साहित्य नंदिनी मार्च 2022



 समीक्षा

‘परछाइयों का समयसार’ उपन्यास: कुसुम अंसल

अन्धेरी दरारों में सोए आलोक पिंडों की परछाइयाँ

-डाॅ. रेखा सेठी

अपने एक संवाद में गगन गिल ने कहा था कि स्त्री लेखन मोनोलॉग है। वह अपने आपसे बात करते हुए लिखा जाता है। कुसुम अंसल का यह उपन्यास पढ़ते हुए यह पंक्ति बार-बार मेरे मन पर दस्तक देती रही। ‘परछाइयों का समयसार‘ में नताशा की कहानी सिर्फ प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझती एक युवा लड़की के प्रतिष्ठापित होने की कहानी भर नहीं है। यह बाहर से भीतर की यात्रा है। अस्मिता और अस्तित्व के सवालों से परे अपने पूर्णत्व को पा जाने के अहसास की कहानी है।

हम कुसुम अंसल को जिन कथात्मक रचनाओं के लिए जानते हैं, भले ही वह ‘एक और पंचवटी‘ हो या ‘तापसी‘, उनकी नायिकाओं के जीवन और चरित्र में मैले नकली, गहरे दुःख का बारीक तन्तु हमेशा अनुस्यूत रहता है। सम्भवतः यह भरे-पूरे परिवेश के भीतर बजता अकेलापन है, जो जब आपके जीवन से अभिन्न हो जाए तो अपने ‘स्व‘ और ‘संसार‘ को पहचानने की दृष्टि बदल देता है। ‘अस्मिता‘ की परिभाषा भी ‘मैं‘ के सीमित दायरे से निकलकर व्यापक व घने जीवन-बोध को अर्जित करने में बदल जाती है।

पूरे उपन्यास की परिस्थितियां हमारी जानी-पहचानी हैं, जैसे कोई पास-पड़ोस की कथा सुना रहा हो। नताशा, शैलेन्द्र, डॉ. वेद मेहरा सामान्य मध्यवर्गीय पात्र हैं। भले ही शैलेन्द्र और पापाजी का परिवार गहरी आत्मीय डोर से बंधा परिवार है। शैलेन्द्र के एक्सीडेंट से उत्पन्न स्थिति नताशा और पापाजी दोनों के लिए अलग चुनौती प्रस्तुत करती है, जिससे वे अपनी-अपनी तरह समझौता करते हैं।

इस परिवार के साथ-साथ अनेक छोटी-बड़ी कहानियां हैं, अस्पताल में मिली प्रिया या पूजा, हैरी, विद्यावतीजी-पीड़ा, शोषण, क्रूरता की कहानियां, ज़िन्दगी के स्याह अन्धेरों की कहानियां, जो भयावह होते हुए भी सच हैं। यहां स्वार्थ की निर्ममता में सारे रिश्ते तार-तार होकर बिखरते दिखाई पड़ते हैं। पूजा की कहानी हो या विद्यावती की, वे अपने आप में स्वतंत्र कहानियां हैं, जिन्हें लेखिका ने अत्यन्त संवेदनशीलता से नताशा की मूल कहानी से जोड़ दिया। ‘परछाइयों का समयसार‘ निश्चित ही अनेक परछाइयों का कोलाज है जो अलग-अलग न पड़ी रहकर एक-दूसरे को आच्छादित किए हुए हैं। उनके भीतर से गुजरती रोशनी की एक लकीर दर्द के धुंधलके को उजाले की ओर बढ़ाती है, ‘डार्कनेस इज़ नैवर एब्सोल्यूट‘। 

कुसुम अंसल के इस उपन्यास को अनेक दृष्टियों से पढ़ा जा सकता है। स्त्रीवादी पाठ से पहले उसकी सामाजिक दृष्टि के विस्तार को पकड़ना बेहतर होगा। जब मैं कहती हूं कि यह बहुत-सी परछाइयों का कोलाज है तो बिना सोचे नहीं कहती। इन परछाइयों के बीच दर्द की साझेदारी है। ‘सिमरन‘ के सरदारजी और देवकी हों या जुबैदा और साहिल, बरसों के बाद भी एक-सी हकीकत, एक-सी नफरत के साझीदार हैं। साम्प्रदायिक दंगों की आग ऐसे घाव देती है कि बिना झुलसे हुए उससे बच पाना मुश्किल है। सब सामान्य दिखने पर भी एक शून्य बना रहता है, जो कभी नहीं भरता। सरदारजी अपनी कहानी सुनाते हुए कहते हैं-

हमारी रूह में जो डर पालथी मारकर बैठ गया था, वह निकला नहीं। इतने हादसों के बाद सहज कहां रह पाता है कोई बेटा? यही प्रतिध्वनि जुबैदा के शब्दों में भी है-जाने कब खतम होगी ये हमारी मजहबों की जंग, दिलों की नफरतें, इन्सान की इन्सान से दूरियां?

सरदारजी ने विभाजन के दंगे झेले हैं तो जुबैदा ने उसके पचास बरस बाद के, लेकिन वहशीपन और दर्द की लकीरें बदली नहीं। क्रोध और नफरत मानवीय सद्भावों के ताने-बाने को छलनी कर रहे हैं। लेखकीय हस्तक्षेप इन पात्रों व प्रसंगों में कुछ इस रूप में दिखाई पड़ता है कि ऐसी प्रतिकूलता झेलते हुए भी वे दुनिया के प्रति कटु नहीं हुए। ईश्वरीय कृपा व आस्था पर उनका भरोसा टूटा नहीं है और मानव-मात्र के प्रति करुणा का अहसास भी कमतर नहीं हुआ। पूरे उपन्यास में सरदारजी अपने व्यक्तित्व में ऐसी विराटता के साथ उभरते हैं, जो अपने साये में सबके घावों का मरहम हो जाना चाहता है, क्रूरता को अपनी मृदुता से खारिज करता हुआ।

इन पात्रों को रचती-बनाती लेखिका दर्शन के गलियारों में लगातार आवाजाही करती रहती है। भावनाओं के इस ज्वार-भाटे में वह क्या ढूंढ़ रही है? इस प्रश्न का सम्भावित उत्तर हमें पुस्तक के फ्लैप पर मिलता है, जहां यह संकेत दिया गया है कि कुसुम अंसल मनोविज्ञान की अध्येता हैं, ठीक वैसे ही, जैसे नताशा और अस्पताल का परिवेश बहुत-सी स्वाभाविकताओं को जन्म देता है, जिसे लेखिका ने नताशा के माध्यम से जिया है। लेखकीय दृष्टि को महत्त्व देते हुए भी यह टिप्पणी अंशतः ही सही है। कुसुम अंसल जिस खूबसूरती से नताशा का चरित्र गढ़ती हैं, उसमें पात्र की स्वाभाविकता या विश्वसनीयता पर कहीं भी लेखकीय दृष्टि हावी होती नहीं लगती। नताशा स्वयं एक यात्रा पर है-Journey of self actualization.

अपने ‘स्व‘ को पाने या अर्जित करने की प्रक्रिया में नताशा मानवीय भावनाओं के अंतरतम तक पहुंचती है। उसका जीवन छोटे-बड़े प्रसंगों से होता हुआ गहरे जीवन-दर्शन के अर्जुन के लिए समर्पित है। यह यात्रा सरल नहीं, वह बार-बार अपने विश्वासों से टकराती, मुठभेड़ करती है, जिससे वह नए जीवन-सत्य को प्राप्त कर सके।

आधुनिक मन पर लदे सवाल कई तरह के हैं-समर्पण से लेकर अपने होने के अहसास तक। सामान्य जीवन स्थितियों में शायद नताशा के लिए ईश्वर के अस्तित्व को नकार पाना आसान है, लेकिन अपनी आंखों के सामने तिल-तिल कर पत्थर होते शैलेन्द्र को देखते हुए यह सवाल किसी दूसरे सिरे से उठता है। ह्यूमन इमोशंस मानवीय भावनाओं का संसार उद्दाम वेग के झंझावातों से उतप्त संसार है, जिसे विचार की प्रश्नाकुलता पल-प्रतिपल और बेचैन करती रहती है। ऐसे में क्या आस्तिकता की रोशनी राहों में उजाला भर सकती है? डॉक्टरों और नर्सों के बीच नताशा अपने विश्वास को फिर से परखती है। डॉक्टर प्रशांत के समक्ष नताशा कनफेस करती है कि वह भगवान को मानती ही नहीं, लेकिन परिस्थितियों से हारते डॉक्टर के लिए समर्पण जीने का आधार है। समर्पण हम इस कारण करते हैं कि हमारा सन्देह समाप्त हो जाए। कोमलता जीवन का स्रोत है और समर्पण उस कोमलता को बचाए रखने की कोशिश।

मनोविज्ञान का सबसे बड़ा सवाल ‘स्व‘ को परिभाषित करने का है, अपने होने का अहसास अपने बीइंग पर विश्वास। नताशा का मन बार-बार डोलता है, लेकिन अन्ततः उसका Self Actualisation अपने होने की पहचान बन जाता है। उपन्यास के आरम्भिक हिस्से में नताशा का जीवन द्रुत गति से आगे बढ़ रहा है। शैलेन्द्र के साथ वह जिस दुनिया को देख रही है, उसमें उसके लिए आत्म विश्वास के मायने बदल रहे है। पी.एच.डी. करनेवाली आधुनिक लड़की, किताबों के बीच किताब-सी ही लगती है। उसकी अपनी दुनिया है, जिसका बाहरी दुनिया से इंटरेक्शन बहुत कम है। शैलेन्द्र का प्यार पाकर वह निरन्तर महसूस कर रही है कि उसमें आत्मविश्वास जाग रहा है। जैसे सन्देह की अपेक्षा समर्पण जीवन का सम्बल है, वैसे ही प्रेम और विश्वास नताशा के लिए साहस का सोपान । उत्तर-आधुनिक स्त्रीवादी दृष्टि से इसे पढ़ना कथा के इस अंश को समस्याग्रस्त करता है। चाहे-अनचाहे सातवें दशक के स्त्री साहित्य में उभरने वाली स्त्री-अस्मिता की आवाजें इस पाठ का अन्तरपाठ रचती हैं। मन्नू भंडारी या ऊषा प्रियंवदा के कथा-साहित्य में मनःस्थिति व परिस्थिति के द्वन्द्व में घिरी स्त्री सहज नज़रों में तैर जाती है तो कभी कृष्णा सोबती की ‘ए लड़की‘ की लड़की विश्वास-अविश्वास के शिखरों-घाटियों के बीच डोलती दिखाई पड़ती है। समानताओं के इस अहसास के बावजूद ‘परछाइयों का समयसार‘ की नताशा किसी और धरातल पर उतरती है।

विचार और संवेदना के इस घटाटोप में ईसा मसीह एक दृष्टि-बिन्द की तरह उभरते हैं। सिस्टर डोरोथी ईसा के क्रूसीफिकेशन और लिबरेशन की जो कहानी सुनाती हैं, वह सम्भवतः प्रत्येक व्यक्ति की पीड़ा और मुक्ति का रहस्य है। ‘ही वाज़ इंजर्ड बाई ह्यूमन इमोशंस‘ वे इन्सान की ही दी हई मानसिक चोटों से घायल थे। यह पीड़ा मुक्ति का सबक है, दुनियावी ज़िन्दगी से आगे का सफर, जिसे नताशा उस अस्पताल की चारदीवारी के भीतर महसूस कर पाती है। हर पल शून्य से घिरे होकर भी अपने बीइंग, अपने वजूद को पा लेने की यात्रा नताशा के लिए आसान नहीं। फिर भी वह जिस गन्तव्य तक पहुंचती है, वह विलक्षण है। एक साहसी और समर्थ महिला को, अपनी सम्पूर्णता प्राप्त करने के लिए किसी भी सहारे की आवश्यकता नहीं होती। वह अपने होने में, अपने आप में पूर्ण है। नताशा के इस अर्जित सत्य में ईसा शामिल हैं तो बुद्ध की यशोधरा भी। वहां कभी सात्र्र चले आते हैं, कभी किर्केगार्द तो कभी ग़ालिब और फैज़। एक बार फिर कहना पड़ता है कि यह रचना केवल बाहरी यथार्थ से नहीं रची गई, भीतरी यथार्थ भी उसमें आवाजाही करता है, परत-दर-परत उसे खोलता हुआ। 

साहित्य का कोई जैंडर नहीं होता, फिर भी इस उपन्यास को पढ़ते हुए जाने कितनी बार यह ख़्याल आया है कि यह उपन्यास यदि किसी पुरुष ने लिखा होता तो ये मानना पड़ेगा कि एक महीन स्त्री दृष्टि इस उपन्यास में झलकती है। रुकैया सखावत हुसैन ने जब ‘सुल्ताना का सपना‘ बुना था तो जो नई दुनिया उसे दिखी, उसमें फूल खिले थे, खुशी की लहर थी। औरतों की दुनिया शान्ति और सद्भावना की दुनिया थी। ऐसी परिकल्पना उस कहानी में तमाम फैमिनिस्ट डिस्कोर्स के आने से बहुत पहले रूपाकार पाती है। कुसुम अंसल द्वारा प्रस्तुत इस समयसार में भी सदिच्छा-सद्भावना का सार है। जीवन और संवेदना को पओजिटिविटी से ग्रहण किया गया है। नताशा का शोध मानवीय भावनाओं की जिन गुत्थियों को सुलझाता है उसमें व्यक्ति का सेल्फ-‘इड, ईगो या सुपर ईगो‘ जैसे वर्गीकरण में खंडित न होकर भावना से प्रदीप्त समेकित इकाई है, जिसमें अहम्-केन्द्रित संसारी मन के अहम् मिट जाते हैं और सैल्फ या आत्म का एक नया दरवाज़ा खुलता है। नताशा के माध्यम से अहम् को निरस्त करनेवाली संवेदनशील भावात्मक दृष्टि कथा की सीमाओं के पार जीवन को देखने-समझने की विवेकशील जीवन-दृष्टि बन जाती है। जैसी मिले ज़िन्दगी, उसे वैसे ही गले लगा लेना चाहिए या फिर टूट जाती है गिरह, विश्वास खंडित हो जाते हैं. परन्त जीने की राह तो तलाशनी पडती है।

यूं तो यह उपन्यास ‘परछाइयों का समयसार‘ है, किन्तु इन परछाइयों में गहन दृश्यात्मकता है। आगे-पीछे चलती कथा विविध जीवन-सूत्रों को अनुस्यूत कर दृश्य बिम्ब-सा रच देती है। शब्दों और अन्तरालों के उभरते बिम्ब पाठक को सभी पात्रों से जोड़ते चलते हैं। यही कारण है कि इतने सारे पात्र होने पर भी वे पाठक की स्मृति का स्थायी हिस्सा बन जाते हैं। पात्रों के व्यक्तित्व के विस्तृत ब्यौरे नहीं हैं, लेकिन उनकी विशिष्टता साफ उभर आती है। उसी के बीच उसकी वर्ग गत असमानताएं भी साफ झलक उठती हैं। उच्च वर्ग की थोथी नैतिकता और क्लास कांशियसनेस में अमान्यता की गन्ध है, जबकि सदा से मानवीयता से जुड़े पात्रों में वर्ग और धर्म के अन्तर निर्मूल होते दिखाई पड़ते हैं। प्रेम व करुणा जीवन के प्रेरक हैं।

जटिल से जटिलतर होती दुनिया में मानवीय भावनाओं का स्पन्दन, सहृदय कोमलता को बचाए रखने की मुहिम है, जिसे यह उपन्यास पूरी शिद्दत से प्रस्तावित करता है, लेकिन साथ ही यह भी कहना होगा कि जहां इसका अन्त होता है, वहीं से एक नई शुरुआत भी होती है। जीवन में भावना कैसी सम्भावना उपस्थित करती है, यह साहित्य एवं सौन्दर्यशास्त्र का बड़ा प्रश्न है। इस दृष्टि से यह उपन्यास साहित्य के आस्वाद में परिवर्तन की कोशिश करता है। बहुत बारीकी से यह अन्तर्मन के घने अवसाद तथा बाहरी यथार्थ के घटाटोप के बीच मौन संवाद स्थापित करने की 

स्पृहणीय कोशिश भी है, जिससे पूर्णता में घुलता हुआ निजता का स्वर अन्धेरी दरारों में सोए आलोक पिंडों को जीवित कर देता है। यही, इस उपन्यास और उसकी रचनाकार की बहुत बड़ी उपलब्धि कही जाएगी।


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समीक्षा

‘परछाईयों के समयसार'  डाॅ. कुसुम अंसल

-सुश्री कदम मेहरा

पिछले दिनों लंदन के नेहरू केंद्र के मंच से ‘‘वातायन‘‘ द्वारा आयोजित हिंदी महोत्सव में मुझे श्रीमती कुसुम अंसल जी का परिचय पत्र पढ़ने का सुयोग मिला। आधुनिक काल के हिंदी साहित्य में आपका गौरवपूर्ण स्थान है। अपनी अनेक उत्तम कृतियों से आपने हिंदी भाषा को समृद्ध किया है। ‘स्पीडब्रेकर‘ से लेकर ‘बस एक क्रा ‘तक का अबाध्य सफर आपको श्रेष्ठतम लेखिकाओं की श्रेणी में ला खड़ा करता है। आपकी चहुमुखी सजगता एवं संवेदना आपको अलग पहचान देती है।

कुसुम जी मनोविज्ञान की स्नातक रही हैं। इन्होने पंजाब विश्वविद्यालय से पी एच डी हासिल की है। इनके शोध प्रबंध का विषय था ‘‘आधुनिक हिंदी उपन्यास एवं महानगरीय बोध ‘अपने विषय की गरिमा को सार्थक करते हुए आपके अनेक उपन्यास हैं जैसे, ‘एक और पंचवटी‘, ‘उस तक‘ एवं ‘रेखाकृति‘ आदि।

सृजन की सीमा यहीं नहीं ख़त्म होती। कविता के आकाश में भी कुसुम जी ऊंची उड़ान भर आईं हैं। ‘धुंए का सच‘ और ‘विरूपीकरण‘ इनके काव्य संग्रह हैं। अनुवाद के माध्यम से कुसुम जी को वैश्विक स्तर पर कई भाषाओं के पाठकों का आदर प्राप्त हुआ है।

वातायन समारोह के अंत में उन्होंने मुझको अपना एक उपन्यास भेंट किया, ‘‘परछाईयों के समयसार‘‘ अगले दो दिनों में ही मैंने पुस्तक को पूरा पढ़ डाला। ऐसा लगा कि पुस्तक ही मुझे नहीं छोड़ रही है।

कहानी एक युवती की जीवन गाथा है। मध्यम वर्ग की यह लड़की अपनी शैक्षणिक योग्यता के आधार पर आगे बढ़ना चाहती है। वह मनोविज्ञान की छात्र है। स्नातकोपरांत शोध के सिलसिले में वह अपने गुरु जी को बहुत प्रभावित करती है। एकल जीवन की विषमताओं से जूझते उसके गुरु को वह अपने पुत्र के लिए उपयुक्त जीवन संगिनी समझ में आती है और वह उन दोनों का विवाह करवा देते हैं। नायिका सर्व गुण संपन्न पत्नी और वधु साबित होती है।

उसका पति उसपर मोहित है। उनकी प्रणय यात्रा मानो इंद्रधनुष के पाँवड़े पर नील गगन की सैर हो। दो वर्ष तक वह सम्मोहित अवस्था में अभी एक दूसरे को पूरा महसूस भी नहीं कर पाए कि अचानक नियति पांवों के नीचे से पाँवड़ा खींच देती है और उनका सतरंगा शीश महल झन्ना कर बिखर जाता है। दो वर्ष से कम अवधि में ही उसका पति एक भयानक दुर्घटना के बाद उसे आधार हीन छोड़कर जीवन से मुक्त हो जाता है।

अपनी व्यथा को अपनी आतंरिक शक्ति का स्त्रोत बनाकर नायिका एकल जीवन में अग्रसर होती है। उसकी सेवा भावना , साधना एवं कर्तव्यपरायणता उसे कहीं भी कमजोर नहीं होने देती। तमाम प्रलोभनों को इच्छाशक्ति से कुचलते हुए वह अपनी आजादी को प्राथमिकता देती है और समाज सेवा के प्रति समर्पित हो जाती है। कुसुम जी ने बेहद सहज ढंग से उसकी नियति तय की है। लेखिका संभवतः यह सन्देश देती लगती हैं की एक शिक्षित, कर्मठ स्त्री के लिए वैवाहिक जीवन ही केवल एकमात्र विकल्प नहीं है। पुरुष प्रेम जीवन का उध्येश्य नहीं है और ना ही विधवा स्त्री दया की पात्र है।

इसी आशय को अभिव्यक्त करती एक और बहुत पुरानी कहानी अनायास याद आ गयी। फिल्म सरस्वती चंद्र की नायिका अपने वैधव्य को अभिशाप न मानकर ,अपने एकमात्र प्रेम को ठुकरा देती है और गर्व से कहती है कि विधवा का जीवन उसे मान्य है क्योंकि वह स्वतंत्र है।

आज की स्वावलम्बिनी नारी किसी सामाजिक विवशता से अभिशप्त नहीं है। उसकी आगामी जीवन यात्रा उसकी शक्तियों को उभारने में समर्थ साबित होती है। इस यात्रा में नायिका के संपर्क में जितने लोग आते हैं ,उनकी कहानियां भी लेखिका ने बड़ी कुशलता से मुख्य कथानक में पिरोई हैं। पहली नज़र में यह ओम्नीबस जैसी कथा लगती है। परन्तु यह सभी कहानियां मुख्य धारा में समाहित हो जाती हैं और उसको पुष्ट बनाती हैं।

पूरा उपन्यास भारतीय आधुनिक जीवन के प्रत्येक रंग को चित्रित करता है। विशेषकर मानवीय वेदना का सम्पूर्ण स्पेक्ट्रम अपनी विविधता में उपस्थित है। कुसुम जी की पकड़ न केवल स्त्रियों की मानसिकता पर है ,वरन वह पुरुषों के लिए भी पैनी अंतर्दृष्टि रखती हैं। इस उपन्यास में हर उम्र के ,हर तबके के और हर आर्थिक कोष्ठक के पात्र है जो यथार्थ जीवन से उठाये गए हैं। यहां तक कि ‘हैरी ‘जैसा मोंगोल इंसान भी अस्वाभाविक नहीं लगता। उसकी अपनी विशिष्ट समझ सामान्य (नार्मल) लोगों से अधिक स्वीकारात्मक है। इसमें लेखिका ने बड़ी कुशलता से आम समाज के अपरिपक्व दृष्टिकोण को सुधारने का प्रयास किया है। अनेक आदर्श लगनेवाली नारियों का भी पर्दाफाश किया है और धार्मिक विडंबनाओं को उघाड़ा है।

पूरी कहानी की भाषा परिमार्जित किन्तु सरल एवं सटीक है। कुसुम जी का गरिमामय व्यक्तित्व ,अनेक स्थानों पर ,नायिका के चित्रण में स्वतः दिखाई देता है।

यद्यपि नायिका की जीवन दृष्टि आधुनिक सोंच से ओत-प्रोत है, अनेक आकर्षणों के बावजूद वह एकाकी जीवन को चुनती है पर फिर भी कहानी का अंत एक अवसाद की सृष्टि करता है। पाठक हर हाल में इस युवती को खुश देखना चाहता है।

इस उपन्यास को पढ़ने के बाद कुसुम जी के सब उपन्यास पढ़ने को मन लालायित है।

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समीक्षा

आत्मकथा के परदे पर अस्तित्व की तलाश का चलचित्र: जो कहा नहीं गया: डॉ. नीरू


‘जो कहा नहीं गया‘ हिन्दी की चर्चित लेखिका कुसुम अंसल के जीवन-संघर्ष की कथा है। मगर नहीं, इसे केवल एक ‘लेखिका‘ के संघर्ष की कथा कहना शायद उचित नहीं होगा क्योंकि यह उस स्त्री के संघर्ष की कहानी भी है जो एक संपन्न परिवार की बेटी है और एक अत्यंत धनाढ्य उद्यमी की पत्नी है। हो सकता है, कोई सोचे कि भला ऐसी स्त्री के जीवन में कैसा संघर्ष? कैसा दुःख? कैसी पीड़ा? इसलिए यह भी हो सकता है कि कोई इस कथा को एक ‘खाती-पीती‘ स्त्री द्वारा ‘काल्पनिक अभावों‘ को ओढ़ कर ‘आत्मपीड़न की छलना‘ में बेसुध रहने की अभिव्यक्ति मात्र माने। हाँ, निश्चित ही हो सकता है क्योंकि कुछ लोगों के लिए अभाव या कष्ट तो मात्र ‘दैहिक‘ होते हैं, इसीलिए भूख-प्यास से जूझती स्त्री या यौन-शोषण से उत्पीड़न स्त्री की व्यथा-कथा ही उनके लिए समग्र यथार्थ है, शेष सब कल्पना का विलास मात्र है। मगर... क्या सचमुच उनका ऐसा सोचना सही है? ‘दैहिक‘ कष्ट होते हैं-इसमें भला किसी को क्या संदेह होगा? और क्यों होगा? मगर कष्ट केवल ‘दैहिक‘ ही होते हैं, यह पूरा सत्य नहीं है और यह भी अधूरा और भ्रामक यथार्थ ही है कि कष्ट या अभाव केवल ‘धनहीनों‘ को ही त्रास देते हैं। सत्य तो यह है कि ‘दैहिक-दैविक-भौतिक‘ ताप किये नहीं व्यापते? ‘आँधियाँ‘ और ‘व्याधियाँ‘ किसके जीवन का सत्य नहीं हैं? भावनाओं पर आघात किसने नहीं सहा? अपने अस्तित्व‘ की रक्षा के लिए किसे संघर्ष नहीं करना पड़ा? 

धनी हो या निर्धन, ग्रामीण हो या शहरी, सवर्ण हो या दलित, स्त्री हो या पुरुष-कौन बच पाया है बाहरी और भीतरी विस्फोटों से? ‘जो कहा नहीं गया‘ इन्हीं विस्फोटों में राह खोजती स्त्री की जिजीविषा की कथा है।

‘जो कहा नहीं गया‘ एक ऐसी स्त्री की जीवन-कथा है जो अपने ‘अस्ति‘ को ‘नास्ति‘ में अवसित होने से रोकने के लिए जीवन-भर जद्दोजहद करती रही, जूझती रही उन अपनों बेगानों से जो उसके ‘होने‘ को नज़रअंदाज़ कर उसे अस्तित्वहीन-महत्त्वहीन सिद्ध करते रहे. जाने-अनजाने। अनजाने इसलिए क्योंकि सदियों के संस्कारों ने उन्हें यही सिखाया था कि स्त्री ‘अन्या‘ ही है जिसका अपना कोई अस्तित्व नहीं। अपने पुरुषों (पिता, भाई, पति, पुत्र) की ‘छाया‘ बनकर रहने में ही उसके जीवन की सार्थकता है। यही उसका अस्तित्व है- ‘छाया मात्र। मगर वह स्त्री क्या करे जिसका ‘ज्ञान‘ और ‘संवेदन‘-दोनों ही ‘छाया‘ बनकर रहने से बगावत कर रहे हों, इस ‘नथिंगनैस‘ तक की यात्रा पर कदम आगे बढ़ाने से विद्रोह कर रहे हों और न अपने वास्तविक ‘अस्ति‘ के अनुसंधान के लिए व्याकुल हों-क्या है मेरे ‘होने का अर्थ?‘ मेरे ‘अस्तित्व‘ का ‘सारा-तत्त्व‘ ? परिवार में मेरी स्थिति क्या है? क्या वह पारिवारिक भूमिका ही मेरे ‘होने‘ का वास्तविक अर्थ है? क्या इस अस्थि-चर्ममय देह से परे भी मेरा कोई अस्तित्व है? ऐसा अस्तित्व जो शरीर द्वारा साधित तो हो मगर केवल ‘शरीर‘ ही न हो? ‘जो कहा नहीं गया‘ इन्हीं प्रश्नों से जूझती स्त्री के जीवन का चलचित्र है, चलचित्र जो ‘आत्मकथा‘ के परदे पर चलायमान है। 

‘जो कहा नहीं गया‘ स्त्री-अस्तित्व की ‘संपूर्णता‘ की तलाश की कथा है। यह केवल ‘देह‘ के राग-विराग‘ की कथा नहीं है इसलिए हो सकता है कि ‘देह‘ को ही सब कुछ मानने का दावा करने वालों को यहाँ निराशा ही हाथ लगे। यह तो ‘देह‘ की सीमाओं से परे जाती, देह का अतिक्रमण करती स्त्री की कथा है। यही कारण है कि इसमें भावनाओं की ऊष्मा और बौद्धिक क्षमताओं की ऊर्जा से ऊर्जास्वित स्त्री की छवि झिलमिला रही है, देह-मन-प्राण, हृदय-बुद्धि और आत्मा के समाहार से बनी ‘संपूर्ण स्त्री-छवि‘। 

‘जो कहा नहीं गया‘ ‘पहचान‘ की किसी एक ही कारा से मुक्ति-प्रयासों की कथा है। नोबल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘Identity and Violence : The Illusion of Destiny में अनेक परतों को खोलते हैं। उनकी मान्यता है कि किसी भी व्यक्ति की अनेक पहचानों में से जब उसकी किसी एक विशिष्ट‘ पहचान को ही उसके अस्तित्व व अस्मिता का सूचक मान लिया जाता है, तब तरह-तरह के पूर्वाग्रह और हिंसा-द्वेष जन्म लेते हैं। पितृक व्यवस्था के लिए सारी स्त्रियों की एक ही पहचान है-उनका अन्या (किसी की पुत्री, माँ, पत्नी या बहन) होना। यह अवस्था भूल जाती है कि उनकी कई अन्य पहचानें भी हैं। उनकी ही क्यों, किसी भी व्यक्ति की अनेक पहचानें होती हैं। अमत्र्य सेन के शब्दों में-‘उनकी राष्ट्रीयताएँ, निवास स्थान, वर्ग, काम-धंधे, सामाजिक स्थिति, राजनीति तथा अन्य बहुत सी श्रेणियाँ। क्या स्त्री के संबंध में विचार करते समय इन ‘बहुल पहचानों‘ पर दृष्टिपात किया जाता है? ‘जो कहा नहीं गया‘ इस दृष्टिगत के लिए साग्रह प्रेरित करने वाली कथा है। इसीलिए यह स्त्री-अस्तित्व की ‘संपूर्णता‘ की तलाश की कथा है। 

‘अस्तित्व-अनुसंधान‘ की इस यात्रा के प्रस्थान-बिन्दु की तलाश में लेखिका अपने बीते कल का ‘पुनरावलोकन‘ करती हैं। पकड़ना चाहती हैं वह उन पलों को जो उसके अस्तित्व पर किसी शिलाखण्ड की तरह आ गिरे थे। दस माह की उम्र में जिस बच्ची की माँ गुजर गई हो और बड़ी-सी तस्वीर बनकर एक कमरे में ‘टॅग‘ गई हो, उस बच्ची का नन्हा वजूद तूफानी लहरों में कैसा डगमगाया होगा, कल्पना की जा सकती है। घर में ‘नई माँ‘ के आने पर जब अपनी जन्मदायी माँ की तस्वीर के सामने खड़े होना भी अपराध माना जाता हो तो भय और त्रास की आँधियों में तिनके की तरह उड़ता होगा उसका अस्तित्व! और जब उसके सगे पिता ने उस मातृविहीना बच्ची को अपनी निःसंतान बहन की गोद में डाल कर उसे पिता के स्नेह से भी दूर कर दिया होगा तो उसका उपेक्षित अस्तित्व और भी घने-काले अँधेरों में दुबक गया होगा। यह सच है कि उस नन्हीं उम्र में वह ‘अस्तित्व‘ जैसे बड़े शब्द का अर्थ नहीं जानती थी मगर आज आत्मकथा लिखते समय जब वह उन क्षणों की अपनी मनःस्थिति को शब्दबद्ध करती है तो स्पष्ट हो जाता है कि अलीगढ़ की उस विशालकाय हवेली ‘साकेत‘ में रहने वाली उस नन्हीं बच्ची का वजूद उन पलों में कैसे तिनका-तिनका होकर बिखर रहा था- ‘‘मेरे चारों ओर जाने-अनजाने नौकरों की, दूर-पास के रिश्तेदारों की रहस्यात्मक फुसफुसाती आवाजे एक ताना-बाना बुन रही थीं और मैं अदृश्य डर से सहमी रहती थी। शब्द खो जाते, किसी के सामने स्कूल में या पढ़ते समय चुप लग जाती थीं। परछाइयों से भी भय लगता था मुझे और मैं उस विशालकाय हवेली की जीवन्तता के मध्य डरी-सहमी किसी एक कोने में चुपचाप खड़ी रह जाती।‘‘

व्यक्ति की पहली पहचान उसके माता-पिता के नाम से ही बनती है। जिस तरह का हमारा सामाजिक ढाँचा है, उसमें यह प्राथमिक पहचान इतनी महत्त्वपूर्ण है जितनी किसी वृक्ष के लिए जड़ है। व्यक्ति की मानसिकता के निर्माण में इस पहचान की सबसे अहम् भूमिका है। माँ और पिता-दोनों के स्नेह की छाँव में पालन-पोषण पाने वाली संतान सुरक्षा-बोध से भरी रहती है। यह सुरक्षा-बोध उसमें आत्मविश्वास भी जगाता है मगर जिस बच्चे को स्नेह की यह छाँव मयस्सर न हो बल्कि उससे उसकी ‘प्राथमिक पहचान‘ भी छीन ली जाए, उसके भय और त्रास की कल्पना की जा सकती है। उसके परिवार की समृद्धि और सम्पन्नता उसकी पीड़ा को कम नहीं कर सकती। हमारी आत्मकथा लेखिका इसी अनहोनी का शिकार हुई। उसकी प्राथमिक पहचान उससे छीन ली गई। माँ को तो भगवान ने छीन लिया और पिता ने वही ‘साकेत‘ में रहने वाले अपने बहन-बहनोई की गोद में डाल उस बच्ची को खुद से भी पराया कर दिया। अब वह ‘सुरेन्द्र कुमार‘ की बेटी नहीं थी, ‘पुरी ‘‘साहब‘ की बेटी हो गई थी। इस ‘बदली पहचान‘ ने उस नन्हीं बच्ची को भ्रमित कर दिया। ‘सब लड़कियों की एक माँ है ... सब लड़कियों के एक पापा हैं पर मेरे दो। आखिर क्यों? माँ और पिता का ‘एकाधिक‘ होना उसके लिए अतिरिक्त स्नेह लेकर नहीं आया, कम से कम अपने जीवन के प्रारम्भिक दस वर्ष जो उसने ‘साकेत‘ में बिताए, उन बरसों का कटु यथार्थ तो यही था कि वह खुद को स्नेह से बाँधने वाली एक जोड़ी बाँहों के लिए तरसती रही। पिता का नई माँ में और अपने व्यवसाय में व्यस्त रहना तथा बाबा का कठोर अनुशासन की भावना से संचालित रहना उस नन्हीं बच्ची के मन में समाए अदृश्य भय को और बढ़ाने लगा। धन-दौलत, गहने-कपड़े, घोडागाड़ी-मोटरगाड़ी, स्वजनों-परिजनों-इन सबके बीच भी उसका वजूद निपट अकेला तथा रीता-रीता था। किसी समृद्ध-संपन्न परिवार में जन्म लेने से ही समस्त भौतिक सुख उपलब्ध हो जाते हैं, यह विश्वास प्रायः सभी को रहता है मगर हमारी आत्मकथा लेखिका कुसुम अंसल का बचपन साक्षी है कि यह विश्वास एक भ्रम मात्र है, सत्य नहीं। घर में गाड़ियाँ खड़ी हैं मगर उसे पैदल ही स्कूल जाना होता था। किसी को परवाह ही नहीं कि उस बच्ची की क्या ज़रुरतें हो सकती हैं। तन पर सादे कपड़े, पैरों में रबर की सादी चप्पल-उस अति धनाढ्य परिवार की बच्ची का यही रहन-सहन था। यही वे हालात थे जिनके कारण उसके मन में शरीर के सुखों‘ के अलगाव पनप रहा था। शारीरिक कष्ट उसे छूते न थे और उपभोग की चीज़े उसके मन में आकर्षण न जगाती थीं। यह उसके परिवेश का वह प्रशिक्षण था जो उसके जाने-अनजाने ही उसके अस्तित्व को एक खास साँचे में ढाल रहा था। यह इन्हीं पलों की सीख थी जो बरसों बाद उसकी इस मानसिक संरचना के रूप में उजागर हुई- मेरे जीवन में आर्थिक, भौतिक सुखों को कभी कोई स्थान नहीं प्राप्त हुआ। आर्थिक डिप्रैशन भी मुझे कभी नहीं हुआ, न तब जब धन नहीं था, न अब जब धन है। 

धन से न तो कोई धनी होता है, न छोड़ देने पर त्यागी। शायद सत्य तो उस उपलब्धि के प्रति जागरूक होने में है जो संग्रह और त्याग, परिग्रह और अपरिग्रह दोनों से परे होता है।‘‘

एक पौधे को भी यदि उसकी जडों से खोदकर बार-बार इधर-उधर रोपा जाए तो उसके मुझाने की आशंका बढ़ती जाती है। तो फिर कुसुम? जिसे जन्म से लेकर उसकी किशोरावस्था तक तीन बार उखाड़ा गया। पहले उससे अपने जन्मदाता माता-पिता की बेटी होने की पहचान छीनी गई और उसे ‘पुरी साहब‘ की बेटी बना दिया गया। जब अपनी इस नई पहचान के साथ जीने की अभ्यस्त हो गई और अपने पालनकर्ता माँ-बाप के स्नेह, अपनत्व और जीवन-दर्शन को आत्मसात् करने लगी तो उसे एक फिर उखड़ने का, ‘साकेत‘ लौटने का तुग़लक़ी फरमान जारी कर दिया गया, उसके जन्मदाता पिता द्वारा। क्या कुसुम कोई निर्जीव वस्तु थी जिसे कभी अपनी सुविधा और कभी अपने अहं की संतुष्टि के लिए इधर-उधर किया जा रहा था। क्यों पिता यह समझ ही न पाए कि वह मन, बुद्धि, हृदय के सुमेल से बना एक जीवित व्यक्ति है जिसकी अपनी इच्छा-अनिच्छा का भी कोई महत्त्व हो सकता है, कि वह परिवेश के साथ निरपेक्ष संबंध में नहीं बँधी, कि परिवेश-सापेक्षता से उसकी एक पहचान निर्मित हो रही है और बार-बार के इस रोपने और उखाड़ने से उसकी मानसिकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। नहीं, पितृक व्यवस्था के साँचे में ढले पिता के लिए यह सब सोचना बेमानी था। परिणाम? अपनी ‘बँटी हुई पहचान‘ के साथ कुसुम रिश्तों के बनते-बिगड़ते समीकरणों को झेलने के लिए विवश थी, इन बदलते रिश्तों से तालमेल बिठाने के फेर में वह उलझती रही। उसका सारा जीवन इस ‘विभक्त पहचान‘ के कारण बने दोहरे रिश्ते के बीच हिचकोले खाता रहा। इन रिश्तों को पूरी ईमानदारी से निभाने के बाद भी दुनिया उसे ‘सगे‘ और ‘पराए‘ के द्वन्द्व में उलझा कर उस पर सवाल दागती रही। बरसों बाद अपनी पालनहारी माँ (यानी बुआ) की दिल्ली में मौत के बाद उनका अंतिम संस्कार करने की जिम्मेदारी निभाने के लिए जब वह उनकी मृत देह को अपने घर ले जाती है तो दुनियावी रीति-नीति जानने वाली उसकी सासु माँ तुरन्त आपत्ति करती हैं, ‘हाय राम, कैसी झल्ली है, सुखी सांदी आपणे घर क्यूँ ले आई ऐहो जिही मिट्टी, सगी माँ थोड़े ही सी...‘ सासु माँ उसे यह याद दिलाने से भी नहीं चूकीं कि तुम्हारी इस पालनहारी माँ ने अपनी सारी संपत्ति अपनी सगी मृत बेटी साधना के पति विजय के नाम कर दी, अपनी इस दत्तक पुत्री (यानी कुसुम) को तो कुछ नहीं दिया, माँ-बेटी के रिश्ते की मर्यादा उन्होंने तो नहीं निभाई। कहाँ बन पाई वे तुम्हारी माँ?...बस, पहचान का संकट यहाँ फिर पैदा हो गया। बार-बार उखड़ा उसका वजूद फिर प्रश्नचिह्न हो गया। किसकी बेटी है वह? सच तो यह है कि यह प्रश्न उसके अस्तित्व का अविभाज्य अंग बन जीवनभर उसके साथ-साथ चलता रहा। 

हमारा अस्तित्व शुन्य में रूपायित नहीं होता। देश-काल के एक निश्चित तटबंध में वह आकार ग्रहण करता है, स्वजनों-परिजनों के मधुर-कटु व्यवहार से प्रभावित होता है, भौतिक परिस्थितियाँ अपनी अनुकूलना या प्रतिकूलना से उस पर असर डालती हैं। इस प्रकार हमसे बाहर कितना कुछ है जो हमारे अस्तित्व की संरचना में अहम् भूमिका निभाता है मगर जिसका चयन करना हमारे वश में नहीं है। हम अपने माँ-बाप को नहीं चुन सकते, अपने परिजनों को नहीं चुन सकते, अपने रूप-रंग, नयन-नक्श आदि को नहीं चुन सकते-यहाँ ‘चयन‘ का विकल्प है ही नहीं। तो क्या यंत्रवत् हमारा अस्तित्व उनकी सापेक्षता में आकार ग्रहण कर ले? यदि ऐसा होता है तो क्या हम ‘मनुष्य‘ कहलाने के अधिकारी हैं? सृष्टि के सबसे विवेकवान प्राणी! निश्चित ही नहीं। मनुष्य इस ‘बाह्य परिवेश‘ को चुन तो नहीं सकता मगर विवेकधर्मा होने के कारण वह इसके प्रति अपने दृष्टिकोण‘ का चुनाव तो कर सकता है। धन है तो उसके प्रति आपकी दृष्टि क्या है? गरीबी है तो आप उसके प्रति कैसा रुख अपनाते हैं? उस गरीबी से परास्त हो अपना जीवन आहों और कराहों में बिताते हैं या कर्मठता और श्रमनिष्ठा के बल पर उस गरीबी को परास्त करते हैं। बस, दृष्टिकोण का यही चुनाव आपके भावी जीवन की दिशा ही निर्धारित नहीं करता, आपके अस्तित्व के सार-तत्त्व को भी निर्धारित कर देता है। आपका सार-तत्त्व आपके चयन के विवेक‘ से निर्धारित होता है। चयन की यह स्वतंत्रता ही तो आपको सच्चा ‘अस्तित्ववान व्यक्ति बनाती है। अस्तित्ववादि ‘अस्तित्व‘ का अर्थ ही है-विकास करना, आत्मसाक्षात्कार या आत्मोपलब्धि करना, महान बनाना। हमारी आत्मकथा लेखिका के संदर्भ में इस अस्तित्व-दर्शन की चर्चा करें तो कह सकते हैं कि अत्यंत समृद्ध परिवार में जन्म लेना उसका अपना चुनाव नहीं था। माँ की मृत्यु, नई माँ का आना, पिता की संवादहीनता, बुआ-फूफा द्वारा उसे गोद लिया जाना-ये भी उसका अपना चुनाव नहीं था। वह तो चुनाव कर सकती थी इन सबके प्रति अपने रुख का, अपने दृष्टिकोण का। जानती थी वह कि यह दृष्टिकोण ही उसके सार-तत्त्व को गढ़ेगा। स्वीकार करना पड़ेगा कि बाह्य परिवेश के प्रति लेखिका का दृष्टिकोण प्रायः बड़ा ही स्वस्थ और संतुलित रहा। अपने जन्मदाता पिता तथा पालनकर्ता बुआ-फूफा दोनों के प्रति ही वह कर्त्तव्य बोध से प्रेरित हो पूर्वाग्रह-मुक्त व्यवहार करती रही। पिता के प्रति भी जो रोष था, उसे उसने कभी व्यक्त नहीं किया, इसीलिए तो ‘जो कहा नहीं गया था, वह आत्मकथा के पृष्ठों पर बड़े संकोच के साथ संकेतित हुआ है। बुआ ने भी अपनी सगी बेटी साधना और इस दत्तक पुत्री में जो भी भेद किया हो (लेखिका की सासु माँ के शब्दों में वह आत्मकथा में व्यक्त भी हुआ है), मगर कुसुम इस भेद से परे उन दोनों से अथाह प्रेम करती रही, अपना कत्र्तव्य निभाती रही। उसके हृदय की यह उदारता और उसकी कर्तव्यपरायणता स्पृहणीय है, यह उसके अस्तित्व को एक अद्भुत दीप्ति से आलोकित कर जाती है। इसी प्रकार एक अति संपन्न परिवार में जन्म लेकर भी उसने धन के प्रति मोह जैसा भाव कभी नहीं रखा बल्कि कहना चाहिए कि उम्र के प्रारंभिक वर्षों में तो वीतरागी जैसी स्थिति थी उसकी। बचपन का उसका पारिवारिक परिवेश ऐसा था कि जिसमें घर के लोगों का ‘भौतिक अस्तित्व‘ परिवार की प्रतिष्ठा का मानदंड था मगर वह तो सादगी की प्रतिमूर्ति थी। बड़ा भाई उसे सादे सूती कपड़े व रबर की चप्पल पहने देख टोकता है तो उलझन होती है। आखिर परिवार की प्रतिष्ठा किस आधार पर टिकी है? क्या सचमुच उसका सादा भौतिक अस्तित्व उसके परिवार की प्रतिष्ठा को दागदार बना रहा है? क्या अच्छा पहनने-ओढ़ने से ही उसकी एक पहचान बनेगी-एक ऐसी पहचान जो उसके परिवार को प्रतिष्ठा देगी? मगर क्या वह पहचान उसमें ‘आत्म सम्मान‘ का भाव भी जगा पाएगी? शायद नहीं। उसकी जिज्ञासा ने, उसकी तलाश ने उसे अहसास कराया कि अच्छा पहनना-ओढ़ना उसके ‘भौतिक अस्तित्व‘ को परिवार की प्रतिष्ठा के अनुकूल तो बना देगा मगर उसे इसके अतिरिक्त कुछ और भी पाना है, कुछ ऐसा जो उसके अस्तित्व का मूल्यवान ‘सार-तत्त्व‘ बन सके। आगरे वाले पापा (फूफा जी) ज्ञान की लौ उसमें जगा ही चुके थे। साहित्य और कलाओं में उसकी अभिरुचि विकसित होने लगी, किताबों और रिकॉर्डों पर पॉकेट मनी खर्च होने लगी। मैं कौन हूँ? यह जानने की बेचैनी तड़प और उन्माद में बदलने लगी। अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में अध्ययन के दौरान पुस्तकों के साथ जो उसका गहरा नाता जुड़ा, वह अनुसंधान की इसी भावना से प्रेरित था। यूनिवर्सिटी के परिवेश ने उसे अहसास कराया कि वर्ग-वर्ण, जाति-धर्म, लिंग आदि के भेदभाव से मुक्त होकर ही आपका अस्तित्व अनुकरणीय बनता है-सीमाहीन, व्यापक, उदार। तभी आप दूसरे मनुष्य के ‘अस्तित्व‘ से भी प्रेम कर सकते हैं। यह भी सच है कि यूनिवर्सिटी में मिली प्रेम की पीर ने उसके आत्मविश्वास को (कि मुझे मेरे लिए चाहा गया है) खण्डित कर दिया मगर इस दर्द ने ही उसे अपने अस्तित्व के एक और पक्ष से परिचित कराया-उसकी रचनात्मकता से। प्रेम की पीड़ा को उसने अपनी कलम की प्रेरणा बना लिया। सच ही लिखा उसने अपनी आत्मकथा में-‘मेरा लेखन मेरा नहीं, मेरा संशोधन था-अपनी यथातथ्यता को जानने का माध्यम। लेखन के साथ-साथ आगरे वाले पापा (फूफा जी) ‘आत्म‘ की इस खोज में भी उसके प्रेरक बन रहे थे। उन्होंने लेखिका को बताया कि ‘ये ह्यूमन सिचुएशन है कि आदमी को अपने बारे में कुछ नहीं पता और मजे़ की बात ये भी है कि आम आदमी अपने बारे में कुछ जानने को उत्सुक भी नहीं।‘ ‘आत्म‘ को जानने की उत्सुकता से भर कर लेखिका ने उनसे पूछा, ‘तो क्या हमारा नाम, जाति, घर, शहर सब झूठ है, इन सब की हमारी ज़िंदगी में कोई अहमियत नहीं है? पापा ने समाधान प्रस्तुत किया, ‘नहीं, ये सब लेबल हैं, ब्रांड्स हैं, हिन्दू-मुसलमान, देशी-विलायती, पंजाबी-मद्रासी जो अपने शरीर पर चिपका लिए हैं अपनी भौतिकता का परिचय देने के लिए-अन्यथा भीतर मन को इसकी कोई आवश्यकता नहीं। वह तो इन सबसे अलग अछूता खड़ा रहता है, निर्लिप्त। अंधकार में जैसे उजाला छा गया हो वैसे ही लेखिका के भीतर की दुविधाओं को मानो समाधान मिल गया। हमारा ‘भौतिक अस्तित्व‘ हमारी भौतिकता का परिचय देने के लिए है, हवा नगण्य तो नहीं, मगर उसकी आवश्यकता और महत्ता इस परिचय तक ही सीमित है, उसे इससे अधिक महत्त्व देना उचित नहीं। मानव-जीवन इससे अधिक उदात्त लक्ष्य के लिए समर्पित होना चाहिए। रोशनी की इसी किरण को थाम कुसुम ने ‘भौतिकता‘ को जीवन का साध्य कभी नहीं स्वीकार किया। खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना ये उसके जीवन-लक्ष्य कभी नहीं बने। इसीलिए विवाह के बाद अलीगढ़ की अपनी विशालकाय हवेली ‘साकेत‘ से विदा ले जब वह अपनी ससुराल पहुंची तो वहाँ के साधारण से रहन-सहन को देख एक बार तो उसे धक्का-सा लगा मगर फिर तुरन्त ही उसकी इसी जीवन-दृष्टि ने उसे थाम लिया, ‘मध्यवर्गीय, बेहद साधारण, सज्जाविहीन वह कमरा मुझे किसी आकर्षण में बाँध नहीं सकता था। परन्तु मैंने अपने को उदास नहीं होने दिया, सोचा, क्या हुआ परिवेश ही तो है, सजा लूँगी। बस, एक उत्साह मुझे मेरे कमरे तक ले आया। 

यह कहना झूठ ही होगा कि लेखिका ससुराल के साधारण रहन-सहन से कभी विचलित ही नहीं हुई। कोई भी व्यक्ति एकाएक ही निर्लिप्तता के शिखर पर आसीन नहीं हो जाता। मन को धीरे-धीरे ही साधा जा सकता है, यह तो अनवरत जारी रहने वाली साधना है। इसे लेखिका की ईमानदारी ही कहा जाएगा कि उसने अपने मन के इस विचलन को आत्मकथा में छिपाया नहीं है। आत्मकथा ‘सत्य-संभाषणा‘ के संकल्प के साथ ही लिखी जाती है। बहुधा आत्मरति से ग्रस्त रचनाकार अपनी आत्मकथा में आत्मप्रशस्तियों के अम्बार लगा देता है या कभी सामाजिक प्रतिष्ठा के भय से अपनी कमजोरियों को छिपा दिया जाता है। जाने क्यों उसे स्मरण नहीं रहता कि कोई भी मनुष्य देवता नहीं है। मनुष्य गलतियों का पुतला है। इन गलतियों को सुधार कर ही वह आत्मोत्थान के रास्ते पर आगे बढ़ सकता है। हमारी आत्मकथा-लेखिका ने अपने मन की उस उदासी, घुटन, छटपटाहट आदि को बड़ी ही ईमानदारी से व्यक्त किया है जो एक ओर तो ससुराल के साधारण तथा मायके से भिन्न रहन-सहन के कारण उपजी थी तथा दूसरी ओर पति व ससुरालियों के उपेक्षापूर्ण व्यवहार से जन्मी थी। सुहागरात पर सिनेमा जैसा कुछ नहीं था-न फूल-पत्ते, न आग्रह । बाद के दिनों में उसे दिन-रात काम में जुटा रहना पड़ता था। खाने की व्यवस्था से लेकर जूते साफ करने तक का काम उसे खुद करना होता था। यह घर छोटा था। ‘तीन कमरों के इस घर में न कोई लॉन था, न फूल, न क्यारियाँ, न वरांडा, न कंगूरे, न छज्जा, न वैसा खुलापन जिसकी उसे आदत थी। वह अपने घर को ‘अलीगढ़ के घर‘ की तरह सँवारना चाहती थी। दरअसल इन पलों में वह ‘मध्यवर्गीय से कुछ और होना चाहती‘ थी मगर ‘धनाभाव‘ उसकी इच्छा-पूर्ति में बाधक था। छोटे देवर-ननदें, बीमार ससुर जी, पारंपरिक सासु माँ, तयशुदा रास्ते पर घिसटती ज़िंदगी। यही नहीं, यहाँ उसका वजूद और उसकी मान्यताएँ पल-पल पर आहत होती। अलीगढ़ में प्रकृति उसके घर का और उसके अस्तित्व का अविभाज्य अंग थी मगर यहाँ? यहाँ ‘पत्तों के गमले और फूल खरीद-फरोख्त की वस्तु‘ थे। अलीगढ़ में पुस्तकें ‘पदार्थ मात्र‘ नहीं थीं, उनके साथ एक जीवंत संबंध में सब बँधे थे मगर यहाँ पुस्तकों को दीमक के चाटने के लिए स्टोर रूम में ठूंस दिया जाता था या तराजू पर तोल कर कबाड़ी को दे दिया जाता था। अलीगढ़ में हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द एक मधुर वास्तविकता थी मगर यहाँ सासु माँ की मान्यता थी कि बहू की मुस्लिम सहेलियों के छूने से बर्तन अशुद्ध हो गए हैं। कहाँ तक बदले कोई खुद को? अपनी सीधी-सच्ची मान्यताओं को क्यों छोड़े? और प्रेम? आकंठ प्रेम-भावो में डूबी लेखिका की चाहत थी कि ‘प्रेम बँधी हुई धारा की तरह न बहकर विशाल प्रपात-सा उसके अस्तित्व को भिगो जाये।‘ मगर पति? पति ‘अद्भुत संयमी‘ ही नहीं थे, ‘व्यावहारिक‘ भी थे, वे ‘प्रेम के बाहरी प्रदर्शन में विश्वास नहीं रखते थे।‘ पत्नी उनकी ‘परिधि थी और वे ‘केन्द्र‘ की तलाश में थे। उनकी ‘चाहत मीटर‘ में पत्नी और बच्चे ‘सबसे अंत‘ में थे। वैसे भी अपने व्यवसाय को स्थापित करने के प्रयास में वह प्रायः घर से दूर ही रहते थे। परिणाम? एक निराशाजनक घुटन लेखिका के परिवेश में फैलने लगी। देश-विदेश की यात्राएँ करते नातेदारों या सहेलियों को देख उसकी घुटन और बढ़ जाती। वह अभाव और सूनेपन के बीच जीने के लिए विवश थी। अपनी घुटन और छटपटाहट को वह मिसेज सचदेवा के सामने इस रूप में स्वीकार करती है, ‘हम पत्नियाँ अपने पति को और पति हमें ‘टेकन फॉर ग्रांटेड‘ जानकर अपने आज को या वर्तमान को भूल जाते हैं और एक ठहराव-सा ओढ़ लेते हैं जो हमें हर पल ... से दूर ले जाता है, हम आगे की तरफ देखने लगते हैं, वह जो पता नहीं कब घटित होगा। यूँ एक सामान्य व्यक्ति के नजरिए से देखा जाए तो लेखिका के इस व्यवहार में कुछ भी असामान्य नहीं था, जिम्मेदारियों के बोझ से दबी, उकता देने वाली रोमांसविहीन ज़िंदगी में किसी भी पत्नी की प्रतिक्रिया ऐसी ही होगी मगर जीवन के स्पृहणीय मूल्यों के आलोक में देखा जाए तो उसके व्यवहार की बहुत-सी बातें उचित नहीं थीं। स्वयं लेखिका को बाद में अपनी भूल का अहसास होता हैं अपने पति की कर्मठता और श्रमनिष्ठा के सम्मुख वह नतमस्तक हो जाती है और लिखती है, ‘मैं तो मात्र संबंधों को ही अहम् बनाकर जीना चाहती थी...मैं अपने हित में, भावनाओं के शून्य को बड़ा बनाकर उन पर क्रोध करती रहती थी, परन्तु आज एकाएक मुझे अपना वजूद छोटा लगने लगा, सुशील की रचना-प्रक्रिया के मध्य मैं केवल अपने मानसिक सुख-दुख, अकेलेपन और फैंटेसी को ही लिए बैठी थी जबकि सुशील सृजन के रहस्य को पूरी तरह प्रतिबद्ध होकर जी रहे थे।...मैं जो मात्र अपने शरीर की पूर्ण स्वीकृति का दावा कर रही थी, अपने अनिवार्य आकर्षण को बेमानी होते देख उदास थी....अब जैसे विभाजित नहीं थी, कम से कम मेरे इस समय पर चेतना-स्तर मुझे जीवन के सही मूल्यं प्रदान कर रहा था। 

सच यही है कि अपने कर्म में पति की योगियों की-सी तल्लीनता ने कुसुम को भी मानो सोते से जगा दिया हो, जिन अभावों और दायित्वों के कारण वह उदास और उकताई रहती थी, उन्हें निभाने की एक नई ऊर्जा, नई स्फूर्ति उसमें संचरित होने लगती है। उन्हें ही क्यों, ज्ञान ज्योति स्कूल और अंसल परिवार द्वारा बनवाए गए अन्य स्कूलों के कामकाज भी वह तपोनिष्ठ श्रद्धा से देखने लगी। यूँ भी अपने कर्तव्यों को तो वह बचपन से ही पूरी संजीदगी से निभाती थी, अपनी भिन्न-भिन्न पारिवारिक-सामाजिक भूमिकाओं के प्रति वह बेहद ईमानदार और संवेदनशील थी। जानती थी कि ये भूमिकाएँ उसके अस्तित्व का महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं। जानती थी कि हर भूमिका से जुड़े कुछ अधिकार होते हैं तो कुछ कर्त्तव्य भी और जानती तो इस कटु यथार्थ को भी थी कि कर्त्तव्य को निभाना यदि पूरी तरह आपके हाथ में है तो अधिकार की डोर तो बहुधा औरों के हाथ में ही होती है। एक बेटी या बहन के रूप में ‘साकेत‘ की उस विशालकाय हवेली में भी उसके हिस्से में कर्त्तव्य ही आए थे। ऐसा भी नहीं था कि अधिकारविहीन या कत्र्तव्यपरायणता उन दिनों में भी उसे विचलित नहीं करती थी मगर भीतरी छटपटाहट को संयम और मर्यादा के परदे के भीतर रखना सीख लिया था उसने बल्कि नई माँ के सिंगापुर जाने के बाद उसने बड़ी ललक से बेल-बूटे काढ़ना भी सीखा, घर को एक ‘स्त्री‘ की दृष्टि से देखा और पाया कि इससे उसके अस्तित्व में एक और नया अध्याय जुड़ रहा है जो उसके भीतर की विद्युत को छू रहा था। अपने विवाह के बाद भी उसने पत्नी, बहू, माँ आदि की भूमिकाओं को बड़ी संजीदगी से निभाया। दरअसल वह यह जान चुकी थी कि भूमिकाएँ उसके अस्तित्व का बहुत बड़ा भाग हैं और महत्त्वपूर्ण भी। स्त्री-विमर्श के नाम पर उसने इन भूमिकाओं को कहीं भी दुत्कारा नहीं है। उसका सारा संघर्ष तो इस बात से रहा है कि उसके अस्तित्व को मात्र इन भूमिकाओं में ही कैद क्यों मान लिया जाता है? ये भूमिकाएँ उसका ‘संपूर्ण अस्तित्व‘ नहीं, ये उसकी आंशिक अभिव्यक्ति हैं इसलिए एक सजग व्यक्ति होने के नाते अपने अस्तित्व की पूर्णता की तलाश करने का उसे पूरा हक है।...और सचमुच उसकी यह तलाश जीवन-भर जारी रही। 

होती है एक ऐसी विद्युत तरंग जिसके छूते ही सब कुछ दीप्त हो जाता है, हर अँधेरा कोना जगमगा उठता है, सब कुछ स्पष्ट दीखने लगता है। होता है एक ऐसा कदम जिसके उठते ही आपको जीने का सबब मिल जाता है। हाँ, वही! वही तो आपके अस्तित्व का सबसे प्राणवान तत्त्व है, उसके होने से ही आप ‘आप‘ हैं, उसके बिना आप निष्प्राण हैं। अपने अस्तित्व के अनुसंधान में लगी कुसुम एक दिन इस सत्य को पा ही लेती है कि ‘रचनात्मकता‘ ही वह विद्युत तरंग है जो उसके बाहर-भीतर को आलोकित करने की सामर्थ्य रखती है। यह तरंग बरसों से उसके भीतर प्रवाहमान तो थी मगर वह बहुत चैतन्य रूप में इसके प्रति सजग न थी। आगरा वाले पापा ने इस तरंग को शुरुआती रवानी दी थी, परिवेश ने इसे गति दी थी, मगर इसका भरा-पूरा अहसास लेखिका को ‘इप्टा परिसर‘ में जाकर हुआ। नाटक, कलाकार, रंगमंच, संगीत और इन सबके बीच अपनी भूमिका निभाती कुसुम! जैसे हाथ बढ़ाकर किसी ने अँधेरे कमरे में स्विच ऑन कर दिया हो। कितना सच लिखा है उसने, ‘एक ताजी बयार घुटन भरे बंद कमरे में जैसे अचानक घुस आई थी। लगने लगा, ‘मेरा अस्तित्व, मेरी साँसें उतनी बेमानी नहीं है जितना मेरी स्थिति मेरे लिए बना रही थी। ऐसा ही होता है जब जीने की कोई बहुत सार्थक-सी वजह मिल जाती है, एक ऐसी वजह जो आपके लिए अक्षय आनंद का स्रोत भी बनती है। लेखिका जान चुकी थी कि यही उसके अस्तित्व का सबसे महत्त्वपूर्ण, सबसे चटक रंग है। इसी की तलाश में वह आकुल-व्याकुल थी, कस्तूरी की तलाश में वन-वन भटकने वाले हिरण की तरह । कस्तूरी की तरह यह क्षमता, यह प्रतिभा भी उसके भीतर ही छिपी थी। अब वह अपनी पिछली उदासी व छटपटाहट का सबब भी जान चुकी थी। जान चुकी थी गृहस्थी के दायित्वों से उसने कभी नहीं भागना चाहा था मगर कर्त्तव्यपूर्ति की इस साधना में अस्तित्वहीन‘ हो जाना उसे स्वीकार्य नहीं था, उसकी बेचैनी अस्तित्वहीन हो जाने के विरुद्ध बगावत की अभिव्यक्ति ही तो थीं। अब उसे अपनी मुक्ति का मार्ग मिल गया था। सलमान के सहयोग से उसने अपने अस्तित्व के इस ‘सार-तत्त्व‘ की गहन-गंभीर तलाश शुरू कर दी। इस तलाश का पहला परिणाम था-‘अतीत के आँचल में।‘ समचित्तता में समाधिस्थ होकर लिखा गया यह उसका पहला उपन्यास था। बस, अब तो भीतर खलबली मच चुकी थी। एक के बाद एक अनेक रचनाएँ इसी खलबली से जन्मी थी। उसके ‘लेखिका‘ रूप का अभ्युदय हो चुका था, उसने अपने अस्तित्व के सबसे महत्त्वपूर्ण अंश को जान लिया था।

जब अपने अस्तित्व के ‘शक्ति-केन्द्र‘ का ज्ञान हो जाता है तो व्यक्ति समाज में उसकी स्वीकृति‘ भी चाहता है। दरअसल ‘मनोवैज्ञानिक संतुष्टि‘ के लिए यह ‘सामाजिक स्वीकृति‘ बेहद महत्त्वपूर्ण है। पहली पुस्तक के प्रकाशन के साथ कुसुम अपनी खुद की नज़रों में ‘लेखिका‘ बन चुकी थी, मैं अब, मात्र कपड़े धोती सुखाती, साधारण-सी गृहस्थिन नहीं रह गई थी, मेरे उन कामकाजी हाथों में एक कलम भी आ गया था। अब दूसरी पुस्तक के प्रकाशन के साथ ही अपने अस्तित्व के इस विशिष्ट पक्ष की सामाजिक स्वीकृति की चाहत भी उसके मन में जागने लगी। अपनी रचनाओं पर बने धारावाहिक, फिल्मों आदि के माध्यम से भी उसने अपनी रचनात्मकता का ही प्रसार चाहा था मगर यहाँ तो ‘कर्ता‘ होने का हक भी उससे छीन लिया गया। यह एक अलग किस्म की राजनीति थी जिसका शिकार उसे होना पड़ा। साहित्य व कला की दुनिया की घिनौनी राजनीति से अनभिज्ञ लेखिका इस राह पर आगे बढ़ने पर ही यहाँ की अखाड़ेबाजी को जान सकी। जान सकी कि यहाँ की राजनीतिक उठापटक के चलते श्रेष्ठ कृतियाँ गुमनामी के अँधेरों में कैद कर दी जाती हैं और सामान्य-सी कृतियाँ चर्चित और पुरस्कृत हो जाती हैं। इस दुनिया में आपका कोई ‘गॉडफादर या गॉडमदर‘ होना जरूरी है। जो आपको प्रमोट कर सके। उसके बिना या तो आपके लेखन की धज्जियाँ उड़ा दी जाती हैं या ‘नोटिस‘ ही नहीं लिया जाता। अन्य बहुत से रचनाकारों की तरह कुसुम के साथ भी यह सब कुछ हुआ। बल्कि उसका ‘धनाढ्य वर्ग‘ से होना भी उसके लिए घातक साबित हुआ। उसका ‘श्रीमती अंसल‘ होना उसकी लेखकीय छवि पर सदा ही आरोपित कर दिया जाता। आलोचकों को लगा कि एक अमीर स्त्री का दुख-दर्द से क्या लेना-देना, उसका कलम से कैसा नाता? मुम्बई में महारानी मोरवी उससे कहती है, ‘मिसेज अंसल, तुम्हारे जैसे लोगों को क्या जरुरत है ऐसे फटीचर काम की, तुम क्यों हो राइटर? वह भी हिन्दी की, आई एम श्योर देअर इज नो मनी, तुम्हारा लिखना विल टेक यू नो व्येहर...।‘ और यहाँ दिल्ली में अपनी ही बेचैनी में उसके समकालीन लेखक-आलोचक तरह-तरह के आरोपों-प्रत्यारोपों का वितान तानते और उसकी रचनाओं की प्रामाणिकता पर प्रश्न-चिह्न लगाते। ऐसी अनुदार और पूर्वाग्रह युक्त आलोचनाओं से लेखिका का मन आहत तो हुआ मगर अपने ‘अस्तित्व‘ के इस नवजन्में अंश की सुरक्षा के लिए वह और भी सतर्क और भी सबल हो उठीं। ऐसी आलोचनाओं का कितना तार्किक विरोध उसने प्रस्तुत किया, मैं मन ही मन हँसी थी- तो इस संसार ने सुख और धनाढ्यता को एक दूसरे का पर्यायवाची मान लिया था-जैसे हर पैसे वाला पूर्ण सुखी है-मुझे लगा, अपने भीतर धुआँ-धुआँ होती इस ‘इमोशन्स की पावर्टी‘ का क्या करूँ जो मेरे वजूद को चिथड़ा कर चुकी है।...सुख को तो किसी स्थिति-विशेष में पकड़ा नहीं जा सकता, वह हवाई जहाज और एअरकंडीशनरों की धरोहर नहीं, वह तो मन की एक स्थिति है वैसे ही जैसे बहुत बार नींद कहीं भी नहीं आती, न गुद्गुदे बिस्तर पर न ही फुटपाथ पर। कैसे हैं ये आलोचक जो साहित्य को, दुख-दर्द को, ईमानदारी या प्रामाणिकता को किसी वर्ग या वर्ण विशेष की बपौती मानते हैं। मगर जिसने अपने जीवन-भर की साधना से अपने अस्तित्व के शक्ति केन्द्र को तलाशा हो, वह इन क्षुद्र टिप्पणियों से विचलित तो हो सकता है, हार नहीं सकता। अस्तित्व-अनुसंधान की कुसुम की यात्रा का पर्यवसान भी इस रूप में नहीं हो सकता था इसीलिए उसने लिखा, ‘मैं हतोत्साह नहीं हुई थी, अपने बढ़ते कदमों को मैंने दुर्बल नहीं होने दिया था, सतत् चलते जाने का प्रयास कर रही थी। मेरी वह यात्रा आज भी जारी है, निरन्तर चल रही हूँ, शायद इसलिए कि मेरे आँचल में सच का एक दीपक निरंतर जल रहा है, इस अंधकारपूर्ण युग में वही तो है जिसके उजाले से मैं प्रदीप्त होती हूँ।‘ 

सो, आँचल में सच का दीप जलाए कुसुम की लेखकीय यात्रा जारी है क्योंकि यही उसके अस्तित्व का सबसे कीमती सार-तत्त्व है। यह ‘स्व‘ और ‘पर‘ दोनों को जानने की निर्मित्ति भी है और लक्ष्य भी। इसी लेखन ने उसकी एक विशिष्ट पहचान बनाई, ‘मिसेज अंसल‘ से भिन्न पहचान। इसी लेखन ने उसे मनुष्य के संस्कारों और विकारों को जानने की दृष्टि दी। उसने देखा कि एक ओर ज्ञान ज्योति स्कूल के प्रिंसीपल कपूर साहब जैसे लोग हैं जो व्यर्थ ही उद्यमियों से कुढ़े रहते हैं, उद्यमियों के पसीने की हर बूंद या हर कण‘ का कपूर साहब जैसे लोगों के लिए कोई मूल्य नहीं। इसी प्रकार कुसुम की समकालीन वे लेखिकाएँ हैं जो व्यक्तिगत राग-द्वेष से मुक्त ही नहीं हो पातीं और एक-दूसरी को नीचा दिखाने की उठापटक में लगी रहती हैं। साहित्य उनके लिए साधना नहीं, राजनीति है जिसकी बिसात पर वे बड़े शातिर ढंग से मोहरे बिछाती है, स्वार्थ-बिछाती हैं, स्वार्थ-साधना उनके लिए सर्वोपरि है। उनके लिए ही क्यों, मनुष्य मात्र के दैनंदिन जीवन का सत्य यही नज़र आता है। छल-छद्म, ईष्र्या-द्वेष, पूर्वाग्रह-दुराग्रह, राग-विराग सबमें मनुष्य आकंठ डूबा है, ये सब मानवीय अस्तित्व के अभिन्न अंग बन चुके हैं। मगर...मगर इन सब के होते हुए भी यह भी मनुष्य ही है जो पराए आँसुओं से पिघल उठता है। ग्लैमरस वनमाला . जैसी अभिनेत्रियाँ भी अपने जीवन के एक हिस्से में जब बच्चों को शिक्षित करने के लिए तपस्विनी-सा जीवन जीने लगती हैं तो मनुष्य के उदात्त अस्तित्व पर विश्वास भला क्यों न होगा। ऋषिकेश, हरिद्वार आदि स्थानों पर कुसुम ने यदि विधवाओं के रूप में स्त्री का शोषित-उत्पीड़ित रूप देखा तो इन्हीं स्थानों पर उसने दया-धर्म के साक्षात् दर्शन भी किए। उसने प्रतिष्ठित-विशिष्ट लोगों के हाथों यंत्रणा सहती उनके पत्नियों की मर्मातक दास्तानें भी देखी-सुनीं, उसने अपने ही भीतरी कुंठाओं में पगलाए लोगों के क्रूर व्यवहार का सामना भी किया। एड्स से पीड़ित तनवीर की मौत के बाद उसने उसके सूक्ष्म शरीर का साक्षात्कार भी किया, वह सूक्ष्म शरीर जो शायद रक्तदान देने वाली लेखिक को धन्यवाद देने के लिए उसके आस-पास मंडरा रहा था। उसने जान लिया कि ‘शरीर की भौतिकता‘ ही संपूर्ण मानवीय अस्तित्व नहीं, मन-बुद्धि-भावना का सुमेल भी एक उदात्त अस्तित्व के लिए अनिवार्य है। यह जानना अभी भी अधूरा है क्योंकि अस्तित्व के अनुसंधान की यह प्रक्रिया कभी पूरी नहीं हो सकती, यह अनादि और अनंत है। 

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समीक्षा

रेखाकृति नाटक: एक विश्लेषण

-जवाहर लाल कौल ‘व्यंग्र’

कुसुम अंसल के उपन्यास रेखाकृति पर आधारित उसी नाम से ‘रेखाकृति‘ नाटक का नाट्य रूपान्तरण फैज़ल अलकाज़ी और अरूण सहगल द्वारा किया गया है। यह नाटक दो अंकों में विभक्त है। प्रथम अंक में छः दृश्य तथा दूसरे अंक में सात दृश्य हैं। नाटक में महिला एवं पुरुष पात्रों के जीवन के आपसी संबंध रेखाचित्रों के रूप में उभरते हैं जिनमें उनके शरीर, विचार, मनोभाव, आकांक्षा एवं संवेदना अपनी अलग-अलग रेखाकृतियाँ बनाते हुए एक दूसरे से सन्नद्ध होकर नाटक के मनोहारी कथानक के रूप में परिवर्तन होने में सहायक होते हैं। नाटक की नायिका मालविका नाटक के पूरे परिदृश्य में अपनी निराली एवं महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है और नाटक के आदि से अंत तक अपनी विशिष्ट उपस्थिति बनाए रखती है। 

नाटक के प्रथम अंक के प्रथम दृश्य में मसूरी के जौहरबाई की पुरानी हवेली निर्मल कुंज में अपने छोटे भाई की मृत्यु के बाद उसकी पैंतिस वर्षीय विधवा आभा एवं इक्कीस वर्षीय बेटी मालविका को ताऊ जी छोड़ गए जहाँ उनसे वहाँ का सेवक बेदी और नौकरानी जानकी मिलते हैं। आभा और मालविका निर्मल कुंज को एक छोटे-होटल का आकार दे कर उसकी देख-रेख करती हैं। मालविका एम.ए. (मनोविज्ञान) में पढ़ती है। जानकी ने इसे बतलाया कि उसके दादा ने अपनी शादी के बाद दादी को दरकिनार कर नर्तकी जौहरबाई के प्यार में डूब गए।

दूसरे दश्य में मालविका की माँ आभा जिसने अपना पिछला जीवन अलमस्ती में बिताया था, अपनी बेटी को भी उसी रूप में रहने की सलाह देती है किन्तु उसने उसे स्वीकार नहीं किया। वह एम.ए. करने के बाद पी.एच-डी. करने लगी तथा कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ाने लगी। उससे सुन्दर युवती डाइवोर्सी डांसर नयनतारा (नैना) मिलती है जिसके रूप, यौवन पर आभा प्रभावित होती है, वह वहाँ खाना खाती है तथा मालविका से बातें करती है। बेदी के यह बतलाने पर कि जानकी को इसका मर्द किशनलाल उसके घर में मारपीट रहा है, मालविका वहाँ जाकर पूछताछ करती हैं। तीसरे दृश्य में मालविका नैना के साथ कॉन्वेंट स्कूल जहाँ वह पढ़ाती है, वहाँ की प्रिंसिपल सिस्टर मार्था से मिल कर उसे वहाँ नृत्य शिक्षिका के रूप में काम करने का प्रस्ताव करती है जिसे सिस्टर ने उसके चारित्रिक दोष का हवाला देते हुए अस्वीकार कर दिया। नैना ने उसे बतलाया कि किस तरह उसका पाँच साल का बेटा मिक्की पैसे के अभाव में ल्यूकोसिया से मर गया जब उसके पति नरेश ने उसे छोड़ दिया। वह अपनी बेटी मंदिरा की पढ़ाई के लिए कालगर्ल भी बनी। उसने बम्बई से मद्रास जाकर नृत्यकला की शिक्षा तथा डाँस-शोज़ में देश-विदेश जाकर पैसा एवं अनुभव प्राप्त किया। उसने औरत को पुरुष के लिए सिर्फ शरीर ही होना कहा जो अच्छे विजय का साधन है जिसका प्रतिरोध करते हुए मालविका ने कहा कि स्त्री की बुद्धि, योग्यता, उपलब्धियाँ उसे जीवन में विजयी बनाती है न कि शरीर। 

चैथे दृश्य में ताऊ जी निर्मल कुंज में एक फ्रांसीसी चित्रकार पिअरे के साथ आकर मालविका एवं उसकी माँ आभा से परिचय कराते हैं, जो वहाँ रहने लगता है। आभा उसकी ओर आकृष्ट होती है। मालविका का रिसर्च गाइड शरत उसके रिसर्च पेपर देखकर असंतुष्ट होता है एवं उसे फिगर, डाटा इकट्ठा करने के लिए दिल्ली जाने को निर्देशित करता है। 

पाँचवें दृश्य में पिअरे आभा के कमरे में कैनवास पर चित्र बनाता है जहाँ वह खास अदा से बैठी रही। पोट्रेट पूरा होने पर वे आनंदित होते हैं फिर मालविका नैना के फ्लैट में जाती है। जहाँ दोनों विवाह एवं शरीर के संबंध में वार्ता करती है। मालविका ने नैना से बतलाया कि दिल्ली में कॉलेज के प्रोफेसर भूपेन द्वारा अपने नाटक जो जयपुर में खेला गया था के संबंध में दी गई कास्ट पार्टी के समय सब के जाने के बाद उसने उसे बाहों में लेकर चूम लिया, बाद में उसने दूसरी लड़की सविता से शादी कर ली। उसी समय उसके पिता की मृत्यु हो गई। उसने दूसरे व्यक्ति से प्रेम तथा फ्रेंच आर्टिस्ट के लगाव से इनकार किया। 

दृश्य पाँच-ए, पहाड़ का है जहाँ पर आभा, बेदी, पिअरे, मालविका जाकर मन्दिर के पुजारी रोशन से मिलते हैं जो दर्शन-पूजन कराता है। रोशन अपने को स्वामी-संन्यासी न होना कहा। उसमें उस स्थान को कुंतीवन जहाँ उसकी मृत्यु हुई। उसने कुमारी कुंती को सूर्य से कर्ण के पैदा होने तथा उसे नदी में बहा देने की बातें भी बताई। 

दृश्य छः में किशनलाल एक पंद्रह-सोलह साल की देह से भरी पूरी लड़की को भगाकर ले आया और उसके साथ दुष्कर्म किया। जानकी और उसमें तकरार होती है। मालविका, पिअरे किशनलाल को डाँटते-फटकारते हैं। इस लड़की के माँ-बाप दिल्ली से आकर उसे लिवा ले जाते हैं। मालविका किशनलाल को निर्मल कुंज में न आने की जानकी को हिदायत देती है। किशनलाल आभा एवं मालविका के प्रति बेदी से अभद्र बातें करता है। वह उसे थप्पड़ मारता हुआ धक्के देकर कमरे से बाहर निकालता है। पिअरे मालविका से औरत के नंगे शरीर खासतौर से उसके स्तन पर तरह-तरह के रंगो से पेंट करने को कहता है तो वह ऐसे मजाक को अच्छा न लगना कहती है। पिअरे जब इस पर कहता है कि उसके देश में ऐसा होना सामान्य से परे नहीं होता तो मालविका ने कहा कि यह न तो उसका समाज है और न ही उसका देश।

दूसरा अंक-दृश्य प्रथम- मालविका शरत के साथ दिल्ली जाती है। वह वहाँ भूपेन के घर गई। भूपेन का घर उसे बदला-बदला-सा गंदगी से परिपूर्ण दिखाई दिया। भपेन अपनी गोदी में अपने विकलांग बच्चे को लिए उससे मिला। उसने अपनी पत्नी सविता को बच्चे के इलाज के लिए नर्स होना कहा। मालविका वहाँ से गेस्ट हाउस आ गई जहाँ बैठकर कुछ लिखने लगी। शरत रम पीता है एवं जब इसके पीछे आकर उसकी तबियत की पूछताछ करने लगा तो वह उसको अपनी बाहों में ले लेता है। सबेरे जगने पर वह अपने आपको नग्न अवस्था में पाई। उसने शरत को संतुष्ट एवं मुस्कराते हुए देखा। इसके अनुसार उसने ऐसा नहीं चाहा था फिर भी हुआ। 

दृश्य दो- मालविका बस स्टैंड से लौटते समय जब दबे पाँव अपने कमरे में जा रही थी तो उसने माँ के कमरे की दरार से न चाहते हुए पलंग पर माँ और पिअरे की एक दूसरे में डूबी नग्न देह देखी। फिर नैना ने मालविका से कहा कि उसकी माँ की तरफ पिअरे खिंचा चला जा रहा है। दोनों आभा एवं पिअरे के प्रेम के संबंध में बातें करती हैं। नैना ने उसकी माँ को ऐसी स्त्री कहा जो बिना पुरुष के नहीं रह सकती। नैना के जाने के बाद मालविका अपनी माँ के इस उम्र के प्रेम के बारे में सोचने लगी। फिर मालविका जानकी के कमरे में गई जहाँ उसे बीमार पाई। जानकी का गर्भपात हो गया था। मालविका उसे दूसरे दिन चेकअप कराने अस्पताल से जाने को कहती है।

दृश्य तीन- निर्मल कुंज में रोशनलाल आकर वहाँ की लाइब्रेरी में किताबें देखने लगा। उसने अपने साथ लाई हुई एक माँ अपनी बाहों में अनावृत्त बच्चों को उठाए हुई एलाबेस्टर की मूर्ति पिअरे को दी। उसने उसे अपने जन्म के समय अपने पिता द्वारा अपनी माँ को देना बतलाया। मालविका की माँ इस मूर्ति के बारे रोशनलाल से बातें करती है। वह मालविका को पिअरे से प्रेम होना बतलाती है जिसे मालविका ने स्वीकार करने को कहा। मालविका ताऊ जी से अपनी माँ एवं पिअरे को एक दूसरे को चाहना बतलाती है तथा उनकी शादी कराना कहती है। ताऊ जी पिअरे से आभा से विवाह करने को पूछते है जिस पर वह स्वीकृति देता है। मालविका, पिअरे, आभा एवं बेदी भूगर्भ वाले मन्दिर में शादी कराने जाते हैं, जहाँ रोशनलाल उनकी शादी करता है। रोशन मालविका से वहाँ अपनी माँ का आना, बाहर से पूजा करके चले जाना तथा उसे मुसलमान होना बतलाया। उसने कहा कि अपनी माँ के घर से चले जाने के बाद वह यहीं आकर रहने लगा। उसने अपनी माँ जौहरबाई के कलकत्ता में होना बतलाया। वे दोनों उससे मिलने कलकत्ता जाने को तैयार हुए। 

दृश्य चार- निर्मल कुंज में पिअरे आभा से शादी.... मालविका को उसकी पी. एच-डी. की उपाधि मिलने पर 

बधाई देता है। उसने रिटायर होना तथा गाँव अपने परिवार के पास या अन्यत्र जाने को कहा। एयरपोर्ट पर माँ एवं पिअरे की जहाज से उड़ान भरने के बाद मालविका की मुलाकात भूपेन से हुई जो अपने विकलांग बच्चे को लेकर इलाज हेतु यूरोप जा रहा था। उसने सविता से अलग होना, उसे बेटी को अपने साथ ले जाना एवं बेटे को अपने पास रखना कहा। वे अपने प्यार को याद करते हैं।

दृश्य पाँच-कलकत्ता के ओल्ड होम नवनीर में मालविका एवं रोशन प्रवेश करते हैं, जहाँ कफन से ढंकी एक लाश पड़ी थी। वहाँ वृद्ध महिलाएँ बैठकर भजन कर रही थी। संस्था की प्रधान जय भी उनसे मिलती है। रोशन उससे अपने को जौहर बाई का पुत्र होना कहता है एवं मालविका ने उसका रिश्तेदार होना बतलाती है। जय श्री ने जौहर बाई की मृत्यु होना, उसे महान् तथा नवनीर को सँभाले रहना बतलाया। दोनों लाश के पास जाकर उसे देखते हैं। उसने अपनी माँ को मुसलमान होना तथा उसे दफन करने के लिए इंतजाम करने को कहा। 

दृश्य छः- निर्मल कुंज में किशनलाल, छोटे बच्चे को गोद में लिए बैठा था। जानकी उसकी आवारगी पर उसे कोसती है तथा उसकी चरित्रहीनता एवं दुर्व्यवहार को उजागर करती है जिस पर वह अपने को उसका आदमी कह कर रौब दिखलाता है। मालविका उसके बच्चे को ले जाने लगी तो उसने उससे माँगा। जानकी ने उसे देने से मना किया तथा उसे जेल तोड़कर आना बतलाया। किशनलाल मालविका . को अपना चरित्र देखने को कहता है जो बिना ब्याहे मंदिर के स्वामी (रोशन) को गृहस्थी में ले आई। मालविका फोन पर पुलिस को बुलवाली, किशनलाल पकड़ कर ले जाया गया। 

दृश्य सात-निर्मल कुंज के ड्राडंग रूम में मालविका बच्चे को गोद में लिए बैठी है। नैना के पूछने पर मालविका ने उसे जानकी का बेटा बतलाया। नैना ने उससे कहा कि वह दिल्ली में ‘नृत्यधाम‘ खोल रखी है जहाँ मन्दिरा भी उसके साथ है। उसने कहा कि नरेश चाहता है कि वह मन्दिरा के साथ लौट आवे किन्तु उसने वैसा नहीं किया। उसने नरेश को क्षमा करना कहा। नैना ने मालविका से रोशन का वहाँ रहने तथा उसको लेकर उसके संबंध में चल रही, बातों के बारे में पूछा। मालविका ने . बतलाया कि रोशन ने वहाँ दो साल से रहते हुए बूढ़े, थके बीमारों के लिए चल रहे ओल्ड होम को उसके साथ सँभाला है। नैना के यह कहने पर कि यदि वह उससे प्यार करती है तो ब्याह क्यों नहीं कर लेती, इस पर उसने कहा कि विवाह कोई भी पूर्णता नहीं है, जीवन ठीक से जी लेना ही पूर्णता है जिसे वह प्राप्त कर ली है। नैना द्वारा आभा के संबंध में पूछने पर मालविका ने उसे पिअरे की चिट्ठी दी। उसके अनुसार आभा एक सोशलक्लाइम्बर है। उसने हिन्दुस्तान लौटने की जगह एक अमीर बूढ़े की रखैल बन कर रहना पसंद किया है। मालविका ने स्वागत भाषण में कहा कि मनु (बच्चे) को लेकर उसके भीतर प्रेम, वात्सल्य बह उठा। माँ होने का संबंध बदलता नहीं। ताऊ जी, रोशन और मन तीनों उसके विकल्प है। जब ये तीनों विकल्प एक रंगीन चित्र में परिवर्तित हो जाएँगे वह तब एक प्रतीक्षा करेगी जब तक ये रेखाकृतियाँ सच के रंगों से भरकर अर्थपूर्ण नहीं हो जातीं। 

नाटक में लेखक के जीवन-दर्शन की मान्यताओं का दिग्दर्शन होता है। लेखक का जीवन के प्रति जो दृष्टिकोण होता है वह अपने नाटक के लिए एक कथानक का सृजन कर उसमें उसकी व्याख्या करता है। वह नाटक में अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए पात्रों की रचना करता है। जिनके संवादों के माध्यम से उन्हें वह रसज्ञ पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करता है जिससे आदर्श जीवन-मूल्यों का समय के वर्तमान पटल पर अवलोकन होता है। नाटक में उसका कथानक या कथावस्तु ही प्रमुख तत्त्व है जो यदि सरल, अर्थपूर्ण, रोचक एवं मानवीय संवेदना से पूर्ण रहता है तो पाठक को आदि से अंत तक बाँधे रहता है तथा उसके मंचन पर दर्शक भावविभोर होकर प्रत्येक दृश्य में खोकर आनंदित होते हैं तथा उसमें दिग्दर्शन संदेशों को लेकर प्रस्थान करते हैं। भारतीय साहित्य में नाटक के कथानक में संधि, अर्थ प्रकृति एवं अवस्था का अवलोकन होता है तो पाश्चात्य शैली के अनुसार नाटक के कथावस्तु के प्रारम्भ, वस्तु विकास, धर्मोत्कर्ष, नियति अथवा घटनाक्रम का उतार एवं चरम सीमा अथवा फल के विभाजन का आकलन होता है। रेखाकृति‘ नाटक में उपरोक्त दिग्दर्शन अवस्थाओं का स्पष्ट दिग्दर्शन होता है। नाटक का प्रारम्भ सरस एवं मनोरम होता है, फिर क्या स्वाभाविक गति से विकास की ओर उन्मुख होती है तथा क्षिप्र गति से चर्मोत्कर्ष की ओर अग्रसरित होती है। पात्रों के चारित्रिक कार्यकलापों एवं मानसिक तथा वाह्य द्वंद्वों से कथानक में आरोह-अवरोह होने से घटनाक्रम में उतार आता है एवं कथानक अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच कर समाप्त हो जाता है। 

रेखाकृति नाटक का सार 

‘रेखाकृति‘ नाटक की मुख्य कथा निर्मल कुंज के इर्द-गिर्द घूमती है जो जौहर बाई की पुरानी हवेली है एवं जिसे कथा-नायिका मालविका के दादा ने नर्तकी रखैल जौहरबाई के लिए बनवाया था, जिसमें वह रहा करती थी तथा उनके मरने के बाद वह उसे छोड़कर कलकत्ता चली गई। मालविका के पिता एक बड़े सरकारी अधिकारी थे। उनकी मृत्यु के बाद ताऊजी मालविका एवं उसकी विधवा माँ को निर्मल कुंज में रहने के लिए ले गए। निर्मल कुंज को मालविका एवं उसकी माँ आभा द्वारा एक छोटे होटल में परिवर्तित कर उसकी आमदनी से अपना जीवनयापन करती हैं। वहाँ बेदी एवं जानकी, नौकर-नौकरानी अपना दिग्दर्शन रोल अदा करते हैं। निर्मल कुंज में रहने के लिए ताऊजी के साथ एक फ्रांसीसी चित्रकार पिअरे आया जिससे आभा का प्रेम संबंध हुआ और वह उससे शादी कर फ्रांस चली गई। रोशनलाल जौहरबाई का बेटा जो भूगर्भ मन्दिर में पुजारी के रूप में रहा करता था। अपनी माँ के कलकत्ता में मरने के बाद निर्मल कुंज में रहने लगा और मालविका के साथ वहाँ चल रहे ओल्ड होम को सँभालने लगा। 

उपरोक्त मुख्य कथानक के अतिरिक्त अवांतर कथावस्तु के रूप में निर्मल कुंज की नौकरानी जानकी एवं उसके पति किशनलाल का कार्यकलाप है। किशनलाल जो दुश्चरित्र व्यक्ति है, निर्मल कुंज की एरटिक्स पुरानी कलात्मक चीजों को चुरा कर दिल्ली ले जाकर बेचता रहा। वहाँ से एक किशोरी को भगाकर ले आया, उसके साथ दुष्कर्म किया। जानकी उसके कुकर्मों पर उससे लड़ती-झगड़ती है, वह उसे मारता पीटता रहा। वह जानकी को शादी के काफी दिन बीत जाने पर बच्चा न होने पर बाँझ कहता था। जब जानकी को उसकी ढलती उम्र में बच्चा हुआ तब भी उसके चाल-चलन में कोई बदलाव नहीं हुआ। वह जेल से भाग कर जानकी के पास आया जिसे मालविका ने पुलिस बुलवा कर जेल भिजवा दिया। नाटक की अन्य महत्त्वपूर्ण चरित्र नैना की जीवन-झांकी भी उल्लेखनीय है। उसका पति नरेश उसे त्याग देता है तो वह अपने बीमार बच्चे का पैसे के अभाव में इलाज न करा सकी, उसकी मृत्यु हो गई। वह अपनी बेटी मंदिरा की शिक्षा के लिए पैसा कमाने हेतु कालगर्ल भी बनी। उसने अपनी नृत्य कला से देश-विदेश से धन अर्जन किया एवं दिल्ली में ‘नृत्यधाम‘ खोल कर अपनी बेटी मंदिरा के साथ व्यस्त हुई। मालविका एवं उसके बीच वार्ता होती रही। जिसमें वह औरत के जीवन में शरीर के माध्यम से सब कुछ हासिल करना कहती है जबकि मालविका की बुद्धि एवं उसकी योग्यता को जीवन में प्रसन्नता दिलाने को कहती है। नाटक में अन्य महत्त्वपूर्ण प्रसंग भूपेन का है जो कॉलेज का प्रोफेसर है, उससे मालविका का प्रेम-संबंध अंकुरित हुआ किन्तु उसकी सहपाठिनी सरिता से उसने शादी की। वह अपने विकलांग बच्चे की देख-रेख एवं इलाज में परेशान रहता रहा। उसकी पत्नी से उसका संबंध विच्छेद हो गया, जो नर्स बन गई थी। वह अपने बच्चे के इलाज के लिए यूरोप जाता है। इसी तरह नाटक का एक और पात्र शरत है जो प्रोफेसर है एवं मालविका की पी.एच-डी. का गाइड है। दिल्ली में वह मालविका के साथ सहवास करता है। वह रिटायर होकर अपने गाँव या अन्यत्र जगह जाना चाहता है।

इस तरह इस नाटक के कथानक के सभी अंश एक दूसरे से सम्पृक्त हैं तथा पूरी कथावस्तु प्रारम्भ से अंत तक अपने में उत्सुकता को बाँधे रहती है जिससे इसके पाठकगण इसके दिग्दर्शन भाव-विचारों से आनंदित होते है एवं उन्हें इसके माध्यम से एक ऐसी कथा का परिचय होता है जो स्वाभाविक रूप से घटित होना दृष्टिगत होती है। कथानक में कहीं अस्वाभाविकता नहीं दिखलाई देती जो इसमें लचरपन जाहिर कर सके।

‘रेखाकृति‘ नाटक के सभी पात्र जीवन के कार्यकारियों को अपने संवादों से स्वाभाविक रूप से प्रस्तुत करते हैं। उनके कथोपकथन में मानवीय संवेदना का बहुत ही सूक्ष्मता से दिग्दर्शन होता है। नाटककार ने पात्रों के माध्यम से कथा में मानव जीवन से जुड़े कई प्रश्न एवं उनके उत्तर बहुत ही संजीदगी के साथ प्रस्तुत किया हैं, जिसमें दार्शनिक संचेतना तथा मनोवैज्ञानिक विश्लेषण का अद्भुत समावेश हुआ है। आभा, नैना, किशनलाल, भूपेन एवं शरत के चरित्र में मानवीय मांसलता उभर कर सामने आई है। मालविका विचारों में सामंजस्य स्थापित करती दिखलाई देती हैं। जहाँ एक ओर नैना के संवाद से पुरुष के लिए स्त्री का शरीर ही मुख्य होना जाहिर होता है, वहीं मालविका स्त्री की बुद्धि एवं उसकी योग्यता पर बल देती है। नाटक के सम्पूर्ण परिदृश्य के पीछे जौहरबाई का अदृश्य व्यक्तित्व अपना अस्तित्व बनाए हुए रहता है। पुरुष पात्रों में भूपेन एवं शरत का मालविका के प्रति प्रेमानुभूति, खिचाव एवं कामवासना उनके दुर्बल चरित्र को उजागर करते हैं। किशनलाल का अपनी पत्नी जानकी के प्रति किया जाने वाला दुव्र्यवहार, पर स्त्री गमन, निर्मल कुंज से की चोरी, बेदी और आभा एवं मालविका के प्रति अश्लील बातें करना, निर्मल कुंज में अपनी दुष्चरित्रता का औचित्य दिखलाना जौहराबाई की माया एवं वहाँ हवा में इश्क-इश्क होना कहना उसके उच्छृखल स्वाभाव, अक्खड़पन तथा दुष्कर्मों को जाहिर करते हैं जिससे उसका भत्र्सनीय चरित्र का दिग्दर्शन होता है। मालविका की माँ आभा का अपनी सयानी बेटी के समक्ष फ्रांसीसी चित्रकार पिअरे से प्रेम का ओछा प्रदर्शन. वैधव्य जीवन में उसके साथ शारीरिक संबंध बनाना, उससे शादी कर फ्रांस जाना तथा वहाँ भी पिअरे को त्याग कर किसी धनी व्यक्ति के साथ रहना नारित्व के उज्ज्वल स्वरूप पर प्रश्नचिह्न लगाता है और उसे फैशनपरस्त, गौजमौज की ज़िन्दगी जीने वाली आधुनिक सेक्स मॉडल कहा जा सकता है। नैना खुद एक स्वतंत्र विचारों वाली युवती के रूप में पूरे नाटक में दिखलाई देती है। वह औरत को उसका शरीर ही महत्त्वपूर्ण मानती है। जिसके बल पर कुछ भी हासिल करना बतलाती है किन्त नाटक के अंत में पिअरे के पत्र के संदर्भ में आभा का निर्मल कुंज में वापसी आना सम्भावित करते हुए उसका यह कहना कि उसका शरीर के भरोसे रहना कब तक संभव है। इस तरह उसका शरीर के बदौलत औरत का जीवन में सब कुछ हासिल करने का तिलस्म टूटता दिखलाई देता है।

मालविका इस नाटक की नायिका है, वह नाटक के प्रत्येक दृश्य में उपस्थित रहती है और अपने संवाद से नाटक को आदि से अंत तक एक जीवंत स्वरूप प्रदान करती है। ‘रेखाकृति‘ उपन्यास जो आत्मकथात्मक शैली में मालविका द्वारा ही पूर्ण हुआ, उसका नाटक रूपांतर होने पर वह जगह-जगह अपने संवादों से नाटक को परिपूर्णता में जान डालती है वहीं वह सूत्रधार का भी रोल अदा करती है। उसके कथन कथानक के सूत्र को जोड़ते रहते हैं। निर्मल कुंज में आने के बाद वहाँ चल रहे होटल को अपनी माँ आभा के साथ संभालना, फिर ओल्ड होम का रोशनलाल के साथ संचालन करना उसके प्रबंधकीय व्यक्तित्व को उजागर करता है। कॉलेज के समय उसका भूपेन के साथ असफल प्रेम-प्रसंग, पी.एच-डी. करते समय शरत के साथ अंतरंगता या नारी सुलभ दुर्बलता उसके यौवन उतार-चढ़ाव के प्रसंग रहे हैं किन्तु बाद में वह एक परिपक्व स्त्री के रूप में दिखलाई देती है। उसका अपनी माँ आभा का पिअरे के साथ विवाह कराने में उसकी भूमिका प्रशंसनीय है। उसकी नैना से दोस्ती, विविध विषयों पर उससे वार्ता उसके सौम्य स्वभाव एवं ज्ञान दिग्दर्शन के उदाहरण होते हैं। जानकी की बीमारी में उसकी मदद करना, उसके बच्चे को मातृ स्नेह से सिंचित करने की कल्पना उसके निराले चरित्र को जाहिर करता है। जौहरबाई के प्रति उसकी मृत देह को देखकर मर्माहत होती है। वह शादी नहीं करती है। नैना के पूछने पर रोशन के रिश्ते के संबंध में वह उसके साथ रिश्ता होना भी, नहीं होना कहीं और उससे ब्याह करने को इंकार करती है। इस तरह यह कहा जा सकता है कि मालविका का चरित्र गतिशील है, वह मानवीय गुणावगुण से परिपूर्ण है। वह स्वभाव से भावुक, सरल एवं गंभीर है। उसके संबंध में लेखिका कुसुम ने कहा है कि- ‘उसका बचपन दबे पाँव गुज़र चुका है और यौवन उसे एक सधी: हुई मानसिकता पकड़ा कर एक संयमित जीवन में ढाल रहा है। इस तरह उसका जीवन अवस्थाओं के प्रवाह से ऊपर उठना दिखलाया है। मालविका अपने यौवन को संभाले निर्मल कुंज की छत के नीचे सांस ले रहे सभी व्यक्तियों से अपना संबंध जाहिर करते हुए अपने निराले व्यक्तित्व का परिचय देती है।

संवाद या कथोपकथन के माध्यम से लेखक कथावस्तु को विकसित करता है तथा इन्हीं से वातावरण का सृजन एवं पात्रों के चरित्र पर प्रकाश पड़ता है। संवादों के द्वारा ही नाटककार अपनी विचारधारा एवं उद्देश्य प्रकट करता है। नाटक के संवाद यदि अभिप्राय पूर्ण, पात्रानुकूल एवं संक्षिप्त होते हैं तो नाटक अपनी सफलता ग्रहण करता है। रेखाकृति‘ नाटक के पात्रों के संवाद उपरोक्त दिग्दर्शन बातों के परिप्रेक्ष्य में अर्थपूर्ण हैं। यद्यपि किन्हीं-किन्हीं दृश्य में कुछ पात्रों के संवाद लम्बे-लम्बे हो गए हैं जैसे- प्रथम अंक के प्रथम दृश्य में ही मालविका का स्वकथन लगातार दो बार का जिसमें वह निर्मल कुंज, अपनी माँ, अपने संबंध में बतलाती है। ऐसा लगता है जैसे वह उपन्यास के अंश का वर्णन कर रही है। इसी तरह पूरे नाटक में मालविका का स्वागत कथन खटकता है। जिन तथ्यों को वह अपने कथन से उजागर करती है, उसको संवाद से पुष्ट किया जा सकता अथवा नाटक में अलग से सूत्रधार का सृजन किया जा सकता था। उसी तरह इसी अंक के दृश्य तीन में नैना का लम्बा संवाद उल्लेखित किया जा सकता है। 

नाटक में स्वाभाविकता एवं जीवंतता लाने तथा उसमें वर्णित घटनाओं, पात्रों के स्वभाव को जानने के लिए देशकाल का सृजन होता है जिससे तत्कालीन समाज का दिग्दर्शन हो सके। इस नाटक में मसूरी के जौहराबाई जो नर्तकी रही एवं मालविका के दादा की रखैल रही की पुरानी हवेली निर्मल कुंज से नाटक की शुरुआत होती है। जहाँ मालविका के ताऊ जी उसे और उसकी माँ को रहने के लिए लेकर आते हैं। जौहराबाई जो अब इस हवेली में नहीं रहती उसके संबंध में नाटक में उल्लेख हुआ है। एक नर्तकी एक जमींदार के सान्निध्य में आकर, कैसे रहती है और कैसे अपना साध्वी जीवन जीती है नाटक में बखूबी दिखलाया गया है। वह मुसलमान होते हुए भूगर्भ वाले मंदिर में पूजा करने जाती रही, वहाँ उसका बेटा रोशनलाल पुजारी के रूप में रहा। नाटक में इस तरह का वातावरण का सृजन समाज में सौहार्द कायम करने का द्योतक है। जमींदारी के जमाने का मालविका के दादा का जीवन-

वर्णन फिर नव समाज की फैशनपरस्त, उन्मुक्त एवं चंचल स्वभाव की नैना जो सिगरेट पीती । है तो उसे कुतूहलता की निगाह से होटल वाले देखते हैं। आधुनिकता के चित्र आभा के कार्यकलाप में देखे जा सकते है। आभा जो विधवा होकर एवं एक सयानी लड़की की माँ होकर फ्रांसीसी चित्रकार पिअरे से शादी करती है, फ्रांस जाती है, वहाँ भी दूसरे बूढ़े व्यक्ति से साथ रहने लगती है, यह सब नये आधुनिक समाज की दिग्दर्शन कराते है। कलकत्ता में जौहराबाई की मृत्यु पर बंगाली संस्कृति का दिग्दर्शन होता है। जहाँ कुछ महिलाएँ बैठी भजन गाती हैं। नवनीर संस्था की प्रधानमंत्री जी जौहरबाई के संबंध में बतलाती है, तद्नुसार उसका बेटा रोशन उसके दफन का इंतजाम करता है। ऐसे ही हर सीन का बहुत ही स्वाभाविक ढंग से दिग्दर्शन किया गया है एवं उसके संबंध में जो नाटक में वर्णन किया गया है वह उसकी स्वाभाविकता को उजागर करता है। 

‘रेखाकृति‘ नाटक की भाषा सरल, सहज एवं प्राणवान है और पात्रों तथा देशकाल के अनुरूप है। सभी पात्रों के संवाद ऐसे हैं जो कथानक में जीवंतता पैदा करते दिखलाई देते हैं। भाषा बोझिल न होने से नााटक में प्रवाह होना स्वाभाविक है। यद्यपि मालविका के स्वागत कथनों से उबाऊपन जाहिर होता है।

प्रत्येक रचना का उद्देश्य होता है कि रचनाकार अपनी रचना में उसी उद्देश्य का दिग्दर्शन करता है जो स्पष्ट अथवा अस्पष्ट रूप में निहित होता है। नाटककार का उद्देश्य इस नाटक के माध्यम से समाज का वह चित्र प्रस्तुत करना है जिसमें रूप यौवन का स्पष्ट एवं सही स्वरूप क्या हो? समाज का हर कोई व्यक्ति संयम ढंग से अपनी ज़िंदगी जिए, उसमें विकृतियाँ न आवें। रेखाकृति‘ के संबंध में कहा गया है कि रेखाकृति शरीर की अवस्थाओं के रेखाचित्र हैं। रेखाकृति रिश्तों की कहानी है, ऐसे रिश्ते जो जीवन के अलग-अलग आयामों के रेखाचित्र हैं। नाटक में जिन कथा-प्रसंगों को लिया गया है वे अपने में एक पूर्ण चित्र है। स्वयं लेखिका कुसुम अंसल ने रेखाकृति के संबंध में कहा है कि हर शरीर की विशेष अवस्थाएँ, विशेष आयाम होते हैं...रिश्ते जीवन के विभिन्न आयामों के रेखाचित्र होते हैं। रेखाकृति‘ ऐसे ही कुछ रेखाचित्रों का संकलित रूपांतरण है। ये रेखाचित्र शरीर की अवस्थाओं के हैं। शरीर जो समय का हाथ पकड़ एक अवस्था से दूसरी में उतरता है। उन्होंने रेखाकृति में विभा, जौहराबाई, नैना, किशनलाल के विशिष्ट यौवन को जाहिर करते हुए मालविका के लिए कहा है कि उसका जीवन अवस्थाओं के प्रवाह से ऊपर उठ चुका है, बचपन दबे पाँव गुज़र चुका है और यौवन उसे एक संयमित जीवन में ढाल रहा है। मालविका सोच रही है माँ, ताऊ जी और रोशन तीन विकल्प मेरे सामने हैं तीनों विकल्पों से छुटकारा मेरा मोक्ष है। यदि है...तो वह कौन सी अवस्था है जिसके सत्य में ये तीनों विकल्प समाहित हैं? कौन-सी रेखाकृति जिसको सच के सभी रंगों से भरा जा सकता है? यद्यपि नाटक के अंत में मालविका के स्वागत भाषण में इन्हीं तीनों विकल्पों का उल्लेख है किन्तु माँ की जगह मन है। मन जानकी का बेटा जिसको गोदी में बिठा कर वह प्रेम-वात्सल्य की कल्पना में डूब जाती है। इस नाटक के संबंध में प्रथम अंक के प्रथम दृश्य से परदा उठने के पहले मालविका को आवाज आती है-एक समय रोम साम्राज्य का एक राजदूत तरह-तरह के संदेशों को अपना लम्बे चोगे की चुन्नटों में छुपाकर रखता था। वैसे ही हम सबका आने वाले समये लम्बे अनजान वस्त्र में लिपटा हुआ हैं। इस कथन से यह जाहिर होता है कि हर किसी का भविष्य अनजान है जो समय के साथ जुड़ा है। इसी के परिप्रेक्ष्य में नाटक के कथानक के पात्रों के भविष्य का निर्धारण होता है। 

नाटक दृश्य काव्य के अंतर्गत माना जाता है। नाटक के पात्रों द्वारा रंगमंच पर किए गए अभिनय का दर्शकों द्वारा रूबरू अवलोकन होता है। रचनाकार नाटक के सृजन के क्षणों में उसका पूरा स्वरूप अपनी कल्पना में निर्मित कर लेता है तथा मचन के पूर्व उसका मंचन कर लेता है। स्थान और काल की सीमा से परे होकर वह अपने व्यक्तित्व का छायांकन नाटक के पात्रों तथा स्थितियों पर कर लेता है। ‘रेखाकृति‘ नाटक के कथानक के संवाद सरल एवं सीधे होने से पात्रों द्वारा उनकी प्रस्तुति में परेशानी नहीं होगी। हाँ, ऐसे कथोपकथन जो लम्बे हैं, उनकी प्रस्तुति में दिक्कत होगी। इस नाटक में प्रासंगिक एवं अवान्तर कथाओं की भरमार नहीं है जिससे इसके संवाद कहने में समय का ज्यादा अपव्यय नहीं होगा। जटिल कथानक न होने से दर्शकों का उससे उलझाव होने की संभावना नहीं है। यद्यपि इसमें कहीं-कहीं दार्शनिक संवाद है किन्तु उनके बोझिल न होने से प्रस्तुति में कोई दिक्कत नहीं आनी चाहिए। इस नाटक में कुल दो अंक तथा उनके कुल तेरह दृश्य हैं जो ज्यादातर निर्मल कुंज के हैं। इसके अलावा सिस्टर मार्था कॉन्वेंट स्कूल, भूगर्भ वाली पहाड़ पर स्थित मन्दिर, भूपेन का घर, नैना का कलकत्ता का ओल्ड होम, नवनीर के दृश्य संयोजन होंगे जिनके करने में विशेष परेशानी नहीं उठानी पड़ेगी। नाटक के हर दृश्य के शुरू में उसके प्रति दिये गए विवरण से नाटक के मंचन में विशेष सहायता मिलेगी। नाटक के पात्रों के परिचय में शरत एवं भूपेन को पचीस-तीस वर्ष का होना कहा गया है किन्तु नाटक के अंत में उन्हें छत्तीस का दिखाया गया जिससे उनके परिचय की उम्र से ज्यादा रूप में नाटक में प्रस्तुत होना होगा जो मेकअप से ठीक किया जा सकता है। एक बात और खटकती है कि अधिकांश नाटकों में दृश्यानुरूप गीत होते हैं जो इसमें नहीं हैं, यदि कुछ गीत दिए जाते तो अच्छा होता। इसमें नाटक पूर्ण होने का जो समय दिया गया है वह प्रथम अंक का एक घंटा 10 मिनट फिर 10 मिनट के अंतराल के बाद दूसरे अंक की अवधि 45 मिनट है। इस अवधि में जैसा नाटक के रंगमंच हेतु पात्रों के परिचय दिए गए हैं एवं उसका मंचन किया गया है इस निर्धारित अवधि के अंदर यदि नाटक पूर्ण हो जाता है तो ठीक है अन्यथा कुछ और अवधि लेकर नाटक का अन्यत्र मंचन अन्य कलाकारों द्वारा पूर्ण किया जा सकता है। इस तरह सफल निर्देशन में इस नाटक का मंचन सफलतापूर्वक किया जा सकता है। 

कुसुम अंसल के उपन्यास पर आधारित उसी नाम से यह रेखाकृति नाटक उसके मुख्य कथा अंशों पर आधारित नाट्य रूपातंरण किया गया है, उसमें उसकी नायिका मालबिका द्वारा जो उपन्यास की कथावस्तु को आत्मकथात्मक शैली में प्रस्तुत किया गया, उसका जगह-जगह वही स्वरूप नाटक में दिग्दर्शित किया गया है। वह नाटक के कसाव को कमजोर करता है, फिर भी कुसुम अंसल के अन्य नाटक ‘उसके होठों का चुप‘ से यह नाटक कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। इस प्रकार उपरोक्त दिग्दर्शित बातों के परिप्रेक्ष्य में यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि ‘रेखाकृति‘ नाटक रचना तत्त्वों की दृष्टि से एक सफल रचना है जिसका स्त्री-विमर्श के आकंलन में महत्त्वपूर्ण योगदान होगा।

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समीक्षा

कथ्य और शिल्प-कर्म के धरातल पर कुसुम अंसल के निबन्ध

-डॉ. अशोक कुमार

कुसम अंसल लिखती हैं - ‘उस असम्भव तक जाना है मझे। यह ‘असम्भव‘ सत्य तत्त्व है, जिसकी प्राप्ति अपने जीवन के संदर्भ में वह अपनी रचनाओं के माध्यम से करना चाहती हैं और दूसरों के सत्य, उनके साथ रहने के अनुभव और उनकी रचना और रचना-यात्रा को जी करके। उनका ‘उस असम्भव तक जाना है मुझे‘ व्यक्तिगत निबन्ध चार्ल्स लैम्ब के निबन्धों की याद दिलाता है। इस अन्तर के साथ कि लैम्ब के निबन्धों में वैयक्तिकता अप्रत्यक्ष रूप में उभर कर आती है, जबकि अंसल के निबन्धों में प्रत्यक्ष। अंसल के जीवन-भर का प्रयास भी अप्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष करने का रहा है। इसी यात्रा के विभिन्न अनुभवों का जोड़ उनके व्यक्तित्व का हिस्सा है। वह पृथ्वी पर अपने होने के सत्य को तलाशती हैं, अपनी उपेक्षा के स्रोत को तलाश करती हैं, माँ की ममता को तलाश करती हैं, पुस्तकों में ज्ञान और जीवन को तलाश करती हैं और समाज के व्यापक परिवेश में जीवन का सत्य तलाश करती हैं। यह ऐसा सत्य है जो सभी छिलकों के उतर जाने के बाद शेष रहने वाला शून्य है जहाँ ‘न तो कोई ज्ञाता है न ज्ञेय’ यही कुसुम अंसल का असंभव है। यह वह बिन्दु है जो योगियों के यहाँ अनहद नाद है, उपनिषद् की परम्परा.में मोक्ष और बुद्ध के यहाँ निर्वाण है। इसी बिन्दु पर सम और जीवन की पूर्णता है। जहाँ सभी घटनाएँ अनुभव होकर शांत हो जाती हैं, सभी इच्छाएँ तृप्ति के रूप में सम की स्थिति प्राप्त कर लेती हैं। इसी बिन्दु पर शव शिवरूप होता है। कुसुम अंसल भक्ति, मंत्र-तंत्र और योग के स्थान पर साहित्य के पंखों पर सवार होकर हिमालय के उच्च बिन्दु पर पहुंचना चाहती हैं, जहाँ शव शिवरूप होता है। 

‘मेरी डायरी का एक पृष्ठ‘ एक छोटा-सा ललित निबन्ध है। इस खूबसूरत निबन्ध में लेखिका बचपन में एक चबूतरे पर फूल चढ़ाती है, तब उसे यह पता नहीं होता कि वह चबूतरा वास्तव में कब्र है। लेखिका को लगता है कि सभी कब्रों पर चढ़ाए जाने वाले फूल मृत्यु की बासी गंध को निष्प्रभावी कर देते हैं। कुसुम अंसल का यह एहसास कुछ-कुछ वैसा ही है जैसा चार्ल्स लैम्ब के निबन्ध ‘ड्रीम चिल्ड्रन ए रॅवरि‘ में लैम्ब का है। सामने पड़े संगमरमर के बुतों को वह तब तक देखता रहता है जब तक उसे यह एहसास नहीं होता कि बुत जिन्दा हो गए हैं या वह स्वयं बुत बन गया है। वर्षों बाद उस चबूतरे के पास लौटने पर कुसुम को लगता है कि खुली हवा उसके भीतर भर गई है। कारण शायद यही है कि उस कब्र के पास गुलाब के फूलों का झाड़ है।

कुसुम अंसल कब्रों के साथ अपने रिश्ते को तलाश करना चाहती हैं। उनके साथ रिश्ता मानवीय रिश्तों से परे का है जहाँ झूठ नहीं सच ही होता है। सच की तलाश ही तो कुसुम की भटकन है तभी तो वह बर्मिंघम के कब्रिस्तान में सत्य खोजना चाहती है जो पोथियों में लिखी परिभाषाओं में नहीं मिलता। 

कमल कुमार और शमा पर लिखे निबन्ध साहित्यिक निबन्धों के बहुत निकट बैठते हैं। शमा की कविताओं में लेखिका उसके उस स्व को पहचान लेती है, जो ब्रह्म की ओर उन्मुख है। वह उसके अन्तज्र्ञान और आस्था को भी पहचानती हैं। कमल कुमार के कथा-संसार से परिचित होने के पश्चात् ही वह उसके कथ्य और शिल्प पर बात करती हैं। यह अध्ययन की गहराई है जिससे कमल कुमार की कहानियों पर एक संक्षिप्त-सा यह मत छन कर आता है - कमल कुमार की कहानियाँ मध्यवर्गीय जीवन की त्रासदी और स्त्री मन की कहानियाँ हैं। किसी के भी साहित्य पर इस प्रकार एक टैग-सा लगा देना आसान काम नहीं है। कहानियों की विशेषताओं को प्रभावशाली ढंग से वह सामने लाती हैं। कहानी की सबसे बड़ी विशेषता उसका प्रभाव होता है जिसके कारण पाठक उसे स्मरण रख पाता है। कमल कुमार की कहानी ‘उऋण‘ के उन तत्त्वों का विश्लेषण कुसुम अंसल करती हैं जो उसे प्रभावशाली बनाते हैं। कमल कुमार की वैयक्तिकं जीवन की त्रासदी और उसके नारी-पात्रों की त्रासदी के अंश मर्म को छू लेने वाले हैं। आज साहित्य में ‘स्त्री-विमर्श‘ की चीख-पुकार मची हुई है, ऐसे शोर से अपने को अलग करके सबल स्त्री-पात्रों की रचना की प्रवृत्ति को भी लेखिका ने सामने लाया है। राजी सेठ पर लिखा निबन्ध साहित्यिक निबन्ध बनते-बनते रह गया है। इस निबन्ध के आरंभ में आत्मकथात्मक अंश के बाद राजी सेठ के नारी-पात्रों का विवेचन करते हुए लेखिका महिला लेखकों के अहंकार, पुस्तकों, लेखन जैसे विषयों से गुजरते हुए उनकी कहानियों और पुनः पात्रों पर आ जाती हैं। निबन्ध विधा की पहली मांग विषय से चिपके रहना होता है। निबन्धों की इस प्रमुख विशेषता से विचलन अंसल के लगभग सभी निबन्धों में मिलता है। कुछ भी हो प्रभाकर श्रोत्रिय को उद्धृत करते हुए राजी सेठ की कहानियों की प्रमुख विशेषताओं को पाठकों के समक्ष कुसुम अंसल रख देती हैं। इन निबन्धों की विशेषता यह है कि लेखिका केवल साहित्य का विश्लेषण-विवेचन करके नहीं रह जाती। साहित्यकारों के व्यक्तित्व के उस हिस्से को सामने लाती हैं जहाँ से पूरी मानवता के लिए एक धारा पूरे वेग से छूटती है। कन्हैयालाल नंदन की काव्य-पुस्तक ‘एक टुकड़ा बसंत‘ की विशेषताओं को उकेरने में भी वह सफल रही हैं। 

‘चेतना का कोलम्बस‘ का पहला निबन्ध सरोज वशिष्ठ पर है, जो जीवनी के बहुत निकट हैं। यह निबन्ध आरंभ में ही तय कर देता है कि कुसुम अंसल का अपने चरित्रों के प्रति क्या दष्टिकोण है और उनके जीवन के किस अंश के स्पर्श का चुनाव वह करेंगी। इस निबन्ध में सरोज वशिष्ठ के व्यक्तित्व के जिस विराट का अंकन हुआ है, वह दुर्लभ की श्रेणी में आता है। यहाँ जो मानव में श्रेष्ठ है उस अप्रत्यक्ष को अंसल प्रत्यक्ष करती हैं। जेल के कैदियों का उदात्तीकरण और समाज में उनकी स्थापना कोई सरल कार्य नहीं है और फिर इस कार्य के साथ-साथ साहित्य लेखन। कुसुम अंसल इस निबन्ध में भी सरोज वशिष्ठ की कहानियों पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करना नहीं भूलतीं। अंसल ने सरोज के मानवीय पक्ष को उभारने में कोई कमी नहीं छोड़ी जैसे पुष्पा नाम की लड़की के चार ऑपरेशन करवाने के बाद उसे शिक्षित बना कर नौकरी दिलवाना। इसी तरह के सन्दर्भ में महीप सिंह का मानवीय पक्ष भी प्रत्यक्ष होता है। महीप सिंह ऐसे लेखकों की रचनाओं को पत्रिकाओं में प्रकाशित करवाने का सतत् प्रयास करते रहते हैं जिनके पास प्रकाशित होने का कोई साधन नहीं होता। 

कुसुम अंसल अपने चरित्रों को इस प्रकार अंकित करती हैं कि उनका बाह्य और भीतरी व्यक्तित्व अपने आप खुलता चला जाता है। विशेष रूप से नारी चरित्रों के बाहरी रूप के वर्णन में आकर्षण उत्पन्न कर देती हैं। सुनीता जैन के बारे में लिखती हैं - ‘उसकी ताज़ी प्रेस की हुई साड़ी, ज़री बार्डर पर कोई सिलवट नहीं, मैच करते कीमती गहने, झमझमाती हीरे की चूड़ियाँ, पर्स और चप्पल का सलीके से किया गया चुनाव‘। इसी प्रकार सरोज वशिष्ठ रंग-बिरंगी कांच की चूड़ियाँ पहने, माथे पर बड़ी-सी लाल बिन्दी लगाए, कानों में चांदी के झुमके और गले में तीन-चार मालाएँ, कंठी पहने और घने लम्बे बालों का खूबसूरत-सा जूड़ा बनाए, कलात्मक साड़ी पहने अपने पति के साथ गोष्ठी-स्थल पर प्रवेश करती हैं। सरोज के कंधे पर अक्सर काले रंग का झोला, हाथों में रफ पैड और एक पेन सदैव रहता है। 

अपने चरित्रों के भीतर के प्रकोष्ठ में जिस खिड़की से कुसुम अंसल झाँकती हैं, वह खिड़की उनके साथ रहने के अनुभव और चरित्रों के साहित्य की है। सरोज भीतर से टूट कर भी हँसती रहती है। कभी-कभी बहुत अधिक बीयर पी जाती हैं। सुनीता जैन का अकेलापन, प्रेम-विहीन विवाह, उसका प्रबुद्ध होने के साथ-साथ दुनियादारी के गणित में पारंगत होना, जैन धर्म और पूजा-अर्चना पर आस्था आदि या बासु भट्टाचार्य का वास्तविकता के प्रति आग्रह या अपनी तरह से जीवन न जी पाने की अजीत कौर की कुण्ठा, पुस्तकों और संगीत के प्रति रुचि, बच्चों के साथ मित्रवत व्यवहार या राजी सेठ की सरलता, गम्भीरता, संस्कारी आत्मा, अहंकार और पुरस्कार झटक लेने वाली तरकीबों से दूर रहने की प्रवृत्ति जैसी विशेषताओं को सूक्ष्म प्रेक्षण द्वारा ही कुसुम अंसल पकड़ पायी हैं। वह अपने चरित्रों के जीवन से संबंधित ऐसी घटनाओं का चुनाव करती हैं जो दूसरों को चरित्रवान बनाती हैं।

‘चेतना का कोलम्बस‘ निबन्ध-संग्रह के निबन्धों में कुसुम अंसल का अपना व्यक्तित्व और जीवन के उतार-चढ़ाव भी उभर कर समक्ष आते हैं। राजी सेठ पर लिखे गए निबन्ध में अपने लेखन के सन्दर्भ में वह लिखती हैं - ‘अपने जीवन को या अपनी आत्मा को बेकार एक गहरे अकेले शून्य में 

धंसते, नथिंगनेस की गुफा में भटकने से बचा लाने के लिए मुझे मेरी कलम ने सहारा दिया, एक सार्थक राह पर चलने के लिए प्रेरित किया। साहित्य कुसुम अंसल के लिए मौन में उत्पन्न होने वाला जीवन का आनन्द है, निजी अनुभव है। इस राह पर चलते हुए जहाँ लेखक पुरस्कारों के लिए बेचैन रहते हैं, वहीं कुसुम के भीतर कोई लालसा नहीं है। किसी से वह मांग तो सकती ही नहीं, उसकी दृष्टि में मांगना भिखारी होना है। कुसुम ईश्वर पर आस्था रखने वाली महिला है। उसके लिए अध्यात्म एक ऐसी शक्ति है जो उसे संबल प्रदान करती है। साहित्य समाज में प्रकाशित हो यह स्वप्न प्रत्येक साहित्यकार का होता है। साहित्य की पूर्ण सार्थकता भी समाज द्वारा उसे ग्रहण करने में है। समाज तक सम्प्रेषित होने का सबसे बड़ा माध्यम है - फिल्म और टी.वी. सीरियल। फिल्म और टी.वी. की दुनिया का वह छल-छद्म भी नंगा होता है जो कुसुम अंसल जैसी निस्पृह लेखिका को दर्द की टीस दे जाता है। उनके उपन्यास ‘पंचवटी‘ पर बनी फिल्म की सैल्यूलाइड पर लिखी इबारतों में उसके उपन्यास का कोई जिक्र नहीं है। पूरी फिल्म की निर्माण प्रक्रिया के दौरान फिरकी जैसी घूमने वाली और लगातार डायलॉग्स लिखने में खपने वाली कुसुम अंसल के इस स्थान का हिस्सेदार भी बासु भट्टाचार्य हो गए। अंसल के साहित्य पर शोभा द्वारा बनाए गए सीरियलों में उसका वजूद और भी कम हो जाता है। वह केवल ‘अतिरिक्त संवाद लेखक‘ होकर रह जाती है। अपने दर्द को बयान करते हुए वह लिखती हैं - ‘जो सीरियल के काग़ज़ लाख-दो लाख रुपयों में खरीदे-बेचे जाते थे - मुझसे मुफ्त में ले लिए थे उन लोगों ने। आज लोग जहाँ सीरियल के नाम पर करोड़ों कमा रहे हैं, वहाँ मैं अपनी जेब से बहुत कुछ खर्च करती हुई, इस्तेमाल होती गई। सच यही है कि कुसुम को जीवन का गणित नहीं आता और न वह ऐसा चाहती हैं। इतना सब कुछ होते हुए भी बासु भट्टाचार्य और शोभा के लिए उसके भीतर श्रद्धा, सम्मान और धन्यवाद है। उसके लिए ‘रचना परमात्मा के प्रति की गई एक स्तुति होती है - समर्पण होता है‘।‘ वहाँ किसी बनिए के व्यापार में होने वाले लाभ-हानि नहीं होते। जीवन में मिली उपेक्षा, उदासी, अकेलापन और आर्थिक उपलब्धि के प्रति वह तटस्थ है। इसी तटस्थता ने उसके जीवन को संतुलित कर रखा है। उसे इन सब चीजों से परे उस स्थिति तक पहुँचना है जहाँ व्यक्ति खाली हो जाता है। इन निबन्धों में से निकला लेखिका के व्यक्तित्व का यही संक्षिप्त-सा सार है। 

अधिकतर कुसुम ने अपने चरित्रों के उज्ज्वल पक्ष को ही वरीयता दी है, लेकिन हिन्दी लेखिकाओं के साथ रहते हुए उसे जो कटु अनुभव हुए या उसके चरित्रों को जो तल्ख अनुभव हुए उन्हें निबन्धों में यथास्थान रख दिया गया है। महीप सिंह पर लिखे निबंध ‘वह एक नाम‘ में वह स्पष्ट कहती हैं कि बहुत से लेखक गुटबन्दियों और विदेश-यात्राओं का जुगाड़ बिठाने में व्यस्त रहते हैं। उसके उपन्यास ‘एक और पंचवटी‘ पर हुई गोष्ठी में, गोष्ठी पर आने वाला खर्च उससे लिया गया। बिना उपन्यास पढ़े की गई आलोचनाएँ या ऐसी आलोचनाएँ जो रचना की सार्थकता को किसी भी कोण से नहीं देखतीं, केवल गोष्ठी की निरर्थकता की ओर संकेत करती हैं और इस तथ्य की ओर भी संकेत करती हैं कि हमारे कुछ लेखकों का नैतिक स्तर बहुत गिर गया है । राजी सेठ पर लिखे निबन्ध में वह एक अन्य तथ्य को सामने रखती हैं - 

‘अधिकतर हमारी लेखिकाएँ अहंकार के मकड़जालों में उलझी हुई हैं। उनके अपने गोरखधंधे थे, अपनी बड़ी-सी ‘ईगो‘ या ‘ऐटीच्यूड‘ के तहत अपने को कहीं बहुत ऊँचे पैडस्टल पर रखकर आत्म-मुग्धता या आत्म-दया के धुएँ में लिपटी कुछ-न-कुछ प्रमाणित करने के चक्कर में पड़ी हुई हैं।

लेखिका और उसके चरित्रों के माध्यम से औरत की समाज में स्थिति के प्रति एक दृष्टि विकसित होती है - शादी के समय स्त्री के अवगुंठन, उसके लाल जोड़े, मेंहदी, सिंदूर, चूड़ा, नए जीवन का रोमांच और उसके सपनों को कुसुम अंसल . शीजोफ्रीनिक आडम्बर मानती हैं। तर्क यह कि परायी मिट्टी और पराये लोगों को स्वीकारने में जीवन बीत जाता है। उसके व्यक्तित्व का निर्माण इस तरह से किया जाता है कि वह अपने पति और परिवार के प्रति समर्पित होकर रहे, चाहे कर्तव्य पूर्ति करते-करते उसका स्व नष्ट हो जाए। इतना होने पर भी स्त्री में गुण है कि उसके भीतर गंभीर निष्ठा होती है जिसके कारण एक तो समाज में वह अपना मानसिक संतुलन बनाए रखने में सफल होती है, दूसरे वह अपने भविष्य को भांप लेती है। स्त्री में प्रबल ‘सरवाइवल इंस्टिकट‘ होता है, जिसकी वजह से वह कई दबावों, विरोधों, हिंसा, आपाधापी और जहालत के बावजूद अपने अस्तित्व को बचा ले जाने में सफल रहती है। 

कुसुम अंसल के यहाँ जीवन के संघर्षों और अन्य दुखों के साथ-साथ मृत्यु का दुख भी पाठक को झकझोरता है, क्योंकि यह दुख सब दुखों से बड़ा है, एक ऐसा अभाव है जिसकी पूर्ति नहीं हो सकती। सुधा जैन, साधना, रिंकी, इंदिरा गोस्वामी के पिता, उनके पति माधवन रायसम और कैंडी की मृत्यु, स्ट्रेटफोर्ड में होली ट्रिनीटी चर्च के भीतर स्थित कब्रिस्तान में लाए गए एक ताबूत के साथ शोकाकुल परिवार के सदस्यों में एक बच्ची जिसकी आँखों से आँसू-से बह आए हैं, इन सब का चित्रण प्रसंग के बहाव के साथ उद्विग्न करने वाला है। कुसुम अंसल ने मृत्यु के वातावरण के जो चित्र आत्मकथाओं से चुने हैं या स्वयं प्रस्तुत किए हैं वे एक बृहत् दृश्य को साकार करने के साथ-साथ मृतकों के साथ पाठक की संवेदना को जोड़ देते हैं। पाठक भी कुछ-कुछ वैसी ही पीड़ा महसूस करता है जो मृतकों के निकट संबंधियों ने की होगी। 

कुसुम अंसल द्वारा सूक्तियों का प्रयोग उसकी निबन्ध शैली की विशेषता है। फ्रांसीसी निबन्धकार मोन्टने (Montaigne) जिसे निबन्ध का पिता कहा जाता है, उसके निबन्धों में प्रभावित करने वाला तत्त्व सूक्ति है। कुसुम की सूक्तियाँ मोन्टने की सूक्तियों की तरह संदर्भो से जुड़ कर अर्थ को फैलाती हैं, जैसें - ‘दर्पण फासले पर हो तभी उसमें प्रतिबिम्ब उभरता है। एक फासला उसने अपने और अन्य लेखिकाओं के बीच जानबूझ कर बना रखा है ताकि उनकी छवि जैसी है वैसी उसके भीतर बनी रहे। अधिक निकटता छवियों को ध्वस्त कर देती है । वहीं सूक्ति संदर्भ और उससे बूंद-बूंद चूने वाली पीड़ा के वर्णन को विराम देती है लेकिन भाव के प्रभाव को गहरा कर जाती है। बासु भट्टाचार्य की बेटी रिंकी के मृत्यु के दुख के संदर्भ में उनकी यह सूक्ति इसी तरह की है - ‘बहुत से प्रश्न और कौतूहल कहे नहीं जाते, पूछे नहीं जाते, उन्हें मन के किसी कोने में बन्द रख देना होता है। या ‘जब अपने लिए कोई आधार, कोई निश्चित बिन्दु या खंूटी ही न बचे तो अपने भीतर लौटना होता है। कुसुम की सूक्तियां व्यावहारिक जीवन के शाश्वत पक्ष से जुड़कर महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं, जैसे - ‘अनुभवों को कहा नहीं जाता, उछाला नहीं जाता, जिया जाता है।  

‘चेतना का कोलम्बस‘ के निबन्धों में अन्य लेखकों के उद्धरणों को संदर्भानुसार दिया गया है। उद्धरणों के संबंध में लैंडर का मत है - 'The use of quotation only marks the weakness of the writer and infact it is only justifiable when the quotation adopts itself to the context' कुसुम द्वारा प्रयुक्त उद्धरण प्रसंगाधीन हैं। ऐसा नहीं है कि उन्हें केवल सजावट के लिए या पैबंद की तरह जड़ दिया गया है। ज्यां पाल सात्र्र, सेग्मंड, फ्रायड, देन रुदियार, मार्शल ब्लांवस्की, रविन्द्रनाथ टैगोर, विष्णु प्रभाकर, प्रभाकर श्रोत्रिय, पंजाबी के साहित्यकार करतार सिंह दुग्गल, पुलिस प्रशासनिक सेवा से सेवा निवृत्त किरण बेदी, ईसाइयों की धार्मिक पुस्तक आदि से लिए गए उद्धरण अपना औचित्य सिद्ध करते हैं। उद्धरणों की तरह ही बहुत से काव्यांश निबन्धों का हिस्सा बने हैं। गुलजार की दो पंक्तियों - लफ़्ज़ काग़ज़ पे बैठते ही नहीं,/उड़ते फिरते हैं तितलियों की तरह। की तितलियां सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक छोटी-सी कविता का स्मरण दिलाती हैं, जिसमें उन्होंने उड़ती-फिरती तितलियों को बसन्त के प्रेम पत्र कहा है। 

अपने निबन्धों में कुसुम ने व्यक्ति के अस्तित्व, सौंदर्य, ज्ञान का साहित्य, आत्मकथा, ध्वनि, प्रेम आदि को परिभाषित किया है। आत्मकथा की परिभाषा पुस्तक की भूमिका पता नहीं यह रिस्क मैंने क्यों उठाया‘ - में इस प्रकार मिलती है - ‘आत्मकथाएँ अपनी जीवन-पद्धति की एक रचना या आकृति का आधार होती हैं या उस आधार की आदर्श स्थिति होती हैं, जिसमें घटनाएँ और आकृतियां एक विशिष्टता से गुंथी होती हैं और बहुधा जीवन के आदर्श-निषेध को नकार देती हैं।‘ इस परिभाषा की व्याख्या और विस्तार शीला झुनझुनवाला पर लिखे निबन्ध ‘कुछ कही कुछ अनकही और एक आत्मकथा‘ में मिलता है। आल ऑटोबाइआग्राजि आर लाइज को नकार कर कुसुम अंसल मान कर चलती हैं कि आत्मकथा में - ‘सच कहूँगी सच के अलावा कुछ नहीं कहूँगी जैसी शपथ होती है। 

कुसुम अंसल के चरित्रों की आत्मकथा में उन चरित्रों के ऐसे संस्मरणांश निबन्धों में उद्धृत हुए हैं जो पाठक में चरित्र के प्रति बेचारगी वाला लहज़ा न उत्पन्न कर अपनेपन के कारण उत्पन्न हो सकने वाले दुख को उभारते हैं। इंदिरा गोस्वामी के संस्मरण में मृतक पिता के हाथ से सोने की अंगूठी जबर्दस्ती उतारना और ‘मृतक यीशु के क्रॉस पर लटके शरीर से लूट-खसूट कर कपड़े उतार लेने की घटना की समानता धर्म पर चोट करने वाली है। आदमी सोचता रह जाता है कि व्यक्ति कितना स्वार्थी और क्रूर होता है कि वह मृतक के साथ भी वह दुव्र्यवहार करता है जो असंवेदनशील व्यक्ति जीवित के साथ करता है। इन्दिरा गोस्वामी का वृन्दावन में घुलती बंगाली 

विधवाओं की स्थिति पर लिखा गया संस्मरण कारुणिक होने के साथ-साथ ढोंगी पुजारियों, साधुओं, बाबाओं और मठाधीशों के नंगे सच को उघाड़ता है। विधवाओं की स्थिति देखिए- ‘ढेर सारी बंगाली विधवाएँ, असंख्य अंधेरी कोठरियाँ, असंख्य दुख झेलती कृष्ण दासियाँ, भूख और बीमारी से तड़पती अपनी असहाय अवस्था में कर्म-कुकर्म करती राधेश्यामियों का तांता‘।‘‘ ऐसी विधवाओं का चित्र भी है जिनकी कमर पर लिपटा हुआ केवल एक कपड़े का टुकड़ा है। कपड़े खरीदने की अपेक्षा अपने अंतिम संस्कार के लिए पैसे बचा कर रखने को ही कैसी विडम्बना है कि हम प्रत्यक्ष जीवन की अपेक्षा अप्रत्यक्ष भावी को महत्त्व देते “सम्बन्धहीन संबंधी‘, ‘वह एक नाम‘, ‘सुनीता जैनः एक रेखाचित्र‘ और ‘तसलीमा नसरीन: एक उपन्यास लिखने की सजा‘ निबन्ध क्रम से सरोज वशिष्ठ, महीप सिंह, सुनीता जैन और तसलीमा नसरीन के व्यक्तित्व पर लिखे हुए हैं। कुसुम अंसल से पहले भी लेखकों ने साहित्यकारों पर निबन्ध लिखे हैं, जिनमें महादेवी वर्मा का नाम महत्त्वपूर्ण है। ‘पथ के साथी‘ में मैथिलीशरण गुप्त, सुभद्रा कुमारी चैहान, निराला, जयशंकर प्रसाद, पंत और सियारामशरण गुप्त जैसे समकालीनों पर लिखे निबन्धों को कुसुम अंसल के निबन्धों के बराबर नहीं रखा जा सकता। कुसुम की अलग शैली है। महादेवी और कुसुम दोनों चरित्रों के व्यक्तित्व को उभारने के साथ-साथ अपनी प्रतिक्रिया भी व्यक्त करती हुई चलती हैं। अतिरिक्त यह कि कुसुम व्यक्तिगत अनुभवों और दर्शन का पुट भी देती हैं। इन निबन्धों में से सुनीता जैन पर लिखा निबन्ध सर्वश्रेष्ठ है। इंदिरा गोस्वामी, पद्मा सचदेव, शीला झुनझुनवाला और अजीत कौर का व्यक्तित्व उनकी आत्मकथाओं के माध्यम से उभर कर सामने आता है। वस्तुतः इन पर लिखे निबन्ध आत्मकथा का सार हैं, जिनमें कुसुम अंसल इन व्यक्तित्वों को दूसरे लेखकों का मत उद्धृत करके या स्वयं टिप्पणियां करके पूरा करती हैं। 

एक टुकड़ा बसंत‘, ‘अपनी मिट्टी से बेदखल: शमा‘, ‘राजी सेठ: उनके लिए निःशब्द ही प्रार्थना है‘ और ‘सम्पूर्णता‘ के कगार की ओर जाता कमल कुमार का कथा संसार‘ निबन्धों में क्रमशः कन्हैयालाल नंदन, राजी सेठ और कमल कुमार के साहित्य की आलोचना की गई है। इन निबन्धों का संसार उतना व्यापक नहीं है जितना कुबेरनाथ राय के ‘रस आखेटक‘ के निबन्धों का है। कुबेरनाथ राय ने ‘होमर: आत्मकथ्य‘ निबन्ध में होमर की कृतियों ‘इलियड‘ और ‘ओडोसी‘ और ‘सिंह द्वार का कवि प्रेत‘ निबन्ध में वर्जिल की कृतियों ‘इन्नीड‘, ‘ब्यूकोलिक्स‘ और ‘ज्यार्जिक्स‘ का जितना विशद् और गंभीर विवेचन किया है उतना कुसुम अंसल के यहाँ नहीं मिलता। शायद उसका कारण यह कि हर कृति की एक सीमा होती है। 

‘चेतना का कोलम्बस‘, ‘मेरी डायरी का एक पृष्ठ‘, ‘पंचवटी के बहाने‘ और ‘उस असम्भव तक जाना है मुझे‘ निबन्ध कुसुम अंसल के आत्मकथात्मक निबन्ध हैं। आत्मकथात्मक निबन्धों के सम्बन्ध में एस. के. बैनर्जी लिखते हैं - 'When we say that the essay should be personal, we do not mean that the writer should thrust upon us his egotistical foibles and vanities as most autobiographical writings tend to do.' इस सन्दर्भ में कुसुम के निबन्धों के आत्मकथात्मक तत्त्व उसके भीतर से छन कर आए हैं उनमें अहंकार भाव का लेश भी नहीं है। उनमें नम्रता, आत्म निवेदन, स्व-पर-दुख जीवन-दर्शन के संदर्भ में प्रकाशित हुए हैं। उनकी वैयक्तिकता का दख़ल मानव-रुचि में है। हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के निबन्ध ‘अशोक के फूल‘ और ‘भारतीय फलित ज्योतिष‘ भारतीय संस्कृति  से संबंधित निबन्ध हैं जिनमें जीवन की समग्रता है। अशोक का फूल प्रकृति होकर जीवन का भाव है और ज्योतिष शास्त्र ... ज्ञान है। कुसुम के निबन्ध भाव और ज्ञान से होकर उससे आगे परम तत्त्व तक पहुँचने की छलांग हैं। जीवन और उसमें रचते-बसते चरित्रों को पूरी तरह जान लेना असंभव है क्योंकि हम उतना ही जान सकते हैं जितनी जानने की क्षमता हमारी इन्द्रियों में है। इन्द्रियों की क्षमता के अनुरूप ही हम व्यक्तित्व गढ़ते हैं, भाव और ज्ञान तक पहुंचते हैं।

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समीक्षा

कुसुम अंसल की कविता: मूल्य और मूल्यांकन

-प्रो. आदित्य प्रचण्डिया

आज की कविता एक अभिनव सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में चुनौतियों से साक्षात्कार करते हुए यथार्थ के नवीन रूपों की पहचान है। आज का कवि जिन परिस्थितियों के बीच जी रहा है, जहाँ एक ओर आज़ादी के बाद निरन्तर गहराते हुए सामाजिक-सांस्कृतिक संकट की भयावह परिणति है वहाँ दूसरी ओर इधर के सालों में राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली घटनाओं ने न केवल हमारे राष्ट्रीय जीवन बल्कि सारी मानवता के भविष्य से संश्लिष्ट समस्याओं को दुष्कर बना दिया है। आज की कविता को अपने मूल्यों की संरक्षा का संघर्ष पहले से अधिक करना पड़ रहा है। पूँजीवादी साम्राज्यवादी व्यवस्था अपने को मानव जाति के विकास की चरमोत्कर्ष मानते हुए इतिहास के अन्त की घोषणा करती है। अशोक वाजपेयी का कथन- ‘हमारी शताब्दी जिसका किंचित लोहित अवसानं निकट है। वैचारिक ऊहापोह भर ही नहीं, विचार के नाम पर संसार व्यापी तन्त्रों के विकास, उनकी तानाशाही और उनके अन्ततः ध्वंस की शताब्दी रही है। इस बात का प्रमाण है कि देश बुद्धिजीवी और रचनाकारों पर इसका कितना गहरा असर है। सुधीश पचैरी की घोषणा- ‘आज की कविता आधुनिक विकासवादी और क्रान्तिकारी दोनों तरह के अन्त की कविता है। आलोचना के अन्त के साथ-साथ कविता के अन्त का सिंहनाद करती है। साम्राज्यवाद के राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और विचारधारात्मक अभियान के साथ-साथ आज के कवि को राष्ट्रीय जीवन की उन रचना-विरोधी परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है जो हमारे देश के शासक वर्गों और उनके दलों में व्याप्त भ्रष्टाचार, राजनैतिक अपराधीकरण, धार्मिक तत्त्ववाद और सम्प्रदायवाद के साथ अग्रसर होती हुई फासीवादी प्रवृत्तियों से ही नहीं बल्कि एक भयावह प्रतिक्रियावादी सामाजिक-सांस्कृतिक निर्मित्ति की देन है। आज का कवि अपने चारों ओर टूटती-बिखरती दुनिया के मानवीय मूल्यों, आस्थाओं, सपनों और जीवन के सौन्दर्यबोध की रक्षा के लिए संघर्षरत् है।

प्रसिद्ध कथाकार और सिद्ध कवयित्री कुसुम अंसल की रचनावली खण्ड-एक और खण्ड-दो से गुज़रते हुए लगता है कि उनकी कविताओं में पूर्वाग्रह ईष्र्या या द्वेष का भाव नहीं है बल्कि मानवीय सम्बन्धों को गहरा तथा आत्मीय बनाने की कोशिश है। बदलते परिवेश ही कवयित्री की पहचान है जहाँ सम्बन्ध टूट रहे हैं, स्वार्थ का बदला हुआ भाव पनप रहा है। परम्परागत मूल्यों से अनुस्यूत मानसिकता तथा सम्बन्धों के टूटने से उत्पन्न मानसिकता कुसुम अंसल के काव्य-मन को स्वीकार्य नहीं है। कुसुम अंसल की कविताएँ अतीत और वर्तमान में जीते हुए ‘स्व‘ की पहचान कराती है। दाम्पत्य जीवन, आपसी सम्बन्ध, रिश्ते-नाते, प्यार-स्नेह, समाज के टकराव महिला रचनाकारों के प्रियकर विषय होते हैं। भौतिक सुख-सुविधाओं को जुटाने, उन्हें भोगने से ही जीवन की सार्थकता सिद्ध नहीं होती क्योंकि असली जीवन मात्र शरीर या उसकी सुख-सुविधाओं तक सीमित नहीं हैं। कुसुम अंसल की कविताओं में उक्त विषयों के सन्दर्भ में विस्मृत ‘स्व‘ को तलाशने की लालसा अभिदर्शित है तथा इसी तलाश से जूझती हुई और दैहिक सुख से ऊपर उठकर अनन्त सत्ता, अध्यात्म तथा ‘स्व‘ के स्वर निहित हैं। इसीलिए उनकी कविताएँ रहस्य का झीना आवरण ओढ़े हुए है। ‘स्व‘ के साथ कहीं कवयित्री का सीधा संवाद है तो कहीं गोपन भाव है। तटस्थ द्रष्टा के मानिंद वह कहीं अपने ‘स्व‘ को मूर्तमान देखती हैं तो कभी वह अपने ही सामने बिम्बित होते अतीत को मौन होकर स्वीकारती हैं। कवयित्री का अतीत उसके सामने नदी सदृश प्रवाहमान है। उसकी मान्यताएँ तथा मूल्य जीवन के बदलते पहरों के साथ बदलते रहे हैं। उसे लगता है कि सभी कुछ भाप बनकर उड़ता जा रहा है जिसे वह पकड़ने में असमर्थ है। शरीरगत अनुभव धुंधला रहे हैं या रोशनी फैला रहे हैं, जीवन का मकसद यहीं सन्निहित है। व्यर्थता और सार्थता के मध्य कुछ खोज पाने की कोशिश कुसुम अंसल की कविताओं में दर्शित है। कवयित्री को मालूम है कि प्राप्ति जीवन को पूर्ण नहीं बनाती बल्कि जीवन के अभाव को गहराती है। 

कुसम अंसल अपने और अपनी कविता के बारे में लिखती हैं- अपने लिए कोई क्या कहे? अपने को जानना बहुत कठिन है। झाँककर यदि अपने मन में देखा तो कहीं भी कुछ सुन्दर नहीं लगता सभी कुछ तो बड़ा सामान्य-सा है। बहुत बार मुझे लगता है जैसे मेरा मन एक बड़ा सागर हो। जिसे ज्वार की प्रतीक्षा में एक गुफा में बन्द कर दिया हो और अनेक ज्वार वहाँ हर समय मचलते रहते हैं। उन्हीं के उत्पीड़न में मैं खोई रहती हूँ और एक अजीब-सी अनुभूति मुझे घेरे रहती है और तब बहुत कुछ मुझे अपना नहीं लगता और बहुत दूर का कोई ध्रुवतारा मुझे हाथ हिलाकर जताता है कि मेरे मन को आत्मीयता वहाँ मिलेगी। जाने कब कैसे कल्पनाओं की नौका पर बैठ मैं चलती गई और मेरी लेखनी उस कल्पना के जल को मेरी पुस्तक पर बिखेरती गई। जाने वह खोखली सीपियाँ हैं या मोती हैं, वह मेरे मन के बहुत से भाव जिन्हें मैंने सहा भी है। सपना भी देखा है और उन्हें मैंने कल्पना से चित्रित भी किया है। तो यूँ मैं अपना, अपनापन अपने लिए न रखकर यहाँ कहे दे रही हूँ कि कहीं मेरा कुछ अनकहा मुश्किल है पर मन के एक कोने में कुछ है जो सच ही कहना मुश्किल है। एक ऐसी भावना है जिसे स्वर दे पाना बहुत कठिन है उसी अनकही भावना को मैं जीवन की सबसे अच्छी अनुभूति मानती हूँ। उस भावना से मन में इतना कुछ बनता मिटता रहा है जिसे सह पाना कभी-कभी बहुत हो जाता है और उस असह्य से दर्दीले पलों में मन के उद्गार मचल पड़ते हैं। (जाने-अनजाने क्या-क्या लिख जाती है लेखनी।) तभी तो कवि न जाने अनवरत किस अनजाने ध्यान में डूबा रहता है। कविता भी एक अलग-सा विज्ञान है। मन के भावों का विज्ञान, जिसे हम सच कह सकते हैं- केवल कल्पना नहीं। कविता एक ऐसी तूलिका है जो चलना जानती है केवल कुछ ऐसे पल होने चाहिए जो अनायास उस तूलिका को मचलने को बेचैन कर दें। मैंने एक बार पढ़ा था ‘कोई भी विचार एक बार मन में उठकर कभी मिट नहीं पाता। यह हमारी उपचेतना में चला जाता है और कुछ काल बाद एक तीव्र अनुभूति के रूप में हमारे कंठ से फूट पड़ता है। यह जो फूटना हैं वही सहज है और वही कविता है और एक बार कविता में लय होकर जीवन के सुख-दुख सच हो जाते हैं जीवन एक शाश्वत यथार्थ बन जाता है।‘ 

साढ़े तीन दशकों के कालखण्ड में फैली कुसुम अंसल की काव्य सर्जना-‘मौन के दो पल,‘ ‘धुएँ का सच‘, ‘विरूपीकरण‘ (रचनावली, खण्ड-एक ‘मेरा होना‘), समय की निरंतरता में‘, ‘भेंट...एक पंख‘ (रचनावली, खण्ड-दो) कुल छह काव्य संग्रहों में कवयित्री कुसुम अपने व्यक्ति एवं समाज के सच से ही बराबर संवादरत रही हैं। रचनावली के प्रथम-खण्ड के तीन काव्य-संग्रहों में कुल एक सौ पचपन काव्य रचनाएँ हैं-‘मौन के दो पल‘ संग्रह में उनचास, ‘धुएँ का सच‘ में अट्ठावन, ‘विरूपीकरण‘ में अड़तीस। 

द्वितीय-खण्ड के तीन काव्य-संग्रहों में कुल एक सौ बयालीस काव्य रचनाएँ हैं-‘मेरा होना‘ में छियालीस, ‘समय की निरंतरता, में चालीस, ‘भेंट...एक पंख‘ में छप्पन। इस प्रकार कुसुम अंसल रचनावली के दोनों खण्डों में छह संग्रहों की कुल दो सौं सत्तानवे काव्य रचनाएँ हैं जो ऐतिहासिक पारम्परिक सुदीर्घ सरोकारों को, कई-कई जीवन-क्रमों को, मानव-विरोधी रूपों की रचने वाली शक्तियों के प्रति भरपूर क्षोभ अभिव्यक्त करती हैं। 

काव्यर्ढना में अस्तित्व की चेतना-यात्रा होती है, गहरे अवचेतन में कहीं अजाने से अपना दबाव बनाये रहता हैं तब एक मौन प्रतीक्षा, आशा, संबल बनकर अवलम्बन देती है। कुसुम अंसल का कवि-मन भी ‘चाँदनी‘ और ‘सजीली शाम‘ और प्रेमिल-सुखद भावनाओं के इंतजार में है-

‘‘उस चाँदनी के इंतजार में 

रात बहुत काली है 

उस सजीली शाम के इंतजार में

बहुत जल रहा है दिन‘‘ 

काली रात और जलते दिन के विपरीत पूर्णिमा की रात एक सुदीर्घ इंतजार है जिस दिन पूर्णमासी होगी, कहीं कोई दुःखी न होगा, कोई पेट न होगा खाली, समाज, जग सब प्रकार से सुखी होगा। आँसुओं के, दुःख और अभाव के दिन समाप्त हो जायेंगे-

‘‘है इंतजार मुझे उन ही पलों का 

जो दुःख को समेट चल देंगे 

और सारा का सारा जग 

भर जाएगा जीवन के सुखी पलों से 

पता नहीं वह दिन आ पायेगा 

पर मैं तो इन्तजार करूँगी

उसी दिन का‘‘ 

सुखद, कल्पना, आशा, आशीर्वाद के बल पर, इनके सहारे जीवन जगत के खुशहाल समय के इंतजार यथार्थ के कठोर, कटु एवं विभ्रमों में समाप्त हुए। जो यात्रारम्भ के आदर्श स्वप्न थे, वे झूठे हुए। समाज जीवन की दुर्व्यवस्था को देखकर कवयित्री को जो अनुभव हुआ, वहाँ व्यक्ति-जीवन और समाज-जीवन की हताशा फैली थी-

‘‘मैं ऊपर को देखना चाहती थी 

मैं सहारों के बल उठना चाहती थी 

पर अब लगता है सब झूठा था 

ये सहारे जो अपने थे बहुत 

स्वप्न में भी सोचा नहीं था

छूट जायेंगे। 

भारत में संतों के जीवन में दृष्टिगत करें तो उसमें प्रायः सामाजिक अन्याय, दमन, उत्पीड़न के अभिदर्शन होते हैं और नारी संतों का अतीत तो दोहरी विडम्बनाओं से सम्पृक्त है। सामंती सोच, अन्याय, दमन, उत्पीड़न के सामाजिक एवं पारिवारिक जुल्मों के घेरे इन नारी संतों ने तोड़ फैंके हैं किन्तु अभिशाप के भावना वर्तुलों में घिरी सचेत नारीर्ढना जो इन घेरों को यों तोड़ना नहीं चाहती बल्कि अपनी क्षमता, प्रकृति से सुधारना, रचना चाहती हुई ज़हर को अमृत में बदलने का संकल्प लिए हुए है, उसकी यातना-कथा, उसका ताप और त्याग, उसकी साधना और  मुक्ति अधिक स्पृहणीय है। कुसुम अंसल के लिए यही मार्ग प्रेय है। ‘जीवन के पौध ‘ को उद्बोधन तथा सीख देती कवयित्री परिवेशगत सारे जहरीले धुएँ को पीने की प्रेरणा देती है

‘‘धरती को तोड़कर 

दरारों में विभाजित करते हुए 

उगे जीवन के पौधे। 

इस धरती को

आस्थाओं के खून ने सींचा है, 

बिखरा है यहाँ 

टूटे हुए विश्वासों का जल 

पी जाओ, हवाओं से 

सारा का सारा ज़हरीला धुआँ... 

ज़हर ही पीकर जिए हो 

ज़हर ही नसों में बहा है

ज़हर ही अमृत है। 

कुसुम अंसल जिस ज़हर की बात कर रही हैं, उसमें अनेक अमानवीय तत्त्वों के अपमिश्रणों ने अनुक्रिया में जो रासायनिक ज़हर तैयार कर दिया है, उससे मुकरना, भागना सम्भव नहीं, हो सके तो उसे अपने आत्म में ले जाकर अमृत बनाओ और बाँटों क्योंकि आत्म अक्षय है। अमर है। वह सब कुछ को अमृत में बदल देता है। इन्हीं अर्थों में संन्यासी से गृहस्थ श्रेष्ठ माने जाते रहे हैं, माने जाते हैं। सामाजिक परिवेश और संवेदना के परिसर इसी आधार पर स्वच्छ, पारदर्शी और जीने योग्य बनते हैं। आज यह प्रक्रिया, पद्धति, सीया और बिरल हो गई है, तो भी विषपायी कंठों का अकाल नहीं पड़ा अभी। 

आस-पास के परिचित जीवन-परिवेश के परिदृश्य से ही काव्य-आशयों को रचने वाले प्रतीकों से वे सृजन में प्रवृत्त होती हैं और मानवीय विडम्बनाओं को उकेरती हुई युग यथार्थ को रेखांकित करती हैं। सड़क के दोनों ओर सूखे पत्तों का ढेर एकत्रित करके आग सुलगा देने के कारण, उनसे उठने वाले धुएँ से पूरी सड़क छा गई है। इस महानगरीय यथार्थ दृश्य-घटना को मानवीय संवेदनशील आशयों वाले अर्थ संकेतों में ढाल कर कवयित्री अपने काव्य-कौशल का परिचय भी दे रही है और विडम्बना के ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक, अमानवीय संकेतों को भी रच रही है, जहाँ धुआँ दमघोटू जीवन, स्थितियों दुर्नीतियों, दुर्भीसंधियों का पर्याय बन गया है। युग सन्दर्भो को सहज ही उद्घाटित कर गया है-

‘‘धुएँ के गुबार में

खोते चले जाते हैं 

गुजरते यात्री 

इस धुएँ के बादल से 

बड़ी पुरानी है मेरी पहचान। 

चेतना का कोई अज्ञात पन्ना मुड़ता है 

तो मेरी यात्रा का छोर

यहाँ आकर जुड़ता है।‘‘ 

यहाँ तक आकर कविता जन्मान्तरों के क्रम और जीव की अनंत यात्रा से आ जुड़ती है। धुआँ और भी व्यापक अर्थ ग्रहण कर लेता है। भौतिक जीवन यथार्थ आत्मिक आध्यात्मिक संधि रेखाओं पर दोहरे-तिहरे अर्थ संकेत देने लगते हैं। यह धुआँ संकट के गहरे अहसासों से अस्तित्व को घिरा हुआ दिखता है-

“जीवन में धुआँ 

और धुएँ में जीवन 

की पहेली सुलझाती हुई 

पहुँच गई हूँ, इस बिन्दु पर 

जहाँ लगता है 

जीवन और मरण के बीच 

सिर्फ चिताएँ हैं

धूं-धूं कर जलती हुई 

जिनके किनारे बैठी हूँ मैं

जीवन सुख। 

क्योंकि सुख का विलोम हुआ है। सुख के क्षण उपभोग के बाद व्यक्ति सुख ढूँढता है बड़ा सुख और न मिलने पर दुःखी होता है। सुख की सीमा या पहुँच मन. है। मन सदैव अतृप्त रहता है इसीलिए तनाव बराबर बना रहता है। एक अतृप्ति. घेरे रहती है। इसलिए जीवन में धुआँ और धुएँ में जीवन का अटूट सिलसिला। धूमैली चिताएँ और निरर्थकता बोध। आग के सच और जीवन यथार्थ के सच से भी बड़ा हो रहा है आज ‘धुएँ का सच‘। संकुल अमानवीय चारित्रिकता को रेखांकित करता आज का सच धुएँ की कई प्रतीकात्मक अर्थ-ध्वनियों को व्यंजित कर रहा होता है।

. वस्तुओं, पदार्थों से भरे, सुविधाओं से सजे, भरे-पूरे घर सजग अस्तित्व को इस कारण सालने वाले लगने लगते हैं, क्योंकि आत्मीय प्रेम के सहज-सरल संवेदना वहाँ शेष नहीं रहते ये इतने न्यून हो जाते हैं कि जीवंतता की पहचान धुंधली हो चुकी होती है। अतः एक सचेत अस्तित्व को हाथ लगता है मौन आत्म रोदन, जो असीम समुद्र में जहाज से बिछुड़े पक्षी की भयातुर चीत्कार जैसा होता है। 

‘विरूपीकरण‘ की भूमिका में कवयित्री कुसुम अंसल कहती हैं-‘जीवन के भोर में जब निकली थी, अनेक मान्यताएँ मेरे साथ थी। दोपहर होते-होते परिवेश की प्रखरताओं के सम्मुख वे धुआँ-धुआँ होकर बिखरने लगीं। उनके साथ मेरा चैन भी उड़ने लगा। यहाँ तक कि देह का सुख भी अपना न रहा, सारा जीवन वाष्प-सा धुंधला होकर सामने से फिसलता रहा। वह आधार जिसके सहारे सोच और जिसके लिए हम सभी अनुभव जीते हैं शरीर ही तो है। जब उसी शरीर के अनुभव, उसकी मानसिक धारणाएँ ही धुंधलाने लगें तब आलोचना कठिन हो जाती है। इन कविताओं में वही पड़ाव है। फिर देह में दुर्घटनाओं से मिली चोटों के निशान रह जाते हैं, जो कालान्तर में कसक के कारण बने रहते हैं

‘‘दुर्घटना से मिली चोट 

शरीर पर कितने घाव 

तराश गई है 

चिकित्सक की मरहम 

उसे दे रही है सेक

घाव निशानों में बदल जाएंगे।‘‘ 

कुसुम अंसल अस्मिताजीवी कवयित्री हैं। उनकी कविताओं के आशय-संकेत उन्हें जीवन की विरोधी स्थितियों में जीने वाली कवयित्री सिद्ध करते हैं। भौतिक धन-दौलत, सुख-सुविधाओं की बहुलता भी एक रेगिस्तान रचती है-

‘‘मुझे लगता है 

रेगिस्तान की रेत 

मेरी वास्तविकता है। 

तभी रेगिस्तान मुझे 

हर पल बुलाता है

और मैं चली आती हूँ‘‘ 

जीवन अस्तित्व को ‘होने को‘ कवयित्री ने मनोयोगपूर्वक खोजने-परखने का प्रयास किया है। अनुभव करके ही उसकी सार्थकता यदि कोई है तो, अनुभूत किया जा सकता है। हमारी भौतिकता के अपने कुछ प्रच्छन्न अभिप्रेत है, जिन्हें जीकर ही पाया जा सकता है। कुसुम अंसल लिखती हैं-

‘‘भौतिकता के पीछे छुपी है

अपने अस्तित्व की 

रहस्यात्मकता 

उसकी सार्थकता, 

यथार्थ,

मेरा होना।  

कुसुम अंसल ने जो अनुभूत किया है, उनकी दार्शनिक चिन्तनात्मक निष्पत्तियाँ, उसे गम्भीर सरोकारों वाले कवियों की पंक्ति में ला खड़ा करते हैं। कवयित्री का अनुभव, विचार और अभिव्यक्ति की निरूपमेय प्रतिभा दर्शनीय है। बाहरी भौतिक यथार्थ पूरा वास्तविक यथार्थ नहीं है। आन्तरिक-आत्मिक आयाम की पहचान, अनुभूति इसे पूरा मानवीय यथार्थ बनाते हैं। शब्द ‘अर्थवान‘ होने पर ही ‘सत्य‘ की अनुगूंज बन पाते हैं-

‘‘शब्द जब भी अर्थवान होते हैं, 

सत्य की अनुगूंज बन जाते हैं। 

पगडंडियाँ समर्पण में ढलती है 

तो सफर

वहीं ले जाता है जहाँ जाना है‘‘ 

आत्मिक, आध्यात्मिक आयाम के बिना मात्र शरीर और कंकाल मात्र परछाइयाँ ही दीख पड़ती हैं

‘‘कि घर किसी के अपने नहीं होते 

जैसे शरीर...कंकाल 

अनंत में विलय होती

मात्र परछाइयाँ है।

अपेक्षाओं के विपरीत जब सामाजिक रिश्ते भी उपेक्षाओं के या दूरियों के बंजर उगाते हैं तब किन्हीं भी भौतिक सुविधाओं के रहते जो अंधेरे और अंधड़ घेर लेते हैं अपनी ही रूह काली परछाई-सी दहलीज पर टंगी होने के भुतहे अहसास उपजाते

‘‘बिस्तरे पर औंधी पड़ी मैं-

जिस्म थी बस 

और मेरी रूह 

प्रतीक्षाओं की दहलीज फलाँगने, 

प्रयासरत। 

अकेलेपन की अमावस, 

अँधेरा और अंधड़,

और मेरी रूह 

काली परछाई-सी 

दहलीज की छूट पर टंग जाती है।‘‘

रूह, परछाइयाँ, अकेलापन शून्य और टूटे हुए रिश्तों की किरणें आधुनिक भारतीय परिवेश के जिन सामाजिक, पारिवारिक रागात्मक ध्वंसों को प्रतीकार्थों में व्यक्त कर रहे हैं, उनकी विडम्बनाओं तक सहज ही पहुँचा जा सकता है। साथी, सहयात्री के मध्य की व्यावहारिक और भावनात्मक दूरी, स्वप्न और संकल्प की भिन्नता को रेखांकित करती पंक्तियाँ दृष्टव्य है

“उसने पतंग को पकड़ा है। 

और मैंने ज़िन्दगी को... 

वह आकाश छूना चाहता है 

और मेरे कदम धरती पर गड़े हैं...

..............

मैं तो बस, 

एक दृढ़ सत्य-सी 

अपनी जमीन पर ही

जमी खड़ी हूँ।‘‘ 

अपनी जमीन पर अपने अन्तःकरण की आवाज को रोपना, पोसना और फलित होते देखना जिस दृढ़ता की माँग करते हैं, कुसुम अंसल उसे सशक्तता के साथ साधे हुए हैं। मूल्यधर्मा सृजन या जीवन अस्तित्व की यह पहली और अंतिम शर्त भी है और कसौटी भी। ऐसे में सम्बन्धों में पसरे सन्नाटे के सवाल फिर सन्नाटे में ही डूब जाते हैं

“सन्नाटे ने मुझसे पूछा 

मैं कौन हूँ 

बेटी, बहन, प्रिया, बहूरानी, माँ... 

क्या? 

बहुत-सी ध्वनियाँ मुझसे 

रिश्ते जोड़ बैठी, 

बहुत-से नाम मुझ अनाम

को अस्तित्ववान बना रहे हैं।‘‘ 

कवयित्री कुसुम अंसल अपने को, अपने होने को दृश्य से हटाकर कल्पना में द्रष्टा रूप में भी देखती है-स्वयं की अस्तित्व सत्ता को शून्य में भी अशून्य बनाकर देखने की चिन्ता तक पहुंचती है, जो कि दार्शनिक चिन्तन की परिचायक हैं-

“दृश्य नहीं हूँ तो क्या? 

दृष्टा हूँ-मूक चिन्तन,

शून्य में उगा अशून्य‘‘ 

जब व्यक्ति अकेला होता है तब अपने साथ होता है और अपने साथ होना परमात्मा के साथ होना होता है। कवयित्री शैशवास्था में मात-वियोग के कारण अकेलेपन के अभिशाप को भोग चुकी हैं। उनकी कविताओं में अकेले होने की पीड़ा परिव्याप्त है। जब कवयित्री की चिन्तना आत्मिक-आध्यात्मिक आयामों की ओर अग्रसर होती है। तब जिजीविषा के अगले पड़ाव में दृश्य और द्रष्टा अलग हो जाते है। दृश्य का हिस्सा होते हुए भी द्रष्टा अपनी पृथक सत्ता से होने का साक्षी बन जाता है। कुसुम अंसल का अकेलापन नीरस, भौतिक, मानसिक न रहकर एक ‘गीत‘ और ‘ध्यान-अवस्था‘ बन जाती है

‘‘अकेलापन.....नीरस 

अकेलापन.........भौतिक 

अकेलापन.......मानसिक 

नहीं, अकेलापन गीत है,

...........

या फिर मौन में 

चुप रहने की

ध्यान-अवस्था। 

इस अवस्था में सांस्कृतिक प्रेम आध्यात्मिक, परमात्मिक प्रेम में परिणत हो जाता है। मूर्त में अमूर्त लक्षित होने लगता है। इस एकांत में तर्क-वितर्क के बौद्धिक जंजाल नहीं घेरते

‘‘एक सुगंध उठती है, 

और सारा का सारा अस्तित्व

ईश्वर हो उठती है। 

यह आत्म-विस्तार, स्वयं को, आत्म को, पर और परम-आत्म में देखना, समूचे ब्राह्मण्ड को एक चैतन्य इकाई मानना, भौतिक अस्तित्व के अभावों, दुरावों, भयों से भी मुक्त कर एक अटूट, अक्षय, अगाध विश्वास थमा देता है। 

जीवन-सम्बद्धता और कलात्मक सजगता दोनों का सहज संतुलन ‘समय की निरंतरता में‘ में अभिव्यक्त हुआ है। दृश्य-चित्रण की गहनता और सूक्ष्म निरीक्षता शक्तिः वर्णन को संतुलित बनाती है। इस संग्रह की ‘खजुराहो‘, ‘खुजराहो‘, ‘बर्लिन की दीवार‘, ‘लंदन का पब‘, ‘गुलाब की जंगली बेल‘, ‘मेला‘, ‘माँ‘, ‘यह शयन कक्ष‘, ‘उपहार‘ आदि कविताएँ प्रकृति और मुनष्य के बीच के कोमल सम्बध को ही नहीं बल्कि उसके माध्यम से विपरीत स्थितियों के प्रति चेतन हस्तक्षेप अवश्य बन गया है। जीवन की सामूहिकता, सहज जीवन-पद्धति, निश्छलता अपने में बाँधती है। 

प्राकृतिक वस्तुओं में से छनती ज़िन्दगी की गहरी आस्था, प्रकृति के कण-कण से फूटता सौन्दर्य और जिजीविषा-भाव है। दृश्यजगत के प्रति इन्द्रियजन्य संवेगों का आवेग उसके प्रवाह में बहते हर्ष, उल्लास, विषाद, प्रसन्नता, विस्मय, उदास जैसे अनेक भावों के साक्षात्कार में कुसुम अंसल समर्थ सिद्ध हुई हैं। इन्द्रिय ग्राह्यता बिम्ब-सृष्टि में भी प्रवीण-पटु हैं। जीवन रस के अनेक स्रोत इस संग्रह की कविताओं में हैं। जिनके द्वारा रिक्त होते उल्लास भाव और सौन्दर्य बोध को संजीवित रखा गया है। जीवन में समाहित पीड़ा, विषमजन्य उदासी और आस्था भाव से जन्में उल्लास-हर्ष को कवयित्री कुसुम अंसल उकेरती हैं। प्रतीक और बिम्ब के सहारे कुसुम अंसल की अभिव्यक्ति का अंदाज़ ‘उपहार‘ कविता में दृष्टव्य है-

“समय गवाह है........ 

क्योंकि केवल समय ही जानता है 

कोई शैतान चुपके से 

बड़े कबूतर के उपवन में... 

बड़े कबूतर के एक भवन में 

जिसकी जिम्मेदारी मँझले कबूतर की थी 

आग का एक पलीता सरका गया 

धू-धू करके जला बहुत कुछ... 

चिड़ियाँ, बच्चे, परिवार 

सुख-उल्लास लाशों के ढेर में बदल गया 

कालचक्र के उस भयानक पल में 

मरे हुए लोगों के परिवार 

फुफकार उठे घायल अजगर से

जैसे छाती पर विष वृक्ष उग आया हो...।’’ 

अमूर्तता की परतों के नीचे से भी समानान्तर अर्थ संसार उद्घाटित हुआ है जो सच्चाई की झलक देता है। कुसुम अंसल की अन्तर्वस्तु और संरचनात्मक संगठन अंतःक्रियात्मक द्वन्द्व की उपज ही नहीं है। वरन् टूटन, निस्सहायता, विवशता के बीच संघर्ष करने और स्थितियों को बदलने की इच्छा प्रबल है। 

वैमनस्यपूर्ण माहौल में मानवीय सम्बन्धों के अवमूल्यन के गहरे दर्द भरे अहसास के साथ ‘जीवन की जड़ें तलाशती कवयित्री कुसुम अंसल सहज पारिवारिक रिश्तों की ओर मुड़ती है जो उसकी मनुष्यता को जीवित रखने में समर्थ है। ‘माँ‘ कविता की पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-

‘‘अनुभवातीत के उस पल में 

माँ जैसी.....वह छुअन...स्पर्श 

मेरा भगवान हो जाती है 

ऐसे अनुपम अनुभव

का आधारवस्तु होते हैं...

ऐसे स्मृति..कण..अहसास

लिखे नहीं...जिए जाते है....।‘‘ 

कुसुम अंसल की कविताओं में आत्मपरकता देखते ही बनाती है। वह मेला देखने जाने की अतीत जीवी मुद्रा में लिखती हैं-

‘‘हमारे छोटे से शहर में मेला लगता था 

मैं बहुत छोटी थी तब 

पर किसी बड़े का हाथ पकड़कर 

यमपुरी नाटक...एक नौटंकी...एक कहानी 

देखने चली जाती थी..... 

एक मौचस्का कौतूहल मेरे साथ-साथ चलता था

हमारे छोटे से शहर में मेला लगता था...।

कवयित्री कुसुम अंसल की बग्घीघर, वामियान के बुद्ध जैसी कविताओं में आत्मीयता, मित्रता और वैश्विक वैचारिकता परिलक्षित है।

कुसुम अंसल की कविताएँ आत्मा के प्रजातंत्र में बोलती और उसका चित्र उतारती हैं। इस प्रजातंत्र में ईश्वर तक से प्रश्न पूछे जाते हैं। अंसल की कविता ‘मेरे बाँके बिहारी‘ में वृंदावन अपनी विद्रूपता में साक्षात् सामने खड़ा हो जाता है

‘‘मेरे बाँके बिहारी 

अपने पूरे मनोयोग से 

रस्सी खेंचती हुई 

तुम्हारा पंखा हो गई हूँ मैं 

मन्दिर के गर्भगृह में प्रवेश कर

हवा, हवा सी सरसरा रही हूँ‘‘ 

उक्त कविता का नाटकीय बिम्ब देखते ही बनता है। असल में कुसुम अंसल का जुड़ाव रंगमंच से भी रहा है। नाटकीय अभिव्यक्ति का कितना प्रभाव होता है वह भलीभाँति जानती हैं। इस कविता का दृश्य-विधान बाँके बिहारी के मन्दिर में ले जाते हुए पँखे से बंधी हुई डोर के साथ पंखा हाँकने वाले हाथ का आना-जाना साकार कर देता है। वृंदावन की विधवाओं का सारा दर्द मूर्तमान हो उठता है

‘‘मैं तुम्हारे इस मन्दिर की 

कूड़ा बटोरती झाडूं हो गई हूँ 

बिना ऊपर देखे 

बटोरती हूँ पैरों तले कुचले फूल...प्रसाद 

भूल जाना चाहती हूँ 

वह सारे सामूहिक बलात्कार 

जो रात के अंधेरे में


यहाँ बैठे धर्म के दावेदारों ने

वसूले थे मेरी विधवा देह से...‘‘

वृंदावन से जुड़ी अंसल की कविताएँ स्त्री-विमर्श की चीख पुकार न होकर गहन चिन्तन का चंदन हैं। हम सब‘ कविता में एक विधवा के खरोंचों से भरे दुखते बदन पर फटी साड़ी देख कुसुम अंसल कहती हैं

‘दुखते शरीर पर 

फटी साड़ी 

एक बहुत नुकीली 

सर्द हवा 

छेद रही है 

पता नहीं क्या 

कौन सी सतह?


क्योंकि जिस्म पर 

अब तो बित्ता भर भी 

जगह नहीं बची है 

खरोंच से खाली


शायद इसीलिए 

इस बराँडे में धूप

कभी नहीं आती‘‘ 

‘वृंदावन-4‘ नामक विरोधाभासी बिम्ब से कुसुम अंसल बताती हैं कि सारी देह पर लगता है खिड़कियाँ हैं लेकिन इन खिड़कियों से मन में ऊष्मा और ज्योति भरने वाली धूप का सर्वथा अभाव है। उदासी का तम गहराया रहता है। दर्शन का स्पर्श प्रत्येक रचना में अभिदर्शित हैं-

‘‘लावा हो या आग 

आँसू हो या समुद्र 

सब बहता है या जलता है 

इसी देह के घनीभूत अँधेरे में 

शायद इसीलिए कि 

हमारे लिए मुक्ति की 

कोई किरण....कोई आसमान नहीं है

इस का़यनात में। 

वृंदावन के माध्यम से कुसुम अंसल अंतस् के उद्वेलन को उकेरती हैं और मनुष्य होने की गरिमा को तलाशती हैं, नील गगन में उड़ना चाहती हैं। उनके सामाजिक सरोकार असीम सम्भावनाओं के साथ चेतना पर दस्तक देते हैं। 

कुसुम अंसल की कविताएँ मानवीय सम्बन्धों के सच को तलाशती हैं और वैविध्य को सामने लाती हैं। भले ही उनकी कविताओं में राजनीति के कुचक्र न हों लेकिन मानवीय सम्बन्धों का यथार्थ चित्रण अवश्य है। वह अपने समय के साथ हस्तक्षेप करते हुए समयातीत होकर शाश्वतता बिखरने लगती है। उनकी अनुभूति उनके अकेलेपन में एक नया आयाम जोड़ते हुए निषेधों की दीवारें तोड़-फाँद कर मूल्यों की रचनात्मक ज़मीन पर अभिनव पौध उगाती है। वस्तुतः कुसुम अंसल की कविता ऐसी खिड़की है जिसमें से जीवन के प्रत्येक रंग देखने को मिलते हैं। वस्तुतः ‘स्व‘ को तलाशने की लालसा का कुसुम असल का यह मणिभाव अकेलेपन, दार्शनिकता और उजास की रश्मियों से अनुस्यूत है।

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समीक्षा

विभिन्न सामाजिक पक्षों का क्षितिज: भेंट ...एक पंख

-डॉ. इकरार अहमद

कविता क्या है? कविता की रचना का उद्देश्य क्या हो? और उसका स्वरूप किस प्रकार का हो ? इन प्रश्नों पर प्रत्येक भाषा के कवियों एवं आलोचकों ने अपना मत, अपनी विचारधारा के अनुसार प्रस्तुत किया है। परन्तु कविता ही नहीं प्रत्येक साहित्यिक विधा के लिए व्यापकता अनिवार्य तत्त्व माना गया है। कविता एवं कविकर्म को व्याख्यायित करते हुए प्रख्यात् काव्यालोचक डॉ. रमाकान्त शर्मा का मत है- ‘‘मित्रो, कविता महज़ शब्दों का खेल नहीं है, कोई मनोरंजन की वस्तु नहीं है और न ही बैठे ठालो का शगल है। यह एक प्रकार का सामाजिक-सांस्कृतिक कर्म है। गंभीर उत्तरदायित्व भरा कर्म है। इसके लिए वैचारिक दृढ़ता, गहरी मानवीय संवेदना, इतिहासबोध, वैज्ञानिक सोच, सजग विश्वदृष्टि, धैर्य-लगन और निष्ठा, कलाविवेक और कलानुशासन की दरकार होती है। मनुष्य और प्रकृति से आत्मीय अनुराग और लगाव के बिना श्रेष्ठ कविता-कर्म संभव नहीं है। यह कठिन काम है और जोखिम भरा भी। लेकिन ध्यान रहे, जो इनसे बचेगा, वह भला कैसे श्रेष्ठ रचेगा? श्रेष्ठ सृजन का कोई शार्टकट नहीं होता। अपनी लोकधर्मी काव्य परम्परा से जुड़कर ही हम उसे कुछ नया बनाते हुए समृद्ध कर सकते हैं। 

कविता की इन सभी प्रवृत्तियों को कुसुम अंसल की कविताओं में स्पष्ट देखा जा सकता है। विषयवस्तु के साथ-साथ रूप की भी व्यापकता इनके काव्य में दिखायी देती है। इनके कविता-संग्रह का शीर्षक अवश्य भेंट....एक पंख‘ है लेकिन यह समाज के अनेक पंखों अर्थात् पक्षों से भेंट कराती है। विषय की विविधता होते हुए भी इनकी कविता भारतीय सामाजिक परिस्थितियों को भावुकता के साथ एक सूत्र में बाँध देती है। हिन्दी साहित्य का कोई भी विमर्श उनकी कलम से अछूता नहीं है।

स्त्री-विमर्श पर उनकी कविताओं का विश्लेषण करें तो पाते हैं कि स्त्री-विमर्श के प्रत्येक दृष्टिकोण का रेखांकन उनकी कविताओं में मिलता है। जब भी दलित और स्त्री-विमर्श की चर्चा हो और स्वानुभूति एवं सहानुभूति का प्रश्न न उठे, यह सम्भव नहीं है। हिन्दी साहित्य का लेखन आदिकाल से हो रहा है लेकिन दलित और स्त्री प्रश्न पर जैसा साहित्य आज मिल रहा है, वह पूर्व में उपलब्ध नहीं था। कबीर और तुलसी कितने ही महान् रचनाकार हुए हो लेकिन स्त्री प्रश्न पर वही पुरुषवादी वर्चस्व-

“बृद्ध, रोगबस, जड़ धनहीना। अंध, बधिर, क्रोधी अति दीना।। 

ऐसुह पति कर किय अपमाना। नारि पाव जमपुर दुख नाना।।‘‘

का उद्घोष करते हुए तुलसी ने नारी के पैरों में बेड़ी डालने का कार्य किया है। रीतिकाल में विभिन्न सुन्दर नायिकाओं का चित्रण करने वाले स्त्री प्रेमी कवि केशव यह नारा दे पाये-‘नारी तजै न आपनौ सपनेहुँ भरतार।‘ रीतिकाल में कई प्रकार की नायिकाओं या कहें स्त्री रूप का वर्णन हुआ है। सम्पूर्ण रीति काव्य इन्हीं नायिकाओं की सुन्दरता पर अपना महल खड़ा करता है। वहाँ स्त्री रूप है लेकिन स्त्री-विमर्श नहीं, कारण स्त्रियाँ विषय वस्तु हैं, रचनाकार नहीं। आज स्त्री जब कलम लेकर अपने को अभिव्यक्त करने बैठी है तो वह स्त्री रूप नहीं बल्कि स्त्री-विमर्श की अभिव्यक्ति कर रही है। 

अपनी पीड़ा और वेदना का चित्रण स्त्री तभी कर सकी है जब उसे यह अवसर मिला। कुसुम अंसल नारी-वेदना की सशक्त हस्ताक्षर हैं। नारी की यह वेदना उसके जन्म से ही आरम्भ हो जाती है। घर में बच्ची के जन्म लेने पर प्रसन्नता नहीं बल्कि दुख का वातावरण उत्पन्न हो जाता है। भारतीय सामाजिक परिवेश में स्त्री का विडम्बना पूर्ण जीवन इन परिस्थितियों से आरम्भ होता है-

“जन्म का वह पल 

दाई ने मुझे देखा 

दर्द से कराहती मेरी माँ 

सौर गृह की दीवारें 

लड़के के जन्म पर दगने वाली 

दोनाली बन्दूकें.....

सारी कायनात 

सब चुप थे.....

मैं केवल मैं रोई थी- 

नारी का शोषण अपने पहले करते हैं दूसरे बाद में। जन्म के समय से ही स्त्री उपेक्षित है। नारी को कदम-कदम पर अपमानित होना पड़ता है। पुरुषवर्चस्ववादी समाज में उसके अपने निकट सम्बन्धी या रिश्तेदार भी उसकी राह में काँटे ही बिछाते हैं। कुसुम अंसल की कविता ‘दो आँखें‘ इस पीड़ा को इन शब्दों में व्यक्त करती हैं।

‘‘उसके पैर जिस रास्तों से गुज़रते हैं 

वहाँ कुछ और नहीं 

किरचें हैं नुकीलें पत्थर हैं 

जो आपकी भाषा में 

कहे जाते हैं रिश्तेदार......

अपने...निकट सम्बन्धी‘‘ 

यह किरचें और नुकीले पत्थर अपने रिश्तेदार ही रास्ते में बिछाते हैं क्योंकि स्त्री की यौन प्रताड़ना का आरम्भ उसके अपने लोगों द्वारा ही अधिक होता है। इस मानसिक पीड़ा का सपाटबयानी के रूप में चित्रण इन शब्दों में किया गया है

‘‘अकेले कमरे में घेर घार 

होठों पर पट्टी बांध 

रोंदते कुचलते अपने ही नातेदार 

मेरे ही सर्वनाश पर गर्वित 

हीरोइक इतिराहट से गमकते

बंद कमरे की लिसलिसी सीलन 

सब चुप था

मैं, केवल मैं, रोई थी.. 

स्त्री की वेदना है तो उसकी मुक्ति का मार्ग भी। यदि कोई समस्या है तो उसका समाधान भी है। प्रत्येक समस्या का समाधान, उसी समस्या में छिपा होता है। कुसुम जी की वेदना का मार्ग निराशा की ओर न जाकर आशावाद की ओर जाता है। स्त्री विद्रोह करती हुई अपनी मुक्ति की ओर बढ़ना चाहती है और उनकी कविता स्त्री-मुक्ति का जीवन्त रूप बनकर उपस्थित होती है।

“परन्तु मैं अब आकार हूँ साकार 

अपनेपन से उठकर कुछ होती हुई पूर्ण...

हाँ, यह भी जानती हूँ कि, 

तुम्हें क्या भगवान को भी

मेरे इस कायान्तरण की प्रतीक्षा नहीं थी।‘‘ 

कुसुम जी केवल उस स्त्री की ही मुक्ति का मार्ग नहीं बताती हैं, जो पढ़ी-लिखी हैं बल्कि तमाम दीन-दुखियों की पीड़ा को भी स्वर देती हैं। विधवा का पुनर्विवाह न होना सवर्ण हिन्दू परिवारों की महिलाओं की त्रासदी है। प्रायः इन विधवाओं को वृन्दावन की गलियों में ठेल दिया जाता है। अंग्रेजी दैनिक में प्रकाशित शोभन सक्सेना के आलेख ‘अनवान्टेड, विडोस लिव ऑन डन डार्क साइड ऑफ होप‘ से ज्ञात होता है कि आज वृन्दावन के आसपास 21,000 

विधवाएं निवास करती हैं। इनमें से एक तिहाई के पास रहने के लिए छत नहीं और 40 प्रतिशत विधवाएँ खुले मैदानों में शौच के लिए जाती हैं। इनमें से कुछ युवा विधवाएँ पेट पालने के लिए वेश्यावृत्ति के कार्य में संलग्न हैं। इन 

विधवाओं की विडम्बना पर प्रायः हिन्दी साहित्यकारों का ध्यान नहीं गया है। कुसुम जी की पैनी दृष्टि इन विधवाओं की दयनीय स्थिति को कविता के माध्यम से उजागर करती है। वृन्दावन की विधवाओं पर केन्द्रित करते हुए उन्होंने इस संग्रह में बारह कविताएँ दी हैं। वृन्दावन के यथार्थ का चित्रण वह इन शब्दों में करती हैं

“पवित्र भूमि 

जहाँ 

सो गई है सामाजिक चेतना 

एक गहरी नींद 

कोई विकल्प नहीं जागता यहाँ 

किसी सुधारवादी का 

निरंकुश गहराती है 

रहस्यभरी हर रात 

कुचलता हुई.....शरीर......आत्मा 

जीवन......सपने.......अस्तित्व 

यह पवित्र भूमि

आप नहीं जानते

यही तो है वृन्दावन‘‘ 

इस पवित्र भूमि को धर्म के ठेकेदार अपने कुकृत्यों से अपवित्र कर रहे हैं। विधवाओं का यौन शोषण वृन्दावन की पवित्र धरती पर हो रहा है। ‘मेरे बांके बिहारी‘ नामक कविता में कुसुम जी इन विधवाओं के शोषण का यथार्थ इन शब्दों में स्पष्टता के साथ प्रस्तुत करती हैं

“मैं तुम्हारे इस मन्दिर की 

कूड़ा बटोरती झाडूं हो गई हूँ 

बिना ऊपर देखे 

बटोरती हूँ पैरों तले कुचले फूल....प्रसाद 

भूल जाना चाहती हूँ 

वह सारे सामूहिक बलात्कार 

जो रात के अंधेरे में 

यहाँ बैठे धर्म के दावेदारों ने

वसूले थे मेरी विधवा देह से... 

स्त्री की समस्या सामाजिक समस्या है। इस सामाजिक समस्या के साथ-साथ कुसुम जी की कविताएँ राष्ट्रीय चेतना का भी उद्घोष करती हैं। कश्मीर की समस्या अलगाववादी तत्त्वों की देन है। कश्मीर के भारत में विलय के पश्चात् से लेकर सन् 1980 तक शान्त रहा है। इन 30 वर्षों में वहाँ कोई समस्या नहीं थी। परन्तु 1980 से कश्मीर को किसकी नज़र लग गयी कि पृथ्वी का स्वर्ग नरक दिखायी पड़ता है। आतंकवाद से त्रस्त कश्मीर का चित्रण वह इन शब्दों में करती हैं

‘‘सूख चुका है उनमें डल झील का पानी

‘नगीन लेक‘ के सारे के सारे पीले कमल 

और पहाड़ों से बहते चश्में शाही....झरने

लिडर का उद्वेलित......बहाव 

एक स्वर्ग जैसा अभूतपूर्व नगर....

अब भुतहा हो सरसराता है.... 

कश्मीर हमारा है और कश्मीरी भी हमारे हैं। कश्मीर की समस्या का एक कोण और भी है और वह है कश्मीरी ब्राह्मणों की व्यथा। अपने पुश्तैनी घर मकान को छोड़कर शरणार्थी जीवन व्यतीत करना कितना दुखद है, यह तो वही जान सकते हैं जिन पर यह संकट गुजरा हो । सन् 1984 के दंगा पीड़ित सिख, कंधमाल के पीड़ित आदिवासी ईसाई, गुजरात नरसंहार का भुक्तभोगी मुस्लिम समुदाय ही कश्मीरी ब्राह्मणों की इस दुर्दशा को अच्छी प्रकार से समझ सकता है। परन्तु कुछ साम्प्रदायिक तत्त्व कश्मीरी ब्राह्मणों के दर्द को साम्प्रदायिकता में तब्दील कर देने पर आमादा है। वह कश्मीर में हिन्दुत्व को स्थापित करने में ही इस समस्या का हल देखते हैं। उनके विचार को कुसुम अंसल इस प्रकार व्यक्त करती हैं

‘‘चलो उन्होंने कहा.....लौट चलो .. 

वादी में मिटते हिन्दुत्व को बचा लो‘‘ 

आतंकवाद धीरे-धीरे पूरे देश में ही फैलता जा रहा है। कुसुम जी की दृष्टि कश्मीर से बाहर हो रही आतंकवादी घटनाओं पर भी केन्द्रित है। 6 दिसम्बर 1992 के बाबरी मस्जिद विध्वंस के पश्चात् कुछ अराजक तत्त्वों ने मुम्बई में सीरियल धमाके किये और इसे उन्होंने मस्जिद विध्वंस का बदला लेने की कार्यवाही बताकर देश का साम्प्रदायिक 

ध्रुवीकरण करने का प्रयास किया। बम्बई की उस घटना का वर्णन वह इन शब्दों में करती हैं-

“बम्बई की उस गली में तो था 

मेरा घर 

जहाँ फटा था बम्म 

परिवार के सदस्यों के शरीर

चिथड़े-चिथड़े होकर बिखर गये थे‘‘ 

कुसुम अंसल की कविताओं की विषयवस्तु इतनी व्यापक है कि वह अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों को भी अभिव्यक्त करती हैं। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों में अफगानिस्तान में तालिबान द्वारा महात्मा बुद्ध की मूर्ति को तोड़ना शर्मनाक घटना है। इस घटना को उन्होंने ‘अफगानिस्तान का बुद्ध‘ नामक कविता में प्रस्तुत किया है। उनके काव्य रूप की विशेषता है कि युद्ध जैसे विषय को भावुकता के साथ प्रस्तुत कर देती हैं। देश प्रेम को वाणी प्रदान करते हुए कारगिल युद्ध का वृत्तान्त इस प्रकार प्रस्तुत करती हैं

“वह एक बेहद बेचैन तूफानी दिन था 

बम बारूद धमाकों की आवाज का दिन था 

कारगिल में चल रही लड़ाई का दिन था.... 

वादों, इंसानी ढांचों के टूटने का दिन था.... 

क्योंकि वह शहीदों के शरीरों को

ताबूतों में बंद कर ले आने का दिन था...‘‘ 

मुस्लिम-विमर्श में कहें या स्त्री-विमर्श या फिर फ्रांस जैसे तथाकथित प्रगतिशील देश का ड्रेस कोड विमर्श बुर्का अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर चुका है। फ्रांस में मुस्लिम महिलाओं के बुर्का पहनने पर पाबन्दी लगा दी गयी है। कुसुम जी बुर्का को स्त्री की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध मानती हैं। बुर्का धर्म का अंग नहीं है बल्कि इसे भौगोलिक परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता है। अरब की धरती से इस पहनावे का विकास हुआ जहाँ रेत के साथ गरम हवाएं चलती है। उस लू से बचने के लिए महिलाओं ने बुर्का पहनना आरम्भ किया है। भारत में भी मई-जून के महीनों में लडकियाँ हाथों में दस्ताने पहनकर और चेहरे को बुर्के की तरह ढककर घर से बाहर निकलती हैं। भारतीय परिवेश में मुस्लिम महिलाओं ने अरब के इस पहनावे को अपना ड्रेस कोड बना लिया है। कुसुम जी इस पहनावे को त्यागने का आह्वान करती हैं-

‘‘मेरी मित्र...यह बुर्का...धर्म नहीं ढो रहा.. 

यह परिकल्पित कल्पनाओं के काले अंधेरे का 

अवैयक्तिक सम्प्रेषण भर है....और कुछ नहीं 

सनक और उधारी ज़िंदगी बसर करने से पहले... 

अपने आत्मसम्मान को काले चिथड़ों की लपेट से बचा

भिड़ जा-अवैयक्तिकरण की इस प्रक्रिया से- 

कुसुम अंसल रचनावली के सम्पादक अनिल कुमार उनकी रचनाओं के बारे में कहते हैं-‘‘कुसुम अंसल ने अभिजात्य वर्ग की मानसिकता को बड़ी गहराई और सूक्ष्मता से अपनी रचनाओं में उकेरा है। ये अधिकतर नये धन से पनपे परिवारों की उथली मानसिकता को अपने लेखन का विषय बनाती हैं।‘‘ परन्तु ऐसा प्रत्येक स्थिति में सत्य नहीं है। ‘आदिवासी जीवन‘ नामक उनकी कविता इस भ्रम को तोड़ देती है। ग्रामीण जीवन के परिवेश का चित्रण भी उनकी रचनाओं में मिलता है। गाँव के जीवन की झाँकी वह इन शब्दों में व्यक्त करती हैं-

“मीलों तक फैली वह गबई धरती 

कड़कती धूप नंगी पीठ पर झेलती 

सूख‘कर लकड़ी-सी चटख कर 

मिट्टी की झुर्रियों भरी उंगलियों से

दरारों में लिखती है अपनी दास्तान‘‘ 

यह सत्य है कि जनसंचार माध्यमों ने विश्व ग्राम की परिकल्पना की है और उसे साकार करने का प्रयास भी किया है। परन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि इस प्रयास से व्यक्ति को अकेलेपन की ओर ठेल दिया है। अजनबियत पहले यूरोप में थी लेकिन अब भारतीय परिवेश में भी इसका प्रभाव दिखायी देने लगा है। भारतीय समाज की पहचान संयुक्त परिवारों से जानी जाती थी लेकिन अब पारिवारिक विघटन ने व्यक्ति को अकेला कर दिया है। गाँवों से शहरों की ओर पलायन होने से भी एकल परिवार और अकेलेपन की त्रासदी है और अब गाँवों में भी इसका प्रभाव दिखायी देता है

“कमरों में एक बेहद उदास 

गहरा खालीपन...पुरानी किताबों पर 

परत-दर-परत चढ़ी... 

वीरानगी की दहशतजदा धूल-

पहचान के दरवाजे... 

जंग खाये तालों में लिपटें 

बेआवाज घूर रहे हैं.... 

यादों की एलबम के पीले पन्ने पर 

कहीं लिखा था ‘वसुधैव कुटुम्बकम‘

परन्तु...देश निकाले के बाद

कहाँ लौटता है कोई।‘‘ 

कुसुम जी की कविताओं का एक पक्ष शुद्ध अकादमिक है तो दूसरा कोना फिल्मों से भी जुड़ता है। गीत रूप में रचित उनकी रचना ‘जीवन एक सागर‘ पंचवटी फिल्म में फिल्माया गया है। उनके इस गीत को आशा भोंसले ने गाया है। कविता के रूप की दृष्टि से देखें तो शिल्प की आधुनिकता उनके काव्य में सर्वत्र व्याप्त है। हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी और फारसी भाषा के शब्दों को इस प्रकार समाहित किया गया है कि वह काव्य भाषा के साथ पूर्ण तालमेल बिठाते हैं।

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समीक्षा

आस्था... और आस्था से तर्क करती कविताएँ

-डॉ. बृजेश कुमार पाण्डेय

समकालीन दौर में ऐसी बहुत कम स्त्रियाँ सकारात्मक सर्जना से जुड़ी हैं जिन्होंने विधाओं में बंधकर अपने लेखन को सीमित नहीं किया बल्कि उन्होंने अपने मनोभावों के सहज उच्छ्वास को उद्घाटित होने दिया और उनके अलग-अलग उद्गार ही साहित्य के विभिन्न विधाओं में परिणित हो गये। ऐसी लेखिकाओं ने जितने विश्वास के साथ कविताएँ लिखीं उतने ही विश्वास के साथ कथा-साहित्य में भी अपनी लेखनी चलायी। कुछ गिनी-चुनी स्त्री लेखिकाओं में एक महत्त्वपूर्ण नाम कुसुम अंसल का है। जिन्होंने अपने उपन्यासों में स्त्री-विमर्श को नये ढंग से व्याख्यायित कर पाठक को यह सोचने पर मजबूर किया कि स्त्री-विमर्श को केवल एक दिशा-स्त्री बनाम पुरुष नहीं बल्कि उसके अनेक पहलू भी हो सकते हैं। उन्होंने कविताओं में भी स्त्री जीवन के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों को बड़ी साफगोई से उठाया है। चाहे वह गाँव की स्त्री हो या शहर की, दलित गरीब हो या अभिजात्य, चाहे वह घर-परिवार की हो या घर से बाहर की। साधू-संन्यासिन या फिर विधवा। कुसुम जी के स्त्री विषयक प्रश्न इन तमाम तरह के स्त्रियों के बीच जाकर उनके हृदय को उकेरने और मन को उद्वेलित करने का काम करती हैं। वृन्दावन की विधवाओं के ऊपर लिखी गयी उनकी कविताएं बहुत ज्यादा चर्चित हुईं, जिसमें वृन्दावन में रास रचाने वाले बांके बिहारी को भी आप स्त्री सवालों के कटघरे में खड़े करने से नहीं चूकतीं-

‘‘मेरे बांके बिहारी 

अपने पूरे मनोयोग से 

रस्सी खेंचती हुई 

तुम्हारा पंखा हो गयी हूँ मैं 

मन्दिर के गर्भगृह में प्रवेश कर

हवा, हवा सी सरसरा रही हूँ।’’

इस प्रजातंत्र में ईश्वरी गरिमा का बोध होना और फिर उसे भी इस तरह की विद्रूपता के बीच घसीट लाना कुसुम जी की कविताओं का साहस है। जिसमें उन्होंने धर्म के ठेकेदारों को जो परदे के पीछे और ईश्वरीय गरिमा के आडम्बर तले अपने को छुपाए हुए हैं, उनके घृणित चेहरे को सबके सामने लाने का प्रयास करती हैं

‘‘मैं तुम्हारे इस मन्दिर की 

कूड़ा बटोरती झाडू हो गयी हूँ 

बिना ऊपर देखे 

बटोरती हूँ पैरों तले कुचले फूल...प्रसाद 

भूल जाना चाहती हूँ 

वह सारे सामूहिक बलात्कार 

जो रात के अंधेरे में 

यहाँ बैठे धर्म के दावेदारों ने

वसूले थे मेरी विधवा देह से‘‘? 

कुसुम जी का यह अन्दाज़ दोहरा मिथकीय आघात करता है। एक तो धर्म के दावेदारों का मिथक और दूसरा वह जो स्त्री जाति की लाज बचाने के लिए ख्यात श्रीकृष्ण का मिथक, जिन पर भरोसा है वहाँ की विधवाओं को, लेकिन स्त्री के मर्म और उसकी अस्मिता को उन्हीं के मन्दिर के गर्भ गृह में उनकी मौजूदगी में विधवाओं पर बलात्कार हुए। स्त्री जाति की पीड़ा और प्रताड़ना को इस तरह अभिव्यक्त करने वाली कविताएँ हिन्दी साहित्य में कम हैं जहाँ विमर्श की गहराई और संवेदना दोनों एक साथ व्यक्त होती हैं। साथ ही पितृसत्तात्मक समाज के खोखले आदर्श और मर्यादा को भी तार-तार करती हैं। अगली पंक्तियों में कुसुम जी सारी सच्चाई व्यक्त करती है जहाँ कविता अपने उत्कर्ष को प्राप्त करती हैं। यहाँ कुसुम जी का काव्यकौशल देखते ही बनता है

‘‘मेरे बांके बिहारी 

मैं जानती हूँ....पट्टा अभिषेक के समय 

तुम्हारी बड़ी-बड़ी आँखों में 

घुला होता है उदासियों का काजल 

आँसुओं से गीली होती हैं पोशाकें, 

‘‘मेरे बाँके बिहारी....महाराज 

मैं जानती हूँ...पंडितों के कुटिल हाथों से 

नए वस्त्र धारण करते 

पसीने-पसीने हो जाते हो तुम 

मैं मनोयोग से खींच रही हूँ पंखा 

कि तुम अपने मानवीय खोल से 

लौट जाओ....... प्रस्तर प्रतिमा की योनि में 

क्योंकि यहाँ की कुटिलता........

असह्य है...... पत्थरों के लिए भी 

मानवीय संवेदना का दम घुटता वातावरण इन कविताओं में सहज ही व्यक्त होता है। कुसुम जी के इन कविताओं से स्पष्ट होता है कि आज स्त्री-विमर्श को केवल स्त्री बनाम पुरुष बनाकर संकीर्ण नहीं बल्कि उससे उत्पन्न होने वाले अन्याय संदों को सम्मिलित कर उसे और भी समृद्ध किये जाने की जरुरत है। किसी भी विमर्श को चैहद्दी का दायरा पहले से निर्धारित करना उस विमर्श के असमय हत्या की साजिश करना है। जो आजकल के विमों के साथ अक्सर कर दिया जाता है। कुसुम जी की तमाम कविताएं ऐसी चाहरदीवारियों की परवाह किए बिना उसे उन्मुक्त कल्पनाओं के माध्यम से कविता की ज़मीनी बुनियाद तैयार करती हैं।

कुसुम जी की कविताएँ न केवल जीवन के तमाम अनुभवों, आचरणों, व्यवहारों, लोक और संस्कारों से गुज़रते हुए उससे हमें जोड़ती हैं बल्कि इन अनुभवों के भीतर की ज़िन्दगी और अन्य सरोकारों से आगे बढ़कर वह एक नयी दुनिया तलाशती-सी नज़र आती हैं। जहाँ इस जीवन और इस जगत के अनुभव मामूली हो जाते हैं। वहाँ एक दूसरा जगत होता है और उससे जीने का एक दूसरा अनुभव कुसुम जी की कविता में इस जीवन की समस्या, इस जीवन के संघर्ष और उससे जूझने का जज़्बा केवल लौकिक दुनिया तक नहीं होता बल्कि ये कविताएँ अपनी समस्याओं, संघर्षों, अपने हर्ष और विशाद को अपने लौकिक दुनिया से आगे और परम्परागत ढर्रे से अलग ले जाकर कविता के अनुपम काल्पनिक किन्तु सजग पक्ष को हमारे सामने लाती हैं। जिससे वो अपना एक अलग और विशिष्ट स्थान बनाने में सफल हैं। एक ‘तरह से ये कविताएँ वहीं समाप्त नहीं होतीं जहाँ इस जीवन और जगत के प्रश्नों को समाप्त माना जाता है। इनकी कविताएँ हवा में खुशबू का झोंका लिए आती हैं और अपने हाथों आँखों के सुरमई काजल उड़ा देती हैं। यह लौकिक आनन्द कुसुम जी को रोमांचित करता रहा है-

‘‘अलमस्त, प्रमुदित, प्रफुल्लित आनन्द 

जाने कैसे-कैसे अद्भुत स्वर अपने आप में 

गुदगुदाते स्वर जिनका रो-रोआं रोमांचित 

नृत्य में लीन.....वैसी वयार जिसका कण-कण

गाता है सारगर्भित गीत‘‘ 

लेकिन यह आनन्द लौकिक न होकर परालौकिक हो जाता है। हमारे शास्त्र में जिस आनन्द को ब्रह्मानन्द सहोदर कहा गया है, कुसुम जी की कविता, अनुभूति की उसी पराकाष्ठा तक पहुँचकर समाप्त होती हैं पर उनकी कविता वहाँ भी कहाँ समाप्त हो पाती है? -

‘‘वर्तमान के इस क्षण में 

मग्नचित्र मेरी कविता 

ऐसे आती है..... 

जैसे संन्यासी का सहजानन्द 

श्लोक सी ऊर्जा

सुवासित.....अनहद नाद... 

कविता के अन्त में अनहद नाद....के आगे (....) इस बात का संकेत है कि कविता यहाँ भी समाप्त नहीं होती है अर्थात् जब लोकोत्तर आह्लाद उत्पन्न होता है तब वह समाप्त नहीं होता वह बढ़ता जाता है और यह दर्शाता है कि कवयित्री का आनन्द कितना सच्चा और निर्मल है। जिसके आगे बहुत कुछ अनकहा रह जाता है। जिसे व्यक्त ही नहीं किया जा सकता वह केवल अनुभवजन्य है। 

कुसुम जी की कविताओं में बाहरी दुनिया की बेचैनी उतनी नहीं दिखाई देती जितनी उनके भीतर की दुनिया की बेचैनी दिखाई देती है। सच्चे कवि को बाहरी दुनिया से ज्यादा भीतरी दुनिया की बेचैनी मथती है। कवि सबसे पहले अपने भीतर की बेचैनी से छटपटाता है। जो कवि अपने इस भीतरी बेचैनी साधकर रचना करता है वही वास्तव में ऊर्जावान सृजनात्मक रचना होती है और कदाचित इलियट इसी को निर्वैक्तिकता का नाम देता है। अपने व्यक्तिगत् अनुभूति को पचाकर उसे कविता का विषय बनाना जहाँ अपना सबका लगने लगे कविता वहीं रचनात्मक होती है। कुसुम जी भी जीवन के तमाम उठा-पटक, संकल्प, विकल्प को कविता का विषय बनाती हैं, चाहे वह ध्यान हो, मुद्रा हो, भक्ति हो या फिर समर्पण। ये विषय आपकी कविताओं में कविता के विषय बने जो आमतौर पर नयी पीढ़ी के कवियों की कविताओं में देखने को नहीं मिलते -

‘‘जैसे माला के भीतर 

पिरोआ हुआ है धागा 

हमारे आचरण व्यवहार में 

अनुस्यूत है ध्यान 

मुझे लगता है 

किस दिन उसे पा लूँगी 

बाहर नहीं भीतर चल पड़ेगी 

मेरी चेतना, मेरा अपनापन 

सांसारिकता में डूबता मेरा वजूद मेरे ही भीतर 

अन्धकार में 

उदित होगें हजारों सूर्य

उसी पल जान पाऊँगी मैं 

कि छिपा है मेरे भीतर 

सूर्योदय......उजाला....अनुपम 

वह ज्योति.....

जिसका कोई अस्त नहीं है....‘‘ 

कुसुम जी की कविता में विषय भी नितान्त अपने हैं और अनुभूतियाँ भी अपनी हैं, कवयित्री की अपनी हैं इसीलिए कवयित्री बार-बार कविता में मैं, मेरे, मेरे भीतर, मेरे लिए आदि शब्दों का प्रयोग करती है। इसी “मैं” को लेकर कवयित्री ने कविता के अनेक शीर्षक दिए हैं। यथा- मैं जो, मेरी कविता, केवल मैं, मेरा गाँव, मेरा वजूद, मेरे हाथ लगी, मैं ही तो थी, मेरा पड़ाव आदि अनेक कविताओं के शीर्षक ‘‘मैं‘‘ से सम्बन्धित हैं। अर्थात् अपनी कविता में “मैं‘‘ के माध्यम से कवयित्री अपने ‘‘स्व‘‘ की पीड़ा और छटपटाहट को कविता का विषय बनाती है और उसे इतनी ऊँचाई देती हैं कि वह पीड़ा व छटपटाहट कवयित्री की अपनी न होकर सबकी हो जाती है। इसके लिए वह पाठक से तादात्म्य स्थापित करती हैं और अपने पराये का भेद मिटाकर ’, उसके भीतर का संवाद स्वतः व्यक्त हो जाता है। जैसे पाठक के आह्वाद से उनका पूर्व परिचय हो गया हो

‘‘मेरी आँखें द्वार हैं 

झाँक कर देखें 

भीतर उतर जाये 

नहीं....मैं बन्द नहीं करूँगी 

पलकों के द्वार


देखा ना, 

मैं जानती थी

अनूठा अनुभव होगा तुम्हें‘‘ 

कविता में अपने अन्दर का संवाद और आह्लाद प्रकट होने के बावजूद बातचीत के अंदाज़ में भी कविता अपनी लयात्मकता को बरकरार रखती है। इसीलिए कविता और भी रोचक हो जाती है। कविता में किस्सा कहने का भाव नई सदी में फिर से बहुतायत रूप में देखा जा रहा है। एकान्त श्रीवास्तव (मिट्टी से कहूँगा धन्यवाद, नाग केसर इस देश में), राकेश रंजन (अभी-अभी जन्मा है कवि, चाँद में अटकी पतंग), निर्मला पुतुल (नगाड़े की तरह बजते.शब्द), किरण अग्रवाल (रूकावट के लिए खेद है), बसन्त त्रिपाठी, हरिश्चन्द्र पाण्डेय, केशव तिवारी, निलय रघुवंशी, बद्रीनारायण, कुमार अम्बुज आदि नये कवि कविताओं में किस्सागोई को बहुतायत रूप से प्रमुखता देते हैं। इस तरह से आज-कल कविता अपने प्राचीन रूप किस्सागोई को फिर से अपनाती-सी दिख रही है जो कुसुम जी की कविताओं में अक्सर देखने को मिल जाता है। कविता में कथा कहना और कथा के सारे विधान, कविता में आरोपित करते हुए कवितापन को जिन्दा और रोचक बनाये रखना काव्य कला के लिए अनूठी मिसाल है, जो कुसुम जी की कविताओं में देखने को मिलती है। कविता में कथा देशकाल और वातावरण का चित्रण कहीं-कहीं संवाद को कायम करते हुए एक सार्थक अभिव्यक्ति देना कविता के चारूत्व को बढ़ाता है, साथ ही कुसुम जी की कविताओं में विविधता के दर्शन भी कराता है। एक कविता में एक कथा और कथा की तरह वातावरण का चित्रण लेकिन कविता का कवितापन अपने उसी धार और कोमलता लिए हुए दृष्टव्य है-

“वह गाँव की अकेली कोठरी थी 

उम्र का वह बीमार पड़ाव 

ढहती दीवारों का आखिरी आला 

जिसके तेल की आखिरी बूंद से 

भींगी बाती को जलाकर दिया

धर दिया था मैंने‘‘ 

इस किस्सागोई में कभी-कभी प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करती हैं और प्रकृति को सखी सहचरी बनाते हुए उसमें अपने आपको समर्पित तक करने की यात्रा कविता में दिखायी देती है-

“मेरा गुलमोहर का पेड़ 

,हर सुबह ढेर सारे लाल फूलों से लद जाता है 

पास आती हूँ तो खिलखिलाता है 

मैं तोड़ लूँ, फूल डालों की बाँहें झुकाता है 

अपने मन्दिर में भगवान के चरणों में

चढ़ाती हूँ जब वह मेरी प्रार्थना में घुल जाता है‘‘ 

कुसुम जी की प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित करते हुए अपने मनोभावों से प्रकृति को बहुत ऊँचाई प्रदान करती हैं। कविता के अन्त में अध्यात्म की गुंजाइश यहाँ भी देखने को मिलती है, लेकिन आध्यात्म किसी देवता या तंत्र की नहीं बल्कि प्रकृति के तत्त्वों को समाहित कर अपने मन में उपजी भावना के उत्स से उत्पन्न होता है, जो केवल और केवल कुसुम जी की कविताओं में देखने को मिलती है।

कुसुम जी की कविताओं में प्रकृति के माध्यम से अपना आत्मालाप भी सुनाई देता है जिसमें वो अपने जीवन के बीते क्षणों को याद करती हैं जो एक बार प्रसाद की लम्बी कविताओं को याद दिलाने लगती हैं लेकिन प्रसाद की लहर में संकलित वे कविताएं ‘पोशेला की प्रतिध्वनि‘, ‘अशोक की चिन्ता‘ या ‘शेरसिंह का शास्त्र समर्पण‘ की तरह ये कविताएं आत्मग्लानि या अपने पश्चाताप का बोध नहीं कराती बल्कि ये कविताएं अपने भीतर “मैं” को निरन्तर जगाने और ढूंढने की एक सहज और सतत् प्रक्रिया मालूम होती है। जो कभी जीवन से, कभी जगत से और इसी क्रम में इस जीवन और जगत से परे उस पराशक्ति से, अपने आपको ढूंढने का प्रयास इनकी कविताओं में दिखाई देती है जो आज की नयी पीढ़ी की कविताओं में देखने को तो मिलता नहीं इससे पूर्व की पीढ़ी के कविताओं में यदा-कदा कहीं-कहीं ही देखने को मिलता है। हमारे हिन्दी साहित्य में अपने ‘स्व‘ को उस ‘पर‘ से पहचान कराने वाली कविताएं भक्ति काल में लिखी गयी हैं। छायावाद में आकर कुछ कविताएं अपने “मैं‘‘ और ‘‘स्व‘‘ के बोध को अवश्य जगाती हैं। वहाँ उनका अलग मिजाज और ठाठ है। कुसुम जी की कविताएं छायावादी कविताओं की तरह रहस्यात्मक आवरण तो बनाती हैं लेकिन यहाँ आवरण की वह सफाई नहीं जैसी छायावादी कविताओं में देखने को मिलती है। इनकी कविताओं में रहस्यात्मक आवरण महादेवी जी की तरह लगभग-लगभग सभी कविताओं में देखने को मिलता है लेकिन यहाँ न प्रिय से मिलने की वह छटपटाहट है और न ही महादेवी जैसी अपने प्रिय के विरह में जलने जैसी कोई बात या जज्बा। यहाँ का सारा का सारा रहस्य केबल और केवल अपनी पहचान पाने और दिलाने के लिए है और कुसुम अंसल इसमें सफल हैं।

कुसुम अंसल की कविताएँ पाठक से गहन पाठ और सघन बोध की माँग करती हैं। आपकी कविताएं भी समझ की परिधि में तब आती हैं जब उन्हें खूब पढ़ा जाए। हल्की सरसरी दृष्टि डालने पर यह कविताएँ प्रायः बोधगम्य नहीं होती हैं क्योंकि किसी कवि का मन और मिजाज इतनी आसानी से पहचान नहीं बताता और बताना भी नहीं चाहिए। कम से कम कविताओं के सुधी पाठक इस बात को जरूर समझेंगे कि जिस प्रकार नई कविता या समकालीन कविता अथवा इस. सदी की कविताएं आसानी से बोधगम्य नहीं होती या अपनी पहचान नहीं बताती, जब तक उन्हें इस बात का एहसास न हो जाए कि पाठक हमें ठीक से पढ़ना या समझना या हमसे सम्बन्ध बनाना चाहता है। पाठक जैसे-जैसे कविता में अपना मन रमाता है, कविताएं स्वतः अपना परिचय खोलने लगती हैं। कुसुम जी की कविताएं भी इसी तरह पाठक को प्रथम दृष्टया बोधगम्य नहीं होती लेकिन कविता का गहन पाठ उसे सहज और सरल बनाता है। .

कुसुम अंसल की इन कविताओं में नई सदी की कविताओं की सभी प्रवृत्तियाँ आसानी से देखी जा सकती है। भूमण्डलीकरण, बाजारवाद, रिश्तों का अवमूल्यन, लूटपाट, हिंसा, बलात्कार आदि तो देखने को मिलती ही हैं साथ ही साथ ये कविताएं देश-प्रेम, आदर्श, नैतिकता, साम्प्रदायिक सौहार्द और देश के बँटवारे को लेकर हृदय , की पीड़ा भी व्यक्त करती हैं। “कारगिल‘ जैसी कविता एक तरफ तो देश के जवानों और उनके बलिदानों को याद दिलाती हुई देश प्रेम का जज्बा पैदा करती है साथ ही साथ कश्मीर जैसी सुन्दर और रमणीय घाटी में उनके बेकसूर खून के चकत्ते वहाँ के वातावरण और हृदय को अन्दर तक मर्माहत करती हैं -

‘तुमने तो कहा था 

घाटी में बसता है बासन्ती मौसम 

वह वादी है फूलों की 

खिलते हैं ब्रह्म कमल 

पर मैं तो जहाँ भी पैर रखती हूँ 

फूलों की जगह वर्दियों के उखड़े बिल्ले 

कटे फटे जिस्म किसी चेहरे की जाने कब से 

खुली आँखें घूरती......दहला जाती हैं आत्मा को 

वह देखो किसी का उठा हाथ 

जिसकी कटी हुई उँगली में अभी भी 

चमक रही है, शादी के दिन की अंगूठी 

बर्फ में जमे हैं...... 

बेकसूर खून के चकत्ते......

जैसे किसी सुहागिन का उजड़ा सिन्दूर... 

कुसुम जी की इस कविता में देश प्रेम और शहीदों को याद तथा नमन करने की भावना तो है ही साथ ही साथ उनके बलिदानों से सम्बद्ध उनकी छोटी-छोटी चीजों को इंगित कर एक वातावरण भी बनाती चलती हैं। यहाँ हिन्दू और मुसलमान का भेद समाप्त हो जाता है। देश का साम्प्रदायिक सौहार्द सच्चे मायने में अपने आपको परिभाषित करता है। हर शहीद भारत माँ का सच्चा सपूत है। जहाँ मन्दिर, मस्जिद जैसे थोथे और दकियानूसी नारों के लिए कोई जगह नहीं है। यहाँ का साम्प्रदायिक सौहार्द अपने देश और समाज की ताकत है -

‘‘तोपों और बन्दूकों के कोलाहल में 

धुल गया है किसी माँ, किसी पत्नी का क्रन्दन 

मस्जिद की पवित्र अजान, मन्दिरों का कीर्तन 

मौत से पहले आयी मौत

फटे हुए झण्डों पर खड़ी विकरालता... 

रही है ताण्डव यहाँ।‘‘ 

यह साम्प्रदायिक सौहार्द कुसुम जी की कविताओं में दिखाई देता है जो विभिन्न मनःस्थितियों के द्वारा हमारे सामने प्रकट होता है। लेकिन “कहाँ लौटता है कोई‘‘ 

कविता में देश के बँटवारे के दर्द की सच्चाई व्यक्त होती है। यहाँ भीष्म साहनी का ‘तमस‘, यशपाल का ‘झूठा सच‘, राही मासूम रजा का ‘आधा गाँव‘, मोहन राकेश का ‘मलवे का मालिक‘ आदि रचनाएँ मन मस्तिष्क के चित्रपट पर सजह रूप से व्यक्त हो जाती हैं। देश के बंटवारे से देश का जो सौहार्द बिगड़ा वह स्मृतियों के द्वारा कुसुम जी की कविताओं में दिखाई देता हैं

‘‘हवेली के अनगिनत कमरे 

वह पापा का, वह चाची, बुआ का 

बंटे हुए फिर भी एक 

बराँडे में दादा जी की आराम कुर्सी 

उसमें पसरी लातों पर 

फैला अखबार.....चश्मा...... 

आस-पास बैठे पड़ोसी दोस्त 

संवाद, वारदातें, कम्यूनल दंगे......

दिन तारीख.......बहता हुआ समय‘‘ 

वह स्मृतियाँ बहुत लम्बी हैं जैसे इस देश में बिताया गया जीवन बहुत लम्बा है और इसकी जड़ें काफी गहरी हैं। उसी तरह कविताओं में भी स्मृतियाँ काफी लम्बी, गहरी, असरदार हैं और देश विभाजन के दर्द से सिक्त-

“अब घर आँगन नीम का पेड़

सभी कुछ है....., स्टापू वाली लकीरों पर 

लिखे हैं बहुत से नाम 

ठीकरे...... कूड़े के ढेर पर सिसक रहे हैं। ...... 

उन्हें चूमकर फेंकने वाले हाथ .

अब इस हवेली में नहीं रहे‘‘

आतंक, हिंसा, लूट-पाट, बलात्कार, बम विस्फोट आदि इस सदी और समाज का नंगा सच है। जो कुसुम जी कविताओं में दिखायी देता है। ‘‘मेरे हाथ लगा‘‘, ‘‘वापसी‘‘ और ‘‘मैं ही तो थी‘‘, कविताएँ इस नंगे सच को उजागर करती हैं। जहाँ कुसुम जी स्वयं अपने आपको खड़ी पाती हैं

‘‘बम्बई की उस गली में तो था 

मेरा घर 

जहाँ फटा था बम 

परिवार के सदस्यों के शरीर 

चिथड़े-चिथड़े होकर बिखर गये थे 

सुरक्षा की दीवारें

बदल गयीं थी मलवे के ढेर में

और ...... तन्हा मैं 

पथराई खड़ी रह गयी थी 

चीखों और कराहों के बीच 

दबी पड़ी रह गयी 

स्मृतियों की पोटली 

मैं क्षत-विक्षत मैं

खून से नहाई खड़ी रह गई‘‘ 

नई सदी के इस दौर में जब उसका एक दशक समाप्त हो चुका है, इस सदी में तेजी से दौड़ती भागती ज़िन्दगी को देखा व समझा जा सकता है। सब कुछ पाने की इच्छा से परेशान आदमी इतना मशीनी हो गया है कि उसकी संवेदना और संवेदना से जन्य अन्य सरोकार पता नहीं कहाँ गायब हो चुके हैं। आदमी अपनी जड़ों से अपने मूल सरोकारों से कटता चला जा रहा है। 20 वीं सदी के 90 के दशक में मुक्त बाजार व्यवस्था ने हर सम्बन्ध, हर संस्कार, हर संवेदना को बहुत ज़्यादा बाज़ारू और मतलबी बना दिया है। हर आदमी के अपने-अपने तर्क हैं और अपने-अपने जवाब । इस सब सवाल और जवाब को केवल पैसे के नज़रिए से देखने की प्रवृत्ति छायी हुई है जिसे युवा कवि राकेश रंजन की एक छोटी कविता प्रश्नोत्तर से समझा जा सकता है

सोन-चिरैया! सोन-चिरैया! 

उड़ने में कैसा लगता है। 

...नहीं बोलूँगी भईया।

कहने का पैसा लगता है। 

यह पैसा आदमी के मन मस्तिष्क में इस तरह से बैठ चुका है कि हर आदमी केवल पैसे की भाषा बोलता और समझता है। इस वैश्विक दौर में पूँजी ही सब कुछ है। इसके अतिरिक्त और किसी चीज का कोई मतलब नहीं है। इसको प्रेमचन्द ने अपने प्रसिद्ध लेख महाजनी सभ्यता में 1936 में लिख दिया था। ‘‘इस महाजनी सभ्यता ने नये-नये नीति और नियम गढ़ लिए हैं। जिस पर आज समाज की व्यवस्था चल रही है। उनमें से एक यह कि समय ही 

धन है। पहले समय जीवन था। जिसका सर्वोत्तम उपयोग विद्या, कला का अर्जन अथवा दीन जनों की सहायता था। अब उसका सबसे बड़ा सदुपयोग पैसा कमाना है। इस धन लोभ ने मनुष्यता और मित्रता का नाम शेष कर डाला है। पति को पत्नी या लड़कों से बात करने की फुरसत नहीं, मित्र और सम्बन्धी किस गिनती में हैं। सब कुछ कमा लेना ही जीवन की सार्थकता है।‘‘ जाहिर है प्रेमचन्द ने इस सदी के इस भयावह चेहरे को बहुत पहले पहचान लिया था। इसको कुसुम अंसल भी अपनी कविता ‘आदिवासी जीवन‘ में आदिवासियों के सरल और सच्चे जीवन के द्वारा बड़ी आत्मीयता से व्यक्त करती हैं-

“जंगलों के आदिवासी 

एक अनछुई आदिम कौम 

उनका जीवन शास्त्र 

भूख से भूख तक 

केवल अनाज से अनाज तक सीमित 

प्रकृति से जुड़े नियमों तक सोच

आस्था तर्क नहीं करती।‘‘ 

चूंकि वैज्ञानिक सभ्यता का निर्माण अभी भी उन तक नहीं पहुँचा है और पूँजीवाद की हवा का उनको आभास ही नहीं है। इसीलिए उनका जीवन सरल, सुखद और सच्चा है -

‘‘तभी तो 

वर्तुलाकार है जीवन दृष्टि 

प्रकृति से प्रकृति तक ठहरी हुई 

निर्दोष है उनका चिन्तन 

और निर्दोषता तर्क नहीं करती


आज के नाटकीय क्रिया कलापों में 

मशीनी युग का अमानवीय नियतिवाद 

क्षण-क्षण बदलती पृष्ठभूमि पर

आश्चर्य में जागरूकता पकड़ाता‘‘

एक दूसरी कविता “केवल मैं‘‘ में कुसुम जी ने इस व्यवसायिक जीवन में अपने रिश्तों और रिश्तेदारों के दोमुंहें जीवन को बड़ी सजीवता से व्यक्त करती हैं-

‘‘हैरानी से भरी मैं, देख रही थी 

चेहरे पर चेहरा लगाये रिश्तेदारों का कद 

जो कभी मेरे दरवाजे से बड़े हो जाते 

और कभी छोटे...... . 

उनकी भीड़ में खड़ी मैं, कद्दावर मैं

केवल मैं रह जाती हूँ......वैसी की वैसी‘‘ 

कुसुम जी ने ग्रामीण जीवन में सरल और सच्चे जीवन पर कई कविताएँ लिखी हैं जिसके द्वारा भूमण्डलीकरण के यथार्थ रूप और ग्रामीण जीवन के सहज अनुभूतियों को एक साथ समझा जा सकता है। जिसमें “आदिवासी जीवन‘‘ ‘‘कभी-कभी‘‘, ‘‘होली‘‘, ‘‘मेला‘‘ ‘‘केवल मैं‘‘, ‘‘मेरा गाँव‘‘ आदि कविताएं प्रमुख हैं। 

इस प्रकार कुसुम अंसल की कविताएं मानवीय सम्बन्ध की कविताएँ हैं, जो हर वक्त एक नया संदर्भ जोड़ती हैं। उनका अकेलापन कुंठित और दृगभ्रमित समाज को आध्यात्मिकता का एक नया रास्ता दिखाता है जो उसे नये जीवन, नये आदर्श स्थापित करने को प्रेरित करता है। कुसुम जी एक स्त्री होने के बावजूद स्त्री-विमर्श को स्त्री बनाम पुरुष तक अपने को सीमित नहीं करती बल्कि उनके अनेक द्वार खोलती हैं। कारगिल जैसी कविताएं उनके साहस, शौर्य और देशभक्ति को हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं। इस प्रकार कुसुम जी को हम इस सदी की एक बहआयामी लेखिका के रूप में पाते हैं जो इस तनाव से युक्त जीवन और जगत में संजीदगी से जीने के लिए एक नयी व्याख्या प्रस्तुत करती हैं। 

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समीक्षा

अन्तर्दहन के विविध बिम्ब और ‘धुएँ का सच’

-डॉ. अरुण कुमार तिवारी

छायावादोत्तर विद्वानों का स्त्रीवाद पश्चिमी बुर्जआ का आधुनिक और सोशलिस्टों का है, अपनी पण्डश्रम गरिष्ठता को जबरन सार्वभौतिक-सार्वकालिक ज्ञान कहकर पाश्चात्य जूठन और शुष्क ऐठन की प्रतिगामी, लीकपीट तथाकथित उत्तर आधुनिक, उच्छृखल या पोंगापंथी लठैत, स्त्रीवादी समीक्षा ‘मण्डक प्लुति‘ से जब आगे घिसट ही नहीं पाती है, तो वह स्त्री की सत्ता, सृजन, सृष्टि को लिंग भेद, असमानता, पितृसत्तात्मकता, पुंसवाद, स्त्रैणता से विलग समझ-स्वीकार और हज़म नहीं कर पाते। ‘त्रिया चरित्र‘ पुरुषेत भाग्य, दैवो न जानाति, कुतो मनुष्यः का सूत्र सृष्टा, क्या पुरुष का चरित्र और नारी का भाग्य जानता था? हमारी सम्पूर्ण लोक सरस्वती, सम्पूर्ण वाङ्मय के आद्यन्त श्रेष्ठ मर्यादा पुरुषोत्तम, विचलित राम के लिये, उन्हीं की माता, दुखी सीता को, विमाता कैकेई की दासी, कुबरी के सम्मोहन हेतु समझती है, ‘पछेड़वा बहु छोड़ि देव, पुरुष नहीं, आपन हो राम‘ और ‘पुरुष कभी अपनान ही होता‘ का सत्य, जती कहलाने वाले लक्ष्मण का बैगानापन, दशरथ और राम का ‘हेलिन‘ (महतरानी) व कूबरी का ननिहाल से, आगमन पर शंृगार आदि गुप्त-प्रेम प्रसंग व शंकालु राम का वनवासान्तर सीता निर्मित, रावण चित्र देखकर, सीतावध हेतु उद्धृत होना तथा श्रुतकीर्ति आदि का, सीता का पक्ष लेते हुये-

‘सिर्फ हमारी बहन (सीता) ही 

नहीं करती प्रेम रावण से 

हम सभी करते हैं, प्यार 

तो मार डालो, हम सभी को 

क्योंकि हम है अबला 

रहती है, महलों के भीतर

नहीं जान पायेगा, कोई इस कृत्य को।‘‘ 

डॉ. नवनीत देव के कथन द्वारा लोकसिद्ध भी होता है। भावना के गँव में, अहेरा पुरुष सम्पूर्ण, मानवतिहास में कभी निष्कासित भले हुआ है, पर सीता (नारी) जैसा, तिरस्कृत कभी नहीं.....और भारतीय समाज में दलित की भाँति, दाम्पत्य की संगिनी का यह तिरस्करण-भोग की मनोदशा का उत्तररामचरित ही भवभूति को अगर, ‘एकोरसः करूण एव‘ का ब्रह्म बना सकता है, तो नारी का भुक्त यथार्थ स्वयं नारी द्वारा, जिस प्रामाणिकता की सिद्धि के साथ सम्प्रेषित हो जाता है, कुसुम जी की सृष्टि उसकी पर्याय है। महाकाव्यों का पितृसत्तात्मक घोर हिन्दूवादी समाजतंत्र, भक्ति, अध्यात्म और नैतिक आतंक की चैधराहट में स्त्री को अभागी घटना, भोग्य का सौन्दर्य, अपहरण, अपमान, प्रवञ्चना, पराभव और पीड़ा के जिस ‘विरूपीकरण‘ (1986) में व्यवहृत करता है, उसी सहनशीलता के ‘मौन के दो पल‘ (1975) में, . ‘मेरा होना‘ (1998) की पड़ताल करती, अपने नारीत्व की जीवटता को लेखनी बनाती, कुसुम जी की लेखनी, महादेवी वर्मा की भाँति, ‘जलना ही रहस्य है, बुझना है नैसर्गिक बात‘ की अधूरी व्यञ्जना को ‘शेष‘ आग के रहते, ‘धुएँ का सच‘ खंगालती-उछालती और संभालती है और तभी तो उनकी ‘धरती‘ को संग, घर और नेह के कभी भी न मिल पाने का सच एहसास हो, इन शब्दों में उतरा है

‘‘प्रेम-

यह क्या कहा तुमने? 

यह नाम तो 

सुना नहीं 

ऐसा कुछ 

उस घर के 

किसी भी कमरे में 

मिला तो नहीं

कभी मुझको’’ 

आर्य धर्मी संस्कारों की आर्या, कुसुम जी, इक्कीसवी सदी में भी जब अमेरिकी व यूरोपीय भुवनमनीषा में, यौनिकता को ही, सांस्कृतिक-सामाजिक-कलाओं विज्ञानों के दर्शन का मूल्य व मूल माना जाता है, तब भी, ‘सहस्त्रं त, पितृन्माता गौरवेणातिरिच्यते‘ (मनु. 2/145) को, ‘न स्वैरी स्वैरिणी कुतः‘ के स्वाभाविक, औदात्त, निष्पक्ष, नैष्ठिक सूत्रों को जांचती बेचती हैं। वैश्विक संस्कृति के इस बदलते परिवेश में सोच, सम्बन्ध, मूल्य के बारहा यथार्थ छीजे होय पर मन की वीणा के इस ‘प्रेमराग‘ में कुसुम जी की काव्य में प्रेम सृष्टि, त्याग, प्रतीक्षा, एहसास और वायदे में, सेक्स, जरुरत न होकर, भावानात्मक ही रही है और अलीगढ़ से विलायत तक, बचपन से इस पन तक, वात्स्यायन के काम से कामू तक, कौटिल्य से लेकर दास्तोवयस्की और फिर सात्र्र तक, वाल्मीकि से लेकर शेक्सपियर और फिर रिल्के तक, मीराबाई से लेकर अमृता प्रीतम और फिर परवीन शाकिर तक की तरह ‘प्रेम‘ की आकुलता व्याकुलता को जीने व जताने में, पाश्चात्य के मैकबेथ की छुराभोंक बीवी और शृंगे कृष्णमृगस्य वामनयन कण्डयमाना मृगीम‘ के दाम्पत्य विश्वास का अन्तरबोध सदैव रहा। नेह की इसी विश्वास की बानगी में वे, भयावह नीरवता में भी बेजार-सी सही एक उम्मीदों को ओढ़े हुये कहती है-‘अंधेरे से भी/भयानक है/अकेलापन/कपड़े तो बदल डाले/पर तन से चिपटी/ये बेजार-सी/उम्मीद/कि कोई ज़िन्दगी को/सपने में बदलेगा/कैसे उतार फेंकू।’ 

अपनी आधुनिकता और मनुवादी ‘न स्त्री स्वातन्त्र्र्यमर्हति‘ के विरोध में वे ‘स्मारं स्वग्रहचरितं दारूभूतो मुशरि‘ की स्वीकृति कभी उनके मानस में घर न कर सकी। सहजीवन और स्त्री-स्वतन्त्रता की मात्र बहस करते हुये, पितसत्तात्मक समाज में विवाह, परिवार, सभ्यता, नैतिकता के दमघोट आंचल में उनका स्त्रीत्व न दैहिक उन्मुक्त संसर्ग को श्रेष्ठ मानकर विरोधी छटपटाहट में त्रस्त दिखता है और न ही कथित पति परमात्मा को दोज़ख़ रसीद करवाने वाला, प्रथम पापात्मा, महसूस करने को विवश दृष्टिगत होता है। कुसुम जी को अत्याधुनिक उच्छृखल विमर्श को, ‘पत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽम्रतोपमम्‘ के अर्थबोध का भान है, परन्तु ‘गार्हपत्याय जाग्रहि‘ और ‘स्त्रियं ये, चैपजीवन्ति प्राप्तांस्ते मृतलक्षणम‘ के प्रति उदार स्वीकृति भी। कुसुम जी, ‘प्रेमा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्चं जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीयाः मागृधः कस्यस्विद सुखं‘ को जीते हुई, त्याग और भोग के दुनियाबी दोलनो में डोलती अपने प्रेम के देवता के चरणों में विसर्जित होने को जीवन का श्रेय-प्रेय मानती है तथा उनके जन्म, जीवन, दिन, बिन उनके चुपचाप मरते-दम तोड़ते हैं- “वह पूरा दिन/चुपचाप मर जाता है जिस दिन तुम्हारी आवाज/यहाँ नहीं गूंजती/कैनवस पर बने चित्र से/इस घर के/सारे रंग, आकार/दृश्य तो होते हैं/पर जाने क्यों/उस दिन नाराज़ ज़िन्दगी/गलाघोट विचारों का/घसीट कर श्मशान में/फेंक आती है... और वह बेचारा दिन‘‘। 

धर्म, जाति, सम्प्रदाय, संस्कृति व लिंगभेद से ऊपर आकर उनकी मर्मभेदी, नारी सुलभ, शर्म छेदी दृष्टि ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते‘ के नारी रमणकारी देवता की, ‘न स्त्री स्वातन्त्र्र्यर्हति‘ के छद्म छल और ‘अचितः पूजितो नारी, दुग्धगौरिव सीदति‘ के सत्य बल को, जानते, पहचानते हुये भी, ‘भुक्त वाच्छिष्टं वयैव ददात‘ को प्रसाद मानकर, तपन-अन्तर्दहन के, एहसास को प्यार मानती हुई, स्वयं स्वीकारती और उसकी स्वीकृति में उपकृत होती है-

“मैं भी हूँ कि तपती हूँ 

हर पल, हर सांस। 

जल जाने में ही किये बैठी हूँ विश्वास

तपने का 

अन्तर्दहन का यह एहसास 

कितना प्यारा है 

क्योंकि आग की बीमारी को

मैंने खुद ही स्वीकारा है। 

पर इस स्वीकृति का विश्वास अन्धा नहीं है और उसे इस आग की बीमारी के सत्य का एहसास रहा है, तभी तो सहयात्री जो जन्मों की इष्ट यात्रा का ध्येय पाने, को पुरुष रूप में, उसे (नारी को) ‘प्रकृति स्वामिधिष्ठाय संभवाश्यात्ममायय‘ जैसे प्राकृतिक मान देकर यात्रा करता-कराता है, कुसुम जी को ‘यात्रा‘ विपक्षगामी लगती है-‘‘जब भी चली/तुम्हारे साथ/कांटे ही तो/आंचल में उलझे/सूखे पत्तों का/ एक गुच्छा/ मुंडेर पर लटका/पीले हाथ हिला/ सूखी लकीरों के/ संकेत करने लगा/मैंने सोचा था/उनकी अंगुलियों पर, मेंहदी के रंग रोदूंगी/पर देखो तो, मेरे अपने नाखून/टूटने लगे/तुम छुड़ाते रहे कांटे/मैं उलझती रही‘‘ . 

कुसुम जी के सृजन में आद्यन्त दार्शनिक अभिव्यक्ति, बिना तुतलाहट के व्यक्त हुई है, जिससे नारीमन और मनोविज्ञान के ओर-छोर बने हैं और बंदिनी की नियति वाली रूपा जीवा की पुकार, वासुदेव शर्मा के इन शब्दों का व्यवहार दर्शाती है-‘इस पुरुष जाति ने, नारी जाति को सिवा धोखे के और कुछ दिया ही क्या है? लूटा गया है, उसके साथ विश्वासघात किया गया है। जिसमें देवी से, ‘नरक के द्वार‘ और फिर अबला बनते-बनते, ‘सहअस्तित्व बोध के चलते पंश्चली, मूक पण्य स्त्री, वीर्यशुल्केन की मुखर प्रतिद्वन्द्विनी बन गई पर इस प्रतिपक्षता में कुसुम जी की अनाक्रामक कंठ पुकार पूरी तरह से मरजीवडे संस्कार वाली सूफियानी रहते हुये भी नितांत निरामिष, मर्यादित, विरह कातर मथित-व्यथित, अन्तर्मन की शब्द यात्रा की प्रतिरूपिणी बनी है, तभी तो वे कहती है-‘मेरा कंठ/पुकार नहीं है/यात्रा है, कुछ उन/शब्दों की/जो भीतर/बबूल से उगे/जले धुआँ हुए/टीसते रहे/रौंदते रहे/मथते रहे/अन्तर्मन मेरा‘‘। 

परन्तु तब भी दुष्ट तापसी और सिमोन दा बोउवा के साम्य वाली तिरस्कृता अन्या, कुसुम जी कठमुल्ले पौरुष की टेर पर, उसके सम्पूरक होने के स्वयं के विश्वास से अपनी औदालता के साथ उसकी (मर्द की) अल्पज्ञता पर आदतन तरस खाती हुई, कहती हैं

‘‘मुझे सपनों में 

सम्पूर्णता से 

उसके साथ जीने की 

आदत हो चली है 

जब वह मुझे पुकारता है 

तो मुझे उसकी 

अल्पज्ञता पर

तरस आने लगता है‘‘। 

कुसुम जी के सृजन में भारतीय दर्शन का पारम्परिक सौन्दर्य-सौष्ठव और यूरोपीय ईस्थर्टिक्स की इन्द्रियानुभूति और ईस्थेटिकास की साम्य दृष्टि के, ‘चित्र सूत्रम न जानाति यस्य सम्यऽः नराधिपः‘ के संज्ञान वाले सन्तुलित चश्में में, संगीत, नाट्य, नृत्य, पुरुषार्थ, मुद्रा, पिण्डीकरण, अलंकरण, जनित, आनन्द, शुभ, सुरुचि, सौन्दर्य के साक्षात्कार को, ‘करतलगत आमलक समाना‘ करती-कराती लगती है, तभी तो उनकी सृष्टि, अभिव्यक्ति के पश्चात् की रिक्तता और अनुभूति की अनन्त अपूर्ण आधारित शब्द ब्रह्म से बड़े मौन का परायण करते हुऐ, धुंधआये, झीने पर के भीतर के सच को बांचने की क्षमता रखती है-

‘‘तुम अनुभूति कोई बने रहो 

न शरीर में न ढलो

न शरीर में स्पर्शों की भाषा से 

मत लिखो कोई छन्द, 

अनपढ़ा रह जाने दो इसे... 

क्योंकि तुम धुआँ-धुआँ 

धूमिल अनुभूति से 

एक झीने पर्दे के भीतर ही 

सबसे बड़ा सच लगते हो‘‘


शिल्प पक्ष और भाव पक्ष

ब्रह्म यदि शिल्पी है तो सृष्टि उसकी शिल्प, जिसमें सध्वनि प्रवाहमान जल मौन प्रवाहित पवन, ऊध्र्व निराधार उठती अग्नि, बिना टपके अन्तरिक्ष में एकमात्र प्रकाश व ऊर्जा भण्डार सूर्य, नाचती झूमती धरा पर, अध पर धरा सुस्थिर जीवन में, शिल्पकार ने जिस तरह, ‘यथा रथाक्षे रथचक्रम प्रतिमुंचेत एवं एवैतानि सतवाणि शिल्पानि (जैमिनीय ब्राह्मण) की भावना से, ‘आत्मानम् संस्कृरूते- (ऐतरेय ब्राह्मण) के वय से गढ़े सजे है। कुसुम जी की, नैसर्गिक छन्द, लय की थाप, शिल्प के उसकी ‘योगबल‘ की बानगी है। नग्नजित के चित्र लक्षणों का लक्ष्य, भोज के समरांगण सूत्रधार का ध्येय यदि सम्मिलित रूप से विष्णु धर्मोत्तर पुराण के चित्रसूत्र में उर्वशी, सर्वप्रथम रूपयुक्ता अप्सरा की प्रतिरूपिणी बनी तो कुसुम जी की आत्मा में, जस की तस उतर कर, उनकी लेखिनी से ‘शिल्पी क्रीड़ति तत्रैव गुरोर आज्ञानुसारता‘ का रूप विधान बनी। रूपभेद प्रमाण, भाव, लावण्य योजना, सादृश्य एवं वर्णिका भंग के माध्यम से ‘एतद्धि तस्या प्रतिमस्य रूपम लवेरितम रूप जगन्मयस्य......के सिद्धान्त से, अदृश्य को दृश्य में बांधते हुये, कुसुम अंसल जी, ‘मानहीन विवर्जयेत‘ की सर्वथा अनुपालना करते हुये, दार्शनिकता के सन्दर्भो में नितान्त रूढ़िवादी और लौकिकता के प्रति, अद्यतन व मौलिक रही है और छन्द के छाजन से यह बानगी मैं, उनकी नैसर्गिक भावोच्छलित-अभिव्यक्ति हेतु रखने में संकोच नहीं करूँगा, जिसमें ‘अक‘ का प्रास-पाश, स्वच्छंद-छन्द का गौरव-अनुष्ठान बना है

‘उस चैराहे तक 

साथ आये थे 

सारे-रिश्ते 

सुम-स्नेह 

तुम-मोह 

तुम-ममता. यकायक 

बहुत से 

संकेत हवाओं में हिलने लगे, 

पांव उलटा गये 

लौटे सब

और मुझे भयानक‘‘ 

इसी तरह, था, प्रास, से समाप्त होती, ये पंक्तियाँ, अपने ‘है‘ को जितनी संजीदगी से जिन्दा करती है, सराहनीय है

‘‘मुझे घेरता-सा 

खड़ा था 

वह मेरा, 

अपना व्यक्तित्व 

केवल मेरा था

मेरा अपना था‘‘ 

कला के आसीत और अस्ति को प्रभावी, ‘वर्णादीनाम समायोगैः‘ और गुण-दोष, विधि-निषेध को तिर्यक असल पगडण्डियों में सरपट, भागती कुसुम अंसल जी की, तूलिका, ‘बुद्धया तेषाम कर्मयोगम, यथावत् के अनुसार शिल्प के माध्यम से आनन्द के तरणताल में तैरती-तिरगी और तार देने का आयोजन करती है। उनके शिल्प में, शब्दों की दोराहट, अपनी ध्वनन् शक्ति को लोक संस्कारी रूप में मांजकर, चमचमाती और खनखनाती दिखाती है-‘टुकड़े-टुकड़े टूटता/पहर-पहर-होता दिन‘‘। 

सृजन के ओर छोर की पड़ताल करते हुये, विज्ञान और अध्यात्मक दोनों सृष्टि की उत्पत्ति, परम संघनित ऊर्जा के ध्वनिमय स्फोट को ही भूल पाते है। स्पष्टः मन्त्र दृष्ट्राराः के ऋषियों, वैयाकरणों के स्फोट, और वैज्ञानिकों की ध्वनि ऊर्जा का यही नाद, संकेतों व लिपि चिह्नों में व्यक्त होकर, ऊर्जा संरक्षण सिद्धान्त से, ‘अक्षर‘ तथा संगठित होकर, शब्द ‘ब्रह्म‘ कहलाया, जिसकी अनुनादी आवृत्ति में, एकात्मक होने के, अक्षरा-पिपास लिये ‘अक्षर-आराधिका‘ की टेर शिल्प की दैहिक सीमाओं के पार, अनुगुंजित होती दिखती है

‘‘तुम गहराई में छुपा 

सौन्दर्य का, शुद्ध और पूर्ण, 

वह एक अक्षर 

दे दो मुझे, जो हमें

एकात्म कर दे‘‘ 

सृजन को अति शास्त्रीय अभिव्यक्ति देने के व्यामोह में जटिल शब्दावली प्रचलित शिल्प का विवश आवर्तन तथा दुरूह अर्थसत्ता से पल्लू बचाती हुई, संवेद्य, सरस, भाषा अपने नैसर्गिक प्रवाह में कुसुम जी की, शैली का वैशिष्ट्य बना है, जिसमें ‘अर्थ‘ के अपने को, भौड़ी-भड़भड़ाहट, छिछला-छिछारापन और आडम्बर युक्त अभिव्यक्ति के लिये, मात्र अधिक कसरत करती हुई नहीं वरन् मौन ताप में दहती व प्रकाश हित, यज्ञ में होम-रत दिखती है, तभी तो उन्हें सतही सम्मोहन भाव, रास नहीं आते-“तुम्हारे सम्मोहन के/ समूचे हाव भाव/मुझे/मात्र सतही लगे थे/उन्हें/किसी भिखारी को दान दे डालो‘‘। 

उन्हें सम्मोहित दान नहीं, शब्द ब्रह्म के परमार्थ को पाने हित, स्वयं का विसर्जन, आत्मसमर्पण व आत्महवन, अधिक श्रेय-प्रेय लगता है और वो भी, दीवानगी व जिद के साथ, जिसके लिये उसी कविता, ‘एकात्म‘ की अग्रिम पंक्तियाँ बनागी बनती है-‘मैं तो अब/ और कुछ नहीं/ तुम से जुड़ी तुम्हें ही सोचती/ तुम्हें ही खोजती/जिद पर चढ़ी/भीतर से कहीं/मद्विम-मद्विम ही सही/पर गहराई तक तुम्हारे प्रकाश की खातिर/चुपचाप जलती है‘‘। 

शब्दों के माध्यम से पद-विन्यास के विशिष्ट नियोजन में, भावनात्मक व मार्मिक सौन्दर्य का अभीष्ट आयोजन आदि कविता का ध्येय है, गरिष्ठ, क्लिष्ट, गुरुतर भार की गहरी फेंक कर लोक भावों का सहज भाषा में रटे-रटाये प्रासों तक टेक सहित व परम्परागत भेदक, लक्षण, तुक, छंद, अलंकरण, लय आदि के रजत पाश अस्वाभाविक शंृगार को फालतू का बोझ और अप्राकृतिक छन्दों की पायलों को बेड़ियाँ समझ कर कुसुम अंसल की और उनकी काव्य दुहिता, शब्द और दृष्टि डाले, धूल कीच फेंके कुसुम अंसल जी की काव्य भाषा, बोलचाल की भाषा के अपने नारी सुलभ नाजुक टकटकेपन में, माँ भारती के धूल-धूसरित आंगन की चन्दनों माटी का डिठोना लगाये हुये हैं तथा उसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों से लेकर, सामयिक जनपदीय शब्द, प्रान्तीय पर्याय, प्रादेशिक मुहावरे, स्थानीय प्रतीक, लटक, आधे वाक्य बिन बुलाये मेहमानी करने आ जाते है। कुसुम अंसल जी लेखिका होने के नाते संस्कृति के गौरव और सहजता, दोनों को समझती है, तभी उनकी काव्य भाषा न तो पद पूर्ति में उदासी है, न सहायक क्रियाओं की मोहताज। मैं उनके छान्दस. व्याकरणिक, अभिजात्य की अभिव्यक्ति के संकोच तथा सहज, सरस, सम्प्रेषणीय अनुभूति की सृजन भावभूमि को शतशः नमन करता हूँ, जिसके प्रसव आयोजन में, अकथ मर्मातक वेदना का, अथक उमड़ाव, छन्द के बन्द को तोड़कर अपने अतिरिकी, आवेगित प्रबल प्रवाह में तितन्त्री-झकझोरती हुई शंृग से प्रवणता से आड़ी-तिरछी-ऊँची गहरी, जिसकी प्रवाहमान हुई है और ऐसा लगा है कि अपनी अतीव उमंगित नैसर्गिक अलंकृत अभिव्यक्ति की छटपटाहट में काव्य के देवता को सलीके के कपड़े पहनने की औपचारिक फुरसत ही न रही हो, तभी तो वह नग्नछंद का अटपटा लबादा ओढ़े, सृजन के राजपथ पर मस्त झूमता हुआ चढ़ चला। दर्द जब अपनी हदें पार करने चला हो, तो कायदे से बात करने का शऊर-काव्यशास्त्र के बाजीगरों, नाटकबाजों को ही आ सकता है। विकल चीत्कार की आह की दाह, शरियत नहीं जानती। संवेदना के संवेगित प्रवाह में, सिर्फ हाथ-पैर-धोने को स्नान नहीं कहा जा सकता। भावाकुलता में छटपटाता दृश्य, न काव्यशास्त्र बांच सकता है, न उसे सृजन में, पदक्रम के अन्वय की डांट डरा पाती है। जीवन-पर्व यौवन का अल्हड़पन ही उसका शास्त्रीय सौन्दर्य होता है। भावावेश की तुतलाहट, हकलाहट तथा सपनों के अधूरे बिखरे अनगढ़ चित्र की बनावट, क्रमशः भाषा वैज्ञानिकों और मनोवैज्ञानिकों के लिये अंगुली उठाने नहीं, सहज-सघन, अनुभूति की पहचान हेतु अधिक महत्त्व रखती है। अनौपचारिक छन्द के घुटन्ने और पायजाये के बिना (छन्द काव्यस्य वस्त्रणि) काव्य देवता की निडरलंकृति ही उसकी अलंकृति है तथा यह नितान्त सहज, नैसर्गिक सृजन की किशोरी के ‘यौवन सन्धिकाल‘ सा अशास्त्रीय पर परम शास्त्रीय, अति सौन्दर्यमयी व अलंकृत होता है। अपनी इसी जिज्ञासा में कुसुम अंसल जी ने, काव्यशास्त्रीय छन्द रस प्रपञ्च के चक्कर में, घनचक्कर न बन कर, शब्दों की छूटती-टूटती लय में, स्वाभाविक अर्थ-लय संजोयी है, तभी तो परछाइयों, प्रतिध्वनियों के झूठे नक्कारे तथा मन में गहरे पैठे मौन-सत्य, उनसे बावस्ता रहे है-“परछाइयाँ प्रतिध्वनियाँ/ झूठ का ही/मार्जित रूप हैं/सच गहरे/कहीं/मन में पैठ जाता है‘‘।

वैयाकरणों की तरह, शिल्प के एक-एक अक्षर के प्रति सजगता तथा नारी के भावनात्मक औदात्य की मर्मन्तिक संवेद्य उपासना उन्हें एक-एक बात के लिये तड़पाती है

‘छोटी सी बात 

तुम आ नहीं सकते 

और मैं 

उसे कितना बड़ा बनाकर सोचे जा रही हूँ‘‘


सौन्दर्य का काव्यशास्त्र बनाम काव्यशास्त्र का सौन्दर्य 

शिल्प, कला और अध्यात्म तीनों से सौन्दर्य का साक्षात्कार क्रमशः भावाभि व्यञ्जना (पश्यन्ति भावरूपश्च जले चन्द्रमसंयथा...) अन्तर-दर्शन (काव्य बलात अनुसंधीयते) तथा अद्वैत (समर्पण या भ्रम भंजन) से होता है, और विद्वान, कवयित्री कुसुम अंसल की भाव-मनीषा इन तीनों चेतना घाटों पे, नहाई हुई सृजन के संगम का ध्येय सिद्ध करती, दृष्टिगत हुई है। सौन्दर्य के उपयोग-उपभोग की अन्वीक्षक दृष्टि देह और आत्मा के मध्य सेतु हित, नारी औदार्य व औदात्य की कितनी सुन्दर बानगी के रूप में निदर्शन करती कराती है-‘‘तुम अपने होठों से/ मेरे अधरों के/ समूचे गुलाबीपन को/पी लेना चाहते हो/ये उमगते गुलाबी रंग ऊर्जा हैं। जो मुझसे विकसित होकर/सम्बन्धों के भौतिक स्वरूप को उठकर/ अध्यात्म से ऊपर/उड़ा ले जाने के लिये है‘‘

संतिनी का यही ‘तरौना‘ व्यवहार पुरुष को संवेद्य बनाता है और प्रकृति की भाँति, भोग में सम उपसर्ग के ब्याज को अन से पूर कर सृष्टि के देह तत्त्व को, आत्म करके, रूप, गन्ध, शब्द, स्पर्श रस की देह रचनाओं का अमर पाठ बेचती है। कवयित्री की अध्यात्म के साथ-साथ ज्योतिषयों की पकड़ सुदृढ़ प्रतीत होती है। जो अधरों के समुच्चय गुलाबीपन को युग की ऊर्जा की बांसुरी का हेतु मानती है वही शुष्क भौतिकता, गलाघोट प्रतियोगिता, संवेदनहीन दुष्पाच्य प्रगति को, ‘कोट‘ को प्रतीक में व्यक्त कर, सुरभित सृजन के भिन्नसारी, अरूणिम, नव भास्कर को प्रकृति वधु (नारी) के माथे से न हटाने को संकोची, शालीन, स्नेही, नारी सुलभ उलाहना देने में, अपने नाजुक औदात्त के चरम पालन में रत दिखती है। वही संगिनी, मात्र लज्जाशील स्नेहाकांक्षी ही नहीं, बलिदानी, स्वाभिमानी, युगपुरुषों को भी, सौन्दर्य में ही नहीं, शक्ति, सहिष्णुता व त्याग में भी हराती है तथा उसी पुरुष के प्रदत्त मान शृंग को स्वेच्छा से छोड़कर, समर्पित पलों की स्मृति का पाथेय ले, अपने त्याग-महिम, नैष्ठिक स्वत्व को समूची श्रद्धा के साथ, मात्र स्पर्श की वांछा में, विसर्जित कर सांत्वना पाती हैं-‘‘मैं पहाड़ की उसी तलहटी में उतर रही हूँ जहाँ अभी भी/तुम्हारे पद चिह्न मौजूद है/उपलब्धि....एक स्पर्श की सांत्वना भर होगी‘‘ 

कुसुम जी ने भारतीय नारी की गौरव गरिमा को प्राणवान करते हुये, पाश्चात्य की पामेला बोर्डस और यहाँ के गंवारू सत्यवान की सावित्री का अन्तर-पुनस्थापन में भौतिक प्रगति, समृद्धि के अभावों के आंधी तूफान में .... पोर्शिया, क्लियोपेट्रा-होने को उद्यत, नवभारत की, 

सांस्कृतिक संरक्षिका-प्रगतिशीला नारी को, ‘कण्डूयमाना मृगीम‘ की स्मृति कराके, अपनी आस्था को अमर तो बनाया है, पर आँखें खोलकर। इसीलिये कुसुम जी, इतनी विश्वसनीयता पाले हुये भी, अपने अकेले जूझने में, साथी के अभाव, असहयोग, निज अमान्यता, अस्वीकृति के चलते, स्वयं को, प्रियदर्शनीय होने के उपरान्त भी, खण्डहर की तरह, ज़िन्दगी की धड़कनों से खारिज टूटी और ढही हुई पाती है, तभी तो कहती है

‘खड़ी तो रहूँगी मैं 

पर उस खण्डहर की तरह 

जो दर्शनीय तो है 

पर ज़िन्दगी की धड़कनों से खारिज 

टूटा और ढहा हुआ‘‘


रस अलंकार व सम्प्रेषण की भंगिमाएं 

वस्तुतः कुसुम जी की कविता कालिदास के ‘तत्व्येतसा स्मरति नूनम बोधपूर्व‘ की दृष्टि से, ‘पर्युत्सुक‘ दृश्य संवेदन उपस्थित करने का उपक्रम है। पर, कुसुम जी की बिम्बधर्मी, रूपकों-सांग रूपकों में बंधी. रचना-प्रक्रिया, ल्यूइस की तरह, ‘मात्र इंद्रियानुभव‘ । एजरा पाउण्ड के अनुसार, ‘बौद्धिक और संवेगात्मक संग्रथन द्वारा अनुपस्थित को उपस्थित कर देना‘ ह्यूम के ‘काव्य माने, मात्र बिम्ब व रूपक‘ से नितान्त भिन्न-भिन्न तथा बिम्बवाद के अति से बचते हुये एलियट के ‘वस्तुनिष्ठ सह सम्बन्ध‘ व रिर्चड्स के, ‘मुद्रित बिम्बों की चाक्षुष संवेक्षाओं से अधिक आत्मीय व मानवीय है। कुसुम जी की अर्थ छवियाँ कालिदास की उन भावार्थ छवियों के मुखड़े मांजकर स्मृति में कौंधती है, जिन्हें ‘प्रसिद्ध उपमाओं के नाते समीक्षा-जगत प्रायः उद्धृत करता है यथा-‘संचारिणी दीपशिख-रवेव.....प्रभृति‘। 

कुसुम जी की ‘धुएँ का सच‘ की अधिकतर रचनायें लघु रूपकों, सांग रूपकों की कतरनों में, बिम्ब सृजन की मानक-बानक हैं। जिनमें अतृप्त (पृ.146), एक नीली सुबह (पृ. 149), चैराहे की लालबत्ती (पृ.143), तनहाई के पल (पृ.138), उम्मीद की चिड़िया (पृ.134), उम्मीद (133), अहसास (पृ.132), सपना (पृ.130), पथराई खड़ी वह (पृ.123), प्रभृति उल्लेखनीय हैं। विभिन्न रूपकों में बिम्ब धर्मी सृजन तथा सृजित रूपकों में, संवेदना को शब्द तथा बिम्ब का ‘सादृश्य‘ उन्हें बखूबी निभाना आता हैं-

“मेरे चेहरे से 

खुशबुओं की एक लपट 

उठती रहती है‘‘ 

‘अंधेरे से भी 

भयानक है 

अकेलापन।

कपड़े तो बदल डाले 

पर तन से चिपटी 

बेजार सी

उम्मीद...’’ 

कुसुम अंसल जी की भाव ज्योत्सना शब्दों के हिंडोले में, हृदय को जो लोरी सुनाती है, उससे छंदतन्त्री में भाव-योग की चाँदनी, देर रात्रि में, ठंडक की, ‘आनन्द मटकियाँ‘ उड़ेल कर हृदय तापं हरने लगती है, पर कलापक्ष की सम्पूर्ण कलायें भी वहाँ षट्मासी अनन्त आनन्द की रात का उत्सव मनाती है। तब ‘रसो वैसः‘ के देवता को रिझाती कुसुम जी की भाव छवियाँ, यदि अन्य रसों की अपेक्षा रस शृंगार के वियोग पक्ष पर अधिक रीझें, तो स्वाभाविक ही है। उनके प्रवास-वियोग शृंगार रस का, ऐसा ही, एक सहज चित्र-

‘छोटी सी बात 

तुम आ नहीं सकते 

और मैं उसे‘‘ 

इसी प्रकार, ‘हर पल हर सांस...स्वीकारा है‘, ‘तुम्हारे साथ कांटे...चलती रही‘, ‘मेरा कंठ...मथते रहे‘, ‘मुझे सपनो में...तरस आने लगता है‘ प्रभृति पंक्तियों में करूण रस की सुन्दर व्यंजना हुई है वही ‘रिवले हुये तुम्हारे..पाओगे‘ में, व्यंग्य, तथा ‘तुम अपने....के लिये है‘ में शंृगार रसाभास व ‘जहाँ अभी भी...भर होगी‘ में करूण व शंृगार रस मैत्री की भाँति, उनके सृजन में विभिन्न रस, अपनी स्वाभाविकता और वैविध्य के साथ उपस्थित दिखते हैं। 

इसी तरह, सायास नहीं, सहज-अनायास रूप से, अलंकारों का भी, कुसुम जी के सृजन में, स्वाभाविक आगमन, मणि कांचन संयोग‘ बन कर उपस्थित हुआ है, जिनमें ‘खुशनुमा-खानापूरी‘ में अनुप्रास, ‘वृष्टि के गीत-सा‘ में उपमा, ‘मौत के दबे कदम‘ में रूपक ‘मुट्ठी में....घड़ियाँ थीं‘ में उल्लेख, ‘तुम बरसाती...टहलता हूँ’ में सांग रूपक, ‘लेकिन तुम...मुश्किल है‘ में विशेषोसित, ‘उम्र तो कुछ सालों..थकान है‘ में यथासांख्य क्रम, ‘कोलाहल का घट‘ में रूपक, ‘मैंने खिड़की से...कह नहीं सकती‘ में अप्रस्तुत प्रशंसा, ‘एक सफर‘ में समासोक्ति, ‘मेरा मन में समासोक्ति, ‘चुम्बक के दो..तरह‘ में उदाहरण, ‘नींद, गोलियों... में वक्रोक्ति, ‘कितनी गूंज..सकी है‘ में विशेषोक्ति, ‘एक आवाज..सत्यं जाना था‘ में विभावना, ‘जैसे जीना कोई.. हो‘ से उदाहरण तथा ‘जो अचानक....आ गये हो‘ में स्मरण, प्रभृति अलंकार दर्शनीय है।

वस्तुतः सम्प्रेषण के लिये छटपटाती मानवी मनीषा ने पहले संकेत, फिर कतिपय रूढ़िचिह्न और अन्त में उन्हीं चिह्नों को लिपिबद्ध करके भाषा, फिर काव्य (भाषा के चरम, संवेद्य रूप) को सृजा। वही अभिव्यक्ति की मानव सुलभ तृष्णा अब ‘काव्य सृष्टा‘ और समीक्षक को, शिल्प और भाव स्तर पर, अनवरत थकाये रहती है, कि वह किस तरह पूर्ण और अनुभूति के अधिक समीप हो सके। इसके लिये शिल्प और भाव तथा अन्य रूपात्मक विधान, सम्प्रेषण की विभिन्न भंगिमाओं के रूप में, कुसुम जी के सृजन में कॉमा (,), डैश (-), विस्मयबोधक चिह्न (!) के भाषायी तनाव तथा शब्द चयन, शब्द संहित, शब्द युग्म व उनकी व्याकरणिक व्यवस्था के वैविध्य के साथ उपस्थित हुये है, जिनमें उर्दू-फारसी के खारिज, क़ैद, नुमाइशी, दर्द, मुसाफिर, मदमस्त, याद, इन्तज़ार, खानापूरी, खुशनुमा, बेज़ार, दम, नाराज़, कलाबाज़ी, हक़दार, ज़िन्दगी तथा देशज के गीले, घसीट, टिकाना, अटारी तथा तत्सम के व्यथा, आत्मसात्, सत्य, मनुष्यता, मार्जित, पद, यौवन और अंग्रेज़ी के डोर, क्लोजर, इंच, सेंटीमीटर, कैलकुलेटर, लेजर-प्रभृति शब्द, परिगणित कराये जा सकते हैं। भाषायी टकसाल व वैविध्य की सम्प्रेषणीयता के हित उपयोग करने की एक बानगी रखता है-

‘‘किस पैमाने से नापूं, 

तुझे ऐ ज़िन्दगी? 

‘इंचों में या 

सेंटीमीटरों में 

हिसाब जोड़े 

कौन से आधुनिक

‘कैलक्यूलेटर‘ पर‘‘ 

यहाँ आधुनिकता की पैमाइश में, हृदय की नियति-गणना करने वाला मस्तिष्क, विदूषक सिद्ध होता है। यहीं कुसुम जी की करूणा, महादेवी की करूणा से स्वयं को कम वायव्य व अधिक व्यवहारिक सिद्ध करती है। इंच, सेंटीमीटर, लैजर, कैलक्यूलेटर. ..जैसे शब्दों में, भी गहन संवेदना को अनुस्यूत कर, सृजन कर पाना कदाचित उन्हीं जैसी कवयित्री के करवश में सम्भव हो सकता है। अहिर्निशि साहित्य, सेविका, माँ . भारती की इस वरद पुत्री का सृजन साहित्य समीक्षा और पाठक-श्रोता विगत के अपेक्षित प्रदाय और उनके आशीष का चिर व प्रथम अधिकारी है और रहे यही एक ध्येय के साथ, कुसुम जी के कवयित्री को प्रणाम करते हुये, लेख को इति देता हूँ।







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