अभिनव इमरोज़ नवम्बर 2022
इदं न मम
इन्द्र श्रेष्ठानि द्रविणानि धेहि,
चित्तिं दक्षस्य सुभगत्वमस्मे
पोषं रयीणामरिष्टिं तनूनां
स्वाद्मानं वाचः सुदिनत्वमह्नाम्। ऋग्वेद
ऐश्वर्यशाली, हे प्रभो!
दो श्रेष्ठ धन धनवान हों
दक्ष हों हर कार्य में
बल दो हमें बलवान हों
दिन सुदिन हों आप वर दो
वाणी में माधुर्य भर दो
पुष्ट हों अक्षीण हों
हों स्वस्थ इक पहचान दो
ख्याति दो सुख्याति दो
सौभाग्य का वरदान दो
काव्यानुवाद: श्री सत्य प्रकाश उप्पल
मोगा (पंजाब), मो- 98764-28718
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ग़ज़ल
डॉ. विनोद प्रकाश गुप्ता, नोएडा, मो. 9811169069
एक मूरत अजनबी अच्छी लगी,
देह पर भी शायरी अच्छी लगी।
ज़िंदगी भर तिश्नगी अच्छी लगी,
अपनी ये बेचारगी अच्छी लगी।
इश्क़ में सजदे किए, करते रहे,
पर हमें वो नकचढ़ी अच्छी लगी।
ले भी क्या जायेगा कोई लूटकर,
इसलिए ये मुफ़लिसी अच्छी लगी।
मुफ़लिसी में स्वप्न सारे चुक गए,
फिर भी अपनी बेख़ुदी अच्छी लगी।
सच रहा ख़ामोश चीखा झूठ जब,
सच की ये संजीदगी अच्छी लगी।
गिरते हैं झरने मधुर झंकार से,
पर्वतों की सिम्फनी अच्छी लगी।
हैं भले दुख दर्द भी इसमें ‘शलभ’,
मुझको फिर भी ज़िंदगी अच्छी लगी।
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कोई तो रहबर मिले हों दूर सारी तल्खियाँ,
दंभ की, प्रतिशोध की, जब भी तनी हों बर्छियाँ।
प्रेम का संगीत सीखें आने वाली पीढ़ियाँ,
खेल बचपन के वो खेलें खाएँ ठण्डी क़ुल्फ़ियाँ।
सीख आई हैं ज़माने भर की वो चालाकियाँ,
जाल में फँसती नहीं हैं अब सुनहरी मछलियाँ।
छुप गये हैं चाँद तारे गर्द की आग़ोश में,
लील लेंगी आसमाँ को ये धुएँ की चिमनियाँ।
अग्निमुख पर जब स्वयं बैठी हुई है सभ्यता,
भस्म हो जायेंगी जिसमें पीढ़ियाँ दर पीढ़ियाँ।
कृष्ण भी कब रोक पाये थे महाभारत स्वयं,
आज भी हर घर जलेगा और जलेंगी हस्तियाँ।
ये धरा औ’ सूर्य मिलकर फिर उगा लेंगे वो सब,
पेड़,पर्वत, झाड़, जंगल, सभ्यताएँ बस्तियाँ।
जीना हो गर इस धरा पर सब्र से सद्भाव से,
अंह के ताले जो खोलें ढूँढ लो वो चाबियाँ।
उस पुराने इश्क़ के पिनहाँ बहुत से राज थे,
अब कहाँ ढूँढे ‘शलभ’ जादूभरी वो चिट्ठियाँ।
*****
प्यार की हर रहगुज़र पर एक मंज़र छोड़ जा,
मील के पत्थर सरीखा एक पैकर छोड़ जा।
बुतपरस्ती क्या किसी को रास आती है कभी,
जिस पे हो विश्वास सबको ऐसा अम्बर छोड़ जा।
पुरख़तर राहें तो होंगी ज़िंदगी में हर तरफ़,
हौसलों से हो भरा ऐसा मुक़द्दर छोड़ जा।
बरग़लाते हैं अधिकतर लोग ही लोगों को अब,
जो दिखाये राह सच्ची ऐसा रहबर छोड़ जा।
आईनों में सच की परछाई नहीं जो देखता,
उसके हिस्से में धरा के सारे बंजर छोड़ जा।
पेड़- पर्वत, झरने- सागर, शाश्वत दुनिया में हैं,
जो धरा के विष को पी ले वो क़लन्दर छोड़ जा।
ऐ शलभ ! ग़ज़लों में तेरी ख़ूब ज़ीनत है भरी,
ख़ुश रहें सब देश में ऐसा तू मंतर छोड़ जा।
*****
चीखें भी दब के मर गईं कच्चे मकान में,
इक ज़लज़ला जो आया पहाड़ी ढलान में।
मैं हसरतों के बाग़ से मायूस लौटा हूँ,
अब कोई लुत्फ़ ही नहीं अपनी थकान में।
वादों के पाठ ही पढ़े हर मंच से उसने,
कुछ सत्य ही नहीं रहा उसके बयान में।
वे मौत के समक्ष खडे काँपते रहे,
जो शेखियाँ बघारते थे सौ ज़ुबान में।
जो है ज़मीन पर उसे ही पूजिये जनाब,
कोई भी देवता नहीं है आसमान में।
हमको भी तेरे वस्ल की चाहत नहीं रही,
हमको न बैठना है तेरे इम्तिहान में।
तुम जीस्त को ‘शलभ’ जियो अपनी ही शर्त पर,
क्या लुत्फ़ है किसी के भला सायबान में।
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कविता
सुश्री पुष्पा राही, नई दिल्ली, मो. 9958479432
विदाई
छिनी ज़िन्दगी की हमसे अनमोल कमाई
चलती-फिरती वह मां देगी नहीं दिखाई।
मुस्कानें वे कहां कहां वह प्यार सलोना
कहां मिलेगा मीठी बोली का वह टोना
आवभगत वह कहां कहां वह ‘खा लो, पी लो’
प्लेटों में जो चीज़ें भर-भर गई सजाई
अब आएंगी नहीं कभी वह द्वार खोलने
‘इतने दिन में क्यों आई’ ये शब्द बोलने
भर बांहों में गले लगाना अब कब होगा
अब न दिखेगी वह हमको हो गई पराई।
पड़पोतों पड़धोतों की छिन गईं लोरियां
बांधे कौन कलाइयों में अब श्याम डोरियां
काला टीका माथे पर अब कौन लगाए
कहां मिलेगी उनकेा गोदी वह सुखदाई
प्राण-पक्षी उड़ गया बड़े ही शान्त भाव से
उस पड़ाव तक चला गया वह इस पड़ाव से
पुण्यों की पूंजी अपनी ले गया साथ में
यादों की पूंजी हाथों में हमें थमाई
मां ने तो ली विदा
मां ने तो ली विदा किसे अब याद करें
सब अपने में व्यस्त ध्यान में किसे धरें
केन्द्र-बिन्दु थीं वही जोड़ती थीं सबको
टूट गई वह धुरी तार सारे बिखरे
मां ने तो सांझा रक्त बह रहा रिश्तों में
अनहोनी यह हुई सभी के सब बितरे
मां-जाए भी दिखे लड़ाई लड़ते यूं
गलियों में लड़ते जैसे कुत्ते झबरे
होता है अफ़सोस क्रोध भी आता है
लेकिन टलते नज़र नहीं आते ख़तरे
मांग रहे हक़ अपना सब हक़ जता-जता
हक़ जो सम्बन्धों के कर देगा क़तरे
जिस मां पर था कभी न्यौछावर तन मन धन
याद क्यों नहीं आती वह भूले-बिसरे
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गीत
श्री बालस्वरूप राही, नई दिल्ली, फोन नं. 011-27213716
मेरी देहरी पर मत तुम पूजा दीप धरो,
हो सके अगर तो सहज भाव से प्यार करो।
मैं कवि हूँ पर उससे भी पहले मानव हूँ,
इसलिए कहीं मज़बूत और कमज़ोर कहीं,
मैं कभी डूब जाता असहाय सितारे-सा,
मैं कभी उदित होता हूँ बनकर भोर कहीं।
मेरा विश्वास समर्पित है जन-जीवन को,
तुम मेरी दुर्बलताएँ अंगीकार करो!
मैं कहीं मोड़ देता हूँ दिशा समन्दर की,
मैं कहीं टूट जाता लाचार कगारे-सा;
मेरे जीवन में मरघट का सूनापन है,
मन मेरा दहक रहा पर तप्त अंगारे-सा।
मैं बाँट रहा हूँ अपनी आग ज़माने में,
तुम मुझमें अपनी ज्वाला का संचार करो!
हारी बाँहों को मेरा बहुत सहारा है,
पर मेरी नाव भँवर में डगमग काँप रही;
मैं घर-घर में पूनम का चाँद उगा आया,
मेरे आँगन में मगर अमावस व्याप रही।
मैं हर दीपक को सूर्य बनाकर मानूँगा,
तुम मुझमें अपनी किरणों का विस्तार करो!
अधरों में समा गई जड़ता इतना गाया,
इतना बरसा अंतर की गागर रीत गई,
हो गया भिखारी मैंने इतना दान किया,
मैं इतना हारा सारी दुनिया जीत गई
पूजा, अर्चन उपहार देवताओं का है,
तुम मेरा अपनी क्षमता से शृंगार करो!
मेरी देहरी पर मत तुम पूजा-दीप धरो
हो सके अगर तो सहज भाव से प्यार करो।
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कविताएँ
देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव, बस्ती, यू.पी., मो. 7355309428
माँ और नई साड़ी...
मेरे पिता गाँव में रहने वाले
एक साधारण किसान थे
हमारे पास दो बैल और एक गाय भी थी
खेती किसानी से ही हमारा घर चलता था
हम लोगों की पढ़ाई लिखाई, दवा का खर्चा
इसी खेती किसानी पर पलता था था
पिता जी का सपना था
हम लोग पढ़ लिख कर कोई नौकरी पा जाए
घर की दशा और दिशा बदल जाए...
मेरी माँ साधारण पढ़ी लिखी गृहिणी थी
पिता जी को खर्च से परेशान देख
माँ अपने लिए कभी कुछ नहीं कहती थी
कभी साड़ी, क्रीम, पावडर या अन्य
मेकअप का के सामानों की डिमांड
पिता जी से नहीं करती थी
छोटे मामा की इस बार जून माह में शादी थी
माँ को नई साड़ी खरीदने की इच्छा थी
पिता जी को बमुश्किल अपनी इच्छा बताया...
पिता जी ने वादा किया कि
गेहूँ की फसल पक कर तैयार है
कटते ही गेहूँ बेचकर साड़ी लाऊँगा
इस बार पक्का इरादा है, कि वादा निभाऊँगा
गेहूँ कटते ही जिस दिन पिता जी गेहूँ बेचने वाले थे
और माँ के लिए नई साड़ी खरीदकर लाने वाले थे...
उसी दिन गाय पड़ गई बीमार
गाय का बिन पैसे कैसे हो उपचार
गेहूँ बेचकर पैसा आया
माँ के लिए साड़ी लाएँ या गाय की दवा कराएँ
इतना पैसा नहीं था कि दोनों काम हो जाए
पिता जी बड़े असमंजस में थे
माँ ने पिता जी के चिंता को देख झट निर्णय लिया
गाय बेजुबान है, दवा न कराने पर बेजान हो जाएगी
साड़ी तो फिर कभी खरीद ली जाएगी
गाय की जान बच जाएगी
माँ ने पिता जी से कहा
वो छोटे मामा की शादी में
पुरानी साड़ी ही पहन कर चली जाएगी...
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डॉ.निशा नंदिनी भारतीय, तिनसुकिया, असम
अमलतास
पीले सुनहरे फूलों के गजरे तुम लटकाए हो,
कहो अमलतास तुम किससे मिलने आए हो।
धरती तपती लोहे सी गर्म हवाएं चलती हैं,
खिलखिला कर हंसते हुए तुम सूरज से होड़ लगाते हो।
डाल-डाल पर झूला झूले तुम इतराते मंडराते हो,
खग को देखकर आश्रय मंद-मंद मुस्काते हो।
धरती को किए पण समर्पित लेश मात्र भी गम नहीं,
विषम परिस्थिति में रहकर भी उदासी का नाम नहीं।
सुबह सैर पर जाते ही तुम अभिनंदन करते हो,
पलाश को देकर मात भरी दुपहरी खिलते हो।
कंदील सम लटके डालो पर लू में भी झूल रहे,
हल्के फुल्के झुमकों को हवा संग तुम तोल रहे।
खड़े सड़क के दोनो ओर देखा तुमने भूत वर्तमान,
नौनिहालों की चहलकदमी इमारतों की उठान।
संघर्ष की देकर सीख जनमानस को उकसाते हो,
धूप को पीकर घूंट-घूंट फिर कुंदन बन जाते।
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संपादकीय
मेरे दस साल के कार्यकाल में अत्यंत गम्भीरता और ईमानदारी से लिखा गया सम्पादक की मार्फत लेखक को पत्र-
आदरणीय कुसुम जी, सादर,
प्रणाम!
जाने कौन था दिये की तरह
रास्ते में जला गया है मुझे!
और मैं जल रही हूं, जलती ही रहूंगी।’
’अभिनव इमरोज़’ व ‘साहित्य नंदिनी’ के मार्च 2022 के अंकों में प्रकाशित आपका व्यक्तित्व व आपकी साहित्यिक यात्रा संवेदनशील पाठक की समझ को कई नई परिभाषाओं व संभावनाओं से जोड़ती हैं। पत्रिका के संपादक श्रद्धेय श्री देवेंद्र बहल जी को एक सक्रिय, सजग, संवेदनशील, उद्यमी लेखिका के समग्र व्यक्तित्व व कृतित्व पर केंद्रित सर्वसमावेशी अंक प्रकाशित करने के लिए हार्दिक अभिनंदन। पत्रिका के साक्षात्कारकर्ता, आलोचक, समीक्षक, लेखक वृंद को भी अशेष बधाई जो आपके कवयित्री, कथा-लेखिका, कहानीकार, संस्मरण-रचयिता रूपों के साथ पूर्ण न्याय कर सके हैं।
मैंने दोनों पत्रिकाओं को तन्मय होकर पढ़ा, आपके व्यक्तिगत जीवन-क्रम से प्रभावित हुई, आपकी कलम की धार से आह्लादित हुई। आपको इस पत्र के माध्यम से अपनी भावनाओं के रंग-बिरंगे पुष्पों की डलिया भेज रही हूं।
आपकी कविताएं स्त्री-मन की पुकार हैं, कसक की पहचान हैं, दर्द की रचनागत अभ्यिव्यक्ति हैं। आपके उपन्यासों में जीवन चलायमान है, प्रवाहमान है। आपकी कहानियां बतिया रही हैं। जारी है पात्रों संग पाठक के अंतर्मन का मौन संलाप। आपकी आत्मकथा में नारी जीवन की सच्चाई झांक रही है। आपके साक्षात्कार बेबाक व स्मरणीय बने हैं। कविताओं में वृंदावनवासिनी विध्वाओं का नग्न सच बेलौस होकर छलक पड़ा है। मेरुदण्डहीन तथाकथित सभ्य समाज के ओढ़े हुए मानदण्डों को प्रश्नों के घेरे में डाल रही है आपकी बेखौफ काव्याभिव्यक्ति। कहानियों की समीक्षाओं से गुज़री, उपन्यासों की समालोचनाओं को जी भी कर प्र्राणों में भरा। पात्र आपकी कलम से निसृत होकर पाठक की अंतरात्मा में दस्तक दे रहे हैं। आपकी संवेदनाएं मसृण हैं और लेखन यथार्थ से लबालब भरा हुआ। आपके शब्द दो टूक भाव से कहते हैं- ’उपन्यास स्थायी मूल्यों पर आधारित चित्रण और खोज है, उन पात्रों को जो अपने जीवन में कुछ ऐसे प्रतिमान रखते हैं, जिन्हें समाज की मान्यता प्राप्त होती है। आत्मकथा एक आत्मतर्पण है, एक मनोवैज्ञानिक आत्मतुष्टि, या एक अस्थाई आवेशात्मक अनुभव, जिसका मूल्य निर्धारण रचयिता के हाथ में होता है, लेखक के हाथ में नहीं। आत्मकथा अपने आप को अपने से दूर रखकर, वस्तु-रूप में देखने का अनुभव है। अपनी आत्मकथा को मंैने जैसे जिया था, वैसा ही प्रस्तुत करने का प्रयास किया था। अपने बीते हुए समय की एक पुनरावलोकन जैसी थी।’
आपका यात्रा वृत्तांत ’पिरामिड के इस पार मिस्र’ दृश्यात्मक प्रभाव छोड़ता है, मिस्री जीवन व संस्कृति के महीन से महीन सच को उकेरता है। आपकी कहानी ’मेरे आशिक का नाम’ के संवाद कितने निश्छल तरीके से प्रवाहित होते हुए भावों को पाठक की आत्मा तक संप्रेषित करते हैं।
दक्षिण अफ्रीका के जीवन, संस्कृति व इतिहास पर शोध करते हुए आपने ’खामोशी की गूंज’ उपन्यास को कलमबद्ध किया। प्रमाणित किया आपने कि लेखकीय मेधा, नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा व खोजी वृत्ति उपन्यास के लिए एक पुख़्ता व प्रामाणिक ढांचा निर्मित करने में कारगर साबित होती है। ’परछाइयों का समयसार’ में मानवीय संवेदनाओं के स्पंदन का शब्दाकार है। आपकी कृतियां ’एक और पंचवटी’, ’तितलियां’ आदि का पर्दे पर फिल्म व धारावाहिक रूप में प्रदर्शित होना व दर्शकों-समीक्षकों द्वारा पसंद किया जाना अत्यंत महत्वपूर्ण व स्पृहणीय उपलब्धियां हैं। इनसे प्रमाणित होता है कि आप जैसी रचनाकार साहित्य को आम जन से जोड़ने की काबिलियत रखती हैं। साहित्य मात्र बंद नीरव कक्ष में रचित गंभीर सृजन-कर्म व साहित्यिक रुचि से लैस सीमित पाठक वर्ग तक का सफर तय करने पर समाज से कट जाता है। उसे समाज की ज़रुरत बननी चाहिए। आपकी रचनाओं का पर्दे पर फिल्मांकन व टी वी पर प्रसारित होना मात्र आपकी उपलब्धि नहीं है, बल्कि हिंदी साहित्य की गरिमा है।
आपने नारी जीवन की परिपूर्णता हासिल करते हुए साहित्यिक मंच पर अपने अवदान से उसे सार्थक किया। आप सुगृहिणी बनी, पत्नी व मां का धर्म व कर्तव्य निभाया, घर-परिवार के दायित्वों का यथोचित निर्वहण किया। घर की चारदीवारी से निकलीं, साहित्यिक संस्था ’संवाद’ को
प्राणवंत किया। आकाशवाणी के माध्यम से श्रोताओं को उर्जस्वित किया। साहित्य की विविध विधाओं को अपनाकर महिला साहित्यकारों के उन्नत मान के शिखर पर पहुंची। पुरस्कारों और सम्मानों से सराही गईं। देश-विदेश की यात्राओं को साहित्य के पृष्ठों में दर्ज किया। हिंदी कथाकारों की तालिका में एक मल्टीडाइमेंशनल व्यक्तित्व व कृतित्व की पहचान बनाई।
आपकी कलम की ईमानदारी व निष्ठा ने मुझे अनुप्रेरित किया। आपके जीवन-संघर्षाें ने मुझे चुनौतियों को स्वीकारने का साहस दिया। आपके दो-टूक वक्तव्य ने मेरे नज़रिए को माद्दा और जोश दिया।
आप लेखन-क्षेत्र में सतत क्रियाशील रहें, आपके सुस्वास्थ्य की शुभेच्छाओं सहित उरतल से प्रणाम!
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साक्षात्कार
रश्मि रमानीः एक अनूठी कवयित्री और जानी मानी अनुवादक
श्री अशोक मनवानी
सुश्री रश्मि रमानी
1 अप्रेल 1960 को इन्दौर (म.प्र) में जन्मी रश्मि रमानी हिन्दी के साथ-साथ, सिन्धी साहित्य में भी एक सुपरिचित नाम है। कविता उनकी केन्द्रीय विधा है। सिन्धी परिवार में जन्म लेकर भी मूलतः हिन्दी में कविता-लेखन प्रारम्भ कर रश्मि रमानी ने बाद में सिन्धी में कविताएं लिखना और अनुवाद करना शुरू किया, और द्विभाषी रचनाकार की ऐसी जुड़वां छवि बनाई, जिसमें फर्क कर पाना मुश्किल होकर भी, उनकी हिन्दी वाली पहचान, अपने परिवेश के कारण अव्वल नजर आती तो है, पर अपने मूल उत्स से विस्थापन का उसका दर्द भी छिपा नहीं रहता। पिछले चार दशकों से भी अधिक समय से सृजनरत, सिन्धी और हिन्दी साहित्य में समान रूप से अधिकार रखने वाली, रश्मि रमानी एक अनूठी कवयित्री और जानी-मानी अनुवादक हैं, उनकी कविताएं शब्द- चातुर्य के बदले सच्चाई से संवेदनात्मक तदाकार हैं, वे अपने लिये सपने देखते या अपने बारे में बुदबुदाकर बोलते हुए भी सबके लिए सपने देखती हैं और विशेष भंगिमा अख्तियार किये बगैर सबकी तरफ से बोलती हैं। किसी तरह की प्रखरता और व्यंग्य के बिना भी उनकी कविताओं का स्वर भीतर तक सुनाई देता है, नारी विमर्श के सजग अभियान में शामिल हुए बिना उनकी कविताएं स्त्री के अकेलेपन, प्रेम और संघर्ष को रेखांकित करती है। (चन्द्रकांत देवतालेः ‘स्मृति एक प्रेम की‘ कविता संग्रह की भूमिका से) इस साक्षात्कार में प्रस्तुत है उनकी रचना-यात्रा और उनके व्यक्तित्व के बारे में जानकारी, जिसका आस्वाद पाठकों के लिये प्रीतिकर होगा।
प्रश्न: आपने लिखना कब शुरू किया और पहली रचना कब छपी ?
उत्तर: लिखना मैंने बचपन से ही शुरू कर दिया था। बारह वर्ष की थी जब एक पत्रिका में मेरी बाल कहानी प्रकाशित हुई।
प्रश्न- अपने आरंभिक दिनों और शिक्षा के बारे में कुछ बताए ? लिखने-पढ़ने में रुचि कैसे जागृत हुई ?
उत्तर- मेरी स्कूली और महाविद्यालयीन शिक्षा मंदसौर और रतलाम में हुई है। बचपन में पढ़ने में बहुत ज्यादा रूचि नहीं थी. फिर भी रोज स्कूल जाती थी, क्योंकि स्कूल के सामने सड़क पर कपड़ा बिछाकर एक व्यक्ति छोटी-छोटी रूसी किताबें बेचता था। रंगीन और आकर्षक होने के साथ-साथ ये सस्ती भी होती थीं, पढ़ने में मेरी रूचि इन्हीं किताबों के कारण हुई। दूसरे, मेरी नानी बहुत धार्मिक स्वभाव की थीं और ननिहाल में धार्मिक पुस्तकों का विशाल संग्रह था। मेरे पिताजी पाँच भाषाओं के जानकार थे और मेरी माँ और पिताजी की रूचि किताबें पढ़ने में होने के कारण पढ़ने-लिखने के संस्कार घर से मिले, बाद में मैंने दो-तीन सरकारी पुस्तकालयों एवं वाचनालयों की सदस्यता ले ली तो किताबों के संसार में प्रवेश आसान हो गया।
प्रश्न- आप द्विभाषी कवयित्री और अनुवादक के रूप में जानी जाती हैं, हिन्दी और सिन्धी भाषा में काम करते हुए आप किसे प्राथमिकता देती हैं? आपके साहित्य सृजन में अनुवाद कितना महत्वपूर्ण है ?
उत्तर- प्राथमिकता जैसी कोई बात नहीं है। दस वर्ष पूर्व मैं एक बार में सिर्फ एक पुस्तक पर काम करती थी अब मैं एक साथ तीन पुस्तकों पर काम करती हूँ, हिन्दी कविता, सिन्धी कविता और अनुवाद। एक पुस्तक का प्रूफ प्रायः मेरे सामने होता है। जो पुस्तक पहले पूरी हो जाती है यह प्रकाशित हो जाती है। अनुवाद करना मुझे प्रिय है। सिन्धी में मेरा आगमन अनुवादक के रूप में ही हुआ था। अनुवाद को मैं मूल कृति का पुनर्सृजन मानती हूं और यह किसी भी लेखक की मूल कृति रचने से अधिक समय लेता है, क्योंकि अनुवाद शाब्दिक नहीं होता, भावात्मकता के साथ मूल भाषा की आत्मा तक पहुँचना सरल नहीं है ? अनुवाद केवल शब्दों का नहीं भावनाओं का भी होता है। विशेषकर कविता में तो उसके पूर्णविराम एवं अल्पविराम के साथ कविता की अंतध्र्वनियों का भी ध्यान रखना पड़ता है। कविता और गद्य की अनुवाद प्रक्रिया और अनुवाद की चुनौतियां विषय पर मेरे लेख और व्याख्यान हैं।
प्रश्न- कविता,अनुवाद और आलोचना की आपकी 28 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है, आपने बाल-साहित्य, लोक-साहित्य के साथ सिंध के इतिहास, संस्कृति और साहित्य पर भी काम किया है, इन सब कामों को आप कैसे संतुलित करती है ?
उत्तर- मेरे घर के सबसे बड़े और रौशन कमरे में किताबों की अलमारियों के साथ, पांच मेजें और दो कुर्सियां रखी है. एक टेबल पर कंप्यूटर है, पास में ही छोटा-सा मंदिर है, अपनी मनः स्थिति और समय के अनुसार किसी एक टेबल पर रखी किताब पर काम करती हूं। वर्तमान में पहली प्राथमिकता लेखन है।
प्रश्न: कविता आपकी केन्द्रीय विधा है और स्त्री और प्रेम आपकी कविताओं की धुरी हैं। स्त्री विमर्श के बारे में क्या कहेंगी?
उत्तर: मेरी कविता का मुख्य स्वर भले ही स्त्री और प्रेम हो, परन्तु लिखते समय मैं किसी वाद-विमर्श के बारे में नहीं सोचती।
प्रश्न: आपकी पाकिस्तान-यात्रा के बारे में कुछ बताएं ? इसका आपके लेखन पर क्या कोई प्रभाव पड़ा ?
उत्तर: इस यात्रा का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा। इण्टरनेशनल पीस कान्फ्रेंस में भाग लेने के लिये मैं कराची गयी थी। 14 दिनों के सिन्ध-दर्शन में कराची से कींझर तक के सफर में मोअन जो दड़ो के साथ ऐसी जगहें देखीं जो ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण हैं, भारतीय उप महाद्वीप की सबसे त्रासद घटना 1947 में जाति एवं धर्म के आधार पर किया गया भारत-विभाजन था, जिसके दूरगामी प्रभाव पड़े। सिन्ध, भारतीय उप महाद्वीप के इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है, सिन्धु घाटी सभ्यता विश्व की सबसे प्राचीन और नागर सभ्यता मानी जाती है, इतना ही नहीं वेदों की रचना और वर्णमाला का विकास सैंधव प्रदेश में हुआ। सूफी मत का जन्म ईरान में हुआ, सूफी मत सिन्ध के रास्ते भारत में आया और इसका संबंध भक्ति आंदोलन से भी रहा है। वहाँ से लौटने पर मैंने सिन्ध की लोक कथाओं का अनुवाद किया, जिसे नेशनल बुक ट्रस्ट ने प्रकाशित किया। संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा मुझे सिंधः इतिहास संस्कृति और साहित्य विषय पर सीनियर फैलोशिप दी गयी थी जो कि एक बड़ा और महत्वपूर्ण काम था जिसे करने में मुझे आसानी हुई।
प्रश्न: आपकी मातृभाषा सिन्धी होने के बावजूद आपने सिन्धी में बहुत देर से लिखना आरम्भ किया ? सिन्धी में आप कैसे आईं ?
उत्तर: मैं मूलतः हिन्दी की कवयित्री हूं। सिन्धी में मेरा आगमन बेहद रोचक और आकस्मिक था। सिन्धी में लिखना आरम्भ करने के पूर्व मेरा हिन्दी कविता संग्रह आ चुका था, और बहुत सारी कविताएं, लेख कहानियां, व्यंग्य और समीक्षाएं भी प्रकाशित हो चुकी थीं। नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा आयोजित एक काव्य-पाठ में किसी श्रोता ने व्यंग्यपूर्वक कहा ‘और रश्मि जी सिन्धियों का भी कोई साहित्य-वाहित्य है क्या ? मुझे यह बात चुभ गई और तिलमिलाकर मैंने कहा-सिन्धी सिर्फ खाने-खर्चने वाली जाति नहीं, हम मोअन जो दड़ो के वारिस हैं।‘ गुस्से में कह तो दिया पर मुझे तो सिन्धी भाषा आती ही नहीं थी, मैंने अनुवादक बनने का निर्णय लिया, ताकि सिन्धी भाषा के महत्वपूर्ण साहित्य को हिन्दी के पाठकों तक पहुंचाया जा सके और इसके लिये मैने अरबी सिन्धी सीखी, आपको आश्चर्य होगा मेरी शिक्षिका चैथी कक्षा पास एक गृहिणी थी, जिसने मुझे सिन्धी वर्णमाला और बारहखड़ी पढ़ाई, बाकी भाषा मैंने स्वयं सीखी और अनुवाद शुरू किया। 100 से ज्यादा सिन्धी लेखकों के अनुवाद मैंने किये हैं, अनेक पत्रिकाओं और साहित्य अकादमी की अनुवाद संचयिकाओं में इन्हें प्रकाशित किया गया। है। विभिन्न भारतीय भाषाओं में भी इन्हें अनुदित किया गया है।
प्रश्न: आप पिछले कई सालों से साहित्य अकादमी से जुड़ी हैं, यह अनुभव कैसा रहा ?
उत्तर: वर्ष 2002 से 2007 तक मैं साहित्य अकादमी के सिन्धी परामर्श मंडल की सदस्य थी, फिर साहित्य अकादमी के लिये बहुत सारे अनुवाद किये, साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित भारतीय भाषाओं के कविता उत्सवों, सेमिनारों, व्याख्यानों में भाग लिया और साहित्य अकादमी के विभिन्न पुरस्कारों के निर्णायक मंडल की सदस्य भी रही हूँ।
प्रश्न: पुरस्कारों से याद आया कि साहित्यिक पुरस्कारों को लेकर आप क्या सोचती हैं?
उत्तर: पहली बात तो यह है कि साहित्य और कला धन कमाने और प्रसिद्ध होने का माध्यम नहीं है, इसका संबंध आत्मसंतोष और प्रसन्नता से है, मेरे लिये तो यह मुक्ति- पथ है। ऐसा नहीं है कि पुरस्कृत होना अच्छा नहीं लगता, उससे उत्साह बढ़ता। है और थोड़ी देर को ही सही गौरव की अनुभूति होती है, पर पुरस्कारों की अहमियत तभी बढ़ती है, जब सम्मान देने वाला और पाने वाला दोनों गौरवान्वित अनुभव करें, सही चयन के साथ निष्पक्षता, ईमानदारी और पारदर्शिता बेहद जरूरी है। हिन्दी में काफी काम करने के बावजूद मुझे पुरस्कार नहीं मिले, इसका मुझे कोई असंतोष नहीं है, प्रसन्नता इस बात की है कि मेरा लिखा पाठकों को पसन्द आता है, उनकी सराहना और मेरी रचनाओं पर टिप्पणी करना ही बहुत है।
प्रश्न: फिलहाल आप क्या लिख रही हैं ?
उत्तर: सिन्धी लोक कहानियां ‘कौआ और चिड़िया‘ प्रेस में है। एक सिन्धी कविता संग्रह और एक हिन्दी कविता संग्रह पूरा होने को है, ‘सिन्ध और सूफी मत‘ का संपादन शुरू किया है। मेरे सिन्धी कविता संग्रह ‘जलावतन वारिस‘ का अनुवाद कर रही हूं।
प्रश्न: क्या पढ़ना पसन्द है ?
उत्तर: कुछ विशेष नहीं जो भी सामने हो।
प्रश्न: आपका प्रिय लेखक ?
उत्तर: किसी एक का नाम लेना मुश्किल है।
प्रश्न: आपका परिवार ?
उत्तर: दो पुत्रियां है। एक विवाहित है, दो नातिनें हैं। पति डॉ. अश्विनी कुमार रमानी का 2011 में हृदयाघात से
निधन हो गया।
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लकीर (लघुकथा)
डॉ. दलजीत कौर, चंडीगढ़, मो. 94637431
मेरे बेटे का दाखि़ला कनाडा के कॉलेज में हुआ। जब मैंने अपनी बहन को बताया तो उसके चेहरे का रंग उड़ता मैंने खुद देखा। उसकी बेटी यू.पी.एस.ई. की तैयारी कर रही थी। मेरे बेटे के विदेश जाने के बाद तो उसने यहाँ तक कहा -“उसे वापस बुला लो। वह भी यहाँ पेपर दे। कितना मुश्किल है यह पढ़ाई करना।”
मैं चुप रही। वह मेरे घर आई हुई थी। मैं अपने घर आए किसी मेहमान की बेज़्ज़ती नहीं करती।
पूण्डूचेरी में एक माँ ने अपने बेटे के सहपाठी को इस लिए ज़हर दे दिया क्योंकि वह कक्षा में पहले स्थान पर आया था। जबकि उसका बेटा दूसरे स्थान पर। यह जलन की इंतिहा है या मानवता का अंत। समझ नहीं पा रही हूँ। मुझे बचपन की एक कहानी याद आ रही है।
मास्टर जी ने ब्लैक बोर्ड पर एक लकीर खींच कर बच्चों को कहा - “इसे बिना छुए छोटा करके दिखाओ।”
सभी बच्चे सोच में पड़ गए। तब मास्टर जी ने उस लकीर के साथ एक बड़ी लकीर खींच दी। पहली लकीर खुद छोटी हो गई। उन्होंने समझाया -“कोई आपसे आगे निकाल जाए तो उससे जलन करने की अपेक्षा,मेहनत से आगे निकाल जाओ। लकीर खुद छोटी हो जाएगी।”
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कहानी
सुश्री कमलेश चौधरी, कुरूक्षेत्र हरियाणा, मो. 9813446370
खोडिया
उतरी भारत में लडकों की शादी में एक रस्म होती है खोडिया।
जब घर के सभी मर्द बारात लेकर चले जाते हैं तो घर में केवल महिलाएं ही रह जाती हैं। वे सब मिल कर नाटक तमाशा करती है। जिसमें एक दूसरी के नाम निकाले जाते हैं। मरदों की भी नकल उतारी जाती है। खूब मस्ती की जाती है।
आज वंदना के देवर की शादी में घर के सभी मर्द बारात में चले गये थे।
खोडिये की तैयारी हो रही थी। वंदना ने दरी बिछा दी। तभी जेठानी बोली ऐ भगोड़ी कुछ कुरसी भी रख दे। बूढी भी तो आएंगी। जमीन पर कैसे बैठेंगी।
सास बोली भगोड़ी बड़े पतीले में हल्की आंच पर चाय का पानी रख दे। एकदम इतनी चाय नही बनेगी।
वंदना को भगोड़ी कह कर बुलाया जा रहा था। इसके पीछे भी एक कथा है।
वंदना एक सामान्य परिवार की लड़की थी। पढ़ाई में तेज होने के कारण घरवालों ने उसे शहर के कालेज में दाखिल करवा दिया। कुशाग्र बुद्धि वंदना ने बी. एस. सी. और बी. एड प्रथम श्रेणी में पास की और शहर के निकट एक प्रतिष्ठित स्कूल में उसे नौकरी मिल गई।
स्कूल शहर से 15 किलोमीटर की दूरी पर देहाती इलाके में था। वहां छात्रावास की भी सुविधा थी। सो वंदना वहीं रहने लगी।
एक रविवार को वह कुछ सामान लेने शहर गई तो वापसी में देर हो गई। आखिरी बस निकल गई और आटो वाला कोई जाने को तैयार नही हुआ। उसे परेशान देखकर एक बाईक सवार युवक उसके पास आकर बोला, मुझे लगता है आप कहीं जा रही हैंँ और साधन नही मिल रहा है।
यदि चाहें तो मुझे बता सकती है कि आपको कहां जाना है।
झीझकते हुए वंदना ने स्कूल का नाम बताया तो वह बोला यदि आपका दिल चाहे तो मेरे साथ चलिए। घबराने की जरूरत नही है। मैं दवा कंपनी में काम करता हूँ और उधर ही जा रहा हूं।
वंदना कुछ कह नही सकी।
थोड़ी देर के बाद युवक बोला, मैं जोर नही दे रहा। सिर्फ अनुरोध कर रहा हूँ। आप घबराईए मत। सही जगह पर आपको छोड़ दूंगा। आगे आपकी मरजी।
रात गहरा रही थी। वंदना उसके अनुरोध को ठुकरा न सकी और बोली, चलिए।
वह संभल कर बैठ गई। वह युवक भी उसकी निजता का सम्मान करते हुए सीट के अगले किनारे पर सिमटा बैठा था। स्कूल आने तक दोनो चुप रहे।
गेट के सामने बाइक रोककर युवक ने कहा लीजिए आ गई आपकी मंजिल।
वंदना धन्यवाद कह कर स्कूल में चली गई।
उसकी शराफत से प्रभावित हो गई थी वंदना। सोच रही थी कि कम से कम नाम नंबर तो पूछ ही लेती।
उधर सुमीत भी सोच रहा था। यार लड़की को ठिकाने पर छोड़कर पुण्य तो मिलेगा ही।
पर नाम भी नही पूछ पाया। पूछता कैसे उसकी झिझक देखकर हिम्मत ही नही हुई।
दीपावली की छुटटी हो गई थी। आज सुमीत ने इरादा बना लिया था कि आज तो वह लड़की घर जाने के लिए बस अड्डे पर आएगी। बस आज धरना दे कर बैठ जाता हूं। कभी तो आएगी ही।
वह अपनी बाईक खड़ी करके बैंच पर बैठ गया। पूरे एक घंटे बाद उसे वंदना आती हुई दिखाई दी।
वह एक दम सामने आकर बोला ए हैलो। घर जा रही हैं आप।
वह बोली, जी हां घर ही जा रही हुं। मगर आज आपको तकलीफ नही दूंगी। बस आने वाली है। और अंधेरा होनै का भी डर नही है।
अच्छा जी। अपना नाम बताएंगी ?
वंदना, वह बोली
और मैं सुमीत। और मेरा नंबर कहें तो बता दूं।
बता दीजिए। आजकल नंबर के बिना पता अधूरा ही रहता है।
सुमीत ने नंबर बता दिया जो उसने नोट कर लिया।
अरे, वह देखो हमारे गांव की बस। चलती हूं। फिर मिलते है। बाय
बाय। पहुंच कर फोन करना। मुझे चिंता रहेगी।
वंदना घर पहुँची। सारा । परिवार खुश था। त्योहर की तैयारी में लगे थे। अचानक फोन की घंटी बजी सुमीत कह रहा था, फोन तो कर लेती। पता है तुम्हारा फोन न आने से मैं कितना चिंतित हो गया था
कहानी आगे जारी है
वंदना मुस्करा उठी। एक घंटे की जान पहचान हुई नहीं कि जनाब को चिंता होने लगी।
फिर फोन पर बातें होने लगीं। ये बातें धीरे धीरे निजी होती गई और एक रविवार को स्कूल से बाहर मिलना तय हुआ। सुमीत ने कहा वंदना सच कब तक छिपाएंगे। सच तो यह है कि मैं तुम्हें चाहने लगा हूं। तुम क्या कहती हो।
मै लड़की हूं। तुम ने तो कह दिया। मैं क्या कहूं। यदि हां भी कहुं तो भी कैसे कहूं। ना मुझ में इतनी हिम्मत और न घरवालों से बगावत करने का साहस।
अरे बगावत की बात कहां से आ गई। घर वालों को राजी करना मेरा काम। तुम हां कहो तो मै पहले अपने घर वालों कौ तैयार करूं। फिर तुम्हारे वाले भी मनाऊं।
उसके इस आत्मविश्वास ने वंदना को पक्का भरोसा दे दिया और वह बोली यदि तुम ऐसा कर सकते हो तो फिर मैं भी सच कह रही हूं कि मैं तुम्हें चाहती हूं।
सुमीत ने अपनी मां के सामने वंदना के बारे में सब कुछ बता दिया। रंग रूप, परिवार नौकरी शिक्षा। काफी बहस विवाद के बाद ये तय हुआ कि मां वंदना के परिवार से बात करेगी। यदि सही लगा तो रिश्ता कर दिया जाएगा।
मां और सुमीत दोनो वंदना के घर आए। वंदना की शालीनता और सुंदरता ने सुमीत की मां का मन मोह लिया। पर पिता चाहते थे कि कोई पैसे वाला आदमी मिले तो उससे रिश्ता करें। वे ज्यादा खुश नही थै। लेकिन सुमीत और उसकी मां पूरी तरह तैयार थे।
पिता ने फैसला सुना दिया।
शादी कर लो। पर ना तो हम जेवर देंगे। ना कोई और रस्म करेंगें। केवल बारात लेजाकर बहू को घर ले आएंगे।
जैसे तैसे कर के शादी तो हो गई।
पर सुमीत के पिता के रवैये को देखते हुए सुमीत ने वंदना के परिवार वालों से कह दिया कि आप भी दहेज कपड़े जेवर आदि कुछ मत करना।
बस खाने का इंतजाम कर देना और कुछ नही।
इस तरह शादी हो गई।
आते ही वंदना को भगोड़ी का खिताब मिल गया।
कुछ दिन ससुराल मे रहकर वंदना अपनै स्कूल में गयी और किराए के मकान मे दोनो रहने लगे। कभी कभी घर भी चले जाते।
एक दिन वंदना की मां ने उसके पिता से कहा, देखो जी वंदना की शादी में हमने कुछ नही दिया। कुछ तो हमें डर था कि ये शादी सफल भी होगी या नही। दूसरा सुमीत के पिता का रवैया भी शंका में डाल रहा था। पर अब तो लड़की के पैर वहां टिक गए हैं। आधे अधूरे मन से ही सही शादी को परिवार में सहमति भी मिल ही गयी है। अब हमें भी अपना फर्ज पूरा कर ही देना चाहिए।
क्या कहना चाहती हो तुम। साफ साफ कहो।
वंदना के पिता ने कहा।
देखो अगर हम सामान्य रूप से शादी करते तो जेवर पैसा कपड़ा फर्नीचर सब देते कि नही।
बारातियों को मिलनी में कंबल पैसा देते कि नही।
हां वो सब तो करते ही।
बस यही मैं कहना चाहती हूं कि अपना ये फर्ज अब पूरा कर दें। बेटी की इज्जत तभी होती है जब मायके से कुछ मिलता रहे।
तो अब पैसे से इज्जत करवाना चाहती हो।।
नहीं ऐसा भी नही है। ये तो। दुनिया की रीत की बात कही थी मैने।
दर असल बेटियों को तीज त्योहार पर शादी में जो दिया जाता है वो दहेज नहीं उसका हक है।
वह अपना हिस्सा पिता के घर ही छोडकर जाती है। जमीन जायदाद मकान दुकान बैंक जमा सब कुछ बेटे को मिलता है।
सोचो यदि बेटी की जगह बेटा हो तो उसे पूरा आधा भाग देना पड़ता है।
इस तरह देखा जाए तो बेटियों को तो कुछ भी नही मिलता। शायद ये परंपरा इस तरह ही चलाई गयी होगी कि दहेज व तीज त्योहार के बहाने बेटियों को भी कुछ मिलता रहे।
जो बेटियाँ लेकर जाती है वह उनका अपना ही होता है। पर ससुराल पक्ष को लालची नही होना चाहिए और माता पिता को अपनी हैसियत के अनुसार बेटियों को देते रहना चाहिए।
ठीक कहती हो तुम। दहेज देने का रिवाज यहीं से चला होगा। ये बेटियों को समान समझने का ही एक उदाहरण रहा होगा पर समय के साथ कुप्रथा में बदल गया।
वंदना के पिता ने कहा।
उसकी मां ने आगे कहा कि सुमीत से बात कर लेते हैं। पहले तो वह कहता रहा कि छोड़ो कोई ज़रुरत नही है ये सब करने की। जो हो गया वही ठीक है। पर ज़्यादा जोर देने पर वह मान गया।
अब जाने की तैयारी करनी थी। वंदना की मां नै पांच बिस्तरे बनवा रखे थे। वंदना को देने के लिए। एक स्टील का संदुक बनवाया। उसमें बिस्तरे रखे गए। सभी घरवालों के कपड़े और फल मिठाई मंगवा लिए गये।
सभी घर वालों की मिलनी के लिए सोने के ज़ेवर और घरेलू सामान के नकद रुपए देने तय किए गए।
फोन पर सूचना दी तो ससुर बोले आ जाईए।
पहले ट्रक में संदूक रखवाया। उसे रवाना किया और पीछे गाड़ी में वंदना के माता पिता और भाई पहुंच गये
सास के कंगन जेठानी के झुमके, सुमीत के लिए बरेसलेट, सुमीत के पिता की अंगूठी ननद के लिए नैकलेस सब सामान उनको दे दिया। फल मिठाई बिस्तरे सब खोल कर दिखा दिए।
फ्रिज एल ई डी फर्नीचर के लिए नकद पैसा दे दिया।
इस तरह वे अपना फर्ज अदा करके लौट आए।
इतना कुछ होने पर भी उसका भगोड़ी का खिताब ज्यों का त्यों था
कभी कभी उसकी ननद जरूर परिवार वालों का विरोध करती थी। एक दिन उसने अपनी मां से कहा भी था कि वंदना सबके मुंह से भगोड़ी सुन कर चुपचाप सहे जा रही है। एक आदमी यदि शराफत से आपकी ज़्यादती सहन करता जाए तो उसे मूर्ख मत समझो। जिस दिन बोल उठी तो सब बोलना भूल जाओगे।
शायद ये भविष्यवाणी थी।
आज सुमीत के छोटे भाई की शादी में खोडिये की तैयारी हो रही थी और वंदना काम में लगी थी। हर कोई भगोड़ी ये ला वो ला कह रहा था।
खोडिया शुरु हो गया। किसी ने कहा देवर की शादी है। भगोड़ी को भी नाचना होगा।
वंदना खड़ी हुई। गीत भी उसी ने शूरु किया
घड़ा बाजै, घड़ोली बाजै
कदे गगरी बजती सुण मुंडिया
मेरी सास को देखो रे मुंडिया
इसके कंगन देखो रे मुंडिया
क्या पीहर से लाई ना मूंडिया
क्या ससुर ने घड़वाए ना मुंडिया
मेरे पापा दे गया सुण मुंडिया
मैं फिर भी भगोड़ी सुन मुंडिया
वंदना फिरकी बनी नाच रही थी। सास का पानी उतर गया था।
तू ते कहे ये कंगन बाप कै घर से मिले थे। आज पता लगा कि समधी दे गया था।
इसी तरह वंदना ने देवर जेठ जेठानी सब को लपेट दिया
उसका गाना नाचना जारी था।
मैं कदी ना लड़ती रे मुंडिया
मैं सब की सुनती रे मुंडिया।
मनै कहैं भगोड़ी रे मुंडिया
कितै गगरी बजती सुण मुंडिया
तभी ननद चंद्रिका ने उसे रोका और कहा बस बहुत हुआ। अब आगे कुछ नही कहोगी वंदना।
फिर वह मां की तरफ मुड़ कर बोली देख लिया अपनी ज़्यादती का परिणाम इसने हमारे भैया से शादी ही तो की थी। कौन सा गुनाह था इसका जो चार साल ये लगातार भगोड़ी बुलाई जा रही है।
क्या कमी है इसमें। कभी सोचा इसके माता पिता आपका घर भर के चले गये। फिर भी आप लोगों का रवैया नही बदला। आखिर कब तक यै दर्द को सीने में दबाए रखती। आज इसने सही समय अपने दिल का दुख सबके सामने खोल दिया ये तो होना ही था दो दिन आगे या दो दिन पीछे।
बताओ इसकी क्या गलती है।
अब गली की औरतें सास के कंगन जेठानी के झुमके ननद के नेकलैस को घूर रही थी
ए ये सारा जेवर भगोड़ी के पीहर वाले देगे थे। दैखे तो इसकी चालाकी। कदे ना बताया कि समधी के घर से इतना माल आया है।
खुसर पुसर शूरु हो चुकी थी।
खोडिया खत्म होने पर सास ने कहा वंदना सचमुच हम से जुल्म हुआ।
वंदना बोली अम्मा भगोड़ी सुनते सुनते इसी नाम की आदत पड गई है आपके मुंह से वंदना बड़ा अजीब लगा।
मुझे तो भगोड़ी ही कहिए।
चुप होती है या नहीं भगोड़ी कहीं की।
एक समवेत ठहाका गूंजा और सारी बदगुमानियों को उडाता हुआ सारे घर में फैल गया।
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कविता
भोर
रात लजाई सी,
सिमटने लगी उजाले की ओर,
चाँद और सूरज करंे नभ में अठखेली,
संजोते, रोज़ नित नई इक भोर।।
निंद्रा को मिठी चेतना जगाती,
ठिठुरन मचल-के गरमाहट को बुलाती,
धुंधली रोशनी में कुदरत इठलाती,
जागती आंखें मानो स्वपन दिखाती।।
सुमनों की दूब से महकती,
पपीहे-चिडिय़ों के स्वर से चेहेकती,
लालिमा के रंग से विभोर,
ब्रह्माण्ड के गहने सी, चमचमप्ती है भोर।।
संवारती, प्रकाश के किशोर रूप को,
मखमली, जैसे सागर मे टिम-टिमाते धूप हो,
सुहानी, जैसे कुंज की स्वर्णिम बेला,
चपल-चंचल और बेसब्र, जैसे क्षण-भर का मेला।।
पूरब से उठती सिंदूरी तरंगे हर सहर,
पवन बिखेरती, सुरो का इत्र जैसे,
उल्लासित, उसे पाने को, जग जाते, हर डगर और जीवन,
परखने, इक नया सवेरा, इक नई उमंग।।
गूंजती घर-आंगन की किलकारी, भागती रंगीन तितलीयाँ,
हर संवेदना, हर प्रेरणा, सहजता से कह जाती है,
छोड़ कर नीरवता, भूल कर बीता हुआ कल,
चलो जग जाए सारे, अब भोर पुकारती है।।
श्री योगेश मित्तल
नई दिल्ली, मो. 97112 52888 yogeshmit@gmail.com
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लेख
आदित्य प्रचण्डिया की कविता वैचारिक ऊष्मा और सघन संवेदना
डाॅ. व्यास मणि त्रिपाठी
डॉ. आदित्य प्रचण्डिया की छवि एक समालोचक की है किन्तु उन्होंने कविता, कहानी, उपन्यास और लघुकथा के क्षेत्र में भी अपनी सर्जनात्मक प्रतिभा का विस्तार किया है। नामवर आलोचकों की भाँति उनकी साहित्यिकता का प्रस्फुटन भी कविता से ही हुआ था लेकिन उन्होंने उनकी तरह काव्यर्ढना से विमुखता नहीं दिखाई बल्कि आलोचना जगत में प्रतिष्ठित होने के बाद भी वे कवितायें लिखते रहे जिसका परिणाम उनके दो काव्य-संग्रह हैं-‘खिली धूप‘ और ‘कितने रूप कितने रंग‘। खिली धूप‘ की कवितायें जहाँ वैचारिक ऊष्मा से दीप्तिमान हैं वहीं ‘कितने रूप कितने रंग‘ की कविताओं में सघन संवेदना की विद्यमानता है। वैचारिक कविता पाठक को भाव-प्रवाह में डुबोने की अपेक्षा चिंतन और तर्क की दुनिया में ले जाती है जबकि संवेदना प्रधान कविता सहृदयता का संसार सजाती है। डॉ. आदित्य प्रचण्डिया की कविताएँ जब अपने समय और समाज से मुठभेड़ करती हैं तब उनमें तार्किकता के लिए स्थान स्वतः बनता चला जाता है। बुद्धि-विलास की छटा अपने आप झलकने लगती है लेकिन जब वे सहज-सरल गति से सहानुभूति और सौहार्द्र के पथ पर अग्रसर निष्कर्षात्मक मुद्रा में होती हैं तब उनमें विद्यमान संवेदना मानवता के पाट को और अधिक चैड़ा करती चलती है। कविता जब विसंगतियों और विडम्बनाओं से पूर्ण जीवन और समाज को यांत्रिकता, कृत्रिमता, अनास्था, अविवेक, अन्याय, अत्याचार से मुक्ति दिलाने हेतु छटपटाती प्रतीत होती है तब वह मनुष्यता के पक्ष में खड़ी हुई दिखाई देती है। उसी अवस्था में कवि जब यह स्वीकारने लगता है कि-‘‘मैं मानवीय मूल्यों और प्रबल नैतिकताओं का पक्षधर रहा हूँ। इसलिए आधुनिक जीवन-शैली में घुस आई वीभत्सता, कुरुपता से चिन्तित रहते हुए तीज-त्यौहार, पूजा-उपासना में प्रवेश पा गई प्रवंचना पर तिलमिला उठता हूँ।‘‘ (स्वकीय, कितने रूप कितने रंग, पृष्ठ 8) तब वह कविता की उसी मानवीय पक्षधरता का गान करता हुआ सा प्रतीत होता है। यह विचार और संवेदना के तादात्म्यीकरण की अवस्था है। प्रचण्डिया की कवितायें उसी अवस्था की उपज हैं।
आधुनिक कविता अन्धेरे के घटाटोप से भरी पड़ी है तो वह अकारण नहीं है। जीवन में व्याप्त निराशा, उदासी, ऊब, घुटन-टूटन, भय, संत्रास, पीड़ा, अन्याय, अत्याचार आदि की अभिव्यक्ति जितनी इस कालखण्ड की कविता में हुई है उतनी अन्य कालखण्ड में दृष्टिगत नहीं होती।
अन्धेरे की अभिव्यक्ति के बड़े कवि मुक्ति बोध हैं। अन्य कवियों के यहाँ भी अन्धेरा पसरा पड़ा है। भला आदित्य प्रचण्डिया पीछे कैसे रहते ? उनकी कविता में भी तम ही तम दिखाई देता है जिसके कारण उन्हें सूरज उदास दिखाई देता है -‘‘धरा पर/भरा तम/देख यह/सूरज उदास है।‘ (वही, पृष्ठ 22)। इसी संग्रह की ‘हार‘ कविता में भी सूरज हारता हुआ वर्णित है -‘‘अपनी किरणों को फैला-फैलाकर/सूरज आज दाँव हार गया।‘‘ (वही, पृष्ठ 68)। आदित्य प्रचण्डिया की कविता में अन्धेरे की जीत और प्रकाश की हार वस्तुतः व्यक्ति मन की आस्था, आशा और उत्साह की हार है जो परिस्थितिजन्य है। विषम परिस्थितियों में निराशा, भय और कायरता का आ जाना अस्वाभाविक नहीं है। निरन्तर बदलते सामाजिक ताने-बाने, राजनैतिक उठा-पटक और विश्व बाजार के दबावों ने मानव को भीतर से खोखला कर दिया है। परस्पर सौहार्द्र, भातृत्व एवं स्नेह-संबंधों में आत्मीयता का अभाव मनुष्य की स्वार्थ वृत्ति की उपज हैं। इसका परिणाम प्रचण्डिया जी इस रूप में देखते हैं-‘‘भीगे नयन/बुझते सुमन/उर में अगन/नेह, न, लगन/न कोई आस है।‘‘ वही, पृष्ठ 22)। वे जन-मन पर घिरे अविश्वास तथा भीतर-बाहर के संघर्ष और विद्वेष की भावना को इन्हीं से उत्पन्न हुआ मानते हैं -‘‘छिड़ा युद्ध/घर बाहर/छाया विद्वेष/जन-मन पर/घिरा अविश्वास है।‘‘ (वही)। जाहिर है कोई भी कवि अन्धेरे का महिमा मण्डन नहीं करता। वह उसके प्रकटीकरण के माध्यम से प्रकाश की कामना करता है। आदित्य प्रचण्डिया जी की भी यही अभिलाषा है -‘‘हर अँधेरे को/चाहिए दीप्त प्रकाश/जीवन नहीं अभिशाप/वह तो है वरदान/बस पाने के लिए/चाहिए आत्म विश्वास।‘‘ (वही, पृष्ठ 69)। इसी अर्थ में वे खिली धूप की आकांक्षा के कवि हैं।
‘खिली धूप‘ के कवि को जीवन-जगत का व्यापक अनुभव है। इसीलिए वह अपने इस काव्य-संग्रह को ‘जीवन-जगत का अनुभव कोश‘ सम्बोधित करता है। यों भी कोई कविता जीवन के सागर में गहरायी तक धंसे बिना संभव नहीं हो पाती। डॉ. प्रचण्डिया तटस्थ जीवन-द्रष्टा नहीं हैं। वे उसके साथ बहते हैं। चट्टानों से जूझते हैं। विपरीतताओं में धारा के साथ रहते हैं किन्तु लक्ष्य कभी ओझल नहीं होने देते। इन्हीं अनुभूतियों से सम्पन्न कवितायें दुख से लड़ने की ताकत देती हैं और सुख के सपने सजोने की जिजीविषा। जीवन में आगंत झंझा-प्रभंजन से कवि विचलित नहीं है। वह विपत्तियों/संकटों को मानव की सार्थकता का हेतु मानता है -“कहा मनुज ने/विपत्ति से/पीछे मेरे आप/पड़ी रहती क्यों ?/ विनय से/विपत्ति बोली-/बन्धु/आपकी उत्पत्ति की सार्थकता हेतु।‘‘ (खिली धूप)। ‘‘कितने रूप कितने रंग संग्रह की ‘लगाम‘ कविता में जिन्दगी से थका-हारा गरीब मंदिर में पहुँच जब प्रभु की मूर्ति के समक्ष अपना माथा झुकाता है तभी घनी पीड़ा के दो आँसू लुढ़कते हुए उसे दिखाई देते हैं और वह आश्चर्य में पड़कर ईश्वर से पूछ बैठता है-‘‘दर्द आपको किस बात का?‘‘ सिसकियाँ भरते/प्रभु बोले -‘‘भक्त/पूछो मत/दर्द मुझे/इस बात का/लगाम मेरी अब/इंसान के हाथ।” (पृष्ठ सं. 63)। इन दोनों कविताओं में दुख है और दुख के कारणों के प्रति जिज्ञासा भाव है। एक में विपत्ति से प्रश्न है तो दूसरी में सीधे भगवान से पूछा गया है। इन दोनों में दुख का संबंध मनुष्य से है और वही इससे मुक्ति का उपाय ढूँढ सकता है। मनुष्य जिधर चरण रख दे उधर ही मार्ग बन जाता है। हाथ की लकीरों में भाग्य की निशानी देखने वाला दुख-मुक्ति की राह में आगे नहीं बढ़ सकता। आदित्य प्रचण्डिया का मानना है कि कर्मशील व्यक्ति अपना भाग्य स्वयं गढ़ते-
‘‘यौवन मेरा
धधकता अंगारा
ताकत है मुझमें
श्रम का हूँ सितारा
किस्मत का दास नहीं
भविष्य पर विश्वास नहीं
हाथ ये उठ जाते जिधर
भाग्य वे गढ़ जाते उधर।‘
(कितने रूप कितने रंग, पृष्ठ 87)
डॉ. आदित्य प्रचण्डिया संघर्ष और जिजीविषा के कवि हैं। संघर्षशीलता एक साहसिक वृत्ति है। जिसमें साहस और पौरुष का अभाव होगा वह संघर्ष के पथ पर आगे नहीं बढ़ सकता। छोटी-छोटी समस्याओं/कठिनाइयों से भयभीत, दुखी और कातर होने वाले जय-यात्रा पर नहीं निकल सकते। प्रचण्डिया जी ऐसे लोगों में यौवन का अभाव देखते हैं -‘‘नन्ही सी दूब/पैरों में चुभी/तुम चीख उठे/जरा सा टुकड़ा काँच का/अंगुली से चिपका/तुम रो पड़े/लघु अंश हिम का/पीठ पर गिरा/तुम दब गए..... अंतिम साँसे यौवन गिन रहा।‘‘ (वही, पृ. 66)। ‘खिली धूप‘ काव्य-संग्रह में डॉ. प्रचण्डिया ने जीवन बोध उपस्थित करने के क्रम में शैशव, यौवन और वृद्धापन को दूध के उपमान से उपमित किया है- “दूध/पीने की अभिलाषा/उबालने की प्रक्रिया/फिर/उसका बिखरना/जीवन के हैं ये तीन पहलू/बचपन, जवानी और बुढ़ापा।‘‘ (पृष्ठ सं. 25)। किसी एक अन्य कवि ने भी दूध, दही, घी के उपमान से शैशव, यौवन तथा बुढ़ापे को इस प्रकार व्यक्त किया है -‘‘शिशु पय, बचपन है दही, यौवन घी का नाम/और बूढ़ापा छाछ है, आगे जय श्री राम।‘‘ जीवन ऐसा अमृत है जिसे पीकर अमर हुआ जा सकता है और ऐसा विष है जिसे निगलकर नीलकंठ बना जा सकता है। जीवन में बसन्त भी है और पतझड़ भी। यौवन बसन्त है और बुढ़ापा पतझड़। बसन्त तो आता रहेगा लेकिन यौवन वापस नहीं आ सकता यह जीवन की सबसे बड़ी विडम्बना है-“एक वृद्ध ने/कहा वृक्ष से-/वाह रे पतझड़/यह क्या?/फल-फल पल्लव नहीं/नग्न शाखों की/यह कैसी शोभा ? वृद्ध की झुर्रियाँ देख/खिलखिला उठा वृक्ष/आयेगा फिर बसन्त/यौवन कभी नहीं।‘‘ (खिली धूप, पृष्ठ 29)। इसीलिए प्रचण्डिया जी शोणित में ऊष्मा और नस-नस में जोश युक्त यौवन की आकांक्षा के कवि हैं। इसके बिना वे जीवन को मिट्टी समान मानते हैं-‘‘मिट्टी सम जीने में/मिलता न आत्मतोष।” (कितने रूप कितने रंग, पृष्ठ 87)।
‘खिली धूप‘ की कवितायें लध्वाकारीय हैं और मुक्त छंद में लिखित हैं जबकि ‘कितने रूप कितने रंग‘ में यथानाम तथा गुण के अनुरूप भाव, भाषा और शिल्प का वैविध्य है। जीवन की पहेली सुलझाने का प्रयत्न दोनों संग्रहों में है। ‘अस्तित्व‘ सभी तत्वज्ञानियों की चिन्ता और जिज्ञासा का विषय रहा है। ‘मैं कौन हूँ, ‘मेरे भीतर का प्रकाश कहाँ से ऊर्जस्वित होता है‘ आदि अनेक जिज्ञासायें भारतीय मनीषा को आकुल-व्याकुल करती रही हैं। डॉ. आदित्य प्रचण्डिया भी ‘अस्तित्व और प्रकाश को अपने ढंग से समझने बूझने की कोशिश करते हैं- “भाव श्रद्धा का/सदैव उमगा करता/अस्तित्व के प्रति/अन्तस में मेरे/क्योंकि/उनसे/मिला मुझे प्रकाश, विश्वास, श्वास/मैं हूँ उपासक/श्वास का/वह मुझे विश्वास देता/उसमें से/प्रकाश फूटता/और अस्तित्व से/साक्षात्कार होता है।‘‘ (खिली धूप, पृष्ठ 68)। ‘‘कितने रूप कितने रंग‘ की ‘आत्मतोष कविता में भी विश्वास और प्रकाश को लगभग इसी तरह वर्णित किया गया है -
‘‘जीवन में मेरे
अचल-अमर विश्वास भरा
साँसों में मेरी
इक नूतन उत्साह भरा
शिराओं में दिनकर-सा
उद्दीप्त ओज ।‘‘ (पृष्ठ सं. 86)
‘‘कितने रूप कितने रंग‘ की कविताओं में विश्वास की अपेक्षा कवि को अधिक है। लगता है कि उसे जीवन में अविश्वास अधिक मिला है। वैसे भी भूमंडलीकरण और बाजारवाद के इस युग में ‘भरोसा शब्द के प्रति लोगों की
धारणा बदली है। भरोसा खत्म होना मनुष्यता के लिए सबसे घातक बात है। आज पारिवारिक संबंधों के निर्वहन में जो कठिनाई आ रही है उसके मूल में ‘भरोसे का उठ जाना ही है। पिता-पुत्र में बढ़ती दूरियाँ, पति-पत्नी में तलाक की स्थितियाँ, पड़ोसी के साथ घटती नजदीकियाँ आदि परस्पर भरोसे के उठने के ही परिणाम हैं। आदमी अपने हृदय की बात भी खुलकर कहने में संकोच कर रहा है। तभी आदित्य प्रचण्डिया को कहना पड़ता है-‘‘दर्द दिल का/कहें वहाँ/विश्वास हो जहाँ ।‘‘ (कितने रूप कितने रंग, पृष्ठ 69)। कवि ने उन कारणों की पड़ताल भी की है जो दिल से दिल नहीं मिलने में बाधक हैं-
‘‘घुटन, आक्रोश
घृणा, उत्ताप
ईष्र्या की लपटें-विचारों को
न जलने देती
न जीने देती
हृदय को हृदय से
न मिलने देती। (वही, पृष्ठ 65)
कविता सामाजिक वस्तु है। भले ही उसका जन्म स्वान्तःसुखाय की परिणति क्यों न हो ? डॉ. प्रचण्डिया व्यष्टि निष्ठ नहीं हैं। उनकी कवितायें समय और समाज की गहन पड़ताल की उपज हैं। आज समाज में अनेक विकृतियाँ पैदा हो गई हैं। संबंधों में आत्मीयता का अभाव दिखाई दे रहा है तो उसका कारण स्वार्थ की बढ़ती प्रवृत्ति है जिससे कवि का दुखी होना स्वाभाविक है - ‘‘सगे संबंधी/आज बेगाने/हो गए/नाते रिश्ते/सब बेमाने/हो गए/स्वार्थ ही अब/संबंधों के पैमाने/हो गए।‘‘ (कितने रूप कितने रंग, पृष्ठ 57)। आदित्य प्रचण्डिया एक ऐसे कवि हैं जिनकी कामना ऐसे समाज की स्थापना की है जिसमें न दुःख हो न द्वन्द्व, न निराशा न हताशा, न रोग न शोक, न लोभ न मोह न कायरता न भय बल्कि ऐसा समाज जिसमें सुख हो, सद्भाव हो, मैत्री, प्रेम भाव हो। यह तभी संभव होगा जब व्यक्ति औदार्य, सौहार्द्र, सत्य, अहिंसा, सेवा, परोपकार, त्याग और बलिदान की भावना से आपूरित होगा। ‘खिली घुप‘ की अधिकांश कवितायें इन्हीं आदर्शों और जीवन-मूल्यों की स्थापना के पक्ष में एक बयान हैं। चूँकि कवि घोर मानवतावादी है इसलिए वह पूरब और पश्चिम का भेद नहीं मानता - वह मानव की जयगाथा का कवि है इसलिए वह मनुष्य को मनुष्य का शत्रु भी नहीं स्वीकारता-‘‘शत्रु मानव का/नहीं है मानव/मानव है मानव जैसा/शत्रु नहीं वह/जो है हमारे जैसा/आलोक देता दीपक/भले ही वह/वह पूरब या हो पश्चिम का/आलोक शत्रु नहीं आलोक का।‘‘ (खिली धूप, पृष्ठ 27)। कवि का मानना है कि मित्रता और शत्रुता व्यक्ति के व्यवहार और आचरण पर निर्भर है। व्यक्ति के पास प्यार और खार दोनों हैं-अब उस पर निर्भर है कि वह मित्र बनायेगा अथवा शत्रु-‘‘प्यार और खार/दोनों हैं हमारे पास/आगत को प्यार दे अपना मित्र बनायें/अथवा/खार दे कर व्यर्थ/अपना शत्रु बनायें।” (वही)। डॉ. आदित्य प्रचण्डिया को दुःख इस बात का है कि आज का आदमी खार वाला ही मिल रहा है -
‘‘जब भी निरीक्षण किया बाग-बगीचे का
वेशभूषा फूल की थी लेकिन खार निकले
हमने समझा था जीवन भर मासूम जिनको
जाँचा-परखा तो वह पुराने गुनहगार निकले।‘‘
(कितने रूप कितने रंग, पृष्ठ 129)।
त्याग, बलिदान, सेवा और समर्पण आदि मानवीय मूल्यों की वकालत करने में डॉ. आदित्य प्रचण्डिया का स्वर काफी बुलन्द है। जयशंकर प्रसाद ने ‘दया माया, ममता लो आज/मधुरिमा लो अगाध विश्वास।‘ तथा ‘समर्पण लो सेवा का सार‘ कहकर जिन महनीय मानव-मूल्यों की ओर संकेत किया था उन्हें जीवन में अपनाने की सलाह आदित्य प्रचण्डिया की कविताओं में भी है। ‘खिली धूप‘ संग्रह में उनकी कई कविताएँ सेवा, समर्पण और मर्यादा केन्द्रित हैं। वस्त्र और कैंची के संवाद में उन्होंने सेवा को ही केन्द्र में रखा है -“कहा वस्त्र ने/क्रूर कैंची से/अंग-भंग मुझे/करते क्यों आप/दिया उत्तर/कैंची ने सस्वर-/किसी अंग शोभा/हेतु है यह सेवा।” (खिलती धूप, पृष्ठ 33)। सूक्ष्म अन्वेक्षण और बौद्धिक परीक्षण की क्षमता वाले डॉ. प्रचण्डिया वस्त्र और कैंची के संबंधों में सेवा का भाव ढूँढ लेते हैं तो रंग और जल के बीच समर्पण का भाव भी रंग जलकण में घुलकर विस्तृत पट को रंजित करने में इसलिए समर्थ होता है क्योंकि उसमें समर्पण की भावना होती है -‘‘ रंग! लघुकण तेरे/विस्तृत पट को/रंजित करने में समर्थ हुए कैसे/जल में घुलते हुए/कहा रंग ने भाई मेरे/अपने समर्पण की भावना/इसका है प्रमुख कारण।‘‘ (वही, पृष्ठ 34)। ‘कितने रूप कितने रंग‘ की कविताओं में भी सेवा-समर्पण की बात कही गई है लेकिन यहाँ कवि एक उपदेशक की भूमिका में नजर आता है -
‘‘तन से कीजिए सेवा, मन से भले विचार
धन से इस संसार में करिये पर-उपकार ।‘‘
(कितने रूप कितने रंग, पृष्ठ 122)।
आज का समय कथनी और करनी में एकरूपता का नहीं है। मिथ्या आचरण और मिथ्या प्रलाप समाज के विसंवादी स्वर बनते जा रहे हैं। ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, अपमान और उपेक्षा के बढ़ते चरण संवेदनशील कवि को दुःखी और चिन्तित कर रहे हैं। लोभ-लालच ने रिश्तों की परिभाषा बदल दी है। इसीलिए आदित्य प्रचण्डिया को यह कहना पड़ता है -
‘‘लालच नर को लाचार बना देता है
आलस उसको बीमार बना देता है
जिन्दगी के अर्थ आज बदल गए हैं मित्रो
लोभ रिश्तों को व्यापार बना देता है। ‘‘ (वही, पृष्ठ)
‘कितने रूप कितने रंग‘ में विविध काव्य-शैलियों का प्रयोग किया गया है। छन्द और मुक्त छन्द के अतिरिक्त जापानी काव्य-शैली हाइकू का प्रयोग भी कवि की काव्य-क्षमता का प्रमाण है। इसमें प्रयुक्त बिम्बों से जीवन और समाज की जो छवि उभरती है वह भी विसंगति और विडम्बना बोधक ही है जैसे-“स्वार्थी रिश्ते/मतलबी हैं लोग/कंस बनते।” (पृष्ठ 107)। पिंजड़े के बाहर की निर्मम हवा में चिड़िया के उड़ने की भयावहता की समझ कवि प्रचण्डिया को अत्यधिक संवेदनशील बनाती है -‘‘चिडिया उड़ी/पिंजड़े के बाहर निर्मम हवा।‘‘ (वही)। अस्सी हाइकू में फैले विषय-विस्तार के निष्कर्ष जीवन-जगत की विषमता से युक्त हैं लेकिन उनका उद्देश्य केवल नकारात्मक चित्रण नहीं है बल्कि उनके माध्यम से सकारात्मकता तक पहुँचने की अभिप्सा है। साहित्य का यथार्थ कहीं न कहीं आदर्श की स्थापना के लिए ही होता है। विसंगति और विडम्बना का चित्रण सत्यम, शिवम और सुन्दरम की जड़ों के अभिसिंचन के लिए ही होता है। साहित्य में दृश्यमान विकृति का संसार वस्तुतः सौन्दर्य के सृजन और विकास की कामना लिए होता है और यदि ऐसा नहीं होता तो कोई ‘मैला आंचल‘ सरीखी रचनाओं को पढ़ता क्यों ? आदित्य प्रचण्डिया के हाइकुओं में अगर जिन्दगी रेतीली डगर और अंगार भरी लगती है तो वह कहीं न कहीं कुसुम-पथ की कामना की अभिव्यक्ति है। अपने अंतिम हाइकू में कवि ने अपनी अभिलाषा पूर्ण स्पष्टता के साथ प्रकट भी कर दी है -
‘‘पंकज खिले
अनुकूल आकांक्षा
आत्मज मिले।‘‘
(कितने रूप कितने रंग, पृष्ठ 113)
कविता न तो केवल मनोरंजन है और न ही केवल संदेश। दोनों का सामंजस्य कविता को लोकप्रिय और दीर्घ जीवी बनाता है। ‘‘खिली धूप‘ की कविताओं में इन दोनों का सम्यक निर्वाह हुआ है। कुछ कविताओं में संदेश उपदेश तक पहुँच गया है और इसीलिए उनमें कलात्मक प्रौढ़ता का अभाव दिखाई देता है। कुछ ऐसी भी कवितायें हैं जिनमें उपदेशात्मकता के बावजूद उत्कृष्ट काव्यत्व विद्यमान है। ‘मार्गदर्शन शीर्षक कविता प्रतीकों के बल पर निरा उपदेश होने से तो बची ही है उसमें काव्यत्व का भी सन्निवेश हो गया है-“बुझते दीपक से/चलेगा न अब काम/छोड़िये यहीं इसे/बढ़िये साहस लिए/गगन में गरजती/बिजलियाँ सागर में उफनती उर्मियाँ/करेंगी मार्गदर्शन/खुद बखुद तुम्हारा।‘‘ (खिली धूप)। इसमें कवि ने बिजली और लहरों का जिस तरह प्रयोग किया है उससे कविता क्रान्तिचेता और अग्निधर्मा बन गई है। झंझा प्रभंजन से भी बहुत कुछ सीख मिलती है। सपाट और सहज जीवन हर समय श्रेयस्कर नहीं होता विप्लव की ज्वाला भी उसमें वांछित है। ‘‘कितने रूप कितने रंग‘ के निम्नलिखित मुक्तक के माध्यम से कवि यही बताना चाहता है कि इस संसार में कुछ भी असंभव नहीं है। संभावनाओं की सिद्धि के लिए पूर्ण विश्वास के साथ मनुष्य को क्रांतिचेता और अग्निधर्मा बनना पड़ेगा -
‘‘शिखर पर पहुँचने के लिए प्रयास चाहिए
तिमिर दूर करने के लिए प्रकाश चाहिए
यहाँ संभव है सब कुछ मनुष्य के लिए बस
अंतर में कुछ करने का विश्वास चाहिए।‘‘
(कितने रूप कितने रंग, पृष्ठ 123)
ज्ञान-विज्ञान और तकनीकी के उत्कर्ष काल में भी मनुष्य ढोंग, ढकोसला, आडम्बर और अंधविश्वास आदि से मुक्त नहीं हुआ है और वह होना भी नहीं चाहता है। सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म के बीच युद्ध पहले भी हुए हैं। आज भी हो रहे हैं लेकिन उसमें पाखण्ड और धूर्तता का प्रवेश पहले की अपेक्षा कहीं अधिक है। कविता इस दुष्प्रवृत्ति के साथ मुठभेड़ करती है क्योंकि खतरा बाहर से नहीं भीतर से है। परायों से नहीं अपनों से है। यह मुक्तक इसी बात का खुलासा करता है -
‘‘खतरा दुश्मनों से नहीं गद्दारों से है।
खतरा चोरों से नहीं पहरेदारों से है
धर्म रक्षा के लिए सावधानी है जरूरी
खतरा नास्तिकों से नहीं ठेकेदारों से है।‘‘
(वही, पृष्ठ 121)
नूतन-पुरातन का द्वन्द्व हमेशा रहा है, आगे भी रहेगा। यही सृष्टि के विकास की प्रक्रिया है। इसे कोई सभ्यता के विकास से भी जोड़कर देखता है। कवि-मन विरासत को सँभालना चाहता है और नये से ऊर्जस्वित होना भी। जब वह पुरातन के ध्वंस की बात सोचता है तो उसका अन्र्तमन इसकी गवाही नहीं देता। उसे सभ्यता-विरोधी होना स्वीकार्य नहीं है-‘चीवर‘ प्रतीक के माध्यम से इस द्वन्द्व को उभारा गया है-“फटा-पुराना/पूर्वजों से मिला विरासत में चीवर/जी! मैंने उसे/आज तक सहेजा/मौके-बे मौके पहना/और मन है, अब उसे/फाड़ने को करता/यकायक खिड़की से/आवाज एक/हवा में गूंजती-फाड़ना इसे/सभ्यता के खिलाफ है।‘‘ (खिली धूप, पृष्ठ 102)। ‘खंडहर‘ कविता प्राचीन धरोहरों के प्रति सम्मान की कविता है।
आधुनिकता के रंग में रंगे लोग खंडहर नुमा प्राचीन धरोहरों को देखने आते और सम्मान के साथ शीश झुकाते हैं। आदित्य प्रचण्डिया चाहते हैं कि प्राचीन परम्परायें भी खण्डहर का रूप ले लें ताकि इनके प्रति भी लोग ससम्मान शीश झुकायें -
‘‘आधुनिकता में रँगे
हजारों लोग आते हैं
प्राचीन धरोहरों पर
शीश झुका जाते हैं
काश!
कितना अच्छा होता
प्राचीन परम्परायें भी
खंडहरों का रूप लेतीं।‘‘
(कितने रूप कितने रंग, पृष्ठ 79)
डॉ. प्रचण्डिया एक गहन अध्येता और विचारक हैं इसीलिए अपने को अलग झलकाने के लिए वे सदैव नवता की तलाश में रहते हैं। उनकी इस प्रयत्नशीलता ने ‘शोषक‘ शीर्षक कविता को जन्म दिया है जो अपने आप में विलक्षण है -“मच्छरों के दंश से/पीड़ित मनुज ने/सिसकी भरी जनाब/आपसे बढ़कर क्या/कोई है रक्त शोषक/भिनभिनाते/कहा मच्छर ने मित्र मेरे/यह सब मैंने/सीखा है तुम से।‘‘ (खिली धूप, पृष्ठ 62)। प्रगतिवादियों द्वारा शोषक-शोषित पर लिखी गई कविताओं से यह किसी भी अर्थ में कमतर नहीं है।
डॉ. आदित्य प्रचण्डिया सतत जागरुक, भावुक और संवेदनशील कवि हैं। वे अपनी कविताओं द्वारा हर तरह के तिमिर से जूझते और टकराते हैं। उन्हें लगता है कि प्रेम की उज्ज्वलता ही घनघोर अँधेरे को मिटा सकती है इसीलिए उनकी कविता में प्रेमराग की अधिकता है।
नयागाँव, चक्करगाँव, पोर्ट ब्लेयर, अण्डमान, मो.9434286189 ईमेल: tripathivyasmani@gmail.com
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कहानी
बीमार आदमी का इकरारनामा
श्री नरेन्द्र नागदेव
वह एक भव्य शयनकक्ष था। दीवारों पर बनी सुंदर मेहराबों के बीच-बीच में बड़ी-बड़ी पेंटिंगे लगी थीं- चैड़ी, सुंदर फ्रेम वाली। खिड़कियों पर ऊंचे-ऊंचे पर्दे टंगे थे। दीवार से दीवार तक लगा नक्काशीदार गलीचा था। छत से आकर्षक झाड़फानूस झूल रहा था, जिसके ठीक नीचे वे लेटे थे एक शानदार पलंग पर।
उनका गौरवर्ण चेहरा लंबी बीमारी से लड़ने के बावजूद अजीब ढंग से सख्त और रौबीला था, जो अधपके बालों में और भव्य लग रहा था।
मुझे उनके पास एक कुर्सी पर बैठा दिया गया था।
उन्होने आया को बुला कर धीमे से कुछ कहा।
आया मेरी ओर मुड़ी- ‘साहब पूछना चाहते हैं कि क्या उनके साथ दोस्ती करना आपको स्वीकार है?’
‘जी.....।’ मैने बिना हिले-डुले सधा हुआ उत्तर दिया। हालांकि उम्र में मै उनसे काफी छोटा था। किशोरावस्था अभी पार की थी मैंने। लेकिन पता नहीं उन्हे मेरे चेहरे पर चढ़ी तटस्थता भली लगी थी, अथवा बिलकुल बचपन से आंखों पर चढ़ी ऐनक की निरीहता।
‘किसलिए स्वीकार है?’ इस बार उन्होने मुझसे पूछा।
‘क्यों कि इसके बदले आप मुझे पैसे देंगे, जो मुझे चाहिए।’ मेरी आवाज का ठंडापन कायम रहा।
वे मेरी बात से खुश हुए।
‘तब ठीक है। अब मैं वकील को बुला कर दोस्ती का इकरारनामा टाईप करवाता हूं।’उन्होने कहा।
तुरंत साथ के कमरे से एक वकील भीतर आया। हाथ में कई कागज और पेन संभाले हुए वह साथ की कुर्सी पर बैठ गया।
‘तो लिखो...’ उन्होने पलंग के सहारे थोड़ा बैठने की कोशिश करते हुए कहा, ‘......कि यह इकरारनामा..... अब हम दोनों का नाम होगा.... के बीच दोस्ती के लिए है, जिसके ऐवज मे मैं इन्हें.... प्रति सप्ताह इतना पैसा दूंगा। अब आगे इसके नियम लिखो।’
‘आप चाहें तो मै खिड़की के पर्दे हटा दूं?’ आया ने बीच मे दखल दिया।
वे गुस्से मे भड़क उठे, ‘नहीं, उन्हें वैसा ही रहने दो।’ उनकी सांस चढ़ गई और उन्हे सहज होने मे वक्त लग गया।
‘हां..... तो पहला नियम लिखो कि हम दो शरीर एक प्राण नही होंगे..... क्यों कि उस स्थिति में कभी-कभी ऐसा लगता है कि हम कुछ पीछे हट कर वहां पहुंच जाएं, जब आपस मे कुछ दूरी थी और जब हम अधिक सहज भाव से हंसते-मिलते थे। मैं ठीक कह रहा हूं ना?’
‘जी.... जी।’ वकील ने सिर हिला कर नोट किया।
‘अब इसके आगे लिखो कि हम एक-दूसरे के जीवन मे दाखिल भी नहीं होंगे। रहेंगे अपने-अपने जीवन मे ही। क्यों कि एक-दूसरे मे घुल-मिल जाने के बाद ऐसा लगता है कि इससे तो अच्छा है कि पहले की ही तरह कहीं सड़क पर मिलें ओर एक-दूसरे से शिकायत करें कि यार, तुम तो मिलते ही नहीं.....। समझे ना? अब तुम इसे अपनी कानूनी भाषा मे लिख लो। ....चाहो तो एक ही प्वाइंट बना लो दोनों का।’
वकील देर तक कागजों पर लिख-लिख कर काटता रहा- इतनी देर तक कि उन्हें नींद आ गई।
तब आया ने मुझे इशारे से उठने के लिए कहा, और फिर मैं एक के बाद एक दालान पार करते हुए कोठी के बाहर की दुनियां मे पहुंच गया।
यह टूटा हुआ क्रम फिर अगले दिन जा कर ही जुड़ा। उन्होने मुस्करा कर मेरा स्वागत किया। पूछा कि क्या कल शाम को तुम्हे मेरी याद आई थी?
‘हां, यह तो ठीक है कि याद आई थी, लेकिन बस आ कर चली गई। मन में कुछ भी नही हुआ।’ मैने कहा।
वे फिर मेरी बात से खुश हुए।
वकील ने कुर्सी संभाल ली तो उन्होने आगे नोट करवाना शुरू किया, ‘... तो तीसरा प्वाइंट यह होगा कि हम दोनो आपस मे एक दूसरे के लिए कोई न कोई गांठ बांध लेंगे.... लिखा तुमने? लिखो कि यह हो जाने से हमें ऊपरी तौर पर हंस-हंस कर अपनापन जताना बहुत आसान पड़ेगा।’
‘साहब, क्या मैं फूलदान मे फूल बदल दूं ?’ आया ने फिर दखल दिया।
वे गुस्से मे सिर झटकने लगे, ‘फूलिश वूमन... सब भुला दिया। हमेशा यही करती है।’
हम उनके शांत होने तक सांस थामे रहे।
‘हां... तो अगला प्वाइंट यह है कि... नही, दरअसल यह पिछले प्वाइंट का ही विस्तार है, कि मन मे गांठ रहेगी तो हम बड़ी सहजता से उम्र भर साथ निभाने की बातें कर सकते हैं। ऐसी बातें करना तब बड़ा आसान हो जाता है।’
वकील की कलम तेज चलने लगी थी। मैं बुत की तरह बैठा था कुर्सी पर, दोनों घुटनों पर हथेलियां रखे। चेहरा बिलकुल सीधा। सिर्फ कभी-कभी नाक पर खिसक आते चश्मे को ऊंगली से ऊपर कर देता था।
‘तुम्हे इस बात पर आपत्ति तो नही है ना?’ उन्होने मुझसे पूछा।
‘ जी नहीं....’
‘ होनी भी नहीं चाहिए..... पता है क्यों ? क्यों कि मन मे कहीं गांठें पड़ी हो ना, तब हम आपस मे प्यार-मुहब्बत की बातें करते हुए बड़ी आसानी से अपने-अपने स्वार्थ संभाले रहते हैं.... अब आगे लिखो-कि हम बातें करते समय, एक-दसरे पर घात लगा कर बैठेंगे.... मौका मिला और दबोच लिया.... यह बहुत जरूरी है।’
वे खुशी और बेचैनी मे खांसने लगे। इतना कि आखिर आया ने आ कर उन्हे संभाला और बिस्तर पर लिटा दिया। उनके गले से घरघराहट की आवाज आ रही थी।
बैठक वहीं खत्म हो गई।
तीसरे दिन मुझे देखते ही उन्होने सवाल दाग दिया, ‘ कल मेरी हालत देख कर तुम सचमुच तो नही पसीजे थे?’ उनकी आवाज कड़क और रूखी थी।
‘नहीं, क्यों कि ऐसा करना हमारे इकरारनामे मे है भी नहीं।’ मैने अपनी स्थिति स्पष्ट की।
‘तुम बहुत सही चल रहे हो। मै भी ऐसा ही चाहता था।’
फिर वे वकील की ओर मुड़े, ‘आगे लिखो.... हम सहज भाव से निर्वाह करते हुए भी एक-दूसरे को कहीं न कहीं चोंट पहुंचाते रहेंगे।’
‘सर, क्या आप चाहेंगे कि चादर की जगह मैं आपको कम्बल ओढ़ा दूं ?’ आया ने दखल दिया।
वे गुस्से मे सिर हिलाने लगे। बाल नोचने लगे, ‘फॉर हेवंस.... तुम अपनी बेवकूफियों से कब बाज़ आओगी आखिर?’
लंबे इंतजार के बाद वकील ने पहल की, ‘अगर आप आगे सोंच रहे हों तो कृपया लिखवा दें।’
‘ हां लिखो.... हम कोशिश कर-कर के एक-दूसरे को एकाकीपन भी देते रहेंगे..... और अक्सर एक दूसरे को गलत समझेंगे।’
मैने तब नोट किया कि वकील बहुत तेजी से कलम चला सकता है।
‘....अंत में यह भी लिख सकते हो कि हम मन ही मन एक-दूसरे से कभी न मिलने की कसमें भी खाएंगे...अगर हममें से किसी ने एक-दूसरे से कोई अपेक्षा की, तो दूसरा अच्छे मित्र की तरह उसे कभी पूरे नहीं होने वाले आश्वासनों से बहलाएगा भी.... मेरा ख्याल है कि मैने अब मुख्य बातें तुम्हे बता दी हैं।’
‘क्या तुम अपनी ओर से कुछ जोड़ना चाहोगे ?’ उन्होने मेरी ओर मुड़ कर पूछा।
‘मैं इकरारनामे पर साईन करना चाहता हूं।’ मैंने कहा और मुझे हैरानी हुई कि पिछले तीन दिनों से मेरी आवाज के सपाटपन मे कुछ भी फर्क नही आया था।
आया ने इस बीच एक खिड़की खोल दी थी। आगे खुले इलाके का विस्तार नज़र आ रहा था, जो हरियाली और टेढ़े-मेढ़े रास्तों और छितराई झाड़ियों से उलझता हुआ दूर तक चला गया था। पहाड़ियों के ऊपरी सिरों पर कतारबद्ध धूप झिलमिला रही थी।
बाहर जाते हुए मैं एक क्षण को ठिठका था। मैं इस इकरारनामे के अनुसार तय की गई रकम की आधी किस्त चाहता था, जो मुझे तुरंत दे दी गई।
कुल मिला कर सब कुछ ठीक ही चलने लगा था। रोज एक खूबसूरत गाड़ी मुझे लेने आती और वक्त पूरा होने पर वापिस छोड़ जाती। कभी अगर बातों-बातों मे देर
अधिक हो जाती, तो उतना समय नोट कर लिया जाता, ताकि उसका पेमेंट अलग से किया जा सके-ओव्हर टाईम की तरह।
एक किस्सा वे मुझे अक्सर सुनाते थे, जो शायद किसी विदेशी फिल्म की कहानी थी कि महायुद्ध मे तमाम लोग एक शहर छोड़ कर चले गए। पूरा शहर पड़ा रह गया- अपनी अपार धन-दौलत और सजधज के साथ, वैसा का वैसा। बस, एक आदमी, जिसे सब मृत समझ कर छोड़ गए थे, होश मे आ गया... जरा कल्पना करो कि अथाह संपत्ति और निर्जन शहर मे एक अकेला आदमी... फिर क्या हुआ कि उसका एक दोस्त कहीं से रास्ता भटक कर भूखा-प्यासा वहां आ पहुंचा.... अब बताओ, कि पहला आदमी इस दूसरे आदमी के साथ क्या सुलूक करेगा?’ वे मुझसे पूछते धीरे-
धीरे होठों मे मुस्कराते हुए, पलंग पर हथेली से ताल देते हुए, जैसे कह रहे हों कि अब बताओ.... बड़े होशियार बनते थे...?
‘सर, पहला आदमी घात लगा कर दूसरे आदमी पर हमला करेगा।’ मैं उत्तर देता था।
वे खुशी जाहिर करते, ‘बिलकुल ठीक, यही उस फिल्म मे भी हुआ था। क्यों कि ऐसा ही होता है दुनियां में।’
एक दिन मैने मौका पा कर आया से पूछा भी था, ‘सुनो,.... क्या इस आदमी ने अपनी जिंदगी मे कभी बहुत गहरी चोंट खाई है ?’
आया एकदम सकते मे आ गई थी। सख्ती से मेरी ओर देख कर ऊंची आवाज में डांटने लगी थी, ‘तुम्हें अपने इकरारनामे से बाहर की बातें करने की इजाजत नही है। समझे ?’
पर एक बार मैं खुद बेवकूफी कर बैठा।
बातचीत के दौरान उस दिन वे बिस्तर पर इस तरह लुढ़क गए कि मुझे लगा कि वे मर गए हैं।
पता नही क्या हुआ कि एकाएक मेरी आंखों मे भरभरा कर आंसू आ गए। तभी उन्होंने आंखे खोल दी। वे मेरी आंखों मे पानी देख कर बिफर पड़े, ‘यह सरासर उल्लंघन है इकरारनामे का। तुमने सीधे-सीधे इसके नियमों को तोड़ा है।’
बड़ी मुश्किल से वकील ने आ कर मामला संभाला था। उन्होने मेरा पक्ष इस तरह प्रस्तुत किया कि जब इसकी आंखो मे पानी आया था, तब यह मान चुका था कि आप मर चुके हैं। और कानूनन अगर दो समझौता करने वालों मे से कोई एक मर जाता है, तो समझौता अपने आप ही खतम हो जाता है। इस तरह इसकी आंखों मे कांट्रेक्ट खतम होने के बाद पानी आया था।
लेकिन इस सब के बावजूद उनकी हालत दिन-ब-दिन गिरती जा रही थी।
सर्दियां शुरू हो गई थीं। खिड़की के बाहर पूरा माहौल ठंडा और भारी बन कर सामने के इलाके पर ठहरा होता था। बादलों के छोटे-छोटे टुकड़े आकाश मे छितराए रहते थे, और हवा जबर्दस्ती नही करती तब तक हिलते भी नही थे। चीले अकेली-अकेली उड़तीं और पेड़ों के असहाय ठूंठ सिहरते।
इसलिए खिड़की हम खोलते नहीं थे और फायर प्लेस में आग जलाने के दिन अभी आए नही थे। कमरे मे अनिश्चय का माहौल बना रहता।
लेकिन वक्त अधिक समय तक किसी चीज को अनिश्चय मे नहीं झुलाता। वह सब कुछ निश्चित कर देता है।
....उसी खूबसूरत गाड़ी मे एक दिन मुझे जल्दी-जल्दी बैठा कर ले जाया गया था।
मैं पहुंचा तब तक उनकी आवाज बंद हो चुकी थी। कुछ आखरी सांसें बाकी थीं। उन्होने आया की ओर देखा जैसे बड़े प्रयास से कुछ कहना चाहते हों। लेकिन कह कुछ भी नही सके।
आया ने तसल्ली दी, ‘आप निश्चिंत रहें- इकरारनामे के हर नियम का पालन किया जाएगा।’
उन्हे संतोष नही हुआ। उन्होने और भी अधिक विचलित हो कर मेरी ओर हाथ बढा.या। आंखें उनकी खुली पड़ रहीं थी, जैसे आंखों से कुछ कहना चाहते हों।
मैंने भी उसी तरह आश्वस्त किया, ‘आप निश्चिंत रहें- इकरारानामे के हर नियम का पालन किया जाएगा।’
पर उनकी आंखों में वह बेबसी एक बार जोर से भभक कर बुझ गई।
वे मर गए थे।
बाहर दालान मे आ कर कुछ देर मैं आया के चेहरे को ताकता रहा, बिलकुल बेवकूफों की तरह। अपने चश्मे के पीछे से, जैसा कि मै अक्सर ताकता हूं। और फिर मन में बहुत गहरे कहीं कसमसाती आशंका उनके सामने एकबारगी प्रकट कर दी, ‘....या कहीं ऐसा तो नही था कि वे आखरी वक्त में हमसे इकरारनामा तोड़ देने का आग्रह कर रहे हों? .... कि हम तमाम नियमों को तोड़ कर अंतिम समय में बेसाख्ता उनसे लिपट जाएं- अपने सम्पूर्ण और निश्छल प्यार के साथ...।’
आया अवाक-सी मेरा चेहरा देखती रह गई थी।
मेरा ऐनक नाक पर खिसक आया था और मैं उसे सही जगह पर पहुंचाने मे मशगूल हो गया था।
-वसंतकुँज, नई दिल्ली, मो. 9873498873
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सिन्धी कहानी
गरम स्पर्श
अनुवादः देवी नागरानी
लेखकः अर्जुन चावला
कैप्टन मनीष को आसाम से नागालैंड में तबादले का ऑर्डर मिला तो दिल कुछ उदास होने लगा। पर और भी बहुत सारे साथियों को तबादले के ऑर्डर आए थे यह जानकार कुछ ढाढ़स मिला। सोचा कुछ तो दोस्त साथ होंगे। वक्त अच्छा बीतेगा।
नागा विद्रोहियों की सरगरमियाँ काफी बढ़ी हुई थीं। यही देखते हुए पहाड़ी फौज की चार बटालियन कोहिमा में भेजनी जरूरी समझा गया। कैप्टन मनीष कोहिमा रेजीमेंट हैडक्वार्टर पर हाजिर हुए तो उसकी कम्पनी को कोहिमा से 60 किलोमीटर की दूरी पर खूबसूरत पहाड़ियों के दामन में फौजी कैम्प में पहुँचने का आदेश मिला। जैसे ही वे कैम्प पहुँचे तो चारों ओर नजर फिराते हुए बहुत प्रसन्न हुए। चारों तरफ ऊँचे पहाड़, उनपर साल और देवदार के पेड़। नीचे मैदानों में चारों ओर मीलों तक फैली हरियाली और सब्ज मख़मली घास। तरह-तरह के कुसुमित पुष्पों ने उसका मन मोह लिया। दूसरे दिन शाम को जीप में कैम्प से दो मील की दूरी पर निरीक्षण चैकी का मुआयना करके लौटे तो रास्ते में छोटे से रेस्टोरेंट में कॉफी पीने के लिए जीप रोक दी। भीतर कोने में पड़ी टेबिल पर कॉफी का ऑर्डर देकर बैठे ही थे कि उनकी नजर कुछ दूर बैठे एक जोड़े पर गई। दोनों ने मुस्कराते, गर्दन हिलाकर कैप्टन का अभिवादन किया। कैप्टन ने देखा कि दोनों स्थानीय थे। नौजवान टी-शर्ट और जीन्स में और चेहरे-मोहरे से नागा। पर लड़की स्कर्ट व ब्लाउज पहने हुए, ख़ूबसूरत सुडौल जिस्म, नाक-नक़्श तीखा! दोनों ने आपस में कुछ खुसुरफुसुर की और उठकर कैप्टन के पास आए।
‘हैलो सर, मे वी गिव यू कम्पनी?’
‘ओ शुअर, शुअर।’ कैप्टन ने चारों तरफ पड़ी कुर्सियों की ओर इशारा कराते हुए कहा। पहाड़ी वेशभूषा में बैरा कॉफी लेकर आया तो कैप्टन ने उसे दो कप और लाने के लिए कहा। बैरा कॉफी रखकर चला गया, पर वे तीनों तब तक चुप रहे। आँखों में हल्की मुस्कराहट, पर बिना कुछ कहे नागा नौजवान ने कॉफी का कप कैप्टन की ओर बढ़ाया।
‘थैंक यू।’’
कैप्टन ने कैंप लेकर उन्हें भी इशारा किया।
‘डॉली वांगजू,’ नौजवान नागा ने पास बैठी लड़की के कंधे पर हाथ रखते हुए उसका नाम बताया।
‘मी फिलिप’.फिर अपना नाम दोहराया। कैप्टन ने मुस्कराते हुए अपनी पहचान दी.‘मनीष।’
कैम्प में लौटकर मनीष ने हाथ-मुँह धोकर रात को मेस (भोजन-कक्ष) में डिनर खाने गया। वहाँ बातों-बातों में उसने मेजर खन्ना को नागा जोड़े के साथ हुई मुलाक़ात के बारे में बताया।
‘जोड़ी तो बहुत खूबसूरत थी, पर पता नहीं चला कि उनका आपसी रिश्ता क्या है?’
कैप्टन ने बड़े चाह के साथ कहा।
‘पर आपको चिंता क्यों है कि वे आपस में क्या लगते हैं?’
‘नहीं, नहीं, मेरा उसमें क्या!’ कैप्टन ने तत्पर जवाब देकर बात को टाल दिया।
दूसरे दिन पूर्व निर्धारित प्रोग्राम के अनुसार बागियों के खिलाफ अभियान में तीन दिन के लिए जाने का ऑर्डर मिला। कैम्प से लारियों का क़ाफिला उत्तर-पूर्व की तरफ रवाना हुआ तो नौजवानों में उत्साह था। उनके चमकते चेहरों से यूँ जान पड़ता था कि वे मैदान मारकर लौटेंगे।
कैम्प से रवाना होने पर मैदानी इलाक़े से गुजरते लारियों का क़ाफिला थोड़ी देर के लिए मिट्टी के गुबार में गुम हो गया। सिर्फ लारियों की इंजन की गड़गड़ाहट और जू-जू की आवाज सुनाई दे रही थी। कुछ देर के बाद मैदानी इलाक़ा पार करके क़ाफिला जैसे बोम-ला पहाड़ी के कच्चे रास्ते से ऊँचाई चढ़ने लगा, वैसे ही गुब्बार पीछे रह गया। दूर से जटिल पहाड़ी पगडंडियों में लारियों का सिलसिला इतना छोटा सा लग रहा था मानो बच्चों ने अपने लारी नुमाँ खिलौनों में चाबी भरकर एक दूजे के पीछे छोड़ दी हों। कैम्प में पीछे रह गए जवान हाथ हिलाकर क़ाफिले को देर तक विदा कराते रहे। पल में ही क़ाफिला ओझल हो गया। तीन दिन के बाद क़ाफिला लौटा। मुख़बिरों की सूचनानुसार फौजियों ने बोम-ला पहाड़ियों के पीछे बागियों के अड्डों को चारों तरफ से घेराव के पहले ही बागी फरार हो गए। सारा इलाक़ा छान मारा फिर भी कोई सुराग नहीं मिला।
कैप्टन मनीष दोस्तों के साथ ‘मेस’ में गप-शप करने के बावजूद भी बोरियत महसूस करने लगा था। एक दिन फिर जीप में बैठकर कैम्प से बाहर जाकर उसी रैस्टोरेंट में कॉफी पीने के लिए पहुँचा। भीतर पहुँचा तो उसकी नजर डॉली वाँगजू पर पड़ी जो कोने में पड़ी टेबिल पर अख़बार पढ़ रही थी। इस बार वह अकेली थी। कैप्टन मनीष अभी दूसरे कोने में पड़ी कुर्सी पर बैठ ही रहा था कि डॉली वहाँ से उठकर उसके पास आई।
‘हैलो कैप्टन।’ डॉली ने मुस्कराते हुए उसका अभिवादन किया।
‘हैलो मैडम! हाउ डू यू डू?’
मनीष उसका नाम भूल गया था। डॉली ने उसे याद दिलाते हुए कहा.‘डॉली सर!’
‘ओह डॉली प्लीज!’ कैप्टन ने अपनी गलती स्वीकारते हुए कहा।
डॉली फौरन दूसरी कुर्सी पर बैठी और उससे तीन चार दिन नजर न आने का कारण पूछा। पर मनीष ने ‘कैम्प से आने का मौक़ा न मिलने’ की वजह बताकर बात वहीं ख़त्म कर दी। दोनों ने मिलकर कॉफी पी। मनीष ने डॉली से उसके माँ-बाप के बारे में जानना चाहा। डॉली ने उसे बताया कि वह मिशनरी स्कूल से दो साल पहले मैट्रिक पास कर चुकी है। उसके माता-पिता दोनों मिशनरी स्कूल में टीचर थे। स्कूल के बाद दोनों मिशनरी के प्रचार का काम करते थे।
मनीष रह-रह कर डॉली की आँखों में निहारता रहा, उनमें बेहिसाब कशिश थी। बॉब कट सुनहरी बालों की लटें कभी-कभी हवा के झोंके से उसके सुर्ख़ गालों को चूमने की कोशिश कर रही थीं, जिन्हें डॉली बायें हाथ की कनिष्ठिका के लम्बे नाखून से निहायत खूबसूरत अंदाज में हटाती रही।
मनीष उसके चेहरे को बार-बार गौर से देख रहा था। सोच रहा था कि डॉली का नाक-नक़्श न बर्मी था, न ही चीनी वंश का। पहाड़ियों की तरह उसका नाक चिपटा और समतल भी नहीं था। बल्कि उत्तरी भारत के मैदानी इलाक़े के आर्य वंश का नाक-नक़्श था। बेपनाह हुस्न का ऐसा बुत देश के दूर-दराज घनी पहाड़ियों व वादियों में भी मिल सकता है.वह सोचता रहा।
मनीष का जी उठने को नहीं हो रहा था। पर कैम्प में वक़्त पर पहुँचना था। इसलिए डॉली की ओर मुस्कराकर उठने लगा। डॉली ने एक अजीब मुस्कराहट के साथ कंधे को एक मामूली झटका देकर इजाजत लेनी चाही, तो मनीष से रहा नहीं गया। डॉली का हाथ हाथों में थामकर उसकी आँखों में झाँकता रहा, जैसे उसके बेपनाह हुस्न को नजरों से एक ही घूँट में पीना चाहता हो। डॉली की मस्ती भरी निगाहों में मनीष पल भर के लिए अपनी सुध-बुध भुला बैठा। अचानक हाथ की उँगलियों पर डॉली के सुर्ख़ लबों का स्पर्श महसूस करते हुए होश में आया। उसका चेहरा सुर्ख़ हो गया। खुद को संभालते हुए अगले दिन मिलने का वादा करते हुए वह मुस्कराकर जीप में सवार होकर चला गया। पर रास्ते भर में एक अनोखा अहसास उसके साथ रहा। एक अजीब मादकता उस पर हावी रही। कैम्प में लौटकर थोड़ी देर के लिए वह अपने तम्बू में जाकर लेटा। काफी देर तक किसी ख़ूबसूरत ख़याल ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। काश, डॉली के साथ व्याह रचाकर उसे राजस्थान में अपने घर लेकर जा सकता। आकाश की इस अप्सरा को अपनी बांहों में भरकर प्यार करता, या कभी सामने बिठाकर सजदा करता। डॉली को हासिल करके, काश वह स्वर्ग के असली आनन्द का अनुभव कर पाता। घड़ी-पल की मुलाक़ात में मनीष को डॉली की शांत नीली आँखों की गहराई में एक अजीब कशिश के साथ-साथ नजदीकी और अपनापन भी नजर आया था।
दूसरे दिन फिर बागियों के खिलाफ अभियान का दूसरा चरण उत्तर-पश्चिम की तरफ जो-ला पहाड़ियों की घाटियों में निश्चित हुआ। शाम के वक्त अंधेरा होने के बाद मुख़बिरों की गुप्त सूचना के अनुसार फौजी दल जो-ला पहाड़ियों की तरफ रवाना हुआ। बागियों का दल जो-ला की बड़ी पहाड़ी के पीछे छिपे रहने की जानकारी थी। फौजी जवानों ने जो-ला दर्रे से काफी पहले लारियों को रोका और हथियारों के साथ पैदल चल पड़े। चाँदनी रात थी। दुश्मन की नजर न पड़े इसलिए छोटी-छोटी टोलियों में जो-ला दर्रे के नजदीकी द्वार पर पहुँचे और फौरन दो-दो आदमियों के ग्रुप में तितर-बितर होकर पहाड़ियों के घने झुंड की ओट में छुपकर मोर्चे संभाले बैठे रहे। कैप्टन मनीष ने अपने साथ तेज करन को रख लिया।
अमावस के बाद चैथे दिन वाला चाँद बहुत देर न रुक सका। अंधेरा जैसे-जैसे बढ़ने लगा वैसे-वैसे सिपाहियों की बेसब्री बढ़ने लगी। पता नहीं, शायद सारी रात यूँ ही टोह में बैठे गुजर जाये। यूँ ही इन्तजार करते रात का अन्तिम पहर आ गया। अचानक जो-ला दर्रे के छोर पर ऐसे लगा, जैसे कुछ धुंधली परछाइयाँ बिना आवाज के आगे बढ़ रही हैं। टोह में बैठे फौजी दल के सिपाहियों में हरक़त आ गई। सभी हाथ राइफलों और मशीन गनों के ट्रिगरों पर पहुँच गए, और कैप्टन मनीष के ऑर्डर का इन्तजार करने लगे।
धुंधली परछाइयाँ काले लिबास में धीरे-धीरे उन झाड़ियों के घने झुरमुट की तरफ बढ़ रही थीं, जिनकी ओट में कैप्टन मनीष और सूबेदार तेज करन टोह में बैठे थे। दूसरे दल से एक फौजी की राइफल से अचानक गोली चल जाने से दो साये एक तरफ दौड़े, और दो कैप्टन के दल की तरफ। कैप्टन की पिस्तौल की गोली से एक गिर पड़ा। फौजी दस्ते के लिये कैप्टन का यह इशारा जैसे ऑर्डर था। चारों तरफ से मशीन गनों से गोलियों की बौछार शुरू हो गई। जवाब में बागियों ने गोलियाँ चलाईं, पर कुछ देर के बाद जवाबी गोलियों की आवाज शान्त हो गई। फौजी दल की गोली बारी जारी रही। काफी देर तक जवाबी गोलियों के न आने से फौजी दल ने भी गोली बारी बन्द कर दी।
पौ फटते ही रोशनी का प्रभामण्डल बढ़ने लगा। फौजी पहाड़ियों से निकल कर अपने शिकार को कब्जे में करने के लिए उतावले हो रहे थे। पर कैप्टन ने उन्हें रोका, कि कहीं दुश्मन ताक लगाए बैठा हो और अचानक हमला कर दे। इसलिए सिर्फ दो फौजी जाकर लाशों का निरीक्षण करें। दो नौजवानों ने आगे बढ़कर झाड़ियों से लाशें ढूँढ निकालीं। कुल दो लाशें मिलीं। शिनाख़्त करने की कोशिश की गई, पर बेकार। इतने में कैप्टन और साथी भी पहुँच गए। बागियों की लाशों की पहचान पाना मुश्किल काम था। शक्ल से एक मर्द लग रहा था तो दूसरी औरत। दोनों ने गहरे नीले रंग की बुशर्ट और जीन्स पहनी हुई थी। जैसे ही दो जवानों ने उलटी पड़ी लाशों को सीधा करके लिटाया तो कैप्टन अकस्मात चैंक उठा। ‘डॉली! फिलिप! माइ गॉड।’ ऐसा कहते कैप्टन का चेहरा शांत और गंभीर हो गया। झुककर उसने डॉली के सर्द चेहरे से बालों की लट अपनी गरम उँगलियों से हटाकर दूर कर दी। पर डॉली का सर्द चेहरा मनीष की उँगलियों का गरम स्पर्श महसूस कर न सका!
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कविता
डॉ. रत्ना वर्मा, रायपुर, मो. 9425524044, 7974152853
बेतरतीब सी ज़िन्दगी
बिखरी पड़ी है
बेतरतीब सी ज़िन्दगी
मेरे कमरे के चारो कोनों में
कपड़ों की तरह तह करके
करीने से रखे जाने के इंतज़ार में
चलो आज अलमारी में
सजा देती हूँ उन्हें
कुछ अनजाने से रिश्ते
जो छूट गए हैं
किसी गलतफहमी में
चलो समेट लेती हूँ उन्हें
ताकि जाने के बाद भी
जिंदा रहूंँ उनकी यादों में
रह गईं हैं निभाने को
कुछ बातें, कुछ वादे
मलाल क्यों रहे जाने के बाद
क्यों ना वे सारे वादे, वे इरादे
चलो आज निभा लेती हूँ
सालों से दबी रह गईं हैं
कुछ स्वप्निल ख्वाहिशें
कुछ, डायरी के पन्नों में
कुछ, यादों के गुल्लक में
क्यों ना एक फ़ोल्डर बना
चलो आज सहेज कर
रख ही लेती हूँ
आँखों से झाँक रहे
उन अनगिनत प्रश्न चिन्हों का
जो कभी तुमने पूछा था बरसों पहले
चलो आज उन सबका जबाव
लिखकर दे ही ही देती हूँ
तो चलो आज
सबकुछ सहेजकर रखने का काम
पूरा कर ही लेती हूँ
फिर ना जाने
कब ऐसा मूड बने।
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लघुकथा
मजबूर
मालिक जैसे ही दफ्तर में दाखिल हुआ उसकी नजर युवक क्लर्क पर पड़ी जो बजाए काम करने के कुर्सी की पीठ पर सिर टिका कर बैठा हुआ था।खून भरे रुमाल से उसका नाक ढंका हुआ था। मालिक को गुस्सा आ गया, आखिर युवक काम क्यों नहीं कर रहा था। मैनेजर ने कल ही उसको इस युवक के बारे में बताया था,
‘‘सर नया लड़का काम में बहुत तेज है। जितना भी काम दो सब निबटा कर ठीक पांच बजे सीट छोड़ देता है।‘‘
‘‘गुड, सुबह जो क्लर्क नायर त्रिवेंद्रम से छुट्टी काटकर वापिस आया था, उसकी छुट्टी कर दो और उसकी सीट का काम भी इस नयें लड़के के साथ जोड़ दो।‘‘
मैनेजर ने दबी आवाज में एतराज किया,
‘‘सर नायर तीन साल से हमारे पास काम कर रहा है।‘‘
‘‘जो कहा गया है वो करो।‘‘
‘‘जी सर।‘‘
मैनेजर दुम दबा कर कैबिन से बाहर निकल गया।
अब मालिक गुस्से से भरा हुआ उस युवक की मेज के सामने खड़ा होकर उसे घूर रहा था। युवक ने आंखें खोली उपेक्षा से वापिस मालिक को घूरा, मालिक सकपका गया। क्लर्क दो क्लर्कों का काम खुद पर डाले जाने से कल से ही भन्नाया हुआ था।
क्लर्क ने एक बार सर उठाकर ऊपर चींटी की चाल से घूमते पंखे को देखा फिर मालिक को देखा और नकसीर के खून से भरा रुमाल उसके सामने फैला दिया। मालिक वितृष्णा से भर कर एक कदम पीछे हट गया। क्लर्क उपेक्षा से उठा हाल के कोने में पड़े वाटर कूलर के गर्म पानी से अपना रुमाल धोने लगा।
मालिक ने एक बार हॉल में नजर दौड़ाई सब उसे ही देख रहे थे। मालिक को देखता देख कर सब सर झुकाकर काम करने लगे। मालिक ने एक बार अपने कॉलर ठीक किए, गर्दन अकड़ाई और तेज कदमों से अपने केबिन की और बढ़ गया।अपने वातानुकूल ऑफिस में पहुंच कर वह अपनी रिवॉल्विंग चेयर पर फैल गया।
‘‘बहुत गर्मी है।‘‘
वह बुदबुदाया। कईं दिन पहले उसके पास क्लर्क की सीट का पंखा बदलने की मांग आई थी परन्तु उसने मना कर दिया था। वह सन्तुष्ट था कि नया पंखा खरीदने का पैसा तथा एक क्लर्क की पगार बच गई थी।
अपने अनुभव से उसे पता था कि उस युवक के घर की मजबूरियां उसे नौकरी छोड़ने नहीं देंगी। रही बात उसकी नाराजगी की तो वो भी जल्दी खत्म हो जाएगी। अभी गर्म खून है, थोड़े दिन उछल कूद करेगा फिर अपने आप लाइन पर आ जाएगा। सभी ऐसा ही करते हैं, सोचकर मालिक आत्मसंतुष्टि से मुस्कराया। दूसरों की मजबूरियों से फायदा उठाने का उसे बहुत अनुभव था।
तभी किसीने उसके केबिन का दरवाजा खटखटाया। मालिक ने कुर्सी पर सीधे बैठकर अपनी टाई ठीक की और बोला,
‘‘यस।‘‘
दरवाजा खुला और वही युवक क्लर्क अन्दर दाखिल हुआ। उसने हाथ में पकड़ा कागज मालिक के सामने रख दिया।
‘‘यह मेरा त्यागपत्र है, जिसमें मैने नियमानुसार एक महीने का नोटिस दे दिया है।‘‘
मालिक हक्का बक्का सा कभी युवक को और कभी उसके त्यागपत्र को देख रहा था। आखिर वह संभला और मीठी आवाज में बोला,
‘‘तुम यह नौकरी क्यों छोड़ रहे हो?तुम्हारा तो बहुत उज्ज्वल भविष्य है। तुम ऐसे ही मेहनत से काम करते रहे तो कल को तुम ऑफिसर भी बन सकते हो।‘‘
‘‘अब इन बातों का कोई फायदा नहीं है। आपको तो पैसे बचाने से मतलब है। नया पंखा नहीं खरीदना, बेशक कर्मचारी बीमार हो जाए। बस पैसे बचने चाहिएं। तीन साल पुराने ईमानदार क्लर्क को खड़े पैर नौकरी से निकाल दो और उसका सारा काम दूसरे क्लर्क पर लाद दो। ताकि वह अकेला दो क्लर्कों का काम करे और एक क्लर्क का वेतन बच जाए। ऐसी कम्पनी में मुझे काम नहीं करना।नमस्कार।‘‘
कह कर युवक दनदनाता हुआ केबिन से बाहर चला गया।
कविता
आज की रात
कैसी घुटन सी है दिल में मेरे, आज की रात,
कोई हमनफस नहीं है साथ आज की रात।
कैसी तेज शोर करती चल रही हैं हवाऐं भी,
अजब आंधी सी चल रही है आज की रात।
कौन जगाए कमबख्त, नींद से हसीं बुत को,
उन्हें जी भर के निहारेंगे हम आज की रात।
सुबह तलक इन चरागों को रोशन रखना,
बाद मुद्दत के ऐसा मंजर है आज की रात।
फरिश्ते नींद के आज हमसे रूठे लगते हैं,
बहुत देर तलक जागेंगे हम आज की रात।
मैं तन्हा ही अपने गीत लिखूंगा और गाऊंगा,
कोई हमनवा नहीं है मेरे साथ आज की रात।
आज की रात सितारों तुम भी मेरा साथ देना,
मेरा वो चांद छुप गया है कहीं आज की रात।
जुदा होकर तुमसे, मैं अक्सर उदास रहता हूँ ,
कैसी तन्हाई कैसी बेबसी है आज की रात।
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कविता
श्री आशीष कुमार वर्मा,गाजीपुर (यू.पी.) मो. 6388350456
माँ तुम हर पल क्यो चलती हो,
साथ आँखों में आंसु लिए रहती हो,
बया न कर सकता तेरे ऐहसानों का,
मेरी दुनिया हैं बस तेरे अरमानों की,
बेशक तुम लड़ती हो हालातों से,
मैं पहचान पाया तुम्हें उन जज्बातो से,
लड़ी थी दो रोटी जुटाने में,
माँ कभी पीछे नहीं हटती,
अपना फर्ज निभाने में,
मैंने देखा तूझे उन मझधारों में,
कभी न डरती तू उन हालातों से,
कितना मजबूत कंधा हैं तेरा,
कितना मजबूत इरादा हैं तेरा,
तू ही तो इस धरती की वो शृंगार थी,
तू ही तो उस ममता की वो पहचान थी,
तेरी छाया में मैं पला बड़ा हुआ
तेरा हर एक संस्कार मुझ पे पड़ा,
निभाती हो किरदार ऐसा ‘‘माँ ‘‘
जैसे बादल में छुपा हो पानी माँ ,
तेरे गर्भ मे पला मैं नौ महीने,
तू फिर भी चलती रही हर महीने,
‘‘माँ‘‘ तुम फिर भी चलती हो मेरी खातिर,
मेरा हर दिन ऊजाला हो बस इसी के खातिर,
तुझमे एक स्त्री के उस रुप को देखा,
बिन तेरे उस दुनिया को देखा,
खुद के आँखो मे उस दरिया को देखा,
तुझसे ही थी मेरी जिन्दगी,
बस यादो के संग थी मेरी जिन्दगी,
खुद की लिखावट मे तुझको देखा हैं ‘‘माँ‘‘
अब शब्द नही हैं लिखने को ‘‘माँ‘‘
लिखूँ तो आँखे भर आयेंगी,
बस इतना ही कहना हैं ‘‘माँ‘‘,
निःश्छल हैं माँ तेरी ममता,
निःश्छल हैं माँ तेरी ममता.......
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रेखा भाटिया की कविताएँ
सुश्री रेखा भाटिया, इंदौर, मध्यप्रदेश,
ईमेल: rekhabhatia@hotmail.com
वह नारी
वह नारी आज ठंडी देह बन
पड़ी है पार्थिव, स्पंदनहीन
न कोई प्रतिक्रिया
न कोई प्रतिशोध
आसपास वेदना भरे हृदयों की भीड़
निर्जीव देह में क्या अब भी है स्पंदन
उसका नारी हृदय स्पंदित होता था
उल्लास से जब लहरें समुद्र में मौज करतीं
जब घटायें घिर मेघों से अठखेलियाँ करतीं
जब हवा सीमाएँ तोड़ शोर मचाती
जब वर्षा आषाढ़ में घनघोर रूप धर लेती
एक नन्ही बालिका उसके भीतर कुलाचें भरती
यह नारी देह थी कभी नवनी अल्हड़ तरुणी
झरन हँसी उजास रंग यौवना
नेह भरी ,गुलाब की महक बिखेरती
आतुरता से निहारते सभी उस मिठास को
उसके हृदय में थी भावों की शून्यता
प्रेम के स्पंदन से बेसुध तरुणी
प्रेम अगन की आतुरता रात्रिकाल बनी
जिसकी विद्रूपता से कभी सवेरा न हो सका
यूँ तो परिपक्व हो चुका है समाज
बढ़ते विलास से नारी सशक्त की परिकल्पना
कई व्यक्त अपेक्षाएँ ,अव्यक्त उपेक्षाएँ
तरक्की के रस में गाद बनी नारी पीड़ा
धरा की छटा दोहन से खाक बनती
छदम नाद गूँजता समाज से वाह-वाह
अंतरमन के तालों में छिप जाती वेदना
संशयों में उसाँस लिए जीती जाती
उसके ख्वाबों की किरचों से घायल
युग बदल जाते पल वही रहते
दारुल दृश्य हर युग के भाग्य में
हर काल नारी सुलह करती समाज से
भंवर में फँसा काल, अंत विरह साँसों से
कई मत आज भी उभरे हैं दोष किसका
कई हृदय स्पंदित हैं एक आग से
जब ठंडी देह गर्मा रही चिता में !
चलो क्षितिज पार
तुम चलो क्षितिज के उस पार
अब नहीं रुकना है तुम्हें
किसी डगर विश्राम करने
कह दो मंजिलों से करें तुम्हारा इंतजार
भीतर जो आक्रोश भर लिया कभी
कुछ असफलताओं ने निराश किया
प्रेम में विरह कुछ कड़वा अनुभव रहा
मित्रों, अपनों का साथ भी आजमाता रहा
दुनियादारी की चाल अद्भुत मकड़जाल
खुद ही बुने , खुद ही बने शिकार
एक अवस्था उस घड़ी की परीक्षा
कभी ढलती शाम में तन्हा अकेले
एक शाम बादलों संग गुजारी है
ढलते सूरज को अलविदा कहा है
अँधेरा घिर आते विलुप्त हो जाता
दृश्य भान से अस्तित्व उस दिन का
उस घड़ी की अवस्था और बित जाता
सुबह होता नया जन्म नई उम्मीदों संग
सूरज के लौटने से गतिमान हो जाता
कर धन्यवाद उस क्षण का और बढ़ चल
यह धरती तपोवन है और जीवन तप है
तपकर कुंदन बन चमकना यही लगन हो तेरी
कर स्वाहा आक्रोश का जिसे दबाया भीतर
प्रवाहित कर उसे जोश में भीतर ज्ञानगंगा
कर चन्दन अपनी लगन का
तुम चलो क्षितिज के उस पार
अब नहीं रुकना है तुम्हें
भूत ,भविष्य ,वर्तमान निर्भर है
वक्त पर और वक्त तेरी लगन पर।
बादल कभी मरता कहाँ है
हवा मिली पानी से
पूछा उसका हाल
आज मिलकर बादल बनाते हैं
कुछ मीठे, कुछ खारे
बादल उड़ चले गगन में
मिले खुशगवार धूप से
चलते हैं पर्वतों के आँचल में
वादियों में झीलों की, हंसों की फुलवारी में
फुलवारी में मचलते बादल इठलाते
कुछ श्वेत कुछ अश्वेत रंग-रूप में
बढ़ चले मैदानों में, खेत-खलिहानों में
छूटा पीछे एक अश्वेत बादल भटका
भटक पहुँचा इंसानी बस्ती में
बस्ती प्यासी थी उजड़ी हुई
करुणा में बादल बरस पड़ा
नदी, नालों, झरनों में बह निकला
तृप्त प्यास बुझाता रगों में बहता
चाय,कॉफी ,पकवानों में घुलता
शरबतों, मयखानों में, शादी-समारोह में,
शामिल कर लिया उसे सभी ने जीवन में
सेवा वह करता रहा दिन-रात
मूल्य भूला उसका सभी ने दोहन किया
प्रदूषित कर मैला समझ छोड़ दिया
गुहार लगाता रहा अश्वेत बादल
बादल कभी मरता कहाँ है
वह प्यार लुटाता चल पड़ता है
अपने अगले गंतव्य पर किसी छोर
आँसूं बन आज टपका है नैनों के रास्ते
हवा पानी फिर बादल बनाएँगे
श्वेत बादल उड़ेगें मस्तमौले
अश्वेत बादल कहीं रोक लिए जाएँगे
बंजर जमीन पर जीवन-अमृत बरसाने।
मोह
कहीं से फिसल कर मोह
मन के मध्यम बह रहा
मध्यम प्रकाश में चमकता
मन का एक कोना पिघल रहा
पिघलते मोह ने ली एक सूरत
मोह मूरत , बनी मन की पहेली
कुछ सुलझी, कुछ उलझी ही रही
कुछ जाना, कुछ जानबूझ कर भूले ....
मोह अक्सर भटका देता है
मोह अक्सर पीड़ा देता है
मोह दिल में भरता जाता
मन भर मोह सांसारिक हो चला
मोह उलझाता है रिश्तों के जाल में
गुजरे रिश्तों में उम्मीद तलाशता
उम्मीदें दे जाती कड़वे अनुभव
मोह उलझाए रखता उसी जाल में
कभी प्यार का नाम देता
कभी कर्त्तव्य याद दिला देता
गीले-शिकवे कर मना लेता
न मानो कभी तो दलीलें देता .....
कतरा-कतरा चुरा समुन्दर से
समुन्दर भी चुराया जा सकता है
कतरा-कतरा बढ़ते मोह से
ढलती उम्र लड़ती रहती
मोह किस्मत बनाता, बिगाड़ता है
मोह का दोष है , मन को पता है
दे दोष किस्मत को मन उसी से झगड़े
आत्मा शरीर मोह में पड़ जाती ....
एक चित्रकार ने मोह में रंग भर
बाँध दिया प्रभु को भक्ति रंग में
रंग भर प्रकृति में रच मोह जाल
बाँध दिया प्रभु ने मनुष्य को संसार से
मोह धागों बँधे कृष्ण राधा-मीरा संग
राम ने त्यागा राजपाठ वचन मोह में
कैकयी ने खोया राम भरत मोह में
रावण ज्ञानी बन बैठा अपराधी मोह में .....
पंछी मोह में संग बगिया मोह में
नदी मोह में समाती समुन्दर में
राहगीर चलता रहता मंजिल मोह में
मोह में बँधे हैं, क्या शरीर मिट्टी है
मिट्टी के शरीर में जान फूँक दी
मोह ने उसी रूप की मूरत बना दी
मिट्टी के पुतले को पूजने लगे
अलौकिक मूरत है या भक्ति
मोह में जाना सब कुछ हो रहा है
साँसों की सरगम गाए गीत मोह के
थिरकते सभी डफली पर मोह की
यह मोह जाने क्यों मन में फिसला ...........
चलो गाँव लौट चलें
चलो गाँव लौट चलें
फिर से बुलाएँ बारिशों को
गड़गड़ाते बादलों संग झूमें
हल्ला-गुल्ला खूब शोर मचाएँ
बिखरे सपनों को जोड़ें
हल चलाएँ जोतें खेत
श्रम-साधना के गीत गाएँ
नहरों में कश्तियाँ चलाएँ
शुद्ध हवा में थोड़ा सुस्ता लें
भर प्राणवायु फेफड़ों में
अस्वस्थ शरीर को स्वस्थ करें
तरोताजा होकर श्रम करें
लहराते खेतों में बैठ सोचें
लें पक्का संकल्प, करें हवन
स्वावलंबन से , आत्मसम्मान से
प्रवासी नहीं भारतवासी हैं हम
शहरों के रास्ते गाँव तक मुड़ेंगे
गर जो मेहनत पर है भरोसा अपने
हर संघर्ष को सहर्ष स्वीकारेंगे
सरकारें झुकेंगी जब पेट में भूख लगेगी
मानवता को भूली है शहरी सभ्यता
आओ इन्हें याद दिलाएँ भारतीयता
परिश्रमी किसी के मोहताज नहीं
धरती पर जीवित रखते वह मानवता !
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काव्य प्रकार: ‘छंद मुक्त’
सुश्री तृप्ति अय्यर, भूतपूर्व शिक्षिका, संत कबीर स्कूल,
अहमदाबाद, ईमेल: yertk@gmail.com
मैं मध्य आयु कि औरत हूं
मैं मध्य आयु कि औरत हूं,
कुछ मेरे अपने मसलें है.....
मैं धान पूरानी कोठरी का,
मेरे सामने नई नई फसलें हैं......
कुछ मेरे अपने मसलें है।
शर्मींदा करते सब रोज़ यहां,
इतना भी क्या तुम्हें ज्ञात नहीं!!!!!
ज़रा देखो दूसरी औरतों को,
और कुछ भी तो तुम्हें आत नहीं!!!!
कुछ मेरे अपने मसलें है।
मैं भी तो उड़ना चाहती हूं,
तकनीके सीखना चाहतीं हूं.....
वो झटपट सब समझाय रहे,
और रिश्ता हर उलझाए रहे!!!
कुछ मेरे अपने मसलें है।
बच्चों कि दो - टुक बातों से,
मैं भितर ही मुरझाए रही,
धर खारे असुअन आँखों में,
मैं बाहर से मुस्काए रही!!!
कुछ मेरे अपने मसलें है।
सटरपटर अंग्रेजी में,
घर में सारे बतियाते है,
जब मतलब पुछो बातो का,
तो टालते और टरकाते है!!!
कुछ मेरे अपने मसलें है।
अब और नहीं बस सोच लिया,
ग़म का हर छाला फोड़ दिया.....
राहों को अपनी मोड़ लिया,
कुछ कहना पुछना छोड़ दिया.....
जाने दो जो भी मसलें है।
बरसों का पिंजर तोड़ दिया,
और कलम से रिश्ता जोड़ लिया....
रीसते दुखते हर छाले को,
गीतों ग़ज़लों में मोड़ दिया.....
जो भी वो मेरे मसलें थे,
अब, गीत काव्य और ग़ज़लें है।
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प्रसंगवश
संवेदना और खुशहाली के वैश्विक इंडेक्स में राजनीति
आशुतोष आशु ‘निरूशब्द’
राजनीति एक भयंकर युद्ध है। इस अखाड़े में घुसना और लड़ना साधारण मनुष्य के बस की बात नहीं। क्योंकि राजनीति वास्तव में हथियारों से लड़ा जाने वाला युद्ध नहीं; ऐसे सभी योद्धाओं को मेरा नमन।
हथियारों की लड़ाई आसान होती है। जिसे शस्त्र चलाने का थोड़ा-बहुत अनुभव और कौशल प्राप्त हो, वो व्यक्ति युद्ध लड़ने जा सकता है। मगर राजनीति में शस्त्र से ज्यादा समाज की सोच, व्यवहार और उसकी प्रतिक्रिया को नियंत्रित करने के लिए साम-दाम-दंड और भेद जैसे हथियार चलाने की योग्यता आवश्यक है।
प्रत्येक मनुष्य से ऐसी योग्यताएं रखने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। हालिया घटनाओं को देखकर तो प्रतीत होता है कि राजनीतिक जंग लड़ने के लिए व्यक्ति के पास पाश्विक बुद्धि होना भी जरूरी है। अब समाज का प्रत्येक व्यक्ति पशु तो नहीं हो सकता, इसलिए यह जरूरी नहीं कि सबकी योग्यता का आकलन एक ही चश्मे से किया जाए।
हमारा समाज, मनुष्य-जीव और प्रकृति की सामूहिक संघटना है। इन समस्त तत्वों के बीच सामंजस्य बिठाने में ‘संवेदना’ नामक घटक की भूमिका महत्वपूर्ण है। अतः ‘संवेदना’ की अनुपस्थिति में ‘समाज’ शब्द की परिकल्पना रेत का महल खड़ा करने जैसा बचकाना उद्योग होगा। ऐसे महल पानी की एक लहर से ही बिखर जाते हैं।
मगर इससे विपरीत, सामाजिक तानेबाने पर आधारित हमारी मानवीय जीवन-व्यवस्था सदियों पुरातन तथा अ-क्षर जान पड़ती है। अतः सिद्ध है कि मानवता को राजनीति ने नहीं प्रत्युत ‘सामूहिक-संवेदना’ जैसी साधारण बौद्धिक उपलब्धि ने मजबूत बनाए रखा है।
वैश्विक पारिस्थितिकी पर नजर दौड़ाएँ तो राजनीति का इतिहास भी उतना ही पुरातन प्रतीत होता है जितनी पुरातनता हमारे संगठित होकर जीवनयापन करने की सामाजिकता में विद्यमान है। मगर गूढ़ विश्लेषण करने पर आप पाएँगे कि हमारी सामाजिकता वास्तव में राजनीति से कहीं ज्यादा पुरानी व्यवस्था है। अन्यथा सामाजिक ढाँचे में एक दूसरे का सहयोग किये बिना मानवता की जीवन यात्रा इतना लम्बा कालखंड कभी तय नहीं कर पाती।
यदि जन्म लेना तथा निहत्थे होकर भी उत्तरजीविता की शर्तों पर खरा उतरना ही अपने आप में आत्महत्या के इलाही फरमान सरीखा हो, तो ऐसी कष्टकारी आरंभिक सामाजिक-स्थिति में एक-दूसरे का सहयोग करते रहना और अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। कदाचित राजनीति का उदय तो बहुत बाद में हुआ होगा।
मेरे मतानुसार स्त्री-सत्तात्मक समाज का बोलबाला खत्म करने के लिए उठाए गए अनेक कदमों में से ही एक कदम था राजनीति का पदार्पण ! शायद यही पहला कदम था।
स्त्रियाँ पुरातन सामाजिक सभ्यताओं के अभ्युदय की विशेषता रही हैं। सामाजिक प्रगति की दिशा और उसकी ऊँचाई निर्धारित करने में स्त्रियों ने ही महत्वपूर्ण भूमिका वहन की थी। प्रारंभिक स्थितियों में समाज के समस्त पायदानों पर - परिवार से लेकर कुनबे अथवा ग्रामीण परिवेश तक - स्त्रियों की सत्ता थी।
बच्चों के जन्म से लेकर उन्हें पालने तथा सामाजिक आदान-प्रदान एवं परिवार में अच्छे-बुरे के प्रति निर्णय लेने का अधिकार स्त्रियों के पास सुरक्षित था। पुरुषों के पास उनकी जमापूँजी केवल हथियार थे जिनके सहारे वे परिवार की आजीविका कमा कर लाते थे।
पुरानी पीढ़ी के अनेक परिवारों में आज भी उसी व्यवस्था की पुनरावृति देखी जा सकती है जहाँ पुरुष अपनी कमाई पत्नी के हाथ में देकर पारिवारिक उत्तरदायित्वों से मुक्त रहते हैं तथा परिवार के प्रति समस्त निर्णय करने हेतु स्त्री स्वतंत्र रहती है।
मैं यह तो नहीं कहता कि इसे समाज की आदर्श व्यवस्था का सुनहला पन्ना कहा जाए, परन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि इस समय तक के इतिहास में मनुष्यों के मनुष्यों के ही विरुद्ध विध्वंसक युद्धों के उल्लेख नहीं मिलते; हो सकता है इस विषय पर मेरा अध्ययन थोड़ा कमती हो, किसी पाठक के संज्ञान में यदि कोई ऐसा ऐतिहासिक युद्ध आया हो जिसमें स्त्रियों द्वारा कुनबे पर सत्ता हासिल करने के उद्देश्य से दूसरे कुनबे का समूल नाश करने का उल्लेख हो तो अवश्य सूचित करें।
मगर समय के पन्ने उलटने पर ऐसे अनेक पड़ाव भी दिखते हैं जहाँ सत्ता प्राप्त करने के लिए सामाजिक व्यवस्था को ही पलटने का अंतर्विरोध नजर आने लगता है। पहले पहल इसकी नींव साम्राज्यवादी विचारधारा के नवोन्मेष की आधारशिला पर रखी गई।
पुरुषों ने संगठित होकर कुनबे का विस्तार एक साम्राज्य के रूप में करने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया होगा; तरकीब चल निकली। साम्राज्य पुरुषों ने जीता था, इसलिए उसकी सत्ता को घुमाने वाली चाबी भी पुरुषों के हाथ आ गयी। सब कुछ इतने चुपचाप तरीके से हो गया कि किसी को कानोंकान खबर भी न हुई। सांप तो मरा, लाठी भी न टूटी।
अब जब लोग स्त्री सशक्तिकरण की माँग उठाते हैं तो मैं असमंजस में पड़ जाता हूँ कि राजनीति स्त्रियों के सशक्तिकरण के मुद्दे पर की जा रही है या फिर उनसे सत्ता छीनकर उनका क्षणिक तुष्टिकरण करना राजनीतिक मुद्दा है!? इसलिए मुझे लगता है कि राजनीति में संवेदना का स्थान खोजना गधे के सर पर सींग खोजने जैसा काम है।
जिस उद्योग की आधारशिला ही छल-कपट और छीना-झपटी जैसे प्रपंचों पर आधारित हो, वहाँ सदाचार, समानता, समरसता, समायोजन, सदाशयता, समालोचन, नैतिकता जैसे शब्द अपना अर्थ खो देते हैं। यदि हमारे हाथ यही कुल सामाजिक ढाँचा शेष है तो अब इसी में संतोष कर लेना हितकर होगा।
राजनीति में चूंकि पाश्विक अंश समाहित है, इसलिए संवेदनशील मस्तिष्क इस व्यवसाय में मगज खपाई नहीं करते; क्योंकि देश के पुनरुत्थान में योगदान देने की दृष्टि से उनके पास कई अन्य विकल्प (वैज्ञानिक, वैचारिक, नीतिगत शोध इत्यादि) खुले रहते हैं। वास्तव में यही वे महत्वपूर्ण लोग हैं जो किसी भी देश की प्रगति का वास्तविक आधार सिद्ध होते हैं। अन्यथा ऐसे उदाहरण कम ही देखने को मिले हैं जहाँ सामाजिक विनिर्माण की दृष्टि से राजनीति ने सकारात्मक भूमिका वहन करने का बीड़ा उठाया हो।
हालांकि इस तथ्य को भी दरकिनार नहीं किया जा सकता कि अधिकार दिलाने हेतु आंदोलन खड़े करने में राजनीति का महत्वपूर्ण योगदान रहा है, किन्तु सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर आप पाएँगे कि वहाँ भी ‘सत्ता-प्राप्ति’ ही उनकी आंदोलनरत प्रेरणा का मुख्य स्रोत था। ऐसी मोहवश प्रेरणाओं के समक्ष सामाजिक सरोकार गौण होते चले जाते हैं।
अंग्रेजों के जमाने के पत्रकार लुई फिशर ने मोहनदास कर्मचंद गाँधी पर तत्कालीन वायसराय की टिप्पणी को उद्धृत करते हुए एक महत्वपूर्ण बात उजागर की है।
वे लिखते हैं - ‘पर वायसराय ने मुझे कहा था, ‘गाँधी के बारे में कोई गलती मत करना। यह बूढ़ा भारत में सबसे बड़ी चीज़ है... यदि दक्षिण अफ्रीका से लौटकर सीधा साधू बन जाता तो वह भारत को बहुत आगे तक पहुंचा देता... पर वह राजनीति के लोभ में पड़ गया। पर उसका प्रभाव बहुत गहरा है’।’ यह टिप्पणी सचमुच महत्वपूर्ण है तथा वायसराय का उपरोक्त कथन हमें मनन करने पर विवश करता है।
इस कथन में गाँधी मात्र रूपक है। समाज के अनेक प्रबुद्ध व्यक्ति, जो अपनी वैचारिकता तथा संवेदनशीलता के माध्यम से देश को प्रगतिपथ पर अग्रसर बनाए रखने का माद्दा रखते थे, लोभवश राजनीति का शिकार हुए तथा हाशिए पर धकेल दिए गए। चूंकि ऐसे लोग संवेदनशील व्यक्तित्व होते हैं, इसलिए केवल निजी प्रगति के लिए वे पाश्विक सोच पर नहीं चलने का दुराग्रह नहीं ठान पाते, तथा अलग-थलग पड़ जाते हैं ।
अपने मनोरंजन हेतु जीवों का आखेट करना ऐसे
बौद्धिक प्राणियों के व्यक्तित्व का हिस्सा नहीं होता। गाय और बुद्धिमान मनुष्य के चरित्र में यही समानता दृष्टिगोचर होती है। यही कारण है कि गाय और बौद्धिक मनुष्य शांत और निश्छल रहते हुए भी समाज के उत्थान और उसकी प्रगति में बिना शोर मचाए सकारात्मक योगदान देते चले जाते हैं; अपवाद होना साधारण नियम है। मैं सोचता हूँ कि क्या इसी कारणवश आज भी प्रबुद्ध समाज खुद को राजनीति से अलग रखता है, तथा निहित कर्म में ही संलग्न रहने को अधिक श्रेयस्कर मानता है!
मगर पिछले कुछ समय में परिस्थितियाँ परिवर्तित हुई हैं। राजनीति ने जानबूझकर बौद्धिकता को भी अपने लपेटे में ले लिया है। वे इस कुकृत्य को सामाजिक इंजीनियरिंग जैसे शब्द का लबादा ओढ़ाकर अपनी प्रशंसा करते नहीं अघाते।
बहरहाल हमें आशंका है कि आने वाले समय में यह कदम बेहद खतरनाक तथा आत्मघाती सिद्ध होने वाला है। क्योंकि बुद्धि का बिखराव तथा बौद्धिकता का विभाजन कभी भी समाज का हित नहीं करता।
जिस बुद्धि को सामाजिक उत्थान के नवाचारों पर केंद्रित होना था, वही बुद्धि यदि मत-मतांतरों की स्थापना पर केंद्रित हो जाए तो स्पष्ट है कि वैचारिकता कुंठित तथा सीमित होते जा रही है। इसलिए समाज में जो कुछ घटित हो रहा है उस सब पर युवाओं को दृष्टि बनाए रखनी होगी। अन्यथा विघटन की अवधि बढ़ते जाने की संभावना है।
लम्बे समय से राजनीति समाज को उलझाए रखने में सफल होती आई है। कभी अधिकार दिलाने के नाम पर तो कभी जाति, धर्म और आरक्षण के बल पर - राजनीति ने अपने होने की सार्थकता को सिद्ध करने में कोई कोर-कसर शेष नहीं छोड़ी। अब समय परिपक्व है कि समाज राजनीति को उसके ही बनाए मकड़जाल में उलझाने का साहस दिखाए।
गरीबी, शोषण, शिक्षा, रोजगार तथा प्रगति के मानकों पर चर्चा होनी चाहिए। इन विषयों से जुड़े मानकों को सार्वजनिक किये जाने का उद्घोष हर गली कूचे में सुनाई देना चाहिए। समाज को भी पता पड़े कि राजनीति ने सामाजिक प्रगति, जिसमें समाज की खुशहाली सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है, में क्या सकारात्मक योगदान दिया है।
गरीबी और खुशहाली के वैश्विक इंडेक्स पर तो हालात बड़े खुशहाल नजर नहीं आते। कहीं ऐसा तो नहीं कि सत्ता तक पहुँचते ही पाश्विक नजरिए में खुशहाली की नजर भी सीमित हो जाती है!
-गुलेर, काँगड़ा, हिमाचल प्रदेश, मो.9418049070
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लघुकथा
पटाखे और मिठाई
दीपावली से दो दिन पहले रेणु और पुनीत को पापा ने सौ-सौ रुपए देकर कहा कि यह आप दोनों बच्चों के लिए दीपावली का उपहार है। इसे आप दोनों अपनी मर्जी से किसी भी अच्छे काम के लिए खर्च सकते हो। दीपावली का दिन आया तो पापा बाजार से और भी बहुत तरह के उपहार, पटाखे और मिठाई ले आए।
बच्चों को पास बुलाकर पूछा कि आप दोनों को कौन-कौन से पटाखे और खिलौने चाहिए। दोनों ने मेज पर पड़े पटाखों और खिलौनों में से अपनी-अपनी मर्जी से छांट लिए। तोहफे लेने के बाद भी नन्हे पुनीत की नज़र मेज पर पड़ी पटाखों और फुलझड़ियों पर टिकी रहीं। पापा ने देख लिया और पूछा कि तुम्हें और चाहिए क्या ? बेटे पुनीत ने बड़ी मासूमियत से कहा कि मुझे अपने लिए नहीं,किसी और को देने के लिए चाहिए।
पापा ने पूछा कि तुम किसे देना चाहते हो तो पुनीत कहने लगा--वो कपिल है न,जो मेरी क्लास में मेरे साथ पढ़ता है, उसके पापा नहीं है, मैं उसे देना चाहता हूं।दे दे दूं क्या। पापा बेटे की बात सुनकर हैरान रह गए। उन्होंने तुरंत हामी भरी और दोनों बच्चों को साथ लेकर कपिल के घर चल दिए। उसे पटाखे और मिठाई देकर लौटने लगे तो नन्हे पुनीत ने अपनी जेब में सम्हाल कर रखा सौ रुपए का नोट उसे दे दिया और कहने लगा कि पापा कहते हैं कि किसी को भी गिफ्ट खाली नहीं दिया जाता।पापा बड़ी हैरानी से नन्हे पुनीत को देखते रहे और उन्होंने पुनीत को अपनी बाहों में भर लिया।
डाॅ जवाहर धीर, बंगा रोड, फगवाड़ा पंजाब, मो. 9872625435
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कविताएँ
जीवन मायावी नहीं होता
परवरिश ने समझाया
रिश्ते ही तो
बनाते है जीवन
मैं भी बुनने लगी
रिश्तों का ताना बाना
हर रिश्ते को
सहेजने लगी
जीवन की सीप में
अपनी अपनी शर्तों के साथ
सीप रिश्ते जुड़ते चले गए
शर्ते पूरी हुई
टूटते चले गये
पूजा की थाली
रिश्तों के इंतजार में
खाली होती चली गई
रिश्ते क्या ....धागे ही तो थे
टूटते चले गये
हर रिश्ता हाथ से निकला
पर मोती कहां बन पाया
अब बेजान सीपें समेटे
खेल लेती हूं रिश्तों से
खेल ने सिखा दिया
मुझको भी
अपनी सीपों को संभाल कर रखना
मेरे पास
मोती नही तो क्या
सीपें हैं, ओर
हर मोती यही से तो निकला है....
जीवन का मूल्यांकन करती हूं
तो रिश्ते लगते है छलिया
डराते भी हैं
पर जीवन मायावी नही होता
रिश्ते जरूर मायावी
बन जाते हैं.....
पतझड़ का घेरा शाश्वत है
पात ओर शाख का
अटूट विश्वास है
पर फिर भी पत्ता
टूट जाता है शाख से
पतझड़ में अनमना होकर
पर इसमें ही जीवन का चक्र है
फिर लहलहाने लगती है
नई कोंपल,
तितलियों के झुंड के साथ
औऱ इठलाने लगती है
शाख भी हरीतिमा होकर,
पतझड़ के भी रूप अनेक होते हैं,
पतझड़ में ही आम में बौर होता है,
पतझड में ही कोयल का शोर होता है,
पलाश का रंग रक्तिम होकर
ललचाता है पतझड़ में,
दूर बैठकर कोई राग गाता है पतझड़ में,
पतझड़ औऱ शाख का अजीब सम्बन्ध है,
पत्तों के बोझ से ही डाली इठलाती है
पत्तों के बोझ से ही तंग आकर उन्हें गिराती है
सूखी डालें कंकाल बन जाती,
शाख से ही पात है
ओर पात से ही शाख हैं
इनमें ही जीवन की नई आस है हरीतिमा मुस्कुराती है
फिर सुरमई हो जाती
पतझड़ में डाल से
टूट कर गिर जाते है
फूल मिट्टी में मिल कर
मिट्टी को महकाते है
नए पत्ते फिर श्रृंगार पाते है
शाख पर मुस्कुराते है
जीवन का यह चक्र है
जो पतझड़ कहलाता है
पर उसके बाद ही बसन्त आता है , सूखा जीवन फिर हृष्टपुष्ट हो जाता है
शीत के बाद पतझड़ का घेरा शाश्वत है
ऐसे ही पात ओर शाख का विश्वास भी शाश्वत है
यह चलता रहेगा जीवन के नए रंग लेकर
जीवन को अपने संग लेकर .......
डाॅ. सीमा शाहजी, थांदला जिला झाबुआ, मो. 9425972317
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कविताएँ
श्री अरविंद अवस्थी, मीरजापुर, उप्र, मो. 9161686444
सोच
सोचता हूंँ
हमारे अंदर होता एक पेड़
जिसकी हरी- भरी डालियांँ
बन जातीं परिंदों का बसेरा
जिनकी छाँह में
सुस्ता लेता पल भर
थका - हारा राही
जिसमें खिलते
सद्भावनाओं के फूल
और बाँट आते खुशबू
खेत - खलिहानों
गाँवों- गिरावों से
गली- चैराहों तक
हमारे अंदर का पेड़
लदकर झुक जाता
अच्छे विचारों के फलों से
और दोनों हाथों लुटाता
बिना पक्षपात के
पीकर कार्बन डाई आक्साइड
छोड़ता रहता ऑक्सीजन
आबो- हवा को
शुद्ध रखने के लिए
देख लिया मैंने
आदमी की करतूत को
इसलिए सोचता हूँ
हमारे अंदर भी
होता एक पेड़
जो अपने पेड़ होने को
कभी नहीं भूलता
वर्ग
जानते होंगे आप
गणित में वर्ग की परिभाषा
बनाएँ होंगे पन्नों पर
वर्ग की आकृति
कई - कई बार
बराबर होते हैं
जिसके चारों कोण
बराबर होती हैं
आपस में चारों भुजाएँ
अच्छा होता!
सामाजिक गणित में भी
होता ऐसा ही वर्ग
बराबर होतीं
जिसकी चारों भुजाएँ
फिर तो नहीं होता
कोई उलझाव
नहीं होता
छोटा - बड़ा होने का
कोई डर
ढोल
वह ढोल था
सदा बजता रहा
दूसरों की खुशी के लिए
ढोल के बिना
कहाँ संपन्न होते थे
त्योहार और उत्सव
ढोल पीटा जाता रहा
उसकी आवाज
देती रही
लोगों को मस्ती
एक दिन
ढोल समझ गया
अपने पीटे जाने का मतलब
उसका गुस्सा फूटा
और उसने
इनकार कर दिया बजने से
अब लोग
उसे नहीं पीटते
कहते हैं
ढोल फूट गया है
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विभिन्न मनःस्थितियों में उपजे दोहे
दुख पड़ा तो रो दिए, यह भी कोई बात।
समय न छोड़े किसी को, तेरी क्या औकात।।1
सच बोलें व ना समझ, सत से सटे न काम।
झूठ दिलाता जगत में, कुर्सी पैसा नाम।।2
बेईमान कल हो गया, देता नहीं हिसाब।
बेहिसाब से समय की, कैसे लिखूँ किताब।।3
हर प्रसंग है दोगला, कहता कर कुछ और।
कबिरा घूमें बावरा, उसको और न ठौर।।4
कुछ फाँसे मन में चुभीं, उन्हें निकाले कौन।
घुल-मिल कुछ ऐसी गई, ज्यौं पानी लौन।।5
आँखे खोलों देखलो, अपने मन के दाग।
अजब वक्त है हंस की, हँसी उड़ावें काग।।6
घृणा द्वेष हिन्सा निरख, धरती धरे न धीर।
इस युग को अब चाहिए, फिर से एक कबीर।।7
निर्विरोध की नीति से, कुचल गया प्रतिरोध।
जन के हक क्या हो गये, बहुत जरूरी शोध।।8
बहुमत अब बनता यहाँ, पैसा धौंस दबाव।
सद् विवेक को डुबो दे, गहरे पानी नाव।।9
बिफरी फिरसी गैरगी, नेह हो गया दूर।
मानस का अन्तर हृदय, घृणा भरा भरपूर।।10
मेरे अनुभव कर दिए, नई पीढ़ी ने जाम।
लँगड़ी से आधुनिकता, कर ली अपनी नाम।।11
कविता रो कहने लगी, कोई बचा लो भाई।
कविगण मुझे खदेरते, जीना है दुखदाई।।12
जब सच कह दी बात तो, हुआ हाल बेहाल।
संबोधन मुझको मिला, तुरत घमण्डी लाल।।13
जग की सब उपलब्धियाँ, हैं अवसर का खेल।
बिन प्रयास किसके गले, डाली गई हमेल।।14
जो कुछ भी होता यहाँ, पूर्व जनित संयोग।
सूलों से हँसकर मिलो, क्या संयोग-वियोग।।15
गरजन-तरजन खूब है, धरती बूँद न एक।
परमेश्वर को याद, वही राख है टेक।।16
गुणा, जोड़, बाँकी करी, लगा न कुछ भी हाथ।
भाजक भागा देकर, हाथ फेर कर माथ।।17
जाने कैसे पार आगई, मेरी टूटी नाव।
सदा हवा उलटी बही, औ फिर तेज बहाव।।18
कोई कहे कैसे करूँ, है अब नहीं निदान।
कारीगर नाराज है, कैसे बने मकान।।19
मैं मचान पर चढ़ गया, खूब लगाई टेर।
दीन बंधु की अनसुनी, होगई इतनी देर।।20
तू कवि लेखक? ठीक है, पर बेहद बदजात।
गुण्डे को गुण्डा कहे तेरी क्या औकात।।21
सड़ियल बस्ती में रहा कविता की आवाद।
क्रमशः श्रोता गुम हुए, मिली न कोई दाद।।22
आजादी से कुछ न बदला, किया भूख मजबूर।
तब बँधुआ था आज हो गया, परदेशी मजदूर।।23
मेरा श्रम बिकता रहा, चला भेड़ की चाल।
पूँजी से ने बेबश किया, जीना हुआ मुहाल।।24
लोकतंत्र के गीत में, मिला न कोई साज।
गली-गली श्रम बेचता, खुद को दे आवाज।।25
डाॅ. अवध बिहारी पाठक ,
सेंवढ़ा, जिला दतिया, मो. 9826546665
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आलेख
सामाजिक सरोकारों के संत
प्रो. फूलचंद मानव
रास आ गया जिस तोते को
सोने के पिंजरे का जीवन
उन पांखों के लिए कहीं
कोई आकाश नहीं होता है
जी हाँ नानक देव संत थे, समाज सुधारक भी संत की समाज में जो भूमिका रहती है, नानक ने उसे बखूबी निभाया। उनका जीवन छल प्रपंच से दूर सादगी से भरपूर जीवन था। लेना है किसी से भी तो अच्छा और बेहतर देना है तो सबको तेरा तेरा, तेरा नाम, मेरा मेरे ही क्या काम ? वे स्वार्थ सिद्धि अथवा लालच में नहीं आए, तभी तो नामकदेव जी परमसंत कहलाए।
देश में, दुनिया में समाज में या आस-पड़ौस में जब जब पाप का अंधकार छा जाता है श्रेष्ठ संत उत्तम समाज सुधारक मार्ग बताने के लिए हमारे सामने आते हैं। यह मात्र भारत की हीं नहंी विश्व की परम्परा रही है, सभी धर्मों में, सम्प्रदायों में समाज के लिए विभिन्न वर्गों में प्रवर्तक या चितरे कहलाने वाले चेहरे जन्म से ही पहचान लिए जाते हैं। उम्र के विकास के साथ, वे फिर अपने चमत्कार दिखाते, सीमित समूह के न रहकर हर एक के, सब के सांझा गुरु कहलाते हैं। नानक देव धर्म, अध्यात्म और समाज सुधार के पुंज सिद्ध हुए।
पानी खेतों को चाहिए, समाज सूर्य को दे रहा था। चेतायाा, जगाया, बताया, वैज्ञानिक सिद्धांतों द्वारा समझाया कि दूसरों के लिए, दूर तक पहुँचने वाला जल, आसपास के खेतों में शीघ्र फलदायक सिद्ध होगा, चेतना से, प्रेरणा से, दीप से दीप जले, कर्मठता पनपी, श्रमदान हुआ, खेतिहर लोगों के भाग्य जाग गये। फसलें लहलहाई। पानी की महिमा रंग लाई, भूखे समाज को समझ भी आई। नानक का करिश्मा एक पक्षीय नहीं, बहु पक्षीय भी सिद्ध हुआं
पूरा प्रभ आराध्यिा
पूरा जा का नाऊँ
नानक पूरा पाइया
पूरे के गुन गाऊँ
नाम सिमरन् और गुण गायन की प्रथा की तरफ समाज का ध्यान दिलाकर उन्हें नेक मार्ग पर चलने की सलाह, तत्कालीन समाज मेें नानक देव ने प्रदान की। मानो वे प्रभु के प्रतिनिधि सिद्ध हुए। अन्याय, अन्धकार के शोषण के विरुद्ध जगाकर लोगों को पूर्ण प्रभु परमेश्वर की शरण में आने का आह्वाहन किया। वर्ण व्यवस्था, समाज की विषमता फूट डालने की प्रवृत्ति के विरोध में संत खड़ा होता है। तो जनता अनुकरण, अनुसरण करती है, नानक देव ने अपने समाज को जोड़ कर बड़ा बृहत् समाज बनाया। जो हम सबके काम आया।
पूर्णता को समर्पित, नानक ने कर्म करने का सार्थक उपदेश देकर आलस्य त्यागने का भी फरमान दिया। जन्म से नहीं, मनुष्य कर्म से ही महान कहलाता है। जातियां वर्ण छोटा-बड़ा नहीं महान काम, कार्यसिद्धि से ही व्यक्ति पहचान पाता है। सामाजिक सरोकारों से ओतप्रोत ऐेसे अनेक उदाहरण गुरुनानक की साखियों से, भ्रमण से, वाला या मरदाना को साथ रखने के, साखी (साक्षी) मिलते हैं। कमल पुष्पों के समान खिलते हैं।
गुरु नानक ने सच्चा सौदा सही मार्ग पर चलते हुए करके दिखाया। पिता से प्राप्त बीस रूपये का उपयोग उन्होंने बांट कर छकने में लगाया। व्यापारी न होकर नानक व्यावहारिक सिद्ध हुए और उन्होंने बीस रूपयों की राशि को लोक कल्याण में लगाकर, सार्थक कर दिखाया। भूखे संतों को भोजन करा कर, नानक ने जो निवेश किया लौकिक नहीं, अलौकिक कहलाया। तेरा-तेरा केा जाप करने वाले नानक, मेरा-तुम्हारा’ का सेतु बनकर विस्तार भाव से समाज को तेरे प्रभु के प्रति समर्पित होने का सुख बताते हैं। तभी वे सच्चा सौदा करके सफल हो जाते हैं।
नानक को गुरु नानक और संत गुरु नानक होने तक एक लम्बी यात्रा करनी पड़ी थी। उदासियों के नाम से प्रसिद्ध उन यात्राओं में भ्रमणों में, जन संपर्कों में उनको जन मानस का स्वभाव, उनकी पीड़ा, मानवता के संकट और उन्हीं में से निदान भी खोजने का अवसर मिला। झूठ, फरेव, दंभ, छल कपट अकर्मण्यता आदि नानक के लिए शब्द भर नहीं थे। इनको संकल्प में ढालकर कोई व्यवहार में लाता है, तभी गुरु नानक कहलाता है। लोक धर्म में जन कोई श्रद्धा का प्रतीक बन जाता है। तभी गुरु नानक संत कहलाता है। गहरे और फीके रंगों की पहचान हरेक मन के बुते की बात नहीं। सामान्य लोगों के लिए सभी रंग, सिर्फ रंग है। एक समान लेकिन ये तो प्रतीक है। भलाई-बुराई के सूचक नानक देव ने इन्हें पहचान और परवान भी चढ़ाया। रंग हंस, रंग रोए इसी का प्रमाण हैं।
मन तो ज्योति स्वरूप है। यह प्रत्यक्ष साधारण वाक्य लगेंगे। गहराई और व्याख्या में इनका मर्म खुलने लगता है।
प्रकृति के उपासक गु रु नानक के लिए परमात्मा को पाने, उसे प्राप्त करने या वहां तक पहुंचने के विविध मार्ग हो सकते हैं। धरती, आकाश, पवन, पानी, पहाड़, हर रूप में ईश्वर का निवास है। हमारी ‘इंद्रियां अनुभव करें तो सामान्य जन के लिए भी गृहस्थ जीवन से ही उसे प्रभु को परमात्मा को पाकर उससे संपर्क संवाद किया जा सकता है। गगन में थाल, रवि चंद्र दीपक बोलकर आरती करने वाले नानक में पूरा ब्रह्मांड ही प्रभु का द्वार है। कहीं से भी करें, आप आरती, पूजा, उपासना की शुरुआत तो करें। कुदरत में क्या नहीं है। शुरुआत तो करें, देखने, परख करने वाली आंख अंदर से भी ख्ुाली हो तो आप सम्पन्न कहलाते हैं। नानक देव हो जाते हैं।
सामाजिक सरोकारों के प्रसंग, नानक देव के संदर्भ में हमारे लिए सन् 1969 में भी खुले थे। एम.ए. पंजाबी की परीक्षा में एक पूरा पेपर (एच्छिक) गुरु नानक अध्ययन का हल किया था। गुरु नानक भी शिक्षाओं को लेकर पंजाब में गुरु नानक देव जी की पंचशती के आयोजन हो रहे थे। भारत में विदेश में भी बलवन्त गार्गी का नाटक ‘गगन में थाल’ रंग ओर रौशनी के त्योहार के रूप में, प्रांत-प्रांत में खेला जा रहा था। तब इसका लाभ अमृतसर को भी मिला था। जब ओपन एयर थियेटर में इस नाटक का मंचन हुआ था।
आज परिस्थितियां बदल गयी। मूल्य मर्यादा भी वैसी नहीं। वैश्वीकरण ने मुक्त माहौल दिया है। लेकिन तब भी श्री गुरु नानक देव के संदेश उनकी वाणी उपदेश अधिकाधिक गहरा रहे है। गोया नानक हमारे अधिक पास आ रहे हैं।
ढकौली, जीरकपुर, चंडीगढ़, मो. 9316001549
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व्यंग्य
थाली का लड्डू
डाॅ. दलजीत कौर
यह मानवीय वृति है कि हमारे पास कितना ही अच्छा हो परंतु हमें दूसरे की थाली का लड्डू बड़ा ही लगता है। हम ताउम्र उसे या उसके जैसा पाने को लालायित रहते हैं। यही भटकन है। यही असंतुष्टि है। यही विषाद का कारण है। और लड्डू अगर शादी का हो तो हृदय विदारक दुःख देता है। हर पति को लगता है कि उसे इससे बेहतर मिल सकती थी। हर दूसरे व्यक्ति की पत्नी अपनी से बेहतर लगती है। यही हाल पत्नियों का है -“कर्म फूट गए ! जो तुम मिले हो। मुझे तुमसे कहीं बेहतर मिल सकता था।”
मिश्रा ने प्रेम विवाह किया। ज़ाहिर है प्रेम होगा तभी विवाह किया। अभी शादी को एक साल भी नहीं गुज़रा। दूसरे की थाली का लड्डू बड़ा नज़र आने लगा। मुझे मिले -“मैडम! आप बहुत शांत स्वभाव की हैं। सारा दिन काम में व्यस्त रहती हैं। सोचता हूँ , काश! मेरी पत्नी भी ऐसी होती। वह तो बिलकुल सहयोग नहीं करती।”
मैंने मन ही मन कहा -“भाई! मैं तेरी माँ समान हूँ। रही सहयोग की बात। तो पत्नी तुमसे ज़्यादा कमाती है और तुम उसकी आय पर नज़र गढ़ाए हो।”
मैंने समझाने के स्वर में कहा -“तुमने पसंद से शादी की है। अब तो गले में जो ढोल डाला है। उसे जीवन भर बजाओ।
बेटा! पहले सोचते। अब तो अच्छे से निभाओ। ”
वह हँजी! हँजी ! कह कर खिसक लिया।
कुछ दिन बाद उसकी माताजी आ गई। बस बहू से परेशान। मैंने सोचा -बहू से भी कोई खुश हुआ है आजतक। मैंने अपना रवैया सकारात्मक बनाए रखने का निर्णय लिया। वे बखान किए जा रही थीं-“मेरे नीलू को तो एक से एक रिश्ते आते थे। एक लड़की वाले तो बड़ी कार और पाँच लाख तक तैयार किए बैठे थे। तब तो मना नहीं अब कहता है -मुझसे गलती हो गई। मैंने तो कह दिया -तब तो तू माना नहीं। अब मैं क्या करूँ। ”
कुछ रुक कर बोली -“सच बहन जी ! लड़की हमारी बहू से कहीं सुंदर थी। अमीर घर की। ”
लालच उनकी आँखों से साफ़ झलक रहा था। मैंने माँ को शांत करने के लिए कहा -“बहन जी अब इन बातों का क्या फ़ायदा। आप बेटे को समझाए। अपने मन को न भटकाए। जोड़ियाँ तो ईश्वर बनाता है। सब ऊपर ही तय होता है। जिसे जो जैसा मिला है। उसे सब्र करना चाहिए। ”अभी वार्तालाप और चलता पर मेरे फ़ोन की घंटी ने मुझे बचा लिया।
पड़ोस में एक युवा दम्पति का मन-मुटाव हो गया। नौबत तलाक़ तक पहुँच गई। मैं उनका घर बचाना चाहती थी। इसलिए दोनों से बात की। लड़की कुछ भी सुनने को तैयार न थी। बातों -बातों में पता चला कि लड़का इंजिनियरिंग में गोल्ड -मैडलिस्ट है और लड़की अंगूठा छाप। मुझ से रहा नहीं गया। पूछा -“तुमने किसी पढ़ी -लिखी लड़की से शादी क्यों नहीं की ?”
मैंने तो जैसे दुखती रग छू ली। बोला -“मेरे बड़े भाई ने समझाया भी था कि पढ़ी -लिखी लड़की से शादी करो। पर मुझे तो ख़ूबसूरत पहाड़ी लड़की से शादी करने का भूत सवार था। ”
वह हताश स्वर में बोला -“ मेरे फूफाजी डॉक्टर लड़की से मेरी शादी करवाना चाहते थे। दहेज में बहुत दिलाना चाहते थे। अब सोचता हूँ। काश ! मैंने भाई और फूफाजी की बात मानी होती। ”
मैंने दिलासा देते हुए कहा -“ऐसा मत सोचो कि यह तुम्हारा क़सूर है। ख़ुदा ने ऐसा ही लिखा था। यदि हम ख़ुदा पर दोष नहीं लगाएँगे तो चैन से नहीं जी पाएँगे। ”
वैसे उनका मामला अभी अधर में ही लटका है।
कोई पचास वर्ष पहले की बात है। मेरे चाचा की शादी हुई। चाची हर तीसरे दिन कहती -“ मैं कहाँ फँस गई ?मुझे तो अफ़सरी जीवन पसंद था। ”
दरअसल चाची के पिता कप्तान थे। उन्होंने पत्नी को अकेले रहकर बच्चों को पालने -पढ़ाने की दिक़्क़त देखी थी। अब हर जगह बच्चों को साथ नहीं ले जा सकते थे। कुछ समय में ही ट्रांस्फ़र हो जाती थी। इसलिए बेटी को संभ्रांत परिवार में ब्याहा। पर चाची को लगता था। काश! फ़ौजी से शादी होती। पहले -पहल तो चाचा सुनते रहे। पर एक दिन तंग आकर कहा-“शुक्र करो ! आराम से घर में रह रही हो। फ़ौजी से शादी होती तो ट्रंक उठाए उसके पीछे -पीछे हर छमाही धक्के खाती फिरती। ”
उसके बाद चाची ने कुछ नहीं कहा। शायद उन्होंने मन को समझा लिया था।
जीवन में मन को समझाना निहायत ज़रूरी है। मन को भटकना आसान है पर समझाना बहुत मुश्किल। माता -पिता बूढ़े हो रहे बच्चों को भी कहते रहते हैं-“ हमने तेरी शादी ग़लत लड़की या लड़के से करवा दी। ”
और लड़का सोचता रहता है -“काश ! मुझे ऐसी हूरपरी मिल जाती। वैसी मिल जाती। ”
लड़की सोचती रहती है -“काश! मुझे ऐसा राजकुमार मिल जाता। वैसा मिल जाता। ”
ज़िंदगी भर उनकी लार टपकती रहती है। वैसे ही जैसे खाने को देखकर हमारी टामी की टपकती है।
मेरी एक मित्र ने बेटे की शादी की। साल भर रिश्ता चला। फिर बहू बाॅस के साथ भाग गई। तलाक़ होने के बाद दोबारा शादी की। इस बार बहू अपने सहकर्मी के साथ चली गई। फिर से पुलिसस्टेशन, कोर्ट-कचहरी के चक्कर।
पड़ोस के शर्मा जी के बेटे का सुंदर परिवार है। अच्छी पत्नी, बेटा-बेटी। पर वह किसी और शहर में किसी और के साथ रह रहा है। समाज में ऐसी खिचड़ी पक रही है कि शादी के पवित्र बंधन से लोगों का विश्वास ही उठता जा रहा है।
मेरी मौसी जी बहुत तेज़ -तर्रार थीं। बात -बात पर लड़ पड़ती थीं। अब नहीं हैं। एक दिन मैंने अपने नब्बे साल के मौसा जी से पूछा -क्या आपके मन में कभी यह ख़याल नहीं आया कि इसे छोड़ दूसरी शादी कर लूँ?
उन्होंने मुझसे प्रश्न किया -“दूसरी इससे अच्छी मिलती ?इसकी क्या ग़ैरंटी थी ?”
मैं निरुत्तर। कुछ देर रुककर वे बोले -“ मेरे पास तीन विकल्प थे -
पहला -“उसका सिर फोड़ देता या अपना।
दूसरा -उसे वापस भेज देता। तलाक़।
तीसरा -चुप हो जाता।
मैंने तीसरा विकल्प चुना और सुख से जीवन जीया। ”कुछ देर सोच कर वे बोले -“वैसे आज के हालात और भटकाव देखकर सोचता हूँ। भगवान जन्म के समय ही एक पर्ची भेज दिया करे। जिसमें जीवन -साथी का नाम -पता लिखा हो। ताकि किसी के पास कोई विकल्प ही न बचे। ”
शाम को मंदिर गई। प्रसाद लेने लगी तो एक थाली में लड्डू थे और एक डिब्बे में गुलाब -जामुन। पंडित जी ने मेरी ओर देखकर पूछा -“क्या लोगे ?
गुलाब -जामुन ?
या थाली का लड्डू ? “
मेरे होंठो पर मुस्कान फैल गई और मैं थाली का लड्डू लेकर वापस लौट आई।
-चंडीगढ़, मो. 9463743144
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लघुकथाएँ
स्पर्श
आज रोहन ऑफिस से जल्दी घर आ गया था। उसने देखा उसका सात साल का बेटा ड्राइंग रूम में चित्रकारी कर रहा था। उसने जाकर बेटे के सिर पर हाथ रखा तो बेटा उसकी गोद में सिमट आया। जब उसने बेटे के इर्द-गिर्द अपनी बाहें कसी तो बेटा सिमट कर उसके सीने से लग गया। रोहन को अपना बचपन याद आ गया। जब वो खेलकर या स्कूल से वापस आता तो माँ की गोद में सिमट जाता था। माँ प्यार से उसे सहलाती, दुलारती तो वह और भी माँ से चिपट जाता। फिर एक-एक कर उसकी यादों की कड़ियाँ खुलने लगीं। बड़े होने पर भी कॉलेज में किसी बात पर परेशान होता तो माँ आकर उसके सिर पर हाथ रखती तो वह माँ से लिपट जाता। माँ के सीने से लगकर उसे बड़ा सुकून महसूस होता था। माँ का स्नेहिल स्पर्श पाकर वह चिंतामुक्त हो जाता था। बीमार पड़ने पर वह एक पल के लिए भी माँ को नहीं छोड़ता था। माँ का हाथ पकड़कर अपने सिर पर रख देता और सिर पर हाथ फेरने का इशारा करता। स्पर्श का महत्व तब वह ठीक-ठीक नहीं समझ पाया था पर आज उसके नन्हे बेटे के व्यवहार ने उसे वह सब समझा दिया।
उसे आत्मग्लानि महसूस होने लगी और वह माँ के कमरे की ओर बढ़ चला। माँ पिछले कुछ महीनों से बीमार चल रही थी। कई बार रोहन से पास बैठने का आग्रह किया था, उसे गले लगाने की कोशिश की थी। पर हर बार रोहन अनसुना और अनदेखा कर कमरे से बाहर आ जाता। उनसे मिलने के लिए भी यदा-कदा ही उनके कमरे में जाता। आज रोहन को कमरे में देखकर माँ ने बड़े आश्चर्य से पूछा, ‘‘सब ठीक है ना बेटा?... हाँ माँ, सब ठीक है।’’ कहते हुए उसने माँ को गले से लगा लिया। माँ हैरान थी। पर एक अर्से के बाद बेटे का प्रेम और स्पर्श पाकर माँ की खुशी का ठिकाना भी नहीं था। ‘‘माँ, कहीं बाहर चलोगी? सिर्फ हम दोनों चलेंगे।’’ रोहन ने लाड़ जताते हुए कहा। रोहन में अकस्मात् आए इस परिवर्तन से माँ विस्मित तो थी मगर मानो उन्हें जन्नत मिल गई थी। ‘‘चलो बेटा, कहाँ ले चलोगे ?’’ माँ ने रोहन को सीने से लगाए हुए कहा। बेटे के स्नेहसिक्त शब्द और स्पर्श मात्र से उनकी बीमारी जैसे छूमंतर हो गई और उनके चेहरे पर रौनक आ गई थी।
अहसास
कमरे की हालत देखी है? खिलौने, किताबें सब तितर-बितर। आखिर मैं कितना काम करूँ? थक जाती हूँ मैं भी। हजार बार समझाया है फिर भी बार-बार यही करते हो।’’ माया जोर-जोर से अपने सात साल के बेटे रोहन पर चिल्ला रही थी और फिर चटाक् से एक चाँटा लगा दिया। बच्चों की गलती पर उनकी पिटाई करना, हमारे देश की परंपरा सी रही है। माता पिता बच्चे की मानसिक स्थिति जानने की कोशिश नहीं करते और चाबुक चला देते हैं। ऐसा ही कुछ माया भी अक्सर अपने बेटे रोहन के साथ किया करती थी। क्योंकि बचपन में उसके स्वयं के साथ भी यही किया गया था।
थप्पड़ पड़ते ही रोहन जोर-जोर से रोने लगा। उसके रोने में बहुत दर्द था। रोते-रोते वह कह रहा था, ’’आखिर मैं कहाँ जाऊँ? स्कूल में भी सब टीचर्स डाँटते हैं, घर में भी वही होता है। कोई प्यार से बात नहीं करता।आखिर मैं जाऊँ तो कहाँ जाऊँ?’’ वह बहुत बुरी तरह बिलख- बिलख कर रो रहा था। माया को अपनी गलती का अहसास हुआ। उसने सोचा आखिर इन बच्चों का हमारे सिवा और है ही कौन ? हम उन्हें प्यार नहीं देंगे तो और कौन देगा ? प्यार की जरूरत तो हर किसी को होती है ,चाहे वह इंसान हो या जानवर।
उसने अपने बेटे को गले से लगा लिया और प्रण किया कि आगे से वह बेटे से बात करेगी ,उसे प्यार से समझाएगी पर कभी थप्पड़ नहीं लगाएगी। सात साल का रोहन माँ के सीने से लग कर बहुत सुकून महसूस कर रहा था।
सुश्री नमिता सिंह ‘आराधना’, अहमदाबाद,
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कहानी
पंच से पक्षकार
श्री अंकुर सिंह
हरिप्रसाद और रामप्रसाद दोनों सगे भाई थे। उम्र के आखिरी पड़ाव तक दोनों के रिश्ते ठीक-ठाक थे। दोनों ने आपसी सहमति से रामनगर चैराहे वाली अपनी पैतृक जमीन पर दुकान बनाने का सोचा, ताकि उससे जो आय हो उससे उनका जीवन सुचारू रूप से चल सके।
दुकान का काम चल ही रहा था तभी हरिप्रसाद और रामप्रसाद के बीच कुछ बातों को लेकर विवाद हो गया और उनमें बातचीत होना बंद हो गया। जिससे उनकी दुकान का काम भी रुक गया। दोनों एक दूसरे पर खूब आरोप-प्रत्यारोप भी लगाने लगे। बढ़ते विवाद को देख उसे सुलझाने के लिए उनके पड़ोसियों ने मोहल्ले के कुछ लोगों को जुटाकर एक पंचायत बुलाई, परन्तु पंचायत के सामने भी दोनों आपसी विवाद को खत्म करने के लिए तैयार नहीं हो रहे थे। बल्कि एक दूसरे पर एक से बढ़कर एक आरोप-प्रत्यारोप लगाए जा रहे थे। पंचायत ने भी मामले को बढ़ते देख उन्हें कुछ दिनों के लिए एक-दूसरे से दूर रहने की कड़ी हिदायत दी जिससे उनका विवाद हिंसा का रूप धारण ना कर सके। इसके साथ ही पंचायत ने दुकान के बचे आधे-अधूरे काम को पूरा करने की जिम्मेदारी गाँव के पढ़े-लिखे एक व्यक्ति विनोद को दे दिया ताकि दोनों भाईयों के विवाद से उनके धन का नुकसान ना हो। हरिप्रसाद और रामप्रसाद ने भी विनोद को पंच परमेश्वर का दर्जा देते हुए दुकान के बचे हुए काम को पूरा करने के लिए विनोद के नाम पर सहमत हो गए।
प्रसिद्ध उपन्यासकार एवं कहानीकार मुंशी प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर की तरह यहाँ भी समाज में हरिप्रसाद का सम्मान उनके धन से तो रामप्रसाद का सम्मान उनके व्यक्तिगत अच्छे व्यवहार की वजह से लोगों में था। परंतु, शास्त्रों में कहा गया है कि कलयुग में मूर्ख, चोर और बेईमान आदमी अपने पद और धन के कारण समाज में श्रेष्ठ होगा और उसके प्रति लोगों का झुकाव जल्दी होगा। ठीक वैसे ही विनोद का झुकाव हरिप्रसाद की तरफ जल्दी हो गया। विनोद हरिप्रसाद के हर बातों का अमल दुकान के कार्यों में करता और यदि रामप्रसाद इसका विरोध करना चाहता तो उसकी बातों को अनसुना कर देता या रामप्रसाद को तीन-पांच पढ़ाकर उसकी बात टाल देता। कुछ दिन ऐसे ही चलता रहा और धीरे-धीरे रामप्रसाद को भी इस बात का एहसास होने लगा की वह ठगा जा रहा है और उसके साथ अन्याय हो रहा है। उसने इसके संदर्भ में विनोद से सीधा बात करना ही उचित समझा।
अगली सुबह खेत और घर के जरूरी काम निपटा रामप्रसाद विनोद के घर जा पहुंचा और कहने लगा- ‘‘विनोद भाई, पंचायत की सहमति पर मैंने आपको पंच परमेश्वर माना है और इसलिए एक पंच के नाते आपसे निष्पक्ष न्याय करने की गुहार लगाने आया हूँ।’’
इतना सुनते ही विनोद गुस्से में रामप्रसाद को भला बुरा कहते हुए हरिप्रसाद के सामने उसकी तुच्छ औकात की बात करने लगा और हरिप्रसाद के तारीफों की पुल बांधने लगा। विनोद के इस स्वभाव और एक पक्षीय नजरिया को देखते हुए रामप्रसाद ने कहा- ‘‘विनोद जी, आज भले ही मेरी आर्थिक औकात हरिप्रसाद से छोटी है, परन्तु हरिप्रसाद के चंद रुपयों के लालच में आपने अपनी औकात पंच परमेश्वर जैसे ऊँचे दर्जे से गिराकर एक पक्षकार के स्तर की बना ली।’’
इतना सुनते ही विनोद के चेहरे का रंग उड़ गया और रामप्रसाद गमछे से अपना पसीना पोंछते हुए अपने घर की तरफ चल पड़ा।
-जौनपुर, मो. 8367782654. 8792257267
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कहानी
एक ‘हिला हुआ’ आदमी
श्री सुशात सुप्रिय
मेरा एक मित्र है- सुधाकर। बहुत ही संवेदनशील है। वक्र रेखाओं के इस युग में वह एक सीधी रेखा-सा है। हालाँकि उसे जानने वाले बहुत से लोग उसे ‘‘हिला हुआ’’ मानते हैं।
एक दिन मैं उससे मिलने उसके घर गया तो देखा कि वह कुछ लिख रहा था। मुझे जिज्ञासा हुई। पूछने पर पता चला कि उसे डायरी लिखने का शौक़ है। बातचीत के दौरान उसने स्वयं ही अपनी डायरी मुझे पढ़ने के लिए दे दी। मैंने कहा भी कि क्या उसकी व्यक्तिगत चीज़ का मेरे द्वारा पढ़ा जाना उचित होगा ? पर वह नहीं माना। कहने लगा- ‘‘तुझे नहीं, तेरे भीतर जो मेरा लेखक मित्र है, उसे दे रहा हूँ।’’ हालाँकि अपनी डायरी मुझे देते समय उसने यह भी कहा- ‘‘मेरी डायरी पढ़ने के बाद तू भी मुझे ‘‘हिला हुआ’’ समझेगा। इस पर मैंने हँसकर कहा- ‘‘वह तू मुझ पर छोड़ दे। घर जा कर मैंने उसकी डायरी पढ़ी। उसमें अजीब-सी बातें लिखी थीं। एक बात और थी। कहीं भी तिथियों का कोई जिक्र नहीं था। केवल अलग-अलग रंगों के बॉल-पेन के इस्तेमाल से ही पता चलता था कि उसने ये बातें अलग-अलग दिन लिखी होंगी। मैं उसकी सहमति से उसकी डायरी के कुछ अंश यहाँ आप पाठकों के सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ।
कल रात मेरे यहाँ चोर आए। उन्हें लगा, मैं बहुत धनी हूँ। उन्होंने मेरे मन की तलाशी ली और उसे ख़ाली पाया। ‘‘यह तो बहुत ग़रीब है। इस बेचारे के पास तो सपने भी नहीं हैं।’’ उन्होंने एक-दूसरे से कहा और मुझ से सहानुभूति व्यक्त करते हुए वे ख़ाली हाथ लौट गए। गरीब आदमी के यहाँ आए चोर भी कितने अभागे होते हैं।
***
अब सूरज तो निकलता है पर चारों ओर घुप्प अँधेरा छाया रहता है। दिन की आंत में एक काला फोड़ा उग आया है। दिशाओं में काली आँधियाँ भरी हैं। इस इंसानी जंगल की सड़कों पर नरभक्षी घूम रहे हैं। वे मुस्करा कर आपसे हाथ मिलाते हैं। आप उनकी मुस्कान में छिपे खंजरों और छुरों को नहीं देख पाते हैं। वे आपकी पीठ थपथपा कर आपको रीढ़-हीन बनाते हैं। आपको अपना ‘छोटा भाई’, अपना ‘ख़ास यार’ बताते हैं। फिर आप उन पर भरोसा करके उनके क़रीब आ जाते हैं। और तब किसी वासंती शाम कुछ ‘पेग’ लगा लेने के बाद अपने इंसानी खोलों में से निकल कर वे भेड़िए अपनी औकात पर आ जाते हैं। उस दिन आप बहुत पछताते हैं।
***
आज सुबह से मेरी आँखों में से खून गिर रहा है और मुझे दुनिया केवल लाल रंग में रंगी दिखाई दे रही है। ऊपर लाल, सूजी आँखों वाला आकाश है। नीचे खून के रंग में रंगी धरती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, बच्चे-बूढ़े- सब लहुलुहान नज़र आ रहे हैं। इंसानियत की चिता धू-धू कर जल रही है। मन के भीतर तक कड़वा धुआँ भर गया है। सड़क पर इंसान के भेस में नरभक्षी भेड़िए घूम रहे हैं जिनकी दहकती लाल आँखें देखकर मैं सिहर उठता हूँ। दिशाओं में चीजें हैं और सायरन की आवाजें हैं। सभी हँसते-खिलखिलाते रंग गुस्सैल लाल रंग में बदल गए हैं। लगता है, गुजरात से लेकर फ़िलिस्तीन तक, अफ़ग़ानिस्तान से लेकर इराक़ और सीरिया तक जो निर्दाेष लोग प्रतिदिन मारे जा रहे हैं, उन सब का खून मेरी आँखों में उतर आया है। मेरे जीवन से बाक़ी सभी रंग चले गए हैं।
***
आज मैंने दो पेड़ों को आपस में बातें करते हुए सुना। वे इंसानों को भला-बुरा कह रहे थे। एक पेड़ दूसरे पेड़ से कह रहा था- ‘‘लोग कितने एहसानफ़रामोश होते हैं। वे हमारी छाया में आराम करते हैं। हमारे ही फल खाते हैं। फिर भी काटकर हमें ही जलाते हैं।’’
आजकल मेरे साथ अजीब बातें हो रही हैं। रात में मुझे काटने से पहले खटमल और मच्छर मुझसे मेरा धर्म पूछने लगे हैं। वे जानना चाहते हैं कि मैं हिंदू हूँ या मुसलमान। हवा मेरे आँगन में बहने से पहले मुझसे मेरी जाति पूछने लगी है। धूप मेरे घर के दालान में उतरने से पहले मुझसे मेरी नस्ल पूछने लगी है। आकाश में घिर आई काली घटा मेरे आँगन में बरसने से पहले मुझसे यह जानना चाहती है कि मैं किस राज्य का हूँ और कौन-सी भाषा/बोली बोलता हूँ। आजकल मैं बहुत परेशान हूँ। मैं आइने में देखता हूँ तो मेरी छवि मुझे देखकर अपना मुँह मोड़ लेना चाहती है। अँधेरा अपने क्रूर हाथों से मेरी आँखें ढंक लेता है। मरी हुई हवा में तनहा मैं बंजर आसमान तले उस उड़न-तश्तरी की प्रतीक्षा करता हूँ जो कभी नहीं आती।
***
हैरानी की बात है। लोगों के पास निगाहें हैं पर वे असलियत नहीं देख पा रहे हैं। उनके पास कान हैं पर वे बहरे बने हुए हैं। उनके पास दिमाग है पर वे सोचने-समझने में असमर्थ हैं। अपने हाथ-पैरों का इस्तेमाल वे केवल मार-पीट और लूट-खसोट के लिए कर रहे हैं। अपने से आगे वालों को लोग धक्का दे कर, लंघी मार कर गिरा रहे हैं। अपने से ऊपर वालों को लोग घसीट-घसीट कर नीचे उतार रहे हैं। जीवन के इस गला-काट खेल में कोई नियम नहीं हैं। जीतने के लिए सभी ‘फ़ाउल’ कर रहे हैं, सभी ‘चीटिंग’ कर रहे हैं, पर कहीं कोई अम्पायर नहीं है, कोई रेफ्री नहीं है जो बेईमानी और धोखेबाज़ी को रोकने के लिए सीटी बजाए। जो फुटनोट हैं वे शीर्षक बनना चाह रहे हैं, चाहे उनमें इसकी काबलियत है या नहीं। जो बीच के पन्नों के शीर्षक हैं, वे मुख-पृष्ठ पर आना चाह रहे हैं। यहाँ कोई अपनी स्थिति से संतुष्ट नहीं है। चीजें फुसफुसाहटों में बदल जाना चाह रही हैं। फुसफुसाहटें चीखें बनना चाह रही हैं। लोग दूसरों के चेहरों में अपनी शक्ल के लिए आइना ढूँढ़ते फिर रहे हैं।
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यदि यही हालत रही तो एक दिन भाषा लोगों को चेतावनी दे देगी कि मेरा दुरुपयोग बंद कर दो नहीं तो मैं तुम सब को छोड़कर चली जाऊँगी। लोग भाषा का इस्तेमाल करके एक-दूसरे को ठग रहे हैं। भाषा के जाल में फँसा कर एक-दूसरे को धोखा दे रहे हैं। शब्दों, भाषा का इस्तेमाल करके एक-दूसरे से धड़ल्ले से झूठ बोल रहे हैं, एक-दूसरे को छल रहे हैं। वे भाषा की आड़ में सच को झूठ, झूठ को सच बना रहे हैं। हमारी इन ओछी हरकतों से तंग आ कर यदि एक दिन भाषा हमसे रूठ गई तो हम क्या करेंगे?
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आज दिन फटे हुए दूध-सा बेकार लग रहा है। चारांे ओर से एक भयावह बदबू आ रही है। प्रार्थनाएँ अशक्त हो गई हैं। हवा में सड़ांध भरी हुई है। दुर्गन्ध की एक मोटी परत जैसे पूरे शहर पर बिछी हुई है। आकाश से भी जैसे दुर्गन्ध की मूसलाधार बारिश हो रही है। हवा में चीज़ों के सड़नेगलने की तेज़ गंध है। क्या यह दोगलेपन की गंध है ? क्या यह शैतानियत की गंध है ? यह दमघोंटू दुर्गन्ध इतनी सघन है कि दुनियाँ की बचीखुची पवित्र आत्माएँ छटपटा रही हैं और इसमें डूबकर मरती जा रही हैं। यह दुर्गन्ध मिलावट करने वाले दुकानदारों, लालची डॉक्टरों-इंजीनियरों और मुखौटे लगाए घूम रहे मध्य-वर्ग- सब में से आ रही है। सारी दुनिया की अगरबत्तियाँ, धूप-बत्तियाँ, इत्र और रूम-फ्रेश्नर इस दुर्गन्ध को नहीं मिटा पाएँगे, क्योंकि यह हमारे भीतर की दुर्गन्ध है। यह बदनीयती की गंध है। यह मक्कारी और जालसाज़ी की गंध है। यह गंध नहीं, एक पूरी जीवन-शैली है। यह एक ऐसी गंध है जिसे परे धकेलना चाहो तो यह उँगलियों में चिपकती है। जैसे यह गंध नहीं, किसी ज़हरीली मकड़ी का जाला हो। यह एक ऐसी मनहूस, काली गंध है जिसे सूंघना एक नारकीय यातना से गुज़रना है, जिसे सूंघना कई-कई मौतें मरना है। मैं ताज़ा हवा में साँस लेने के लिए छटपटा रहा हूँ। मेरे फेफड़ों में सड़ रही इंसानियत की यह दुर्गन्ध घुसती चली जा रही है। दुनिया वालो, मुझे थोड़ी-सी ताज़ा हवा दो। या फिर मुझे जिंदा दफ़्न कर दो। मैं इस बदबूदार हवा में अब और साँस नहीं लेना चाहता ...
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प्रिय पाठको, क्या सुधाकर वाकई ‘हिला हुआ’ है ? इस का फ़ैसला मैं आप पर छोड़ता हूँ।
इंद्रापूरम, गजियाबाद, मो. 8512070086
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लघुकथा
जीवन में जब भी उसे ज़रूरत पड़ी। मैंने उसका साथ दिया। वह मेरा रिश्तेदार है। उसके और भी रिश्तेदार थे। मगर कोई मुसीबत में काम नहीं आया।
पिछले कुछ समय में उसके एक-दो रिश्तेदार आर्थिक रूप में सम्पन्न हो गए। मैंने दो-तीन बार उसे फ़ोन किया। मैं उससे मिलना चाहता था। मगर उसने कोई न कोई बहाना बना दिया।
दरासल उसके पास एक तराज़ू है। जिसमें रिश्तों को तौल कर ही वह किसी से मिलता है। शायद मेरा वज़न कुछ कम हुआ है।
डॉ. दलजीत कौर, चंडीगढ़, मो. 9463743144
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कविताएँ
सुश्री मेघा राठी, रायसेन रोड, भोपाल, म प्र,
ईमेल: megharakeshrathi01@gmail.com
मन
आज फिर खाली है मन,
कहीं किसी खिड़की से
देखते हुए दूर तक..
आज फिर खामोश है
सड़कों पर टहलता मन।
यूँ ही यहां- वहां
चहलकदमी करता
खाली दराजों में
न जाने क्या टटोलता
सीली लकड़ी सा सुलगता
धुंआ- धुंआ है मन।
बन्द दरवाजों के पार
न जाने क्या होगा
कुछ अटकलें लगाता
फिर खुद को झिड़कता
शून्य सा पूर्ण होकर भी
अपूर्ण सा मन।
बेबस सी आती जाती
साँसों को सहलाता
कुछ बर्फीले लफ्जों से
कंपकपाता , थरथराता
कोने में ठिठुरा हुआ मन।
मन... जो कभी जिंदा था
जिसने सावन के झूलों की
पेंग के साथ छुआ था आसमान
आज वही तन्हा
धूमिल अधपका सा
अनमना सा है मन।
क्योंकि....
कभी - कभी प्यार से
मन की अनछुई परतों को
छू जाते हैं हवा के झोंके
अनकही बातों से
भरोसे में ले आते हैं उजाले
और जब मन यकीन कर
मुस्कुराने लगता है
तब बेबात कठघरों में
खड़ा कर देते हैं लोग मन।
एक सफर पर
तुम्हारी यादों के सफर पर
रोज रात निकल पड़ती हूँ
तुम्हारे दिए उस वादे के सहारे
कि तुम सदा मेरे रहोगे।
मैं खोल देती हूँ सब खिड़कियां
और दरवाजे मेरे दिल के
जिससे होकर आ सको तुम्हारे
उन गुलाबों की खुशबू
जो तुमने दिए तो नहीं
पर रोज उगाते हो तुम
अपनी आँखों में
मेरे नाम को सुनकर।
अधलेटी सी तकिये को
थाम कर बाहों में
मैंने कभी नहीं सोचा
कि तुम मेरी बाहों में हो
क्योकि मैं जानती हूँ
तुम मेरी निगाहों के कमरे में
टहलते रहते हो
और पाकर मुझे अकेला
तुम मुझमे खुद को
नुमायां कर दोगे।
रोज सुबह की धूप में
बालों को सुखाते
मैंने हवा की उंगलियो में
तुम्हे पाया है
और कभी धूप की तपिश सी
तरेरती तुम्हारी आँखों में
खुद को ज़माने से
छुपा लेने का फरमान पाया है।
मैं छाया हूँ तुम्हारी
हर कदम तुम्हारे
साथ चलती हूँ
हर जन्म तुम्हारी होने
की चाहत लेकर
बून्द बून्द जिन्दगी
जिया करती हूँ
क्योकि जानती हूँ
हमारा साथ शाश्वत है
मुझे तुम्हारी और तुम्हे मेरी
और किसी से भी ज्यादा
बेहद जरुरत है ।
है न?!
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कविताएँ
कौन रोकेगा
कौन रोकेगा सूरज को
उदय होने के लिए
और
बहते पानी के बहाव को
नहीं कोई नहीं रोक पाएगा
बीज अंकुरित होते हैं
होते रहेंगे
पेड़ बनेंगे
फल देंगे
फिर से बीज होंगे
अंकुरित
बिगुल भी बजते रहेंगे
जीत की ख़ुशी में
या लड़ाई में जोश को
बढ़ाने के लिए
जब कदमों में
एकता की शक्ति
भर जाती है
तो कदम
मंजिल पर पहुँच कर भी
ठहरते नहीं हैं
कौन रोक पाएगा इन्हें
और रोकना
चाहता ही
क्यों है
क्या हम किसी
और ग्रह पर पहुँच गये हैं
अरे
जमीन तो हर जगह है
और हम जमीन के
रखवाले
जीत हासिल करने के आदी
जीत कर रहेंगे
चलो लिखें अब कविता
चलो लिखें अब कविता
न तेरी न मेरी
हम तुम तो लिखते रहते हैं
प्यार में भीगी कविताएँ
चलो लिखें कुछ
उसके मन की व्यथा
जो डूब रहा है
तेज तूफानी उफान भरी
लहरों में
और मजे लेते बरसात में
उछलते कूदते
शोर मचाते
मज़े लेते बच्चों और
लोगों की भी
किसी को क्या मालूम
इन बौछारों के सैलाब में
कोई बह गया है
कोई इधर उधर देखता
पुकार रहा है
कि आए कोई मसीहा बन कर
और कोई सर पर कफन बाँधे
उतर रहा आसमान से
रस्सियों के सहारे
मौत के मुँह से
बाहर निकालने को
मसीहा बन कर
लिखें सेना के सिपाहियों
की वीरता की कविताएँ
उन कार्यकर्ताओं के लिए
जो सो नहीं रहे
बचाव कार्य में
जुटे हुए
कोई खाद्य पदार्थों के
खोल रहा भंडार
जात पात को किनारे रख कर
मरने से बचने को
पुकार रहे की पुकार में
कोई धर्म नहीं होता
कोई जाति नहीं होती
न ही बचाने वाले का
चलो इनके लिए भी
कविता लिखें
चलो लिखें एक कविता
श्री देविन्दर बिमरा, 373, बैंक एन्कलेव, जालन्धर
Email : bimybimra@gmail.com
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