अभिनव इमरोज़, अगस्त 2022
प्रातरग्निं प्रातरिन्द्रं हवामहे
प्रातर्मित्रावरूणा प्रातश्विना
प्रातर्भगं पूषणं ब्रह्मणस्पतिं,
प्रातः सोममुत रूद्रं हुवेम -ऋग्वेद
भावार्थ:
प्रातःकाल उठ कर करें देवों का आह्वान
अग्रणी है जो अग्नि से प्राप्त करें गुण ज्ञान
पुनः पुुकारें इन्द्र को बल का हो संचार
मित्र वरुण और अश्विनी जैसा हो व्यवहार
चाह करें ऐश्वर्य की सौभाग्य खड़ा हो द्वार
ब्राह्मणस्पतिं दें ज्ञान-धन पूषा हो आधार
आवाहन है आपको सोम रूद्र सम भाव
देव उपस्थित हों जहाँ कोई नहीं अभाव
काव्यानुवाद: श्री सत्य प्रकाश उप्पल
मोगा (पंजाब), मो. 98764-28718
***********************************************************************************
डाॅ. रेनू यादव
कविताएँ
असहमति
असहमति
जरूरी है तुम्हारे होने के लिए
जो साबित करता है तुम्हारा होना...
जैसे धरती का सीना चीर कर निकलते है
बीज से कसमसाते अंकूर
जैसे शांत मौसम को
झकझोर देती है आँधी
जैसे तिलमिलाती धूप को
शांत करते हैं बारिश
जैसे चमकते चाँद को अचानक से
ढंक लेते हैं बादल
जैसे अटल पहाड़ों में भी
रास्ता ढूँढ़ लेती हैं नदियाँ
वैसे ही तुम्हारी असहमति
प्रमाण है
तुम्हारे जीवित संभावनाओं संवेदनाओं का
और तुम्हारी सक्रियता का ।
ठुकराई हुई लड़कियाँ
हँसते हुए
बेवजह
कुछ ज्यादा ही ठठाकर
हँसा करती हैं
लाउड म्युजिक में घुला
देती हैं अपना अकेलापन
महफिलों में बढ़-चढ़कर
लेती हैं हिस्सा
“सुबह सबेरे उठकर मैंने ये सब कर लिया
अरे संईयाँ जी के साथ मैंने ब्रेकप कर लिया”
के साथ जमकर
अपनी कमर को गोल गोल घुमाते हुए
नचा देती समस्त स्मृतियों को
कुछ ज्यादा ही दिखाई देने लगती हैं
मॉल, थियेटर और गोष्ठियों में
याद करती हैं पुराने दोस्तों को
भूल जाती हैं पुराने द्वेष को
किसी से मिलते समय
हहाकर मिलती हैं
जैसे टूटती हो नदी की बाँध
धरती को अपनी बाँहों में
भर लेने की खातीर
खोल देती हैं अपनी
जटाओं की गिरहें
छिपा ले जाती हैं
और भी बहुत कुछ
सीप मोती नदी की काई
सार्वजनिक खुशी का नकाब ओढ़े
एकांत में झर कर गिरती हैं बिस्तर पर
जैसे पतझर में सूखे पत्ते गिरा
करते हैं पेड़ से अलग होकर
तकिए को सीने से चपटा कर
सीने की आग को
और भी कर देती हैं दग्ध
चद्दर के अंदर होंठ भींचकर
भर लेती हैं गूँगी सिसकियाँ
बाथरूम में नल के झरझराहट
के साथ बहा देती हैं
असंख्य नदियाँ
तेज बारिस में भीगने के बहाने
लबालब भर देती हैं पृथ्वी को
औंधे मुँह लेटे हुए घास से
उठकर अचानक से चल
देती हैं शॉपिंग
नए नए ड्रेस, लुक्स के
साथ इमोशन को भी
बदलने की करती हैं कोशिश
जी हाँ
नहीं खाना पसंद करतीं
स्लीपिंग पिल्स
नहीं पीना चाहतीं ज़हर का घूँट
नहीं बनती अब
रोमशा, सीता या सुपर्णखा
हर वक्त मुड स्वीमिंग
से गुजरते हुए
‘ठुकराए’ जाने के दंश को
अंदर ही अंदर जज्ब कर
‘प’ नाम की विशिष्ट संवेदना
को अपने ठेंगे पर रखकर
निकल जाती हैं
अपने लक्ष्य की ओर
पहले से भी कहीं और अधिक
आत्मविश्वास के साथ
आज की पढ़ी-लिखी
ठुकराई हुई लड़कियाँ...
आम्रपाली - 1
नहीं चुनतीं अपनी
ज़िन्दगी की डोर
बना दी जाती हैं पतंग...
जिन्हें उड़ाया जाता है
अलग-अलग छतों पर
आँधियों में झंझोड़कर
तीलियों में फंसा कर
चीर दी जाती हैं
बिहरा दी जाती हैं
करके तार तार...
और खींच लीं जाती हैं
झटके से
गोल रोल बनाकर
रख दिया जाता उन्हें
अंधेरे घुप्प कमरें में
बार बार उधेड़ने के लिए...
आम्रपाली - 2
मस्तक गिरवी पैर पंगू
छटपटाता धड़ हवा में
त्रिशंकू भी क्या
लटके होंगें इसी तरह शून्य में ?
रक्तीले बेबस आँखों से
क्या देखते होंगे इसी तरह
दो कदम रखने के खातीर
जमीन को ?
और जमीन मिलते मिलते
फिसल जाती होगी तलवों से
हो जाती होगी उतनी ही दूर
जितनी करीब होगी कभी
ख्वाबों में
तमाम कोशिश के बाद भी...
गादुर
किन्ही खोह से घूरती
नयनशर से छिपकर
किसी घिनौने तलघर, छज्जे
से चिपकी लपलपाती पंखों से महूसस
कर लेती हैं
आहटें ।
कहीं दूर से आ रही
असंख्य कामनाओं की गुहार
अश्रव्य ध्वनियों को
भिन्न-भिन्न पहचान
भिन्न-भिन्न कर
आशाओं के ज्वलंत
रेखाओं पर बनाती हैं
रेहड़ियाँ,
बीरबल की खिचड़ी
फिर भी
दूर जलती अग्नि की आश में
सिंक जाती है
पर इनकी खिचड़ी
सूर्य के प्रकाश
से रहती हैं सदैव वंचित
मन ही मन
खदबदाती खलबलाती
बिलबिलाने लगतीं
जैसे भीष्म सोए हों
शरशैय्या पर
अविजित युद्ध के
विजित प्रतीक्षा में
तभी तत्काल
खींच ली जाती हैं
सड़ाक
कामनाओं की चमड़ी,
शिखण्डी के
आने से पहले
अर्जुन के
प्रत्यंचा खींचने
से पहले ही
भीष्म लोट गए
शरशैय्या बिछा
खुद ही
तलघर, छज्जे, खोह में
हमेशा से
बिलगाए
हाशिए पर खड़े
गादुर
स्मृत्तियाँ
पानी पर खिंचती लकीरों ने
उलीच दिए हैं
रेत पर पड़े निशानों को
निशान
ढूँढ रहे हैं
अपने आपको कहीं
दूर किनारे
सीपियों में
पगचिन्ह ढ़ुलक ढ़ुलक जाते हैं
ब्रह्माण्ड की सारी नमी
सोख लेने के बाद
जैसे सोख लिया
था कभी मुनि अगस्त्य ने
समुद्र को
देवताओं की विजित रूदन
ने वापस माँगी
जीवित रहने के लिए
एक और स्मृत्ति
नमक
कभी चुटकी भर तो
कभी चम्मच भर
मिलाती रही ‘नमक’
चुटकार होती रही जिन्दगी
एक नए चटखारे के साथ
खुशियों में ज़िन्दगी को
और भी बनाती रही नमकीन
तो दुख में भी बहाती रही नमक
कभी तुम्हें ज्यादा लगा
तो कभी फीका
हमेशा बराबर बराबर मात्रा
में मिलाती रही ‘नमक’ ।
पर आज जब मैं ‘मेनोपॉज़’
से गुजर रही हूँ
तुम्हें किसी और के चेहरे
पर चमकने लगा है नमक
और बडे ही धडल्ले से
बेपरवाह
कह जाते हो तुम
“अब तुम्हारे चेहरे पर वो ‘नमक’ नहीं”.....
***********************************************************************************
संपादकीय
‘अभिनव इमरोज़’ के पहले दस साल में संपादकीय व्यस्तताओं के अतिरिक्त अन्वीक्षण पर भी ध्यान दिया जाना था। मैं स्वभाव से ही कुछ नया, कुछ लक़ीर से हट कर करने की तलाश में रहता था और हूँ। कई नये नये प्रयोग किए, बेहद कामयाब भी हुए; प्रशस्ति पत्र मिले और सम्मानित भी हुए परन्तु एक अधूरेपन की एहसास बना रहा।
स्वमंथनोपरान्त आभास हुआ कि यह अधूरापन इस बात का संकेत है कि मैं अपने पत्रकारिता के उद्घोषित मिशन (मौलिक चिंतन और उभरती प्रतिभा को प्रोत्साहन) को कुछ कुछ नज़र अन्दाज़ कर रहा था। प्रतिष्ठालब्ध गुणीजन जो बुलंद इक़वाल के मोहाने पर पहले से ही दस्तक दिए हुए थे हमारे विशेषांकों के मौज़ू बनते चले गए और बहुत से सुपात्र दरकिनार होते रहे। यही एक भटकन चिंतन को बार-बार कचोट रही थी। इस भूल चूक की भरपाई अब मैं आने वाले 10 सालों में करूंगा। उसी प्रयास का प्रथम सोपान यह अगस्त अंक उभरती हुई प्रतिभाओं को समर्पित है-
यह विशेषांक डाॅ. रेनू यादव को उनके साहित्य समग्र सहित प्रस्तुत किया जा रहा है। उनके व्यक्तित्व में साहित्य के प्रति निष्ठा, समर्पण और अपने लेखन को परिष्कृत करते रहने की आकांक्षा प्रवलता से प्रतिबिम्बित होती है। कर्मठता, सुसंस्कार और जूझारूपन उनके व्यक्तित्व का ‘यूएसपी’ है।
आपका परिचय अपने अभिनव इमरोज़ परिवार के पाठकों से करवाते हुए मैं अपने आपको गौरवान्वित महसूस कर रहा हूँ। बाकी आकलन आप, पाठकों पर छोड़ता हूँ।
रेनू जी याद रखिएगा-
‘गौहरे मकसूद खुद मिलता है
हिम्मत शर्त है,
मुन्तज़िर रहता है हर मोती उभरने के लिए’ -अज्ञात
उभरती हुई प्रतिभाओं एवं नवोदित लेखकों के लिए भवानी प्रसाद मिश्र जी की एक कविता का एक अंश आप सब के लिए सफलता सूत्र सिद्ध हो सकता है।
‘जिस तरह हम बोलते हैं
उस तरह तू लिख
और इसके बाद भी
हम से बड़ा तू दिख’
पास बैठे हुए मेरे एक अभिन्न मित्र डाॅ. नलिन विकास जी ने उभरती हुई प्रतिभाओं को एक और मश्वरा पेश करने की सलाह दी-
अगर अपना कहा तुम आप ही समझे, तो क्या समझे।
मज़ा कहने का जब है इक कहे तो दूसरा समझे।।-ऐश, देहलवी
और एक दूसरा शे’र उन्होंने कहा-
बात जो कहनी हो ख़ार सी,
तो लहजा अपना गुलाब रखना। -अज्ञात
***********************************************************************************
कहानी
डाॅ. रेनू यादव
दबे पाँव
‘आखिर मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है...? इतनी कोशिश करने के बाद भी मुझे नहीं मिल रहा...मैं क्या करूँ? कोई मुझे ढूँढ कर दे दो... मैं किसी से बात करूँ क्या ? मुझे संयोजक के पास ले चलो... वे कहाँ हैं? इतने देर से हम सब परेशान हैं लेकिन कोई सुनता ही नहीं।... बहुतों को मिल गया पर मुझे क्यों नहीं मिल रहा ? मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है’ ?
‘आप इतना क्यों परेशान हो रही हैं ? हम ढ़ूँढ रहे हैं न। मिल जायेगा। अगर नहीं मिला तो आपका सर्टिफिकेट आपके पते पर पोस्ट कर दिया जायेगा’।
‘आप लोग किस तरह से ढ़ूँढ रहे हैं कि मिल नहीं रहा ! मुझे पता है मेरा नाम ही नहीं होगा...! एक तो पैसे लेकर लोग कॉन्फ्रेन्स करवाते हैं, हजारोंझारों की भीड़ जमा कर लेते हैं और सर्टिफिकेट देने के टाइम पर ठीक से जिम्मेदारी नहीं निभाते ! धक्के-मुक्की के बीच मैं कैसे ढूंढूँ अपना सर्टिफिकेट। कोई सुनने के लिए तैयार ही नहीं’।
‘आप परेशान न हों... मैंने सारे सर्टिफिकेट्स देख लिए, उसमें आपका नाम नहीं है। संयोजक का कहना है कि वे आपको आपके पते पर पोस्ट कर देंगे’
‘धन्यवाद... आपने मेरी इतनी सहायता की...’
यह सुनते ही युवक वहाँ से जा चुका था और मेघना मन ही मन बुदबुदाते हुए भीड़ से छिटक कर अलग हो गयी, ‘पता नहीं मेरे साथ ही क्यों ऐसा होता है... पता नहीं मैं क्या करूँ’ ?
चलते चलते वह एक खुले मैंदान में एक बेंच पर बैठ गयी। शाम की गुनगुनी धूप और हल्की ठंडी हवा उसके मन और तन को सहला रही थी लेकिन उसे संतोष नहीं हो रहा था। उसका सर भारी और गरम हो चुका था। वह
जब-जब टेंशन लेती है उसके साथ प्रायः ऐसा ही होता है।
कुछ देर बाद उसने अपने जूट के बैग से पानी की बोतल निकाली और एक साँस में गट गट करके पी गयी। बेंच से अपना माथा टिका यह सोचते हुए सो गयी, ‘मेरे साथ हमेशा ऐसे ही होता है। मुझे कोई चीज आसानी से नहीं मिलती...। माँ-बाप दूर हो गये, घरवालों ने बहुत मुश्किल से मुझे अपनाया, अपनाया तब भी सबकी तरह खुलकर नहीं जी सकी, पढ़ने आयी तो जगह-जगह संघर्ष। संघर्ष करना सीख गयी तो भी कुछ भी आसानी से हासिल नहीं होता...। आखिर इतनी छोटी सी चीज है सर्टिफिकेट। वह भी...’।
अचानक से किसी के पैरों की आहट खट्-खट्-खट्’ सुनायी दी, जो दूर से उसकी ओर आ रही थी। लेकिन किसकी... यह आहट तो जानी पहचानी-सी लग रही है... नहीं... नहीं... ऐसा नहीं हो सकता। यहाँ इतनी दूर वही आवाज़... कैसे... यह आवाज़ बायीं ओर से आ रही है... कान फटे जा रहे हैं... (दोनों कानों को अपने हाथों से दबाते हुए) मैं इस आवाज़ को कभी दुबारा नहीं सुनना चाहती... लेकिन... मुझे यहाँ से चलना चाहिए...’।
मन ही मन बुदबुदाते हुए मेघना बेंच पर दाहिनी ओर खिसकती जा रही थी और गिरने ही वाली थी कि आवाज़ आयी, ‘बिटिया... गिर जाओगी। इतनी रात को यहाँ अकेले...’ ?
‘ओह... तो आप कोई और हैं ? आप हैं कौन ? रात हो गयी क्या’ ?
‘हाँ, रात के नौ बज रहे हैं’ ?
‘नौ बज गयें...! मुझे घर जाना है’। हड़बड़ा कर मेघना उठी और पाँव के नीचे पत्थर से टकरा गयी। गिरती मेघना को झपककर बचा लिया वृद्ध व्यक्ति ने, ‘दिखायी नहीं दे रहा, सामने इतना बड़ा पत्थर है’?
‘दिखायी ही तो नहीं देता...’
इतनी मायूस मासूम-सी आवाज़ सुनकर वृद्ध व्यक्ति झेंप गया और अपने कहे पर पछताने लगा, ‘माफ करना बिटिया... मुझे पता नहीं था। मैं ऐसा नहीं चाहता... मैं सड़क तक छोड़ देता हूँ। कहाँ रहती हो ? मुझे बताओ, कैसे जाना है... मैं यहाँ का सिक्योरिटी गार्ड हूँ। मैं तुम्हें छोड़ सकता हूँ।’
‘मैं पी.जी. में रहती हूँ। मैं चली जाऊँगी, आप रहने दीजिए’। अपने साथ-साथ चल रहे कदमों की आवाज़ से वह सहमती जा रही थी, अपने में सिकुड़ती जा रही थी। उसे लग रहा था कि अभी वह आवाज़ उस पर आक्रमण कर देगी। उसका मुँह बाँध देगी। हाथों को मरोड़ देगी और यह निस्तेज पट्ट पड़ जायेगी।
‘ऐसे कैसे... मैं ऑटो तक छोड़ देता हूँ... रात हो गयी है’ चिन्तित होते हुए वृद्ध व्यक्ति ने कहा।
‘नहीं... मैंने कहा ना... मैं चली जाऊँगी’ ? झिड़कते हुए मेघना की चीख निकली। वृद्ध व्यक्ति ठिठक गया। उसे समझ में नहीं आया कि उसने ऐसा क्या कह दिया !
थोड़ी देर तक मेघना भी वहीं खड़ी रही। फिर उसने खुद को संभाला। शरीर जब काँपना बंद कर दी तब वह
धीरे से बोली, ‘माफ कीजिएगा। मैं ऐसा नहीं कहना चाहती थी...। (कुछ सोचते हुए) आपने अपने पैरों में क्या पहन रखा है ? मुझे उससे डर लग रहा है’?
‘डर... अच्छा इससे ! (हँसते हुए) यह तो खडाऊँ हैं’।
‘आपने इसे क्यों पहन रखा है’ ?
‘हम पुराने लोग हैं बिटिया। हमारे दादा-परदादा भी पहनते थे। अब चमड़ा और रबड़ पहनने से अच्छा कि हम पवित्र लकड़ी ही पहने। (खड़ाऊँ निकाल कर नंगे पाँवों मेघना के साथ सड़क की ओर बढ़ते हुए) बच्चों को तो इसकी आवाज़ से डरते हुए देखा था, लेकिन तुम तो बड़ी हो गई हो बिटिया...’?
बिटिया सुनते ही वह फिर से काँप गयी। सामने ऑटो खड़ा था। बैठते हुए उसने वृद्ध व्यक्ति को धन्यवाद दिया और ऑटो अपनी गति से चल पड़ा।
हॉस्टल पहुँचते ही मेघना ने वॉकिंग स्टिक निकाला, हालांकि वह इतनी अभ्यस्त थी कि उसे हॉस्टल में इसकी जरूरत नहीं पड़ती थी और तेज-तेज कदमों से कमरे की ओर बढ़ चली। हड़बड़ी में दरवाज़ा अंदर की ओर से बंद कर बिस्तर पर निढ़ाल होकर गिर पड़ी। खड़ाऊँ की खट्-खट्-खट् की आवाज़ उसकी कानों में फिर से चुभने लगी, उसने जोर से अपने कानों को दबाया और ‘नहीं..नहीं...’ बुदबुदाते हुए कम्बल में दुबक गयी। थोड़ी देर बाद उसके रूम के दरवाजे पर किसी लड़की ने खटखटा कर आवाज़ लगाई, ‘मेघना... ठीक तो हो... आज खाना नहीं खाया तुमने’
‘न...नहीं... भ.. भूख नहीं है’ काँपती आवाज़ में कहते हुए उसने कम्बल को मुँह में ठूँस लिया।
‘तुम ठीक तो हो... (अपनी आवाज़ पर जोर देते हुए) ऐसे क्यों बोल रही हो’?
‘ठ...ठीक हूँ’। काँपती आवाज़ में मेघना ने जवाब दिया।
‘ओके... रेस्ट करो... बाय’ बाहर से आती आवाज़ दरवाजे से दूर हट गयी।
‘र...रोशनी... मुझे बचा लो...’...कहते कहते मेघना ने घुट्टी-मुट्टी मार कर बिस्तर में और भी सपट गयी। उसे लगा वह खुद को बचा ली फिर उसे एहसास हुआ कम्बल कमर की ओर उठा हुआ है और पैर उसके अंतरंगों को तो ढंके ही नहीं है ! वह घबरा गयी और जल्दी-जल्दी अपनी कमर को कम्बल से लपेट ली, ‘अब ठीक है, सब कवर हो गया है... (कुछ सोचते हुए) हाँ कवर हो गया...। कवर... पर मैं तो हॉस्टल में हूँ ! यहाँ तो कोई नहीं आ सकता... फ...फिर ये खट्-खट् की आवाज़ कैसी... हाँ हाँ... ये आवाज़ तो कॉलेज में सिक्योरिटी गार्ड की थी, उसने तो वहीं अपनी खड़ाऊँ निकाल दी थी... फिर...फिर मुझे ये आवाज़ फिर से कैसे सुनायी दे रही थी...? कहीं वो... वो तो नहीं... ? नहीं... नहीं, वो तो मर चुका है। फिर... फिर मैं इतना डरी हुई क्यों हूँ ?... मुझे किस बात का डर लगा रहा है ? मैं... मैं ठीक हूँ... मैं एक बहादूर लड़की हूँ... अब मेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता... मैंने लड़ना सीख लिया है।... मैं सेफ हूँ। हाँ...हाँ, मैं सेफ हूँ।
मेघना खुद को आश्वस्त समझ रही थी लेकिन डर उसे दबोचे खड़ा था। उसने सोचा कि वह लाइट ऑन कर ले लेकिन उसने कम्बल हटाना उचित नहीं समझा और यह सोचते हुए लेटी रह गयी कि ‘लाइट जलाने से क्या होगा, अंधेरा और उजाला सब तो एक बराबर है’।
उसे महसूस हुआ कि उसे बहुत जोरों से भूख लगी है पर डर के मारे वह स्टडी टेबल पर रखे चिप्स का पैकेट उठाने के लिए उठ न सकी। कम्बल हटाने से डर था कि कहीं फिर से वह आवाज़ सुनायी न देने लगे। कम्बल वह सुरक्षा-कवच प्रतीत होने लगा जिसे भेद कर न कोई आ सकता था, न कोई उसे छू नहीं सकता था और न ही ये किसी और को सुन सकती थी।
उसे याद आने लगा कि गाँव में जब वह अपने अम्मा-बाबूजी के पास थी तब ठंड में कैसे अम्मा कथरी ओढ़ा कर उसे सुरक्षित रखती थीं। पुअरा की मोटी तह किसी गुलगुल गद्दे से कम न थी। एक लम्बा-सा पुअरे का बिछौना बिछाया जाता और उसका किनारा साड़ी से दबा दिया जाता, ताकि वह बाहर मुँह उचका-उचका कर किसी को गड़ने न लगे और उसके ऊपर से कथरी बिछा कर हम सब यानी अम्मा, राजू, मैं, सोहन फिर बाबूजी सोते। सब लोग अलग-अलग कथरी ओढ़ लेते। सुबह गरम गरम बिछौने से निकलने का मन ही नहीं करता। ईया तो भिनसारे चिल्लाने लगती, ‘पह फट गया और तुम लोगन की ओहाईं नाहीं टूट रही...जल्दी उठो, केतना कार अकाज हो गया...’
‘का ईया, इ शीतलहरी में भी तुमको पह दिखायी दे रहा है’ ? सोहन आँख मलते हुए ईया को चिढ़ा देता। ईया तो जल-भुन जाती, ‘गरमी के दिन में ये ही टाइम पह फटता है, मालूम नाहीं है का ? अरे सीधे-सीधे कहो ना कि ठंडी में उठकर काम-काज करते समय तुहार हड्डी अकड़ती है...’ ईया गलगलाते हुए चली जाती। सोहन फिर सो जाता। बाबू जी आकर टन से उसके सर पर हाथों में लिए दातून से बजा देते। सोहन बेचारा उठकर ऊँघते ऊँघते किताब खोल लेता।
बाबू जी नहीं चाहते थे कि उनकी तरह उनके बच्चे भी अनपढ़ रह जायें। इसलिए ईया की बातों को अनसुना कर देते और हम सबको पढ़ने की हिदायत देते रहते।
बाबूजी अपने अनपढ़ होने के लिए बाबा को जिम्मेदार मानते थे। इस नाराजगी की वजह से वे कभी बाबा की कोठरी में नहीं जाते थे। चाहे जो भी हो जाये वे बाबा से नज़रें बचा कर निकल जाते ताकि उनसे आमना-सामना न हो सके। बाबा बहुत दबंग किसिम के इंसान थे। गाँव में उनका बड़ा दबदबा था। यहाँ तक कि उन्होंने उम्र को भी मात दे रखा था। पढ़े-लिखे न होने के बाद भी उनकी साहित्यिक भाषा और गंभीर आवाज़ का दबदबा मानने के लिए सब लोग मज़बूर थे। उनकी सहमति के बिना गाँव में सरपंच या प्रधान कोई फैसला नहीं लेते। पुलिसिया कार्यवाही से लेकर कोर्ट-कचहरी तक का केस और खेती-बारी का कागज-पत्तर सब अकेले वही देख लेते। पुलिस-दरोगा, वकील, पटवारी सब उनको सलामी ठोकते। गंभीर से गंभीर मामलों में भी बाबा गाँव वालों के लिए ढ़ाल बनकर खड़े रहतें, क्या मजाल कि कोई पुलिस या दरोगा उनकी अनुमति के बिना गाँव में कदम भी रख दे ! सिर्फ अपने ही गाँव में नहीं बल्कि आस-पास के गाँवों में भी, कार्यक्रम कोई भी हो और किसी का भी हो बाबा ही मुख्य अतिथि होते। उनकी सफेद चमकती धोती और कुर्ता कार्यक्रम की शान होती। वे हमेशा खडाऊँ पहन कर खट्-खट् की आवाज़ में चलते। दूर से ही पता चल जाता कि बाबा अब किस ओर रूख किए हैं। उनका मानना था कि चमड़ा और रबड़ का चप्पल पहन कर अपने आपको अपवित्र नहीं करना चाहिए। हम लोग भगवान राम के पुजारी हैं तो उनके ही पदचिन्हों पर चलना हमारा परमकर्तव्य है। उनका यह भी मानना था घर में ढेर सारे पुत्रों का जन्म होना चाहिए। सबमें राम के भाईयों जैसा प्रेम होना चाहिए। लेकिन बढ़ते जमाने के साथ-साथ चलना भी बहुत जरूरी है, इसलिए हर क्षेत्र में अपने बेटों की पहुँच होनी चाहिए। कोई घर की विरासत यानी खेत-बारी देखे, तो कोई पुलिस या दरोगा हो, कोई वकील हो तो कोई डॉक्टर। संयोग से उनके तीन बेटे थे एक अनपढ़ बाबू जी, जिन्होंने अपनी ज़िन्दगी बाबा की विरासत संभालने में गुजार दी। दूसरा बेटा दिल्ली पुलिस में भर्ती हो गया और तीसरा वकील बन गया।
बाबूजी के अनुसार बाबा ने जानबूझ कर उन्हें स्कूल नहीं भेजा, घर पर ही थोड़ा-बहुत पढ़ाया। अपने अनपढ़ होने का अपमान वे भूल नहीं पाते। बाबू जी के सामने मुँह खोलने की उनमें हिम्मत भी नहीं थी लेकिन मन ही मन उन्होंने ठान लिया था कि वे अपने सभी बच्चों को खूब पढ़ायेंगे-लिखायेंगे। न जाने क्यों उनकी किस्मत भी धोखा दे गयी। उनके सात बच्चे हुए और सातों या तो गर्भ के अंदर ही या जनम लेने के पश्चात् दुनियाँ छोड़ गयें। बाबूजी और अम्मा दोनों बहुत दुखी रहने लगें। आठवें गर्भ के समय घर में डॉक्टरों का ताता लगा रहता। जिस दिन जनम होने को था, खूब बारीश हो रहा था। उसी बारीश में ईया बड़ा सा फूले का थरिया-कटोरा लेकर बैठ गयी। जैसे-जैसे अम्मा की प्रसव पीड़ा की चीख निकलती वैसे वैसे ईया लोढ़ा से थरिया-कटोरा कूचती गयी और भगवान से प्रार्थना करती रही, ‘हे नाथ ! अबकी उबारो। हे भगवान! आठवाँ बेरी का बच्चा माँ-बाप को खा जाता है... येही बार उबार लो हे भगवान। बचा लो। हमरे लइकन को सुरक्षित रखो हो नाथ...’।
एक तरफ बच्चे की रोने की आवाज़ सुनायी दी, तो दूसरी तरफ ईया के हाथ से लोढ़ा टूट कर दो अद्धा हो गया। थरिया-कटोरा तो पहचान में ही नहीं आया लेकिन बच्चा लड़की थी, वो भी अन्धी...! ये सबने पहचान लिया था। ईया ने बदरे की ओर हाथ उठा कर बोली, ‘हे नाथ... का हे मेघनाथ ! हमार प्रार्थना सुन त लिए पर ये रूप में...’ !
सात बच्चों के मरने के बाद आठवें बच्ची को मारने की हिम्मत किसी में न थी, भले आन्हर ही सही। लगभग पच्चीस व्यक्तियों के संयुक्त परिवार में अम्मा-बाबू जी के अलावा घर में किसी ने भी उस बच्ची यानी मुझे प्यार देने की कोशिश नहीं की। लेकिन उसके दो साल बाद जब सोहन का जन्म हुआ तो घर में कुछ-कुछ मेरी भी ईज्ज़त बढ़ गयी। सब लोग मेघना-मेघना कहकर बुलाने लगे और उसके तीन साल बाद जब राजू जन्मा तब राजू के साथ-साथ पहली बार बाबा ने मुझे गोदी में उठा कर हम दोनों को खूब लाड़-प्यार किया। तबसे मैं बाबा की लाड़ली बिटिया बन गयी।
पाँच साल तक जिस बाबा-ईया ने मुझे अपनी साड़ी या धोती का चिरकुट तक न दिया था अब उन्हीं लोगों ने मुझे खूब नए-नए कपड़े खरीदे। उसके बाद दिल्ली पुलिस में मझले चाचा जी की भर्ती हो गयी और उसके कुछ ही दिनों बाद छोटे चाचा गोरखपुर में वकील बन गयें। जैसे-जैसे घर में बरक्कत बढ़ी वैसे-वैसे दादा जी मुझ जैसे आन्हर मगर खूबसूरत लड़की को दुनियाँ की नजरों से बचाने लगें। गाँव के स्कूल में सोहन के साथ नाम लिखवा दिया गया था उसके बाद दिन भर मैं घर में रहती। कोई मुझे बाहर खेलने-कूदने नहीं देता। अम्मा-बाबूजी सुबह-सुबह खेत में काम करने चले जाते और शाम में लौटते। सोहन अपने दोस्तों के साथ खेलता और राजू ईया का चहेता नाती। मेरे लिए किसी के पास समय नहीं था। बाबा मुजबानी (मौखिक रूप से) मुझे पढ़ाते और कहते, ‘अरे बिटिया, तू तो बड़ी तेज है पढ़ने में ! एक बार जो बता दो वो तुम्हें झट से याद हो जाता है...!’
यह सुन कर मैं खुश हो जाती और मैं सोचती कि मैं कितनी सौभाग्यशाली हूँ कि मुझे इतना प्यार करने वाला परिवार मिला है। सच ही कहते हैं बाबा। मुझे कोई बात झट से याद हो जाती है। बिन देखे मैं कदमों की आहट से पहचान लेती कि कौन आ रहा है, कौन जा रहा है। सभी खाने की चीजें सूँघ कर पहचान लेती कि कौन-सा मसाला है, खाने में क्या-क्या बना है या यह कौन-सी मिठाई है। घर से लेकर खेत तक मुझे हर जगह कितना खाल है और कितना ऊँच, सब पता होता। इसलिए कभी वॉकिंग स्टिक की जरूरत नहीं पड़ी। पर नई जगह जाते समय अंदाजा लगाने के लिए एक डंड़ा जरूर हाथ में ले लेती।
ईश्वर ने आँख तो नहीं दिया लेकिन उसकी जगह सभी ज्ञानेन्द्रियों और संवेदन-तंत्रियों को इतने तीव्र रूप से संवेदनशील बनाया है कि मैं झट से चीजों को पहचान जाती। इसलिए मुझे कोई आसानी से धोखा नहीं दे सकता था। लेकिन... वह पहली बार था जब मैंने धोखा खाया, पहचान कर भी पहचान नहीं पायी...।
मैं चैथी क्लास में पढ़ रही थी। नवम्बर की हल्की ठंड वाली रात थी। ओसारे में बाबा रामायण का पाठ कर रहे थे और मैं बगल में बैठकर बड़ी तन्मयता से पाठ सुन रही थी। उसी समय किसी ने मेरी जाँघ पर हाथ रखी और मैं काँप गयी। मेरा हाथ जब तक उस हाथ तक पहुँचे, वह हाथ हट चुका था। मैं डर गयी, आस पास कोई हाथ मेरे हाथों की पकड़ में नहीं आया। फिर मैं धीरे से उठ कर घर में जाकर बैठ गयी। अम्मा से बताया भी लेकिन उसने कहा कि ‘वहीं बाबा, ईया और बाबू जी बैठे हैं। वहाँ कौन तुम्हें छुयेगा’।
वह छूअन कई दिनों तक मेरी जाँघों से चिपका रहा। लेकिन अम्मा मेरा वहम समझ मुझे समझाती रही, ‘सब लोग तुहके बहुत मानते हैं। तू तो घर की लक्ष्मी हो, सब पूजते हैं। जब से सोहन पैदा हुआ है तब से तो सबकी नज़र ही बदल गयी है। सब तो अपने ही घर के हैं। डरने की बात नाहीं है’।
अम्मा के विश्वास के आगे मैं हार गयी और फिर मैं हँसने-खेलने लगी। पाँचवी क्लास से कुछ कुछ दिनों बाद फिर से मुझे वही हाथ महसूस होने लगा। जो कभी मेरी छाती पर रेंग जाता तो कभी जाँघों पर। कभी सोते समय तो कभी जागते समय। आश्चर्य की बात थी कि वह हाथ मुझे जाना पहचाना लगता, लेकिन कदमों की आहट नदारद होने के कारण मैं अंदाजा नहीं लगा पाती। उससे भी अधिक आश्चर्य तब होता जब सब अपने ही लोग आस-पास होतें, तब भी वह हाथ मेरे पीठ पर रेंग जाती। मैं अम्मा से बताती लेकिन अम्मा को मुझ पर विश्वास ही नहीं होता, बल्कि उसे तो भूत-प्रेत पर विश्वास होने लगा। उसने ईया से कहकर जंतर बनवा दिया। जिसमें इतनी शक्ति थी कि भूत-प्रेत तो क्या आस-पास जिन्न भी नहीं भटक सकता था।
नौवीं क्लास में ठंड की दोपहर में ईया दुआरे पर कऊड़ा (आग जलाकर) ताप रही थी, अम्मा बाबूजी कहाँ थे मुझे पता नहीं। सोहन और राजू स्कूल गये थे और हल्का-हल्का बुखार होने के कारण मैं अकेले कथरी ओढ़ कर सोयी थी। मेरी आँख लगी ही थी कि उस समय कोई दबे पाँव आकर भैंसे की तरह लम्बी-लम्बी साँसें लेते हुए मेरी फ्रॉक के अंदर से मेरी छाती को सहलाने लगा। अचानक से मेरी आँखें खुलीं और जैसे मैं चिल्लाना शुरू की वैसे ही मेरा मुँह कस के दबा दिया गया और उसके बाद उस पुअरा के बिछौना पर पुअरा की तरह लतिया दिया गया, मटिया दिया गया कि मैं पुअरा की तरह निढ़ाल सत्तहीन बिछ गयी। चारों तरफ खून-खून हो गया। मैं बेहोश हो गयी।
शाम में जब अम्मा घर लौटी तो सन्न मार गयी। बड़ी मुश्किल से उसने मुझे उठाकर साफ-सुथरा की और रोते-रोते ईया को गरियाने लगी, ‘दुआरे पर बैठे-बैठे कऊड़ा तापती रहती हैं, जहाँ बैठती हैं दूब जाम जाता है... घर में का हो रहा है दिखायी नाहीं देता।... हमरे सोना जइसे लइकनी के... अब कौने करे बइठेंगे हम लोग... हमरे बछिया का जीवन नास हो गया’।
ईया रो-रो के खुद बेहाल हो गयी कि उसके दुआरे पर रहते हुए भी घर में कौन पैठ गया कि एतना बड़ा कांड हो गया। बाबू जी को काटो तो खून नहीं। सोहन और राजू को कुछ समझ में नहीं आया। चाचा-चाची लोग हाय-हाय करके अफसोस जता-जता अपने-अपने काम में लग जाते। बुआ लोग डर के मारे छोटी ईया के पास सपट गयीं। छोटे बाबा तो बहुत दिनों से बीमारी से खटिया पकड़े थे, इसलिए उनसे कोई कुछ कहता नहीं। उनकी पतोहियों को हम लोगों से कोई खास मतलब नहीं था लेकिन उस दिन देख देख कर अफसोस जतातीं।
रात में बाबा आगबबुला होकर कहीं से घर लौटें और सबको एक लाइन से खड़ा करके डाँटने लगें। बाबा को इतने अधिक गुस्से में कभी किसी ने नहीं देखा था। सोहन को डंडे से पीटना शुरू किया और ईया को गाँव के बाहर चहेट दिया। किसी को समझ में नहीं आ रहा था कि बाबा को आखिर हुआ क्या है ? किस बात के लिए वे इतना गुस्से में हैं ? जो जहाँ थे सब वहीं सपट कर सो गये। आधी रात को ईया बाबा से छिप कर घर लौटीं। किसी में हिम्मत नहीं हुई कि घर में घटे घटना को कोई उनसे बतला सके।
अम्मा ने समझा-बुझा कर, ईज्ज़त का हवाला देते हुए मुझे ही समझा दिया कि किसी से कुछ बताना नहीं। मैं बताना चाहती थी कि मुझे वह हाथ किसका महसूस हुआ। शायद मैं पहचान रही हूँ। लेकिन खानदान की ईज्ज़त इतनी जरूरी थी कि मेरी ईज्ज़त के साथ समझौता किया जा सकता था।
उस दिन के बाद बाबा के कहने पर मेरी पढ़ाई पर पाबन्दी लग गयी। अगर कहीं जाना होता तो सोहन या राजू साथ जातें। बाबा मुझे ढेर सारी चॉकलेट, ब्रेड और कपड़े खरीद कर देतें। अम्मा का पूरा ध्यान मेरी ओर रहने लगा। मैं बड़ी मुश्किल से उस घटना से उबरने लगी। अब मुझे अकेले घर में डर लगता इसलिए मैं ओसारे में या दुआरे पर या खेत में अम्मा बाबूजी के साथ होती। लगभग दो साल बाद धान कट रहा था मैं बाबू जी के साथ खेत में थी। पेशाब की इच्छा होने पर ऊँखियाड़ी में चली गयी। ऊँखियाड़ी की खड़खड़ाहट के बीच फिर से वही घटना घटी। मेरी आवाज़ दूर तक न पहुँच सकी। इस बार मैं बेहोश नहीं हुई पर उठने की हिम्मत नहीं रही। ऐसा लगा कि ऊँख की तरह ही गड़ासे से मुझे जगह जगह से काट दिया गया है।
मैं बहुत देर बाद काँपती हुई बाहर आयी। घर में खोजहट पड़ी थी कि मैं कहाँ चली गयी। जब मिली तब अम्मा बेहोश हो गयी मुझे देख कर। उस रात मैं डरी-डरी सहमी-सहमी अंधेरे में बैठी रही। न जाने उस दिन भी ऐसा क्या हुआ था कि बाबा बहुत गुस्से में थे। उस दिन उन्होंने राजू को बहुत पीटा। वकील चाचा को घंटों गरियाते रहें। उस दिन भी बाबा से कोई कुछ नहीं बता सका और मेरी आवाज़ दबा दी गयी। लेकिन उस दिन मुझे विश्वास हो चला था कि वह हाथ किसका था। लेकिन कदमों की आहट हाथों से मेल न खाने की वजह से मैं किसी से कुछ नहीं बता सकी।
मुझे अब हर खड़खड़ाहट, हर आहट से डर लगने लगा। चप्पल की चट्-चट् आवाज, खड़ाऊँ की खट्-खट् या जूते की टक-टक या दबे पाँव की सरसराहट... मैं हर आवाज़ से डरने लगी। लेकिन हर आवाज़ को आंकने भी लगी थी। मेरे मन में चोर समा गया और मैं सबके कदमों की आहट को ध्यान देने लगी कि चप्पल निकलने पर किसके पैर की आहट कैसी सुनायी देती है ? सबके कदमों की आहट का अंदाजा लगाने के बाद भी बाबा के कदमों की आहट कभी नहीं सुन पायी। लोगों से हमेशा सुना था कि बाबा बिछौने पर सोने जाते समय ही अपना खडाऊँ निकालते हैं।
बाबा मुझे हर दिन नैतिकता के पाठ पढ़ातें, नयी नयी मिथकिय कहानियाँ सुनातें और बताते रहतें कि कौन-सी स्त्री कितनी महान चरित्र की थी। अपनी प्यारी बिटिया को आगे बढ़ने के लिए हमेशा प्रेरित करते रहतें। घर में सभी भाई-बहनों को मुझसे जलन होती कि बाबा मुझे सबसे
अधिक प्यार करते हैं। लेकिन मुझे मन ही मन उनसे नफरत होने लगी थी। मैं नहीं चाहती थी कि कोई भी पुरूष मेरे आस-पास हो पर मैं कदमों की आहट सुनने के लिए घंटों उनकी कामगर बातें, जो मुझे बकवास लगतीं मैं चुपचाप सुनती रहती। मुझे बहुत डर लगता लेकिन मैं अपने डर पर विजय पा कर बैठी रहती और अकेले में खूब चिल्ला-चिल्ला कर रोती।
बारहवीं क्लास के आखिरी परीक्षा के बाद मैं घर आकर औंधे मुँह सो गयी। ऐसा लग रहा था कि मैं सदियों से सोई नहीं थी। फरवरी का महीना था। पुअरा का बिछौना अभी भी पड़ा हुआ था। पता नहीं क्या समय था और कौन घर पर था और कौन नहीं ? लेकिन कोई मेरे ऊपर आकर फिर से पुअरा की तरह मुझे लतियाने की कोशिश करने लगा। इस बार मैंने चिल्लाया नहीं बल्कि अपनी सारी शक्ति अर्जित करके उसके पैरों के बीच में अपना लात दे मारा। वह गिर गया मैंने उसका मुँह बुरी तरह से नोच लिया। उसके चेहरे पर पसीजते खून से मुझे अंदाजा था कि वह बुरी तरह से खुनिया गया है। वह अपनी धोती संभालते हुए उठ कर भागने की कोशिश करने लगा कि मैंने उसका पैर पकड़ खींचा। वह तो भाग गया लेकिन उसे पकड़ने के चक्कर में मैं बिछौने से बहुत दूर आ चुकी थी और उसकी खडाऊँ मेरे हाथ में आ गयी। बहुत देर तक मैं उस खडाऊँ को लेकर जमीन पर पटकती रही, रोती रही, चिखती-चिल्लाती रही।
ईया घंटों बाद घर में लौटी। वह समझ गयी। उसने किसी से न कहने के लिए मिन्नतें की। बाबा और खानदान की ईज्ज़त की खातीर मेरे सामने अपना अचरा पसार दी। अम्मा बाबूजी के घर लौटने पर मैंने खड़ाऊँ दिखाया और बताया कि ‘मुझे वे हाथ उन्हीं के लगते थे लेकिन आप लोग विश्वास नहीं करते। इसलिए मैं कह नहीं सकी...। अम्मा उन्हें भगवान मानती रही...। अम्मा ने भी नहीं सुनना चाहा कि मैं क्या कहना चाहती थी। लानत है ऐसे घर-खानदान को...। डर के छिपे रहो बिल में...। करते रहो बबवा की पूजा। उसे तो नरक में भी जगह नहीं मिलेगी। मैं उस राक्षस को फाँसी के फंदे पर ले जाऊँगी...’।
अम्मा-बाबूजी के सामने ईया पलट गयी और अपना छाती पीट-पीट कर चिल्लाने लगी, ‘अरे हयी अन्हरी, हमरे मरद पर एतना बड़ा लांछन लगा रही है...। बुढ़ापे में इह दिन देखना था। अरे... उनका पैर तो वैसे ही चिता में लटका है... ऐसे समय में एतना बड़ा लांछन... ! हे भगवान... ये ही दिन रात के खातीर तुहसे इसको माँगा था... अरे उठा लो हो हमके... उठा लो... इ दिन देखने से पहले काहें नाहीं उठा लिए हमके...’। अम्मा-बाबूजी चुपचाप सब सुनते रहें। आखिर अपनी माँ से कहते भी क्या !
बाबा के लिए अब मेरे मुँह से सम्मान की कोई भाषा नहीं निकल रही थी। मैं कितनी देर क्या-क्या बड़बड़ाई मुझे खुद नहीं पता था। मेरा गला बैठ गया और आँखों का आँसू भी सूख कर ककट गया।
हर बार की तरह बाबा आज भी गुस्से में घर लौटा। उसके पैरों में खड़ाऊँ नहीं थी। उसके अनुसार उसका किसी से झगड़ा हो गया था जिसके जिम्मेदार बाबूजी थे। उसका कहर बाबूजी पर टूट पड़ा। बाबूजी को गरियाते हुए जैसे ही बाबूजी के ऊपर उसने हाथ उठाया, बाबूजी ने हाथ रोकते हुए दाँत पीस लिया, ‘बस... अब और नाहीं। बहुत हो चुका... मेरे साथ भी और मेरी बेटी...’
उसके हाथ पर बाबूजी के हाथ की पकड़ टाइट हो गयी। वह समझ गया कि उसका भेद खुल गया है। फिर भी, वह दिखाने के लिए गुस्सा दिखा रहा था लेकिन सच तो यह है कि वह गुस्से की प्रत्यंचा पर अपनी अक्षमता से उत्पन्न असमर्थता को साधने की कोशिश कर रहा था, जो बार बार प्रत्यंचा से कहीं खिसक जा रही थी या टूट जा रही थी।
ईया बाबू जी के सामने बिछ गयी। बाबू जी उस अपराधी के सामने हार गयें जो रिश्ते में उनका बाप लगता था। वे मंझले चाचा से फोन पर कह कह कर रो पड़ें और घर परिवार की खातीर मुझे चाचा के पास दिल्ली भेज दिए। चाचा ने मेरा एड़मिशन दिल्ली विश्वविद्यालय के गार्गी कॉलेज में करवा दिया।
मेरी ज़िन्दगी का एक नया सफ़र शुरू हुआ। पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ मैंने पाया कि मैं आत्मविश्वास से भर गयी। मुश्किलें बहुत आयीं लेकिन मैंने मुश्किलों से लड़ना सीख लिया।
एक साल बाद फिर से किस्मत ने करवट ली। उस अपराधी बाबा को हार्ट की बीमारी हो गयी। चाचा को पता था कि मुझे कदमों की आहट का कितना अंदाजा है और हर आहट से मुझे कितना डर लगता है। मैं डाइनिंग हाल में नास्ता लेकर बैठी ही थी कि दबे पाँव एक आहट अंदर आती हुई मुझे सुनायी दी और मैं जोर-जोर से चिल्लाने लगी, ‘बचाओ... बचाओ मुझे...। वो कहाँ से आ गया... वो हरामी... यहाँ कहाँ से...? बाबू जी... बाबू जी... बचाओ...’
इतना सुनते ही चाची जी ने मुझे अंकवारी में पकड़ लिया, ‘चुप हो जा... चुप हो जा... कोई नहीं है... मैं हूँ.. मैं हूँ’।
‘नहीं... आप झूठ बोल रही हैं... यह बाबा है...वही है... है ना... बताइये चाची, बताइये... ये वही है ना’...?
‘अच्छा चुप हो जाओ...बताती हूँ...। मेरी बच्ची... मेरी बात ध्यान से सुनो...’
‘वही है ना... ? यहाँ क्यों आया है’ ?
‘हाँ... वही हैं।... उनके हार्ट में कुछ प्रॉब्लम है। उनकी दवा करवानी है’।
‘नहीं... आप लोग उसे यहाँ क्यों ले आये ? उसे मरने दो... वो उसी के लायक है।’
‘बेटा... सुनो, उठो मेरे साथ रूम में चलो...’
‘वो यहाँ नहीं रह सकता... उसे वापस भेज दो... वापस भेज दो चाची...’
चाची उस समय रूम में ले जाकर मेरे साथ घंटों बैठी रहीं।
शाम में उन्होंने विश्वास दिलाया कि वो मुझे कभी अकेला नहीं छोड़ेंगी। वैसे भी बाबा अब बहुत बुढ़े और लाचार लगने लगे हैं। अपनी करतूत पर बहुत शर्मिन्दा हैं। उन्हें तो मौत की सज़ा से भी बढ़कर सज़ा मिली है। घर से लेकर समाज-बिरादरी ने उनका परित्याग कर दिया। खेताड़ी में छान डालकर किसी तरह गुजर-बसर करते रहे हैं। उनसे कोई बोलता𝔠ाता नहीं। इस अपमान को वे सहन नहीं कर पायें और बीमार पड़ गयें। पर मुझे किसी बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा था। बहुत कुछ समझाने के बाद उन्होंने पूछा, ‘तुम्हें पता न चले इसलिए हमने उनकी खडाऊँ घर के बाहर ही उतरवा दिया था, फिर भी तुमने उनकी आहट कैसे पहचान लिया’ ?
‘खडाऊँ की आवाज़ तो पहचानती थी, हाथों को भी। लेकिन (रोते हुए) दबे पाँव की आहट पहचाने में बहुत समय लग गया... इसलिए तो...’
चाची मुझे पकड़ कर बहुत देर तक अहक अहक कर रोती रहीं। लेकिन माँ-बाप होने के कारण और अपने पति का पिता होने के कारण कहीं न कहीं उनके प्रति उनमें दया-भावना भी थी। वे उस लाचार इंसान को वापस घर नहीं भेज सकती थीं। लेकिन मेरे जिद्द पर उन्होंने मुझे पी.जी. में भेज दिया क्योंकि उस समय कॉलेज का हॉस्टल मिलना मुश्किल था। मुझे सेफ्टी के लिए बहुत सारी तरकीबें सिखाती रहीं, थोड़ा-बहुत जूड़ो-कराटे के साथ-साथ मिर्च पाऊडर का स्प्रे भी साथ में रखने के लिए देती रहीं। मुझे लिखने के लिए प्रेरित किया। बी.ए. के बाद मैंने एम.ए. हिन्दी में दाखिला लिया। दोस्तों के साथ प्रोजेक्ट पर काम की। मुझे मेरे शिक्षकों ने जीने का तरीका सिखाया। मैं घर नहीं लौटी लेकिन उस अपराधी के मरने की खबर मुझ तक जरूर पहुँची। उस दिन सारी घटना मेरे आँखों के सामने घूम गया, मैंने एक गहरी साँस ली और क्लास में प्रथम आने की खुशी में डूबी रही। पहली बार दोस्तों के साथ सिनेमा हॉल में जाकर उसकी तेज आवाज़ में झूमती रही, गाती रही।
दरवाजे पर फिर से खटखटाने के साथ ही आवाज़ आयी, ‘मेघना... चलो, ब्रेक फास्ट कर लो’। मेघना की तंद्रा टूटी।
‘रोशनी... ! सुबह हो गयी क्या ? क्या टाइम हो रहा है’ ?
‘नाइन थर्टी। जल्दी आओ, हम लेट हो जायेंगे’ ?
‘आ रही हूँ। (उठ कर दरवाज़ा खोलते हुए) हमें कहाँ जाना है’ ?
‘भूल गयी ! आज तुम्हें पीएच.डी. में एडमिशन लेना है डियर...। तुम इतनी बड़ी बात कैसे भूल सकती हो’ ?
‘ओ हाँ... पता नहीं कैसे’ ?
‘तुम ठीक तो हो ? रात में तुम सोई नहीं थी क्या’ ?
‘नहीं’
‘मैं रात में आयी थी, मुझे लगा तुम सो रही हो...! तुम सोई नहीं थी तो रूम में इतना अँधेरा क्यों कर रखा था’ ?
‘ज़िन्दगी में हमेशा अंधेरा तो नहीं रहेगा... (मुस्कराते हुए) चलो, फ्रेश होकर आती हूँ।’...........
***********************************************************************************
कहानी
डाॅ. रेनू यादव
छोछक
बधाई हो, लाला हुआ है’ अस्पताल के रिसेप्शन के सामने सरोज की सास प्रेमावती अपनी समधिन मनोहरी देवी से गले मिलते हुए कहती हैं।
‘आपको भी बधाई बहन जी... कौन-से रूम में है लाला’ ?
‘रूम नं. 205’।
अस्पताल में अंदर बढ़ते हुए प्रेमावती को याद आया कि समधी कहीं पीछे ही छूट गये हैं, ‘कहाँ रह गयें भाई साहब’?
पीछे मुड़ कर देखा तो तीन-चार झोलों के बोझ से लदे-फदे धीरे-धीरे कदम बढ़ाते समधी हरिराम हॉस्पीटल से अंदर की ओर प्रवेश कर रहे थे। बोझ का दबाव महसूस करते ही झट से प्रेमावती ने तुरन्त अपने बेटे मनोज को झोला उठाने का आदेश दे दिया। मनोज एक हाथ से अपने श्वसूर हरिराम का पैर छूते हुए दूसरे हाथ से झोला पकड़ लिफ्ट की ओर बढ़ गया। हरिराम भी पीछे पीछे लिफ्ट की ओर बढ़ गयें।
रूम नं. 205 में पहुँचते ही मनोहरी देवी ने बेड पर लेटी अपनी बेटी सरोज को झुक कर गले लगाया, उसके सर पर हाथ फेरा। बगल में झूले में झूलते लाला को उठाकर पुचकारा और उसकी गर्दन संभालते हुए हरिराम को थमाने का प्रयास करने लगीं। हरीराम लाला के माथे को प्यार से चूमने लगें, ‘युग-युग जियो लाला। हमेशा खुश रहो, सुख-समृद्धि आये’।
सुख-समृद्धि कहते-कहते उनकी आँखें नम हो गयीं, आवाज़ गले में अटक गई, चेहरा पीला पड़ गया। मनोहरी देवी हरिराम की स्थिति भाँपते हुए बात बदलने लगीं, ‘बहुत भाग्यशाली होगा लाला... सबका नाम रोशन करेगा’।
कहते हुए लाला को अपनी गोदी में थाम सरोज के पास जाकर बैठ गयी। हरिराम की रूलाई पकड़ी न जाय इसलिए वह अपने चेहरे को गमछे से पोछते हुए तेजी से कदम बढ़ाकर कमरे से निकल गयें और अस्पताल के पीछे जाकर ही रूकें। अपने गमछे से मुँह दबाकर फफक-फफक कर रो उठे हरिराम। जी शांत होने पर वापस कमरा नं. 205 में पहुँच गए, जैसे कि कुछ हुआ ही न हो।
उन्होंने देखा कि समधिन प्रेमावती उन सभी झोलों में से सामान निकाल निकाल कर सामान के वजन का अंदाजा लगाते हुए आलमारी में रख रही थी, ‘छुहारे पाँच किलो से कम नहीं होंगे, है न ?... बादाम और काजू भी लगभग आठ किलो होगा ही... सात डिब्बे घी लाने की क्या जरूरत थी समधी जी ? वैसे... घर का बनाया हुआ शुद्ध देसी घी लग रहा है...’
‘क्या अम्मा... रखना है तो ऐसे ही रख दो... गिनती करने की क्या जरूरत है’ ! चिड़चिड़ाते हुए मनोज ने कहा।
‘देखना पड़ता है न लाला... हम सबके लिए इतनी खुशिहाली की बात है। ऐसे ही थोड़े भाई साहब झोला भर भर कर सामान लाये हैं। कितने सारे ताजे फल, गोद के लड्डू और भी कितने खाने के सामान ले आये हैं अपनी लाली के लिए। गोद के लड्डू तो छः महिने से कम नहीं चलेगा’
‘ये तो हमारे लिए सौभाग्य की बात है बहन जी’ मनोहरी देवी ने अपने पति का चेहरा निहारते हुए ठंड़े स्वर में कहा।
दोनों समधिन आपस में गाल बजाने लगीं (बातों में व्यस्त हो गयीं) और हरिराम धीरे धीरे सीढ़ियों से उतरते हुए अस्पताल के बाहर आ गयें। वहाँ मनोज अपने गाँव वालों के साथ खड़ा मिला। इतने सारे लोगों को सड़क के किनारे पेड़ की छाँह में बैठे-लेटे देख हरिराम के मुँह से निकल पड़ा, ‘ये तो लग रहा है पूरा दादरी उलट पड़ा है’ ?
‘नहीं पापा जी, ये तो सिर्फ हमारे गाँव के लोग हैं’ ? मनोज का उत्तर सुन कर सब लोग हँसने लगें। देश-दुनियाँ की बातें करते हुए लोगों ने घंटों गुजार दी लेकिन सबके बीच चुप्पी साधे हरीराम अफनाहट के मारे धरती में धंसे जा रहे थे।
शाम के समय घर लौटते हुए भी हरिराम की खामोशी ने मनोहरी देवी को चिंतित कर रखा था। घर पहुँच कर लोटा में पानी थमाते हुए आखिर मनोहरी देवी ने पूछ ही लिया, ‘क्या बात है सरोज के पापा, आपको लाला होने की खुशी नहीं है’ ?
‘कैसी बात करती हो, खुशी क्यों नहीं होगी...’
‘आपका चेहरा तो कुछ और ही कह रहा है’ !
रात को भैंसों को सानी देकर हरिराम खाट पर लेटे लेटे आकाश में गुमसुम चाँद तारों को एकटक निहारे जा रहे थे। उन चाँद-तारों को रह रह कर अखबार की वे ख़बरें ढ़क लेतीं जिन्हें हरिराम ने कुछ समय पहले ही मोटे मोटे अक्षरों से लिखे हेडिंग में पढ़ा था ‘मनचाहा छोछक न मिलने पर विवाहिता को आत्महत्या के लिए ससुराल वालों ने उकसाया’, ‘छोछक में कार नहीं मिलने पर विवाहिता की हत्या’, ‘छोछक के लिए जलाकर मारा’...।
अचानक से चाँद-तारे खून से लथपथ हो गए... सरोज हरिराम की बाँहों पर लुढ़क पड़ी, उसके कपड़े खून से तर-बतर है... चारों ओर खून ही खून पसरा पड़ा है। हरिराम मन में ही चिल्ला पड़ें ‘नहीं...नहीं... मैं तुझे कुछ नहीं होने दूँगा...’ वे इस भयानक स्वप्न से काँप उठे। उनकी आँखें फिर से चाँद पर आ टिकीं। उन्होंने खुद को झुठलाते हुए सोचा ‘ये तो सिर्फ मेरे मन का वहम है...। देखो कितनी सुन्दर चाँदनी छिटकी है...। चाँदनी जीवन में रोशनी और शांति दोनों फैलाती है। हमारी सरोज भी तो ऐसे ही चाँदनी के समान पवित्र है...’ अचानक से पवित्र चाँदनी की रोशनी आग के गोले में तबदील हो गयी। चाँद धू-धू करके जलने लगा उसमें से सरोज चिल्लाने लगी, ‘पापा जी...बचा लो... मुझे बचा लो’ पूरे आसमान में आग की लपटें फैल गयीं। हरिराम आग में कूदना चाह रहा है पर कूद नहीं पा रहा... उसके कदम भारी हो गये... हाथ हिल नहीं रहा... पूरा जोर लगाने के बाद भी उसके शरीर में कंपन नहीं हो रही... वह तड़फड़ा रहा है, सरोज कहीं दिखायी नहीं दे रही सिर्फ उसकी आवाज़ सुनायी दे रही है... वह अपने आपको झटकने की पूरी कोशिश कर रहा है पर शरीर पथरा गयी है...। तब तक किसी ने उसे जोर से हिलाया और वह अचकचा कर उठ बैठा।
‘कुछ तो बताइये सरोज के पापा ? क्या बात है’ ? मनोहरी देवी की आवाज़ कानों में गूँजी।
‘तुम कब आयी, सोई नहीं अभी’ ? हरिराम काँपती आवाज़ में बोल पायें।
‘आप इतने चिंता में हैं, नींद कैसे आ सकती है’ ?
‘चिंता मत करो... मैं ठीक हूँ। तुम सो जाओ’।
बहुत देर तक बैठने के बाद भी जब हरिराम से कोई जवाब नहीं मिला तब वह उठकर घर में चली गयी। हरिराम सोने का बहाना बहुत देर तक नहीं कर सकें, करवटें बदलते हुए पूरी रात गुज़र गयी।
रेशमा का विवाह हुए सिर्फ छः महिने ही तो बीते हैं। छोटी बेटी थी इसलिए हरिराम ने सभी परेशानियों को दरकिनार कर दिल खोल कर खर्च किया था। दहेज देने के लिए उन्होंने अपने पूरे जीवन की बचत पी.पी.एफ. निकाल कर दे दिया। आखिर पोस्ट-मैन की कमाई ही कितनी होती है। दिन भर धूप में जल-जल कर जितना कमाया वह परिवार के गुजारे में लगा दिया, जो बचा था मात्र पी.पी.एफ.। इतना ही नहीं अपने पूरखों की जमीन गिरवी रख दी, ताकि दरवाज़े पर बारात की ईज्ज़त हो सके। आखिर पूर्वजों ने जो ईज्ज़त कमाई है उसे दाँव पर यूँ ही तो नहीं लगा सकते। जिस लड़की की शादी है अगर सिर्फ उसके बारात और रिश्तेदारों को देखना हो तो अलग बात..., यहाँ तो हर शादी में सभी रिश्तेदारों को देखना पड़ता है ! हरिराम ने खुद की पाँच बहनों और बहनोईयों को करीब दस तोले के गहने दे दिए, हालांकि तीन बहनों का काम अँगूठी से चल सकता था लेकिन दो बहनें बड़े घर में ब्याही गयी थीं। उन्हें तो सोने की चेन देने ही थे फिर तीन बहनों के साथ ना-इंसाफी कैसे किया जा सकता था ! अपनी लाली सरोज भी किसी ऐरे-गैरे घर में तो ब्याही नहीं गयी, उसके भी श्वसूर का पूरे गौतम बुद्ध नगर में नाम है। सो उसने भी अपनी अम्मा से कहलवा भेजा, ‘सोने के कड़े देना पापा जी, वरना ससुराल में मेरी नाक कट जायेगी’। फिर क्या था उसे मोटे-मोटे दो कड़े बनवाने पड़े और दामाद को चेन। कपड़े लत्ते और हाथ पर धरने के लिए कम से कम दस-दस रूपये के छुट्टे अलग से, इनकी तो कोई गिनती ही नहीं होती।
दो साल पहले राहुल के विवाह के लिए बैंक से लोन लिया था वह अभी पूरा ही नहीं हुआ। अब तो बैंक वाले घर तक आने लगे हैं। उसकी दुल्हन सुनीता के कुआ पूजन के लिए मनोहरी देवी को अपने कुछ गहने भी बेचने पड़े। राहुल कमाता-धमाता तो है नहीं, घर में बैठे-बैठे उसकी और उसके पत्नी की जरूरतें पूरी करते रहो। उन्हें अपनी लाली की पढ़ाई की चिंता भी नहीं है।
मनोहरी देवी हरिराम का मुँह देख कर बार बार उनसे पूछती, ‘खुश नहीं हो क्या’ ?
‘कौन-सा बाप होगा जो अपने लाला-लाली की खुशी में खुश नहीं होगा। मैं चाहता हूँ कि मेरे तीनों बच्चे खुश रहें, खूब बरक्कत हो’। आधी बात मुँह से कहकर हरिराम आधी बातें मुँह में दबा ले गयें, ‘कैसे कहूँ कि रिटायर होने में सिर्फ दो साल बाकी है, बैंक का लोन चुकता नहीं हुआ, खेत गिरवी है। अब ये छोछक...’
करीब सप्ताह भर में हरिराम बुलन्दशहर के सभी बैंकों के चक्कर लगा आये पर कहीं से लोन नहीं मिला। फिर वे अपने नात-रिश्तेदारों के वहाँ मिठाई ले ले कर जाने लगें और सबको खुश हो-होकर लाला के जन्म की ख़बर सुनाने लगें। एक दिन बड़े घर में ब्याही बहन कुंकुंम के घर पहुँच गयें, ‘मेरी लाली सरोज को लाला हुआ है। बड़ा ही सुन्दर है। हम बड़े खुश हैं। आपको तो पता ही है कि सवा महिने में कुआ पूजन के दिन छोछक ले जाना होता है। अब बड़े घर में ब्याही है तो छोछक भी ऐसा ले जाना होगा कि दुनियाँ देखती रह जाये’।
‘हाँ हाँ क्यों नहीं... ससुराल वालों के मान-मर्यादा का खयाल तो रखना ही पड़ता है। आपके भी पुरखों को देश-जवार जानता ही था, आखिर उनकी भी ईज्ज़त का सवाल है’। कुंकुम के पति शेखर ने जवाब दिया।
‘इसीलिए तो हमने राहुल और रेशमा के विवाह में कोई कसर नहीं छोड़ी, हमने आप लोगों को भी आप सबके हैसियत के हिसाब से ही जेवरात बनवाये थे... सुना था आप सबके घर वाले चेन देख कर बड़े खुश हो गये थे’
‘हाँ हाँ... मेरा भी चेन देखकर लोग कहते हैं कि क्या चेन मिला है और कुंकुंम के गले में हथेली भर का लटकता लॉकेट देख कर कुछ लोग तो हहा ही गयें कि इतना बड़ा लॉकेट की माला...’ !
‘तो आपको क्या लगता है कि छोछक में क्या-क्या ले जाना चाहिए ताकि हमारा भी नाम हो और हमारी लाली का भी मान-सम्मान बढ़ जाये। आखिर दादरी से दनकौर है ही कितनी दूर... दोनों जगह के रीति-रिवाज लगभग एक जैसे ही होते हैं... सो आपको यहाँ की सारी स्थिति पता ही है’।
‘देखिए हरिराम जी... यहाँ किसी के पास पैसों की कमी तो है नहीं। ग्रेटर नोएडा का जब नगरीकरण हो रहा था तब अथॉरिटी से गाँव वालों को उनके जमीन के बदले सरकारी मुआवजा मिला है। उसी से अधिकतर लोगों ने आलीशान बँगला बनवा लिया और दो-दो चार-चार गाड़ियाँ खरीद लीं। गाड़ियाँ किराये पर चलती हैं तो आमदनी भी अच्छी हो जाती है। अब खाये-पीये-अघाये लोगों को कम क़ीमत का सामान देंगे तो ईज्ज़त तो करेंगे नहीं। इसीलिए जो भी देना है उन्हें उनकी हैसियत से थोड़ा बढ़कर ही देना होगा’।
‘मैं भी यही चाहता हूँ। लेकिन एक मजबूरी है’
‘जन्मजात रईस हैं आप लोग तो, फिर आपको क्या मजबूरी हो सकती है’ ? शेखर ने अपने दायीं पैर के ऊपर बायीं पैर चढ़ाते हुए कहा।
‘समय एक जैसा नहीं रहता। इधर कुछ परेशानियों ने घेर लिया है’
‘ऐसी क्या बात हो गयी ? हम रिश्तेदार हैं आप बेझिझक कह सकते हैं’
‘सोच रहा हूँ कैसे कहूँ’
‘हम लोगों से नहीं कहेंगे तो किससे कहने जायेंगे, यदि हमसे कुछ हो पायेगा तो हम जरूर करेंगे’
‘आप तो जानते ही हैं कि हम लोग एन.सी.आर. में रहते हैं। जितनी तेजी से इसकी प्रगति हो रही है उतनी ही तेजी से यहाँ की मँहगाई बढ़ रही है। दो साल पहले राहुल का विवाह किया था, इस साल रेशमा का। कर्ज से लद गया हूँ। अब छोछक के लिए कहाँ से पैसे ले आऊँ समझ में नहीं आ रहा’
‘................’
‘मैं समझता हूँ कि आप बड़े लोग हैं और जो जितना बड़ा होता है उनका खर्चा भी उतना ही बड़ा होता है। लेकिन रिश्तेदारी के नाते कह रहा हूँ कि अगर कुछ...’
‘...............’
‘..............’
‘आज कल हमारी भी हालत थोड़ी खस्ता है। मैं देखूँगा अगर कुछ कर सका तो। आखिर रिश्तेदार सहायता नहीं करेंगे तो कौन करेगा। चिंता मत कीजिए... मैं समझ गया... अभी आप निश्चिंत होकर घर जाइये। मैं बताऊँगा’।
हाथ जोड़ हरिराम चल तो दिए पर शेखर की बातों पर भरोसा नहीं हो पा रहा था और अगर शेखर ने इंतजाम किया भी तो कितना करेगा कुछ निश्चित नहीं था।
हफ्ते भर तक कुछ जवाब न मिलने पर हरिराम अपने दोस्तों के घर जाना शुरू कर दिए। बुलन्दशहर में जिनको-जिनको वे जानते सबके घर मिठाई पहुँचा आयें। जो भी पैसे थे मिठाई में उड़ गए। कहीं से कोई बात न बन पायी। अब हरिराम थक-हार कर घर बैठ गए।
कुआ पूजन में बस दस दिन बचा था। हरिराम को चिंता से बुखार आ गया। उन्होंने पचास-पचास हजार में अपनी दो गाभीन भैंसों को बेच दिया। आज के समय में एक लाख न तो हरिराम की ईज्ज़त बचा सकते थे न ही सरोज के परिवार वालों के लिए काफी था। मनोहरी देवी ने हरीराम की स्थिति भाँप ली। उन्होंने पीहर से मिले अपने गहने बेचकर एक लाख जुटाया।
दो लाख की रकम लेकर पति-पत्नी अपने परिवार के सामने बैठें। हरिराम ने मंत्रणा करते हुए कहा, ‘हमारे पास अब दो लाख हैं। इस दो लाख में कितने गहने और कितने कपड़े हो पायेंगे, ये सोच समझ कर बताओ। हम चाहते हैं सस्ते में सब निपट जाये’।
‘बहुत बड़ा परिवार है सरोज के पापा। सस्ता सस्ता सामान भी अगर खरीदेंगे तब भी नहीं हो पायेगा। और अगर सस्ता सामान देंगे तो सरोज की उसके घर में क्या ईज्ज़त रह जायेगी’ !
‘उसके घर में आदमी कितने हैं और औरतें कितनी ? सबसे पहले यह देखना होगा’
‘सरोज के पति खुद तीन भाई और तीन बहन हैं, उसके श्वसूर तीन भाई और उनकी दो बहनें हैं। बड़े श्वसूर के तीन लड़के और एक लड़की और छोटे श्वसूर के दो लड़के ही हैं। उनकी आजी अभी जिन्दा ही हैं। इस तरह मिलाकर ग्यारह मर्द और उनकी पत्नियाँ ग्यारह हुईं, छः बहनें, एक आजी और घर में सबके मिलाकर पच्चीस बच्चे हैं, जिनमें से बारह लड़के और तेरह लड़कियाँ हैं’।
‘इस तरह अगर हम सबके लिए अच्छे कपड़े खरीदना चाहें तब भी नहीं हो पायेगा। सस्ते में खरीद लें तो हो जायेगा। लेकिन मिठाई और गहनें’ ?
‘............’ कुछ देर तक खामोशी छायी रही।
कुछ देर के बाद राहुल की पत्नी सुनीता ने कहा, ‘पापा जी, आप चाहो तो मेरे गहने बेच दो’
‘नहीं बेटा... तुम्हारे गहनों पर सिर्फ तुम्हारा हक़ है। हम कुछ न कुछ इंतजाम कर लेंगे’। कहते हुए हरिराम उठ कर वहाँ से चले गयें। पीछे पीछे मनोहरी देवी भी पहुँची, ‘अब क्या करेंगे हम ? हमारी लाली की ईज्ज़त क्या रह जायेगी उसके ससुराल में। पहला बच्चा है उसका’ ?
हरिराम चुपचाप आँखें बंद किए दीवार से सर सटा लिये।
जमींदार, साहूकार कबके मर चुके हैं पर उनकी आत्माएँ अभी भी कुछ लोगों में जीवित हैं। जो जरूरत के समय हरिराम जैसे लोगों को थाम लेते हैं। हरिराम को उन्हीं आत्माओं ने याद किया और हरीराम पहुँच गयें धनाढ़य राम नारायण जी के पास। खेत से लेकर बिजनेस तक सब की पायी पायी जानकारी रहती है उन्हें। जैसे पैसा देते हैं वैसे ही वसूलना भी जानते हैं। उनकी निगाहों से कोई भी जरूरतमंद बच नहीं पाता, एक न एक दिन उनका शरणार्थी हो ही जाता है। सच तो यही है कि चाहे क़ीमत कोई भी चुकानी पड़े लेकिन ऐसे समय में राम नारायण जैसे लोग ही भगवान बनकर खड़े होते हैं। समय पर खड़े होकर बहुतों की नाक कटने से बचा ली है राम नारायण ने। जैसा नाम वैसा ही काम... सृजन और संहारक।
‘क्या भाई हरिराम ! अब ऐसे समय में भी बताने में संकोच करोगे’ गद्दीदार सोफे पर बैठते हुए राम नारायण ने कहा।
‘सोचा था इंतज़ाम हो जायेगा, लेकिन...’ कहते कहते चुप हो गये हरिराम
‘बैठो बैठो भाई। इतने दिनों से हमें चिट्टी पहुँचाते रहे हो और जरूरत के समय याद भी ना किया’
‘............’
‘मैं जानता नहीं हूँ क्या कि कितनी कमाई होती है इस पोस्ट-मैनी से...। (कुछ सोचते हुए) पूरखों में एक पीढ़ी निकम्मी निकल गयी तुम्हारी। धन-दौलत शराब में गेर (डाल) दिया। वरना कौन नहीं जानता था तुम्हारे खानदान को’
‘...........’
‘बिटिया को लाला हुआ और मिठाई भी नहीं लाये’ हँसते हुए चिढ़ाया राम नारायण ने
शर्मा के रह गए हरिराम। घर से निकलते समय मिठाई के विषय में उनको खयाल तक नहीं आया था।
‘अच्छा कोई बात नहीं... मैं समझता हूँ समय को... समय बहुत बलवान होता है। तुम पर भी लक्ष्मी जी की कृपा होगी’।
‘मेहरबानी होगी आपकी, जो इस समय...’
‘अरे भाई... मेहरबानी की क्या बात है। तुम्हारे परेशानियों का पता चलते ही तुम्हें तुरन्त बुलवा भेजा, वरना तुम तो इधर लाला की खुशखबरी भी सुनाने नहीं आते।... अच्छा बताओ कितने दिन बचा है कुआ पूजन में’ ?
‘सिर्फ दो दिन’ ?
‘ओ हो ! अब तक तो सारा इंतजाम हो जाना चाहिए था। जाकर खरीदारी करो। कितने पैसों की जरूरत है’ ?
‘मेरे पास सिर्फ दो लाख हैं...’
‘अरे भाई... आज के समय में दो लाख में क्या होता है ! अपने खानदान की और लाली के खानदान की ईज्ज़त भी तो बचानी है। अच्छा बताओ कितने लोग हैं घर में’ ?
‘ग्यारह मर्द, अट्ठारह औरतें, सरोज के लाला को छोड़ कर घर में बारह लाला हैं और तेरह लाली’।
‘यह तो बड़ी समस्या है, बहुत पैसे लग जायेंगे। सबको कपड़े लत्ते और छोटे-मोटे जेवर दोगे ही। लाली और उसका लाला... और उसकी सास को भारी जेवर ले जाना ही पड़ेगा। साथ में कुछ तो कैश देना ही पड़ता है’।
‘इतना तो रिवाज़ है ही’
‘इतनाही रिवाज नहीं है बल्कि बहुत लोग तो इलेक्ट्रॉनिक सामान भी देते हैं और इन सबमें फल और मिठाई की कहीं गिनती ही नहीं। हम तो कहते हैं भाई कि अब ये रीति-रिवाज़ टूटना चाहिए, आदमी कंगाल हो जाता है।... पता नहीं किसने बनाई ऐसी रीतियाँ।... पर क्या करें नहीं निबाहेंगे तो समाज जीने नहीं देगा... कहने के लिए एन.सी.आर में हैं पर सोच तो अभी भी पुरानी ही है... हमें तुम्हारे लिए दुःख है हरिराम... वैसे ये दहेज में तो गिना नहीं जाता खुशी में जितना चाहो लुटा दो’।
‘खुशी तो बहुत है, लेकिन परिस्थिति खुश नहीं होने दे रही...’ मायूस से हो गये हरीराम
‘अच्छा बताओ कितने पैसों में हो जायेगा तुम्हारा काम’ ?
‘यही कोई पाँच-सात लाख का इंतज़ाम हो जाये तो हम किसी तरह निपटा लेंगे’।
‘अरे भाई... इतने बड़े घर में छोछक ले जा रहे हो, भला पाँच-सात लाख में क्या होगा ? सस्ते के चक्कर में मत पड़ना पूरे जात-बिरादरी में थू-थू हो जायेगी। ऐसा न हो कि पैसे भी खर्च करो और लोग तुम पर हँसे भी... ऐसा ही था तो बड़े घर में लाली को ब्याहना ही नहीं चाहिए’।
‘इससे अधिक कर्ज ले लिया तो चुकायेंगे कैसे’ ?
‘उसकी चिंता क्यों करते हो। जमीन जायदाद तो है ही तुम्हारे पास’
‘कहाँ... सब गिरवी पड़ा है। बैंक से लोन ले रखा है’
‘और घर’
‘एक घर ही तो बचा। अब इसे भी...’
‘कैसी बात करते हो भाई। किसने कहा कि घर को दाँव पर लगाओ। अब दस लाख से कम कर्ज हम दे नहीं पायेंगे, यह तो हमारा नियम है...। पैसों के बदले कुछ तो हमारे पास होना चाहिए... अब तुम कह रहे हो कि सिर्फ घर ही बचा है तो इसमें मैं क्या कर सकता हूँ।... सोच-विचार कर लो... ये पेपर रखा है, इस पर साइन करो और पैसे ले जाओ। लेकिन सोच लेना चैदह परसेंट ब्याज भी है। बाद में यह मत कहना कि मैंने बताया नहीं’।
‘चौदह परसेंट’ !
‘हाँ भाई... आखिर बैंक तो लोन दे नहीं रहा। हम दे रहे हैं तो बैंक से थोड़ा अधिक ही परसेंट ब्याज रखेंगे। और हम तुम्हारे ऊपर कोई दबाव तो डाल नहीं रहे। तुम्हारी मर्जी है। तुम्हारी ईज्ज़त बचाने के लिए ये कदम उठाया है’।
‘पर हम चुकायेंगे कैसे’ ?
‘अरे भाई ! अभी नौकरी के दो साल बचे हैं तब तक तो चुका ही दोगे’।
‘लेकिन हम बैंक का लोन कैसे चुकायेंगे’
‘ओह हो... जब सर पर पड़ता है तो सब हो जाता है। और एक नालायक बेटे को बैठा कर खिला रहे हो, भेज दो उसे काम पर। कहीं काम न मिल रहा हो तो बताओ मैं देता हूँ उसे काम’।
‘मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा कि क्या करूँ’ सर पर हाथ रख कर बैठ गए हरिराम।
‘समझना क्या है... इन रीति-रिवाजों में ही हम सबकी औकात पता चलती है वरना कौन झाँकने आता है घर में... नमक रोटी खा रहे हो या दाल-भात’ ‘सही तो कह रहे हैं राम नारायण। एक बार यह छोछक दे आयें उसके बाद कोई न कोई इंतज़ाम करेंगे। ईज्ज़त का सवाल है, बेटी के मान-सम्मान की बात है। इसके अलावा आखिर कोई उपाय भी तो नहीं। सबके आगे हाथ पसारे, पर किसी को तरस नहीं आया। मैं नहीं चाहता कि मेरी बेटी भी ईज्ज़त के लिए तरसे या अख़बारों में उसकी भी कोई बुरी ख़बर छपे ...’। मन में सोच-विचार करने के बाद हरिराम ने पेपर पर साइन कर दिया और पैसे लेकर कुछ भारी मन से तो कुछ उत्साह के साथ घर लौट आये। दूसरे दिन गहने कपड़े, फल-मूल, मिठाई खरीद कर परिवार वालों के साथ गाड़ी में बैठ कुआ पूजन के लिए चल पड़ें।
कुआ पूजन के बाद छोछक का सामान थालियों में सजाई गयीं। घर आये मेहमानों, गाँव वालों के सामने प्रेमावती थाल घुमा घुमा कर दिखाने लगी, ‘देखो छोछक आया बहू के मायके से... घर भर के लिए कपड़े-गहने आया है’।
‘आपके लिए बहुत मोटी चेन है...’ ... ‘बहुरिया के लिए क्या हथेली भर का लॉकेट है, बड़ा पैसा खर्च किए हैं आपके समधी जी ने...’ ‘लाला के लिए तो सात तरह के जेवर है... और इतनी मोटी चेन... यह जवान होने पर ही पहन पायेगा। बधाई हो... बधाई हो...’
यह सब सुन कर फुले नहीं समा रही प्रेमावती। अचानक से उनकी नज़र हरिराम पर पड़ी। उन्हें सुनाते हुए गाँव की औरतों से कहने लगीं, ‘बहुत कुछ ले आये हैं हमारे समधी जी... हमारी ईज्ज़त रख ली। लेकिन बाकी बहुरियों की पाजेब थोड़ी पतली हो गयी है और कपड़ों की क्वालिटी में वो दम नहीं जो होना चाहिए। ... पहनेंगी तो क्या ईज्ज़त रह जायेगी... लेकिन चलो कोई बात नहीं अब वे हमारी बराबरी तो नहीं कर सकतें...’
हरिराम जैसे कुर्सी पर बैठे बैठे ही बेहोश हो जायेंगे। उनके हाथ से कोल्ड्रिंक का ग्लास छूटते छूटते बचा। टूट गए हरिराम... बिखर गए...। बिना खाना खाये ही घर लौट आयें।
रात भर उनके कानों में समधन की आवाज़ गूँजती रही। ईज्ज़त, बराबरी, गहने, कपड़े...। घर की ओर देखा तो घर पराया-सा लगने लगा। घर कहीं दूर छिटक चुका था। खुद को रिफ्युजी सा महसूस करने लगें। इन सबसे उनका दम घुटने लगा। बहुत टहलने के बाद भी साँस कहीं फेफड़े में ही फड़फड़ाती-सी महसूस होती।
सुबह-सुबह चाय की चुस्कियाँ लेते समय राहुल की लाली हरिराम का गर्दन पकड़ झूल गयी, ‘दादा... जब मेरी शादी हो जायेगी तब क्या मेरे लिए भी छोछक ले आओगे’
‘हाँ...हाँ... क्यों नहीं। जरूर ले आयेंगे’
‘क्या क्या लाओगे ? मेरे लिए ना एक लाल रंग का लहँगा पहने गुड़िया ले आना और उसके लिए भी हार और मेरे लिए हार ले आना...’
‘अच्छा... (हँसते हुए) और क्या चाहिए मेरी लाली को.’?
‘ऊँ... एक हारमोनियम और एक गाड़ी जो चाबी लगाने से दूर तक चले और...’
उन्हीं बातों के बीच मनोहरी देवी फोन पर बात करते हुए खुशी से बधाई देते हुए कहती आ रही थीं, ‘बड़े भाग्य हमारे... जो रेशमा के जीवन में भी खुशियाँ आ गयीं। हम तो धन्य हो गयें सुनकर’।
लाली झट से हरिराम का गर्दन छोड़ मनोहरी देवी का हाथ पकड़ ली, ‘क्या बात है दादी, रेशमा बुआ को क्या हुआ’ ?
‘रेशमा बुआ को भी सरोज के लाला की तरह लाला आने वाला है या फिर... तुम्हारी तरह मेरी प्यारी सी लाली’ ... प्यार से माथे पर पुचकारते हुए मनोहरी देवी ने कहा।
‘क्या...? (खुशी से उछल पड़ी लाली)... ये..ये...ये... अब तो रेशमा बुआ के घर भी छोछक जायेगा... मम्मी सुनो... रेशमा बुआ के घर भी छोछक जायेगा...’
प्रफुल्लित होकर मनोहरी देवी हरिराम की ओर मुड़ते हुए कहने लगीं, ‘सुनते हैं सरोज के पापा... रेशमा भी अब माँ बनने वाली है...बड़े भाग्य हमारे, हमारी दोनों लालियों.... (मुड़कर देखा तो चैंक गयी) अरे... क्या हुआ आपको...’
हरिराम के हाथों से चाय का प्याला छुटकर नीचे गिर चुका था, उनका सिर कुर्सी से लुढ़क चुका था।
***********************************************************************************
कहानी
डाॅ. रेनू यादव
निशान
जैसे ही रेशमा ललिता के पीठ पर पड़े हल्के लाल नीले निशान पर बर्फ की पोटली रखती वैसे ही पूरा घर ‘आऽऽहऽऽ’ की चीख से गूँज उठता। गले, पीठ, पेट और जाँघों पर ऐसे कई निशान थे जिन्हें काला पड़ने से बचाना था। वे सारे निशान बर्फ की पोटली से स्पर्श करते ही और अधिक जाग उठतें और त्वचा, नसें और हड्डियों तक टभक टभक कर कई और निशान छोड़ जाते। ललिता कभी किचकिचाकर दाँत बाँध लेती तो कभी आह-ऊँह कहरते हुए चिल्ला पड़ती। न दर्द पर वश रह जाता और न ही तन पर। जब मन में अथाह पीड़ा उठती तब तन की टीस कम महसूस होने लगती।
बेड के बगल में कुर्सी लगाकर बैठी ललिता की अम्मा ललिता की हर चीख के साथ ‘आह... मेरा बच्चा’ ! कहते हुए कहर उठतीं जैसे कि रेशमा उन्हीं के घाव पर बर्फ छुआने जा रही हो। वे हर बार काँप-काँप उठती और आँखें पोंछती हुई अपने दामाद को गरियाती जातीं, ‘पता होता कि वह इतना हैवान निकलेगा तो मैं कभी तुम्हारा विवाह उस हत्यारे से नहीं करवाती। बहुत बड़ी गलती हो गई हमसे।...अरे, पहले कितना सीधा-सादा लगता था अब तो आँखों से ही हत्यारा लगता है... कितना बदल गया है... कुछ समझ में नहीं आ रहा कि अब क्या किया जाये... ?... सोच रही हूँ कल उसके घर जाकर बात करूँ... कैसे वह इतनी हैवानियत पर उतर सकता है ?... अरे कोई गलती भी हुई हो तो दो-चार बात डाँट-बोल कर खत्म करता, ऐसे कैसे हाथ उठा सकता है मेरी बच्ची पर...’
कमरे से बाहर दीवार की आड़ में बैठा रोहित आँखों में आँसू लिए सब सुन रहा था। ललिता की चीख से उसका हृदय फटा जा रहा था, हाथ भींच-भींच कर वह खुद को नियंत्रित करने की कोशिश करता, फिर भी मुट्ठी बंध जाती और दीवार पर दे मारता। अम्मा की बात सुनकर वह बोल पड़ा, ‘अम्मा, आपको कहीं जाने की जरूरत नहीं है। मैं जाऊँगा तलाक के पेपर लेकर’...।
‘तलाक’... !
‘हाँ, अब ललिता उस दरिन्दे के साथ नहीं रह सकती’..
‘नहीं जाने दूँगा ! क्या मतलब है तुम्हारा ?... क्यों नहीं जायेगी, वह घर ललिता का भी है !’ - अम्मा के तेवर बदल गए। निशान पर बर्फ और रेशमा का बर्फिला हाथ दोनों यकायक थम गया, जैसे वह खुद भी जम गई हो।
‘क्या करेगी ऐसे घर में जाकर अम्मा... जहाँ शुकून ही न हो ?... और ललिता की देखभाल के लिए हम लोग हैं ना’
रेशमा की आखें भर आयीं, उसका हाथ फिर से चलना शुरू हो गया और ललिता का कराहना अब भी जारी था।
‘हम हैं !... कैसे ?... हम सिर्फ सपोर्ट के लिए हैं ? उसका घर वही है... उसे अपने घर में रहते हुए लड़कर अपना अधिकार लेना होगा।... क्या तुम्हें नहीं पता कि एक तलाकशुदा औरत की क्या दशा होती है... ? छोड़न को कोई तारनहार नहीं...! बिरादरी में नाक कट जायेगी हमारी ? समाज में हम क्या मुँह दिखायेंगे’ ?
‘क्या अम्मा... तुम अब भी ये सब सोचती हो ? जमाना बहुत बदल गया है... अगर मैं अपनी बहन की देखभाल नहीं कर सकता तो मेरे पढ़े-लिखे होने और नौकरी करने का क्या फायदा’ ?
यह सुनकर रेशमा की आखों से नमक भरभरा आया और ललिता की पीठ पर बह चला। ललिता चीख पड़ी, ‘भाभी...’। रेशमा आखें पोंछ फिर से सिंकाई करने लगी।
अम्मा जी का बोलना जारी रहा, ‘हम जाकर पूछेंगे ना दामाद जी से, कि हमारी बेटी से ऐसी क्या गलती हो गई है ? (अम्मा के लहजे में नरमी आ गई) इसे इसकी जगह दिलवायेंगे।... (किसी गहरी सोच की खाई में उतरते हुए अम्मा ने फिर से कहना शुरू किया) पता नहीं उसके माँ-बाप कैसे हैं कि उनको ये सब दिखाई नहीं देता ? बेटा पी पा-कर बहू को मारता रहता है और वे लोग उसे रोकते तक नहीं !... न जाने कैसे संस्कार दिए हैं अपने बेटे को !... एक मेरा बेटा है शराब तो दूर की बात... बीड़ी-सिगरेट तक को हाथ नहीं लगाता !... आज तक किसी ने इसे अपनी बीवी को डाँटते हुए नहीं सुना... बहुरिया से कितनाहू बड़ी गलती हो जाये लेकिन कभी गुस्साते हुए नहीं देखा...। एक हमने संस्कार दिया है और एक उन्होंने...।
रेशमा जोर-जोर से सिसक पड़ी, वहीं बेड से नीचे धम्म से बैठ गई। रेशमा की अधीरता अम्मा जी से देखा नहीं गया, ‘बहुरिया ! मत रोओ मेरा बच्चा। तू बड़ी अच्छी है। तुझसे किसी का दुख देखा नहीं जाता, फिर ये तो तेरी ननद है।... ललिता को मरहम लगा दो, रात में उठकर एक बार और लगा देना।... रात बहुत हो गई है... तुम जाकर सो जाओ... भला हम लोगों को कहाँ नींद आयेगी...?
जिन सीढ़ियों को चढ़कर ललिता को अपने रूम में पहुँचने में करीब एक मिनट भी नहीं लगता था, उन्हें ही आज चढ़ने में रेशमा को 10 मिनट से भी अधिक लग गए। उसके पैरों में हजारों पत्थर बंध गयें। पीठ, गर्दन और कंधे भारी बोझ से पीछे की ओर लुढ़कने लगे, उसकी छाती पके कटहल की तरह फटने लगी जिसके ऊपर उसने वर्षों से काँटों का कँवच बना रखा था। कानों में अम्मा जी की आवाज़ आग बनकर पिघलने लगी, ‘अरे... हमारे बेटे को कोई पाने वाला है ! गऊ है गऊ ! ऊँची आवाज़ में कभी बात नहीं करता, हाथ कहाँ से उठायेगा !... जो दे दो चुप-चाप खा लेता है... जो कह दो सब कर देता है। कभी किसी बात का कोई घमण्ड ही नहीं रहा इसके अंदर’...
रेशमा घुटनिया गई, बड़ी मुश्किल से घुटनों के बल चलकर दरवाजे तक पहुँची और दरवाज़ा अंदर से बंद कर वहीं घुट्टी मुट्टी मार कर बैठ गई। उसके कानों में ‘गऊ है गऊ... हाथ कहाँ से उठायेगा... चुपचाप खा लेता है... घमण्ड नहीं है’ जैसे वाक्य जोर-जोर से गूँजने लगे। कान फटने लगे, वह कानों को हाथों से दबा वहीं लेट गई। आँखों से नदी बह चली और हृदय में कोई हुँकार भरता बवंडर उठ खड़ा हुआ।
जब अंदर का बवंडर थोड़ा थमने लगा, आखों से नदी की धारा शांत होने लगी तब उसने देखा कि पूरे कमरे में पहले से ही एक और बवंडर आकर गुजर चुका है। रोहित के कपड़े पूरे कमरे में बिखरे पड़े हैं, जिसे उसने शाम में बड़े प्यार से तह करके रखा हुआ था। कई काँच के टूटे-बिखरे ग्लास और फूलदान गुजरे बवंडर के वो निशान हैं जो अक्सर परिवार पर किसी बवंडर के आने के बाद इस कमरे में गुजरता है। पुस्तकों के फटे पन्ने रोहित के उस फटे दिल के निशान हैं जो रेशमा के शरीर पर नहीं पड़ते।
वह एक एक कपड़ों को समेटते हुए बिस्तर तक पहुँच गई। उसने सारे कपड़ों की सलवटों के निशान को बड़े ध्यान से देखा जिसे छुड़ाने के लिए उन्हें फिर से इस्त्री करना होगा। वर्षों से स्थिर कँटिले कटहल के कँवच के अंदर से उसका दिल का कोइया बिहला बिहला कर बाहर निकलने लगा। उसने रोहित का शर्ट इस उम्मीद से पहन लिया कि शायद बिहलाते दिल को कोई आसरा मिल जाये। लेकिन शर्ट पहनने के बाद वह और भी बेचैन हो गई। वह काँच को उठाने लगी और दिल के एक एक कोइया को उन काँच से उठा-उठाकर डस्टबिन में फेंकने लगी। पसीजता कोइया बिखरे पन्नों को भी पसीजा दिया। वह रेत बन गई, बिखरने लगी, तड़पने लगी। रोहित का शर्ट खुद रोहित बन गया, वह उसके काठ जैसे मजबूत सीने से लिपट गई। रोहित का काठ जैसा मजबूत सीना पिघलने लगा। पिघलते-पिघलते वह समुद्र बन कर रेत की चादर को ढंक लिया, थाम लिया, बिखरने से रोक लिया। समुद्र-तल के शांत रेत पर ठहरे हरे शैवालों के बीच हजारों मछलियाँ बिछल पड़ीं किसी कोने की चाह में, मचल गईं जीने की चाह में। समुद्र अपनी लहरों की थपकियों में मछलियों को सुलाने लगा, मछलियाँ उन हल्के हाथों की थपकियों से आँखें बंद कर किन्हीं सुनहरे सपनों में खो गईं, ‘मुझे छोड़ कर अब कभी नहीं जाना... कभी नहीं...। ऐसे भी कोई नाराज होता है क्या ?... अब कभी नाराज नहीं होना...’
‘नाराज’ शब्द अचानक से किसी चट्टान से टकरा गया, मछलियाँ ठहर गईं, समुद्र काठ-सा जम गया। बुदबुदाते होठों से लहू की धार फूट पड़ी, ‘लहू... ! कहाँ से आया ये लहू’ ?
घबरा गई रेशमा। उसने जल्दी-जल्दी शर्ट को उतार फेंका। सारे कपड़े तह करके रखने लगी और कपड़ों के साथ खुद को भी, ‘सचमुच कभी नहीं मारा... कभी नहीं डाँटा।... न प्यार समझ में आया और न ही नाराजगी ! सबसे छुपाना आसान है पर खुद से छुपना-छुपाना मुश्किल... सब कुछ होते हुए भी खाली क्यों हूँ ?... क्यों वह तपता सूरज बन जाता है और मैं धधकती रेत ? सूरज कभी भी खुद धरती पर आकर रेत को आग में नहीं झोंकता, उसे घने अंधेरे और अंधड़ में अकेला छोड़कर बिना कुछ कहे सिर्फ आँखें तरेर कर चला जाता है, जिसकी सुबह का कोई भरोसा नहीं। उस समय घर में कोई काँच नहीं टूटता सिर्फ उम्मीदें टूटती हैं, मैं टूटती हूँ... और उस टूटन के साथ यह प्रश्न और भी गहरा जाता है कि आखिर मेरी गलती क्या है ? एक ऐसा प्रश्न जिसका जवाब कभी नहीं मिलता सिवाय घने अंधेरे के अंधड़ में झकझोर दिए जाने के अलावा...। महिनों-महिनों तक उसकी खामोशी की सडाँध जीवन में इतना पसर जाती है कि रिश्तों की दुबारा शुरूआत मवाद में लिपटे फोड़े की तरह टभकता रहता है। वह फोड़ा ठीक नहीं हुआ कि दूसरा पुनः निकल आता है। घर या ऑफिस कहीं भी कोई भी परेशानी हो, वह घर आकर फोड़े को ऊँगली से दबा देता है और फिर से खामोशी का लिबास पहन कहीं दूर चला जाता है। मवाद फिर से फच-फचाकर जीवन में पसर जाता है और मैं देखती रह जाती हूँ। आश्चर्य की बात यह है कि यह मवाद सिर्फ मुझे दिखाई देता है किसी और को नहीं। इस मवाद से मेरा अस्तित्व चिपक गया है जिसे चाह कर भी मैं छुड़ा नहीं पा रही’।
इतने में फोन की घंटी बज गई और उसने चैंक कर फोन उठा लिया और भर्राये गले से बोल पड़ी, ‘हाँ माँ’
‘कैसी हो ? फोन क्यों नहीं उठा रही’ ?
‘ठीक हूँ माँ’ रेशमा अपने चेहरे की उजाड़ को देखते हुए आईने के सामने आ गई।
‘आवाज़ से ठीक नहीं लग रही हो’ ?
‘माँ...’
‘बोलो बेटा... कुछ कहना चाहती हो’ ?
‘क्या मैं कुछ दिनों के लिए आपके पास आकर रह सकती हूँ’ ? लम्बी खामोशी के बाद रेशमा ने कहा।
‘हाँ हाँ... क्या हुआ ? ... कुछ हुआ है क्या वहाँ ?... (खामोशी) किसी ने कुछ कहा तुझे.... (खामोशी)... सब ठीक है ना’ ?
‘नहीं... कुछ नहीं’... रेशमा ने फोन काट दिया। बिना जवाब दिए माँ भी अपने पास नहीं रख सकती।
रेशमा फिर से अपने ज़िन्दगी की उजाड़ को देखने लगी जिसे उसने मँहगे गहनों और कपड़ों से ढंक दिया था। यही नहीं उसने बनावटी बातों ‘सब ठीक है’ से भी ढंक रखा था। उसके गहनों के पीछे चमकती झुर्रियाँ अंधड़ में झकझोरे जाने की गवाह हैं। ज़िन्दगी की उजाड़ उसके लिपस्टिक की आड़ में पपडियाये होठों और बारिश के बाद सुन्न पड़ी आँखों में साफ दिखने लगें। पियराये नाखूनों की धार से अपने हथेली की चितकबरी रेखाओं को नोचने लगी। चारों तरह छायी खामोशी और अंदर उठे बवंडर से चीख कर उसने अपनी साड़ी का पल्लू गिरा दिया। बिल्कुल आईने की तरह साफ पारदर्शी दिखने लगी रेशमा। उसने अपने चेहरे, गले, पेट पर हाथ फेरा और सब कुछ साफ सुथरा पाया, ‘काश !...मैं भी ललिता की तरह भागकर मायके जा सकती...! जो सोच रही हूँ, समझ रही हूँ, जो सिर्फ मुझे दिख रहा है वो शब्दों में बयाँ कर सकती...! लेकिन मेरे शरीर पर कहीं कोई निशान...
***********************************************************************************
डायरी के पन्ने-
रेनू यादव अपनी नवजात बेटी के साथ
मैंने स्वयं को धारण किया...
फरवरी 2016 से अक्टूबर 2016 तक का सफ़र गिरते पड़ते लड़खड़ाते विभाग में पहुँचना अथवा छात्रावास में, अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करना और फिर घर पहुँचते ही बिस्तर पर अचेत पड़ जाना। बिस्तर पर पड़े-पड़े रात दिन सोचते रहना कि क्या ऐसी होती है ज़िन्दगी ? निराशा और उदासियों के बीच एक सुखद एहसास और आशा ... सृजन। सृजनात्मक क्षणों में चिंतन मनन होना स्वाभाविक तो है ही। सृजन यूँ ही तो नहीं होता ! भावों के कहीं गहरी गुफा में खो जाने के बाद ही तो प्रकाश दिखाई देता है, जहाँ दुःख और सुख दोनों साथ-साथ चलते हैं। बार-बार डॉक्टर बदलना, बार-बार पहले से अधिक बीमार पड़ते जाना... (ओह क्षमा के साथ - इसे बीमारी नहीं कहते...) पर न जाने क्यों बीमारी के सारे लक्षण एक साथ तन मन को कमजोर बनाते गए। शरीर से अधिक मन साथ छोड़ रहा था ... हो भी क्यों न.. ऐसी स्थिति में जब सारे सहृदयी साथ छोड़ जाए। कुछ ने हमें छोड़ दिया और कुछ को हमने। किंतु इसी बीच कुछ ऐसे दोस्त (रितुपर्णा, बिपाशा, प्रियंका) आयें जो मेरे सृजन को बचाने और निखारने में लगे रहें। हॉस्पीटल दर हॉस्पीटल मेरे साथ (आभार के साथ बिपाशा शुरू से आखिरी तक मेरे साथ खड़ी रही)। कार्यस्थल पर सभी सीनियर्स (एच.ओ.डी., डीन, चीफ वार्डेन) ने कार्य में राहत प्रदान की। सबने मेरा दर्द समझा। डॉक्टर ने कहा समय से पहले सृजन सम्पन्न होने की सम्भावना है इसलिए एहतियात बरतो। लगभग छः महिने शारीरिक मानसिक आर्थिक खींचा-तानी के बीच आगे बढ़ पाना कितना मुश्किल रहा। किंतु 7वें-8वें महिने प्रकृति ने राहत दे दी। शनैः शनैः सस्पर्श करता अस्तित्व मन को आह्लादित कर देता। सारी तकलीफों के बावजूद मन दुखी जरूर हुआ परंतु टूटा नहीं। किंतु किसी अनहोनी की आशंका से 8वें महिने के तीसरे सप्ताह में पुनः लगने लगा कि अब सफ़र तय करना सम्भव नहीं। अकेले तो बिल्कुल नहीं। किसी के साथ की कामना अथवा जरूरत एक गहरी निराशा को जन्म देता और निराशा 24 घंटे छलछलाता रहता। फिर भी एक हिम्मत रहती कि सृजन करके हम किसी के ऊपर एहसान तो नहीं कर रहे !! यह दिलासा ज्यादा समय तक काम नहीं आता और मन में एक सवाल जरूर दाग जाता कि क्या एक फौजी की पत्नी होना गुनाह है ? जिसे लौह-पुरूष की भाँति होना चाहिए, जिसके जीवन में संवेदनाओं की कोई जगह नहीं होनी चाहिए, जो अपनी संवेदना किसी के सामने व्यक्त नहीं कर सकती अथवा उसे व्यक्त करने इजाजत भी नहीं होती। कदाचित् फौजियों का दुश्मनों से लड़ना उसकी पत्नी से अधिक आसान है। परिवारजनों का कभी कभी आना जाना राहत जरूर देता किंतु मन को स्थिरता नहीं (छोटे भाई प्रदीप से इस क्षमा और आभार के साथ कि सिर्फ वही था जो समय समय पर उपस्थित हो जाता और एक माँ की तरह खयाल रखता)।
आखिरकार हिम्मत जवाब दे गई.. अब और नहीं ...। समय भारी या तकलीफ... और अचानक से हॉस्पीटल...।
8 महिने पूरे भी नहीं हुए कि नवरात्री के तीसरे दिन 3 अक्टूबर को आत्र्तनाद के साथ अंतर्नाद झंकृत हो उठा। सृजन का आखिरी हिस्सा पूरा करना असम्भव हो गया और असम्भव में सम्भावनाओं के बीच मैंने स्वयं को धारण किया। मूर्तवत् रूप में प्रस्तुत हुई - ‘स्वधा’।
कल स्वधा 2 महिने की हो गई। कितना अनोखा अनुभव है अपनी साँसों से दूसरे साँसों को, अपनी धड़कनों से दूसरे धड़कनों को, अपने अस्तित्व से किसी और अस्तित्व को और अभिन्न से भिन्न को जन्म देना। जब भी सामने देखती हूँ यकीन नहीं होता कि यह मेरे यज्ञ का फल है जिसे मैं वेद की ऋचाओं के साथ नित-प्रति प्रतिफलित होते हुए देख रही हूँ। किंतु हर सुखद एहसास के साथ ‘बेबी-ब्लू’ का समय अभी समाप्त नहीं हुआ । शायद उससे ज्यादा एक माँ को इमोशनल सपोर्ट की जरूरत है। अकेले जीना और सबसे कट जाना तथा अपने आपको सुरक्षित रखते हुए ज़िन्दगी को एक नया मोड़ देने में एक औरत पीछे छूट गई और बची है तो सिर्फ एक माँ। दिन प्रतिदिन मातृत्व का एहसास निखर रहा है। ज़िन्दगी में साहित्य के अतिरिक्त कभी किसी का (माता-पिता, पति, दोस्त) सम्पूर्ण साथ नहीं मिला परंतु यह सृजन कुछ वर्षों तक साथ (जब तक दुनियादारी की समझ न आ जाए) जरूर रहेगी परंतु मातृत्व का एहसास हमेशा साथ रहेगी वह भी सम्पूर्णता के साथ...। -डायरी के पन्नों से, दिनांक 04.12.2016
***********************************************************************************
संस्मरणात्मक रेखाचित्र
रेनू यादव लेखिका अनामिका जी के साथ
एक शोध छात्रा की सुप्रसिद्ध साहित्यकार से पहली मुलाकात
18 सितम्बर, 2009 को हमें भारत की एक सुप्रसिद्ध स्त्री-विमर्शकार, साहित्यकार से मिलने जाना था, उस समय हम सुप्रसिद्ध साहित्यकार और ‘युद्धरत् आम आदमी’ की संपादक आदरणीय रमणिका जी के घर डिफेन्स कॉलोनी में ठहरे हुए थे। वैसे तो सुप्रसिद्ध साहित्यकार से पहले ही एकाध बार फोन पर बात हो चुकी थी लेकिन उस दिन सामने से बात होनी थी। उनकी कुछेक पुरानी आउट ऑफ प्रिंट रचनाओं को छोड़कर लगभग सारी रचनाएँ मैं पढ़ चुकी थी, यह वह समय था जब मैं लिखने से पहले साहित्यकार को जानना चाहती थी, बारीकी से रचनाएँ पढ़ना चाहती थी। आखिर पढ़े बिना कलम उठती भी कैसे ?
उस दौरान मेरे लिए साहित्यकार आदर्श और भगवान के पर्याय होते थे। हर दूर-दराज खड़े पाठक की भाँति यूटोपियाई संसार में हम प्रवेश कर रहे थे। जहाँ मेरे लिए दिल्ली और दिल्ली में बसे लेखक कोई सामान्य इंसान नहीं थे।
किदवई नगर (पूर्व) में स्थित उनके घर के दरवाजे पर पहुँचते ही नेम प्लेट देखा- ‘डॉ. बिन्दु अमिताभ’। लेकिन बताए गए हाऊस नम्बर से अंदाजा हो गया कि हम सही जगह पहुँचे हैं। घर के सामने हरी घास और फूलों की क्यारियों पर हरियाली जवानी पर थी पर फूलों का मौसम न था। अधेड़ कालोनी के क्वार्टरस् की सफेद रंग में नील डालकर की गई पुताई के बीच से कहीं कहीं मुँह उचकाकर झाँकती ईंट मुझे खूबसूरत लग रही थीं क्योंकि उस घर में मेरी वो साहित्यकार थीं जिनसे मिलने की मुझे वर्षों से चाहत थी। मन में बहुत सारी जिज्ञासाएँ और पूर्वाग्रही अवधारणाएँ थीं कि एक स्त्री-विमर्श की सशक्त लेखिका का चेहरा नदी के थपेड़ों से सख्त पठार होगा, देवदारू की तरह सर गर्व से ऊँचा होगा, घर में लोग उनके विमर्शकारी दबदबे का लोहा मानते होंगे, उनकी मुस्कान तो कोसों दूर होंगी यदि होंगी भी तो उन्हीं के शब्दों में “हँसी नए जमाने का घुँघट है”।
मैंने डोरबेल बजाने के लिए हाथ बढ़ाया तभी किसी ने अंदर से दरवाज़ा खोला। दरवाज़ा खुलने के आहट के साथ ही मुझे उन्हीं की पंक्ति याद आयी, “मैं एक दरवाज़ा थी, मुझे जितना...”
दरवाज़ा खुलते ही सबसे पहले मुझे जिस बात ने आकर्षित किया वह थी उनकी दुधिया चमकीले दाँतों के किनारों पर दूर तक पसरी हुई मनमोहक गुलाबी मुस्कान। उन दिनों तक मुस्कराना मैंने ठीक से सीखा नहीं था इसलिए चेहरे पर ठहराव साफ देखा जा सकता था, घबराहट भी। इस बात को भूल कर कि मेरे साथ मेरे पति कमलेश भी हैं, मेरी नज़र सिर्फ उन पर थी। काले बार्डर की गोल्डेन साड़ी में अस्त-व्यस्त लिपटी हुई, माथे पर बड़ी गोल लाल बिन्दी, बाल जैसे चोटी का जूड़ा बनाकर अँझूरा लिया गया हो, गोरे मुख पर टुड्ढ़ी के बगल में एक काले रंग का मस्सा, रतजगे से अलसाई आँखें और हवा में मिसरी घोलते बोल के साथ ऐसे हहा कर मिलीं जैसे कितने वर्षों से उन्हें हमारा ही इंतज़ार हो !
ऐसे तो हहा कर मेरी माँ, मेरी सखियाँ भी मुझसे नहीं मिलतीं। पठार तो कहीं दूर-दूर तक नहीं दिखा, वे स्वयं नदी प्रतीत हो रही थीं। वे तो लता बनकर पूरी प्रकृत्ति को अपने में समेट लेने वाली दिखीं, जिनके सामने देवदारू भी नतमस्तक हो जाये। उनकी ममता की छावों तले दर्प भी पिघलकर पानी हो जाए। वे अपनी कोमल हाथों में मेरा हाथ पकड़ कर सोफे पर बैठा देती हैं और मैं अपने हाथों में सिंहरन महसूस करती हूँ कि इतनी बड़ी साहित्यकार ने मेरा हाथ पकड़ा ! कमल दूर चुपचाप खड़े थे, उनके कहने पर वे आकर मेरे बगल वाले गोल्डेन भूरी बूंदी वाले काले सोफे पर बैठ जाते हैं और अब टेबल की दूसरी ओर वे महान साहित्यकार। जिनके कुछ कहने का हमें इंतज़ार होता है, “बहुत परेशानी तो नहीं हुई घर ढ़ूँढ़ने में” ?
कहते ही वे हवा की तरह लहरा कर डायनिंग हॉल से अंदर चली जातीं हैं और मैं और कमल एक-दूसरे का मुँह देखते हैं। हम दोनों ही ऐसे माहौल से कोसों दूर, संकोची स्वभाव वाले। समझ नहीं आ रहा था कि आगे किस तरह से बातों की शुरूआत करेंगे ?
हमें वह डायनिंग हॉल ड्राइंग हॉल लग रहा था, छोटी-छोटी पेंटिंग्स के बीच एक-दो बड़ी पेंटिंग, नीले पर्दे के सामने बड़ा-सा एक पैर पर खड़ा बिना हाथ और पीठ का लाल चेयर, लकड़ी के शो-रैक में बहुत सारी सजावटों, पुरस्कारों, मोमेण्टो के बीच हम दोनों मन ही मन ऐसे सिकुड़ कर बैठे थे कि छूने से छुई-मुई हो जाते। हालांकि हम रमणिका जी के घर पर ठहरे हुए थे और वहाँ भी भव्यता कम न थी। हैदराबाद में मौलाना आज़ाद नेशनल ऊर्दू यूनिवर्सिटी की खूबसूरती से हम परिचित हो चुके थे। लेकिन मिट्टी और बिना पलस्तर के घर और संस्कारों से वहाँ जाकर अपने भुरभरा जाने का डर सताता रहता था। साथ ही अपनी अकबकाहट वाले स्वभाव (बिना लाग-लपेट के, बिन सोचे-समझे कुछ भी बोल देना आदि) से मैं मुँह में ज़बान दाबकर बैठी थी कि कहीं कुछ गलती से भी कोई शब्द गलत न उच्चरित हो जाए। शायद अब वे किचन में थीं इसलिए हम दोनों एक दूसरे को देख कर कुछ ढाँढस बंधा रहे थे और खुश भी हो रहे थे कि आखिरकार आज मिलना हो ही गया।
वे शीशे की दो ग्लास में पानी लेकर लहराते आँचल के साथ सामने आयीं और टेबल पर रखते हुए सामने वाले सोफे पर बैठ जाती हैं। हमने अब तक अपने गाँव या शहर में जितना भी देखा था, ऐसी कोई महिला नहीं देखी थी जिनके माथे पर इतना तेज हो। हम दोनों मंत्रमुग्ध हो कर उन्हें देख रहे थे। उनके बोल में मिसरी घुली थी। यह तो पढ़ा था कि उन्होंने कत्थक सीख रखी हैं लेकिन उनके हर बोल की लय और ताल नूपूरों की रून-झुन के साथ कानों में मधुर-मधुर बज रहे थे।
कमल एकदम शांत बैठे थे और मैं साक्षात्कार के लिए अपना वाइस रिकॉर्डर ऑन करके बैठी थी, प्रश्नों की लिस्ट मेरे हाथ में थी और वे फिर से उठकर अंदर चली जाती हैं। किचन से बर्तनों की खड़खड़ाहट के आवाज़ों की बीच हम दोनों आपस में फुसफुसा कर बतिया रहे थे कि गिफ्ट अभी दूँ या जाते समय ? मैंने अपने शोध के लिए चयनित सभी छः कवयित्रियों के लिए हैदराबादी चूड़ियाँ खरीद रखी थी, जो हमें देना था। इतने में वे ट्रे में रखकर दो प्लेट इडली-चटनी के साथ वापस आती हैं, “ये खाओ, मैं प्रश्नों के उत्तर लिख देती हूँ”।
इतनी बड़ी लेखिका के सामने हम इडली और चटनी मुश्किल से घोंट रहे थे, हालांकि बहुत स्वाद था, दोपहर के समय भूख भी बहुत थी। वे तन्मयता से उत्तर लिख रही थीं और शायद माहौल को हल्का करने के लिए बीच बीच में बात भी कर रही थीं, “सवाल कितने अच्छे हैं”... “बहुत समझदार हो”... “बहुत पढ़ कर प्रश्न तैयार की हो”।
आज जब मैं उन सवालों को पढ़ती हूँ तो बिल्कुल साधारण-से सवाल लगते हैं, लेकिन उस समय उनके मुँह से निकला हर वाक्य मेरा हौसला बढ़ा रहे थे। मुझे याद आ रही थीं ‘मन कृष्ण, मन अर्जुन’ की शिखा और वसुधा। उनकी उम्र और मेरे उम्र में बहुत फासला होने के बाद भी उनकी बातों में कितना सखीपन है ! कितना अपनापन ! मैं उनकी सखी मासूमा रजा के विषय में जानना चाहती थी, जो मेरे लिखे प्रश्नों से अलग प्रश्न था। ‘दस द्वारे का पींजरा’ उपन्यास के प्रारंभ में मासूमा रजा को आधार बनाकर लिखी गई कविता ने मुझे दो दिन तक खामोश कर रखा था। “क्यों होना चाहिए कुछ भी किसी का, उसकी मर्जी के खिलाफ ?” मेरा आहत मन मासूमा की मासूमियत को जानना चाहता था। मेरा मन यह भी जानना चाहता था कि मासूमा या किसी को भी इतनी गहराई तक समझने के लिए संवेदना आती कहाँ से है ? पर उस समय मैं भूल गई थी कि “नदी का पहला पाप है विह्वलता”...
विह्वल नदी के लिए क्या गहराई और क्या खाई... उसे तो सिर्फ गहरे उतरना आता है। वह जितना गहराई तक उतरती है उतनी ही कल-कल छल-छल हँसती है। आखिर ज्ञात से अज्ञात, भेद से अभेद, अंत से अनंत, मनुष्य से बुद्ध बनने और पहुँचने तक की यात्रा के बीच हर गहराई को नापने का आनंद ऐसा ही तो होता है।
वे मेरे लिखे प्रश्न स्वयं भी पढ़ सकती थीं लेकिन हर प्रश्न का उत्तर लिखने के बाद मुझसे दूसरा प्रश्न पूछतीं, उसी बहाने मैं उनसे बोल पाती। प्रश्नों के उत्तर पूरा होने पर उन्होंने बहुत से मटेरियल और पुस्तकें मुझे फोटो कॉपी कराने के लिए दीं। मेरे शोध के लिए अनमोल खजाना मुझे मिल रहा था जिसके सहारे मैं अपने शोध में कुछ और गहराई में उतर सकती थी। उन्होंने हम लोगों के विषय में पूछा पर हमारे पास अपने विषय में बताने के लिए ज्यादा कुछ नहीं था। उस समय मुझे नहीं पता था कि आगे चल कर मैं कभी इतनी बड़ी साहित्यकार से घुल मिल पाऊँगी या नहीं, पर उनकी अपनाईत अपनी ओर खींच रही थी। सच तो यही है कि आगे चलकर ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ से उन्होंने मुझे अपने में बुन ही लिया।
उस दिन मैंने मिथकीय पात्रों सीता, सति, सावित्री, द्रोपदी को और भी गहराई से जाना। ‘गूंगे की खांड’ का स्वाद लिए मैं जिज्ञासा से भर रही थी कि इतनी मिठास के लिए इन्हें कितनी तपस्या करनी पड़ी होगी, एक साधक की भाँति वे खुद को कितनी देर तक साधती होंगीं ! जिसमें उनके पिता श्यामनंदन किशोर जी द्वारा दी गई सीख ‘यात्रा और अंतर्यात्रा’ दोनों समानांतर रूप से झलक रहा था। माथे का पूँज-प्रकाश मन में वैराग्य उत्पन्न कर रहा था। हम शांत बैठे अपलक देखे जा रहे थे।
आने से पहले मैं अपने साथ ले आयी हैदराबादी चूड़ियाँ उन्हें दी और उन्होंने तुरन्त उन चूड़ियों को पहन लिया। मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। मैं सातवें आसमान पर थी। उसी आसमान पर बैठकर कुछ सहमते हुए कुछ खुलते हुए मैंने उनके साथ फोटो खिंचवाया। जिस तरह से उन्हें पढ़ते समय उनकी भाषा-प्रवाह में मैं प्रवाहित होने लगती हूँ वैसे ही उनके संसर्ग में सहजता से प्रवाहित हो रही थी। वे सचमुच अपने नाम की ही भाँति बिल्कुल अलग महसूस हो रही थीं- ‘अनामिका’।
विदा लेते समय हम दरवाजे से बाहर निकलें और मेरी नजरें फिर से नेमप्लेट की ओर गईं, जिस पर लिखा था - डॉ. बिन्दु अमिताभ।
***********************************************************************************
शैक्षणिक संस्थाएँ जिसके साथ डाॅ. रेनू यादव संबंधित रहीं
***********************************************************************************
रेनू यादव की रचनाओं पर आलेख
श्रीमती अदिति मजूमदार
नारी के जीवन के उतार-चढ़ाव का बखूबी से वर्णन
रेनू यादव की कविता-संग्रह ‘मैं मुक्त हूँ’ नारी वेदना और संवेदनाओं की ओढ़नी ओढ़े, स्त्री भी इंसान है कि भावनाओं को बिखेरता, आधुनिक नारी को आधुनिक सोच के साथ सामाजिक विद्रूपताओं एवं विसंगतियों पर करारी चोट करता एक सशक्त काव्य-संग्रह है। युवा लेखिका का आक्रोश बिम्बों के माध्यम से फूटता है। बिम्ब भी रोजमर्रा की ज़िन्दगी को समेटे हुए।
आज भी नारी को दुत्कारा जाता है, अपमानित किया जाता है। जहाँ अजन्मी बेटी को मारा जाता है; उस देश में देवी का पूजन बेमानी लगता है।
कविता ‘पहचान’ दिल को छू गई... आदिकाल से ही नारी को तुच्छ वस्तु के रूप में देखा गया है। दुष्यंत शकुन्तला को पहचानते नहीं जब तक अँगूठी नहीं देखते और आज भी नारी के पास अपनी पहचान नहीं। इतिहास बदला नहीं। नारी होने की विडम्बना सामने उभर कर आती है, उनकी कविता ‘सरोगेट मदर’ में। माँ की वेदना का प्रस्तुतीकरण अतुलनीय है... न मैं देवकी बन सकी न ही यशोदा... ये पंक्तियाँ हृदय के भीतर अपनी राह बनाती है।
उस देश में नारी स्वतंत्रता की बातें अर्थहीन हैं, जहाँ सड़क पर कई गिद्ध उस पर दृष्टि जमाए हुए हैं और मौका मिलते ही उसे नोच खाते हैं, जहाँ राजनेता कहते हैं कि जब मर्यादा का उल्लंघन होता है तो सीताहरण होता है ... सीता भी बच नहीं पाई समाज के शत्रुओं से तब आम नारी का जीवन क्या होगा... इस पीड़ा की अभिव्यक्ति है, दर्द को उड़ेला है रेनू जी ने अपनी कविताओं में। वह दर्द पाठक का दर्द बनता है सोचने पर मजबूर करता है...
संग्रह को दो भागों में बाँटा गया है... प्रथम भाग में ‘अस्तित्व’, ‘बदनाम औरत’, ‘हर आदमी’, ‘अर्धांगिनी’, ‘मनुष्य और पशु’, ‘तुम और मैं’ जैसी कई सशक्त कविताएँ हैं, दूसरे भाग में चुप मत रहो गार्गी 1 एवं 2 प्रभावशाली कविताएँ है। एक में नारी के जीवन के उतार चढ़ाव का बखूबी से वर्णन किया है। रेनू जी ने समाज के हर स्तर/हर वर्ग की नारी के बारे में लिखा है। स्त्री-विमर्श का यह एक उम्दा काव्य-संग्रह है। यह पढ़ने में बेहद रोचक लगा।
रेनू जी ने अपनी सुन्दर सरल भाषा का अत्यंत प्रभावशाली ढंग से प्रयोग किया है। इन कविताओं को पढ़ कर नारी मन न केवल अपने आप को इन कविताओं में पाता है बल्कि लगता है कि कोई उनकी आवाज़ बन बैठा लिख रहा है। ‘घूरे का दीया’, ‘अर्धांगिनी’ शीर्षक कविता ‘मैं मुक्त हूँ’, ‘बदनाम औरत’, ‘विक्षिप्त’ आदि कविताएँ मन को झकझोर देती हैं। पौराणिक महिलाओं को शब्दों की ध्वनि प्रदान कर आधुनिक नारी को सशक्त बनाने की कोशिश में पीछे नहीं हटी हैं रेनू जी।
मानव रिश्तों में बदलाव आने की वजह से आज कोई अपने आप से जुड़ा हुआ नहीं पाता है। रेनू जी की कविताओं में आज और कल का समन्वय दिखता है जो कि अत्यंक प्रशंसनीय है। ‘दो सहेलियाँ’, ‘हर आदमी’, ‘पहचान’ और ‘प्रेम विवाह’ आदि उदाहरण योग्य है। रेनू जी की कविताओं में नारी जागरण के बिगुल की ध्वनि सुनाई पड़ती है। संपादक मनु भारद्वाज जी ने भी इन कविताओं को समाज का स्पष्ट आईना बताया है.. मॉरिसविल्ले, यू.एस.ए.
***********************************************************************************
मूर्तियाँ
लगातार गढ़ी जाती हैं
मूर्तियाँ
सुघड़ सुन्दर
सुनहरेपन की चाह में
सुनहरापन देख
रेंग जाते हैं उन पर
गिरगिट
और बदल जाती हैं
मूर्तियों के रंग
***********************************************************************************
रेनू यादव की रचनाओं पर आलेख
अतुल मल्लिक ‘अनजान’
आंदोलित करती कविताएँ: मैं मुक्त हूँ.....
राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित रचनाकार डॉ. रेनू यादव कृत काव्य-संग्रह “मैं मुक्त हूँ” को पढ़ा। माण्डवी प्रकाशन, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश से मार्च 2013 में प्रकाशित यह काव्य-संग्रह एक अनुपम काव्य-संग्रह है, जिससे गुजरना मुझ जैसे पाठक को बहुत अच्छा लगा। 128 पृष्ठीय इस पुस्तक को कवयित्री ने दो भागों में विभक्त किया है। प्रथम भाग में 36 कविताएँ संकलित की गई हैं एवं द्वितीय भाग में 13 कविताएँ संग्रहित हैं।
समीक्ष्य कृति में एक कविता है- ‘बेमतलब’ शीर्षक से। जिसमें कवयित्री ने ‘बेमतलब’ शब्द का प्रयोग नारी के लिए किया है, चूँकि नारियाँ घर में सभी के मतलबों को पूरा करते-करते अपने मन का नहीं कर पातीं। कवयित्री लिखती हैं-
“होता है कोई न
कोई खास मतलब
मतलब पूरा करते-करते
ये स्वयं
प्रायः रह जाती हैं
बेमतलब”।
‘जूते’ शीर्षक कविता एक उच्चस्तरीय कविता है, जब पति अपनी पत्नी से कहता है- “तुम मेरे पैरों की जूती बराबर भी नहीं हो” तो पत्नी सोचती है-
“क्या सचमुच मैं जूती के बराबर भी नहीं हूँ ?
पति-परमेश्वर मान
जब भी
पोंछती हूँ अपने आँचल से जूते
कभी नहीं ख्याल आया
कि मैं भी इन जूतों की तरह हूँ
या इनसे कुछ कम” ?
फिर आगे यह भी देंखे-
“क्या जूते पावों की शोभा नहीं होते ?
क्या जूतों से मनुष्य की औकात नहीं नापी जाती ?
क्या जूते मनुष्य की ईज्ज़त का हिस्सा नहीं होते ?
अगर नहीं ...
तो कभी जाओ बिना जूता पहने
या फटा जूता पहन कर
सड़क पर, ऑफिस में, बाज़ार,
रिश्तेदारों या मित्रों के घर,
या फिर कोई उत्सव-त्योहार मनाने”...
कवयित्री अत्यंत संवेदनशील हैं और उनका बिम्ब प्रचलित बिम्बों से अलग हटकर है। निश्चित रूप से यह सृजन एक उच्चस्तरीय सृजन है, जो पाठकों को प्रभावित करती है। ‘स्वभाव’ शीर्षक कविता में कवयित्री ने औरत मर्द के स्वभाव को बहुत ही सूक्ष्मता के साथ चित्रित किया है, जिसमें औरत-मर्द के तमाम आग्रहों को सूचीबद्ध किया गया है, जो विचारणीय व पठनीय है और अंत में कवयित्री कहती हैं...
“मर्द समय होता है
औरत युग होती है”
उपरोक्त इसी एक पंक्ति में कितना कुछ समाया हुआ है, जो औरत-मर्द के स्वभाव को परिभाषित करती है। ‘व्यथा’ शीर्षक कविता की अंतिम पंक्ति देखें-
“जी ऐसा जल गया सखी अब
घाव न भर पाए,
मंगलसूत्र से अच्छा फंदा
पर्दे से अच्छी कालकोठरी
ब्याह से अच्छा आजीवन
कारावास चुन लेती,
सखी,
काश ! मैं व्यथा की कथा सुना पाती”।
यह कविता अंतर्मन को झकझोरती है, आखिर नारी के लिए ‘मंगलसूत्र’ सबसे सर्वोत्तम गहना है, किस परिस्थिति में कोई नारी अपने मंगलसूत्र को फंदा समझती है, यह स्थापना सबसे ज्यादा मन को विचलित करती है। ग्रामीण परिवेश में रहने के कारण वैवाहिक जीवन में उपजे तनाव को निकट से देखा और महसूस किया है लेकिन मंगलसूत्र को फंदा कहने की बात ? आप तमाम पाठकों पर छोड़ता हूँ। मगर मंगलसूत्र को नारी फंदा नहीं कह सकती, यह हमारी संस्कृति का सार है। ‘हर आदमी’ शीर्षक कविता बहुत छोटी कविता है, देखें पूरी कविता-
“हर आदमी
औरत के सामने
नंगा होना चाहता है
पर सज्जनता का
जामा पहन
ईज्जदार बन जाता है”।
यह बहुत ही कड़वा सच है, कवयित्री ने बड़े ही पारदर्शिता के साथ इस कविता का सृजन किया है। ‘
अर्धांगिनी’ शीर्षक की कविता देखिए-
“मैं अर्धांगिनी हूँ
आधा अंग
यानि प्रेम भी आधा
लेकिन ......
तुम मेरे सम्पूर्ण हो
और सम्पूर्णता में ही प्रेम है”।
यह कविता न्यायसंगत नहीं लगी ‘प्रेम’ कभी आधा-अधूरा होता ही नहीं है, प्रेम तो प्रेम है, प्रेम अपने आप में सम्पूर्ण है, जिसके वश में सृष्टि है। कवयित्री जब कविता की अंतिम पंक्ति में खुद कहती हैं- “सम्पूर्णता में ही प्रेम है”। लेकिन प्रेम ही सम्पूर्णता है। ‘प्याज’ शीर्षक कविता एक स्तरीय कविता है, इस कविता के माध्यम से कवयित्री ने प्याज और औरत के बीच समानता को परिभाषित करने का सराहनीय प्रयास किया है, जैसे किसी भी सब्जी, भूजिया, तड़का आदि में प्याज को मिला दो तो वह उसी में ढ़ल जाती है, ठीक इसी प्रकार औरत का जिस परिवार से नाता जुड़ जाता है वह उसी के अनुसार ढ़लकर रिश्ता निभाती है। ‘विष’ शीर्षक कविता ‘कविता’ है ही नहीं, यह संवाद है, कवयित्री ने विषय अच्छा चुना लेकिन काव्यात्मक रूप में सामने नहीं ला सकीं, एक सवाल मेरे मन में आया क्या गद्यात्मक संवाद को भी कविता कहेंगे ? प्रतिनिधि कविताएँ ‘मैं मुक्त हूँ’ एक पठनीय कविता है, जिसकी अंतिम पंक्ति है-
“वो वक्त बीत चुका
जब तुम
मुझे पढ़ने के बाद
रद्दी की टोकरी में फेंक देते थे
अब तुम पढ़ ही नहीं सकते
तो फेंकोगे कहाँ से”
यह कविता समसामयिक है, आज पाठक वर्ग का अभाव है। लोग पढ़ते नहीं, अधिकांशतः वही पढ़ते हैं जो लेखन-कर्म से जुड़े होते हैं। यह विडंबना हमारे साहित्य-समाज को एक चुनौती दे रहा है, हमारे लिए पाठक वर्ग तैयार करना सबसे बड़ी चुनौती है।
संग्रह के ‘द्वितीय भाग’ में शामिल सभी कविताएँ लंबी कविताएँ हैं, जिनका मर्म बहुत ही व्यापक है, जो मर्मस्थल को बेंधती है। एक-एक कविताएँ चीख-चीख कर हमारे मानस-पटल से संवाद करती हैं और कहती हैं कि क्या मैं सिर्फ कवयित्री के द्वारा बस लिख दी गई हूँ ? क्या मेरा अस्तित्व यहीं तक था ? पाठकों बोलो क्या मैं अस्तित्व विहिन हो गई हूँ ? इसी भाग में शामिल ‘मनु ने कहा... और हम” शीर्षक कविता झकझोकरती है और प्रश्नों का बौछार करती है और हम निरूत्तर हो जाते हैं। ‘प्रेम विवाह’ शीर्षक कविता सामाजिक रूढ़िवादिता पर गहरा प्रहार करती है।
डॉ. रेनू यादव कृत काव्य-संग्रह ‘मैं मुक्त हूँ’ कभी संवेदित तो कभी आंदोलित भी करती है। कहीं-कहीं कविताओं में कच्चापन भी अखरता है तो कहीं कहीं कविताएँ एकदम सरपट-सपाट नज़र आती हैं। पुस्तक में मुद्रण दोष भी पाठकों को पढ़ने में बाधा उत्पन्न करती हैं। अगर इस पुस्तक का पुनः प्रकाशन हो तो मुद्रण संबंधी चूक को
सुधारना अति आवश्यक है। डॉ. रेनू यादव स्त्री-विमर्श की एक हस्ताक्षर बन कर उभर रही हैं, इनके यशस्विनी होने की कामना करता हूँ और पाठकों से अपील करता हूं कि आप भी इस काव्य-संग्रह को पढें-पढ़ावें।
संपादक - सृजनोन्मुख पत्रिका, पूर्णिया, बिहार
***********************************************************************************
रेनू यादव की रचनाओं पर आलेख
श्रीमती प्रगति गुप्ता
जुझारू स्त्रियाँ हारती नहीं...
जब हम अपने आसपास की स्त्रियों को देखते है तब प्रथम दृश्य लगता है स्त्रियाँ बहुत आगे बढ़ गई हैं और उन्होंने हमारे विकसित समाज में एक विशेष जगह बना ली है। परंतु जब हम अपनी दृष्टि को थोड़ा और विस्तार देकर स्थितियों के गहरे उतरते हैं; परत दर परत सच्चाई खुलती है।
सतही सच्चाई के विपरीत कुछ पीड़ाएँ और व्यथाएँ अनकही होती हैं; जिनको गहरा पारखी मन ही उतर पाता है। ऐसा करना उसे बैचैन करता है क्योंकि इन अनकही व्यथाओं के न खत्म होने की वजह कुछ हद तक स्वयं स्त्रियाँ ही हैं, जो भुगतने के बाद भी अपनी कुंठाओं पर विजय नहीं प्राप्त कर पाती। किसी भोग्या के साथ खड़ी नहीं हो पातीं और इसका फ़ायदा पुरुष उठाता है।
रेनू यादव अपने कहानी संग्रह ‘‘काला सोना‘‘ में ऐसी स्त्रियों की कहानियाँ गढ़ती हैं, जिनकी पीड़ायें किसी दूसरे को मरहम लगाने से नहीं घटतीं बल्कि उनके खुद विद्रोह करने पर शांत होती हैं। रेनू के स्त्री पात्र कुछ हद तक पीड़ा सहती हैं; फिर अपनी सोची-समझी हुई दिशा की ओर विरोध कर बढ़ जाती हैं।
मनुष्य की प्रवृत्ति स्वार्थ से जुड़ा है। नशा किसी भी चीज का हो, व्यक्ति विशेष उसकी पूर्ति के लिये सभी सीमाओं को तोड़ देता है। ऐसे में व्यक्ति शरीर से ऊपर नहीं उठ पाता। शरीर से जुड़ी भूख कैसी भी हो वह व्यक्ति के विवेक को जाग्रत ही नहीं होने देती। विभिन्न भूख की पूर्ति में हर संबंध अपनी गरिमा खो देता है। यह सच है कि भूख अपराध को जन्म देती है।
बाछड़ समुदाय में वेश्यावृत्ति को बुरा नहीं माना जाता। माँ-बाप के लिए बेटियाँ काला सोना यानी अफीम के जैसी मूल्यवान होती है क्योंकि वहाँ बेटियाँ वैश्यावृत्ति कर कमाई करती हैं। बचपन में माँ-बाप के प्रेम में बंधी नायिका उनके मन का सा ही करती है। जब वे उसकी खामोशी पर भी अपना अधिकार जमा कर उसके दोहन की प्रक्रिया को बढ़ा देते हैं, वह अनुकूल समय मिलते ही विद्रोह कर पलायन कर जाती है। कहानी की नन्ही मासूम पात्र कहती है...‘‘दीदी और चाची लोग बड़ी लालची थीं... बस हँस कर मेरी बात टाल देतीं, यह गुब्बारा फूलाने के लिए नहीं है, फूलने से बचाने के लिए है।‘‘
किन्हीं भी आरोपित परिस्थितियों का विद्रोह करने के लिए मन से सुदृढ़ होना अत्यंत आवश्यक है। ऐसे में नायिका चुप नहीं बैठती लावा उगलती है - ‘‘अम्मा ने लाल रंग का लहँगा पहना कर मुझे रच-रच कर सजाया। ऐसा लग रहा था जैसे मैं नवरात्रि के दिन कन्यापूजन के लिए जा रही हूँ या विवाह के लिए लाल जोड़े में सजी एक दुल्हन या बलि से पहले पूजी जाने वाली कोई पशु।‘‘
‘काला सोना’ कहानी की दोनों मुख्य स्त्री पात्रों को चिकन से नफरत है। इसके पीछे छिपा हुआ मनोभाव उनके अतीत की उस पीड़ा और वेदना का प्रकटीकरण है, जिसे दोनों स्त्रियों ने भोगा है।
‘अमरपाली’ ठाकुरों के व्याभिचार से जुड़ी कथा है। खेतों में काम करने वाली न सिर्फ मजदूरनें उनके अनाचार से पीड़ित हैं बल्कि उनकी पत्नियाँ भी रखैलों की उपस्थिति से चोटिल हैं। वे अपने घर के ठाकुरों के अपराधों को ढकती भी है और प्रताड़ित भी होती है। इस कहानी में मजबूरी का प्रतिरूप रखैल पात्र सशक्त किरदार के रूप में उभर कर आता है - ‘‘पाप की गठरी जनि कहो ठकुराइन.. इ हमार लइके हैं..खाली हमार।‘‘
‘टोनहिन’ विधवा औरत की पीड़ाओं, यंत्रणाओं, और प्रताड़नाओं का सजीव चित्रण है, जिसे गाँव का हर मर्द इस्तेमाल करना चाहता है और हर स्त्री अपनी कुंठा उतारने का माध्यम बनाना चाहती है।
‘खुखड़ी’ कहानी एक ऐसी स्त्री की व्यथा है, जिसके माँ-बाप सुसराल वालों को उसके गौने पर गगरी भर सोने-चाँदी की मोहरे देते हैं मगर सुसराली आजीवन उसके हाथ पर एक रुपया भी नहीं रखते। वह सारी उम्र उस परिवार में अपने अस्तित्व को खोजती रह जाती है। अच्छा खाना,पीना और पहनना क्या होता है; वह कभी महसूस नहीं कर पाती। कहानी का नायक उससे तीसरा विवाह करता है। वह स्त्री कहती है- ‘‘हमारे पाँच लइके हो गये लेकिन मलिकार कभी हमसे न परेम से बोले न बतियाये...‘‘ / ‘‘साठ-पैंसठ की उम्र हो गई जिनगी छुछ्छ बीत गई।‘‘
यह कहानी जैसे-जैसे परत दर परत खुलती है पाठक को अपने साथ-साथ नायिका की पीड़ा से बांध लेती है। पाँच बेटों की माँ, पाँच बहुओं और दर्जन भर पोते-पोती, नाती-नातिन को कुछ नहीं दे पाती उनके ताने सुनकर भी चुप रह जाती है क्योंकि उसके पास उन्हें खुश रखने के लिये देने को रुपया नहीं। उसके पास पीहर से मिली एकमात्र जागीर भैंस है। मरने से पहले जब वह उसे बेचने की इच्छा जाहिर करती है; सब मजाक उड़ाते है। घर के सभी पुरुषों और स्त्रियों में कानाफूसी शुरू हो जाती है कि वह भैंस बेचना क्यों चाहती है?
भैंस बेचकर जब रुपया मिलता है; वह सबसे पहले उस रुपए को अपने हाथ में लेने को कहती है। जैसे ही रुपया उसके हाथ में रखा जाता है; वह फूट-फूटकर रो पड़ती है; उसकी पीड़ा को वहाँ समझने वाला कोई नहीं होता। वह कहती है - ‘‘हमारे पास आँसू, सबर और दरद था, हम यही तुम सबको दे पाये।..भइस हमारे मायके से आई थी, वही हमारी पूंजी थी।...हमारे जीवन की पूंजी हमारे मरने के बाद घर की सभी औरतों और लइकनियों में बराबर-बराबर बाँट देना।‘‘
इस कहानी में स्त्री-संघर्ष बहुत मार्मिक रूप से उतारा गया है। स्त्री जीवन की यही सच्चाई है कि जिस स्त्री के साथ पुरुष उम्र भर असंख्य खेल खेलता है, उसे पाई-पाई के लिए भिखारन बना देता है। यह कहानी एक स्त्री के स्वाभिमान की चरम की कहानी है, जब इंसान को अपना स्वाभिमान का पता चल जाता है तब या तो वह मौन धारण करता है या फिर विद्रोह करता है। इस कहानी में नायिका विद्रोह करने की स्थिति में नहीं इसलिए वह मौन धारण किए हुए है। वह पूरे परिवार के जितने ताने सुन चुकी है, वह भैंस बेचकर उनका मुँह बंद करना चाहती है। इसे मूक विरोध कहेंगे।
‘वसुधा’ कहानी में भाषा का सौंदर्य अनूठा है। इस कहानी में प्रकृति को बहुत खूबसूरत रूप से प्रेम में पगा पन्नों पर उतारा गया है। नायक-नायिका के नाम प्रेम व प्रकृति का चित्रण करते समय ध्वनित होता है। यह कहानी भी अन्य कहानियों की तरह बहुत अच्छे से बुनी गई है। प्रेम का अंत जिस कुरूपता के साथ उभरता है, पाठकों को सचेत करता है।
कहानी ‘नचनिया’ एक पुरुष के नाच से जुड़े पैशन की कहानी है। जिसे उसकी पत्नी समझना नहीं चाहती। ‘डर ’कहानी कोरोना वायरस की त्रासदी से जुड़ी हुई कहानी है। जहाँ हर व्यक्ति एक खौंफनाक ख़्वाब से गुजरा है और इस खौंफ से निकलने के लिए छटपटाया है। अपनों को जाते हुए देखना चाहे वह स्वप्न में ही क्यों न हो; व्यक्ति डर ही जाता है।
काला सोना, वसुधा, अमरपाली, चऊकवँ राँड़, खुखड़ी, टोनहिन, मुंहझौसी जैसी कहानियाँ समाज के उस पक्ष का अनावरण है; जहाँ स्त्री के अस्तित्व को नकार कर उस पर पुरुष अपना आधिपत्य जमाना चाहता है। इन कहानियों की स्त्रियों की पीड़ा और उनका संघर्ष, सोचने पर मजबूर करते हैं।
रेनू यादव की कहानियाँ मजबूत नायिकाओं के विद्रोह की कहानियाँ हैं। हर कहानी के अंत तक पहुँचते-पहुँचते नायिकाएँ विवेकपूर्ण निर्णय लेती हैं और समाज व पाठक के लिए प्रेरक संदेश छोड़ देती हैं। सभी कहानियाँ बहुत रोचक व प्रभाव छोड़ने वाली हैं। कहानियों की सांकेतिक भाषा व सौंदर्य पाठक के दिल और दिमाग पर प्रभाव छोड़ता है। इन कहानियों में बहुत सी ऐसी पंक्तियाँ है, जिसके गर्भ में बहुत सी विशेषताएँ छिपी हुई हैं, जिन्हें रेखांकित किया जा सकता है।
अधिकांश कहानियों के कथानक अलग व ग्रामीण परिवेश के हैं। पात्रों के चरित्रों को उसी के अनुरूप बुना गया है। उनकी भाषा भी वैसी ही है। सभी कहानियाँ सकारात्मक बिंदु पर विराम लेती हैं। कन्या भ्रूण हत्या, व्याभिचार, वैश्यावृत्ति, समलैंगिकता, एसिड अटैक, विधवा दुर्दशा, बाल विवाह, साधुओं के प्रपंच, जादू टोना इत्यादि जैसे जरूरी मुद्दों के इर्द-गिर्द कहानियों के कथ्य हैं।
रेनू जिस जगह से आती हैं उन्होंने वहीं की भाषा में कहानियों को रचा है। ऐसा करने से अभिव्यक्ति सरल और सहज हो जाती है। कुल मिला कर सभी कहानियाँ अच्छी हैं; पाठकों को प्रभावित करेंगी। रेनू आपके लिये मेरी ढेर शुभकामनाएँ।
प्रगति गुप्ता, 58, सरदार क्लब स्कीम, जोधपुर - 342011, ई-मेल : pragatigupta.raj@gmail.com
***********************************************************************************
रेनू यादव की रचनाओं पर आलेख
श्री केतन यादव
काला सोना: इक्कीसवीं सदी में पूर्वांचली स्त्रियों की मूक चीखें....
‘काला सोना‘ अपने समय की वह काली सच्चाई है जिसको बयाँ करने में प्रायः प्राण थरथराने लगते हैं। ‘काला सोना ‘ कहानी-संग्रह की कथानायिकाएँ लोकजीवन की संघर्षरत, कर्तव्यपरायण, स्वतंत्रता की महत्वाकांक्षी और अपनी पहचान के लिए छटपटाती क्रांतिकारी हैं। इस कहानी संग्रह के पात्र किसी कल्पना लोक के लुभावने सपनों को नहीं बाँच रहे अपितु अपनी आपबीती अपना भोगा हुआ जटिल यथार्थ कह रहे हैं वह यथार्थ जो थोपा गया नहीं, बल्कि जिया गया है।
वैसे तो कथालेखिका डॉ. रेनू यादव से जुड़े थोड़ा समय ही हुआ है परंतु उनकी कहानियों के माध्यम से उनके रचनात्मक संसार में प्रवेश किया तो लगा उनके बचपन से लेकर अब तक की संवेदनात्मक विकासक्रम को देख रहा हूँ; जी रहा हूँ। व्यक्तित्व से बहुत उदार और विचारों से अत्यंत सरल और सहज रेनू गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय, नोएडा के भारतीय भाषा एवं साहित्य विभाग (हिंदी) में फैकल्टी एसोसिएट हैं। वे उत्तर प्रदेश के गोरखपुर के छोटे से गाँव तिलौली से निकलकर देश के कर्नाटक एवं हैदराबाद में पढ़ाई के लिए भी आयीं और अपनी अलग पहचान भी बनायीं। इस प्रकार हम देखते हैं वो स्वयं एक जुझारू संघर्षशील स्त्री हैं जिन्होंने उत्तर से दक्षिण तक की दूरी ज्ञान के लिए नापी हैं तथा अपनी पहचान के लिए नापी हैं। वो स्वयं अपनी कहानियों की तरह एक प्रेरणादायी पात्र हैं जिनके जीवनसंघर्ष पर कई कहानियाँ और उपन्यास लिखे जा सकते हैं। तिलौली से यहाँ तक का सफ़र आसान नहीं था। ग्रामीण संस्कृति में स्त्रियों के लिए शिक्षा लेना और रोजगार करना आज भी टेढ़ी खीर है। आपको बता दें कि रेनू जी अपने गाँव की इतनी पढ़ी-लिखी पहली महिला हैं जिन्होंने पीएच.डी. किया है और उच्च शिक्षा में अध्यापन कार्य कर रही हैं। उन्होंने पूरे गाँव की लड़कियों के लिए सपनों की दुनिया का दरवाज़ा खोल दिया जहाँ स्वावलंबन और स्वाभिमान से प्रवेश किया जाता है। वे रास्ते में आये कठिनाइयों से लड़ती रहीं। उन्हें जिस गाँव समाज से लगातार चुनौतियाँ मिलीं वे उस पर निरंतर प्रेम लुटाती रहती हैं। इस कहानी-संग्रह को भी उन्होंने अपने गाँव को समर्पित किया है। ये उसी तरह है कि जिससे चोट खाया उसी पर मोहवश प्रेम न्यौछावर किया। दरअसल चाहे कुछ भी हो जैसी भी परिस्थितियाँ हों, पर उनके व्यक्तित्व का बीजवपन तो तिलौली में ही हुआ न और वे बराबर से अपने गाँव और समाज के प्रति अपना ऋण उतारते चल रही हैं। जैसे-जैसे जीवन में संकट आया वे उनका सामना करते हुए और परिपक्व होती गयीं और काले खदान में से ‘काला सोना‘ बनकर निकलीं। मुझे प्रिय कवयित्री अनामिका जी की कविता याद आ रही है कि:-
“मैं एक दरवाज़ा थी
मुझे जितना पीटा गया
मैं उतना ही खुलती गई”।
वास्तव में रेनू यादव ऐसी ही हैं। जितनी मुसीबतें आयीं वे उसमें अपना रास्ता बनाती गयीं। अब बात करते हैं ‘काला सोना‘ की। इस कहानी संग्रह में कुल बारह कहानियाँ हैं, यथा - नचनिया, काला सोना, वसुधा, मुखाग्नि, छोछक, कोपभवन, टोनहिन, अमरपाली, चऊकवँ राँड़, डर, खुखड़ी, मुँहझौसी। ये कहानियाँ अपने आप में एक इतिहास भी है और वर्तमान भी। काला सोना नयी सदी में पुराना दर्द है। पुराना कुछ कुछ इसलिए क्योंकि मानों स्त्री की परिस्थितियाँ कभी बदली ही नहीं। पर ऐसा नहीं है कि बदलते जमाने के साथ नयी चुनौतियाँ नहीं हैं। इस कहानी में उन चुनौतियों पर खुल के चर्चा की गयी है। वर्तमान समय के जटिल यथार्थ को बहुत ही सुगठित तरीके से दिखाया गया है। ये कहानियाँ अपने समय की अनबोली स्त्रियों का बोलता हुआ दर्द है। बात शुरू करते हैं ‘काला सोना‘ के भाषा की। रेनू की कहानियाँ कोई आसमानी कल्पना से नहीं उतरी हैं वो हमारे आस-पास की घटनाओं का समुच्चय हैं। आस पास की औरतों की जबान में उन्हें सलीके से उकेरा गया है। कहानी में भोजपुरी पूर्वांचल समाज खुल कर सामने आया है। लोकभाषा साहित्यिक खड़ीबोली हिंदी का अतिक्रमण भी कर रही है और उसके साथ हाथ पकड़कर बैठ भी रही है मानों अपनी बहन से अपनी जबान में अपना दर्द बाँट रही हो। इतना सुन्दर भाषिक संसार है, इतनी काव्यात्मकता है , इतना लय है कि मन मुग्ध हो उठता है। ‘वसुधा‘ नामक कहानी में लेखिका इतनी खूबसूरती से वसुधा और सूरज के मिलन की संधिभूमि को रचती हैं कि पैराग्राफ खत्म होने पर एक तरफ आगे जानने की उत्सुकता तो होती है पर इस भाषायी सम्मोहन का लय टूटने का दर्द भी होता है। वे लिखती हैं - “सुबह की पलकों पर जब सूरज की सुनहरी रश्मियाँ वसुधा पर धीरे-धीरे अपने कोमल कदम रखती हैं, तब अंधकार अपनी बाँहें फैलाए उन रश्मियों का स्वागत करता है। अंधकार के पूर्ण समर्पण के पश्चात् अर्थात् रश्मियों में पूरी तरह विलीन हो जाने पर प्रातः काल में धरती पूर्णतः सुनहरे रंगों में रंग जाती है।”
‘मुखाग्नि‘ नामक कहानी की भाषा में इतनी वेदना दिखती है कि लोकनायिका राधिका मानों अपनी ही वेदना हो जाती है - “धुरियाये, मटियाये, कचड़ियाये, शीतियाये हजारों पैरों के बीच राधिका मुँह के बल पट्ट गिरी पड़ती है, उसके मुँह से साँय - साँय और खरखराती नाक से निकलती हवा शीतियाये धूर पर पड़ते ही धूर फुर्र - फुर्र करके वहीं बैठ जा रही हैं जैसे कि आज वो किसी भी हाल में राधिका के साथ ही रहना चाहती हों और उसके अंतर्मन की व्यथा को खुद में सोख लेना चाहती हों।”
ये धुरियाये, मटियाये, कचड़ियाये, शीतियाये कोई अनुप्रास का चमत्कार नहीं है बल्कि गौर से देखने पर पता चलेगा कि ग्रामीण स्त्री का श्रृंगार है जिसे वो जीवन भर उतार नहीं पाती न सुहागन के वेष में न विधवा के। ‘अमरपाली‘ कहानी में भाषा का रसीला सौंदर्य देखिए और सोनवा का अमरपाली होना भी - “पके आम पर ललायी लिए गाल जिसमें सींक चुभो दो तो रस टपक जाए, लट ऐसे छितराये पड़े हैं कि जैसे दो दिन से ककही से बाल झारा ही न हो पर तपती धूप में छतरी का काम भी तो कर रहे हैं। बालों में पल्लो हाथ में पल्लो और पल्लो के ही बैल बनाकर खेलती सोनवा को देखकर अनायास ही दीनानाथ के मुँह से निकल गया - ‘अमरपाली‘।
इन कहानियों में लोकभाषा की वो मिठास है जिसके लिए अपना भोजपुरी समाज जाना जाता है। नामवर सिंह ने कहा था कि भोजपुरी प्रदेश के लोग बोलते नहीं हैं गाते हैं। वो भाषा ‘खुखड़ी’ कहानी में “जेवनार की तरह मीठ-मीठ सोधीं-सोधीं” है। इसी कहानी में लेखिका एक पंक्ति में कहती हैं “बचपन का बियाह जवानी में रास न आया तो पहली मेहरारू को छोड़ दिए।” हमारे यहाँ औरत पतोह भी होती है और मेहरारू भी। ये पतोह और मेहरारू केवल संज्ञा नहीं हैं अपितु भोजपुरी समाज का विशेषण भी हैं। ‘मुँहझौसी’ कहानी में ऐसे ही संज्ञा विशेषण का मिलाप होता है - “सच है कि न तो कुमकुम को अपने जीवन में कुमकुम का सौभाग्य हासिल होने वाला है और न ही रातरानी के जीवन में कभी दिन का उजाला।”
‘मुँहझौसी’ कहानी को पढ़ कर बिंब में ‘सत्यम् शिवम् सुंदरम् ‘ फिल्म की रूपा की छवि उभरती है, भले ही दोनों का कथानक भिन्न-भिन्न है। ‘काला सोना‘ कहानी-संग्रह के पात्र रूपा, मलकायिन, नीलम, सोनवा, रामलखन और हरिया, मनोहरी देवी, राधिका, वसुधा, टोनहिन, चिकन बहुत सजीव हैं। कहानी में पात्र-योजना लोकसंस्कृति से निकली हुई है। वहाँ के समाज में ऐसे ही नाम होते हैं। सभी पात्र मूक पीड़ा की वेदना को प्रकट कर रहे हैं। ‘काला सोना ‘ की संवाद-योजना भी बहुत सुन्दर है , संवाद अत्यंत छोटे चुस्त और गतिशील हैं। बहुत सधा हुआ संवाद है कहीं पर भी बोरियत या बोझिलपन नहीं है। हर पात्र अपनी बात बहुत सहजता से कह रहे हैं। कथानक का कसाव इतना है कि पाठक अंत तक बँधा रहे, कहानी आख़िरी शब्द तक पाठक का हाथ पकड़े हुए है और पढ़ने के बाद दिमाग पकड़े हुए। वातावरण के विषय में बीच-बीच में कई जगह उल्लेख कर चुका हूँ कि ये कहानियाँ अपने समाज की काली सच्चाई के वातावरण को चीर कर निकलती हैं।
‘काला सोना ‘ कहानी संग्रह में विविधता के अनगिनत रूप हैं पर कोई एक चीज जो सबको आपस में जोड़ती है वो है स्त्री का आत्मसंघर्ष, समाज को खुद का महत्व समझाने की छटपटाहट।
‘वसुधा‘ कहानी गोरखपुर कुशीनगर के परिवेश से उपजी है। एक पूर्वांचली युवती किस तरह घर में अनेकों संघर्षों से गुजरते हुए शहर तक पहुचती है और वहाँ खुद को ढ़ालती है। वसुधा लेडी श्रीराम कॉलेज में पोस्ट ग्रेजुएशन से हिंदी विभाग में प्रवेश लेती है और तब हॉस्टल में प्रवेश करती है तो दंग रह जाती है - “हॉस्टल ! एक दूसरी दुनिया की शुरूआत ... ख़ासकर हम जैसे गाँव से जाने वालों के लिए। जहाँ हम लोग चैबीसों घंटे दुपट्टे से खुद को ढ़के रहते थे और दुपट्टा हटने पर नंगे हो जाने के एहसास से सहमकर छाती पर हाथ रख लेते थे वहीं हॉस्टल में आधी खुली छाती और नंगी टांगों वाली शार्ट ड्रेस में लड़कियों का घूमना देखकर मेरा मुँह खुला का खुला रह जाता था। अब तक तो सब ठीक ठाक था लेकिन जब रात में मेरी रूममेट ब्रा और पैंटी पहन कर सोई... पहली रात ही मेरी नींद उड़ गयी। हनुमान चालिसा, शिव चालिसा, दुर्गा चालिसा सब पढ़ डाली...।”
यूपी बिहार की कोई लड़की जब पहली बार बड़े शहरों की ओर देखती है तो एक पल को वह उस चकाचैंध की दुनिया से सहमती भी है पर उस आकर्षण में खुद को ढ़ालने और आधुनिकता के रंग में रंगने को तैयार भी हो जाती है - “धीरे धीरे समय के साथ - साथ आश्चर्य कम होने लगा। जिन चीजों को देखकर आँखें फटी की फटी रह जाती थीं अब वे नार्मल लगने लगीं। मैं भी दिल्ली के रंग में रंगने को तैयार थी।”
लेखिका आगे बढ़ती हैं तो जीवन की कटु सच्चाइयों से सामना कराती है वह सच्चाइयाँ जिनकी हमने कल्पना नहीं की होती है। वसुधा पूरी तरह से सूरज की प्रेममय किरणों को ओढ़ लेती है पर सूरज शाम में धीरे-धीरे अपनी किरणें बटोरने लगता है और वसुधा को घने अंधकार से सनी रातों के हवाले छोड़ कर चला जाता है। गाँव की निश्छल सीधी वसुधा की सपनों की मीनार सूरज एक झटके में तोड़ देता है - “सुबह से शाम और शाम से रात हो गयी। आगरा के होटल में सूरज पूरी तरह से मुझमें और मैं सूरज में समा गयी। इस बात से अंजान कि सूरज दूर से वसुधा को अपनी बाहों में भरता है और फिर चला जाता है।”
‘मुखाग्नि’ नामक कहानी भी एक अलग विषय वस्तु पर आधारित है। एक फौजी के न रहने पर उसकी स्त्री का संघर्ष कितना बढ़ जाता है, इस कहानी में देखा जा सकता है। कथा के अंत में एक बड़ा ही करुण प्रसंग है जिसमें राधिका अपने पति के अंतिम संस्कार को खुद बेटी के हाथों कराने की लड़ाई लड़ती है - “ पीछे से कोई और औरत चिल्लाई, ‘अरे कवनों रोको उसे, मेहरारू कंधा नाहीं देतीं, मेहरारू समशान नाहीं जातीं।‘ राधिका का पैर लड़खड़ाया, पिंकू को कलेजे से चिपकाये साधना झट से उसे छोड़ ताबूत पर अपना कंधा लगा देती है और राधिका को सम्भाल लेती है। राधिका की आँखें सखी का सम्बल पाकर कह उठीं, ‘अब तक तो साथ नाहीं मिला, कम से कम आख़िरी समय में साथ चलने दो। हमहूँ श्मशान जाएँगे...।‘ रिंकू इनके कलेजे का टुकड़ा है , मुखाग्नि वही देगी...”।
‘कोपभवन‘ नामक कहानी तो अपने आप में बहुत क्रांतिकारी है। यह कहानी इक्कीसवीं सदी के एक और लैंगिक स्वतंत्रता की ओर बढ़ते भारतीय समाज की सोच पर आधारित है। जी हाँ, ये कहानी समलैंगिक विमर्श पर आधारित है। ये कहानी बताती है कि वे भी इंसान हैं, संभव है दो समान लिंगियों को प्रेम हो जाए। वे भी समाज में एक दूसरे का हाथ पकड़ कर साथ रहना चाहते हैं। पर समाज में यह संघर्ष आसान नहीं - “यहाँ इंसान के दिल इतने काठ-कोरो हैं कि इन्हें पता चल जाये तो हमारा मजाक उड़ायेंगे, हमें मार ही डालेंगे। ऑनर कीलिंग से कम घातक सजा नहीं मिलेगी !!! बच गये तो जीते-जी जबरदस्ती किसी औरत के पल्लू से बाँध दिया जायेगा जिसमें वो भी मरेगी और हम लोग भी ...।”
‘काला सोना‘ कहानी में कदम-कदम पर भारतीय ग्रामीण स्त्रियों की करुण-गाथा है। किस प्रकार एक स्त्री समाज की बाध्यताओं को अपनी नियति समझ लेती है और उसे एहसास भी नहीं होता कि इससे आगे भी उसका कोई जीवन है। भारतीय ग्रामीण स्त्री की नियति को ‘चउकवँ राड़‘ नामक कहानी में दिखाया गया है - “माँग में सेनूर पड़ते ही हमने उनको अपना पति-परमेश्वर मान लिया, मन ही मन उनके ऊपर सबकुछ निछावर कर दिया।”
और आगे एक पंक्ति में विदा होती ग्रामीण स्त्री की मनोदशा का चित्रण देखिए - “माई से बिछुड़ने का दुख और उनसे मिलने की खुशी एक साथ मेरे मन में हिलोरे लेने लगी। जैसे नदी पहाड़ की गोद से निकलकर सागर में समाने जा रही हो।”
‘डर‘ नामक कहानी अपने समय का जीवंत इतिहास है या यूँ कहें कि अब भी कभी भी वर्तमान हो सकता है। ये कहानी कोरोना काल की त्रासदी को रेखांकित करती है, भय के वातावरण को रेखांकित करती है - “सुबह नौ बजे न्यूज चैनल लॉकडाउन की अपनी-अपनी ख़बर कह रहे होते हैं , रंजना न्यूज चैनल पर नज़र गड़ाये सुधीर के सामने प्लेट रखती है , सुधीर रंजना की ओर बिना देखे ही कह उठता है, न जाने कब लॉकडाउन खुलेगा, घर में बैठे - बैठे भूख नहीं लग रही।”
“मुँहझौसी” किताब की आखिरी कहानी है। इसमें केवल एसिड अटैक झेली हुई रूपा की त्रासदी ही नहीं अपितु पूरे गाँव भर की स्त्रियों की वह छिपी हुई दास्ताँ है जिसे पितृसत्तात्मक समाज के पुरुष इंच-भर भी बाहर नहीं आने देना चाहतें। तथाकथिक नैतिकता के सामाजिक पाखंडों, झूठी आदर्शों पर नंगी चोट है ये कहानी। रूपा की त्रासदी को दो पंक्तियों में देख सकते हैं - “वैसे तो ईंट को भी हर रोज झौंसा जाय तो वह एक दिन पत्थर बन जाता है। उसी प्रकार मुँहझौसी को भी हर रोज इतना झौंसा गया कि वह चट्टान बन गयी, पहाड़ बन गयी।”
इस कहानी संग्रह पर जितना लिखा जाए वो कम है। कितने ही महत्वपूर्ण कथन थे जो छूट गये या यूँ कहें कि इसलिए छोड़ा है ताकि पाठकीय जिज्ञासा बनी रहे। मेरी बात पढ़कर कोई नया पाठक इस कहानी संग्रह को पढ़ सके। पूर्वांचली ग्रामीण समाज को समझने के लिए कहानी मील का पत्थर है। इसकी भाषा, शैली, बुनावट सब कुछ लोक से उपजा है। इसमें लोक का सुंदर पक्ष और असुंदर पक्ष दोनों ही देखने को मिलता है। डॉ. रेनू अत्यंत संभावनाओं से भरी हैं, ये कहानी-संग्रह उनके रचनात्मक संसार में मिल का पत्थर साबित होगा। ये कोई समीक्षा नहीं थी बल्कि एक पाठक के नोट्स थे। मैंने एक आम पाठकीय दृष्टि से रेनू जी के रचनात्मक संसार में झाँकने की कोशिश की है।
-केतन यादव, (शोध छात्र), इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश, Email : yadavketan61@gmail.com
***********************************************************************************
सुभाष चन्द्र यादव, बस्ती
रेनू यादव को पूर्वांचल भाषा में पकड़ है। काला सोना कहानी में मानवीय संवेदना है, मानवीय प्रेम है। मुझे लगता है कि कहानियों में इसी प्रकार का प्रेम होना चाहिए, जिससे दुःख से उबरने में सहायता मिले। कहानियों का अंत सकारात्मक होना चाहिए जो समाज को शिक्षा दे सके।
***********************************************************************************
रेखा भाटिया, शार्लट, अमेरिका
मैं रेखा भाटिया शार्लट, अमेरिका से हूँ। सुधा जी द्वारा अम्लघात उपन्यास प्राप्त हुआ। पुस्तक बड़े भारी विषय पर है और सब्र के साथ पढ़ रही हूँ। आपकी कहानी ‘मुँहझौंसी’ पढ़ी, समय था स्कूल में तो पढ़ना शुरू किया और घर आकर भी पढ़ती रही क्योंकि कहानी का साथ छोड़ने को मन तैयार नहीं था। आपकी कहानी बहा ले गई। कहानी की खरी सच्चाई उस निर्मम दुनिया में ले गई जहाँ औरतों को और सिर्फ़ औरतों को हिंसात्मक दर्द सहने पड़ते हैं। उस दर्द से उबरने के लिए बाद में असमय बहुत सोई। बहुत बधाई एक उच्च कोटि की उम्दा रचना को गढ़ने पर। लिखते रहिए...
***********************************************************************************
दीपक गिरकर, इंदौर
रेनू यादव की कहानी ‘मुँहझौंसी’ में गाँव की स्त्रियों का करूण और हृदय विदारक चित्र मिलता है। गाँव के पुरूष लड़कियों, औरतों के साथ क़ैदखाने के क़ैदी जैसा अमानवीय अत्याचार करते हैं। गाँव की स्त्रियाँ अनाचार और अन्याय को वेदना के साथ सहती रहती हैं। रिश्तेदारों की संवेदनहीनता, पारिवारिक रिश्तों का विद्रुप चेहरा, सामंती व्यवस्था के अवशेष, स्त्री संघर्ष और स्त्रीमन की पीड़ा आदि का चित्रण इस कहानी में मिलता है। इस कहानी में अपने ही घर में क़ैद नारी की मनःस्थिति उजागर हुई है। कहानी की नायिका रूपा एसिड अटैक का शिकार होती है। गाँव में पंचायत बैठती है और पंचायत अपना फैसला देती है कि रूपा को उस बीरेन से शादी करनी पड़ेगी, जिसने उसके चेहरे पर एसिड फेंका था । रूपा उसी समय पंचायत में पहुँचकर इस फैसले का जमकर विरोध करती है तब पंचायत के पंच लोग रूपा का नया नामकरण कर देते हैं मुँझ झौंसी। इस कहानी में पुरूष सत्तात्मक समाज के शोषण के प्रति रूपा उर्फ़ मुँहझौंसी का विद्रोही स्वर सुनाई पड़ता है। नायिका रूपा पितृसत्ता की संरचनाओं को उघाड़ने और मर्दवादी अमानुषिकताओं के विरोध में खड़ी होती है। कहानीकार कहानी की मुख्य किरदार रूपा की वैयक्तिक चेतना को पर्याप्त वाणी देती है। यह रचना पांरपरिक घेरों को तोड़ने की नयी दृष्टि देती है। कहानी का हर किरदार रूपा, गंगाराम, रीना, जतिन, बीरेन, भोलानाथ अपनी विशेषता लिए हुए हैं और अपनी उसी ख़ासियत के साथ सामने आते हैं। लेखिका ने पात्रों के मनोविज्ञान को अच्छी तरह से निरूपित किया है और उनके स्वभाव को रूपायित किया है।
***********************************************************************************
डॉ. रेनू यादव से केतन यादव की बातचीत
श्री केतन यादव
पूर्वांचल का साहित्य किसे कहेंगे ? क्या जो लेखक पूर्वांचल के निवासी हैं वे इसके अंतर्गत आयेंगे अथवा वे लेखक जो पूर्वांचल के समाज को केन्द्र में रख कर लिख रहे हैं ?
पूर्वांचल कहते ही उत्तर-प्रदेश के पूर्वी छोर पर स्थित उत्तर मध्य भारत के भौगोलिक क्षेत्र से बोध होता है। ‘अर्थ एवं संख्या प्रभाग’ द्वारा जारी बुकलेट के अनुसार पूर्वांचल के 28 जनपद हैं तथा इन 28 जनपदों में भोजपुरी, अवधी, हिंदी है तथा कुछ क्षेत्रों में बघेलखंडी बोली बोली जाती है।
इस क्षेत्र के साहित्य को दो रूपों में देखा जा सकता है- पहला पूर्वांचल की सोंधी मिट्टी, भाषा-संस्कृति एवं मूल्यों को केन्द्र में रखकर लिखी गई रचनाएँ, दूसरा पूर्वांचल के लेखक जो इस क्षेत्र में रहते हुए अथवा इस क्षेत्र से बाहर रहते हुए भी साहित्य सृजन कर रहे हैं। यह पूर्वांचल से इतर किसी विषय, समाज या क्षेत्र को केन्द्र में रख कर लिखा जा सकता है। मेरी समझ से उन साहित्य को ही पूर्वांचल साहित्य के अंतर्गत रेखांकित करना उचित होगा जिनमें पूर्वांचल क्षेत्र की विशेषताओं, पूर्वांचली समाज, भाषा, संस्कृति, परंपरा और मूल्यों को लेकर लिखा जा रहा है।
आपका प्रश्न ठीक स्वानुभूति एवं सहानुभूति परक साहित्य की भाँति है। लेखक लेखक होता है वह अपनी कल्पना से दुनियाँ के किसी भी कोने में पहुँच सकता है और साहित्य सृजन कर सकता है। किंतु कल्पना में यथार्थ का मिश्रण एवं लेखक का अपना अनुभव होने से सृजन और अधिक पुख्ता और मजबूत बनता है। उसमें संवेदना का प्रवाह होता है। इसलिए लेखक कहीं का भी निवासी हो अनुभव के भट्टी पर पका साहित्य हमेशा से बेजोड़ होता है। यदि पूर्वांचल से इतर लेखक के साहित्य के केन्द्र में पूर्वांचल की विशेषताएँ और समाज हो तो उसे पूर्वांचल साहित्य में रखा जा सकता है। साथ ही पूर्वांचल के लेखक तो स्वयं समाज का हिस्सा हैं तो उनके साहित्य को नकारने का प्रश्न ही नहीं उठता।
हिंदी कथा जगत् में पूर्वांचल के कथाकारों का क्या स्थान है, विस्तार से बताइए ?
पूर्वांचल के कथाकारों में सबसे पहले प्रेमचंद का नाम आता है। मेरा मानना है प्रेमचंद देश काल क्षेत्रियता से परे हो गए हैं। साहित्य में उनके योगदान पर दृष्टि डाले बिना कथा जगत् की कल्पना करना कैसे संभव है ! उसके बाद जयशंकर प्रसाद, सुभद्रा कुमारी चैहान, धर्मवीर भारती, राहुल सांकृत्यायन, श्रीलाल शुक्ल, अज्ञेय, अमरकान्त,
मार्कण्डेय, शिवप्रसाद सिंह, विवेकी राय, विभूति नारायण राय, राम दरश मिश्र, काशी नाथ सिंह आदि कथाकारों के नाम आते हैं, जो कि अविस्मरणीय है। हिन्दी कथा जगत् इन कथाकारों से स्वयं को कैसे विलगा सकता है ! यह मेरा व्यक्तिगत मत है कि यदि इन कथाकारों की कथाओं को कथा साहित्य से निकाल दिया जाय तो कथा जगत् अपंग हो जायेगा।
इन कथाकारों के उपन्यास और कहानियाँ हिन्दी कथा-साहित्य की नींव है, दीवार भी है और छत के अंश भी हैं। गोदान, निर्मला से लेकर गुनाहों का देवता, नदी के द्वीप, शेखर एक जीवनी, जल टूटता हुआ, उपसंहार, रेहन पर रघ्घू, काशी का अस्सी, उपसंहार उपन्यासों से हम सब परिचित हैं। कहानियों में प्रेमचंद की कफन, पूस की रात, प्रसाद की आकाशदीप, ममता, छाया, सुभद्रा कुमारी चैहान की मछुए की बेटी, बिआहा, धर्मवीर भारती की भूखा ईश्वर, अमृत की मृत्यु, चाँद और टूटे हुए लोग, राहुल सांकृत्यायन की सतमी के बच्चे, कनैल की कथा, श्री लाल शुक्ल की दंगा, सँपोला, यह घर मेरा नहीं, अज्ञेय की गैंग्रीन, हीली-बोन की बत्तखें, अमरकांत की दोपहर का भोजन, ज़िन्दगी और जोंक, पलाश के फूल, मार्कण्डेय की कहानी हलयोग, विवेकी राय का चुनाव चक्र, बेइमानों के देश में, दमरी की खोज, शिवप्रसाद सिंह की कर्मनाशा की हार आदि कहानियाँ हिन्दी कथा जगत् को न सिर्फ विस्तार देती हैं बल्कि साहित्य के कैनवस में जीवन के रंग हैं जिसमें जीवन है, यथार्थ है, विचार है और एक पुल है जिसे पार किए बगैर हिन्दी कथा जगत् को सही अर्थों में जाना नहीं जा सकता। ये तो हमारे पुरखे-पुरनियाँ हैं, वर्तमान समय में किरण सिंह, प्रो. चन्द्रकला त्रिपाठी, सोनी पाण्डेय, डॉ. सुनीता, सुमन सिंह, मृदुला शुक्ला आदि ऐसे कथाकार हैं जिनकी कथाएँ साहित्य में अपना विशेष स्थान बना रही हैं।
बात पूर्वांचल के कथा-साहित्य और उसके नवीन रूप पर हो रही है तो हम सब आपको एक नए उभरते हुए कथाकार के रूप में देख रहे हैं। आपकी पुस्तक ‘काला सोना’ पूर्वांचल के सामाजिक पृष्ठभूमि पर है। आपने इस पुस्तक को अपने गाँव तिलौली को समर्पित किया है। यह गाँव पूर्वांचल का एक छोटा सा गाँव है। आपके लिए गोरखपुर के एक छोटे से गाँव तिलौली से निकलकर उच्च शिक्षा प्राप्त करना और साहित्य की मुख्यधारा में खुद की एक अलग पहचान बनाना कितना चुनौतिपूर्ण रहा ?
आपने दो प्रश्न पूछा है- मेरे उच्च शिक्षा का सफ़र और लेखन जगत् में अपनी पहचान।
उच्च शिक्षा से पहले मैं तिलौली गाँव में शिक्षा की स्थिति पर बात करना चाहूँगी। यह बात मात्र तिलौली गाँव की नहीं बल्कि वहाँ के आस-पास के जितने भी गाँव हैं और जितना मैं समझ पायी हूँ लगभग सभी गाँव में शिक्षा की स्थिति एक समान है। जिस वक्त से मुझमें परिस्थितियों को समझने की थोड़ी समझ विकसित हुई, उस समय गाँव में मात्र दो-चार लोग स्नातक या स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी कर किसी अच्छे पद पर तैनात हो चुके थे। बाकी के लोग अशिक्षित, अर्द्धशिक्षित अवस्था में जीवन-यापन कर रहे थे। वहाँ युवकों पर पढ़ने का दबाव तो होता है किंतु प्रायः वह दबाव दिशाविहीन होता है।
आज भी गाँव में लड़के-लड़कियों में भेद-भाव किया जाता है, और जहाँ के लड़के ही दिशाविहीन हों तो लड़कियों की शिक्षा पर भला कौन ध्यान देगा ? लड़कियों को चिट्ठी-पतरी लिखने लायक पढ़ा देने पर बल दिया जाता है, और बचपन से यह सिखाया जाता है कि ‘कितनाहुँ पढ़ोगी बर्तन ही धोना है”। जो कि मुझे भी सिखाया गया था। निर्णय लेने की क्षमता के विकास पर सर्वथा अदृश्य रूप से प्रतिबंध लगाने की कोशिश की जाती है। पर लड़कियाँ तो हवा हैं, पानी हैं, आग हैं। उनमें जीवटता बहुत होती है। वे घर का सारा काम करते हुए पढ़ने की ललक लेकर आगे बढ़ती हैं। लेकिन कब तक... सवाल यह है कि उनकी सुनेगा कौन ? प्रायः वहाँ की लड़कियों की शिक्षा मात्र अशिक्षित संक्रमित सोच वाले ही नहीं बल्कि गाँव के पढ़े-लिखे प्रतिष्ठित वर्चस्ववादी व्यक्तियों की दकियानुसी सोच की भेंट चढ़ जाती है। बहुत सी लड़कियों के साथ यही हुआ और मेरे साथ भी कोशिश की गई, ये अलग बात है कि वे सफल नहीं हो पायें। मेरे पास उनसे लड़ने की उतनी हिम्मत नहीं थी, लेकिन मेरे साथ कभी मेरी माँ, कभी मेरी सखी आकर मेरे लिए खड़ी हो गईं। और जब उच्च शिक्षा की बात आयी तब मेरे पिता साथ थे और बहुत बाद में मेरे पति भी साथ में शामिल हो गए। कभी विस्तार से लिखना हुआ तो जरूर लिखूँगी। मेरे रास्ते में जितने भी अवरोध और विरोध पैदा हुए या किए गए, वह अवरोध और विरोध ही मेरी ताकत बनी। अनामिका जी की कविता याद आती है - “मैं एक दरवाज़ा थी/मुझे जितना पीटा गया / उतना ही खुलती गई”।
रूढ़िगत परंपराओं, विचारों एवं मूल्यों के बीच बस एक बात है कि मैंने हमेशा से ठान भी रखा था और मेरा मानना है कि ज़िन्दगी में हर चीज से समझौता कर लो लेकिन पढ़ाई के मामले में कभी भी समझौता नहीं करना चाहिए। शिक्षा ही है जो समस्त व्यवधानों की काट है और मनुष्य को और बेहतर मनुष्य बनाने में मदद करती है। शिक्षा प्राप्त करने के लिए लड़कियों को अपने घर-परिवार में ही बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ती है और यदि लड़की जागरूक हो गई, अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो गई तो सबसे पहले वह अपने घर से ही खारिज कर दी जाती है।
मेरे बाद उस गाँव की लड़कियों ने कई क्षेत्रों में परचम लहराया है, फैशन डिजाइनर, आई.टी.बी.पी. में फौजी, टीचर, डॉक्टर बनी हैं। उन्हें देखकर बहुत खुशी होती है।
दूसरी बात कि मुख्यधारा में खुद की एक अलग पहचान बनाना तो इसका भी एकमात्र जवाब शिक्षा ही है। शिक्षा के साथ-साथ अपने कर्म पर भरोसा होना चाहिए। जब आपके घर-परिवार में कोई दूर दूर तक शिक्षा जगत् से न जुड़ा हो, आपके अपने जानने वालों में से या घर परिवार में कोई साहित्यकार न हो, जब आप दूसरों के कंधे पर सर रखकर सिसकियाँ भरते हुए आगे न बढ़ना चाहते हों अर्थात् वंशवाद, चापलुसीवाद, लतावाद से परे स्वाभिमान और ईमानदारी के साथ आगे बढ़ना चाहते हों तब आपका रास्ता लम्बा हो जाता है लेकिन यदि आपको अपने पढ़ाई लिखाई पर भरोसा है तो एक न एक दिन आप अपनी पहचान बना लेंगे।
रही बात मुख्यधारा में पहचान की तो आप मुख्यधारा किसे कह रहे हैं यह जानना बहुत जरूरी है। आज जिसे स्त्रीकाल घोषित किया गया है वह मुख्यधारा या जो समस्त स्त्रीकाल दृश्य या अदृश्य रूप से वर्षों से चले आ रहे वर्चस्ववादी सत्ता द्वारा संचालित हो रहा है उस मुख्यधारा की बात कर रहे हैं। दिखने और होने में एक बहुत बड़ा गैप है, एक खाई है। इस खाई को बिना भटकाव के भरने में अभी बहुत समय लगेगा। हमें खुशी है कि यह युग स्त्रीकाल के नाम से घोषित किया जा रहा है लेकिन इस काल में एक साथ इतने अंतर्विरोध, विचलन, भटकाव, भगिनीवाद के नाम पर ईष्र्या-द्वेष है कि घोषित काल स्वयं ही दिग्भ्रमित लगने लगता है, जिस पर अभी बहुत ध्यान देने की जरूरत है।
रेनू जी, आपकी एक कहानी है ‘वसुधा’। जिसे लेकर खूब बातें हो रही हैं और आपको घेरा जा रहा है। वसुधा को आपसे जोड़कर देख रहे हैं। इस विषय में आप कुछ कहना चाहेंगी।
‘वसुधा’ कहानी ‘अभिनव-इमरोज’ में छपी थी। यह कहानी ‘मैं’ शैली में लिखी गई है। इसे पढ़ने के बाद बहुत से पाठकों और लेखकों का फोन और ई-मेल आया। लोगों ने इस कहानी की बहुत तारिफ की और इसे इको-फेमिनिज़्म से जोड़ कर भी देखा जाता है। लेकिन साथ ही साथ इस कहानी में वसुधा का गाँव से निकल महानगर में शिक्षा प्राप्ति के लिए जाने वाली बात को मेरी अपनी ज़िन्दगी से जोड़ दिया गया। सिर्फ जोड़ा ही नहीं बल्कि कुछ लोगों ने मुझे ‘वसुधा’ कहना भी शुरू कर दिया। कुछ पाठक हैं जो मुझे वसुधा कह कर ही बुलाते हैं। लेकिन वसुधा मैं नहीं हूँ।
वसुधा प्रकृति और स्त्री का एक केन्द्रबिन्दू है जो यह बताती है कि प्रकृति हमें वही और उसी रूप में लौटाती है जो हम प्रकृति को देते हैं।
अभी आप दिल्ली छब्त् में रह रही हैं। आप पूर्वांचल की स्त्रियों को दिल्ली, दिल्ली छब्त् जैसी महानगरीय स्त्रियों से किस प्रकार भिन्न देखती हैं। आज आप जब तब मुड़कर अपने गाँव की ओर देखती हैं तो स्त्री-जीवन में कितना परिवर्तन देख पाती हैं ?
भारत गाँव, कस्बा, नगर, महानगर कई स्तरों पर बसा है। इसलिए कभी भी भारत में स्त्रियों की स्थिति को एक तराजू में नहीं तौला जा सकता। मैं दिल्ली छब्त् ग्रेटर नोएडा में हूँ, जो कि उत्तर प्रदेश का हिस्सा है। दिल्ली और दिल्ली छब्त् के बीच ही काफी अंतर है। आपको पहनावा-ओढ़ावा एक समान दिखाई दे सकता है लेकिन मूल्यों और मान्यताओं में काफी अंतर दिखाई देता है। मैं जहाँ हूँ वहाँ से 5 किमी. के आस-पास ही गाँव है, गाँवों की भाषा, संस्कार, मूल्य यहीं पर बदल जाते हैं। अर्थात् पाँच किलो मीटर के अंतराल में ही सारे विमर्श धराशायी हो जाते हैं।
यदि हम दिल्ली छब्त् और पूर्वांचल के नगर की बात करेंगे तब कह सकते हैं कि सामान्यतः दिल्ली छब्त् की महिलाएँ अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो चुकी हैं, उन्हें स्त्री-विमर्श भी पता है और अधिकार हासिल करने का तरिका भी। शिक्षा एवं रोजगार ने यहाँ की स्त्रियों को सबलीकृत किया है। किंतु पूर्वांचल के नगर मूल्य-संक्रमण की स्थिति से गुजर रहे हैं। वे पुराने रूढ़िवादी परंपराओं, संस्कारों तथा मूल्यों को अपनाते हुए आधुनिक मूल्यों की ओर आगे बढ़ रहे हैं।
अब लौटते हैं पूर्वांचल के गाँव में... गाँवों में कुछेक लोगों के उच्च शिक्षा हासिल कर लेने से कोई खास बदलाव नहीं देखा जा सकता। अभी भी गाँव में लोग अशिक्षा, बेरोजगारी एवं गरीबी की समस्या से जूझ रहे हैं। वे अपने टूटे-फूटे मूल्यों लेकिन रूढ़िवादी परंपराओं की जकड़न के साथ लिंगभेद, जातिभेद, वर्गभेद, वर्णभेद, बाल-विवाह, पर्दा-प्रथा, दहेज-प्रथा, ऑनर कीलिंग, भ्रूण हत्या, अंधविश्वास, अफवाहों का लोकतंत्र और लोकतंत्र में अज्ञानता में ज्ञान का दंभ के साथ पूरे दमखम से जी रहे हैं। आपको कच्ची राह से खडंजा दिखाई दे सकता है लेकिन पक्की सड़कों का अभी भी अभाव है। यदि पक्की सड़कें हैं भी तो 15-20 साल पहले जैसी थीं, वैसी ही अभी भी हैं। वहाँ वोट की राजनीति पहुँच सकती हैं लेकिन विकास के पहुँचने में उसकी हँफरी छूट जाती हैं। ऐसे में वहाँ की स्त्रियों की भला कैसी हालत हो सकती है !
गाँव की स्त्रियों को अपने अधिकारों के विषय में पता ही नहीं है, विमर्श तो बहुत दूर की बात है। वे सुहाग-भाग में लिपटी भावनाओं के बल पर लड़ाई लड़ती हैं। वे महानगरों की विमर्शकार स्त्रियों की भाँति मंचों पर भाषण नहीं देतीं हैं बल्कि अपने जीवन में जुझते-जुझते एक दिन तंग आ जाती हैं और विरोध कर बैठती हैं कि अब बस बहुत हो चुका। वे बड़े-बड़े बदलाव नहीं करतीं, बल्कि छोटे-छोटे मुद्दों पर लड़ाई लड़ती हैं। हो सकता है कि उनका नाम कहीं इतिहास में दर्ज न हो लेकिन एक-एक दिन वे अपने समस्याओं के इतिहास को बदलने की कोशिश करती हैं। उनकी लड़ाई में कोई प्रशासन, कोई सत्ता साथ नहीं देती बल्कि वे अकेली होती हैं, वे समूह में नहीं लड़ पाती। हाँ लेकिन वे बड़े बड़े स्त्री-विमर्शकार की भाँति दोहरे मापदंड़ों पर नहीं चलतीं बल्कि इकहरी ज़िन्दगी जीती हुई सीधे सत्ता को चुनौती देती हैं। हार-जीत अलग बात है।
बदलाव की बात करें तो जो सबसे पहले अपनी पेट की भूख से लड़ रही हैं उन्हें देह की भूख कहाँ समझ आयेगी ! चिट्ठी पतरी लिखने से आगे बढ़ सकें, तब तो उन्हें अधिकार समझ आये ! पति, परिवार और बच्चों की सेवा से बाहर निकलने का अवसर मिले, तब तो वे अपने करियर के विषय में सोच सकेंगी ! जो औरतें विरोध करके आगे बढ़ गई हैं या उन्हें पढ़ने का अवसर मिल गया है, उनके लिए भी जीवन बहुत आसान नहीं है। उन्हें वर्चस्ववादी सत्ता अपने मूल्यों के हिसाब से चलाने की पूरी कोशिश करता है। एक घटना याद आ रही है कि पिछले दिनों नौकरीपेशा एक लड़की के साथ छेड़खानी हुई और उसका वीडियो वायरल हुआ तो उस लड़की का साथ देने के बजाय उसे हिरोइन साबित कर उसे घर में बैठने के लिए विवश किया गया। ये वे ही लोग हैं जो प्रेम करने पर ऑनर कीलिंग करते हैं और छेड़खानी होने पर छेड़ने वाले लड़कों के साथ खड़े हो जाते हैं। ये वे ही लोग होते हैं जब लड़कियों के भोजन और शिक्षा में कटौती करके लड़कों को जरूरत से ज्यादा भोजन और शिक्षा उपलब्ध करवाते हैं और अपनी असमर्थता में सेवा के लिए लड़कियों के ऊपर निर्भर हो जाते हैं, ये वे लोग होते हैं जो लड़कियों की उन्मुकता में उनकी चरित्रहीनता और उसकी बेवसी में अपनी खुशी ढूँढ़ते हैं।
वहाँ की स्त्रियों में तभी बदलाव आयेगा जब वे शिक्षित हों, उनमें अपने अधिकारों की समझ विकसित हो, उन्हें शोषण की पहचान हो, आत्मनिर्भर हों तथा अपना निर्णय स्वयं ले सकें।
आप अपने रचना संसार की सामग्री अपने लोक से चुनती हैं। आपकी रचनाओं में लोक की परंपरा रूढ़ियाँ आदि तो हैं ही लोक की भाषा, जो हमारे वहाँ ठेठ भोजपुरी है वो काफी बढ़चढ़ कर है, आपको नहीं लगता कि आपकी हिंदी यानी भाषा में इतनी अधिक आंचलिकता मानक हिन्दी का अतिक्रमण कर रही है ?
लोक की तथ्यता और सत्यता तभी साबित होती है जब कहानी के कथावस्तु में लोक के देश-काल-परिवेश-भाषा-संस्कृति के अनुसार तालमेल हो। यदि लोक के अशिक्षित समाज का वर्णन है, जो ठेठ भोजपुरी बोलते हैं तो उन्हीं की भाषा और संस्कृति ही उनकी कहानी को प्रामाणिक बना सकती है। यदि ऐसा नहीं है तो मेरा मानना है कि मानक हिन्दी के चक्कर में हम लोक पर रचना करते हुए लोक को खो देंगे। मेरा व्यक्तिगत मत है कि भाषा हमेशा कहानी के प्लॉट और परिवेश के अनुसार होनी चाहिए।
यह मानक हिन्दी का अतिक्रमण नहीं बल्कि बोलियाँ भाषा को विस्तार देती हैं। यदि बोलियों से इतर साहित्य ढ़ूँढ़ने जायेंगे तो हिन्दी साहित्य के खजाने में से आधे से अधिक साहित्य को खारिज करना पड़ जायेगा। शब्दकोश खाली करना पड़ जायेगा और भाषा में नई शब्दावलियों का समावेश नहीं हो पायेगा। साथ ही मरती हुई भाषा जिन्दा नहीं हो पायेगी। यह लोक के अनुकूल हिन्दी का विस्तार है, न कि अतिक्रमण। बाकी पाठक क्या समझते हैं ये उनका अपना मत है।
आपकी कहानियों के स्त्री-पात्र व्यापक रूप से अपने समाज का प्रतिनिधित्त्व करती हैं। स्त्री-विमर्श की चेतना आपकी रचनाओं में मुखर रूप से है। तमाम पुरूष लेखक कहते हैं कि अब स्त्री-विमर्श की जैसे इन अस्मितामूलक विमर्शों की आवश्यकता नहीं। जो 60-70 के दशक में मुखर हुए स्त्री-विमर्श में अब भेद दिखाई दे रहा है, अब तो समाज में, कानून में उन्हें प्राथमिकता मिल रही है, उनकी संख्या भी पुरूषों से अधिक है। आज भारत में स्त्री-विमर्श की क्या आवश्यकता है और इसकी प्रांसगिकता को कैसे देखती हैं ?
मेरी कहानियों में स्त्रियाँ विमर्श को ध्यान में रखकर नहीं लड़ रहीं बल्कि अपनी परिस्थितियों का विरोध कर रही हैं। वे गाँव की स्त्रियाँ हैं, विमर्श क्या होता है उन्हें पता ही नहीं। कुछेक लेखिकाओं के सामने आ जाने से, कुछेक स्त्रियों के शिक्षित हो जाने और आत्मनिर्भर हो जाने से समस्त स्त्रियों की स्थिति नहीं बदल सकती। 2 से 4 प्रतिशत औरतों के चेहरे के आधार पर पूरे भारत की स्त्रियों के चेहरे का अनुमान लगा लेना उचित नहीं है। कानून में प्राथमिकता मिलना और समाज में उसकी स्वीकृति दोनों में जमीन आसमान का अंतर है। जो लोग यह कहते हैं कि अब विमर्श की आवश्यकता नहीं है उन्हें पैरों में फटी बिवाई का अनुभव नहीं है। यदि उन्होंने बिवाई को दूर से देख भी लिया होगा तो कहीं ए.सी. में बैठकर कलम साध रहे होंगे क्योंकि उन्हें यह भी पता नहीं होगा कि वह बिवाई ग्लिसरीन या दवाईयों से नहीं बल्कि मोबिल या मिट्टी का तेल लगाकर ठीक करने की कोशिश की जाती है। उन्हें धरती की बर्राई हुई जमीन में फंफसती दूब की जड़ों को देखने की जरूरत है। कितनी लड़कियाँ हैं जिन्हें पैतृक संपत्ति में हिस्सा मिल पाया हैं ? कितनी लड़कियाँ हैं जो विधवा होने के बाद पुनर्विवाह कर पायी हैं ? कितनी शादीशुदा औरतें हैं जो प्रताड़ना सहने के बाद तलाक ले पा रही हैं ? कितनी लड़कियाँ हैं जो दहेज-प्रथा या पर्दा प्रथा के खिलाफ जा पा रही हैं ? लिखित दस्तावेज के अलावा भी एक सच है जो कभी सामने नहीं आ पाता, पहले उन छिपे दर्द का सर्वे करने की जरूरत है।
अपनी परिस्थितियों से जूझते हुए चेतना विकसित होना और विरोध कर जाना तथा शिक्षित होकर अपना निर्णय लेना दोनों में अंतर है। बेशक आज लेखन में महिलाओं की संख्या अधिक दिख रही है, वे सामने से अपना निर्णय भी लेते हुए दिखाई दे रही हैं किंतु इक्की-दुक्की महिलाओं को छोड़कर प्रकाशन, पुरस्कार, प्रसिद्धि के लिए वर्चस्ववादी सत्ता से अदृश्य जाल में फंसी हुई भी दिखाई देती हैं। यांत्रिक संचालित जाल को जबतक काट कर अपने आपको निर्णय के योग्य नहीं बनाया जायेगा तबतक सही अर्थों में स्त्री-विमर्श हो नहीं पायेगा। यह जाल देह, बाज़ार, ब्युटी-मिथ, मीडिया आदि स्त्रियों के भलाई के नाम पर अलग-अलग रूपों में फैला हुआ है।
पूर्वांचल के आलोचकों को आप किस रूप में देखती हैं? आपकी नज़र में आलोचना क्या है ? खासकर महिला आलोचकों की बात की जाए तो उनकी संख्या इतनी कम क्यों है ? हम देखते हैं कि वही गिने-चुने नाम हैं- जैसे आशारानी व्होरा, सुमन राजे, निर्मला जैन आदि। इनसे आगे कोई क्यों दिखाई नहीं दे रहा ? क्या वे आगे टिके रहने, घात-प्रतिघात करने या अधिक प्रतिक्रिया देने की कठिनाई से आशंकित रहती हैं ?
इस प्रश्न का उत्तर मैंने जो कथा साहित्य के विषय में दिया था वही उत्तर आलोचकों के विषय में भी है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने आलोचना का प्राण फूंक दिया था बाद में आने वाले आलोचकों ने तो आलोचना के शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनाने में मदद की है। हजारी प्रसाद द्विवेदी, नामवर सिंह, परमानंद श्रीवास्तव, विश्वनाथ त्रिपाठी, विश्वनाथ तिवारी, चैथीराम यादव आदि आलोचकों के बिना आलोचना जगत् भी पंगू हो जायेगा।
मैंने आपके द्वारा लिखी हुई समीक्षा देखी जिसमें तटस्थ आलोचना के बिन्दु समाहित हैं। आपमें एक अच्छे आलोचक की अपार संभावनाएँ दिखाई देती हैं। यह बात आप सामने हैं इसलिए मैं नहीं कह रही, बल्कि आप में छुपे आलोचक के गुण को ध्यान में रखते हुए कह रही हूँ।
आपने सुमन राजे का नाम लिया। मैं समझती हूँ कि सुमन राजे को हल्के में नहीं लेना चाहिए क्योंकि हिन्दी आलोचना में जो कार्य आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने किया है, आलोचना के क्षेत्र में आधी आबादी को सामने ले आने में वही कार्य सुमन राजे ने किया है। सुमन राजे मध्यांचल से आती हैं। मध्यांचल से शालीनी माथुर भी हैं, वे सामाजिक कार्यकर्ता हैं और बेबाक आलोचक भी हैं। वे काफी लम्बे समय तक कथादेश और पाखी में लिखती रही हैं। इन दिनों तहलका में उनकी आलोचना छपी है- ‘मर्दों के खेला में औरतों का नाच’। इस समय हिन्दी में यह ऑनलाइन सबसे अधिक पढ़ी जाने वाली आलोचना साबित हो रही है।
पूर्वांचल में कात्यायनी जी की माक्र्सवादी दृष्टि को नहीं भूला जा सकता तथा इस समय युवा आलोचकों में डॉ. सुनीता को ले लीजिए। डॉ. सुनीता आलोचना के टूल्स को विस्तार दे रही हैं और पुराने ढ़र्रे को तोड़ती हुई आगे बढ़ रही हैं।
इन महिला आलोचकों में जो निर्भिकता, तटस्थता, बेबाकीपन और सम्यक दृष्टि दिखाई दे रही है, वह अत्यंत सराहनीय है।
आलोचना के क्षेत्र में महिला आलोचकों के कम होने का मुख्य कारण उनकी जमीनी शुरूआत का देरी से प्राप्त होना है। आप जानते हैं साहित्य पर वर्चस्व पुरूषों का रहा है, वैदिक काल से लेकर आधुनिक युग तक महिला-लेखन को लगातार एक सिरे से खारिज किया जाता रहा है। इक्की-दुक्की महिलाओं का आना सराहनीय हो सकता है पर किसी बड़े बदलाव की कामना नहीं कर सकते। महिलाओं ने कलम उठाई तो अपनी संवेदना को प्रवाहित किया। जब उन्हीं की रचनाओं पर ऊँगली उठाई जाती रहेगी, आरोप लगेंगे तब वे कहाँ से आरोप लगाने वालों की रचनाओं पर आलोचना कर सकेंगी ! किसी और की रचना पर आलोचना करने के लिए पहले साहित्य जगत् में कदम रखने की जमीन का होना आवश्यक है, वह भी मजबूत जमीन, भूरभुराने वाला नहीं। महादेवी वर्मा ने भी जब श्रृंखला की कड़ियाँ लिखी तब वे कवयित्री के रूप में स्थापित हो चुकी थीं।
अब जब महिलाओं ने रचनात्मक जमीन तैयार कर ली हैं तब उन्होंने अन्य विषयों पर सोचना शुरू कर दिया है। भारत में महादेवी वर्मा के बाद सुमन राजे, आशारानी व्होरा, निर्मला जैन, प्रभा खेतान, रोहिणी अग्रवाल, के. वनजा, माणिक्याम्बा मणि, सुधा उपाध्याय, सुधा सिंह, डॉ. सुनीता आदि का नाम सामने आता है। ये महिलाएँ बड़ी ही प्रखर आलोचक हैं। घात-प्रतिघात झेलने से सशंकित रहने का समय एक अवस्था तक ही रहता है, अब तो अपनी बात रखने का समय है।
यदि आप मेरी नज़र में आलोचना क्या है जानना चाहते हैं तो मुझे लगता है कि साहित्य के अस्तित्व निर्धारण में आलोचना की भूमिका अनिवार्य है। आलोचना हमेशा व्यक्ति विशेष के लिए सुंगधित रंग-रोगन से दूर साधारण, खरी, सम्यक एवं तटस्थ होना चाहिए। एक तटस्थ आलोचक दूरदर्शी होता है, वह साहित्य को देखते ही भाँप लेता है कि भविष्य में कौन-सी रचना अपनी जगह बना पायेगी और कौन-सी नहीं ?
ऐसे में एक तटस्थ आलोचकों के सामने भी एक समस्या है कि आज कल लेखकों को तटस्थ एवं ईमानदार आलोचना स्वीकार ही नहीं होता। लेखक आलोचना को सकारात्मक तरिके से लेने के बजाय उसे नकारात्मक समझ आलोचकों पर ही बरसना शुरू कर देते हैं। लेकिन इससे लेखक को ही नुकसान है। व्यक्तिगत तौर पर रखे जाने वाले आलोचक कुछ दूर तक साहित्य को खींच तो सकते हैं लेकिन भविष्य में उसे स्थापित करने के लिए रचना को स्वयं भी संघर्ष करना होगा।
प्रतिष्ठित लेखकों के बीच नए लेखक अपनी जगह बनाने में क्या सफल हो पा रहे हैं ? क्या साहित्य की मुख्यधारा में तटस्थता के साथ आज नए लेखकों को अपनाया जा रहा है ?
केतन जी, मुझे बहुत डिप्लोमैटिक बातें नहीं करनी आतीं। इसका जवाब कोई सुनना नहीं चाहेगा, ये अलग बात है कि लगभग सभी नवलेखक इसी स्थिति से गुजरते हैं। यदि उनमें वंशवाद, जातिवाद, पक्षवाद, टुच्चावाद, लेपनवाद, लतावाद या बेलवाद नहीं है तो हर लेखक को इग्नोरवाद से गुजरना पड़ता है।
हो सकता है कि यह सबके साथ न हो। लेखकों की अपनी एक राजनीति होती है, जिसे नए लेखक समझ नहीं पाते। भगवान समझ कर या आदर्श इंसान से कुछ और ऊपर समझकर लेखकों से परिचित होने वाले पाठकों, शोधार्थियों या अनुशंसा-प्रसंशा करने वालों का मोहभंग सही अर्थों में तब होता है जब वह स्वयं लेखक बनने की प्रक्रिया में होता है। यदि नया लेखक एक अच्छा पाठक, समीक्षक या आलोचक है तो प्रतिष्ठित लेखक उसे उसी रूप में देखना चाहता है, लेखकों की विपन्नता कहें या प्रतिष्ठा की आकांक्षा में छुपी असुरक्षा की रूग्णता नए लेखकों को स्वीकृति देने से पहले उसे खत्म कर देने की चाह में होती है। इसका बड़ा अच्छा उदाहरण एक लाइव कार्यक्रम साहित्य का गैंगवार था, जिसमें ये सच्चाई बड़े भयानक रूप से सामने आया था। लेखक सबसे अधिक संवेदनशील होता है लेकिन उसकी संवेदना प्रतिस्पर्धा में आकर धुमिल हो सकती है। हो सकता है लोग इस बात से असहमत हों और यह सभी लेखकों पर लागू भी नहीं होता। लेकिन नए लेखकों की मासूमियत को लेखकीय राजनीति लील लेती है और नया लेखक या तो हंस की खाल पहन लेता है या अपनी खोह में वापस लौट जाने के लिए विवश हो जाता है।
अपनाने की बात यह है कि जो लेखक अपनी रचनाओं पर लिखवाने के लिए घंटों-घंटों आपसे फोन पर बात करेंगे, आपको अपनी किताबें भिजवायेंगे वही लेखक आपकी रचना पर चुप्पी साध लेंगे। उनके विशाल हृदय का खालीपन तब दिखेगा जब वे आपसे कुछ दिनों के लिए कन्नी काटकर बचने लगेंगे। और जितने भी संबंध मातृत्त्व, पितृत्व, भगिनी, भाईचारा जुड़ा हो वह सब पतनोन्मुख हो जायेगा। ये शुरूआत में सबके साथ होता है उनके साथ भी हुआ होगा। यह वह समय होता है जब बहुत से नए लेखक एक प्रतिष्ठित बैसाखी ढूँढने लगते हैं या फिर यदि नया लेखक सारे अंतर्विरोधों को पार कर अपनी जगह बनाने में कामयाब हो जाता है तो उसे उन्हीं कन्नी काटने वाले लेखकों से स्वीकृति भी मिलने लगती है। बहुत बार नवलेखकों को पुरस्कृत और संवेदना की मूर्ती कहे जाने वाले लेखकों के द्वारा चाशनी में लिपटी छूरी भी दिखाई देगी, जो समझे से परे होता है। यह जानने के लिए फेसबुक के प्लेटफार्म पर आप सिर्फ ऑव्जर्ब कीजिए, हर दिन आपको नजदीकी और टूटन देखने को मिलेगी। इसमें भी वंशवाद, लॉबी, गैंग कई तरह के फैक्टर्स् होते हैं। सभी लेखक ऊर्ध्वमुखी होते हैं, मानवीय स्वभाव है। इसलिए लेखकों के लेखन से प्रेम करना चाहिए उनके व्यक्तिगत स्वभाव पर मुग्ध होने की आवश्यकता नहीं है।
नए लेखकों को हीनताबोध से बचते हुए साहस और धैर्य से काम लेना चाहिए और अच्छा से अच्छा लिखते रहने में विश्वास करते रहना चाहिए। किताब अपना सफ़र स्वयं तय करती है।
आज के समय में पूर्वांचल की कथाओं में क्या नवीनता दिखाई दे रही है ?
पूर्वांचल की कथाओं में सबसे बड़ा उफान भोजपुरी का दिखाई देने लगा है, यह पहले बिहार और राँची में अधिक दिखाई देता था। भोजपुरी भाषा का पुरस्कार पाने वाली सुमन सिंह पहली युवा रचनाकार हैं।
दूसरा कि 21 शताब्दी में बहुत-सी महिला रचनाकार सामने आयीं हैं, जो पारंपरिक मानवीय मूल्यों को सुरक्षित रखते हुए आधुनिक मूल्यों के साथ निरंतर आगे बढ़ रही हैं। दैहिकता से हटकर बौद्धिकता पर बल दे रही हैं, मिथकों के साथ छेड़खानी न करके मिथकों में नई दृष्टि प्रदान कर रही हैं। जिसके लिए किरन सिंह का उपन्यास ‘शीलावहा’ का उदाहरण सटिक है। कथाओं में प्रज्ञा पाण्डेय की ‘ऑफ ह्वाइट’, सोनी पाण्डेय जी का ‘बलमा जी का स्टूडियों’, दिव्या शुक्ला का ‘ठौर’, मृदुला शुक्ला की ‘दातुन’, डॉ. सुनीता की ‘सियोल से सरयू’, चन्द्रकला त्रिपाठी का ‘चन्ना तुम उगिहो’, दीपिका सिंह का ‘इश्कियाना’, मीना पाठक की ‘घुरिया’, शोभा मिश्रा की ‘बिट्टी की डायरी’, सपना सिंह की ‘उम्र जितना लम्बा सफर’ आदि को देख सकते हैं। इनके अतिरिक्त सोनम सिंह, ममता सिंह, आभा ठाकुर सिंह, प्रज्ञा सिंह, इन्दू श्रीवास्तव, रूचि भल्ला, गति उपाध्याय, वसुन्धरा पाण्डेय, शोभा अक्षर आदि कई लेखिकाएँ हैं जो बहुत अच्छा लिख रही हैं। नवीनता के लिए ‘शिलावहा’ तथा ‘सियोल से सरयू’ पढ़ लेना काफी होगा.....
***********************************************************************************
सुप्रसिद्ध लेखक गिरधर राठी का रेनू यादव के नाम पत्र
बजट और रोटी
हलक में अटक
गई है रोटी
चढ़ गई सुरहुरी
धीरे-धीरे
गर्दन सहलाते
समय खखोरा
जाती है
पूरी नली
उगलने से नहीं
निकलती रोटी
निकलता है खून
खून खून नहीं
पानी है
बह रहा है नालों में
नालों में अब पसीने
कीड़े के भाव पर
हैं बिकते
साँतवें माले से झाँकती
चक-मक पत्थरों की आँखें,
चैंधियाँ जाती हैं
नग्न गंधीले पसीनों को
देख
मुँह बिचका कर
छिपा लेती हैं काले चश्मों से
और देखने
लगती हैं सुनहरा आसमान
हलक में अटकी रोटी
साथ-साथ घूम रही है
घर, ऑफिस, बाज़ार
ऊपर की साँस ऊपर
नीचे की साँस नीचे
जैसे अटक गया हो संसार
आम से बनना था खास
पर
मुँह खोलते ही
निकलती है आग
भरे बाज़ार में
पता नहीं कब किसके
धक्के से
गले में अटकी रोटी
आँखों से दिखाई देने लगी
जैसे पेट में पहुँचने
से पहले ही
हलक में ऊँगली डाल
किसी ने निकाल ली हो
या खुद ही कल्पना कर लिया
पेट में पहुँचती रोटी
के सफ़र को
या आँखों में
कई कई आँखें
उग आई हों
साँसें रोक आँखें पोंछ
उम्मीद बाँध हिम्मत के साथ
फिर से देखा आसमान
सचमुच
रोटी आसमान से ही
फेंकी गई थी और
इक्कीसवीं माले पर
थाम ली गई
या शायद रोटी उन्हीं
के लिए थी
इक्कीसवीं माले से नीचे
आने की उम्मीद से
सबकी हलक में
अटक गई रोटी ।
..........
***********************************************************************************
‘काला सोना’ पुस्तक समीक्षा
डॉ. एस. शोभना
स्त्री-अधिकारों को संरक्षित करने वाली मूर्धन्य कथाकार...
समकालीन युवा कथाकारों में स्त्री-विमर्श को एक नया आयाम देने वाली, स्त्री-अधिकारों को संरक्षित करने वाली मूर्धन्य कथाकार है- ‘डॉ. रेनू यादव’। लेखिका रेनू ने पितृसत्ता से आज भी निरंतर संघर्ष कर रही स्त्री की कहानी को सशक्त और दृढ़ आधार प्रदान किया है। वे अपनी कहानियों के माध्यम से समाज को उसका वास्तविक आईना दिखाती है।
‘काला सोना’ की कहानियाँ स्त्री-जीवन के संघर्षों की कहानियाँ है। समकालीन रचना परिदृश्य में जहाँ अन्य रचनाकार स्त्री के वजूद से जुड़े सवालों और सरोकारों तक ही सीमित दिखाई देते हैं, वही रेनू ऐसी कथाकार हैं जिन्होंने इससे आगे बढ़कर स्त्री-जीवन के महत्वपूर्ण सवालों को उठाया है और साथ ही अपनी गहरी संवेदना से कहानी को और भी तथ्यपरक और सत्य बना दिया है। इस कहानियों को पढ़ते हुए सत्य और कल्पना में भेद मिटती हुई सी प्रतीत होती है। यह कहानियाँ स्त्री-दासता के विरुद्ध खड़ी स्त्रियों का पाठ है जिसमें आधुनिक ही नहीं लम्बे अर्से से स्त्री-संघर्षों से जुड़ी कई अनकही बातों को बिना किसी शोर-शराबे के साथ पाठक तक ले आती हैं। ‘काला सोना’ के जरिए लेखिका उन तमाम कोनों को भी भरती हुई नज़र आती हैं जहाँ किसी का ध्यान अमूमन नहीं जाता।
‘काला सोना’ कहानी-संग्रह में 12 कहानियाँ संकलित हैं- नचनिया, काला सोना, वसुधा, मुखाग्नि, छोछक, कोपभवन, टोनहिन, अमरपाली, चऊकवँ राँड, डर, खुखड़ी, मुँहझौसी- यह नाम सिर्फ उन कहानियों में चित्रित पात्रों की ही कहानी नहीं बल्कि उन हजारों-लाखों स्त्रियों की जीवंत दशा का ऐसा चित्र है जो मन को झंकृत कर देती हैं। उन्होंने समाज में स्त्रियों के शोषण के उन पहलुओं की ओर भी हमारा ध्यान आकर्षित किया है जो स्त्री की अस्मिता को आहत करती हैं। पुरुषवर्चस्ववादी मानसिकता वाले समाज में स्त्री के स्वाभिमान, उसकी इच्छाओं और उसकी मनोकामनाओं को क्षत-विक्षत किया है। ‘नचनिया‘ संग्रह की पहली कहानी है जिसमें राजन को अपनी रुचि का अनुसरण करने के लिए समाज में स्वीकृति नहीं मिलती और सोनपरी को समाज में फूहड़ के रूप में देखा जाता है। नचनिया में लोक कलाओं और प्रतिभा संपन्न कलाकारों के जीवन के संघर्षों का जिक्र किया गया है। ‘काला सोना‘ बाछड़ समुदाय की कहानी है जहाँ एक माँ अपनी बच्ची को माहवारी आने तक ही बचाकर रख सकती हैं और उसके बाद पेट भरने के लिए बिजनेस में छोड़ना पड़ता है। इससे इस सच्चाई का पता चलता है कि समाज में स्त्री किसी न किसी रूप में पुरुष स्वार्थ और पुरुष दर्प का शिकार होती है। काला सोना ही नहीं वसुधा, मुखाग्नि, टोनहिन और अमरपाली कहानियाँ स्त्री की मर्म वेदना को अभिव्यक्त करती हैं।
‘छोछक’ कहानी मध्यमवर्गीय परिवारों में व्याप्त रीति-रिवाजों से उत्पन्न विवशता एवं वेदना का स्वर है। जो समाज में व्याप्त उन रीति-रिवाजों पर पुनः सोचने और विचार करने के लिए मजबूर करता है। ‘कोपभवन’ कहानी आधुनिक समय में कानून द्वारा मान्यता मिलने के पश्चात् भी समाज में समलैंगिकों की अस्वीकृति तथा उनकी पीड़ा एवं संघर्ष की कहानी है। ‘डर‘ कहानी में कोरोना काल में लगे लॉकडाऊन के समय में क्या भयानक स्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं तथा देश की स्थिति कितनी दयनीय हो सकती है, के डर को दर्शाया गया है।
लेखिका की कहानियों का कथानक स्त्री-मन पर आधारित है। उन्होंने स्त्री मन के कोने में बरसों से दबी सिसकियों को अपनी कहानियों में कुछ ऐसे बुना है कि कहानियाँ सजीव हो उठती हैं और पात्र जीवंत हो जाते हैं। यह सब कहानियाँ स्त्री-जीवन की विडंबना को दर्शाती हैं। स्त्री अपने जीवन के हर क्षण कभी स्वयं से, कभी अपने आसपास के लोगों से, कभी समाज से संघर्ष करती रहती है। वर्चस्ववादी सत्ता में पैसों के लिए मोहताज दादी, वसुधा का अपने अस्तित्व को बचाने का प्रयास, आम्रपाली का अपनी जिंदगी को पुनः बनाने का प्रयास, राधिका का अपने बेटी को अधिकार दिलाने की छटपटाहट आदि सब पाठक के हृदय को संवेदित करते हैं। इन कहानियों को पढ़ने पर यह प्रश्न में उभरता है कि क्या यही स्त्री की नियति है ? या उसके अस्तित्व की स्वतंत्रता की मांग है ?
कोई भी रचनाकार कभी भी अपने तक सीमित नहीं रहता। वह अपने समाज और अपने वर्ग की प्रतिनिधि के रूप में अपने साहित्य का सृजन करता है। इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि लेखिका की रचना में शोषित-पीड़ित, वंचित वर्ग की पीड़ा और स्त्री मन की वेदना मुखरित हुई हैं। यह उम्दा व भावप्रधान कहानियों से परिपूर्ण संग्रह है। चिंतन और मनन के माध्यम से जो ताना-बाना बुना गया है, वह काबिले तारीफ है। उसे बिना, लाग-लपेट के सरलता से व्यक्त करना उत्कृष्ट कहानीकार की छवि को दिखाता है।
किसी भी रचनाकार की ताकत उनकी भाषा होती हैं भाषा को ताकत शब्दावली से मिलती है, लेखिका ने भाषा और शब्दों का चयन कहानी की परिवेश के अनुसार किया है। हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि लेखिका की भाषा एवं कृति प्रेरणादायक है। आधुनिक गद्य क्षेत्र में लेखिका की यह कहानी-संकलन एक सार्थक हस्तक्षेप है और आशा है कि वे साहित्य सृजन के क्षेत्र में लगातार आगे बढ़ती रहेंगी और हिंदी साहित्य भंडार की वृद्धि में अपना योगदान देती रहेंगी।
-डॉ. एस. शोभना, विभागाध्यक्ष, संत जोसेफ महाविद्यालय, मैसूर
***********************************************************************************
कविताएँ
गुमनाम
गुमनाम होना भी एक पहचान है
और मैं गुमनाम हूँ
अधजली रोटियों का कच्चापन
पसाया हुआ माड़
साग की अलुणाई
कवर उठाए ऊँगलियों की पियराई
सुड़की हुई चाय का बट्टा
खा कर फेंकी हुई पतरी
जाड़े में ककटा बर्तन
कई दिनों से सड़ता डस्टबिन
कंघी में फंसे बाल
शीशे पर चिपकी बिन्दी
बलाई लेती सेनूर भरी दीवार
कमीज की चिगूँरन
उखड़े हुए बटन
बिस्तर की सलवट
मुँह लटकाएँ फूल
छत पर जमें पीपल
रात में घर की बुहारन
घर लौटते कदमों के कीचड़
चाऊर की फटकन
दाल की कंकड़
दातून का चिट्ठा
दऊरी की मूँज
गड्ढे का नर्कट
नहर की बेहा
सड़क में घुली कोलतार
बाज़ार में पिछवाड़े की दुकान
साड़ी में मॉडल की तस्वीर
अऊँसाती गर्मी
घुप्प अन्हार की दृष्टि
गूलर के फूल
भक्क से भभकती ढ़ीबरी
चन्न से चटकता बल्ब
बिना नाम के आख्यान
सब तो गुमनाम ही है
फिर भी होती ही हैं कहीं न कहीं
भला बयार की मासूम छूअन
पानी का रंग
शून्य का विस्तार
गंध का बिखरना
किसने देखा है
किसने पहचाना है भला ? ...
तुम्हारा जाना
तुम्हारा जाना भी क्या जाना है
कुछ कुछ मुझमें रह जाना है
जैसे बची रही जाती हैं
तुफान के गुजरने के बाद
तहस नहस झोपड़ियाँ
पेड़ से टूटी हुई डालियाँ
बिखरे तिनके, सूखे पत्ते, उखड़ी जड़ें
कली कचनार की क्यारियाँ
जैसे ओले के थपेड़ों से
टीसते घाव
आँसूओं के नूनछार से
गालों का छरछराना
अचानक से बंद करते हुए
दरवाजे से ऊँगलियों का पिस जाना
जैसे फसल की पराल
चूल्हे की बची राख
घर जलने के बाद धुँआता मन
जले कपूर के धब्बे
हवन की भभूत
चिता की अस्थि
या
ठिठकी धूप में
मुँह उचकाता चाँद