साहित्य नंदिनी, जनवरी 2022





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कमल किशोर गोयनका, नई दिल्ली, मो. 9811052469/011-27211251

समीक्षा

प्रेमचंद का ‘मानसरोवर’: उसका कायाकल्प और नया मानसरोवर का प्रकाशन

प्रेमचंद-साहित्य के पाठकों को यह जिज्ञासा हो सकती है तथा होनी भी चाहिए कि प्रेमचंद के कहानी-संग्रह ‘मानसरोवर‘ (आठ खंड) को क्यों नया मानसरोवर‘ (आठ खंड) के रूप में प्रकाशित किया जा रहा है। इसका समुचित उत्तर देने से पूर्व पाठकों को मानसरोवर‘ का इतिहास जानना आवश्यक है, क्योंकि इस इतिहास में ही ‘मानसरोवर‘ को नया रूप देने तथा नई उपलब्ध कहानियों को पाठकों तक पहुँचाने के संकल्प में ही ‘नया मानसरोवर‘ के प्रकाशन का औचित्य छिपा है। हिंदी-साहित्य के पाठक जानते हैं कि अज्ञेय ने ‘प्रतीक‘ को ‘नया प्रतीक‘ तथा भारतीय ज्ञानपीठ ने ‘ज्ञानोदय‘ को नया ज्ञानोदय‘ के शीर्षक से प्रकाशित किया और पुरानी पत्रिकाओं को नव्यता का रूप दिया। ‘नया मानसरोवर‘ की इसी कड़ी का एक नया कदम है तो पुराने ‘मानसरोवर‘ को नए रूप में तथा पूर्व से अधिक सार्थक और उपयोगी बनने का प्रयास है। मैं कह सकता हूँ कि ‘मानसरोवर‘ का यह कायाकल्प है, पुरानी त्रुटियों-दोषों का परिमार्जन है और नई सामग्री को समाविष्ट करके उसे अधिक-से-अधिक वैज्ञानिक, तर्कसंगत तथा उपयोगी बनाना है। ‘नया मानसरोवर‘ के प्रकाशन से पुराने ‘मानसरोवर‘ की स्मृति बनी रहेगी और अपने नए रूप में भावी पीढ़ियों के पाठकों को भी वह उपलब्ध रहेगी। भारतीय चिंतन एवं जीवन-प्रणाली में पुरातन को निरंतर नवीन और आधुनिक बनाने की लंबी परंपरा रही है, जिससे पुरातन की त्रुटियाँ दूर हो सकें और नवीनता के साथ बराबर उपयोगी और सार्थक बने रहें।

प्रेमचंद की 203 कहानियों को आठ खंडों में मानसरोवर‘ के नाम से प्रकाशित किया गया था। इसके आरंभिक दो खंड-खंड एक व दो, स्वयं प्रेमचंद ने संपादित-संकलित तथा प्रकाशित किए थे। प्रेमचंद के कहानीकार के साथ ‘मानसरोवर‘ के ये दो खंड उनकी कहानी-यात्रा के अविस्मरणीय पड़ाव हैं और कहानीकार तथा ‘कहानी-सम्राट‘ बनाने एवं स्थापित करने में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान है, लेकिन इसका नए रूप में नया मानसरोवर‘ के रूप में प्रकाशन, इसके पुराने स्वरूप के ऐतिहासिक महत्त्व की रक्षा को सर्वथा नए ‘नया मानसरोवर‘ के प्रकाशन की आवश्यकता तथा उसकी उपयोगिता एवं सार्थकता को सिद्ध करने तथा पाठकों की अनुकूल प्रतिक्रिया के लिए ‘मानसरोवर’ (आठ खंड) के इतिहास का परिचय देना आवश्यक है। इस इतिहास को देने से पहले साहित्य-अध्ययन के इस सिद्धांत को स्पष्ट करना आवश्यक है कि किसी भी लेखक के रचना-संसार का प्रामाणिक एवं वैज्ञानिक अध्ययन के लिए उसे कालक्रम में रखकर अध्ययन एवं मूल्यांकन करना आवश्यक है, अर्थात यही एक मात्र रास्ता है जिससे लेखक की विकासात्मक यात्रा का सर्वाधिक विश्वसनीय एवं तर्कसंगत परीक्षण हो सकता है तथा इससे प्रामाणिक सत्यों और तथ्यों तक पहुँचा जा सकता है। यह एक ऐसा सिद्धांत है जिसे चुनौती नहीं दी जा सकती और जिसकी प्रेमचंद की कहानियों के मूल्यांकन में सबसे अधिक उपेक्षा हुई है तथा प्रगतिशील आलोचक मधुरेश ने तो इस कसौटी का मज़ाक तक उड़ाया है, क्योंकि वे तथा उनके प्रगतिशील साथी यह  समझते हैं कि इस सिद्धांत से प्रेमचंद के संबंध में उनकी अधिकांश प्रगतिशील अवधारणाएँ धूल-धूसरित हो जाएँगी। प्रगतिशील आलोचकों के प्रेमचंद संबंधी मूल्यांकन तथा अवधारणाएँ कुछ चुनी हुई रचनाओं पर आधारित हैं और उनसे उन्होंने मनमाने निष्कर्ष निकाले हैं। प्रेमचंद के लेख ‘महाजनी सभ्यता‘ को अंतिम रचना मानकर उसे प्रेमचंद का वसीयतनामा घोषित करते हैं, जबकि वे उसी मास (‘हंस‘, सितंबर, 1936) प्रकाशित कहानी, ‘रहस्य‘ को देखते भी नहीं हैं जिसमें प्रेमचंद मनुष्य को दिव्यता तक ले जाते हैं और एक श्रेष्ठ मनुष्य की, एक सामाजिक व्यक्ति का आदर्श रूप प्रस्तुत करते हैं। अतः प्रेमचंद की कहानियों को कालक्रम में रखकर ‘मानसरोवर‘ को नया रूप देना आवश्यक था, जिससे पाठक और आलोचक उनकी कहानियों को कालक्रमानुसार पढ़ सकें और उनकी विकास-यात्रा की उपलब्धियों एवं दुर्बलताओं को रचनागत तथ्यों के संदर्भ में समझ और समझा सकें। मानसरोवर का ‘नया मानसरोवर‘ के रूप में कायाकल्प करने के मूल में यही दृष्टि रही है। 

‘मानसरोवर‘ के इतिहास और इस संपादकीय दष्टि के मूल मर्म को अब स्पष्ट करना उपयुक्त होगा। मानसरोवर‘ के खंड: एक तथा खंड: दो का संकलन प्रकाशन स्वयं प्रेमचंद ने किया था और शेष छह खंड श्रीपतराय ने संकलित  प्रकाशित किए थे। मानसरोवर‘ के आरंभिक दो खंडों का ऐतिहासिक महत्त्व है, क्योंकि वे स्वयं लेखक के द्वारा तैयार तथा प्रकाशित हए थे और प्रेमचंद ने मुख्यतः वर्ष 1929 से 1936 तक विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित नई कहानियों को इन दो खंडों में प्रकाशित किया था। प्रेमचंद प्रथम उर्दू कहानी-संग्रह ‘सोजे़वतन’ (जून 1908) तथा प्रथम हिंदी कहानी-संग्रह ‘सप्त-सरोज‘ (जून, 1917 के प्रकाशन से इस नीति पर चल रहे थे कि उनकी उर्दू या हिंदी कहानियाँ पहले पत्र-पत्रिकाओं में छपती थीं और आठ-दस एवं पंद्रह-बीस कहानियाँ छपने के बाद उन्हें किसी संग्रह में एकत्र करके पुनः संकलित रूप में प्रकाशित कर दी जाती थीं और कई बार एक कहानी कई कहानी-संग्रहों में स्थान पा जाती थीं और कुछ किसी कहानीसंग्रह में आने से वंचित भी रह जाती थीं। ‘मानसरोवर‘ खंड: एक तथा खंड: दो में प्रमुखतः अधिकांश कहानियाँ आठ वर्ष (1929-36) के बीच की हैं, किंतु खंड: एक में एक कहानी वर्ष 1921 तथा 1925 की भी है और खंड: दो में वर्ष 1926 एवं 1928 की भी हैं । इन संग्रहों में-प्रथम खंड में 21 तथा दूसरे खंड में 22 कहानियाँ चैथे दशक (1931-36) में प्रकाशित हुई हैं, अर्थात् अपनी परंपरानुसार प्रेमंचद ने विगत छह वर्षों में, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कहानियों को संकलित करके पाठकों तक पहुँचाया है, लेकिन निश्चय ही उन्होंने यह कल्पना नहीं की होगी कि उनके बाद उनके पुत्र-प्रकाशक ‘मानसरोवर‘ शीर्षक का इस्तेमाल उनकी संपूर्ण कहानियों को संकलित-प्रकाशित करने के लिए करेंगे और हिंदी-संसार को यह मानने के लिए विवश करेंगे कि ‘मानसरोवर‘ के आठ खंड कहानियों को कालक्रमानुसार आयोजित करके प्रस्तुत किए गए हैं। प्रेमचंद ‘मानसरोवर‘ को दो खंडों में प्रकाशित करने से पहले उर्दू में ‘प्रेम पचीसी‘ (दो खंड, अक्टूबर 1914), ‘प्रेम-बत्तीसी‘ (दो खंड, अगस्त 1920) तथा ‘प्रेमचालीसी‘ (दो खंड, 1930) आदि के रूप में ऐसा प्रयोग कर चुके थे, लेकिन हिंदी में यह उनका पहला प्रयोग था कि उन्होंने अपनी नवीनतम कहानियों (कुछ अपवाद छोड़कर) को दो खंडों में प्रकाशित किया था। खेद है, उनके पुत्र-प्रकाशक श्रीपतराय ने उनकी इस प्रकाशन-दृष्टि एवं परंपरागत प्रकाशन-योजना का रूप बदल दिया और दो खंडों के ‘मानसरोवर‘ को आठ खंडों में तब्दील कर दिया। इससे हिंदी संसार और प्रेमचंद के पाठकों-आलोचकों को यह भ्रम होना स्वाभाविक था कि ‘मानवरोवर‘ के आठ खंड एक प्रकार से प्रेमचंद की कहानी-रचनावली है और कहानियाँ उनके प्रकाशन क्रम से रखकर खंडों में प्रकाशित की गई हैं। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि आलोचकों ने एक तो 203 कहानियों को जो आठ खंडों में संकलित हैं (खंड: एक = 27, खंड दो = 26, खंड: तीन = 32, खंड: चार = 20, खंड: पाँच = 24, खंड: छह = 20, खंड: सात = 23, खंड: आठ = 31 कहानियाँ), उनका संपूर्ण कहानी-संसार मान लिया तथा दूसरे इन आलोचकों ने इन खंडों में कहानियों के संकलन पर कभी कोई शंका या प्रश्न नहीं उठाया और यह मानकर व्याख्याएँ की कि मानसरोवर‘ के आठ खंडों में कहानियों का संकलन प्रकाशन-क्रम से ही किया गया होगा, जबकि इस नियम का पूर्णतः पालन न तो प्रेमचंद ने किया था और न उनके पुत्र-प्रकाशक श्रीपतराय और अमृतराय ने ही किया। प्रेमचंद जैसे कालजयी रचनाकार के साहित्य (विशेषतः कहानियाँ) के संबंध में ऐसी स्थिति बने रहे और तब भी बनी रहे जब 203 कहानियों के ‘मानसरोवर’ के बाद उनकी लगभग 98 और कहानियाँ मिल गई हों जो ‘मानसरोवर’ के आठ खंडों मंे आने से वंचित रह गई हों। इन 98 कहानियों में स्वयं अमृतराय ने 56 नई कहानियाँ जोड़ी थीं जो वर्ष 1962 में, ‘गुप्तधन’ (दो खंड) में प्रकाशित हुईं थीं, किंतु उसके बाद भी अमृतराय की प्रकाशन संस्था ‘हंस प्रकाशन’, इलाहाबाद तथा श्रीपतराय की ‘सरस्वती प्रेस’, इलाहाबाद-दिल्ली से अपने मूल रूप में ‘मानसरोवर’ (आठ खंड) 203 कहानियों के साथ ही छपता रहा और पाठक भी इन 203 कहानियों को प्रेमचंद की संपूर्ण कहानियाँ समझ एवं मानकर पढ़ता और समझतारहा तथा आलोचक भी इसे ही सत्य मानकर इनका विवेचन करता रहा। प्रेमचंद की कहानियों को लेकर यह स्थिति उनकी समुचित मूल्यांकन एवं तर्कसंगत विवेचन को ही असंभव बनाती है और कहानीकार प्रेमचंद अपने अपूर्ण रूप में ही पूर्ण मान लिए जाने के असत्य में ही जीते चले जाते हैं। 

ऐसी स्थिति में, ‘मानसरोवर‘ के प्रकाशित आठ खंडों का परित्याग करके उसका ‘नया मानसरोवर‘ के रूप में कायाकल्प करना सर्वथा न्यायसंगत उचित तथा एक प्रकार से अनिवार्य कार्य है। प्रेमचंद के जीवन, साहित्य एवं विचार के अध्ययन अन्वेषण और आलोचना को जीवन की आधी शताब्दी देनेवाले मुझ जैसे प्रेमचंद शोधकर्मी के लिए तो यह प्रेमचंद-धर्म का ही अनुपालन है। प्रेमचंद के साहित्य को प्रामाणिक तथा पूर्ण रूप में प्रस्तुत करना मेरे जीवन का लक्ष्य रहा है और ‘नया मानसरोवर‘ उसी लक्ष्य का एक सुपरिणाम है, परंतु यहाँ इस कार्य की स्थिति, स्वरूप और कायाकल्प का चित्र पाठकों के सम्मुख रखना उचित होगा जिससे पाठक यह जान सकें कि पुराने और इस नए ‘मानसरोवर‘ में क्या अंतर है, और इस नएपन में ऐसा क्या है जो पुराने ‘मानसरोवर‘ को अनपयोगी, अपठनीय तथा निरर्थक बनाता है और नया मानसरोवर‘ किन कारणों से वर्तमान एवं भावी पीढ़ियों के लिए सर्वथा उपयोगी, पठनीय एवं सार्थक बन जाता है। इसके लिए ‘मानसरोवर’ के दोनों रूपों का तुलनात्मक स्वरूप रखना आवश्यक है जो निम्नलिखित रूप में है: 

1. ‘मानसरोवर’ का पुराना और नया रूप दोनों ही आठ खंडों में है। खंडों की संख्या में परिवर्तन नहीं किया गया है, क्योंकि इस रूप में इसके इतिहास की रक्षा आवश्यक थी।

2. ‘मानसरोवर‘ के पुराने आठ खंडों में कहानियों का संकलन-संयोजन कालक्रम से नहीं था। इसका ध्यान न तो प्रेमचंद ने रखा, न उनके प्रकाशक पुत्रों ने और न कॉपीराइट ख़त्म होने के बाद विभिन्न प्रकाशकों ने जो आज तक उसी पुराने रूप में छाप करके बेच रहे हैं। अब ‘नया मानसरोवर‘ में प्रेमचंद की संपूर्ण उपलब्ध कहानियों को कालक्रमानुसार संकलित किया गया है। इससे ‘मानसरोवर‘ का पुराना रूप स्वतः निरर्थक एवं अपठनीय हो जाएगा। 

3. ‘मानसरोवर‘ खंडः एक में प्रेमचंद की भूमिका है। उसे नया मानसरोवर‘ में पूर्ववत् रूप में दी गई है। 

4. ‘मानसरोवर‘, खंड: एक (मार्च 1936) में 27 कहानियाँ हैं। सूची है- (1) अलग्योझा: माधुरी, अक्टूबर, 1929, (2) ईदगाह: ‘चाँद‘, अगस्त, 1933, (3) माँः ‘माधुरी‘, जुलाई, 1929, (4) बेटोंवाली विधवा: ‘चाँद‘, नवंबर, 1932, (5) बड़े भाई साहब: ‘हंस‘, नवंबर, 1934; (6) शांतिः उर्दू ‘प्रेम पचीसी‘, 1921 से पूर्व, (7) नशाः ‘चाँद‘ः फरवरी, 1934, (8) स्वामिनीः ‘विशाल भारत‘, सितंबर, 1931, (9) ठाकुर का कुआँ: ‘जागरण‘, अगस्त 1932य (10) घरजमाई: ‘माधुरी‘, नवंबर, 1929, (11) पूस की रातः ‘माधुरी‘, मई, 1930; (12) झाँकी: ‘जागरण‘, अगस्त, 1932; (13) गुल्ली-डंडाः ‘हंस‘ फरवरी, 1933, (14) ज्योतिः ‘चाँद‘, मई, 1933; (15) दिल की रानीः ‘चाँद‘, नवंबर, 1933, (16) धिक्कारः ‘चाँद‘, फरवरी, 1925, (17) कायरः ‘विशाल भारत‘, जनवरी, 1933; (18) शिकारः ‘हंस‘, जुलाई-अगस्त, 1931; (19) सुभागीः ‘माधुरी‘, मार्च, 1930, (20) अनुभवः ‘मानसरोवर‘, खंड: एक, मार्च, 1936, (21) लांछन: ‘माधुरी‘, फरवरी, 1931, (22) आखिरी हीलाः ‘हंस,‘ अप्रैल, 1931; (23) तावानः ‘हंस‘, सितंबर, 1931; (24) घासवाली: ‘माधुरी,‘ दिसंबर, 1929; (25) गिलाः ‘हंस, अप्रैल, 1932; (26) रसिक संपादक: ‘जागरण‘, मार्च, 1933; (27) मनोवृत्तिः ‘हंस‘, मार्च 1934। ‘नया मानसरोवर‘ खंड: एक (2016) में 39 कहानियाँ हैं जो कालक्रमानुसार संकलित हैं। प्रेमचंद की पहली कहानी उर्दू में छपी थी जो ‘इश्के दुनिया व हुब्बे वतन‘ (सांसारिक प्रेम और देश प्रेम) शीर्षक से ज़माना‘ उर्दू मासिक, अप्रैल, 1908 में प्रकाशित हुई थी। ये कहानियाँ वर्ष 1908 से 1913 में प्रकाशित हुई हैं, जिनमें से कुछ पत्र-पत्रिकाओं में छपी हैं, लेकिन ये सभी पहले उर्दू में प्रकाशित हुई हैं और बाद में ये हिंदी में आई हैं। ये सभी मूलतः उर्दू की कहानियाँ हैं जिनका बाद में लेखक के द्वारा हिंदीकरण हुआ है। ये 39 कहानियाँ निम्नलिखित हैं: 

1. सांसारिक प्रेम और देश प्रेम: ‘ज़माना‘, अप्रैल, 1908/2. दुनिया का सबसे अनमोल रतन: ‘सोजेवतन‘, जून 1908 3. शेख़ मख़मूर: ‘सोजेवतन‘, जून, 1908/ 4. यही मेरी मातृभूमि है: ‘सोजेवतन‘, जून, 1908 / 5. शोक का पुरस्कार: ‘सोजेवतन‘, जून, 1908 /6. पाप का अग्नि कुंड: ‘सोजेवतन‘, जून, 1908 /7. दारा शिकोह का दरबार: ‘आजाद‘, सितंबर, 1908 / 8. शाप: ‘ज़माना‘, अप्रैल-जुलाई, 1910 / 9. रानी सारंधा: ‘ज़माना,‘ अगस्त-सितंबर, 1910 /10. नेकी: ‘अदीब‘, सितंबर, 1910 / 11. बड़े घर की बेटी: ‘ज़माना,‘ दिसंबर, 1910 / 12. विक्रमादित्य का तेगा: ‘ज़माना‘, जनवरी, 1911 / 13. करिश्मा-ए-इंतिकाम (अद्भुत प्रतिशोध): ‘ज़माना‘, फरवरी, 1911 / 14. दोनों तरफ से: ‘ज़माना‘, मार्च, 1911 / 15. राजा हरदौल: ‘ज़माना‘, अप्रैल, 1911 / 16. बड़ी बहन: ‘अदीब‘, जुलाई, 1911 17. आख़िरी मंज़िल: ‘ज़माना‘, अगस्त-सितंबर, 1911 / 18. ख़ौफे रुसवाई (बदनामी का डर): ‘अदीब‘ सितंबर, 1911/ 19. गरीब की हाय: ‘ज़माना‘, अक्टूबर, 1911 / 20. आल्हा: ‘ज़माना‘, जनवरी, 1912 / 21. ममता: ‘ज़माना‘, फरवरी, 1912 / 22. नसीहतों का दफ्तर: ‘ज़माना‘, मई-जून, 1912 / 23. कैफेरे कदरि (कर्म-दंड): ‘अदीब,‘ जुलाई, 1912 / 24. मनावन: ‘ज़माना,‘ जुलाई, 1912 / 25. धोखे की ट्टटीः ‘अदीब‘, नवंबर, 1912 / 26. राजहठ: ‘ज़माना‘, दिसंबर, 1912 / 27. त्रिया-चरित्र ‘ज़माना‘, जनवरी, 1913 / 28. अमृत ‘ज़माना‘, मार्च, 1913 / 29. अमावस्या की रात्रि ‘ज़माना‘, अप्रैल, 1913 / 30. सगे-लैला (लैला का कुत्ता)ः ‘अदीब‘, अप्रैल, 1913 / 31. धर्म-संकट: ‘ज़माना‘, मई, 1913 / 32. शंखनाद: ‘हमदर्द’, जून, 1913 / 33. मिलाप: ‘ज़माना‘, जून, 1913 / 34. आबेहयात (सुधा-रस): ‘हमदर्द‘, जून, 1913 / 35. दारू-ए-तल्ख (कड़वी सचाई): ‘हमदर्द‘, 17 जुलाई, 1913 / 36. अँधेर: ‘ज़माना‘, जुलाई, 1913 / 37. सिर्फ एक आवाज: ‘ज़माना‘, अगस्त-सितंबर, 1913 / 38. बाँका जमींदार: ‘ज़माना,‘ अक्टूबर, 1913 / 39. नमक का दारोगा: ‘हमदर्द‘, अक्टूबर, 1913 

5. ‘नया मानसरोवर‘, खंडः एक की इस कहानी-सूची से स्पष्ट है कि यह प्रेमचंद का आरंभिक उर्दू कहानी-संसार है जिसमें से एक भी कहानी ‘मानसरोवर‘, खंड: एक में नहीं है और इस प्रकार हिंदी कहानीकार प्रेमचंद के निर्माण में उनके उर्दू कहानीकार के योगदान को लुप्त कर दिया गया है। ‘मानसरोवर‘ के आठ खंडों में कहीं भी और किसी में भी प्रेमचंद के उर्दू कहानीकार की चर्चा नहीं है और पाठकों को यह भी नहीं बताया गया कि प्रेमचंद की कौन-कौन सी कहानियाँ पहले उर्दू में छपी थीं तथा यह भी कि प्रेमचंद ने आरंभिक वर्षों में कहानियाँ केवल उर्दू में लिखी थीं। इस प्रकार ‘नया मानसरोवर‘ खंडः एक उनके कहानीकार के साथ न्याय करता है और कहानी की बुनियाद उर्दू में रखने की वास्तविकता भी उजागर करता है और उनकी कहानी-यात्रा के परिदृश्य को कालक्रम में रखकर उसे वैज्ञानिक आधार भी देता है। इस प्रकार ‘मानसरोवर‘, खंडः एक (मार्च, 1936) की सार्थकता एवं उपयोगिता तथा पठनीयता स्वतः ही समाप्त हो जाती है और ‘नया मानसरोवर‘ का संपादन-प्रकाशन उसे नए रूप में सार्थकता, उपयोगिता एवं वैज्ञानिकता प्रदान करता है। 

6. ‘मानसरोवर‘, खंडः दो की परीक्षा भी उपयोगी होगी, क्योंकि इसका संपादन-प्रकाशन भी स्वयं प्रेमचंद ने किया था। इसकी स्थिति भी वही है जो खंडः एक की है। इसमें मुख्यतः 1931 से 1935 की कहानियाँ हैं, किंतु 1926, 1927, 1928, 1929 की भी कहानियाँ हैं, जिससे स्पष्ट है कि कहानियों के चयन में कोई तर्कसंगत पद्धति नहीं है। इस कारण यह आवश्यक था कि खंडः दो को नया रूप दिया जाए और उसमें कहानियों का संचयन खंडः एक के कालक्रम में किया जाए। इसका परिणाम यह हुआ कि ‘नया मानसरोवर‘, खंडः दो में ‘मानसरोवर‘, खंडः दो की एक भी कहानी नहीं आ सकी। ‘नया मानसरोवर‘ खंड: एक में वर्ष 1908 से 1913 तक प्रकाशित कहानियाँ दी गई हैं और इस दूसरे खंड में वर्ष 1914 से 1919 की 40 कहानियाँ हैं। पहले ‘मानसरोवर’, खंड: 2 में 26 कहानियाँ थीं और अब ‘नया मानसरोवर‘, खंडः दो में 40 कहानियाँ हैं। इसमें न उनकी पहली हिंदी कहानी ‘परीक्षा‘ भी है जो अक्टूबर, 1914 में प्रकाशित हुई थी तथा इसकी 40 कहानियों में 31 उर्दू में तथा 9 हिंदी में छपी थीं। इस प्रकार इस काल-खंड (1914-1919) में भी प्रेमचंद ने लगभग 75 प्रतिशत कहानियाँ उर्दू में लिखीं और बाद में उनका हिंदीकरण किया। प्रेमचंद की कहानी यात्रा के अध्ययन-विवेचन में उर्दू-हिंदी के इस तथ्य को ध्यान में अवश्य रखना चाहिए और इस पर भी ग़ौर करना चाहिए कि उर्दू भाषा में प्रेमचंद हिंदू समाज की कहानियाँ लिख रहे थे और उनके लिए उर्दू भाषा किसी मज़हब की भाषा नहीं थी जबकि उर्दू का संबंध मुस्लिम समाज से जोड़ा जाता था। प्रेमचंद के कहानी-कौशल का यह सुपरिणाम है कि उनकी उर्दू कहानियाँ हिंदी में आकर ऐसी लगती हैं कि उन्हें मूलतः हिंदी में ही लिखा गया था। हिंदी और उर्दू भाषा में जैसी सिद्धहस्तता प्रेमचंद में है, वैसी किसी अन्य भारतीय लेखक में दृष्टिगत नहीं होती। 

इस प्रकार ‘नया मानसरोवर‘, खंड: 2 पूर्णतः 40 नई कहानियों का खंड है, और ये कहानियाँ कालक्रम में रखी गई हैं। ये कहानियाँ निम्नलिखित हैं: 

1. अनाथ लड़की: ‘ज़माना‘, जून, 1914 / 2. खून सफेद: ‘ज़माना‘, जुलाई, 1914 / 3. शिकारी राजकुमार: ‘ज़माना‘, अगस्त, 1914 /4. अपनी करनी: ‘ज़माना‘, सितंबर-अक्टूबर, 1914 /5. प्ररीक्षा: ‘प्रताप‘, साप्ताहिक, अक्टूबर, 1914 / 6. पछतावा: ‘ज़माना‘, नवंबर, 1914 /7. विस्मृति: ‘ज़माना‘, जनवरी-फरवरी, 1915 /8. गैरत की कटार: ‘ज़माना‘, जुलाई, 1915 /9. कर्मों का फल: ‘ख़तीब‘, 7 अगस्त, 1915 /10. बेटी का धन: ‘ज़माना‘, नवंबर, 1915 /11. सौत: ‘सरस्वती‘, दिसंबर, 1915 /12. दो भाई: ‘ज़माना‘, जनवरी, 1916 /13. सज्जनता का दंड: ‘सरस्वती‘, मार्च, 1916/14. पंच-परमेश्वर: ‘सरस्वती‘, जून, 1916 /15. घमंड का पुतला: ‘ज़माना‘, अगस्त, 1916 /16. जुगनू की चमक: ‘ज़माना‘, अक्टूबर, 1916/17. धोखाः ‘ज़माना‘, नवंबर, 1916 /18. अपने फन का उस्ताद: ‘ज़माना‘, दिसंबर, 1916/19. दरवाजा: ‘अलनाजिर,‘ जनवरी, 1917/20. मर्यादा की वेदी: ‘ज़माना‘, जनवरी, 1917/21. ज्वालामुखी: ‘ज़माना‘, मार्च, 1917/22. उपदेश: ‘ज़माना‘, मई, 1917/23. ईश्वरीय न्याय: ‘सरस्वती‘, जुलाई, 1917 /24. वियोग और मिलाप: ‘प्रताप‘ साप्ताहिक, सितंबर, 1917 /25. महातीर्थ: ‘ज़माना‘, सितंबर, 1917/26. दुर्गा का मंदिर: ‘सरस्वती‘, दिसंबर, 1917/27. कप्तान साहब: ‘ज़माना‘, दिसंबर, 1917/28. विजय: ‘ज़माना‘, अप्रैल, 1918/29. शांति: ‘तहजीब निसवां‘, अप्रैल, 1918 / 30. बलिदान: ‘सरस्वती‘, मई, 1918/31. सेवा-मार्ग: ‘ज़माना‘, जून, 1918 /32. वासना की कड़ियाँ: ‘कहकशाँ‘, सितंबर-अक्टूबर, 1918/33. वफा का खंजर: ‘ज़माना‘, नवंबर, 1918/34. बोध: ‘प्रेम-पूर्णिमा‘, 1918/35. सचाई का उपहार: ‘प्रेम-पूर्णिमा‘, 1918/36. बैंक का दिवाला: ‘कहकशाँ‘, फरवरी-मार्च, 1919/37. विमाता: ‘कहकशाँ‘, जून, 1919/38. अनिष्ट शंका: ‘कहकशाँ,‘, अगस्त, 1919/39. खूने हुर्मत: ‘सुबहे उम्मीद‘, सितंबर, 1919/ 40. दफ्तरी: ‘कहकशाँ‘, अक्टूबर, 1919 

‘मानसरोवर‘, खंड: तीन (अप्रैल, 1938) प्रेमचंद के बड़े पुत्र श्रीपतराय ने संकलित एवं प्रकाशित किया और वर्ष 1920 से 1936 तक की 32 कहानियाँ को चुना और पूर्व के दो खंडों के समान कहानियों के चयन की कोई उचित एवं व्यवस्थित नीति नहीं अपनाई, जबकि पाठक और अध्येताओं को यह भ्रम बना रहा कि खंड: तीन का प्रकाशन कहानियों के कालक्रमानुसार हुआ है। अब ‘नया मानसरोवर‘, खंडः तीन में 42 कहानियाँ हैं जो कालक्रमानुसार दी गई हैं और पूर्व के खंडों के कालक्रम में भी हैं। नया मानसरोवर‘, खंड: तीन में वर्ष 1920 से 1923 की 42 कहानियाँ हैं जिनमें 11 उर्दू में तथा 31 हिंदी में पहले प्रकाशित हुई हैं। इससे स्पष्ट है कि हिंदी ने उर्दू का स्थान ले लिया है और प्रेमचंद 75 प्रतिशत कहानियाँ मूलतः हिंदी में लिखते हैं, लेकिन इस पर भी वे उर्दू का साथ नहीं छोड़ते और उर्दू संसार से अपना संबंध बनाए रखते हैं। प्रेमचंद की कहानियों केे इस द्विभाषी रूप के अध्ययन से अनेक नए तथ्य और निष्कर्ष सामने आ सकते हैं। ‘नया मानसरोवर‘, खंड: तीन की 42 कहानियाँ निम्नलिखित हैं . 

1. आत्माराम: ‘ज़माना,‘ जनवरी, 1920 / 2. बाँसुरी: ‘कहकशाँ‘, जनवरी, 1920/3. पशु से मनुष्य ‘कहकशाँ‘, जनवरी, 1920/4. मनुष्य का परम धर्म: ‘स्वदेश‘, 5 मार्च, 1920 5. प्रतिज्ञा ‘श्रीशारदा‘, 21 मार्च, 1920/6. ब्रह्म का स्वाँग ‘प्रभा‘, मई, 1920/7. पुत्र-प्रेम ‘सरस्वती‘, जून, 1920 /8. बूढ़ी काकी ‘कहकशाँ‘, जुलाई, 1920/9. मृत्यु के पीछे ‘सुबहे उम्मीद‘, सितंबर, 1920/10. मुबारक बीमारी ‘प्रेम बत्तीसी‘, खंडः एक, 1920/11. विषम समस्या ‘प्रभा‘, जनवरी, 1921 /12. रूहे हयात ‘ज़माना‘, जनवरी, 1921/13. विचित्र होली ‘स्वदेश‘, मार्च, 1921/14. प्रारब्ध ‘ज़माना‘, अप्रैल, 1921/15. लाल फीता ‘लाल फीता या मजिस्ट्रेट का इस्तीफा‘, अप्रैल, 1921/16. दुस्साहस ‘आज‘, 18 जून, 1921/17. आदर्श विरोध ‘श्रीशारदा‘, 6 जुलाई, 1921/18. विध्वंस ‘आज‘ 25 जुलाई, 1921/19. लाग-डाट ‘प्रभा‘, जुलाई, 1921/20. त्यागी का प्रेम ‘मर्यादा‘, नवंबर, 1921/21. मूठ: ‘मर्यादा‘, जनवरी, 1922/22. सुहाग की साड़ी: ‘प्रभा‘, जनवरी, 1922 /23. हार की जीत ‘मर्यादा‘, मई, 1922/24. स्वत्व-रक्षा ‘माधुरी‘, जुलाई, 1922/25. नाग-पूजा ‘‘तहजीब निसवाँ‘, 5-22 अगस्त, 1922 26. अधिकार चिंता: ‘माधुरी‘, अगस्त, 1922/27. गुप्तधन ‘श्रीशारदा‘, अगस्त, 1922 28. दुराशा ‘हजार दास्ताँ‘, अक्टूबर, 1922,/29. लोकमत का सम्मान: ‘ज़माना‘, अक्टूबर, 1922/30. चकमा ‘प्रभा‘, नवंबर, 1922/31. पूर्व-संस्कार ‘माधुरी,‘ दिसंबर, 1922/32. परीक्षा ‘चाँद‘, जनवरी, 1923/33. राज्य-भक्त ‘माधुरी,‘ फरवरी, 1923 /34. नैराश्य लीला ‘चाँद‘, अप्रैल, 1923 35. बैर का अंत ‘सरस्वती‘ अप्रैल, 1923/36. बौड़म ‘प्रभा‘, अप्रैल, 1923/37. गृह-दाह ‘श्रीशारदा‘, जून, 1923/38. आप-बीती ‘माधुरी‘, जुलाई, 1923/39. आभूषण: ‘माधुरी‘, अगस्त, 1923/40. खूनी: ‘ज़माना‘, अक्टूबर, 1923/41. कौशल -ः ‘चाँद‘, नवंबर, 1923/42. सत्याग्रह: ‘माधुरी,‘ दिसंबर, 1923

‘नया मानसरोवर‘ के पाठकों को दो प्रकार का लाभ होगा-एक तो प्रत्येक खंड में अधिक कहानियाँ मिलेंगी और दूसरे कालक्रमानुसार मिलेंगी एवं उनके प्रथम प्रकाशन की तिथि तथा पत्रिका आदि का विवरण मिलेगा। मानसरोवर‘, खंड: चार में कुल 20 कहानियाँ हैं और इसका प्रकाशन वर्ष 1939 में हुआ था। इसमें भी वर्ष 1927 से 1936 की कहानियाँ ली गई हैं जो अधिकांशतः हिंदी पत्रपत्रिकाओं से ली गई हैं। इसमें भी कहानियों के चयन की कोई नीति नहीं है और कालक्रम की पूर्णतः उपेक्षा है। ‘नया मानसरोवर‘, खंडः चार में वर्ष 1924 से 1926 की 44 कहानियाँ हैं, अर्थात् ‘मानसरोवर‘, खंडः चार से 24 कहानियाँ अधिक हैं तथा कालक्रम में हैं एवं प्रथम प्रकाशन की तिथि के साथ हैं। इस कालखंड (1924-1926) में हिंदी में 42 तथा उर्दू में 2 कहानियाँ छपी हैं। इससे स्पष्ट है कि अब प्रेमचंद हिंदी के लिए पूर्णतः समर्पित थे। ‘नया मानसरोवर‘, खंडः चार की 44 कहानियाँ निम्नलिखित हैंः 1. सैलानी बंदर ‘माधुरी‘, फरवरी, 1924/2. नबी का नीति निर्वाह ‘सरस्वती‘, मार्च, 1924/3. वज्रपात ‘माधुरी,‘ मार्च, 1924/4. मुक्ति-मार्ग ‘माधुरी,‘ अप्रैल, 1924 / 5. मुक्ति-धन: ‘माधुरी,‘ मई, 1924/6. क्षमा: ‘माधुरी‘, जून, 1924/7. निर्वासन:  ‘चाँद‘, जून, 1924/8. सौभाग्य के कौड़े :  ‘प्रभा‘, जून, 1924/9. नैराश्य: ‘चाँद‘, जुलाई, 1924/10. एक आँच की कसर: ‘चाँद‘, अगस्त, 1924/11. भूत: ‘माधुरी‘, अगस्त, 1924/12. उद्धार: ‘चाँद‘, सितंबर, 1924/13. दीक्षा 14. शतरंज के खिलाड़ी / ‘माधुरी‘, सितंबर, 1924/ 15. विनोद: ‘माधुरी‘, अक्टूबर, 1924/16. सवा सेर गेहूँ: ‘माधुरी‘, नवंबर, 1924/17. तेंतर: ‘चाँद‘, दिसंबर, 1924/18. डिक्री के रुपए: ‘चाँद‘, जनवरी, 1924/19. धिक्कार: ‘चाँद‘, फरवरी, 1925/20. नरक का मार्ग: ‘चाँद‘, मार्च, 1925/21. सभ्यता का रहस्य: ‘माधुरी,‘ मार्च, 1925/22. मंदिर और मस्जिद: ‘माधुरी‘, अप्रैल, 1925/23. विश्वास: ‘चाँद,‘ अप्रैल, 1925/24. स्त्री और पुरुष: ‘चाँद‘, मई-जून, 1925/25. भाड़े का टट्टू: ‘माधुरी,‘ जुलाई, 1925/26. माता का हृदय: ‘चाँद‘, जुलाई, 1925/27. चोरी: ‘माधुरी‘, सितंबर, 1925/28. स्वर्ग की देवी: ‘चाँद,‘ सितंबर, 1925/29. दंड: ‘चाँद‘, अक्टूबर, 1925/30. शूद्रा: ‘ज़माना‘, दिसंबर, 1925/31. लैला: ‘सरस्वती‘, जनवरी, 1926/ 32. मंत्र (लीलाधर): ‘माधुरी‘, फरवरी, 1926/33. कजाकी: ‘माधुरी,‘ अप्रैल, 1926/34. प्रेम-सूत्र: ‘सरस्वती‘, अप्रैल, 1926/ 35. लांछन: ‘माधुरी‘, अगस्त, 1926/ 36. ताँगेवाले की बड़:   ‘ज़माना‘, सितंबर, 1926/ 37. रामलीला: ‘माधुरी‘, अक्टूबर, 1926/38. निमंत्रण ‘सरस्वती‘, नवंबर, 1926/39. हिंसा परमो धर्म: ‘माधुरी‘, दिसंबर, 1926/ 40. बहिष्कार: ‘चाँद‘, दिसंबर, 1926/41. आधार ‘प्रेम-प्रमोद‘, 1926/ 42. गुरु-मंत्र: ‘प्रेम-प्रतिभा,‘ 1926/43. शांति: ‘प्रेम-द्वादशी‘, 1926/ 44. बाबाजी का भोग: ‘प्रेम-प्रतिमा‘, 1926 

‘मानसरोवर,‘ खंडः पाँच में 24 कहानियाँ हैं जो अधिकांशतः वर्ष 1925 से 1929 के बीच की हैं। इस प्रकार इन कहानियों का पूर्व के खंडों में प्रकाशित कहानियों से कालक्रम का कोई संबंध नहीं है। इसका अर्थ है कि सरस्वती प्रेस, बनारस के मालिक श्रीपतराय की दृष्टि कहानियों को इकट्ठा करके प्रकाशित करने की थी, उन्हें रचनाक्रम में रखने की नहीं, जबकि उनके लिए यह कार्य आसान था और उनके पास कहानियों के मूल प्रकाशन-स्रोत उपलब्ध थे। ‘नया मानसरोवर‘, खंडः पाँच में इन दोषों को दूर किया गया है। अब इस नए रूप में 30 कहानियाँ हैं जो वर्ष 1927 से 1928 के बीच अर्थात् दो वर्ष में लिखी और प्रकाशित हुई हैं और इन्हें कालक्रम से रखा गया है। प्रेमचंद के जीवन का यह एक ऐसा समय है जब उन्होंने दो वर्ष में इतनी अधिक कहानियाँ लिखी हैं और भिन्न-भिन्न प्रसंगों एवं समस्याओं पर लिखी हैं । हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं की कहानियों की इतनी माँग थी कि वे उसे पूरा नहीं कर पा रहे थे। इस काल-खंड में वे एकमात्र कहानी-सम्राट थे। इस संबंध में यह भी सत्य है कि प्रेमचंद की कहानियों से हिंदी पत्रिकाएँ लोकप्रिय हो रही थीं और ये पत्रिकाएँ उन्हें निरंतर देश के साहित्य-प्रेमियों तक पहुँचा रही थीं। इस दृष्टि से ‘मर्यादा‘, ‘माधुरी‘, ‘प्रभा‘, ‘चाँद‘, ‘सरस्वती‘ आदि पत्रिकाओं का सर्वाधिक योगदान हैं। फिर भी 7 कहानियाँ उर्दू में छपी हैं, हिंदी में बाद में आई हैं । ‘नया मानसरोवर‘, खंड: पाँच में निम्नलिखित 30 कहानियाँ (1927 से 1928 तक) संकलित हैं: 1. बड़े बाबू ‘बहारिस्तान‘ उर्दू .मासिक, फरवरी, 1927/ 2. शादी की वजह: ‘ज़माना‘, मार्च, 1927/ 3. सती ‘माधुरी‘, मार्च, 1927/4. कामना तरुः ‘माधुरी‘, अप्रैल, 1927/5. मंदिर: ‘चाँद‘, मई, 1927 6. सुजान भगत: ‘माधुरी‘, मई, 1927/7. माँगे की घड़ी ‘माधुरी‘, जुलाई, 1927/ 8. आत्म-संगीत: ‘माधुरी‘, अगस्त, 1927/ 9. एक्ट्रेस: ‘माधुरी‘, अक्टूबर, 1927/ 10. अग्नि-समाधि: ‘विशाल भारत‘, जनवरी, 1928/ 11. मोटेराम जी शास्त्री / ‘माधुरी‘, जनवरी, 1928/12. दो सखियाँ: ‘माधुरी‘, फरवरी-मई, 1928/13. मंत्र (डॉ. चड्ढा): ‘विशाल भारत‘, मार्च, 1928/14. मोटेराम जी शास्त्री का नैराश्य: ‘समालोचक‘, मार्च-अप्रैल, 1928/15. आँसुओं की होली ‘मतवाला‘, 6 मई, 1928/16. पिसनहारी का कुआँ: ‘माधुरी‘, जून, 1928/ 17. सोहाग का शव: ‘माधुरी‘, जुलाई, 1928 18. दरोग़ा जी: ‘माधुरी‘, अगस्त, 1928/19. संपादक मोटेराम जी शास्त्री: ‘माधुरी,‘ अगस्त-सितंबर, 1928/20. बोहनी ‘भारत‘, साप्ताहिक, 7 अक्टूबर, 1928/ 21. अभिलाषा ‘माधुरी‘, अक्टूबर, 1928/22. अनुभव ‘माधुरी,‘ नवंबर, 1928/23. विद्रोही ‘माधुरी‘, नवंबर, 1928/24. आगा-पीछा ‘माधुरी‘, दिसंबर, 1928/25. इस्तीफा ‘भारतेदु‘, दिसंबर, 1928/26. ख़ुदी ‘ख्वाबोख्याल‘, 1928/27. शुद्धि ‘ख्वाबोख्याल‘, 1928/28. प्रेरणा ‘ख़ाके परवाना‘, 1928 29. नादान दोस्त ‘ख़ाके परवाना‘, 1928/30. अलग्योझा: ‘ख़ाके परवाना‘, 1928 

‘मानसरोवर‘ खंड: छह में 20 कहानियाँ है और ‘नया मानसरोवर , खंड छह में 29 कहानियाँ हैं, जो कालक्रमानुसार दी गई हैं। इनमें 24 कहानियाँ हिंदी में तथा 5 कहानियाँ उर्दू में छपी हैं। उर्दू की कुछ कहानियों का हिंदीकरण अमृतराय ने किया और उनका हिंदी रूप ‘गुप्तधन‘ (1962) में प्रकाशित किया। ‘मानसरोवर‘, खंडः छह में 1908 से लेकर 1927 तक की कहानियाँ हैं, जिसके कारण लेखक की कहानी-यात्रा का कोई व्यवस्थित रूप निर्मित नहीं होता और पाठक/अध्येता दोनों ही कहानीकार प्रेमचंद के संबंध में सही निष्कर्षों तक नहीं पहुँच पाते। ‘नया मानसरोवर‘, खंड: छह वर्ष 1929 तथा 1930 की 29 कहानियाँ हैं और प्रेमचंद कहानी-रचना की पूर्व गति को बनाए रखते हैं जबकि इस दौर में वे अपनी अतिरिक्त पारिवारिक जिम्मेदारियाँ भी निभाते चलते हैं। ‘नया मानसरोवर‘, खंड: छह में निम्नलिखित 29 कहानियाँ हैं: 1. प्रायश्चित: ‘सरस्वती‘, जनवरी, 1929/2. खुचड़: ‘माधुरी‘, फरवरी, 1929/3. प्रेम की होली: ‘मतवाला‘, 23 मार्च, 1929/4. फातिहा: ‘विशाल भारत‘, मार्च, 1929/5. पर्वत-यात्रा: ‘माधुरी‘, अप्रैल, 1929/6. माँ: ‘माधुरी,‘ जुलाई, 1929/7. प्रेम का उदय: ‘प्रकाश‘, उर्दू साप्ताहिक, 16-23 अगस्त, 1929/8. ग़मी: ‘मतवाला‘, 31 अगस्त, 1929/9. कानूनी कुमार: ‘माधुरी‘, अगस्त, 1929/10. जिहाद: ‘पाँच फूल‘, 1929/11. घरजमाई: ‘माधुरी‘, नवंबर, 1929/12. कवच: ‘विशाल भारत‘, दिसंबर, 1929/13. घासवाली: ‘माधुरी‘, दिसंबर, 1929/14. दो कबें्र: ‘माया‘, जनवरी, 1930/15. धिक्कार: ‘माधुरी‘, फरवरी, 1930/16. जुलूस: ‘हंस‘, मार्च, 1930/17. सुभागी: ‘माधुरी‘, मार्च, 1930/18. पत्नी से पति: ‘माधुरी‘, अप्रैल, 1930/19. समर-यात्रा: ‘हंस‘, अप्रैल, 1930/20. पूस की रात: ‘माधुरी‘, मई, 1930/21. शराब की दुकान: ‘हंस‘, मई, 1930/22. मैकू: ‘हंस‘, जून, 1930/23. स्वप्न: ‘वीणा‘ जुलाई, 1930/24. आहुति: ‘हंस‘, नवंबर, 1930/25. राष्ट्र को सेवक: ‘प्रेम चालीसी‘, खंड: एक, 1930/26. तिरसूल: ‘प्रेम चालीसी‘, खंड: एक, 1930 /27. देवी: ‘प्रेम चालीसी‘, खंड: एक, 1930/28. बंद दरवाजा : ‘प्रेम चालीसी‘, खंड: दो, 1930/29. सद्गति:: ‘प्रेम-कुंज‘, 1930 

‘नया मानसरोवर‘, खंड: छह (1929-30) में मार्च, 1930 से प्रेमचंद ने अपनी पत्रिका ‘हंस‘ का प्रकाशन शुरू किया था जिसे उन्होंने स्वराज्य आंदोलन का अंग बनाया। पाठक देखेंगे कि उन्होंने स्वराज्य आंदोलन से संबंधित कहानियाँ ‘हंस’ में प्रकाशित कीं और सामाजिक समस्याओं पर आधारित कहानियाँ अन्य पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ भेजीं। अब ‘हंस‘ के लिए उन्हें प्रत्येक महीने कहानी लिखनी होती थी और अन्य हिंदी पत्रिकाओं की माँग को भी पूरा करना होता था। हिंदी में ऐसा सक्रिय तथा इतनी व्यापक रचनाशीलता वाला कोई दूसरा कथाकार नहीं था। अपने उपन्यासों और कहानियों का हिंदी-उर्दू में आदान-प्रदान के साथ उनकी अन्य साहित्यिक एवं पारिवारिक कार्यों में भी उनकी घोर व्यस्तता रहती थी। इतनी व्यस्तता में इतने विपुल साहित्य की रचना करना असंभव-सा ही कार्य था। 

‘मानसरोवर‘ खंड: सात में 23 कहानियाँ हैं और इसका प्रकाशन सरस्वती प्रेस, बनारस से वर्ष 1947 में हुआ। इसमें दिसंबर, 1910 की कहानी ‘बड़े घर की बेटी‘ से लेकर अप्रैल, 1930 में प्रकाशित, ‘समर यात्रा‘ तक की कहानियाँ हैं। संपादक-प्रकाशक श्रीपतराय ने कालक्रम का तनिक भी ध्यान नहीं रखा कि पाठक इसे किस तरह पढ़ेगा और किस रूप में समझेगा। किसी भी पाठक/अध्येता के लिए वर्ष 1910 से 1930 तक की लेखक की परिवर्तनशील एवं कालगत संवेदना को हृदयंगम करना संभव नहीं होगा। अतः ‘नया मानसरोवर‘, खंड: सात की उपयोगिता और सार्थकता सहज में ही समझी जा सकती हैं। इस नए खंड: सात में वर्ष 1931 से 1933 तक की 46 कहानियाँ हैं, अर्थात् 23 कहानियाँ आधिक हैं और उनका प्रकाशन वर्ष भी केवल तीन वर्ष (1931-33) तक सीमित है। इन 46 कहानियों में 37 हिंदी में तथा 1 कहानियाँ उर्दू में प्रकाशित होने के प्रमाण मिलते हैं। यह संभव है कि इन 9 उर्दू कहानियों में कुछ कहानियाँ पहले हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में छपी हों और हमें उनका मूल प्रकाशन-स्रोत नहीं मिल पाया हो। ऐसी संभावना उनकी सभी ऐसी कहानियों के साथ हो सकती हैं, फिर भी इन आँकड़ों से यह तो स्पष्ट होता है कि प्रेमचंद 80 प्रतिशत अपना समय हिंदी को दे रहे थे। प्रेमचंद की ख्याति और स्वीकृति में हिंदी में प्रकाशित कहानियों का सर्वाधिक योगदान है। अब वे अपनी कहानियाँ ‘हंस‘ में दे रहे थे, कि किंतु ‘चाँद‘, ‘माधुरी‘, ‘सरस्वती‘ आदि पत्रिकाओं में भी उनकी कहानियाँ बराबर छप रही थीं। 

‘नया मानसरोवर‘, खंड: सात की 46 कहानियाँ निम्नलिखित हैं: 1. उन्माद: ‘माधुरी‘, जनवरी, 1931/2. ढपोरसंख: ‘हंस‘, जनवरी-मार्च, 1931/3. जेल: ‘हंस‘, फरवरी, 1931/4. आख़िरी हीला ‘चंदन‘, फरवरी, 1931/

5. लांछन: ‘माधुरी‘, फरवरी, 1931/6. डिमांस्ट्रेशन ‘प्रेमा‘, और अप्रैल, 1931/ 7. खेल ‘चंदन‘, उर्दू मासिक, अप्रैल, 1931/8. होली का उपहार ‘माधुरी‘, अप्रैल, 1931/ 9. शिकारः ‘हंस‘, जुलाई-अगस्त, 1931/10. आख़िरी तोहफा: ‘चंदन‘ उर्दू मासिक, अगस्त, 1931/11. तावान: ‘हंस‘, सितंबर, 1931/12. दूसरी शादी: ‘चंदन‘, उर्दू मासिक, सितंबर, 1931 /13. स्वामिनी: ‘विशाल भारत‘, सितंबर, 1931/14. दो बैलों की कथा: ‘हंस‘, अक्टूबर, 1931/15. लेखक ‘हंस‘, नवंबर, 1931/16. सौत ‘विशाल-भारत‘, दिसंबर, 1931/17. मृतक-भोज ‘मृतक-भोज‘, कहानी-संग्रह, जनवरी, 1932/18. सती ‘प्रेरणा और अन्य कहानियाँ‘, फरवरी, 1932/19. तगादा ‘प्रेरणा और अन्य कहानियाँ‘, फरवरी, 1932/20. चमत्कार ‘माधुरी‘, मार्च, 1932/21. गिला ‘हंस‘, अप्रैल, 1932/22. नया विवाह ‘सरस्वती‘, मई, 1932/23. कुत्सा ‘जागरण‘, 3 जुलाई, 1932/24. बीमार बहन ‘कुमार‘ बाल पत्रिका, जुलाई, 1932/25. झाँकी ‘जागरण‘, साप्ताहिक, 22 अगस्त, 1932/26. ठाकुर का कुआँ: ‘जागरण‘ साप्ताहिक, 29 अगस्त, 1932/27. कुसुम: ‘चाँद,‘ अक्टूबर, 1932/28. डामुल का कैदी: ‘हंस,‘ नवंबर, 1932/29. बेटोंवाली विधवा: ‘चाँद‘, नवंबर, 1932/30. रोशनी: ‘अदबी दुनिया‘, नवंबर, 1932/31. स्मृति का पुजारी: ‘अस्मत‘ उर्दू पत्रिका/32. रंगीले बाबू ‘भारत‘ अर्द्ध वा., 26 जनवरी, 1933/33. कायर ‘विशाल भारत‘, जनवरी, 1933/34. नेउर: ‘हंस‘, जनवरी, 1933/35. गुल्ली डंडा: ‘हंस‘, फरवरी, 1933/36. वेश्या: ‘चाँद‘, फरवरी, 1933/37. रसिक संपादक: ‘जागरण‘ साप्ताहिक, 15 मार्च, 1933/38. बालक: ‘हंस‘, अप्रैल, 1933/39. ज्योति: ‘चाँद‘, मई, 1933/40. कैदी ‘हंस‘, जुलाई, 1933/41. ईदगाह: ‘चाँद‘, अगस्त, 1933/42. दिल की रानी: ‘चाँद‘, नवंबर, 1933/43. वैराग्य: ‘स्वाधीनता‘, 1933/44. कातिल: ‘निजात‘ उर्दू कहानी-संग्रह, 1933/45. बारात: ‘निजात‘, उर्दू कहानी-संग्रह, 1933/46. वफा की देवी: ‘निजात‘ उर्दू कहानी-संग्रह, 1933

इस कालखंड में पूर्व के अनुसार अपनी पत्रिका ‘हंस‘ के साथ वे हिंदी की अन्य पत्रिकाओं को भी अपनी कहानियाँ देते हैं। इस तरह वे कहानी के एकछत्र सम्राट बने रहते हैं और कई हिंदी-उर्दू पत्रिकाओं में एक साथ छपते हैं, बल्कि एक महीने में कई कहानियाँ छपती हैं। इस तथ्य की जानकारी ‘नया मानसरोवर‘ की रचना एवं प्रकाशन से ही होती है। ‘हंस‘ में उनकी 12 कहानियाँ प्रकाशित हुईं, जबकि इससे दूनी कहानियाँ हिंदी-उर्दू पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। इन दूसरी पत्रिकाओं से उन्हें अपने समय का सर्वाधिक पारिश्रमिक मिलता था, किंतु उसमें से काफ़ी हिस्सा सरस्वती प्रेस तथा ‘हंस‘ के प्रकाशन में होनेवाले घाटे में चला जाता था।

‘मानसरोवर‘, खंड: आठ में 31 कहानियाँ हैं और इसका प्रकाशन श्रीपतराय ने वर्ष 1950 में सरस्वती प्रेस, बनारस से किया था। इसमें वर्ष 1911 स 1924 तक की कहानियाँ हैं और इस तरह जो बची-खुची कहानियाँ थीं उन्हें संकलित करके ‘मानसरोवर‘, खंड: आठ में प्रकाशित किया गया है। यह ‘मानसरावर का अंतिम खंड है, लेकिन इसमें अंतिम समय की नहीं बल्कि आरंभिक काल की कहानियाँ दी गई हैं। इस कारण से भी ‘मानसरोवर‘ के बार-बार प्रकाशन की अर्थवत्ता समाप्त हो जाती है। ‘नया मानसरोवर‘, खंड: आठ में वर्ष 1934 से 1936 की 29 कहानियाँ हैं। इनमें तीन अंतिम कहानियाँ ऐसी हैं जो प्रेमचंद के देहांत के बाद उनके पुत्रों ने प्रकाशित कराई थीं, लेकिन उन्हें प्रेमचंद के जीवन के अंतिम समय की कहानियाँ मानकर यथा-स्थान पर रखी गई हैं। इन 29 कहानियों में 23 हिंदी की तथा 6 कहानियाँ उर्दू से ली गई हैं। यहाँ तक कि ‘कफन‘ कहानी पहले उर्दू में छपी थी और बाद में हिंदी में प्रकाशित हुई। प्रेमचंद इस समय भी ‘हंस‘ के साथ ‘चाँद‘, ‘माधुरी‘ आदि पत्रिकाओं को भी अपनी कहानियाँ दे रहे थे किंतु इधर उनकी संख्या कम हो रही थी। ‘नया मानसरोवर‘, खंड: आठ की 29 कहानियाँ निम्नलिखित हैं: 1. नशा: ‘चाँद‘, फरवरी, 1934/2. मनोवृत्ति: ‘हंस‘, मार्च, 1934/3. जादू ‘हंस‘, अप्रैल-मई, 1934/ 4. रियासत का दीवान: ‘हंस‘, मई, 1934/ 5. दूध का दाम ‘हंस‘, जुलाई, 1934/6. पंडित मोटेराम की डायरी: ‘जागरण‘, जुलाई, 1934/7. मुफ्त का यश: ‘हंस‘, अगस्त, 1934/8. बासी भात में खुदा का साझा: ‘हंस‘, अक्टूबर, 1934/9. बड़े भाई साहब: ‘हंस‘, नवंबर, 1934/10. खुदाई फौजदार: ‘चाँद‘, नवंबर, 1934/11. स्वाँग: ‘जामिया‘, जनवरी, 1935/12. कातिल की माँ ‘वारदात‘ उर्दू कहानी-संग्रह, 1935/13. कोई दुःख न हो तो बकरी खरीद लो: ‘वारदात‘, उर्दू कहानी-संग्रह, 1935/14. देवी:: ‘चाँद‘, अप्रैल, 1935/15. जीवन का शाप: ‘हंस‘, जून, 1935/16. गृह-नीतिः ‘चाँद‘, अगस्त, 1935/17. तथ्य ‘हंस‘, फरवरी, 1935/18. पैपुजी: ‘माधुरी‘, अक्टूबर, 1935/19. लॉटरी: ‘हंस‘, नवंबर, 1935/20. कफन: ‘जामिया‘ उर्दू मासिक, दिसंबर, 1935/21. मिस पद्मा: ‘मानसरोवर‘, खंड: 2 मार्च, 1936/ 22. मोटर के छींटे: ‘मानसरोवर‘, खंड: 2 मार्च  1936/23. होली की छुट्टी: ‘जादेराह‘ उर्दू कहानी-संग्रह, जून, 1936/ 24. दो बहनें: ‘माधुरी‘, अगस्त, 1936/25. रहस्य: ‘हंस‘, सितंबर, 1936/26. कश्मीरी सेव: ‘हंस‘, अक्टूबर, 1936/27. जुरमाना: ‘कफन और शेष रचनाएँ‘, मार्च, 1937/28. यह भी नशा वह भी नशा: ‘कफन और शेष रचनाएँ‘, मार्च 1937 29. क्रिकेट मैच: ‘ज़माना‘, जुलाई, 1937 

नया मानसरोवर‘ के आठ खंडों के इस विवरण से पाठकों/अध्येताओं को स्पष्ट हो गया होगा कि पुराने ‘मानसरोवर‘ को हटाकर उसे सर्वथा नए रूप में प्रकाशित करने का औचित्य क्या है? प्रेमचंद के नाम के साथ ‘मानसरोवर‘ इतने अटूट रूप में जुड़ा है कि उसे जीवित रखना आवश्यक था और उसकी सार्थकता को नई उपलब्ध सामग्री के परिप्रेक्ष्य में बनाए रखना भी आवश्यक था। अतः उसका कायाकल्प एवं नवीनीकरण परमावश्यक था। ‘नया मानसरोवर‘ के प्रकाशन से ‘मानसरोवर‘, आठ खंड अब निरर्थक हो जाएँगे और उसका प्रकाशन-मुद्रण स्वतः ही बंद हो जाएगा और ‘नया मानसरोवर‘ ही कहानीकार प्रेमचंद को पढ़ने और समझने का केंद्र होगा। यहाँ प्रेमचंद के प्रबुद्ध पाठक यह प्रश्न कर सकते हैं कि ‘प्रेमचंद: कहानी रचनावली‘, खंड छह के प्रकाशन के बाद मैंने क्यो ‘नया मानसरोवर‘ का संपादन एवं उसका प्रकाशन कराया है। मुझे इसका उत्तर देना होगा। ‘प्रेमचंद: कहानी रचनावली‘ मैंने ही संपादित की थी, परंतु प्रेमचंद के नाम के साथ ‘मानसरोवर‘ जैसे जुड़ा है और वह जिस अपूर्ण एवं अशुद्ध में छप और बिक रहा है, उससे उसे मुक्त करके उसे शुद्ध और दोषमुक्त करना मुझे आवश्यक प्रतीत हुआ। इसी प्रकार ‘गो-दान‘ उपन्यास का पाठ भी भ्रष्ट रूप में छप रहा है और उसे अनेक प्रकाशक प्रकाशित करके धन कमा रहे हैं, लेकिन मैंने ‘गो-दान’ का प्रथम संस्करण (मार्च, 1936) अभी प्रकाशित कराया है जिससे उसका शुद्ध पाठ कुछ पांडुलिपि के पृष्ठों के साथ, पाठकों, छात्रों एवं अध्येताओं तक पहुँच सके।  यह दुर्भाग्यपूर्ण सच है कि किसी हिंदी आलोचक एवं शोधार्थी ने प्रेमचदं की कृतियों के पाठ को शुद्ध करने तथा उसे व्यवस्थित कालक्रम में रखने पर विचार ही नहीं किया। अतः मुझे ‘मानसरोवर‘ को ‘नया मानसरोवर‘ का रूप देना उसे प्रामाणिक एवं पूर्ण बनाने के लिए अपना शोध-धर्म माना। इसके अतिरिक्त एक-दो और भी कारण रहे हैं। इस बीच प्रेमचंद की एक नई कहानी ‘दारा शिकोह का दरबार‘ मुझे मिली जो ‘प्रेमचंद: कहानी रचनावली‘ में नहीं जा सकी थी तथा ‘शिकार‘ कहानी जो ‘हंस‘, जुलाई, अगस्त, 1931 में छपी थी उसे मैंने ‘प्रेमचंद: कहानी रचनावली‘, खंड: एक में वर्ष 1910 में प्रकाशित दिखाकर गलती की थी। मुझे इस गलती को भी ठीक करना था। अब यह कहानी ‘नया मानसरोवर‘, खंड: सात में अपने कालक्रमानुसार संकलित है। यहाँ प्रदीप जैन के उस दावे की चर्चा भी जरूरी है जिसमें छह नई अज्ञात कहानियों को खोजने तथा प्रस्तुत करने का दावा किया है। ये कहानियाँ हैं-‘दारा शिकोह का दरबार‘ (‘आजाद‘ उर्दू मासिक, सितंबर, 1908), ‘सौदा-ए-ख़ाम‘ (‘तमहुन‘ उर्दू मासिक, फरवरी, 1920), ‘इश्तिहारी शहीद‘ (‘ज़माना‘, अप्रैल-मई, 1915), ‘जंजाल‘, (तहजीबे निस्वाँ,‘ उर्दू साप्ताहिक, 3 अगस्त, 1918), ‘महरी‘ (‘ज़माना‘, नवंबर, 1926) तथा ‘वफा की देवी‘ (‘निजात‘ उर्दू कहानी-संग्रह, 1933)। ये सभी उर्दू में प्रकाशित कहानियाँ हैं और इनमें से दो कहानियाँ ‘दारा शिकोह का दरबार‘ तो ‘वागर्थ‘ (मार्च, 2011) में तथा ‘वफा की देवी‘ कहानी ‘प्रेमचंद: कहानी रचनावली‘ में हिंदी में लिप्यंतर करके प्रकाशित करा चुका था। प्रदीप जैन ने इन सभी उर्दू कहानियों का हिंदी में अनुवाद किया है, जिसे मैं अनधिकार चेष्टा मानता हूँ। प्रेमचंद की भाषा को बदलना सर्वथा अनुचित कर्म है, जबकि हिंदी में लिप्यंतर करके भी उर्दू कहानियाँ हिंदी में लाई जा सकती हैं। मैंने सभी उर्दू कहानियों के साथ ऐसा ही किया है। प्रदीप जैन ‘इश्तिहारी शहीद‘ और ‘महरी‘ को बंबूक नाम से छपी बताते हैं और प्रेमचंद की ही कहानियाँ मानते हैं जो विवादित एवं शंकापूर्ण हैं। अतः इन कहानियों को छोड़ दिया गया है। ‘सौदा-ए-ख़ाम‘ तथा ‘जंजाल‘ उर्दू कहानियों का मैंने भी उल्लेख किया है, परंतु उनके अनुवाद रूप को देना मुझे उचित प्रतीत नहीं हुआ। मुझे जब भी इनका मूल उर्दू पाठ मिलेगा, मैं इनका हिंदी में लिप्यंतर करके प्रकाशित करा दूंगा। यदि इन दो उर्दू कहानियों का मूल रूप मिल जाता तो ‘नया मानसरोवर‘ में दो और कहानियों की वृद्धि हो जाती।

‘नया मानसरोवर‘ का वैशिष्ट्य और उसके प्रकाशन की अनिवार्यता से पाठक अब संतुष्ट एवं सहमत हो गए होंगे। इसकी एक और भी विशेषता है जो इसे अभिनव तथा विशिष्ट बनाती है। जैसा कि पाठक जानते हैं कि प्रेमचंद अपनी कहानियों को पहले पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कराते थे और बाद में वे अपने कहानी-संग्रहों में संकलित करते थे। ‘मानसरोवर‘ के साथ प्रेमचंद साहित्य के वर्तमान पाठकों ने इन पत्र-पत्रिकाओं को नहीं देखा है और न कभी देख पाएँगे कि उनकी कहानियाँ किस रूप में इन पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही है। अतः ‘नया मानसरोवर‘ में संकलित 299 कहानियों में लगभग आधी कहानियों के पत्र-पत्रिकाओं में छपे पाठ के प्रथम पृष्ठ को कहानियों के साथ रखकर प्रकाशित किया गया है। इस तरह से पाठक यह देख सकेंगे कि ‘कफन‘ कहानी जब ‘चाँद’, अप्रैल, 1936 में छपी थी तो वह किस रूप में छपी थी और वे उस अतीत की कुछ क्षण के लिए अनुभूति कर सकेंगे। ‘नया मानसरोवर‘ के संबंध में यह तथ्य भी जानना आवश्यक है कि कहानियों का कालक्रम उनके प्रथम प्रकाशन से तय किया गया है, चाहे वह उर्दू में छपी हो या हिंदी में, किंतु पाठ हिंदी का दिया गया है तथा प्रत्येक कहानी के अंत में हिंदी में प्रकाशन एवं उसके संकलनों का पूरा विवरण भी दिया गया है। उदाहरण के लिए, ‘कफन‘ कहानी उर्दू में पहले प्रकाशित हुई थी। वह उर्दू में ‘ज़माना‘ उर्दू मासिक, दिसंबर, 1935 में तथा हिंदी में ‘चाँद‘ अप्रैल, 1936 में छपी थी। अतः कालक्रमानुसार कफन‘ कहानी दिसंबर 1935 में दिखाई गई है, लेकिन उसका पाठ अप्रैल, 1936 का दिया गया है। पाठकों को इस स्थिति को ध्यान में रखकर ही ‘नया मानसरोवर‘ को पढ़ना चाहिए, क्योंकि इससे ही वे प्रेमचंद की कहानी-यात्रा को ठीक प्रकार से समझ सकेंगे। कहानियों के उर्दू से हिंदी में आने में कुछ समय का, कुछ मास का अंतराल मिलेगा, लेकिन कहानियों का कालक्रम तो उनके प्रथम प्रकाशन से ही तय होगा, चाहे वह उर्दू में पहले छपी हों या हिंदी में। कहानियों के कालक्रम को निर्धारित करने में यह मूलभूत सिद्धांत रहा है। 

‘नया मानसरोवर‘, खंड: एक में 39 कहानियाँ हैं। ये सभी पहले उर्दू में प्रकाशित हुईं और वे हिंदी में साथ-साथ प्रकाशित नहीं हुईं, क्योंकि प्रेमचंद इनके प्रकाशन-काल वर्ष 1908 से 1913 तक हिंदी में अपनी उर्दू कहानियों का हिंदीकरण नहीं कर रहे थे और न उन्होंने इस काल-खंड में हिंदी कहानी-ससार में आने का कोई निर्णय किया था। उनकी पहली हिंदी कहानी परीक्षा‘, अक्टूबर 1914 में ‘प्रताप‘ के विजयादशमी अंक में छपी थी। नया मानसरोवर‘, खंड: एक की कहानियाँ कुछ तो प्रेमचंद द्वारा प्रकाशित ‘सप्त-सरोज‘ (1917), नव (1917) ‘नव-निधि’ एवं ‘प्रेम-प्रमोद‘ (1924) से ली गई हैं, किंतु शेष कहानियाँ अमृतराय के ‘गुप्तधन‘ तथा कमल किशोर गोयनका की पुस्तक ‘प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य’ से ली गई हैं। इन दो व्यक्तियों ने उर्द की पत्रिकाओं से अज्ञात कहानियाँ खोजीं और अमृतराय ने अनुवाद करके तथा कमल किशोर गोयन का हिंदी लिप्यंतर करके प्रकाशित कराईं। एक कहानी ‘दारा शिकोह का दरबार’ गोयनका ने ‘वागर्थ’ (कोलकता), मार्च, 2011 में प्रकाशित कराई थी जो इस खंड में दी गई है। इस कारण से प्रथम खंड की हिंदी कहानियाँ वर्ष 1917, 1918, 1924, 1961, 1962, 1976, 1980, 1988, आदि वर्षों में पहली बार प्रकाशित हुई हैं, किंतु अपने प्रकाशन समय के अनुसार, चाहे वह उर्दू में ही क्यों न हो, कालक्रम से संकलित की गई हैं। प्रेमचंद की कहानी-यात्रा में इस पहले खंड का विशेष महत्त्व है, क्योंकि उनकी आरंभिक किस्सागोई, कहानी-कला तथा उनकी संवेदनाओं एवं चिंताओं का पता लगता है। इन 39 कहानियों में उनके कहानी-संसार के बुनियादी बीज तत्त्वों का ज्ञान होता है और जब उनकी कहानी-यात्रा को देखते हैं तो उन्हीं बुनियादी बीज-तत्त्वों का विकास मिलता है। देश और समाज की स्थितियाँ बदलती हैं और उनका प्रभाव कहानीकार प्रेमचंद पर पड़ता है, लेकिन उनकी आरंभिक कहानी चेतना, जो उनकी संस्कृति एवं राष्ट्र-चिंता का ही प्रतिरूप है, निरंतर युग संदर्भो के संस्पर्श से विकसित होती जाती है। अतः प्रेमचंद की कहानी-यात्रा के वैज्ञानिक अध्ययन एवं सही निष्कर्षों तक पहुँचने के लिए प्रथम खंड की कहानियों के संसार को हृदयंगम करना आवश्यक है।

प्रेमचंद की आरंभिक कहानियों में उर्दू कहानी-संग्रह ‘सोजेवतन‘ (जून, 1908) का विशेष महत्त्व है। प्रेमचंद ने अपना लेखकीय जीवन लेखों, जीवनियों और समीक्षाओं से शुरू किया। सोजेवतन‘ के प्रकाशन से पहले लगभग डेढ़ दर्जन लेख और दो दर्जन समीक्षाएँ एवं चार उपन्यास प्रकाशित हो चुके थे। इन सभी में प्रायः राष्ट्रीय चेतना, देशभक्ति एवं 

संस्कृति रक्षा का भाव था। अपने पहले लेख ‘ओलीवर क्रामवेल‘ (1903) में वे देश प्रेम एवं हमदर्दी की तारीफ करते हैं, ‘आइने कैसरी‘ (1905) में राजभक्ति की कटु आलोचना करते हैं, ‘देशी अशिया को क्योंकर फरोग हो सकता है‘ (1905) में देशी जागरण और व्यापार का समर्थन करते हैं तथा ‘स्वदेशी तहरीक‘ (नवंबर, 1905) में विदेशी वस्तुओं के उपयोग पर सभ्य समाज की आलोचना करते हैं। उनकी राजा टोडरमल, राजा मानसिंह, गोखले, राणा प्रताप, गैरी बाल्डी, स्वामी विवेकानंद आदि पर लिखी जीवनियाँ भी उनके विचार-संसार से परिचय कराती हैं। प्रेमचंद का यह विचार पक्ष सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की उनकी चेतना स्वदेशी आंदोलन, बंगभंग, तिलक आदि से निर्मित होती है जिसमें हिंदू चेतना का गहरा असर है। ‘सोजेवतन‘ के कालखंड में प्रेमचंद का राष्ट्रवाद और हिंदुत्व का श्रेष्ठ रूप मिला-जुला है। राणा प्रताप‘ (नवंबर, 1906) लेख में राणा प्रताप मरने से पहले अपने सरदारों से संकल्प कराते हुए कहता है, ‘‘मेरी आत्मा को तब चैन होगा जब तुम लोग अपनी-अपनी तलवारें हाथ में लेकर क़सम खाओ कि हमारा यह देश तुर्कों के क़ब्ज़े में न आएगा। तुम्हारी रगों में जब तक एक बँूद भी रक्त रहेगा, तुम उसे तुर्कों से बचाते रहोगे।‘‘ ‘सोजे़वतन’ की कहानी ‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन‘ का सबसे अनमोल रतन वही है जो राणा प्रताप व्यक्त करता है। कहानी का अंत इस वाक्य से होता है-‘‘ख़ून का वह आख़िरी कतरा जो वतन की हिफाजत में गिरे दुनिया की सबसे अनमोल चीज़ है।’ कहानी में एक राजपूत योद्धा देश की रक्षा करते हुए मरनेवाला है। वह कथा नायक दिलफिगार को कहता है कि हमने हमलावर दुश्मन को बता दिया कि राजपूत अपने देश के लिए कैसी बहादुरी से जान देते हैं। यह राजपूत योद्धा ‘भारत माता की जय’ कह कर प्राण त्याग देता है। आज हम जानते हैं कि देश में भारत माता की जय बोलने पर कैसा वितंडावाद खड़ा हो गया है, किंतु इसके आलोचकों को देखना चाहिए कि प्रेमचंद वर्ष 1908 में देश प्रेम से भरपूर इस नारे का उपयोग देश की रक्षा में प्राण न्योछावर करनेवाले एक राजपूत योद्धा से करवाते हैं। वह भारत माता की रक्षा में ही अपना बलिदान करता है। 

‘सोज़ेवतन‘ की एक और कहानी की चर्चा भी आवश्यक है। वह है-‘यही मेरी मातृभूमि है‘। इस कहानी में हिंदू धार्मिक प्रतीकों तथा राष्ट्र भाव का ऐसा संगम है कि दोनों एक रूप हो गए हैं। अमेरिका में एक प्रवासी भारतीय साठ वर्ष तक संपन्न जीवन जीने के बाद भारत लौटता है कि ‘प्यारी भारत-जननी‘ के अंतिम दर्शन करूँ और मातृभूमि के रज-कण में मिल जाऊँ। वह अपने गाँव जाता है, परंतु उसे वहाँ अपना ‘प्यारा भारत‘ नहीं मिलता। वह योरप, अमेरिका है, पर ‘प्यारी मातृभूमि‘ नहीं है। वह अनुभव करता है कि मेरा कोई देश नहीं है, किंतु भोर होते ही वह देखता है कि 15-20 वृद्धा स्त्रियाँ गंगा स्नान को जा रही हैं और हमारे प्रभु अवगुन चित न धरो‘ गाती जाती हैं। कुछ लोग ‘शिव-शिव, हर-हर, गंगे-गंगे‘, ‘नारायण-नारायण‘ आदि बोलते चले जा रहे हैं। कथा-नायक प्रसन्न हो उठता है, क्योंकि उसे ये अपने प्यारे देश की बातें लगती हैं। वह भी इन आदमियों के साथ हो लेता है और ‘पतित-पावनी‘ भागीरथी गंगा के किनारे पहुँचता है। वह देखता हैझारों मनुष्य गंगा के ठंडे पानी में डुबकी लगा रहे हैं, कुछ गायत्री मंत्र जप रहे हैं कुछ हवन करने में संलग्न हैं, कुछ माथे पर तिलक लगा रहे हैं और कुछ सस्वर वेद-मंत्र पढ रहे हैं। कथा-वाचक इसे देखकर कह उठता है, ‘‘हाँ, हाँ, यही मेरा प्यारा देश है, यही मेरी पवित्र मातृभूमि है, यही मेरा सर्वश्रेष्ठ भारत है और इसी के दर्शनों की मेरी उत्कट इच्छा थी। इसी की पवित्र धूलि के कण बनने की मेरी प्रबल अभिलाषा है।‘‘ कथा-नायक गंगा के किनारे छोटी सी कुटा बना लेता है और ‘राम नाम जपना ही उसका काम है। अब वह ‘गंगा माता का तट’ और ‘अपना प्यारा देश‘ छोड़कर कहीं नहीं जाना चाहता, क्योंकि वह अपनी मिट्टी गंगा जी को ही सौंपना चाहता है। प्रेमचंद की ऐसी कहानियों पर प्रगतिशील आलोचकों ने हिंदू पुनरुत्थानवाद, भावुकतापूर्ण राष्ट्रवाद तथा अवास्तविकता का आरोप लगाया है और एक युवा आलोचक आशुतोष पार्थेश्वर ने इस कहानी में ‘हिंदू भारत‘ की मेरी व्याख्या को ‘भयावह‘ बताया है तथा कथा-नायक के इस हिंदू भारत को ‘सर्वश्रेष्ठ‘ मानने पर भी आपत्ति की है। प्रेमचंद के इस सर्वश्रेष्ठ भारत में हिंदू संस्कृति तथा जीवन-मूल्यों का बड़ा योगदान है, किंतु इसमें सांप्रदायिक कट्टरता नहीं है, न अहंकार है, बल्कि इस सर्वश्रेष्ठता में देश की दुर्बलताओं और समाज एवं व्यक्ति की बुराइयों से दो टूक बात करने का साहस है। प्रेमचंद की आँखों में भारत की सर्वश्रेष्ठता का एक स्वप्न है, देश के लिए और देश में ही प्राणोत्सर्ग करने तथा मरते दम तक ‘भारत माता की जय‘ का उद्घोष करने का अदम्य साहस है, लेकिन भारत के अन्य पक्षों पर भी उनकी गहरी दृष्टि है और प्रथम खंड की कहानियाँ उनके इस व्यापक परिदृश्य का उद्घाटन करती हैं। प्रेमचंद के हिंदू भारत से डरने की जरूरत नहीं है, उनके हिंदू पात्र कहीं भी आक्रामक नहीं हैं और न वे हिंदू राष्ट्रभाव की ही स्थापना करते हैं। हमारे प्रगतिशील आलोचकों को समझना चाहिए कि उनका 95 प्रतिशत साहित्य हिंदू समाज पर आधारित है और प्रेमचंद इसे अपने आलोचनात्मक विवेक से देखते और लिखते हैं। इस प्रगतिशीलों को अमृतराय, अमृतलाल नागर आदि के वक्तव्य देखने चाहिए, जिसमें उन्होंने प्रेमचंद के हिंदूपन को स्वीकार किया है। प्रेमचंद ने खुद भी अपने कुछ पत्रों, टिप्पणियों आदि में हिंदू की हैसियत से अपने विचार प्रकट किए हैं। अतः प्रेमचंद के इस सत्य को झूठलाना तर्कसंगत नहीं है।

प्रेमचंद की कहानियों का रचना-काल औपनिवेशिक दासता का समय था और अंग्रेजों का शोषण, अत्याचार, अपमान और उनकी सभ्यता का आक्रमण निरंतर भारतीय समाज पर आघात कर रहा था। सन् 1857 के राष्ट्रीय विद्रोह को अंग्रेजों ने कुचल दिया था और उनकी सत्ता और सभ्यता ने भारतीयों के मन में अस्तित्व के प्रश्न के साथ आत्म-बोध की ज्वाला धधकनी आरंभ हो गई थी। देश में आनंद मठ‘, ‘सत्यार्थप्रकाश‘, स्वामी विवेकानंद, बंग-भंग, ‘वंदेमातरम्‘, ‘हिंद स्वराज‘ आदि ने देश में जागरण एवं आत्मालोचन की चेतना उत्पन्न कर दी। प्रेमचंद इसी परिवेश में जन्मे थे और इसी में उनके मन में भारतीय समाज को जाग्रत करने, उसे अपनी परीक्षा करने और अपनी संस्कृति के श्रेष्ठ तत्वों की रक्षा करने का स्वप्न जन्म ले रहा था। यह एक आधुनिक राष्ट्र-बोध था जो भारत का कायाकल्प करना चाहता था तथा जो स्वदेशी, स्वराज्य, स्वहित, स्वसंस्कृति, स्वभाषा तथा भारत राष्ट्र का एक सर्वथा आधुनिक बिंब निर्मित करना चाहता था। यही कारण है कि प्रेमचंद ने कहा था कि वे स्वराज्य और भारतीय आत्मा की रक्षा के उद्देश्य से साहित्य में आए हैं। ये दोनों ही तत्व उनकी भारतीयता के मूलभूत तत्त्व हैं और इसमें पश्चिम की स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व के साथ हिंदू संस्कृति के श्रेष्ठतम मूल्य समाहित हैं। वे इसी कारण पश्चिम हो या हिंदू धर्म-संस्कृति, उसके अमानवीय व्यवहारों दुष्प्रवृत्तियों और पतनशील दिशाओं का डटकर विरोध करते हैं। प्रेमचंद जिस  व्यापकता एवं सूक्ष्मता से हिंदू समाज की दुष्प्रवृत्तियों,प्रथाओं और अंधविश्वासों की आलोचना करते हैं, उसी दृष्टि और शक्ति से वे मुस्लिम एवं ईसाई समाज को नहीं देखते। वे दो-चार स्थानों पर इन समाजों को आलोचनात्मक दृष्टि से देखते-परखते हैं, पर वे अपने रचनात्मक विवेक से उन पर वैसी रोशनीनहीं डालते, जैसी वे हिंदू समाज पर डालते हैं। वे इस हिंदू समाज को ही भारतीय समाज के रूप में देखते-परखते हैं। भारत की धर्म-संस्कृति की नीति है-मंगल की स्थापना और अमंगल का हरण और यही उनकी कहानियों की अधारभूमि है और यही उनका आदर्श है। प्रेमचंद भारतीय समाज के सही मान-चित्र की खोज करते हैं, उसे सुप्तावस्था से जाग्रत करते हैं, उसमें आत्मचेतना और आत्मबोध उत्पन्न करते हैं और जीवन के श्रेष्ठतम स्वरूप की ओर विकसित करते हैं। यह उनके विधि-निषेध का प्रतिफल है और यही उनका ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद‘ है और यही वास्तविक प्रेमचंद हैं। उन्हें किसी भी विचारधारा अथवा विषय तक सीमित करना उनकी भारतीयता को सीमित करना है, चाहे उन्हें लमही के प्रेमचंद‘ तथा ‘मार्क्सवादी भारतीयता‘ में बाँधने का प्रयत्न क्यों न हो। उनको कहानियों में सैकड़ों पात्रों का व्यापक संसार है, वे विभिन्न धर्मों, वर्णों, वर्गों तथा जातियों में तथा उच्च-मध्य-निम्न स्थिति में हमारे सामने आते हैं, उनका परिवेश एवं भूगोल देश-विदेश तक फैला है, शहर और गाँव दोनों स्थानों पर इनका जन्म हुआ है तथा इनके सरोकारों, संघर्षों तथा चिंताओं में भी काफी वैभिन्य है। इनमें पशु-पक्षी तक पात्र के रूप में अपना किरदार पेश करते हैं और मनुष्य भाव की रक्षा एवं प्रस्तुति में योगदान करते हैं। प्रेमचंद की कहानियाँ मनुष्य भाव की रक्षा करती हंै और साधारण मनुष्य को श्रेष्ठ मनुष्य के रूप में बदल देती हैं। उनका राष्ट्र-भाव एक ऐसा वटवृक्ष है जिसका तन स्वराज्य प्राप्ति है और उसकी शाखाएँ जीवन के विविध रूपों को प्रस्तुत करती हैं। उनकी एक समग्र विचारधारा है. जिसमें राष्ट्रवाद, गांधीवाद, समाजवाद, हिंदू चेतना तथा सभी वर्ण, धर्म, वर्ग, जाति आदि समाये हैं जो भारतीय आत्मा भारतीय विवेक और जीवनादर्शों की रक्षा के लिए संकल्पशील हैं। उनकी यह भारतीय आत्मा मनुष्य को देवत्व तक पहँुचाती है और इन्हीं कारणों से प्रेमचंद भारतीय ‘आत्मा के शिल्पी’ हैं। 

प्रेमचंद की कहानी-यात्रा के संबंध में कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्यों का उल्लेख आवश्यक है। प्रेमचंद कहानी के क्षेत्र में प्रवेश ‘सोजेवतन‘ (जून, 1908) से करते हैं। इस समय वे एक नौसिखिए कथाकार नहीं हैं। उनके चार उपन्यास, कुछ लेख एवं समीक्षाएँ छप चुकी थीं। अतः उन्होंने गद्य-लेखन में कुशलता हासिल कर ली थी। यही कारण है कि ‘सोजेवतन‘ की कहानियों की रचनात्मकता में योरप की कहानी-कला का प्रभाव है और वे अच्छी कहानियाँ हैं। उनकी कहानी-यात्रा को विकासात्मक रूप में दिखाया जाता रहा है और आलोचकों ने लिखा है कि ‘पूस की रात‘, ‘ठाकुर का कुआँ‘, ‘सद्गति‘, ‘कफन‘ आदि से उनकी कहानी-कला में गुणात्मक परिवर्तन होता है, परंतु सत्य यह है कि प्रेमचंद साधारण एवं श्रेष्ठ कहानी प्रायः साथ-साथ लिखते रहे हैं। कफन‘ कहानी के प्रकाशन के बाद उनकी नौ कहानियाँ प्रकाशित हुई हैं, किंतु इनमें से कोई भी कहानी ‘कफन‘ कहानी की रचनात्मकता और कलात्मकता तक नहीं पहुंच पाई है। ‘कफन‘ कहानी का गुणात्मक विकास भावी कहानियों को प्रभावित नहीं करता और प्रेमचंद अपने आदर्शवादी मार्ग पर लौट आते हैं। अतः प्रेमचंद की कहानी-कला के गुणात्मक विकास की स्थापना एवं मान्यता तो स्वीकार करना संभव नहीं है। ये चार-पाँच कहानियाँ, जो अपने यथार्थवाद के कारण श्रेष्ठ मानी जाती हैं तथा जिनमें गुणात्मक विकास देखने की चेष्टा है, एक क्षणिक तीव्र अनुभूति ही मानी जा सकती हैं जो अपनी अभिव्यक्ति के बाद निष्प्रभावी हो जाती हैं और अपनी निरंतरता को कायम नहीं रख पाती हैं। अतः तीन-तेरह कहानियों के आधार पर निकाला गया निष्कर्ष आत्म-छलना एवं साहित्य-छलना के अलावा और क्या है? वैसे भी, प्रेमचंद की तीन सौ कहानियों के संसार के मूल्यांकन की कसौटी चार-पाँच कहानियों की संवेदना एवं कहानी-कला तक सीमित नहीं की जा सकती हैं। उनका साहित्यसिद्धांत ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद‘ जीवन का समग्र दर्शन है और उनके सैकड़ों पात्रों के जीवन और संघर्ष को इसी समग्र दर्शन से देखा-परखा जा सकता है। अतः केवल यथार्थवाद ही श्रेष्ठता की कसौटी नहीं हो सकता है। प्रेमचंद वैसे भी प्रयोगधर्मी कहानीकार हैं-प्रथम पुरुष, तृतीय पुरुष, आत्मकथात्मक, पत्र, डायरी, संवाद आदि शैलियों में उन्होंने कहानियाँ लिखी हैं और प्रत्येक कहानी एक स्वतंत्र इकाई है जो जीवन का एक विशिष्ट दृश्य प्रस्तुत करती है। इन कहानियों में जीवन का व्यापक रूप है, जीवन के अधिकांश विषयों, संदर्भो आदि पर कहानियाँ हैं और उनकी विशेषता है कि वे विषय बदलते रहते हैं, स्त्री-विमर्श पर कहानी लिखने के बाद कोई दूसरा विषय उठाते हैं। संवेदनाओं का ऐसा वैविध्य प्रेमचंद में ही मिलता है। प्रेमचंद की कहानियों की लोकप्रियता और समाज की स्मृति का अंग बनने में जीवन की इस विविधता का बड़ा योगदान है। उनकी कहानियों में जीवन के विविध रूप हैं और पाठक अपनी रुचि के अनुरूप उनमें से चुनकर कुछ को अपनी स्मृति का अंग बना लेता है। प्रेमचंद ‘गल्प‘ को कहानी की प्रतिष्ठा देते हैं और ‘कहानी सम्राट’ बन जाते हैं। वे वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, कबीर, तुलसी  आदि की परंपरा में स्वयं को स्थापित करते हैं और हिंदी कहानी के सिंहासन पर सदैव के लिए विराजमान हो जाते हैं। भारतीयता और भारतीय आत्मा को वाणी देने वाला साहित्यकार ही भारत का हृदय-सम्राट हो सकता है।

‘नया मानसरोवर‘, खंड: एक में वर्ष 1908-1910 में ग्यारह कहानियाँ हैं और 1911-1913 में 28 कहानियाँ हैं। ‘सोजेवतन‘ (जून, 1908) की कहानियों में राष्ट्र-प्रेम एवं मातृभूमि-प्रेम तथा भारत माता की जय की भाव-भूमि की चर्चा हो चुकी है। इसकी कहानी ‘शोक का पुरस्कार‘ में पति-पत्नी के अटूट संबंध का चित्रण है। इस प्रकार प्रेमचंद सामाजिक चेतना को भी साथ लेकर चलते हैं। ‘पाप का अग्नि कुंड‘ (मार्च, 1910) में गाय और उसकी हत्या केंद्र में है। राजपूती जीवन में गाय अवध्य है और उसकी हत्या महापाप है। कहानी में तथा ‘गो-दान’ में भी गो-हत्या का दंड भोगना पड़ता है, परंतु ‘पाप का अग्निकुंड‘ में सती प्रथा की प्रशंसा लेखक पर मध्ययुगीनता का प्रभाव दिखाता है। रूठी रानी‘ (1906) में भी प्रेमचंद सती का गुणगान कर चुके थे। ‘शाप‘ (अप्रैल-जुलाई, 1910) में शाप, वरदान तथा पतिव्रता स्त्री की अद्भुत शक्ति की मिथकीय धारणा की सत्यता दिखाता है। आधुनिक समय में मनुष्य का शेर बनना और शेर से मनुष्य बनना और यह एक स्त्री के शाप और वरदान से होना-सभी कुछ अविश्वसनीय एवं असंभव है। यह कहानी हिंदू जीवन, धर्म, संस्कृति, आचार-व्यवहार तथा पुराकथाओं पर आधारित है तथा प्रेमचंद पर हिंदू जीवन के प्रभाव को स्पष्ट करती है। ‘नेकी’ (सितंबर, 1910) कहानी में सामाजिक चेतना का विस्तार होता है। इसका पात्र तख्तसिंह नेकी का उदाहरण है और वह परोपकार का प्रतिदान नहीं चाहता। प्रेमचंद कहानी में अमानवीय तथा मानवीय भाव दोनों का चित्रण करते हैं । इसम ज़मींदार का अहंकार है और सामाजिक कार्य का भी उल्लेख है तथा नैतिक एवं मानवीय मूल्यों की भी स्थापना करते हैं। ‘रानी सारंधा‘ (अगस्त-सितंबर, 1910) कहानी राजपूती शौर्य, वीरता, बलिदान तथा राष्ट-प्रेम की कहानी है। लेखक इतिहास से हिंद वीरांगना की शौर्य-गाथा कहता है, क्योंकि जनता को देशोद्धार के लिए तैयार करने में बलिदानी-किस्से ही मदद कर सकते थे। यह हिंदू पुनरुत्थानवादी कहानी न होकर राष्ट्र के पुनरुत्थान की कहानी है। बड़े घर की बेटी‘ (दिसंबर, 1910) प्रेमचंद की सर्वाधिक लोकप्रिय कहानियों में से है। यह उल्लेखनीय है कि लेखक पाँच महीने में दो उच्चकोटि की कहानियाँ पाठकों को देता है, अन्यथा एक बड़ी रचना के तुरंत बाद वैसी ही दूसरी रचना देना आसान नहीं होता। ‘बड़े घर की बेटी’ परिवार की कहानी है, परिवार के सदस्यों के परस्पर संबंधों की कहानी है तथा संयुक्त परिवार को बचाकर भारतीय जीवन-प्रणाली की रक्षा की कहानी है। प्रेमचंद ने सामाजिक यथार्थ को पकड़ते हैं और मानव-मन के मनोविज्ञान से उसे जीवन के श्रेष्ठ रूप में बदल देते हैं। इस प्रकार इन ग्यारह कहानियों के द्वारा उनकी कहानीकला की बुनियाद निर्मित होती है और भावी दिशा का स्वरूप भी आकार लेता है। ‘सोजेवतन‘ की कहानियों में फारसी शैली का प्रभाव है और वैसा ही क़िस्सागोई का अंदाज है, परंतु कहानी के फारसी ढाँचे में जो विषय-वस्तु है, वह एकदम आधुनिक और नई है। सोजेवतन‘ पहली बार ज्वलंत सांस्कृतिक-राष्ट्रीय एवं जातीय प्रश्नों को केंद्र में रखता है और जो भी आदर्शवाद एवं हृदय-परिवर्तन है, वह युग के जागरण का अंग है। प्रेमचंद चाहे उर्दू में लिख रहे थे, परंतु वे मुख्यतः हिंदी-मानस की कहानियाँ लिख रहे थे और वे भारतेंदु-द्विवेदी युग की चेतना एवं साहित्य-चिंतन से स्वयं को जोड़ रहे थे। वह युग ‘हिंदी, हिंदू एवं हिंदुस्तानी‘ का था और यह पुनरुत्थान युग की माँग थी। प्रेमचंद ने कहानी को कहानी-शास्त्र दिया और आधुनिक बनाया। इन कहानियों में आरंभिक कहानियों की अतिरंजना, चमत्कार, तिलिस्म आदि भी है, परंतु इन दुर्बलताओं के बावजूद कुछ कहानियाँ बहुत ही अच्छी हैं और उनमें अनाड़ीपन नहीं है। 

‘नया मानसरोवर‘, खंड: एक में वर्ष 1911 से 1913 तक 28 कहानियाँ प्रकाशित हुई हैं। इन कहानियों में देश, समाज, इतिहास आदि का विस्तार है और लेखक नए-नए विषयों पर कहानियों की रचना करता है। इतिहास से ‘विक्रमादित्य का तेंगा‘ (जनवरी, 1911), ‘राजा हरदौल‘ (अप्रैल, 1911) तथा ‘आल्हा‘ (जनवरी, 1912) जैसी प्रसिद्ध कहानियाँ लिखी गईं, ‘दोनों तरफ से‘ (मार्च, 1911) के द्वारा पहली बार अछूतोद्धार को कहानी का विषय बनाया गया, ‘मनावन‘ (जुलाई, 1912) में पति-पत्नी के संबंधों एवं तनावों का उद्घाटन हुआ, ‘त्रिया-चरित्र‘ (जनवरी, 1913) में स्त्री के छल-कपट का चित्रण हुआ, ‘अमृत‘ (मार्च, 1913) में एक मुस्लिम पात्र नायक बनता है, ‘अमावस्या की रात्रि‘ (अप्रैल 1913) में धर्म एवं कर्तव्य केंद्र में हैं, ‘धर्म-संकट‘ (मई, 1913) में शिक्षित समाज का अंकन है तथा भारतीय स्त्री की लज्जा की रक्षा है, ‘बाँका जमींदार‘ (अक्टूबर, 1913) में संगठित शक्ति की विजय है और ‘नमक का दरोगा‘ (अक्टूबर, 1913) में धर्म और धन का द्वंद्व है और ईमानदारी एवं कत्र्तव्यपरायणता की जीत है। इस प्रकार यह पहले खंड की कहानियाँ कहानीकार प्रेमचंद की आरंभिक कहानियाँ होने पर भी विषय-वस्तु की विविधता है और देश, समाज तथा व्यक्ति के पारस्परिक संबंधों के वास्तविक संसार का उदघाटन करती हैं। कुछ कहानियाँ अवश्य ही आरंभिक दुर्बलताओं से युक्त हैं, परंतु उनकी कहानी-कला के प्रमूख तत्त्व एवं प्रवृत्तियों का जन्म हो चुका है। उनकी कई कहानियाँ उनकी श्रेष्ठ कहानियों की गणना में शामिल की जाती हैं और वे हमारी स्मृति का अंग बन गई हैं। प्रेमचंद का साहित्य- सिद्धांत ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद‘ इन कहानियों जन्म लेता दिखाई देता है, क्योंकि उनमें मनुष्य के उत्कर्ष का भाव स्पष्टतः विद्यमान है। प्रेमचंद उर्दू के साथ हिंदी कहानी के भी जनक हैं और ये उर्दू कहानियाँ हिंदी कहानीकार प्रेमचंद की आधार-शिला बनती हैं। हिंदी में आकर वे हिंदी की हो गई हैं और प्रेमचंद भी हिंदी कहानीकार के रूप में स्थापित एवं मान्य हो गए हैं।  

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डाॅ. लक्ष्मी पाण्डेय, अध्यापक हिन्दी विभाग
डाॅ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर म.प्र., मो. 9753207910 

समीक्षा

‘‘आर्य होते नहीं, बनते हैं’’

यूँ तो भारत में लोकमंगल और लोकल्याण करने के लिए अनेक कार्य अधूरे पड़े हैं। अनेक  कार्यों का अभी आरम्भ ही नहीं हुआ है जो भारत के विकास और उसकी अस्मिता की  गरिमा तथा गौरव को बनाए रखने के लिए अत्यन्त आवश्यक हैं। अनेक क्षेत्रों में भरपूर  विकृतियाँ हैं, जिन्हें दूर किया जाना भी अत्यावश्यक कार्य है, लेकिन पता नहीं क्यों लोग  आवश्यक कार्यों को छोड़कर अनावश्यक कार्यों, बहसों, विचार-विमर्शों में अपनी शक्ति, समय और बुद्धि का अपव्यय करते हैं। पिष्टपेषण करते हैं। ऐसी ही एक अनावश्यक बहस  है कि-‘आर्य कौन थे ?, कब थे ?, कहाँ बसते थे ? क्या करते थे ?, कैसे रहते थे ? वे भारत  के थे या भारत में बाहर से आए थे ? इन प्रश्नों को कथाकार मनोज सिंह ने अपने  उपन्यास ‘मैं आर्यपुत्र हूँ ‘की भूमिका स्वरूप ‘कथा-आत्मकथा‘ शीर्षक में लिखा है और  अत्यन्त ओजस्वी स्वरों में वैदिक और पुरातात्विक प्रमाण प्रस्तुत करते हुए पूरे उपन्यास में  इनके उत्तर देने का प्रयास किया है।     

उपन्यास की भूमिका से ही आरम्भ होकर आगे कई स्थानों पर मनोज सिंह सीधे वामपंथी इतिहासकारों को कठोर और आक्रामक भाषा शैली में उत्तर देते प्रतीत होते हैं, क्योंकि ‘वामपंथी इतिहासकारों की गुलाम मानसिकता ‘जो आर्यों को बाहरी, आक्रमणकारी और बर्बर आदि सिद्ध करती है, से वे असहमत हैं और इस विचारदृष्टि की निंदा करते हैं।  वामपंथियों की इस सोच और मानसिकता को झूठ सिद्ध करने के लिए मनोज सिंह ने  सराहनीय परिश्रम कर ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं के अनुवाद प्रमाण स्वरूप प्रस्तुत किए है। उन्होंने उपन्यास को 17 भागों में बाँटा है-मैं और मेरे आर्यपुत्र, पाषाण युग (पूर्व वैदिक  काल), मेरे पूर्वज, मेरा प्रारंभिक कालखंड- सतयुग, सरस्वती नदी सभ्यता का कालखण्ड, सिंधु घाटी सभ्यता का कालखण्ड, आर्य आक्रमण का झूठ (मिथ्या) और मिथक प्रचार, मेरे आंतरिक  संघर्ष व युद्ध, आर्य संस्कृति का प्रभाव-विस्तार, पशुपालन-कृषिक्रांति, अर्थव्यवस्था, जीवन  व्यवस्था, समाज-व्यवस्था, शासन-व्यवस्था, -वैदिक राजा, वेद, दर्शन-अध्यात्म-धर्म-आस्था-ज्ञान, मैं कलियुग में।     यह ज्ञानवर्धक उपन्यास सुगठित वाक्य विन्यास तथा प्रवाहमयी भाषा शैली में लिखा गया है। मनोज सिंह की बौद्धिकता और रचनात्मक कौशल सराहनीय है। जिन्होंने कभी वेद नहीं पढ़े,उनके लिए ऋग्वेद का अधिकांश यहाँ उपलब्ध है। इसमें दो ही पात्र हैं-आर्य और उनकी आर्या। संवाद शैली में, विमर्श करते हुए यह उपन्यास विकास पाता है। जैसा कि मैंने आरम्भ में ही कहा कि यह अनावश्यक बहस है। अनावश्यक इसलिए कि यह स्वयंसिद्ध है कि हम आर्य हैं, आर्यों की संतान हैं, यह आर्यों की भूमि है। भारत में आर्य संस्कृति का जन्म हुआ। प्राचीन भारत अपनी विस्तृत सीमाओं के साथ आर्यावर्त कहलाता था। प्राचीन काल की विशाल भारत भूमि आर्यावर्त कहलाती थी। आर्यावर्त यानी आर्यों से घिरा-भरा क्षेत्र। आर्यों का निवास स्थान। मनुष्य संस्कारों से संस्कारित होकर आर्य बनता है। आर्य का अर्थ होता है-सभ्य, सुसंस्कृत, श्रेष्ठ, चेतनावान, मानवीय संवेदनाओं से  परिपूर्ण, आत्मसम्मान वाला कर्मठ तथा विवेकपूर्ण। आर्य अर्थात् ऋषियों के द्वारा बताए गए  सत्य और संयम के मार्ग पर चलने वाला। महाविष्णु ने बार-बार इसी आर्यावर्त में अलग-अलग भू-भागों पर अवतार लेकर अलग-अलग प्रयोजन सिद्ध किए। अपनी लीलाओं से मानव सभ्यता तथा संस्कृति के विकास और परिष्कार का मार्ग प्रशस्त किया। मनुष्य को ‘आर्य‘ बनने की दिशा और शिक्षा प्रदान की। भारत इसलिए भी विश्वगुरू कहलाता है कि आर्य बनने की शिक्षा का बीजारोपण और उसका विकास, प्रसार और प्रचार इसी भूमि से चारों दिशाओं में हुआ। भारत अब भी धर्म अध्यात्म और मानवीय तथा नैतिक मूल्यों की शिक्षा के मामले में वैज्ञानिकों के लिए भी आधार बना हुआ है। बाहर से आक्रमणकारी और पर्यटक यहाँ आए और कृषि प्रधान, उपजाऊ,सम्पन्न और समृद्ध आर्यावर्त यानी भारत भूमि की आर्य संस्कृति से प्रभावित  होकर यहीं बस गए। हर मनुष्य में तीन गुण होते हैं-सत, रज और तम। जिनमें सत और रज की प्रधानता थी वे परिष्कृत संस्कारों से सुसंस्कृत होकर आर्य हो गए। उन्होंने मन और आत्मा से इस धरती को स्वीकारा। इससे लिया और इसकी सेवा भी की। किन्तु जिनमें तमो गुण की प्रधानता थी, वे असंतुष्ट मनुष्य ईष्र्यालु होकर एकाधिकार का स्वप्न देखने लगे। वे गुणों  और सकारात्मक वृत्तियों को आत्मसात् नहीं कर सके, बल्कि लूट मार, छीनना चुराना, तोड़ना जैसी प्रवृत्ति के कारण अनार्य ही बने रहे, अनार्य कहलाए और अंततः उन्होंने, उनकी पीढ़ियों ने आर्यावर्त को तोड़कर अलगाना,अपना अलग अस्तित्व बनाने की प्रक्रिया आरम्भ की तो आर्यावर्त से टूटकर कई देश बने यह हम सब जानते हैं। भारत जो आर्य संस्कृति का केन्द्र बिन्दु है वह आज भी अपनी जड़ों के साथ अपनी पहचान बनाए हुए है जबकि शेष हिस्से जो अलग हुए वे आर्य होने की धूमिल स्मृति के  साथ एक अलग ही सभ्यता-संस्कृति को ओढ़कर अपना अलग अस्तित्व कायम किए हुए हैं। आर्य तोड़ने की नहीं जोड़ने की संस्कृति है।    ऐसा नहीं है कि जो भूखंड टूटे उनमें केवल अनार्य ही थे। आर्य और अनार्य हर भूखंड  में हमेशा रहे। भारत में भी, शिक्षा के इतने प्रसार के बावजूद अनार्य हैं। दरअसल अनार्य  कोई जाति या सम्प्रदाय नहीं है बल्कि यह गुण है, भाव है, विचार है, मनोज सिंह स्वयं इस बात को स्वीकार करते है कि आर्य व्यक्तित्व है, जीवनशैली है ,जीवन संस्कार है ,धर्म  का मार्ग है। (पृ. 14) हिंसा, स्वार्थ, अलगाव, छीनना, शोषण करना, आदि नकारात्मक प्रवृत्तियाँ आर्यत्व नहीं हैं। भारत ने कभी स्वयं आगे बढ़कर किसी देश पर आक्रमण नहीं किया। केवल अपना बचाव किया। यह मत्स्यअवतार युग से आरम्भ होकर राम, कृष्ण, बुद्ध और महात्मा गाँधी की धरती है। भारत दानियों और साधकों का देश रहा है। अब भी विज्ञान और तकनीकी के प्रयोग के बावजूद इसकी मूल प्रवृत्ति, प्रकृति बनी हुई है, यही  इसकी विशेषता है। मनोज सिंह इस उपन्यास में कुछ शब्दों और वाक्यों की गलत व्याख्या करते हैं जो चुभता है और चिन्तनीय लगता है। चूँकि लेखक इतिहास का, संस्कृति का, ज्ञान का हस्तान्तरण नयी पीढ़ी को करता है। अतः यह ध्यान रखना आवश्यक है कि व्याख्या गलत करने से अर्थ बदल जाता है और वह गलत आगे की पीढ़ी के साथ चलता चला जाता है। पाठक या अगली पीढ़ी में गलत को सुधारने के लिए जिस ज्ञान से उपजे आत्मविश्वास की, निर्भीकता की आवश्यकता होती है, वह संभव है या होगा कह नहीं सकते।    बैकुंठ का अर्थ बताते हुए मनोज जी लिखते हैं-‘‘वह जिसे कुंठित अर्थात् ध्वस्त नहीं किया जा सके। एक अन्य पर्याय अमरावती भी है, जो इसे अमर अर्थात् सुदृढ़ भवनों की बस्ती सिद्ध करता है। इसके भावार्थ-कुंठा का अर्थ होता है-निष्क्रियता, निराशा, हताशा, अकर्मण्यता। अर्थात् बैकुंठ वह स्थान हुआ जहाँ कर्महीनता नहीं है, अकर्मण्यता नहीं है। कर्म  प्रधान आर्यों की नगरी बैकुंठ हुई।‘‘ (पृ. 49) लेखक को जानना चाहिए कि अमरावती में अमर यानी देवता रहते हैं। अमृत पान करने  के कारण जिनकी मृत्यु नहीं होती, जबकि धरती मनुष्यों का लोक यानी मृत्युलोक है यहाँ जो जन्मा है उसकी मृत्यु अवश्य होगी।अमरावती अमरों की नगरी है। इसका अर्थ सुदृढ़  भवनों से नहीं लगाया जाना चाहिए। कुंठित व्यक्ति की भी उपरोक्त विशेषताएँ नहीं होतीं। बैकुंठ कर्महीन, अकर्मण्य देवताओं की ही नगरी है। देवता सिद्ध होते हैं किन्तु साधक नहीं। वे साधना करने का कष्ट नहीं सह सकते, परिश्रम नहीं कर सकते। बैठे-बैठे कामधेनु से समस्त इच्छित वस्तु प्राप्त कर लेते हैं। इसलिए व्यास जी ने कहा है- ‘न हि मानुषात् श्रेष्ठतरम् हि किंचित्।‘ मनुष्य से बढ़कर श्रेष्ठ कोई नहीं है।क्योंकि मनुष्य  कर्मठ, परिश्रमी साधक है जो अपना कमाया हुआ खाता और पाता है। वह कष्ट सह सकता है। देवता भी मनुष्य की इस प्रवृत्ति से ईष्र्या करते हैं और मनुष्य के रूप में अवतार लेकर  अपनी कामना पूरी करते हैं। कुंठ से कुंद बना है। बंद, अपने आप में सिमटा, सिकुड़ा हुआ, खीझा, चिड़चिड़ाया,अप्रसन्न रहने वाला। अक्सर हीन भावना से ग्रस्त लोग कुंठित रहते हैं। बैकुंठ और कुंठा के अनेक अर्थ हो सकते हैं जिसे यहाँ विस्तार देने की आवश्यकता नहीं है। मनोज सिंह लिखते हैं -‘मैंने इंद्रियों को नियंत्रित किया था तभी तो आर्य कहलाया,जो नहीं करते थे, वे अनार्य अर्थात् ‘राक्षस‘ कहलाए। (पृ. 59) देवासुर संग्राम के समय-‘जिन्होंने वनस्पतियों की रक्षा की पहल की, वही बाद में ‘राक्षस‘ कहलाए। (पृ.94) मनोज जी कहते हैं कि आर्य एक संस्कृति है, सभ्यता है, स्वभाव है तो यह तो वे मानेंगे ही कि जो आर्य नहीं है वह कुसंस्कारी, असभ्य और बुरे स्वभाव वाला होगा, लेकिन क्या हम इस असभ्य बुरे स्वभाव वाले को राक्षस कहेंगे ? नहीं। तत्कालीन युग में ‘रक्ष‘ संस्कृति के  लोग आत्मकेन्द्रित और क्रूर होते थे जो अपनी रक्षा और उदरपूर्ति के लिए, अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए  दूसरे मनुष्य, पशु-पक्षी, सब खा जाते थे। उनके स्वभाव में विध्वंस प्रधान था। वनों को उजाड़ना, प्राणियों को सताना और परमात्मा से बैर रखना उन्हें भाता था। रावण इसी संस्कृति का पोषक था, इसलिए ऋषि कुल की संतान और परम शिव भक्त होते हुए भी स्वार्थी, क्रूर और दुराचारी था। उसके चरित्र को हम सभी जानते हैं। उस काल में ऋषियों के अनेक ऐसे कुल थे जिन्होंने वनस्पतियों की, जंगलों की रक्षा की। वे भी आर्य  वंशों के विस्तार में सहायक हुए। मनुष्यों में आर्य, अनार्य और राक्षस होने के गुण अवगुण आज भी हर जगह कमोबेश मिलते हैं। मनोज जी ने ऋग्वेद से सरस्वती का बहुत सुन्दर नाम और संदर्भ खोजा है कि-‘इसे  पारावतघ्नी अर्थात् कारागारों को तोड़ने वाली नदी‘ भी कहा जाता है। (पृ. 61) सच है। सरस्वती अन्य देवियों की तरह देवी हैं जो लोक कल्याण के लिए धरती पर प्रतीकात्मक रूप में नदी की तरह प्रवहमान हुईं। सरस्वती सारे कारागारों और बेड़ियों को तोड़ देती हैं क्योंकि सरस्वती ज्ञान की देवी है विद्या की देवी हैं-‘सा विद्या या विमुक्तये‘, सच्ची विद्या वही है जिसे पाकर मनुष्य अज्ञान के, मोह के, माया के अंधकार से बाहर आ जाता  है।  इस उपन्यास में आर्यपुत्र आर्या से शिव, राम और कृष्ण का रंग साँवला बताते हैं तो आर्या कहती है कि फिर बाहरी गोरे लोग आर्य कैसे हो सकते हैं ? जबकि आर्यों के इष्ट  साँवले हैं। ( पृ. 79 ) मनोज जी ने भी शिव के लिए गाया और सुना होगा-‘कर्पूर गौरं करूणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारं। ‘जो कपूर की तरह शीतलता प्रदान करने  वाले और गोरे रंग के हैं, करूणा के अवतार हैं, संसार का सार हैं, जिनके गले में भुजगेन्द्र यानी साँपों के राजा नागराज लिपटे रहते हैं हार की तरह, वो शिव हैं। महाविष्णु साँवले हैं  जिन्होंने लोक और सत्य की रक्षा के लिए मत्स्य से कृष्ण तक अनेक अवतार लिए। शिव जन्म नहीं लेते, उनके कोई माता-पिता नहीं हैं, वे ही जगत पिता हैं। अवतार नहीं लेते वे  मृत्यु के देवता हैं वे चेतना हैं उनका जन्म नहीं हुआ, वे आकाश की तरह शून्य भी हैं और व्याप्त भी, वे सदाशिव हैं।   आर्य और अनार्य तथा अन्य सब ब्रम्हा के पुत्रों प्रजापतियों की संतानें हैं। गुणों के आधार पर जातियाँ, कर्म के आधार पर स्वभाव बना। वैवाहिक संबंधों के बाद संतानों के रंग रूप में  परिवर्तन आना स्वाभाविक है यह सब तो अब भी जारी है। आर्य का संबंध तो रंग से रहा  ही नहीं, अब भी उच्च शिक्षित उच्च वर्ण के लोग भी निकृष्ट कर्म करते देखे जाते हैं। एक अंतिम बात पं. जवाहरलाल नेहरू के ग्रंथ ‘भारत की खोज‘ की। मनोज जी ने बहुत ही बचकानी टिप्पणी की है। आश्चर्य है, वेदों का अध्ययन करने वाले की समझ इतनी  सतही कैसे है ? आप कहते हैं-‘डिस्कवरी शब्द में अनर्थ छिपा है। नेहरू कोई बाहरी थे, जिन्होंने भारत की खोज की। कोई अपने आप को कभी खोजता नहीं है, विश्लेषण करता है, चिन्तन कर सकता है और अगर खोज रहा है तो अर्थात् वह गुम हो गया था। तो क्या भारत गुम हो गया था ? यही देश का दुर्भाग्य रहा, जहाँ स्वतंत्र भारत का पहला प्रधानमंत्री ही खोजने की बात करे तो साफ है कि उन्होंने भारत को किस दृष्टि से देखा   होगा।‘‘(पृ. 91) मैंने उत्तर देने के बजाय यह पैराग्राफ पाठकों के लिए प्रस्तुत किया ताकि वे भी मनोज जी के इस दृष्टिकोण और खोज को जान सकें। आर्या ने पृ. 93 पर आर्य के लिए ‘प्रोफेशनल स्पीकर‘ पद का प्रयो्रग किया। आर्या की भाषा कथानुकूल है या नहीं, यह विचारणीय हो सकता है किन्तु आर्य के लिए यह प्रयोग अब सटीक लगता है। साहब, भारत की खोज का जो महान कार्य नेहरू जी ने आरम्भ किया था, वह अब तक जारी है। डिस्कवरी आॅफ इंडिया ऐतिहासिक,साँस्कृतिक, सामाजिक और भौगोलिक दृष्टि से भारत को समझने के लिए महत्वपूर्ण ग्रंथ है जो उन्होंने जेल में बैठकर लिखा। इसे समझने के लिए धर्म और अध्यात्म की परिभाषा समझना आवश्यक है। ‘जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पैठ‘ का अर्थ समझना जरूरी है। ‘मैं‘, ‘आत्म‘ ,‘चेतना‘ आदि के मूल को समझना पड़ता है। कुछ लोग पूरा जीवन बिता लेते हैं उनकी अपने आप से मुलाकात नहीं  होती। खैर इस पर अधिक नहीं लिखूँगी, लेखक स्वयं समझ लें कभी, इसी आशा के साथ। बहरहाल यह उपन्यास पठनीय और उपयोगी है। ज्ञानवर्धक है। मनोज जी को बधाई और शुभकामनाएँ।          


                           

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समीक्षा


पाण्डेय शशिभूषण ‘शीतांशु‘ अमृतसर (पंजाब) मो. 09878647468  

प्रोफेसर फूलचंद ‘मानव’, जीरकपुर, मो. 9646879890


फूलचन्द मानवः काव्य व्यक्तित्व

तब भारतीय ज्ञानपीठ का प्रधान कार्यालय कलकत्ता (अब कोलकाता) में हुआ करता था। यह एक समृद्ध और लोकप्रिय प्रकाशन था। अचानक एक दिन पंजाबी कथाकार जगजीत सिंह बराड़ की एक उपन्यासिक कृति मेरे हाथ लग गयी। उलटपुलट कर देखा तो पंजाबी से हिन्दी में इसका अनुवाद करने वाले सज्जन फूलचन्द मानव थे। अनुवाद सहज और सम्प्रेष्य था इसे पढ़ने पर ऐसा लगा मानो यह हिन्दी की ही उपन्यासिका हो। बंगला और पंजाबी कथाकृतियों का अनुवाद मैं आठवीं नवीं कक्षा से ही पढ़ने लगा था। इनमें मेरे पसन्दीदा कथाकार थे बंकिम चन्द्र चटर्जी, शरत चन्द्र चटर्जी और अमृता प्रीतम। इनके उपन्यासों के अनुवाद सम्प्रेष्णीय तो थे पर ऐसे नहीं थे कि अनुवादक का नाम, उसकी सर्जनात्मक अभिव्यक्ति के कारण स्मरण रह जाए। पर ‘धूप और दरिया‘ उपन्यासिका के अनुवादक फूलचन्द मानव का नाम उसकी सहज सर्जनात्मक अनुवादकला के कारण स्मरण रह गया।

1974 में ‘नयी कहानी के विविध प्रयोग‘ नामक मेरी पहली आलोचनात्मक पुस्तक छपी थी। मेरी वह पुस्तक डॉ. इन्द्रनाथ मदान को समर्पित थी। मैंने उसकी पहली प्रति डाक से डॉ0 मदान को भेज दी थी। मानव जब डॉ. मदान से मिलने उनके घर पहुँचे तब मदान जी की मेज पर मेरी वह पुस्तक सामने पड़ी थी। मदान जी मेरी पुस्तक प्राप्त होने की सूचना मुझे भेज चुके थे। उसी कार्ड पर उन्होंने मेरी पुस्तक की कुछ विशेषताओं का उल्लेख भी किया था। उन्हीं दिनों दीप्ति खंडेलवाल की एक कहानी ‘जहाज‘ किसी पत्रिका में छपी थी, जिसे उन्होंने मुझे पढ़ने की सलाह दी थी तथा मुझे अपने विचारों से अवगत कराने के लिए लिखा था। उन्होंने सामने पड़ी मेरी पुस्तक मानव जी के माँगने पर उन्हें दे दी। इस बात का पता मुझे बाद में मानव जी से ही चला।

1975 में एक दिन डाक से मुझे एक पत्रिका मिली। नाम था जागृति। पंजाब सरकार इसे प्रकाशित करती थी। आवरणपृष्ठ की संकल्पना के अनुरूप इस पत्रिका में कोई आवरण नहीं था। पत्रिका के सामान्य पृष्ठों जैसे एक पृष्ठ पर ही पत्रिका का नाम, सम्पादक और प्रकाशक का नाम छापकर उसे आवरण का मुखपृष्ठ बना दिया गया था। वह मुझे किसी पंफ्लेट की तरह लगी। जब मैंने उसे खोला तब उसमें मेरी पुस्तक ‘नयी कहानी‘ के विविध प्रयोग की संक्षिप्त समीक्षा छपी हुई थी। समीक्षक का नाम था- फूलचन्द मानव। मैंने मन में सोचा हिन्दी आलोचना में एक मानव तो पहले से ही हैं- विश्वम्भर मानव । अब ये दूसरे मानव कहां से आ गये? कहीं ये अनुवादक मानव तो नहीं हैं? यही वह घटना थी, जहाँ मुझे अपने अपनी उक्त पुस्तक के पहले समीक्षक मानव जी से मेरा नाम्ना परिचय हुआ।

1977 में मैं गुरु नानक देव विश्वविद्यालय में रीडर होकर अमृतसर आ गया था। भागलपुर विश्वविद्यालय की अपनी सेवा से मैं लियन अवकाश लेकर आया था। एक वर्ष बाद यहाँ की सेवा सम्पुष्ट होते ही मैंने भागलपुर सेवा से त्यागपत्र दे दिया था। इस एक वर्ष के भीतर मैं पंजाब, हिमाचल, हरियाणा के हिन्दी विभाग से परीक्षाकार्यो में जुड़ने लग गया था। तीन वर्ष बीते होंगे कि पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला से मुझे एम.फिल. (हिन्दी) की उत्तरपुस्तिकाएँ परीक्षणार्थ भेजी थी। इनमें मुझे एक ऐसी उत्तरपुस्तिका मिली कि मेरा मन आह्लादित हो उठा। थोड़ा विस्मय भी हुआ कि इस अहिन्दीभाषी क्षेत्र में इतनी अच्छी उत्तरपुस्तिका! कथ्य और भाषाशैली की दृष्टि से सभी उत्तर बिन्दवार, संतुलित, व्यवस्थित और परिमार्जित! हस्तलेख भी अत्यन्त आकर्षक और सुन्दर। इस उत्तर पुस्तिका ने मुझे प्रभावित किया। मैं मुग्ध हो उठा और मैंने उसे 80 प्रतिशत अंक दे दिये, ग्रेड में ‘ओ‘़ ग्रेड दे दिया। मैं जानता हूँ कि इतनी अच्छी उत्तरपुस्तिका होने पर भी सामान्यतः परीक्षक इतने अच्छे अंक नहीं दिया करते हैं। पर मेरी दृष्टि में यह उत्तरपुस्तिका इसे ‘डिर्जव‘ कर रही थी। अतः मैंने इस एक पंक्ति का स्मरण करते हुए अस्सी अंक दे दिये कि मुझपर यह आरोप नहीं लग सके कि ‘गन न हिरायो गनगाहक हिरान्याँ है‘। मेरे चालीस वर्षों के अध्यापनजीवन में एम.ए., एम.फिल. कक्षा की जो चार-पाँच उत्तरपुस्तिकाएँ मुझे उत्तमोत्तम कोटि की मिली होंगी, उनमें यह एक थी। इसी तरह मैं पैंतीस वर्षों तक संघ लोक सेवा आयोग की भी उत्तरपुस्तिकाएँ देखता रहा हूँ। वहाँ भी मुझे इतने वर्षों में वैकल्पिक हिन्दी भाषा और साहित्य की उत्तरपुस्तिकाओं में ऐसी उत्कृष्ट एक दो ही उत्तरपुस्तिकाएँ मिली थी; जिन्हें मैंने अपवाद रूप में 75 प्रतिशत अंक दिये थे। एम.फिल. की उस उत्तरपुस्तिका का परीक्षार्थी कौन था, यह तो मुझे बाद में पता चला।

उन्हीं दिनों जब मैं किसी की मौखिकी लेने पटियाला गया तब मैंने वहाँ विभाग के रीडर अध्यक्ष डॉ. मनमोहन सहगल से उस उत्तरपुस्तिका की भूरिभूरि प्रशंसा की। इस पर उन्होंने कहा- हाँ, वह उत्तरपुस्तिका अच्छी थी। मॉडरेशन में मैंने देखी थी। फूलचन्द मानव की कापी थी। उसने प्राइवेट तौर पर एम.फिल. की परीक्षा दी थी। वह उसी की उत्तरपुस्तिका थी। फिर वह बताने लगे कि मानव पंजाब के सरकारी कॉलेज में हिन्दी का प्राध्यापक है। मैंने उन्हें कहा- हाँ, जब मैं पंजाब नहीं आया था, तबसे मैं उनके लेखन से परिचित हूँ और इसी लेखकीय रूप में उन्हें जानता रहा हूँ। अब उनके परीक्षार्थी और प्राध्यापकीय रूप से भी अवगत हो गया हूँ।

मैं जब अमृतसर आया तब मेरे यहाँ आने के समाचार धीरे धीरे पंजाब और हरियाणा के मेरे पूर्व परिचितों को मिले और वे सब पुनः मेरे सम्पर्क में आ गये। ऐसा ही मानव जी के साथ भी हुआ। बाद में जब वह कभी अमृतसर आये तब यूनिवर्सिटी में मेरे विभाग में आकर मुझे मिले और मुझे अपनी कविता पुस्तक भी भेंट की।

मेरी दृष्टि में फूलचन्द मानव की कविता की सबसे बड़ी विशेषता कविता में उनकी निजता और मौलिकता का अभिव्यंजन है। समकालीन कविता की वह लम्बी लम्बी सपाटबयानी जिसका आरंभ धूमिल से हुआ था, उनमें नहीं है। ‘मानव‘ मित कथन के कवि है। उनकी कहन शैली की यह विशेषता है। वह अपने कथन को बहुत नहीं फैलाते। मुझे उनकी यह विशेषता प्रभावित करती है, क्योंकि समकालीन कविता के लम्बे प्रवाह में मुझे और कोई दसरा कवि आकंचन की इस कला में महारत रखने वाला नहीं मिला। सामान्यतः सबके यहाँ गति और प्रवाह है। ‘पर मानव‘ को ‘गति‘ से अधिक अति प्रिय है। दूसरे, उनकी कविता उनके अहसासों का आइना है। वह युगीन प्रवृत्तियों की अनुगामिनी नहीं है। शिविरबद्ध कविता की तुर्शी और तल्खी उनमें नहीं है। कवि बताता है कि ‘‘खूबसूरत चेहरे ही नहीं/खूबसूरत शहर भी विवाद का विषय बनते है।‘‘ उनकी यह कविता यह प्रश्न खड़ा करती है कि ‘‘सियासतदान और अर्ध धर्मगुरु में किसका दामन पाक है?‘‘ यह विवाद, हंगामा और संघर्ष का रूप ले लेता है- ‘‘सत्ता से जुड़े चेहरों को/शहर के विवादी मैले चेहरों को/नफरत में फैले चेहरों को/जोड़ने का यत्न करके देखो- सेक्टरों ये फूटते फफोले भयभीत कर जाते हैं।‘‘ और फिर ‘‘चैडी, चमकीली सड़कों पर, सचिवालय, मदिरालय तक सरपट हाँफते, भागते संवादों से/कर्मचारी, अधिकारी, बुद्धिजीवी उपेक्षित लगते हैं।‘‘ यह ‘मानव’ के अहसास की कविता है, जहाँ इस समस्या का निर्णय अब तक बाकी ही है।

‘मानव’ के कविमानस में जो मानव पर्यवेक्षक, अनुभावक और चिन्तक है, वह विशुद्ध मन है, ऐसा मानव है उसके चित्त में न तो खोट है और न ही उसकी सोच मैली है। पर वह अपने आसपास की कहीं भी ऐसी मानवीयता नहीं पाता। इसका अवसाद उसकी कविता में अभिव्यक्त होता रहता है- ‘‘मैंने भी चाहा था/नील गगन सा सहज और सजग रहे दिमाग। दिल को स्वस्थ स्वच्छ रखना। किसी को न डॅसना। मैंने भी चाहा था। ‘‘उसकी एक बड़ी प्यारी कविता है- ‘गुलदस्ते में बारुद!‘ यह पूरी कविता केवल बाहरी आंतक का सपाट निरूपण नहीं करती, बल्कि मनुष्य के अन्तर्मन को उद्घाटित भी करती है। यहाँ हृदय के गुलदस्ते में बारुद है और दिमाग की टोकरी में क्या रखा है। आदमी को आदमी के लिए नीचे गिर सकने की इन्द्रियाँ है यह! मानव का ‘डराडरा सा, मरा मरा सा‘ मन काँपता हुआ अनुभव करता है। मानव के पास कवि दृष्टि है। तभी उसका कवि कहता है- ‘‘सही अर्थों में आँख की जरूरत है/फिसलन और फासले के पार/सच बदल जाता बार बार।‘‘

मेरी दृष्टि में मानव मनुष्य की चिन्ता का कवि है। यह बहुत बुनियादी बात है। यह बहुत बड़ी फिक्र है इस कवि के लिए। यह मनुष्य को मनुष्य बनाने वाली, आदमीयत सिखाने वाली किताबों को, ज्ञान को, जलता हुआ देखता है। अपने युग की व निरंकुश वास्तविकता को देखता है। सभ्यता के झुलसे चेहरे, रिश्तों को राख में बदलने वाले और खुद में भस्म हो जाने वाले ज्ञान को देखता और हमें चिंतातु दिखाता भी है- ‘‘रिश्तों को राख में बदल कर/भस्म हो गये शब्द/कब, कहाँ/किन अर्थों में शक्ल ग्रहण करेंगे। कौन जानता है? कवि का कथन अभिव्यक्ति के सरोवर में अर्थ का फैलता और फैलता जाता वृत्त बनाता जाता है- व्यापक, व्यापकता होता- केवल शब्द का कंकड़ी मारकर वह इस प्रकार की अतक्रीड़ा कर जाता है। कविता पर अनेकों कवियों ने कविता लिखी है। पर मानव का कविता के बारे में उसका अपना अहसास औरों से अलग और मौलिक है। उसके लिए- ‘रक्त में घुलती है कविता/शिराओं में दौड़ती है/दिमाग को करती है साफ/तो कभी परेशान भी। कविता गाती है।......कविता आती है‘।

मानव हिन्दी में मनुष्यता की चिन्ता करने वाला अकेला कवि है, जो कम शब्दों में बहुत कुछ कह जाता है- ‘‘बन्दा, हड़ताल, घृणा, घोर निरादर, आतंक/गैर इंसानों सी कर्मों की रवानी क्यों है? मांस नाखून का रिश्ता भी कभी टूटा है। यह नये कौम की बदजात जवानी क्यों हैं? यह तो दरबार था साहिब का सुना हैं ‘मानव‘। इस दरबार में घिरती बदनामी क्यों है?‘‘ इन पंक्तियों से पता चलता है कि मानव ने शेर भी लिखे हैं। मानव की जुबाँ औरों से भिन्न और काबिले तारीफहै। मानव का व्यक्तित्व साहित्यिक है। वह साहित्य प्रेमी है और हैं साहित्य स्रष्टा, कवि। समसामयिक साहित्य की गति प्रगति से परिचय रखते हैं और साहित्यिक हलचल करते रहते हैं। पिछले वर्ष चंडीगढ़ में उन्होंने साहित्यिक पत्रकारिता पर विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्पोषित एक अच्छी संगोष्ठी की थी। मुझे बहुत पहले से उन्होंने आमंत्रित कर रखा था। पर मैं जा नहीं सका। मेरी प्रहीति है कि वह निकट भविष्य में हम सबको अपनी कोई न कोई महत्त्वपूर्ण कृति अवश्य देंगे। 

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डाॅ. मीनू बुद्धिराजा, अहमदाबाद, मो. 9310629191

समीक्षा

अनिर्णय और अव्यवस्था के अस्वीकार की कविता

नया कविता संग्रह: पनसोखा है 

इंद्रधनुष (सेतु प्रकाशन)

समकालीन विशिष्ट कवि: 

मदन कश्यप

आज कविता बहुत सी चुनौतियों और विरोधी समय के बीच भी समकालीन परिदृश्य, यथार्थ और वस्तुस्थिति के पल पल बदलते स्वरूप पर अपनी गहरी पकड़ रख रही है। वह अपने इतिहास के साथ ही वर्तमान और भविष्य के प्रति भी सावधान है और उसकी सार्थक अभिव्यक्ति के लिए भी संघर्ष रत है। यथार्थ के साथ कविता की सामग्री निरन्तर बदलती है, लेकिन मूलभूत रूप से वह नहीं बदलती। कवि और कविता जनसाधारण की पीड़ा और परिवेश से आंदोलित होती है तो उसमें इतनी क्षमता होती है कि अच्छे और बुरे दौर का सामना कर सके। व्यवस्था से संघर्ष करते हुए कवि जिस सृजनात्मक द्वंद्व से निकलता है, वस्तुतः उसके द्वारा अपने समय मे कविता सीधा हस्तक्षेप करती है। और न्याय व प्रतिरोध के पक्ष में उपस्थित रहती है।

समकालीन कविता के परिसर में हमारे समय में वरिष्ठ और सशक्त कवि मदन कश्यप ऐसे ही सार्थक समसामयिक कवि हैं, जिनमें अपने समय को स्थिर और गम्भीर होकर देखने की दायित्वपूर्ण कवि दृष्टि भी है और व्यापक संवेदना भी। कवि की जीवन दृष्टि पहले से बनी हुई चीज नहीं होती। वह किसी विचारधारा से भी ऊंचे स्तर पर उपस्थित रहती है। प्रत्येक रचना में इस मूल्य दृष्टि का विकास होता है। समय के साथ संबंध बदलने के साथ समाज, राजनीति, व्यवस्था, कला, प्रेम, सौंदर्य इन सबके प्रति कवि का नजरिया बदलता है तो वह समकालीन यथार्थ की जटिलता को को गहराई से देख पाता है।

प्रतिष्ठित कवि ‘‘मदन कश्यप ‘‘ जी लगभग पाँच दशकों से अपनी काव्य यात्रा में छह कविता संग्रहों से आधुनिक हिंदी कविता को समृद्ध कर चुके हैं। उनका नया काव्य संग्रह ‘‘पनसोखा है इंद्रधनुष‘‘ इस वर्ष सेतु प्रकाशन से आया है। जिसमे उनकी इसी कवि दृष्टि का वैचारिक विस्तार और हमारे समय का बयान मिलता है। कवि के भीतर जिन दो दुनियाओं का द्वंद्व मूलभूत रूप से चलता रहता है उस की संघर्षशील परिणति इन कविताओं में बहुत सशक्त रूप से सामने आती है। इस संग्रह की कविताएं जीवन और चारों ओर के परिवेश और क्रूर यथार्थ के प्रायः हर पहलू को अपना विषय बनाती हैं। नयी सदी में स्त्री पुरुष सम्बंध के नये विमर्श में प्रेम का बदलता मुहावरा हो, समकालीन राजनीति और व्यवस्था में साधारण मनुष्य की विडंबना और त्रासदी हो, समाज और धर्म की गहरी छानबीन हो। इन सबके संदर्भों में उनकी प्रखर दृष्टि चीजों के वर्तमान का आकलन उसके समूचे सीमाओं और भविष्य की संभावनाओं के साथ करती है। वर्तमान राजनीति का परिदृश्य जिसमें सत्ता और जनता का सामान्य संबंध टूट चुका है और वह जन आकांक्षाओं से दूर हो गयी है। इस स्थिति में प्रतिरोध की, संघर्ष की बहुत जरूरत है जिससे समाज में, व्यवस्था में गति आएगी। भय और आतंक की पृष्ठभूमि से मुक्त समाज के लिए कवि जनसाधारण की तरफ से जब इन सभी स्थितियों को देखते हैं तो ये कविताएँ तात्कालिक उत्तेजना और प्रतिक्रिया होने से बच जाती हैं। बल्कि इनमें एक स्थायी विकल्प की खोज स्पष्ट रूप से सामने दिखती है।

यह कविता संग्रह तीन बिंदु लेकर देखा जा सकता है जिसमें तीन भागों में कविताएँ रखी गई हंै। उनके कवि व्यक्तित्व की जुझारू दृष्टि जो अपने समय की चुनौतियों से टकराते हुए अविचल मानवीय मूल्यों के पक्ष में संघर्ष करती आई है। जिनमे व्यवस्था की चालाकियों और क्रूरता पर उनकी कविताएं द्विआयामी संघात करते भी समानांतर रूप से जनसाधारण के प्रति गहरे लगाव की संकेत करती कविताएँ है। अकेलापन, एक अधूरी प्रेम कविता, मुश्किल सवाल, फुटपाथ पर सोने वाले, डरता हूँ, अर्धसत्य, एक दलित प्रार्थना, जब पैसे बहुत कम थे, बेरोजगार पिता की बेटी, भूख का कोरस, यह एक दुख, तेज रफ्तार लोग, प्रेम में हत्या जैसी कविताएं स्त्री की त्रासदियों से लेकर मानवीय- सामाजिक विमर्श की गहरी कविताएँ हैं।

दूसरे भाग में चैट कविताएँ जिनमे प्रेम के अनेक उच्छवास और संवेदनात्मक तरलता के छोटे छोटे क्षणिक पर गहरे प्रभाव हैं।

काश! प्रतीक्षा कोई खुशबू होती 

जो फैलती चली जाती तुम तक !

तीसरे भाग डपोरशंख की कविताएँ समासमयिक समस्याओं से जिरह करती कविताएँ हैं। जो ग्लोबल की आड़ में पूंजीवादी व्यवस्था की हर परत को खोलते हुए बढ़ती हैं।-

भूमि और पर्वत की तरह आसान नहीं है

आदमी को पराजित करना ।

लोकतांत्रिक समय में भी नैतिकता, न्याय और धार्मिक-आर्थिक समानता संघर्ष के लिए अब सिर्फ एक कमज़ोर हथियार हैं। इस खंड की कविताएं एक पाठक- नागरिक को बेचैन और परेशान करती है। चुप्पी के मायने, फिर लोकतंत्र, मूर्खो का वृंद गान, डपोरशंख , हाशिमपुरा, पिता का हत्यारा ऐसी ही सार्थक कविताएँ हैं।-

वह चला गया तब कैमरेवाले आये

मैंने साफ साफ कहा मेरे पिता की हत्या नहीं हुई थी

वह स्वाभाविक मौत थी ज्यादा से ज्यादा दुर्घटना कह सकते हैं

फिर मैंने स्कूल में अपने साथियों को ही नहीं / सड़क के राहगीरों और पड़ोसियों को ही नहीं / घर में दादाजी को भी बताया / बस एक वही थे जो मान नहीं रहे थे / और एक दिन तो सपने में चिल्ला उठा / नही नहीं मेरे पिता की हत्या नहीं हुई थी!


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किसी भी कहानी का प्लॉट उठाने के लिए लेखक का अनुभव जितना नजदीक से होगा उतनी ही संवेदना और गहराई लेखन में होगी। लेखिका नीलम कुलश्रेष्ठ की कहानियाँ अनुभव की कसौटी से निकलती हैं और बहुत अधिक कल्पना की डोर खींचे बगैर यथार्थ की ओर मुड़ जाती हैं। 

‘आत्र्तनाद’ ग्रामीण परिवेश की कहानी है। जहाँ अवैध संबंध को छुपाने के लिए अवैध संबंध रखने वाली महिला मेंहदी के पति की हत्या कर दी जाती है और हत्या का आरोप अवैध संबंध की चश्मदीद गवाह मनदेवी पर लगा कर उसका सर मुँडवा कर, उसके मुँह पर कालिख पोत कर तथा गधे पर बैठाकर अर्द्धनग्न अवस्था में गाँव में घुमाने जैसा भयानक दंड दिया जाता है। प्रायः ग्रामीण परिवेश में अवैध संबंध रखने वालों के लिए सजा सुनाई जाती है, किंतु इस कहानी में चश्मदीद गवाह को सजा मिलती है। क्योंकि इस कहानी में मात्र दो लोगों का व्यक्तिगत संबंध नहीं है, बल्कि पूरी की पूरी वर्चस्ववादी सत्ता इस संबंध को फलने-फूलने और उसका विस्तार करने देने में शामिल है, इसलिए विरोध करने वाले को सजा मिलती है न कि अपराधी को।   

इस तरह की घटनाएँ गाँव में सहज ही घटती हैं, (यह मैं अपने अनुभव के आधार पर कह रही हूँ) और सहज ही स्वीकार  कर ली जाती हैं और कुछ दिनों तक चर्चा के केन्द्र में गरम माहौल रहने के बाद ठंड़ा जाती हैं। हैरानी की बात है कि ऐसे अपराधों को छुपाने में पूरा का पूरा गाँव एक साथ खड़ा हो जाता है , कभी कभी तो पुलिस भी साथ देती है। 

इस कहानी में वर्चस्ववादी सत्ता पर जितना दबाव नैतिकता को दिखाने में हैं, उससे कहीं अधिक दबाव अनैतिकता को छुपाने में है। सत्य और मिथ्या तथा अफवाह के बीच एक झीना पर्दा है, जिससे दिखता सबकुछ साफ-साफ है पर कोई देखना नहीं चाहता क्योंकि सत्य अफवाह और मित्था के नीचे दब गया है। अधिकतर समय गाँवों में अफवाह एक आग की तरह फैलती है और सत्य को अपने लपेटे में लेकर जलाने में कामयाब भी हो जाती है, जितने मुँह उतनी कहानियाँ बनती चली जाती है। 

यह कहानी ग्रामीण परिवेश की विसंगतियों को प्रस्तुत करती है, जहाँ एक तरफ मनदेवी जैसे भोले-भाले लोग है, जो सीधे-सीधे कह आते हैं कि मैं तेरा पोल खोल दूँगी और दूसरी ओर मेंहदी और सुन्दरदास जैसे चालाक लोग, जिन्होंने अवैध संबंधों को छुपाने के लिए न केवल आपराधिक रास्ता चुनते हैं बल्कि क्रूरता की सारी हदें पार कर जाते हैं।

मेरा व्यक्तिगत विचार है कि यदि यह कहानी मनदेवी के नजरिए से लिखी गई होती तो इसकी संवेदना कुछ और होती, लेकिन इस कहानी को पत्रकार जल्पा के नजरिए से देखा गया है, जो आशा सहयोगिनी से कहानी सुनती है। इसलिए कथानक की बुनावट किसी किस्से को सुनने सुनाने जैसा है और प्रतीत होता है हम कहानी सुनते हुए सिंहर रहे हों। दूसरी बात की जल्पा मनदेवी की मनःस्थिति को समझते हुए घटनाओं पर केन्द्रित रहती है, वह मनदेवी की मन में प्रवेश कर घटना को समझने का प्रयास नहीं करती। लेखिका इस कहानी को परकाया प्रवेश से बचाते हुए बड़ी ही साफगोई से मूल कहानी पर ही ध्यान केन्द्रित रखती हैं और एक द्रष्टा के नजरिए से प्रस्तुत करती हैं। 

 इस कहानी में पात्र मेंहदी की कहानी शुरू होते ही उसके प्रति एक संवेदना जागृत होती है कि उसका पति परदेश कमाने गया है और इसकी इच्छाएँ, अपेक्षाएँ, संवेदनाएँ पति की वापसी तक प्रतीक्षारत् हैं, लेकिन जैसे ही सुन्दरदास का प्रसंग शुरू होता है और पंचायत के सदस्य तथा गाँव के अन्य सदस्यों तक आते आते मेंहदी के प्रति संवेदना घृणा में बदल जाती है और अंत में वह एक अपराधी बनकर रह जाती है। मनदेवी एक साधारण घरेलू महिला है, उसने अवैध संबंधों की सच्चाई जान ली है, उसे दंड देने के लिए उसके साथ ऐसा क्रूर अमानवीय व्यवहार उस पूरे वर्चस्ववादी सत्ता की संवेदनहीनता को दर्शाती है। ऐसा कहा जाता है कि सत्ता निरंकुश होती है। अपने अपराध को छुपाने की खातिर मनदेवी के साथ क्रूर अमानवीय व्यवहार करके उस गाँव की वर्चस्ववादी सत्ता निरंकुशता और क्रूरता की सारी हदें पार कर देती है। दलित महिला विधवा भाग्यवती हो अथवा भूरीदेवी अथवा वे खामोश महिलाएँ जो जल्पा से कुछ भी बताने से परहेज करती हैं, वे सभी विक्टिम हैं, लेकिन जमूदेवी जैसी महिलाएँ भी हैं जो लड़कर उसी समाज में अपना रास्ता बना लेती हैं, अपना अधिकार हासिल कर लेती हैं। यह ध्यान देने योग्य बात है कि यहाँ की ग्रामीण महिलाओं में इतनी हिम्मत नहीं है कि वे अपराध के खिलाफ अपनी आवाज उठा सकें या किसी से सच्चाई बता सकें। अथवा वे सत्ता की मानसिकता में ढ़ल कर खामोश हो चुकी हैं अथवा उन्हें पता है कि बताने का कोई फायदा नहीं है । यहाँ पर एक पक्ष स्त्री-विमर्श का भी दिखाई देता है। 

लेकिन यहाँ विमर्श मात्र स्त्री के लिए नहीं है, यहाँ जाति का, आर्थिक आधार का, नैतिकता के प्रश्न का तथा मीडिया की भूमिका पर भी विमर्श खड़ा होता है, इन सबसे अधिक विमर्श खड़ा होता है मानवता का, और इस कहानी में मानवता हारती हुई दिखाई दे रही है। यह हार ही इस कहानी का सबसे बड़ा प्रश्न है। 

यह कहानी पत्रकार जल्पा के माध्यम से आगे बढ़ती है। लेखिका नीलम कुलश्रेष्ठ जी घर की चैखट लाँघ कर बाहर निकलने वाली नौकरीपेशा, व्यावसायी औरतों की कहानियाँ लिखती हैं। यहाँ पर इन्होंने पत्रकार को चुना है। यह कहानी मीडिया की भूमिका पर भी प्रश्न खड़ा करती हैं, जिसमें एक खास तरह की मीडिया है जो बिना रिसर्च किए न्यूज बनाकर छाप देती है तो दूसरे तरफ एक ऐसी भी मीडिया है जो कहानी के तह तक जाना चाहती है ‘स्टोरी बिहाइन्डअ स्टोरी’ की खोज करती है। यह कहानी पढ़ते समय मेन स्ट्रीम मीडिया और हाशिए की मीडिया दोनों की छवि दिमाग में उभरती है। 

इस कहानी की यही खास बात है कि इसे अलग-अलग दृष्टिकोणों से देखते हुए भी यथार्थवाद की कसौटी पर देखा जा सकता है क्योंकि हमारे समाज की यह सच्चाई है। लेखिका ने कहानी का अंत नहीं बताया है, क्योंकि इस कहानी की पीड़ा और परिणाम अंतहीन है। आज के समय में ग्रामीण परिवेश पर लिखी जाने वाली ऐसी कहानियों को लोग पुराने समय की गाँव की कहानियाँ कह कर दरकिनार कर देते हैं, जो कि अत्यंत आश्चर्यजनक बात है। गाँव सिनेमा जगत में दिखाए गए गाँवों से अभी भी बहुत अलग है, वहाँ बादल के बरसने पर सज-सँवर कर कोई नाचता नहीं बल्कि खेतों की ओर भागते हैं कि उनकी रोपनी-सोहनी बाकी है, जल्द से जल्द निपटा लिया जाए। कोई दुर्घटना घटते ही पूरा गाँव एक हो जाता है और यदि किसी घर में कोई अपराध हो गया तो उस समय अपराध को छुपाने के लिए पूरा का पूरा गाँव एकवट कर उस अपराध को छिपाने में लग जाता है, जैसे कि छिपाना उनका कोई मिशन हो। ये सभी घटनाएँ अलग अलग रूपों में अब भी है। भारत में गाँव का विकास जितना समझाया जाता है अभी उतना हुआ नहीं है। शहरों में भी इस तरह के अपराध होते हैं पर पढ़े लिखे लोगों को कानूनी दाँव-पेंच मालूम होता है लेकिन गाँव में कानूनी-दाँव-पेंच बहुत कम काम करते हैं। गाँव की परिस्थितियाँ स्थितियों से बाहर निकलने का रास्ता बनाती हैं, न कि पूरी तरह से कानून। गाँव की यही बिडम्बना है और आत्र्तनाद भी।

-नीलम कुलश्रेष्ठ, अहमदाबाद, मो. 9925534694

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प्रेस रिलीज 30‐11‐2021

सरकारी महेन्द्रा काॅलेज पटियाला में 

डाॅ. दर्शन सिंह ‘आशट’ का पंजाबी मातृभाषा पर 

विशेष लैक्चर

पटियाला: पंजाबी युनिवर्सिटी पटियाला में कार्यरत साहित्य अकादेमी पुरस्कार विजेता और शिरोमणि पंजाबी बाल साहित्य लेखक डाॅ. दर्शन सिंह ’आशट’ का सरकारी महेन्द्रा काॅलेज पटियाला में ’पंजाबी-माह’ के अंतिम पड़ाव में आज पंजाबी मातृभाषा पर विशेष लैक्चर करवाया गया। समागम के आरम्भ में काॅलेज की पिं्रसीपल डा सिमरत कौर और पंजाबी विभाग की इंचार्ज डा सुनीता अरोड़ा की अगुवाई में राजनीति विभाग के अध्यक्ष डाॅ बरजिंद्र सिंह टौहड़ा ने डाॅ. दर्शन सिंह ’आशट’ का स्वागत किया। इस अवसर पर डाॅ. दर्शन सिंह ’आशट’ ने कहा कि पंजाबी भाषा को समय समय पर कड़ी मुश्किलों के पड़ावों से गुजरना पड़ा है लेकिन अपनी दृढ़ता और लोकप्रियता के कारण इस भाषा का दीपक तूफानों में भी जलता रहा है और वर्तमान में यह भाषा विश्व के 150 देशों में 15 करोड़ों लोगों द्वारा बोली जाती है। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि पंजाबी भाषा का गौरव बरबरार रखने के लिए इस भाषा के प्रचार प्रसार हेतु बने कानूनों का पालन होना चाहिए ताकि आने वाली पीढ़ी अपने गौरवशाली भाषा-इतिहास और परम्परा से जुड़ी रह सके। इस अवसर पर उन्होनें अपनी चिड़ियों पर लिखी विशेष कविता का गायन करके श्रोतागण को मंत्रमुग्ध भी किया।

इस समागम में सरकारी महेन्द्रा कालेज पटियाला के प्रो. जसबीर सिंह, प्रो. स्वर्ण सिंह, प्रो संदीप सिंह, प्रो. अमनदीप कौर हांडा, प्रो. सुखविंद्र सिंह, प्रो. रुपिंद्र कौर और प्रो. मनप्रीत कौर आदि भी उपस्थित थे। कार्यक्रम के अंत में डाॅ. आशट का सम्मान भी किया गया और विभिन्न साहित्यक और सृजनात्मक प्रतियोगिताओं में प्रथम,दूसरा और तीसरा स्थान प्राप्त करने वाले छात्रों को सम्मानित भी किया गया।

फोटो कैप्श्न:

1. डाॅ. दर्शन सिंह ’आशट’ का सम्मान करते हुए डाॅ बरजिंद्र सिंह टौहड़ा,  प्रो. जसबीर सिंह, प्रो. स्वर्ण सिंह, प्रो संदीप सिंह, प्रो. अमनदीप कौर हांडा, प्रो. सुखविंद्र सिंह, प्रो. रुपिंद्र कौर और प्रो. मनप्रीत कौर आदि।

2. छात्रों और अध्यापकोें को सम्बोधन करते हुए डाॅ. दर्शन सिंह ’आशट’


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प्रेस विज्ञप्ति सादर प्रकाशनार्थ

ढींगरा फैमिली फाउण्डेशन, अमेरिका द्वारा अंतर्राष्ट्रीय कथा सम्मान तथा शिवना प्रकाशन द्वारा अंतर्राष्ट्रीय कथा-कविता सम्मान घोषित

सीहोर (1 दिसंबर): ढींगरा फैमिली फाउण्डेशन अमेरिका ने अपने प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय कथा सम्मान तथा शिवना प्रकाशन ने अपने कथा-कविता सम्मान घोषित कर दिए हैं। ढींगरा फैमिली फाउण्डेशन सम्मानों की चयन समिति के संयोजक पंकज सुबीर ने बताया कि ‘ढींगरा फैमिली फाउण्डेशन लाइफ टाइम एचीवमेंट सम्मान‘ हिन्दी के वरिष्ठ साहित्यकार इंग्लैंड में रहने वाले श्री तेजेन्द्र शर्मा को प्रदान किए जाने का निर्णय लिया गया है, सम्मान के तहत इक्यावन हजार रुपये सम्मान राशि तथा सम्मान पत्र प्रदान किया जाएगा। वहीं ‘ढींगरा फैमिली फाउण्डेशन अंतर्राष्ट्रीय कथा सम्मान‘ उपन्यास विधा में वरिष्ठ साहित्यकार श्री रणेंद्र को राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित उनके उपन्यास ‘गूँगी रुलाई का कोरस‘ हेतु तथा कथेतर विधा में श्री उमेश पंत को सार्थक प्रकाशन से प्रकाशित उनके यात्रा संस्मरण ‘दूर, दुर्गम, दुरुस्त‘ हेतु प्रदान किए जाएँगे, दोनो सम्मानित रचनाकारों को इकतीस हजार रुपये की सम्मान राशि तथा सम्मान पत्र प्रदान किया जाएगा। शिवना प्रकाशन के सम्मानों की चयन समिति के संयोजक श्री नीरज गोस्वामी ने बताया कि ‘अंतर्राष्ट्रीय शिवना कथा सम्मान‘ हिन्दी की चर्चित लेखिका लक्ष्मी शर्मा को शिवना प्रकाशन से प्रकाशित उनके उपन्यास ‘स्वर्ग का अंतिम उतार‘ के लिए, ‘अंतर्राष्ट्रीय शिवना कविता सम्मान‘ महत्त्वपूर्ण शायर इरशाद ख़ान सिकंदर को राजपाल एण्ड संस से प्रकाशित उनके गजल संग्रह ‘आँसुओं का तर्जुमा‘ के लिए प्रदान किया जाएगा दोनो सम्मानित रचनाकारों को इकतीस हजार रुपये की सम्मान राशि तथा सम्मान पत्र प्रदान किया जाएगा। ‘शिवना अंतर्राष्ट्रीय कृति सम्मान‘ शिवना प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक ‘साँची दानं‘ के लिए श्री मोतीलाल आलमचन्द्र को प्रदान किया जाएगा, सम्मान के तहत ग्यारह हजार रुपये सम्मान राशि तथा सम्मान पत्र प्रदान किया जाएगा। ढींगरा फैमिली फाउण्डेशन अमेरिका तथा शिवना प्रकाशन द्वारा हर वर्ष साहित्य सम्मान प्रदान किए जाते हैं। ढींगरा फैमिली फाउण्डेशन अमेरिका का यह पाँचवा सम्मान है। हिन्दी की वरिष्ठ कथाकार, कवयित्री, संपादक डॉ. सुधा ओम ढींगरा तथा उनके पति डॉ. ओम ढींगरा द्वारा स्थापित इस फाउण्डेशन के यह सम्मान इससे पूर्व उषा प्रियंवदा, चित्रा मुद्गल, ममता कालिया, उषाकिरण खान, महेश कटारे, डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी, सुदर्शन प्रियदर्शिनी, डॉ. कमल किशोर गोयनका, मुकेश वर्मा, मनीषा कुलश्रेष्ठ, अनिल प्रभा कुमार तथा प्रो. हरिशंकर आदेश को प्रदान किया जा चुका है। जबकि शिवना सम्मान का यह दूसरा वर्ष है, इससे पूर्व गीताश्री, वसंत सकरगाए, प्रज्ञा, रश्मि भारद्वाज, गरिमा संजय दुबे तथा ज्योति जैन को प्रदान किया जा चुका है।

आकाश माथुर, मीडिया प्रभारी, 7000373096, शहरयार अमजद ख़ान, शिवना प्रकाशन: मोबाइल 9806162184, दूरभाष 07562405545

तेजेंद्र शर्मा, रणेंद्र, उमेश पंत, लक्ष्मी शर्मा, इरशाद ख़ान सिकंदर तथा मोतीलाल आलमचंद्र को सम्मान

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