अभिनव इमरोज़ अक्टूबर 2022






 कविताएँ

अमरावती, महाराष्ट, मो. 09422917252, Email : ashapandey286@gmail.com


चाबी 

तब होता था 

हमारे घर में एक ही बक्सा 

एक ही ताला 

एक ही चाबी 

घर से कहीं जाने पर सबके 

निकाल लिया जाता था बक्से से ताला 

बंद कर दिया जाता था 

घर के किवाड़ में

हम आश्वस्त रहते थे 

घर की सुरक्षा के प्रति

एक ही ताले में थी वह शक्ति 

कि गायब नहीं होता था कुछ भी


अब हैं हमारे घर में कई बक्से 

कई आलमारियां 

कई किवाड़ 

कई-कई ताले 

और चाबियाँ भी हैं 

हमारे पास कई-कई

हम चटकाते हैं सब बक्सों 

और सब कमरों में ताले 

चाबियाँ रखते हैं संभाल के 

पर न जाने कैसे 

सेंध पड़ गई है 

हमारे घर में 

लूट लिया गया है प्रेम 

जो मुख्य दौलत थी हमारे घर की


अब प्रेम के लुट जाने के बाद 

बचा ही क्या है हमारे घर में 

जो चाबियों को 

रखा जाये संभाल कर।                                  


मैं एक नदी 


मैं एक नदी 

तटों - बांधों का नियंत्रण सहती 

दुःख को समेटती 

सुख को बिखेरती सींचती, उगाती 

अनवरत श्रमरत हूँ 

मुझे डुबोने का प्रयास सतत जारी है 

किंतु मैं स्थिर हूँ

आता है उफान अंतस में मेरे भी 

किंतु संयम रख लेती हूँ 

ताकि कल-कल की स्वर-लहरी का 

संगीत फूटता रहे 

पथिक ले सकें विश्राम मेरे आंचल में

फूटती रहें असंख्य प्रेम-धाराएं 

जो हरा- भरा कर दें 

सूखे बंजर हृदय को

युगों-युगों से 

पाला गया ये भ्रम 

कि रोक देंगे मेरी निर्बाध गति को 

पोसती रही मैं खुश होकर 

क्रोध में उफन पडूं 

और डुबो दूँ ब्रह्मांड 

ये शक्ति है मुझमें 

किंतु सृष्टि चलती रहे 

और सभ्यताएँ फैलती रहें 

इसलिए मैं स्वयं ही डूबती हूँ 

और डूबती ही जा रही हूँ 

स्वयं की अथाह गहराई में।


कुछ छूट तो नहीं रहा 


घर से निकलते समय 

तुमने पूछा था 

कुछ छूट तो नहीं रहा है तुम्हारा 

देख लेना अलगनी 

बाथरूम 

आलमारी ठीक से 

आदत है तुम्हारी 

सामान को फैलाकर रख देने की 

मैं दौड़ी थी अलगनी की ओर 

और उतार लाई थी 

अपना गीला तौलिया 

आश्वस्त हुई थी खुद भी 

और तुम्हें भी किया था आश्वस्त 

कि सब कुछ रख लिया है मैंने 

अपने बैग में 

पर माँ, जानती तो तुम भी थी 

और मैं भी कि 

छूट जाता है बहुत कुछ तुम्हारे पास

तुम्हारे बिस्तर पर छोड़ आती हूँ 

चैन की नींद 

बगीचे में अल्हड़पन 

आँगन में छोड़ आती हूँ खिलखिलाती हंसी 

और कमरे में बेपरवाही 

सब कुछ माँ, सब कुछ 

मैं स्वयं छूट जाती हूँ यहीं तुम्हारे पास 

पूरी की पूरी माँ। 


फिर भी मगर                      

                                                             

मैं उमग कर चली रात-दिन भूलकर,

            पथ सारे मगर मुझको झुलसा दिये।

मैंने चाहा परिश्रम करूं नित्य ही,

          और पा लूँ सुखद तृप्ति को राह में।

शूल को मैं हटाऊं बुहारूं डगर,

          फूल पाऊं चली इस सुखद चाह में।

पर नियति ने बिछाए हुए शूल थे,

          जो कदम-दर-कदम खूब सरका दिए।

मैं उमग कर चली रात-दिन भूलकर,

          पथ सारे मगर मुझको झुलसा दिये।

कष्ट को भूलकर फिर बढ़ाया कदम,

        प्रेम की गीतिका को सजाती रहीं

जो विरोधों के सुर आ मिले थे गले,

            नेह का सुर मिला गीत गाती रहीं

किंतु मिलते रहे कंटकों से कदम,

            दर्द दामन में मेरे बिखरा दिए।

मैं उमग कर चली रात-दिन भूलकर,

  पथ सारे मगर मुझको झुलसा दिये।

मैं जलाती रही अर्चना का दीया,

  फल मिले प्रेम का चाह इतनी रही।

घर नहाता रहा रोशनी में सदा,

            पर अँधेरा दिलों का गया न कहीं।

ठोकरों की पड़ी मार फिर भी मगर,

            ओठ थोड़े खुले और मुसका दिये।

मैं उमग कर चली रात-दिन भूलकर,

            पथ सारे मगर मुझको झुलसा दिये।

-अमरावती, महाराष्ट, मो. 09422917252


हाइकु 

जीवन

1. सपने में था 

  सुख का सरोवर 

  जागी उजाड़।

2. जीवन नदी 

  उमड़ी हर बार 

  बांधो से घिरी।

3. जलती आग 

  पेट से दिल तक 

  चूल्हा उदास।

4. आम आदमी 

  देखता है सपने  

  खाने में दाल।

5. मधु-सी मीठी 

  उतरी दिल तक 

  वाणी सरस।

6. झरना बहे 

  पहाड़ लांघकर 

  जीने की चाह !

7. जलती बाती 

  दे रही है रोशनी 

  खुद को मार !

8. पानी की बूंद 

  मिटाकर खुद को 

  बनती मोती।

9. भूखा बालक 

  देख रहा चन्द्रमा 

  रोटी की चाह।

10. बूढ़े नयन 

    खोजते अपनों को 

    भरे घर में। 

11. जुटे बादल 

    दिल में घनघोर 

    बरसी आँखें।

12. सूनी दीवार 

    तस्वीरों से सजाई 

    मन का क्या हो !

13.. चलते वक्त 

    समेटी हर वस्तु

    दिल को छोड़।

14. प्रेम की भाषा 

    पेशेवर शिकारी 

    बोलते खूब।

माहिया 

1. हे ईश विनय सुन लो 

  कौन सिवा तेरे 

  अब चरणों में ले लो।

2. गंगा की छवि न्यारी

  दिये तैरते हैं 

  आरती लगे प्यारी।

3. जीवन का खेल यही 

  दिन-दिन भटक रहा 

  थोड़ा- भी चैन नहीं। 

4. भर-भर आती आँखें 

  उड़ना ही होगा 

  छूटेगी ये शाखें।

5. बोली में कडुवाहट 

  वार करे दिल पर 

  होती है अकुलाहट।

6. अब हुआ अकेला मन 

  तड़प रहा दिन-दिन 

  बोली से घायल तन।

7. पीपल की छाँव घनी 

  माँ के आंचल-सी 

  यादों की राह बनी।

8. सखियों का मधुर मिलन 

  होते पनघट पर 

  गीतों के नये सृजन।

9. श्रद्धा से नमन किया 

  तुलसी चैरा पर 

  जलता है एक दिया।

10. तारों का क्या कहना 

    झिलमिल चमक रहे 

    बन रजनी का गहना।

11. बादल टोली आई 

    गागर भर-भर के 

    अमृत-सा जल लाई।

12. मन्दिर-सा घर मेरा 

  प्रेम शिवाला है 

  अपनों का है डेरा।

13. पाहुन हैं आन खड़े 

    घर पूरा चहका 

    मेरे हैं भाग बड़े-

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                         संपादकीय 



अपने दस साल के कार्यकाल में जो भी लेखक और पाठक हमारे संपर्क में आए वह सब अभिनव इमरोज़, साहित्य नंदिनी और हमारे पाठक वर्ग पर एक गहरी मुहराना छाप छोड़ते रहे हैं। रूबरू तो बहुत कम से हुआ हूँ। हाँ उनकी रचनाओं के माध्यम से लगभग सभी से परिचित हूँ। 

डाॅ. आशा पाण्डेय से मैं कभी नहीं मिला। उनको जाना तो केवल उनकी रचनाओं के माध्यम से ही पहचान बनी और आत्मीयता के उस स्तर पर पहुँच गई कि मुझे उनके ऊपर एक विशेषांक प्रकाशित करने की प्रेरणा मिली। उनके संस्कारी साहित्य से मैं स्वयं बहुत अभिभूत हूँ और उसी भावना से आपके समक्ष उनकी कालजयी रचनाएँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।

उनकी एक कविता जो मेरे दिल को छू गई थी उसे आपके साथ साझा कर रहा हूँ-

अम्मा !!!!

याद के दो शब्द से, मां दूं तुझे श्रद्धांजलि।

आंसुओं से भीगकर अर्पित करूं पुष्पांजलि।

जब घटाएं घोर घिरतीं, घन गरजते जोर से।

हृदय से मुझको लगाकर, दाब लेती प्रेम से।

जब कभी संसार के, जंजाल मुझको घेरते।

ढाल बन जाती थी मां, हल थे सहज ही दीखते।

जब कभी मन दुःख से, रोने को आतुर हो पड़े।

काढ़ देती कंटकों को, जो अभी तक थे गड़े।

भूलते हैं पथ नहीं, हे मां तुम्हारे साथ के।

याद आते कौर हैं, अम्मा तुम्हारे हाथ के।

आज कितनी शांत हो, फिर मौन क्यों इतनी पड़ी?

जबकि तेरे पास ही, रोती बिलखती मैं खड़ी।

देखती हे मां, तुझे, मैं भाव विह्वल हूं खड़ी।

शब्द को माध्यम बनाया, सर झुकाया रो पड़ी।

अंत में विनती प्रभो, तुमसे भी मेरी एक है

मां को सद गति ही मिले, यह बस तुम्हीं में शक्ति है।

किंतु यदि हो कर्म फल से, फिर धरा पर आगमन।

वह हीमेरी मां बने, फिर तृप्त करदे मेरा मन।

उसके ही आंगन में बीते, फिर से मेरा बालपन।

उसकी ही ममता मिले, खुशहाल हो मेरा चमन।

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कहानी

अमरावती, महाराष्ट, मो. 09422917252, Email : ashapandey286@gmail.com

इंतजार

लम्बे अरसे से उदास, बोझिल-सी रहने वाली आंखों में इन दिनों उम्मीद की एक किरण चमकती है। उसी चमक को लिए मैं बरामदे में खड़ी मोहिनी का इंतजार कर रही हूँ। आज उससे बात कर ही लूंगी। 

इन दो सालों में कितना कुछ दिया इस लड़की ने ! कितनी अपनी-सी बन गई है ये ! मेरे जीवन से तो सारे रंग गायब हो गए थे। कहाँ बचा था कुछ। एक वीरान, उजाड़-सी जिन्दगी को घिसट-घिसट कर जी रही थी मैं और उसी घिसटते वक्त में पड़ोसी ने सलाह दी थी कि क्यों नहीं आप एक किराएदार रख लेतीं, आपका अकेलापन भी दूर हो जायेगा और वक्त-बेवक्त सहारा भी रहेगा। मैंने सोचा, कितनी अच्छी सलाह है, मुझे अब तक क्यों नहीं सूझी! और फिर बहुत तहकीकात करके पीछे के दो कमरे मोहिनी को दे दिये।

मोहिनी अभी अनब्याही, अकेली लड़की है। नौकरी करने के लिए इस शहर में आई है। माँ को बहुत पहले खो चुकी है- मैं उसे माँ-सी लगी क्या ! आखिर क्यों वह मेरी सारी जिम्मेदारी धीरे-धीरे अपने ऊपर लेती गई। अब उसके बिना मेरा काम ही नहीं चलता। 

मोहिनी के ऑफिस से लौटने का वक्त हो गया है। पूरे आधे घंटे से मैं बरामदे में खड़ी उसका इंतजार कर रही हूँ। पैर कंपकपाने लगे हैं मेरे।

‘‘अभी सत्तर ही तो पूरा हुआ है आंटी, इतनी कमजोरी नहीं होनी चाहिए - ढंग से खाया-पिया करिये।’’

‘‘सत्तर मोहिनी, सत्तर ! कम उम्र नहीं होती ये ! इतने में तो कमजोरी आ ही जाती है। और जब जिन्दगी ने खुशियाँ छीन ली हों तो कंपकपाने में कहाँ देर लगती है।’’

मोहिनी आँखें तरेरती है, मैं मुस्कुरा देती हूँ।

आज इस लड़की को क्यों इतनी देर लग रही है ! मेरे मन में कई शंकाएं उठती हैं। मैं उन्हें दबाती हूँ। कमाल है, अब अच्छा कुछ सोच ही नहीं पाती हूँ, न अपने लिए न दूसरों के लिए! बरामदे में खड़े-खड़े थक गई हूँ मैं, कमरे में आ जाती हूँ। रसोई में जाकर पहले एक गिलास पानी पिया फिर कमरे में आकर बिस्तर पर लेट गई हूँ। 

बिस्तर पर लेटे-लेटे ही पैरों को इधर-उधर मोड़ती हूँ। हल्की ठंड का एहसास हो रहा है। चादर पास में ही रखी है। जी चाह रहा है लेकर ओढ़ लूँ। यूँ इस शहर में ठंड नहीं पड़ती पर इस बार कुछ अधिक ठंडा हो गया है ये शहर !

‘‘यहाँ ठंड कहाँ है आंटी, आप बस मन को कमजोर किये रहती हैं इसलिए लगती है आपको ठंड। ये उम्र का तकाज़ा नहीं है, इच्छाओं और खुशियों को दूर धकेलने का परिणाम है। मन  को ठंडा रखेंगी तो शरीर ठंडा ही रहेगा न।’’

कितना अपनापन लिए झिड़कती रहती है मोहिनी !

मैं बिस्तर से उठकर ड्रेसिंग टेबल के सामने बैठ गई हूँ। कुछ देर यूँ ही बैठने के बाद कंघी उठाती हूँ और आईने में देखकर मुस्कुरा देती हूँ- ‘‘जीवन को उमंग से जिया करिये आंटी।’’ मोहिनी अक्सर कहती है।

उमंग ! उमंग से ही तो भरा था जीवन। फिर अचानक...    कंघी करके मैं मुँह धोती हूँ। क्रीम लगाती हूं और फिर से बरामदे में जाना चाहती हूँ। देख ले मोहिनी - उल्लास और उमंग से जीने लगी हूँ मैं। पर ड्रेसिंग टेबल के सामने से उठकर बरामदे में जाने की बजाय फिर से बिस्तर पर बैठ गई हूँ मैं। कभी-कभी कितना भारी होता है दिन का बीतना। बीतता नहीं, बिताना पड़ता है। यही दिन पहले छोटे पड़ते थे। कितनी बार तो लगता था कि दिन थोड़े खिंच कर बड़े हो जाते तो दो-चार काम और निपटा लेती मैं। कितना जोश और कितनी उमंग भरी रहती थी तब। और अब ! सोच-सोच कर उमंग को बुलाना पड़ता है, तब भी नहीं आती है।

बरामदे में जाने का मन था लेकिन बिस्तर पर बैठ गई और अब तो लेट भी गई हूँ। अलसाते हु, करवट भी ले लिया, पूरी देह चरमराकर टूटती हुई-सी लगी। प्रकाश होते तो मुस्कुरा कर कहते, ‘‘अब अपनी हड्डियों को तेल पिला दिया करो, देखो कितनी सूख गई हैं।’’

क्या बचा है सूखने से अब, मन भी तो पूरा का पूरा सूख गया। हड्डियों को तेल पिला दूंगी, मन का क्या करूंगी प्रकाश !  

शाम गहरा रही है और जबरदस्ती ओढ़ा हुआ मेरा उत्साह अब डूबने लगा है। लगता है मोहिनी आज देर से आएगी- चाहे जब आये, आज बात करूंगी उससे।

इतने दिनों में मोहिनी इतनी अपनी सी हो गई है कि बिल्कुल रानू की जगह ले ली है। नहीं नहीं रानू की जगह नहीं, मैं घबड़ा जाती हूँ इस खयाल से। रानू से बढ़कर है ये मेरे लिए। रानू मेरी कोख से जन्मी थी, लेकिन कैसे अकेला छोड़कर चली गई। कौन कहता है बेटियां साथ नहीं छोड़ती! छोड़ती हैं, बल्कि पूरी तरह छोड़ देती हैं... शादी करके कनाडा जा बसी ! प्रकाश ने यही तो कहा था कि ये लड़का मुझे नहीं पसंद। कैसे डपट कर बोली थी- ‘‘तो क्या मेरे जीवन में क्या और कैसे होना चाहिए, इसे आप तय करेंगे’’।

एक झन्नाटेदार जवाब जैसे प्रकाश के गाल पर ही पड़ा हो। प्रकाश चुप हो गए, पर क्या सिर्फ चुप हो गए थे ! नहीं,दूरी बना ली थी बेटी से और बेटी भी दूर गई तो फिर न लौटी ! न पिता की चुप्पी ने उसे झकझोरा न मेरा कहा-सुना कुछ असर किया। इतने स्वतंत्र विचारों की हो गई थी कि विरोध का एक वाक्य भी नहीं बर्दाश्त कर पाती थी। मैंने ही जन्म दिया था उसे ! कभी-कभी भ्रम होता है। मैं परम्परागत विचारों वाली और वह एकदम मार्डन ! संस्कार देने में भूल हुई क्या ? अब लेता कौन है संस्कार ! न बेटे लेना चाहें,न बेटियां! परिभाषा बदल गई है संस्कार की ! लोग कहते हैं हमारी पीढ़ी वो पीढ़ी है जिसने अपने से बड़ों का भी सहा और अपने बच्चों का भी सहना पड़ रहा है...बड़ों का तो सहा पर बच्चे !! सहने की गुंजाइश भी नहीं छोड़ते। जरा- से विरोध पर छिटक कर दूर खड़े हो जाते हैं- रानू भी तो खड़ी ही हो गई दूर ! ममता का कोई स्रोत ही नहीं था उसके दिल में ! शादी कर ली तब घर में बताई और एक ही विरोध में दूरी बना ली।

उस दिन से चुप ही रहने लगे थे प्रकाश, पर मुझे समझाते, कितना दुखी रहती हो तुम, खुश रहा करो नहीं तो तुम्हें शुगर हो जायेगा या किडनी-विडनी खराब हो जाएगी... जीवन में सिर्फ बच्चे ही सब कुछ नहीं होते कि उनके लिए अपना स्वास्थ खराब कर लो। मैं पूछना चाहती थी कि तुम क्यों चुप रहने लगे हो प्रकाश ! लेकिन पूछती कैसे ? मुझे सलाह देते समय प्रकाश की भीगी आँखें मुझसे छुप कहाँ पाती थीं। सब जानती थी मैं, भीतर ही भीतर घुट रहे थे प्रकाश।.... और देखो तो, मैं बची रही, किडनी प्रकाश की खराब हो गई! प्रकाश के जाने पर भी नहीं आई रानू। उसकी एक सहेली के मार्फत खबर भिजवाई थी मैंने। उससे नंबर मांग कर बात भी की थी- कितनी ठंडी आवाज थी उसकी, ‘‘कोशिश करूंगी आने की।’’

कोशिश नहीं बेटा, आओ, तुम्हारे पापा थे। मिन्नतों भरी मेरी आवाज भी खाली चली गई। छोटा-सा विरोध, इतनी बड़ी दूरी !!  

कहीं वह स्वयं से ही तो नहीं लड़ रही है। जैसे- जैसे बड़ी हो रही थी हम लोगों से विरोध रखने लग गई थी।  बहुत बार जानना चाहा मैंने पर हर बार वह चिढ़ कर चिल्ला देती थी। मैं चुप हो जाती थी। टीनएज है, सब ठीक हो जायेगा- यही तो सोचते थे हमलोग। 

रानू को किसी बात की कोई कमी न हो इसलिए दूसरा बच्चा नहीं होने दिया था प्रकाश ने। इतना प्यार, इतनी ममता लुटाने का ये परिणाम !! शायद यही कारण हो ! 

‘‘पाजिटिव सोचा करिये आंटी!’’ मोहिनी अक्सर टोकती है।‘‘ आपके जीवन में अच्छा समय भी तो आया होगा। रानू के साथ भी तो आपका कुछ अच्छा समय बीता होगा- वह सब याद किया करिये। नाते रिश्तेदार, सहेलियाँ कितनों के तो फोन आते हैं आपके पास। आप हैं कि अपना दुःख ही बतियाती रहती हैं सबसे, कुछ और बात किया करिये।’’

‘‘प्रकाश का चले जाना, बेटी का साथ छोड़कर चले जाना, सब भूल जाऊं मोहिनी। कैसे ?

‘‘आप तो दुनिया देख चुकी हैं आंटी,.... जो गया उसको भूलना ही अच्छा है। हकीकत में नहीं आंटी, सपनों की उड़ान में खुशी मिलती है। सपने देखें... जानती हूँ सरल नहीं है ये।.... मैंने भी बहुत पहले अपनी माँ को खो दिया था, लेकिन जी रही हूँ न आंटी... हंसती हूँ, खाती-पीती हूँ, नौकरी कर रही हूँ... सब, सब कुछ कर रही हूँ आंटी।’’

‘‘प्रकाश का चले जाना किसी तरह सह भी लूँ मोहिनी, लेकिन रानू का जीते जी इस तरह दूरी बना लेना... तुम मोहिनी, कितनी दुनियावी हो, मैं क्यों नहीं बन पाती ऐसी- सोचा मैंने, पर बोली कुछ नहीं। जानती हूँ, मोहिनी भी तड़पती है अकेलेपन से। जितनी सहजता से बोल जाती है, उतना सहज नहीं है उसका जीवन। मै सब समझती हूँ मोहिनी, ज्वालामुखी धधक रहा है तुम्हारे दिल में।

शाम की चाय का समय बीत रहा है, मैं मोहिनी का इंतजार कर रही हूँ। एक दिन सुबह-सुबह कैसे पूछ बैठी थी, ‘‘आंटी चाय पिया आपने’’

‘‘अभी नहीं, तुम भी पियो तो बनाऊं।’’ अनमने मन से जवाब दिया था मैंने।

‘‘ओह आंटी, मैं कहाँ पीती हूँ चाय... आपको इतनी देर उठे हो गया अभी तक चाय भी नहीं पिया आपने....लाइए मैं बनाती हूँ, बैठिये आप।’’ हाथ पकड़कर मुझे कुर्सी पर बिठा दिया था उसने। 

‘‘कल से रोज सुबह की चाय मैं ही बनाया करूंगी आपके लिए। दस मिनट का ही तो काम है।’’ मैं सोचने लगी थी- किस जनम का रिश्ता है तुमसे मोहिनी, मेरे उठने से लेकर सोने तक की सारी चिंता तुम अपने सिर ले लेती हो! वह दिन कितना अच्छा था जिस दिन तुम मुझे मिली। अब छोड़कर मत जाना- सिहर गई मैं, किराये पर रहने वाली लड़की कितने दिन नहीं जाएगी छोड़कर !

आज न जाने क्यों आने में देर कर रही है। फिर से बालकनी में जाऊं क्या ? सोचा मैंने पर गई नहीं बल्कि तकिये के सहारे उठंग कर लेट गई। सामने की दीवार सूनी लगी। जबसे वहाँ से पेंटिंग हटी है तब से वह दीवार सूनी ही लगती है। देखने का मन नहीं करता उधर।

पेंटिंग हटाकर भी क्या रानू की याद गई मोहिनी!....पहले पेंटिंग याद दिलाती थी, अब खाली दीवार याद दिला देती है। रानू ने बड़े मन से बनाया था वह पेंटिंग- माँ की गोद में छोटा-सा बच्चा-कहती, ये मैं हूँ तुम्हारी गोद में। क्यों बड़ी हो गई रानू ! मेरी गोद छोटी पड़ने लग गई थी क्या जो उतर कर भाग ली दूर !!

पेंटिंग देख-देखकर मैं रोया करती। मोहिनी ने उतारकर स्टोर में डाल दी वह पेंटिंग। बोली- ‘‘यहाँ कुछ दूसरा लगाइए आंटी, जो आपको सुकून दे। जिन्दगी आगे बढ़ने का नाम है।’’

भोली लड़की! एक पेंटिंग उतार देने से क्या होता है।  रानू के बचपन से बड़े होने तक के तमाम चित्र जो मेरे सीने में समाये हैं उन्हें कैसे साफ करूं मैं ? पहली हंसी, पहली ठुमकन, पहला वाक्य, छोटे-छोटे बाल, कसी-कसी दो चोटियों में पीठ पर बस्ता लादे स्कूल जाती या आती रानू, कथक नृत्य की ड्रेस में, स्टेज शो पर, ....बातूनी और फिर 

धीरे-धीरे जिद्दी हो जाने वाला रूप, ....एलबम पर एलबम तैयार है दिमाग में ! कितना झाडूं, कितना पोछूं ? इन चित्रों की जगह क्या कुछ दूसरे चित्र सजा सकूंगी मैं ? और इस दीवार पर! मैं यहाँ दूसरा कुछ क्या लगाती रानू! तुम्हारी जगह कुछ दूसरा कैसे हो सकता है ? पर ये मोहिनी, क्यों ऐसा लगता है कि इसने कुछ-कुछ भर दी है जगह !

आज कह ही दूंगी कि थोड़ी कसर और पूरी कर दे...आंटी की जगह मम्मी कहा करे मुझे। असीम विस्तार देने वाला ये शब्द, तुम्हारे होते हुए भी रानू, मैं सुनने के लिए तरस गई हूँ। पर क्या मोहिनी मानेंगी ? कहीं नकार दी तो ? अपनी मम्मी की जगह किसी और को मम्मी कहना या मानना इतना आसान भी तो नहीं होता। कितने दिन से तो सोच रही हूँ, पर मुँह से निकलता ही नहीं... मोहिनी के नकार का डर बैठ गया है...पर आज......कहूंगी।

रानू के पुराने एलबमों से गुजरते हुए, रानू की जगह मोहिनी को रखते हुए आँखें बरसती रहीं मेरी और मैं उन्हें पोछती रही। इसीबीच न जाने कब झपकी भी लग गई। अभी उठी हूँ। पीछे के कमरे से रोशनी आ रही है। लगता है मोहिनी आ गई है। मैं बिस्तर से उठकर बेसिन के पास आती हूँ। आईने में अपना चेहरा देखती हूँ। आँसू की लकीरें सूख कर चेहरे को चिपचिपा बना रही हैं। मैं चेहरा धोती हूँ- शुक्र है मोहिनी ने नहीं देखा- कंघी कर लूँ तब जाऊं उसके पास, उमंग और ताजगी के साथ-सोचते ही मैं मुस्कुरा देती हूँ। कंघी करती हूँ और पीछे वाले कमरे की ओर आगे बढ़ती हूँ।

‘‘कब आई मोहिनी तुम ? आज तुम्हारा बहुत इंतजार किया मैंने।’’ कहते हुए मैं मोहिनी के कमरे में प्रवेश की। ये क्या, ये तो पूरा कमरा बिखरा है। मोहिनी अटैची खोलकर उसमें कपड़े रख रही है। मुझे आया देख पूछा उसने, ‘‘क्यों इंतजार कर रहीं थी आंटी ? कोई काम था क्या ? कुछ लाना हो तो बताइए ला देती हूँ।’’

‘‘नहीं, कुछ लाना नहीं है बेटा, तुम ये कपड़े क्यों पैक कर रही हो ? और ये पूरा सामान क्यों बिखरा है ?    

‘‘मेरा तबादला हो गया है आंटी, अगले हप्ते ही ज्वाइन करना है.... मैंने सोचा, थोड़ा-थोड़ा सामान पैक करती रहूँ तो सब आराम से हो जायेगा। ....मैं आई तो आप सो रही थीं, जगाया नहीं मैंने आपको।     

मोहिनी बोल रही है, लेकिन तबादला के बाद के सारे शब्द मुझे कहीं दूर से आते लग रहे हैं। मेरा पैर काँप रहा है। मैं चुपचाप कुछ देर, अपनी छटपटाहट को छुपाती हुई, उसके कमरे में खड़ी रही फिर पलटकर धीरे-धीरे अपने कमरे की ओर बढ़ गई।

मोहिनी की आवाज मेरा पीछा कर रही है- ‘‘बताया नहीं आंटी आपने, क्यों मेरा इंतजार कर रही थीं आप.....’’

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कहानी


अमरावती, महाराष्ट, मो. 09422917252, Email : ashapandey286@gmail.com


उत्तर का आकाश

‘‘इतना उचक-उचक कर मत देखो बाबा, नही तो खांई में जा गिरोगे। रोज की तरह आज भी वहाँ कुछ बादल हैं... थोडी-सी 

धूप है, बहुत ज्यादा ठण्डी है... अब वहाँ कुछ नया नही होने वाला। क्यों जान जोखिम में डाले दूरबीन लिए फिरते हो ?”

नाश्ते की प्लेट मेरे सामने रखते हुए जब होटल के लड़के ने उस व्यक्ति को आवाज लगाई, तब मेरा ध्यान बरबस उसकी तरफ चला गया। पिछले तीन दिन से, जब से मसूरी में रुका हूँ, नाश्ता करने इसी होटल में आ जाता हूँ और बिला नागा प्रतिदिन उस व्यक्ति को दूरबीन के सहारे आकाश में कुछ टटोलते पाता हूँ।

भूरे रंग का ओवरकोट और काले रंग की टोपी के नीचे कुछ तलाशती हुई खामोश आँखें। आँखों के इर्द-गिर्द गझिन झुर्रियों जैसी सिकुड़न। उसके थोडा नीचे गुलाबी गालों पर कुछ अधिक लाल चकत्ते। गले में सस्ती-सी दूरबीन। पैरों में मोटा काला जूता। उम्र कोई पचास से पचपन के आस-पास। अपने भीतर उमड़ती कौंध से पूरी तरह जकड़ा हुआ, किन्तु बेखबर। पिछले एक हप्ते से इस रूप में तनिक भी परिवर्तन नहीं हुआ है। मैं उस लड़के से पूछता हूँ- ‘‘कौन हैं ये ? प्रकृति-प्रेमी लगते हैं।”

‘‘काहे के प्रकृति-प्रेमी बाबूजी, मसूरी के आकाश में तिब्बत की हवा खोजते हैं। कौन समझाए इन्हें कि हवाएँ भी कैद होती हैं, नही आ सकती हैं सुकून देने, तुम तडपते रहो जीवन भर उस ठण्डी सुरसुरी के लिए।”

लड़के के आवाज देने पर वह व्यक्ति होटल में आकर मेरे सामने वाली बेंच पर बैठ जाता है। लड़का आलू का परांठा और दही उस व्यक्ति के सामने रख देता है, जिसे वह सिर नीचा करके धीरे-धीरे खाने लगता है।

अपनेपन का एक टुकड़ा एहसास ही तो तलाशता है वह आकाश में, जिसे न पाने की लाचारगी उसके चेहरे पर साफ झलक रही है। झेंप मिटाने की खातिर वह उस लड़के पर ही गुर्राया ‘‘परांठे को ठीक से सेंका भी नही है..... कच्चा है, पेट में दर्द होगा तब क्या तू दवा करवाएगा ?”

‘‘क्यों चिल्लाते हो बाबा, परांठा ठीक से सिका है, तुम्हारा मन खराब है इसलिए पराठा कच्चा लग रहा है।”

‘‘क्या खाक सीखा है, देखते नहीं, एक भी चित्ती नहीं पड़ी है।”

‘‘अच्छा बाबा, दूसरा देता हूँ उसे छोड़ दो। लडका अपनी झुंझलाहट को दबाता हुआ दूसरा परांठा लाकर उसकी प्लेट में रख देता है। वह व्यक्ति परांठा खाने लगता है किन्तु उसके चेहरे पर निराशा और बेचारगी के भाव साफ झलक रहे हैं, जिसे छिपाने के लि, वह ठण्ड से सिकुड़ने का अभिनय करने लगता है।

मैं आॅडिट दौरे पर एक हप्ते के लिए मसूरी आया हूँ। आज छुट्टी है, सोचा मसूरी घूमूँगा। किन्तु अब मेरी जिज्ञासा इस व्यक्ति के प्रति बढ गई है। व्यक्ति से बात करने की इच्छा हो रही है। जानना चाहता हूँ कि किन यादों से जूझ रहा है यह। कौन सी पीड़ा इसे चैन से रहने नहीं देती, आकाश में किसको तलाशता रहता है। यूँ तो वह ऊनी कपड़ों का बण्डल लिए इस होटल में आ जाता है और होटल पर आने वाले ग्राहकों को ऊनी कपड़े बेचने का प्रयास करता है किन्तु उसकी बेचैन निगाहें आसमान की तरफ ही उठती रहती हैं जिससे वह विक्रेता कम बेसब्र खोजी अधिक जान पड़ता है।

मैं उससे बात करने का सिरा तलाशने लगता हूँ। अचानक मेरी नज़र उसकी गठरीनुमा दुकान पर पड़ती है। मेरी आँखें खुशी से चमक जाती हैं। अच्छा विषय है, बात शुरू करने का। मैं अपनी जगह से उठ कर उस व्यक्ति के करीब जाकर बैठ जाता हूँ पहले तो व्यक्ति थोड़ा सकपकाता है फिर एक उड़ती नजर मुझ पर डालता है। मैं भी मुस्कुरा कर उसका स्वागत करता हूँ। बात-चीत शुरू करने का यह अवसर हाथ से निकल न जाए इसलिए झट से एक प्रश्न पूछ लेता हूँ, ‘‘आप ऊनी कपड़े बेचते हैं क्या ?”

‘‘हूँ” संक्षिप्त-सा उत्तर। मैं हताश होता हूँ लेकिन एक और प्रयास।

‘‘मुझे एक स्वेटर चाहिए.... एकदम गरम।”

वह पहले तो मुझे देखता है, फिर हाँ में सिर हिला देता है। जैसे कहना चाहता हो- रुको, खा लेने दो फिर दिखाता हूँ। मुझे स्वेटर की जरूरत नहीं है, लेकिन अब बोल पड़ा हूँ इसलिए देखना पड़ेगा। देखना क्या, लेना भी पड़ सकता है। स्वेटर लूँगा तभी तो कुछ देर तक बात कर पाऊँगा और उसकी गहरी पीड़ा का धागा, जो अब मेरे मन में उलझ गया है, सुलझा पाऊँगा।

मैं नाश्ता करने ही निकला था पता नहीं जेब में स्वेटर खरीदने भर के पैसे हैं भी या नहीं। मैं जेब टटोलता हूँ, आश्वस्त होता हूँ-कुछ तो है, स्वेटर न सही मोजा, कनटोपा आदि ही खरीद लूँगा। व्यक्ति इत्मीनान से खा रहा है। होटल में दो चार लोग और आ गये हैं। लड़का पराठा सेंकने में व्यस्त है। बडी-सी भट्ठी के पास ढेर सारी आलू उबाल कर रखा है। एक महिला उसे छील कर पराठे में भरने के लिए तैयार कर रही है। होटल के सामने थोड़ी दूरी पर एक टीला है। सोलह-सत्रह साल का एक लड़का टीले पर बैठ कर बाँसुरी बजा रहा है। बाँसुरी की धुन बडी मोहक है। टीले से थोड़ी दूर पर एक पेड़ के पास बैठी एक पहाडी लड़की उस लड़के को टुकुर-टुकुर ताक रही है। लड़की के पास काले रंग का, झबरे बालों वाला एक कुत्ता बैठा है।

आज आकाश में बादल हैं। थोड़ी-थोड़ी देर पर हल्की धूप दिख जाती है। मैं आकाश में देखने लगता हूँ, वहाँ, जहाँ वह व्यक्ति देख रहा था। उसकी खोज को आगे बढाने की कोशिश करता हूँ। पर मेरा प्रयत्न व्यर्थ हो जाता है। वह व्यक्ति क्या खोज रहा था यह तो उससे बात करने के बाद ही ज्ञात होगा। मैं उस व्यक्ति की तरफ देखता हूँ। उसका नाश्ता हो चुका है। वह हाथ-मुँह धो रहा है। मैं अधीर हो उठता हूँ। वह वहाँ से उठता है, ऊनी कपड़ों का बण्डल लाकर मेरे सामने रख कर खोलता है। ‘‘हाँ बाबूजी, देखिए, कैसा स्वेटर चाहिए ?. सब प्योर ऊन के हैं.... एकदम गरम। यहाँ मसूरी की ठण्ड में प्योर ऊन ही पहनना पड़ता है बाबूजी, फिर भी दाँत किटकिटाते रहते हैं.... देखिए ये पीले रंग का.... मेरे हिसाब से खूब फबेगा आप पर।”

मैं उसे बीच में ही टोकता हूँ- ‘‘तुम हिन्दी अच्छी बोल लेते हो।”

‘‘हाँ बाबूजी, जमाना हो गया यहाँ रहते हुए, सीख गया हूँ। वह पीला स्वेटर हाथ में उठाकर खोल लेता है और झटक कर मुझे दिखाता है।

‘‘रंग डिजाइन दोनों अच्छा है बाबूजी.... लीजिए हाथ में पकड़ कर तो देखिये।’

मैं स्वेटर हाथ में लेता हूँ ‘‘-अच्छा तो है, लेकिन मुझे पीला रंग पसन्द नहीं है.... वो दूसरा..... नीचे जो सफेद रंग का है....

‘‘अरे बाबूजी इसकी तो बात ही निराली है। सफेद रंग जिसे पसन्द हो उसको तो कुछ सोचना ही नहीं पड़ता...देखिए.... ये तो सबसे बढ़िया है। अब तक उदास और शान्त दिखने वाला यह व्यक्ति कपड़ो का बण्डल खोलते ही ठेठ विक्रेता हो गया है। मैंने सफेद स्वेटर का दाम पूछा, साढे तीन सौ रुपये। स्वेटर की जरूरत तो नहीं थी किन्तु उस व्यक्ति का बेचने का उत्साह और उससे बात करने की अपनी गहरी इच्छा के कारण मैं स्वेटर खरीद लेता हूँ।

व्यक्ति खुश हो जाता है। अब उसकी अलसाई और उदास नज़रें कुछ चंचल हो जाती हैं।

‘‘दिन भर में कितना कमा लेते हो ? बात को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से मैने पूछा। ‘‘

कुछ निश्चित नहीं है बाबूजी, कभी-कभी तो कई स्वेटर बिक जाते हैं.... टोपी, मोजे आदि भी बिक जाते हैं किन्तु, कभी-कभी तो एकाध पर ही सन्तोष कर लेना पड़ता है।”

‘‘खरीद कर बेचते हो कि घर में बुनते हो ?” 

‘‘खरीद कर बाबूजी, पहले मेरी घरवाली दिन भर स्वेटर बुनती थी लेकिन अब उसकी आँखे कमजोर हो गई हैं।”

‘‘यहाँ बहुत शोर है, चलो बाहर उस बेंच पर बैठ कर कुछ गपशप करें। मैं उसे होटल की भीड़ से दूर एकान्त में लाना चाहता हूँ ताकि सहजता से उसके अतीत में प्रवेश कर सकूँ। वह आज्ञाकारी बच्चे की तरह मेरे साथ बाहर आ जाता है। लगता है उसे भी मेरे जैसे किसी व्यक्ति की प्रतीक्षा थी। मैं उसे कुरेदता हूँ।

‘‘एक स्वेटर पर कितना मुनाफा कमा लेते हो ?”

‘‘घर के बुने स्वेटर पर तो अच्छा कमा लेता था, किन्तु अब तो पच्चीस-तीस रुपये से अधिक नहीं मिलते।”

‘‘तुम मन लगाकर बेंचते भी तो नहीं हो। अब मैं अपने उस प्रश्न पर आ जाता हूँ जिसके लिए इतनी देर से भूमिका बना रहा था।

‘‘बेचता तो हूँ बाबूजी.... क्या करूँ ? मालरोड के पास पर्यटकों की अच्छी भीड़ रहती है, वहाँ बेचूँ तो अधिक बिके किन्तु वहाँ से उत्तर का आकाश साफ-साफ नहीं दिखता। इसलिए मैं यहाँ ऊपर आ जाता हूँ। यहाँ तो आप देख ही रहे हैं... आप जैसे कुछ शौकीन लोग ही यहाँ आते है।’

‘‘ऐसा क्या है उत्तर के आकाश में, जिसके लिए तुम अपने धन्धे पानी तक का नहीं सोचते हो ?”

‘‘बस यूँ समझ लीजिए बाबूजी कि रूह कैद हो गई है वहाँ।”

‘‘लगता है अतीत गहरी पीड़ा में बीता है।”

‘‘बीता क्या है, अतीत की तहों में आज भी अंगारे दबे हैं बाबूजी।”

‘‘अगर तुम उचित समझो तो कुछ खुल कर कहो.... मैं सुनना चाहता हूँ।”

व्यक्ति के झुर्री भरे चेहरे पर कुछ रेखाएँ उभरी। उसने आँखों को थोड़ा सिकोड़ा मानों स्मृति की परतों को खोलने का प्रयास कर रहा हो। फिर एक लम्बी साँस ले अत्यन्त बोझिल और धीमी आवाज़ में बताना शुरू किया।

‘‘मैं तिब्बती हूँ बाबूजी..... पिछले तीस साल से आपके देश में रह रहा हूँ। शुरू के पाँच वर्ष उत्तरकाशी शहर के पास एक गाँव में रहा फिर पेट के जुगाड़ में मसूरी आ गया। पच्चीस वर्षों से यहीं हूँ। जब मेरे देश को विदेशियों ने हथियाया तब हजारों परिवार वहाँ से भाग कर सुरक्षित स्थानों पर चले गये। मेरे पिता जिद के पक्के थे। मरेंगे तो अपनी ही मिट्टी में।‘

तिब्बतियों की आत्मा बडी निर्मल होती है बाबूजी, किन्तु अपनी रक्षा के लिए वो भी एकजुट हो योजनाएँ बनाने लगे। तिब्बत की धरती से हान् (चीनी सैनिक) को भगाने की योजनाएँ। हान् मुट्ठी भर उत्साही तिब्बतियों पर भारी थे। वो अचानक 

धावा बोलकर हमारे जवानों को पकड़ लेते थे....बहुत मारते थे.... मार खाते-खाते कुछ लोगों पर से देश भक्ति का नशा उतर जाता था।.... मैं तब बच्चा था, लेकिन रात के अँधेरे में इधर से उधर छिपते-छिपाते विद्रोही तिब्बती जवानों की खुसुर-फुसुर से मैं बात की गम्भीरता का अन्दाज़ लगा लेता था।

मेरे पिता उन उत्साही तिब्बतियों में से थे और इसलिए हान् की शक की नज़रें सदा मेरे घर की तरफ उठती रहती थीं। जब तब मेरे घर की तलाशी होती थी। एक बार तो पिता को पकड़ कर ले गए। दो-तीन दिन बाद छोड़े। पिता के पूरे शरीर पर मार के निशान थे। न जाने क्या उगलवाना चाहते थे उनसे। माँ पूछती रही, किन्तु पिता ने माँ से सब कुछ छिपा लिया, बोले-सामने वाली पहाड़ी से लुढ़क गया था इसलिए इतनी चोट लग गई। माँ ने पिता की बात चुपचाप सुन ली, किन्तु मन ही मन सब समझ र्गइं थीं। समझती कैसे न, पिता की उघड़ी पीठ सब कह देती थी बाबूजी। माँ रोती थीं, कभी-कभी पिता को समझाती थीं, शान्त रहो अब कुछ नहीं होगा। उनकी ताकत हमसे हजारों गुना अधिक है, किन्तु पिता न सुनते।

धीरे-धीरे हम भी युवा हो रहे थे। बड़ों के विद्रोह सिरे से कुचले जा रहे थे फिर भी हम उसी राह पर चलने को तत्पर हो गये।

थांमे मेरा मित्र था। हट्टा-कट्टा नवजवान। पानीदार आँखे, भावपूर्ण चेहरा पर आग थी कि उसके भी सीने में 

धधक रही थी। हमारे घर में बहुत सी भेंड़ थीं। जिन्हे चराने हम ऊँची पहाड़ियों पर निकल जाते और वहीं हान् को देश से भगाने की तरह-तरह की योजना बनाते। माँ अब अधिक भयभीत रहने लगीं थीं.... पति की तरह बेटा भी बेमतलब के कामों में उलझ गया।

व्यक्ति कुछ चुप हुआ। उसकी वीरान एवं गहरी आँखे ऐसी लग रही थीं मानों समूचा दुःख उन आँखों में समाया है। होटल में नाश्ता करने वालों की भीड़ बढ़ रही है। टीले पर बैठा लड़का अब भी बाँसुरी बजा रहा है, कुछ दूर पर बैठी वह पहाड़ी लड़की अब भी उस लड़के को टुकुर-टुकुर ताक रही है। एक गहरी साँस लेकर व्यक्ति फिर से बोलना शुरू करता है।

थांमे की दो बहनें थीं। बड़ी बहन बला की सुन्दर थी। सुन्दर छोटी भी थी किन्तु बड़ी से उन्नीस ठहरती थी। बड़ी की आँखो में मेरे लिए भाई जैसा प्रेम तैरता था। मैं उस प्रेम का तिरस्कार न कर सका। छोटी का नाम सोमम् था वह बड़ी चंचल थी। उसकी शोख निगाहें मुझे अपनी तरफ खींचती थीं। मैं अकसर उससे मिलने थांमे के घर जाया करता था। उसके घर एक घोड़ा था। दोपहर में सोमम् उसके लिए घास काटने आस-पास की पहाड़ी पर जाती थी। मैं वहाँ भी पहुँच जाता था। घंटो उसके साथ रहकर भी मन न भरता। मैं सहचरी के रूप में उसे चुनना चाहता था। थांमे और उसके माँ-बाप को यह बात पता थी। उन्हें कोई एतराज भी नहीं था, लेकिन पहले उन्हें बड़ी लड़की के लिए रिश्ते की तलाश थी।

एक दिन दोपहर में, जब बहुत ठण्ड थी और बादलों के कारण सूरज अपनी किरणों को ठीक से फैला भी नही पाया था, थांमे मेरे घर आया। ठण्ड से उसके दाँत किटकिटा रहे थे किन्तु खुशी थी कि उबल-उबल पड़ रही थी। आते ही वह मुझे पकड़ कर नाचने लगा। माँ, पिता और मैं, तीनों ही उससे इस खुशी का कारण पूछते रहे; लेकिन जब वह मुझे नचा-नचा कर थक गया, तब कहीं जाकर बताया कि उसकी बड़ी बहन का रिश्ता पक्का हो गया है और मुझे भी खुश होना चाहिए क्योंकि मेरे लिए अब रास्ता साफ हो गया है।

पिता बनावटी गुस्सा दिखाते हुए बोले, इतनी-सी बात पर इतना खुश। मुझे तो लगा कि हान् हमारा देश छोड़कर जा रहे हैं यह खुशखबरी देने आया है।

‘‘वो भी जायेंगे, चिन्ता क्यों करते हैं ? इस समय तो आप सभी मेरे घर चलिए एक साथ बैठकर चैंड् (तिब्बती चाय) पियेंगे। थांमे की खुशी छलक-छलक पड़ रही थी।

उसके घर के अगले कमरे में दो बड़ी कड़ाही में कोयले जलाकर रखे गये थे। हम सब वहीं बैठ गए। थामें की माँ ने सब को चैड् दिया। गपशप करते दोपहर कब गुज़र गई और शाम कब फैल गई पता ही न चला। शाम को भी थांमे ने हम लोगों को आने न दिया बल्कि वह तो पड़ोस के दोरजे परिवार को भी बुला लाया। दोरजे परिवार में, दोरजे पति-पत्नी के अतिरिक्त चार बच्चे थे।

कड़ाके की ठण्डी थी। थांमे की माँ बार-बार कोयला सुलगाती, लकड़ियाँ जलाती, किसी तरह कमरे को गरम रखने का प्रयास कर रही थीं। दोरजे की दो लड़कियाँ थांमे की बहनों के ही उम्र की थीं। थांमे की माँ ने रात के भोजन का आग्रह किया। मेरी माँ ने मना किया किन्तु शीघ्र ही हम सब मान गए क्योंकि हमारी भी इच्छा वहाँ से उठने की नहीं हो रही थी।

लड़कियों ने मिलकर थुक्मा (तिब्बत का एक खाए पदार्थ) बनाना शुरू किया। पानी में आलू और सेंवई उबल जाने के बाद जब उसमें भेड़ के मांस के टुकडे डाले गये तब मेरी माँ को अपनी भेड़ों का ध्यान आया। उन्होंने मुझे भेड़ों को सुरक्षित घर के अन्दर करने के लिए भेजा।

रात अभी अधिक नहीं बीती थी किन्तु गाँव में सन्नाटा छा गया था। बर्फीली हवाओं से शरीर की हड्डियाँ तक काँप रही थीं। उजाली रात में पहाड़ों के शिखर चाँदी के समान चमक रहे थे। चारों तरफ धुँआ-धुँआ-सा फैला लग रहा था। भेड़ों को कमरे में कर के मैं थांमे के घर लौटने ही वाला था कि उसके घर से महिलाओं के चीखने-चिल्लाने की आवाजें आने लगीं। मैं हतप्रभ था। अचानक ये क्या हो गया! अभी तक तो सब ठीक था। मुझे लगा, हो न हो, हान् आ गये होंगे। कहीं से खबर पा गये होंगे कि कई परिवार मिलकर उनके विरोध में षडयन्त्र रच रहे हैं। मैं थांमे के घर की तरफ भागा। दरवाज़ा अन्दर से बन्द हो गया था। मैं कुछ देर बन्द दरवाज़े के सामने खड़ा रहा, फिर उसे पीटने लगा। अन्दर का शोर इतना अधिक था कि उसमें मेरा दरवाजा पीटना निष्प्रभावी हो गया। जब बहुत देर तक दरवाज़ा नहीं खुला तब मै चुपचाप खड़ा हो गया। महिलाएँ चिल्ला रही थीं, मैं बेवश छटपटा रहा था। उस दिन के जितना असहाय मैंने स्वयं को कभी नहीं पाया। कुछ देर बाद हान् बाहर निकले। मैं घर के पीछे छिप गया। जब हान् चले गये तब मैं अन्दर गया। थांमे दम तोड़ चुका था। मेरे पिता और थांमे के पिता गम्भीर रूप से घायल थे। मेरी माँ और थांमे की माँ एक दूसरे से सटी खड़ी भय से जड़ हो र्गइं थीं। लड़कियों ने खुद को अन्दर के कमरे में बन्द कर लिया था।

व्यक्ति आकाश की तरफ देखने लगा। तीस साल पहले का वह हृदय विदारक दृश्य उसकी आँखो में तैर गया। उसकी आँखें लावा उगलने लगीं तथा साँस तेज चलने लगी। उसके होंठो के किनारे से थूक की पतली धार बह गई। उस समय बदले में कुछ न कर पाने की बेवशी की पीड़ा आज भी उसके चेहरे पर जस की तस जमीं थी। मेरे मन में भी एक अजीब-सा अवसाद फैल गया। मैंने उसकी पीठ को 

धीरे से थपथपाया। मुझे ध्यान आया कि नाश्ते के बाद से मैंने एक भी सिगरेट नहीं पी, जबकि इतनी ठण्ड में अब तक दो चार पी डालता। जेब से सिगरेट का पैकेट निकाल कर मैंने उसकी तरफ बढाया। अब तक वह कुछ संयत हो गया था। उसने एक सिगरेट निकाल कर होंठो में दबा ली। मैंने भी एक सिगरेट ली, लाइटर से उसकी और अपनी सिगरेट जला ली। एक दो गहरे कश के बाद वह खाँसने लगा थोड़ी देर बाद जब संभला तो फिर बताना शुरू किया।

‘‘बहुत अन्याय हुआ है बाबूजी, कब तक सहेंगे ? मैं चुप नहीं  बैठा था, कई संगठन बनाये थे मैंने। तब मैं जवान था, बडा उत्साह था मुझमें.... धीरे-धीरे सब खत्म हो गया। मैं कमजोर और अकेला पड़ गया।” हाथ के इशारे से उसने बताया, ‘‘इधर देखिए बाबूजी, ये जो सामने की पहाड़ी है, ठीक उसके बगल से जो रास्ता जा रहा है वहाँ एक तिब्बती मंदिर है। सैकड़ों लामा वहाँ चक्र घुमाते ध्यान लगाते पड़े रहते हैं। मैं कहता हूँ, चक्र हिलाने से तिब्बत आजाद नहीं होगा। 

उठो... जोश में आओ.... कुछ करो। जवानों में जोश भरो।”

‘‘तुम्हारे कितने बच्चे हैं ? मैं विषय को बदल कर मूल कहानी पर लाने का प्रयास करता हूँ।

‘‘दो हैं बाबूजी, दोनों बेटे हैं... अब तो बाल-बच्चे वाले हो गये हैं, पर हैं सब निकम्मे ही। खाते-पीते पड़े रहते हैं।“

‘‘कुछ काम-धन्धा नहीं करते हैं?”

‘‘करते हैं बाबूजी, अपना घर-बार अच्छे से संभालते हैं..... हम दोनों का भी ध्यान रखते हैं।”

‘‘फिर किस बात की चिन्ता है?”

‘‘चिन्ता क्यों नही है बाबूजी ? मैं इतना प्रयास करता हूँ कि इनकी बाहें फड़के, इनका खून गरम हो, पर सब बेकार। मैंने जो यातनाएँ भोगी हैं वो सब बताता हूँ, किन्तु मसूरी की हवा इतनी ठण्डी है कि इनकी नसें तक जम गई हैं। खून गर्म होने की बात तो दूर पिघलता तक नहीं है। घरवाली कहती  है-इसमें बच्चों का क्या कसूर। जहाँ इनका जन्म हुआ है, वहीं से इनको लगाव होगा, तिब्बत से इन्हें क्या लेना देना।”

‘‘तुम्हारी शादी थांमे की बहन से ही हुई या किसी दूसरी लडकी से ?” मैंने प्रश्न किया।

वही तो बता रहा था बाबूजी, वह फिर से अपनी अधूरी कहानी पर आ गया, ‘‘वह रात बडी भयावह थी, और शायद अब तक की सबसे लम्बी भी। माँ सिसकते-सिसकते खामोश हो गई थीं। थांमे की माँ बेहोश पड़ी थी। थांमे के पिता को सबेरे तक होश आ गया था किन्तु उनके पैर की हड्डी टूट गई थी। वो लंगड़े हो गये थे। मेरे पिता की आँत में चोट लगी थी। धीरे-धीरे उसमें सड़न पैदा हो गई और पन्द्रह दिन बाद वो चल बसे। दोरजे परिवार पूरी तरह सुरक्षित था और डर के मारे रात में ही अपने घर चला गया था।”

थांमे के माँ-बाप अब अपनी बेटियों के बारे में अधिक चिन्तित रहने लगे थे। इस घटना के कुछ महीने बाद उन्होंने बड़ी बेटी की शादी कर दी। जब थांमें था, तब तय हुआ था कि दोनों बहनों की शादी एक साथ ही कर दी जायेगी, किन्तु अब परिस्थिति पलट चुकी थी। एक अदृश्य डर थांमे के माँ- बाप को खाये जा रहा था। हान् का डर नहीं बाबूजी, अकेले पन का डर, वीरान एकान्त में थांमे की यादों के उमड़ आने का डर,  जो लाख न चाहने पर भी उमड़ती ही रहती थीं। दोनों बेटियाँ अगर एक साथ विदा हो र्गइं तब तो भाँय-भाँय भन्नाता वह घर थांमे के माँ-बाप की धड़कन को ही दबोच लेगा। इसलिए तय यह हुआ कि घर एक साथ खाली न करके सोमम् की शादी साल छः महीने के बाद मेरे साथ कर दी जायेगी।

अब सोमम् पहले जैसे चहकती नहीं थी। उसकी आँखे किसी गहरी झील की तरह डरावनी लगने लगी थीं। मैं उसे पहले जैसा ही देखना चाहता था इसलिए तरह-तरह की युक्ति खोजता था जिससे वह खिलखिला कर हँस दे। इसी युक्ति खोजने में एक दिन मुझे इतनी निर्मम युक्ति सूझी कि आज तक उसकी फुफकार सुनाई देती है।

हाँ बाबूजी, उस दिन वह पहाडी पर घास काट रही थी। एकदम सीधी पहाड़ी ! मैं वहाँ पहुँचा। उसने मुझे नहीं देखा। मैं उसे चैंकाना चाहा ‘‘सोमम् ! हान्।”  सुनते ही वह ऐसी लडखड़ायी बाबूजी कि बस उसकी आवाज ही गूँजती रह गई- बचाओ....बचाओ।

इतनी भयानक स्मृति के उधड़ जाने से व्यक्ति फिर आहत हो गया। मैंने स्वयं को गुनहगार माना। राख के ढेर से इतनी पुरानी टीस को टटोल-टटोल कर निकालने का काम तो मैंने ही किया था। व्यक्ति के चेहरे पर अन्तहीन दर्द फैल गया है। थोड़ी देर की चुप्पी के बाद वह आगे बताने लगा। उसकी आवाज अब कुछ अधिक भीगी-भीगी-सी हो गई है।

एक के बाद एक इस तरह घटती घटनाओं ने मुझे तोड़ दिया। जीने की इच्छा समाप्त हो गई थी। मैं स्वयं को हत्यारा मानने लगा था। मानने क्या लगा था, था ही। अब न खुशी रह गई थी न उल्लास। सिर्फ एक सहमी-सी घबराहट चैबीसों घंटे पीछा करती रहती थी। नियति को शायद यही मंजूर था, किन्तु पश्चाताप की आग एक लकीर बन कर साँप-सी बल खाती मेरे अन्तस में तैरती रहती थी। हान् के रुकने और जाने में अब मेरी कोई रुचि नहीं रह गई थी, किन्तु संदेही हान् मुझ पर तनिक भी भरोसा न करते, पकड़ कर घंटो बैठा लेते। उनके प्रश्नों से मैं तिलमिला कर रह जाता।

माँ अब अधिक डरने लगी थीं और चाहती थीं कि मैं कहीं अन्यत्र चला जाऊँ, देश छोड दूँ। जान तो बची रहेगी। मेरा भी मन अब वहाँ नहीं लगता था। तमाम यादें मुझे जकड़ लेती थीं। जो पहाड़ मुझे इतने प्यारे लगते थे वही अब डरावने लगने लगे ? चारों तरफ एक राक्षस हुंकारता रहता था। फिर भी मैं वहाँ से आना नही चाहता था। मैं न तो माँ को छोड़ सकता था न देश को। माँ रात दिन एक ही रट लगा, रहती। उनका कहना था कि कुछ दिन की तो बात है, जब सब ठीक हो जायेगा तब मैं फिर लौट आऊँगा, और तब तक वो अकेली रह लेंगी। मेरी भोली माँ, अंगारे में बर्फ मिलने की उम्मीद कर रही थी !

मैं उलझ गया था। मेरे मन में अनेक सवाल उठने लगे थे। लक्ष्य स्पष्ट नहीं था। द्वन्द्व मचा था दिल और दिमाग में। उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय का द्वन्द्व। उलझन बढ़ती जा रही थी पर दिमाग काम नहीं कर रहा था। माँ पल-पल टूट रही थीं। घुट रही थीं। मुझे वहाँ से हटाने व रखने दोनों बातों से। मैं उनकी छटपटाहट को देख रहा था। जानता था, मेरे वहाँ से न हटने के कारण वो जितना रोती हैं हट जाने से उससे अधिक रोयेंगी।

फिर एक रात, भयानक ठण्डी रात ! उसी न्याय-अन्याय के द्वन्द्व के बीच, मैं माँ के लिए माँ को छोड़कर भाग आया। माँ जो करना चाहती थीं, कर लीं, लेकिन मैं ?

मैं कुछ दूर चलता फिर पलट कर पीछे देखता। जी करता लौट जाऊँ। फिर सीने में उठती आग को दबाता मैं आगे बढता। छूटते पहाड़ मुझे रुक जाने को कह रहे थे। मेरा इरादा बदलता भी किन्तु फिर न जाने कैसे मैं आगे बढने लगता। दारुण ठण्ड में पहाड़-दर-पहाड़ लाँघता, छुपता-छुपाता आपके देश में आ गया किन्तु सच कह रहा हूँ बाबूजी, मेरी आत्मा वहीं रह गई...। तिब्बत देखे बहुत दिन हो गये। कितने उत्सव, मेले, त्योहार बीत गए होंगे अब तक। माँ की भी कुछ खबर नहीं मिली। अब जब कुछ कर पाने में असमर्थ हो गया हूँ तब उत्तर के आकाश में तिब्बत तलाशता हूँ। आकाश में अधिक बादल देख अन्दाज लगा लेता हूँ कि वहाँ भी बादल होंगे। धूप देख सोच लेता हूँ कि वहाँ भी धूप खिली होगी।

व्यक्ति चुप हो जाता है। उसके बारे में जानने को मैं जितना आतुर था, जान कर उतना ही अवसाद से भर जाता हूँ। होटल में पराठा बनाते लडके ने व्यक्ति को आवाज लगाई। उससे ऊनी कपडा खरीदने कुछ ग्राहक आ गये थे। मैं बड़े आदर के साथ व्यक्ति को प्रणाम करता हूँ। वह घुटने पर हाथ रखकर उठता है। उत्तर के आकाश की ओर निहारता है तथा हारे हुए खिलाड़ी की तरह अपने बोझिल कदमों से धीरे-धीरे चलता हुआ होटल में चला जाता है। मैं भी उठता हूँ। अब मसूरी घूमने की मेरी इच्छा तिरोहित हो गई है। मीलों फैले पहाड़ जिन्हें देखकर मन में मस्ती-सी छा जाती थी न जाने क्यों खामोश और उदास लग रहे हैं। मैं सिगरेट निकालता हूँ। सुलगा कर होंठ में दबा लेता हूँ। टीले पर बैठा लड़का अब भी बाँसुरी बजा रहा है किन्तु अब उस धुन की मधुरता कहीं खो गई है।

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कहानी

अमरावती, महाराष्ट, मो. 09422917252, Email : ashapandey286@gmail.com


खारा पानी

लड़का आज ही इस घर में आया है, नौकरी करने। मगरी, जिसके साथ वह आया है, लडके के गाँव का है। वह पिछले कई सालों से इस घर में नौकर है। उसी ने मालकिन से लड़के की पैरवी की है।

लड़का पहली बार रेलगाड़ी में बैठा। मगरी ने बताया था कि बड़ी लम्बी यात्रा है। कितनी दूर तक की होगी यात्रा !  लड़का स्टेशन पर स्टेशन गिने जा रहा था। उसे न जाने किस स्टेशन पर उतरना होगा। दिन बीत गया, दूसरा दिन आ गया। रात में नींद के कारण कुछ स्टेशन लड़के की नजर से छूट गये थे, इसका उसे गहरा अफसोस है।

एक दिन, एक रात। दूसरा भी आधा दिन! झुकझुक करती धड़धड़ाती हुई भाग आई रेलगाड़ी! कितनी बार तो गुदगुदी हो जाती थी लड़के के पेट में। एक बार तो पहाड़ में खुदी सुरंग में ही घुस गई थी रेल! कितनी देर तक अँधेरे में डरा सहमा बैठा रहा था लड़का।

स्टेशन से उतर कर इस घर तक आने में तो उसे एक और अजूबा दिखा। लड़ाकू विमान ! एक बड़े से मैदान के एक कोने में खड़ा है। कितने नजदीक से देख लिया लड़के ने हवाई जहाज को ! और वह भी कोई ऐसा वैसा हवाई जहाज नही, लडाकू हवाई जहाज!

लड़का अपनी माँ से बात करना चाहता है। उसके घर में न तो फोन है और न ही मोबाइल लेकिन गाँव में कई लोगों के घर में फोन भी है और मोबाइल भी। लड़का एक छोटी डायरी में सबका नम्बर लिखकर लाया है। एक दो लोगों के नम्बर तो उसे याद भी हैं। मगरी अपने मोबाइल से नम्बर मिला रहा है, किन्तु लड़का चाहता है कि मोबाइल उसके हाथ में आ जाये तो वह खुद नम्बर मिला ले। उसे आता है फोन करना,पर मगरी मोबाइल को अपने हाथ में ही पकड़े है।

घंटी जा रही है। उधर कोई फोन उठाया होगा। मगरी लड़के की माँ को फोन पर बुला रहा है। उसकी माँ फोन पर आ गई है। अब मगरी ने मोबाइल को लड़के के हाथ में दे दिया है। लड़का चहककर बताता है- अम्मा! मैंने यहाँ लडाकू हवाई जहाज देखा। बड़े-बड़े पंखे हैं उसके। अकास में उड़ती है तो कैसी चिरई जैसी दिखती है न ?....लेकिन पास से देखो, तब पता चलता है। अरे, बहुत बड़ी होती है.... चार ठो तोप भी यहाँ खड़ी हैं अम्मा ! जब लड़ाई होती है न, तब यही तोप चलाते हैं।

उधर माँ जानना चाह रही है कि लड़का कुछ खाया-पिया  या नहीं  ? ठीक से तो पहुँच गया  ? रास्ते में कोई परेशानी तो नहीं हुई ? लड़के को अपनी बात बताने की जल्दी है। उसे माँ के प्रश्न बेतुके लग रहे हैं। वह सिर झटक कर फुर्ती से बोला- अरे हाँ, पानी पी लिया न.... बहुत ठंडा और मीठा पानी था। पानी का ठंडा और मीठा होना लड़के के लिए खुशी की बात थी, किन्तु उससे अधिक खुशी और आश्चर्य उसे इन नई-नई चीजों को देखने से हुई है। लड़का फिर से अपनी बात पर आ गया- ‘अरे अम्मा, जिस रेलगाड़ी में बैठकर मैं आया वो बहुत लम्बी थी। बाहर से देखो तो सारे डब्बे अलग-अलग दिखाई दे रहे थे, लेकिन अन्दर से न, सब जुड़े रहते हैं। एक डब्बे से दूसरे डब्बे में जितना मन हो उतना घूमो। पूरी बाजार उसी डब्बे में मिल जाती है अम्मा ! चाय, समोसा, मूँगफली, अमरूद, पानी, किताब खिलौने, जो चाहो, ले लो.... और पानी बोतल में भर-भर कर मिलता है। जैसे टी-वी- में दिखाया जाता है न, बोतल में पानी, वैसे ही एकदम ठंडा, बरफ जैसा। जितनी चीजें मैंने टी-वी-में देखी थी न अम्मा, सब सही-सही में देख ली मैंने। रेलगाड़ी, हवाई जहाज, तोप, सुरंग। सब, सब कुछ।

लड़के की बातें सुनकर माँ का दिल भर आया होगा। उसकी आवाज कंपकपा गई होगी। लड़का पूछ रहा है- क्या हुआ अम्मा ? तुम्हारी आवाज़ घड़घड़ा रही है ? मैं जहाँ आया हूँ न, वह अपने घर से बहुत दूर है। लगता है लाइन नहीं मिल रही है। ऐसा होता है अम्मा, लाइन नहीं मिलती। अच्छा, अब रख दो। कहकर लड़के ने झट से मोबाइल का बटन दबा दिया। मोबाइल बन्द हो गया। लड़के ने चमकती आँखों से मोबाइल को मगरी की ओर बढ़ा दिया। देख ले मगरी, मोबाइल बन्द करना लड़के को आता है। अरे, वो तो पढ़ने में थोड़ा मन नहीं लगा इसलिए, छोड़ दी पढ़ाई। क्या करता, कैसे पढता ? पाँचवी में ही तो था जब बाबू मरे। फिर मजूरी के लिए निकलना पड़ा। जिस समय स्कूल में सालाना परीक्षा शुरू होती, उसी समय खेतों की कटाई और बोझ ढोआई का काम भी शुरू हो जाता। लड़का मजूरी करने में लग जाता। दो वक्त के भोजन का प्रश्न हल करते-करते किताब के सारे प्रश्न भुला जाते उसे। परीक्षा में कुछ लिख ही न पाता। छठीं में दो बार फेल हो गया तो माँ चिन्तित हुई। काम कभी मिलता, कभी न मिलता। जिस दिन न मिलता, उस दिन लड़का गाँव के आवारा लड़कों के साथ मटरगश्ती करते घूमता रहता। माँ डरती, कहीं उल्टी सीधी आदत लग गई तो समझो गया हाथ से। पढ़ना लिखना तो अब नही हो पायेगा इससे। किसी अच्छे घर में नौकर लग जाता तो दो चार अच्छी बातें ही सीखता।

मगरी ने लड़के की माँ को उम्मीद दिलाई थी कि वह अपनी मालकिन से बात करेगा। लड़के का भाग्य ! मालकिन मान गई; तभी तो मगरी के साथ आया है लड़का।

मगरी लड़के को पूरा घर दिखा रहा है। इतना बड़ा घर! लड़का आश्चर्य  में पड़ा है- पूरे घर मे छ-सात नल! एक घर में इतना पानी ! वह भी मीठा ! बाल्टी से नापे तो कितनी  बाल्टी होगा ? कितना नापे लड़का। एक बाल्टी का पानी खत्म नहीं होगा कि नल खोलो, दूसरी बाल्टी भर जायेगी। घर के लोग जहाँ नहाते हैं वहाँ कितना बड़ा तो हौद जैसा कुछ बना है। मगरी ने लड़के को बताया कि इस हौद को ऊपर तक पानी से भरकर न जाने क्या-क्या उसमें मिलाते हैं,  फिर घंटों उस पानी में बैठे रहते हैं। मीठे पानी से नहाते हैं ये लोग !

लबालब पानी से भरा टब, बाल्टी, मटका! जितना चाहो नहाओ, जितना चाहो गिराओ। एक उसका गाँव है, खारे पानी से भरा हुआ। पीने के लिए मीठा पानी तो दो कोस दूर से लाना पड़ता है। बिलकुल संभल-संभल कर चलना पड़ता है। बूँद भर पानी भी अगर घड़े से छलक कर गिर जाता है तो कई-कई दिन अफसोस होता है। सुबह उठने से लेकर रात सोने तक बूँद बूँद पानी जुटाने की चिन्ता।

याद है लड़के को, पानी के लिए गाँव के परधान ने उसके बाबू की कितनी हुज्जत की थी। वह तो समझ ही न पाया था कि उससे कसूर कहाँ और कैसे हो गया। बाबू के साथ परधान के घर गया था लड़का। दौड़कर खुशी-खुशी परधान को पैलगी करने ही तो झुका था। न जाने कैसे उसका पैर लोटे से टकरा गया। छलक गया घूंट दो घूंट पानी। बस, परधान गुस्सा गये। ऐसा गरियाना शुरू किये कि बाबू की सिट्टी - पिट्टी सब गुम हो गई। पीने का पानी रखा था 

परधान ने, फेकना पड़ा था उन्हें। लड़के का मन हो रहा था कह दे- न फेकें पानी, वह पी लेगा, लेकिन  डर के मारे मुँह सूख गया था, बोलता कैसे। उसके बाबू हाथ जोड़े  खिसियाये - से खड़े रह गये थे परधान के आगे। डरा था लड़का कि अब घर चलकर बाबू की मार पड़ सकती है, पर बाबू उसे कुछ नहीं बोले। बस, उसकी अम्मा से इतना कहे कि ई  बड़ा चिलबिल्लहा होता जा रहा है,  देख सुनकर कुछ करता ही नहीं। मूंडी दबाये रहता है। परधान के लोटा म गोड़ मार दिया। मीठा पानी था। पूरा पानी फेकना पड़ा परधान को।

उस रात लड़का बड़ा बेचैन हुआ था। सो नही पा रहा था। उसके बाबू, अम्मा तक से नही बताये कि इस नालायक के कारण उन्हें परधान से कितनी गाली खानी पड़ी। कलेजे में हूक उठती रही रात भर। पहली बार जाना था लड़का हूक उठने का दरद।

अब देखो तो कैसा स्वरग में आ गया है लड़का !! एकदम घर के सामने ही लपलपाती हुई चिकनी काली सड़क है। गाड़ी, मोटर, फटफटिया सब दौड़े जा रहे हैं। सोनुआ होता तो देखता कि लड़का कितनी अच्छी जगह आ गया है। ऐंठा ही रहता था हमेशा। उसके घर टी-वी- थी न, उसी की धाक जमा, रहता था। कुछ सही, कुछ गलत मिलाकर ऐसी कहानी गढ़ता था कि गाँव के सारे लड़के उसके आगे-पीछे घूमते रहते थे।

वह तो सारी चीजें टी-वी- में देखता था। वो भी, जब लाइट रहती थी, तब। यहाँ तो चैबीसों घंटे लाइट है। लड़का जितना चाहेगा टी-वी- देखेगा। आ कर देख ले सोनुआ, जिन चीज़ों को वह टी-वी- में देखता था लड़का उन सभी को सही-सही में देख रहा है।

मालकिन ने लड़के से बाथरूम धो डालने को कहा। लडका मग्गे से थोड़ा-थोड़ा पानी गिराकर बाथरूम धोने लगा। मालकिन ने देख लिया, मगरी पर चिल्लाईं- ‘मगरी इसे ठीक से सिखा कि बाथरूम कैसे धोया जाता है। लग रहा है जैसे तेल लगाकर बाथरूम को चिकना कर रहा है।

मगरी  मालकिन की आवाज पर फुर्ती से आया, बाथरूम में सर्फ फैलाकर ब्रश से रगड़ा  फिर बाल्टी भर-भर कर पानी डालने लगा। लड़के का कलेजा मुँह को आ गया-बाप रे इतना पानी, बाथरूम धोने के लिए !

मगरी के सिखाने पर लड़का बाथरूम धोना सीख गया  है। अब सर्फ फैलाकर रगड़ता है और बाल्टी भर-भर कर पानी गिराता है। बाथरूम एकदम चमक जाता है। पर न जाने क्यों जब-जब वह पानी गिराता है उसके दिल में टीस-सी उठती है। वह गिनता है- एक बाल्टी गिराया, दो बाल्टी गिराया, तीन बाल्टी गिराया ! इतने में तो उसकी अम्मा हफ्ते भर के कपडे धो डालती। उसका जी करता है कि ये पानी, जो यहाँ फेंक बहा दिया जाता है उसे बटोरकर वह अपने गाँव ले जाये। लेकिन क्या करे, पानी को इतनी दूर ले जाना आसान नहीं है। अगर भगवान ने पानी को इस तरह से न बनाकर कुछ अलग तरह का बनाया होता जैसे- पाउडर की तहर, तब वह सारा पानी, जो ये लोग फेंक बहा देते हैं, घर ले जाता। उसकी अम्मा खुश हो जाती।

पानी भी खिलौना बन सकता है, लड़का यहीं देख रहा है। उस दिन की ही तो बात है मालकिन के दोनों बच्चे बगीचे का नल खोलकर खेल रहे थे। पूरी धार में पानी बह रहा था। लड़के ने दौड़कर नल बन्द कर दिया। बच्चे रोने लगे। उनके  रोने की आवाज मालकिन तक पहुँची। मालकिन भागती हुई बगीचे में आईं। लड़का सोच रहा था कि उसने नल बन्द करके अच्छा काम किया, मालकिन खुश होंगी, किन्तु उन्होंने लड़के को जोरदार डांट लगाई। बच्चों के खेल में व्यवधान! और वह भी पानी की वजह से!

मगरी समझाता है लड़के को-पानी की चिन्ता मत किया कर, यहाँ बहुत पानी है। देख, मैं तो नही करता। इस घर का जो तरीका है उसको समझ और वैसे ही काम किया कर। हर जगह अपनी टाँग मत घुसाया कर।

लड़का मगरी की बात मानता है। वैसा ही करने की कोशिश करता है, पर न जाने कैसे काम में गलती निकल ही आती है।

लड़का नौकर है। नौकर की उम्र पर ध्यान  बाद में जाता है, उसके काम पर पहले। वह डाँट खाता है, झिड़की खाता है, खाना खाता है। लड़का सब कुछ पचाता है। मीठे पानी में सब कुछ पच जाता है।

लड़का, लड़का है। नई-नई चीजें देखकर उसे उन्हें छू लेने का शौक लगता है। नई चीजें नाजुक होती हैं। छूने पर उनमें कुछ न कुछ हो ही जाता है। नई चीजें बड़ी शौक से खरीदी जाती हैं, इसलिए उनके पुराने होने का डर हमेशा बना रहता है। नई चीज़ों का चिटकना ही नहीं खुरच जाना भी असह्य होता है। लड़का इन बातों को नहीं समझता है। ओवन ऑन कर देता है, फ्रिज खोलकर खड़ा हो जाता है। वह जिज्ञासु है, लेकिन मालकिन उसकी जिज्ञासा का क्या करें। वह झटके से कीमती गिलास उठाता है, मालकिन डर जाती हैं कि अभी तो गिर गया होता- लड़का डांट खाता है।

वह कई कारणों से डांट खाता है। कप चिटकाता है- डांट खाता है। कमरे में कोई नही है और पंखा चल रहा है- लड़का डांट खाता है। दरवाजा खुला है-  लड़का डांट खाता है। डांट खाते-खाते लड़का इतने भ्रम में रहने लगा है कि वह समझ ही नही पाता कि क्या सही है, क्या गलत? जिसे वह सही समझकर करता है वह गलत सिद्ध हो जाता है, लड़का डांट खा जाता है।

अब लड़के को यहाँ कुछ भी अच्छा नहीं लगता। पहले सतरंगी-सी लगने वाली ये दुनिया अब उसे बेजान-सी लगती है। गाड़ी, मोटर, सड़क, ओवन, फ्रिज, पंखा, टी-वी- सब बेजान।

दिन भर काम करके रात को जब लड़का लेटता है तो उसे अम्मा की बहुत याद आती है। उसकी अम्मा होतीं तो वह दुबक कर, उनके पास सो जाता। अम्मा उसका सिर सहलातीं, पैर दबातीं। जब उन्हें लगता कि वह सो गया है, तब वो 

धीरे से उसका माथा चूम लेतीं- वह खुश हो जाता। वह तो आँख मूंद कर सोने का नाटक करता था नींद तो उसे अम्मा के माथा चूमने के बाद ही आती थी।

सोनुआ इस समय क्या कर रहा होगा ? जरूर टी-वी- देख रहा होगा। उसकी अपनी टी-वी- है, अपने घर में बैठकर चाहे जब तक देखे। लड़के को तो काम से ही फुर्सत नही मिलती। टी-वी- कब देखे। सोनुआ कम से कम टी-वी-पर आने वाले सीरियल या सिनेमा की कहानी तो बताता था। यहाँ तो कमरे में आते जाते थोडी सी झलक भर मिलती है सीरियल की।

लड़के को नींद नहीं आ रही है। मगरी ने करवट ली तो लड़के ने पूछ लिया - ’’दादा कै बज रहा है ? मुझे तो नींद ही नहीं आ रही है।‘‘ 

मगरी मोबाइल की बटन दबाकर नींद भरी आँखों से देखता है- ’’एक बज रहा है, सो जा, सुबह जल्दी उठना होता है न।‘‘

मगरी करवट बदलकर फिर सो जाता है। लड़का जग रहा है। उसे फिर सोनुआ की याद आती है। वह भी इस समय सो रहा होगा। उसे इतना काम थोड़े ही करना पड़ता है कि हाथ-पैर में दर्द हो और नींद न आये। वह अपनी अम्मा के पास है।

लड़का निराश हो जाता है। उसकी अम्मा अकेली गाँव में पड़ी हैं। मजूरी करने जाती हैं। बाबू थे, तब कभी मजूरी करने नही जाना पड़ा  था उन्हें। बाबू जाने ही नही देते थे। अब बाबू नहीं हैं, वह भी यहाँ आ गया। अम्मा कितनी अकेली पड़ गई हैं। बाबू के गुजर जाने के बाद जब वह घर पर था तब अम्मा को उसके लिए खाना बनाने उठना पड़ता था। खाना बनता तो अम्मा भी खा लेती थीं। अब पता नही बनाती खाती भी होंगी या नहीं।

अगर अम्मा यहीं पास में रहतीं तो ! मालकिन के घर में अम्मा को भी कुछ काम मिल जाता तो ! किलक कर खुश हो जाता है लड़का। याद आया उसे,  एक दिन मालकिन मगरी दादा से कह रही थीं कि मगरी फैक्ट्री में तेरी बड़ी जरूरत है। रसोई का काम धीरे-धीरे इस लड़के को सिखा दे और तू साहब के साथ फैक्ट्री में जाया कर।

अगर मालकिन उसकी अम्मा को खाना बनाने के लिए बुला लेतीं तो कितना अच्छा होता। वह मालकिन से कहेगा, उसकी अम्मा कितना अच्छा खाना बनाती हैं। एक बार अगर मालकिन अम्मा के हाथ का खाना खा लेंगी तब कभी अम्मा को काम से नहीं हटायेगी। लड़के को विश्वास है। उसे पैसा नहीं चाहिए। मालकिन चाहें तो उसकी अम्मा को भी पैसा न दें। केवल रहने भर की जगह तथा दो वक्त भोजन दे दें बस। बदले में चाहे जितना काम करवा लें।... यहाँ अम्मा मीठा पानी पियेंगी, मीठे पानी से नहायेंगी, साथ रहेंगी... कितना अच्छा लगेगा।

लड़का सोचता है जब मगरी दादा उसे रसोई का काम सिखाने लगेंगे, तब वह नही सीखेगा, गलती पर गलती करेगा। जब मालकिन परेशान हो जायेंगी तब उसी बीच वह खुद या मगरी दादा से कहकर अम्मा के बारे में मालकिन से बात करेगा।

लड़के से अब तक गलती हो जाती थी, किन्तु, रसोई के काम में वह जान-बूझ कर गलती करने लगा है। मालकिन नाराज होती हैं, लड़का मन ही मन खुश होता है। लड़का गलती दोहराता है, डांट दोहराई जाती है। मगरी भी लड़के पर चिढ़ता है। कहता है- ’’सम्भल जा, नही तो निकाल दिया जायेगा। फिर से गाँव जाकर उसी गरीबी में रहना। तेरी माँ बेचारी चार पैसे की आस लगाये बैठी रहती होगी और तू है कि काम करना ही नही चाहता। माँ की तनिक भी परवाह नही है तुझे।‘‘

लड़का गहरे  दुःख में है। मगरी दादा यह क्या कह दिये ! इतनी डांट, इतनी टोका-टोकी वह क्यों सह रहा है ? लड़का जो कुछ सोचता है वह उल्टा ही हो जाता है। मगरी दादा की इस सोच और नाराजगी से तो अच्छा है वह ठीक ढंग से काम करे।

कोशिश करने लगा है लड़का। पर, भूल उससे हो ही जाती है। अभिनय  करते-करते वह स्वयं से बहुत दूर चला गया है। उसे अब खुद इस बात का अन्दाज नहीं लग पाता कि वह अभिनय कर रहा है या गलती  अपने आप हो जाती है। वह महसूस करता है कि उसके भीतर एक दूसरा लड़का जन्म ले लिया है। जिसपर उसका वश नहीं चलता। उसकी बुद्धि कुन्द होती जा रही है।

लड़का बिस्तर बिछा रहा है। चादर टेढी हो गई है। मालकिन चिढ़ गई हैं- ’’एक काम ढंग से नहीं कर पाता तू, छोड़ दे चादर, जाकर बरतन माँज‘‘

लड़का नल के नीचे जूठे बरतनों को माँज-धो रहा है। अरे, उसे सब धुंधला कैसे दिख रहा है ! नल के पानी से कुछ छीटें उड़कर उसकी आँखों में भी पड़ गई हैं क्या !

आज यूँ गीली कैसे हो गईं !

और अब गालों पर !

होंठ तक लुढ़क आया यह पानी !!

इतना खारा ! यह नल का नहीं है ! क्या फिर से खारे पानी के दिन आ गये  ! !

लड़का सिर को कन्धे की तरफ झुकाकर शर्ट की बाहों में अपनी आँखें पोछ लेता है और बरतन माँजने लगता है.....

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कहानी

अमरावती, महाराष्ट, मो. 09422917252, Email : ashapandey286@gmail.com


चबूतरे का सच

लगता है बैंड सिर पर बज ही जायेगा। तमाम कोशिश बेअसर हो गई। छोटी से कुछ उम्मीद बढ़ी थी उर्मिला को। किन्तु आज वो भी छिटक गई। कह रही थी, ‘‘दीदी, तुमको काकी के यहाँ रहने की जगह तो मिल ही गई है, अब इन लोगों से क्यों उलझती हो ? जेठ जी तुमको वहाँ से तो नहीं निकाल रहे हैं। सोचो, अगर जेठ जी अड़ जाएँ तो काका-काकी तुम्हें रख पाएँगे क्या ? इज्जत से ससुराल के घर में ही तो पड़ी हो। संतोष करो।

सपाट आवाज में कहे गए इन शब्दों में किसी प्रकार का अपनापन नहीं था। तो क्या अब छोटी भी यही सोचने लगी है कि पत्नी को खाने-पीने और रहने की जगह भर से संतुष्ट रहना चाहिए ! माँग  के सिंदूर का बस यही सुख है ! क्या हो गया है छोटी को ! क्या बाहर के सुख और भीतर के सुख में जो महीन अंतर है, उसको समझना छोड़ दिया है उसने !

उर्मिला का धैर्य टूट रहा था। पूछना चाहती थी कि देवर जी तुम्हें छोड़कर दूसरा विवाह कर लें तब क्या तुम इतनी उदार रह पाओगी कि किसी के द्वारा दी गई चंद सुविधाओं पर संतोष कर लो। पर पूछा नहीं। कितना मुश्किल होता है किसी के दुख को अपने दुख जैसा समझना।

एक छोटी ही तो थी जो उससे चोरी-छिपे मिलती थी। उसके जख़्म को सहलाती थी। खामोश और अँधेरी रातों में भी वह अकेली नहीं है, यह अहसास दिलाती थी। कितनी बार चुपके-से काकी के घर आकर बोल जाती थी कि, दीदी तुम हिम्मत रखना, जेठ जी का दूसरा ब्याह मैं नहीं होने दूँगी। लगी हूँ कोशिश मे। क्या हो गया उसकी कोशिश को? जानती थी उर्मिला, छोटी के लिए यह सरल नहीं था किन्तु इतना कठोर क्यों हुई ? कम से कम शब्दों का ही सहारा देती। इतना सपाट क्यों बोली आज ! क्या पल्लू झाड़ लेना चाहती है उससे ? छोटी करे भी क्या ? इस घर के बाहरी और भीतरी कायदे को तो उर्मिला भी जानती है। कई वर्षों तक सास के कहे-अनकहे भावों को पढ़ती रही है वह। पति के पोर-पोर से परिचित है। यहाँ विरोध का एक भी शब्द सहा नहीं जाता। इस घर में पूरे अधिकार के साथ जमे रहने का गूढ़ मंत्र छोटी को समझ में आ गया लगता है।

हृदय में लावा-सा फूटा। एक वर्ष बीत गया इस प्रयास में कि रघुबीर का दूसरा विवाह न होने पाए। ससुर  से अपनी कमियों को जानना चाहा। सास के आगे गिड़गिडाई। कई बार रघुबीर से मिलने का प्रयास किया। सप्तपदी के श्लोक और अग्नि के फेरे कोई खेल नहीं होते कि उन्हें एक मन से बोला जाए, दूसरे मन से भुला दिया जाए। रघुबीर को सोचना पड़ेगा। उर्मिला मजबूर करेगी उसे सोचने के लिए। पर क्या कर पाई ? सारे प्रयास रेगिस्तान में मोती खोजने जैसे साबित हुए।

काका ससुर के यहाँ रहने की जगह मिल गई है। वहाँ से बस इतनी ही उम्मीद है। वो भाई के घरेलू मामलों में उलझना नहीं चाहते थे। गाहे-बगाहे उसे ही समझाते हैं, ‘‘क्या कमी है मेरे घर में, यही पड़ी रहो। काकी कुछ 

उदाहरणों द्वारा अपने घर में मिलने वाले सुख को गिनाने लगती हैं। उर्मिला दुखी हो जाती है। सोचती है, कैसे कहे कि दया में मिलने वाले ये सुख प्रतिपल उसकी निस्सहाय अवस्था की याद दिलाते रहते हैं। पर इन लोगों को क्या कहे जब अपना ही सिक्का खोटा हो।

वर्षों से उपेक्षा सहते-सहते उर्मिला की आँखें पथरा गई थीं। रोना छोड़ दिया था उसने। कठोर बने रहने का स्वाँग रचती रही अब तक। किन्तु आज छोटी के पास से लौटने के बाद वह एकदम टूट गई। हृदय में न जाने कैसा सागर उमड़ा कि आँखें लबालब छलर्क आइं।

कब पड़ने लगी थी दरार और वह यूँ घर से बेदखल कर दी गई थी, उर्मिला ने सोचना शुरू किया। कुछ बातें जो बहुओं के हुनर में कशीदा-सी मढ़ जाती हैं वही इस घर में दोष साबित हो र्गइं।

उन दिनों गाँव तो क्या शहरों में भी लडकियों की पढाई-लिखाई की तरफ कोई अधिक ध्यान नहीं देता था, उर्मिला ने अपने पिता से अक्षर-ज्ञान प्राप्त कर लिया था और रामचरितमानस, दुर्गा चालीसा, सप्तशती आदि पुस्तकें बाँचने लगी थी। पिता ने दहेज मे झबिया, संदूक, पिटारी, पलंग आदि चीजों के साथ दो-चार धार्मिक पुस्तकें भी दे दीं। यही वजह थी कि उर्मिला ससुराल में भी कुछ देर के लिए पुस्तकों को फैलाकर बैठ जाती थी।

एक दिन सेठ रतन सिंह, जिन्हें इस बात का गर्व था कि उनकी बहू रामायण, गीता आदि पढ लेती है, आँगन में आकर बोले, ‘‘सुना है बहू रामायण का पाठ अच्छा करती है, जरा मुझे भी सुनाती। घर में ससुर के सामने हाथ भर घूँघट में रहने का रिवाज था। उर्मिला सामने नहीं आई किन्तु दरवाजे की ओट से मानस की कुछ चैपाइयाँ सस्वर सुना दी। रतनसिंह गद्गद् हो गए। सुर, उच्चारण, भक्तिभाव और तल्लीनता की मुक्त कंठ से प्रशंसा कर दिये। सास की भृकुटी तन गई। ससुर के जरा-सा कहने पर बहू ने किस बेशर्मी से गा-गाकर रामायण सुना दी, यह बात बेटे समेत घर के अन्य सदस्यों तक पहुँच गई।

शक्की मिजाज का रघुबीर, जिसे पहले भी पत्नी में कोई खास रुचि नहीं थी, तनकर खडा हो गया। सेठ परिवार का गाँव में खूब दबदबा था। रघुबीर का मानना था कि ऐसे घर की बहुओं को दबकर रहना चाहिए नहीं तो गाँव भर में घर-परिवार की नाक कट जाती है। उर्मिला सोचती, कुछ परिवारों की नाक इतनी नाजुक क्यों होती है कि बहू के जरा-सा बोलने या घूँघट हट जाने भर से कट जाती है। वह लाख कोशिश करती किन्तु जहाँ सिर झुकाकर जरूरी,गैर-जरूरी, उचित-अनुचित को मान लेना ही कायदा था, वहाँ उर्मिला कैंची की तरह जबान चलाने वाली मनबढ़ी औरत साबित हो गई थी।

सात पुश्तों को बखानती सास की गालियाँ सुन-सुनकर उसका मन छलनी हो चुका था। पति का मिजाज भी गर्म ही रहता। सेठ रतनसिंह का दबदबा बाहर चाहे जितना रहा हो, घर की चारदीवारी के अंदर उनकी एक न चलती।

इधर उर्मिला में एक अवगुण और समा गया। शादी को पाँच वर्ष हो गए किन्तु वह सास को दादी नहीं बना पाई। गाँव में इससे बाद आई बहुओं ने अपने-अपने घरों को किलकारियों से भर दिया। अब सास की इच्छा थी कि बेटे का दूसरा विवाह कर दिया जाए किन्तु, उर्मिला घर से हटने को तैयार नहीं थी।

सेठ रतन सिंह कुछ दिनों के लिए कहीं बाहर गए थे। एक दिन सास ने उर्मिला को सुनाते हुए बेटे से कहा, ‘रघुबीर, बहुत दिनों से बहू कहीं गई नहीं है। उसका मन भी बाहर घूमने-फिरने को करता होगा। कहीं और नहीं तो जाकर गंगा स्नान ही करा लाओ। माँ के कहने और बेटे के मान लेने में जो प्यार झलक रहा था वह उर्मिला के लिए सातवें आश्चर्य से कम नहीं था। उसे थोडी शंका हुई। वह रघुबीर से पूछना चाहती थी कि मुझमें आज ऐसी कौन-सी अच्छाई उपज आई जो आप लोग इतना प्यार उँडेल रहे हैं। पर हाथ में आई खुशी के पल की शुरुआत नोक-झोंक से क्यों हो, यह सोच चुप रह गई।

सुबह तड़के घर से निकलने के बाद भी संगम तट पर पहुँचते-पहुँचते खासी दोपहर हो गई थी। सूर्य की किरणों से गंगा का जल चमक रहा था। ध्यान से देखने पर जल में हल्की लहर-सी उठती  दिख रही थी। ऐसी ही एक खुशी की लहर उर्मिला के हृदय में भी उठ रही थी। अपने पति में आए इस बदलाव के लिए उर्मिला माँ गंगा के प्रति कृतज्ञ हो रही थी और इस प्रेम को सदा बनाए रखने के लिए प्रार्थना कर रही थी। प्रार्थना रघुबीर भी कर रहे थे पर उनकी प्रार्थना संबंधों के बने रहने की थी या कुछ और, यह तो वही जानें।

उर्मिला को कुछ अक्षर ज्ञान जरूर था किन्तु थी वह गाँव की ही। कुछ सपने, कुछ प्यार, कुछ विश्वास और ढेरों भोलापन लिए वह पति के साथ निकल पड़ी थी। गंगा मइया के दर्शन से वह धन्य हो गई थी। रघुबीर उसे घुमाते-फिराते, उसके विश्वास को जीतते, आराम से आगे बढ़ रहे थे। शाम धुँधला रही थी किन्तु उन्हें कोई जल्दी नहीं थी और जब पति साथ में है तो उर्मिला को भी शाम होने या रात के आने की चिंता नहीं थी। दर्शन आदि के बाद जब रघुबीर उर्मिला को लेकर बाँध पर आकर खडे़ हुए तब शाम गहराकर रात में तब्दील हो रही थी। बाँध पर बने एकाध छोटे-मोटे मंदिरों के सामने कुछ पुरुष मंडली बैठी थी जिनमें अधिकांश तो पंड़े थे, कुछेक मल्लाह भी थे। थोड़ी दूर पर गाँजा पीते हुए 

साधुओं का झुंड भी था। साधुओं के पास ही कुछ लड़के ताश खेल रहे थे। पूजा सामग्री आदि बेचने की जो दो-चार दुकानें आस-पास थीं। वे भी समेटी जा रहीं थीं। रघुबीरसिंह ने उर्मिला से कहा, ‘‘आज हम लोग यहीं रुकेंगे कल इलाहाबाद शहर घूमकर फिर चलेंगे।

 ‘‘लेकिन रुकेंगे कहाँ? उर्मिला ने शंका व्यक्त की।

‘तुम चिंता मत करो, मैं कुछ व्यवस्था करता हूँ। चारों तरफ नज़र दौड़ाकर रघुबीरसिंह ने कहा, ‘यहाँ इस मंदिर के पीछे बाँध से थोडा नीचे शायद एक धर्मशाला है। तुम यहीं रुको मैं पता करके आता हूँ। आठ-दस कदम आगे बढ़कर रघुबीरसिंह अचानक फिर लौट पड़े। धीरे-से पत्नी के कान में कुछ बोले। उर्मिला ने गले की चेन, कान के बुंदे आदि जो कुछ भी आभूषण शरीर पर था, उन्हें उतारकर पति के हवाले कर दिया।

रघुबीरसिंह धर्मशाला का पता लगाने बाँध से नीचे उतरे। उर्मिला वहीं खड़ी पति का इंतजार करने लगी। समय बीतने लगा। आस-पास के पुरुषों की नजरें उर्मिला पर ठहरने लगीं। उर्मिला कुछ भयभीत हुई। अब तक शहर की तमाम बत्तियाँ टिमटिमा गई थीं। जलती बत्तियों से पता चला कि वहाँ से कुछ दूरी पर बाँध के दाहिनी तरफ कोई मुहल्ला है। सामने एक डेढ़ किलोमीटर का सुनसान मैदान है। मैदान के उस पार से शहर शुरू होता है। उर्मिला ने बाँध से पीछे मुड़कर देखा, पीछे दूर तक घनघोर अँधेरा! इसी अँधेरे के बीच कहीं माँ गंगा की धारा होगी किंतु उस समय कुछ भी अंदाज लगाना मुश्किल हो रहा था। बाँध पर बत्तियाँ नहीं थीं। चिमनी, लैंप, लालटेन का सहारा था।

उर्मिला के मन में भयानक आशंका घर बना रही थी किन्तु उस स्थिति में भी तमाम तरह के तर्क मन में उठ रहे थे जो रघुबीर सिंह को किसी मुसीबत में फँसा हुआ सोचने पर मजबूर कर रहे थे। धोखा होने की प्रबल संभावना के बाद भी उर्मिला का नारी मन रघुबीर सिंह का इंतजार करने पर ही अड़ा रहा। घंटों इंतजार के बाद भी रघुबीरसिंह नहीं लौटे। जिस यात्रा की शुरुआत ने उसके खाली आँचल में खुशियाँ भर दी थीं उसका अंत इतना दयनीय और त्रासद होगा, इसका उसे अंदाज़ा भी नहीं था।

उर्मिला जहाँ खड़ी थी उसके ठीक सामने एक छोटा-सा मंदिर था। वहाँ एक वृद्ध पुजारी बैठे थे। न जाने कैसे उर्मिला को आशा की एक किरण दिखी। वह साहस करके मंदिर में गई और बाबा को प्रणाम करके उनके पास ही बैठ गई। बाबा ने आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ उठाया तो उर्मिला रो पड़ी तथा सारी स्थिति बयान कर दी।

गाँव की किसी बेशऊर लड़की (उर्मिला के बारे में रघुबीरसिंह का यही खयाल था) को घर से सत्तर किलोमीटर दूर रात के अँधेरे में छोड़ आने के बाद रघुबीरसिंह निश्चिंत थे। उर्मिला के लौट आने की कोई संभावना नहीं थी। मर-खप जाएगी कहीं या पंडों के साथ बैठ कर घाट पर चंदन घिसेगी। क्योंकि रघुबीरसिंह ने पैसे आदि तो दूर शरीर पर के गहने तक उतरवा लिए थे और अपनी इस  कामयाबी पर खुश थे। गाँव भर में खबर फैला दिये कि बड़ी भीड़ थी संगम पर, नदी में उतरी तो साथ पर न जाने  डुबकी लेते ही नदी में समा गई या भीड़-भाड़ का फायदा उठाकर कहीं चली गई। बदचलन का क्या भरोसा। मैं अपने स्नान-ध्यान में लगा था, थोड़ी देर बाद जब मेरा ध्यान गया तो उसका कहीं पता ही नहीं। बहुत खोजा, फिर मन मारकर लौट आया।

किन्तु रघुबीर सिंह की खुशी को गहरा धक्का तब लगा जब दूसरे दिन शाम तक किसी अनहोनी की तरह उर्मिला दरवाजे़ पर प्रकट हो गई। रघुबीरसिंह  भौचक्के रह गए किंतु, सास अकड़कर खड़ी हो गई। रात कहीं और बिताकर आने के बाद अब उस दुश्चरित्रा का घर में प्रवेश निषिद्ध था।

उर्मिला की अर्धवयस्क चेतना चीत्कार कर उठी, नसें विरोध में तन र्गइं। मन में आया कि, चिल्ला-चिल्ला कर कहे कि अगर दंड देना ही है तो अपने बेटे को दो जो मुझे असहाय छोड़कर भाग आया था। पूछे कि, उस समय आप लोगों का स्वाभिमान कहाँ चला गया था ? वह तो भला हो पुजारी बाबा का, जो आज मैं सकुशल आपके दरवाजे पर खड़ी हूँ। किंतु वह चुप रह गई। जानती है, यहाँ सब उसे घर से निकालने पर ही तुले हैं जो वह नहीं होने देगी। पहले थोड़ा रोष, थोड़ा अधिकार दिखाने के बाद अंत में तमाम तरह की बिनती के बाद भी उर्मिला के लिए घर का दरवाजा नहीं खुला।

उर्मिला उस समय की ग्रामीण महिलाओं की तरह ही डर, भय, लज्जा, संकोच से लबालब भरी होकर भी अपनी आंतरिक चुभन और कसक के कारण उन सबसे थोड़ी अलग साबित होती थी। डर, भय, लाज को त्याग अन्याय के विरोध में खड़ी होने का साहस था उसमें। पूरी रात उसने भौंकते कुत्तों के बीच बाहर बैठ कर बिता दी किंतु अड़ोस-पड़ोस से आश्रय माँगने नहीं गई।

दूसरे दिन सुबह रघुबीर सिंह की काकी अपनी जेठानी को भला-बुरा सुनाती हुई उर्मिला को अपने घर ले जाने आई। उर्मिला ने प्रतिकार किया, ‘अगर घर में प्रवेश दिलाना ही है तो इस घर में दिलाओ जहाँ मैं ब्याह कर आई हूँ, कहीं और मैं नहीं जाऊँगी। किंतु, जब उसके काका ससुर भी उसे समझाने लगे तब वह कुछ नहीं बोल पाई और उनका सम्मान करती हुई उनके घर चली गई।

उर्मिला रघुबीरसिंह के दूसरे विवाह को रोक नहीं पाई। दिन-दिन भर खटते हुए और रात-रात भर जगकर उलझे विचारों को सुलझाते हुए उर्मिला ने दो वर्ष और बिता दिए। वह काली भयानक रात, जब रघुबीरसिंह का दूसरा विवाह हुआ, न जाने कैसे उर्मिला की हर रात में मिल जाती। न सिर्फ इन बीतती रातों में बल्कि उर्मिला के विवाह की रात में भी। वैसे ही वेद मंत्रों के बीच पवित्र वचनों को दोहराया होगा रघुबीरसिंह ने ! वैसे ही फेरे.... सिंदूरदान.... उर्मिला अपमान से तिलमिला जाती। आक्रोश में उठकर बिस्तर पर बैठती किंतु फिर स्वयं ही संयत होकर आसानी से न आने वाली नींद का इंतजार करती। सोचती, क्यों पड़ी है यहाँ ? क्या अब भी उसे उम्मीद है कि रघुबीरसिंह अपने रूखेपन पर पछताकर किसी दिन आएगा और अपनी गलती स्वीकार करेगा। सिर्फ इस एक वाक्य को रघुबीरसिंह के मुख से सुनने की इतनी ललक! क्या रघुबीरसिंह के गलती स्वीकार कर लेने भर से वह उसे माफ कर देगी। उर्मिला की आँखों में रघुबीरसिंह का इंतजार ठहर-सा गया है।

पिता कई बार लेने आए पर वह नहीं गई। कुछ है जो उसे यहाँ रोकता है। शायद कुछ स्वप्न, कुछ इच्छाएँ, कुछ उम्मीदें और सबसे बढकर शायद उसका अपना स्वाभिमान।

इन बीते सालों ने उसकी तमाम इच्छाओं को निगल लिया। कई-कई दिन तक वह सिर में कंघी नहीं करती थी, शीशा नहीं देखती थी, सिंदूर काजल को याद नहीं करती थी। अव्वल दर्जे की देहाती तथा दकियानूसी पंरपराओं में जकड़ी महिलाओं के बीच थोड़ी सजग, संवेदनशील उर्मिला ‘पगली’ की उपाधि से विभूषित हो गई। कब और कैसे यह उपनाम चिपका, यह तो उसे ठीक-ठीक याद नहीं किंतु अब वह बड़ों के लिए सिर्फ ‘पगली’ और छोटों के लिए ‘पगली काकी’ हो गई थी।

घर के सामने मीठे पानी का एक कुआँ था। आधा गाँव उसी कुएँ के सहारे अपनी प्यास बुझाता था। उर्मिला भी सुबह-शाम पानी लेने कुएँ पर जाती थी। जब कुएँ पर 

अधिक भीड़ रहती तब वह पास ही पीपल के पेड़ के नीचे बैठ जाती। इस बीच अगर बिहारी कुएँ पर होता तो उर्मिला की बाल्टियों को भर देता। उर्मिला पानी खींचने के झंझट से बच जाती। यह सिलसिला उर्मिला के रिक्त और भावशून्य चेहरे के साथ वर्षों से चलता रहा था। किंतु एक दिन, उर्मिला जब कुएँ से पानी खींच रही थी, बिहारी भी वहाँ आ गया और उसके हाथ से रस्सी पकड़ कर पानी खींचने लगा। उर्मिला ने बिहारी को देखा। उसकी आँखों में गहरा अपनापन देखकर उर्मिला के शरीर में अजीब-सा रोमांच उठा और न जाने कैसे... उसकी रिक्त आँखे बोलने-सी लगीं। उसे आश्चर्य हुआ कि इतने दिनों से पत्थर बना उसका दिल आज मोम की तरह पिघल क्यों रहा है ? वर्षों से सदा एक ही रफ़्तार में चलने वाली साँस इतनी गहरी होकर हृदय में मीठी टीस क्यों छोड़ रही है ? बाल्टी भर गई थी। उर्मिला ने एक बार फिर बिहारी को देखा, बाल्टी उठाई और चुपचाप घर आ गई।

अब उसका पोर-पोर एक अजीब तरह के मिठास में डूबा रहता था। वर्षों से कोने में बंद पड़ी उपेक्षित श्रृंगार पिटारी खुल गई तथा तेल, कंघी, बिंदी, काजल आदि निकलने लगे। काकी सास तिरछी नज़र से देख कर मुस्कुरा देती। उर्मिला लज्जा से धँस जाती। श्रृंगार पिटारी को फिर से कोने में पटक कर  अपना रूप बिगाड़ कर सपाट चेहरे में रहने की सोचती। किंतु वह जितना पीछे जाना चाहती, हृदय में धधकती आग उसे उतना ही आगे खींचती।

उर्मिला सोचती, बिहारी बाल्टियाँ ही तो भरता है और वह उसे नज़र भर देख लेती है। बस इतने भर से उसमें इतना परिवर्तन कैसे आ गया है। उसकी नीरस दिनचर्या इतनी बदल कैसे गई। उर्मिला के मन में युद्ध चल रहा है, जिसमें वह हार रही है। वह हारना ही तो नहीं चाहती। कह देगी बिहारी से, नहीं भरा करे उसकी बाल्टी। क्या समझ रखा है उसने ? पति द्वारा छोड़ी गई औरत इतनी भी कमज़ोर नहीं होती कि हर कोई हमदर्दी दिखाकर भुनाना चाहे।

उलझ गई है उर्मिला। इस स्थिति से दूर रहने का वह जितना प्रयास करती उतना ही उसकी गिरफ़्त में फँसती जा रही थी।

उर्मिला में आए इस बदलाव को टटोलने के लिए घर में भी खुसर-फुसर शुरु हो गई थी। रघुबीर सिंह भी, जिसे उर्मिला की किसी भी इच्छा, किसी भी भावना, किसी भी चाह की कभी कोई परवाह नहीं रही, उसकी अनुराग भरी नजरों की जिसने सिरे से उपेक्षा की, पग-पग टूटती उर्मिला को देखते हुए भी जिसने अनदेखा किया, अब उसके हृदय में उमड़ने वाली इस बारीक लहर के प्रति सचेत हो गया था।

एक शाम जब उर्मिला खाली बाल्टी लिए पीपल के पेड़ के नीचे बैठी थी, रघुबीरसिंह धड़धड़ाते हुए वहाँ पहुँच गया। देखते ही उर्मिला का दिल धक-सा हो गया। वह अपनी जगह से उठ कर खड़ी हो गई। रघुबीरसिंह गरजा, ‘‘क्यों, डरकर खड़ी क्यों हो गई ? चोरी पकड़ी गई इसलिए ? उर्मिला को शब्द तीर की तरह चुभे किंतु दर्द को अंदर ही अंदर पीते हुए बडी निडर आवाज में उसने पूछा, ‘‘कैसी चोरी ?”

‘‘खाली बाल्टी लिए यार के इंतजार में बैठी हो, पूछ रही हो कैसी चोरी ?

‘‘खबरदार, जबान सँभालकर बात करो। मैं किसी का भी इंतजार करूँ, तुमसे मतलब ?” रघुबीरसिंह को उर्मिला के इस तेवर की उम्मीद नहीं थी। स्तब्ध रह गए। आवाज धीमी हो गई।  बोले, ‘मुझे तुमसे कुछ मतलब नहीं है, किंतु ध्यान से सुन लो, यहाँ आँख लड़ाई नहीं चलेगी। जीते जी मैं अपने घर-परिवार की बदनामी नहीं होने दूँगा।

उर्मिला फुफकार उठी, ‘चुप्प, मैं कहती हूँ बिलकुल चुप्प!... बदनामी की फिक्र तुम्हें हो गई ? तुम्हें ?... गिद्धों के बीच जब मुझे छोड़ आए थे तब नहीं हुई तुम्हारी बदनामी? सालों से दूसरों के घर की चाकरी कर रही हूँ, तब नहीं होती तुम्हारी बदनामी ? तुम कौन होते हो मुझे रोकने वाले ? छोड़ चुके हो मुझे। दूसरी शादी कर चुके हो। किस रिश्ते से 

अधिकार जमा रहे हो ? मैं क्या करती हूँ? क्या नहीं करती हूँ? इसका हिसाब तुम रखोगे ? तुम ? मुझमें क्या सोचने समझने की शक्ति नहीं है ?” उर्मिला के चेहरे का रंग हाव-भाव सब कुछ बदल गया। आक्रोश में वह तमतमा रही थी। रघुबीरसिंह  भौचक्के खड़े उर्मिला को बस देखते रह गए थे। उर्मिला चीखी, ‘‘देख क्या रहे हो, जाओ अपनी बहुरिया के संग रंगरलियाँ मनाओ। मेरी चिंता छोड़ दो। तुम जैसी बद्जात नहीं हूँ मैं। अच्छे-बुरे की समझ है मुझमें। उर्मिला क्रोध में काँप रही थी। रघुबीरसिंह का चेहरा अपमान से झुक गया था। चारों तरफ देखकर वह आश्वस्त हुए कि इस स्थिति में उन्हें कोई देख तो नहीं रहा है। फिर एक क्रूर नज़र उर्मिला पर डालकर वहाँ से चले गए।

उर्मिला फिर उसी स्थान पर बैठ गई। पेड़ पर बैठे कौवे काँव-काँव का शोर मचा रहे थे किंतु उर्मिला के मन में उठा तूफान कौवों के शोर से कई गुना अधिक था। वह उसी तूफान में डूबती-उतराती बैठी रही। होश उसे तब आया जब बिहारी ने उसकी बाल्टियों को भर कर उसके सामने रख दिया। उर्मिला हड़बड़ाकर खड़ी हो गई। बीते पल से निकलना इतना आसान नहीं था। बेजान हाथों से बाल्टी उठाकर वह घर आ गई।

रात आधी से अधिक बीत चुकी थी किंतु रघुबीरसिंह बिस्तर पर करवटें ही बदल रहे थे। अपमान का दंश उन्हें सोने नहीं दे रहा था। एक मामूली-सी औरत उनको इस तरह जवाब दे ! औकात क्या है उसकी ? लेकिन जरा जबान तो देखो, कैंची की तरह तेज ! उनके सीने पर चढकर उनकी आँखों के सामने वह दूसरे से इश्क लड़ाएगी और रघुबीर सिंह  बैठे तमाशा देखेंगे। ऐसा नहीं होगा।

वातावरण में गर्मी नहीं थी किंतु रघुबीरसिंह पसीने से लथपथ हो गए। उर्मिला ने जो विष दिया था वह चढ़ता ही जा रहा था। उधर उर्मिला उस रात वर्षों बाद सुख की नींद सोई।

एक दिन उर्मिला जब घर के कामों से निपट कर कंघी कर रही थी, तब उसकी काकी सास ने आकर बताया कि रघुबीर ने आज बिहारी को बहुत मारा। बिहारी उठ नहीं पा रहा है। लगता है कि उसके पैर टूट गए। उर्मिला के हाथ से कंघी गिर गई। रघुबीरसिंह चुप नहीं बैठेंगे, इसका पूर्वाभास था उसे किन्तु इस प्रकार बदला लेंगे यह तो उसने सोचा ही नहीं था। दो बाल्टी पानी भर देने की ये सजा मिली बिहारी को !

अब उर्मिला ने कुएँ पर जाना बंद कर दिया। उड़ती खबरें उसके पास तक पहुँचती-बिहारी को अस्पताल ले जाया गया, घर वाले थाना-पुलिस करना चाहते थे किंतु बिहारी ने मना कर दिया। बिहारी का एक पैर आधा काटना पड़ा, बिहारी रघुबीरसिंह के घर चोरी के इरादे से घुसा था इसलिए रघुबीरसिंह ने उसे मारा, आदि-आदि।

उर्मिला को फिर एक लंबे मौन और उदासी ने घेर लिया। अब उसका मन यहाँ नहीं लग रहा था, उसने गाँव छोड़ देने का निश्चय किया।

एक दिन जेठ की तपती दोपहर में जब घर के सब लोग झपकियाँ ले रहे थे, उर्मिला किसी काम के बहाने बाहर निकली। कुएँ के पास आकर क्षण भर को ठिठकी। पीपल के पेड़ और कुएँ को उसने नजर भरकर देखा। बिहारी की याद आई, देखने की इच्छा भी हुई। किंतु मन मसोसकर वह आगे बढ गई।  

शाम तक पूरे गाँव में उर्मिला के घर से गायब होने की खबर फैल गई। आस-पास खोजा गया। कुएँ, तालाब में झाँका गया पर उर्मिला नहीं मिली। रघुबीरसिंह खुश थे। अन्य किसी को भी अधिक खोजबीन करने की जरूरत महसूस नहीं हुई। दो-चार महीने बाद कहीं से खबर आई कि उर्मिला अपनी बडी बहन के घर चली गई है। फिर कुछ सालों बाद  खबर आई कि उर्मिला ने कुएँ में छलाँग लगा दी।

‘‘सती थी उर्मिला सती !

‘‘कहते हैं जीजा की नीयत ठीक नहीं थी। जान दे दी उर्मिला ने किंतु इज़्ज़त पर आँच नहीं आने दी।

‘कुल बहू थी कुल की परंपरा को निभाया।‘

‘‘पति ने छोड़ दिया किंतु वह पतिव्रता ही बनी रही।“

‘‘अमर हो गई’.....

‘‘देवी हो गई’।

जितने लोग उतनी बातें।

पतिव्रता, देवी आदि शब्द सुन-सुनकर रघुबीरसिंह को खानदान का नाम अमर कर देने की युक्ति सूझी। प्रचार शुरू हुआ कि उर्मिला रघुबीरसिंह समेत परिवार के अन्य सदस्यों के सपने में आती है। परिवार की तमाम मुसीबतें दूर हो रही हैं। रघुबीर की माँ को स्वप्न आया कि उर्मिला पीपल के पेड़ के नीचे वास करना चाहती है। रघुबीरसिंह जुट गए इच्छा पूर्ति करने में। पेड़ के नीचे चबूतरा बनना शुरू हुआ। चबूतरे पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखवाया गया, ‘‘सेठ रतनसिंह के बेटे रघुबीरसिंह की पत्नी देवी उर्मिला उर्फ “पगली काकी का चऊरा”।

रघुबीरसिंह ने जमाना देखा था। जानते थे लोग भूलते जल्दी हैं। उनकी करतूतें भी भुला दी जाएँगी। धीरे-धीरे चबूतरे की पूजा शुरू हो जाएगी और उसी के साथ खानदान का नाम कई पुश्तों तक अमर हो जाएगा। रघुबीरसिंह ने दूर की कौड़ी खेली थी। दुखों से भरे इस संसार में पेड़, पाथर, चउरा पूजकर अपने मन को हल्का करने वालों की कमी नहीं है।

धीरे-धीरे उर्मिला उर्फ पगली काकी की कृपा से मनौतियाँ पूरी होने की बात दूर-दूर के गाँवों में फैल गई। शाम होते-होते चबूतरा टिमटिमाते दीयों से सज जाता। जिसकी मन्नत जितनी गहरी होती उसके दीये में उतना ही अधिक तेल भरा होता। अब सप्ताह में एक दिन वहाँ मेला भी लगने लगा। चबूतरे की साफ-सफाई, नियमित पुजारी की व्यवस्था आदि सब रघुबीरसिंह बड़े मन से करते थे।

बिहारी बैसाखी के सहारे पूरे गाँव में घूमता था किंतु पीपल के पेड़ के नीचे वह कभी नहीं आया। न आए बिहारी, क्या फर्क पड़ता है ? रघुबीरसिंह तो अमर हो रहे थे। चबूतरा बनवाकर, मेला लगवाकर पत्नी के प्रति जो समर्पण भाव दिखाया था, गाँव में उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा हो रही थी। अपने जीवन काल में कुछ भी न कर पाने वाली उर्मिला उर्फ पगली काकी की शक्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ रही थी। अब तो रघुबीर सिंह को भी दुनिया छोड़े साठ-सत्तर साल हो गए किंतु चबूतरा आज भी जगमगा रहा है और उनके खानदान का दबदबा भी कायम है। 

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कहानी

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जेल से जेल तक

नल से लगातार गिरते पानी की बेसुरी आवाज़ से जुम्मनभाई झुंझलाकर उठ बैठे। यूँ तो सुबह के पाँच बज रहे हैं किन्तु अभी 

अँधेरा है और आँखों में नीद भी, पर चैके में पत्नी की खटर-पटर शुरू हो गई है। जिससे नींद में खलल पड़ रही है। जुम्मन भाई पत्नी को तेज आवाज़ में डाँटना चाहते हैं किन्तु उन्होंने महसूस किया कि इधर कुछ दिनों से उनकी आवाज़ लगातार धीमी होती जा रही है। चाह कर भी तेज़ और तीखी आवाज़ में नहीं बोल पाते हैं। यह उनके अन्दर की निराशा से उपजी विरक्ति है या स्वभाव में सरलता का समावेश हो रहा है, समझ नही पाते हैं। हाँ, आजकल उन्हें यह ज़रूर लगने लगा है कि वे लगातार बौने होते जा रहे हैं, और हर सुबह क्रोध और शान्ति के बीच जकड़ उठते हैं।

इस जकड़न से छुटकारा पाने के लि, जुम्मन भाई अब सुबह जल्दी उठने लगे हैं। पैर ज़मीन पर रखते ही कुछ देर उन्हें असह्य दर्द होता है। घिसट-घिसट कर स्नानघर में जाते हैं, गरम पानी से पंजों की सेंकाई करते हैं तब उन्हें कुछ राहत मिलती है।

नित्य की तरह आज भी जुम्मनभाई कुछ खा-पीकर नौ बजे तक बाहर निकल आये। घंटे दो घंटे चाय की दुकान पर बिताने के बाद निरुद्देश्य इधर से उधर भटकते रहे। जब वे घर से निकलते हैं तो पत्नी की उम्मीद बढ़ जाती है कि शायद आज कोई खुश खबर लेकर लौटेंगे और इसी उम्मीद में वह सुबह बड़ी फुर्ती से नाश्ता खाना बनाती है किंतु रात में जुम्मनभाई का लटका मुँह उसे निराश और दुखी कर देता है।

वैसे यह सच नही है कि जुम्मनभाई को नौकरी नहीं मिल रही है। बल्कि सच तो यह है कि जुम्मनभाई नौकरी की तलाश ही नहीं करते हैं। जब से ड्राइवरी छूटी है उनका मन विचलित रहने लगा है उन्हें कोई अन्य काम सुहाता ही नहीं है और दुबारा ड्राइवरी न करने की उन्होंने कसम खा ली है। वैसे एक सच यह भी है कि टूटे पंजे से वे ड्राइवरी कर भी नहीं सकते हैं।

शुरू-शुरू में जुम्मनभाई अपने पुराने मित्रों के बीच अपना समय बिताना चाहते थे किन्तु वे सभी अपने-अपने काम-धन्धों में व्यस्त हैं। उन सभी के पास जुम्मनभाई की तरह न वक्त है न ही वैसी बेचैनी। धीरे-धीरे वे मित्रों से कटने लगे और अकेले ही इधर-उधर घूम कर दिन बिताने लगे। उन्हें शाम होने का इंतज़ार भी नहीं रहता बल्कि आज-कल वे यह सोचने लगे हैं कि दिन खिंच कर थोड़ा बड़ा हो जाता तब कितना अच्छा होता। जुम्मनभाई भागने लगे हैं घर से। क्योंकि घर पहुँच कर पत्नी का चेहरा देखते ही उन्हें अपराध बोध घेर लेता है- बेचारी ! दिन भर मनौती मानती होगी, उसे कहाँ पता है कि उसका पति नौकरी तलाशना तो दूर उसके बारे में सोचता तक नहीं है।

आज वे घूमते हुए पेट्रोलपंप की तरफ निकल आये हैं। ड्राइवरी के दिनों में वे अक्सर यहीं से अपनी गाड़ी में पेट्रोल डलवाते थे। पेट्रोल पम्प के पास ही एक गराज है। गाड़ियांे की हल्की-फुल्की खराबी में उन्हें सुधार कर चलने लायक कर लेना जुम्मनभाई के बाएँ हाथ का खेल था। दुपहिया गाड़ियों को भी खोल-खाल कर दुरुस्त कर लेने में वे माहिर थे। आज गराज देखकर उन्हें अपने इस हुनर से पैसा कमाने की युक्ति सूझी। इस गराज में सारे चेहरे उनके जाने-पहचाने हैं। मालिक भी उन्हें पहचानता है। उन्हें उम्मीद है कि एक बार कहते ही बात बन जायेगी।

वे गराज मालिक से बात करने के लिए खुद को तैयार करने लगे तभी झापड़ों की तड़ातड़ आवाज ने उन्हें चैंका दिया। गराज मालिक पंक्चर बनाने वाले लड़के को मार रहा है। मालिक के मुँह से भद्दी गालियाँ बड़ी फुर्ती से निकल रही हैं। लड़का हाथ जोड़कर माफ कर देने की विनती कर रहा है। उसकी गलती यह है कि एक दिन पहले उसने एक स्कूटी के टयूब का पंक्चर बनाया था वह आज दूसरे ही दिन खुल गया। ग्राहक की शिकायत पर मालिक उबल पड़ा और लड़के की धुनाई हो गई।

वैसे तो यह कोई अनहोनी घटना नहीं है। बचपन से अब तक हजारों बार जुम्मनभाई ऐसी घटनाओं को देख चुके हैं, न सिर्फ देख चुके हैं बल्कि स्वयं भी भुगत चुके हैं। किन्तु आज न जाने क्यों उन्हें गहरी टीस उठ रही है। उन्हें इस बात का भी दुःख हो रहा है कि वहाँ काम करने वाले किसी व्यक्ति के चेहरे पर इस घटना का दर्द नहीं उभरा है। क्या नौकरी छूट जाने का डर इन लोगों में इस हद तक समाया है कि चेहरे पर उतरने वाले भावों को भी सब मन ही मन में सोख ले रहे हैं ? या दूसरों की पीड़ा इतनी पराई हो गई है कि आँखों तक में दर्द नहीं उतरता है। जुम्मनभाई को उबकाई-सी आने लगी।

लड़के की आँखों से आँसू बह रहे हैं जिसे वह शर्ट की बाहों में पोछता जा रहा है और काम करता जा रहा है। जुम्मनभाई उस लड़के को एकटक देखने लगे। उन्हें लगा कि वह लड़का और कोई नहीं स्वयं जुम्मनभाई ही हैं तथा अभी-अभी वो सारे झापड़ उन्हीं के मुँह पर पड़े हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि वे इन झापड़ों को इस लड़के की तरह सहजता से सह न पाते-बोल पड़ते तथा अधिक नुकसान उठा लेते।

यही तो किये थे जुम्मनभाई।

चारबाग अड्डे पर इलाहाबाद-इलाहाबाद चिल्लाते हुए सूमो लगा दिये थे। एक सज्जन सफारी सूट पहने हाथ में अटैची थामे लखनऊ स्टेशन की तरफ से चले आ रहे थे। जुम्मनभाई आगे बढ़कर बोले- 

‘साहब इलाहाबाद ?’

‘हाँ, चलना तो है लेकिन बीच की सीट पर बैठूँगा।‘

‘कोई बात नहीं साहब... आप आइये तो।

बीच की सीट पर तीन सवारियाँ बैठ चुकी थीं। जुम्मनभाई उन सब को थोड़ा खिसकने के लिए कहे तब सफारी सूट पहने उस व्यक्ति ने कहा वह पूरी सीट उसे चाहिए। तीन-चार लोग और उसके साथ हैं जो अभी आते ही होंगे। बिना किसी मशक्कत के तीन-चार सवारियाँ मिलने की खुशी जुम्मनभाई के चेहरे पर झलक पड़ी। बीच की सीट पर पहले से ही बैठी उन तीनों सवारियों से बिनती कर जुम्मनभाई उन्हें पीछे बैठने के लिए राजी कर लिए और फिर से इलाहाबाद-इलाहाबाद चिल्लाने लगे। एक सवारी और मिल गई। अब जुम्मनभाई ड्राइवर सीट पर बैठ गये। टेप से कैसेट बदल कर दूसरी लगाए। गुटके का पाउच खोलकर मुँह में भर लिए फिर पीछे मुड़कर बीच की सीट पर बैठे उस व्यक्ति से पूछे- ‘साहब सवारियाँ कितनी देर में आ जायेंगी?’

‘बस आती ही होंगी...... अभी तो पीछे कई सीट खाली है, क्या इतनी ही सवारी लेकर चलोगे ?’

‘हाँ साहब जल्दी निकल चलूँगा, आजकल चेकिंग बहुत तेज हो गई है कहीं कोई पुलिस वाला आ गया तो लेने के देने पड़ जायेंगे.... और हाँ भईया पीछेवालों, अगर कोई पूछे तो यह मत कह देना कि तुम लोग सवारी हो... बस हमारे रिश्तेदार हो समझे।‘

‘समझ गया भइया, हमें क्या पड़ी है, हमें तो बस इलाहबाद पहुँचा दो।’ पीछे से किसी सवारी ने जवाब दिया।

जुम्मनभाई फिर से बीच वाली सीट पर बैठे व्यक्ति से बोले- ‘बस आपके साथी आ जायें तो जल्दी निकल चलूँ। क्या करूँ साहब आज राजा, मेरा लड़का है साहब, उसका जन्मदिन है। उससे वायदा किया था कि इस बार उसके जन्मदिन पर उसे आनन्दभवन, तारामंडल आदि दिखाऊँगा... इलाहाबाद पहुँचने में तीन से चार घंटे लगेंगे, निकल चलूँगा तो समय पर पहुँच जाऊँगा। पोलियो का मारा है साहब, इन्ही छोटी-छोटी खुशियों का तो उसे सहारा है।‘

उस व्यक्ति को जुम्मनभाई की इन घरेलू बातों में कोई रूचि नहीं थी। वह बार-बार सामने से आती सड़क की तरफ देख रहा था। जनवरी का महीना था। सुबह के आठ बज रहे थे किन्तु घने कोहरे के कारण दस-पंद्रह फीट के बाद साफ-साफ दिखाई नहीं पड़ रहा था। अचानक पुलिस की एक गाड़ी सूमो के सामने सड़क को घेरते हुए खड़ी हो गई जुम्मनभाई का माथा ठनका। वे सूमो का गेट खोल उतरने लगे किंतु  बीच की सीट पर बैठा वह व्यक्ति पीछे से जुम्मनभाई का कालर पकड़कर सीट पर बैठा लिया, ठीक उसी समय एक सिपाही आकर जुम्मनभाई को दो-तीन हाथ जमा दिया। जुम्मनभाई तिलमिला गये। आवाज कुछ ऊँची हो गई- ‘क्यों मार रहे हो मुझे ?’ ‘साले प्राइवेट गाड़ी पर सवारी बैठाते हो ऊपर से पूछ रहे हो कि क्यों मार रहा हूँ। पीछे देखो... गाड़ी में इंस्पेक्टर साहब बैठे हैं उन्होंने ही मोबाइल करके हम लोगों को बुलाया है।‘

जुम्मनभाई ने इंस्पेक्टर को घृणा से देखते हुए कहा, ‘बैठे होंगे इंस्पेक्टर साहब, आप गाड़ी जब्त कर लीजिए, चालान कर दिजिए, लायसेन्स ले लीजिए, पर मार क्यों रहे हैं ?’

पुलिस इंस्पेक्टर ने सिपाहियों को मारने से मना किया तथा जुम्मनभाई को सवारी उतारकर गाड़ी लेकर थाने में आने का आदेश दिया। जुम्मनभाई सिपाहियों के साथ थाने पहुँचे उन्हें एक कमरे में बैठा दिया गया। एक-डेढ़ घंटे बाद उन्हें उसी इंस्पेक्टर के सामने लाया गया। जुम्मनभाई को वह किसी घटिया फिल्म का घटिया खलनायक लग रहा था। उनका डर पहले ही कम हो गया था, उस इंस्पेक्टर को सामने देख अकड़ भरी जिद भी सवार हो गई। इंस्पेक्टर ने गरज कर पूछा-

‘नाम क्या है ?’

‘कन्हैयालाल  उर्फ जुम्मनभाई’ इंस्पेक्टर इन विरोधाभासी नामों से चैंका। वह आगे कुछ पूछता उसके पहले जुम्मनभाई ही बोल पड़े, ‘बचपन में मैं हर समय जूमता रहता था। पढ़ना-लिखना, खाना-पीना सब जूमते हुए दीखता बस तभी से सब मुझे जुम्मन कहने लगे। जुम्मन से जुम्मनभाई कब बन गया यह मैं खुद भी न जान पाया।‘ ‘साला’ कहते हुए इंस्पेक्टर के चेहरे पर एक कुटिल मुस्कान फैल गई। उसने अगला प्रश्न किया, ‘गाड़ी का सब पेपर है ?’

‘हाँ, है। इंस्पेक्टर की मुस्कानसे जुम्मनभाई के मन में खीझ पैदा हो गई।‘

‘मालिक तू है ?’

‘नहीं, मैं ड्राइवर हूँ।‘

‘तुम्हें पता तो है न कि बिना परमिट के कोई गाड़ी सवारी गाड़ी के रूप में नहीं चलाई जा सकती ?’

‘पता है।‘

‘साले जब पता है तब क्यों चला रहा था ? और सवारियों को रिश्तेदार बताता है?’

जुम्मनभाई की अकड़भरी आवाज इंस्पेक्टर को अपमानित कर रही थी। उसने सिपाहियों को आदेश दिया, ‘बहुत अकड़ भरी है, लिटा कर साले को ठन्डा कर दो।‘ सिपाहियों ने जुम्मनभाई को धकियाते हुए गिरा दिया और आठ-दस लाठी जमा दिये। ठन्डी का महीना था। जुम्मनभाई का पूरा शरीर सुन्न पड़ गया। चिल्लाते कराहते वे बेहोश हो गये। थोड़ी देर बाद जब उन्हें होश आया तब उन्हें गरम चाय पिलाई गई। दो सिपाही उन्हे पकड़ कर थोड़ी दूर तक चलाये फिर लाॅकअप में डाल दिये। जुम्मनभाई दर्द से छटपटा रहे थे ठन्ड भी तेज थी। ठन्ड से बचने के लिये वे अपने हाथ-पैर सिकोड़ कर सीने और पेट के पास चिपकाना चाहते, किंतु लाठियों की मार से हाथ-पैर अकड़ गये थे। सिकोड़ना मुश्किल हो रहा था। अब तक कुछ खाने को भी नहीं मिला था। हाँ, चाय जरूर कई कप मिल गई थी। रात बारह बजे वही दोनों सिपाही फिर जुम्मनभाई के पास पहुँचे तथा उन्हें पकड़कर चलाते हुए इंस्पेक्टर के सामने लाकर खड़ा कर दिये।

इंस्पेक्टर ने ठंडी किंतु व्यंग्यभरी आवाज में पूछा, ‘हो गये ठंडे ? साले तुम लोग बिना मार के ठीक ही नहीं होते। मैं तुझे अभी छोड़ दे रहा हूँ, गाड़ी यहीं रहेगी, अपने मालिक को भेजना वो आकर मुझसे मिलें। और सुन, फिर कभी इस रूट पर गाड़ी लेकर मत आना..... समझे।‘

‘गाड़ी लेकर तो आना ही पड़ेगा। बाल बच्चों को क्या खिलाऊँगा ? अगर आप पन्द्रह-सत्रह सौ तक की नौकरी दिलवा दें तब फिर कभी गाड़ी को हाथ भी नहीं लगाऊँगा। नहीं तो पेट पालने के लिए गाड़ी तो चलाना ही पड़ेगा।‘

इंस्पेक्टर को उम्मीद थी कि जुम्मनभाई को छोड़कर उसने उनके ऊपर जो दया दिखाई है उससे वे द्रवित हो उसके पैरों पर लोट कर उसकी रहमदिली के प्रति कृतज्ञ हो जायेंगे। किंतु जुम्मनभाई ने उसकी दया की तनिक भी परवाह नहीं की तथा अपनी हेठी बरकरार रखी, लिहाजा इंस्पेक्टर अपनी रौ में आ गया।

‘स्साला, अभी अकड़ गई नहीं... नौकरी दिलवा दूँ तुझे? बस यही करने बैठा हूँ मैं ? गांजा लगाकर जेल भेज दो साले को, दिमाग ठीक हो जायेगा। फिर यह तो क्या इसकी दो चार पुश्त गाड़ी नहीं चलायेगी।.... तैयार करो पेपर.... गाड़ी में गांजा पकड़ा गया।‘

सिपाही धकियाते हुये जुम्मनभाई को फिर लाॅकअप में डाल दिये। दूसरे दिन जुम्मनभाई को कचहरी ले जाया गया। पुलिस इंस्पेक्टर ने उनके मालिक का फोन नं. लिया था उन्हें उम्मीद थी मालिक जमानत के लिए कचहरी आयेंगे किंतु वहाँ किसी को न देख वे निराश हो गये। मजिस्ट्रेट के सामने हाथ जोड़े  ‘साहब, लखनऊ में मेरा कोई नहीं है, कौन जमानत लेगा ? दया करें माई-बाप। किंतु कानून कानून होता है। जुम्मनभाई को ज्यूडिसियल रिमाण्ड में ले लिया गया। उनके हाथों में हथकड़ी पहनाई गई तथा जेल ले जाने वाली गाड़ी में बैठा दिया गया।

जुम्मनभाई को अपने जेल जाने पर विश्वास नहीं हो रहा था। उन्होंने किसी का खून-कत्ल, जालसाजी या फिर चोरी-डाका नहीं डाला था। उन्हें जेल क्यों हो सकती है किंतु पुलिस की गाड़ी उन्हें लेकर जेलमार्ग की तरफ ही आगे बढ़ रही है।

जुम्मनभाई मन ही मन बुदबुदाये- मुझे जेल हो गई ! फिर थोड़ा तेज बोलकर इस वाक्य को सुनना चाहे-मुझे जेल हो गई। दो बार, तीन बार, चार बर दोहराते-दोहराते उनका साहस भरभरा कर धराशाही हो गया और कभी किसी से न डरने वाले जुम्मनभाई जेल शब्द के उच्चारण मात्र से स्वयं को प्राणविहीन महसूस करने लगे। उनके हाथ-पैर की शक्ति निचुड़ रही थी। वे खुद पर रोना चाह रहे थे, रोना चाह रहे थे खुद की बेवकूफी पर, खुद की अकड़ पर जो समय के अनुकूल ढ़ीली नहीं हो जाती। कह देना था पुलिस इंस्पेक्टर से कि यहाँ से छूटने के बाद गाड़ी को हाथ भी नहीं लगाऊँगा। क्या बिगड़ जाता कम से कम जेल जाने से तो बच जाते।

जुम्मनभाई पैर को सीट के करीब खिसकाये, दर्द के मारे चेहरा बन गया किन्तु सामने सिपाहियों को देख कराहे भी नहीं। उनके मन में एक अजीब-सी हलचल हुई। क्या जेल से बचने के लिए कुछ भी सुन लेते, अन्याय सह लेते। जिस इंस्पेक्टर ने इतना जलील किया था, मरवाया था, उसके सामने दुम हिलाने लगते ? नहीं, कभी नहीं। अधिक से अधिक क्या होगा, कई सालों की जेल बस न। यह सोचते ही जुम्मनभाई का तनाव जाता रहा।

गाड़ी की गति धीमी हुई। जेल आ गया था। जेल के मुख्यगेट के अतिरिक्त चार-पाँच गेट और थे। हर गेट पर जुम्मनभाई की चेकिंग हुई फिर उन्हें एक बैरक में डाल दिया गया। उस बैरक में पहले से ही कई कैदी थे। जुम्मनभाई एक वृद्ध कैदी के बगल में बैठ गये।

दोपहर के तीन बज रहे थे जुम्मनभाई दो दिन से कुछ खाये नहीं थे। भूख जोरों की लगी थी। जब नहीं रहा गया तो उन्होंने उस वृद्ध कैदी से पूछा- ‘दादा, यहाँ खाने-पीने को कुछ देते हैं या नहीं ?’  अब तक चुपचाप एक कोने में बैठा वृद्ध, दादा शब्द के संबोधन से उचक गया। उसकी आँखे ममतामयी हो उठीं। बड़े अपनत्व भरे शब्दों में उसने जुम्मनभाई को बताया,  ‘मिलता है बेटा, दो बार भोजन मिलता है। लेकिन तुम्हें आने में देर हो गई.... दोपहर के भोजन का वक्त निकल गया... अब तो रात को ही मिलेगा... किस अपराध में लाये गये हो ?’

‘अपराध तो बिना परमिट गाड़ी चलाने का था किन्तु गांजा लगाकर अंदर किये है।‘

‘चिंता मत करो छूट जाओगे।‘

‘तुम्हारे पास मिलने वाले गाँजे की मात्रा अधिक दिखाये हैं या कम ?’

‘मुझे नहीं पता।‘

‘कोर्ट में तुमसे पूछा तो होगा न ?’

‘नहीं, कोर्ट में तो सिर्फ गाड़ी की ही बात हुई थी... फर्जी परमीट की बात कर रहे थे मजिस्ट्रेट।‘

‘तुम्हारे पास फर्जी परमिट है ?’

‘नहीं, मेरे पास तो परमिट ही नहीं है।‘

‘मुझे लगता है तुम्हारी जमानत लेने वाला कोई आ जायेगा तब तुम जल्दी छूट जाओगे। कोई बहुत बड़ा केस तुम्हारे ऊपर नहीं बना होगा। बल्कि मुझे तो यह लग रहा है कि उस दिन कोर्ट में ही तुम्हे जमानत मिल जानी चाहिए थी।‘

‘हाँ लेकिन लखनऊ में मेरा कोई रहता नहीं है... उस दिन मेरा कोई जमानतदार नहीं था कैसे छूटता ? और पता नहीं कोई जमानतदार होने के बाद भी छूटता या नहीं ?’

‘निराश मत हो बेटा, छूट जाओगे... मुझे देखो, मैं पाँच महीने से यहाँ हूँ। आगे भी छूटने की कोई उम्मीद नहीं है।‘

‘आप यहाँ क्यों ला, गये हैं ?’

‘मैंने कत्ल किया है, एक नहीं दो-दो।‘

जुम्मनभाई चैंक-से गये। वृद्ध समझ गया, बोला ’ ‘डरो नहीं बच्चा, मैं कोई पेशेवर कातिल नहीं हूँ।‘

‘पर आपने कत्ल क्यों किया ?’

‘तुम कभी भूखे रहे हो ?’

‘दो दिन से हूँ।‘

‘अभी तुम्हें रोटी मिले और मैं छीन लूँ तब क्या करोगे ?’

‘मैं भी आपसे छीनने का प्रयास करूँगा।‘

‘अगर न छीन पाओ तब ?’

‘तब मैं आपसे चिढूँगा तथा दुबारा रोटी मिलने का इंतजार करूँगा।‘

‘मैं दुबारा भी छीन लूँ तब ?’

‘मैं आपसे नफरत करूँगा, आपसे हाथा-पाई करूँगा तथा फिर से रोटी मिलने का इंतजार करूँगा।‘

‘वह भी छीन लूँ तब ?.... बार-बार छीन लूँ तब ?’

जुम्मनभाई चुप हो गये। वृद्ध जुम्मन भाई को देखता रहा। कुछ कहने के लिये उसके होंठ खुले फिर पता नहीं क्या सोचकर वह भी चुप हो गया। किंतु चुप रहने का उसका प्रयास बेकार गया। वह तड़प कर बोल उठा,  ‘तुम नहीं जानते हो, सुन लो, इस देश में अपराधी तैयार किये जाते हैं। कातिल बनाये जाते हैं। मुझे बनाया गया है, हाँ सही में, मेरी जमीन हड़प कर, एक बार नहीं, बार-बार हड़प कर। मेरे हक को, मेरे अधिकार को छीनकर। मुझे भूख के कुएँ में धकेल कर।‘ वृद्ध उत्तेजना में हाँफने लगा था। उसके होंठो के किनारे से थूक की एक लकीर बह गई। जुम्मनभाई सहम गये। वृद्ध उनके डर को भाप गया। वह जुम्मनभाई के मन में भय उत्पन्न करना नहीं चाहता था इसलिए स्वयं पर नियंत्रण रख चुप बैठ गया।

रात में जुम्मनभाई को भोजन मिला- दो रोटी तथा मूली की रसेदार सब्जी। एकदम बेस्वाद, किंतु भूख से छटपटाते जुम्मनभाई भोजन लेकर खाने लगे। दो दिन से भूखे जुम्मनभाई के लिए मात्र दो रोटी पर्याप्त नहीं थी किंतु कुछ राहत मिल गई। जेल में पीने के पानी का नल बस भोजन के समय ही आधे घण्टे के लिए शुरू किया जाता था। सैकड़ो कैदियों के पानी पीने के लिए इतना समय कम था। हर कैदी पहले पानी पीना चाह रहा था इसलिए उनमें लड़ाई शुरू हो गई। 

धक्का-मुक्की के कारण जुम्मनभाई नल के पास तक पहुँच भी नहीं पा रहे थे। वह वृद्ध व्यक्ति देख रहा था। दौड़कर लड़ती झगड़ती भीड़ में प्रवेश किया और अपनी अंजुली में भरकर एक अंजुली पानी ले आया। वृद्ध के स्नेह को देख जुम्मनभाई की आँखें गीली हो गई, उन्होंने मुँह खोल दिया, वृद्ध ने अंजुली उनके मुँह में उड़ेंल दी। अब तक नल बंद हो गया। घूँट भर पानी से जुम्मनभाई की प्यास और बढ़ गई, जो कातिल वृद्धकी ममता से बुझी। न जाने क्यों वो अपने-से लगने लगे।

दूसरे दिन सुबह कैदियों को पंक्तिबद्ध खड़ा कर दिया गया तथा सबको एक-एक झाडू पकड़ा दी गई। जुम्मन भाई के पैर सूज आये थे दर्द भी तेज था किंतु घिसट-घिसट कर झाडू लगाते रहे। दोपहर बाद सबको एक बार फिर पंक्ति में बैठा दिया गया। रिहाई परवाना जिन कैदियों का रिहाई आर्डर लाया था उन्हें रिहा कर दिया बाकी कैदी अपने-अपने बैरक में आ गये।

जुम्मनभाई प्रतिदिन रिहाई आर्डर का इंतजार करते और शाम पाँच बजे पचासा लगते ही निराश हो जाते। जल्दी रिहा होने की उम्मीद अब धुंधलाने लगी थी। उन्हें अपने भीतर एक चीख निकलती सुनाई पड़ती। डरावनी, भयानक चीख ! सूनापन उनके भीतर समाता जा रहा था, वे सूनेपन में समाते जा रहे थे। उन्हें लगता वे चक्रव्यूह में फँस गये हैं जहाँ से कभी निकल नहीं पायेंगे। निकलेंगे भी तो रिक्त हुए से। वे रिक्त हो रहे हैं। पल-पल रिक्त हो रहे हैं। दस दिन बीत गये। दस दिन बहुत होते हैं कुछ जानने समझने के लिये। वो कुछ जानने लगे हैं,अपराध को समझने लगे हैं। वह वृद्ध अपराधी है, हत्या का। हृदय में इतना प्रेम और हत्या ! अपराध जन्मजात नहीं होता वह कुछ मिनटों का होता है। वे शोध करेंगे-मनोवृत्ति पर। अपराधियों की मनोवृत्ति पर। कितना नया अनुभव है यह, गाड़ी की रफ्तार से अधिक तेज चल रहा है दिमाग। शोध ? अकबका गये वे। उन्होंने अपने आप को समेटा। वे स्वयं जेल में है अपराधी के रूप में। हाँ उनमें और वृद्ध में कोई अंतर नहीं है। दोनों अपराधी हैं। सुधारने के लिये यहाँ जेल में लाया गया है। जेल में नहीं सुधार गृह में ! वे सुधर रहे हैं रिक्त होकर। दस दिन से पैर सूजकर हाथी पाव बन गया  है। मलहम पट्टी सब हो जाती है यहाँ, पर पैर है कि सुधर नहीं रहा। वे सुधर रहे हैं, अपनी अंतिम परिणति के लिए तैयार होना है उन्हें।

ग्यारहवाँ दिन रिहाई का समय बीतने ही वाला था कि अनाउन्स हुआ- ‘कन्हैयालाल  उर्फ जुम्मनभाई पिता गंगाधर सिंह  का रिहाई आर्डर आ गया है।‘

अनाउन्स दो-तीन बार हुआ किंतु जुम्मनभाई को उनके हृदय से निकलती आवाजों ने इस तरह से जकड़ लिया था कि वे इस बाहर की आवाज को न सुन सके। वृद्ध व्यक्ति ने उन्हें झकझोरा, ‘क्या हो गया है तुम्हें ? सुन नहीं रहे हो ? तुम्हारा नाम पुकारा जा रहा है। जुम्मन भाई ने घुटने से सिर ऊपर उठाया। आवाज एक बार फिर सुनाई दी। वे अपना कम्बल फेंक बाहर की तरफ भागना चाहे किंतु उनके पैर लड़खड़ा गये। वे गिर पड़े। उस वृद्ध व्यक्ति ने उन्हें उठाया। तथा सहारा देते हुए बाहर लाया। बाहर आने में खासी देर हो गई थी अनाउन्सर गरज पड़ा किंतु जुम्मनभाई निर्लिप्त रहे। वृद्ध ने अनाउन्सर को घूरा जैसे घूरने में ही शब्द हो जो उसे बता रहे हों कि देखते नहीं पैर कितना सूजा है, कैसे आता जल्दी ? अनाउन्सर चुप हो गया न जाने वृद्ध की आँखे देखकर या जुम्मनभाई का सूजा पैर।‘

वहाँ से निकलने के पहले जुम्मनभाई ने वृद्ध व्यक्ति के पैर छुये। वृद्ध ने उन्हें गले से लगा लिया उसकी आँखे गीली हो गई। प्रेम आदमी को कहीं भी बाँधे रखने में समर्थ है। इतने दिनों से रिहाई का इंतज़ार करते जुम्मनभाई बड़े बोझिल मन से बाहर निकले। वृद्ध की नम आँखे उन्हें रोक रही थीं।

जुम्मनभाई को विश्वास था कि उनके जेल में होने की बात मालिक ने उनके घर वालों को बता दी होगी किंतु जब उन्हें पता चला कि मालिक ने किसी प्रकार की कोई खबर उनके घर नहीं भेजवाई। शंका कुशंका से घिर उनका परिवार आँसू बहाते तथा मन्नते मानते हुए उनका इंतजार कर रहा था। तब उनकी आंतरिक सोच में दो महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। एक तो यह कि अमीर और सुविधा संपन्न हर व्यक्ति से उन्हें स्थायी तौर पर घृणा हो गई, दूसरी यह कि पत्नी को अपनी दुनिया से अनभिज्ञ रख कर उसकी नजर में अपना महत्व बढ़ा लेने की अपनी सोच पर पहली बार तरस आया। माँ बूढ़ी थीं, बेटा अपाहिज था किंतु पत्नी को तो वे अपने मालिक का घर या किसी मित्र का घर दिखा सकते थे। उन्हें यह बात बड़ी शिद्दत से चोट पहुँचा रही थी कि जिस मालिक की गाड़ी को वे बिना परमिट चला-चला कर फायदा देते रहे, शरीर पर लाठियों और डण्डों की मार झेले, पैर तुड़वा लिये, वह उन्हें और उनके परिवार को कीड़ा-मकौड़ा समझता था। उस दिन से ही जुम्मनभाई ने तय कर लिया कि अब कभी वे किसी दूसरे की गाड़ी नहीं चलायेंगे किंतु खुद की गाड़ी का होना जागते में स्वप्न देखने जैसा था।

जुम्मनभाई के पैर की सूजन जब दवाइयों से थोड़ी कम हुई तो तीन महीने तक के लिये प्लास्टर लग गया। माँ और चैदह साल के अपाहिज बेटे के साथ वे भी एक कोने में पड़ गये। जुम्मन भाई ने अपनी चारपाई माँ की चारपाई के बगल ही लगवा लिया। इस तरह वर्षों बाद वे माँ के 

अधिक करीब चले आये, माँ की बूढ़ी उंगलियाँ उनके सिर पर फिसलती चोट को सहलाती और इतनी बेरहमी से मारने वाले हाथों में कोढ़ हो जाने की बद्दुआ देतीं। पत्नी तीन-तीन जन की सेवा-टहल करती। थक जाने पर खीझ उठती। अपनी किस्मत पर बड़बड़ाने लगती। जुम्मन भाई से उसकी बेबसी न देखी जाती।

प्लास्टर कटते ही लंगड़ाते हुये जुम्मनभाई इधर-

उधर घूमने लगे। डाक्टर ने आराम की सलाह दी थी किंतु घर में उनका मन नहीं लगता था। पैरों पर जोर पड़ता रहा, पंजो में असह्य वेदना होती रही, जुम्मन भाई इधर-उधर घूमते रहे.... सब कुछ झुठलाते हुये। डाक्टर आपरेशन के लिये कहते, जुम्मन भाई टाल जाते। डाक्टर समझाते बिना आपरेशन के पैर ठीक नहीं होंगे, लगड़ाते ही रहोगे। जुम्मन भाई हँसते, लगड़ा तो बचपन से रहा हूँ, कभी सीधे चलना आया ही नहीं।

पत्नी चिन्तित होती। जुम्मनभाई उसे समझा देते, हड्डी का मामला है ठीक होने में समय तो लगेगा ही।

अब तक जुम्मनभाई स्वयं से लड़ते रहे, किंतु अब उन्हें अपनी मुश्किलें अधिक गम्भीर होती दिख रही हैं। क्योंकि अब उनकी अंतरआत्मा में परिवर्तन हो रहा है। परिणामस्वरूप उनके मुखर व्यक्तित्व में चुप्पी समाती जा रही है। यह चुप्पी उन्हें उदासी के नजदीक खींच लाई है। वे खासे निर्लिप्त और भावनाशून्य होते जा रहे हैं। प्रतिदिन की हताशा उनकी आंतरिक सहजता को मिटा रही है। घर में पोलियोग्रस्त बेटा, खाँसती माँ तथा अभावों से जूझती पत्नी को देख उन्हें शुरू-शुरू में जो बेचैनी होती थी वैसी अब नहीं होती।

जुम्मनभाई के पैरों में जब प्लास्टर लगा था उस दौरान उनकी दोस्ती उस कुत्ते से हुई जो उनके घर के सामने बैठा करता था। जुम्मनभाई उठते तब वह उचक कर उन्हें देखने लगता, बैठते तब वह भी एक कोने में शांत बैठ जाता था। यह कुत्ता पहले भी उनके घर के सामने बैठता था या अब बैठने लगा है इसका उन्हें ध्यान नहीं है। शायद पहले भी बैठता रहा हो किंतु तब वे इन बातों पर ध्यान नहीं देते थे। कोई कारण नहीं था कुत्ते पर ध्यान देने का। अब है, क्योंकि इधर जुम्मनभाई को महसूस होने लगा हैकि घर के लोग अब उनसे किसी खुशखबर की उम्मीद छोड़ दिये हैं इसलिए घर में अब उनका इंतजार उस अपने पन से नहीं किया जाता है जिसकी जुम्मनभाई को आदत लग गई थी।

किंतु वह कुत्ता उनके घर से बाहर जाते समय या बाहर से घर आने पर अपने कानों को खड़ा करके पीछेकर लेता है तथा मुँह ऊपर उठा कर पूँ-पूँ करने लगता है। इस बीच उसकी पूँछ लगातार दायें-बायें घूमती रहती है। जुम्मनभाई उसके माथे को सहला देते हैं। उस कुत्ते की ये हरकतें जुम्मनभाई को अपने होने का एहसास दिलाती हैं और आगे भी बने रहने की इच्छा जगाती हैं।

शाम धुंधला रही है। जुम्मन भाई अभी तक पेट्रोल पंप पर ही बैठे हैं। लड़के की आँखे लाल हो गई है, गाल सूज आये हैं किंतु वह बड़ी तत्परता से पंक्चर ठीक करने में लगा है। एक बेवस आह छोड़कर जुम्मनभाई उस लड़के को देखते हैं तथा घर आने के लिये उठ खड़े होते हैं।

घर के सामने कुत्ता पूँछ हिलाते हुये बैठा है। पत्नी रसोई में व्यस्त है। माँ अपने बिस्तर पर बैठी है तथा रुक -रुक कर खाँस रही है। सीने पर ठाँय-ठाँय की चोट देकर निकलता खाँसी का स्वर जुम्मन भाई को व्याकुल किये है। बगल के कमरे में राजा सो रहा है। लगता है उसकी गर्दन टेढ़ी हो गई है वह तेज-तेज खर्राटे ले रहा है। इतनी छोटी उम्र में इतने जोरदार खर्राटें ! डाक्टर कहते हैं कि सोते समय इसे साँस लेने में तकलीफ होती है इसलिए इसे खर्राटे आते हैं।

जुम्मनभाई राजा की गर्दन को सीधी कर देना चाहते हैं, थोड़ा उसे हिला-डुला देना चाहते हैं जिससे कुछ देर के लिए उसके खर्राटे कम हो जायें। किंतु बस सोचते ही रहे, उठे नहीं। बल्कि अब वह यह सोचने लगे कि मेरे मन में राजा की गर्दन हिलाने-डुलाने की इच्छा राजा की अच्छी नींद के लिए उठी थी या मैं इन भयावह खर्राटों से बचना चाहता हूँ। जुम्मन भाई अपने अंदर घर कर रही भावशून्यता से कभी-कभी घबरा जाते, तथा अपने इस भाव को छुपाने की गरज से उसे अलग-अलग ढंग से परिभाषित करते और अपराधबोध में कैद हो जाते। छटपटाते- खूब छटपटाते, इससे बाहर निकलने की कोशिश करते किंतु  निकलते तो निचुडे हुए ही निकलते।

जुम्मनभाई को आया देख पत्नी चाय बना लाई है। उसके पास उनसे बताने के लिए कुछ अच्छी कुछ खराब कई बातें हैं। माँ की बातें, राजा की बातें, पड़ोसियों की बातें। वह बताना चाह रही है, बता रही है पर जुम्मनभाई बिस्तर पर 

अधलेटे हो छत निहार रहे हैं। माँ के खाँसने की धीमी आवाज़ फिर से कानों में गूँजती है ! जुम्मनभाई जानते हैं कि माँ खांसी को अंदर ही अंदर रोकने के लिए अपने गले को कितना दबाती होगी किंतु जब नहीं रहा जाता होगा तब धीरे से खाँस उठती है।

जब जुम्मनभाई छोटे थे तब भी माँ को खाँसी आती थी। जुम्मनभाई पूछते, ‘तुम्हें इतनी खाँसी क्यों आती है माँ ? क्या ये कभी ठीक नहीं होगी ? ‘

माँ कहंती, ‘जब तुम बड़े होकर ढेर सारा पैसा कमाओंगे तब किसी अच्छे डाक्टर से मैं अपना इलाज करवाऊँगी, देखना ये खाँसी ऐसे भागेगी कि कभी फिर पलट कर मेरी तरफ देखेगी भी नहीं।‘ माँ के जवाब से जुम्मनभाई खुश हो जाते। किंतु अब जब वे माँ से कहते हैं, ‘माँ तुम्हें कितनी तकलीफ है, रात भर सो नहीं पाती हो।‘ तब माँ कहती हैं, ‘दिन में खूब सो लेती हूँ बेटा इसलिए रात में नींद नहीं आती... अस्थमा है मुआ दवा से ठीक भी तो नहीं होगा.....।‘ और माँ दूसरी बात करने लग जाती हैं। जुम्मनभाई कहना चाहते हैं कि- माँ, दवा तुझे मिली ही कहाँ ? पर कहते कुछ नहीं बल्कि माँ के पास से जल्दी ही हट जाते हैं ताकि माँ खुलकर खाँस सके।

पत्नी भोजन की थाली रख गई है। जुम्मनभाई को अभी भूख नहीं है। पत्नी भोजन करने के लिए दो-चार बार कहती है किंतु जुम्मनभाई छत निहार रहे हैं। पत्नी झुंझला जाती है, ‘तुम्हें जब भूख हो तब खा लेना, मैं तो दिन भर खटते-खटते थक गई हूँ, अब खा-पीकर आराम करूँगी, तुम निहारो छत।‘ जुम्मन भाई पत्नी की तरफ देख कर मुस्कुरा देते हैं किंतु न जाने कैसे मुस्कराते ही उन्हें गराज मालिक के थप्पड़ों की आवाज सुनाई पड़ने लगती है। छोड़ देने की विनती करता वह लड़का दिखाई पड़ता है। अपने ऊपर पड़ी पुलिस की लाठियों की आवाजें भी कानों में गूँजने लगती है।‘

जुम्मनभाई को लगता है कि इस कमरे में हवा नहीं है वो साँस नही ले पा रहे हैं। उठकर बरामदे में चले आते हैं। कुत्ता अलसाया-सा बरामदे में बैठा है। उन्हे देखते ही वह पूँछ हिलाने लगता है। जुम्मनभाई बाहर कुछ दूर तक जाना चाहते हैं किंतु  उनका पैर साथ नहीं दे रहा है। वहीं पास के मैदान में घण्टे दो घण्टे बैठकर वापस लौट आते हैं।

पत्नी लेट चुकी है। शायद सो भी गई हो। राजा के खर्राटे में गूँ-गूँ की अजीब आवाज शामिल हो गई है। धीमी लय में रुक-रुक कर माँ के खाँसने की आवाज अब भी आ रही है। गोरखा अपने डंडे को सड़क पर पटकते हुये पहरा दे रहा है,  बीच-बीच में सीटी भी बजा देता है। जुम्मनभाई को लगता है कि वे अभी भी सलाखों के पीछे ही तो हैं। उनका यह घर जेल ही तो है। जिसमें अलग-अलग कोठरियों में अलग-अलग तरह के कैदी पड़े हैं- माँ, राजा, पत्नी, वो स्वयं। फर्क सिर्फ यह है कि जेल में घर पहुँचने की छटपटाहट थी। यादें थीं, किन्तु यहाँ ? यहाँ से वे कहाँ निकल कर जाना चाहते हैं उन्हें खुद नहीं पता।

पत्नी जो भोजन उनके लिये रखी थी वह अब भी वैसे ही पड़ा है। रात काफी बीत चुकी है, बाहर भरपूर सन्नाटा है। किसी की आहट पाकर कुत्ता भौंकता है। जुम्मनभाई भोजन पर एक नज़र डालते हैं, फिर बत्ती बुझाकर चादर ओढ़ लेते हैं।

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कहानी

अमरावती, महाराष्ट, मो. 09422917252, Email : ashapandey286@gmail.com


डेढ़ सेर चांदी

किवाड़ उढगा था। नइका कोहनी से किवाड़ ठेल कर अँगनाई में पहुँची तो कोने में बंधी दोनों बकरियां उसे देख कर मिमियाने लगीं। दिन भर से अकेला पड़ा भग्गू भी उठकर खटिया पर बैठ गया। नइका का हाथ घास और बबूल की पत्तियों से भरा था। मिसिर के यहाँ से आते-आते उसने रास्ते से बकरियों के लिए पत्तियाँ भी तोड़ ली थी। पिछले दो-चार दिन से खूंटे पर ही बंधी हैं बेचारी। सांझ-सबेरे बाहर ले जाकर चराने का मौका नहीं मिल रहा है नइका को। अभी दो दिन और ऐसे ही चलेगा।

घास और पत्तियों को बकरियों के आगे डाल कर नइका ने पंजीरी-बताशे की गठरी को पीढ़े पर रखा और बाल्टी रस्सी लेकर कुएं पर हाथ-मुँह धोने चली गई। कुँए के ठंडे पानी से खूब छीटे मार-मार कर मुँह धोया, हाथ-पैर धोया, बाल्टी भरके आंगन में लाकर रखी और आंचल से मुँह पोछते हुए ओसारे में आकर बैठ गई।

अँगनाई में ही छान उठाकर दो ओसारा निकाल लिया है नइका ने। दो कच्ची कोठरी तथा दो छनिहर ओसारे का उसका ये घर भीतर घुसते ही उसे सुकून की सांसों से भर देता है। कितना भी थककर चूर हो गई हो पर इस अँगनाई में आते ही उसकी आधी थकान खुद-ब-खुद चली जाती है।

सुबह जब से गई थी, तब से एक मिनट की भी फुर्सत नहीं मिली थी उसे। इतना बड़ा कारज! आने-जाने वालों की इतनी भीड़ ! बैठती कैसे ? मिसिर काका बहुत भरोसा करके उसे बुलाते हैं, अगर वह भी बैठ जाये तो काम कैसे चलेगा? खड़े-खड़े ही दोना भर पंजीरी-बताशा फांक कर पानी पी लिया था उसने और लगी रही बासन माँजने में, झाड़ू लगाने में। वहीं पुरबहिन और चमेला जांगर चुरा-चुराकर इधर से उधर भाग रहीं थीं। पांच-छह दोना तो पंजीरी फांक गईं। जो भी उधर से प्रसाद बाँटते निकलता उसी के सामने हाथ पसार देतीं। अखंड रामायण के बैठक के पहले सत्यनारायण की कथा हुई थी, उसी का प्रसाद बंट रहा था। दिन भर लोग आते रहे, प्रसाद कम पड़ जाता तो! किसी की इज्जत की जरा-सी परवाह नहीं है इन लोगन को, अगला भरोसा किये बैठा है और ये लोग उसकी इज्जत लेने पर उतारू हुई हैं, भगवान से भी नहीं डरतीं ये लोग- नइका का मन वितृष्णा से भर गया।

शाम धुंधलाने लगी। संझबाती की बेला में बैठकर सुस्ताने से काम नहीं चलेगा- नइका ने मन ही मन सोचा और घुटने पर हाथ रखकर उठी, चूल्हे के पास काँच की एक ढबरी पड़ी थी, उसमें तेल आधी शीशी से भी कम था। नइका ने शीशी को उठाकर देखा- आज का काम किसी तरह से चल जायेगा, कल के लिए व्यवस्था करनी पड़ेगी। रामअजोरवा को कितनी बार कही थी कि, बचवा, खम्भे से तार खींच कर एक लट्टू मेरे भी आँगन में लटका देते, मिट्टी के तेल का खर्चा तो कुछ बचता, पर मुए ने नहीं सुना। नइका मन ही मन बड़बड़ाते हुए ढबरी जला कर अँगनाई के गौखे पर रख आई। वहाँ से दोनों ओसारे में उजियारा आ जाता है।

भग्गू फिर ‘गों-गों’ करने लगा। नइका ‘गों-गों’ के अलग-अलग सुर को पहचानती है। समझ गई कि भग्गू भूखा है। वह पंजीरी-बताशा, हलुवा-पूड़ी की गठरी उठा लाई और भग्गू की खटिया पर बैठकर गठरी खोलने लगी। उस धुंधलके में भी नइका ने भग्गू की आँखों की चमक को देख लिया। मन-ही मन मुस्कराई- इसी चमक को देखने के लिए ही तो वह वहां कौर-भर भी नहीं खाई थी। सब उठा लाई थी भग्गू के लिए। मिसिर काका ने हलुवा ज्यादा दिलवा दिया था। काकी तो देने में कुछ आना-कानी कर रहीं थीं, पर काका ने उनको डपट दिया, ‘दे दो उसे भरपूर , गुंगवा के लिए ले जाएगी’। नइका धन्य हो गई थी। इसीलिए तो मिसिर काका की एक आवाज पर दौड़ी चली आती है। गुंगवा को पूड़ी के साथ अचार अच्छा लगता है। नइका ने हिम्मत की, ‘काकी फांक दो फांक अचार भी दे देतीं’। काकी मुस्कुराते हुए, बिना उसे झिड़के तीन-चार फांक अचार लाकर पूड़ी के ऊपर रख दीं।

नइका खाने की गठरी खोल रही थी, भग्गू ने सिरहाने से आधा प्याज और नमक निकाल लिया। नइका सबेरे उसे प्याज रोटी देकर गई थी, उसी में से कुछ बचा लिया था भग्गू ने। 

नइका मुस्कराई, ‘रक्खो उसे, अचार लाई हूँ पूड़ी के साथ’। 

भग्गू गों-गों करके हंसने लगा। भग्गू की हंसी नइका के कलेजे में धंस गई। इकलौता भग्गू माँ-बाप का बहुत दुलारा था। दोनों जून उसे थाली में दाल-भात, रोटी-तरकारी, सब चाहिए थी। जब नइका इस घर में ब्याह कर आई थी तब इस घर में खाने-पीने की कोई कमी नहीं थी। डेढ़ बीघा खेत का मालिक था उसका ससुर। माँ, बाप, बेटा तीनों जुट कर खेती करते। बाहर भी मजूरी करते। घर में अनाज भरा रहता। भाजी-तरकारी तो भग्गू घर के अगवारे-पिछवारे की जमीन में ही लगा देता। लौकी, तरोई, करेला आँगन की छान पर ही खूब लदे रहते। सास खुश होकर कहतीं, ‘मेरे बेटे के हाथ में बहुत बरक्कत है, ऊसर-पापड़ में भी बीज छीट देता है तो 

धरती सोना उगलने लगती है।’

अब यही भग्गू!...

नइका ने थाली में पूड़ी, अचार और हलुवा रख कर भग्गू के आगे सरका दिया। भग्गू खाने लगा। थोड़ी देर बाद जब उसका मन कुछ तृप्त हुआ तब उसका ध्यान नइका की ओर गया। उसने इशारे से नइका को भी खाने के लिए कहा। नइका ने दो-चार पूड़ी, थोड़ा-सा हलुवा, दोना भर पंजीरी और बताशा भग्गू की थाली में और डाल दिया तथा खुद बची हुई पूड़ियों को अचार से खाने लगी। दोनों के खा लेने के बाद भी कुछ पूड़ियाँ बची रह गईं। नइका ने उसे सुबह के लिए ढक कर रख दिया। दिनभर की थकान से उसका शरीर टूट रहा था। अँगनाई में रखी खटिया को बिछाकर उसने ढिबरी बुझाया और लेट गई।

अभी चैत महीने का दूसरा पाख ही शुरू हुआ है, लेकिन गर्मी ने गाँव को घेर लिया है। हवा ऐसी रूठी है कि पेड़ के एक पत्ते भी नहीं हिल रहे हैं। नइका ने अपने आँचल से हवा करते-करते सोचा, अब गर्मी दिन-ब-दिन बढ़ने लगी है, कल बक्से से बेना-पंखी निकाल लेगी।

पड़ोसी रामअंजोर का नाती किसी बात पर जिद्दियाया है, पूरा घर उसे मनाने, चुप कराने में लगा है। 

राम-अंजोर की माँ का और नइका का गौना एक-दो रोज के आगे-पीछे ही आया था। साल भर के भीतर ही रामअंजोर पैदा हो गया था। अगर भग्गू उस दिन बाजार न गया होता तो आज नइका का भी आंगन, दुआर बच्चों से गुलजार रहा होता। 

नइका के सीने में एक टीस उठी जिसे दबाते हुए उसने करवट बदली।

कितने बरस बीत गए उस बात को ! 

एक दिन भग्गू बाजार गया था। नइका खाना बनाकर आंगन में तथा उसकी सास घर के बाहर बैठकर भग्गू का इंतजार कर रही थीं। उसके ससुर खा-पीकर लेट गए थे,लेकिन कुछ-कुछ देर में आवाज लगाकर पूछ लेते कि भग्गू आया कि नहीं। रात बीत गई। नइका और उसकी सास ने कौर नहीं तोड़ा। बस, उनींदी आँखों से भग्गू का इंतजार करती रहीं। भग्गू कभी-कभी बाजार में चढ़ा लेता था, हो सकता है आज कुछ अधिक चढ़ा ली हो और कहीं पड़ा सो रहा हो, सास बार-बार नइका को यही दिलासा दे रही थी।

रात बीत गई, घड़ी भर दिन भी चढ़ आया, पर भग्गू का कहीं पता न लगा। भग्गू का बाप बाजार जाकर सब जगह छान-बीन भी कर आया, पता चला कि शराब की दुकान पर तो भग्गू कल गया ही नहीं था। दो दिन, दो रात बीत गए। भग्गू का कहीं पता न चला। 

पूरे तीन दिन बाद भग्गू बिसेसर मिसिर को जिला अस्पताल के सामने दिखा। बौराया हुआ-सा इधर-उधर घूम रहा था। मिसिर अपनी गाड़ी में बैठाकर उसे गाँव ले आये। इतना डरा था कि घर आते ही अँधेरी कोठरी में जाकर दुबक गया। उसकी माँ ने उसका हाथ-मुँह धुलाया, खाना खिलाया और कई दिनों तक धीरे-धीरे पूछ कर इतना जान पाई कि उस दिन बाजार में कुछ लोग उसे जबरन अपनी जीप में बिठा लिए थे, फिर जीप किसी सुनसान राह पर आगे बढ़ गई थी। रात के अधियारे में भग्गू रास्ता नहीं समझ पा रहा था। तीन-चार घंटे इधर-उधर घुमाने के बाद किसी घर के सामने उसे उतारा। उस दिन पूरी रात और दूसरे दिन पूरा दिन उसे एक कमरे में बंद रखा। फिर तीसरे दिन दोपहर में अस्पताल ले जाकर नसबंदी कराके छोड़ दिया। इस बीच कई पेपर में उससे अंगूठा लगवाया। वे लोग कौन थे, उसे किस जगह बंद रखे, किस अस्पताल में ले गए थे, इन प्रश्नों का उत्तर भग्गू के पास नहीं था। उसके मुँह से आवाज ही नहीं फूट रही थी, बमुश्किल एकाध शब्द बोलता था।

बस, उस दिन से भग्गू न काम पर गया न अँधेरी कोठरी की खटिया छोड़ी। धीरे-धीरे एकदम गूंगा हो गया। 

भग्गू के माँ-बाप ने सभी उपाय किये। ओझा, वैद्य, पीर, फकीर, यहाँ तक की सरकारी अस्पतालों का भी चक्कर लगाते रहे, पर न जाने कैसा डर समा गया भग्गू के भीतर कि निकलने का नाम ही नहीं लिया। अंत में हार कर बैठ गए सब। 

कितने साल बीत गए !!...अब तो पहाड़ से ये दिन एक-एक कर बस सरक रहे हैं।

नइका करवट बदलने का सोच ही रही थी तभी खट्ट-सी आवाज हुई। अँधियारा पाख है, लेकिन रामअंजोर के दुआरे जो बिजली का खम्भा लगा है उसकी रोशनी का एक छोटा टुकड़ा नइका की अँगनाई में भी फैला है। नइका ने सिर उठाकर बकरियों की ओर देखा, तीनों चुपचाप बैठी हैं। भग्गू लघुशंका के लिए उठा है। सहारे के लिए लाठी लेता है,उसी लाठी की आवाज थी। नइका करवट बदल लेती है। रामअंजोर का नाती अभी तक जिद्दियाया है। पूरा घर लगा है उसे मनाने में। रामअंजोर की माई पनाति देख रही हैं!! खटिया से मचिया, मचिया से खटिया हुमकती रहती हैं। पतोह,नतोह उनके आगे-पीछे घूमती हुई सेवा टहल करती रहती हैं। सब अपनी-अपनी भाग ! 

नइका ने एक लंबी साँस ली।

कहते हैं, भाई-पट्टीदार का हिस्सा डकारना आसान नहीं होता, पचाना मुश्किल हो जाता है; पर रामअंजोर का बाप तो सब डकार गया ! डेढ़ बीघा खेत की मालकिन नइका इसी रामअंजोर के बाप की करतूत से बिन खेती की हो गई है। 

आधा बीघा खेत उसके ससुर ने भग्गू की दवा-पानी के लिए इसी रामअंजोर के बाप के पास गहन रक्खा था। बड़ा भरोसा था उसे अपने चचेरे भाई पर। भाई ने भरोसा भी तो यही दिलाया था, कहा था- ‘तू मेरा भाई है, तेरे खेत गहन रख के मैं पैसे दूँ और वह भी भग्गू की दवाई के लिए, ये बात मुझे हजम नहीं हो रही है, पर रामअंजोर और उसकी माई को तो तू जानता है। मेरी जान खा जायेंगे ये लोग, बाकी इतना तू भरोसा रख कि तू पैसा नहीं भी लौटा पायेगा तो भी मैं तेरी जमीन लौटा दूँगा, ये बात तेरे-मेरे बीच में पक्की समझ।’

नइका का ससुर भाई की बात को पक्की समझ लिया। लम्बे समय तक भग्गू का इलाज करने के बाद भी जब उसकी तबियत में कुछ सुधार नहीं हुआ तो मजूरी से जोड़े पैसे को बचाकर गाहे-बगाहे भाई को लौटाने लगा था। कितना पैसा लौटा पाया था ये तो नइका को नहीं पता, किंतु ससुर को कई बार ये कहते हुए सुना था कि अब अधिक कर्ज नहीं बचा है, साल दो साल में जमीन छुड़ा लूँगा, पर भगवान को तो कुछ और ही मंजूर था। भग्गू की चिंता उसे खाए जा रही थी। देखते ही देखते ससुर ने खटिया पकड़ ली।

घर की हालत खराब होने लगी। अकेली सास खेती नहीं करवा पा रही थी। मजबूर होकर उसके ससुर ने बचे हुए खेत को अपने भाई को ही अधिया पर दे दिया। इस तरह पूरा खेत रामअंजोर के बाप के कब्जे में चला गया।

सास, ससुर के मरने के बाद नइका के मन में कई बार आया कि अपनी खेती वह खुद करवाए। खेती से फुर्सत के दिनों में इधर-उधर मंजूरी भी कर ले। दो जन ही तो बचे हैं- कुछ खेती से, कुछ मजूरी से बीत जाएगी जिन्दगी। पर रामअंजोर का बाप खेत को न सिर्फ हथिया, रहा, बल्कि साल-दो साल बाद अनाज देना भी बंद कर दिया। जब नइका ने आधे अनाज की मांग की तब वह बैनामा-पट्टे का कागज लाकर नइका के आगे पटक दिया, ‘देख ले इन कागजों को, इतने दिन से तेरी भुखमरी पर रहम खा कर दे रहा था अनाज... नेकी का तो जमाना ही नहीं है...आधा अनाज मांग रही है।’

नइका के लिए वो कागज, काला अक्षर भैंस बराबर था। अगल-बगल के लोगों ने कागज देख कर उसे बताया कि उसके ससुर ने रामअंजोर के बाप को सारी जमीन बेंच दी थी। सुनते ही नइका जड़ हो गई, काटो तो खून नहीं। कई महींने लग गए थे उसे संभलने में। लोगों ने उससे कहा कि पेपर की जाँच करवा ले, असली हैं या नकली। पर नइका किसके बूते जाँच करवाती ! और जाँच करवाने की भी क्या जरुरत ? वह तो समझ ही रही थी कि ये सारे पेपर नकली हैं। संतोष कर लिया उसने।

फिर से करवट बदल लिया नइका ने, पर अधिक देर लेटे नहीं रह पाई। उठकर बैठ गई खटिया पर। मन कसैला हो आया। थोड़ी देर बैठी रही फिर अँगनाई के एक कोने में ढंके गगरे से कटोरा भर पानी लिया और एक-दो घूंट पीकर बचे पानी से हाथ-मुँह धोया और फिर से आकर लेट गई।

मिसिर के यहाँ आज रामायण का समापन है। होम-हवन के बाद भोजन की व्यवस्था है। नइका बरतन मांज कर उठी है। मिसिर काका बाहर पानी देवार (छिड़क) रहे हैं। नइका बाल्टी लोटा उनके हाथ से लेकर पानी देवारने लगी। रामायण का सम्पुट गाया जा रहा है-

सुफल मनोरथ होई तुम्हारे, राम-लखन सुनि भये सुखारे।

पानी छिड़कते-छिड़कते नइका के होंठ बुदबुदाने लगे, सुफल मनोरथ होई तुम्हारे सीधे भगवान का आशीर्वाद मिला है मिसिर काका को। तीन साल से उनका नाती डाक्टरी में दाखिला की पढ़ाई कर रहा था लेकिन पास नहीं हो पा रहा था। काका ने अखंडरामायण करवाया और दाखिला होने पर फिर से करवाने का मानता मान लिया। देखो तो भगवान की किरपा, उसे दाखिला मिल गया !! काकी कह रही थीं कि बड़ी शक्ति है रामायण में। कोई भी इच्छा मन में रख कर पाठ करवा लो, शर्तिया पूरी हो जाएगी।

‘सुफल मनोरथ होई तुम्हारे बस, गुंगऊ बोलने लगते।

नइका का मन हुलस गया- बोलने लगेंगे तो क्या बोलेंगे गुंगऊ ! पहले जैसे प्रेम-मनुहार की बातें या इतने दिन की घुटन ! 

दिन भर सोचती रही थी नइका कि मिसराइन काकी से पूछे कि पाठ करवाने में कितना खर्च लगता है। पर हिम्मत नहीं हो पाई। अखंड पाठ है ! बड़े लोग करवा सकते हैं ये पूजा, नइका कहाँ से करवा पायेगी !

डेढ़ सेर चांदी बेचकर हो पायेगी ये पूजा ! मिसराइन काकी से पूछकर अंदाज लग सकता है। दिन भर वह इस असमंजस में रही कि पूछूं या न पूछूं। शाम को उसने निर्णय लिया कि दो-चार दिन बाद जब सारे मेहमान चले जायेंगे तब अकेले में वह काकी से पूछेगी।

डेढ़ सेर चांदी...

उसकी माँ यही बताती थीं। माँ का ही गहना तो था वो। उसकी विदाई में चैबीस लच्छे, करधनी तथा हाथ का तोड़ा उतार कर पहना दिया था माँ ने नइका को। कुल डेढ़ सेर चांदी में बने थे वे गहने। चांदी भी माँ के गौने के साल की ! एकदम खरी, कोई मिलावट नहीं। अब कहाँ मिलती है ऐसी चांदी।

अच्छी चांदी के इतने जेवर पहन कर जब नइका उतरी थी तो उसकी सास दंग रह गई थी। बड़े गर्व से जेठानियों,देवरानियों को सुनाते हुए बोली थी, ‘सचमुच की लक्ष्मी आई हैं मेरे घर। समधी ने इतना दिया कि मेरा घर भर गया। डेढ़-दो किलो चांदी पहन कर उतरी है मेरी बहू। यहाँ तो पाव-डेढ़ पाव चांदी में ही उतर आती हैं बहुएं।’

नइका सास की बात याद करके मुस्कुरा उठी। तमाम मुसीबतें आईं पर सास ने उसके गहने नहीं बिकने दिये। उनके न रहने पर नइका ने भी अपने गहनों को हिफाजत से रक्खा। जब खेत छिन गये तो यही गहने ही पूंजी के रूप में उसके पास बचे। कोठरी में अपने बक्से के नीचे गड्ढा खोदकर, मिट्टी की मेटिया में गहनों को रख कर, मेटिया गड्ढे में गाड़ दिया था नइका ने और उसके ऊपर अपना बक्सा रख दिया था।

अब अगर ये गहने काम आ जाएँ ! भग्गू की आवाज के सामने इन गहनों का क्या मोल ?

कितने बरस हो गए भग्गू की बोली सुने! ब्याह कर आई थी तो भग्गू के होठों से फूल झरते थे। नइका की कोठरी महकती रहती थी उन फूलों से साल भर ही रही थी वो भीनीं महक, उसके बाद सब उजड़ गया। अब तो गूं-गां के सिवा कुछ निकलता ही नहीं भग्गू के मुँह से।

 आज भी मिसिर काका के घर से परोसा मिल गया है। पूड़ी, कचैड़ी, कोहड़े की भाजी, पीसी शक्कर- भरपूर दिया है काकी ने। कल भी खाना न बनाये तो इसी से काम चल जायेगा।

भग्गू जब खा-पीकर सो गया तब नइका एक हाथ में लालटेन तथा दूसरे हाथ में खुरपी लेकर कोठरी में गई। आज वह गहनों को देखकर अंदाज लगाना चाह रही थी कि अखंड रामायण के लिए ये पर्याप्त होंगे या नहीं। लोहे का बक्सा उठाते ही वह दंग रह गई। वहाँ की मिट्टी भुरभुरी और खुदी हुई लग रही थी। बक्सा एक ओर रखकर वह हाथ से मिट्टी हटाने लगी। गड्ढा दिखने लगा, किंतु मेटिया न दिखी। नइका की धडकन बढ़ गई। घबराई हुई वह दोनों हाथ से जल्दी-जल्दी मिट्टी हटाने लग गई। पूरा गड्ढा साफ हो गया,पर गहना न मिला। वह भागी-भागी भग्गू के पास आई। भग्गू गहरी नींद में सो रहा था। नइका ने उसे झिंझोड़ कर जगाया। भग्गू चैंक कर उठ बैठा। कुछ देर लगा उसे बात को समझने में, फिर लाठी का सहारा लेकर वह नइका के पीछे-पीछे कोठरी में गया। खाली गड्ढा देखकर, वही सिर पकड़ कर बैठ गया। नइका कोठरी का एक-एक सामान टटोलने लगी। कहीं बक्से में तो नहीं रख दिया था, या फिर झोले में। कहीं गौखे की डलिया में तो नहीं डाल दिया था, या फिर यहाँ से हटा कर कहीं दूसरी जगह तो नहीं गाड़ दिया था...नइका का दिमाग काम नहीं कर रहा है। पूरी रात दोनों पति-पत्नी जाग कर बिता दिये।

दूसरे दिन अगल-बगल में खबर फैल गई कि नइका के घर से डेढ़ सेर चांदी चोरी हो गई। रामअंजोर की माँ आंचल से मुँह ढककर हंसी, ‘पेट भरने का ठिकाना नहीं, डेढ़ सेर चांदी गाड़ कर रखी थी, लगता है, पगला गई है गुंगवा की तरह।’

रामअंजोर की माँ की बातों में दम है। सभी मुस्की मार-मार कर मजा ले रहे हैं।

मिसिर काका सुबह से नइका का इंतजार कर रहे थे। बहुत काम फैला है उनके घर। एक-दो दिन लगेंगे सभी चीजों को सही जगह पर रखवा देने में। इंतजार करते-करते थक गए तो नइका के घर तक चले आये। रामअंजोर की माँ की बात मिसिर काका को भी सही लगी- डेढ़ सेर चांदी नइका के घर ! कभी कोई गहना उसके शरीर पर दिखा तो नहीं ! दुःख झेलते झेलते बउरा गई है !!

मिसिर काका अपने घर लौट आये। रामअंजोर की माँ भग्गू की अँगनाई में बैठी हैं। बाकी सब अड़ोसी-पड़ोसी नइका को झूठी घोषित कर अपने-अपने काम-धंधे पर चले गए। भग्गू भौचक-सा कभी नइका को, कभी रामअंजोर की माँ को देख रहा है। अचानक नइका उठी और भग्गू का गला पकड़ कर बोली, ‘बता मुझे तूने किस-किस को बताया था कि घर में चांदी गाड़ कर रखी है ? बता जल्दी नहीं तो मैं गला दबा दूंगी। नाशपीटे, मेरे न रहने पर ये लोग जो कौरा डाल देते हैं तुझे, उसी पर सब उगल दिया ? अब गूंगा बन कर बैठा है ? खोदकर दे आया चांदी ? बोल जल्दी नहीं तो मार डालूंगी आज तुझे।’

रामअंजोर की माँ दौड़कर नइका की पकड़ से भग्गू की गरदन छुड़ाई और रोष में बोलीं, ‘सच में पगला गई हो नइका, कुछ तो लाज-लिहाज रक्खो, क्या-क्या बके जा रही हो, कुछ होश है ? हम चुपचाप सुन ले रहे हैं तो तुम बढ़ी ही जा रही हो ?’ 

‘चुपचाप नहीं सुनोगी तो क्या करोगी, है ताकत बोलने की ? तुम लाज-लिहाज सिखाने आई हो मुझे? तुम ? अरे हम दोनों का मांस भी नोचकर खा जाओगी न, तब भी तुम्हारा पेट नहीं भरेगा। बड़ी माया दिखाने आई हो... चली जाओ यहाँ से।’

‘हाँ-हाँ चली जा रही हूँ, इस गुंगवा की खातिर आती हूँ यहाँ, दिन-दिन भर पड़ा रहता है बिना खाए पिए, नहीं देखा जाता, रोटी देने आ जाती हूँ। तुम्हारे स्वभाव से तो कोई तुम्हारी डेहरी न डाके.... नेकी का तो जमाना ही नहीं रहा।’ रामअंजोर की माँ बड़बड़ाती हुई उठकर चली गईं।

नइका कुछ देर तक रामअंजोर की माँ को कोसती, गरियाती बैठी रही, फिर उठकर भग्गू के सामने कल की बची हुई पूड़ी लाकर पटक दी,‘लो, भकोसो, नहीं तो पूरे गाँव में हल्ला हो जायेगा कि मैं दिन-दिन भर तुम्हें खाना नहीं देती हूँ।’

भग्गू थाली एक ओर सरकाकर सिर नीचे किये बैठा रहा। नइका फिर से कोठरी में जाकर गहना खोजने लगी। जहाँ गहने को गाड़ कर रखी थी वहां फिर से खोद डाली। झोला, अलगनी, गौखा, सब जगह फिर-फिर से खोज डाली। वह कभी आंगन में आती है तो कभी कोठरी में जाती है। एक पल को भी चैन नहीं मिल रहा है उसे।

जब नइका कोठरी से आंगन में आती है तो बकरियां उसे देख कर मिमियाने लगती हैं। रात से एक ही स्थान पर 

बंधी, भूखी-प्यासी बकरियां नइका का ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए बस मिमिया ही सकती हैं। भग्गू भी भूखा है। पूड़ी से भरी थाली उसके पास ही पड़ी है, पर खाए कैसे ? नइका का रोना, बड़बड़ाना, गरियाना लगातार जारी है। ऐसे में गले के नीचे कौर उतारना आसान है क्या !

शाम उतरने लगी है। नइका थककर आँगन में बैठ गई है। ओसारे में एक ओर कल की बची पत्तियाँ पड़ी हैं, जो लगभग सूख गई हैं। नइका ने उठकर पत्तियों को बकरियों के आगे डाल दिया और नमक प्याज लाकर भग्गू की थाली में पटक दिया। दिन भर का भूखा भग्गू चाहता है कि नइका भी कुछ खा ले, पर नइका लोटा भर पानी पीकर वही बैठ गई। भग्गू भूख से छटपटा रहा था, वह पूड़ी में नमक लगाकर 

धीरे-धीरे खाने लगा। नइका कुछ देर तक भग्गू को खाते हुए देखती रही फिरबड़ी नरम आवाज में उसने भग्गू से पूछा, ‘सच बता, तूने मेरा गहना किसको दिया ?’

भग्गू ने गूं-गा करके सिर हिलाया कि किसी को नहीं दिया है। नइका ने फिर नरमी दिखाई, ‘अच्छा ये बता, तूने रामअंजोर की माँ को बता दिया था कि गहना बक्से के नीचे गाड़ कर रखा है ?’ भग्गू सिर नीचे कर लिया।

नइका चिल्लाई , ‘ नाशपीटे, अब मुंडी नीचे करने से क्या फायदा, लुटवा दिया हरामी ने।’ कुछ देर से शांत बैठी नइका फिर से भग्गू और रामअंजोर की माँ को गरियाने लगी...

एक के बाद एक दिन बीतने लगे, किंतु नइका का दुःख, क्षोभ, गुस्सा कम होने की बजाय बढ़ता ही जा रहा था। उसने कोठरी की एक-एक इंच जमीन कई-कई बार खोद डाली थी। धीरे-धीरे खाने-पीने, उठने-बैठने, सोने- जागने का भी होश खो बैठी वह। रामअंजोर की माँ भग्गू और नइका को रोटी दे आती जिसे नइका कभी तो खा लेती और कभी पलट कर उनके ही मुँह पर फेक देती। पूरे गाँव में रामअंजोर की माँ की सज्जनता की चर्चा जोरों पर है। चचेरी जेठानी का इतना प्रेम ! 

नइका चिल्लाती, ‘ये इनके प्रेम का ही नतीजा है जो आज हम लोग इस हाल में पहुँच गए’, पर अब नइका की सुनता कौन है। अब वह पागल करार दे दी गई है। बच्चे उसे देखते ही चिल्लाते हैं-‘तुम्हारे घर में चोर घुसा, चोर घुसा, गहना लेकर भाग गया’ नइका डंडा लेकर दौड़ती है। डंडा फेक कर बच्चों को मारती है। बच्चे खिलखिला कर हँसते हुए भाग जाते हैं। नइका चिल्लाते हुए कुछ दूर तक उनका पीछा करती है।

नइका को चिढ़ाने का एक नया खेल बच्चों को मिल गया है।

भग्गू अब ठीक से गुंगुवा भी नहीं पाता है।

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कहानी

अमरावती, महाराष्ट, मो. 09422917252, Email : ashapandey286@gmail.com


देर कभी नहीं होती

‘तू तेरह साल की थी, जब मैं यहाँ आई’

‘हाँ, खेत पर ही तो गई थी मैं, लौटी तो पता चला कि तेरी काकी नहीं रहीं। तू कुछ दिन के लिए नाना के घर गई है।”

‘नाना का घर !... कहाँ था मेरे भाग्य में ! मेरे जनम के पहले ही तेरे नाना चल बसे थे- नानी भी तेरी... पांच साल की रही होउंगी मैं... याद भी नहीं है माँ का चेहरा- उसकी आवाज जैसे किसी गहरे खोह से आ रही हो- तेरे नाना नानी रहे होते तो शायद ये दिन न देखती मैं...... और काकी के न रहने की बात- झूठ था सब।’

आलू छीलते उसके हाथ क्षण भर को रुके, जैसे उभर आया पुराना दर्द उँगलियों में ही हुआ हो, फिर उसी गति से चलने लगे। कुछ देर बाद अचानक वह चैंकी। उसे कुछ याद आया, बोली- ‘वो बाहर अकेले बैठा है, तू जा वहीं बैठ।’

‘नहीं, ठीक है, वो बैठ लेगा।’

‘उसने कहा यहाँ आने के लिए या तू उसे ले आई ?’ उसकी कनखियाँ मेरे चेहरे पर थी।

‘वो क्यों कहेगा ? .....मैं ही लाई उसे, पर उसने आनाकानी नहीं की, झट तैयार हो गया।’ 

  ये सुनकर उसने एक लंबी साँस ली, पता नहीं अपना दुःख याद करके या मेरा सुख सोचकर। फिर कुछ देर तक रसोई में चुप्पी छाई रही। मैंने देखा, जरूरत भर के बर्तन रसोईं की दीवाल से उठगे पड़े हैं। चूल्हे के एक कोने में थोड़ी-सी सूखी लकड़ी, रहठा और उपले रखे हैं। थोड़ी दूर पर पीतल के दो गगरे रखे हैं, जिसमें पानी होगा। सड़सी,चिमटा, फुकनी चूल्हे के पास ही रखी है। मैं यहाँ आते हुए डर रही थी। पता नहीं मुझे पहचानेगी भी या नहीं ! मिलेगी मुझसे या यूँ ही लौटना पड़ेगा ! तेरह वर्ष की उम्र में छूटी मैं, अब ब्याह हुए भी दो वर्ष हो गए, पहचानेगी तो क्या ! बताना पड़ेगा सब कुछ विस्तार से। बताने पर तो जान जाएगी या तब भी अनचीन्हा व्यवहार करेगी ! पता नहीं मेरी बातों पर विश्वास करेगी या नहीं! तमाम प्रश्न थे दिल में, पर उससे मिलने की इच्छा इतनी बलवती थी कि सारे प्रश्नों को पीछे धकेलती हुई मैं पति को साथ लेकर पहुंच गई यहाँ। 

ये अकेली बैठी थी घर में। थोड़ी देर पूछ-ताछ की, फिर पहचान लिया मुझे। ऐसा लगा जैसे मेरी बढ़ती हुई छवि को हमेशा अपने दिमाग में बनाती रही हो और मुझे देखकर मिलान कर लिया हो ! फिर तो ऐसा कसकर कलेजे से लगाई कि बचपन की प्यासी मैं कुछ तृप्त हो गई।

वह कुछ लाने के लिए भीतर कमरे में गई। लौटी तो उसके हाथ में एक पीढ़ा था- ‘ले इसपर बैठ, मुझे ध्यान ही न आया, तू इतनी देर से नीचे ही बैठी है।’

‘तो क्या हुआ, तेरे पास बैठी हूँ न।’ उसका चेहरा ये सुनकर क्षण भर को दमका फिर बुझ गया।

‘मैंने नहीं सोचा था तू आएगी।’ वह अब प्याज छील रही है।

‘मेरा पता कहाँ से मिला ?’ अचानक वह चैंककर पूछी।

‘तू नाना के घर से जब बहुत दिनों तक न लौटी तो मैं रो रो कर तेरे बारे में पूछती थी... पूछना कभी बंद ही नहीं किया था। पिछले साल बाबू मरते समय बताए।’

‘मर गया वो ?’ उसने संतोष की साँस लेकर पूछा।

‘हाँ, मर गए फेफड़ा खराब हो गया था उनका। कह रहे थे, पाप किया है मैंने; बेटे की लालच आ गई थी मन में...एक बेटी पैदा करने के बाद कोख ही न फूटी उसकी, इसलिए हटा दिया यहाँ से।

‘झूठ, वह शराबी था, पैसे की तलब थी उसे.... बेचा था उसने मुझे, हजार रुपये में।’ एकाएक उसकी आँखों से अंगारे बरसने लगे। ‘हजार रुपये में बिकी थी मैं.... ये थी कीमत मेरी !’ 

मैं सहम गई, ‘ बाबू मुझे बहुत प्यार करते थे।’ मैंने उसके क्रोध को संभालना चाहा।

‘बाबू.... निगोड़ा, अपनी औरत बेच दिया.... बोतल भर शराब के लिए !’ घृणा से मुँह टेढ़ा हो गया उसका।

‘दूसरी लाई ?’ बड़े धीरे से डरते-डरते पूछा उसने। 

‘नहीं।’ वह मेरी ओर देखने लगी, जैसे वह सुनना तो यही चाहती थी, पर विश्वास नहीं हो रहा है उसे।

‘कोई आई नहीं या उसने ही नहीं लाई ?’

‘पता नहीं क्या हुआ, पर बाबू ने दूसरी नहीं लाई।’

‘आजी हैं अभी ?’

‘हाँ, हैं। तुझे बहुत याद करती हैं। कभी कभी अकेले में रोती भी हैं, पर मैं जान जाती हूँ कि आज वह तुझे याद करके रोई हैं। आखें लाल हो जाती हैं न उसकी, फिर पूरे दिन लाल ही रहती हैं। आजी कहती हैं, मैं कुछ कर न पाई... अब तो बाबू के लिए भी रोती रहती हैं।’

‘वो क्या करती, गहरे गड़े खूंटे से बंधी थी। रंभाने की भी ताकत नहीं थी उसमें, फिर जैसे खुद से ही बोली हो- मुझमें ही कहाँ थी!’ 

‘तू इतनी आलू प्याज क्यों छील रही है ? हमारे लिए ? ज्यादा भूख नहीं है। बस कर इतने में हो जायेगा।’ मैंने बात बदलनी चाही।

‘वह भी तो है।’

‘दोनों का हो जायेगा।’

‘वो कहाँ गया है ?’ मुझे यहाँ आये घंटे भर से ऊपर हो गए थे, अब तक उस आदमी को न देखकर मैंने पूछा।

‘कौन ? मेरा खरीददार ?’ शायद व्यंग्य में बोल रही थी वह। मैं चुप रही, उसने बताया- पड़ोस के गाँव में सत्यनारायण की पूजा सुनाने गया है। आस-पास के गांवों में यजमानी है उसकी। थोड़े खेत भी हैं....हो जाता है गुजर बसर।  क्या चाहिए अब जीने के लिए, दो वक्त का भोजन ही तो ?’ आंचल उठाकर उसने आँखें पोछीं- पता नहीं प्याज की झार से आँखों में पानी आया था या दिल के दर्द से आँसू !’ मैंने बात बदली, ‘तू खा चुकी है ?’

‘हाँ, रात की रोटी बची थी उससे काम चल गया।’

‘और वो ?’

‘वो वहीं से खाकर आएगा, पंडिताई करता है न, महीने में पन्द्रह दिन बाहर ही खाता है।’

‘तो तू पन्द्रह दिन बचा-खुचा खाती है ?’

वह मुस्कुराई, इतनी देर में पहली बार। उसकी मुस्कान अब भी बिल्कुल वैसी है जैसे मेरे बचपन में थी। मुझे लगा रसोई में उजियारा फैल गया- उसके दांत हैं ही चमकदार।

उसने चूल्हा जला दिया। कड़ाही उठाकर आंचल से पोंछा और चूल्हे पर चढ़ा दिया, फिर भीतर के कमरे में गई। लौटी तो तेल, मिर्च, मसाला सब हाथ में था। ‘मिर्ची तेज चलेगी या कम ?’ पूछा उसने।

‘चलेगा, तू जैसा भी बनाएगी।’

‘और उसके लिए ?

‘वह भी खा लेगा।’

‘पहले तू बिलकुल भी मिर्ची नहीं खाती थी। मैं हरी मिर्च अलग से पीस कर रखती थी। सब्जी पक जाने के बाद तेरी सब्जी निकाल लेती थी, फिर सबकी सब्जी में मिर्ची मिलाती थी।’

‘मुझे याद है.... पर तेरे जाने के बाद मैं सब कुछ खाने लगी थी।’ वह मुझे देखने लगी- कुछ चकित सी, फिर जैसे खुद से ही बोली हो ‘बिनु माँ की हो गई न।’ 

बाहर साइकिल खड़की तो वह संभल गई। भय उसके चेहरे पर फैल गया फिर जल्दी-जल्दी वह अपना आंचल ठीक करने लगी। सिर की साड़ी को माथे तक खींच लिया और कुछ सिकुड़ कर बैठ गई। दरवाजे से एक बूढा-सा दिखने वाला व्यक्ति अंदर प्रवेश किया। मैं समझ गई, ये वही है। उसने अपने हाथ का झोला उसे पकड़ाया और प्रश्न भरी नजरों से मेरी ओर देखने लगा। उसने झोले को दीवाल से लगाकर रखते हुए धीमी आवाज में कहा- ‘रीता है, भानपुर से आई है।’

मैंने बूढ़े की ओर देखते हुए हाथ जोड़े पर उसने मुझे कोई जवाब न दिया और अगला प्रश्न पूछ लिया- ‘और बाहर?’

‘मेहमान, इसका घरवाला।’  अब उसकी आवाज में कंपकपाहट भी समा गई है।

‘बाहर बैठता हूँ, पानी दे जाना।’ कहकर वह बाहर चला गया। वह लोटे में पानी भरने लगी तो मैंने कहा, ‘ला, मैं देकर आती हूँ।’ उसने मुझे देखा,  थोड़ा-सा सहमी फिर बोली, ‘नहीं तू बैठ, मैं ही देकर आती हूँ।

वह पानी देने चली गई, मैं रसोई में बैठे-बैठे सोचने लगी - उसके आते ही कितनी धीमी आवाज हो गई इसकी! कितना डर-डर के रहती है यहाँ ! चैदह-पन्द्रह वर्ष एक आदमी के साथ एक घर में बिताने के बाद फिर दूसरा घर ! दूसरे आदमी के साथ ! कैसे सहा होगा इसने ! आसान तो नहीं रहा होगा ! यहाँ आये भी तेरह-चैदह वर्ष बीत गए !

 जब वह लौटकर आई तो मैंने उससे पूछा ‘कैसे चली आई थी तू इसके साथ ? विरोध क्यों नहीं किया?’ 

‘मैं भी तो यही जानती थी कि नैहर जा रही हूँ अपने। रास्ता थोड़ा अनजाना-सा लगा तो मैंने इससे पूछा, तब इसने बताया कि तू अपने नैहर नहीं मेरे घर चल रही है। तेरे नैहर जाने की बात गलत थी। तेरी किसी काकी को मैं नहीं जानता। तेरे पति ने झूठ बोला था सबसे। मैं रुक गई, आगे बढ़ नहीं रही थी। ऐसा लगा कि अभी धरती फट जाये और मैं समा जाऊं उसमें, पर धरती ऐसे फटती है क्या ? खीचते हुए ले आया मुझे। कह रहा था तेरे पति के हाथ में हजार रुपये गिनकर ला रहा हूँ तुझे। सौ-सौ की एकदम कड़क नोट दी है मैंने, अब तू नखरे दिखा रही है ? खिंचती चली आई मैं इसके साथ.... यहाँ गाँव की औरतों ने गाने-बजाने से अगुवाई की थी मेरी। उन गाने वाली औरतों में से एक का मुँह नोच लिया था मैंने। औरतें गाना छोड़कर भाग गईं थी। फिर इसने मुझे मारा भी और समझाया भी। मेरा मन जल रहा था। दो-चार दिन नहीं, कई साल लगे थे मुझे यहाँ स्थिर होकर रहने में ... कोई लेने या ढूढने भी तो नहीं आया था मुझे, मेरा मतलब है तेरा बाप.....तू बहुत याद आती थी, रातों में चैंक कर उठ जाती थी मैं।’

‘हुंह, लौटी क्यों नहीं ?’ मैंने उसके कहे को झटका।

‘किसके पास लौटती ? जिसने बेचा था उसके पास ? और लौटती कैसे ? न रास्ता जाना समझा था, न पास में एक पैसा रहता था। बहुत दिनों तक निगरानी में रखा इसने...फिर धीरे-धीरे मन मारकर रह गई।’

‘लौट भी आती तो क्या वहाँ फिर से जगह मिल जाती।’ वह मुझसे पूछ रही है या खुद से, पता नहीं, पर मैं चुप रही।  सच तो कह रही है, दुबारा अपनाना ही होता तो जानवर की तरह इसे बेचते ! रह गई जानवर की तरह खूंटे से बंध कर। मैं उखाड़ देना चाहती हूँ इसका खूंटा।

‘कुछ दिन रुकेगी यहाँ ?’ उसने पूछा 

‘नहीं, जाऊँगी आज ही, अभी चार-साढ़े चार बजे तक निकल जाऊँगी।’

‘रुक जाती दो-चार दिन।’ आवाज उसके गले के ऊपर से ही निकल रही है। बूढ़े के आते ही समझ गई होगी ये कि हम लोगों का आना उसे अच्छा नहीं लग रहा है, पर रुकने के लिए कहना है इसलिए कह रही है। इसका दिल तो चाहता ही होगा कि मैं इसके पास रुक जाऊं, पर कितनी मजबूर है !!

रोटी बन गई तो इसने मेरे पति को अंदर बुलाया। भीतर से एक और पीढ़ा ले आई। लोटे में पानी भरकर रखा और दो थाली में खाना परोस दिया। मैंने उसकी ओर देखा, वह मुस्कुराई- दूसरी बार- ‘दाल-भात भी बना लेती तो अच्छा रहता, लेकिन पहले ही इतनी देर हो गई है दाल-भात बनाती तो और देर लग जाती।’ उसने मेरे पति को लक्ष्य करके कहा था ये, पर जवाब मैंने दिया, ‘ठीक तो है, सब्जी रोटी ही बहुत है.....  हम लोगों के साथ तू भी खा ले थोड़ा-सा।’

‘नहीं, तू खा।’

पति चुपचाप खा रहे हैं और मैं सोच रही हूँ कि पति इससे कुछ बात कर लेते तो ठीक रहता। वह एकटक मेरे पति को देख रही है। उसकी आँखों में चमक आ गई है।

हमारे खा लेने के बाद उसने बरतन लाकर बाहर मजनौरे पर रख दिया और पीढ़ा उठाकर बोली- ‘चल बाहर ही बैठते हैं सबके साथ।’ उसे उम्मीद थी कि दोनों मडहे में आपस में बात कर रहे होंगे, हम लोग भी वहीं बैठेंगे, पर बूढ़ा सो चुका था। मेरे पति अभी-अभी खटिया पर लेटे थे, उन्होंने भी ऊँघना शुरू कर दिया था।

वह चाहती थी कि वो बूढ़ा मुझसे और मेरे पति से कुछ बात करे और मैं चाहती थी कि मेरा पति उससे और उस बूढ़े से कुछ बात करे। दोनों को सोते ऊँघते देख वह बोली, ‘यहाँ तो सब नीद में चले गए।’ हलांकि मैं समझ रही थी कि वह मजबूर है। बूढ़े के गुस्से का डर न रहा होता तो वह उसको जगाकर कहती कि कैसे सो गए, थोड़ी देर के लिए तो आया है मेरा दामाद, कुछ बात-चीत करो।

कुछ देर पीढ़ा लिए वह मडहे में खड़ी रही फिर बोली, चल हम लोग उस पेड़ के नीचे बैठें। मैं उसके पीछे-पीछे चली आई। वहाँ पेड़ के नीचे एक मचिया पड़ी थी, उसने पीढ़ा मेरे लिए रख दिया खुद मचिया पर बैठ गई।

अब मैं उसे बाहर की रोशनी में ठीक से देख रही हूँ। मुझे याद है, वह बहुत गोरी थी। सब कहते थे तू अपनी माँ को पड़ी है। उतनी ही गोरी, उतनी ही सुंदर, पर आज इसे देख रही हूँ तो ये कहीं से सुंदर नहीं दिख रही है। दोनों गालों पर काले चकत्ते-सी झाई पड़ गई है। बाल सफेद हो गए हैं और गले की हड्डी उभरने से गले और हड्डी के बीच में छोटा-सा गड्ढा बन गया है। 

मैंने कहा, ‘तू बहुत दुबली हो गई है’। उसने एक बार अपने हाथ-पैर की ओर निहारा फिर बोली, ‘खांची भर मांस थी, आधी वहाँ गल गई आधी यहाँ... अब क्या है, किसी तरह अंतबेला आ जाये’,  उसने एक लम्बी जम्हाई ली, यह समय उसके आराम का रहता होगा। मैं फिर से उन्हीं बातों में नहीं जाना चाहती थी और शायद वह भी नहीं। उसने गर्दन ऊपर करके पेड़ की ओर देखा और बोली’- ‘देख, कितना गझिन पेड़ है।’ मैं उसकी गर्दन और नजरों का पीछा करती हुई वहाँ देखने लगी जहाँ वह देख रही है। ये कटहल का पेड़ है। पेड़ सचमुच बहुत गझिन है। मैंने पूछा, ‘कटहल लगते हैं इसमें ?’ उसने दोनों हाथों को फैलाया और चिहुक के बोली, ‘खूब, खूब आते हैं। सब्जी बहुत अच्छी बनती है इसकी।’

‘दो जन में लगता ही कितना होगा, बांटती भी होगी गाँव वालों को ?’

‘कहाँ, उसने मुँह बिचकाया- ये बूढ़ा किसी को छूने भी नहीं देता। अपने लिए रखकर सब बेच डालता है। मुफ्त में तो ये कानी कौड़ी न दे किसी को... बड़ा कंजूस है। उस घर से आने के बाद तो हथेली पर पैसा कैसा दिखता है कभी ये भी न जाना मैंने... अंटी में सम्भाले रहता है, छूने भी नहीं देता है कभी।’ फिर  जैसे खुद को समझाते हुए बोली, ‘क्या करूंगी मैं पैसा, पेट भरने के लिए रोटी और तन ढकने के लिए धोती मिल जाये बस, और इसे देने में यह कोई कंजूसी नहीं करता।’

मैंने उसकी धोती की ओर देखा- किनारीदार सफेद 

धोती पहनी है, बाहर डारे पर भी एक ऐसी ही किनारीदार सफेद धोती सूख रही है। मैंने पूछा, ‘छीटदार धोती अब नहीं पहनती क्या तू ?’ वह मुस्कुराई- तीसरी बार, जो मिल जाती है वही पहन लेती हूँ, तन ढकने से मतलब है... जमाना बीत गया छीटदार रंगीन धोती पहने... इस घर में तो कभी नहीं पहनी।’

कितना दर्द है इसके जीवन में! मैं चाहती हूँ कि ये अभी उसमें न डूबे इसलिए दूसरी बात पूछ लेती हूँ- ‘इस गाँव के लोग कैसे हैं ?’

‘अच्छे ही होंगे, मैं तो किसी के दरवाजे जाती नहीं हूँ और जब मैं नहीं जाती तो कोई मेरे दरवाजे भी नहीं आता.. किसी के आने से ये चिढ़ता भी है। इसकी पहली घरवाली ने फांसी लगा ली थी। पहले पहल गाँव की एकाध लड़कियाँ मेरे पास आती थीं, उन्होंने ही बताया था मुझे... मैंने उसके बारे में कभी इससे पूछा नहीं... क्या करना है जानकर।’

इसके जीवन से दुःख कभी निकला ही नहीं- मैं सोचती हूँ।

वह मेरी तरफ ध्यान से देखती है ‘सुखी तो है तू ?’ मुझे लगा जैसे - बड़ा साहस बटोरकर उसने ये बात मुझसे पूछी हो।

‘हाँ, बहुत।’ मेरे ऐसा कहने पर वह सिर ऊपर करके दोनों हाथ जोड़ लेती है। वह भगवान को धन्यवाद दे रही है। मै थोड़ा गुरूर से बोलती हूँ- ‘मैं ऐसी हूँ भी नहीं कि कोई मुझे दुखी कर सके... मैं सहूंगी ही नहीं... क्यों सहूँ ? मैं भी तो इंसान हूँ।’

वह ‘हूँ’ कहकर चुप हो जाती है। मेरे बारे में सोचकर जरूर संतुष्ट हुई होगी, लेकिन उसे अपनी कमजोरी याद आ गई होगी।

मडहे से खखारने की आवाज़ आई तो हमारा ध्यान उस ओर गया। बूढ़ा उठकर बैठ गया है और रह-रह के हमलोगों को देख रहा है। जब कुछ देर बीत गए और हम लोग बतियाते बैठे ही रहे तो वह खीझती आवाज़ में चिल्लाया, ‘बैठकर बकर-बकर बकैती ही करती रहेगी या चाय-चूय भी बनाएगी ?’

‘अभी बनाती हूँ।’ कहकर वह झटके से उठी। मैं भी उठने लगी तो वह बोली, ‘यहीं बैठ हवा में, मैं चाय बनाकर लाती हूँ।’

‘नहीं, मैं तेरे साथ बैठूंगी।’ पीढ़ा उठाकर मैं उसके पीछे-पीछे चली गई। रसोई में पहुंचकर उसने चूल्हा जलाया और चाय का पानी चढ़ा दिया। दूध, चीनी, चाय की पत्ती भीतर वाले कमरे से ले आई। मैं पीढ़ा बिछाकर बैठ गई। वह चूल्हे में ज्यादा लकड़ी लगाकर आँच तेज़ कर रही है जिससे जल्दी से जल्दी चाय बन जाये। उसका डरना, घबराना मेरी नजरों से छुपा नहीं है। चाय तैयार होने पर वह दो गिलास में छानकर बाहर ले गई। मेरे पति भी उठ गए हैं। हाथ- मुँह धोने के लिए उन्हें पानी चाहिए, वह पानी लेने दौड़ी। अब तक बची चाय गरम करके मैंने दो गिलास में छान लिया, एक उसके लिए, एक अपने लिए। वह पानी देकर लौटी तो हम दोनों ने चाय पिया और बाहर आकर मडहे में बैठ गए। बूढ़े की त्योरी चढ़ी है- इतनी मगन हो गई है कि दो दिन की चीनी एक ही दिन में झोंक दिया... कितनी मीठी बनाई थी चाय।’ वह चुप रही, जानती है वह कि ये चाय के मीठी होने का गुस्सा नहीं है, लेकिन मुझसे नहीं रहा गया। मैं 

धीरे से बोली-‘ हमें तो इतनी मीठी नहीं लगी।’ बूढ़ा मुझे घूरा, मैं चुप हो गई।

‘सवा चार हो गए, अब हम लोगों को चलना चाहिए।’ मेरे पति मेरी तरफ देखकर बोले।

वह चैंक गई- ‘अई, सवा चार बज गए ? इत्ती जल्दी?’

‘इत्ती जल्दी नहीं, अपने समय पर ही बजा है।’ बूढ़ा फिर खीझा। उसने बूढ़े की बातों पर ध्यान नहीं दिया, मुझसे बोली- ‘चल भीतर, जाने के पहले भगवान को हाथ तो जोड़ ले, पहली बार आई है।’ मैं उठी, उसके साथ भीतर गई। रसोई के बगल में एक ताखे पर भगवान के कुछ फोटो रखे हैं। वह भीतर चली गई। निकली तो चांदी की एक जोड़ी पुरानी पायल हाथ में दबाये थी, उसे मेरे आंचल में गठियाते हुए बोली- ‘रख ले....  तुझे देने के लिए मेरे पास इसके सिवा कुछ नहीं है... पंजीरी और थोड़ा सीधा भी देने का मन था, लेकिन बूढ़ा खीझेगा।’

‘कोई बात नहीं, ये पायल ही मेरे लिए अमूल्य है। संभालकर रखूंगी इसे।’

फिर हम लोग बाहर आ गए। मडहे में पहुँची तो पति चलने के लिए खड़े हो गए थे। उसने मुझे गले से लगाया और अपनी आँखें पोछीं। मेरी आँखें भी भर आईं। मैंने बूढ़े को हाथ जोड़ा, पति ने झुककर दोनों के पैर छुए। उसने तो बीच में ही पति का हाथ पकड़ लिया, पर बूढ़ा तना खड़ा रहा। हम लोग चलने लगे। दो-चार कदम ही आगे बढ़े थे कि उसकी हिचकी निकली, साथ ही बूढ़े की आवाज सुनाई दी - ‘येल्ले, अब शुरू हो गया तेरा तिरिया चरित्तर.... ससुरी।’

मेरे आगे बढ़ते कदम रुक गए। मैं एकबारगी पलटी और झपट कर उसका हाथ पकड़कर अपनी ओर खींचने लगी, ‘चल, अब यहाँ एक पल भी नहीं रुकना है तुझे।’ बूढ़ा हक्का-बक्का हो मेरी ओर देखने लगा। बूढ़े के हाथ-पैर कांपने लगे थे, पर वह शांत खड़ी थी। उसने पहले अपने आँसू पोछे फिर मेरे हाथ से अपना हाथ धीरे से खींचते हुए बोली- ‘अब बहुत देर हो गई।’

मैंने उसके खिंचते हाथ को कसकर पकड़ लिया और उसकी आँखों में आँखें डालकर दृढ़ता से कहा- ‘अम्मा, देर कभी नहीं होती।’  

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कहानी

अमरावती, महाराष्ट, मो. 09422917252, Email : ashapandey286@gmail.com


मर्ज

तो मैं बात उस खंडहर की कर रहा था, जो मेरे गाँव के किनारे पर स्थित है और जिससे लग कर बरगद के चार विशाल पेड़ अपनी जटाओं को जमीन से लटकाये खडें हैं। यह खंडहर कई साल पुराना है और अब यह छोटे से टीले का आकार ले चुका है। पर, गाँव वाले इसे तूफानी का खंडहर ही कहते हैं। बरगद के ये चार विशाल पेड़ घने वन का आभास दिलाते हैं। मेरे गाँव को दो ओर से घेरती नदी बरगद के पेड़ों के बगल से होकर बहती है जो इस मैदानी गाँव को भी पहाड़ी गाँव जैसा सुरम्य बनाती है।

मेरे गाँव की इसी सुन्दरता से मुग्ध होकर दो किलोमीटर दूर स्थित कोट (किला) के शहजादे जब दिल्ली से कोट में पधारते थे तो शाम की सैर में कभी-कभी दो चार लट्ठधारी सेवकों के साथ खंडहर पर खेलने आ जाते थे। मेरे गाँव के बच्चे, जिनमें मैं भी शामिल होता था, निहाल हो जाते थे और उनके पीछे-पीछे भागते हुए उनकी इच्छा से उनके खेल में शामिल हो जाते थे। शहजादे हमारी पीठ पर लपक कर चढ़ लेते और बरगद की डाल को छूने का प्रयास करते। हम उन्हें अपनी पीठ पर अच्छे से सम्भाले रहने में पूरी ताकत लगा देते। वे बरगद की लटकती जटाओं को पकड़ लेते और पेंग बढ़ाने के लिए लात से हमारी छाती पर धक्का देकर झूलने लगते। दौड़कर खंडहर पर चढ़ जाते, उछलते-कूदते और अन्त में उसकी गन्दी मिट्टी से निजात पाने के लिए पास की नदी में छलाँग लगा देते। जब धुल पुँछ कर नदी से बाहर निकलते तो लट्ठधारी सेवकों के साथ कोट में चले जाते।

जब कोट के शहजादे नदी में नहा रहे होते तो हम गाँव के बच्चों को नदी में उतरने की मनाही थी। लट्ठधारी सेवक घूर कर हमें भगा देते थे। हमारे गाँव के बडे-बुजुर्ग भी बच्चों को बरज देते थे। शहजादे राजा-महाराजा थे। राजा-महाराजा और प्रजा एक ही नदी में, एक ही घाट पर, एक साथ कैसे नहा सकते हैं। उनके जाने के बाद इतनी देर से ललचाये हम बच्चे भी नदी में छलाँग लगा देते। जी-भरकर पानी में डूबते, उतराते, तैरते।

खूब मजा आता। लेकिन दिक्कत तब हो जाती जब नहाने के बाद मैं लगातार छींकने लगता। माँ कहती-इतनी देर तक खंडहर की धूल में खेला, फिर नदी में नहाया इसलिए सर्दी हो गई। पर दो बाते थीं जो मुझे कभी समझ में न आईं। एक तो यह कि-खंडहर में खेलना तथा नदी में नहाना तो हम बच्चों का नित्य का खेल था पर सर्दी कोट के शहजादे के साथ खेलने से ही क्यों होती थी ? दूसरी बात यह कि गाँव के अन्य बच्चे भी तो शहजादे के साथ खंडहर की धूल में खेलते थे, नदी में नहाते थे, उन्हें क्यों नहीं होती थी सर्दी? माँ कहतीं- तेरा शरीर नाजुक है। इस वर्षों पुराने खंडहर की जमीं हुई धूल-मिट्टी तुझे नुकसान करती है। धूल में खेल कर जब तू घंटो नहा लेता है तो छींकना शुरू कर देता है। मेरी माँ वैद्य की बेटी थी इसलिए मेरी सर्दी का यह कारण ही उसे सही लगता था।

मेरे मन में एक सवाल और भी उठता था कि, कोट के शहजादे को भी तो सर्दी हो जाती होगी। वे तो और भी नाजुक रहे होंगे। दिल्ली में रहते थे। आजादी के तुरन्त बाद उनके पिता बाबूसाहब को दिल्ली से बुलावा आया था।

जब वे दिल्ली से कोट में आते तो उनकी गाड़ी के आगे-पीछे कई-कई गाड़ियाँ होती। अगल-बगल के गाँवों के तमाम लोग उमड़ पड़ते थे बाबू साहब के दर्शन के लिए। तो ऐसे में मेरा यह सोचना कि शहजादे मुझसे अधिक नाजुक होंगे और नदी में नहाकर बीमार पड़ जाते होंगे। कतई गलत नहीं था।

दिन बीतते गये पर दिमाग में प्रश्न कुलबुलाता ही रहा। मेरे पास इस प्रश्न के हल का कोई जरिया भी न था। खंडहर की धूल साल भर मेरे नथुनों में समाती रहती पर छींक शुरू होती शहजादे के आने के बाद ही।

लो, मैं तब से खंडहर का ही जिक्र किये जा रहा हूँ। अरे भाई, जब तक मैं आपको ये न बता दूँ कि आखिर इसका रहस्य क्या है,  आप समझेंगे कैसे ? नहीं जी, डरें नहीं, किसी भूत-प्रेत का निवास नहीं है यहाँ। बारह बजे रात में यहाँ भूतों की सभा नहीं लगती है और न ही घुँघुरुओं की रुन-झुन सुनाई पड़ती है।

मुझे रात में सुनाई जाने वाली आजी की कहानियों ने टुकडों-टुकडों में इस खंडहर के रहस्य को तोड़ा था। आजी इस गाँव में तथा आस-पास के कई गाँवों में ऐसे कई खंडहर होने की बात करती थीं जो खुली आँखों से तो नहीं दिखते लेकिन मौजूद हैं आज भी। खैर....

तो आजी बताती थीं कि, यह खंडहर हमारे गाँव के मातादीन उर्फ तूफानी का घर था। दादा, बाबा के ज़माने की दो खण्ड की बखरी थी उसकी। निरबसिया था मातादीन। उसके मरने के बाद घर की देख-भाल करने वाला कोई न बचा। कुछ दिन तक तो घर आँधी-तूफान से अकेले लड़ता रहा फिर भहरा के खंडहर बन गया।

यह उन दिनों की बात थी जब राजे-रजवाड़ों का राज था। गाँवों में जमींदारों की तूती बोलती थी। मेरे गाँव से सिर्फ दो कि.मी. की दूरी पर स्थित इस कोट में जमींदार बाबू रायबहादुर साहब का राज था। बड़ा रुतबा था रायबहादुर साहब का। हाथी पर बैठ कर जब वे अपने इलाके में निकलते तो इलाके के लोग अपना सिर नीचे झुका कर उनके वहाँ से आगे चले जाने तक खड़े रहते थे। गाँव की बहू-बेटियाँ अपना-अपना काम बीच में रोक कर घर के भीतर चली जातीं थीं। बाबू रायबहादुर की नजर जिधर घूम जाती थी वहाँ कहीं दया बरस पड़ती थी तो कहीं क्रोध उबल पड़ता था।

मातादीन गाँव का गरीब किसान था। गरीब यूँ कि दादा-बाबा के जमाने से ही जमीन बँटते-बँटते उसके हिस्से में सिर्फ चार बिस्वा जमीन ही आई थी। बरसात के महीने में वह उसी जमीन में धान बो लेता था, ठण्डी में गेहूँ। कभी फसल अच्छी हो जाती थी, कभी खराब। जमींदार का लगान चुकाने के बाद उसके पास इतना अनाज नहीं बच पाता था कि वह साल भर अपना और अपनी पत्नी का पेट भर सके। चार बिस्वा जमीन होती ही कितनी है ! वैसे गाँव वालों का मत था कि मातादीन के घर में दरिद्र समा गया है। बिना बाल बच्चों का, सिर्फ दो जन का परिवार, फिर भी आये दिन फाँका ही पड़ा रहता है।

एक दिन मातादीन ‘कोट’ के बगल से निकल रहा था। ‘कोट’ के मुख्य दरवाजे पर दो हट्टे-कट्टे दरबान तेल पिलाई लाठी लिए खड़े थे। मातादीन कोट के नजदीक पहुँचने के कुछ पहले से ही अपना सिर नीचे झुकाकर चला आ रहा था। मुख्य दरवाज़े तक आते-आते एक बार उसका सिर ऊपर उठ गया। लगान उगाही का समय था। मजदूर लगान में मिले अनाज को बोरों में भर कर अहाता की दीवाल से सटा कर रख रहे थे।

बोरों को, एक के ऊपर एक लादते हुए अहाता की दीवाल की ऊँचाई के बराबर तक रखा गया था।

मातादीन ने क्षण भर के लिए सिर ऊपर उठाया था, पर भूख की तीव्रता सीधे अनाज के बोरों से जा टकराई। क्षण-भर में ही उसने बोरों के रख-रखाव की स्थिति का अन्दाज लगा लिया। अब उसके दिमाग में हलचल मची। तमाम तरह की योजनाएँ बनने बिगड़ने लगीं।

अपने रास्ते पर चलते हुए वह कोट के पिछवाड़े तक आ पहुँचा। एक बार फिर उसने अपनी नज़रें अहाते के दीवार की ओर गड़ा दी। क्षण भर ठिठक कर कोट की ओर देखा और अपने रास्ते पर आगे बढ़ गया।

आधी रात बीत जाने के बाद एक धम्म-सी आवाज ने कोट के पहरेदारों को सचेत कर दिया। जिस ओर से आवाज़ आई थी पहरेदार उस ओर दौड़ पड़े। जब तक पहरेदार पिछवाड़े पहुँचते, मातादीन पीठ पर गेहूँ का बोरा लादकर भागने लगा था।

पहरेदार मातादीन के पीछे दौड़े जरूर पर उसे पकड़ न पाये। अँधेरी रात का फायदा उठाकर मातादीन आम के घने बगीचे में घुस गया। वहाँ से वह किस ओर भागा, पहरेदार समझ न पाये। कुछ देर खोज-बीन करके वापस लौट आये।

सुबह होने पर डरते-डरते पहरेदारों ने बाबू साहब से रात की सम्पूर्ण घटना का बयान किया। चोर का साहस सुनकर, बाबू साहब अचम्भित हुए तथा अपने पहरेदारों की नाकामी पर क्रोध भी आया उन्हें।

उन्होंने पहरेदारों को डपटा- ‘‘तुम दोनों के हाथ में सिर्फ लाठी थी और चोर के पीठ पर पचास किलो वजन का बोरा, फिर भी वह भाग निकला !  तुम लोग उसे पकड़ न पाये ! बस मुसडण्डों की तरह खा-खाकर फैल रहे हो.... आज से तुम दोनों पहरेदारी नहीं करोगे... जाकर खेत में काम करो और हाँ, रसोइयें को कह दो कि इन दोनों को एक वक्त का भोजन बन्द कर दे... ससुरे भैंसे जैसे मोटाये जा रहे हैं ’’

बाबू साहब को क्रोध में देख कर कोट में सन्नाटा छा गया था। दोनों पहरेदार सिर झुकाये खड़े थे। ये पहला अवसर था जब पहरेदारों को इतनी बड़ी गलती की सजा में सिर्फ एक वक्त का भोजन बन्द किया गया था, कोड़े नहीं बरसाये गये थे उन पर। बाबूसाहब का मन बिचलित था। वे उस व्यक्ति को देखना चाहते थे जो पीठ पर बोरा लाद कर भी इतनी तेज भागा कि उनके पहरेदारों की पकड़ में न आया।

बाबू साहब ने हुक्म दिया कि आस-पास सभी गाँवों में डुग्गी पिटवा दी जाये कि कोट से गेहूँ का बोरा लेकर भागने वाले व्यक्ति के साहस से बाबूसाहब खुश हैं... उसे वे अपने हाथों से इनाम देना चाहते हैं... आज दोपहर तक उस व्यक्ति को कोट में हाजिर होने का हुक्म दिया जाता है... यह फरमान सुन कर भी यदि वह व्यक्ति कोट में हाजिर न हुआ तो बाबूसाहब के जासूस उसे खोज निकालेंगे और उसकी चमड़ी उधेड़ ली जायेगी।

डुग्गी की आवाज़ ने मातादीन की घरवाली को डरा दिया। काँपती आवाज़ में वह मातादीन पर बिफर पड़ी...

‘लो और करो राजे-रजवाड़ों के यहाँ चोरी... जल में रहे मगर से बैर।

अब खाओ पेट भरकर। मति मारी गई थी तुम्हारी... तुम तो मरोगे ही मुझे भी मरवाओगे.....।’

‘चुप कर, ध्यान से सुन तो। सुन, वो लोग क्या बोल रहे हैं... इनाम मिलेगा इनाम। पीठ पर पचास किलो अनाज का बोरा लादकर कोट के पहरेदारों से अधिक तेज भागने वाले पर बाबू साहब खुश हुए हैं। तब से बड़बड़ाये ही जा रही है।’ मातादीन तुनक कर घर से बाहर निकल गया।

डुग्गी की आवाज़ पूरे गाँव में गूँज रही थी। गाँव के लोग गहरे आश्चर्य में थे। कोट से अनाज चुराने का साहस! किसने किया होगा ! 

मातादीन तन कर डुग्गीवालों के पास चला गया। गाँव वाले चैंक गये। आँखें मल-मल कर सब मातादीन को देख रहे थे। जैसे, विश्वास करना चाह रहे हों कि हाँ, यही हकीकत है... वो नींद में नहीं हैं।

मातादीन गर्व से झूमते हुए डुग्गीवालों से कह रहा था-‘‘बन्द करो ये डुगडुगी... मैं ही हूँ तूफानमेल, कोट से बोरा लेकर भागने वाला... चलो, चलकर मेरे घर में बोरा देख कर विश्वास कर लो, फिर ले चलो मुझे बाबूसाहब के दरबार में.... बड़े दिन बाद किस्मत बदली है।’’ मातादीन की मुरझाई आँखें चपल हो गई थीं।

बस उस दिन से मातादीन गाँव में तूफान मेल के नाम से जाना जाने लगा। धीरे-धीरे तूफान मेल से कब तूफानी में बदल गया, पता ही न चला। अब गाँव वाले उसे तूफानी ही कहने लगे थे। 

नहीं जी, कहानी अभी खत्म नहीं हुई है। मैं भी तो देखो, कितना पागल हूँ ! उसके नाम पर अटक गया... अरे गाँववाले उसे किसी भी नाम से बुलाये जी, क्या फर्क पड़ता है ? तो चलिए मैं आगे की कहानी सुनाता हूँ।

डुग्गी पीटने वालों को गेहूँ का बोरा दिखा कर मातादीन ने अलगनी से अँगोछा उठाया और कन्धे पर डाल कर कोट जाने के लिए तैयार हो गया।

उसकी घरवाली डर के मारे काँप रही थी। हाथ जोड़ कर डुग्गी पीटनेवालों से ही विनती कर डाली, ‘दया करें हुजूर, भूख ने ये गलती करवाई है।’

मातादीन अपनी घरवाली की बेवकूफी पर हँस पडा, ‘औरत की जात.... अकल तो एड़ी में रहती है। खुशी के मौके को भी रो-धोकर खराब कर रही है..... बाबू साहब इनाम देने के लिए बुलाए हैं..... फाँसी चढ़ाने के लिए नहीं।’

‘राजे-रजवाड़े की बात ! कब गुस्सा भड़क जाए, भगवान भी न समझ पायें... मैं तुमको वहाँ अकेले न जाने दूँगी.... साथ चलूँगी तुम्हारे।’ मातादीन की घरवाली अड़ गई थी। मातादीन इनाम मिलने की खुशी में डूबा था। घरवाली को कोट में साथ ले चलने की बात मान गया।

किसी विजेता की भाँति सबसे आगे मातादीन उसके पीछे डरी-सहमी उसकी घरवाली, तथा सबसे पीछे डुग्गीवाले कोट की ओर बढ़े जा रहे थे। मातादीन की घरवाली का एक मन उखड़ता, डरता, काँपता तो दूसरा मन उसे थपथपा भी देता, क्या पता, मातादीन सच कह रहा हो.... दिन फिरने वाले हों,  खुशी का क्षण आने वाला हो।

कोट पहुँच कर मातादीन को बाबू रायबहादुर के सामने पेश किया गया। मातादीन की घरवाली भी उसके पीछे-पीछे बाबू साहब के सामने आ गई। बाबू साहब कुछ पूछते उसके पहले ही डुग्गीवालों ने बता दिया-इसकी घरवाली है हुजूर, मानी नही, जबरन इसके साथ यहाँ तक आ गई।

‘हूँ’ बाबू साहब ने ऊपर से नीचे तक एक नज़र उस पर डाली फिर मातादीन की ओर मुखातिब हुए-

‘तो तुम हो हमारे कोट से अनाज चुराकर भागने वाले।’ इनाम मिलने की खुशी में सराबोर तूफानी बाबू साहब की हुंकारती हुई रौबदार आवाज़ को सुन कर काँप गया। गर्दन नीची हो गई उसकी।

‘देखने में तो मरकट जैसे पिलपिले दिख रहे हो लेकिन, ताकत इतनी है तुममें ! वाह भाई वाह.... कमाल है तुम्हारा। इनाम तो तुम्हें जरूर मिलेगा लेकिन, चोरी की सजा पहले मिलेगी.... और सजा भी ऐसी मिलेगी कि फिर कोई दुबारा ऐसा दुःसाहस न कर सके।’

‘अरे भाई ! सजा जरूरी है। कोट में चोरी की हिम्मत!’ अपने एक-एक शब्द पर जोर देते हुए बड़ी धीर-गम्भीर आवाज में, किसी रहस्य का उद्घाटन करने जैसी मुद्रा में बाबू साहब बोले जा रहे थे। परिणाम की गम्भीरता का अन्दाज लगा कर मातादीन काँपे जा रहा था। अब तक सिकुड़ कर एक ओर खड़ी उसकी घरवाली आगे बढ़ कर बाबूसाहब के पैरों पर गिर पड़ी।

‘दुहाई हो सरकार की, दया करें माई-बाप, रहम करें.. पेट की आग ने ढिठाई करवाई हुजूर ! इसे बख्श दें... आगे से ऐसा नहीं होगा सरकार, ये कोट की तरफ आँख उठा कर देखेगा भी नहीं। एक बार सरकार, बस एक बार माफ कर दें।’

घबराहट में उसे ध्यान ही न रहा कि कब उसके चेहरे का घूँघट हटा और कब उसका आँचल सिर से भी फिसल गया। वह तो बस धार-धार रोये जा रही थी और माफ करने की विनती किये जा रही थी।

बाबू साहब ने अनावृत हुए उसके चेहरे को नजर भर कर देखा, इतनी सुन्दर! इस मरकट की झोली में ! कुछक्षण उसे देख लेने के बाद उन्होंने एक लम्बी साँस ली फिर मातादीन की ओर देख कर अपनी आवाज को भरसक मधुर बनाते हुए बोले ‘चलो, तुम्हारी सजा माफ की... और इनाम तुम्हारा यह है कि हर महीने एक दिन तुम कोट में आ जाया करो... अपनी पीठ पर गेहूँ का जितने किलो वजन का बोरा लाद सको, लाद कर चले जाया करो।’

यह सुन कर मातादीन खुशी और कृतज्ञता से बाबू साहब के कदमों पर लोट गया। बाबू साहब की बात अभी पूरी नहीं हुई थी उन्होंने आगे कहना शुरू किया- ‘हाँ भई, मेरी एक शर्त है, जब मैं तुम्हारे घर खबर भिजवाऊँ तब अपनी घरवाली को अनाज की साफ-सफाई के लिए कोट में भेज दिया करो। इसकी मजदूरी तुम्हें अलग से मिल जायेगी... देख तो रहे हो यहाँ मजूरिनों की कितनी कमी है। अब अनाज को चालना, पछोरना महिलाएँ ही कर पाती हैं न। अब तुम अपना इनाम लेकर घर जाओ और इसे यहीं छोड़ जाओ। अनाज का जो ढेर लगा है ये उसे साफ कर देगी तो हमारे सेवक इसे तुम्हारे घर पहुँचा आयेंगे।’

मातादीन जड़ हो गया। खुशी टूट कर धराशायी हो गई। सूखते गले और तालू से चिपकती जबान से शब्दों को ठेल कर इतना ही कह पाया कि ‘हुजूर, घर में भी बहुत काम रहता है.. इसका आना... पर मातादीन के लाख प्रयत्न के बाद भी उसके शब्द बाबूसाहब तक न पहुँच सके। उसका बोलना पूरा होता उससे पहले ही बाबूसाहब वहाँ से उठ कर चले गये।

मातादीन अनाज चालने-पछोरने का मतलब समझता था। समझती उसकी घरवाली भी थी। किन्तु विरोध का साहस किसी में नहीं था। ये बाबू साहब का हुक्म था। हुक्म का विरोध नहीं होता। क्या करे मातादीन ! किससे कहे। दोनों

धम्म से वहीं जमीन पर बैठ गये। चुपचाप बैठे रहे। निःशब्द, भीतर सुलगते हुए, ऊपर से मौन। मौन का धुँआ उठता रहा जिससे दालान भर गया। धुँए से दोनों की साँस घुटने लगी पर कुछ अनहोनी नहीं हुई जैसे दोनों ने ही समझ लिया हो कि यही हमारी नियति है। धुएँ में जीना, जीवित दिखना।

मातादीन के चेहरे पर शर्मिन्दिगी थी तो उसकी घरवाली के चेहरे पर अफसोस। क्यों आई थी कोट में।

‘कब तक यहाँ बैठा रहेगा तू, बाबू साहब का हुक्म हुआ है कि अनाज लेकर तू गाँव जा, इसे यहीं छोड़ जा। इसको काम समझा दिया जायेगा।’ किसी सेवक की कर्कश आवाज़ ने दोनों को चैंका दिया।

मातादीन ने साहस किया, ‘मुझे अनाज नहीं चाहिए। कल रात में ही तो बोरा भर अनाज ले गया था।’

‘धत्त ससुर, ले गया था कि चुराया था.... चल उठ यहाँ से, उठा बोरा और निकल जा।’

मातादीन की घरवाली पति के हाथ को पकड़ कर उसकी ओर आशा भरी निगाहों से देखने लगी फिर न जाने क्या सोच कर धीरे से अपना हाथ खींच ली तथा सेवकों के साथ मातादीन को जाता हुआ देखती रही। मातादीन जा नहीं रहा था। जमींदार के सेवक उसे धक्के देकर निकाल रहे थे। अब बाकी जिन्दगी उसे ऐसे ही धक्के खाने थे।

पहले गरीबी थी। गरीबी के साथ मधुर गीत थे। 

इन्द्रधनुषी रंग थे। जिसमें दोनों डूबते उतराते और गरीबी को सोख जाते। पेट पिचकता पर होठों से हँसी झरती। पर अब गीत विस्मृत हो गये, इन्द्रधनुषी रंग पुछ गया।

अब, जब-तब कोट से उसकी घरवाली के लिए बुलावा आने लगा। तूफानी ने विरोध किया भी किन्तु जमींदार बाबू साहब ने उसके आस-पास आतंक का ऐसा साम्राज्य फैलाया कि तूफानी उसमें घिरकर फँस गया। बोल ही न फूटे उसके।

बाबूसाहब के हुक्म से तूफानी गेहूँ के बोरों को अपने घर लाता रहा पर उन्हें खोलता कभी न। फाँके पर फाँके पड़ते रहे, पर कोट का एक दाना भी दोनों न छूते। ऐसा करके उन्हें अपने स्वाभिमान को बचा ले जाने अथवा जमींदार से लड़ जाने का सन्तोष होता। जमींदार को क्या फर्क पड़ता है, न खुले बोरा। बोरा खोलना, न खोलना तूफानी की इच्छा है। जमींदार अपनी इच्छा का सोचता है। उसकी इच्छा पूरी हो रही है।

यूँ तो अब विष निगलना सीख लिया था तूफानी ने पर क्या करे उस शरीर का जहाँ भीतर ही भीतर घुमड़-घुमड़ कर विष अपना प्रभाव दिखाने लगा था। यह विष उसकी घरवाली पर भी चढ़ रहा था। दिनों-दिन सूख रही थी वह। सुन्दरता जाती रही उसकी। कुछ सालों बाद कोट से उसका बुलावा बन्द हो गया पर दोनों के चेहरे पर खुशी न लौटी। दोनों के पेट और दिल में आग धधकती जिसमें वे झुलसते जा रहे थे। इस दाह को सहना उनके वश का नहीं रह गया था अब।

कहते हैं गेहूँ के बोरों से अटा था उनका घर पर प्राण निकले उनके भूख से। कुछ दिनों के अन्तराल में बारी-बारी से बिदा हो गये दोनों। फिर कुछ दिनों बाद घर भी गिर भहरा गया।

तो ये था उस खंडहर का इतिहास। आजी ने टुकड़ो-टुकड़ो में यही बताया था। अब आप भी सोच रहे होंगे कि इसमें ऐसा क्या था कि मुझे उबकाई-सी आती है इसको जोड़ते वक्त ! आजी ने और भी कई बातें बताई थी बाबू साहब की बहादुरी (!) की।

हाँ जी, किसना, ननकू, सद्दीक कई नाम थे, जो बाबू साहब के अलग-अलग खेल के अलग-अलग विदूषक थे। पर न जाने क्यों मेरा छींकना शुरू हुआ इसी खण्डहर की धूल से ! सुबह दरवाजा खुलते ही ताजी हवा के झोंको के साथ खंडहर की धूल मिट्टी भी समा जाती है मेरे नथुनों में। बस छींकना शुरु हो जाता है मेरा।

‘कोई इलाज नहीं है भाई, लाइलाज है यह बीमारी।’

‘‘.........................................................’’

 ‘‘अरे नहीं, इलाज करवाया था। डाक्टर ,वैद्य, हकीम सब के पास गया था पर धूल को पहचानते ही सब हाथ खींच लेते हैं।.... अब तो इसमें दिल्ली की धूल भी समा गई है न।’’

लाल किला पर जब पहली बार तिरंगा लहराया था तो आजी समेत गाँव-जवार के तमाम लोगों को लगा था कि अब अपना राज आ गया है। फुर्सत मिली ठकुरसोहाती से। पर कहाँ ? बाबू साहब पहुँच गये दिल्ली और वहाँ से लद-लद कर आने लगी धूल जो मेरे गाँव के इस खण्डहर से चिपकती ही चली गई।

पहली मर्तबा जब बाबूसाहब दिल्ली से कोट में आये थे, याद था आजी को, उनकी गाड़ी के आगे-पीछे गाड़ियों का रेला निकला था। तीन से चार दिन तक टोकरी भर-भर कर मिठाईयाँ बँटती रहीं थी गाँवों में। सब खुश थे। अपना राज। अपने राजा।

जिस दिन राजा राजधानी को लौटे उससे एक दिन पहले की रात कोट के बायें स्थित गाँव की दो लड़कियां गायब हो गईं थीं।

दबी जबान में आजी और गाँव की बहुत-सी महिलाओं  का मानना था कि गाड़ी में बैठाकर उन्हें दिल्ली ले जाया गया था, पर दूसरे यह बात मानने को तैयार नहीं थे। आखिर क्या  कमी है दिल्ली में लड़कियों की। एक से बढ़कर एक, परी जैसी लड़कियां लोंटती होंगी बाबू साहब के कदमों में। इन मैली कुचैली लड़कियों का क्या करेंगे वे ?

बाबूसाहब की ओर से बोलने वाले हजारों, लड़कियों को खोजने वाले सिर्फ उनके माँ-बाप, उनका परिवार। कहते हैं यह बात भी दब गई इसी खण्डहर के नीचे।

जब देश में पहला चुनाव आया था तब तक मैं खासा समझदार हो गया था। शहजादा साहब जो बचपन में इसी टीले पर उछल-कूद कर अपना पैर मजबूत किये थे, अब चुनाव लड़ रहे थे। पूरी जवार धन्य-धन्य हो उठी थी। बाबू साहब के वारिस ! अपने राजा !

मैं गाँव-गाँव घूमता हुआ लोगों से कहता-  ‘सोचो भाई, कब तक चिपकती रहेगी खंडहर में मिट्टी। पहले ये कोट में बैठकर अत्याचार करते थे अब दिल्ली में बैठकर कर रहे हैं। कहाँ मिली हमें स्वतन्त्रता ? बस रूप बदल गया है इनके शासन का। इनकी क्रूरता से खंडहर बढेगें गाँव में।’ मेरी बात सुनकर सब हँस देते जैसे मैं पागलपन के दौरे में बोल रहा था।

मैं, इस घर से उस घर, इस गाँव से उस गाँव चक्कर लगाता रहा। शहजादा साहब की गाड़ियाँ लोगों को बूथ तक पहुँचाती रही। लठैतों का ऐसा जमावड़ा कि विरोधी वोट ही न डाल पाये। एकाध जो पहुँच भी गये बूथ तक तो वे भी बदरंग ही लौटे। उनका वोट पहले ही डाला जा चुका था। भारी बहुमत से जीत गये शहजादा साहब।

जीत का जश्न जब मना तो कुछेक के हाथ-पैर भी तोड़े गये जिसमें मैं भी शामिल था। ढोल-नगाड़े, लाई बताशे, मिठाइयाँ, चीख पुकार सब एक में एक गड्ड-मड्ड।

जीतकर मन्त्री बन गये शहजादा साहब। कोट तक पहुँचने के लिए सड़क बनी, जो चकरोट को छोड़ते हुए खेतों के बीच से होकर निकली। गरीबों के खेत गये तो क्या हुआ, मुख्य सड़क से कोट की दूरी तो एक किलोमीटर कम हो गई। सड़क पर डामर फैलाकर चमकाया गया। कोट चमका। सड़क चमकी। चमक का कुछ कतरा आस-पास के गाँव में भी छितराया।

अधिक मुनाफे के नाम पर हरे आम के सघन बगीचे को काट कर उस जगह युकलिप्टिस लगाया गया। शहजादा साहब गरीबों के बारे में सोचते थे। दस-दस पैसे के पौधे मुफ्त में बँटवा दिये। खेतों में गेहूँ धान की जगह सफेदा लग गया। अब जब सफेदा बड़ा हो जायेगा तो बिजली के खंभो के लिए सरकार खरीद लेगी। शहजादा साहब ही बिकवा देंगे अच्छे दामों में। पैसा ही पैसा बरसेगा गाँव में। कुछ दिन गेहूँ धान नहीं बो पाये तो क्या ? आम गया तो क्या ? छाँव गई तो क्या ? सफेदा तो है। सफेदे पर चढ़कर बिजली आयेगी गाँव में। कच्चे आम को खा-खा कर, पक्के आम को चूस-चूस कर जो अपना पेट भरते थे वे भी खुश थे। बटन दबाते ही लप्प से उजियारा फैल जायेगा। शहजादा साहब कहते हैं तो जरूर ऐसा होगा।

धीरे-धीरे सफेदा की जड़ें जमीन में फैलने लगीं, गाँव-जवार के कुएँ सूखनें लगे। पानी के लिए गाँव की लड़कियाँ गगरा, बाल्टी, मटका लेकर इधर-उधर भटकने लगीं।

नदी भी बस, एक पतली धार के रूप में बची है। जमीन की उर्वराशक्ति बिला गई। चुनाव आता रहा, मैं छींकता रहा।

लो, अब फिर से चुनाव आ गया। दिल्ली के एक युवा राजकुमार के आवाहन पर देश भर के तमाम राजा महाराजाओं के पुत्र पुत्रियों को टिकट दिया गया। हमारे क्षेत्र से शहजादा साहब के पुत्र को टिकट मिल गया।

एक बार फिर मेरी दौड़ शुरू हुई गाँव जवार में। मैं कहता रहा कि किसी कर्मठ इंसान को चुन कर भेजो दिल्ली तब बदलेगा हमारा भाग। कोट को छोड़ो अब, नहीं तो वो बने रहेंगे हमारे राजा और हम उनकी प्रजा। बस प्रजा ही बने रहना हमारा भाग्य बन गया है। बदलो इसे।

मैं नौजवानों को खंडहर से लेकर कोट तक की कहानी बताता रहा, पर उसी खंडहर को लतियाते, धकियाते लोग पहुँच गये बूथ पर और जीत गये राजकुमार। प्रजा खुश। देश की जनता शासन की बागडोर युवा नेतृत्व को सौंपना चाहती है। अब होगा परिवर्तन ! अब आयेगा रामराज्य !

मैं छींक ही रहा हूँ। गाँव वालों की तमाम अच्छी बातों पर मैं छींकता ही रहता हूँ। अशुभ का संकेत। बूढ़ा हो चला हूँ, सठिया गया हूँ। गाँव वाले मुझसे कतराते हैं, पर मैं क्या करूँ ? वे कहते हैं कि मैं अपना दरवाज़ा खंडहर की ओर से बन्द कर के पिछवाड़े की ओर से खोल लूँ। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी। पर मैं खंडहर से चिपका ही हूँ। गाँव वालों की बातों पर कान ही नहीं धरता। खंडहर की धूल मिट्टी फांकता जा रहा हूँ, छींकता जा रहा हूँ।

...मर्ज बढ़ता ही जा रहा है। छींक खरास, खाँसी तक तो ठीक था पर अब तो चैबीसों घंटे नाक के साथ-साथ आँख भी बह रही है। लोग कहते हैं कि मर्ज़ अब दिल तक पहुँच गया है।             

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 डाॅ. आशा पाण्डेय


शिक्षा  :  एम.ए.,पीएच.डी (प्राचीन इतिहास)

प्रकाशन  : 

1.   धूप का गुलाब (कहानी संग्रह)

2.   चबूतरे का सच (कहानी संग्रह)

3.   खारा पानी (कहानी संग्रह)

4.   देर कभी नहीं होती (कहानी संग्रह)

5.   बादल को घिरते देखा है (यात्रा वृत्तांत) ये पुस्तक उड़िया भाषा में अनूदित एवं प्रकाशित।

6.   तख्त बनने लगा आकाश (कविता संग्रह)

7.   बिखरा रंग सिंदूरी (कविता संग्रह) 

8.   खिले हैं शब्द (हाइकु संग्रह)

9.   यह गठरी है प्रेम की (दोहा संग्रह)

10.  खट्टे हरे टिकोरे (बाल कविता संग्रह)

11.  सोन चिरैया (बाल कविता संग्रह)

12.  मैं पंछी बन जाऊं (बाल कविता संग्रह)

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां, लेख कविताएं तथा यात्रा वृत्तांत प्रकाशित ।

कई कहानियां, कविताएं मलयालम, उड़िया तथा नेपाली भाषा में अनूदित प्रकाशित

- आकाशवाणी नागपुर तथा अकोला से कविताएं तथा कहानियां प्रसारित ।

पुरस्कार :    महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य, अकादमी का 2010-11 का मुंशी प्रेमचंद

प्रथम पुरस्कार प्राप्त:

            श्री राधेश्याम चितलांगिया स्मृति अखिल भरतीय हिंदी कहानी प्रतियोगिता सन 2011 

द्वितीय पुरस्कार प्राप्त:

- सृजन लोक सम्मान - चेन्नई

- ललद्यद शारदा सम्मान - लेह

- तुलसी सम्मान  - भोपाल से प्राप्त।     

सम्पर्क:  5, योगीराज शिल्प, आई. जी. बंगला के सामने, कैंप, अमरावती, महाराष्ट्र 

    मो.   9422917252,  09112813033

    फोन  : 

ईमेल  : ashapandey286@gmail.com



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