कविता

डाॅ. उमा त्रिलोक, मोहाली, पंजाब, मो. 9811156310

मन्नत


माँगती हैं औरतें

मन्नतें

कभी पेड़ से

नदी से, पहाड़ से

देवी-देवताओं से

व्रत, पूजा, अर्चना से

दान पुण्य से

धर्म कर्म से


माँगती हैं

सुख समृद्धि

अपने लिए,

अपने परिवार के लिए


क्या हो जाती हैं पूरी

उनकी

मन्नतें ?


क्या

कभी नहीं मांगी

किसी ने मन्नत

न्याय के लिए ?


चलो आज मैं

आज़मा लेती हूँ

मन्नत को

माँग कर न्याय,

किसी पेड़ पर धागा बाँध कर

किसी मज़ार पर चादर चढ़ा कर

नदी, झरने या तालाब में; एक

सिक्का उछाल कर

मिल जाए जो न्याय

किसी निर्बल, बेबस को


न्याय ?


सुन कर

मन्नत,

हैरान हो गई


कहाँ है उस के पास

न्याय,

देने के लिए


होता, तो दे चुकती वह सदियों पहले 

फिर

न रहता कोई भूखा, प्यासा, लाचार


मन्नत,

ख़ाली ख़ाली

फटी फटी आँखों से

देखती रही, ख़ुद ही लाचार


मन्नत

बस

मन्नत बनी रही

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