कविता
डाॅ. उमा त्रिलोक, मोहाली, पंजाब, मो. 9811156310
रहने दो
मां, रहने दो तुम
कहां आओगी इतनी दूर
हम ही आ जायेंगे
और हां
मत पकाना खाना वाना
बाहर से मंगवा लेंगे
और हां
मत बनाना अचार वचार
मिलता है सब बाजार
बोल दूं जब मैं
किसी बात में पड़ कर कुछ
कहेंगे वे
मां, अब तुम क्या जानो
ये उस ज़माने की बात नहीं
नहीं चलता है ऐसा अब
और हां
अब तुम मट्ठरी लड्डू मत बनाने लग जाना
कौन उठा कर ले जायेगा
और फिर
सब हेल्थी फ़ूड ही खाते हैं
सोचती रह जाती मैं
क्या
गलत ही खिला दिया मैंने तुम सब को
आज तक?
रहने दो, रहने दो
सुन सुन कर
थक जाती हूं
और हाशिए पर खड़ी मैं
एक पुरानी कहानी सी बन जाती हूँ