साहित्य नंदिनी, नवम्बर 2022



आलेख

बांगला  कहानियों में नारी

             डॉ. रानू मुखजी


यह आकस्मिक नहीं कि गुरुवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपने पहले दौर के कहानी संग्रह का नाम ‘लघु गल्प‘ रखा था। दरअसल बांग्ला में कहानी को गल्प ही कहते हैं। गल्प या कहानी सच और झूठ के सहमेल का अनूठा खेल है। एक ऐसा मोहक और जादुई खेल जिसमें जानते हुए कि यह झूठ या कपोल कल्पित है हम उसे न केवल सच समझते हैं बल्कि हकीकत से भी अधिक उसमें आनंद और रूचि लेते हैं। दिलचस्प बात यह है कि सच और झूठ की यह रोचक लीला केवल हमारे बाल्यकाल की कहानियों तक सीमित नही है, बल्कि आज हम जिस विधा को आधुनिक कहानी कहते हैं, उसमे यथार्थवादी कहानी की महान और समृद्ध परंपरा के बावजूद अनेक पुरोधा कथाकार भी इस बीज तत्व को अपनी कहानियों का आहार बनाते रहें हैं। 

जहाँ तक बांग्ला कहानी के इतिहास का सवाल है, तकनीकि रूप से स्वर्ण कुमारी देवी की 1892 में प्रकाशित कहानी ‘संकल्पन‘ के चलते भले ही उन्हे बांग्ला की पहली कहानीकार मान लिया जाए लेकिन एक विधा के रूप में कहानी के विकास की दृष्टि से गुरूदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर बांग्ला कहानियों के जनक हैं। यह वह समय था जब कोलकाता विभिन्न राजनैतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियों का एक स्पन्दनशील केंद्र था। उन्नीसवीं शताब्दी में घटित भारतीय नवजागरण की लहर से बांग्ला समाज में एक नई चेतना विकसित हो रही थी, वही पश्चिम की ओर खुली खिड़की से उसका बौद्धिक और सांस्कृतिक परिवेश भी समृद्ध हो रहा था। 

ऐसे परिदृश्य में बांग्ला कहानी को अपना आकार मिला। कुछ प्रतिभाएं देशकाल की सीमा से मुक्त होती है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर उन्ही में से एक हैं। रवीन्द्रनाथ के कवि हृदय ने अद्भुत सहानुभूति और अंतरदृष्टि से मानव मन की गहराईयों में छिपी भावनाओं को निकालकर अपने भावों और कल्पना के रूप रंग और रस से सजा-संवारकर सामने उपस्थित कर दिया। उनकी कथाओं में मानव और घटनाओं का प्रकृति के साथ जो घनिष्ठ संबंध दिखाई देता है उसी में पाठक बंध जाता है। पश्चिम की ओर खुली दृष्टि रखने के बावजूद रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बांग्ला कहानी को अपनी जातीयता और परंपरा के गहरे रूप से जोड़ा। उनकी लगभग 84 कहानियाँ बंगाल की विभिन्न अनुभव संपदा को अपने में समेटे हुए हंै। उनकी शुरुआती कहानियों में बंगाल की श्स्यश्यामला भूमी की गंध पूरी तरह से रची बसी हुई है। उनकी कहानियाँ सिर्फ अभिजात्य जीवन की ऊब, हताशा और भ्रांतियों में ही नहीं उलझी रही है, साधारण जन मानस की कोमल भाव को भी उन्होंने संवेदनशीलता से स्पर्श किया है। 

 उनकी ‘पोस्टमास्टर‘ कहानी की छोटी अनपढ लड़की रत्ना और ‘काबुलिवाला‘ कहानी की मीनि का मार्मिक चित्र इसके सशक्त प्रमाण है। ‘शुभा‘ कहानी में एक गूंगी बालिका अपनी जैसी ही मूक प्रकृति से घनिष्ठता स्थापित कर लेती है। शुभा के प्रति संवेदनशीलता से भर, पाठक समय और समाज के प्रति विरक्ति से भर उठता है। 

क्योकि उसको गूंगी जानकर उसे मैके वापस भेज दिया जाता है और शुभा मैके लौटआती है। अर्थात तत्कालीन समाज में शुभा जैसी लडकियाँ निर्भरशील जीवन बितातें है। 

कुछ कहानियाँ रवीन्द्रनाथ ठाकुर के उदात्त मनोभाव को दर्शातें हैं। यह कवि की दूर दृष्टि का परिणाम है। संतानहीन हरसुन्दरी स्वयं अपने पति का दूसरा ब्याह रचाती है। पर दोंनो के मध्य प्रेम के अंकुर को फूटते देखकर असहज हो जाती है जिसका बड़ा ही मार्मिक चित्र कवि ने ‘मध्यवर्तीनी‘ कहानी में दर्शाया है। ‘रात‘ कहानी में पति- पत्नी के संबंध को एक भिन्न दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया गया है। मृत्युशय्या पर पड़ी पत्नी पति के प्रेम संबंधो को देख लेती है और अट्टहास कर उठती है और वही अट्टहास पति को अंततक खदेड़ता रहता है। ‘पोस्टमास्टर‘ कहानी में एक छोटी लड़की के छिन्न मूल हो जाने की व्यथा का अति मार्मिक वर्णन है। ‘दुराशा‘ , ‘एकरात्री‘ , ‘समाप्ति‘, ‘माल्यदान ‘ , ‘ दृष्टिदान ‘ , ‘ मानवीय भंजन ‘ , आदि कहानियों में कवि ने नारी को उसके दुर्लभ गुणों के साथ प्रस्तुत किया है।जबकि तत्कालीन समाज में नारी के प्रति ऐसा दृष्टिकोण दुर्लभ था। तत्कालीन समाज के साधारण नर नारियों , गरीब लोगों को कथा साहित्य का पात्र बनाने का श्रेय मुख्यतः रवीन्द्रनाथ ठाकुर को ही जाता है। 

 ‘पोस्टमास्टर‘ की नायिका, ‘नष्टनीड‘ की चारूलता आज की किसी आधुनिका से कम नहीं है। उनकी सोच उनकी विचारधारा एक प्रगतिशील नारी की है। 

 आशापूर्णा देवी के अनुसार बंकिम ने अधिकतर ऐतिहासिक उपन्यास ही लिखे और उन्होंने जिन कालजयी उपन्यासों को लिखा है उनमें घरेलू नारी जीवन की कथा उतनी नहीं है जितनी प्रेम, विरह , ईष्र्या, आत्मत्याग की कथा है। नारी कहाँ अन्तसलीला की तरह अंदर ही अंदर विद्रोह कर रही है , यह शरतचंद्र ने दिखाया है। शरतचंद्र बांग्ला साहित्य के उन लोगों में से थे जिन्होने भारतीय साहित्य में नारी जीवन और उनके अधिकारों को लेकर सबसे पहले मुखरता दिखाई। उन्होंने नारी मुक्ति की परिकल्पना को विस्तृत रूप प्रदान किया तथा उसे सही मायने में सामाजिक और राजनीतिक धरातल से जोड़कर देखा। उनका मानना था कि ‘‘ औरतों को हमने केवल औरत बनाकर ही रखा है, मनुष्य नही बनने दिया ।उसका प्रायश्चित स्वराज के पहले देश को करना ही चाहिए। स्वार्थ की खातिर जिस देश ने जिस दिन से केवल उसके सतीत्व को ही बड़ा करके देखा है। उसके मनुष्यत्व का कोई ख्याल नहीं किया उसे उनका देना पहले चुका देना ही होगा।‘‘ 

 शरत की नारी जीवन की परिकल्पना बहुत ही प्रगतिशील है। उन्हांेने स्त्री को स्त्री बने रहने से अलग मनुष्य बनने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने हमेशा प्रयास किया कि स्त्री का अपना अलग अस्तित्व समाज में बने। वह पराश्रित न रहे। उन्होंने ‘नारी मूल्य‘ नामक निबंध में स्त्री मुक्ति के संबंध विभिन्न देशों की संस्कृतियों और इतिहास के हवाले से विस्तृत विवेचन करते हुए जिन गंभीर विचार को सामने रखा है उसने न सिर्फ हमारे साहित्य में हलचल मचा दी बल्कि उसे अप्रतिम ढंग से समृद्ध भी किया।

 उन्होंने नारी जीवन की समस्याओ का साम्यक चित्रण किया है उनके शोषण का खुलकर विरोध किया है। अपनी आरंभिक रचनाओं में नारी के अधिकारों के प्रश्न जरूर उठाएं हैं परन्तु नवीन समाज की अपनी परिकल्पना को चित्रित करने में पूरी तरह सफल नहीं हुए। ‘पल्ली समाज‘ में उन्होंने ‘रमा‘ नामक चरित्र के माध्यम से एक उच्च वर्गीय स्त्री के जीवन की विभिन्न विडम्बनाओ और कुंठाओं को जरूर सामने रखा परंतु उसकी समस्याओ के 

समाधान का कोई रास्ता नहीं दिखाया। शरत के उपन्यास स्त्री को अधिक तर्कशील और प्रगतिशील छवि प्रदान करते है। कुछ उपन्यासों में उनकी नायिकाओं ने कई रूग्न बंधन को तोड़ती हुए दिखाई देती हैं। 

 अपने जीवन में शरत समय≤ वह ऐसी स्त्रियों के संपर्क में आते रहे जिन्हें सभ्य समाज भले ही पतित मानता हो लेकिन जिनमें मानवीय गुणों की कोई कमी नहीं थी। अगर उनके पास ऐसे स्त्री पात्र हैं जो ममता, त्याग और बलिदान की भावना से ओतप्रोत हैं तो ऐसे भी स्त्री पात्र हैं जो पतनशील और चरित्रहीन हैं। उनका साहित्य मूलतः नारी मन की संवेदनाओं, उनके जीवन के विविध पक्षों, उनके उत्थान और अधिकारों के चित्र से भरा पडा है। ये चित्र किसी एक वर्ग की स्त्रियों के ही नही हैं बल्कि विभिन्न वर्गों और समुदायों से आनेवाली स्त्रियों के हैं। उनकी रचनाओं में नारी मन की कुंठाओं और द्वंद्व का जो वर्णन है वह बेजोड़ है। उनके व्यक्तिगत जीवन में ऐसी स्त्रियाँ समय≤ पर आईं जिनके व्यक्तित्व को समझने में समाज असफल रहा। अपने अधिकतर रचनाओं में उन्होंने विधवा जीवन का चित्रण जिस सजीवता के साथ किया वह 

अद्वितीय है। उस दौर में उन्होंने ‘नारी का मूल्य‘ जैसा गंभीर निबंध रचकर विश्व के भिन्न भिन्न संस्कृतियों में नारी के शोषण के इतिहास को बताकर समाज में व्याप्त कुसंगति पर प्रश्न किया । प्रेम, विरह, इष्र्या, आत्मत्याग आदि विषय शरत के लेखन का मूल आधार है। नारी कहाँ अन्तसलिला की तरह अंदर ही अंदर विद्रोह कर रही है यह शरत ने दिखाया है।

 मनुष्य अतीत या इतिहास की स्मृति में जीता है। वर्तमान में अपना समय जीता है और भविष्य के लिए संभावनाएं जीता है। उसका जीवन युद्ध के इतिहास से शांति के इतिहास से तथा घटनाओं के इतिहास से रचापचा है। इनसान जिस समय समाज में रहता है, उसका सीधा और गहरा प्रभाव शुरू से लेकर आखरी तक उसपर पड़ता है परंतु चीजों और घटनाओं को देखने की अपनी अलग दृष्टि हरेक इनसान के पास होती है। अगर स्वरूप से कहा जाए तो हर आदमी की अपनी अलग-थलग संवेदनशीलता होती है और अपने परिवेश के सांस्कृतिक रिक्त को वह अपने ढंग से ग्रहण करता है। 

सामाजिक जीवन और साहित्यिक विरासत का रिश्ता द्वंद्वात्मक है। समाज के बगैर साहित्य की परिकल्पना असंभव है। उसी तरह साहित्य के बगैर समाज की परिकल्पना असंभव है। साहित्य के माध्यम से समस्त सांस्कृतिक...राजनीतिक प्रक्रिया का ज्ञान संभव है। इसी तरह नारी-पुरूष के बगैर समाज की कल्पना भी संभव नहीं। पुरूष संदर्भ में स्त्री की अस्मिता जब भी निर्मित होगी स्त्री मताहत होगी।

उसकी स्वायत्त छवि उभरकर सामने नहीं आ पाएगी। लम्बे संघर्ष के बाद नारी आज पहले से थोड़ी बेहतर स्थिति में पहुंची है। नारी सृजन की शक्ति है, सृष्टि का आधार है। वह जिस रूप में चाहे अपनी शक्ति का प्रयोग कर सकती है। वह एक ममत्वमयी माँ के रूप में हो या फिर चाहे आदि शक्ति के रूप में ही क्यों न हो ! हर क्षेत्र में वह अपनी उर्जा बिखेरती प्रतीत होती है। 

आशापूर्णा देवी बंगाल की प्रसिद्ध उपन्यासकार और कवयित्री हैं। वह एक ऐसी लेखक थी जिन्होंने अपने दायरे से बाहर जाकर लिखा। 1976 में उनको ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। बचपन से ही उन्होंने वृंदावन बसु गली में परंपरागत और रूढिवादी परिवारों को देखा। उनकी दादी पुरानी रीति-रिवाजों और रूढिवादी आदर्शों की कट्टर समर्थक थी। उनके ज्यादातर लेखन परंपरागत हिन्दू समाज में गहरी जड़ें जमाए बैठी लिंग-आधारित भेदभाव की भावना एवं संकिंर्णतापूर्ण दृष्टिकोण से उत्पन्न असमानता और अन्याय के खिलाफ था। उनकी कहानियाँ स्त्रियों पर किए गए उत्पीड़न की भी चिड़फाड़ करती है। उनकी तीन प्रमुख कृतियाँ ‘प्रथम प्रतिश्रुति‘, ‘सुबर्णलता‘ और ‘बकुलकथा‘ समान अधिकार प्राप्त करने के लिए स्त्रियों के अनंत संघर्ष की कहानी है। वो कहती हैं... मैं लिखती आंखिन की देखी। दैनदिनी जीवन की अत्यंत छोटी छोटी घटनाएं 

आशापूर्णा जी की कहानियों में महान बन जाती है। उनकी कथाएं हर पल घर, आंगन, परिवार और मुहल्ले मे घुमती है और जीवन के उपेक्षित-सी घटनाओं के माध्यम से बड़ी बड़ी बात कह जाती है। इनके लगभग दो सौ से अधिक उपन्यास कई कथा - संग्रह नारी मन की संवेदनओं की परतों से भरे पड़े हैं।

 ‘सुवर्णलता‘ का समाज आशापूर्णा जी के बचपन का समाज है जिसे उन्होंने बचपन में देखा है। अपने घर में तथा मौसियों और बुआओं के घर में उनको देखने को मिला। हर जगह उनको पुरूष का प्रताप ही दिखा। औरते एकदम से घुटने टेके रहती हैं। जो बड़ी गृहस्वामिनी हो जाती है उनका फिर प्रबल प्रताप होता है। कम उम्र की लडकियाँ, विशेषकर बहुओं का जीवन निरूपाय और दुखपूर्ण होता है... जो अपनी मन की इच्छाओं को दबाकर रह जाती है। लड़कियों को यह अधिकार हीनता क्यों है? कहानियों के माध्यम से यही सवाल बार बार उठाए जातें हैं। आशापूर्णा जी की कहानियों में भारतीय समाज में नारियों का वास्तविक चित्र खींचा गया है। 

 उन्हांेने अपनी ट्रिलाॅजी में अपनी विगत तीन पीढ़ियों को संयोजित करने का प्रयास किया है। एक तो उम्र के कारण घर में बंदी जीवन। किस मात्रा में हवा बाहर से अंदर आ पाती है उन्होंने देखा है। आशापूर्णा जी कहती हैं, ‘‘परिवेश, देश, काल, पात्र चाहे कितने भी बदल जाएं लेकिन भीतर से सभी मनुष्य एक जैसे होते हैं। इस देश में भी महाभारत काल से लेकर आज तक मनुष्य का मूल रूप बदला नहीं है।‘‘ उनकी रचना धर्मिता इसी ‘मनुष्य के मूलतत्व‘ के प्रति समर्पित है।

 आशापूर्णा जी की कहानियाँ भारतीय समाज में नारी के वास्तविक अस्तित्व का चित्र खींचा है। 1937 में उनकी कहानी ‘‘पत्नी और प्रेयसी‘‘ काफी प्रतिष्ठित हुई थी। नारी के इन दो अनिवार्य ध्रुवांतों के बीच उठने वाले सवाल को पारिवारिक मर्यादा और बदलते सामाजिक संदर्भों में जितना आशा देवी ने पूरा रखा उतना संभवतः किसी अन्य ने नहीे। उनका पहला उपन्यास ‘‘प्रेम और प्रयोजन‘‘ 1944 में प्रकाशित हुआ। उनका अधिकांश लेखन हिन्दू समाज में बड़ी गहराई से पैठी हुई नारी पुरूष भेद-भाव, 

संकीर्णता पूर्वक दृष्टिकोण से उत्पन्न असमानता और अन्याय को लेकर है। नारी पर किए गए उत्पीड़न की चीर फाड़ करती हैं। हालांकि उनकी कहानियों ने कभी भी पाश्चात्य शैली के आधुनिक सैद्धांतिक नारीवाद का समर्थन नहीं किया।

 उनकी आरंभिक कहानियाँ उतनी ही रोचक और आकर्षक थी जितनी परिपक्व वयस्क की कहानियाँ। छोटी बड़ी कहानियों में जीवन के सामान्य एवं विशिष्ट क्षणों की ज्ञात-अज्ञात पीड़ाएँ मुखरित हुई हैं। सच कहा जाए तो उनको वाणी से अधिक दृष्टि दी है। उनके कुछ प्रतिष्ठित कहानी संग्रह का शिर्षक और उनमंे निहित कहानियों का नाम दे रही हूँ...

 1. ‘‘किर्चियाँ‘‘ संग्रह के अंतर्गत- ऐश्वर्य, पद्मलता का स्वप्न, बेआसरा, अभिनेत्री, नागन की पूँछ, एकदिन कभी तो, डॉट पेन, कुर्सियाँ आदि।

 2. ‘‘ये जीवन है‘‘ संग्रह के अंतर्गत... हितैषी, आत्महत्या, एहसास, अगर दीवार बोल सकती, जिल्द का चेहरा, अपने लिए शोक आदि।

 3. ‘‘श्रेष्ठ कहानियाँ‘‘ संग्रह के अंतर्गत... सब कुछ व्यवस्थित रखने के लिए, एक मृत्यु एवं और एक, रिहाई रद्द, अहमक, मकान का नाम, शुभदृष्टि आदि उनकी 

महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं। 

स्वनामधन्य बांग्ला की प्रतिष्ठित लेखिका महाश्वेता देवी, मैग्सेसे पुरस्कार (1977), साहित्य अकादमी पुरस्कार 

(1979), पद्मश्री (1986) ज्ञानपीठ पुरस्कार 1996) विजेता तथा पद्मविभूषण ( 2006) सम्मान से सम्मानित लेखिका ने बांग्ला में बेहद संवेदनशील तथा वैचारिक लेखन के माध्यम से उपन्यास तथा कहानियों से साहित्य को समृद्धशाली बनाया। स्त्री अधिकारों, दलितों तथा आदिवासियों के हित के लिए उन्होंने जूझते हुए व्यवस्था से संघर्ष किया तथा इनके लिए सुविधा तथा न्याय का रास्ता बनाती रही। 

 महाश्वेता जी का कहना... ‘‘ अनुभवजन्य संवेदना तो सृजनात्मकता का प्राण है। वैसा कुछ मेरे भीतर है, इसका एहसास और विश्वास दोनों हर समय से मेरे भीतर थे। मैं उस विगलित संवेदना को शुरू से पहचानती थी, पर वैसी संवेदना का होना एक बात है, उपयुक्त रूप से चैनलाईज करना या करने का अवसर पाना अलग बात है।‘‘ 

 1984 में प्रकाशित अपने श्रेष्ठ गल्प की भूमिका में महश्वेता देवी ने लिखा है....

‘‘साहित्य को केवल भाषा शैली और शिल्प की कसौटी पर रखकर देखने के मापदंड गलत हैं। साहित्य का मूल्यांकन इतिहास के परिप्रेक्ष्य में होना चाहिए। किसी लेखक के लेखन को उसके समय और इतिहास के परिप्रेक्ष्य रखकर न देखने से उसका वास्तविक मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है।‘‘ ‘‘बायेन‘‘ कहानी में अपनी पत्नी को बांयेन घोषित कर समाज से बहिष्कृत करने में मलिंदर गंगापुत्र को जरा भी संकोच नहीं होता। इस कहानी में महाश्वेता देवी ने बताया है कि जो स्वयं हशिए के लोग हैं, वो भी अपने समाज से किसी को बहिष्कृत करते हैं तो निर्वासित व्यक्ति उसे भी नियती मानकर कबूल कर लेता है। और जिसे समाज से बहिष्कृत किया गया है वह बायेन औरत ही एक बड़ी रेल दुर्घटना रोकती है आत्माहुति देकर। 

कहानीकार महाश्वेता देवी ने अपने अनुभवजन्य संवेदना को जब कहानी के माध्यम से अभिव्यक्त करना प्रारंभ किया तो पाठक स्तब्ध रह गए। लेखिका के पात्र अपनी परिस्थित यों से निरंतर जूझते हैं, सतत् संघर्ष करते नजर आते हैं। वह हारते हैं, टूटते हैं, परंतु अपनी अदम्य जिजीविषा के चलते पुनः उठ खडे होते हैं। 

‘‘यशोवन्ति‘‘ कहानी में क्षेत्रज प्रथा को चित्रित किया गया है। कथा के अंतर्गत अपहृत यशोवंति की मानसिक यंत्रणा को स्पष्ट किया गया है। अंततः यशोवंति अपनी दृढता और अदम्य साहस के कारण उस पर होनेवाले लगातार आक्रामक परिस्थित जन्य घटनाओं से उबर आती है । यशोवंति के माध्यम से महाश्वेता जी ने समाज के समक्ष एक सशक्त नारी के चित्र को उभारा है।

‘‘रूपसी मान्ना‘‘ कहानी के माध्यम से प्रेयसी भाभी को सुन्दर और सबल प्रेमिका के रूप चित्रित किया है। देवर और विधवा भाभी में प्रगाढ़ प्रेम था। जमीन मान्ना के साथ सोलह वर्ष की ‘‘रूपसी‘‘ का विवाह हो गया और आपार दहेज के साथ वह ससुराल आ गई। उन दिनों तो उसे देवर-भाभी के मध्य चल रही प्रेम लीला की बू तक नही लगी थी। पर समय के साथ-साथ उसे कुछ समझ में आने लगा और एक के अधिकारी के प्रति वह सचेत होती गई। और तभी से हंगामा शुरू हो गया। इधर भाभी अपने पालतू देवर को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थी उधर पत्नी रूपसी को भी अपना हक चाहिए था। अतः एक त्रिकोण बन गया और लड़ाई छिड़ गई। हक की लड़ाई, विवशता की लड़ाई और प्रेम की लड़ाई। सब अपनी अपनी जगह जल रहे थे जिसमें एक को हाथ धोना पड़ा। पुराने और ढलते उम्र की प्रेमिका का खून करके उससे बड़ी आसानी से जतीन ने हाथ धो लिया और निर्दोष रूपसी सलाखों के पीछे चली जाती है। 

अपने को निर्दोष साबित करने के लिए रूपसी ने कोई कदम नहीं उठाया। क्योकि उसे पता था कि उसके पति ने उसे ऐसे फांसा है कि वह उकेरा छटपटा भर सकती है। पर वह चुप नहीं बैठती है। अंदर ही अंदर स्वयं को मजबूत बनाकर बदला ले लेती है, ‘‘नाम भी मेरा ही बदनाम हुआ  मियाद काटकर मैं ही आई... निर्दोष होकर जब मैं जेल गई तो दोष भी कर ही डालूं। चैदह साल तक केवल यही एक बात मैं सोचती रही।‘‘ 

और फिर खच्च की आवाज। इतना साहस, इतना आत्मविश्वास उस छोटी सी लड़की में महाश्वेता जी ने भरा कि वह समय, समाज और नारी चेतना की प्रतीक बन गई। 

अपनी अनेक कहानियों में सदियों से मुख्यधारा से बाहर धकेली गई आदिवासी अस्मिता के प्रश्न को शिद्दत से उठाया है। अपनी कहानियों में समाज को शोषण, दोहन, और उत्पीड़न से मुक्त कराते नायक नायिकाओं का संधान करती है। 

इनके उपन्यास ‘‘रूपाली‘‘ पर कल्पना लाजमी ने ‘‘रूदाली‘‘ तथा ‘‘हजार चैरासी की माँ ‘ पर इसी नाम से गोविन्द निहलानी ने 1998 में फिल्म बनाई। 

बांगला कहानी के क्षेत्र में विमल कर अपनी विशेष कथात्मक दृष्टिकोण के कारण प्रसिद्ध हैं। उनकी हर कहानी में जीवन दर्शन, कोई विशेष संदेश, अनमोल मंतव्य रहता है जो उनकी कहानी को विशेष बनाता है। उनकी रचनाओं में ‘‘बालिका बधु‘‘ , ‘‘रौद्र छाया‘‘ , ‘‘खड़कूटो‘‘ ऐसी अनेक रचनाएं हैं जो आज भी जनमानस में प्रतिष्ठित है। उनकी रचित ‘‘सुख ‘ एक व्यस्क दंपत्ति और एक युवा दंपत्तियों की कहानी है। व्यस्क दंपत्ति के आपसी संपर्क को देखकर।

सुनील गंगोपाध्याय (1934 - 2012) एक प्रसिद्ध कवि, उपन्यासकार और कहानीकार थे। आधुनिक बंगाली साहित्य की प्रत्येक शैली में उनका योगदान अद्वितीय है। एक विपुल बहुमुखी लेखक, सुनील गंगोपाध्याय ने कई कविताएँ, उपन्यास, कहानियाँ, बाल कथाएं तथा निबंध की रचना की है। उन्हे आनन्द पुरस्कार, बंकिम पुरस्कार और साहित्य अकादमी पुरस्कार आदि अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया हैं। उन्होंने यात्रा वृतांत, बच्चों के उपन्यास आदि में भी अपनी कलम चलाई है। ‘‘कृतिबास‘‘ नामक पत्रिका के प्रतिष्ठित एवं संपादक रहे। इस पत्रिका का उद्देश्य उभरते हुए कवियों का मार्ग दर्शन तथा उत्साहवर्धन रहा। ‘‘नीरा का दुख‘‘ हो या ‘‘तेहरान का स्वप्न‘‘ ऐसे हर कथा के माध्यम से एक ऐसा स्वप्न जाल बिछाते कि पाठक कथा के मर्म को बखूबी समझ जाता है। 

 नारी के प्रति सुनील गंगोपाध्याय के मन में अथाह सम्मान था। उन्होंने नारी को कभी भी कमजोर नहीं समझा। संघर्षशील, शक्ति रूपी, स्नेहमयी नारी ही उनके लेखन का आधार बनी। एक पुरूष होकर भी नारी की मानसिकता, नारी के मनोविज्ञन से वे भली भांती परिचित थे। ‘‘तुफानी बरसात की उस रात में‘‘ कहानी के अंतर्गत उन्होंने नायिका शकुंतला के माध्यम से नारी के आत्ममंथन तथा पूर्ण स्वरूप को चित्रित किया है। कुछेक उदाहरण के माध्यम से उनकी सशक्त लेखनी तथा नारी के प्रति उनकी श्रद्धा, आत्मविश्वास, संघर्ष और सहनशीलता का जो चित्र सुनील गंगोपाध्याय ने प्रस्तुत किया है उसे यहाँ प्रस्तुत करूंगी....

‘‘अक्समात् पति वियोग के शोक से उबरने के बाद शकुंतला ने अपने व्यवसाय और घर परिवार में मन लगाया। हिसाब निकास का ध्यान भी रखने लगी। उनके संपर्क में आने पर कुछ ही दिनों में वहाँ के कर्मचारियों को समझ में आ गया कि वह कोई साधारण महिला नहीं है। उनसे किसी भी गलत-सलत बात को मनवाना संभव नहीं।‘‘

‘‘यह भी सही है कि अधिकांश माँए इस बात से बेखबर होती हैं कि धीरे-धीरे लड़का बड़ा होता है और माँ लड़के को लेकर अनगीनत सपने सजाने लगती है । जब  लड़के के जीवन में दूसरी  लड़की आती है और वह उसके जीवन का अहम हिस्सा बन जाती है तो माँ सहन नही कर पाती है। बचपन में लड़का माँ के साथ होता है फिर वह  लड़का दूसरी  लड़की के साथ सोता है। माँ बच्चे को अपने साथ चिपका कर रखेगी तो समस्याएं तो उभरेगी ही।‘‘ 

 शकुंतला ने बहू से कहा, ‘‘तुम लोग जाओ। मैं यहाँ पर कुछ दिन और बिताकर जाना चाहती हूँ। यहाँ का पानी बहुत अच्छा है कुछ दिन रहूँ तो शायद फर्क पड़ेगा। ‘‘

 ‘‘एक शिशु के रहने पर परिवार में बहुत बडा फर्क पड़ता है। जितनी देर तक शिशु जगा रहता है परिवार में  सभी का मनोयोग उसकी तरफ ही रहता है।‘‘ 

 ‘‘आजकल डिप्रेशन नामक एक बिमारी के बारे में अक्सर सुनने में आता है।

यह रोग अति मात्रा में बढ जाने पर रोगी आत्महत्या भी कर लेता है। शकुंतला में लेश मात्र भी उस रोग के लक्षण नहीं थे। वह बहुत ही शांत मिजाज की और दृढ मनोबल की अधिकारी थी।और यह रोग तो एक ही दिन में चरमावस्था में नहीं पहुंचता है न ?‘‘

 अपनी नायिका के चरित्र का सबल पक्ष तथा नारी के चरित्र के सबल पक्ष को चित्रित करके एक अद्भुत मनःस्थिती में पहुंचा देते हैं सुनील गंगोपाध्याय अपने पाठकों को। 

 बंगाली कथाकार डाॅ. बाणी बसु की कहानी ‘‘ तीन भोरी बिछे हार ‘‘ की नायिका दुर्गा आधुनिक समाज में नारी के संघर्षरत जीवन की ज्वलंत उदाहरण है। उसने समाज में जीने के मूलमंत्र को सीख लिया है और वह मंत्र है ‘‘नारी का आर्थिक रूप से स्वतंत्र होना।‘‘ वह घर घर बर्तन मांजती, सारा दिन खटती रहती है पर सर उठाकर जीती है। शराबी पति के अमानवीय अत्याचार को न सहकर अपने बलबूते पर बच्चों को पालती है। आत्मसम्मान से भरी दुर्गा अकेली ही खटती पर जगा के पास लौटकर जाना उसे मंजूर नहीं था। 

 स्वतंत्रता का अर्थ केवल आर्थिक ही नहीं, विचारों, भावों तथा निर्माण लेने की क्षमता का भी उसमें बड़ा महत्व होता है। जगा अंततक दुर्गा को झुका नहीं पाया। पुरूष का यह सोचना कि अबला नारी कहाँ तक किस-किस से लगेगी वाली पुरूष की सोच को दुर्गा ने तोड़ दिया। जीवन के हर क्षेत्र में दुर्गा के लिए गए साहसिक पदक्षेप कोड़ाई बसु ने बड़ी सुक्ष्मता के साथ पूरी कहानी में फैला दिया है।

 अभिनेता, नाटककार , लेखक और निर्देशक पिता शंभु मित्र और विख्यात अभिनेत्री और निर्देशक माँ तृप्ति मित्र की सुयोग्य पुत्री सांवली मित्र रचित कहानी ‘‘अपरागता‘‘ की नायिका अरूणा ने अपने आत्मसम्मान और बोधशक्ति के कारण अपने गाँव में एक युगांतकारी घटना घटाई थी। उसने गाँव के लब्धप्रतिष्ठित सरकारी अफसर पर आक्रमण किया था जिसने कमला नामक कर्मचारी का अपहरण कर उसपर अत्याचार किया था। 

 सीधुबाबू, जो एक सरकारी सहायक थे अनैतिक काम करते थे, भेद खुल जाने के डर से नौकरानी कमला का खून कर देते हैं और पूरा दोष अरूणा पर मढ़ देते हैं। 

अरूणा जो कि कमला के लिए न्याय मांगने गई थी सीधूबाबू के बिछाए जाल में फंस गई और उसे जेल हो गई। लेखिका ने बड़ी चतुराई से नारी के दर्प को आत्मसम्मान को बड़ी दक्षता के साथ चित्रित किया है। जेल से निकलने पर उसी अरूणा के द्वारा उन्होंने दूसरा खून करवाया । अरूणा की घनिष्ठ सहेली तिन्नी का लंपट पति अपनी पत्नी को बहुत बुरी तरह से सताता था। परंतु अपने पति के 

द्वारा दिए गए संत्रासों से वह इतनी डर गई थी कि वह चाहकर भी उससे मुक्त नहीं हो पा रही थी। ऐसे पति से अरूणा ने उसे मुक्ति दिलाई और दुबारा जेल चली गई। अगर वह चाहती तो मूक दृष्टा बनकर रह सकती थी परन्तु अन्याय को देखकर उसके अंदर की कालनागन ने फूंफकारा और उसका अंतर्मन जाग उठा। 

 समय के साथ-साथ नारी में आए इस बदलाव का मूल कारण वैश्वीकरण, आधुनिकता और विशेष रूप से पाश्चात्य का प्रभाव है। 1970 के बाद के बांगला कहानियों मे नारी का जागृत रूप स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। सांवली मित्र ने नारी के अधिकार और संघर्ष को आधार बनाकर अनेक रचनाएं रची हैं जो कि आज भी प्रासंगिक है। उनकी नायिका शिक्षित, आत्मनिर्भरशील, आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने के कारण समाज और संवेदना के उतार-चढ़ाव को सहने के योग्य बन गई हैं ।

 आशुतोष मुखोपाध्याय रचित ‘‘लीलावती‘‘ कहानी की नायिका लीलावती एक सशक्त नारी के रूप में संपूर्ण कहानी में छाई रहती है। इस कहानी का मूलाधार राजस्थान की भूमि है। इसमें पर्दाप्रथा पर विशेष रूप से आलोकपात किया गया है।

साहसी, आत्मविश्वासी, बुद्धिशील महिलाएँ पर्दे के साथ साथ ही जीवन के सारे उतार-चढ़ाव को झेलती प्रगति क पथ पर बढ़ती चली जा रही है। नारी के सभी गुणों से समृद्ध नायिका अपने क्षेत्र में आत्मसम्मान के साथ स्वयं को प्रतिष्ठित करती है।

 जया मित्र की कहानी ‘‘उपत्यका‘‘ में प्रभा एक ऐसी गृहणी है जो अपनी बेटी की शिक्षा के लिए परिवार वालों के विरोधात्मक विचारों का डटकर विरोध करती है।

दादी तो ‘‘ बेटी तो बड़ी हो गई है उसकी शादी कर दो।‘‘ कहकर हल्ला मचा देती है पर जब वही बेटी अच्छे नम्बरों से पास होती है तो पूरा श्रेय पिता पर चला जाता है जिसने उसकी पढ़ाई का सबसे अधिक विरोध किया था। प्रभा पति के द्वारा प्रताड़ित होकर भी डटी रहती है। जिसका फल उसे बेटी की सफलता से मिलता है। पति के यात्रानुभवों को सुनकर उसने भी उनके साथ जाने की इच्छा जताई पर असफल हुई। ‘‘यात्रा बहुत कठिन होती है, बर्फ पर चलना कोई आसान नहीं। यह तुम्हारे गहने से लदी, पाँचजन मिलकर थियेटर देखने जाना नहीं है समझी?‘‘ बहुत आहत हुई थी प्रभा। इन बातों को सुनकर उसे लगा था जैसे उसके हाथ पाँव बांधकर उसे पानी में फेक दिया गया हो। 

 बांगला रचनाकारों ने नारी की स्वतंत्र सत्ता को प्रथमिकता दी, उनकी स्वतंत्रता और सामथ्र्य को अपनी रचनाओं में महत्व दिया। नारी की अस्मिता को सिद्ध करना, आरोप प्रत्यारोप से परे उनके विकास की बात करना, स्त्री-पुरूष की समानता की अवधारणा को सहज स्वीकृति दिलाना, बांग्ला कहानीकारों की विशिष्ट उपलब्धि रही।

 आज के बांग्ला कहानीकार बदलते समय के साथ कदम मिलाकर चलती हुई नारी को अपनी कथा का 

आधार बनाकर रचना करते हैं। आज नगर और महानगर दोनों ही विकसित होकर एक बड़े बाजार में परिवर्तित हो गए हैं। इस प्रगतिशील विश्व बाजार में नारी का सशक्त होना तथा ससम्मान जीने के लिए आत्मसम्मान से भरपूर होने की आवश्यकता है। कहानी सिर्फ अपने समय का आईना नही होती बल्कि वह जितना अपने समय की साक्षी होती है उतना ही गुज़रे जमाने के साथ उसका संबंध होता है। इसके साथ ही भविष्य के लिए भी उसमें संकेत निहित होते हैं। नहीं तो आशापूर्णा देवी की नायिकाएं अपने बच्चों की शिक्षा के लिए परिवार के साथ संघर्ष रत नही होती। वह समझ गई है कि अब तक औरत भोलेपन, संस्कारी, भद्रलोक का जो लबादा अबतक पहनकर घुम रही थी उससे अब उबरना होगा। 

 कथा का क्षेत्र इतना विशाल है कि इसके अंदर मानव की सभी भावनाओं का संसार बडे विस्तृत रूप से इसमे समा जाता है। इन कहानियों का अध्ययन करते हुए मैने पाया कि प्रादेशिक भाषाएं भिन्न होने पर ही इनसान की भावनाएं हर क्षेत्र में एक ही होती हैं। परंतु अभिव्यक्ति भिन्न होती है। समय में बदलाव के साथ साथ अभिव्यक्ति में भी बदलाव आता है।

 उपलब्ध कहानियों के आधार पर ही मैने लेख लिखा है। इससे और भी अधिक कहानियाँ मुझे मिली है। नित नए कथाकार नए नए विषयों पर कहानियाँ लिख रहें हैं। पर विषय को अति व्याप्ति से बचाने के लिए मैने केवल विषय से संबंधित गिनेचुने कथाकारों की कहानियों को ही लिया है।

प्रयोगमूलक कथाओं से ही पाठक अधिक आकर्षित हो रहें है। मेरी यह धारणा अध्ययन मनन के पश्चात ही दृढ हुई है। कथाओं पर अगर लिखना होतो इसकी कोई थाह नहीं है। साहित्य की विभिन्न विधाओं के साथ-साथ इनसान कथा के माध्यम से ही अपनी भावनाओं को व्यक्त करना अधिक पसंद करता है अतः कथा अपने समय घटनाओं और परिवेश को साथ में लेकर चलती है। ये एक दूसरे के पूरक हैं और कथा को अपने समय का दस्तावेज कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। बांगला कहानियों के विस्तृत सागर में से कुछ एक बूंद को ही यहाँ प्रस्तुत किया है। अगर पाठक वर्ग उपकृत हो तो मेरा श्रम सार्थक होगा। 

-सयाजीगंज, बड़ौदा, गुजरात, मो. 91 9825788781

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आलेख

भाषा और भाषा शिक्षण

          श्री सेवाराम त्रिपाठी


भाषा पर निरंतर प्रश्न उठते रहे हैंय लेकिन भाषा को शायद हमनें उतनी गंभीरता से नहीं लिया। भाषा हमारी जीवन की अनिवार्यता है और वह हमारे जीवन को संचालित करती है। जीवन को एक गति देने में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है; उसी सिलसिले में नरेंद्र जैन की कविता का यह हिस्सा पढ़ें- ‘‘यह भाषा की थकान का दौर है/विचार और स्वप्न की मृत्यु/यहीं से शुरू होती है कविता जैसी भी है और जहाँ भी है/जितनी भी है/बस डूबी है अंधकार में/संवाद आधे- अधूरे/गिरते लड़खड़ाते, हाँफते/बस थोड़ा सा संगीत है कहीं/जाने कैसे वो भी बचा हुआ निर्माण में/उसी किनारे बंधी है/हमारी जर्जर नाव।’’

उसी तरह जिज्ञासाएँ अनेक तरह के प्रश्न उठाती हैं। जैसे- भाषा क्या है और क्यों है? वह हमारी अभिव्यक्ति का सर्वोच्च माध्यम है। भाषा में हमारे जीवन की सार्थकताओं, कठिनाइयों और अनुभव संसार के विभिन्न पक्ष-विपक्ष भी समाए रहते हैं। भाषा की रचना के मूल में और व्यवहार में मनुष्य की बुद्धि के अलावा विचारों व भावों के संप्रेषण की दुनिया का वैभव भी है। भाषा में समाज की ज्ञानधारा, चिंतनधारा और जीवन की अभिव्यंजना के अनेक पक्ष रूप और रूपाकार भी होते हैं। वी. देलोव ने माना है कि ‘’एक विशिष्ट मानवीय क्रिया के रूप में भाषा मनुष्य की सूक्ष्म चिंतन क्षमता के साथ ही उत्पन्न होती है।‘’(टैक्स्ट बुक ऑफ फिजियोलॉजी के. एम. बायकोव द्वारा संपादित) भाषा जीवन जगत के वर्कशॉप से निकलती है। भाषा अकेले भाषा नहीं होती। सच तो यह है कि हम भाषा के लिए भाषा का व्यवहार या इस्तेमाल प्रायः नहीं करते। भाषा जीवन का वैभव भी है और अरण्य भी। भाषा में हमारी समूची संस्कृति का निवास होता है। भाषा में हमारी जिन्दगी के अनेक कोण होते हैं। संकीर्ण सोच और लोक भय की दहारों के साथ लोग अपने गलत सोच विचार को भी बड़े पैमाने पर फैलाना चाहते हैं। हमारे सुख-दुख की साथी भाषा हमारे प्रारंभिक जीवन से हमारे साथ यात्रा करती है। हम अपनी भाषा बचा सके तो ये बहुत बड़ी बात होगी क्योंकि भाषा में ही हमारा समग्र जीवन है। दुखद यह है कि कुछ स्वार्थी तत्त्व लगातार भाषा का खेल खेल रहे हैं। पाब्लो नेरुदा की कविता का यह अंश पढ़ें-‘’मनुष्य के लिए चुप्पी मौत हैध्केश तक से भाषा का विस्तार हैध्कई बार बिना होठ हिले भी मुख बोलता हैध्आँखें अचानक शब्द बन जाती हैं।‘’ नयनों की भाषा के अनेक रूप हुआ करते हैं। वहां से संवेदना का एक संसार निकलता हुआ आप अनुभव कर सकते हैं। भाषा का मानसिक व्यापार भी होता है और सामाजिक संलग्नता का अभूतपूर्व लोग भी। भाषा के फैलाव को हम विभिन्न माध्यमों आयामों क्षेत्रों और रूपों में अनुभव कर सकते हैं। रामविलास शर्मा ने एक तथ्य की ओर संकेत किया है। ‘’मनुष्य ने अनेक पदार्थों और कार्यों से कुछ ध्वनियों से हठात सम्बन्ध किया है। यही ध्वनि संकेत भाषा की मूल पूँजी बनते हैं और उनके आधार पर परिस्थितियों के अनुसार नई शब्दावली गढ़ी जाती है।‘’(भाषा और समाज, पृष्ठ 68) भाषा को हम लगातार उपेक्षित करते जा रहे हैं। उसे शोषण का हथियार बनाए जाने का भी अभियान चलाया जा रहा है। दुर्भाग्य है कि हम ने भाषा को मुक्ति का रास्ता नहीं बनाया जबकि भाषा एक जीवित एवं जीवन्त परम्परा भी है और अभिव्यक्ति का सर्वोच्च रूप भी। उसे हँसी-ठठ्ठा में नहीं उड़ाया जाना चाहिए। जैसे जीवन की पहचान और साधना होती है उसी तरह भाषा की भी साधना होती है। उसे कभी भी हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। भाषा और समाज का रिश्ता इकहरा नहीं होता बल्कि वह बहुआयामी और बहुस्तरीय होता है। उसकी व्यापकता की पहचान भी हमें सामाजिक सरोकारों से संपन्न करती है। भाषा हमें बदलती है, हमारा संस्कार करती है लेकिन इसमें हमारी तड़प की अनेक तहें शामिल हैं। रघुवीर सहाय के शब्द हैं- ‘‘कुछ होगा कुछ होगाध्अगर मैं बोलूँगाध्टूटे, न टूटे तिलिस्म सत्ता काध्मेरे भीतर का एक कायर टूटेगा।‘‘ जैसे भाषा का अनंत विस्तार है, उसी तरह शिक्षा का और भाषा के शिक्षण का भी। दोनों में बहुत अंतरंगता भी है। इस वास्तविकता को भी पहचाने जाने की जरूरत है।

‘‘उपनिवेशवाद के प्रसार में शिक्षा की भूमिका को कारनॉय ने सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की संज्ञा दी है। शिक्षा के माध्यम, पाठ्यक्रम के कलेवर, पाठ्यपुस्तक की सामग्री और प्रशासनिक नीति की दृष्टि से देखें तो सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की संज्ञा बहुत सटीक जान पड़ती है। इन सभी पहलुओं में औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत उठाए गए कदमों की छाप आज तक हमारे देश में स्पष्ट बनी हुई है और निकट भविष्य में उसके मिटने के कोई आसार नजर नहीं आते। स्वतंत्रता आन्दोलन में शिक्षा को बदलने और उसे एक राष्ट्रवादी रुझान देने की जो कोशिश शामिल थी, स्वतंत्रता के बाद के वर्षों में वह बहुत जल्द ढीली पड़ गई और शिक्षा व्यवस्था पर औपनिवेशिक शासन की नीतियों की जकड़ बढ़ती चली गई।... शिक्षा ने सांस्कृतिक गुलामी का जो माहौल बनाए रखा है; उसमें राष्ट्रवाद की चेतना भी विकृत रूप ले चुकी है। इस चेतना के ठेकेदार स्थापित व्यवस्था को अपने विशिष्ट से और मजबूत तथा हिंसक बनाने में लगे हैं। उपनिवेशवाद की लम्बी विश्वव्यापी विरासत को पढ़े- समझे बिना शिक्षा को सांस्कृतिक नव-रचना का साधन बनाना मुश्किल है।’’ (कृष्ण कुमार- सांस्कृतिक साम्राज्यवाद और शिक्षा- लेखक कारनॉय की पुस्तक ‘उत्पीड़ितों का शिक्षाशास्त्र‘ की प्रस्तावना से) जिंदगी जितनी दिखती है उससे ज्यादा दिखाई नहीं पड़ती। जिंदगी की हसरतें अनेक हैं। भाषा की हसरत भी मनुष्य का बहुत बड़ा सपना है और हमारे समाज का व्यापक गुण भी। हिन्दी के महत्वपूर्ण कवि धूमिल ने एक कविता में कविता के महत्व का रेखांकन तो किया ही है; बल्कि भाषा की हैसियत का निरूपण भी किया है। ‘‘कविता क्या है ? कोई पहनावा है ? कुर्ता-पाजामा हैध्ना भाई नाध्कविताध्शब्दों की अदालत मेंध्मुजरिम के कटघरे में खड़े बेकसूर आदमी काध्हलफनामा हैध्क्या यह व्यक्तित्व बनाने कीध्चरित्र चमकाने कीध्खाने कमाने की चीज़ हैध्ना भाई नाध्कविताध्भाषा मेंध्आदमी होने की तमीज है।‘‘ अर्थात भाषा हमें जिन्दगी की वास्तविक रणभूमि से जोड़ने का एक जरूरी माध्यम है। भाषा की अस्मिता में हमारे जीवन की अस्मिता भी है। भाषा का प्रश्न बहुत सीधा, सपाट और सरल कतई नहीं हैय क्योंकि उसमें भाषा की जटिलता की अनेक तहें होती हैं। इन अंदरूनी तहों में जीवन जगत की तमाम महत्वपूर्ण ध्वनियाँ-प्रतिध्वनियाँ निवास करती हैं। भाषा मात्र भाषा के लिए नहीं होतीय बल्कि उसमें प्रयोजनशीलता के अनेक पक्ष और रूप भी होते हैं। शब्द या भाषा अनेक खौफनाक चेहरों को नंगा भी कर देती है। वह उनके विरुद्ध ठोस कार्यवाही भी करती है जो भाषा को एक पेशा बना देना चाहते हैं। भाषा के अनेक सूत्र होते हैं। रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव के शब्दों में ‘‘भाषा केवल अपनी प्रकृति में ही अत्यंत जटिल और बहुस्तरीय नहीं है वरन् अपने प्रयोजन में भी बहुमुखी है। उदाहरण के लिए अगर भाषा व्यक्ति के निजी अनुभवों और विचारों को व्यक्त करने का माध्यम हैय तब इसके साथ ही वह सामाजिक सम्बन्धों की अभिव्यक्ति का उपकरण भी है। एक ओर वह हमारे मानसिक व्यापार, चिंतन प्रक्रिया का आधार है; तब दूसरी तरफ वह हमारे सामाजिक व्यापार एवं सम्प्रेषण प्रक्रिया का साधन भी है। इसी प्रकार संरचना के स्तर पर जब भाषा विभिन्न इकाईयों से सम्बन्ध स्थापित कर अपना संश्लिष्ट रूप ग्रहण करती है, वहीं दूसरी ओर वह उन सामाजिक सन्दर्भों में देखने के लिए बाध्य करती है।’’ यह बाध्‍यता सैद्धांतिक ही नहीं व्‍यावहारिक एवं दूरगामी भी होती है। जाहिर है कि भाषा समाज के कारख़ानें से उपजती है। वह पैतृक सम्पत्ति कतई नहीं है। भाषा का अर्जन अनुकरण के द्वारा होता है और सामाजिक-सांस्‍कृतिक संरचनाओं की सम्‍पन्‍नता के अनेक आयामों में घटित होता है। भाषा स्वनिष्ठ एवं स्वायत्त होती है। भाषा परिवर्तनशील है; उसमें विकास और परिमार्जन की प्रक्रिया निरंतर जारी रहती है। वह मनुष्य के वैचारिक और भावनात्मक आदान-प्रदान का सर्वाधिक शक्तिशाली माध्यम है। भाषा का कोई अन्तिम रूप भी नहीं हो सकता। हर भाषा की संरचना अलग होती है। जीवंत भाषा बहते हुए पानी की तरह सदा प्रवहमान होती है। दरअसल सामाजिक अस्मिता के सवाल भाषा की अस्मिता से निरंतर संबद्ध रहते हैं। जैसे समाज में द्वंद्व रहते हैं, उसी तरह भाषा की प्रयोजनीयता में भी अनेक तरह के द्वंद्व काम करते हैं । भाषा के विकास की मंजिलें यहीं से शुरू होती हैं।

हमारे विमर्श में भाषा और भाषा शिक्षण केन्द्र में है। भाषा शिक्षण की समस्या भारत की प्रायः सभी भाषाओं में है। भाषा शिक्षण में थोड़े बहुत अंतर हो सकते हैं। भारतीय सामाजिक जीवन में बहुभाषिकता और स्तरीकृत वास्तविकता की वजह से शैलीभेद और सामाजिक वास्तविकताओं के अन्यान्य प्रयोजन भी सम्बद्ध होते हैं। रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव ने बताया है कि लिपि भाषा नहीं है और लिपिभेद को भाषा भेद का संदर्भ और रूप नहीं बनाया जा सकता है। अलग-अलग स्थितियाँ हो सकती हैं। हिन्दी की हालत तो और भी ख़राब है। हिन्दीभाषी पट्टी में इसे मातृभाषा मानकर एक तरह का अहंकार, बेमतलब की गर्जना, गरूर और एक गहरी उदासीनता की अजीबोगरीब शक्लें भी हैं। फिलहाल मेरी नजर उर्दू भाषा के शिक्षण पर है, वहाँ अभी भी कुछ परम्पराएँ बची हुई हैं। मसलन उर्दू बोलने वाले हिज्जों और नुक्तों का ज़्यादा सधा हुआ इस्तेमाल करते हैं। उस पर गम्भीरता से ध्यान देते हैं। उनके सिद्धांत और व्यवहार में यह वस्तुस्थिति सहज रूप से हम देख भी सकते हैंय इसीलिए जहाँ तक उर्दू के उच्चारण का सवाल है, वहाँ अभी भी इस तरह की गुंजाइश बची हुई है। उसी तरह संस्‍कृत भाषा अनिवार्यतः व्‍याकरण के नियमों से अपना रूपाकार गढ़ती है। संस्‍कृत में वैदिक और लौकिक संस्‍कृत के अनेक तहख़ाने हैंय जिसमें वह साँस लेती है और अपनी शुद्धता बरकरार रखती है।

भाषा और भाषा शिक्षण के अनेक पहलू हैं और चीजें एक-दूसरे से बेहद जुड़ी हुई हैं। इतना तो तय है कि भाषा के शिक्षण की समस्या को हम अकादमिक स्तर पर हल नहीं कर सकते। यदि मात्र ऐसी ही कोशिश करते हैं तो निश्चय ही यह धुएँ में लट्ठ मारने जैसा काम होगा। भारत की भाषा समस्या वैसे भी उलझी हुई समस्या है। उसमें पारदर्शिता का अभाव है, नजरिए का सवाल तो है ही। मैं मानता हूँ कि भाषा के जनतंत्र में सबके लिए जगह है। वहाँ कोई दीवारें या अवरोध नहीं होते। यह दौर कोई ठहरा और रुका हुआ दौर नहीं है। यह विज्ञान एवं मीडिया का युग है। इस दौर में शब्‍द माध्‍यमों के अलावा दृश्य-श्रव्य उपकरणों से भी कार्य सम्पन्न हो रहे हैं। भाषा शिक्षण के लिए भी इनके उपयोग की पग-पग पर आवयश्कता पड़ती है। भाषा हमारे जीवन संघर्षों का आईना भी है। राजनीतिक-सामाजिक सच्‍चाइयाँ जैसी होंगी उसी तरह के बदलाव भाषा में संभव होंगे। भाषा न तो कल्‍पनालोक से उतरती, न पाताली संभावनाओं की आवाजाही से। वह ठोस जीवन के अनुभवों से अपने रूपाकार या शेड्स बनाती है। हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक बदलावों से, भाषा के विचारों के अभिव्यक्ति के माध्यम भी बदलते हैं और उसके नवीन आयाम भी खुलते हैं। यह विज्ञापन और संचार माध्‍यमों का युग भर नहीं बल्कि यह बाजारीकरण की बाजीगरी का युग है जिसके लपेटे में हमारा जीवन पल रहा है और गतिमान है।

हमारी संवेदनाओं को स्पर्श करने वाली भाषा में अभाव की संभावनाओं के प्रति आशंकाएँ दिन-ब-दिन बढ़ रहीं हैं। संचार-क्रांति और सूचनाओं के व्यापक विस्फोट के इस दौर में, भूमण्डलीकरण की आँधी में, ताकतवर देशों की साम्राज्यवादी भूमिका में भाषा की जनपक्षधरता और उसकी लोकोन्मुखता को निगलने की आतुरता हैं। ऐसी परिस्थिति में हम भाषा की स्वाभाविकता और शक्ति को कैसे सुरक्षित और संरक्षित कर सकें, यह एक यक्ष प्रश्‍न है। इसके लिए हमें ठोस और वास्तविक कार्रवाई करनी पड़ेगी अन्यथा सबकुछ तहस-नहस हो सकता है। इस परिप्रेक्ष्य में भाषा की सहजता, वास्तविकता और स्वाभाविकता की रक्षा करनी पड़ेगी। कभी-कभी भाषा को मिलावट के खेल से नष्ट-भ्रष्ट कर दिया जाता है। उसके भीतर की संवेदन-क्षमता को ख़ारिज करने के प्रयत्न होते हैंय जैसे- लोकगीतों और लोककलाओं को मिश्रण के द्वारा बर्बाद किया जा रहा है। उनकी मार्केटिंग हो रही है जिससे उनके मूलरूप छिन्‍न-भिन्‍न हो रहे हैं। जाहिर है कि समय के साथ भाषाओं में परिवर्तन की आहटें होती हैं। या यूँ कहें कि हिन्दी भाषा भी एक व्यापक भाषा बनने की प्रक्रिया में लगातार गतिमान है। मनुष्य के लौकिक, बाह्य एवं आंतरिक, सामाजिक एवं वैयक्तिक चिंतन, विचार, विचारधारा और अभिव्यक्ति प्रणालियों में निरंतर विकास के समूचे प्रयत्न इस भाषा में अंतर्प्रवाहित और लगातार ध्‍वनित हो रहे हैं।

भाषा शिक्षण में संचार माध्यमों का सकारात्मक उपयोग अवश्य किए जाने की व्यापक जरूरत है। ऐसी कौन सी प्रविधियाँ या शिक्षण विधियाँ हो सकती हैं जिससे नई पीढ़ी अपनी सांस्कृतिक विरासत को समझते और बचाते हुए ज्ञान के बहुविध विकास और आयामों को अपने भीतर थाह सके। तकनीकी विकास और तमाम सुविधाओं को अपने में समोते हुए इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से सामंजस्य स्थापित करते हुए हिन्दी के बहुआयामी विकास की संभावनाओं के नए दरवाजे खोल सकें। आशंकाओं और अन्तर्विरोधों के बीच से नए आयामों की नई हवाओं को अंतर्प्रवाहित कर सकें। कुछ प्रश्न हैं जो हमें निरंतर मथते रहते हैं। मृदुला गर्ग के शब्दों में- ‘‘किसी भी भाषा में साहित्य की गुणवत्ता और उस भाषा के वैश्विक वर्चस्व के बीच कोई सम्बन्ध नहीं होता। भाषा का वर्चस्व आर्थिक या वाणिज्यिक कारणों से ही होता है। कलात्मक या अन्य कारणों से नहीं, फिर भी बीसवीं सदी के तमाम तकनीकी और आर्थिक आधिपत्य के बावजूद साहित्य अपनी जगह बना रहा है। भाषा के बदलते स्वरूप को आत्मसात भी करता रहा और स्वयं भाषा का नया स्वरूप भी बनाता रहा।’’ (इण्डिया टुडे, साहित्य वार्षिकी 2000, पृष्ठ-20)  

भाषा हमारे विचार विनिमय का, अपने को सम्पूर्णता से प्रकट करने का सर्वाधिक शक्तिशाली और कारगर माध्यम है। लिखित भाषा के अलावा अनेक समाजों में संकेत भाषा का इस्तेमाल भी होता है। हमारा समाज चाहे जितना पढ़ा-लिखा और विद्वान हो जाए उसे हमेशा संकेतों से गुजरना पड़ता है। ये संकेत कभी-कभी भाषा के मौन में भी बोलते हैं; जिनकी आवाजों को अनसुना नहीं किया जा सकता। अमेरिका के पश्चिमी प्रदेशों में रेड इण्डियन जातियों में ऐसी संकेत भाषा के स्पष्ट प्रमाण हैं। माना जाता है कि ध्वनियों का क्षेत्र सीमित है; हालांकि इसे सहज रूप में स्‍वीकार नहीं किया जा सकता और अक्षरों का क्षेत्र अपरिमित है। भाषा विचार विनिमय का ही साधन नहीं है बल्कि उसका विचार से, विचार की परम्परा से भी अटूट रिश्ता है। सामाजिक सरोकारों से तो है ही। वह हमारे सामाजिक स्‍वरूपों में बहुत कुछ रचती है। भाषा एक लम्बी प्रवहमान वाग्धारा है जिसका रिश्ता हमारे जैविक, सामाजिक और समग्र विकास से भी है। भाषा अपने साथ एक संस्कृति की भी वाहक है। उसके साथ मनुष्यता की अखंड धारा भी प्रवहमान है। वह अर्जित की जाती है- परम्परा से, वर्तमान की आवश्‍यकताओं से, नए रिश्तों से, भौगोलिकता और आधुनिकता से भी; इसलिए भाषा का लगातार आधुनिकीकरण होता रहता है। जाहिर है कि जो भाषा जनता से कट जाती है, वह अपने अस्तित्व को भी समाप्त कर लेती है। कितनी भाषाएँ इस दौर में लुप्तप्राय हो गई हैं। भाषा अपने आशियाने में सभी को स्थान देती है। भ्रांति के कारण भाषा को मजहब के दायरे में भी बाँधने या लपेटने की कोशिश की गई, लेकिन मजहब में वह शक्ति नहीं है जो किसी भाषा पर कब्जा कर सके। हाँ भ्रान्ति जरूर पैदा कर सकती है। उसका अपने लिए अनुकूलन करने का प्रयास कर सकती है। जिस दिन ऐसा होने लगेगा, भाषा का अपरिमित महत्व कम होता चला जाएगा। वह हदबंदी की शिकार हो जाएगी।

इधर हम भाषा की विकट दरिद्रता के वैभव के युग में हैं; जिसमें निर्लज्जता का भीषण तांडव जारी है। भाषा की शुचिता, अस्मिता और उसका खाँटी स्वभाव निरंतर क्षरित किया जा रहा है। जब हमारे समाज में टूट-फूट शुरू होती है और राजनीतिक हलकों में भाषा के फूल खिलना बंद हो जाते हैं तो हम लोक की भूमि को छोड़कर बेशर्मियों में उचकने लगते हैं। सार्वजनिक रूप से -‘किसी को गोली मारो, विरोधियों की हत्या कर दो‘ जैसे शब्दों का प्रयोग करने लगते हैं। तब भाषा और जनता का समन्वय सेतु भरभराकर गिर जाता है। भाषा कलाबाजी या शब्दों की क्रीड़ा में बदल जाती है और जनता के बीच से निकलने वाले राजनीतिक खलनायक और पिद्दी बुद्धिजीवी लोक जीवन से दूर जाकर शब्दों के हवाई किले बाँधने लगते हैं। तब भाषा और बोली का करुण क्रंदन ख़तरों के रूप में प्रवाहित होने लगता है; जाहिर है कि भाषा कोई मायाजाल नहीं है। वह हमारे जीवन के असली संग्राम की विश्वसनीयता है।

भाषा अपने भीतर युगीन विडम्बनाओं को छिपाए रहती है। भाषा को मैं समाज और संस्कृति की नब्ज मानता हूँ। भाषा हो या साहित्य, जैसा समाज होगा, वही राजनीतिक परिदृश्य भी होगा। वह उसी के अनुरूप ढ़लती और पनपती है; क्योंकि वह समाज के कारखाने और राजनीति के यातनागृह से निकलती है। उसका आचरण उसी तरह संचरित होता है। दरअसल हम सिर्फ एकांत में रह कर भाषा और भाषा से जुड़े प्रश्नों का हल नहीं निकाल सकते। भाषा के विभिन्न पहलुओं पर सोचते वक़्त हमें कई स्थितियों से मुठभेड़ करनी पड़ती है। पूरनचंद्र जोशी के शब्दों में- ‘‘भाषा की समस्या अभिन्न रूप से जुड़ी है हमारी अपूर्ण और अवरुद्ध राष्ट्रीय क्रांति के प्रश्नों से, अपूर्ण और अवरुद्ध सामाजिक क्रांति, आर्थिक क्रांति, लोकतांत्रिक क्रांति के प्रश्नों से, अपूर्ण और अवरुद्ध स्वायत्तता-मूलक सेक्युलर सांस्कृतिक क्रांति के जटिल प्रश्नों से। भाषा का प्रश्न एक मौखिक शब्द-संरचना-प्रणाली पर आधारित सभ्यता से मुद्रित शब्द संचारण-प्रणाली पर आधारित सभ्यता में परिवर्तन की जटिलताओं से भी जुड़ा है। इन प्रश्नों पर एक व्यापक राष्ट्रीय संवाद ही हमें अपने बौद्धिक और नैतिक निष्क्रियता से या नव औपनिवेशिक दासता से झिंझोड़कर एक नए पथ पर ले जा सकता है। अनेक राष्ट्रों का इतिहास बताता है कि वहाँ युगान्तकारी परिवर्तनों की शुरुआत भाषा या भाषाओं के प्रश्न को लेकर ही हुई है। आज के भारतीय संदर्भ में भाषा के प्रश्न में युगान्तर के बीज निहित हैं। लेकिन भाषा की समस्या अगर न सुलझी और उलझती चली गयी तो उसमें विघटन और अधोगमन की संभावनाएँ भी निहित हैं।’’ (‘परिवर्तन और विकास के सांस्कृतिक आयाम, पृष्ठ-112)

शिक्षा की समूची प्रक्रिया के बारे में हमारा रवैय्या क्या है? जाहिर है कि शिक्षा की स्वायत्तता से हम बाहर आ चुके हैं। हमारी व्यवस्था की योजना में क्या इसके लिए कोई प्राथमिकता है? भाषाओं के बारे में भी हमने अभी तक ठोस निर्णय नहीं लिए। तदर्थ रूप से ही उन पर काम हो रहे हैं। नई शिक्षा नीति की जब उद्घोषणाएँ हो रहीं थीं, तब थोड़ी सी उम्मीद जागी थीय लेकिन परिणाम क्या आए? वही ढाक के तीन पात। हमारे राष्ट्रीय एजेन्ड़ें में क्या भाषाओं के लिए कोई ‘स्पेस’ है? राजनीति का सम्मोहन जाल ही भाषाओं की अस्मिताओं को तहस-नहस कर रहा है। भाषाओं की अस्मिताएँ बार-बार लहूलुहान हो रही हैं। इस वजह से ठीक-ठाक निर्णय नहीं हो पा रहे हैं। संचार माध्यमों का जो जाल फैल गया है, वह भाषाओं के साथ क्या व्यवहार कर रहा है? उसकी प्रायोगिकी हमारे आपके सामने है। यूँ तो हम वैश्वीकरण की प्रक्रिया में, सुपर बाजार व्यवस्था की हद में, पैसे की विराट सत्ता और चारित्रिक अधोपतन की आँधियों के आमने-सामने हैं। ज्ञान की झड़ी लगी है। ज्ञान और जानकारी का ठेका धीरे-धीरे गूगल पर अवलंबित होता जा रहा है। वहाँ जिस तरह की जानकारी अपलोड हो रही है, उसमें एकदम निश्‍चिंतता नहीं है बल्कि अगर-मगर के दरवाज़े और खि‍ड़कियाँ ज़्‍यादा हैं। लेकिन राजनीति की फिज़ा ने ज्ञान की हालत पतली कर दी है और इसलिए हमारी संवेदनाएँ दिन-ब-दिन छीज रही हैं। हमारे मानवीय रिश्ते टूट-फूट रहे हैं, बिखर रहे हैं और हम विखण्डन की त्रासदी के मुहाने पर हैं। इसी संदर्भ में हम देखें कि भाषा के प्रति हम कितने संवेदनशील हैं। इस संवेदनशीलता में ही समूचे सवालों के जवाब खोजे जा सकते हैं। 

कहा जाता है कि जीवित भाषाएँ जीवित पदार्थों की ही तरह विकसित होती हैं। भाषा केवल शब्दों का जाल भर नहीं होती। तथ्‍य यह है कि शब्‍दों की क्रीड़ा का स्‍थायी वास नहीं होना चाहिए। भाषा में एक जादुई ताकत होती है। भाषा का अपना संगीत और प्रवाह भी होता है जिसकी ओर अब प्रायः ध्यान नहीं दिया जाता। भाषा सम्प्रेषण का माध्यम होने के साथ-साथ संस्कृति की वाहक भी होती है। सम्प्रेषण के रूप में भाषा का महत्वपूर्ण पहलू बोलने से सम्बन्धित है। यह तथ्य भी विचारणीय है कि मानव समाजों के बीच बोले गए शब्दों का सम्बन्ध वही होता है जो मनुष्य और प्रकृति के बीच विभिन्न अवयवों का होता है। हमारी संवेदनाओं का जीवंत सम्बन्ध हमारे जीवनानुभवों की भाषा के साथ ही होता है। कार्ल मार्क्‍स ने सच ही कहा है- ‘‘विचारों, अवधारणाओं, चेतना का उत्पादन सर्वप्रथम मनुष्यों के भौतिक क्रिया-कलापों और परस्पर सम्बन्धों से अर्थात वास्तविक जीवन की भाषा से प्रत्यक्ष रूप से अंतर्ग्रथित है। व्यक्तियों की अवधारणा, चिंतन, मानसिक परस्पर संबंध इस अवस्था में भी भौतिक व्यवहार का प्रत्यक्ष वहिःस्राव लगता है। यही बात राजनीति, कानून, नैतिकता, धर्म, अध्यात्म आदि में मनुष्य द्वारा व्यक्त मानसिक उत्पादन पर लागू होती है। मनुष्य वास्तविक, सक्रिय मनुष्य अपनी अवधारणाओं, विचारों आदि का उत्पादन है क्योंकि वह अपनी उत्पादन शक्तियों और इन शक्तियाँ के अनुरूप परस्पर सम्बन्धों के उच्चतम रूप तक एक निश्चित विकास के अनुकूलित हैं।’’ (माक्र्स और एँगेल्सः फॉयरबाख अपोजीशन ऑफ दि मैटीरियलिज्म एण्ड आइडियालिस्ट, आउटलुक लंदन 1973, पृष्ठ-8)

मेरी मान्‍यता है कि भाषा माँ की तरह है। हमारे यहाँ कहा जाता रहा है- ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ अर्थात् जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान हैं। मैं जब पढ़ता था, तब हमारे भाषा के अध्यापक कितनी संलग्नता, तल्लीनता और संवेदनशीलता के साथ भाषा के व्यावहारिक और सैद्धांतिक पक्षों का खुलासा करते थे। उनकी वे ध्वनियाँ, वे आवाजें आज भी मेरे दिमाग में गूँजती हैं। भाषा और उसकी संवेदना के व्यापक प्रभाव हमारी जीवन प्रविधियों में और जीवनशैली में पड़ते हैं। इसी से संभवतः उनका अनुरक्षण होता है। भाषा एवं बोली हमारी आत्मीयताओं के स्थायी कोश हैं। भाषाओं में वृहत्तर शक्ति होती है; चूँकि भाषा हमारे संप्रेषण का सर्वाधिक जरूरी और अन्यतम उपकरण है इसलिए उसके सामाजिक-संवेदना-व्यापार की थाह भी नहीं ली जा सकती। भाषा के मूलाधार, सांस्कृतिक चेतना और उसमें समाई सामाजिक यथार्थ की वस्तुगतता और अस्मिता को भी पहचाना जाना चाहिए तथा इसे बच्चों की भाषा के प्रति ग्रहणशीलता और संवेदनात्मक क्षमता के विस्तार के परिप्रेक्ष्य में भी मूल्यांकित करना चाहिए। अब देखें कि इस रट्टामार और झपट्टामार पद्धति ने हमें किस खाई में फेंक दिया है। भाषा बोध की ओर हमारा ध्यान लगभग नहीं है। इस दौर में हमारा आग्रह व्याकरण की ओर भी नहीं है। भाषा को लगातार लुगदी बनाकर भी उसका चलन जारी है। व्याकरणहीनता की वजह से भाषा शिक्षण में अनेक कठिनाइयों ने स्थायी अड्डा जमा लिया है। क्या कारण है कि हमारे शिक्षक साथी साहित्य तो पढ़ाना चाहते हैंय लेकिन भाषा-शिक्षण और व्याकरणिक संरचनाओं की ओर उनकी वैसी रुचि नहीं है, वैसी संवेदनशीलता और एकाग्रता भी नहीं है। उदाहरण के रूप में यह बात कहना चाहूँगा कि हिन्दी की स्नातकोत्तर कक्षाओं में ‘भाषा विज्ञान’ पढ़ाने वाले विरले ही साथी तैयार होते हैं। भाषा विज्ञान या भाषा की तकनीक की जानकारी देना सरल और सहज भी नहीं है। वहाँ अपार धैर्य की जरूरत होती है। भाषा शिक्षण में पढ़ने के कौशल का भी निरंतर ह्रास हुआ है। सार्वजनिक पठन से डरने वाले छात्रों और अध्यापकों की संख्या निरंतर बढ़ रही है। पठन कौशल के अन्तर्गत अनेक चीज़ें काम करती हैं जैसे लिपि-प्रतीकों की पहचान और अर्थ-ग्रहण की प्रक्रिया। अर्थ-ग्रहण करने के बिना पढ़ना केवल हम भाषा को बाँचने का रास्ता मानते। महर्षि पतंजलि ने बिना भाव ग्रहण किए हुए पढ़ने की उपमा उस बोझ ढोने वाले गधे से की है, जिसे पीठ पर लादे हुए उस बोझ का तो अनुभव होता है परन्तु वस्तु का ज्ञान नहीं रहता।

लिपि-प्रतीकों को पहचानना और उन्हें अर्थ में परिवर्तित कर लेना ही पढ़ना है। बताते हैं कि महाभारत की रचना लिखने में महर्षि वेदव्‍यास ने गणेश जी से यही शर्तें रखी थी कि बिना अर्थ समझें नहीं लिखनाय अन्यथा उसे पठन का यांत्रिक पक्ष ही कहा जा सकता है। इसमें कहीं न कहीं यह सन्देश विद्यमान है कि पढ़ने के साथ-साथ ही उसकी अर्थ ग्रहण की प्रक्रिया भी उसी कौशल से होनी चाहिए। सिर्फ लेख पढ़ना और लिखना किसी काम का नहीं होगा। इसे पठन कहें या ‘वाचन’। छात्र वाचन करने से भी प्रायः घबराते हैं। वाचन अर्थात शब्दों के अर्थों का तारतम्य मिलाकर पूरे वाक्य या पूरे वाक्यों का तारतम्य मिलाकर सभी का परस्पर सम्बन्ध जोड़ते हुए विषय की अन्विति का अर्थ ग्रहण कर लेना पठन-प्रक्रिया का ही आवश्यक अंग है। पठन में आवश्यक तथ्यों का स्मरण और अर्थ ग्रहण में अर्थ को व्यक्त करने की योग्यता भी अपेक्षित है। भाषा के बोध-परीक्षण की यह अनिवार्य पहचान है। मेरी समझ में इसकी विधि का विकास भाषा शिक्षण के लिए जरूरी है। जाहिर है कि पठन योग्यता पर भाषा के अन्य कौशलों- जैसे सुनकर समझने, बोलने और लिखने की क्षमता का विकास निर्भर है। पठन कौशल में शब्द भण्डार की वृद्धि का मुद्दा जुड़ा हुआ है। हमारे शिक्षित जीवन का मूलाधार ही पठन है क्योंकि पढ़ना-बोलना, शिक्षण की उत्कृष्टता पर भावात्मक उत्कर्ष, व्यावहारिक कौशल एवं साहित्यिक योग्यता का बहुत सारा हिस्सा जुड़ा है। भाषा शिक्षण की मुसीबत की एक दरार प्राथमिक शिक्षा से प्रारम्भ होती है। एक हुक़्मनामा वर्षों पूर्व जारी हुआ था कि प्राथमिक कक्षाओं में ‘कम्पलसरी प्रमोशन’ यानी अनिवार्य क्रमोन्नति होगा। इस ‘कम्पलसरी प्रमोशन’ ने बड़े-बड़े गुल खिलाए। ऐसे छात्र भी पाँचवीं कक्षा पार कर गए जिन्हें ठीक से अक्षर ज्ञान भी नहीं था। यह नई शिक्षा नीति और साक्षरता के प्रभाव में हुआ। इस बिन्दु पर हमें आत्मालोचन और आत्‍मावलोकन करने की जरूरत है। जाहिर है कि प्रशासन के पास वह आँख नहीं है कि वह देख सकें कि भावी पीढ़ियों का क्या नुकसान होने जा रहा है और इससे हम किस तरह की साक्षरता के आँकड़ें पाना चाहते हैं और कितना कमाल दिखाना चाहते हैं। इसे भाषा के साथ बेजा खिलवाड़ की संज्ञा दी जा सकती है। भाषा शिक्षण में गंभीरता का नितांत अभाव हमेशा रहा है। प्रशासन केवल आँकड़ेबाजी दिखाता रहा है। समाज में पड़ रहे अकूत प्रभावों को शायद वह जानना नहीं चाहता या कन्नी काट कर निकल जाना चाहता है। आँकड़ेबाजी करना शिक्षा एवं प्रशिक्षण कौशल के एकदम विरुद्ध है। शिक्षा हमारे जीवन की मूल आत्मा और संकल्पना है।

दूसरी समस्या यह है कि अब शिक्षक भी गृह कार्य जाँचने का काम नहीं करना चाहते। वे अवलोकन और परीक्षण से घबराते और कतराते हैं। श्रुति लेखों का अभाव भी हुआ है। देखा यह जा रहा है कि पूर्व में ड्राइंग और बागवानी, सुलेखन की शिक्षा पर बहुत जोर हुआ करता था लेकिन अब हम उससे बहुत दूर बाहर की दुनिया में निकल आए हैं। उसके महत्व को अनवरत अनदेखा किया जा रहा है। उसी के साथ लिखावट के जो अभ्यास कराए जाते थे उसमें भी निरन्तर कमी आई है। मैं इस दुर्भाग्य को भी रेखांकित करना चाहूँगा कि बी.ए. और एम.ए. के छात्रों तक को पता नहीं होता कि संज्ञा क्या है? सर्वनाम क्या है? विशेषण क्या है और क्रियाएँ क्या हैं? वे वर्ण, वर्णमाला और भाषा की प्राथमिक इकाइयों जैसे- ध्वनि, स्वर, व्यंजन और अक्षर से बोध के धरातल पर परिचित नहीं हैं। चूँकि प्राथमिक शालाओं से माध्यमिक शालाओं तक हमारे छात्र भाषा शिक्षा के मामले में अनभिज्ञ होते जाते हैं और फिर नकल और रट्टा की महामारी ने ऐसी स्थितियाँ पैदा कर दी हैं कि निकट भविष्य में शायद किताबों से जो थोड़ा बहुत रिश्ता छात्रों का हुआ करता था, वह इस दौर में अब केवल कुंजियों में ठहर गया है। आगे शायद वह भी नहीं रह जाएगा। यहाँ एक तथ्‍य रेखांकित जरूरी है कि कुछ अच्‍छे छात्र अपनी सहजबोध वृत्ति के द्वारा अनेक चीजें रेखांकित करते हैं और उसके अच्‍छे परिणाम पाते हैं। हमारी शिक्षा पद्धति में बोध कराने का सिलसिला धीरे-धीरे लुप्त होता जा रहा है। अंतर्वस्तु और उसके रहस्यों को उजागर करने की ओर किसी का ध्यान नहीं रहता;  इसलिए छात्रों में यह समझ ही नही आ पाती कि वास्तविकता क्या है? इस बोध प्रक्रिया की कमी अध्यापकों में भी निरन्तर घटित हो रही है। हम परिणाम किस तरह के चाहते हैं और हमारी असलियत क्या है? इसे भी कवायद की तरह दाएँ घूम, बाएँ घूम और पीछे मुड़ की स्टाइल में नहीं देखा जा सकेगा।

मैं अनुभव करता हूँ कि हमारे छात्र तीन-चार पंक्तियों का आवेदन लिखने में संकोच करते हैं। उसकी वजह उनकी भाषा का अक्षमताबोध और शायद विश्‍वास की कमी भी है। संक्षेपण की प्रविधि और पल्लवन के तरीके भी विद्यार्थी ठीक से नहीं समझ पाते। संक्षेपण का अर्थ होता है किसी भी बड़े विस्तार को सार रूप में कहना और पल्लवन का अर्थ होता है किसी सूत्र को विस्तृत कर देना। जाहिर है कि एक ऐसी शैक्षिक संस्कृति बन चुकी है जिसमें सिफारिशों, धमकियों और धौंस की गतिविधियों का अच्छा खासा घमासान है। शिक्षा की दुकानदारी ने भी इस प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया है। निजी शिक्षण संस्थाएँ अपने बाजार को फैला रही हैं। वहाँ धन का महासंग्राम लड़ा जा रहा है और हम सभी तमाशबीन की शक्ल में खड़े हैं। राजनीतिक दखलंदाजी शिक्षा के क्षेत्र में इतनी ज्यादा बढ़ चुकी है कि अच्छा पढ़ाने वाला शिक्षक परेशानी में है और उसी के साथ अच्छा विद्यार्थी अपने को ठगा हुआ अनुभव करता है। शिक्षण संस्थाओं के प्रमुख राजनैतिक आकाओं से जुड़े होने के कारण मनमानी कार्रवाइयाँ करते हैं, जिससे शिक्षा का पर्यावरण बद-से-बदतर होता जा रहा है। गौर से देखें कि भाषा शिक्षण की अनेक समस्याएँ हैं। भाषा कोई ठहरी हुई चीज नहीं है न ही जमी हुई कोई अधोसंरचना। वह लगातार समय, परिवेश और परिस्थितियों के कारण विकसित होती है। एक भाषा वह जो ‘एलीट’ या अभिजात्य तबका व्यवहार में लाता है और दूसरा वह जिसे सामान्य जनता प्रयोग करती है। भाषा का बहुत बड़ा हिस्सा मानकीकृत नहीं होता। जो मानक भाषा है उसे सामान्य जनता तक सम्प्रेषित होने में समय लगता है। विख्‍़यात तथ्‍य है कि व्‍याकरण भाषा को बाँधता है और लोक उसे बार-बार तोड़ता है। यह एक अनवरत् प्रक्रिया है। यह आनन-फानन का मामला तो किसी रूप में नहीं है। भाषा शिक्षण के मामले में किसी जादुई छड़ी के भरोसे परिणाम प्राप्त नहीं किए जा सकेंगें। जिस तरह का शैक्षणिक वातावरण होगा, कुछ उसी तरह की शैक्षणिक संस्कृति विकसित होगी। प्रशासन की निगाह में शिक्षा वरीयता के क्रम में बिलकुल नहीं है। यदाकदा कुछ अधिकारियों की कुछ खबरें जरूर सुनाई देती हैं कि उन्होंने फलां शाला या महाविद्यालय में जाकर शिक्षण गतिविधियों का जायजा लिया और कुछ ठोस निर्देश दिए। पर अभी भी ज्यादातर गतिविधियाँ किसी नतीजे तक ले जाने में अक्षम ही साबित होती हैं।

भाषा के व्यावहारिक स्तर पर प्रयोग की क्षमता की अभिवृद्धि भाषा की मूल संरचना के साथ-साथ प्रयुक्तिपरक लक्षणों की ओर भी ध्यान देने की खास जरूरत है। भाषा की सामाजिक शैलियों एवं विविध भाषिक स्वरूपों के रूप विधान पर हमारी निगाह होनी चाहिए। भाषा के व्यवहार में अनेक कठिनाइयाँ हैं। इनके कई रूप हैं जैसे उच्चारणगत, वर्तनीगत, शब्दगत, शब्दार्थगत और व्याकरणगत। उसी तरह वाक्य संरचना में कई तहें होती हैं। इनका सही-सही प्रयोग करना हमेशा चुनौतीपूर्ण रहा है। भाषा का शिक्षण करते हुए मैं यह अनुभव करता हूँ कि प्रायः छात्र अटकलबाजी से काम चलाते हैं। कहते हैं- ‘अटकर पंचे चार सौ बीस’ अर्थात अटकलों से काम चलाइए। कहाँ कौन सा शब्द इस्तेमाल होगा, कहाँ किस तरह के विराम चिह्नों का प्रयोग होगा इसका उन्हें ठीक-ठीक पता नहीं होता। वे अनुमान के सहारे भाषा के सवालों को हल करते हैं क्योंकि हमारी सार्वजनिक ज़िन्दगी में ठहराव के स्थान पर लम्बी दौड़ जारी है। इसलिए ये सब कुछ हो रहा है। विंध्य अंचल में भी भाषा व्यवहार और उसकी प्रायोगिकी की कई समस्याएँ हैं। विंध्य के बारे में तुलसीदास ने लिखा भी है कि ‘विंध्य के वासी उदासी महा’। पावोल फ्रेरे ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘उत्पीड़ितों का शिक्षाशास्त्र’ में भाषा सम्बन्धी हमारी उदासीनताओं का प्रश्नांकन किया है। भाषा शिक्षण की तकनीक पर अनेक संस्थाएँ मुस्तैदी के साथ काम कर रही हैं। उन पर भी हमारा ध्यान होना चाहिए और उनसे हमें सीखना चाहिए। मैं अनुभव करता हूँ कि भाषा का अध्ययन और अध्यापन दूसरे-तीसरे दर्जे का काम नहीं है। माना जाना चाहिए कि वह अत्‍यंत जरूरी काम है। इसके अभाव में ज्ञान का क्षेत्र कुंठित होता है। संचार माध्यमों के इस युग में हमारा ध्यान, कॉमर्स, विज्ञान, कम्प्यूटर-इन्टरनेट की तरफ सबसे ज्यादा है। प्रायः भाषा के बारे में किसी तरह की गम्भीरता नहीं दिखती। बड़ी मुश्किल से अच्‍छा टाइप करने वाले मिलते हैं। टाइपिंग रोजी-रोटी तो है लेकिन भाषा और व्‍याकरण के ज्ञान का भी मामला है। वह भाषा में संवेदनात्‍मक क्षमता का सूचक है। विभिन्न चैनलों में भाषा के साथ जिस तरह का खिलवाड़ चल रहा है, उसकी वजह से हमारी बोलचाल की भाषा तक प्रभावित हो रही है। अपनी मातृभाषा भी छात्र थोपी हुई या विजातीय भाषा की तरह पढ़ते हैं अर्थात् किसी कर्मकाण्ड को निबटाने की तरह। इसलिए भाषाएँ धीरे-धीरे अपने मूल स्वरूप से अलग हट कर नई-नई तरह की चीजें शामिल कर रही हैं। इससे भी भाषा के व्यवहार में, प्रयोग में और लिखने में दिक्कतें पेश आ रही हैं। भाषा प्रयोग लस्टम-पस्टम तरीके से हो रहे हैं। अंग्रेजी का वर्चस्व हिन्दी को बेचारी बना रहा है। हिन्दी पढ़ने-लिखने वाला अपने को अंग्रेजी वाले से हीन या कमतर समझता है। हिन्दी पढ़ने वालों की निरन्तर उपेक्षा होती है। मेरी समझ में हिन्दी से जुड़े लोगों को इस स्थिति का बहादुरी से मुकाबला करना चाहिए और किसी भी तरह की हीनता से मुक्त होने की कोशिश करनी चाहिए। हिन्दी की दुनिया में व्याकरण संबंधी दक्षता की आवश्यकता है। भाषा के प्रति आदर और जागरुकता का भी सवाल है। साथ ही उसके मानक रूप पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है।

भाषा का जितना ज़्यादा मानकीकरण होता जाएगा और उसमें आधुनिकीकरण की जो प्रक्रिया घटित होगी, उतना ही बेहतर उसमें तालमेल भी होना चाहिए। व्याकरण भाषा को शुद्ध रखती है, नियंत्रित रखती है; लेकिन जब भी वह भाषा को एकदम बाँध देने की कोशिश करती है तो उसका प्रतिरोध भी शुरू हो जाता है। भाषा में व्याकरण को तोड़ देने जैसे तमाम तरह के जो परिवर्तन होते हैं, भाषा विज्ञान इसे भाषा की विकास की अवस्था के रूप में ग्रहण करता है। इसे वह हर हाल में चिह्नित भी करता है। यह कैसे संभव है कि सामाजिक रूपांतरण की प्रक्रिया तेज हो, समूची चीजें बहुत तेजी से बदल रही हों, संचार प्रणाली का जाल फैला हो और हम उदासीनता की घाटियों में उतर जाएँ, यदि ऐसा हुआ तो? तब क्या भाषा की विकास प्रक्रिया अवरुद्ध रहे, वह व्याकरण के खाँचे में ही बँधी रहे। व्याकरण की कोई भी ताकत उसे बांध नहीं सकती। कबीर ने लिखा- ‘संस्कीरत है कूपजल, भाखा बहता नीर’ अर्थात शास्त्रीय भाषा कुएँ के जल की तरह है और सामान्यजन द्वारा बोली जाने वाली भाषा (भाखा) बहते हुए पानी की तरह। जो अपने प्रवाह से स्वयं शुद्ध और जनाकांक्षाओं के अनुकूल बन जाती है। उसके प्रवाह को रोकने की ताकत कोई नहीं रखता। यही उसकी गुणवत्ता और अर्थवत्ता का सबसे महत्वपूर्ण कोण है जिसे सभी ने स्वीकार किया है। व्याकरण द्वारा प्रचलित भाषा में और जनता द्वारा प्रयोग में लाई गई जनभाषा में हमेशा भिड़ंत होती रहती है। इसी से भाषा ताकतवर बनती है और बाद में वही भाषा, भंगिमा और तकनीक, साहित्य की दुनिया में समाहित होती है। यह एक अटूट निरंतरता है जिसका कोई ओर-छोर नहीं है। हजारों वर्षों से यही होता आ रहा है। और अभी भी ऐसा होते रहने की अनंत संभावनाएँ हैं। जाहिर है कि भाषा में ऐतिहासिक चेतना, निरंतरता और परिवर्तन, दोनों की अभिव्यक्ति होती है। न्गुगी वा थ्योंगों के शब्दों में- ‘‘किसी भी भाषा का सामाजिक आधार जनता द्वारा अपने भौतिक जीवन के उत्पादन में होता है। मानव समुदाय के उन व्यावहारिक कार्यों में रोटी-कपड़ा और मकान सरीखी जीवन की भौतिक सुविधाएँ जुटाने के लिए मिल-जुलकर प्रकृति के साथ संघर्ष के रूप में सामने आते हैं। वाचिक संकेत चिह्न के रूप में भाषा श्रम के दौरान जनता के बीच सम्प्रेषण की जरूरत से उपजी है अर्थात यह सम्पत्ति के उत्पादन, विनिमय और वितरण से संबद्ध है। ऐतिहासिक दृष्टि से भाषाओं का जन्म एक सामाजिक आवश्यकता के रूप में होता है। लेकिन एक लंबे समय के दौरान मौखिक संकेत चिह्नों की खास प्रणाली प्रकृति तथा सामाजिक उत्पादन के क्षेत्र में जनता के एक वर्ग द्वारा किए जा रहे दोहरे संघर्ष की ऐतिहासिक चेतना को अभिव्यक्त करने लगती है।’’ (भाषा, संस्कृति और राष्ट्रीय अस्मिता, पृ0-85)

भाषा शिक्षण के बारे में भारत में बहुत काम हुआ है। उनकी ओर हमारा ध्यान अवश्य जाना चाहिए। प्रो. कृष्ण कुमार की पुस्तक ‘राज, समाज और शिक्षा’ तथा आदिवासी अंचलों में श्री ब्रह्मदेव शर्मा ने कुछ बहुत व्यावहारिक 

पद्धतियाँ विकसित की हैं। होशंगाबाद की ‘एकलव्य’ संस्था ने विज्ञान और भाषा शिक्षण की नई तकनीकें अपनाई हैं। उसी तरह प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री अनिल सद्गोपाल आदि ने इस दिशा में अनेक काम किए हैं। शिक्षा के प्राथमिक ढाँचे को सुधारने की दिशा में जब तक निष्ठा और संकल्पबद्धता के साथ काम नहीं होगा तब तक हम इन मुद्दों पर प्रश्नांकन और रेखाकंन ही करते रह जाएँगे। विद्यार्थी, शिक्षक, अभिभावक और प्रशासनिक व्यवस्था- ये जो चार स्तम्भ हैं, इन्हें मिल बैठकर भाषा शिक्षण में आए गतिरोधों को दूर करने के उपाय करने पड़ेंगे। जिसमें अहंकार से बाहर निकलकर समन्‍वय से काम करने की महती आवश्यकता है, तभी हम भाषा की शिक्षण तकनीक की खामियों को दूर करने की दिशा में कुछ कर सकने की स्थिति में हो पाएँगे। हाँ, इसके लिए जरूरी है संवेदनात्‍मक क्षमता का विकास और ज्ञान की प्‍यास।

हम भाषा शिक्षण के माध्यम से भाषा को बचाने एवं उसे जीवित रखने की कोशिश करते हैं। इस सदी में वैसे भी शब्द की सत्ता ख़तरे में हैं। स्वयं शब्दों की अस्मिता को, उसके अर्थों को तहस-नहस करने के विराट आयोजन हो रहे हैं। टी.वी., बाजारवाद, सत्ता, भूमण्डलीकरण और पूँजीवादी, उपनिवेशवादी ताकतें झूठ का पहाड़ खड़ा करते हुए हिन्दी को हाशिये में डालने की कोशिश कर रही हैं। हिन्दी को हमारी शिक्षा प्रणाली, नौकरशाही और राजनीतिक दुष्चक्र हाशिये में फेंक देने की इच्छा से कार्यवाहियाँ कर रहे हैं। यह चिंता का एक कोण है, लेकिन इन हमलों से सामान्य जनता ही हिन्दी को बचाएगी क्योंकि हिन्दी उनके जीवन-संग्राम की भाषा है। बहरहाल हमें न तो हताश होना चाहिए, न ही निराश। प्रभाकर श्रोत्रिय ने ठीक ही कहा है कि ‘‘भाषा को बचाने का अर्थ उसे स्मृति में ही नहीं सत्ता से भी बचाना है। यानी घर में, दफ्तर में, शिक्षा में, आधुनिक ज्ञान-विज्ञान में, सूचना और प्रौद्योगिकी में, बाजार में, विचार में, भाव में सर्वत्र। भाषा तभी सार्थक होती है जब वह वर्तमान मनुष्य की आकांक्षा और जरूरत को पूरा करती है।’’ (इण्डिया टुडे, साहित्य वार्षिकी 2000, पृष्ठ-28) ‘’किसी भी व्यक्ति के द्वारा भाषा का शिक्षण बहुत गंभीरता, जिम्मेदारी, तकनीकी आयामों, अवलोकन क्षमता एवं संप्रेषण पद्धति के रूपाकारों एवं विभिन्न उपगमों के द्वारा ही किया जा सकता है। भाषा के अनेक तंतु होते हैं। भाषा की वास्तविकताओं, जटिलताओं और सूक्ष्मताओं को भी पहचानना पड़ता है तभी भाषा के विभिन्न अवयवों को संप्रेषित किया जा सकता है। भाषा का शिक्षण करते हुए केवल सैद्धान्तिकी से काम नहीं चलता। भाषा का प्रयोग संप्रेषण क्षमता, भाषा की सहजता, स्वाभाविकता और भाषा की ध्वनि लहरों में फैले यथार्थ को भी जानने में भी होता है।

-रजनीगंधा 06, शिल्पी उपवन, अनंतपुर, रीवा, मो. 7987921206

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समीक्षा

‘स्वाधीनता आंदोलन और साहित्य’ का शोधित दस्तावेज

   श्री सेवाराम त्रिपाठी

  श्री श्याम बाबू शर्मा


स्वाधीनता से बढ़कर इस दुनिया में कोई चीज नहीं। स्वतंत्रता है तो सब कुछ है अन्यथा कुछ भी नहीं। यह आजादी का अमृत महोत्सव वर्ष है। पुस्तक का शीर्षक है- स्वाधीनता आंदोलन और साहित्य। इसे अनुज्ञा बुक्स दिल्ली ने प्रकाशित किया है। वह भी अत्यंत खूबसूरती के साथ। इसकी विधिवत योजना 16 मार्च 2022 को श्यामबाबू शर्मा ने बड़े उत्साह के साथ मुझसे साझा की थी। अपने तई मैनें उनका हमेशा उत्साहवर्धन ही किया। निराशा का तो कोई प्रश्न ही नहीं? तब से लेकर अब तक यानी किताब प्रकाशन के बाद भी मेरा उनका संवाद जारी है। वे बेहद उत्साही व्यक्ति हैं और उनकी सक्रियता ने हमें एक ठोस आधार और एक बड़ा नेटवर्क भी दिया है। ऐसा न होता तो वे मुझसे इतने लंबे अरसे तक शायद जुड़े ही नहीं रह सकते थे? उनकी कार्यविधि मात्र मुखागर नहीं होती। वे बाकायदे इसके हेतुओं, रूप - रेखाओं को अपनी डायरी में इंद्राज करते रहे हैं। कई तरह की तिथियाँ डालते हैं। जो हमारी बातचीत में अक्सर शामिल होता रहा है। यह कोई अति उत्साही आदमी ही कर सकता है। वे संवाद पर अमल भी किया करते हैं। सक्रियता का आदान - प्रदान भी करते हैं। जब उन्होंने मुझसे बताया तो निश्चय ही आश्चर्य मिश्रित खुशी हुई। उन्होंने मुझे जो मान - सम्मान दिया है, वह सामान्य नहीं महत्वपूर्ण है। उन्होंने मेरी अनुशंसाओं को भलीभांति क्रियान्वित भी किया है। उसके बारे में क्या कहूं? सोचता हूं ऐसे आदमी भी इस मायावी महाबाजार में ढल रही दुनिया में मौजूद हैं। हम रिश्तों के विखंडन की त्रासदी भी झेल रहे हैं। खैर,यह एक अलग प्रश्न है। 

सच मानिए, मैने अपने किसी मित्र को इस विषयक कभी कोई फोन नहीं किया कि आपको लिखना है। सम्पादक को खुला छोड़ दिया था। यह भी आश्चर्य से कम नहीं है। मेरे मित्रों ने मेरे संदर्भ को इतनी अहमियत दी। इसका सचमुच गर्व है मुझे। लेकिन यह गर्व वाकई में हिंदू होने जैसा गर्व नहीं है। मैं अपने तई एक चुप्पा किस्म का, एक अदना सा आदमी रहा हूं। जिसे अपने जीने मरने की कोई ख़बर नहीं। अपनी आत्मा में ही बहता हूं। साहित्य में कभी कोई धूम-धड़ाका करने की कोशिश भी नहीं करता। 28 मार्च को मैंने उन्हें इस बात के लिए प्रोत्साहित किया कि भारत की विविध भाषाओं में स्वाधीनता आंदोलन के अवदान को इसमें शामिल किया जाए तो बेहतर होगा। 4 अप्रैल को मैंने सुझाया कि मेरे मित्र और संस्कृत साहित्य के प्रकांड विद्वान प्रोफेसर राधावल्लभ त्रिपाठी जी को इससे जोड़ा जाए और संस्कृत में स्वाधीनता आंदोलन के जो तमाम रूप रहे हैं उनसे निवेदन किया जाए कि उसे आलेख के रूप में प्रस्तुत करें। मैंने उन्हें त्रिपाठी जी का फोन नंबर उपलब्ध कराया और उनसे संपर्क करने को कहा। उसी तरह कन्नड़ भाषी मेरे मित्र हिंदी के विद्वान प्रोफेसर धरणेंद्र कुरकुरी से अनुरोध करने के लिए कहा कि कन्नड भाषा में स्वाधीनता आंदोलन को आलेखित करें। 20 अप्रैल को मैंने अपने लिए भी विषय का चयन किया और कई दिक्कतों के बावजूद एक प्रतिज्ञा की तरह उस काम को पूरा किया। अग्रज रामकुमार कृषक जो छंद के भी ज्ञाता है और अत्यंत समझदार भी। सुधीर विद्यार्थी का नाम सुझाते हुए मैंने उन्हें बताया कि वे स्वाधीनता आंदोलन के क्रांतिकारी साहित्य के बारे में बेहतर तरीके से लिख सकते हैं। संपर्क सूत्र दे रहा हूं। बातें करें। एक बार ही उनसे लघुपत्रिका समन्वय समिति के आजमगढ़ अधिवेशन में मिलना हुआ था। पांडेय शशिभूषण शीतांशु का भी नाम सुझाया। हालांकि एक बार ही उनसे मिला हूं बनारस में 1994 में। उनसे भी मैंने आलेख लिखने के लिए कहने का अनुरोध किया। पूर्व में श्यामबाबू इस पुस्तक में कुछ लिखना नहीं चाहते थे। मैंने उन्हें समझाया कि आप जरूर लिखें। मैं मित्रों के नाम सुझाता गया, वे संपर्क करते रहे। कभी सफल हुए कभी असफल। कुछ और मित्रों- जानकारों के नाम सुझाए। जैसे अग्निशेखर और क्षमा कौल जी का। यह ठीक है कि अपनी विशेष व्यस्तताओं के कारण वे आलेख नहीं लिख सके। मैं सूत्र बताता गया और वे अपने उत्साह में अपनी कार्यविधि में उसे  परिणत करते रहे।

इस किताब की विशेषता यही है कि हिंदुस्तानी भाषाओं में स्वाधीनता आंदोलन के सिलसिले में जो संघर्ष हुए हैं और साहित्य में उसे जिस तरह रेखांकित किया गया है। जिस प्रकार की उसकी विविध छवियां है, उसे सामने लाया जाए। हिंदी, संस्कृत, मराठी, बांग्ला, कन्नड़, मलयालम, तमिल, तेलुगू, असमिया, मणिपुरी, गुजराती, पंजाबी, सिंधी, कश्मीरी, उड़िया, संथाली, जैसी भाषाओं को इसमें केंद्रित किया जा सका है। इस किताब में लोक साहित्य- संस्कृति, सिनेमा, नाटक, उपन्यास, कविता के साथ पत्रकारिता और उसमें स्वाधीनता आंदोलन के व्यापक परिप्रेक्ष्य को पहचानने का एक विनम्र प्रयास किया गया है। यह मार्च से लेकर जुलाई बाइस तक की महत्त्वपूर्ण रचनायात्रा है। इन पाँच महीनों में जिस उत्साह, उमंग, लगन और श्रद्धा से सम्पादक और लेखक मित्रों ने काम को अंजाम दिया है। वह मेरी निगाह में बेमिसाल है। श्याम बाबू ने जो काम किया है उसी का प्रतिफल है यह किताब। यह मौन बहुत कुछ कहता है। इसमें स्वतंत्रता आंदोलन का संघर्ष और समर्पण तो है ही उसकी खुशबू और महत्त्व भी है। इसमें स्वाधीन भारत की प्रतिष्ठा, अपार चेतना और उसकी वैचारकी भी है और समूचे देश की विभिन्न भाषाओं में इसकी व्याप्ति के अनेक क्षेत्रों और सोपानों को  समेटने का एक सक्षम उद्यम और उपक्रम भी है।

स्वाधीनता आंदोलन में इस देश का प्रत्येक वर्ग शामिल रहा है। निर्धन, अशिक्षित और असभ्य कहे जाने वाले लोग भी। पर्वतीय इलाकों में भी स्वाधीनता संघर्ष के तमाम रूप उजागर हुए हैं। जीवन के इस व्यापक रूप में देश के सभी लोगों ने कंधा से कंधा मिलाकर गुलामी से मुक्ति के लिए यह दिलचस्प मारक और अमूल्य लड़ाई लड़ी है। अपने प्राणों की आहुतियां दी हैं। क्या जालियांवाला बाग कभी भूला जा सकता है। क्या असहयोग आंदोलन, भारत छोड़ों आंदोलन को किसी प्रकार भूला जा सकता है। किस- किस का स्मरण कराऊं। कितने लोग फाँसी के फंदों में झूले। कितनों ने जेल यातनाएं सहीं, गोलियां खाई, कोड़े सहे। अपने खून से, अपनी निष्ठा और लगन से आजादी को सींचा। उसके महत्त्वपूर्ण दाय को लहलहाया। वे लोग क्या जानें इसकी कीमत जिन्होंने अपने सगे संबंधियों को, अपने बेटे, भाई, पिता, माता, बुजुर्ग, स्त्रियों को इस आंदोलन के दौरान खोया नहीं है? और वे लंबी - लंबी हाँकते नजर आते हैं। आदिवासी, दलित, वंचित, घुमंतू लोग, रोज - रोज कमाने खाने वाले लोग इसमें शामिल रहे हैं। धनी लोग भी शामिल रहे हैं। युवा पीढ़ी को जानना होगा कि यह आजादी दीवानगी और संघर्ष से ही कमाई गई है। यह फालतू पड़ी हुई कोई वस्तु नहीं है। वे इसकी कीमत समझें और इसकी सुरक्षा के लिए कुछ उठा न रखें। जुनून नहीं तो आजादी नहीं। जुनून नहीं तो जीना नहीं। जुनून और समर्पण नहीं तो लेखन भी नहीं। यह हँसी-ठिठोली का मामला भी नहीं है। जमीर जिंदा नहीं तो कुछ भी नहीं। यह वह भी सही यह भी सही का मामला तो कत्तई नहीं है। इस देश के रहने वालों के अथक प्रयासों और संघर्षो का प्रतिफल है यह बेशकीमती हमारी आजादी। वे गीत हमें आज भी प्रेरणा देते हैं और हमें उत्सा - उमंग से भर देते हैं।‘‘ सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है/देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है/‘‘ दूसरा ‘‘अपनी आजादी को हम हरगिज भुला सकते नहीं/सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं/‘‘

आजादी के अमृत महोत्सव में उस जज्बे को जीवित और जीवंत रखें। आजादी कहीं पड़ी हुई नहीं मिलती। वह लोक कल्याण की असली धुरी है। वह बलिदान मांगती है। वह हमारी अस्मिता है। स्वंतत्रता संग्राम सेनानियों से इसे हमें सीखना चाहिए। आजादी कायम है तो हम हैं। आजादी कायम नहीं तो हम भी नहीं हैं। वास्तव में यह सेंतमेंत की दुनिया नहीं है। उसे लाना पड़ता है, निगरानी करनी पड़ती है और सतत कुर्बानी भी देनी पड़ती है। आजादी कोई सस्ती चीज नहीं है। यह अमूल्य होती है। इसका मूल्य वे जानते हैं जिन्होंने आजादी प्राप्ति के लिए गुलामी के खिलाफ लड़ाई लड़े थे और जो यह कठिन लड़ाई आजादी की सुरक्षा के लिए लड़ रहे हैं। हमें इसकी कदर करनी चाहिए। इसकी अवहेलना नहीं। भारतीय जीवन में इस दौर में अस्मिता की खोज और पहचान एक बेहद जरूरी मुद्दा है। भारत ने कभी भी नफरत फैलाने का महासंग्राम नहीं लड़ा था। अवहेलना तो देखी थी? अब यह साक्षात हमारे सामने है। संभवतः इसीलिए स्वतंत्रता और मानवीय मूल्यों की सांसें फूल रही हैं। कभी पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने एक तथ्य की ओर हमारा ध्यान केंद्रित किया था कि -‘‘मेंरे भीतर पश्चिम और पूर्व का तनाव है, मेरे भीतर प्राचीन और आधुनिकता का तनाव है।‘‘ इस मार्के की बात को हमें निरंतर अनुभव करते रहना होगा। इसमें स्वतंत्रता की वास्तविकता के बीज निहित हैं। इसी से हम वर्तमान और भविष्य की चुनौतियों का सामना कर सकते हैं। 

स्वाधीनता की लौ मद्धिम पड़ती जा रही है। उसके कारकों को लगातार खोजना होगा?

अभी तो हमें लोकबोलियों में स्वाधीनता आंदोलन, उसकी अवधारणा को और तमाम संघर्षों और जीवन मूल्यों और धाराओं को ढंग से खोजना है। उसमें लगातार परिवर्तन घटित होते रहे हैं । उसमें अभी भी बहुत कुछ छिपा है और यह सुखप्रद स्थिति है कि संकल्पनिष्ठ श्यामबाबू शर्मा शीघ्र ही इस वास्तविकता को आगे ले जाएंगे। यदि संकल्प ठान लिया जाए तो अनेक बाधाओं के बावजूद उसे हर हाल में पूरा किया जा सकता है। यह जज़्बा अभी भी मौजूद है? स्वाधीनता आंदोलन केवल कुछ वर्षों की परिघटना नहीं है। हमारे पूर्वजों ने इसके लिए अनथक संघर्ष किए हैं। जब इस किताब की तैयारी चल रही थी। उसी समय शर्मा जी को दो स्लिप डिस्क का आघात हुआ था। दिक्कतों के बाद भी वे बिना थमे, बिना रुके और अविचलित भाव से काम में लगे रहे। डटे रहे अपनी प्रतिज्ञा पर अपने लक्ष्य और उद्देश्य पर। कहीं सुना था कि- ‘‘मंजिल उन्हीं को मिलती है/जिनके सपनों में जान होती है/पंखों से कुछ नहीं होता/हौसलों से उड़ान होती है।‘‘ उसे जीवंत होते देखा। ये प्रसंग इसलिए मालूम है कि बहुत पूछने पर मुझसे उन्होनें साझा किए थे। उनकी रचनात्मकता और जीवटता की वजह से किताब आ गई। वे काम को लेकर कमिटेड हैं। संभवतः इसीलिए टेंटेटिव समय में काम पूरा कर ही लिया। उनके भीतर यह फितरत है। अपने वादे के अनुरूप पंद्रह अगस्त को हर हाल में वे पुस्तक ले ही आए।

लोक बोलियों के साहित्य में वह वाचिक हो या गैरवाचिक यानी लिखित, वह हमारी वार्ताओं में रहा हो या यूं ही अन्य किसी माध्यमों में? कुछ लोगों के अवदान हमारे खोजने, खंगालने के बावजूद इतनी जल्दी में मिल नहीं पाए। एक कसक रह- रह कर टीस रही है कि उर्दू, अरबी, फारसी और अन्य भाषाओं को तत्काल हम रेखांकित नहीं कर पाए? उस दौर में कितना साहित्य जब्त किया गया था। उसे भी परिश्रम से खोजना और हर हाल में पाना यानी उपलब्ध करना है। यह आसान काम नहीं है बल्कि बेहद गंभीर और मुश्किल है। क्योंकि आज की तरह हमारे पूर्व समयों में स्वाधीनता आंदोलन की लड़ाइयां नाम कमाने के लिए, यश प्राप्ति के लिए और किसी तरह के लाभ-लोभ के लिए नहीं लड़ी जाती थीं, जो इस दौर में अभूतपूर्व प्रशंसा के रूप में विकसित हुआ है। साथ ही अपने आपको चमकाने के रूप में संपन्न हो रहा है? स्वतंत्रता हमारा जीवन मूल्य भी होती है। मौन आराधना भी है और उसको सुरक्षित रखना हमारे जिंदा रहने से ज्यादा जरूरी है। यह अमृत महोत्सव हमें आजादी के जश्न मनाने का जितना अवसर देता है, उससे कहीं ज्यादा उसको नए सिरे से पहचानने और पुनर्विचार करने का दायित्व भी सौंपता है। देखना यह है कि यदि हम अपनी सामासिकता, बहु आयामिता को नहीं बचा पाए, और वह नफरत क्रूरता निर्लज्जता की भेंट चढ़ गई तो हमारे पुरखों का किया धरा अर्थहीन हो सकता है? इधर बढ़ती कॉरीडोर संस्कृति ने, दिखावे के जलसों ने आत्माओं तक को छलनी करना शुरू कर दिया है? अभी तो कहने को बहुत कुछ है और सहने को बहुत कुछ है। स्वतंत्रता के तमाम बिखरे सूत्रों को उसके विविध रंगों, सपनों और यथार्थ को विस्तार से समझने की जरूरत है। उसकी, असलियत, जड़ों, संस्कृति और लोकबोलियों के आयामों को विराट संदर्भों में टटोलने, सहेजने का भगीरथ प्रयास करना है और उसके लिए गंभीर जतन भी करना है? ये बहुत उलझा हुआ सा मामला है। ठीक-ठीक कहा नहीं जा सकता कि कितना उसे कर पाएंगे। क्योंकि यह तो समय, परिस्थितियों और हमारी कार्यविधि में ही निर्णय हो पाएगा?


पुस्तकः स्वाधीनता आन्दोलन और साहित्य संपादक श्यामबाबू शर्मा

प्रकाशकः अनुज्ञा बुक्स दिल्ली।

-रजनीगंधा 06, शिल्पी उपवन, अनंतपुर, रीवा, मो. 7987921206

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समीक्षा

‘स्वाधीनता आंदोलन और साहित्य’ का शोधित दस्तावेज


               डॉ. लक्ष्मी पाण्डेय

           

                 श्री श्याम बाबू शर्मा

पुस्तक - स्वाधीनता आन्दोलन और साहित्य

संपादक - श्यामबाबू शर्मा

प्रकाशन - अनुज्ञा बुक्स, दिल्ली 2022

समीक्षा - डॉ. लक्ष्मी पाण्डेय

आजादी के अमृत महोत्सव पर साहित्य के पूर्वजों का पुण्य स्मरण

‘स्वाधीनता आन्दोलन और साहित्य’ श्यामबाबू शर्मा द्वारा संपादित ऐतिहासिक दस्तावेज है। स्वाधीनता के स्वरूप पर केन्द्रित लेखों के अतिरिक्त इसमें लगभग सभी स्थापित भारतीय भाषाओं के तत्कालीन साहित्य और उन साहित्यकारों पर केन्द्रित लेख हैं जिन्होंने स्वाधीनता के आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निबाही। ये लेख सम्बन्धित भाषा के राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित, पुरस्कृत, सम्मानित अधीत विद्वानों, विषय विशेषज्ञों द्वारा लिखे गए हैं। कुशल गोताखोरों की तरह ये लेखक अतीत के महासागर में गोता लगाकर अपनी-अपनी भाषा के साहित्य की अनमोल जानकारियों का खजाना निकाल लाए हैं। जाहिर है इन लेखों की सामग्री बौद्धिक रूप से तो समृद्ध करेगी ही, इनकी भाषा-शैली और कथ्य भी अत्यन्त रोचक और अविस्मरणीय सिद्ध होंगे। 300 पृष्ठों की इस पुस्तक में 37 लेख हैं। कुछ लेख जानकारी प्रधान हैं, किन्तु अधिकांश समीक्षा प्रधान हैं। प्रथम लेख ‘भारतीय नव-जागरण एवं विविध वैचारिक आन्दोलन’ पुस्तक का बीज वक्तव्य है तो अन्तिम लेख ‘सारे जहाँ से अच्छा’ एक सकारात्मक सुखद समापन है।

स्वाधीनता, स्वराज, स्वतन्त्रता में ‘स्व’ शब्द की प्रधानता, ‘आत्म’ बोध का प्रतीक है। मैं कौन हूँ? क्या हूँ? मुझे कैसा होना चाहिए? मेरी धरती, मेरा देश, मेरा और मेरे राष्ट्र के सम्मान का सम्बन्ध, मेरी आत्मनिर्भरता, मेरा परिवेश, मेरी आवश्यकताएँ, मैं क्या कर रहा हूँ? मुझे क्या करना चाहिए? इन तमाम प्रश्‍नों का उठना और उठकर अंतर्मन को मथ देना ही ‘स्व’ का बोध है, आत्मबोध है। यह आत्मबोध भारतीयों में कैसे जागा? किसने जगाया? किस तरह, किस माध्यम से जगाया? इन प्रश्‍नों के उत्तर इस पुस्तक के लेखों में समाहित हैं।

भारतीय नवजागरण काल से पूर्व वेद-पुराण, तमाम धर्म ग्रन्थ-संस्कृत साहित्य, भक्तिकालीन साहित्य उपलब्ध था, लेकिन इसे सम्पूर्णतः पढ़ने-समझने और आत्मसात करने की सामथ्र्य हर भारतीय में नहीं थी। इसके लोकमंगलकारी तत्वों को जीवन में उतारने, लागू करने का साहस भी हर भारतीय में नहीं था। भारतीय समाज अशिक्षा, गरीबी, बीमारी, शोषण, अन्धविश्‍वासों, कुरीतियों, कुप्रथाओं, धर्मान्धता में डूबा हुआ था, साथ ही अकर्मण्यता, आलस्य, भय और स्वार्थ जैसी मानवीय कमजोरियों का शिकार भी था। ये वो सशक्त बेड़ियाँ थीं जिनसे मुक्त हुए बगैर राजनैतिक स्वतन्त्रता नहीं प्राप्त की जा सकती थी। इन बेड़ियों को काटने के लिए जिस साहस, कर्मठता, निष्ठा और औदार्य की आवश्यकता थी वह भारतीय आत्माओं में सुप्तप्राय था। इसे जगाने के लिए कलम के सिपाहियों ने मर्मस्पर्शी, ओजस्वी और भावप्रवण रचनाएँ लिखीं, जिन्हें पढ़कर, सुनकर और समझकर तत्कालीन भारतीय समाज का ‘स्वत्व’ तो जागा ही, वर्तमान भारतीय समाज भी उन रचनाओं को मील के पत्थर मानता है। आज भी वे रचनाएँ हमारे अन्तर्बाह्य की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष बेड़ियों को काटने में समर्थ हैं और हमारी सहायक हैं, प्रेरक हैं।

दरअसल स्वाधीनता का आन्दोलन केवल राजनैतिक गुलामी से मुक्त होने के लिए नहीं था, यह बहुमुखी था और साँस्कृतिक गुलामी से भी मुक्ति पाने का आन्दोलन था। भारतेन्दु हरिश्‍चन्द्र ने अंग्रेजों की भाषा की गुलामी से मुक्ति पाने के लिए खड़ी बोली हिन्दी को हथियार बनाया। जो आजादी मिलने के पूर्व ही अपने सर्वोच्च, परिष्कृत, परिनिष्ठित रूप में प्रतिष्ठित हो गयी थी। छायावादी काल की भाषा इसका प्रमाण है। इसे हिन्दी भाषा के स्वरूप का स्वर्ण काल कहा जा सकता है। स्वाधीनता आन्दोलन के काल का साहित्य ऐसा अमर और कालजयी साहित्य है जिसे काल यानी मृत्यु आच्छादित नहीं कर सकी यह आज भी जीवंत है और घर-घर की शोभा है, साथ ही इसने ‘काल’ यानी समय को जीत लिया। समय इसे धुंधला नहीं कर सका, मिटा नहीं सका।

प्रेमचन्द ‘कलम के सिपाही’ कहे जाते हैं, जो अत्यन्त सटीक और सार्थक उपमा-रूपक है। उनके साहित्य को और उनके समकालीनों के साहित्य को पढ़कर लगा, वाकई ये सभी साहित्यकार कलम के ऐसे सिपाही थे जिन्होंने भारतीयों में ‘आत्मबोध’ जागृत किया। जयशंकर प्रसाद, निराला, महादेवी, महावीर प्रसाद द्विवेदी, आदि साहित्य की गंगा को समृद्ध कर रहे थे, हिन्दी भाषा को प्रतिष्ठित कर रहे थे और भारतीय समाज को पराधीन भारत माता की पीड़ा से, आहों-कराहों से परिचित कराकर झकझोर रहे थे।

यही समय गाँधी जी के वाङ्‍मय का है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने शान्तिनिकेतन से 12 अप्रैल 1919 को एक पत्र महात्मा गाँधी को लिखा। जिसमें वे कहते हैं-“मैं जानता हूँ, आपकी शिक्षा शिव की सहायता से अशिव के विरुद्ध संघर्ष करने की है। किन्तु इस प्रकार का संघर्ष तो वीर ही कर सकता है। जो व्यक्ति क्षणिक आवेग के वशीभूत हो जाते हैं वे ऐसा संघर्ष नहीं कर सकते।” यह पत्र साहित्य की अनमोल धरोहर है। सत्यम‍् शिवम‍् सुन्दरम‍् को आत्मसात‍् कर जो भावनात्मक रूप से सुदृढ़ता आती है वह क्षणिक आवेग में बहने, भटकने की भीरुता से बचाती है। भारतीयों को गाँधी जी के माध्यम से मिला यह उपदेश आज भी हमारा सहायक है। गाँधी जी ने गुजराती भाषा में नडियाड से 31 जुलाई 1918 को मणिलाल गाँधी को पत्र लिखा। जिसमें उन्होंने कहा कि-“मैंने अपना सारा जीवन खुद को पहचानने में बिताया है; यह ढूँढ़ने में बिताया है कि मेरा कर्तव्य क्या है।” मोतीहारी से 15 नवम्बर 1917 को एक पत्र में मगनलाल गाँधी को लिखा कि-“मैं मनुष्य और देवता की वाणी भले बोलूँ, पर मुझमें प्रेम न हो, तो मैं ढोल या खाली घड़े के समान हूँ। भले ही मैं भविष्यवाणी कर सकूँ, मुझे पूर्ण ज्ञान हो, मुझमें पर्वतों को खिसका सकने की श्रद्धा हो, पर प्रेम न हो, तो मैं तिनके के बराबर हूँ।” प्रेम, अहिंसा, निष्ठा के महत्व को दर्शाकर समाज को एकता के सूत्र में बाँधने वाला यह मंत्र महात्मा गाँधी ही दे सकते थे।

उपरोक्त उदाहरण हिन्दी, बंगला, गुजराती के प्रेरक साहित्य की झाँकी मात्र है। हर भारतीय भाषा का भरपूर उत्कृष्ट साहित्य हमारी भारतीय संस्कृति-सभ्यता, राजनीति, अर्थनीति आदि का पोषक और प्रेषक बना रहा है। इस पुस्तक के- ‘कश्मीरियत और आजादी का उत्कर्ष’, ‘गुजराती साहित्य में स्वाधीनता की अनुगूंज’, ‘राष्ट्रीय चेतना के परिप्रेक्ष्य में सिन्धी साहित्य’, ‘संताली लोक साहित्य में स्वाधीनता का राग’, ‘स्वतन्त्रता संघर्ष और मलयालम साहित्य’ आदि लेख समृद्ध साहित्यिक अतीत के परिचायक हैं। ‘नेनू ना देशम’ (मैं और मेरा देश), ‘आजादी के जब्त तराने’, ‘साँस्कृतिक अस्मिता और हिन्दी निबन्ध’, ‘प्रिय स्वतन्त्र रव’, ‘वन्देमातरम’, ‘स्वतन्त्रतापूर्व भारतीय सिनेमा’, ‘राष्ट्रीय जनजागरण और हिन्दी नाटक’, ‘स्वतन्त्रता आन्दोलन और असमिया साहित्य’, ‘राष्ट्रीयता के प्रखर स्वर’ आदि चिन्तन परक लेख हैं। आदिवासियों की दृष्टि में आजादी क्या है? ‘आजादी और आदिवासी’ लेख के माध्यम से जाना जा सकता है। ‘जनगण तेरी जय हो’, ‘बोल छन्दों में हिन्दुस्तान’ लेखोें में बुद्धि और भावना का समन्वित सुन्दर रूप है। विषय वैविध्य इस पुस्तक को रोचक और सरस बनाता है। अनेक भारतीय भाषाओं के साहित्य और साहित्यकारों का परिचय, उनकी रचनात्मकता, लोकमंगल के प्रति उनकी निष्ठावान भूमिका से परिचय इस एक ही पुस्तक के द्वारा प्राप्त होना एक बड़ी उपलब्धि है। जो इस पुस्तक को संग्रहणीय बनाती है। श्यामबाबू का संपादन कौशल सराहनीय है। वे इस पुस्तक के माध्यम से वर्तमान पीढ़ी को साहित्य के अतीत का मूल्यवान हिस्सा धरोहर के रूप में हस्तान्तरित करते हैं। उन कलम के सिपाहियों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से भारतीय ‘स्वत्व’ को जागृत किया। जिनकी कलम के इंगित पर बच्चे-बूढ़े, स्त्री-पुरुष अपनी-अपनी समझ और सामथ्र्य के अनुसार स्वाधीनता के यज्ञ में शामिल होते गए। भारतीय समाज श्रेष्ठ मनुष्यों का, श्रेष्ठ नागरिकों का, जागरूक नागरिकों का समाज बन सका। उनका पुण्य स्मरण करते हुए श्यामबाबू अपने संपादकीय का शीर्षक रखते हैं-‘कलम आज उनकी जय बोल’। बेहतरीन शीर्षक है। सटीक और सार्थक है। वाकई आज जब हम आजादी के 75 वर्ष पूर्ण कर चुके हैं, हमें अपने उन साहित्य जगत के पूर्वजों का योगदान स्मरण करना चाहिए, उनकी यश गाथा नयी पीढ़ी को सुनाना चाहिए। हमारी कलमें उनकी जय गाथा लिखें जो हमें स्वतन्त्र, स्वस्थ, सुखी देखना चाहते थे। उनकी जय जिन्होंने हमें आजादी का अमृत महोत्सव मनाने का सुअवसर प्रदान किया। उनकी जय जिनका साहित्य आज भी प्रेरक और प्रासंगिक है। उनकी जय जिन्होंने अपनी-अपनी भारतीय भाषाओं में, साहित्य की विविध विधाओं में लिखकर अनमोल धरोहर रूपी भंडार भर दिए। जो भारतीय समाज को पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुख और सफलता का वरदान देते हैं। उनकी जय जिन्होंने ‘स्व’ का बोध जागृत किया। ‘अस्मिता’ का अर्थ समझाया, आत्मनिर्भरता-आत्मसम्मान और आत्म गौरव का पाठ पढ़ाया। इस भारत देश की मिट्टी से, इसके कण-कण से हम कितना प्रेम और आदर करते हैं, यह अनुभूति कराई।

हम अनुभव करते हैं कि आजादी के 75 वर्षों के बाद यानी वर्तमान में एक बार फिर नवजागरण के राग की आवश्यकता है। विज्ञान और तकनीकी के इस युग में हमारी संवेदनाएँ, हमारी निष्ठाएँ सो रही हैं या भटक रही हैं। अस्थिरता, अधीरता हमारी प्रकृति और प्रवृत्ति में शामिल हो गए हैं। और भी बहुत कुछ है जो खो गया है, गुम हो गया है, जिसके मूल में हम ही हैं। वरना धर्म-अर्थ-शिक्षा के उल्लेखनीय, अविश्‍वसनीय प्रचार-प्रसार के बावजूद भ्रष्टाचार-दुष्कर्म, हत्याएँ-आत्महत्याएँ आदि का प्रतिशत इतना क्यों बढ़ता? विश्‍वास सम्बन्धों की कुंजी है, मूल है। वर्तमान में यही खो गया है। किसी को किसी पर विश्‍वास नहीं...। स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान साहित्यकारों ने, साहित्य ने जो और जैसी भूमिका निबाही थी, जो योगदान किया, वही उनसे सीखकर एक बार फिर दोहराने की आवश्यकता है। इस बार यात्रा बहिर्मुखी नहीं अन्तर्मुखी होगी। हमारी लड़ाई स्वयं से है, अपने आपको कसना, बाँधना और बुराइयों-कमजोरियों से मुक्त करना है। उन रचनाओं का पुनर्पाठ हो जीवन की कक्षाओं में, और हम जयशंकर प्रसाद की ‘पुरस्कार’ कहानी से सीखें कि व्यक्तिगत प्रेम से देश प्रेम बड़ा होता है। प्रेमचंद और निराला से मानवीय संवेदनाओं के पाठ पढ़ें-सीखें। श्यामबाबू की यह पुस्तक इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि अतीत के पन्‍ने पलटने और उसे डूबकर पढ़ने के लिए प्रेरित करेगी।

जिन ख्यातिलब्ध, ज्ञानवृद्ध, वयोवृद्ध, अनुभववृद्ध लेखकों की लेखनी ने इस पुस्तक को समृद्धि प्रदान की है उनमें प्रो. सुरेश आचार्य, प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी, श्री वसंत निरगुणे, श्री विजयदत्त श्रीधर, शशिभूषण शीतांशु, रामकुमार कृषक आदि साहित्य जगत में अग्रगण्य है। अन्य सभी लेखकों की रचना यात्रा भी उल्लेखनीय है। इन सभी की सहायता प्राप्त कर श्यामबाबू ने आजादी के अमृत महोत्सव को अविस्मरणीय पवित्र अनुष्ठान बनाने का उद्देश्य पूर्ण किया।

अस्मिता का प्रश्‍न तब भी उठा था यानी स्वाधीनता आन्दोलन के समय, लेकिन तब यह सामूहिक अस्मिता, भारत की, भारतीयों की अस्मिता का प्रश्‍न था, जिसमें सुखद औदार्य का भाव था, निष्ठा थी, श्रद्धा और आस्था थी। कहीं ‘मैं’ नहीं था, ‘हम’ था। ‘मैं’ था भी तो उस भूमिका के लिए अपना कर्तव्य याद करने के उपलक्ष्य में था, वह भूमिका जो भारत की सामूहिक अस्मिता की पहचान बनाने के संघर्ष में थी। अब जो अस्मिता की चर्चा है, प्रश्‍न उठा है वह ‘मैं’ प्रधान है। व्यक्तिगत अस्मिता का प्रश्‍न, स्वार्थ केन्द्रित, आत्मकेन्द्रित अस्मिता का प्रश्‍न, इस अस्मिता के लिए रिश्तों की, समाज और राष्ट्र की बलि दी जा सकती है, दी जा रही है। ‘मैं’ के लिए सब टूट रहे हैं, छूट रहे हैं।

अस्मिता के प्रश्‍न पर तुलनात्मक अध्ययन जरूरी है। इस अवसर पर साहित्य की भूमिका, साहित्यकारों का दृष्टिकोण जानना जरूरी है। इस आजादी के अमृत महोत्सव को मनाते हुए हमें ‘अस्मिता’ के प्रश्‍न को समझना आवश्यक है। कुछ शब्दों की पुनव्र्याख्या करना आवश्यक है जैसे- लोकतन्त्र, धर्मनिरपेक्ष, दलित, आरक्षित, धर्म, शिक्षित, नैतिक, राजनीति आदि।

‘स्वाधीनता आन्दोलन और साहित्य’ पुस्तक की सार्थकता इसी में है कि हम तब और अब के मनुष्य, समाज, परिवेश, भावनाएँ, कर्मों, कर्तव्यों, अधिकारों आदि के साथ साहित्य, राजनीति, अर्थ नीति, संस्कृति-सभ्यता आदि का तुलनात्मक अध्ययन करें और देखें कि हम कहाँ पिछड़े, लक्ष्य से कहाँ भटके? एक बात अवश्य सराहनीय है कि सभी भारतीय भाषाओं की विकास यात्रा अद‍्‍भुत है, उनमें भी हिन्दी ने जो व्यापकता प्राप्त की है उसमें गाँधी जी के राष्ट्रभाषा के स्वप्‍न को साकार करने की सामर्थ्य दृष्टिगोचर होती है। भारत भूमि आर्यों की भूमि है यानी सुशिक्षित, सुसंस्कारित, सुसभ्यों की भूमि है। साहित्यकार अपनी लेखनी से इस गौरवशाली धरोहर को बचाए बनाए रखने के लिए कृतसंकल्पित रहें। एकात्मता शब्द सार्थक हो, वन्देमातरम‍् की ध्वनि दसों दिशाओं में गूँजती रहे। इस धरती पर बापू यानी महात्मा गाँधी, विवेकानन्द, तुलसीदास-कबीरदास और प्रेमचन्द-निराला सभी साथ-साथ सदैव जीवित जीवंत रहें। इसी कामना के साथ श्यामबाबू द्वारा संपादित यह पुस्तक इन्हीं अर्थों में सार्थक हो यह कामना भी है और प्रार्थना भी।

समी. लक्ष्मी पाण्डेय, अध्यापक हिन्दी विभाग, डॉ. हरीसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय सागर, मो. 9753207010

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स्व के अस्तित्व की खोज

स्वाधीनता आंदोलन स्व के अस्तित्व की खोज था, अनुसंधान था। स्व के पुनर्जागरण पवित्र अनुष्ठान पर देश की अस्मिता और अस्तित्व के आख्यान को राष्ट्र के सम्मुख रखना ही इस ग्रंथ का उपजीव्य है। उन तथ्यों विचारों, प्रसंगों को सामने लाना आवश्यक है जिनके माध्यम से हम जान सकें कि भारत को आजादी कितने लंबे संघर्ष के बाद प्राप्त हुई। भारत की विभिन्न भाषाओं की समृद्ध परंपरा ने यहां के सामाजिक, नैतिक, आर्थिक और राजनैतिक क्षेत्र को हमेशा संबल दिया है और सभ्यता, जीवन-मूल्य तथा परंपरा की रक्षा की है। इसने प्राणि मात्र के मानस पटल पर राष्ट्रीयता की भावना को सुदृढ़ एवं व्यापक स्वरूप प्रदान किया है। अमृत महोत्सव पर अनुज्ञा बुक्स दिल्ली द्वारा प्रकाशित होने जा रहे प्रस्तुत ग्रंथ में अवधी, उर्दू, असमिया, उड़िया, कन्नड़, कश्मीरी, गुजराती, तमिल, तेलुगु, पंजाबी, बघेली, बुंदेलखंडी, बांग्ला, निमाड़ी, मणिपुरी, मराठी, मलयालम, संथाली, संस्कृत, सिंधी, हिन्दी सहित कश्मीर से कन्याकुमारी तक की विविध भाषाओं के साहित्य और उनके लोक साहित्य, लोक बोलियों लोक गीतों के साथ-साथ क्रांतिकारी साहित्य, प्रवासी साहित्य, नाटक-रंगमंच, सिनेमा और हिन्दी साहित्य की विविध विधाओं इत्यादि के माध्यम से स्वाधीनता के प्रति जो बिगुल फूंका गया उसका पद्मश्री और साहित्य अकादमी सहित प्रतिष्ठित सम्मानों से विभूषित विद्वानों द्वारा दस्तावेजीकरण ही नहीं वरन उन अनछुए प्रसंगों का शोध अनुशीलन-भी है जो अभी तक अनुद्घाटित रहे हैं।

स्वाधीनता आंदोलन स्व के अस्तित्व की खोज था, अनुसंधान था। स्व के पुनर्जागरण था सृजन था। आजादी के अमृत महोत्सव के पवित्र अनुष्ठान पर देश की अस्मिता और अस्तित्व के आख्यान को राष्ट्र के सम्मुख रखना ही इस ग्रंथ का उपजीव्य है। उन तथ्यों विचारों, प्रसंगों को सामने लाना आवश्यक है जिनके माध्यम से हम जान सकें कि भारत को आजादी कितने लंबे संघर्ष के बाद प्राप्त हुई। भारत की विभिन्न भाषाओं की समृद्ध परंपरा ने यहां के सामाजिक, नैतिक, आर्थिक और राजनैतिक क्षेत्र को हमेशा संबल दिया है और सभ्यता, जीवन-मूल्य तथा परंपरा की रक्षा की है। इसने प्राणि मात्र के मानस पटल पर राष्ट्रीयता की भावना को सुदृढ़ एवं व्यापक स्वरूप प्रदान किया है। अमृत महोत्सव पर अनुज्ञा प्रकाशन दिल्ली द्वारा प्रकाशित प्रस्तुत ग्रंथ में अवधी, उर्दू, असमिया, उड़िया, कन्नड़, कश्मीरी, गुजराती, तमिल, तेलुगु, पंजाबी, बघेली, बुंदेलखंडी, बांग्ला, निमाड़ी, मणिपुरी, मराठी, मलयालम, संथाली, संस्कृत, सिंधी, हिन्दी सहित कश्मीर से कन्याकुमारी तक की विविध भाषाओं के साहित्य और उनके लोक साहित्य, लोक बोलियों लोक गीतों के साथ-साथ क्रांतिकारी साहित्य, प्रवासी साहित्य, नाटक-रंगमंच, सिनेमा और हिन्दी साहित्य की विविध विधाओं इत्यादि के माध्यम से स्वाधीनता के प्रति जो बिगुल फूंका गया उसका पद्मश्री और साहित्य अकादमी सहित प्रतिष्ठित सम्मानों से विभूषित विद्वानों द्वारा दस्तावेजीकरण ही नहीं वरन उन अनछुए प्रसंगों का शोध अनुशीलन-भी है जो अभी तक अनुद्घाटित रहे हैं।

आजादी के अमृत महोत्सव पर स्वाधीनता के नायकों को समर्पित कृति

-प्रो सेवाराम त्रिपाठी रीवा, मो. 7987921206

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समीक्षा

लोक आस्थाओं व मेले से लेकर पर्यावरण की चिंता
- ‘तर्णेतर ने रे अमे मेड़े ग्याता’

      डॉ. प्रणव भारती

 

    सुश्री नीलम कुलश्रेष्ठ


अस्मिता की संस्थापिका प्रिय नीलम कुलश्रेष्ठ की यह पुस्तक लंबे समय से पास थी लेकिन जैसे मेरे बहाने होते हैं, वही बहाना इसके साथ भी लागू है, अधिक काम होने के।

एक लंबे अर्से से उनकी पहचान व उनके लेखन के साथ सफर कर रही हूँ। साथ भी रही हूँ उन मार्गों पर जो बीहड़ भी रहे हैं और टूटे-फूटे भी, जिनमें गड्ढे रहे हैं और समतल भूमि भी! लेकिन कुछ परिस्थितियों ने ऐसे राग सुनाए कि चाहते हुए भी मैं नीलम जी के लेखन पर कुछ प्रस्तुत न कर सकी जबकि उनके साहित्य पर काफी कुछ लिख चुकी थी।

समय बड़ा बलवान है, न जाने क्या कुछ करवा दे। उनके उपन्यास ‘दहशत‘ पर लिखकर भी मेरी कलम अटककर, अनेकों खुरदुरे रास्तों से गुजरते हुए न जाने कितने-कितने सवाल मुझसे पूछने लगी, मुझे परेशान कर दिया उसने।

 उपरोक्त कहानी संग्रह की अधिकांश कहानियाँ मैं पहले ही पढ़ चुकी हूँ लेकिन उन्हें समग्र रूप में पढ़कर एक बार पुनः विचार करने में कई बाध्यताओं के कारण लिखने में देरी होती रही। उनकी कहानियों में नारी समस्याओं का चित्रण सदा रहता है, उनके अन्य लेखन में भी एक चिंता है चाहे वह चिंता पर्यावरण से जुड़े पानी की हो अथवा महिलाओं के अस्तित्व की।

महिलाओं का जीवन पानी के महत्व से कहाँ कम है ? देखा जाए तो बहते पानी की समस्या से महिलाओं के तरल (बहते) व्यक्तित्व की समस्या जुड़ी है।

झरना अथवा नदी का बहता हुआ स्वच्छ पानी, स्त्री के सहज व्यक्तित्व को प्रदर्शित करता है। काश ! ऐसा हो सके कि स्त्री का जीवन एक स्वच्छ बहते पानी की भाँति निर्मल, अबाध, बिना अपनी गति को रोके बह सके! नीलम के किसी भी लेखन में जीवन से जुड़ी और विशेषकर स्त्री-जीवन से जुड़ी कोई न कोई समस्या प्रदर्शित होती ही है। प्रश्न यह है कि कितने लोगों में जागृति का संचार हो पाता है ? अब यह लेखक के ऊपर नहीं पाठक व उसे समझने वाले के ऊपर निर्भर करता है। लेखक तो अपनी समझ के अनुसार पाठक के समक्ष अपनी समस्याएँ व चेतना परोस ही देता है।

बारह शीर्षकों में बँटी कहानियाँ विभिन्न कलेवर की कथाएँ प्रस्तुत करती हैं, उनके हृदय को छू लेने का अंदाज,आकर्षण पाठक को बाँधकर रखता है, कहानियाँ कई प्रश्न छोड़ती हुई दिल में उतरती चली जाती हैं।

नीलम के लेखन की एक और बड़ी विशेषता यह है कि स्व-अनुभवों व काफी भ्रमण करने के कारण उनकी कहानियों में यात्रा-वृत्तांत की पेंटिंग सी बन जाती है।किसी भी यात्रा में उनकी दृष्टि चैकन्नी रहती है। यह एक लेखक का बहुत बड़ा गुण है जो मुझे उनसे सीखना चाहिए था लेकिन वो सीखना ‘लेकिन,......पर.....परंतु‘ होकर ही रह गया।

कहानी ‘सफेद पत्थरों में अटकी जान‘ में ‘वाछड़ा दादा‘ के मंदिर में पहुँचने की यात्रा से लौटकर आने तक की यात्रा काफी थ्रिल देती है। इसे पढ़ते हुए मुझे न जाने क्यों यह भी महसूस हुआ कि मैं भी तो कई दशकों से गुजरात में हूँ, मैं क्यों इन सबके बारे में अनभिज्ञ रही ? इस सुनसान रन की यात्रा भय से गुजरती हुई अलौकिकता की ओर मन की एक यात्रा बन जाती है। महसूस होता है, सब कुछ ही तो विश्वास पर टिका है। 

स्त्री समस्याओं को लेकर जहाँ उन्होंने ‘तू पन कहाँ जाएगी‘ जैसी सचोट कहानी दी है तो ‘आप ऊपर ही बिराजिए‘ जैसी व्यंग्यात्मक कहानी भी है, जो बहुत कुछ कह जाती है। इसी चरित्र को लेकर मेरी भी एक कहानी बरसों पूर्व लिखी गई थी ‘अपॉर्चुनिटी‘ जो मेरे कहानी-संग्रह बोधि-प्रकाशन द्वारा प्रकाशित ‘शी-डार्लिंग‘ में सम्मिलित है। उन्होंने इशारों ही इशारों में इसके चरित्र की बात करते हुए मुझसे भी कई बातें उगलवा लीं थीं फिर मुझे कुछ ऐसा भी महसूस करवा दिया था कि यदि इस पर कहानी न लिखी जाती तब शायद आश्चर्य ही होता !

‘झुकी हुई फूलों भरी डाल‘ गुजरात के रंग-बिरंगे वातावरण की कहानी महका जाती है तो इस प्रदेश के बारे में बहुत सी सूचनाएँ भी देती हुई गरबे के उत्फुल दिनों की वास्तविकता से परिचय कराती हुई वे एक व्यंग्यात्मक सच्चाई भी कह बैठती हैं।

‘हमारा यू. पी. होता तो अब तक लोग औरतों को ट्रक में भरकर किडनैप करके ले जाते‘! 

नीलम के लेखन में कुछ गंभीर तत्व प्रतीत होते हैं जिसके कारण पाठक प्रत्येक कहानी के लिए कुछ सोचने के लिए बाध्य होता ही है। ‘जगत बा‘ एक अशिक्षित स्त्री के जुनून की कहानी पढ़कर मन में उनके प्रति सम्मान उभरता है।

समाज में कुछ मूल्यों की हमेशा ही आवश्यकता रहती है, उन्हीं मूल्यों को उकेरते हुए बहुत सी बातें बड़े स्पष्ट रूप में लिखी गईं हैं। सच कहूँ तो नीलम कुलश्रेष्ठ की कहानियाँ मुझे सीधे-सीधे उस भावना से जोड़ती हैं जो विशेषकर महिला-जीवन के लिए आवश्यक हैं। ये टटोलती हैं, टोकती हैं, जैसे झिंझोड़कर सोते हुए समाज को जगाने के अपने प्रयत्न में सफल होती हैं। इसलिए इनको गंभीरता से पढ़कर बेचैन होना जरूरी है क्योंकि जैसे बिना शिद्द्त के कोई भी काम पुख़्ता रूप से नहीं हो पाता, बेचैनी के बिना किसी विशेष बात पर चिंतनशील भी नहीं हुआ जा सकता। ये समाज से जुड़ी, महिलाओं से जुड़ी चिंता की कहानियाँ हैं जो मांगती हैं अपनी समस्याओं के हल ! 

‘हंस’ में प्रकाशित ‘सफाई’ कहानी को पढ़कर अच्छा लगा कि पिछली सदी से पहले ही नीलम ने पर्यावरण सरंक्षण की चिंता आरम्भ कर दी थी। ‘रेस्क्यू‘ में डैम से अचानक पानी छोड़ने की बात का स्पष्टीकरण करते हुए लोगों की जान की चिंता में एक स्वाभाविक पर धारदार प्रश्न उठाकर लेखिका ने कई लोगों को जगाने की कोशिश की है, कुछ समझने के लिए प्रेरित किया है। 

नीलम विज्ञान की छात्रा रहीं हैं इसलिए ‘लेकिन’ में एक वैज्ञानिक की कथा को सशक्त रूप से बयान कर सकीं हूँं। ‘लेकिन‘ में जहाँ दर्दीले सच की बयानगी दिखाई देती है तो ‘रिले रेस ‘में फिर से गंभीर समस्या का दर्शन होता है। 

सभी कहानियों का कथ्य संवेदनशील है और चिंतन को विवश करता है। कहनियाँ इतनी लम्बी नहीं हैं जिनके पठन से थकान होने लगे। कहानियों की शैली सरल, सहज है क्लिष्ट नहीं इसलिए एक तारतम्यता से कहानी दिमाग की गली में उतरती चली जाती है। निश्चित रूप से गुजरात की तमाम खूबियों के साथ व्यवस्था की कमियों को जानना देखना समझना और महसूस करना हो तो नीलम कुलश्रेष्ठ की कहानियों का कहानी संग्रह एक मील का पत्थर साबित होगा। 

सभी कहानियों में एक सार्थक संदेश दिखाई देता है। नीलम जी को बहुत सारी प्यार भरी बधाई!

प्रेषित करते हुए उनके जीवन के उत्तरोत्तर प्रगतिशील लेखन के प्रति शुभकामनाएँ प्रेषित करती हूँ। 

लेखिका -नीलम कुलश्रेष्ठ / पुस्तक- ‘तर्णेतर ने रे अमे मेड़े ग्याता‘ (कहानी संग्रह), मो. 9925534694

समी. डॉ. प्रणव भारती, अहमदाबाद,

मो. 9940516484



प्रकाशक - वनिका पब्लिकेशन्स, देल्ही

मूल्य- 280 रुपए

नीलम कुलश्रेष्ठ, अहमदाबाद, मो. 9925534694

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