भीड़
डाॅ. उमा त्रिलोक, मोहाली, पंजाब, मो. 9811156310
कविता
भीड़
सड़कों पर
नदी सी बहती भीड़
लोगों का चलना
चलते रहना; और चलते ही रहना
चल रहें हैं सब
देता है
सांतवना का आभास
देखना किसी को उतेजित, तो
किसी को उदास
किसी को मुस्कुराता या किसी को चिंतित
ऐसे में
होता रहता है
चुपचाप संवाद और
गहरी संवेदना का आदान-प्रदान
मगर
भीतर की भीड़
विचारों की भीड़
द्वंदों की भीड़
जो रुकती ही नहीं
कहीं पहुँचती ही नहीं
विस्फोटक है जो
धधकती है चिंगारियों सी
धुआं बिखेरती है जो
उसका क्या ?
निपट सकते हैं
बाहर की भीड़ से, यदि
भीतर सन्नाटा हो
शून्य का झरना बहता हो
कहीं दूर
एक नन्ही चिड़िया
किसी एक पेड़ पर बैठी
गाती हो