अभिनव इमरोज़ दिसम्बर 2022





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कविताएँ


सुश्री दीपाली सिंह, दयालबाग, आगरा, मो. 97584 05184



माँ

प्रसव पीड़ा सहकर भी, 

जो हर पल मुस्काती है, 

एक नन्ही किलकारी पर, 

जो बलिहारी जाती है। 

सरल सरिता बनकर, 

जो हर पल मुस्काती है। 

हे जननी मेरी, तू! 

इतना धैर्य कहाँ से लाती है? 

मुझ नन्हे कण को, जब तुमने ! 

अपनी काया में पाया था, 

हृदय पुलकित अश्रु नेत्र में

अधर तेरा मुस्कुराया था। 

काया से काया को पाया, 

तेरा जीवन मुझमें आया, 

सांसे पाकर ही, तेरी 

मैंने ये अस्तित्व पाया। 

मैं क्या जानूँ क्या है ईश्वर ? 

मैं क्यों मानूँ क्या है ईश्वर ? 

मेरी ईश्वर मेरी धाम

तू मेरी मैं तेरी पहचान 

श्वास श्वास है ऋणी तेरा

रोम-रोम है तेरा दान 

हे जन्मदात्री मेरी !

तू ही मेरी ईश्वर, 

तू ही मेरी भगवान ।।


प्रेम !

तमन्नाओं का 

एक ऐसा खेल

जहाँ जीत मुमकिन नहीं

और हार स्वीकार नहीं

विडंबना !

जीतना सभी चाहते हैं,

पर प्रेम को समझना,

कोई नहीं

प्रेम परित्याग है, यशोधरा का!

वैराग्य है, मीरा का !

मित्रता, द्रौपदी की!

और पराकाष्ठा, राधा की !

जहाँ देखो बस त्याग

नज़र आता है,

फिर भी प्रत्येक

प्रेम को जीतना चाहता है,

ये जानते हुए, प्रेम जीत नहीं, 

समर्पण चाहता है। 

इसकी हार ही इसका सौंदर्य है

इसका त्याग ही,

इसकी परिभाषा

काश !

मनुष्य, इतनी सी बात समझ जाता।   -


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कविताएँ

डाॅ. सीमा शाहजी, थांदला, झाबुआ, मो. 7987678511, 9425972317


तुम कौन हो ?


तुम कौन हो ?

जो न जाने कहां से आए 

और मेरे मन मस्तिष्क पर

छोड़ गए एक छाप सी 

तुम कौन हो आखिर

जो मेरे शरीर के अंतिम कोने तक

एक लकीर खींच गए

अपने नाम की-

तुम कौन हो...

जो एक झौंके की तरह आए

मेरे जीवन में

और झंझावात की तरह 

झिंझोड़ कर रख दिया...........।

तुम कौन हो...

जादू हो ! हवा हो !

या उगता हुआ दिन

और जाती हुई रात 

पलक झपकते ही

अपनी रंगत बदल जाते हो

हर पल हर क्षण

मुझे विस्मृत कर.......

तुम कौन हो..

हर बार एक अनुत्तरित प्रश्न

तुम कौन हो !

आखिर कौन!

दरवाज़े खिडकियां बंदकर 

सोचा गुज़र गया होगा 

झोंको की तरह से वह भी 

पर ढीठ झोंका था

आखिर टिका रहा

दरवाज़े के उस पार

महक आती रही इस पार



प्रेम  में पगी वह एक बूंद

संतो की भी टूटती रही है समाधियां 

सत्ता के भी डोलते रहे है सिंहासन 

प्रेम की खनक से

उन्माद की चमक से

यही प्रेम...

टेसू को छूकर

जंगलो से आता है

गरम हवाओं पर तैरता हुआ 

एक शीतल एहसास बनकर 

तो जीवंत हो उठती है

प्रेम की सारी अधखुली कलियाँ

खामोश बांसुरिया

जो अंतस के अबूझ आयामों में

भर देता हैं जीवन की उर्जा/अक्षत प्रकाश

और छा जाता है केसरिया रंग

जीवन के बदरंग केनवास पर

मेरे मनमीत

उसी प्रेम की एक बूंद को

छुपा कर रखा था

मैने सीप के दायरे मे

डुबो दिया था समन्दर की

अतल गहराईयों में

आज बन कर निकली है खरा मोती

प्रेम में पगी वह एक बूंद

और कर दिया है फिर से सराबोर

मुझे तुम्हारे प्रेम की उसी श्वेत चमक में...

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साहित्य नोबेल पुरस्कार -2022 विजेता एनी  एरनॉक्स को समर्पित लघुकथा  


अहमदाबाद, मो. 99255 34694


मैं क्या हूँ ?

कोरोनाकाल के विषय में फ्राँस की इन लेखिका के कथन Zके संक्षिप्त अंश हैं -‘‘आप भूल जाते हैं कि जिन लोगों को नगण्य और महत्वहीन (नथिंग) कहा जाता था जैसे कम वेतन वाले शिक्षक, बिजलीघर कर्मचारी, रेल, मेट्रो, मॉल, बस व पोस्ट ऑफिस कर्मचारी, सफाई कर्मचारी, दूध व पित्जा व अन्य डिलीवरी ब्यॉयज। आज यही नगण्य लोग जिंदगी चलाने के लिये देश के सब कुछ साबित हुए हैं।‘‘मैंने भी इस बात को कोरोनाकाल में तकलीफ से महसूस किया था. अपनी इस लघुकथा के लिए ऐसा ही पात्र चुना था जो इन सबका प्रतिनिधित्व करता है। 

नीटू चाचु के साथ बैठा उनके हाथ से खाना खाता जा रहा था। चाचु जतिन चाहे सारा दिन ग्रॉसरी शॉप से होम डिलीवरी करते करते कितना भी थक गया हो लेकिन नीटू तब ही खाना खाता है जब चाचु आ जायें।

लॉकडाऊन में फ्लेट्स में सामान पहुँचाने जाओ तो लोग मास्क लगाकर दरवाजा खोलते हैं । कुछ लोगों ने बड़ी बड़ी बास्केट्स ही दरवाजे के बाहर रक्खीं हुईं थीं। उनमें सामान डाल दो, पेमेंट तो ऑनलाइन हो ही जाता था। जो लोग कैश से पेमेंट करते थे वे अक्सर दस बीस रुपये पकड़ा देते थे. जतिन से उन रुपयों को लेकर भाभी की आँखों में चमक आ जाती थी। भइया की हताशा कम हो जाती क्योंकि वो शो रूम बंद था , जहाँ वे काम करते थे। 

नीटू कोरोना के कहर को समझने लगा है। खाना खाते हुये वह बड़े ध्यान से टी वी पर एक डॉक्टर की सलाह सुन रहा था। वे टी वी एंकर से कह रहे थे, ‘‘मैं लोगों से अपील कर रहा हूँ घर से बाहर बिल्कुल भी न निकलें। बहुत जरूरी काम हो तो डबल मास्क लगाकर निकलें। आप कोरोना से तब ही बच सकते हैं जब आप घर से बाहर न निकलें। ‘‘                

नीटू ने पानी का गिलास मेज पर रखकर रखकर पूछा, ‘‘ये वही डॉक्टर अंकल हैं न जिनके बहुत से डॉक्टर फ्रेंड्स के लिए टीवी पर लोग ताली बजाते हैं ? ‘‘

‘‘हाँ। ‘‘

‘‘फिर कचरा साफ करने वाले के लिये क्यों ताली बजाते हैं?‘‘ 

‘‘अगर वो हमारे घर के डटस्बिन से कचरा नहीं ले जाएंगे, सड़क साफ नहीं करेंगे तो कोरोना और फैल जाएगा। ‘‘

‘‘ओ। ‘‘उसने समझदारी से गर्दन हिलाई। 

जतिन सुबह आठ बजे घर से निकलने ही जा रहा था कि नीटू अड़ गया,‘‘आप बाहर मत जाइये कोरोना आपको मार डालेगा । ‘‘

‘‘अरे ! किसने कहा ?मैं मास्क लगाकर जाता तो हूँ।‘‘

नीतू ने उसकी बांह पकड़ ली, ‘‘अब मैं आपको बिलकुल जाने नहीं दूंगा। ‘‘

‘‘क्यों आज क्या हुआ ?‘‘

‘‘आपने कल डॉक्टर अंकल की बात नहीं सुनी थी ?वे कह रहे थे  घर से बाहर बिल्कुल भी मत निकलो। ‘‘

‘‘बच्चा !मेरी नौकरी है। मुझे जाना ही होगा। ‘‘

‘‘आज से तो मैं आपको बिल्कुल भी जाने नहीं दूंगा। आप बिल्कुल मत जाइये। ‘‘

‘‘नीटू !मैं बाहर नहीं निकलूंगा तो रूपये नहीं आएंगे। रूपये नहीं आएंगे तो हम खाना कहाँ से खाएंगे ?‘‘

‘‘खाना तो मम्मी बनाकर खिला देगी लेकिन आपके लिए कोई टी वी पर ताली भी नहीं बजाता फिर क्यों बाहर जाते हैं ?‘‘

जतिन ने अपनी बाँह छुड़ाकर तेजी से बाहर बढ़ते हुए कसैली आवाज में कहा,‘‘ मैं इंसान कहाँ हूँ ? मैं तो होम डिलीवरी ब्यॉय हूँ। ‘‘  

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संपादकीय 


देवेन्द्र कुमार बहल

वर्ष 2022 तो बीमारी से झूझते हुए बीत गया। आदमी कितने भी धैर्य से, बहादुराना अन्दाज़ से पेश आए फिर भी बीमारी के कीटाणुओं की सुरसराहट चिंताग्रस्त किए रहती है। हाँ! मैंने ‘अभिनव इमरोज़’ एवं ‘साहित्य नंदिनी’ के प्रकाशन की निरंतरता जैसे-तैसे बनाए रखी। चाहे थोड़ी देर-सबेर होती फिर भी हमारी कोशिश रही की पाठकों तक पहुँचे जरूर। 31 दिसंबर को रिव्यू हुआ है जिसमें साकारात्मक संकेत मिले हैं कि बीमारी के लक्षण स्वास्थ्य लाभ की ओर बढ़ते नज़र आ रहे हैं।

उम्मीद है कि वर्ष 2023, जीवन में गति और मिशन के बकाया बिंदुओं पर ग़ौर करने का पूरा अवसर मिल जाएगा। 

वर्ष 2022 अगस्त और अक्टूबर जो प्रयोग हम कर पाए वह बहुत सफल रहा। डाॅ. रेणू यादव और डाॅ. आशा पाण्डेय पर जो विशेषांक निकाले उनके बारे में साकारात्मक प्रतिक्रियाएँ प्राप्त हुईं हैं। जिससे प्रोत्साहित होकर हमारी इच्छा है कि वर्ष 2023 में भी कुछ उभरती हुई प्रतिभाओं को उनके समग्र रूप में विशेषांक प्रकाशित करके उन्हें अपने पाठकों से परिचय करवायें। अगर आप की नज़र में ऐसे कोई रचनाकार हों तो आप उन्हें प्रोत्साहित कीजिए। और हमारे से उनका परिचय करवायें। 

वर्ष 2023 के लिए अभिनव इमरोज़ एवं साहित्य नंदिनी परिवार की ओर से आप सब को नए वर्ष की शुभकामनाएंः

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कहानी

डाॅ. कमला दत्त


गंगामूरती                                          

नौकरानी लछमा (लक्ष्मी माँ) अपना काम खत्म कर नीचली वाली सीढ़ी पर आ बैठती है। उसका पान खाने का मन होने पर मदरसिया हिन्दी में कहती है-

“अम्मा पान होना ? अम्मा पान होना ?‘‘

और गंगामूरती का बड़ा पीतल का पानदान उठा लाती है।

पान खाने की आदत गंगामूरती को यहाँ आने के बाद ही पड़ी वरना किसी अच्छी पठवारन पंजाबन को किसी ने पान चबाते देखा है। बस जी, यह तो हुआ गाने-बजाने वाली औरतों का तौर-तरीका। अलबत्ता बड़ी औरतों में हुक्के का चलन था और फिर जाने कैसे पान में तंबाकू भी पड़ने लगा था - पहल गंगामूरती ने की या बाबू ने यह तो याद नहीं। गंगामूरती बड़े सलीके से सुपारियाँ सरौते से कुतरती है और पान लगाती है।

लछमा माँ - जैसे वह उसे बुलाती है (लक्ष्मा माँ) कहना वह नहीं सीख पायी - बतियाती जा रही है। अच्छी कन्नड़ वह आज तक नहीं बोल पाती। बस कामचलाऊ ही सीख पायी है।

लछमा अपनी मदरसिया हिन्दी में कहती है, “अम्मा जिसकों तुम काली माँ बोलती थी उसका बड़ी लड़की का शादी पक्का हुआ बिचारा छह लड़की होना।‘‘

और फिर सड़क पर अचारी मुनियारे की बीवी को जाते देख कहती है - ‘‘देखो जी, अचारी का इतना अच्छा अपना बीवी होना फिर भी रंडी रखा जी, एकदम छिनाल औरत।”

गंगामूरती हाथ के इशारे से कहती, “छी-छी, नाक्को नाक्को हमको कायको बोलना जी, किसी को भी नाक्को बाबा नाक्को बाबा।‘‘

नीचे भिखारी जोर-जोर से चिल्ला रहा है - अम्मा सापड़। अम्मा सापड़। गंगामूरती लछमा माँ से कहती है रात का बचा खाना ले जाए। वह देखती है लछमा माँ ने पूरा खाना भिखारी को नहीं दिया, कुछ बचा लिया होगा अपने रिश्तेदारों के लिए। गंगामूरती सब समझती हैं पर कहती कुछ नहीं।

... लछमा माँ के माथे पर बड़ा-सा कुमकुम का टीका हमेशा लगा रहता है, और दाँत पान की पीक से हमेशा लाल। गंगामूरती मन-ही-मन सोचती है यह काली भूतनी इतना बड़ा टीका किसके लिए लगाती है, पर वह कहेगी नहीं कुछ। लछमा माँ के मरद ने उसे छोड़ा हुआ है और बच्चा - वच्चा है नहीं पर सुहागन जैसा बड़ा टीका और फूल लगाना वह भी नहीं छोड़ती। गंगामूरती जानती है पर कहेगी नहीं - यह रात-बिरात जो तेरे घर आता है, जिसे तू देवर कहती है क्या तेरा देवर ही है। मरद से कोई रिश्ता न हुआ तो मरद के भाई से क्या रिश्ता हुआ जी। पर ऐसी छोटी बात कहना उनकी आदत नहीं।

और फिर घर के सेवकों से ज्यादा मुँह नहीं लगाना चाहिए। बिचारी बैठ कर दो-चार घड़ी बात कर जाती है आसपास की बातें करके कुछ वक्त निकल जाता है और यहाँ कौन है जो उनका कोई अपना हमवतनी बैठा हुआ है। जिससे दुःख-सुख बाँटें।

आजकल गंगामूरती ग्यारह बजते-बजते अपनी सिल्क की सफेद कीमती साड़ी में तख्तपोश पर बैठ जाती है। बैठक की बड़ी घड़ी उनके बैठने के कभी पन्द्रह मिनट पहले या बाद में ग्यारह के घंटे को जोर-जोर से बजाती है। बाबू होते, कभी इस तरह मुँह उघाड़े बैठने देते। उनके इस दुमंजिले मकान को सब लोग ‘‘माड़ी मने” या बड़ा घर कहते थे। तब था भी मुहल्ले का यह सबसे बड़ा और अमीर घर। अब तो आसपास कितने ही दुमंजिले-तिमंजिले मकान खड़े हो आये हैं। इन नये उगते अमीरजादों की तरह गंगामूरती पिछले चालीस सालों से इस मकान में हैं। बाबू का खरीदा यह अपना तीसरा मकान था। पुराने स्कूल को सस्ते दाम नीलामी में बिकते देख खरीद डाला। जैसा कि उनकी आदत थी नीलामियों में क्या-क्या खरीद लाते थे। एक बार तो एक अमीर फैशनेबुल दुकान से दो फ्राकें ही खरीद लाये। वह असली मारवाड़न उन्हें सलवार-कमीज से साड़ी तक पहुँचते बरसों लग गये क्या करतीं उन फ्राकों का। वह तो बरसों बाद बड़ी दोहती को दीं।

गंगामूरती चैदह की थी जब आई थी इस मुल्क में। वह कभी खुरमानाइयों, आलू बुखारे वाले शहर फ्रंटियर में पहुँच जाती है और कभी मदरासियों के इस मुल्क में। ग्यारह से एक बजे तक दिन के खाने तक वह सड़क पर आते-जाते लोगों को देखती रहेगी। गंगामूरती का कद पाँच फुट पाँच इंच है और रंग गोरा लाल। वह पक्की पठानी रूपवती लगती है। इस बुढ़ापे में भी बचपन के खुदवाये गोदने उनके मुँह पर उतने ही फबते हैं। बाबू लम्बा, पतला और काला था। उनके अपने रिश्तेदार उनके लम्बे कद और गरदन की वजह से उन्हें काला बगुला कहते थे।

गंगामूरती के चेहरे पर दो बिंदीनुमा नीले गोदने ठुड्ढी पर, एक माथे के बीचों-बीच और एक बायीं गाल पर और एक ऊपरले ओंठ पर इस तरह के बेतुके गोदने क्यों खुदवाये ? गंगामूरती क्या पेशावर के किसी मेले पर गई थी सहेलियों के साथ? गंगामूरती के बायें गाल पर एक लाल तिल भी जो उन पर बड़ा फबता है। कुल मिलाकर वह किसी छोटे रजवाड़े की राजमाता ही लगती है। पैसा, रुतबा खत्म हो जाने पर पुराने वक्त के अच्छे घरों की औरतों की शान, नफासत में कमी नहीं आती।

तख्त पर बैठे बैठे गंगामूरती सोचती कि बाबू होते तो क्या वह इस तरह बैठती ? कितने सख्त थे बाबू। शुरू में अपनी फिटन नहीं थी। ताँगें पर चादरें तनने के बाद ही घर से निकलने देते थे। फिर तो अपनी फिटन हो गई थी।

बरसों उन्होंने सलवार-कमीज ही पहनी - यह तो यहाँ के लोगों के बराबर कहने से उन्होंने साड़ी पहननी शुरू की। बरसों साड़ी भी यूपी की औरतों की तरह आगे पल्लू डाल बाँधी। लड़की की शादी के बाद उन्होंने मदरासनों की तरह पीछे पल्ला फेंक साड़ी बाँधनी शुरू की पर इन मदरासनों की तरह खुले मुँह सिर पर फूल लगा के घूमना वह कभी नहीं कर पायीं। सिर ढकना भी उन्होंने बरसों यहाँ रहने के बाद छोड़ा। लोग विधवा मान बैठते थे। बिन्दी लगानी भी उन्होंने यहीं शुरू की। जरा छोटी सी लगा लेती थी जैसा देश, वैसा भेस जी। पर इन मदरासनों के दमड़ियों जैसे बड़े टीके उन्हें कभी पसंद नहीं आये।

शुरू में कितना रौब था बाबू का। मुहल्ले में उन्होंने आसपास लोगों को भी डाँट दिया था। यह क्या तुम्हारी औरतें मुँह नंगे गली में बैठी रहती हैं। कुछ उनकी अमीरी का रौब और कुछ उनकी कड़क आवाज का कुछ ने अपनी बीबियों से कह डाला था और शाम को उनकी छड़ी की आवाज सुनते ही औरतें अंदर चली जाती थीं।

वह जमाना और था जी, बाद में जैसे-जैसे बाबू की उम्र बढ़ी, रुतबा कम हुआ, उन्हीं सासों की बहू-बेटियाँ मुँह उघाड़े उन्हें बिटर-बिटर देखती रहती थीं। यह उनका मुल्क था जी - वह क्यों किसी बाहर से आये काले पठान से दिखने वाले का रौब सहें, न अब वह जवान रहे थे, और न ही उतने अमीर।

मैसूर महाराजा के दिए तमगे भी उन पर उतना रौब नहीं डालते थे। अब देश आजाद, लोग आजाद, मदरासी भी देखो जी देखते-देखते कितने अमीर हो गए हैं। कहाँ पैरों में चप्पल डालनी तक नहीं आई, चट्टाईयों पर सोते सदियों गुजार दी अब पैसा देखो, कारें देखो और बाबू का, जी बुढ़ापे में कौन-सा अपना बेटा था, जिसके सहारे रौब डालते।

पर जी बाबू था आदमी शौकीन जिन्दादिल हजारों का लेन-देन और कोई लिखत-पढ़त नहीं। साड़ी पहननी है तो बढ़िया सिल्क की।

गंगामूरती का हाथ सात-सात हीरों वाले कनफूलों पर चला जाता है। नाक की तीली में भी पहले कितने बड़े हीरे पहनती थी यह तो बाबू की मौत के बाद एक कन्नी की पहननी शुरू की। गंगामूरती का हाथ अपनी ठोड़ी पर चला जाता है। उनके ठोड़ी पर अक्सर तीन लम्बे-काले बाल उग आते हैं जिन्हें वह अपने नाखूनों में फँसा-फँसा बराबर खींचती रहती है। जब वह इतने लम्बे न हो जायें कि उनके नाखून में फँस खींचने पर बराबर निकल आयें। बरसों पहले उनकी दोहती कह बैठी थी, “आपकी ठुड्ढ़ी को क्या होना।” उन्होंने झिड़का था, ‘‘चल शरारती मेरी ठुड्ढी को कुछ नहीं होना, तेरी जुबान खींचना होना।‘‘ दोहती खिलखिला कर हँस उठी थी।

क्या जी, यह पार्टीशन अब तो पंजाबी, सिंधियों का ही राज है। बड़ा गंद मचाया है, इन नए आए पंजाबी, सिंधियों ने औरतें देखो जी क्या सब लिपिस्टिक लगाए घूमती हैं। कोई शर्म - हया तो है ही नहीं, रेड़ियों पर खड़े हो गये और गोलगप्पे चाट खाते रहे। उस जमाने में तीन ही पंजाबी घर थे यहाँ और सभी अच्छे खानदानी एक अपना, एक मल्होत्रा सिनेमा वाले और तीसरा ढींगरा फार्मोसी वाले। इन सिंधियों, पंजाबियों से तो उन्हें यह मदरासी ही ज्यादा अपने लगते हैं। पर जी मदरासियों ने भी कम धोखे नहीं दिए। यह अपने राजा राव को ही लो, पर जी वह तो आदमी नेक था यह तो भतीजों के सिखाने में आ गया नहीं तो बरसों बेचारे ने सुख-दुःख बाँटा। थोड़ा-बहुत पैसा खा भी लिया तो क्या हुआ उसका हक था ! बेचारे ने हजारों काम करवाये, वक्त-बेवक्त साथ दिया हौंसला दिया वरना उनका यहाँ कौन मर्द बैठा था।

बाबू तो मरने से पहले साल भर बिस्तर से ही लगे रहे थे। सैकड़ों को अपनी युनानी दवाई से ठीक करने वाले को कैसे अचानक लकवा मार गया था और जुबान भी बंद हो गई थी। क्या कुछ नहीं किया, गंगामूरती ने अपने बाबू के लिए। सबसे अच्छे अंग्रेजी अस्पताल में दाखिल करवाने के साथ-साथ झाड़-फूँक, मंत्र-पूजा सभी कुछ किया उन्होंने। किसी ने कहा ऋची वाले संत के पास ले जाओ, तो वहाँ ले गई। किसी ने कहा पीर से गंडा-तावीज़ बंधवाओ तो वही किया। यह तो वह आज भी मानती हैं किसी का जादू-टोना था जी वरना हज़ारों को अपनी दवा से ठीक करने वाले को कहीं लकवा हो सकता था। जँचता नहीं।

बस जी, उस दिन बाहर से लौटे चक्कर आया गिरे तो फिर उठना ही मुश्किल। उन छः फुटे जवान को उठाना कौन-सा आसान था।

गंगामूरती हर सुबह तरह-तरह की दालें-सब्जियाँ ले घर से अस्पताल जातीं जिस चीज पर बाबू हाथ रख देते वही शाम को बनाकर ले आती। बाबू साल भर अस्पताल में रहे, पर उनका टिफन घर से जाता रहा। गर्मी हो धूप या पानी वह दोनों वक़्त अस्पताल जरूर गई।

मरने से डेढ़ साल पहले बाबू पंजाब लौटने का इरादा कर चुके थे। इस मकान की पेशगी तक ले चुके थे। यह पार्टीशन का झगड़ा न शुरू होता तो वापस अपने हरिपुर हजारा में होते। अपना मुल्क तो अपना मुल्क होता है जी। कहाँ वह किशमिश, आलूबुखारे, खुर्मानियों वाला वह मुल्क और कहाँ यह बंगलौर जेल। यह मकान तब भी लाख का बिक रहा था। अब भी ऐरे गैरे मदरासी, पंजाबी इसी पर आँख लगाये बैठे हैं। पर जी, मैं भी नहीं बेचने वाली। यह जी, मेरे बाबू का खरीदा घर है। मेरा बाबू इस घर की हर जगह में है। बाबू का जितना हौंसला उतना ही गुस्सा।

अचानक गंगामूरती का हाथ अपनी पीठ पर चला जाता है। जहाँ गुस्से में आकर बाबू ने बेंत लगाए थे। वैसे उनकी पूरी शादी की जिन्दगी में ऐसा दो-चार बार ही हुआ। उस बार तो जी लहूलुहान कर दिया था। पर जी, अपना ही मर्द था कोई गैर तो नहीं। इतना कुछ कर छोड़ भी तो गया है मेरे लिए। पर जो मेरी ही कोख काली आठ-आठ लड़के पैदा किए क्यों नहीं कुल चलाने वाला एक बच रहा। आठों के आठ मरे पैदा हुए। लड़की के लड़के हैं। पर अपना लड़का तो अपना होता है, जी।

उन्हीं का गरीब भतीजा पास रहा और फिर बाबू ने फौज में भरती करवा दिया था और फिर एक यूपी वाले जिनकी सात-सात बेटियाँ थीं, की सबसे बड़ी लड़की से शादी भी करवा दी। कौन करता जी, बिना दहेज के उन ऊँचे दातों वाली लड़कियों से शादी। यह तो बाबू ने दया की। और जी उनका भतीजा भी तो अनाथ था। वैसे लड़की बुरी नहीं थी। उनका अपना भतीजा जी, उसके मुँह पर भी माता की मार थी पर मर्दों की ख़ूबसूरती किसने देखी है। जैसा मुँह वैसा काम उसका। महाक्रोधी था, बीवी को अक्सर मार देता था पीकर जी, लड़की उफ् तक नहीं करती थी

बाबू कई बार भतीजे की बहू से खुसर-पुसर करते गंगामूरती को नजर आये, कभी बरामदे में, कभी रसोई में और कभी इधर-उधर दवाखाने जाने वाले रास्ते में। यहाँ मदरास में पली बहू से उन्होंने पर्दा तो क्या करवाना था। बहू ने ही बतलाया था कि बाबू कहते हैं, “एक बेटा मेरा मुझको पैदा कर दो। सब कुछ तुम्हारे बेटे के नाम कर जाऊँगा।” पता नहीं बाबू ने कहा भी या नहीं जी, लड़की तो वह ठीक थी पर बाप उसका घाघ था। उसी ने पट्टी पढ़ाई होगी जरूर। उसका ध्यान तो हमारी जायदाद पर ही था। ‘कब वसीयत करना बाबू ? हमारी लड़की का भी ध्यान रखना बाबू।‘

जब बाबू से गंगामूरती ने पूछा, हाय तौबा मचाई, तो मार-मार कर पीठ लाल कर दी। कई दिन रोती-कराहती रही। चलो जी, आखिर अपना मरद ही था बरसों की शादी में दो-तीन मार भी दिया तो क्या हुआ। अपनी कोख ही जली हो तो किसी को क्या कहना जी

एक ही लड़की बची थी उनकी। बाबू ने लड़की को लड़के की तरह पालने की कोशिश की। घुड़सवारी, शिकार पर भी साथ ले जाते थे। कहा भी कि लड़की को सिखाओ लड़कियों वाले काम। सीना, पिरोना, खाना पकाना हलीमी सलीका। पर जी कहाँ मानी उन्होंने किसी की।

बाबू के भी जी, क्या-क्या शौक थे। सबसे पहली वलैती गाय इस शहर में उन्हीं के घर आई थी। दूध भी जी पन्द्रह-पन्द्रह सेर। घुड़सवारी के घोड़े अलग। फिटन के घोड़े अलग। बेटी का घोड़ा तो उन्होंने बेटी की शादी के बरसों बाद तक नहीं बेचा। वह तो जी मर ही गया जी। सुबह शाम खुद चारा देते थे। उनकी बीमारी से पहले फिटन का जुड़ना बंद हो गया था। एक घोड़ा मर गया था। दूसरा घोड़ा बाबू की मौत के बाद बेचा। उसका मालिक साथ वाली गली में रहता था, झटके वाला था। घोड़ा महीनों इस घर के सामने से गुजरते हुए अड़ियल बन रूक जाता रहा और जोर-जोर से हिनहिनाता रहा। नए मालिक ने तंग आकर इधर से गुजरना ही बंद कर दिया था। एक बार तो ऐसा अड़ियल बना था कि आगे से हिलता ही नहीं था। तब गंगामूरती को खुद नीचे उतरना पड़ा। खुद अपने हाथों से चारा दिया। कहा चल बेटा जा बेटा, तेरा अन्न-जल अब इस घर से चुक गया है, जा बेटा जा। बेटा तब कहीं हिला। कितना रोयी थी उन दिनों। और टॉमी को देखो जी, उनकी मौत के बाद कैसे दिन-रात उनके पलंग के इर्द-गिर्द चक्कर काटता रहा। हर सुबह उनकी सोटी सूँघता और भौंकता। अब कहाँ रहे थे वे उसे घुमाने ले जाने वाले ! ‘टॉमी हमारे बाबू नहीं रहे अब! माँस की बोटी देख उछलने वाले टॉमी ने कुछ भी छुआ तक नहीं कई दिनों तक। फिर एक साल में तो मर ही गया जी। जानवर भी जी, कितना समझदार होता है। उस रात उनकी लाश नीचे हाल में पड़ी थी, टॉमी को पता चल गया वहीं से। जानवर जी सूँघ लेता है। लगा भोंकने - रोने से चुप ही न हुआ जी। चेन खींचे नीचे दौड़ने को लगा था - जैसे जँगला ही तोड़ डालेगा। फिर किसी ने कहा था एक बार उसे भी नीचे ले जाओ। जब नीचे लाए तो उनकी लाश के चारों ओर घूमता रहा, सूँघता रहा, भोंका नहीं कुछ भी बस बिट्टर - बिट्टर देखता रहा और जब वापस ला कर ऊपर बाँधा तो बस भौंका तक नहीं। गंगामूरती ही रोती-बिफरती रही, ‘‘मेरा बाबू क्यों छोड़ गया मुझे। कौन है बाबू, मेरा इस परदेस में! ओ मेरे बाबू, न छोड़ जा मुझे।‘‘

इस शहर वाले मकान में भी बाबू ने क्या-क्या जानवर पाल डाले। वलैती कुत्ते, ईरानी बिल्लियाँ, वल्लेती गायें, हिरन, मोर, तक पाल डाला जी। गंगामूरती को अचानक अपनी दोहतियों की याद आती है, कैसे बिल्लियों को बार-बार उछालती थीं, तंग करती थीं। उन्होंने ही डर डाला था, देखो, जितने बाल तुम्हारे हाथ में आयेंगे बिल्लियों के, उतने तुम्हारे जिस्म से खींचे जायेंगे। बाद में कहतीं, ‘अब्बा अम्मा हमारे हाथ में दस बाल होना। दस खींचों बारह होना, बारह खींचो।‘ उन्होंने ही कहा था चल हट शरारती चुड़ैल। गंगामूरती को किसी ने कभी न कभी ज्यादा प्यार जताते देखा और ना ही ज्यादा गुस्सा। सच तो यह है कि किसी ने उनकी ऊँची आवाज तक नहीं सुनी।

यह तो हाथ की हिकमत थी जी कि बाबू कितने-कितने बीमार ठीक कर डालते। दवाईयों के लिए कहाँ-कहाँ से जड़ें-पौधे मँगवाया करते थे। सारी की सारी छतें मनहूस 

धीवरों से भर डाली थीं। बाबू को अपने वतन के फलों का कितना शौक था। हर साल पौधों की पनीरियाँ मँगवाते रहे। पंजाब से, आधी पनीरी चार दिन के सफर में मर रहती और आधी यहाँ आने के बाद। पर जी, उन्होंने हिम्मत नहीं छोड़ी, बेचारे जंवाई के भी कितनी बार पैसे खराब करवाये, पन्नीरियाँ मँगवा - मँगवा के अब तो जी फलों की ऐसी किस्में आ गयी हैं, जो इस जमीन को भी सह लेती हैं। वरना हमारे बाबू ने क्या-क्या कोशिशें नहीं की यहाँ खुर्मानी, आलूबुखारे और चमनी अंगूर लगाने की।

बाबू को जी, उस जमाने में कितने-कितने बिल्ले मिले थे, मैसूर महाराजा ने जो हिकमत के दिए वह अलग और जो अंग्रेजों ने शिकार के निशाने के लिए, वह अलग। गंगामूरती बाबू की आदमकद तस्वीर को लगातार घूरती है। ऊँचे लम्बे जवान कुल्ले वाली पगड़ी, दो 303 की राईफल्स अगल-बगल।

वह उस दूसरी तस्वीर में खान साहेब के साथ। खान साहेब के साथ भी क्या दोस्ती थी। असली खानदानी, जी। महल जैसा घर फुआरों, इतरों की खुशबू। घर की औरतें फिटन से उतरी तो लगता था परियाँ हैं जमीन पर पैर रखेंगी तो कुम्हला जायेंगी। कुछ भी नहीं रहा जी, बेचारों का। रब की भी माया, राजा को रंक बनाए रंक को राजा। बेचारे दिवालिए हो गये। पुराने जमाने के व्यापारी जी, 

सीधे उसूलों वाले खानदानी लोग, यह नए मदरासी, 

सिंधी, मारवाड़ियों जैसे धोखेबाज नहीं। जिस घर में दस-दस नौकर रहे, उन्हीं का बड़ा लड़का छतरियों की दुकान कर रहा है। बाबू की मौत के बाद रोए भी कितना थे। कहते थे, मेरा जिगरी दोस्त चला गया। मदरासी कब जी किसी के दोस्त हुए। अपना राजा राव पहले तो ठीक थे फिर न जाने क्या हुआ, जी। हम ने भी पूरा रिश्ता निभाया, जी। लड़कियों को शादी में पाँच साड़ियाँ दीं उसकी लड़कियों को। लड़कियों को, लड़कियों जैसा दिया, बहुओं को बहुओं जैसा !!!

कितनी दावतें हुईं जी, इस बैठक में उस जमाने में। गंगामूरती ने लड़की की शादी के बाद माँस खाना छोड़ दिया था। पर दावतों के लिए सालन वो खुद बनाती थी। घंटो मसाले कुटवाने के बाद घंटों भूनती। उन दिनों यहाँ शेरो-शायरी भी ख़ूब चलती थी। चार दोस्त बैठे शेर पढ़ते। बाबू लिखते भी तो थे उन दिनों। एक किताब निकालना चाहते थे। अभी तक दवाखाने में इश्तहारों के साथ पन्ने पड़े हैं, उनके दिवान के, कुछ छपे कुछ अपने हाथ से लिखे। अपना कोई लड़का होता तो किताब जरूर छपवाता जी। जंवाई बहुत कहता था छपवाऊँगा, पर जी, साल में एक बार महीने के लिए आओ, तो क्या होता है।

इधर और ही मुसीबतें कम नहीं रहीं। हजारों का लेन-देन और कोई लिखत-पढ़त नहीं। हमें तो सभी को देना पड़ा जी, माँगे किससे जी कोई कागज - पत्तर ही दिखाए और माँगे। और इस लालबाग वाले मकान को ही देखो जो तीस साल से सिविल सूट चल रहा है। वकीलों के खानदान के खानदान पल गए हमारे पैसे से और हम गरीब के गरीब हो गए। लालबाग वाला मकान बाबू ने म्युनिसिप्लटी के नीलामी में खरीदा था। एक क्राटन थी सालों से टैक्स नहीं दिए थे। पर जी उस क्राटन के भतीजे-भतीजियाँ भी कम नहीं थे। एक से हम मुकद्दमा जीते, दूसरे ने दावा दायर किया। दूसरे ने दावा किया, दूसरे से जीते, तीसरे ने किया। इन क्रिश्चियनों की भी जी हर तरह की यारी होती है। हर तरह के भाई-भतीजे। और बाबू जी रेस कोर्स में भी कोई दस-पन्द्रह हजार हारे थे। यह भी जी उनके नये दोस्त कोहली की मेहरबानी !! वह तो जी कभी इतना पैसा कभी रेस पर नहीं लगाते थे। यह तो जी उसी ने कहा होगा - “बाबू और लगा, बाबू और लगा।‘‘ पर चलो जी क्या मन छोटा करना। मेरे लिए तो अभी बहुत है। क्या कहती जी, जब तक जियें सब ठीक है। अपना लड़का होता जी, हजारों के करोड़ों बना लेता। यहाँ तो जो है, वही खत्म होता जा रहा है। वकील किस के दोस्त यार हुए जी।

लड़की के बच्चे हैं जी, अपने बच्चे अपने ही होते हैं। लड़की का पहला बेटा ग्यारह दिन का था मैं और बाबू ले आये थे। कितने लाड़-प्यार से पाला जी। सबसे बढ़िया स्कूल, बढ़िया से बढ़िया कपड़े। एक दिन रात को बारह बजे कह उठा, आम खाने हैं। बाबू ने सारा शहर छान मारा था। दिल तो बाबू किसी का दुःखा नहीं पाते थे। उस बार ताँगे पे आ रहे थे। बारिश में एक भिखमंगे को देखा। उतारी कमीज दे डाली। यह भी नहीं सोचा कि सोने के बटन लगे हैं। यह तो भिखारी ईमानदार निकला जी। लड़की की शादी की इस धूमधाम से। बाग तो जी ऐसे मैंने खुद निकाले थे रेशम ही रेशम जी कपड़ा कहीं दिखाई न दे। कपड़े सिल्मे सितारों से वह जड़े कि लोग उफ् उफ् कर उठे थे। ऊपरी दहेज अलग, नीचे का दहेज अलग।

लड़की और बच्चों को हमने पार्टीशन से पहले ही आदमी भेज यहाँ बुलवा लिया था। जंवाई नौकरी पेशे वाला था। कहाँ आता जी। उसे तो कहा भी जी, नौकरी छोड़ दे, नहीं माना जी।

पढ़ा-लिखा आदमी है जी, उससे यह काम होने का भी नहीं था। बाबू की मौत के बाद लड़की गंगामूरती के पास रही कुछ साल। फिर जी उसे जाना ही था अपने साई के पास। रोटी-रोटी की भी खज्जल खराबी रहती थी। जब लड़की जा रही थी तो गंगामूरती ने ही कहा था लड़कियाँ मेरे पास छोड़ जा। पर जी मेरे से बुढ़ापे में कहाँ बच्चे पलते हैं। सिर में जुएँ पड़ गए जी। यह तो उनका बाप आया और ले गया। लड़कियाँ जी ठीक थीं, पर कौन जिम्मेदारी ले। बढ़ने लगती हैं, तो बढ़ती जाती हैं। कल कभी ऐसी-वैसी बात हो जाती तो कौन जिम्मेदारी ले दूसरों के बच्चों की जी। लड़कियाँ ठीक रहीं, अच्छा स्कूल, अच्छा घर सभी कुछ। जब तक भतीजे की बीवी यहाँ थी नहला-धुला भी ढंग से देती थी। हमारी बाबू की अपनी लड़की तो जी, ढंग ही निराले हैं। प्यार तो ढ़ेरों प्यार, गुस्सा तो मार-काट कर बच्चों की जान ही निकाल देगी। और खसम की कमाई से गुजारा करना तो उसने सीखा ही नहीं। कमाई तीन सौ खर्चा चार सौ। यहाँ भी तो सभी खर्चा। मेरे खाविंद के भेजे पैसे तो वे चाकलेट, कपड़ों में ही उड़ा देती थी। समझ वाली होती तो जोड़ के हजारों बना देती। हम क्या कहें जी, उसे खुद ही समझ होनी चाहिए। बाल-बच्चों वाली लड़की है, हम उसे अब क्या समझायें जी। इतने बच्चों का खर्च भी कौन आसान है जी। जंवाई ठीक साई आदमी है। बच्चों को अच्छा पढ़ा-लिखा भी दिया अपनी हिम्मत से शादियाँ भी कर देगा। खानदानी आदमी है, गुस्सा तो कभी देखा नहीं उसके मुँह पर। माताजी-माताजी करता रहता है। पर है बुद्धू महाराज, बाबू की मौत के बाद फूल डालने हरिद्वार जा रहे थे, देहली स्टेशन पर वह अफरा-तफरी मचाई, पर्स लुटा बैठा। यह तो जी, मेरे बक्से में चार-पाँच सौ रुपये थे, वरना कहाँ पराए मुल्क में खज्जल खराब होते जी।

जंवाई आदमी अच्छा है जी, पर जो उसने भी हमारे लिए किया क्या है जी कभी !!! इतनी बार कहा गुलजारी लाल, अगली बार आना तो एक अच्छी सी चिकन की साड़ी लाना हमारे लिए, आज तक नहीं लाया जी। पर जो शायद पैसे की तंगी रहती हो, इतना बड़ा टब्बर पालना कौन आसान है जी। मैंने चैथे के बाद समझाया भी था ऑपरेशन करवा लो, वही नहीं मानी। चार अच्छे पल जाते वही ठीक थे। पर क्या जी, पैदा करने को ढेरों पैदा कर लो, और फिर मरते रहो।

बाबू की मौत के बाद बरसों कितनी मनहूसी रही। बाबू की मौत की ख़बर अनूप चन्द लाया था। अस्पताल वालों ने उसे ही ख़बर की थी। बीस घंटे लाश को बर्फ की सिल्ली पर रखा जी। लोग बाग कहने लगे कपूर जलाओ, जी। कीड़े-मकौड़े- आ जाते हैं। पर बाबू जी अच्छे कर्मों वाले आदमी। दूसरे दिन सुना है नहलाते वक्त भी जिस्म उतना ही मुलायम जैसे बच्चे का जी। नेक कर्मों वालों का रब राखा जी। भतीजा फौज से आया तो उसी ने आग दी जी। कोई तो हो जो अपनी आग देने वाला। बेटी का बेटा जी, अपने बच्चे की तरह पाला वह भी अपने बाप के पास पंजाब था। जो पास होता तो भी अभी बच्चा ही था, उससे क्या आग दिलवाते। आसपास वाले मदरासियों ने कहा जी, “बाबू हमारे भी कुछ होना जी, लाश का मुँह खुला छोड़ना जी। हमको भी देखना होना जी।‘‘ गंगामूरती ने हाँ कर दी। अर्थी खुले मुँह ही उठी। मदरासियों ने फूलों के हारों से भर दिया और सारे रास्ते फूल ही बरसाते गये। बाबू की मौत के बाद वह दो बरस तक जमीन पर सोई। दूसरी बरसी के बाद ही पलंग पर सोना शुरू किया। सब कुछ एक तरह से बाबू के साथ खत्म हो गया। बड़े-बड़े कढ़ाओं में पकती दवाएँ, हमामदस्तों में कूटती दवाईयाँ और बाहर हाल में बैठे मरीजों की कतारें ! ! !

बस जी, यह पार्टीशन न होती तो मैं वापस हरिपुर हजारा पहुँच जाती अपने घर जी। लोग तो जी, कहते हैं सब बेच जा, लड़की के पास जा रह। मैं तो पहले जी लड़की के घर जाकर रहने वाली नहीं। क्यों जी, अपना सब कुछ बेच किसी पर मुहताज बनूँ, जब तक सब कुछ मेरे हाथ में है, दूसरों को दे दूँ। दूसरों का क्या जी, आप क्या रोक-टोक लगायेंगी। जमीन इतनी कोड़ियों के भाव गयीं। यह तो जी सब नए रूल गवर्मेन्ट के दो हजार एकड़ तो होगी। कहने लगे चालीस से ज्यादा तो एक आदमी रख ही नहीं सकता। सब जी कोड़ियों के दाम बिकवा दीं। कोई अपना होता यहाँ, तो ऐसे होने देता जी? मदरासी तो मदरासी की मदद करता है जी। पहली बार जब जमीन पर गए थे तो देखा जमीन के बीचों-बीच साँपों का मन्दिर जी। लोगों ने कहा उसे मत छुओ और आसपास की कुछ एकड़ जमीन भी मत जुतवाओ, नाग देवता का श्राप लगेगा। बाबू देवता आदमी जी, मान गए !!!

सुना है, उस पर अब संतों का अड्डा बन गया है जी। यहाँ की जमीन भी जी, अजीब। गंगामूरती अपने पेशावर की जमीन की, बरसात के पहले कतरों से उभरती सोंधी खुशबू को तरस जाती है। लाख कोई कहे जी गरदा, उसके गरदे की भी अपनी महक जी, और यहाँ की जमीन तो जी चिपचिपी और फल क्या जी, आ-जा के पपीता, अन्नानास, सीताफल यह भी कोई फल हुए जी। फल तो हुए जी, अपने आलू बुखारे, खुमानियाँ, नाश्पातियाँ, एक सरदा घर में हो जो मुहल्ला महक उठे।

यहाँ भी जो बाबू के साथी बचे ही कितने हैं, असली साथी रहे नहीं और आगे-पीछे फिरने वाले तितर-बितर !! बाबू ने जो कइयों की गरीबी ढकी। अपने घर तो नलके जी, पर बावड़ी से सभी को पानी भरने देते और किसी का भाँडा-बर्तन गिर जाता तो उसे निकलवाने के पैसे भी खुद भरते। गंगामूरती अब नहीं ज्यादा लोगों को आने देतीं। कोई बच्चा गिर जाये तो कहाँ पाप भुगतेंगी और जी, आदमी घर न हो तो ऐसे-वैसों की निगाह लगी रहती है।

वैसे कहने को बड़े घर, पर अब मेरे पास ही क्या बचा है। मकानों के किराये से मुश्किल से मेरी और वकीलों की फीसें पूरी होती हैं और यह सिविल केस भी जो तीस साल से चल रहा है, कोर्ट से बाहर ही समझौता कर लेते। दो घर बर्बाद हो गए जी। उस क्राटन का क्या कहना जी उसके भाई-भतीजों की कोई कमी नहीं। सैकड़ों की तादाद में छोड़ गई है। बाबू की मौत के बाद हमें तो सभी को देना पड़ा। लेते कैसे जी। सभी का चुकाना पड़ा। इस घर की पेशगी के भी पाँच हजार बाबू ले चुके थे। गंगामूरती को याद है कैसे दो बड़े-बड़े रूमाल भर जेवर उन्होंने बेचे थे। वह तो सात लड़ियों वाला सुच्चे मोतियों वाला हार, बाबू बोलता था जी, बड़ी दोहती को देना है शादी में। वह भी जी, बड़ी सिदड़ है, छोटी थी तब भी फ्राक का कॉलर एक तरफ लटक गया। उस सिदड़ माचड़ साथड़ को फिकर नहीं कि ऊँचा कर ले। बाबू सबको खर्चने के लिए एक पैसा देते तो उसे दो देते। कहते एक तो दूसरे बच्चे ही खा जाएँगे उससे। मार भी वह सबकी सह लेती थी। बड़ों की भी छोटों की भी। शक्ल तो बेचारी की ठीक ही है पर सुना है पढ़ाई में अच्छी निकली है।

कुछ सालों बाद गंगामूरती पंजाब गई, बेटी के छोटे बच्चों की साथ लेती आई। फिर तो बीमार ही पड़ गई। यह सिर दर्द, ब्लड प्रैशर भी लग गया। लड़की सेवा भी ख़ूब करती है जी। गंगामूरती ने जरा हाथ तंग ही रखा है जी खर्चे पर, नहीं तो सब खत्म हो जाता। हर साल गहने तुड़वा बना उस सोने को जी, जो हाथ से मुड़ता था तुड़वा-तुड़वा गिल्ट ताँबा कर दिया जी। बस जी, हाथ इतना खुला बेटी का कि ईश्वर बचाए कुछ न पूछो। दोहतियाँ जी, आगे-पीछे फिरती। माताजी यह होना, माताजी यह होना, माताजी के पास कौन टकसाल है जी। जो बचा कर रखेंगी, इन्हीं के काम आयेगा साथ तो नहीं ले जायेंगी।

बस जी, जो दिन बीत जाये, उस ऊपर वाले के नाम से वही ठीक है। वह सुबह उठ नहाने के बाद दो-तीन घंटे तक पूजा करती है। माँस खाना उन्होंने बेटी की शादी के बाद छोड़ दिया था, रामकृष्ण आश्रम जाना शुरू करने के बाद। अब बीमारी के बाद बेटी जबर्रदस्ती शोरबा हार्लिक्स पिलाती रहती है। कहती है ताकत आती है, जान है तो जहान है जी। जब तक वह पूजा करती है छोटी बच्चियाँ फूल-फल या बर्फी खरीद लाती हैं और फिर इंतजार करती हैं। भोग लगे और उन्हें बर्फी मिले 1 बाबू के श्राद्ध पर वह अब भी हजार दो हजार खर्च करती है। क्यों न करूँ जी। मेरे बाबू की कमाई है, तो क्यों न करूँ जी। मेरे बाबू की कमाई उनके दान-पुण्य में क्यों न जाए। दोहते-दोहतियों को तो जितना दो, उतना ही कम है।

जिनकी औलाद वही सम्भाले जी। मेरी बेटी को जी, पैदा होने से सोने के तख्ते पर बिठाया था बाबू ने जी। इतना सोना, कुछ उसने तुड़वा-तुड़वा खत्म किया। कुछ उन लोगों के सिल्ले लग गया जी। होशियारी से खर्च करना तो हमारी लड़की को भी नहीं आया जी। गुस्सा भी बाप और हाथ भी बाप पर। प्यार करेगी तो प्यारी ही करती जायेंगी। मारने पर उतरेगी तो हड्डी-पसली तोड़ डालेगी।

बाबू की मौत को भी जी तीस साल होने को आए हैं। वक़्त जी कैसे बीतता है पता ही नहीं चलता। यह इलाका कैसे बदल गया है लछमा माँ ने अपने देवर से शादी कर ली है और अब चीले की दुकान है उसकी। अचारी ने उस रंडी को छोड़ दिया है। काली माँ की सारी बेटियों की शादी हो गयी है और देवर उसके जो अब मिनिस्टर हैं। और ‘‘माड़ी मने‘‘ (बड़े घर) की जगह कितने तिमंजिले - चैमंजिले मकान खड़े हो गये हैं। बाबू की मौत के तीस साल बाद मरते दम तक ख़ूबसूरती और रईसी कायम रही।... गंगामूरती की जी गंगामूरती की मौत के बाद उनकी बेटी कुछ साल तक उस तख्तपोश पर बैठी, पर वह गाढ़े रंग की कीमती रेशमी साड़ियाँ पहनती रही और ख़ूब सोने के जेवरों से लदी रहती थी। फिर उसने यह घर बेच दिया। सुना है किसी “पाश” इलाके में रहती है। अपने नये मकान में दो अंग्रेजी कुत्तों और कार के साथ।

गंगामूरती की बड़ी दोहती को इस घर के नक्काशी वाले काम के दरवाजे बहुत पसंद थे। वह गंगामूरती की बेटी यानी अपनी माँ से कहना चाहती है, “घर तो तुमने बेच दिया माँ, पर घर के दरवाजों पर मेरा हक था, उन्हें क्यों बेचा।‘‘ पर वह कुछ नहीं कहेगी !!!

Retired Professor, Morehouse School of Medicine Pathology, 2645 Midway Road, Decatur, Georgia-30030, Email : Kdutt1769@gmail.com



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कहानी


डाॅ. उमा त्रिलोक, -मोहाली (पंजाबी), मो. 98111 56310

कबूल है



रजनी की बड़ी बहू मोनिका अपनी अमरीका से लौटी मौसी पैमला आँटी से बातें कर रही थी।

मोनिका एक खूबसूरत लड़की थी... सुन्दर नयन-नक्श, गोरा रंग, ऊँचा कद, इकहरा शरीर, कुछ भी पहने... देसी या विदेशी... हमेशा सुन्दर लगती।

दोनों बहुत देर तक बातें करती रही और बीच-बीच में दोनों के जोर-जोर से हंसने की आवाजें आती रहीं... फिर न जाने पैमला आँटी ने क्या कह दिया कि मोनिका के चेहरे पर काले बादलों सी एक परछाई सी फैल गई।

रजनी के दोनों बेटों की शादियाँ बहुत जल्दी हो गईं थीं...दोनों की पढ़ाई में रुचि नहीं थी... छोटे बेटे निरुत्तम की गर्ल फ्रैन्ड तो उसके साथ ही स्कूल में पढ़ती थी...वह स्कूल पास करने के तुरन्त बाद ही उससे शादी करना चाहता था...और बड़े बेटे नीरज ने भी मोनिका को करीब-करीब मिलते ही ‘प्रपोज‘ कर दिया था... मोनिका, पैमला आँटी को बता रही थी।

“नीरज तो मुझे अच्छी तरह जानते भी नहीं थे... फिर भी उन्हें शादी की बहुत जल्दी थी।” मोनिका ने कहा।

“क्यों?” पैमला आँटी ने पूछा।

मोनिका सोचते हुए बोली,

“क्योंकि अगर निरुत्तम की शादी हो जाती और नीरज की नहीं. .. तो नीरज को बुरा लगता न ?”

‘‘यह तो कोई वजह न हुई‘‘, पैमला आँटी के मुँह से अचानक निकला।

“उन्होंने मुझे प्रपोज कर दिया क्योंकि नीरज शायद जानते थे कि मैं मना नहीं करूँगी... और फिर दिखने में भी मैं ठीक-ठाक हूँ।” कहते-कहते मोनिका हँसने लगी।

“नीरज और मैं, शादी से पहले भी मिलते रहे.... खूब घूमते रहे... नीरज बहुत ‘केयरिंग‘ हैं... मुझे पहले दिन से ही अच्छे लगे... और फिर ‘ममी जी‘ भी तो बहुत अच्छी हैं न! उनको मेरी अपनी फैमली के बारे में सब कुछ पता है फिर भी वह मुझे कितना चाहती है !” “लेकिन शादी की इतनी जल्दी क्या थी?

कॉलेज तो पूरा कर लेती....!”

पैमला आँटी ने पूछा

“पैमला आँटी यह सब निरुत्तम की वजह से हुआ है... नीरज उससे पहले शादी करना चाहते थे... वही बात... ईगो वाली.... मैं कैसे रह जाऊँ पीछे.... अपने छोटे भाई से?”

अपने और नीरज के मिलने का उसे शायद पहला- दूसरा दिन याद आ गया.... मोनिका हँसते-हँसते अपनी बड़ी-बड़ी भूरी आँखों को कुछ और खोलते हुए बोली,

‘‘मेरे साथ दोस्ती भी... नीरज ने शायद इसीलिए की थी... नीरज की भी तो कोई गर्ल फ्रैन्ड होनी चाहिए थी न... निरुत्तम की तरह... ‘द स्टडी काइण्ड‘..... कहकर वह दोनों हँसने लगी।

फिर थोड़ी सीरियस होकर मोनिका बोली, “ममी - डैडी की लड़ाई. .. अब मुझसे और बर्दाशत नहीं होती थी... मैं तो कटी पतंग सी थी. ... गिरना तो मुझे था ही...सो नीरज के आँगन में आ गिरी।”

मोनिका की आवाज ने न जाने क्या कह दिया कि पैमला आँटी ने झट कहा,

“तुम सुखी तो हो न, मेरी बच्ची ?‘‘

मोनिका के चेहरे पर फिर से एक शरारती हँसी फैल गई, 

“आपको क्या लगता है । ‘‘

“नो, नो, आई फाइन्ड यू वैरी हैप्पी।” पैमला आँटी न कहते हुए भी, यही कह चुकी । वह मोनिका की आवाज में थोड़ी उदासी पाती तो झट उनकी उत्सुकता बढ़ जाती ।

“कितनी बार आऊटिंग के लिए गए हो तुम और नीरज ? यानि सैर-सपाटे के लिए...

“आपका मतलब है हम दोनों... अकेले ?‘‘

“हाँ तुम दोनों...दुकेले ।” वह दोनों हँस पड़ीं।

“कभी अमरीका ही आ जाते! तुम्हें तो पता है न... तुम्हारा एक घर अमरीका में भी है।” पैमला आँटी ने मोनिका का हाथ पकड़ कर उसे अपनी ओर खींच लिया।

“चलो अब आ जाना... मेरे साथ ही चलो न... आख़िर क्या कर रहे हो तुम दोनों... बिजनैस तो डैडी ही सम्भालते हैं ।” फिर थोड़ा गम्भीर होकर बोलीं..., “और नीरज तो वैसे भी टैनिस फीक है... बहुत टूरनामैन्ट खेलने जाता है ।‘‘ फिर कुछ सोचती हुई बोली, “तुम क्यों नहीं जाती उसके साथ...अपने मर्द को इतना अकेले नहीं छोड़ते....!”

“क्यों?” मोनिका ने शरारत भरी आवाज में पूछा।

पैमला आँटी ने गम्भीर होकर कहा,

“यह भी क्या तुम्हें बताना पड़ेगा... पागल लड़की।” “कभी कभी तो जा सकती हो न उसके साथ-जब वह लम्बे टूर के लिए जाता है...और फिर पीछे भी कौन से बच्चे हैं... जिन का स्कूल देखना.... !” 

फिर कुछ उत्तेजित होकर बोली,

“बाई द वे...शादी को तीन साल हो गए... बच्चे क्यों नहीं हुए??.... अभी से फैमिली प्लैनिंग शुरू हो गई क्या....? तुम बच्चे लोग भी सचमुच पागल हो।”...और पैमला आँटी जोर से हँसने लगी. ...शायद वह अपने जीवन की नीरसता को अपनी हँसी में ढकना चाह रही थी...उन्होंने क्या कुछ नहीं किया था बच्चा पाने के लिए ... और इधर ये हैं कि फैमिली प्लैनिंग कर रहे हैं।

मोनिका की बाजू पर बंधे हुए तावीज को देख कर पैमला आँटी

ने पूछा, “यह क्या है?‘‘

“ममी जी ने कहीं से लाकर दिया है।”

“किस लिए?”

“पता नहीं... शायद इसलिए कि सब ठीक हो जाए।‘‘

“क्या ठीक हो जाए... यानि गलत क्या है? मोनिका यह तो बताओ?”

“नहीं, कुछ नहीं... यानि सब ठीक-ठाक रहें।”

‘‘या यह कि जल्दी से तुम्हारे बच्चा हो जाए... तुम्हारी सास भी तो चाहती होगी कि शादी को करीब साढ़े तीन साल होने को हैं... अब तक तो बच्चा हो जाना चाहिए था... मेरी बच्ची... सब काम ठीक समय पर हो जाना चाहिए.... इस मामले में देर हो जाए तो माँ-बाप बूढ़े हो जाते हैं और बच्चे जवान नहीं हो पाते...इसलिए...नो ‘फैमिली प्लैनिंग‘।” कहते-कहते पैमला आँटी हसने लगीं और मोनिका भी साथ-साथ हँसने लगी... और जोर-जोर से हँसते-हँसते वह रोने लगी। 

पैमला आँटी चैंकी, “अरे यह क्या?‘‘ और उठकर उन्होंने मोनिका को बाहों में ले लिया...

“मुझे बताओं क्या बात है? वह बोली,

“सभी से सब कुछ नहीं छिपाते... कोई ऐसा जरूर होना चाहिए जिसे दिल की पूरी बात बताई जा सके... बोलो... क्या बात है ? ... तुम मुझ पर विश्वास कर सकती हो न??‘‘

मोनिका जानती थी कि पैमला आँटी उसे बहुत प्यार करती है। अगर ममी-डैडी मान गए होते तो शायद आज वह उन्हीं की बेटी होती. .. पैमला आँटी ने मोनिका को गोद लेने की बहुत कोशिश की थी। 

“चलो चलो... आओ मेरे साथ... हम ड्राइव के लिए चलते हैं। ‘‘ पैमला आंटी बोली।

ड्राइव पर जाते हुए मोनिका अन्दर से और उदास हो गई। वह पैमला आँटी में एक माँ का चेहरा देखती थी... उसकी अपनी माँ तो अपनी ही जिन्दगी से इतनी नाखुश थी कि उनका अपने बच्चों की तरफ ध्यान ही नहीं गया था...लेकिन मोनिका, पैमला आँटी के सामने अपना सब सुख-दुःख उढ़ेल सकती थी....

लेकिन इस वक्त वह बोल नहीं पा रही थी।

‘टैल मी, टेल मी‘ मुझे बताओ, नीरज तुम्हें प्यार तो करता है न?‘‘ पैमला आँटी ने पूछा।

मोनिका सिर्फ इतना ही कह पाई, “हाँ, करता है न !”

वह सोचने लगी... अपने तरीके से तो नीरज उसे बहुत प्यार करता है! मैं कुछ भी करूँ, कभी टोकता ही नहीं... जितना खर्च करूँ... करूँ... जहाँ जाऊँ...जाऊँ कोई मना भी नहीं करता... सुख के सारे साधन उपलब्ध हैं ... वैसे देखा जाए तो कोई समस्या है ही नहीं...

पैमला आँटी ने फिर से उसका हाथ थामा और पूछा, “फिर भी कोई प्रोब्लम तो है...क्या है ?

घूमने ले जाता है? मैंने तो उसे हमेशा अकेले ही जाते देखा है।‘‘ “इकट्ठे क्यों नहीं जाते?‘‘ वह बोली

मोनिका ने उन्हें दिलासा देते हुए कहा, “पैमला आँटी मैं और ममी जी तो इकट्ठे बहुत घूमते हैं...सभी जगह ... फिल्में देखते हैं... शॉपिंग करते हैं...फंक्शन्स पर जाते हैं... सभी जगह... और ख़ूब मजा भी करते हैं।‘‘

“वह तो ठीक है बेबी - लेकिन, मैं तो तुम्हारे और नीरज के साथ-साथ जाने की बात कर रही थी।” पैमला आँटी बोली और सोचने लगी, “पति-पत्नी कभी इकट्ठे हँसते-बोलते मैंने देखे ही नहीं... नीरज कुछ कह जाता है यह बस सुन लेती है और वैसा ही कर लेती है।” उनके कानों में नीरज के बोल गूंजने लगे “मोनिका, सोनिया और कुनाल के यहाँ पार्टी है....” ल्वन ादवू जीम ापदक व िचंतजपमे जीमल ीवसक (तुम्हें पता ही है उनके घर कैसी पार्टियाँ होती हैं) तुम्हें कुछ ज्यादा ही बन-ठन कर जाना होगा... कुछ नया ख़रीद लो... पार्लर-वार्लर हो कर आओ...ल्वन ींअम जव सववा ेजनददपदहण्ण्ण् ल्वन ेमम उल चवपदज (तुम्हें तो गजब का लगना होगा...समझ गई न... मैं क्या कहना चाह रहा हूँ।

“तो फिर क्या बात है? सच बताना” कोई और लड़की तो नहीं.... उसकी जिन्दगी में....?” पैमला आँटी ने साफ-साफ ही पूछ लिया।

“नहीं-नहीं... नीरज को तो लड़कियों में कोई दिलचस्पी ही नहीं।”

मोनिका के मुँह से निकल गया।

“क्या मतलब?...लड़कियों में दिलचस्पी ही नहीं... तो फिर....‘‘ पैमला आँटी का मुँह खुला का खुला ही रह गया... “तुम्हारा मतलब है... बोलो मोनिका .... तो फिर... क्या कोई लड़का है? क्या...?”

मोनिका चुप रही

“ओह माई गॉड... यह क्या हो गया... तो फिर इस शादी का मतलब क्या है?” पैमला आँटी इतना कह कर जैसे सुन्न हो गई और सोच में घिर गई।

इस लड़की के साथ ही ऐसा होना था...सारी जिन्दगी इसे होस्टलों में पटका रखा...क्योंकि घर में तो महौल ऐसा था कि एक मिन्ट भी चैन - आराम नहीं... हरदम कुत्ते-बिल्ली की लड़ाई चलती रहती-

मोनिका का टूटा-फूटा बचपन, उनकी नजरों के सामने आ खड़ा हुआ... अस्थिर, ढुलमुल, असन्तुलित, डांवाडोल... ऐसे में शायद कोई भी अपने आप को बचाने के लिए... किसी से भी... कोई भी, सम्बन्ध बनाने के लिए उतारू हो जाता है।

बिना देखे-भाले, बिना सोचे-समझे, इस लड़की ने शादी जैसा बड़ा कदम उठा लिया...क्योंकि ममी-डैडी का घर तो कभी घर था ही नहीं सो जो भी मिला आधा-

अधूरा, आसमान समझ कर कबूल कर लिया। 

पैमला आँटी को धीरे-धीरे सारी बात समझ में आने लगी.... 

वह सोचने लगी... अब वह कैसे मोनिका को असली बात बतलाएँ। 

क्या इसकी सास यह बात जानती है... क्या ऐसा तो नहीं कि इसकी सास इसके साथ इतना प्यार इसलिए जताती है कि यह दिखावे की शादी बनी रहे-कैसा अनर्थ हो गया इस बच्ची के साथ।

पैमला आँटी ने साहस जुटा कर कहा, “मोनिका तुम जानती हो नीरज ने तुमसे शादी क्यों की है....? उसके लिए तुम एक ‘शो-पीस‘हो जिसे उसने अपने घर को सजाने के लिए रखा है... यह सब आडम्बर दुनिया को दिखाने के लिए है... उसको दोहरी जिन्दगी जीना है ... अभी तक हिन्दुस्तान में यह सब खुल्लम-खुल्ला नहीं हो रहा-समाज के लिए एक मुखौटा पहनने की जरूरत है....।”

मोनिका सोचने लगी...शायद आँटी ठीक कह रही हैं, लेकिन उसने मुझे रखा तो ‘शो पीस‘ की तरह है। जैसे कोई ‘क्रिस्टल‘ का पीस हो ....बहुत कीमती .... नायाब।

पैमला आँटी फिर कुछ सोचते हुए बोली- “मेरी बच्ची यह ठीक नहीं है, तुम्हारा अपनी तरफ बहुत सख़्त रवैया है...तुम अपनी सोचो. ..नीरज को तम्हारी, पत्नी के रूप में, कभी जरूरत नहीं थी... उसने कुछ सिद्ध करने के लिए तुमसे शादी की है... इस शादी में शादी जैसा कुछ नहीं -तुम सिर्फ एक सहूलियत की तरह हो उनके लिए।” थोड़ा रूक कर वह फिर बोली।

“तुम अपने आप को एक मौका और दो...फिर से जिन्दगी शुरू करो.... मेरे साथ अमरीका आ सकती हो... वहाँ युनिवर्सिटी में फिर से पढ़ाई शुरू करो.... अपने आप को खोजो... अपने साथ ऐसा मत होने दो... तुम चाहो तो मुझ पर भरोसा कर सकती हो...ंदक लवन ंतम ं उवकमतद हपतसण्ण्ण्कवदश्ज ंबबमचज ूींज मअमत पे हपअमद जव लवनण्ण्ण् तुम एक आधुनिक लड़की हो वह सब मत मान लो जो तुम्हें दिया जा रहा है। च्नज नच ं पिहीजए कमपिदम लवनत सपमि वदबम ंहंपद (अपनी परिस्थिति से जूझो अपने जीवन को नई परिभाषा दो। फिर से ढूँढ़ो अपने लिए नए मुकाम !”)

मोनिका रुंआसे गले से बोलने का प्रयास कर रही थी लेकिन बोल नहीं पा रही थी।

उसके कानों में पैमला आँटी के शब्द गूँज रहे थे।

“मोनिका सिर्फ एक्सैप्टैन्स (।बबमचजंदबम) के लिए इतना बड़ा बलिदान मत दो।”

“पैमला आँटी मैं याद रखूँगी कि मेरा एक घर अमरीका में भी है और वहाँ मेरी एक माँ भी है जो मेरे दुःख-सुख की साझी है... लेकिन मुझे इस घर में भी एक माँ मिल गई है जिसे मैं छोड़ कर नहीं जा सकती।” यह कहते-कहते मोनिका जोर-जोर से रोने लगी... और पैमला आँटी अवाक् तकती रही- 

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कहानी

डाॅ. सुदर्शन प्रियदर्शिनी



क्वारी बहु

गाँव में जो कभी-कभार प्रेम विवाह होते हैं, वह पहले नोक-झोंक, फिर लुका-छिपी, दोस्तों की रोक-टोक, पड़ोसियों की गुप्त सलाहों, माँ-बाप की गाली-गलौस और फिर बिरादरी की ताड़-पछाड़ में धीरे-धीरे परिपक्व हो जाते हैं और उन का हर टेढ़ा कोना अपने-आप तराशता चला जाता है।

गांवों की मेढ़ो की उतराई- चढ़ाई, गाँव में चलने वाली स्वछन्द लू आंधियां उस के हर दोष को उढ़ा ले जाती हैं और वह जन्म-जन्मान्तर तक के लिए आंगन की बेल बन कर अपनी ऊँचाइयों को पकड़े रहती है।

किन्तु उदयशंकर शास्त्री उर्फ स्टीव का विवाहझारों अन्य क्षणिक आवैगो से फलीभूत होने वाले विवाहों की तरह - अमरीका में हुआ, बिना मंगलगीत, बिना मन्त्र, बिना सगे-सम्बन्धी, बिना गाँव के ढोल-ढमाके, बिना बिरादरी के कलफ लगे ठसेदार रंग-रंगीली पगड़ियों और साफों की भीड़, हंसी-मजाक, खान-पान की बेलाग मौज-मस्ती, बिना घोड़ी चढ़े और मर्दानगी दिखाए, बिना मुकुट-अंजन-रोली अक्षत चन्दन, बिना बहन के वाग-गीत (जिस में बहन घोड़ी की पूंछ पकड़ कर भाई से नेग मांगती और दुआ देती है), बिना माँ-बाप और भाबी के दैवी आशीर्वाद और घढ़ोली गीतों की मन्दिर - गलियारे में गूँज के ... पर दूल्हा खुश था। दुल्हन खुश थी। बिना ताम-झाम के किराये पर बड़ी जुगत और पैसे से जुटाए गये सादे कुछ घण्टों के हाल में। जिस में सब कुछ खुले में खुले कपड़े, खुले घुंघट, खुले तेवरों में पली मेम के आई डू-आई डू के साथ सारे सात फेरों का आदान-प्रदान कर गयी थी। इन सात फेरों के आरूप में प्री-नपचुअल, पैसे का, 

अधिकारों का लिखित दस्तावेज पहले ही अनुबंधित हो चुका था। रंगों की ताम-झाम या लाल रंग की सलमो सितारों से जड़ी और कई गजों के लम्बे-चैड़े आवरणों में लिपटी किसी की बेटी ने मंडप में नहीं आना था। बस कुछ ही क्षणों में एक गोरी-चिट्टी, लम्बी पतली- उदयाम वेग से कदम-भरती स्टेफनी अपने नये पति उदयशंकर के साथ बाहर निकल रही थी। सार्वजनिक चुम्बन के बाद- मिस स्टेफनी आस्कर वाइल्ड के स्थान पर स्टेफनी शास्त्री बन कर। जिस की मिसेज शैस्त्री-मिसेज शैस्त्री कह कर पुकार हो रही थी और जो इस समय बाहर की ओर 

धीरे-धीरे चल रही थी।

शादी हो गयी थी। ब्राइड -मेड्स-वाक, बेस्ट मेनवाक, फिर पिता के साथ ब्रायीडल वाक् यानी स्टेफनी के माता-पिता उपस्थित थे। पर शंकर के घर की ओर से कोई आँख, कोई मनुहार, कोई शुभ-वाक्, न बहिनों की, न भाईयों की, न दोस्तों की - जो वाक् घोड़ी के आस-पास नाच रही होती है, नहीं थी। पर वह खुश था। उसे घूरने वाला कोई नहीं था। किसी की आँखों की वर्जना उसे नहीं झेलनी थी, कहीं कोई बाड़- कोई बांध नहीं था- जिसे उसे लाँघना था।

वह भी आई डू-आई डू के बाद सार्वजनिक चुम्बन ले सकता था। स्टेफनी को भरपूर बाँहों में भर कर खुले आम हाल में बजती तालियों की गूँज में उसे अपने साथ सटा सकता था।

वह अमरीका में मेम से शादी कर रहा है। वह इस अहम की उछाल पर था। मन ही मन शायद अपने सारे गाँव को चिड़ा रहा था। देखो मैं आज सब से आगे निकल गया। मेम से शादी कर के उसी लाघव से अमरीकी नागरिक बन के। गाँव में जब गोरी मेम उस की बगल में चलेगी तो सारा गाँव ऊंचा हो जायेगा। बच्चे-बूढ़े अपनी खिड़कियों से, खेतों की मेढ़ों से उचक-उचक कर उसे देखेगे और खुश होंगे।

वह कुछ ही क्षणों में इस देश का नागरिक ही नहीं हुआ- एक सभ्य समाज का नागरिक हो गया था। उस का स्टेट्स बदल गया था। उसका जैसे आज कायाकल्प हो गया था। ऐसे में सुदूर उसे अपने गाँव की पुकार, अपनी जन्मदात्री माँ या उस की लाड़-लड़ाती बहने, उस के पिता का प्यार या कोई ताड़ना नहीं सुनाई दी। ताऊ-चाचा की हमजोलियों जैसी खब्ती टिप्पणियाँ, ध्वनित नहीं हुई। चचेरे, ममेरे भाई-बहनों के संग-संग खेले एडी टप्पा और साथ-साथ देखे गये सपने याद नहीं आये, और शादी हो गयी। वह स्टेफनी का स्टेपनी बन गया-स्कूटर की पिछली सीट सी स्टेपनी - जिस पर अब वह बैठ सकता था - इधर से उधर जा सकता था और शायद कल को उस के बच्चे भी बैठ सकते थे।

हाँ अंदर कहीं उसे लग रहा था कि बाबा ने चिट्ठी का जवाब नहीं दिया। शायद समय पर पत्र नहीं मिला होगा। उसे भी तो पहले पता नहीं चला था। पहले हाल मिलता तो तारीख पक्की होती। हॉल बुक करना बेहाल होने जैसा है यहाँ।

किसी भी मौसम में शादी करो-हाल ढूँढ़ना लड़की का पीछा करने से भी ज्यादा दौड़ाने वाला होता है क्यों कि औसतन एक व्यक्ति तीन शादियाँ करता है। इसलिए शादी से पहले या यूं कहो कि डेट शुरू करते ही हॉल बुक करवा लेना चाहिए, पर अनुभव नहीं था। पहली शादी जो ठहरी। इसलिए जब तक हाल पक्का हुआ - जब तक कार्ड बनने दिए- सोचा चिट्ठी और कार्ड एक ही समय में भेजो। 

इसीलिए बाबा को शायद कार्ड और चिट्ठी मिली ही नहीं। जब मिलेगा तो खुशी से कूद पड़ेगे - कि उन का बेटा - गाँव के एक काश्तकार-मुँशी का बेटा - आज कहाँ पहुँच गया।

उधर गाँव में जिस उदयशंकर के जन्म पर ढोल-मंजीरे बजे-हिजड़े नाचे, गाँव भर में लड्डू बँटें, न्योते चले, उसी की शादी के इस आकस्मिक समाचार से मातम मने। माँ ने सिर पीट लिया, बाप ने दीवार में सर मार-मार कर अपने-आप को हलाक कर लिया। बहनों ने अंदर ही अंदर बिसूर कर अपनों से और पड़ोसियों से यह कहानी छिपाई। शादी के कई महीने बाद जब माँ-बाप इस डगमगाती नई छतरी में आये तो दोनों पक्षों में समझ की सम्प्रेशिनियता नहीं थी। न भाषा, न संस्कार, न आदत और न अपेक्षायों में कही समझौते की गुंजायश। धीरे-धीरे सारे रास्ते दुर्पेक्षायों की ओर ही मुड़ते रहे।

यह हिन्दुस्तानी अधिकार है किसी भी दूसरे की हर 

धड़कन में घंटी बज कर बोलना। क्या, क्यों, कैसे। ऐसे क्यों नहीं- वैसे क्यों नहीं। हमारा ही ढंग ठीक है। तुम्हारा ढंग स्वीकार्य नहीं हो सकता। फिर अपनी उम्र के वास्ते देना-

धूप में बाल सफेद नहीं किये। उम्र की कौड़ियाँ यों ही नहीं खेली अब तक।

माँ बाप के आने तक जिस गोरी चमड़ी की उदयशंकर आराधना करता रहा - आज वही लिजलिजी, मरी हुई छिपकली सी एक जुगुप्सा पैदा करने लगी। उदयशंकर को भी घर नहीं मिला। बिस्तर में बिछी आज्ञाकारिणी भार्या नहीं मिली- जंगली बिल्ली मिली जो धीरे-धीरे स्टेफनी आस्कर से स्टेफनी शास्त्री न होकर कर कहीं बीच से छलांग मार कर फिर वापिस अपने असली स्टेफनी आस्कर वाईल्ड हो गयी-अपने वास्तविक चैखटे में वापिस।

तब धनाधन-टकराने लगी सभी खिड़कियाँ-दरवाजे और होने लगी रसोई में एक जंग-जिव्हा पर बैठे लाब्स्टर-स्टेक के स्वाद टकराने लगे और सिलवटे पर फिसलने लगे। सारी स्वादेन्द्रियाँ अब मांगने लगी माँ के हाथ का स्वाद।

माँ की रसोई, सोंधी- सुगंध। बेटे के टूटे हाथों को सहला-सहला कर रखने “ वाली माँ और निर्भर-आक्रांत दफ्तर से घर और घर से खाट और खाट से हाट तक का सफर तय करने वाला-निष्क्रिय प्राणी बेटे का हो गया था यहाँ पूरा कायाकल्प। ऊपरी मुल्लमे की तरह उतर गया मुलम्मा और नजला गिरा उस लिजलिजी- चमड़ी वाली निष्क्रिय-मशीनों पर पली- फ्रोजन-फूड और कैन फूड या अधिक से अधिक रेस्टारेन्ट के फूड पर पली पतली, दबंग, सुराहीदार गर्दन की एक विश्व-सुन्दरी सी गुड़िया पर - जिस का आलौकिक सौंदर्य उदयशंकर की तपस्या भंग कर गया था। अब वही सौंदर्य विकलांग सा बन लंगड़ा कर चलने लगा था।

फिर ढेर सारे वाक् युद्ध, ताने-मेहने, व्यंगों और प्रलापों के बाद थोड़ी हवा थमने लगी। आँधियों ने अपना रुख बदल लिया। ठंडी बयार बहने लगी। पेड़ पर नई फुनगियाँ उतरने लगी। फल प्राप्ति की आशा ने सब कुछ नया कर दिया - हरा कर दिया।

भविष्य की आशा में ही सारी सृष्टि की हवस, विनाश और ध्वंस छिपा हुआ है। पर खाए न बने निगले न बने। माथे पर सूरज तड़कता है, जलाता है, पांवों तले की जमीन -तपती लू सी काटती है फिर भी सूरज तो चाहिए क्योंकि प्रकाश भी तो वही भरता है-आंगन में-कुटी में। यही 

प्रकृति है और यही नियति भी। सन्तान की चाह उगने लगी। स्टेफनी के साथ -कुछ अंकुराने लगा। वही तपती लू ठंडक से भर गई।

अब अभयदान-क्षमा दान दे दिया गया। माँ-बाप के मल्हार गाने लगे उदयशंकर और स्टेफनी। जाने को उद्यत माँ-बाप को रोका गया- मिन्नते की गयी- हाथ-पांव जोड़े गये। क्योंकि, दोनों की व्यस्तायें एवं दोनों के अपने-अपने काम की अपेक्षाएं अकेले कैसे पूरी होती !. उदयशंकर यहाँ का कानून पढ़ गया था-गुढ़ गया था। उसे मालूम था, माँ-बाप को रखने से-आर्थिक लाभ भी होगा। उन का रजिस्ट्रेशन करवाया गया। उन्हें मेडिकेयर के अंतर्गत सब कुछ मुफ्त और साथ में दोनों को ढाई सौ -ढाई सौ डौलर के चेक हर माह-जो कुछ माहो के बाद शुरू हो जायेंगे, मिलने लगेगें। दोनों ने सोचा सौदा बुरा नहीं है।

अब बच्चा नहीं दो जुड़वां बच्चे हुए। माँ-बाप की जरूरत और कीमत दोनों बढ़ गये। स्टेफनी भी इस नये सुख को सहने लगी, भोगने लगी। हिन्दुस्तानी माँ-बाप - ऊपर से बिदेशी बहु। अगर पूछे तो स्वर्ग उन के पैरों में डोलने लगा कि विदेशी बहु उन्हें चाहती है अपने पास।

इसी तरह ऊपर-नीचे करते ढाई तीन साल बीत गये। अब कहीं-कहीं दाल में किरकरी-मिलने लगी। रसोई में हिन्दुस्तानी भोजन की गंध का धुयाँ स्टेफनी की नाक में उफनने लगा। छीके आनी शुरू हो गयी - जो पिछले कई सालों से बंद हो गयी थी। यह सब देखते सहते अब लगभग पांच साल हो गये थे। बीच में उदयशंकर - बाप के साथ जाकर अपने जगरांव की जमीन और घर भी बेच आया था। माँ और बाप को अलग-अलग बिठा कर संतुष्ट किया गया कि अब वही उन का सब से बड़ा सहारा है तो उस के हिस्से की जायदाद तो उसे मिलनी ही चाहिए। माँ-बाप आधे मन से दूसरे बच्चों की नाराजगी ताक पर रख कर उदयशंकर को खुश करते रहे। आखिर बड़ा बेटा है और अमरीका में उन्हें रखे हुए है। अब तो उन्हें धीरे-धीरे आगे कुंआँ और पीछे खाई खुदती दृष्टिगत हो रही थी। रसोई का धुआँ, मसालों की गंध - हिन्दुस्तानी खाने की बेलाग - लम्बाई-चैड़ाई अब रसोई से निकल कर उदयशंकर के कमरे तक की हवा को झुटलाने लगी। स्टेफनी के तेवर बदल रहे थे। वास्तव में जब-तक था तब तक था, अब वे हिन्दुस्तानी पैंतरे, नियम, आचार-व्यवहार, सभ्यता-संस्कृति - उस के तन-बदन में चीटियों सी सुरसुराने लगी। स्टेफनी के बार-बार कहने पर उदयशंकर की जीभ का स्वाद भी बदलने लगा।

माँ आज खाना मत बनाना हम बाहर खाने वाले हैं। माँ रसोई बड़ी धूआंसी हो गई है-खाना बाहर से आ जायेगा। माँ रसोई इतनी चमकदार रहती है लोगों के घरों में। हमारे घर तो जगरांव का चूल्हा बन गया है। यह नहीं चल सकता। स्टेफनी रोज यह खाना खा कर और सफाई कर-कर के तंग आ गयी है।

माँ यह बच्चों को इतना फैला-फैला कर काजल लगा देती हो-यह कितना भोंडा और अवैज्ञानिक है आप को मालूम भी है? और यह जो घर में आप हर समय साड़ी पहने रहती हैं, इस में सारे घर के मसाले-पल्लू में बंधे सड़ांध मारते हैं, इन्हें बदलो-अब बहुत साल हो गये-आप बदलो इन्हे और नहीं तो कुछ महीनों के लिए हिंदुस्तान चले जायो-आप का भी वायु परिवर्तन हो जाएगा आदि-आदि।

आने वाले तूफान ने अपने दाँत दिखाने शुरू कर दिए थे। बेटा हमारा घर अब पर क्या अधिकार रहा।

पर आप का अधिकार आप के छोटे बेटे पर तो है - मैंने नहीं रखा आप को पांच साल पांच महीने-अब वह देखें और आप का ख्याल रखे।

दांत पीस कर, आँखों को अंदर भींच कर वह सुनते और अपने माँ-बाप होने पर लानत फेरते। वह समझ गये थे कि किनारा-बीच भंवर में धंस गया है। फिर भी ज्यादा कडुवाहट बढ़ने से पहले ही उदयशंकर ने वापसी के टिकट बुक करवा दिए और माँ बाप के अनिश्चित भविष्य की यात्रा प्रारम्भ हो गई

कुछ कागजों पर हस्ताक्षर करवा लिए गये ताकि उन की सोशल सिक्योरिटी लेने में कोई बाधा न आये।

अब स्टेफनी और उदयशंकर अपने बच्चों के साथ अकेले और अपनी खोयी हुयी स्वतंत्रता पा कर खुश थे। स्टेफनी ने पार्ट टाइम काम करना शुरू किया और बेबी सिटिंग के सहारे गाडी चल निकली। पर किसी भी स्थिर स्थिति में आदमी-कहीं खुश रह पाता है? दोनों के बीच किसी न किसी बात को लेकर कहा सुनी हो जाती। पिछले सालों के ताने-मेहने, व्यंग, उपहास एक-दूसरे पर होली के रंग की तरह जैसे पिचकारी से छोड़े जाते। तब एक दिन उदयशंकर घर आया तो बच्चे बेवी सिट्टर के साथ खेल रहे थे और स्टेफनी एक नोट छोड़ कर जा चुकी थी।

उदयशंकर बहुत बौखलाया, उतावला, परेशान हुआ और कहीं बहुत चिंतित भी। तीसरे दिन स्टेफनी की तरफ से तलाक का नोटिस मिला। सारे अनुबंध, सारे नियम, बँटवारा आदि के कागज वकील ही लेकर आया और उदयशंकर की कुछ सुने बिना, उसे डरा धमका कर उस के हस्ताक्षर ले कर चला गया। सारांश यह था कि स्टेफनी बच्चे अपने साथ नहीं रखेगी। बीच-बीच में बेबी सिटिंग कर के अपने हिस्से का फर्ज पूरा करेगी। वह उस बेबी सिटींग की फीस भी नहीं लेगी।

उदयशंकर घुट कर रह गया। कुछ नहीं कर सका। तो यह थे विदेशी मेम के पैंतरे, वीजा की कीमत और बिना पंखों के उड़ान भरने का नतीजा। उदयशंकर जहाँ से चले थे वही वापिस पहुंच गये और तो और परिस्थितियां भी पूरी तरह अपना अंगद का पाँव रख कर उस के अंदर धंस गयी थी। उस पर तुर्रा यह कि माँ-बापू भी वापिस जा चुके थे और वह जानता था अब वे वापिस यहाँ नहीं आयेंगे।

क्या होता है एक दिन-उसी चाह को लकवा मार जाता है-जिस के लिए एक दिन आप अपना सारा स्वत्व ताक पर रख देते है। बात दब नहीं सकी। माँ बापू को बताया गया। उदयशंकर नहीं जानता वे खुश हुए या नाखुश - पर इस समय वह त्रिशंकु बन कर लटक गया था। दफ्तर में भी बात पहुँच गयी थी। कई बार उस के समय-असमय पहुंचने पर नजर रखी जाने लगी।

उदयशंकर चोट खाया आहत था। वह इस स्थिति से सामना करने के उधम में लगा हुआ था। परिस्थितियों के तेवर समझने में लगा था। वह जल्दी में हो कर भी जल्दबाजी नहीं करना चाहता था। वह नहीं चाहता था कि पहले जैसा किसी को धोखे में रखे या स्वयं धोखा खाए। पर जब उस की अपने पिता से खुलकर बात हुयी तो वह उन की सोच से बहुत परेशान हुआ वह उस के लिए एक कंवारी कन्या देख रहे थे। जब उस ने कहा बापू आप यह क्या कह रहे है। तो उन का उत्तर था, कि मैं ठीक कह रहा हूँ उदय ! तुम्हें क्वांरी लड़की मिल सकती है। तुम पुरुष हो, अमरीका में रहते हो। इसलिए हम क्वारी बहु ही स्वीकार कर सकते हैं कोई तलाकशुदा या विधवा नहीं।

उदयशंकर विस्मय में मुँह ताकता रह गया। पहली बार उसे अपने हिन्दुस्तानी होने पर बहुत लज्जा और तरस आया।





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जनाब सागर सियालकोटी

ये इश्क नहीं जुनूँ है

‘‘हम भटक कर जुनूँ की राहों में, अक्ल से इन्तकाम लेते हैं‘‘ मरियम आफताब इतना कह कर अपने मिजाजी खुदा की बाँहों में सिमट गई।

बात उन दिनों की है, जब अंग्रेजों ने भारत के दो टुकड़े कर दिये भारत और पाकिस्तान और एक खौफनाक तज्वीज (प्रस्ताव ) भी रख दी कि जो रियासते हैं अगर वो चाहें तो खुदमुखतियारी का ऐलान कर सकती हैं। जूनागढ़ गुजरात में एक रियासत थी जो लगभग कराची से 300 मील की दूरी पर थी, तिजारती लिहाज से बहुत ही माकूल और बहरे- साहिल (समुद्री किनारा) भी थी। 1948 में गर्म मसालों का एक ताजिर (सौदागर) इदरिस - कादयानी जूनागढ़ से कराची आ गया। पुरानी चैरंगी, कराची में एक दुकान किराये पर ले ली और अपना काम शुरू कर दिया। इदरीस कादयानी की दो बीवियाँ थी जमीला और जौहरा जिलानी। जौहरा जिलानी मूल रूप से सिन्धी थी, जबकि जमीला एक पख़्तून थी। दिन गुजरते गये इदरीस कादयानी के पास दौलत की कोई कमी नहीं थी मगर औलाद की महरुमियत उसे बहुत परेशान करती। एक दिन जमीला ने इदरीस को एक मशविरा दिया कि हमें पीरबक्श जिलानी की दरगाह पर खैरो-मन्नत के लिए जाना चाहिए, हो सकता है, हमारी दुआ कबूल हो जाए। हर जुम्मे के रोज वहाँ मेला भरा करता था और लोग अपनी मुरादे लेकर जाते और चादर चढ़ाते, सजदा करते। जमीला ने इदरीस कादयानी को बताया था कि मेरे चचेरे भाई की, आज से दो साल पहले यहीं से मुराद पूरी हुई थी और आज उसके दो लड़के हैं। वो हर साल यहाँ आते हैं। पीरो-मुर्शिद ने चाहा तो हमें भी औलाद नसीब हो जाएगी। जमीला के जिद करने पर आखि़री जुम्मे की नमाज करने के बाद शाम दीगरबेला होते ही, पीरबक्श जिलानी की दरगाह के लिए तीनों तैयार हो गये। पुरानी चैंगरी से तांगेवाले एक सवारी का एक आना लेते थे और दरगाह के पास चन्द कदम पहले ही उतार देते थे। जैसे हम हबीब चाचा के ताँगे पर बैठे, हमारे साथ तीन सवारियाँ और बैठ गईं मुश्किल से आधा रास्ता तय किया होगा एक नौजवान ताँगे की आगे वाली सीट पर बैठ गया।

फिर क्या था, हबीब चाचा ने पीरबक्श जिलानी साहिब के किस्से-कहानियों की बौछार कर दी और एक कहानी सुनानी शुरू कर दी। सख्डर शहर से एक बड़ा ज़मींदार आया था, जिसके कोई औलाद नहीं होती थी उस ज़मींदार ने शरीयत के मुताबिक चैथा और आखि़री निकाह भी कर लिया था औलाद की ख़ातिर और फिर चारों बीवियों के साथ मिन्नत समाजत होने के लिए पीरबक्श जिलानी की दरगाह पर चादर चढ़ाने पहुँचा। एक सवारी को रास्ते में उतरना था हबीब चाचा ने ताँगा रोका और सवारी उतर गई। हबीब चाचा ने अपनी कहानी फिर शुरू कर दी। बताया कि वो ज़मींदार मिन्नतकश होने के बाद दूसरे दिन वापस अपने शहर सख्डर चला गया। लोग बताते हैं कि वो एक साल बाद अक़ीदत के फूल और चादर चढ़ाने के लिए फिर आया तो उसकी चैथी बीवी की गोद में एक बच्चा था। जैसे ही दरगाह के पास पहुँचे तो हबीब चाचा ने पसीना पोंछते हुए कहा कि ये है करामात पीरबक़्श जिलानी की।

इदरीस कादयानी अपनी दोनों बीवियों को लेकर पीरबक्श जिलानी की दरगाह पर चादर चढ़ाने के लिए दरगाह के अन्दर पहुँच गया। अपने मन की व्यथा बयान की और दरगाह का तवाफ (चक्र) काटते हुये बाहर निकले और पीले चावलों की देग का नियाज (प्रसाद) लिया कुछ चाय पान किया और घर वापिसी के लिए तांगा स्टैण्ड पर आ गये। ताँगे वाले आवाजें लगा रहे थे ताँगा जा रहा है मुस्लिम कालोनी और पुरानी चैरंगी के लिए सवारियाँ बैठ रही थी ताँगे चल रहे थे, मगर इदरीस नही बैठा, जमीला इदरीस आओ बैठो और चलो। इदरीस क्या सोच रही हो जौहरा जिलानी बीच में ही बोल पड़ी कि इदरीस ये सोच रही हूँ कि हमारी मुराद जरूर पूरी होगी। इतने में हबीब - चाचा का ताँगा आ गया और हम तीनों ताँगे में बैठ गये। हबीब- चाचा ने घोड़े को प्यार से थपकी दी और ताँगा चल पड़ा।

हालाँकि इदरीस इन बातों पर यकीन नहीं करता था मगर घर का माहौल ख़राब न हो वो अन्दर ही अन्दर ख़ामोशी इख़्तियार कर गया, एक दिन इदरीस एक यूनानी दवाखाना पर गया जिसका नाम था हबीब दवाखाना। वहाँ बैठे हिक्मत दां (डॉक्टर) ने इदरीस को चेक किया और जिस्मानी कुव्वत के लिए दवा दे दी और एक महीने के बाद आने के लिए कहा। इदरीस ठीक एक माह के बाद हिक्मत दां के पास गया, हिक्मत दां ने उसे चेक किया और कहा कि तुम ठीक हो, तुम्हारे पैदाइशी जरम कमजोर थे। एक रात इदरीस जमीला के साथ हम बिस्तर था, तो जमीला को एक अजीब सी हरकत महसूस हुई और उसने इदरीस को चूम लिया और कहा कि तीन साल में पहली बार हम बिस्तरी का अहसास हुआ है। इदरीस मन ही मन सोच रहा था, ये ख़्याल मुझे पहले क्यों नहीं आया। खैर इदरीस मन ही मन सोच रहा था कि इंसान लाख चाहे कुछ नहीं होता, होता वही है जो मंजूरे खुदा होता। अगर नसीब में है, तो जो मिलना है वो मिलकर रहेगा दिन गुज़रे जमीला के मुताबिक उसे माह के आखिरी पीर के रोज माहवारी आ जाती थी लेकिन इस दफा उसे पीर (सोमवार) को माहवारी नहीं आई, जमीला बहुत खुश थी चेहरे पर मुस्कान और रुकसारों पर बला की लाली थी, उसने ये बात जिलानी को बताई, वो भी बहुत खुश हुई, आखि़रकार इदरीस को भी इस बात की भनक लग गई। मौका और नज़ाकत देखकर एक दिन जमीला ने इदरीस से कहा - ताँगे वाला हबीब उस दिन जमींदार की कहानी सुना रहा था कैसे पीरबक्श जिलानी की दुआ से चार बीवियों में एक को बच्चा पैदा हुआ। ये हैं दरगाह का कमाल। हम भी साल बाद चादर चढ़ाने के लिए पीरबक्श जिलानी की दरगाह पर जाएंगे। उधर जौहरा जिलानी के भी खुशी के मारे पिस्तान फूलने लगे थे। अन्दर ही अन्दर वो भी यही चाहती थी कि पीर बाबा उसकी मुराद भी कब पूरी करते हैं। कुत्ते का कुत्ता वैरी होता है जौहरा जिलानी इस ख़बर को बरदाश्त न कर सकी उसके अन्दर भी यही आग जलने लगी कि कब वो भी एक बच्चे की माँ बने। जमीला को चैथा महीना चल रहा था मगर जौहरा जिलानी को ये मौका अभी तक नसीब नहीं हुआ इदरीस की तमाम कोशिशों के बावजूद। जौहरा जिलानी ने हार नहीं मानी परन्तु बच्चा शायद उसके नसीब में नहीं था।

ठीक दस महीने बाद जमीला ने एक खूबसूरत लड़की को जन्म दिया। इदरीस खुश था चलो घर में लड़की आई है, कल को लड़के के रूप में वारिस भी आ सकता है। इसी उम्मीद पर इदरीस जिंदा था। बच्ची का नाम मरियम आफताब रखा गया। जो बहुत ही ख़ूबसूरत थी। उसे लाड़-प्यार से पाला गया कुछ बड़ी हुई तो उसको स्कूल में दाखिल करवा दिया गया, पढ़ाई में काफी होशियार थी। ज्यों-ज्यों वक्त गुजरता गया मरियम आफताब बड़ी होने लगी और आफताब की तरह चमकने लगी। इसी बीच जौहरा जिलानी बीमार हो गई उसे लुकमान शफाखाना में चेक करवाया गया, हकीम साहिब ने बताया कि इसे शदीद - दिल की बीमारी है। जिसका अब कोई इलाज नहीं हो सकता। लिहाजा इन्हें जितना हो सके खुश रखने की कोशिश करें। इदरीस पूरी कोशिश करता कि उसे खुश रखा जाए। इदरीस अक्सर रात उसके कमरे में ही रहता। जमीला और मरियम आफताब दूसरे कमरे, मगर खाने के वक्त इकट्ठे होते। एक रोज जौहारा जिलानी की तबियत ख़राब हो गई उसे लुकमान शफाखाना ले गये। उसका दवा दारू किया गया कुछ ठीक होने पर घर ले आए लगभग तीन महीने दवा करने के बाद एक दिन अचानक थोड़ा बीमार हुई और इस सराये-फानी से हमेशा-हमेशा के लिए रुख़्सत पा गई। इदरीस इस सदमें को बरदाश्त न कर सका और दिन व दिन कमजोर होता चला गया।

मरियम आफताब जब जमात दस में गई तो उसे म्यूजिक (उनेपब) का बड़ा शौक था। उसने अपनी माँ जमीला को बताया कि उसे म्यूजिक में बहुत दिलचस्पी है, क्यों न उसे घर पर कोई उस्ताद का बंदोबस्त कर दिया जाए जो उसे म्यूजिक के तमाम गुर सिखा दे और वो एक अच्छी गायिका बन सके। मरियम आफताब के ख़्वाबों की मलिका तो नूरजहाँ थी, वो नूरजहाँ जैसा बनना चाहती थी।

जमीला ने यह बात इदरीस को बताई कि मरियम म्यूजिक में शौक रखती है और म्यूजिशियन बनना चाहती है, और बाकायदा जेरेसाया किसी उस्ताद के, इदरीस ने पहले तो इन्कार किया मगर फिर मान गया क्योंकि मरियम उनकी इकलौती औलाद थी। मरियम कराची के एक मशहूरों-मारुफ स्कूल की तालिबे (विद्यार्थी) इल्म थी स्कूल का नाम ैजण् श्रवीद ैबीववस मरियम स्कूल के तमाम कार्यक्रमों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती और खासतौर पर गायकी में। उसने स्कूल में बहुत से इनामात भी जीते। इदरीस ने मरियम के लिए म्यूजिक का एक उस्ताद तलाश किया जिसका नाम था यूसफ जाफरी, सफेद बाल उम्र नफ्स सदी (पचास के आसपास) के करीब मगर सारे शहर में उसका सानी कोई नहीं था। जब वह कोई गजल गाता तो परिंदे भी तन्हाई इख़्तियार कर लेते। मरियम इसी साल मैट्रिक पास करने के बाद ज्ञंतंबीप ।दहसव.प्दकपंद कॉलेज में दाखिल हो गई अभी 22वाँ साल शुरू ही हुआ था। डनेपब ज्मंबीमत यूसफ जाफरी तालीम के लिए शाम 4 बजे आता और 6 बजे चला जाता। ये सिलसिला दो साल तक चलता है।

एक दिन कॉलेज के फंक्शन में मरियम ने मिर्जा गालिब की ये गजल पढ़ी - ये न थी हमारी किस्मत के विसाले यार होता, अगर और जीते रहते तो यही इन्तजार होता ... दूसरे रोज मरियम और यूसफ जाफरी की फोटो ‘अदबी दुनिया‘ अख़बार के सफे अवल पर छपी। बहुत चर्चा हुई, मरियम बहुत खुश थी और वो अन्दर ही अन्दर यूसफ जाफरी को चाहने लगी। सिलसिला आगे बढ़ता गया। मरियम के ये आसार देख कर जमीला बहुत हैरान हुई कि मरियम यह क्या कर रही है। आखिर जमीला ने बेटी को समझाया कि यह ठीक नहीं है, मरियम ने अपनी माँ जमीला से कहा कि मैं यूसफ जाफरी से शादी इसलिए करना चाहती हूँ जो मेरी सीरत और मेरे अन्दर की खुशबू को निखार देगा। जब इश्क कहीं हो जाता है तो फिर वो उम्र, जात, मजहब और शक्ल-ओ-सूरत नहीं देखता, लैला को ज़माना पसंद नहीं करता था क्योंकि वो काली थी, मगर किसी ने लैला को मजनू की निगाह से देखा ही कहाँ था। मेरी हालत भी कुछ ऐसी ही है मुहब्बत तो मुहब्बत है किसी से भी हो सकती है। बगावतन मरियम ने यूसफ जाफरी से निकाह कर लिया और जिंदगी बसर करने लगी। इदरीस कादयानी, मरियम का ये सब कुछ बरदाश्त न कर सका और इसी गम में निकाह के कुछ माह बाद इन्तकाल कर गया। जमीला इस बोझ को दिल पर उठाते-उठाते, जिन्दगी से हार गई थी और जलते मोम की तरह पिघलती रही।

यूसफ जाफरी बला का गजलसरा और संगीतकार था। कुछ सालों तक दोनों की जिन्दगी ठीक चली। यूसफ शराब और शबाब का रसिया था। शराब उसकी नस-नस में समा चुकी थी, मगर उसने मरियम का नाम हिन्दोस्तान में एक गजलसरा के हवाले से बुलंदियों पर पहुँचा दिया। मरियम के पास दौलत की कोई कमी नहीं थी, फिर भी कोई कमी जरूर थी। एक दिन जाफरी शराब के नशे में सीढ़ियों से गिर पड़ा और उसका दम टूट गया। अब मरियम अकेली रह गई थी। सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं था। कहते हैं कि औरत शादी के बाद कोई और ख्वाहिश करे या न करे मगर एक बच्चे की ख्वाहिश उसे बेचैन करती रहती है, अब मरियम चालीस के आस-पास थी। मरियम आफताब को महसूस हुआ कि अब आफताब के ढलने का वक्त आ गया है, मुझे अपनी इन हड्डियों को इस तपिश से जलाना होगा।

अल्ताफ मरियम का एक साजिंदा था जो हारमोनियम बजाता या मरियम से 17 साल छोटा था। मगर वह मरियम पर जान छिड़कता था मगर कह नहीं पाता था। एक दिन मरियम ने अल्ताफ से कहा- मुझसे निकाह करोगे। मरियम साहिबा मैं एक मुफलिस साजिंदा हूँ। आपको मंजूर है क्या, मरियम हाँ मुझे मंजूर है, मरियम ने निकाह वाले दिन मौलवी के सामने अल्ताफ से कहा, अल्ताफ यूसफ जाफरी मेरा इश्क़ था तू मेरा जुनूँ हैं।

शब्दार्थ-

1. पिस्तान = छातियाँ, 2. रुकसारों = गालों पर, 3. शफाखाना = दवाख़ाना, 4. सराये-फानी = मृत्युलोक, 5. गजलसरा = ग़ज़ल गायक, 6. तपिश = गर्मी, 7. साजिंदा = साज बजाने वाला





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कहानी

सुश्री दीपक शर्मा,  लखनऊ, मो. 98391 70890

मंत्रणा

तूफान की आँख ? कनकलता को आज अखबार में देखा तो भूगोल में दी गई तूफान की तस्वीर और व्याख्या याद हो आई:

’प्रत्येक तूफान का एक केंद्र होता है जो आँख की शक्ल लिए रहता है। प्रचंड हवाओं के अंधड़ और मूसलाधार बादलों के झक्कड़ दो सौ मील प्रति घंटे की तेज, सर्पिल गति से उस आँख के गिर्द परिक्रमा तो करते हैं लेकिन उसमें प्रवेश नहीं कर पाते। आँख शांत रहती है, सूखी रहती है.....’

इसी दिसंबर के पिछले सप्ताह हरीश पाठक उसे मेरे क्लिनिक पर लाया था, ’हर फादर्स डेथ हैज डिमेन्टिड हर (इसके पिता की मृत्यु ने इसे विक्षिप्त कर रखा है)।’

पैरघिस्सू चाल से कनकलता उसके पीछे रही थी और फिर एक बँधी गठरी-सी मेरे सामने की एक कुर्सी पर सिमट ली थी। कीमती डिजाइनर सलवार-सूट के साथ महीन कढ़ाई वाला एक बादामी पशमीना शॉल उसने अपने गिर्द लपेट रखा था, लेकिन उसके पहनावे से ज्यादा ताजा कटे उसके बालों ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा था। उसका लंबूतरा चेहरा विशुद्ध भारतीय था  और उसके कानों पर खत्म हो रही उसके बालों की वह काट विशुद्ध विदेशी।

’शी इज इन अ डिप्लोरेबल स्टेट (यह शोचनीय अवस्था में है),’ हरीश पाठक ने एक रेशमी रूमाल के साथ चारखाना कीमती ट्वीड कोट के चार खाने समरूप रँग लिए थे: गहरा लाल, हलका हरा और तीखा काला। उसका चेहरा एक फुरतीलापन लिए था और उसके होंठ एक लीला भाव। आँखें उसकी छोटी जरूर थीं लेकिन उनमें चमक भी थी और उत्साह भी।

’’सविता,’’ मैंने अपनी सेक्रेटरी को पुकारा, ’’इनका फॉर्म तैयार है ?’’

मेरे साथ अपॉइंटमेंट लेते समय मेरे क्लाइंट को एक फॉर्म खरीदना पड़ता है। पहले पाँच सेशन की एक न्यासी रकम जमा कर। फॉर्म में पेशेंट की पारिवारिक पृष्ठभूमि पर प्रश्न पूछे जाते हैं, जिनके उत्तर क्लाइंट को भरने होते हैं।

’’जी, डॉक्टर साहब !’’ सविता ने कनकलता का फॉर्म मुझे थमा दिया, ’’इन्हें अंदर ले जाऊँ ?’’

अंदर वाले कमरे में वह ’काउच’ है जिस पर अपना स्थान ग्रहण कर लेने पर मेरे मनोरोगी बेझिझक और अबोध अपने रहस्य मुझ पर खोलते हैं और मैं उनका उन्माद तोलती हूँ और अपनी मंत्रणा साधती हूँ।

’’हाँ, मैं वहाँ पहुँचती हूँ।’’

’’आइ ट्रस्ट यू विल स्ट्रेटन हर आउट (मुझे विश्वास है, आप उसकी उलझन सुलझा लेंगी।’’ हरीश पाठक ने मुझसे आश्वासन लेना चाहा, ’’द होल टाउन सेज यू आर द बेस्ट थेरेपिस्ट (शहर-भर के लोग आपको सर्वोत्तम मनोचिकित्सक मानते हैं)।’’

’’सर्वोत्तम नहीं,’’ मैं मुस्कराई, ’’अनुभवी। केवल अनुभवी।’’

स्थानीय मेडिकल कॉलेज के मनोरोग विभाग से मैं पैंतीस साल तक संबद्ध रही हूँ और पिछले ही वर्ष वहाँ से प्रोफेसर के पद से रिटायर हुई हूँ।

’’आपने अपने पिता को इसी वर्ष खोया ?’’ मैंने अपना सेशन शुरू किया।

फॉर्म में कनकलता के पिता की मृत्यु की तिथि दर्ज थी-11 अप्रैल, 2002।

’’हाँ। मुँह में अपना तंबाकू डाले ही थे कि अचानक मानो हवा की नली में कुछ चला गया और वे खाँसते-खाँसते एकाएक चुप हो लिए।’’

’’तीन भाई हैं ?’’

’’साथ में तीन भाभियाँ भी हैं। उन्हीं के कहने पर भाई सभी अब अलग हो गए हैं। इतनी बड़ी बेकरी थी। उसके तीन टुकड़े कर दिए। इतना बड़ा मकान था, उसके तीन हिस्से कर दिए।’’

’’आपको कुछ नहीं दिया ?’’

’’नहीं । नहीं दिया।’’

’’बहन आपकी कोई है नहीं। माँ भी बीस साल से नहीं। एतराज करने वाले फिर आपके पति ही बचे ?’’

’’हाँ। वही एक हैं ।’’

’’उन्होंने कुछ नहीं कहा ? आपसे ? आपके भाइयों से ?’’

’’नहीं। उसकी आवाज में अस्थिरता चली आई।

’’आपकी शादी पिछले वर्ष हुई 13 दिसंबर, 2001 के दिन ?’’ मैं आगे बढ़ ली।

’’हाँ।’’ उसने सिर हिलाया।

’’उम्र में आपके पति आपसे नौ साल बड़े हैं ? वे बयालीस के हैं और आप तैंतीस की?’’

’’उसकी पहली पत्नी भी मुझसे बड़ी रहीं। सात साल बड़ी।’’

’’आप उन्हें जानती थीं ?’’ फॉर्म में हरीश पाठक की पहली पत्नी के बारे में एक भी जानकारी दर्ज न थी।

’’हाँ। वे उसी स्कूल में पढ़ाती थीं जहाँ मैं अभी भी पढ़ाती हूँ.....’’

’’वे कैसे मरीं ?’’

’’कैंसर से। ब्लड कैंसर से।’’

’’आपकी सौतेली बेटी बारह साल की है ? आपकी उसके साथ कैसी पटती है ?’’

’’वह मुझे बात-बात पर डंक मारती है। मुझे देख-देखकर अपनी नाक सिकोड़ती है, होंठ सुड़सुड़ाती है, गाल चबाती है, जबड़े खोलती है, आँख मटकाती है, दाँत भींचती है, अपनी कॉपियों में मेरे कार्टून बनाती है....’’

प्रमाण के रूप में अपने बटुए से कुछ रेखांकन निकालकर उसने मेरे सामने बिछा दिए, ’’कार्टून पर लोमड़ी लिखा है और गाल मेरे हैं। चैंसिंघनी लिखा है और आँख मेरी है। बिल्ली लिखा है और होंठ मेरे हैं.....’’

कच्ची-अनगढ़, मोटी-झोटी, उलटी-सीधी उन लकीरों में बेशक न ढब रहा, न फब, लेकिन उनमें एक अजीब उछाल था, एक जबरदस्त वेग। साथ में रही एक 

असाधारण समानता। कनकलता की आँख के साथ, गाल के साथ, हांेंठ के साथ।

सेशन के बाकी विस्तृत वर्णन में न जाकर मैं इतना जरूर बताना चाहती हूँ कि कनकलता ने बाकी सारा समय अपनी सौतेली बेटी द्वारा किए जा रहे अपने उत्पीड़न की व्याख्या देने ही में व्यतीत किया।

’’मैडम जा सकती हैं क्या, डॉ0 साहब ?’’ सविता को मेरा स्थायी आदेश है कि मेरे सेशन के पचास मिनट के समाप्त होते ही वह अंदर मेरे पास चली आया करे।

’’हाँ,’’ मैंने कहा, ’’इनके पति इन्हें लेने आ गए क्या ?’’

’’जी। इनकी बेटी भी साथ में आई हैं....’’

कनकलता से पहले मैं बाप-बेटी के पास पहुँची। दोनों उस दीवार के पास खड़े थे जहाँ मैंने दो पुनर्मुद्रण लगा रखे हैं: एंड्रयू वायथ की पेंटिंग ’किस्टीना’ज वर्ल्ड’ का और जॉर्ज शुकशैंक के कार्टून ’अ थंडरिंग हैंग-ओवर’ का।

’’शुकशैंक ? वायथ ?’’ मेरे पास पहुँचने पर हरीश पाठक मेरी ओर मुड़ लिया।

’’आप दोनों को जानते हैं ?’’ मैं पास पहुँचने पर हरीश पाठक मेरी ओर मुड़ लिया।

’’आप दोनों को जानते हैं ?’’ मैं हैरान हुई। 20वीं सदी के वायथ की तुलना में 19वीं सदी के शुकशैंक को कम लोग जानते हैं।

’’नॉट जस्ट मी। माइ डॉटर टू (मैं ही नहीं, मेरी बेटी भी),’’ हरीश पाठक ने अपनी गर्दन लहराई।

’’ओलिवर ट्विस्ट के चित्र शुकशैंक ही ने तो बनाए हैं।’’ लड़की के मुँह में चुइंगगम थी। नीली जींस के साथ उसने चटख पीले रंग का पोलो नेक पुलोवर पहन रखा था। उसके बालों की काट हूबहू कनकलता जैसी थी, लेकिन उसके चेहरे-मोहरे के साथ पूरी तरह मेल खा रही थी। उसका मुँह गोलाई लिए था, हालाँकि उसका माथा खूब चैड़ा था और नाक अच्छी नुकीली। होंठ उसके अपने पिता की तरह पतले रहे और नथुने भी उसी तरह ऐंठे हुए।

’’ओलिवर ट्विस्ट तुमने पढ़ रखा है ?’’ मैंने उसे प्रोत्साहित करना चाहा। उससे बात करने की मेरे अंदर तीव्र उत्कंठा रही। कलकता जैसे बॉर्डरलाइन पर्सनेलिटी केसेज में फैमिली थेरेपी से अच्छे नतीजे देखने को मिल चुके थे।

’’हाँ,’’ लड़की ने अपनी चुइंगगम चुभलाई और शुकशैंक पर लौट आई, ’’शुकशैंक का यह कार्टून मैंने पहली बार देखा। इसमें डीमंज (पिशाच) उसने छोटे आकार के रखे हैं और बाकी फर्नीचर और आदमी सामान्य आकार के.....’’

वह कार्टून सचमुच निराला है। सोफा और पुरूष एकदम सही अनुपात में बनाए गए हैं और उस पर अपने हथौड़ों और चिमटों की गाज गिराने को आतुर वे आठ-नौ पिशाच हास्यास्पद सीमा तक बौनेनुमा।

’’क्रिस्टीना’ज वर्ल्ड,’’ मैंने फिर उत्सुकता का प्रदर्शन किया, ’’यह भी पहली बार देखा?’’

’’नहीं, नहीं, नहीं,’’ अति विश्वस्त, अकाल प्रौढ़ उस लड़की ने अपने को ऊँची पीठिका पर जा बिठलाया, ’’इसे मैंने देख रखा था। वायथ के परिचय के साथ। एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका की वेबसाइट पर। हाँ, ये रंग उसमें देख न पाई थी। इधर वाली घास उसमें भूरी न थी और उधर वाली घास हरी न थी....’’

क्रिस्टीना,ज वर्ल्ड  के बारे में मैं यहाँ यह बता दूँ कि उस पेंटिंग में निर्जन, भूरी घास पर अपने घुटने और हथेलियाँ पर टिकाए एकाकी और उदास एक युवती इधर पीठ किए मृगतृष्णु उस दुनिया की ओर पहुँचने की ताक में है जहाँ कुछ मकान सामने बिछे हैं, हरी और चमकीली घास पर।

’’ड्राइंग में बेटी की रूचि आपने बढ़ाई ?’’ मैंने हरीश पाठक की ओर देखा।

’’यप्प।’’ उसके चेहरे पर गर्व छलक आया।

’’आप अंदर वाले कमरे में आइए ! अकेले !’’

अंदर पहुँचकर हरीश पाठक कहीं बैठा नहीं। मंद रोशनी छोड़ रहे टेबल-लैंप के पास जा खड़ा हुआ। तेज रोशनी वाले बल्ब खोलकर मैं उसके निकट चली आई।

’’कनकलता के अनुमान शायद निष्पक्ष नहीं, तटस्थ नहीं। शायद अनुकूलता के विरूद्ध जाना उसकी आदत में शामिल हो.....’’

’’यू मीन, अ मैल अडैप्टिव हैबिट ?’’

मनोविश्लेषण पर अच्छी सामग्री एकत्रित करता रहा हरीश पाठक ! अपने लेटरहेड वाले कागज पर मैंने मैलेरिल की डोसेज लिख दी।

’’मैलेरिल ?’’ उसने पूछा, ’’अ न्यूरोलेप्टिक ?’’

’’न्यूरोलेप्टिक। यह मेरी पहली पसंद है। अमोनो एमाइन ऑक्सीडेज इनहिबिटर मेरे साथ दूसरे नंबर पर आती है। न्यूरोलेप्टिक के नतीजे अच्छे रहे हैं। एक-दो केसेज में जरूर मांसपेशियों के संचालन में अनभिप्रेत गति की शिकायत सुननी पड़ी, लेकिन ज्यादा बार इसके सेवन ने रोगी को दो सप्ताह के अंदर ही सामान्य व्यवहार पर लौटा दिया....’’

’’फैमिली थेरेपी ?’’ वह हँसने लगा।

’’हर्ज क्या है ?’’ मैं मुस्कराई, ’’यकीन मानिए, आपकी बेटी को आपके विरूद्ध तनिक न भड़काऊँगी। मैं वचन देती हूँ......’’

’’डन ।’’ वह मान गया।


तीसरे दिन जैसे ही लड़की मेरे पास पहुँची, मैंने उसे गुडइनफ ड्रा-अ-पर्सन टेस्ट दे दिया।

’’किसकी तस्वीर बनाना चाहोगी ?’’ मैंने पूछा।

’’आपकी बना दूँ ?’’ उसके होंठों पर पिता वाला लीला भाव आ बैठा।

’’बना दो।’’ मैंने कहा।

मेरी मेज पर रखी पेंसिल लड़की ने उठाई, कागज अपने पास सरकाया और शुरू हो ली।

बारह साल तक के बच्चों को मनोचिकित्सक अकसर यह टेस्ट दे दिया करते हैं। उनकी समझ मापने हेतु। माप के दो आधार रखे जाते हैं। पहला, जिस व्यक्ति का बच्चे ने चित्र बनाया है, उसमें गुणात्मकता का अंश कितना रहा और दूसरा, चित्र में बनाए गए ब्योरे कितने बराबर रहे।

तस्वीर जब पूरी हुई तो मेरी हँसी निकल गई। मेरे बालों को छोड़कर सब कुछ ऊबड़-खाबड़ और टेढ़ा-मेढ़ा था उसमें ! मेरे संदेह की पुष्टि हो गई। दो दिन पहले जिस समय कनकलता का मेरे साथ सेशन चल रहा था, हरीश पाठक इस लड़की के साथ बाहर मेरे दफ्तर में बैठा रहा था और लड़की के पूछने पर-मैं देखने में कैसी हूँ ?-हरीश पाठक ने सविता से एक कागज माँगा था, एक पेंसिल माँगी थी और वहीं बैठे-बैठे मेरा एक स्केच बना डाला था। फिर बड़ी चतुराई से सविता ने वह स्केच उससे हथिया लिया था। यह कहकर कि वह इसे अपने बच्चों और पति के लिए ले जाना चाहेगी जो आए दिन उससे पूछा करते हैं, ’जिस डॉक्टर से तुम इतना डरती हो, आखिर देखने में वह है कैसी ?’

निस्संदेह लड़की के स्केच में हरीश पाठक वाले स्केच की तुलना में गुणात्मकता की भारी कमी थी, किंतु इसमें भी उसकी तरह सबसे ज्यादा महत्त्व मेरे बालों के ब्योरों को दिया गया था। उनके कैंची-मोड़, उनकी कंघी-पट्टी, उनकी रज्जु, उनकी रिक्तियाँ सभी बारीकबीनी से दर्ज थीं। वहीं-वहीं के केशांतर रखे गए थे, जहाँ-जहाँ मेरे बाल गायब हो चुके थे। रंग-सामग्री के लंबे प्रयोग के कारण।

’’तुम अच्छी ड्राइंग बना लेती हो,’’ मैंने कहा, ’’तुम्हारी माँ भी अच्छी ड्राइंग बनाती रहीं?’’

’’नहीं। ड्राइंग सिर्फ पपा का सब्जेक्ट है। पपा का शौक है। मेरी ममा पढ़ने की शौकीन रहीं।’’

और तुम्हारी नई माँ ? उन्हें क्या शौक हैं ?’’

’’कनकलता को ?’’ उस उद्दंड लड़की ने अपने से इक्कीस साल बड़ी कनकलता के नाम के संग तनिक लिहाज न बरता, ’’वह बहुत दुष्ट है। जिन दिनों मेरी ममा अस्पताल में थीं, वह पपा को दूसरी शादी के लिए तैयार कर रही थी, मेरा हवाला देकर.....’’

’’तुम्हें किसने बताया ?’’

’’मुझे मालूम है। जिस दिन मेरी ममा मरीं, बाजार जाकर उसने अपनी शादी वाली साड़ी खरीद डाली.....’’

’’तुम्हें किसने बताया ?’’ मैंने दोबारा पूछा।

’’पपा ने। वे मुझे सब कुछ बता देते हैं.....’’

’’उससे उन्हें कभी प्यार न था। कनकलता ही उनकी खोज में रहा करती थी....’’

’’तुम्हारी ममा के सामने ? तुम्हारे सामने ?’’

’’सामने भी और पीछे भी। ऊपर से मेरी ममा की फ्रेंड बनती थी, अंदर से पपा की फ्रेंड बनना चाहती थी.....’’

’’तुम उसे कब से जानती हो ?’’

’’बचपन से। रोज ही हमारे घर आ धमकती थी। कभी केक के साथ तो कभी बिस्किट के साथ। कभी सैंडविच के साथ तो कभी बन-कबाब के साथ.....’’

’’तब भी तुम्हें अच्छी नहीं लगती थी ?’’

’’मैं उसके बारे में तब कुछ सोचती ही न थी। न अच्छा, न बुरा।’’

’’और अब ?’’

’’अब वह बावली हो गई है,’’ वह भक्क से हँस पड़ी, ’’उसकी भाभियों ने उसके केक-शेक, उसके बिस्किट-शिस्किट उसके बन-शन सब बंद करा दिए हैं......’’

’’तुम्हें उस पर दया नहीं आती ?’’

’’दया क्यों आएगी ? उसे हमारी तनिक चिंता नहीं, तनिक परवाह नहीं। न मेरी, न पपा की, न घर की।’’

’’अपनी चिंता करती है ? अपनी परवाह करती है ?’’

भौचक होकर लड़की मेरा मुँह ताकने लगी।

हरीश पाठक को उस दिन फिर मैंने अंदर बुलवाया। अकेले में।

’’समुद्र पर दोनों को आप ले जा रहे हैं.....’’

’’व्हाट ?’’ हरीश पाठक ने अनभिज्ञता जतलाई।

’’पत्नी को जलमग्न करने के लिए बेटी को जलपोत बना रहे हैं.....’’

’’व्हाट फोर ?’’

’’अपने पिता की जायदाद में कनकलता को उसका हिस्सा मिलने की संभावना क्या खत्म हुई, आपने तूफान बुला लिया। नहीं जानते, तूफान आने पर बेटी भी डूब जाएगी ?’’

’’से इट अगेन।’’

’’आप चाहें तो तूफान रोक सकते हैं, लौटा सकते हैं.....’’

’’आइ सम्पेक्ट सिनिलिटी हैज स्ट्रक यू (मुझे शक है, सठियापा आप पर असर दिखा रहा है)।’’ हरीश पाठक तत्काल दौड़ पड़ा। दौड़ा-दौड़ी में कनकलता की अगली अपॉइंटमेंट लेना भी भूल बैठा।

आप बूझ लिए होंगे, कनकलता वही स्त्री है, जिसकी तस्वीर आज अखबार में छपी है। तीसरे पृष्ठ पर। उसकी आत्महत्या की सूचना के साथ। तेरह दिसंबर, दो हजार दो की शाम को जब उसने मैलिरिल की अति मात्रा का सेवन किया, उसके उद्योगपति पति अपनी इस दूसरी पत्नी के संग हुई अपनी शादी की पहली वर्षगाँठ मनाने की तैयारियों में जुटे थे।            

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कविता

देखो ! दिसंबर तुम्हें बाँधने की कोशिश करेगा, तुम्हें कसकर पकड़ेगा 




दीपमाला शर्मा, अहमदाबाद, मो.  9654062118

देगा दुहाई 


तुम्हें.... तुम्हारे बीते लम्हों की 

तुम्हारे साथ जिये... कुछ मीठे पलों की 

पर..तुम इसकी बातों में न आना 

न बहकाना, इसकी उलझी सी कहानी में।

तुम्हें..तुम्हें तो प्रवाहित होना है आगे

सतत चलना है समय की तरह 

प्रवाहमान होना है एक नदी की तरह

देखो..कुछ ही दूर जनवरी तुम्हारे

इंतजार में, नैन तक रहा है

सपने बुने है उसने, तुम्हारी नई जिंदगी के 

नई राह के कुछ हमसफर भी तय किये है

तो अब ना पड़ना दो और दो के फेर में

दो से तीन होने में बस एक “बाल” सा फासला है

तू जा! प्यार के कुछ बोल दिसंबर के कानों में कह 

जा! हाथ पे इसके कुछ यादों की तसवीर रख जा 

दिल को इसके राहत की एक नज़्म दे जा 

जिसे...वो गुनगुनाता रहेगा तेरी याद में

पर तू अब आगे सरक जा 

फिसल जा जनवरी के आगोश में

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कहानी

डाॅ. विणा विज ‘उदित’, -जलंधर/संप्रति: यू.एस.ए. मो. 96826 39631


मूक क्रंदन

‘‘कुछ चाय वाय पी हो कि नहीं?-सुबह उठते ही रियाज करने बैठ जाती हो बिटिया! ‘‘

दद्दा के पूछने पर मेरे हाथ की उंगलियां सितार के तारों पर वहीं रुक गईं और उनकी लाड़ भरी परवाह मुझे अभीभूत कर गई। मैंने उनकी भावनाओं को समझते हुए कहा,

‘‘ हम चाय पीकर बैठे हैं दद्दा, काहे चिंता किए जाते हो?‘‘ और सितार के तारों पर मेरे बाएं हाथ की उंगलियां पुनः दबने व दाहिने हाथ से मिजराब तार के स्वरों पर नृत्य करने लग गया था। मेरी दिनचर्या का आगाज यहीं से होता है कई वर्षों से। मैट्रिक करके आगे प्राइवेट बी. ए. करने की सोच ली थी मैंने। वैसे उन दिनों कॉलेज जाने का रिवाज ही नहीं था क्योंकि हमारी मुड़वारा तहसील में तब लड़कियों का अलग से कॉलेज ही नहीं था ! लड़कियां घर के काम-काज सीखती थीं, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई और रसोई के ढेरों काम। इन्हीं में निपुणता पाकर फिर ब्याह दी जाती थीं।

बड़के भैया ने शादी के अलावा और कोई काम तो कभी नहीं किया लेकिन मेरी एफ. ए. ( बारहवीं) के लिए किताबें मंगवा दी थीं। जिन्हें सोने से पूर्व ऊपर कमरे में मैं कभी-कभार पढ़ लिया करती थी। बाक़ी, रियाज़-रियाज़ और बस रियाज़ में ही मेरा मन लगता था। सितार के तार मेरे अंतर्मन में बसे रहते थे जैसे किसी निर्मल झरने का ऊंचाइयों से गिरता जल, कल- कल की मधुरिम झंकार के स्वर उच्चारता है। मेरे भीतर भी यह कोमल एहसास बसा रहता रहा ताउम्र !

हवेली नुमा पुराना घर था हमारा, जिसके पूजा घर से सटा यह हाल था, जिसमें बहुत से साज रखे रहते थे। मेरा सितार ,अरुणा की तबला जोड़ी , करुणा का सरोद और जो सभी का था पर किसी खास का नहीं था- हारमोनियम ! मेरा सितार बजता था तो अरुणा आकर तबले पर थाप देकर संगत करने लग जाती थी। करुणा भी कहां रुक पाती थी वह भी आकर सरोद के भारी भरकम तार छेड़ देती थी। ऐसे पलों में हमारा घर मां सरस्वती का मंदिर लगता था। हवेली में मौजूद सारे के सारे बाशिंदे हाल की ओर खिंचे चले आते और भीतर एकत्र होकर संगीत के स्वरों की झंकार में डूब जाते थे। ऐसी पावन वेला में बाहर तख्त पर बैठे दद्दा और अम्मा का चेहरा गर्व से तन जाता था। मानो साक्षात शारदा मैया भीतर पधारी हों।

हमारी हवेली सरोवर के सिर पर विराजमान थी तो सारा शहर हम पर रश्क करता था। दद्दा बिना ताज के राजा यानि सदैव शहर के बेताज बादशाह रहे। जब तक वे जिंदा रहे तब तक हर साल शहर की सबसे शानदार दशहरे की रामलीला वही करवाते थे। स्टेशन से लेकर मेन रोड के आखिरी सिरे तक लकड़ी के खंभों पर लाउडस्पीकर लगवा देते थे और दशहरे के दिन जुलूस में सबसे पहले वाले ट्रक में राम, लक्ष्मण , सीता के चरणों में गद्दी पर चकाचक सफेद रेशम के कुर्ते में बैठे रहते थे। जाती हुई गर्मी और आती हुई सर्दी की मस्त दोपहर से जुलूस का शुभारंभ और विजयादशमी का पर्व यहीं से मनाना प्रारंभ होता था। पीछे कतारबद्ध नवदुर्गा की सजी हुई गाड़ियां निकलती रहती थीं देर रात तक और शहर के बाहर मैदान में नदी किनारे रावण का पुतला जलाया जाता था मेघनाथ और कुंभकरण के पुतलों के साथ। मानो ज़माने भर का पाप नष्ट हो जाता था उनके जलते ही। मुड़वारा तहसील और आसपास के सभी गांवों से जनता एकत्र हो जाती थी दशहरे के इस शानदार पर्व को मनाने की खातिर!

हमारे घर की शान और बरकत इतनी थी कि ना मालूम भंडार गृह में कितना खाना बनता था कि जो भी चबूतरे पर आ जाता तो जीम (खा)कर ही जाता। मजाल है जो रात के बारह बजे तक भी चूल्हों में आग ठंडी पड़े। गोधूलि की बेला में तो तलैया किनारे हवेली के भीतर और बाहर का चबूतरा भरा ही रहता था जरूरतमंदों से। गरीब , अमीर, जो भी कुछ आस लेकर आता पूरा करवा कर ही लौटता। बड़े से तख्त पर एक तरफ अम्मा( काली आदिवासी) अपने पान के साजो समान की चांदी की संदूकची सजाए, हाथ में सरोता से सुपारी काटतीं, मुंह में गिल्लौरी डाल के मुंह चलाए रहतीं, तो दूसरी तरफ दद्दा बैठे फरियादियों की फरियाद सुन कुछ उपाय बताते या जैसी दरकार हो यानि रुपए पैसे की मदद भी करते रहते थे। भीतर से तार सप्तक के स्वरों की झंकार आकर सारा वातावरण मधुर संगीतमय बनाए रहती थी। सितार और सरोद संग तबले की थाप मानो मस्ती बिखेर देती थी। शहर के आम लोग बाहर सड़क से ही सिर नवाकर हाथ जोड़कर वहां से गुजर जाते थे मानो किसी देवालय के सामने से गुजर रहे हों। या भीतर देवताओं का दरबार सजा हो और आदर से उसके सामने से गुजरना जरूरी हो।

वैसे इसमें सुबह उस समय विराम लग जाता था जब रसोई घर से..... जो एक विस्तृत आंगन जैसा था सब महाराजिन लोग खाना बनाने में जुट जाती थीं। मैंने ही तो भंडार गृह से उन्हें सामान देना होता था। सब्जियों के टोकरे सिर पर धरे अपने खेतों से बाई लोग भी तभी आ पहुंचती थीं। फिर तो पूछो ना सिलबट्टा लेकर कोई बेल की चटनी, तो कोई पुदीने की चटनी पीसने लग जातीं, तो कोई खड़ा मसाला पीसने लग जाती थीं। चाय की पतीली तो सारा दिन एक चूल्हे पर एक छत्र राज करती थी। क्योंकि ऐसा तो कभी हुआ ही नहीं था कि हवेली की दहलीज पर कोई आया हो और बिना चाय पीए चला गया हो। आसपास के इलाकों से और दूरदराज के गांवों से भी लोग आते थे। खूब चहल-पहल लगी रहती थी। हम तीनों बहनों से छोटा राजन हाई स्कूल में था तो उसके दोस्त भी वहां मंडराते रहते थे। उन्हीं में मनोज जो एक बार अपने बाबा के साथ दद्दा को मिलने आया तो यहीं का होकर रह गया था। उसे संगीत पसंद था, वह भी कॉलेज से सीधे यही आ जाता था। वह भोली सी सूरत बनाए रहता और बड़के भैया से लेकर राजन तक सभी उसके दोस्त थे। रसोई घर में हक से मांगकर-खाता-पीता था। देखने में अंग्रेज लगता था। हवेली के चबूतरे पर आने जाने वालों के मेले में किसे फुर्सत थी कि उससे कुछ पूछता। उसी घर का लगता था क्योंकि दद्दा भी लंबे-ऊंचे, गोरे- चिट्टे, रुआबदार थे।

उनकी शादी का भी एक किस्सा था....पहली बीवी राजघराने से थीं लेकिन पहले बच्चे की जचकी में ही मर गईं। उन दिनों अंग्रेजों के विरुद्ध गांधी बाबा के जुलूस में सबसे आगे झंडा पकड़े एक आदिवासी लड़की थी। तो बस उसीके साथ राजनीति के जोश में पुनर्विवाह कर लिया था। यही हमारी अम्मा थी। दोनों का रंग गोरा और काला ऐसा मिला कि हम लोग सब बच्चे गेहुए रंग के पैदा हुए। सफेद धोती में हमारी काली अम्मा सिर पर उल्टा पल्लू डाले मुंह लाल किए रहतीं। कुछ तो था उनमें जो दद्दा उनको बहुत मानते थे।

‘‘मैहर‘‘ हमारे इलाके में संगीत का घर माना जाता है। दद्दा वहां से किसी ना किसी संगीतज्ञ को आमंत्रित किए रहते थे ,जो बाबा अलाउद्दीन खान साहब को सलाम बजाने आते थे। बाबा के बेटे अली अकबर खान या दामाद पंडित रविशंकर आते तो वे भी इस बैठक में पधार कर मुझ पर थोड़ा बहुत ज्ञान का छिड़काव कर जाते थे। सितार पर मेरी पकड़ बढ़ती जा रही थी। बेशक मेरे बाएं हाथ की बीच की उंगलियों की पोरों से खून रिसता था , जख्मों में टीस सी उठती थी......... पर गरम-गरम मोम डालकर मैं उनको बेजान करने की कसर नहीं छोड़ती थी क्योंकि तभी रियाज संभव था। सुबह राग भैरवी और मटियार छेड़ कर सरोवर किनारे स्वर्गिक अलौकिक अनुभव होता था और शाम ढले राग पीलू मन पर छा जाता था। झाला बजते ही उसकी अनुगूंज हर किसी को सितार की ओर खींचती थी। स्वयं मैं तो मदमस्त हो ही जाती थी! यूं लगता रहता बिना संगीत के जग सूना होता है। इसमें गतिमान केवल संगीत ही है।

प्रसिद्ध सितार वादक निखिल बैनर्जी गोरे- चिट्टे बाबू मोशाय जब आए तो सितार के तारों पर उनकी लयकारी के साथ-साथ उनका चेहरा और उस पर उनकी आंखें भी संगीतमय हो जाती थीं। मैं बावरी सी, उनकी भाव-भंगिमाओं की दीवानी हो गई थी। मुझे शिक्षा प्रदान करने के लिए सामने बैठा कर जब वह मुझे सिखाते तो लगता मैं पूरी की पूरी उनके भीतर उतर गई हूं। तारों की एक-एक झंकार मेरी उंगलियों की पोरों में समा जाती थी। शायद उन्हें भी मेरे चेहरे को पढ़कर कुछ तो भान हो गया था। दद्दा से हर माह सिखाने आने का वायदा किया था उन्होंने। जिसने मेरे भीतर खलबली मचा दी थी। शायद उम्र का तकाजा था कि मेरी संवेदनाएं प्यार की बारिश में भीग- भीग जा रही थीं। यूं तो हम सभी बहने जवान थीं, लेकिन सादगी भरा जीवन जीने के कारण मेरा नाम मीराबाई अपने नाम के अनुरूप था। मीरा कृष्ण की दीवानी थी तो मैं भी निखिल दा को अपना आराध्य बना बैठी थी। इनके आने से रसोई घर की आवभगत में भी कहीं कोई कसर न रह जाए इस ख्याल से मैं महाराजिनों के सिर पर जाकर दबाव डालती थी और तरह-तरह के शाकाहारी व्यंजन बनवाती थी। वैसे तो बंगाली बाबू मछली की झोल पसंद करते होंगे पर हम लोग शाकाहारी भोजन ही झोलदार बना देते थे कि उनकी पसंद का मसाला तो हो जाए कम से कम।

बार-बार आने से उनके साथ बेतकल्लुफी बढ़ गई थी।

बातों बातों में मुस्कुराहट और आंखों का लजाना भी आ गया था मुझे। पूरा महीना उन्हीं चार दिनों की प्रतीक्षा में बीतता था। यहां तक कि कभी-कभी अरुणा कह देती,

‘‘ दिदिया , तुम निखिल दा के विषय में बात करते हुए अतिरिक्त रूप से संवेदनशील हो जाती हो, काहे?‘‘

और मेरी अनुभूतियां गांभीर्य का आवरण.....‘ लज्जा युक्त होकर ओढ़ लेती थीं!

उनके प्रस्थान करते ही सारी रात आंखों में कटती थी। नींद आंखों के द्वार पर थपकी देने भी नहीं आती थी। मुझे लगता अंधेरे सायों में अचानक पीछे से कोई परछाई आकर मुझे अपनी बाहों के घेरे में ले लेती है कि राग भैरवी के तार छिड़ जाते हैं,

‘‘ इंसाफ का मंदिर है ये भगवान का घर है!‘‘

मेरे जहन में उस पर यह गीत थिरकने लग जाता और सब कुछ थम जाता।

याद आ रहा है वह मंजर जब निखिल दा सितार के तारों पर उंगलियां फिराते हुए एक बार कालिदास की प्रसिद्ध रचना ‘‘मेघदूत ‘‘ पर आधारित गीत के पहले भाग को

‘‘ ओ आषाण के पहले बादल‘‘,

जिसे संगीतकार एस. एन. त्रिपाठी ने लोक शैली के ही बीच एक राग माला की तरह कंपोज किया था। उसमें मेघ मल्हार , मियां की मल्हार और भूपाली के बदलते सुरों के साथ मृदंग पर लाजवाब प्रयोग किया था... इसे बजाया था। जो कि उनका पसंदीदा राग था , तो वहां सभी उनके दीवाने हो गए थे और बाहर भीतर तक भीड़ एकत्र हो गई थी। तब मैं मीराबाई...  कृष्ण दीवानी मीरा बन गई थी। हां, मैं मूर्तवत् हो गई थी... प्रेम अनुराग से भरकर।

पुनः एक बार... ‘‘शाम भाई घनश्याम ना आए‘‘

राग जय-जयवंती पर आधारित लता मंगेशकर की गाई हुई सुंदर रचना उनके सितार के तारों पर जब नाच उठी थी तो पक्के रागों में सरल संगीत ने अजीब समा बांध दिया था। शास्त्रीय रागों का फिल्मी संगीत में 

सर्वाधिक विविधता से उपयोग होने के कारण संगीत कर्णप्रिय हो जाता है और हृदय में मधुर रस आवेग उमड़ आता है। यह आकर्षित बहुत करता है लेकिन उनका कहना था,

‘‘ यह लाइट म्यूजिक है, यूं ही सुना दिया। मीरा, आप पक्के राग ही सीखो और उनका ही अभ्यास करो।‘‘

‘‘जी गुरुजी,आपकी आज्ञा शिरोधार्य है।‘‘

 जब तक उनके पुनरागमन की तारीख का पता चलता मेरा एक-एक दिन मुश्किल से कटता था। इंतजार बना ही रहता था मुझे! लगता मैं भीतर ही भीतर गल रही हूं। लेकिन वास्तविकता तो यह थी कि बाहर शायद सभी को पता लग गया था। तभी करुणा ने भी कह दिया ,

‘‘ दिदिया थोड़ा तैयार हो जाया करो ना ! क्या निखिल दा के आने पर ही सजना संवरना होता है।‘‘

मैं अवाक रह गई थी। दिमाग में कौंध गया था,‘‘ इत्र और प्यार की खुशबू माहौल में एकदम फैल जाती है, छुपाने से भी नहीं छुपती।‘‘

अब मैं भीतर ही भीतर लजाने लग गई थी। उम्र जो ऐसी थी। जवानी की दहलीज पर पांव अंदर बाहर जो होने लग जाते हैं। दद्दा और अम्मा ने बुला भेजा ,

‘‘मोड़ी ,(बिटिया) रीवा के रईस हैं, तोहार लगन(शादी) लाने देख रहे हैं। हफ्ते भर में अइहैं देखबे को।‘‘

‘‘हम लगन नहीं करेंगे दद्दा ! हम अपना जीवन संगीत को दे दिए हैं। हमें नहीं अरुणा को दिखा दो।‘‘

संगीत के प्रति हमारी लगन और निष्ठा को देखकर शायद दद्दा और अम्मा भी निरुत्तर हो गए थे। बार बार कहने से भी जब हमने हामी नहीं भरी तो दद्दा ने राजसी शान-बान से वहां अरुणा का लग्न आखिर करवा ही दिया। इससे हमारे सर पर से बोझ उतर गया था।

 हम अपने आप से पूछ रहे थे कि क्या हम सच में पुरुष का साथ नहीं चाहते कि नाटक किए हैं ? सही अर्थों में तो हम निखिल दा पर मर मिटे थे फिर ऐसा क्यों कहे हम ? अपने आप से भी छल किया है हमने और मां-बाप से भी ! ऐसी सोच से हमारे भीतर तक क्षोभ भर गया था। भीतर ही भीतर मूक क्रंदन से अभिशप्त आत्मा बन गई थी मैं। जिससे चेहरे की मधुरता खत्म हो गई थी और चिंता व्याप्त हो गई थी। मुझे लग गया था कि मैंने न्यायोचित नहीं किया है। और उन्हीं दिनों कुछ ऐसी अनहोनी घट गई जिसने जीवन के सारे तारों को झंकृत कर के रख दिया।

हुआ यूं कि अम्मा जो कि दिन भर तखत पर बैठी पान की सुपारी कतरती रहती थीं और पान खाती रहती थीं.... वही सुपारी उनके गले में अटक गई थी। उसी पल उनकी पीठ में ढेरों मुक्के मारे गए लेकिन वह गले में अटक कर उनकी जान ही लेकर रही। अनहोनी घटने से पूर्व कभी संकेत कहां देती है? बगल में बैठे दद्दा ने भी सारे जतन करके देख लिए लेकिन मौत का ग्रास बनने से उन्हें कोई नहीं बचा पाया और पल भर में हवेली की खुशियां उजड़ गईं। सारे घर में मातम छा गया था!

‘‘भला ऐसे भी कोई जाता है?‘‘ सब यही कह रहे थे। दद्दा तो पूरे ही टूट गए थे। सारा दिन दोनों अपने-अपने तख्त पर बैठकर आमने- सामने एक दूसरे की गतिविधियां देखते, बतियाते रहते थे। सो, दद्दा से अब अकेले बाहर नहीं बैठा जाता था। जैसे ना जीवन में आस, ना खाने पीने में रस, बस चारों ओर सूनापन पसरा था। अफसोस करने वालों के अलावा, घर में खास किसी का आना जाना भी नहीं हो रहा था। निखिल दा भी नहीं आए फिर कभी। क्योंकि अब दद्दा भूल गए थे शायद सब कुछ। अम्मा के जाने के दर्द से संगीत भी बेजान हो गया था। मेरी इच्छाएं अधूरी होकर हलक में अटक गई थीं। लगता है समझ ने जवाब दे दिया था, रातों की नींद उड़न छू हो गई थी। जरा सी झपकी आती तो किसी का रुदन सुनाई देता तो मैं चैंककर उठ के बैठ जाती थी। क्या मालूम था यह पूर्वाभास था भविष्य के अनिष्ट का ! हां कुछ ही महीने तो हुए थे अम्मा से बिछुड़े हुए कि करुणा चीख रही थी,‘‘ दद्दा, दद्दा ! दिदीया रे दिदीया देखो तो आकर।‘‘

दद्दा का पार्थिव शरीर पड़ा था। सब कुछ त्याग वे अम्मा के पास चल दिए थे हम सब को छोड़कर। हमारी नैया मझधार में थी और उसके खेवनहार अम्मा- दद्दा चले गए थे। वज्रपात हुआ था हम सब पर। दद्दा के रहते बड़के भैया तो दिन- रात भाभी के संग पड़े रहते थे। घर के कर्ता धर्ता दद्दा ही थे। यह बिछोह हृदय विदारक था। सब तरफ से सब भागे आ रहे थे और चीखो- पुकार मच गई थी। राजा के निधन पर प्रजा टूट पड़ी थी। राजन दद्दा पर गिरा पड़ा था। करुणा दद्दा का सिर गोद में रखे, छोड़ने को तैयार नहीं थी और हमें विफरते देखकर मनोज ने रोते हुए हमें अपनी बाहों में समेट लिया था। वह प्यार से बेतहाशा हमें पलोस रहा था। हम निढाल थे... अर्ध मूर्छित!

 घर भर में छाया सुख अब करवट ले रहा था। दुख के साए घर की छत पर मंडरा गए थे। पुराने सुखद दिनों को पल भर को ही लौटा पाऊं, ऐसा कुछ भी तो नहीं था अब वहां। कभी इस घर में गूंजने वाला मधुर संगीत, शोरगुल, हंसी कहकहे, निर्बाध गति से चारों तरफ बहने वाला उल्लास, लोगों का आना जाना, चाय के खाली पिरच - प्यालों का शोर......सब के बदले एक लम्बा मौन पसरा था। 

हां, मुझे महसूस हो रहा था कि मनोज मेरे आस-पास ही मंडराता रहता है। कुछ दिनों से वह कॉलेज भी नहीं जा रहा था। यहां तक कि अपने घर न जा कर राजन को ढांढस बंधाने के लिए रात को उसके साथ सो रहता था। मुझे यूं महसूस होने लगा था जैसे मेरी ओर देखते हुए वह प्यार से मुझे अपनी आंखों में भर लेता है। दद्दा भी अपने काम के लिए उसे आवाज लगा देते थे क्योंकि वह घर के सदस्य जैसा हो गया था। अधिकार पूर्वक रसोई घर में भी जीम लेता था। सो, अब स्वाभाविक तौर पर उसकी ओर ध्यान चला जाता था क्योंकि अभी रियाज के लिए मैं सोच भी नहीं सकती थी। वक्त था मेरे पास इधर-उधर देखने और सोचने के लिए।

एक सांझ को हवेली से सरोवर की ओर जो सीढ़ियां नीचे उतर रही थीं, उन पर बैठी मैं सोच रही थी कि क्या दद्दा इतने बंधे थे अम्मा से कि बच्चों के लिए कुछ और देर ठहर नहीं पाए और चले गए उनके पीछे-पीछे ! अब हम सब का क्या होगा? राजन तो अभी मेट्रिक भर किए हैं, और बड़के भैया तो सदा से निकम्मे रहे हैं। दद्दा बुलाते रहते थे ,

‘‘बड़के हमारे पास आकर बैठो तनिक, हम तोहार को बहुत कुछ समझाए खातिर बुला रहे हैं। बिटुआ, कब तक लुगाई (पत्नी) के पल्लू में छिपे बैठे रहोगे?‘‘

पर भैया अब पछता रहे हैं कि वे कभी आकर नहीं बैठे थे। क्या मालूम दद्दा किस को क्या- क्या दिए रहे और कौन-कौन मुंह छुपा गया है। इसी झुंझलाहट में मैं सरोवर पार से गाढ़े हो आए धुंधलके को देख, उठकर भीतर संगीत कक्ष में आ गई थी। विचारों से मेरा दिमाग घूम रहा था और मन थकान से चूर हो रहा था। भीतर आ अपने उपेक्षित हो गए ,सितार को छूने भर से आंसुओं का रुका आवेग सारे बांध तोड़ कर बह निकला और मैं अकेली अपने भीतर और बाहर छाए अंधियारे से ग्रसित फफक- फफक कर जोर -जोर से रोने लगी थी कि तभी किसी की बलिष्ठ भुजाओं ने मुझे कस के अपने साथ भींच लिया और मुझ पर प्यार की भीगी बरसात कर दी सहानुभूति में क्योंकि वह भी मेरे दुख में शरीक हो रहा था। यह भैया तो नहीं था क्योंकि आलिंगन का कसाव भिन्न था। कमरे की बत्ती जलाने की सोच ही नहीं थी। अंधेरे में दो निःष्प्राण से लिपटे थे हम। ऐसी स्थिति में उपजा प्रेम... ढांढस बंधाता हदें लांघ जाता होगा तभी तो उसका अतिक्रमण निर्बाध निर्विघ्न हो रहा था और वह इतना स्वभाविक था कि स्वीकारोक्ति की आवश्यकता ही महसूस नहीं हो रही थी।

जीवन के घटनाक्रम इस कदर गुजर रहे थे कि प्रेम की लालसा निखिल दा के जाने के कारण जो भीतर एक चिंगारी सी धधक रही थी कहीं वीराने में, वह धधकती ज्वाला बन गई थी एक लपट का सानिध्य पाकर! उस संगीत के मंदिर में इन दिनों कोई आता- जाता नहीं था। वीरानगी में उस रात प्रेम के दो फूल मर्यादा में खिल गए थे। ‍जहां पवित्र पावन संगीत की स्वर लहरी समाई रहती थी उसी अभीष्ट स्थल पर मैं लंबा मौन धारण किए विचार रही थी की क्या.... मनोज ?

नदी के आवेग से प्रभावित धारा प्रवाह ने रास्ता बदल लिया था। सदा चाहत भरी नजरों से मुझे तकने वाला, खाने के समय मीठी मुस्कुराहट से मेरे हाथ से कुछ भी ले 

लेना...... क्या भीतर ही भीतर उसके मन में पनपता प्रेम था ? उम्र की सीमाओं की जिसे परवाह नहीं थी। मुझसे चार-पांच वर्ष छोटा ही होगा लेकिन मेरी दुरूह पीड़ा के क्षणों में उसने मुझे प्रेम -रस से सराबोर कर दिया था ! एक चैड़ी छाती रख दी थी उसने मेरे समक्ष सिर रख कर रोने के लिए। उससे कुछ सुन पाने की प्रत्याशा से भरे लंबे मौन के बाद मैंने जब पुकारा,

‘‘ मनोज!‘‘

तो वह बुलंद हौसलों से भर उठा और बोला,

‘‘हां बाई , हम हैं ना ! तुम्हें अपनी जान से अधिक प्रेम देंगे। तुम्हें संभालेंगे। सारे जग के समक्ष अपनी बनाएंगे।‘‘ उसकी दिलासाएं मेरे सिर के ऊपर से गुज़र रही थीं। वक्त की नज़ाकत को समझते हुए उसकी चिंता और कमिटमेंट मेरा दुख- सुख बांटने की इच्छा...... सब खोखले शब्द लग रहे थे मुझे। जो अनहोनी घटी थी उसने मेरे अंतर में भीषण तूफान ला दिया था, जिसके थपेड़े असह्य हो रहे थे मेरे लिए , जिससे मैं जड़वत् हो गई थी। मनोज ने मेरा मूक- क्रंदन सुन लिया था शायद! वह बोला ,

‘‘ए बाई, कुछ नहीं होगा। हम हैं ना !‘‘ और मेरा हाथ थाम लिया था। मैं समझ पा रही थी बड़े घर का बेटा है पर समीकरण एक जैसे नहीं हैं। कितना कुछ है मध्य में....? गुंजलक पड़ गई थी यहां रिश्तों की! संदर्भ बदल गए थे पलों में ! हवेली में बहुत लोग आते हैं ! सभी अपनी मुंडी घुमाएंगे कहीं भी। हालांकि अब वह बातें नहीं रह गई थीं कि दद्दा की थाली के संग ढेर सारी थालियां सजती थीं और जो भी बैठक में बैठा है वह जीम रहा है। कसेड़ी (पीतल का मटका ) भर के बेल का ठंडा शरबत मैं दिन चढ़े बना देती थी कि धूप में जो भी आए परोस दिया करो। जिगर में ठंड रहेगी इतनी भीषण गर्मी में ! महाराजिन अम्मा का बेटा कंधे पर गमछा डाले यही काम सारा दिन करता रहता था गर्मियों में और सर्दियों में चाय की सर्विस!

अब वह मायावी संसार ना जाने कहां गुम हो गया था छूमंतर से! अब एक ही चूल्हा जलता है सीधा- साधा कच्चा खाना बनता है। बहुरिया भी चैके में आने लग गई थी उघड़ा मुंह लिए ,दद्दा जो नहीं रहे थे तो कैसा पर्दा ! भैया भी बाहर बैठक में दिखने लगे थे आजकल तखत पर बैठे हुए। वक्त अपनी चाल से आगे बढ़ रहा था। अम्मा और दद्दा को गए एक अरसा बीत गया था। करुणा भी अपने ससुराल चली गई थी। राजन ने प्रिंटिंग प्रेस का काम खोल लिया था। इस दीर्घ अंतराल के बीच घर का स्वरूप बदल चुका था। अनचीन्ही घटनाएं भी पार्श्व में घट रही थीं मेरे और मनोज के बीच। वह भी ईटों के भट्टे और पत्थर की खदानों पर जाने लग गया था अपने बाबूजी के साथ। रिश्ता करने के दबाव होने पर अपनी मां के आग्रह पर जब उसने बताया कि वह मीराबाई से विवाह करेगा तो वहां एक तूफान आ गया था। मनोज की अम्मा बोली थीं, ‘‘ कान्हा और राधा रानी का ब्याह थोड़ी ना हुआ था तब तुम कैसे ब्याह रचाओगे? अरे , हम अपनी बिरादरी में देख लिए हैं तुम्हारे लाने दुल्हनिया। चुपचाप घर पे बैठे रहो और जग की रीत निभाओ।‘‘

वहां उस मारवाड़ी परिवार में इतना हड़कंप मचा कि मनोज के भाई- भाभी, दीदी-जीजा, बाबूजी- अम्मा सभी उसके विरोध में हो गए और बोले,

‘‘अग्रवाल हमारी बिरादरी नहीं है हम अपनी बिरादरी से बेदखल कर दिए जाएंगे।‘‘

तब ऐसा ही चलन था समाज में। और मनोज की जिद पर उसके बाबूजी ने उसे अपनी जायदाद से बेदखल कर दिया था। मनोज अड़े रहे और घर छोड़कर हमारे घर आ गए थे। भैया के दिमाग तो था ही नहीं सो वे सोचते विचारते क्या ? खास कुछ नहीं बोले, बस यही समझाते रहे अपना भला बुरा सोच लो तुम दोनों। मनोज में मर्दों सी परिपक्वता आ गई थी, टस से मस नहीं हो रहे थे। मैं तो अपने सितार के संग एकाकी जीवन जीने लग गई थी। मेरे जीवन की यही तो एक उपलब्धि थी। एक दिन मनोज मुझे समझाते हुए आवेग में बोले,

‘‘तुम अपने को छलावा मत दो बाई। मीराबाई का चोला उतार फेंको। यह झूठे मस्तूल हैं, इनसे बेड़ा पार नहीं होगा। अपने खोल को उतार कर बाहर निकलो ‘शैल ‘ से। तुम्हें भी जीने का हक है। हम थामते हैं तुम्हारा हाथ!‘‘

मनोज की दृष्टि में आवा्हन था। एक हामी भरे उत्तर की आकांक्षा मुझसे अपेक्षित थी। मेरी स्वीकारोक्ति !!! मैं सब जानते- समझते और चाहते हुए भी अंतर्मुखी बनकर असमंजस के भंवर जाल में डूबने उतराने लगती हूं! मेरा अतीत ध्वनित- प्रतिध्वनित होने लगता है! फल स्वरूप मेरे सितार पर झाला और शहनाइयों की मीठी धुन बजने लगती है। एक सुख भरे संसार और एक जीवन साथी के संग की कामना भी सपनों का संसार सजाने लगती है। जिसमें पुरुष की उपस्थिति का एहसास तो होगा ! ऐसे ढेरों उतार-चढ़ाव पिछले दिनों देखकर मैंने भैया के सामने हामी भर दी और कुछ विकल्प भी तो नहीं था मेरे पास। मैं घर में किसके सहारे रुकती? घर की दीवारें स्वयं बेसहारा हो मुझे ताक रही थीं।अम्मा और दद्दा बिन राजन भी अकेला पड़ गया था लेकिन वह सदा मेरे साथ था! मेरा हाथ दबा कर बैठा था बोला,‘‘ दिदिया, तुम जो भी करोगी हम तुम्हारे साथ सर्वदा हैं!‘‘ डूबते को तिनके का सहारा मिलने से मुझ में आत्मबल आ गया था। अधखुली आंखों से जो सपने देखे थे उनके पूरे होने की उम्मीद भी थी, फिर भी मैंने मनोज से आखिरी बार पूछा,

‘‘ सहानुभूति में भीगकर, तो तुम यह कदम नहीं उठा रहे ?क्योंकि जब इस दया भाव का नशा उतरेगा तो कहीं तुम्हें पछतावा ना हो। सोच लो आराम से। ‘‘

मेरे मन के कोने का डर यह पूछने को मजबूर था। इस पर मनोज ने मेरे दोनों हाथों को पकड़ लिया और मेरी आंखों में आंखें डाल कर एक आश्वासन ,एक विश्वास और प्यार भरी दृष्टि से मुझे सराबोर करते हुए वही शब्द दोहराए, ‘‘हम कह रहे हैं ना कि हम हैं!!!‘‘

मेरी अवचेतना में शहनाइयां गूंज उठीं !

***********************************************************************************कविता



. मीरारामनिवास, गांधीनगर, गुजरात, मो. 99784 05694


‘‘सागर’’

अथाह जलराशि अंक में समेटे

सागर निरंतर गतिमान है

अनवरत उमंगित कुलांचे भरते

सागर निरंतर प्रवाहमान है

किनारे आये लोगों का स्वागत करता है

लोगों से बतियाने उछलता चला आता है

पर लोग कहां उसे सुनते हैं

सब लोग लहरों से खेलते हैं

सागर को बहुत कुछ कहना है

सागर को दिल हल्का करना है

समुद्र मंथन की गाथा रामसेतु की कथा

आंखों देखी सुनाना चाहता है

द्वारिका में डूबे हुए श्री कृष्ण के महल की 

कथा सुनाना चाहता है

हर बार किनारे पर आता है

कोई श्रोता न मिल पाता है

श्री राम व रावण की युद्ध विभीषिका को

उसने देखा है

लक्ष्मण को तीर लगने पर श्री राम को

रोते उसने देखा है

दिन में सूरज की किरणों से खेलता है

रात में चांद को चूमने उछलता है

पानी में चांद का अक्श देख

रातभर उछल कर शिथिल हो जाता है

सुबह सूरज के आते ही स्फूर्त हो जाता है

जैसे भृगु की लात से विष्णु हृदय विचलित नहीं होता 

वैसे ही विशाल जहाजों के हृ्रदय पर 

चलने से सागर उफ नहीं करता

खारा है पानी कोई पी न पाए

नमक बन औषधि बन जाए

सोचती हूं किसी सुबह समुद्र के पास बैठूं 

सूरज साक्षी सागर वक्ता और मैं श्रोता बनूं।।

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पाकिस्तानी पंजाबी कहानी

\

सुश्री नीलम शर्मा ‘अंशु’



प्रो. एजाज


पुरखों से गिले-शिकवे (दादी)

दादी की मृत्यु मेरे लिए किसी बड़े हादसे से कम न थी। उनका मुझसे स्नेह ही बहुत था, वे पल भर के लिए भी मुझे न बिसारती। यदि मैं घड़ी भर के लिए भी उनसे दूर हो जाता तो वे जोर-जोर से आवाजें देना शुरू कर देतीं- “वे जजू.... जाजिया वे....पता नहीं किस गुफा में जा घुसा है। आज आ लेने दो इसके बाप कंजर को.... अगर इसकी धुनाई न करवाई तो कहना।” वे हाथ में लाठी थामें, नाक पर मोटे शीशे वाली ऐनक टिकाए, अपनी कमर के पीछे हाथ रखे, दाहिने, बाएं मुझे ढूँढती हुई, इधर-उधर घूम रही होतीं।

दादी का मुझसे लगाव ही बहुत था। वे जरा भी मुझे अपनी निगाहों से दूर न होने देतीं। वे हमेशा मुझे अपनी आँखों के सामने देखना पसंद करतीं। मैं, माँ, बापू और परिवार के अन्य सदस्य उनके गर्म स्वभाव, कसैलेपन से बहुत डरते थे।  पूरे मुहल्ले की लड़कियां, औरतें तथा मर्द उनके स्वभाव के कसैलेपन और कड़वाहट से बहुत भय खाते थे। उनमें से कई तो आते-जाते उन्हें सामने से आता देख उनसे कन्नी काटते और रास्ता बदल कर चले जाते थे।  गाँव की दूसरी बिरादरी के लोग उनका आदर-सत्कार करते न थकते। वे अपनी बेटियों की शादियों पर दादी की सेवाएं लेते रहे हैं।  वे पड़ोसी गाँव के सुनार को जिसकी जमानत देतीं रहीं हैं, वह तुरंत उनके हुक्म का पालन करता।  वे उनको आषाढ़ी और सावनी फसलों के उधार पर अंगूठी, कंठहार, हार, माला, बालियां, नथ, पाजेबें बना कर देता रहा है। वे नित किसी न किसी की शादी का सामान या अन्य घरेलू सामान वगैरह खरीदने शहर जाती रहतीं थीं।  वे घर पर होतीं तो उनकी सहेलियों का आना-जाना लगा रहता। वे उन लोगों के बीच बैठी खिलखिलाती रहतीं, फूली न समातीं। चाय-पानी से उनका सत्कार करतीं, कोई कसर न छोड़तीं।  इस दौरान अगर मेरी माँ या छोटी फूफी जरा सी भी ढिलाई दिखातीं या देर करतीं तो वे बड़बड़ाते हुए, उनकी अच्छी तरह ख़बर जरूर लेतीं-

“जरा सा काम क्या कहो, इन कमजातों के पेट में दर्द होने लगता है। पहले तो दोपहर तक सोकर नहीं उठतीं, अगर उठ भी जाएं तो कंबख्त काम को हाथ तक नहीं लगातीं। इतनी देर में तो हम चक्की पर आटा पीस-पीस कर ड्रम भर लेते थे। अब की औरतें तो किसी काम की नहीं, सड़ियल, काम चोर, चुड़ेलें, निपूतीं।”

माँ दादी से बहुत डरती थीं। वे समय पर उनके हुक्के का पानी बदलतीं, उसे ताजा करतीं, और रोटी-पानी का प्रबंध करतीं ताकि दादी का दिल जीत कर उनके दिल में और जगह बना सकें। पर दादी जैसे उनसे खुश नहीं थीं। वे हमेशा मंदा बोलतीं, टर-टर करतीं, फिजूल बोलती रहतीं। माँ मन ही मन चिढ़ते हुए घर के सारे काम जल्दी-जल्दी निपटातीं। दादी उनके हर काम में कमियां ढूँढने बैठ जातीं। उनकी यह आदत थी कि वे काम चोर और कमसिन लड़कियों को समझाने की भाँति हर कदम पर मेरी माँ की अगवाई करतीं। वे उसे सलाहें देतीं, नसीहतें देते न थकतीं। माँ, जो उस वक्त अभी उतनी अनुभवीं नहीं थीं, दादी के हर कहे पर अमल करतीं, उनके मुँह से निकले हर वाक्य को पूरा करने के लिए जी-जान एक कर देतीं थीं। वे दादी और उनके हर काम की तारीफें करते न थकतीं। कुछ इसलिए भी कि घर में अमन और सकुन बरकरार रह सके। माँ को मेरे पिता से बहुत से शिकवे, शिकायतें और उलाहने थे। बापू दुकान की सारी आमदनी माँ की हथेली पर ला रखता था। फिर दादी अपनी इच्छानुसार ईद, शबरात पर माँ को एकाध नया सूट भी सिलवा कर देती रहती हैं।  दादी की तरफ से घर में सुर्खी, पाउडर, नेल पॉलिश और दूसरे मेक-अप के सामान के इस्तेमाल की सख़्त मनाही थीं। जहाँ तक मुझे याद आता है, मेरा बापू दादी से चोरी-चोरी तिब्बत की क्रीम की डिबिया या घमौड़ियों वाला पाउडर जरूर ला दिया करता था।

माँ दादी से छुपा कर हमारे बदन पर पाउडर भी मल देती रही हैं, जिसकी ठंडक से हमें बहुत सकुन और आनंद मिलता रहा है। मैंने अपनी माँ को नेल पॉलिश या सुर्खी लगाते कभी नहीं देखा। शायद उन्हें यह सब पसंद नहीं था या फिर वे दादी से बहुत ख़ौफ खाती रही होंगी। परंतु माँ हर दूसरे-तीसरे दिन दाँतों पर छाल (एक प्रकार की दातुन) जरूर मलती रही हैं। वैसे भी दाँतों पर छाल मलने से दादी ने उन्हें कभी रोका नहीं था और न ही कपड़ों पर इत्र की खुशबू से टोका था।

दादी का निधन मेरे लिए आश्चर्य था। उन्होंने मरते समय न तो कोई वसीयत लिखवाई, न अपनी जमीन-जायदाद के बंटवारे के बारे में कोई लिखित हुक्मनामा। दादी गुजरीं जैसे रोज आम लोग मरते हैं और उनकी मृत्यु की ख़बर एक गाँव से दूसरे गाँव तक का सफर तय नहीं कर पाती है। वैसे भी उसे एक न एक दिन तो मरना ही था, मर गई। उनके जनाज़े में शामिल होने वालों में गाँव के लोगों और हमारे कुछ रिशतेदारों के अलावा प्राइमरी स्कूल के उस्तादों, छात्रों, राहगीरों, किसानों और जाट जमींदारों की भारी संख्या थी।

दादी को गुज़रे सातवां दिन था। उनके भोग पर आए रिश्तेदार मेरी ख़राब सेहत के कारण काफी परेशान दिख रहे थे। उनमें से एक बड़ी उम्र की महिला जिन्हें माँ मौसी कहती हैं, वे मेरी माँ को क़ब्रिस्तान से दादी की क़ब्र की मिट्टी लाकर पानी में घोलकर मुझे पिलाने की बात कह रही थीं। उन सभी को मेरी बहुत फ़िक्र हो रही थी। उनके अनुसार मैं दादी से लगातार सात दिन दूर रह कर उदास हो गया था, इसलिए मेरा बुखार पहले से ज़्यादा हो गया था। मैं रज़ाई में माँ की गोद में लेटा लगातार काँप रहा था। माँ दर्द से फटे जा रहे मेरे सर को लगातार दबा रही थीं। वे मेरे मुर्झाए चेहरे और पीले पड़ते जा रहे रंग को देख कर बहुत दुःखी  हो रही थीं। वे बार-बार अपने हाथ में पकड़े अंगोछे को पानी में भिगो कर कभी मेरे सूखे होठों पर और कभी मेरे माथे पर धीरे-धीरे फिराते हुए रब से मेरी सेहतयाबी की दुआएं माँग रही थीं।

दादी को गए पूरे बारह दिन हो गए थे। घर में सभी को पता था कि वे गुज़र चुकी हैं। हम खुद उन्हें मन भर मिट्टी के नीचे दफ़ना कर आए थे परंतु हैरानी की बात यह थी कि वे मुझे अभी भी ज्यों की त्यों नज़र आ रही थीं। जब माँ चूल्हे के पास बैठी मेरे लिए जोशानदे का काढ़ा बना रही थी, दादी अडोल ही मेरी चारपाई की अदवायन वाली तरफ बैठ मेरे पैरों की मालिश कर रही थीं। मुझे उस वक्त मानों किसी ने चारपाई के साथ ही कील दिया था। मुझे लगातार पसीना आ रहा था। मैं अपनी माँ को आवाज़ देना चाह रहा था और मेरी आवाज़ नहीं निकल पा रही थी। दादी लगातार मेरे पैरों की मालिश कर रहीं थी और मैं उनसे इस तरह ख़ौफ खा रहा था मानो वे कोई जिन्न, भूत, चुड़ैल या डायन हों।

माँ समझ रही थीं कि मेरा बुख़ार ठीक हो रहा है। वे मेरे माथे से पसीना पोंछती, क़ब्रिस्तान से लाई मिट्टी जबरदस्ती मुझे पीने के लिए उकसा रही थीं। मैं, जो बालपन में मिट्टी या गाजनी (एक विशेष प्रकार की मिट्टी जिससे लिखने वाली तख्ती पोती जाती है।) खाने का अभ्यस्त रहा हूँ, मुझे वह दादी की कब्र की मिट्टी घुला पानी पीना बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था। मुझे उबकाई आ रही थी, मन ख़राब हो रहा था। माँ मुझे शहद चटा रही थीं।

मैं दादी की कब्र खोदे जाने के समय क़ब्रिस्तान में ही था। जब उन्हें मन भर मिट्टी में दफनाया जा रहा था, तब भी मैं वहीं था। मैंने खुद अपने छोटे-छोटे हाथों से उसकी क़ब्र पर दो-चार अंजुली मिट्टी डाली थी। हम सब हैरान थे कि दादी को कितनी सुंदर जगह मिली है। उनके कहे अनुसार उनकी क़ब्र उनके लाडले पुत्तर और दादा जी की क़ब्र के नज़दीक खोदी गई थी। मैं ही नहीं, मेरे दाहिने बाएं खड़े सभी जाने और अन्जाने व्यक्ति भी दादी को इतनी अच्छी जगह सुपुर्द-ए-ख़ाक करके बहुत निश्चिंत दिखाई दे रहे थे, जैसे उन्होंने अपने सर से बहुत बड़ा बोझ उतार दिया हो।

दादी की क़ब्र से सिरहाने की तरफ उनका ख़ाविंद दफ़न था और उनके पैरों की तरफ मेरा छोटा चाचा।

दादी ने अपने जीवनकाल में ही अपनी क़ब्र की यह जगह निर्धारित कर ली थी, इसलिए उनके कहे अनुसार ही किया गया। शायद उन्हें अपनी मृत्यु की ख़बर पहले से ही थी, तभी तो उन्होंने पूरे चार साल पहले ही अपने लिए बढ़िया कफ़न खरीद रखा था। यही नहीं उन्होंने अपनी मृत्यु से काफी पहले ही अपनी देह को नहलाने के लिए कान तिब्बत साबुन की एक डिबिया, कपूर की तीन छोटी-छोटी टिकियां और दो इत्र की शीशियां भी सहेज रखीं थीं।  कफ़न की कलमे वाली चादर भी उन्होंने ईरान-इराक की ज़ियारत पर गई अपनी एक सहेली से मंगवा रखी थी। उनका कहना था कि यह चादर उनकी सहेली ने इमाम हुसैन (रजी.) के रौजे के पास की एक दुकान से उनके लिए खरीदी थी। उनकी अम्मा जोहरा (रजी.) (हजरत मुहम्मद की बेटी) में बेहद आस्था थी। इसीलिए तो वे हर जुम्मेरात को उनके नाम का नियाज़ देती रही हैं। अपनी मृत्यु से चार दिन पहले वे इस बाबत मेरी माँ से कह रही थीं कि उनके बाद कभी भी दस बीबियों की कहानी, मौला मुश्किल कुशा अली (रजी.) का चढ़ावा और ग्यरहवीं शरीफ का खत्म दिवाना न भूलें। दादी अपनी मृत्यु की रात घर की चाबियां और अपनी गुथली मेरी माँ को सौंपते हुए हिदायतें दे रहीं थीं- 

“अरी!  कहा-सुना माफ करना। आज से घर की चाबियां तुम्हारे हवाले। यह मेरी गुथली भी संभाल लेना।  पैणो की इस पर नज़र थी परंतु मैंने सीने से लगाए रखी है।  इस कंबख़्त ने अस्पताल में मेरे बालियां उतार लीं। मेरी बेटी, तू उससे वे बालियां लेकर मुझे नहलाने वाली को दे देना।” फिर वे मेरे बापू को नसीहतें देने लगीं:

“पुत्तर! मैं तुझसे कहती रही हूँ, तू जमीन अपने नाम करवा ले, परंतु तूने मेरी एक न सुनी। मेरे भोले पुत्तर देखना कल को तेरी बहनें तुझे जीने नहीं देंगी। ये अब जिंदगी भर तेरी जान खाती रहेंगी (वे अपनी बेटियों को कोसते हुए मेरे बापू से मुखातिब थीं) बच्चों का ख़्याल रखना। बड़े को मारना-पीटना मत, मेरा अच्छा पुत्तर।”

“अम्मा कल को तुम्हारे पोते-पोतियों को ब्याहने के समय किससे रिश्ता जोड़े?” यह मेरी माँ की आवाज थी।

“अरी! मेरी यह बात पल्ले बाँध लो, बेटियां फूफियों के घर न ब्याहना। बड़ी वाली के यहाँ तो बिलकुल नहीं। उसका हमारा मेल नहीं बनता। छोटी अगर रिश्ता दे तो ले लेना। उसे भी बेटी मत देना, बिलकुल नहीं।” वे मेरी माँ को सख़्त हिदायत दे रहीं थीं।

हम सब खुश थे कि वे इतने दिनों बाद होश में थीं। वे पास बैठे सदस्यों को अच्छी तरह पहचान रहीं थीं। वे उनसे बातों में लगी हुई थीं। उन्होंने मुझे और छोटी को अपने पास बुलाया, हमारे सर पर प्यार देते हुए हमें समय पर स्कूल जाने और आपा रीशमे के पास सपारा पढ़ने जाने की हिदायत दी। फिर उन्होंने अपने खीसे में हाथ डाला, जिसमें हमेशा हम दोनों भाई-बहनों के खाने के लिए कुछ न कुछ जरूर होता था। हम ही नहीं दादी भी फ़िक्रमंद थी, उनकी जेब बिलकुल खाली थी। एक क्षण के लिए उनको ऐसा लगा जैसे उनका दाना-पानी ख़त्म हो गया हो। 

उस वक्त उनकी आँखों में बेबसी के आँसू थे।

दादी को पढ़ना-लिखना नहीं आता था, परंतु वे हम सभी को सुबह-सुबह नमाज़ पढ़ने के लिए ज़रूर उठा दिया करती थीं। हम उनकी अगवाई में आपा रीशमे के घर कुरआन मजीद पढ़ने के लिए एक अरसा जाते रहे हैं। वे रोजों के दौरान कमोबेश दस कुरआन शरीफ पढ़ कर अपने पुरखों की रूहों की बख्शती रही हैं। हम चकित हो जाते थे कि वे इतनी जल्दी पूरा कुरआन-ए पाक पढ़ कैसे लेती हैं। यह तो हमें बहुत बाद में जाकर पता चला कि उन्हें तो कुरआन पढ़ना भी नहीं आता था। वे उसकी हर पंक्ति पर बिस्मिल्लाह शरीफ का जप करते हुए उंगलियां फिराती जाती थीं। जब हमें उनकी इस बात का पता चला तो हम भी बीच-बीच में ऐसा ही करते। जब हमें अपना सपारा पूरा करना होता, हम दादी वाला तरीका अपनाते। इस तरह पहले-पहले न सिर्फ आपा रीशमे और हमारी अम्मी हमारे इस तरह जल्दी-जल्दी सपारा ख़त्म करने पर हैरान होती रही हैं, बल्कि वे अपनी इस हैरानी को आपस में एक-दूसरे से साझा भी करती रही हैं। उन्हें इस तरह अपने बारे में बातें करते सुन हम भी अपने आप में खुश हो जाते थे जैसे हमने कोई बहुत बड़ा मैदान मार लिया हो। 

उस रात मैं घबरा कर उठा, दादी मेरे सिरहाने खड़ी थी। तब, जब मैं जूती पैरों में डाल गुसल के लिए जा रहा था। वे ड्योढ़ी में भैंसों के पास खड़ी लगातार मुझे देख रहीं थीं। वे मुझे अपनी जेब से गिरियों वाले गुड़ की ढेली दिखा रही थीं।

दादी के सारे काम निराले थे। उन्हें गिनती बिना शक बीस तक ही आती थी, परंतु वे रुपए-पैसे के मामले में बड़ी हिसाबी-किताबी थीं। वे मर्दों की भाँति एक-एक रुपए का हिसाब-किताब रखती रही हैं।  उनकी जमा तफरीक हम सबकी समझ से परे हुआ करती थी। वे किलो को सेर, एकड़ को किल्ला, छाबे (रोटी रखने की छोटी टोकरी) को चंगेर, रोटी को फुल्का, सलवार को सुथ्थण, कमीज को झग्गा, कुश्ती को बीड़ी.... उनके सब सफरी पैमाने उनके भाँति कई बरस पुराने थे- करम, मुरब्बे, कोह, मेल वगैरह वगैरह...। 

दादी वैसे तो अपने कपड़ों को खुद ही टाँका-टांकी कर लेती रही हैं परंतु अपने नए कपड़े दर्जिन को सिलने के लिए देते समय वे बहुत चिंतित दिखाई देती रही हैं। वे मर्दों की भाँति अपनी कमीज़ के साइड में दोनों तरफ जेबें रखवाती रही हैं, जिनमें वे पैसा धेला, गुड़ की ढेली या सिगरेट की डिब्बी रखा करती थीं। उनका खीसा हर वक्त चनों, मखानों और टॉफियों से भरा रहता। वे अपनी गुथली और घर की चाबियां हमेशा अपने सीने से लगाए रखतीं।  इस तरह उनकी गुथली तक घर में किसी की पहुँच संभव ही नहीं थी।  दादी सिगरेट कम ही पीती थीं, बिलकुल न के बराबर। ज़्यादातर वे हुक्का ही पीती रही हैं। परंतु हाँ, किसी मजबूरी में जब हुक्का तपा हुआ न मिलता या मेरी माँ किसी दूसरे काम में व्यस्त होतीं तो वे बड़बड़ाते हुए अपनी साइड पॉकेट से सिगरेट की डिब्बी निकाल कर उसमें से एक सिगरेट सुलगा लेतीं। जब वे सिगरेट पी रही होतीं, मैं उनके पास कम ही जाता था। हाँ, हुक्का पीते वक्त मैं उनकी गोद में बैठा उनसे पहेलियां और कहानियां सुनता रहा हूँ। वे मुझे बादशाहों, राजाओ-महाराजाओं, शहजादियों, जिन्नों, भूतों, परियों, चुड़ैलों और जानवरों की कहानियां अक्सर ही सुनाती थीं।  उनकी कहानियां ख़त्म होने में नहीं आती थीं, जिन्हें सुनते-सुनते मैं अक्सर ही सो जाया करता था।  मेरा ही नहीं मेरी छोटी बहन का हाल भी कुछ ऐसा ही था।  इधर दादी रुक-रुक कर अपनी कहानी सुना रही होतीं, उधर हम नींद के आगोश में पड़े मजा ले रहे होते।

दादी ने अपनी मृत्यु पता नहीं खुद ही निश्चित कर ली थी या फिर उन्होंने वक्त के झरोखे से देख लिया था कि बस अब और नहीं।

रात आधी से ज़्यादा ही गुज़र चुकी थीं। मैं गुसल से आकर ड्योढ़ी की तरफ जा रहा था, जहाँ अभी भी दादी खड़ी थीं। वे गुड़ की ढेली मुझे दिखाते हुए अपने पीछे-पीछे चलने का इशारा कर रही थीं। मैं कुछ सोचे समझे बिना इधर-उधर देखते हुए तुरंत उनकी तरफ बढ़ रहा था। तब, जब मैं आँगन में सोए सदस्यों की तरफ अंतिम निगाह मार रहा था, वे सभी आँगन में दूर छप्पर के नीचे बंधे जानवरों की भाँति गहरी नींद सो रहे थे जिनमें हमारी दोनों भैंसें, चारों बकरियां और बड़ी ईद की कुर्बानी के लिए पला भेड़ का बच्चा भी शामिल था। जबकि बाहरी दरवाज़े के पास अपनी टाँगों में सर दिए गुच्छा-मुच्छा सा हो सिकुड़ा पड़ा हमारा पालतू कुत्ता उस वक्त दरवाज़े के कुंडी की ज़रा सी आवाज़ से जग गया था। उसने अचानक उठते हुए पहले जरा गुस्से से एक सरसरी ऩजर मेरी तरफ मारी। जब उसे इस बात की पुष्टि हो गई कि मैं कोई अजनबी नहीं, बल्कि  घर का ही हूँ तो वह खामोश रहा। मुझे पहचानने के बाद पहले तो वह वहीं खामोश पड़ा रहा, फिर कुछ देर बाद वह अपने पैरों से धरती खुरचने लगा। आधी रात को उसके पास से होते हुए मैंने बाहरी दरवाजा खुला छोड़ घर की दहलीज लांघी तो वह भी धीरे-धीरे मेरे पीछे-पीछे हो लिया।

दादी मेरे आगे-आगे तेज़ कदमों से बाहर खेतों की तरफ जा रही थी। मैंने उन्हें इससे पहले कभी इतनी तीव्र गति से चलते नहीं देखा था क्योंकि वे इतनी भारी और मोटी थीं कि उनसे जल्दी-जल्दी नहीं चला जाता था। वे हमेशा धीमे-धीमे मध्यम चाल से आस-पास के घरों में आया-जाया करती थीं। गाँव से निकलते ही वे क़ब्रिस्तान वाली पगडंडी पर हो लीं। मैं जो दिन के वक्त भी उधर से कम ही निकलता था, आधी रात को घुप्प अंधेरे में निश्चिंत हो कर दादी के एक इशारे पर आगे ही आगे बढ़ता जा रहा था।  मेरा सारा डर शायद दादी की अगवाई के कारण हवा हो गया था। वे अभी भी मुझसे अच्छे-खासे फासले पर थीं। घर से निकलने से लेकर जाटों के खाल वाली पगडंडी पर हमारा यह फासला उसी तरह बरकरार रहा। मैं दौड़ कर भी अपने और दादी के बीच की इस दूरी को कम नहीं कर पा रहा था। फिर पता नहीं इस ख़ामोशी में एक खंगूरे की आवाज़ ने हमारे बीच की इस दूरी को और भी बढ़ा दिया।

 मैंने दूर से अपने हाथों में लालटेन पकड़े एक साये को अडोल अपनी तरफ बढ़ता देखा। ख़ौफ की एक लहर तुरंत मुझ पर हावी हो रही थी। मैं पसीने से तरबतर होता जा रहा था। मैं चीख कर उलटे कदमों से वहाँ से भागने ही वाला था कि उस विशाल साये ने आगे बढ़ कर मुझे अपने आलिंगन में ले लिया। मैं जिस व्यक्ति से डर रहा था, वह हमारे ही मुहल्ले के जाटों का लड़का था। उसके पूछने पर मैं उसे बता रहा था कि मैं आधी रात को अपनी दादी के साथ इधर आया हूँ। वह मेरी उंगली की सीध में देख रहा था, जहाँ अंधेरा ही अंधेरा था, या फिर खाल के पास लंबं-लंबे नीलगिरी और कीकर के पेड़ों के बीच में फैला हमारे गाँव के पासवाला क़ब्रिस्तान नज़र आ रहा था। मुझे यह बात समझ नहीं आ रही थी कि दादी जो कुछ देर पहले मेरी अगवाई कर रही थी, अब वे वहाँ कहीं नहीं थीं। अब वे कहाँ थीं यही तो मुझे समझ नहीं आ रहा था। मुझे उनकी यह चाल बिलकुल अच्छी नहीं लग रही थी। वे पहले भी मेरे आस-पास दूसरों की मौजूदगी होने पर गायब हो जाती रही हैं। वे अपनी मृत्यु के बाद घर में केवल मुझे ही दिखाई दे रही थीं। मै जब भी उनकी मौजूदगी के बारे में किसी को बताता था वे इसे मेरा वहम मान कर टाल देते रहे हैं। मैं उनके इस रवैये से यकीनन नाखुश ही नहीं निराश भी था।

मेरे घर पहुँचने पर बापू जाटों के लड़के का धन्यवाद करते हुए मेरी माँ को डाँट रहा था। वह उसे बेसुध गहरी नींद सोई को जगा कर जो-सो बोल रहा था-

“न... अगर लड़के को कुछ हो जाता तो कौन जिम्मेदार होता? कुतिया बुढ़िया कहीं की..... पता नहीं किस बदकिस्मती से यह मेरे भाग्य में लिखी गई। इतना बेसुध होकर सोती है बेशक छत गिर पड़े, इसकी आँख नहीं खुलती। कमजात औरत।”

बापू बड़बड़ाता हुआ मेरी माँ को लगातार कोसे जा रहा था और माँ मेरे सर के बालों में हाथ फिराते हुए बार-बार मेरा माथा चूम रही थी। 



लेखक परिचय  ( प्रो. एजाज)

जन्म: 25 फरवरी, 1990 लायलपुर के खरड़ियावालां (पाकिस्तान) में। शायरी के तीन संग्रह, दो कहानी संग्रह, तीन लघु उपन्यास प्रकाशित। ऐसे युवा लेखक जो नज्मों और कहानी दोनों विधाओं में पारंगत हैं। 

उनकी रचनाएं पूरबी और पश्चिमी दोनों पंजाबों में पढ़ी और सराही जाती हैं। मसूद खद्दरपोश अवार्ड, महिकां अदबी अवार्ड, राबा बीबी पंजाबी शायरी अवार्ड, बज्म मूला शाह अवार्ड सहित अनेक पुरस्कारों से सम्मानित।  

पंजाबी पत्रिका कुकनुस तथा ऑनलाइन पंजाबी पत्रिका अनहद का संपादन।  

संप्रति - सरकारी डिग्री कॉलेज गुज्जरखान, रावलपिंडी में पंजाबी के प्रोफेसर। 

संपर्क -  ijazali4060@gmail.com

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नीलम शर्मा ‘अंशु’

बंगाल के अलीपुरद्वार जंक्शन में जन्म। हिन्दी से पंजाबी,  बांग्ला से पंजाबी, पंजाबी - बांग्ला से हिन्दी में लगभग 20 साहित्यिक पुस्तकों के अनुवाद। अनेक लेख, साक्षात्कार, अनूदित कहानियां-कविताएं स्थानीय तथा राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। स्वतंत्र लेखन। कविताओं के माध्यम से भी अभिव्यक्ति की कोशिश। 23 वर्षों से 

आकाशवाणी एफ. एम. रेनबो में रेडियो जॉकी।

संप्रति - केंद्रीय सरकार के अंतर्गत दिल्ली में सेवारत।       

सम्पर्क - 9830293585  rjneelamsharma@gmail.com

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कविता


गुफ्तगु

जब जब मन भर आए

तो किस से बतियाएँ हम

खुद से खुद की बात करें

और चुप हो जाएँ हम।

चुप रहने की खल्लिश क्या है

उन्हें कैसे समझाएं हम

वो कभी दिल की दहलीज

तक पहुँचे ही नहीं

उन्हें कैसे पहुँचाए हम ?

माना जिन्दगी का अमल

तमन्नाओं का दफन है।।

वो आएगें अब, वो आएगें तब ।

फकत इस तसल्ली से

कब तक जी बहलांए हम ?

अकेले चलते रहने से

नहीं कटते जीवन के लम्बे रास्ते

काश ! वो हमसफर, हमकदम होते 

बस इसी सोच से

दिल बहलांए हम।।

मोहनी शारदा पूर्व विभागाध्यक्ष

पी. जी. डिर्पाटमैंट (इंगलिश)

कन्या महाविदयालय

जालन्धर।

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कहानी

आशुतोष आशु ‘निःशब्द’, गुलेर, काँगड़ा, हिमाचल प्रदेश, मो. 94180 49070

आश्रय

जैसे काशी के घाट रहते हैं, बौराए से। चहल-पहल से भरे, खचाखच्च। इस भीड़ में से गुजरो तो नथुने घाम की गंध सूंघकर पड़ोसी की पहचान कर लेते हैं। इन तंग गलियों से गुजरते हुए जैसे कंधे से कंधा और गमछे से गमछा टकराकर चलता है, मानो जीवन का मोक्ष यहीं होकर रहेगा। काशी की गलियों में सबके लिए आश्रय उपलब्ध है। घोड़ा, बैल, तांगा, हाथ-गाड़ी सहित ये गलियां पैरों और खुरों को भी माकूल अवकाश मुहैया कराती हैं। 

घर, दुकान, गली या सड़कय कोना-कोना मंदिरों से पटा हुआ। मंदिर की दीवार से सटी मस्जिद। मस्जिद के सामने से गुजरता पंडित तथा उसके मुंह में शिव-शिव, शिव-शिव का जाप! घंटियों का मधुर स्वर, और धूपबत्ती की सुगंध के बीच गोबर से बचते-बचाते लोग। ‘राम-राम’ पांडेय जी ‘राम-राम’ के अभिवादन में घुलते सलामों की नगरी काशी। 

यहाँ हर कोई गुरु है। ‘का हो गुरु, का हो गुरु’ कहते-कहते कौन गुरु घंटाल हो जावे, यह केवल काशी जानती है। यहाँ लोग मरकर जलने से अधिक गंगा के तटबंधों पर दफन होना श्रेयस्कर मानते हैं। राख होकर बहने से बेहतर सशरीर गंगा में बह जाना ही उनका मोक्ष है। और क्यों न हो!

अगणित युगों से गंगा मंत्रपूत हो रही है यहाँ। काशी के घाट सतत मोक्ष के उपाख्यान सुनते आ रहे हैं। दर्शन शास्त्रों की परिचर्चा काशी की अनुपस्थिति में अधूरी है। ये घाट व्यासपीठ हैं। स्वयं-भू शिव साक्षात पीठाध्यक्ष; वही ऋत्विज हैं, वही होता, वही कर्ता - वही धर्ता। 

गतमाह से काशी में अप्रत्याशित भीड़ जमा है। काशी के महाराज के सद्प्रेरणा से अखिल भारतीय शास्त्रार्थ प्रतियोगिता का आयोजन हुआ है। देशभर के शास्त्री, पंडित, विद्वान अपने ज्ञान का लोहा मनवाने हेतु एकत्रित हुए। दिवस भर संभाषण जारी रहता। संधाय संभाषा कभी विग्रह्य में परिवर्तित हो जाए तो शब्दों के महारथी एक-दूसरे को मरने-मारने पर उतारू हो जाते। धर्माध्यक्षों को बीच-बचाव करना पड़ता। प्रत्यक्षदर्शी मौज काट लेते। घाट के समीप स्थित टपरी में काम करता राम सहाय फुर्सत के पहर में जारी इस धींगामुश्ती को देखकर ध्यानमग्न हो जाता। 

प्रतियोगिता अपने चरम पर थी, आज निर्णायक दिन था। सीमांत एवं सुदूर राज्यों से आए हुए राजा भी आज उपस्थित थे। चाय सेकते हुए रामसहाय ने गमछे से माथा पोंछा। सामने गली में मुंह ढाँपे एक शख्स निकला। रामसहाय ने उसे पहचान लिया, और आवाज लगा दी। 

‘बुधिया, अरे ओ बुधिया! मुंह छिपाई के कहाँ जात हो भइया? तनिक राम-राम बुलाई लेते! हम थोड़े तोहार धन छीने खातिर बैठे रहे इहां।’ 

बुधिया ठिठक गया। उसने रामसहाय की ओर देखा, फिर चुपके से टपरी में घुसकर पीछे लगी बांस की बैठक पर छिपकर बैठ गया। 

‘अरे रामू भइया, तोहे का बताई! जहाँ राजा-महाराजा और पंडित लोग एकसाथ जमा हों, उहाँ सूर्यदेव भी आँख खोलकर न देखे हैं। फिर हम जइसन मजदूर लोगन को तो उहाँ भूलकर की भी न जाइ का चाही।’    

बुधिया की बात सुनकर रामसहाय ने आकाश की ओर देखा। ऊपर घनघोर बादल छाए हुए थे। लगा जैसे आज सूर्य सचमुच राहु से ग्रसित है। हो भी क्यों न। ज्ञान का 

द्वंद्व जारी है। और जैसे हालात हैं, जान पड़ता है कि आज युद्ध होकर रहेगा। बुधिया के आकलन से रामसहाय दंग रह गया था। 

‘अच्छा! अइसन भी क्या। ई लोग कहाँ तोहे शास्त्रार्थ करे के लिए पकड़ ले जावेंगे, तू क्यों घबराता है रे? ले चाय पी।’ रामसहाय ने चाय का गिलास बुधिया को थमाते हुए कहा। 

‘अरे भइया, शास्त्रार्थ के लिए ले जावें तो हम थोड़े ही कम हैं। रंदे का शास्तर हम भी जानत हैं। मगर दिमागी भजिया तले से बेहतर आदमी हाथ-पैर चला लेवे। हम तो नजर मा आने से बच रहे कि इनमा से जाने कौन अक्ल की भैंस पालकी उठाए का हुकुम देई दे।’ बुधिया पते की बात बोल गया। 

‘अच्छा! तो जे बात है रे बुधिया। तभी लुकते छिपाते घूम रहे हो। इत्ती समझदारी की बात किए हो, तनिक ये भी बताई देयो कि आज शास्त्रार्थ में किसकी हार होई है? सुना है एक सारस्वतिया है तो दूसरा गौड़। केकर पलड़ा भारी पड़िल बुधिया?’ 

बुधिया की बातों में सच का रस होता है। वही सुनने खातिर रामसहाय ने उसे कुरेदा। प्रश्न सुनकर बुधिया सोच में डूब गया। फिर गहरी साँस छोड़ते हुए बोला। 

‘रामू भैय्या, तुम भी हमरे मजे लेत हो। बातन की प्रतियोगिता में कभौ कोई हारा है क्या? इहाँ तो सबकी जीत ही जीत है। हार तो केवल हमरे नसीब मा लिखी रही। 

इन्दर जल न बरसावे तो हमरी हार, राजा का हुकुम न बजावें तो भी हमरी हार। ई बातन के वीर का जानें कि हार का होई है।’      

‘राम भली करें, ऐसा भी कभी होत है का? दो लोग भिड़ंगे, और दोनों ही जीतंगे!’ रामसहाय ने फिर चिकोटी काटी। 

‘कौ गुरु! इहाँ कौन कुश्ती होरी? ई तो धींगामुश्ती है - बातन की रस्साकश्शी, जैसे तुम करत रहे अभी। 

जो पहिला आई, वो बड़न से राजा के इहाँ वेतनभोगी हो जाई। और दूसरा, ऊह छोटन राजा के मंत्री भइल। तभी न कहा, बातन की प्रतियोगिता में कभौ कोई हारा है क्या?’ कंधे पर रखे गमछे से मुंह पोंछते हुए बुधिया ने अपनी बात समाप्त की। कुर्ते की ऊपरी जेब में हाथ डालकर सिक्का निकाला, रामसहाय को थमाया, मुंह गमछे से ढका और ‘सब खाली भरम है’ कहते हुए टपरी से बाहर निकल गया।            

काशी से बहुत दूर, देवगढ़ में आज...   

“माँ चलो। यहाँ से चलने का समय हो गया।” 

गंगाधर ने माँ के करीब आकर उसके कान में कहा। यह सुनकर रोशनी देवी की आँखों से पानी का सैलाब बह फूटा। अब ये आँखें केवल पानी ही बहाने वाली थीं। 

ईश्वर कितना निष्ठुर हो जाता है कभी-कभी! जिसे देता है, वहाँ छप्पर फाड़ कर खुशियाँ बरसाता है। मगर जब छीनने पर आता है तो सर पर छत भी नहीं रहने देता। रोशनी सोच रही थी, ‘खुशी हो या गम, दोनों ही स्थितियों में नुक्सान छप्पर का ही तय है।’ 

बड़े चाव से ब्याह कर लाई गई थी रोशनी इस घर में। लोग कहते थे कि अंबा शास्त्री की बहू साक्षात लक्ष्मी है। बेटे ब्रह्मदत्त के साथ रोशनी की जोड़ी जैसे राम-सीता का संगम। रोशनी भी ब्रह्मदत्त को पाकर फूले न समाती। वैसे रोशनी ने सचमुच अद्भुत भाग्य पाया था। देवतुल्य पिता मिले। जहाँ समाज में बेटी पैदा होना अभिशाप था, वहीं पिता ने केवल एक बेटी में सर्वस्व प्राप्त कर लिया। बड़े चाव से रोशनी नाम रखा कि जहाँ जाए, घर खुशियों से रोशन कर दे। समाज से लोहा लेकर बिटिया को पढ़ाया। पूरी पांच जमात पढ़ी थी रोशनी। और अब देखो तो, कैसे ऊँचे खानदान में ब्याही है! 

समाज में अंबा शास्त्री का खासा रसूख था। वेद-वेदांग, व्याकरण, ज्योतिष एवं दर्शन शास्त्र में पारंगत अंबा के सामने राजा-महाराजा भी शीश नवाते थे। देवगढ़ एक शक्तिशाली तथा संपन्न रियासत थी। शास्त्री अंबालाल उसी रियासत के प्रधान आचार्य एवं महामंत्री नियुक्त थे। कहते हैं बड़े महाराज, राजा मानसिंह स्वयं लिवा लाए थे उन्हें काशी से। अंबा की विद्वता से प्रभावित महाराज ने पालकी एवं छत्र का सम्मान उनकी सेवा में समर्पित किया था। रोशनी ने देखा था, जब श्वसुर-सा दरबार की ओर निकलते थे, कैसा उत्सव सा माहौल बन जाता था। मगर पिता सेर तो बेटा सवासेर। 

ब्रह्मदत्त पिता से अधिक गुणी नहीं तो कुछ कम भी नहीं था। वेद, व्याकरण, ज्योतिष, दर्शन, विज्ञान, पुरातत्व, इतिहास के अतिरिक्त उसे अनेक भाषाओं में महारत हासिल थी। फ्रेंच तथा जर्मन का विशेष अभ्यास किया था। बेशक ब्रह्मदत्त वैदिक धर्म का प्रबल ध्वजवाहक था, मगर उसके विचार दकियानूसी सोच से कोसों दूर थे। प्रगतिशील 

आधुनिक विज्ञान का पैरोकार, नीर-क्षीर विवेकी, शांत, गंभीर, निरभ्र, स्वछंद - ब्रह्मदत्त। पिता के महाप्रयाण पश्चात उनकी बौद्धिक संपदा का सच्चा उत्तराधिकारी। 

मगर आज ये सब क्या हो गया? रो-रोकर अधेड़ रोशनी ने रिस्ते घावों को आंसुओं से इतना धोया कि आँखों का सारा तेज धूमिल हो गया। एक बार फिर उसके कानों में आवाज गूंजी।   

“चलो माँ, पहले ही बहुत देर हो चुकी है।” गंगा ने माँ को हाथ का सहारा दिया और दोनों एक नई यात्रा पर निकल पड़े।          

काशी में, बहुत साल पहले...

गंगा के घाट पर जो बादलों का जमघट उमड़ा था, उसे देखकर लगता था कि आज कयामत बरसेगी। इससे पहले कि देर हो, रामसहाय ने समय रहते दुकान बढ़ाने की सोची। पानी बरसा तो घर पहुंचना कठिन हो जाएगा, इसी उधेड़बुन में वो सामान समेटने लगा। तभी एक जोरदार गड़गड़ाहट से धरती कंपकंपा गई और आसमान चुंधिया गया। सब कुछ स्तब्ध रह गया, ऐसा लगा जैसे तड़ित ने किसी की आत्मा विदीर्ण कर दी हो। इसी बीच घाट पर ढोल, ताशों और नगाड़ों ने आसमान सिर पर उठा लिया। प्रतियोगिता समाप्त हो चुकी थी। इंद्र ने जल बरसाकर मानो विजेता का अभिषेक करना तय किया था। साधो-साधो के स्वर से कंपित गंगा बारिश की बूंदों से अठखेलियां करने लगी। इधर सभा प्रांगण पुष्प वर्षा से ढक गया। रामसहाय स्तब्ध खड़ा बुधिया को याद कर रहा था - ‘बातन की प्रतियोगिता में कभौ कोई हारा है क्या?’ 

तभी सभा प्रांगण से एक पालकी बाहर आई। आगे छड़ीबरदार चल रहे थे। पीछे ध्वजवाहक और दोनों ओर चंवर धारियों के आसपास भीड़ का जमावड़ा। पालकी के उत्तर स्थान पर देवगढ़ के महाराजाधिराज मानसिंह स्वयं उपस्थित थे। पांडित्य की प्रतिमूर्ति - विजेता का गुरुभार राजा ने अपने कंधों पर उठा रखा था। नेपथ्य में अंबालाल का जयघोष गूँजा। रामसहाय ने देखा, अंबा के चेहरे पर विजयोन्माद के स्थान पर असीम शांति का पहरा था। वो सोचने लगा - ‘विद्वता का भी एक अपना वैभव है। ज्ञान स्तंभों पर स्थित बुद्धि के समक्ष ऐश्वर्य की मूर्तियाँ भी शीश नवा रही हैं। और एक हम हैं। दिन भर कोल्हू के बैल की तरह पिसते हैं, मगर मजाल कि माशा भर इज्जत भी नसीब हो जाए! 

अब इस पानी ने भी सब तबाह कर दिया। पहर दो पहर रुक के बरसता तो दिहाड़ी पल्ले पड़ जाती। मगर नहीं। कल तक तो ये सामान फेंकने लायक हो जाएगा। बुधिया सच ही कहता था - ‘ये बातन के वीर क्या जानें हार का होइ है’?’ 

रामसहाय ने कंधे पर से गमछा उतारा। उसे खोलकर सिर पर छत्र की तरह फैलाया। और दुकान बढ़ाकर घर की ओर दौड़ लगा दी। 

बारिश की निर्मम बूंदों ने गरीब के गमछे की एक न सुनी। 

काशी में...

अंबा शास्त्री ने प्रतियोगिता में सचमुच अद्भुत प्रतिभा का परिचय दिया था। दर्शन शास्त्रों की तहों में छिपे गूढ़ अर्थ की ऐसी वैज्ञानिक विवेचना कि सुनने वाले दंग रह गए। जिन शास्त्रों को लोग मात्र धर्म ग्रंथ मान रहे थे, अंबा ने उन्हीं सूत्रों में भौतिकी का विमर्श खोज लिया था। व्याकरण की दमदार आधारशिला पर सूत्रों को रखकर उनकी संधियों का ऐसा विच्छेदन किया कि धागों में बंधे शब्दों की गिरहें टूट कर बिखर गईं। उन टूटे मनकों पर जब अंबा के ज्ञान की रोशनी पड़ती तो विमर्श के अनेक रंग एक साथ प्रतिवर्तित होते, और प्रज्ञा का इंद्रधनुष निर्मित हो जाता। ज्योतिषीय गणनाओं की ऐसी सटीक परिभाषा तथा ज्यामितीय नियमों पर आधारित ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति का अचूक आकलन - अंबा सचमुच अजेय था। राजा मानसिंह ने सम्मानपूर्वक केवल उनकी पालकी को ही कंधा नहीं दिया था, वरन देवगढ़ दरबार के महामंत्री पद पर अंबा की नियुक्ति भी हो चुकी थी। महाराज ने जागीर देने की उद्घोषणा भी की थी। मगर जाने क्या सोच कर अंबा ने सहर्ष अस्वीकार कर दिया! 

चातक जैसे जेठ की दोपहर में अंबर की ओर टकटकी लगाए एक बूँद पानी की तलाश में हो और तमाम 

विरोधाभासों के बावजूद एक बदली किसी अनहोनी की तरह बरस जाए तो उस क्षण जैसी मनोस्थिति चातक की होगी वैसा ही हाल अंबा का हो रखा था। वर्तमान जैसा दिखाई देता है, या फिर जैसा बुधिया ने मान लिया था, इतिहास भी उतना ही सुखद हो यह जरूरी नहीं। 

अंबा ने बेहद कठिन परिस्थितियाँ गुजारी थीं। घर का बड़ा बेटा होने के कारण उसके कंधों पर जिम्मेदारियों का बोझ भी भारी था। पिता का असमय देहांत और कुछ कर गुजरने की महत्वकाँक्षा - स्थितियाँ और भी विकट हो गईं। मगर अंबा ने हार नहीं मानी। माँ-भाइयों का साथ मिला, अंबा जी पर पत्थर रखकर काशी चला आया। पीछे जीवन-यापन की व्यवस्था छोटे भाइयों के हाथ थी। यह भी एक मलाल था अंबा के हृदय में। उनका अपना गुजारा मुश्किल से हो पा रहा था, और इधर अंबा के हाल उनसे भी बदतर थे। भीख मांगकर जो कुछ मिलता, उसे गुरु को अर्पित करके मुश्किल से जीने योग्य भोजन नसीब हो पाता। ज्ञानार्जन हेतु मृत्युतुल्य कष्ट झेले थे अंबा ने। 

क्षणिक विजय के नेपथ्य में निहित जीतोड़ परिश्रम को देखपाने में बुधिया अक्षम था... 

समस्त औपचारिकताओं के अंत में देर रात अंबा की पालकी काशी स्थित उसके निवास पर उतरी। उसकी विजय का समाचार घर पहुँच चुका था, यहाँ भी उत्सव सा माहौल था। द्वार पर तिलक लगाकर पत्नी ने अंबा की आरती उतारी। घर के भीतर कदम धरते ही अंबा के नेत्र माँ रामदेई को खोजने लगे। कुछ रोज पहले ही मंझले भाई सहित माँ काशी पधारी थी। अंबा को आभास था कि माँ कहाँ मिलेगी। वो सीधा पूजाघर की ओर बढ़ा। 

सफेद साड़ी में लिपटी, कृशकाय, अंबा की माँ, हाथ में तुलसी की माला लिए जप में लीन थी। अंबा ने द्वार पर से ही माँ को साष्टांग प्रणाम समर्पित किया। उसके आचरण में यह बचपन से ही निषेचित था। रामदेई के कठिन परिश्रम से सुघटित अंबा की सुदीर्घ काया फलों से लदी टहनी के समान विनत, माँ के चरणों में लोट रही थी। गौरवान्वित हृदय, मगर समय के थपेड़ों से चोटिल प्रतिक्रियाविहीन चेहरा, माँ समावस्था धारण किए रही। यंत्रवत चालित बाएँ हाथ ने अंबा के बालों को सहलाया। अँगुलियों के पोरों ने पुत्र का मस्तक चूम लिया। अंबा के नेत्रों से अश्रुओं की ऐसी धार फूटी कि चिरकालिक श्रम की जेठ में झुलस कर सूख चुके माँ के पाँव सिंचित हो गए। रामदेई ने पीठ थपथपा कर धीरज धरने का संकेत दिया। अंबा संभलकर सामने मंदिर में विराजमान महादेव शिव को नमस्कार करते हुए उठ बैठा। 

‘तेरी तपस्या सफल हुई माँ। त्याग, संघर्ष, पीड़ा तथा वंचनाओं के दंश से झुलसे जीवन को छांव प्रदान करने का प्रयास आज सफल होता जान पड़ा।’

माँ के नेत्र शिव पर तथा कान पुत्र की बातों पर टिके रहे। अंबा का प्रत्येक शब्द जल तुषारों के समान उसके दीर्घकालिक संताप का हरण कर रहा था। 

‘माँ, क्या तू जानती है? तेरे पुत्र को देवगढ़ का 

प्रधान आचार्य तथा महामंत्री नियुक्त किया गया है। महाराज मानसिंह ने तेरे पुत्र की पालकी को कंधा दिया आज! मुझे राजाश्रय प्राप्त हुआ है माँ।’ 

यह सुनते ही रामदेई एक पल के लिए ठिठक गई। फिर पुत्र की ओर देखते हुए पूछा। 

“राजाश्रय तो ठीक है अंबा, मगर कमाई-धमाई के बारे में भी कुछ सोचा है क्या?” 

अंबा हंस दिया। उसने सोचा माँ कितनी मासूम है, राजाश्रय का अर्थ भी नहीं जानती। मगर अम्मा इतनी भी नासमझ नहीं। रामदेई ने अंबा की आँखों में गहरे झाँका। 

“सुनो बेटा। यह शब्द ‘आश्रय’ बड़ा सौदाई है। हवा के शीतल झोंके की तरह जीवन में आता है। मगर जब जाता है, तो सर से छत भी उड़ा ले जाता है। और छोड़ देता है, आजीवन पीड़ा की जेठ में झुलसने के लिए। मैं तुम्हारे पिता पर आश्रित थी। इसलिए आश्रय का आशय बखूबी जानती हूँ। बाकी तुम समझदार हो।” अम्मा ने पुनः आँखें बंद कर लीं। 

उस दिन के बाद अंबा राजकार्यों में ऐसा उलझा कि दोबारा माँ की बातें सुनने का अवकाश ही नहीं मिला। मगर अम्माँ की बात समय की दीवार पर अंकित हो चुकी थी। 

देवगढ़ से निकलते हुए आज... 

रेलगाड़ी में बैठी रोशनी समय के हिचकोले खाकर भी दृढ़तापूर्वक स्थिर रहने का भरसक प्रयास कर रही थी। बगल में बैठे गंगा का चेहरा बदहवास था। सामने गंगा का चाचा बैठा था। पंद्रह रोज पहले ब्रह्मदत्त का निधन हो गया। ताउम्र रूढ़ियों से लड़ते रहने वाला ब्रह्मा रूढ़ियों की भेंट चढ़ गया। रेल की खिड़की से टेक लगाए रोशनी कहीं भूतकाल में खोई हुई थी। वर्तमान एक एक करके पीछे छूट रहा था। भरी जवानी में पति चला गया। जीवन की एकमात्र छत समय के झंझावात में बरल सहित उड़ गई। गोद में सिर टिकाए अपने किशोर बालक को स्पर्श करके वो दिल को दिलासा देने लगती। उसका सारा संसार ब्रह्मदत्त पर आश्रित था। और ब्रह्मदत्त देवगढ़ पर आश्रित थे। ख्याति ब्रह्मा ने पिता से बढ़कर अर्जित की, मगर उसूलों एवं व्यवहार के पक्के ब्रह्मा ने राजसेवा से बाहर कभी कदम नहीं रखा। रोशनी ने सब देखा था। 

सिर पर आन पड़ी इस आपदा की चोट से आहत हृदय की वेदना जैसे ही अश्रु बनकर उसके नेत्रपक्ष्मों पर ढुलकती, अश्रुओं के कांच में समय के बीते हुए अनगिनत पल परावर्तित होकर जीवन का नाटक खेलने लग जाते। 

देश पर बर्तानियों की पकड़ मजबूत हो चुकी थी। राजे-रजवाड़ों में अंतर्कलह रोज की बात थी। क्षेत्रीय जमींदारों ने अंग्रेजों के साथ मिलकर रियासतों की नाक में दम कर दिया। राजा जागीर संभालें या देश को सहारा दें; असमंजस की बीतती घड़ियों में समय का पहिया तेजी से घूम गया। और इस घुमाव में रियासतों का वर्तमान पिस कर चूरा हो गया। बर्तानवी दमन से देवगढ़ अछूता कैसे रह सकता था। 

राजा मानसिंह बूढ़े हो चुके थे। कुलदीपक पाने की इच्छा पूरी होते-होते सारी जवानी बीत गई। सीमाओं पर अतिक्रमण रोकते-रोकते पूरा शरीर टूट गया। मगर वे राज्य को बिखरने से नहीं बचा पाए। रियासत सिमटी, कर संग्रह सिमट गया। रत्न भंडार खाली हुए, अंतर्कलह बढ़ी। राजाओं की जमीन खिसक रही हो तो उसका असर राजाश्रितों पर पड़ना लाजमी है। ब्रह्मदत्त के यहाँ भी आमद कम हो चुकी थी। 

रोशनी के लिए पैसा-लत्ता महत्वहीन था, मगर लगातार बिगड़ते हालात देखकर कभी-कभार चिंता हो जाया करती थी। व्यस्त दिनचर्या के बीच उन्हें भी कहाँ फुर्सत थी कि चार पल बैठ कर रोशनी से बतिया लें। दरबारी हिसाब-किताब के साथ दिनभर की बैठकों के अतिरिक्त राजकुंवर की शिक्षा-दीक्षा का कार्यभार भी ब्रह्मा के कंधों पर था। देश की बदलती परिस्थितियों के बीच पनपे अंतर्द्वंद्व भी उसे साल रहे थे। अब तो रोशनी और ब्रह्मदत्त केवल आँखों से ही बतियाते थे। सुखमय जीवन का सुनेहला स्वप्न भी अब टूट गया। रोशनी की आँखों से आसुओं का कांच ढुलक कर गालों पर बिखर गया। वो वर्तमान में लौटी। 

सामने देवर बैठा है। संयुक्त परिवार न होता तो पति गुजर जाने के बाद उसकी स्थिति क्या होती, यह सोचकर ही रोशनी के तन-बदन में सिहरन दौड़ गयी। 

बड़े भाई का स्वास्थ्य बिगड़ने की सूचना मिलते ही कैसे छोटे भाइयों का खून दौड़ पड़ा! गत एक माह में छोटे ने अग्रज की सेवा-टहल में कोई कमी नहीं रहने दी। नैनीताल के छोटे से गाँव को छोड़कर देवगढ़ पहुँचना ही टेढ़ी खीर थी। मगर बदलते परिवेश में रिश्तों ने अभी करवट बदलना नहीं सीखा; रोशनी के चेहरे पर संतोष उपज आया। मगर अब आगे क्या होगा?

बदलती परिस्थितियों में शिक्षा भी आधुनिक जामा ओढ़ने लगी है। गंगा देवगढ़ के बड़े स्कूल में पढ़ रहा था। मगर अब! मेट्रिक तक की शिक्षा का जिम्मा चाचा ने उठा तो लिया, मगर रोशनी का अंतर्द्वंद्व थमा नहीं था - ‘यह आश्रय बड़ा सौदाई है। जब जाता है तो सर पर से छत भी उड़ा ले जाता है।’ 

लड़कपन में पिता का साया उठ जाने के बाद गंगाधर को संभाले रखने का रास्ता उस अँधेरी सुरंग के सफर की तरह था जिसे हर हाल में रोशनी को तय करना ही होगा।      

गंगा....

ब्रह्मदत्त के असमय देहांत ने गंगा से उसकी आत्मा छीन ली। बचपन से प्रतिभाशाली गंगा पिता के मार्गदर्शन में आगे बढ़ते हुए एक सुखद भविष्य का सन्देश सुना रहा था। कान्वेंट का छात्र होने के नाते उसने बचपन में ही अंग्रेजी विषय पर महारत हासिल कर ली थी। साहित्यिक विरासत का बहुतांश भी गंगा ने अनुवांशिकता में प्राप्त किया था। उसे पनपने के लिए पिता भी गंगा को माकूल अवकाश प्रदान कर रहे थे। साहित्यिक यात्राओं के दौरान फुर्सत के क्षणों में पिता के साथ बतियाना, बातों ही बातों में अनुभवजन्य ज्ञान को पिता द्वारा गंगा को हस्तांतरित कर देना - गंगा की शिक्षा का यह अभिन्न अंग था। चाचा उसे माँ के साथ नैनीताल लिवा तो लाए थे, मगर यहाँ केवल गंगा का शरीर ही पहुँचा था। क्योंकि उसके अनगिनत सपने तो पिता के साथ ही विदा हो लिए थे। 

चाचा ने पास ही के सनातन विद्यामंदिर में उसका दाखिला करा दिया। मगर गंगा का मन पढ़ाई से उचट चुका था। पिता के बिछोह ने गंगा के जीवन की दिशा ही बदल दी थी। नदी का अनुशासित बहाव सामान्य अवस्था में जैसे जीवन को प्रगति प्रदान करता है, पिता की उपस्थिति बालक के जीवन में उसी अनुशासन का प्रतीक होती है। मगर बादल फटने पर नदी जैसे अनुशासनविहीन होकर अपने ही मार्ग को ध्वस्त करके विद्रूप हो जाती है, पितृघट टूटने के बाद गंगा की स्थिति भी वैसी ही थी। 

रोशनी को गंगा की पीड़ा का एहसास था। बेटे को हाथ से निकलता देख उसने दिल पर पत्थर रखकर गंगा को बेटी के यहाँ भेजना तय किया। बहन की ससुराल में लोकलाज के डर से गंगा अनुशासित रहने का प्रयास अवश्य करेगा, इसी व्याज पर रोशनी ने गंगा के बिछोह का सौदा किया था। गंगा ने भी निराश नहीं किया। 

समाज के तानों को सुनकर भी भविष्य का बाना बुनने में जुट गया गंगा। जैसे-तैसे इंटर के बाद कला संकाय में ग्रेजुएशन करने के लिए गंगा बहन के यहाँ अमृतसर में डटा रहा। 

अमृतसर की गलियां उसे रास नहीं आतीं। देवगढ़ जैसे वैभव के सामने संकरी गलियों में बेतरतीब बसी भीड़ से पटा यह शहर उसकी आत्मा को कचोटता था। बहन बचपन से कमजोर थी। स्वास्थ्य भी उसका साथ नहीं देता था। अतः उसकी सेवा-टहल ही गंगा का मेहनताना था। दोनों के बीच प्रेम भी बहुत था, इसलिए बहन की सूरत देखकर ही गंगा का वक्त कटने लगा। मगर उसकी लगातार बिगड़ती सेहत के सामने गंगा की एक न चली। दुर्योगवश समय ने बहन को भी लील लिया। 

जिस आश्रय के सहारे गंगा बिखरते जीवन की कड़ियाँ संभालने माँ को छोड़कर अमृतसर आया था, वो विकल्प भी अब जाता रहा। यह आश्रय बड़ा सौदाई है। मगर गंगा का निश्चय दृढ़ था। उसने छात्रावास लेकर पढ़ाई पूरी करने का निर्णय किया। 

जैसे-तैसे गंगा गुजारा चला रहा था। फुटकर कामों के सहारे जीवन की नैया पार लगाने में ही अधिकाँश समय बीत गया। मगर फीस देने भर का जुगाड़ भी कम पड़ जाता। पढ़ाई के लिए अवकाश ही कहाँ था। पिता का हाथ पकड़कर जीवन की कठिन पगडंडियाँ लांघने के अनेक परिदृश्य उसकी आँखों के सामने तैर जाते। 

बी.ए. प्रथम वर्ष की परीक्षा के बाद गंगा माँ के पास नैनीताल लौट आया। इधर माँ का स्वास्थ्य भी लगातार गिरने लगा था। उधर गंगा ने परीक्षा तो उत्तीर्ण कर ली, मगर जीवनयापन का इम्तिहान कहीं अधिक कठिन गुजरा। अंततः गंगा विद्योपार्जन की जंग हार गया। माँ की सेहत को देखते हुए वापिस अमृतसर जाना उचित नहीं जान पड़ा था गंगा को।    

गाँव में कुछ पुश्तैनी जमीन थी। माँ ने कान का बुंदा दिया और बैलों की एक जोड़ी आ गई। खेती बाड़ी करके जिंदगी बसर होने लगी। माँ की एक ही रट थी - ‘बेटा ब्याह कर ले। एक बार तेरा बसता घर देख लूँ तो चैन से मर सकूंगी।’ गंगा विचारता कि जिनका अपने रहने का ठिकाना नहीं, वहाँ एक जान और लाकर उसके जीवन में भी वंचनाएँ परोस देने का क्या औचित्य! मगर माँ के सामने उसकी एक न चली। गंगा का ब्याह हो गया। 

गंगा की पत्नी सुलक्षणा, रूप, गुण तथा संस्कारों से भी सुलक्षणा थी। गंगा अक्सर सोच कर बेचैन हो उठता कि नाहक भोली जान को अपनी बदकिस्मती में सहचरी बना लिया। किसी और के साथ ब्याही होती तो ठाठ से रानी बनकर रहती। एक रोज गंगा ने पूछा था उसे - ‘मेरी बदहाली को पाकर क्या तुम्हें दुःख नहीं होता?’ 

सुलक्षणा ने कहा था - ‘रिश्ते तो निभाने के लिए ही जोड़े जाते हैं। मेरे पिता ने मेरे लिए जो चुना वही सबसे भला है। सुख का साथ तो सभी देते हैं, मगर दुःखों से लोहा लेकर समय का मुंह मोड़ देने का सौभाग्य किसी विरले को ही प्राप्त होता है। मैं आपके संघर्ष की सच्चाई बखूबी जानती हूँ। मुझे कोई दुःख नहीं जान पड़ता।’ 

सुलक्षणा के इस एक वाक्य ने गंगा का नजरिया परिवर्तित कर दिया। उसके जीवन में जुझारूता की बहार लौट आई थी। मगर इस जेठ में रोशनी के जीवन का सूरज भी डूब गया। वो पोते-पोतियों का मुंह तो न देख पाई, मगर सुलक्षणा जैसी बहू पाकर मरते समय वो बेहद संतुष्ट थी। 

गंगा की पढ़ाई बेशक अधूरी रही, मगर बौद्धिकता की पारिवारिक धरोहर के बूते उसे पास ही के महाविद्यालय में हिंदी पढ़ाने की पार्ट टाइम नौकरी मिल गई। पत्र-पत्रिकाओं के लिए लेख लिखकर भी कुछ कमाई होने लगी। कोर्ट-कचहरी के मामलों में गाँव के बड़े-बूढ़े उससे राय लेने लगे। धीरे-धीरे गंगा ने खोए हुए आत्मविश्वास के साथ-साथ लोगों का विश्वास भी जीत लिया। समय के साथ उसे सर्वसम्मति से गाँव का प्रधान चुन लिया गया। अब सारा गाँव उसे कोट वाले मास्टर जी के नाम से बुलाता था। गंगा ने अपना सर्वस्व जनसेवा में समर्पित कर दिया। 

यह गंगा की सेवा थी या फिर जूनून, उसने जैसे अपना आप ही भुला दिया। पैसा तो ज्यादा नहीं था, मगर उसके दर जो आया, कभी खाली हाथ न लौटा। गंगा समय से पहले बूढ़ा हो चुका था। वो टूटते शरीर का दर्द जानता था, मगर अंतस में कुछ था जो उसे रुकने न देता...       

घुप्प अँधेरा... काली आधी रात के रास्ते में ताक पर रखा दीया खड़ा है। गंगा लंबी गहरी सांस खींचता, दीपक की लौ स्थिर हो जातीय मगर जैसे ही श्वास बाहर छूटता... ज्योति फड़फड़ाने लगती। आज की रात यह तूफान क्या कहर बरपाएगा, केवल ईश्वर ही जानता था।  

गंगा की आँखों के सामने उसका पूरा जीवन घूम गया। गत माह से उसकी सेहत लगातार गिरती जा रही थी। पहले-पहल डाक्टरों ने मियादी बुखार बताया। इलाज कराने पर भी बुखार टूट नहीं रहा था। दवाओं पर खर्च भी बेतहाशा हुआ। गंगा ने इतने सालों में इज्जत बेशक कमा ली थी, मगर पैसे-लत्ते के हालात बदस्तूर तंगहाली में रहे। जो कुछ जमा पूंजी थी वो बालक की पढ़ाई और परवरिश में खर्च हो रही थी। ऐसे में बीमारी पर इतना खर्चा करके वो परिवार को फटेहाल छोड़कर नहीं जाना चाहता था। 

सुलक्षणा पति की मानसिकता जान रही थी। वो जान रही थी कि गंगा धीरे-धीरे जीने की आस छोड़े जा रहे हैं। गाँधी के विचारों तथा उनकी जीवनशैली का गंगा ने गहन अध्ययन किया था। इसलिए कहना कि उसने जीने की चाह छोड़ दी थी, सही नहीं था। डाक्टरी इलाज से बुखार टूटता न देख गंगा ने प्राकृतिक चिकित्सा की राह पकड़ी। उपवास से उसे आंशिक लाभ भी हुआ। ज्वर वेग में भी कमी आई। ऐसा लगने लगा कि गंगा अब कुछ ही रोज में भला चंगा हो जाएगा। मगर रोग ने एक बार फिर करवट ली। अबके गंगा का चलना-फिरना भी दूभर हो गया। 

दीये की लौ एक बार फिर अस्थिर होकर फड़फड़ाने लगी। इस बार वात का जोर ज्यादा था। एकबारगी तो लगा दीया बुझ ही जाएगा। आँखें अचानक खोल से बाहर निकलीं, मुंह खुला और जीभ लपक कर बाहर आ गई। फेफड़ों ने जोर का दम खींचा। हवा का एक झोंका भीतर अनंत में समा गया। लौ फड़फड़ाकर पुनः स्थिर हो गई। आँखें भी खोल में समाकर, उन पर पलकों का पहरा बैठ गया। वृत्तचित्र फिर घूमा। 

‘सुलक्षणा आई है। कहती है - “सुनो जी, आपके पितामह का देवगढ़ में बड़ा प्रताप था। मैंने माँ जी से सुना था कि पिताजी ने भी दरबार में बड़ा सम्मान पाया। उनके पुण्य को याद करके यदि वहीं चलकर कुछ दवा-उपचार की व्यवस्था हो सके तो...”।’

बड़ी भोली है सुलक्षणा, गंगा सोच रहा है। देश आजाद होने के साथ ही राजे-रजवाड़े भी खत्म हो गए। बीसवीं सदी की भोर में जो खुद तनख्वाही हो गए थे, आगे उनके तनख्वाहियों के क्या हालात हुए, शायद ये सब सुलक्षणा नहीं जानती। या फिर मृत्युशैय्या पर दर्द से जूझते पति की यह अवस्था देखकर उसके मन को बड़ा आघात लगा है। इसलिए ऐसी बहकी बातें करने लगी है। व्यथित गंगा ने बिना कोई जवाब दिए ऑंखें मूँद लीं थीं। 

सुलक्षणा गंगा का जिद्दी स्वभाव जानती थी, पल्लू को मुंह में दबाए, पलकों को पोंछते हुए कमरे से बाहर जाने के अतिरिक्त कोई चारा शेष नहीं था। 

‘आज सुबह प्रोफेसर श्यामा प्रसाद आए थे। उन्होंने दिल्ली में बात कर रखी थी। मित्र मिल-जुल कर खर्च उठा लेंगे, ऐसी सहमति भी बन गई। मगर गंगा को कौन मनाए? उसने तो दो टूक जवाब दे मारा था उनके मुँह पर। वे समझ नहीं पाए थे कि सदा हँसमुख गंगा ऐसा निष्ठुर क्यों हो गया है!’

दीये की लौ अचानक भड़भड़ा उठी। दरवाजा खुला, गंगा का किशोर बेटा, ‘काशी’ भीतर आया। आधी से ज्यादा रात बीत चुकी। काशी ने ताक में रखी तेल की बोतल को उठाया। बेहद संभालकर, जोत को बिना डुलाए, उसने दीये को तेल से लबालब भर दिया। भभकती हुई लौ पुनः मद्धम होकर स्थिर हो गयी। मानो जीर्ण पड़ती जोत को कुछ और पहर के लिए तरुणाई नसीब हुई। 

काशी ने पलंग की ओर देखा। कमरा सांसों के शोर से भरा हुआ। आँखें बंद, मगर पेट की हलचल ने बयान किया कि पिता बमुश्किल सोए हैं। काशी चुपचाप दबे पाँव कमरे से बाहर चला गया। लड़कपन में भी गजब की समझदारी है, गंगा के मन से आशीर्वाद की मौन सीर फूट पड़ी। 

‘प्रोफेसर श्यामा सब जानते हैं, मगर मानते नहीं। यह ‘आश्रय’ बड़ा सौदाई है। आता तो हवा के शीतल झोंके की तरह है, मगर जब जाता है तो सबकुछ उड़ा ले जाता है। 

गंगा आज चला भी गया तो कोई गम नहीं, मगर सुलक्षणा और काशी के सर पर से वो छत उड़ने नहीं देगा। गंगा की यही भीष्मप्रतिज्ञा है। जो कुछ गंगा ने सहा, वो सब काशी न सहे, गंगा की यही चाहत है। अपने इलाज की एवज में गंगा पत्नी और बेटे को किसी का कर्जदार न होने देगा, यही गंगा का अंतिम प्रण है।’ गंगा ने हौले से नेत्र बंद कर लिए। दीया मद्धम लौ में ताक को प्रकाशित करता रहा। 

बड़ी मिन्नतों के बाद प्रोफेसर श्यामा ने गंगा को विजयनगर के गाँधी सेवाश्रम में चलकर इलाज कराने के लिए मना लिया था। सुबह चलने की तैयारियाँ श्यामा स्वयं देख रहे थे। 

प्रातः की पहली किरण के साथ सुलक्षणा कमरे में आई। उसने बाईं करवट के बल लेटे गंगा की ओर देखा। बाएं हाथ को कोहनी से मोड़कर उसे सिरहाना बनाकर गंगा बेसुध पड़ा था। 

दीये की लौ अंतिम साँसे गिन रही थी। सुलक्षणा ने ताक में रखी चिमटी उठाई। गंगा ने प्रयासपूर्वक नेत्र खोले। उसकी आँखों में ढलते सूरज की छटा प्रतिबिंबित हो रही थी। सुलक्षणा का दिल धक्क से बैठ गया। दिल पर पत्थर रखकर उसने चेहरे पर मुस्कान का पहरा बिठाया। गंगा ने भी ऊर्जा संग्रहित करके होठों पर हरकत पैदा की। इस प्रयास में उसका पूरा शरीर धनुष हो गया। 

सुलक्षणा ने दीये की ओर देखा। फिर चिमटी की मदद से बाती को जोत से अलग कर दिया। 

एक ही झटके में गंगा का पूरा शरीर सीधा। मुंह खुला। और हवा का एक जोरदार झोंका उसके गले में प्रवेश कर गया। अचानक हुई इस हरकत से सुलक्षणा दंग रह गई। उसने जोर से चिल्लाने का प्रयास किया, मुँह ने केवल हरकत की मगर आवाज कहीं दब कर रह गई। 

आवाज निकलती न देख छटपटाहट में सुलक्षणा दरवाजे की ओर दौड़ी। बाहर काशी बैठा था। दरवाजे पर हुई सांकल की दर्दनाक कड़कड़ाहट ने काशी को भी बेचैन कर दिया। माँ का बदहवास चेहरा देखकर काशी बाहर की ओर दौड़ा। उसके कदम उड़कर डाक्टर को लिवा लाने के लिए आतुर हो रहे थे। 

गली से निकलकर कब काशी सड़क पर आ पहुँचा, उसे सुध ही नहीं रही। सामने प्रोफेसर श्यामा चले आ रहे थे। काशी की यह हालत देखकर उनके कदम भी उत्तेजित हो उठे। काशी ने उन्हें देखकर भी नहीं देखा, और भागता ही चला गया। श्यामा भी उसी त्वरा से गंगा के घर की ओर दौड़े। 

काशी नुक्कड़ दर नुक्कड़ लांघते जा रहा था। तभी चैराहे के बायीं ओर से अचानक एक काले रंग की फिएट कार निकली। काशी सीधा उसके दरवाजे से जा टकराया। यह डाक्टर वेद की गाड़ी थी। चोट तो नहीं आई, मगर काशी के हालात देखकर डॉ वेद को माजरा समझने में भी देर नहीं लगी। उसे कार में बैठा कर उन्होंने गाड़ी गंगा के घर की ओर बढ़ा दी। गाड़ी हवा से बातें करने लगी। 

उनके पहुँचने तक घर के आँगन में दस-बीस लोग जमा हो चुके थे। तुरत फुरत में बीपी मशीन और स्टेथो लेकर डॉ वेद गंगा के कमरे की ओर दौड़े। गंगा को पलंग से उतारकर जमीन पर लेटा दिया गया था। सुलक्षणा दरवाजे को टेक कर बैठी, ताक में रखे बुझे हुए दीये को एकटक देखे जा रही थी। सब ओर शून्य पसरा था। 

घुटनों के बल बैठ कर डॉ वेद ने नब्ज जांचने की कोशिश की। वहाँ कोई हलचल न पाकर बीपी नापना चाहा। वहाँ भी कोई हलचल नहीं। कुछ सोचकर उन्होंने बैग से बक्से में रखी एक सुई निकाली। सावधानी से उसे गंगा के नाखूनों के ठीक नीचे वाले मुलायम हिस्से में चुभोया। कोई प्रतिक्रिया नहीं। फिर जेब से टार्च निकाली। गंगा की पलकों को उठाकर टार्च की तेज रोशनी उसकी पुतलियों पर मारी। पुतलियों ने भी हलचल से इनकार कर दिया। डॉ वेद सिर पकड़कर वहीं बैठ गए। 

यह देखकर सुलक्षणा के गले से एक दहाड़ निकली। हाथों को मिट्टी की दीवार पर जोर से मारते हुए वो चिल्लाई - ‘हाय! मेरे जीवन का आसरा मुझसे क्यों छीन लिया, हे भगवाऽऽन्!’ कांच की सारी चूड़ियाँ टूटकर देहली पर बिखर गयीं। 

तभी उसने अपने बाएँ कंधे पर एक स्पर्श अनुभव किया। एक हाथ था उसके कंधे पर। सुलक्षणा ने पीछे मुड़कर देखा। वो हाथ काशी का था। माँ-बेटा एक दूसरे से लिपट कर अनंत में खो गए। 

‘अब आश्रय सौदाई नहीं रहेगा’, काशी के मन में एक दृढ़ निश्चय घर कर चुका था। यह निश्चय वैसा ही था जैसे काशी के घाट रहते हैं, चिरस्थाई से।

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