साहित्य नंदिनी, फरवरी 2022






समीक्षा

श्रीलाल शुक्ल

सुश्री नासिरा शर्मा


बवंडर में फँसे पत्ते

भारतीय उपन्यास, विशेष रूप से हिंदी उपन्यास की भौगोलिक, सांस्कृतिक और इतिहासपरक सीमाबद्धता मुझे बराबर कचोटती रही है। हिंदी उपन्यास मूलतः हिंदी क्षेत्र के जीवन का उपन्यास है, अखिल भारतीय या वैश्विक परिप्रेक्ष्य से यह सामान्यतः उदासीन है। 

यह स्थिति असहज नहीं है, किसी भाषा के कथा-साहित्य का उसी भाषाई क्षेत्र के जीवन से जुड़ाव होना स्वाभाविक ही है। पर क्षेत्रगत विशद्ता और अनुभव का वैविध्य उसको अतिरिक्त संपन्नता देता है। हिंदी कथा-साहित्य इस दृष्टि से काफी परिसीमित है।

यह सुपरिचित सीमाबद्धता अनेक साहित्यों में है-अंग्रेजी में भी, बावजूद इसके कि अभी आधी शताब्दी पहले तक अंग्रेजी-साम्राज्य के उपनिवेश सारे विश्व में फैले थे। अनेक उपन्यास और कहानियाँ (इस प्रसंग में मॉम, रूडयार्ड किपलिंग, ज्वायस कैरी, ग्राहम ग्रीन आदि याद आते हैं), विदेशों के जीवन पर आधारित हैं, पर उनके केंद्र में प्रायः गोरे लोग ही हैं। पूर्णतया विदेशी वातावरण में विदेशी पात्रों के ही आधार पर यहाँ के सामाजिक या वैयक्तिक जीवन से उभरे हुए कथानक (जिसका नवीनतम उदाहरण विक्रम सेठ का ‘ऐन ईक्वल म्यूजिक‘ है) दुर्लभ हैं। इस दृष्टि से नासिरा शर्मा का लगभग पाँच साल पहले प्रकाशित उपन्यास ‘सात नदियाँ: एक समंदर‘ एक दुर्लभ कृति है।

पर यहीं स्पष्ट कर दिया जाए कि उपन्यासों में इस कोटि की दुर्लभता या विरलता उनकी एक विशिष्टता-भर इंगित करती है, अनिवार्यतः उनकी उत्कृष्टता नहीं । ‘सात नदियाँ: एक समंदर‘ इस दिशा में भी महत्त्वपूर्ण है, उसमें ऐसे अनेक तत्व हैं जो उसका उत्कृष्टता से संस्पर्श कराते हैं। 

सात नदियाँ: एक समंदर‘ सामूहिक क्रांति द्वारा ईरान के शाह रजा पहलवी को सत्ताच्युत करके उन्हें देश छोड़ने पर मजबूर करने और अयातुल्ला खुमैनी को सत्तारूढ़ बनाने की पृष्ठभूमि में लिखा गया है। इतिहास पुरुषों के अलावा इसमें बहुत-से पात्र भी, जिन्हें लेकर कथा का ताना-बाना तैयार किया गया है, संभवतः वास्तविक हैं। इसका आभास लेखिका की भूमिका के इन शब्दों से होता है, ‘‘इस उपन्यास के चरित्र आज जिंदा नहीं हैं जिनको मैं धन्यवाद दूँ कि वे मेरे साथ उपन्यास के पात्रों में ढले। वे सब बहिश्त-ए-जहरा (कब्रिस्तान का नाम) में, धरती के आगोश में, अँधेरी कब्रों में सो रहे हैं। मेरे अंदर उन्हीं की यादों का एक कब्रिस्तान आबाद है जिसकी सच्ची तसवीर यह उपन्यास है।‘‘ 

इस वक्तव्य से उपन्यास में व्यक्त एक पूरे समाज की त्रासदी को एक अतिरिक्त तीक्ष्णता मिलती है। वास्तव में यह उपन्यास, बवंडर में फँसे पत्तों की तरह, कुछ व्यक्तियों और परिवारों की गाथा है जो क्रांति के दूरस्थ ‘अशनि-संकेतों‘ के बीच कुछ अनजान, कुछ शंकित पर प्रायः खुशहाल जिंदगी बिता रहे हैं और यह जिंदगी, कुछ खुशकिस्मतों को छोड़कर, उनके लिए भयानक दुःस्वप्नों में समाप्त होती है। और वे दुःस्वप्न टूटते नहीं, स्वप्नग्रस्त को एक अंतहीन सघन अँधेरे में इस तरह छोड़ जाते हैं कि स्वप्न और जागृति की सीमारेखा असाध्य रूप से पुँछ जाती है। 

यह मूलतः सात सहेलियों की कथा है जो क्रांतिपूर्व के भले दिनों में, मध्यमवर्गीय सुविधाओं के बीच, उनकी ‘नर्म-वार्ता‘ या चुहलबाजी के साथ खुलती है जहाँ एक फालगीरन-भविष्यद्रष्टा उनके भविष्य का पाठ कर रही है। सभी सहेलियाँ, आकांक्षा, उल्लास, आशंका के नाटकीय वातावरण में अपना भविष्य जानना चाहती हैं-एक तय्यबा को छोड़कर जो स्वेच्छा और सिद्धांत से राजनीतिक बवंडर के बीच खड़ी हुई है। वह कहती है, “मेरा भाग्य पढ़ना इतना आसान नहीं है। उसकी भाषा तुम्हारे लिए अनजान है। मेरा भाग्य मेरा कर्म है, न कि कहवे की तलछट।” 

फालगीरन उसे अपनी ओर खींचना चाहती है, पर वह कहती है, “नहीं। ये रेखाएँ (मेरे हाथ की) मेरे भाग्य की नहीं हैं। यह ईरान का मानचित्र है जो मेरे हाथ में अंकित है। यह पहाड़, ये नदियाँ, यह मैदान और यह विश्वविद्यालय, यह कारावास और यह घर-सब मुझे सँवारना है। इसे तुम क्या पढ़ पाओगी ?‘‘ 

तय्यबा का अंत सचमुच ही ऐसा होता है जिसे जानने के लिए फालगीरन के भविष्य दर्शन की जरूरत न थी। वह जिस क्रांति-मार्ग पर थी, खुमैनी के शासन में उसे देखते हुए पहले ही से समझा जा सकता था कि तय्यबा का कैसा अंत होगा-‘‘बिजली के झटके, केबिल की मार, तिरस्कार और अपमान ने उसको दो मास में कहीं का नहीं रखा था। इस समय भी बदन कमजोर और दिमाग में एक सनसनाहट थी, जो बार-बार एक याद दिला रही थी कि जब हाथ में हथियार न हो और दुश्मन पर वार करना हो, जबान बंद रखो, चाहे बदन के परखच्चे ही क्यों न उड़ जाएँ।‘‘

और अंत में: “आग उगलती गोलियाँ तग तग तग करती हुई तय्यबा के बदन की ओर लपकीं। सारा बदन गोलियों से बिंध गया। घाव खून के आबशार बन गए।

तय्यबा हिंदी कथा-साहित्य का एक अत्यंत त्रासद, साथ ही अत्यंत प्राणवान् चरित्र है। ‘सात नदियाँ: एक समंदर‘ उन भयावह राजनीतिक उपन्यासों की कोटि का है जो आपको साल्जनेत्सीन, जॉर्ज आर्वेल, आर्थर कोएस्टलर जैसे लेखकों की याद दिलाते हैं। ये यथार्थ की शंकाग्रस्तता और त्रासदी को पर्त-दर-पर्त खोलते हैं। ऐसा करने के लिए न उन्हें अलंकारों की जरूरत है, न शिल्पगत युक्तियों की। जरूरत है सघन संवेदनशीलता और उस रचनात्मक शक्ति की जो यथार्थ और कल्पना के बीच ऐसे सेतु का निर्माण करे जो दुर्गम होते हुए भी पाठक को दूसरे सिरे पर पहुँचा दे-वहाँ जहाँ वह बहुत देर से रुकी हुई साँस धीरे-धीरे छोड़कर महसूस करे कि वह दुःस्वप्न-ग्रस्त नहीं है, एक भयावह यथार्थ के साक्षात्कार से उतरकर वह अभी-अभी बाहर आया है। 

उपन्यास के सभी प्रमुख चरित्रों के अपने-अपने सरोकार हैं, जूझने के लिए अपनी-अपनी जटिलताएँ हैं, फिर भी वे सभी मिलकर एक ऐसे परिदृश्य को उभारते हैं, जहाँ एक बड़ी क्रांति-राजशाही की निरंकुशता और सावाक जैसी कुख्यात खुफिया एजेंसी के आतंक को ध्वस्त करके-अतीत की भयावहता में अंतराल दिए बिना ही नई राजसत्ता को धर्मांध निरंकुश सत्ता में परिवर्तित कर देती है, पिछली राजसत्ता को ढहाने के लिए जिन महिलाओं की तनी हुई मुट्ठियों वाले जुलूसों का सहारा लिया गया था, उन्हीं को क्रूरतापूर्वक पर्दे के पीछे मध्यकालीन अंधकार में ढकेलती है। क्रांति की यह ऐसी कहानी है, जहाँ क्रांति का फल पकते ही सड़ जाता है, उसमें कीड़े पड़ जाते हैं, जहाँ हताशा का अवसान एक सघनतर हताशा में होता है।

बवंडर में फंसे हुए, उड़ते-उड़ते-गिरते इन तिनकों के बीच ऐसे प्राणवंत चरित्र भी हैं जो हिम्मत नहीं हारते, जो अपनी सारी जीवन-ऊर्जा को दाँव पर लगाकर असाधारण संघर्षों के बीच रास्ता बनाते हैं और उसकी बहुत महँगी कीमत भी चुकाते हैं। इन्हीं पात्रों या पात्रयुग्मों में मानवीय भावनाओं और कोमल संबंधों के संवेदनशील पक्ष भी उभरते हैं, जिनसे उपन्यास में उल्लेखनीय बहु-आयामिता आती है। 

‘सात नदियाँ: एक समंदर’ का ढाँचा पारंपरिक है । उन्नीसवीं सदी के महान् ऐतिहासिक उपन्यासों से लेकर अब तक के हिंदी के ऐतिहासिक/राजनीतिक उपन्यासों का एक ऐसा ताना बाना विकसित हो चुका है जिसमें इतिहास या राजनीति की पृष्ठभूमि के इतिवृत्त को अलग से व्याख्यायित करने का चलन है। वहाँ कथाक्रम इसी इतिवृत्त के सहारे समानांतर रूप से चलता है। यही सुपरिचित शैली नासिरा जी ने अपनाई है। (इधर के उपन्यासों में इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण कामतानाथ का ‘काल कथा‘ है।) यह कालसिद्ध शैली है पर सक्षम औपन्यासिक कर्म का तकाजा है कि इसे तोड़ा जाए ताकि ऐतिहासिक पृष्ठभूमि कथा में ही अनुस्यूत हो जाए और कथा ऐतिहासिक इतिवृत्त की अनुवर्तिनी न बनने पाए। ऐसा ही प्रयास हमें ‘तमस‘ में मिलता है। 

बहरहाल, नासिरा जी का बहुत कुछ बचाव कथा की तीक्ष्णता के कारण हो गया है। इतने अधिक पात्रों और पात्रयुग्मों की सुसंगठित कथा अपनी मर्मवेधिता से स्वयं इतिहास में इतना सशक्त हस्तक्षेप करती है कि औपन्यासिक तंत्र में इतिहास का इतिवृत्तात्मक हस्तक्षेप पृष्ठभूमि में चला जाता है।

परिप्रेक्ष्य: ‘बहिश्ते जहरा‘ (उपन्यास), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली

साभार: पत्रकार सदन, जनवरी-मार्च 2000


दो शब्द

ईरान की क्रान्ति की पृष्ठभूमि पर लिखा मेरा यह उपन्यास उन अनुभवों का लेखाजोखा है जो पिछले नौ वषों में मुझे ईरान की धरती पर हुए।

राजनीति, आज इन्सानी खून में प्रवाहित है। उसके प्रकोप से इन्सानियत बीमार है; दम तोड़ती नज़र आती है। संक्षेप में राजनीति सिर्फ ‘पॉवर गेम’ है। यही राजनीति है जो किसी की अच्छाई और बुराई को तय करती है, सच्चाई के मुँह पर नकाब डालती है और बुराई के झण्डे गाड़ती है। ज़िन्दगी, आज राजनीति के कारावास में कैद है। इस कैदी को मुक्त कौन कराएगा ? राजनीतिज्ञ या रचनाकार?

आज के लेखक का फर्ज़ क्या है, क्या वह क़लम को राजनीति के हाथों बेच दे या फिर उसे राजनीति के प्रहार से ज़ख़्मी इन्सानी जि़्ान्दगियों की पर्दाकुशाई.... में समर्पित कर दे?

इन्सानियत, आज ईरान के राजनीतिक पाटों में पिस रही है। राजनीतिक चक्की से उठती आवाज़ों को जो विरह गीत नहीं हैं, इन्सानी विलाप हैं, इस उपन्यास में उसकी प्रतिध्वनियाँ आपको गूंजती नज़र आयेंगी।

इस उपन्यास के सारे प्रमुख चरित्र ‘औरतें’ हैं। औरत की स्थिति को ले कर ही मैंने क़लम उठाया है। दिलचस्प बात यह है कि वह औरत जो पिछली व्यवस्था में प्रताड़ित थी आगे बढ़ी, व्यवस्था बदली तो वह पहले से अधिक बुरी दशा को झेलने को बाध्य हुई। आज फिर वह मुक्ति आन्दोलन में आँख बन्द करके कूद पड़ी है। अंजाम...? बदलाव आएगा ऐसा विश्वास है। इन्सानियत की बेड़ियाँ टूटेंगी, वह मुक्त होगी।

इस उपन्यास के चरित्र आज ज़िन्दा नहीं हैं, जिनको मैं धन्यवाद दूँ कि वह मेरे उपन्यास के चरित्रों में ढले वे सब बेहिश्ते-ज़हरा के दामन में, धरती के आगोश में अँधेरी क़ब्रों में सो रहे हैं। मेरे अन्दर उन्हीं की यादों का एक क़ब्रिस्तान आबाद है जिसकी सच्ची तस्वीर यह उपन्यास है।

’’’

...मज़बूरी से प्रभावित होकर ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जो तपकन बन उसे बरसों सालता, तड़पाता और प्रताड़ना देता रहे! इस समय भी नाम, पुराना नाम जो इस उपन्यास का असली नाम है उसे उपन्यास के माथे पर चस्पा करने की हिम्मत और हसरत मेरी है।

मेरा उपन्यास ‘सात नदियाँ एक समन्दर’ का नाम अब ‘बहिश्ते-जहरा’ है। ‘बहिश्ते-ज़हरा’ के नाम से ही यह उपन्यास उर्दू में भी आ रहा है।

एक लम्बी बेचैनी के बाद जो सुख मुझे मिला है वह कुछ ऐसा है जैसे मेरा पहला उपन्यास पहली बार छप रहा है। इसके लिए मैं उन सबसे क्षमा प्राथी हूँ जिन्हें किसी किस्म की असुविधा का सामना उपन्यास के बदलने के कारण भविष्य में होगी।




-नासिरा शर्मा, डी-37/754 छत्तरपुर हिल्स नई दिल्ली-110074

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समीक्षा

सामाजिक सरोकारों की मनोवैज्ञानिक कहानियाँ

स्टेपल्ड पर्चियाँ 

(भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन) 


आज के दिन की शुरुआत जीवनपर्यंत स्मृति बनकर रहेगी। चित्रा दी का न सिर्फ फोन आया उन्होंने कहानियों पर अपने विचार रखे, साथ ही अपना आशीर्वाद और असीम स्नेह लिख कर भी भेज दिया।  -प्रगति


प्रिय प्रगति, 

आशीष, 

‘स्टेपल्ड् पर्चियां‘, मधुर व्यक्तित्व की धनी प्रगति गुप्ता का भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित नया कथा संकलन है। प्रगति की कई कहानियां मैंने पहले भी पढ़ी हैं और यदा-कदा उसकी कविताएं भी। प्रगति की रचना शीलता से गुज़रते हुए मैंने सदैव यह महसूस किया है कि वह अपने परिवर्तित समय काल की जागरूक अभिव्यक्ति कार ही नहीं है बल्कि वर्तमान समाज में बदलती जीवन शैली से उपजे अनेक नए संक्रमणों के दबावों और उनसे उपजी सामाजिक विसंगतियों की निरुत्तर कर देने वाली घुटन और परिणीतिओं की मारक प्रहारात्मकता को बड़ी संजीदगी और कुशलता के साथ रेखांकित करने वाली गंभीर लेखिका है कि उस रचना से गुजरते हुए आप अचंभित हुए बिना नहीं रहते। आपको लगता है, आप अनायास उन पात्रों की जगह जा बैठे हैं। उन स्थितियों में उस पीड़ा से गुजर रहे हैं, उन्हें झेल रहे हैं। जाहिर है यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आख़िर नए उपजे इन संक्रमणओं के लिए जिम्मेदार कौन है?

प्रगति की रचना शीलता में मैं और और प्रगति देखना चाहती हूं। बड़ी संभावना उसके भीतर पैंठी हुई है। कामना है कि प्रगति उस उत्कर्ष को छुए और हिंदी साहित्य में अपने विशेष रचना शीलता को रेखांकित करते हुए विशेष प्रतिष्ठा अर्जित करें जिसकी वह अधिकारिणी है।

भविष्य में तुम्हारी जैसी बड़ी संभावनाओं को लेकर में कुछ लिख सकूंगी तो मुझे परम खुशी होगी।

चित्रा मुद्गल 

29/1/2022, दिल्ली

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सुश्री प्रौमिला अरोड़ा

सुश्री प्रगति गुप्ता

प्रगति गुप्ता के कहानी संग्रह ‘‘स्टेपल्ड पर्चियाँ‘‘ में ग्यारह कहानियाँ हैं जो सच मे पर्चियों की भांति हैं। जिन पर मानव मन की उधेड़बुन लिखी है और वे पर्चियाँ सामाजिक सरोकारों के स्टेपलर से स्टेपल्ड हो जाती हैं। पात्रों की परिस्थितियों के अनुरूप उनकी मनोदशा का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण इन कहानियों को रुचिकर और पठनीय बनाता है। ऐसे में पाठक इनके रचे हुए पात्रों में अपना अक्स देखने लगता है और कहानियों से जुड़ जाता है। निस्संदेह किसी भी रचना में कल्पना का पुट होता है परंतु प्रगति गुप्ता ने कल्पना को इस ढंग से बुना है कि ऐसा प्रतीत होता है कि हम इन घटनाओं को सामने देख रहे हों। 

मानव के अंतर्मन को आपने सहज, सुन्दर, संयमित और सजग ढंग से शब्दों में ढाला है। ये कहानियाँ झंझोड़ती है और बहुत से प्रश्न खड़े करती है, जिनके जवाब की दरकार है। जैसे ‘‘अनुत्तरित प्रश्न‘‘ कहानी में समलैंगिकता के कारण सेक्स बदलवाने की मनःस्थिति के कारण वैवाहिक जीवन का सपना नष्ट हो जाना और निर्दोष औरत को अपनी बच्ची के पिता संबंधी प्रश्नों का उत्तर न दे पाने पर उसे लेकर देश से दूर चले जाना, प्रश्न खड़ा करता है कि क्या इस समस्या का कोई समाधान है?

लेखिका नारी मन को बहुत अच्छी तरह से समझती हैं। परिवार और समाज में उसकी दशा का बाखूबी चित्रण करती हैं। जैसे ‘‘अदृश्य आत्माओं का विसर्जन‘‘ में वह समाज की स्तंभ औरत की जन्म से पूर्व और शादी के बाद तक अस्वीकृति को मृत आत्माओं के मुंह से उस पर हुए अत्याचार का वर्णन करती हैं तो मानवता शर्मसार होती है। 

‘‘गुम होते क्रेडिट कार्ड्स‘‘ में शिक्षित डॉक्टर महिला की अपनी रुचि की नौकरी छोड़ने को मजबूर करने की दास्तान है और अकेले रह जाने पर वह अपने अस्तित्व को समेट कर आगे बढ़ती है।

‘‘सोलह दिन का सफर‘‘ हमारे विश्वास से जुड़ी काल्पनिक कहानी है परंतु यह वास्तविकता के बहुत नजदीक है। मृत्यु के बाद किस तरह बिना मोह के यंत्रवत रस्मों-रिवाज निभाये जाते हैं। इसी तरह जीते जी माँ-बाप के प्रति संतान की बढ़ती संवेदनहीनता की कहानी है ‘‘बी प्रैक्टिकल‘‘। सचमुच जिन्दगी की भागदौड़ ने इंसान को संवेदनहीन बना दिया है।

लेखिका समाज की बदल रही परिस्थितियों और मूल्यों के प्रति सजग है। संभ्रांत परिवारों में औरतों का खुद को प्रोग्रेसिव दिखाने के लिए शराबनोशी का प्रचलन और लड़कियों का व्यक्तिगत जिन्दगी में माँ-बाप का हस्तक्षेप न सहन करने के कारण, परिवारों में तनाव और जान का जोखिम दर्शाती कहानियां हैं, ‘‘तमाचा ‘‘और ‘‘खिलवाड़”। 

‘‘गलत कौन‘‘ आज के युग में डॉक्टरों की कर्तव्यनिष्ठा पर उठ रहे सवालों पर लिखी गयी कहानी है। कहानी में एक ओर मरीज के रिश्तेदारों द्वारा डॉक्टर की मारपीट की जाती है। दूसरी ओर डॉक्टर को भगवान मानने वाले अन्य मरीज द्वारा अपने डॉक्टर को छोड़ने की फरियाद करते हुए मौत हो जाती है।

पुरुष हो या नारी वैवाहिक जीवन में अक्सर कहीं न कहीं नीरसता और कुंठा का अनुभव होता है और मानसिक विरेचन के लिए किसी व्यक्ति की तलाश रहती है, विशेष रूप से औरत को क्योंकि उसे ज्यादा स्वतंत्रता नही होती कि अपनी बात कह सके। इस कहानी संग्रह की शीर्षक कहानी कुछ ऐसे ही विषय को छूती है जिसमें अनकही बातों को पर्चियाँ बना कर स्टेपल किया है और मानसिक विरेचन के बाद उनकी जरूरत नहीं होती। 

“काश‘‘ कहानी बड़ी आयु में किए प्रेम की कहानी है जो पुरुष की मौत के बाद उसके द्वारा बेटी कहे जाने वाली लड़की के साथ बातों में, अंतरंग सम्बन्ध का पता चलने पर मोहभंग होने पर खत्म होती है। आज के मीडिया युग में ऐसे गुप्त वार्तालाप होना आम बात है।

यह कहानी संग्रह आधुनिक, मध्यम और उच्च मध्यम वर्गीय परिवारों से जुड़ी मानसिकता का विवेचन करने के कारण एक विशेष स्थान रखता है। इसकी भाषा भी वातावरण के अनुरूप है। इसमे अंग्रेजी के कुछ शब्दों का प्रयोग किया गया है जो इस वर्ग में बोले जाते हैं। प्रगति गुप्ता जी ने अपने प्रथम कहानी संग्रह को मंजे हुए ढंग से बुना, सजाया और संवारा है। एक उत्कृष्ट कहानी संग्रह लाने के लिए आप 

बधाई की पात्र हैं। आशा करती हूँ कि आपकी लेखनी निरन्तर साहित्य को समृद्ध करती रहेगी।



समी. कपूरथला, मो. 98149 58386, ईमेल: promilasparora@gmail.com

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पुस्तक समीक्षा



समी. डाॅ. सुशील कृष्ण गोरे

लेखक - डाॅ. रमाकांत शर्मा

प्रकाशक - इंडिया नेटबुक्स, सी-122 सेक्टर-19, नोएडा


प्रेम के उजास से आलोकित है-एक बूंद बरसात

एक बूंद बरसात डॉ. रमाकांत शर्मा का तीसरा उपन्यास है जिसमें निश्चित रूप से उनका कथाक्रम एक विकसित फलक हासिल करने में कामयाब हुआ है। उन्होंने किशोरमन के कोमल भावना संसार को उसकी सभी एकांत अनुभूतियों के साथ बहुत शिद्दत से चित्रित किया है। मूलतः यह तरुणाई की प्रेमकथा है। 

प्रखर उपन्यास का केंद्रीय पात्र है और उसके अंदर किशोरवय में प्रेम की पहली कोंपल के प्रस्फुटन को उन्होंने अपना मुख्य कथासूत्र बनाया है। एक प्रकार से यह कथा प्रेम को महसूस करने और उसे पाने की चिरंतन अभिलाषा का एक आख्यान है। उपन्यास पढ़ते हुए बार-बार यह अहसास उभरता रहता है कि प्रेम के उपजने पर जो उजास होता है, और वह किस प्रकार जीवन को आशाओं के आलोक से भर देता है, देखते-देखते वह कितना संजीदा और सघन हो जाता है। 

डॉ. शर्मा ने कथावस्तु को जिस मोहक तरीके से विकसित किया है उसे देखकर आपको कहीं भी ऐसा महसूस ही नहीं होगा कि आप इस तरह की अनेक कथाएं पहले पढ़ चुके हैं। कथ्य, भाषा, शिल्प में एक नया टटकापन हर स्तर पर दिखाई देता है। कई मायनों में यह उपन्यास उनकी परिपक्व रचनाशीलता से उपजी एक बेहद उल्लेखनीय कृति साबित होती है।

प्रेम के बारे में एक आमफहम धारणा है कि उसे किए या जिए बिना लिखा जाना शायद संभव नहीं है। यह मनुष्य की सबसे मौलिक भावना भी है। यह भी कहा जा सकता है कि यह सभी मानवीय अनुभूतियों की एकमात्र स्रोतस्विनी है। उपन्यास पढ़ते हुए बार-बार यह बात कौंधती रहती है कि प्रेम ही जीवन की सबसे आदिम कथा है। यह सभी सीमाओं और विभाजनों से परे आजीवन मनुष्य को परिव्याप्त किए रहता है। इस प्रकार वह अपने स्वभाव से ही आत्मकथात्मक है। 

उपन्यास की शुरूआत में कुछ  ऐसा ही हुआ है कि अचानक एक रोज टहलने के बाद थककर पार्क की बेंच पर बैठे-बैठे पैंसठ वर्षीय प्रखर को अचानक करीब बावन-तिरपन साल पहले की एक घटना याद आ जाती है। देखा जाए तो पार्क में बैठे प्रखर को जरूर किसी घटना की याद नहीं आई होगी बल्कि अचानक किसी चेहरे की याद आई होगी। वह चेहरा उसे खींचकर एक फ्लैशबैक में ले जाता है जहां कभी सातवीं कक्षा का किशोरवय प्रखर पहली नजर में उस चेहरे के सम्मोहन में बिंध गया था। फिर कथा बड़े सिलसिले के साथ आगे बढ़ती है। वाकई डॉ. शर्मा का लेखन कौशल तब दिखायी देती है जब वे इस पृष्ठभूमि में बड़े करीने से कथाक्रम को बड़ी तफसील के साथ उसके सब प्रसंगों से जोड़ते हुए विस्तार देते हैं। कब कहानी शुरू हो गई, कहां तक आगे बढ़ गई और किन-किन राह और मोड़ों से गुजरती हुई किस मुकाम तक पहुंच जाती है, पाठक को अंत तक पता ही नहीं चल पाता। यह उपलब्धि किसी उपन्यास के लिए उसका सबसे सशक्त पक्ष माना जाता है जब वह पाठक को अपने भीतर के संसार में निमग्न कर दे। 

स्मृतियां उसे पीछे ले जाती हैं। तब प्रखर की बड़ी बहन की शादी में बारात बुलंदशहर से मेरठ आई हुई थी। उसी बारात में पांचवी में पढ़ने वाली प्रभा भी आई थी जो दूल्हे के मामा-मामी की बेटी थी। प्रखर की प्रभा से पहली मुलाकात जनवासे में होती है। देखा जाए तो उस समय दोनों की कोई उम्र ही नहीं हुई थी, शायद उनको यह भी समझ नहीं होगी कि रस्मो-रिवाज या रिश्ते क्या होते हैं। उस वय में उनसे इसकी उम्मीद भी नहीं की जा सकती जब उनके कोमल मन और ह्रदय के निविड़ प्रांतर में निजपन की कुछ इच्छाएं उमग रही होंगी। कुछ चाहतें जन्म ले रही होंगी जो किसी के करीब आने, उसे देखने, उससे बातें करने, उसके भीतर अपने लिए प्यार की जगह बनाने की स्वप्निल कामनाओं को जगा रही होंगी। 

डॉ. शर्मा ने इस उपन्यास में तरुण प्रेम के अहसास को बहुत शिद्दत से उभारा है जो प्रखर और प्रभा के एक-दूसरे के करीब आते जाने और उनसे जुड़े सभी प्रसंगों में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। यह प्रखर के भीतर जन्मी उत्सुकताओं के माध्यम से बहुत सुंदर रूप में व्यक्त होता है। डॉ. शर्मा की लेखनी ने इस क्रम में बड़ी सावधानी से प्रखर के तेजी से बदलते मनोभावों को उसकी सब गोपन और मनोरम छवियों में समग्रता के साथ चित्रित किया है। प्रभा का मन अभी इस रिश्ते में अनुराग तक नहीं पहुंचा है। वह इसे सहज आत्मीयता से लेती है। उसे भी प्रखर से नजदीकी अच्छी लगती है लेकिन शायद अभी दोस्ती की हद तक। वह तुरंत उसमें डूबती नहीं है। यहां उपन्यासकार उसे एक स्त्री चेतना की प्रारंभिक मनःस्थितियों के साथ जोड़कर बहुत संतुलित दृष्टिकोण से अपने रचनाकर्म का प्रमाण प्रस्तुत करता है।       

उपन्यास में मुख्य धारा की कैशोर्य की प्रेमकथा के समानांतर दो अन्य प्रेम कथाएं भी चलती रही हैं। डॉ. शर्मा ने इन सब कहानियों की बुनावट और विस्तार को जिस खूबसूरती के साथ सूत्रबद्ध किया है वह वाकई काबिले-तारीफ है और निश्चित रूप से उनकी औपन्यासिक प्रतिभा को भी रेखांकित करती है। चाहे वह मौली के जीवन में घट रही प्रेम संवेदना का कथात्मक चित्रण हो या नीरा के एकनिष्ठ प्रेम का प्रतीक्षा में डूबा एकांत हो, डॉ. शर्मा ने अपने पात्रों को बेहद संजीदा प्रेम छवियों में प्रस्तुत किया है। वे सब के सब बहुत साधारण जीवन के साधारण प्रेम की समस्त निश्छलताओं एवं विह्वलताओं के आत्मीय प्रसंगों में विकसित होते हुए जीवंत चरित्रों का निर्माण करते हैं। 

एक विशेषता के लिए डॉ. शर्मा को श्रेय दिया जा सकता है कि उनके पास प्रेम करते ह्रदय की हर धड़कन को न केवल समझने की क्षमता मौजूद है बल्कि वे उसकी सब निःशब्द आंतरिक कामनाओं को पूरी कलात्मकता के साथ उकेरेने में भी सिद्धहस्त हैं। अपनी इस खूबी के साथ उन्होंने अपने पुरुष और स्त्री दोनों चरित्रों के भीतर चलने वाले सभी मनोभावों को उनकी तीव्रता के सभी स्तरों में पकड़ा है। उनके पात्र अत्यंत स्वाभाविक रूप से अपने प्रसंगों एवं स्थितियों में अपनी भूमिकाओं में बखूबी विन्यस्त दिखाई देते हैं। उनके संवाद एवं प्रतिक्रियाएं बिल्कुल उनके चरित्रगत स्वभाव के अनुकूल बैठती हैं। किसी कथा या उपन्यास में इस तरह की संगति उसे विश्वसनीय एवं प्रामाणिक बनाती है। लेकिन इसके लिए कथाकार को खुद पहले संवेदनात्मक धरातल पर बहुत सांद्र, गहन और मानवीय होने की अनिवार्य अपेक्षा पूरी करनी होती है। 

एक बूंद बरसात आज के परिदृश्य में बहुत पठनीय उपन्यास है क्योंकि आज के जीवनानुभवों से प्रेम लगातार कटता जा रहा है। अपने सहजात सौंदर्य के साथ उसकी उपस्थिति समकालीन परिदृश्य में लगातार विरल होती जा रही है। उसकी जगह तमाम प्रकार की भौतिकताओं के जंजाल में कहीं खोती जा रही है। उसके सभी एकांतों और अभिसारों पर अब इंटरनेट की आभासी छायाओं का कब्जा होता जा रहा है। इस समय प्रखर को ऐसी कोई बारात नहीं मिलेगी कि जिसमें वह अपनी प्रभा को पहली बार करीब से देख सके, उसकी ऊष्मा में अनुरक्त हो सके और फिर उससे ताउम्र भूल न पाए। अब वह मौली भी नहीं जो दूर के रिश्ते में होने के बावजूद प्रखर को उसके प्यार से मिलाने में कोई कसर न छोड़ती हो भले ही खुद उसकी चाहतों वाला प्यार उसे आखिर तक न मिल सका हो। उपन्यास में दर्ज यह स्थानीयता और उसका पूरा परिवेश एक जबरदस्त नास्टैलजिया पैदा करता है जो उम्रदराज पाठकों को मोह लेता है। 

इस उपन्यास में प्यार पर पूरा एक अध्याय नीरा का भी है जो मध्यांतर के बाद उस समय खुलता है जब प्रखर की दुनिया में उसके अपने प्यार का उत्तरार्द्ध शुरू हो जाता है। प्रभा के सामने उसका अपना एक नया संसार सिरजने लगता है। उसके रिश्ते की बात पक्की हो जाती है। उसके मन में नए जीवन के सपने आकार लेने लगते हैं। उधर प्रखर खुद को अजीब कश्मकश में फंसा महसूस करता है। भावनाओं के गहरे आवर्त्त से घिरा खड़ा वह मौन वेदना सहने के अलावा कुछ नहीं कर सकता था। उसके सपने एक झटके में बिखर कर टूट गए थे जिसकी आवाजें उसके आलावा कोई नहीं सुन सकता था। जो बुलंदशहर कभी उसके लिए जिंदगी की आखिरी मंजिल बन चुका था, वही उसकी आंखों में चुभने लगा था और वह उससे दूर भाग जाना चाहता था। वह वापस मेरठ अपने घर आता है, दिल की वीरानी, तनहाई का बोझ, टीसती यादों का सैलाब लिए। शायद, वक्त कुछ नया करने वाला था क्योंकि उसे हर दिल की दास्तां मालूम है। शायद नीरा के लंबे इंतजार में कहीं प्रखर की जिंदगी का नया मोड़ छिपा था। 

डॉ. शर्मा ने टूटे हुए सिसकते प्रेम को वियोग की भावशून्य और विषण्ण कर देने वाली गहरी वेदना के पार झिलमिलाती नई आशाओं के क्षितिज की ओर ले जाते हुए एक बड़ी सार्थक बात मौली के जरिए कहलवाई है दृ “जब हम खुद को दुःख-दर्द भरे अंधेरे कमरे में बंद करके बैठ जाते हैं तो जो खुशियां बाहर खड़ी इंतजार कर रही होती हैं, वे हम तक नहीं पहुंच पातीं? सच कहूं मैंने भी खुद को उस अंधेरे बंद कमरे में कैद कर लिया था। उससे बाहर निकली तभी उन बेपनाह खुशियों तक पहुंच पायी जो आज मेरी झोली में भरी हैं। समझ रहा है ना? पता नहीं अब कब मिलना हो भाई, पर हम जब भी मिलेंगे, मैं तेरे चेहरे पर दर्द की शिकन नहीं, नई जिंदगी की चमक देखना चाहूंगी।” 

इस पंक्ति को उपन्यास के मुख्य सूत्र की तरह देखा जा सकता है। यह प्रखर और प्रभा के अलावा नेपथ्य की सभी प्रेमकथाओं की भावभूमि है। यही सूत्र है जो समान रूप से सभी कथाओं को सुखांत का समीकरण बना देता है। पात्रों को बहुत घरेलू बना देता है। इस प्रकार उनकी कोई कमजोरी दिखाई नहीं देती। यह तत्व उन्हें बहुत आदर्शवादी भी बना देता है तथा यह भी नोट किया जा सकता है कि तनाव एवं दर्द की बहुत सारी जरूरी लकीरों से महरूम कर देता है जिनके अक्श के बिना अक्सर प्रेमकथाएं कमजोर हो जाती हैं। ऐसे में प्रेम हो या जीवन जिसे नदी की तरह उनमुक्त होना चाहिए वह सुव्यवस्थित एवं पूर्व-निर्धारित नियति-सा एक रेखीय बन जाता है। निराशा या व्यग्रता का दुर्गम पठार पार किए बिना प्रेम समझौतों के बरास्ते कभी अपने शिखर तक नहीं पहुंच सकता। विवशताओं एवं जीवन संघर्षों के अभाव में वह शिखर अपनी जगह केवल एक धूमिल आकार-सा, ठूंठ और यंत्रवत बना खड़ा रहता है। लेकिन रचनाकार की शक्ति उसे घुटन के धुंध से बाहर निकालकर एक निरभ्र और स्वच्छ आकाश देती है। अविजित उत्कट इच्छाओं का समुद्र और उसका विक्षोभ मानवीय जीवन का सबसे निकटतम रूपक है। एक प्रतिभाशाली लेखक पूरी ईमानदारी के साथ इसे अपने अनुभवों और भाषा-शिल्प से अपनी रचना में प्रतिस्थापित करने के लिए निरंतर जूझता रहता है। उसका यही रचनात्मक आत्मसंघर्ष उसकी कृति को प्रामाणिक यथार्थ की जमीन देता है।

वैसे तो उपन्यास का देशकाल पुराना है लेकिन फिर भी सभी प्रेम का अनिवार्य अंत परिणय पर ही हो, यह थोड़ा कथाओं को कृत्रिम बना देता है। कथा की संवेदना में प्रेम की संवेदना उसकी आत्मा की तरह बसी होनी चाहिए जो पाठक को आलोकित करती रहे लेकिन दिखे नहीं, केवल उसमें निःशेष और निरात्म बनी रहे। इन सीमाओं के बावजूद इस कथाकृति की सबसे बड़ी उपलब्धि है कि वह एक अकुंठ प्रेम की कथा कहता है जिसमें कहीं आसक्ति या सतही आकर्षण नहीं है। मांसल स्थूलताएं नहीं हैं, अनावश्यक मोहग्रस्तता नहीं है। वह ज्यादातर मौन और अभिराम है। उसमें भीनी स्निग्धता के साथ प्रणय और प्रतीक्षा है। यह विशेषता उपन्यास को नए प्रयोगों के खाने में भले न डाले लेकिन उसे सामान्य मानवीय आकांक्षाओं को उभारने वाले एक प्रभावशाली उपन्यास के बतौर अवश्य स्थापित करती है। 

डॉ. शर्मा ने बहुत शिद्दत से कई कथासूत्रों को एक दूसरे के साथ पिरोया है और काफी हद तक उनको एक औपन्यासिक रचना में ढालने में सफलता हासिल की है। हम आशा कर सकते हैं कि वे अभी बहुत कुछ लिखेंगे और कथा-विन्यास तथा कथा-भाषा के नए प्रतिमान रचेंगे।     


मो. 8005488449 ईमेलःsushil.krishna24@gmail.com

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पुस्तक समीक्षा

समी. डाॅ. सुषमा मुनीन्द्र


लेखक -श्री ओम प्रकाश मिश्र

समीक्ष्य पुस्तक - वज्रपात (कहानी)

समीक्षा आलेख - ग्राम और कस्बे के फलक 


ग्राम और कस्बे के फलक

युवा कथाकार ओम प्रकाश मिश्र के इस पहले कहानी संग्रह ‘वज्रपात’ में दस कहानियाँ हैं। वज्रपात, सी पोल, छुट्टी आदि ऐसी परिपक्व और व्यवस्थित कहानियाँ हैं कि लगता नहीं यह ओम प्रकाश का पहला कथा संग्रह है। ओम प्रकाश को ग्रामीण -कस्बायी पृष्ठभूमि की गहरी समझ है। अतः अधिकांश कहानियों में ग्राम और कस्बे की स्थिति-परिस्थिति-मनः स्थिति रची-बुनी गई है। लेकिन ये कहानियां ग्राम और कस्बे का रोजनामचा भर नहीं है, यहाँं इक्कीसवीं सदी के बदलाव प्रखरता से दर्ज हैं। इसीलिये कहानियाँ आकार में छोटी होते हुये भी बड़ा फलक बनाती हैं। प्रगतिशील दिमाग़ और संवेदनशील दिल से लिखी गई कहानियाँ कहन की सादगी के बावजूद स्मृति में रह जाती हैं। वज्रपात, सी पोल, किरपाले काकू की जेल यात्रा, माधव, कूरी, बंद किवाड़ कहानियाँं ग्रामीण पृष्ठभूमि पर हैं लेकिन कथ्य पृथक हैं। पात्र अभाव और त्रास से गुजरते हैं तथापि अपनी भीतरी शक्ति के ज़्ाोर पर स्थिति का भरसक विरोध करते हैं। इनके विरोध से जुड़कर लोग साबित करते हैं संगठन में बल होता है।

छत्तीसगढ़ का नक्सलवाद कहानी ‘वज्रपात’ का कथ्य है। इस क्षेत्र में नक्सलियों को मामा कहा जाता है। स्वयं को आदिवासी चेतना के पहरुये कहने वाले मामा आदिवासियों के साथ बलात्कार, हिंसा जैसी क्रूरता करते हैं। कहानी की नायिका ‘डोकरी’ के परिवार पर बरपी क्रूरता को पढ़कर पाठकों के मानस में चीत्कार भर जाती है। लेकिन क्षीणकाय डोकरी साहस नहीं खोती। खाना खाने के लिये घर में बलात घुस आये नक्सलियों के भोजन में विष मिला कर, धारदार हथियार से उनकी अचंेत देह को छिन्न-भिन्न कर प्रतिशोध लेती है। 

कहानी ‘सी पोल’ का पंचायती चुनाव प्रजातंत्र की पोल खोलता है। गाँव की राजनीति, शहर की राजनीति से दुरूह और पेंचीदा होती जा रही है। चुनाव में हिंसा, हत्या, आगजनी, बैलेट पेपर फाड़ना, पेटी लेकर भागना, पीठासीन अधिकारी से बैलेट पेपर छीन कर अपने प्रत्याशी के चुनाव चिन्ह पर ठप्पा लगाना जैसे कृत्य कहानी ‘सी पोल’ के पंचायती चुनाव में होने के कारण दो बार चुनाव रद्द होता है। सी पोल (तीसरी बार मतदान) शांति से संपन्न हो सके इस हेतु जिलाधीश, पुलिस अधीक्षक वहाँ मौजूद रहते हैं। अधिकारियों की मौजूदगी में मतदाता ‘‘वोट त ओट मा पड़ी (पृष्ठ संख्या 43)।’’ जैसे साहस का परिचय दे सही प्रत्याशी को विजयी बनाते हैं। चॅंूकि यह चुनाव महिला आरक्षित सीट का चुनाव है, ओम प्रकाश ने महिला प्रत्याशियों की निर्बल स्थिति को भी पूरी वास्तविकता से प्रस्तुत किया है ‘‘सरपंच पद के लिये जिस दिन से उसके (रुचिता का) नाम का पर्चा भरा गया, उसे रसोई से फुरसत नहीं मिली। (31)।’’ सच है। प्रत्याशी महिला होती है लेकिन प्रचार, राजनीति, पद संचालन उसके पति और रिश्तेदार करते हैं। किसानों की स्थिति भी इन महिला प्रत्याशियों की तरह चिंतनीय है। उन्नत खेती, कर्ज माफी को कितना ही प्रचारित किया जाये सत्य यह है, अनाज उगाने वाले कृषक विपन्न, उनसे अनाज खरीद कर बेचने वाले व्यापारी धन्ना सेठ बन रहे हैं। कहानी ‘किरपाले काकू की जेल यात्रा’ का किसान काकू कर्ज नहीं चुका पाता। दल-बल के साथ आये सोसायटी के अधिकारी कर्ज के बदले उसका अनाज ले जाने पर उतारू हैं। अनुग्रह पर वसूली कर्मचारी मोहलत नहीं देते। काकू लाठी से उन्हें पीटने लगता है। प्रेरित होकर गॉव वाले कर्मचारियों को पीट कर भगाते हैं। काकू को जेल होती है लेकिन वह अपने स्तर पर विरोध दर्ज कराता है। भूमण्डलीकरण, उदारीकरण, बाजारवाद, 

आधुनिकता का जो शोर है उसकी आहट कहानी ‘माधव’ के मात्र पन्द्रह सौ की आबादी वाले छोटे गाँव में नहीं पहुँची है। ‘‘मैंने भी कुछ कहानियाँ लिखी हैं। पढ़ना चाहोगे ? मेरी कहानी ‘रोटी’ भूखे पेट पढ़ना। मेरी कहानी ‘कपड़ा’ नंगे बदन पढ़ना। मेरी कहानी ‘मकान’ फुटपाथ के किनारे लेट कर पढ़ना। (62)।’’ ये पंक्तियाँ कई गाँवों की तस्वीर हैं। गाँवों में यह विपन्नता ही नहीं छुआछूत और अंधविश्वास भी मौजूद है। वहाँ आज भी ‘चैरा’ लगता है। कहानी ‘कूरी’ का निम्न जाति का समना बरुआ (पंडा) बनने के लिये कठिन तसीहा (परीक्षा) से गुज़रता है। चैरा लगता है। कुल देवता उसकी देह में आते हैं। अशिक्षित ग्रामीण उस पर आस्था रखते हैं कि वह संकट दूर कर सकता है। शिक्षा से इस किस्म के भ्रम दूर हो सकते हैं पर ‘स्कूल चलें हम ......... ’ जैसा स्लोगन शायद ग्रामीण बच्चों के लिये नहीं है। कहानी ‘बंद किवाड़’ का मातृहीन ग्यारह साल का रमुआ पढ़ना चाहता है। उसका पिता उसे किसान परिवार में टहल करने के लिये लगा देता है। विद्रोहस्वरूप घर से भागा रमुआ दुर्योग से राम सुहावन ढाबे वाले के दमन चक्र में जा पड़ता है। इस कहानी में भी विरोध प्रमुख है। रमुआ के साथ दुष्कर्म की चेष्टा कर रहे राम सुहावन का रमुआ भरसक विरोध कर भागने लगता है। राम सुहावन उसके उदर में तेज धार वाला चाकू मार देता है। राहगीर की मदद से रमुआ अस्पताल पहॅंुचता है। 

सफल हो, न हो पर रमुआ, डोकरी, काकू जैसे पात्र अपने स्तर पर जो विरोध करते हैं वह इन कहानियों की खूबी है।

‘प्रेम नेम’ और ‘प्रिय आकाश अलविदा’ प्रेम कहानियाँ हैं। प्रेम नेम में प्लेटोनिक लव है। प्रेमी का विवाह हो जाता है। प्रेमिका विवाह नहीं करती लेकिन प्रेमी के परिवार के प्रति ईष्र्या, द्वेष न रखकर सद्भाव रखती है। साल में एक बार नियमित रूप से प्रेमी के घर आया करती है जहाँ उसका आदर होता है। यह आदर्श स्थिति है जबकि ‘प्रिय आकाश अलविदा’ में अस्वाभाविक स्थिति है। रेल यात्रा में प्रथम वर्ष का छात्र व बारहवीं की छात्रा आमने-सामने की बर्थ पर हैं। पहले ही परिचय में ट्रेन के गेट के पास जिस तरह प्रेमालाप करते हैं वह ग्राह्य नहीं होता। लेखक को ऐसी अतिरंजना से बचना चाहिये। यह अतिरंजना ‘अप्रैल की रात’ जैसी आभासी संसार की कहानी में ग्राह्य हो जाती है क्योंकि फंतासी में कल्पना को इन पंक्तियों की तरह मुक्त उड़ान दी जा सकती है ‘‘प्रभात ने जिस समय समाधि स्तूप के निकट पैर रखा उसी समय उसके दोनों ओर फिर प्रकाश पुंज जगमगा उठे। उसके आगे-पीछे ऐसी कलाकृतियाँ भागती हुई दिखाई पड़ रही थीं जिनके हाथ में जलती मशालें थीं। ये आकृतियाँ विशेष प्रकार की डरावनी ध्वनि करती हुई भाग रही थीं। (67)।’’ पूरी कहानी में फंतासी के भरपूर प्रयोग को देखकर कहा जा सकता है ओम प्रकाश सुंदर सस्पेन्स कहानियाँ लिख सकते हैं। ‘फौजी’ इस संग्रह की सुंदर कहानी है। छुट्टी न मिलने का रंज हवलदार रामानुज को इतना क्षुब्ध करता है कि फौज की नौकरी छोड़ देने का तात्कालिक ख्याल आता है लेकिन ड्यूटी करते हुये सीमा पार जब उसे घुसपैठिये का आभास होता है उसकी चेतना में सिर्फ और सिर्फ कर्तव्य है। वह घुसपैठिये को पकड़वा कर अपनी ड्यूटी को अर्थ देता है। 

समग्रता में कहूँ तो ओम प्रकाश मिश्र को अपने अंचल के प्रसंग, परिदृश्य, बोली का अच्छा ज्ञान है जो कहानियों को स्वाभाविक बनाता है। पात्रों के भीतर की सरलता और व्यवहार की सादगी स्वाभाविकता को बढ़ाती है।

-रीवा रोड, सतना (म. प्र.), मो. 08269895950

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पुस्तक-समीक्षा

प्रोफेसर जयप्रकाश

प्रोफेसर फूलचंद मानव


कविता में समकाल का चतुर्दिक: ‘आईने इधर भी हैं’

फूलचन्द ‘मानव‘ हिंदी के प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हैं और यह उनका चैथा कविता-संग्रह है। चैथे कविता-संग्रह तक पहुँचते-पहुँचते कवि की कविता- यात्रा प्रौढ़ से प्रौढ़तर होती जाती है, यह सृजन का सत्य है। मेरे जैसे लोग, जो उनकी कविता से पहली बार ही पाठकीय संबंध स्थापित कर पाने का सुयोग प्राप्त कर रहे हैं, भी निराश नहीं होंगे। ‘मानव‘ की सर्जनात्मक ऊर्जा उनको भी प्रभावित करती है।

इसके पहले इस कवि के तीन काव्य-संग्रह पाठकों के हाथों में आ चुके हैं- ‘एक ही जगह‘, ‘एक गीत मौसम‘ तथा ‘कमजोर कठोर सपने‘। पेशे से आध्यापक और स्वभाव से जुझारू मनुष्यता के वरण में कृत-संकल्प रहे हैं और इसी चेष्टा में उनकी कविता अपनी सिद्धि-खोजती और तलाश पूरी करती रही है। ‘आईने इधर भी है‘ कविता-संग्रह कल्पित और क्षीण-आभासी नौ खंडों में, ‘अनुक्रम नाम से, लगभग एक सौ पाँच साफ-सुथरी कविताओं को समेटे है। ये क्षीणाभासी कल्पित उपखंड/खंड किसी न किसी कविता या उसकी किसी पंक्ति या उसके अतिशय सार्थक वाक्यांश को आधार बनाते हैं। इनमें प्रतिपाद्य की एकनिष्ठता नहीं है और न ही शिल्प का कोई आधार है। इनमें अधिक चमकदार होने की शिनाख्त ही इनका आधार है। यही इनकी विभाजक रेखा है। यदि यह विभाजन न भी होता, इनमें चित्रकलात्मक ‘शेडिंग‘ और मुद्रण की सौंदर्य-सृष्टि न भी होती, तो भी ये कविताएँ बोलतीं और इनका अनुभव वाला मर्म पाठकों तक पहुँचता। शैली विषयक अध्ययन-शास्त्र में जिसे ‘अग्र प्रस्तुति‘ के पारिभाषिक स्तर पर जाना जाता है, उसे ‘लेखन‘ के स्तर से उठाकर ‘मुद्रण‘ के बोल्ड-आक्षरिकता तक यह कविता संग्रह ले आया है।

इस काव्य-संग्रह की कविताओं के कुछ प्रवेश द्वार हैं, जो वही भूमिका निभाते हैं, जो भूमिका संस्कृत-नाटकों में प्रवेशक, सूत्रधार तथा विष्कंभक जैसी युक्तियाँ निभाया करती थीं। ये भी पाठकीय चेतना को कविता की केंद्रीय संवेदना से जोड़ते हैं। इनका पहला प्रवेश-द्वार वह वाक्यांश है, जो समर्पण की वाक्य-संरचना का अंश है। यह अंश है- “रचना-धार्मिता के सहयात्री और घोर-विरोधी चेहरों के नाम।‘‘ इस वाक्यांश से ही उनकी चेतना-धारा के दो परस्पर छोर प्रकट हो जाते हैं। एक छोर ‘राग‘ का है, संतोष का है, ‘प्रीति‘ का है। दूसरा छोर ‘विराग‘ या द्वेष का है, असंतोष का है, ‘विमनता‘ का है। यही तो समाज-जीवी मनुष्यता है, जिसके अनुभव कविता में शब्द बनकर स्फुटित हुए हैं। इन कविताओं की पाठकीय समझ के लिए दूसरा प्रवेश द्वार इस पुस्तक के फ्लैप पर छपी हुई कविता ‘चुपचाप‘ है। यह कविता इस संग्रह की अड़तीसवीं कविता है, जो इस संग्रह के चैथे खंड, जो ‘अपना ख्याल रखना‘ की पहली कविता है। जाहिर है कि यह कविता सबसे अधिक अग्र प्रस्तुत हुई है। अपनी बनावट और बुनावट दोनों में यह कविता नितांत निजता से भरी हुई है।

तीसरा प्रवेश द्वार है रचना-धार्मिता की सहयात्रा। इस कविता का चरित्र आत्माख्यानक अधिक है। कविता पीछे रह जाती है, आत्म तत्व अधिक आगे आ जाता है। पाठक जब इन प्रवेश द्वारों से होकर कविता के प्रांगण में पहुँचता है, तो वह पाता है कि अच्छा हुआ कि उसने फ्लैप पर छपी हुई कविता तथा अन्य कविता इतर अभिप्राय से पढ़ लिए थे। इससे कविता की संवेदना के क्षितिज के दो धु्रवों की पहचान आसानी से हो जाती है। एक धु्रव निजता का है और दूसरा धु्रव परता का है, समाज का है, मनुष्यता के अधूरेपन के अनुभव से उपजी पीड़ा और कड़वाहट का है। इन कविताओं की पूरी सृष्टि इन्हीं दो गोलार्धा में सिमटी हुई है। निजता का दायरा सौंदर्य-पिपासा, अस्मिता के लिए तड़प और उसको अर्थवत्ता देने की माँग से पूरा होता है।

फ्लैप पर छपी विज्ञप्ति और इस संग्रह की भूमिका के संयुक्तार्थ से पाठक को यह पता चल जाता है कि इन कविताओं के बाहर का जो गद्य है, वह नेयार्थ में ‘बतियाना‘ है, वह ‘आत्म‘ को या तो परावर्तित कर निजता की भीतरी पर्तों को बींध देता है या फिर कविता के आलंबन को प्रकाश-वृत्त में बदल देता है। ये कविताएँ इस प्रकाश वृत्त की परिधि बनती हैं। इसके चतुर्दिक उगा हुआ गद्य अध्यापकीय मुद्रा को समीक्षकीय प्रौढ़ता का बाना पहना देता है। यह गद्य अर्ध-विहित और अर्ध-अविहित का छायामास देता है और कही-अनकही के बीच गूढ़ार्थ की प्रतिष्ठा करता है। यह संवाद और उलटबाँसी के बीच की भाषिक विच्छित्ति है, जो विरोधभासों की बुनावट (पैराडॉक्सिकाल स्ट्रक्चर) के अंतराल में पाठक को लुक-छिपकर चलने का अभ्यास कराने लगता है। सामाजिक सरोकार हो, संबंधों की प्रतीकात्मक लुकाछिपी हो, आचरित आत्म का छायाभास हो, टुकड़ों में बँटी हुई जिंदगी की दौड़ की राम कहानी हो, उपलब्धियों की फेहरिस्त में अस्मिता की अनुगूंज हो, प्यार की त्वक्-स्पर्शी आंतरिक गरमाहट हो, मुग्धा से आधुनिकता तक के बीच मुक्ति की आधी-अधूरी खोज हो- इन सबका स्थूलता से सूक्ष्मता में ढला हुआ जीवन का यथार्थ ही ‘रचनाधार्मिता की सहयात्रा‘ की कविताओं का मर्म है, जिसे आत्मसात कर पाठक जब इन कविताओं को पढ़ चुका होता है, तो अपनी मुट्ठियाँ बार-बार खोलता और बंद करता है। इस नए प्रकार की संख्या-भाषा के तिलिस्म को तोड़ पाने की सामर्थ्य उसी भाग्यशाली पाठक को नसीब में मिली जान पड़ती है, जो फूलचंद ‘मानव‘ को नजदीक से जानता हो तथा उनके जीवनानुभवों की गहराई और चैड़ाई की पैमाइश कर चुका हो।

कविता के जीवन अनुभवों से ये कविताएँ सराबोर हैं। इनमें कवि के मन के राग-द्वेष, हर्ष-विषाद, प्रीति-संघर्ष, निजता-सार्वजनिकता के द्वंद्वों की बुनावट अनेक रूपों में छलक रही है। इन सभी कविताओं का नाभिकेंद्र वह असंतोष है, जिसकी धनुषाकार निर्मित्ति के दोनों सिर एक-एक कर कभी निजता में गड़े दिखाई देते हैं, तो कभी सामाजिकता में। ये अनुभव उदित तो वंचना की भूमि से होते हैं, किंतु अभिव्यक्ति की धार पाते-पाते कटाक्ष और कड़वाहट में प्रतिरोध की भाषिक दीप्ति में उतर आते हैं। इनकी अभिव्यक्ति की गठन इनको कविता बना देती है। इस कवि के व्यक्तित्व में अध्यापकीय मुद्रा और रचनाकार की मुद्रा का पारस्परिक निवेश है। अध्यापकीय मुद्रा ज्ञान-पिपासा और ज्ञान-वितरण की सक्रियता से भरी होती है और रचनाकार की मुद्रा को पीछे छोड़ देती है। कविता की मुद्रा काल को लाँघने में और कालजयी होने में पर्यवसित होती है। इन दोनों मुद्राओं की सम्मिलित भाव-भूमि ने इस रचना के प्रारंभिक गद्य ‘रचनाधर्मिता की सहयात्रा‘ के रूप में प्रस्ताव की नींव डाली है, जिसके प्रारंभ में ही कालजयी रचना की कल्पना प्रस्तुत हो गई है। भले ही प्रसंग आत्मपरक रहा हो। आत्मनेपदीयता की यह मुद्रा काफी दूर तक फैलती गई है। कवि की अध्यापकीय मुद्रा सचेत है कि “कविता जब तक ‘सावधानी‘ से परिपूरित नहीं होती, तब तक (वह) कालजयी नहीं होती।

लोकप्रिय या ट्रेड सेंटर काव्य की उपेक्षा भला कोई कब तक करेगा?‘‘ इस आत्मतोष में संभवतः सैद्धांतिकी का छायाभास है, गर्वोक्ति का डंका नहीं पीटा जा रहा है, क्योंकि कवि मान रहा है- “कविता समाज और मनुष्य का प्रतिनिधित्व तभी करती है, जब उसमें सरोकार और व्यवहार के अंश या दंश भी हों।‘ फ्लैप पर छपे हुए साहित्य और विशेष रूप से कविता की सैद्धांतिक भूमिका की तुलना में आत्मनिष्ठता और और आत्म-विज्ञापन से बचकर निकल जाती है। “लुत्फ कुछ दामन बचाकर ही निकल जाने में है।‘

इस बात को कवि अच्छी तरह से जानता है। कवि ‘सामाजिक सरोकारों‘, ‘आयरनी की तमीज‘, ‘समानता के साथी‘ की संतोषपलब्धि जैसे कई हिंदी-समीक्षा के बीज शब्द या रूढ़शब्द लेखकीय रुझान को एक बड़ी चिंतनशील दीर्घा में प्रतिष्ठित कर देते हैं, जो यह सामान्य प्रतिज्ञा करता जान पड़ता है कि कविता न तो शब्द से बनती है, न ही शब्द-अर्थ से बनती है, वरन् अनुभव से बनती है। दिनकर जी ने कहा था- 

“अर्थ शब्द से बचो/कि अर्थ बेड़ी है परंपरा की/अर्थ को दबाने से ही अर्थ बड़ा होता है/निश्चित-अनिश्चित का/ संगम जहाँ है सूक्ष्म/कविता का सद्म निरालंब खड़ा होता है।।

फूलचंद ‘मानव‘ ने यही किया है, अर्थ को दबाया है और शब्द को आयुध बनाया है। यही है उनके सामाजिक ‘सरोकार के अंश का दंश‘, जो उनकी कविता की सही पहचान के लिए खिड़की बनता है। कवि ने उनको साभिप्राय शब्द ‘आईने‘ दिया है।

‘आईने इधर भी है‘ की कविताएँ, जो नौ कल्पित खंडों और संख्या में 105 हैं, विविध रंगों की हैं। ‘आईना‘, जो अभिधेयार्थ में दर्पण होता है किंतु लक्ष्यार्थ में ‘वास्तविकता‘- बोध होता है, कवि के उन अनुभवों की वाग्निधि है, जिनसे होकर वह गुजरा है। इनमें प्रवासी जीवन में पीछे छूटा हुआ समय और उसका स्मृति-दंश का रंग बहुत गहरा है। महानगरीय संत्रास और उससे उपजी ऊब तथा उससे जन्मा अवसाद का रंग यातनामय है। यह रंग जितना-जितना गहरा होता जाता है, अतीत के परिवेश का स्मृति-दंश उतना ही पैर में गड़कर अंदर टूट गई कील को टीस बनाता जाता है। माँ की स्मृति के साथ पीछे छूट गए बचपन में मन के परावर्तन की कविताएँ बहुत-ही भाव-प्रवण हैं। ‘रसभरी हथेली‘ से आरक्त हुए यौवनागम और दृष्टि-अभिसार की स्मृति भी बहुत ही गदबदाई हुई है। प्रवास का भयप्रद अकेलापन और उसकी संकट आपन्नता ज्वलनशील समय है, जिसका भार कवि-स्मृति ढो रही है। शहर-शहर दर-बदर होता हुआ पेशेवर जीवन से लिपटी शहरी स्वार्थपरता की सड़ांध इन अनुभवों को व्यतिरेकी रंग देती है, जो रोमन के सौंदर्यबोध तथा देहगंध से शुरू हुई थी। शहरबोध का प्रतिलोभी ग्रामबोध है, प्रकृति का प्रांगण है, नदियों-खेत-खलिहानों का मनोल्लासी का ग्रामांचलीय स्मरण पाथेय है। इन सबके साथ विदेश-यात्रा (आस्ट्रेलिया) का रोमांच है, जो प्रायः भारतीयों के अनुभव को विस्तार देता है। इन सब विविधरंगी अनुभवों से घिरा हुआ कवि-मन है, जिसे ‘मनुष्य‘ की तलाश है, जिसे महाभारतकार ने सबसे महत्वपूर्ण माना था- “न हि मानुषात श्रेष्ठतरं हि किंचित‘‘ और जिसके लिए संपूर्ण आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता की चिंतन-धाराएँ बेचैन हैं और आपस में टकरा रही हैं। मानवीय संवेदनाओं की ये कविताएँ आदमी-आदमी के बीच उगने और सूखने वाले सरोकारों को सर्जनात्मक बनावट और बनावट से सजाती हैं।

इन कविताओं में सबसे अधिक मंजी हुई और संश्लिष्ट कविता ‘चुपचाप‘ है, जो प्रतिरोध करने और न कर पाने के अंतराल की कसमसाहट की कविता है। ‘चुपचाप‘ यहाँ उस मौन का वाचक नहीं है, जिसकी वकालत जार्ज स्टायनर ने ‘द लैंग्वेज ऑफ सायलेंस‘ में की थी और कविवर ‘दिनकर‘ जिस मौन के दर्शन की अभिव्यक्ति अपनी प्रसिद्ध कविता ‘कोयला और कवित्व‘ में इस प्रकार कर रहे थे

“शब्द मौन में/रव नीरव में/स्वर विलीन निःस्वर में /मानो कर्म अकर्म सिंधु में/आकर डूब गया हो।‘‘

यहाँ प्रतिरोध न कर पाने की स्थितियों को बदल न पाने की उस विवशता को शब्दों में पिरो दिया गया है, जिसे दुष्यंत कुमार ‘मेरी कोशिश है कि यह सूरत बदलनी चाहिए‘ की सायासता के बाद ‘देख, देहलीज से यह काई नहीं जाने वाली‘ कहकर हतोत्साह हो जाते हैं। मानव का कवि मन भी बदलाव चाहता है, अन्याय से टकराना चाहता है। व्यवस्था की भयावहता इस कविता में बिना कहे व्यक्त हो गई है, यही इस कविता की खूबसूरती है। इसीलिए यह कविता इस संग्रह की सबसे अच्छी कविता है, इसीलिए यह फ्लैप पर है यह केवल पुस्तक का फ्लैप नहीं है, कवि के मन का दर्पण भी है।

इस काव्य-संग्रह की कविताओं का कोश जिस मुख-संधि से खुलता है, वह इस शीर्ष लेख‘यहाँ कायदा ही कायदे को तोड़ता है‘ - से पहचान पाता है। इस कविता-बंध में ग्यारह कविताएँ हैं, जो मध्यवर्गीय जीवन की एक ढर्रे पर चलती हुई यांत्रिकता पर कवि-मन का असंतोष शब्द-विद्ध हुआ है। कविताएँ उस दूरी की भी शिनाख्त करती हैं, जो परंपरा की बोझिलता और नए-पन की स्फूर्ति के बीच के बढ़ते हुए अंतराल को कसमसाती हैं। भले ही कहने वाले कहें और यह सच भी हो कि परंपरा बंधन नहीं होती, लेकिन कवि-मन का खोजा हुआ सच उन वेतनभोगियों के मध्यवर्गीय सच से ही जुड़ता है, जो इस उक्ति में रेखांकित होता है- “स्टीरियो टायपता के नीचे दबा-दबा सा महसूस करता है और ताजा साँस लेने के लिए इसे थोड़ा-बहुत खिसका कर इससे बाहर निकलना चाहता है, वह सोचता है कि ये कायदे-कानून किस जरूरत का नाम है।‘‘ इन कविताओं में तरह-तरह से यह जकड़न शब्दायित हो रही है। इस संवेदनांश को ‘विफलता‘, ‘कचरे-सा‘ किरकिरा व्यवहार, ‘परंपरा में खो जाते हैं। मिट्टी हो जाते हैं- “प्रायश्चित-सा हो जाता है जीवन‘- जैसी शब्द-दीप्तियाँ पाठक तक पहुँचाती हैं। संवेदना में पसरा हुआ कामकाजी जीवन का यह असंतोष तब और अधिक संत्रास भरा लगता है, जब वह परिवेश को अवसाद से भर देता है- “कायदा बाकायदा सवार रहता है। बीमार रहता है प्रश्न और उत्तर/अनगिनत चेहरों में अखरता चरित्र।‘‘  ध्यातव्य है कि ‘चरित्र‘ शब्द में जो तद्भवीयता शब्दार्थ को विचलन देती है, वह कवि की काव्यभाषा की सज्जा है, यह मनुष्यता के विलोपन तथा मनुष्यता की उस विकृति को संवाद में बीचोंबीच खींच ले आती है, जो नौकरी-पेशा लोगों के लिए बड़ा भारी उबाऊपन है। कितनी सूक्ष्मता से सरकारी नौकरी की कटु-तिक्त जिंदगी को स्थानवाचकता में ‘यहाँ‘ का सर्वनाम समेट लेता है। कवि का यह अस्वीकार परंपरा के नाम पर जड़ता के फ्रेम में जकड़ी हुई इस जिंदगी को बाहर निकालने और मुक्त करने की माँग है। इस खंड की अन्य कविताएँ- ‘चादर‘, ‘पीछे छूटते परिवार‘, ‘सनातन सूर्योदय-सी सूर्यबाला‘, ‘झुके हुए कंधे‘ पसीना आदमी के पौरुष को.....‘, ‘विस्थापितों की तरह‘ तथा ‘चंडीगढ़‘ इसी अनुभव को विभिन्न कोणों से प्रकट करती है।

कुछ चिंतकों की यह धारणा है कि रचना का कारण असंतोष होता है, पूरी तरह मिथ्या नहीं है। असंतोष कभी व्यक्ति केंद्रित होता है और कभी व्यापक होकर समाज-केंद्रित होता है। असंतोष जितना व्यापक होता है यह उतना ही यथावत होता है। फूलचंद ‘मानव‘ की इन कविताओं में मजबूती इसी असंतोष से मिली है। यह असंतोष नगरबोध में घुलमिल गया है चंडीगढ़ कविता उस संतोष और आह्लाद से दूर है, जो कभी उसे गाँव के मुक्ताकाश में मिला करता था। इसीलिए इस कविता का नगरबोध ‘परायापन‘ से संपृक्त है। इस पराएपन-अजनबीपन ने ही इस कविता को अनुभव का ताप दिया है-

“इधर आदमी, आदमी को देखता नहीं घूरता है/साथी पड़ोसी की बगल से/बतियाता नहीं, बिसूरता है (पृ. 32)/ “पुजों से घिरा, घिसा आदमी/यहाँ आदमी नहीं मशीन हो गया है‘‘ (पृ. 33)/चहुँ ओर जमघट है, मेला है/फिर भी हरेक यहाँ भीड़ में अकेला है‘‘ (पृ. 34)

महानगरीय बोध और उसमें भी अकेलेपन की यह ऊब-चूभ भारतीय समाज में गाँव से शहर की ओर जीविका खोजी पलायन और उसके परिणाम स्वरूप उभरे शहरीकरण के समाजशास्त्र की यह उपस्थिति बीसवीं शती के 

उत्तरार्ध और इक्कीसवीं शती का भयावह यथार्थ है, जिसमें मध्यवर्ग फँसा हुआ है। इस महानगरीय बोध का एक पक्ष अकेलापन और शहरी जीवन-शैली है, उसका कसैलापन है, तो इसका दूसरा पक्ष स्मृति में टंका हुआ उस ग्राम का बोध है, जो शहर में दुर्लभ हो गया है। ‘पीछे छूटते परिवार‘ कविता में ये दोनों पक्ष उजागर हुए हैं। भले बुरे दिनों में यही दर्द उभरता है तथा ‘पसीना आदमी के पौरुष को सार्थक कर जाता है‘ कविता ग्राम से शहर के बीच की जद्दोजहद को भाषा में उभारती है, जो स्मृति का पाथेय लिए हुए है। स्मृति में भावुकता के साथ सुरक्षित है 1.“माँ की देह/आप्रेशनों की कहानियाँ कहती (पृ. 18) 2. रोशनी का फव्वारा फूटता था/ रहट वाले कुओं से हवा सनसनाती थी मानो एक आदिम संस्कृति लहलहाती थी।” (पृ. 26)

यह स्मृति में गुंथी हुई स्मृति ग्रामीण संस्कृति का आकाशदीप है, जो शहर में गए और अकेले पड़ गए कामकाजी व्यक्ति को दूर तक दिखाई देता और रास्ता बताता रहता है। एक ओर यह दीप-स्तंभ है और दूसरी ओर सफलता-खोजी यात्राएँ हैं, जो विचिकित्सा-भरी सभ्यता को उत्पन्न करती हैं। इसी के राग-विराग को यह नगरबोध बखान करता है।

स्मरण का यह पाथेय दूसरे उपखंड ‘माँ के मुहावरे‘ में और अधिक मनोराग में पग जाता है। अतएव इसकी ग्यारह कविताएँ उस ‘संबंध-भावना को द्योतित करने का उद्योग करती हैं, जिसको हिंदी के मूर्धन्य समीक्षक पं. रामचंद्र शुक्ल ने एक प्रिय बीज शब्द के रूप में गढ़ा था और मनुष्य से लेकर प्रकृति तक इस रागबंध का विस्तार किया था। स्मृति का यह अद्भुत खेल है कि वह एक वस्तु से उस दूसरी वस्तु में संक्रमित होती जाती है, जिससे किसी भी प्रकार का थोड़ा भी संबंध होता है इसी प्रकार का स्मृति-संक्रमण इस खंड की कविताओं में देखा जा सकता है। स्मृति लेखा में सबसे पहले माँ आती है, जिसके सहारे स्मृति उस संपूर्ण परिवेश में व्याप्त हो जाती है, जिसका संबंध माँ से था। सबसे पहले कविता भले बुरे दिनों में, माँ की देह स्मृति में कौंधती है (पृ. 19), फिर माँ की बोली और फिर माँ के सिखाए हुए संस्कृति के पाठ- ‘‘भाषा और संस्कृति के मुहावरे माँ ही तो सिखाती है।” (पृ. 43) 

इस स्मृति-लेखा की परिक्रमा करता हुआ कवि का मन अध्र्य यह कहकर चढ़ाता है-‘‘माँ के महकते मीठे प्रतीक उसके लिबास की तरह मंगलमय हो जाते हैं।‘‘ यह माँ-विषयक संवेदना अनेक कवियों को भाती रही है और उनकी रचनाओं में व्यक्त होती रही है। मातृ-आलंबनधर्मी इन कविताओं में माँ सदानीरा नदी की भाँति स्मृति में उमड़ती है और “माता एक लंबी प्रार्थना बनकर ‘मातृदेवो भव‘ के औपनिवेशिक उपदेश के मंत्र का कविता में भाष्य बन जाता है। माँ की स्मृति के साथ जो बिंब उभरते हैं, वे सब ग्रामांचलीय हैं। माँ संपूर्णता में मनुष्य की पूज्य बुद्धि का अवलंब है अतएव एक स्त्री भी है और आद्यंत एक स्त्री है। इसलिए वह स्त्री-विमर्श का आदि शीर्ष है, जो बेटी से आरंभ होता है और ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ‘ के ‘स्लोगन‘ की समकालीनता में पर्यवसित हो जाता है

“जब बेटियाँ मेंहदी की तरह घुलती हैं/पानी के गए नल की तरह एकाएक खुलती हैं/आपके जीवन की बुनावट ही बदल जाती है।” (पृ. 36)

इस संग्रह का तीसरा खंड ‘रसभरी-हथेली‘ के शीर्षक में आबद्ध है। इसमें लगभग सोलह कविताएँ हैं और ये कवि के युवामन की देह-सृष्टि के प्रति सानुरागता की कविताएँ हैं। यदि पिछले अर्थात दूसरे खंड में नगरबोध कवि की चेतना को ग्रामबोध में परावर्तित करता था। इस तीसरे खंड की कविताओं में अकेलापन कभी देहगंध में अपनी शरणस्थली खोजता है और कभी नगरबोध के अजनबीपन और उसके यथार्थ की कड़वाहट के बीच ‘घर‘ की तलाश ‘अपनेपन‘ में संघर्षगाथा को खींच ले आती है, जो इन कविताओं के रोमान में मनोरमता को उपजाता है- यही अपनापन यह सानुराग अपनापन ‘जीने और निभाने‘ की टेक पर ठहरता है और बिना किसी मांसलता और घिनौनेपन के वायवीयता में पारदर्शी बन जाता है। ‘दस मिनट पहले‘ कविता में अनुराग-दीप्ति छायावाद के निकट तक खिंचती जाती है

“दस मिनट पहले/खट्टे रंग की चुन्नी, रिक्शा में फँसने से बचती है/चाय की मेज पर एक ताली बजती है/दो हाथों से” (पृ. 49)

दो हाथों से ताली का बजना मुहावरा विशेष अर्थवान हो जाता है, जब उस रसाभास से दूरी बना लेता है, जिससे समीक्षक प्रवर आचार्य शुक्ल जी फारसी की प्रेमगाथाओं को लक्षित कर रहे थे। वे भारतीय काव्यशास्त्र की उस संस्कृति के कायल थे, जिसमें प्रेम के क्षेत्र में प्रणयक्षेत्रीय सानुरागता के लिए द्वि-पक्षीयता अनिवार्य थी। कितनी महीन छुवन है इस रोमन में या यो कह लें कि संबंधों के मकड़जाल में हांड़-मांस के संवेदन के होते हुए अभिव्यक्ति की निर्मलता की ‘प्यार‘ कविता इसके रंग को और अधिक चटख कर देती है। जब पाठक ‘प्यार‘ शीर्षक की एक और कविता पढ़ते हैं तो कवि की भावुकता अतृप्ति का एहसास कराने लगती है। घड़े का खालीपन इस अतृप्ति को ही प्रतीकार्थ देता है। इसी अनुरागबिद्धता के अनुभव की कविता है- ‘अब तुम ही कहो‘ (पृ. 84), जिसकी आरंभिक पंक्ति है- “व्रत भंग न हो तो क्या हो!‘‘ यौनाकर्षण की उद्यमता यहाँ ‘व्रतभंग‘ से अभिप्रेत भी है और व्यंग्यार्थ में निक्षिप्त है। अनुराग-प्रेरित भाषिक विच्छित्ति में

“चिनारी हवाएँ तथा ‘रेशमी साड़ियों से जिस्म‘,/‘जिस पर पश्मीना मैला‘/और फीका लगता है।‘‘

जैसी अभिव्यक्तियाँ मन की युक्ता को रेखांकित करती है। यह सौंदर्य बोध कश्मीर के रूप वैभव को तो समर्पित है ही, कश्मीरी प्रमदाओं के त्वक-धावल्य और उनकी वपुष-उज्ज्वलता के बिंब को भी चाक्षुष बनाता है। सौंदर्यबोध अंतर्हित यह रूप-तृषा इस भावबोध के कारण इन कविताओं को उनसे अलग कर देती है, जो महानगर के संघर्ष की आपाधापी से भरी कविताएँ हैं। ‘रसभरी हथेली की गुदगुदी‘ की निजता से व्यतिरेक-भरी वे कविताएँ समकालीन ज्यादा हो गई है, जो कँकरीली-पथरीली जमीन पर चलने से लहूलुहान हुए तलवों के खुरदुरेपने को अभिव्यक्ति करती हैं।

चैथे खंड- ‘अपना ख्याल रखना‘ में सर्जना फिर प्रवासी की जद्दोजहद तथा वात्सल्य के आँचल के बीच यात्रा करती है। प्रवास में घर की खोज एक कष्टकर अनुभव है, जिसका शाब्दिक रूप है “कितना भटकता है नर/दर बदर/खोजते हुए घर/जबकि घर में ही होता है घर।‘‘

इस नगरबोध में केवल कुत्सा ही हो, संघर्ष ही हो- ऐसा नहीं है। इसमें बदलते मौसम के रंगों का सौंदर्य भी है। कितने रंगों में रचा गया है मौसम महानगर का कविता इसकी साक्षी है। मौसम की इस रंगीनी में सर्जना भी शरीक है और अमितोज, इमरोज तथा अमृता (प्रीतम) का उल्लेख यही कहता है (पृ. 66)। अचानक स्मृति कौंधती है और नगर का मौसम संस्कृति की चिंता में घुलने लगता है। ‘राग वैराग का मौसम‘ कविता में रामकथांश उग आते हैं “लगता है हर रोज लौटते हैं राम/अयोध्या में/विजयपर्व मनाता है मन, घी के दीये भी जलते हैं/पर वे, जो छल जाते हैं हिरण, राम को, काम को।‘‘ अचानक स्त्री की मुक्ति का चिंता पृष्ठ खुल कर फड़फड़ाने लगता है-‘‘क्या करूँ इस प्यार-संहिता का, आचार संहिता का?/जहाँ धोबी आरोप लगाए, न लगाए/प्रतिदिन विवश है सीता अग्नि-परीक्षा के लिए।” (पृ. 70)

आईना गाँव से शहर में आ जाता है, भावुकता से आगे जाकर संस्कृति को नमन करता है और बुद्धिजीवी की आधुनिकता में स्त्री-मुक्ति की संवेदना को झलकाने लगता है। चिंतन-मुद्रा पलटती है और ‘दादी माँ ने कहा था‘ 

(पृ. 74-75) की स्मृतियाँ जाग उठती हैं। संबंध यहाँ सेतु बन जाते हैं, जिनसे होकर वर्तमान अतीत तक पहुँच जाता है और समय-प्रवाह बाधा नहीं बन पाता है। पंजाब का ग्राम-लोक जीवंत हो उठता है। फूलचंद मानव का कवि परिवेश के साथ गमनशील होता है और परिवेश के हर रंग-रूप पर मुग्ध होता है।

वह लोक की प्रत्येक छवि-चाहे वह महानगर की हो, भद्रलोक की हो, खेल-खलिहान-नहरट वाले देहात की हो या दादी-माँ के मुहावरे वाले ग्रामलोक की हो- में शामिल दिखाई देता है। इस अर्थ में वह लोक-संपृक्ति प्रकट करता है वह ‘रंग‘ शब्द का प्रयोग सौंदर्य की दिदृक्षा के साथ करता है। वह ‘रंग‘ को ‘खतरे‘ नहीं जोड़ता- भले ही कवि कुमार विकल पहाड़ पर चढ़कर चिल्लाते रहें कि ‘रंग खतरे में है‘ दोनों कवि हम-शहर भी थे, निकटस्थ भी थे और डॉ. इन्द्रनाथ मदान के प्रिय और करीब भी थे। चैथे खंड ‘अपना ख्याल रखना‘ में ग्रामलोग और नगरलोक दोनों की उपस्थिति है। ग्राम का ममत्व स्मृति में है और नगर का कटु-तिक्त यथार्थ वर्तमान में है। ‘चुपचाप‘, ‘आदत का हिस्सा‘ (पृ. 78-79) ‘चिंगारी‘ जैसी कविताएँ महानगरीय यथार्थ की दुर्वहता से उपजी हैं और असंतोष को व्यक्त करती हैं। इनमें पंजाब का यथार्थ, उसका इतिहास बन रहा है घटनाचक्र व्यथित करता है और कवि की विवक्षा का आलंबन बनता है-

“सारा घर बूचड़खाना है/बचकर किसे कहाँ जाना है /नहीं सुरक्षित घर में, दर में या सरवर में, अमृतसर में/नहीं हिफाजत नहीं....../मैं, मासूम सभी चेहरों के शव पहचान /किसको कहूँ पराया, किसको अपना मानूँ/सीखा है मैंने तो मानव एक कौम है।” (पृ. 64-65)

परिवेश की सांप्रदायिक विद्रूपता से उठकर कविता मानवतावादी उस दार्शनिक धरातल पर आ जाती है, जिसके लिए भारतीय संस्कृति प्रसिद्ध है और “अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्” के ऋषि चिंतन को आवृत्त करती है। जाहिर है कि कवि अपने समय के प्रति सौंदर्य-मुग्ध ही नहीं, सजग भी है।

पाँचवें खंड की ग्यारह कविताओं को ‘पारदर्शी रंगों के साथ‘ शीर्षक मिला है, जो इस खंड की ग्यारहवीं कविता भी है। इस कविता की संवेदना के मूल में जीवन को सार्थकता देने की तलाश है, जो ‘घर‘, ‘अस्मिता‘ तथा ‘नई सोच‘ तीनों को मिलाती है।‘‘ उतारो, उन संस्कारों को भी उतार ही दो। जो आपसी संबंधों की समझ में बाधक हैं” (पृ. 100) की वापसी जहाँ टूटती है। वह विरामस्थल है ‘‘इरादों को भी निःस्वार्थ करो/भरो/इस जीवन को ही भरो/पारदर्शी रंगों के साथ।” (पृ. 100)। 

प्रगट है कि कवि मानव के काव्यलोक में ‘रंग‘ शब्द अनेकार्थी हो गया है और वह प्रकृति से लेकर अनुराग तक के बीच गंतव्य की सार्थक तलाश करता है। यदि इस खंड की अंतिम कविता ‘पारदर्शी रंगों के साथ‘ प्रीति-पगी है तो पहली कविता ‘अपना ख्याल रखना‘ परिवेश की उस क्रूरता का बयान करती है, जिसे गाँव से निकला युवक आजीविका की खातिर शहर में झेलता है। यही क्रूरता ‘चलो घर आ गया है‘ (पृ. 89) कविता में ‘घर की तलाश‘ की संवेदना प्रवासी-जीवन की आपाधापी से जुड़ी दिखाई देती है। संघर्ष के साथ रोमानी गुंफन कविता को जीवंत बनाता है। ‘अपने-अपने सरोकार‘ कविता में सांस्कृतिक विघटन के कारक के रूप में निजता‘ और ‘व्यक्ति-केंद्रिकता‘ को स्थापित कर अपने समय को परिभाषित किया गया है

‘‘हम नहीं खाली, कर रहे रखवाली/सभ्यता की/संस्कारों की/मानों अपने-अपने सरोकारों की।” (पृ. 90)/कवि की चिंता उस विघटन के प्रति है, जो समय परोस रहा है“/आते हैं संस्कार/पाते भरमार सामाजिक विसंगतियों का /पारिवारिक इकाइयाँ क्यों हो रही छिन्न-भिन्न/कि अभिन्न तो अभी कुछ भी नहीं/न रिश्ता, न रिवाज/न हिदायत, न औजार।‘‘

नगरीकरण का यह प्रदेय कवि-मन को आहत करता है, जो कहीं पर सामाजिक संघर्ष को बिंबीकृत करता है और कवि ‘प्रार्थना की मुद्रा‘ (पृ. 93) की व्याख्या कविता में कर देता है

“आपने प्रार्थना की मुद्रा में झुके/जिस आदमी को अभी देखा/वह डरा हुआ है/झुकना और डरना भले पर्याय नहीं /पूरक से हैं, पर इनकी अर्थध्वनि/कहीं न कहीं एक हो जाती है।‘‘

इस सामाजिक संदर्भ में कवि की दृष्टि से वह सामाजिक स्थिति छिपी नहीं रह जाती, जहाँ साक्षरता की स्थिति बड़ी भयावह दिखाई देती है। ‘मेहनतकश का साक्षर गीत‘, तथा ‘शर्म आती है‘ दोनों कविताएँ निरक्षरता की व्यथा-कथा कहती हैं। इन कविताओं का यह सामाजिक सरोकार और विशेषतः इनकी संघर्ष-चेतना इन कविताओं को अपने समय का दर्पण बना देती हैं।

यही सामाजिक चिंता छठे खंड ‘बदअमनी के खिलाफ‘ की ग्यारह कविताओं के धरातल में निहित है। ‘मानव‘ की संघर्ष-चेतना के मूल में उनका असंतोष है, जो सामाजिक विसंगतियों से उपजा है। इनकी झलक इस खंड की कविताओं में भी दिखाई देती है। पहली पराजय‘ कविता में यातना रसोई में पसीना-पसीना हो रही महिला की अभिव्यक्ति है, जो दादी, माँ, पत्नी, बहन कोई भी हो सकती है। एक अव्यक्त तंतु अपनेपन का तो विद्यमान है ही, जो निजता का विस्तार व्यापकता में कर देता है। इस व्यापकता में असंतोष घनीभूत हो उठता है उस बुद्धिजीविता के खिलाफ, जो श्रमसंस्कृति से दूर है, यातना से दूरी बनाए रखता है और छद्म है। ‘बदअमनी के खिलाफ‘ (पृ. 106-107) कविता में कथ्य इस छद्म पर चोट करता है-

“सिर्फ मैली बनैनों के नीचे/पसीना-सने छाती के पीपल/ खोजते हैं प्रेरणा/पत्रिकाओं से।‘‘/वैसे परसों/एक कवि मित्र ने/अभियान गीत रचा था/बदअमनी के खिलाफ /सामूहिक स्वर हल्का पड़ते-पड़ते/पार्टी आत्महत्या कर लेती है/या वर लेती है विरोधी स्वर।‘‘

कवि की चेतना घूम फिर कर संघर्ष को प्रतिपाद्य बनाती है, चाहे वह रसोई में तप रही स्त्री का हो, खेत में श्रमित किसान का हो, प्रवास में जूझ रहे आजीविका खोजी पढ़े-लिखे युवक का हो या कार्यालय के दमघोंटू परिवेश में मन ही मन टूट रहे किसी कामगार का हो। यही संघर्ष ‘सपनीली भाषाएँ‘ कविताएँ में (पृ. 109) लालफीताशाही बन गया है, जहाँ ‘पी. यू.सी. (विचाराधीन पत्र)‘, ‘डील‘, ‘रिकार्डकीपर‘ ‘पुट-अप‘, ‘फाइल कर दी जाती‘, ‘पेंडिंग‘, ‘केसों‘, ‘रिमाइंडर‘, ‘मसौदे‘, ‘ऑब्जेक्शन‘ जैसी तमाम शब्दावली व्यवस्था की सडाँध के दबाव के प्रतिफल के रूप में काम और विश्राम की कारीगरी‘ (पृ. 113) की भागमभाग है, जो नागरिक सभ्यता की भयावहता को रेखांकित करती है और ‘दिन के दाँत‘ कविता में समूह पर उतराने लगती है। इस संघर्ष के प्रतिलोम के रूप में इन कविताओं के बीच ‘एक हँसी के लिए‘ (पृ. 93) कविता अकेलेपन के एकांत से प्रेमालाप करती है-

“इस दूरी या मजबूरी के लिए/आँखों की मुस्कान/शरीर की थकन भुला देती है....‘‘

निजता और सार्वजनिकता में जो संघर्ष की कशमकश इन कविताओं में है, उनसे सर्वथा अलग मूल्य चेतना है, जो संस्कृति की वीथी को खोलती है। ‘अंदर का आदमी: सृजन‘ (पृ. 108) तथा ‘महासागर से मिलन‘ (पृ. 111) ऐसी ही कविता है। महासागर से मिलने को आतुर नदी “लक्ष्य की ओर प्रयाण करती है। ‘नदी पग-पग पर दान करती है‘ की अभिव्यक्ति ‘अज्ञेय‘ की कविता ‘नदी के द्वीप‘ की दानशीला संस्कृति की याद दिलाती है। ‘अंदर का आदमी: सृजन‘ कविता मनुष्यता और उसकी सामासिकता की माँग करती है-

‘‘जिंदा हो अंदर का आदमी/जो उलीच सके संस्कृति की स्याही/कि नहीं, यह कोई गवाही नहीं/कविता नगर की वारदात का करिश्मा है।‘‘ 

कवि उस मनुष्यता का कायल है, जो संस्कृति का वास्तविक मर्म है।

छठे सातवें खंड का शीर्षक है- ‘धुन और धारा‘, जो इस खंड की तीसरी कविता है। यह प्रिय के साथ संवाद है, जो कविता बन कर उभरा है। ‘याद आयी तुम‘ में भी वही रोमानी स्मति देश है, जो प्रवासी मन को ऊर्जास्वित बनाता है। इस खंड की कविता ‘सूरज और सुर्खियां‘ में प्रकृति और मनुष्य परस्पर गुंथे हुए हैं और कृति-संस्कृति मन ही मन उमगती है

“सूर्य की सूरत जैसे/आसपास तमाम चेहरे/कभी फसलों की तरह/तो कभी पानी में दिखते हैं।” (पृ. 120)

‘‘चुंबक‘ कविता (पृ. 121) रिश्तों के क्षय का यथार्थ प्रस्तुत करती है, तो ‘अमर स्मृतियाँ‘ कविता में दंगों के यथार्थ को संकेतित कर मनुष्यता की पूर्णता की तलाश की गई है “आधी अधूरी जिंदगी जीने की कला में/ओढ़ जाते हैं सांसों का संबल/जहाँ दंगा ही दंगा है/कभी बाबरी मस्जिद में, तो कहीं/आरक्षण के मसले पर जागता मन अंधा है‘‘ 

(पृ. 123)’’

दिव्यदर्शन‘ कविता (124-125) चुनाव की निरर्थकता को प्रकट करती है-‘‘कुछ और हैं, जो रंगीन सपने दिखायेंगे /फीके-फीके वायदे देंगे,/प्रपंच फैलायेंगे पाँचेक दिन/पाँच साल के/हाकिम हो जाएँगे।‘‘

आठवें खंड ‘लय पर: समय की छलनी‘ में बारह कविताएँ हैं। इनमें से कुछ कविताओं‘कंधे पर थर्मस‘, ‘झर गए गुलाबी प्रबंध‘, ‘आदमी की जरूरत‘ तथा ‘प्यार की बंदगी के लिए‘ में बेहतर मनुष्यता की माँग की गई है। इन कविताओं की बनावट और बुनावट दोनों की सधे हाथों की है। इसके विपरीत कुछ कविताएँ- ‘एक मन पाँच मोड़‘, ‘मधुमास होते हैं‘, ‘रूप इक सलोना चाहिए‘, ‘आँख इक शरारत है‘ तथा खुशनुमा कैसी बेचारी जिंदगी- गजल की विधा की ओर भागने, छंदोबद्धता के अकुशल प्रयोग तथा शब्दों को तोड़ने-मरोड़ने के कारण बनावट में उतनी परिपूर्णता का अभाव लिए हुए हैं। ये कविताएँ इस संग्रह में न भी होती, तो इसका महत्व कम नहीं होता। नवें और अंतिम खंड मैंने भी चाहा‘ की बारह रचनाओं का प्रतिपाद्य मिला-जुला है, अतएव आवयविकता है। यह आवयविकता उस अर्थ में नहीं है, जिस अर्थ में प्रसिद्ध सैद्धांतिक समीक्षक नार्थय फ्राय ने साहित्य को अनिवार्यता आवयविक घोषित किया था। यह आवयविकता सांस्कृतिक-मूल्यचेतना, सामाजिक वास्तविकता-यथार्थ, रोमान-स्त्री-साहचर्य, देश-विदेश के अनुभव के सम्मिश्रण से प्रतिपाद्य के धरातल पर रची हुई है। इनमें वे कविताएँ विशेष महत्वपूर्ण हैं, जिनमें मनुष्यता की तलाश शेष है और एक मानवीय संस्कृति की उदात्तता पर विशेष बल दिया गया है। कवि ने समाज में उस प्रदूषण को पहचाना है, जो मनुष्यता को धूमिल करता है और गाली में बदल देता है। पर्यावरण और मनुष्यता में प्रदूषण की यह समांतरता बहुत सर्जनात्मक है (स्वस्थ पर्यावरण, पृ. 146)। यदि पर्यावरण को जल, ध्वनि, आकाश प्रदूषण से भरता है, पत्ते-गोबर धुआँ से भरते हैं, उसी प्रकार समाज को सर्वाधिक प्रदूषित हिंसा करती है।

कवि ‘मानव‘ ने इस खंड में अनेक कविताएँ- ‘मैंने भी चाहा था‘, ‘महक के अर्थ‘, - हिंसा के विरुद्ध कवि-चेतना की ललकार है। यह कवि असंतोष तो परिवेश के प्रति व्यक्त करता है, यथार्थ की कटुता अनुभव की दीर्घा में जमी दिखाई देती है, लेकिन उसका यह यथार्थ का नकार साधन भर है, साध्य नहीं। साध्य तो मनुष्य की उदात्तता है, श्रेष्ठ जीवन-मूल्य हैं, सुंदर परिवेश की कल्पना है, मूल्य-बोध की ऊँचाई है, जो ‘नदी नौका के साथ‘ (पृ. 154-155), ‘महक के अर्थ‘ (पृ. 152), ‘अदना विवशता‘ (पृ. 153) जैसी कविताओं में भाषा-निबद्ध है।

समग्रता में देखें तो ये कविताएँ संवेदना के अनेक कोणों से लैस हैं। ये कोण प्रेम और यौनाकर्षण के हैं, रोमान का है, व्यवस्था की तलछंट के हैं, कर्मचारियों के दमघोंटू स्मृतियों के हैं, परायेपन से परिपूर्ण नगरीय औद्योगिक क्षेत्रों में श्रमजीवियों, आजीविका-खोजियों एवं वेतन-भोगियों के प्रवासी जीवन के हैं, सांप्रदायिक दंगों से विषाक्त समाज के आचरण के पैटों के हैं, सामाजिक विघटन को नियंत्रित करने वाले घटकों की विफलता के हैं। दादी-माँ-भाई-बंधु के पीछे छूटने और उनकी स्मृति के दंश का है, रोमानी कोमलता और अनुराग-सिक्तता का है। इतने कोणों को समाहित किए हुए इन कविताओं का कथ्य (संवेदना प्रतिपाद्य) समकालीनता से भरपूर तो है। यह अनुभव समाज में दूर-दूर तक व्याप्त है और यह व्यापक जन समुदाय का है, निर्धन और मध्यम वर्ग का है, किसानों-मजदूरों-श्रमजीवियों तथा कर्मचारियों का है, जीवन की प्राथमिक सुविधाओं से वंचित दादियों-माताओं की वत्सलता का है, रमणियों-प्रमदाओं की विवशताओं तथा स्वातंत्र्य-विमुखताओं का है- इसलिए यह अनुभव प्रामाणिक है।

इन कविताओं की जहाँ बनावट इकहरी और छोटी है, लंबी कविता की बनावट से भिन्न है, वहाँ इनकी बुनावट प्रतीकात्मक और बिंबात्मक है। इनकी निर्मित्ति इतनी सजगता भरी और ललित है कि ये कविताएँ कथ्य को पाठकीय विवेक पर अक्षय विश्वास के साथ प्रतीकों तथा अर्थगर्भी शब्दों से संप्रेषित करती हैं और रचना को एकाधिक स्तरों पर अतिरेक करती हैं। राजनीतिक विचारधारा से किसी भी प्रकार की प्रतिबद्धता के बिना ये कविताएँ अपने समय की सराहनीय व्याख्या करती और उसकी कलादर्शी समझ उत्पन्न करती हैं। यदि शब्द-लय तथा छंदोबद्धता का आकर्षण इस कवि-कर्म को विपथन में कहीं-कहीं न बाँधता, तो जो दो-चार कविताएँ कमजोर दिखाई दे रही हैं, वे न दिखाई देतीं। अधिकांश कविताएँ तो मजबूत हैं ही और समकालीन कविता की सर्जना की अच्छी गवाह बनाती हैं। समी. चंडीगढ़, मो. 9815821188, लेखक, धकोली, जीरकपुर, मो. 9316001549

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पुस्तक समीक्षा

डाॅ. रमेश यादव

‘प्रौद्योगिकी बैंकिंग और हिंदी’ पुस्तक का लोकार्पण एवं चर्चा सत्र का आयोजन 

वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. रमेश यादव की नई पुस्तक ‘‘प्रौद्योगिकी बैंकिंग और हिंदी‘‘ का लोकार्पण समारोह हाल ही में केंद्रीय हिंदी संस्थान, विश्व हिंदी सचिवालय (मॉरीशस) तथा अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद के तत्वावधान में वैश्विक हिंदी परिवार द्वारा आयोजित वेब संगोष्ठी के माध्यम से बड़े ही गरिमामय ढंग से सम्पन्न हुआ। 25 से अधिक देशों के हिंदी से जुड़े विचारकों, साहित्यकारों और भाषाकर्मियों के समूह द्वारा आयोजित इस समारोह में देश-विदेश से काफी लोग जुड़े थे।

‘‘बैंकिंग जो कि आज जीवन का अविभाज्य घटक बन चुका है और आम से लेकर खास तक के लोगों का इससे सीधा संबंध है इसलिए इसकी गतिविधियों और इस व्यवस्था में हो रहे लगातार बदलावों को लेकर नागरिकों का सरोकार होना चाहिए। इसके अस्तित्व को लेकर सभी को जिम्मेदारी से अपनी भूमिका निभाने की जरूरत है।‘‘ लोकार्पण के बाद ‘बैंकिंग सेवाएं, प्रौद्योगिकी और हिंदी‘ विषय पर आयोजित चर्चा सत्र में डॉ. रमेश यादव ने अपनी भूमिका रखी। चर्चा सत्र काफी रोचक एवं ज्ञानवर्धक था। डॉ. यादव ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि बदलते बैंकिंग परिवेश में प्रौद्योगिकी बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है मगर राष्ट्रीयकृत बैंकों को अंधानुकरण और टारगेट की अंधी रेस से बचते हुए जनता के बीच अपनी विश्वसनीयता तथा साख को बचाए रखने की कोशिश करनी चाहिए, जो कि इन बैंकों की मूल पहचान तथा संस्कृति रही है। साथ ही ग्राहकों के अधिकार, कर्तव्य और बैंक कर्मचारियों के दुख-दर्द को लेकर भी अपनी बात रखी। 

चर्चा को आगे बढ़ाते हुए तकनीकी विशेषज्ञ, विशिष्ट वक्ता बालेन्दु शर्मा ‘दाधीच‘ (निदेशक- स्थानीयकरण व सुगम्यता, माइक्रोसॉफ्ट- भारत),  एवं के.वी. शीतल, (महाप्रबंधक एवं प्रमुख, डिजिटल परिचालन समूह, बैंक ऑफ बडौदा) ने बैंकों में तकनीकी की मौजूदा स्थिति तथा अन्य उद्योगों में मौजूद प्रौद्योगिकी से तुलना करते हुए अपने महत्त्वपूर्ण विचार रखें। बालेन्दु शर्मा ने एटम, एनटीएम से अब पेटीएम तक के बैंकिंग सफर का विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए कहा कि क्रिप्टो करेंसी एक नई चुनौती के रूप में सामने खड़ी है, उसका मुकाबला करने के लिए हमें तैयार रहना होगा। बैंकिंग जैसे आर्थिक एवं तकनीकी विषय पर हिंदी में आई इस पुस्तक का उन्होंने स्वागत किया। 

रमाकांत शर्मा (पूर्व महाप्रबंधक, भारतीय रिजर्व बैंक) ने विद्यार्थियों, शोधकर्ताओं, बैंक कर्मियों तथा राजभाषा अधिकारियों की दृष्टि से उपयोगी इस पुस्तक की चर्चा करते हुए हिंदी कार्यान्वयन को लेकर अपनी बात रखी। सरकारी बैंक हमेशा से ग्राहकों की भाषा में अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी से निभाते रहे हैं। मगर आज यह व्यवस्था कई तरह के बदलावों व तनावों के दौर से गुजर रही है इस बात पर जोर दिया। 

वरिष्ठ पत्रकार और भाषाकर्मी राहुल देव ने राष्ट्रीयकृत बैंकों में हिंदी की स्थिति को लेकर कहा कि प्रगत टेक्नोलॉजी के इस दौर में भी बैंकों ने भारतीय भाषाओं को लेकर जितना काम करना चाहिए था, वह अभी उस स्तर तक नहीं पहुंच पाया है। सरकारी क्षेत्र के साथ निजी सेक्टर को भी हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में काम करने का निर्देश दिए जाने की बात पर उन्होंने जोर दिया। साथ ही बताया कि मुझ जैसे सामान्य लोगों को बैकिंग से परिचय कराने की दृष्टि से यह पुस्तक उपयोगी है। 

समारोह के अध्यक्ष अनिल जोशी, (उपाध्यक्ष, केंद्रीय हिंदी शिक्षण मंडल, शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार) ने कहा कि ये किताब अपने आप में में तीन किताबों के विषय को समेटे हुए है इसलिए संदर्भ की दृष्टि से संग्रहणीय है। बैंकिंग जैसे आर्थिक एवं तकनीकी विषय पर मूल रूप से हिंदी में आई इस पुस्तक का स्वागत करते हुए उन्होंने कहा कि अन्य तकनीकी विषयों पर भी मूल रूप से हिंदी में पुस्तकें लिखी जानी चाहिए यह समय की मांग है। तब हमारी हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएं समृद्ध होंगी। विदेशों में बैंकिंग व्यवस्था और भारतीय बैंकिंग व्यवस्था की कार्यपद्धति तथा आम सोच को समझाते हुए उन्होंने आगे कहा कि बैंकों ने व्यापार की दृष्टि से भले ही खूब तरक्की कर ली हो मगर आम जनता की भाषा में कामकाज को लेकर अभी भी अपने लक्ष्य से काफी पीछे चल रहे हैं। 

कार्यक्रम का सटीक संचालन जवाहर कर्नावट (पूर्व वरिष्ठ बैंकिंग कार्यपालक) ने किया। वरिष्ठ राजभाषा प्रबंधक, राजेंद्र श्रीवास्तव, साकेत सहाय, हरिराम पंसारी और नारायण कुमार ने भी इस विषय पर अपनी प्रतिक्रियाएं दीं। अमेरिका से अनूप भार्गव, जापान से तोमियो मिजोकामी ने पुस्तक को रोचक बताया। 

देश-विदेश से कई मान्यवर साहित्यकार, बैंककर्मी, राजभाषा अधिकारी, रंगकर्मी एवं सैकड़ों कलमकारों ने अपनी मजबूत उपस्थिति से समारोह को सफल बनाया। कार्यक्रम के आयोजन, नियोजन एवं संयोजन में बीना शर्मा, राजीव कुमार रावत, डॉ. जे.एस. यादव, विजय नगरकर, वानोडे, विजय मिश्र आदि ने महती भूमिका निभाई। मोहन बहुगुणा ने बड़े ही स्नेहिल शब्दों में आभार व्यक्त किया।



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पुस्तक समीक्षा

श्री लक्ष्मी शंकर वाजपेयी

सुश्री संतोष श्रीवास्तव


‘‘धर्मयुग के जमाने से पढ़ता आ रहा हूं संतोष श्रीवास्तव की कहानियाँ’’ 

सर्वप्रिय प्रकाशन एवं छत्तीसगढ़ मित्र के संयुक्त तत्वावधान में वरिष्ठ लेखिका संतोष श्रीवास्तव के सद्य प्रकाशित कथा संग्रह ‘‘अमलतास तुम फूले क्यों‘‘ का लोकार्पण एवं समीक्षा गोष्ठी गूगल मीट पर आयोजित की गई।

प्रकाशकीय वक्तव्य में वरिष्ठ लेखक, संपादक, पत्रकार डॉ. सुधीर शर्मा ने बताया कि उन्होंने संतोष श्रीवास्तव से उनके कथा संग्रह की पांडुलिपि प्रकाशन के लिए आमंत्रित की  पुस्तक के शीर्षक के चयन का जिम्मा भी लिया। इस संग्रह की कहानियां समय की नब्ज पकड़ती हैं और पाठक के अंदर पढ़ने की जिज्ञासा जगाती है।

कार्यक्रम के अध्यक्ष वरिष्ठ लेखक, व्यंग्यकार, पत्रकार, संपादक (सद्भावना दर्पण) गिरीश पंकज जी ने कहा-‘‘समकालीन कहानियों का परिदृश्य निराश करता है। आजकल जो भी लिखा जा रहा है, अराजकता को महिमा मंडित करके लिखा जा रहा है। ऐसे में संतोष श्रीवास्तव की कहानियां यह सिद्ध करती हैं कि अभी सब कुछ नष्ट नहीं हुआ है, अभी मूल्य बचे हैं। समाज में फैले आतंक और गिरते मूल्यों के समय में संतोष  अगर प्रेम की बात रखती हैं तो सामाजिक सरोकारों की वह जीवंत परिणति है। संग्रह की सभी कहानियां विभिन्न कथानको पर लिखी गई हैं जो चेतना को झकझोरती हैं। एक तरह से  कहा जाए तो यह  मनुष्य को बेहतर मनुष्य बनाने की दिशा में उठाया लेखकीय कदम है।‘‘

प्रमुख वक्ता पत्रकार वरिष्ठ लेखिका प्रमिला वर्मा ने कहा-‘‘मैं मानती हूं की कहानी की पहली शर्त कहानी में कहानीपन एवं रोचकता होनी चाहिए। संतोष जी की कहानियों में रोचकता बराबर बनी रहती है। चाहे हम उनकी कहानी पढ़ रहे हों या सुन रहे हों। हम पूरी कहानी सुनने या पढ़ने को बाध्य हो जाते हैं। क्योंकि कहानी में कहानीपन है। उनकी कहानी चाहे लंबी हो या छोटी हो पाठक कहीं भी ऊबता नहीं है। यह लेखिका की विशेषता है।

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि वरिष्ठ कवि ,पत्रकार ,संपादक (साहित्य अमृत )श्री लक्ष्मी शंकर बाजपेयी ने धर्मयुग के दिनों का उल्लेख करते हुए कहा कि उन्होंने संतोष श्रीवास्तव की कहानियां धर्मयुग सारिका में पढ़ी हैं। संतोष जी हमेशा कहानी के पात्रों की द्वंद पीड़ा को देखते हुए ज्वलंत विषयों पर कहानी लिखती हैं। अन्य भाषाओं की कहानियों में विविध विषय रहते हैं लेकिन इसका अभाव अक्सर हिंदी कहानियों में देखा गया जबकि संतोष की कहानियां विविध विषयों पर आधारित रहती हैं। आज जबकि घृणा की सुनामी आई हुई है, धर्म विशेष की हत्या का माहौल बना हुआ है। ऐसे में निगरानी कहानी कहानी के कहन को ऊंचाई के शिखर पर ले जाती है। संग्रह में जहां मर्सी किलिंग की कहानियां है, सड़क दुर्घटना की कहानी है, वृद्ध मन की कहानी धुंध और बाढ़ है वहीं एक और कारगिल जैसी कहानी भी है जो साहस और जोखिम की कहानी है। संतोष की कलम जादू का काम करती है। सम्मोहन जगाती है। प्रमुख वक्ता वरिष्ठ कथाकार, अनुवादक श्री सुभाष नीरव ने भी इस बात को स्वीकार किया कि धर्म युग के समय से ही संतोष जी की कहानियां मेरे आस-पास रहीं क्योंकि वह कविता भी लिखती हैं अतः उनके गद्य में काव्य का सौंदर्य भी देखा जा सकता है जो आनंद की अनुभूति कराता है। संवेदना के तार से जुड़ी मार्मिक कहानियां जो पाठक को भावुक ही नहीं करतीं बल्कि इंसानियत के स्तर पर मजबूत बनाती हैं,सहायक की भूमिका अदा करती है। सवाल खड़े करती हैं। सवाल खड़े करके कहानियां लंबी यात्रा करती हैं। अक्सर उनकी कहानी का अंत चैकाता है। वे पानी की ऊपरी सतह से कहानी के विषय नहीं उठाती बल्कि पानी में डुबकी लगाकर यथार्थ को तलाशती हैं।

संतोष श्रीवास्तव ने अपने लेखकीय वक्तव्य में इस संग्रह में प्रकाशित कहानी ‘‘कटघरे से बाहर‘‘ और ‘‘शहीद खुर्शीद बी ‘‘ से संबंधित रोचक प्रसंगों को सुनाया।

कार्यक्रम का कुशल संचालन कवयित्री नीता श्रीवास्तव ने किया।

कार्यक्रम में विभिन्न शहरों से आए लगभग 40 लोगों की उपस्थिति रही।  -समी. नई दिल्ली, मो. 9899844933

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डाॅ. संतोष श्रीवास्तव


‘‘कवि अंबर अतीत में नहीं जाते यथार्थ से टकराते हैं ’’ 

-विजय बहादुर सिंह 

यह उद्गार हिंदी के वरिष्ठ कवि विजय बहादुर सिंह ने 30 जनवरी 2022 विजय वर्मा की पुण्यतिथि पर आयोजित हेमंत फाउंडेशन के पुरस्कार ‘‘हेमंत स्मृति कविता सम्मान‘‘ समारोह में अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में व्यक्त किए। उन्होंने कवि अंबर की कुछ पढ़ी कविताओं का जिक्र करते हुए कहा कि ‘‘कविताएं बहुत सार्थक हैं। लेकिन पुरस्कार के पश्चात संभावनाएं क्षीण नहीं होनी चाहिए। और कवि को अपने अध्ययन क्षेत्र को और भी आगे बढ़ाते रहना चाहिए‘‘

कार्यक्रम का आरंभ सुनीता शर्मा के द्वारा गाई सरस्वती वंदना से हुआ। अतिथियों का स्वागत करते हुए संस्था की संस्थापक/अध्यक्ष वरिष्ठ लेखिका संतोष श्रीवास्तव ने कहा ‘‘23 वर्ष की उम्र में दुनिया को अलविदा कह गये हेमंत की कविताओं में प्रेम, संघर्ष, द्वंद और जीवन और प्रतिरोध की गहन और लंबे समय तक अपना असर छोड़ने वाली कविताएं हैं। कहते हैं मृत्यु प्रकृति का अंतर्विरोध है इसे सहना ही होगा। यही सहना यही बर्दाश्त है हेमंत स्मृति कविता सम्मान।‘‘ उन्होंने कहा कि आज यह बीसवां पुरस्कार अंबर पांडेय को उनके कविता संग्रह कोलाहल की कविताएँ के लिये दिया जा रहा है।

आयोजन की प्रस्तावना एवं संस्था का परिचय संस्था की संस्थापक/सचिव साहित्यकार प्रमिला वर्मा ने दिया- उन्होंने संस्था के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी दी कि कैसे हम निरंतर आगे बढ़ते रहे और आज यह पुरस्कार पूरी प्रतिष्ठा से बीस वर्ष का हो चुका है।

प्रमुख वक्ता आशुतोष दुबे जी ने कहा-‘‘अंबर पांडेय की भाषा और शब्दावली ध्यान खींचती है। उनकी विचलन की भाषा है। प्राचीन तथ्यों का उत्खनन करते हुए पुनः विचार करने को प्रेरित करती है। उन्होंने साहित्य की लकीरों को छोड़कर अपनी भाषा रची है।‘‘

अंबर पांडेय ने अपनी बेहद महत्वपूर्ण कविताओं का पाठ किया उन्होंने संस्था को धन्यवाद देते हुए कहा कि आज यह मेरे लिए महत्वपूर्ण अवसर है।

विशिष्ट अतिथि ओम निश्चल जी ने हेमंत फाउंडेशन के कार्यों की प्रशंसा करते हुए कहा‘‘ कि बहुत परिश्रम निष्पक्षता से कार्य को अंजाम दिया जा रहा है। लगभग बीस वर्षों से विभिन्न युवाओं को इस सम्मान के लिए चुना जाना प्रशंसनीय  है। उन्होंने कवि की प्रशंसा करते हुए कहा कि कवि ऐसी भाषा से अर्थ को जोड़ता है जिस प्रकार धान तोड़ते हुए उसे अक्षत रखा जाता है।‘‘

अनुराधा सिंह ने अंबर की कुछ कविताओं का पाठ किया और गंभीर समीक्षात्मक टिप्पणी प्रस्तुत की।

सारस्वत अतिथि गिरीश पंकज जी ने ‘‘अंबर पांडे की कविताओं की समीक्षा करते हुए उनकी कविताओं का उल्लेख किया। साथ ही कविताओं में इतिहास बोध को वर्तमान से जोड़ते हुए अनैतिकता का विमर्श भी सामने रखा। उन्होंने कहा कि कवि का गहरा काव्य विवेक अभिभूत करता है।‘‘

मुख्य अतिथि प्रमोद कुमार गोविल जी ने कहा कि‘‘ हेमंत की स्मृतियों को इस संस्था ने अक्षुण्ण बनाए रखने का जो बीड़ा उठाया है वह प्रशंसनीय है।‘‘

कार्यक्रम का कुशल संचालन श्रीमती रूपेंद्र राज तिवारी ने किया। उनके संचालन ने सभी श्रोताओं को बांधे रखा। आभार डॉ संजीव कुमार ने दिया।

इस ऑनलाइन समारोह में साठ के लगभग उपस्थिति महत्वपूर्ण रही। जिसमें देशभर के जाने-माने विद्वतजन,लेखक, पत्रकार ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।                           भोपाल, मो. 9769023188

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पुस्तक समीक्षा



समीक्षक - डॉ. टी. सी. बसंता

 डाॅ. अहिल्या मिश्र


दरकती दीवारों से झांकती जिंदगी 

 लेखिका डाॅ. अहिल्या मिश्र


आत्मकथात्मक उपन्यास- एक विश्लेषण भावुक मन से वैचारिक क्रांति तक - डाॅ. टी. सी. बसंता 

2021 में इस का प्रकाशन हुआ। शीर्षक अर्थगर्भित है। घर की दीवारों में दरारें आना सहज है। औरतें इन दरारों को देखकर घबरा जाती है परंतु नायिका अहिल्या बिना घबराए दरारें मिटाकर नया घर बनाना चाहती है। उनहेंने नया नीड़ बनाया भी। अक्सर हम देखते हैं दरारों में पौधे उगते हैं। दरारों में एक हरियाली अंकुर बनकर अहिल्या पाठकों के सामने प्रस्तुत हुई है। हमारे चरित्र नायिका में नियत अभिभावक मन तथा वैचारिक क्रांति का प्रतिबिंब इस आत्मकथा में दिखाई देता है। अनामिका जी ने दुर्ग द्वार पर दस्तकंे दी है अहिल्या जी ने दुर्गद्वार को तोड़ दिया है। 

ओमा शर्मा जी ने कहा है - ‘‘सबसे पहले तो यही सवाल है कि लेखक को आत्मकथा क्यों लिखनी चाहिए? उसके जीवन अनुभव या नज़्ारिया का ऐसा कौन सा पक्ष है जो कहानी, उपन्यास या संस्मरण के जरिए पूरा नहीं हो पा रहा है। साठोत्तरी हिंदी लेखकों की चैपाल में तो इस हिनहिनाते मुहावरे ने एक मिथक का आकार अख्तियार कर लिया है कि जन सारा लेखन में छोटी-छोटी आत्मकथाओं की किस्त है तो अलग से आत्मकथा लिखने की जरूरत ही कहां पड़ती है? सतह से यह तर्क जितना लुभावना और शाईस्ता लगता है अंदर उतना ही पिलपिला और बेतुका है क्योंकि पहली बात तो यही कि आत्मकथा अंतर धारा के स्तर पर जिंदगी का किस्त दर किस्त नहीं सिलसिलेवार बखान है दूसरे यह स्व-कीया प्रदेश महत्वपूर्ण होता है न कि परकीया प्रवेश‘‘ (आत्मकथा लेखन आत्म छलना के प्रयोग) स्पष्ट है साहित्य की अन्य विधाओं में परकाया प्रवेश होता है परंतु आत्मकथा में मन के साथ विभिन्न परतों तथा स्वयं और परिवार तथा समाज के बीच होने वाली संघर्ष का सच्चाई के साथ बयान होता है।

अहिल्या जी का भावुक मन तथा वैचारिक क्रांति का उदाहरण प्रस्तुत कर रही हूँ। ”अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी” पंक्तियों को हम सब पढ़ते आ रहे हैं। हां, स्त्री का जीवन यही है। इस निर्लिप्तता से कभी किसी ने इन पंक्तियों का विश्लेषण नहीं किया है जैसे लेखिका ने किया है। आपने प्राक्थन ‘शब्दों की गुफाओं में मेरा मैं में ‘‘अबला जीवन.. आँखों में पानी का विस्तृत विवेचन अर्थ ध्वनिता के साथ किया है जो सर्वथा नया है। यह विश्लेषण आत्मकथा के लिए सिरमौर है। अहिल्या जी की गुप्त की इन पंक्तियों की परिभाषा का सच देखें तो वही चमत्कारिक रूप से बलशाली है, सक्षम है, समर्थ है। इन पंक्तियों के विश्लेषण करने पर जो कुछ सामने आता है वही अर्थ भेद आप दरकती दीवारों से झांकती जिंदगी में यत्र-तत्र सर्वत्र एक लंबी कथा के रूप में कई- कई अंकों में पाएंगे। (पृष्ठ 3-4)

कई सालों से स्त्री से संबंधित कई आस्था या धारणाएं परिवार तथा समाज में व्याप्त हैं। अब महिलाएं अपनी आत्मकथाएं लिख रही हैं और स्त्री सशक्तिकरण की ओर प्रस्थान कर रही हैं। इस संदर्भ में अहिल्या जी के इस कथन को आंचल में गांठ बांधकर रख सकते है।’’ महिला साहित्यकारों की अपनी आत्मकथाएं लिखना समाज के सामने अपनी शक्ति और प्रतिबोध का परिचय देने के समान होता है। जिन भी लेखिकाओं की आत्मकथा प्रकाशित हुई हैं। समाज और साहित्य में खलबली सी मचाती रही हंै। विभिन्न प्रकार के सवाल उठाए जाने लगते है। निगाहे टेढ़ी कर ली जाती हैं। मेरे विचार से स्त्री होना अपराध नहीं है किन्तु नारीत्व की गरिमा के बदले स्त्री की आंसूू भरी नियति स्वीकार करना बहुत बड़ा अपराध है। परिवार में पुरुष को स्त्री से बढकर कर्ता के रूप में स्त्री की कमजोरी के नैसर्गिक गुणों से युक्त प्रतीक उसे ताकतवर मानने से इनकार रही है। आज के समाज अवधारणा रूप से प्रतिभावान स्त्रियों की सफलता एवं समाया को सहजता से नहीं पचा पा रहा है। वह आज भी स्त्री के आदर्श और कत्र्तव्यों को परंपरा अनुसार ही तय करता है। भले ही उस से स्त्री के स्वभाव का निषेध और विखंडन क्यों ना हो। (पृष्ठ 8)

इस आत्मकथा में 20 शीर्षक हैं। इन शीर्षकों में एक बिहार की बिटिया की संघर्ष यात्रा झलक पड़ती है। शीर्षक आकर्षणीय है। मैथिली भाषा का सौंदर्य भी हम देख सकते हैं। मिथिला का प्रादेशिक सौदर्य एवं मधुरिमा का परिचय भी आरंभिक अध्यायों में बिखरा पड़ा है। आत्मकथा में निहित विषयों के अनुसार इनके संघर्ष यात्रा को तीन बिंदुओं में हम देख सकते हैं-पारिवारिक संघर्ष यात्रा,साहित्यिक संघर्ष यात्रा और संध्या कालिक संघर्ष यात्रा। अहिल्या जी का जन्म बिहार के सागरपुर गांव में हुआ है। आपने जन्म स्थान का भौगोलिक, ऐतिहासिक, राजनैतिक, आर्थिक, शैक्षिक विरासत एवं कालखंड को भी अंकित करना आवश्यक समझा है। अपने पुरखों के बारे में भी वर्णन किया है। 200 वर्ष पूर्व पूर्वजों द्वारा बनाया गया मंदिर का सुंदर वर्णन मिलता है। (पृष्ठ 17) पढ़ते समय ऐसा लगता है प्राकृतिक सौंदर्य सबसे बड़ा धन है। कई रंग-बिरंगे फूलों की खुशबू पाठकों तक पहुंचती हैं। आपके पिताजी उस समय के क्रांतिकारी थे। पृष्ठ 36 पर इससे संबंधित विवरण मिलता है। शिशु अहिल्या माँ के दूध से वंचित थी। इस दुखद स्थिति के बारे में जानने के बाद पाठक भावुक हो जाते हैं यानी इससे ही उनकी संघर्ष यात्रा शुरू हुई।

बचपन में बालिका अहिल्या नटखट थी। इसके कारण वह संकट में पड़ती थी फिर भी बालिका कभी नहीं डरती थी। वह भूत प्रेत से बिल्कुल नहीं डरती थी। पुस्तक में कुछ घटनाओं का वर्णन हुआ है-(पृष्ठ 47-48)। लेखिका का मन गांव की जड़ों के साथ जुड़ा हुआ है। आपने पुस्तक में वर्णन किया है- पृष्ठ 52-57। लड़की होकर लड़कियों की तरह बर्ताव करने वाली, किसी से न डरने वाली अहिल्या को गोपालपुर की दाई हमेशा कहा करती थी-“बेटी हो तो बेटी बन कर रहो, लड़कों-सा बर्ताव करना छोड़ो। गाँव की स्थानीय बोली भाषा में अद्वितीय सौंदर्य अभिव्यक्त किया गया है।

अहिल्या माँ बन गई। भयंकर प्रसव पीड़ा को सहकर पुत्र को जन्म दिया। मातृत्व की सुखद प्राप्ति अध्याय में माँ और प्रकृति के बीच के अटूट संबंध का संुदर वर्णन किया है। बेटा मानवेंद्र के भविष्य के बारे में अत्यधिक चिंतित थीं। उन्होंने पतिदेव को हैदराबाद जाकर नौकरी करने के लिए कहा। कई बाधाएं आ गई। निराश भी हो गई। गुस्से में एक शर्त रखा या तो आप हैदराबाद जाएंगे नहीं तो कहीं से ज़्ाहर लाकर मुझे और मेरे पुत्र को दीजिए और निश्चिंत होकर अपनी पारिवारिक राज गद्दी पर बैठे रहे तथा जमींदारी का उपयोग करें- (पृष्ठ 116)।

इस तरह अहिल्या की संघर्ष यात्रा चलती रही। बेटा मानवेंद्र स्कूल जाने लगा। हैदराबाद आने के बाद अहिल्या ने टाइपिंग का प्रशिक्षण लेना शुरू किया। बाद में एक कंपनी में सुपरवाइजर की नौकरी करने लगीं। यहां पर भी उन्हें कई समस्याओं को झेलना पड़ा- (पृष्ठ 122)

दो मुस्लिम सखियां खुर्शीद बेगम एवं साबेरा बेगम का सहारा लिया। नौकरी के लिए घर से निकलते समय आम औरते जो उत्तर प्रदेश, बिहार की थीं ताने मारती थीं। जब भी अहिल्या बेचैन हो जाती है उनका कहना है - वैसे मैं कलम पकड़ लेती एवं कुछ लिख लेती हूँ। इस कहानी का जन्म भी इसी घटना के बाद हुआ। इस ऊहापोह पर कई कविताएँ लिखकर मन शांत की। अभिमानी अहिल्या औरत को बदनाम करने वाले मर्द को कभी नहीं छोड़तीं। गाल पर थप्पड़ मारने के लिए भी तैयार हो जातीं। पृष्ठ 144 से 145 पर इसका वर्णन है।

आपने अथक श्रम से अपना घर राजसदन बनाया। यहां से उनके संघर्ष का दूसरा युग का आरंभ हुआ। जीवन के लिए नए रास्ते एवं अर्थ ढूंढने पड़े। 7 वर्ष के मानवेंद्र का यज्ञोपवीत करने का निर्णय लिया गया। बहन माधुरी के प्रति ससुराल वालों का व्यवहार ठीक नहीं था। दो बच्चों की माँ को कई तकलीफ उठानी पड़ी। वह सिजोफ्रेनिया की मरीज बन गई। पग-पग पर बड़ी बहिन अहिल्या ने छोटी बहन को सहारा दिया। अरुणाचल प्रदेश में नौकरी करने गई थीं। भावुक अहिल्या का मन यहाँ प्रकृति सौंदर्य को देखकर बहुत प्रभावित हुआ। नवजीवन स्कूल में काम करने लगी। यहां पर आपने महत्वपूर्ण साहित्य का सृजन किया। इन्हीं दिनों मैक्सिम गोर्की का उपन्यास ‘मदर‘ का हिंदी अनुवाद ‘माँ‘ पढ़ा। साहसी अहिल्या जी का कहना है ‘‘80 के आरंभिक दशक तक तो कई भयानक स्थितियों का सामना ही करती रही किंतु मैं इन सब से जूझते हुए भी कार्य और कलम के साथ समय अनुसार अपने निर्धारित लक्ष्य एवं सुनिश्चित मार्ग पर बढ़ती रही। मिश्रा जी को भी अपने काम में जुटाने की प्रेरणा देती रही- (पृष्ठ 171)

बेटे की दाहिनी आँख की रोशनी चली गई। उन्हें उस्मानिया में रहना पड़ा। कर्म पथ पर चलती रहीं। न थकने वाली बटोही थीं। समय के क्रूर हाथों द्वारा सुरक्षा की दीवारों में एवं चैड़ी दरार फाड़ कर उसमें सपनों के कील ठोककर ईसा मसीह की तरह लटका दिया गया था। बेरंग हो चली जिंदगी में फिर से सांसों के लिए डोर मजबूती से बांधने लगी किंतु हारना तो मैंने सीखा ही नहीं था। इस फार को शिक्षा का गारा (गिलेवा) एवं चूना लगाने का निर्णय लिया और आगे बढ़ चली- (पृष्ठ 184)

अहिल्या कुछ संस्थाओं से जुड़ गई। हैदराबाद में होने वाली काव्य गोष्ठी में भाग लेना चाहती थीं।

परिस्थितियों को उन्होंने किस कदर सामना किया। यह विवरण मन को बेचैन करता है।

261, 262, 263 आदि पृष्ठों पर विवरण मिलता है अहिल्या जी को दादी बनने के लिए 11 वर्ष इंतजार करना पड़ा। आज पोता पोती को देखकर वे बेहद खुश हैं । संध्या कालीन संघर्ष यात्रा के बिंदु पर देखा जाए तो अहिल्या जी को पति वियोग सहना पड़ा। पति बीमार थे तभी यह भी कैंसर की बीमारी से ग्रस्त हो गई। अहिल्या जी स्त्री शक्ति का उत्तम उदाहरण बनाने के लिए उत्तम राह पर बढ़ती जा रही हैं। अपने आप से कहती जा रही हैं। ‘‘उठ चल, उठ आगे बढ़। सारे अधूरे कार्य जो पूरे करने हैं। उत्तिष्ठ प्रस्थान उत्तिष्ठ। गीत बसंत महाकवि नीरज के गीत पंक्तियों का प्रतिबिंब मुझे अहिल्या जी में दिखाई देता है।

‘‘मैं पंथी तूफानों में राह बनाता, मेरा दुनिया से केवल इतना नाता/वह मुझे रोकती है अवरोध बिछाकर, मैं ठोकर उसे लगाकर बढ़ता जाता।

आत्मकथा साहित्य विधाओं में एक सशक्त विधा है। सभी भाषाओं में कुछ लेखिकाओं ने आत्मकथा लिखी है। उनमें कुछ है एक अज्ञात हिंदुस्तानी की ‘सीमांतिनी उपदेश‘, अमृता प्रीतम की ‘रसीदी टिकट‘, कमला दास की ‘मेरी कहानी‘, कृष्णा अग्निहोत्री ‘लगता नहीं है दिल मेरा‘, मैत्रेई पुष्पा ‘कस्तूरी कुंडली बसे‘, ‘गुड़िया भीतर गुड़िया‘, प्रभा खेतान ‘अन्या से अनन्या‘, नसीमा हर्रजक ‘कुर्सी परियों वाली‘, रमणिका गुप्ता ‘हादसे‘, कोंडपल्ली वेंकटेश्वर अम्मा ‘निर्जन वारिधि‘ अनीता राकेश ‘सतरें और सतरें‘, मन्नू भंडारी ‘एक कहानी यह भी‘, नेरी महमूद ‘नार विदाउट माय डॉटर‘, माष्ट गुरी देसाई ‘नाचगा घुमा‘, नसीरा हलीमा ‘टीयर्स ऑफ ट्रेजर‘, फूला देशपांडे ‘मनोहर आहे तेरी‘, नेनी कांबले ‘माझा जन्म चरित्र कथा‘, शांताबाई दाणे ‘रात्रि दिवस‘, जनानार्ड गिरे ‘मरण कला‘, मुक्ता मिटलेली कवाडे, इंदू जोधले ‘बिन पटाए चैकठ‘, कुमुद पावडे ‘अंतः स्फोट‘ आदि।

आत्मकथाओं के साहित्य विकास में अहिल्या जी की आत्मकथा ‘दरकती दीवारों से झांकती जिंदगी‘ का भी महत्वपूर्ण योगदान है। पुस्तक में मैं एक पेज मार्कर रखती हूं। पेज मार्कर को पंख हैं। मुझे लग रही है 324 पृष्ठों की पूरी आत्मकथा पढ़ने के बाद मारकर के पंख भी भीग गए।

आत्मकथात्मक उपन्यास शीर्षक - दरकती दीवारों से झांकती जिंदगी 

प्रकाशक - गीता प्रकाशन, रामकोट, रुपए 565/- 

संपर्क - हैदराबाद, तेलंगाना, मो. 99514 84545

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