साहित्य नंदिनी सितंबर 2022



समीक्षा

समीक्षक: डाॅ. चूड़ामणी

लेखक: डाॅ. सुदर्शन प्रियदर्शिनी

सोखी हुई स्याही (स्मृतियों की तलछट)

भुवन से यदि गुबार उठे और ऊपर अंतरिक्ष से जा टकराए तो क्या हो? अंतरिक्ष-नियंता यदि उस गुबार से आँख-मिचैली करने लगे तो क्या हो? जीव यदि परम-जीव के नयनों में झाकें, परम-जीव निस्तब्ध रहे तो क्या हो? उत्तरित, अनुत्तरित का ये खेला जिस भंवर में जीव को हिचकोले के लिए छोड़ देता है वो जीव जिजीविषा से यदि अनुत्तरित्त कर दे तो क्या हो? जीव और परम-जीव का ये झोला पाठकों को तब स्तब्ध, हत्प्रभ कर देता है जब सृजक और सृजित का अदृश्य संवाद सोखी हुई स्याही (स्मृतियों की तलछट) में मुखरित होता है।

कोई इतना गहरा कैसे पैठ सकता है, शायद तब जब उसका विधि और विधाता से तारतम्य जुड़ जाता है। तब सृष्टि में बदलाव अवश्यंभावी है। सृजन बेशक सृष्टा द्वारा होता है, तो क्या सृजित में इतनी भी कूवत नहीं कि वो सृजक से संवाद कर सके? उससे प्रश्नोत्तर कर सके? उसे पूरा अधिकार है, वो सृजक से पूछे उसने क्यूं उसे सृजा? यदि सृजना ही था तो उसके जीवन में अवरोध क्यों? प्रश्नचिन्ह क्यों? क्यों नहीं वो बिना उपालम्भ के, बिना उपेक्षा, बिना अपेक्षाओं के जीवन को संवार सकी, निर्धारित कर सकी? ये सृजक और सृजित की वो रार है जो भविष्य में सृजक को सावधान करेगी कि सृजनता से पहले पूछे कि क्या उसका सृजन करे? बड़े हो निद्र्वन्द्व होकर जब हमारे जाय पूछ सकते हैं कि हमें क्यों सृजा, अपना और हमारा जीवन उपेक्षाओं और अपेक्षाओं में ही रहना था तो हमें जना ही क्यों? तो हम सृजक से क्यों नहीं दरयाफ्त कर सकते? किंतु सब नहीं, केवल वही जिनमें पूछने की ऐसी महती क्षमता होती है।

ऐसा ही उत्कृष्ट प्रयास किया है सोखी हुई स्याही (स्मृतियों की तलछट) की महालेखिका श्रीमती सुदर्शन प्रियदर्शिनी जी ने। वे लोक और परलोक के तारतम्य से दिल, दिमाग की नसों को झनझना देती हैं। निरुत्तर कर देती हैं उस नियंता को जो सबका उत्तर देने के उत्तरदायी हैं।

मेरे लिये तो कुछ बचा ही नहीं, जो इसके भूमिका लेखक हैं, ने सब कुछ बहुत करीने से पहले ही कह दिया है। भूमिका के गुरुतर गुर यदि लेने हों तो डाॅ. अवध बिहारी पाठक लीक से हटकर बिल्कुल उपयुक्त समीक्षाकार ठहरते हैं।

बिना आत्मकथ्य दिये, बिना जीवन का अकादमिक रिकार्ड खंगाले जब वो दार्शनिक हो सब कुछ साफ चितवन से कह जाती हैं तो ये शैली देखते ही बनती है। लगभग डेढ़ सो पृष्ठों की पुस्तक में बमुशकिल दो-चार पन्ने ही उनका व्यक्तिगत कथ्य कह पाते हैं। किंतु लगता है समस्त बयां कर दिया गया है। अपना कुछ नहीं, किंतु लगे सब उनका है, ये तब होता है जब वे अपने अक्स में समुचित अर्धमानवजाति को बयां कर रही होती हैं।

वे महान् इसलिये भी हैं कि जब वे अपनी अमहानता को स्वीकारती कहती हैं कि हमारा जीवन कोई शेक्सपियर, शरत्चन्द्र, रवीन्द्र, महादेवी अथवा विकेश निझावन जैसा नहीं, किंतु तब वे कितना विनम्र हो उठती हैं जब वे इस तर्क को तर्कसंगत मान लेती हैं कि हर जीवन दूसरे के लिए उत्सुकता भरा होता है। लेखक की आत्मकथ्यात्मक वंचना को उन्होंने जिस सलीके से उघेड़ा है कि हत्प्रभ पाठक सोच ही नहीं पाता कि वो उसकी श्लाया है कि अश्लाघा।

लेखक पीड़ा का मसीहा होता है, क्योंकि यदि वो सामान्य जीवन जी गया तो असामान्य जीवन जीनेवालों का क्या होगा जिनकी पीड़ा, जिनका जीवन सामने लाना होता है। ये गुण इस गुणी लेखिका में भरपूर सम्पुष्टित हैं।

पुस्तिका के तनिक उच्छवास तो देखिए - ‘हम कहीं बीतते नहीं हैं। बीतना कभी अतीत नहीं होता। उल्टा वह कहीं अंदर ही अंदर वर्तमान बनकर किसी कोने में सुलगता रहता है।‘ ........ ‘जो घाव देते हैं वे सहलाते नहीं। रास्ते में पड़ा पत्थर जब आपको ठोकर देकर औंधे मुँह गिरा देता है तो क्या उठकर पूछता है कि चोट कहाँ आई?‘ ...............। माँ-बाप का साया जब सिर से उठ जाता है तो आसपास कोई रक्षक दीवार नहीं रह जाती, केवल खुली भीड़ होती है नोचने के लिए। आप बिना छत के घर के निवासी हो जाते हैं।‘ ....... क्लास की सहेलियां बारे - ‘हम बड़े स्नेह और सौहार्द रखते हुए भी स्पर्धा का विष पाले रखते थे।‘ ........ ‘जो घर से पत्र आते हैं वह ऐसे भरे-भरे होते हैं कि सोचती हूँ काश! उन्हें संभाल कर रखा होता तो शायद आज कहीं मेरे घावों की मरहम बनते? .... ‘आत्मा साथ चलनेवालों के लिए तरसेगी, यहाँ अपने भी पहुंचेंगे तो आँख बंद होने के बाद।‘

ऐसी उदात्त भावनाओं की चितेरी ये लेखिका जब ऐसे निर्मम संसार में उतरती हैं तो लगता है इन्होंने मानस के अंतस के निकृष्ट, उत्कृष्ट सभी पट खोल दिए हैं। तब ये पुस्तक नहीं लगती, मेरी, तुम्हारी और हम सबकी जीवनी लगती है।

बहुत जगह इनका मन बोझिल भी हुआ है। कई बार समीक्षक सोचता था कि अक्सर परदेस में जाकर हम स्वदेस का रोना रोते हैं, क्या ये उस देस के प्रति अमानत में ख्यानत नहीं? यदि अपना देस इतना ही प्यारा था तो फिर परदेस में बसते ही क्यों हैं? किंतु मन तब इनके प्रति श्रद्धा से भर जाता है जब ये एक जगह कहती हैं, ‘शायद ये अपना देश छोड़ने का ही दंड मुझे मिल रहा है।‘ इसके अलावा आत्मकथ्य की केंद्रीय वेदना-संवेदना कि ये तब भी सहानुभूति बटोर ले जाती हैं जब स्वीकारते गुरेज नहीं करतीं कि कहीं से मेरी ही गलती तो नहीं जो मैं दूसरों को न समझ सकी।

वर्षों पहले ‘ययाती‘ नामक उपन्यास पढ़ा था, कथानक में नरेश अपनी पत्नी, अपनी प्रेमिका के द्वन्द्व में फंसा बहुत कुछ सोचने को मजबूर होता है। वो समझता है पत्नी देवयानी उसकी भावनाएं नहीं समझती और प्रेमिका रही शर्मिष्ठा इन सोपानों पर पूर्ण खरा उतरती है। पत्नी देवयानी को शिकायत है कि पति उसके लिए वो नहीं कर गुजरता जो उसे उचित लगता है। ‘सोखी हुई स्याही‘ भले ही उस उपन्यास से तनिक अछूती है किंतु मंजर सब जगह एक सा ही है, दापत्य संबंधों के उलझने और सुलझने का। इसका निदान संभवतः तभी हो पाएगा या तो जब ‘दांपत्य‘ जैसा कुछ होगा नहीं, अथवा ईश्वरीय अनुभूति की ओर अग्रसरता होना।

लगाव अलगाव के द्वन्द्व में बहुदा माना जा सकता है कि हम कुछ हटकर सोच पाएं। सत्य तो ये है यदि कोई अपना है तो वह खुद है। दूसरा यदि कोई अपना है (और वो अपनापन न दे सके) तो फिर तीसरा, चैथा, सौवां, हजारवां या लाखवां भी तो अपना हो सकता है। हम चरमराते तब हैं जब भूल कर बैठते हैं बस वही अपना था जिससे प्रथम बार डोर बंधी। अपने से अलग यदि कोई अपना है तो वो आबादी का 17वां भी तो हो सकता है।

कई जगह ये आत्मकथ्य बहुत संवेदनशील हो गया है। उदासी, एकाकीपन का ऐसा मंजर पसरता है कि पाठक खुद उस पात्र में ढलकर सिंहर उठता है। इस आत्मकथ्य में वो एक तत्त्व और जोड़ती हैं ‘जुनून‘ । जुनून को भी उन्होंने तत्त्व में शामिल किया है। जुनून को यदि वो जीवन में ही ढाल लेती तो एकाकी के एहसास से वो निजात पा जातीं। बहरहाल, अध्यात्म किसी पर थोंपा तो नहीं जा सकता, किंतु कहनेवालों के लिए कहने में हर्ज नहीं, हमारे जीवन का तत्त्व, हमारे जीवन का सार अंततः इस जीवन रुपी के बार-बार के आवागमन के झंझट से छुटकारा पाना है, तो क्यों नहीं हम बजाय किन्हीं दूसरे ‘अपने‘ को उपालंभ देने के समय को व्यर्थ करने के, हमारे सर्वोच्च ग्रंथ ‘गीता‘ में दर्शाये मार्ग ‘आराधना‘ पर चलकर इस प्रकार के जीवन से मुक्ति पा लें? वैसे इस प्रकार के निर्णय देने समीक्षक के लिए ‘अतिक्रमण‘ है तथापि यदि उसे मानव या मानवजाति से प्रेम है तो वो सुखदायी अध्यात्म का आलंबन लेने का बखान अवश्य करेगा।

पूरब और पश्चिम का शानदार भेद प्रस्तुत किया है इन्होंने। ये कथ्य इतना शानदार है कि लगता है कि ये कभी खत्म ही न हो। ये इनकी साहित्यिक कूवत की पहचान है जो छन कर ऐसा कथ्य सबका आत्मकथ्य बना। 

आधी आबादी के अट्ठानवे प्रतिशत का उल्लेख करके सदा के लिए अमर हो गई हैं ये। किसी भी रचना की सफलता इसी बात पर निर्भर होती है कि पाठकों को कितना बांधे रख सकती है। इस विधा में शतप्रतिशत सफल रही है ये। जीवन में बहुत ऊँचाइयों को छुआ इन्होंने जब ये पुरस्कार दर-पुरस्कार पाती रहीं। जीवनरुपी यात्रा का पैकेज भी आकर्षक है। जन्म लाहौर, बचपन शिमला, शिक्षा चण्डीगढ़, पुरस्कार कनाडा और सम्प्रति अमेरिका किसी के लिए भी गर्व का आधार बन सकती है। जितना अच्छा लिखा, एवज में मूल्य बहुत कम रखा इस ‘वैचारिक‘ पुस्तिका का।

आलोचक प्रभाकर श्रोत्रिय के अनुसार ‘अद्भुत होता है रचना का क्षण।‘ अपना मन जो हमारे लिए खोल दे उससे बड़ा मित्र कौन होगा, और कौन होगा ऐसा मित्र जिसे कृतज्ञता का एक शब्द सुनने का समय नहीं है, क्योंकि उसे फिर किसी और के साथ नये रास्ते पर चल पड़ना है। एक समर्थ लेखक के भीतर अनेक गृह्यताएं होती हैं, जिसे हम प्रतिभा, अंतर्दृष्टि, साधना आदि कहते हैं। वे चरम उत्प्रेरण के क्षणों में रचना में पुनर्जन्म लेती हैं। तो उसमें लेखक का समस्त अंतर्बाह्य सक्रिय रूप से धनीभूत हो जाता है। उसका समस्त उपार्जित दांव पर चढ़ जाता है। विस्मृतियों में पड़े अनेक दुर्लभ अनुभव, ज्ञान, अवधारणा, विचार, से संरचनात्मक प्रवृत्तियां आदि अनेक प्रकार से सम्मिश्र और संश्लिष्ट होकर प्रतिभा की सर्चलाइट में दीप्त हो उठती हैं। एक उदाहरण पर्याप्त होगा जिसे हम ‘कविता का शब्द‘ कहते हैं, उसकी खोज कवि किसी भाषा शास्त्री की तरह नहीं करता। यह उसकी चेतना में सहसा चमक जाता है। कहा जाता है कि रचना के क्षणों में कवि दूसरा ही मनुष्य होता है, उसका सिर्फ यही अर्थ है कि इन क्षणों में उसकी समस्त साधना और आलोचनात्मक शक्तियां, समस्त अर्जित उपलब्धियां अलग तरह के संयोजनों में सक्रिय हो जाती हैं, जिनमें साधारण अवस्था में वह अपरिचित प्रतीत होता है। रचना का क्षण अद्भुत क्षण होता है, इसलिए इसमें जो रचा जाता है, वह भी कई बार अद्भुत और विलक्षण होता है, किन्तु इस विलक्षण और अद्भुत में कोई अतार्तिकता या अनालोचित मदहोशी नहीं होती, उल्टे सर्जक की सारी चेतना अत्यधिक एकाग्र, सूक्ष्म और सजग हो जाती है। आलोचना को नई उद्भावना के लिए कविता के इस अंतर्वती संसार से मुठभेड़ करनी होती है।

समीक्षा करना स्वयं को पुस्तक के आनंद से वंचित करना है। यदि समीक्षक आम पाठक रहा होता तो पुस्तक का आनंद ले पाता। वो इस पुस्तक के व्यक्तिगत, सामाजिक, दार्शनिक, आध्यात्मिकता का लुल्फ उठाता। तब ये सोखी हुई स्याही न रहकर, यदि हम इस स्याही की पपड़ी उधेड़ते तो नीचे सूखी स्याही नहीं, स्पष्ट चमकते सुनहले हरफ दिखलाई पड़ते।

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समीक्षा

समीक्षक: मोहतरमा सदफ इश्त्याक

लेखक: सुदर्शन प्रियदर्शिनी

सोखी हुई स्याहीः स्मृतियों का अनूठा दस्तावेज

स्मृति के झरोखों से झांकती जिंदगी के उतार-चढ़ाव की कहानी, सभी व्यक्तियों की एक जैसी होती है। बस फर्क इतना है कि किसी की जिंदगी की स्याही फैल जाती है और किसी की स्याही दवात में बंद की बंद रह जाती है। जब इंसान अपने जीवन में फैली स्याही को सोख नहीं पाता है, तब जीवन में वह ठहर जाता है और आगे नहीं बढ़ पाता है जबकि जिंदगी की फैली स्याही को सोखने वाला व्यक्ति निरंतर आगे बढ़ता रहता है। वह नित्य नए-नए प्रयोग करके जीवन जीना सीख लेता है।

ऐसे ही जीवन में फैली स्याही को सोखने वाली सुदर्शन प्रियदर्शिनी, जीवन की समस्त परिस्थितियों से लड़कर, स्वयं का एक अस्तित्व बनाती हैं, एक पहचान बनाती हैं। आप अपनी सशक्त लेखनी के माध्यम से अतीत के झरोखों में झांक कर तुरंत वापस आ जाती हैं। आप अतीत में ज्यादा देर जीना नहीं चाहती हैं। आपका मानना है कि जब जीवन में बहती स्याही सूख जाए, तब जीवन में कुछ नहीं बचता है। जिंदगी सिर्फ एक ढंठल बनकर इधर से उधर लुढ़कती रहती है।

आपने ‘सोखी हुई स्याही‘ किताब में जिंदगी के कई रंगों को उजागर करने का प्रयास किया है। आप स्वयं इसे आत्म-कथ्य न कहकर, जिंदगी की परतें खोलने वाली किताब कहा हैं। आप लिखती हैं कि ‘‘आत्म-कथा में कहानी होती है, घटनाएं होती हैं पर इसमें दोनों ही नदारद हैं। इसलिए यह आत्म-कथा नहीं आत्म-निरीक्षण है पृष्ठ 16)

आप ‘सोखी हुई स्याही‘ पुस्तक में अपने बचपन की स्मृतियों का जिक्र करती हैं। आपका जन्म लाहौर में हुआ। आपका बचपन शिमला में बीता। कुछ समय आप अंबाला में भी रहीं। इसके पश्चात आपने ग्वालियर से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। आपने अपनी उच्च शिक्षा चंडीगढ़ से प्राप्त की। इसके पश्चात आप नौकरी और शादी के चक्कर में कभी लुधियाना, कभी चंबा, नालागढ़ तो कभी सोलन में रहीं और अंत में आप वर्ष 1982 में अमेरिका आ गई। आप यहां आकर यहीं की होकर रह गईं।

आपके जीवन में कई उतार-चढ़ाव आए लेकिन आपने सभी से डटकर मुकाबला किया और अपनी एक अलग पहचान बनाई। आप स्मृतियों की तलछट में से कुछ छोटे-छोटे किस्से बयां करती हैं। आपको अमेरिकी सरजमीं पर रहते हुए 40 वर्ष हो गए हैं लेकिन उसके बाद भी आपका मन हिंदुस्तानी है। आप शरीर से तो वहां निवास कर रहीं हैं लेकिन आपका दिल, आज भी भारत के लिए धड़कता है।

‘सोखी हुई स्याही‘ पढ़ने के बाद, यह बिल्कुल भी नहीं लगता है कि हम किसी प्रवासी साहित्यकार के व्यक्तित्व के बारें में पढ़ रहें हैं बल्कि एहसास होता है कि हम भारत की मिट्टी में लोट लगा रहें हैं। इस आत्म-कथ्य में से भारतीय मिट्टी की सौंधी गंध आती है। स्मृतियों की तलछट में से जीवन के कई रंगों से परिचित कराने के लिए सुदर्शन प्रियदर्शिनी जी का बहुत बहुत आभार। 

-दयालबाग एजूकेशनल इंस्टीट्यूट, (डीम्ड विवि. आगरा), मो. 7669530619

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समीक्षा

निशा नंदिनी भारतीय


द कश्मीर फाइल्स फिल्म समीक्षा कश्मीरी पंडितों के दर्द की दास्तान 

निर्माता: तेज नारायण अग्रवाल, अभिषेक अग्रवाल, पल्लवी जोशी, विवेक अग्निहोत्री

निर्देशक: विवेक अग्निहोत्री

कलाकार: अनुपम खेर, दर्शन कुमार, पल्लवी जोशी, मिथुन चक्रवर्ती, पुनीत इस्सर अतुल श्रीवास्तव। 

कश्मीरी पंडितों को बेदखल करने का घाव 32 साल बीतने के बाद भी हरा है। जिन लोगों ने इसे भोगा है उनके‍ लिए तो यह नासूर है। यहां हुए नरसंहार के बारे ज्यादा लोगों को जानकारी नहीं है। यह सब जब हो रहा था तब भी कोई हलचल नहीं हुई थी। ‘द ताशकंद फाइल्स’ के जरिये निर्देशक विवेक अग्निहोत्री ने भारत के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की रहस्यमयी मौत को लेकर कुछ खुलासे किए थे। अब उन्होंने कश्मीर की सबसे गंभीर समस्या पर फिल्म बनाई है। 

यह ‍फिल्म दर्शाती है कि किस तरह से कट्टरपंथियों ने कश्मीरी पंडितों का जीना बेहाल कर उन्हें कश्मीर छोड़ने पर मजबूर कर दिया था। तत्कालीन फारूख अब्दुल्ला की सरकार तमाशा देखती रही। जबकि उनकी नाक के नीचे से कश्मीर की आजादी की मांग और पंडितों के साथ दुर्व्यहार का नंगा नाच हो रहा था। पुलिस और मीडिया को भी फिल्म कटघरे में खड़ा करती है। युवा पीढ़ी का ब्रेनवॉश किया जा रहा था। कश्मीरी पंडितों के साथ हुए अत्याचार को देखकर आप चक्कर खा सकते हैं। इस फिल्म को लेकर लोगों में उत्सुकता है क्योंकि लोग उस समय की सच्चाई जानना चाहते हैं। 

फिल्म के पहले सीन में बच्चे क्रिकेट खेल रहे हैं। कुछ कश्मीरी मुस्लिम लड़के, शिवा नामक हिंदू लड़के से कहते हैं कि वह पाकिस्तान जिंदाबाद कहे। इसी बीच मुस्लिम युवाओं की भीड़ आती है और पंडित के घर में आग लगा देती है। उनका कहना है- रालिव, त्सालिव या गालिव अर्थात् या तो मुस्लिम बनो, या मरो, या कश्मीर छोड़ो। 

पुष्कर नाथ पंडित (अनुपम खेर) की कहानी के जरिये कश्मीर के हालात दिखाए गए हैं। कुछ आतंकी पुष्कर के घर में घुस जाते हैं क्योंकि पड़ोसियों ने विश्वासघात किया है। अपने ससुर पुष्कर नाथ को बचाने के बदले में उनकी बहू को अपने पति के खून के साथ चावल खाने पड़ते हैं। ऐसा हकीकत में भी हुआ है। यह ऐसा सीन है जिसे देख सिनेमा हॉल में सन्नाटा पसर जाता है। कुछ लोग आंखें बंद कर लेते हैं। 

पुष्कर नाथ कश्मीर छोड़ देता है। उसके पोते का प्रोफेसर राधिका मेनन (पल्लवी जोशी) कश्मीर की आजादी को लेकर ब्रेनवॉश कर देती है। मरने से पहले पुष्कर अपने पोते से वादा लेते हैं ‍कि मरने के बाद उनकी अस्थियां कश्मीर स्थित उनके घर में विसर्जित की जाए। 

पुष्कर की मृत्यु के बाद कृष्णा कश्मीर जाता है जहां उसके दादा के दोस्त ब्रह्मा (मिथुन चक्रवर्ती), डॉक्टर महेशकुमार (प्रकाश बेलावड़ी), हरी नारायण (पुनीत इस्सर) और विष्णु राम (अतुल श्रीवास्तव) से उसकी मुलाकात होती है। इनमें से कोई पुलिस में था तो कोई पत्रकार। ये लोग कृष्णा को 1990 में हुए हालातों के बारे में बताते हैं। सच्चाई जानने के बाद वह सभी को इस बारे में बताने का फैसला करता है। 

वह कहता है कि कश्मीर में हुई इस घिनौनी घटना के बारे में हमें क्यों नहीं बताया गया। उसका यह कहना कई सवाल खड़े करता है, जैसे क्या तत्कालीन राज्य और केंद्र सरकारों ने इस मामले को दबाया था। क्या मीडिया ने अपना रोल सही तरीके से नहीं निभाया था? विवेक ने फिल्म की कहानी को सच्चे दस्तावेजों और सच्ची कहानियों को जोड़कर आगे बढ़ाया है। नदीमार्ग हत्याकांड का भी उल्लेख है जिसमें 24 हिंदुओं को लश्कर-ए-तोयबा के लोगों ने हत्या कर दी थी। लोगों को कटिंग मशीन से चीर दिया गया था और फिल्म के क्लाइमैक्स में आतंकियों का सरगना बिट्टा (चिन्मय मंडलेकर) भी एक महिला को ऐसी ही सजा देता है। 

फिल्म को लेकर अहम सवाल इसकी सत्यता है। क्या जो कुछ दिखाया गया वो सच है ? इसका जवाब यह है कि विवेक ने कई सच्ची घटनाओं को फिल्म से जोड़ा है। काफी रिसर्च भी की है। फिल्म में दिखाई गई बातें सच्चाई के करीब हैं। 

गैर-मु‍स्लिमों के लिए आतंकियों ने कश्मीर में जैसी स्थिति पैदा की थी ज्यादातर बातें आपको फिल्म में मिलेंगी। 

निर्माता ने कई बातें समेटने के चक्कर में फिल्म को बहुत लंबा कर ‍दिया है। फिल्म की अवधि अगर कम होती तो इसका असर और अधिक होता। 

अनुपम खेर ने कमाल की एक्टिंग की है। वे खुद भुक्तभोगी हैं इसलिए इमोशन्स को अच्छी तरह समझते हैं। अपने अभिनय के बल पर वे कई जगह दर्शकों की आंखों में आंसू ला देते हैं। दर्शन कुमार, मिथुन चक्रवर्ती, पल्लवी जोशी, चिन्मय मंडलेकर सहित सारे कलाकारों का अभिनय शानदार है। कश्मीरी पंडितों के साथ जो बर्ताव हुआ है उसे परदे पर देखना भी आसान बात नहीं है, इसी से उनकी पीड़ा को समझा जा सकता है। यह फिल्म इतिहास का एक पन्ना है जिसके बारे में कम लोग जानते हैं, सच्चाई से रूबरू होने के लिए यह फिल्म हर भारतीय को देखनी चाहिए। भारत माता की जय, वंदे मातरम्, -तिनसुकिया, असम, मो. 9435533394

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हिंदी दिवस की अनेक अनेक शुभकामनाएँ

हिन्दी एक वैज्ञानिक भाषा है और कोई भी अक्षर वैसा क्यूँ है, उसके पीछे कुछ कारण है, अंग्रेजी भाषा में ये बात देखने में नहीं आती।

क, ख, ग, घ, ङ - कंठव्य कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय ध्वनि कंठ से निकलती है।

एक बार बोल कर देखिये।

च, छ, ज, झ, ञ- तालव्य कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय जीभ तालू से लगती है। एक बार बोल कर देखिये।

ट, ठ, ड, ढ , ण- मूर्धन्य कहे गए, क्योंकि इनका उच्चारण जीभ के मूर्धा से लगने पर ही सम्भव है।

एक बार बोल कर देखिये।

त, थ, द, ध, न- दंतीय कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय जीभ दांतों से लगती है।

एक बार बोल कर देखिये।

प, फ, ब, भ, म,- ओष्ठ्य कहे गए, क्योंकि इनका उच्चारण ओठों के मिलने पर ही होता है।

एक बार बोल कर देखिये । हम अपनी भाषा पर गर्व करते हैं ये सही है परन्तु लोगो को इसका कारण भी बताईये। इतनी वैज्ञानिकता दुनिया की किसी भाषा मे नही है जय हिन्द ‘‘।

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समीक्षा


डैफोडिल के झरने से पहले अचंभित हूँ , असमंजस में हूँ , अव्यवस्थित हूँ ।


7th May 2022 का दिन था, महिला काव्य मंच अहमदाबाद की त्रैमासिक गोष्ठी करने हम प्ब्।ब् गये थे, अनजाने में ही सही परंतु लगता है होनी अनहोनी का उस दिन प्रिंसेस ICAC लिखा जाना था।

एक बेहद खूबसूरत आर्ट गैलरी है और उससे भी अधिक सुंदर है, रवीन्द्र जी जिन्होंने हमें आपतकाल में कृष्ण के जैसे उबार लिया था और सदैव तत्पर रहनेवाली कृष्णा नें हमारी सहायता की थी, किसे पता था कि, 5 जून पर्यावरण दिवस, 5 जून पिचछतर वर्षीय कवि लेखिका का जन्मदिन और देश का अमृतमहोतसव सब एक साथ एक लाइन में ऐसे खड़े हो जायेगें जैसे सूरज चाँद और धरती एक साथ एक लाइन में आ जावें और नक्षत्र ज्ञान के वैज्ञानिक कहें कि ऐसी होनी अनहोनी पिचछहतर वर्षों में एक बार होती है! जिसे दूरबीन से फलाँ फलाँ स्थान से अवलोकन किया जा सकता है। हमने तो उस करिशमें को बिना दूरबीन के देख लिया।

देखा 

119 पृष्ठ पिचछतर कविताओं को झरते, देखा अनहोनी को होनी में बदलते। प्रणव जिसके नाम में ही ओम है अक्सर कहती है मात पिता की ग्यारह संतानों में से वे एकमात्र जीवित रहीं! कयूं? अचंभित करता था, यह वाकिया, पर अब नहीं करता। ओऽऽऽम अवतरित होने के लिए असंमव होना पड़ता है।

पीले पीले हजारों डैफोडिल जिन्हें वडर्सवर्थ ने झील के किनारे देखा और वे अंकित हो गये उनके चित्त में, लिख गये कविता जो दर्ज हो गई साहित्य के गर्भ में। आज उन्हीं को झूमते झूलते पाया गया फिर एक बार नए रूप में।

रातरानी रजनीगंधा मोगरा पारिजात सूरजमुखी सूरज बादल पवन रेत और रूई बरगद का पेड़ और गुलमोहर के नीचे किलकारी भरती सखियों की टोली चमक चमक जुगनू की चमक, क्या नहीं कह रहीं तमाम कविताएँ। सागर की लहरों का संगीत और बांस के जंगल से उगती बाँसुरी सुनाई पड़ती है।

पन्नों को पलटते पलटते राह भूल जाता है बटोही मानो किसी मत्स्य कन्या को दूर शिला पर बैठा देख ठिठक जाए कोई नाविक।

प्रणव स्वयं काव्य हैं। कविता उनके प्राण है शब्द हाथ और पाँव, भाव धमनियाँ है और अलंकार चक्षु। स्निग्ध समीर प्रवाहित होती है जब वे कहती है,

“मैंने लगाए अपने आँगन में पेड़ सपनों के

चम्पा चमेली रातरानी गुलमोहर

और भी न जाने क्या क्या

और हॉ बसा लिया था मैंने एक नन्हा सा शहर फूलों का“

शहर फूलों का और हजारों डैफोडिल !

सूरजमुखी से प्यारा सा वार्तालाप करते हुए पूछतीं है,

“यूँ तो बरस में कई बार दर्शन देते हो

फिर भी ग्रीष्म को कुछ अधिक भाते हो

रौशनी से सूर्य की खिल जाते हो

ख़ूब नहाते हो उसमें कैसे खिलखिला जाते हो

तपोवन से बन जाते हो, सुनहले रंग से माहौल को नहलाते हो

फिर आपस में, मुँह फेरकर क्यों खड़े हो जाते हो

क्या हम मनुष्यों से दोस्ती का इरादा है ?“

वे सूरजमुखी से मीठी कनबतियाँ करतीं हैं ।

और “कुछ ऐसा“ में ,

“तेरे झरने से पहले मैं भर देना चाहती हूँ

मुहब्बत का भीगा पैगाम , तुझमें , तुझमें - और हाँ तुझमें भी

उस रंग बिरगें बागीचे के बीच से झरती हँसी सुनना चाहती हूँ “

यह पंक्तियाँ मुझे सीधे ले गईं अमृता के द्ववारे-

“उसके पास एक छोटी सी हँसी की नाव है जिसकी पतवार पकड़ कर वह प्रायः कठिन समय को आसानी से तैर जाती है“

कवि प्रणव नें मुहब्बत की पतवार को कस के थाम लिया। जीवन के फलसफे को पकड़ कर दिखाने को व्यक्त करते दो चक्षु है.

डैफोडिलस की पिलकाई मेरी हथेलियों को रंग गई है

वो कहती है-

“मैंने लिखा है“

मेरी हथेली पर सजी है मेहँदी तेरी मुहब्बत की झुकी पलकों में छिपी है कहानी भी। “

पर्यावरण के प्रति प्रत्येक मानव को सचेत करती हैं और सचेत ही नहीं बल्कि कहतीं है;

“किसने तोड़े ताल तलैया

जिसने मचा दी लूट

ब्रह्माण्ड के कारख़ाने में- देनी होगी सजा उस चोर को, करो सिपाही तैनात....!! करो सिपाही तैनात और मुँह से निकली वाह वाह

ब्रह्माण्ड के कारख़ाने बिम्ब में कितना विशाल अर्थ निहित है कुछ देर लगी समझने में, यह ही नहीं वे तो सिपाही तैनात करवा कर उन सबको यानि हम सब को सजा देना चाहती है जिन्होंने ईश्वर प्रदत्त जल, वायु, मिट्टी आकाश में धुआँ फैला रखा है।

किस कदर स्नेह भरा है कवि हृदय में कि वे बीते दिनों का पश्चाताप करतीं हैं

“मैंने अपने मन के आँगन में रोप लिए कुछ वृक्ष नाम था क्रोध, ईष्र्या, अभिमान, गुस्ताख़ी, वे बढ़ते गए, एक और वृक्ष था नन्हा-मुन्ना छोटा सा, उसे सूखते पाया वह प्यार का स्नेह का था, ओह क्या कर डाला ?

स्वयं स्नेह की प्रतिमा, लबालब प्रेम से पूरित, मुहब्बत और सिर्फ मुहब्बत से लबरेज, प्यार का सागर प्रणव भारती में एक शिशु छिपा है ललक कर सबका मन मोह लेता है। उनकी यह पिछहतर कविताओं में, प्यार का अंकुर, स्नेह का पल्लव और इश्क को पुकारता कभी बादलों में दिखता है कभी बच्चों की टोली में, कभी बहकती चाँदनी में।

नर्गिस के फूल से रिश्तेदारी निकाल लाईं फूलों का एक परिवार बसा लिया और नर्गिस को डैफोडिल की बहन बना कर कीकली खेलने लगीं।

मैं कैसे लिखूँ और कैसे कनकलूड करूँ बड़ी दुविधा में हूँ, चाहती हूँ एक कविता को कहकर सबसे बढ़िया और ख़त्म कर दूँ, पर एक चुनती हूँ तब तक पन्ने फड़फड़ा कर मेरे मुँह के सामने पंखे से लहलहाने लगते हैं और, अरे यह कितनी अच्छी है अरे देखो इसमें कितना सुंदर विचार है और मैं भूलभुलैया में खोजाती हूँ। फिर बचपन का खेल याद आता है चोर सिपाही का, कैसे चुनते थे सिपाही को;

अक्कड़ बक्कड़ भमभे भौं, अस्सी नब्बे पूरे सौ

सौ में लगा ताला चोर निकल कर भागा;

“मेरे पारिजात

पारिजात! तुम करते हो अभ्यर्थना, आने वाली रात में मिलने की...

इसलिए जुदा होते शायद

टपक जाते हो डाल से

दुखी हो जाते हो, जाने न मिले हो

कितने साल से

पारिजात ! कुछ तो विवेक रखो !!“

पढ़ने वालो ने हारसिंगार पर सैकड़ों पढ़ी होंगी लिखनेवालों ने हजारों लिखी होंगी पर विचार करें किसी ने इतनी गहराई से उसे सम्बोधित किया ?

प्रणव भारती के लिए मेरे पास देने को कुछ नहीं है अश्रुपूरित आँखें है आनन्द की। पुलकित मन से उन्हें असीम शुभकामनाएँ देती हूँ। वे लेखन की उन बुलंदियों को छूऐं जिनकी वे हक़दार हैं। लेखन ही उनका बिछौना है, लेखन ही उनका भोजन और लेखन ही उनकी श्वांस, हृदय गति। श्वांस चलती रहें।

अंत में मेरी मजाल नहीं कि मैं समीक्षा करूँ या समालोचना करूँ और अमृता प्रीतम जी ने बड़ी टंकारित बात कही है, कहा है-“मैं आलोचक उसे कह सकती हूँ जिसकी आलोचना पढ़कर साहित्यकार का कुछ निर्माण करने का मन करे। आगे से अच्छा। उसकी आँखें झिलमिल करें , उसके हाथों में कलवल हो और बहुत सी धरती उसके स्वप्नों की सीमा में आ जाए “

उपरोक्त कुछ शब्द डा. प्रणव भारती की पिचछतर कविताओं के संग्रह पर “ डैफोडिल तेरे झरने से पहले “

डॉ. प्रणव भारती, अहमदाबाद, मो. 9904516484 

मधु सोसि गुप्ता, अहमदाबाद, मो. 9724303410

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शोधांश

प्रो. फूलचंद मानव

काव्य साधना में पटियाला और आसपास

प्रत्येक शहर अपनी संभावनाओं के साथ मुखरित होता है। नगर का अतीत और वर्तमान संस्कृति, शिक्षा और साहित्य को खोलता है। अपनी वाणी में प्रत्येक शब्द कुछ न कुछ ऐसा बोलता है जो प्रभावोत्पादक सिद्ध हो सकता है। पटियाला एक जीवंत शहर है। यहां की संस्कृति, सभ्यता, इतिहास के साथ जीवनशैली पंजाब से बाहर भारत में, और विदेशों तक छायी हुई नज़र आती है। साहित्य के क्षेत्र में पंजाबी, हिंदी, उर्दू, संस्कृत ही नहीं, अंग्रेजी और अन्य भाषाओं के सुरभित स्वर भी यहां महक बांट रहे हैं। पटियाले का किला, यहां की राजनीति, नाले डोरियां, खान-पान, बारादरी, भाषा विभाग, उत्तर क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्र, और न जाने क्या क्या याद आ रहा है। ऐसे में हिंदी कवियों को याद करना मेरा परम धर्म है। मेरा जन्म नाभा जिला पटिलाया में हुआ। मेरे लिए राजपुरा सहित आसपास के छोटे बड़े शहर, कस्बे, गांव, देहात, जहां जहां भी शिक्षा का आलोक गया है, उभर कर सामने आ रहे हैं। गजल, गीत, कविता, दोहे ही नहीं, खंड काव्य, महाकाव्य आदि के क्षेत्र में भी पटियाला के हिंदी रचनाकारों ने अपना स्थान सुरक्षित किया है। 1961 और इसके बाद की गतिविधियों से मैं परिचित ही नहीं, उनमें शुमार भी रहा हूं।

संयुक्त पंजाब में हरियाणा और हिमाचल भी हमारा ही अंग रहे हैं। 1947 के बाद स्वतंत्रता पाकर यहां पटियाला, चंडीगढ़, अमृतसर, जालंधर, बठिंडा जैसे शहरों में हिंदी कवि सम्मेलन, अपनी धज और ध्वजा के साथ संपन्न हुआ करते थे। मंचीय कवियों का वह मुकाम आज जरूर मेरी पीढ़ी के 70 पार लोगों को याद आ रहा होगा। दैनिक मिलाप, वीरप्रताप या पंजाब केसरी के शुरूआती दिनों में भी काका हाथरसी, विजय निर्वाध, देवराज दिनेश, विश्व प्रकाश दीक्षित बटुक या त्रिलोकीनाथ रंजन, मंचीय कवियों के समूह के साथ छाए रहते थे। गिरिजा कुमार माथुर, इंद्रजीत सिंह तुलसी या स्वनाम धन्य अन्य अनेक नाम सुदर्शन फाकिर, कृष्ण अदीव सहित, फिल्म इंडस्ट्री तक पहुंचे और उन्होंने अपनी काव्य गरिमा के द्वारा सिनेमा संसार को गीत, ग़ज़ल देकर संपन्न किया। आज यहां सागर सूद, अमृतपाल सिंह शैदा, हरीदत्त हवीब, परमिंदर शोख, कुलभूषण कालड़ा, नवीन कमल भारती जैसे दर्जनों हस्ताक्षर पंजाब के साथ हरियाणा, हिमाचल और चंडीगढ़ में भी पहचान बना रहे हैं।

मैं टैगोर थिएटर के 1963 के पश्चात् आयोजित हुए अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों को याद कर रहा हूं। आमंत्रित श्रोताओं के समक्ष आकाशवाणी जालंधर द्वारा, देशभर से बुलाए गए कतिपय कवियों के साथ पंजाब के हिंदी कवियों को भी खुले मंच से कविता पाठ करने का अवसर प्राप्त होता रहा है। उनमें एक सौभाग्यशाली मैं भी रहा हूं। गिरिजा कुमार माथुर, नंदकिशोर रजनीश, राजेंद्र व्यथित, चंद्रशेखर, कस्तूरी कश्यप जैसे कंठ एक कर्णप्रिय मुद्रा में हमारे भीतर उतर जाते थे। वह महक महीनों तक हमें ताज़गी दिया करती थी। इधर आज कहीं भी ऐसा माहौल हिंदी के नाम पर नहीं मिल रहा। साहित्य में या तो शोर है या सन्नाटा। सहजता और संजीदगी का अभाव नज़र आता है। किन्हीं तीन कवियों को मैंने मौखिक रूप से कविता पाठ करते हुए पिछले 15 साल में सुना हो, याद नहीं आ रहा। हर कवि और कवयित्रियां भी, अपनी डायरी, कापी या मोबाइल सामने रखकर काव्यपाठ कर रहे, आधा प्रभाव गंवा चुके नजर आते हैं। कविता मन का महोत्सव है। वाणी का कीर्तन और संस्कारों की संपन्नता। इसी कारण शायद हम रामायण की चैपाइयां, कबीर, रहीम के दोहे गाते, गुनगुनाते रहे हैं। हां, आज मंच से एक फूहड़ संस्कृति ने भी जन्म लिया है। चुटकले, लतीफे, भदेस परोसकर, बेचारे मंचीय कवि अपना समय पास करके, तालियां भले बटोर लें लेकिन नई पीढ़ी को कुछ दे पाने में असमर्थ रहे हैं।

पटियाला में सुकीर्ति भटनागर, मनु वैश्य, मधु चोपड़ा, मधुमन या अलका अरोड़ा आदि के नाम गिनाए जा सकते हैं। इन हस्ताक्षरों ने नारी लेखन को पोषित किया है। पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला और यहां का हिंदी विभाग एक दीर्घ परंपरा का साक्षी है। जहां से हरिमोहन, फूलचंद मानव, वीरेंद्र वालिया, पार्षद, जैसे बीसियों बुद्धिजीवी अध्यापक, संपादक, डॉ. प्रो. मनमोहन सहगल के सानिध्य में कुछ सीख पाए। इन लोगों ने आगे चल कर अपने अपने क्षेत्रों में एक जगह बनाई। राष्ट्रीय स्तर पर और प्रांतीय स्तर पर सम्मानित और पुरस्कृत होकर, पटियाला जिला का नाम रोशन किया है। इन्हीं के बारे इसी जिले के अधिकारियों, मंत्रियों, विभागाध्यक्षों को भी सामान्य जानकारी शायद न हो।

सागर सूद एक पत्रिका के संपादक हैं और युवा ग़ज़लकार भी। अपनी मधुर वाणी, संपर्क, संवाद और रचनाधर्मिता के आधार पर इन्होंने भारतीय स्तर पर मुकाम इसलिए बनाया है कि इनकी रचना की मिठास सिर चढकर बोलती है। सागर सूद द्वारा रचित पुस्तकों की सूची इनकी उम्र के वर्षों से कहीं अधिक लंबी है, अक्सर लोग, आकर मुझसे पूछते हैं कि यह कैसे लिख पाते हैं। मेरा उत्तर होता है कि अभ्यास, लगन, श्रम और योग्यता के आधार पर। सतत काम करने से कोई व्यक्ति कहीं भी पहुंच सकता है, लेकिन यह लगन हम लाएंगे कहा से। सागर सूद ने पुस्तक प्रकाशन के क्षेत्र में भी नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं। पटियाला, पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़ या अन्य क्षेत्रों से भी दूर पार के लोग पुस्तक प्रकाशन के लिए इनको संपर्क करते हैं। अच्छी किताब, बोलती बतियाती छवि हासिल करके गौरान्वित हो जाते हैं। सागर सूद की ग़ालों में छंद विधान, तकनीकी पक्ष और भाषा की ताजगी के साथ इनके बिम्ब, प्रतीक और मुहावरे मन को बांधते हैं। शायद इसीलिए गेय कविता हमें बांध लेती है और स्मरण भी हो जाती है।

हिंदी कवियो, कवयित्रियों ने साहित्यिक पुस्तकें खरीदकर पढने की परंपरा को शायद समझा ही नहीं। आपके प्रिय कवि कौन हैं? किस कवि को आप क्यों पसंद करते हैं! किस कवयित्री और कवि जैसा आप होना, लिखना या दिखना चाहते हैं? यह तभी संभव हो सकता है, जब आपके कर कमलों ने किसी स्नेदिल पुस्तक को सहेजा हो, अपने पाठ के लिए उसे उपयोगी समझा हो। इस पीढ़ी का जोर लिखने और छपने में अपव्यय हो रहा है। पढने और समझने में नहीं। किसी बेचारे कवि को सात पत्रिकाओं के नाम भी बता पाने में कब्ज हो जाएगी। पढने का समय यदि सुरक्षित हो तो सीखने की ललक जाग सकती है। लिखे जा चुके को बार बार लिखना, दोहराना, शब्दावली में नयापन न लाना इस पीढ़ी के खिलाफ जा रहा है। मुझे विभिन्न विश्वविद्यालयों के विभागाध्यक्षों से पत्र आया करते थे कि एक पीएचडी का शोधार्थी अपनी प्रश्नावली में 80 सवाल आपके लेखन पर भिजवा रहा है। मुझे उनके उत्तर लिखकर देने हैं। मेरा उत्तर हुआ करता था कि यह तो मेरी दूसरी पीएचडी हो जाएगी। जितना और जैसा शार्टकट आज शिक्षा, भाषा, या कविता में अपनाया जा रहा है, वह घातक सिद्ध हो रहा है।

अनेक कवि और कवयित्रियां भी संयोगवश पूछ बैठती हैं कि सर मुझपर शोध कैसे हो सकती है। अर्थात् एमफिल या पीएचडी के अध्ययन में उनके कार्य को कैसे शुमार करवाया जा सकता है। मैं व्यंग्य भाव से कह देता हूं कि ‘अमुक विभागाध्यक्ष के घुटने’ पकड़ लो। उन्होंने पकड़ भी लिए और विडंबना है कि उनका आधा अधूरा काम हो भी गया। यह हमारी शिक्षा पद्धति पर एक चोट नहीं तो और क्या है? किसी को साड़ी चाहिए तो किसी को गाड़ी, किसी को सेवा चाहिए तो किसी को धन। यों आज हमें डिग्रियां प्राप्त हो रही हैं।

सन् 1965 में आकाशवाणी जालंधर में विश्व प्रकाश दीक्षित बटुक ने पहली बार मुझे कविता पाठ के लिए आमंत्रित किया, तो अनुबंध पत्र में फीस 25 रुपए लिखी हुई थी। मेरे लिए वह राशि तब 25000 रुपए से भी बड़ी थी। तब कविताएं जांच परख के बाद, आकाशवाणी से पास करवाकर, पढने की स्वतंत्रता मिलती थी। केंद्र निदेशक गिरिजा कुमार माथुर थे। मोबाइल या टेलीफोन का युग नहीं थी। लिफाफे में बंद चिट्ठी आती थी। आदेश मिला कि सेक्टर 19 चंडीगढ़ के आकाशवाणी केंद्र में आपकी रिकार्डिंग होगी। उन दिनों उद्योग निदेशालय पंजाब, चंडीगढ़ में सेक्टर 17 की थर्टीवेज बिल्डिंग में नौकरी करता था। छुट्टी लेकर 11 बजे सेक्टर 19 आकाशवाणी के किराए की बिल्डिंग में आया तो सूचना भिजवाई कि मेरे पास रिकार्डिंग करवाने के आदेश हैं। चिट्ठी लेकर कर्मचारी भीतर प्रोग्राम एग्जक्यूटिव के पास गया। सरदार अलबेल सिंह ग्रेवाल, जो उन दिनों चंडीगढ़ में प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव थे, जूती उतारकर नंगे पांव मेरी अगवानी के लिए बाहर आए। क्या समय था और क्या संस्कार! यह फूलचंद मानव का नहीं, एक कवि कलाकार का सम्मान था। तब स्टूडियों में जूतियां, चप्पलें ले जाने पर निषेध था। अलग अलग गत्तों पर एक एक पन्ना मखमली कपड़े पर यों पिन किया जाता था, कि कागज की ध्वनि रिकार्डिंग में न आ पाए। और आज? आज प्रोड्यूसर या प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव बेचारे वार्ताकारों, कवियों पर एहसान करके प्रोग्राम देते हैं और स्वनाम धन्य कवि भी पूंछ हिलाते उनके आगे पीछे घूमते रहते हैं।

पटियाला के कवियों में कस्तूरी कश्यप बैंक की नौकरी करते थे, तो नंद किशोर रजनीश अध्यापन कार्य। राजेंद्र व्यथित भाषा विभाग की सामान्य सी भूमिका में कार्यरत थे। चंद्रशेखर और परेश हिंदी विभाग में प्राध्यापक। शिवदत्त सूद अविचल, सीडी गांधी सागर, ओमप्रकाश शर्मा आनंद या त्रिलोकी नाथ रंजन को जिन्होंने 45-50 साल पहले मंच से सुना होगा, वे आज तक उन गीतों का लोहा मानते हैं। हर्षकुमार हर्ष, प्रेम शर्मा पार्षद, रमेश सोबती, अमृतपाल सिंह सैदा या बिजेंद्र ठाकुर अपने अपने रंग में रचनाएं प्रस्तुत करते रहे हैं। यहां स्पष्ट कर दें कि जहां कविता पढना, कविता पाठ एक कला है, वहां एक अच्छे श्रोता के रूप में कविता सुनना भी, एक बड़ी कला के समान है। दाद देना, करतल ध्वनि करना या मुकर्रर बोलकर माहौल में अपनी हाजिरी लगवाना, एक जीवंत व्यक्तित्व का सबूत है। हमारे यहां भाषा विभाग या सामान्य छोटी छोटी संस्थाएं रस्म अदायगी के नाम पर जो कवि सम्मेलन, काव्य गोष्ठियां रचती हैं,  औपचारिकता लिए होता है। यहां परिचय, लिहाज और निकटता के स्वर तो बोलते हैं, लेकिन कविता खामोश रहती है।

पटियाला में परमिंदर शोख, सागर सूद, हरिदत्त हबीब, महेश गौतम, रमेश एहसास या नवीन कमल भारती जैसे कितने ही अपने परिचित साथियों को सुना है। इनके साथ कुछ कवत्रियों के नाम भी लिए जा सकते हैं। ताजगी, टटकापन, सजगता, संबोधन या मुहावरेदार भाषा जहां मिली है, इन्होंने तारीफ हासिल की है।

पटियाला के ऐसे रचनाकारों की पुस्तकों, प्राप्तियों और पहलवानियों का विवरण विस्तार भी खूब लंबा हो सकता है। कोई शोधछात्र या जिज्ञासु इन्हें पढकर आगे बढ़े तो बहुत कुछ पा सकता है। पंजाब और देश को बता भी सकता है कि फिल्म, टेलिविजन, रंगमंच की तरह, पटियाला का काव्य मंच और मंचेतर साहित्य भी सम्पन्न-समृद्ध रहा है। कोई संपादक चाहे तो इस पर विशेषांक निकालकर, पुस्तकीय रूप में भी इसे उजागर कर पाएगा। सीमा और मर्यादा सब की यहां अपनी अपनी है। पंजाब में पटियाला साहित्यिक स्तर पर श्रेष्ठ, शिरोमणि सिद्ध हो, सभी प्रयासरत रहेंगे।

ढकौली-160104, जीरकपुर (समीप चंडीगढ़) मो. 9316001549, 9646879890, टेलीफोन: 01762-271562

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समीक्षा

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


लघुकथा की सहजता का ध्वजावाहकः जिंदा मैं


लघुकथा संग्रहः ‘जिंदा मैं’

लेखकः अशोक जैन

प्रकाशकः अमोघ प्रकाशन, गुरूग्राम

मूल्यः रु. 80/-

भगवान श्रीराम ने वनवास के कई वर्ष पंचवटी में व्यतीत किए थे। पंचवटी अर्थात पांच वृक्ष। ये पांच पेड़ थे - पीपल, बरगद, आँवला, बेल तथा अशोक। इन पर एक शोध के बाद वैज्ञानिकों ने पाया कि इन पाँचों के आस-पास रहने से बीमारियों की आशंका कम हो जाती है और शरीर की प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है। आज कोरोना और अन्य कई संक्रमणों के बीच में जीवित रह रहे हम सभी के लिए इन पांच वृक्षों में से एक के नाम वाले लेखक- कवि-सम्पादक श्री ‘अशोक‘ जैन का लघुकथा संग्रह ‘‘जिंदा मैं‘‘ का आवरण पृष्ठ मेरे अनुसार प्रकृति और जलवायु के सरंक्षण का प्रतिनिधित्व करता हुआ इसी बात को इंगित करता है कि उचित रहन-सहन हेतु वृक्षों द्वारा प्रदान की जा रही ऊर्जा का सही दिशा में उपयोग होना चाहिए। यह किताब खोलने से पहले ही मुझे इसके आवरण चित्र ने यों प्रभावित किया। वृक्षों की कटाई की आँधियों के बीच कोई ‘बूढा बरगद‘ (इस संग्रह की एक रचना) अपनी हिलती जड़ों के बावजूद आज भी सरंक्षण देता है और कोई नन्ही कोंपल इस परम्परा की संवाहक बन जाती है। इस संग्रह की भूमिका उदीयमान व प्रभावोत्पादक रचनाओं  के लेखक श्री वीरेंदर ‘वीर‘ मेहता ने लिखी है, जो संग्रह का सही-सही प्रतिनिधित्व कर रही है। एक उदीयमान रचनाकार से भूमिका लिखवाने का यह प्रयोग मुझ सहित कई नवोदितों को ऊर्जावान करने में सक्षम है।

भारतवर्ष के इतिहास में उदारता, प्रेम, भय, स्वाभाविकता, सहजता, गरिमा, उन्नति, लक्ष्मी, सरस्वती, स्वास्थ्य, विज्ञान आदि गुण श्रेष्ठतम स्तर पर हैं। ऐसा ही पुरातन साहित्य भी है। इतिहास और पुरातन साहित्य हमें हिम्मत प्रदान करता है, लेकिन जब हम अपने समय का हाल देखते हैं तो उपरोक्त गुणों को तलाशने में ही हाथ-पैर फूल जाते हैं। साहित्य का दायित्व तब बढ़ ही जाता है। महाकवि जयशंकर प्रसाद की कामायनी के मनु की तरह, “विस्मृति का अवसाद घेर ले, नीरवता बस चुप कर दे।” 41 लघुकथाओं के इस संग्रह ‘‘जिंदा मैं‘‘ में भी उपरोक्त गुणों को समय के साथ विस्मृत नहीं होने देने की रचनाएं निहित हैं। यह साहित्य का धर्म भी है ताकि साहित्य सनातन के साथ सतत बना रहे लेकिन सतही न हो। इस संग्रह की भी अधिकतर लघुकथाएं सहज हैं। शून्य को शून्य रहने तक भय नहीं रहता है लेकिन जब वह किसी संख्या के पीछे लग जाता है तो उसका मूल्य तो बढ़ता ही है, मूल्यवान के दिल में किसी भी शून्य के हटने का डर भी बैठ जाता है और वह स्वयं के प्रति भी सजग हो उठता है। संग्रह की पहली रचना ‘डर‘ भी इसी प्रकार के एक भय का प्रतिनिधित्व कर रही है। ‘मुक्ति-मार्ग‘ एक ऐसी रचना है जो सतही तौर पर पढी ही नहीं जा सकती, यदि कोई ऐसे पढ़ता भी है तो वह अच्छा पाठक नहीं हो सकता। ‘गिरगिट‘ यों तो कथनी-करनी के अंतर जैसे विषय पर आधारित है, लेकिन यह भी सत्य है कि अतीत की इस कथा का वर्तमान से कई जगह गहरा सम्बन्ध है। कुछ लघुकथाओं में पात्रों के नाम समयानूकूल नहीं हैं जैसे, ‘हरी बाबू‘, ‘हरखू‘। हालांकि ये लघुकथाएं समाज के विभिन्न वर्गों की परिस्थितियों का उचित वर्णन कर रही हैं।

कुछ लघुकथाओं में प्रतीकों का इस तरह प्रयोग किया गया है, जो विभिन्न पाठकों में भिन्न-भिन्न विचारों को उत्पन्न कर सकते हैं, उदाहरणस्वरूप, ‘टूटने के बाद‘ व ‘दाना पानी‘। पुस्तक की शीर्षक रचना मैं-बड़ा के भाव, अहंकार, भोगवादी संस्कृति, पारिवारिक बिखराव के साथ-साथ स्वाभिमान जैसे गुणों-अवगुणों की नुमाइंदगी करती है। इसी प्रकार ‘आरपार‘ में लालटेन को लेकर, ‘खुसर-पुसर‘ में चित्र के द्वारा, ‘बोध‘ में कदमताल व ‘माहौल‘ में  बादलों के जरिए संवेदनाओं को दर्शाया गया है, जो इन रचनाओं को उच्च स्तर पर ले जाता है। ‘जेबकतरा‘ इस संग्रह की श्रेष्ठतम रचनाओं में से एक है, एक गोल्ड मेडलिस्ट परिस्थितिवश जेबकतरा बन अपने ही शिक्षक की जेब काट लेता है, उसकी मानसिकता का अच्छा मनोवैज्ञानिक वर्णन किया गया है। ‘पोस्टर‘ भी ऐसी रचना है जो एक से अधिक संवेदनाओं की ओर संकेत कर रही है। कुछ लघुकथाओं जैसे ‘गिरगिट‘ में कहीं-कहीं लेखकीय प्रवेश भी दिखाई दिया। अधिकतर लघुकथाएँ सामयिक हैं जैसे ‘मौकापरस्त‘। ज्यादातर रचनाओं की भाषा चुस्त है, लाघवता विद्यमान है, शिल्प और शैली भी अच्छी व सहज है। कथ्य का निर्वाह भी बेहतर तरीके से किया गया है और सबसे बड़ी बात अधिकतर रचनाएं पठनीय हैं। अशोक जैन जी की कलम कई मुद्दों पर बराबर स्याही बिखेरने की कूवत रखती है। अतः यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि लघुकथा संग्रह ‘‘जिंदा मैं‘‘ साहित्य के सन्मार्ग पर पंचवटी की तरह ऐसे वृक्षों का न केवल बीजारोपण कर रहा है, बल्कि उन वृक्षों के लिए खाद-पानी भी है, जिनसे लघुकथाएँ खुलकर श्वास ले सकती हैं। 

-उदयपुर, मो. 928544749 chandresh.chhatlani@gmail.com

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समीक्षा

 समीक्षक:  श्री प्रदीप कुमार ठाकुर,केंद्रीय हिंदी निदेशालय, नई दिल्ली, मो-9330561518      

लेखक: सुश्री अन्नदा पाटनी, Email : annada.patni@gmail.com


मूलवतन की मिट्टी की खुशबू से सराबोर रचना-‘तेरे लिए’

प्रतिभाओं का विकास स्वतःस्फूर्त भाव से होता है। किंतु उसमें तात्कालीन परिवेश की महती भूमिका होती है, जिसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता। अगर व्यक्ति को अनुकूल परिवेश और सकारात्मक प्रेरणा मिलती है तो उसके व्यक्तित्व का विकास कहीं भी अवरुद्ध नहीं होता और वह तेजी के साथ उन्नति के पथ पर अग्रसर होता रहता है। आगे बढ्ने के क्रम में हरएक व्यक्ति को बहुत सारी चुनौतियों का सामान करना पड़ता है। संघर्षों की ताप में तपकर वह कुंदन बन जाता है और अपनी अर्जित विशिष्टाओं की बदौलत समाज में मान-सम्मान प्राप्त करता है तथा अपना और अपने देश का नाम भी रौशन करता है। संघर्ष की ऐसी ही एक कथा का जाल बुना है लेखिका अन्नदा पाटनी ने अपने उपन्यास ‘तेरे लिए’ में। लंबे समय से वे साहित्य की विधाओं में लिखती रहीं हैं। मध्यप्रदेश की ‘सर्जना’ पत्रिका का भी वे संपादन कर चुकी हैं। यह उनका पहला उपन्यास है। विदेशी मिट्टी पर टिकी हुई तथा उच्च-मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि को लक्षित करती यह कृति एक नए मिजाज से संबंधों की जटिलता को व्याख्यायित करने की चेष्टा करती है।

लेखिका लंबे समय से भारत के बाहर प्रवास पर रही हैं और अभी भी अमेरिका और सिंगापुर के बीच उनकी आवाजाही जारी है। ऐसे में रची जाने वाली कोई भी कृति अपने परिवेश से पृथक ही नहीं हो सकती। गाहे-बेगाहे उसका उल्लेख होना स्वाभाविक है। अपने तात्कालीन समय और समाज से जुड़ी ऐसी ही रचनाओं से समकालीन प्रवासी साहित्य समृद्ध हो रहा है। इस साहित्य ने मीलों दूर बसे प्रवासियों के अपने इर्द-गिर्द के वातावरण को देखने के उनके नज़रिए को तो सामने लाने का मौका दिया ही है। उसके साथ-साथ उनकी नज़रों से भारतीय जीवन शैली और पाश्चात्य जीवन शैली के अंतद्र्वंद्व को भी महसूस किया जा सकता है। व्यक्ति भले ही किसी कारण से अपने मूलनिवास को छोड़कर कहीं अन्यत्र बस जाये किंतु उसके अवचेतन में वे तमाम स्मृतियाँ मौजूद रहती हैं जिनसे होकर वह अपने जीवन के प्रारंभिक चरण में गुजर चुका होता है। यह द्वंद्व कहीं न कहीं उसके मन की भीतरी तहों में विद्यमान रहता है जो मौका पाकर प्रकट हो उठता है। यही वह प्लॉट है जिसपर यह पूरा उपन्यास खड़ा है।

चार पीढ़ियों वाले एक संयुक्त, संभ्रांत और व्यवस्थित परिवार की अगली पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करती हुई इस उपन्यास की एक प्रमुख पात्र, रिंकी का व्यक्तित्व औरों से बिलकुल जुदा है। प्रायः यह देखा जाता है कि भारतवंशी उच्च गुणवत्तापूर्ण और ऐशो-आराम की जिंदगी के लिए विदेशों में बस जाते हैं और एक साधन-संपन्न जीवन जीते हैं। इसके बावजूद वे अपने साथ भारतीय संस्कारों को भी साथ ले जाते हैं तथा उसे अपने जीवन का हिस्सा बना लेते हैं। यही कारण है कि रिंकी के माता-पिता ‘न्यूक्लियर’ जीवन की अपेक्षा संयुक्त परिवार को महत्त्व देते हैं और आदर-सम्मान तथा अनुशासन की परिपाटी का पालन करते हैं। किंतु अपने समकालीन परिवेश में पली-बढ़ी रिंकी को यह पसंद नहीं है। ऐशोआराम से उसका दम घुटता है। वह अपनी निजता चाहती है और दूसरे की मर्जी से काम नहीं करना चाहती। इसलिए वह ऐसे परिवार में विवाह करने की शर्त रखती है, जहाँ लड़के के परिवार में उसके माँ-बाप के अलावा कोई और नहीं हो, और वे भी साथ नहीं रहते हो। वह अकेले अपने पति के साथ (संयुक्त परिवार से अलग) रहने की बात करती है। अंततः एक धर्मगुरु के आश्रम में आये अमेरिकन माँ-बेटे से रिंकि के परिवार वालों की मुलाकात होती है। वहाँ क्रिस नामक लड़के से उनकी मुलाकात होती है और कुछ दिनों बाद क्रिस और रिंकी की कोर्ट मैरिज हो जाती है। मुंबई में बड़े भव्य तरीके से उनका रिसेप्शन रखा जाता है और उसके दो दिनों बाद वे न्यूयार्क के लिए रवाना हो जाते हैं। न्यूयार्क में वे कुछ दिन बिताते हैं, जहाँ कभी-कभार क्रिस की माँ, जो न्यू जर्सी में रहती है, भी मिलने आती-जाती रहती है। वहीं उसकी मुलाकात उसके घर के समीप ही रहने वाली नीला नामक लड़की से होती है और उसके साथ उसकी दोस्ती भी हो जाती है। यहाँ से कहानी नया मोड़ लेती है। अचानक क्रिस लापता हो जाता है। लाख कोशिश करने के बावजूद उसका पता नहीं चलता। महीनों गुज़र जाने के बाद भी उसका कोई सुराग नहीं मिलता। नीला के सुझाव पर वह भारत लौटने की योजना (घरवालों को बिना बताए) बनाती है और मुंबई एयरपोर्ट पहुँचती है। किंतु यहीं धोखे से उसका अपहरण कर लिया जाता है। उसकी आँख पर पट्टी बांधकर उसे हरियाणा के सुदूर एक गाँव (मोरी गाँव, सिरसा) में ले जाया जाता है। यहाँ उसकी मुलाकात शुभेंदु, दीनू और उसकी पत्नी बसंती से होती है। धीरे-धीरे रिंकी को एहसास होता है कि अपहरण करने वाले लोग बूरे नहीं है। शुभेंदु अपने बारे में बताते हुए कहता है कि, ‘‘देखो, मैं ईमानदार और सच्चे लोगों की हमेशा मदद करता हूँ। इस गाँव में यह सब जानते हैं कि मैं जरूरतमंदों की जरूरतें पूरी करता हूँ। मैंने और मेरे आदमियों ने कभी महिलाओं के साथ दुव्र्यवहार नहीं किया है और हमें चरित्रवान समझा जाता है। यह हो सकता है कि तुम कुछ दिन यहाँ रह जाओ। इस बीच हम लोग क्रिस को ढूँढने का प्रयास करते रहेंगे।’’1 शुभेंदु उसे तब तक गाँव की औरतों को पढ़ाने के लिए उससे आग्रह करता है जिसे रिंकी स्वीकार कर लेती है। उसके इस काम के लिए वह उसे कुछ मानदेय/पारिश्रमिक भी देता है। बीच में एक संदिग्ध व्यक्ति के बारे में उन्हें पता चलता है। उन्हें लगता है कि शायद वह क्रिस ही हो। शुभेंदु इस बारे में तफ्तीश भी करता है किंतु वह व्यक्ति अपना नाम मुस्तफा बताता है। इस तरह यहाँ भी उनकी कोशिश नाकाम हो जाती है। रिंकी की उम्मीद पर पानी फिर जाता है और वह अवसाद से घिर जाती है। इससे उबरने के लिए वह पुनः बच्चों के साथ किसी और काम में मशगूल हो जाती है। इसक्रम में उसका शुभेंदु पर विश्वास बढ़ता जाता है। वह कहती है-‘‘पर यह सोचकर कि आप चाहते तो मेरी मजबूरी का फायदा उठा सकते थे, मैंने कुछ और समय रुकना ठीक समझा। भागने का तो मैंने कभी नहीं सोचा पर यह जरूर था कि आपको बताकर ही यहाँ से जाती। कुछ दिनों में यह तो साफ हो गया कि आप गलत धंधे में होते हुए भी आदमी गलत नहीं हैं, उल्टे मेरे साथ अदब से पेश आ रहे थे’’।2इस बीच वह विभिन्न आयोजनों की जिम्मेदारी लेती है तथा उसे सफलतापूर्वक पूरा भी करती है। तनाव से उबरने के लिए वह दिवाली की छुट्टियों के दौरान दस दिनों की यात्रा पर शुभेंदु के साथ कश्मीर यात्रा पर जाती है। इस क्रम में दोनों की नजदीकियाँ भी बढ्ने लगती है। मन ही मन शुभेंदु उसे चाहने लगता है किंतु उससे इज़हार नहीं करता। यात्रा के दौरान ही शुभेंदु रिंकी से अपनी जीवन-कहानी भी साझा करता है। वह बताता है कि कैसे उसके पिता के साथ धोखाधड़ी की गई और उन्हें झूठे मामले में फँसाकर उन्हें तिल-तिल मरने के लिए छोड़ दिया गया। जेल जाने के बाद उसकी प्रेमिका लतिका भी उसे छोडकर चली गई। जेल में ही कार्डियक अरेस्ट से उसके पिता की मौत हो गई और उसके कुछ दिनों बाद उसकी माँ भी चल बसी। शुभेंदु की कहानी सुनकर रिंकी का मन भी द्रवित हो जाता है। शुभेंदु के प्रति उसके मन के एक कोने में हमदर्दी और सहानुभूति का भाव जग जाता है। किंतु रिंकी की आँखें अभी भी अपने पति की ओर लगी रहती है। वह बीच-बीच में उसे याद कर लेकर बहुत मायूस हो जाती है। अंततः वह अमेरिका जाकर क्रिस की तलाश करने का मन बनाती है। वह कहती है, ‘‘न जाने क्यों मेरे मन में आ रहा है कि यहाँ रहकर क्रिस को नहीं ढूँढ पाऊँगी। बार-बार लगता है, वह अमेरिका में ही है। मेरा मन अब उचट रहा है और न्यूयॉर्क की ओर दौड़ रहा है। मैं अमेरिका जाना चाहती हूँ। वहीं सैटल होना चाह रही हूँ।’’ शुभेंदु भी साथ जाने की बात करता है। रिंकी उसकी बात मान लेती है। दोनों न्यूयार्क के लिए रवाना हो जाते हैं।         

कहानी महत्त्वपूर्ण मोड़ तब लेती है जब रिंकी न्यूयार्क में अपने घर पहुँचती है। वहाँ उन्हें मुस्तफा नाम का वही शख्स अपने घर में मिलता है जिसने मुंबई में शुभेंदु के पूछने पर यह कहा था कि वह क्रिस नहीं है। रिंकी उसे देखते ही पहचान लेती है कि यह तो क्रिस है। किंतु क्रिस उसे पहचानने से इंकार कर देता है। वह इस तरह का आचरण करता है कि जैसे उसकी याद्दाश्त खो गई हो। सब लोग यह मान भी लेते हैं। किंतु डॉक्टर की जाँच में जब यह पता चलता है कि वह कैंसर के अंतिम स्टेज में है तो सभी सन्न रह जाते हैं। रिंकी पर तो मानो पहाड़ ही टूट पड़ा हो। वह कहती है,‘‘तुम्हें पता है मैं कब से तुम्हारा इंतजार कर रही हूँ। मैंने कितनी तकलीफों का सामना किया है सिर्फ इस दिन के लिए। और तुम अनजान बनकर ऐसा बिहेव कर रहे हो जैसे मुझे पहचानते ही नहीं। आखिर क्यों?’’। इसके बावजूद क्रिस रिंकी को कोई प्रतिक्रिया नहीं देता। कुछ दिनों बाद उसकी मौत हो जाती है। रिंकी की सहेली नीला कुछ दिन बाद में मौत से पहले क्रिस द्वारा दिए गए एक पत्र का जिक्र करती है। इस पत्र में उसने ड्रग माफियाओं, खूंखार हत्यारों और गलत पेशे से जुड़े लोगों द्वारा अपने अपहरण की बात बताई थी। साथ ही यह भी लिखा था कि उनके संसर्ग में आकर तथा ड्रग आदि अवैध धंधों में फँसकर ही उसकी यह हालत हुई थी। बाद में मेरी अवस्था जब बहुत खराब हो गई तो उन्होने मुझे छोड़ दिया। किंतु तब तक बहुत देर हो चुकी थी। कोई और चारा न पाकर मैं अपने घर लौट आया और अकेलेपन में कैद हो गया। उसने याद्दाश्त खो जाने का नाटक किया था ताकि किसी को उसकी वजह से परेशानी न हो। पत्र द्वारा प्राप्त इस जानकारी से रिंकी का मन क्रिस के प्रति और गहरी सहानुभूति से भर जाता है। किंतु रिंकी बीच में ही पत्र पढ़ना बंद कर देती है और यह नहीं बताती कि क्रिस ने पत्र के अंत में यह भी लिखा था कि वह उसके मरने के बाद शुभेंदु को अपना ले और अपना शेष जीवन खुशी से बिताए। बाद में जब संयोगवश शुभेंदु को इस बारे में पता चलता है तो रिंकी अपनी मनोव्यथा का हवाला देती है तथा कहती है कि उस समय उसे वह पढ़ना असहज लग रहा था। क्रिस की मौत के बाद सारे लोग उसे शुभेंदु से विवाह कर लेने की सलाह देते हैं। किंतु रिंकी मना कर देती है और कहती है कि वह यहीं अमेरिका में रहेगी,नौकरी ढूँढेगी और अपनी पढ़ाई (एमबीए की) पूरी करेगी। किंतु उसका इन कामों में मन नहीं लगता। वह शुभेंदु की अनुपस्थिति से बेचैन हो जाती है और जब शुभेंदु किसी काम से वापस न्यूयॉर्क आता है तो अंततः वह उससे विवाह के लिए हामी भर देती है। अंत में उन दोनों के विवाह से इस उपन्यास का सुखद अंत हो जाता है।

यह उपन्यास मूलतः एक प्रेम-कहानी पर आधारित है। जिसके एक छोर पर शुभेंदु है तो दूसरे छोर पर क्रीस और केंद्र में रिंकी है। पहले चरण में रिंकी के क्रीस से तो दूसरे चरण में रिंकी के शुभेंदु से जुड़े प्रसंगों का चित्रण है। अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता की हिमायती रिंकी भले ही एकल परिवार की समर्थक है और महत्वकांक्षी है। किंतु भारतीय परिवेश में रचा-बसा उसका मन अनुकूल परिवेश पाकर शुभेंदु की तरफ खींचता चलता जाता है। उसका सहज मन हरियाणा के एक साधारण से गाँव में रम जाता है जिससे अंत तक वह अलग नहीं हो पाती। असल में यह वह भारतीय संस्कार है जो उसे अपने परिवार से मिला है। विदेश में भी रहकर भारतीय संस्कृति को अंगीकार करना और उसमें निहित मानवीय मूल्यों प्रेम, सहृदयता कत्र्तव्य इत्यादि को महत्त्व देना; ये ऐसी चीजें हैं जो रिंकी को अपने परिवार से स्वाभाविक रूप से प्राप्त हुईं हैं। यही कारण है कि अपहरण के बाद जब उसे गाँव ले जाया जाता है तो वह सहजता से वहाँ के परिवेश से जुड़ती चली जाती है तथा ग्राम्य-संस्कृति, लोगों के आचरण, खान-पान और त्योहारों में वह रूचि लेने लगती है। एक पल के लिए तो जैसे वह क्रिस को भूल ही जाती है। शुभेंदु उसकी दिनचर्या का अभिन्न हिस्सा बन जाता है। लगता है उपन्यासकार ने केवल दिखाने मात्र के लिए उस दौरान क्रिस के प्रति रिंकी की हमदर्दी दिखायी है। अन्यथा सारा वक्त तो वह शुभेंदु को ही याद करती है। उसके साथ कश्मीर की यात्रा पर भी जाती है। शुभेंदु भी उसे मन ही मन पसंद करता है किंतु अपनी भावनाओं का इजहार नहीं कर पाता। कहना न होगा कि पाटनी जी का मन भी भारतीय परिवेश के रंग में पूरी तरह रंगा हुआ है। इसी का प्रभाव है कि विदेश में रहते हुए भी उन्होंने भारतीयता की अपनी पहचान तथा उससे अपने जुड़ाव को इस उपन्यास में उकेरा है। हालाँकि बातचीत के क्रम में अंग्रेजी भाषा के शब्दों जैसे, सैटल, अपसेट बिहेवियर, प्रेयर, प्लान, हिंट, हजबैंड, फ्रेश, डेथ, बॉयफ्रेंड, एप्लाई इत्यादि का प्रयोग ज्यादा देखने को मिलता है। किंतु शायद उनकी कोशिश अपनी भाषा को सहज बनाने की रही होगी। साथ ही यह पाश्चात्य प्रभाव के फलस्वरूप भी हुआ होगा। किंतु इससे उपन्यास की कथावस्तु प्रभावित नहीं होती।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि यह उपन्यास दो पीढ़ियों की सोच और उनके बीच के अंतद्र्वंद्व की सजीव अनुभूति है। यह उस परिवेश के तनाव को भी प्रतिबिंबित करता है जिसका एहसास अपनी जन्मभूमि छोड़ने के बाद होता है। व्यक्ति भले ही अपनी मिट्टी से जुड़ा हो जाता है किंतु उसके अवचेतन में पुरानी स्मृतियाँ सदैव मौजूद होती हैं जो बरबस उसे अपने वतन की याद दिलाती है और मौका पाते ही उस मिट्टी की खुशबू में घुल-मिल जाती हैं। रिंकी की कहानी भी एक ऐसे ही युवा की कहानी है। लेखिका ने बड़े मन से इसकी विषयवस्तु और इसके शिल्प को आकार दिया है। सटीक शीर्षक, सहज भाषा, जीवंत संवाद और जरूरी प्रसंगों के इर्द-गिर्द रची गई यह कहानी पठनीय है और प्रवासी साहित्य को एक नए नजरिए से देखने की नई दृष्टि भी देती है। 

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समीक्षा

समीक्षक: डॉ. गिरिराज शर्मा गुंजन

लेखक: डॉ. रमाकांत शर्मा


सफेद तितली (प्रेम कहानियां)

प्रकाशक: अद्विक पब्लिकेशन, 41 हसनपुरा, आइपी एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली-110092

सफेद तितली‘ मुंबई वाले डॉ. रमाकांत शर्मा, का छठा कहानी संग्रह है। उन्होंने अब तक कुल बयासी कहानियां लिखी हैं जो विभिन्न कहानी संग्रहों में संकलित हैं। उनमें शामिल प्रेम कहानियों को एक जिल्द में पाठकों के सम्मुख लाने के उद्देश्य से यह संकलन लाया गया है। इसमें हाल ही में लिखी कुछ ऐसी प्रेम कहानियां भी शामिल हैं, जो किसी संकलन में सम्मिलित नहीं हैं।

‘अपनी बात’ में लेखक ने प्रेम को एक ऐसी भावना के रूप में निरूपित किया है जो जीवन को जीवन देता है। प्रेम की कोई सीमा नहीं है। जब कोई सच्चा प्यार करता है तो उसमें इस कदर डूब जाता है कि उसकी थाह नहीं मिलती। प्रेम कैसे होता है, किससे होता है, कब होता है, क्यों होता है और उसका स्वरूप क्या होता है, यह कोई विश्वासपूर्वक नहीं कह सकता। एक अनजान रास्ता है, जिस पर चलने वाले की अनुभूतियां ही उसे प्रेम के रसायन से आप्लावित कर सकती हैं। यूं तो सभी संबंध प्यार की नींव पर टिके होते हैं, पर प्रेमी-प्रेमिका का प्यार उन्हें ऐसे अद्भुत संसार में ले जाता है, जिसे वे खोना नहीं चाहते। उनके प्यार में आकर्षण होता है, आसक्ति होती है और एक-दूसरे के लिए कुछ भी कर गुजरने की प्रेरणा-शक्ति भी।

प्रेम ने दुनिया को अनगिनत और बेहतरीन कहानियां दी हैं। “सफेद तितली‘‘ संग्रह भी ऐसी कुछ बेहतरीन कहानियों से सजा है जो प्यार के अलग-अलग रंग बिखेरती हमारे सामने आती हैं। प्रिय की प्राप्ति से ज्यादा प्रेम के अधूरेपन ने विश्व की महानतम प्रेम कहानियों को जन्म दिया है। “सफेद तितली” में संकलित डॉ. रमाकांत शर्मा की कहानियां भी इसका अपवाद नहीं हैं। इस संग्रह में कुल बीस कहानियां शामिल हैं और हर कहानी प्रेम के किसी ना किसी नए आयाम को उद्घाटित करती हैं। 

कहानी ‘सफेद तितली‘ अभिषेक की एक कार्यालय में  नियुक्ति से शुरू होती है। कहानी की नायिका अनीता एक चंचला युवती है और प्रथम दृष्टि में ही अभिषेक उससे प्रेम करने लग जाता है। अभिषेक का मित्र अनीता की वास्तविकता से परिचित है और वह उसे सचेत कर देता है। स्वयं अभिषेक ने भी देखा कि अनीता ने अपने मां-बाप की जिद रखने के लिए जिस आदमी से शादी कर ली थी, उससे हनीमून से लौटने के दो-तीन माह के भीतर ही अलग रहना शुरू कर दिया और आखिर में एक दिन उन दोनों के बीच तलाक की खबर भी मिल गई।

अनीता ने अपने एक पत्रकार मित्र रवि से दूसरी शादी कर ली जिसके बाद उसका व्यवहार पूरी तरह से बदल गया। पति के बीमार होने पर ऑफिस से छुट्टियां लेकर उसकी सेवा में लग जाती है। उसने अपने पति से सच्चा प्यार किया था। अब वह पहले वाली तितली नहीं रही थी। पति की मृत्यु के बाद विवाह नहीं किया और एक विधवा की तरह अपना शेष जीवन व्यतीत किया।

‘वह सच बोल रहा था‘ कहानी की मानवी ने शुभम से प्रेम विवाह किया था। एक शक के आधार पर वह शुभम से दूरी बना लेती है। उससे अलग रहने के दौरान जब वह मन की शांति के लिए मंदिर जाने लगती है और अनजाने में जवान और सुदर्शन कथा-वाचक के आकर्षण में खुद को डूबा पाती है तो उसे शुभम के सच बोलने का अहसास होता है और वह शुभम के पास लौट आती है। 

संकलन की तीसरी कहानी ‘खाली कोना‘ विधवा विवाह की समस्या पर आधारित है। सुमन बाल विधवा-है। रघुनाथ से प्रेम करती है। सुमन के माता-पिता रूढ़िवादी हैं और समाज के भय से विधवा विवाह के खिलाफ हैं। वे सुमन की जिद से परेशान होकर उसे मारकर फांसी पर लटका देते हैँ। उसे इस हालत में देखकर रघुनाथ पागल हो जाता है। सुमन का भाई रघुनाथ को भी तलवार से मारना चाहता है किन्तु उसके पिता ने आकर उसका हाथ पकड़ लिया, ‘‘ यह क्या कर रहा है तू? सुमन के बारे में सभी को बताया जा सकता है कि उसने विधवा-विवाह का पाप करने के बाद फांसी लगा ली, पर इसकी हत्या का कोई बचाव नहीं होगा हमारे पास। ××××× इसे गाड़ी में डाल कर उसी लाइब्रेरी के पास पटक आ।‘‘ विक्षिप्त हालत में रघुनाथ हमेशा एक मंदिर के बाहर बैठा मिलता है। 

‘‘मैसेज बॉक्स‘‘ कहानी में संजना और कहानी का नायक एक ही कार्यालय में कार्य करते हैं। संजना बहुत ही कम बात करती है किंतु मन ही मन नायक से प्रेम करती है। कहानी का नायक भी उसे चाहता है। नायक का ट्रांसफर अन्य शहर में हो जाता है। आठ वर्ष बाद संजना का मैसेज आता है। दोनों के बीच प्रतिदिन गुड मॉर्निंग मैसेज से बातचीत का सिलसिला चल निकलता है। मैसेजों के माध्यम से वे एक-दूसरे को समझने की कोशिश करते हैं। कहानी इस बात को रेखांकित करती है कि बंद किताब और लोग समझ में नहीं आते, उन्हें खोलकर पढ़ना पड़ता है। कहा भी गया है कि अगर आप किसी की परवाह करते हैं तो उसे बताएं अवश्य क्योंकि अनकही बातें अकसर अनसुनी रह जाती हैँ।

‘एक पत्र की मौत ‘ रवि और किरण की प्रेम कहानी है। लगभग पच्चीस साल पहले किरण ने हमेशा के लिए देश छोड़कर जाने से पहले जो प्रेमपत्र रवि को थमाया था उसे रवि ने अभी तक संदूक में संभाल कर रखा है। वह चाहकर भी उसे नष्ट नहीं कर पाया। कभी-कभी उसे निकाल कर देख लेता है और पुरानी यादें ताज़ा कर लेता है। कई साल बाद किरण उसे अप्रत्याशित रूप से एक पार्क में बैठी दिखाई देती है। वे दोनों ही एक-दूसरे को देखकर चैंक जाते हैं।

किरण बताती है कि न्यूजीलैंड में ही उसका विवाह उसके पिता के मित्र के लड़के से हो गया है, बेटा और पोते भी हैं और वह उनके साथ बहुत खुश है। उसे यह जान कर दुःख होता है कि रवि ने अभी तक शादी नहीं की। किरण का यह कहना कि, ‘‘वह पत्र लिखना अगर मेरी नादानी थी तो उसे अब तक संभाल कर रखना तुम्हारी नादानी है,‘‘ रवि को सोचने पर विवश कर देता है और वह उस पत्र को नष्ट कर देता है जिसे उसने इतने समय से संभालकर रखा था। इस कहानी का संदेश स्पष्ट है, प्रेम मनुष्य के जीवन की सच्चाई है, पर यह अंतिम लक्ष्य नहीं। प्रेम जीवन को रोकता नहीं क्योंकि जीवन का धर्म आगे बढ़ना है। यह कहानी पढ़ते समय हिंदी फिल्म ‘सरस्वती चंद्र‘ की याद ताजा हो जाती है जिसमें नायिका कहती है, ‘‘छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए, ये मुनासिब नहीं आदमी के लिए, प्यार से भी जरूरी कई काम हैं, प्यार सब कुछ नहीं जिंदगी के लिए।‘‘

‘जवाब‘ हायर सैकण्डरी स्कूल में सहपाठी रहे ऐसे युवक (दीपक उपाध्याय) और युवती (ज्योति गिडवानी) की कहानी है जो कई वर्ष बाद एक ट्रेन में सहयात्री के रूप में मिलते हैं। स्कूल के दिनों में ज्योति अधिकतर चुप रहना पसंद करती थी। स्कूल के लड़के मजनूं की तरह उसके पीछे पड़े रहते थे और वह किसी को घास नहीं डालती थी। वह दीपक को भी अच्छी लगती थी। शायद वह अकेला ऐसा लड़का था जिससे वह खुल कर बात कर लेती। ज्योति का परिवार भारत-पाक विभाजन की त्रासदी से गुजर चुका है। वह दो बार शादी कर चुकी है। दीपक को याद आता है कि ज्योति उस परिवार से संबंधित थी जो उनके ऑफिस में माल सप्लाई करता था और रिश्वत देने के बहाने उसके बॉस श्रीवास्तव साहब को ताश खेलने के लिए घर बुलाता था। ताश के खेल में ज्योति के पिता जान-बूझकर रुपये हारते थे। शराब भी परोसी जाती थी और श्रीवास्तव जी ज्योति को अपने पास बिठा कर उसके साथ अश्लील हरकतें भी करते थे जिसका ज्योति विरोध नहीं करती थी। दीपक इस सबका ‘जवाब‘ ज्योति से लेना चाहता है। ज्योति बंटवारे के दिनों में लाहौर की उस रात की यंत्रणा और बेइज्जती के सामने श्रीवास्तव जी की हरकतों को बहुत हल्का मानती है। परिवार की भूख, गरीबी और वितृष्णा से बचाव का उसके पास यही एक मात्र उपाय था। कहानी के अंत में अपने आंसू पौंछ कर ज्योति दीपक से कहती है - ‘‘ मिल गया ना तुम्हें जवाब?‘‘

‘‘मंदिर की सबसे ऊंची सीढ़ी‘‘ मीता और धीरज की प्रेम कहानी है। ये दोनों एक ही कंपनी में काम करते हैं किंतु अलग-अलग शहरों में। धीरज एक सेमिनार के सिलसिले में उस शहर में जाता है जहां मीता काम करती है। नए शहर में धीरज को कोई परेशानी न हो, इस बात का ख्याल रखने का जिम्मा कंपनी की ओर से मीता को सौंपा गया है। तीन दिन तक कंपनी के कार्य के पश्चात् साथ-साथ शहर में घूमने, होटल में भोजन करने और मीता के घर में उसके हाथ का बना खाना खाने के दौरान उनके बीच प्रेम का अंकुर फूट पड़ता है। 

मीता ने सुशांत नाम के एक व्यक्ति के साथ प्रेम-विवाह किया था किन्तु सुशांत के शक्की स्वभाव के कारण वे केवल छह महीने ही साथ रह सके। उनका तलाक हो गया था। धीरज और मीता का एक साथ समय गुजारने का प्रिय स्थान कृष्ण मंदिर की सबसे ऊंची सीढ़ी थी। सेमिनार के बाद धीरज अपने शहर लौट गया किंतु दोनों की फोन पर बात होती रहती थी। फिर, अचानक मीता की ओर से फोन आने बंद हो गए। वह ऑफिस से लंबी छुट्टी ले लेती है। तलाक के बाद भी वह अपने पूर्व पति सुशांत को भूल नहीं पाती है। वह इस बात को लेकर भी सशंकित रहती है कि तलाकशुदा के रूप में धीरज उसे पूरे मन से स्वीकार कर भी पाएगा या नहीं। धीरज मीता को खोजने उसके शहर में जाता है। शाम के झुटपुटे में मंदिर की उसी सबसे ऊंची सीढ़ी पर दोनों की मुलाकात होती है और दोनों एक साथ जीवन व्यतीत करने का निर्णय ले लेते हैं।

कहानी ‘ब्लैक आउट‘ नंदलाल और पुष्पा के प्रेम की अद्भुत कहानी है। पुष्पा को लिखी नंदलाल की चिट्ठी उसकी मां के हाथ में पड़ जाने से जो बवाल उठता है, उसने दोनों को एक-दूसरे से अलग रहने पर विवश कर दिया। युद्ध के समय शहर में ब्लैकआउट का फायदा उठाकर पुष्पा नंदलाल से मिलने आती है और उसकी बातें नंदलाल के मन में ऐसा अंधेरा बो जाती हैं जिसे सूरज की रोशनी भी नहीं हटा पाती।

‘बहूजी और वह बंद कमरा‘ कहानी में बहूजी के चरित्र के माध्यम से प्रेम और मर्यादा का तालमेल दर्शाया गया है तो ‘सजा‘ कहानी अपनी उस पत्नी को दी गई सजा से बेतरह चैंकाती है जो शादी की रात को ही अपने प्रेमी के साथ भाग गई थी। 

कहानी ‘सत्ताइस साल बाद‘ में अभिजीत को इतने लंबे समय बाद आया मधुरिमा का फोन उस अतीत में ले जाता है जिसे वह जतन करके भूला हुआ था। मधुरिमा के साथ जो कुछ घटा था, उसमें वह खुद को अपराधी समझता था और अपराध बोध से ग्रसित रहा करता था। लेकिन, सत्ताईस साल बाद मधुरिमा से बात करने के बाद उसका बेवजह का अपराध बोध तिरोहित हो गया। वह बहुत हल्का महसूस करने लगा। उसने मन ही मन सोच लिया कि वह अब दादी बन चुकी मधुरिमा से मिलने जरूर जाएगा।

‘1968 - ए लव स्टोरी‘ प्रेम की अतल गहराइयों से उपजी ऐसी कहानी है जिसमें प्रेम का भोलापन अपनी पूरी शिद्दत से उभर कर सामने आया है। प्रेम किससे और क्यों हो जाता है, यह ऐसा प्रश्न है जिसका जवाब नहीं मिलता। कहानी का अंत बहुत ही मार्मिक बन पड़ा है। सरिता के सम्मुख अपना प्रेम प्रकट न कर पाने की अपनी कमजोरी के प्रति कहानी के नायक को बहुत पश्चाताप होता है और वह हमेशा के लिए शहर छोड़कर जा चुकी सरिता के खाली कमरे में जाकर उस अखबार पर बैठकर बेआवाज रोता है, जिसे सरिता जाने से पहले बिछाकर बैठी हुई थी।

‘खुला पिंजरा‘ कहानी प्रेम के पागलपन की कहानी है। यह प्रेम के उफनती नदी के उस रूप को सामने लाती है जो अपने उतावलेपन में अच्छे-बुरे सबको समेटकर चलते हुए किनारों के बंध तोड़ देता है।

“उतरती धूप‘ प्यार में धोखा खाने वाली उस लड़की की कहानी है, जिसका विश्वास मर चुका है और वह अविवाहित रहकर जिंदगी जीने का संकल्प ले चुकी है। लेकिन, सर्दी से कांपती उसकी देह को जब मुंडेर से उतरती धूप यह अहसास कराती है कि जिंदगी की धूप भी इसी तरह उसके हाथों से धीरे-धीरे फिसल रही है तो वह निश्चय कर लेती है कि अपने हाथ से जिंदगी की धूप पूरी तरह सरक जाने से पहले मां के स्नेह और उसे जी-जान से प्यार करने वाले विकास के प्यार की गर्मी को अपनी मुट्ठी में बंद कर लेगी।

कहानी ‘कोई रास्ता है तुम्हारे पास,‘ मदन का पड़ोस में रहने वाली विवाहित आँटी के प्रेम-जाल में फँसकर रह जाने की कहानी है। यह कहानी उसकी जिंदगी को एक ऐसे मोड़ पर लाकर छोड़ देती है, जहां से उसे आगे कोई रास्ता नजर नहीं आता। 

‘‘गहरे तक गड़ा कुछ‘‘ कहानी प्रेम के उस रूप से परिचित कराती है जहां प्रेम हादसों का बयान बन जाता है। पाठक कहानी के साथ बहता चला जाता है और जब कहानीकार अमर के मुख से कहलवाता है -‘‘ ×××× आज सोचता हूँ, माँ एक औरत भी तो थी। उसकी जरूरतों और मजबूरियों को न तो समाज समझ रहा था और न ही मुझे समझने दे रहा था‘‘ तब पाठक की आत्मा उसे झकझोरने लगती है। वह इस तथ्य को स्वीकार करने लगता है कि जब असमय किसी ने अपने जीवन साथी को खो दिया हो तब उसे अकेलापन मिटाने और दुःख-दर्द बांटने के लिए किसी साथी और सहारे की जरूरत होती ही है। यह जरूरत उम्र के अंतिम पड़ाव में शिद्दत से उभरती है। मन की घुटन, घबराहट और मानसिक उलझन दूर करने के लिए उसे किसी का साथ मिलता है तो उसे अपराध क्यों माना जाना चाहिए।

“अमली” कहानी पढ़ते समय पाठक के सामने उस माहौल का स्पष्ट चित्र उभरने लगता है जिसका बयान कहानीकार द्वारा ‘अमली‘ को सशक्त एवं प्रभावशाली चरित्र प्रदान करने के लिए किया गया है। यह इस कहानी की जबरदस्त सफलता है। प्यार में एक औरत किस सीमा तक जा सकती है, इसे देखकर पाठक स्तंभित होकर रह जाता है। प्रेम का यह ऐसा रूप है जो अमली के मर्दाना शरीर के भीतर छुपे नारी हृदय को सामने ले आता है।  

‘असहमत‘ कहानी उस लड़की की कहानी है जो अपनी गुरु साध्वी के कहने पर शरीर को गंदा मानती है और विवाह को घृणित समझकर उससे जीवन भर दूर रहने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध है। लेकिन, ऐसा कुछ घटित हो जाता है कि विवाह के लिए उसकी असहमति सहमति में बदल जाती है। कहानी के नायक और नायिका के बीच के सशक्त संवाद बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देते हैं। एक बानगी देखिए - “कैसी बातें कर रही हो तुम? हमारा शरीर ही हमारी पहचान है, हम इसे खुद से अलग नहीं कर सकते। यदि यह शरीर ना हो तो हमारा अस्तित्व ही क्या रह जाएगा। यह सुंदर शरीर हमें ईश्वर ने बख्शा है। फिर जिस शरीर में हमारी आत्मा रहती है, वह गलत, गंदा या अश्लील कैसे हो सकता है?”

कहानी ‘हर सवाल का जवाब नहीं होता‘ मानव मन की अतल गहराइयों में उतरकर कुछ ऐसे प्रश्नों का जवाब खोजने लगती है, जिनके जवाब नहीं मिलते। कहानी की शुरूआत उदय और वंदना के वार्तालाप से होती है। वंदना नौवीं में पढ़ती है और उदय दसवीं में। दोनों मन ही मन एक दूसरे को पसंद करने लगे है। बारहवीं के बाद उदय इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए दूसरे शहर चला जाता है। काफी समय तक दूर रहने के कारण वंदना के मन में उदय के प्रति प्रेम की प्रगाढ़ता कम हो गई। इस बीच वह उदय के पिताजी की ओर आकर्षित होती है। उन्हें भी वंदना की समीपता अच्छी लगती है।

उदय जब गर्मियों की छुट्टियों में घर लौटा तो उसे घर का माहौल बहुत बदला-बदला सा लगा। एक दिन उदय की माँ उसे कहती है -‘‘ इनका मन मुझसे भर गया है और यह अब अपनी बेटी की उम्र की वंदना से इश्क लड़ा रहे हैं।‘‘ उदय को एकाएक इस बात पर विश्वास नहीं हुआ। वह वंदना के घर जाता है। जो वंदना कभी भागकर उसके पास आ जाती थी, छुपकर अपने कमरे में बैठी रही और बाहर नहीं निकली। वंदना के व्यवहार से यह साफ हो गया कि माँ ने जो कुछ बताया, वह गलत नहीं था और वंदना इसमें पूरी तरह शामिल थी।

उस माहौल से बाहर निकलने की दृष्टि से उदय के पिताजी ने एक दूसरे शहर में अपने एक घनिष्ठ मित्र के साथ साझेदारी में एस्टेट एजेंसी का काम शुरू कर दिया। वहाँ जाकर भी उदय को सब-कुछ सामान्य नहीं लगा। क्या हो गया था उसके हँसते-खेलते परिवार को!

इस बीच वंदना की शादी हो जाती है।×××× उदय का इंजीनियरिंग का कोर्स पूरा हो जाता है और हापुड़ की एक बड़ी कंपनी में उसे नौकरी मिल जाती है। उसकी शादी हो जाती है। वह बहुत खुश था और उसने सोच लिया था कि अब वह माँ-बाबूजी को अपने पास हापुड़ ले आएगा। पर, भगवान को कुछ और ही मंजूर था, माँ अचानक चल बसी।

काफी दिनों बाद किसी शादी समारोह में उदय और वंदना की मुलाकात होती है। उदय के मन में हमेशा से घुमड़ते कुछ सवालों के जवाब तो मिलते हैं, पर हर सवाल का तो जवाब नहीं होता। वह वंदना और उसके पति को अपने घर आमंत्रित करता है। वृद्ध कृशकाय बाबूजी और बुढ़ापे की दहलीज पर खड़ी वंदना की मुलाकात पाठक को भीतर तक भिगो देती है। 

कहानी दूध की धुली पाठक को शुरू से अंत तक बांधे रखती है। यह कहानी प्रेम के विश्वास और मर्यादा के निर्वाह की कहानी है।

“सफेद तितली” संग्रह की कहानियाँ काफी रोचक और उद्देश्यपूर्ण तो हैं ही, जीवन के सबसे जरूरी पहलू को जानने-समझने के लिए नई दृष्टि भी देती हैँ। लगता है, कहानियों के पात्र वास्तविक जीवन से उठाए गए हैं। कोई भी पात्र, कोई भी घटना बनावटी नहीं लगती। हरेक के जीवन में कभी ना कभी प्यार का अंकुर फूटता है। कहानियां पढ़ते समय पाठक के सामने अपने खुद के साथ या अपने किसी जानने वाले के साथ घटी घटनाएं चलचित्र की भांति उभरने लगती हैं और वह कहानी के साथ जुड़ाव महसूस करने लगता है। यह कहानीकार की बड़ी उपलब्धि है।

भाषा की दृष्टि से देखा जाए तो उसे अलंकारी होने से बचाया गया है। हिंदी से इतर शब्दों का भी बेहिचक प्रयोग किया गया है किन्तु कथा-प्रवाह में रुकावट महसूस नहीं होती। कहानियों में कहावतों-मुहावरों का भरपूर प्रयोग हुआ है। उनकी वजह से भाषा-सौंदर्य में वृद्धि ही हुई है।

कहते हैं कि हर लेखक अपने लेखन का प्रारंभ कविता से करता है। इसीलिए लेखक के भीतर बैठा कवि गद्य लेखन में भी यदा-कदा कविता करता प्रतीत होता है। यह बात आलोच्य कहानियों के लेखक पर भी सटीक बैठती है। कुछ उदाहरण देखिये - उस दुधिया रोशनी में उसका दूध का धुला चेहरा बादलों में घिरे चांद सा दिखाई दे रहा था, धूप की चिड़िया फुदक कर मुंडेर पर बैठ गई, यादों के बुझे दिये फिर से जल उठे, भावनाएं खुशबुओं की पतंगें बन कर पुष्पा तक पहुँचने लगी, कागज के कलेजे में भी दर्द पैदा कर रहे थे, गले तक उछलती दिल की धड़कने, इत्यादि।

प्यार के विभिन्न रंगों में डूबी इन कहानियों में पाठक को अपने साथ बहा ले जाने की अद्भुत ताकत है। इसके लिए लेखक और प्रकाशक को दिल से ढेर सारी बधाइयां।  -उदयपुर, राजस्थान, मो. 9983947830

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समीक्षा

डाॅ. रमेश गुप्त मिलन

सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध

पुस्तक - सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध

लेखिका - वीनु जमुआर

समीक्षक - डाॅ रमेश गुप्त मिलन

प्रकाशक - इन्द्रप्रस्थ प्रकाशन, के -71, कृष्णा नगर , दिल्ली-51

संस्करण- 2021, मूल्य रु. 495/-

वरिष्ठ लेखिका वीनु जमुआर की महात्मा बुद्ध के जीवन तथा बौद्ध धर्म के विविध बिंदुओं के समायोजन के साथ संपूर्ण यशोगाथा के सांगोपांग विवेचन की यह शोधपूर्ण कृति है।

मानवता के सिंहासन पर दानवता का आधिपत्य हो जाने पर धर्मप्राण, सम्यक् धर्म एवं धर्मात्माओं की सुरक्षा के लिए उसी समय प्रकृति एक ऐसे युग-दृष्टा-सृष्टा को जन्म देती है, जो मानव जगत के प्राणियों के हृदयों में अहिंसा, सत्य का आध्यात्मिक प्रकाश करते हुए संसार का कल्याण करता है। प्रकृति का यह नियम कभी भंग नहीं होता अपितु यह अनादिकालीन चक्र अनवरत रूप से गतिमान रहता है।

भागवत के अनुसार अवतारों की संख्या की गणना संभव नही है, किंतु पुराणों में चैबीस की संख्या दी गई है। जिनमें से दस अवतार प्रमुख माने जाते हैं। दसवां कल्कि अवतार अभी होना शेष है। इस कृति के आधार पर प्रमुख प्रसंग है- नौवें अवतार माने जाने वाले युग प्रवर्तक भगवान महात्मा बुद्ध का । यह अवतार वर्ण-व्यवस्था के नाम पर हो रहे भेदभाव को दूर करने के लिए कपिलवस्तु के राजा शुद्धोधन के घर में गौतम बुद्ध के रूप में अवतरित हुआ।

बुद्ध ने देवों का प्रमाण नहीं स्वीकारा तथा वर्ण- व्यवस्था को बुरी तरह तोड़ दिया। बुद्ध ने वर्ण-व्यवस्था के साथ-साथ आश्रम व्यवस्था को समाप्त कर ‘‘मनुष्य‘‘ को प्राथमिकता दी। गौतम बुद्ध ने नवयुवकों को,यहां तक कि बच्चों को भी संन्यास दे दिया। उनका कथन है कि अगर किसी व्यक्ति को युवावस्था में ही ईश्वर, सत्य, जीवन के यथार्थ की खोज करने की प्रबल आकांक्षा जागृत हुई है तो वानप्रस्थ तक रुकने की आवश्यकता नहीं है।

बुद्ध के धर्म की पकड़ मानवीय है, मनुष्य मूल्यवान एंव सर्वोपरि है।

बुद्ध ने मनुष्य के विचार को ‘आत्म‘ मानते हुए किसी अतिरिक्त स्वतंत्र आत्मा की उपस्थिति को स्वीकार नहीं किया।

कहा जा सकता है कि उन्होंने मानस को नहीं, आत्मा के अस्तित्व को नकारा है। बुद्ध मृत्यु के भय से छुटकारा दिला कर निर्वाण को एक आदर्श स्थिति मानते हुए सत्य की स्थापना करना चाहते थे।

जीवन से घृणा और तृष्णा को त्याग कर सत्य का अनुपालन करते हुए निर्वाण प्राप्ति बुद्ध का प्राण तत्व है। उन्होनें आत्म-विवेक जागृति के लिए अष्टांग सम्यक मार्ग को रेखांकित किया। सम्यक मार्ग यानि मध्यम मार्ग। मध्यम मार्ग सहज, सरल एवं समाजोपयोगी है।

समाज से प्रताड़ित, बहिष्कृत, अवहेलित और अस्पृश्य जाने वाले वर्ग को अपने साथ जोड़ने और धार्मिक असहिष्णुता से बचाने में गौतम बुद्ध के सिद्धांतों को प्रबुद्ध लेखिका वीनु जमुआर आज भी समीचीन एवं प्रासंगिक मानती हैं। वरिष्ठ लेखिका ने इस कृति में बुद्ध का अवतरण, वैराग्य, महाभिनिष्क्रमण, बुद्ध की तपस्या, निर्वाण प्राप्ति, अष्टांग मार्ग, महापरिनिर्वाण, बुद्ध विचार, महाबोधि विहार,जातक-नीति कथाएँ, बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार आदि का विस्तृत विवेचन 43 अध्यायों में किया है।

लेखिका की भाषा शैली सरल -सरस तो है ही,काव्यात्मकता के रस में पगी है जो जीवन और निर्वाण के महालोक में विचरण कराते हुए पाठकों के ज्ञानवर्धन में भी अभिवृद्धि करेगी।

पर्यटन प्रिय लेखिका ने देश-विदेश में स्थित बौद्ध-विहारों-मठों का निकटता से दर्शन-अवलोकन, आत्मसात कर अद्भुत कृति का सृजन किया है। शोध एवं प्रामाणिकता से परिपूर्ण यह कृति साहित्य श्रृंखला के उच्च मानदंडों के शिखर पर स्थापित होने में पूर्णतया सक्षम है।

अंत में यह कहना सर्वथा उपयुक्त होगा कि लेखिका वीनु जमुआर जी की यह कृति महाबोधि के ऐतिहासिक वृक्ष की शीतल छाया में पाठक को समाधिस्थ एवं बुद्धत्व प्राप्ति के आनंदलोक में विचरण करायेगी और पाठक पुकार उठेगा- ‘बुद्धं शरणं गच्छामि '

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रिपोर्ट

‘जाणीव में सम्पन्न हुई हिंआंप की पावस गोष्ठी’

प्रसिद्ध साहित्यिक संस्था हिंदी आंदोलन परिवार की पावस गोष्ठी पुणे के फुलगाँव स्थित जाणीव-ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स में सम्पन्न हुई। यह हिंआप की 276वीं मासिक गोष्ठी थी।

उल्लेखनीय है कि संस्था की यह पावस गोष्ठी प्रतिवर्ष जाणीव-ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स आयोजित करता है। जाणीव हरियाली से घिरा छोटे-छोटे कॉटेजनुमा कमरों वाला वृद्धाश्रम है।

जाणीव की वरिष्ठ ट्रस्टी श्रीमती वीनु जमुआर ने आयोजन में उपस्थित जनो और सहयोगियों का उल्लेख करते हुए कहा कि आश्रम पावस गोष्ठी की प्रतिवर्ष आतुरता से प्रतीक्षा करता है।

इस वर्ष की गोष्ठी विशेष रही क्योंकि इस अवसर पर प्रबुद्ध लेखिका श्रीमती ऋता सिंह की दो पुस्तकों ‘अनुभूतियाँ‘ और ‘स्मृतियों की गलियों से‘ का विमोचन भी हुआ।

गोष्ठी की अध्यक्षता हिंदुस्तानी प्रचार सभा, (मुंबई ) के निदेशक श्री संजीव निगम ने की। अपने संबोधन में उन्होंने कहा कि लेखन के लिए कच्चा माल समाज से मिलता है। लिखनेवाला समाज का अवलोकन करेगा तो लेखन में विविधता आएगी, परिपक्वता आएगी। अवलोकन के साथ ही पढ़ना भी बेहद जरूरी है। पढ़ने से विचारों में नवीनता आती है और विचार परिष्कृत होते हैं। ऋता सिंह का लेखन सरल है, बनावटीपन से दूर है। यही कारण है कि पाठक पाँचवी पढ़ा हुआ हो या पीएचडी किया हुआ, इसे रुचि से पढ़ेगा।

हिंदी आंदोलन परिवार के अध्यक्ष श्री संजय भारद्वाज ने पुस्तकों की विवेचना करते हुए अपने वक्तव्य में संस्मरण को सम्यक स्मरण बताया। स्मृति के आधार पर घटना, व्यक्ति, वस्तु का वर्णन संस्मरण कहलाता है। स्मृति, अतीत के कालखंड विशेष का आँखों देखा हाल होती है। घटना, व्यक्ति, वस्तु के साक्षात्कार के बिना आँखों देखा हाल संभव नहीं है। उन्होंने चित्रोपमता, प्रामाणिकता, कथात्मकता, आत्मीय संबंध आदि की कसौटी पर इन संस्मरणों को खरा उतरने वाला निरूपित किया। साथ ही कहा कि ये सारे संस्मरण मुक्तोत्तरी प्रश्नों की भाँति हैं जो किसी प्रकार का वैचारिक अधिष्ठान पाठकों पर नहीं थोपते।

लेखिका ऋता सिंह ने अपनी लेखकीय यात्रा में हिंदी आंदोलन परिवार के प्रति विशेष कृतज्ञता व्यक्त की। अपने पति और परिजनों का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि परिवार के सहयोग के बिना यह यात्रा संभव नहीं थी।

लेखिका की मित्र श्रीमती थंगमणि थंपी ने बताया कि वे ऋता जी के साहित्य की पहली श्रोता होती हैं।

प्रकाशिका श्रीमती सुधा भारद्वाज ने लेखिका के यात्रा वृत्तांतों को बेहद रोचक बताया। दोनों पुस्तकें क्षितिज प्रकाशन द्वारा प्रकाशित की गई हैं।

उल्लेखनीय है कि विगत 27 वर्षों से हिंदी आंदोलन परिवार ने अहिंदी क्षेत्र में बहुभाषी मासिक गोष्ठियों की अविराम परंपरा चला रखी है। इस गोष्ठी के लिए छत्तीसगढ़ की लोकप्रिय कवयित्री एवं लोकगायिका शकुंतला शेंडे ने छत्तीसगढ़ी में वर्षा ऋतु पर अपनी विशेष लोकगीत गा कर भेजा था।

वेरा सिन्हा ने फ्रेंच रचना और उसका अनुवाद प्रस्तुत किया।

विमोचन और गोष्ठी में उपस्थित प्रमुख जनो में सुश्री/सर्वश्री डॉ. रमेश मिलन, माया मीरपुरी, अमिता शाह, कल्पना रायसोनी, सुरेंद्र जमुआर, बलबीर सिंह, विनीता सिन्हा, रश्मि वर्मा, प्रदीप वर्मा, सुशील तिवारी, अरविंद तिवारी, रेखा सिंह, राकेश त्रिपाठी, अवनीश कुमार, श्यामलता गुप्ता, ऋतिका कुमार, मीरा गिडवानी, नीलम छाबरिया, अमृता रुकारी, रोहितेश गिडवानी आदि सम्मिलित थे।

गोष्ठी का संचालन श्री संजय भारद्वाज ने किया जबकि विमोचन समारोह का संचालन डॉ. लतिका जाधव ने किया। आभार प्रदर्शन सुश्री प्रीति सिंह ने किया।

(क्षितिज ब्यूरो की रिपोर्ट), 

पुणे, मो. 9029784346. पूणे, मो. 9820091251

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प्रेस विज्ञप्ति

प्रो. फूलचंद मानव

अनुवाद साहित्य को जन जन तक पहुंचाता हैः राज्यपाल पुरोहित

अमृता प्रीतम की अनुवादित पुस्तक द नाइंथ फ्लावर बेस्ट ऑफ अमृता प्रीतम का विमोचन

चंडीगढ़ः चंडीगढ़ के सेक्टर 27 प्रेस क्लब के सभागार में पंजाब के राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित ने अमृता प्रीतम की अनुवादित पुस्तक द नाइंथ फ्लावर बेस्ट ऑफ अमृता प्रीतम का विमोचन किया। इसमें  अंग्रेजी की लेखिका सुश्री ज्योति सभरवाल ने लघु उपन्यास, कविताएं, कहानियों की बानगी को संकलित किया है। इसका आयोजन साहित्य संगम ट्राइसिटी एवं स्टैलर पब्लिशर्स ने मिलकर किया। राज्यपाल ने पुस्तक के लिए अनुवादक को बधाई दी। इस अवसर पर उन्होंने कहा कि पुस्तकें पढ़ने का शौक बढ़ाने के लिए ऐसे आयोजन महत्वपूर्ण हैं। मुंशी प्रेमचंद, मैथिली शरण गुप्त, सुमित्रा नंदन पंत और हरिबंश राय बच्चन की रचनाओं का उद्धरण देते हुए कहा कि अमृता प्रीतम के लोकप्रिय साहित्य को जन जन तक पहुंचाने में यह किताब सहायक सिद्ध होगी। उन्होंने इस अवसर पर ज्योति सभरवाल के काम को शतप्रतिशत सराहते हुए स्टैंडिंग ओविएशन देकर सम्मानित किया।

उन्होंने कहा शिक्षक दिवस के मौके पर किसी किताब का विमोचन होना बड़ी बात है। किताब अमृता प्रीतम पर हो तो बात और भी बड़ी है क्योंकि उनका जीवन तो वैसे ही कई लोगों के लिए प्रेरणादायक है। आज भी ऐसा कोई नहीं जिनको हम उनके साथ तोलकर देख सकें। यह बात विमोचन के मौके पर पंजाब के राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित ने कही। इस दौरान वे यहां बतौर मुख्य अतिथि के तौर पर पहुंचे। पैनालिस्ट साहित्य संगम ट्राइसिटी के अध्यक्ष फूलचंद मानव, साहित्य अकादमी के एडवाइजरी बोर्ड के सदस्य और अनुवादक डॉ. गौरी शंकर रैना और लेखक जुपिंदरजीत सिंह मौजूद रहे। अमृता प्रीतम को लेकर राज्यपाल ने कहा मैं अपने कालेज के दिनों में अमृता प्रीतम का  फैन रहा। उनकी किताबें, कविताएं मैं आज भी पढ़ता हूं। वहीं किताब को लेकर अनुवादक पब्लिशर्स ज्योति सभरवाल ने बताया कि साहित्य कभी भी अनुवादित नहीं होता बल्कि उसके भावों को समझकर किसी दूसरी भाषा में शब्दों को पिरोना होता है। जब 2005 में अमृता प्रीतम नहीं रहीं तो मैंने उनकी सारी किताबें संभालकर रख ली। उन्होंने मुझे अपनी बहुत सी किताबें दी थीं। लॉकडाउन के दौरान जब दो साल का समय मिला तो मैंने तय किया कि उन्हीं किताबों को फिर से पढ़कर दूसरी भाषा में भी लोगों तक पहुंचाई जाए।

इस मौके पर प्रो. फूलचंद मानव ने ‘घर रहेंगे, हम ही उनमें रह न पाएंगे से अपनी बात की शुरूआत की। उन्होंने कहा जो साहित्य से जुड़ा हो वह अनुवाद नहीं, बल्कि शब्दों की आत्मा को पकड़ता है। यही काम इस किताब में देखा गया है। अमृता प्रीतम लोकप्रिय साहित्यकार के साथ साथ सच्ची साहित्यकार भी रहीं। उसी साहित्य को एक दफा फिर से जो इस लेखक ने भावों को पकड़कर लिखा है, बहुत महत्वपूर्ण है। अनुवाद एक कठिन प्रक्रिया है, और लेखिका ने इसका अनुवाद ईमानदारी के साथ किया है। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि हमारे लिए अनुवाद के महत्व को समझना जरूरी है, क्योंकि अनुवाद द्वारा कृतियां दूर दूर तक विभिन्न भाषाओं में जाती हैं।

डाॅ. गौरी शंकर रैना ने कहा भारतीय साहित्य के लिए यह किताब बहुत महत्वपूर्ण है। इसमें ट्रांसक्रिएट करते हुए नए विषय की जमीन तैयार की गई है। केवल वाक्यों और शब्दों का नहीं बल्कि इसमें भावों का अनुवाद है। यह जो क्रम रहा, बखूबी किया गया। किसी की कहानी को फिर से दोबारा लिखना बेहद कठिन कार्य है। दूसरा यह भी है कि एक की भाषा के मुहावरे को दूसरे में अनुवाद करने के लिए दोनों भाषाओं की जानकारी हो तो भी चुनौती पूर्ण रहता है।

इस अवसर पर ज्योति सभरवाल ने अमृता प्रीतम के साथ उनके संबंधों और जीवंत क्षणों को याद किया, जो उन्होंने पंजाबी की बेटी के साथ बिताए थे। उस दौरान इस कृति का अभिर्भाव हुआ जब अमृता प्रीतम ने अनुवाद के लिए अपनी कुछ कृतियों को चुनकर ज्योति सभरवाल को प्रकाशनाधिकार सौंप दिए। उनका साहित्य अंग्रेजी जानने वालों तक भी पहुंच रहा है। ज्योति सभरवाल ने पुस्तक के कुछ अंश सुनाए। प्रो. योगेश्वर कौर की लगनशीलता, सुरेंद्र सिंगला की बेबाक शायरी को सभी ने सराहा गया। प्रवीण सुधाकर, लेखिका नीना दीप का योगदान सराहनीय रहा। उन्होंने सभी आगन्तुकों का धन्यवाद करते हुए समारोह संपन्न करवाया।  

-जीरकपुर (समीप चंडीगढ़), मो. 9646879890, 9316001549

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श्रद्धांजलि

साहित्य समाज ने खोया एक मौन साधक

पूरे देश में बसंत की लहर चल रही थी। सरस्वती देवी के आगे नतमस्तक होते हुए विद्यार्थी अपनी पढ़ाई-लिखाई में सफलता की प्रार्थना कर रहे थे।  साहित्यकार बसंती रचनाओं से अपनी डायरियों के पन्ने रंग रहे थे।  ऐसे में एक साहित्यकार अपने बिस्तर पर अनचाहा आराम फरमा रहा था।  कभी-कभी बरसात हो जाने से वह काँप सा जाता और सूरज के बादलों से बाहर आने पर धूप का आनंद भी प्राप्त कर लेता था।  भविष्य से अनजान चिकित्सक और पारिवारिक सदस्यों के कहने पर दवाई पूरी ईमानदारी से और बिना किसी शोर शराबे के लेते हुए कभी-कभी पुरानी यादों में खो जाता था। जब कोई उसे पुकारता तो वह सुनने वाली मशीन कान में लगी है या नहीं, यह देखने का प्रयास करता था। हरदर्शन सहगल नाम का यह इनसान 10 फरवरी 2022 की शाम अपने निवास स्थान ‘संवाद’ पर सामान्य लेकिन जरूरी भोजन और दवाइयों की खुराक लेकर चुपचाप इस दुनिया से कूच कर गया। ऐसा लगा कि शायद कुछ पलों पश्चात यह प्राणी अचानक उठकर कहेगा, ‘मुझे ठंड सी लग रही है, रजाई ओढ़ा दो।’  लेकिन उसके प्राण पखेरू उड़ चुके थे और वह अब कभी वापस न आने के लिए दूसरी दुनिया में चला गया था। 

हरदर्शन सहगल का जन्म 26 फरवरी 1935 को कुंदियाँ, जिला मियांवली, पाकिस्तान में हुआ था।  अपनी रेलवे की नौकरी से संतुष्ट बीकानेर स्थानांतरित होकर आने पर यह शहर उन्हें भा गया और उन्होंने इसी शहर में रहना ठीक समझा।  बचपन में दस-ग्यारह वर्ष की उम्र में अपनी जन्मभूमि, अपनी मिट्टी, अपना घर, अपनी गलियाँ, अपना खेल का मैदान, अपना स्कूल, अपना शहर छोड़कर आना उन पर एक वज्रपात था।  इन्हीं यादों के सहारे अपने जीवन के प्रत्येक कैनवास पर उन्होंने अपनी इच्छा से रंग भरे और उसे फ्रेम किया।  एक शब्द, एक वाक्य, एक पैराग्राफ और फिर एक लघुकथा, कहानी, उपन्यास लिखते चले गए।  पुरानी यादों को समेटते हुए आत्मकथा भी लिखी।  निष्ठुर और अत्याचारी समाज की बुराइयों को व्यंग्य से ललकारा। पारिवारिक जिम्मेदारियों को संभालते हुए अपने सामने अनगिनत पुस्तकों और पत्रिकाओं का ढ़ेर पाया तो बस पढ़ते चले गए और नया रचते चले गए।  मित्रों के बीच और समाज के बीच चुपचाप छा जाने का उनके पास कोई हुनर नहीं था, उनके पास कोई दंद-फंद नहीं था  फिर भी उनके मित्रों की सूची बहुत लंबी है जिसमें से बहुत से मित्र उनके सामने ही इस दुनिया से चले गए थे। 

हरदर्शन सहगल के साहित्य की जो खूबी थी उसके बारे में संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि जहां किसी से मुलाकात हुई, जहां किसी से छोटी या लंबी बात हुई, जहां साहित्यिक चर्चा हुई, पुस्तक विमोचन हुआ, गोष्ठी हुई, पुस्तक मेले लगे, सभी जगहों पर उन्होंने अपनी रचनाओं का उद्गम पहचान कर, अपनी संवेदनाओं और भावनाओं को शब्दों में उड़ेला और रचना को आकार दे डाला। उनके द्वारा रचे गए साहित्य की सूची भी लंबी है।  जीवन में साथ निभाने वाले साहित्यकारों, परिवार और रिश्तेदारों, दूसरे दोस्तों, मोहल्ले के निवासियों ने उन्हें अपने-अपने तरीके से श्रद्धांजलि अर्पित की।  

हरदर्शन सहगल के आकस्मिक निधन पर राजस्थान प्रदेश के माननीय मुख्यमंत्री श्री अशोक गहलोत, लोकसभा के माननीय अध्यक्ष श्री ओम बिरला, भारत सरकार के माननीय संसद कार्य और संस्कृति राज्य मंत्री श्री अर्जुन राम मेघवाल ने अपने संदेश में परिवार के प्रति संवेदनाएं प्रकट करते हुए दिवंगत आत्मा को अपने चरणों में शरण देने की प्रार्थना परमपिता परमात्मा से की।  बीकानेर की अनेक संस्थाओं और गणमान्य नागरिक उनके निधन पर शोकमग्न हो गए।    

हरदर्शन सहगल के निधन पर भगवान अटलानी, प्रताप सहगल, मुरलीधर वैष्णव, नंद भारद्वाज, दुर्गा प्रसाद अग्रवाल, लक्ष्मीशंकर वाजपेयी, सुकेश साहनी, सीमा अनिल सहगल, गंभीर सिंह पालनी, जय प्रकाश मानस, गिरीश पंकज, प्रेम जनमेजय, अरविंद तिवारी, सुरेश कांत, पंकज त्रिवेदी, सुभाष चंदर, कैलाश मनहर, फारुक अफरीदी, कमलेश भारतीय, पूरन सरमा, रत्न कुमार सांभरिया, कृष्ण कुमार रत्तू, मनहर चव्हाण, संतोष खन्ना, रणी राम गढ़वाली, नीलिमा टिक्कू, ममता वाजपेयी, जैनेन्द्र कुमार झांब, कुँवर प्रदीप सिंह, सैली बलजीत, राजीव श्रीवास्तव, रत्न श्रीवास्तव, सुधीर सक्सेना सुधि, इंदुशेखर तत्पुरुष, सुदर्शन पाण्डेय, सुधा तैलंग, श्याम सिंह राजपुरोहित, अमरीक सिंह खनूजा, अश्विनी कुमार, हीरालाल नागर, आशा पाण्डेय ओझा, चंद्रकांता और बीकानेर के मनोहर लाल चावला, मदन केवलिया, सरल विशारद, राम कुमार घोटड़, दीपचंद सांखला, बुलाकी शर्मा, राजेंद्र पी. जोशी, अजय जोशी, पंकज गोस्वामी, महेंद्र मोदी, राजेश कुमार व्यास, बृज रतन जोशी, राजाराम स्वर्णकार, राजेंद्र स्वर्णकार, आभा शंकरन, नीरज दइया, नवनीत पाण्डे, मंदाकिनी जोशी, प्रकाश खत्री, नासिर अली जैदी, अशफाक कादरी, प्रमिला गंगल, अब्दुल सत्तार कमल, सुधीर केवलिया, नदीम अहमद नदीम, शरद केवलिया, दयानंद शर्मा, संगीता शर्मा, मुक्ता तैलंग, धर्म प्रकाश शर्मा जैसे अनेक साहित्यकारों और पत्रकारों ने अपने-अपने शब्दों में श्रद्धांजलि प्रकट की।

मरुनगरी बीकानेर के दिग्गज और विचारशील साहित्यकारों की जमात में शामिल हरदर्शन सहगल आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन साहित्य क्षेत्र में उनके योगदान को लेखकीय समाज और उनका विशाल पाठक वर्ग अपने हृदय और मस्तिष्क में हमेशा याद रखेगा।

स्वर्गीय हरदर्शन सहगल को विनम्र श्रद्धांजलि और शत-शत नमन। 

मुकेश पोपली, पवनपुरी, बीकानेर-334003, मोः 7073888126

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