अभिनव इमरोज़, जून 2022





इदं न मम

निखातं विद् यः पुरुसंभृतं वसु,

उदिद् वपति दाशुषे।

वज्री सुशिप्रो हर्यश्व इत् करद्,

इन्द्रः क्रत्वा यथा वशत्।।  -ऋग्वेद

वह गतिशील, सुमुख सुन्दर

वह हरणशील घोड़ों वाला

कर्मशील मानव को वह जो

मनवांछित है वर देता

बहुअर्जित ऐश्वर्य भोग

कर गढ़े ख़ज़ाने उद्घटित

आत्मदान करने वालों को

ऐश्वर्यों से भर देता।

काव्यानुवाद: श्री सत्य प्रकाश उप्पल

मोगा (पंजाब), मो. 98764-28718


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कविता


श्री प्रणव प्रियदर्शी

‘हिन्दोस्तान’, राँची के संपादकीय विभाग,  राँची, मो. 09905576828, 07903009545


मैंने ‘नहीं’ कहना सीखा


उसने कहा-

मैं कल तुमसे मिलना चाहता हूँ

कई वजहों से

मैंने उससे कहा-

नहीं, मैं नहीं मिल सकता।


ऐसा मैंने तब कहा

जब कई बार

उसकी मौन पुकार को सुनकर

मैंने ही कहा था-

मैं तुमसे मिलना चाहता हूँ।


इसलिए मेरे ‘नहीं’ कहते ही

नदी लहरों से भर गई

पहाड़ अपनी ऊंचाई से खिसक कर

नीचे आने लगा

सूरज पहले से अधिक लाल हो गया

और हवाओं ने अपना रुख बदल लिया।


उसे ‘नहीं’ कहकर

पहली बार मैंने भी ‘नहीं’ कहना सीखा

और वर्षों से मेरे सामने

खुलता-बंद होता

संशय का दरवाजा

टूटकर बिखर गया।

जिन अहसासों को

मैं हर पल सम्मान देता रहा

अपनी हर खूबियों

और खामियों को किनारे कर

‘नहीं’ कहने के बाद

उन अहसासों की हथकड़ी से

पहली बार मुक्त हुआ

अपने भीतर

पहले से कुछ ज्यादा

सहज, निर्भीक और परिपक्व होकर लौटा।


अब मुझसे कोई बेवफाई नहीं कर सकता

क्योंकि मैंने ‘नहीं’ कहना सीख लिया

अपने जीवन का फैसला अपने हाथों में ले लिया।

मन दरिया में तैरते हुए

मैंने ये जाना है कि

किस दुख का वजन कितना है!

और किस सुख की उम्र कितनी है!!

इसलिए अब किसी से मिलूंगा

तो अपनी अधूरी आकांक्षाओं का

आक्रोश लेकर नहीं

तृप्ति की शालीनता लेकर जाऊँगा।






]





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नज़्म

जनाब ज़ाहिद अबरोल, ऊना, हिमाचल प्रदेश, मो. 9816643939

क़र्ज़

मेरी मजबूरियों के आंगन में

कितने ही हौसले जमा होकर

मेरे एहसास के जनाजे़ को

अपने काँधे पे यूँ उठाते हैं

जैसे यह भी मिसाले-शामो-सहर1

रोज़मर्रा2 का काम हो कोई

ज़िन्दगी के हसीं, उसूलों का

बदनुमा एहतराम3 हो कोई


लोग कहते हैं जब मैं पैदा हुआ

मेरे माँ-बाप के लिए वो दिन

ज़ीस्त 4 के तपते रेगज़ारों 5 में

एक ठण्डी हवा का झोंका था

बाप के मुंजमिद 6 लबों पर मैं

वो खुशी फिर कभी भी ला नसका

ख़्वाब दर ख़्वाब देखती माँ के

दूध का क़र्ज़ भी चुका न सका


ज़िन्दगी काट काट कर मैं ने

बाँट दी अपनों और ग़ैरों में

प्यार, नेकी, वफ़ा, खुलूस 8, अना 9

जिसने जो माँगा उसकी नज्ऱ किया

जिन का मैं क़र्ज़दार था उनको

फ़ज़र््ा की उँगलिओं पे गिन न सका

बादशाहत लुटी मिरी जिस वक़्त 

क़ज़र््ाख़्वाहों 10 का हाथ दिल पर था


मैं इक ऐसी किताब हूँ जिस पर

बदनसीबी की गर्द पड़ती रही

काश! कोई हुरूफ़-ए-ग़म 11 पढ़ कर

जान पाता कि एक मुद्दत से

मेरी बेचारगी के माथे पर

कितने इल्ज़ाम मुस्कराते हैं

मेरी तश्नालबी 12 के सीने में

कितने दरिया उबाल खाते हैं


दोस्तो! मुझ पे रहम मत खाओ

मैंने अपना चमन उजाड़ा है

मेरे पर काटने से भी बदतर

और कोई कड़ी सज़ा ढूँढो 

मैं वो बदख़ू 13 परिन्दा 14 हूँ जिसने

अपनी परवाज़ 15 को ख़ुदा समझा

क़र्ज़ में डूबी बादशाहत को

गुनगुनाती हुई हवा समझा


1. सुबह और शाम की तरह, 2. दिनचर्या, 3. भद्दा सत्कार, 4. जीवन, 5. मरुस्थल, 6. जमे हुए, 8. मन की पवित्रता, 9. अहं, 10. लेनदार, ऋण चाचक, 10. ग़म के अक्षर, 12. प्यास, 13. बुरी आदत वाला, 14. पक्षी, 15. उड़ान




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कविताएँ


सुश्री क्रांति येवतीकर, बड़ौदा 

अपनी-अपनी धूप

जाने कब तक

जाने कब की,

अपनी-अपनी

धूप है सबकी,

जिसको उठाये

फिरते हम-तुम,

कहने को सब

साथ हैं जबकि।


शब्द 1

शब्द विष हैं ?

शब्द अमृत हैं ?

नहीं, शब्द विष नहीं हैं

शब्द अमृत भी नहीं है-

तुम्हारे शब्द तुम्हारा व्यक्तित्व हैं।


शब्द 2

शब्द समय नहीं हैं,

शब्द आदमी भी नहीं-

शब्द फिर क्यों

साथ छोड़ देते हैं

कभी-कभी ?


दर्द

घाव अब भर गया है

ज़ख़्म का निशान भी

नहीं है देह पर,

आश्चर्य मगर

दर्द का एहसास

अभी बाक़ी है.....


डॉ. सारिका आशुतोष मूंदडा, पूणे, मो. 9225527666

हस्ताक्षर

जमीं को आसमां  से मिलाने की, 

असंभव सी कोशिश करते हैं... 

कुछ हस्ताक्षर 

उनके शब्दों के नीचे होती है 

एक पंक्ति....

और फिर वो पंक्ति उठती है,

आसमां की ओर.... 

वो देख ही नहीं पाते शायद 

और जोड़ देते हैं... 

अनायास ही जमीं और आसमां

मगर क्या ये संभव  है ?

या मात्र भरम 

लंबे से लंबे.... 

ऊंचे से ऊंचे दरख़्त भी तो 

मानो यही कहते हैं... 

कि दूर है आसमां अभी... 

और परिंदे... 

वो भी तो उड़ान भरने के लिए, 

सबसे पहले छोड़ते हैं... 

अपने पैरों तले की ज़मीन 

क्या कोई उड सका है कभी

जमीन पर टिकते हुए... ?

टिकते हुए तो नहीं

मगर टिककर ही उडान भर सका है ,

संतुलन ज्यों ही गडबडाया.... 

उडान विफल, ध्वस्त !

और जिसने साध लिया, 

ये संतुलन ...

वही जान पाया है 

कि भरम नहीं है ये.. 

संभव है, होता है,  मिलते हैं.. 

जमीं आसमां कहीं ना कहीं

उठती है एक रेखा जमीं से.. 

और छूती है आसमां को... 

हां... 

संतुलन  

हर पल नया है.. 

और शायद इसी गणित को निरूपित करते हैं

कुछ हस्ताक्षर.   

क्या कुछ ऐसे ही हैं 

आपके हस्ताक्षर !              

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संपादकीय

ज़िंदगी में कुछ हादसे ऐसे होते हैं कि दिमाग़ के धूसर गुदे के साथ ऐसे चिपक जाते हैं कि ताउम्र उन हादसों के असर का एहसास वक़्त बे-वक़्त हो जाता है कभी तो प्रसंगवश और कभी यूं ही आ जाते हैं याद वह वाक़िआत चाहे आज वह बेमायना ही क्यों न हो चुके हों। जब कभी वह घटे होंगे उस वक़्त संवेदनाओं का वेग कितना तीव्र रहा होगा कि आज भी उनका महज़ ज़िक्र कितना स्पंदित कर जाता है। 

अगस्त 1947: मैं शायद साढ़े पाँच साल का था, हमारे घर के सामने सड़क पार एक मुस्लिम परिवार खूबसूरत कोठीनुमा घर में रहता था- उनका एक इकलौता बेटा अमजद मेरे भाई का दोस्त था- मेरा भाई मुझसे 10 साल बड़ा यानि साढ़े पंद्रह साल का। अमजद मुझे भाई की तरह प्यार करता था और कई बार अपने कंधों पर बिठाकर गली की सैर भी करवा देता था। उस दिन इतवार था। यह मुझे इसलिए याद है क्योंकि इतवार के दिन ही हमारे यहां नाश्ता सूजी के हलबे का बनता था। मैं, मेरा भाई, बहने और पिता जी रसोई में बैठकर हलबा परोसे जाने की इंतज़ार में थे। इतने में अमजद भागता हुआ आाया और हांफता हुआ बोला- ‘‘हम पाकिस्तान जा रहे हैं, मकान को ताला लगा दिया है- चाबियां दौलतराम ताया जी को दे दी है- हम जल्दी ही लौट आयेंगे। हम सारे उठ खड़े हुए उसने मेरे भाई को गले लगाया और मुझे उठा कर कंधे पर बिठा लिया। मेरी मां ने उसे हलबा खिलाया। हम सब लोग उसे सड़क तक छोड़ने गए। उसके बाद अमजद कभी लौट कर नहीं आया। मैं अपने शहर में 1960 तक रहा। स्कूल और कॉलेज से आता-जाता हुआ उस कोठी की ओर जरूर झांक कर गुज़रता कि शायद अमजद आ गया हो। मेरे जेहन में अमजद आज भी जिं़दा है। 

मेरा एक बचपन का दोस्त- दर्शी हमारे घर के सामने रहता था। 24 घंटे में से 16 घंटे हम साथ ही रहते थे, फिर वह अपने भाई के पास चला गया- फिर कहाँ गया कुछ पता नहीं। करीबन 40 साल बाद एक खूबसूरत आदमी अपनी जर्मन पत्नी के साथ मुझसे मिलने आया। मेरे लिए पहचान पाना मुश्किल था- वह मेरी तरफ मुस्कुराता हुआ देखता रहा, कुछ देर बाद खुद ही बोला ‘‘मैं दर्शी हूँ’’। और मेरे गले लग गया। मैं जल्दी ही उससे अलग हो गया और थोड़े फासले पर बैठक में बैठ गया। अगली-पिछली बातें होती रहीं। माहौल अच्छा बना रहा उसकी जर्मन पत्नी भी हमारे हाव-भाव देखकर खुश होती रही लेकिन मैंने दर्शी से दूरी बकरार रखी क्योंकि बचपन में उसने मुझे बहुत जोर से दांतों से काटा था। और मेरी चीख से पूरा महोल्ला इकट्ठा हो गया था। उस वक़्त की दहशत मेरे जेहन में इस मुलाकात में भी इस कदर कौंधी हुई थी कि मैंने उसके विदा होते समय हाथ मिलाने में भी डर महसूस किया-- मुमकिन तो नहीं था, पर मुझे डर था कि आज भी दर्शी फिर से न मुझे काट ले। 

बोल अनमोल: बात 62 वर्ष पुरानी है। कॉलेज में 1960 के पी.यू. यूथ फैस्टीवल की तैयारी चल रही थी। डॉ. त्रिलोक तुलसी ‘चाँद का सफर’ नाटक के लिए कास्ट का चयन कर रहे थे- उन्होंने लिस्ट पढ़ी 1. कैलाश, 2. सतीश, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9. देवेन्द्र परोंम्पटर- बाद में मैंने प्रो. तुलसी से अकेले में पूछा ‘‘मुझे कोई रोल क्यों नहीं दिया गया’’ प्रो. साहब ने बड़े इतमिनान से समझाते हुए जवाब दिया ‘‘बतौर परोम्पटर तुम्हें नाटक का पूरा कान्सेप्ट समझ आ जाएगा। रिहर्सल के दौरान छंटनी भी होगी- नए चेहरे भी लिए जाएँगे और तुम तो किसी भी भी रोल में फिट हो जाओगे- चिंता मत करो’’ यह कह कर प्रो. तुलसी ने इस नाटक में ही नहीं बल्कि मेरे जीवन में सम्भावित प्रत्येक नाटक का मुझे नायक घोषित कर दिया था- और हुआ भी ऐसे ही। ‘‘चाँद का सफर’’ नाटक में मैंने नायक की भूमिका निभाई और बाद जीवन में भी आज तक नायक होने के जज़्बे और एहसास से लबरेज रहा हूँ।

घटना आखिरी परन्तु महत्वशाली: 1961 में प्रो. तुलसी ने प्रकाश पंडित का व्यंग्य नाटक ‘अखबार का दफ्तर’ में मुझे सम्पादक का रोल दिया- और रिहर्सल के दौरान एक सुघड़ सम्पादक मेरे मन में घड़ कर बिठा दिया- और आज वही संपादक आप की सेवा में उपस्थित है। 

जो हादसे 6 दशक पूर्व घटित हुए वह आज भी मेरे अस्तित्व का अभंजित अंग बने हुए हैं। 

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कहानी


सुश्री राजवंत राज, मो. 9336585211, E mail : rajwantj@gmail.com


सिगेरां वाली

सिगेरां वाली अपने पोते को गोद में थपकियाँ दे कर सुलाती हुई टी वी पर ख़बरें देख रही थी कि तभी जादू टोने वाली बता कर मुहल्ले वालों द्वारा एक महिला को मारते-पीटते लगभग निर्वस्त्र कर सड़क पर घुमाने की हृदय विदारक खबर देख कर वह क्षोभ और पीड़ा से भर उठी। पास बैठी चावल बीनती हुई बहू कुलवंत से कहा ‘‘इस दुनिया में पाप का कोई अंत है कि नहीं ? औरत की इज्ज़त आबरू का पहले भी मज़ाक बनता आया था... देख ना... आगे भी यही सब कुछ होता रहेगा।’’

कुलवंत ने हामी भरते हुए सिर ऊपर किया तो देखा बीजी का चेहरा तमतमाया हुआ है। वह बोली ‘‘बीजी, यह सब तो अब आये दिन की बातें होती जा रही हैं। न तो पांच सात साल की बच्ची ना ही अस्सी साल की ज़नानी कोई भी तो महफ़ूज़ नहीं है..... देखा नहीं दस दिन पहले टी.वी., अखबार सब जगह बीरपुरां की प्रीतो को जिंदा जलाने की खबर की कितनी चर्चा थी मगर क़ुसूरवार आज तक फरार है।” ‘‘हाँ पुत्तर! तू सच कह रही है..... पहले ज़माने में जो कोई एक भी ऐसा हादसा हो जाता था तो उसकी आवाज़ पास के दस पिंड तक गूंजती थी मगर आज तो लोग अपने आप में इतने मशगूल हो गए हैं कि ऐसी दस खबरों से भी उनका दिल नहीं पसीजता है.... किसी को क्या पड़ी है।’’ कहते-कहते सिगेरां वाली को अपना वक़्त याद आ गया। उन्होंने अपना हाथ आगे करते हुए आगे कहा- ‘‘आज तो पुलिस है, कोर्ट कचहरियाँ हैं, अख़बार हैं, ये टी वी वाले हैं... हर बात के लिए जवाब सवाल और गवाह मुहय्या हैं.... हमारे ज़माने में तो एक गवाही के लिए भी बिरला कोई एक बन्दा आगे आ जाये तो बड़ी बात होती थी..... सच बोलने के लिए जिगरा चाहिए होता था.... हाँ, पंच और उनके फैसले नेकनीयती और बिना दबाव के होते थे। कोई पैसों का लेन-देन नहीं, कोई रिश्वतखोरी नहीं ....आजकल ऐसा कहाँ। ‘‘सिगेरांवाली ने अपने सिर पर डाला दुपट्टा खींच कर ठीक करते हुए लम्बी साँस भर कर कहा’’ मैं तो जी आज भी दोनों हाथ जोड़ कर अरदास करती हूँ कि बलबीर सिंह की आत्मा को वाहेगुरु अपने चरणों में वास दे... उसपर अपनी नेमत बख़्शे जिसने भरी पंचायत में सीना ठोक कर मेरी बेगुनाही पर अपनी मोहर लगाते हुए गवाही दी, वरना पंच भी सच से अन्जान रह जाते और जाने क्या फैसला देते।’’ 

‘‘बीजी, आपके लिए गवाही ? क्यों, क्या हुआ था ? आपने तो कभी जिक्र नहीं किया और ये बलबीर सिंह कौन था ? ‘‘बहू कुलवंत ने उत्सुकतावश प्रश्नों की झड़ी लगा दी। 

‘‘अरे! तुम तो यकमुश्त ही शुरू हो गई। एक साथ इतने सारे सवाल ?’’ सिगेरां वाली हंसते हुए बोली।

कुलवंत चावल वाली थाली लिए-लिए अपना मूड़ा खींच कर और पास आ गई और कहा ‘‘बताओ ना बीजी ये बलबीर सिंह कौन था ?’’ 

सिगेराँ वाली के चेहरे पर एक स्निग्ध मुस्कान तैर गई। ‘‘बलबीर सिंह फरिश्ता था... रब का भेजा बन्दा..... उसी ने बाद में मुझे बताया था कि कैसे सुजान सिंह ने उसे मेरे मुकदमे के मुतअल्लिक़ हर बात पर ग़ौर करने और होशियार रह कर सारा वाक़िअः सच्ची-सच्ची पंचों के सामने बयान करने का हौसला दिया था। सुजान सिंह बलबीर का जिगरी दोस्त था।’’

‘‘ये किस मुक़दमें की बाबत आप बात कर रही हो बीजी ?’’ कुलवंत ने फिर पूछा। 

सिगेरां वाली ने गोदी में सोये अपने पोते के ऊपर पड़ी चादर को ठीक करते हुए अपना सिर कुर्सी पर पीछे टिका लिया। उसे बलबीर सिंह की बताई एक-एक बात याद आने लगी कि कैसे उस दिन जब सुजान सिंह ने उसके दरवाज़े आ कर ‘‘बलबीर ओये बलबीर’’ की गुहार लगाई थी तो उसकी भारी भरकम आवाज़ सुनकर वह हकबका कर चारपाई से उठा था तो लुंगी उसके पैरों में उलझ गई थी और वह औंधे मुंह ज़मीन पर गिर पड़ा था। झुंझलाते हुए उसने अपनी लुंगी समेटी और दालान पार कर दरवाज़े की कुण्डी खोली तो सामने खड़े सुजान सिंह ने शरारतन मुस्कुराते हुए पूछा था - “क्यों वीरां ! अजे उतरी नहीं ?’’ 

बलबीर ने थोड़ा झेंपते हुए कहा- ‘‘छोड़ो भी यार !..कैसी बातें कर रहा है.... अच्छा ये तो बता कि तू किस वास्ते आवाज़ दे रहा था ?’’

सुजान सिंह बोला- ‘‘यार ! पंचायत में सिगेरां वाली का फैसला कल ही आना है ना ?’’

सहसा बलबीर गम्भीर हो गया - ‘‘हाँ भई, मुझे अच्छी तरह याद है कि फैसला कल ही आना है। मैं तो जी ज़रूर बोलूँगा।’’

सुजान सिंह ने चिंता जताते हुए कहा - ‘‘देखना भई, कत्ल का मामला है.... सोच समझ कर बोलना.... जो कहीं उल्टा सीधा बक गया तो समझो खैर नहीं।’’ 

बलबीर का चेहरा सख्त हो आया। उस ने सुजान सिंह के कंधे थपथपा कर कहा- ‘‘तू चिंता ना कर.... हाँ, बोलूँगा तो वही जो इन आँखों ने देखा है।’’

सुजान सिंह ने उसकी हाँ में हाँ मिलते हुए कहा - ‘‘तू ठीक कह रहा है यार ! बेचारी सिगेरांवाली ! जब से ब्याह कर आई है कोई पल उसे चैन नसीब नहीं हुआ है.... अमरीक सिंह ने पहले भी बड़ी कोशिश की कि किसी तरह भी हो सके उसे किसी बहाने अपने शीशे में उतार ले मगर वह बेचारी अपने आप को बचाते हुए, बिना कुछ बोले सब कुछ सहन करती रही... लेकिन है बड़े जिगरे वाली... अपनी अस्मत बचाने के लिए सारी ताकत झोंक दी।’’

बलबीर सिंह घृणा से बोला- ‘‘वैसे अमरीक की घरवाली है बड़ी कमीनी... अपने मरद की सारी करतूत जानते-बूझते हुए भी उसी का साथ दे रही है।’’ 

सुजान सिंह ने उसकी हाँ में हाँ मिलते हुए कहा- ‘‘तू बिलकुल ठीक कह रहा है... अरे उसका पुत्तर जान से गया... कम से कम इस दफा तो सच की साथी बनती।’’

 बलबीर ने गुस्से में मुट्ठियाँ भींच कर कहा-“ मैंने तो जी सारा वाकिअः अपनी आँखों से देखा है... मैंने किसी भी हालत में अमरीक का साथ नहीं देना है ...बस वाहेगुरु मुझे सच्ची हिम्मत और बुद्धि बख्शें ताकि उस पापी को उसके बुरे कर्मों की सजा दिलवा सकूं। ‘‘सुजान सिंह ने उठने का उपक्रम करते हुए अपने घुटनों पर हाथ रख कर जोर दिया और कमर सीधी करते हुए कहा-“ तेरी बात सौ फीसदी सही है। अभी भी देखो... पुत्तर मर गया पर वह अपनी गलती छुपाने में लगा हुआ है...  सच्ची बहुत बड़ा कमीना है। चल भई बलबीरा ! अभी तो मै खेत जा रहा हूँ, तुम ध्यान से रहना। बेशक उस शैतान को पता नहीं है कि तू उसके खिलाफ गवाही देने वाला है फिर भी होशियार रहना। वक़्त का पता नहीं होता है जी। 

‘‘गर्म लू के थपेड़ों से सारा गाँव बेहाल है। धरती मानो बंजर हुई जा रही है। पानी की ऐसी किल्लत गाँव वालों ने कभी देखी नही थी। जनरेटर में डीजल डालने की क़ुव्वत कुछ के ही पास है बाकी सब तो आसमान का मुंह ताक रहे हैं। अपनी जरूरत के लिए कोई जो अमरीक सिंह के पास जाये तो इस समय वह थैली का मुंह खोल देगा हर बंदे को अपने पक्ष में करने के लिए... मगर सब को उसकी नस-नस का पता है इसीलिए कोई उसके दरवाज़े मदद के लिए नहीं गया है। 

शाम के चार बज गये। उमस और पसीने से बेहाल लोगों की भीड़ अभी से चौपाल में जुटने लगी है। पहली बार औरतों की तादात मर्दों से ज्यादा है। सिगेरां वाली मामले में होने वाले फैसले को लेकर एक अजीबोगरीब तनाव ग्रस्त सन्नाटा पसरा हुआ है। सभी अमरीक की कमीनगी से वाक़िफ़ हैं लेकिन कत्ल तो हुआ है वह भी सोये हुए मासूम बच्चे का जिसकी कोई गलती नहीं। सारे पंच एकत्रित हो गए तब सरपंच बिशन सिंह ने गला खंखारते हुए पंचायत की कार्यवाही शुरू होने का संकेत दिया और फिर सीधे सिगेरां वाली को मुख़ातिब हो कर पूछा- ‘‘बीबी सिगेरां वाली, तुझे पता है पंचायत किस वास्ते बुलाई गई है ?’’

सिगेरां वाली चुपचाप खड़ी पैरों के नाखून से ज़मीन की मिट्टी कुरेदती रही। 

‘‘बोल बीबी ? “-सरपंच ने सवाल फिर दोहराते हुए पूछा- 

‘‘जी पता है जी’’- सिगेरां वाली ने धीमे से जवाब दिया। 

सरपंच ने दूसरा सवाल किया- ‘‘अमरीक सिंह की जनानी ने तेरे खिलाफ़ पंचायत में गुहार लगाई है कि तूने गंडासे से उसके पुत्तर का कत्ल किया है, क्या ये सच है ?’’ 

सिगेरां वाली ने पलकें ऊपर उठा कर देखा तो अमरीक सिंह दोनों हाथ कमर पर रखे, रेशमी कुरते की बाँह ऊपर किये, अपने चार पाँच गुर्गों के साथ खड़ा उसे ही घूर रहा था। उसने मन ही मन वाहेगुरु को याद किया और फिर अमरीक सिंह की आँखों में आँखें डालते हुए निर्भीक स्वर में उत्तर दिया -‘‘हाँ जी, मेरे ही हाथों उस मासूम का कत्ल होया है जी.... मगर मैं इस पापी, दुराचारी का कत्ल करना चाहती थी।’’

फैसला सुनने आये लोगों में खुसुर-पुसुर होने लगी तभी अमरीक की घरवाली दोनों हाथों से अपनी छाती पीटते हुए दहाड़े मार कर रोने लगी और उसे कोसते हुए कहा -‘‘खसम-नूं-खानी ! अपने मरद को तो तू पहले ही खा गई अब मेरे मरद के पीछे क्यों पड़ी हुई है ? उसने तेरा क्या बिगाड़ा है ? हाय मेरा सोने जैसा पुत्तर... तेरा हाथ नही काँपा गंडासा चलाते हुए ? हाय हाय .... तुझे नर्क में भी जगह ना मिले.... हाय हाय... मेरा लाल ....मेरा चन्नी’’। अमरीक सिंह के घर की दो चार औरतें भी आवाज़ में आवाज़ मिला कर ज़ोर ज़ोर से सयापा करने लगीं तो सरपंच जी ने ऊँची आवाज़ में उन्हें डपटा- ‘‘ओये, चुप करो... इस तरह सयापा कर के पंचायत के काम में खलल ना डालो बिबियों’’।

फिर सिगेरां वाली की तरफ मुख़ातिब हो कर पूछा- ‘‘हाँ, तो फिर तफ्सील से कत्ल की बाबत सारी बात बताओ कि तू अमरीक सिंह को क्यों मारना चाहती थी ?’’ 

सिगेरां वाली ने दोनों हाथ जोड़ कर सरपंच जी से कहा ‘‘मालकों ! ये पैसे वाला ज़रूर है पर शरीफ बन्दा नहीं है। लोगों की मजबूरियों का फायदा उठाने वालों में से है... उसकी देनदारी हम पर थी उसे वापिस करने उस दिन जब मैं....‘‘बीच में ही उसकी बात काटते हुए अमरीक सिंह बोल पड़ा ‘‘इसका खसम-मर खप गया, मेरी पूँजी भी डूब गई, जो रकम उसने ली उसका तो कोई हिसाब नहीं उसके बाद भी मेरे से पैसे लत्ते की मदद लेती रही है। सरपंच जी रकम वापस करने का कोई नाम ही नहीं है। जब मैंने तकादा किया तो उलटे मुझे ही बदनाम करने आ गई।’’ 

सिगेरां वाली ने तड़प कर गुस्से में चीखते हुए कहा - ‘‘अच्छा! कुर्ती में हाथ डाल के तकादा किया जाता है...? तू चुल्लू भर पानी में डूब कर मर क्यों नहीं जाता बेशर्म।” फिर सरपंच जी की तरफ देख कर कहा-“सरपंच जी मेरे मर्द के ग़ुज़र जाने के बाद इस कमीने ने मेरा जीना मुहाल किया हुआ था। मैं दिन रात मेहनत-मशक्कत कर के, लोगों के कपड़े लत्ते सिल-सिल के जोड़ी रक़म इसे वापिस करने गई थी... इस पापी को बर्दाश्त नहीं हुआ कि कोई मजबूर औरत इसका दिया कर्ज़ा रूपये की शक्ल में वापस करे। फिर अमरीक सिंह की तरफ मुंह करके पूछा - ‘‘बोल कमीने! बोलता क्यों नहीं कि ये सारी बात सच है या नहीं ?’’ 

दुःख और आवेश से सिगेरां वाली का चेहरा लाल हो आया था। पंचायत में दम साधे बैठे लोगों के चेहरे पर अमरीक सिंह के लिए नफरत और धिक्कार का भाव साफ दिखाई दे रहा था। उन सभी को सिगेरां वाली से पूरी हमदर्दी थी लेकिन कत्ल तो कत्ल होता है...चाहे कैसे भी हालात में हुआ हो, सजा तो मिलनी होती है ना। “ बीबी ! तेरी बेगुनाही का कोई गवाह है ?’’

सरपंच जी के इतना पूछते ही पहले से ही पीड़ा से भरी सिगेरां वाली फट पड़ी- ‘‘मालकों, आप जी का मतबल है कि मुझे गवाह ले के आना चाहिए था- तो नहीं है गवाह ...चलो दे दो फांसी... चढ़ा दो सूली... इस पापी की बात पर दे दो सज़ा जो जी चाहे...मुझे सब क़ुबूल होगी... पर मेरी बात पर भी इसके दोनों हाथ काटने की भी सजा आप ही सुनाओ तब मैं आपका इंसाफ मानूं’’।

दुःख और गवाह न होने की बेबसी से उसकी आँखें डबडबा आई और वह वहीं खड़ी-खड़ी दोनों हाथ से मुंह ढांप कर रोने लगी। आजतक पंचायत में किसी औरत ने इस तरह ऊँची आवाज कर के अपना मुंह नहीं खोला था। एकबारगी तो पंच भी सकपका गये- इंसाफ का मुंह जोहती सारी बिरादरी और आसपास से आये गाँव वालों की निगाहें पंचों की तरफ उठी हुई थी। कत्ल के गवाह कई हैं... बेगुनाही का एक भी नहीं। 

सरपंच जी कुछ बोलते इससे पहले एक कोने से आवाज आई- ‘‘पंचों ! आपको गवाही की दरकार है जी,तो मैं गवाही देने वास्ते तैयार हूँ’’।

पंचों समेत सभी की निगाहें आवाज़ की तरफ उठीं। वहाँ बलबीर सिंह खड़ा था। उसके चेहरे से सच का नूर टपक रहा था। अमरीक और उसके साथी हैरानी से उसे देखने लगे। वह बलबीर जो उसके यहाँ चाकरी करता है, भैसों को नहलाता है, चारा डालता है, गोबर उठता है, कंडे थापता है वह अपने मालिक के खिलाफ गवाही देगा ? यह कैसे हो सकता है ? मगर आज हुआ है।

इसी गवाही की कमी की वजह से अमरीक के जबड़ों में अपनी बड़ी ब्याहता बहन को लहूलुहान होते उसकी महज आठ साल की मासूम आँखों ने देखा है... जिसे इंसाफ नहीं मिलना था तो नहीं मिला। कोई गवाही देने की हिम्मत की सोच भी नहीं सका था। यहाँ तक कि उसके माँ बाप ने भी उसका दाह संस्कार आनन-फानन में कर दिया। उसकी मासूम आवाज यह कह कर चुप करा दी गई कि इन बड़े लोगों से पार नहीं पा पायेंगें उलटे सारी ज़िन्दगी की दुश्मनी पाल लेंगे जो बस की नहीं है। आज फिर वही मंजर है। मर्द तो औरत पर ज़्ाुल्म करता है पर क्या औरत औरत पर ज़्ाुल्म नहीं करती ? इसी अमरीक की घरवाली ने उसकी रोती बिलखती माँ की पसीजती हथेली में सौ-सौ के दो हरे नोट ठूंस कर आँखें तरेरते हुए कहा था ‘‘जबान बंद रखना, एकदम बंद... इसी में तेरे परिवार की खैर है... मर्दों का क्या है कुछ नहीं जाता... देखना न कोई बन्दा मिलेगा न बंदे की जात... किसी में इतनी कुव्वत नहीं कि मेरे सरदार के सामने मुंह खोले... समझी... जो हो गया सो हो गया... मिट्टी पा।’’ 

 और सच में आनन फानन में लकड़ियाँ जोड़ बाप ने चिता जला कर उसका दाह-संस्कार कर दिया और इस तरह उसकी बहन की मौत पर मिट्टी पड़ गई। उस तूफानी बरसात में अमरीक सिंह के डर और बेइन्तहां दर्द को बर्दाश्त करने की गरज़ से उसी दो हरे नोटों से दारू की बोतल आई और ब्याहता बेटी की इज्ज़त और मौत दोनों को घूँट-घूँट गले से नीचे उतार... बेटी के अस्तित्व को ही बीते माह के कलेंडर के पन्ने की तरह फाड़ कर फेंक दिया। 

उस आठ साल के बच्चे के दिलो-दिमाग़ पर बहन पर हुए अत्याचार और माँ बाप से हुए नफरत की जो फाँस गड़ी हुई थी उसका दर्द ही आज नासूर बन कर फूट पड़ा था। वही पुरानी बातें याद कर बलबीर सिंह का ज़ख्म हरा हो गया। आवेश और गुस्से से उसका जिस्म थरथरा रहा था। दिल दिमाग और गले की नसें फूल गई। उसकी भिचीं मुट्ठियों में खून सा जम गया पर जिस मक़सद से वह यहाँ आया है उसका ख़्याल कर उसने किसी तरह अपने आप को काबू में किया। 

सरपंच ने ऐनक ठीक करते हुए गौर से उसे देखा और पहचानते ही हैरानी से पूछा- ‘‘तू जीवन सिंह दा पुत्तर ही है ना ?’’

बलबीर ने हामी भरी - “हाँ जी’’

पंच दलेर सिंह ने पूछा - ‘‘तू इस मामले में सिगेरां वाली की तरफों गवाही देने आया है, दुरुस्त है ना ?’’ 

‘‘जी मालकों...बिलकुल दुरुस्त है जी।” - बलबीर ने कहा। 

सरपंच बिशन सिंह ने कहा - ‘‘देखो जी, कत्ल का मामला है... सोच समझ कर बोलना .... जो तेरी गवाही गलत निकली तो समझो खैर नहीं।’’

बलबीर ने सिर हिला कर हामी भरी तो सरपंच ने हुकुम दिया- ‘‘चलो सिलसिलेवार वाकया बयान करो।’’

बलबीर सिंह ने अपने दोनों हाथों को जोड़ कर सिर ऊपर कर वाहेगुरु को याद किया और फिर सधी आवाज में बोलना शुरू किया -

‘‘मैं बलबीर सिंह, वल्द जीवन सिंह, वाहेगुरु को हाज़िर - नाजिर जान कर पंचों के आगे सच बयान करने आया हूँ जी। ये अमरीक सिंह बहुत बड़ा बेईमान और दुराचारी है, इसकी दबंगई के आगे कोई मुँह नहीं खोलता है... 

‘‘नास होए तेरा नमक हराम’’ अमरीक सिंह की जनानी ने उसे बीच में टोकते हुए आँखे तरेर कर कहा- “ जिसकी थाली में खाया है उसी में छेद करने चला है...चल दफा हो ... बड़ा आया गवाही देने वाला।’’

बलबीर ने कहा -‘‘आप तो जी, कुछ भी ना बोलो तो बड़ी मेहरबानी होगी।’’

 अमरीक की औरत फुफकारी - ‘‘क्या मतलब है तेरा?’’

‘‘मतलब बिलकुल साफ़ है बीबी, रब से डरो... पाप का साथ देने वाला भी पाप का भागी होता है. ..आगे, आपको सारा स्याह - सफ़ेद पता है फिर भी आपने अक्खां मिटियाँ हुई है...बस करो बीबी ! बस करो।’’

फिर अमरीक सिंह की ओर हाथ उठाकर इशारा करते हुए कहा -“ इस पापी आदमी ने पिंड की सारी जनानियों की इज्ज़त को अपनी जूती के नीचे रखा है...अपनी मल्कियत समझता है... गाँव की बहू बेटियाँ पूरे गाँव की सांझी इज्ज़त होती हैं, मल्कियत नहीं’’। अमरीक सिंह गर्दन तिरछी करके मुस्कराता हुआ एक हाथ से मूंछों को ऐंठता रहा मानो उसपर कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा हो। सरपंच ने बलबीर सिंह से कहा - ‘‘तुम्हें जो कहना है, जो बताना है साफ़ साफ़ सिलसिलेवार बताओ’’।

बलबीर सिंह ने पंचों की तरफ हाथ जोड़ कर कहा ‘‘मालको! मै आँखों - देखी ही बयान करूँगा जी। इस सिगेरां वाली का खसम बड़ा ही शरीफ और मेहनतकश बन्दा था जी...पर समय का फेर, पिछली दो खड़ी दो फसलों में लगी आग ने उसकी कमर ही तोड़ दी....छाती का दर्द मौत दे गया। दो बच्चे और बूढी सास की परवरिश इस पर आन पड़ी... खुद भूखे पेट सोई बच्चे बेचारे आधे पेट। देनदारी की चिंता में दिन रात एक कर दिया। गिट्टियां तोड़ी, मजदूरी की, जच्चे बच्चे की मालिश की। बस एक ही धुन...कैसे भी हो अमरीक सिंह के पैसे वापस हों’’।

 उसने सिगेरां वाली की तरफ देखा। वो सिर झुकाए खड़ी थी। रोष इंसान को जहाँ पत्थर बना देता है वहीं प्रेम, दया और सहानभूति के दो बोल उस पत्थर को भी पिघलाकर मोम बना देते हैं। यही सिगेरां वाली के भी साथ हुआ। उसकी आँखों से निकले आंसुओं की हर बूँद में बलबीर सिंह के लिए कृतज्ञता टपक रही थी। इस दुनिया में ऐसे लोग बहुत कम होते हैं जो निःस्वार्थ भाव से सच का साथ देने और मदद के लिए आगे आते हैं...। जरूर परमात्मा अपने बगीचे की मिट्टी से उन्हें गढ़ता होगा। उधर बलबीर सिंह क़त्ल वाले दिन का वाकिआ ब्योरेवार सुनाने लगा-“ जी जनाब ! उस दिन भी रोज़ की तरह मैं अमरीक सिंह की भैसों को सानी- पानी दे रहा था जब सिगेरां वाली इसके घर क़र्ज़ की रकम लौटाने आई थी। रकम देखकर अमरीक सिंह की आँखें फटी की फटी रह गईं। पहले तो उसने हिसाब-किताब में ही उलटफेर करने की कोशिश की मगर जब सिगेराँ वाली ने पाई-पाई का हिसाब सूद समेत सामने किया जो उससे बर्दाश्त नहीं हुआ और तब अमरीक सिंह और उसके गुर्गे उसका मज़ाक उड़ाने लगे.... भद्दी भद्दी बातें करके उसे परेशान करने लगे। जब सिगेरां वाली से सहन नहीं हुआ तो वो सारी रकम मंजी (चारपाई) पर रखकर मुड़ी तभी इस अमरीक सिंह ने उसका हाथ पकड़ के खींचा और मंजी पर धक्का दे कर गिरा दिया और उसकी कुर्ती में हाथ डाल दिया। अमरीक सिंह को धक्का मार कर, अपना बचाव करने वास्ते बिजली की तरह पास रखे गड़ासे को उठा कर हवा में लहराया। अमरीक सिंह झुक कर एक तरफ हो गया... और वो गंडासा पास सोये बच्चे के गले पर लग गया। वो बेचारा नन्हा बाल खून से लथपथ वहीं का वहीं ढेर हो गया’’।

सभी दम साधे बलबीर सिंह की गवाही सुन रहे थे। सच जान कर चारो तरफ थू-थू होने लगी। बलबीर सिंह ने आगे बोलना शुरू किया -‘‘वाहेगुरु जानता है बड़ों के अच्छे -बुरे कर्माे का फल उसके बच्चों को ही भुगतना पड़ता है जी। वो मासूम नन्हा बाल ...बिना कसूर ही मारा गया’’। 

 पंचायत में बैठे लोगों की आवाजाही धीरे-धीरे ऊँची होने लगी।

माहौल उबाल खाने लगे इससे पहले ही सभी पंचों ने आपस में सलाह मशविरा करके फैसला सुनाने का निर्णय ले लिया। सरपंच बिशन सिंह ने दोनों हाथ उठा कर सभी को शांत होने को कहा फिर फैसला सुनाते हुए बोले ‘‘पंचायत ने दोनों पक्षों की बातें सुनी और चश्मदीद गवाह बलबीर सिंह के बयान के बाद इस फैसले पर पहुंची है कि अमरीक सिंह की बदनीयती जग जाहिर हो गयी है... ये भी साफ़ हो चुका है कि वाकये वाले दिन उसने और उसके आदमियों ने सिगेरां वाली से बदतमीज़ी करने की कोशिश की जो बहुत ही शर्मनाक है... घर वाले की मौत के बाद सिगेरां वाली बड़ी तंग हालत में आ गयी... उसने और उससे पहले उसके घर वाले ने गाहे-बगाहे अमरीक सिंह से पैसे की मदद ली इसमें झूठ नहीं है मगर पाई-पाई जोड़ कर क़र्ज़ वापसी की नीयत साफ़ रखी.... बीबी सिगेरां वाली मेहनत-मशक्कत करती रही लेकिन उससे भी दो बड़ी चूक हुई। एक तो पैसे वापिस करने जाना वो भी अकेले बिना किसी गवाह के। मान लो रकम लेकर अमरीक सिंह मुकर जाता फिर क्या करती ? किसी जान पहचान वाले को साथ ले कर जाना चाहिए था। दूसरी चूक है उसके हाथों हुआ खून। क़त्ल तो क़त्ल ही होता है... चाहे जाने में हो या अनजाने में ...। अमरीक सिंह को वाहेगुरु ने बुरे कर्माे की सजा आप ही आप दे दी...सोने जैसा पुत्तर गंवा बैठा। अमरीक सिंह तुझे ही नहीं... तेरी जनानी को भी शर्म आनी चाहिए। जनानियां तो गलत रस्ते पड़ गए अपने मरद को संभालने में मदद करतीं हैं पर तेरी जनानी ! छिः ! ये पंचायत अमरीक सिंह को हुकम देती है कि वो सिगेरां वाली को सारी पूँजी वापस करे और अपनी देनदारी से मुक्त करे मगरो अपना चाल-चलन दुरुस्त करे। ख्याल रहे इस क़िस्म की कोई शिकायत ना आये वरना आगे सख़्त से सख़्त कदम उठाते हुए उसका इस पिंड से रोटी-बेटी का सम्बन्ध ख़तम कर दिया जायेगा’’।

 लोग दम साधे ये सुनने को बेताब थे कि पंचायत सिगेरां वाली को क्या फरमान सुनाती है। सरपंच ने फैसला सुनना जारी रखा और सिगेरां वाली की तरफ देख कर गंभीर आवाज़ में बोले- “बीबी ! तेरे हाथों खून हुआ है... नीयत नहीं थी... अनजाने ही सही, लेकिन हुआ तो है न । इस वास्ते पंचायत ये हुकम सुनाती है कि तू पूरे एक साल इस चौपाल की सफाई, झाड़ू-बुहारू करेगी। रोज़ सुबह शाम दो घड़े पानी लाकर रखेगी ताकि आने-जाने वालों की प्यास बुझे और उनके आशीष से तेरा पाप कटे... यही तेरा प्रायश्चित होगा।’’

अमरीक सिंह ने पंचों के सामने ही अपनी जेब से कपड़े में बंधे नोटों का पुलिंदा निकाला और जा कर सिगेरां वाली के सामने फेंका और बड़ी कमीनगी से मुस्कुराते हुए धीरे से फुसफुसाया- ‘‘जा ! ऐश कर।’’

तिलमिला गयी सिगेरां वाली। एक तो मासूम बच्चे के क़त्ल का बोझ... और उसपर दंड भी उसके ही हिस्से आया। अमरीक सिंह के जुबान से निकले अलफ़ाज़ ‘‘जा ! ऐश कर’’ उसके कानों में पिघले गर्म शीशे की तरह घुसे चले आ रहे हैं। उसका दिल कर रहा है कि अपने नाखूनों से इस अमरीक का मुंह नोच ले, लेकिन फिर वह अपने को समझाती है कि पंचायत की सेवा में कोई बुराई नहीं है....अनजाने ही सही पर मासूम बच्चे की जान लेने का महा पाप तो हुआ ही है... पूरे साल चार घड़े पानी भरने से जो उसका पाप कट जाता है तो बुरा क्या है, साथ ही जन्म जन्म की देनदारी से मुक्ति मिली। ये ख्याल आते ही उसके मन का सारा बोझ उतर गया । आज फिर एक बार सारी बातें याद हो आई तो दिल ही दिल में बलबीर सिंह का शुकराना अदा करते सिगेरां वाली के चेहरे पर एक स्निग्ध मुस्कान तैर गई। 

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लघु कथा


श्रीमती सविता चडढ़ा, -रानीबाग, नई दिल्ली, मो. 9313301370


जागृत संबंध या मृत परंपराएँ

गांव से अपने छोटे बेटे डॉक्टर सुमित के पास वह गांव से मिलने आई थी। यहां आने के कुछ दिन बाद ही उनकी तबीयत बिगड़ गई। उन्हें अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा। पिछले एक महीने से डॉ. सुमित की माताजी अस्पताल में भर्ती हैं। उनकी दो  बार सर्जरी हो चुकी हैं। अकेले सुमित और उनकी पत्नी ने उनकी खूब सेवा की है लेकिन उन्हें बचाया नहीं जा सका। 

डॉ. सुमित अभी अपनी माता की चिता को अग्नि देकर शमशान से लौटे ही थे कि थके मांदे एक कुर्सी पर आकर बैठ गए तभी पीछे पीछे पंडित जी ने कमरे में प्रवेश किया और बोले ‘‘अरे यह क्या, आपको कुर्सी पर अभी नहीं बैठना है, आपको जमीन पर ही बैठना है।’’

डॉक्टर साहब ने पंडित जी को देखा और पूछा ‘‘मुझे शाम को अपने क्लीनिक में जाना है, वहां मैं क्या अपने रोगियों की जमीन पर बैठकर जांच करुंगा’’ पंडित जी ने चुप्पी लगा ली।

कुछ ही देर के बाद डॉ. सुमित के मामा जी का फोन गांव से आ गया और बोले ‘‘लल्ला चाहे कुछ भी हो जाए, तुमको 13 दिन के बाद ही उठावनी की रस्म करनी है और हां अपने सिर के बाल भी साफ करवाने होंगे तुम्हें।’’ सुमित ने यह कहकर फोन रख दिया कि मामा जी मैं शहर के हिसाब से चल रहा हूं और पुराने रीति-रिवाजों को मानना है तो हमें पूरी तरह मानना चाहिए । 

जीवित संबंधों से बढ़कर तो मृत परंपराएं नहीं होतीं।  यदि हम संबंधों का निर्वाह जीते जी नहीं कर पाते तो हमें परंपराएं निभाने के ढकोसले नहीं करने चाहिए। ‘‘उन्होंने फोन पटक दिया था यह कहते हुए.....  मेरी मां पिछले एक महीने से बीमार है और उन्हें कोई देखने तक नहीं आया। मां अस्पताल में सबको याद करती रही, तब किसी को संबंधों को निभाने का ध्यान नहीं आया। सब लोग मां के मरने का इंतजार कर रहे थे कि हम एक ही बार जाएंगे और अब मुझे सब परंपराओं और रीति-रिवाजों के निर्वाह करने की शिक्षा दे रहे हैं... अपने बेटे अपनी बेटियों के इंतजार में अपनी मां की आंखों की प्रतीक्षा सुमित को बहुत दुखी करती रही थी, सुमित मां की तस्वीर के सामने  सुबकने लगा था।        

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कहानी


डॉ. आरती स्मित, -दिल्ली, मो. 8376836119 

‘‘बरका हाथ’

बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में छोटे शहरों-गाँवों में यौन शोषण की अनदेखी अनकही घटनाओं पर आधारित

उसे लिजलिजापन महसूस हुआ तो एकदम से आँख खुल गई। चड्डी के भीतर हाथ था किसी का, उसने देखना चाहा, मगर रंगीन ज़ीरो बल्ब की मद्धिम रोशनी में आड़े-तिरछे सोए बच्चों के बीच सोई वह साँवली-सी बच्ची हिल भी नहीं सकी। ‘गुड्डी, मिकी, गुड्डू सब तो आड़े-तिरछे पड़े है। किसका हाथ है... भूत?’ वह सिहर-सी गई। नज़रें माँ को ढूँढती रहीं, नहीं दिखी माँ! यह उसका घर भी तो नहीं, जहाँ चप्पा-चप्पा झाँक आए माँ को। भोर भी तो नहीं हुई अभी! सुबह कहेगी वापस गाँव चलने, अब यहाँ नहीं आएगी वह। वह हाथ अब भी कुछ कर रहा था और वह दम साधे पड़ी थी। चीख गले में अटकी थी या कुछ और, उसे समझ नहीं आया। अचानक हाथ बाहर हुआ, कोई मुस्कुराया और कमरे से बाहर हो गया। ‘सोमू भैया!’ ?? आठ साल की निम्मी को कुछ समझ नहीं आया। 

सोमू भैया माँ की उम्र के भैया है। माँ को फ़ूआ बुलाते हैं। उनके बच्चे गुड्डी, मिकी, गुड्डू सब उसके दोस्त हैं। वह जब गाँव नानी के घर आई तो भैया जिद करके अपने क्वार्टर ले आए। भाभी बहुत मानती है माँ को। उसे भी गुड्डी-मिकी के साथ अच्छा लगता है और गुड्डू तो बस बात ही करता रहता है दिनभर। आज भी तीनों के साथ दिनभर घूमती-खेलती रही। रात को खाना खाने के बाद भैया बोले, बच्चे एक कमरे में साथ सो जाएँगे, माँ भाभी के पास सो रहे। उसे माँ के बिना नींद नहीं आती, मगर आज सबने ज़िद की तो वह मान गई। सोमू भैया बहुत कड़क थे। गुड्डू बात-बे-बात पिटता ही रहता था, मगर बेटियों को कुछ नहीं कहते थे। ‘सोमू भैया यहाँ क्या कर रहे? वह हाथ?’ वह ज़्यादा सोच न सकी। जागी-जागी, सहमी-सहमी कब सो गई, पता नहीं। सुबह गुड्डू ने जगाया तो हड़बड़ा कर उसने चड्डी टटोली, ‘चड्डी तो सूखी है। फिर वह गीला-गीला-सा? और वह बड़ा-सा हाथ?’ 

“क्या हुआ नीमू फ़ूआ? चलोगी नहीं? तुम बोली थी न सुबह टहलने चलेंगे?”

“माँ कहाँ है गुड्डू?”

“दादी? बाहर में।“

गुड्डू के साथ वह कमरे से बाहर निकली। एक अजीब-सी दहशत उसे दबोचे थी। यह क्वार्टर उसे कभी इतना डरावना नहीं लगा था, जितना अभी। कमरे की खिड़कियों से सुबह की धूप भीतर पैर पसारे जा रही थी। छोटा-सा आँगन उजाले की गोद में था, उसने झाँककर देखा, सोमू भैया माँ से बतिया रहे थे। जाने क्यों झुरझुरी-सी दौड़ गई बदन में। 

  “गुड्डू, यहीं रुक न, हम बाथरूम से आते हैं।”

“तुमको दिन में भी डर लगता है, नीमू फुआ” वह ज़ोर से हँसा। 

  गुड्डू उससे ज़रा ही तो छोटा है। उद्दंडता में सबसे आगे। गुड्डी बिलकुल शांत और मिकी थोड़ी बातूनी। वह भी तो कम बातूनी नहीं, मगर वह क्या कहे उससे? उसे खुद भी तो नहीं पता, वह सपना था या सचमुच कोई हाथ ...” “रुक न गुड्डू!” उसने फिर मिन्नत की। 

“अच्छा जाओ। वैसे भी शेर सिंह बाहर ही हैं, हमको देखते ही कुछ न कुछ बोलकर पिटाई करने का बहाना ढूँढेंगे।“

“कहाँ चले बच्चा फौज?” 

“दादी, फ़ूआ को थोड़ा पार्क तक... “ पिता को भीतरी आँखों से देखते हुए गुड्डू-गुड्डी साथ-साथ बोले।

“फ़ूआ, तुम सुबह से इत्ती शांत क्यों हो?”

“नहीं, बस! रात को डरावना सपना देखे थे शायद, उसी से ...” वह चुप हो गई। जाने हलक में क्या हुआ, कह न सकी, आज फिर रात में कहीं... नहीं आज तो हम माँ के पास ही सोएँगे, चाहे जो हो जाए’ उसे अपने फैसले पर संतोष हुआ, फिर धीरे-धीरे बात में मस्त हो गई। 

“फ़ूआ, जानते हैं, गुड्डू भैया तो रोज़ मार खाता है, फिर भी नहीं सुधरता है।“ मिकी बोली।

“???”

“मतलब, कोई न कोई बात के लिए पापा को गुस्सा दिलाइए देता है फिर तो पापा ऐसा धुलाई करते हैं कि...” गुड्डी ने समझाने की कोशिश की।

“अब तुम दोनों मेरा बखान करना बंद करो पापा की चमची!” गुड्डू ने मुँह चिढ़ाया।

“देखते हैं-देखते हैं न फूआ, ठीके करते हैं पापा पीटते हैं।” 

“तुम्हारे पापा से तो हमको भी डर लगता है” उसके मुँह से अचानक निकला तो तीनों उसका चेहरा देखने लगे।

वह चुप हो गई, एकदम चुप। फिर सब चुपचाप चलते रहे। मिकी पापा की दुलारी थी, उसे सुनकर अच्छा नहीं लगा, ‘फ़ूआ को पापा से डर लगता है। कितने अच्छे तो हैं पापा, कितना प्यार करते हैं उनको, फिर भी...’

  सोच में गुम मिकी ज़्यादा देर चुप नहीं रह सकती थी, सो फिर बात छेड़ी।

“लेकिन तुमको डर क्यों लगता है? कल पापा हमको बाज़ार नहीं ले गए, सिर्फ तुमको घुमाने ले गए। इतना तो मानते हैं तुमको!”

मिकी के याद दिलाते ही निम्मी का हाथ ख़ुद-ब-ख़ुद बायीं तरफ सीने पर चला गया। कल अँधेरा घिरने पर भैया बाज़ार ले जाते समय उसकी कलाई छोड़ उसके बाजू को देर तक इस तरह पकड़े रहे कि उनकी उँगलियाँ ख़ास जगह को बार-बार दबा रही थी। उधर उस रास्ते में अँधेरा भी ज्यादा था, जबकि यह पूरा इलाका तो रोशनी से जगमगाता रहता है। देर शाम तक दर्द होता रहा था। उसे तो लगा मानो सूज गया हो वहाँ, मगर न माँ को बताने का समय मिला, न आईने में देखने का। माँ को कहे भी तो क्या, यह भी उसे समझ नहीं आया। पहले भी बोली थी एक बार तो माँ ने कान नहीं दिया था। 

“फ़ूआ?” गुड्डी ने टोका। चलो, वापस चलें। नहा-धोकर नाश्ता नहीं करेंगे तो पापा गुस्सा करेंगे।

“मिकी, तुमको पापा बाज़ार कैसे ले जाते हैं?”

???

“मतलब हाथ यहाँ पकड़ते हैं, या यहाँ?”

“पापा नहीं पकड़ते हैं। हम ही पापा का उँगली पकड़ कर चलते हैं। वैसे भी रास्ता इतना पीच है, लाइट भी रहता ही है तो पापा को हमारे गिरने का डर नहीं रहता है। वो निश्चिंत रहते हैं।”

‘फिर हमको वहाँ इतने ज़ोर से काहे पकड़े? और वह रास्ता भी पीच नहीं था। हाँ, लौटे दूसरे रास्ते से थे। वहाँ रोड़े रोड़ आए थे।’ वह सोचती रही।

“फ़ूआ, आज तुम अजीब सवाल नहीं पूछ रही?” मिकी ने ताना मारा। 

“मिकी फ़ूआ को बोलने तो दो” गुड्डी ने डाँटा।

“सोमू भैया जिस रास्ते से गए थे, वहाँ रोड पीच नहीं था और अँधेरा भी था तो उस समय उन्होंने यहाँ बाजू कसकर पकड़ा था।” 

“ओ” मिकी का चेहरा सामान्य हो गया।

  निम्मी बता नहीं पाई कि उन्होंने सिर्फ बाजू ही नहीं पकड़ रखा था बल्कि उँगलियाँ भी दबाव बनाए थीं... और वे चले जा रहे थे सामने देखते हुए... और वह लगभग घिसियाती जा रही थी। थक रही थी, पापा याद आ रहे थे। पापा ने तो कभी ऐसे नहीं पकड़ा, न छुआ था। सोमू भैया भी तो इत्ते बड़े हैं, पापा जैसे, उनको समझ नहीं आया कि हमको दर्द हो रहा होगा! और रात को भी तो सोमू भैया को दरवाजे से बाहर निकलते देखा था उसने, लेकिन वो हाथ उनका था या नहीं, पता नहीं! लेकिन उतना बड़ा हाथ तो किसी का नहीं, न गुड्डू का, न गुड्डी का और मिकी तो सबसे छोटी है।   

“चल निम्मी फ्रॉक बदल दें”  माँ बोली।

“काहे?” 

“भैया बजार ले जाएगा” 

“नहीं, हमको नहीं जाना।“ उसने पूरी ताकत से मना किया।

“जाओ, नहीं तो भैया को खराब लगेगा। एक तो रोज घुमाने ले जाता है, उसपर तुमको नखरा सूझता है। बाप से जिद करते रहती है घुमाने के लिए...” माँ अपनी रौ में बोलती रही, मगर निम्मी टस से मस नहीं हुई।

“कपड़ा ठीक तो है फ़ूआ, नीमू ऐसे ही अच्छी लगती है” कहते हुए सोमू ने हाथ पकड़ा और ले चले। वही रास्ता, वही बाजू पर पकड़ के साथ फिरती उँगलियाँ! वह जितना कसमसाती, पकड़ उतनी मजबूत होती जाती। सोमू समोसा-मिठाई खरीदते, कभी कुछ और फिर वापस लौट पड़ते। बाज़ार से लौटते-लौटते निम्मी एक अजीब से दर्द से भरी लौटती, फिर न समोसा अच्छा लगता न रसगुल्ला।

“अजीब होते जा रही है ई लड़की भी। घर में समोसा-रसगुल्ला पर जान अटकल रहता है। रोटी-भात नै छूती है। यहाँ फटनी झोंकता है।“ माँ बड़बड़ाई। सोमू भैया मुस्कुराते हुए बोले,

“फ़ूआ, मत डाँटिए। बच्ची है। नहीं होगा मन खाने का। कल जो बोलेगी, वही खरीद देंगे।”

‘कल फिर?’ अगली शाम की कल्पना करके वह सिहर गई। नहीं! अब और नहीं। वह गाँव जाएगी। गाँव में लाइट नहीं है, फिर भी उसको डर नहीं लगा कभी। मामा-मामी, भैया- दीदी सब बहुत अच्छे हैं। सोमू भैया भी अच्छे थे, लेकिन इस बार....’ वह देर तक सबके बीच रूऑंसी-सी बैठी रही, दहलती रही कहीं फिर किसी बहाने सोमू भैया उसे छू न दे। ‘माँ को क्या कहें?’ उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। अचानक आवाज़ उसके कानों को चीरती गई, “फूआ, अभी तो छुट्टी है। निम्मी को छोड़ जाइए।“ यह सोमू की आवाज़ थी।

“नहीं” निम्मी लगभग चीख पड़ी। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। 

“अरे तो आप रोने काहे लगे? नहीं रहना है, मत रहिएगा, खुश!” भाभी ने पुचकारा। 

“हमको छोड़कर नै रह पाती है, इसलिए हमरे बोलने के पहले ही टपक पड़ी बड़ा लोग के बात में। केतनों समझाते हैं, बड़ा लोग के बीच में नै बोलो। समझबे नै करती है। बस, सुना दी फैसला। सोचने का जरूरते नै है किसको खराब लगेगा, नै लगेगा।“ माँ शर्मिंदगी महसूस करती बोलती रही। निम्मी अब चीख-चीख कर रोना और उससे भी ज़ोर चिल्लाकर बताना चाहती थी कि उसे सोमू भैया से डर लगता है। लेकिन क्यों लगता है, समझा पाना उसके वश में नहीं था। वह यों ही सिसकती रही देर तक।

“अरे, हो तो गया। मत रहना। इसके लिए एतना रोधना काहे पसार रही है जैसे यहाँ लोग जुल्म किया हो। बाप माथा पर चढ़ैले है।”

मिकी, गुड्डी, गुड्डू को पढ़ने का कड़ा आदेश हुआ तो वह माँ के पास दुबक आई। 

“अरे, वहीं बैठो, देखो, क्या पढ़ रहा है उ लोग। यहाँ बड़का आदमी के बीच में घुस के क्या गप सुनेगी?”

“नहीं, हम तुम्हारे पास रहेंगे। तुम्हारे साथ ही सोएँगे। कल चलो वापस। अब यहाँ नहीं रहेंगे”... ”

वह एक सुर में बोलती चली गई।

“ई लो, अब यहाँ रहने में भी तकलीफ होने लगा।“ माँ भुनभुनाई।

“नीमो जी कोई बात है क्या? बच्चा लोग से लड़ाई हुआ है क्या? गुड्डू कुछ बोला क्या?” भाभी पूछीं।

“न- नहीं।”

“गुडुए शैतान है। कह दिया होगा कुछ। चिढ़ा दिया होगा। कल से देख रहे हैं, निमो शांत-शांत है। पहले के तरह चहक नहीं रही। गुडु को डांट नहीं पड़े, इसलिए शिकायत नहीं की। रुकिए पूछते हैं अभी।” 

निम्मी न-न करती रही। गुड्डू बिला वजह पिता से पिटता रहा। वह सुबकती रही। गुनाहगार बेगुनाह को सज़ा दे रहा है, यह दृश्य बालमन को अँधेरे में धकेलता रहा। गुड्डू रोता रहा। उसने उससे बात करनी बंद कर दी। दोनों बहनें भी सिमट गईं। रात और लंबी हो गई। घर का माहौल कसैला हो गया। उसका मन उबन से भरने लगा। वह माँ की गोद में सिमटकर रोना चाहती थी, मगर यहाँ आने के बाद माँ तो पहले की तरह मगन रही। 

“कल गाँव चलो, नहीं तो अपने घर चलो।’’ माँ को पकड़ कर उसकी देह से लगभग चिपकती हुई बोली। उसकी आवाज़ में उदासी रुँधी जा रही थी। “हमको यहाँ अच्छा नहीं लग रहा है।” 

“बात तो बोलो।”

उसने सिर उठाकर देखा, सोमू वहीं सोफ़े पर बैठा था, भाभी बिस्तर लगा रही थी। वह चुप रही।

“अब बोलेगी नहीं” माँ खिसियाई।

“चलो न माँ!” 

“रात को तो नै न जाओगी। अभी तो सो जाओ। कल देखते हैं।“ माँ कुछ नरम पड़ी। 

   उसने माँ के आँचल से ख़ुद को ढँक लिया। सोचती रही, ‘रात को बाथरूम जाना हुआ तो, कैसे जाएगी? माँ तो कहेगी, चली जाओ, लाइट जल रहा है चली जाओ, कहीं उस समय सोमू भैया.... एक बिजली-सी जिस्म में दौड़ गई। नहीं, नहीं जाएगी बाथरूम, रोके रहेगी सुबह तक।’

“नीमू, छोड़! आते हैं बाथरूम से, के उठेगा रात में” माँ बड़बड़ाई तो वह भी झट उठ बैठी। “हम भी जाएँगे”

“इसका तो लौआ देखकर नाखून बढ़ता है।” माँ ने हँसने की कोशिश की तो उसने पीछे मुड़कर देखा। सोमू अब भी उसी कमरे में मौजूद था। उसने झट चेहरा घुमा लिया। ‘क्या ये रात को यही रहेंगे? हम माँ को कस के पकड़े रहेंगे’ वह सकपकाई-सी सोच में डूबी रहती कि माँ उठ खड़ी हुई। 

 “जाओ, हम खड़े हैं।”

“बाहर चलो।“

“लाइट जल तो रहा है।“

“नहीं, चलो।”

“एतना नखरा तो गाँव में भी एको दिन नै की। पता नै, यहाँ क्या हो गया है” माँ बड़बड़ाती हुई साथ-साथ बाहर निकली।

“अब मुँह पर खड़ी रहेगी, जाओ भीतर, हम आते हैं।” 

‘भीतर! भीतर ही तो नहीं जाना चाहती। अब क्या करे वह?’ उसने इधर-उधर देखा। भाभी बिस्तर के किनारे बैठी थी। वह दौड़ती हुई आँगन पार कर गई और उनके पास, बिलकुल पास बैठ गई, फिर धीरे से सोफ़े की तरफ देखा। सोमू नहीं था। उसने चैन की साँस ली। 

“आपको इस बार इतना डर काहे लग रहा है निमोजी!”  भाभी पूछ बैठी। वह कुछ जवाब देने की सोचे, माँ आती दिखाई दी। साथ में सोमू भी। वह सिर नीचे किए-किए बोली, “ऐसे ही।”

“आज आप उस रूम में सो जाइए।” भाभी की बात सुनकर सोमू चौंके। एक प्रश्न चेहरे पर उभर आया। 

ठीक है, कहकर  चले गए।

“माँ! बत्ती रहने दो। दरवाजा बंद कर दो।” उसने चुप्पी तोड़ी। “दोनों दरवाजा बंद कर दो।” .... “बंद कर दो न! छिटकिनी भी लगा दो” उसने ज़ोर देते हुए कहा, “नहीं तो फिर बड़का हाथ आ जाएगा और  ....” माँ और भाभी एक-दूसरे का मुँह देखने लगीं.....। 

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कविता


सुश्री निर्मल सुन्दर, सी-6, वसंतकुँज, नई दिल्ली, मो. 9910778185


कलेजे से लगा रखा है

मेरे हृदय में एक सागर है

उसकी अन्तिम तह में

सब की नज़रों से बचा कर

मैंने तुझे छिपा रखा है।


जब भी देखती हूँ

श्वास आते-जाते

तेरी उष्णता को

महसूसती हूँ

फिर देखती हूँ

तेरी यादों को

कलेजे से लगा रखा है।


सागर की लहरों में

कभी ज्वार आता है,

वह आंसू बन कर

बाहर निकल आता है,

कहता है-

‘‘तुझे सीने से

‘उसने’ लगा रखा है।’’


कौन कहता है

तुमने मुझे भुला रखा है

या

मैंने तुझे भुला रखा है

दोनों ने

यादों को कलेजे से 

लगा रखा है। 

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कहानी

श्रीमती दीपक शर्मा, लखनऊ, मो. 9839170890

पेंच

(1)

सुरेश शांडिल्य का उल्लेख सबसे पहले मां ने किया था: ‘‘तुम्हारी उषा के बैंक में कोई एक सुरेश शांडिल्य है, आयु उसकी पच्चीस वर्ष है, कद पांच फुट दस इंच है और है भी पक्का शाकाहारी। उषा से कहो रमा की बात उसके संग चलाए...’’

मां नहीं जानती रहीं पिछले दो महीनों से उषा और मैं अपनी तनख्वाहें और छुट्टियां एक-दूसरे के साथ न खर्च रहे थे। अढ़ाई महीने पहले तक हमने अपने दाम्पत्य के पूरे दो साल और तीन महीने एक राजा और रानी की तरह बिताए थेः हर छुट्टी पर बारी-बारी से एक-दूसरे के शहर पहुँचते रहे थे और अपनी सम्पूरित पूँजी एक-दूसरे के काम में लाते रहे थे। किन्तु अढ़ाई माह पूर्व उषा के शहर की एक टिकान के दौरान मेरे पैर की एक हड्डी चरक गयी थी और बाध्य कर रूप से लगातार बिताए गए उन पन्द्रह दिनों में उषा की अनुशासनहीनता जो मुझ पर उजागर हुई थी तो मैं अपनी खीझ दबाए न दबा पाया था। परिणामस्वरूप एक कड़वी झड़प के बाद मैं अपने पैर के प्लास्टर समेत अपने शहर लौट आया था। उसके बाद उषा मेरे शहर आने की अपनी बारी बारम्बार टालती चली गयी थी। मैंने भी उषा से टेलीफोन पर बात करने की अपनी बारम्बारता कम कर दी थी-सप्ताह में छः फोन करने की अपनी पहल घटाकर मैं दो पर ले आया था।

किन्तु रमा की शादी की खातिर अगले ही दिन मैं उषा के बैंक जा पहुँचा। बैंक मेरा जाना पहचाना था। अपनी बदली से पहले मैं वहीं काम करता रहा था। उषा मुझे यहीं मिली थी। तीन साल पहले।

पहले ही काउन्टर से उषा की मेज मुझे साफ दिखाई दे गयी।

पंक्तिबद्ध सात काउन्टरों के पीछे रखी चार मेजों में से तीसरी मेज उसकी रही।

वह एक पुरूष की बात सुन रही थीः अपने परिसज्जित हावभाव के समूचे प्रदर्शन के साथ; सिकुड़ती और फैलती अपनी गू-गू गोल आंखों के साथ; सिहरती और स्थावर दशा ग्रहण करती अपनी मांसल गालों के साथ; फूलती और विश्राम लेती अपनी नुकीली नाक के साथ; मुड़कती और निश्चल होती अपनी लम्बी ठुड्डी के साथ...

पुरूष की मेरी तरफ पीठ रही किन्तु उसके उग्र कन्धों तथा मजबूत सिर की झूमाझूमी से स्पष्ट था: वह किसी अनुग्रह का रस ले रहा था....

क्या वह अनुग्रह किसी प्रेमानुभव का पुनर्धारण था? अथवा पूर्वधारण?

मैं काउन्टर के पास रूक लिया।

तत्काल उनके पास पहुँचकर मैं उन्हें उलझन में नहीं डालना चाहता था।

‘‘हाय, स्पून (अभिवादन, शोख लड़के)’’ तभी किसी एक मेज से एक महिला का स्वर मेरी दिशा में मुखर हुआ, ‘‘लॉन्ग टाइम, नोसी, आए से (बहुत दिनों बाद भेंट हो रही है, अचरज है....)’’

‘‘ओह, अरूणा?’’ बैंक की यह डिप्टी मैनेजर मेरी पुरानी सहयोगिनी रह चुकी थी। मुझसे उम्र में दस वर्ष तो अवश्य ही बड़ी रही होगी किन्तु एक तो अपने कपटपूर्ण श्रंगार और बालों के सुविचारित कटाव के बूते पर वह हरदम घोषणा करती लगती- मैं एक भव्य सुकुमारी हूं- तिस पर उसकी जिद भी रही उसकी अंग्रेजी स्लैंग की खास बोली समझने वाले उसके परिचित उसे उसके पहले नाम से ही बुलाएं, ‘‘हाऊ आर यू?’’

‘आए एम ऑल राइट जैक (मैं अपने सौभाग्य से सन्तुष्ट हूं),’’ वह हंसी ‘‘इन गुड निक (अच्छी हालत में हूं), इन फुल स्विंग (पूरी तरह से काम कर रही हूं- सफलतापूर्वक), इन माय एलीमेन्ट (अनुकूल स्थिति में हूं), बट यू लुक ऑफ़ फॉर्म (परन्तु तुम अपने सामान्य तल पर नहीं); एण्ड नो मिस्टेक (और मैं कतई गलत नहीं)।’’

‘‘उषा? उषा कहां है?’’ मैं सिगरेट पीना चाहता था किन्तु जैसे ही मैंने जेब से अपनी सिगरेट की डिबिया निकाली, अरुणा ने मुझे टोक दिया, ‘‘यहाँ नहीं.....’’

मैंने तुरंत डिबिया अपनी जेब में लौटा ली और इसी बीच मेरी गरदन अरूणा की ओट से बाहर हो ली।

उषा की मेज की दोनों कुर्सियां अब खाली थीं।

‘‘शी मस्ट बी टचिंग हरसेल्फ अप फार यू (तुम्हारे सामने आने से पहले वह अपना दिखाव-बनाव चमका ही होगी),’’ अरूणा फिर हंस दी।

‘‘आओ,’’ काउन्टर नम्बर पांच पर हमारा आमना-सामना हुआ तो उषा खंखारी।

खंखारने की उसे बुरी आदत रही।

‘‘मेरे पास अधिक समय नहीं,’’ मैं गुरार्या, ‘‘मैं बाहर पोर्टिको में हूं...’’

बैंक के पोर्टिको में इस बैंक के एक पुराने ग्राहक और मेरे अच्छे परिचित की मारुति सुजुकी डिज़ायर हमारी प्रतीक्षा कर रही थी।

गाड़ी में बैठने का अभ्यास उषा के लिए अभी भी नया ही रहा। वह एक मध्यमवर्गीय परिवार से आयी थी और वाहन के नाम पर उसके पिता तथा दोनों भाइयों के पास स्कूटर ही रहे। अपनी एक निजी मारूति खरीदने का इरादा हम दोनों रखते थे किन्तु रमा की शादी के बाद।

‘‘यहां कब तक हो?’’ उषा ने अपना गला साफ किया।

‘‘बताऊंगा,’’ अपना उत्तर मैंने जान-बूझकर संक्षिप्त रखा।

कोई भी निर्णय लेने से पहले अभी कुछ देर और मैं सोचना चाहता था।

‘‘फीस्ट चलो,’’ ड्राइवर को मैंने आदेश दिया।

‘‘जी, साहब।’’

(2)

फीस्ट पर उषा के साथ मैं बहुत बार आ चुका था। बल्कि उषा के सम्मुख अपनी शादी का प्रस्ताव मैंने फीस्ट ही में रखा था...

अपने कांटे में चिकन चाओमीन लपेटकर चिकन मन्चूरिया का एक बड़ा टुकड़ा वह फंसा रही थी जब मैंने अपनी हथेली उसकी कलाई पर टिका दी थी, ‘‘तुमसे एक सवाल पूछना है उषा...’’

‘‘क्या?’’ उसने गला खंखारा था।

‘‘तुम शादी के बारे में क्या सोचती हो?’’ अपना सवाल मैंने बदल लिया था। उसकी खंखार से पहले मैं उसे पूछने वाला था, क्या तुम मुझसे प्रेम करती हो, उषा? किन्तु खंखार ने उसका मुझे प्रेम करना, दुःसाध्य बना दिया था।

‘‘क्या सोचती हूं?’’ उषा फिर खंखारी थी, ‘‘पहले तुम बताओ तुम क्या सोचते हो?’’

‘‘मुझे लगता है तुम मुझसे शादी कर सकती हो,’’ बिना किसी उत्साह के, बिना किसी आवेग के, मैं वे शब्द बोल गया था।

‘‘नेम द डे,’’ उसने अपना गला फिर साफ किया था।

उसकी कलाई पर टिकी अपनी हथेली मैंने तत्काल हटा ली थी और वह अपने कांटे पर टूट पड़ी थी...

(3)

गाड़ी में बाकी समय हम दोनों ने एक बेआराम चुप्पी में बिताया।

मेरे साथ बातचीत शुरू या खत्म करने की स्वायत्तता उषा अपने पास न रखती थी। मुझसे संकेत लेकर मेरी बात आगे बढ़ाती या घटाती...

‘‘वेटर,’’ फीस्ट पर पहुँचते ही मैंने मेजबान की भूमिका आधिकार में ले ली, ‘‘दो चिकन कार्न सूप लाओ...’’

‘‘दो?’’ वेटर ने आश्चर्य से उषा की ओर देखा।

‘‘हां, दो, नए हो क्या?’’ मैंने वेटर पर नजर दौड़ायी। 

‘‘इतना नया भी नहीं,’’ वेटर हँसा, ‘‘आप को नहीं जानता, मगर दीदी को जानता हूँ.....’’

‘‘जान लो,’’ मैंने उषा के चेहरे पर अपनी टकटकी बाँधते हुए कहा, ‘‘मैं इन का पति हूँ....’’

‘‘जी,’’ वेटर के चेहरे पर एक कटाक्ष भाव स्पष्ट उभर आया।

उषा की खांसी शुरू हो ली।

‘‘तुम यहाँ अकसर आती हो?’’ वेटर के लोप होते ही मैंने उसे भेदना चाहा।

‘‘नहीं, ऐसा भी नहीं.....’’


‘‘किसी शाकाहारी के साथ?’’

उसकी खांसी तेज हो गयी।

(4) 

‘‘सूप अच्छा है,’’ निर्णय मैंने ले लिया।

उषा को अपने पक्ष में रखना अभी जरूरी था।

रमा की खातिर।

पांच वर्ष पहले एक सड़क दुर्घटना के अन्तर्गत स्वर्गवासी हुए मेरे पिता मुझ पर मेरी दो बहनों का जिम्मा छोड़ गए थे। बड़ी की शादी तो कालेज-अध्यापक मेरे पिता की जीवन-बीमा पालिसी तथा ग्रैच्युटी निकाल ले गयी थी किंतु छोटी, रमा, की शादी के लिए मुझे उषा का सहयोग चाहिए था- आर्थिक और पारम्परिक।

‘‘हां,’’ उषा खंखारी।

‘‘अपने बैंक के सुरेश शांडिल्य को तुम जानती हो?’’ मैंने तह जमायी।

‘‘कैसे?’’ उषा खंखारना भूल गयी।

‘‘यों ही पूछा मैंने,’’ मां का उल्लेख अभी कुछ देर के लिए मैंने टाल देना चाहा, ‘‘उसके बारे में बाद में भी बात कर सकते हैं...’’

‘‘नहीं,’’ घिग्घी बंधी उसकी आवाज चिटकी, ‘‘अभी बात करो। अभी बताओ तुम उसे कैसे जानते हो?’’

‘‘उसका एक दोस्त मिला था। कह रहा था वह शादी करना चाहता है...’’

मैंने अंधेरे में एक तीर छोड़ा।

वह रोने लगी।

उसे इतनी संवेदनशील अवस्था में मैंने पहले कभी न देखा था।

‘‘क्या तुम मुझे छोड़ देना चाहती हो?’’ अप्रत्याशित उस घुमावदार पेच के लिए भी मैं तैयार होकर न आया था।

‘‘नहीं?’’ उसकी खंखार लौट आयी, ‘‘कतई नहीं। मुझे माफ कर दो। आइन्दा ऐसा न होगा...’’

सुरेश शांडिल्य का नाम उस दिन के बाद हम दोनों ने एक-दूसरे के सम्मुख दोबारा न लिया।

उसी दिन उषा मेरे साथ मेरे शहर आ गयी।

मां को टेलीफोन मैंने अगले दिन दफ्तर जाकर किया, ‘‘सुरेश शांडिल्य ठीक नहीं। मांसाहारी है। शराब पीता है। स्त्रियों के साथ घूमता है। आवारा है। बहुत आवारा है। रमा की शादी अन्यत्र करेंगे और कुछ समय बाद करेंगे। उषा की बदली पहले यहां हो जाय। उषा और मेरे एक ही शहर में रहने से रमा की शादी की व्यवस्था करने में अधिक सुविधा रहेगी।’’ 

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श्री अंशुमन कुठियाला, लखनऊ, मो. 8628817851

ग़ज़ल

श्रुति की स्मृति में अब क्या लिखूँ मैं,

उस की आकृति में अब क्या लिखूँ मैं,


क्या भूलूँ याद करूँ, क्या त्यागूँ या वरूँ,

ऐसी विस्मृति में अब क्या लिखूँ मैं।


मन भर गया है और गला तर गया है,

ऐसी मनोस्थिति में अब क्या लिखूँ मैं।


सपना वो टूट गया अपना जो छूट गया,

अथ कर ही इति में अब क्या लिखूँ मैं।


धर्म है तो कर्म है अधर्म और विधर्म है,

धारणा की धृति में अब क्या लिखूँ मैं।


याद कर भूल गया भूल कर याद किया,

निवारण निवृति में अब क्या लिखूँ मैं।

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बातचीत

श्रीमती नीलम कुलश्रेष्ठ, -अहमदाबाद, गुजरात, मो. 09925534694

डॉ. के. एल. पाण्डेय

संगीत मर्मज्ञ श्री के.एल. पांडेय:  समस्त फ़िल्मी गीतों में शास्त्रीय राग

शास्त्रीय संगीत की उत्पत्ति वेदों से मानी जाती है। सामवेद में संगीत के बारे में गहराई से चर्चा की गई है। भारतीय संगीत गहरे तक आध्यात्मिक्ता से प्रभावित रहा है इसलिये इसकी शुरुआत मनुष्य जीवन के अंतिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति के साधन के रूप में हुई। सामवेद से लोकसंगीत पहले उत्पन्न हुआ, उसके बाद शास्त्रीय संगीत का आरम्भ हुआ। ठुमरी उपशास्त्रीय, ख्याल-शास्त्रीय है, कजरी, चैती लोकसंगीत के अंतर्गत आतें हैं लेकिन जनमानस पर छाया रहता है तो बस फ़िल्मी संगीत।

मज़े की बात ये है कि एक आम फ़िल्मी गीत पसंद करने वाला व्यक्ति शास्त्रीय संगीत की तरफ देखता भी नहीं है या कहना चाहिए उसकी दुरूहता से डरता है। शास्त्रीय संगीत व फ़िल्मी गीत अलग-अलग समानान्तर धाराओं में चलते जाते हैं। शास्त्रीय संगीत को प्यार करने वाले मुठ्ठी भर लोग होते हैं जबकि फ़िल्मी गीत पूरी दुनिया पर राज करते हैं। इन गीतों को गुनगुनाने वाले अधिकाँश लोग जानते भी नहीं हैं कि बिना शास्त्रीय राग के इन गीतों की रचना संभव नहीं थी।

इनदो समानान्तर धाराओं के बीच एक सेतु निर्माण में लगे थे श्री के. एल. पांडेय जी या कहना चाहिए ग्यारह वर्ष से तपस्या कर रहे हैं कि इन फ़िल्मी गीतों में बसी शास्त्रीय राग की धड़कने पहले समझी जायें फिर लिपीबद्ध की जायें जिससे आम आदमी के मन में बसा शास्त्रीय संगीत की कठिनाई का डर दूर हो। जब वह कोई फ़िल्मी गीत गुनगुनाये तो उसे पता हो कि वह कौन सी राग गा रहा है। भारत में तो ये काम किसी ने अभी तक नहीं किया है। थोड़े बहुत टुकड़ों में फ़िल्मी गीतों में रची बसी राग के शोध कार्य तो मिल जायेंगे।

दादा साहब फाल्के की सन 1912 में राजा हरिश्चंद्र मूक सिनेमा से आरम्भ हिंदी सिनेमा के सौ वर्षों से भी अधिक वर्ष के फ़िल्मी गीतों के इतिहास से मतलब है सन 1931 में बनी सवाक फ़िल्म ‘आलमआरा से लेकर अब तक के फ़िल्मी गीतों में रची बसी राग।

जन-जन में समाये फ़िल्मी गीत को शास्त्रीय संगीत कला गुरु कम महत्व देते हैं। हालाकि जाने अनजाने फ़िल्मी गीतों में राग आ ही जातें हैं व पंडित जसराज, पंडित रविशंकर जी व उस्ताद अल्ला रक्खा खां ने तो तीस फ़िल्मों में योगदान दिया था फिर भी फ़िल्मी गीत व शास्त्रीय संगीत में खाई बनी रही। हमारे भारत में दस्तावेजीकरण की कोई वैश्विक परंपरा नहीं है, यदि कोई शास्त्रीय रागों को समझना चाहे तो उसे भातखण्डे या पलुस्कर के वृहद ग्रंथों को पढ़ना होगा। ऐसा कोई बिरला ही कर पाता है। इस खाई को भरने का काम या कहना चाहिए फ़िल्मी गीतों व रागों के बीच के. एल. पांडेय जी ने एक सेतु का निर्माण किया है।

ये शास्त्रीय संगीत व राग के प्रति जुनून है रेलवे मंत्रालय से रिटायर हुए मेंबर ऑफ़ बोर्ड, जो कि भारतीय रेल यातायात सेवा (आई. आर टी. एस.) के बैच 1977 से सबंधित हैं श्री के. एल. पांडेय जी का . इन्होंने सन 1974 में जीव रसायन विज्ञान से लखनऊ से एम. एससी. किया था.

वे ऑफ़िस से आकर वाद्यकारों साजन राजन मिश्रा व छन्नु मिश्रा के साथ बैठ जाते थे व गीतों को हारमोनियम पर पांच छः बार बजवाकर राग रागनियां खोजते थे व उनका तारतम्य भी नोट करते जाते थे। बीच बीच में उनका स्थानांतर होता रहा तो ये काम फ़ोन से किया जाता था। कभी विदेश में होते हैं तो ये काम वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग से होता है। इसी अथक परिश्रम का परिणाम है ये इनकी शास्त्रीय संगीत पर दस किताबें हैं आप एक अच्छे कवि हैं जिनके काव्य संग्रह के साथ व्यंग संग्रह ,लघुकथा संग्रह प्रकाशित व पुरस्कृत हो चुके हैं।

मेरा प्रश्न है श्री के. एल . पांडेय जी से ‘‘कृपया बतायें कि अब तक कितने फ़िल्मी गीत बन चुके हैं ?’’

वे एक बहुत शोधपरक बात बतातें हैं, इस दौरान लगभग 79000 गीत बन चुके हैं। जिन्हें अभिलेखागर (आर्काइव्स) में ठीक से सुरक्षित नहीं रक्खा गया उनमें से 15,000 का कहीं पता नहीं है। 63000-64000 के लगभग गीत सुरक्षित हैं।’’

‘‘आरम्भ में शास्त्रीय राग का किस तरह प्रयोग किया जाता था ?’’

‘‘आरम्भ में सन 1930 के चौथे दशक में सिर्फ एक राग में फ़िल्मी गीत बनाया जाता था जैसे आलमआरा फ़िल्म में वज़ीर मुहम्मद ख़ान ने दे दे खुदा के नाम पर... गीत राग काफ़ी में गाया है। आलमआरा नाम की सवाक फ़िल्म तीन बनीं थीं एक सन 1931 में दूसरी सन1956 में तीसरी सन 1973 में। मजे की बात ये थी कि वज़ीर मुहम्मद ख़ान ने तीनों में ये गीत गया था- ‘दे दे खुदा के नाम पर दे दे, ताकत है देने की। सन 1941 से सन 1949 तक थोड़ा काफ़ी,खमाज को मिलाकर भैरवी का प्रयोग होने लगा। सन 1949 में बरसात फ़िल्म में शंकर जयकिशन ने भैरवी राग का प्रयोग करना आरम्भ किया था । उन गीतों की मधुरता के कारण लक्ष्मीकांत प्यारेलाल जैसे और संगीतकार सन 1960 यानि एक दशक तक भैरवी व उसके साथ राग पहाड़ी का प्रयोग करते रहे। सी रामचंद्र ने तो अपने बनाये पाश्चात्य धुनों के गीत जैसे ईना, मीना, डीका... ‘या आना मेरी जान संडे के सन्डे’...में भी भैरवी का प्रयोग किया।’’

इनके शोध से बहुत दिलचस्प बातें सामने आने लगीं जैसे कि सन 1932 से पहले रिकॉर्ड नहीं बना करते थे.फ़िल्मी गीतों के इतिहास को मोड़ दिया सन 1932 में ‘‘माधुरी फ़िल्म के संगीतकार विनायक राव वर्द्धन ने पहला रिकॉर्ड बनवाकर। इंद्रसभा ‘फ़िल्म में चौहत्तर गाने थे तो कुछ फ़िल्मों में एक एक लाइन के गाने ही रहे। मराठी फ़िल्म दृष्टि फ़िल्म में किशोरी आमोणकर ने पांच अलग अलग राग में पांच अलाप लिए हैं।

‘‘पहले हिंदी फिल्मों में दस बारह गीत तो होते ही थे। बाद में ये सात आठ होने लगे। फ़िल्मी गीतों के आरम्भिक काल में गीत शास्त्रीय धुनों पर आधारित होते थे। बाद में धीरे धीरे पाश्चात्य संगीत का प्रभाव पड़ने लगा तो फ़िल्मी गीतों का ये अध्ययन आपके लिये दिलचस्प रहा होगा ?’’

‘‘मैंने अब तक लगभग 6000 फ़िल्मस के लगभग 18,650 लोकप्रिय गीतों व जिनमें शास्त्रीय राग स्पष्ट पता लग जाती थी, को चुनकर उनकी रागों को तलाश किया है।’’

‘‘अर्थात हम अनुमान लगा सकते हैं कि सौ वर्ष से अधिक इस सोपान में फ़िल्मी संगीतकारों का रुझान किन रागों में अधिक रहा व वक़्त के साथ किस तरह नये-नये आने वाले संगीतकारों की पसंद बदलती चली गई होगी।

‘‘जी बिल्कुल।’’ ‘‘आपको अपने बचपन में संगीत व साहित्य प्रेम का कब एहसास हुआ ?’’

‘‘मेरे परिवार में संगीत में रूचि साधारण ही थी लेकिन पिताजी को उत्कृष्ट साहित्य चाहे वह गद्य हो या पद्य पढ़ने का बहुत शौक था। मेरी साहित्य,उर्दू व संस्कृत में उन्हीं के कारण अभिरुचि पैदा हुई थी। सन 1964 में मेरे स्कूल में शास्त्रीय संगीत सिखाना आरम्भ किया और मेरे स्वर के कारण गुरु सुखदेव बहादुर सिंह ने मुझे बाकायदा हिन्दुस्तानी संगीत सिखाना शुरू किया। मेरा अबोध मन सात सुरों के अद्भुत संसार में विचरण करने लगा। इन तीन वर्षों के संगीत के विधिवत अध्ययन ने मेरे मन में संगीत के जिस बीज को रोपा था वह पहले शौक बना, बाद में जूनून बनकर जो परिणाम सामने आया वह आपके सामने है। स्कूल में आगे संगीत शिक्षा की व्यवस्था ना होने के कारण मैंने विज्ञान में कैरियर बनाया लेकिन तब तक संगीत के लिए एक आकर्षण का जन्म हो चुका था जो कि आज तक मेरे जीवन का अभिन्न हिस्सा है।’’

‘‘आपको किस तरह का संगीत सुनना अच्छा लगता है ?’’

‘‘मुझे साठ के दशक से रेडियो सीलोन व विविध भारती सुनने का शौक लगा। बाद में इन्हें संकलित करने का जुनून हुआ। मुझे हर तरह के संगीत जैसे हिन्दुस्तानी,लोकसंगीत, शास्त्रीय, फ़िल्मी, पाश्चात्य व और देशों का सुनने का शौक है। मेरे अपने निजी संकलन में विविध तरह के डेढ़ लाख गीत संकलित हैं। मैने संगीत के बदलते हुए स्वरुप को गहराई से देखा है। मुझे हर दौर का संगीत पसंद है।’’

एक बार खेरागढ़ के संगीत विद्यालय में इन्होने देखा कि एक शिक्षक हारमोनियम पर फ़िल्मी गीत गाकर बच्चों को शास्त्रीय राग सिखा रहे हैं। ये बात इन्हें बहुत अद्भुत लगी थी. हो सकता है बाद में अवचेतन में बसी इसी घटना ने इन्हें ये रास्ता दिखाया हो।

‘‘आपकी फ़िल्मी गीतों में राग के पोस्टमार्टम की प्रक्रिया क्या थी?’’

‘‘देखिये- इस प्रक्रिया के लिए पोस्टमार्टम शब्द ठीक नहीं है। हमने हिंदुस्तानी संगीत के माधुर्य की आत्मा यानि कि राग को खोजने की कोशिश की है हम ऑफ़िस से आकर दो तीन वाद्यकारों के साथ बैठकर एक एक फ़िल्मी गीत दोहराते थे व उनमें राग खोजते थे व उसे लिपिबद्ध करते जाते थे। हम हैरान होते थे कि संगीतकार कितना बड़ा चमत्कार कर देते हैं। उन्हें फ़िल्म की कहानी ध्यान में रखकर उस गीत का मूड, उसकी शास्त्रीय राग गायक के गायन का उपयोग करके सिर्फ तीन मिनट में बांधकर समझ लीजिये चमत्कार करना होता है।’’

‘‘ये एक तरह का जुनून या ऑब्सेशन वह भी उस हद तक सारे दिन ज़िम्मेदार रेलवे के प्रशासनिक पद की ज़िम्मेदारी निबाहने के बाद आप रात को वाद्यकारों के साथ एक एक फ़िल्मी गीत को दोहराकर उसमें रची बसी रागों को खोजेंगे।’’

‘‘समझ लीजिये ये एक तरह का ऑब्सेशन ही है। आरम्भ में हमने सोचा था कि सौ डेढ़ सौ गीतों की रागें पहचानकर अपना काम बंद कर देंगे लेकिन हमें ऐसा लगने लगा कि भगवान का आशीर्वाद हमारे साथ चल रहा था हमें ऊर्जा व उत्साह दे रहा था। हम और भी गीतों की रागें पहचानने का काम करते रहे। इत्तेफ़ाक़ देखिये संगीत में स्वर होते हैं -सात, सात वर्ष तक काम करने के बाद हमने अपने काम का प्रिंटआउट निकलवाया तो हम खुद हैरान रह गये कि ये 3600 पृष्ठ का था। हमें लगा हम इनका अब क्या करेंगे ? खुद ही सोचकर हमने पत्नी से कहा कि हम इसके सात वॉल्यूम्स प्रकशित करवायेंगे।’’

‘‘इन राग में स्वर कितनी तरह के होते हैं ?’’

‘‘जैसा कि हम सात स्वर सा रे ग म प ध नी सा जानते हैं, ये शुद्ध स्वर होते हैं और पांच विकृत स्वर होते हैं। इस तरह से हिन्दुस्तानी संगीत हो या कर्नाटक या पूरे विश्व के संगीत की रचना इन्हीं बारह स्वरों पर टिकी है। तेहरवां स्वर कोई हो ही नहीं सकता।’’

‘‘शास्त्रीय संगीत रचना करते समय कुछ नियमों का पालन किया जाता है। इस बारे में बताइये।’’

‘‘जैसे कोई भाषा लिखते समय व्याकरण के नियम का पालन करते हुये कुछ लिखता है। लिखते समय संज्ञा क्रिया का ध्यान रखा जाता है। उसी तरह किसी गीत को संगीतबद्ध करने के लिये राग के नोट्स की रचना पड़ती है तभी राग सम्पूर्ण होता है। इसी तरह हम कह सकते हैं संगीत का व्याकरण राग हैं। और राग क्या हैं ? ‘रंजयति इति रागम’....जिससे सुख मिले वही राग है. नोट्स मिलाकर गीत या धुन या किसी संगीत रचना की मुख्य धुन की रचना करतें हैं, वही राग है।’’

‘‘ये नोट्स कितने तरह के होते हैं ?’’

‘‘हिन्दुस्तानी म्यूज़िक धुन पर निर्भर है जिसमें सात शुद्ध नोट्स चार फ़्लैट नोट्स व एक शार्प नोट्स यानि कि कुल बारह नोट्स होते हैं। सात आरोह होतें हैं, सात अवरोह। फिर नोट्स के पाँच, पाँच के जोड़े -पेंटा गॉनिक। छः छः के जोड़े- हेग्ज़ागॉनिक भी होते हैं। अलग अलग राग को मिलाकर थिओरटीकली 4840 तरह से गीत को शास्त्रीय राग में ढाला जा सकता है। सन 1931 से अब तक 600 राग के मिश्रण का उपयोग किया गया है।’’

‘‘पहले जब संगीतकार जब किसी गीत को संगीत बद्ध करते थे तो किस बात का ध्यान रखते थे?’’

‘‘वे गीत के मूड के हिसाब से राग चुनते थे जैसे कि लोरी के लिए पीलू राग का अक्सर प्रयोग किया जाता था। नौशाद जी ने चन्दन का पलना धीरे से आ जा अँखियन में... पीलू राग प्रयोग किया था। वैसे ही चन्दन का पलना रेशम की डोरी.... में भी यही राग है। मेरे कहने का तात्पर्य ये है कि पहले संगीतकार फ़िल्म में गीत की सिचुएशन व गीत की पंक्तियों के अनुसार किसी राग को चुनकर गीत डिज़ाइन करते थे।’’

‘‘आप बता सकतें हैं कि बिना शस्त्रीय राग चुने कब गीतों को संगीत देना आरम्भ हुआ ?’’

समझ लीजिये 1970 या 1980 के बाद से बिना शास्त्रीय राग का ध्यान रक्खे धुनें बनाई जाने लगीं जिनमें अनजाने ही शास्त्रीय राग आ जाती थीं। जैसे कि मुझे रॉकस्टार का हरदीप कौर का गाया गीत कतियाँ करूं ... सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ क्योंकि ये राग मुल्तानी में था। अब तो इस राग का उपयोग कम किया जाता है। ये गीत हरदीप कौर के कैरियर का माइल स्टोन गीत बन गया। लोगों को भी आश्चर्य हुआ कि ए रहमान ने कैसे इतना सुंदर पंजाबी संगीत दे दिया। किसी ज़माने में दया करो गिरधर गोपाल...’, ‘लग गई अँखियाँ.... शबाब के गीत में राग मुल्तानी का कभी प्रयोग हुआ था।’’

श्री पांडेय जी के अभिमत के अनुसार फ़िल्मी गीतों में माधुर्य सन 1975 तक बरक़रार रहा। सन 1975 से लेकर सन 1990 तक बहुत कर्णप्रिय गीत नहीं बने लेकिन सन 1990 मे नदीम श्रवण के आगमन ने फ़िल्म ‘आशिकी में बहुत सुंदर गीत दिये। इसके बाद राजेश रोशन, आनंद मिलिंद ने जो सुमधुर गीत बनाये, वह परम्परा आज तक कायम है। इनमें अधिकतर भैरवी व पहाड़ी राग प्रयोग हुआ है।

‘‘क्या अपवाद स्वरुप इन दोनों राग से अलग राग के गीत भी मधुर बन जाते हैं ?’’

‘‘जी, जैसे ‘मदर इंडिया का गीत दुःख भरे दिन बीते रे भैया’’’ व चश्मे -बद्दूर फ़िल्म का गीत कहाँ से आये बदरा.... मेघव मध्यमाद सारंग है।’’

‘‘जब संगीत से जुड़े लोगों को पता लगा कि आप ऐसा विशिष्ट काम कर रहे हैं तो लोग आपकी सहायता के लिए आगे आये?’’

‘‘जी बहुत से लोग हमारी सहायता के लिये घर भी आने लगे। संगीतकार रवि जिन्होंने, ‘दो बदन’, चौदहवीं का चाँद, वक़्त व हमराज़ फिल्म में बहुत सुंदर संगीत दिया है हमारे घर आये। हमने जब उनसे कहा कि आप राग दरबारी में बहुत सुंदर गीत संगीतबद्ध करते हैं तो वे खुश हो गये कि हमने सही राग को पहचान लिया।

‘‘और किसी संगीतकार से मिलना हुआ ?’’

‘‘संगीतकार आनंद जी ने कितना सुंदर संगीत दिया है। जब वे हमारे घर आये तो हमने उन्हें बताया कि आप अक्सर खमाज राग का उपयोग करते हैं व सलाम-ए इश्क मेरी जां ज़रा कबूल कर लो.....’’ में आपने पोरिया धनाश्री का प्रयोग किया है तो वे भी चमत्कृत हो गये। ख़य्याम साहब का आशीर्वाद मुझे मिल चुका है। उन्होंने मुझसे कहा था कि बेटा आप बहुत अच्छा काम कर रहे हैं।’’

‘‘ख़य्याम साहब ने शमशाद बेगम की आवाज़ में ग़ज़ल संगीतबद्ध कर जैसे बेमुरव्वत बेवफ़ा बेगाने-ए दिल आप हैं ..... व ‘तुम अपना रंज-ओ ग़म, अपनी परेशानी मुझे दे दो... ‘‘हिन्दी फ़िल्मी ग़ज़ल के संगीत को अलग दिशा दी। इनकी प्रयोग की हुई राग के विषय में बतायेंगे।’’

‘‘फिर सुबह होगी’’, मुहब्बत इसको कहते हैं, त्रिशूल व उमराव जान में बहुत उम्दा संगीत देने वाले ख़य्याम साहब ने खमाज, पीलू के साथ पहाड़ी राग का बहुत उपयोग किया है।’’

‘‘एक ही गीत में अनेक रागों का उपयोग होता चला आ रहा है। इसके लिये कोई नाम होगा ?’’

‘‘जी, इसे रागमलिका कहते हैं जैसे पुरानी हमदर्द फ़िल्म के गीत ऋतु आये, ऋतु जाये सखी री ‘मन के मीत न आये में गौड़ सारा, गौड़ मल्हार, जोगी, बहार व मल्हार आदि हैं। अनिल विश्वास मदन मोहन व लक्ष्मीकांत प्यारेलाल जी ने रागमलिका अद्भुत प्रयोग किया है। किसी भी गीत में राग की ओवरलेपिंग नहीं है सबको स्पष्ट सुना जा सकता है। एक फ़िल्म तेलुगु व हिंदी में बनी थी स्वर्ण सुंदरी इसका एक गीत आज तक लोकप्रिय है कुहू कुहू बोले कोयलिया लता व रफ़ी के गाये इस गीत में राग सोहिनी, राग बहार, राग जौनपुरी व यमन शामिल हैं। ऐसे ही भोर भई भैरव गुन गाओ में बारह राग शामिल हैं। उषा खन्ना के संगीत बद्ध किये इस गीत को हेमंती शुक्ला ने गाया है।’’

‘‘कृपया किसी और गीत का उदाहरण दीजिये।’’

‘‘नौशाद जी ने मुगले आज़म के लाजवाब गीत प्यार किया तो डरना क्या में रागमालिका का बहुत सुंदर उपयोग किया है। लता जी के गाये इस गीत का आरम्भ होता है पखावज व दरबारी से। काफ़ी ईनो, शहाना, मध्यमा सारा,वृन्दाबनी सारा आदि राग के माध्यम से ये गीत आगे बढ़ता है। वीर ज़ारा के गीत आया तेरे दर पर दीवाना.... में दस रागों का उपयोग किया गया है। तीस मार खां की क़व्वाली ‘‘वल्लाह...वल्लाह... में नौ राग हैं।’’

‘‘तभी कुछ राग एक गीत में मिक्स हो जाती हैं।’’

‘‘जी जैसे अमिताभ की बेमिसाल फ़िल्म का गीत ए री पवन ढूँढे तुझे मेरा मन। आरम्भ होता है खमाज राग से,बाद में इसमें पहाड़ी राग का उपयोग है। श्रेया घोषाल के देवदास के गीत बैरी पिया, बड़ा बेदर्दी में पोरिया, पोरिया कल्याण का वधाई शाम रोक लई....औचक मुख चूम लई में एक रेयर राग वसंद व पराज का उपयोग हुआ है। ऐसे ही श्रेया घोषाल ने संजय लीला भंसाली के संगीतबद्ध किये ‘‘बाजीराव मस्तानी के गीत मोहे रंग दो लाल। यमन और यमन कल्याण में गाया है।’’

‘‘क्या कोई भी राग किसी और राग से मिलाई जा सकती है?’’

‘‘ऐसा हमेशा नहीं है जैसे मारवा को भैरवी से नहीं मिला सकते। भैरवी को नट भैरवी, खमाज, पहाड़ी से मिला सकते हैं। चारुकेशी को किरवानी से मिला सकते हैं....इसका उदाहरण है साथी रे भूल न जाना... ये पीलू व खमाज राग का मिश्रण है जो गंभीर मूड को अभिव्यक्त करता है। अक्सर भाजनो में भी इस मिश्रण का उपयोग होता है।’’

‘‘भाजन संगीतबद्ध करने के लिये कोई और राग भी प्रभावशाली है ?’’

“जी, राग केदार में रचे बसे हैं ये दो भजन गुड्डी का हम को मन की शक्ति देना..... ‘‘या “दर्शन दो घनश्याम नाथ मेरी अँखियाँ प्यासी रे......’’।

आप एक महत्वपूर्ण जानकारी देते हैं कि सत्तर हज़ार गीतों में से बीस हज़ार में मल्हार राग के नौ रूप जैसे मेघ मल्हार, मियां मल्हार, रामदासी मल्हार, दासी मल्हार ,सूरदासी मल्हार, छाया मल्हार, नट मल्हार, जयंत मल्हार का उपयोग हआ है। संगीतकार शंकर जयकिशन को भैरवी राग इतनी पसंद थी कि इसी राग में इन्होने सर्वाधिक गीतों को ढाला। इतना ही नहीं इन्होने अपनी बेटी का नाम भी भैरवी रख दिया था।

‘‘जब कोई संगीतकार किसी राग का प्रयोग करता है तो कभी ऐसा नहीं होता उसी राग में कोई दूसरा संगीतकार गीत बनाता है तो वह गीत मिलता जुलता हो जाता है ?’’

‘‘बिल्कुल हो जाता है। अशोक कुमार ने सन 1941 में राग शुद्ध झिंझोटी में एक गीत गाया था न जाने किधर आज मेरी नाव चली रे, चली रे, चली रे मेरी नाव चली रे पड़ौसिन का सुप्रसिद्ध गीत एक चतुर नार बड़ी होशियार, मेरे मन के द्वार में घुसत जात आर डी बर्मन ने भी झिंझोटी के साथ भोपाली व बिलावल में संगीत बद्ध किया गया है। अगर ध्यान से सुनें तो इनकी लय मिलती जुलती लगती है।’’

‘‘क्या आरंभ से ले कर आज तक आपको संगीतकारों के रागों के चयन में कुछ अंतर नज़र आया ?’’

‘‘बिल्कुल संगीतकारों की पसंद बदलती चली गई जैसे फ़िल्म ‘‘दिल ही तो है के मन्नाडे के गाये गीत ला गा चुनरी में दाग़ छुपाऊँ कैसे ? व मेरी सूरत, तेरी आँखें फ़िल्म के पूछो न कैसे मैंने रेन बिताई ‘सिंधुभैरवी व भैरवी’ का प्रयोग है। इन्हीं के गाये गीत ‘झनक झनक पायल बाजे’ में राग दरबारी का प्रयोग हुआ है।

‘‘एक दौर एस. डी. बर्मन साहब के संगीत का रहा फिर उनके बेटे आर.डी. बर्मन के संगीत ने भी धूम मचा दी। क्या दोनों की पसंद कोई एक खास राग थी ?’’

‘‘पश्चिमी बंगाल में खमाज राग को एक सम्पूर्ण राग के रूप में प्रयोग किया जाता है जैसे तेरे मेरे मिलन की ये रैना को एस.डी .बर्मन ने खमाज राग के साथ पहाड़ी राग का भी उपयोग किया। इसी राग में उनके बेटे आर.डी बर्मन ने फ़िल्म हीरा पन्ना में ये सुंदर गीत संगीतबद्ध किया पन्ना की तमन्ना है कि हीरा मुझे मिल जाये।

लेकिन अभिमान के ही गीत नदिया किनारे गिरा आई कंगना, ऐसे उलझ गये अनाड़ी सजना में उन्होंने पीलू राग का उपयोग किया है। आर. डी. बर्मन वैसे तो पाशचात्य संगीत देने में माहिर हैं लेकिन लता जी के गाये खूबसूरत गीत पीया बावरी... आरम्भ अलग राग से आरम्भ होता है लेकिन ये राग माज खमाज को अपने में समेटे है।’’

‘‘सुना है एस. डी. बर्मन अगरतला के प्रिन्स थे। इनके विषय में कुछ बतायेंगे।’’

‘‘मैं जब अपने प्रेजेंटेशन अगरतला गया तो मैं रवींद्र सदन गया जहाँ पर महान संगीतकार एस. डी. बर्मन जी का घर था। यहाँ पर इनकी मूर्ति भी लगाई गई है। बर्मनसाहब यहाँ की रॉयल फैमिली से थे लेकिन इन्होंने एक साधारण घर की मीरा जी से विवाह किया था इसलिए इन्हें राजकीय परिवार में अधिक मान्यता नहीं दी जाती थी लेकिन इनकी संगीत कला के कारण अगरतला के दिल से इन्हें कोई निकाल नहीं सका। वहाँ आज भी एस डी बर्मन म्युज़िक कॉलेज है।

‘‘आपने जैसा बताया कि बंगाल में खमाज राग का अधिक उपयोग होता है तो शास्त्रीय संगीत में समृद्ध दक्षिण में किस राग का उपयोग अधिक होता है?’’

‘‘दक्षिण में यमन रागव अमीरी कल्याणी अधिक प्रयोग में लातें हैं। दोनों में सात नोट्स का प्रयोग करते हैं।’’

पांडेय जी राग मांड की तुलना ऊँट के रेट के टीलों के उतार चढ़ाव पर चलने से करते हैं, खमाज राग में समुद्र की लहरों का संगीत सुनाई देता है। भैरवी, बिलावल, काफ़ी,खमाज व यमन भी फ़िल्मी गीतों में आती रहती है। यमन राग, राग हमीर का गाना मधुबन में राधिका.... तो बहुत लोकप्रिय हुआ है।’’

‘‘मेरे ख्याल से कर्नाटक से भी कुछ रागों का समावेश हुआ है ?’’ ‘‘जी हाँ लेकिन वहां की रागें समय काल से नहीं बंधी होतीं। ‘‘यमन राग में संगीतबद्ध किये लोकप्रिय गीत कौन कौन से हैं ?’’

‘‘मुकेश का गाया यमन कल्याण में सुप्रसिद्ध गीत आँसु भरी हैं ये जीवन की राहें या यमन राग में रोशन साहब का संगीत दिया गीत छिपा लोयूं दिल में प्यार मेरा कि जैसे कि मंदिर में लौ दिये की.... ‘दिल ही तो है फ़िल्म में एक कव्वाली है-निगाहें मिलाने को जी चाहता है व भूले से मुहब्बत कर बैठा, नादाँ था बिचारा दिल ही तो है.....ये यमन में हैं व बरसात की रात फ़िल्म में ज़िन्दगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात.... ‘भी एक यमन राग का उदाहरण है।’

‘कुछ कालजयी गीतों के राग बताने का कष्ट करें।’

‘वसंत देसाई जी ने वाणी जयराम जी के गाये गुड्डी के गीत ‘बोल रे पपीहरा’ को उन्होंने राग मियां मल्हार में, आनंद के गीत घर आजा घिर आये बदरा सांवरिया में कल्याणजी आन्नद जी ने मालगूज़ जो कि बागेश्वरी व रागेश्वरी से बनती है का उपयोग किया है। फिल्म छाया का तलत व लता का गाया गीत है इतना न मुझसे तू प्यार बढ़ा कि मैं खुद बेघर आवारा....’ इसे पाशचात्य शैली का स्पर्श देते हुये सिंधु भैरवी व नट भैरवी में इसे संगीत में ढाला है।’ सत्यम शिवम् सुंदरम के लता के गाये गीत भोर भये पनघट पर.... व यशोमती मैया से बोले नंदलाला....को लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने भैरवी में संगीतबद्ध किया है।’’

एक रोचक बात ये है कि लता जी ने बिलकुल छोटी बच्ची की आवाज़ निकालकर यशोमती मैया....’ को गाया है। जब उनसे पूछा गया कि आपने बच्ची की आवाज़ कैसे बना ली तो उन्होंने उत्तर दिया जिस तरह एक्टर अलग-अलग किरदार का रोल करके बिलकुल उन्हीं जैसे हो जाते हैं वैसे ही मेरे गले की आवाज़ ने एक बच्ची की एक्टिंग कर ली।

‘‘मुझे याद है सन 1968 की फ़िल्म राजा और रंक में कृष्ण, सत्यभामा और रुक्मणि पर आधारित एक सुन्दर नृत्य नाटिका भी लक्ष्मीकांत प्यारेलाल जी ने संगीतबद्ध की थी। राजकपूर की फ़िल्म राम तेरी गंगा मैली हो गई में भी एक शस्त्रीय राग पर आधारित गीत था ‘इक राधा इक मीरा,अंतर क्या दोनों की चाह में बोलो दोनों......इस गीत में कौन सी राग का प्रयोग हुआ है ?’’

‘‘इक राधा इक मीरा.... में किरवानी राग का उपयोग हुआ है जो गांधार, धैवत कोमल से बनती है। धैवत व निषाद कोमल मिलकर चारुकेशी राग बनाते हैं जो कि ये कल्याण जी आनंद जी की फेवरेट रागें हैं जिनके उदाहरण ये गीत हैं बेखुदी में सनम आ गये साथ हम....।’ किसी राह पे किसी मोड़ पर किसी मोड़ पर कहीं चल न देना तू छोड़ कर मेरे हमसफ़र, मेरे हमसफ़र....’ या, कभी रात दिन हम दूर थे, दिन रात का अब साथ है....

‘‘जंगली फ़िल्म से याहू टाइप शोर भरे संगीत का आरम्भ हुआ जिसमें तीसरी मंज़िल का अ....अ...आजा व लव इन टोक्यो तकया और भी आगे तक सिलसिला चलता रहा। इनमें कोई अलग राग थीं ?’’

‘‘देखिये आप इस संगीत को शोर नहीं कह सकती क्योंकि जंगली के गीतों में भैरवी व पहाड़ी राग का उपयोग किया गया था, दूसरी दोनों फ़िल्मों के गीत भी बहुत मधुर थे जो शास्त्रीय राग पर आधारित थे।’’

‘‘पाश्चात्य संगीत व हिंदी फ़िल्म संगीत में क्या अंतर है?’’

‘‘दोनों संगीत में बारह स्वर होते हैं। हम मोजार्ट,बिथोविन किसी के भी संगीत को ले लें इनके संगीत में अलग अलग वाद्य अलग अलग हारमनी पर बजते रहते हैं लेकिन हमारे यहाँ एक शृंखलाबद्ध तरह से संगीत बनता है। मालकौंस राग में जैसे पांच स्वर होते हैं। इन पांच स्वरों को गायक अपनी तरह से बिना मूल राग को छोड़े गा सकता है। यदि दूसरे दिन उसे इसी राग को गाना है तो वह किसी दूसरे तरीके से गा सकता है लेकिन यदि मोज़ार्ट ने सन 1980 में कोई सिम्फनी 40 बनाई थी तो गायक को उसी तरह हूबहू वैसे ही गाना होगा। यही मूलभूत अंतर है दोनों संगीत में।’’

श्री पांडेय जी के अनुसार एस पी सुब्रमण्यम के गाये गीत ‘तेरे मेरे बीच में कैसा है ये बंधन अनजाना.....’ को लक्ष्मीकांत प्यारेलाल जी ने शिवरंजनी में पिरोया है जबकि मदन मोहन का सुप्रसिद्ध दस्तक फ़िल्म का ‘बइयाँ न धरो,ओ बलमा....’ शुद्ध शास्त्रीय गीत चारुकेशी, खमाज, श्याम कल्याण से सजा है। शुद्ध शास्त्रीय वो गीत जिन्हें आज भी ज़माना भुला नहीं सकता उन्हीं में से है’ जयराम आचार्य 

द्वारा संगीतबद्ध किया परख का गीत ओ सजना बरखा बहार आई।....’क्या कभी कोई इस गीत व सलिल चौधरी कृत‘ जुर्माना के गीत सावन की बूंदें पड़ी, तुम चले आओ को भुला सकता है?

किसी ज़माने में आशा भोंसले की खनकती मदहोश करती आवाज़ ने संगीतकार ओ. पी. नैयर के संगीतबद्ध गीतों ने धूम मचा दी थी। जैसे यही वो जगह है, यहीं पर कहीं आप हमसे मिले थे.... या जाइये आप कहाँ जायें गे...’ इसके बीच के आशा जी के अलाप मन मोह लेते हैं। उनके गीत किसी चमत्कार से कम नहीं हैं। उनकी आरम्भिक धुन के बजते ही हम समझ जाते थे कि ये गीत नैयर जी ने संगीतबद्ध किया है।

‘‘आपने अपने शोध से ये परिणाम दिया है कि अधिकतर फ़िल्मी गीतों में पहाड़ी राग का उपयोग होता है तो ये कबसे आरम्भ हुआ ?’’

‘‘सन 1950 से गीत को संगीत देने में पहाड़ी राग का आरम्भ हुआ जैसे हवा में उड़ता जाये, मेरा लाल दुपट्टा मल,मल...’ का या शंकर जयकिशन का सुहानी रात ढल चुकी,नजाने तुम कब आओगे?.....’’ ‘‘फ़िल्मी गीतों में अक्सर कौन-सी रागों का प्रयोग अधिक होता है ?’’

‘‘सबसे अधिक पहाड़ी व खमाज राग पर गीत बनाये जाते हैं। मेरी इन पुस्तकों में 17,000 गीतों में से 4,400 गीत तो पहाड़ी राग पर आधारित हैं। राग खमाज के 34,00, काफ़ी राग 1,752 गीतों में, भैरवी 1,504 गीतों में, पीलू 689 गीतों में निहित है लेकिन यदि भैरवी या नट भैरवी रागों के गीतों को मिला दिया जाए तो ये पहाड़ी से भी आगे निकल गये हैं।’’

‘‘पहाड़ी राग की कुछ विशेषताएँ बताएँगे?’’

‘‘पहाड़ी राग में अनुशासन कम रहता है। केवल पांच सुरों के इस राग में पहाड़ के तरह खड़े चढ़ाव व उतार होतें हैं। स्वरों का उठान ऊंचा होता है,जो कर्णप्रिय भी लगता है। धुनें आसानी से बन जाती हैं इसलिए नौसीखिए संगीतकार आसानी से फ़िल्मी गीतों की धुन बना लेते हैं। यह बहुत चंचल प्रकृति का राग है और फ़िल्मों में कहानी के कई पहलुओं में बखूबी प्रयोग हो जाता है। प्रकृति के दृश्यों वाले गीतों तो पहाड़ी राग स्वतः ही अपना स्थान बना लेता है। बहुत अद्भुत है ये पहाड़ी राग।’’

‘‘रागों से अनजान एक अटपटा सवाल, जब अधिकतर गीत पहाड़ी राग में संगीतबद्ध किये जाते हैं तो सुनने में एक से क्यों नहीं लगते हैं ?’’

‘‘अगर सुरों का ध्यान रखकर सुनें जाएँ तो सब एक जैसे लगेगें। अधिकतर लोग ट्यून में समानता देखते हैं। वास्तव में एक राग में भिन्न भिन्न प्रकार की ट्यून्स बन सकती हैं। बस सुरों का व्याकरण नहीं बदलना चाहिए।’’

‘‘पिछले दौर की फ़िल्म आम्रपाली के गीत शास्त्रीय धुनों पर आधारित लगते थे। इन गीतों पर वैजयंतीमाला के शास्त्रीय नृत्य सौंदर्यबोध को देखकर लोग कहने लगे थे कि ये कोई स्वर्ग से नीचे उतार दी गई श्रापित अप्सरा हैं। क्या इसके गीत पहाड़ी राग पर आधरित थे?’’

‘‘नहीं इनमे अन्य राग हैं। पहाड़ी अत्यंत सरल राग है। उसका प्रयोग इस फ़िल्म में नहीं हुआ है। नील गगन की छाँव में.... ‘राग भूपाली पर, तड़पये दिन रात की..... भीम पलासी एवंम धानी पर तथा जाओ रे जोगी तुम जा ओरे.... गौड़ मल्हार, कामोद एवं रागेश्री रागों पर आधारित कठिन रचनाएं हैं।’’

‘‘लेकिन जाओ रे जोगी तुम.... चित्रलेखा का गाना था।’’ नहीं, ये गीत भी आम्रपाली के लिए रिकॉर्ड हुआ था लेकिन फ़िल्म में नहीं लिया गया था।’’

‘‘आज जो गीत संगीतबद्ध किया जाता है उसमें व पहले गीत की धुन जिस तरह बनाई जाती थी उसमें कुछ फ़र्क है?’’

अधिकतर ऐसा होता था कि डिज़ाइन की हुई धुनों पर गीतकारों को गीत लिखना होता था लेकिन अब गीत पहले लिखे जाते हैं उन्हें संगीतबद्ध बाद में किया जाता है। इनमें जाने अनजाने कोई भी राग अपने आप आ जाता है।’’

श्री पांडेय जी के पास अनेक फ़िल्मी व अन्य गीतों का डेढ़ लाख गीतों का निजी संग्रह है। यदि कभी बी बी सी या आकाशवाणी को कोई पुराना फ़िल्मी गीत चाहिए तो वो इनसे संपर्क करते हैं। सन 2012 में रिलीज़ होने वाली फिल्म मैरिड टु अमेरिका में इनका लिखा एक गीत भी है सांझ लजा गई अँखियाँ....

ये संयोग कैसे बना?’’

‘‘जबलपुर में मेरी पदस्थापना थी। वहीं पर मैरिड टु अमेरिका की शूटिंग हो रही थी। उसके संगीतकार अनवर सुहेल जी एक दिन निदेशक श्री दिलीप जी को मिलवाने हमारे पास लाये। उन्होंने हमारी कवितायें सुनने के बाद ये प्रस्ताव रक्खा था।’’

‘‘कहतें हैं अरिजीत सिंह शास्त्रीय संगीत की साधना करके फिल्मों में गीत गाने आये हैं। क्या उनका ऐसा गीत बता सकते हैं जिसमें अलग बहुत सी रागों का उपयोग हुआ हो?’’

‘‘रामलीला फ़िल्म का गीत मेरा नाम इश्क....’’ में तीव्र,मध्यम राग खमाज, भाऊ बिहार, बिहार नन्द का उपयोग हुआ है।

‘‘आपकी ये तपस्या एक शोध यात्रा थी। क्या इस शोध में कुछ अश्चर्यचकित परिणाम मिले ?’’

‘‘जी हाँ, बेसिक राग यमन बहुत लोकप्रिय राग है ये शोध करके आश्चर्य हुआ कि सिर्फ 174 गीत इस राग में कम्पोज़ किये गए हैं। रोशन साहब मैहर घराने के अलाउदीन खां साहब से संगीत सीखने गए तो उन्होंने एक महीने तक उनसे राग यमन बजवाया इसीलिये ‘‘दिल ही तो है फ़िल्म में लगभग सभी गीत राग यमन में हैं।’’

‘‘क्या आइटम सांग्स में भी शास्त्रीय संगीत छिपा होता है ?’’

‘‘जी हाँ, जैसे मुन्नी बदनाम हुई.....’’ या शीला के जवानी.... ‘‘इनके शब्दों पर ना जाकर इनके सुन्दर शास्त्रीय संगीत का आनन्द लेना चहिये।’’

‘‘इस बात से आपका क्या आशय है ?’’

‘‘मेरा अपनी मान्यता है पहले स्वर दिमाग़ पर प्रभाव डालते हैं इसलिए लचर रूप से लिखे गीत भी हिट हो जातें हैं और अच्छी शब्दावली वाले गीत पीछे रह जाते हैं। संगीतकार सरल शब्दों के गीतों को सुमधुर रागों में पिरोयें तो ऐसे गीतों को तो हिट होना ही है।’’

मेरा अपना ख्याल है बरसों पहले तानसेन के गीत मन तड़पत हरिदर्शन को आज से राग मालकौंस बहुत प्रसिद्ध हो गई थी जबकि इसी राग का ये गीत सुनें आधा है चन्द्रमा रात आधी तो लगेगा ही नहीं कि ये भी मालकौंस का गीत है। मेरा प्रश्न है, ये दोनों गीत एक राग के होते हुए भी सुनने में क्यों बिलकुल अलग लगते हैं ?’’

हाँ, इनकी ट्यून एक है पर एक ही राग के अलग सुरों का प्रयोग हुआ है।’’

श्री के. एल.पांडेय जी स्वयं भी चलते फिरते सन्दर्भ ग्रंथ (एनसायक्लोपीडिया) बने हुए हैं। फ़िल्म संगीत में इनके आधीन दर्जन भर छात्र पी. एचडी. कर रहे हैं और ऐसे ही अनेक विषय शोधार्थियों को देने के लिए तैयार हैं। इनका हिंदी व अंग्रेज़ी भाषा में वीडियो क्लिप प्रेजेंटेशन देखना अपने आप में एक अनुभव है। अक्सर संगीत की शक्ति पर आधारित ये एक रानी रूपमती फ़िल्म की एक क्लिप दिखाते हैं जिसमें तानसेन भेस बदल कर राजकमल में फंसे भँवरे को छुड़ाते हैं लेकिन रानी रूपमती अपने सुमधुर गीत से उसे वापिस बुला लेती हैं। आप एक क्लिप द्वारा अपना बनाया समय चक्र को दिखाते हैं कि शास्त्रानुसार किस समय कौन सा राग गाना चाहिए। देश के अनेक शहरों में व विदेशों में शास्त्रीय संगीत में रुचि रखने वाले संस्थान इन्हें अपने इन्हीं प्रेजेंटेशन के लिये आमंत्रित करते रहते हैं।

‘‘कृपया कुछ विशिष्ट जानकारी दीजिये।’’

‘‘मेरे ख्याल से अस्सी का दशक फ़िल्मी संगीत के लिए बहुत भयानक रहा। उसके बाद फिर से मेलोडी लौटी। रागों का भौगोलिक महत्व भी है। पांच रागों का इस्तेमाल हमारे नार्थ ईस्ट से शुरू होता है तो बर्मा, चीन, जापान तक फैलता चला जाता है। आजकल शास्त्रीय गीतों का बनना बहुत कम हो गया है. जब कोई पीरियड फ़िल्म बनती है तब ही कुछ गीत शास्त्रीय आधार पर गीत संगीतबद्ध किये जाते हैं।

पांडेय जी के पास फ़िल्मी गीतों की धुन बनाने के किस्सों भरमार है जैसे कि उमराव जान के गीत दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये....’ को सुरबद्ध करने से पहले संगीतकार ख़य्याम ने आशा भोंसले से अपने स्केल से डेढ़ सुर नीचे गाने के लिए कहा था। वे नहीं मानी और रिकॉर्डिंग बंद करनी पड़ी। बाद में इस बात पर सुलह हुई कि वे अपने नॉर्मल स्वर व अपने स्केल से डेढ़ स्केल नीचे दोनों तरह से रिकॉर्डिंग करेंगी। जो बेहतर गाना होगा वही फ़िल्म के लिए चुना जाएगा। खय्याम साहब का सोचना सही था डेढ़ स्केल से गाये गीत ने क्या धूम मचा दी थी।’’

ख़इके पान बनारस वाला.... गाना देवानंद की फ़िल्म बनारसी बाबू के लिये बनाया गया था लेकिन उन्होंने इस गाने पर डांस से इंकार कर दिया था तो इसे ‘डॉन में ले लिया गया और आज तक न इस गीत को और न अमिताभ बच्चन के डांस को लोग भूल पाये।

गाईड के गीत काँटों से खींच के ये आँचल... विजयानंद अपनी फ़िल्म में नहीं लेना चाह रहे थे लेकिन देवानंद ने ज़बरदस्ती फ़िल्म में रखवाया और इसने भी धूम मचा दी। महबूबा का गीत मेरे नैना सावन भादों.... ‘किशोर कुमार गाना नहीं चाह रहे थे लेकिन उन्होंने बेहतर ढंग से लता मंगेशकर के वर्ज़न से गाया है।’

‘‘क्या आप बता सकतें हैं किन शास्त्रीय संगीत में पारंगत संगीतकारों का प्रभाव फ़िल्मी गीतों पर पड़ा है।’’

‘‘इनमें हैं अनिल विश्वास, एस.डी. बर्मन, एस एन त्रिपाठी, मदन मोहन, रोशन, शंकर जयकिशन लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, आर. डी. बर्मन, एवं शिवहरि।

‘‘आपके शोध से हमें ये भी जानने का मौक़ा मिलेगा कि सबसे अधिक फ़िल्मी गीत किस गायक व किस गायिका ने गाये हैं ?’’

‘‘लता मंगेशकर फ़िल्मों में सबसे अधिक छब्बीस हज़ार गाने गाने का दावा करती रहीं हैं लेकिन उनसे अधिक फ़िल्मी गीत मुहम्मद रफ़ी व आशा भोंसले ने गाये हैं।’’

‘‘पिछले वर्षों से से इतने सुंदर फ़िल्मी गीत लिखे जा रहे है,उतनी ही सुंदर धुन बनायी जा रही हैं। कहना चाहिये बहुत से गायकों से लेकर कनिका कपूर तक बहुत अच्छे गायकों की बाढ़ सी आ गई है तो इन फ़िल्मी गीतों के सफ़ल होने में किसको श्रेय देना चाहिये गीतकार को या संगीतकार को ?’’

‘‘किसी भी गीत की रचना या सफ़लता में संगीतकार,गीतकार, गायक, वाद्य वादक व रिकॉर्डिस्ट की अपनी अहम भूमिका होती है। तकनीकी विकास के इस युग में नए नए वाद्यों का प्रयोग व नये गायकों का प्रवेश फ़िल्मी गीतों में चार चाँद लगा रहा है। इन सबकी प्रयोगधर्मिता को देखकर लगता है कि हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत द्वारा और भी मधुर संगीत सुनने को मिलेगा।’’

‘‘आज का ये दौर बेहतरीन फ़िल्मी गायकों का है। आपको कौन सा गायक सर्वश्रेष्ठ लगता है?’’

‘‘ये सच है कि आज बहुत से बेहतरीन गायक गायिकाएं हैं लेकिन अरिजीत सिंह पूरी तैयारी के साथ यानि कि शास्त्रीय संगीत सीखकर फ़िल्म जगत में आये हैं इसलिए उनकी गायकी में बहुत गहराई है। गाने में उनकी मुर्कियाँ प्रस्तुति लाजवाब है।’’

‘‘क्या आप भी महफ़िलों में गीत गाना पसंद करते हैं ?’’ ‘‘हम गीत तो नहीं गाते लेकिन कोई कहीं भी गीत गाते हुए बेसुरा होता है तो उसकी ग़लती पकड़ लेते हैं।’’

देल्ही में जब सरगम फ़ाउंडेशन के कार्यक्रम में उनका एक प्रयोग बहुत लोकप्रिय हुआ था। गायिका रनिता डे जब मंच पर कोई फ़िल्मी गीत प्रस्तुत करतीं थीं। उसके बाद वे श्रोताओं को बताते थे कि इसमें कौन कौन सी रागों का समावेश है। जबलपुर के रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय ने इन्हे संगीत ज्ञान के लिए व बेलगांव की राव साहेब हरिहर समिति ने इन्हें स 2014 में रसिकाग्रहणी पुरस्कार देकर सम्मानित किया है। पूना की एक संस्था ने संगीत मर्मज्ञ पांडेय जी को उनकी पत्नी आभा पांडेय सहित आमन्त्रित कर उनके संगीत के अथाह ज्ञान के लिए गुरु पूजा की थी। ये तो तय है कि इतना विशिष्ट व वृहद कार्य पत्नी के सहयोग के बिना संभव नहीं है। संगीत के क्षेत्र में विशिष्ट काम करने के लिए उत्तर प्रदेश के डी डी सम्मान से उन्हें सन 2017 में सम्मानित किया गया था।

‘‘देश के अनेक शहरों के शिक्षण संस्थान, विश्वविद्यालय, संगीतविद्यालय आपको प्रेजेन्टेशन के लिये आमंत्रित कर रहे हैं। दिल्ली दूरदर्शन पर आपके अनेक इंटरव्युज़ प्रसारित हो चुके हैं युवा पीढ़ी आपको मंत्रमुग्ध होकर सुन रही है,आपको क्या अनुभव होता है कि वो क्या ग्रहण कर रही है?’’

“अपने प्रेजेंटेशन के बाद युवा पीढ़ी के विचार, उनकी उत्सुकता व आनंद देखकर लगता है कि ये विषय अछूता रह गया है। शास्त्रीय संगीत के सौन्दर्यमयी बोध से उन्हें अभी तक किसी ने परिचित ही नहीं करवाया। मुझे बहुत अच्छा लगता है कि मैं इनमें शास्त्रीय संगीत के सौंदर्य बोध के प्रति अनुराग उत्पन्न कर पा रहा हूँ। मैं और भी ज़िम्मेदारी से इस काम में संलग्न होता रहता हूँ व होना भी चाहता हूँ।’’

‘‘साहित्य व संगीत का आप में अदभुत संगम हैं। क्या आपकी इन दो कलाओं का एक दूसरे पर कुछ प्रभाव पड़ता है ?’’

“ये मणि कंचन का संयोग है। संगीत ज्ञान होने से कविता में स्वतः ही प्रवाह आ जाता है।मुझे कभी मात्राएँ गिनने की आवाश्यकता महसूस नहीं होती। मेरे जीवन में संगीत पहले आया व बाद में साहित्य, इसे मैं ईश्वर की अपने ऊपर बहुत बड़ी कृपा मानता हूँ।’’

‘‘आप बहुत ज़िम्मेदार पद पर रहे थे, ऑफ़िस के बाद का समय आपने अपनी अभिरुचि को दिया तो इतनी ऊर्जा व अनुशासन व अपने स्वास्थ्य का ध्यान आपने किस तरह रक्खा ?’’

‘‘मैं पूरी तरह आशावादी हूँ व ईश्वर के लिए पूरी तरह समर्पित हूँ। मेरा मूलमंत्र है कि अपने को निगेटिविटी से दूर रखता हूँ चाहे कहीं किसी की बुराई हो रही हो चाहे वह टी वी या अख़बार की बुरी ख़बरे हों। लोगों की मुक्त कंठ से प्रशंसा में विश्वास रखता हूँ। मेरी सत्य के प्रति पूरी आस्था है इसलिए झूठ का सहारा कभी नहीं लेना चाहता। अपना समय अधिक से अधिक रचनात्मक कार्यों में व्यतीत करता हूँ। प्रात; समय से उठना, योग व प्राणायाम नियमित रूप से करता हूँ। मेरा भोजन भी संयमित है। मैं दिन में 5-6 घंटे संगीत सुनता हूँ व अंग्रेज़ी या हिंदी की कोई क्लासिक फ़िल्म देखता हूँ व अधिक समय परिवार के साथ बिताता हूँ। यही सब मुझे ऊर्जावान बनाता है।’’

संगीत निदेशक आनंद जी ने 1 मई 2017 को मुम्बई में संगीत शिल्प प्रकाशन से प्रकाशित ‘हिंदी सिने राग एनसायक्लोपीडिया’ का विमोचन किया जिसमें सन 1931 से 2017 तक की 5700 फ़िल्मों के 17000 गीतों से अधिक की रागों का, आलमआरा (1931) से लेकर राबता 2017, तक विश्लेक्षण है। इसमें एक तालिका दी हुई है जिसमें गीत का मुखड़ा अल्फाबेटिकली है यानि कि गीत की प्रथम पंक्ति इनके साथ है गायक, फ़िल्म, गीतकार व संगीतकार का नाम। इस तालिका में है गीत की ताल, गीत का स्केल व जिस क्रम से इसमें रागों का प्रयोग हुआ है,वह भी इसमें बताया गया है। अभी इस योजना के 600 पृष्ठ वाले तीन वॉल्यूम्स,जो लैंडस्केपफ़ॉर्मेट में प्रकाशित हैं, एक हिंदी, एक इंग्लिश व एक दोनों भाषाओं में विमोचित किये गये हैं। हैरानी की बात ये है कि अभी ऐसे ही सात वॉल्यूम्स प्रकाशाधीन हैं। इन्होने इस वॉल्यूम्स को बहुत सुन्दर आकर्षक नाम दिया था- रागोपीडिया ‘लेकिन बाद में पता लगा कि ये नाम किसी और ने रजिस्टर्ड करवा लिया था। तो इन्होने ये नाम बदलकर ‘हिंदी सिने राग एनसाक्लोपीडिया’ रख लिया। आपकी लिखी पुस्तक ‘सुर संवादिनी’ आपके इस शोधयात्रा के बीच हुए अनुभवों का ख़जाना है।

इन एनसायक्लोपीडिया या रागोपीडिया की शृंखला ने एक रास्ता खोला है कि फ़िल्मी गीतों के माध्यम से भारतीय शास्त्रीय संगीत जो भारत की ही नहीं विश्व की धरोहर है,भी सिखाया व सीखा जा सकता है क्योंकि फ़िल्मी गीतों में सबकी रूचि होती है। एक तरह से आपने शास्त्रीय रागों का संरक्षण भी किया है।

सुप्रसिद्ध संगीतकार आनंद जी ने इनकी पुस्तकों का विमोचन करते हुए कहा, ‘‘एक ज़िम्मेदार रेलवे के प्रशासनिक पद पर होते हुए अपनी व्यस्तताओं में मेरे बरसों से परिचित श्री के. एल. पांडेय कैसे इतना समय निकाल कर एक अभूतपूर्व कार्य किया है कि जो इन्होने फ़िल्मी गीतों की राग खोज डालीं। ये आगामी पीढ़ियों के लिए एक शास्त्रीय व सरल धरोहर है जो शास्त्रीय संगीत सीखना चाहेगी या जो इसका सुनकर आनंद लेने में रूचि रखती हो।’’


My Home Theater System and Music Library.

Music and cinema books

The complete ’Hindi Cine Raag Encyclopaedia’ written by me in 5 volumes was released today by Hon. Governor of U.P. Smt. Anandiben Patel in presence of my family members.

The encyclopaedia has an analysis of over 20,000 selected songs from 6200 films made from 1931 till 2020 arranged in a tabular format in 9 columns , giving details of song’s first line (Mukhda), Film with year of release, singers, lyricists, music directors, Taal, Root note (Scale) an the names of Raagas as per their sequential appearance in the song. Volumes 1 & 2 of this encyclopaedia are in the form of reference edition presenting the analysis as per the song’s first line(Mukhda) arranged in English alphabetical order, thus making the music enthusiasts and researchers easy to get the answer to the question’This song is based on which Raag or a set of Raagas ?”

Volumes 3, 4 & 5 have 174 Raagwise tables, one for each Raag along with a brief introduction about the grammar of each Raag in the beginning of each table. These 3 volumes therefore give answer to the reverse question i.e. “What are the songs based on this particular Raag ?” In addition these 3 volumes have additional tables of different genres.

In Vol. 3, there are separate tables of Raag analysis of songs by famous classical vocalists, Dhrupads in films, Hindi Raagmaalikas in films, independent Aalaaps, Taraanas & Thillanas, Rabindra Sangeet based songs, traditional Bandishes in films and Western Classical music in Hindi film songs.

In Vol.4, there are tables of analysis of Children’s songs, classical dance based songs, devotional songs, festival based songs, haunting songs, Hindi songs from the films of other languages, lullabies (Lories), Nritya Naatikaas, patriotic songs and season based songs.

In Vol. 5, there are tables of analysis of folk songs, Ghazals, literary Hindi & Urdu songs, Mujra songs, Naghmas & Geets, Nav Ras based songs, Nazms, Qawwalis, Sufi songs, Thumris and Thumri inspired songs and wedding songs.

All the 5 volumes are hardbound and are running in around 3300 pages in landscape form.

These have been published by Sangeet Shilp Prakashan, Lucknow.

Based on the overwhelming response of Vol. 1 &2 which are available since February last year, it is expected that the long awaited Volumes 3, 4 & 5 shall also be useful to the music enthusiasts and researchers. I am highly thankful to all my friends of musical fraternity for constantly encouraging me to do this kind of work. I am extremely thankful to Dr. Diwakar Kashyap Associate Professor, Indira Kala Vishwavidyalaya Khairagarh (Chhattisgarh) who has been constantly associated with this work and also the entire team of Jabalpur comprising of Shri Sanjeev Sinha, Shri Parashuram Patel, Shri Brajendra Kumar, Sri Kuljeet Singh and my Kolkata team mate Sri Arindam Bhattacharya. Volumes 1&2 are already available on Amazon and Volumes 3,4 &5 shall also be there soon. Thanks for reading and supporting me. 

K.L. Pandey.




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समीक्षा एवं संस्मरण


डॉ. कमला दत्त



स्व. डॉ. नरेन्द्र मोहन, नई दिल्ली 110027

28.12.2018

प्रिय कमला,

तुम्हारा पत्र पा कर खुशी हुई और सकून भी कि पत्र-विरोधी इन दिनों में कोई तो है जो इतने प्यारे, अंतरंग और आत्मीय पत्र लिख सकता है। मेरे लिए पत्र ‘बात आधी, मुलाकात आधी’ जैसे रहे हैं। यह पत्र तुम्हारे पत्र के जवाब में नहीं है क्योंकि जिन अनुभूति क्षणों को महसूस करते हुए तुमने पत्र लिखा है, मैं बस उनके साथ हो लिया हूँ।

कमला, तुम्हारे साथ अपने रिश्ते को शब्द देना बड़ा मुश्किल है। प्यार, दुलार, सरोकार, दोस्ती, सच आदि शब्द उत्तर-सत्य (पोस्ट टरु्थ) काल में इस कदर घिस-पिट चुके हैं कि इन में वह नहीं दिखता जो तुम हो और मैं हूँ - थोड़ा थोड़ा। रिश्ता होना और रिश्ते में सचमुच होने का एहसास क्या कुछ अलग-सा नहीं है? रिश्ते में जितना भी हूँ, जैसा भी, जो भी हूँ, उतना तो हूँ ही। मेरे ख्याल में रिश्ते की अवधि कितनी लंबी है या छोटी, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। कई बार एक लम्हे के वक्फ़े में इतना कुछ होता है कि सालों की अवधियाँ रेत-सी लगती हैं। असल में, हमारे बीच मौके बेशक कम रहे हों, बड़ी बात है कि कितनी शिद्दतभरी तीव्रता से हमने उन्हें जिया है। मुझे ‘जाँ पाँ’ कहानी में तुम्हारी एक पंक्ति याद आ गयी है: ‘‘कितनी अजीब बात है आप किसी को जानते रहे हों, उस के साथ कोई रिश्ता रहा हो, चाहे कुछ मौकों का।’ इस पंक्ति पर सोचने लगता हूँ- क्या ऐसे ही अजीब क्षण हम से कहानी या कविता नहीं लिखवा लेते जैसे तुम ने ‘जाँ पाँ’ जैसी बेहतरीन कहानी लिख दी। ज़रा सोचो तुम अंबाला में थी, संतोष अंबाला में थी हरगुलाल हाई स्कूल में, मैं भी अंबाला में ही था, पर तब तक मैं तुम दोनों को नहीं जानता था। क्या एक शहर में होने मात्र से रिश्तों की और - और संभावनाएँ पैदा नहीं हो जाती? एक ही शहर में रहते हुए क्या हम बिना मिले अतीत में, वर्तमान में और भविष्य में घटित हुए को शेयर नहीं करते रहते जैसा कि तुम्हारा संतोष के साथ और बाद में मेरे साथ संबंधों में हुआ। तुम्हारी याद संतोष में रही और वह मुझे उस याद का हिस्सा बनाती रही, तभी तो मैं पटियाला की संगोष्ठी में तुमसे बेझिझक मिला और साथी लेखक शर्त हार गए। तुम्हारे साथ संबंधों को नई दिशाओं में ले जाने में ऐसे क्षण उत्प्रेरक (बंजंसलेज) बन गए हो तो क्या आश्चर्य?

इधर तुम्हारी कहानियाँ पढ़ीं तो तुमसे जुड़ी कई यादें कौंध गयीं। पढ़ते हुए कई बार लगा कि कहानियों के करीब जाने के लिए मेरे पास सही और सटीक शब्द नहीं हैं। जो शब्द मेरे पास हैं, उनसे मैं इन कहानियों में जो व्याप्त है उसे पूरा या अधूरा पकड़ नहीं पा रहा हूँ। काफी-नाकाफी जो शब्द मेरे पास हैं उन्हें लेकर आख़िर मैं कितनी दूर तक जाऊँ? सोचता हूँ रचनात्मक शब्द को पकड़ने-परखने वाले शब्दों की कमतरी क्या मेरे इल्म और एहसास की कमतरी तो नहीं? जो हो, इन्हीं से रचनाओं को चीरता-फांदता-लांघता रहा हूँ अभी तक।

हर पैमाने को जाँचने-परखने के लिए एक अदद कहानी और हर कहानी की पड़ताल के लिए एक अलग पैमाना मुझे ज़रूरी-सा लगता है। सोचता हूँ पैमाने और कहानी में अंतर्किया-इंटरेक्शन क्यों न होने दूं। उन्हें जुड़ने-टकराने दे कर क्या मैं उन से बेहतर परिणाम नहीं पा सकता? ‘जाँ पाँ’ कहानी ही लें। इस के शुरूआती दो पन्नों के पहले पाठ से मुझे लगा कि अवधारणाएँ कुछ ज़्यादा ही हावी हैं, मगर दूसरी बार पढ़ने से समझ में आया कि इन के बिना पाठक क्या ख़ाक़ समझेगा कहानी को। ये पन्ने खास तरह से तैयार करते हैं पाठक को एक अलग क्षेत्र की कहानी पढ़ने के लिए। ‘जाँ पाँ’ जैसे साइंटिस्ट को केंद्र में रख कर विभाजित ज़िंदगियाँ जीने वाले उसके बहुआयामी व्यक्तित्व के रेशे-रेशे को, उस के अकेलेपन और अंतर्विरोधों को, कारोबारी तिकड़मी हाथ को उघाड़ते हुए अपने और अपने प्रति उसके आकर्षण, आसक्ति, झूठ, छल और फरेब को उजागर करते हुए तुम्हारे लिए कहानी लिखना आसान न रहा होगा। अपनी रिसर्च की चोरी और ठगी से पैदा हुई गहरी हताशा में से तुम डूबती-उबरती रही हो। साथ ही औरत होना, गोरी न होना, दूसरे मुल्क की होना तुम्हें तीखी कसक और कसमसाहट से भरता रहा है जो मानवीय ह्रास की तरफ़ संकेत है। बनते-बिगड़ते रिश्ते में आए ऊबड़खाबड़पन, आकर्षण-विकर्षण और निपट अकेलेपन को समटेते हुए, कमला तुम भावुक हुए बिना बेबाकी से कहानी लिख पायी हो तो इसका बड़ा श्रेय तुम्हारे भीतर बैठे अभिनेता को जाता है जो भीतर-बाहर से चरित्र में दाखिल हो जाता है और उससे बाहर आने के रास्ते भी निकाल लेता है।

‘ज्योति’ कहानी का कथा-संदर्भ थोड़ा अलग है, तो भी संकेत यहाँ भी वैसे ही हैं। वर्षों से विदेशों में रहने वाले ऊबे और उखड़े हुए लोगों का अकेलापन-आत्महता अकेलापन टीस की एक लकीर-सी खिंच जाती है पढ़ते हुए पाठकों के दिल-दिमाग में। तीन-तीन पीढ़ियों का अपना-अपना ओछापन, कमीनगियाँ, हरामज़दगियाँ अपने अपने मनोवैज्ञानिक 

उद्वेलनों के साथ यहाँ दर्ज हैं और बेबसी, डर, त्रास, उम्रदराज़ होती पीढ़ी के साथ। हर पीढ़ी को अपनी-अपनी पड़ी है - संताप और तनाव और तनातनी..., ऊब, अकेलापन, टूटन और मृत्यु हिंदी कहानियों के लिए नए नहीं है लेकिन तुम इन मनोदशाओं को अपने सेल्फ से निचोड़ कर मानवीय व्यवहार और आचरण के जिन रूपों-विरूपों तक ले गयी हो, वह इन्हें खास बनाता है। यह बात इन कहानियों को प्रचलित और इधर लिखी जा रही कहानियों से अलगाती है। कहानी-कला में दूसरों से अलग दिखना और होना, छोटी बात नहीं बल्कि मुख्य बात है। संबंधों के तनावों की विभिन्नताओं की बड़ी रैंज को संभाले हुए तुम ऊपरी यथार्थ को लांघती गयी हो और यथार्थ की भीतरी तहों में झाँकती गयी हो, ज़रा देखो - ‘यह माया जिसके घर हमेशा पड़ा रहता था .... कहाँ कहाँ घुमाता था उसे ... क्यों वेकेशन छोड़ वापस नहीं आ सकती थी।’ इसी तरह ये पंक्तियाँ: ‘सभी भूल जाते है। सभी कुछ! अपने भी, बेगाने भी।’ मृत्यु के अंदेशे से ‘विल’ और विल के साथ कितना स्वार्थ, कितना कमीनापन उभर आता है व्यक्ति का और स्टेट का भी - ‘दैत्य जैसा मुँह है स्टेट का, गवर्नमेंट का। सब कुछ हड़पने को तैयार है। इसका मुँह हमारे जीते जी नहीं भरता, मरने पर और भी खुल जाता है।’

इन कहानियों में तुम्हारे अंदर का एक रंगकर्मी, नाट्यकर्मी छिपा बैठा है। मैंने चुपके से उसे देख लिया है। इन कहानियों की हरक़त और हरारत उसी की देन है। तुम्हारी कथात्मक भाषा की अलग सी रिद्म इसी से जुड़ी है जो वाक्य-संरचना में खलबली मचाए रखती है और मानोलॉग में खुलती जाती है।

प्रिय कमला, कहानियों के विश्लेषण से पत्र को बोझिल नहीं बनाना चाहता हालाँकि कहानियों में तुम व्याप्त हो और उन के ज़रिए तुम तक पहुँचने की कोशिश की जा सकती है। तुम्हारी कथनी और करनी में खास किस्म की साफगोई और ईमानदारी है जिसे मैंने मिलने पर हमेशा महसूस किया है। तुम जब भी घर आई हो, बड़े खुलूस से मिली हो और पूरा घर एक स्पन्दन से भर गया है। जब भी तमने हाथ मिलाया है मैंने उनमें कई ख्यालों से गुथी तुम्हारी नर्म भावनाओं का अक्स पाया है। पटियाला मिलने पर तुमने वायदा किया था कि जब भी दिल्ली आई तो संतोष से मिलने ज़रूर आऊँगी। और तुम पहली बार कीर्ति नगर के घर में आई तो संतोष की खुशी का ठिकाना न था। लगभग 40 साल के बाद स्कूली दोस्त से मिलने का क्या थ्रिल होता है, इसे मैंने और बच्चों ने - सुमन, अमित, मनीषा ने महसूस किया था। मुझे याद है तब संतोष ने तुमसे वादा लिया था कि जब भी तुम अमेरिका से दिल्ली आओ तो एक पूरा दिन उसके साथ बिताओगी। तुम ने उस वादे को हमेशा निभाया है उसके होते हुए ही नहीं, उसके चले जाने के बाद भी, हर साल आज तक। और राजौरी गार्डन की एक शाम। तुम आई थी और घंटो बैठी रही थी इसी कमरे में जहाँ तुम आज भी सीधे, बेखटके आ जाती हो, कहानियाँ सुनाती, कविताएँ सुनती हो। तुम्हारी संतोष और मेरी अनुराधा उन दिनों निढाल हो चुकी थी, गुर्दे की तकलीफ़ से बेज़ार पर चेहरे पर मंद मस्कान के साथ तुम्हें देखते हुए उसने मुझ से कहा - अब यह मेरी दोस्त ही नहीं, तुम्हारी दोस्त भी है। कम होता है कि कोई पत्नी अपने दोस्त को पति का दोस्त बना दे। इस कला में वह बेजोड़ रही है। इस के लिए बड़ा दिल चाहिए और बड़े दिल वाली अनुराधा मुझे एक दोस्त देकर चली गयी।

.....तुमने ठीक मार्क किया है, सुमन ने और मैंने भी कि न होने पर भी कोई कैसे उपस्थित होता है, आसपास मंडराता रहता है, मिलने पर इसे हम तुम्हारी संतोष के संदर्भ में आज भी महसूस करते हैं। वह एक ऐसा महीन धागा है जिसने मुझे तुममें रूह की जानिब पिरो दिया है।

कमला, बहुत साल हो गए जब तुम एक अभिनेत्री थी ‘अभिनेता’ की प्रस्तुतियों में अभिनय करती थी। कहते हैं वे दिन हवा हुए लेकिन अभिनय हवा नहीं होता, रग-रग में समाया रहता है, दिखता रहता है वर्षों बाद भी, आखिरी पलों तक। जानती हो क्या आज भी तुम्हारे बोलने में, लिखने में रंगमंच झलकता है? जब तुम कहानी पढ़ कर सुनाती हो तो तुम परफार्मर बन जाती हो - पूरी देह-भाषा के साथ पाठ से बाहर जाती दिखने लगती हो। तुम्हारी कहानियाँ पढ़ते हुए मुझे कई बार लगा तुम पात्रों में प्रवेश कर गयी हो और देखते-देखते उनसे बाहर आ खड़ी हुई हो। जानती हो क्या तुम्हारे शब्दों में रंग है और रंग में अभिनय की ध्वनियाँ।

तुम्हारी बातों में, तुम्हारे लेखन में एक परिन्दा है - कभी चुप-चुप, कभी उदास। कई बार फड़फड़ाता, उड़ान भरता। परिन्दे के साथ एक गालिब भी है - एक सपना, एक पैशन - ‘जो आँख ही से न टपके तो फिर लहू क्या है’ जिस की तुम कायल हो।

और हाँ, यह तो बताओ नर्गिस जैसी लड़की के क्या हाल हैं? वह ठीक तो है न? क्या वैसे ही मुस्कराती है आज भी? मेरे लिए खास है वह। उसका ध्यान रखना।

थोड़े लिखे को बहुत समझना, कमला

-तुम्हारा (नरेन्द्र मोहन)

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लघुकथा


सुश्री अरुणा शर्मा, दिल्ली 9212452654

 ....वैभव ....

खुद का पारिवारिक गुण वैभव छोड़कर के बड़ा अमीर वैभव पाने की नाकाम कोशिश की सफलता पारिवारिक सदस्यों और बड़ो की दिली दुआ-सलाम के सिवा पार नहीं पडती। पारिवारिक अपनापन में सब कुछ है-

वैभव

गूफ्तगू करनी है तुमको मुझसे, वह भी बहुत लम्बी.. इतने वर्षों बाद क्यों? क्या हुआ वैभव ?? 

बड़ी जल्दी याद आई तुम्हें मेरी ?

ऐसा क्या हुआ था ? जो उस समय तुम सब जानते हुए भी एक शब्द कहने के लिए भी हिम्मत जुटा न सके। ताया जी तुम्हारी राह देखते रहे, अंत तक कि तुम कुछ तो बोलोगे। लेकिन नहीं वही के वही जिद्दी किस्म के प्राणी रहे तुम हमेशा से।

तुम्हारी इस बचकानी हरकत से पूरा परिवार परेशान होता रहा है बस यही आस लिए कि तुम कभी तो सुधरोगे। लेकिन नहीं, कभी नहीं, वो दिन आया ही नहीं कि तुम परिवार के लिए कुछ अच्छा कर पाते और हम सभी परिवार मिलजुल तुम्हारे लिए कुछ अच्छा सोच पाते।

तुम इतने स्वार्थी हो गए कि तुम्हें अपने सिवा कभी कोई नज़र आया ही नहीं। बेबुनयादी बातों पर जीवन भर तुम्हारा ध्यान रहा। हमेशा से तुम दूसरों को गिराने व धमकाने में लगे रहे। बचपन से लेकर आज तक तुम्हें हर बात की चेतावनी व बड़ों की मार से बचाने की हम सभी की कोशिश नाकाम रही।

तुम जानते हो भली भांति और इस बात से कभी इन्कार नहीं कर सकते कि तुम्हारा यह बहरूपियापन मुझे हरगिज़ कभी भी पसंद नहीं आया। तुम्हें कितना समझाया सब ने बड़े प्यार से मगर नहीं तुम नहीं माने।

तुम्हारा यह दोहरा रूप कितना कष्टदायक है तुम नहीं समझ सकते। मां ने ताई जी का वास्ता देकर गल्त रास्ता छोड़ कर परिवार के साथ रहने को कहा। रातों रात अमीर बनने के सपनों ने तुम्हें सब से दूर कर दिया और मां बाबू जी तुमसे हमेशा के लिए नाराज़ हो गए।

कई बार मां बाबू जी से छुपकर तुम्हें चोरी से चिटठी भी लिखती रही कि तुम अपने गुण विशेषता व सुंदर चेहरे को झूठ के परदे में छिपाकर यूं बर्बाद मत करो लेकिन तुम नहीं मानें और बात को आई गई में टाल गए।तुम्हारे लिए क्या नहीं किया आज तक मैंने? बोलो-

परिवार को जोड़ने के लिए सिर्फ एक तरफा कोशिश कभी कामयाब नहीं होती इसके लिए सभी की सोच का एक होना अत्यन्त आवश्यक है और तुमने, तो कभी भी कही गई बातों पर ध्यान ही नहीं दिया। कब तक तुम अपनी असलीयत को छुपाए फिरोगे बोलो कब तक ? 

दूसरों का मज़ाक बनाना, टिठाई करना, पराई स्त्री को गंदा बोलना व गाली देना, दूर बैठे तमाशा देखना, झूठ पर झूठ बोलना तुम्हारे लिए चाकलेट खाने के बराबर रहा। तुम अपनी खुदगर्ज़ी में भूल गए कि मां बाबू जी के साथ साथ परिवार के अन्य सदस्यों पर इसका क्या प्रभाव पडे़गा। तुमने मुझे भी बहुत अपशब्द बोले। इतना छल भी अच्छा नहीं।

अब क्या करोगे मुझ से बात करके और क्यों? बहुत कुछ पीछे छुट चुका। हालात ने तुम्हें क्या से क्या बना दिया। दुख लगता है सोच कर भी।

एक बार तुम मुझसे मिल तो लो दीदी। एक आप ही तो हो,जो हमेशा से मेरी सुनती आई हो। मिलने के बाद आप को सब बताऊंगा प्लीज़ खिसयाते हुए वैभव ने सुमन से कहा-

नहीं, बिल्कुल नहीं? तुम्हारी बचकानी बातें मुझे बिलकुल पसंद नहीं। तुमने सब को नाराज़ किया है। तुमने मेरी कहां सुनी आज तक। बहुत दिल दुखाया है तुमने मेरा भी-

चेहरे पर आई पसीने की बूंद को रूमाल से पोछते हुए सुमन ने कहा-

नहीं दीदी। सिर्फ एक बार इज़ाज़त दें तो मैं घर पर आऊंगा “कल” आप सभी से मिलने।

(कुछ देर सोचने के बाद)-

ठीक है “अगर तुम्हारा घर में आने का मन है तो मुझे बहुत खुशी होगी, नहीं आए तो मुझे कोई गम नहीं होगा। हां,अबकी बार सोच के आना कि यह घर है अपनों का, और अपनों के सपनों का। इसलिए हो सके तो यह मौखटा उतार के आना जो तुमने आज तक अपने चेहरे पर पहन रखा है।”

हंसता हुआ चेहरा और मन विष से भरा हुआ। पानी को पीते हुए सुमन ने मोबाईल को बन्द कर दिया-

असलीयत को छुपाए कैसे कोई जी सकता है।

हे! भगवान!! सुमन बुदबुदाई और रात के खाने की तैय्यारी करने लगी। उफ्फ.......️ 

***********************************************************************************कहानी

सुश्री निशिगन्धा, वसन्त कुंज, नई दिल्ली, मो. 9910957504

ये चाहतें

वह अचानक मेरे पास आकर बैठ गई मैंने उसके बैठने के लिए थोड़ी और जगह बनाते हुए कहा, ‘‘प्लीज़ भी कंफर्टेबल आई एम निष्ठा’’। मेरे पास ही मेरी एक और मित्र भी बैठी थीं और मैं उनसे पूछ ही बैठी क्या यह मेज़बान की बहन है। उसका कद थोड़ा सामान्य से कम लग रहा था पर चेहरे की चमक पुरनूर जैसे कुछ कह रही थी। कुछ था उसके व्यक्तित्व में जो आकर्षित करता था। फिर मेरी ओर मुखातिब हो उसने एक ही वाक्य में अपनी तहज़ीब ब सलीके का प्रमाण दे दिया। वह बोली, ‘‘एक्सक्यूज़ मी, आई डिड नॉट गेट योर नेम’’। वह कुछ देर तक मुझसे बातचीत करती रही। फिर मेरी मित्र ने ही बताया बहुत ही सीनियर एयर फोर्स ऑफिसर से इसका विवाह होना तय हुआ था। उस वक्त इसकी खूबसूरती के बहुत चर्चे थे पूरी अकादमी में पर वह रिश्ता तो कब का टूट गया बस कद से मात खा गई। बहुत ही परिष्कृत व्यवहार है इसका जब भी कुछ कहने के लिए मुंह खोलती है तो सब की प्रशंसा भरी नज़रें इसकी ओर आज भी उठ जाती है। जितना होल्ड इसका अंग्रेजी भाषा पर है उतनी ही परिष्कृत हिंदी भी वह बोलती है। मैं भी बस यूं ही उसके व्यक्तित्व की ओर आकर्षित हो गई थी। वह शख्सियत ही कुछ ऐसी थी कि बार-बार उससे बात करने का जी चाहता। उसका कद बहुत ही छोटा था और चेहरे का नर्म मखनी, हल्का सिंदूरी रंग देखते ही बनता था उस पर तीखे नक्श व सुचिकन काया। लंबे गहरे भूरे केश सदा चोटी में बंधे रहते। उसका कद ही था जो उसके इतने आकर्षक व्यक्तित्व को खा गया। जीवन में एकदम अलग-थलग पड़ गई थी वह। उसकी अधिकतम पड़ाई घर पर ही हुई थी। भाइयों ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी उसकी देखरेख में उसे अंग्रेजी पढ़ाने के लिए सदा विदेशी ट्यूटर्स का ही प्रबंध किया था इसीलिए तो वह इस विदेशी भाषा बोलने में इतनी पारंगत थी और उस पर क्या एलीगेंस और क्या ग्रेस; वस सलीका ही सलीका। हम चलने लगे तो वह कहने लगी, ‘‘क्या हम फिर मिल सकते हैं।’’ बस फिर क्या था मैं अक्सर उसके यहां मिलने चली जाया करती। बहुत अच्छा लगता था उससे मिलकर उससे बातें करके। धीरे-धीरे हमारी मित्रता प्रगाड़ होती चली गई।

अंग्रेजी भाषा में ज्ञान अर्जित करते-करते जाने कैसे उसकी अन्य भाषाओं में भी रूचि बढ़ गई। बड़े भैया ने घर पर ही अरेंज कर पड़ाने के लिए एक ट्यूटर रख दिया। फिर वह नित उसे पढ़ाने के लिए उनके घर आने लगा था तो वह मध्यमवर्गीय ट्यूटर ही पर एटिकेट व सलीका जाने किस कान्वेंट से सीख कर आया था कि शशिकला उसके आगे एकदम धराशाई हो गई। वह कॉफी सर्व कर रही थी कि हेमंत ने उसे बीच ही में रोक कर पूछा, ‘मे आई हेल्प यू मैम?’ और वह उसके कहे हुए एक ही वाक्य पर रीझ गई और हो गई फिदा। वर्षों से भाइयों के जाट व्यवहार से जूझती आई थी। प्यार तो बहुत था उन भाई-बहनों में पर अंग्रेज़ी तहज़ीब बस वह उन्हें कभी नहीं सिखा पाई।

उधर हेमंत भी शशिकला की शख्सियत का उतना ही कायल होता जा रहा था। उसकी एलीगेंस, उसकी तहज़ीब,वह उसके ग्रेस पर ऐसे लटू हुआ कि दोनों में प्रेम हो गया। फिर तो वे दोनों घंटो किसी भी विषय पर वाद-विवाद करते विचारों का आदान-प्रदान कर रहे होते। घर के सभी सदस्य उनके इस प्रेम से अनभिज्ञ थे। किसी को भी किसी प्रकार का शुबहा नहीं हुआ क्योंकि हेमंत शादीशुदा था। अब तो उसे उनके यहां आते हुए तीन वर्ष से ऊपर हो गए थे। शशिकला तो उसके प्रेम में अंधी हो चुकी थी। एक बार भी हृदय में विचार नहीं आया कि उसके हैंडीकैप होते हुए भी हेमंत उसकी ओर क्यों आकर्षित हो गया था? यही सोचती रही वह उसकी बुद्धिजीविता का कायल था और फिर खूबसूरत तो वह थी ही। इन सब बातों के विषय में सबको तब पता चला जब एक रोज़ हेमंत ने शशिकला के गले में अपने प्रेम का चिन्ह मंगलसूत्र पहना दिया व मांग में सिंदूर भर दिया। शशिकला उसके इस संकेत से ऐसी अभिभूत हुई जैसे यही हो चरम सुख की अनुभूति।

कितनी खुश हुई थी शशिकला। उस वक्त चेहरे की रंगत देखते ही बनती थी किस स्त्री को नहीं होती मंगलसूत्र की लालसा। सिंदूर, बिंदिया, कंगना की लालसा। यह मंगलसूत्र उसके लिए बहुत मायने रखता था। वह सच्चे दिल से उस से प्रेम करती थी। फिर हेमंत ने भी उसके लिए बहुत बड़ा त्याग किया था। अपनी बसी-वसाई गृहस्थी का त्याग कर उन तीन वर्षों के दौरान अपनी पत्नी से तलाक तक ले लिया था। प्रेम व इश्क है ही ऐसी शय कि लोगों की जिंदगियां बदल कर रख दे।

शशिकला को लगा जैसे उसे दोनों जहां मिल गए। चेहरे की कांति थोड़ी और बढ़ गई थी। ऐसा तो उसने पहले कभी अनुभव नहीं किया था। किसी ने भी नहीं सोचा था उसे उस प्रेम की इतनी चाहना थी। खुशी अंग-अंग से छलक रही थी। उस वक्त अपनी बहन की खुशी के आगे उसके सब भाई भी झुक गए थे और उसके ट्यूटर पति को भी धीरे-धीरे सब ने स्वीकार लिया था। उन दोनों के मिलन की खुशी में एक बड़ा सा जश्न भी कर डाला। वही सप्तपदी के सात कदम, मिलनसमर्पण की कसमें बादे। वह हाथों में मेहंदी और कलाइयों में लाल चूड़ा। पूरा परिवार एकत्र हुआ था उन दोनों को शुभ आशीष देने।

तरसी थी शशिकला इतने वर्ष पुरुष के स्पर्श के लिए। चेहरा कैसे खुशी से दमक उठा था जब भी वह अपने दूल्हे का परिचय किसी से भी यह कहकर करवाती, ‘‘मीट माय डेस्टिनी, भाई लव, भाई लाइफ फिर सबकी नजर चुरा कभी अपने मंगलसूत्र को चूमती तो कभी गोरी कलाइयों में पहने लाल चूड़े को निहारती; और कभी अपने नौशा बने दूल्हे की बलि-बलि जाती पर उस वक्त अभागी यह नहीं जानती थी कि एक दिन यह प्रेम, यह विवाह उसे ले डूबेगा। पर उस वक्त प्रेम की पराकाष्ठा को रोकना आसान नहीं था। हैंडीकैप होते हुए भी वह एक स्वभाविक जीवन जीने की तीव्र आकांक्षा रखती थी। उसका हृदय स्वीकारना हीनहीं चाहता था उस हैंडीकैप को। यह चाहतों का खेल कोई समझ पाया है क्या आज तक। और फिर उस पर से संतान सुख की चाहत। 

संतान सुख है ही ऐसा सुख जिससे कोई भी स्त्री वंचित नहीं रहना चाहती। शायद हर स्त्री जीवन के अधूरेपन के अहसास से गुज़रती है जब तक वह जननी नहीं कहलाती। वह संपूर्णता को तब तक प्राप्त नहीं होती जब तक उसे मां बनने का सौभाग्य प्राप्त नहीं होता। मां होने का जज़्बा शायद हर जज़्वे से सर्वाेपरि, सर्वाेत्तम जज़्बा है, जिसे अनुभव करने के बाद ही उसे पूर्ण रूप से समझा जा सकता है। शशिकला के हृदय की बात को मैं बखूबी समझ पा रही थी उसके हृदय में उठते तूफान को भी समझ सकती थी जो शायद अब उसके एक बच्चे को जन्म देने के बाद ही शांत होगा। वह मां होने के गौरव को भोग गर्वान्वित होना चाहती थी और स्त्री होने के नाते उसका अधिकार भी था। पर उसके लिए इतनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है वह कहां जानती थी। क्या यह उचित था उसके लिए?डॉक्टर ने उसके पति से भी साफ कह दिया था कि शशिकला का ध्यान रखें और उसे गर्भवती नहीं होने दे। उसमें उसकी जान को खतरा था पर उस वक्त शशिकला के सामने कोई दलील काम नहीं कर रही थी। बस उस चरम सुख को भोगने की इच्छा इतनी तीव्र थी कि अपनी जिंदगी ही दांव पर लगा बैठी।

हेमंत उसके प्रेम में कितना दीवाना था कह नहीं सकते क्योंकि इन सब बातों का एक अन्य पहलू भी था। शशि कला अपने भाइयों की इकलौती बहन तो थी ही और साथ ही काफी बड़े साम्राज्य की स्वामिनी भी थी। भाइयों के लिए यह सोचना गलत नहीं था कहीं उनकी बहन का प्रेमी और अब पति उनकी जायदाद तो नहीं हथियाना चाहता था? पर शायद सत्य तो यही था इतना ही प्रेम था शशि कला से तो उसे गर्भवती होने ही क्यों दिया? क्यों नहीं उसे इस बात के लिए सहमत किया कि वह इस सुख का विचार छोड़ दे? क्यों लगने दी उसकी जिंदगी दांव पर गर्भवती होने से एक स्त्री को जो सुख मिलता है वह तो शशिकला को मिला ही। काफी दिन तक वह इस बात को सबसे छिपाती रही और ईश्वर से प्रार्थना करती रही कि एक दिन सब ठीक हो जाए। पर धीरे-धीरे शशि कला का शरीर बढ़ने लगा और चेहरा ज़र्द होने लगा। वह प्रसव पीड़ा बर्दाश्त नहीं कर पाई और एक मृत शिशु को जन्म दे सिधार गई। आज भी उसका चेहरा आंखों के आगे घूम जाता है। वह माथे पर कुमकुम का टीका और सिंदूर से मंडित मांग व गले में मंगलसूत्र। चली गई अभागी और उसके अभागे पति ने भी जाने कैसे समझ लिया कि चुटकी भर सिंदूर और मंगलसूत्र की एवज में उसे उसका सारा साम्राज्य ही मिल जाएगा। शशि कला के भाइयों ने आव देखा न ताव पुलिस को बुला उसको निकाल बाहर किया।

पर वह फिर भी अपने सच्चे प्यार की दुहाई देता ही रहा। कहता रहा वह तो अपनी दुनिया ही छोड़ कर आया था शशिकला के लिए। क्या नहीं किया उसने अपनी शशिकला के लिए। अपनी बसी-बसाई गृहस्थी को ही नहीं पत्नी को भी अलविदा कहा था उस का साथ पाने के लिए। पर कौन सुनता उसकी गुहार बस रोते-बिलखते रह गए अपनी अर्धांगिनी को जाते देख।

इस चाहत के खेल ने शशि कला को तो मार ही डाला।      

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कहानी

डॉ. निशा नंदिनी भारतीय, तिनसुकिया, मो. 943553394

वैवाहिक वर्षगांठ 

नीतामुनि हर साल की भांति इस साल भी बहुत धूमधाम से अपनी शादी की 22वीं सालगिरह मना रही थी। पति-पत्नी दोनों एक सुंदर से झूले में हाथ पकड़े बैठे थे। 

आने-जाने वाले लोगों का तांता लगा हुआ था।सभी लोग पति-पत्नी को वर्षगांठ की शुभकामनाएं तथा उपहार देकर नृत्य तथा भोजन आदि में व्यस्त हो रहे थे। चारों तरफ शोर शराबा था। डीजे पर गाने बज रहे थे। आने वाले दूर-दराज के लोग दोनों के प्यार को सराहा रहे थे। 

नीतामुनि जब से शादी होकर मेरे पड़ोस में आई थी। मैं उसे तब से लेकर आज तक अच्छी तरह से जानती हूं। उसके 22 सालों की मैं प्रत्यक्ष दृष्टा हूं। 

यह वैवाहिक वर्षगांठ बनाने वाली जोड़ी के 22 वर्षों के जीवन में शायद ही कोई दिन ऐसा गया हो,जिसमें इन दोनों का झगड़ा ना हुआ हो। दोनों की मारपीट व लड़ाई-झगड़े से आसपास के सब लोग घरों से बाहर निकल आते थे...दोनों का बच-बचाव किया जाता था...दोनों को समझाया जाता था। इस प्रकार किसी तरह तीन-चार घंटे अच्छी तरह बीत जाते थे। 

नीता मुनि का पति रूपेश इंडियन बैंक में क्लर्क के पद पर था। वह पूरे दिन बैंक में ही रहना चाहता था। घर जाने की उसकी इच्छा मर चुकी थी। 

नीता मुनि पढ़ी-लिखी घरेलू महिला थी। दो बेटे सुब्रत और प्रियव्रत माता-पिता के व्यवहार से परेशान होकर अपने ही शहर में अलग कमरा लेकर पढ़ाई कर रहे थे और ट्यूशन करके अपना खर्च भी स्वयं उठा रहे थे। वे माता-पिता के लड़ाई-झगड़ों से परेशान हो चुके थे। 

पूरे मुहल्ले को हैरानी तो तब होती थी...कि जो सैकिया दंपत्ति एक दूसरे को फूटी आंखों नहीं सुहाते थे। वे हर साल समाज को दिखाने के लिए दस जनवरी को अपनी वैवाहिक वर्षगांठ कैसे मना लेते हैं ? यह दिखावा किसके लिए और क्यों होता है ? 

सैकिया दंपत्ति में लेश मात्र भी अपनत्व, प्रेम शेष नहीं था। हर वक्त एक दूसरे को उलाहना देते रहते थे। एक दूसरे के परिवारों की बुराई करते थे। यहां तक कि एक दूसरे से बात भी नहीं करते थे... लेकिन प्रत्येक वर्ष बड़ी धूमधाम से वैवाहिक वर्षगांठ मनाते थे। 

हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी जब मैं उनकी वैवाहिक वर्षगांठ पर गई...तब मैंने एकांत देखकर दोनों से पूछ ही लिया कि आप दोनों एक दूसरे को पसंद नहीं करते हैं। आप लोग को तो विवाह-विच्छेद कर लेना चाहिए...पर आप तो हर साल वैवाहिक वर्षगांठ मनाते हैं...मेरी समझ में यह बात आज तक नहीं आई। 

रुपेश बोला- मैं तो बहुत दिनों से डिवोर्स लेने की सोच रहा हूं पर यह लेने नहीं देती है। हम दोनों का जीवन नर्क के समान हैं...तो फिर आप दोनों इतनी खुशी- खुशी विवाह की वर्षगांठ कैसे मना लेते हैं ? 

नीता मुनि बीच में बोल पड़ी- अरे आप तो जानती हैं 22 सालों से हमें देख रही हैं। हम दोनों दो विपरीत प्राणी हैं। दोनों के शौक बिल्कुल अलग हैं...दोनों का व्यवहार बिल्कुल अलग है...ना जाने माता-पिता ने कैसे हमें बंधन में बांध दिया। 

अब क्या करें ! मैं तो कुछ काम भी नहीं करती हूं...अगर विवाह विच्छेद हो जाता है...तो अकेले जीवन यापन कैसे करूंगी। बच्चे तो पहले ही हम से अलग हो चुके हैं।

मैंने कहा- यह सब तो ठीक है...पर आप विवाह की वर्षगांठ इतनी जोर- शोर से क्यों मनाते हैं। मेरी बात सुनकर दोनों एक साथ बोल पड़े- समाज में रहकर समाज को दिखाने के लिए भी बहुत कुछ करना पड़ता है। 

हम दोनों ही एक दूसरे से बहुत दुखी हैं...पर क्या करें समाज को तो दिखावे की आवश्यकता पड़ती है। 

उनकी कहीं यह बात मेरे मस्तिष्क को कचोट गई। यह कैसी पीड़ा है ? क्या समाज में दिखावा इतना जरूरी है। मनुष्य अपने लिए क्यों नहीं जीता है,समाज से क्यों डरता है। जहां गलत हो वहां समाज से डरने की आवश्यकता है और जब कुछ गलत नहीं है तो समाज से क्यों डरना ? 

इस तरह घुट-घुट कर जीने से तो आप दोनों स्वतंत्र होकर जीवन व्यतीत करें। शायद दोनों को मेरी कही बातें समझ आ रही थीं। 

बच्चे भी वैवाहिक वर्षगांठ पर आए हुए थे उन्होंने भी मेरी बात का समर्थन किया। 

बेटों ने कहा- हम माता-पिता दोनों का पूरा ध्यान रखेंगे और थोड़े-थोड़े दिन के लिए दोनों के पास रहेंगे। बड़ा बेटा बोला- मैं मां को उनका मनपसंद व्यवसाय करवा दूंगा। 

 आज नीता मुनि घर-घर टिफिन पहुंचाने का कार्य कर रही है और बहुत खुश है। उसका पति रुपेश भी रिटायर्ड होकर बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने का कार्य कर रहा है। 

दोनों बेटों की शादी हो चुकी है। दोनों बेटों की पत्नियां पढ़ी लिखी है, नौकरी करती हैं। 

सबसे बड़ी बात तो यह है कि नीता मुनि और रुपेश की दूरी ने दोनों को फिर से करीब ला दिया है। अब नीतामुनि भी अपने काम में व्यस्त रहने के कारण बात-बात पर झगड़ती नहीं है। 

रूपेश ने पुराने मकान को बेचकर नया मकान खरीद लिया है। बड़े बेटे का बेटा अनिरुद्ध भी हो चुका है। दादा-दादी बनने के बाद नीतामुनि और रुपेश बहुत खुश हैं। दिन भर अपने पोते के साथ खेलते-बतियाते रहते हैं। 

अब पूरा परिवार राजी-खुशी प्रेम के साथ एक छत के नीचे रहता है। 

अब किसी को किसी के साथ कोई गिला शिकवा नहीं है। समय ने दोनों को पूरी तरह बदल दिया है। 

बुढ़ापे में दोनों एक दूसरे के सुख- दुख के साथी बन चुके हैं। 

आज फिर नीतामुनि और रुपेश की 40 वीं वैवाहिक वर्षगांठ मनायी जा रही थी, लेकिन आज समाज को दिखाने के लिए नहीं अपितु परिवार की आंतरिक खुशी के लिए सब लोग मिलकर खुशियां मना रहे थे। मित्रों और पारिवारिक जनों का शुभकामनाएं देने के लिए तांता लगा हुआ था। दोनों अपने बेटों-बहुओं और पोते-पोतियों के साथ एक सोफे पर बैठे खुशी से सबका स्वागत कर रहे थे।  

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कविता


सुश्री अलका अग्रवाल, पूणे, मो. 9325014141

दीया और बाती

वो कहते हैं-

दीये ने जल,

तम को दूर 

भगाया है। 

पर, क्या 

यह सच है? 

क्या दीये ने 

तम दूर भगाया है। 

या दीये में 

पड़े तेल में 

भीगी बाती ने, 

स्वयं को मिटा,

तम से 

प्रकाश की ओर 

अपना कदम 

बढ़ाया है। 

वास्तव में,

यह बाती ही है 

जो तिल-तिल 

तेल में भीग 

जलती है। 

वरना दीये का 

अस्तित्व 

बिन बाती व तेल के 

कुछ भी नहीं। 

फिर भी पीठ तो 

दीये की ही 

थपथपाई जाती है। 

जग में 

ऐसा ही होता आया है। 

जीवन कोई खोता है, 

प्रशंसा के गीत 

किसी और के 

गाए जाते हैं।

अदना सा आदमी 


जीवन भर 

चलता रहता है। 

पीता है विष, 

खाता है थपेड़े, 

फिर भी हंसता, 

खिलखिलाता है।


ढोता है बोझ, 

अपना व अपनों का। 

दफन करता है सपने। 

मुट्ठी भर पैसों 

की ख़ातिर 

तोड़ता है 

अपना हाड मांस। 

जलाता है खून। 

उसका मन 

नौ-नौ आंसू 

रोता है। 

फिर भी वह हंसता,

खिलखिलाता है।


अपने सपने 

दफन कर 

औरों के सपने जीता है। 

उनके सपने 

पूरे करने में 

जी-जान लगा देता है। 

कभी भूखे पेट 

तो कभी बिन पैसों के 

रह जाता है। 

दो जोड़ी कपड़ों में

जीवन बिता 

अपनी कमी का 

एहसास नहीं होने देता। 

फिर भी वह हंसता 

खिलखिलाता है। 


अंत समय में 

वह खुश होता है 

कि वह अपने लिए नहीं 

तो अपनों के लिए 

तो जिया।

और अंत में, वह 

चुपचाप शांत हो जाता है,

बिना किसी 

शोर-शराबे के 

या दिखावे के 

क्योंकि वह 

खाली हाथ आया था, 

खाली हाथ जिया

और खाली हाथ 

ही जा रहा है।

वह अदना-सा आदमी।

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यात्रा संस्मरण एवं मोहन बाघ का जीवन चरित्र


डॉ. सुषमा मुनीन्द्र, 

नीली ऑंखें, सफेद खाल - मोहन बाघ


रीवा रोड, सतना, मो. 08269895950

मध्यप्रदेश प्रांत के विन्ध्य अंचल में स्थित जिला रीवा के नाम के साथ सफेद बाघों का अस्तित्व इस तरह आबद्ध है कि सफेद बाघ रीवा को पृथक पहचान देते हैं। रीवा के पड़ोसी जिले सतना के अन्तर्गत आने वाले मुकुन्दपुर में निर्मित महाराजा मार्तण्ड सिंह जू देव व्हाइट टाइगर सफारी एण्ड जू को विश्व की प्रथम व्हाइट टाइगर सफारी का गौरव प्राप्त है। यह सफारी विन्ध्य के सघन जंगलों से सफेद बाघों के विस्थापन और घर वापसी की साक्ष्य है। प्रदेश व विन्ध्य प्रदेश के मंत्रियों और स्थानीय लोगों के प्रयास से 2012 में सफारी की आधार शिला रखी गई। 2015 के अंत तक सम्पूर्ण तैयार कर ली गई जिसका लोकार्पण तत्कालीन मुख्य मंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान ने 03.04.2016 को किया। मुकुंदपुर, सतना से प्रायः पचास किलोमीटर व रीवा से बीस किलोमीटर की दूरी पर है। मुख्य पथ से सफारी के लिये मुड़ते ही जंगल का आभास मिलने लगता है। सहज ही आकलन किया जा सकता है सागवान, बॉंस, पीपल, इमली, कैथा आदि वृक्षों से सम्पन्न जंगल कितना सघन रहा होगा। सफारी प्रातः 9ः30 से सायं पाँच तक खुली रहती है। बुधवार को अवकाश रखा गया है। सफारी को ऐसे सकारात्मक भाव और आकर्षक तरीके से विकसित किया गया है कि पर्यटकों की सम्भावना निरंतर बढ़ रही है। सफारी का फैलाव लगभग पच्चीस हेक्टेयर में है। ज्यूलॉंजिकल पार्क और रेस्क्यू सेंटर को मिलाकर सम्पूर्ण क्षेत्र लगभग पचहत्तर हेक्टेयर है। इतने बडे़ क्षेत्र के कठिन संरक्षण, संवर्धनन को आश्चर्यजनक रूप से सम्भव कर लिया गया है। मुख्य प्रवेश द्वार पर ही अनुमान हो जाता है परिसर की संरचना कितनी आकर्षक और चाक चौबंद है। बड़े-बड़े लॉंन, प्रसाधन कक्ष, पार्किंग, यात्री प्रतीक्षालय, कूड़ेदान, कैन्टीन, स्वच्छ पेयजल, सोवेनियर शॉंप (हस्त शिल्प की सामग्री विक्रय के लिये रखी गई हैं), सी0सी0टी0वी0 कैमरे, कतार में रखे पुष्पधारी पौंधों के गमले, पुख्ता सड़क मार्ग से जाहिर होता है प्रत्येक भाग में निगरानी रखी जाती है। जंगल को उतना ही काटा-छॉंटा गया है जो सड़क व निर्माण के लिये आवश्यक था। शेषभाग अपनी प्राकृतिक बनावट को कायम किये हुये है। परिसर में सफेद बाघ की ऐसी कलात्मक मूर्तियॉं बनाई गई हैं जो जीवंत लगती हैं। छः खिड़कियों वाले टिकिट घर में सरलता से टिकिट मिल जाता है। एन्ट्री टिकिट तीस रुपिया है। प्रवेश द्वार से डेढ़ किलो मीटर सफारी तक जाने के लिये साइकिल बीस रुपिया, बैटरी गाड़ी तीस रुपिया प्रति व्यक्ति उपलब्ध है। कुछ लोग पैदल घूमना पसंद करते हैं। सफारी के लिये पचास रुपिया प्रति व्यक्ति की दर पर बस उपलब्ध है। सफारी से पहले सड़क के बॉंयीं ओर चिड़िया घर विकसित किया गया है। सड़क को ऊँचाई वाली लोहे की मजबूत जालियों से पिंजड़े की तरह यूँ घेरा गया है कि जान पड़ता है हम पिंजड़े में हैं व चिड़िया घर के वन्य पशु खुली जगह में हैं। वन्य पशुओं को पिंजड़े में नहीं अच्छे क्षेत्रफल वाले बाड़ों में रखा गया है। क्षेत्र की वनस्पति, वृक्ष यथावत हैं। गुफायें, मचान, फूस की छाजन, झोपड़ी, पेयजल व्यवस्था आदि बनाकर बाड़े को प्राकृतिक रूप दिया गया है। प्रत्येक प्रजाति के बाड़े को मजबूत दीवार, लोहे के सरिया और जाली के द्वारा दूसरे बाड़े से पृथक किया गया है। वन्य पशु स्वतंत्र घूमते हुये कभी-कभी सड़क की जाली के समीप आ जाते हैं। उन्हें देखकर पर्यटकों का रोमांच बढ़ जाता है। दोपहर में पशु आराम करते हैं अतः सुबह इन्हें सरलता से देखा जा सकता है। बाड़े के आगे लगे साइन बोर्ड में संबंधित प्रजाति का अनुमानित वजन, लम्बाई, उम्र, स्वभाव, व्यवहार लिखा गया है। पशुओं के नाम रखे गये हैं। यहॉं तेंदुआ, बाघ, सफेद बाघ, भालू, हिरण, सफेद हिरण, चिंकारा, बारहसिंगा, नील गाय आदि लगभग तेरह किस्म के वन्य पशु हैं। मार्ग में सेल्फी प्वॉंइंट्स हैं। आजकल बिना सेल्फी के बात नहीं बनती। स्थान-स्थान पर लकड़ी से बनी सुंदर छायादार बैठकें हैं। बेंच में बैठ कर नजारा लिया जा सकता है। बहुत बड़ा वातानुकूलित एग्जीबीशन हॉल है। टेलीविजन में  बाघ से संबंधित चित्र और प्रथम सफेद बाघ मोहन की जीवनी बताई जाती है। कक्ष में मोहन का एक छत्र राज दिखाई देता है। उसकी जीवंत मूर्तियॉं, पेंटिंग एक सीमा तक उसकी जीवन गाथा को समझा देती हैं। सफारी की यात्रा करने से पहले मोहन के विषय में जानकारी देना मुझे जरूरी लगता है। मोहन।

प्रथम संरक्षित सफेद बाघ मोहन। 

अनुमान के अनुसार वर्तमान में विश्व भर में लगभग 200 सफेद बाघ जीवित हैं जिनमें लगभग 100 भारत में हैं। ये सभी पितामह मोहन के वंशज हैं। घने जंगलों को पसंद करने वाले ये वनराज लगभग 65 साल पहले जंगलों से विस्थापित कर विश्व भर के चिड़िया घर, संरक्षित पार्क, उद्यान, संरक्षित वन्य प्राणी उद्यान में भेज दिये गये। सफेद बाघ रॉंयल बंगाल टाइगर ही है जो जेनेटिक म्यूटेशन के कारण सफेद त्वचा और नीले नेत्रों वाले हो गये। इनका वजन 70 से 130 किलोग्राम, लम्बाई 180 से 250 सेन्टीमीटर, आयु 16 से 20 वर्ष होती है। प्रजनन क्षमता एक से छः शावक की होती है। एक बार में सामान्यतः दो-तीन शावक को जन्म देते हैं। 1561 में अकबरनामा के द्वितीय खण्ड में सफेद बाघों का उल्लेख मिलता है। कालांतर से मनुष्य बाघों पर अत्याचार करता रहा है। शिकार के शौकीन राजा - महाराजाओं की पहली पसंद बाघ थे। बाघ को मारना शायद पराक्रम का प्रतीक रहा हो। निर्दयी, स्वार्थी, लोभी शिकारी इन्हें इनकी खाल के लिये मारते रहे। एक वक़्त था जब बाघ के चेहरे या सम्पूर्ण खाल को कलाकक्ष की दीवार पर सजाना विलास प्रदर्शन था। जंगलों को क्रांक्रीट-सीमेन्ट वाले रिहायशी क्षेत्र में बदलने से जंगलों की वह सघनता खत्म हो गई जिसे बाघ पसंद करते थे। कितने हजार बाघ मारे जा चुके हैं कहा नहीं जा सकता। विन्घ्य के जंगलों में बाघों की अच्छी संख्या थी। रीवा रियासत के महाराजा दूसरे राज्यों के राजाओं को रीवा, सतना, सीधी, उमरिया के जंगलों में शिकार करने के लिये बुलाते थे। जानकार बताते हैं कि रीवा के तत्कालीन महाराजा गुलाब सिंह ने पहले सफेद बाघ को पकड़ा था। उसे गोविंदगढ़ के किले में बाघबाड़ा में रखा गया। बाघिनों के साथ क्रॉस ब्रीडिंग से उसके कोई संतान नहीं हुई। 1920 में पॉंच वर्ष की आयु में उसका देहांत हो गया। अतः प्रथम संरक्षित बाघ मोहन है। रीवा के तत्कालीन महाराजा मार्तण्ड सिंह ने 1951 में सीधी के कुसुमी जंगल से इसे पकड़ा था। जंगल में शिकार का शिविर लगा। हॉंका लगाया गया। टोहियों ने सूचित किया बाघिन के साथ तीन शावक हैं। उनमें एक सफेद दो पीले हैं। बाघिन व दोनों पीले शावक मारे गये। बंदूक की ध्वनि से भयभीत सफेद शावक भाग कर नदी के समीप एक गुफा में छिप गया। उसे दो दिन बाद ढूँढ़ लिया गया। जानकारों के अनुसार कैमोर पर्वत श्रेणी के जंगल में 27.8.1950 को मोहन का जन्म हुआ था। 27.5.1951 को घेरा डाल कर जब उसे पकड़ा गया वह नौ माह का था। उसे गोविंदगढ़ किला में बाघ बाड़े में रखा गया। अब यह किला दुरुस्त अवस्था में नहीं है, उन दिनों रीवा रियासत की शान था। मोहन खिड़की से कूद कर भाग गया। शिकार टोहियों ने जंगल से पुनः पकड़ लिया। नन्हें बाघ शावक ने महाराजा का ह्दय परिवर्तन कर दिया। उन्होंने उसका नाम मोहन रखा। उन्हें मोहन से इतना लगाव हो गया कि उन्होंने बाघों का शिकार न करने की घोषणा कर दी। कह सकते हैं रीवा में बहुत पहले से वाइल्ड लाइफ संरक्षण होता आ रहा है। केन्द्र सरकार ने बाद में वन व वन्य प्राणी संरक्षण अधिनियम बनाया जिसमें बाघ तथा अन्य वन्य पशुओं को मारने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। वस्तुतः वन्य जीव इकोलॉंजिकल बैलेंस स्थापित करने में मदद करते हैं। जंगलों में वन्य पशु न हों तो जंगल खत्म हो जायेंगे। मॉंसाहारी जीव न होंगे तो शाकाहारी जीवों की वृद्धि होती जायेगी। शाकाहारी जीव दुर्लभ वनस्पति, पौधों को आहार बनायेंगे। पक्षी न होंगे तब भी जंगल खत्म होंगे। पक्षी फूलों के परागकण, बीज आदि का वितरण करते हैं। पौधों की जैव विविधता बनी रहती है। पौधें व वन्य जीवों की जैव विविधता परस्पर निर्भर है। मनुष्य का अस्तित्व भी वन्य जीवों के अस्तित्व से जुड़ा है। जंगल गर्मी को कम कर ठंड को बढ़ाता है। शहरों में तापमान यदि पॉंच डिग्री सेल्सियस है तो जंगल में दो डिग्री होगा।

मोहन की देख-रेख के लिये विशेष रसोइये और कर्मचारी लगाये गये। उसे भोजन कराने का जिम्मा पुलुआ बैरिया का था। अब पुलुआ लगभग 86 वर्ष के हैं। मोहन को सुबह और शाम पाँच-पाँच किलो मांस व रात को दो किलो दूध दिया जाता था। रविवार को दो किलो मांस व दूध दिया जाता। मार्तण्ड सिंह उसे आप कहते थे। उसके सम्मान में बाड़े के पास तेज आवाज में कोई नहीं बोलता था। मोहन ने महाराजा से ऐसी बांडिंग बना ली थी कि उनकी सीटी की ध्वनि को पहचानने लगा था। वैज्ञानिक तरीके से उसका सृजन संसार बढ़ाया गया। कई बाघिनों से मोहन का संसर्ग हुआ। पहली पीली मादा बाघ से क्रॉस ब्रीडिंग में तीन शावक हुये जो सामान्य थे। राधा पहली पीली बाघिन थी जिसके चार शावकों में दो सफेद थे। राधा ने कुल तेरह सफेद व नौ पीले शावकों को जन्म दिया। राधा का 1974 में देहांत हो गया। मोहन के 34 शावक हुये जिनमें इक्कीस सफेद थे। शावकों को देश-विदेश भेज दिया गया। अमेरिका ने 1962 में सफेद बाघिन मोहिनी को दस हजार डॉंलर में खरीदा था। एक शावक को इंग्लैण्ड के ब्रिस्टल चिड़ियाघर में भेजा गया। 60-70 के दशक में रीवा के सफेद बाघों का इतना महत्व था कि एक तरह से वे पूरी दुनिया में दूत (ब्रैन्ड एम्बेसेडर बन गये थे। 18.12.1969 में मोहन का देहांत हो गया। उसे राजकीय सम्मान के साथ किला परिसर में दफनाया गया। मोहन के वंशज पूरे विश्व में हैं। किले में आखिरी जोड़ी चमेली और विराट की थी। सफेद बाघ अपनी मिट्टी से दूर भेज दिये गये। रीवा राज्य ने सफेद बाघ खो दिये लेकिन मोहन यहॉं की मिट्टी का अवस्मरणीय हिस्सा था। उसके वंशजों को अपनी मिट्टी में लाने की योजना बनी। वाइट टाइगर सफारी का निर्माण हुआ। भोपाल के वन विहार से 09.11.2015 को लक्ष्मण बाघ और यमुना बाघिन की मादा संतान को सड़क मार्ग से बंद गाड़ी में शान से उस मिट्टी में लाया गया जहॉं कभी उसके पूर्वज मोहन का साम्राज्य था। बाघिन को विन्ध्या नाम दिया गया। फिर रघु और गोपी नाम के सफेद बाघ लाये गये। गोपी का निधन हो गया है। मध्य प्रदेश को विश्व की पहली व्हाइट टाइगर सफारी का गौरव प्राप्त हुआ। 

सफारी घूमने के लिये बसें उपलब्ध रहती हैं। सफारी की सीमा पर विशाल मजबूत प्रवेश द्वार है। आने-जाने के अलग द्वार हैं। सुरक्षा कर्मी पहला द्वार खोलता है। बस पहले द्वार से प्रविष्ट होती है। सुरक्षा कर्मी पहले द्वार को बंद कर दूसरा द्वार खोलता है। बस सफारी की सीमा में प्रवेश करती है। दोनों द्वार तत्काल बंद कर दिये जाते हैं। चिड़िया घर में वन्य पशु एक दायरे में विचरण करते हैं। सफारी में विन्ध्या और रघु खुले जंगल में विचरते हैं। पर चिड़िया घर में पशु अनिवार्यतः देखे जा सकते हैं जबकि सफारी में इनका दिखना दुर्लभ न हो आशातीत होता है। रघु मुझे बड़ी सरलता से दिख गया। पथ के किनारे इस तरह सो रहा था जैसे वाहन की ध्वनि का अभ्यस्त हो चला है। लगभग ढाई-तीन फीट की दूरी पर पसरे पड़े अत्यन्त खूबसूरत सफेद बाघ को देख कर लगा नायाब हाथ लग गया है। जैसे कह रहा हो फुर्सत में हूँ मुझे जी भर कर देख लो। कैमरे और मोबाइल की स्क्रीन पर रघु खूब कैद हुआ। यांत्रिक संसाधनों से प्रयोजन न रखने वाले पशु वीडियो के माध्यम से न जाने कितनों को आल्हाद और रोमांच दे देते हैं। रघु को देख कर मुकुंदपुर आने का उद्देश्य पूरा हुआ लेकिन कुछ प्रश्न ठीक सामने थे। विन्ध्या और रघु की घर वापसी हुई है, पिंजड़े से मुक्ति  मिली  है पर सफारी संकुचित जंगल है। वनराज को सघन वनस्पति, पानी, भोजन की उपलब्धता वाला जंगल चाहिये। ये शिकार करके पेट भरना पसंद करते हैं। शिकार करना भूलते जा रहे होंगे। इन्हें इस तरह रखना इनकी सुरक्षा के लिये जरूरी है लेकिन प्रकृति विरुद्ध है। लोग यदि संकल्प कर लें वन्य पशुओं का शिकार नहीं करेंगे तो इन्हें प्राकृतिक रहन-सहन के लिये सीमा मुक्त किया जा सकता है। इनकी तादाद बढ़ सकती है। विन्ध्य के जंगलों में अभी भी वे संसाधन हैं जो बाघ व अन्य पशुओं को आकर्षित करते हैं। ऊँचे पहाड़, घने वन, नदियों की श्रृंखला, जल प्रपात वाले जंगलों की संरचना ऐसी है कि बाघों को इच्छानुसार ठहरने-टहलने में अड़चन नहीं होती। जानकार कहते हैं बाघ अक्लमंद होते हैं। मनुष्य की आहट की ओर नहीं आते या आदमखोर हो जाने पर आते हैं। मनुष्य पर अधिक आक्रमण भालू करते हैं। विशेषज्ञ मानते हैं बाघ अपने पूर्वजों के रहवास और आने-जाने के मार्ग को नहीं भूलते हैं। उन जंगलों और कोरीडोर में मूवमेंट करते हैं जहॉं कभी इनके पूर्वज रहे होंगे। शायद यही कारण है कि दो-तीन वयस्क बाघ पन्ना टाइगर रिजर्व से यहाँ आते-जाते हैं। ये मार्ग को गंध से पहचानते हैं। इनके मल-मूत्र की गंध इतनी तीक्ष्ण होती है कि पाँच-छः दशक तक सूँघ कर पता लगा लेते हैं। हवा के माध्यम से पचास-साठ किलो मीटर से आने वाली गंध को सूँघ कर वहॉं तक पहुँचते हैं। सामान्यतः अठारह-बीस किलो मीटर तक आते-जाते हैं। वर्चस्व की जंग में पराजित हो भाग जाते हैं या समूह से बेदखल कर दिये जाते हैं। पराजित बाघ नया रहवास बनाने के लिये मूवमेंट करते हैं। कुछ समय हुआ विन्ध्य अंचल के सरभंगा के आस-पास बहुत दिनों तक बाघ का जोड़ा देखा जाता रहा। या तो बेदखल होकर नया रहवास ढूँढ़ रहा होगा या प्राकृतिक जल स्त्रोत सूखने के कारण पानी की खोज में जंगल से बाहर आया होगा। अफसोस होता है मनुष्य कोर एरिया (वन क्षेत्र के घनत्व, पानी, भोजन की उपलब्धता के कारण बाघ कोर एरिया में रहना पसंद करते हैं), बफर जोन (कोर एरिया व समीपस्थ ग्रामीण क्षेत्र के बीच कम घनत्व वाला क्षेत्र) में पहुँच बना कर वन्य पशुओं के प्राकृतिक संसाधन खत्म करते जा रहे हैं। बारिश में ट्रैप कैमरे निकाल लिये जाते हैं तब वन अपराधी सक्रियता बढ़ाते हुये वन्य जीवों को मारते हैं। वन बैरियर, ऊँचे टावर, जंगल में बनाये गये झोपड़ी, घोपा में वन कर्मी कठिन ड्यूटी देते हैं, ग्राम वन समितियॉं अपना दायित्व निभाती हैं पर पोचिंग के मामले कभी न कभी होते रहते हैं। मध्य प्रदेश सरकार विन्ध्य के जंगलों को फारेस्ट सेंचुरी बना दे तो वन कर्मियों को अलग सुविधायें मिल सकती हैं। मोहन के वंशज ही नहीं सभी वन्य प्राणी अपनी आजादी पा सकते हैं। नीली ऑखों, सफेद खाल वाले मोहन ने महाराजा मार्तण्ड सिंह का ह्दय परिवर्तन कर दिया था। उन्होंने बाघ को न मारने का प्रण कर लिया था। वन अपराधी इस प्रण को अंगीकार करें तो वन्य प्राणियों को उनका मुक्त जीवन पुनः मिल सकता है।

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कविताएँ

सुश्री रश्मी रमानी, इंदौर, मो. 9827261567

पक्की ख़बर

जब सामने दिख रही हो 

सिर्फ़ तबाही 

तब, नहीं सोचा जा सकता 

तितलियों, फूलों और परिन्दों के बारे में 

एक-एक करके, जब मरते हैं सैनिक

पल-पल गुज़रता है इस आशंका में 

कि, मौत यहीं आसपास तो नहीं

ऐसे में क्या बात की जा सकती है 

अधूरे कामों को पूरा करने की ?

या, कुछ नया शुरू करने की 

इन्हीं दिनों में चीज़ें नहीं होती वैसी 

जैसा कि उन्हें होना चाहिए 

रोज़ की तरह।


राष्ट्रीय त्यौहारों पर बजते 

सलामी बिगुल सुनकर होती है खुशी और गर्व आमतौर पर 

किन्तु युद्ध के दिनों में इनका बजना 

भर देता है दिलों में दहशत 

हर सायरन रोक देता है 

कईयों की धड़कन 

भयभीत लोगों के मुँह से फूटते हैं

प्रार्थना के शब्द जाने-अनजाने 

हवा में तैरती हैं कुछ अस्फुट ध्वनियाँ 

कोई भी नहीं होता आश्वस्त 

सिर्फ़ बातों और सूचनाओं से 

हरेक को चाहिए पक्की ख़बर 

हाँ, अपनों के सही सलामत होने की

पक्की ख़बर !


‘सही-सलामत’ और ‘पक्की खबर’ 

यही वे शब्द हैं 

जो बेहद महत्वपूर्ण होते हैं

युद्ध के दिनों में 

हार-जीत के नतीजे से कहीं ज़्ादा जरूरी है जीवित होना 

क्योंकि जिन्दा रहने पर ही तो 

जारी रह सकती हैं तमाम चीज़ें।

’’’’’

शहादत


तिरंगे में लिपटा ताबूत उतर रहा है 

टूट गया है एक बार फिर 

देशभक्ति का मिथक !


इस बाज़ारू समय में

जब सब कुछ बिक रहा हो

तो, मजबूर शहादत क्यों न बिके ? 

फिर चाहे तमाशा ही क्यों न बन जाए 

फ़र्ज और देशभक्ति

ज़रूरत और मजबूरी के चलते 

दफ़न कर दिए जाएँ ज़रूरी सवाल


नहीं पूछता है कोई

कि, क्यों लड़े जाते हैं युद्ध

उस धरती के लिए

जिस पर एक-सा हक़ है 

इस संसार के हर एक प्राणी का 

और वह सभी की ज़रूरत है 

एक जैसी, एक सरीखी

बावजूद इसके 

सुई की नोक भर भूमि से लेकर

लाखों मील धरती

क्यों बन जाती है 

अनचाहे युद्ध का कारण ? 

मारे जाते हैं अनगिनत सैनिक यों ही 

क्योंकि वे होते हैं

ग़रीब और मासूम

और तैयार किया जाता है उन्हें 

हुक्मरानों के इशारे पर आगे बढ़ने, पीछे हटने

और कभी-कभी कटकर मरने के लिए

सैनिक

मरते हैं हमारी खा़तिर

हम यानि देशवासी

देश यानि राष्ट्र

पर,जो मारे गए वे ? 

हमारे प्रहरी ! हमारे नौकर !

या मजबूर शहीद

जो लड़ा देते हैं अपनी जान

मुर्दा देश के लिए

और बेशर्म लोग इस घटना को

बेहिचक

देशभक्ति करार देते हैं।

’’’’’’

यातना


एक लड़का पढ़ रहा है

इतिहास की किताब

और

हैरान हो रहा है यह जानकर कि 

चंद मूर्खताओं और अहं की कुछ टकराहटों के चलते

मिट्टी में मिल गईं अनगिनत जानें बेवजह

वह चकित है यह सोचकर 

कि क्या अपने ही भाई मारकर

सुनी जा सकती है जय-जयकार

जनता जनार्दन की ?


क्या अनगिनत छल-कपट करने पर भी 

कोई नहीं कहता कुछ 

अपनी आत्मा तक सो जाती है

गहरी नींद ?


जिंदगी की ज़रूरतों और वक्त की 

अफ़रा-तफ़री  ने 

लड़के को पकड़ा दी है बन्दूक 

अब मोर्चे पर खड़ा है एक सैनिक 

तैयार है वह गोली दागने को

और याद है उसे सिर्फ़ इतना 

कि बस दुश्मन की जान लेना है

फिर चाहे वह अपने जैसा इंसान ही क्यों न हो।


कभी-कभी उसे महसूस होता है

मौत यहीं-कहीं है

कई बार तो बिल्कुल सामने 

और यह चौंक पड़ता है 

सिर्फ़ एक पत्ते की सरसराहट भर से !


सैनिक जानता है कि

जब फटेंगे गोले

और बिखर जाएगा तेज़ प्रकाश

तो कभी याद नहीं आएगा

धूप का वह रोशन टुकड़ा 

जो आँगन में चला आता था

दोस्त की तरह अपना घर समझकर


कभी-कभी फौजी याद करते हैं

उन घटनाओं, दुर्घटनाओं और इत्तेफाकों को 

जो घटते हैं उनकी ज़िन्दगी में

अनायास, अचानक

तब वे महसूस करते हैं

जिन्दगी मौत के कितने पास 

या

फतह कितनी दूर थी

युद्ध ने कैसे बदरंग कर दी थी 

सारी कल्पनाएँ 

मिटा दी थीं तमाम उम्मीदें ।


आधी रात के सन्नाटे को चीरते 

सायरन के शोर

और 

हवाई जहाज़ों की गड़गड़ाहट में 

गुम हो गई थी उनकी प्रार्थनाएँ 

धूल भरी आँधियों से जूझना 

और खून से लिथड़ी बर्फ को देखना 

किसी बुरे दिन की यातना से कम नहीं 

और हर सैनिक को गुज़रना ही होता है 

इस यातना से 

कभी-कभी एक बार 

तो कई बार 

बार-बार ।

’’’’’


मोहरे

मोर्चे पर खड़े हैं सैनिक

मोहरों की तरह 

हुक्म मिलते ही आगे बढ़ेंगे 

और टूट पड़ेंगे दुश्मन पर बेहिचक .


खिलाड़ी हैं वे उस स्पर्धा के 

जहाँ हार का मतलब है मौत 

और जीत का इनाम है ज़िन्दगी !

बमबारी और मृत्यु के बीच हैं चंद लम्हें

जिन्हें जीते हुए छूट जाता है मोह 

नहीं लगता है डर, 

ना ही याद आता है प्रेम !

सैनिकों को सिर्फ लड़ना ही नहीं

जीतना भी है 

पर जीतना एक मुश्किल सवाल है

क्योंकि जीत किसके लिए ?

अपने लिए 

विश्व विजयी तिरंगे के लिए !

या, 

उस भ्रष्ट और जर्जर समाज के लिए 

मुर्दा है जिसका ज़मीर 

ख़त्म हो चुकी है जिसकी संवेदनशीलता ?

सब कुछ मिट जाने पर की जाएँगी

निरर्थक संधियां

जिनके मज़मून लिखेंगें वे ही लोग

जिन्होंने शुरू किया था युद्ध !


शहीदों के सम्मान समारोह में 

बेमतलब कहे जायेंगे

कुछ वीरोचित वाक्य 

शातिर कूटनीतिज्ञों की ज़बान से 

जिनके चेहरों पर होगी 

मक्कार मुस्कान 

युद्ध में शहीद चमकदार जवान 

शत्रु के छल का कम 

अपने आकाओं की लापरवाही का अधिक शिकार होते हैं भेड़ों की तरह 

उन्हें भोगनी पड़ती है वह सज़ा

जिसका कसूर उन्होंने किया ही नहीं

भेड़ों की ज़िन्दगी

ठंड में सुरक्षा का गर्म कंबल

और मौत !

लजीज़ दावत।

’’’’’’

बस, एक पल


बावजूद इसके कि

सैनिक नहीं होता दार्शनिक

पर किसी दार्शनिक से बेहतर जानता है वह

पानी का बुलबुला भर है ज़िन्दगी

फूट सकता है जो कभी भी

और अचानक ख़त्म हो सकती है उसकी कहानी


एक सिपाही नहीं लिखता रोजनामचा

न पढ़ता है भविष्यफल

न देखता है कैलेण्डर

और न ही भरोसा है उसे

आने वाले वक्त पर

हर एक तारीख़ हो सकती है आख़िरी 

उसकी तकदीर की

भलीभाँति जानता है वह

कि, जो भी है बस यही एक पल है

जो सरक सकता है कहीं भी

ख़त्म हो सकता है कभी भी

बंदूक की गोलियों का शोर 

बमों के धमाके

और तोपों की गड़गड़ाहट के बावजूद 

उसे पता है सन्नाटे का मतलब 

वह जानता है बंकरों, खाईयों के रहस्य 

अच्छी तरह मालूम है उसे 

स्तब्धता संकेत है आँधी के आने का


गलत हो सकती है 

मौसम विभाग की चेतावनी 

जो सूचित करती है संभावना फक्त़ 

आँधी तूफान के आने की 

पर 

युद्ध में कोई मतलब नहीं संभावना का 

वहाँ तो हर घड़ी सिर्फ तैयारी है 

बेमायने हैं किन्तु-परंतु जैसे शब्द ।


तयशुदा है फ़ौजी की जिंदगी में सब कुछ

हर चीज़ घूमती है वहाँ

सिर्फ़

फतह और शहादत की धुरी पर।

’’’’’’’                         













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