साहित्य नंदिनी दिसंबर 2021 अंक






प्रो. श्रोत्रिय ने बताया कि मूलतः राजस्थान के अजमेर निवासी स्वयं प्रकाश हिंदी कथा साहित्य के क्षेत्र में मौलिक योगदान के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने ढाई सौ के आसपास कहानियाँ लिखीं और उनके पांच उपन्यास भी प्रकाशित हुए थे। इनके अतिरिक्त नाटक,रेखाचित्र, संस्मरण, निबंध और बाल साहित्य में भी अपने अवदान के लिए स्वयं प्रकाश को हिंदी संसार में जाना जाता है। उन्हें भारत सरकार की साहित्य अकादेमी सहित देश भर की विभिन्न अकादमियों और संस्थाओं से अनेक पुरस्कार और सम्मान मिले थे। उनके लेखन पर अनेक विश्वविद्यालयों में शोध कार्य  हुआ है तथा उनके साहित्य के मूल्यांकन की दृष्टि से अनेक पत्रिकाओं ने विशेषांक भी प्रकाशित किए हैं। 20 जनवरी 1947 को इंदौर में जन्मे स्वयं प्रकाश का निधन कैंसर के कारण 7 दिसम्बर 2019 को हो गया था।  लम्बे समय से वे भोपाल में निवास कर रहे थे और यहाँ से निकलने वाली पत्रिकाओं ‘वसुधा’ तथा ‘चकमक‘ के सम्पादन से भी जुड़े रहे।

प्रो. श्रोत्रिय ने बताया कि इसी वर्ष आयोज्य समारोह में कथाकार मनोज कुमार पांडेय को सम्मान में ग्यारह हजार रुपये, प्रशस्ति पत्र और शॉल भेंट किये जाएंगे। इस सम्मान के लिए देश भर से बड़ी संख्या में प्रविष्टियाँ प्राप्त हुई थीं जिनमें से प्राथमिक चयन के बाद छह संग्रहों को निर्णायकों के पास भेजा गया। साहित्य और लोकतान्त्रिक विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए गठित स्वयं प्रकाश स्मृति न्यास में कवि राजेश जोशी(भोपाल), आलोचक दुर्गाप्रसाद अग्रवाल (जयपुर). कवि-आलोचक आशीष त्रिपाठी (बनारस), आलोचक पल्लव (दिल्ली), श्रीमती अंकिता सावंत (मुंबई) और श्रीमती अपूर्वा माथुर (दिल्ली) सदस्य हैं।

पल्लव, सचिव, स्वयं प्रकाश स्मृति न्यास, 393, कनिष्क अपार्टमेंट, ब्लॉक सी एन्ड डी, शालीमार बाग, दिल्ली

व्हासप न.: 08130072004

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रिपोर्ट

रचनाकार स्रष्टा थे विष्णु चंद्र शर्मा

बाबा नागार्जुन और रमाकान्त के बाद  सादतपुर साहित्य समाज के प्रथम पुरुष विष्णु  चंद्र शर्मा की प्रथम स्मृति सभा सादत पुर, दिल्ली  में 31 अक्तूबर को संपन्न हुई। इस अवसर पर 72 विचंश प्रेमी, मित्र और अनेक पीढ़ियों के रचनाकारों ने  अपनी भावपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए विष्णु जी के योगदान को रेखांकित किया।

बहुत दिनों के बाद 

वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी का कहना था कि बहुत दिनों के बाद कोई  ऐसी सभा हुई है। पूज्य को पूजित करने की क्षमता सब में नहीं होती। ऐसे लोग बहुत नहीं हैं जिनके नाम पर इतने और ऐसे लोग आ सकते हों। विष्णु चंद्र शर्मा को प्रोमोट करने की गुस्ताखी कोई नहीं कर सकता। बनारस में लोग उनको बहुत चाहते थे। नामवर सिंह, सरस्वती प्रेस वाले जगत शंखधर.... ये लोग उनके परिवार से परिचित थे और उन्हें बहुत चाहते थे। ऐसा नहीं है कि उन्हें अदेखा किया गया। किंतु उनके लिए कुछ करना आसान नहीं था। जहाँ-जहाँ विष्णु जी ने नौकरी की, उसे वे लात मार कर वहां से चले आए। लोग उनसे तंग आ जाते थे। एक बार कुबेर दत्त से हमने कहा कि टीवी पर विष्णु जी का इंटरव्यू होना चाहिए। वह कहने लगे, ’आप इंटरव्यू की बात कर रहे हैं, वह कह रहे हैं- मैं विश्वनाथ त्रिपाठी का मुंह नहीं देखूंगा।’ उनसे जाने किसने कह दिया था कि मेरी वजह से राजेश जोशी को साहित्य अकादेमी पुरस्कार नहीं मिल सका। बड़े नाराज थे। वह जिसे चाहते थे, उसका भला चाहते थे। बहरहाल, मैंने कुबेर दत्त से कहा,’ऐसा करो, विष्णु जी से कहो कि विश्वनाथ त्रिपाठी बहुत दुखी हैं। कह रहे हैं कि लिखना-पढ़ना छोड़ देंगे।’ बस, आधे घंटे में सब ठीक हो गया। कहने लगे,’अरे मैंने तो ऐसे ही कह दिया था यार...। लो इंटरव्यू...’ उनके लिए कुछ करने में बड़ी मुसीबत थी। वह रचनाकार स्रष्टा थे। वह मेरे साहत्यिक गार्जियन भी थे पर मेरी आलोचना से कभी नहीं बचते थे। मेरी जिस रचना की प्रशंसा होती, उसकी आलोचना करते। जीवन साहित्य का साहित्य है। हिंदी समाज में साहित्यकार के विवेक की परख होती है। तीमारदारी किसी की भी आसान नहीं होती। पर उनकी तीमारदारी करना बड़ा कठिन काम था। हममें से कोई हो, जो उनकी जीवनी लिख सके।

संत की कसौटी पर खरे 

उपन्यासकार और चिंतक  भगवान सिंह ने कहा: विष्णु पर बात करना अपने आप पर बात करने जैसा है। मेरी कविताएं भी ‘कवि‘ में छपी थीं। कमलेश्वर द्वारा आयोजित प्रैस आयोजन के बाद हम लोग राव साहब से मिले। वहां विष्णु ने राव साहब को आड़े हाथों लिया। मुझे समझ आ गया कि यह आदमी उजड्ड किस्म का है। हम लोग दिल्ली आए तो विचंश के संपर्क में रहे। संत की कसौटी पर आप उन्हें कभी ओछा नहीं पा सकते। उन्हें गुज़र लायक ही चाहिए होता था। एक बार मैंने उनसे कहा था कि तुम मेरे घर आकर रहो किंतु ’दृश्य-अदृश्य’ उपन्यास पढ़कर मुझे लगा कि मैं गलती पर था। नागार्जुन और उनमें अंतर था। विचंश को बस एक रोटी और जरा सा ड्रिंक चाहिए होता था। वह अपने से कहीं अधिक ध्यान हर प्रतिभा पर देते थे। उन्होंने अपनी चिंता कभी नहीं की। वह किसी भी जमाने में रह सकते थे। स्वतंत्रता के बाद सब पाने की कोशिश में होते चले गए, पर विचंश ऐसे न थे। आज हर आदमी अकेला है। विचंश सबसे जुड़े रहे। वह देश, उद्देश्य और सिद्धांत के लिए जीते थे। हम आपस में झगड़ते रहते थे। मैंने पाया कि विचंश का मूल स्वभाव कविता का था। समाज, जीवन और रचना में वह अनूठे थे।


अनेक कवियों को प्रश्रय

वरिष्ठ कथाकार शेखर जोशी ने खुद को इलाहाबाद वाला बताते हुए विष्णु जी के साथ के अपने दिनों को याद किया: कब का साथ था हमारा। केदारनाथ सिंह, विश्वनाथ  त्रिपाठी, नामवर सिंह, विद्यासागर नौटियाल और हममें ऐसा रिश्ता था कि एक शहर के दो मुहल्लों की तरह आवाजाही लगी रहती थी। छत्रावास में भी विष्णु एक साहत्यिक मिशनरी थे। उनके परिवार की पष्ठभूमि बड़ी समृद्ध थी। विष्णु जी की निकाली पत्रिका ’कवि’ ऐसी थी कि उसका हम सबको इंतजार रहता था। उन्होंने दुष्यंत की कविता उसमें छापी तो उसने बताया कि मेरी कविता ‘कवि’ में छपी है। इस पत्रिका में रचना प्रकाशन एक बड़ी बात होती थी। विष्णु ने अनेक कवियों को प्रश्रय दिया। वह जिन्हें आगे बढ़ाना चाहते थे, उनके प्रति चिंतित रहते थे। एक बार उन्होंने मेरी कुछ कहानियां मंगाईं। अरु प्रकाशन को वह दे  आए। लेकिन विचंश की नाराजगी पर जब वह डील खत्म हो गई तो उन्होंने वह पांडुलिपि झानपीठ को प्रकाशन के लिए भेज दी। मेरे पास रवींद्र कालिया का फोन आया कि आपकी स्क्रिप्ट यहां है। मैं हैरान, मैंने तो भेजी न थी। फिर मैं समझ गया कि यह वही संग्रह होगा जिसकी भूमिका महेश दर्पण ने लिखी थी। विचंश ने एक बार लेखकों की पत्नियों से पतियों पर लिखवाया। उन्होंने मेरी पत्नी से भी लिखने को कहा। और मुझसे कहा कि आप इंटरफेयर नहीं करेंगे। मैंने कहा ठीक है। एक समय वह श्रीपतराय के साथ काम करते थे। जस्टफिट में वह शमशेर जी के यहां रहते थे। वहीं के जमावड़े में वह खुश रहते । उनकी लाइक्स और डिसलाइक्स अपनी ही तरह की थीं।

उनकी कमी बहुत खलेगी

बचपन से विष्णु जी के संपर्क में रहीं कवयित्री शोभा सिंह का कहना था कि वह सदा स्मृतियों में रहेंगे। इलाहाबाद के समय से वह हमारे पारिवारिक मित्र थे। वह शमशेर जी और प्रेमलता वर्मा के साथ सक्रिय रहे। बड़ा कर्मठ व्यक्तित्व था उनका। हिंदी जगत की सजगता के वह हरदम प्रतीक रहे। हम सब अंतिम समय में उनसे मिलने न आ सके क्योंकि हम भी कोरोनाग्रस्त थे। उनकी ’कवि’ व ’सर्वनाम’ जैसी पत्रिकाओं का इंतजार रहा करता था। उन पर खूब बहस होती। आर्थिक संकट के बावजूद उन्होंने पत्रिका निकाली। शमशेर से उनकी अच्छी मित्रता थी। मेरे प्रारंभिक लेखन पर उनकी बेबाक प्रतिक्रिया मिलती थी। सादत पुर साहित्य जगत हमारे लिए एक मिसाल ही था। कभी नागार्जुन भी यहां रहे थे। यहां बहुत से पेंटर, साहित्यकार, पत्रकार रहते थे। आज सादत पुर में उन पर यह सभा होती देख अच्छा लग रहा है। ऐसी जगह अब उनकी कमी बहुत खलेगी।

’परिकथा’ के संपादक और कथाकार शंकर ने कहा: मैं विष्णु जी से दिल्ली में कुछ कार्यक्रमों के दौरान मिला। वह सादगी और संत परंपरा  के व्यक्ति थे। किसी विद्वान ने ठीक ही कहा है कि मध्य युग में ही संत नहीं हुए, आधुनिक  युग में भी संत हुए हैं। वह निराला, नागार्जुन और राहुल की परंपरा के संत कवि थे। उनका संपादक रूप बड़ा महत्वपूर्ण है। ’सर्वनाम’ पत्रिका का प्रकाशन बड़ी महत्वपूर्ण घटना रही। विष्णु जी ने आत्मनिष्ठता के समानांतर वह और वे की सस्कृति अपनाई। ’सर्वनाम’ एक अग्रणी पत्रिका थी।

संबंध हमेशा बने रहे

कथाकार और ’समयांतर’ के संपादक पंकज बिष्ट ने बताया: एक समय काफी हाउस में विष्णु जी से रोज भेंट हुआ करती थी। एक बार आनंदस्वरूप वर्मा से उनका भगड़ा हो गया तो कहा गया कि कि मैं और रमाकांत मिलकर उसे सुलझाएं। मेरे उपन्यास को लेकर उनके कई एतराज थे। फिर भी उनके द्वरा स्थापित ’राजकमल चैधरी सम्मान’ मुझे मिला। मैं अपनी तरह का संपादक था। कई बार उनकी भेजी चीजें नहीं भी छापता था। पर संबंध हमारे हमेशा बने रहे।

कवि अजय सिंह का कहना था कि विष्णु जी से मेरा इंटरेक्शन शमशेर जी के साथ हुआ। वह बड़े सनकी और गुस्सैल थे। पर प्रेम बराबर बना रहता था। उनका बड़ा जलवा और जज्बा था। वह आजीवन बना रहा। ‘सर्वनाम’ में उन्होंने मुझसे अनेक लेख लिखवाए। ’कवि’में तो मैं नहीं छपा, पर इस पत्रिका का अपना ही प्रभाव था। उनका विश्वास वाम विचारधारा के प्रति सदा बना रहा।

सादत पुर के प्रथम पुरुष

कवि-अनुवादक  सुरेश सलिल ने कहा कि विष्णु जी नागार्जुन और रमाकांत के बाद सादत पुर साहित्य जगत के  के प्रथम पुरुष थे। मैंने सादत पुर आने का निर्णय विष्णु जी के कारण ही लिया। उनके साथ अनेक विवाद और झगड़े भी हुए। पर कुछ समय बाद ही सब ठीक हो जाता था। उनका जाना खाली कर गया है। सादत पुर अब एक खाली प्लेटफार्म हो गया है। सलिल जी ने मीराजी की वह रचना इस अवसर पर सुनाई जो रवींद्रनाथ के निधन पर उन्होंने लिखी थी।  

मुंबई के एक आयोजन में विष्णु जी के साथ गए रामकुमार कृषक ने एक संस्मरण के माध्यम से बताया कि वह कैसे एक प्रस्ताव का मंतव्य तुरंत समझ गए और प्रतिरोध कर वहां से निकल गए। उन्होंने उस प्रस्ताव को समुद्र में फेंक देने को कहा। यह प्रस्ताव फासीवाद के मसले पर तैयार किया गया था। विष्णु जी का दुर्वासा रूप नागार्जुन की याद दिलाता था। उनके साथ सादतपुर और बाहर की अनेक स्मृतियां हैं। एक बार उन्होंने मुझसे ’ग़ालिब और निराला ’ पुस्तक की भूमिका लिखने को कहा। अपनी एक गजल उन्होंने विष्णु जी को समर्पित करते हुए सुनाई।

कवि इब्बार रब्बी ने बताया कि सन 1961 से टी हाउस में सब लेखकों के साथ विष्णु जी से भी मुलाकात होती थी। वह भी हमारी तरह तब सरोजनी नगर में रहते थे। उन दिनों मैं राजकमल चैधरी की नकल किया करता । उन्होंने मेरे संग्रह पर लिखते हुए कहा कि यह राजकमल की नकल है। हमने उसे छाप दिया। उनसे मैत्री का कारण ही यह था कि वह महान प्रतिभा की भी खाट खड़ी कर दिया करते थे। एक बार आनंदस्वरूप वर्मा के खिलाफ तो उन्होंने बाकायदा धरना ही दे दिया था। यह उनका एक सनकी रूप ही था। तमाम विवादों के बावजूद पहला राजकमल चैधरी पुरस्कार उन्होंने मुझे ही दिया। लालबहादुर शास्त्री और सम्पूर्णानंद सरीखे अनेक बड़े नेताओं से उनके सीधे संबंध थे, फिर भी उन्होंने कभी न कोई और लाभ उठाया न स्वतंत्रता सेनानी पेंशन ही ली।

पैर नहीं छूने दिए

युवा कवि नित्यानंद गायेन ने बताया कि हिंदी कविता में मुझे विष्णु जी ही लेकर आए। पहले तो हमने उनके बारे में किताबों में ही पढ़ा था। लेकिन जब उनसे मिलना हुआ तो बड़ी सहजता से हुआ। उन्होंने मुझे पैर नहीं छूने दिए। कहा: ’दोस्त बनना है तो अंदर आओ। नहीं तो निकल जाओ।’ उनसे काफी पत्राचार होता रहा। उन्होंने मेरी कविताएं देखीं। उनका चयन किया और कहा: ’पुस्तक छपेगी यह।’  यात्रा में वह अलग ही तरह के युवा थे। हमेशा कहते: संघर्षों से लड़ना सीखो। कथाकार हरियश राय का कहना था: हम लोगों को ‘सर्वनाम‘ की प्रतीक्षा रहती थी। हम लोग अहमदाबाद में होकर भी उनसे जुड़े थे। मुझे उनका एक इंटरव्यू करने का मौका मिला। मुझे लगता रहा कि उन्होंने कबीर और निराला को आत्मसात करना चाहा। उनकी पुस्तक ’मुक्तिबोध की आत्मकथा’ एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। शोधार्थियों और साहित्य के खोजियों को यह पुस्तक जरूर पढ़नी चाहिए। विष्णु जी तपस्वी की तरह हमारे समक्ष रहे। उन्होंने मुझे सादत पुर आकर कहानी पाठ करने के लिए कहा। महेश दर्पण के उपन्यास ’दृश्य-अदृश्य’ के माध्यम से मैंने जाना कि विष्णु जी का जीवन कितना संघर्षमय रहा!

कथाकार काजल पांडेय ने विष्णु जी से मिलने को अविस्मरणीय बताते हुए कहा कि पहली बार वह मुझे रमाकान्त स्मृति कहानी पुरस्कार समारोह में मिले। ऐसे बोले जैसे बहुत समय से जानते हों। उन्होंने मुझे ’सर्वनाम’ दिया और कहा: ’इसके लिए अपनी रचना मुझे दो।’ मैंने अपनी कहानी ’गुब्बारे वाले भैया’ उन्हें भेजी जो ’सर्वनाम’ में छपी। वह मेरे लिए एक आत्मीय बुजुर्ग जैसे थे। उनसे मुझे सदा लिखने का प्रोत्साहन मिलता रहा।

उन्होंने एक राह दिखाई

पत्रकार भाषा सिंह ने बताया: उन्हें  गहरे से जानने का कारण मेरे लिए प्रेमा मौसी हैं। वह अर्जेंटीना से जो कुछ लिखकर भेजतीं, उसके लिए एक स्थायी पता विष्णु जी का ही होता। ’सर्वनाम’ से उन्होंने एक सार्थक प्लेटफार्म विकसित किया। उन्होंने एक लोकतांत्रिक स्पेस निर्मित किया। शुरू से अंत तक उनमें कोई विचलन दिखाई नहीं दिया। वह चाहते थे कि आलोचना जिंदा रहे। दस्ती भी बनी रहे। उन्होंने एक राह दिखाई।  नये लेखकों के साथ उनका एकदम सजीव रिश्ता रहता था। उनका जीवन कष्ट वाला रहा। उनके योगदान पर चर्चा कम हुई। वह हमेशा मशाल जलाए रहे। हम अब बेबाकी और ज़िंदादिली का माहौल बनाए रखकर 

विष्णु जी की स्मृति को बनाए रख सकते हैं। कथाकार-आलोचक ज्योतिष जोशी ने कहा: 1986 के आसपास ’मुक्तिबोध की आत्मकथा’ पर ’साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में छपी समीक्षा को लेकर विवाद भी हुआ था। ’सर्वनाम’ मुझे सबसे पहले अपने काॅलेज में देखने को मिली थी । 1991 में मुझे बाबा नागा र्जुन और त्रिलोचन जी का इंटरव्यू करना था। इस काम में विष्णु जी ने मेरी बड़ी मदद की। बरसों मैं ’सर्वनाम’ का पाठक रहा। विचंश की अनेक पुस्तकें मैंने पढ़ीं। मेरी लिखी जैनेंद्र कुमार की जीवनी पढ़कर उन्होंने  मुझे फोन किया और कहा: ’तुमने यह काम बड़ी ईमानदारी से किया है।’ एक कविता में उन्होंने अझेय को स्वाद कहा है। वह समावेशी भी थे। इतना विपुल लेखन उन्होंने किया, कई पीढ़ियों को उन्होंने बनाया। वह व्यक्तित्व का निर्माण भी किया करते थे। भावुक थे, इसीलिए उन्हें सनकी कहा जा सकता है। हम सब भावुक हैं। हिंदी समाज के लिए यह शर्म की बात है कि उनके लेखन पर विचार नहीं किया गया। उन्होंने हमारी मनीषा का निर्माण किया। हमें उन्हें कायदे से याद करना चाहिए। प्रारंभ में युवा रचनाकार कनुप्रिया और पत्रकार मनीष सिन्हा ने भी अपनी स्मृतियां साझा कीं। कनुप्रिया ने कहा: विष्णु जी ने सदा मेरा आत्मविश्वास बढ़ाया।

विष्णु जी के भतीजे अभिषेक तिक्का और उनके ससुर क्षेत्रपाल  शर्मा ने भी अपनी भावनाएं व्यक्त कीं। शर्मा जी ने कहा: जब भी उनसे मिला, बड़ा आनंद आता था। उनसे जीवन का निचोड़ मिलता। वह भविष्यद्रष्टा थे। उनके शब्दों में सत्य था । वह समय के बड़े पाबंद थे। अभिषेक का कहना  कि वह मेरे घर तब आते थे जब महेश अंकल को दिल्ली से बाहर जाना होता था। मुझसे वह कहते: तुम्हारे मोबाइल और लैपटॉप ने तुम्हारी सोचने की शक्ति छीन ली है। उनका यह कहा सच लगा जब कभी  मैंने कुछ लिखने की कोशिश की। मैं समझ सका कि वह ऐसा क्यों कहते थे। एक बैग में दो कपड़े लेकर वह कहीं भी जा सकते थे। वह जीवन के लिए एक उत्साह ही थे।

सभा के अंत में विष्णु जी के अभिन्न डॉ. रत्नेश गुप्ता की मां श्रीमती उर्मिला देवी के निधन पर दो मिनट का मौन रखा गया। विष्णु जी उनका बहुत सम्मान करते थे। इस सभा का आयोजन संचालक महेश दर्पण और हीरालाल नागर ने किया। प्रस्तुति: मेघ पांडे, मो. 9968065549

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डाॅ. अवध बिहारी पाठक, सेवढ़ा, दतिया (मध्य प्रदेश), मो. 09826546665

समीक्षा

एक सार्थक आवाज ‘कुइयाँजान’


‘‘हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए‘‘ 

दुष्यंत कुमार की यह पीर के पिघलने की छटपटाहट वैयक्तिक नहीं, इसमें लोक-पीड़ा का इज़हार है। अजीब संयोग कि नासिरा शर्मा इसी उपन्यास के पात्र के माध्यम से कह रही हैं, ‘‘उन्हें लगा कि जैसे जाड़े की बर्फ पहाड़ों की चोटी से पिघल चुकी है, जो कुछ भी होना था, अब हो गया। अब जिंदगी की जिस नई नदी का फुटाव है, उसे अपनी दिशा लेने दो।‘‘ (पृ. 332) ये लगभग समान अभिव्यक्तियाँ संकेत करती हैं कि जब-जब देश/समाज/व्यक्ति में पीड़ा का घनत्व बढ़ा है, तब-तब अपने समय का सच संवेदनशील अंतःकरण से निस्सृत हुआ ही है।

सन् 2005 में नासिरा जी का एक उपन्यास ‘कुइयाँजान‘ प्रकाश में आया है, इससे पूर्व वे ‘सात नदियाँ: एक समुद्र‘, ‘शाल्मली‘, ‘ठीकरे की मँगनी‘, ‘जिंदा मुहावरे‘, ‘अक्षयवट‘ एवं अन्य विपुल साहित्य हिंदी-संसार को दे चुकी हैं। ‘कुइयाँजान‘, ‘अक्षयवट‘ के बाद की कड़ी-सा लगा है, ‘अक्षयवट‘ में लेखिका समय के आज को लेकर चिंतित हैं. तो ‘कुइयाँजान‘ में मानवीय अस्तित्व एवं पर्यावरण से जुड़ी चिंताओं को लेकर।

पानी-मिट्टी का प्रभाव तो सिर पर चढ़कर बोलता है, यदि व्यक्ति उससे जुड़ा है तो। यही कारण है कि जैसे काशीनाथ सिंह के उपन्यास ‘काशी का असी‘ में काशी, नॉवल इनामयाफ्ता नजीब महफूज के उपन्यास ‘जिस रोज़ सद्र का कत्ल हुआ‘ में मिस्त्र और वृन्दावनलाल वर्मा के उपन्यासों में बुंदेलखंड मुखर है, ठीक इसी प्रकार नासिरा जी के उपन्यास में इलाहाबाद। यो उपन्यास का कैनवास विस्तृत है, जो इलाहाबाद को केंद्र में रखकर सारे देश को कवर करता है। उपन्यास एकरेखीय नहीं चला। अपने आसपास की इतर घटनाओं, पात्रों से कथा को गति मिली और शिल्प को 

धार। उपन्यास में वहाँ की गलियाँ, बसावट, उसमें बसने वाली विविध सामाजिक स्थिति के लोग, लोकजीवन, ताने-तिशने, हँसी-मजाक, सुख-दुःख, एक समग्र स्थानीयता का भाषिक रचाव। यहाँ समाज के साथ इतिहास भी जुड़ा है। यही कारण है कि उपन्यास के अधिकांश पात्र अपने माज़ी में तैरते, उतरते दिखाई देते हैं, किंतु वे बशारत मंजिल (मंजूर एहतेशाम) के संजीदा सोज की तरह माज़ी में जाकर हताश, उदास, एकरस नहीं होते, बल्कि माज़ी की गंध से अपने टूटते-उखड़ते वर्तमान को सुवासित करने की चेष्टा करते हैं।

उपन्यास ब्लर्व पर छपे ‘जल ही जीवन है‘ को केंद्र में लेकर चला है, परंतु इसके साथ ही लेखिका ने अपने समय‘ के विराट प्रश्नों को भी जोड़ दिया है। वे प्रश्न सरसरी तौर पर राजनीतिक मुद्दे-से दिखते हैं, वस्तुतः हैं नहीं, क्योंकि वे मानव जीवन से संबद्ध हैं। इसी कारण उपन्यास शुद्धतः राजनीतिक होने से बच गया।

उपन्यास बडे ही सहज ढंग से इलाहाबाद की बताशे वाली गली के चंदन हलवाई की दुकान से शुरू होती है। वहाँ रंगीले, रसीले (हिजड़े) जैसे पात्र हैं, जिनको सवेरे-सवेरे देख अपशकुन मानने वाली मेहमूदन है। अधेड़ावस्था में पन्ना सुनार के घर पुत्र पैदा होने की चटखारे लेकर खबर फैलाने वाली पनवाड़िन भी है। ठीक तभी उसी गली में रहने वाले मौलवी साहब के इंतिकाल होने पर दफ़न पूर्व गुस्ल के लिए पानी न होने का प्रश्न खड़ा होता नज़र आता है जिसे बगल की एक भद्र ख़ातून के घर से पानी लेकर हल किया गया। इसके बाद कथा में ढेर सारे पात्र और घटनाएँ हैं, उनमें चंचलता ठसक, गंभीरता, हँसी-मजाक, बेतरतीबी, रिश्तों की महक, छल-फरेब, व्यंग, इंसानियत के तक़ाज़े और उथले स्वार्थों के साथ सेवा समर्पण के अद्भुत दृश्य हैं। विशेषतः मुस्लिम समाज/परिवारों की जीवनशैली, परंपराओं, रस्मों और अकीदों की अच्छी प्रस्तुति है और इस तरह कुर्रतुल-ए-हैदर एवं शानी की परंपरा को आगे बढ़ाया है। इन सारी गतिविधियों के बीच घर हो या दुकान, गृहस्थ हो या मज़दूर, विवाह हो या दैनिक निमित्त, पानी के अभाव की चर्चा छाई रही, सो भी कहाँ? इलाहाबाद में जिसे दो-दो नदियां आगोश में लिए हैं। कारण? पानी का अनुचित प्रबंधन और परंपारिक जलस्त्रोतों की उपेक्षा।

कथ्य में गाढ़ापन शकरआरा और खुरशीदआरा दो ख़ास बहनों एवं उनके परिवार, परिवार की भूत और वर्तमान की घटनाओं से आया। शकरआरा बड़ी, बेहद सुंदर मगरूर, रिटायर्ड आई.ए.एस. की महत्त्वाकांक्षी पत्नी। पति, सास, बहिन, पुत्र-डॉ. कमाल, बहू और तीन पुत्रियों से वैचारिक मेल का अभाव। यह उत्तर है तो खुरशीदआरा उदार, समझौतावादी, समीना (डॉ. कमाल की पत्नी) की माँ दो अल्पायु पुत्रों के बाद भारत-पाक युद्ध में पति की मृत्यु से हताश, किंतु घर-परिवार, समाज और इंसानियत के प्रति उत्सर्गी, जागरूक। यह है दक्षिण। खुरशीदआरा की कोशिशों के बावजूद दोनों में सामंजस्य नहीं हुआ तो नहीं ही हुआ। हुआ तो शकरआरा की स्वार्थ की सीढ़ी से लेकिन तब दोनों की ज़िंदगी की हाट उठने को ही थी। डॉ. कमाल ने चिकित्सा से जनसेवा को मिशन बनाया था। परंतु अर्थाभाव बाधक था। शकरआरा ने पति जमाल से अपनी जायदाद बेचने का आग्रह किया, परन्तु जमाल के तैयार न होने पर उसने खुर्शीद को पटाकर बरेली की विरासत पिता से प्राप्त कोठी को बेच दिया। खुर्शीद ने अपनी भागीदारी की राशि पुत्री-दामाद को देकर शकरआरा की आँखे खोल दीं, किंतु बिक्री का रहस्य पति-पुत्र से गुप्त रखा। खुरशीद के त्याग, उसका पहाड़-सा दुःख और पैतृक जायदाद को बेचने पर माँ की लताड़ ने शकरआरा में एक भयंकर अपराध-बोध पैदा कर दिया। उसका प्राणांत हुआ और वह उपन्यास के फलक से तिरोहित हो गई। दोनों परिवार घटनाक्रम से स्तब्ध, किंतु डॉ. कमाल अपने जन-चिकित्सा मिशन में लगा रहा। समीना ने शकर की मृत्यु के बाद पराग और पंखुड़ी-दो बच्चों को एक साथ जन्म दिया। इस खुशगवारी में कुछ समय बाद ही समीना भी चल बसी, किंतु बदलू और खुरशीद के संबल से वह अपने बच्चों का दायित्व निर्वाह एवं मिशन का निर्वाह करते हुए ‘शकरआरा दवाखाना, की तख्ती एक भवन पर स्थापित कर अपनी माँ का तर्पण-सा करता दिखा। ये कथा के वर्तुल हैं, जिनसे मुख्य विषय को प्रवामान किया गया है। उपन्यास में थोड़े पीछे जाकर डॉ. के. एल. राव की जल योजना की सेमीनारें होती हैं। अरबों रूपये व्यय होने पर भी समस्या यथावत् बनी रहती है। सेमीनारों में डॉ. कमाल देश के हर प्रांत में घूम-घूमकर इस समस्या के कारण, निदान तक पहुँचने की कोशिश करता है। यहाँ पात्रों के माध्यम से लेखिका ने इतिहास ओर भूगोल को खंगालकर रख दिया। संस्कृत ग्रंथों, राजस्थानी लोक जीवन और उसमें निहित कथाओं: ढोला-मारू प्रसंग आदि के प्रमाणों से सिद्ध किया है कि देश में वस्तुतः जल की कमी नहीं। जल में तरंग होती है। अपनी जिजीविषा से मनुष्य इसका संरक्षण करता आया है। राजस्थान में कुआँ, कुइयाँ (कुआँ का स्त्रीलिंग कुइयाँ। बहुवचन कुइयाँ जो उपन्यास के नामकरण का उत्स है), ये बावड़ियाँ आदमी ने बुद्धि-कौशल से बनाई। प्रकृति की गोद में जाकर उसे आँख दिखाकर नहीं, परंतु जब से विदेशी अनुकरण की आधुनिक जीवनशैली और बाजारवाद देश में पसरा, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के तिजारती हाथों ने प्रकृति से छेड़छाड़ की, बाँध बनाए, परंपरागत जलस्त्रोतों की उपेक्षा हुई, पर्यावरण में असंतुलन आ गया। बाढ़, सूखा इसी की देन हैं। सन् 1750 में गाज़ीउददीन हैदर की गंगा-गोमती एकीकरण की असफलता से नदियों के एकीकरण समर्थकों को सबक लेना चाहिए। लेखिका ने स्पष्ट रूप से ऐसी सारी योजनाओं-नीतियों को नकारा है जिनमें पश्चिम का बाज़ारवाद बोलता हो। यहाँ लेखिका मेध और अरून्धति राय के साथ बड़ी मजबूती से खड़ी हैं। डॉ. कमाल के माध्यम से पूछती हैं लेखिका, “आजादी मिले एक अर्सा हो गया, परंतु स्वच्छ जल सबको बराबर नहीं मिला। उल्टा जिस गुलामी को हमने कभी नकारा था अब जल परियोजनाओं के चलते हम फिर उस दासता को स्वीकार कर रहे हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ किस तरह अपना उल्लू सीधा कर रही हैं, जब यह षड्यंत्र हमारी समझ में आ रहा है, तो उनकी समझ में क्यों नहीं आ रहा जो ऐसे अनुबंधों पर हस्ताक्षर करते हैं?‘‘ (पृ. 219) ये प्रश्न देश के नागरिकों से है और उनसे अधिक उनसे है जिनके हाथ में सत्ता, नीतियाँ, प्रशासन रहा और है। यहाँ मुझे ‘कितने पाकिस्तान‘ (कमलेश्वर) का अर्दली याद आ रहा है, “हुजूरे आलिया! मैं आपकी तकलीफ और नाराज़गी को समझता हूँ। जब इंसानी सभ्यता का भविष्य सौदागरी सभ्यता में बदला जा रहा हो, जब मनुष्य के सुकून, सुख, सपनों और अरमानों को तिजोरियों में कैद किया जा रहा हो, जब एक बड़ी इंसानी सभ्यता को फरेबी सौदागरों के जाल में फंसाया जा रहा हो, वह वक्त बहुत नाजुक होता है।‘‘ एक समवेत इंसानी चिंता का स्वर है यहाँ, कि वक़्त वाकई नाजुक है। इसके साथ ही उपन्यास के मंच से लेखिका अन्य नाजुक बिंदुओं तक पहुंची हैं। जोहांसबर्ग में विश्व जल परिषद् की चर्चा के संदर्भ में लेखिका ने कहा है, ‘‘इराक युद्ध के लिए अमरीकी काँग्रेस ने राष्ट्रपति बुश को बिना देर किए 75 अरब डॉलर देने की घोषण कर दी मगर तत्काल ऐसी घोषणा जल समस्या पर नहीं की।‘‘ (पृ. 89) लेखिका की स्थापना है कि विश्व की वर्चस्ववादी शक्तियाँ इंसानी विनाश के मसलों पर सक्रिय हैं, परंतु जनकल्याण की ओर से आँख बंद ही रहती है इनकी। यह समय का कड़वा सच है। देश की आर्थिक नीतियों पर भी लेखिका का ध्यान गया है। एक पात्र कहता है, ‘‘गरीबी का ताना-बाना बड़ा मजबूत है ई देश मा, ओहि ताने-बाने पर सरकार की गाड़ी चलत है। हम न हों तो विश्वास करो मास्टर जी इनका रथ ठहर जाई।‘‘ (पृ. 269)

ये उपन्यास की राजनीतिक आभिजात्य पर तीखी टिप्पणी है और इसमें बहुत वजन है। सच है बकौल मुक्तिबोध: ‘‘वह पिस रहा दो पाटों के बीच।‘‘ एक पाट विदेशी बाज़ारवाद, बहुराष्ट्रीय कंपनियों का तो दूसरा पाट उनके संकेत पर चलने वाले नीति नियामक! एक और तथ्य की ओर संकेत किया है लेखिका ने कि जनतंत्री वर्दी धारे उसके रक्षक सरकारी उपक्रमों का निजीकरण कर अपने कर्तव्यों से पल्ला क्यों झाड़ लेते हैं? इसका जवाब बकौल उपन्यास के मा. सा. के अलावा किसी के पास नहीं, न कुचलने वालों के पास, न कुचले जाने वालों के पास, किंतु तभी समय का यथार्थ कह उठता है, ‘‘ठहर तो। यूँ पीठ दिखाकर मैं तुझे जाने नहीं दूंगा।। मैं तेरा पीछा तब तक करता रहूँगा जब तक तू अपने हाथ इन विनाशकारी गतिविधियों से नहीं खींच लेता। मैं आ रहा हूँ तेरे पीछे।‘‘ (पृ. 274) यहाँ नोट करें कि लेखिका जल प्रबंध में उत्पन्न दोष और पर्यावरण के असंतुलन की सारी ज़िम्मेदारी नीति नियामकों पर ही नहीं डालती, हमारी अपनी भूलों की ओर भी संकेत कर हमें आत्म-मंथन की चेतावनी भी देती हैं। उपन्यास में सर्वत्र जनसंख्या वृद्धि, अधिक संपन्नता के भूत, जल के परंपरागत स्त्रोतों के प्रति हमारी उपेक्षा, जंतु और ज़मीन के प्रति क्रूर व्यवहार की चर्चा है। लेखिका इस बिंदु पर तटस्थ दिखाई पड़ती हैं। इसी कारण, वह किसी राजनीतिक विचारधारा के संभावित आरोप/विक्षोभ से बच जाती हैं।

रचना की सफलता उसके किरदार हुआ करते हैं। लेखिका ने अपने पात्रों के साथ, ऐसा लगता है कि अपना खुद का जीवन जिया हो। सबके साथ एक-सा हिंदू-मुस्लिम संप्रदाय भेद जहाँ हो, हो, नासिरा जी का संसार इस संकीर्णता से मुक्त है। वहाँ जमाल की मुँहबोली बहिन सीमा पुरोहित है, रत्ना है, जिसकी गोद भराई की रस्म खुरशीदआरा कामदानी का दुपट्टा उढ़ाकर पूरा करती है और रत्ना खुरशीद के पैर छूकर आशीष लेती है। नासिरा जी का मजहबों का संसार उतना ही विस्तृत है जितना आकाश, जिसमें हरेक को साँस लेने, ज़िंदा रहने की जगह है। इस बिंदु पर उपन्यास सामाजिक सामरस्य का संदेश देता है। एक बात और कि समाज के अंतिम छोर के पात्रों को उपन्यास में जगह है। सभी वर्गों को। अलका सरावगी के उपन्यास ‘कलिकथा बाई पास‘ या ‘कोई बात नहीं‘ में कलकत्ते का मारवाड़ी आभिजात्य ही चर्चा में है, निग्न वर्ग नदारद। ऐसे एकांगीपन से ‘कुइयाँजान‘ को लेखिका ने बचाया है।

उपन्यास में कथा विस्तार के साथ समय की सापेक्षता का प्रश्न आवश्यक रूप से जुड़ा होता है, परंतु इस उपन्यास के अधिसंख्य पात्र शकरआरा हो या खुरशीदआरा, जमाल हो या डॉ. कमाल या फिर मा.सा. , अपने वर्तमान के घेरे को जिसमें उनका अंर्तमन घिरा-फँसा महसूस करता है-को तोड़कर माज़ी में जीवनमूल्यों की खोज में चले जाते हैं। ऐसी ही एक दशा में डॉ. कमाल कह उठता है. “बुआ जब यह तम्हारी जान है तो इसका नाम रख दो ‘कुइयाँजान‘।‘‘ (पृ. 408) इसके लिए लेखिका ने कथा प्रवाह के बीच ‘स्वप्नदृष्टि‘ एवं ‘नेपथ्य‘ का सहारा लिया है। यह प्रविधि नाटकों से उपन्यास में आई। सर्वथा नया प्रयोग है यह।

कथा का नायक डॉ. कमाल स्वीकारा जा सकता है। वह अपने लक्ष्य के प्रति ‘बोल्ड‘ तो है, पर जल समस्या का ‘क्रटीक‘ नहीं बन पाया, क्योंकि लोक को उसने अनुभव में तो उतार दिया, पर क्रियाशीलता पैदा नहीं कर पाई सब में। मेरी दृष्टि में लेखिका ने जो दीप्ति खुरशीदआरा को दी, वैसी अन्यत्र नहीं दिखी। उसका तो सारा जीवन व्याघात सहने की प्रयोगशाला बना नजर आया, वह प्रणम्य है। समाज को संदेश जाता है उसके चरित्र से। लेखिका ‘टिपिकल‘ चरित्र/पात्र गढ़ने में कुशल हैं। राबिया एक ऐसा ही पात्र है। बेघर-ठिकाने की एक चालू माँ की बाजारू लड़की, न कोई पारिवारिक/सामाजिक पृष्ठभूमि, पर आभिजात्य संपर्क से सीखे तौर-तरीकों के बल खाता-पीता, घर-वर खोज लिया, साथ ही सेवा से बदमिजाज सास का हृदय परिवर्तन कर दिया, प्रेरक है यह सब। रचना में भाषा पात्रानुकूल है। बुंदेली मिश्रित ठेठ इलाहाबादी-‘‘भौजी पैर तो धुलवाय लो, का गत बन गई है पाउन की‘‘ जैसे वाक्य तो दूसरी ओर “ई सब बात ले मानल वा लेकिन लोगों कितना बदमास हो गइल ता।‘‘ भोजपुरी बोली के वाक्य स्पंदित करते हैं। ‘दोहर‘, काँय-काँय, छिनार जैसे देशज शब्द एवं ‘माँ मरे मौसी जिए‘ जैसे उक्ति-प्रयोग लेखिका के भाषाधिकार को सिद्ध करते हैं। उपन्यास में कुछ छोटी कथाएँ जरूर गैरजरूरी लगीं। उनसे कलेवर अनावश्यक बढ़ा है और पठनीयता भी बोझिल हुई। इसके साथ ही जल-चर्चा में एक तथ्य की कई बार आवृत्ति की गई। यथा शिवनाथ, नदी। पात्रों की अधिकांश उठा-बैठी, भोजन-पानी जैसी औपचारिक बातों में उलझ गई-सी दिखी, जो सहजता का अतिरेक है। किंतु मानवता को जिंदा रखने की ‘थीम‘ को लेकर चलने वाली रचना में ऐसे तथ्य स्वयं ही श्रीहीन हो गए हैं। समग्र रूप से देखें तो उपन्यास ‘कुइयाँजान‘ मनुष्य के अस्तित्व को बचाने के लिए चिंतित है। साथ ही प्रमाणों का वैविध्य, भाषा के स्वर-ताल. विभिन्न संस्कतियों के मेल की खनक जैसे कारक उसे पठनीय बनाते हैं। अब इंसान लेखिका द्वारा संकेतित निसर्ग से जुड़ने का रास्ता पकड़ता है या दंभग्रस्त होकर ‘ठाकुर के कुएँ‘ में गिरकर आत्महत्या करता है, यह समय के गर्त में छिपा है।

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डॉ. पुष्पा गुप्ता, बी-2/70  सफदरजंग एनक्लेव,  नई दिल्ली, मो. 9873712335, 8700129532

लेखक शैलेंद्र शैल, मो. 98110 78880

समीक्षा

संबंधों का दस्तावेजः रावी से यमुना तक

लेखक शैलेंद्र शैलजी का नवीनतम उपन्यास ‘रावी से यमुना तक‘ पढ़ा। यह कृति वर्तमान दौर में लिखी जा रही रचनाओं से अलग लगी अतः इस पर लिखने का मन हुआ।  

उपन्यास का शीर्षक पढ़ने पर प्रथम दृष्टया ऐसा प्रतीत होता है कि कथा रावी से यमुना तक का भौगोलिक विस्तार समेटे हुए है, परंतु जैसे-जैसे कथा आगे बढ़ती  है तो पाठक को ज्ञात होता है कि कथा का तंतु विस्तार तो अंतर्राष्ट्रीय है। कथा विभाजन पूर्व से लेकर सन् 2008 (उपन्यास में वर्णित) तक का कालखंड समेटे हुए है। कथा नायक रमाकांत प्रभाकर अपने जीवन में अध्यापन के प्रथम सोपान से बढ़कर शीर्ष तक पहुंचने में कोई समझौता नहीं करते। वह अपने शिष्यों और बेटों को भी ऐसा ही आचरण करने के लिए प्रेरित करते हैं। पठन-पाठन की दुनिया से संबंध रखते हुए वह निरंतर अपना मानसिक विकास करते हैं। अपने समय के चलन से अलग अपने बेटों को उनके मनपसंद कैरियर चुनने का अधिकार देते हैं, पिता होने के नाते यथासंभव सहयोग करते हैं और उनकी उपलब्धियों पर पीठ भी थपथपाते हैं। उन्हें अपने बेटों पर अगाध विश्वास है इसी कारण जीवनसाथी चुनने के प्रश्न पर भी वह अपने बेटों की पसंद पर मोहर लगाते हैं। यहां तक कि अवसर पड़ने पर वे अपनी कथनी और करनी को एक करके दिखाते हैं। वह अपनी पाकिस्तानी बहू तहजीब को स्वीकारते हैं और आपत्ति किए जाने पर कुलपति का पद सहजता से छोड़ देते हैं। 

स्वाधीन-संध्या, सुधीर - दीपिका, समीर - तहजीब सनातन-मिशिका इन सब दंपतियों के संबंध का आधार जाति-धर्म-गोत्र नहीं बल्कि वैचारिक अनुकूलता है जिसमें मनुष्य निर्मित बंधनों की भूमिका को अस्वीकार कर दिया गया है। जिसके कारण यह संबंध राष्ट्र की सीमा से निकलकर अंतरराष्ट्रीय हो गए हैं जो ‘वसुधैव कुटुंबकम्‘ के भाव को व्यवहारिक रूप में परिणत करता है। यहां यह भी स्पष्ट होता है कि यदि पति-पत्नी के बीच स्वाभाविक सामंजस्य की स्थिति होती है तो नौकरी की विपरीत प्रकृति के साथ भी प्रेम पूर्ण जीवन जिया जा सकता है। रमाकांत ने अपनी सभी संतानों को उदारता के साथ संस्कारित किया है अतः बड़े होने पर भी भाइयों में स्नेह और सम्मान बना रहता है।

स्वाधीन पर जासूसी का आरोप, सुधीर का युद्धबंदी हो जाना और उससे जुड़े हुए घटनाक्रम यह भी सिद्ध करते हैं कि जिन बड़ी नौकरियों के लिए सार्वजनिक जीवन में आकर्षण है उन नौकरियों से जुड़े हुए जोखिम भी उतने ही बड़े होते हैं।  

रमाकांत के जीवन के माध्यम से लेखक ने आज के समय के दो महत्वपूर्ण प्रश्नों को रेखांकित किया हैः-  

1. लंदन में वृद्धाश्रम में जीवन बिताने को वह सहजता से लेते हैं क्योंकि वह जानते हैं कि विधुर बेटे के पद की व्यस्तता उन्हें  समय देने में असमर्थ है। इस प्रकरण से वह कहना चाहते हैं कि प्रत्येक वह स्थिति जिसमें नकारात्मकता या अतिरेक ना हो हमें समयानुसार सहजता से स्वीकार कर लेनी चाहिए।  

2. लेखक ने रमाकांत के माध्यम से इच्छा मृत्यु के प्रश्न को भी उठाया है। वह अपनी डायरी में लिख देते हैं कि यदि उन्हें 20 दिन तक अचेतावस्था में रहना पड़े तो इक्कीसवें दिन कृत्रिम जीवनरक्षक प्रणाली अर्थात वेंटिलेटर से उन्हें मुक्त कर दिया जाए। जीवन के साथ-साथ मृत्यु की सहज स्वीकार्यता के कारण इक्कीसवें दिन वे स्वाभाविक मृत्यु पा लेते हैं। इस तरह यहां भी वह बेटों को धर्म संकट से मुक्त कर जाते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि उनके बेटे कृत्रिम जीवनरक्षक प्रणाली पर उन्हें जिलाए रखने की सामथ्र्य रखते हैं। उनका महाप्रयाण और परिवार में सुदूर अमरीका में उनकी पडपोती का जन्म जीवन और मृत्यु के क्रम की समानांतरता का सुंदर संकेत देता है।  अति यथार्थवाद और शोधपरक रचनाओं के इस दौर में यह कृति गांधीवादी मूल्यों के साथ आदर्शवाद की बात करती है। केवल बात ही नहीं करती बल्कि यह सिद्ध करती है कि मानसिक तनाव और गलाकाट प्रतियोगिता के इस दौर में यदि आदर्शों को जीवन मूल्य या संस्कार की तरह स्वीकार कर लिया जाए तो मानव जीवन की बहुत सारी परेशानियों से सहज ही मुक्ति पाई जा सकती है क्योंकि जीवन में स्वीकार्यता का अभाव ही सभी स्तरों पर समस्याओं को जन्म देता है।  

संपूर्ण उपन्यास में दीर्घ कालखंड के अनुरूप अपने युग की सभी प्रमुख राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक घटनाओं का उल्लेख है जो यह सिद्ध करता है कि अपने युग की बड़ी घटनाएं सामाजिक जीवन में परिवर्तन धर्मिता का काम करती हैं। इन घटनाओं का उपयोग लेखक ने पृष्ठभूमि के रूप में किया है जो कथा को गति प्रदान करती हैं।  

उपन्यास की एक और विशेषता है इसमें लेखक ने बहुत सारे सार्वजनिक चरित्रों का उपयोग इस प्रकार किया है कि उन्हें पहचानना आसान है।  

किसी भी रचना को उसके रचनाकार के व्यक्तित्व से पूर्णता का अलग रखकर नहीं देखा जा सकता इसलिए निकट से जानने वाले लोग इसमें लेखक के आत्म के कुछ तथ्यों से सहज ही जुड़ सकते हैं।  

अपने शीर्षक के विस्तार को सार्थक करते इस उपन्यास की भाषा सहज है इसलिए रोचकता बनी रहती है।  

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समीक्षा

‘मेरा कमरा’ में आत्मीयता का सौंदर्य

यह वास्तव में सुखद है कि हिंदी साहित्य में अब डायरी लेखन को समय और स्थान दिया जा रहा है। डायरियाँ अब व्यष्टि से समष्टि की ओर अग्रसर हो चुकी हैं। इनके माध्यम से किसी लेखक के दैनिक जीवन में हो रहे सुखद-दुखद क्रिया-कलापों, वैचारिक आलोड़नों एवं साहित्यिक-सामाजिक घटनाओं  की झलक मिल रही है। हाल के वर्षों में बहुत से लेखकों की गंभीर डायरियाँ आई हैं, जिनसे लेखक कई स्तरों पर पाठकों से जुड़ने में सफल रहा है। यदि लेखक पहले से ही सरल-सहज और जनचेतना के प्रति समर्पित रहा हो तो डायरी की उपयोगिता और भी बढ़ जाती है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण प्रो. रामदरश मिश्र की नवप्रकाशित डायरी ‘मेरा कमरा’ है।

‘मेरा कमरा’ रामदरश मिश्र जी द्वारा मोटे तौर पर सन् 2016 से 2019 के बीच दर्ज छिटपुट, छोटी-मोटी घटनाओं का एक जीवंत व मधुर संकलन है, जिसमें वे बड़ी शिद्दत एवं लगाव के साथ अपने बीत रहे पलों को जीते हैं, समझते हैं और शब्दबद्ध कर देते हैं। एक सफल लेखक की विशिष्टता यही होती है कि वह अपने अनुभवों और एहसासों को पाठक का अनुभव और एहसास बना देता है। उसकी अनुभूतियाँ अपनी होते हुए भी अपनी नहीं रह जातीं। न जाने कितने लोग उसे अपना मान बैठते हैं, उनकी तारीखें और चरित्रों के नाम अलग हो सकते हैं। डायरी की यह विशेषता रामदरश मिश्र की इस पुस्तक में पंक्ति-दर-पंक्ति मिलती जाती है।

इस डायरी में किसी बड़ी राजनीतिक, सामाजिक या साहित्यिक घटना का उल्लेख या वर्णन नहीं मिलता। बस, लेखक अपने आसपास की छोटी-छोटी चीजों का अवलोकन करता रहता है। प्रायः कोई लेखक या संपादक, कोई शोधछात्रा या कभी कोई परिचित मिश्र जी के आवास पर मिलने आता रहता है। कभी कोई त्योहार है तो कभी कोई छोटा-मोटा साहित्यिक आयोजन। लेकिन इन छोटी चीजों को बड़ा और महत्त्वपूर्ण बना देना ही रामदरश मिश्र का बड़प्पन है, उनके लेखन की विशेषता।  

डायरी का पहला प्रसंग ‘मेरा कमरा’ है, जिस पर 08 अक्टूबर 2016 की तिथि अंकित है। इसे डायरी का पृष्ठ कहने के बजाय एक ललित लेख कहना बेहतर होगा। लगभग सात पृष्ठों के इस लेख में मिश्र जी एक कमरे को कई कोणों से देखते हैं तथा उससे बड़ी आत्मीयता से जुड़ जाते हैं। यह कमरा उनका कमरा न होकर उनके सुख-दुख का अभिन्न साथी है। इसमें बैठकर उन्होंने जीवन के न जाने कितने ताने-बाने बुने हैं। कितने मधुर और सुखद क्षण इसी कमरे ने महसूस कराए हैं। सामान्यतः मनुष्य पूरा जीवन कमरे में निकाल देता है, लेकिन उससे जुड़ नहीं पाता। यह जुड़ाव ही मिश्र जी के लेखन की विशेषता है। इस लेख में वे गाँव में बिताए अपने प्रारंभिक जीवन से लेकर उत्तम नगर के अपने वर्तमान मकान के कमरे से जुड़ी यादों को बहुत आत्मीयता से उकेरते हैं। ग्राम्य संस्कृति में पुरुषों के लिए कोई कमरा न होने को वे ढंग से रेखांकित करते हैं, भले ही वहाँ मकान बड़ा होता रहा हो। इस पर कम लोगों का ध्यान जाता है कि वहाँ पुरुष की कोई निजता नहीं होती। कमरे के नाम पर अलग से उसके लिए यदि कुछ होता है तो उसकी पत्नी का कमरा।

यह लेख वास्तव में कमरे को लेकर एक मधुर संस्मरण और विमर्श का पाक है। कहना न होगा कि मिश्र जी ने कमरे के माध्यम से अपनी लेखकीय संवेदनशीलता और गरिमा का परिचय दिया है। छोटी चीजों और छोटे लोगों को वे बड़ा महत्त्व एवं स्नेह देते हैं। उल्लेखनीय तो यह भी है कि उन्हें ‘साहित्य अकादमी’ एवं ‘व्यास सम्मान’ जैसा बड़ा सम्मान दिलाने का श्रेय क्रमशः ‘आग की हँसी’ और ‘आम के पत्ते’ काव्य-संग्रहों को जाता है, जो जीवन की छोटी-छोटी, उपेक्षित वस्तुओं या व्यक्तियों के पक्ष में बोलते हैं। 

दिनांक 04 जनवरी, 2016 के पृष्ठ पर ‘फिर नया वर्ष’ शीर्षक के अंतर्गत नववर्ष के श्वेत एवं श्याम पक्षों पर खुलकर लिखते हैं। इसमें वे हिंदी की पत्रिकाओं को सलाह देते हैं कि उन्हें अच्छी रचनाओं के लिए खुला रहना चाहिए। वे ऐसे अ-महान लोगों को स्थान दें जो महान न होते हुए भी दीप्तिमान हैं। दूसरी ओर वे उन पत्रिकाओं पर व्यंग्य कसते हैं जो केवल महान लोगों को छापकर ही महान बनी रहना चाहती हैं। व्यंग्य की इस धारा में वे उन लोगों को भी घसीटते हैं, जिनका कोई पर्व-त्योहार शराब के बिना नहीं मनता।

रामदरश मिश्र की आत्मीयता एवं सहज स्वभाव के कारण लेखकों, संपादकों, शोधछात्रों, प्रकाशकों एवं कुछ सामान्य पाठकों का आना-जाना प्रायः लगा रहता है। जो भी आता है, उसे मिश्र जी का स्नेह एवं समर्थन मिलता है तो माता सरस्वती जी के हाथों का चाय जलपान। इस डायरी संग्र्रह में उनसे मिलने जाने वाले अनेक लोगों का जिक्र है। इस क्रम में हरजेंद्र चैधरी, गुरुचरण सिंह, प्रेम भारद्वाज, गौतम मिश्र, नरेश शांडिल्य, शशिकांत, राधेश्याम तिवारी, नरेंद्र नाथ मिश्र, कल्लोल चक्रवर्ती, डॉ. वेदप्रकाश पांडेय, सविता नागर एवं अन्य कई लोगों से घर पर मिलने का जिक्र हैं तथा उनसे हुए साहित्यिक संवादों को रेखांकित किया गया है।

डायरी के कई पृष्ठ कतिपय उत्सवों, गोष्ठियों एवं पुस्तक मेले में उनकी उपस्थिति को दर्शाते हैं। ग्राम्य पृष्ठभूमि का होने के कारण मिश्र जी उत्सवप्रेमी हैं। इनमें धार्मिक उत्सवों के साथ साहित्यिक उत्सव एवं जन्मोत्सव में हुई सहभागिता को बहुत महत्त्व देकर लिखा गया है। देखा जाए तो दीवाली एवं होली पर लिखे गए पृष्ठ पूरी तरह निबंध एवं संस्मरण का स्वाद देते हैं। एक होली पृष्ठ 13 मार्च, 2017 की तिथि पर है जिसमें वे अपने वर्तमान होली की तुलना पहले की होली करते हुए कुछ उदास से दिखते हैं। अंदर होली की पुरानी गूँज होती है, लेकिन बाहर का वातावरण बदल चुका है। दूसरी होली का पृष्ठ 19 मार्च, 2019 है जिसे लिखते समय वे बी.एच.यू. की होली याद करने लगते हैं। यह होली ऊर्जा से भरपूर है। बनारस की होली में ऊर्जा का न होना अस्वाभाविक होगा। वे अपने छात्रजीवन की होली को बहुत शिद्दत से याद करते हैं, जिसमें हुड़दंग, रंग-गुलाल और गीतों के रंग के साथ साहित्यिक रंग भी मिला होता था। लेकिन, ऐसी उमंगपूर्ण होली साथ छोड़ गई और रह गई हैं बस कुछ यादें। होली पर ही एक और पृष्ठ 02 मार्च, 2018 का है।

मिश्र जी के ‘कमरे’ में उनके जन्मदिन के उत्सव एवं पुस्तक मेला भ्रमण बड़े आह्लादकारी होते हैं। उनके जन्मदिन पर दिल्ली में रहने वाले कुछ खास साहित्यकार मित्र एकत्रित होते हैं। वह जन्मोत्सव एक लघु किंतु स्तरीय कविगोष्ठी में बदल जाता है। पिछले कई जन्मदिनों पर बहुत सी पुस्तकों-पत्रिकाओं  का विमोचन हुआ, जिनमें मिश्र जी पर एकाग्र पाखी का अंक व उनकी स्वयं की पुस्तकें थीं। इसके अतिरिक्त इस अवसर पर अनेक लेखक अपनी पुस्तकों का विमोचन मिश्र जी के हाथों करवाना अपना सौभाग्य समझते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में वे इस डायरी में 15 अगस्त, 2017 को मनाए गए 94 वें जन्मदिन का वृत्तांत 16 अगस्त के पृष्ठ पर लिखते हैं। दिनभर मिलने वाली तमाम दूरभाषिक शुभकामनाओं से मन भरा हुआ था ही, सायंकाल पुत्र शशांक मिश्र के द्वारका स्थित आवास पर मिश्र जी का जन्मदिन आत्मीयों की वास्तविक उपस्थिति में मनाया गया, जिसमें ‘संवाद-यात्रा’ (साक्षात्कार संग्रह- संपादकः हरिशंकर राढ़ी), ‘रात सपने में’ (कविता संग्रह), ‘सपना सदा पलता रहा’ (गजल संग्रह) और ‘एक बचपन यह भी’ (उपन्यास) का लोकार्पण हुआ। यह पूरा वृत्तांत इस प्रकार लिखा गया है कि वातावरण सजीव सा हो गया है।

यद्यपि शरीर बाहर जाने की पूरी तरह अनुमति नहीं देता, फिर भी मिश्र जी कुछ खास कार्यक्रमों एवं उत्सवों में चले ही जाते हैं। इनमें आकाशवाणी के कुछ विशेष कार्यक्रम, ‘सोच-विचार’ पत्रिका के रामदरश मिश्र एकाग्र अंक के लोकार्पण पर वाराणसी की उजासभरी यात्रा और उपन्यास ‘जल टूटता हुआ’ पर बन रही फिल्म के मुहूर्त पर लखनऊ की यात्रा के वृत्तांत बहुत मन से लिखे गए हैं। वाराणसी यात्रा के संबंध में वे लिखते हैं - ”कुछ जगहें हैं जो मुझे पुकारती हैं-मसलन गाँव, काशी और अहमदाबाद।“ लखनऊ की यात्रा मिश्र जी को उतनी नहीं रुची जितनी कि वाराणसी की। मुहूर्त के समय फोटो खिंचाने की होड़ में लगे लोग सामान्य शिष्टाचार भूल जाते हैं, जिससे वे व्यंग्यात्मक हो उठते हैं।

पुस्तक मेले भी लेखक को बहुत पुकारते हैं। दिल्ली के प्रगति मैदान में हर वर्ष जनवरी में लगनेवाले पुस्तक मेले में जाने का लोभ संवरण वे नहीं कर पाते। हर वर्ष उनकी कुछ पुस्तकें आई हुई होती हैं, कुछ अन्य लेखक मित्रों की। उनका विमोचन होना होता है। फिर पुस्तक मेला एक साहित्यिक कुंभ होता ही है। न जाने कितने लोगों का मिलना वहाँ एक साथ हो जाता है। इस डायरी में ऐसे कई दिन दर्ज हैं।

सामान्यतः घटने वाली सुखद-दुखद घटनाओं अतिरिक्त इस डायरी में कई ऐसे लेख हैं जो साहित्य एवं समाज पर खुलकर बोलते हैं। उनसे एक ईमानदार विमर्श निकलता है। वे ऐसी अनेक साहित्यिक टोटकों एवं व्यापारीकरण पर व्यंग्यात्मक हो उठते हैं। कई संस्थाओं द्वारा दूकानदारी की भाँति चलाए जा रहे पुरस्कार-सम्मान वितरण से वे नाखुश तो हैं ही, उन लेखकों की मानसिकता पर भी हैरान हैं, जो ‘चिरकुटिया’ सम्मान के लिए धरती-आकाश एक कर देते हैं।

न जाने कितने प्रसंग ऐसे हैं, जो पाठक को भावुक कर जाते हैं। रिक्शावाले, फुटपाथ के दर्जी, मजदूरों एवं रेहड़ीवालों के प्रति उनकी संवेदना बार-बार प्रकट होती है। पारिवारिक आयोजनों, सदस्यों एवं सदस्यों के स्वभाव की चर्चा तो वे करते हैं, किंतु जिस प्रकार से करते हैं वह व्यक्तिगत न होकर सामाजिक सा बन जाता है। यही उनके डायरी लेखन की व्यापकता है। अंत तक जाते-जाते डायरी बहुत गंभीर हो जाती है। निजी प्रसंग धीरे-धीरे लुप्त जो जाते हैं और उसका धरातल व्यापक हो जाता है। तमाम सामयिक प्रश्न उठने लगते हैं और मिश्र जी अपना पक्ष निष्पक्षता एवं सरलता से रखते जाते हैं। 

पूरी डायरी से गुज़र जाने के बाद लगता है कि किसी ऐसे लेखक के व्यक्तिगत जीवन एवं विचारों की यात्रा की है, जिसकी निजता एवं सार्वजनिकता में कोई विशेष अंतर नहीं है। यह डायरी उन लोगों के लिए अधिक मूल्यवान है जो मिश्र जी के जीवन को नजदीक से नहीं जानते और एक सच्ची लेखकीय वैचारिकता का साक्षात्कार चाहते हैं। न तो कहीं दिखावे की लालसा, न आत्मप्रशंसा और न ही कहीं से ठूँसे हुए शब्द या विचार। पुस्तक स्वयं को पढ़वा लेने की पूरी क्षमता रखती है तथा पाठक को अच्छा पढ़ने की आश्वस्ति देती है।

पुस्तक का नाम: मेरा कमरा (डायरी), लेखक: रामदरश मिश्र, प्रकाशक: हंस प्रकाशन, बी - 336/1, गली नं. 3, दूसरा पुस्ता, सोनिया विहार, नई दिल्ली - 110094, मो. - 9868561340, पृष्ठ: 128, मूल्य: रु 450/- (सजिल्द), 

समीक्षक संपर्क:  बी-532 (दूसरा तल), वसंतकुंज एंक्लेव (बी-ब्लॉक), नई दिल्ली - 110070, मो.: 09654030701, 

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श्री अजित राय, कन्नोज (उ.प्र.), मो. 98396 11435 

समीक्षा

समकालीन युग-सन्दर्भों में रेणु की प्रासंगिकता

प्रेमचंद और शिवप्रसाद सिंह मूलतः ग्राम-चेतना के कथाकार थे तो फणीश्वर नाथ रेणु, नागार्जुन और डॉ. विवेकी राय के लेखन में ग्राम-जीवन की छवियाँ अपने आंचलिक वैभव के साथ मूर्त होती हैं। गाँव बनाम शहर के समकालीन अंतर्द्वंद्व को संश्लिष्ट विवेक के साथ उत्कीर्ण करने का जो महनीय कार्य रेणु ने किया वह स्तुत्य है। स्वातंत्र्योत्तर भारत के बदलते हुए गाँव के संक्रमणशील यथार्थ को आत्मीयतापूर्ण अभिव्यक्ति देने वाले रेणु का महत्त्व आज इसलिए बढ़ जाता है कि आज नयी पूँजीवादी अर्थनीति के दौर में आज गाँव पूरी तरह अदृश्य हो गये हैं और लेखन में भी शहरी जमीन की कीमत बढ़ गयी है। गरीबी, अशिक्षा, अन्धविश्वास और तमाम किस्म की बुराइयों के बावजूद ग्रामांचल ही भारतीय जीवन का हृदय है। वह हर तरह की राजनीतिक चिंताओं, विचारधाराओं, गतिविधियों, आंदोलनों, सरकारी परियोजनाओं और विकास की योजनाओं की कसौटी है। वह मरती और मुरझाती हुई भाषा और कला में नयी जान और नयी शक्ति डालने वाली प्राणवायु है। लोकजीवन्त और प्राणवंत भाषा और कला को निरंतर पोषण देती रहने वाली कामधेनु है। जनपदीय अनुशासन की दृष्टि से फणीश्वर नाथ रेणु को लोकजीवन और लोकसंस्कृति से गहरा लगाव है। मनुष्य और प्रकृति के अभिन्न सम्बन्ध उनकी रचनाओं में व्यंजित हुए हैं। प्रेमचंद का गाँव अपनी विशेषता लिए हुए भी भारत का कोई भी गाँव हो सकता था, किन्तु रेणु का गाँव एक विशेष अंचल का एक विशेष गाँव था, जिसकी दूसरे क्षेत्रों से समानता कोई आवश्यक शर्त नहीं थी। 1954 के आसपास फणीश्वर नाथ रेणु का साहित्यिक आविर्भाव हुआ और बदलते हुए समय को उन्होंने बहुत गहराई से देखा, परखा। शहर से आने वाली स्वार्थ, व्यक्तिवाद और व्यावसायिकता की जो प्रवृत्तियाँ गाँव के पुराने सामुदायिक संबंधों में दरार डालती थीं, रेणु उनके प्रति काफी असहिष्णु हैं। शहर के साथ-साथ गाँव में भी सम्बन्ध टूट रहे थे लेकिन इस टूटन को शहरी प्रभाव के रूप में देखना उस दौर के सहजबोध का ही विस्तार था। कलाकार की इच्छा से न गाँव के जीवन का बदलाव रुक सकता है, न व्यावसायिक शक्तियों का प्रवेश। इतिहास की गति बड़ी निर्मम होती है। व्यावसायिकता पारम्परिक ग्रामजीवन की अबोधता को नष्ट करती है। इस मिटते हुए ग्रामजीवन से ममता रेणु के उपन्यासों में अतीत-राग का रूप लेकर प्रकट होती है। और गाँव के टूटते हुए संबधों के प्रति एक करूण विलाप यहाँ दृष्टिगत होता है। प्रेमचंद के लेखन में इतिहासविरुद्ध भावुकता नहीं है। वे गाँव के जीवन में हस्तक्षेप करने वाली बाहरी शक्तियों के साथ साथ वहाँ के जीवन के अपने अंतर्विरोधों को भी तटस्थ होकर देखते हैं। इसलिए उनके यहाँ जीवन का प्रवाह अधिक मिलता है, रेणु की तरह तरलता और गीतात्मकता नहीं। इसके विपरीत रेणु व्यावसायिक नगरीय हस्तक्षेप को अक्षम्य मानते हैं, और इसीलिए ग्रामजीवन की सरलता और अबोधता को भी अतिरंजित करते हैं। ‘मैला आँचल‘ रेणु का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है। इसमें उनकी कला और दृष्टि की सभी विशेषताएँ और सीमाएँ साफ-साफ दिखाई देती हैं। मेरीगंज इतना पारम्परिक गाँव है कि वहाँ आज़ादी की लड़ाई नहीं, सिर्फ उसकी अफवाहें पहुँची थीं। इस गाँव की संरचना जातियों पर आधारित है। यहाँ जाति और वर्ग के सम्बन्ध उलझे हुए हैं। जातिगत उत्पीड़न और आर्थिक शोषण के कारण यह समाज मृतप्राय है, फिर भी अपने रसस्रोत को बनाए हुए है। श्यामाचरण दुबे और श्रीनिवास आदि समाजशास्त्रियों का जाति-अध्ययन प्रमुखतः पचास के दशक से आरम्भ हुआ। रेणु ने भी लगभग उसी समय इस पर ध्यान दिया। डॉ. अजय तिवारी मैला आँचल को सभ्यतागत त्रासदी के आख्यान की संज्ञा देते हैं। जातिवाद के संकट को हम रेणु के यहाँ एक राष्ट्रीय संकट के रूप में देख सकते हैं। रेणु का ध्यान जाति के भीतर उपजाति पर भी है। उन्होंने राजनीति में जाति की महामारी फैलती देखी थी। और विश्वनाथ प्रसाद जैसे लोग जातियों के इस विभाजन को और बढ़ावा देते हैं। राजनीति कहाँ तो जातियों को खत्म करती, जातियों ने राजनीति को भीतर से तोड़ दिया। सब पार्टियाँ पैसे वालों की मुट्ठी में हैं। और भीतर से जात-पाँत में बँटी हुई हैं। राजेंद्र यादव भी महसूस करते हैं कि भारत की एकता और अखंडता के खोखलेपन के बीच हम जातियों और वर्गों में बँटी हुई वास्तविकताएँ हैं। जाति के आधार पर एक गाँव में अलग-अलग टोलों के विभाजन की ओर सर्वप्रथम रेणु ही ध्यान दिलाते हैं। गाँधी जी का निष्ठावान कार्यकर्ता बावनदास जो नैरेटर का आत्मरूप भी है, सोचता है अब लोगों को चाहिए कि अपनी टोपी पर लिखवा लें - भूमिहार, राजपूत, कायस्थ, यादव, हरिजन........... कौन काजकर्ता किस पार्टी का है समझ नहीं आता। चोरबाज़ारी के खिलाफ़ सत्याग्रह के कारण सत्यनिष्ठ कार्यकत्र्ता बावनदास की हत्या हो जाती है। उसकी लाश नदी में फेंक दी जाती है और झोले को सेंहुड़ के पेड़ की डाली पर। जैसे गाँधी जी की हत्या के बाद उनकी पूजा होने लगी, उसी तरह सेंहुड़ की डाली में लोग अपनी मन्नत पूरी करने के लिए चीथड़े बाँधकर चेथरिया पीर की पूजा करने लगे। मैनेजर पांडे कहते हैं कि क्या बावनदास की इस ट्रैजिक परिणति में स्वाधीन भारत में गाँधी की दुर्गति का प्रतिबिम्बन नहीं है! जीवन भर गाँधी का झंडा ढोने के बाद अंत में बावनदास का साथी बालदेव मेरीगंज छोड़कर अपने गाँव चन्दन पट्टी में चला जाता है। और जाति की राजनीति करने लगता है। उसका उल्टा हृदय परिवर्तन होता है। उसे लगता है कि जाति बहुत बड़ी चीज है। सभी बड़े-बड़े लीडर अपनी-अपनी जाति की पार्टी में हैं। यद्यपि रेणु जी राजनीति की जातिवादी, पूँजीवादी और सांप्रदायिक अंतर्वस्तु को अस्वीकार करते थे। यहाँ उपन्यास में असंतोष और संघर्ष की सारी सामग्री मौजूद है, ज्यों ही वहाँ राजनीति का हस्तक्षेप होता है, सारे अंतर्विरोध उदघाटित हो जाते हैं। किन्तु अंततः उपन्यास में संघर्ष कुचल दिया जाता है। इस तरह न जातिवाद खत्म होता है, न आर्थिक शोषण लेकिन स्वाधीन भारत में इन दोनों बीमारियों का समाधान इतिहास ने नहीं दिया तो लेखक अपनी कल्पना से उसे कैसे खत्म कर सकता है। 

वैसे आधुनिकताबोध और तकनीक ही पिछड़ेपन से मुक्ति का माध्यम बन सकते हैं और रेणु हिन्दी के पहले कहानीकार हैं जो ग्रामीण क्षेत्रों में विज्ञान और टेक्नोलॉजी के प्रवेश का चित्र खींचते हैं। उन क्षेत्रों में पुराने विश्वासों के कारण विरोध होता है। रेणु की कलात्मक चेतना इस सामाजिक जड़ता, अज्ञानता और सामंती मानसिकता को चिन्हित करती है। रेणु के यहाँ गाँव समग्रता में उत्कीर्ण हुए हैं और परिवेश से ऐसा सूक्ष्म लगाव और संगीत की ऐसी सूक्ष्म संवेदना अन्यत्र दुर्लभ है। रेणु की कहानियाँ दृश्य-श्रव्य प्रभाव उत्पन्न करती हैं और हमें एक दूसरे भावलोक में ले जाती हैं। उनकी भाषा काव्यात्मक न होकर प्रगीतात्मक है। वे एक संगीतधर्मी कथाकार हैं। लगभग पचास वाद्ययंत्र उनकी रचनाओं में हैं। उनकी गीतात्मकता विद्यापति और चंडीदास के साथ-साथ विरहा, कजरी, चैता आदि लोकगीतों से निर्मित है। लोक-जीवन, लोकगीत, लोक-संस्कृति, लोक-नृत्य, लोक-वाद्य और लोक-भाषा सबसे जुड़कर उनकी रचनाशीलता एक नया रसायन तैयार करती है, जो उनकी कथाभूमि को व्यापकता प्रदान करते हैं। रविभूषण के अनुसार हिन्दी कथाकारों में रेणु की सामाजिक सक्रियता अज्ञेय और यशपाल से बड़ी है। वे लोहिया और जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से परिस्फूर्त समाजवादी चिंतक हैं। यहाँ एक अंतर्विरोध यह है कि लेखक हर पुराने को हर तरह से रक्षणीय और हर नये को अमानवीय और अनुपेक्षणीय मानता है। हर संवेदनशील लेखक का अंतद्र्वंद्व यह है कि नरक भोगते गाँव का विकास भी हो और उनकी पहचान और प्रवृत्तियाँ भी सुरक्षित रहें। दोनों एक साथ कैसे संभव है? लेखक हस्तक्षेपकारी राजनीति को अभिशाप की तरह देखता है और समाधान भी राजनीतिक शक्तियों और जनता के संघर्षों द्वारा नहीं, जमींदार विश्वनाथ प्रसाद के हृदय-परिवर्तन द्वारा देता है। यह सच है कि हिरामन और सिरचन जैसे चरित्र बिना उस समाज और जीवन में डूबे नहीं मिल सकते। रेणु जी का गावों से प्रत्यक्ष और जीवंत सम्बन्ध था। रेणु की घ्राणेन्द्रिय अत्यंत तीव्र है और उतनी ही तीव्र है उनकी श्रुति-संवेदना। वह एक-एक पशु, एक-एक पक्षी की ध्वनि का चित्र अंकित करते चलते हैं। उनकी भाषा समूची प्रकृति की लय पकड़ने और उसे हूबहू दोहराने में सक्षम है। एक-एक बाजे के बोल निकालना तो उनके बाएँ हाथ का खेल है। ‘रसप्रिया‘ तो एक लोक-कलाकार के ही प्रेम की वेदना से निकला कथा-संगीत है। 

डॉ. अवधेश प्रधान इस सघन इन्द्रिय-बोध और स्पर्श के जादू को लक्ष्य करते हुए कहते हैं कि ‘तीसरी कसम‘ में महुआ घटवारिन का गीत भर ही नहीं गुंथा है, पूरी कहानी पाठक के मन पर एक मार्मिक लोकगीत की गूँज जैसा प्रभाव छोड़ती है। गाँव के लोग चाहे जितने अभाव में हों, कष्ट में हों, किसी मौसम में गाना नहीं छोड़ते। रेणु की कथा-भाषा का भी अपना सौंदर्य है। अपना कमाया हुआ सादगी का सौंदर्य, जिसके स्पर्श से जनपद की माटी, मानुष, वनस्पति, ताल-पोखर, जीव-जंतु, चिरई-चुनमुन सब बोलने लगते हैं। आधुनिक हिन्दी में मैथिलि और भोजपुरी की ऐसी बघार की कानपुर की हीराबाई को भी उसका रस लेने में बाधा नहीं आती।

खाऊ नेताओं के लिए प्रलयकारी बाढ़ भी एक सुअवसर बन जाती है। ‘आत्मसाक्षी‘ में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के विभाजन के फलस्वरूप गनपत जैसे स्थानीय कार्यकर्ता का जो दारुण मोहभंग होता है, वो अन्यत्र देखने में नहीं आता। गनपत को लगता है कि आज चाँद-सूरज में भी दरार पड़ गयी है और दुनिया की हर चीज आज दो भागों में बँटी हुई सी लगती है। बहुमत की व्याख्या बहुसंख्यक के रुप में करने वाली विकृत अस्मितावाद की प्रवर्तक वर्तमान सरकार इस विभाजन को एक मन्त्र के रुप में प्रयुक्त करती है। आत्मबद्धता इस नयी पूँजीवादी संस्कृति की पहचान है। रेणु के गाँव चाहे जितने पिछड़े रहे हों, लेकिन वे अदृश्य नहीं हुए थे। लेकिन भूमंडलीकरण और नयी आर्थिक नीति के तहत ग्लोबल गाँव के देवताओं ने जो विकास का अंधाधुंध बिल्डोजर चलाया, उसमे गाँव के गाँव, इलाके के इलाके देश से गायब हो गये। आज के हिन्दी के ज्यादातर उपन्यास जहाँ अध्ययन, सर्वेक्षण और शोध पर आधारित हैं, वहाँ रेणु की संलिप्त दीवानगी बहुत आकर्षित करती है। आज के कैरियरवादी लेखन के बरक्स अपने जनपद की धरती वहाँ के माटी और मानुष के प्रति गहरी आत्मीयता और संसक्ति रखने वाले रेणु बहुत याद आते हैं।

कहानी विश्वसनीय कल्प-सृष्टि है और आज कागज पर कम ज़मीन पर अधिक लिखा जा रहा है। फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियों में पूर्णिया अंचल की रस गंधवती रूपाभा सर्वथा नूतन शिल्प- वैभव लेकर अवतरित हुई है। यहाँ सांस्कृतिक परम्परा और बदलते हुए समय की नयी आर्थिक और सामाजिक स्थितियों की टकराहट कहानी में तनाव की सृष्टि करती है। उनके यहाँ संस्कृति स्वीकृति का स्वर बनकर नहीं बल्कि संघर्ष का आयाम बनकर प्रस्तुत होती है। उत्तरोत्तर उनकी कहानियों में आंचलिक राग-बोध का तत्व झड़ता चला गया है और उसका स्थान तीखी विद्रोहधर्मिता ने ले लिया है।

अनुरंजनकारी सांस्कृतिक मूल्यों के ह्रास की छटपटाहट ‘रसप्रिया‘ की मूल थीम है। कामकाजी वृत्ति और आर्थिक मूल्यों की चपेट में सांस्कृतिक, वैयक्तिक और कलात्मक मूल्यों का ध्वस्त हो जाना लेखक की केंद्रीय चिन्ता का विषय है। मोहना की राह देखता पंचकौड़ी मृदंगिया सोच रहा है कि जेठ की चढ़ती दोपहरी में खेतों में काम करने वाले भी अब गीत नहीं गाते। कुछ दिनों के बाद कोयल भी कूंकना भूल जायेगी क्या? प्रतिभाशाली कलाकार मोहना में वह अपना उत्तराधिकारी तलाशता है। किंतु मोहना के अभिभावक सोचते हैं कि यदि वह रसपिरिया का गायक और नर्तक हो गया तो रोजी-रोटी के उपयोगी साधनों से सर्वथा वंचित होकर निकम्मा और आवारा हो जाएगा। मुझे लगता है कि आक विद्यापति की रसप्रिया ही नहीं, समूची रस-साधना ही खतरे में है। शब्दों पर संकट है और अर्थ की धुरी पर पूरा भूगोल घूम रहा है। शब्द भी अर्थशास्त्र में जगह बनाकर ही जिंदा रह सकते हैं।

‘विघटन के क्षण‘ में गाँव की टूटन और शहर की ओर पलायन से व्यथित लेखक सोचता है- ‘‘सच्चिदा भी चला जायेगा तो गाँव की कबड्डी में अकेले पाँच जन को मारकर दाँव कौन जीतेगा?‘‘ दाँव तो उल्टा पड़ गया। कबड्डी ही क्यों, आज कुश्ती भी चारों खाने चित्त हो गयी है। अब उसे ‘दंगल‘ जैसी फिल्मों में जिलाए रखने की अंतिम कोशिश चल रही है। ‘उच्चाटन‘ कहानी में ग्राम-चेतना के उच्चाटन की प्रक्रिया में हलवाहा बिलसवा शहर में जाकर रिक्शा चलाने लगता है और बिलसवा से रामविलास सिंह हो गया है। लोग कहते हैं कि शहर से अपने नाम में सींग लगवाकर आया है। गाँव के 

सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति जो विराग भाव चित्रांकित है उसके पीछे मूलतः आर्थिक दृष्टि होती है। गाँव से अधिक अच्छी स्थिति और स्वतंत्रता की कल्पना ही वास्तव में गाँव के उच्चाटन का कारण बनती है। स्वावलंबन के स्त्रोत शहर दलितों के लिए मुक्ति का मंच भी बनते हैं।

रेणु के आंचलिक कथा-शिल्प की सबसे बड़ी विशेषता है -अनुरंजनकारी, विनोदपूर्ण, हास्य-व्यंग्यमूलक उत्फुल्ल स्थितियों, चित्रों अथवा रेखाचित्रों का अंकन। गाँव की होली का रंग भले फीका पड़ गया हो, रौशनी में नहाए शहरों की जगमगाहट और बढ़ गयी है। रेणु के नगराकर्षण का चित्र देखकर मुझे अमरनाथ श्रीवास्तव का गीत याद आ रहा है-

इस तरह मौसम बदलता है बताओ क्या करें?

शाम को सूरज निकलता है बताओ क्या करें?

यह शहर वह है कि जिसमे आदमी को देखकर

आइना चेहरे बदलता है बताओ क्या करें?

‘अगिनखोर‘ कहानी में कथाकार ने आधुनिक विद्रोही पीढ़ी की दुर्बलताओं को अनावृत किया है। यह तथाकथित विद्रोह भीतर की सहज मांग के रूप में न उभरकर फैशन के रूप में उभर रहा है। ओढ़ी हुई क्रान्तिधर्मिता आज अरविन्द केजरीवाल के रूप में मूर्त होती है और सूरज की आँखों में भी झीलें उग आए हैं। ‘शीर्षकहीन‘ कहानी में युवा 

आधुनिकतावादियों की नपुंसकता का खरा मनोवैज्ञानिक चित्रण हुआ है। ‘आदिम रात्रि की महक‘ में सामाजिक तथा पारिवारिक जीवन के अंतर्वर्ती रसगंधों का जो मुग्ध चित्रण हुआ है तथा जिनमें लोकजीवन की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और लोकचेतना का फैलाव दृष्टिगोचर होता है, उनमें परिनिष्ठित कथा-शिल्प अर्थात् चेतनाप्रवाही रिपोर्ताज शिल्प विन्यस्त है। नागार्जुन और कतिपय अंशों में डॉ. विवेकी राय इस उत्तर-परम्परा के सिद्ध कथाकार हैं।            

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डाॅ. डी. के. त्रिपाठी, आदर्श नगर, सुजानपुर, जिला पठानकोट, पंजाब, मो.: 98157 40409

सुश्री प्रौमिला अरोड़ा,  कपूरथल्ला, Mob. 9814958386

समीक्षा

प्रोमिला अरोड़ा जी का काव्य संग्रह ‘‘यूं भी होता है’’

प्रोमिला अरोड़ा जी का काव्य संग्रह ‘‘यूं भी होता है‘‘ चिन्तन के साथ-साथ मानव भावनाओं की अनुभूति का सुन्दर सृजन है। 

आधुनिक कविता मूलतः वाद मुक्त कही जाती है, वाद से मुक्त परन्तु नाद सौंदर्य से गुम्फित एक अनूठी छटा एवं सौंदर्य का सृजन करती है। नाद चाहे वृक्षों के पत्तों की सरसराहट का हो, पक्षिओं के सुमधुर कलरव का हो, भौरों की गुंजार का हो, मेघों की गर्जन का हो, झरनों की कल-कल का हो, इस नाद सौंदर्य से ही कविता का सजृन होता है। प्रोमिला जी के शब्दों में: 

मैंने देखा कविता को, बादलों से तिरते हुए, 

सुगन्ध में बिखरते हुए, झरनों में से झरते हुए,

पक्षियों में चहकते, पसीने से टपकते हुए, 

भावों में पनपते हुए, जा बैठती है चुपके से उनके पास, 

जो महसूसते हैं ये अहसास, शब्दों में ढल उतर आती है,

ज़िन्दगी का आभास कराती है। 

कवियित्री के शब्दों में “वातायन से आकाश झांकती पीपल की पत्तियों पर तिरती सहज मन के अहसासों से उपजी कविता का संग्रह है ‘‘यूं भी होता है‘‘। कविता ज़िंदगी का अहसास कराती है, आभास कराती है। मूलतः मानव ही काव्य का विषय है। जब कवि पशु-पक्षी अथवा प्रकृति का वर्णन करता है, तब भी वह मानव भावनाओं का ही चित्रण करता है। प्रोमिला जी ने विभिन्न दृश्यों, रुपों तथा तथ्यों को मर्मस्पर्शी एवं हृदय ग्राही बनाकर बड़े सुंदर तरीके से प्रस्तुत किया है। नारी की कोमल भावनाओं, अन्तर संवेदनाओं को बड़े मार्मिक ढंग से सुन्दर शब्दों में संजाकर नारी मन के बंद कपाटो को खोल दिया है। नारी ही नारी मन की भोगता है। वही आशा-निराशा, कुंठा, प्यार, घृणा, स्पर्श, अस्पर्श, अवहेलना, प्रतीक्षा, मिलन, विछोह आदि की भुगतभोगी है। कवियित्री का आत्मबोध व्यक्ति सत्य और व्यापक सत्य के बीच सम्बन्ध स्थापित करता प्रोमिला जी ने नारी हृदय की भावनाओं के चित्रण के साथ-साथ सामयिक ज्वलन्त विषयों को भी अपनी कविताओं में समाहित किया है। मध्य वर्गीय कुंठा-निराशा को, पर्यावरण समस्या, दोस्ती, संतुष्टि, मां, रिश्ते, आधुनिक सभ्यता, नारी की विवशता आदि विषयों पर बड़े सार गर्भित शब्दों में अपनी कलम चलाई है। प्रोमिला जी के शब्दों में ‘‘सपने संजोना शरीर की नही मन की अवस्था है। इन्हीं से सजाना है मुझे अपने जीवन का पल‘‘। इन ही विभिन्न सपनों को विभिन्न-विभिन्न कविताओं में व्यक्त किया है।

स्नेहभास, संजीवन, तिरोहित, आगाज, आग्रह, सामञजस्य, मेरे नाविक, शिकवा, शायद तुमने कभी भोगी नही पीड़ा, आहवान, इन्तहा, सदाएँ खुशबू, स्पर्श, पाकीजा, भटकन, बिदाई, तसव्वुर, औपचारिकता कविताओं में सपनों को साकारता प्रदान की है। कवियित्री ने ‘‘मैं जो हूं‘‘ अपने मानववादी सोच को प्रदर्शित किया है। ‘‘अपने पराए में कोई भेद नही कर पाती हँू, मैं यहाँ जाती हूँ वहीं की हो जाती हँू, वफा पाते हैं तो भी करते हैं लोग बेवफाई, चोट खाकर भी औरों को सहला जाती हूं मैं‘‘।

कवियित्री की इलतजा: या रब मिटा दे यह दिलों की दूरियां अब मिल जाएं सब अपने जो बटवारे में खो गए है।

इस संसार में यूं भी होता है: झूठ बोलकर भी वो मुस्कुराते रहे, हम सच बोलते रहे कत्ल होते रहे।

अहसास से आगे: कविता में मेरे बच्चे, मैं दादी हूं पर नही दे पाऊँगी तुम्हें वे चिड़ियां जो निगल ली है मोबाईल के टावरों ने। आधुनिक टैक्नालोजी का पर्यावरण पर प्रभाव।

सुरमयी पैबन्द: में वृक्ष कटने का दर्द, चन्द सिक्कों के लिए बेखबर इस तथ्य से कि काट डाले हैं अनजाने में ही उसने अपने बच्चे के अस्तित्व के पर।

अवलोकन और रिश्ते कविताओं में: आधुनिक दोस्ती एवं रिश्तों की असलियत को सही शब्दों में सही वर्णन किया है।

अब मानव दोस्ती को धन, स्तर और सुविधाओं की कसौटी पर परखता है।

सतही रिश्ते बैंक के खाते जैसे चलते है, आदान-प्रदान से कुछ समय तक। परन्तु घनिष्ठ रिश्ते तो हैं धड़कन जैसे 

धड़कते रहते है भीतर ही भीतर, नीरव निस्पृह समझते परिभाषा जीवन की।

स्वप्रसंग, वेगीत एवं मां कविता में: मां के आस्तित्व में अपना आस्तित्व खोजती कावित्री। ‘‘तेरा खून नस-नस में है, तेरा दूध रग-रग में है, तेरी लोरी अब भी सुलाती है, तेरी नसीहत राह दिखलाती है, तू दूर नहीं मेरे आस-पास है, तेरे बिना तो जीना बेआस है।‘‘

पैबन्द बनी नारी: में नारी की गरीबी का अति दर्द भरा वर्णन किया है। ‘‘पैबन्द लगी साड़ी में बन्द बनी पड़ी थी वह धरा पर पैबन्द‘‘ नारी की दुर्दशा को प्रस्तुत करती है यह कविता।

मुश्किल होता है: कविता में मानव को बुराई को जड़ से उखाड़ने का आवाहन किया है। कहां हैं संतुष्टि: इंसान कभी संतुष्ट नही होता, कुछ पा कर कुछ पाने की इच्छा बनी ही रहती है।

ऐसी वाणी बोलिए: में वाणी बोलने से पहले कवियित्री ने मानव को सचेत किया है कि ऐसी वाणी मत बोलिए जो दूसरों को दर्द देने वाली हो।

इसी प्रकार प्रोमिला जी ने अपने काव्य संग्रह में मानव के अहसासों के भिन्न-भिन्न पहलूओं को बड़े सहज स्वभाव एवं सुन्दर शैली में प्रस्तुत किया है। संक्षेप में प्रोमिला जी का काव्य संग्रह भाव सौंदर्य, विचार सौंदर्य, नाद सौंदर्य एवं सशक्त भाषा सौंदर्य से सुज्जित अपनी भीनी भीनी मधुर खुश्बु से साहित्य जगत को महकाता रहेगा।

सुन्दर कृति के लिए प्रोमिला जी को बहुत-बहुत मुबारक।

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डॉ. रानू मुखर्जी,   Baroda (Gujarat) Email-ranumukharji@yahoo.co.in

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समीक्षा

‘‘ गीतांजलि’’  में  प्रकृति चित्रण-

हमारे लिए गर्व की बात है कि विश्व कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर की बंगला कृति ‘‘गीतांजलि‘‘ (अंग्रेजी में अनुदित गीतांजलिः साँग ऑफरिंग्स) साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हुई थी। यह बात महत्वपूर्ण है कि टैगोर को नोबेल पुरस्कार देने की घोषणा जिस कृति के लिए की गई थी वह मूल बंगला गानों के संकलन गान संग्रह के लिए थी, जिसका अंग्रेजी अनुवाद: साँग आॅफरिंग शीर्षक से स्वयं कवि ने किया था। 

13 नवम्बर 1913 में गीतांजलि को नोबेल पुरस्कार मिलने की घोषणा के साथ ही, न केवल हिन्दी और भारतीय भाषाओं में बल्कि अंग्रेजी, फ्रांसीसी, रूसी, चीनी, जापानी, कोरियाई आदि विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में गीतांजलि का अनुवाद बडी तेजी से होने लगा। 

कवि द्वारा बांगला में रचित 157 गानों का संकलन गीतांजलि में है जिसमें कवि के रचित कुछ पूर्ववर्ती काव्य संकलन के गान भी शामिल किए गए हैं। कवि के शब्दों में- ‘‘इस ग्रंथ में संकलित आरंभिक कुछेक गाने दो एक अन्य कृतियों में भी प्रकाशित हो चुके हैं। लेकिन थोड़े समय के अंतराल के बाद ही जो गान रचित हुए उनमें परस्पर भाव ऐक्य को ध्यान में रखकर, उन सबको इस पुस्तक में प्रकाशित किया जा रहा है।’‘ 

गीतांजलि के 53 गीतों का अंग्रेजी अनुवाद सबसे पहले एक नवम्बर 1912 में इंडियन सोसायटी आॅफ लंदन द्वारा अपने सदस्यों और मित्रों के बीच वितरण के लिए गीतांजलि: साँग ऑफरिंग शीर्षक से किया गया था। यह कवि के पूर्व परिचित मित्र सुप्रसिद्ध चित्रकार विलियम रोथेन्स्टाइन के रेखाचित्र से सुशोभित और डब्ल्यू . बी. यीट्स की भूमिका से समृद्ध था। इसकी कुल मुद्रण संख्या 750 थी। इसमें वे अन्य पचास गान ( अर्थात कुल 103 गान ) रवीन्द्रनाथ के अन्यान्य काव्य संकलनों से चुनकर भी सम्मिलित किए गए थे, जो कमोबेश गीतांजलि के भाव-बोध के समकक्ष थे। 

गीतांजलि के विषय में डब्ल्यू. बी. यीट्स ने एक दावत में विशिष्ट कवि, लेखक, समीक्षक, आलोचक के समक्ष कहा था, ‘‘अपनी छंद योजना, लयात्मकता, अभिनव अंतर्वस्तु और सूक्ष्म वर्णछटा के कारण इन कविताओं को सहज ही अनुदित नहीं किया जा सकता है। ये ऐसे मनोजगत से हमारा साक्षात् कराती है- मैं जिसका आजीवन स्वप्न देखता रहा हूँ। गीतांजलि उस अप्रतिम संस्कृति की उपज है जो अत्यंत साधारण माटी, तृणों और पेड पौधों से समृद्ध है।‘‘ इसी बात को उन्होंने गीतांजलि: सांग आॅफरिंग की भूमिका में भी दोहराया है। 


गीतांजलि के अंग्रेजी अनुवाद में कवि ने चैताली, खेया,  शिशु, नैवेद्य, स्मरण, उत्सर्ग के अलावा गीति माल्य, गीत वितान और चयनिका से भी कुछेक कविताओं को अनुदित कर इसमें स्थान दिया था। 

कवि का पहला कदम उठता है प्रकृति के ‘‘न भूतो न भविष्यति‘‘ शैली वाले संगीतकार के रूप में। कहना आवश्यक है कि वे संस्कृत के उद्दाम झरनों खास तौर पर कालिदास से गहरे प्रभावित थे। उनके संपूर्ण रचना काल में सर्वोत्तम कविताएँ प्रकृति में डूबी कविताएँ ही हैं। कवि के चिंतन में शाश्वत की सत्ता के प्रति अखंड विश्वास था जो अक्सर ईश्वर या रहस्यमय प्रकृति के रूप में प्रकट होता है। अपने निबंध ‘‘साहित्य का तात्पर्य‘‘ में उन्होंने लिखा है, ‘‘ऐसे भाग्यशाली लोग भी हैं जिनका विस्मय, प्रेम, कल्पना सर्वत्र जागृत रहती है। प्रकृति के कण कण में उनके लिए निमंत्रण होता है। लोकालय के विभिन्न  आन्दोलन उनकी चित्त वीणा को विभिन्न रागिनियों से संपदित करते रहतें हैं।‘‘‘‘  (रवीन्द्र रचना संचयन पृष्ठ- 615 )

‘‘प्रकृति से सानिध्य ही मेरा प्रथम अनुभव रहा।‘‘ शब्द कवि के प्रकृति के प्रति गहन प्रेम को दर्शाता है। इसका प्रभाव कवि के मन पर पड़ता है जो हमें उनकी विभिन्न कविताओं में समय≤ पर मिलता है। बरसात के दिनों में अचानक कवि ने अपनी पहली रचना की, ‘‘जल पड़े पाता पड़े‘‘ (पानी गिरे पत्ते हिले)। बचपन से ही प्रकृति को उन्होंने खुली आँखो से देखा था फिर प्रकृति उनकी चेतना में समा गई। 

प्रकृति के बारे में कवि का कहना है कि जैसे हम बाह्य इन्द्रियों  द्वारा बाह्य जगत से संपर्क स्थापित करते हैं उसी प्रकार से अंतरइन्द्रियों की सहायता से मानव परमात्मा अर्थात विश्वमानव के साथ एकात्मता होने की कोशिश करता है। निरंतर इसी प्रयास से मानव और विश्व मानव में एकात्मबोध स्थापित होता है। यही एकात्मबोध ही मानव को अमरत्व प्रदान करत है। 

कवि रवीन्द्र के अनुसार सृष्टिशील मानव ही आदर्श मानव है। 

रवीन्द्र दर्शन में तीन प्रकार के सत्ता की बात की गई है - प्रकृति सत्ता, मानव सत्ता और परम सत्ता। बचपन से ही कवि का प्रकृति के साथ आत्मीय संबंध दिखाई देता है। उनका जीवन प्रकृति के संस्पर्श में ही उल्लासित होता है। उनके जीवन स्मृति में हमें बालपन से ही प्रकृति के प्रति उनका तीब्र आकर्षण झलकता दिखाई देता है। उनका घर हरियाली से घिरा हुआ था। पेड़, पौधे, फूल, फूलों से लदा बागीचा सबके प्रति कवि का आकर्षक बचपन से ही था। पोखर में तैरते हंसों को देखकर प्रफुल्लित होते, नारियल के पेड़ों के कतार उनके आकर्षण का मुख्य केंद्र था। प्रति दिन भोर की बेला में बागीचे में भ्रमण करना उनको प्रिय था। भोर की बेला के आनंद अनुष्ठान में उनका नित दिन का योगदान रहता। उनकी कुछ कविताओं में यह उपलब्ध है-

आज प्रथम फूलेर पाबो प्रसाद खानी 

ताई भोरे उठेछी। 

आज  सुनते  पाबों प्रथम  आलोर बाणी 

ताई   बाईरे  छुटेछी।

(आज प्रथम पुष्पि फूलों का प्रसाद ग्रहन करने के लिए मैं भोर की बेला में उठ गया हूँ। आज  प्रथम रोशनी की वाणी को सुनने के लिए मैने बाहर की ओर दौड लगाई है।)

प्रभात संगीत के माध्यम से कवि ने प्रकृति की यात्रा शुरू की थी। उनका पथ संगी प्रकृति रहा। प्रकृति के विभिन्न रंग, रूप  विचित्रता, सुन्दरता  से ही कवि मोहित नहीं होते अपितु उसके साथ ही साथ परमेश्वर के उस विराट सत्ता की उपस्थिति को भी अनुभव करते हैं। उनके अपने शब्दों में, ‘‘एक दिन मैं बगीचे में खड़े होकर बागीचे को निहार रहा था और उन वृक्षों के बीच में से सूर्योदय का दर्शन कर रहा था। देखते ही देखते मेरी आँखों के सामने से एक पर्दा हट गया। मैंने देखा मेरे सामने एक अपूर्व महिमामय विश्व संसार  समाच्छन्न है, आनन्द और सौन्दर्य से सर्वत्र तरंगित है। मेरे हृदय के प्रत्येक स्तर में जो एक विषाद का आच्छादन था उसे भेद कर एक मुहूर्त में मेरा अंतर विश्वालोक से भर गया। ‘‘ 

आलोय आलोकमय कोरे हे, एले आलोर आलो।

आमार नयन होते आंधार, मिलालो मिलालो।

सकल आकाश सकल धरा, आनन्दे हाँसिते भरा,

जे दिक पाने नयन मेली, भालो सबी भालो। 

(गीतांजलि 45 पृ .57)

(सर्वत्र प्रकाशित कर तुम आए हे प्रकाश पुंज। मेरे नयनों से अंधकार को मिटा दिया। आकाश और धरा सब आनंद और हँसी से भरपूर है, जिस ओर भी देखता हूँ  चारों ओर मंगल ही मंगल दिखता है।)

प्रकृति के विभिन्न रूप से कवि विशेष रूप से आकृष्ट थे। प्रकृति के केवल बाह्य रूप ही नहीं  निहारते थे प्रकृति में उन्होंने एक विस्तृत सत्ता को देखा था। शरत के आकाश के मेघमल्लार की पंक्तियों को देखकर केवल मात्र उनके नैन ही तृप्त नहीं होते थे वे मेघों के साथ उड़-उड़ जाते थे। इसका आभास  हमें कवि की इस कविता से होता है-

आज धानेर खेते रौद्र छायाय लूकोचूरीर खेला। 

नील आकाशे के भासालों सादा मेघेर भेला। 

(धान के खेत में धूप और छांव की आँख मिचैली का खेल चल रहा है। इस नीले आकाश में किसने सफेद बादलों के टुकड़ों को तैरता कर दिया है।)

बरसात के आगमन से नीले आकाश में सफेद बादलों का आना जाना परिवेश को मधुमय बना देता है। और कवि का मन नाच उठता है- यहाँ भी कवि इन बादलों में एक प्रछन्न सत्ता की उपस्थिति को अनुभव करते हैं-

हृदय आमार नाचे रे आजिके  मयूरेर मोतो नाचे रे। 

शत बरणेर भाव उच्छास, कलापेर मोतोन कोरेछे विकास। 

आकुल प्राण आकाशे चाहिया,  उल्लासे कारे जांचे रे।

(कवि का हृदय मयूर की भांति नाच रहा है। मन मे शत वर्ण के भाव उच्चारित हो रहें है। कवि का आकुल मन आकाश की ओर देखते हुए न जाने किसकी उपस्थिति को परख रहा है।)

कवि विभिन्न अनुभवों के माध्यम से एक प्रच्छन्न सत्तात्मक प्रकृति के साथ परिचित होते हैं। वैदिक ऋषियों की तरह उन्होंने भी प्रकृति में एक प्रछन्न सत्ता की उपस्थिति को अनुभव किया। किसी विशेषज्ञ ने लिखा है, ‘‘प्रकृति के मध्य  वृक्ष, लता, पत्तों और पुष्प आदि में जिस प्राण का सपन्दन हमें मोहित करता है  ये सब उस प्रछन्न  सत्ता के आलोक चरा धेनु हैं और गगन में जो अगणित नक्षत्रराशी निशा के आकाश  को आलोकित करते हैं वे सब उनके आलोक धेनु हैं, सब प्रकट हैं, परंतु जो सभी को नियंत्रित करते हैं उनकों चराते हैं, वह चरवाहा कहीं दिखाई नहीं देता है केवल मात्र उनके वेणु की ध्वनि सुनाई देती है। 

कवि के लिए प्रकृति ईश्वर का ही एक रूप है। उनका कहना है, ‘‘केवल मात्र प्रकृति की सुन्दरता ही मुझे आनन्दित प्रेरित नहीं करती बल्कि उसकी  जिवंतता का भी मै कायल हूँ।‘‘ 

गीतांजलि के मूल में है प्रेम जो कि प्रकृति और ईश्वर दोनों में उपस्थित है, प्रकृति ईश्वर का ही स्वरूप है। हम ईश्वर की महानता की उपलब्धि इसमें कर सकते हैं और 

प्रकृति के माध्यम से ही इससे  एकात्म  हो सकते हैं। एक जगह पर उन्होंने कहा है, ‘‘हमें एक ऐसा स्थल चाहिए जहाँ प्रकृति का सौन्दर्य और मानव की आत्मा मिलीत हो सके।‘‘ मानव को विषादमुक्त प्रकृति ही कर सकती है। कवि वर्डसवर्थ की तरह सोचते हुए प्रकृति और मानव की एकात्मता की बात करते हैं। 

रवीन्द्रनाथ ठाकुर के लिए प्रकृति ईश्वर और मानव एक हैं। गीतांजलि के अन्तर्निहित भाव एक हैं। उनकी सभी रचनाओं के भाव एक है और वह है ईश्वर के प्रति प्रेम, प्रकृति के प्रति प्रेम और मानवता-

जगत जुडे उदार सूरे आनंद गान बाजे, 

से गान कबे गंभीर रबे बाजिबे हियार माझे।

बातास जल आकाश आलो सबारे कबे बासिब भालो

हृदय सभा जुडिआ तारा बोसिबे नानान साजे।  

                 (गीतांजलि- गीत 15, पृष्ठ 18)

(आनंद गान विश्व में उदार सुर में बज रहा है, वही गान न जाने  कब मेरे हृदय में गंभीरता से बजेगा। हवा जल आकाश प्रकाश सबका मेरे हृदय स्थल में अपना आसन बिछाकर बिराजने का इंतजार है। प्रकृतितत्व और मानवतत्व की एकात्मता की बात करते हैं कवि) गीतांजलि में निहित प्रकृति का ईश्वरीय रूप कवि की वाणी से झलक रहा है। पवित्र रूप में वह बार-बार यहाँ आती है। कवि को ईश्वर की जीवंतता का स्पर्श प्रकृति के सौन्दर्य में मिलता है। मुस्कुराते हुए फूल, फूलों से भरी झाड़ियाँ, गहन घना जंगल और हरे भरे घास, सदा जाग्रत नीला आकाश, नक्षत्रों से भरा गहन रात्रि का आकाश, फूलों से लदा वसंत, वन जंगल, समुद्र, निस्तब्ध नदी के तट, भयंकर जंगल, संगीतमय परिवेश बनाने वाले पक्षी, राजकीय पोशाकधारी शिशु, समुद्र में खेलते हुए शिशु, धुलधुसरित पथिक, शुष्क भूमि, कर्दमाक्त पथिक, पुष्पित पद्म, मुरझाए कमल, मुसलाधार वर्षा, विद्युत की चमक आदि  सब ईश्वर के विभिन्न  रूप हैं जिसे कवि आत्मसात करते हैं। 

सुन्दर तुमि एसेछिले आज प्राते, अरूण हरण पारिजात लोए हाते। 

निद्रित पूरी, पथिक छिलो ना पथे, एकाकी चोले खेलें तोमार सोनार रथे, 

बारेक थामिया मोर वातायन पाने, चेये छिले तब अरूण नयनपाते।

(हे सुन्दर आज प्रातः काल में हाथ में पारिजात लेकर तुम आए थे। पथ पर कोई नहीं था। मेरे वातायन के पास 

क्षणिक रूककर अरूण दृष्टि से डालकर फिर अपने स्वर्ण रथ पर सवार हो चल दिए) 

कवि धरा में प्रकृति के समक्ष खुले मन से उपस्थित होते हैं। कवि दादू से प्रभावित थे। उनका कहना था, अपनी इन्द्रियों का उपभोग करें। इन्द्रियाँ उपभोग करने के लिए ही हैं। आँखे रंगो की शोभा को निहारें, श्रवनेन्द्रियाँ मिठे सुर का आनंद लें आदी आदि। कवि की भवनाए इसी से प्रेरित हुई। 

कवि कहते हैं, हे ईश्वर जो सुन्दर है, वही कल्याणकारी है, हे माँ प्रकृति आपके इस सुन्दर भुवन में कोई बुरा हो ही नहीं सकता। ‘‘रेमन्ड  विलियम के अनुसार,‘‘ जब पृथ्वी की उत्पत्ति हुई तब सृष्टि के निर्माण कर्ता एक अकेले ही थे। फिर आया प्रकृति और मानव। मानव के विकास के साथ साथ उसकी आवश्यकताएं विकसित हुई जिससे  खेती, घर, रास्ते आदि बनने लगे। धीरे-धीरे मानव प्रकृति से दूर जाने लगा और प्रकृति में भी बदलाव आने लगा।‘‘ 

इस विकास यात्रा के दौरान मानव प्रकृति से दूर होता चला गया। अतः जो ईश्वरीय तत्व के अनुभव की बात कवि कहते  हैं हमारे लिए उसे सुनना क्रमशः क्षीण होता जा रहा है। 

भारतीय परिप्रेक्ष्य में जब हम प्रकृति की बात करते हैं तब हम पाते है कि वैदिक युग से इस पर ध्यान दिया गया है। प्रकृति और प्राणियों के प्रति हिन्दुत्व ने गहन प्रेम और जागरूकता की भावना दिखाई। Hinduism has always been an environmentally sensitive philosophy. हमारे महाभारत, रामायण, भगवत गीता, वेद, उपनिषद, पुरान, स्मृतियाँ आदि हमें प्रकृति को संजोकर रखना और ecological balance को बनाकर रखने का संदेश देते हैं।

कवि के अनुसार अध्यात्मिक विकास के लिए प्रकृति की गोद ही सर्वश्रेष्ठ है। दोनों बांहें फैलाये  प्रकृति आह्वान करती है। मुक्त वातावरण में और उन्मुक्त विस्तृत आकाश के नीचे निर्भीकता से खडे रहने की कामना करते हैं। उनके अनुसार सर्वश्रेष्ठ उर्जा प्रकृति के  सानिध्य में ही है। 

S- Radhakrishnan के अनुसार, "In silence and  solitude we have to enjoy the presence of divine in nature."  (S - Radhakrishanan - page 13)

कवि लिखते हैं - जब मैं प्रभात के आलोक का दर्शन करता हूँ तब मुझे लगता  है मै इस पृथ्वी  से अनजान नहीं हूँ। (गीतांजलि न. 95)

पिता महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर के साथ जब कवि हिमालय भ्रमण के लिए गए तब उन्होंने प्रकृति को बहुत निकट  से देखा और अनुभव किया कि यही वह जगह है जिसके सानिध्य में रहकर ईश्वर के निकट हुआ जा सकता है। हिमालय का पवित्र और गहन नैकट्य आत्मचिंतन के लिए सर्वश्रेष्ठ है अतः मानसिक विकास के लिए ‘‘तपोवन‘‘ सर्वथा योग्य है। कवि के अनुसार तपोवन  मानसिक शाक्ति, स्वचिंतनके साथ साथ हमारे कर्म को शक्ति प्रदान करता है। तपोवन के प्रति इसी भावना को उन्होंने शांतिनिकेतन के रूप में मूर्तता प्रदान किया। प्रकृति के भेदी रूप ने कवि को अत्याधिक आकर्षित किया। कलकल ध्वनि करती हुई  अविरल बहती भावधारा में कवि की 

भावधारा बह निकली। जो कि उनके संपूर्ण काव्य में  बिखरी  हुई है। बालपन से ही कवि उस धारा मे प्रवाहित थे जहाँ कवि कागज की नाव बनाकर बहा दिया करते थे। बाद में पद्मा नदी में नौका विहार करते समय नदी से उनका संपर्क और दृढ हुआ। कवि नदी के कलकल ध्वनि को आत्मसात करते हैं। इस भाव को कवि ने इन शब्दों में व्यक्त किया- ‘‘निस्तब्ध वातावरण में शांत बैठकर वृक्षों के सानिध्य को उपभोग करते हुए जीवन के इस अपर्याप्त अवसर के गीत गाए।‘‘ 

1931 में प्रकाशित  कवि के प्रकृति विषय विचार उनकी कृति ‘‘ बनवाणी‘‘ (voice of forest) मे भी समाहित हैं। कवि ने 400 से अधिक गीत प्रकृति की प्रशस्ति में लिखे। इन गीतों में कवि ने प्रकृति के विभिन्न रूप को हुबहू दर्शाया है।  वृक्ष, बसंत, शरत, शीत, ग्रीष्म, पुष्प आदि सब के साथ कवि वार्तालाप करते हुए दिखाई देते  हैं। प्रकृति के संग उनकी प्रीति, कृतज्ञता और भक्ति का संपर्क था। प्रकृति के प्रत्येक रूप का विस्तृत विवरण किया है और इसे मानवता के सानिध्य में लाकर खड़ा कर दिया है। पूरा  वॅल्यूम प्रकृति के प्रति प्रेम के प्रकाश से प्रकाशित है। 

प्रकृति के प्रति स्वस्थ्य दृष्टिकोण, आंतरिक संवेदनशीलता, प्रेम की आतुरता ही Tagore's philosophy of Nature के मुख्य तत्व हैं। कवि के आरंभिक दिनों की रचनाओं के अध्ययन से प्रकृति के प्रति उनका अथाह प्रेम झलकता है। उनके कविता संग्रह  शैशव संगति, भांगा हृदय, संध्या संगीत, प्रभात आदि के अंतर्गत प्रकृति के गौरव गाथा का गान है। 

कवि के प्रकृति विषयक विचारों को उन्ही के शब्दों में प्रस्तुत कर रही हूँ-

‘‘मेरे घर के चारों ओर मेरे मूक मित्र, जो प्रकाश के प्रेम में मत्त हो आकाश की ओर हाथ फैलाए खड़े हैं उनकी पुकार मेरे मन तक पहुँची। जीव जगत की आदि भाषा  ही उनकी भाषा है, उनका संकेत प्राण के प्रथम स्तर तक पहुँचता है: हजारों वर्ष के भूले विसरे  इतिहास की याद दिलाते हैं। मन में जो हलचल पैदा होती है वह भी वृक्ष की भाषा में- वह कोई स्पष्ट अर्थ नहीं देती परन्तु उसमे अनेक युग युगांतर गुनगुना उठते हैं। 

सभी वृक्ष विश्व बाउल के एकतारा हैं: उनकी प्रत्येक मज्जा मे सरल सुर का कंपन है, उनकी डाल डाल पर पत्ते पत्तों पर एकताला छंद का नृत्य है। अगर निस्तब्ध होकर मन प्राण से सुनता हूँ तब अंतर में  मुक्ति की वाणी का स्पर्श पाता हूँ। मुक्ति उस विराट प्राण समुद्र के तट पर, जिस समुद्र के उपरी स्तर पर सुन्दरता की लीला विभिन्न रंगो में तरंगित हैं और अतल गहराई में ‘‘शांतम् शिवम अद्वैत् ‘‘ है। उस सुन्दरता की लीला में कोई लालसा नहीं है, आवेश नहीं है, जड़ता नहीं है, केवल मात्र  परमशक्ति की निशेष आनंद का आन्दोलन है। ‘‘एतैस्यवानन्दस्य मात्राणी‘‘ को फल फूलों मे पल्लवित होते देखता हूँ, इसमे ही मुक्ति का स्वाद पाता हूँ, विश्वव्यापी प्राण के संग प्राण का निर्मल अबाध मिलन की वाणी सुनता हूँ। 

वैष्णवी ने एक दिन मुझसे पूछा था हमारा मिलन कब होगा पेड के नीचे ! उसका अर्थ हुआ कि वृक्षों में प्राण का विशुद्ध सुर है, वही सूर अगर प्राण में समाहित कर सका तो हमारे मिलन  संगीत में  बद-सुर  नहीं होगा। गौतम बुद्ध ने जिस बोधी द्रुम के नीचे जिस मुक्तितत्व को प्राप्त किया था, उनकी वाणी के साथ-साथ उस बोधी द्रुम की वाणी भी सुनता  हूँ- जैसे दोनों मिले हुए हैं। आरण्यक ऋषि ने सुना था वृक्ष की वाणी: वृक्ष ईब स्तक्कोदिवि तिष्टतेक:। सुने थे: यदिदं किंच सर्वं प्राण एजति निः सृतम्। उन लोगों को युग युगांतर से चले आ रहे प्रश्नों का उत्तर वृक्षों से मिला, ‘‘ केन प्राणः प्रथमः प्रेती युक्तः‘‘.... प्रथम प्राण अपने वेग के साथ इस विश्व में कहाँ से आया। वही प्रेति वह वेग थमने का नाम ही नहीं ले रहा... सतत् रूप का झरना झरने लगा, न जाने उसकी कितनी रेखाएं हैं, कितनी भंगिमाएं हैं, कितनी भाषाएं हैं, कितनी वेदना हैं। उस प्रथम प्राण्प्रेति के नवोनवोन्मेषशालिनी सृष्टि के चिर प्रवाह को अपने मध्य गंभीरता से विशुद्ध भाव से अनुभव करने की  महामुक्ति और कहाँ है। 

न जाने मैने कितने दिन सोचा, शांतिनिकेतन में मेरे उस घर के द्वार पर मेरा आनंद रूप मैं देखूँगा। मेरे  उस लता के शाखों पर, प्रथम प्रिति के बंधन विहीन  प्रकाश रूप को नागकेशर के फूलों में देखूंगा। मुक्ति के लिए हर दिन जब प्राण व्यथित ब्याकुल हो उठता है, तब सबसे पहले मुझे मेरे घर के द्वार पर के उन फूलों की याद आती है। वे सब धरणी के ध्यान मंत्र की ध्वनि हैं। प्रति दिन अरुणोदय के समय, प्रतिदिन नि स्तब्ध रात में तारों की रोशनी में उनके ओंकार के साथ मेरे ध्यान के स्वर को मिलाना चाहता हूँ।  एक तो रात का अंधेरा, उसपर बादलों का आवरण, अंतर में असहनीय चंचलता का अनुभव करता हूँ, स्वयं से  ही भाग जाने के लिए। पर जाऊं कहाँ ? कोलाहल से संगीत की ओर। मेरे इस आन्तरिक वेदना के दिनों में शांतिनिकेतन का पत्र जब मुझे मिला। तब मुझे याद आया, वही संगीत अपने सरल विशुद्ध सूर में मेरे उत्तरायण के वृक्षों में बज रहा  है- उनके पास जाकर चुप होकर बैठने पर ही उसी सुर का निर्मल झरना मेरे  अंतरआत्मा को नहला देगा। इस स्नान से स्वच्छ होकर, स्निग्ध होकर ही आनंदलोक में प्रवेश करने का अधिकार हमें मिलता है। परमसुन्दर के मुक्त रूप के प्रकाश में ही परित्राण है-आनंदमय सुगंभिर वैराग्य ही है उस सौन्दर्य का चरम दान।                                            

रवीन्द्रनाथ प्रकृति के दृश्यमय विस्तार के प्रति इस हद तक असक्त थे कि अपना संपूर्ण बजूद ही उसकी माया- छाया, महिमा के समक्ष  समर्पित कर दिया। सुबह, संध्या, बारिश, धूप,  छाया, मेघ और भी न जाने कितने स्थूल, सूक्ष्म, कोमल, रंगीन, आल्हादकारी और रोमांचक दृश्य प्रकृति प्रेमी कवि के हृदय को  आलोडित करते थे। 

गीतांजलि में निहित प्रकृति विषयक गान के बारे में जितना भी लिखा जाय कम है। जिस प्रकार से प्रकृति का कोई ओर छोर नहीं है उसी प्रकार से कवि का लेखन और प्रकृति विषयक कल्पना निर्बाध है। यथा साध्य मैने विषय के साथ न्याय करने का प्रयास किया है परन्तु रवीन्द्र साहित्य और भावधारा में बह जाने पर संतुष्ट करने और  होने के  लिए विशेष दक्षता की मांग करता है। उस विराट सत्ता को मेरा नमन कवि के ही शब्दों में-‐ 

अंतर मेरा विकसित करो 

अंतरतर हे ! 

निर्मल करो, उज्जवल करो 

सुन्दर करो हे !                

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डाॅ. नीना सिन्हा, नबलिया पारा रोड बारिशा, कोलकाता - 700008

व्हाट्सएप नंबर.. 6290273367 

लघुकथा

निषिद्धो पाली रज

बंगाल के देवी प्रतिमाओं के निर्माण के लिए प्रसिद्ध कुमार टुली इलाके के एक प्रसिद्ध मूर्तिकार, दशहरे के लिए बेहतरीन मूर्तियाँ बनाने के विषय में सोचते हुए, निर्माण सामग्रियों को इकट्ठा करने में लगो हुए थे। किशोरवय पोता उनकी मदद करने के साथ-साथ काम का प्रशिक्षण ले रहा था। दादा जी ने प्रतिमा निर्माण में प्रयुक्त सामग्रियों के विषय में बताया, “गोमूत्र, गोबर, लकड़ी, जूट का ढाँचा, सिंदूर, धान के छिलके, पवित्र नदियों की मिट्टियाँ, कई विशेष वनस्पतियाँ, जल, साथ में निषिद्धो पाली रज।”

“दादाजी, निषिद्धो पाली रज पिताजी से भी सुन चुका हूँ, अर्थ भी समझता हूँ, ‘वर्जित क्षेत्र की मिट्टी’, पर विस्तार से जानना चाहता हूँ। आपकी तरह चोटी का मूर्तिकार बनने के लिए मुझे सब कुछ जानना तो होगा। पिताजी से इस बाबत पूछा था, तगड़ी डॉट पड़ी!

“हाँ पौत्र! जो कार्य क्षेत्र चुनो, उससे जुड़ी हर बात की जानकारी होनी ही चाहिए। तुम अब बच्चे भी नहीं रहे कि कुछ समझ न आए। जितना मैं जानता हूँ, आज तुम्हें बता देता हूँ। ‘निषिद्धो पाली रज’ यानी वर्जित क्षेत्र की मिट्टी से जुड़ी तीन अलग-अलग लोक कथाएँ और किंवदंतियाँ हैं।

पहली प्राचीन लोक कथा- एक वेश्या देवी दुर्गा की बहुत बड़ी उपासक थी। अपने पेशे के कारण समाज से बहिष्कृत उस वेश्या को अनेकों यातनाओं का सामना करना पड़ता था। मान्यता के अनुसार अपनी परम् भक्त को सामाजिक तिरस्कार से बचाने के लिए देवी दुर्गा ने उसे वरदान दिया कि उसके आँगन की मिट्टी या उसके हाथों से दी हुई गंगा की चिकनी मिट्टी के बिना देवी दुर्गा की प्रतिमाएँ पूरी ही नहीं हो पाएँगी।


सबसे प्रचलित और लोकप्रिय धारणा यह है- कोई व्यक्ति किसी वेश्यालय के अंदर जाता है तो वह अपनी सारी पवित्रता वेश्यालय की चैखट के बाहर ही छोड़ देता है, इस तरह चैखट के बाहर की मिट्टी पवित्र हो जाती है। इसे ‘नषिद्धो पाली की रज’ के रूप में मूर्तिकार दुर्गा प्रतिमाओं के निर्माण में उपयोग करते हैं।

तीसरी आधुनिक धारणा- समाज सुधार आंदोलन के तौर पर देवी प्रतिमा निर्माण में निषिद्धो पाली की रज के प्रयोग का मकसद पितृसत्तात्मक समाज के मानस को धिक्कारना है, जिनकी वजह से इन महिलाओं को नर्क जैसी जिंदगी में धकेलने का कारोबार बदस्तूर जारी है।’

पोता बड़े ध्यान से दादाजी की बातें सुन रहा था। जोश में आकर बोला, “कमाल की जानकारी रखते हैं आप, दादाजी! मैं एक पत्रकार दोस्त की मदद से यह जानकारी अखबार में छपवाने की कोशिश करता है, ताकि जन-जन तक निषिद्धो पाली की रज’ का अर्थ पहँचे सके, जो वेश्याओं के सामाजिक एवं पौराणिक सम्मान का दयोतक है।

दादाजी मुस्कुराए और अपने काम में मग्न हो गए। (सर्वथा मौलिक रचना)

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डाॅ. जया आनंद, -लेखिका, डॉ जया आनंद, प्रवक्ता (मुंबई), स्वतंत्र लेखन 

लघुकथा

अलिखित पाती प्रेम की


‘मैंने प्यार किया‘ फिल्म का अंतिम दृश्य- प्रेम (हीरो) सुमन (हिरोइन) के लिए दो हजार रुपये कमा कर अपनी जान पर खेलकर सुमन का हाथ उसके पापा से मांगने आ गया है। सुमन की आंखे आँसुओं में डूब गयीं हैं और जैसे कह रहीं हैं ‘‘बाबा प्रेम के ये दो हजार रुपयों का मोल कोई नहीं लगा सकता... इतना प्रेम कौन कर सकता है...हाँ मैंने प्यार किया प्रेम से सिर्फ प्रेम से...फिल्म देखते हुए स्नेहा की आंखे भी छलक रहीं हैं.... है कोई ऐसा क्या जिससे वो कह सके...जिसके लिए वो लिख सके पाती प्रेम की जैसे मैंने प्यार किया में ‘कबूतर जा जा...गीत के साथ प्रेम की पाती प्रेमी तक पहुँच गयी थी। 

स्नेहा फिल्म देख कर घर पहुँच गयी थी पर मन तो वहीँ अटका था, मन तो मन है उसकी उड़ान कहाँ तक जाती है और कहाँ उस उड़ान को ठौर मिले कुछ पता नहीं। स्नेहा के मन मे गूंज रहा था वही गीत... क्यों करने लगी मैं तुम पर ऐतबार खामोश रहूं या मैं कह दूँ... या कर लूं चुपके से ये स्वीकार यही सच है शायद मैंने प्यार किया...‘शायद ‘ यानी पक्का नहीं...स्नेहा ठिठकी कि माँ ने आवाज दी ‘‘स्नेहा! कपड़े बदलो,मैं चाय और नमकीन कचैड़ी बना रहीं हूं ‘‘ 

‘‘माँ! तुमसे मैंने और तुमने मुझे पक्का वाला प्यार किया..

यही सच है तुमसे मैंने प्यार किया..‘‘ स्नेहा गुनगुनाने लगी। 

लेकिन हर बात इतनी तो सरल होती नहीं जितना हम प्रदर्शित करने की कोशिश करते हैं। माता- पिता, भाई- बहन वाला प्यार तो अलग है न!वो फिल्म के प्रेम और सुमन जैसा प्यार कहाँ और उनको वो लव लेटर यानी प्रेम की पाती... स्नेहा नहीं लिख सकती थी अभी किसी को भी, बस मन मे दबा कर रख लिया था कि कभी लिखेगी उस अंजाने अपने को। अभी तो पढ़ना है, फिल्म की हिरोइन सुमन भी तो पढ़ाई मे अच्छी बनी थी। 

‘‘बेटा! पढ़ो यह समय पढ़ने का है, मन मस्तिष्क को एकाग्र करो ।‘‘

‘‘अच्छी लड़की बनो, पहले अपने को संवारो...‘‘ । ये सारी सीख सीखते-सीखते स्नेहा पूरी तरह से अच्छी लड़की बन गयी थी और अच्छी लड़की की फिर शादी भी तय हो गयी पर प्रेम की पाती की बात स्नेहा नहीं भूली थी। उसने लिखी प्रेम पाती अपने होने वाले पति को। प्रेम से भीगी हुई पाती,  उस फिल्म के प्रेम की तरह तुम्हीं मेरे प्रेम हो..।

‘‘स्नेहा! तुम बिल्कुल पागल हो धरती पर रहा करो, ख्याली पुलाव मत पकाया करो‘‘ अंजलि समझाती रहती, पर स्नेहा का तो यथा नाम तथा गुण वाला हाल रहा। ‘जो अपना हो जाए वही सबसे प्यारा ‘दादी कहती थीं और स्नेहा इस  बात पर। भरोसा करती थी। तो फिर पति ही प्रेमी और उसे ही लिखी पाती प्रेम की। 

सालों साल बीत गए पर स्नेहा को लगता है कि उसे प्रेम की पाती में और भी कुछ लिखना है, अब तो जीवन कई अनुभवों से गुज़र चुका है तो प्रेम की पाती भी उन अनुभवों से परिपक्व होनी चाहिए ‘तुम मेरे हो‘ से कुछ बढ़कर।....

संबोधन क्या और किसे? इस प्रश्न के चंगुल में स्नेहा फंस गयी है पर उसे लिखने की चाह है प्रेम की पाती जो अब तक उसने नहीं लिखी। वो लिखना चाहती है-

तुम मुझे बहुत प्रिय हो, तुम वैसे नहीं थे जैसा मैं सोचा करती थी, मेरी कल्पनाओं से दूर उस गीत की तरह बिल्कुल नहीं ‘हाँ तुम बिल्कुल वैसे हो जैसा मैंने सोचा था...‘  नहीं वैसे नहीं पर तुमने ससम्मान मुझे अपने जीवन का हिस्सा बनाया इसलिए तुम मुझे बहुत प्रिय हो जब प्रिय मान लिया फिर हानि-लाभ, फायदा नुकसान ये सब तो पीछे हो गए, बस तुम्हारा साथ, तुम्हारे हर सुख दुःख की भागीदार मैं, तुम्हारे दुःख से  तुम्हें  हर सम्भव उबारने की कोशिश करती हुई, तुम्हारी उपलब्धियों को उत्फुल्लता से स्वीकार करते हुए विजयी मुस्कान लिए हमेशा तुम्हारे साथ खड़ी होती रहीं हूँ, तुम्हारे अपनों का हमेशा अपना माना है क्योंकि उनके लिए तुम्हारी आँखों में देखा है मैंने प्रेम और इस प्रेम में ही तो हमेशा झुकी हूँ। ऐसा नहीं कि तुम ने साथ नहीं निभाया पर क्रोध के बवंडर में कई बार सबकुछ ढहा भी दिया और लगा कि प्रेम जैसा तो कुछ भी नहीं शायद ! फिर मेरी उपलब्धियों में तुम्हारी स्नेहिल मुस्कान भी सहज प्रकट नहीं हुई... इसमें शायद तुम्हारा दोष नहीं शायद सदियों से चली आ रही परिपाटी में स्त्री का अनुगामिनी रूप अधिक रूचिकर रहा है सहचरी का नहीं पर मैं तो तुम्हें साथी के रूप मे स्वीकारती आई हूँ।

....कभी मैंने सोचा था कि तुमसे मित्रता करूं पर तुम  तो कुछ और ही सोच बैठे और सोचा  ही नहीं अभिव्यक्त भी कर दिया बिना जाने कि मैं क्या सोचती हूं पर तुम्हारी इस सोच को सम्मान दिया। शायद! ये भी तो स्नेह है न!

मुझे शुचिता दी याद आती हैं जिन्होंने प्रेम निभाने के लिए अपने रूढ़िवादी माता-पिता से जी तोड़ संघर्ष किया था पर जिसके लिए संघर्ष किया उसी ने कदम पीछे कर दिए। प्रेम करते समय निभाने की शर्त होती है शायद उसे मालूम नहीं था या इतनी हिम्मत नहीं हुई कि घर वालों को समझा ले। फिर शुचिता दी ने उसके लिए दरवाजे हमेशा के लिए बंद कर दिए। प्रेम ने घृणा का रूप ले लिया पर किसी एकांत क्षण में वो घृणा आँसू बन कर पिघलती हुई स्नेह का रूप धर लेती होगी। 

स्नेह, प्रेम ये शब्द बड़े प्रिय हैं मुझे। लोग कहते हैं ‘बी प्रैक्टिकल स्नेहा‘ मैं कोशिश करने लगती हूं प्रैक्टिकल होने की। स्नेह, प्रेम से पेट थोड़ी न भरता है पर बिना प्रेम के काम भी तो नहीं चलता। सुविधा पूर्ण जीवन, वैभव, ऐशो आराम सुख की अनुभूति नहीं दे सकते जब तक उसने प्रेम न घुला हो। 

मुझे सपना की बात याद आ जाती है ‘‘रितेश बाद में और लड़कियों से भी आकर्षित हुआ...प्यार-व्यार जैसा कुछ नहीं था‘‘। हाँ सच ही तो कह रही हो सपना! तुम्हारे साथ भी आकर्षण था, कोई बंधन तो था नहीं, नहीं तो तुम भी उसे छोड़ कर शादी न करती... जो कुछ था वो था मधुर भाव जिसमें स्नेह घुला था बस उस भाव को संचित कर के रख लो अपनी जीवन निधि में... पर मैं तुमसे पूरी तरह असहमत भी नहीं जब तुमने कहा था ‘‘स्नेहा पता नहीं कहाँ से ये 

अधिकार भाव रितेश के प्रति जग जाता है !‘‘

‘‘बहुत स्वाभाविक है ये शायद सहज अनुभूति है बस इसकी अभिव्यक्ति का रूप अलग होना चाहिए अब ,वो स्नेह मित्रवत रूप ले चुका है‘‘

सपना की बात याद आगयी क्योंकि संदर्भ तो प्रेम ही था ....कभी ऐसी प्रतीति हुई कि तुम बिल्कुल वैसे हो जैसा मेरी कल्पनाओं के रंग में एक चेहरा उभरता था या ठीक वैसे नहीं तो सत्तर- अस्सी प्रतिशत तो समानता रही ही। 

तुम मौन रहे और अभिव्यक्ति हुई भी तो अंदाज जुदा था। 

बहुत भाया सबकुछ। उस मौन स्नेह को जीवन की महकती डायरी के पन्नों में सहेज कर रख लिया और तुम्हें अपना मित्र बना लिया। पर मैं तो हर बार की तरह तुम्हारी बहुत  अच्छी सच्ची मित्र बनी पर तुम मेरे जैसे मित्र नहीं बन पाये। तुम्हें मित्र मानना भी तो स्नेह ही है न!

स्नेह को जितना समझा है उससे यही आभासित हुआ कि प्रेम में किसी के लिए झुकने, किसी के लिए करने की इच्छा स्वतः जागृत होती है। दुआएं, शुभकामनाएं, प्रार्थनाएं हृदय से निकलती हैं और जहाँ तक पाने की बात है तो प्रेम का बदला तो प्रेम ही होता है। भौतिकता से परे भाव की  अनुभूति अभाव को दूर करते हुए स्नेह को जन्म देती है। 

लोग उदाहरण देते हैं कि नदी अपने लिए जल संचित नहीं करती, वृक्ष अपने लिए नहीं फलित होता, उन्हें अपने लिए बदले में कुछ नहीं चाहिए पर नदी हो या वृक्ष नमी तो चाहिए ही नहीं तो दोनों सूख जाएंगे।

...मैं भी तो बस प्रेम के बदले में प्रेम की नमी चाहती हूँ, मत करो कुछ मेरे लिए पर इस नमी की हकदार मैं हूँ। 

ऐसे कई नम पल मैंने सहेजे हए हैं जब मेरे एक बार कहने पर तुम समोसा ले आए थे, मेरे बीमार पड़ने पर दिन-रात एक कर दिया था, जब तुमने मुझे मेरे संपूर्ण व्यक्तित्व को सराहा था३..जब तुमने मुझे अपनी राह का साथी माना था... सबकुछ सहेजा है कुछ भी इधर- उधर नहीं... घर चाहे अस्त-व्यस्त रखूं पर मन को और मन मे स्नेह को बहुत व्यवस्थित रखा है। 

सच कहूँ ‘मैंने प्यार किया ‘ फिल्म तो बहुत पुरानी हो गयी पर फिल्म की खुमारी नहीं उतरी और न उतरेगी सचमुच मैंने प्यार किया।... और हाँ मुझे ये लव आजकल वाला समझ नहीं आता, मैं ऐसी ही हूँ...।

-स्नेहा 

स्नेहा ये सब लिखना चाहती है पर शायद कभी नहीं लिख पाएगी, ये पाती प्रेम की अलिखित ही रहेगी,  उसमें अभी शायद और भी अनुभव समाविष्ट होना शेष है!... और फिर इस प्रेम की पाती के उत्तर की भी अपेक्षा नहीं कर सकती क्योंकि इस पाती के गन्तव्य स्थल का पता भी उसे शायद नहीं मालूम या मालूम है!!!




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