Abhinav Imroz January 2023




***********************************************************************************

कविताएँ


सुश्री संगीता कुजारा टाक, राँची, मो. 92346 77837

फ्लर्ट

जब मुझे पढ़नी चाहिए थीं

कोर्स की किताबें

तब मैं पढ़ रही थी ओशो को


जब मुझे पढ़ना चाहिए था

ओशो को,

तब मैं बना रही थी

परिवार के लिए खाना


मुझे बनाना चाहिए था जब

परिवार के लिए खाना,

तब मैंने बनाया एनजीओ

और की अजनबियों की सेवा


और अब

जब मुझे देनी चाहिए

उन बुजुर्गों के होठों को मुस्कान

जिनके पास नहीं है कोई लाठी,


उन बच्चों को उम्मीद

जिनके ऊपर नहीं है साया

उनके मां-बाप का,

करनी चाहिए समाज सेवा....

तब,

मैं हो जाना चाहती हूं मौन!!!


मैंने वक्त के साथ फ्लर्ट किया है।


फना

किनारों को

आकर छूना

और फिर चले जाना


वजूद अपना बताना

और समन्दर में मिल जाना


लहरों से सीखा मैंने

इश्क में

यूं फना हो जाना!!


पुरखिनें

रात भर सोने के बावजूद

उसे लगता था

किसी ने खोल रखे हैं

उसकी पुतलियों के फाटक 


पूरे दिन आराम करने के बाद भी

उसे लगता था

चूर -चूर है उसका बदन मेहनतकशी से


बहुत सारी डिग्रियाँ लेने के बावजूद

उसे लगता था

आधी-अधूरी है उसकी पढ़ाई-लिखाई


बैंकों की प्रीमियम कस्टमर होने के बावजूद

उसे लगता था

बहुत तंग है उसके हाथ

उसके ऊपर साया था

उसकी पुरखिनों का......


उसके रक्त में शामिल था

उसकी पुरखिनों का रक्त....


वो अपनी कोम का ज़िन्दा इतिहास है।


प्रेम कहानी


जीवन ने पूछा

जीवन से

कहां दस्तक दूं?


तुम्हारे आकाश में

छेद ही छेद है

और ज़मीन पर

घाव की घाव


हमारे बीच जो सूत है

प्रेम का..

उसे हमारी दूरियों ने

बहुत महीन कर दिया है


इच्छाओं का चंद्र फूल

गवाही दे रहा है

नक्षत्रों के बीच डोलती

हमारी प्रेम कहानी का......


कनगोजर

मैंने

बहुत पर तय किया

वक्त के साथ मीटिंग

कि वो किस तराजू में तौलता है मुझे

मैं जानना चाहती थी उससे अपने बारे में

कि कैसी बेटी हूँ मैं?

कैसी बहन?

कैसी पत्नी और कैसी माँ?

कितनी ईमानदार हूँ मैं दोस्ती के रिश्ते में

और कितनी खरी हूँ बतौर इंसान


वक्त बहुत दयालु था

उसने हर बार जवाब देना चाहा

मेरे सवालों का


पर

पता नहीं कैसे

हर बार कोई कनगोजर घुसपैठ कर जाता मेरे कानों में

और बना देता था मुझे बहरा

बहने लगता था मेरे कानों से मवाद

और बजने लगती थी सिटी

कि अनसुने रह जाते थे जवाब......


आज

अस्पताल की बिस्तर पर पड़े -पड़े

मुझे समझ में आया,

वो कनगोजर कोई और नहीं

मेरा ही हिस्सा था

मैं ही थी....



***********************************************************************************

सुश्री मधु चोपड़ा मधुमन, पटियाला, मो. 9872222701, 

ईमेल: mrsmadhuchopra@gmail.com

ग़ज़लें

बात करते, कोई नाला, कोई शिकवा करते 

कुछ तो रिश्ते को बचाने का वसीला करते 

रूठते, लड़ते, झगड़ते भले जी भर लेकिन 

बात दिल में ही न रख कर यूँ पराया करते 

हो गई हमसे ख़ता हमने ये माना लेकिन 

इक ख़ता पर यूँ मरासिम नहीं तोड़ा करते 

दिल तो क्या चीज है हम जान भी दे देते अगर 

आप इक बार मुहब्बत से तकाजा करते 

हार कर ओढ़ ली हमने भी लबों पर चुप्पी 

राबिता ही न रखा उसने तो हम क्या करते 

रूठना आपका और मान-मनुव्वल मेरी 

कट गई उम्र यही खेल-तमाशा करते 

जैसे ‘मधुमन ‘को यक़ीं आपपे है काश यूँ ही

आप भी उसपे कभी वैसे भरोसा करते 




घेर लेते हैं कभी जब ये कुहासे मुझको 

कोई आवाज़ सी आती है ख़ला से मुझको 

वो हर इक गाम पे करता है मेरी रखवाली 

उसकी रहमत पे भरोसा है सदा से मुझको 

आज फिर मुझ पे ढहे कोई क़यामत शायद 

उसने देखा है बड़ी बर्क़-अदा से मुझको 

मुझको मालूम है अब वो नहीं आने वाला

ऐ मेरे दोस्त न दे झूठे दिलासे मुझको 

मिल गया मुझको जो मिलना था मुहब्बत कर के 

अब कोई आस नहीं बाग-ए-वफा से मुझको 

जुर्म बतलाए बिना क्यूँ वो सजा देता है 

बस यही एक शिकायत है ख़ुदा से मुझको 

जिंदगी ने वो दिखाए हैं भयानक मंजर 

अब जरा डर नहीं लगता है क़जा से मुझको 

ये मेरी माँ की दुआओं का कवच है ‘मधुमन’

जो बचा लेता है हर एक बला से मुझको 



पाँव जब घर से निकाले हमने 

पाए हर सम्त उजाले हमने 

ख़ौफ जितने भी थे पाले हमने 

कर दिए उसके हवाले हमने 

हिज्र तन्हाई तगाफुल उसका

दर्द क्या क्या न सँभाले हमने 

मसअले कैसे सुलझते आख़िर 

फैसले कल पे जो टाले हमने 

रतजगे और सुख़न की महफिल 

शौक़ पाले हैं निराले हमने 

जिंदगी ने जो दिए गम हमको 

सारे अशआर में ढाले हमने 

बढ़ गई जी की जलन जब ‘मधुमन ‘

पी लिए सब्र के प्याले हमने 




पत्थर को भी चीर के रस्ते निकलेंगे 

पर्वत के सीने से झरने निकलेंगे 

दूर के ढोल सुहाने लगते हैं सबको 

पास से देखोगे तो सूने निकलेंगे 

दौर बहारों का आते ही लाज़िम है 

पेड़ों पर फिर आस के पत्ते निकलेंगे 

बोए पेड़ बबूल के जब तुमने तो फिर 

अब उनमें से आम कहाँ से निकलेंगे 

बस करमों की थैली साथ में जाएगी 

जब हम इस दुनिया को छोड़ के निकलेंगे 

बाद हमारे इक दिन ऐसा आएगा 

हर सू सिर्फ हमारे चर्चे निकलेंगे 

चाहे जितने जख़्म दे ये दुनिया ‘मधुमन‘

हर मुश्किल से हँसते हँसते निकलेंगे 

***********************************************************************************

संपादकीय 

पिछले 12 वर्षों से नववर्ष का जनवरी माह मुझे अपने अतीत की गहन गराईयों में ले जाता है- जहाँ मुझे सुनाई देती हैं उन संवादों की गूँज जो मुझे आज भी रहनुमाई का एहसास देती हैं। इस वर्ष के प्रथम अंक में अपने जीवन के प्रथम संपादकीय को दोहराकर मैं डाॅ. तुलसी की रहवरी की जल्वः आराई करने जा रहा हूँ। उम्मीद है आपको भी डाॅ. तुलसी की हाज़िरी महसूस होगी।

ये जिन्दगी के कड़े कोस, याद आता है

तेरी निगाहें-करम का घना घना साया

परम श्रद्धेय डा. त्रिलोक तुलसी हमारे मध्य नहीं रहे, लेकिन उनके व्यक्तित्व का प्रभाव और छाप कभी कम न हांेगे, रिश्ते की शुरुआत तो गुरू और शिष्य के संदर्भ में हुई थी परन्तु उन्होंने गुरू बनने से इन्कार कर दिया और हम ने शिष्य बनने में कोई क़सर न छोड़ी, उन्होंने सीखाने में कभी पहल नहीं की और हम सीखने में कभी पीछे न रहे, वह कहा करते थे कि कोई किसी का गुरू नहीं है- हम स्वयं अपने गुरू हैं। ‘परिवेश-मन और साहित्य’ में ‘अपने बारे’ में लिखते हैं कि ‘‘लेखक ही पुस्तक को नहीं लिखता, पुस्तक भी साथ-साथ लेखक को लिखती जाती है’’ भाव यह कि जिन्दगी में कुछ भी एक तरफा नहीं है हम जब सीखाते हैं तो सीखते भी हैं, गुरू का ज्ञान अगर गंगा है तो शिष्य का अंतर लोक यमुना है, दोनों के संगम से ही साक्षात सरस्वती का प्रादुर्भाव सम्भव है। उनका मानना था कि शिक्षा से जीवन नहीं, शिक्षा ही जीवन है। उन्होंने हमे पढ़ाया नहीं बल्कि पढ़ने की लग्न पैदा की!

मेरी प्रो. त्रिलोक तुलसी से घनिष्ठता कालिज के तीसरे साल में बढ़ी, हम बी.ए. में हिन्दी विषय के तीन ही छात्र थे, क्लास भी बोटेनीकल गार्डन के लान में लगती थी, कला और संस्कृति पर विचार विमर्श होता रहता था। उन्हीं की प्रेरणा और प्रोत्साहन से मेरी रूचि का विकास हुआ! मनोविज्ञानक प्रवृतियों का संश्लेषण और व्यवहारिकता में उनकी प्रसंगिकता उनके जीवन मूल्यों का आधार था, उनकी धारणा के अनुसार हमारी संवेदनशीलता हमारे अंतः प्रज्ञा का संचालन करती है और विवेक विश्लेषण; और परिणाम हमारे आत्मविकास में योगदान देते हैं।....

अभिनव इमरोज़ के इस प्रथम अंक के माध्यम से मैं पूज्यनीय प्रिंसीपल रलाराम, प्रो. बलदेव राज, प्रो. हरिंद्रजीत कुमार, प्रो. अशोक कुमार, प्रो. के. सी. न्यासी और मेजर राजकुमार को भी अपने श्रद्धा सुमन अर्पण करता हँू! इन सब के डाॅ. तुलसी से गहरे और करीबी सम्बंध रहे, पंडित जी की प्रेरणा से ही त्रिलोक तुलसी जी ने एम.ए. हिन्दी में की थी! इस अंक के माध्यम से मैं होश्यारपुर की महान विभूतियों को नमन करता हूँ......

अभिनव इमरोज़ पत्रिका डाॅ. त्रिलोक तुलसी को समर्पित है और यह मेरी आख़िरी साँस तक प्रकाशित होती रहेगी और मैं मौलिक चिंतन और उभरती हुई प्रतिभाओं को प्रोत्साहन देता रहूँगा....


***********************************************************************************

कहानी


श्री कैलाश आहलूवालिया, चंडीगढ़, मो. 9888072599

कच्चा  आंगन

इंद्रपाल ने अपना घर बेच दिया। अब वे अपने पुश्तैनी घर में रहने लगे थे।

यह कोई मामूली घटना नहीं थी। इंद्रपाल को इस की पीड़ा कई दिन तक सालती रही। शालिनी को भी गहरा आघात पहुंचा था। पर उसने इस पीड़ा से बचने का एक रास्ता ढूंढ लिया था। वह अपने काम में व्यस्त रहती। एक तरह से उसने समझौता कर लिया था। पर इंद्रपाल जनता था कि वह भीतर ही भीतर टूट रही थी। उसका घर को लेकर चिर संचित सपना बताशे की तरह भुरभुरा गया था।

यह घर कितनी मुश्किल से बना था। कैसे, किन हालात में प्लॉट खरीदा था। पैसा कहाँ था -कैसे पैसा पैसा जोड़ कर कई फेजिज में यह घर बन सका था। इंद्रपाल को एहसास था कि इसमें ज्यादा मेहनत शालिनी की थी। शालिनी की हिम्मत और समझदारी न होती तो यह घर बनना संभव नहीं था। इसमें मेरे बेटे और बेटी का भी उतना ही योगदान था। इंजनीयरिंग करने के बाद सुमित की सर्विस अभी अभी ही लगी थी। उसका अधिकतर वेतन इसी में लग जाता था। और श्रेया, मेरी बिटिया जब भी हॉस्टल से घर आती तो अपने जेब खर्च में से बचाये कुछ पैसों से कभी फैंसी लैंपशेड तो कभी घर की सजावट के लिये अनेक वस्तुएं ले आती जिन्हें इंद्रपाल भविष्य के लिये संभाल के रख लेता।

मतलब यह कि इस घर के निर्माण में घर के सभी सदस्यों का बराबर का सहयोग था।

इन्द्रपाल ने अपने विभाग से थोड़ा सा ऋण भी ले रखा था जिसे रिटायरमेंट के समय ग्रैच्चुयटी में से अदा कर दिया गया था। घर सुरुचिपूर्ण बना था। सीढ़ियां डाइनिंग रूम से ऊपर को जाती थीं जिन्हें उतरते-चढ़ते शहंशाही ठाठ का सा आभास होता था। लिविंग रूम में स्प्लिट फ्लोर डलवा लिया जिसकी आने-जाने वाले अनेक लोग/मेहमान आलोचना करते थे। कहते थे कि बुढ़ापे में देखना कि कैसे ये जी का जंजाल बनेंगी। दो चार सीढ़ियां जो डाइनिंग एरिया को लिविंग रूम से जोड़ती थीं, कैसे तकलीफ देने लगेंगी। पर तब परवाह किसे थी।

घर ऐसा बना था कि इंद्रपाल घण्टों टैरिस पर बैठा इसे देखता रहता। वहां से पहाड़ का मनोहारी दृश्य, या दूर झरते एक खूबसूरत झरने को देख कर बिभोर होता रहता। बच्चे जब घर पर होते तो वे सब शाम के समय यहीं बैठ कर चाय पीते और बातें करते। धीरे धीरे ये घर सब के मन में रच-बस गया। निर्माण के दौरान आस-पड़ोस से कहा-सुनी भी हो जाती। कभी रास्ते को लेकर तो कभी पानी और मलवे के डिस्पोजल को लेकर। पर जब घर बन गया तो आस-पड़ोस में समझौते और संधियां भी हो गयीं। माँ चंडीगढ़ में रहती थी। वह जब घर में आई तो इंद्रपाल को अजीब सी संतुष्टि और अलौकिक प्रसन्नता का आभास हुआ। घर में मा के चरण पड़ने से घर पवित्र हो गया। माँ ही के कारण नए घर में समय समय पर हवन-पूजा और घरेलु जमावड़े भी होने शुरू हुए। इस तरह से एक इतिहास रचित हुआ। घर बुजुर्ग सा लगने लगा। घर को जैसे अपेक्षित संस्कार प्राप्त हो गए।

दस बरस से भी ऊपर हो गये घर को बने हुए। बच्चे बड़े हो गए। बड़े होते गये। पढ़-लिख गए। दोनों के विवाह-लगन भी हो गए। ऐसे अवसरों पर हर बार घर दुल्हन-सा सजा- रंग-रोगन, सफेदियां, लाल-पीली झंडियां, लीपा-पोती, चहल-पहल, हवन-पूजा, नाच-गाना,पार्टियां, हंसी-ठिठोलियां। माँ खुश। बेटे ने लाज रख ली। परम्परा के अनुसार सब कुछ ठीक ठीक कर दिया। कमाऊ निकला। विवाह के बाद श्रेया दूसरे शहर में रहने लगी और बेटा परमानेंट-इमीग्रेशन लेकर विदेश चला गया। घर में रह गए इंद्रपाल और शालिनी। शालिनी घर को सजाने-संवारने में लगी रहती। घर के बैकयार्ड में शालिनी ने एक सूंदर फूल-वाटिका तैयार कर ली। इसमें उसने तरह तरह के फूल और फलदार पेड़ लगा लिए। जैसे अनार, खुबानी, नाशपाती, अमरुद, आड़ू, और प्लम। नाशपाती, अनार,और खुबानी पर जब फूल खिलते तो घर की बगिया में साक्षात् वसंत उतर आता। दोनों का मन बालियों उछलता। सदा बहार गुलाब और मोगरा फूलबाड़ी को हर मौसम में महका के रखते। पर बच्चों के चले जाने के बाद एक अजब सा सन्नाटा छाने लग गया था घर में।

दिन व्यतीत होते गए। एक दिन इंद्रपाल और शालिनी एक रिश्तेदार की शादी में शहर से बाहर गए तो घर में चोर घुस आए। विह्स्की के डिब्बे में किताबें रखी थीं, उन्हें विह्स्की समझ कर उठा ले गए। पर सब से बड़ा नुक्सान तो यह हुआ कि वे शालिनी की सोने की चूड़ियां और गले की चेन जो उसने अलमारी में राखी थी उन्हें भी उड़ा ले गए। शालिनी को सदमा सा लग गया। वह हर दम उदास रहने लगी। इधर इंद्रपाल भी नाखुश रहने लगा। वह भी गहरे सोच में डूबा रहता। पर फिर भी शालिनी को ढांढस बंधाता रहता - चिंता मत कर। मैं बहुत जल्दी तुम्हारे जेवरों आदि की भरपाई कर दूंगा। समय बीतता गया। घर में ढेर चाही-अनचाही चीजें एकत्र होती गईं। फेविकोल के खाली डिब्बे,समोसम के खाली पिचके ड्रम, कस्सियाँ, कुदाल, गैनतियाँ, कब्जे-कीलें, कुंडियां, ताले-चाबियां, छितराये किनारों वाले तसले, बिजली के स्विच, तारों के खाली डिब्बे, और जाने क्या क्या। जो कुछ भी जहाँ बच जाता, इंद्रपाल उसे संभाल कर रख लेता। वक़्त पड़ने पर कौन हर बार बाजार भागा जायेगा। घर में चीज होगी तो उस वक्त काम आएगी, उसका स्थाई तर्क रहता।

जीवन है तो कई जरूरतें इसके साथ लगी रहती हैं। और विडम्वना यह है कि कई वस्तुएं तो ऐसे जमी रहती हैं अनेक कोनों में कि जिनका कभी किसी समय इस्तेमाल ही नहीं हुआ। इंद्रपाल और शालिनी जब अकेले होते और बातें करने के मूड में होते तो अक्सर कहते कि हमीं को रहना है इस घर में तो फिर क्या जरुरत है इस लटरम-पटरम की, और इतने बड़े घर की। ऐसे ही एक क्षण में इस घर को बेच देने का षड्यंत्रकारी विचार दोनों के दिमाग में एक साथ कौंधा। अनेक दलीलें एक दूसरे के सामने रखी जाने लगीं । एक जिरह सी छिड़ गई अपने खड़े किये गए मुकद्दमें में। कितने लोग हैं हमारे आस पास जो अपनी पसंद की जगह में किराये के मकान में रहते हैं, और खुश रहते हैं। फिर यह तर्क भी सामने आता कि आखिर में दुख-सुख में अपना ही घर काम आता है। ढांढस बंधता। धीरे धीरे सब उचित लगने लगेगा, वे अपने को दिलासा देते।

पर कभी कभी कुछ अत्याधिक हताश क्षण जरूर आते जब वे तुरंत कुछ निर्णय लेने की सोचते। एक बार तो इंद्रपाल के मन में यह ख्याल भी आया कि क्यों न उसी माकन को वापस खरीद लें। पुश्तैनी घर में जब जब हवा चलती तो घर की खिड़कियाँ और दरवाज़ों की याद आने लगाती। और दम घुटने लगता। शालिनी चुपचाप यह सब देखती रहती। पर हाल उसका भी वैसा ही था। एक बार तो दोनों अलग अलग चुपके चुपके उस अपने घर को बाहर से देख कर अजब सा सकूं पा कर लौट आये। वही पेड़, वही सीढ़ियां,वही गुलदौद के फूल, वही मोगरे और गुलाब की मदहोश करने वाली महक। मुख्य द्वार पर झुकी हुई वल्लरियाँ। पर अब क्या करें। अब तो उनके हाथ में कुछ न था। एक बार सुना कि नई मालकिन यदि बेचेगी तो दोगुने दाम में। सुनकर दोनों का मन बैठ गया। ज़िन्दगी भर की जमा-पूँजी जो थोड़ी सी थी वह यहाँ लगा दी थी। और सोचा था कि अब जिन्दगी भर यहीं रहना है। अब तो जितने पैसे मिले थे उतने भी लौटने की क्षमता न थी। दोगुना कहाँ से देंगे।

सो मन मार लिया की अब जो है सो है।

इस पैतृक घर का अपना आकर्षण था। यहीं इंद्रपाल का बचपन बीता था। यहीं शालिनी नई-नवेली दुल्हन बन के आई थी। बच्चे भी यहीं रह के बड़े हुए। यहीं उनकी पढ़ाई लिखाई हुई। उनकी सारी छुट्टियां यहीं व्यतीत होती थीं। दादी के पास। सब की अपनी अपनी यादें थीं इस घर को लेकर। कभी कभी इंद्रपाल बहुत उदास होता तो कहता - अब क्या है। कितने दिन और बाकी हैं। कट जाएगी। तब शालिनी कहती -अरे नहीं। अभी बहुत साल जीना है हमें। बच्चों के बच्चों की शादियां देखनी हैं। तब इंद्रपाल कहता -हाँ कैसा जमाना होगा तब। हम एक कोने में बैठे होंगे। न आँखों में रोशनी होगी न मुंह में दांत। पर होंगे तो सही न हम - शालिनी कहती। इस पर दोनों हँसते।

खैर धीरे-धीरे यही पुराना पुश्तैनी घर अच्छा लगने लगा। दोनों ने फिर से इसे जीवित कर लिया। दीवारों पर पिछले घर वाले चित्र और प्रेरणादायक हैंगिंग लटका लिए। वही एम.ए. पीएचडी वाली नेम प्लेट टांग ली। रंग-रोगन तो कहीं कहीं बिलकुल वैसा ही। एक कमरे में पीओपी भी वैसा ही करवा लिया। पर छूटे हुए घर की याद भुलाए नहीं भूलती। शालिनी हस्बमामूल अपने को बड़ी चालाकी से रसोई में व्यस्त रखती। खाना बन जाता तो उसे मेज पर लगा देती। दोनों एक दूसरे के सामने बैठ कर बिना बातचीत के खाना खा लेते। बच्चों की याद आती, पर क्या करें। न यह प्रश्न कि सबजी में नमक तो ठीक है ? न हाँ,न ना ही। दोनों एक दूसरे से नजरें चुराते। दोनों एक दूसरे से डरते। दोनों अपने आप को अपराधी समझते। शालिनी खाने के तुरंत बाद प्लेटें उठा रसोई में चली जाती। और देर तक वहीँ रहती। शायद थोड़ा रो लेती और मन हल्का कर लेती। यही जगह थी बिना रोक-टोक सुबकने और रोने की।

इंद्रपाल जानता था यह सब।

वह उठ कर सोने वाले कमरे में आ बिस्तर पर लेट जाता। शालिनी साड़ी के पल्लू से गीले हाथ पोंछते आती और अनमने घड़ी की तरफ देखती और बिस्तर के अपने वाले कोने में लेट जाती। हलके हलके बुदबुदाती या इंद्रपाल को लगता कि वह बुदबुदा रही है। आज कितनी घुटन है। पत्ता तक नहीं हिल रहा। पेड़ भी तो नहीं हैं यहाँ। इंद्रपाल सोचता-सच आसमान यहाँ से दिखाई ही नहीं देता। न चाँद सितारे..न सप्तऋषि। न आकाश गंगा। लोग यहां या तो बेतहाशा भागते हैं. उनका शोर होता है। नहीं तो यही रात का सन्नाटा। अपनी अपनी बातें सोचते हुए दोनों की कब आँख लग जाती, पता ही नहीं चलता।

रात भर वे स्वप्न देखते। पर सुबह उठने पर अब उन्हें कोई स्वपन याद नहीं रहता। और कुछ याद रहता भी है तो वे इसे एक दूसरे को सुनाने से डरते हैं।

धीरे धीरे दिन व्यतीत हो रहे थे। घर उन में समा गया या वे घर में, मालूम नहीं। पर जहाँ रहना है वहां का हो कर तो रहना ही पड़ता है। और सब बातें तो ठीक थीं पर एक बात बराबर खटकती थी कि इसका आँगन कच्चा था। उस समय तो यह इस लिये अच्छा लगता था क्योंकि इसमें आम का पेड़ था, और हरी घास चादर की तरह नीचे बिछी रहती थी। आम के मौसम में खूब आम लगते थे। कच्ची अमियों से लेकर पके आमों तक का दृश्य बहुत लुभावना लगता। यहीं आंगन में बैठ कर वे आम खाया करते थे। बच्चे खेलते थे और ऊधम मचाया करते थे। लड़कियां गीटे खेलती थीं। यहीं वे स्वयं भी खेलते कूदते थे । बरसात के दिनों में रेन-पाइप से बड़े फव्वारे का सा पानी आता था जिस के नीचे कूद कूद कर वे सब नहाते थे। माँ, चाची, दादी अम्मा बाल्टियां की बाल्टियां पानी जमा कर लेती थीं। हम देर तक ठन्डे पानी से नहाते थे। मा बालकनी से पुकारती थी- ओ चोबरो (दुष्टो),अब बस करो। बीमार पड़ जाओगे। ठण्ड लग जाएगी। पर हम कब सुनते थे। वे सब आंगन की इसी मिटटी और बारिश में उछलते कूदते, खेलते बड़े हुए। याद आते हैं वे दिन। बारिश में मिट्टी गीली हो जाती थी और सब किच किच हो जाता था। पर शालिनी ने कभी ऐसा नहीं सोचा। हालांकि वह विवाह के बाद जब आई थी तो उसकी डोली भी इसी आंगन में उतरी थी। और डोली से उतर कर मिट्टी की मल्ली (तश्तरी )में रखी सरसों को पैर से हटा नए घर में प्रविष्ट हुई थी। पर वह कहती थी-इस से क्या फर्क पड़ता है। पर किसी भी पारिवारिक त्यौहार अथवा उत्सव में यह आंगन स्त्रियों के गीतों से गूँज उठता था। और कई दिनों तक पैंठें (पंक्तियाँ) यहीं बैठ कर सामूहिक भोजन करते। यहीं तोरण सजता, और यहीं विवाह की वेदी बनाई जाती। वह कहती-आंगन कच्चा है तो क्या हुआ। यहाँ अधिकतर घरों के आंगन कच्चे ही हैं। इंद्रपाल चुपचाप उसकी बात सुन लेता। पर वे उसकी बात से पूर्णतः सहमत नहीं था।

कुछ बरस और बीत गये। कई मौसम आए चले गए। आंगन वैसा ही रहा। बारिश में किचकिचाता।

एक दिन रात देर गये जागने के बाद इंद्रपाल जब सोने की तैयारी कर रहा था तो एक ख्याल रह रह कर उसे चिंतित और परेशान करने लगा। उसे नींद नहीं आ रही थी। वह उस से बात करना चाहता था। उसने उसकी तरफ देखा। वह गहरी नींद में सो रही थी। थोड़ी देर तो वह असमंजस में रहा। पर आखिरकार उसने उसे जगाया।

‘सुनो‘

‘हाँ ? क्या ?‘ शालिनी ने लेटे लेटे ही बड़ी लापरवाही से उत्तर दिया।

‘एक बात है मन में।‘

‘क्या बात है ?‘ घड़ी की तरफ देखा उसने। रात का डेढ़ बज रहा था। ‘ऐसी क्या बात है. सो जाओ। बात कल सुबह हो जाएगी। ऐसी भी क्या जल्दी है।‘

‘नहीं, अभी मन है। कह डालूं। सुबह नहीं।‘  और इसी में उसने बात कह डाली- ‘हमारा आंगन कच्चा है न?‘

‘हां, तो क्या ?‘

‘ऐसा करते हैं कि इसे पक्का करवा लेते हैं।‘

‘क्या हो गया है तुम्हें ? इतनी रात गये क्या यही बात सूझी तुम्हें कहने के लिए ?‘

‘हाँ शालिनी, बस यही बात।‘

‘क्या यह बात इतनी जरूरी है ?‘

‘हां जरूरी है। तभी तो कह रहा हूँ ‘

‘सचमुच सठिया गए हो तुम। आंगन पक्का करवाना है। ऐसी जल्दी क्या है। ‘

‘हां। जरूरी है और जल्दी करने की है। ‘

शालिनी चुप । प्रश्नात्मक दृष्टि से उसे देखती रही।

इंद्रपाल बोलता रहा -‘देखो शालिनी,बुरा मत मानना। एक दिन तो जाना है। जाना ही है न? और मुझे जाना है। तब कुछ देर तो शव इसी आंगन में रखा जायेगा न। फर्ज करो, उस दिन बारिश हुई तो कच्ची मिट्टी में किच किच हो जाएगी। लोगबाग आएंगे। इस कीचड में कैसे क्या करेंगे। दिक्कत नहीं हो जाएगी ? इस लिए मैं सोचता हूँ कि यह नौबत आए ही न। इसे पहले ही पक्का करवा लेता हूँ। सब आसान हो जायेगा।‘

शालिनी स्तब्ध। चुपचाप इंद्रपाल की ओर एकटक देख रही थी।

‘तो मैं कल ही मिस्त्री को बुला कर एस्टीमेट ले लेता हूं। एक दो दिन में काम खत्म हो जायेगा। क्या कहती हो ? नाराज तो नहीं हो न ? चाय वगैरा का मैं देख लूँगा।‘

शालिनी ने कोई उत्तर नहीं दिया।

इंद्रपाल चिंतामुक्त हो कर सो गया। पल भर में ही खर्राटे लेने लगा।

शालिनी तकिये में मुहं छिपाये देर तक सुबकती रही।

उठ कर उसने खिड़की का परदा एक और सरका दिया।

आसमान में छिटपुट बादल थे। शायद कल बारिश हो। आंगन किच किच हो जायेगा।

उसने इंद्रपाल की ओर देखा।

वह गहरी नींद में सो रहा था।

शालिनी थोड़ा उसकी ओर सरक गई। वह क्या करे? 

***********************************************************************************

पत्रांश


सुश्री प्रभा कश्यप डोगरा, पंचकूला, मो. 98725 77538

अभिनव इमरोज़ का अक्टूबर अंक कल ही मिला। आज शाम फुर्सत में पढ़ने बैठी तो, बस यूँही एक आध विधा (कविता) ही थी य पर मुख्यपृष्ठ की कविता “स्त्री चुप है” ने इतना प्रभावित किया कि अंक के पन्ने उलटती सारी कविताएँ पढ़ डालीं !

फिर तो ये सिलसिला हाईकु और कहानियों तक पहुँच गया ! कविताओं का उल्लेख करूँ तो “मैं नदी हूँ“, का विशेष उल्लेख करना चाहूँगी, नदी जानती है की उसे बांधने की कोशिश की जा रही है,  कवयित्री, स्वयं (स्त्री) और नदी में समानता देखती हैं। जैसे नदी बंध कर भी उफान पर आ पाने की क्षमता रखते हुए भी मर्यादा के तटबंधों में बँधी अपने जल से धरती को सींचती हरियाली व जल (जीवन) का दान करती है उसी प्रकार नारी भी जीवन पर्यन्त हर हालात में इसी प्रयास में रहती है, घर परिवार संसार का जीवन सुरक्षित रहे।

 हाईकु में पहले ही हाईकु ने प्रभावित किया, फिर 

“आम आदमी का खाना, दाल रोटी“ आम आदमी की तंग हाली या यूँ कहूँ कि आम आदमी आज इतना भी जुटा पाने से वंचित हैं, इसे व्यक्त करता है।

कहानियों में “उत्तर का आकाश“ और इंतजार पढ़ते न पढ़ते यह पत्रांश लिखने की इच्छा को न रोक पाई !

बहुत दिनों बाद मुझे इतनी सरल भाषा में इतना सुलझा नारी मन की भावनाओं को व्यक्त करता लेखन मिला, जिसमें आहत मन की अभिव्यक्ति है, भी, तो बहुत सौम्यता से इंगित मात्र, प्रेम भी जीव मात्र के प्रति है न कि व्यक्ति परक! इतना सरल सुन्दर शांतिपूर्ण  साहित्य पढ़ने का अवसर मिला!!

आशा पांडेय जी के साहित्य की झलकी अभिनव इमरोज़ के इस अंक में मिली,  अहोभाग्य!  संम्पादक देवेन्द्र कुमार बहल जी साधुवाद के हकदार हैं, आशा पांडेय जी को बहुत बहुत बधाई !

***********************************************************************************

कहानी

डाॅ. गौरी शंकर रैणा, नोएडा, मो. 9810479810

बोर्डिंग पास

फिल्म निर्देशक ने नीले रंग की कमीज, खाकी जींस, टखनों से ऊपर तक का भूरे रंग का जूता और सफेद हैट पहन रखी थी। उसके हाथों की उँगलियों में कई कीमती अँगूठियाँ थीं, जो चमकती थीं। ख़ासकर तब, जब वह हाथ घुमा-घुमाकर अभिनेत्री को कुछ समझाने की कोशिश करता था। अभिनेत्री ने कॉफी का मग नीचे मेज पर रखा और उसकी बातों को ध्यान से सुनने लगी। ये दोनों हवाई अड्डे के कॉफी शॉप में बैठे थे।

बाहर, कुछ दूरी पर, इनकी प्रतीक्षा में, दो पोर्टर इनका सामान लिए खड़े थे। दो विमान परिचारिकाएँ आईं और शीशे का द्वार ठेलती हुई अंदर चली गईं। उनके पीछे-पीछे हलके सुनहरे बालों वाली एक कोमलांगी आई और कॉफी शॉप की तरफ मुड़ गई। उसको देखते ही निर्देशक, एकदम से उठ खड़ा हुआ। उसने झट से एक कुर्सी अपनी मेज की ओर खींची और उसे अपनी दाहिनी तरफ बैठा लिया। वह मुस्कराई। उसे देखते ही अभिनेत्री के मुँह के कौवे उड़ गए। परंतु इस सुकुमारी ने न तो अभिनेत्री की तरफ देखा और न उससे कोई बात ही की। निर्देशक अब अपने हाथ दूसरी दिशा में घुमाने लगा। कॉफी शॉप में बैठे कुछ यात्री, अभी-अभी आई इस सुंदरी को टकटकी बाँधे देखने लगे। शायद इस कारण भी कि उन्होंने इसे टी. वी. के विज्ञापनों में देखा था। इतनी ही देर में एक आकर्षक युवक वहाँ आया। वेशभूषा से वह किसी हवाई कंपनी का प्रबंधक-सा लग रहा था। उसको देखते ही लड़की उठ खड़ी हुई और उसे गले लगाया। फिर उस रूपसी ने अपना मोबाइल निर्देशक को दिया और कहा कि वह इस लड़के के साथ उसकी एक फोटो खींचे। युवक और युवती एक तरफ खड़े हो गए। दोनों ने एक-दूसरे की कमर पर हाथ रखा। उनके पोज लेते ही निर्देशक ने क्लिक किया और युवती ने उसे धन्यवाद दिया।

अभिनेत्री, जो दो फिल्मों में आने के बावजूद अभी अपनी पहचान नहीं बना पाई थी, यह सब देखकर खीज उठी। इस युवती का वहाँ आकर उनके साथ बैठना उसे अच्छा नहीं लगा। उसे यह भी लग रहा था कि कहीं यह विज्ञापन वाली लड़की नई फिल्म में उसकी जगह चुन न ली जाए। यह डर उसको सबसे ज्यादा परेशान कर रहा था।

बाहर खड़े पोर्टर फुसफुसा रहे थे कि कितने खुशकिस्मत हैं, ये फिल्मी लोग और वे हैं, जो जिंदगी भर सामान ही ढोते रहते हैं और फिर किसी दिन थक-हारकर दम तोड़ देते हैं।

फिल्म निर्देशक ने विज्ञापन वाली युवती का गाल थपथपाया। दूसरी मेज पर बैठे अभिनेत्री के सेक्रेटरी से बोर्डिंग कार्ड लेते हुए अभिनेत्री को घड़ी दिखाई और चलने का इशारा किया। तीनों कॉफी शॉप से निकल गए। पोर्टर भी सामान लेकर, उनके पीछे-पीछे, दूसरे द्वार की ओर चलने लगे। कुछ ही देर में वे ओझल हो गए। किसी फिल्मी दृश्य के ‘फेड ऑवर‘ की तरह।

युवती युवक के साथ बैठी कॉफी का आनंद ले रही थी। युवक उससे कुछ कह रहा था। शायद यह कि वह फिल्मों में कब नजर आएगी? युवक को देखकर लग रहा था कि वह प्रफुल्लित है। यह भी साफ-साफ नजर आ रहा था कि यह उनकी पहली मुलाकात नहीं है, वे पहले भी कई बार मिल चुके होंगे। युवक की बात पर युवती कभी-कभी हँस देती थी। मगर फिर यह ख़याल करके कि दूसरी मेजों पर भी यात्री बैठे हैं, वह चुप हो जाती। जब वह खिलखिलाती तो उसके सुंदर होंठों से प्रकट होती हुई दँतुली निर्देशक की अंगूठियों के नगों से भी ज्यादा चमकदार दिखती। युवक ने अपनी जेब से मोबाइल निकाला और अपने अंदाज में, उसकी एक और फोटो खींच ली।

यह युवक राजेश है। इसका पिता व्यश्म्बर नाथ (विश्वंभर नाथ) पहले श्रीनगर और अब जम्मू के कैंप कॉलेज में अंग्रेजी पढ़ाता है। राजेश शुरू से ही पढ़ाई में कमजोर रहा था। दसवीं और बारहवीं में भी कुछ खास नहीं कर पाया। फिर पिता की लगातार डाँट-फटकार और मेहनत रंग लाई। इसने बी. ए. अच्छे नंबरों से पास किया। उसके बाद पिता ने ‘ट्रेवल एंड टूरिज़्म‘ का डिप्लोमा कराया। पहले तो जम्मू में ही एक ‘टूर ऑपरेटर‘ के पास दो-तीन साल नौकरी की और फिर एक प्राइवेट हवाई कंपनी में चयन हुआ। कोई तीन-चार महीने पहले पदोन्नति हुई और सुपरवाइजर बनकर दिल्ली आ गया। कंपनीकर्मियों के काम की देखरेख करते-करते एक दिन यहीं, इसी हवाई - मंडप में, इस सुंदर लड़की से भेंट हुई थी।

यह रूपसी पहले एक मॉडल थी, मगर अब केवल विज्ञापनों में ही नजर आती है। इसका असली नाम क्रिस्टीन है, मगर लोग इसे लोरा के नाम से ही जानते हैं। पहले विज्ञापन की शूटिंग तथा उसके लॉन्च समारोह में इसे इसी नाम से संबोधित किया गया। नई कार के विज्ञापन में अवतरित होते ही लोरा प्रसिद्ध हो गई। अखबारों के अनौपचारिक पृष्ठों पर अकसर इसके चित्र छपते हैं। यह खबर भी एक-दो हिंदी अखबारों में छप गई थी कि इसने अपना ब्वॉयफ्रेंड ढूँढ़ लिया है।

तीन महीने पहले जब राजेश अपने माता-पिता से मिलने जम्मू गया था, तो उसने उन्हें लोरा के बारे में बताया था। माँ, जानकी ने अपनी बिरादरी में दो-तीन लड़कियाँ देख रखी थीं और एक लगभग तय थी। केवल राजेश के हाँ करने की देर थी। जब राजेश ने बताया कि उसका लगाव जिससे है वह एक मॉडल रह चुकी है और उसका नाम लोरा है, तो जानकी बोली, ‘‘अरे...अरे! न नाम, न 

धाम...ना-ना मैं ऐसी लड़की को अपनी बहू नहीं बना सकती।

“माँ, वह एक जानी-मानी एक्ट्रेस है।

कौन से सीरियल में आती है?‘‘

‘‘माँ, वह सीरियल में नहीं, ऐड में आती है। ‘‘

“तू तो कह रहा था कि वह फिल्मों में आने वाली है?‘‘ पिता ने पूछा।

‘‘हाँ

पापा, वह फिल्मों में भी कोशिश कर रही है।‘‘

आप चुप रहिए, नहीं लानी हमें कोई फिल्मी गुड़िया। ‘‘

‘‘माँ, वह एक बहुत अच्छी लड़की है।‘‘

‘‘रहने दे, रहने दे। मैं कम पढ़ी-लिखी ही सही, मगर सब समझती हूँ। याद रख, अगर तूने जिद की तो यह समझ कि आज से हमारा - तुम्हारा रिश्ता ख़त्म। ‘‘

उस दिन के बाद राजेश ने इस बारे में अपने माता-पिता से कोई बात नहीं की, मगर वह लोरा की मैत्री भी नहीं त्याग सकता था। लोरा अकसर फ्लाइट से तीन घंटे पहले आती और दोनों कॉफी शॉप में बैठकर बातें करते। ‘लोरा कॉफी लो, तुम्हारी कॉफी ठंडी हो रही है।‘‘

‘‘ओ, हाँ!‘‘

‘‘क्या सोच रही हो?‘‘

‘कुछ नहीं, बस...‘‘

‘अच्छा कौन है यह डायरेक्टर, जो अभी-अभी उस दुखी सी एक्ट्रेस के साथ गया?‘‘

‘‘सब उसे मिस्टर डी कहते हैं। ‘‘

‘‘क्या यह मिस्टर डी तुम्हें अपनी अगली फिल्म में रोल दे देगा?‘‘ 

‘‘यस! यस!!‘‘

‘ओ वंडरफुल!‘‘

दोनों ने फिर से कॉफी पीना शुरू किया। राजेश चाहता था कि लोरा उसे बताए कि उसके माता-पिता कौन हैं? क्या वह उनसे कभी मिल सकता है? लेकिन लोरा ने उसे कुछ नहीं बताया था।

“मैं तुम्हारे पेरेंट्स से मिलना चाहता हूँ?‘‘

‘‘वे इंडिया में नहीं रहते। ‘‘

कहीं, किसी देश में तो रहते ही होंगे। कहीं भी हों, मिलने में हरज ही क्या है? राजेश सोचने लगा।

‘‘लेट अस मीट देम। उनसे मिलते हैं।‘‘

ओह नो!‘‘

लोरा का यह ‘नो‘ सुनकर राजेश को धक्का सा लगा। मगर उसने कुछ नहीं कहा। सोचा कि शायद उसकी कोई मजबूरी होगी। उसने लोरा को बताया कि माँ की नाराजगी के बावजूद वह उसके साथ मुंबई में रहने को तैयार है। . एंड आई विल टेक यू टु कश्मीर,‘‘ राजेश ने कहा।

ओह कश्मीर!‘‘

‘हमारा वहाँ घर है, अभी भी। हमको भी जम्मू आना पड़ा था, मगर हमने अपना मकान बेचा नहीं है। न ही अपने खेत-खलिहान बेचे हैं। मैं तुम्हें वह खेत, वह पहाड़, खुला आसमान और वह झरने दिखाऊँगा, जिनके साथ मैंने अपना बचपन बिताया है। तुम गई हो कश्मीर?‘‘

“यस! स्केटिंग का शॉट वहीं तो हुआ था, गुलमर्ग में। इट वाज वंडरफुल। आई लव दैट प्लेस।‘‘

“राजेश सर! राजेश सर!!‘‘ सामने विमान कंपनी की एक कर्मी खड़ी थी। 

“हाँ प्रेरणा, बताओ?‘‘

‘यह रहा इनका बोर्डिंग कार्ड। ‘‘

राजेश ने लोरा का बोर्डिंग कार्ड अपनी सहकर्मी से लेते हुए उसे धन्यवाद दिया, “धन्यवाद! मगर इसके मैनेजर का बोर्डिंग कार्ड?‘‘

‘‘हमने उनको दे दिया है और वे इस समय सिक्योरिटी गेट के पास इनका इंतजार कर रहे हैं।‘‘

“प्रेरणा, तुम चलो। मैं लेकर आता हूँ इसे।‘‘

राजेश, लोरा के साथ सिक्योरिटी गेट तक गया। लोरा और उसके मैनेजर सुरक्षा जाँच होने तक वह वहीं रहा और फिर उनके साथ बोर्डिंग-गेट तक गया।

‘‘ओके लोरा, शाम को फोन कर देना।‘‘

‘‘हाँ-हाँ, क्या तुम एक दिन के लिए मुंबई आ सकते हो?‘‘

यह वाक्य सुनकर राजेश चैंक गया। वह पूछना चाहता था- क्यों, किसलिए? मगर उसने बिना कुछ पूछे ही एकदम से उत्तर दिया, “क्यों नहीं, आ जाऊँगा। जरूर आऊँगा।’’

‘‘तो फिर जिस दिन मेरा शूट नहीं होगा, उस दिन मिलेंगे। मैं बता दूँगी।‘ ‘ओके बाय!‘‘

‘‘बाय, टेक केयर।‘‘

लोरा और उसका मैनेजर विमान की तरफ गए। राजेश कुछ देर वहाँ खड़ा रहा और फिर अपनी हवाई कंपनी के काउंटरों की तरफ आया। अपने काम में व्यस्त हुआ तथा अपना नियमित कर्म निभाने लगा।

शाम को जब वह वैन में बैठकर अपने फ्लैट की ओर गया, तो वह बेचैन था। बेसब्री से लोरा के फोन की प्रतीक्षा कर रहा था। उसने वैन में बैठे-बैठे ही, अपने सीनियर मैनेजर को मोबाइल से फोन किया और पूछा कि क्या वह अगले सप्ताह एक-दो दिन के लिए मुंबई जा सकता है? उत्तर में हाँ मिला, मगर वह पूरी रात बेचैन रहा।

सुबह भी लोरा का फोन नहीं आया। अकसर वह पहुँचते ही फोन कर देती थी, मगर इस बार दूसरे दिन की सुबह तक भी कोई फोन नहीं आया। उसकी बेचैनी और बढ़ी।

वह अपने फ्लैट की बालकनी में बैठा सुबह की चाय पीने लगा। शहर का यह हिस्सा सुबह की हलकी हलकी धूप में अनुपम लग रहा था। उसने दूर तक नजर दौड़ाई। सब शांत था, जैसे कोई चित्रकला आकाश से टँगी हो।

वह बालकनी में कुछ देर और बैठना चाहता था, मगर ड्यूटी पर भी जाना था, इसलिए भीतर चला गया। अंदर मेज पर रखा मोबाइल फोन टिमटिमा रहा था। उसने झट से फोन उठाया। देखा तो उसमें लोरा का संदेश था। संदेश मुख्तसर था- ‘सुबह-सुबह पहुँचना। बुध और बृहस्पति को मेरी कोई शूटिंग नहीं है। मेरा अपार्टमेंट नंबर 365 है। लुकिंग फारवर्ड...‘ संदेश पढ़कर राजेश अत्यंत प्रसन्न हुआ। अत्यानंद के उन क्षणों में उसे यह संसार मनोरम लगा।

तीन दिनों बाद वह मुंबई गया और उसी रात, देर रात की फ्लाइट लौट आया। अगले दिन वह काम पर नहीं गया और न ही किसी को बताया कि वह कहाँ गया था।

दोपहर का समय । हवाई अड्डे के चेक-इन काउंटरों पर भीड़ सी होने लगी थी। राजेश ने यात्रियों की सुविधा के लिए एक और काउंटर शुरू करने का निर्णय लिया। उसके आदेश का पालन करती हुई प्रेरणा आखिरी काउंटर की ओर गई और जाते-जाते पूछा, ‘‘मुंबई में कैसा रहा?‘‘

“यह फ्लाइट रवाना हो जाए, उसके बाद बता दूँगा।‘‘

“ओके!‘‘ वह मुस्कराकर आगे बढ़ी तथा यात्रियों से नए काउंटर की ओर आने का अनुरोध करने लगी। कुछ ही देर में सभी यात्री अपना-अपना बोर्डिंग कार्ड लेकर निकल गए। इस हवाई कंपनी की अगली फ्लाइट में अभी तीन घंटे का समय था। सभी कर्मी जैसे चिंतामुक्त हो गए थे। दो कर्मी यात्रियों की सूची लेकर बोर्डिंग द्वार की ओर गए। राजेश और प्रेरणा भी अपने-अपने काउंटर छोड़कर चले गए थे। वे एस्केलेटर के सामने लगी विश्राम-कुर्सियों पर बैठे थे। राजेश बोल रहा था और प्रेरणा ध्यान से सुन रही थी। “उसका दिल बहुत बड़ा है, मगर वह अकेली है,‘‘ यह कहकर राजेश चुप हो गया। ‘हाँ, वह सब तो ठीक है, मगर...?” प्रेरणा व्यक्तिगत प्रश्न पूछना चाहती थी।

“बताया तो वह अकेली है। बहुत अकेली। उसकी जिंदगी में बहुत ऑटोग्राफ लेने वाले हैं, न जाने कितने प्रशंसक हैं, कई प्रोड्यूसर्स हैं, जो उसके पीछे-पीछे चलते हैं। कई एक्सप्लॉइटर्स हैं, जो उसकी सुंदरता को बेचते हैं। कई डायरेक्टर्स हैं, मगर उसका अपना कोई नहीं है। ‘‘

‘‘इसीलिए वह आपको अपनाना चाहती है?‘‘

“हाँ, शायद! ‘‘

‘‘शायद नहीं, यह सच है। यू आर ए कॉनफिडांट एंड... ‘‘ ‘‘एंड ए फ्रेंड, यही ना?‘‘

“हाँ, और उसके माता-पिता ?‘‘

‘‘उसकी माँ म्यूनिख की ‘अकेडमी ऑफ फाइन आर्ट्स‘ में काम करती है। पिता का बर्लिन में बिजनेस है। उसके पिता के पुरखे दूसरे वल्र्ड वार से पहले ही भारत से बर्लिन चले गए थे और फिर वहीं बस गए। माँ, ल्योनी एंडर, उसका नाम अन्ना रखना चाहती थी और उसे दुनिया की एक मशहूर एक्ट्रेस बनाना चाहती थी। वह एक आर्ट कॉनोसर है। स्टेज पर भी काम कर. चुकी है। वीकएंड पर वह ट्रेन से, सात घंटे की यात्रा करके बर्लिन आती है और जब किसी प्रोजेक्ट का काम पूरा हो जाता है, तो बर्लिन में ही रहती है।‘‘ 

‘‘कोई भाई-बहन ?‘‘

‘‘उसका एक भाई है, जो सिलिकॉन वैली में एक कंप्यूटर एक्सपर्ट है। वह भी उसी की तरह आसानी से हिंदी बोल लेता है।‘‘

‘‘वह डायरेक्टर, जो उस दिन कॉफी शॉप में मिला था, क्या उसने लोरा को अपनी फिल्म में लिया?‘‘

‘‘हाँ भी और नहीं भी।‘‘

‘मतलब?‘‘

“मैं जब उसके अपार्टमेंट में पहुँचा, तो वह बेसब्री से मेरे इंतजार में बैठी थी। मुझे देखते ही उसने अपने मैनेजर से बात की और कहा कि वह पूरा दिन मेरे साथ रहेगी, इसलिए वह कोई फोन न करे। अपने ड्राइवर को भी उस दिन के लिए छुट्टी दे दी। फिर अपनी कार में बैठाकर खुद ही मुंबई की सड़कों पर गाड़ी दौड़ाती रही। इस दौरान उसने मुझसे एक भी बात नहीं की। मैं सोचता रहा कि क्या मैं इसीलिए आया हूँ। करीब दो घंटे बाद उसने एक जगह कार रोक दी और बड़े अजीब ढंग से पूछा-‘आर यू आलसो लाइक देम?‘ मैं कुछ समझ नहीं पाया कि वह पूछना क्या चाहती है? लेकिन जब उसकी आँखों में झाँका तो वहाँ आँसू ही आँसू दिख गए। मैंने पूछा- ‘व्हाट इज द मैटर, लोरा ?‘ उसने जवाब दिया, ‘डायरेक्टर डी ने मुझे रोल ऑफर किया था। उसने कहा कि वह अपने कास्टिंग डायरेक्टर को स्क्रिप्ट लेकर भेजेगा। एक रीडिंग के लिए। मैंने यस बोला। शाम को कास्टिंग डायरेक्टर मेरे अपार्टमेंट पर आया। उसने मेरे सीन पढ़े। मैं सुनती रही। फिर वह मेरे नजदीक आया और कहा कि वह मुझे इससे भी अच्छे बैनर की फिल्मों में कास्ट करेगा, मगर मुझे कॉम्प्रोमाइज करना होगा। यू नो!‘ 

‘‘हे भगवान्!‘‘ प्रेरणा सिहर उठी। बहुत तक देर उसने कुछ नहीं पूछा। जैसे जड़ हो गई हो। फिर राजेश ही बोल पड़ा, “जैसे-तैसे उसने अपने आपको बचाया। सर्वेंट रूम से अपनी नौकरानी को बुलाया और कास्टिंग डायरेक्टर को बिल्डिंग से बाहर तो करवाया, मगर उसे एक जबर्दस्त 

धक्का लगा था। किस पर भरोसा करे? इसीलिए उसने मुझसे पूछा था-आर यू आलसो लाइक देम?‘‘

‘‘ आपने क्या कहा?‘‘

“मैं क्या कहता। उसके साथ-साथ चलता रहा, मगर दोपहर के आसपास जब हम खाना खा रहे थे तो मैंने पूछा-एम आई लाइक देम?‘‘

‘‘उसने क्या कहा?‘‘

‘कुछ नहीं। सिर्फ मुस्कराई और फिर अपनी आँखें झुकाकर नीचे देखने लगी। फिर अचानक न जाने क्या हुआ उसे, वह रोने लगी। आँसू झरझर बहने लगे। इतने आँसू ! मैं डर गया। मुझे अजीब सा भी लगा। समझ न पाया कि वह क्यों, किस बात पर रो रही है?‘‘

“पूछा नहीं आपने?‘‘

‘पूछा, मगर उसने कोई जवाब नहीं दिया। जब हम खाना खाकर रेस्तराँ से बाहर आ रहे थे, तो उसने मुझे बताया कि वह यहाँ अपनी माँ का सपना पूरा करने आई थी, लेकिन अब वह अपने बाकी के कॉण्ट्रेक्ट पूरे करके वापस जाना चाहती है। ‘‘

‘‘मगर क्यों?‘‘

“क्योंकि वह एक क्राइसिस में जी रही है। ‘‘

‘क्राइसिस?‘‘

‘हाँ...शाम के वक्त जब हम समंदर के किनारे, रेत पर नंगे पैर चल रहे थे, तो उसने मुझे एक गिफ्ट दिया। ‘‘

‘‘ गिफ्ट?‘‘

“हाँ... यह देखो यह लॉकेट,‘‘ राजेश ने अपनी जेब से बटुआ और चाँदी का बना वह लॉकेट प्रेरणा को दिखाया।

मतलब शादी से पहले का तोहफा। ‘‘

‘‘नहीं।‘‘

‘क्यों?‘‘

“ बताया ना, वह वापस जाना चाहती है और वहाँ जाकर अपना इलाज

कराएगी।‘‘

क्यों, उसे क्या हुआ है?‘‘

“मेसोथिलियोमा । ‘‘

‘‘ओ माई गॉड!‘‘

“उसके मम्मी-पापा आ रहे हैं ताकि एक-दो महीनों में वह वापस जा सके। ‘‘

अरे! ‘‘

‘‘ उसे लगता है कि वह ज्यादा दिन जिएगी नहीं। मगर मेरे माता-पिता चाहते हैं कि मैं उसके जाने से पहले उसके साथ फेरे ले लूँ ताकि उसकी दुल्हन बनने की तमन्ना पूरी हो। ‘‘

‘‘ आपकी माता जी कैसे मान गईं?‘‘

“मैं उन्हें सब बताता रहा। आज सुबह जम्मू से फिर फोन आया। मेरे माता-पिता उससे मिलना चाहते हैं। ‘‘

आप छुट्टी ले लीजिए और उनकी इच्छा पूरी कीजिए। उन्हें मुंबई ले जाइए। तब तक लोरा के मम्मी-पापा भी आ जाएँगे। क्यों?‘‘ 

‘‘शायद।’’

शायद क्या होता है, डेफिनेटली।‘‘

“प्रेरणा, यहाँ कुछ भी डेफिनेट नहीं होता, चलो।‘‘ ‘‘कहाँ?‘‘

‘वहाँ, देखो अगली फ्लाइट के पैसेंजर्स आने लगे हैं।‘‘

दोनों चैक-इन काउंटरों की तरफ चले गए और अपने-अपने काम में जुट गए। प्रेरणा, पहले वाले काउंटर पर जाकर बोर्डिंग पास देने लगी। राजेश, सुपरवाइजर का काम करते हुए अपने सहयोगियों को हिदायत देने लगा। कुछ ही देर में सभी यात्री अपना-अपना बोर्डिंग पास लेकर चले गए। काउंटर फिर से खाली हो गए। बाहर अँधेरा होने लगा था।            

***********************************************************************************

कविता

श्री सदाशिव कौतुक, इन्दौर, मो. 9893034149

विडम्बना

मनुष्य ने बारूद से

पहाड़ को पत्थर बना दिया

और पत्थर को पीसकर सीमेंट

पहाड़ ने....

नेस्तनाबूद होकर 

सीमेंट से मनुष्य का

आलीशान घर बना दिया

कैसी विडम्बना है

पहाड़ कठोर होकर भी

कोमल दिल हो गया

और मनुष्य कोमल दिल होकर

पत्थर दिल हो गया।


मिठास के लिये

समंदर बहुत गहरा है

असीमित भण्डार है पानी का

फिर भी ......

विशाल बाहें फैलाकर

नदियों का स्वागत करता है

मिठास के लिये

और यह मूर्ख मनुष्य

व्यर्थ ही बहा देता है

मुफ्त में मिला पानी

फिर तड़पता रहता है

एक चुल्लू भर 

पानी के लिये।

***********************************************************************************

आलेख

श्री राव मुकुल मान सिंह, किला शंकर गढ़, कासगंज, मो. 8449602222


राम कथा: संस्कृति की अटूट डोर

राम कथा के मर्म को महसूस करने की चाहत ने लोक प्रिय साहित्य का सर्जन किया है। आदि कवि ऋषि बाल्मीकि ने एक काव्य रचा और सदा के लिए अमर हो गये। रामायण की रचना उस समय हुई थी जब स्वयं प्रभु राम चन्द्र जी संसार में मौजूद थे। राम एक महानायक थे या मर्यादापुरुषोत्तम थे या एक साधारण इन्सान थे जिसने अपने जीवन में मूल्यों को स्थापित किया- ऐसे अनेक प्रश्न हमारे मन में उमढ़ते रहते हैं। रामायण के रचनाकाल से आजतक रामकथा पर निरंतर शोध हो रहा है।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने आम आदमी की अवधी भाषा में काव्यग्रन्थ की रचना की थी। रामचरितमानस का नित्य पाठ घरों में किया जाता है। रामचरितमानस का परायण करते हुए भगवान विष्णु के अवतार के रूप में रामचंद्र जी का पूजन किया जाता है। अवतार की लीला का आनंद, परमब्रह्म का साक्षात अस्तित्व और आदर्श जीवन जीने की कला जैसे अनेक विषयों को मानस में शामिल किया गया है। इतने शोधपरक काव्यग्रंथ की रचना करने के बाद भी बाबा तुलसीदास जी स्वीकार करते हैं कि वे रामकथा के मर्म को पूरी तरह समझ नहीं पाए हैं। वे लिखते हैं कि जब गुरु नरहरिदास रामकथा के मर्म को समझा रहे थे तब उनकी बालबुद्धि जितनी समझ सकी उतना ही रामचरितमानस में लिख सके।

मैं पुनि निज गुरु सन सुनी कथा सो सूकरखेत।

...

समझी नहीं तव बालपन

तव अति रहउ अचेत।

जब हम रामकथा की चर्चा करते हैं तो कभी साहित्य, तो कभी अध्यात्म तो कभी जीवन दर्शन को खोजने का प्रयास करते हैं, तो कभी अवतारवाद प्रमाणित करने लगते हैं, तो कभी प्रभु राम को मर्यादापुरुषोत्तम मान कर उनके 

द्वारा स्थापित मूल्यों के अनुसार जीवन जीने का प्रयास करने लगते हैं। कभी लगता है की रामकथा के मर्म को समझ लिया है परन्तु नई व्याख्या आते ही महसूस होता कि अभी बहुत कुछ जानना बाकी है और यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। रामायण में केवल राम की कथा ही नहीं है बल्कि यह हर उस आदमी की कहानी है जो अपने परिवार से जुड़ा हुआ है तथा जिसका पूरा जीवन संघर्ष से तप कर दमकता है और जो न्यूनतम साधनों के साथ अधिकतम अन्याय का सामना करने का जीवट रखता है। आज का युवा राम को मैनेजमेंट गुरु के रूप में देखता है जो लक्ष्य हासिल करने के लिए मैनेजमेंट के सिद्धांतों का पालन करते हुए अनुकर्णीय प्रयास कर अंततः अपने कार्य को सिद्ध करने में सफल हो जाता है।

अधिकांश लोग महर्षि बाल्मीकि रचित रामायण और तुलसी कृत रामचरितमानस से ही परिचित हैं। नौवी शताब्दी में ऋषि कम्बन ने काम्ब- रामायण की रचना की थी। तेरहवीं शताब्दी में आंध्र प्रदेश में तेलुगु भाषा में रंगनाथन रामायण की रचना हुई वहीं गुजरात के संत आशा ने रामलीला पदी की रचना की थी। सोलहवीं सदी में मराठी संत एकनाथ ने अवर्थ रामायण और राजस्थान में पूज्य मेहोजी ने राजस्थानी भाषा में रामायण लिखी थी। ओडिया भाषा में बलराम दास ने ओडिया रामायण और कृति दास नें बांग्ला रामायण की रचना की थी। आसाम में माधव कदली रचित असमिया रामायण बड़े चाव से गाई जाती है। यहाँ यह कहना उचित होगा कि रामकथा भारत के विभिन्न अन्चलों को एक सूत्र में पिरोने का पुनीत कार्य करती है।

उपनिवेशवादी काल में अनेक भारतवंशी गुलाम या गिरमिटिया मजदूर के रूप में अफ्रीका, सूरीनाम, फिजी, मारीशस आदि देशों में भेजे गए थे। वे अपने साथ गंगाजल और रामायण ले कर गए थे। रामायण की पोथी उनके सुख दुःख की साथी थी। माॅरीशस के सम्बन्ध में एक रोचक मान्यता है। कहते हैं कि गुरु विश्वामित्र के आश्रम के निकट श्री राम ने मारीच राक्षस को बाण से मारा था। परन्तु वह मरा नहीं था बल्कि वह बाण के वेग से उड़ता हुआ समुद्र के बीच जा गिरा। मारीच के कारण इस द्वीप का निर्माण हुआ जिसे वर्तमान में मारीशस के नाम से जाना जाता है। मारीशसवासियों ने हिन्दू धर्म, रामायण और हिंदी भाषा के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया है। जब भी मारीशसवासी भारतवर्ष घूमने आते हैं तो राम से जुड़े स्थानों के दर्शन करना नहीं भूलते। मारीशस के पूर्व मंत्री दयानन्द लाल बसन्त राय के अथक प्रयास से यहाँ एक विशाल हनुमान मन्दिर का निर्माण हुआ था। सन 1980 में भारत सरकार ने महाशिवरात्रि के पावन पर्व पर चार मीटर ऊँची मारबल की भारत में निर्मित प्रतिमा स्थापित की थी।

हिन्दू धर्म का विस्तार सुदूर पूर्व दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों में हुआ था और साथ में वहां पर रामकथा भी प्रचलित होती गयी। बर्मा, थाईलैंड, लाओस, कम्बोडिया और वियतनाम जैसे देशों में रामकथा उनकी संस्कृति का अटूट हिस्सा है। एक समय में यह क्षेत्र इंडो-चाइना के रूप में विख्यात था। भले ही आज इन देशों में बौद्ध और इस्लाम धर्म की मान्यता है परन्तु रामकथा उनकी संस्कृति का अंग है। थाईलैंड की जीवन शैली और संस्कृति पर रामायण का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। थाई- नरेश अपने आप को राम के वंशज मानते थे और थाईलैंड की प्राचीन 

राजधानी का नाम अयुध्या था। थाई वासिओं की मान्यता है कि राम का जन्म इसी अयुध्या में हुआ था। थाई रामायण को रामाकीन या रामकियेन भी कहते हैं जो उनकी राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक है।

थाई नृत्य और सांस्कृतिक ड्रामा में रामकथाओं का मंचन किया जाता है। थाई राजाओं ने रामचरित के अभिनय की दीक्षा भी ली थी। थाई रामायण भारतीय रामायण से थोड़ी अलग है। थाई रामकथा पर जैन- रामायण, बौद्ध- रामायण, कम्बन रामकथा की छाप दिखाई देती है। थाईलैंड की राजनितिक, सामाजिक परिस्थिति का असर थाई रामकथा पर दिखाई देता है।

वर्तमान लाओस देश एक समय में लाव प्रदेश कहलाता था जो थाईलैंड के अधीन क्षेत्र था। उन्होंने अपनी राष्ट्रीय अस्मिता को आकार देने के लिए रामकथा की शरण ली और अंततः थाई प्रभुता से मुक्ति पाई और एक स्वतन्त्र राष्ट्र स्थापित किया। लाओस की रामायण को फ्रा लाक फ्रा लाम के नाम से जाना जाता है। लाओस की रामायण का प्रकाशन लाव लिपि में भारतीय सांस्कृतिक सम्पर्क परिषद् ने कराया था जिसका सम्पादन डाॅ. सच्चीदानन्द सहाय ने किया था। लाव लिपि थाई लिपि से मिलती जुलती है जो कि भारत की पल्लव लिपि का परिष्कृत रूप है। लाव रामायण की मूल संरचना बौद्ध जातक के रूप में है। इसमें राम एक 

बौधिसत्व के रूप में अवतीर्ण होते हैं। इस काव्यग्रंथ का पूर्ण विकसित रूप 1850 ई. में लिखा गया था।

फिलिपीन्स में भी रामकथा जनमानस में लोकप्रिय है। फिलिपीन्स का एक प्रसिद्ध नृत्य है सिंगकिल जो की रामकथा से प्रेरित माना जाता है। इसके अलावा यहाँ का एक ग्रन्थ में महारादीलावन में राम तथा रावण की कथा का जिक्र मिलता है, फिलिपीन्स के साथ साथ ब्रुनोई, जावा, सुमात्रा, बाली, कम्बोडिया और वियतनाम में भी रामकथा को सांस्कृतिक नृत्य एवम् प्राचीन ग्रंथों में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।

रामकथा में भक्ति, साहित्य, दर्शन और चिंतन आदि का आनन्द प्राप्त होता है। राम का चरित्र एवम् जीवन यात्रा जनमानस के लिए बहुविधि आदर्श तथा संदेश ग्रहण कराता है। लोग आदर्श के रूप में राम जैसा पुत्र, सीता जैसी पत्नी, लक्ष्मण, भारत व शत्रुघ्न जैसे भाई, हनुमान जैसे सेवक के साथ साथ कुटिलता के रूप में कैकयी और अहंकार के सन्दर्भ में रावण का हवाला देते हैं। रामगाथा भारतवासियों के ह्रदय में बसी हुई है साथ ही संसार के अन्य देशों में भी उतनी ही लोकप्रिय है। इसमें वह सब कुछ है जो वेद, पुराण शास्त्र, उपनिषद् समेत समस्त चराचर जगत में विद्यमान है।

नानापुराण निगमागम समप्तम यद।

रामायणे निगदितम क्वचिदन्यतोपी।।

***********************************************************************************

आलेख

डॉ. मीरारामनिवास, गांधीनगर गुजरात, मो. 99784 05694


‘‘गुजराती भाषा साहित्य में प्रेम और सद्भाव’’

सोमनाथ ज्योतिर्लिंग, द्वारिकापुरी धाम और अंबाजी, पावागढ़ दो दो शक्तिपीठों का प्रदेश गुजरात अपनी अलग ही पहचान रखता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार चंद्रमा का प्रभास पाटन (सोमनाथ )आकर शिव आराधन करना, श्री कृष्ण का द्वारिका में आकर बसना गुजरात की सांस्कृतिक विरासत को आध्यात्मिक चेतना से समृद्ध कर प्रेम और सद्भाव के द्वार खोलता है।

गुजराती भाषा साहित्य का नरसी -मीरा युग प्रेम और सद्भाव का सुंदर संगम रहा है।

नरसीजी के समय में भक्ति और ब्रजभाषा की एक शाला की स्थापना गुजरात में हुई, जिसे नरसी -मीरा युग के नाम से जाना जाता है। गुजरात की उदार आतिथ्य भावना के कारण देश के कोने कोने से संत, विद्वान, व्यापारी और पर्यटक आते जाते रहे ।उदार राजाओं के संरक्षण में भाषा,ज्ञान संस्कृति और संस्कारों का आदान प्रदान निरंतर बढ़ता रहा।संस्कृत भाषा से क्रमशः विकसित शौरसैनी प्राकृत के परवर्ती रुप नागर अपभ्रंश से गुजराती भाषा का विकास हुआ है। गुजराती भाषा साहित्य पर भक्ति आंदोलन का प्रभाव रहा, इस कारण जीवन मूल्यों का साहित्य में समावेश रहा।

नरसी मेहता गुजराती भाषा साहित्य के प्रथम कवि माने जाते हैं। नरसी मेहता को गुजराती साहित्य में वही स्थान दिया गया है जो हिंदी साहित्य में भक्त कवि सूरदास जी का है। नरसीजी की रचनाओं में भक्ति और सद्भाव की रसधार निरंतर बही है। उनकी भक्ति रचना "वैष्णव जन तो तेने कहिए" राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय फलक पर छाई हुई है। भक्तिकालीन कवयित्री मीराबाई उनसे मिलने राजस्थान से गुजरात आई थी।दोनों के मध्य भाषा साहित्य का आदान प्रदान हुआ। मीराबाई की कुछ भक्ति रचनाएं गुजराती भाषा में उपलब्ध हैं। नरसी जी ने सुदामा चरित ,गोविंद गमन, श्रृंगार माला, दान- लीला, जैसी उत्कृष्ट कृतियां प्रदान कर गुजराती साहित्य को समृद्ध किया है तथा मानवीय मूल्यों को स्थापित किया है।

नरसीजी की प्रख्यात रचना "वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीड़ पराई जाणे रे" मानवीय मूल्यों,प्रेम और सद्भाव से ओतप्रोत है।" वैष्णव जन तो तेने कहिए"आजतक देश और विदेश में आनंद की गंगा बहा रही है। इस भक्ति रचना में पराई पीड़ा को समझने, असत्य से दूर रहने, परस्पर प्रेम,परोपकार का भाव रखने, अहंकार, निंदा मोह माया आदि से दूर रहने की बात कही है। नरसीजी ने मन वचन कर्म से किसी को भी दुख न पहुंचाने का उत्कृष्ट संदेश दिया है।

गुजराती भाषा साहित्य के आधुनिक कवियों में कवि नर्मद,कवि कलापी,कवि झवेरचंद मेघाणीजी आदि ने अपने लेखन में सर्वजनहित एवं सर्वोपदेश के भाव को स्थान दिया है। कवि कलापी की रचना " રે પંખીડા સુખ થી ચુગઝો अर्थात हे पंछी! तुम सुख से चुगना। कवि पंछी के माध्यम से सबके योगक्षेम की कामना करते दिखाई देते हैं।अपनी कविता कुसुंबी नो रंग में कवि झवेर चंद्र जी लिखते हैं 'વસે છે ક્રોધ વૈરી ચિત મા તેણે ત્યજી દે' अर्थात मन का दुश्मन है, क्रोध को त्याग दो। प्राणी मात्र के लिए अपने हृदय में प्रेम रखो, अपने दुश्मन के प्रति भी प्यार रखो।

लेखक बाला शंकर कंथारिया लिखित कविता 'કોણે રે વીધિયો કોણ રે અપરાધી માનવ જાત નો' अर्थात हिंसा मानवता के विरुद्ध बड़ा अपराध है। मन , वचन और कर्म से किसी के भी प्रति हिंसक भाव और व्यवहार न करें। कवि बालमुकुंद दवे भी अपनी रचना में क्षमाशीलता का उपदेश देते हुए सबके प्रति कृतज्ञ होने का संदेश देते हैं। છમા કૈક ની માંગવી છે માંગવું છે આભાર જતા। अपने, पराये, शत्रु,मित्र सभी के साथ नम्र एवं उदार व्यवहार रखना ही धर्म है। गुजराती कवि श्री उश्नस परस्पर प्रेम की बात करते हैं।कवि रामनारायण मिश्र तुलसीदास जी की तरह दुर्जन को भी नमन करने की बात करते हुए लिखते हैं " પાંચમા પ્રણામ મ્હારા વૈરીડાને કહજો રે" मेरे वैरी को मेरा नमन कहना।

महात्मा गांधीजी लिखित 'गीता बोध ', 'सत्य के प्रयोग' जैसी साहित्यिक कृतियां समाज में नैतिकता, सदाचार एवं समरसता को स्थापित करती हैं। गांधीजी का अहिंसा आंदोलन, उनके तीन बंदर मानवीय मूल्यों की मिसाल हैं।कहानीकार पन्नालाल पटेल लिखित "मानवीनी भवाई" उपन्यास जनजीवन के सत्य को उजागर करते हुए श्रम ,संवेदना, प्रेम और सद्भाव की प्रेरणा देता है। लेखक के एम मुंशी ने पौराणिक कथाओं को लेकर अपनी रचनाएं लिखी जिनके द्वारा पौराणिक नायकों के चरित्र द्वारा नैतिक मूल्यों को समाज तक पहुंचाने का उत्कृष्ट कार्य किया गया है।

हमारा देश बहुभाषी देश है,हर राज्य की अपनी सांस्कृतिक विरासत है। एकता में अनेकता ही भारतभूमि की विशेषता है। भारत को समझने के लिए हिंदी साहित्य के साथ स्थानीय भाषा साहित्य को समझना भी जरूरी है। हिंदी भारत की जन भाषा है। भारत को एक सूत्र में पिरोकर अखंडता का एहसास कराने की शक्ति रखती है। भारतीय साहित्य के मूल सिद्धांत प्रेम, सद्भाव और एकता हैं। राष्ट्रीय लेखन और प्रांतीय लेखन में अनेकता के साथ एकता विद्यमान है। भारतीय संस्कृति को समझने के लिए हिंदी के साथ साथ प्रांतीय भाषा साहित्य को समझना जरूरी है। गुजरात राजस्थान मध्यप्रदेश आदि हिंदी राज्यों से जुड़ा हुआ है। यहां हिंदी भाषी बहुतायत से रहते हैं।अत: हिंदी भाषा साहित्य की स्थिति काफी मजबूत है।

हिंदी का कोई विरोध नहीं है।

***********************************************************************************

कविता

डाॅ. परमजीत ओबराय, ओमान

शब्दों

शब्दों आओ,

कल्पनाएँ बिखरी हुईं हैं।

विचार राह देखते हैं,

बुद्धि चलने लगी है,

कलम भी हाथ में आने को,

आतुर है।


पृष्ठ भी खाली हैं

जैसे सजे हैं तुम्हारे लिए।

शब्दों आओ

भावनाएं अंतर्मन में,

हिलोरें ले रहीं हैं।

कहीं ज्वालामुखी की तरह,

वे भीतरी गुहा में-

धधक न उठें,

कहीं तुम जल न जाओ,

इसी शीत-शांत वातावरण में।

तुम आओ-

मेरे विचारों को सजाओ,

भाव व विचार-

आश्रित हैं तुम पर,

तुम आ इन्हें समेटो,

सब के सम्मुख पृष्ठ पर उतरकर।

मैं तुम्हारा आकार-

हाथ से बनाऊंगी,

तुम कितने महान हो,

सब समझ गए हैं।

शब्दों में गहराई है,

विचारों की

विचारों को यदि तुम,

थाह न दो अपने आँगन में,

तो विचार खड़ा हो,

दस्तक देता रहेगा,

तुम्हारे द्वार पर।

इसलिए तुम आओ,

विचारों कल्पनाओं,

और भावों को,

अपना रूप वाला, आभूषण पहनाओ।

तब न हो ये सब, तो व्यर्थ है,

तुम हो-

भी तो इनका अर्थ है।

नर संहार

वर्तमान समय में बढ़ता,

जा रहा नरसंहार,

मनुष्य मनुष्य का शत्रु,

बनने को बैठा है तैयार।

नरसंहार के बाद.

लगे लाशों के ढेर.

देखा न जिन्हें।

किसी ने आकर,

होने लगी सवेर।

रक्त से हुए बर्बाद 

कई घर बार, मिट्टी भी चुप थी,

पर अब करने लगी पुकार ।

हे मानव, तू पुत्र है मेरा,

फिर क्यों रहा -

मुझ पर इतना अत्याचार ?

खून बहा पहन रहा तू,

खूब जीत का हार ।

कितनो की गोद सूनी कर,

कितनो के सिंदूर-मिटा,

कितनो के भाई-बहन ले,

कितना किया,

तूने अत्याचार ?

इसका नहीं है-

तुझे एहसास ।

खून धरा पर,

पड़ा सूख गया,

देख न आई तुझे दया ?

सोच ले रहा तू.

उन सबकी बददुआ,

जिनका खुशियों का,

आँगन सूना तूने किया ।

भर रहे मन में तेरे,

क्यों कुविचार ?

दया व परोपकार है गहना तेरा,

पहन इन्हें तू,

जीवन अपना सुधार ।

औरों के जीवन की,

जब न छिनेगा.

तू बहार,

तभी खत्म होगा यह संहार,

सुकर्मों को संचित कर

भविष्य अपना ले सुधार।


***********************************************************************************

कहानी

सुश्री निशा चंद्रा, अहमदाबाद, मो. 9662095464

अघोरी

अनंता बड़ी परम शांति से उस कुछ कुछ जलती बुझती सी धूनी के पास बैठ गई। कैसी परम शांति है। कोई तो यहां रहता होगा। उसने देखा,दीवार पर लटका एक कोट जैसा वस्त्र और एक अंगोछा। कोने में रखे कुछ कपड़े और एक बड़ा सा तांबे का लोटा। ऋषिकेश घूमने आई है वह। शायद उसके अशांत चित्त को यहां शांति मिल जाए। मंदिरों, मठों में घूमते हुए गंगा के किनारे घूमते हुए कुछ दूर निकल गई। एक कुटिया थी और वहां जल रही थी एक धूनी। धूनी के पास गड़ा हुआ था एक चिमटा और त्रिशूल। पास बहती गंगा। जन जीवन से दूर कुछ-कुछ जंगल जैसे वातावरण में ये कुटिया। कितनी अद्भुत शांति है और कैसा विहंगम दृश्य। गंगा को छूकर आती शीतल मंद, सुगंधित हवा के झोंकों से उसकी आंखें मुदंने लगी। कुछ दिनों पहले तक जीवन में कैसी सुख शांति थी। उड़ी-उड़ी फिरती थी। कितनी रौनक थी। किसी दुख-दर्द, चिंता फिकर के लिए कोई स्थान नहीं। बस मस्ती भरे पल, बे फिक्रे दिन झिलमिलाते बरस थे। कभी सोचा भी न था महज दो महीने में जिन्दगी ऐसे बदल जाएगी। आंसुओं के बोझ से पलकें मुंदने लगी कि एक शांत ठंडे स्वर से चैंकी वह ‘कौन हो तुम ? और यहां क्या कर रही हो ?‘

उसने देखा, उसके सामने पूरी देह पर भस्म लगाए हुए एक सन्यासी खड़ा है। देह पर भस्म लगी थी पर चेहरे पर मात्र एक तिलक। वह एक खूबसूरत युवक था। गोरा रंग, कंधे तक झूलते बाल, अधमुंदी सी भारी पलकें और तेज से देदीप्यमान आंखें।

‘मैं पथिक हूं। यहां से गुजर रही थी। किसी सम्मोहन में बंधी यहां तक चली आई‘।

‘पर तुम कौन हो‘

वह हंसा,

‘मैं, मैं कौन हूं? ये कुटिया मेरी है।‘

‘अच्छा, वह हौले से मुस्कुराई और बोली

‘अच्छा ये तो बताओ, दिखने में तो अच्छे खासे, पढ़े लिखे लग रहे हो। फिर ये अघोरी का भेस। क्यों बने तुम अघोरी ?‘

अघोरी ने उसे लाल लाल आंखों से देखा। धूनी के पास गड़े हुए चिमटे को उखाड़ा और जोर से धूनी में पटक कर ये जा और वह जा।

वह धूनी में से निकलती धूम्र रेखा को अपलक देखती रही। ऐसा तो क्या कह दिया उसने। बस इतना ही पूछा ना कि अघोरी कैसे बने। ना बताता, पर सन्यासी होने के बाद इतना गुस्सा। अपमान और दुख के वशीभूत उसकी आंखों से आंसू निकले और धूनी में जा गिरे।

‘ये क्या किया तुमने। धूनी को अपवित्र कर दिया। कब से प्रज्वलित है ये धूनी।‘

अघोरी चीखा ये तो चला गया था। कहां से आ गया। क्या जादूगर भी है।

बड़े सहज स्वर में अनंता ने कहा,

‘अपवित्र नहीं, पवित्र कर दिया। ये अश्रुजल नहीं अघोरी, भावनाओं का पवित्र तर्पण है।‘

वह फिर चीखा, ‘क्या अघोरी अघोरी लगा रखा है। नहीं हूं मैं अघोरी। अघोरी बनने में बरसों की तपस्या समाहित होती है। होम कर देना पड़ता है, चिता की राख में। बस भेस है अघोरी का।‘

‘भेस धारण किया है तो कहीं छुपा हुआ बीज भी होगा‘

‘तुम जाती क्यों नहीं, क्यों मेरी जिन्दगी के टुकड़े करने में लगी हो।‘

‘कहानियां लिखती हूं मैं। एक तुम्हारी भी‘

सन्यासियों की कोई कहानी नहीं होती।‘

‘सन्यासी ? अभी तो तुमने कहा...  ‘

‘अच्छा नाम तो बताओ, तुम्हारा नाम क्या है अघोरी‘ 

‘संन्यासियों का कोई नाम नहीं होता‘

‘सन्यासी बनने से पहले तो कुछ होगा‘ 

‘भूल गया‘

‘भूलना इतना आसान होता है क्या‘

‘क्यों हाथ धोकर मेरे पीछे पड़ी हो। लौट जाओ, जहां से आई हो‘

काश लौटना इतना आसान होता, उसने मन में सोचा।

‘अच्छा ना बताओ नाम, बस इतना कि क्या था ऐसा जिसने तुम्हें अघोरी बनने को विवश किया‘

‘कोने में रखा हुआ लोटा देख रही हो‘

कुछ क्षण तक वह उस बड़े से तांबे के लोटे को देखती रही। चेहरा घुमाया तो देखा, अघोरी की पलकें मुंदी हैं और आंखों में से झर झर गंगा जमुना बह रही है।

कुछ देर बाद अघोरी ने आंखें खोली और उसका हाथ थाम लिया। उसकी ठंडी नीली छुअन को अनंता ने महसूस किया। अघोरी के समग्र अस्तित्व में एक अनुनाद था।

‘चलो मेरे साथ‘

वह मंत्रमुग्ध सर्पिणी सी उसके पीछे पीछे चलने लगी। गंगा के किनारे जाकर वह रुक गया।

‘इसी मंदाकिनी में मैंने उस लोटे में भरकर जल कर राख हो गए चार देह अवशेषों को प्रवाहित किया है। ‘

अनंता ने सन्यासी के हाथ को कसकर पकड़ लिया।

‘रहने दो सन्यासी। मत सुनाओ।‘

कितने खुशनुमा दिन थे। भरा पूरा घर। मां, बाबा, एक भाई एक बहन। बड़ा सा घर। चारों तरफ हरियाली। रात दिन हंसी ठहाकों से गुलजार घर। मित्रों-रिश्तेदारों से भरा घर। मैं तीनों भाई बहन में सब से छोटा। मां का लाडला बेटा। उस दिन हमारे घर में उत्सव का वातावरण हो गया जिस दिन मेरा मेडिकल में एडमिशन हो गया। सबकी खुशी का पार नहीं। सब कुछ ठीक चल रहा था। मैं मेडिकल के थर्ड ईयर में था। एक दिन घर लौटा तो देखा, मां बुखार में तप रही थीं। मैंने उन्हें दवाई दी। टैस्ट करवाया। कुछ नहीं था। मलेरिया भी नहीं। दो दिन के साधारण बुखार में मां चल बसी। सब से छोटा होने की वजह से मैं मां का लाडला बेटा था। मेरी हजार गलतियां वह अपने आंचल तले ढांप देती थी। मां गई और घर की रौनक भी लेती गई। जो घर हमेशा खिलखिलाता था, अचानक चुप हो गया। सब अपना अपना काम करते और अपने कमरे में चले जाते। इसी लोटे में राख हो गए सुंदर देह की अस्थियां लेकर इसी तट पर आया था और सौंप दिया था मां गंगा को।

अनंता की हथेली पसीने से भीग गई।

‘मां को गए पांच महीने भी नहीं बीते थे और एक रोड ऐक्सिडेंट में भाई और बहन भी मुझे छोड़कर चले गए। इसी लोटे में उनको भी भरकर लाया और मां के पास भेज दिया। तीन तीन मृत्यु के सदमे ने बाबा को एकदम मौन कर दिया। ना किसी से बात, ना कहीं आना जाना और ना ही पूजा पाठ। बस अपने कमरे में बैठे रहते और घंटों मां, भाई- बहन की तस्वीर को निहारते रहते। मैं मेडिकल कॉलेज से आता तो देखता, जिस स्थिति में उन्हें सुबह छोड़कर गया था, उसी स्थित प्रज्ञ मुद्रा में बैठे हैं। मैं उन्हें देखता, प्यार से हाथ फिराता। वह मेरी तरफ करुणा पूर्ण दृष्टि से देखते और जाकर बिस्तर पर लेट जाते।

नीरस से दिन, महीने, साल बीते। मेरा मेडिकल कॉलेज खत्म हुआ। जिस दिन डिग्री मिली, उसी रात बाबा चल बसे। दो साल में चार मौत। मैं अपना मानसिक संतुलन खो चुका था। पिताजी की अस्थियां गंगा में बहायी उसके साथ ही बहा दी विदेशी परफ्यूम्स की बोतलें, महंगी महंगी घड़ियां, सोने-हीरे की अंगूठियां, असंख्य अधूरे रह गए सपने और पांच साल के अथक परिश्रम से अर्जित की गई मेडिकल की डिग्री। उसके साथ ही जो मुझे अकेला छोड़कर चले गए, उनकी यादें। सब गंगा में बहा दिया। अब मैं खाली था। हर तरह से। वैराग्य का चरम था ये। एक अघोरी का शिष्य बन गया। अब मैं डाॅ. अबीर नहीं,अघोरी भैरवानंद हूं। अब रात दिन धूनी में अपने बचे खुचे सपनों, संबंधों की आहुति देता हूं। अब ये धूनी, चिमटा, त्रिशूल और कमंडल ही मेरा परिवार है और बैरागी शिव मेरे गुरु।

शिवाय नमः, शिवाय नमः, कहते हुए भैरवानंद ने अपनी तप्त हथेली, अनंता की ठंडी हथेली से निकाली और ये जा और वह जा।

सूर्य रश्मियों ने निर्मल जल की सतह पर असंख्य सितारे जगमगा दिए है। ये अक्टूबर के बीच के दिन थे,सर्दियों की आहट लिए हुए। नदी में पांव डाले वह बैठी रही निर्लिप्त, निशब्द। थोड़ी देर में संध्या घनीभूत हो जाएगी। सूर्य रश्मियों की जगह गंगा दियों से भर जाएगी।

कुछ याद करके उसकी आंखें भर आई हैं।

अचानक उसने महसूस किया, अबीर पास में खड़ा है।

‘अबीर, तुम? तुम तो चले गए थे‘

‘अबीर नहीं, भैरवानंद। भैरवानंद कहो‘

अनंता ने देखा, उसकी आंखें एकदम लाल हो रही थी। क्या चिलम चढ़ा के आया होगा। 

‘ कब तक बैठी रहोगी यहां अकेली। कहां रुकी हो। अकेली हो या कोई साथ है।‘

वह हंसी।

‘अच्छा तो अघोरी को भी जिज्ञासा होती है‘

‘अघोरी भी इन्सान होता है और अभी वहां तक नहीं पहुंचा हूं जहां जिज्ञासा समाप्त हो जाती है। यात्रा अभी जारी है‘

क्या बताए? टूट टूट कर जिन्दगी के आंगन में गिरते हुए क्षण। काल चक्र कैसे, उसे भी एक पल में अनाथ बना गया। कैसे बताए।

‘अबीर‘ कहने के साथ ही दर्द उसकी आंखों से झरने लगा।

जिन्दगी बहुत खूबसूरत थी। मुंबई के बहुत बड़े बिजनेस परिवार की इकलौती बेटी अनंता। समुद्र के किनारे बहुत बड़ा बंगला। घर में आज खूब चहल-पहल है। रात की फ्लाइट से अनंता आगे की पढ़ाई के लिए न्यूयॉर्क जा रही है। जहां खुशी है, वहीं मम्मी पापा से दूर जाने का गम। पता नहीं अब कब आएगी। दो साल बाद, तीन साल बाद। एयरपोर्ट पर जी भरकर दोनों को प्यार किया। नजरों में भर लिया। कौन जानता था कि नियति अपना खेल, खेल चुकी है। ये चेहरे अब सिर्फ नजरों में ही बसे रह जाएंगे। अब कभी नहीं देख पाएगी उन्हें। दिसंबर में गई और मार्च में अपने पूरे वेग के साथ कोरोना ने विश्व में अपनी जड़ें जमा ली। आठ महीने बाद पहले पापा को कोरोना हुआ। फिर मां को। पहले पापा गए, फिर मां। करोड़ों रुपए के मालिक का अंतिम संस्कार लावारिसों की तरह कर दिया गया। वैसे ही मां का। फ्लाइट बंद थीं। वह चाहकर भी नहीं आ सकती थी। अब पढ़ने में बिल्कुल मन नहीं लगता था। यदि एक दिन यही होना है तो उसके लिए इतनी मेहनत क्यों। नहीं पढ़ना उसे। जैसे ही कोरोना का जोर कम हुआ, वह वापस आ गई मुंबई। अब घर काटने को दौड़ता था। चली आई हरिद्वार। शायद बिखरा मन कुछ पा ले। भटक रही थी कि तुम मिल गए।

‘मैंने पूछा नहीं, तुम्हारा घर कहां है अघोरी‘

‘पहाड़ों की रानी, मसूरी में। बहुत सुंदर घर। लेकिन अब ताला लगा है। एक साल पहले जब आखिरी अस्थि कलश लेकर यहां आया तो सब छोड़ दिया। घर, घर का विस्तृत आंगन, झूमते हुए बड़े बड़े वृक्ष, घर में सिमटी यादें सब कुछ। वैराग्य में डूबा मन और कुछ सोचना ही नहीं चाहता था। एक साधू से दीक्षा ली और चल पड़ा एक अलग राह पर। जहां स्मृतियों के लिए भी कोई जगह नहीं।

‘क्या अब एक और अलग राह पर चलोगे मेरे साथ‘

अनंता ने अपना हाथ बढ़ाया।

वह हंसा। विद्रूपता भरी हंसी और मुड़कर चला गया।

संध्या घनीभूत हो रही है। सांध्य आरती के घंटे बज उठे हैं। आकाश में तारे टिमटिमा रहे हैं। गंगा का जल शांत हो चुका है। तट पर बैठी वह सोच रही है, इस अनंत विश्व में वह कहां जाए कहां।

आंख बंद कर वह शिव का ध्यान करने लगी। क्या करे, यहीं रह जाए या कहीं और तलाश करे अपने खंड खंड होते अस्तित्व की।

कंधे पर किसी का स्पर्श पाकर उसने आंखें खोल दी। हाथ में चिमटा लिए, भस्म पुती देह के साथ वह खड़ा था अघोरी

‘मेरी भैरवी बनोगी अनु‘

अपना हाथ अघोरी के हाथ में देते हुए वह सोच रही है, यही है उसकी नियति, यही है उसका ठौर।

***********************************************************************************कहानी


डाॅ. आशा पाण्डेय, कैंप, अमरावती, मो. 9422917252

सुरक्षा


प्लेटफार्म नंबर एक के यात्रियों के लिये बनी बेंच पर वह बैठी है। उम्र कोई पच्चीस से अठाईस के आस पास। आखें बड़ी और भाव प्रवण। नाक लम्बी, होठ पतले, रंग मटमैला किन्तु पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है की अगर साबुन से रगड़-रगड़ कर नहला दिया जाये तो इस मटमैले रंग के नीचे से झक गुलाबी गोरा रंग निकल कर सबको विस्मित कर देगा। बेतरतीब ढंग से पहनी गई मैली साड़ी का लगभग आधा हिस्सा नीचे लटक रहा है। बाल कंधो पर बिखरें हैं, जिसे देख कर ये तो नहीं लगता की सोंदर्य-बोध के कारण उसने जान-बूझ कर बालों को कंधो पे फैलाया होगा, किन्तु कंधे पर फैले बाल उसकी सुन्दरता को बढ़ा जरुर रहे है। दोनों हाथ की कलाइयाँ कांच की चूड़ियों से भरी है। चूड़ियों के माप और रंग में कोई समानता नहीं है। कोई बड़ी, कोई छोटी, कोई हरी, कोई लाल। ऐसा लगता है कि चूड़ी की दुकान पर जा कर चूड़ियाँ मांग लेती होगी, दुकानदार भी अधिक ध्यान न देते हुए एकाध चूड़ी दे देता होगा और लम्बे समय तक ये सिलसिला चलते रहने के कारण आज उसकी कलाई नई-पुरानी रंग-बिरंगी चूडियों से भरी है।

अब उसने अपने दोनों पैर उपर उठा लिये और बेंच पर ही पालथी मार कर बैठ गई। उसके पास एक थैला है, वह थैले को ऊपर उठा कर अपनी गोद में रख लेती है, बार बार उसमे कुछ देखती है, हाथ से उसे छूती है, कुछ बोलती भी है फिर बड़ी मोहक अदा से मुस्कुराकर शर्मा जाती है।

रेलवे प्लेटफार्म जीवन का क्षणिक ठहराव है। मंजिल पर पहुचने के मार्ग का एक पड़ाव मात्र। किन्तु सरपट भागती जिंदगी के बीच कुछ ऐसे लोग भी है जो जन्म से मृत्यु पर्यंत यहीं ठहर कर रह जाते हैं। प्लेटफार्म पर बैठ कर भी किसी ट्रेन के आने का इंतजार उन्हें नहीं रहता। शायद उस महिला को भी कही नहीं जाना है। यही प्लेटफार्म ही उसका निवास है। यहाँ के शोर-शराबे से बिलकुल अनभिज्ञ-सी अपनी ही दुनिया में खोई है वह। उसके बैठने के बाद भी उस बड़ी-सी बेंच पर बहुत-सी जगह खाली है। उसकी एक निष्ठ नीरव मुस्कान से प्रभावित हो कर कुछ पुरुष मुसाफिर उसके पास बैठने के इरादे से वहां आते भी हैं। किन्तु महिला को ध्यान से देखते ही वे बैठने की इच्छा त्याग कर आगे बढ़ जाते हैं। उसे कोई परवाह भी नहीं है ? लोग आएँ, जाएं, बैठें कुछ भी फर्क नहीं पड़ता उसे। उसने ध्यान ही कब दिया कि लोग वहां बैठने आ रहे हैं या फिर बिना बैठे ही आगे बढ़ जा रहे हैं। वह स्वयं में संतुष्ट एकाग्र तनमयता से सुखानुभूति में डूबी है।

अब उसने अपने पैर फिर नीचे लटका लिए हैं। पैर लटकाते समय बड़े ध्यान से वह नीचे देखती है। ज़मीन पर लथड़ रही साडी को थोड़ा सा उठती है फिर उसी हालत में छोड़ कर मुस्कुरा देती है। हृदय में उठ रही तरंगों की गति के भावनात्मक पक्ष को नापने का कोई यंत्र होता तो यह कहना आसान होता कि भीड़ भरी इस जगह पर बैठ कर भी वह किसी गहरे अलौकिक सुख में किस हद तक डूब चुकी है। बीच-बीच में मुस्कुराकर वह अपनी उस खुशी को थोड़ा-बहुत व्यक्त कर रही है।

एक अधेड़-सा पुरुष उस बेंच की तरफ बढ़ता है। गहरा काला रंग, सामान्य-सा चेहरा, किन्तु आखों में चमक। पुरुष के पास भी एक मटमैला सा थैला है। बेंच के पास जा कर वह इधा-उधर देखता है, फिर थैला नीचे रख कर बेंच पर बैठ जाता है। इसे भी किसी ट्रेन का इंतजार नहीं है। लगता है वह भी इसी प्लेटफार्म का नियमित वाशिंदा है।

पुरुष ने आपना थैला उठाया, उसमे से कुछ निकाल कर महिला की तरफ बढ़ाया और इसी बीच वह महिला के थोड़ा नज़दीक सरक आया। महिला अपनी बड़ी-बड़ी आँखों को उठा कर गहरे आश्चर्य से उस पुरुष को देखती है फिर उस सामान को जो वह उसे देना चाह रहा है और अंत में दूसरी तरफ मुंह कर के पुनः अपने में ही व्यस्त हो जाती है। हाथ में ली हुई उस वस्तु को वही बेंच पर रख पुरुष ने महिला की नीचे लथड़ रही साड़ी को उठा कर बड़ी आत्मीयता से उसके शारीर पर डाल दिया। महिला ने फिर उस पुरुष की तरफ नजर उठाई। पुरुष मुस्कुरा दिया, महिला शांत रही। अब वह पुरुष उस महिला के थोड़ा और नज़दीक खिसक आया। जब महिला ने कोई प्रतिकार नहीं किया तब पुरुष ने महिला के हाथ को अपने हाथो में ले उसकी चूड़ियों की प्रशंसा करने लगा। अपनी चूड़ियों को देख कर महिला एक बार फिर मुस्कुरा दी। यद्यपि उसकी मुस्कान में उस पुरुष की उपास्थिति की खुशी का भाव तनिक भी नहीं था किन्तु पुरुष की हिम्मत बढ़ गई। अब वह उस महिला से कुछ कह रहा है जिसे अनसुना कर वह इधर-उधर देखने लगी। पुरुष थोड़ी देर शांत बैठा रहा फिर महिला का हाथ पकड़ कर बड़ी मीठी आवाज़ में बोला- “चलो”।

महिला ने उसे प्रश्न भरी नजर से देखा जैसे पूछना चाह रही हो- “कहाँ “ 

पुरुष हाथ से इशारा करते हुए बोला- “वहाँ ...पीछे।”

महिला अपना सिर खुजलाने लगी। पुरुष का हाथ महिला के कंधे पर था जिसे हटा कर वह वहीँ खड़े ठेले के पास आ गई। पास खड़े मूंगफली वाले ने एक कागज में लपेट कर थोड़ी-सी मूंगफली उसकी तरफ बढ़ाई। महिला निर्विकार भाव से मूंगफली देने वाले की तरफ देखने लगी। 

“ले, पकड़ न“ मूंगफली वाले ने आग्रह किया। महिला बिना मूंगफली लिये ही वहां से थोड़ा हट कर खाली पड़ी ट्रेन की पटरियों को देखने लगी। फिर सिग्नल की तरफ नज़र दौड़ाई।

“गाड़ी आने का इंतजार कर रही है क्या?” मूंगफली वाले ने पूछा। अब तक वह भी उसके पास पहुँच गया था। 

“इसका कोई आने वाला होगा” चने चुरमुरे वाले ने चुटकी ली।

मालगाड़ी से उतारे गये सामानों के बड़े-बड़े बक्से प्लेटफार्म पर रखे थे। रेलवे कर्मचारी उन बक्सों को हाथ गाडियों में लाद कर ले जाने लगे जिससे पूरे  प्लेटफार्म पर धड़-धड़ की आवाज फैल गई। महिला को इन हाथ गाडियों के शोर से थोड़ी राहत मिली। वह फिर से ठेले के पास आकर खड़ी हो गई ? ठेला तेल, कंघी, पाउडर, ब्रश, पेस्ट आदि यात्रा में उपयोग में आने वाले सामानों से भरा था। प्लास्टिक के कुछ खिलौने भी थे। महिला एक गुडिया उठा लेती है। ठेले वाला जो अब तक चुप बैठा सब के क्रिया-कलापों को देख रहा था,एकदम चिल्ला कर महिला को डाटा- “ रख...जल्दी रख, उसे लेकर नहीं जाना।”

महिला बड़े आश्चर्य से उसे देखने लगी फिर कुछ प्रसन्न हो कर गुडिया रख दी। वह पुरुष जो बेंच पर उसके पास बैठा था, आगे बढ़ कर उस ठेले वाले से बोला- “क्या बात करता है यार, पैसे लेलेना... मै दे दूंगा पैसे”।

“रख दो... मैंने कहा रक्खो...मुझे बेचना नहीं है” ठेले वाले ने क्रोध भरी आवाज में कहा। पुरुष ने भी नाराज होते हुए गुड़िया रख दी। महिला अब भी ठेले के पास ही खड़ी है। उसके बगल में एक चाय वाला खड़ा है, उसने महिला से पूछा- ‘चाय पिएगी ? ’महिला कुछ बुदबुदाई। अब वह पुरुष भी चाय वाले के पास आगया है। चाय वाले ने बड़ी शरारत भरी मुस्कान के साथ धीरे से उस पुरुष से कहा- ‘‘पगली है ...पट जाएगी।’’ फिर दोनों हँसने लगे। आस-पास खड़े चने-चुरमुरे, बड़ा-पाव, चाय काफी आदि बेचने वाले भी ठठाकर हँसने लगे। इस समय प्लेटफार्म पर कोई ट्रेन नहीं है इसलिए सब फुर्सत का समय मजे से बिता रहे हैं। 

महिला आकर फिर से बेंच पर बैठ गई। अब वह अपने थैले में कुछ खोज रही है। पुरुष भी उसकी बगल में बैठ गया। आस पास खड़े उसके इष्ट-मित्रों की टोली उसे प्रोत्साहित करते हुए खिलखिला रही है। पुरुष फिर से महिला के एकदम करीब आगया और उसकी चूड़ियों को सहलाने लगा। महिला ने अपना हाथ खींच लिया। पुरुष थोड़ा हताश हुआ लेकिन थोड़ी देर बाद ही वह फिर से महिला को खुश करने में जुट गया। अब उसने चाय वाले से दो कप चाय ली। एक कप उसने महिला को पकड़ा दिया और बड़ी अर्थपूर्ण नजरों से पीने का आग्रह करने लगा। महिला ने गंभीरता से उसे देखा। ऐसा लगा मानो ऊपर से शांत प्रतीत हो रहे समुद्र में तूफान आने वाला हो। चाय का कप अब भी महिला के हाथ में है पुरुष पुनः अश्लील इशारे से उसे चाय पीने के लिये कहता है। महिला पुरुष की ओर देखते हुए कप होठों तक लाती है और अकस्मात् चाय को पुरुष के मुंह पर उछालते हुए उसे एक करारा थप्पड़ जड़ देती है। गरम चाय से पुरुष की आंखे जल जाती हैं ,वह छटपटाने लगता है। महिला का चेहरा क्रोध से लाल हो गया है। अब वह पुरुष का बाल पकड़ कर अपनी पूरी ताकत से खींचने लगी। इस अप्रत्याशित घटना से स्तब्ध आस-पास खड़ीं उसकी मित्र मंडली नजदीक पहुँच कर उस पुरुष को महिला की पकड़ से छुड़ाने का प्रयास करने लगी। महिला का क्रोध भयंकर रूप ले चुका है। वह चंडी बन चुकी है। पुरुष दर्द से छटपटा रहा है। लोगों ने बड़ी मुश्किल से उस महिला को अलग किया। थोड़ी देर तो वह क्रोध में कांपती हुई वहीं खड़ी रही फिर अपना थैला उठाई और ठेले के पास आकर नीचे बैठ गई। ठेले वाले से उसे कोई डर नहीं है। वह जगह उसे सुरक्षित लग रही है।

वह पुरुष कुछ देर तो औंधे मुंह ज़मीन पर पड़ा रहा फिर हिम्मत करके उठा, अपने थैले को उठाया, थैले में से निकल कर बिखर गई चीज़ों को समेटा तथा चने चुरमुरे वाले की सहायता से स्वयं को घसीटता हुआ बेंच पर आकर बैठ गया। नोचे गये अंगों से खून रिस रहा था। कुछ देर तक तो वह दर्द से कराहता रहा फिर अपनी गर्दन उठाकर महिला की तरफ देखने लगा। इस बार उसकी आखे महिला पर स्थिर हो गई, चेहरा विद्रूप हो उठा, आखें फैल कर चैड़ी होने लगीं, पता नहीं भय से या क्रोध से। वह हांफने लगा फिर अचानक नाग की तरह फुफकारते हुए चिल्ला-चिल्ला कर महिला को गालियां देने लगा। एक लड़का दौड़ कर पास की दुकान से ठंडा पानी ले आया तथा पानी में रुमाल गीला कर उसकी आँखों पर रखने लगा। चेहरे से होते हुए चाय गरदन, सीने तथा पेट तक फैल गई थी। वह बुरी तरह जल गया था, किंतु जलने से भी अधिक पीड़ा उसे अपने अपमान से हो रही है। एक मामूली-सी पागल औरत उसका इस तरह अपमान करे! आस-पास खड़े पुरुष आंखे तरेर कर महिला को इस अपराध के लिये सजा देना चाहते हैं लेकिन उससे कुछ बोलने की हिम्मत नहीं कर पा रहे हैं। पागल है, क्या पता फिर से टूट पड़े। सब उस पुरुष को ही शांत कराने में लगे हैं। महिला पर उसकी गालियों का कुछ भी असर नहीं हो रहा है, वह शांत भाव से पुरुष को छटपटाते हुए देख रही है। पुरुष बार-बार अपनी आँखों को हाथ से ढंक रहा है, लगता है जलन तेज हो रही है। वह लड़का रुमाल गीला करके उसकी आँखों को पोंछ रहा है, साथ ही उसे चुप भी करा रहा है।

‘जाने भी दो यार, पगली है, मुंह लगना ही नहीं चाहिए था’। 

पुलिस से शिकायत करनी पड़ेगी। इस पगली को यहाँ से हटाएं, नहीं तो हम सभी को खतरा है।...आज उसकी आँख में गर्म चाय उड़ेल दी, कल हमारे उपर कुछ फेक देगी। और तो और अब यात्रियों की भी खैर नहीं।’ चना चुरमुरा बेचने वाले ने चिंता व्यक्त की।

इसका दिमाग कुछ अधिक खराब हो गया है ...ऐसे खतरनाक पागल को तो पागल खाने में होना चाहिए। लेकिन क्या कहें इस देश को...खुलेआम घूम रही है। देश दुनिया के प्रति चिंतित एक व्यक्ति ने अपनी पीड़ा को अभिव्यक्ति दी।

‘अरे मै तो ऐसी एक पागल को जनता हूँ जो पागल खाने के अधिकारियों को चकमा देकर वहाँ से भाग निकली और अब खुलेआम शहर में घूमती है तथा पत्थर फेक-फेक कर रोज दो-चार के सिर फोड़ती है।’ भीड़ में से किसी ने कहा।

‘मुझे तो कुछ और ही लग रहा है। देखो न, कैसे चुपचाप बैठी है, मैं तो कहता हूँ कि यह पागल है ही नहीं बल्कि किसी माफिया या आतंकवादी गिरोह की सदस्य है।’ आदमी की आँखों पर ठंडे पानी की पट्टी रखते हुए एक व्यक्ति ने धीमी आवाज़ में कहा 

सच कहते हो अभी पिछ्ले साल की तो बात है, चैक में जो बम-विस्फोट हुआ था, जिसमें बहुत से लोग मारे गये थे, याद है न ?...बम-विस्फोट के पंद्रह दिन पहले वहां एक पागल घूमता हुआ दिखता था। बम, विस्फोट के दो दिन पहले से ही वह वहाँ से कहाँ गायब हो गया, पता नहीं चला। बाद में तो समाचार में भी आया था कि शायद वह आतंकवादियों के लिये जासूसी कर रहा था।’

‘जो भी हो,हमारे लिये यह हर तरह से खतरनाक है। हमें मिल कर कुछ करना होगा...इसे यहाँ से हटाना ही होगा।’

‘हाँ, हाँ, सच में इसे प्लेटफार्म से हटाना ही पड़ेगा। हमारी सुरक्षा का सवाल है।’ सबका समवेत स्वर प्लेटफार्म पर गूंजा।

पुरुष अब भी जलन से छटपटा रहा है। ठंडे पानी की पट्टियां रखी जा रही हैं। थोड़ी देर पहले चंडी बनी महिला अब पूरी तरह शांत होकर ठेले के पास बैठी है। चेहरे पर न तो कटुता के भाव हैं न क्षोभ और न अंतद्र्वंंद्व के ही। वहाँ एकत्र पुरुष इस अप्रत्याशित घटना से चिंतित है। शाम होने वाली है, अपनी सुरक्षा के लिये परेशान पुरुष मंडली को देखकर महिला थोड़ा मुस्कराती है, फिर उठ कर आवेशहीन आंतरिक संतुष्टि तथा दृढ़ता के साथ आगे बढ़ जाती है। जैसे प्लेटफार्म पर बड़ी देर से रुकी कोई ट्रेन चल पड़ी हो। 

***********************************************************************************

यात्रा-वृत्तांत

सुश्री मुक्ति वर्मा, नोयडा, मो. 98183 86807

मेरी विदेश यात्रा

यात्रा नाम ही सुखद है लगता है क्या हुआ कैसे हुआ। अजीब से ख्याल आने लगते हैं मैं और मेरी बड़ी बेटी अमृता ने जब ह्यूस्टन लैण्ड किया तो आस पास का नजारा ही बड़ा मनोरंजक था। तरह तरह की बोलियाँ बोलते अपने जैसे लोग दिखे। काफी मनोरंजक भी लगा। इसी बीच मेरा नाती सिद्धार्थ जो हमे लेने आया था उसने आते ही पैर छूए और मैंने उसे गले क्या लगाया कि मैं प्यार में झूम गई। आंखों में खुशी के आंसू रूके नहीं। उसे देख उसका छुट्टपन आंखों के आगे घूम गया। इंसान किस कदर बदलता रहता है यह वो ऊपर वाला ही जानता है।

बस फिर हम गाड़ी में बैठ गप्पें लगा तो घर एक घंटे में पहुँच गये। कार में अमेरिका की सड़के उनकी सफाई उनका लेन सिस्टम, अनुशासन देखकर लगा हम भारतीय तो अभी तक यहाँ तक भी नहीं पहुँचे जो इतना आसान काम है क्यों हम ऐसे हैं। क्यों कुछ भी सीखने की ठीक करने की हमारी इच्छा ही नहीं होती।  

वाह क्या खुला, हवादार, साफ सुथरा कुशादा घर था- बेटी ने तो एक दम चाय तैय्यार की और मेरे पास बैठ चाय पीती हुई बोली-

मम्मी मैं जब भी भारत से आती हूँ यहाँ आकर जो चाय पीने का सकून मिलता है वो कभी, भी इंडिया में नहीं मिलता। वहाँ के दूध में महक आती है, पता नहीं क्यों ? 

मुझे लगता है इंडिया में लोग सफाई को इतना महत्त्व नहीं देते। घर को साफ रखने का कार्यक्रम केवल घर की औरतों तक सीमित है या फिर नौकर या मेड, आदमी महज घर का आदमी है उसकी ड्यूटी केवल मात्र पैसा कमाना ही है। 

हाँ बेटी माँ बोली- यह चलन सदियों से चलता आ रहा है।

पर मम्मी, बेटी बोली-

यहाँ का यह चलन नहीं है यहाँ औरत आदमी दोनों मिलकर कमाते हैं। और सब काम यानि के घर की साजो सजावट भी मिलकर ही करते हैं। जब कि इंडिया में यह काम केवल औरत का ही होता है। आदमी पैसे कमाता है और घर पहुँच कर केवल आराम करता है। या फिर कोई महत्वपूर्ण बात की भागेदारी करता हैं उसकी महत्ता औरत से कहीं ज्यादा समझी जाती है।

जबकि जो मैंने देखा है सुना है और जाना है ‘‘नारी’’ सामाजिक दृष्टि से ही नहीं शास्त्रानुकूल भी पुरुष समाज ने इसे कहने सुनने की बातों में ही अवतरित कर दिया है केवल पढ़ने और सुनने की बाते रह गई हैं।

अखबारे भारत में होने वाले बलात्कार केस से भरी हुई होती है। कोई जगह नहीं जहाँ औरत अपने को सुरक्षित महसूस करे।

बेटी का गुस्सा देख माँ को लगा कि बाते तो ठीक और सत्य ही कह रही है फिर भी बड़ी सरलता व सादगी से माँ बोली छोड़ तू- यह क्या किस्से लेकर बैठ गई। यह दुनिया है बातों और घटनाओं का पिटारा। सुन तू अमेरिका में रह रही है जहाँ पूरी सुरक्षा है। हर लिहाज से सफाई का स्तर तो कमाल का है। वैसे भी कानून की दृष्टि से भी तुम लोग पूर्णतया सुरक्षित हो। क्यों परेशान हो रही है।

आप माँ समझती क्यों नहीं ? आप इंडिया में हो तो हम आना जाना बन्द नहीं कर सकते है। वहाँ के तौर तरीके, सफाई चाल ढाल हर चीज हमें अन्दर से कचोटती है। जाने से पहले ही दिमाग प्रश्नों से भर जाता है।

उफ पानी कितना गन्दा / सड़कों पर कितनी भीड़,/ नौकरों की चक, चक / दूध की महक, गन्दगी।

क्या, क्या गिनवाऊं, लोगों की ललचाई नज़रे अमरीकी- लूटो जितना लूट सकते हो। यह सारा कुछ जब याद आता है तो सारा गुस्सा आप पर निकलता है आप क्यों नहीं यहाँ स्थायी यहाँ आकर टिकती। क्या रक्खा है- वहाँ ?

हाँ बेटी बात तो तेरी सोलह आने सही है लेकिन हम पुराने लोग-पुरानी पीड़ियों से वावस्ता-वो पुरानी सीधी साध कहानियाँ भूल नहीं वाते।

भारत हमारे रग रग में/कण कण में/ नस-नस में पूर्णतया समा चुका है। हम इससे अलग नहीं हो सकते। यहाँ की मिट्टी हमें बुलाती है। यहाँ की धरती अपनी गोदी के लिए बुलाती है। तुम्हें यह बातें बड़ी बेकार जरूर लग रही होंगी। न ही तुम इस अपनत्व को समझोगी।

एयरपोर्ट पर हवाई जहाज से बाहर आते ही हवा के झोके हमें भारतीयता का इजहार देते हैं। लगता है हमें कोई दुलार रहा है। सड़के, पेड़ों के झुण्ड, फूल, पत्तियाँ खुशी से निहार रही है और झुमते, डोलते अपनी भाषा से पूछ रही है आ गये। आ गये। फिर घर पहुँचने पर दिवारों से एक अपने पन की सिहरन सी महसूस करते हैं। हर चीज़ जिसे हम छूते है लगता है हमें पाकर प्रसन्न है।

एक अजीब सा सन्तोष महसूस होता है। शायद वैसा ही जैसा तुम्हें यह चाय-पीकर हो रहा है।

यह बात सुन बेटी ने माँ को गले लगा लिया-

वाह माँ इतना लगाव-इतना अहसास तुम सचमुच भारतीय हो। इसी लिए यहाँ नहीं रह पाती। अब मैं तुम्हें यहाँ रहने के लिए मजबूर नहीं करूंगी। 

 **********************************************************************************

डाॅ. चेतना उपाध्याय, अजमेर राजस्थान 9828186706

दोस्त

फेसबुक पर हजार, 

वाट्स एप पर दो हजार 

जानकार तो होंगे मेरे पास

जीवनसाथी, परिवार, बच्चे-बूढे

दो वक्त की रोटी का जुगाड़

सभी कुछ तो है आस-पास

फिर भी स्थाई है रिक्तता का एहसास

कोई तो हो जो घावों को सहलाए

जख्मों पर नमक की बजाय मरहम लगाए

जिसके, पास होने मात्र से हृदय के तार झनझना उठे

मन मयूर गुनगुनाने लगे रूहानी राग

चेहरे से बयां होते हर शब्द जो पढ़ सकें

जो मेरे साथ मेरी उलझनों को समझ सकें

शब्दों में छुपे भावों को आत्मसात कर सकें

भरे बर्तन की रिक्तता को पहचान सके

जिसके साथ होने से रिक्तता न रह सके पास

हमें है ऐसे अदद दोस्त की तलाश


प्रकृति बनाम मनुकृति

आदम और हौव्वा ने जब धरती पर 

अपना नव इतिहास रचा

पशुता से मानवता की और धीरे-धीरे कदम रखा

शनेः शनेः सभ्यता ने नव संस्कृति प्रारूप रचा

नित नवीन बोध और जिज्ञासाएं 

धरा पर मानवतावादी डंका बजा

कर सहज विनोद , बन प्रेरक पुंज

तब जागा नव जागृति चैतन्य बोध

प्राकृतिक धरा पर अप्राकृतिक कृत्रिम बोध

यों बन बैठा , ज्यों जगत बोध 

जल थल पवन उपवन शिखर और पाताल लोक

कर मुट्ठी मे ठठा कर आनंद बोध 

सुविधाओं का संसार बुन इठलाया मानव मन

असुविधाओं का जंजाल बन गया ये धरा गगन

प्रकृति ने प्राकृतिक संसार रचा

मनुकृति ने अप्राकृतिक बोझ धरा

प्राकृतिक हरितिमा को धता बता

मनु ने अपना नव संसार रचा 

प्रकृति ने धरा अब विकराल रूप 

मनु कैद किया उसी कृत्रिमता से फिर यों ठेंगा बता

***********************************************************************************

प्रसंगवश

मीनाक्षी मेनन, होशियारपुर, मो. 9417477999


‘स्मृति के झरोखे से’

डाॅ. अनूप कुमार, प्रि. डी.एल. आनन्द एवं श्याम सुन्दर शर्मा के साथ एक चर्चा।

यादें याद आती हैैं

बातें भूल जाती हैं,

ये यादें किसी दिल-ओं-जानम के चले जाने के बाद आती हैं।

क्या ही अनमोल चीज़ है यादें-रुलाती हैं, हँसाती हैं, गुदगुदाती हैं और कभी-कभी तो जीने का सबब बन जाती है।

जाड़ों का बेहद सर्द दिन, दिसम्बर 2022 के कैलेण्डर से विदा होने को था। कहने को पतझड़ थी लेकिन अचानक डी.ए.वी. काॅलेज मैंनेजिंग कमेटी के आफ़िस के सामने बनी खूबसूरत सी पुष्प-वाटिका में तीन हस्तियों से मुलाकात हुई और यादों के फूल खिल आए।

डाॅ. अनूप कुमार अध्यक्ष डी.ए.वी. सी.एम.सी, प्रि. डी. एल. आनन्द सैक्रेटरी और डाॅ. श्याम सुन्दर शर्मा डायरैक्टर बी.एड काॅलेज इन सबको अभिवादन कर के जब मैं उनके साथ बैठी तो स्कूल और काॅलेज के स्वर्णिम इतिहास की यादों की बात चली।

और एक ऐसी शख़्सियत का नाम निकल के आया जो अपने आप में एक संस्था थे। जिन का जीवन अपने पदचिन्ह छोड़ता हुआ अनेकों केा सार्थक राह पर डाल रहा है आज भी। 

डाॅ. अनूप कुमार जी के पिता, मेजर राजकुमार जी, उन दिनों काॅलेज के प्रिंसीपल थे। डाॅ. साहब ने भी उन भूली-बिसरी जीवंत यादों से प्रो. तुलसी को स्मरण करते हुए कहा कि उनके पिता जी प्रो. तुलसी के प्रबुद्ध चिन्तन, शुद्ध अध्यापन एवं गंभीर साहित्यकार के रूप में व्याप्त छवि से बेहद प्रभावित थे।

प्रि. डी एल, आनन्द जी ने कहा कि प्रो. तुलसी अभिव्यक्ति के धनी और युगीन संदर्भों के नायक के रूप में, सत्यम, शिवम, सुन्दरम की परिधारणा पर एकदम खरे उतरते थे, अभिनव चेतना और शाश्वत मूल्यों के व्याख्याता के रूप में डाॅ. तुलसी जी को स्मरण किया जाता रहेगा।

बात-चीत के क्रम में जब डाॅ. अनूप कुमार ने एक विलक्षण पल को याद करते हुए कहा कि यह इतिहास का एक गौरवमयी काल था। जब डी.ए.बी. काॅलेज के प्रोफेसर तुलसी को उन की किताब, ‘परिवेश, मन और साहित्य’ के लिए पंजाब यूनीवर्सिटी की ओर से डाक्ट्रेट (डी.लिट) की उपाधि से नवाज़ा गया।

इस बात को सुनते ही प्रो. श्याम सुन्दर शर्मा ने तपाक से कहा कि तब हम ख़ास तौर पर कालेज जा कर प्रो. तुलसी के दर्शन करने गए थे कि ऐसी महान विभूती को जाने जिनकी एक किताब पर उन्हें इतनी उच्च डिग्री से नवाज़ा गया?।

बातों का दौर चलता रहा। थोड़ी मायूसी हुई कि मैं ऐसे युगपुरुष के दर्शन न कर सकी। पर मुझे इस बात का बहुत संतोष है कि मैं उनके बहुत ही प्यारे शिष्य के सम्पर्क में आई, श्री डी. के. बहल जी जो वर्षों से अपने गुरु की याद को जीवंत रखते हुए ‘अभिनव इमरोज़’ का संपादन करके सेवा कर रहे हैं। साधुवाद है श्री बहल जी जो डाॅ. तुलसी को साहित्य प्रेमियों के बीच इस अनोखे रूप में जीवित रखे हुए हैं। 

***********************************************************************************

कहानी

सुश्री विभा रंजन, साउथ दिल्ली

‘‘सुबह का भूला’’          

नीरज का  मन जब अशांत अथवा ब्यथित होता है वह गंगा किनारे चला जाता है। गंगा की उठती गिरती लहरों को देख उसे प्रतीत होता है, उसका जीवन भी इसी आती-जाती लहरों की तरह है जिसका कोई किनारा नहीं है। लेखक हृदय कहानियों और उपन्यासों  में पीड़ा को मुखर शब्द देने वाला समझ नहीं पा रहा था कि उसकी जिंदगीं किस धार में बह रही है।

नीरज अपनी सोच में डूबा था उसे लगा तेज धार में कोई चीज नीचे उपर आ रही है। ध्यान से देखने पर लगा  कोई डूब रहा है। नीरज बिना क्षण गवाएँ गंगा में कुद पडा़। तबतक औरों की नजर भी उस डूबते आदमी पर पड जाती है और दो चार और लोग भी पानी में कुद पड़ते हैं और उसे खींच कर बाहर ले आते हैं।नीरज बाहर आकर  अपना कपडा़ ठीक करने लगा। तभी किसी ने कहा,

‘‘अरे, यह तो महिला है.!‘‘

इतने में वहाँ अच्छी खासी भीड़ जमा हो जाती है।

‘‘यह औरत है.. क्या हुआ.. कैसे डूबी का..!‘‘

स्वर गूँजने लगा। किसी ने कहा

‘‘पहले इनकी मदद करें.. इनको उल्टा लिटा कर पीठ दबा दें.. ताकि पानी निकल जाय..!‘‘

औरतों ने लिटा कर पानी निकलवा दिया। किसी ने  नीरज से कहा

‘‘इनको डॉक्टर को दिखा देना चाहिये.!‘‘

‘‘महिलाएँ साथ चलें तब मैं चलता हूँ.!‘‘

नीरज ने कहा

दो औरतें  महिला के साथ ऑटो में बैठी नीरज की मोटरसाइकिल के पीछे चल दी। घायल को अस्पताल पहुंचा कर महिलाएं वापस अपने घर चली गईं। नीरज भी चलने को उद्दत हुआ तब डॉक्टर ने उसे रोक दिया। थोड़ी देर बाद डॉक्टर ने कहा,

‘‘अब वह ठीक है.. आपसे मिलना चाहती है.!‘‘

‘‘मैं तो उनको  जानता तक नहीं हूँ.. क्या करुँगा उनसे मिल कर.!‘‘

नीरज ने कहा

‘‘हो सकता है आपको धन्यवाद करना चाहती हो.. आपने उनकी ज़िंदगीं बचाई है.. मिल लिजिये.. मिलने में क्या दिक्कत है!‘‘

डॉक्टर ने परामर्श दिया निरुत्तर नीरज को मानना पड़ा। कमरे में मध्यम प्रकाश था महिला नीरज के पास अपना सर झुका कर खड़ी हो गई। नीरज की जब  उस पर नजर पड़ी तब वह चैंक गया।

‘‘सीमा मेरी पत्नी.?‘‘

औरत और कोई नहीं उसकी पत्नी सीमा थी। जिसने शादी की रात नीरज से कह दिया था,

‘‘मैं किसी और से प्रेम करती हूँ.. उसके बिना जी नहीं सकती... अगर आपने मेरे साथ जबरदस्ती करने की कोशिश की...तब मैं ज़हर खाकर मर जाऊँगी!‘‘

‘‘घबड़ाओ नहीं... अभी घर में मेहमान है.. इनके जाते मैं तुम्हें तुम्हारे प्रेमी के पास भेज दूंगा..!‘‘

नीरज ने समझाया था।

वह पहले भी कई बार आत्महत्या का प्रयास कर चुकी थी। इस कारण से  उसके पिता ने शादी के पूर्व सारी बातें स्पष्ट कर दी थीं। भावुक हृदय लेखक नीरज प्रेम में डूबी पत्नी  सीमा का दर्द आसानी से समझ उसे प्रेमी के पास भेज चुका था। वही सीमा आज सामने बैठी थी। नीरज पर नज़र पड़ते उसने लज्जा से अपना सर झुका लिया और रोने लगी। नीरज के समझ में नहीं आ रहा था वह सीमा को क्या कहे।  इसने जो इच्छा मेरे सामने रखी मैने अपने हृदय पर पत्थर रख कर उसे पूरा किया। इसके लिए मुझे अपनी माँ की नाराजगी एवं क्रोध  झेलना पड़ा। कितनी मुश्किल से अपने स्वाभिमान को ताक़ पर रख कर मैंने इसे इसके प्रेमी के पास भेजा था। इसने आत्महत्या का प्रयास क्यों किया?

‘‘ आत्महत्या क्यों... मैंने तो तुम्हें विनय के पास भेज दिया था.?‘‘

सीमा ने कुछ कहना चाहा पर उसके होठ़ काँप कर रह गये। नीरज को लगा समस्या जरुर गंभीर है। उसने कोमल स्वर में कहा,

‘‘डरो मत.. मुझे तुम सब साफ-साफ बताओ। क्यों तुमने ऐसा कदम उठाया। क्या विनय ने तुम्हें नहीं अपनाया.?‘‘

‘‘विनय दगाबाज निकला। मैंने उससे कहा

आपसे सारी बातें हो चुकी है। कल हम वकील को लेकर आपके पास आयेगें। एक बार तालाक हो जाय तब विवाह में आसानी होगी। आपके साथ मैने फेरे लिए हैं..आप मेरे पति है.. आपका मुझ पर हक़ है। पर आपने कभी भी मुझपर हक़ जताने की चेष्टा नहीं की.. और उसने.. उस मक्कार  ने रात  मेरे साथ जबरदस्ती करने की चेष्टा की..  मेरे मना करने पर चिल्ला कर कहने लगा, ज्यादा सती सावित्री बनने की चेष्टा मत करो। इतने दिन पति के साथ रहकर आई हो, मुझे बेवकूफ मत बनाओ।

मेरे पिताजी उसके बारे में हमेशा सही कहते थे। मैं ही उसके प्यार में पागल हो रही थी। सोच में थी कहाँ जाऊँ। कौन मुझे अपनाऐगा? एक भले आदमी का अनादर कर।उसको ठुकराकर  उसके घर से निकल आई। चैबीस घंटे हो गए थे सड़क पर घुमते-घुमते। भूख प्यास से मन तडप गया था। कहाँ जाती। आपके पास आने का साहस मुझमें नहीं था। ग्लानि से दबी और अपने अपराध बोध का अहसास मुझे पल पल मार रहा था। कौन मुझे माफ करेगा...?‘‘

वह लगातार रोती जा रही थी..

‘‘क्या आप मुझे माफ कर पाएँगें!‘‘

सीमा के इस अप्रत्याशित प्रश्न से नीरज बौखला गया। अपनी कहानियों उपन्यासों में कितनी बार इस तरह की परिस्थितियों में नायक के चरित्र को साकारात्मक दिखाने वाला लेखक नीरज भी सोच में पड़ गया। जीवन कहानी उपन्यास तो नहीं? उसे वास्तविक धरातल पर कहानी की तरह मोड़ देना आसान नहीं होता। लेखक नीरज के अंर्तमन से आवाज आई।

‘‘क्या सोच रहे हो नीरज, नायिका समक्ष है, नायक भी है, हाथ बढ़ाओ और थाम लो नायिका को। अपनी कहानियों उपन्यासों में नायिकाओं के साथ ऐसा ही अंत तो तुम लिखते हो। अब क्यों हिम्मत नहीं कर पा रहे हो? बड़ा आसान होता है कहानियों उपन्यासों में अपना मन पसंद का मोड़ दे देना और महान लेखक बन जाना, परन्तु वास्तविक जीवन में यह निभाना इतना ग्राह्य नहीं होता। नीरज का अंर्तमन चीत्कार कर उठा-

‘‘नहीं, कभी नहीं!‘‘

पौरुष अंहकार उठ खड़ा हुआ ।

‘‘इनके बाबुजी मेरे पुज्य गुरु जी ने पहले ही सब सच मुझे बता दिया था। अपने गुरू के विवशता से जुड़े हाथ, करुणा भरे गुहार, लज्जा से झुकी आँखें, और काँपते होठों में इतनी विनय याचना थी, कि मैं अस्वीकार नहीं कर पाया। सब जानकर मैने इससे विवाह किया, पर इन्होंने मेरी कद्र नहीं की और अपने प्रेमी के पास चली गई। यह भी नहीं सोचा मेरे मन को कितनी ठेस लगी होगी जब कहा ‘‘मेरे साथ नहीं रहेगी‘‘ हृदय के अंदर उठ रहे झंझावातों से एक आवाज यह भी आई। ‘‘इनके व्यवहारों के बारे में तुम्हें तो सब पता था फिर शिकायत कैसी..?

उहापोह के जाल में स्वीकृति-अस्वीकृति के प्रश्न हृदय के कोष्ठ में बारम्बार कौंध कर परेशान कर रहे थे। स्वीकृति से एक आवाज आई।

’एक बात तो सत्य है अगर यह आज यहाँ से खाली हाथ चली गई तब निश्चय ही काल के गोद में समा जाएगी और इसकी मृत्यु के दोषी तुम होगे।

’नहीं, नहीं, मैं इनकी मृत्यु का कारण नहीं बनना चाहता..

’तभी हृदय में अस्वीस्कृति की वाणी गूँजी...

‘‘और माँ, माँ को किस तरह से राजी करुगां। जो माँ सीमा को विनय के पास भेजने को राजी नहीं थी,वह  विनय के पास से लौटी सीमा को कैसे स्वीकार कर पाएगीं। माँ की अनुपस्थिति में सीमा को भेजना पडा था। जब माँ को पता चला तब वह  नाराज होकर घर के पास के मंदिर में जाकर बैठ गई  थीं। कितनी माफिया और मिन्नतों के बाद वह घर लौटी थी

पर स्वीकृति अब दृढ़ हो रही थी। धीरे-धीरे शंका के बादल छँट रहे थे उहापोह के झुंड ने जो तरह-तरह के सवालों से नीरज के मस्तिष्क को जकडना चाहा था वह अब गिरफ्त से बाहर आ रहे थे। मैं लेखक हूँ। मैंने अपने नायको को उपन्यासों और कहानियों में ऐसी परिस्थितियों में सुंदर एवं सभ्य-सुशील भाषा के परिधानों को पहनाकर उन्हे सदैव सशक्त बनाया है।मेरे नायक सदैव नारी की भावनाओं का सम्मान करते हैं।

जब मेरी रचनाओं का नायक सशक्त हो सकता है तब मैं क्यों नहीं? हाँ, मैं सीमा को और माँ को भी राजी कर लूँगा। अब भ्रम के बादल छँट गए थे। हृदय में एक अजीब सी शान्ति लग रही थी। तभी सीमा ने पुनः पुछा-                               

‘‘प्लीज बोलिए न..!‘‘ 

‘‘हाँ, लेकिन एक शर्त पर.?‘‘

नीरज ने स्थिर और शांत स्वर में कहा

‘‘मुझे आपकी हर शर्त स्वीकार है..!‘‘

सीमा ने हाथ जोड़ते हुए विव्हलता से कहा और

कौतूहल से नीरज को देखने लगी।

‘‘आज के बाद भविष्य में तुम कभी भी आत्महत्या जैसे घृणित विचार सोचने की भूल नहीं करोगी.!‘‘

नीरज की यह बात सुन सीमा उसके पैरों पर गिर कर अबोध बालक की तरह फूट-फूट कर रो पड़ी। नीरज ने चुप कराने की कोशिश नहीं की। ठीक है रो ले मन पर पड़ा बोझ हट जाए। हृदय में निहित सारी कुत्सित भावनाएंँ निकल जाय। नीरज की आँखें भी भींग गई। नीरज ने सीमा को उठाया। तभी नीरज की  नज़र दीवार पर लिखी इबारत पर ठहर गई, वहाँ लिखा था।

‘‘सुबह का भूला..अगर शाम को घर आ जाये तब उसे भूला नहीं कहते.......!

***********************************************************************************

कविता


सुश्री अरूणा शर्मा, मयूर विहार, मो. 92124 52654

प्रेम दीया

आओ सखी 

प्रेम अपनत्व का दीप जलाएं,

सबके घरों में उजियारा लाएं...

स्नेह प्रकाश का दीप जलाकर,

गहन अंधकार को दूर भगाएं...

आओ सखी 

प्रेम अपनत्व का दीप जलाएं,

सबके घरों में उजियारा लाएं...


विघ्न हरे सब के विघ्नेश्वर,

रिद्धि सिद्धि से परिपूर्ण हो सब का घर...

आओ सखी प्रेम अपनत्व का दीप जलाएं,

सबके घरों में उजियारा लाएं...


शुभ लाभ से आई खुशहाली, 

तुष्टि पुष्टि ने सौभाग्य संवारी...

आओ सखी प्रेम अपनत्व का दीप जलाएं,

सबके घरों में उजियारा लाएं...


आमोद प्रमोद ने बजाए सितार

तुष्टि पुष्टि ने फिर किया श्रृंगार

आओ सखी प्रेम अपनत्व का दीप जलाएं 

सबके घरों में उजियारा लाएं...


उत्साह उमंग की उठी लहर

जगमग जगमग हुआ हर घर

आओ सखी प्रेम अपनत्व का दीप जलाएं 

सबके घरों में उजियारा लाएं...


प्रेम ही रब, प्रेम ही पूजा, प्रेम ही नानक, प्रेम ही ईसा,

प्रेम में ही बंध गए ईश्वर प्रेम से ही रचा संसार है...

प्रेम से ही बंधे कृष्णा ‘औ‘ द्रौपदी की लाज बचाए थे

प्रेम बंधन में बंध गए राम,बेर शबरी के झूठे खाए थे...

प्रेम ही राधा, प्रेम ही मीरा प्रेम से ही बंधा संसार है

मानुष जनम अनमोल साथियो,

प्रेम से ही बंधा परिवार है...‘

***********************************************************************************


श्री धर्मेंद्र गुप्त ‘साहिल’, वाराणसी, मो. 8935065229

ग़ज़लें

इतना क्यों हलका बनूं मैं

भीड़ का हिस्सा बनूं मैं 


दिन न वो आए कभी जब 

अपनी ही कारा बनूं मैं 


क्या करूंगा बनके गुंबद

ईंट या  गारा  बनूं में 


चल पड़े पीछे मेरे जग 

एक दिन  ऐसा बनूं में


वो नदी बन जाए तो क्या

सिन्धु एक खारा बनूं मैं!


जिसको सदियों तक सुनें सब 

ऐसा एक नगमा बनूं मैं 


अब तो मंजिल बनना होगा 

कब तलक रस्ता बनूं मैं


फूल बन कर देखा मैंने

अब तो अंगारा बनूं मैं


सब ही टेढ़ापन दिखाएं

इतना क्यों सीधा बनूं मैं


या तो बन जाऊं मैं तेरा

या तो ख़ुद अपना बनूं मैं


आप बहरे हो गए तो

बोलिए  गूंगा  बनूं  मैं!

पत्तों में छुप कर बैठी है

नन्ही चिड़िया कांप रही है 


जिसने बयां सच्चाई की है 

हमको उससे हमदर्दी है


प्यासे  मेरे पास  आते हैं 

शायद मुझमें कोई नदी है


कट जाती तो दुख ना होता 

डोर ही हाथ से छूट गई है 


जोड़ के रखने में घर भर को

मां भीतर  से  टूट  रही है 


गिनने पर आऊं तो लगेगा 

ये भी कमी है वो भी कमी है 


नींद कहां अपनी किस्मत में 

दर्द की सेज तो रोज सजी है 


ख़त सारे तो जला डाले हैं 

पर  तस्वीर  बचा  रखी है 


गुमसुम गुमसुम दिन गुजरा है 

रोते-रोते रात गई है 

***********************************************************************************

कविताएँ

मनोज कुमार सिंह उर्फ श्रीप्रकाश सिंह, 

पासीघाट, अरूणाचल प्रदेश, मो. 9436193458

मैं प्रेम- पथिक अनजाना

मैं प्रेम-पथिक अनजाना

मुझे तो बस चलते जाना

कंकड़-पत्थर, कंटक वन

सबको गले लगाना,

मैं प्रेम-पथिक अनजाना

मुझे तो बस चलते जाना


कहाँ ठहरना, कहाँ है जाना

नही पता-कहाँ रैन बिताना

अपने ही धुन गाता जाऊं

प्रेम-प्रीति का गाना

मैं प्रेम-पथिक अनजाना

मुझे तो बस चलते जाना


नही चाह कोई मिले सफर में

मैं पीत पात गिरा पतझड़ में

नव पल्लव की चाह शेष है

बस यही इच्छा मेरी विशेष है

मैं मरू सूने मन का

पर मुझे नव अंकुर उगाना

मैं प्रेम-पथिक अनजाना

मुझे तो बस चलते जाना


मुझे तो बस जीना आता है

प्रेम-खत लिखना आता है

विष-पीयूष तुम ही जानों

मुझे तो बस पीना आता है

मुझे तलाश प्रेम-रस-घट का

मुझको तो है पीना-पिलाना

मैं प्रेम-पथिक अनजाना

मुझे तो बस चलते जाना

गुज़रा हुआ ज़माना


अब कहाँ वह मयक़दे है,

कहाँ अब वह पैमाना

अब कहाँ वह मदमस्त दीवानें

अब कहाँ है वह नज़राना

अब कहाँ वह रैन नशीली

अब कहाँ वह मधु-घट का टकराना

अब मत जाम छलकाना साक़ी,

अब मत जाम छलकाना


अब कहाँ वह मधुर मिलन है

अब कहाँ वह अलमस्त थिरकन

अब कहाँ मदमस्त पग-डगमग 

अब कहाँ वह उन्मुक्त जीवन

अब कहाँ वह झूमना- झूमाना

अब कहाँ वह लड़खड़ाना

अब मत जाम छलकाना साक़ी

अब मत जाम छलकाना


अब कहाँ वह मधु-बूंद का नर्तन

अब कहाँ वह पीने की तड़पन

अब कहाँ वह मधु भरा कलश है

अब कहाँ मन पीकर सरस है

अब कहाँ वह मयक़दे हैं

अब कहाँ वह जाम-ए-ज़माना

अब मत जाम छलकाना साक़ी

अब मत जाम छलकाना


अब तो शेष मदिरा केवल

पीने वाले मदारी हैं

दीवानों के अब दिन लद गये

अब जो पीते, सभी शराबी हैं

इनके आगे क्या परोसना 

इनको कब आता है पीना

अब मत जाम छलकाना साक़ी

अब मत जाम छलकाना

***********************************************************************************

कविताएँ

डॉ. राम प्रवेश रजक

सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभाग, कलकत्ता विश्वविद्यालय, कोलकाता

मो. 9800936139

अपाहिज बेटी

सब घूर कर देखते हैं

ऊपर से नीचे तक

जन्म से ही

माता पिता के चेहरे पर

मायूसी लेकर पैदा हुई

जो भी देखता है सब

कोसते हैं, पैदा होते

ही मर क्यों नहीं गई

बोझ!

कोई हलचल नहीं

कोई शौक नहीं

कोई फरमाइश नहीं

नो पार्टी

नो पब

नो पिज्जा

बस चुपचाप मां के संतोष

को देखती है

और पिता के क्रोध को 

भांपती है

माँ इन्हें देखकर कभी-कभी

अपने कलेजे का खून आँखों

से निकाल देती हैं।

चुपचाप सब देखकर ये

आकाश में अपनी आँखें

गड़ाये न जाने किसकी

राह जोहती रहती हैं।

ये उनके दर्द पर

मरहम भी नहीं लगा सकती

यह एक ऐसा धन है

जिसे पराया धन भी नहीं

कहा जा सकता

और जिसका मूल्य भी नहीं है

यह वो फूल है जो शूल

बनकर चुभती रहती हैं

और खामोश रहती हैं

सीपी में बंद मोती की तरह

सब सोचते हैं 

इस अपाहिज बेटी की

जिंदगी ने सबको

अपाहिज बना दिया

न साज -शृंगार

न नाज़-नखरे

न कोई अकार,  न प्रकार

फिर भी यह बेटी अपनों की

प्यारी बेटी है।

इस अपाहिज बेटी ने अपने

परिवार को अपाहिज कहलाने से

बचाया है,  

माँ को माँ, 

पिता को पिता का गौरव दिया है 

क्या फर्क पड़ता है इसमें कोई 

प्राकृतिक दोष है तो

कैसे मान लिया यह अपाहिज है।

***********************************************************************************

आलेख

श्री प्रफुल्ल सिंह ‘‘बेचैन कलम’’, युवा लेखक/स्तंभकार/साहित्यकार, लखनऊ, मो. 6392189466

प्लास्टिक अपने कफन में दफन करके ही दम लेगा

‘‘प्लास्टिक प्रदूषण से उठो युद्ध करो, कुछ भी न प्रकृति देवी के विरूद्ध करो, मानवता का अस्तित्व बचाने के लिए, संसार के पर्यावरण को शुद्ध करो।‘‘ विज्ञान ने ऐसी बहुत सी खोज की है जो जो अभिशाप बन गई है। ऐसा ही एक अभिशाप है प्लास्टिक। प्लास्टिक शब्द लेटिन भाषा के प्लास्टिक्स तथा ग्रीक भाषा के शब्द प्लास्टीकोस से लिया गया है। दिन की शुरूआत से लेकर रात में बिस्तर में जाने तक अगर ध्यान से गौर किया जाए तो आप पाएंगे कि प्लास्टिक ने किसी न किसी रूप में आपके हर पल पर कब्जा कर रखा है। पूरे विश्व में प्लास्टिक का उपयोग इस कदर बढ़ चुका है और हर साल पूरे विश्व में इतना प्लास्टिक फेंका जाता है कि इससे पूरी पृथ्वी के चार घेरे बन जाएं। हमारे भारत देश में 2016 की एक रिपोर्ट के मुताबिक प्रतिदिन 15000 टन प्लास्टिक अपशिष्ट निकलता है। जो कि दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। जबकि अगर निर्माण की बात करें तो भारत में प्रतिवर्ष लगभग 500 मीट्रिक टन पॉलीथिन का निर्माण होता है, लेकिन इसके एक प्रतिशत से भी कम की रीसाइक्लिंग हो पाती है। वैसे  इस समय विश्व में प्रतिवर्ष प्लास्टिक का उत्पादन 10 करोड़ टन के लगभग है और इसमें प्रतिवर्ष उसे 4 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है। इन आंकड़ों से प्लास्टिक से भविष्य में होने वाले प्रभावों का आकलन किया जा सकता हैं। 

प्लास्टिक जिसने पूरी दुनियां के नाक में दम कर रखा है, एक ऐसा कार्बनिक योगिक है जो एक विशिष्ट शंृंखला से बनता है। यह एक सिंथेटिक पॉलिमर है। पॉलिमर यह अणुओं का भार है जो कई मोनोमर के शृंखला से बना हुआ हैं। पॉलिमर को दो प्रकार में वर्गीकृत किया गया है। नैसर्गिक प्रकार के प्लास्टिक होते हैं। आकार यांत्रिक बल और गर्मी के प्रभाव से प्लास्टिक को एक वांछित आकार में बनाया जा सकता है। कोयला, पेट्रोलियम, सेल्यूलोज, नमक, सल्फर जैसे प्लास्टिक के कच्चे माल के निर्माण में, चूना पत्थर, हवा, पानी आदि का उपयोग किया जाता है। प्लास्टिक के प्रकार में थर्माप्लास्टिक और थर्मोसेटिंग प्लास्टिक आते है। इसके आलावे प्लास्टिक के मिश्रण को विभिन्न के मिश्रण के रूप में परिभाषित किया जा सकता है - प्लास्टिसाइजर, एक्सटेंडर के भराव, लुब्रिकेंट, थर्माप्लास्टिक और पिगमेंट जैसी सामग्री थर्मोसेटिंग रेजिन उनके उपयोगी गुणों जैसे ताकत, टिकाऊ आदि को बढ़ाने के लिए करता है।

हानिकारक प्लास्टिक की चीजों का जीवन में बेतहाशा उपयोग हमारे शरीर के आंतरिक अंगों पर जानलेवा प्रभाव डालता है और कैंसर का एक प्रमुख कारण बनता है। घर के फर्नीचर, रसोई के बरतन, कप, प्याली, गिलास, थालियों, पानी के घड़ों और पानी की बोतलों से लेकर, दवाओं की शीशियां सब कुछ में हम प्लास्टिक के विकल्प अपनाते हैं और कभी सोचते नहीं कि अनजाने में हमारे पेट में, फेफड़ों में, किडनी तक में प्लास्टिक के सूक्ष्म कण कितनी बड़ी मात्रा में पहुंच रहे हैं। प्लास्टिक के ये सूक्ष्म कण हमारे शरीर के लिए धीमे ज़हर की तरह हैं।

रोजमर्रा की जिंदगी में हम जो प्लास्टिक काम में लाते हैं वह बहुत खतरनाक किस्म का रसायन पोली विनायल क्लोराइड है। इसे रसायनों के रक्त में घुल जाने से अनेक बीमारी की आशंका बढ़ जाती है और गर्भ में पल रहा बच्चा भी अनेक रोगों के गिरफ्त में आ सकता है। प्लास्टिक की थैली भी बहुत खतरनाक है। प्लास्टिक नॉन-बॉयोडिग्रेडेबल होता है। नॉन-बॉयोडिग्रेडेबल ऐसे पदार्थ होते हैं जो बैक्टीरिया के द्वारा ऐसी अवस्था में नहीं पहुंच पाते जिससे पर्यावरण को कोई नुकसान न हो।  कचरे की रीसाइक्लिंग बेहद जरूरी है क्योंकि प्लास्टिक की एक  छोटी सी पोलिथिन को भी पूरी तरह से छोटे पार्टिकल्स में तब्दील होने में हजारों सालों का समय लगता है और इतने ही साल लगते हैं प्लास्टिक की एक छोटी सी पोलिथिन को गायब होने में। 

हर साल जो झुगियां जलकर राख हो जाती है उसमें पीवीसी का बड़ा हाथ होता है। यह बेहद निचले दर्जे का प्लास्टिक होता है, जो आग जल्दी पकड़ता है वह बुझने में घंटो लग जाता है। शोधकर्ताओं ने अपने अध्‍ययन में पाया है कि तकरीबन नौ तरह की प्लास्टिक के कण खाने-पीने एवं अन्य तरीकों से इंसान के पेट में पहुंच रहे हैं। प्लास्टिक के ये कण लसीका तंत्र और लीवर तक पहुंच कर इंसान की रोग प्रतिरोधक क्षमता प्रभावित कर सकते हैं।अध्ययन में पाया गया है कि हर इंसान एक हफ्ते में औसतन पांच ग्राम प्लास्टिक निगल रहा है।

समुद्र में लगभग 1950 से 2016 के बीच के 66 वर्षों में जितना प्लास्टिक जमा हुआ है, उतना अगले केवल एक दशक में जमा हो जाएगा। इससे महासागरों में प्लास्टिक कचरा 30 करोड़ टन तक पहुंच सकता है। यही नहीं हर साल उत्पादित होने वाले कुल प्लास्टिक में से महज 20 फीसद ही रिसाइकिल हो पाता है। 39 फीसदी प्‍लास्टिक कचरा जमीन के अंदर दबाकर नष्ट किया जाता है और 15 फीसदी जला दिया जाता है। 1950 में दुनिया-भर में प्लास्टिक उत्पादन 1.5 मिलियन टन था। 2015 आते-आते यह 322 मिलियन टन हो गया। यह हर साल औसतन 8.6ः की दर से बढ़ रहा है। पिछले कुछ वर्षों में जैसे-जैसे प्लास्टिक का प्रयोग बढ़ा है, वैसे-वैसे इसकी वजह से दिक्कतें भी बढ़ी हैं। 

प्लास्टिक के हजारों सालों तक खराब नहीं होने के कारण यह महासागरों में पड़ा रहता है प्लास्टिक से धीरे 

धीरे जहरीले पदार्थ निकलते रहते हैं जो कि जल में घुल जाते हैं और उसे प्रदूषित कर देते हैं। जिससे समुद्री जीवो के लिये एक गंभीर संकट उत्पन्न हो जाता है, क्योकि निरीह जीवो द्वारा इन प्लास्टिक को अपना भोजन समझकर खा लिया जाता है। जिससे मछलियों, कछुओं और अन्य समुद्री जीवो के स्वास्थ्य पर गंभीर संकट उत्पन्न हो जाता है। प्रतिवर्ष कई समुद्री जीव प्लास्टिक प्रदूषण की समस्या से अपनी जान गवा बैठते है और शोधकर्ताओं का दावा है कि आने वाले समय में इस संख्या में और इजाफा होने वाला है।

वर्तमान में प्लास्टिक के दुष्परिणामों से बचने के लिए कुछ विकसित देशों में प्लास्टिक के रूप में निकला कचरा फेंकने के लिए खास केन जगह जगह रखी जाती हैं। इन केन में नॉन-बॉयोडिग्रेडेबल कचरा ही डाला जाता है। असलियत में छोटे से छोटा प्लास्टिक भले ही वह चॉकलेट का कवर ही क्यों न हो बहुत सावधानी से फेंका जाना चाहिए। क्योंकि प्लास्टिक को फेंकना और जलाना दोनों ही समान रूप से पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचाते हैं। प्लास्टिक जलाने पर भारी मात्रा में केमिकल उत्सर्जन होता है जो सांस लेने पर शरीर में प्रवेश कर श्वसन प्रक्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। इसे जमीन में फेंका जाए या गाड़ दिया जाए या पानी में फेंक दिया जाए, इसके हानिकारक प्रभाव कम नहीं होते। 

भारत सरकार के पर्यावरण और वन मंत्रालय ने भी प्रयास किया है। इसके रीसाइकिल लिए रि-साइकिल्ड प्लास्टिक मैन्यूफैक्चर एंड यूसेज रूल्स-1999 जारी किया था। इसे 2003 में पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम-1968 के तहत संशोधित किया गया है, ताकि प्लास्टिक की थैलियों और डिब्बों का नियमन और प्रबंधन सही तरीके से किया जा सके। भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) ने धरती में घुलनशील प्लास्टिक के 10 मानकों के बारे में अधिसूचना जारी की थी, मगर इसके बावजूद हालात वही ‘ढाक के तीन पात‘ वाले ही हैं। इसका सकारात्मक प्रभाव अब भी नहीं दिख रहा है।

हालांकि विशेषज्ञों का मानना यह भी है कि रि-साइक्लिंग की प्रक्रिया भी प्रदूषण को बढ़ाती है। रि-साइकिल किए गए या रंगीन प्लास्टिक थैलों में ऐसे रसायन होते हैं, जो जमीन में पहुंच जाते हैं और इससे मिट्टी और भूगर्भीय जल विषैला बन सकता है। जिन उद्योगों में पर्यावरण की दृष्टि से बेहतर तकनीक वाली रि-साइकिलिंग इकाइयां नहीं लगी होतीं उनमें रि-साइकिलिंग के दौरान पैदा होने वाले विषैले धुएं से वायु प्रदूषण फैलता है। प्लास्टिक एक ऐसा पदार्थ है, जो सहज रूप से मिट्टी में घुल-मिल नहीं सकता। इसे अगर मिट्टी में छोड़ दिया जाए, तो भूगर्भीय जल की रिचार्जिंग को रोक सकता है। इसके अलावा प्लास्टिक उत्पादों के गुणों के सुधार के लिए और उनको मिट्टी से घुलनशील बनाने के इरादे से जो रासायनिक पदार्थ और रंग आदि उनमें आमतौर पर मिलाए जाते हैं, वे भी अमूमन सेहत पर बुरा असर डालते हैं।

प्लास्टिक के उपयोग को हम अचानक तो नहीं खत्म कर सकते लेकिन उससे बचने की शुरुआत तो कर ही सकते है। प्लास्टिक के उपयोग में कम से कम अपने घर के अंदर खाने-पीने की चीजों को हम प्लास्टिक से मुक्त रखें। एक रिसर्च के अनुसार  बोतलों में रखा पानी अपने अंदर कुछ न कुछ मात्रा में प्लास्टिक की विषाक्तता समा ही लेता है। फिर वह पानी के साथ हमारे शरीर में पहुंचता है। जहां संभव हो वहां बोतलबंद पानी पीने से बचना चाहिए। कुछ भी उठाकर मुंह में डाल लेने वाले बहुत छोटी आयु के बच्चों को हानिकारक प्लास्टिक या रबड़ के खिलौनें न दें। टिफिन, लंच, नाश्ते आदि प्लास्टिक के डब्बों या प्लास्टिक के टिफिन बॉक्स में पैक न करें। प्लास्टिक की थैलियों में मिलने वाले दूध और डेयरी उत्पादों को घर लाकर तुरंत किसी स्टेनलेस स्टील या कांच के बरतन में रखें।

देश के अधिकतर राज्यों ने हानिकारक प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाए हैं, लेकिन कानून के पालन में लापरवाही के कारण इनका उपयोग जारी है। हमें खुद जागरुक होना चाहिए और दुकानदार से इनकी मांग नहीं करनी चाहिए। इनके स्थान पर दुकानदारों को कागज के थैलों में सामान देने के लिए प्रेरित करना चाहिए। इन थैलों में भरे समान रखने के लिए हम घर से कपड़े या जूट के झोले या बैग ले जाएं, जैसा कि पहले हुआ करता था।

भगवान बुद्ध ने कहा था कि इस सृष्टि में एक दिन ऐसा आएगा जब 12 कोस पर एक दीपक जलेगा । ऐसे में यह जल्द ही सच का जामा पहनता नजर आ रहा है। हमने अपनी मौत का साजो सामान खुद ही चारों तरफ सजा लिया है। प्लास्टिक की तुलना उस रक्तबीज दानवों से की जा सकती है, जिसकी एक बूंद रक्त के भूमि पर गिरते ही एक नया दानव अवस्थित में आ जाता है । प्लास्टिक रक्तबीज दानवों की तरह नष्ट नहीं होता है। वैसे भी हमने पर्यावरण को बर्बाद करने वाले सभी तौर तरीकों को अपना लिया है। चाहे वह जंगल काटने का मसला हो या खाद्य पदार्थ में कीटनाशकों और उर्वरकों का घुलता ज़हर। प्लास्टिक भी हमारे जीवन के किसी भी हिस्से से अछूता नहीं है। हम कुदरत द्वारा दिए गए संसाधनों को दरकिनार कर प्लास्टिक या इसके जैसे अन्य उत्पादों को अपने जीवन का अंग बनाते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब हम खुद को प्लास्टिक के कफन दफन कर लेंगे।

***********************************************************************************

पत्रांश

प्रिय श्री देवेंद्र बहल जी,

अभिनव इमरोज और साहित्य नंदिनी का अंक देखकर हार्दिक प्रसन्नता हुई। मनोहारी आवरण चित्रों में दोनों पत्रिकाएं उपयोगी हैं। खासतौर पर आप डॉक्टर रेनू यादव जैसी लेखिकाओं पर केंद्रित सामग्री निकालकर एक उपयोगी काम कर रहे हैं। अभिनव इमरोज के 48 पृष्ठ और साहित्य नंदिनी के कलात्मक 32 पृष्ठ अपनी कलात्मकता के साथ हाथ में आते हैं तो आपकी लगन, समर्पण भावना और कर्मठता को सलाम करना पड़ता है। यह ठीक है कि एक हस्ताक्षर पर सामग्री देकर आप पाठकों को जानकारी देने में सफल हो पाते हैं, और रचनाकार के लिए भी यह उत्सव जैसा अवसर कहलाता है क्योंकि वह संसार में खुशहाल, गुलजार और सक्रिय बना हुआ है। एक सुझाव है कि इन पत्रिकाओं में साथ-साथ विषय केंद्रित सामग्री के अतिरिक्त कुछ न कुछ और भी लेखकों, लेखिकाओं को आप शामिल करते रहें तो हरेक अंक के लिए सभी की दिलचस्पी पत्रिकाओं में कायम रहेगी। एक के लिए जहां आज, अब ये अंक अनमोल कहलाएंगे वहीं अन्य रचनाकार एक नजर पत्रिका टटोलकर इनको सरका देंगे और मुक्त महसूस करेंगे। यह मात्र एक सुझाव है। क्योंकि पाठक वर्ग, लेखक वर्ग और आपको चाहने वाले शायद सभी ये चाहें और कहकर आपको व्यक्त न कर पाएं। मैंने अपने मन की बात आपको बताई है।

समय समय पर पर्याप्त सामग्री आपको अपनी ओर से और प्रोफेसर योगेश्वर कौर द्वारा भी इसलिए भिजवाता रहा हूं कि समय पर काम आए, लेकिन कई महीनों तक भी उनपर कोई संकेत न पाकर चिंता होने लगती है कि इस सामग्री को अन्यंत्र कही भेजा जाए या नहीं। लेखक और संपादक परिवार एक ही घराने से संबंधित हैं। दोनों का रिश्ता अटूट है। इसलिए संवाद और संपर्क बना रहे तो दोनों ओर से सुविधा कहलाएगी। आप मेरे विचार पर कुछ कह पाएं तो खुशी होगी।

सस्नेह

प्रो. फूलचंद मानव

जीरकपुर मो. 09646879890

***********************************************************************************

कविताएँ

प्रो. योगेश्वर कौर, ढकौली, जीरकपुर  


मानसूनी बादल

आम की गुठली कहां तक चूसते 

फिर पसीने को यहां तक खींचते 

देखते ही देखते वह छा गए 

मानसूनी कैसे बादल आ गए!


हाथियों की शक्ल लेकर गगन में 

झूमते मदमस्त फिरते तपन में 

लो, झमाझम बरसते जो दीखते 

सब हमें यों खींचते, मन भा गए।


अपनी वीरानी से लड़ते थक गए 

लहरिया चूनर से जागे, थक गए 

यह ठहाके और चहलबाजियां 

आंकते नित यों निरन्तर पक गए।


फल, मिठाई, खीर, खाजा, पेंग पर 

हंस रहे क्षण यों फिजा लहरा गए...


एक मीठी तान अपने मीत की 

इक मधुर सा गान भी संगीत का 

गुदगुदाएगा यही सावन हमें 

उस जमाने की निराली रीत का


वाह, खिलौना क्या यहां तस्वीर में 

मन रुचा, संग आस्था दर भा गए 

देखते ही देखते यह छा गए 

मानसूनी कैसे बादल आ गए। 

आम की गुठली...

***********************************************************************************

हमारा संसारः दुविधा के पार

एक दुनिया तुम्हारी है

और एक मेरी

लेकिन एक ‘हमारा संसार‘ भी तो होता है

उसी को भूल रहे हैं आप

भोगते हुए संताप


काम आने, सहयोग देने में

दूरियां तो नहीं

बस, फर्क है सोच और समझ का


नज़रिया अपना-अपना है

इसी में छिपा एक सपना है

जिसे ‘हम‘ साकार कर सकते हैं 

भीड़भाड़ आपा-धापी में भी

संकट की सड़क पार कर सकते हैं


सड़क पर बढ़ गयी है भीड़

आज भला कहां नहीं है पीड़ ! 

लेकिन मन के महोत्सव का भी तो 

एक अर्थ होता है

शेष सब व्यर्थ होता है


बच्चों ! यह संसार

रहने और सहने लायक

लोगों के लिए है

यहीं तुम्हारे पूर्वजों ने

अपने कर्म किए हैं


खबरदार ! स्वार्थों से होशियार 

अपनी अपनी दुनिया में हम 

एक दूसरे से दूर जा रहे हैं 

मानो, भरे पेट होकर भी 

अनचाहा खा रहे हैं ।

प्रो. फूलचंद मानव 

ढकौली, जीरकपुर, मो. 9646879890, 9316001549

***********************************************************************************लघुकथा

श्री श्यामल बिहारी महतो, बोकारो झारखंड, फोन नं 6204131994

भूलते रिश्तों की चीख

घर में शादी का माहौल था। आंगन में लगन बंधाने की रस्म की तैयारी चल रही थी। तीन दिन बाद सरला  की शादी थी। लड़का-सी आर पी एफ  का जवान था। दो माह पहले ही ज्वाइनिंग हुई है ‌। शादी के बाद उसे सीधे ट्रेंनिग में शामिल होना था। नौकरी वाला दामाद मिलने से घर में सभी खुश थे। घर आंगन में हंसी खुशी का माहौल था। परन्तु सरला की फूफी मीरा देवी बेहद नाराज़ दिख रही थी। जब से आई है ठीक मुंह किसी से बात नहीं कर रही थी। मेहमान वाले घर में अब भी अकेली बैठी कहीं खोई हुई सी थी। दूर के रिश्तेदारों का आना शुरू हो गया था। सभी के चेहरों में खुशी के रंग चढ़े हुए थे। सरला की मां रेणुका देवी की ठाठ देखते ही बनता था। तभी आंगन से रेणुका देवी की आवाज़ सुनाई पड़ी। अपनी दूसरी बेटी सारिका जो कार्मल स्कूल में क्लास सेवन में पढ़ रही थी से  कह रही थी-‘‘ देखो फूफी कहां बैठी है, बुला लाओ ! चोक पुराई करनी है !‘‘ 

सारिका सरपट मेहमान वाले घर में दौड़ गई पर उल्टे पांव भाग आई और मां के आगे रोने लगी। उसकी कानों में अब भी फूफी मीरा देवी की फटकार गूंज रही थी-‘‘क्या बुआ आंटी-बुआ आंटी लगा रखी है। चल भाग यहां से ...!‘‘ 

मां ने पूछा‘‘ क्या हुआ किसी ने कुछ कहा क्या ?‘‘

‘‘हां मैंने कहा ...!‘‘ फूफी ने  आंगन में कदम रखा।

‘‘क्या हुआ दीदी ! किसी ने कुछ कहा है क्या ? देख रही हूं आप जब से आई है। खुश नहीं है। ‘‘ 

‘‘बेटीयों को क्या पढ़ा रही है ? जब संस्कार ही नहीं बचेगा तो रिस्ते और रिश्तेदार कैसे बचेंगे ?‘‘

‘‘हम कुछ समझे नहीं! आप कहना क्या चाहती है दीदी ? हमसे कोई गलती हुई हो तो आप बड़ी है, समझा सकती है और डांट भी सकती है पर ऐसे मौके पर...!‘‘

‘‘यही तो यही तो ! आज के बच्चों को क्या पढ़ाया जा रहा है ? शहर में पढ़ने लगी तो बड़े छोटे की पहचान भूल जाओ।  गांव समाज के संस्कार भूल जाओ। दादा दादी, काका काकी कहने में शर्म आने लगे तो वैसे स्कूल की पढ़ाई से अच्छी है गांव के स्कूल की पढ़ाई। यहां ऐसी आंटी घंटी की पढ़ाई पर जोर तो नहीं दिया जाता है। देखो तो भला, फूफा फूफी कह बुलाना शर्म लगता है ! उसे सीधे मौसी बुलाना तोहिन लगता है। उसे सीधे मामी कह बुलाना गंवारपन लगता है।

जिसे देख वही- ‘‘बुआ आंटी, मौसी आंटी-मामी आंटी! यह सब क्या है। आज फूफी बुलाने में शर्म आ रही है। कल फूफी को घर बुलाने में शर्म आने लगेगी, कल ही की बात है, रघुवीर काका का बेटा बोकारो सीटी कॉलेज में पढ़ता है। घर आये अपने फूफा को फूफा न कहकर ‘‘अंकल-अंकल‘‘ कह दो बार पुकारा। फूफा ने कोई जवाब नहीं दिया। यह देख उसकी मां झाड़ू लेकर निकली और बेटे की ओर लपकी ‘‘नालायक, बहुत पढ़ लिया ! फूफा कहने में शर्म आती है।‘‘ और एक झाड़ू लगा दी।‘‘

‘‘बस करो दीदी ! बच्ची की जान लेगी क्या !  सारिका फूफी का पांव छूकर माफी मांगो और आइंदा कभी बुआ आंटी नहीं सीधे फूफी बुलाएगी ..जाओ !‘‘

‘‘माफ करो फूफी! आगे से ऐसी गलती नहीं करूंगी ! ‘‘ और सारिका ने सचमुच कान पकड़ ली। यह देख सब ठहाका लगा हंस पड़े ! 

‘‘ आओ दीदी ..चोक पुराई....!‘‘



***********************************************************************************

गजलें

सुश्री देवी नागरानी, मुम्बई, मो. 9987928358


राजनीति साजिशों की कब समझ में आएगी

चालबाजी शोरिशों की कब समझ में आएगी


किस लिये टकराव है ये आज इन्सानों के बीच

बात बेजा रंजिशों की कब समझ में आएगी


ख़ाली होने से ही पहले वो कुआँ भर जाएगा

बेपनाही ख़्वाइशों की कब समझ में आएगी


छत टपकती है अभी गीले दरो-दीवार हैं

ये तबाही बारिशों की कब समझ में आएगी


क्यों शरारे आसमां की सिम्त बढ़ जाने को हैं

यह नुमाइश जुगुनुओं की कब समझ में आएगी


कर रहे हैं पासबां सौदे शराफत के बहुत

सादगी इन साजिशों की कब समझ में आएगी


हाथ की रेखाओं से हम किस कदर मजबूर हैं

बेबसी इन गर्दिशों की कब समझ में आएगी...




घर की चैखट पार करने की घड़ी थी आ गयी

फैसले के बीच में बापू की पगड़ी आ गयी


प्यार उनका स्वार्थ मेरा सामने दोनों ही थे

बीच में उनके ये कैसी खैरख़्वाही आ गयी


ओट में जिसके खड़ी बारिश से बचने के लिए

बनके मेरी  मौत वो दीवार गीली  आ गयी


प्यार और कर्तव्य में बंटवारा  जब  होने  लगा

सामने तब माँ के चेहरे की उदासी आ  गयी


बेजमीरी के जो नक़्शे-पा थे मेरे सामने

कुछ विवशता उन पे चलने की मेरी भी आ गयी


झुक गया क्यों अक्ल और ईमान का पलड़ा वहाँ

सामने मुफलिस के जब भी भूख रोती आ गयी


जिन्दगी की आपाधापी में झुलसते  दिन  रहे

ख़्वाब महकाने को ‘देवी’ रातरानी आ गयी




बेबसी में भी निराशाओं से लड़ना चाहिये

इक नया इतिहास संघर्षों का रचना चाहिए


सरफिरी है, हाथ लगने से पिघल जाती है क्यों

बर्फ है तो बर्फ की मानिंद पिघलना चाहिए


क्या क्या टूटा, क्या क्या बिखरा, किर्चियाँ बिखरी कहाँ

आईने का छोड़ कर गम, फिर संवरना चाहिए


गाहे-गाहे मंजिलें आकर मिलेंगी राहों से

अपने हिस्से का मिले आकाश, उड़ना चाहिए


खोदना अपने भी दिल में एक ऐसी ही सुरंग

बस अंधेरा चीरकर सूरज, निकलना चाहिए


पाने हों लालो-गुहर, तो बैठना साहिल पे क्या

गहरे पानी में निडर होकर उतरना चाहिए


झूठ दोहराया गया है जिंदगी में बारहा

अब समय आया है सच को भी समझना चाहिए

***********************************************************************************

आलेख

श्रीमती मुकुलरानी वार्ष्णेय, नई दिल्ली, मो. 9953571874 

पेस मेकर



मैडिकल साइंस में हर रोज़ कोई न कोई अनुसंधान हो रहे हैं खोज हो रही है। ऐसी ही एक खोज पेस मेकर है हलांकि अब तो इसे काफी समय होने जा रहा है। यह छोटी सी जादुई डिबीया है पर काम बड़ा करती है। जिनके हार्ट कमजोर हो जाते हैं जिनकी धड़कन अस्तव्यस्त रहती है अक्सर बेहोशी आ जाती है ऐसे लोगों को पेस मेकर लगाया जाता है। इनमें एक मैं भी हूँ। तभी मेरे मन में आया कि जनरल लोगों को क्यों न इसकी जानकारी के लिये इस पर एक लेख लिखूं।

सबसे पहले पेस मेकर क्या है ? जानिये। 

पेस मेकर एक ऐसी छोटी सी डिवाइस है जो कि 

धड़कन को मांसपेशियों को नियंत्रित करती है। यह उन को लगाया जाता है जिनका दिल कम काम करता है। कमजोर होता है ओर थकान बहुत होती है। यहाँ तक की बेहोशी भी कभी-कभी हो जाती है।

पेस मेकर कैसे काम करता है ?

पेस मेकर के अन्दर बैटरी होती है एक कम्प्यूटराइज़ड जैनरेटर होता है जो तारों से जुड़ा रहता है और ये तार हृदय से जुड़े रहते हैं। यह सब एक छोटे से मैटिल बाॅक्स से फिट रहता है। और इसी को पेस मेकर कहते हैं।

आपके हृदय की चाल सामान्य नहीं है तो कम्प्यूटर जैनरेटर को कहता है कि वह हृदयगति को देखे।

अब तो नये-नये पेस मेकर तो मनुष्य की साँस प्रणाली को भी देखते हैं और उसकी हृदय गति को उसी के अनुसार व्यवस्थित कर देते हैं। और डाॅक्टर लोग उसी को एक्ज़ामिन करके व्यवस्थित करते हैं। जिससे पेस मेकर और अच्छा काम करेे।

मेस मेकर कहाँ फिट किया जाता है। पेस मेकर बाँये बन्धे की हड्डी के नीचे फिट किया जाता है। बहुत छोटी सी सर्जरी डाॅक्टर करते हैं। लोकन ऐनसथिसिया देते हैं और करीब एक से दो घंटे तक बेहोश करते हैं। पेशेन्ट को सर्जरी से पहले रिलेक्स करने के लिये दवा खिला देते हैं। और एन्टीबायोटिक देते हैं जिससे कोई इन्फैक्शन न हो। सारी सर्जरी आधे घंटे से लेकर 90 मिनट में पूरी हो जाती है। एक बार जब पेस मेकर लग जाता है उसकी बैट्री 6 साल से 10 साल तक काम करती है। जब बैट्री समाप्त हो जाती है फिर बदल दी जाती है।

पेस मेकर हार्ट की कई प्रकार की बीमारियों जैसे थकान होना या बेहोश हो जाना इत्यादि का आदर्श इलाज है।

अब तो पेस मेकर आटोमैटीकली हृदय गति को व्यवस्थित कर देते हैं। पेेस मेकर लगवाने के लिए 3-4 दिन ही हस्पताल में रहना पड़ता है। एक दिन आईसीयू में और दो दिन कमरे में।

पेस मेकर की केयर कैसे करें ?

ऐण्टीबायोटिक का हफ्ते का कोर्स अवश्य करें।

सर्जरी के 48 घंटे बाद बाँयी बाँह को उठाते रहें जिससे फ्रोज़न शेल्डर न हो।

हर 48 घंटे पर ड्रैसिंग की जाये, 7 से 10 दिन पर टाँके काटे जायें और बीटा डायन से पोछ दिया जाय। अगर मरीज को कोई दर्द या लाली या सूजन लगे तो फौरन डाॅक्टर को दिखायेें।

क्योंकि यह बैट्री से चलने वाला यन्त्र है इसलिये इसे हर 4-6 महिने पर डाॅक्टर को जरूर दिखाना चाहिये। 6 से 10 साल इसकी आयु होती है। यह एक आदर्श इलाज है। क्योंकि आजकल तो पेस मेकर आटोमैटकिली हार्ट की रेट को चाल को आपकी सेहत के अनुसार एडजस्ट कर देते हैं। और आप को एक ऐक्टिव लाइफ जीने का अवसर देते हैं।

अब मैं अपना अनुभव बताती हूँ। इस समय मेरी उम्र 91 साल है। सबसे पहले मुझे 83 वर्ष की आयु में पेस मेकर लगा था। उससे पहले मेरी एन्जियो ग्राफी हुयी थी। पर तकलीफ बढ़ती जा रही थी तो स्टेन्ट डाले गये फिर भी आराम नहीं आया तो एस्कोर्टस के डाॅ. अशोक सेठ ने पेस मेकर लगाने की राय दी। और मुझे पेस मेकर लगा दिया गया। डाॅ. अर्पणा जसवाल ने बहुत कुशलता पूर्वक एम्पलांट किया। वह पेस मेकर 8 साल चला। फिर पता चला कि बैट्री समाप्त होने जा रही है इसी कारण फिर से मेरी धड़कन इररग्यूलर हो रही थी थकान बहुत होती थी। कभी-कभी हार्टबीट रूक जाती थी। चक्कर आने लगे थे। तो मुझे पेस मेकर लगाने में कोई हिचक नहीं हुयी और 15 नवंबर 22 को एस्कोस्र्ट नई दिल्ली में डाॅ. अपर्णा जसवाल ने मेरी कुशलता पूर्वक पेस मेकर इम्पलांट कर दिया। मैं उनकी बहुत शुक्र गुजार हूँ। अभी 10-15 दिन हुये हैं। मैं दिल की तरफ से आराम से हूँ। मुझे यह भी पता नहीं चल रहा कि मेरे कोई दिल् भी धडक रहा है। एकदम शान्त बिना कोई आवाज़ किये। अन्त में मैं अपने बच्चों विशेष कर अपनी बेटी संगीता गुप्ता को बहुत आशीर्वाद देतेी हूँ जिन्होंने मेरी अति उत्तम केयर की। 

***********************************************************************************

कहानी

श्री महेश कुमार केशरी, बोकारो (झारखंड), मो. 9031991875

पुनर्जन्म

राघव ने समय का अनुमान लगाया। हाँ, ये वक्त ठीक रहेगा। अभी सुबह का वक्त है। सब लोग अपने- अपने कामों में व्यस्त हैं। लेकिन, इधर भाई की हालत भी तो खराब है। हालाँकि, राघव की पत्नी मुन्नी के आँखों में माधव काँच के किरचें की तरह चुभता है। वो उसको फूटी आँख नहीं सुहाता। लेकिन, माधव की पत्नी तारा भी कहाँ दूध की धुली है। इन, दोनों के कारण ही राघव और माधव में सालों से बोलचाल बंद है। घर की देहरी या आँगन में दीवार खड़ी हो गई है। अब तो सालों हो गये। उन दोनों भाईयों में बात चीत हुए। एक ही घर है आना-जाना भी एक ही दरवाजे से होता है। लेकिन, दोनों भाईयों में बातचीत सालों से बंद है। जब तक रामकिशुन बाबू जिंदा थे। दोनों भाईयों में इलाज या दवा-दारू के बहाने ही या कहीं बाप को डाॅक्टर-वैद्य के पास लाने, ले जाने के बहाने बातचीत हो ही जाती थी। लेकिन, पिता के चले जाने के बाद वो पुल भी टूट गया। जिसके बहाने से वे मिलते थें। इस बीच जो बात माधव ने कभी कही भी नहीं थी। उसमें घर की औरतें अपने-अपने मर्दों को उल्टा-सीधा पट्टी पढ़ाकर गलतफहमी पैदा करतीं रहीं, तभी मुन्नी पास से गुजर रही थी। कहीं बाहर से सौदा-सुलफ लाने गई होगी। 

राघव को टोका -‘‘ऐत बेर, अबेर नहीं हो रही है का? सूरज छत पर चढ़ जायेगा। तब जाकर काम पर जाओगे का ..? ‘‘ 

मुन्नी मुई है ही नक चढ़ी। जब भी बात करेगी। टेढा ही करेगी। 

‘‘ हाँ-हाँ जा रहा हूँ। जरा दम तो मारने दिया कर।‘‘ 

इधर, माधव की बेटी की शादी है। हालाँकि, माधव कभी अपने मन-से मदद की बात नहीं कहेगा। आज के भाई तो वे हैं, नहीं। जन्मजात भाई हैं। एक ही माँ के पेट के जने। क्या अपनी औरत मुन्नी की बात में आकर वो अपने भाई की मदद नहीं करेगा ? क्या किसी और घर से आईं दो औरतों के कारण वो अपने भाई से बिलगाव करेगा? क्या, राघव, अपनी औरत मुन्नी की बातों में आकर अपना भ्राता-धर्म भूल जायेगा ? 

नहीं वो इतना अधम नहीं है। नेकी अपने साथ तो बदी दूसरे के साथ वो क्यों करे ? आदमी का धरम क्या होता है? अपने भाई की मदद करना।  फिर, कौन लेकर आया है ? और कौन लेकर जायेगा ? द्वेष में आकर आदमी को किसी सद्कर्म से वंचित क्यों होना चाहिए ? फिर, ऊपर वाले की इजलास में जाकर वो क्या मुँह दिखायेगा ? कहते हैं कि एक दिन कयामत भी आयेगी। ऊपर जाकर अपने माँ- बाप को वो क्या जबाब देगा ? 

चाहता तो ये पचास हजार रूपये। अपने लड़के मिंटू के हाथों ही भिजवा देता। लेकिन, मुन्नी को पता चलेगा तो घर में महाभारत हो जायेगा। मुन्नी तो दुष्ट प्रवृत्ति की है। तभी तो वो माधव की मदद करने नहीं देती।

तभी गली में माधव दिखा। राघव ने उसे इशारे से बुलाया। 

पास आकर दोनोें भाईयों में दुआ- सलाम हुआ।

बहुत दिनों के बाद दोनों में बात हुई थी। 

राघव, माधव से बोला - ‘‘ कैसा है रे ..? ‘‘ 

‘‘ठीक हूँ, भईया ..‘‘ माधव बोला। 

‘‘ बड़ा झटक गये हैं, भईया। भाभी खाना नहीं देतीं क्या ? ‘‘ माधव हँसी में बोला।

‘‘ ले इधर आ। ‘‘ ( हाथ के इशारे से किनारे बुलाकर) राघव कहता है। 

‘‘ ले ये लिफाफा रख ..। ‘‘ 

‘‘ क्या, है इसमें... ? ‘‘ 

‘‘ अरे कुछ नहीं..। सुनीता बिटिया के लिये कुछ खरीद लेना ..। आखिर, मैं भी तो उसका बाप ही हूँ। ‘‘ 

माधव लिफाफा खोलकर देखता है - ‘‘ अरे, इसमें तो पैसे हैं ? ..ये किसलिये ..?..‘‘

‘‘ रख.. लो काम आयेंगें। आखिर, लड़की का मामला है। और शादी-विवाह, काज-परोजन में तो पैसे पास होने ही चाहिये। ‘‘ 

‘‘ नहीं-मैं नहीं लूँगा..। भाभी गालियाँ देंगी। फिर, आपकी भी तो दो- दो बेटियाँ हैं। ‘‘ 

‘‘तब की तब देखी जायेगी। अभी जो सिर पर पड़ी है, उसको देखो। ‘‘ 

‘‘..और भाभी से कहेगा कौन ? ‘‘ 

‘‘ दीवार के भी कान और आँख होते हैं। कहीं लड़ाई- झगड़े में कभी आपके मुँह से ही निकल गया तो। तारा भी मुझे ही भला बुरा कहेगी। ‘‘ 

‘‘ अपनी मरी माँ की कसम खाता हूँ। मेरे मुँह से कभी ना निकलेगा। ‘‘ 

तभी, माधव की पत्नी तारा उधर से गुजरी। और दोनों भाई अपने-अपने रास्ते चल पड़े। 

 माधव रास्ते भर सोचता जा रहा था। भईया तो देवता आदमी हैं। वो उनके बारे में कितना गलत सोचता था। 

उधर राघव को अपने भाई की मदद करके बहुत आत्मिक खुशी हो रही थी। 

आज गलतफहमी की एक काली रात का अंत हो गया था। और दोनों भाईयों का जैसे पुर्नजन्म हुआ था। 

***********************************************************************************

लघुकथा

सुश्री मीनाक्षी मेनन, होशियारपुर, मो. 94174 77999

यथार्थ

किसी रसाले की रंगीन पेपर से बने लिफाफे पर यह कविता छपी थी। इससे आगे भी थी पर गोंद वाले फोल्डर में आ गई थी। कोशिश की उमा ने ध्यान से खोलने की पर नाकामयाब रही। कविता पढ़ कर यूं लगा जैसे किसी ने उसी की जिंदगी के बारे में लिखा हो। यही कुछ तो वह महसूस कर रही थी, अपनी जिंदगी में। कुछ ही दिनोंमें खो गया था शादीशुदा जिंदगी का आकर्षण। ख्यालों में वह खो गई और जैसे वार्तालाप सा चलने लगा खुद से और उसके पति से।

‘‘हां जरा ध्यान से सोचो तो जो भी उसने इस लिफाफे में पढ़ा वह अच्छे से समझ आता है। क्योंकि ना तो तुम  राजा ही थे उस गीत के, जिसकी धुन मेरे पिता ने विदाई पर बजवाई थी। 

‘‘खुशी खुशी कर दो विदा कि,  रानी बेटी राज करेेगी.... सपनों का राजा मिला, तुम्हारी बेटी राज करेगी‘‘...   और ना ही मैं तुम्हारे सपनों की रानी थी, जो किसी फिल्मी हीरोइन की तरह जुल्फ से  पानी  झटका के तुम्हें रोज उठाएगी, बिस्तर पर चाय पेश करेगी, तुम्हें लुभाएगी, रिझाएगी  रुठोगे तो... मना लेगी..।

‘‘तुम से शुरु, तुम ही पर खत्म है उसकी दुनिया...‘‘  यह जतलाएगी, और कभी भी तुम्हारी गुस्ताखियों, बदमाशियों पर ऐतराज ना जताएगी। 

निभाएगी वह हर हाल में रिश्ता, क्योंकि देखा है, उसने और यही सुना है, यही समझा है कि किसी एक के झुकने से ही रिश्ता निभता है, और झुकने का दायित्व उसी के 

कंधों पर रखा है सदियों से इस समाज ने।

 क्योंकि, वह औरत है। और हां, मुझे भी तो कुछ ऐसा ही एहसास हुआ था जब पिताजी ने आंखें भर कर करुणा भाव से मेरा कन्यादान किया था।

 यही एहसास हुआ था मुझे कि तुम मेरे भगवान हो और मै तुम्हे दान मे दी गई  तुम्हारी चरणदासी। अर्धांगिनी होने की रस्म तो बस फेरों के मंत्रों में ही सिमट कर रह गई। तुम मुझसे मिलकर पूर्ण हो गए थे, स्वामी हो गए थे। और मै पूरे से अधूरी हो गई।

मेरे कमतर अस्तित्व को तुम्हारे ताने दिन-रात परिभाषित करते रहते। नमक कम है.. ठीक से काम नहीं करती हो....देखो तो कालर साफ नहीं हुआ.... अब यह बच्चा क्यों रो रहा है..... चुप कराओ। मुझे मैच देखने में दिक्कत आ रही है। सलीका  नहीं है तुम्हें सजने संवरने का । कैसी कामवाली बाई लगती हो। ओ हो! कैसे बन ठन के बैठी हो महारानी....काम क्या तुम्हारा बाप करेगा ?‘‘

समझ ही नहीं पाई मैं आखिर मैं हूं क्या ? 

घर तो छोड़ो अपने जिस्म पर भी हक नहीं है मेरा। कहने को तुम्हारी घरवाली हूं आखिर अस्तित्व क्या है मेरा? यही सोचते सोचते कि मैं कौन हूं ?

 क्या हूँ ? मैं सो जाती हूँ और अलार्म बजने से पहले, बड़ी देर पहले, उनींदी आंखों से उठ जाती हूँ। पर मैं यह कभी ना जान पाई कि जो दिन भर की पीड़ा रात को तकिए पर गुपचुप रो जाती थी, तो सारा अपमान,  क्रोध और क्षोभ न बह पाता था- आंसुओं में या कुछ ना कुछ रोज जमा हो रहा था कहीं, मेरी इजाजत के बिना, मुझे बताए बगैर । 

गाली-गलौज, अपमान तो खै़र रोज की बात थी। यदा-कदा हाथ भी उठ जाता था तुम्हारा। लेकिन आज तो तुमने हद कर दी। जरा सी देर हो गई तुम्हारे दोस्तों की लगी महफिल में, पापड़ सलाद देने की, क्योंकि पापड़ लेने जरा पास वाले बनिए की दुकान तक चली गई और कागज के लिफाफे पर लिखी कविता में खो गई कुछ पल।

तुमने तो सबके सामने इतनी बुरी तरह से पीटा... सिर टकरा गया मेरा टेबल से। जमीन पर गिरते हुए खून की 

धार बह निकली। बेहोशी सी छा गई एक बार तो... तुम्हारे एक दोस्त ने चिंता जताई तो तुम बोल उठे यह जलील औरत नाटक करती है।

जैसे तैसे उठ के अंदर गई, हाथ से लहू रोकने का यत्न तक ना किया। ऐसे ताकती रही, पथराई-सी आंखों से, उस धार को महसूस करने लगी- वो गर्म लहू जैसे कोई वर्षों से दबा पड़ा लावा हो जो आज पिघल के बह निकला। उफ्फ, पराए मर्दों के सामने तुमने आज इतना बेइज्जत कर दिया मुझे।

मुझसे सहन ना हो पा रहा था। आज पहले दिनों की तरह रोना भी न आ रहा था। कुछ छटपटा रहा था भीतर और भीतर ही भीतर लग रहा था कि आज तक जो सहा, जो जिया, जो किया, सब ब्यर्थ, बेकार। अचानक दरवाजे को ठेलते हुए तुम अंदर आए ‘‘क्यों री, तेरा यार लगता है वह मदन .. ? बड़ी हमदर्दी जता रहा था, ‘‘....जैसे ही पास पड़ी मुन्ना की हॉकी उठाकर मारने लगे वह मुझे, जाने कहां से इतनी शक्ति आ गई मुझ में कि बाजू मरोड़ के तुम्हारी वह हॉकी छीनी, और तुम्हें ही दे मारी। तुम्हारे माथे पर चोट आ गई... लहू की धार फूटी ...गुस्से में चिल्लाते तुम

नशे में धुत कुछ ही देर में ढेर हो गए थे। तुम मरोगे नहीं, जैसे मैं नहीं मरी पर, जियोगे भी नहीं अब मेरे साथ।

मैंने फैसला कर लिया यह पिंजरा तोड़ के जाने का।  तलाक मांगने भी... नहीं आऊंगी कभी कोई वास्ता नहीं तुमसे... अब तन, मन, वचन, कर्म, हर तरह से त्याग किया मैंने तुम्हारा। मुन्ना को जगाया वह अब 12 साल का था। सब समझता था, मां की दशा देखकर मन मसोसकर रह जाता था। 

‘‘क्या हुआ मां ?‘‘

‘‘कुछ नहीं, उठ अपने कपड़े और किताबें उठा।

माथे पर दुपट्टा बांध के उमा ने अपना और मुन्ने का जरूरी सामान बांधा। मामूली से गहने थे उसके पास मां के दिए, और कुछ पैसे जो घर खर्च से बचा के रखती थी, किसी बुरे वक्त के लिए... वही उठाए और चल दी। किसी अनजान डगर पे... पर मन में इतना विश्वास था कि इन 14 सालों  के नरक से तो बेहतर ही जिंदगी होगी  वह जिंदगी जो वह अपने और मुन्ना के लिए अपने दम पर बनाएगी।

***********************************************************************************

लघुकथा

डाॅ. सीमा शाहजी,  प्राध्यापक हिंदी, 325 महात्मा गांधी मार्ग, 

थांदला जिला झाबुआ, मप्र, मो. 7987678511

जीवन के ये महानायक

चैत्र मास की सुहावनी सुबह थी। एक ओर जहाँ जंगल में नाचता मोर नए सम्वत की बधाइयां दे रहा था, दूसरी ओर टपरियो से गायों का रंभाना, बकरियों का मिमियाना, नन्हें खरगोशों का फुदक-फुदक कर नाचना.... वन प्रान्तर में ये आह्लाद के पल थे। मैं इन पलों की प्रत्यक्षदर्शी थी। कारण मेरे पिता के डिप्टी फारेस्ट रेंजर पद पर पदस्थ थे। आवास भी फारेस्ट गेस्ट हाउस के पास ही था। मेरी रुचि सामाजिक कार्यों में अधिक रही अतः जब भी समय मिलता मैं पिताजी के साथ सामाजिक मुद्दों पर समीक्षात्मक चर्चा छेड़ देती। पिछले दो सप्ताह से एक ही मुद्दा था, कोविड-19, लॉक डाउन, हैंडवाश, सेनेटाइजेशन, क्वारण्टाईन, सीमित संसाधन में जीवन, जीवन की नवीन शैली, अर्थ व्यवस्था की थमी रफ्तार आदि।

’आज सुबह जब हवा के लिए मैंने खिड़की खोली और बाहर झांका। देखा कि सैकड़ों मजदूर जो दो जून रोटी के लिए अन्य प्रांतों में गए थे, पैदल लौट रहे थे। घायल पगतली में छाले, टूटी हुई चप्पल कंधे पर शिशु और सिर पर मन भर सामान था। और इन सब के बावजूद चेहरे पर ‘‘बुद्धत्व से स्थिर भाव‘‘ थे।’

’उनका दुख यदि महसूस हुआ तो मुझे । मैंने पिताजी से अपने विचार साझा किए। तत्काल जिला पंचायत 

अधिकारी को सूचना दी। आधे घण्टे में स्वास्थ्य विभाग का अमला वहाँ आ चुका था, सभी का परीक्षण हुआ। कुछ को उनके परिवार सहित गाँव पहुँचाने की व्यवस्था की गई। सभी का रेपिड टेस्ट भी किया गया। सुखद रहा कि इनमें कोई भी संक्रमित नहीं पाया गया।’ एक तरह से यह राहत की खबर तो थी, वहीं आश्चर्य होना भी स्वाभाविक था। बिना सुरक्षा इंतजाम, सैकड़ों का हुजूम शासन की  ‘‘सोशल डिस्टेसिंग‘‘ की अपील से बेखबर इन लोगों की रिपोर्ट नेगेटिव कैसे? इसका समाधान मुझे नानू डामोर और उसके साथियों से मिला जो अनपढ़ तो थे लेकिन आज औपचारिकता निभाने और प्राकृतिक जीवन पथ का शोधग्रंथ  लिखने को आमादा थे। जी हाँ, वे हम सभी को धन्यवाद देने आये थे। चर्चा में उन्होंने बताया-  ‘भूख से भिड़ना और जीतना हमने बचपन से सीखा है। मेहनत के लिए ही हमारा जन्म हुआ। हम चलते गए- चलते गए,  रात में खुले मैदान में सो जाते। सुबह होने से पहले हाथों में नीम का दातुन चबाते-चबाते फिर चल पड़ते। राह में जंगली तुलसी और नींबू मिल जाते तो ये हमारे लिए ताकत बन जाते। प्रकृति हमारी रक्षा करती रही।‘

हम सभी नानू डामोर और उसके साथियों का वानस्पतिक ज्ञान सुनकर अचंभित थे । जो सीधे तौर पर हमें ‘‘दृढ़ इच्छा शक्ति और प्राकृतिक जीवन शैली के बल पर ’कोविद 19 तुझे हारना ही है’ का सन्देश‘‘ दे रहे थे।

***********************************************************************************

कविता

सुश्री ममता सिंह, रीवा, मो. 9925052031

Email : mamta27.singh70@gmail.com

कुंडलियों का मिलान

हर बार कुछ तो रह जाता है

जो नहीं मिलता कुंडली के मिलानों में,

जन्म-जन्मान्तरों के लिए बांधे गए रिश्तें में

हर पूर्णिमा की रात उजली नहीं होती,

हर अमावस की रात काली नहीं होती,

कहीं न कहीं रह जाती है वैचारिक भिन्नता,

गहरे बसी रहती है आत्मिक खिन्नता, 

एक अनमने लबादे से ढका होता है तन जो

ढोता रहता है भार खोखले उसूलों का,

अंदर ही अंदर कुम्हला जातीं

है कई फूटती कोपलें,

दब के रह जाती हैं सिसकियां

और आँखों में बरसती हैं बेचारगी,

बाद इसके मीलों जारी रहता है सफर

अनमना,

खोज में रहती है भावनात्मक संपूर्णता,

एक पिपास ढूंढती रहती है,

भावनात्मक, वैचारिक व आत्मिक

सम्पन्नता,

खोज कब पूर्ण होती है ?

बनी रहती है अतृप्ता...

***********************************************************************************







Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य