अभिनव इमरोज़, मई 2022




कविता

श्रीमति मंजू महिमा, -अहमदाबाद, मो. 9925220177

शान्त-कपोतःअग्नि-युद्ध

मेरी मुंडेर पर बैठा,

कपोत का टोला,

एकाएक सुनकर,

धमाके की आवाज,

फड़फड़ा उठा....

उड़ने लगे रेत के बादल,

उठने लगे अग्नि-पुंज,

और छिड़ गया देखते-देखते

एक अग्नि-युद्ध.

सहमे से कपोत,

कभी इस मुंडेर पर

तो कभी उस मुंडेर पर,

बैठने लगे,

शोर मचा चहुँ ओर,

रोको-रोको इस संहार को,

पर,

जंग का जुनून,

चढ़ा हुआ था उस पर,

वह तो हठ की होड़ में,

बढ़ा जा रहा था आगे और आगे,

रोंदते हुए अहसासों को सबके,

बम के धमाकों से,

हड़बड़ाए कपोत,

आखिर जाएँ तो कहाँ जाएँ?

दिग्भ्रमित से समझ नहीं पा रहे थे..

यह कैसा युद्ध है?

शांति के लिए या अशांति के लिए?

न्याय के लिए अथवा अन्याय के लिए?

साहस कर एक कपोत बोल ही उठा,

‘क्यों तुम ये लाशों के ढेर लगा,

न्योता दे रहे गिद्धों को?

वे तुम्हे भी न छोड़ेंगे.

अपनी विजय के एलान में,

तुम्हारे हाथों क्या आएगा?

सिवा रेत के और चंद मुट्ठी राख के,

कहाँ सहेज कर रखोगे इन्हें?

धर्म और इंसानियत के नाम पर

ले लेना जान निर्दोषों की,

भला इंसानियत है कौन-सी?

क्यों तुम्हें हमारा उड़ना नहीं भाता?”

और कुछ कहता तभी,

फड़फड़ाया शांतिदूत

अशांत हो, होगया चिर-शांत.

पा गए उत्तर सभी...

समझ में यह आया तभी,

नहीं चलेगा केवल कपोतों से काम,

निबटने के लिए इन नृशंसों से,

चील, कौओं और गिद्धों को,

बुलाना ही होगा अपने धाम.

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कविता

डॉ. श्रीधर द्विवेदी, सम्प्रति पर्थ: आस्ट्रेलिया, मो. 9818929659


गतिमय दिनकर

सूर्य अस्ताचलगामी,

झाँकते कुंज द्रुमों से,

बिखेरते स्वर्ण करों से ,

छटा अनुपम अनुगामी।  

नीड़ से कूँ कूँ स्वर थे ,

व्योम में कुछ नभचर थे,

वृक्ष पर कुछ सहचर थे,

भास्कर प्रस्थित कर थे।

मार्ग पर वाहनों का क्रम,

भागने व्यस्तता का भ्रम,

पार्श्व गुजरने पर हम्म,

कौन थमता है, जहां पर श्री ही श्रम हो।

क्षितिज का आलिंगन कर,

इधर से ओझल होकर,

उधर उदयित थे श्रीकर,

सभी के प्रियकर दिनकर।

यहां सप्ताभा थी वहां अरुणाभा,

यहां पर इंद्रधनुष है वहां रक्ताभा ,

यही रवि आभा प्रकृति रम्याभा,

सृष्टि का यह क्रम यही पूर्णाभा । 

कुछ भी घट जाए अंतरिक्ष,

तूफान प्रलय अंधड़ कुवृष्टि,

सम्पूर्ण धरा सागर आकर,

धावक दिनकर गंतव्य दृष्टि। 

आदित्य सदा रथमय रहते,

वे कभी नहीं रुकते थकते,

हमको प्रेरित करते  रहते,

अग्रसर भाव भरते रहते।

गतिमय दिनकर तुमको प्रणाम,

तुम उदय अस्त दोनों ललाम,

आशीष भानु अविराम धाम,

निज गति आभा दे अंशुमान । 


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डॉ. फरहत नादिर रिजवी, मो. 9818776459


उसने मुझ से कहा था


उसने मुझ से कहा था

कि उसने मुझे

आसमानों की अनंतता में व्याप्त

बादलों के झुरमुट में

आंख मुचोलियां

खेलती

सूर्य की किरणों से रचित

इंद्रधनुष के

समस्त रंग लाकर दे दिए हैं

तब मैं ने

इन समस्त रंगों को

बड़ी ही सावधानी से

अपनी मुट्ठी में संभाल कर

बंद कर लिया था

फिर एक दिन

जब मैं ने

इन रंगों को

अपने जीवन के कनवास पर

बड़ी आशा के साथ छिड़का

तब मुझे ज्ञात हुआ

कि

रंग तो कुछ भी नही होते

दृष्टि के एक आभास मात्र के सिवा।

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श्री श्याम बाबू शर्मा, शिलोंग, मो. 9863531572


शिखर से सिफर                 

कलम ने साथ दिया 

हर्फों ने सहारा 

वाकये कटते गये 

मसरूफियत में वक़्त कहाँ

इल्तिजायें ज़मींदोज हुई 

जुर्रतों के पट्टे कभी जायज़ 

कभी नाजायज़ 

पैमाइशों में समा गई ज़मीन 

ताल तलैया दरिया समंदर 

झाड़ झंखाड़ बियाबान परबत पहाड़ चोटियां 

छू लिया चांद लांघा मंगल 

सोचते रहे अपने को अपने गुंबदों को 

चंद लमहों ने मजबूर कर दिया 

सोचो दुनिया-जहान पर

सबकी ख़ैरियत में अपनी ऱजा पर 

सोचो एक साथ 

राम पर नमाज़ियों पर 

ईशू की सलीब पर गुरु की वाणी पर 

अपने बनाये पुलों पर 

रूहानी फूलों की महक पर  

महुए की गंध पर 

अमराई पर सीगुर पर 

म्याडा मखाना से छीने 

गेठुरा-सीला के अनाज पर 

वसंत की कैद गुलाबी रूमानियत पर

भोथरे रिश्तों पर

पिंजड़ों में कसी कूक पर 

बाँध दी गई जल वाहिनियों की निर्मल धार पर

जलयानों गगनयानों अंतरिक्ष तक 

भेदी महा महायानों पर 

इल्म से जहाँ की खूबसूरती 

को बलात नेस्तनाबूद करने की 

अपनी बेइंतहा ख़ुदग़रज़ ख़्वाहिशों पर 

अपने तंतुओं कोशिकाओं को झंझोड़ो 

पूर्वदीप्ति में दिखेंगी 

इकाई दहाई पैमाइश की चक्राकार गणनायें 

इनके रहस्य अहमियत 

और इंसानी जुनून का 

शिखर से सिफर  

का आबदीदः फलसफा। 

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डॉ. सारिका आशुतोष मूंदडा, -पूणे, मो. 9225527666


इतिहास 


युद्ध छेडने वालों ने पढा तो होगा...

बहुत कुछ इतिहास में ,

मगर ....

काश कि उन्होने पढ़ा होता.. 

असमय झरते फूलों के दर्द को

गौर से देखा होता कभी 

उस की लिखावट को,  

जो छूट गयी थी 

उस वीरान पेड़ की टहनी - टहनी पर

काश कि उनकी आँखों मंे, 

धड़का होता दिल... 

जब वो पढ़ रहे थे.... 

उस इंतज़ार को, 

जिसके पूरे हो पाने के, 

सारे रास्ते धमाके में खो चुके थे, 

काश कि बहा होता रक्त में, 

वीर रस की कविताओं के साथ, 

करूण, दैन्य रस में डूबा...

कोई नितांत हताश स्वर... 

जिसके फिर गुंजने की कल्पना ही 

जगा देती मनुष्यत्व ... 

काश कि उन्होने पढ़ा होता... 

धरती की ख़्वाहिशों का रंग 

कि क्या चाहिए उसे... 

रक्तिम संघर्ष, विषाद या

धानी चुनर जो छू ले आकाश

मगर अफसोस.. कि उन्होने केवल इतिहास पढ़ा था 

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संपादकीय

जनवरी में अस्पताल गए दिल की एंजियोपलास्टी के लिए, अप्रैल में यूरनरी ब्लैडर की बलीडिंग के लिए जाना हुआ- बताया गया कि कैंसर दस्तक दे रहा है- मैंने कहा- ‘‘यह महाबलिष्ट, बाहुबलि अतिविशिष्ट अतिथि हैं-  बुलाइए, बैठाइए: जल्दी से ख़ातिर तवज्जोह में जुट जाइए और जल्दी निबटाइए’’ डॉक्टर का इलाज और आप सब की दुआओं से असर में कोई कसर नहीं रही और मैं एक सामान्य स्वस्थ स्थिति में आ गया हूँ। दावा तो नहीं पर साकारात्मक भाव से उद्घोष करने का मन होता है: ‘‘अहम् निरोग्यम् अस्मि’’ बाकी दैवी देहिक मशीन है। इसकी पेचीदगियाँ ‘वो’ जाने या चिकित्सक। मैं सिर क्यों खपाऊं। ‘फ़िराक’ साहब के तजुर्बे के मुताबिक - 

फ़िराक़ एक से एक बढ़कर चारासाज़ो 1-दर्द हैं, लेकिन

ये दुनिया है यहाँ हर दर्द का दरमाँ 2 नहीं होता।

1. चिकित्सक, 2. इलाज

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कहानी


श्रीमती नीलम कुलश्रेष्ठ, -अहमदाबाद, मो. 09925534694
ईमेल: kneeli@rediffmail.com


कारों के काफ़िले के  पीछे

‘‘पृथ्वी, सूरज, चाँद, आसमान की तरह यहाँ से वहाँ तक दूर दूर तक फैली सच्चाई या मेरा तुम्हारा प्यार,....प्यार....प्यार...।’‘

‘‘हमारे प्यार का शेयर...शेयर....शेयर....।’‘

वह झुँझला उठी, “शेयर के तराजू में तुम मेरे प्यार को तौल रहे हो ?”

“यदि शेयरों ने मेरा साथ न दिया तो तुम्हारे पिता किसी दूसरे के पल्ले बाँध तुम्हें विदा कर देंगे। मैं हाथ मलता रह जाऊँगा।”

“अगर तुम सुधरे नहीं, ‘दलाल स्ट्रीट‘ की दुनिया से बाहर नहीं आये तो हाथ मलते नहीं, सिर्फ शेयर गिनते रह जाओगे।”

“ऐसा नहीं होगा। वैसे तुम्हें शेयरों से चिढ़ क्यों है ? आजकल पानवाला भी शेयर की बात किये बिना रोटी नहीं खाता। फिर मुम्बई की  दलाल स्ट्रीट में तो मेरे चाचाजी हैं। मैं तो इस शहर में तुम्हारे ही कदमों में पड़ा हूँ।”

वह पिघल गई, “मुझे मेरे प्यार की धड़कने चाहिये, तुम्हारी आँखों में, तुम्हारे होठों पर तुम्हारे छलकते चेहरे पर। लेकिन इस पर तो हर समय ‘शेयर’ व ‘डिबेंचर’ बिछे रहते हैं।”

“किसी दिन तुम मेरी इन्हीं बातों की वजह से राज करोगी, राज। सुना नहीं है, दलाल स्ट्रीट का राजा क्लर्क था क्लर्क....पर अब उस के पास बाईस कारें हैं। उसने शेयरों से करोड़ों रुपये कमाये हैं। वह मेरा आदर्श पुरुष है।’”

“अगर तुमने सिर्फ दस कारें भी इकट्ठी कर लीं तो अदना सी मैं दस कारों में कैसे बैठूँगी ? मेरे लिये तुम्हारी यही एक कार काफ़ी है।” उसने कार की सीट पर हाथ फेरते हुए कहा।

“तुम बुद्धू हो। एक साथ दस कारों में बैठने का कौन कह रहा है। हर दिन एक नई कार में निकलना। ज़िंदगी में मैं सुरक्षित भविष्य चाहता हूँ, रुपयों से लबालब भरा हुआ। जिस चीज पर तुम हाथ रख दो, मैं उसे लाकर तुम्हारे कदमों में बिछा दूँ।”  

“तुम कितने बदल गये हो। हर समय रुपया तुम्हारे दिमाग पर छाया रहता है। फाड़ क्यों नहीं देते अपनी एम.एससी. की डिग्री।”

मेहुल की आँखें लाल हो आई, “मेरा बस चलता तो फाड़ देता वह डिग्री...क्या दिया है उसने ?दो साल की ठोंकरे... कभी यहाँ, कभी वहाँ....।”

उसे अफ़सोस हुआ कि पता नहीं कैसे उसके मुँह से यह बात निकल गई, वरना वह भी तो किसी बड़ी प्रयोगशाला या औद्योगिक संस्थान में शोध सहायक बनना चाहता था।

एक सपना पायल ने भी देखा था कभी, जिसको उसकी आँखें हमेशा आकुल हो ढूँढ़ा करतीं। घिर आई साँझों को छत पर किताबें लिये, क्षितिज में आँख धँसाएँ जिसका इंतजार करती थी, मनप्राण जिसकी प्रतीक्षा करते थे, उसे ही पावागढ़ की पिकनिक उसकी झोली में डाल गई थी। पहले वह समझ नहीं पाई थी, मन में आहट लेती ये अनपहचानी नई सुकोमल थरथरी, आँखों की सोचों का कहीं खो जाना। पहले विश्वास ही नहीं हुआ। जब समझ में आया तो उसके तनमन पर गुलाबी रंगत छा गई थी। अब सोच कर भी हँसी आती है। लेकिन वह पावागढ़ के गोबर में से मोती चुन लाई थी।

उनके प्राध्यापक योगेश को पता नहीं पिकनिक के समय क्या सनक सवार हो गई थी। बोले, “देवी के मंदिर पर ऊपर कोई भी ‘रोप वे’ से नहीं जायेगा...न ही बड़े रास्ते से।”

उन्होंने एक छोटा झाड़ियों से घिरा रास्ता ढूँढ़ निकाला था। फिर उन सबका भी वही हश्र हुआ था, जो कि अक्सर जीवन में भी शॉर्टकट मारने वालों का होता है। सब झाड़ियों से अपने कपड़े बचाते ऊपर चढ़े जा रहे थे। फिर भी कोई जमीन में से निकला सरकंडा कहीं न कहीं चुभ ही जाता था।

सब से पहले मेहुल चिल्लाया था, “जरा बच कर...यहाँ खुजली वाले पौधे हैं।”

“किधर?” बहुत  सी आवाजें उठीं।

“इधर।”

“देखूँ।” यासीन बहुत बहादुर बनता था। उसने धीरे से मेंहदी की झाड़ी जैसे रंग की चमकीली कलियों पर हाथ फिराया। कुछ ही पलों में उछल कर दूसरे हाथ से अपनी ऊँगलियाँ व हथेली खुजाने लगा।

तेज हवा के कारण अब तक कलियाँ उड़ उड़ कर उन लोगों के खुले अंगों को छू चुकी थीं। पायल ने ऊपर चढ़ने के लिये धसकती मिट्टी पर पैर जमा कर दूसरा कदम बढ़ाया तो झुकने से उसका माथा पौधे से छू गया। वह दोनों पैर एक जगह जमा कर माथा खुजाने लगी। जब तक सारे लड़के लड़कियां बंदरों की तरह उछल-उछल कर अपने खुले अंगों को खुजाने लगा था।

दोनों प्राध्यापक थोड़ी ऊँचाई पर कमर पर हाथ रखे मुस्कुरा रहे थे। 

पायल ने घबरा कर पानी की बोतल खोलकर जैसे ही माथे पर उंड़ेली, योगेश चिल्लाये, “पानी मत डालना, और जलन होगी। इस का तो एक ही इलाज है गोबर।”

“गोबर?” बहुत से विद्यार्थी चीख उठे थे।

पायल तो अनजाने ही पानी डाल कर मुसीबत मोल ले चुकी थी। माथा और लाल हो गया था। खुजली और भी बढ़ गई थी।

योगेश मुस्करा कर बताने लगे, “अब आप लोग पावागढ़ की पहाड़ियों पर फैले हुए गोबर को ढूँढ़ कर खुजली वाली जगह लगाइये। इस खुजली का बस यही इलाज है।”

पिकनिक भूल कर झुंड ऊँची-नीची फैली हुई पहाड़ी पर गोबर तलाशने बिखर गया था। केया खुशी से चीखी, “मिल गया।” वह सूखे गोबर को जमीन पर से उठा कर हाथ पर मलने लगी।

तभी योगेश दूर से चिल्लाये, “सूखे गोबर से कुछ असर नहीं होगा। गीला गोबर लगा कर उसे सुखाइये। उस के सूखने पर जब उसे छुड़ायेंगे, तभी खुजली ठीक होगी।”

“ओह, आप का मतलब है, ताज़ा गोबर तलाशना होगा।”

पानी के इलाज से घबरा कर पायल ही सबसे पहले दिखने वाले ताजे गोबर के ढेर की तरफ भागी थी। जैसे ही उसका हाथ उस पर पड़ा, एक हाथ और भी जल्दी से उस पर आ पड़ा था, “यह मेरा है।”

सामने अपने हाथ की खुजली से घबराया हुआ मेहुल खड़ा था।

“नहीं, यह मेरा है।”

“कोई देख लेगा तो हँसेगा कि जींस पहनने वाली परकटी लड़की गोबर के लिये लड़ रही है...आप हाथ हटाइये।”

मेहुल की शरारती आँखें उसे चुभ गई थीं, “जींस तो आप भी पहने हैं, आप हाथ हटाइये, नहीं तो कोई क्या कहेगा?”

“अच्छा, ऐसा करते हैं आधा आधा कर लेते हैं। पहले मैं तुम्हें गोबर लगाता हूँ।” मेहुल ने बिना उस की सहमति की परवाह किये उसके माथे पर गोबर लगा दिया था। थोड़ा सा गोबर माँग में भी सरक गया था।

“माफ़ कीजिये, आप की माँग गलती से गोबर से भर गई है।” उसने भोली सी सूरत बनाते हुए उसे चिढ़ाया था।

 वह हाथ का गोबर लेकर उसके मुँह पर लगा कर मज़ा चखाना चाहती थी, लेकिन मेहुल तब तक उस की पहुँच से दूर पहुँच चुका था। तब वह समझ नहीं पाई थी कि गोबर के अलावा भी उनमें बहुत कुछ बँट गया है।

सब अपने हाथ, पैर, माथे या गले पर गोबर लगाये उसे सुखाने के लिये ज़मीन पर यहाँ-वहाँ बिखरे बैठे थे। योगेश को मज़ा आ रहा था, वह कैमरे में उन सबको कैद किये जा रहे थे।

वह आखिरी साल तो जैसे पलक झपकते ही बीत गया था। पायल तो शोध में लग गई थी,  लेकिन शाम की कक्षाओं में मार्केटिंग का कोर्स करते हुए मेहुल के सपने नौकरी व व्यवसाय के बीच भटक रहे थे। नौकरी की प्रतीक्षा में वह बंबई में बैठे चाचा का व्यवसाय यहाँ जमाने में सहायता कर रहा था।

कभी-कभी इतना व्यस्त हो जाता कि पायल उसकी सूरत देखने को तरस जाती। दस दिनों से वह फिर गायब था। बाद में अचानक ही विभाग की प्रयोगशाला में चला आया था। उसकी आँख के नीचे से माइक्रोस्कोप खिसका कर पास के स्टूल पर बैठ गया, “हेलो !”

“हेलो !” वह ख़ुशी  से चहक उठी थी। लेकिन उसकी  सुखऱ्  आंखों व तनाव से घिरे चेहरे को देख कर पूछ बैठी थी,  “तुम्हें यह क्या हुआ?”

“मत पूछो, बस दो दिन कत्ल के हैं।”

“क्यों, आखिर बात क्या है ?”

“आजकल रात दिन एक पल भी चैन नहीं है। रात को नींद नहीं आती....”

“क्या आँखों में कोई और समा गई है?”

“तुम्हारे रहते किसी की हिम्मत नहीं जो इन आँखों की पलकों को भी छू ले। कहीं से मुझे लाखों रुपयों के ‘प्लास्टिक ग्रेन्यूल्स’ हाथ लग गये हैं। हर समय डर लगता है कि कहीं पुलिस घर पर छापा न मार दे। दो दिन बाद जब उसे ट्रक में लदवा दूँगा, तब जान में जान आयेगी, बंबई में तो चाचाजी संभाल ही लेंगे।”

“छि....ऐसा काम क्यों करते हो जिसमें पुलिस का डर लगे?” पायल ने सुन रक्खा है कि इस शहर के कई सरकारी संस्थान के बाईप्रोडक्ट होते हैं ‘प्लास्टिक ग्रेन्यूल्स’ वह भी टनों के हिसाब से। स्टोर के बदमाश कर्मचारी चोरी से इन्हें बेच देते हैं।

“यार ! व्यापार में इसके बिना चलता भी नहीं है। इन पर टैक्स देने बैठ जाऊँ तो मेरे हाथ क्या लगेगा?”

वाकई टैक्स बचाकर उसने एक वातानुकूलित कार खरीद ली थी।

उसके बाद जब भी मिला, नई अदा, नये व्यवसाय, नई परेशानी, टैक्स बचाने की तिकड़म  ही सोचता हुआ मिला। वह उन सबके बीच उस मेहुल को ढूँढ़ना चाहती थी जिससे उसने प्यार किया था। शांत, स्थिर, नपी तुली बातें करने वाला। अब तो वह रुपये के बहाव में बहता गर्दन अकड़ाए हुए ऊँची नीची बातें हाँकने वाला, अपनी तड़ी मारने वाला व्यवसायी मेहुल बन गया था। बस, उसके पैर कहीं एक जगह थम ही नहीं रहे थे।

तभी उसके चाचा ने बढ़ते हुए रुपयों को दलाल स्ट्रीट में आजमाया तो वारे न्यारे हो गये। मेहुल के लिये तो हर व्यावसायिक फ़रमान बंबई से ही आता था। चाचा ने तो उसे बंबई में ही बुलाया था, लेकिन पायल के प्यार में जकड़ा वह शहर छोड़कर नहीं जा सकता था। उसके पैरों को भी स्थिर होने की जगह मिल गई थी क्योंकि हवा ही कुछ ऐसी थी कि अधिकतर लोग शेयरों की ही भाषा बोलते थे और शेयरों के ही सपने देखते थे।

वह अचंभित थी, मेहुल को उप-दलाल के बाने में देखकर। सब कुछ आनन फानन में हुआ था। मुख्य सड़क पर एक शानदार इमारत में चमचमाते फर्नीचर वाले दफ़्तर का इंतजाम हो गया था। सुनहरे अक्षरों में परिचय पत्र छप गये थे। एक महीने में फ़ोन भी लग गया था।

खुशी से बौराये मेहुल ने उसकी आँखों के आगे अपना कार्ड लहराते हुए कहा था, “अब मुझे मेरी मंजिल गई है। स्टॉक एक्सचेंज में अभी से लोग कहने लगे हैं कि आप जैसे पढ़े लिखे लोग यहाँ बैठेंगे तो इसका नक्शा ही बदल कर रख देंगे।”

मेहुल को पकड़ पाना अब और भी मुश्किल हो गया था। कभी मिलता भी तो रात दफ़्तर में दो-दो बजे तक जगी हुई आँखें और उनींदा दिमाग लिये या फिर गई रात का संपर्क बढ़ाने के नाम पर पार्टियों में जम कर हलक में उतारे हुए गिलासों का आँखों में सुरुर लिये। वह भी अपनी प्रयोगशाला के प्रयोगों की पेचीदगियों से जान छुड़ा उसके साथ सुस्ताना चाहती, लेकिन हर समय लगता, यह साथ कहीं फड़फड़ाते ढेर से कागजों में डूबता जा रहा है। हर कागज पर एक फड़फड़ाहट है, “शेयर आज खुलने वाला है।” पावागढ़ की पहाड़ियों पर उन दोनों के बीच शुरू हुआ नरम सा ‘शेयर‘ जाने कहाँ खोता जा रहा था ?

एक बार मेहुल ने उसका पर्स खोल कर सौ रुपये का नोट निकाल लिया, “यह मैं ले जा रहा हूँ।”

“लेकिन मुझे तो इससे एक ज़रूरी किताब खरीदनी है।”

“लेकिन मैं देखना चाहता हूँ तुम्हारा ‘भाग्य’ शेयर के मामले में कैसा है? ”

शाम को ही फ़ोन मिला था, खुशी से खनकती आवाज में, “तुमने तो बंपर मार लिया, दो सौ रुपये तुम्हें कल लाकर दूँगा।”

“सच?”

“हाँ, बिल्कुल सच।”

वह हतप्रभ थी, “अरे वाह ! क्या कारूँ का खजाना है? कोई जादुई तिलिस्म या फिर रुपये को दोगुना कर देने वाला कोई करिश्मा।”

फिर तो मेहुल को कहने की भी ज़रूरत नहीं रही। वह अपनी फ़ैलोशिप  में से धीरे-धीरे कुछ रुपये बचा कर उसे देती रही और अधिकतर मुनाफ़े में ही रही।

वक्त भी मेहुल को तिलिस्म की दुनिया में घसीटे ले जा रहा था। वह जो भी दाँव लगाता, सब सोना हो जाता।

“जगदीश अंकल अपना पचास हज़ार रुपया शेयर में लगाना चाहते हैं। वह कह रहे थे कि दफ़्तर जाते समय तुम उनसे रुपये लेते जाना।” पायल ने मेहुल से कहा था।

“उनसे तुम्हारे घर जैसे संबंध हैं। उनसे कह देना कि उनका पचास हज़ार रुपया समझो कि लग गया। रुपये तो मैं कभी भी उठा लूँगा।”

“इतना बड़ा खेल तुम बिना रुपये लिये मत खेलो। अभी कुछ दिन पहले तुम कह रहे थे कि ‘पटेल केमिकल्स’ का तुमने बीस हज़ार रुपया अपनी जेब से लगा दिया है।”

“तुम इन बातों को नहीं समझोगी। ये बड़े ख़ानदान हैं। बाज़ार में इनके मुँह से निकली बात पत्थर की लकीर होती है। ऐसा नहीं करूँगा तो बाज़ार में मेरी साख कैसे बनेगी?”

मेहुल की बात उसे चुभ गई थी। सच ही क्या वह उस बाज़ार की बात समझ नहीं सकती ? उसे देखने, समझने वह अचानक ही सीधे विश्वविद्यालय से वहाँ पहुँच गई थी।

एक बड़ी इमारत के तलघर की हल्की अँधेरी ढलान में जाते हुए उसे लग रहा था, जैसे वह एक तिलिस्मी दुनिया में प्रवेश करने जा रही है। स्टॉक एक्सचेंज की बाहर की कच्ची जमीन पर इधर-उधर स्कूटर, मोटर साइकिल खड़े हुए थे जिन पर लोग बैठे शेयरों के भावों का इंतजार कर रहे थे।

बीच के बड़े हॉल की खिड़कियाँ खुली हुई थीं। जिन पर लोगों की लदी हुई भीड़ को देखकर लग रहा था यही ‘रिंग’ होगा। इस हॉल का दरवाज़ा दिखाई नहीं दे रहा था। उसने हॉल का चक्कर लगाना आरम्भ किया। हॉल के दूसरी तरफ दलालों के कार्यालय थे। किसी पर काँच के दरवाजे लगे हुए थे, किसी पर दरवाजे ही नहीं थे। कई वातानुकूलित थे और वहाँ कंप्यूटर भी लगे हुए थे। सभी कार्यालयों के क्लर्क फ़ोन पर कान लगाये बैठे हुए थे। किसी-किसी कार्यालय के नेम्प्लेट पर किसी महिला का नाम लिखा हुआ था।

आखिर उसे अंदर जाने का दरवाज़ा नज़र आ ही गया। बाहर की दीवार पर लगे नोटिस बोर्ड पर कुछ लोग शेयरों के भाव पढ़ रहे थे। कुछ लोग बाहर की लोहे की रेलिंग पर लदे हुए थे।

उसने जैसे ही दरवाज़े पर कदम रखा, दोनों ओर बैठे चपरासियों में एक ने पूछा, “आपका कार्ड कहाँ है?”

“कैसा कार्ड?”

“अंदर जाने के लिये कार्ड की ज़रूरत होती है।”

“ओह! मैं तो यहाँ किसी से मिलने आई थी।”

“तो बाहर ही ठहरो।”

अंदर अजीब दृश्य था। असंख्य लोगों की चीखती हुई आवाज़ से कान फटे जा रहे थे, मगर मजाल है कि एक शब्द भी स्पष्ट हो, समझ में आ जाये। लोगों के झुंड के झुंड अलग-अलग बिखरे हुए थे। उत्तेजना में बार-बार हाथ हिला रहे थे। ऐसा लग रहा था, जैसे जंगल में आग लग गई और वहाँ के प्राणी घबरा कर मैदान में निकल आये हों, उनके झुंड अपना गुस्सा आपस में ही बेहूदी आवाजें निकाल कर उतार रहे हों।

उसे लगा, आग तो वाकई इस तलघर, इस इमारत के बाहर लग चुकी है। लोग बदहवास इसकी लपटों में झुलसे, जले जा रहे हैं। उसने बहुत कोशिश की कि एक शब्द भी वह समझ सके। लेकिन ‘हे...हे...हो...गें..गें...हो..हो...’ के अलावा उसे कुछ समझ नहीं आ सका। वह समझ न सकी कि इस भाषा को क्या नाम दे ?

तभी मेहुल इस भीड़ में दिखाई दे गया। वह हाथ में पीली रसीद पकड़े खड़ा था। ऊँची आवाज में आसपास खड़े कुछ लोगों व एक स्त्री से कुछ कह रहा था। ऐसा लग रहा था, कुछ बहस चल रही है। वह कुछ कहता, सामने वाले कुछ कहते। तभी उनमें से एक व्यक्ति दीवार लगे फ़ोन की तरफ लपका। उसने फ़ोन पर जल्दी-जल्दी कुछ बात की और आ गया। उसके लौटने पर लगा, कुछ सौदा पक्का हुआ। फिर वे लोग बिखर गये।

मेहुल रुमाल से अपना पसीना पोंछता हुआ विजयी मुस्कान से दूसरे झुंड के बीच वैसे ही अनर्गल आवाज़ें निकालने लगा। इस बार वह थोड़ा पास था। उत्तेजित लाल पड़े चेहरे से शायद चिल्ला रहा था, ‘बसो...ब।’

पायल को उसका चेहरा देखकर ऐसा लगा, जैसे प्रयोगशाला के ढेरों उपकरण टूट कर उस पर बिखर गये हों, तनमन में जैसे किरिचें चुभी जा रही हों।

आवाज लगाते हुए मेहुल की नज़र दरवाजे पर सहमी खड़ी पायल पर पड़ गई। वह उसे देख कर झेंपता सा दरवाजे के बाहर आ गया, “तुम यहाँ कैसे चली आईं?”

“बस तुम्हारी दुनियाँ देखना चाहती थी।”

“अभी दो बजे हैं, तीन बजे से पहले मेरा यहाँ से बाहर निकलना मुश्किल है।”

“तुम यह क्या चिल्ला रहे थे, बसो, बसो?”

वह जोर से हँस पड़ा, “मैं बसो नहीं चिल्ला रहा था, टिस्को कंपनी का नाम चिल्ला रहा था। देखो, समझने की कोशिश करो। यदि मैं ऐसे ही यहाँ खड़ा रहा तो मेरा हज़ारों का नुकसान हो जायेगा।”

“मैं समझ रही हूँ,” कहते-कहते पता नहीं क्यों उसकी आँखें गीली हो आईं। वह वहाँ से चुपचाप चली आई, अब उससे कोई संबंध नहीं रखेगी। उस मछली बाजार से चीख चीख कर बोली लगाते, पसीने से तरबतर बिखरे हुए बालों वाले, न समझी जा सकने वाली भाषा बोलने वाले बदहवास मेहुल से उसने कब प्यार किया था ?

हर फोन, हर सूचना पर दिल पर पत्थर रखकर बैठ गई थी। नहीं, अब कोई जवाब नहीं देगी, लेकिन खुद ही महीना बीतते ही मछली की तरह तड़पने लगी। वह उसके साथ इतनी दूर निकल गई थी, अंदर तक बिंध गई थी, चाह कर भी उसे दूर धकेलने का रास्ता नहीं बचा था। जो इन सालों में हर पल उसके साथ रहा था, उससे वह स्वयं कहाँ अलग रह गई थी।

जब भी दुनियादारी से फुरसत निकाल अपने पास बैठी, उसे अपने नज़दीक ही पाया था। उसने अपने अंदर की निजी दुनिया पूरी की पूरी उसे दे डाली थी। स्वयं ही उसे मनाने उसके दफ़्तर चली गई थी।

बस वह उसे रिलायंस, मास्टर प्लस, टिस्को, ओरको, टेल्को, रेमन्ड और भी न जाने किन-किन घोड़ों पर सवार ऊँचा और ऊँचा उठते देखा करती थी। उसे समझ नहीं आता था कि चंद महीनों में उसने इतना रुपया कमाया है तो आगे कितना कमायेगा ? वह कैसे गिन पायेगी रुपयों के ढेर को ? बात भी उस के पास यही होती, “आज मैंने साढ़े आठ हज़ार रुपये कमाये हैं।”

वह चिढ़ जाती, “उफ ! मेरा दिमाग़ चकरा जाता है इन शेयरों की बात सुनते-सुनते, घर में भाभी अच्छी खासी थीं...जब से उन्होंने शेयर में दस हज़ार रुपये क्या कमाए हैं, उन्हें भी यही बुखार चढ़ गया है। जाने कहाँ-कहाँ से लाकर शेयरों की किताबें पढ़ती रहती हैं। तुम्हें नहीं लगता, शेयर्स ने सब को कठपुतली बनाकर रख दिया है...ये लोग सिर्फ शेयरों के लिये जीते हैं।”

“तो इसमें बुरा क्या है ? विनोद चाचा के बेटे ने तो दस हज़ार रुपया कमा कर उन के हाथ पर भी रख दिया है, जब कि उसने अभी-अभी दसवीं पास की है।”

“इतना तो ठीक है, लेकिन भाभी पर दलाल बनने का भूत सवार हो गया है ।‘‘

शेयरों की दुनिया में रहने वाला मेहुल भी हतप्रभ रह गया, उनके रेडियो के कार्यक्रमों का क्या होगा ? वह आदमियों की भीड़ में बोली लगा सकेंगी ? रिंग में भीड़ इतनी होती है कि कहीं भी लोगों के हाथ पड़ जाते हैं। एक्सचेंज में चीखते-चीखते कितने ही लोगों की आवाज फट जाती है। उन्हें गले का इलाज करवाना पड़ जाता है।

“पता नहीं क्या होने वाला है ? वह तो सपने में भी जापान, हांगकांग के एक्सचेंज देखती रहती हैं।”

फिर अचानक जैसे कोई चमकता बड़ा सितारा आसमान से टूट कर नीचे को गिरा। तिलिस्मी दुनिया का तिलिस्म अचानक टूट गया। मेहुल की आँखों में बाईस कारों की चकाचौंध एकदम से बुझ गई। दलाल स्ट्रीट का राजा हर्षद मेहता पकड़ा गया।

फिर कितनी ही अविश्वसनीय बातें सुनाई देने लगीं। रिलायंस, मास्टर प्लस, टिस्को, ओरको, टेल्को, रेमन्ड नाम जिन घोड़ों पर चढ़ा मेहुल आसमान नाप आया था, वह धीरे-धीरे धराशायी होते चले गये। बुलंद हुई आवाज़ पहले धीमी हुई, फिर डूब गई, अँधेरी बड़बड़ाहटों में। उसका हताश चेहरा देखा नहीं जाता था। दफ़्तर में वह अब भी व्यस्त रहता था, लेकिन देनदारों की भरपाई अपनी कमाई में से करता हुआ। पटेल केमिकल्स और जगदीश चाचा जैसे और लोग उसे पैसा क्यों देते, जिन के नाम के वह शेयर खरीद बैठा था।

उसका चेहरा अपने सीने से टिकाये उसके बालों में ऊँगलियाँ फिराते हुए पायल व्याकुल थी। वह क्या करे कि उसकी पहली सी खिली-खिली मुस्कुराहट वापस आ जाये ? उसकी आँखों में अपनी सांत्वना भरी आँखें पिरो देना चाहती थी। मेहुल कातर और विह्वल होकर आँखें चुरा लेता। अंदर की टूटन से तनी हुई चाल ढीली पड़ गई थी। बेलौस अदाएं फीकी पड़ गई थीं।

दलाल स्ट्रीट और बैंकों से हर दिन एक नई कहानी उड़ कर छपती। उधर वह अपने को संभालने की जद्दोजहद में लगा रहता, इधर वह उसे संभालने व अपना शोध ग्रंथ पूरा करने में जुटी रहती।

जब भी पायल को थोड़ा भी समय मिलता, उसके पिता कानों में मंत्र फूँकते रहते कि वह गंभीर होकर सही ज़िंदगी का शोध करे। मेहुल का साथ उसकी ज़िंदगी के लिए सही है या नहीं -ये सोचे।  पहले वह सोचना भी नहीं चाहती थी, टालती रही, पर पिता पीछे लगे रहे।

जब उनकी ज़िद पर पायल ने सोचना शुरु किया तो इस ठोस तथ्य की प्रत्येक परत शोध की तरह स्पष्ट होने लगी। जब उसे लगा कि मेहुल ने अपने को टूटन से उभार लिया है। मन पर अपनी हार पर काबू पा लिया है तो वह उससे कतराती चली गई।

बहुत दिनों बाद मेहुल ने शायद उसकी शादी के तय होने की अफ़वाह सुनकर घेर ही लिया। शब्द क्या थे, गिड़गिड़ाहट, “क्या तुम और इंतज़ार नहीं कर सकती ?”

“और कितना इंतज़ार करूँ? मेरा शोध भी पूरा हो चुका है। उसी का बहाना करके जैसे-तैसे ये वर्ष निकाले हैं। पिताजी अब मेरी नहीं सुनते, मेरे पीछे दो बहनें भी हैं।”

“मैं बिल्कुल तो नहीं डूब गया, एकदम सड़क पर तो नहीं आ गया, मेरी गाड़ी बिकी तो नहीं है। मेरे नाम के कुछ शेयर तो अब भी मेरे पास हैं।”

“लेकिन तुम्हारे पास कोई स्थायी नौकरी तो नहीं है। कार या शेयर सुरक्षा तो नहीं दे सकते ? जीने के लिये एक ठोस ज़मीन चाहिये।”

“तो तुम कुछ समय नौकरी कर लेना, मैं धीरे-धीरे कुछ काम जमा लूँगा।”

पायल के मुँह से एक उसाँस निकल गई, “मेरा ही कौन सा ठिकाना है, नौकरी मिलना आसान नहीं, रोहित और उपासना दो साल से पीएच.डी. किये बैठे हैं।”

हारी हुई बाजी जीतने के लिये उसने आखि़री  कोशिश की, “पृथ्वी, सूरज, चाँद, आसमान की तरह यहाँ से वहाँ तक फैला मेरा प्यार........?”

“वह अब भी मौज़ूद है, लेकिन बात शादी की है। तुम्हीं से तो सुरक्षित भविष्य की बात सीखी है। रुपयों से लबालब भरा सुरक्षित भविष्य मैंने कब चाहा था ? बस तुम्हारे साथ थोड़ा सुरक्षित होना चाहती थी। क्या तुम ऐसी कंपनी के शेयर  ख़रीद सकते हो, जिसके डूबने की ज़रा भी आशंका हो ?”

“यह हमारी शादी की बात है, किसी शेयर बाज़ार की नहीं।”

“मेहुल ! तुम्हीं से तो मैंने ये बाते सीखी हैं,  बोलो क्या ऐसी कंपनी के तुम शेयर खरीद सकते हो, जो डूबी जा रही हो ?”

मेहुल ख़ामोश ही रहा। उसने एक नज़र पायल को देखा, फिर आँखें झुका लीं।

“बोलो, चुप क्यों हो?”


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कहानी


डॉ. मीरा रामनिवास, गाँधीनगर, मो. 9978405694


‘‘बीता कल और आज’’

रश्मि अपने माता-पिता की तीसरी और सबसे छोटी संतान थी। छोटी होने के नाते सबकी लाड़ली थी। बड़ी बहन दुर्गा से वह नौ साल छोटी थी। दुर्गा दीदी से भी मां जैसा ही दुलार पाती थी। दीदी स्नेहवश उसकी हर गलती छुपा कर, मां बाबा की डांट से उसे बचा लिया करती थी। रश्मि अपनी हर खुशी दीदी के संग बांटती कोई भी कार्य दीदी की सलाह के बिना नहीं करती थी।

दोनों बहनों में अनूठा प्यार था। दोनों एक ही रूम में रहती थी। जब दीदी की शादी हुई वह बिल्कुल अकेली पड़ गई। चिठ्ठी द्वारा वह अपने राज़ बांटने लगी। दीदी घर आती उसकी दुनिया बदल जाती। दीदी उसे खूब घुमाती पसंद की चीजें दिलवाती। दीदी के यहां कोई बाल बच्चा न हुआ। वे रश्मि पर अपना प्यार लुटाती रहती। रश्मि कालेज में पढ़ने लगी लेकिन दीदी के लिए रश्मि सदा बच्ची ही बनी रही। 

रविवार की खूबसूरत सुबह थी। रश्मि बगीचे में चाय की चुस्कियां ले रही थी। पेड़ पौधों पर फूल मुस्कुरा रहे थे। फूलों की भीनी सुवास हवा में घुल रही थी। सुबह का सूरज मंद-मंद मुस्कुरा रहा था। कुनकुनी धूप पेड़ पौधों को नहला रही थी। प्रकृति संग बैठ रविवार का भरपूर आनंद ले रही थी।

चाय पीकर पौधों को पानी पिलाने लगी।

घर के आगे एक सुंदर सा बगीचा बना रखा था। जिसमें गैंदा, मोगरा गुलाब, रजनीगंधा तुलसी आदि 

पौधे लगे थे। खिड़की के छज्जे पर मधुमालती मुस्कुरा रही थी। अचानक छत पर कौवा बोल उठा। शायद किसी के आने का संकेत दे रहा था।

मां, दादी हमेशा कहा करती थी कि कौवा यदि घर की छत मुंडेर पर बोले तो मेहमान आता है।

पानी का पाईप पौधों में लगा कर वह पेपर पढ़ने बैठ गई। मुख्य द्वार खुलने की आहट हुई। रश्मि की निगाह गेट पर गई। एक नौजवान को अंदर प्रवेश करते हुए देखा। वह कुछ पूछती उसके पहले ही नौजवान करीब आ गया। नमस्कार की मुद्रा में हाथ जोड़कर बोला आंटी मैं कर्ण हूं। मां ने आपके नाम चिट्ठी लिखी है। चिठ्ठी आप तक पहुंचाने आया हूं।

नौजवान को देख रश्मि हतप्रभ रह गई। वही रंग रूप,वही नैन नक्श, वही कद काठी उसका सूरज ही सामने खड़ा हो जैसे। बैठो बेटा! मैं तुम्हारे लिए चाय लेकर आती हूं। कर्ण पेपर पढ़ने लगा। रश्मि अंदर आ गई। चाय चढ़ा कर चिठ्ठी पढ़ने लगी। प्रिय रश्मि तुम्हारा और मेरा बेटा सूरज इंजिनियर बन गया है। इसकी नियुक्ति तुम्हारे ही शहर में हो गई है। लंबे समय का वियोग अब पूर्ण हुआ। अब तुम अपने बेटे से मिल पाओगी। चिठ्ठी पढ़ते ही उसकी आंखों से खुशी के आंसू झर झर बह निकले। 

चिठ्ठी ने विगत के सारे पन्ने खोल दिए। रश्मि अपने बीते कल में पहुंच गई। मां पिता का दुलार याद आया। दीदी की छत्रछाया याद आई। देवी स्वरूपा दीदी ने कर्ण के लालन पालन की जिम्मेदारी लेकर अमूल्य अनुकंपा की। आज कर्ण को अपने सामने खड़ा देख रश्मि का हृदय दीदी के प्रति कृतज्ञता से भर गया। 

रश्मि कालेज के दिनों में खो गई। सफ़र को अधूरा छोड़ कर चले जाने वाला हमसफ़र सूरज याद आया। साथ गुजरा सुहाना समय चलचित्र की भांति आंखों के सामने आ गया। सूरज से उसकी मुलाकात कालेज कैम्पस में हुई थी। दोनों विज्ञान संकाय में अध्ययन कर रहे थे। दोनों अच्छे दोस्त बन गये।दोस्ती का रिश्ता कब प्यार में बदल गया। एक दूजे से इतने घुल-मिल गए कि शादी करने का फैसला कर लिया। 

कालेज का अंतिम वर्ष, फाइनल इम्तिहान का अंतिम दिन, दोनों ने अपने अपने माता-पिता को एक दूसरे से मिलवाने का फैसला किया। रश्मि अपने माता-पिता को अपने प्यार के बारे में बताने से डर रही थी, इसलिए तय किया कि सूरज ही उसका हाथ मांगने अपनी मां को लेकर आयेगा।

सूरज गांव से शहर पढ़ने आया था। सूरज अपने माता-पिता की इकलौती संतान था। उसके पिताजी कालेज में प्रवक्ता थे। रात का खाना खाकर अच्छे भले सोये थे, हृदयाघात से प्राण पखेरू उड़ गए, भगवान को प्यारे हो गये। सूरज उस समय दसवीं कक्षा में पढ़ रहा था। वो बडा कठिन दौर था। मां ने अपने दुख छुपा कर उसे हिम्मत दी, पिता का प्यार दिया। कालेज की पढ़ाई करने शहर भेजा। पिता की पैंशन और मकान के आधे हिस्से को किराए पर देकर मां उसका पढ़ाई-लिखाई का खर्च वहन कर रही थी। पढ़ाई पूरी करके वह गांव जा रहा था। वह जल्द से जल्द अपने फैसले से मां को अवगत करवाना चहता था। रश्मि का हाथ मांगने मां को राजी करना चाहता था। 

गांव जाने से पहले रश्मि व सूरज ने मिलने की योजना बनाई। साथ में लंच लिया लंच के बाद पार्क में बैठ गपशप करने लगे। सूर्य अरुणिमा लिए अस्ताचल की तरफ बढ़ रहा था। सांझ ढलने को थी। पंछी कलरव सांझ को खुशनुमा बना रहा था। दोनों हाथ में हाथ लिए बैठे शाम का आनंद ले रहे थे। सूरज की बस का समय हो चला था। रश्मि  सूरज सामान लेने कमरे पर पहुंचे। बिछड़ते हुए दोनों ने एक-दूसरे को आलिंगन बद्ध कर लिया। आंखें बरसने लगीं। दोनों के तन मन पिघल कर एक हो गए। बरसाती नदी सा मन उन्हें प्यार के सागर में बहा ले गया।

सूरज ने मां को रश्मि के बारे में सब कुछ कह सुनाया। बेटे के चेहरे पर खुशी के आते-जाते भावों ने मां की ममता को जैसे एक नई दुनिया ही दिखा दी। अंधे को क्या चाहे दो आंख। उसका अकेलापन बांटने कोई आ जाएगा,वह राजी हो गई। रश्मि तक बात पहुंच गई, उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। रश्मि ने अपने और सूरज के  प्यार का सच दीदी को बता दिया। सूरज मां को लेने गया है। जल्द ही हाथ मांगने घर आयेगा 

सूरज मां को लेने गांव गया, लेकिन लौटकर नहीं आया। उधर रश्मि बेसब्री से उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। आज आये, कल आये सोचते हुए पंद्रह दिन बीत गए। सूरज फोन भी नहीं उठा रहा था। एक माह बाद सूरज की माताजी ने फोन उठाया और उठाते ही रोने लगी। रोते बिलखते हुए सूरज की मां ने सूरज की मौत की खबर रश्मि को सुनाई। वह अपने मित्र के साथ किसी काम से निकला था हाईवे क्रोस करते हुए दुर्घटना ग्रस्त हो गया। चिकित्सा के दौरान दम तोड दिया। 

रश्मि पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। रोते रोते आंखों के आंसू सूख गए। वह अवसाद में सरक गई। रश्मि के जीवन का बसंत पतझड़ में बदल गया। रश्मि का फोन न आने से दुर्गा दीदी परेशान थी रश्मि से मिलने पीहर चली आई। दीदी ने उसकी शारीरिक और मानसिक दशा देख किसी अनहोनी का पता लगा लिया। दीदी ने रश्मि को गले से लगा लिया। दोनों बहनें बड़ी देर तक रोती रहीं।रश्मि ने सारी व्यथा दीदी को सुनाई।

दीदी समझदार थी। उसने सब भांप लिया। मां पिता की आज्ञा लेकर रश्मि को अपने ही शहर में पढ़ने के लिए साथ ले गई। दीदी ने मां पिता को रजामंद कर लिया। दीदी को कोई औलाद भी नहीं थी माता-पिता उसकी बात टाल न सके। दीदी ने माता पिता से रश्मि का संबंध अपने देवर से करने का इजहार किया। माता पिता बेटी की बात से सहमत हो गए। रश्मि दीदी के साथ आ गई।

रश्मि के गर्भ में सुगबुगाहट होने लगी थी। जुदाई की उस शाम के प्यार भरे  स्पर्श ने साकार होना शुरू कर दिया था। नौ माह बाद किरण ने एक सुंदर स्वस्थ बच्चे (बेटे) को जन्म दिया। बच्चे के लालन-पालन की जिम्मेदारी दीदी ने अपने कंधों पर लेली। अमेरिका से अपनी पढ़ाई पूरी कर दीदी का देवर भारत लौटा। दीदी ने देवर और अपने पति को शादी के लिए राजी कर लिया। रश्मि ने दीदी के पांव पकड़ क्षमा याचना करते हुए शादी से इंकार कर दिया। सूरज संग बिताए पलों की याद में अपना जीवन बिताने की इच्छा जाहिर की। रश्मि दूसरे शहर चली आई। माता पिता को जब खबर हुई। वे दोनों बहनों से नाराज़ हो गये। रश्मि कालेज में अध्यापन कार्य करने लगी। सूरज की यादों के सहारे जीवन जीने लगी।

उधर कर्ण यशोदा मैया दुर्गा दीदी की गोद में पलने लगा। कर्ण को दत्तक लेकर दीदी ने उसे अपना बेटा बना लिया। समय के साथ दीदी व रश्मि दोनों को माता-पिता ने माफ कर दिया। दोनों को घर बुला भेजा। शर्मिंदगी के चलते रश्मि नहीं गई। माता पिता बेटी के गम में बीमार रहने लगे।बेटी के इंतजार में दोनों की आंखें पथरा गईं।

कर्ण ने एम बी. ए. किया। उसे रश्मि के शहर में कार्यरत कंपनी में जॉब मिल गई। इधर दीदी बीमार रहने लगी थी। वे कर्ण की जिम्मेदारी रश्मि के सुपुर्द करना चाहती थी। कर्ण मां की बीमारी के चलते दूसरे शहर जाने से आनाकानी कर रहा था। लेकिन दीदी चाहती थी रश्मि अपने बेटे को देख सके। घर बुला सके, इसीलिए कर्ण को दूसरे शहर जाने पर राजी कर लिया। दीदी ने चिट्ठी लिखी,पोस्ट द्वारा ना भेज कर कर्ण के हाथ भिजवाई। जिससे कर्ण सीधे रश्मि के यहां जाए, रश्मि बेटे कर्ण से मिल सके। रश्मि की ममता का आंचल बरसों से सूना था। आंखें अपने बेटे को देखने के लिए तरस रही थीं। उसकी रेगिस्तान सी जिंदगी में अब मरूद्यान आना चाहिए।

अपने बेटे को यूं अपने सामने खड़ा देख रश्मि की आत्मा तृप्त हो गई। बेटे से मिलन के खूबसूरत एहसासों ने उसके बीते कल का सारा दुख पल भर में हर लिया। रश्मि के जीवन में आज फिर बसंत ने दस्तक दी थी। समय फिर से रश्मि के जीवन में खुशियां लेकर आया था। चाय बनाते हुए वह विगत को पल भर में जी कर भूल गई।

 रश्मि का दिल ईश्वर के प्रति कृतज्ञता से भर गया। दीदी की ममता की छांव में उसका बेटा कर्ण निखर गया। खुशी से रश्मि का रोम रोम पुलकित था।

अगले रविवार रश्मि के दीदी, जीजाजी भी आ पहुंचे। वे कर्ण के बिना ना रह पाए। दीदी ने कर्ण को बीते कल के बारे मैं सब सच बता दिया। वह रश्मि के पैरों में झुक गया। रश्मि ने उसे बाहों में भर लिया।  आप दोनों अब कहीं नहीं जायेंगे यहीं मेरे पास रहेंगे रश्मि ने साधिकार दीदी से कहा। कर्ण ने रश्मि की बात का अनुमोदन करते हुए कहा छोटी मां सही कह रही हैं बड़ी मां। आप और बाबूजी कहीं नहीं जायेंगे। हम सब एक साथ यहीं रहेंगे। इधर दोनों बहनें गले मिलकर खुशी के आंसू बहा रहीं थीं। उधर बाप बेटे अपनी आंखें नम कर रहे थे। बीता कल और आज एक सुंदर परिवार संग हंस रहे थे। 

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इस उपन्यास के विषय में ये जानकारी पढ़ना दिलचस्प लगेगा

सुपर वीमन अस्मिता, 

अहमदाबाद की छः वरिष्ठ कलमकार

[जा चंद्रा]

एक दिलचस्प किस्सा है-अस्मिता, महिला बहुभाषी साहित्यिक मंच, अहमदाबाद की बियासी वर्षीय अध्यक्ष लोकप्रिय लेखिका डॉ. सुधा श्रीवास्तव की दो पुस्तकों के विमोचन के अवसर पर डॉ. किशोर काबरा जी ने कहा ‘‘मैंने सुधा जी को युवावस्था से सृजन करते देखा है अब वे सन्यासाश्रम की तरफ़ बढ़ रहीं हैं।’’

अस्मिता की संस्थापक नीलम कुलश्रेष्ठ ने अपने वक्तव्य में मंच से कहा- ‘‘सुधा जी संन्यास की तरफ़ नहीं बल्कि डिजिटल वर्ल्ड की तरफ़ बढ़ रहीं है, बढ़ नहीं रहीं बल्कि डिजिटल वर्ल्ड में आ चुकीं  हैं क्योंकि ये भारत के द्वितीय  डिजिटल साझा उपन्यास ‘‘लाइफ़/ट्विस्ट एन्ड टर्न कॉम’’ की छः लेखिकाओं में से एक हैं।

गुजरात की द्वितीय महिला आई. पी. एस., डॉ . मीरा रामनिवास, गुजरात की प्रथम राष्ट्रीय स्तर की पत्रकार व  लेखिका नीलम कुलश्रेष्ठ, अहमदाबाद की चर्चित लेखिका डॉ. सुधा श्रीवास्तव, डॉ. प्रणव भारती, निशा चंद्रा, कर्नल की पत्नी मधु सोसी जी ने इसमें साझा लेखन किया है। इसकी रूपरेखा बनाकर नीलम जी ने सभी लेखिकाओं से अनुरोध किया था कि वे अपने जीवन भर के अनुभव इसमें लिखें जिससे हर उम्र की स्त्रियां कुछ सीख सकें, चाहे कहानी अलग चलती रहे। जब छः लेखिकाएं जुटीं तो पता नहीं कैसे ये स्त्री विमर्श का लेखा जोखा बनता गया। एक किशोरी से लेकर सत्तर साल तक के स्त्री पात्र इसमें समाते गये। सबके प्रयास से ये  युवा लड़की से लेकर सत्तर वर्ष की स्त्रियों को जीने की, अपनी समस्याओं के सामने डटकर खड़े होकर उनको हल करने की प्रेरणा दे रहा है।    

ये उपन्यास अहमदाबाद की मातृभारती के सी ई ओ श्री महेंद्र शर्मा जी की प्रेरणा व नीलिमा शर्मा के निर्देशन से लिखा गया गुजरात का प्रथम डिजिटल साझा उपन्यास।  नीलम कुलश्रेष्ठ ने इसका संयोजन कुछ इस तरह किया है कि बहुत रोचक प्रसंगों से भरे इस मोटीवेशनल उपन्यास ने साबित कर दिया है कि नेटयुग या ऑनलाइन लेखन सिर्फ सेक्स या रोमांस ही नहीं लोकप्रिय होता क्योंकि मातृभारती वैबसाइट पर  अब तक  इसे सत्तर हज़ार पाठकों  ने पढ़ा है और बीस हज़ार पाठकों ने डाऊन लोड किया है। डॉ नीरज शर्मा ने अपने वनिका पब्लिकेशंस, देल्ही से इसे प्रकाशित किया है। ये उपन्यास अमेज़ॉन पर उपलब्ध है।

  इसमें युवा उम्र की लड़कियों को प्रेरणा दी है कि किस तरह अपने ब्याय फ्रेंड की विश्वसनीयता को पहचानें, अपनी  भावनाओं को नियंत्रण में कैसे करें, अपने शरीर की रक्षा व अपने अधिकारों की रक्षा कैसे करें। समाज में एक विधवा को सम्मान की दृष्टि से देखा जाए। यदि कोई स्त्री 

प्राकृतिक कारणों से माँ नहीं बन पा सकी। उसे क्यों अपमानित किया जाए ? यदि कोई लड़की अवसाद में चली जाए तो उसे स्वस्थ व ख़ुश रहने सन्देश दिया जाये।  यदि ज़रुरत पड़े तो उसका मनोवैज्ञानिक इलाज भी करवा लिया जाए। यदि कोई महिला अपने स्वास्थ्य का ध्यान  रखती है तो वह सत्तर वर्ष से ऊपर की आयु में भी समाज के लिए कुछ कर सकती है।

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तराना बर्क ‘मी टू’ आंदोलन को शुरू करने वाली न्यूयार्क की ब्लैक एक्टीविस्ट हैं जिन्होंने यौन उत्पीड़न के विरुद्ध आंदोलन शुरू किया था। इसीको केंद्र मेन लेकर यह कहानी लिखी गई है।


कहानी

श्रीमती मधु सोसी, अहमदाबाद, मो. 9724303410


‘‘तराना बर्क’’

फ़रीदाबाद के स्कूल की लाइब्रेरी की तख्ती पर नाम लिखा था‘ बिनिता खत्तर’! उसने पर्स मेज पर रखा, पानी की बोतल निकाल कर दो घूंट पानी पीने के बाद ढेरों अखबार और पत्रिकाओं को यथा स्थान लगाने के लिए आज की ताजा खबर पर नज़र डाली, तारीख 18 फरवरी 2021, दो महिलाओं के मुस्कुराते चेहरे अखबारों में से झांक रहें थे। उत्सुकता वश पढ़ा ; ‘प्रिया रबानी पर लगे इल्ज़ाम से कोर्ट ने उसे बरी किया’, साथ में उसकी वकील, श्वेत छोटे बाल, काली जैकिट सफेद टाई वाली रेबेका जॉन की तस्वीर थी। दोनों बहुत खुश दिख रहीं थी।

“आज कोई तो अच्छी तस्वीर दिखी अखबारों में!” अपनी एसिस्टेंट कीर्ति से विनीता नें कहा। दोनों अखबारों को व्यवस्थित कर दी। लाइब्रेरी के स्टैंड्स पर कुछ लोकल दैनिक अखबार और कुछ नेशनल हिन्दी और अँग्रेज़ी के लगभग बीस तरह के अख़बार थे। टीचर्स और विद्ध्यार्थी सभी आकर अखबार पढ़ते थे। इन दोनों ने इन्हें विधिवत सब ठीक करके रखा।

विनीता की चाय आ गई थी और वो देखने लगी कि ये कौन दो हँसती मुसकुराती महिलाएं थी? अक्सर तो पेड़ पर लटकी लड़कियों की लाश या खेत में जलती लड़की की दर्दनाक खबरें और रेप से पीड़ित नन्ही नाबालिग बच्चियों के रेप और उन्हें कुएँ में फेंकने की खबर होती। चीखते-चिल्लाते,रोते-पीटते घरवालों की चीत्कारें अखबारों से निकल कर कानों के पर्दे फाड़ती रहती थीं। कभी बस उलट कर नहर में गिर गई और 40-50 लोगो की लाशें निकाली गईं, एन ड़ी आर एफ की टीम ने चमोली के जिलें की टनल से 52 लाशों को निकाला।

 सुबह-सुबह, इन मनहूस खबरों को विनीता कभी नही पढ़ती थी। ‘इससे तो अच्छा है फिल्म‘ की खबरों का पेज खोलकर कुछ प्यारी तस्वीरें देखो,’ दिया मिर्जा’ ने महिला पंडित से फेरे फिरवाए और कन्या-दान तथा विदाई शब्दों को अपने विवाह की रस्मों से निकाल दिया।

 “यह हुई न कोई बात। “वो अक्सर कीर्ति से कहती।

घिनौनी सच्ची घटनाओं की खबर पढ़ने से उसे भरी सर्दी में पसीने छूटने लगते थे और भयानक गर्मी में ठंड, ठिठुरन, मानो कड़कती ठंड में वो कोरी बान की ढीली खटिया पर उघड़ी पड़ी हो, खुले आसमान के नीचे बिना चादर, बिना रज़ाई, कम्बल।

और एक चीख उसका पीछा करती, बिंतों ओ-ओ-ओ-ओ-ओ-एम.जे. अकबर नें प्रिया रबानी पर मानहानी का केस किया था मी टू रु अभियान के अंतर्गत महिला पर किए गए बलात्कार या उस पर उसके शील को भंग करने वालों के विरोध में जब प्रिया रबानी ने जाने माने पत्रकार पॉलिटिकल नेता एम.जे. अकबर पर केस किया था उसका शील भंग करने का तब अकबर नें उल्टा उस पर मानहानि का केस ठोक दिया था। दलील यह कि प्रिया रबानी उसे बदनाम कर रही थी। किन्तु आज कोर्ट नें प्रिया रबानी की तरफ़दारी करते हुए अकबर की अपील को भंग कर दिया था। मीटू रु यह आखिर है क्या ?

बिनिता की जिज्ञासा बढ़ी और उसने गूगल सर्च किया, पता चला, आज तक की दबी-दबाई चुप्पी को तोड़ने वाली, गले में घुटी आवाज़ को सुनाया था; एक काली (अफ्रीकन) अमेरीकन स्त्री ‘तराना बर्क‘ दरिद्र एवं शोषित वर्ग की अनपढ़ कन्या थी। नाम था तराना। उसका बचपन से किशोरावस्था तक बलात्कार हुआ। जब उसे होश आया तो उसके शरीर के पुर्जे-पुर्जे से चीख निकली। वो चुप नहीं बैठी उसने पूरी दुनिया सोशल मीडिया पर अपनी अस्मिता पर आक्रमण का कच्चा चिट्ठा लिख डाला और 2006 में मीटू रुअभियान की नींव पड़ी। उसके बाद तो मानो सुनामी आ गयी। अनेकों, प्रसिद्ध, नामी गिरामी फिल्म जगत, फैशन की दुनिया की कितनी ही स्त्रियॉं नें मीटूरु के माध्यम से अपने शरीर के अंगों पर हुए अश्लील आक्रमणों का ब्यौरा देना शुरू किया। वक्षस्थल को दबाना, कभी गालों पर अभद्रता पूर्वक चूँटी काटना कभी नितंब को मुट्ठी में भर लेना और जब मौका मिला बड़े अफसरों ने प्रमोशन का प्रलोभन दिखा कर जूनियर महिला का ऑफिस में बलात्कार कर देना। सबसे अधिक पाया गया फिल्म जगत व फैशन, विज्ञापन आदि की दुनिया में! फिल्मों में काम दिलवाने के वादे, सुंदर युवती की महत्वकांक्षा को भुनाने लगे। बड़े ओहदों पर बैठे वे प्रतिष्ठित सफ़ेदपोशों के पीछे छिपी उनकी काली करतूतों को तराना बर्क नें एक बार उखाड़ा तो दुनिया भर से कितनी ही युवतियाँ सामने आ गईं।

मीटू रु अभियान के अंतर्गत स्त्री अपने ऊपर हुये रेप या अन्य किसी प्रकार के शारीरिक शोषण की शिकायत घटना के दस वर्ष बाद भी कर सकती है। यह देख सुन पुरुष वर्ग घबरा गया, उसने उल्टा स्त्रियों पर आक्षेप लगाया। कहा,”क्या सबूत है ?”

कहा, “तुमने तभी क्यों नहीं कहा ?”

और अपने को बचाने के बहाने खोजता पुरुष वर्ग चीखा, “सोशल मीडिया पर क्यों नहीं डाला ?”

बिनिता के लैप-टॉप की स्क्रीन फ्रीज़ हो गयी और वो चीख उसका पीछा करने लगी......बिंतों -ओ-ओ-ओ-ओ-वो कभी सीधे नही चलती थी;

“अरे..... रुक कहाँ जा रही है ? रास्ता तो इधर है ह ह ह..... उसके पीछे आवाजें उसे राह निर्देश कर रही थी, करतीं रहती थी किन्तु वो थी कि कभी बताए मार्ग पर सीधी न चलती थी। अपनी मर्ज़ी से चलती, सीधे चलते-चलते अचानक बाएं ओर मुड़ जाती तो कभी दायें, फिर गोल घूमकर एकदम रूक जाती;

”क्या करूँ इस लड़की का इसका तो दिमाग ही समझ नहीं आता?”

माँ सिर पटकती तो कभी दो चार थप्पड़ जड़ देती। परन्तु न तो माँ के थप्पड़ न पिता का सीधापन उसे आड़े-तिरछे रास्तों पर चलने से रोक पाया।

“देखो-देखो आज ये कैसे चल रही है नम्बर आठ का फिगर बनाते हुए....’

उसके पीछे उसकी छोटी बहन अनीता हँसते हुए बोली। इन्होंने कहीं पढ़ लिया है कि कुत्तों को रास्ता बरगलाना हो तो नंबर आठ की तरह दौड़ो, बस कहती है उसी की प्रैक्टिस करनी है।

सुनीता ने कहा; ”जिज्जी तो आज पूरे रास्ते बिना इधर उधर मुड़े सीधी चलती रही....“

“सच...सच्ची सच्ची बोल “

“हाँ सच-“

“अच्छा-घर स्तब्ध !

उन दोनों बहनों का घर जा कर बिनीता का रास्ता नाप खबर सुनाना बस, यही अभियान चलता था।

सरकारी हाई स्कूल के टीचर बलबीर सिंह की तीन लड़कियाँ, एक अदद बीवी और कमर से आधी झुकी बूढी माँ, जिसे बिन्तो फूटी आँख न सुहाती थी, और बिन्तो वो तो जैसे उसकी जानी दुश्मन हो,

“सारा दिन खों-खों करती रहवे है, मरती क्यों नहीं....“

सुनते ही दादी अपनी डंडी लेकर उसे मारने आती परन्तु बिजली सी तेजी से बिन्तो भाग खड़ी होती और दूर खड़े हो कर फिस्स से हँस पड़ती, दादी खटिया पर बैठ जाती और वहीं से उसे कोसती रहती। 

“करमजली एक तो लौंडिया दूसरे कोई शऊर नही. तीन -तीन बेटियों का मनों बोझ मेरे बीरा की कमर पे पड़ा है, तिस पे इस छोरी के लच्छन......

बूढ़ी उमर और कर भी क्या सकती थी सिवाए अपने बेटे की परिस्तिथि के प्रति हमदर्दी दिखाने के !

स्कूल टीचर का आर्थिक हाल यूँ ही खस्ता था, टूटा फूटा घर! घर के नाम पर अस्तित्व इतना ही कि सर्दी में कोहरा और गरमी में लू सदा चार दीवारी के भीतर मौजूद रहती थी बिन बुलाये मेहमान की तरह विपदा लेकर डेरा डाले रहती। दीवारें थी, सिर पर छत थी, जो बरसात में टपकती और जितने दिन बरसात होती उतने दिन पूरा घर छत की मरम्मत करता। 

“जब पानी में भीगना है तो छत पे ही खुले में पड़ जाओ ना....“ बिन्तो बड़बड़ाती।

बुढ़िया तो बुढ़िया है, तू भी बुढ़िया हो गई... ? अनिता ने अपनी जिज्जी को चिढ़ाया अनिता की बात का बिन्तों कभी बुरा नही मानती थी। हाँ, अगर यही शब्द सुनीता ने कहे होते तो बस फिर तो महाभारत छिड़ते देर नही थी। अनिता में बिन्तो की जान बसती थी। वो थी ही इतनी प्यारी।

भोली, गोल-मटोल न किसी से लड़ती न झगड़ती।

हरियाणा में सिरसा से लगभग पन्द्रह किलोमीटर दूर पनीला नाम के गाँव में इंटर तक का स्कूल। उसी स्कूल में बलबीर टीचरी करता। कुछेक अच्छे खाते-पीते घर के बच्चों का ट्यूशन लेने साइकिल पर कई किलोमीटर चल कर जाता, नतीजा ये कि सुबह छः बजे से रात के आठ बजे तक काम करता तब भी घर में सिवाय दाल-रोटी के अधिक कुछ नही जुड़ा पाता था।

अनाज की कमी न थी परन्तु मन चाहा नहीं, बस जो सस्ते में मिल गया फसल कटते समय भर लेता, चना कटा तो चना, मूंग तो मूंग।

“अब खाते रहो दिन रात ये ही दो दाल सारा साल“

उसे उसके घर के सदस्यों की भुनभुनाहट सुनाई पड़ती परन्तु वो क्या करता ?

मौसम की सब्जियां लाता था परन्तु वहाँ भी वो ही हाल लौकी के मौसम में लौकी तो मूली के मौसम में मूली !

‘आज कल मूली तो सूअर भी नही खाते...“

परिवार असंतुष्ट रहता परन्तु उन सबके बीच कुछ तो था जो उन्हें एक अदृश्य डोर में बाँधे रखता था। और वो था बलबीर का दिल तोड़ मेहनत का जज़्बा, उसका निस्वार्थ व्यवहार, उसका गृहस्थी के प्रति समर्पण, माँ के प्रति आदर, पत्नी के प्रति स्नेह व कृतज्ञता और अपनी बच्चियों के प्रति ढेर सारा प्यार-दुलार। अपने लिए उसे कुछ नही चाहिए था, न कपड़ा न लत्ता। औरों की तरह वह बीड़ी-सिगरेट या शराब को हाथ भी नही लगाता था। अपने मुख का कौर दूसरे के मुख में डालने को सदा बढ़ता उसका हाथ देख कर भुन-भुनाहट करती आवाज़ों  के स्वर मद्धम पड़जाते थे।

पनीला गाँव के आस पास भीतर-भीतर और भी अन्य छोटे-छोटे गाँव थे, जहाँ से बच्चे स्कूल आते थे गंदे कीचड़ सनी कच्ची फूटी टूटी सड़कें जिन पर चार पैर वाले सूअर, कुत्ते और उनके बच्चे दो पैर वाले नंगे बच्चे, जिनका रंग ढंग एक सा दीखता था साथ-साथ पलते थे। पलते नहीं साँस लेते थे या यूँ कहिए मरते नहीं थे, मरते भी थे बस जो बच जाते वो ही नज़र आते थे।

कई गाँव के बच्चे पनीला में आते थे साल में दो यूनिफॉर्म मिलती थी,दोपहर में नाश्ता ! यद्यपि नाश्ता व यूनीफ़ॉर्म पहले नहीं था किन्तु स्कूलों में अधिक बच्चे आएं इस कारण कुछ वर्षों से सरकार ने ग्रांट देनी प्रारंभ कर दी थी साथ ही साथ सरकारी दखलअंदाजी के चलते स्कूलों के काम काज में फर्क पड़ने लगा था। बिन्तो के पिता अफ़सोस जताते थे;

“सरकार ने जबसे अपना हस्तक्षेप करना शुरू किया है तब से स्कूलों का सत्यानाश पिट गया है। सब पैसा लूटने में लगे है, आये दिन नियुक्तियों में भाई-भतीजावाद पलने लगा है, सिफारिशों पर तबादले करवाए जाते है,गुणवत्ता गौण हो गई है।“

वे स्वयं कर्मठ व ईमानदार व्यक्ति थे तभी तो दरिद्र थे। कहते है;

‘लक्ष्मी व सरस्वती माता एक घर में नही ठहरतीं ‘कुछ छात्र छात्राएं वास्तव में यूनीफॉर्म व नाश्ते के प्रलोभन में आ गए थे, यद्यपि कुछ गिने चुने-छात्र छात्राएँ तथा उनके माता-पिता शिक्षा प्राप्ति को स्कूल का मूल कारण मानते थे। सरकारी नाश्ता अक्सर तीन चौथाई पहले ही अनुदान देने वालों के घर पहुँच जाता था बचे हुए एक चौथाई में पानी मिला कर दलिया आदि बच्चों को दे दिया जाता था। कभी फल मिलता तो कभी चबाना, जिसमे से चना गायब और मुरमुरे अधिक होते थे। हाँ जब कभी इन्स्पैक्टर ऑफ स्कूल आती थी तब बच्चो की चाँदी हो जाती थी स्कूल में उत्सव का सा मौहौल होता।

स्कूल के रजिस्टर में 300 बच्चो के नाम होते परन्तु वास्तविकता ये कि सिर्फ 150/200 बच्चे आते थे अब मैडम के सामने 300 बच्चे दिखाने के घर घर जा कर सब बच्चों को एकत्रित किया जाता, छोटी बड़ी यूनीफोर्म पहना दी जाती और मैडम महोदया जब कहतीं;

“अरे यह इतना छोटा बच्चा दूसरी क्लास में कैसे पढ़ रहा है इसको तो अभी चलना भी नही आता, और ये बैल का बैल क्या पांचवी क्लास का छात्र है ?”

तो, “मैडम ऐसा है.... वैसा है...“ करके उन्हें प्रिंसिपल के कमरे में ले जाकर मैडम की खातिरदारी की जाती, अलमारी का ताला खोल कर रूपये की गड्डी मैडम को भेंट दी जाती और मैडम स्कूल की रिपोर्ट“ स्कूल बढ़िया चल रहा है स्कूल में 350 बच्चे तथा 40 टीचर छह चपरासी हैं। अनुदान की राशि बढ़ा देने की सिफारिशी रिपोर्ट लिख जाने के बाद मैडम सरकारी वाहन में बिदा हो जातीं। बलबीर और प्रिंसिपल कभी कभी फाइलों पर दस्तखत कराने शहर जाते थे, वहाँ शहर में मैडम ने बढ़िया कोठी बनवाली थी अपनी खुद की कार थी उनके बच्चे शहर के सबसे महंगे इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ रहे थे।

अधकचरे घर, पानी के नल पर बाल्टियों का जमघट, खुले सीवेज और प्लास्टर हीन दुकानों व घरों की दीवारों पर चिपके वोट मांगते पोस्टर ! अक्सर बलबीर कहता;

“अंग्रेज़ों के ज़माने में गाँवों का हाल बढ़िया था। सब कुछ तरकीब से होता था। पीने के पानी के कूएँ थे। सड़कें कच्ची थीं परन्तु रोज झाड़ू लगती थी। खुली नालियों की भी रोज सफ़ाई होती थी।“

“अच्छा ! नालियों की सफाई... पर बापू जी, अब तो नालियाँ बड़ी गंदी पड़ी रहती हैं।”

बलबीर का सबसे प्रिय विषय था अपने ज़माने के दिन याद करना ! वो कहता;

“पता है, पहले गधा लेकर भंगी आता था गधे के ऊपर, फिर भिश्ती आता था जो पानी डालता और भंगी नाली धोता था।“

सब बच्चे आश्चर्य पूर्वक सुनते...

“और सड़क के किनारे सारी की सारी लाइटें जलाईं  जाती थीं, रोज लैम्पों की सफाई होती, रोज रात को मशाल से लैम्प चलाये जाते थे। पोस्ट ऑफिस था, डाकिया था,पोस्टमास्टर साहब अपने पोस्ट ऑफिस में बागीचा लगाते थे। गाँव के चारों कोनों पे चार तालाब थे। सारा बरसात का पानी उन तालाबों में इकठा हो जाता था। फलों के बागीचे थे। बाज़ार था, दुकानें थीं। पीठ/हाट लगती थी और पता है सिनेमा भी आता था। जिसे देखने पूरा गाँव जाता था। और रामलीला की रौनक तो बस देखते ही बनती थी। हिंदू और मुसलमानों में झगड़े नही होते थे।” एक गहरी साँस छोड़ते हुए वे कहते ;

“आजादी के बाद सब चौपट हो गया। कुछेक बरस ठीक चला फिर चरमरा गया और अब तो सारी व्यवस्था सिर्फ फाइलों में है। कागज़ों में है, सब वेतन पाते है परन्तु काम कोई नही करता।”

“अब तो सिर्फ एक चीज़ मायने रखती है और वो है इलेक्शन, इलेक्शन का मौसम आते ही हड़कंप मच जाता है।“ कभी कभी बलबीर की पत्नी किरणों चर्चा में भाग लेने लगती थी।

इस प्रकार की पारिवारिक महफ़िल लगती थी गर्मियों की सांझ को। बिन्तो को ये पारिवारिक मीटिंग बड़ी भली लगती थी बावजूद इसके कि बहुत सी भौतिक वस्तुओं का अभाव था किन्तु ऐसे क्षण उन्हें गुड़ सी मीठी खुशी दे जाते थे। ताज़े गुड सा !

 “कोई तो है जो हमारे सामने हाथ जोड़े खडा है !”

“कोई तो है जिसे हमारी जरूरत है“

“कोई तो है जो हमसे भीख मांग रहा है”

“हर पांच साल बाद इलेक्शन के टेम सब म्हारी सुध लेने पहुँच जावे हैं। ”दादी का मत था।

 इतने बरस हो गए आज तक गाँव में बिजली है, न पीने का पानी ! इस बार आप हमारी पार्टी को वोट दीजिए देखिये हम आपके गाँव को सिंगापुर बना देंगे “ माइक लिए रिक्शा में किसी पार्टी ने बरसाती मेंढकी मल्हार गाना शुरू किया।

“सिंगापुर के है भाया ?” किसी ने पूछा।

“होगा कहीं दिल्ली के पास अमीरों का इलाका जहाँ बिजली पानी होगा “किसी ज्ञानवान ने ज्ञान बघारा।

“कितने शर्म की बात है कि आपने पिछले इलेक्शन में जिस पार्टी को जिताया उसका एम. एल ए, उसका नेता करोड़ों में खेल रहा है, पढ़िए उसका कच्चा चिठ्ठा “ माइक पर भोपू लिए कुछ लड़के सड़क पर उतर कर

पर्चे बांटने लगे।

“ताऊ इस बेर या निसान पर मोहर लगाइये“।

“अरी ताई किन्घे जा रही है इब पानी के मारे भटकना को न पड़ेगो, बस मोहर इस निसान पे मार दियो”

गाँव वाले उनकी हाँ में हाँ मिला के चलते बनते, बच्चे रिक्शा में सवारी करते और पोस्टर फाड़ कर अपने घर ले जाते। 

वोट का अधिकार या वोट का हथियार, लगता है जिसको देश का सबसे बड़ामन्त्र होना चाहिए था वो भस्मासुर बनके देश को लील गया है। गरीबी हटाते हटाते नेतागण इतने अमीर हो गए कि बेचारों को गरीबी तलाशने चुनावी मौसम में देश के अंदरूनी इलाको में ढँूढना पड़ता है। खाते पीते लाल स्वस्थ चेहरे, तंदरुस्त काया, छक्क सफ़ेद वस्त्र, महंगी बड़ी गाडियां, पीने का मिनरल वाटर लिए जब वे मिटटी से लथपथ गाँव मार्ग पर अपना काफिला फिराते है तो लगता है अंग्रेजी लाट साहब आये है, उन्हें कौतूहल वश घूरती निगाहें, उनसे डरे- डरे चेहरे, उनके बीच का फासला ज़मीन आसमान जैसा था। क्या अपने देश के है ? अपने जैसे रंग के है ?

इसी मिटटी के है ? वे विदेशी नही है ? संदेह होता है संदेह ही नही विश्वास होने लगा है। ये वोट मांगते नेता मांग नही रहे सिहाँसन पर बैठने की जुगत लगा रहे होते थे।

बिन्तो का पूरा नाम बिनीता था परन्तु उसे कोई बिनीता नही पुकारता, इससे पहले कि उसका पूरा नाम ले वो सर्र से उड़ जाती थी। आठ बरस की बिन्तो को उस बरस का वोटरी मौसम कभी नही भूला,

अनिता छह और सुनीता चार बरस की। स्कूल में वोट पड़नी थी अतःस्कूलों की छुट्टियाँ हो गईं थी। बलबीर की  ड्यूटी लगी थी वो बहुत व्यस्त रहता था। 

घर के आँगन में लगे नल के नीचे पर बैठी बिन्तो को देख कर माँ ने पुकार;

“सुबह नहा कर गई थी, इब के हो गया ?” ( गया) शब्द पर जोर डालतेहुए वो आगे बोली ;

नल में पानी नही है बाल्टी भरी धरी है, बर्बाद मत ना कर।”

अनमनी बिन्तो ने फ्राक ऊपर कर लोटे से ऊपर तक अपने पैर धोए। 

“गोबर में पड़ी या कीचड़ में गिर गई ?”

माँ दोपहर की नींद पूरी करके उठने की तैयारी में थी। 

बिन्तो को सारा दिन गाँव की गलियाँ नापने का काम लगा रहता था।  न तो उसे कोई काम कहता न वो करती;

“रहने दो बीवीजी हम कर देवेंगे।”

और वे कर भी देते थे, कोई बर्तन मांज जाता, कोई कपडे धो देता, कोई झाड़ू बुहारी कर देता, वख्त बेवख्त स्कूल से पहले तो कभी स्कूल के बाद।  सबसे छोटी अनिता के जन्म पश्चात माँ बहुत बीमार हो गई, बस मरते-मरते बची तब तो भगवाना रोटी भी बना देता था, बाजार से सौदा ले आता, बिन्तो को साइकिल पे बिठा के खूब सैर करवाता।  उसे कभी दूर बागीचे में ले जाता और पेड़ पर खूब ऊपर चढ़ जाता और झोली भर कच्ची खट्टी अमिया तोड़ कर बिन्तो के पास ढेर लगा देता और बिन्तो तुतलाती भाषा में उससे दम.... ( नमक)-कहे इससे पहले कि वो झट पैंट की जेब से अखबार के कागज़ में बंधी नमक की पुड़िया खोल कर उसके सामने परोस देता। बिन्तो का चेहरा खुशी से खिल उठता, जीभ चटकारे मारने लगती और वो मलमस्त  हो कर खट्टी खट्टी अमिया खाती रहती। गर्मियों की दोपहर के सन्नाटे में घर वाले दरवाज़ा बंद कर गहरी नींद में सोये होते, धूल भरी आँधियों की आशंका बनी रहती किन्तु बिन्तो चुपके से दरवाजा खोल कर भाग खड़ी होती। 

“देख मेरे पास क्या है?” पत्ते का दोना और उसमंे कच्ची इमली देखते ही बिन्तो उसे लेने को लपकती और परसुराम उसे गोद में उठा लेता।  गालों पे प्यार करता और बिन्तो जी भर के कच्ची इमली ‘अहा! कितनी खट्टी! कितनी मजेदार लगती थी उसकी जुबान को! संतरी रंग की मीठी गोलियाँ, डंडी पर चिपकी लाल सफ़ेद धारीदार लालीपॉप और उसे लपकते उसके अबोध हाथ-हाथों में लालीपॉप पकड़े उसकी उंगलियाँ चिपके कागज़ की परत खोलने में व्यस्त होते और खटिया पर पड़ा उसका बदन ! उसके मुड़े हुए घुटने, लाल झालरदार नई फ्राक के नीचे...जो उसे उन तीनों ने मिलकर ‘भेट‘ दी थी;

“म्हारी भी तो कुछ लागे है।  इसके जन्मदिन पे लाये हैं। “

“अहा ! कित्ता-कित्ता बड़ा घेरा है इसका !“ और वो गोल गोल घूमती रही। 

भगवाना ने गोद में उठा लिया। 

“नहीं,गोल-गोल घूमना है।  “

अच्छा-ले घूम ले “

मीठी-मीठी लालीपॉप और झालरदार ‘इत्त्ते-‘ बड़े घेर वाली फ्राक पाकर उसकी खुशी का ठिकाना न था, कितनी बड़ी रही होगी दो साल की ?, तीन बरस की?? चार वर्ष की ??? पाँच की ????? पता नही !!!!! उसकी आँखोंके सामने पत्ते के दोने पर रखी खट्टी मीठी इमली देते हाथ उसे गोदी में उठा लेते एक से दूसरे और दूसरे से तीसरे के हाथ ! वो हँसते-हँसते चली जाती। एक उसे नमक लगी इमली चटाता और दूसरा उसे खटिया पे लिटा देता,बिन्तो इमली के चटकारे मारती रहती और तीसरा हाथ उसे संतरे की सहर वाली गोली चटाता, गोली का मीठा स्वाद उसकी जीभ तर कर देता-

उसे क्या मालूम ? कितेक बरस की रही होगी जब उसने भगवाना को लात मारी;

“क्या कर रहा है मेरे ऊपर पानी क्यों डाला-? और वो गुस्से से उठ खडी हुई। 

“ले तेरी गोली“

उसे पहली बार मीठी गोली अच्छी न लगी थी। उस बरस पहली बार उसे कमर के नीचे हलचल महसूस हुई थी, उनकी लाई चीजों से दूर भागने का साहस जुटा पाई थी। फिर भी मन ललचा जाता और वो फिसल जाती, सिलसिला चल पड़ता। कितेक बरस की होगी ??? शायद सात की !!! जब उसने सहर से लाई चॉकलेट लेने को मना किया।  पहले कुछ मिनट हाथ में लिए देखती रही फिर कागज़ खोल कर खा ली, कभी-कभी, नही कई बार उसे बढ़िया चॉकलेट खाने को मिल जाती और कभी कभी दरबारा उसे साइकिल पर बैठा कर चॉकलेट  दिलवाने ले जाता लौटते समय;

“साइकिल की चैन टूट गई है। बैठ यहाँ-और उसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी खट्टी मिट्टी इमली का दौना उसे देता घास पर लिटा लेता और उसकी जीभ इमली चाट रही होती और...वो ! वो उसे चाटता !!!

कितेक बरस की रही होगी ???? शायद आठ की ! जब उसके जीभ के स्वाद बिखरने लगे और उसने उन स्वादों की तरफ से मुँह मोड़ लिया;

‘माँ को बताऊँ? ‘एक दिन जब दरबारा उसे पकड़ कर ले गया तब वो फ्रॉक संभालती-संभालती भाग खडी हुई थी।  पैरों में कुछ चिपक चिपक रहा था, बड़ा गंदा गंदा सा लगा और वो आँगन में भरी बाल्टी से लोटा। भर भर के अपना पैर धोने लगी। माँ ने डपटते हुए सख्ती से पूछा;

“क्या हुया कहाँ गंदगी में लोट के आई है?“

बिन्तो ने घूर कर माँ को देखा और बिना कुछ बोले, बरामदे में बैठ कर गिट्टे खेलने लगी। 

 “इसने के हुआ ? यो तो आज घर का सांकल बांधे बैठी है ?” दादी के आश्चर्य का ठिकाना नहीं था। 

“सारे बर्तन माँज, दिये कपड़े धो दिये, आँगन लीप दिया और दाल रोटी बना दी !”

“ माँ की कमर दबा,दादी के पैर दबा रात को बापू के लिए गरम दूध लेकर गयी और, पढ़ने बैठ गई !?“

बिंतों से बिनीता में तदबीली देख सबने दातों तले अंगुली दबा ली थी। अब वो कभी घर के बाहर नहीं जाती, जाती तो सिर्फ बापू के साथ और सुनीता, अनीता को अपनी आँखों से ओंझल नहीं होने देती।

“जिज्जी घर की संकल लगाए रखे हैं,जैसे घर के बाहर भेड़िया हो। ’अनीता दादी से बोली,

”टूटा दरवाजा है, कोई ज़ोर से ढकेलेगा तो टूट के गिर जावेगा।“ बिनीता माँ की देखभाल करती, छोटी बहनो को नहलाती साफ़ कपड़े पहनाती और पढ़ाती। रात को बापू से पाठ समझती, किसी की मजाल थी कि स्कूल का कोई चपरासी किसी कारणवश, बहाने से, घर के भीतर पैर भी न रख सके !

बिनीता सीधी चलती गई, खेलने खाने की उम्र में प्रौढ़ा स्त्री बन गई। उसके चेहरे पर उदासी के बादल और आँखें खाली खाली, रेगिस्तानी रेत सी शुष्क रहती, किसी बात पर नहीं हँसती। जी तोड़ मेहनत करती। बस एक खास बात देखने में आती, दरवाज़े के पास एक कंटीली झाड़ी का डंडा टिकाकर रखती जैसे वो उस जीर्ण शीर्ण घर की पहरेदार हो !

“आज़ घर नहीं  जाना हैं?” कीर्ति ने देखा कि मैडम नें न खाना खाना खाया न पानी पिया, टकटकी लगाए पत्थर बनी लैपटॉप खोले बैठी हैं। कीर्ति  ने कई बार आवाज़ दी, फिर कंधे को हल्के से छुआ। कोई हरकत नहीं, वह घबरा गई उसने ज़ोर से पुकारा,

”बिनीता मैडम, मैडम“, लाइब्रेरी में कुछ विद्यार्थी किताबें लौटाने के लिए लाईन में खड़े थे। कीर्ति नें झटपट किताबें वापिस लीं, हॉल खाली हो गया था। कीर्ति नें ज़ोर से कन्धा हिलाया और पुकारा, 

“मैडम, मैडम बिनीता मैडम, क्या हुआ?”

विस्फारित आँखों ने प्रश्न पूछा “क्या हुआ?”

“आपको क्या हुआ, तबीयत ठीक नहीं है ?”

अचानक हेड लाइब्रेरियन बिनीता खत्तर उठ खड़ी हुयी और बुदबुदाई,

“मेरा नाम तराना बर्क है।“

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कहानी

डॉ. प्रणव भारती, अहमदाबाद, मो. 9940516484

चाँद की किरचें

बरसों पहले की याद उसे कुछ ऐसे आने लगी जैसे कोई गड़गड़ाता बड़ा सा बादल का भयंकर शोर मचाता टुकड़ा मन के आँगन में टूटने की तैयारी में हो। दो निस्तब्ध सूनी आँखों में न जाने क्या भरा था ? वेदना ? असहजता ? भय ? या किसी अनहोनी को सहने की तैयारी करती बेचारगी ?

वह जीवन के सत्य से परिचित थी, बड़ी शिद्द्त से स्वीकारती भी थी बहुत पहले से। किंतु सोचने और स्वीकारने में इतना बड़ा फर्क है जैसे समतल और पर्वत की ऊँचाई में! उसने ऐसे तो कभी सोचा ही नहीं था या ऐसे वह कभी सोच ही नहीं पाई थी या शायद मुख छिपा लेना किसी भी कष्ट का सामना करने से अधिक सरल उपाय है। 

कभी लगता है ये रहा सामने पर्वत.... अभी इसकी चोटी पर चढ़कर पताका फहरा देंगे लेकिन जैसे-जैसे मोड़ों से गुज़रती चलती है जिंदगी, वैसे-वैसे मन की सीढ़ी टूटने की कगार पर आकर बुरने लगती है। संभवतः ऊपर चढ़ने के प्रयास में साहस की ऑक्सीजन धोखा देने लगती है और बेहद भयंकर सुर में पगडंडी चीखने, चरमराने लगती है।  

सूनी आँखों से एकटक एक ही दिशा में घूरते हुए पलक झपकना भूल, न जाने कहाँ घूरती  रही वह। प्रश्न था वह थी कहाँ ? कौनसा अनजाना देश था ? कौन सा परिवेश था ? कौनसी ज़मीन थी ? और था कौन सा दयार  ? 

यह एक शाश्वत सत्य था जिससे वह जूझ रही थी,पहले भी जूझी है, कई औरों के लिए, आज स्वयं के लिए। इस दुनिया में जन्म लेने वाला हर आदमी जूझता है, वह कोई अनोखी नहीं। आदमी जूझता है, लड़खड़ाता है और फिर से टूटकर जुड़ने की कोशिश करता जुड़ ही जाता है, बेशक दिली ज़मीन पर जुड़ने की खरोंच ताउम्र साथ-साथ घिसटती रहें।   

पति-पत्नी का दोनों का एक साथ अस्पताल में दाखिल होना, एक की हिलती हुई जिस्म की दीवार का अचानक न जाने कौन से सीमेंट से जुड़ जाना और जो ताउम्र हँसता, खिलखिलाता रहा हो जिसकी जिस्मानी दीवार से लोग ईर्ष्या करते हों! उसका अचानक ढह जाना --!!

न, इसमें उम्र की बात बीच में नहीं आती। इसमें बात है समय की ! यह समय ही तो  है जो न जाने आदमी को कहाँ से कहाँ खींच लाता है! अच्छा-भला खिलखिलाता आदमी मिनटों में न जाने कौन-सी दुनिया का वासी बन जाता है। 

जब उसे अस्पताल से घर ले जाने की छुट्टी दे दी गई और दे क्या दी गई डॉक्टर्स उसकी बेटी को कई दिनों से उसे घर ले जाने की बात कर रहे थे। उन महाकाय मशीनों को देखकर वह उलझन में थी, कैसे छोड़कर जाए एक साँस लेते हुए आदमी को ? एक ऐसे जिस्म को, मन को... जिसके साथ उसने जीवन का सभी कुछ तो साँझा किया था। 

उसे समझ आना ही था कि कुछ असमान्य तो है ही लेकिन मौत कहाँ असमान्य है ? जैसे जन्मती है, वैसे ही मृत भी हो जाती है। जानती थी उसका वहाँ से ले जाना दरसल उसको धोखे में रखने के लिए था लेकिन कितने दिनों के लिए ? यह कुछ पक्का न था।  शायद उसके खुद के शरीर  की हिफाजत के लिए डॉक्टर्स उसे उस वातावरण से बाहर निकालना चाहते थे।

वह गूँगी हो गई थी, शिथिल भी। मुख पर शायद कोई गोंद, या शायद फैवीकोल जैसी चीज चिपकाना जरूरी था। हाय-तौबा मचाने से कुछ हासिल कहाँ होने वाला था ? ऐसे ही थोड़े ही कहा जाता है।

वही होता है जो मंजूरे-खुदा होता है....अब खुद को तीसमारखाँ समझें तो बेशक समझते रहें। 

उसकी कगार ढह गई थी और वह बरसों पीछे किसी अनजान देश की धरती पर जा खड़ी हुई थी जो उसके सामने आज भी कुछ यूँ  ही बोलती सी लगने लगी थी। और पल भर में चाँद के टूटने की खबर आ गई थी। 

वह निस्पंद थी, निर्विकार भी! वह कोई साध्वी नहीं थी, आम इंसान थी, सारे अँधेरे-उजालों के बीच से गुज़रने वाला एक आम इंसान! जिसे इस घड़ी में भी वर्षों पूर्व की याद ने किसी और शिला पर घसीटकर पटक दिया था जैसे कोई धोबी जोर-जोर से मोटे, ढीठ कपड़ों को नदी किनारे पटक-पटककर नहीं धो देता? कुछ ऐसे ही ! लेकिन कपड़ा फट जाता है कभी-कभी, साफ ही नहीं होता। उसे नहीं पता, वह कितनी मैली थी, कितनी साफ!! किंतु वह भीतर से चीथड़े-चीथड़े हुई जा रही थी। बिना दम का ऐसा कपड़ा जो जरा सा हाथ लगते ही कत्तर बन सकता था।         

आज अचानक उसे क्यों याद हो आया वह दिन जब अपने अस्तित्व से बेखबर कोने में जमीन के एक टुकड़े पर बैठी वह जैसे किसी अनजान लोक में थी। आँधियों की आवाज को दूर से अपने पास आते हुए सुनती हुई, एक अजीब सी स्थिति में अपने ही दिल की धड़कन सुनती हुई। जैसे कभी  कोई धौंकनी शोर मचाने लगे या फिर अचानक नीरव स्तब्धता दिमाग की नसों को चीरती हुई गुज़रने लगे।  

पल भर में अस्तित्व के टुकड़े होते देखता है मन! भीगी बारिशों से निकलकर सूखे की निस्तब्ध चपेट में आ बिसुरना बड़ी आम बात है जैसे.....!

‘‘ये, थोड़ी सी कॉफी पी लीजिए...‘‘ सामने सुहास था। 

‘‘टेक इट इजी.... प्लीज... हैव सम सिप....‘‘ 

उसने सुहास के हाथ से डिस्पोजेबल ग्लास पकड़ लिया। उस दिन उसके हाथ काँप भी नहीं  रहे थे। दो-चार घूँट में ही उसने कॉफी हलक के नीचे उतार ली, पाँचवी मंज़िल पर नीचे से आते-आते कॉफी पानी हो गई थी। 

सुहास को महसूस हो गया शायद वह कोई पूजा-सी कर रही थी मन ही मन लेकिन वह जानती थी, उसके मन में बोले जाने वाले श्लोक एक दूसरे में गड्डमड्ड होकर कुछ और ही बन  रहे थे, अर्थहीन! 

कहते हैं, श्लोक व मंत्रों का पाठ शुद्ध होना चाहिए,उसने मुख में जपने वाले मंत्रों या श्लोकों पर एक विराम लगाने का व्यर्थ सा प्रयत्न किया और महसूसा कि मुख में तो नहीं, मस्तिष्क में कुछ वैसी ही कैसेट सी चल रही थी जिसका बजना बंद ही नहीं हो रहा था। 

प्रेम, उसका देवर आई.सी.यू में था और वह उसकी कुशलता के लिए कुछ पाठ करना चाहती थी लेकिन घबराहट या उत्सुकता या यों कहें कि घबराहट भरी बेचैनी उसे कुछ भी करने नहीं दे रही थी। उसकी देवरानी भी साथ ही थी लेकिन अपनी ननद के साथ वह उसको उस ‘सूट‘ में छोड़ आई थी जो उन्होंने वहाँ ठहरने के लिए लिया था।

ननद के बेटे सुहास के साथ वह अस्पताल में थी, उसे परिवार में सबसे बहादुर समझा जाता था लेकिन इस तथ्य से केवल उसके पति ही परिचित थे कि कोई भी अनहोनी घटना के बारे में सुनकर उनकी पत्नी सबसे पहले ‘वॉशरुम‘ भागती थी फिर कहीं वह पूरी बात सुन,समझ पाती थी। हाँ,रक्तदान में वह सबसे आगे थी। जहाँ किसीको रक्त देना होता, वह किसी भी परिस्थिति में वहाँ पहुँचने का प्रयास अवश्य करती। कल, यहाँ भी ‘ब्लड डोनेट‘ करके आज इस कोने में बैठी थी, उस अँधियारी, भयभीत कर देने वाली रात में ! जबकि उसकी ननद और देवरानी मारे घबराहट के काँपती रह गईं थी और उनका रक्त लेने की मनाही हो गई थी।      

बेचारा सुहास बोर होने लगा तो डस्टबिन के पास जाकर सिगरेट पीने लगा, उसकी ओर से चेहरा घुमाकर! उससे कुछ वर्ष ही छोटा था लेकिन रिश्ते में तो उसका बेटा ही था। खिड़की के स्लाइडिंग शीशे को खोलकर उसने रात के अँधेरे में कुछ खोजने की कोशिश भी की, शायद कोई किरण ! मगर घुप्प अँधेरे में उसे काले बादलों के मंडराते गोल छल्लों के अतिरिक्त कुछ भी न दिखाई दिया। उसने देखा, सुहास उस बड़े हॉल से खुले स्थान में चहलकदमी करने लगा था।

अचानक उसकी दृष्टि उस हॉल के दरवाजे पर गई जो आई.सी.यू  की लॉबी में से बाहर की ओर खुलता था। कोई लंबी, खूबसूरत मद्रासी सभ्रांत युवा महिला उस दरवाजे को ठेलकर अपने आँसू पोंछते हुए उसके सामने से गुजरते हुए सामने दूरी पर बने ‘वॉशरुम‘ की ओर जा रही थी। 

उसका दिल धड़कने लगा, शिथिल पैरों से खड़ी होकर वह भी वाशरुम की ओर बढ़ी। कितनी सुंदर और युवा थी वह महिला ! वॉशबेसिन पर आईने के सामने खड़ी वह अपने चेहरे पर चुल्लू से पानी के छींटे उछाल रही थी किन्तु आँसू थे कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। गोरी-चिट्टी होने के साथ ही उसके चेहरे की प्राकृतिक ललाई ने उसे यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया कि काश्मीर की खूबसूरती का ठहराव उसके चेहरे पर कैसे होगा ? क्षण भर के लिए वह अपने देवर के बारे में सोचना भूल गई। 

‘‘क्या हुआ?‘‘ उस अजनबी से पूछे बिना उससे रहा नहीं गया। 

वह चुप बनी रही, उस रोती हुई खूबसूरत महिला की सुबकियाँ और तेज हो गईं थीं और वह अपने आपको बेहद पस्त महसूस करने लगी थी। कैसे रोके उसकी खूबसूरत आँखों से फिसलते आँसुओं को? वह एकदम अजनबी थी और उसे लग रहा था कि वह युवा स्त्री अकेली है। 

‘‘क्यों परेशान हैं आप?‘‘ उससे फिर न रहा गया। 

‘‘माय हज़्बेंड इज डाईंग एन्ड दे से ही इज सर्वाइविंग... आइ नो- ही इज फाइटिंग...‘‘ कहकर वह उसका मुख ऐसे ही आश्चर्य में खुला छोड़कर तेजी से वॉशरुम से बाहर निकल गई,तब उसे याद आया था कि वह भी तो उसी ही स्थिति में थी।

उस दिन सुहास ने उससे पूछा भी था कि क्या बात है ? और यह भी कि क्या हम उस अकेली स्त्री की कोई सहायता कर सकते हैं ? लेकिन वह मौन बनी रही थी। उसने अपने देवर को मोटी पाईपों के घेरे में देखा था और उसका मन तेजी से धक-धक कर रहा था। 

कुछ ही देर बाद उस स्त्री को एक सफेद कपड़ा ढके स्ट्रेचर के साथ अपने सामने से गुज़रते देखा था जिसे अस्पताल के दो सफेदपोश कर्मचारी उस हॉलनुमा कमरे से बाहर ले जा रहे थे। स्त्री सधे हुए पैरों से स्ट्रेचर के साथ चल रही थी, शायद वह अनहोनी की होनी स्वीकार चुकी थी। अब उसके बारे में बात करने का कोई औचित्य नहीं था। उसकी एक मुट्ठी कसकर बंद थी न जाने उसमें क्या  था ? शायद टूटा हुआ चाँद ! 

प्रेम को स्वस्थ्य, सकुशल घर लाकर सब बड़े प्रसन्न थे किन्तु वह उस स्त्री को बरसों नहीं भूल पाई थी। उसने किसी से ज़िक्र भी नहीं किया था, बस...कभी भी वह आकर उसकी स्मृति में ठिठक जाती थी जैसे कोई दरवाज़ा ठेलकर बाहर आए या शायद जैसे वह उस दिन आई.सी. यू का दरवाज़ा धकेलकर आई थी। 

समय-चक्र की इस घुमावदार पहाड़ी पर आज वह गुम सी होकर खड़ी थी। उसके हाथ ही नहीं, आज उसका सारा अस्तित्व ही बुरी तरह काँप रहा था। उसके लिए एक अलग सा दिन उग आया था। भीतर से टूटे पायदान पर खड़ी वह शायद भविष्य की दहलीज़ तलाशने का व्यर्थ-सा उपक्रम कर रही थी। आज उसे बरसों पुरानी घुप्प रात की वह युवा, खूबसूरत स्त्री फिर से क्यों याद आने लगी थी ?  शायद इसलिए कि आज उसकी भी मुट्ठी कसकर भिंची हुई थी। अचानक उसके हाथ में चाँद की किरचें चुभने लगीं थीं। 

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डॉ. पुष्पा मेहरा, दिल्ली, मो. 9873443661


कविता 

‘लेखनी तुम’  

कैसा समय अब आ गया  

रेत का समन्दर यहाँ 

हर दिलों में बह रहा

इंसान के संग-संग 

ईमान भी अब बिक रहा।

दया, ममता, नेह श्रद्धा 

तुल रहे हैं अब यहाँ 

आतंक के बबूल घने 

उग रहे हैं अब यहाँ।

मन की क्यारी में भ्रमर दल

अब कहीं मँडराते नहीं 

मदमस्त झोंके हवा के 

विषधरों से बच पाते नहीं।

स्वार्थ के बादल घनेरे छा रहे 

कपट के खड्ड गहराते जा रहे 

मन की कोमल क्यारियों में 

बारूद अब फटने लगा 

रक्त रंजित भूमि कण 

फफक-फफक कर रो रहा

आके कोई आँसू सहेजे 

ऐसा समय अब है कहाँ !

कंटकों के झाड़ में 

फँसा है सारा नेह बंद 

भावना के दुश्मनों ने

लूटा है सारा मलय वन 

रोशनी के दीप मद्धम हो रहे 

खंजर घृणा के और पैने हो रहे  

साया भी अब साया से

घबराने लगा रंग दहशत का

और गहराने लगा।

आँखों से आँखें भी 

आँखें चुराने लग गईं

दोस्ती का हाथ अब 

कोई बढाए किस तरह !

लेखनी ! तुमसे गुज़ारिश है 

बस इतनी यही 

प्रेम की स्याही में 

डुबा के सारे वर्ण 

लिख दो कोई राग 

ऐसा मन हरण 

गाकर जिसे बरस पड़ें 

सम्वेदना के सघन घन। 


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कहानी

डॉ. सुधा श्रीवास्तव, अहमदाबाद, मो. 9426300006


कंकड़ों का पहाड़


कार रोक कर मैंने उसे पुकारा, ‘‘कहाँ जा रही है बन-ठन के? आ तुझे छोड़ दें।’’

वह स्टॉप पर खड़ी-खड़ी मशीनी ढंग से लाल पर्स कंधे पर झुलाते हुए लगभग चिल्लाकर बोली, ‘‘न, तू जा, मैं कोई बस की राह थोड़े ही देख रही हैं।’’

आँखों में गहरा आश्चर्य ताड़ वह नज़दीक आकर फुसफुसाई, ‘‘कुत्ते से मिलने जा रही हूँ। ‘‘...कुत्ते पालने का शौक तुझे कब से हुआ?’’

होंठों को तिरछा करके उसने मुस्कराने की कोशिश की। ‘‘अभी-अभी हाल ही में।’’ मुझे निश्चिंत रुका देख अचानक वह झुंझला पड़ी, ‘‘ट्वाय डाग्ज़ नहीं, अलसेशियन कुत्ते!’’ फिर कुछ चुप रहकर बोली, “क्यों परेशान कर रही है? अभी जा न, फिर बात करूँगी।’’ मैंने तेज़ी से गाड़ी भगा ली बिना उसकी ओर देखे हुए।

श्यामली को मैं पिछले सात वर्षों से जानती हूँ। अच्छी-खासी सीधी-सादी लड़की थी। दो वर्ष के अंतराल में इसे क्या हो गया है? कैसी सस्ती-सी लग रही थी-कॉलगर्ल जैसी। लाल रंग के सूट के साथ लाल पर्स, होंठों पर सुर्ख लाल रंग की लिपस्टिक, चमकती नकली ज्वैलरी, तेज़ सस्ता सेंट, मेरा मन अनेक शंका-कुशंकाओं से घिर गया था-कहीं पैर भटक तो नहीं गए। पढ़ी-लिखी मुखर-निडर लड़की को क्या हो गया? ध्यान आया, दो वर्ष पूर्व उसका विवाह हो गया था। तो क्या यह कुसंस्कार दूल्हें मियाँ की रुचि थी। पोर्च से थोड़ा बाहर आकर जोरदार ब्रेक के साथ गाड़ी रुक गई। घर आ गया था और मैं तेज़ स्पीड के साथ अहाते में घुस आई थी।

उन विचारों से मुक्ति पाने की चेष्टा करते हुए मैंने बेल बजा दी, दरवाजा बेला ने ही खोला, मैंने पूछा, ‘‘कहाँ है साब?’’

खाने की टेबल पर आपकी राह देख रहे हैं।’’ बगैर कपड़े बदले मैं टेबल पर पहुँच विवेक को प्रतीक्षा करते देख आत्मग्लानि से भर गई।

चेंज नहीं करोगी? ’’विवेक का स्वर सहज था। 

बाद में कर लूँगी, तुम कब से राह देख रहे होंगे, पहले खा ही लेते हैं।’’

‘‘ओह नो! पहले चेंज करो, फिर हाथ-मुँह धोकर फ्रेश होकर बैठो, खाना कौन-सा भागा जा रहा है। काम से लौटी हो, कहीं मौज़ उड़ाने तो गई नहीं थी, मुझे जल्दी नहीं है।’’

मैंने एक तृप्तिभरी दृष्टि उन पर फेंकी और चल दी, कितने अच्छे हैं ये, कितने उदार। नहीं...नहीं, उदार नहीं, कितने सहज ढंग से जिंदगी की बारीकियों को समझने वाले। इन्हें कैसे पता लगा कि देर से आने के लिए मैं लज्जित हूँ। मुझे लज्जित होना पड़े, ऐसा कोई अवसर वह नहीं आने देते।

हाथ-मुँह धो कपड़े बदल मैं बाहर आ गई। हल्का महसूस करने लगी। कुर्सी पर बैठते ही मैं बोली, “आज रेवती नहीं आया था। उसका भी काम आ पड़ा, निबटाते-निबटाते देर हो गई। खा लेते तुम।

‘‘क्यों, क्या मैं तुम्हारी प्रतीक्षा नहीं कर सकता? यह प्रतीक्षा क्या तुम्हारी ही ज़िम्मेदारी है।’’ अंदर से मैं भीग-भीग गई।

‘‘नहीं, ये बात नहीं। तुम्हें समय से खाने की आदत है न, उसे निभाना...” वाक्य अधूरा ही छोड़ा था मैंने। ये रुचि ले-लेकर खाते रहे। खाना अच्छा नहीं बना था। अकेली बेला ने ही जैसा-तैसा बना दिया था। प्रायः ही ऐसा होता है कि रसोईघर में झाँकने तक का अवसर नहीं मिलता। पर कैसा भी खाना हो, ये इतनी रुचि से खाते हैं मानो व्यंजन परोस दिये गए हों। मैं इन्हें खाते देखती रही, अपनी जीभ को कोसती रही।

“तुम्हें श्यामली की याद है?” मैंने पूछा। 

‘‘हाँ, क्यों, अचानक उसका ख़याल कैसे आ गया।’’ 

‘‘उसका ब्याह हो गया था न!’’

‘‘हाँ, हो तो गया था। जहाँ तक मेरा ख़याल है, अच्छी ही जगह हुआ था। शायद किसी सरकारी अधिकारी के साथ।’’

‘‘श्यामली आज दिखी थी।’’ 

‘‘तुम्हें?’’

‘‘हाँ, पर विचित्र सस्ते भड़कीले ढंग से सजी थी। बाज़ारू औरत जैसी दिख रही थी।’’

‘‘व्हाटट नानसेंस ! श्यामली जैसी लड़की और बाज़ारू! तुम्हें कहीं भ्रम तो नहीं हुआ?’’ ‘‘नहीं जी, मैं बात करके आई हूँ, बस स्टॉप पर खड़ी थी। मैंने लिफ्ट देनी चाही वो साफ़ ‘न’ कर दी। बोली, एक कुत्ते से मिलने जा रही हूँ।’’

‘‘उसका पति तो सीधा-सादा आदमी था, कहीं उसका झगड़ा तो नहीं हुआ।’’ 

‘‘पता नहीं, पर वह पहले वाली श्यामली नहीं है।’’ 

मझे गंभीर होते देख वह बोले, ‘‘अच्छा अब बंद करो श्यामली की बात। कुछ अच्छी बातें करो, नहीं तो रात भर तुम श्यामली को लेकर जागोगी। ज़रा-ज़रा-सी बात के लिए मन पर बोझ डाल लेती हो। क्या लेना-देना है तुम्हें उससे?’’ एक मीठी झिडकी मिली, अपनी ही चिंताएँ कौन-सी कम होती हैं, जो तुम दूसरों की चिंता लेकर बैठ जाती चलो, सोओ चलकर,’’ हम उठ पड़े।

जोर की घंटी बजी और दरवाजा खोलते ही आँधी की तरह श्यामली अंदर घुस आई और सोफे पर बैठकर हाँफने लगी। श्यामली से मिले तीन माह हो गए थे। मैं लगभग उसे भूल चुकी थी....

“सब साले कुत्ते हैं, हरामी के पिल्ले। उसके लिए मैंने क्या-क्या नहीं किया और वह हरामी का जाया मुकर गया!’’

...मैं उसकी भाषा सुनकर अवाक् रह गई। मैं अपने से ही पूछ रही थी कि क्या वह वही श्यामली है जिसके मुँह से शब्द मोती की तरह फिसलते थे। 

‘‘क्या समझता है साला अपने आपको! डेढ़ साल तक हड्डी चबाता रहा और काम का मौक़ा आया तो साला आनाकानी करने लगा। मैं भी उसका मुखौटा न उतारूँ तो मेरा भी नाम श्यामली नहीं।’’

“क्या हुआ है तुझे? कैसी भाषा बोलने लगी है तू?’’

‘‘इनके लिए बस यही भाषा रह गई है। सब साले हलकट हैं, सुन ले। एक नंबर के मक्कार-बदज़ात!’’ वह फट पड़ी।

‘‘कुछ कहेगी भी या गालियाँ ही देती रहेगी। शादी के बाद यही सीखा है तूने?’’ 

‘‘अरे। अगर वो ही इतना पानीदार होता तो इसकी नौबत ही काहे को आती। वह भी हलकट है, क्यों ख़ाली उस कुत्ते को दोष दूं।’’

‘‘बहुत हो गई गाली, अब कुछ साफ़-साफ़ कह, क्या हुआ?’’

“साफ़-साफ़ सब चलता हो, तो साफ़-साफ़ कहूँ। गंदगी और जलालत, गंदा और जलील करती है। शादी के बाद पहले इसने, ये जो मेरा खसम बना था, कहना शुरू किया....‘‘चाय पर बुलाओ, नाश्ता कराओ। फिर डिनर पर नौबत पहुँचा दी और फिर...’’

‘‘किसने किसको बुलवाया?’’ मैंने बीच में ही बाधा दी।

‘‘इन्होंने ही, अपने बॉस को और किसे? फिर वह साला घूमने-फिरने के लिए बोला। चलो, यह भी ठीक। उसने इनके जल्दी प्रमोशन का वायदा भी किया। मैं ख़ुश हो गई। मुझसे भी ज़्यादा तो ये ही चाहते थे।’’

‘‘पर तू इतना बदल कैसे गई, श्यामली। याद है कॉलेज की डिबेटों में तेरा स्वर कितना विद्रोही हुआ करता था, कितनी शांत, गंभीर रहती थी तू। तू मुझसे एक वर्ष जूनियर थी, फिर भी मैं तेरा आदर करती थी। सभी करते थे। शादी होते ही तुझे क्या हो गया?’’

‘‘पति बोदा हो तो...घमंडी हो तो...अपने तक ही सीमित रहने वाला हो तो...बेहद महत्त्वाकांक्षी हो तो....जिंदगी की परिभाषाएँ बदल जाती हैं। हम अपने अलग अस्तित्व को लेकर कहाँ तक, कब तक जी सकते हैं। मैं इनसे क़दम मिलाकर चलने की कोशिश में हमेशा गिरती रही नीचे, बहुत नीचे, तुम्हें मैं श्यामली लगती हूँ? सच, लगती हूँ श्यामली?’’ वह हिस्टीरिया के मरीज़ की तरह चीख़ पड़ी।

हाँ हो तो श्यामली ही, पर मुखौटा ओढ़े हुए हो। बहुत देर बाद तुमने अपनी भाषा बोली है, जिसकी मैं आदी थी। कहीं कुछ श्यामली का बचा तो है!’’ यह व्यंग्य नहीं था। सोचने और समझने की भाषा में उसे लौटते देखने का सुख था। उसने भी यह समझ लिया।

बोली, कुछ देर बाद कुछ शांत होकर, ‘‘होगा बचा...पर इस बचने से क्या होगा?’’ फिर धीरे-धीरे आवेग में आने लगी, “उसको कोई दूसरी छिनाल मिल गई है न। इसी से कन्नी काटने लगा।’’

‘‘किसे? तेरे पति ने कोई प्रेमिका रख ली है क्या?’’

“अरे, वह क्या रखेगा, उसके बॉस ने रख ली है। ऑफ़िस में एक नई लड़की आई है, उसी के पीछे पड़ गया है।’’

‘‘तो तुझे क्या? मरने दे उसको...” ।

‘‘कैसे मरने दूँ! डेढ़ बरस तक मेरे साथ रहा, इनके प्रमोशन का समय आया तो दूसरी के साथ घूमने लगा। अब क्या खाक इनका प्रमोशन होगा।’’

‘‘छिः श्यामली, तू इतना गिर गई है। पति के प्रमोशन के लिए इतना गर्हित काम! तू तो इतनी महत्त्वाकांक्षी न थी। शादी के बाद पैसे से, ओहदे से इतना प्यार?’’

वह चीख पड़ी, “मैं कहाँ थी महत्त्वाकांक्षी? कभी पाया था तूने मुझे ऐसा? दो कपड़ों में संतोष करने वाली और स्वाभिमान से जीने वाली...यही थी मैं। बस इतना ही चाहती थी मैं, बस इतना ही। सच में और कुछ नहीं। पर यह जो मेरा पति है न, बोदा भी है, महत्त्वाकांक्षी भी। सोचता था, हँसने-बोलने से ही काम बन जाएगा। होता है कहीं ऐसे काम? उसने मुझे तो चीर-फाड़ डाला ही, इनका प्रमोशन भी स्वप्न बन गया और आज...आज।’’

वह फूट-फूटकर रो पड़ी। हिचकियाँ बँध गईं। दौड़कर पानी लाई और सर पर हाथ फेरकर उसे शांत करती रही। वह जैसे-तैसे बोली, “और आज...आज मेरा सरताज मुझसे ही कहता है कि तुझे तो किसी को भी फाँसने के गट्स ही नहीं हैं। मुझे क्या बाँध के रखेगी? बात सिर्फ इतनी ही थी कि जब मैं उसके बॉस के साथ घूम-फिरकर लौटी तो डॉली इनके बेडरूम से निकल रही थी। डॉली इनके अंडर क्लर्क है। मैं इनके...सिर्फ़ इनके लिए इतना नीचे गिरी और ये मुझे ही...मुझे ही डॉली को लेकर, मुझे ही, श्यामली का हिचकियाँ बँध गईं।

मैं उसके सहज होने की प्रतीक्षा में मात्र उसके सर पर हाथ फेरती रही। अचानक ही वह उठकर खड़ी हो गई। उसके चेहरे की नसें तन गईं। एक दृढ़-निश्चय उसके चेहरे पर उभरा और विलीन हो गया।

‘‘मैं तुमसे फिर मिलूंगी।’’ कहती हुई, चप्पलें चटकाती वह तेज़ी से घर से बाहर हो गई। 

पंचतारक होटल में मैं इनके साथ बैठी थी। इनका ही निर्णय था कि आज जन्मदिन ये सिर्फ मेरे साथ ही मनाएँगे। कोई दोस्त या रिश्तेदार के साथ नहीं। बैरा केक सजाकर ले आया था। दो-चार फोटों के साथ इन्होंने केक काटी ही थी कि होटल में ‘‘हैप्पी बर्थ डे’’ की कैसेट बज उठी। स्वाभाविक ही कुछ आँखें इस ओर मुड़ गईं। एक जोड़ा इस ओर कौतुहल से घूर रहा था। लड़की ने फैंसी काली जींस के साथ ऊँची लाल भड़कीली टी-शर्ट पहन रखी थी, कुछ इस तरह कि कमर का शेप पुरे का पूरा उजागर हो रहा था। मेकअप भी भड़कीला था, पर उसमें सस्तापन नहीं था। अचानक वह उठी और हमारी टेबल के सामने खड़ी हो गई।

‘‘श्यामली ऽ ऽ ऽ’’ मैं लगभग चीख़-सी पड़ी। 

उसने होंठों पर उँगली रखकर मुझे शांत किया। लगभग छः माह बाद उसे इस रूप में देखकर मैं असमंजस में पड़ गई थी। 

‘‘हैप्पी बर्थ-डे टु यू।’’ कहती हुई उसने इन्हें नमस्कार किया और ‘‘इन्ज्वॉय योर-सेल्फ, फिर मिलूँगी।” कहती हुई वापस अपनी टेबल पर लौट गई। मैं आश्चर्यचकित उस ओर निहारती रही। एक स्मार्ट-सा प्रौढ़ उसकी प्रतीक्षा में बैठा था।

‘‘लगता है इसने दूसरी शादी कर ली है, लेकिन पति थोड़ा उम्र वाला लग रहा है। देखो उसे गौर से, है तो स्मार्ट, पर समझो बूढ़ा ही है।’’

ये बोले तो मैं इनकी ओर देखती ही रह गई। श्यामली से इन्हें भी सहानुभूति थी, पर ये किसी की पंचायत में पड़ते नहीं हैं।

बैरा ऑर्डर की प्रतीक्षा में खड़ा था। 

“खाना मँगाइए, उस ओर से ध्यान हटा लीजिए।’’

आज मुझे भी अपनी खुशी में उसका बाधक बनना अच्छा नहीं लगा। न चाहत हुए भी मन उसकी जिंदगी के उतार-चढ़ाव की ओर भागने लगा था।

रात ग्यारह बजे हम वापस लौटे तो चेंज करते ही एक-दूसरे की बाँहों में समा गए। नींद ने कब हमें आगोश में भर लिया, पता ही नहीं चला।

दोपहर तक काम निपटा कर मैं सोने की आदी हो गई थी। दो बजे बिस्तर और गहरी निद्रा में निमग्न हो गई।

घंटी की किर्र.... किर्र.... किर्र.... की आवाज़ से मैं झुंझला गई। कौन समय-असमय आ जाता है। तीन बजे किसी के घर आने का समय होता है क्या? झुंझलाती हुई बेमन से उठी और दरवाज़ा खोल दिया। 

‘‘आऊँ अंदर?’’ श्यामली खड़ी थी। शॉर्ट स्कर्ट-ब्लाउज, दो इंच ऊँची सैंडिल में बँधे पाँव, हाथ में बड़ा-सा पर्स, आँखों में कीमती गॉगल्स, हीरे के कर्णफूल और जड़ाऊ अंगुठियों में वह किसी मॉडल जैसी प्रतीत हो रही थी।

‘‘आ, आजा न! तेरे आने का समय तो बस यही होता है... चोरों वाला, जैसे कहीं सेंध लगाने निकली हो। शाम को नहीं आ सकती थी?’’

‘‘नहीं, तब ग्राहकों से डीलिंग होती रहती है।’’ 

‘‘क्या कोई बड़ा बिजनेस शुरू किया है?’’

‘‘हाँ!’’ वह ठठाकर हँस पड़ी, ‘‘बहुत बड़ा, सुनेगी तो मुझे घर से निकाल देगी।’’

मैं उसकी आँखों में चुपचाप देखती रही।

‘‘कितना बदल गई है तू, कभी जींस-टी शर्ट, कभी स्कर्ट-ब्लाउज! तू क्या मॉडलिंग करने लगी है?’’

‘‘मेरी जूती करे मॉडलिंग। मॉडल साली क्या कमाएगी इतना, जितना मैं अपने धंधे से कमा लेती हूँ।’’

‘‘क्या धंधा शुरू किया है तूने? तेरा पति और वह तेरे पति का बॉस, उनका क्या? तेरे धंधे में उनका भी योगदान है?’’

वह फिर ठठाकर हँस पड़ी, “उस हरामी को मैंने तलाक दे दिया और उसके कुत्ते को एक दिन दो-चार चप्पलें जमाकर घर से बाहर कर दिया। अरे! साला जब यही धंधा करना है, तो स्वतंत्र होकर क्यों न करूँ? पैसे क्यों न कमाऊँ? चार-चार दलाल हैं मेरे। एक से एक ग्राहक लाते हैं मेरे लिए। मेरे पास अपनी कार है, अपना शोफ़र है। ज़ेवर सब मैं हीरे के पहनती हूँ। मेरा हुलिया देख रही है न तू! सब बदल गया है। जिम में जाती हूँ, सोना बाथ लेती हूँ, मसाज कराती हूँ। अरे, जब शरीर से ही धंधा करना है तो उसे क्यों न सँवारूँ, क्यों न सहेजूँ। तू कभी रह सकती है मेरी तरह?’’ 

फिर फुसफसा के बोली, “एक से एक ग्राहक आते हैं मेरे पास। कभी तो कुछ इतने हॉट कि शरीर चूर-चूर हो जाता है। सच कहूँ, अब तो मुझे भी मज़ा आने लगा है। शरीर तुड़वाने की पूरी कीमत जो वसूलती हूँ। साला, अपना आदमी शरीर भी तोड़ता है, सेवा भी करवाता है। खाने-पीने में ज़रा भी कचास हो तो कुत्ते का पिल्ला आसमान सर पर उठा लेता है। यहाँ तो वही खिलाता-पिलाता है। फाइव-स्टार रूम का भाड़ा देता है। निश्चित रकम के अतिरिक्त भेंट-सौगात अलग।’’

“जब तक जवानी है, कर ले ये सब तू। कभी बुढ़ापा आएगा, तब?’’

इन्हीं में से कोई बूढ़ा पटा लूँगी।’’ वह अट्टहास कर उठी, “नहीं पटा तो अकेली रहूँगी। तब तक के लिए पैसे बहुत इकट्ठे हो जाएंगे। बुढ़ापे में भी कौन ख़्याल रखता है? पति? इस भरोसे न रहना। तब भी वह तुझसे ही सेवा करवाएगा। बच्चे? वह अपने ही सुख-दुख में डूबे रहेंगे। औरत को हमेशा अकेले ही रहना होता है। अकेले ही जीना हेाता है।  सो मैंने सीख लिया। इन हरामी भड़वों के नखरे क्यों उठाऊँ। हरामी साले कुत्ते के पिल्ले! मैं जा रही हूँ, अब नहीं आऊँगी। तेरी बदनामी होगी। तुझसे जाने क्यों प्यार है! तेरी बदनामी सहन नहीं कर सकती। पर तेरे पास आए बिना रहा भी नहीं जाता। बस लगता है, दुनिया में तू ही एक है, जो मुझे समझ सकती है, बस तू ही एक, बस तू ही एक।’’

अचानक वह भरभरा कर रो पड़ी। रोते-रोते उसकी हिचकियाँ बँध गई थीं, शरीर बुरी तरह हिल रहा था। जैसे कोई कंकड़ों का पहाड़ खिसक रहा हो और सूखी आवाजें आ रही हो...ठंडी बेलौस भारी भरभराई आवाजें, गालियों से भरी हुई-साला...कुत्ता...हरामी का पिल्ला...मैं नहीं छोडूंगी...नहीं छोडूंगी...नहीं...नहीं...साला...कुत्ता...हरा...

वह सोफे पर ही लुढ़क गई।

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कहानी

श्रमती निशा चंद्रा, अहमदाबाद, मो. 9662095464



तोता उड़

तोता उड़

चिड़िया उड़

मोर उड़

गाय उड़

अरे नासपीटीए इतनी बड़ी हो गयी है, और अभी तक गाय, 

गधे, तोते उड़ा रही है।

चलो तो फिर अम्मा उड़।

रतन ने अपने माथे पर हाथ मारा। उसके नैन सजल हो उठे। कैसे सम्भालेगी अपनी इस अर्ध-विक्षिप्त सोन परी को। दिमाग छः आना कम, रूप द्विगुणित। जैसे बिना दाग का चँदा-गोल, सुन्दर, शफ्फाक। इतना रूप कि आँखें चौंधिया जायें। जब दिमाग ऐसा दिया तो दाता चेहरा भी ऐसा ही दे देते। रंग ही काला होता या भैंगी ही होती...ये या...ये या खतम होने का नाम ही नहीं ले रहा। ऊपर से खुदा की मार दो साल पहले बाप भी मर गया। गरीबी इतनी कि एक समय खाओ तो दूसरी जून का पता नहीं। वाह रे दाता! तेरी लीला अपरम्पार, जिसे देता है छप्पर फाड़ के देता है।

किस सोच में पड़ गयी अम्मा, चल ना खेलते हैं। 

जिद ना कर मैना, मेरी तबियत ठीक ना है। 

क्या हुआ, क्या हुआ कहकर पगलिया जमीन पर दुहरी हो गयी।

अरे उठ बिटिया कुछ नहीं हुआ है, बस थोड़ा माथा दुःख रहा था।

तू मर तो नहीं जायेगी अम्मा ? ला तेरा माथा दबा दूँ। कहकर पगली ने उसका माथा इतनी जोर से दबाया कि रतन को लगा, उसकी दोनों आँखें टप्प से निकल कर बाहर आ जायेंगी।

अरी छोड़, मैं खुद ना मरूँगी पर तू मुझे मार ड़ालेगी। जा तेरे गाय और तोते को उड़ा रानी। अम्मा को सोने दे। पन्द्रह साल की रानी बिटिया फिर तोते उड़ाने में लग गयी। रतन हाथ .पैर ढ़ीले छोड़ कर भूमि पर ही पसर गयी। आँखों के कोरों से दो बूँदें निकल कर जमीन को सिक्त कर गयीं।

आज हलवाई के यहाँ बरतन माँजने भी नहीं जा पायेगी। नहीं जायेगी तो चूल्हा कैसे जलेगा। हलवाई उसे महीने के नहीं दिहाड़ी के पैसे देता है। काम करे और पैसे ले जाये। ये बड़ी बड़ी कड़ाही, कलछुल, परात माँज-माँज कर रतन के हाथों में छाले पड़ जाते हैं। हलवाई कभी-कभी पैसों के साथ उसके हाथ में बर्फी या इमरती रख देता है। छालों पर नज़र पड़ते ही बोल उठता है। तू कब तक पिसेगी रतन, अपनी बिटिया को भेज दिया कर। इतनी बेवकूफ ना है रतन। मक्कार की मक्कारी पहचानती है। मैना को दुनिया की बुरी नजरों से बचाकर रखा है उसने। काम पर जाती है तो ताले में बन्द कर के जाती है। घिसते-घिसते मिट्टी में मिल जायेगी पर अपने कलेजे के टुकड़े को मैला नहीं होने देगी।

अम्मा भूख लगी है, 

डिब्बे में से निकाल कर खा ले। इस मामले में निपुण है छोरी, डिब्बा खोल कर रोटी निकाल ली। एक कटोरी में नमक मिर्च में पानी मिलाकर चटनी जैसी बना ली। पानी के घूँट के साथ रोटी गटकती इतने सलीके से खा रही थी कि कोई अन्जान देखे तो कह ही नहीं सकता कि उसमें बुद्धि की थोड़ी कमी है। रतन का मन भर आया। ऐसे चाँद के टुकड़े का जनम तो महलों में होना चाहिए था। ऐसा रूप और ऐसे दरिद्र घर मे अवतार ऊपर से कुछ पागल। न जाने किन कर्मों का फल भुगतने आयी है छोरी।

दिन बीतते गये। रतन हलवाई के घर बरतन घिसती रही। मैना बंद दरवाजे में तोते उड़ाती रही। करती भी क्या, उसे तो बस एक यही खेल आता था। छोटी थी तब पास .... पड़ोस के बच्चों के साथ खेलते हुए सीख गयी थी। बड़ी हुई तो जैसी उसकी अवस्था थी, रतन ने उसे कभी बाहर नहीं जाने दिया।

दिन बदले, मौसम बदले, पत्तों का रंग हरा होने लगा, पलाश दहका उसके साथ ही मैना के गालों का रंग भी गुलाबी हो गया। अब तोते उड़ाने में उसे कुछ संकोच होने लगा। मैना खोई. खोई सी रहने लगी। रतन काम के बोझ तले कुछ समझ ना सकी। अर्ध-विक्षिप्त थी पर कामनाएं तो पागल ना थीं। वह तो मन में वैसे ही हिलोरें ले रहीं थीं जैसे किसी भी दूसरी लड़की के मन में लेती हैं।

पहले उसने कभी कमरे की खिड़की नहीं खोली थी, अब रतन के जाते ही मैना बाहर कुछ ढूँढने का प्रयास करती है। दूर एक छोटी सी चाय की रेकड़ी है। इतनी प्रसिद्ध कि बड़े-बड़े धनवान घरों के लड़के-लड़कियाँ भी वहाँ चाय पीने आते हैं और छोटे-छोटे स्टूल पर बैठे घंटों बतियाते रहते हैं। मैना कितनी ही देर तक उन्हें अपलक देखती रहती। किन्ही अबूझे पलों को वह ढूँढ रही थी। उसे तो वह ना मिला पर किसी की नजरों में वह अप्रतिम सौंदर्य बस गया। अब वह खिड़की खुलने का इन्तजार करता और उसे निहारता रहता। न जाने उसके कितने चित्रों में वह जीवन्त हो उठी।

रतन के घर से जाते ही कब उसके ताले की डुप्लीकेट चाभी बनी, कब मैना की देह को अनबूझे, अदभुत रहस्य का पता लगा, रतन इस विषय में कुछ ना जान सकी। बस इतना देखती थी कि अब उसकी सोनपरी तोते और गाय उड़ाने की जगह आईने में अपना अक्स देखकर लजाती रहती। 

‘‘अरे ओ लाजवन्ती, क्या निहार रही है। ‘‘तुझे शीशा देखने की जरूरत ना है। 

हैं! क्यों ना है, वो कहता है। तू आईना मत देखना, किरचें पड़ जायेंगी। 

कौन-कौन कहता है ? 

रतन की पूरी देह सावधान की मुद्रा में खड़ी हो गयी। 

और ये कौन सी भाषा है। पगलिया ने जीभ दाँतों तले दबा ली। आखिर इतनी पगली भी न थी। 

गाय उड़

चिड़िया उड़

शीशा उड़

किसकी बात कर ही थी, इधर देख मैना, बोल ना

तोता, और कौन। रोज उड़ाती हूँ तो एक दिन बोल रहा था, शीशा न देख। मन ही मन हँसी रतन। अपनी इस भोली-भाली के बारे में क्या. क्या सोच बैठी। तोते उड़ाते-उड़ाते मन में एक जीती जागती छवि उगा ली है पगली ने। 

दिन आते रहे, दिन जाते रहे। पगली अब पगली ना रही। रतन को एक आस बँधी । अचानक चाय की रेकड़ी बन्द हो गयी। साथ ही डुप्लीकेट चाभी भी किसी से खो गयी। खिड़की बंद हुई, आईना धुँधला होकर किरचें-किरचें बिखर गया। बहुत दिनों से मैना की तबियत ठीक नहीं है। ना ढंग से खाती है, ना बोलती है ना खेलती है। 

रतन को भय सता रहा है, भय की उस स्थिति में उसने मैना का हाथ पकड़ा और बड़बड़ायी, ठीक हो जा मेरी बिटिया। तुझे क्या हो गया है। मैं आज हूँ कल नहीं। मैं ना रहूँगी तो तुझे कौन सम्भालेगा। अर्धविक्षिप्त अवस्था में पगली ने कहा- चन्दर, और कौन? चन्दर रखेगा मेरा ध्यान और तेरा भी। 

ये तो पागल नहीं थी। रतन की आँखों में भय थरथरा रहा था। शाम गहरी और काली हो चली थी। खाली आँखों से रतन ने मैना को देखा। वह कुछ बोल रही थी । 

तोता उड़, चिड़िया उड़, गाय उड़, अम्मा उड़, चन्दर उड़....

मैना उड़ और उसी के साथ मैना अपने पंख पसार खुले विस्तृत आकाश में हमेशा के लिए उड़ गयी....!!

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शोधपत्र

शीना. वी.के सह आचार्य, हिन्दी विभाग सरकारी ब्रेन्नन कॉलेज तलश्शेरी, केरल - 670106

मोहनराकेश का नाटक लहरों के राजहंस   -एक परिचय

मोहनराकेश का जन्म 8 जनवरी 1925 में हुआ और मृत्यु 3 जनवरी 1972 में हुई। वे नई कहानी आन्दोलन के महत्वपूर्ण कहानीकार थे। इन्होंने अपनी उन्नत शिक्षा पंजाब विश्वविद्यालय से प्राप्त की थी। इन्होंने हिन्दी और अंग्रेज़ी में एम.ए. की उपाधि प्राप्त की थी। कुछ वर्ष तक सारिका पत्रिका के संपादक के रूप में काम किया। ये संगीत नाटक अकादमी से पुरस्कृत साहित्यकार थे। इनका जन्म अमृतसर में हुआ और मृत्यु नई दिल्ली में हुई।

मोहन राकेश सिंधी परिवार के थे। इनके पिता का नाम कर्मचंद था जो सिंध से पंजाब में आकर बस गए थे। मोहनराकेश हिन्दी साहित्य के प्रतिभा संपन्न नाटककार उपन्यासकार आदि थे।

मोहनराकेश ने नाटक, उपन्यास, एकाँकी, कहानी संग्रह, निबन्ध संग्रह अनुवाद, यात्रा साहित्य आदि विभिन्न साहित्य विधाओं में काम किया।

मोहन राकेश के प्रमुख उपन्यास है अंधेरे बन्द कमरे, अन्तराल, न आनेवाला कल आदि। उनके नाटक है आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहँस, आधे अधूरे पैरों तले की ज़मीन, सिपाही की माँ, प्यालियाँ टूटती है, रात बीतने तक, छतरियाँ, शायद है आदि। उनके एकाँकी है अण्डे के छिलके, बहुत बडा सवाल आदि। निबन्ध संग्रह है परिवेश। अनुवाद है मृच्छकटिक, शाकुन्तलम आदि । यात्रा साहित्य है आखिरी चट्टान तक।

मोहनराकेश का लहरों के राजहंस नाटक 1963 में प्रकाशित हुआ। यह उनका दूसरा नाटक है। इस का कथानक प्रसिद्ध संस्कृत नाटककार अश्वघोष के नाटक सौंदर्यानंद पर आधारित है।

इस नाटक से प्रभावित है लहरों के राजहंस। यह तीन अंकों वाला नाटक है। लहरों के राजहंस के प्रमुख कथापात्र है नन्द जो गौतम बुद्ध का सौतेला भाई है। नन्द की पत्नी है सुन्दरी। नन्द के मन के आंतरिक संघर्ष ही इस नाटक का प्रमुख विषय है। नन्द एक तरफ गौतम बुद्ध से प्रभावित होकर बौद्ध धर्म स्वीकार करके भिक्षु बनना चाहता है दूसरी तरफ वह पत्नी सुन्दरी के प्रति अनुरक्त है। जब नन्द सुन्दरी के निकट होता है तब उसे आध्यात्मिक विचारधाराएँ घेर लेती है जब नन्द गौतम बुद्ध के पास जाता है तब साँसारिक बन्धन, सुख-भोग की चिंता से मुक्त नहीं हो पाता है। तब वह साँसारिक चिंता से जकडता है। नन्द न तो सुन्दरी को छोड़ सकता है न ही श्रीबुद्ध के आकर्षण से मुक्त हो पाता है। नन्द आधुनिक व्यक्ति का प्रतिनिधि है। किसी के बनाये मार्ग को अपनाना नहीं चाहता।

उसको स्वतंत्र निर्णय करना कठिन होता है। इस नाटक के प्रमुख पात्र है, नन्द और सुन्दरी, श्यामाँग, खेताँग (कर्मचारी) अलका (सुन्दरी की दासी) श्रीबुद्ध (तथागत) शशांक (गृहाधिकारी) मैत्रेय (नन्द का एक मित्र) निहारिका (दासी) भिक्षु आनंद (श्रीबुद्ध का शिष्य) आदि।

लहरों के राजहँस शीर्षक सार्थक है। राजहंस के जोड़़ इस नाटक में तालाब में तैरने का दृश्य मिलते हैं। ये राजहंस सुन्दरी और नन्द के प्रतीक है। तालाब की लहरें नन्द सुन्दरी के विभिन्न मानसिक संघर्षों द्वन्द्वों के प्रतीक हैं। नन्द और सुन्दरी विभिन्न मानसिक संघर्षों से जुझते हैं। सुन्दरी द्वारा कामोत्सव की योजना करना साँसारिक बन्धनों में नन्द को बाँधने के उद्देश्य को लेकर है।

इस नाटक की कहानी कपिलवस्तु में राजकुमार नन्द के भवन में सुन्दरी का शयनकक्ष है। रात का समय था। पर्दा उठने पर रंगमंच पर श्यामाँग और श्वेताँग दिखाई देते हैं। श्वेताँग अग्निकाष्ठ से बड़े दीपाधार के दीपक जला रहा है। श्यामाँग पत्तों से महल की साज सजावट करने में लगे हुए है। श्यामाँग पत्तों के ढेर में उलझा हुआ उन्हें सुलझाने का प्रयत्न कर रहा है। यह सब सुन्दरी द्वारा आयोजित करनेवाले कामोत्सव की व्यस्तता है। उस समय गौतम बुद्ध ज्ञानलाभ करके कपिलवस्तु लौटे हैं। पूरी नगरी उनके चरणों पर नमित है। प्रत्येक संध्या कों नदी तट पर उनके उपदेश सुनने को लोग एकत्रित होते हैं। और उनके प्रभाव के अधीन होकर उनके धर्म में दीक्षित हो रहे हैं। स्वयं देवी यशोधरा भी कल दीक्षा लेनेवाली हैं। नन्द भी उस ओर आकर्षित है किंतु दुविधा में हैं। एक ओर सुन्दरी है राजभवन का विलास पूर्ण जीवन है और दूसरी ओर सन्यास और श्रीबुद्ध द्वारा दीक्षा लेने का विचार है। सुन्दरी नन्द के मन की दुविधा को अनुभव कर रही है। नन्द को अपने प्रेम में जकडे रखने तथा गौतम बुद्ध से दूर होने केलिए वह कामोत्सव का आयोजन करती है जिससे कपिलवस्तु की सारी जनता और नन्द जुटे, रात भर नृत्य एवं मदिरा में डूबे रहे ताकि निवृत्ति पर प्रवृत्ति की विजय प्रमाणित हो सके। इस में सुन्दरी का अहं प्रधान हो गया है। नन्द इस कामोत्सव से क्षुब्ध है। जब श्रीबुद्ध नगर में है और यशोधरा भी भिक्षुणी बननेवाली है तब कामोत्सव की योजना क्यों हैं? सुन्दरी के संकल्प के विपरीत कोई भी आमंत्रित व्यक्ति कामोत्सव में नहीं आता। राजभवन का कर्मचारी श्यामाँग को सुन्दरी से चिढ़ है वह बहुत सोचनेवाला उलझा हुआ व्यक्ति है। कामोत्सव की संध्या उसे आभास होता है जैसे एक काली सी छाया आकाश से उतर कमल ताल की लहरों में तैरते राजहंसों के जोडों को अपने शिकंजे में कस रही है। उस काली छाया को हटाने के लिए पत्थर फेंकने पर हसों के जोडे में से एक राजहँस घायल हो जाता है उसकी चीत्कार सुनकर सुन्दरी क्रुद्ध हो उठती है। और श्यामाँग को दक्षिण के अन्धकूप में उतरवा देती है। प्रिय सखी अलका की अनुनय विनय पर वह उसे क्षमा करके कूप से निकलवाकर भवन के ही एक कमरे में उपचारार्थ रखवा देती है। मानसिक पीड़ा की अधिकता के कारण वह बीच बीच में बड़बड़ाने लगता है और मूर्छित हो जाता है। अलका रात भर विक्षुब्ध सुन्दरी के उपचार में बिता देती है।

प्रातःकाल जगने पर सुन्दरी स्वस्थ महसूस करती है और रात्री के व्यवहार पर लज्जित भी होती है। नन्द उसे पूर्ववत प्रेमालापों से प्रसन्नचित्त करने में लगे हैं। सुन्दरी नन्द के हाथ में दर्पण देकर शंृगार प्रसाधन में जुट जाती है। प्रातःकालीन वेला में गौतम की पत्नी यशोधरा दीक्षा लेने को तत्पर है। भिक्षुणियों का समवेत स्वर सुनाई देता है। नन्द का मन अशाँत और अस्थिर हो उठता है। उसके हाथ में पकड़ा दर्पण गिरकर टूट जाता है। क्रुद्ध सुन्दरी को प्रसन्न करने के लिए नन्द स्वयं उसके प्रसाधनार्थ तैयार होता है। नन्द ने सुन्दरी के माथे पर एक बिन्दु ही लगाया था कि दासी ने आकर सूचनाएँ दीं - स्वयं भगवान बुद्ध भिक्षार्थ दरवाज़े पर आये थे लेकिन दो बार पुकारने पर भी उत्तर न पाकर लौट गए। नन्द और नहीं रुक पाते उसे रोकने में असमर्थ सुन्दरी उससे वचन लेती है कि विशेषक को सूखने तक उसे लौटना होगा। नन्द तुरन्त लौटने का वचन देकर चला तो जाता है लेकिन शीध्र लौट नहीं पाता । पूरा दिन बीत गया रात भी अधिक से अधिक हो गई। सुन्दरी का क्रोध निराशा में बदल जाता है। 

......माथे पर लगे बिन्दु को भिगोते भिगोते सुन्दरी मानसिक अवसाद का भार लिए आधी रात के करीब झूले में ही सो जाती है। श्वेताँग आकर अलका को कुमार नन्द सबंन्धी समाचार देता है कि बहुत भीड़ होने के कारण नन्द तुरन्त भगवान बुद्ध के दर्शन न कर सके और बिना दर्शन वे लौटना नही चाहते थे । जब उन्हें बुद्ध के दर्शन का अवसर मिला जब त्याग और वैराग्य का उपदेश सुनाया गया श्रीबुद्ध के द्वारा। नन्द की इच्छा के विरुद्ध बलपूर्वक शिष्य आनंद के द्वारा उन्हें दीक्षित करवा दिया। भीक्षा पात्र भी दिया गया लेकिन नन्द उसे स्वीकार न कर पाए और निहत्थे वन की अरे चले गए। उसी समय वन में गुर्राते व्याघ्र से जूझने से क्षत विक्षत अवस्था वाले मुण्डित केश नन्द भिक्षु आनंद के साथ वहाँ पहुँच जाते है। सुन्दरी निद्राधीन है। नंन्द भिक्षु आनंद को अपनी रूप सी पत्नी, ठाट बाटपूर्ण घर और कक्ष दिखा प्रश्न करते है कि प्रवर्जित क्यों किया मुझे। मेरी दिशा वह नहीं है। स्वर्ग नरक वैराग्य विवेकशीलता प्रवचना है। भिक्षु आनन्द नन्द से यह कहकर लौट जाते है कि इन बन्धनों में बन्धे रहने के कारण तुम स्वयं हो कोई और नहीं। भिक्षु आनंद के चले जाने के बाद लंबे स्वगत कथन के द्वारा नन्द विगत घटनाओं में उलझ जाता है। प्रवृत्ति-निवृत्ति, भोग और त्याग, सुन्दरी और बुद्ध, संसार और सन्यास को लेकर उसके मन में द्वन्द्व मचा है। तब भी सुन्दरी के अधूरे प्रसाधन को पूरा करने के लिए वह उसके माथे के सूखे चन्दन बिन्दु को भिगोने का प्रयत्न करता है तभी पानी का स्पर्श पाकर सुन्दरी की नींद टूट जाती है। एक मुण्डित मस्तक को अपने ऊपर झुका देख वह जोर से चीख उठती है। इसे अस्वीकार की चीख समझकर नन्द चुपचाप पीछे हट जाता है। सुन्दरी को लगा कोई दुस्वप्न है। लेकिन धीरे धीरे यथार्थ से परिचित होने पर वह इसे स्वीकार नहीं कर पाती क्यों कि नन्द के सिर पर केश का न रहना बुद्ध के प्रभाव का प्रतीक है और सुन्दरी की हार का भी। सुन्दरी अपमान और आत्मा-पीडा की ज्वाला में झुलस उठती है और हृदय का संपूर्ण तिरस्कार उसके इन शब्दों में उडे़ल देती है - लौटकर आनेवाला व्यक्ति और है। नन्द स्वयं दुविधा में है। सुन्दरी के इन शब्दों के आधात से नन्द के अवचेतन में दमित जीवन के सुक्षमतर उच्चतम सत्य को पाने की जिज्ञासा चेतन मन तक उभरकर आती है। उसे महसूस होता है कि सुन्दरी के साथ भोगे गए राजसी डाट-बाट के कारण उसका संसारी रूप वह जान सकी है।

लहरों के राजहँस एक प्रतीकात्मक नाटक है। इसमें नाटक में चित्रित विभिन्न घटनाओं में प्रतीकात्मकता है। जब सुन्दरी साजसजावट करती है तब नन्द के हाथ से दर्पण टूट जाता है और यह बुरा शकुन है। इस प्रकार अनेक प्रतीकात्मक तत्व नाटक के अंतर्गत मिल जाते हैं। इस नाटक के प्रथम अंक में कपिलवस्तु के राजकुमार नन्द के भवन में सुन्दरी के कक्ष की पृष्ठभूमि है। दूसरा अंक वही कक्ष है जिसमें प्रत्यूष से कुछ पहले का चित्रण है। तीसरा अंक वही कक्ष है जिसमें अगली रात की घटना है। नन्द की स्थिति इस नाटक में तरंगों पर तैरते राजहंस के समान है। इस नाटक में यत्रतत्र बौद्ध धर्म के गीत सुनाई देते है - जैसे धरमं शरणं गच्छामि संघ शरणं गच्छामि बुद्धं शरणं गच्छामि आदि लहरों के राजहंस नाटक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखा गया है। बौद्धकालीन समय की कथा नाटक में वर्णित है। भौतिक जीवन और आध्यात्मिक जीवन के द्वन्द्व या संघर्ष प्रमुख विषय है। रंगमंचीय सफलता मोहनराकेश के नाटक की विशेषता है। लहरों के राजहंस नाटक में मौलिकता और काल्पनिकता का समन्वय है। गौतम बुद्ध के भाई नन्द तथा उसकी पत्नी सुन्दरी को लेकर है।

लहरों के राजहंस नाटक में प्रतीकात्मकता एक तत्व है। इस नाटक में दो दीपाघार मानव जीवन के शाश्वत सत्य का प्रतीक है। पुरुष कहाँ तक पत्नी से पार्थिवता से बाँधने केलिए है और कहाँ तक इससे मुक्त होने केलिए है यह ज्वलन्त प्रश्न है। चेतन स्तर पर सुख-ऐश्वर्य संपन्ना भोगता मानव अवचेतन स्तर पर अभाव महसूस करता है। इस समस्त वस्तु को नाटक में प्रतीकों के द्वारा उठाया गया है। कमलताल जल में उठती लहरियों में डोलते राजहंसों का जोडा़ नन्द-सुन्दरी-युगल का जीवन सागर में निश्चित भाव से किलोल करते हुए विचारण करने का प्रतीक है। संध्या के झुटपुट में कमल ताल पर उतरती तथा राजहंसों को अपने बंधन में कसती छाया दुःखद भविष्य की छाया है जो नन्द सुन्दरी के अनजाने अनचाहे ही शीघ्रता उनके संसार में उतरती है तथा उन दोनों को अपने पंजे में दबोच लेती है- दर्पण नन्द सुन्दरी के प्रेमपूर्ण दाँपत्य का प्रतीक है। कामोत्सव को असफलता की वेदना एवं पीडा को सुन्दरी दर्पण को बलपूर्वक नन्द के हाथ में पकडाकर उसमें स्वयं को प्रतिबिंबित होते देखने के द्वारा पी जाना चाहती है।

किंतु धर्मवाणी के प्रभाव से वह दर्पण हिल जाता है। प्रणय परिणय के संबन्ध में कुछ दरारें पड़ जाती है जो शीघ्र ही बढ़ जाती हैं और बढ़कर दर्पण को तोड़ डालती है। नन्द-सुन्दरी दाँपत्य उसी क्षण टूट गया जबकि नन्द भिक्षुओं की आवाज़ सुनकर अन्तर्मुखी हुआ। उसके बाद उसने दर्पण के अभाव में सुन्दरी का प्रसाधन स्वयं करना चाहा किंतु वह उस कार्य में एक पग भी आगे नहीं चल सका उसने भाई गौतम के पास नदी तट पर जाने का निश्चय कर लिया। सुन्दरी पाने आग्रह पूर्वक बलपूर्वक उसे रोककर अपने माथे पर एक बिन्दु लगवाया था जिसे वह बहुत देर तक बरबस गीला करती नहीं परंतु नन्द लौटकर नहीं आया। जब वह आया तब कोई और व्यक्ति बन चुका था और उस बिन्दु तक पहुँचकर अलका ने सुन्दरी के मना करते-करते भी उस टूटे काँच के टुकडे को बाहर फेंक दिए उनके दांपत्य संबन्ध के भग्नावशेष भी भवन के बाहर निकलकर फेंक दिये गये।

नन्द का मुण्डित मस्तक सुन्दरी के रूप प्रेम एवं 

निष्कण्टक दाँपत्य - गर्व के खण्डन का प्रतीक है। उसका गर्व इसका निश्वास, उसी तरह जड़ से तोड़ दिया गया है जिस प्रकार नन्द का मस्तक केश विहीन हो गया है।

तृतीय अंक में नन्द की विचित्र वेशभूषा अर्थात् मुण्डित - मस्तक एवं आहत योद्धा का वेश इसके द्धिधा विभक्त व्यक्तित्व का प्रतीक है एवं नन्द द्वारा औंधी पड़ी चन्दन लेप की सूखी कटोरी में पानी भरकर झूले में कोई सुन्दरी का शृंगार करने की चेष्टा (दर्पण टूट जाने के बाद) दांपत्य को पुनरुज्जीवित करने की असफल चेष्टा है। इस प्रकार वस्तु का समग्र प्रतिपादन प्रतीकों के माध्यम से किया गया है जो एकदम अत्यंत सशक्त और अत्यंत सुन्दर है।

विभिन्न पात्रों की विभिन्न मन स्थितियाँ भी नाटककार ने विभिन्न स्वप्न, आभास आदि प्रतीकों के द्वारा अभिव्यक्त की हैं। अलका का सूखा सरोवर, पत्रहीन वृक्ष, धूलिभरा आकाश का स्वप्न, उसके प्रणय के संसार में विपत्ति आने की आशंका का प्रतीक है नन्द को द्वितीय अंक में तेज तेज चलती हवा की आवाज़ की विचित्रता का आभास वास्तव में उसके मन पर पड़नेवाली अनिष्ट विचित्र छाया का प्रतीक है।

लहरों के राजहंस नाटक में मोहन राकेश ने मन की तहों में गहराई से पहुँचने का प्रयत्न किया है। लेखक को इससे सफलता मिली है। लहरों के राजहंस ऐतिहासिक नाटक है। इतिहास कथा में कल्पना मिश्रित करके इस नाटक का निर्माण किया है।

इस नाटक में अनेक संवाद ऐसे मिलते है जो प्रतीकात्मकता लिये हुए हैं। जैसे सुन्दरी का कथन अत्यंत प्रतीकात्मकता लिये हुए है नाटक के अधिकतम स्थल पर सुन्दरी का कथन दृष्टव्य है। जैसे नारी का आकर्षण पुरुष को पुरुष बनाता है तो उसका अपकर्ष गौतम बुद्ध बना देता है।

नन्द की वैराग्य भावना का चित्रण नाटक में मिलता है - मैं मैं नहीं हूँ तुम तुम नहीं हो वह वह नहीं हैं। सब किसी उंगली से आकाश में बनाए गए चित्र है। आदि संवाद सार्थक तथा दार्शनिकता लिये हुए हैं।

यथार्थ और आदर्श के सामंजस्य से जूझता मनुष्य है नन्द।

कुछ है जो चेतना पर कुंडली मारे बैठा रहता है और मुझे अपने से मुक्त नहीं होने देता। यहाँ नन्द के संघर्ष का चित्रण है जो अध्यात्म और संसार के चुनाव और निर्णय का संकेत व्यक्त करता है। अंर्तद्वन्द्ध के बीच नन्द अनिर्णय की स्थिति में रहता है। सुन्दरी लहरों के राजहंस को दिखाकर कहती है कि कोई गौतम बुद्ध से कहे कि कभी कमल ताल के पास जाकर इनसे भी निर्वाण और अमरत्व की बात कहें। उसे संवाद में सुन्दरी को बौद्ध भिक्षु बनने के प्रति विरोध की भावनाएँ मिलती हैं।

इस नाटक में कथा को नाटकीयता से प्रस्तुत किया है। प्रयोगधर्मिता इस नाटक में मिलती है। भाषा और संवाद पात्रानुकूल है। नाटक में कथापात्रों के मानसिक 

द्वन्द्व और तनाव का चित्रण है। नाटक का रूप प्रौढ़ गंभीर, बहुआयामी और कलात्मक है। चरित्र चित्रण भाषा, देशकाल, कथावस्तु, रंगमंचीय सफ़लता लिए हुए हैं। नाटक के आरंभ, संघर्ष और चरम बिन्दु कलात्मक और नाटकीयता लिए हुए है। यह एक ऐसा नाटक है जो अपने सौदर्यात्मक तत्वों से पाठक को आकर्षित करने में सफल है।

शीना. वी.के सह आचार्य, हिन्दी विभाग सरकारी ब्रेन्नन कॉलेज तलश्शेरी, केरल - 670106 स्व. श्री सुभाष जी की प्रथम पुण्य तिथि पर उनके द्वारा आम तौर पर इस्तेमाल किए जाने वाले कुछ मुहावरों को उनकी वरिष्ठ पुत्रवधु द्वारा स्मरण किया जा रहा है...

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 डॉ. मेधावी जैन, गुरुग्राम, मो.  9811200773


पापा जी द्वारा उपयोग किए जाने वाले मुहावरे:

1. एक से एक लंका में चउवन गज के 

2. कच्चा लालच न करना 

3. कर लो सो काम, भज लो सो राम 

बिन लो सो मोती, रह गए सो कंकर 

4. तीन बुलाए तेरह आए, दे दाल में पानी 

5. आंख में सूअर का बाल होना 

6. दादा ले पोता बरते 

7. न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी 

8. अंधा नौतो न दो बुलाओ 

9. जिस घर से गेहूं उधार लो, वहां से आटा मत पिसाओ

10. उधार दो दुश्मनी मोल लो 

11. होनी तो होने के लिए बनी है, अनहोनी नहीं होनी चाहिए 

12. होनी बड़ी बलवान है 

13. खाओ मन भाता, पहनो जग भाता 

14. भजन और भोजन एकांत में करना चाहिए 

15. अपने मरे बिना स्वर्ग नहीं मिलता 

16. चाकू ख़रबूज़े पर गिरे या ख़रबूज़ा चाकू पर, कटेगा तो ख़रबूज़ा ही 

17. आज मरा कल दूसरा दिन 

18. गेहूं के साथ घुन भी पिस जाता है 

मुहावरों में कम शब्दों में जीवन की गहरी सीखें छिपी होती हैं. आशा है ये मुहावरे आज की पीढ़ी को भी दिशा दे पाएंगे....

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कहानी

डॉ. विभा रंजन ‘कनक’नई दिल्ली, मो. 9911809003

‘‘तेरी रक्षक’’

दसवीं की छात्रा कमली अब इतनी भी अबोध नहीं रही कि उसे स्त्री-पुरूष के संबंधों का ज्ञान ना रहा हो। आज-कल कमली  अपने मात-पिता के दरकते रिश्ते को देख भी रही थी और समझ भी रही थी। कुछ दिनों से माँ का उसके पास सोना उसे भला प्रतीत हो रहा था। पर आधी रात को रोज शराब के नशे में बाबा का माँ को अपने पास चलने को कहना, और माँ  का नहीं जाने का बारम्बार दयनीय गुहार लगाना, फिर रोती छटपटाती माँ को लगभग घटीसते हुए बाबा का अपने कमरे में ले जाना, और सुबह माँ का एकदम भावहीन सामान्य चेहरे के साथ अपना काम करना। कमली को समझ में नहीं आता रात में रोने तड़पने वाली माँ सुबह होते सामान्य कैसे हो जाती है। माँ का दयनीय गुहार कमली के मस्तिष्क में आक्रोश का रुप ले रहा था।

उस दिन रविवार था, कमली का बाबा तड़के कहीं चला गया। माँ ने कमली के लिये खाना बनाकर रख दिया। काम पर जाते समय बोली,

‘‘पढ़ाई करना कमली.. तेरा दसवीं का बोर्ड है बेटा.. मैडम से बोल के मैं तेरे ट्यूशन का भी बंदोबस्त कर दूँगी.. पण तू जास्ती इधर-उधर मत करना.. बस पढ़ाई करना.. बाबा आयेगा तो खाना दे देना.!‘‘

कमली ने कुछ नहीं बोला उसने बस हामी में सर हिला दिया ।

‘मैं जाती.!‘‘

कमली की माँ रतनी बाई का काम करती थी चली गई। खोली में कमली अकेली रह गई। उसने रसोई में रखे दो चार बर्तन माँजे  फिर पढ़ने बैठ गयी। पढ़ाई में मन नहीं लगा तब उसने सोचा थोड़ी देर टी.वी. देख लूं। टी. वी. के दूरदर्शन में पिंक सिनेमा आ रहा था। पहले भी यह चलचित्र वह पुरा नहीं देख पाई थी। कमली ध्यान से चलचित्र देखने लगी  आखिरी दृश्य था, जहाँ वकील बने अमिताभ बोल रहे थे ‘‘नो मीन्स नो’’ और  ‘नो‘‘ का मतलब ‘‘नहीं’’ होता है,  उसे इंकार ही समझना चाहिये ‘‘नो’’ कहने वाली औरत कोई भी हो, चाहे वह आपकी प्रेमिका हो या आपकी अपनी पत्नी ही क्यों न हो, जबर्दस्ती एक जूर्म है। और फिर दोषी को सजा होती है और सिनेमा समाप्त। कमली को अफसोस होता है कि यदि वह पहले खोलती तब पुरा चलचित्र देख लेती। तभी गाडी की आवाज सुनाई देती है कमली दौड़ कर दरवाजे की ओर भागती है। कमली ने देखा कोठी की गाड़ी में माँ को ड्राईवर पकड़ कर उतार रहा है। माँ के पैर के तलवे और घुटने में पट्टी बंधी है। उसने कुछ पुछना चाहा तभी ड्राइवर ने कहा,

‘‘तेरी माँ गिर गई थी..कांच का टुकडा पैर के तलवे में गड़ गया और घुटने की हड्डी में चोट भी आई है.!‘‘

‘‘तब डॉक्टर..!‘‘  

कमली बोली

‘‘सब होयला रे बाबा.. डॉक्टर ने देखा.. दवा भी दे दिया.. मैडम ने घर भेज दिया.. तीन दिन नहीं आने को बोला‘‘

रतनी ने समझाया

ड्राइवर और कमली ने रतनी को घर में लाकर एक कुर्सी पर बैठा दिया। रतनी कमली को रसोई की तरफ इशारा कर बोली,

‘‘मैं इधरइच सोयेगी..!’’

‘‘ठीक है आई.. मैं गद्दा लगा देती.. तू आराम कर..मैं रात का खाना बना लेगी..!‘‘

‘‘रात का खाना मैडम ने भेजेला है..!‘‘

‘‘तेरी मैडम तो बड़ी अच्छी है..!‘‘

‘‘हांँ.. इसीच कारण से मैं उनका काम नहीं छोड़ती..!‘‘

‘‘माँ..चाय पियेगी..!‘‘

‘‘ना.. दरद का टेबलेट खाई है.. मै सोयेगी..!‘‘

  ‘‘ठीक है..तू सोजा..!‘‘

  कमली को अपनी माँ को चैन से सोता देख बड़ा अच्छा लगा। पर आधी रात फिर वही नाटक! कमली का बाबा आया और रतनी को खींचने लगा। माँ के आद्र स्वर में याचना करना आक्रोशित कमली को विह्वल कर रहा था।

‘‘मुझे छोड़ दे भीखू.. मेरे को बहुत दरद है.. मैं आज गिर गई है.. मुझे छोड़ दे.. मुझे अब ये सब बिल्कुल अच्छा नहीं लगता..तू मुझे छोड़ दे..!‘‘

‘‘तू मेरी औरत है.. जायदाद है मेरी.. मैं जैसे चाहेगा.. वैसे करेगा.!‘‘

  कमली अभी जगी थी। मस्तिष्क मे पिंक चलचित्र की पक्तियाँ बार-बार घुमने लगे थे। ‘‘नो मीन्स नो‘‘ चाहे वो आपकी अपनी पत्नी ही क्यों न हो, इसे इंकार समझना चाहिये, जबरदस्ती एक जूर्म है। रतनी दर्द से तड़प रही थी पर भीखू कहाँ सुनने वाला था। कमली अब उठ़ खडी हुई। उसके हाथ मे कुछ था। उसने कठोर स्वर में  बाबा से कहा,

‘‘बाबा.. माँ को छोड़ दे..!‘‘

‘‘तू कौन होती है.. बीच में बोलने वाली..!‘‘

भीखू गरजा

‘‘ये मेरी आई है..मेरी माँ है..!‘‘

कमली ने कहा

‘‘तो मैं तेरा बाप है..!‘‘

उसने तेज स्वर में कहा

‘‘मुझे माँ चाहिये.. ऐसा बाप नहीं चाहिये..!‘‘

कमली ने भी तेज स्वर में जवाब दिया

फिर भी भीखू नहीं माना वह रतनी को फिर खींचने की कोशिश करता है। रतनी दर्द से चीत्कार उठती है। कमली आगे आकर फिर कहती है,

‘‘बाबा..मैं सच बोल रही है.. मांँ को छोड़ दे.. नहीं तो इसी हंँसिया से.. मैं तेरा गर्दन धड़ से अलग कर देगी..!‘‘

अपने हाथ में पकडे हँसियें को दिखाकर बोली

‘‘तू अपने बाप को मारेगी..!‘‘

भीखू आक्रोश भरे स्वर में गरजता है

‘‘हांँ.. मुझे ऐसा बाप नहीं चाहिये..!‘‘

कमली के भी वाणी में आक्रोश झलकता है

नशे में बेपरवाह द्युत भीखू फिर आगे बढ़ा ही था कि कमली हंँसिया ले उसके सामने  आकर बोली, ‘‘बाबा.. माँ को छोड़ दे.. मैं विद्दया कसम खाती है.. मैं तेरे को मार डालेगी..!‘‘

भीखू अपनी बेटी की आँखों में देखता है, वहांँ उसे अपनी बेटी कमली कहीं  नजर नहीं आती। अपितु रौद्र रुप, लाल आँखे, लिए एक चण्डी स्वरूप  देवी खडी दिखाई देती है। वह पैर पटकता गुस्से से भुनभुनाता घर से बाहर चला जाता है। कमली दौड़ कर मांँ को उठाती है और मरहमपट्टी कर बोलती है,

‘‘ सोजा आई.. बाबा अब तेरे साथ.. कभी गलत व्यवहार नहीं करेगा.!‘‘

रतनी कमली के हृदय से बच्चे की तरह चिपक जाती है। उसे अपने मैडम की बात याद आती है।

‘‘रतनी तू बेकार चिंता करती है,तेरी कमली ही तेरी रक्षक बनेगी‘‘........!, 

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अविनश्वर (हाइकु काव्य)

चिर सुन्दर

तुम अविनश्वर

हे प्रभु वर!

जीवन नश्वर

जगत खंडहर

क्षीण जर्जर।

सृष्टि तुम्हारी

फिर भी मनोहर

गाँव शहर।

सजा है विश्व

तुरुओं लताओं से

प्रति प्रहर।

गीत अमर 

झरना झरझर

तुम्हारा स्वर

छवि तुम्हारी

पृथ्वी अम्बर

स्रष्टा प्रवर।

सिन्दूरी संध्या

लोल ललित प्रात

चित्र अमर।

स्वच्छ साड़ी-सा

लहराता सागर

विमुग्धकर

नलिनीकांत (उम्र 93 वर्ष), अंडाल, पं. बंगाल, मो. 94746991326

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मौलिक, अप्रकाशित कहानी


डॉ. नीरज सुधांशु, बिजनौर, मो. 09412713640, ईमेलः drniraj.s.sharma@gmail.com


बाऊजी बाआवाज़

उन्होंने भी कब सोचा था कि उनकी ये चुप्पी उन्हें ऐसे मोड़ पर ला खड़ा करेगी जहाँ उन्हें अपनों के खिलाफ ही कठोरतम निर्णय लेने को मजबूर होना पड़ेगा। अपने स्वभाव के विपरीत काम करना किस कदर मुश्किल होता है! सहनशक्ति की भी एक सीमा होती है, सीमारेखा पार होते ही विस्फोट निश्चित है, यही कुदरत का नियम है। अपनों के दिए ज़ख्मों का इलाज भी उन्हें स्वयं ही करना था।

बाऊजी की चुप्पी को लेकर शायद ही कोई होगा जिसने कभी-न-कभी टोका न हो! बाऊजी यानी रघुवीर प्रसाद सिंह। उनका स्वभाव ही ऐसा था। कम-से-कम शब्दों में बात करना। ज़रूरत न हो तो चुप रहना। अत्यधिक ज़रूरी होने पर भी नपातुला ही बोलना। सात भाई-बहनों में पाँचवा नंबर था उनका। परिवार में सभी चुलबुले स्वभाव के थे, बस एक वही इतने शांत, धीर, गंभीर थे। बचपन से ही न कभी कोई ज़िद, न उछलकूद, न शैतानी। किसी के तीन में न तेरह में। बस अपने काम से काम। शुरू से ही लोग कहा करते थे कि ये लड़का जीवन में सुखी रहेगा-कहते हैं न कम बोलना सुखी रहना। 

बोलना भले ही न भाता हो, मानव स्वभावजनित संवेदनाएँ होना तो लाज़िमी हैं। प्यार, गुस्सा, दया, करुणा आदि से पार पाने का उनका हथियार भी मौन ही था!  

आज उनके अंतर के गुबार से निर्मित चक्रवात उन्हें इस क़दर आंदोलित कर रहा था जो मौन पर भी भारी प्रतीत हो रहा था। सदा की तरह वे आज भी घाट पर आकर बैठ गए। वे जब भी दुखी होते तो आकर बैठ जाते माँ गंगा के घाट पर। मन के उबाल को माँ गंगा के पावन छींटे सीमाएँ तोड़ने से रोक लेते, पर उबाल आज किसी सीमा में बँधने से इन्कार कर रहा था। गंगा की हरर...हरर... करती लहरों के साथ बीते जीवन की यादें भी नाप रही थीं उद्गम से मंज़िल का रास्ता। अंजुरी में भरे जल की रिसती बूँदों की मानिंद मन से रिसती, टीसती यादें उन्हें बेचैन कर रही थीं। 

आज उन्हें अपनी पत्नी कान्ता की कमी शिद्दत से महसूस हो रही थी। कान्ता तो जैसे ढाल थी उनकी। सच ही तो था, शादी के बाद भी कभी उन्हें अपनी चुप्पी तोड़ने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी थी। पत्नी से मन के तार कुछ इस तरह जुड़े थे कि वह कुछ कहने से पहले ही समझ लेती थी उनके मन की बात। अत्यंत मिलनसार स्वभाव की कांता रिश्ते व समाज में व्यवहार निभाना बखूबी जानती थी। और वे यूँ ही मस्त रहते रहे अपनी चुप्पी के साथ।

‘यकीन नहीं होता! इतना सीधा भी कोई कैसे हो सकता है! लालाजी, आप मेरी देवरानी कान्ता से भी बात करते हैं कि नहीं? इतनी चुप्पी कैसे बर्दाश्त होती है! मैं तो ज़रा देर भी चुप नहीं रह सकती। जीभ खुजलाने लगती है, दाँत दुखने लगते हैं, दिमाग कुंद होने लगता है और आप हैं कि सारा दिन में गिनती के शब्दों को हवा देते हैं। माना कि आपको बोलने की कम आदत है पर इतनी कम! ओह! मेरी देवरानी शायद आपके इशारों को भी समझ लेती है। आपकी सारी ज़रूरतें बिना बोले ही पूरी कर देती है, पर देखिए, हम तो थोड़े-से दिनों के लिए ही आते हैं छुट्टियों में, हम से तो बात किया कीजिए। हम से तो चिरौरी किए बिना रहा नहीं जाएगा। फिर आपसे तो हमारा रिश्ता भी इसकी इजाज़त देता है। अच्छा चलिए, हमें हर की पैड़ी घुमाकर लाइए, चाट खाने का बहुत मन कर रहा है।’ एक दिन बड़ी भाभी नीलिमा ने छेड़ते हुए कहा था। 

‘तो चलिए...’ बस इन दो शब्दों से बाऊजी ने अपनी भाभी का मान रखते हुए हामी भर दी थी। 

अचानक किसी की चींख से उनका ध्यान भंग हुआ...  

अरे...कोई बचाओ रे, मेरा बच्चा...! सीढ़ियों पर फिसलकर पानी में गिरते बच्चे को किनारे खड़े एक व्यक्ति ने हाथ पकड़ कर खींच लिया व उसकी माँ को सौंप दिया। उसने उसे कलेजे से चिपका लिया, वो अपने छोटे से परिवार के साथ गंगास्नान को आई थी। पति-पत्नी व दो छोटे बेटे, तकरीबन पाँच व सात साल के आसपास की उम्र के रहे होंगे। माँ उसे बार-बार चूमती बावली हुई जा रही थी, ‘कुछ हो जाता तो? तुममें तो हमारी जान बसती है’ उसकी आँखों से अविरल अश्रुधरा बह रही थी। 

बच्चों में तो माँ-बाप की जान बसती है, फिर माँ-बाप में बच्चों की जान क्यों नहीं बसती? इस सवाल के साथ उस मार्मिक दृश्य ने उन्हें भी उन दिनों की याद दिला दी, जब उनके दो साल के अंतराल पर दो बच्चे, एक बेटी व एक बेटा हुआ। अपने छोटे-से परिवार में दोनों बहुत खुश थे। छह साल के अंतराल के बाद फिर गर्भ ठहरने पर कांता ने उस बच्चे से निजात पाने के लिए उन्हें मनाने की बहुत कोशिश की पर तब भी वो चुप ही रहे। और बेमन से ही सही उस अनचाहे बच्चे को दुनिया में लाना ही पड़ा। 

परिणति जब बेटे के रूप में हुई तो दोनों बहुत खुश थे कि चलो बुढ़ापे के दो सहारे हो गए। उन दोनों की जान भी ऐसे ही बसती थी अपने बच्चों में। बच्चों को याद कर एक हिकारत का-सा भाव आ गया उनके चेहरे पर। 

दुनिया का ये दस्तूर भी निराला है। बच्चे की पैदाईश से पहले अपने बुढ़ापे को संवारने की ललक पैदा हो जाती है। जबकि किसी को ये भान भी नहीं होता कि भविष्य के गर्त में क्या छिपा है। उम्मीदों, सपनों की छाँव तले कब बच्चे बड़े हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता। असली परीक्षा तो तब होती है जब उनके उम्मीदों पर खरा उतरने व सपनों को पूरा करने का वक्त आता है।

बाऊजी भी ऐसे ही सपनों को पाले अपनी ज़िंदगी में बहुत खुश थे। पत्नी की नौकरी से आर्थिक संबल भी मिल गया था। दोनों ने बड़े मनोयोग से बच्चों की परवरिश की। बच्चे बड़े हुए तो शुरू हुआ उनके घर बसाने का दौर। बेटी बड़ी थी सो इक्कीस की होते ही कर दिए उसके हाथ पीले व पा ली मुक्ति एक बड़ी ज़िम्मेदारी से। गंगा की लहरों की तरह बही जा रही थी ज़िंदगी।

अचानक वो उठे, अपने कमीज़ व पेंट उतार कर जल में उतर गए यह सोचकर कि गंगा माँ के आँचल की शीतलता उन्हें कुछ राहत देगी और ऐसा हुआ भी। उन्होंने डुबकी लगाई, मन जैसे धुल गया और रह गई सिर्फ कान्ता। हर बार वो जब भी डुबकी लगाते थे घर के सदस्यों का नाम ले-लेकर डुबकी लगाते, ताकि उन्हें भी कुछ पुण्य का अंश मिल जाए। पर आज उन्हें अपनों के नाम से ही घृणा हो रही थी और न ही शांत हो पा रही थी जी की जलन! लहरों में भी उन्हें कान्ता का ही प्रतिबिंब लहराता दिखाई पड़ रहा था। वे बतियाने लगे उस प्रतिबिंब से, ‘तुम्हें इतनी भी क्या जल्दी थी जाने की, देखो, तुम्हारे बिना मेरा क्या हाल हो गया है। मेरी आवाज़ तो तुम ही थीं, आज मैं बेआवाज़ हो गया हूँ। मेरी जीवन नैया की पतवार थीं तुम, बिन तुम्हारे भंवर में आ फंसी है नैया। तुम तो जा बैठीं माँ गंगा की गोद में और मैं रह गया नितांत अकेला इस इतनी बड़ी दुनिया में। आज मेरा कोई नहीं है। तुमने ही तो संभाल रखा था सब। तुम्हारे बगैर जीवन की तो मैंने कभी कल्पना ही नहीं की थी। तुम्हीं बताओ, क्या चुप रहना कोई गुनाह है? आज लगता है, क्यों मैंने अपने आप को अपने में ही समेट कर रखा? बड़ी भाभी जी ने भी बहुत कोशिश की थी कि मैं जवाब देना सीखूँ पर सब व्यर्थ रहा। तुमने भी तो कभी इस बात के लिए तकरार नहीं की। हो सकता था तुम लड़ती-झगड़तीं तो मेरी आदत बदल ही जाती। अब ज़रूरत है तो हिम्मत ही नहीं रही। मैं थक चुका हूँ इस ज़िंदगी से।’ और फफक पड़े बाऊजी, हथेलियों में मुँह छिपाकर। 

कुछ देर बाद संयत होकर वो फिर बड़बड़ाने लगे, ‘कान्ता! हमसे कहाँ चूक हो गई? हमने अपने तीनों बच्चों को हर सुख-सुविधा मुहैया कराई, अच्छी-से-अच्छी शिक्षा दिलाई, अच्छे संस्कार डाले, पर देखो न, हम फिर भी फेल हो गए। 

तुम्हारे जाने के बाद शुरू-शुरू में तो कुछ दिन सब ठीक रहा। शायद नया-नया दुख था तो घर के सदस्यों को संयम ने बाँध् रखा था। धीरे-धीरे बहू ने अपना असली रूप दिखाना शुरू कर दिया। एक सूत्र में पिरोया हमारा घर बिखरता-सा प्रतीत होने लगा। माना कि बहू तो पराये घर की बेटी होती है, पर बेटा तो अपना ही खून होता है, फिर भी बीवी के पल्लू से बँधते ही, उसी के इशारों पर नाचने लगता है। सुना था इंसान जैसे कर्म करता है, वैसा ही फल पाता है, पर हमने तो कभी अपने बड़ों का अनादर नहीं किया, उनकी खूब सेवा की, फिर क्यों हो रहा है ऐसा मेरे साथ। कभी-कभी मैं सोचता हूँ, अच्छा ही हुआ जो तुम न रहीं ये सब देखने के लिए। फिर अगले ही पल लगता है शायद तुम होतीं तो ये सब होता ही नहीं।   

जिन्हें बुढ़ापे का सहारा मान बैठे थे, हमारे वो दोनों बेटे कितने स्वार्थी हो गए हैं। सुख का बेटों की संख्या से क्या संबंध? हम बहुत खुश हुए थे न कि चलो दो बेटे हो गए अब बुढ़ापा अच्छे से कटेगा। पर उन्हें तो अपने बीवी बच्चों के अलावा कोई नहीं दीखता। मैं तो जैसे उनके परिवार का सदस्य ही नहीं हूँ। शायद मेरी चुप्पी ने ही उनके हौसलों को परवाज़ दी है। टोका-टाकी से शुरू हुई ज़िल्लत आज सरे आम अपमान तक पहुँच गई है। रिटायरमेंट के बाद तो निठल्ले होने का तमगा भी लटका दिया गया है मेरे गले में। कोई इतना निष्ठुर कैसे हो सकता है, ये आज तक मैं सोचता था पर अब महसूस भी कर लिया है। मैं सोचता था कि अपने प्यार से तुम्हारी कमी को पूरा करने की भरसक कोशिश करूँगा, पर हमारे बच्चों को तो हमारी ज़रूरत ही नहीं है। घर की दो रोटी को भी तरस गया मैं। अपना घर होते हुए भी क्षुधा शांत करने को मुझे बाज़ार का मुँह ताकना पड़ता है। कितना बदनसीब हूँ मैं! 

बड़े से मिली दुत्कार के बाद मैं छोटे के पास गया, पर वह तो उससे भी गया-गुज़रा निकला। उन्हें मेरे बुढ़ापे पर भी तरस नहीं आता। वहाँ बहू के माँ-बाप का ज़रूरत से ज़्यादा दखल है। वे नहीं चाहते कि मैं उनके साथ रहूँ। अपनी बेटी को मेरा अपमान करने के लिए उकसाते रहते हैं ताकि मैं स्वयं वहाँ से चला जाऊँ। हमारे दोनों बेटे जोरू के गुलाम निकले।  जानती हो, हमारे दो पोते व एक पोती है, पर मैं तरसता ही रहा उन्हें अपने कलेजे से लगाने के लिए। ममता का अहसास ही नहीं कर पाया क्योंकि उन्होंने बच्चों को हमेशा मुझसे दूर ही रखा। मैं बार-बार बच्चों के मोह में पड़ कर कभी एक के तो कभी दूसरे के पास जाता पर हर बार दुत्कारा ही जाता। मुझे लगता कि शायद कभी तो उन्हें अहसास होगा कि वो जो कर रहे हैं ग़लत कर रहे हैं, पर मैं ही ग़लत था। हमारे बच्चों को पैसे-धेले का लालच भी अपनी गिरफ्त में नहीं ले पाया क्योंकि रहने के लिए घर व हर सुख-सुविधा का हमने इंतज़ाम पहले ही कर दिया था न दोनों के लिए! बहुएँ एक-दूसरे की हिरस करती हैं। जब बड़ी नहीं रखती अपने घर तो मैं क्यों रखूँ-ऐसा छोटी सोचती है। 

इन सबमें मुझे ये समझ आया कि वो बेटी जिसे हम पराया धन समझते हैं, वास्तव में हमारी अपनी होती है। जानती हो, दोनों बेटों के दुत्कारने के बाद उसने ही सहारा दिया मुझे। पर मेरे कारण उसे अपने परिजनों व समाज के ताने सुनने पड़ते थे, ये मैं कैसे बर्दाश्त करता! चला आया चुपचाप वहाँ से भी। हमारा समाज चाहे कितना भी दावा करता हो कि समय बदल गया है, लेकिन हकीकत में बदला कुछ भी नहीं है। बेटियाँ आज भी ससुराल में अपने मन की शायद ही कर पाती हैं। जो घर वालों के सहयोग से कर पाती हैं उन्हें समाज चैन नहीं देता। 

मुझे परेशान देख कर एक दिन दामाद ने कहा था, ‘पापा, चुप रहने से काम कैसे चलेगा, आप एक बार जाकर अपने बेटों से बात तो कीजिए। वो घर आपका ही है, आप ही के घर से कैसे बेदखल कर सकते हैं वो आपको? हिम्मत तो आपको जुटानी ही होगी। वो मानते हैं तो ठीक है वरना आप अपना सब कुछ जिसे देना चाहें दे दीजिए व मेरे पास ही रहिए। मुझे आपसे कुछ नहीं चाहिए। बस इसके बाद आपको उन्हें छोड़ना होगा क्योंकि मैं नहीं चाहता कि आप बार-बार अपमानित व दुखी हों। फिर आपको मुझे वो सब अधिकार देने होंगे जो एक बेटे के होते हैं। आपके बाद भी एक बेटे का कर्तव्य मैं ही निभाऊँगा।’

कान्ता, इतने अपमान के बाद भी माँ-बाप बेटों का मोह क्यों नहीं छोड़ पाते! बेटी जो इतने प्यार से अपने पास बुलाती है, हम क्यों उसका आग्रह स्वीकार नहीं कर पाते। समाज के ताने क्या बेटी के प्यार से भी अधिक महत्वपूर्ण होते हैं! क्या बेटे की कामना इंसान महज़ इसलिए करता है कि मरने के बाद वो उसकी चिता को अग्नि देगा! क्या इसीलिए वो उनकी दुत्कार भी सहता है! 

दामाद की बात को मानकर ही मैं एक बार फिर आया था यहाँ। अन्य परिजनों ने भी उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की। एक आखिरी प्रयत्न के तौर पर बाकायदा पारिवारिक पंचायत बैठी थी। बच्चों के ताऊ, चाचा, बुआ, मामा, मौसी सभी तो थे। उस दृश्य को याद कर मेरा खून खौल उठता है। 

बुआ ने उस बचपन के लाड-प्यार को याद दिलाते हुए कहा था कि ये वो बाप है जिसने कभी अपने बारे में नहीं सोचा, हर वक्त केवल तुम्हारी खुशियों के बारे में ही सोचता रहता था। फूफा ने भी अपना सुर मिलाते हुए कहा था कि ज़रूरतें ही कितनी हैं इनकी, सिर पर छत और दो वक्त की रोटी ही न! इस दृश्य को देख कर चाचा ने भी हिकारत भरे लहज़े में कहा था कि औलाद अगर तुम जैसी हो, तो बेऔलाद होना ही अच्छा है । पर हमारे बेटे फिर भी कुछ नहीं बोले। मुँह नीचा किए बैठे रहे।

चाची का गुस्सा तो सातवें आसमान पर था, वो दहाड़ते हुए बोली थी कि क्या इसी दिन के लिए तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा किया था कि जब इन्हें सहारे की ज़रूरत हो तो दुत्कार दो। निकाल बाहर करो घर से?

बड़े भैया को तो इतना आश्चर्य हुआ था कि जो व्यक्ति मुँह में ज़बान तक नहीं रखता वो तुम्हें क्या परेशान कर सकता हैं? यदि तुम इनके साथ नहीं निभा सकते तो दुनिया में किसके साथ निभा पाओगे? 

कोई नतीजा न निकलता देख रिश्तेदारों ने अपने साथ ले चलने का भी प्रस्ताव रखा पर जब अपने ही सिक्के खोटे निकले तो दूसरों पर बोझ क्यों बनना।

प्यार से, डाँट से, बच्चों का वास्ता देकर हर प्रकार से समझाने की कोशिश की पर नतीजा वही ढाक के तीन पात। और मुझ पर घड़ों पानी तो तब पड़ा जब बहू जो अब तक अंदर कमरे में बैठी सब सुन रही थी ने आकर फरमान सुनाया, ‘यदि ये इस घर में रहेंगे तो मैं गंगा में डूबकर जान दे दूँगी।’

मुझे लगा, मेरे कानों में नुकीले सरिये घौंप दिये गये हैं। इसके बाद कुछ नहीं बचा था कहने-सुनने के लिए। वहाँ एक पल भी रुकना असहनीय था मेरे लिए। सभी भौंचक थे। ऐसे जवाब की अपेक्षा तो शायद किसी को भी न थी। अपना अपमान तो मैं सहन कर ही रहा था, पर अपनों का अपमान...! वो तो सबका भला ही सोच कर आए थे न! अब मुझसे रहा नहीं गया व मैं चुपचाप उठ कर चला आया यहाँ।

कान्ता! माँ-बाप कितने ही नाराज़ हों, किसी गल्ती के लिए सज़ा भी दे लें पर अपने बच्चों की जान के दुश्मन तो कतई नहीं हो सकते। पर इनकी करतूत को नादानी समझ कर माफ भी नहीं किया जा सकता। मेरे हाथ-पाँव काँप रहे हैं, दिल भारी हो रहा है, शरीर बेकाबू हो रहा है। दूर क्षितिज पर सूरज तो चल दिया है अपनी अगन शांत करने लेकिन मेरे अंदर का ज्वालामुखी विस्फोट करने को आतुर है। इसका गर्म लावा ऐसी नालायक औलाद व समाज की खोखली परंपराओं को झुलसा कर रख देगा। आज इस बेजुबान की आवाज़ क्या धमाका करेगी यह तो विस्फोट के बाद ही पता चलेगा पर शायद इस विस्फोट का परिणाम देखने के लिए मैं मौजूद न रहूँ।  

  मेरे मौजूद रहने या न रहने से कितना अंतर पडे़गा, नहीं जानता। पड़ेगा भी या नहीं, यह भी नहीं जानता। मैं मौजूद रहूँगा भी या नहीं, यह तो बिलकुल ही नहीं जानता। जीवन जितना जीना था, जी लिया। कुछ तुम्हारे संग रहकर और कुछ बच्चों के संग रहकर। बचा हुआ समय किसी के संग रहूँगा या यूँ ही तुम्हारी यादों के संग ओढ़ता-बिछाता रहूंगा, यह भी प्रश्न है। इन प्रश्नों के संग जीना शायद उतना कठिन न हो, जितना उन उत्तरों के संग जीना, जो जीवन ने मेरे प्रश्नों के जवाब में मुझे दिये हैं। इन प्रश्नों और उत्तरों के बीच में जो अन्तिम प्रश्न कुदरत ने मुझसे पूछा है, उसका उत्तर देने का वक्त आ गया है। इस उत्तर देने के बाद कोई नहीं कहेगा कि मैं उत्तर देना नहीं जानता। शायद मेरे ऊपर से ये आरोप भी हट जाये। अपने पूरे होशो हवास में मैं यह घोषणा करता हूँ कि ये जो उत्तर मैं देने जा रहा हूँ वो पूरी तरह से मेरा है और इसमें किसी का कोई दवाब नहीं है। ये उत्तर बेशक वो न हो, जिसके लिये मैं जाना जाता था। यह वैसा भी नहीं होगा जैसा उत्तर देने की मेरी आदत थी। यह वैसा भी नहीं होगा, जिसकी उम्मीद मेरे प्रश्न मुझसे कर रहे होंगे। ये उत्तर मेरे जाने के बाद जब तक प्रतिध्वनित होते रहेंगे, मैं उन्हें महसूस करता रहूँगा। जिस दिन ऐसा न हो, समझना कि एक बूढ़े के उत्तर उसके बच्चों की समझ में आ गये हैं।

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कविता

संदीप कुमार विश्नोई ‘‘रुद्र’’, दुतारांवाली अबोहर पंजाब, मो. 9417282027 

नेत्रवारि *

तेरा उर रुदन करे नित, यह पवन मुझे बतलाती, 

तेरे अश्कों की बूंदें, बन मेह व्योम से आती। 

चपला में तू दिखती है, ओझल पल में हो जाती, 

बिछड़न की पीड़ा हरपल, क्यों सिसक सिसक सह पाती। 


खुद को तुमने ही मारा, जब कील हृदय में ठोका, 

उर में उमड़ी लहरों को, कैसे उसने है रोका। 

जीएगी कैसे मर कर, मैं तेरे हृद का राजा, 

रुह तड़प रही तेरे बिन,बस क्षण भर मिलने आजा। 


कोयल की मीठी बोली, उर में है शूल चुभोती, 

हृद मेरा सुन लेता है, तू जब-जब छुप-छुप रोती। 

नित लोचन निर्झर बनकर, उर पर्वत सरिता बहती, 

नाभि सागर में जा कर, जलधारा पीड़ा कहती। 


तेरा छुप-छुप आँखें मलना, दिखता है मुझे हमेशा, 

विनती कर-कर हम हारे, सुनते कब देव गणेशा। 

अब पाहन के आगे हम, कब तक माथा रख रोएँ, 

जो यादें बसी हृदय में, क्यों इनको भी अब खोएँ। 


जीवन की सच्चाई का, नित्य कड़वा घूँट है पीना, 

तेरी कोमल चितवन को, नित देख स्वप्न में जीना। 

खुलती हैं जब यह आँखें, तू कौन दिशा छुप जाती, 

नागिन बनकर यह साँसे, डस-डस कर मुझको खाती। 


सुमनों की इस बस्ती में, शूलों ने डेरा डाला, 

जो प्रेम महल पावन था, जड़ दिया उसी में ताला। 

कुछ मुख से बोल न पाती, बेबसी सुनो क्या होती, 

अपने प्रियतम की खातिर, वो आहें भर-भर रोती। 


उसको जब याद सताती, वो कैसे फिर सो पाए, 

यह सिसकी उसकी सुन ले, वो कैसे फिर रो पाए। 

पाहन उर पर यूँ रखना, निज आंसू गट-गट पीना, 

नहीं छवि भुलाई जाती, खाता है ऐसे जीना। 


चाहूँ मैं उसको भूलूं, पर याद बहुत फिर आती, 

फोटो को देख हमारी, वो रो रो फागुन गाती। 

साँसें चल चलकर नित ही, उर की यह अनल बढ़ाए, 

फिर नीर नयन का घी बन, समिधा को तीव्र जलाए। 


यादों का कंबल ओढ़े, कुछ करवट ले कर सोना, 

फोटो को हृदय लगाकर, शुचि कमल नयन भर रोना। 

उड़ नींद गई लोचन से, गिन तारक निशा बिताए, 

शुक्तिज नयनों से बहते, कोई हंस न चुगने आए। 


आती है तेरे घर से, यह पवन सिसकियाँ भरती, 

कुसुमों के मुख मुर्झाए, कलियों को पागल करती। 

भृंगों के आंसू आए, रस पान नहीं कर पाते, 

तेरा यह रुदन देख कर, घन श्यामल अश्क बहाते। 


कब देख हाल है पाती घन की चपला मतवाली, 

नहीं देख सरल को पाती, छुपती है कोयल काली। 

चकवा चकवी दिन मिलते, पर तू कब मिल पाएगी, 

क्या घड़ी मिलन की तुम से, इस जीवन में आएगी। 


रो- रो कर दिवस गुजरते, कैसे हृद को समझाएँ, 

लोचन से बहते निर्झर, को रोक न हम भी पाएँ। 

रूह रो -रो तुम्हें पुकारे, प्रिय चली इधर अब आओ, 

यह तन तो झुलस गया है, मम हृद को आप बचाओ। 


आओ मत देर लगाओ, प्राणों पर संकट छाया, 

निज बाहों में अब भर लो, न लौट के कोई आया। 

तेरे उर की यह पीड़ा, अब मुझसे सही न जाती, 

श्वानों की टोली मिलकर, ज्यों खरहा को है खाती। 


अब कलम नित्य ही रोती, लिख लिख कर दुखद कहानी, 

विरहानल में धू धू कर, जलती है जान जवानी, 

इस कोमल से निज हृद को, झंझावातों ने घेरा, 

जहाँ प्रेम प्रिय पलता था, कष्टों ने डाला डेरा। 


छुट-पुट सुख थे जीवन में, क्यों आ कर तुमने छीने, 

तेरी यादों में रो-रो कर, हम अश्क लगे हैं पीने। 

हृद को पल-पल समझाया, निष्ठुर लोचन कब माने, 

सुन उमड़ बही फिर सरिता, गालों को लगी मिटाने। 


नम नेत्र तुम्हारे रहते, उनमें है सूजन आई, 

उर की पीड़ा धू-धू कर, नयनों ने है बतलाई। 

साँसों का रुक-रुक चलना, यूँ रूँध गले का जाना, 

ऐसे घुट घुट कर रोना, यादों में बह बह जाना। 


प्रिय प्यारी अलकें उलझी, तुमने सुध-बुध है खोई, 

यह देख तुम्हारी हालत, रजनी भी छुप कर रोई। 

शशि ने तुमको जब देखा, उसके लोचन भर आए, 

तारों की टिम-टिम छूटी, यह व्योम भी हँस न पाए। 


ऐसे दिल का थम जाना, नयनों में पानी आना,

सूना तन हो जाता है, अच्छा लगता कब गाना। 

पतझड़ सा लगता जीवन, न दिखती कहीं हरियाली, 

इस मदन महीने में भी, क्यों है यह सूखी डाली। 


न चमक है वो आनन पर, खो गई अधर की लाली, 

मैं ढूंढ रहा हूँ हरपल, मादक मस्ती मतवाली। 

मनमोहक मंजुल आनन, मुर्झाया सा लगता है, 

हृद की पीड़ा हरपल ही, लोचन पानी कहता है। 


साँसे सूखी सी आती, और गला भी सूखा सा है, 

अंदर खालीपन लगता, यह उर भी रूखा सा है। 

सूनापन सा ले बैठी, ज्यों पाहन की हो काया, 

मन में आती जाती है, भावों की दुर्बल छाया। 


उर की हरियाली छूटी, मन वन वसंत में खाली, 

शुचि सुमन न अच्छे लगते, छलके नित लोचन प्याली। 

हृद गागर नीर नेह का, माँग रहा नित न्यारा, 

आ कर प्रेमी होंठों को, दे रस का प्याला प्यारा। 


वो सूख रही है ऐसे, पादप ज्यों बिछड़ी डाली, 

आभा आनन की खोई, न रही यौवन की लाली। 

वो चमक नहीं नयनों में, सुकडे हैं गाल गुलाबी, 

क्या उसका हाल बताऊँ, ज्यों गिरकर उठे शराबी। 

उर शांत समंदर सा है, जल वायु हिला है जाती, 

उर सागर के इस तट से, फिर लहरें आ टकराती। 

होती हलचल हृद में फिर, वह घायल सा हो जाता, 

तेरी यादों में खो कर, करुणा क्रंदन कर गाता। 


ज्यों कृष्ण पक्ष में जलचंचु, बिन शशि के रोता रहता, 

ज्यों सांझ ढले अलि देखो, है कैद कमल में होता। 

ऐसी है उर की हालत, फागुन में पीड़ा गाए, 

सूखी है प्रेमिल सरिता, कैसे प्रिय प्यास बुझाए। 


उलझी -उलझी यह अलकें, कुछ हाल हृदय का कहती, 

ऐ मेरी प्यारी सरला, तेरी पलकें भीगी रहती। 

हृद माँग रहा आलिंगन, अब दूरी सही न जाए, 

उर आहें अब भर- भर कर, नित गीत विरह के गाए। 


कलियों सी तुम खिल जाओ, उर आँगन मम महकाओ, 

यह आनन वारिज सा तुम, ऐसे मत सनम छुपाओ, 

प्रिय बनकर पवन नशीली, तन की मस्ती बन जाओ,   

आ कर प्रिय बाहों में तुम, उर से मेरे लग जाओ। 

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कविताएँ

श्रीमती अरुणा शर्मा, दिल्ली, मो. 9212452654

देवी स्तुति

हे देवी ! तुम श्रद्धा हो,

तुम सरिता हो प्रेम की,

तुम तेज हो सूरज की,

और तुम हो चंद्रप्रकाश 

हे देवी ! स्वीकार करो हमारा नमन


तू शीतलता पवन वेग की

सुबह की अमृत में

प्रार्थना हो सांझ की

तू अमृत पुकार है

हे देवी ! स्वीकार करो हमारा नमन


तू अटल है, काल में

शब्द की टंकार में

तू “ऊँ” की गूंज में

तू ही शंखनाद है

हे देवी ! स्वीकार करो हमारा नमन


तेरे वेग को नमन

तेरे धैर्य को नमन

शांतचित हो सारे कर्म तू निभा रही

कर रही मानवता पर उद्धार

हे देवी ! स्वीकार करो हमारा नमन


विश्वास में तू, आस में तू, धनुष की टंकार में तू

तू ही पाप विमोचनी, लहर लहर बन चल रही,

पावनी बन गंगा तू

बन पापियों के लिए हुंकार हो

हे देवी ! स्वीकार करो हमारा नमन

सभी बहनों व मातृशक्त को समर्पित-

*****

काहे घबराता तू प्यारे

काहे घबराता तू प्यारे तू चल, निशान खुद बनेगा...

वक्त ने दी चुनौति तो क्या? फलदार दरख़्त 

(वृक्ष) पर ही तो पत्थर बरसेगा


रख हौसला तू चलता चल,

कभी पतझड़ तो कहीं बहार मिलेगी-


सब संग तेरे, यूं उदास न हो प्यारे

कहीं पहाड़ तो कहीं बरसात मिलेगी-


गोदी तेरे बेपनाह मुहब्बत 

खुदा है,संग है हुजूम लोगों का,

बरसेगा गुल आस्मां से जहां जहां तू चलेगा-


तू ही राह, तू ही राही

देख सामने खड़ी है मंज़िल

ले समेट अपने सपनों का-


तू ही राह,तू ही राही,

तू ही विजेता अपनी मंज़िल का- घड़ी

घड़ी 

किसके कहने पर खड़ी है,?!

यही तो वो एक है 

जिसने 

पूरी कायनात जकड़ रखी है-

देव, दानव, मनुष्य सारे 

हाथ जोड़े असहाय सारे

देखो!! इसी के आगे खड़े सारे-


कौन इस से बड़ा हुआ है ? 

कौन इसे परास्त कर सका है ?

भौतिक भूल भुल्लैयाँ में पड़े सभी

न जान सका भेद कोई 

जिसे देख हैरान है खुदा भी

यही तो खुदा की खुदी है-

___________________________________________________________________________________


श्री राकेश भारतीय, द्वारका, दिल्ली, मो. 9968334756


कविता


छोटी-सी ज़िन्दगी


एक है मेरा दिल

हसरतों की तमाम पतंगें

हर दिन ही उड़ाता हुआ

और एक है मेरा दिमाग़

उन तमाम पतंगों को तुरंत

अपने राडार पर ले-लेकर

दिशा देने को अकुलाता हुआ


दिल दम लगाये रहता है

अपनी पतंग आज़ाद उड़ाने को

आसमान-आसमान तय करते हुए

उसे मंज़िल तक पहुंचा पाने को

पर दिमाग़ से कुछ छिपता नहीं

नस-नस की थानेदारी करता हुआ

हसरतों के हत्थे पकड़ लेता वहीं


ज़िद दिमाग़ की कि जो उड़े, हिसाब से उड़े

उड़ने के क़ायदों की किताब से उड़े

और दिल का कहना कि वो दिल क्या

जिसमें हिसाब से ही हसरतें हुआ करें

या जो हसरतों में क़ायदों से चला करे


इन दोनों की उठापटक का सिलसिला तो

न थमा, न थमता लग ही रहा

और आख़िरत के क़रीब ही पहुंच गई

ये मेरी प्यारी-सी, छोटी-सी ज़िन्दगी


’’’’’

इति देहकथा


देह है ही ऐसी चीज़

कि इसका कुछ नहीं पता

कब कौन सी धमनी कहां

अवरुद्ध होकर हृदय हिला दे

कहां कौन सा तंतु कब

सड़ते-सड़ते सांस ही अटका दे

धुर जपाट-जाहिल से लेकर

बड़े से बड़े काबिल को नहीं पता


पर देह के दुरुस्त रहते हुए

देहधारी सोचता ही नहीं इसपर

बस एक देह-दुरुस्ती के दम पर

सुख के अनन्त संस्करणों के पीछे

देह दबादब दौड़ाता-फिराता रहता है

देह का दम निकलने का समय

बेसमय ही पास बुलाता रहता है

___________________________________________________________________________________


शीना  वी  के, सह-आचार्य, हिंदी विभाग, सरकारी ब्रेन्नेन कॉलेज, तलाशेरी, कंनूर, केरला। 
मो. 9744772422


कविता

सपने

मानव जीवन के अभिन्न भाग है सपने।

सपनों के विभिन्न अर्थ विशेष हैं।

जैसे व्यापक अर्थ और सीमित अर्थ।

व्यापक अर्थ में सपने जीवन के

विभिन्न लक्ष्य के अर्थ रखते हैं।

सीमित अर्थ में सुबह या रात

देखनेवाले सपने आते हैं

हम सब सपने देखते रहते हैं।

मानव एक प्रकार के स्वप्न प्राणी

क़े समान हैं जो कभी कभी

स्वप्निल मायावी संसार में विचारण करते हैं।

यह एक सत्य बात हैं।

सपनों के विभिन्न प्रकार होते हैं।

कभी मानव आगे बढ़ने का

सपना देखता हैं।

विकास प्राप्त करने का

नया सपना बुनता हैं।

मानव नई जीविका की प्राप्ति का

सपना देखता हैं।

प्रत्येक व्यक्ति क़े मन में निजी

अलग दृष्टिकोण अलग सपने होते हैं।

जो अन्य व्यक्ति से भिन्न होते हैं।

व्यक्ति के लक्ष्य 

अलग होते हैं। उन लक्ष्य की प्राप्ति

के लिए प्रयत्न करना जरूरी हैं।

सपने अंत में सच होने लगते हैं।

कुछ व्यक्ति बाहरी दुनिया से

अलग होकर किन्हीं सपनों

मै खोये रहते हैं।

जैसे प्रेम भावना से ग्रस्त

व्यक्ति की स्थिति ऐसी हैं।

सीमित अर्थ में सपनों क़े अंतर्गत

सुबह और रात के सपने

प्रमुखता आते हैं। 

ऐसा अक्सर कहा गया हैं कि सुबह में देखनेवाले

सपने प्रायः सच होने लगते हैं।

प्रत्येक व्यक्ति क़े मकसद अलग हैं।

उन मक़सदों की 

पूर्ति तक वह

निरंतर प्रयत्न करता हैं।

कभी सपने कराते हैं व्यक्ति को भयभीत।

कभी रात में जाग उठते हैं हम

और आवाज करने लगते हैं।

क्योंकि भयानक सपने हमें डराते हैं।

सपनों के क्या अर्थ हैं इसका

अनुसन्धान होता हैं। अचेतन मन में

दमित भावनाएं रात के विभिन्न पहरों में

मन में दिमाग़ में सपने बनकर आते हैं। ऐसा कहा गया है।

मन क़े तीन स्तर हैं चेतन मन,

अचेतन मन, अवचेतन मन।

इन आतंरिक स्तरों क़े कारण

सपनों का उद्भव  होता हैं।

सपने सब मानव देखते हैं।

अच्छे सपने सबके मन में

ख़ुशी भरते हैं। 

बुरे सपने भयभीत कराते हैं।

मानव जीवन के अभिन्न अंग हैं सपने।


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