अभिनव इमरोज़ सितंबर 2022

 


इदं न मम

तद् वै राष्ट्रमा स्रवति,

नावं भिन्नामिवोदकम् ।

ब्रह्माणं यत्र हिंसन्ति,

तद् राष्ट्रं हन्ति दुच्छुना ।। अथर्ववेद



ब्रह्मज्ञानी पर जहाँ हिंसा हुई

फिर वहाँ विध्वंस फिर दुर्गति हुई

छिद्र वाली नाव ज्यों जलधार से

स्रवित होता राष्ट्र इस अपकार से


काव्यानुवाद: श्री सत्य प्रकाश उप्पल

मोगा (पंजाब), मो. 98764-28718

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कविता

डॉ. निशा नंदिनी भारतीय 

तिनसुकिया, असम, मो. 09435533394

ईमेल: nishaguptavkv@gmail.com



प्रेमी पुस्तक 


जब होती थी मैं उदास

तब ये लगाती थी मुझे गले

आज इसको गले लगाकर 

जीवन का आनंद पा लिया। 


अब तो सुबह भी इससे 

और रात भी इससे होती है

अब इसके बिना कहां 

जिंदगी बसर होती है।


इसके ओझल होते ही 

मन उदास हो जाता है

भूत-भविष्य में उलझकर

वर्तमान खो जाता है। 


चुपके से मेरे पास आकर 

बहुत कुछ कह जाती है

भटके हुए मुसाफिर को

अंदरूनी सुकूं दे जाती है। 


चिलचिलाती धूप जलती रेत में 

ये सावन की ठंडी फुहार है

निराशा की कालकोठरी में

आशा की प्रज्वलित आग है। 


इसके साये में रहकर 

निडर-निर्भीक रहती हूँ 

खाली कमजोर हाथ से

दुनिया से जूझ लेती हूँ। 


अब डगर यही नगर यही 

गली-मोहल्ला भी यही

अब तो रास्ता भी यही

जीने-मरने की मंजिल भी यही।


पाऊँ अगर सौ बार जन्म

आगोश इसका ही मिले

इसके दामन का बन सितारा

धरती आकाश करूं उजियारा।

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प्रकृति का रोष

 सृष्टि की रचना प्रकृति के आश्रय से माया द्वारा प्रभु की इच्छा से संपन्न हुई। प्रभु ने कर्म का कठोर विधान बनाया। अनगिनत साधन उपलब्ध कराए। भगवान ने कर्म की कसौटी पर अच्छा-बुरा समझने की बुद्धि प्रदान की। इन सबके साथ उसने मानव की रचना की, जिसे अपनी सभी शक्तियों से सुसज्जित किया। इसे ज्ञान की पात्रता भी मिली। लोक और परलोक को ईश्वरीय नियमों से बांध दिया गया। यही नहीं, पृथ्वी पर मानव की भूमिका भी तय की गई, पर मानव ने शक्तियों का सदुपयोग कम, दुरुपयोग 

अधिक किया। बुद्धि को अच्छाई में कम, बुराई में अधिक प्रयुक्त किया। ज्ञान को विज्ञान की ओर प्रवृत्त किया। सद्कर्म के स्थान पर दुष्कर्म का वरण किया। प्रकृति के विपरीत अपनी शक्ति को संधानित किया। विवेक त्याग कर अहंकार के वशीभूत मौलिक तत्वों पर इतना कुठाराघात किया कि आज प्रकृति का कोपभाजन सभी प्रणियों को भोगना पड़ रहा है।

मानव अपनी प्रतिभा की परख कर सफल हो सकता है प्रकृति का रोष तभी शांत होगा, जब मानव अपने कर्म-रथ को उद्देश्यपूर्ण पथ पर खड़ा करे और ईश्वरीय नियमों का पालन करते हुए जीवन के लक्ष्य का संधान करे। कर्म-अकर्म की साधना में नैसर्गिक संतुलन को हर क्षण संभालना चाहिए, अन्यथा विपरीत परिणाम का दंश अनिवार्य है। जैविक प्रवंचना ने तत्वों के रासायनिक विघटन को महासंकट का परिणाम पृथ्वी पर प्रकट किया है। इसलिए सावधानी के साथ जीव धर्म या जीवन पद्धति को पुनः अपनाने का समय शेष है। प्रभु की सृजनात्मक शक्तियों को विध्वंसात्मक कार्य में लगाने से प्रकृति का कोप एक बड़े अनर्थ की ओर ले जा रहा है, इसे रोकने का पुरुषार्थ अवश्य किया जाय। संहार नहीं, संभार की ओर चला जाय।

प्रकृति ही जीवन का पोषण करती है, उसकी मर्यादा को ठीक उसी तरह सहेजना चाहिए, जिस प्रकार जननी की मर्यादा को सुरक्षित किया जाता है।



श्री प्रफुल्ल सिंह ‘‘बेचैन कलम‘‘

युवा लेखक/स्तंभकार/साहित्यकार

लखनऊ, उत्तर प्रदेश 

सचलभाष/व्हाट्सअप: 6392189466, 

ईमेल: prafulsingh90@gmail.com


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गीत

तेरा द्वार बंद देखा तो, दीपक चैखट पर रख आये।

मुझे पता क्या बंद घरों में,

अँधियारा की अकुलाता है

दीवारों से, दरवाज़ों से

टूट-टूट कर बतियाता है।


उसको लगता जाने बाला

कभी लौटकर आयेगा ही।

अपनी मधुरिम पदचापों से

रूनझुन स्वर में गोय गाही।


कहीं किसी संदों से होकर, उजियारा तेरे घर आये।

तेरा बंद देखा तो, दीपक चैखट पर रख आये।

कहीं रहो पर एक दिया तो

घर में स्वयं जलाने आओ।

दरवाज़ों की, दीवारों की,

व्यथा-कथा कुछ तो सुन जाओ।

ऐसा भी क्या, घर ने भी तो

तुम्हें सहेजा दुलराया है।

खेल-खिलौने बंद से

इसको भी सजवाया है।


खालीघर के सूनेपन को, हम थोड़ा जगमग कर आये।

तेरा द्वार बंद देखा तो, दीपक चैखट पर रख आये।


सुश्री माधवी कपूर, नवी मुम्बई, मो. 9819898227

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                        संपादकीय 


हिन्दी दिवस कि शुभकामनाएँ:

हमारे पाठकों की संख्या में बहुत बड़ी वृद्धि संकेत है कि पाठक वर्ग विस्तार पा रहा है। नवोदित लेखकों का योगदान भी प्रशंसनीय है। हमारी वेबसाईट पर 1,25,244 पाठक पधार चुके हैं आजतक। इसी तरह अगर आप का सहयोग बना रहा तो उम्मीद है वर्ष 2023 के अंत तक यह संख्या ‘दो-गुणी1 (दोगुनी) हो जाएगी। कृपया सहयोग एवं सौहार्द बनाएँ रखे।

एक अत्यंत महत्वपूर्ण सूचना: 

अगस्त अंक से ‘‘उभरती हुई प्रतिभाओं को ‘अभिनव इमरोज़’ एवं ‘साहित्य नंदिनी’ के माध्यम से एक विशेष मंच प्रदान करना आरम्भ कर दिया है और नवोदित लेखकों के कृतित्व एवं व्यक्तित्व को समग्रता में पाठकों/विद्यार्थियों और शोधार्थिओं के समक्ष प्रस्तुत करने की योजना भी बन चुकी है। आप सब से अनुरोध है कि उभरती हुई प्रतिभाओं को उनके प्रोत्साहन हेतु अपने साहित्यिक परिवार ‘अभिनव इमरोज़’ एवं ‘साहित्य नंदिनी’ से जोड़ें और हिंदी साहित्य को और अधिक समृद्ध करने में अपनी क्रियाशीलता, साकारात्मकता और विशाल सहृदयता की मिसाल पेश करें। 

आओ! एक समृद्ध हिंदी साहित्यिक समाज का निर्माण करें... 

चूर-चूर कर दें एकरसता को

ऐसा अनुभव करें कि आ जुटा है एक परिवार 

अपने उत्साह, तरंग और उमंग लिये

हँसने खेलने और आने वाली पीढ़ियों को

नैतिकता की वसीयत के साथ

एक पायेदार अदबी विरासत सौंप जाने के इरादे से

1. दो-गुणी: विषयवस्तु एवं शिल्प शैली, को परिष्कृत करने का प्रयास।


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विशिष्ट जन जातीय शोधांश

सुश्री कश्यप प्रभा डोगरा


जीवन नदिया बहती जाती

आज बातों ही बातों में जो विषय उठ गया, उसने मुझे कलम उठाने और इस जीवन की नदिया के उद्गमकी खोज में लिखने को प्रेरित किया!

यहाँ यह बतादूं कि अधिकांश तथ्य माँ के मुख से कई बार सुने थे, लखनपालों के मुकेरियां में बसने जैसे तथ्य बाद में मायके से नाता रखने वाले व्यक्तियों से भी सुनने को मिले।

जबकि पिताजी के मितभाषी होने के कारण ताऊ चाचा व गाँव के अन्य परिजनों से पिताजी के तरफ का इतिहास के कुछ तथ्यों पता चला, उन्हीं को आधार बनाकरएक शोध सा किया है, न जाने मैं कितनी सफल हुई हूँ!!

यह दस्तां है दो व्यक्तियों और उनके परिवारों की; इसमें मैंने चेष्टा की है कि इन दो व्यक्तियों ( मेरी माँ और पिताजी) के परिवारों की जीविका और परिस्थितियाँ कैसी थीं और उन दोनों ने कैसी कैसी कठिनाइयाँ झेलते हुए हम सबकी परवरिश कर हमें योग्य बनाया कि मैं आज यह छोटा सा प्रयास कर रही हूँ! शायद इसमें त्रुटियाँ हो, सुधिपाठक क्षमा अथवा त्रुटिपूर्ण करें। 

मेरे-माता पिता के परिवार दो विंभिन्न दिशाओं से आए फिर समय के साथ यहाँ ऐसे रच बस गए कि यह देश उनकी मातृ भूमि, यहाँ के रीतिरिवाज व मिट्टी की 

सुगंध उनके श्वासों में बस गई!! मेरा सौभाग्य है कि दोनों परिवारों का लहू मेरी रगों में दौड़ता है!

इस कहानी के मुख्य पात्र श्री मदन गोपाल कश्यप और श्रीमती निर्मला कुमारी हैं।

शिवालिक की तलहटी की निचली पहाड़ियों में बसे गाँव रकड़ी (दातारपुर) के निवासी कश्यप परिवार की विभिन्न शाखाओंमें से डॉक्टर श्री हरिराम जी के तीन बेटों 

1. रघुवीर दत्त जी, 2. अम्बा प्रसाद जी और 3. मदन गोपाल जी रहे हैं। 

हरीराम जी के पिता नत्थू राम जी ने किन्हीं कारणों से दूसरा विवाह किया था। हरीरामजी पहली पत्नी की औलाद थे, उनकी दूसरी माँ तीखे स्वभाव की थीं। उनके पिता नत्थू राम जी पारिवारिक व्यवसाय खाँड़ बनाने (खांची लगाने) का कामकरते थे। वे बालक हरीराम को भी यही काम करने को कहते, उन्हें इसी व्यवसाय में लगाना चाहते थे। हरीराम के मन की उड़ान ऊँची थी, उनका मन इस व्यवसाय के कामों में न लगता!

वे पढ़ना लिखना चाहते थे। किसी भी तरह वहाँ से बाहर जाने को व्यग्र रहा करते; एक तरफ माता-पिता का कठोर व्यवहार व ताने दूसरी तरफ उनके सपने; बालक हरीराम उदासमना रहने लगे।

बालक हरीराम के सगे मामा उन दिनों फौज में थे, जब आते हरीराम का हाल देखते, एक बार वे हरीराम को अपने साथ ले गए। ये मामा उन दिनों की अंग्रेजी फौज में ‘मेडिकल वींग‘ में थे और किसी आर्मी डॉ के साथ पोस्टेड थे।

उन्होंने हरीराम को आरंम्भिक शिक्षा दिलवा दसवीं पास करवाई। यहीं मामा को डॉक्टरों के साथ मरीजों की दवा व सेवा करते देख हरी राम को लगा यह मानव कल्याण का कार्य है औरऐसे उनमें डॉक्टरी की ओर उन्मुख होने के संस्कार पड़े ? उनके मामा ने उन्हें लाहौर के उन दिनों के मेडिकल कॉलेज में दाखिला दिलवाया। यहीं से उन्होंने स्ण्ैण्डण्थ्ण् का दर्जा पाया। इस प्रकार बालक हरीराम डॉ हरीराम बन गए।

डॉ. हरीराम को पंजाब, अविभाजित पंजाब स्टेट (पश्चिमी पाकिस्तान, आज के हिमाचल व हरियाणा सहित) में डॉ. की नौकरी मिली। हिमाचल व पंजाब के विभिन्न स्थानोंपर कार्यरत रहे, जैसे उनमें से कुछ रामपुर हलेर, गढशंकर आदि पंजाब व बिलासपुर व अन्य हिमाचल के थे।

बिलासपुर नगर और वहाँ के राजा का महल सब बाद में बने जो भाखड़ा डैम में जलमग्न हो गए हैं! नया बिलासपुर नगर उसके आस पास बन गया है। यही पुराना बिलासपुर के राजा के पास एस्टेट डॉ. हरी राम जी कार्यरत थे। यही पुराना बिलासपुर मेरे पिता यानी डॉ. हरी राम जी के सबसे छोटे पुत्र मदन गोपाल जी की जन्म स्थली है!

दातारपुर उसकी एक ऊँचे टीलानुमा पहाड़ी पर रकड़ी गाँव में बसे कश्यपों का ख़ानदानी काम गन्ने के रस से देसी शक्कर (खाँड़) बनाना था। इस व्यवसाय से अर्जित संचित धन को ब्याज पर भी देने का चलन धीरे धीरे शुरू हो गया था। संचित धन को व्याज में दे कर सूद (सरमाया) लेने के कारण रकड़ी के कश्यपों को ‘सरमाईये‘ भी कहने का चलन लोगों में चल पड़ा। यहाँ यह दिलचस्प तथ्य बताना भी चाहूँगी कि रकड़ी के कश्यपों को ‘‘मरालिए‘‘ भी कहा जाता है! यह एक ऐसा तथ्य है जिसके कारणों को जानने में मेरी सदा उत्सुकता रही है; अब जब कश्यपों के बारे में लिखने की सोची तो मन में इस उत्सुक्ता ने फिर सर उठाया!

रकड़ी व दातारपुर में अब भी रह रहे मेरे रिश्तेदारों, चाचा कुछ दूर के रिश्ते से भाइयों आदि ने कहा कि हमारे पुरखे किसी ‘‘मराल देश‘‘ से आकर यहाँ रकड़ी (दातारपुर) बस गए थे। 

अब सवाल उठा कि वह कौन सा आधुनिक देश है जो कभी ‘‘मराल देश‘‘ कहाता होगा ?! 

इस गुत्थी को सुलझाने में मैंने अपनी बेटियों से मदद ली। कम्प्यूटर, इन्टरनेट और वीकीपीडिया के जमाने में हम कुछ भी हों अपने बच्चों के सामने ‘‘प्रागैतिहासिक‘‘ काल के लगते हैं!! नतीजा जल्द सामने आया; ‘टर्की, मंगोलिया और एक किसी यूरोप के देश में हिरण को और स्पेन में राजहंस (फ्लैमिंगो) को ‘‘मराल‘‘ कहा जाता है! 

बच्चों की मदद लेने से पहले मैंने भी हिन्दी/संस्कृत की डिक्शनरी में ‘‘मराल‘‘ शब्द का अर्थ जानने की कोशिश की थी, वहीं पता चला कि राजहंस, हाथी और घोड़े को भी मराल कहा जाता है! डिक्शनरी देखने के पीछे मक़सद था, जहाँ यह जीव ‘मराल‘ अधिक मिलता होगा वही मराल देश कहाता होगा।

इधर बेटियों ने वीकीपीडिया और गूगल सर्च करके बताया कि टर्की मंगोलिया और एक और किसी यूरोपियन देश में हाथी को भी ‘‘मराल‘‘ या ‘‘मीराल‘‘ कहते हैं।

अब सवाल उठा ऊपर कहे तीनों देशों में से वो कौन सा देश रहा होगा जहाँ से हमारे पूर्वज आए होंगे या वह कौन सा देश होगा जो उस समय के उत्तर पश्चिमी इलाके (आज का हिमाचल प्रदेश) के सबसे क़रीब रहा होगा जहाँ सेउस काल के भारत में प्रवेश कुछ कमतर कठिनाइयों का सामना करना संम्भव रहा होगा!! 

अपने बचपन (आज मेरी उम्र 75 वर्ष की है) में दिखाए; छपे ‘‘यूरेशिया‘‘ के नक़्शे में हिमालय पर्वत श्रंृखला अर्थात् कश्मीर के उत्तरी भाग के बाद जो पठारी इलाक़ा है वह विश्व का सबसे ऊँचा पठार होने की वजह से ‘‘ दुनिया की छत‘‘ कहलाता है! यह सारा इलाक़ा उस समय मंगोलिया कहलाता था, इसके उत्तरी भाग का सारा इलाक रशिया था!! 

मुझे लगता है कि कश्यपों के पूर्वज किन्हीं सामाजिक, प्राकृतिक या राजनैतिक करणों से काश्मीर और मंगोलिया के बीच हिमालय श्रृखला में उस काल में रहे दर्रों (पासेज) में से होकर या ‘‘सिल्क रूट‘‘ से विभिन्न काल में रुकते, बसते बसाते दातारपुर(रकडी) में आ बस गए! 

मेरी इस धारणा के कई कारण हैं-

  1. मंगोलिया में हिरण को ‘‘मराल ‘‘या मीराल‘‘ कहते हैं।
  2. हम रकड़ी के कश्यपों को ‘‘ मरालिए‘‘ कहते है; फिर एक बात है जो ‘‘मरालियों की मंगोलिया वासियों सी है वो है हमारे नैन नक्श!
  3. इस समय एक दिलचस्प बात याद आती है मैं अक्सर अपने पतिकी मजाक़ में की टीकटिप्पणी (मेरी मोटी नाक) पर कहती हमारे नैन नक़्श मंगोलियों से हैं। 
  4. हमारी आँखों के पपोटे (ऊपर का माँस) भी उभरे और भारी होते हैं!!

जब मैंने यह कश्यपों (मेरे पिता के कुनबे) पर लेख लिखने का विचार बनाया तो उपरोक्त सभी तथ्यों को खोजने परखने के बाद मिले तथ्यों से अचंम्भा भी हुआ और लगा कि यह तथ्य वाक़ई मायने रखते हैं!!

तो यह है कहानी मेरे पिता व उनके उन कश्यपों के ख़ानदान या कुनबे की!

तो अब एकबार फिर हमारे पिता के निकटस्थ बुजुर्ग नत्थूराम जी के उस पुत्र की ओर वापस चलते हैं, जो विभिन्न बाधाओं और कठिनाइयों के बाद डॉ. का दर्जा और मानव कल्याण के लिए कटिबद्ध हुए! उन्होंने अपने पहाड़ी इलाक़े में रह कर प्रैक्टिस चलाने का विचार जब किया तो उन्हें सबसे पहले अपनी सौतेली माँ का ख़्याल आया। वे अपना अलग घर बना वहाँ से प्रैक्टिस करने का विचार करने लगे! नौकरी कर वे इतना धन अर्जित कर चुके थे कि अपने सपने को सार्थक कर पाएँ! वहीं रकड़ी के हम कश्यपों के ‘‘वेड़े‘‘ (साझा आँगननुमा बहुत बड़ा जमीन का टुकड़ा जिसके आस पास सभी एक ही कुनबे वाले बसते हैं) से कुछ हट कर पर ‘‘वेड़े‘‘ में ही एक टीले नुमा ज़मीन पर अपना हवेलीनुमा घर बना लिया! 

इस घर की सबसे बडी उल्लेखनीय चीज है वहाँ का ‘‘रेन वॉटर हार्वेस्टिंग सिस्टम)! जी हाँ आपने ठीक पढ़ा आज से दो सौ साल पहले -बाबा जी जो थे तो डॉ. ही पर अपने घर के लिए रेन वॉटर हार्वेस्टिंग जैसी आधुनिक मानी जानी परिकल्पना की कल्पना कर अंजाम दे चुके थे!! यह सिस्टम आज से पंद्रह बीस वर्ष तक सुचारू रूप से चलता था और हम कश्यपों के वेड़े से ही नहीं गाँव मं बसे अन्य लोग भी इसका उपयोग करते रहे हैं!

दरअसल दातारपुर में सदियों पुराना पीने योग्य पानी मुहैया कराने वाला एक ही कुआँ था, स्नान आदि व घर के अन्य उपयोगों के लिए एक बड़ा सा तालाब था बस। यहाँ इस अनूठे कुएँ की ख़ासियत यह है कि यह सदियों पहले दातारपुर की कठोर पत्थरीली जमीन को खोद कर बहुत ही गहरा बनाया गया। गहराई इतनी कि कुएँ की जगत से देखने पर इसके पानी की सतह एक छोटी तश्तरी सी चमकती है! यह उस जमाने जब बाबा जी बहुत छोटे बालक थे उससे भी पहले का है अर्थात कोई तीन चार सौ साल पहले का य उस काल में आधुनिक यंत्रों और औजारों के बिना बना यह कुआँ उन लोगों की जीवटता को दर्शाता है!! इस कुएँ की दीवारों के अंदर नीचे जाने के लिए हर तरफ गोलाकार सीढ़ियाँ हैं, इसे नीचे उतर कर वहाँ की स्त्रियाँअठारह बीस वर्ष के लड़के सिर और कंधों पर पानी की गागरें उठा कर लाते! इसी संदर्भ में एक दिलचस्प बात याद आती है, ये हमारे बचपन तक भी उससे पहले भी आसपास के गाँवों की बेटियों की मांऐं बेटियों के बात न मानने पर दातारपुरमें शादी कर देने की कह कहकर धमकातीं थीं!

बाबा हरीराम जी जिन कठिनाइयों से गुज़र कर आरम्भिक पढ़ाई कर आगे बढ़ पाए थे, वे नहीं चाहते थे कि इलाक़े के अन्य बच्चों को भी उन्हीं कठिनाइयों से गुजरना पड़े! रकड़ी में अपना घर बना लेने के बाद, डॉक्टरी की प्रैक्टिस करने के साथ साथ उन्होंने बच्चों को मुफ्त पढ़ाने लिखाने का बीड़ा भी उठा लिया!! ये दोनों कार्य वे अपने घर से ही करते रहे। उनके देहांत के बाद बच्चों को पढ़ने का बीड़ा उनके दूसरे बेटे प्रोफेसर अम्बाप्रसाद जी ने उठाया, क्योंकि वे स्वयं एजुकेशन के डिपार्टमेंट में कार्यरत थे। वे हमारे पुश्तैनी गाँव रकड़ी के पास के पंजाब के कॉलेजों में कार्यरत रहे थे। कालांतर में प्रोफेसर अम्बाप्रसाद जी (मेरे छोटे ताऊ) के अनथक प्रयासों से दातारपुर में बाबाजी के नाम का ‘‘हरीराम स्कूल ‘‘ खुला जो आज भी कार्यरत है? ....क्रमशः

अब एक दूसरी दिशा से आए ख़ानदान की बात करते हैं, यह ख़ानदान मेरी माँ का मायका और मेरा ननिहाल भी है!!

मां के मायके के लोग अपने नाम के पीछे लखनपाल लिखते हैं। मैंने अपनी माँ व मामा जी व अन्य लोगों से सुना है कि उनके पुरखे गजनी जो अब अफगानिस्तान में है से हिन्दूकुश पर्वतश्रृंखला के दर्रों से भारत की भूमि में आए थे, उस काल में यह रास्ता ‘‘सिल्क रूट‘‘ से आने जाने वालों का भी था। आने के दो कारण बताए गए, मेरी माता के अनुसार किसी अफगानिस्तान के नवाब के दरबार में उनके पुरखों में से कोई सिपहसलार रहा था और वह अकेला हिन्दू था आपसी मतभेद के कारण ‘‘अटक नदी‘‘ के रास्ते से कई कठिनाइयों को लाँघ उत्तरी भारत, पंजाब, उड़मड़ टाँडा गाँव में विभिन्न जगहों से होते हुए वहाँ आ बसे।

इस के साथ ही गजनी से आने व उडमड टाँडा आ बसने की दूसरी वजह मेरे मामाजी जी ने बताई थी य वह हैः गजनी से अफगानिस्तान के शाह की सेना के साथ उनके पुरखे आए और किन्ही कारणों से वापस नहीं गए। कालांतर में टाँडे वालों में से एक परिवार (मेरे नानके) और आगे बढ़ कर मुकेरियां (पठान कोट जाते रास्ते में) आता है यह पठानकोट को जाने वाली ट्रेन व सड़क दोनों ही तरह के रास्ते का बड़ा स्टेशन काफी पुराना है। अपने बचपन से हम ट्रेन से मुकेरियां उतरते रहे हैं! यहाँ बताना आवश्यक है कि दातारपुर जाते हुए भी रास्ते में यह आता है!

गजनी से आकर बसे ये पठनी ब्राम्हण‘‘ पारजाती‘‘ या ‘‘मोहियाल ‘‘ब्राह्मण‘‘ भी भारत में कहाते हैं! मेरे नाना जगदीश मित्र जी इन्हीं ब्राम्हणों में से थे! मेरे पड़नाना रामशरण जी के दो पुत्र रत्न हुंए बड़े जगदीश मित्र, अपने समय के जाने माने हकीम व हिप्नोटिस्ट थे दूसरे पुत्र हरी मित्र जी। इनमें बड़े जगदीश मित्र जी की औलादों में सबसे बडी मेरी माता जी श्रीमती निर्मला कुमारी थीं। इस प्रकार मुकेरियां में बसे लखनपाल मोहियाल या पारजाती ब्राह्मण हैं!!

इन दो विभिन्न दिशाओं से आने वाले ख़ानदानों का लहू हम भाई बहनों की रगों में बहता विभिन्न आकार प्रकार व मानसिकता देता है!! -पंचकूला (हरियाणा), मो. 9872577538 

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कहानी

डॉ. नीरज सुधांशु, बिजनौर (यू.पी.) मो. 09837244343

मध्य रेखा

उस स्पर्श से उपजी पुलक आज भी समायी है उसके मन-प्राण में। वो मीठा अहसास, उसका खयाल भर आज भी मन को सुकून दे जाता है। ताजगी से भर देता है तृष्णा को। पहले प्यार की तासीर का रोम-रोम गवाह है। इतने वर्षों बाद भी उनके प्यार की निकटता आज भी बरकरार है। उस प्यार की डोर आज भी जोड़े हुए है दोनों को। इस बार वह लंबे अंतराल के बाद अमरीका से स्वदेश आ रहा है। और अब वह यहीं रहकर बिजनेस करेगा, यह सुना है तबसे तो तृष्णा का मन बल्लियों उछल रहा है। उसके परिवार को देखे हुए कितना अरसा बीत गया। उम्र का प्रभाव चेहरे पर भी दिखने लगा होगा, विभु कैसा दिखता होगा, दस साल का जो हो गया है, वह सोच रही है। प्रतीक्षा में बैठी तृष्णा की स्मृतियों में बीते सालों का पल-पल ज्यों का त्यों अंकित है।

उसने बीएड में एडमिशन लिया था अलीगढ़ में। सुमित के घर में छत पर बने दो बेडरूम वाले पोर्शन में वह अपने माता-पिता के साथ रहने आयी थी। पिता ट्रांसफर होकर उसी कॉलेज में लेक्चरर बनकर आये थे। कुछ महीनों में ही दोनों परिवार आपस में इतने घुल-मिल गये थे कि खाने-पीने की वस्तुएँ व सुख-दुख भी शेयर करने लगे। आपसी विश्वास उनके रिश्ते की बुनियाद था।

सुमित भी उसी कॉलेज का विद्यार्थी था। पढ़ाई के साथ-साथ वह पिता के बिजनेस में भी हाथ बँटाता। उसकी शादी भी हो चुकी थी।

तृष्णा इतनी चुलबुली और शरारती थी कि घर भर को सिर पर उठाये रहती। माँ चिंतित रहती कि यह लड़की पता नहीं कब बड़ी होगी! किताबें तो उसे दुश्मन-सी प्रतीत होतीं।

दोनों रोज़ाना एक ही साइकिल पर सवार होकर कॉलेज जाते थे। पढ़ाई से अक्सर जी चुराने वाली तृष्णा सुमित के व्यक्तित्व के प्रभाव से ऐसी पढ़ाकू बन गयी कि हमेशा थर्ड डिविज़न में पास होने वाली लड़की फस्र्ट  डिविशन से पास होने लगी। वह अपने पिता की तरह शिक्षक बनने का सपना देखने लगी थी। धीरे-धीरे दोनों को एक-दूसरे का साथ भाने लगा। कभी-कभी वे बातें करते हुए दरख्तों की परछाईं नापते पैदल ही चल पड़ते।

एक दिन घर के सभी लोगों ने फिल्म देखने का प्रोग्राम बनाया। सर में दर्द के कारण तृष्णा ने जाने में असमर्थता व्यक्त की। वह घर पर अकेली ही थी। सुमित शहर से बाहर गया हुआ था। काम जल्दी हो जाने पर वह घर वापस आया तो घर में कोई नहीं था। वह आँगन में आराम कुर्सी पर पसर गया। थोड़ी ही देर में कानों में किसी के कूलने की सी ध्वनि का आभास हुआ। वह आवाज का पीछा करता छत पर पहुँच गया। उसने तृष्णा के दरवाजे पर दस्तक दी तो वह खुला ही मिला। तृष्णा बेहोशी की सी स्थिति में काँप रही थी। सुमित ने उसके सर पर हाथ फेरा तो पाया, वह तेज बुखार में तप रही थी। थर्मामीटर का पारा 103 पर आकर रुका। उसे और कुछ नहीं सूझा, अकेली को इस हालत में छोड़कर डॉक्टर को बलाने भी कैसे जाये! उसने फ्रिज से ठंडा पानी निकाला और माथे पर ठंडी पट्टियाँ रखीं। जब तक सब फिल्म देखकर लौटे उसका बुखार कम हो गया था। तबियत भी काफी सामान्य हो गयी थी। फिर तो कई दिन लगे उसे पूरी तरह ठीक होने में।

कई दिन तक सुमित को अकेले ही कॉलेज जाना पड़ा। साइकिल का पैडल न जाने क्यूँ उसे बहुत भारी प्रतीत होता। अकेले कॉलेज जाने का मन नहीं करता। खालीपन का अहसास हर पल कचोटता उसे। यह बात उसने तृष्णा को बतायी तो उसने भी ऐसा ही अहसास होने की बात कही। प्यार का अंकुर दोनों के मन में फूट चुका था।

पढ़ाई पूरी हुई और तृष्णा के घर में उसके विवाह की बात उठने लगी।

‘‘तुम मुझे इतनी देर से क्यों मिलीं?‘‘ सुमित ने एक दिन छत पर उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा।

‘‘लो जी, ये तो उल्टा चोर कोतवाल को ही डाँटने लगा!‘‘ उसने झटके से हाथ छुड़ा लिया।

‘‘और क्या कहूँ..., मेरी शादी हो चुकी है, चाहूँ भी तो तुम्हें अपना नहीं सकता। अपनी तो न! ...टाइमिंग ही खराब है!‘‘ सुमित ने उदास मन से कहा।

‘‘हमारा प्यार तो उस समानांतर रेखा की तरह है जिसमें मिलन की कोई गुंजाइश ही नहीं है।‘‘

‘‘प्यार सोच-समझकर तो नहीं होता न! बस हो जाता है। हम चाहकर भी अपने रिश्ते को कोई नाम नहीं दे पायेंगे।‘‘

‘‘प्यार होना तो कुदरत की नैमत है, क्या हमारे रिश्ते को कोई नाम देना जरूरी है? जीवनसाथी न सही, हम यूँ ही जिन्दगी भर दोस्ती का रिश्ता तो निभा ही सकते हैं न?‘‘

‘‘हां, तुम ठीक कहती हो, हमारे परिवारों में इतनी आत्मीयता है कि हम आपस में जुड़े तो रह ही सकते हैं।‘‘

‘‘तुम हमेशा मेरे आदर्श रहोगे। तुमने मेरे जीवन के प्रति नजरिये तक को बदल दिया है। मुझे तुम्हारी बहुत याद आयेगी, कैसे रहूँगी तुमसे दूर!‘‘ तृष्णा की आँखों में आँसू आ गये।

‘‘मैं जब भी तुम्हारे शहर आऊँगा तो तुमसे जरूर मिलूँगा।‘‘ सुमित ने सांत्वना दी। ये मन भी न... अपनी गति से चलता है। कब कहाँ किस पर आ जाये कोई नहीं जानता। आत्मिक प्रेम में दूरी कोई मायने नहीं रखती। वो तो दैहिक प्रेम है जिसे निकटता की आवश्यकता होती है। आत्मिक प्रेम में सुकून की अनुभूति होती है। एक तसल्ली रहती है कि दुनिया के किसी कोने में कोई तो है जो आपको दिल से चाहता है, सच्चा प्रेम करता है। उसकी याद जहन में सदैव बनी रहती है। बस ऐसा ही था इन दोनों का प्रेम भी।

कुछ दिनों बाद तृष्णा भरे मन से ससुराल के लिए विदा हो गयी। शादी तय होने से लेकर विदाई तक उसके आँसू अनवरत बहते रहे। इन आँसुओं का राज बस सुमित ही जानता था।

इधर सुमित के दिन वीराने से हो गये थे। वह अनमना-सा रहने लगा। पर सबके बीच सामान्य होने का दिखावा करता। पत्नी आभा उसे खुश रखने का भरसक प्रयास करती पर उसके मन से तृष्णा की याद जाती ही नहीं थी। विरहा की अगन दोनों को जला रही थी और जलना उनकी नियति थी।

वह रात को आसमान ताकते हुए सर्वशक्तिमान से पूछता, ‘जब मिलने की कोई सूरत नहीं थी तो मन में प्यार जगाया ही क्यों? उजाड़ना ही था तो मन- बगिया में प्यार के फूल खिलाये ही क्यों?...क्यों...क्यों...क्यों?‘ और आसमान का अक्स आँखों के धुंधलके में गुम हो जाता। नियति लिखने वाले ने कभी दिये हैं क्या किसी के प्रश्नों के उत्तर? वह तो बस अपनी उँगली पर नचाता है सबको।

उधर नया घर, नया परिवार, घर में नयी बहू के आगमन की चहल-पहल पर तृष्णा को हर पल सुमित का ही खयाल सताता। वह अपनी भावनाओं पर निंयत्रण रखने की भरसक कोशिश करती। उसकी शादी की तस्वीरों में बसा सुमित उसका सहारा था। जब मन करता, वह एल्बम खोलकर बैठ जाती। एक- एक लमहे को याद कर मन की पीर पर मलहम लगाती। पर समय से बड़ा मलहम भी कोई हुआ है भला! धीरे-धीरे वह अपनी नयी जिम्मेदारियों को निभाने में व्यस्त हो गयी।

कभी-कभी सुमित का आना होता शहर में तो वह तृष्णा के घर अवश्य जाता। प्रायः तृष्णा के लिए मायके से कुछ-न-कुछ सामान भी सुमित के हाथ भेजा जाता। उसकी ससुराल में भी उसके आत्मीय संबंध हो गये थे, इस कारण वह बिना झिझक वहाँ आता-जाता रहता। तृष्णा के पति अवि की टूरिंग जॉब थी। वह अक्सर शहर से बाहर ही रहते। इस बीच सुमित व तृष्णा को काफी पल एकांत के मिल जाते। एक-दूसरे के हमदर्द बन वे हर दुख-तकलीफ साझा करते। जिन्दगी अपनी गति से सुकून से चल रही थी। तृष्णा को बीएड करने के बाद नौकरी करने की बहुत चाह थी। शादी हो जाने से उसे अपने सपने टूटते हुए महसूस होने लगे। सुमित ये बात जानता था। उसने अपने रसूख से एक प्रतिष्ठित पब्लिक स्कूल में उसकी नौकरी लगवा दी। अब वह काफी व्यस्त रहने लगी।

कहते हैं, सच्चा प्यार वही होता है जो दूरियों के बाद भी बरकरार रहे। ऐसा ही प्यार था सुमित-तृष्णा का। वह अक्सर कहती, ‘‘सुमित, जानते हो, मेरे पास दो मन हैं, एक दुनियादारी में तो दूसरा हर पल तुममें रमा रहता है।‘‘ और सुमित उसे प्यार से निहारने लगता।

डोरबैल की आवाज से तृष्णा वर्तमान में लौटी और धड़कते हृदय से दरवाजेकी ओर भागी।

आखिर वो पल भी आ गया जब सुमित ने तृष्णा के घर में सपरिवार कदम रखा। आँखें मिलीं, इंतजार ख़त्म हुआ, एक तृप्ति के अहसास से भर गये दोनों। तृष्णा तो भावविभोर सी उनके स्वागत में लग गयी।

उसने सबसे पहले अपने लाड़ले विभु के सिर पर हाथ फेरा और प्यार से ढेर सारी चुम्मियाँ ले डालीं। विभु सुमित का इकलौता बेटा था।

‘‘कितना बड़ा हो गया है न और स्मार्ट भी!‘‘ जब तृष्णा ने कहा तो सुमित के चेहरे पर रहस्यमयी मुस्कान की रेखाएँ तैरने लगीं।

सबने मिलकर बहुत सी बातें कीं व पुरानी यादें ताजा की। सुमित व आभा ने अमरीका के रहन-सहन व संस्कृति की भी अनेक बातें साझा कीं।

‘‘ये तुम्हारे लिए।‘‘ आभा ने अमरीका से लाया हुआ तोहफा उसे पकड़ाते हुए कहा। 

‘‘क्या है इसमें?‘‘ तृष्णा ने पैकेट उलट-पलट करते हुए पूछा।

‘‘हमारे प्यार की गरमाई।‘‘ 

‘‘यानी.... ?’’

‘‘कोट है। सुना है, यहाँ भी बहुत ठंड पड़ने लगी है।‘‘

उसने प्यार से पैकेट को छाती से चिपटा लिया। सुमित का तो हर तोहफा उसके लिए स्पेशल था।

बातों-बातों में समय कब पंख लगाकर उड़ गया पता ही नहीं चला। वे वापस जाने लगे तो तृष्णा ने कुछ दिन के लिए विभु को उसके पास छोड़ जाने की विनती की।

‘‘अभी इसका स्कूल में एडमिशन भी कराना है, छुट्टियों में मैं खुद छोड़ जाऊँगा, वादा रहा।‘‘ कहकर सुमित व आभा अलीगढ़ के लिए रवाना हो गये।

वे तो चले गये पर तृष्णा यादों की दुनिया के साथ वहीं खड़ी रह गयी।

उसे याद आयी वो रात जब ग्यारह साल पहले सुमित उसके घर रुका था। उसकी गोदी में सिर रखकर सुबक-सुबककर रोया था।

‘‘अरे! क्या हुआ सुमित?‘‘ 

‘‘..,‘‘ वह रोता ही रहा। 

‘‘अरे, कुछ बताओ तो! मैंने तुम्हें इतना कमजोर कभी नहीं देखा, क्या हुआ है?‘‘ 

‘‘कैसे बताऊँ तृषु।‘‘ 

‘‘मेरा मन घबरा रहा है, जल्दी बताओ न क्या बात है?‘‘

‘‘मैं आज जिन्दगी के उस मोड़ पर खड़ा हूँ जहाँ से कोई राह नहीं दिखती, बस अँधेरा ही अँधेरा है हर ओर।‘‘

‘‘देखो, पहेलियाँ न बुझाओ।‘‘ 

‘‘पहेली ही तो बन गयी है मेरी जिन्दगी! अगले पल क्या रंग दिखा दे, अनुमान

‘‘मेरे सब्र की परीक्षा न लो सुमित, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा।‘‘ 

‘‘आ...भा... आभा कभी माँ नहीं बन सकती।‘‘ 

‘‘य...ये...ये क्या कह रहे हो तुम?‘‘ तृष्णा को सुनकर शॉक लगा। 

‘‘मैं,,,मैं सच कह रहा हूँ। डॉक्टर ने भी जवाब दे दिया है।‘‘ 

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है। आज विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है कोई तो रास्ता होगा

‘‘नहीं है कोई रास्ता। आभा की ओवरी में ओवम ही नहीं बनते, गर्भाशय में भी रसौली है। ऑपरेशन कर बच्चेदानी ही निकालनी पड़ेगी।‘‘

‘‘फिर...?’’

‘‘हमारे पास बच्चा गोद लेने के अलावा कोई उपाय नहीं बचा है।‘‘

‘‘ओह, ये तो सचमुच... ‘‘ तृष्णा भी रोने लगी। सुमित के दुख ने उसे भी हिलाकर रख दिया।

‘‘बच्चा गोद लेना भी कोई आसान नहीं है!‘‘ 

तृष्णा के लिए सुमित का हर दुख उसका अपना दुख था।

‘‘जानती हो, घरवाले दूसरी शादी के लिए दबाव बना रहे हैं। देखा फिर से..., हमारी टाइमिंग तो हमेशा ही खराब रही है, है न!!‘‘

तृष्णा कोई उत्तर नहीं दे पायी। कहती भी क्या। आज उसके पास सांत्वना के लिए शब्दों का भी अकाल पड़ गया था। दिमाग कुंद हो रहा था, कुछ सूझ नहीं रहा था। दोनों के बीच काफी देर तक चुप्पी छायी रही।

अचानक तृष्णा ने पूछा, ‘‘ये बताओ, मैं क्या मदद कर सकती हूँ तुम्हारी?‘‘ सुमित की चुप्पी उसे परेशान कर रही थी।

‘‘तुम हमारे लिए सरोगेट मदर बनोगी?‘‘

अचानक आये सवाल से अचंभित थी वह, ‘‘मैं तो जान भी दे सकती हूँ तुम्हारे लिए पर अवि को कैसे मनाऊँगी, वो नहीं मानेंगे।‘‘

‘‘...‘‘ सुमित आशाभरी नजरों से उसे देखता रहा।

‘‘दो बच्चे तो पहले ही हैं मेरे, तुम्हें इनमें से किसी को गोद लेने को भी नहीं कह सकती क्योंकि उन पर अवि का भी उतना ही अधिकार है।‘‘

‘‘पर मैं अपना बच्चा चाहता हूँ, अपना खून...‘‘ काफी देर तक सुमित उसकी गोद में सिर रखकर असमंजस की स्थिति में बैठा रहा। 

प्यार में दोनों एक-दूसरे के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार थे। पर करें तो क्या!! 

फिर उस रात जो हुआ उसने उनके पवित्र प्रेम को देह के तल पर ला पटका। तृष्णा ने भी कोई विरोध नहीं किया। न ही उसे कोई पछतावा था। ये राज कभी उजागर नहीं होगा ये दोनों ने अपने आप से वादा किया।

समय बीतने के साथ तृष्णा को गर्भवती होने का आभास हुआ। उसने ये बात अवि को बतायी।

‘‘पर हम तो सावधानी बरतते हैं, ऐसा कैसे हो सकता है?‘‘ 

‘‘हो सकता है कि अनजाने में कोई भूल हुई हो।‘‘ 

तृष्णा ने समझाने की कोशिश की। 

‘‘अब जो भी हुआ, तुम अबॉर्शन करा लो। मैं कल ही डॉक्टर से अपॉइंटमेंट ले लेता हूँ।

‘‘नहीं...‘‘ तृष्णा ने साफ मना कर दिया।

‘‘तुम भूल रही हो कि हम दो ही बच्चे पैदा करेंगे ऐसा तय किया था हमने।‘‘ अवि ने याद दिलाया।

‘‘जानती हूँ पर अब हो गया है तो इसकी हत्या का पाप नहीं करूंगी।‘‘

‘‘ये निर्णय हमने अपने बच्चों की अच्छी परवरिश के लिए ही लिया था। सीमित आय में कैसे दे पायेंगे अच्छी परवरिश तीन बच्चों को।‘‘

‘‘मैं ट्यूशन्स कर लूंगी।‘‘

दोनों में कई दिन तक बहस होती रही। दोनों अपनी-अपनी ज़िद पर अड़े हुए थे। आखिर हारकर अवि ने सुमित को बुलाया।

सारी बात सुनकर सुमित ने भी तृष्णा का ही पक्ष लिया। उसने बड़ी सावधानी से अपने कभी बच्चा न हो पाने की बात अवि को बतायी। अपनी समझबूझ से उसने अवि को इस बात के लिए राजी कर लिया कि जिस दिन यह बालक पैदा होगा वे उसे आभा के आँचल में डाल देगा 

तृष्णा तो मन से पहले ही तैयार थी।

‘‘तुम दोनों जो हमारे लिए कर रहे हो... इस अहसान को कैसे चुकाऊँगा मैं।‘‘ सुमित

‘‘नही भाई, इसमें कोई अहसान नहीं है, यह तो हमारी भी समस्या का समाधान है। सबकी इच्छा का सम्मान हो इससे अच्छी बात और क्या होगी भला।‘‘

‘‘अवि मैं तुम्हारे सुपुर्द कर रहा हूँ अपने बच्चे को, इसका ठीक से ख्याल रखना। मैं बीच बीच में चक्कर लगाता रहूँगा। और हाँ, हमारे बीच जो बात हुई है वह हम तीनों के बीच ही रहनी चाहिए।’’

‘‘क्यों? आभा को भी नहीं बताओगे?‘‘

नहीं, मैं उसे सरप्राइज देना चाहता हूँ सुमित ने दोनों से वादा लिया। और वापस आ गया।

सुमित के चक्कर तृष्णा के घर जल्दी-जल्दी लगने लगे। तीनों मिलकर बच्चे के सुखद आगमन की तैयारी कर रहे थे।

कायनात सुमित को उस खुशी से नवाजने की तैयारी कर रही थी जिसके बाद शायद कुदरत से उसकी शिकायतों पर कुछ हद तक विराम लग जाता।

अपने प्यार के अंश को पाकर तृष्णा निहाल हो गयी थी। उन्हें और मजबूती से जोड़े रखने वाली डोर जो पल रही थी उसकी कोख में।

वो घड़ी भी आ गयी जब वो दर्द से कराहती हॉस्पिटल में एडमिट हुई। सुमित और आभा ने जैसे ही वहाँ कदम रखा, नन्हे के आगमन के स्वर गूंज उठे।

तृष्णा को रूम में शिफ्ट कर नर्स नवजात को लेकर आयी तो सबने उसे बधाई दी पर तृष्णा ने पलट कर कहा, ‘‘मेरे साथ-साथ असली बधाई तो आप दोनों को है क्योंकि आज से यह आप दोनों की संतान है।‘‘

आभा की तो खुशी का पारावार नहीं था। ‘‘देखा, ये होती है सही टाइमिंग!‘‘ सुमित ने कहा तो सभी ठहाका लगाकर हँसने लगे।

उस पल को याद करते हुए तृष्णा भी हँस पड़ी। खयालों की दुनिया में खोयी तृष्णा को पता ही नहीं चला कि वो कब से उन बेटियों को निहारती वहीं गेट पर ही खड़ी थी। दो समांतर रेखाओं को मध्य से जोड़ने वाली खड़ी रेखा था विभु, उनके प्रेम का मूर्त रूप। 

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कहानी

सुश्री दीपक शर्मा, लखनऊ, मो. 98391 70890

नून-तेल

हमारे मुहल्ले वाले दूसरे जन कुन्ती को उसके इसी नाम से जानते हैं मगर वहाँ रहने वाली हम लड़कियाँ उसे एक-एक करके तीन नाम तो दिए ही दिए रहींः नून-तेल, लिली ओ’ ग्रेडी और इच्च-इच्च।

’नून-तेल’ इसलिए क्योंकि अपने स्कूल के घंटों के बाद वह हमारे साथ खाने-खेलने की बजाय सन्तानविहीन अपने ताऊ के साथ अपने किराने के आटे-दाल और नोन-तेल तौलने और बेचने में लग जाया करती। अपनी उम्र के आठवें ही वर्ष से। जिस वर्ष उसके पिता अभिनेता बनने के चक्कर में उसे, उसकी माँ और दो छोटी बहनों को पुश्तैनी अपनी परचूनी के सहारे छोड़कर मुम्बई चल दिए थे।

’लिली ओ’ ग्रेडी’ नाम उसे हमारे साथ कॉलेज पहुँचने पर मिला था। जब वह मुहल्ले के सुनार के बेटे, अशोक के साथ भाग निकली थी। डेम एडिथ सिटवेल की कविता ’पोपुलर सौंग’ की दो पंक्तियों एवं कुन्ती ही के सौन्दर्य के आधार परः

लिली ओ ग्रेडी

सिली एंड शेडी

लौंगिग टू बी

अ लेजी लेडी

श्रेणीकरण में कँवल

बे-अक्ल और बदनाम

लालसा रखती बन जाने की

आलसी कोई उच्च कुलवधू

और ’इच्च-इच्च’ हम उसे तब पुकारने लगे थे जब लौट आने के बाद उसके हाथ-पैर खुजली वाले ददोरों से पुनः पुनः पुनः उभरने लगे थे।

लौटकर उसने बताया था वह मुम्बई गई थी। अपने पिता का पता खोजने के लोभ में। इसी चक्कर में अशोक भी लापता हो गया था और पिता भी उसे कहीं मिले नहीं थे।

इस बार उसके नाम ’इच्च-इच्च’ की बुनियाद मेरी अटकलबाजी रही थी।

यहाँ यह बता दूँ कि इस बीच सपाटे के साथ जहाँ हममें से कुछ लड़कियाँ गृहस्थी जमाने में लग गई थीं और कुछ नौकरी में। मैंने स्थानीय मेडिकल कॉलेज में दाखिला पा लिया था और अपनी पढ़ाई जारी रखी थी। सपाट। कुन्ती की चमड़ी में जब मैंने वे ददोरे देखे थे तो मैंने यही सोचा था वह ’ग्रेन-इच्च’ था। जिसके अंतर्गत पुराने पिसान या गुड़ आदि में पड़ चुकी कुटकी से बारम्बार डसे जाने के कारण शरीर पर ये ददोरे आन प्रकट होते हैं। खुजली के साथ।

मगर उनका भेद खोला स्वयं कुन्ती ने, जब एक दिन मेरा मोपेड रोककर उसने मुझ पर अपनी चिन्ता प्रकट की, ’’मेरी खाल के ददोरे लगातार बढ़ रहे हैं, खासतौर पर मेरे हाथों और पैरों पर। मेरा गला भी लगातार सूज रहा है। सिर भी बुरी तरह दुखता रहता है और शरीर का एक-एक जोड़ भी। ऐसी थकान मेरे अन्दर आन बैठी है कि अब तो उठते-बैठते ही नहीं बन रहा.....’’

अपनी पढ़ाई के उस तीसरे साल तक पहुँचते-पहुँचते मैं अपने मुहल्ले के लगभग सभी बीमार लोगों के इलाज का बीड़ा उठाने लगी थी। छोटी-मोटी बीमारी तो मैं सैम्पल में आई दवाइयों ही से भगा दिया करती और यदि बीमारी क्रौनिक, चिरकालिन, प्रकृति की होती तो उसका इलाज मैं अपने मेडिकल कॉलेज के डॉक्टरों से कहकर मुफ्त करवा देती। 

’’मेरे साथ चर्म-रोग विभाग में तुम कभी भी चल सकती हो,’’ उसे अपने कॉलेज ले जाने में मैंने कोई बाधा उपस्थित नहीं की।

डॉ. सूरतदास हमारे चर्म-रोग विभाग के अध्यक्ष थे।

कुन्ती के ददोरे देखते ही वे बोल उठे, ’’दीज क्युटेनियस लीश्जन्ज आर नॉट इन्नोसेंट (ये त्वचीय फोड़े अहानिकर नहीं) गेट हर एस.टी.एस.-सिरोलॉजिकल टेस्ट फॉर सिफलिस-डन (इन उपदंश के सीरम सम्बन्धी परीक्षण कराने होंगे).....’’

जाँच के दौरान कुन्ती के ब्लड सीरम में सिम्फिलिस रीगिन के साथ ट्रेपोनिमल एन्टीबॉडीज पाई गई। सुग्राहित एवं सुस्पष्ट। और ददोरों से रिस रहे पदार्थ में स्पाएरोकेट बैक्टीरिया पाए गए, सक्रिय एवं घातक।

’’सिफलिस के किसी रोगी से आपके यौन-सम्बन्ध ने आपको ये संकर दिए हैं। इनके शुरू होते ही आपको हमारे पास आ जाना चाहिए था,’’ रिपोर्ट देखकर डॉ. सूरतदास गम्भीर हो गए।

कुन्ती रोने लगी।

’’मगर घबराइए नहीं,’’ डॉ. सूरतदास ने उसको ढाढ़स बाँधा, ’’हमारे पास समय अभी भी बचा है। इसका यह 

द्वितीय चरण ही तो है। और यह तो एक तरह से सौभाग्य की बात है जो अब हम इसे इसके तीसरे चरण तक नहीं पहुँचने देंगे। उस चरण में तो फालिज का, जरा का, पागलपन का, हृदय-रोग का और किस-किस बला का सामना न करना पड़ता।’’

तीन वर्ष पूर्व कुन्ती ने अशोक के साथ भागकर यदि अपने अविवेक एवं दुःसाहस का परिचय दिया था तो अब अपने जीवट एवं व्यावहारिक बुद्धि का दृष्टान्त दिया।

जीवट ने उसे किसी के सामने दीन नहीं बनने दिया और व्यावहारिक बुद्धि ने असंगत अपनी स्थिति मेरे अतिरिक्त किसी दूसरे के संग उसे बाँटने से रोक लिया।

परिणाम आ पाती उस समय के दौरान वह 

डॉ. सूरतदास की कृपापात्र तो बनी ही रही मुहल्ले वालों ने भी उसके प्रति रूखाई नहीं दिखाई।

उस पर समानान्तर चल रहे, एंटी-बायोटिक्स लिये उसके उपचार अन्ततः उसे उसकी व्याधि के पार उतार लाए।

पूर्ण स्वास्थ्य-लाभ ग्रहण करने पर कुन्ती ने अपनी परचूनी में नई जुगत सन्निविष्ट की।

उधर के उन कठिन वर्षों में कुन्ती के संग उसकी परचूनी भी लगातार कुम्हलाती रही थी।

ताऊ में शुरू ही से उत्साह और फुर्ती की कमी रही थी, मँझली ने अपनी बी.ए. के बाद स्वयं को क्लर्की में व्यस्त कर रखा था और छोटी वैसे ही दुकान पर बैठने से भय खाती थी।

सच पूछें तो वह परचूनी उस समय केवल अपने अचार और मसालों ही के बल पर साँस लेती रही थी। दुकान के ऊपर बने उनके मकान के अंदर से, जो कुन्ती की माँ और ताई अपने हाथों तैयार किया करती। विरले वे अचार क्या थे मानो परिरक्षित सब्जियाँ। बहुधा परिवार तो उनके बिना भोजन को सम्पूरित ही न मानते। और कुछ परिवार तो ऐसे थे जो उनसे सब्जी ही का काम ले लिया करते। सभी कहते, ’हींग और तेल का मसालों के साथ ऐसा मेल तो हमसे मिलाए नहीं बनता।’ इसी प्रकार विभिन्न व्यंजनों के लिए विशिष्ट मसालों के उनके पैकेट मुहल्ले के घर-घर में प्रयोग किए जाते थे। सभी जानते थे वे कितनी मेहनत तथा ईमानदारी के साथ चीजें साफ करने के बाद स्वयं उन्हें अपने हाथों से सान पर पीसती थींः जावित्री और जायफल क्या, अजवायन और सफेद-स्याह जीरे क्या, अनारदाना और पीपली क्या, सौंफ और कलौंजी क्या, मेथी-बीज और अमचूर क्या।

माँ और ताई के ये अचार अब कुन्ती उनके पुराने, खुले मरतबानों से निकालकर नई, छोटी, मोहरबन्द बोतलों में ले आई। ’नून-तेल’ के नाम से। अंकित मूल्य के साथ। खुले बाजार में। उसने जैसे ही उन्हें मुहल्ले के बाहर दूसरे किरानों पर पहुँचाना शुरू किया, उनकी माँग तेजी से बढ़ ली। और देखते-देखते ’नून-तेल’ एक लोकप्रिय ब्राँड बन गया। जिसका कुन्ती ने भरपूर लाभ उठाया।

अपना लक्ष्य-क्षेत्र और विस्तृत कर लिया। अंशों के भेद दिखलाने हेतु उन्हें चिह्मित कर परचूनी के मसालों की छपे हुए पैकेटों में भराई शुरू कर दी और उन पैकेटों के ऊपर भी छाप वही रखी- ’नून-तेल’।

हमारे शहर के लिए कुन्ती की यह व्यापारिक युक्ति भी सामरिक महत्त्व वाली सिद्ध हुई। जब राजमा, दाल मक्खनी, करेला, बैंगन, शाही पनीर, छोला, सांबर और पावभाजी आदि के अलग-अलग मसाले उपभोक्ताओं की निगाह में उतरे, तो फिर वे निगाह में चढ़ने भी लगे। तेजी से।

और सन् पचानवे के आते-आते कुन्ती की ’क्रेडिट वर्दिनेस’- ऋण लेने की योग्यता-और आर्थिक क्षमता उसकी परचूनी को शहर के सबसे बड़े व्यावसायिक केन्द्र की महाकाय एक दुकान में खिसका लाई।

उस दुकान का नाम भी कुन्ती ने वही रखा-’नून-तेल’।

इस नई दुकान के शेल्फों पर उसने उन उत्पादनों को भी स्थान दिया जो विदेशों से इधर भेजे जा रहे थे। प्रतिस्पर्द्धी श्रेष्ठता पाने हेतु।

आगामी वर्ष नई उपभोज्य वस्तुएँ लेते आएः खाद्य सामग्री में भाँति-भाँति के पनीर धान्य और दलिये; 

प्रसाधन-सामग्री में तरह-तरह के साबुन, होठों, गालों और बालों के लिए नए आभाभेद शैम्पू, क्रीम इत्यादि।

और गिनती में लगातार गुणा हो रहे कुन्ती के ग्राहक-गण वही सब चाहने लगे, वही सब माँगने लगे। 

उनके संग अपनी पारस्परिकता बनाए रखने हेतु कुन्ती का केन्द्र भी वही और मँगाने लगा, बेचने लगा।

विदेशी आयातित वस्तुओं के अग्रदूत के रूप में आज कुन्ती के ’नून-तेल’ ही को जाना-पहचाना जाता है।

उसके ताऊ अब रहे नहीं, अशोक और उसके पिता आज भी लापता हैं, दोनों बहनें अपनी-अपनी गृहस्थी में निमग्न हैं।

और सैंतालीस वर्ष की अपनी इस आयु में पति-विषयक अपनी स्थिति वह यथापूर्व बनाए हुए हैः आज भी अविवाहिता है। अपनी माँ और ताई के साथ शहर के नए आवासीय क्षेत्र के एक फ्लैट में रहती है। वे दोनों अचार और मसाले अब नहीं बनाती हैं और न ही बनवाती हैं।

कारण, कुन्ती की दुकान में अब वे अपना स्थान खो चुके हैं। बल्कि एक साक्षात्कार में उससे प्रश्नकर्त्री ने पूछा भी, ’’वही अचार जिनके बूते पर आपकी व्यापारिक सफलता का सूत्रपात हुआ वही अब आप रखती भी नहीं। क्यों ?’’

’’क्योंकि तेल से सने उन अचारों के दिन अब लद गए। यह जमाना हेल्थ-फूड्ज का जमाना है। आजकल लोग अपनी सब्जियों को तेल में उछालते भर हैं। छौंकते-तलते तक नहीं। और तेल भी कैसा ? विदेश से आयातित। और सब्जियाँ भी वे जो विदेशी बीजों से विशुद्ध देशी खाद में उगाई गई हों-ऑरगेनिक वेजिटेबल्ज-जैविक सब्जियाँ....’’ कुन्ती हँस दी थी।

किन्तु यह पूछने पर कि दुकान का नाम भी वह उसके नए स्वभाव के अनुरूप अब बदल क्यों नहीं देती, कुन्ती विनोदी हो उठी थी, ’’इसका नाम मैं कभी नहीं बदलने वाली। मेरे स्कूल के दिनों में मेरी मुहल्लेवालियाँ मुझे इसी नाम से पुकारा करती थींः नून-तेल।’’

मैं नहीं जानती हमारे दिए हुए अपने दूसरे दो नामों से कुन्ती परिचित है भी या नहीं मगर इतना जरूर जानती हँ. आज वे दोनों उस पर ठीक नहीं बैठेंगे।

आज की कुन्ती ’लिली ओ ग्रेडी’ और इच्च-इच्च’ की अपनी उन पुरानी छवियों को बहुत पीछे छोड़ आई है।

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बेटे से बतरस

बम बरसें, या गोली बेटा

हम खेलेंगे होली बेटा

बचपन से लगती है अच्छी

हमको हंसी-ठिठोली बेटा

पांच सितारा से क्या कम है

देखो अपनी खोली बेटा

खूब खेलते थे बचपन में

हम भी डंगा-डोली बेटा

फर्क नहीं हमने जाना है

तेली कौन, तमोली बेटा

ठंडा, खुश्बूदार बहुत है

ये चंदन, ये रोली बेटा

कम होते जाते हैं अक्सर

बूढ़ों के हमजोली बेटा

लेकर निकलेंगे हुरियारे

अपनी-अपनी टोली बेटा


राकेश अचल, ईमेल: achalrakesh1959@gmail.com

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लघुकथाएँ

श्री राकेश कुमार गौड़, नई दिल्ली, मो. 9818974184

नींबू - मिर्ची

दृश्य - 1

सड़क किनारे पटरी पर दीवार के सहारे लटका एक बड़ा शीशा। बराबर में लगा एक बोर्ड-गोविंद हेयर कट। बोर्ड के बराबर में एक सीध में लगी चार पाँच कील। दो कीलों पर बासी नींबू-मिर्ची लटक रहे थे जबकि बाकी कीलें ख़ाली थीं। पाठक जानते होंगे कि दुकानदार, ट्रक, ऑटो, टैक्सी ड्राइवर आदि अपनी दुकान या वाहन पर निम्बू मिर्ची लटकाते हैं ताकि उनका कारोबार या कामकाज को किसी की नज़र ना लगे और आमदनी बढ़ती रहे। 

बात पिछले महीने की है। सुबह सात-साढ़े सात बजे का समय रहा होगा। हेयर ड्रेसर, शायद गोविंद नाम ही होगा, एक टूटी सी मेज पर सामान सजा रहा था। तभी एक तीस पैंतीस साल का युवक तेज साइकिल भगाते हुए आया और एक झटके से ‘गोविंद हेयर कट’ के सामने रोक दी। उसने बड़ी तरतीब से नींबू - मिर्ची की लड़ियाँ हैंडल पर लटका रखी थी। मैं वहीं ठिठक कर खड़ा हो गया और सोचने लगा कि इस महंगाई के काल में, जब नींबू 300 रुपए किलो और मिर्ची का भाव 100 रुपए किलो हो तो भी क्या हमारा ये भाई बुरी नजर से अपनी दुकान को बचाने और आमदनी बढ़ाने की आशा के साथ रोज नींबू - मिर्ची लटकाता है? 

उसने हेयर ड्रेसर भाई को आवाज दी, “ क्यों गोविंद भाई आज तो नींबू - मिर्ची दे दूँ?” “हाँ, मोहम्मद भाई आज तो दे ही दो। और हाँ, अब एक दिन छोड़ कर नींबू-मिर्ची दिया करो”, थोड़ी मायूसी के साथ गोविंद ने कहा। मैंने मोहम्मद से पूछा, “क्यों मियाँ, आप भी इन सब में विश्वास करते हो?” “अरे बाबूजी, मैं ये सब नहीं जानता। मेरा तो 

धंधा है, जो मानते हैं उनकी सेवा करके अपना और बच्चों का पेट पाल रहा हूँ। नींबू - मिर्ची के भाव इतने बढ़ गए हैं पर मैं अपना मुनाफा कम करके भी सप्लाई कर रहा हूँ, कहीं ग्राहक न टूट जाएँ”, कहते हुए मोहम्मद ने साइकिल आगे बढ़ा दी। 


गोविंद ने बासी नींबू - मिर्ची के बराबर में कील पर ताजा नींबू - मिर्ची लटका दी। उसका कोई ग्राहक अब तक नहीं आया था। मैंने उसकी ओर मुख़ातिब होते हुए कहा, “क्यों गोविंद, इतनी महंगाई में भी नींबू - मिर्ची का टोटका कर रहे हो?” “बाबू जी मजबूरी है। इस कोरोना ने वैसे ही धंधा मंदा कर दिया था। जैसे तैसे कुछ काम चला है। डर लगा रहता है, इसीलिए सोचता हूँ हफ्ते में अगर 50 रुपए के नींबू - मिर्ची टांग कर दस ग्राहक भी बढ़ गए तो बच्चों की पेट की आग बुझाने में कुछ तो मदद मिलेगी”, गोविंद बोला। मैं निरुत्तर था। 

दृश्य - 2

एयर कंडिशंड सुपर मार्ट में ट्रॉली में सब्जियाँ भरने की होड़ लगी हुई थी। लगता था सब्जियाँ मुफ्त बँट रही हैं। दाम देखने की फुर्सत किसी को नहीं थी। आधा-

आधा किलो नींबू और 100-100 ग्राम मिर्ची तो ऐसे ख़रीदी जा रही थी जैसे इसी की सब्जी बना कर खानी हो। टीवी पर चल रही बहस और समाचार पत्रों में नींबू और अन्य सब्जियों के आसमान छू रहे दामों की सुिर्खयों से बेख़बर समाज के इस उच्च वर्ग का जीवन सामान्य रूप से चल रहा था। 

दृश्य - 3

झुग्गी बस्ती के बाहर एक रिक्शा पर सब्जी बेच रहे गोपाल को महिलाओं ने घेर रखा था। सिर्फ एक किलो आलू ख़रीद कर भी महिलायें धनिया मिर्ची मुफ्त में देने की माँग कर रही थीं। गोपाल उसी बस्ती में रहता था और सब उसे जानते थे, इसलिए बेचारा चुपचाप हर थैले में सब्जी के साथ धनिया मिर्च भी ड़ाल रहा था। भीड़ कुछ छँटी तो मैंने पूछा, “क्यों भई, ऐसे कुछ कमा भी पाओगे।” गोपाल बोला, “सर, सब पड़ोसी हैं, कुछ कह नहीं सकता। वैसे भी मैं मना करूँगा तो किसी और रिक्शे वाले से ले लेंगी। अपने बच्चों को बिना धनिए टमाटर की सब्जी खिला दूँगा पर भूखा तो नहीं सोने दूँगा।”

दृश्य - 4

दिल्ली की पॉश कॉलोनी वसंत विहार के एक बंगले में रात के दो बजे दरवाजे की घंटी बजी तो नौकर ने दरवाजा खोला। “सर आपका ऑर्डर”, जोमेटो के डिलीवरी बॉय ने कहा। नौकर ने थैंक यू कहते हुए पैकेट पकड़ा और दूसरे हाथ से दरवाजा बंद करते हुए कहा, “बाबा, आपकी पावभाजी।” “ठीक है, नरेश भैया सर्व कर दो”, एक युवक ने जवाब दिया।नरेश जब प्लेट में पावभाजी लेकर आया तो कम्प्यूटर पर काम कर रहे युवक ने प्लेट में रखी पावभाजी को देखा और गुस्से में बोला, “कमाल है सात सौ रुपए एक प्लेट के चार्ज कर रहे हैं और नींबू का ये छिलका दे दिया, इसे निचोड़ूँ या चबाऊँ और प्याज तो जैसे क्रश ही कर दी हों, मुहँ में रखते ही घुल जाए! वाह भई वाह, अपना प्रोफिट मार्जिन कम नहीं होना चाहिए।” नरेश बेचारा तो क्या ही कहता, चुपचाप कमरे से बाहर निकल गया।       

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लघुकथा

शिक्षा

“डिक्कू के उठने से पहले निखिल के प्रमाण पत्रों की फाईल आज ढूँढ कर निकाल लूँ। उसे एक अच्छी कम्पनी में आवेदन देना है।“ 

वसुंधरा ने बीमार डिक्कू को बड़ी मुश्किल से सुलाया था।

“ट्रिन-ट्रिन”

“हलो, प्रणाम मम्मी जी”

“खुसी रहो, बाबू कईसन बा?”

“सो रहा है मम्मी जी। डॉ. बत्रा बोले हैं एक-दो दिन में राहत मिल जाएगी। दवाई का कोर्स कम्पलीट करने तक निमोनिया बिल्कुल ठीक हो जाएगा।“

“तुम तो हुँआ पर हो, नाहीं तो मउसी से पंजरा में दाँते कटवा देने से अउरो जल्दी बोखार उतर जाता। दमो फुलना कम हो जाता।“

सास की बातें सुनकर वसुंधरा का मन कैसा तो हो गया। शिक्षा कीकमी इंसान को कैसे-कैसे अंधविश्वास के रास्ते पर मोड़ देता है। 

“डिंग-डांग”

दरवाज़ा खुलते हीं निखिल ने पहले डिक्कू का हाल पूछा। 

“मम्मी जी का फोन आया था”, बुझे मन से वसुंधरा ने सास के टोटके का जिक्र किया।

“अच्छा! मां ने ऐसा कहा! फिर डिक्कू की आया से हीं दाँत कटवा देते हैं ना। वो भी तो मौसी जैसी हीं हुई डिक्कू की।“

निखिल को जैसे निमोनिया का सर्वाेत्तम “एंटीबायोटीक” मिल गया था।

वसुंधरा की नजरें टेबल पर रखी निखिल की फाइल पर थी।

“बी.टेक, कम्प्यूटर साइंस....आई. आई.टी. दिल्ली। एम.बी.ए.....

 मार्केटिंग....आई. आई.एम.... 

सुश्री विनीता कुमार, अहमदाबाद, मो. 9714017001

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व्यंग्य

आशुतोष आशु ‘निःशब्द’, गुलेर, काँगड़ा, हिमाचल प्रदेश, मो. 9418049070

वो कौन आँसू जो प्याज़ न रुलाए 


प्याज देश को फिर रुला रहा है। सौ रुपए प्रतिकिलो से ऊपर बिक रहे प्याज ने जनता और विपक्ष की आँखों से पानी निकाल दिया। परन्तु हाय ये कैसी विडंबना कि सरकार कहती है वह इस मामले में कुछ नहीं कर सकती। सुना तो यह भी है कि वे प्याज ही नहीं खाते। अभी हाल छोड़ा है, या पहले से नहीं खाते। इसपर संसद में विस्तृत बहस होनी चाहिए। वैसे सरकार ने तो आज यह भी कहा है कि देश में मंदी नहीं है, बस विकास की रफ्तार धीमी हुई है। प्याज मंत्री की बानगी ‘बारह दिसम्बर तक देश में विदेश से प्याज पहुँच जाएगा।’ 

खाद्य वस्तुओं की किल्लत हो जाना कोई नई बात नहीं। अक्सर एक ख़राब मानसून की वजह से ऐसा हो जाता है। परन्तु समस्याओं की विकरालता बेतोले बोलों से भी बढ़ जाती है। मंत्री महोदय का बयान सुनते समय ऐसे ही अनेक विचार मस्तिष्क में कौंध रहे थे। वैसे भी तो राजनीति अपने आप में अनैतिकता का चलता-फिरता-बोलता विश्वविद्यालय रही है। भावी पीढ़ी के पास इस सिक्के के दोनों पहलुओं से सीखने की पूरी आजादी है। 

पहला यह कि यदि हमाम में सभी नंगे हैं तो आपको भी अपनी नैतिकता ताक पर रखने में क्या हर्ज है? और दूसरा, जो कि समझदार और सुशिक्षित युवा को सीखना चाहिए, कि हमें क्या नहीं बनना है। परन्तु अनैतिकता के नित-नए सोपान स्थापित करता शीर्ष, जब अनुयायियों से नैतिक और चरित्रवान होने की अपील करे तो इंदौरी का ये शे‘र राहत देता है- ‘झूठों ने झूठों से कहा है... सच बोलो।’

जब सरकारी विज्ञप्ति यह कहे कि महँगाई के मसले से निपटने के लिए प्याज विदेश से आ रहा है, तो यह तथ्य सरकार की सजगता दर्शाने वाला होना चाहिए। मगर ऐसा हो नहीं पाता। क्योंकि अगला वाक्यांश- ‘बारह दिसम्बर तक आएगा‘ एक दूसरी ही चिंता उत्पन्न कर देता है। 

इस प्रकार के वक्तव्य संयोजित लूटपाट को बढ़ावा दे सकते हैं। एक ऐसे देश में जहाँ नैतिकता, राष्ट्रवाद तथा समायोजन जैसे शब्द केवल शब्दकोश तक सीमित हो चुके हों, वहाँ इस प्रकार का सरकारी वक्तव्य जमाखोरों को लूट के लिए खुला निमंत्रण प्रतीत होता है। हजारों के प्याज पर लाखों की जमाख़ोरी और करोड़ों कमाने के लिए दो हफ्ते स्वर्णकाल! 

सत्तापक्ष हो या विपक्ष - दोनों एक ही मिट्टी के माधो हैं। इनके लिए मुद्दे बरसाती कुकुरमुत्ते हैं, जो सत्ता के इंद्रधनुषी सिंहासन पर पहुँचते ही इनकी आँखों से ओझल हो जाते हैं। देश में यदि सचमुच प्याज का संकट होता, और अगर यही सच्चाई होती, तो सत्ताधीश राष्ट्रीय चैनल पर रात आठ बजे विशेष प्रसारण के माध्यम से जनता को कहते, कि देश पर ‘राष्ट्रीय प्याज संकट‘ आन पड़ा है। तदर्थ, देशवासियों से अपील है कि बारह दिसम्बर तक प्याज का सेवन न करें। तत्पश्चात प्याज की उपलब्धता के प्रावधान सुनिश्चित कर दिए गए हैं। 

मैं दावे से कह सकता हूँ कि जमाखोरों की कमर तोड़ने के लिए करोड़ों भारतवासी बलिदान के लिए तत्पर हो जाते। महात्मा गांधी जब भी ऐसी कोई अपील करते थे, तो लोग भोजन, कपड़ा और यहाँ तक कि घर भी त्याग देते थे। उनके शब्दों में सच्चाई थी। परन्तु आज सच्चाई ढूँढे नहीं मिलती। केवल शब्दों पर जोर देकर कहने से बात सच नहीं हो सकती। अन्यथा बेमौसमी बारिश के कारण नष्ट हुआ प्याज देश में ढूँढे भी न मिलता। 

समस्या की मूल जड़ है जमाख़ोरी और उसपर संकट के समय में मुनाफाख़ोरी की भावना देश को प्याज के आँसू रुलाने के लिए काफी है। आज अगर कोई एक तबक़ा जो सबसे अधिक सदमे में होगा तो वो है किसान। उसने अभी हाल फिलहाल सात और आठ रुपए प्रतिकिलो की औनी-पौनी दर पर प्याज मंडी को बेचा होगा। बेहतर होता अगर उसके पास भंडारण की व्यवस्था होती, तो इन परिस्थितियों में कम से कम मुनाफा मेहनत को तो मिल पाता। परन्तु जब देश के विकास का पैमाना केवल गगनचुंबी इमारतें हों, तो जीवन की मूलभूत आवश्यकताएँ फाँसी ही लेती हैं। 

भारत जैसे कृषिप्रधान देश में, यदि मेहनताना जैसी व्यवस्था का नियमन न हो तो विसंगतियाँ उत्पन्न होना लाजमी है। जी-तोड़ मेहनत और ख़ून को पसीना बनाकर बहा देने पर भी यदि किसान के हाथ में किलोभर के आठ ही रुपए हों, और वही प्याज मंडी में यदि सत्तर रुपए के खुदरा मूल्य पर बिके, तो वो इन्सान कम से कम अपने बच्चे को तो किसानी के दलदल में न घुसने देगा। यह एक कारण है कि किसान किसानी छोड़कर नौकरी की आस लगाए बैठा है। बंधे पैसे की तलाश में वंचित, कौशलविहीन व्यक्ति का बाजार भी जमकर शोषण करता है। 

हाथ से किए जाने वाले प्रत्येक काम के प्रति शासकीय-प्रशासकीय उदासीनता ही देश की प्रगति में मूलभूत बाधा है। जाने सत्ता को क्यों लगता है कि निवेश कहीं विदेश से आएगा? सच तो यह है कि विदेश से निवेशक नहीं दोहनकर्ता आता है। अन्यथा लुटीपिटी वैश्विक अर्थव्यवस्था के बीच आज विदेश से निवेश की आस रखना ख़ुद को उलटे छुरे से मूँड़ना है। 

हमारे असली निवेशक तो किसान हैं। सूक्ष्म-मध्यम औद्योगिक इकाइयाँ चलाने वाले उद्यमी असली हैं। देशज व्यापार, हथकरघा इत्यादि में निवेश करने वाले देश के लोग वास्तव में असली निवेशक हैं। आवश्यकता केवल इन्हें सबल बनाने की है। इनकी मेहनत का उचित दाम मिले, केवल इतना ही सुनिश्चित करने की आवश्यकता है। ऐसा होने पर देश की प्रगति का इंजन हाँफेगा नहीं, सरपट दौड़ेगा। 

अस्तु, प्याज विदेश से चल पड़ा है। परन्तु विचारणीय विषय, जो हम पीछे छोड़ आए थे, वो यह कि महाराष्ट्र में जब बेमौसमी बरसात प्याज की फसल तबाह कर रही थी, तो प्रशासन और सरकार क्या कुंभकर्णी निद्रा में लीन थे? फाइव-जी के जमाने में यदि प्रशासन के पत्र सरकारी फाइलों में टू-जी की स्पीड पर चलते हैं, तो ऐसे में ‘आगत बाधा प्रतिषेध’ नामक विषय प्रशासनिक एवं कार्मिक विभाग में अनिवार्यतः पढ़ाया जाना चाहिए। 

कुल मिला कर समस्या यह है कि यहाँ केवल व्यवस्था ही नहीं बिगड़ी हुई है, अपितु सारा तंत्र ही बेशर्मी की मूसलाधार बारिश में बह चुका है। प्याज की दुहाई पीटते-पीटते विपक्ष सत्ता में आता है, और अपनी फसल काटने की आपाधापी में प्याज की फसल गौण हो जाती है। देखिएगा आज, विपक्ष प्याज की माला पहन कर प्रदर्शन करेगा। 

भारतीय राजनीति अब पूर्वानुमेय हो चुकी है। मतदाता के पास विकल्प शेष नहीं है। तीसरा मोर्चा आँखों से ओझल है। मीडिया को इश्तिहार चाहिए। जनता कश्मीर माँगे, और मंदिर में लंगर खाए। और कुछ हो न हो, पड़ोसी वोट तो दिला ही देगा। 

सत्ता-लोलुप राजनीति जब नेताओं को कुर्सी के आँसू रुला रही हो, तो प्याज की बढ़ती क़ीमतों पर उनकी आँख का पानी सूख जाना सामान्य घटना है। 

अच्छी ख़बर यह है कि प्याज विदेश से चल चुका है, जल्द ही पहुँचेगा। तब तक मैं आप से अपील करता हूँ - बारह दिसम्बर तक प्याज खाना बंद कर दीजिए, हालात अपने आप नियंत्रित हो जाएँगे। यदि आप ऐसा करते हैं तो देश के किसान के प्रति यही आपका सम्मान प्रदर्शन समझिए। आप देशभक्त कहलाएँगे। जय हिंद!

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कविता

अब मै बड़ी हो गई

कच्चा था-पक्का था,

झूठा था-सच्चा था,

रिश्ता तो रिश्ता था।

इस बेमाने रिश्ते की

जो डोर आज टूटी,

क्यूँ! टीस दिल में मेरे

आंसू बन के फूटी।

एक और हाथ छूटा,

एक और धागा टूटा,

इस जीवन चक्र से,

एक और जीव छूटा।

जब बच्ची मैं छोटी थी,

रिश्तों की छाया में सोती थी।

दादी थी - नानी थी, जिंदगी सुहानी थी।

एक-एक करके सब धाम अपने हो लिए,

जीवन की शाम पर कुर्बान सब हो लिए।

जीवन के ताप का एहसास अब होता है,

सब के चले जाने का आभास जब होता है।

रिश्तों की छाया ज्यूँ -ज्यूँ है खो रही,

मैं तपते आकाश के नीचे बड़ी हो रही।

इस ताप के एहसास ने आभास ये कराया,

की अब मै बच्ची ना रही, बड़ी हो गई।

सुश्री अंबिका मित्तल, नई दिल्ली, मो. 97112 52888

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आजादी के अमृत महोत्सव के उपलक्ष्य में

डाॅ. उमेश प्रताप वत्स, यमुनानगर, हरियाणा, मो. 9416966424

कुछ याद उन्हें भी कर लो जो लौट के घर नहीं आए

हिंदुस्थान की यह ‘वीर भोग्या वसुन्धरा‘, धर्म की पताका फहराने वाली पुण्य भूमि भारतवर्ष सदियों से ही सहनशीलता एवं सुशीलता के कारण ईरान, तुर्क आदि क्षेत्रों से अलग-अलग आक्रांताओं के आक्रमणों को झेलता आया है। जिस देश के बच्चे खेल-खेल में सिंहों के दांत गिनते आये हो, जिनके नाम से ही इस आर्यव्रत का नाम सम्मान से भारत लिया जाता हो। जहां राम-कृष्ण, लव-कुश, एकलव्य जैसे बालवीर हुये हों, जो आगे चलकर महान योद्धा हुए, क्या ऐसे देश में वीरों की कमी हो सकती है? नहीं कभी नहीं, यह देश सदैव वीरों से गौरवान्वित रहा है। यद्यपि इतिहास के अनुसार हमारे देश पर सातवीं शताब्दी में विदेशी आक्रांता मीरकासिम का आक्रमण हुआ जिसे पहला सफल आक्रमण माना जाता है। कहते हैं कि तब से ही हम किसी न किसी विदेशी शासक के गुलाम रहे हैं। तथापि यह सही नहीं है। सत्य यह है कि ईसा पूर्व के आक्रमणों से लेकर ब्रिटिश शासन तक हमने कभी भी पूर्ण रूप से ना हार मानी है और ना ही पूर्ण रूप से दासता स्वीकार की है, अपितु यथाशक्ति अनुसार हम संघर्षरत रहे। इतिहास के पन्ने पलटकर देखने से ज्ञात होता है कि भारत वर्ष के किसी न किसी क्षेत्र में सदैव स्वतंत्रता की लौ जलती रही है। मातभूमि के लिए कोई न कोई राजा, महान योद्धा विदेशियों को रोकने अथवा भगाने के सतत् प्रयास में संघर्ष करता अवश्य ही दिखाई देता है। 

मीर कासिम को राजा दाहिर ने रोका तो सिंकदर को पौरस ने रोका। मोहम्मद गौरी को पृथ्वीराज चैहान ने बार-बार हराया तो बाबर को महाराणा संग्राम सिंह सांगा ने धूल चटाई। अकबर को महाराणा प्रताप ने रोका तो शिवाजी ने औरंगजेब की नाक में दम करके रखा। यह भारत भूमि कभी भी वीरों से रिक्त नहीं हई। यहां महाराणा प्रताप और शिवाजी के बाद एक प्रखर योद्धा के रुप में बाजीराव बल्लाल भट्ट पेशवा का भी नाम आता है। बाजीराव मुगलों से लंबे समय तक लोहा लेने वाले महान योदधा थे। अटक से कटक तक केसरिया लहराने का और हिंदू स्वराज लाने का जो सपना छत्रपति शिवाजी महाराज ने देखा था उसे पेशवा बाजीराव ने ही पूरा करने का प्रयास किया। इतिहास में कई ऐसे वीर हुए हैं जिन्होंने मुगलों को दिल्ली तक ही समेट दिया था। जिनमें से एक प्रमुख नाम बाजीराव पेशवा का है। हेमचंद्र विक्रमादित्य, छत्रपति संभाजी, गुरु गोविंद सिंह, वीर बहादुर बंदा बैरागी, महाराज छत्रसाल, अमरसिंह राठौर आदि ऐसे योद्धा रहे जिन्हें भारत की यह पावन माटी कभी विस्मृत नहीं कर पायेगी। किंतु इन वीरों की, बड़े-बड़े युद्धों की सफलता के पीछे ऐसे भी बहुत महान वीर एवं वीरांगनाओं ने संघर्ष किया था जिन्हें इतिहास के पन्नों में वो सम्मानित स्थान नहीं मिल पाया जिसके वो अधिकारी थे। यह आजादी का 75 वाँ अमृत महोत्सव उन वीरों को याद करने का ही एक सुअवसर है। 

बाबर ने हिंदुस्थान के कुछ हिस्से में मुश्किल से कोई 4 वर्ष राज किया। हुमायूं को तो यहां के राजाओं ने हराकर भगा दिया। मुगल साम्राज्य की नींव अकबर ने डाली और जहाँगीर, शाहजहाँ से होते हुए औरंगजेब के आते-आते उखड़ गई। कल 100 वर्ष (अकबर 1556 ई. से औरंगजेब 1658ई. तक) के समय के स्थिर शासन को मुगल काल नाम से इतिहास में इस तरह पढ़ाया जाता है मानो मध्ययुग नाम से सृष्टि का सबसे बड़ा कालखंड यही हो। जबकि इन 100 वर्षों में मेवाड़ इनके पास नहीं था। दक्षिण और पूर्व के भी कई राज्य इनसें मुक्त थे। यद्यपि अकेला विजयनगर साम्राज्य ही 300 वर्ष तक टिका रहा। महाभारत युद्ध के बाद 1006 वर्ष तक जरासन्ध वंश के 22 राजाओं ने, 5 प्रदयोत वंश के राजाओं ने 138 वर्ष, 10 शैशनागों ने 360 वर्षों तक, 9 नन्दों ने 100 वर्षों तक, 12 मौर्यों ने 316 वर्ष तक, 10 शृंगों ने 300 वर्ष तक, 4 कण्वों ने 85 वर्षों तक, 33 

आंध्रों ने 506 वर्ष तक, 7 गुप्तों ने 245 वर्ष तक राज्य किया। इन सबका वर्णन इतिहास में नाम मात्र ही मिलता है। फिर विक्रमादित्य ने 100 वर्षों तक राज्य किया था। इतने महान् सम्राट होने पर भी इनको भारत के इतिहास में गुमनाम कर दिया गया। अन्य। योद्धा तोगा जी, वीरवर कल्लाजी, जयमल जी, जेता कुपा, गोरा बादल, राणा रतन सिंह, पजबन राय जी कच्छावा, मोहन सिंह मँढाड़, राजा पोरस, हर्षवर्धन बेस, सुहेलदेव बेस, राव शेखाजी, राव चन्द्रसेन जी दोड़, राव चन्द्र सिंह जी राठौड़, कृष्ण कुमार सोलकी, ललितादित्य मुक्तापीड़, जनरल जोरावर सिंह कालवारिया, धीर सिंह पुण्डीर, बल्लू जी चम्पावत, भीष्म रावत चूण्डा जी, रामसाह सिंह तोमर और उनका वंश, झाला राजा मान, महाराजा अनड़गपाल सिंह तोमर, स्वतंत्रता सेनानी राव बख्तावर सिंह, सुशीला भाभी, अमझेरा वजीर सिंह पठानिया, राव राजा राम बक्श सिंह, व्हाट ठाकुर कुशाल सिंह, ठाकुर रोशन सिंह, ठाकुर महावीर सिंह, राव बेनी माधव सिंह, डूङ्गजी, भुरजी, बलजी, जवाहर जी आदि असंख्य वीर बलिदानियों को इतिहास ने विस्मृत कर दिया। 

इसी प्रकार 10 मई 1857 को देशवासियों में एक ही जूनून था कि बस! अंग्रेजों को भगाना है। जब यह संघर्ष आरम्भ हुआ तो कई लोग तो इतिहास का हिस्सा बन गए, परन्तु असंख्य वह थे जो विस्मृत हो गए। 

आशा देवी गुज्जर के पति मेरठ सैनिक विद्रोह में अग्रणी स्थान पर थे। आशा देवी ने 11 मई को अपनी ससुराल तहसील कैराना में संकल्प लिया कि वह हर मूल्य पर अंग्रेजों से मोर्चा लेगी? फिर उन्होंने नवयुवतियों की टोली बनाकर उसका संचालन किया। इसके साथ ही उन्होंने एक छापामार हमला करके 13 मई को कैराना के आसपास के सरकारी कार्यालयों एवं 14 मई को शामली तहसील पर हमला बोलकर अंग्रेज सरकार को आर्थिक हानि पहंचाई। भगवती देवी त्यागी अदभूत वीरांगना थीं। उन्होंने मुजफ्फरनगर का नाम रोशन किया था। 22 दिनों तक अपनी टोली के साथ जाकर प्रचार करती रही और गाती रही कि अंग्रेज अब बस जाने ही वाले हैं। जन जागरण करती थी और फिर अंततः अंग्रेजों की पकड़ में आ गयी और उन्हें तोप से उड़ा दिया गया। 

शोभा देवी ब्राह्मणी वीर योद्धा थीं। इन्होने अपनी महिला टोली बनाई थी और साथ ही जो उनकी टुकड़ी थी उसमें आधुनिक हथियारों से लेकर, तलवार, गंडासा, कृपाण आदि धारण किये गए सैनिक भी थे। एक दिन उनका सामना अंग्रेजी टुकड़ी से हुआ। सैकड़ों की संख्या में पुरुष और कई महिलाओं ने लड़ते-लड़ते प्राण दिए। यह पकड़ में आ गई और उन्हें फांसी दे दी गयी। इस संग्राम में सक्रिय भूमिका निभाने वाली 255 महिलाओं को फांसी पर चढ़ाया गया था और कुछ लड़ती-लड़ती मारी गयी थीं। 

हमारे प्रसिद्धि प्राप्त स्वतंत्रता सेनानियों के अतिरिक्त भी ऐसे बहुत से स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे हैं जिनके नाम इतिहास की किताबों के पन्नों से गायब हैं या लोग इन लोगों के बारे में बहुत कम जानते हैं, आज ऐसे ही कुछ गुमनाम स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों और शहीदों के बारे में जानकारी देने का प्रयास किया जा रहा है। यह भी हमारे नायक हैं लेकिन ये गुमनामी के अंधेरे में रहे हैं हालांकि जहां तक त्याग और तपस्या की बात है तो इन्होंने सुप्रसिद्ध लोगों से कम बलिदान नहीं दिए हैं। उन सभी का उद्देश्य देश को आजादी दिलाना था। इस देश के नागरिक होने के कारण हमारा यह कर्तव्य हो जाता है कि हम उन स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में भी जानें जोकि गुमनामी में रहते हए देश सेवा का अपना काम करते रहे। 

अलीगढ़ में अंग्रेजों के खिलाफ जंग का ऐलान 1804 में ही हो गया था। ऊदैया ने अंग्रेजों की गलत नीतियों से ख़फा होकर सैकड़ों अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया था। उनकी वीरता के चर्चे आज भी अलीगढ के आस-पास के क्षेत्रो में कहे-सुने जाते हैं। आखिर 1807 में अंग्रेजो ने उन्हें पकड़ लिया और फांसी दे दी, लेकिन निडर ऊदैया ने अकेले ही अंग्रेजों से लोहा लिया था। 

1857 के संघर्ष के समय अंग्रेजों से डटकर मुकाबला करने वालों में दिल्ली के गांवों के किसान भी थे। 10 मई 1857 को मेरठ में हुए विद्रोह के बाद उन सैनिकों का पीछा करने वाले अंग्रेज सैनिकों को हरनंदी किनारे बसे गांव के लोगों ने कड़ी टक्कर दी थी। विद्रोही सैनिकों ने 10 मई की रात मेरठ की विक्टोरिया जेल तोड़कर 85 सैनिकों को रिहा कराकर कच्चे रास्ते से दिल्ली की ओर कूच किया। 

मातंगिनी हाजरा एक ऐसी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थी जिन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन और असहयोग आंदोलन के दौरान भाग लिया था। एक जुलूस के दौरान वे भारतीय झंडे को लेकर आगे बढ़ रही थीं और पुलिसकर्मियों ने उनपर गोली चला दी। उनके शरीर में तीन गोलियां लगीं फिर भी उन्होंने झंडा नहीं छोड़ा और वे ‘वंदे मातरम‘ ने नारे लगाती रहीं। 

स्वतंत्रता के बाद पहली बार सेनापति बापट को पुणे में भारतीय ध्वज फहराने का सम्मान मिला था। तोड़फोड़ और सरकार के खिलाफ भाषण करने के कारण उन्होंने खुद की गिरफ्तारी दी थी। वे एक सत्याग्रही थे जोकि हिंसा का मार्ग नहीं चुन सकता था। 

पोटी श्रीरामुलू जो कि महात्मा गांधी के कट्टर समर्थक और भक्त थे। जब गांधीजी ने देश और मानवीय उद्देश्यों के प्रति उनकी निष्ठा देखी तो कहा था कि ‘अगर मेरे पास श्रीरामुलू जैसे 11 और समर्थक आ जाएं तो मैं एक वर्ष में स्वतंत्रता हासिल कर लूंगा।‘ 

भीकाजी कामा के नाम पर वैसे तो देश के कई शहरों में बहुत सारी सड़कें और भवन हैं लेकिन बहुत कम लोगों को पता होगा कि कामा ने न केवल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपना योगदान दिया वरन वे भारत जैसे देश में लैंगिक समानता की पक्षधर एक नेता थीं। उन्होंने अपनी सम्पत्ति का एक बड़ा भाग लड़कियों के लिए अनाथालय बनाने पर खर्च किया था। वर्ष 1907 में उन्होंने इंटरनेशनल सोशलिस्ट कॉन्फ्रेंस, स्टुटगार्ट (जर्मनी) में भारत का झंडा फहराया था। 

बिहार के सीवान नगर के पुलिस थाने पर तारा रानी श्रीवास्तव ने अपने पति के साथ एक जुलूस का नेतृत्व किया था। उन्हें गोली मार दी गई थी लेकिन वे अपने घावों पर पट्टी बांधकर आगे चलती रहीं। जब वे लौटी तो उनकी मौत हो गई थी। लेकिन मरने से पहले वे देश के झंडे को लगातार पकड़े रहीं। 

कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी को कुलपति के नाम से भी जाना जाता था क्योंकि उन्होंने भारतीय विद्या भवन की स्थापना की थी। वे भारत के स्वतंत्रता आंदोलन और विशेष रूप से भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान बहुत सक्रिय रहे थे। स्वतंत्र भारत के प्रति उनके प्रेम और त्याग के कारण वे अनेक बार जेल गए। 

लीलापथ पटवारी एक बहुत ही बहादूर, जागरूक, सामाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति एवं अटूट देशभक्त थे। 1902 में राजस्थान के जैसलमेर जिले से आकर सहारनपुर के गाँव सोना अर्जुन पुर में बस गये। अंग्रेजों के विरुद्ध लोगों को जागरूक किया। कई बार अंग्रेजों की नीतियों का विरोध करने पर इनको जेल भी जाना पड़ा। 

कमलादेवी चट्टोपाध्याय भारत के शुरुआती विद्रोहियों में से एक थे और उन्होंने 1857 के स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लिया था। स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने के कारण उन्हें 14 अन्य लोगों के साथ फांसी की सजा दी गई थी। उमराव सिंह, मास्टर श्याम मनोहर शर्मा, रामेश्वर सिंह, मास्टर रामजी लाल टेलर, बाबू राम 

(रि. स्टेशन मास्टर), कमला देवी आदि लोगों ने शामिल होकर आजादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। गांव के सिपाही ज्ञानचंद यादव व जगमाल सिंह चैहान 1962 के भारत-चीन युदध के दौरान चुशूल घाटी में देश के लिए शहीद हुए। 

लिली चक्रवर्ती का संग्राम 1931 में उनकी शादी के महज सात दिनों के अंदर शुरू हो गया था जब उन्होंने अपने शादी के गहनों को एक तरफ समेट दिया था और भारत की आजादी के आंदोलन की मशाल अपने हाथों में थाम ली थी। यह अनकही कहानी है एक ऐसे दंपत्ति की जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में अपनी जिंदगी की बाजी लगा दी और दशकों तक उन्हें जेल की सलाखों के पीछे यातनाएँ सहनी पड़ी। अविभाजित भारत की आजादी की इस योद्धा की जिंदगी तो गुमनामी में गुजरी ही, उनकी मौत भी गुमनाम ही रह गई। उनकी कुर्बानी को ना सिर्फ झारखंड में भुला दिया गया बल्कि देश के किसी कोने से भी उनकी मौत पर किसी नेता का कोई शोक संदेश नहीं आया। 

दुर्गावती देवी एक समर्पित वीरांगना थीं जिन्होंने जीवन पर्यान्त भारत की स्वतंत्रता के संग्राम में और स्वतंत्रता के उपरांत भी राजनीति में सक्रिय रहीं। 15 अक्टूबर 1999 को संघर्ष करती हुई शहीद हो गई। रास बिहारी बोस, गणेश दामोदर सावरकर, अशफाकउल्ला खां, भगवतीचरण वोहरा, अल्लूरी सीताराम राजू, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, हेमू 

कालाणी, नरसिंहा रेड्डी, बाबू कुंवर सिंह, चितरंजन दास, रानी गाइडिलू, अनंत लक्ष्मण कन्हेरे, अम्बिका चक्रवर्ती, प्रफुल्ल चाकी, बीना दास, राजेन्द्र लाहिड़ी, ऋषि अरविन्द घोष,पंडित बालकृष्ण शर्मा, सागरमल गोपा, महादेव गोविन्द रानाडे, पुष्पलता दास, गरिमेला सत्यनारायण, जतिंद्र मोहन सेन गुप्ता, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, पट्टी श्रीराममल्लू, कनेगती हनुमंतु, पर्बत गिरी, वेलु नाचियार, सेनापति बापट, नीलीसेन, तारारानी श्रीवास्तव, सुचेता कृपलानी, कुशल कंवर, रानी चिन्म्मा, तिरुपुर कुमारन आदि और भी बहुत से ऐसे वीर और वीरांगनाएँ हंै जिनके सतत् संघर्ष व प्रयासों से ही हम सब आन्नद का जीवन जी रहे हैं। हम सबका नैतिक व राष्ट्रीय कर्तव्य है कि हम अपने गुमनाम योद्धाओं को भी अपने हृदय में वही सम्मान दें जो अपने नायक देशभक्तों को देते हैं। ताकि हमारी आने वाली पीढ़ी इन रणबांकुरों से परिचित हो सके और आजादी का 75 वाँ अमृत महोत्सव सार्थक हो सके। 

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कहानी

डाॅ. सीमा शाहजी, थांदला जिला झााबुआ (म.प्र.), मो. 7987678511

‘‘कुन्नू मेरी छोटी बहना’’

कुन्नू मेरी छोटी बहन.....हमारे घर आंगन की चहकती चिड़िया..... इन्द्रधनुषी परिधान और रंगों से प्रेम करती तितली.... सभी की लाड़ली पढ़ाई में टॉपर....मां को हर दिन खाने का मेनू तय करने और उसकी अल्मारी के वार्डरोब में सलीके से कपड़े रखने का आर्डर देने वाली कुनिका बनाम कुन्नू हमारी आंखों का तारा थी।

शिक्षा पुरी होते ही धूमधाम से शादी। अच्छा घर अच्छा वर इकलौता कमाऊ लड़का कार - बंगला - छोटा परिवार कुन्नू के भाग्य को हर किसी ने सराहा था।

उसकी बड़ी बड़ी बोलती आंखे। उन आंखों में झांकने -बड़ बड़ सुनने का सुख मुझे नसीब था। बड़ी दीदी होने की मानिंद मेरा पीहर आना उसके लिए सुखद संसार रच देता। जब वह शब्दों को शहद में भिगोकर बोलती तो उसे सुनते जाने का मोह छोड़ पाना संभव न होता। उसके बड़े माथे पर आंखों की कीकियों सरीखी बड़ी सी लाल बिंदी ने कुन्नू को और खुबसूरत बना दिया, शादी से पहले बिंदी लगाने की बात पर बरसों पहले मेरी दिवंगत दादी को सामने ला खड़ा करती लड़की तो पैदा होने के दिन से ही सुहागिन।

कुछ और है उसके व्यक्तित्व में कि वह हवा में तैरती किसी दूसरे जगत की हाज़िर जवाब मल्लिका प्रतीत होती है। यह मैं नहीं कह रही मेरे अपने भी कहा करते। जब मुझे अपने लम्बे बालों में तेल लगवाना होता और ये उसके हत्थे चढ़ जाता तो क्या गज़ब कि सर में कोई बाल उसके हाथ से छूट जाए। चट-चट सफेद बाल उखाड़ना कोई उससे सीखे।

क्या अनु दीदी। आज भी अपने बालों को नही सम्हालती।

कई बातें जो बिल्लोरी कांच सी झिलमिलाती हैं। मेरे आस-पास स्नेह की रंगोंलिया रच देती है। अभी कल रात में पापा का फोन था -

अनु तुम सुन रही हो ......

हां.. हां. पापा क्या बात है । घर में सब कैसे है...

कुन्नू और कुशल अलग-अलग हो गए हैं। में पापा की आगे कोई बात सुन नहीं सकी कानों को विश्वास नहीं हो रहा था। सन्न रह कर बैठ गई। कुशल जैसा योग्य लड़का कुन्नू के आकर्षण को क्यूंकर नकार पाया।

पिछले कई दिनो से में भी काफी व्यस्त रही। कुन्नू से फोन पर बात नहीं कर पाई .....अब तो कुशल से मिलने जरूर जाउंगी कि ....तुमने मेरी बहन को छोड़कर अच्छा नही किया। सचमुच तुम अभागे हो। वगैरह ....वगैरह की उधेड़बुन में पुरी रात बीत गई। मन पर शंका कुशंकाओं के जाले तन गए।

सुबह सुबह बच्चों का टिफिन.... इनको ऑफिस के लिए बाय-बाय और जरूरी तैयारियां। फुर्सत में एक क्षण बैठी ही थी की कुन्नू का फोन था।

दीदी मैं एक सेमिनार के लिए आ रही हूं आपके पास कुछ दिन रूकँूगी बहुत सारी बातें जो करना है आपसे।

आज दोपहर का वक्त घड़ी की सुईयों में कैद हो गया था। ठीक शाम को चार बजे....... । समय एकदम फिसलता जा रहा था। उसका कमरा झाड़ते बुहारते रूचि अनुकूल सजाते मेरा मन भर आया। उतना ही बोलती होगी उसकी आंखे । वैसे ही ज़ोर से चिल्लाएगी, वह बाहर से ‘देखो तो कौन आया है।

में भी नाटक सा करते हुए पहले उसे उपर से नीचे तक देखती। फिर ठहाका लगाकर कहती ‘‘ तो आप है मैं सोंचू कि हवा में यह सुंगध कैसी है।

.. घंटो बातें करती। जरूरी नहीं कि बात हमेशा खास हो पर वह, मेरी प्यारी अनु दीदी कहकर गले लग जाती... ऐसे कहती कि खास हो जाती।

अपने सहयोगियो से शुरू होकर, बस के कन्डक्टर तक या घर में काम करने वाली मीनाक्षी मोसी तक या घर में किसी न्युज चैनल ‘‘आज तक ‘‘ पर दोहराई जा रही किसी खबर तक पहुंचते वह फतवा जारी करने की मुद्रा में कहती ‘‘चलो एक एक प्याली चाय हो जाए।‘‘

मैंने सहज भाव से बात का सिरा पकड़ा और बोली कुन्नू तुम्हारा कुशल ये उल जुलूल बातें न सुनना चाहे तो....... । मैं उसका मन टटोलना चाहती थी।

तो दी उसे नहीं सुनाउंगी। ऐसा कोई कानून है कि शादी के बाद पति को ही सुनाया जाए सब कुछ।

तो और किसे सुनाएंगी...?

तुम्हें दीदी......।

मेरे पास कब कब आती रहेगी .....

जब भी बातें सुनाने का मन होगा आउंगी।

बातें क्या गहने कपड़े होती हैं जो संजो संजो कर रख लीं फिर जब फुर्सत हुई ओर मनपंसद साथी पास हुआ एक एक करके सामने रख दीं। बातें तो जिस समय होती हंै, उसी समय होती हैं। कई -कई बार तो पल भर कि बात नहीं होती।

आप तो यूं कह रही हैं जैसे बातों पर शोध किया 

हो ...?

किया ही समझो। मन की मिटटी पर जरा सी धूप पड़े तो चटकती दरारें- बातें..... पानी की बूंद पड़ी हो तो 

सोंधी गंध सी- बातें .......कभी शब्दों के जाल में जकड़ी जातीं तो कभी पंछियों की चोंच में दबे तिनके संग उड़ती-बातें।

वाह यह तो कविता हो गई

तू सामने हो तो हर शब्द कविता हो जाता है।

क्या हुआ होगा एक क्षण सोचने लगी। या तो कुन्नू ने जरूरत से ज्यादा चाहा होगा या वह ही जरूरत से ज्यादा कंजूस होंगा। भाषण तो बहुत देती थी। शादी क्या है..? खाने-पहनने की जरूरत भर ही तो। मनपंसद हुआ तो ठीक नही तो समझौता तो करना ही है।

ऐसी समझु कुन्नू को कहां मुश्किल आ गई कि शादी तोड़नी पड़ गई ...... पापा ने फोन पर यही बताया था कि कुशल ने साथ रहना नहीं चाहा तो कुन्नू ने तलाक के कागज़ पर हस्ताक्षर कर दिए। वह है ही ऐसी।

किसी रिश्ते को पल भर भी ढोना नहीं चाहती। जीना चाहती है बस।

सोफे पर मेरी गोद में सर रखकर आतप्त मन को शांति देना चाह रही थी, शायद।

हरे रंग की साड़ी पहने कुन्नू गुलमोहर का बूटा लगी .... वह बूटा जिस पर लाल बैंगनी या पीले रंग के फूल नहीं खिलतें। होठों तक तो क्या मन तक भी नहीं लानी चाही मैंने यह सोच पर चाहने से क्या होता है। बात कही भीतर तक दर्ज हो गई।

माथे पर बिंदी चमक रही थी और पहले से कही ज्यादा संयत और सुन्दर देखकर मुझे भी अंदर तक चैन मिला।

मैं उससे मुखातिब हुई बोली, मेरी प्यारी बहना कुछ बातों के लिए हमें दूसरों की सोच- दूसरों की बातों पर भी चलना होता है।

नहीं चल संकूंगी‘ बस यही मुश्किल है

‘मुश्किल या आसान कुछ नहीं होता बस कुछ चीज़ांे की हमें आदत हो जाती है तो कुछ की नहीं हो पाती।

‘कुछ तो क्या दीदी! कभी-कभी हम चाहते है कि कुछ टुटे नहीं ....... रिश्ता दरक ना जाए लेकिन हमारे रिगार्ड करने के बावजुद निर्मोहीपन का उसका कसैला व्यवहार... फिर कैसे बदलाव आएगा।

तुम्हें बुरा लग सकता हे कुन्नू लेकिन मेरे लिए यह जानना जरूरी है कि तुम्हारे साथ क्या हुआ।

‘बुरा क्यूं लगेगा दी हक है पूछने का तुम्हारा, 

‘रिश्ता खंगाल रही थी कि नेह के मणि-मुक्ता बचे भी है कि नही? ‘वे मणि-मुक्ता तो चमक ही रहें हैं तुम्हारी दो आंखों में ........क्या खरा नहीं उतरा तुम्हारी अपेक्षाओं पर ...?

दी भारी भरकम नहीं थीं मेरी अपेक्षाएँ। पर जैसी जितनी भी थीं, उसके अनुरूप ही तो मैंने बनाए रखीं।

घर में कुशल, मां का कहना ना टालने वाला आदर्श युवक...... एक उसकी मां ......बड़ी भली सी नर्म दिल वाली महिला।

वे तुमसे नाखुश थे ...। 

नहीं ...... । हर हाल में खुश रखने की हिम्मत रखते हैं दोनों।

चार बरस का कुशल था जब मां ने अपना पति खो दिया। स्कूल में चपरासी की नौकरी से शुरू करके हेड मिस्ट्रेस बनी वह और बेटे को इतना काबिल बनाया कि पूरी उम्र खपा दी। एक मां की कुर्बानी थी कि शिक्षा योग्यता-भविष्य सभी जगह कुशल के पास एक सशक्त 

धरातल था। जिस पर वह गर्व कर सकता था। बेटे पर मां का इतना असर की उसके लिए मां ही सर्वोपरि है। बुरे समय का असर इतना मजबूत और विरक्त है कि अच्छा या बुरा लगने ओर हंसने रोने जैसी सामान्य बातें...... किसी का दखल दोनो के स्वभाव में नहीं है।

‘तो था क्या उनके स्वभाव में ऐसा कि तू नहीं निभा पाई उनसे ..? न चाहते हुए भी तेज हो गया था मेरा स्वर। मुझे लगा बताना नहीं चाहती कुछ भी मात्र शब्दों का खेल, खेल रही है मेरे साथ। उठ खड़ी हो गई थी मैं...।

कहाँ चल दी दीदी, बैठो ना!

खाने का देख लूं कुछ ...... । भीतर रसोई में बर्तन 

इधर से उधर रखती रही कि उसे लगे में व्यस्त हूं। वैसे क्या वह जानती नहीं कि खाना तो उसके आने के पहले बनाकर रख लिया होंगा। ताकि ज़्यादा से ज़्यादा वक्त उसके पास बैठ सकें। करीब पंद्रह-बीस मिनट तक उसने आवाज़ देकर पुकारा नहीं.... तो स्वंय ही आ गई बैठक में। वह र्निलिप्त सी सामने की दीवार पर टंगी तस्वीर देख रही थी। कृष्ण की और उन्मुख अर्जुन और दौड़ने को तत्पर एक जोडी घोड़े.....।

‘ये घोड़े तो नही जानते होंगे कि कहां और किसके हित दौड़ रहें हैं। फिर भी दौडेंगे ही यही कर सकते हैं ऐसा। आदमी से तो नही होता दीदी‘

‘आदमी से कैसे होगा उसके पास ‘सोच‘ है और वह सोच इतनी इतनी उग्र कि श्रद्धा और भक्ति से गदगद अर्जुन भी अपने सखा ओर प्रभु के समक्ष असमंजस से भर प्रश्न कर बैठे, बाद में युद्ध किया वह अलग बात है।

तो प्रश्न अपराध नहीं है ?

जीवन को वास्तविक स्वरूप में पाने की कोशिश में जिस चीज़ से सर्वप्रथम साक्षात्कार होता है वह है जिज्ञासा और प्रश्न हुई जिज्ञासाएं ही समाधान पाती हैं ......।

पर दीदी जीवन ही प्रश्नों से घिर गया हो तो ?

यह स्थिति झूठ है अगर प्रश्नों की नागफनियां फैल गई हैं, तो तुम सिर्फ उलझने के सिवाय जीवन में कुछ नहीं पाओगी।

तो सुनो दीदी उस जगह भी जीवन नही था जो जगह में छोड़ आई हूं।

कुशल व उसकी मां ने बहुत मुश्किलों में अपना एक सफल व सुखी जीवन पाया था। भंवो के तनने जितना 

व्यवधान भी स्वीकार नहीं था। पहले-पहले तो वहां की शांति और समरसता में सरोबार हो गई थी मैं भी, पर जिस दिन यह एकरसता होने लगी, मैंने तोड़ने की कोशिश की और कुशल ऑफिस से आकर मार्केट जाने लगे तो मां ने कहा मैं भी चलूंगी...... मैंने भी कुशल से कहा कि मैं तैयार होकर पांच मिनट में आई। सभी साथ चलेंगे मुझे भी कुछ पर्चेज करना है। तुम्हारे लिए भी एक अच्छा सा गिफ्ट लूंगी .......। तैयार होकर बाहर आई तो जाना स्थगित हो चुका था। ऐसी भीषण शांति व्याप गई कि मुझे सांस लेने में दिक्कत होने लगी। सोने से पहले मैने कुशल से पूछा, मेरे बाहर निकलने पर मनाही है क्या ?

दिन भर का थका हूं, आराम करना चाहता हूं मुझे आदत नहीं है........? 

किसकी सवाल की या मेरी ...? बात बहुत बड़ी नहीं थी पर में फूट-फूट कर रोने को हो रहीं थी। दीवार की ओर मुंह फेर कर सोने का उपक्रम किया उसने तो मेने झिंझोड़कर उठा दिया- बात करो मुझसे....।

मां को पंसद नहीं है....

क्या पंसद नही है। हैरान होकर पूछा मैंने ...।

आधी आधी रात तक बातें करना.....।

और क्या-क्या पंसद नहीं है मां को ?

कुशल ने कहा- बता दूंगा धीरे-धीरे।

में पंसद हूं उन्हें.? मैंने पूछा

पंसद हो तभी तो घर लाई हैं

और तुम्हें ?

मां को पंसद है यह काफी है।

फिर कोई बात करने का मन नही हुआ मेरा। बात वैसे भी एक तरफा हो रही थी। उसके बाद पूरे पन्द्रह दिन रही उस घर में मैं, शाम को फल सब्जियों का थैला, ऑफिस से लौटते वक्त हाथ में होता, उसे हाथ में लेती मां कनखियों से मुझे देखती। में चुप होती गई। इतना कि चाय का एक कप हाथ में थामते हुए एक शब्द ‘लो कुनिका‘ भी नही .......। जिस सुबह मैंने कहा कि मैं जाना चाहती हूं। दोनों में से एक ने भी नहीं पूछा कि कहां? और मैं चली आई। आने के बाद मैंने पापा को हूबहू सारी बातें बताई। पापा ने कहां, तुम अपना जो भी काम छोड़कर गई थी, करो और अगला पिछला अपन बाद में सोचेगें।

इतना ही हुआ और तुमने बस घर छोड़ दिया ?

मेरा घर कब बना वह ?

बनते बनते बन जाता तुम्हारा भी। समय तो लगता ही है और ऐसे फैसले जल्दी में नहीं लिए जाते।

दो जन समा सकें इतना ही बड़ा घर था वह दीदी।

क्या मतलब है कुन्नू तुम्हारा ?

चैंको नहीं। कोई आड़ा तिरछा मतलब नहीं है मेरे कहने का, पर जो है मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। मैं ‘कोई भी होकर नहीं रह सकती और कुन्नू की समाई उस घर में नहीं थी।

यूं ही छोड आई है तू। मैंने तो सुना था कि तलाक .....।

नहीं हुआ तो क्या लौट जाने को कहोगी ?

यह नहीं कहूंगी, पर मैं सोचती हूं कि कल यह चीज तुम्हारी जिंदगी में उलझन पैदा कर सकती है। डर सी गई थी मैं

तुम्हारे लिए भी दीदी में कठपुतली हो गई। इस हाथ से नही सधी तो दूसरा देखे.....। अब कोई उलझन पैदा नहीं होगी। क्योंकि मैंने आदमी विशेष को नही आदमी मात्र को खारिज कर दिया है, अपनी जिंदगी से फिलहाल । मेरी आंखों में आंखें डालकर कहा कुन्नू ने।

सफर की थकान थी। ये भी ऑफिस से आ गये थे कुछ देर इनसे बात की और जल्दी सो गई, परन्तु मुझें बड़ी देर रात तक नींद नहीं आई। दुःख से जूझकर उबरी मां के प्रति बेटे की श्रद्धा व स्नेह भला ही लगा मुझे भी। जिसके चलते वह अतिरिक्त सतर्क था कि मां उपेक्षित महसूस न करे.....। और हमारी रूपगर्विता ....मानिनी कुनिका इसे अपना अपमान मान बैठी, समझाउंगी मैं। आखिर बड़ी दी हूं उसकी। शादी इतना कमज़ोर बंधन नहीं है। दोनांे ंके बीच साक्षी रही अग्नि के ताप से जरा सी बात पर मुक्त नहीं हो जाते मन प्राण.... एक रिश्ते को कुछ वक्त तो देना ही चाहिए। जल्दबाजी कर रही है दिन के उजाले में भी निशा का अंधकार ही दिख रहा है कुन्नू को।

सुबह सुबह मेरी आंख देर से खुली। कुन्नू सेमिनार में जाने की तैयारी में थी साढ़े आठ बजे से उसका पहला सत्र था। नहा धोकर जल्दी बाथरूम से निकली गाउन पहनकर दो गिलास चाय बनाकर, वह मेरी प्रतीक्षा में बैठक में बैठी थी, सुबह के नाश्ते से लेकर रात के खाने तक का प्रंबध वहीं था। इसलिए मेरे बहुत कहने पर भी रात के खाने में अच्छा अच्छा बनाकर रखंू, कहकर, बिना खाए निकल गई वह।

साफ सफाई करते वक्त सोचा कि बैग से निकालकर हैंगर में टांग दूं उसके कपड़े। सूट साड़ियों के साथ एक डायरी भी थी बैग में। सिरहाने के पास रखे स्टूल पर जिसे रखते एक बेईमानी आई मेरे मन मैं और कमरे को भीतर से बंद करके झाडू बीच में ही छोड़कर डायरी खोल ली मैंने..... शादी को लेकर एक तिलिस्म रचा था शब्दों का। शादी के सभी रस्मो रिवाज निबाहते उन्हें भी डायरी में उकेरा था। शादी का जोड़ा पहनते हुए, मां के हाथांे सजते हुए काफी खुशनुमा माहौल को व्यक्त कर रही थी डायरी।

जो जो बातें शादी टूटने की वजह के रूप में वह बताती रही थी, वे कहीं नहीं थीं। आखिर तक देख ली मैंने घर-परिवार और दोस्तों के साथ रहते हुए हर दूसरे चोथे दिन डायरी लिखने वाली लड़की ने एक नए घर में उसके कहे अनुसार चुप चुप रहने वाले पति व सास के लिए दो शब्द भी क्यूं नहीं लिखे.... ?

‘देखो दीदी, डायरी लिखने का पहला फायदा यह कि बतियाने को कोई ना हो तो खुद से बोल लों। शायद इसी स्थिति के लिए किसी शायर ने लिखा होगा

आईना रख के बात करते है

शख्स कोई तो बा जुबां देखें।

यह कहने वाली घर की समरसता से उबकर डायरी पर कलम नहीं चलाई। छोटे बच्चों की तरह पति व सास के साथ फल सब्जी लाने के लिए बाजार जाना चाहा। फिर पूरे पन्द्रह दिन तक संवादहीन रहा घर...... चाय का कप थमाते हुए ‘लो‘ शब्द नहीं। तब भी नहीं लिखा क्या आदत छूट गई कुन्नू की।

कितने ही कोरे पन्नों के बाद स्याही दिखी तो मैं चैंक गई ......उस एक व्यक्ति के पीछे कि मैं उसे सुधारू, नहीं होगा मुझ से, जब कि खुद कुशल कहता है कि उसके भीतर किसी भी नारी के लिए स्नेह नहीं उमड़ता.... मैं शादी नहीं करना चाहता था। मां को बताया भी था, पर तुमसे मिलने के बाद उन्होंने मुझे कहां कि तुम्हें देखकर रोक नहीं पाऊँगा मैं खुद को। तुम बांध लोगी मुझे।

मैं नहीं बांध पाई उसे। फिर कुशल भी एक फ्रिज व्यक्ति की तरह कुछ साहस नहीं जुटा पाया इसलिए निर्णय लिया कि यह घर छोड़ दूंगी मैं, नही तो मेरा दम घुट जाएगा। खैर. मैंने भी किसी की आहट सुनी तो जल्दी से डायरी ज्यों की त्यों बैग में ही सहेज दी।

दरवाजे का खोलना हुआ कि सामने कुन्नू खड़ी थी। हाय दीदी आज का सत्र कल शुरू होगा। आज कुलपति जो विशिष्ट अतिथि थे नहीं आ पाये।

दीदी आज तो धूम धड़ाका पिक्चर खाना सब कुछ ना कोई बात होगी ओर ना किसी के लिए रोना झिकना।

कुशल ने भी तलाक के कागज पर हस्ताक्षर करके भेज दिए थे। उसे पता था कि वह संबंध को नही निबाह पाएगा।

एक तिलिस्म से निकलना कितना भारी होता होगा। सचमुच ही कुन्नू मेरी छोटी बहन थी। लेकिन कितने बड़े सच से साक्षात्कार कर गई और इतना बड़ा निर्णय लेकर भी आत्म विश्वास से लबरेज थी।

रात के खाने पर बिना कोई भूमिका बांधे मैंने कहा........ कुन्नू जिंदगी पल पल फिसलती जाती है मुटिटयों में से, उसे अपने मन से जी लेने का फैसला जितनी जल्दी लिया जाए, अच्छा ही नही जरूरी भी है।

तुम पर नाज है मुझे। वह बड़ी-बड़ी आंखें और गोल लाल सुर्ख बिंदी में दपदपाते व्यक्तित्व के साथ मेरे मन के अर्तद्वंदों को थाह देने के साथ वही चुलबुली कुनिका छोटी बहना कुन्नू आज ऐसे धरातल पर खड़ी थी, जहां उसने अपना रास्ता चुन लिया था। उसका कहना था कि...

सागर का अनंत विस्तार उसकी अथाह जल सम्पदा टेढ़े-मेढ़े और संकरे रास्तों के बाद की उपलब्धि है.......।            

*********************************************************************************** गीत

 सूर्य प्रकाश मिश्र, दुर्गाकुण्ड, वाराणसी, मो. 09839888743 

जड़ता 

युग बदल गये चलते-चलते 

प्रारम्भ तुम्हारा कब होगा 

तुमने जीवन भर साथ दिया 

कुछ अर्थहीन अनुबन्धों का 

विश्वास तुम्हारा आश्रित है 

बेवफा भोर के कन्धों का 

थक गया सूर्य उगते-ढलते 

प्रारम्भ तुम्हारा कब होगा 

पूरनमासी का आसमान 

ऊसर हो चली जमीन हुआ 

कर बैठा तुमसे पक्षद्रोह 

धु्रवतारा कान्ति विहीन हुआ

कट गई उम्र जलते-जलते 

प्रारम्भ तुम्हारा कब होगा 

बौद्धिक विलास का आभूषण 

श्रृंगार नहीं है जड़ता है 

अन्याय सहन करते जाना 

औदार्य नहीं कायरता है 

तुम रहे सदा खुद को छलते 

प्रारम्भ तुम्हारा कब होगा 


खाकी 

ओ नदी बावरी ठहर जाओ 

इस शहर का मिजाज खाकी है 

जो मिली है तुम्हें गले लग कर 

उस लहर का मिजाज खाकी है 

इसमें उगती नहीं हरी फसलें 

कोई पंछी कभी नहीं गाता 

आ गया जो भी एक बार यहाँ 

फिर कभी लौट कर नहीं जाता 

जितने किस्से हैं बागवानी के 

हर खबर का मिजाज खाकी है 

सुरमई रात होगी चमकीली 

दिन की हर बात साँवली होगी 

जिन्दगी भूल कर नियम सारे 

हद से ज्यादा उतावली होगी 

सिर्फ गमलों में रह गई मिट्टी 

इस सफर का मिजाज खाकी है 

सो रहा कब से चैन से राजा 

बन्द रहता है ख्वाहिशों का किला 

इतना बरसे हैं टूट कर बादल 

फिर भी पत्थर कोई नहीं पिघला 

स्वार्थी चाँद मतलबी सूरज 

दिन पहर का मिजाज खाकी है 

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कविता

डाॅ. श्रीधर द्वेवेदी, नोएडा, ईमेल: shridhar.dwivedi@gmail.com


मैंने सुना है देखा है

पृष्ठभूमि: 1947 से अमृत महोत्सव तक के अविस्मरणीय क्षणों का एक शब्दचित्र


मैं स्वतंत्रता काल की संतति हूं,

मैंने माँ के गर्भकाल में ही,

नेताजी सुभाषचंद्र बोस का उद्घोष,

आजाद हिन्द फौज का गान और निसान,

अंदमान -निकोबार में उनकी पदचाप,

सब कुछ देखा और सुना है।

फिर आया चिर प्रतीक्षित,

पंद्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालिस,

उससे जुड़ी त्याग आत्मबलिदान,

शौर्य देशभक्ति की अनंत गाथायें,

अर्धरात्रि में संसद भवन,

फिर लालकिले की प्राचीर पर,

प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू का,

नियति से साक्षात्कार,

वह ऐतिहासिक लमहा,

वह कभी भी न भूलने वाला पल पल।

लाखों की संख्या में लोगों का,

अपने ही वतन से भगाया जाना,

आगजनी लूटपाट हत्या कदाचार,

अंतहीन लोमहर्षक समाचार,

हँस के लिया है पाकिस्तान,

लड़ के लेंगे हिंदुस्तान के,

तंग गलियों में वे नारे भी सुने मैंने।

फिर कश्मीर पर कबाईली आक्रमण,

अनगिनत घाव देने वाले  रक्तपात,

घाटी में आतंकवादी घटनाओं को,

अंजाम देने वाली अनेक वारदातें।

आयी छब्बीस जनवरी उन्नीस सौ पचास,

मील के पत्थर वाला मुकाम,

टूट गयी सारी  बेड़ियाँ और परतंत्र,

भारत बना गरिमामयी गणतंत्र,

सत्यं शिवं सुन्दरं हो गया मूलमंत्र,

सार्वभौमिक इंद्रधनुषीय लोकतंत्र।

कुछ काल बीता ही था,

उन्नीस सौ बासठ में,

पीठ में छूरा भोंकने वाली,

चीन की विश्वासघाती चाल,

अपनी हिमालय जैसी भूल।

वह मंजर भी देखा जब,

जनवरी उन्नीस सौ छाछठ में,

गुदड़ी के लाल ने निर्णायक विजय के बाद,

पराये देश में हृदयाघात सेअंतिम प्रयाण किया,

तिरंगें में लिपट कर मातृभूमि को प्रणाम किया।

मैंने सोलह दिसंबर उन्नीस सौ इकहत्तर का,

वह लमहा भी देखा है,

जब भारत की पराक्रमी सेना ने,

तीसमारखाँ समझने वाली फौज के,

तिरानबे हजार सैनिकों को,

आत्मसमर्पण करवाया,

घुटने टेकने के लिए विवश किया,

एक नए राष्ट्र बांग्लादेश का उदय हुआ।

दो हजार साल बाद,

भारत के सामरिक इतिहास का,

स्वर्णिम क्षण था वह,

जब एक नयी इबारत लिखी गयी।

मैं ज्वलंत साक्षी हूं,

उन्नीस सौ नब्बे में,

कश्मीरी पंडितों के पलायन का,

स्वदेश में उनके बलात निर्वासन का,

जिहाद घृणा धर्मान्धता की अग्नि में,

जबरन उन्हें झोंके जाने का।

शासन ने कश्मीरियत के नाम पर,

उनको  ठगा  और लूटा,

सबकी आँखों में धूल झोंका,

बेघर बेदर पंडितों को,

धूल फांकने पर मजबूर किया।

ग्यारह मई उन्नीस सौ अठ्ठावन,

वह अभूतपूर्व पल,

जब पोखरन मरुस्थल में,

भारत  परमाणुविक शक्ति बना।

फिर देखा पड़ोसी के अनेक,

छल कपट आतंक कायरता के नमूने,

उन्नीससौ चैरासी में  सियाचिन,

हिमनद पर मेघदूत अभियान,

मई उन्नीस सौ निन्नानबे में कारगिल,

संसद पर दो हजार एक में,

अप्रत्याशित आक्रमण,

मुंबई ताजमहल पर,

दो हजार आठ में गोलीवर्षा,

जनवरी दो हजार सोलह में,

पठानकोट हवाईअड्डे पर बमवर्षा,

चैदह फरवरी दो हजार उन्नीस में,

पुलवामा के अंदर सैनिक नरमेध,

भारत के धैर्य सहनशक्ति की अग्नि परीक्षा,

अभिनंदन के अपराजेय पराक्रम का अश्वमेध।

साथ ही देख रहा हूं,

सर्पपंख के लाल खूनी इरादों का,

लड़ी दर लड़ी कुत्सित कुदृष्टि,

गलवान घाटी में घटी,

शूरता की अनगिनत गाथायें।

अध्यात्म योग संस्कृति के बढ़ते आयाम,  

मर्यादा पुरुषोत्तम राम के चिर प्रतीक्षित,

भव्य  मंदिर, काशी विश्वनाथ दिव्यधाम,

ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में नवाचार कीर्तिमान।

भारत के अनेक उदीयमान सपूतो को,

अमेरिका ब्रिटेन मारीशस फिजी सूरीनाम,

दक्षिण अफ्रीका न्यूजीलैंड आस्ट्रेलिया हालैंड,

ज्ञान -विज्ञान प्रविधि चिकित्सा हर क्षेत्र में,

शीर्षस्थ  स्थानों पर पहुंचते हुये,

कौशल दिखाते हुये सुगंध बिखेरते हुये,

माँ भारती के इन ललाम पुत्रों को,

कोटि-कोटि नमन वंदन अभिनन्दन।

2019 बीतते बीतते,

पूरे 2020 भर,

कोरोना का महातांडव को झेलते हुये,

आत्मनिर्भर भारत ने लिया,

टीके मास्क स्वच्छता का सहारा,

एक नहीं दो लहर किया तीसरे का निपटारा।

इतिहास के इन अविस्मरणीय क्षणों का,

साक्षी हूं प्रत्यक्ष अनुभूति की है मैंने,

माँ भारती के करुणाश्रुओं हर्षाश्रुओं को,

बड़े समीप से देखा हैं मैंने,

गर्वोन्नत हुआ हूं,

क्षुब्ध और कातर भी,

सहेज रक्खा है अपने उरों में 

इन पलों सुखद क्षणों को,

बांट रहा हूं अगली पीढ़ी को,

ताकि सनद रहे काम आये,

विगत की गलतियां,

फिर न दुहराई जायंे,

भविष्य सवंरता रहे,

देश चैतरफा उन्नति करता रहे,

स्वाधीनता के अमृत महोत्सव की,

प्रगति पताका हमेशा फहरती रहे,

अजर अमर सर्वदा लहरती रहे।

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लघुकथा


अनावृत उरोज

मूल लेखक: इतैलो कैल्विनो 

हिंदी अनुवाद: सुशांत सुप्रिय,  इंद्रापुरम, मो. 8512070086, 9958495461

श्री पालोमर एक लगभग सुनसान समुद्र-तट पर चले जा रहे हैं। उन्हें वहाँ इक्के-दुक्के स्नान करने वाले ही दिखते हैं। तट की रेत पर अनावृत उरोजों वाली एक युवती धूप सेंकती हुई लेटी है। श्री पालोमर स्वभाव से ही एक सतर्क व्यक्ति हैं। वे समुद्र और क्षितिज की ओर देखने लगते हैं। वे जानते हैं कि ऐसे अवसर पर किसी अजनबी के अचानक करीब आ जाने पर स्त्रियाँ जल्दी से स्वयं को ढक लेती हैं। पर उन्हें यह बात इसलिए सही नहीं लगती क्योंकि शांति से धूप सेंक रही स्त्री के लिए यह एक मुसीबत होती है, जबकि वहाँ से गुज़र रहा पुरुष यह महसूस करता है जैसे वह वहाँ एक घुसपैठिया हो। और नग्नता के विरुद्ध जो वर्जना है, अप्रत्यक्ष रूप से उसकी पुष्टि हो जाती है। किसी भी परिपाटी का अधूरा सम्मान करने से आजादी और स्पष्टवादिता की बजाए असुरक्षा और व्यवहार की असंगतता को बल मिलता है। 

इसलिए जैसे ही श्री पालोमर कुछ दूरी पर युवती के नग्न धड़ की धुंधली कांस्य-गुलाबी रूप-रेखा देखते हैं, वे जल्दी से अपना सिर इस तरह मोड़ लेते हैं कि उनकी दृष्टि का कोण शून्य में लटका हुआ दिखे। इस तरह वे लोगों के गिर्द मौजूद अदृश्य सीमा के प्रति शिष्ट सम्मान की गारंटी देते हुए लगते हैं। 

अब क्षितिज साफ दिख रहा है। श्री पालोमर अब बिना हिचके अपनी आँखों की पुतलियाँ घुमा सकते हैं। जब वे आगे बढ़ना शुरू करते हैं तो वे सोचते हैं कि इस तरह का अभिनय करके वे अनावृत उरोजों को देखने की अपनी अनिच्छा का प्रदर्शन कर रहे हैं। पर दूसरे शब्दों में वे अंततः उसी परिपाटी को सुदृढ़ कर रहे हैं जो अनावृत उरोजों के किसी भी दृश्य को निषिद्ध करार देती है। यानी वे उरोजों और अपनी आँखों के बीच एक तरह की लटकी हुई मानसिक चोली की सृष्टि कर लेते हैं, क्योंकि उनकी दृष्टि के घेरे के किनारे तक जो चमक पहुँची थी, वह उनकी आँखों को हरीभरी और सुखकर लगी थी। दूसरे शब्दों में कहें तो उनका अनावृत उरोजों को न देखने का प्रयत्न करना पहले से यह मान लेना है कि दरअसल वे उसी नग्नता के बारे में सोच रहे हैं और उससे आक्रांत हैं। यह एक अविवेकी और प्रतिगामी रवैया है। 

सैर करके लौटते समय श्री पालोमर धूप-स्नान कर रही अनावृत उरोजों वाली युवती के बगल से दोबारा गुजरते हैं। इस बार वे अपनी दृष्टि बिल्कुल सीधी रखते हैं। इसलिए उनकी निगाह एक निष्पक्ष एकरूपता के साथ तट से टकरा कर लौटती हुई लहरों के झाग पर, किनारे पर लगी नावों पर, रेत पर बिछे बड़े-से तौलिये पर, हल्की त्वचा के चंद्राकार उभार और कुचागों के गहरे प्रभा-मंडल पर, तथा हल्की धुंध में आकाश की पृष्ठभूमि में तट की धूसर रूप-रेखा पर पड़ती है।

हाँ, यह ठीक है- टहलते-टहलते अपने कृत्य से प्रसन्न हो कर श्री पालामर सोचते हैं: उरोजों को पूरे परिदृश्य में समाहित कर देने में मैं सफल हो गया हूँ। इसलिए मेरी टकटकी किसी समुद्री पक्षी की टकटकी से अधिक कुछ भी नहीं। 

पर क्या यह तरीका सही है- वे आगे सोचते हैं। क्या यह ऐसा नहीं है जैसे किसी मनुष्य को वस्तु के स्तर पर ला दिया गया हो, उसे महज सामान बना दिया गया हो ? और उससे भी बुरी बात यह कि किसी महिला के विशिष्ट अंग को वस्तु का दर्जा दे दिया गया हो। क्या शायद मैं पुरुष श्रेष्ठता-मनोग्रंथि की पुरानी आदत को ही कायम नहीं रख रहा, उस मनोग्रंथि को जो सैकड़ोंझारों बरसों से गुस्ताख़ी की आदत में रूढ़ हो गई है- वे सोचते हैं। 

श्रीपालोमर कहते हैं और धूप-स्नान कर रही उस युवती की ओर दोबारा चल पड़ते हैं। वे अपनी निगाह को समूचे समुद्र-तट पर एक तटस्थ पता के साथ डालते हैं। वे अपनी निगाह को इस तरह सँवारते हैं कि जैसे ही युवती के उरोज उनकी दृष्टि के क्षेत्र में आते हैं, उनकी निगाह का विचलन स्पष्ट हो जाता है। जैसे निगाह उस दृश्य से थोड़ा हट गई हो। जैसे दृष्टि लगभग झपट कर खिसक गई हो। वह निगाह नग्न युवती की कसी हुई त्वचा को छूती है, फिर लौट आती है, गोया एक विशेष गरिमा प्राप्त कर लेने वाली दृष्टि को वह थोड़ा चैंक कर सराह रही हो। कुछ पलों के लिए वह सरसरी दृष्टि बीच हवा में मँडराती है, फिर एक निश्चित दूरी से उरोजों की उभरी गोलाई के साथ मुड़ जाती है। एहतियात के साथ बच कर निकलती हुई वह दृष्टि फिर अपने रास्ते पर ऐसे चल पड़ती है, जैसे कुछ हुआ ही न हो। 

मुझे लगता है कि इस तरह से मेरी स्थिति बिल्कुल स्पष्ट हो गई है और अब कोई संभावित गलतफहमी नहीं होगी- श्री पालोमर सोचते हैं। लेकिन क्या युवती के अनावृत उरोजों के चंद्राकार उभार को छू कर लौटने वाली निगाहों को अंततः श्रेष्ठता-मनोग्रंथि का परिचायक ही नहीं माना जाएगा ? एक ऐसी मनोग्रंथि जो उरोजों के अस्तित्व और उनके अर्थ को कम करके आँक रही है ? उन्हें हाशिए पर या कोष्ठक में रख रही है ? यानी उन उरोजों को मैं दोबारा उस नीम-अँधेरे के सुपुर्द कर रहा हूँ जहाँ यौन-सनक से भरी सदियों की अतिनैतिकता ने कामना को पाप का दर्जा दे कर रख छोड़ा है ... 

यह व्याख्या श्री पालोमर के सर्वोत्तम इरादे के विरुद्ध जाती है। हालाँकि वे मनुष्यों की उस पीढ़ी से आते हैं जिसके लिए नारी के उरोजों की नग्नता का संबंध कामुक आत्मीयता के विचार से जुड़ा है, किंतु फिर भी वे रिवाजों में आए इस परिवर्तन का स्वागत करते हैं और इसे सराहते हैं। यह एक अधिक उदारवादी समाज का प्रतिबिम्ब है, उसका सूचक है। इसके अलावा उनके लिए यह दृश्य विशेष रूप से सुखकर है। यही वह तटस्थ प्रोत्साहन है जो वे अपनी दृष्टि के माध्यम से व्यक्त करना चाहते हैं। 

अचानक श्री पालोमर अपना रंग बदलते हैं। वे धूप सेंक रही अनावृत उरोजों वाली लेटी हुई युवती की ओर दोबारा दृढ़ क़दमों से चल पड़ते हैं। अब उनकी दृष्टि भू-दृश्य पर एक सरसरी चपल निगाह डाल कर युवती के अनावृत उरोजों पर विशेष सम्मान के साथ देर तक ठहरेगी। किंतु वह निगाह जल्दी से अनावृत उरोजों को सद्भाव और कृतज्ञता के आवेग के साथ सम्पूर्ण परिदृश्य में समाहित कर लेगी। उस परिदृश्य में जिसमें सूर्य और आकाश होंगे, चीड़ और देवदार के झुके हुए दरख़्त होंगे, रेत का टीला होगा, समुद्र-तट होगा, पत्थर होंगे, बादल होंगे, समुद्री शैवाल होंगे, और वह ब्रह्मांड होगा जो उन कुचागों के प्रभा-मंडल के गिर्द परिक्रमा करेगा। 

यह कदम उस अकेली धूप सेंकने वाली युवती को स्थायी रूप से आश्वस्त करने के लिए पर्याप्त होना चाहिए और सभी पतित पूर्व-धारणाओं का क्षरण हो जाना चाहिए। किंतु जैसे ही श्री पालोमर अनावृत उरोजों वाली उस युवती के करीब पहुँचते हैं, वह अचानक चिहुँक कर उठती है, एक बेचैन झुंझलाहट के साथ खुद को ढंक लेती है और अपने कंधे उचका कर चिढ़ी हुई हालत में वहाँ से चलती बनती है, गोया वह किसी लम्पट के कष्टकर दुराग्रह से बचने का प्रयत्न कर रही हो। 

असहिष्णु परम्परा का महाभार सबसे प्रबुद्ध इरादों को भी समझने की योग्यता के मार्ग में बाधक होता है- अंततः श्री पालोमर कड़वाहट के साथ इस नतीजे पर पहुंचते हैं।

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लघुकथा

डाॅ. मीरा रामनिवास, अहमदाबाद, मो. 9917405694

पार्क की बैंचों पर बैठ बुजुर्ग मंडली रामचरितमानस में वर्णित रामराज पर चर्चा कर रही थी। 

दैहिक, दैविक, भौतिक तापा। रामराज नहिं काऊ को व्यापा।।

रामराज में प्रजा को कोई कष्ट न था। एक बुजुर्ग ने कहा‘‘ रामराज में नर, नारी सदाचारी थे, सभी अपने नियत धर्म का पालन करते थे। मातापिता, गुरु, बुजुर्गों को आदर दिया जाता था। समाज में लोगों की एक दूजे के प्रति परस्पर प्रीति थी।‘‘ दूसरे बुजुर्ग ने कहा ‘‘पराए धन और पराई नारी पर बुरी नज़र नहीं डाली जाती थी, कंचन भी पड़ा रहे नहीं उठाते थे, पराई नारी को मां, बहन, बेटी का आदर मिलता था।‘‘ तीसरे बुजुर्ग ने कहा ‘‘सदाचार, सत्य और धर्म की समाज में प्रतिष्ठा थी। शास्त्र सम्मत मार्ग पर चल कर कमाई की जाती थी‘‘, किसी ने कहा भाई भाई में प्रेम था। गुरु, अतिथि और देवों के प्रति श्रद्धा भाव था।‘‘ बड़ी सुंदर चर्चा चल रही थी। सभी रामराज के दिनों को याद कर रहे थे। प्राचीन सुंदर परंपराओं की महिमा का बखान कर रहे थे। लेकिन आज ऐसा नहीं है, समय बदल गया है। इसपर सब खेद जता रहे थे।

चर्चा के अंत में सबसे सीनियर बुजुर्ग मधुसूदन ने सबका ध्यान आकर्षित करते हुए कहा ‘‘दोस्तों! आज की चर्चा को हम यहीं विराम देते हैं, कल के कार्यक्रम की रूपरेखा समझ लेते हैं। सर्व सम्मति से सबने समर्थन किया। कार्यक्रम तय हुआ कि कल शाम सभी पार्क के गेट पर इकट्ठा होंगे। वहां से सभी एक साथ वृद्धाश्रम के लिए प्रस्थान करेंगे।

शाम को नियत समय पर सभी बुजुर्ग अपने गंतव्य को चल पड़े। बाजार से गुजरते हुए कुछ फल, फूल मिष्ठान खरीदा गया। निर्धारित समय पर वृद्धाश्रम पर पहुंच गए। संचालक महोदय प्रतीक्षा कर रहे थे। वे सभी को सभाकक्ष तक ले गए जहां सभी बुजुर्ग पहले से ही विराजमान थे। परस्पर परिचय हुआ, फिर सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू हुआ। सभी ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। किसी ने चुटकुला सुनाया। किसी ने किस्सा, किसी ने कहानी, किसी ने गीत, किसी ने भजन सुनाया। आखिर में मधुसूदन जी ने रामचरितमानस की कुछ सुंदर चैपाइयों को गाकर सुनाया। वातावरण रसमय बन गया। सांस्कृतिक संध्या के बाद अल्पाहार की व्यवस्था थी। सबने आनंद से खाया पिया। बुजुर्ग मंडली कुछ खट्टी मीठी यादों संग लौट आई।

अगली शाम बुजुर्ग वृद्धाश्रम मुलाकात पर चर्चा कर रहे थे। हरिमोहन जी कह रहे थे, दोस्तों आप सबने नोटिस किया होगा कि कल गहमागहमी के बाद भी कुछ बुजुर्गों के चेहरों पर उदासी थी, ये वो बुजुर्ग थे जो बच्चों की ज्यादतियां सहकर भी उनके साथ रहना चाहते थे। किंतु बच्चों ने यहां ला पटका। उनकी आंखें बच्चों को ढूंढ रही थीं। कुछ ऐसे बुजुर्ग थे जिनके चेहरे पर संतोष का भाव था। क्योंकि वे बच्चों की ज्यादतियां बर्दाश्त न कर सके और खुद ही स्वाभिमान वश घर छोड़ आए। वे संतुष्ट थे कि बिना तिरस्कार के दो रोटी यहां भी खा लेते हैं। कुछ बुजुर्गों की आंखें नम थीं, ये वे बुजुर्ग थे जिन्हें धोखे से यहां छोड़ा गया। इनके जीवन की जमापूंजी, सर की छत, सुख चैन छीनकर बच्चे रफूचक्कर हो गए।

विश्वनाथ जी ने चर्चा का समापन करते हुए कहा दोस्तों मन में कुछ सवाल हैं, बुजुर्गों के साथ ऐसा क्यों हो रहा है? रिश्तों की पकड़ आखिर क्यों ढीली पड़ गई है? आज बच्चे उच्च शिक्षा से आगे बढ़ रहे हैं, लेकिन जीवन मूल्य पीछे छूट रहे हैं। आज युवा माता-पिता को दिल में जगह देना दूर, घर में जगह नहीं दे पा रहे हैं। मां बाप अपनी तीन चार संतानों को पालते हैं। उनकी जरूरतें पूरी करने में अपनी जवानी झोंक देते हैं। लेकिन बच्चे स्वार्थ और लालच वश माता पिता के प्रति कृतज्ञता भूल रहे हैं। इसीलिए वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़ रही है।

हम खुशकिस्मत हैं कि परिवार के साथ रहते हैं।

बुजुर्गों ने इस दफा किसी स्कूल में जाकर बच्चों को नोटबुक, बिस्कुट, फल आदि वितरित करने का फैसला लिया था। बच्चों को परीक्षा के गुर सिखाएंगे तथा सदाचार की सीख देने वाली कोई लघुकथा सुनायेंगे। बुजुर्ग इस तरह अपनी दूसरी पारी का भरपूर आनंद ले रहे थे।

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संस्मरण


श्रीमती मुकुल रानी वार्ष्णेय, नई दिल्ली, मो. 9953571874

सच्ची मित्र 

आज मैं आपके सामने अपने जीवन की की एक छोटी सी दिलचस्प घटना रख रही हूँ। जिसे पढ़कर और कल्पना करके आप सब को भी अवश्य आनंद आयेगा। बात पुरानी है। सन् 1946 की। मेरा ऐडमीनशन बीएचयू में हो गया। विमेन्स होस्टल में मुझे कमरा रहने को मिल गया। कमरे में हम तीन लड़कियाँ थीं। मैं, तारा श्रीवास्तव और वसुन्धरा आन्ध्र प्रदेश की ज़रा रिजर्व सी थी पर तारा खूब हँसमुख बातूनी थी उससे मेरी बहुत जल्दी दोस्ती हो गयी। काॅलेज साथ-साथ जाते। मैस में निर्धारित समय पर खाने जाते और रहते तो एक कमरे में ही थे।

इधर अलीगढ़ मेरे घर में मेरी मेरी शादी की चर्चा जोर पकड़ रही थी। लड़के महाशय यहीं बीएचयू में ग्लास टैक्नोलाॅजी  का कोर्स कर रहे थे और शायद उन्होंने मुझे दूर से देख भी लिया था। मुझे इसका पता न था। पूजा की छुट्टियों में जब मैं घर गयी तो सचमुच ही मुझे विवाह के बंधन में बाँध दिया गया। छुट्टियाँ समाप्त होते ही मैं वापस बनारस आ गयी। मेरे विवाह पक्के होने की सूचना सारे होस्टल में मेरे बिना बताये ही फैल गयी थी। कारण अलीगढ़ की दस-ग्यारह लड़कियाँ यहाँ होस्टल में थीं।

अब तक तारा से मेरी दोस्ती काफी गहरी हो चुकी थी। उससे सारा हाल मैंने बता दिया था। मेरे होने वाले पति का नाम प्रेमचन्द था। काॅलेज खुल गये थे। शाम को कैमिस्ट्री प्रैक्टीकल करके मैं और तारा निकल ही रहे थे कि किन्हीं के कदमों की आहट खट-खट करती पास से निकल गई मुझे शक हुआ और सचमुच इनमें से एक प्रेमचन्द जी थे। जब वे काफी दूर निकल गये तब मैंने तारा को बताया उसने आव देखा न ताव तारा ने मुझे पीटना शुरु कर दिया कि तूने मुझे पहले क्यों नहीं बताया। ऐसी थी तारा।

इसी प्रकार बाद में प्रेम जी मुझसे मिलने आते तो तारा ही देर होते देख घन्टी बजने की सूचना हमें देती थी। एक बात बताऊँ प्रेमचन्द जी का एक प्रेम पत्र नीले लिफाफे में रोज आता था। यह बात सारे होस्टल को पता थी। मेरे पत्र पढ़ने की छूट केवल तारा को थी। कभी कभी तो तारा मेरी जगह स्वयं पत्र लिख कर मुझे दे देती थी। एक बार तो उसने चित्रों के माध्यम से पत्र लिखा और मुझसे डलवाया, प्रेम जी भी खूब आनंद लेते थे।

मैं पीछे लिख चुकी हूँ कि मेरा विवाह पक्का कर दिया गया  क्योंकि प्रेम जी के दादा जी प्रेम जी को अमेरिका कुंवारा नहीं भेजना चाहते थे। और मार्च 1947 में मुझे विवाह के बन्धन में बाँध ही दिया गया। मेरी नाव तो घर गृहस्थी और बाल बच्चों में फँस कर रह गयी पर तारा डाॅ. बन गयी। मेरी ससुराल बड़ी दूर झारखण्ड के जंगलों में एक छोटे से गाँव कान्द्रा में थी। मेरे श्वसुर जी ने यहाँ ग्लास फैक्टरी लगायी थी। तारा से मेरा संबंध टूट गया। उसने बाद को अपना प्रेम विवाह किया डाॅ. सक्सेना से। अब वह सक्सेना हो गयी। एक बार इत्तफाक से दिल्ली में मोती महल रेस्ट्रां में हम लोगों की मुलाकात हो गयी थी। तब मुझे पता चला कि वह रिवाड़ी में सैटिल्ड है। इस बात को काफी समय बीत गया। मुझे कभी-कभी तारा की याद आती थी?। चमत्कार देखिये कि एक दिन मैं सरिता पत्रिका पढ़ रही थी उसमें एक छोटे से समाचार में तारा नाम का और रिवाड़ी शहर का नाम भी छपा था। मेरे शरीर में बिजली सी कौंध गयी और मैंने पता लगाने की सोची केसे भी हो ये पता लगाऊँगी और मैंने मेहनत करके एक ऐसे जन को ढूँढ लिया जो रिवाड़ी की थी। उनसे मैंने डाॅ. तारा सक्सैना के बारे में पूछा वे बोली हम तो उन्हें बहुत अच्छी तरह से जानते हैं। बस मैंने उनसे प्रार्थना की कि किसी प्रकार तारा का मोबाइल नम्बर मुझे मंगा दे। और उन्होंने मंगा दिया। बस फिर क्या था मैंने तत्काल तारा को फोन किया। कुछ देर तो एक दूसरे की आवाज पहचानने में ही लग गये। 40-50 साल बीत चुके थे बीच में। पर मैंने देखा है कि जब कोई कार्य सफल होने को होता है तेा उसके सारे कठिनाई के ताले अपने आप खुल जाते हैं। यही हुआ। मैंने कितने पापड़ बेले उसका पता लगाने में यह जान कर तो वह बहुत ही विह्ल और आनंदित हुयी। इस समय हम दोनों की आयु अस्सी साल हो रही थी। अब हम लोग बात तो करते ही थे। एक बार तारा मिल भी गयी थी। इसी दौरान बच्चों ने मेरा अस्सीवां जन्मदिन मनाने का प्रोग्राम चुपचाप बना लिया। मुझे भनक भी न होने दी। जब मैंने गार्डन में कुर्सी मेज सजते देखीं तब पता चला कि यह बात है। मैं भावुकता के सागर में डूब गयी। शाम को वे सब लोग एक एक कर आते गये जिन्हें मैंने सालों से नहीं देखा और इन्हंी में तारा और पद्या जी भी आती दिखायी दीं। वो भी बहुत वृद्ध हो रही थीं। कितनी प्रसन्न्ता हुयी बता नहीं सकती। तारा को मेरा परिवार और मुझे देखकर बड़ी प्रसन्नता हुयी। इसके बाद तो फिर अक्सर ही हम लोग बात करने लगे। वह जब दिल्ली आती थी मिल कर ही जाती थी।

इस प्रकार दस वर्ष और व्यतीत हो गये। मेरा स्वास्थ गिरता ही जा रहा था यहाँ तक कि वाॅकर की और व्हीलचेयर की  आवश्यकता हो गयी। बिना सहारे दो कदम भी नहीं चल सकती थी पर तारा ठीक थी। मेरी पुस्तक टपहदनजजमे व िभ्पदकनपेउ का विमोचन हुआ था। इसमें तारा आयी थी और वह माइक पर बोली भी थी पर मैं उसकी अपेक्षा 

अधिक कमज़ोर थी। 

उसके बाद एक वर्ष बीता होगा कि पता चला कि उसे पैरालीसिस हुआ है, मुझे बड़ा दुख हुआ। देखने का मन हुआ पर बच्चे नहीं जाने देते। कहते हैं तीन चार घण्टे का सफर आप नहीं कर सकतीं और एक सीढ़ी भी नहीं चढ़ सकती मन मार कर रह गयी।

कुछ दिन बात पता चला कि वह ठीक हो गयी है। मुझे फिर बहुत खुशी हुयी। एक दिन उसका फोन आया कि वह मुझे मिलने आ रही है। मैं बोली जरूर आओ। मैंने खूब तैयारी की उसके आने की खुशी में। अच्छे-अच्छे पकवान बनवाये। कुछ उपहार सजा कर रखे। मुझे पता न था कि एक दिन में ही आना-जाना करेंगी। यह जान कर मुझे थोड़ा सोच हुआ। खैर- ठीक है। समय पर वह आ गयी। गेट के दरवान ने मुझे फोन किया कि मेहमान आ गयी हैं। मैंने कहा कि उन्हें ड्राइंग रूम में बैठाओ। इधर में जल्दी जल्दी अपनी व्हील चेयर पर बैठ कर तैयार हो गयी। मुझे जरा भी अन्दाजा नहीं था कि वह भी व्हील चेयर पर होगी और साड़ी की जगह गाउन पाउन पहने होगी। इस कहानी का विशेष अन्तिम सीन यही है कि मेरी आया मुझे लेकर नीचे चली और तारा की आया उसे लेकर अन्दर आने लगी। मैंने सोचा भी नहीं था कि तारा व्हील चेहर पर और ड्रैस पहने हुये होगी। और इतनी वृद्ध दिखाई दे रही होगी। जैसे ही हमारा आमना सामना हुआ मैं तो नमस्ते तक करना भूल गयी और 1 मिनिट तक तारा को देख कर हैरान सी हो गयी। इतनी अच्छी खासी मेरी दोस्त इतनी कमजोर और व्हील चेयर की मोहताज हो गयीं एक सैकेन्ड को ऐसा सीन बन गया जैसे आया लोग बच्चों को गाड़ी में बिठाकर घुमाने ले जाती हैं। जब कुछ समय बीता तब मुझमें हरकत आयी अैर हँस कर नमस्ते का आदान प्रदान किया। जब भी सोचती हूँ मुस्करा लेती हूँ।

काफी समय पहले हम दोनों में यह पैक्ट हुआ था कि हम लोग मिलेंगे पर उपहार नहीं देंगे-लेंगे। लेकिन वो न मानी और न मैं मानी। मैंने जो दिया सो दिया वह भी मुझे उपहारों से लाद कर शाम की चाय पीकर चली गयी। और मैं पीछे से अतीत की मधुर यादों में भावुक होकर खो गयी....। सच्ची मेरी मित्र है।

ऐ ख़ुदा मेरे दोस्त को सलामत रखना।

वर्ना मेरी सलामती की दुआ कौन करेगा।।

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यात्रा-संस्मरण

डाॅ. आरती स्मित, संपर्क: गणेशनगर पांडवनगर कॉम्प्लेक्स, दिल्ली, मो. 8376836119


प्रकृति की चित्रकार अमरकंटक की वादियाँ


पेंड्रा रोड स्टेशन! स्टेशन देखा, प्लेटफॉर्म पर उतर कर चारों ओर दृष्टि डाली तो कोई दूसरी दुनिया नजर आई।

मध्यप्रदेश! अमरकंटक की पहाड़ियों को बस अंतर्जाल की दुनिया से निहारा था और सचमुच,  उस रास्ते पर हमारी गाड़ी दौड़ रही थी। अवसर था, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में भागीदारी का। विषय भी ऐसा कि सुनकर ही खुशी से भीग उठी थी। यह संगोष्ठी आधुनिक हिंदी साहित्य के मूर्धन्य साहित्यकार पंडित विद्यानिवास मिश्र के कृतित्व के विभिन्न पहलुओं पर विमर्श हेतु आयोजित की गई थी,  मुझे उनके वैचारिक निबंधों के परिप्रेक्ष्य में अपनी बात रखनी थी।

इस कार्यक्रम के निदेशक प्रोफेसर दिलीप सिंह थे। बनारस और वर्धा से कई परिचित साहित्यकार भी आनेवाले थे। दिल्ली से मुझे और नोएडा से ब्रजेन्द्र त्रिपाठी जी को जाना था। तो उन्हें भी दिल्ली से ही ट्रेन पकड़नी थी। ब्रजेन्द्र जी प्रकृति प्रेमी हैं और मैं प्रकृति में खो जानेवाली। इस नाते  प्रकृति की गोद में सहयात्रा बड़ी अच्छी रही।

मैकाल पहाड़ियों में स्थित अमरकंटक की गोद में बसे (लगभग बीस किलोमीटर दूर) लालपुर शहर में स्थापित विश्वविद्यालय का यह परिसर मुझे विस्मित करने के लिए पर्याप्त था। इतना विशाल, इतना व्यवस्थित और इतना अग्रसोची विश्वविद्यालय! मैं मन ही मन कुलपति प्रोफेसर टी. वी. कट्टीमनि के प्रति नतमस्तक हुई, जिनकी विद्वता और सादगी की चर्चा मैंने पहले भी सुन रखी थी। ड्राइवर ने बताया कि विकास मंत्री दलवीर सिंह ने 1460 हेक्टेयर जमीन दी। 500 एकड़ में यह परिसर है। बिलासपुर-मार्ग पर सड़क के दोनों ओर पीले और हरे पत्तों की आँखों से शिशिर और वसंत की आँखमिचैली का खेल देखते ये पेड़, उन सूखी कँटीली झाड़ियों के बीते यौवन के गवाह थे।

“इन्हें मरमर्सिया कहा जाता है” ड्राइवर ने बताते हुए कहा, “बरसात में ये झाड़ियाँ हरी- भरी लुभावनी होती हैं।” 

दूर-दूर तक साल वृक्ष के वन बाँहें पसारे बुला रहे थे। मैंने ड्राइवर को अपना शिक्षक मान लिया और जिज्ञासावश प्रश्न पूछ-पूछकर रास्ते भर उन्हें परेशान करती रही और वे मुस्कुराकर जवाब देते रहे। मैंने पाया कि मेरे प्रश्न उन्हें थका नहीं रहे, बल्कि एक आनंद का एहसास करा रहे हैं- अपने क्षेत्र की विशिष्टता के प्रकटीकरण का आनंद कहीं न कहीं उन्हें रस दे रहा था। ड्राइवर ने बताया, “यहाँ आसपास गाँवों में कोदो, धान, गेंहूँ, चना, मसूर और अलसी की खेती होती है।” मैं कृषि की जानकार नहीं,  इतना समझ पाई कि रबी फसल ही इनका आधार है। अफसोस कि सिंचाई के अभाव में 25ः ही उपज हो पाती है।

आगे का दृश्य हृ्रदय विदारक था। दूर -दूर तक पेड़ों से झड़कर जमीन पर पीली चादर-सी बिछी पत्तियों ने काली राख का रूप ले लिया था। पेड़ों का निचला हिस्सा भी जला हुआ मिला, फिर भी वे पेड़ मुस्कुरा रहे थे, मानो कह रहे हों, ‘देखो! तुम मानवों ने पहाड़ी पर भी हमारा जीना दूभर कर दिया है, मगर हम जीएँगे, हर हाल में जीएँगे‘। ड्राइवर ने बताया, “शिवरात्रि मेले में दूर- दराज से आए लोग खयाल नहीं रखते और जलती सिगरेट- बीड़ी फेंक देते हैं, जिससे सूखी पत्तियों में आग पकड़ लेती है। और एक बार जो आग भड़की तो उसे काबू में लाना कठिन हो जाता है। ये राख और अधजले पेड़ उसी आग का नतीजा हैं।”

‘अबतक कहीं पककर सुनहरे हो चुके पत्तों से पटी जमीन और वृक्ष की शाखाओं पर फूटते, ललाई हरीतिमा लिए हुए नए कोंपल, कहीं तांबई रंग के पत्तों के भार से लदे-फदे पेड़, कहीं नवयौवन की आरजू में खड़े ठूँठ अपनी बारी का इंतजार करते हुए खड़े मिले... और अब यह सुलगती आग का नजारा। उफ! धीरे-धीरे नागिन-सी लहराती, सिर उठाती, विस्तार पाती आग! मानव की मूर्खता का शिकार हँसता-खेलता वन! जो प्रकृति अपनी हरीतिमा से आँखों को ठंडक पहुँचाती है, उसे ही झुलसाने में हम कोर-कसर नहीं छोड़ते। सचमुच प्रकृति और स्त्री की पीड़ा एक ही है!’ मन अपनी सोच में गुम और व्यथित रहा।

सोहागपुर क्षेत्र से, गाड़ी टूटी-फूटी पथरीली राहों से गुजर रही थी। सड़क न के बराबर! खपरैल मकान, पत्थरों को चुन-चुनकर बिना सीमेंट के खड़ी दीवार! और अब पगडंडीनुमा रास्ते पर हिचकोलों से बचती-बचाती आगे बढ़ती हमारी गाड़ी। बछड़े मार्ग पर चरते हुए। ड्राइवर शिवलाल बैगा बहुत ही व्यावहारिक और कार्यकुशल थे। 

गाड़ी ने विश्वविद्यालय परिसर में पहुँचकर साँस ली। अंदर पक्की सड़क थी। गाड़ी दो किलोमीटर तक दौड़ती हुई अतिथिगृह पहुँच गई। परिसर के मुख्य द्वार से लगभग डेढ़- दो किलोमीटर तक भित्ति चित्र के रूप में उकेरी गई गोंडी चित्रकला गोंडी संस्कृति की कहानी सुनाती नजर आई। चैकीदार ने बताया, “चित्रकला के लिए सारे जरूरी सामान विश्वविद्यालय की ओर से दिए जाते हैं साथ में उनका मेहनताना भी।”

विलुप्त हो रही प्राचीन गोंड संस्कृति के इतिहास को चित्रांकन द्वारा सहेजने का यह अनूठा प्रयास सचमुच सराहनीय था। कई मिथकीय कथाएँ भी चित्रों में जीवंत थीं। इसके साथ ही, परिसर में कई जगह शिल्पकारी के अद्भुत नमूने  देखने को मिले,  जो उनकी सोच की व्यापकता और लीक से हटकर कुछ बेहतर सोचने की क्षमता को दर्शाते हैं। गाड़ी इनकी झलक दिखाती हुई अतिथिगृह पहुँचा गई। 

सभी मेजबानों से औपचारिक मेल-मिलाप के बाद हम अपने-अपने कमरे में पहुँचे। सोफे में धँसते हुए चाय की तलब हुई, फिर दृष्टि गई कमरे की साज-सज्जा पर। इतना खूबसूरत कमरा! सुविधाजनक आधुनिक उपकरणों से लैस! दीवारें कलात्मक पेंटिंग से सजी। गलियारा शोररहित, रोशनी से दमकता हुआ। अतिथिगृह के मुख्य द्वार पर बड़ा हॉल। जनजातीय चित्रकारी और शिल्पकला का उत्कृष्ट नमूना! हृदय से आवाज आई, ‘वाह! हर कोना क्षेत्रीय कला का सुंदर उदाहरण है’। दरवाजे से बाहर पेड़-पौधे, फूल जमीन और गमले में जगह-जगह हवा में मुस्कान बिखेरते हुए मिले। जगह-जगह कई युवा छात्र मंडली नजर आई, किंतु उनकी बातचीत, खेलकूद का प्रभाव वहाँ के शांत वातावरण पर न के बराबर था। विश्वविद्यालय का इतना सुव्यवस्थित अतिथिगृह देखकर सराहना किए बिना न रह सकी।

गाड़ी हमें संगोष्ठी कक्ष में ले जाने आ चुकी थी। हम सबने प्रस्थान किया। संगोष्ठी कक्ष का परिसर भी कम चैंकानेवाला नहीं था। मुख्य द्वार से अंदर जाते ही रंगोली के जो दर्शन हुए। हम सबके मुँह से एक ही शब्द निकला- अद्भुत! दरअसल यह रंगोली केवल कलात्मकता का ही प्रतीक नहीं थी। रंगोली द्वारा उकेरी गई हर आकृति हाशिए पर टँगे समसामयिक मुद्दों पर विमर्श करती हुई, हमें विमर्श हेतु प्रेरित कर रही थी। मैं मंत्र-मुग्ध-सी उस रंगोलियों में छिपी, कलाकार की व्यापक दृष्टि और उनके गहन सोच को समझ पाने की कोशिश में देर तक लगी रही। मेरे जैसे अन्य साहित्यकार साथी भी भाव में भरे उन रंगोलियों को निहारे जा रहे थे। संगोष्ठी कक्ष से बार-बार आकर बैठने की उद्घोषणा सुनकर हम सब रंगोली के आकर्षण-पाश से मुक्त होने को विवश हुए।

ये क्या! रंग-बिरंगे गुब्बारों से सजा संगोष्ठी कक्ष का मंच और उसके चारों ओर जमीन पर अपनी छटा बिखेरती रंगोली। मैंने साहित्य और कला का ऐसा अद्भुत संगम पहली बार देखा। पूछने पर ज्ञात हुआ कि ये सारी साज-सज्जा और रंगोली में उकेरी गई कलाकृतियाँ  इस विश्वविद्यालय की छात्राओं की मेधा का नमूना है। मंच पर सत्कार और सम्मान की सारी व्यवस्था छात्र-छात्राओं ने की थी। शिक्षक या निदेशक की ओर से कहीं कोई निर्देश या इशारे की आवश्यकता नहीं पड़ी। छात्र-छात्राओं में दायित्व- निर्वाह के प्रति उनका सचेत मन ही था जो उनसे इतने अनुशासित ढंग से कार्य करवा रहा था। कहीं एक आवाज नहीं, कोई भागमभाग नहीं,  कहीं कोई गड़बड़ी या चूक नहीं! सत्र बेहतर रहा। दो दिनों में हम सबने  कई अनुभव बटोरे और सत्र समापन काल में उन बच्चों से भी मित्रता हो गई। 

अब बारी थी, देश भर से एकत्र हुए सभी साहित्यकार मित्रों और गुरुजनों के साथ अमरकंटक के सुप्रसिद्ध स्थलों के दर्शन हेतु भ्रमण की। मध्यप्रदेश के अनूपपुर जिले में विध्यांचल और सतपुड़ा पर्वतश्रेणियों के पूर्वी संधिस्थल पर अमरकंटक स्थित है, जो नर्मदा, सोन और जोहिला नदी के उद्गमस्थल के रूप में भी पूज्य है। टीक और महुए से घिरा यह क्षेत्र प्राचीन मंदिरों के लिए भी प्रसिद्ध है। हम सभी दो-तीन गाड़ियों में सवार हुए और चल दिए देव-दर्शन को।  प्राचीन कला का उत्कृष्ट नमूना देखते हुए हम नर्मदा नदी का उद्गम स्थल देखने गए। मंदिर परिसर में लगभग सभी देवी-देवताओं के मंदिर हैं। नवीन मंदिर परिसर में स्थापित शिवलिंग के ऊपरी हिस्से में नर्मदा कुंड बना हुआ है, जो घेरा हुआ है। यही नर्मदा का उद्गम स्थल है। नर्मदा नदी की महत्ता हिंदू धर्म में बहुत अधिक है। आदिवासी समाज में, खासकर गोंड के इतिहास में नर्मदा नद के रूप में उल्लिखित है, जिसके अनुसार मानव संस्कृति का जन्म इसी तट से आरंभ हुआ। नर्मदा की धारा आगे समृद्ध रूप में पहाड़ी के ऊपर से कपिलधारा के रूप में गिरती है और आगे बढ़कर दूध धारा के नाम से प्रसिद्धि पाती है। 

सोन नदी को गंगा की सहायक नदी माना गया है। यह यहीं अमरकंटक की पहाड़ी से बहुत ही क्षीण धारा के रूप में निकलती है। भक्तों ने सोनमुदा उद्गमस्थल के जल को ग्रहण करने के लिए इसे दो गर्भगृह के रूप में बनाया जिससे एक स्थल पर जल संचय होता है। इसे ही मंदिर का स्वरूप दे दिया गया। आगे जाकर यह नीचे एक कुंड में रिसती हुई दिखाई देती है। सोन नदी की रेत सुनहरापन लिए है, इसलिए इसे सोन (सोना) कहकर पुकारा गया। सभी भक्ति भाव से भरे, नर्मदा नदी के उद्गम स्थल के दर्शन के बाद सोनमुदा के दर्शन को आए। अँधेरा घिर आया था। हर जगह पर्याप्त रोशनी की व्यवस्था वैसी नहीं थी, जैसी नर्मदा मंदिर में। प्राचीन मंदिरों के भीतर प्रवेश करने पर भी हमें मोबाइल से जाले में बंद देवप्रतिमा को पहचानने की मशक्कत करनी पड़ी थी, बाद में बाहर से ही प्रणाम करके संतुष्ट होना पड़ा। संभवतः अब भक्तों की भीड़ नए मंदिरों में ही होती हो। नर्मदा नदी यहाँ से पश्चिम मुड़ जाती है और सोन पूर्व में। अमरकंटक को महादेव की नगरी भी कहा जाता है। प्रत्येक स्थल का अनुभव परस्पर भिन्न, उनसे जुड़ी मान्यताएँ भिन्न,  किंतु श्रद्धा और भक्ति का सोता एकसमान पवित्र- उद्गम जल की तरह!    

बेहतर दिन की समाप्ति के साथ हम अतिथिगृह पहुँचे। रात के 8 बज चुके थे, थोड़ी देर में रात्रि भोजन के लिए बुलावा आ गया,  जहाँ हर्षमिश्रित विस्मय स्वागत में खड़ा था। कुलपति महोदय का अपनी साइकिल से दो किलोमीटर चलकर आना, हममें से हरएक को पूछ-पूछकर भोजन कराना,  सबसे बातें करते रहना, सबके भोजन के बाद बतौर मेजबान सभी अतिथियों को कार्यक्रम में आने के लिए धन्यवाद देकर फिर अपनी साइकिल से जाना हम सभी के अंतस को छू गया। होंठ हिले, स्वर फूटे, काश! देश भर के विश्वविद्यालय के कुलपति ऐसे ही हों! सादगी और विद्वता का ऐसा अप्रतिम सामंजस्य! प्रकृति-पुत्र आडंबर का चोला ढो नहीं सकते। सचमुच!! मन ही मन साधुवाद दिया। शायद, सबने वैसा ही महसूसा जैसा कि मैंने। निदेशक दिलीप सिंह तो भोजन पर हमारे साथ ही होते थे।     

वन,  नदी, झील,  प्रपात हो या पर्वत, मुझे  उनसे अकेले में संवाद करना प्रिय है। समूह में, यह अवसर नहीं मिला, जिसका अनुमान मुझे पहले से था, और इसलिए मैंने इस वादी में एक दिन अधिक गुज़ारने का निर्णय लिया था। और निश्चय ही यह बेहतर निर्णय सिद्ध हुआ। दूसरे दिन प्रातः तैयार होकर हम शंभुधारा जलप्रपात और झील के भ्रमण के लिए निकले। शिवलाल सोणवाणी की गाड़ी जो पर्यटकों के लिए ही चलती है, जिसे वे स्वयं चलाते हैं, के साथ हमारी यात्रा आरंभ हुई। रास्ते की हरएक चीज से हमें अवगत कराते हुए उन्होंने शंभु धारा के उस शांतचित्त परिवेश में पहुँचाया, जहाँ जरा चढ़ाई करके हम उस प्रपात के उद्गम को निकट से देख सकते थे। हालाँकि यह स्थल फिसलन के कारण जरा-सी असावधानी से दुर्घटनास्थल में बदल सकता था, मगर मेरे अंदर का जिद्दी बच्चा उस समय कुछ सुनने को तैयार न हुआ। हम तीनों के अतिरिक्त वहाँ कोई न था। चट्टानों से अठखेली करती उस क्षीण, किंतु शीतल जलधारा  के साथ कुछ आत्मीय क्षण बिताकर हम नीचे उतरे तो सामने टीले पर एक एक क्षीण आकृति नजर आई। कोई कुटिया नहीं, बस एक त्रिशूल और शिवलिंग तथा कुछ अन्य मूर्तियाँ । शिवलाल ने हमें उनसे मिलवाया। बातचीत में ज्ञात हुआ कि यह शख्स जो कमर के नीचे एक टुकड़ा भर लपेटे है, इसी हाल में खुले आसमान के नीचे, इस वृहत्त सालवन की शांति और जल प्रपात के अनोखे शोर के बीच विगत दस वर्षों से रह रहा है और साधना कर रहा है। मुझे यह सब रहस्यमय लगा। मैं बिना सोचे -समझे पूछ बैठी,  

“आपको डर नहीं लगता? आपकी रोजी रोटी कैसे चलती है, क्योंकि यहाँ कोई आता -जाता भी नहीं।”.

बड़े प्रेम से , लकड़ी सुलगाकर हमारे लिए गुड़ की चाय बनाते हुए वे बोले,

‘‘जब शिव और राम जी पूरे परिवार के साथ हमारे साथ रहते हैं, तो किस बात की चिंता और किस बात का डर?‘‘

‘‘मगर आप जाड़े और बरसात में कैसे  रहते हैं?‘‘

मेरी बात सुनकर वे मुस्कुरा भर दिए। सामने नाम भर की खड़ी दीवार, जो पूरा रूप नहीं ले पाई, न छत ओढ़ सकी थी, की ओर इशारा करते हुए बोले, ‘‘उसने शुरू तो किया, पर पूरा नहीं किया। शायद मेरे रामजी को मंजूर नहीं। भोलेनाथ को तो बंदर का भी यहाँ आना पसंद नहीं, वे उन्हें दूर रखते हैं।‘‘

ये बातें विच्छिन्न मस्तिष्क की उपज लग सकती है, मगर वह व्यक्ति पूर्ण चैतन्य था। साधक की सच्ची परिभाषा उनसे मिलकर समझ पाई। मैं उनके साथ और बात करना चाहती थी, किंतु ड्राइवर के इशारे पर हम अभिवादन कर लौट आए। सालवन की शांति में वन का अपना संगीत गूँज रहा था, जिसे सुनने के लिए शायद उसके साथ हो जाना जरूरी था। मैं वन के पेड़ों को निहारती, सोचती रही, बिनसर के जंगल के संगीत से यहाँ का संगीत कितना भिन्न है! यह भूमि सचमुच तपोभूमि है। आध्यात्मिक प्रभाव से परिपूर्ण! शिवलाल  ने बताया,   “आम ड्राइवर पर्यटकों को इस जगह के बारे में नहीं बताते, क्योंकि एक तो यह पर्यटन स्थलों से काफी दूर है, दूसरे जब पर्यटक यहाँ आने लगेंगे तो इस जगह की शांति और स्वच्छता खत्म हो जाएगी। इस झील को हम पूजा के योग्य मानते हैं। आप थोड़ी देर वहाँ बैठ जाइए, आपको अच्छा लगेगा।‘‘ 

शिवलाल ने मेरे मन की बात कह दी। वन के बीच स्वतः निर्मित यह शंभुधारा झील, जहाँ प्रपात का जल एकत्र होता है, के किनारे हम बैठ गए। यह झील काफी गहरी थी, अंदर मिट्टी धँसती थी, उतरना खतरनाक था। झील के जल को नमन कर, पाँव डुबाकर बैठी उस अनिवर्चनीय शांति को आत्मसात करने में लगी रही। काश! उस अनुभूति को शब्द दे पाना संभव नहीं! जी चाहा, बस यही की होकर रह जाऊँ। तभी मुरली की धुन सुनाई पड़ी। मेरी मनः स्थिति हिरण-सी हो गई। मैं इतनी जगह गई, झील,  वन, पहाड़ सब देखा, सबसे बातें की, मगर यह आनंद- यह भौतिक आनंद नहीं, जिसे खरीदा जा सके, जिसे हर कहीं महसूसा जा सके। आश्चर्य तब हुआ, जब काफी देर होने पर शिवलाल के इशारे पर हम वापसी के लिए गाड़ी में आ बैठे और गाड़ी वापसी का रास्ता तय करने लगी। पूरे सालवन में मुरली की वह धुन गूँज रही थी, और वह सिर्फ मुझे सुनाई दे रही थी, न सिर्फ सुनाई दे रही थी, मुझे अपनी ओर वापस खींच रही थी, मैं बार-बार गाड़ी से पीछे झाँकती कि शायद मुझे कोई दिख जाए, पर नहीं ! वहाँ कोई न था। ब्रजेन्द्र जी और ड्राइवर को वह धुन उस झील के पास ही सुनाई दी, फिर नहीं। वे दोनों हैरान थे कि बीस किलोमीटर से अधिक दूर निकल आने पर मुझे वह धुन इतनी स्पष्ट कैसे सुनाई दे सकती है कि मैं उस ध्वनि को ढूँढ पाने को विकल हो रही हूँ। विकलता मेरे चेहरे पर छा चुकी थी। अजीब स्थिति थी, गाड़ी में बजते गीत से अधिक स्पष्ट मुरली की वह तान सुन रही थी मैं और विकल होती जा रही थी। उनदोनों को यकीन नहीं हो रहा था, यह उनके चेहरों से स्पष्ट था। मैं आँखें बंद किए मुरली की उस धुन में खोई रही। ड्राइवर ने इतना भर कहा,

“वही बाबाजी कभी-कभी बजाते हैं, और तो कोई वहाँ रहता नहीं जो बजाए। मगर यहाँ कहाँ है कोई आवाज? मैडम जी आपको भ्रम हो गया है।‘‘

मैं मन ही मन ईश्वर के प्रति आभारी हुई और प्रत्यक्ष में ब्रजेन्द्र जी और ड्राइवर शिवलाल के प्रति,  जिन्होंने इस यात्रा में मेरा साथ दिया। 

कपिलधारा सुप्रसिद्ध पर्यटन स्थल! नर्मदा की समृद्ध धारा पहाड़ी पर से सीधे नीचे झरने के रूप में गिरती है। सड़क से ऊपर, बीच-बीच में बनी सीढ़ियों से, फिर एक सीध में बढ़ते हुए, फिर थोड़ा नीचे उतरकर एक ऐसी जगह पर पहुँचते हैं जहाँ से दो राह गई है- एक बायीं, कपिलधारा की ओर, दूसरी दायीं, नीचे उतरते हुए दूधधारा की ओर। ऊँचाई पर, पत्थरों के बीच में से चलते हुए कपिल धारा के बीच पहुँच सकते हैं। बस, साहस के साथ अव्यवस्थित पत्थरों पर से गुजरते हुए, उनपर अपने पैर जमाते हुए उस थोड़ी फिसलती चट्टान पर उतर आना होगा, जहाँ  पहाड़ की चोटी से प्रपात नीचे गिरता है । 

उस चट्टान पर खड़े होकर उस जलधार को सीधे अपने सिर पर गिरते अनुभव करना सचमुच रोमांचक था। वहाँ कोई पर्यटक जाने की हिम्मत नहीं करता। मैं एक छोटे गोंड बालक आशीष के साथ चली गई, आशीष ने दूर से इशारे से समझाया कि मुझे अकेले उस फिसलन भरी बड़ी चट्टान पर कैसे जाना है। इस चट्टान पर से फिसलने का अर्थ था- हड्डी के कई टुकड़े हो जाना। मगर संभलकर खड़े रहने पर, सिर पर झरने का, मोटी धारा के रूप में गिरना और फिर तितर-बितर होना यहीं से महसूस किया जा सकता था। पवित्र पहाड़ी झरने में स्नान का यह अरमान भी पूरा हो गया। हालाँकि इसकी कोई पूर्व योजना नहीं थी। यह महज सुखद संयोग था मेरे लिए। 

वह बालक बिलकुल नीचे उतरकर, पत्थर के नीचे छिपकर नहा रहा था, क्योंकि उसके पास पहनने को दूसरा पैंट नहीं था और न ही बदन पोंछने को कोई तौलिया। मैंने ईश्वर का नाम लिया और फिसलनवाले उस पत्थर से किसी तरह विपरीत दिशा के पत्थर पर टिकती, बदन टिकाती ऊपर पहाड़ के उस भाग में पहुँची जहाँ से धीरे-धीरे खिसक कर सूखी जगह तक पहुँच सकती थी। उस दिन मैंने स्कर्ट पर जींस का लंबा मोटा कुरता पहन रखा था, जो भीगने पर भी पारदर्शी नहीं होता। मैं वहीं धूप में लगभग एक घंटे बैठी रह गई। फिर आगे बढ़कर वहाँ आई, जहाँ पर्यटक कपिलधारा निहारने खड़े होते थे। 

यही धारा नीचे उतर कर उछलती-कूदती, चट्टानें फलांगती कहीं-कहीं इकट्ठी हो जाती है, जहाँ सुरक्षित खड़े पर्यटक तस्वीरें खिंचवाने का शौक पूरा करते हैं, फिर कहीं-कहीं सँकरी धार बनकर बहती हुई दूधधारा गुफा के सामने से आगे का रास्ता तय करती है। कपिलधारा और दूधधारा मार्ग के मध्य में पेड़ के किनारे राजू (गोंडी) शिकंजी बेचता है, जिसे एक घड़ा पानी लाने के लिए लगभग दो किलोमीटर पहाड़ की खड़ी चढ़ाई करके कुएँ तक जाना होता है। पूरे दिन में दो बार से अधिक पानी नहीं ला पाता,  प्रति गिलास मात्र दस रुपए में बेचकर परिवार चलाता है, कभी-कभी इतने गिलास शिकंजी  का व्यापार भी नहीं हो पाता। ऐसे कितने ही राजू मिले जो दिन-रात मेहनत करके भी गुजारे के लायक नहीं कमा पाते! ये आदिवासी धारा के निकट रहते हैं, मगर पेय जल की समस्या से निरंतर जूझते रहते हैं। मन एक ओर प्रकृति के सौंदर्य से मुग्ध होता, तो दूसरी ओर प्रकृति की गोद में रहने वाले गोंडी और बैगा जनजाति के कष्टों से पीड़ित भी। कई लोगों से बात करने पर सार तत्व यही मिला कि ये भी पलायन को विवश हैं। सरकार बदली, विद्यालय बने, रोजगार की तमाम योजनाएँ भी बनीं, मगर फॉर्म पर जो योग्यताएँ माँगी जाती हैं, ये पूरी ही नहीं कर पाते, इसलिए पढ़-लिखकर भी बड़े पद का सपना, सपना ही रह जाता है। छोटे पदों के लिए भी मारामारी है। विद्यालय में दो कमरे में कक्षा पाँच तक की पढ़ाई होती है, निजी विद्यालयों में पढ़ाने की औकात नहीं। वे लोग अपनी बोली, अपना इतिहास, अपनी संस्कृति भूलते जा रहे हैं। युवाओं को कुछ भी नहीं मालूम, उन्हें बस रोजी रोटी की चिंता है। हालाँकि 2002 से उनकी स्थितियों में यह सुधार हुआ कि अब उन्हें मजदूरी दी जाती है, इसके पहले कुछ मोटे अनाज दे दिए जाते थे या बेगारी कारवाई जाती थी। 

गोंडी महिलाएँ केवल उत्सव में पारंपरिक पोशाक पहनती हैं, मगर मजूरी करती हुई, उमरदराज बैगा स्त्रियाँ अब भी पारंपरिक पोशाक में दिख जाती हैं। नई पीढ़ी न गोदना गोदाना पसंद करती है और न ही पारंपरिक तरीके से पहनना-ओढ़ना। और हाँ, अब कोई स्त्री खुले बदन नहीं दिखती। पहाड़ी पर भी नहीं। साड़ी भी वे अपने तरीके से नहीं, पूरे पाँव को ढँककर ही पहनती हैं। 

दूधधारा की गुफा, जहाँ अंदर टॉर्च के सहारे जाकर प्रतिमा के दर्शन करना संभव है। यहाँ बैठे पुजारी श्रद्धालुओं को यह विश्वास दिलाते हैं कि यहाँ से टपकती बूँदें जल नहीं दूध हैं, जिसकी पतली धार दिखती है। 

कपिलधारा नीचे गिरकर एक जगह तालाब का रूप ले लेती है, फिर वहाँ से बहुत क्षीण धाराओं के रूप में आगे बढ़ती हुई, छोटे-छोटे चट्टानों से गिरती है और दूधधारा मंदिर के सामने से गुजरती हुई दूधधारा नाम पा लेती है। दरअसल, नर्मदा की जो मोटी धार काफी ऊँचाई से नीचे गिरती है तो वह दूर से दूध के समान झाग प्रकट करती है, जिसे वहाँ गुफा-मंदिर के पुजारियों ने अंधविश्वास का अड्डा बना दिया है और जबरन गुफा के भीतर, पत्थर से टपकती दूध की बूँदें दिखाने की जद्दोजहद करते हैं। मैंने कुछ सवाल किए, जिनके जवाब उनके पास नहीं थे। निस्संदेह पूरा अमरकंटक अध्यात्म में रचा-बसा है। कई अन्य गुफा के भी दर्शन हुए, जहाँ हमारे ऋषि-मुनियों ने तपस्या की थी, कुछ जगहों पर मंदिर बन गए। सबके नाम याद नहीं।         

मार्ग में जैन मंदिर के दर्शन हुए। जैन मंदिर आध्यात्मिकता के साथ ही कलात्मकता की दृष्टि से भी दर्शनीय होते हैं। उसके साथ ही औषधीय पेड़ों के वन को भी देखने का सौभाग्य मिला। शिवलाल जी ने बताया कि इन पेड़ों के किनारे सूखी पत्तियाँ इस तरह जलाई जाती है, जिससे पेड़ों को कोई नुकसान न हो और वातावरण शुद्ध हो जाए।  

शाम ढलने लगी। वापसी में शिवलाल ड्राइवर हमें उस मार्ग पर ले गया जहाँ सड़क की बायीं ओर मध्यप्रदेश का अनूपपुर जिला है,  दाहिनी ओर छत्तीसगढ़। मुख्य सड़क एक ही। जाने क्यों एक आह-सी उठी  कि कितनी बार भारत माँ के तन पर असफल शल्य-क्रिया होगी? एक देश में, एक सड़क दो राज्यों को जोड़ तो रही है, किंतु स्वयं बाँटे जाने की पीड़ा झेलती हुई! आमने-सामने के पड़ोसी, पड़ोसी राज्य के वासी हैं जिनकी राजनीतिक, प्रशासनिक और आर्थिक समस्याएँ भिन्न-भिन्न हैं। एक-दूसरे की मदद कर पाने में पूरी तरह असमर्थ!

   यहीं जोहिला नदी का उद्गमस्थल था, जिसे मंदिर परिसर में कुएँ का रूप दे दिया गया। पुजारी जी संध्या आरती की तैयारी में लगे थे, उनके सहायक ने हमें वह निर्मल जल पिलाया। जोहिला नदी को अधिकांश लोग झेलम के नाम से जानते हैं।

अगले दिन प्रातः विदाई की तैयारी शुरू हुई। विश्वविद्यालय के डेवेलपमेंट अफसर डॉ. सौरभ कुमार हमारे तत्कालीन भोजन से लेकर,  रास्ते के लिए भी इस तरह भोजन की व्यवस्था में लगे रहे, मानो हमें घर से परदेस जाना हो। इतना नेह और ऐसा आतिथ्य भला कोई कैसे भूले? मैंने वहाँ की पवित्र भूमि को नमन किया और यही दुआ माँगी कि जल्द आकर यहाँ कुछ वक्त गुजार सकूँ। अमरकंटक का कण-कण मेरे अंतस में वर्तमान बनकर साँसें ले रहा है.... ।

***********************************************************************************लघुकथा

सुश्री मंजु महिमा, अहमदाबाद, मो. 9925220177


निष्ठा का चाँद

‘भारती! यह तो बता दो, विधाता ने तुम्हें किस साँचे में ढाल कर निकाला है?’ मयंक ने उसके लम्बे काले रेशमी बालों से खेलते और नीलम सी आँखों में झाँकते हुए कहा. भारती के गौर मुख पर दोनों ओर गुलाब खिल गए. अपने को मयंक की सशक्त बांहों के झूले में डाल भारती ने कहा, ‘उसी साँचे में जिसे विधाता ने केवल तुम्हारे लिए बनाया था.’ कह उसके वक्षस्थल में पनाह ले ली. प्यार परवान चढ़ा और एक नन्हीं चाँदनी उनकी गोदी में आ बैठी। 

दोनों ओर माँ-बाप, भाई-भाभी सभी ने उसका स्वागत किया. परिवार में स्निग्ध चांदनी की शीतलता पसरती चली गई. पर सब दिन न होत एक समान..चाँदनी रात के शुक्ल पक्ष के बाद कृष्ण पक्ष ने घेरा डाला और गगन से मयंक का अस्तित्व गायब हो गया. कोहराम मचा..भारती हतप्रभ..दोनों ओर के माँ बाप सभी अश्रु समुन्दर में डूबने लगे, तभी भारती ने हिम्मत कर पतवार अपने हाथ में ले ली, वह और चाँदनी सबको उबारने में लग गए. वह समझ गई कि चाँदनी वह माध्यम है जिसके हाथ में सबकी खुशियों की डोर है. सब उसे व चाँदनी को उदास नहीं देख सकते हैं. वह देख रही थी, माँ और भाभियों के हाथ बिंदी, सिन्दूर लगाते समय कांपते थे, शादी ब्याह में जाते समय पैर लड़खड़ाते थे। 30 वर्ष की उम्र में बेटी-बहू का विधवा हो जाना दोनों ओर के माँ बाप के लिए एक गहरा जख्म था. जब भी वे भारती की ओर निगाहें उठाते, उनकी आँखें भीगी होतीं. 

समय अपनी गति से बढ़ता चला, और आ गई करवा चैथ. सब पिछली करवा चैथ को याद करने लगे. हाय! माँ का दिल बैठ गया. कैसे जवान विधवा बेटी के सामने श्रृंगार कर चाँद की पूजा करेगी..सोचा बहुओं के साथ चुपचाप मुँह-अँधेरे सरगी ले लेंगे. सुबह 5 बजे माँ ने धीरे से बहू को उठाया और जल्दी तैयार हो सरगी के लिए आने को फुसफुसाई. जैसे ही सब हॉल में सरगी के लिए आए तो चैंक गए. भारती पूरे साज-श्रृंगार के साथ विवाह-जोड़े में मेहंदी का कटोरा लिए बैठी थी, सबको देख कहने लगी, ‘अरे! सबने सादे कपड़े क्यों पहने हैं? जाइए जल्दी से बदल कर आइए सरगी का समय निकल रहा है.’ माँ ने भरी आँखों से  बेटी का माथा चूम लिया. 

माँ के आँसू पौंछते हुए भारती ने कहा, ‘ माँ, मै जानती हूँ, तुम क्या कहने वाली हो? समाज क्या कहेगा? 

पर सोचो सुहाग क्या है? पति-पत्नी के प्यार, विश्वास और निष्ठा का ही तो प्रतीक है. फिर क्या मयंक के चले जाने से उसका मेरे और मेरा उसके प्रति क्या प्यार और विश्वास खत्म हो गया? मयंक का प्यार जीवित है, चाँदनी के रूप में और यह चाँद हमारी निष्ठा का साक्षी है, फिर मैं उसकी पूजा क्यों न करूं?’  बेटी की आँखों में दृढ़ विश्वास और आस्था के सम्मुख सब नत मस्तक हो गए. 

माँ ने और भाभियों ने अपने हाथ मेहंदी के लिए भारती के सम्मुख फैला दिए, क्योंकि वही तो उनके हाथों में मेहंदी लगाया करती थी।  


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यात्रा-संस्मरण

डाॅ. मेधावी जैन, लेखिका, लाइफ कोच, पॉडकास्टर, रिसर्चर), गुरुग्राम, मो. 981120773


वेस्ट कोस्टः सुंदर अमेरिका

पिछले महीने मैं तीन साल बाद परिवार के साथ छुट्टियां बिताने अमेरिका गई थी और क्यूंकि लगभग तीन साल बाद हम सभी एक साथ गए थे इसलिए trip थोड़ा लंबा था और हो भी क्यों न US जो जाना था. हमने अब की बार वेस्ट-कोस्ट कवर किया जिसमें शामिल थे San Fransisco, Los Angeles, Las Vegas, Seattle एवं Juneau, Alaska. इसके अलावा भाई-भाभी हमें Lake Chelan भी लेकर गए जहां कोलंबिया नदी के किनारे एक बेहद ख़ूबसूरत विला में हम सब दो रात रुके.  लंबी यात्रा पर जाना हो तो इंतज़ाम भी ज़्यादा करने पड़ते हैं और planning भी. जब हम कई दिनों के लिए घर से बाहर जाते हैं तो एक बार तो जाते समय भी दिल थोड़ा उदास हो जाता है कि इतने दिन कैसे बीतेंगे. लेकिन यह उदासी ख़त्म हो जाती है जैसे ही हम अपनी destination पर land करते हैं. ठीक वैसे ही जैसे जब एक लंबी और successful trip ख़त्म होती है तो घर वापस जाने का दिल होते हुए भी यात्रा ख़त्म होने का एक अजीब सा दुःख होता है. है न मानव स्वभाव विचित्र!

Travelling न सिर्फ हमारा ज्ञान बढ़ाती है बल्कि हमारे vision यानि हमारी चीज़ों, परिस्थितियों और लोगों को समझने की दृष्टि को भी बहुत broad करती है.  एक इज़राइली Youtuber हैं जिनका चैनल Nas Daily के नाम से बहुत famous है. उन्होंने भी एक बार अपने किसी video में कहा था कि आप चाहे कोई भी धर्म follow करते हों, चाहे किसी भी देश में रहते हों लेकिन आपका perspective, आपका ज्ञान जितना दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में travel करने से बढ़ता है उतना किसी चीज़ से नहीं बढ़ता. क्यूंकि किसी भी देश के बारे में हम जो भी news सुनते हैं या उसके बारे में जो भी बातें सुनते हैं reality में जब हम वहां जाते हैं तो हमें एकदम अलग ही experiences होते हैं. For example: हमारे देश में उन लोगों को criticize किया जाता है जो अपनों को छोड़ कर बाहर जाकर settle होना चुनते हैं लेकिन जब उनसे जाकर मिलते हैं तो जानते हैं कि वे लोग एक नए देश में, नए atmosphere में, नई भाषा, नए खानपान के साथ, अपनों से दूर बसने के लिए कितनी ज़्यादा मेहनत करते हैं. बेशक उनका दिल भी उदास होता है. लेकिन फिर भी वे उस देश को अपनी respective, specific fields द्वारा serve करते हैं. और eventually अपने ही देश का नाम रौशन करते हैं.

मेरे भाई-भाभी और भतीजा US में Seattle में रहते हैं, उनके अलावा मैं और भी कई लोगों से अपने काम के सिलसिले में मिली, और मैंने observe किया कि जो पहली generation US में या विश्व में और कहीं भी जाकर settle होती है वे लोग हम भारत में रहने वालों से ज़्यादा भारतीय होते हैं. Of course, exceptions are always there but most of the people start loving their nation even more. It is like कि लोग भारत से तो निकल जाते हैं लेकिन अच्छी बात यह कि भारत उनके अंदर से कभी नहीं निकलता. For example: US में भी मेरे भाई की गाड़ी में सिर्फ Bollywood और पंजाबी गाने या sufi music ही चलता है मैंने उनसे कहा भाई इतने Hindi गाने तो हम भी India में नहीं सुनते.

एक दार्शनिक होने के नाते मैं कभी भी चीज़ों को एक भिन्न दृष्टिकोण से समझना और उनके बारे में सोचना बंद नहीं कर सकती और इस बार की यात्रा पर मुझे जो realization हुई वह यह है कि हम चाहे जो भी काम करें या कहीं भी जाएं, ऊपरी तौर पर हमें चाहे जो दिखता रहे but हर घटना के पीछे एक essence एक सार, एक तत्त्व होता है जो वास्तव में real होता है. Umm… जैसे कि hospitality या अतिथि सत्कार एक मूल भाव है जिसे अलग-अलग कई degrees में apply किया जा सकता है. Hotel room में guest को पानी की एक bottle complimentary देना भी सत्कार है और हर floor पर एक water dispensing machine लगा कर guest को convey कर देना कि आप जब चाहें, जितना चाहे पानी ख़ुद भर सकते हैं, यह भी सत्कार है. अब इन दोनों scenarios में सत्कार की degree में चाहे फर्क है लेकिन जो hospitality का भाव है वह same है. एक और example है कि एक American मां भी अपने बच्चे को प्यार करती है और एक Indian mother भी. इस उदाहरण में प्यार की degrees vary कर सकतीं हैं लेकिन जो essence है वह है Motherhood यानि मातृत्व. ऐसे ही spirituality एक essence है, कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप किस धर्म या गुरु का अनुसरण करते हैं, चाहे आप दुनिया के किस हिस्से में रहते हों। एक बार जब आप अपने आध्यात्मिक स्तर तक पहुँच जाते हैं, तो आप दुनिया को एक अलग और अधिक गहन दृष्टिकोण से देखना शुरू कर देते हैं। इस जागृति के विभिन्न स्तर हो सकते हैं लेकिन सार एक ही रहता है। एक last example और रक्षा बंधन वैसे तो हमेशा एक ख़ास तिथि के हिसाब से पड़ता है लेकिन आजकल के समय में जब कोई अमेरिका में रहता है जहां different time zone है और सभी लोग working हैं तो वे अपनी सहूलियत के हिसाब से इस त्यौहार को या किसी भी अन्य festival को मनाते हैं. जैसे कि मैं अपने brother के यहां से India के लिए 4th August की morning को चली थी लेकिन रक्षा बंधन था 11th August को, तो मेरे भैया-भाभी ने कहा कि आप इतने सालों बाद यहां पर हो तो अभी ही ख़ुद राखी बांध कर जाओ. बस उसी क्षण मुझे एहसास हुआ कि इसमें कुछ भी गलत नहीं है? एक तिथि से अधिक यह एक भाई और बहन के रिश्ते के सार के बारे में है। 

अभी हाल ही में भारत ने अपना पचहत्तरवां स्वतंत्रता दिवस मनाया है जब भी हम विदेश यात्रा करके वापस अपनी धरती पर लैंड करते हैं तो मुझे यकीन है कि हम में से अधिकांश एक ही विचार प्रक्रिया से गुजरते हैं कि हमारा देश ऐसा क्यों नहीं है? आख़िर क्यों हमारे यहां airport से निकलते ही सड़क के किनारे रेड़ियाँ, कूड़ा दिखना शुरू हो जाता है. फिर सड़कों पर भीड़, चीखते हॉर्न जो बाहर सुनने को भी नहीं मिलते. आख़िर क्यों हम भी developed नहीं हो सकते? इन विचलित करने वालों प्रश्नों के मेरे पास कुछ उत्तर हैं. वो ये कि हमारा देश विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यताओं में से एक है. हमने तब विकास का चरम हासिल कर लिया था जब बाकी के देश शायद अपना वजूद ही तलाश रहे थे. और यह विकास का चरम केवल भौतिक ही नहीं था बल्कि आध्यात्मिक भी था. ऐसे ही नहीं मुग़ल और अंग्रेज़ हमारे देश पर राज करने चले आए थे. बस इसी उत्तर में से दूसरा उत्तर भी निकलता है कि क्योंकि हम सबसे पुराने हैं इसलिए हम सबसे ज़्यादा भी हैं. न सिर्फ यह बल्कि जो एक unique बात मुझे अपने देश के बारे में लगती है वो यह कि हमारे यहां India और भारत एकदम एक साथ चलते हैं. बिना किसी दूरी के. India हम में से वे लोग हैं जो शहरों में रहते हैं, पढ़े लिखे हैं और एक certain level का life style maintain करते हैं. वहीं भारत वह है जिसके लोग हमारे घरों में, हमारे offices में छोटे लेकिन बेहद important काम करते हैं. जैसे कि काम वाली बाई, drivers, cooks, peons etc. और वे लोग भी जो खानाबदोशी का जीवन जीते हैं. जैसे कि भीख मांगने वाले लोग या Metro cities में Flyovers के नीचे घर बसाने वाले लोग etc. ये भेदभाव वास्तव में सभी देशों में होते हैं लेकिन विकसित देश इन्हें छिपा कर रखते हैं. बस हमारे यहां ये सामने दिखता है. यही कारण है कि मुझे भारत विकसित देशों की तुलना में अधिक निर्दोष और मासूम लगता है। अब प्रश्न आता है कि विश्व की सबसे पुरानी सभ्यता के नागरिक होने के नाते हमारी क्या ज़िम्मेदारी है? हमारा क्या रोल है अपने देश के प्रति? मुझे तो ऐसा ही लगता है कि वे भी Indians ही हैं जो आज पूरे world में फैले हुए हैं और अपने देश का नाम रौशन कर रहे हैं. मेहनत के लिए लगन और अनुशासन की ज़रुरत होती है. जो गुण हम में कूट कूट कर भरे हुए हैं. बस वे गुण अपने देश में बाहर नहीं आते. हमें व्यक्तिगत रूप से देश के प्रति अपने योगदान पर ध्यान देना चाहिए. बस और कुछ नहीं करना. छोटी-छोटी बातों से हम शुरुआत कर सकते हैं. 




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