोनों खेमें से संबंधित समुदाय के लोग अपने-अपने खेमे के श्रोता थे। यह सामाजिक और सांप्रदायिक विघटन का स्पष्ट संकेत था और सबसे दुखद  बदलाव। सबसे चैकाने वाली बात यह थी कि जहाँ पिछले वर्षों दोनों तरफ से आपसी भाई चारे, प्रेम और सौहार्द विषय पर बल दिया जाता था, इस बार दोनों समुदायों के धर्म गुरूओं द्वारा एक दूसरे पर पहली बार विवादित बयान दिये जा रहे थे जिससे दोनों समुदाय के लोगों पर बुरा असर पड़ रहा था।

मेला अपने उत्कर्ष पर था- लोगों से खचाखच भरा था। मेले में बूढ़े, बच्चे, नव जवान सभी उमंगित थे। 

शाम का समय था- लगभग चार बज रहे थे। सौरभ को पता चला कि सकीना रहमान चाचा के साथ मेले में गई है, उसे ढूंढते वह भी मेले मे आ पहुंचा। उधर सकीना अपने अब्बा के साथ मेला घुमते हुये गोलगप्पे खाने के लिये गोलगप्पे की दुकानों की तरफ बढ़ रही थी। इसी बीच रहमान चाचा ने सकीना से वहीं ठहरने के लिये कहकर किसी दुकान से अपने लिये अपने सिगार का कुछ समान लेने चले गये। सकीना वहीं खड़ी इधर-उधर देख रही थी तभी उसकी नज़र एक ठेले से गोलगप्पा खा रहे सौरभ पर पड़ी। सौरभ को देखते ही वह कौतुक हो गई और दौड़कर उसके पास पहुंच गई। वह शरारती तो थी ही, शरारत भरे अंदाज में सौरभ को छेड़ते हुये बोली-“चोट्टा कहीं के, चुपके-चुपके गोलगप्पे उड़ा रहा है ! इसका दंड तुम्हे मिलेगा। जितना गोलगप्पा तुम खाये हो उससे दो गुना गोलगप्पा तुम्हें मुझे खिलानी पड़ेगी- समझे ! चल, सच- सच बता, अभी तक कितने गोलगप्पे खाया है तुमने ?” सौरभ भी कम शरारती नही था,बोला- “सौ गोलगप्पे। बोल, दो सौ गोलगप्पे खाओगी ?” दोनों का यह रक - झक देखकर ठेले वाले को हंसी आ गई। वह हंसकर बोला- “अरे बिटिया, हम बताते है, इस बेटे ने हमें पाँच रूपये दिये थे, पाँच गोलगप्पे के लिये। अभी  चार खाया है- ये अंतिम पाँचवा बना रहा हूं।“ सकीना सौरभ को चिकोटी काटते हुये बोली- “क्यों रे, हमें उल्लू बना रहे थे ? चल हमे 10 गोलगप्पे खिला।“

शरारती सौरभ के मन में एक और शरारत जगी, बोला- “देख सकीना, मैं पाँच के बदले 10 गोलगप्पे खिलाने के लिए तैयार हूं, लेकिन मेरा भी एक शर्त है। शर्त यह है कि हमने जितनी तीखी मिर्च वाले गोलगप्पे खाई थी, उससे दो गुनी मिर्च तुम्हें भी खानी होगी। बोल तैयार हो ? हिम्मत हो तो हाँ बोलो !“ बाल सुलभ स्वभाववश सकीना सौरभ की चुनौती को स्वीकार कर ली। बोली- “चल ठीक है- तुम्हारा कोई बहाना मेरे सामने नही चलेगा।“ सकीना चहककर अति उमंग में सौरभ को तिरछी नजर से देखत हुये ठेले वाले से बोली-  “अयूब चाचा, इसे पता नही है, मैं झालदार गोलगप्पे ही खाती हूं। आप दो गुने से अधिक मिर्च वाला गोलगप्पा बनाइयेगा !” गोलगप्पे वाले ने गोलगप्पे में थोड़ी कड़ी मिर्ची डाल दी और सकीना को एक-एक कर थमाने लगा। दो-तीन गोलगप्पे खाने के बाद तीखी मिर्च के कारण उसकी आँखों से झर-झर आँसू गिरने लगे- उसकी जीभ जलने लगी, उसके मुँह पर लालिमा छा गई। उसकी यह हालत देखकर सौरभ जोरों से हंस दिया। सकीना जान गई कि सौरभ की शरारत समझ गई थी, अब उसकी बारी थी। उसने सौरभ का काँलर पकड़कर उसे झकझोरते हुये कहा-  “क्यों रे, हमें पागल समझ रखा है, अब मै तुझे नही छोडूंगी। चल, ये सारे गोलगप्पे खा के दिखा, तब जानूं कि तुम कितनी तीखी मिर्च खाने वाले हो, तुम्हे खाना ही पड़ेगा।“ गोलगप्पे वाले अयुब खाँ और सौरभ दोनों हंस रहे थे। सौरभ सकीना के जिद्द से बचने के लिये उसका हाथ छुड़ाकर भागा और उसके पीछे सकीना भी। दोनों के इस बाल-खेल पर कुछ उन मुस्लिम लोगों की तिरछी नज़रें पड़ीं जो मज़हबी रूप से दूसरे समुदाय के प्रति पूर्वाग्रस्त थे। उनकी सोच में खोट था, उनके विचार में दोष था। सौरभ को भागते तथा सकीना को उसका पीछा करते देखकर उन लोगों ने चिल्लाना शुरू किया- “पकड़ो- पकड़ो, उसे पकड़ो, वह लड़की छेड़कर भाग रहा है। उसकी इतनी मजाल जो सरे बाज़ार हमारी लड़की को छेड़े। उसकी इतनी हिम्मत हुई कैसे...“ 

इस शोर-शराबे को समर्थन मिलता गया। अब दोनों समुदाय के लोगों की अच्छी-खासी भीड़ इकट्ठी थी। दोनों तरफ से प्रतिक्रिया शुरू हो गई। देखते ही देखते यह झगड़ा संप्रदायिक दंगे में बदल गया, हिंसक गतिविधियाँ एवं आगजनी होने लगी। जिसको जो मिलता उसी से एक दूसरे पर प्रहार करता। हंसता हुआ सजा-धजा मेला धूं- धू जलने लगा। देखते ही देखते मेला श्मशान में तब्दील हो गया। यह संपदायिक दंगे की आग जंगल की आग की तरह फैलती जा रही थी। सकीना और रहमान चाचा यह सब देखकर सदमाग्रस्त थे। ठेले वाला भी हैरान था। भीड़ से वह भी कुछ कहना चाह रहा था, लेकिन उसे सुनने के लिये कोई तैयार नहीं। सभी अपने-अपने कौम के नाम पर एक दूसरे का काल बन गये थे। जिधर देखे उधर लाश ही लाश।

मेले में लगी यह हिंसक आग की चिंगारी मैंनूदीन गाँव तक जा पहुंची थी। गाँव के अल्पसंख्यक हिंदू अपनी जान बचाने के लिए गाँव छोड़कर कही और भाग रहे थे। एका- दुक्का बचे हिंदू भी जल्दी से जल्दी गाँव छोड़ने की तैयारी में थे।

हिंसा को नियंत्रित करने के लिये सेना बुलाई गई। काफी मशक्त के बाद स्थिति पर काबू पाया गया। पुलिस और सेना घायलों को हाँस्पेटल पहुंचा रही थी। सौरभ को भी  बुरी तरह घायल अवस्था में हाँस्पीटल पहुंचाया गया था, उसकी स्थिति नियंत्रित थी। और उसका परिवार हिंसा पीडितों के लिये लगाये गये कैंप में सुरक्षित था। 

इधर रहमान चाचा सकीना के साथ अपने घर पहुंचे- गाँव की स्थिति वीभत्स थी। यहाँ भी चीख-पुकार मची थी। कितने घर जलकर राख हो गये थे, तो कितने घर अभी भी धूं-धूकर जल रहे थे। उन्ही घरों में से एक उनके प्यारे मित्र रामाकाँत पाँडेय का भी घर था। यह देखकर रहमान चाचा चीत्कार कर उठे। वे व्याकुल नज़रों से रामाकाँत के परिवार को तलाश रहे थे, लेकिन उनका कोई सुराग नही मिला। अपने गाँव की भयानक स्थिति देखकर वह सिर पकड़कर वहीं बैठ गये और फूट-फूटकर रोने लगे जैसे कोई अपने जन की चिता में अपने हाथों आग लगाने के बाद हिचकोले खाकर रोने लगता है।

कुछ दिनों के बाद सौरभ हाँस्पीटल से डिस्चार्ज हो गया, और रामाकाँत पाँडे अपने पूरे परिवार के साथ अपने बड़े भाई के पास इलाहाबाद आ गये थे, और वहीं रहने लगे।

इधर अब गाँव की स्थिति सामान्य हो चुकी थी। एक दिन रहमान चाचा सहित गाँव के नेक एवं उदार विचार वाले कुछ प्रबुद्ध मुस्लिम लोगों ने अपने पूरे गाँव के मुस्लिमों की सभा बुलाई, जिससे कि इस घटना पर मंथन हो सके और इसके कारणाँ के जड़ तक पहुंचा जा सके। निर्धारित दिन को नियत समय पर गाँव की एक मस्जिद में पूरे गाँव के मुस्लिम इकट्ठे हुये। सभा को संबोधित करते हुये रहमान चाचा ने कहा “यह सभा एक शोक सभा है। इस गाँव में जो कुछ घटित हुआ वह न सिर्फ शर्मनाक है, अपितु कभी न धुल पाने वाला कलंक भी। इस गाँव के स्वर्णिम इतिहास पर कालिख पुत गई है। हमारे बीच जो कुछ हुआ वह मानवता को शर्मसार कर देने वाला है- इसकी भरपाई कभी नही की जा सकती है। हमारा वर्तमान तो झुलस गया, भविष्य सुरक्षित रहे इसकी चिंता करते हुये यह आवश्यक हो गया है कि हम इस बात का मंथन करें कि हमसे कहाँ कौन-सी चूक हो गई जो दोबारा ना हो। खैर इसकी बात हम बाद में करेंगे। सर्वप्रथम हम दो मिनट मौन रहकर सभी दिवंगत आत्माओं की शाँति के लिये अल्लाह से प्रार्थना करें।“ सभी ने अपने स्थान पर खड़े होकर दो मिनट का मौन रखा। 

मौन भंग करते हुये रहमान चाचा ने सकीना को अपने बगल में खड़ा करके बोले,“ इस घटना का सबसे अधिक गुनाहगार मैं हूं, क्योंकि इस घटना का कारण मेरी बेटी ही है। अतः मेरी गलती के कारण निर्दोषों की हत्याएं हमें कबूल नही। इसलिए, आप सभी से निवेदन है कि आप हमारी इस गलती के लिए हमें कठोर से कठोर सजा दें।“

रहमान चाचा की यह बात सुनकर सभा में उपस्थित सभी सन्न रह गये। उनमें से कुछ ने कहा- “नही रहमान चाचा, यह आप कैसी बात कर रहे हैं ? इसमें न आप दोषी हैं और न हमारी बिटिया सकीना। अरे, इसमे तो दोषी वही लफंगा रामाकाँत पाँडे का छोरा सौरभ ही है। वह हमारी बिटिया को सरेआम मेले में छेड़ रहा था। उसकी इतनी मजाल ! हमारी बहन बेटियों पर बुरी नज़र रखने वालों की आँख निकालकर हम उनके हाथ में थमा देंगे।“ इन लोगों की बातों को समर्थन करते पीछे से सामूहिक आवाज आईकृ-हाँ, हाँ, उसकी इतनी माजाल कि कोई हमारे घर की औरतों को छेड़ दे।

रहमान चाचा ने गंभीरता से कहा- “क्या यही कारण है कि कुछ और ? हमें तो ऐसा लगाता है कि यह आप सब की सोच का नतीजा है। आप सबने जैसा सोचा वैसा देखा। आप सब ने यही देखा न कि सौरभ भाग रहा है और सकीना चिल्लाते हुए उसका पीछ कर रही है ?”

पीछे से आवाज आई “हाँ !” तो क्या इससे यह जाहिर हो जाता है कि सौरभ ने सकीना को बुरे भाव से छेड़ा है ?” रहमान चाचा ने सीधा प्रश्न किया।

रहमान चाचा की बात सुनकर सभी मौन हो गये। रहमान चाचा ने आगे कहा- “ऐसी लूका- छिपी, ऐसे नोक- झोक और इस प्रकार के भाग- दौड़ तो इन दोनों में हम बचपन से देखते आये हैं, लेकिन हमें तो सौरभ में ऐसा कुछ नही दिखा- शायद मैं अंधा था ?” पीछे से एक बृद्ध की आवाज़ आई- “अरे रहमान, बचपने की बात कुछ दूसरी थी, अब ये बच्चे नही ंरहें- बात समझा करो। यह बात हम सबने तुम्हे कितनी बार समझाई, पर तुम ध्यान नही दिये !“

रहमान चाचा आह भरते हुये- “वाह काका वाह ! सही कहा आप ने ! इसीलिए तो कहता हूं कि सारी की सारी गलती मेरी है। हमने आप सब की बात नही मानी, अनसुनी कर दी। अगर मान गया होता तो यह घटना नही घटित होती। अतः मेरी गलती की सजा आप क्या देते है फिरोज काका ? आप जो भी सजा सुनायेंगे, हम भुगतने के लिए तैयार हैं।“

“यह तुम्हारी गलती नही, नादानी है रहमान !“ मुहम्मद फिरोज ने कहा। रहमान चाचा आहत होकर बोले- “काका आप को मेरी गलती में नादानी दिख रही है, इसलिए की मैं आप के कौम का हूं, आप का अपना हूं। लेकिन जो सचमुच नादान हैं वे आप को बड़े व्यस्क और व्यभिचारी दिख रहे हैं क्योंकि वह दूसरे कौम के हैं। यह आप का सोचने का नज़रिया ठीक नहीं है काका ! माना कि बच्चों ने गलती कर दी, लेकिन आप तो बड़े- बुजुर्ग हैं, जब आप की ही नज़र संप्रदायिक हो जायेगी तो हमारे नवयुवक ऐसे ही उन्माद फैलायेंगे।“

लगा कि दोनों में बात बढ़ रही है तभी तीसरे व्यक्ति ने कहा- अरे भाई, इस तरह आपस में नोक- झोक ठीक नही है। यह जानने की कोशिश तो करें कि उस दिन क्या हुआ था ? बिना कारण जाने किसी निष्कर्ष पर पहुंचना ठीक नही।”

गोलगप्पे वाले अयूब खाँ उसी गाँव के थे। वह भी उस सभा में उपस्थित थे। लोग उनसे कुछ पूछते कि वे हाथ जोड़कर खड़े हुये और बोले, “मैं खुदा के स्थान पर हूं- मैं एक शब्द भी झूठ नही बोलूंगा। मैंने जो देखा और जो समझा उसे ही बयाँ करूंगा।“

अयूब खाँ ने सारी बातें विस्तार से बताई। उन्होंने कहा कि मैंने तो इन दोनों बच्चों में कोरा बचपना देखा, मासूमियत देखी। एक निष्कपट बालक का प्यारा रूप देखा। और सच कहूं तो इनकी शरारत में मैं भी शामिल था। पता नही, औरों को यह रूप क्यों नही दिखा। मैं तो खुद ही हत्प्रभ था उस मासूम पर लोगों का ताँडव करते देख। मैं सबकुछ बताना चाहता था लेकिन कोई मेरी सुने तब तो। उस दिन सबके सिर पर भूत सवार था। मैं दो कौड़ी का आदमी हूं, छोटी मुँह बड़ी बात कर रहा हूं। ऐसा कोई कारण नही था, जिससे कि बात बढ़ती। पता नहीं मैं कौन पाप किया था कि आज ठेले पर गोलगप्पा बेच रहा हूं, अगर झूठ बोलूंगा तो खुदा हमें जहन्नुम दें।“ इतना कहते अयूब खाँ की आँखें नम हो गईं।

अयूब खाँ की बात सुनकर सभा में सन्नाटा छा गई। सकीना अपने अब्बा से लगकर रोने लगी। पंचायत के सदस्य गंभीर हो चुके थे। लोगों के मन से गलतफहमियों का बादल छट चुका था। अगर कुछ शेष रह गया था तो उनकी आत्मा को झकझोर देने वाला अपराधबोध। 

उनके अंदर के सांप्रदायिक शोले अब प्राश्चित के आँसू बनकर उनकी आँखों से झर रहे थे। उनकी अतीत की भूल अब आह बनकर उनके होठों पर छा रही थी। वहाँ उपस्थित किसी को भी रहमान काका से नज़रें मिलाने की हिम्मत नहीं हो रही थी।

रहमान चाचा पुनः कराहकर बोले- “भाई, हमारे इस कुकृत्य से न सिर्फ हमारा गाँव जला है, अपितु इस हिंसा का विषाक्त धुंआ जहाँ-जहाँ पहुंचा होगा, सांप्रदायिक सौहार्द के वातावरण को विषैला कर दिया होगा। कुछ अपराध ऐसे होते हैं जिसे माफ नही किया जा सकता, उसकी प्राश्चित नही हो सकती। और कुछ क्षति ऐसी होती है जिसकी भारपाई नही की जा सकती। लेकिन आत्मा की शुचिता के लिये प्राश्चित की ईमानदार प्रक्रिया में खुद को तो तपाया जा ही सकता है। जरूरत है कि हम सभी उसी प्रक्रिया से गुज़रें।“

रहमान काका की बात से सभी सहमत थे, बोले-“ काका, हमें अब क्या करनी चाहिए ?”

रहमान चाचा लंबी साँस भरते हुये बोले, “देखिए ! जो इस दुनिया से चले गये, उन्हें तो हम वापस ला नही सकते, पर जो इस दुनिया में हैं, उन्हें वापस लाने का प्रयास तो कर सकते हैं। मेरी सलाह है कि हम यही करें।“

“उन्हें वापस लाने के लिये हम कर ही क्या सकते हैं रहमान ? कौन कहाँ है, इसका भी तो पता नही ताकि वहाँ जाकर उनसे अनुनय- विनय करके ससम्मान उनकी घर वापसी करा सके।“ एक बुजुर्ग ने कहा।

रहमान चाचा बोले- “ अगर वे लोग आ भी जायें तो रहेंगे कहाँ ? उनका घर, द्वार, खेत- खलिहान सब तो हमने तबाह कर दी है। हमने उन्हें घर से बे-घर कर दी। उनकी जान भी गई और धन भी। उनका जान तो हम वापस नही दे सकते- धन की कुछ भरपाई कर सकते हैं। तो हम सबसे पहले यही करें। मेरी मानिए, अगर आप सचमुच अपना भूल सुधार करना चाहते हैं तो आइए हम सभी मिलकर अपने तन-मन- धन से उन्हें पुनः बसाने का प्रयास करें। जो हमने बर्बाद कर दिया उसे आबाद करें। इसके लिये हमें कहीं भीख भी माँगनी पड़े तो वह भी करें। उन्हें वापस लाने के पहले उनका घर बनावाया जाय।“

सभी ने एक स्वर में कहा- “अच्छा विचार है, हम ऐसा ही करेंगे।“

गाँव के सभी मुस्लिम लोग इस काम में लग गये। जिसके पास जितना सामथ्र्य था, उतना धन इस कार्य के लिए दिये। और बाकी की भरपाई गाँव- गाँव में चंदा माँगकर की गई, जिससे यथा संभव जले हुए अधिकाँश घरों का पुर्निमाण कार्य संपन्न हो गया। इस कार्य को पूरा होने में लगभग दो साल लग गये थे।

अब एक बार फिर से उसी मस्जिद में गाँव के मुसलमानों की सभा बुलाई गई और निर्णय लिया गया कि जो लोग यह गाँव छोड़कर चले गये हैं उन्हें वापस बुलाने के लिये  विभिन्न समाचारपत्रों के माध्यम से सामूहिक रूप से उनसे माफी माँगते हुये यह आग्रह किया जाय कि वह अपने गाँव लौट आयें।

इधर रामाकाँत पाँडे अपने गाँव को भूला नही पाये थे। गाँव छोड़ने का दुख उनके मन में हमेशा बना रहा। जिस मिटी से उनके पूर्वजों की खूशबू आती हो, खट्टी-मिट्ठी अनेक यादें जुड़ी हों, उसे वे कैसे भूला सकते थे। अपने बचपन के मित्रों, उनके साथ बिताये पल, हर पल उनके मन को खटखटा जाते और एक साथ बहुत कुछ कह जाते। गाँव की मंदिर की घंटी की मधुर ध्वनि आज भी हर सुबह- शाम उनके कानों में झंकृत हो जाती और मंदिर का मनोरम परिदृश्य उनके मानस पटल पर छा जाता। अपने प्रिय मित्र रहमान के साथ उनका उठना-बैठना, और घंटो गप्पे लड़ाने की मधुर स्मृति आते ही अनयास उनका हंस देना अक्सर ही देखा जा सकता था। भले ही उनका शरीर अपने गाँव से कोसों दूर हो पर उनकी आत्मा आज भी गाँव में ही बसती थी। उनकी अंतिम इच्छा यही थी कि जिस मिटी में उनका जन्म हुआ, अंत भी उसी मिट्टी में हो। लेकिन अब यह असंभव जान वह व्यथित हो जाते। वह भयावह दृश्य जीवंत हो उन्हे डरा देता- वह काँप जाते......

आज रामाकाँत पाँडे को रहमान काका बहुत याद आ रहे हैं। उनके गले लगना-सेवईयाँ खाना उन्हें बहुत  याद आ रहा है। और एक बार फिर से रहमान चाचा के गले लगकर उनका कुशल- क्षेम पूछने के लिए उनका मन मचलने लगा है। लेकिन उन्हें कुछ ही पल में यह एहसास हो जाता है कि यह एक सुखद ख्वाब है- हकीकत तो बहुत डरावनी है।

सुबह का समय है। मन बहलाने के लिये चाय की चुस्की के साथ रामाकाँत पाँडेय अखबार के पन्ने पलट रहे हैं। तभी उनकी नजर अखबार की एक मोटी हेडिंग पर पड़ी। मोटे- मोटे अक्षरों में लिखा था “ घर आ जा परदेशी तेरा गाँव बुलाये रे।“ रामाकाँत जी की नज़रें वहीं ठहर गई। वह ध्यान से पढ़ने लगे। लिखा था -आप के बिना घर-आँगन सूना-सूना है। खेत-खलिहान भी रो रहे हैं। ताल-तलैया सभी आर्तनाद कर रहे हैं। पक्षियों का कलरव भी नहीं सुनाई देता। फूलों में पहले जैसी मुस्कान नही, खूशबू भी नहीं। आप के आँगन की तुलसी सूख रही हैं। गाँव की मिट्टी रो रही है। हवाएं आह भरती सिसक रही हैं। रातें साँय- साँय कर रही है। गाँव की मंदिर में घंटी भी नही बज रही। मस्जिद भी चीख रही है। गंगा की धाराओं में ऊँ की प्रतिध्वनि भी नही हो रही। आप के एक अंजुल जल के बिना सूर्य देव प्यास से तप रहे हैं। गाँव में मेला भी नही लग रहा है। वाल- वृद्ध- नव जवान, घर-द्वार, खेत- खलिहान,पशु- पक्षी, पुष्प- पाषाण सभी आप से यही कह रहे हैं-“घर आ जा परदेशी, तेरा देश बुलाये रे।“ 

आप का मैंनूदीन गाँव

यह पढ़ते ही रामाकाँत की आँखों में खुशी के आँसू छलक पड़े। वे खुशी से चिल्लाए- अरे, सौरभ की माँ, जरा इधर आ रे। सौरभ, अरे ओ सौरभ ! तू भी आ, जल्दी आ“

वर्षों बाद रामाकाँत पाँडे की आवाज़ में खुशी थी, और चेहरे पर चमक। खुशी में उनका इस तरह चिल्लाना सौरभ और उसकी माँ के लिए किसी कौतूहल से कम नही था। वे शीघ्र रामाकाँत के पास आये। रामाकाँत ने उनकी तरफ अखबार बढ़ाते हुए बोले- देख, देख ! क्या लिखा है। सौरभ और उसकी माँ उसे पढ़ते ही मुस्कुरा उठे- लगा उनकी मनवाँछित मुरादें पूरी हो गई हों। 

रामाकाँत मुस्कुराते हुये बोले- सौरभ की माँ अब क्या सोचती हो, गाँव चलने की तैयारी कर, अपना गाँव बुला रहा है। 

आज ईद है। सभी, सभी से गले मिल रहे हैं, और एक दूसरे को मुबारकबाद दे रहे हैं पर इस मिलन में सुनापन था, खालीपन था क्योंकि उस मिलन में वे बाँहे फैली नही दिखती जो कभी वर्षों पहले हिंदुओं की होती थी। रहमान चाचा भी मन में आह लिये सभी से गले मिल रहे थे, तभी अचानक एक बाँह उनकी तरफ बढ़ी और पूर्णरूप से उन्हें अपने सीने में भींच लिया। रहमान चाचा भी सहज रूप से उनके गले लग गए, तभी पीछे से करतल ध्वनि से वातावरण गूंज उठा। यह करतल ध्वनि रहमान काका को असामान्य लगी। उन्होंने अपनी नजरे उठाई और गले लगाने वाले व्यक्ति पर गड़ा दी। अरे, यह क्या! यह तो रामाकाँत है। जैसे वह सपना देख रहे हों। उन्हें मानों अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं था। वे अपनी आँखे मिसते हुये आँखें फाड़कर एकटक  रामाकाँत को देख रहे थे। रामाकाँत मुस्कुरा रहे थे, उनकी आँखों से आँसू झर रहे थे- लग रहा था कि वर्षों का जमा प्रेम अचानक पिघल गया हो और उनकी आँखों से बरसने लगा हो। रहमान चाचा चिल्ला उठे, अरे रामाकाँत, तू! आ गया रे!! तेरी राहें देखते- देखते मेरी आँखें पत्थरा गई थी । कहाँ चले गये थे मुझे छोड़कर”। 

रहमान चाचा ने रामाकाँत पाँडे के काँलर को पकड़कर झकझोरते हुये कहा-जाओ, तुमसे नही बोलते। धोखेबाज़, दोस्त बनते हो ! बिना बताये गाँव छोड़कर भाग गये थे। कभी याद किया इतने दिनों में कि मै मर रहा हूं या जिंदा हूं- किस हालत में हूं। कहते-कहते रहमान काका रामाकाँत को अपनी बाँहों में भींचकर उनके कंधे पर माथा रखकर सिसकी भरने लगे। दोनों मित्रों की आँखों से झर-झर बरसात हो रही थी। और उस बरसात में धुलकर सबका मन पावन हो रहा था। उस मिलन को देखकर ऐसा जान पड़ता जैसे राम और भरत का मिलाप हो। रामाकाँत रहमान को छेड़ते हुये बोले- मेरी सेवईयाँ कहाँ है ? तुम्हारा बस चले तो मुझे सेवईयाँ कभी न मिलती। वह तो भाभी जान है जो तुमसे बचाकर मेरे लिये सेवईयाँ रखती हैं। कहाँ हैं भाभी जान...... इतना कहते ही दोनों हंस पड़े और उन्हीं के साथ वहाँ उपस्थित सभी मुस्कुरा उठे।

दोनों मित्र एक दूसरे के परिवारों के कुशल-क्षेम पूछे। रहमान चाचा सौरभ को पूछ रहे थे और रामकाँत पाँडेय सकीना के बारे में पूछते हुये अपनी नजरें इधर- उधर दौड़ाई। देखा, सकीना और सौरभ उछलते- कूदते  एक दूसरे की ओर बहुत तेजी से भाग रहे थे उसी शरारती अंदाज में जैसे कि दोनों ही एक दूसरे पर शिकायतों का पिटारा फोड़ने वाले हों। दोनों का अंदाज देखकर वहाँ उपस्थित सभी पुलकित हो रहे थे। तभी कुछ ऐसा हुआ कि देखने वाले सभी सन्न रह गये। 

सौरभ और सकीना एक दूसरे के पास पहुंचकर सहम सा गये हैं- उनके पाँव ठहर गये हैं। दोनों गंभीर हो गये। चंचल आँखे भारी हो गई है। दोनों की तरफ बढ़े दोनों के हाथ वापस आ गये है, और बढ़े हुये कदम पीछे हो गये हैं। शायद दुनिया वालों नें उन्हें दुनियादारी सीखा दी थी। दुनिया वालों ने उनके मासूम मन में जो लकीरे खींच दी. थी शायद दोनों ही उस रेखा को पार नही कर सके थे। 


डॉ. प्रज्ञा शारदा, चंडीगढ़, मो. 9815001468 

बीता वर्ष

समय तेरी चाल को

कोई समझ ना पाया,

तूने किया विश्राम तो

सारा जग घबराया,

तू इक बीता साल नहीं

कल का महज हाल नहीं

आया था तो जाना भी था

रुकता किसी भी हाल नहीं

लाया संग में तू महामारी

जग में फैलाई बेरोज़गारी

छत छिन गई, छिन गई रोटी

रिज्क हुआ बंद, हुई बेकारी

बहुत से बिछ्ड़े, हुए बेहाल

भूख बनी जी का जंजाल

बच्चे पैदा सड़क पर हो गए

बहुतों के तो रिश्ते खो गए

लेकिन तूने बहुत सिखाया

कौन अपना ये ज्ञान कराया

सब रंग दिखा गया हैरां हूँ

पर अब चला गया मैं खुश हूँ

सुख दुःख आता जाता रहता

नहीं रहा अब कोई मलाल

नव वर्ष में बस खुशियाँ लाना

दुआ करूँ प्रभु, जोड़ के हाथ।


सुश्री अरुणा शर्मा, नई दिल्ली, मो. 9212452654


सुबह फिर जो आयेगी 

उम्मीद की कलम से,

संध्या के दामन पर 

सात रंगों से 

सूर्योदय की बात लिखी

उसने,....

तो

देखते ही,

सितारों की चुनरी पहने

चाँद का टिक्का लगाये 

आसमां.....

मुस्कुराते हुए झुका 

धरती को चूमने 

और

धीरे से बुदबुदाया 

उसके कान में....

सुनते ही

रात की रानी ने घूंघट खोला 

मंद मंद हवाओं ने,

भीनी खुशबूओं का दामन 

धीरे से पकड़ा

और 

जुगनुओं के काफिले ने किया स्वागत 

जगमगाते  हुए

और गाने लगे...

-कि 

सुबह फिर जो आयेगी

लिए उम्मीद की कलम


डॉ विनोद प्रकाश गुप्ता ‘शलभ’, जीरकपुर, मो. 9811169069

ग़ज़ल

हैं बहुत लोग कि जो याद करेंगे मुझको,

और कुछ हैं कि जो अपवाद करेंगे मुझको।

जो समझते ही नहीं प्यार की भाषा मेरी,

आप उनके लिए अनुवाद करेंगे मुझको ?

जीते जी चैन से रहने न दिया उन सब ने,

बाद मरने के भी बर्बाद करेंगे मुझको।

मेरे पर्वत जो मेरा साथ निभाते हैं सदा,

मेरे दुख दर्द में फ़ौलाद करेंगे मुझको।

मैं मुक़र्रर ही रहूँगा उन्हीं अपनों के लिए,

मेरी ग़ज़लों से जो इरशाद करेंगे मुझको।


जिनके जी भर के सँवारे हैं अनेकों सपने,

सोच में अपनी वो बुनियाद करेंगे मुझको।

एक दिन शम्स हमारा भी मुनव्वर होगा,

अब ‘शलभ’ दोस्त ही अनुनाद करेंगे मुझको।

प्यार का हर लम्हा तेरी यादों से महका हुआ,

इश्क़ की बरसात में तन-मन है अब भीगा हुआ।

ख़ूब थी बरसीं घटायें रात भर आकाश से,

टीन की छत पर मिला पानी बहुत ठहरा हुआ।

झील के निस्सीम पानी में झलकती कहकशाँ,

थी वो परछाई तेरी या फिर मुझे धोखा हुआ।

रात भर सोया रहा मैं नींद की आगोश में,

रात भर पलकों पे इक सपना मिला जागा हुआ।

किस कदर बेचैन था यारो मेरा अहसास भी,

कितने सहराओं में भटका कैसा बंजारा हुआ।

है कोई मोनालिजा या ये अनेकार्थी कोई

सत्य जो था बस उसी का रूप तो सच्चा हुआ।

मिल नहीं पाई मिलन में भी हक़ीक़ी गर्मियाँ,

साफ दिखता है ‘शलभ’ चेहरा तेरा उतरा हुआ।


श्री राजेश सिंह, अहमदाबाद, मो. 9833775798


शून्य और सम्पूर्ण

उसने जीवन देखा

पानी में... मछलियों में...

गगन में उड़ते पंछियों में

और मैं...

हमेशा तय करता रहा 

दूरी-अणु और परमाणु के बीच की

उसे विश्वास था

जगत की संपूर्णता में

और मुझे ब्रह्माण्ड की शून्यता में

उसके लिए जगत मृत्यु सा सच था

और मेरे लिए सब मोह माया मिथ्या

वो हमेशा खड़ी रही पश्चिम में

और मैं हमेशा पक्षधर रहा पूरब का

मज़बूती से टिके रहे हम दोनो

हमेशा विपरीत ध्रुवों पर 

बनाते हुए-

एक सौ अस्सी डिग्री का कोण

बावजूद इसके 

हमारे बीच जबरदस्त आकर्षण बना रहा

हिंदी वर्णमाला का...

शब्दों की ऊर्जा ने हमें जोड़े रखा

अक्षरों का भौतिक स्पंदन

हमारे ह्रदय के बीच

अदृश्य सेतु सदृश्य बना रहा

और इस अनन्त ब्रह्माण्ड में

कविता-

हमारे बीच उगे रिक्त स्थान की 

भरपूर्ति करती रही...



श्री रामदास कृष्णा कामत, हैदराबाद, मो. 7032925521 

कहानी

बिदाई समारोह 

8.38 की ट्रेन छूटने की तैयारी में थी। गाड़ी की व्हिसल हो गई थी। यात्रियों की भीड़ भागकर डिब्बा पकड़ने की कोशिश में थी। लेकिन मैं बड़े आराम से डिब्बे की तरफ बढ़ रहा था, क्योंकि हमारा ग्रुप मेरे लिए जगह रोककर रखता था, इसलिए मुझे सीट की कोई चिंता नहीं थी, चाहे थोड़ी देर ही क्यों न हो जाए। डिब्बे में पहुँचते ही सबको ‘हाय, हेलो’ कहना, थोड़ा समय उनके साथ बातें करना, अगले दो-चार स्टेशनों तक अखबार पढ़ना और उसके बाद सीधे निद्रा देवी की गोद में चले जाना यही मेरा रोज का क्रम था। आठ दस स्टेशन के बाद खुद उठकर किसी दूसरे यात्री को बैठने की जगह दे देता था। लोकल ट्रेन की भाषा में इसे ‘विकेट डालना’ या ‘विकेट फेंकना’ भी कहते हैं। ताश के खेल में ‘पपलु’ और किसी का गैस प्रॉब्लम उमड़कर आता है तो ‘गोबी फुट गया’ ऐसे शब्दों का विपुल भंडार लोकल ट्रेन में उपलब्ध है। 

लेकिन आज का दिन थोड़ा अलग था। बैग से अखबार निकालने के बजाय आज मैंने एक कागज़ निकाला। हमारे ऑफिस के चितले साब 35 वर्ष की सेवा के बाद निवृत्त होने वाले थे और उनके बिदाई समारोह में दो शब्द कहने की जिम्मेदारी मुझे सौंपी गयी थी। इस तरह का भाषण देने का मेरा यह पहला मौका  था। हाथ में कागज़ लेकर पढ़ने के खिलाफ था मैं,  इसलिए लगन से वह कागज़ पढ़ रहा था। मुझे वह भाषण जुबानी याद रखना था। इसलिए बीच-बीच में मैं ग्रुप की गपशप में शामिल होता था और बीच-बीच में कागज पर ध्यान दे रहा था। इतने में विनोद ने कागज़ में झाँककर देखा।

“किसका लव लेटर है रे, जो इतने ध्यान से पढ़ रहा है?”

“लव लेटर नहीं रे, आज हमारे चितले साब रिटायर हो रहे हैं, उनके सेंड ऑफ का स्पीच मुझे देना है”। 

“कौन चितले? वह सूका बोंबिल?” विनोद ने मज़ाक में कहा। ग्रुप के सभी लोग हँसने लगे। मुझे विनोद का ऐसे मजाक उड़ाना बिलकुल पसंद नहीं आया। 

कारण यह था कि किसी भी बिदाई समारोह में बिदा होने वाले व्यक्ति के बारे में बुरा नहीं कहना चाहिए, ऐसा रिवाज होने के कारण लोगों को अच्छा बोलते हुए मैंने सुना है। लेकिन चितले साब के बारे में कितना भी अच्छा बोला जाए, कम ही है। सरल और दयालु स्वभाव के कारण उन्होंने कभी किसी का मन नहीं दुखाया था। बड़े ही मददगार थे वह सब के, इसलिए ऑफिस के हर व्यक्ति के मन में उनके प्रति बड़ा ही आदरभाव था। इस कारण विनोद का ऐसे मजाक उड़ाना मुझे बिलकुल पसंद नहीं आया। खैर, वह वक्त बहस करने का नहीं था। मैंने एक बार फिर अपना ध्यान कागज पर केन्द्रित कर लिया। 

“आज के हमारे सत्कार मूर्ति आदरणीय चितले साब बड़े ही दयालु किस्म के व्यक्ति हैं, लोकप्रिय व्यक्ति हैं। आम इंसान की तरह भविष्य की तरफ आशावादी दृष्टिकोण से वह देखा करते हैं। अनेक सांसारिक समस्याओं से घिरे होने के बावजूद उसका असर न तो उन्होंने अपने दयालु और शांत स्वभाव पर होने दिया और न ही अपने काम पर। पत्नी का  अचानक देहांत होने के बाद दोनों बच्चों की ज़िम्मेदारी उनके सर पर आ गई। पुत्री अब शादी के लायक हो गयी है, मतिमंद लड़का आर्थिक समस्या के कारण चाहकर भी इंजीनियरिंग में प्रवेश नहीं ले पाया। लेकिन आज रिटायरमेंट के बाद वह अपने सारे सपने साकार कर लेंगे। प्रॉविडेंट फंड, ग्रैच्युटी के पैसों से वह यह सभी जिम्मेदारियाँ निभा सकते हैं। चितले साब की बाकी जिंदगी पेंशन से भी बढ़कर उन्होंने लोगों के साथ जो अपनेपन का रिश्ता जोड़ा है, उसी से चलने वाली है और इस मामले में चितले साब सबसे अमीर हैं। चितले साब जैसे लोग पेंशन से ज्यादा इंसानियत और सद्भावना की पूंजी पर जीते हैं। मैं उन्हें निवृत्त जीवन के लिए ढेर सारी शुभकामनाएँ देता हूँ और ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि उन्हें लंबी उम्र और आनंदमयी जीवन दे”।  

सफर में चल रही दोस्तों की हँसी मज़ाक की बातें बड़ा रंग ला रही थीं। मेरा सहभाग उसमें सिर्फ एक श्रोता का था। जैसे ही गाड़ी किसी स्टेशन पर रुकती थी, सभी लड़के खिड़की पर इकठ्ठा होकर प्लैटफार्म पर खड़े यात्रियों का मजाक उड़ाने लगते थे। अगर कोई महिला स्पेशल लोकल उस समय पास से गुज़रती, तो इन रोमियो का जोश आकाश छूने लगता था। किसी को टुनटुन या किसी को कैटरीना के नाम से पुकारते रहते थे। उनके सभी कमेंट्स लिखने लायक नहीं हैं, इसलिए यहाँ नहीं लिख रहा हूँ। माटुंगा स्टेशन के बाद ट्रांसजेंडर लोगों की बस्ती रेलवे लाइन के बगल में है। जैसे ही ट्रेन उस बस्ती के पास आती तो ‘ए मामू, क्या करताय, आज धंधे पे नहीं जाना है क्या?’ कहकर उन्हें चिढ़ाते। इन लोगों के ‘मामू’ कहने से वे चिढ़ते और फिर अपने अंदाज में जोर से तालियाँ पीटकर ऊँची आवाज़ में गालियाँ देते और हमारा ग्रुप उसका मजा लेता। 

गाड़ी दादर स्टेशन आने के पहले अचानक रुक गयी। ट्रेन मे तुरंत चर्चा शुरू हो गयी। दरवाजे पर लटकने वाले एक यात्री ने खबर दी की कोई मर गया गाड़ी के नीचे आकर....

ट्रेन मे फिर चर्चा और अलग अलग कमेंट शुरू हो गए। एक ने कहा, ‘लगता है विकेट गिर गयी किसी की।’

‘मुझे लगता है, विकेट गिरी नहीं, फेंक दी होगी जान बूझकर’। दूसरे ने कहा। 

‘मुझे तो लगता है कि वो रन आउट हो गया होगा’। तीसरे ने अपनी अक्ल लगाई। 

इतने में गार्ड और बाकी लोग उस तरफ जाते हुए देखकर दरवाजे पर खड़ा एक चिल्लाया, “देखो-देखो, अब थर्ड अम्पायर जा रहा है। वही अब डीसिजन देगा। लाल झंडी या हरी झंडी”। 

गाड़ी काफी देर तक रुकी रही। जिन्हे ऑफिस पहुँचने में देरी हो रही थी वे और भी परेशान थे। उन्हीं में से एक बोला, “साले को यही गाड़ी मिली थी मरने के लिए? आज बड़ा इंपोर्टेंट प्रेजेंटेशन देना था एक मीटिंग में। टाइम पे नहीं पहुंचा तो मेरी नौकरी खतरे में आ जाएगी”। 

भीड़ का मानस शास्त्र जैसा होता है, इस ट्रेन के यात्रियों का मानस शास्त्र कुछ अलग नहीं था। बिलकुल अविचारी व्यवहार, अपनी ही मस्ती में चलने वाला। किसी भी बात को गंभीरता से नहीं लेते ये लोग। जब हमारे ग्रुप में किसी एक की बीवी को कुत्ते ने काटा था और उसे इंजेक्शन देने की नौबत आ गई थी, तब भी ग्रुप के कुछ लोग उससे पूछ रहे थे, “कितने नंबर की बीवी है ये?”, “अब वो कुत्ता ठीक है ना? वगैरह वगैरह...इस तरह से किसी भी गंभीर बात को भी ग्रुप मजाक में लेता था। 

गाड़ी अब धीरे-धीरे चलने लगी। मै मुंबई सेंट्रल स्टेशन पर उतरा और ऑफिस की ओर निकल पड़ा। चितले साब को हार्दिक शुभकामनाएँ देने वाला बोर्ड ऑफिस के दरवाजे पर रखा हुआ था। यूनियन लीडर सावंत ने सब व्यवस्था कर रखी थी। पुष्पगुच्छ, मिठाई, गिफ्ट, स्नैक्स सब कुछ। बोर्ड भी उन्होंने ही लिखा था। शाम को ऑफिस से निकलते वक्त किसी की रेगुलर ट्रेन मिस न हो जाए, इसलिए सबकी सुविधा के लिए यह बिदाई-समारोह दोपहर में रखा गया था। 

“बर्फी अगर फ्रिज में रखी तो पानी छोड़ देती है। फिर नरम बर्फी खाने में मजा नहीं आता। वेफर्स भी नरम पड़ जाते हैं शाम तक। दोपहर में अपना टिफिन खाने के बाद लोग ज्यादा कुछ खाएँगे नहीं तो कम खर्चे में काम चल जाएगा, यह दिमाग भी सावंत ने लगाया था। 

कार्यक्रम का समय बीतता जा रहा था। चितले साब की कुर्सी अब भी खाली थी। उनका मोबाइल लग नहीं रहा था। आउट ऑफ कवरेज आ रहा था। घर पर फोन किया तो पता चला कि वो सुबह ही ऑफिस के लिए निकल चुके थे। इंतजार करने के अलावा और कोई चारा नहीं था।

आखिर साड़े बारह बजे वह बुरी खबर आ गयी। दादर और माटुंगा के दरम्यान चितले साब रेल के नीचे आ गए थे। पूरा माहौल शोकमयी हो गया। पूरे ऑफिस में भयानक सन्नाटा-सा छा गया। वह आत्महत्या थी या दुर्घटना, यह समझ में नहीं आ रहा था। लेकिन चितले साब इस दुनिया से रिटायर हो चुके थे। मेरी नजरों के सामने उनके बच्चे और उनका उजड़ा हुआ भविष्य दिखाई देने लगा। गाड़ी में उस वक्त चल रहे कमेंट अब मानो कानों में तीर की तरह चुभ रहे थे। उसी ग्रुप का एक हिस्सा होने के नाते मेरे मन में भी अपराध भाव पैदा हो रहा था। मैंने भाषण का कागज़ निकाला और उस पर एक नजर डाली। आँखों के किनारे पर अटके हुए आँसू मर्यादा छोड़कर कागज़ पर गिरे। “चितले जैसे लोग पेंशन से ज्यादा इंसानियत और सद्भावना की पूंजी पर जीते हैं” इस वाक्य से “जीते हैं” शब्द आँसुओं से धुल चुके थे। नियति को उनका जीना शायद मंजूर नहीं था। 

सावंत ने पुष्पगुच्छ बोर्ड के पास रख दिया। बोर्ड पर पुष्पहार डाला गया। ष्ॅपेी लवन अमतल ींचचल तमजपतमक सपमिष् की जगह अब ष्डंल ीपे ेवनस तमेज पद चमंबमष् इन शब्दों ने ली। मैंने कागज जेब में डाल दिया और बाकी लोगों के साथ दो मिनट की श्रद्धांजलि में शामिल हो गया।   


लेखक: डाॅ संजीवनी तड़ेगांवकर,  शिव नगर, जालना (महाराष्ट्र), मो. 9423457623

अनुवादक: डाॅ. सूर्यनारायण रणसुभे, लातूर, मो. 83780 806़60

निबंध

झूला

मैके किस स्त्री को पसंद नहीं आता? यूं तो प्रत्येक की पसंदगी-नापसंदगी अलग-अलग होती है। किसी को धुमक्कड़ी, किसी को खान-पान? मुझे अलबत्ता आज भी मैके जाने-आने में अलग प्रकार की खुशी महसूस होती है। इसके कारण भी अनेक हैं। मेरे गांव में प्रवेश करते ही गाँव के प्रवेशद्वार पर बरगद का विशाल पेड़ अपने शरीर और कंधे पर वर्षों का इतिहास बताते बैठा हुआ और उसकी झूलती जड़ें मिट्टी में घंसकर आने जानेवाला का स्वागत करती रहती हैं। और बिदाई भी देती रहती हैं। बरगद के उन जीर्ण जड़ों ने जैसे मिट्टी में अपने घर दिए हैं वैसे ही मेरे भीतर भी। मेरा बचपन इसी बरगद की जड़ों से झुलते हुए बीता। और वह भी खूब लाड़-प्यार से मुझे झुलाता रहा। उसकी इन जड़ों से झुलती हुई मैं बड़ी होती गई। मेरे पूर्व की अनेक बेटे-बेटियों की तरह उसने भी मुझे अपने प्यार में नहलाया। 

मैं ससुराल की हो गई। बावजूद इसके मेरा मन आज भी मैके जाता है और बरगद की जड़ों पर झुलकर आता है। मै ??? के दिनों में मेरे भीतर का ??? बढ़ता गया इस कारण मेरे भीतर का झूला कविता होकर व्यक्त हो हुआ-

देहफूलों का यह झूला 

मैं समर्पित करती हूँ तुझे 

पैर मेरे घुमते रहते हैं 

मस्ती में डूबी रात 

जलती है बाती धीमी 

सुगंध है फैलता 

मिलने हो सांस में मांस 

ऐसा एकांत

शरीर भ्रमित हो जाए ऐसी स्थिति 

यह स्थिति ही मन की फांस 

मन तृष्णार्त 

तू ऐसा क्यों छलता है।

कुछ दिनों बाद मैंने अपने उससे धीरे-से कान में कहा- ‘मैं तेरे बच्चे की माँ होने जा रही हूँ।‘ उसने मुझे सहजता से अपने दोनों हाथों से उठाकर काफी दैर झुलाता रहा। यूँ झूलना मुझे नया नहीं था। मेरे गर्भ के दिन फलते-फूलते गए और मेरा बदन झुक भी गया। सास ने बड़े प्यार से अपनी बेटी की तरह वह दिन मनाया। नाते-रिश्तेदारों को न्यौता देकर उन्हें बेहतरीन खाना खिलाया। एक उत्सव के रूप में उसने वह दिन मनाया। इस रंग की नई साड़ी पहनाकर मैं सम्मान दिया। और मुझे फूलों के झूले पर बिठाया। उसने ही सबसे पहले झूला हिलाया। फिर प्रत्येक स्त्री ने मुझे झुलाया। उस दिन मैं देर रात तक जागती रही। बहुत देर बाद नींद लगी। नींद में स्वप्न देखा। मैं झुले पर बैठी हुई हूँ, झूल रही हूँ, पर उसकी रस्सी टूटेगी इस डर से परेशान हो गई जग गई। स्वप्न टूटा। तब से मैं झूले के प्रेम में फंस गई। 

मनुष्य स्वभाव के अनेक प्रकार के झूलों को मैंने अनुभव किया है। प्रसूती के बाद पांचवे ही दिन आंचल का झूला बनाकर बच्चे को उसमें लिटाकर झुलाते हैं। मुझे लगता है वहीं से उस जिंदगी के झुलने की शुरुआत हो जाती है। नवजात बच्चे को नहाने-धुलाने-पोंछने के बाद उसे झूले में अथवा पालने में डालकर गीत गाए जाते हैं। सुरों की उन ध्वनियों से बच्चे की आँख लग जाती है। बाद के दिनों में वह पैरों पर चलने-घुमने लगता है देहरी के बाहर निकलता है तो आंगन में स्थित झूला मानों उसे बुलाते रहता है। आंगन के बाहर जब वह जाने लगता है तब उसके पैर उस बरगद के पेड़ के पास जाते हैं और इस पेड़ की खड़ी जड़ों से वह झुलने लगता हैं।

एक कोंवले दोपहर में घर के सामने सुई-धागा और काले मणियों की बेचनेवाली आकर खड़ी हो गई। ससकी पीठ पर झोली में बंधा हुआ एक बच्चा, गरदन ऊंची कर हमारी ओर टुकुर टुकुर देख रहा था। पेड़ों की शाखाओं पर बांधे हुए झूले की अपेक्षा पूरे गांव में घुमने वाला यह झुला उसे मिला था। यह उसका भाग्य ही था। उसकी माँ का दुर्भाग्य इतना ही कि वह बेचारी दरिद्रता से पीड़ित थी। परंतु गरीब घर की यह अमीरी मुझे काफी मूल्यवान लगी। वह बाजार में बिकती नहीं।

और एक बार खेत पर गई थी। भयावह गर्मी थी। वहाँ कपास चुनती हुई गांव की एक स्त्री-पारबती- की पीठ पर एक झूला बंधा हुआ था। और उसमें स्थित बच्चा दिन के उस प्रखर उजाले में गहरी नींद में था। खेतों में रात काम करनेवाली औरतें अक्सर किसी पेड़ की छाया में उस पेड़ के नीचे आई शाखा पर झूला बांधकर अपने बच्चे को सुलाती है। झुलने के इस आनंद से बच्चा दूध-पानी भी शायद भूल जाता होगा। इन झूलों में सोये हुए बच्चें के दूध में ओठों का चुंबन लेनेवाली प्रसन्न मन की औरतों को मैं इन झुलों के कारण ही देख पाई। झूले का और स्त्री-पुरुषों का क्या संबंध हैं भगवान जाने? पर कहते है ना, नारी जीवन कभी इस पार कभी उस पार।‘ ससुराल में गृहस्थी संभालने वाला मन कभी मैके जाएगा और वहाँ मैके में झुलते हुए अब वापिस ससुराल आएगा। इसका कोई भरोसा नहीं। त्यौहारों पर तो उसका मन मैके में ही झुलते रहता हैं। 

जैसे वह भैया-दूज की बाट जोहती है, ठीक वैस ही नागपंचमी के झूले की। (महाराष्ट्र में नागपंचमी के त्यौहार के दिन गांवों में किसी बड़े पेड़ पर लड़कियाँ रस्सी डालकर झूला बनाती हैं और इस त्यौहार के दिन और बाद में भी वे इन झूलों पर झुलती रहती हैं।) यूं तो झुले में बैठ झुलना एक आत्मिक आनंद को प्राप्त करना होता है। और एक दूसरे का झूला हिलाए बगैर यह आत्मिक आनंद थोड़े ही मिलनेवाला हैं। कभी किसी समय किसी कविताओं में झुले से भेंट हुई थी। इसलिए नागपंचमी के दिन चल सखी, झूला खेलेंगे, ऐसा कोई न कोई सखी किसी-न-किसी सखी से कहती ही है। झुलों पर जो नहीं झूला वह जिंदगी का खेल क्या खेलेगा? और जो झूलते हैं ना, वही तो जीवन में संतुलन ला सकते हैं। अंततम झूले का खेल तो संतुलन रखने का ही खेल है ना! इसी के फलस्वरूप तो विवाह के बाद हल्दी निकालने हेतु वधू-वर को झूले में झुमाते हैं। (महाराष्ट्र में यह प्रथा है) बाद के जीवन में वे दोनों एक दूसरे को झुलाते ही रहते है ना! दूर की यात्रा के लिए उन दिनों बैलगाड़ी पर ही जाना पड़ता था। गांव के प्रवेशद्वार से जाते समय बैलगाड़ी की धूरी को बांधा हुआ झूला, झूलते रहता है। मेले के स्थान पर पहुँचने के बाद और बैलों को खुला करने के बाद उस बैलगाड़ी के नीचे बैठकर एम स्त्री उस गाड़ी को बांधै हुए झूले में अपने बच्चे को लिटाकर उसे झूला रही थी। मेरे भीतर भी ऐसा मेला कभी-कभी मेरे मन में भी लगता हैं। तब बच्चे को झुलानेवाली स्त्री और उस झोली में लेटा हुआ बच्चा मेरी यादों की डोर को झुलाते रहता है। छुट्टी के दिन ध्वस्त ??? में प्रतीक्षा करनेवाला झूला पूरे गांव के बच्चों को ??? देते रहता है। उसमें डर और बिंधास्तता इन दोनों प्रवृत्तियों के डोरों से हम लटकते रहते हैं। अब मेरी बच्चियों के लिए जब मैं झूला बांधने लगती हूँ तो मुझे उस झूले की याद आने लगती है। क्या विचित्रता है मनुष्य-मन की समझ में नहीं आता। जो याद आना चाहिए उसकी तो याद आती नहीं। और जिसे भूलना चाहती हूँ वह भुला नहीं सकती। परंतु इनमें से केवल झूले की याद मेरे अंतरमन को झुलाती रहती है। मैं अभी भी मेले में, उरुस में जाती रहती हूँ। तब मेरा मन ही सेल ?? जाता हैं। मैं चक्राकार झूले में बैठकर ही मेले देखती हूँ। वह मुझे झुलाते रहता है और मैं उसमें बैठे-बैठे झुलती रहती हूँ। मुझे ऊपर-नीचे नीचे-ऊपर होते हुए मुझे सामने के लकड़ी के घोड़े और हाथी पर बैठे हुए लोगों को देखने में अलग आनंद आता है। क्योंकि वहाँ के सभी झुले भिन्न-भिन्न होते हुए भी एक दूसरे के पीछे दौड़ते रहते हैं। मानो वे कह रहे हो कि हमारी तरह ही दौड़ते रहों। फिर जो चाहिए उसे पाओगे!

मुझे ठीक से याद है गांव के विद्यालय में सभी छात्र-छात्राएं अपनी-अपनी कक्षाओं में अनुशासनबद्ध होकर बैठे हुए हैं। परंतु वे सभी मध्यांतर के छुट्टी की प्रतीक्षा कर रहे हैं। या यूँ कई विद्यालय के सामने स्थित विशाल आम के पेड़ की झूली हुई शाखाएँ उनकी प्रतीक्षा करती रहती हैं। घंटी बज गई कि तेजी से भागनेवाले बच्चे अपनी-अपनी शाखाओं को पकड़ कर लटकने लगते हैं। रस्सी के उपयोग से नहीं बने हुए इन झूलों को देखकर मैं आश्चर्यचकित हो जातीं। पर एक बार एक मोटा बच्चा जब एक शाखा से लटकते हुए झुलने लगा तो वह शाखा ऊपर से ही टूट गई और वह धड़ाम से गिर गया। बाद में वह एक पैर से लंगड़ा भी हो गया। बीच में जब मैं मैके गई थी तब वह उस अवस्था में भी अपने बच्चे को झुले में डालकर झुला रहा था। दूसरा एक ऐसा ही झूला जो रस्सी के अभाव में झुलते रहता है- वह माँ की जांघों में लेटकर झुलने वाला झूला। बच्चे के लिए माँ के शरीर द्वारा बनाया गया यह झूला न टूटनेवाला। माँ-बच्चे के संबंधों के ऐसे कई झूले मन में झुलते रहते हैं। 

नींद में जागी मेरी बच्ची बिस्तर पर ही रोने लगी। काम की जल्दी होने के कारण मैंने उसे पीठ पर बिठा लिया। उसके हाथों का प्यारा फांस मेरे गले में फंसा। मैं उठी। उसे वैसी ही पीठ पर लटकाई। गृहस्थी के कई काम करने पर वह मेरी पीठ पर चिपक कर लटक रही थी। मेरे शरीर से बंधा यह झुला न झुलाते हुए भी झूल रहा था, उसके कोमल स्पर्श से मैं पेड़ की शाखा की तरह थरथरा रही थी। ऐसा झूलना मैंने अपनी माँ की पीठ पर भी अनुभव किया था। शायद वही आनुवांशिकता मेरी बेटी भी आगे ले जा रही होगी। न मांगते हुए भी मिल जाना शायद ऐसा ही कुछ होगा। झुले का डोर हाथ में आया कि कोई उसे तेजी से ऊपर ले जाकर छोड़ देता है। ऊपर गया यह झूला किसी को भाता है, किसी को नहीं। पर ऐसे समय आँखें डर से बंद हो जाती है। उस पर बैठा हुआ शांतिहिन हो जाता है। मैं फिर जाऊंगा, मेरे बदन का कोई न कोई हिस्सा टूट जाएगा ऐसा वह महसूस करने लगता है तथा और भी भयभीत हो जाता है। ऐसे समय, अगर कुछ हो भी गया, तो उसे झेलनेवाले, उठानेवाले हाथ झूले के आसपास होते ही हैं। 

मेरी बेटियाँ अब झूला खेलने की आयु में आ गई हैं। अभी भी नागपंचमी के दिन बांधे हुए झूलों को देखकर मेरी आँखे भर आती हैं। जब मैं अकेली होती हूँ, तब मेरा अकेलापन मेरे भीतर घुमकर मुझमें घुम जाता है। इस स्थिति से थककर मैं आंगन में स्थित झूले पर बैठ जाती हूँ। उसकी लोहे की कड़ियाँ कुई-कुई की ध्वनियाँ निकालती रहती है। मैं पीछे मुड़कर देखती हूँ। अचानक धूमिल जैसा कुछ दिखलाई देने लगता है। पर उससे भी अधिक दिखलाई देते हैं वे झुले जिसकी पकड़ी डोर तो मैंने छोड़ी नहीं थी, फिर भी वे मेरी मुट्ठी से फिसल ही गए। वे भी मेरी तरह आज भी झुलते रहे होंगे। ऐसा तो मैं कह नहीं सकती कि जिंदगी में मुझे सब कुछ मिल गया। परंतु मन के बहुत भीतर के घर में जिन्होंने अपनी जगह बनाए रखी है, उनमें से ऐसे जगह मेरी सांस के झुले की है। मैं आजतक झुलते रही, झुलवाते रही, आगे की मेरा यह झुलना-झुलवाना रुकेगा ऐसा नहीं लगता। परसों ऋण से टूट चुके एक किसान का वृत्तचित्र मैंने पढ़ा। मन शून्यवत हो गया। फांसी लेकर उसने खुद को खत्म किया पर उसका दुःख तो मिटा नहीं। समाचार पढ़ते समय आँखे नम हो गई। लगा, यहाँ जीना महंगा और मरना सस्ता है।


डॉ. निशा नंदिनी भारतीय, तिनसुकिया, असम, मो. 9435533394


परवाने कहलाते है वो

शब्दों को चबाकर उगलते हैं जो

सही सांचे में ढल संवरते हैं वो।

कुछ करने का दम रखते हैं जो

हाथों की लकीरों को बनाते हैं वो।

तूफानी लहरों से नहीं डरते हैं जो

सदैव सफलता को थामते हैं वो। 

परसेवा में जीवन लगाते हैं जो

अमरता के फल को चखते हैं वो।

माँ पे बलि-बलि जाते हैं जो

सुपुत्र मां के कहलाते हैं वो। 

मुश्किलात में नहीं घबराते हैं जो

ध्वज फतेह का फहराते हैं वो। 

वतन की मिट्टी पर इतराते हैं जो 

दुश्मनों के छक्के छुड़ाते हैं वो।

तिरंगे पर तन-मन लुटाते हैं जो

राष्ट्र रक्षक परवाने कहलाते हैं वो।


श्री गोविंद सेन, राधारमण कालोनी, मनावर, मो. 9893010439

ग़ज़ल

दीवारों का भान नहीं था

नफरत का सामान नहीं था

खिड़की हमने खोल रखी थी,

आँधी का अनुमान नहीं था

होते हैं पर अफवाहों के,

इसका मुझको ज्ञान नहीं था

बीच में कोई रोक नहीं थी,

दूरी का दरबान नहीं था

दिल में अब तक ज़ख्म हरे हैं,

बंटवारा आसान नहीं था

तन लड़की का रौंद रहा था

बाबा था, भगवान नहीं था

पीना पड़ता था दुख अपना, 

ये कोई जलपान नहीं था


श्री अंकुर सिंह, जौनपुर, उत्तर प्रदेश, मो. 8792257267

संस्मरण

सफ़र से हमसफ़र 

ये सीट मेरी है, विजयवाड़ा स्टेशन पर इतना सुनते अमित ने पीछे मुड़कर देखा तो एक हमउम्र की लड़की एक हाथ में स्मार्ट फोन और दूसरे हाथ में बैग पकड़े खड़ी थी। जी मेरा सीट ऊपर वाला है ये शायद आपका है अमित ने कहा। ठीक है, अब आप अपना सामान हटा लीजिए और बैठने दीजिए मुझे मेरी सीट पर। इतना सुनते अपना समान हटाते हुए अमित कहने लगा, मेरा नाम अमित है और मुझे बनारस तक जाना है, आप कहाँ तक जाएंगी? उधर से कोई प्रतिक्रिया आते ना देख अमित चुप हो गया। थोड़ी देर बाद अपना बैग सीट के नीचे रखकर मोबाइल को चार्ज में लगाते हुई वह लड़की बोली मेरा नाम सुमन है और मैं कॉलेज की छुट्टियों में मम्मी के यहां पटना जा रही हूं। अच्छा तो आप बिहार से है और यहां विजयवाड़ा में पढ़ाई करती है, अमित को इतने पर रोकते हुए सुमन ने कहा मैं बिहार से हँू लेकिन केरला में एमटेक की पढ़ाई करती हूं और विजयवाड़ा में अपने दोस्त के शादी में आई थी। अब छुट्टियों में घर जा रही हूं, आप क्या करते हो अमित, सुमन ने पूछा। आपके तरह मैं भी इंजीनियर हूं और मां की तबियत सही नहीं है इसलिए गांव जा रहा हूं मां से मिलने। क्या हुआ आपकी मां को सुमन के पूछने पर अमित ने बताया कि मां की तबियत अक्सर खराब रहती है और इस समय थोड़ा ज्यादा खराब हो गई है इसलिए गांव जा रहा हूं। इतने में टिकट-टिकट कहते हुए टीटी की आवाज सुनाई पड़ती है, अमित ने अपना टिकट टीटी को दिखाकर सुमन से कहा कि मेरी सीट ऊपर वाली है और थोड़ी देर में डिनर करके मैं अपनी सीट पर चला जाऊंगा। कोई बात नहीं मैं भी डिनर के बाद सोऊंगी तब तक बैठ सकते है आप। थोड़ी देर बाद अपनी टिफिन खोलते हुए अमित ने कहा आप भी लीजिए। नहीं आप खाइए, मैं टिफिन साथ लाई हूं सुमन से इतना सुनते अमित ने कहा चलिए फिर साथ में डिनर करते हैं। डिनर के बाद सुमन ने अमित से कहा आपका खाना तो काफी अच्छा था, आपने खुद बनाया था? नहीं-नहीं ऑफिस से पैक कराया था मैने अमित ने जवाब दिया। चलो अच्छा है आप हिंदी बोल लेते हो। शायद पूरे बोगी में हम दो ही हिंदी भाषी हैं। आपकी सीट पास में नहीं होती तो मैं बोर हो जाती। इतना सुनते अमित ने कहा अरे ऐसे कैसे ? आप बोर न हो तभी तो भगवान ने मुझे यहां भेजा हैं, इतने पर दोनो जोर से हंस पड़े।

पूरें सफर में दोनो एक दूसरे के पसंद-नापसंद, परिवार, पढ़ाई इत्यादि को लेकर ऐसे बात कर रहें थे जैसे उनकी ये पहली मुलाकात नहीं बल्कि बरसों पुरानी जान पहचान हो। अगले सुबह भोर में अमित का स्टेशन आ गया, उसने सुमन की तरफ देखा वह सो रहीं थी, उसकी नीद खराब न हो इसलिए अमित ने उसे जगाना जरूरी नहीं समझा और सीट के नीचें से अपना बैग निकालने लगा। इसी बीच सुमन घबरा कर उठी और नींद में  कौन हो, कौन हो कहने लगी। अरे सुमन, मैं अमित मेरा स्टेशन आ गया और मैं अपना बैग निकाल रहा था। क्या बनारस आ गया, अमित? मुझसे बिना मिले जा रहें थे तुम, जगाना भी जरूरी नहीं समझा ? अरे सुमन ! मैंने सोचा तुम्हें क्यों परेशान करूं इतना सुनते ही सुमन बोल पड़ी बिना मिले जाते तो मैं क्या परेशान नहीं होती ? सुमन के इन शब्दों से अमित को वही अहसास हुआ जो उसके दिल में हो रहा था। फिर उसने सुमन से कहा- सुमन, चाहता तो मैं भी नहीं था की बनारस स्टेशन इतनी जल्दी आए पर अब मेरी मंजिल आ गई और हमारा सफर यहीं खत्म हुआ। कैसा सफर अमित, हमारा तो ट्रेन का सफ़र खत्म हुआ है दोस्ती की नहीं सुमन ने जवाब दिया। इतने में ट्रेन ने बनारस छोड़ने का हॉर्न बजा दिया और अमित सुमन को बाय कहते हुए अपना बैग निकाल कर चल पड़ा सुमन भी दरवाजे तक अमित को बाय-बाय कहते हुए छोड़ने आई।

अगले कुछ महीनों तक दोनों एक दूसरे से बात करते रहें और कुछ महीनों बाद सुमन ने भी अपनी पढ़ाई पूरी कर लिया और अब नौकरी करने लगी। फिर एक दिन दोनों ने निश्चय किया क्यों न इस दोस्ती के सफर को कभी न खत्म होने वाला सफर बना लें। फिर दोनों अपने-अपने घर में एक दूसरे के बारे में बताकर शादी करने की बात कही। घर वालों ने भी उनकी खुशी के लिए उनको एक दूसरे का हमसफर बना दिया।

जीवन के कई साल साथ बिताने पर जब अमित और सुमन अपने खुशी भरे परिवार और बच्चों को देखते हैं तो उनकी जुबां से निकल पड़ता है की ये बच्चें, हमारे जीवन में ट्रेन के उस डिब्बे की तरह है जिसके सफर ने हमें हमसफर बना दिया। 


श्री द्विजेंद्र द्विज, -कांगड़ा, हि.प्र., मो. 9418465008

ग़ज़ल

छलनी कदम क़दम पे है सीना पहाड़ का

दूभर किया है किसने ये जीना पहाड़ का

चमके है दूर से जो नग़ीना पहाड़ का

बनता है देखते ही क़रीना पहाड़ का

चढ़ने लगे हैं आप जो जीना पहाड़ का

लगता है बैठ जाएगा सीना पहाड़ का

भाता अगर है आपको जीना पहाड़ का

लेकर कहाँ से आएँगे सीना पहाड़ का

मैदां की प्यास और ये मीना पहाड़ का

महँगा पड़े न जाम ये पीना पहाड़ का

जो देखना है तुझको भी जीना पहाड़ का

सर्दी में आके काट महीना पहाड़ का

ये ग़ार-ग़ार सीना ये रिसता हुआ वजूद

दामन किया है आपने झीना पहाड़ का

है आपको पता भी कि बनिए की आँख में

चुभता है किस क़दर ये दफ़ीना पहाड़ का

सैलानियों ने फोड़ के दारू की बोतलें

छलनी किया है रोज़ ही सीना पहाड़ का

इमदाद हो कोई कि हिफ़ाज़त वतन की हो

आता है काम खून पसीना पहाड़ का

साज़िश कुछ इस तरह हुई यारो पहाड़ से

सड़कों से आ के सट गया सीना पहाड़ का

ऐ दोस्त मेरे आँख का पानी बचा के रख

पानी तुझे जो साफ है पीना पहाड़ का

जागे नहीं तो यारो हमारे पहाड़ को

खा जाएगा वो सेठ कमीना पहाड़ का

गर चाहते हैं आप भी आना पहाड़ पर

मत भूलिएगा आप क़रीना पहाड़ का

हाथों को तेरे देखते हैं इस उम्मीद से

ऐ नाख़ुदा न डूबे सफ़ीना पहाड़ का



डाॅ. मीना बुद्धिराजा, अहमदाबाद, मो. 9210629191


कविता और साहित्य तो क्या, ये जीवन ही शब्दों का खेल है। बिना शब्दों के जिसका सामूहिक रूप भाषा है, हमारा अस्तित्व अधूरा सा है। कितनी बार हमारे पास सटीक और पर्याप्त शब्द भी नही होते जो ठीक-ठीक भावनाओं को उसी रूप में व्यक्त कर सकंे जबकि दुनिया भर के शब्दों का अथाह भंडार होता है। तब हम मौन में,अन्तराल में अर्थ को तलाश करते हैं, निशब्द होने की बात करते है। आखिर शब्दों की भी तो कोई सीमा है परंतु संवेदनाओ की नहीं और अगर भावनाएँ ही शून्य हो जाएँ तो । इसी पर अचानक सोचते हुए यह नई कविता लिखी-


शब्दातीत

शब्द हमें छोड़ देते हैं

शब्दातीत की तरह

क्षणभंगुर हो जैसे

स्पर्श से बिखरते हैं

उन्हे ही फिर से जीना

और रचना है

शून्य होती भावनाओं में

दुर्लभ होते सत्य

सम्वेदनशीलता को अपराध

त्रासदी को प्रहसन में

बदलने के युग में

उपस्थित वही पुराने शब्द

और चिर-परिचित दुख

आत्मा को बचाते रहेंगे

एक उम्मीद की तरह

निष्क्रिय समय में

किसी अप्रत्याशित की प्रतीक्षा

बेचैनी अब भी वही

अविश्वसनीय

जो स्वप्न और सच्चाई को

एक कर दे

तमाम अधूरेपन के साथ

आहत प्रतिशब्द भी

अब समय की जरूरत हैं

शब्द जो पूरा जीवन थे।



Book Launch - "I Am"

Ludhiana 13th Nov, 2021: The book, "I Am" was published in Europe a few months back. While the publisher, Europe Books released the book in Europe, it was launched in India today since the pandemic regulations did not allow an early launch due to constraints.  The book was launched in PCTE Group of Institutes where several leading authors, critics, and journalists besides other eminent personalities from the industry gathered to double celebrate the birth of a new author and a new book. It is available in India, USA, Canada, Australia and several other leading countries of the world and on portals like Amazon, Google Books, Apple Books, Scribe, eBay, Europebooks, Waterstones, booktopia, coursehero, etc. Ms. Harpreet K Kang, a journalist, an academician, entrepreneur, traveller, and now an author launched her book “I Am”.

The book Launch started with a Lamp Lighting ceremony. Mr. Dinesh Kumar, a career journalist, researcher, academician, and a scholar, who has worked with The Times of India & BBC News gave the opening address and review on the book. Prof. (Dr.) Bhupinder Aziz Parihar, an Urdu poet, translator and editor was the Keynote Speaker. He is a prolific writer with over 50 books to his credit. He analyzed the book based on the post colonial era authors and works done by the contemporaries. He was thorough and diligent with his research and appraisal. He said, ""The opening decades in the West were problematic. The literature of this age introduced four major concerns in modern English writings. Alienation, Quest for identity collapse of communication and search for roots. These were the existential dilemmas and crises that have re-merged today in our post modern times -  rather more acutely and more menacingly. The book 'I Am' appears at a time when human faculties are numbed and the thin line between living and extinction has blurred beyond belief." 

‘I Am’ is a powerful turn around in simple interactive dialogue, with incredible examples that help readers transcend their mind. It's challenges, and in many ways the sufferings one goes through. The approach to the subject is upfront, with little ambiguity, which leaves the reader stronger and gratified. Harpreet K Kang reveals the simple truths of life that often seem to be hiding in plain sight for most of us. The book supports readers to see things distinctly and empowers them to live with freedom and act through mindfulness.


Ms. Harpreet K Kang said that “I Am” gives the reader a profound understanding of self-evolution, consciousness, and acceptance. The early onset of the pandemic followed by the lockdown was hard for most and it is not very different even today, a year and a half down the line. Many around the world lost jobs and struggled with anxiety, insecurities, etc. Others suffered depression and fear when locked up by themselves alone in their home for months. She further added by saying that the turbulence and unexpected changes severely affected mental health and well-being. Responding to struggles amongst people around her and overseas, a journey, which began with simple friendly counselling, led her to pen down her thoughts in an endeavour to reach the larger masses with her message.


Book Review for the title - I Am

Psalms In Daylight

The opening decades in the West were problematic. The literature of this age introduced four major concerns in modern English writings - Alienation, Quest for identity, Collapse of Communication and Search for Roots. These were the existential dilemmas and crises that have re-emerged today in our post modern times - rather more acutely and more menacingly. The book 'I Am' appears at a time when human faculties are numbed and the thin line between living and extinction has blurred beyond belief.

The title, “I Am’ strikes an affirmative note, reminds me of the famous line by Descartes - “I think, therefore I Am”. As a thinker and seeker of Truth, the author sits at the hub of existence and reflects on human condition. Without going into the details of Freudian pshycho-analysis and the Jungian archetypes, it maybe pointed - their contribution lies in presenting mind as a divisible entity and in discovering the language of poetry. The author writes in a convincing tone - lyrical and logical at once, blending reason and emotion forming a state of ‘felt thought’, though the binaries, as in life, are seldom resolved. Tension persists.

The author dwells on the familiar concerns - familiar yet baffling - desire, ambition, success, emptiness, choice, empathy, peace, moments of being, the act of seeing, moksha, death, God, et al.


Sunny World-View

The book like a mosaic has three major chapters with sub-parts - 1. The Pause 2. Who Am I? 3. Be Bliss. These raise sets of questions and offer answers emphasizing the positive and energetic aspects of the living process in the post modern vulnerable world where ‘ignorant armies clash by night’ and peace is alien to man.

The author knows well that the stubborn persistence of certain fixed, stereotypical representations of culture is oppressive as it defies change, urging the author to militate against such persistence. The excellence of the book lies in revisiting, re-visioning and subverting the formalized modes of thought and action. Unfortunately, Indian society suffers from what in the sociological parlance we know as the 'cultural lag' - mind is far behind the expansion of the processes and enterprises that were once national or at most regional in scale and scope. During the past half a century, seismic changes have occurred in trade and technology, and culture in general. Thus there is something radically different happening today. Covid catastrophe has further worsened the situation. Against this backdrop, a book of I Am calibre emerges. The author takes a position - firm and assertive - employs modes of thought and argument such as rationalism, wisdom, logic, and emotion to articulate her own social and cultural identity to resist and redefine the cultural hegemonic archetypes, to reach the widest possible audience. Holding her own territory, she lets language and text carry the grace and polish of her projections, transforming the text into a post colonial cultural production. 

Apparently a simple text, it explores certain deeper layers of human psyche and offers fundamental gospel truths and therapeutic remedies. Here, the author is a humanist - a psychologist and a skeptical interrogator of the problematics of life and living. A few textual quotes:

l Spend a few minutes in the day without any thought.

l Always look inside for the problem. It is never outside.

l Can you step back from your own mind?

l Imagine the power you have when you don’t have desires.

l Accept that you don’t know.

l No learning can truly begin, before learning about oneself.

Author, Text, and the Reader are equal partners in the process of appreciation and understanding of meaning. Nevertheless, a text possesses certain unyielding autonomies over which even the author has little control.

Here the author is dedicated to interrogating vital forms of imaginary relations to real conditions, and the cultural behavior with the conventional facts of history. In this sense, I Am combines history and culture and extends the interrogation to contemporary times. We find the best of what has been thought and said. The author overseas the ideological cultural concepts and contests the established order as can be seen in sections on Karma, Samskara, Moksha, ... in specific.

For me as a reader of this text, cultural habits are presented not only as theological or scriptural constructs or an expression of the economic base. The underlying argument as I see, is - we have to understand the prevailing order in relation to the hegemonic forces at work. The essential question the book raises is - We have choice - the choice to examine, alter, reject, or endorse the prevailing systems of thought and practice. Here, I am with Antonio Gramsci as I find the author interrogating and arriving with amazing clarity and conviction. To illustrate:

As you seek freedom from the cycle of birth and death, the past karma debt need to be resettled in a hurry.. so if your intentions are not clear and you are only flirting with the idea of moksha (liberation), you will perhaps shy away from the process and try to go back to an easy life.... [Karma: pg 60]

We think meticulously about future events, such that they are bound to be stale when they arrive...  [Be in the Spontaneous Now: pg 105]

Accept that God is not known to us, until it is. If you do not know the Truth, and denounce the one in front of you, i.e., Maya... as a lie, where does that leave you?  [World is overrated: pg 30]

Both stylistically and at the level of semantics, the book deals with time, change and death. The quest is for the Holy grail, here mystical consciousness. Moments of being a spontaneous expression.

I Am. Do not add any more to that. .. All untrue. The existence is you and the only truth. [Sakshi: pg 126]

Deceptively simple, most of the sections are more psychological than purely textual. The author knows the habit is the enemy of art and life. She inspires the reader outside of the usual patterns of perception by making the familiar sound strange or different - unfamiliar. Ordinary language is transferred into an extraordinary idiom and rapturous infinities. An incredible achievement indeed!

FORMATION OF THE TEXT

One trained in literary theory and practice would definitely be interested in the formation of such a unique text. I believe content-oriented approach to a text is relevant to the extent that content-thought is a structured creative experience wherein point of time and period of time merge. This is not to suit my own problematics; it is there too palpable in the text I Am. As an ardent Aristotelian, I do not consider it an anti-humanist stance at all. A good writing has a therapeutic and cathartic function, which this text has. Right from Panini to Ferdinand de Saussure and Noam Chomsky and the behaviorists, the main concern has been how language works and means as a mode of communication and formation of a viable text.

I Am is evolutionary in nature as it evolves in time and space, where the culture to which the author belongs is constantly changing. A work well assimilated by the influences of the philosophies of the east and the west, the book is an expression of contemporary sensibility. This too is a fact that it is not conventional as it breaks with convention, more radically with static tradition.

The text is a fine specimen of inter-textuality - a method of meaning - production. There are other texts at work. The author has digested these panoramic textual resources as reader and textured a gestalt of her own - a well knit coherent text. Some harsh critics may view it as a work of pastiche which to me is rather too naive and pejorative. I Am is a serious and enriching text that seeks to recreate and revisit truth in an accessible manner. A fresh whole is created with order, polish and stylistic reference. This gives I Am an encyclopedic scope and range.

As a post modernist text, I Am deconstructs tradition - its archetypes, assumptions and codes. The text constructs and evolves cultural codes and concepts in fresh contexts and habitats initiating a fresh socio-cultural and academic interaction. As an inter disciplinary and interpretative text, the essays gain the status of a humanistic enterprise - a vitalizing and telling commentary on the issue that confronts us in ongoing post-colonial times.  

On occasions, I Am appears to be a counter disclosure as a reader can conveniently identify the confrontation between the constituted reality and its subversion. In this sense, the book goes beyond the canonical truths - the author does do so in her search for truth. Here she decolonizes the established mildewed stability with thought provoking statements, with pithy quotes from saints and sufis, thinkers and philosophers. Interestingly, life is never a luminous halo - gig lamps symmetrically arranged. With all the information, knowledge and wisdom, life, sadly, remains an unfinished project.

To sum it up, the book I Am is a pragmatic text from a learned author - a text, with distilled post-modernist stances and projections subverts the stereotypes. A valuable addition to the post modernist corpus of pragmatic philosophy and rhetoric.

It is - I Am - a book of Life. After having read it one cannot understand life better and celebrate it even better!


Writer :  Ms.Harpreet K Kang, 

Advance Prog Graduate, Harvard University

Dean, International Affairs, PCTE Group of Institutes. Ludhiana, India. www.pcte.edu.in

+91-9855111455


Review By: Prof (Dr.) Bhupinder Aziz Parihar







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