पूज्यवर राजनारायण बिसारिया जी को श्रद्धांजलि


पूज्यवर राजनारायण बिसारियाजी का पवित्र स्मरण।

प्रियता और पूज्यता व्यक्ति, वस्तु और परिस्थिति सबके दो पक्ष होते हैं, जिनसे ये स्मृतियों में चिरकाल तक जीवित,सुखद और भास्कर बनें रहते हैं। बिसारियाजी मुझे प्रियतर भी थे, और पूज्यवर भी मान्य थे। उनसे मेरा प्रत्यक्ष परिचय कभी नहीं हुआ, किंतु बीबीसी, लंदन के ‘‘पत्र मिला ‘‘कार्यक्रम के प्रसारणों में उनकी शैली की जो छाप मुझ पर पड़ी वह शिलालेख के स्वर्णाक्षरों के समान अब भी अंकित है। मैं बहुधा बीबीसी के प्रसारणों के संबंध में अपनी टिप्पणी अवश्य लिखता था जिसे वे गंभीरता से लेकर पसंद करते और प्रसारणों में जगह भी देते थे। वैसे बीबीसी की ‘‘हिन्दी सेवा ‘‘प्रसारण में एक से एक सुयोग्य उद्घोषक थे, किन्तु बिसारियाजी मुझे सबसे अलग लगते थे। शैली व्यक्तित्व है, यह सटीक है ,और न्यूनाधिक हर व्यक्ति पर लागू होती है,किन्तु फिर भी उनमें अन्तर तो होता ही है। बिसारियाजी मेरी समझ में अपने शब्दप्रयोग, वाक्य विन्यास, के साथ  अपनी अभिव्यक्ति की नवीनता के कारण अपनी पूरी टीम में विलक्षण थे। मैं समझता था कि वे अनुकरणीय विश्वविख्यात  विरल उद्घोषक हैं। वस्तुतः वाक्य प्रयोग में शब्दों के आरोह अवरोह और उचित विराम का उनका अभ्यास था। वे पूरे नियंत्रण के साथ शब्दों को वाक्य की मालिका में कुशल मालाकार के समान पीरो/गूंथकर अपने श्रोताओं को प्रस्तुत करते थे।

काल प्रवाह में मेरा बीबीसी से संपर्क कम हो गया। बिसारियाजी से कभी व्यक्तिगत पत्राचार भी पहले नहीं हुआ था, आवासीय पता भी नहीं था। किंतु मैं उनको भूला नहीं था, दैवयोग कहा जाय मैं भी उनकी स्मृतियों में कहीं जुगनू की तरह जगमगा रहा था। वर्ष छह के दिसंबर में दिल्ली रहकर मैं यहां अपने घर आया तो एक पत्र देखा, जिसपर प्रेषक की जगह पर बिसारियाजी का नाम पता था। इसे पढ़कर मैं विस्मयविमुग्ध होगया। पत्र के भाव, भाषा और शैली में आत्मीयता थी। वह पत्र आज भी मैंने संजोकर रखा है, जिसे पढ़कर उनके बाहुल्य की सुखद अनुभूतियों में डूब जाता हूं। पावन सुखद अविस्मरणीय स्मृतियों में आज भी ...।

मेरे पुत्र कौस्तुभ जी बताते हैं कि प्रियवर सुहृद्वर बिसारिया जी ने उनका प्रत्यक्ष परिचय आदरणीय देवेन्द्र कुमार बहल, संपादक अभिनव इमरोज और नंदिनी से कराया। बिसारियाजी ने पत्रकारिता के अपने गहन गंभीर ज्ञान के पारस स्पर्श से कौस्तुभजी की पत्रकारीय अभिरुचि शिक्षा प्रशिक्षण को एक कुशल वास्तुशिल्पी की तरह तराशकर नयी नयी ऊंचाइयों का दिग्दर्शन करते रहने का अनथक प्रयास किया, जो एक अज्ञात कुलशील के युवा के लिए प्रवास में अकल्पनीय था। बिसारियाजी ने आपने व्यस्त बहुमूल्य समय का अधिकांश कौस्तुभजी के लिए दिया। उनकी प्रकाशनापेक्षी कृति की पांडुलिपि को अक्षर-अक्षर जांच परखकर प्रकाशन योग्य बनाया। पुस्तक का नाम अपनी पसंद से ‘‘टीवी समाचार की दुनिया‘‘ की भूमिका ‘‘प्रसंग ‘‘लिखी। इसे अपनी मनपसंद भूमिका की तरह उन्होंने लिया और एक विश्वसनीय प्रकाशक ‘‘किताब घर ‘‘से उसके सम्मानसहित प्रकाशन कराने की भी व्यवस्था की। बिसारियाजी स्वभावतः साधक, अनुष्ठान परायण थे। बीबीसी हिंदी सेवा/सर्विस को वे ‘‘हिन्दी अनुष्ठान‘‘ ही कहते थे। जब वे स्टुडियो में आते तो बड़े गौरव से, बीबीसी हिन्दी अनुष्ठान ही कहकर कार्यक्रम को प्रारंभ करते थे। उनके हर शब्द, वाक्य में एक गरिमा प्रतिध्वनित होती थी। वस्तुतः बिसारियाजी बीबीसी, हिन्दी अनुष्ठान की गरिमा ही थे जो स्थान उनकी सेवा निवृति के बाद कोई नहीं ले सका। वे स्वभाव कर्तव्यकर्म से भी स्वयं एक संस्था थे। वे समझते थे कि संस्था केवल व्यक्तियों का समूह नहीं होती,उसमें नवनिर्माण का वैचारिक मार्दव और कर्मकौशल सौष्ठव प्रतिबिंबित होता है। अपने से छोटे, लघु को शक्ति, स्नेह, और सम्मान देकर नया बनाने का वह एक शिल्प गढ़ रहे थे।

मुझसे उनका कितना गहरा भावनात्मक संबंध था इसका पता एक घटना में मिलता है। बहुत दूर नहीं, पिछले ही वर्षांत दिसंबर में कौस्तुभजी यहां आते थे। इसी बीच एक संध्या उन्हें फोन आया। फोन बिसारियाजी का था। कौस्तुभजी उन्हें बताया कि वे अभी अपने घर/मोतिहारी में है। यह सुनकर उन्होंने तुरंत मेरे बारे में जानकारी ली। कौस्तुभजी ने यह कहते हुए ‘‘वे यहीं हैं, बात कीजिए।‘‘ फोन मुझे दे दिया। दोनों की आत्मीयता भरी बातें होती रहीं। वहीं उनसे मेरी पहली और अन्तिम बातचीत थी। कौन जाने बिसारियाजी मुझे ही खोजते हुए कौस्तुभजी के माध्यम से मेरे घर तक पहुंच गये थे। आत्मीय अंतरंग संबंधों की यह अनंत अकथकथा है।

मेरे आत्मसहचर बिसारियाजी सम्मानित व्यक्ति थे। बीबीसी का कार्यकाल सम्मान व्यतीतकर वे सेवानिवृत्त हुए थे। स्वदेश लौटने पर यहां भी वे भारत सरकार की ‘‘प्रसार भारती‘‘संस्था में रहकर उसे अपने सुदीर्घ अनुभवों से समृद्ध करते रहे। वे बीबीसी से यहां भारत तक जहां भी रहे मेरी मैत्री सुह्द्भाव की रही। पूज्यसुहृद्वर बिसारियाजी आज भी मेरे मनप्राणों को अपनी पवित्र भावनाओं से शक्ति स्फूर्ति देरहें हैं। सच है, वे सच है वे सज्जन सुकृत् पुरुष थे, जिनके लिए कहा गया है ‘‘उन्हें जरा मरण का भय नहीं होता, वे चिरंजीवी होते हैं, सुरतरु की सुरभि के समान उनके कर्तव्य कर्म का शाश्वत सौरभ दिग्दिगन्त को पवित्र करता रहता है।

सच है.. चटक न ताड़ते घटती हुं, सजन नेह गंभीर।

फीकौं पड़ै, न  बरू फटै,

रंग्यो चोल रंग चीर। शत शत नमनपुष्प...


-रामस्वार्थ ठाकुर, 

सेवानिवृत्त प्रोफेसर, मोतिहारी (बिहार)

                   


Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य