Sahitya Nandini January 2023




समीक्षा

डॉ. नयना डेलीवाला, नेहरू पार्क, वस्त्रापुर, अहमदाबाद मो. 9016478282


महाभारत का आधुनिक संदर्भ  ‘‘विजययात्रा’’

श्री कमलेशपटेल गुजराती के प्रसिद्ध प्रतिभा संपन्न रचनाकार हैं, उन्होंने भारत की प्रसिद्ध पौराणिक कथाओं-रामकथा, महाभारत कथा तथा श्रीमद्भभगवद की कथा को आधार बनाकर उन्हें एक नवीन और आधुनिक द्रष्टि से युगीन संदर्भों के तहत देखने-परखने का प्रयत्न किया है। ‘विजययात्रा’ महाभारत की कथा पर लिखा गया उपन्यास है, जिसे मौलिक कहना अधिक समीचीन होगा।

किसी इतिहास कथा को आधार बनाकर जब कोई रचनाकार इसमें अपने युगीन संदर्भों को तार्किक और मौलिक उद्भावनाओं के साथ अभिव्यक्त करता है तब उसे कलाकृति कहा जाता है। जिस प्रकार वट के बीज से उत्पन्न प्रत्येक वृक्ष वट का होते हुए भी स्वंय में एक स्वतंत्र अस्तित्व होता है। उसी प्रकार प्रसिद्ध कथा पर आधारित मौलिक उपन्यास का भी यही सत्य है। महाभारत केवल युद्ध कथा नहीं है। वस्तुतः वह व्यक्ति तथा समाज के विकास की गाथा है। महाभारत की कथा भारतीय चिंतन एवं संस्कृति की अमूल्य थाती है। कमलेश जी ने उसे ही अपने उपन्यास का आधार बनाया है। ‘विजययात्रा’ की कथा मनुष्य के उस अनवरत युद्ध की कथा है जो उसे अपने बाहरी और भीतरी शत्रुओं के साथ निरंतर करना पड़ता है। वह उस संसार में रहता है,जिसमें चारों ओर लाभ और स्वार्थ की शक्तियां संघर्षरत हैं। बाहर की अपेक्षा उसे अपने भीतर अधिक लड़ना पड़ता है। परायों से अधिक अपनों से लड़ना पड़ता है। यदि वह अपने धर्म पर टीका रहता है तो इसी देह में स्वर्ग जी सकता है, इसका आश्वासन महाभारत देता है। लोभ, त्रास और स्वार्थ के विरुद्ध धर्म के इस सात्विक युद्ध को कमलेश जी एक 

आधुनिक और मौलिक उपन्यास के रुप में प्रस्तुत कर रहे हैं। महाभारत की इस घटना में उन्हों ने अपने युगीन संदर्भों को तलाशकर, तार्किकता एवं मौलिक उद्भावनाओं के साथ अभिव्यंजित किया है।

‘विजययात्रा’ महाभारत की कथा पर लिखा गया उपन्यास है। यह शांतनु, सत्यवती तथा भीष्म की मनोदशा एवं जीवन मूल्यों की कथा है। इसमें सत्यवती के हस्तिनापुर में आने तथा हस्तिनापुर से चले जाने पर राजा शान्तनुं के उदासीन होने पर गंगापुत्र भीष्म वृद्ध अमात्य मंत्री से इस उदासीनता का कारण पूछते हैं तब पता चलता है कि राजा दाशराज की पुत्री पर मोहित हुए हैं।दाशराज ने ये शर्त रखी है कि नयी रानी के पुत्र को राज्याधिकार मिले और पहला पुत्र अधिकार च्युत हो। दाशराज की यह शर्त थी। यह सुनकर देवव्रत सोचते हैं कि यदि शांतनु कुरू साम्राज्य पाकर भी सुखी नहीं है तो देवव्रत को इस राज्य से क्या मिल जायेगा। देवव्रत को यह राज्य नहीं चाहिए। पिता जिसे चाहे दे दे। इस छोटे से राज्य के लिए देवव्रत पितृद्रोही नहीं कहलायेंगे। यहां पर लेखक ने इस शाश्वत सत्य को निरूपित करना चाहा है कि भोगविलास एवं ऐश्वर्य में आकंठ डूबे रहने पर भी मनुष्य की एषणाएँ कभी तृप्त नहीं होती। देवव्रत दाशराज के पास जाकर आजीवन अविवाहित रहने की भीष्म प्रतिज्ञा करते हैं और कहते 

है..। “मैं शान्तनुं पुत्र देवव्रत महादेव को साक्षी मानकर प्रतिज्ञा करता हूं कि आजीवन शादी नहीं करुंगा अखंड ब्रह्मचर्य पालन करूंगा। सत्यवती के दो पुत्र होते है, दोनों पुत्रों को अपने अधिकार एवं भोग की ओर आगे बढ़ते देख शान्तनुं चिंतित होते हैं और इसी चिंता में अनकी मृत्यु हो जाती है। सत्यवती से शादी करने के पश्चात शान्तनुं प्रायश्चित के अनल में अनवरत जलते रहें कभी स्वस्थ नहीं हुए, देवव्रत के भावि को कुंठित करने के अपराधबोध के साथ उनकी मृत्यु हो जाती हैं।

उनका बड़ा पुत्र चित्रांगद मदिरापान से संज्ञाशून्य होकर गांधर्व राज के हाथों मारा जाता है। यहां सत्यवती भीष्म को बुलाती है क्योंकि राजा की मृत्यु के बाद ये दायित्व भीष्म ने अपने कंधों पर ले लिया है। सत्यवती भीष्म से कुरूवंश की रक्षा का वचन लेती है। भीष्म फिरसे सत्यवती के बंधन में बंध जाते हैं। विचित्रवीर्य की अत्यधिक भोग के कारण से मृत्यु होती है।

यहां फिरसे सत्यवती भीष्म को उनकी दो बहुओं के साथ विवाह करने के लिये कहती है। किंतु भीष्म अपनी प्रतिज्ञा की याद दिलाकर मना कर देते हैं। भले ही कुरूवंश निर्वंश बने। माता कहती है....राजगद्दी पर तो राजपुत्र ही आसीत होता है यह लिखित नियम है। किसी भी सक्षम व्यक्ति को अभिषिक्त किया जा सकता है। वे भीष्म से कहती है....हस्तिनापुर को विपत्ती में से महामुनि ही पार उतारेंगे। 

भीष्म का मन अकुलाता है। तब वे कहती है वास्तव में महामुनि वेद व्यास मेरा ही पुत्र है और उसके जन्म की कथा से अवगत कराते है। महामुनि को अपने पिता से ही आशिर्वाद मिले है। अतः वे एक महान तपस्वी एवं ऋषि ही बनेंगे,अपयश के भागी कभी नहीं बनेंगे। मेरा ये पुत्र बचपन से ही साधुत्व प्राप्त किये हुए हैं। महामुनि मानवता और अहिंसा के प्रबल समर्थक रहे हैं। मृगया को तो धिक्कारते थे। किसीको भी गूंगे प्राणियों के हनन का अधिकार नहीं है। वे कहते...। इस नूतन युग में मृगया को राजधर्म न माने तो भी चलें।

कहते हैं कि हमारे समाज में नियोग प्रथा से पुत्र प्राप्ति प्रचलित हैं। सत्यवती उनकी बात मान लेती हैं और 

कृष्णद्वैपायन को नियोग संतान के लिये निमंत्रित करती है

अंबिका और अंबालिका को संतान प्राप्ति की इच्छा न होते हुए भी राजमाता की आज्ञा स्वीकार करनी पड़ती हैं। अंबिका ने अंधे पुत्र धृतराष्ट्र को जन्मदिया जैसे महमुनि की भविष्यवाणी थी और अंबालिका पांडु को जन्म देती है। अंबिका सोचती है....आखिर नियोग पद्धति से क्या मिला? दोनों पुत्रों से सत्यवती को संतोष नहीं होता। तब वह फिरसे अंबिका को एक और पुत्र के लिये तैयार करती है। अंबिका दासी को तैयार करती है। दासी और कृष्णद्वैपायन का एक पुत्र होता है जो विदुर के नाम से प्रसिद्ध है। भक्तिपूर्ण,भावनायुक्त पुत्र विदुर। तब सत्यवती हताश होती है कि-दैव ही जब रूठा हो तो क्या करें?

धृतराष्ट्र का विवाह गांधारी से होता है, कुंतीभोज के स्वंयवर में कुंती पांडु को पति के रुप में स्वीकार करती है। हस्तिनापुर में पांडु का राज्याभिषेक होता है। महामुनि आ नहीं पाते सिर्फ आशीर्वचन भेजते हैं। उन्होंने भीष्म को आगाह किया है कि पांडु को द्यूतक्रीड़ा एवं मृगया से दूर रखा जाय तथा विजययात्रा पर भेजा जाय। राज्यसत्ता को पाकर पांडु प्रसन्न तो थे पर पूर्णतः नहीं। धृतराष्ट्र भी रहस्यात्मक हास्य बिखेर रहे थे।

पांडु के पास राज्य प्रशासन का अनुभव तो था नहीं पर विदूर का कथन....प्रजा का संतोष ही राजा का सही विजय है, पांडु के चित में अंकित हो गयी थी। महामुनि कुंती को कहते है....अब हस्तिनापुर का राज्य तेरे हाथ में है बेटी।

कुंती पांडु को विजययात्रा के लिए तैयार करती है,भीष्म ये परिवर्तन देखकर आश्चर्य विमूढ़ हो जाते है कि पांडु राजी हो गये। भीष्म ने पांडु समक्ष ‘दिग्विजय’ का प्रस्ताव रखने का संकल्प किया। विजययात्रा का दिन आ जाता है। महामुनि आशीष देने पधारते हैं और पांडु को संकेत देते हैं कि....ज्येष्ठ भ्राता की पत्रि में राजयोग है,पांडु पूछते हैं....और मेरी पत्रिका में संन्यस्त ?

विजयययात्रा का प्रारंभ दशार्णों पर के विजय से होता है। ततपश्चात विदेह पर आक्रमण एवं विजय। बाद में काशी पर विजय पताका फहराते हैं। मद्रदेश में आगमन होता है पांडु का। पांडु का स्वास्थ्य क्वचित बिगड़ता है, उन्हें विश्राम के लिए कहा जाता है।

मद्रदेश का राजा शल्य सक्षम, सशक्त है। उनके लिये कहा जाता है कि....मद्रनरेश सारथि हों और योद्धा भीष्मदेव हो तो साक्षात पिनकिनपानी भी रण से पलायन कर दे। मद्रनरेश और पांडु की भेंट रंग लाती है और मद्रदेश के अतिथि बनकर सभा में माद्री का परिचय करवाते हैं-मेरी प्रिय भगिनी माद्री है, सम्राट!

पांडु को पूरी रात चैन नहीं आता, शादी का प्रस्ताव रखते है और माद्री से शादी कर ससम्मान पत्नी का स्थान देते हैं, इसमें भी पांडु की आसक्ति, सुंदरी के भोग, सौंदर्य की लालसा की दृष्टि समायी हुई है। इस प्रकार पांडु राजा से सम्राट बने।

पांडु भद्रराज शल्य की बहन माद्री को शुल्क देकर खरीद लाते हैं। यहां लेखक ने तत्कालीन समाज में प्रचलित नारी विक्रय का चित्रण किया है, जो वर्तमान समाज के लिये एक कलंक माना जाता है।  पांडु दोनों को छोड़कर वनगमन करते हैं।

पांडु दोनों नवोढ़ाओं को छोड़कर विजययात्रा को जाते हैं लौटकर अपने विजय के चर्चे और गुणगान करते हैं। किंतु कुंती को उसमें कोइ रस नहीं। वे कुंती को आलिंगन में लेते हैं, पर आलिंगन शिथिल हो जाता है। 

विदुर की शादी का बहाना करके चले जाते हैं। विदुर ने शादी के बाद पत्नी को कुरूकुल में अपने स्थान के बारे में पूरी जानकारी दे दी थी।

पांडु विदुर की शादी के बाद आखेट हेतु वनप्रयाण करते हैं। पांडु के साथ कुंती और माद्री भी ब्रह्मचर्य का व्रत लेते हुए उस मार्ग पर चल देती है, राम-सीता का संदर्भ देती हुई। पांडु वन में माद्री के द्वारा उन्मत्त होते है, माद्री राजा को खुद के लिये जीवित मृग लाने के लिये कहती है।

पांडु मृगया के लिए उपवन में निकल पड़ते हैं। पशुओं की त्राड सुनकर पांडु उस दिशा में दौड़ते हैं। शाखा को पकड़कर देखते है तो अद्भूत दृश्य देखकर मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। मृग-मृगी का चरम संभोग काल। पांडु मृगया भूलकर उसमें तल्लीन हो जाते हैं, समाधि समान दृश्य में। इतने में पांडु शरसंधान करता है और मृग विलग हो जाता है। विषय के चरम बिंदु पर पहुँचा हुआ मृग यमालय में पहुँच गया पांडु के शर से। वृद्ध गुरू कहते हैं....विषयानंद ब्रह्मानंद से कहीं कम नहीं है। समाधि स्थिति की दिशा में गतिरत की आपने हत्या की है। ब्रह्म हत्या की है। अतः ब्रह्म हत्या का महा पाप लगेगा।

पांडु गुरू से पूछते है तो क्या उध्र्वगमन करवाओगे मेरा, यहां गहरे अपराधबोध की अनुभूति पांडु को होती है। वृद्ध ने सहास कहा...। मनुष्य को उध्र्वगमित या अधः पतित करानेवाला और कोई नहीं होता, पांडु ! स्वकर्म ही से वह ऊंचा उठता होता है या अवनत होता है। पांडु शापित है-जब भी वे कामासक्त होंगे और भोग करेंग तुरंत ही उनकी मृत्यु होगी।

उस समय से उनके मन का अपराधबोध गहरा होकर प्रतिक्षण कचोटता है, पर वे अपनी वासना से ऊपर नहीं उठ पाते। माद्री के पास जाते ही मृग-मृगी चक्षु समक्ष उपस्थित होते हैं, तन पर प्रस्वेद फूट पड़ता है और वह माद्री से विलग हो जाते हैं।

गुरू ने कहा था कुंती को कि जल्द ही सम्राट यह स्थान छोड़ दे तो मानसिक रुप से स्वस्थ रह पायेंगं। कुंती के कहने पर शतश्रृंग पर्वत पर स्थायी होने के लिये सहमत होकर पांडु चल पड़ते हैं। वहां इंद्रधूम्न सरोवर है। इन प्राकृतिक परिवेश में चैन पायेंगे सम्राट, पर उनकी अपराध भावना और भोग के बीच जद्दोजहद अनवरत लगी रहती है। मन कहीं ठौर नहीं पाता।

पांडु अपनी पौरूषहीनता की बात कुंती-माद्री के सामने रखता है, स्वीकार करता है। कुंती के सामने नियोग से पुत्र प्राप्ति की इच्छा प्रकट करता है। कुंती तैयार होती है। मुनि दुर्वासा द्वारा दिये गये मंत्रों से धर्मराज की कामना करके युधिष्ठिर को जन्म देती है। वहां गांधारी भी गर्भवती होती है। गांधारी कुंती से पहले पुत्र को जन्म देना चाहती थी,पर प्रकृति को मंजुर न था। नारी सहज द्वेष एवं इष्र्या और स्वार्थ के लिए गर्भ पर प्रहार करती है, और जल्द रक्तस्त्राव शुरू हो जाता है। कृष्ण द्वैपायन भीष्म और सत्यवती को हस्तिनापुर के उपर आनेवाले संकट की सूचना देते है।

गांधारी दुर्योधन को जन्म देती है। कुंती उसके बाद भीम और अर्जुन को जन्म देती है। माद्री अश्विनी कुमार की कामना कर सहदेव और नकुल को जन्म देती है।

माद्री शृंगार कर रही होती है उसी समय पांडु कुटिया में प्रवेश करते है। माद्री उन्हें आमंत्रित करती है। पांडु उसे सरोवर ले जाते हैं। सरोवर में भीगने पर माद्री के वस्त्र तन से चिपक जाते हैं,उसे देखकर पांडु का रति भाव प्रबल होता है। वे उसे उठाकर सरोवर से बाहर लाते हैं। दोनों रति सुख में मग्न हो जाते हैं। तब सहसा माद्री से अलग होकर,अपने दिल पर हाथ रखते हैं और बेसुध होकर गिर पड़ते हैं। उनकी मृत्यु हो जाती है। माद्री तन-मन से शिथिल हो जाती है, कहती है....ये क्या किया, सम्राट! वंचक छो आप। वंचना करी गया मारी ! भीम का श्वान पुनः गरजा, पर ये तो पांडु की मृत्यु का क्रंदन था। यहां उपन्यास का अंतिम चरण है।

  कहा जा सकता है कि ये शांतनुं सत्यवती एवं भीष्म के जीवन मूल्यों और मनःस्थिति की कथा है। चुस्त रुप से नीति नियमो. का पालन करने पर उसकी मह्ता, उसका मूल्य और गरिमा की उज्जवलता प्रतीत होती है।

अंत में यही कहा जा सकता है कि महाभारत के सौंवे अध्याय में महाराज शांतनुं के प्रेम प्रसंग की जो कथा प्रारंभ होती है, इसे कमलेश पटेल जी ने ‘विजययात्रा’ में 36 अध्याय में प्रवाही, रससिक्त शैली एवं अनोखी वाक्य संरचना के साथ चित्रांकित की है।

रचनाकार ने कथा में कुछ बातें पाठकों पर छोड़ी है। कुंती एवं पांचो पुत्र हस्तिनापुर लौटते हैं। ये वापसी महाभारत के युद्ध की सनसनी आहट बनकर पाठकों को अकुला देती है। गंगापुत्र देवव्रत का प्रतिज्ञाबद्ध रुप, पिता शांतनुं का स्वार्थ, नारी की स्वतंत्रता और पाढ़ियों का संघर्षरत सत्यवती का मूल रुप, प्रगल्भनारी, अत्यंत सतर्क प्रशासक और सशंक राजनीतिक चरित्र और पांडु की नपुसंकता, उत्तेजना और पागलपन की स्थितियाँ, जो रहस्य, सस्पेंस, विस्तार और मनोविश्लेषणात्मकता में अंकित हुई है। कुंती पूरे अंतरान्दोलन की प्रतिमूर्ति बनी रही है। विजययात्रा में रचनाकार ने मानवता के शाश्वत प्रश्नों से साक्षात्कार करवाया हैं। महाभारत युगीन समाज की विभिन्न, शाश्वत लगनेवाली समस्याओं में सांप्रत भारत के अनेक-अनेक प्रश्नों-विसंगतियों को एकरुप कर अभिव्यंजित करने में कमलेश जी सफल हुए हैं। 

आधार ग्रंथ: 1 विजययात्रा-रचनाकार-कमलेश पटेल 

संदर्भ ग्रंथ: 1 हाशिए का आख्यान-संपा. डॉ. भानुचैधरी, 

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आलेख

श्री अजित कुमार राय, कन्नौज, उ.प्र., मो. 9839611435


महाप्रस्थानः हिमभाषा में लिखित उपनिषद्

\नरेश मेहता देश और समाज के लिए बड़ा सपना देखने वाले, जिम्मेदार कवि हैं। वे जीवन के विराट संदर्भों के रचनाकार हैं। उन्होंने अपनी स्वतंत्र सैद्धान्तिकी गढ़ी है। और तीन पगों में पूरी पृथ्वी को नाप लेने वाला वैष्णव व्यक्तित्व अर्जित किया है। वे कोरी समकालीनता से करोड़ों प्रकाशवर्ष दूर देश-कालातीत ऋतम्भरा प्रज्ञा की पराब्रह्मांडता के अन्वेषी हैं। उनका मिथकीय विवेक जीवन और जगत के बड़े प्रश्नों से जूझता है। उनका ‘महाप्रस्थान’ ऐसी सांस्कृतिक प्रतिसृष्टि है, जो हिमालय की ऊँचाई से जागतिक यथार्थ को देखने-समझने का पथ प्रशस्त करती है। यह कृति 

मृत्युगंधी घाटियों में जिन्दगी का राग रचती है। यह अन्तर्यात्रा के पड़ावों का आख्यान और आज के भूमंडलीकृत लाक्षागृहों से बाहर निकलने के लिए सुरंगें खोदने का प्रस्थान है। इसमें असाधारणता का साधारणीकरण हुआ है। आज की कविता के दैहिक ताप के शमन के लिए यह हिमभाषा में लिखित ‘उपनिषद्’ है। देह-बोध को विगलित कर आत्मोपलब्धि की साधना या चेतना के ऊध्र्वसरण को ही स्वर्गारोहण का रूपक प्रदान किया गया है। भाषा की पार्थिवता का परिहार और देवतात्मा हिमालय की सौन्दर्य-प्रदक्षिणा ही उनकी इस काव्य-यात्रा का पाथेय है। फैन्टेसी के माध्यम से मृत्यु का साक्षात्कार ही महा जीवन की प्रस्तावना रचता है। मृत्युबोध ही बुद्धत्व की भूमिका बनता है, ‘मरा’ ही ‘राम’ बनता है। उनकी गैरिकवसना वाणी साहित्य की सांसारिकता का विलोम रचती हुई मानवता के सार्वभौम व्रणों को काटने-गलाने के लिए ही यात्रा का द्वित्व लिखती है। युधिष्ठिर का आत्म-संघर्ष उनके बाह्य संघर्ष से कहीं अधिक व्यापक है। आधुनिकता की शोभायात्राओं से निरपेक्ष उनका आर्ष -चिन्तन अतीत के समानान्तर बड़ी रेखा खींच देता है। साथ ही इसमें राज्य-व्यवस्था की अमानवीय प्रकृति का प्रकाशन भी हुआ है। आज जहाँ वेद के प्रति निर्वेद पैदा करने वाले ‘परमहंसों’ का सर्वव्यापी बोल्ड कैसेट अहर्निश बज रहा है, वहाँ नई अर्थवत्ता देते हुए नरेश मेहता ने वेदान्त का जो अपना ‘पाठ’ रचा है वह धर्म और ज्ञान के अनश्वर होने की बहुत बड़ी आश्वस्ति है। उनके ज्ञानपीठ को पुरस्कृत किया ही जाना चाहिए। सृष्टि के महाभाव से एकात्मता अनुभव करने के लिए उनके सामाजिक शिवत्व की अवधारणा को त्रिपुण्ड की तरह धारण करना चाहिए।

राम और कृष्ण को भारतीय मानसिकता के अक्षांश और देशान्तर मानने वाले मेहता की महती संरचना इस सृष्टि के भागवत स्वरूप को सश्रद्ध नमन करती है। उन्हें किसी बाहरी कृष्ण की आवश्यकता अनुभूत नहीं होती। उनका विनय, उनकी वैष्णवता हर पाथर को प्रभु बना देती है। वह सृष्टि के व्यक्त रूप में ही रमते हैं। उनकी पगडंडियाँ मानुषगंधी हैं पर साधना की अन्तिम ऊँचाई पर जब मन पर से सारे वर्णगंध उतर जाते हैं, तब सारी सामूहिकता वैयक्तिकता में परिणत हो जाती है और एक सम्बन्धहीन सम्बोधनहीन भाषा और भाषाहीन सम्बोधन ही शेष बचता है। जहाँ वृक्ष छाल सा अपने ही देह को उतार कर अपने हाथों प्रक्षालित करने का कर्मकांड यज्ञ बनता है और धुएँ में निहित आग का तर्कशास्त्र पीछे टूट जाता है। ‘महाप्रस्थान’ महाभारत से आगे की कथा है। यूँ तो युद्ध के बाद भी चलते रहते हैं युद्ध हमारे अन्तस्तल में। स्मृतियों में जीवित उन व्यूहों-प्रतिव्यूहों की गाथा को फ्लैशबैक शैली में निरूपित किया गया है और उससे मानवता की मुक्ति के उपाय खोजे गए हैं।

स्मृतियों की इस भस्म मंजूषा को किसी हिमनद में बहा देना ही हमारी सारी स्मृति परम्परा का सार सत्य है। जलचित्रों में बारम्बार तैर आने वाला यह संसार केवल विगत का भ्रम है। किन्तु इन भ्रमो. को, मृत संसार को मकड़ी की भाँति हम अपने चारों ओर बुनते रहते हैं और समस्याओं के संजाल में खुद ही फँस जाते हैं। अपने अन्तर्व्यक्तित्व को अपने में से निकाल कर फेंक देना कितना कठिन है। सृजनात्मक स्तर पर इन्हीं कठिन प्रश्नों से टकराने और नया समाजशास्त्र रचने के लिए ही नरेश जी ने ‘दक्षिणावत्र्त’ शंख फूँका है। कथाहीन कथा के परिधान में तत्व-चिन्तन की संश्लिष्ट बुनावट उनकी काव्य-कला को आंतरिक दीप्ति प्रदान करती है। उनकी कविता का पदार्थ अपदार्थिक तत्वों से संघटित है। नभ के नील पटल पर ‘पृथ्वी सूक्त’ लिखने वाली पर्वत मालाओं के हिम-क्रोड़ में धँसने वाले नरेश मेहता धरती के गुरुत्वाकर्षण से क्रमशः ऊपर उठने की ध्वनियाँ सँजोने वाले शब्द शिल्पी हैं। ये ध्वनि तरंगें हमारी चेतना के आकाश में देर तक वलयित होती रहती हैं। इस कृति में कविता और दर्शन का तनाव, कॉस्मिक विट्ठान, अतीत और वर्तमान का द्वन्द्व भविष्य की संकल्पना के साधक बन कर उभरे हैं। इस समूची कथा-यात्रा में अनाहत नाद पाश्र्व संगीत की तरह बजता रहता है।

आरम्भ में कविता की गतिज ऊर्जा देखते ही बनती है। ठीक गंगोत्री की तरह आवेगपूर्ण। और कविता में ठहरा हुआ समय भाव-समाधि की सृष्टि करता है। यहीं कहीं 

धूप-यान में बैठकर सूर्य प्रियाएँ मानस-जल पीने आती हैं। प्रकृति-परिसर का रस-अभिसार स्वयं में एक गहरा आमंत्रण है। किन्तु लक्ष्यबद्ध अन्तर्यात्री को तो निरन्तर चलते रहना है। यह वस्तुतः सहस्रार की चढ़ाई है -

‘‘केवल चलना ऊध्र्व ऊध्र्वतम ही है चलना,

जैसे पृथ्वी चलकर गौरीशंकर बनती’’

अन्तर्यात्रा चाहे जितनी लम्बी हो, हिमालय चाहे जितना दीर्घायु हो, कविता का देशकाल अत्यन्त परिमित है। पर्वतीय अंचल के दृश्यों की गतिशील फिल्म आगे बढ़ती जाती है और सौन्दर्य की घाटियाँ क्रमशः पीछे छूटती चली जाती हैं -

‘‘सभी कुछ छूट गए -

नाना वर्ण-गन्ध के फूलों वाली उपत्यकाएँ -

देव अप्सराओं के परिधान सरीखी

रंग-बिरंगे डैनों वाले

वे पाँखी दल

और साँझ का देवदारु-वन वाला उनका

वह आकुल आरण्यक कूजन।’’

पर जैसे कुछ नहीं छूटा कवि की पकड़ से। फ्लैश-बैक के माध्यम से समूचे परिदृश्य का वृत्त-चित्र प्रस्तुत किया गया है। नरेश मेहता की कविता टेबुल-वर्क नहीं, न ही वे सिर्फ लिखने के लिए लिखते हैं। वे अपने भीतर मनुष्यता का सृजन करते हैं, देवत्व का भी अतिक्रमण करने का प्रयास करते हैं। वन-प्रांतर और हिमालय की सौन्दर्य-परिक्रमा करता हुआ कवि कब जीवन-चिन्तन की रहस्य-गुफाओं में प्रवेश कर जाता है, पता ही नहीं चलता। पुरुषार्थ से भी ऊपर उठने का पुरुषार्थ ! दर्शन को सृजनात्मक स्तर पर ग्रहण कर मानवीय गरिमा की स्थापना का सौन्दर्य-शास्त्र। इस कालजयी क्लासिक में काल-चिन्तन और मिथकीय काव्य चिन्तन के नए संकेतक प्राप्त होते हैं, पर पूरे रचनात्मक घनत्व के साथ। यहाँ जीवन के महत्वपूर्ण अंशों को अण्डरलाइन (चिन्हित) किया गया है। उदात्त अन्तर्जीवन के रिफ्लेक्शंस कैनवस पर चटख रंगों में चित्रित हैं। शब्दार्थ का सांगीतिक रणन एक छंदानुरोध पैदा करता है। अन्ततः जीवन के तमाम छाया-बिम्ब पीछे छूट जाते हैं और मृत्यु की काली परछाइयाँ उजले रंगों में चाक्षुष प्रतीति का हिस्सा बनती हैं -

‘‘सम्मुख हैं

सोए हिमनद, विकराल -

लील जाने को आकुल।

हिम, केवल हिम -

पौराणिक विराट हिम ऐकान्तिकता

हिमांधियों के रौरव-चर्म लपेटे

अक्षत आदिमता में

इतिहासों पर अट्टहास करती

बघनख सी चींथ रही सब दिशा-काल को।

देवाधिदेव हिम-अभ्यंकर के

जटाजूट से

जन्म ले रहीं गंगाएँ

हिमनद रूपों में।

इन्द्रधनुष के तोरण-द्वारों से होकर

झरते प्रपात

अनाविल स्तोत्र पढ़ रहे।’’

प्रकृति के रौद्र रूप का जीवंत साक्षात्कार ! मृत्यु की नाभि में छिपी जिन्दगी की मनोहर गंध को पाने का प्रयास। संहार के अधिष्ठाता के ऊपर जहाँ सृजन का अधिभार हो। वेदान्त और क्या है ? यह ग्रंथ वस्तुतः हिमभाषा में लिखित उपनिषद् है। यहाँ तक आते-आते कविता की कुंडलिनी जाग जाती है और कैलाश-शिखर पर नक्षत्र-जटित 

धर्मचक्र का साक्षात्कार होता है-

‘‘धर्मचक्र यह -

झरते जिससे अहोरात्र

निशि-पल घट-घड़ियाँ

युद्धों की दुर्दम्य तुमुलता,

इतिहासों के रक्त स्नात उत्थान-पतन,

जयघोषों-चीत्कारों के हर्ष-शोक,

ऋतुओं की लालित्य-रौद्रता,

सागर की चान्द्रिक आकुलता

सूर्य-चन्द्र, नक्षत्र,

अपर ब्रह्माण्ड

सभी चक्रायित

प्रति चक्रायित इस काल चक्र में।’’

अनन्त आकाशशायी काल पुरुष कोटि नभगंगाओं की धुरियों पर इस धर्म चक्र को घुमा रहा है। यह विराट बिम्ब ही कविता का केन्द्रक है। और कविता की धुरी कहीं आकाश में है। देह के आकाश में उड़ान भरने वाली आज की ‘हंस’ धर्मी रचनाओं के बरक्स श्री नरेश मेहता आकाश की देह का स्पर्श करना अधिक श्रेयस्कर समझते हैं। तात्कालिकता के दबाव से मुक्त जीवन के अपराजेय सनातन संघर्षों का आख्यान ही उनकी कविता की मुख्य प्रतिज्ञा है। इसी संकल्प-दण्ड को लेकर सुधियों-स्मृतियों से आहत-वेष्टित वृद्ध युधिष्ठिर बढ़े चले जा रहे हैं और उनके पीछे आगत दिन जैसी श्लथ पाण्डवता खिंची आ रही है। ध्यातव्य है कि यहाँ आते-आते युधिष्ठिर पक कर अनुभव-वृद्ध हो गए हैं। सूर्योदय से सूर्यास्त के बीच यात्रा की लम्बी परछाईं संवेदना का जो स्पेस रचती है, उसका अहसास अब भी बना हुआ है। वह युधिष्ठिर जो राज्यान्वेषी नहीं, मूल्यान्वेषी हैं -

‘‘पर यही युधिष्ठिर धर्मराज -

इस पाण्डवता के दुर्भाग्यों के आदिस्रोत भी।

जिनकी हथेलियों से आती

अब भी द्यूत-गंध

औ अनासक्त चंदनी गंध भी।’’

यहाँ शेक्सपीयर के ‘मैकबेथ’ नाटक की याद आती है। ‘चीफ गेस्ट’ बने डंकन की हत्या लेडी मैकबेथ के सिर चढ़ जाती है और उसकी परछाईं उसका पीछा करती रहती है। उसे लगता है कि डंकन के खून से सना मेरा हाथ अब भी लाल है और इतना लाल, इतना गाढ़ा कि पूरे महासागर का पानी भी इससे लाल हो जाएगा और फिर भी हाथ धुल नहीं पाएगा। मनोवैज्ञानिक अनुबन्धों और अन्तर्द्वन्द्वों का सघन सान्द्र निरूपण इस ग्रन्थ को आंतरिक दीप्ति प्रदान करता है। कामायनी, अंधायुग और आत्मजयी की परम्परा के इस खण्ड-काव्य में सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति अखंड आस्था के दर्शन होते हैं। अतीतग्रंथि से मुक्त मिथकों को आधुनिक संदर्भ में पुनः प्राप्त करने के लिए उन्हें गहरे रचनात्मक संघर्ष से गुजरना पड़ा है। उनके काव्य-संसार में सामाजिक शिवत्व का साधारणीकरण हुआ है, जो आज के विडम्बना मूलक यथार्थधर्मी नवलेखन को प्रति-सम्पूर्ण ही बनाता है। उनके दृश्यबंध में ऐतिहासिक चेतना के प्रतिफलन के बजाय मनुष्य मात्र की शाश्वतताओं का अंकन अधिक है। वे इतिहास की इस दुरभिसंधि से भी सजग करते हैं कि वह राजनीतिक नृशंसता को सभ्यता की केन्द्रीय शक्ति के रूप में प्रतिष्ठापित तथा गौरवान्वित करता है और मानवीय उदात्तता एवं सद्गुणों को अप्रासंगिक एवं अवान्तर बनाता चलता है।

सम्पूर्ण इतिहास को खंगालने के बाद कवि इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि राज्य-व्यवस्था ही सारी मानवीय त्रासदी का मूलाधार है। प्रत्येक व्यवस्था के पास अपने बघनख होते हैं। व्यवस्था का मुकुट धारण करते ही कोई भी व्यक्ति दुर्विनीत हो जाता है। युद्ध और आतंक, हिंसा और षड़यन्त्र ही उसके सूत्र हैं। उसके नगाड़ों की आवाज के नीचे न जाने कितनी रुलाइयाँ और सिसकियाँ दबी पड़ी हैं। राज्य-कोप के सदृश ही राज्य-कृपा भी मानवीय प्रज्ञा की तेजस्विता को नष्ट कर देती है। राज्य व्यवस्था की आकांक्षा होती है कि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर विचार-शून्यता का अन्धा कारागार निर्मित कर दे और समाज के स्वतंत्र-चेता व्यक्तियों को इतना विवश और पंगु बना दे कि वे क्रूर व्यवस्था की निरंकुशता को कभी चुनौती ही न दे पाएँ। सत्ता से यदि हम सुविधाएँ चाहेंगे तो निश्चय ही उसकी आलोचना का अधिकार खो देंगे। किसी भी व्यवस्था का व्यक्ति से बड़े हो जाने का अर्थ होगा अमानवीय तंत्र -

‘‘किसी भी व्यक्ति को

इतना प्रतिष्ठापित मत करो कि

शेष सबके लिए

वह अलंघ्य विन्ध्याचल हो जाए’’

दुर्ग, प्रासाद, चारण-प्रशस्तियाँ, झूठे इतिहास वाले शिलालेख व्यक्ति को अमरता नहीं दे सकते जड़, जड़ का ही प्रतिनिधित्व कर सकता है, चेतन का नहीं इसीलिए 

युधिष्ठिर राज्य के शील से स्वयं को अलग कर इतिहासहीन मृत्यु स्वीकार करते हैं वे अपने वैचारिक स्वत्व को किसी का भी दास नहीं होने देते, स्वयं का भी और सन्तप्त मानवता को उसके स्वाहात्व के लिए प्रज्ञा की दाक्षिणा प्रदान करते हैं जैसे वृक्ष-पत्र अंगारे को अपनी हरीतिमा सौंप कर भी दाहकता वहन करता है उनका वैश्वानरी व्यक्तित्व व्यक्तिवादी नहीं, समाज के अर्थ में मनुष्य के वैयक्तिक उत्थान का 

साधक हैसच भी है यदि व्यक्ति के फूलत्व को कुचल देंगे तो वन गंधमादन कैसे बन पाएगा ? स्वयं में समाज एक अमूर्त अवधारणा है व्यक्ति की सामूहिकता की शोभा ही उसे छंदोबद्ध व्यवस्था का व्यक्तित्व प्रदान करती है।

इस प्रकार राज्य-व्यवस्था के प्रति अविश्वास प्रस्ताव पारित करते हुए युधिष्ठिर माणिक, नीलम छायाओं वाले राजभवन के दर्पण-मायाओं के रंग-बिरंगे कोलाहल से बहुत दूर निकल जाते हैं किन्तु उनका वह संसार उनके साथ हो लेता है -

उसपर राज्य-प्राप्ति का अनुभव -

जल को मुट्ठी से कसने के जैसा

वीर्यहीन, अपदार्थ रहा।

केवल भीगे हाथों की प्रतीति

भीम के अन्तर्मन में धुआँ दे रही

कापालिक की शव-साधना की भाँति वह राज्यारोहण मन को शान्ति नहीं दे सका दुर्योधन की जंघा पर प्रहार करने और दुःशासन के हृदय-रक्त के पान के बावजूद आज भी गरल सरीखा कंठ जल रहा। लम्बी निःश्वास की भाँति भीम के साथ ही पाण्डव दल की सांसारिकता-द्रौपदी भी पीछे-पीछे चली आ रही। द्रौपदी युधिष्ठिर से पूछती है -

देह से मैं तुम्हारे साथ चली आई थी

परन्तु मन

उन्हीं हत्याओं, चीत्कारों, षड़यन्त्रों

और कूटनीतियों के बीच

वैभव की जूठन बीनने में लगा रहा

स्त्री इस सांसारिकता से

क्यों नहीं कभी ऊपर उठ पाती महाराज !

क्यों नहीं ??

इसीलिए सबसे पहले इस सांसारिकता का ही विसर्जन होता है वस्तुतः स्त्री के प्रति यह दृष्टि उत्तर आधुनिक स्त्री-विमर्श का पूरक है किन्तु खंडित स्त्री-विमर्श की माया इतनी विचित्र है कि उसके पक्षकारों को यह बात नहीं पचेगी ग्लैमर और वैभव के लिए परीक्षण की प्रक्रिया में विश्व-सुन्दरियाँ न जाने किस-किस का जूठन बनती हैं स्वतन्त्रता का यदि यही अर्थ है तो कल स्त्री यह मांग करेगी कि हम स्वतन्त्र रूप से पैदा होंगे। उसमें पुरुष के सहयोग की कोई आवश्यकता नहीं। मुक्ति नहीं, उन्मुक्त प्रेम के लिए मांग भरी जानी चाहिए

उधर पांडव दल के पुरुषार्थ-अर्जुन भी सन्दर्भ से कट जाने के बाद तिनके की तरह निरीह हो गए हैं भालों के त्रिपुण्ड सी कँप-कँप उठतीं स्मृतियाँ उनके मन को मथ रहीं हैं जो भीष्म के लिए पाताल का भेदन कर सकता था, पर अपनी प्रिया का हिमपाश नही बेध सका शायद हम धनुष पर नहीं, अपने व्यक्तित्व पर प्रत्यंचा चढ़ाते हैं अर्जुन का गांडीव-व्यक्तित्व पुरुषार्थ से ऊपर नहीं उठ पाया और अन्ततः द्रौपदी के साथ उन्हें भी हिम समाधि मिली क्योंकि धर्म किसी का भी विभाजित व्यक्तित्व स्वीकार नहीं करता। अपने अद्वैत-व्यक्तित्व में उभर आए अवांछित पद-चिह्न हिमपात बड़े असंग भाव से पोंछ देता है। इस प्रकार पाण्डव क्रमशः किन्हीं अज्ञात घाटियों में उतरते चले गए। वे हिंसा-प्रतिहिंसाओं की ज्वाला से अपने भीतर की धधकती गुफा को सदा के लिए बन्द कर उसकी ताली अन्धकार में फेंक देते हैं। प्रकृति से बड़ा कोई व्यक्ति नहीं, कोई शस्त्र नहीं प्रकृति के धर्म का भेदन करना परात्पर होना है। अनासक्ति ही स्वर्ग है। एक स्थिति पर पहुँच कर दुःखी होना भी अमानवीय होना हो जाता है। युधिष्ठिर को मनुष्य में विराजे देवता में सदा विश्वास रहा है। सामने वाला यदि आवेग में पशु हो गया हो, तो विवेक के रहते वे उसके पुनः मनुष्य होने की प्रतीक्षा करते हैं वे धर्म के मूल्य पर स्वर्ग को भी अस्वीकार कर सकते हैं इसीलिए वे अर्जुन के संकल्प और पुरुषार्थ की सीमाओं को रेखांकित करते हुए वंचितों, शोषितों की पीड़ा का साक्षात्कार भी करते हैं -

जो अनाम विचारहारा व्यक्ति है,

जिसका कोई इतिहास नहीं लिखा जाता

बल्कि जिसकी देह को छीलकर ही

हम इतिहास लिखते आए हैं

उसके अर्थ को जानने की चेष्टा की है पार्थ ?

उनकी वैचारिकता का निष्कर्ष है- त्याग। वस्तुओं से हीन होते जाने का अर्थ है व्यक्तित्व से सम्पन्न होते जाना। संसार का भार लेकर शिखर की चढ़ाई असंभव है। जहाँ अपने ही बोझ के ढोने में असमर्थ हिम में ऐंठे पैरों से तिल-तिल चढ़ना भी पहाड़ हो रहा है। प्रत्येक पग में जैसे एक हिमालय बँधा हुआ है। अन्ततः पाण्डवता की देह-भीम भी साथ छोड़ देते हैं। नकुल- सहदेव की मौन-मिथुन छायाएँ तो बहुत पीछे छूट चुकी थीं। यहाँ मृत्यु की अत्यन्त जीवन्त और कलात्मक अनुभूति का साक्षात्कार होता है-श्वास आकाश में विलीन पक्षी सी

आभास देती है,

पर लौटती नहीं ...

यह कौन

हवा के पतले पर्दे को हिला रहा है ?

यह कौन

इस हिमालय को

आँखों के पास लाता है

और फिर दूर ले जाता है ?

लाता है

फिर दूर ले जाता है ??

घाटियों से कह दो

फिसलते शिखर चढ़ना छोड़ दें

मैं ....। मैं कहाँ हूँ ??

शयनकक्ष के दीपक क्यों बुझे हैं ?

दासी ! गवाक्ष खोल दो,

श्वास अवरुद्ध हो रहा है

मृत्यु के समय भीतरी ब्रह्माण्ड के आवर्तन का भाव-सघन बिम्ब इस महागाथा के आधे-अधूरे श्लोक से युधिष्ठिर स्वर्ग के उत्तर द्वार पर पहुँचते हैं किन्तु कालबिद्ध धरती के अन्धकार के बरक्स स्वर्ग का प्रकाश क्षीण है और भूमिका में स्वर्ग के संविधान और इन्द्रादि देवताओं के वैदिक-विग्रह की रक्षा का आग्रह कुछ खटकता है अनुभूतियों की आवृत्ति प्रबन्ध काव्य की एक सीमा भी है कुल मिलाकर भाव-बोध और शब्द-संगठन में एक समानुपाती सम्बन्ध देखने को मिलता है भाषा का यह मौन विस्फोट हमारे कुसंस्कारों को ध्वस्त कर देता है उनकी भाषिक ऋजुता अपने चरित्रों के छिद्रों की ओर भी अंगुलि-संकेत करती है उनका व्यापक सांस्कृतिक अनुभव ‘अस्तित्ववादी’ चिन्तन-परम्परा को भारतीय जीवन-दर्शन का अर्थ-संस्कार देते हुए पराजीवन की खोज में प्रवृत्त होता है वे आज के ‘फोटोजेनिक’ चेहरे वाले कवियों की ‘मुख्य-धारा’ से अलग प्रभु की पगडंडियाँ तलाशने वाले प्रमुख कवि हैं -

जिसने इस दौर के पैदा किए हैं इंसाँ,

वही मेरा भी खुदा हो, मुझे मंजूर नहीं।

काव्य कृति: ‘आस्था अभी शेष है’ 

‘रथ के धूल भरे पांव’, 

‘सर्जना की गंध-लिपि’ (सम्पादित)

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रिपोर्ट



श्रुति - परम्परा

सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री अजीत कुमार राय जी के साथ कन्नोज कवि सम्मेलन में उनकी प्रतिक्रिया को अपने लिए प्रसाद पुरुस्कार समझ कर उनको आभार और अभिवादन भेजता हूँ- 

अभार कन्नोज प्रशासन, डाॅ. अहिरओम पंवार

लोकप्रिय कविता और श्रेष्ठ काव्य का द्वंद्व पुराना है। क्लास और मास की कविता के बीच गोस्वामी तुलसीदास जी एक सेतु बंध या समास - चिन्ह हैं और इसीलिए श्रेष्ठ काव्य के प्रतिमान भी। अभिव्यंजना और संप्रेषणीयता के मध्य एक समीकरण की तलाश वांछित है। उदात्त सृजन का यशःप्रार्थी शिल्पी भी अधिकतम लोगों तक पहुंचने का आकांक्षी होता है। साधारणीकरण जितना स्फीत और दीप्त होगा, कवि उतना ही सफल माना जाएगा। मैं और हरि ओम पवार जी विपरीत 

ध्रुवान्तों पर प्रतिष्ठित हैं। किन्तु जिस तरह वास्तविक जीवन में कोई खलनायक है लेकिन नाटक देखते समय उसकी सहानुभूति नायक के साथ ही जुड़ती है, उसी प्रकार संश्लिष्ट संरचना और क्लिष्ट काव्य का प्रणेता होते हुए भी मैं पवार जी की लोकप्रियता का कायल हूँ। दग्ध जीवन के भीतर से ही विदग्धता फूटती है। गोपाल दास नीरज, सोम ठाकुर, हरि ओम पवार और विष्णु सक्सेना तथा शिव ओम अम्बर जैसे कवि ही हैं जो कविता की समाज में उपस्थिति को सत्यापित करते हैं और साथ ही मंच को ऊंचा उठाने और मर्यादा को संरक्षित करने की मधुमती भूमिका का निर्वाह करते हैं। अन्यथा सुधीश पचैरी ने तो 1990 में ही कविता की मृत्यु की घोषणा कर दी थी। समय की उड़ती धूल से आंखों को आंजने और समय के पहिए की लय में गीत खोजने वाले द्रष्टा और स्रष्टा ही वास्तविक जन गीता के गायक हैं।

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समीक्षा


श्री हरिशंकर राढ़ी, वसंतकुंज एन्क्लेव (बी ब्लॉक) नई दिल्ली, मो. 9654030701 


स्वयंसिद्धा: नारी यातना की गाथा

लंबे समय तक वही साहित्य मन में अंकित रहता है जो पाठक को उसके इर्द-गिर्द के समाज की सच्चाइयाँ दिखाता है। उसमें वह शक्ति होती है कि वह उसे आलोड़ित करे, चिंतन पर विवश करे और वह एक अच्छा समाज बनाने की ओर उन्मुख हो सके। समाज की कुछ बड़ी त्रासदियों-विसंगतियों की बात की जाए तो उसमें नारी यातना सर्वप्रथम स्थान पर है। दुनिया की आधी आबादी में कम-से-कम आधी आज भी शोषित और पीड़ित है। दुखद यह है कि उसकी पीड़ा का अधिकतर हिस्सा उसके स्वजनों से आता है। स्त्री-विमर्श पर कितनी भी बहसे कर ली जाएँ, कितने भी कानून बना लिए गए हों, उसकी यातना पर रोक नहीं लग पाई है। आज भी ऐसी न जाने कितनी हतभाग्य नारियाँ हैं, जो अपने सास-ससुर एवं पति के साये में घुट-घुटकर जीने को विवश हैं। उनकी मुक्ति का मार्ग इसलिए नहीं दिखता क्योंकि वे अपनी सहनशीलता, भावुकता और संबंधों को निभाने के प्राकृतिक गुणों से दूरी नहीं बना पाई हैं। ऐसी ही मानसिकता के कारण केवल और केवल दुख भोगती पत्नी का त्रासद गाथा लेकर शुभदा मिश्र का एक उपन्यास आया है ‘स्वयंसिद्धा’।

लगभग चार सौ पृष्ठों का यह उपन्यास पूरी तरह से एक स्त्री पर केंद्रित है। एक स्त्री जो आज से सत्तर साल पहले के समाज में लड़की के रूप में पैदा हुई। चार बहनों एवं एक भाई के बीच में एक मध्यमवर्गीय परिवार का प्रतिनिधित्व करती हुई। पढ़ी-लिखी, अत्यंत संवेदनशील और संस्कारी युवती किस प्रकार एक अयोग्य युवक से विवाह के अंधे कुएँ में गिरकर आजीवन तड़पती रहती है और जब किसी प्रकार निकलती है तो उसके पास जीने और खोने के लिए कुछ बचा नहीं होता, सिवाय तूफान के बाद की शांति के। हाँ, उसके भोगे हुए दुख, सही हुई यातनाएँ और पिये हुए अपमान के घूँट यथार्थ से आते हैं, किसी कल्पना से नहीं। संभवतः इसीलिए कहानी एक स्त्री की होते हुए एक बड़े समाज की लगती है।

पूरी कहानी आत्मकथा शैली में लिखी गई है। इसकी नैरेटर कथा नायिका स्वयं है, जो पूरे उपन्यास में अपने वैवाहिक जीवन के एक-एक पल का वर्णन बड़ी सूक्ष्मता से करती है। पति एवं सास-ननद की मध्यकालीन मानसिकता एवं उनके अत्याचारों का जो वर्णन लेखिका ने किया है, वह रह-रहकर डरा देता है। कहानी के प्रारंभ में भले ही नायिका कहती हो कि उसका जन्म सत्तर साल पहले हुआ था, लेकिन ससुराल का जो आततायीपना वह झेलती है, वह आज के समाज में भी मौजूद है, भले ही भुक्तभोगियों की संख्या में कुछ कमी आई हो। एक पत्नी की प्रताड़ना, दुख देने वाली एक-एक घटना का जिस प्रकार वर्णन किया गया है, वह इसीलिए संभव हो पाया है कि उपन्यास एक महिला द्वारा लिखा गया है।

कहानी की नायिका पुनीता है। उसके पिता वकील हैं और माता गृहिणी, जो एक पारंपरिक भारतीय नारी की भाँति अपने त्याग और संयम से अपना घर सुचारु रूप से चलाती है। पुनीता की दो बड़ी बहनों का विवाह हो चुका है, किंतु वे अपनी ससुराल में सुखी नहीं हैं। कारण वही- दहेज का लोभ, दकियानूसी ससुराल, पत्नी को सर्वदा हेय और उपभोग की वस्तु समझने वाला श्रेष्ठता की ग्रंथि में 

बँधा पति। सविता का जीवन तो नरक है ही, उसकी दूसरी बहन का जीवन भी अच्छा नहीं है। एकमात्र भाई पारिवारिक जिम्मेदारी से प्रायः मुक्त। वह स्वयं अच्छी नौकरी से वंचित। निजी विद्यालयों में शिक्षिका की नौकरी करते हुए जैसे-तैसे जीवन निर्वाह कर रही है। विवाह की समस्या है। एक वैवाहिक विज्ञापन के माध्यम से उसका रिश्ता लगता है। लड़का और उसके पारिवारिक सदस्य लड़की देखने आते हैं। लड़का विदेश से पढ़कर आया हुआ है। कद में पुनीता से छोटा और शक्ल में भी कुछ खास नहीं। पुनीता उसे पसंद नहीं करती, किंतु पिता को लड़के का ओहदा दिखता है और उसकी पढ़ाई-लिखाई। मजबूरन वह भी तैयार हो जाती है। शादी हो जाती है और वह आ जाती है अपनी ससुराल।

यहीं से उसके जीवन की नरकयात्रा शुरू हो जाती है। दो-चार दिन बाद में ही पता चल जाता है कि सास बेहद कर्कशा, उद्दंड, नौटंकीबाज और घटिया मानसिकता की है। उसकी बेटी अंतिम दर्जे की चरित्रहीन, जो शहर के बड़े लोगों से अपने संबंध बनाकर तमाम तरह के गलत काम करती-कराती रहती है। घर में उसकी भी चलती है। एक देवर है जो गूँगा है। ससुर निरीह है जो हर समय पत्नी के सामने घुग्घू बना रहता है। ससुर को छोड़कर शेष सभी उसकी जान के दुश्मन हैं। उस पर भी कोढ़ में खाज यह कि पति नपुंसक। दिनभर नौकरी और कोचिंग सेंटर में व्यस्त और बाद में माँ की हाँ में हाँ। बेचारी औरत कहाँ जाए? वह सबके ताने, गालियाँ और मानसिक प्रताड़नाएँ सह भी ले, मगर पति से प्यार मिले तो। उसे रात में भी एक पल की सांत्वना नहीं मिलती। पति क्लीव, संतानोत्पत्ति के लिए गोलियाँ खाता हुआ मनुष्य का ढाँचा। कुछ वर्षो बाद अपने चिकित्सक की सलाह पर यौनशक्ति वर्धक दवाएँ खाकर पत्नी के ऋतुस्राव के बाद की चैदहवीं रात का असफल इंतजार और प्रदर्शन करता हुआ दिखता है।

पुनीता के कष्टों और अपमानों की प्रक्रिया पूरे उपन्यास में चलती रहती है। दसरे शब्दों में कहा जाए तो इसके अतिरिक्त उपन्यास में कुछ है ही नहीं। पृष्ठ-दर-पृष्ठ पूरे परिवार का दुष्चक्र, गलीज सोच का हद से पार पहुँची हुई। उसे लगता है कि यदि वह पति सहित घर से अलग होकर अपना एक अलग घर बना ले तो शायद उसके कष्टों का अंत हो जाए। ससुर की रजामंदी व प्रयास से ऐसा हो भी जाता है, किंतु दुख और अपमान उसका पीछा नहीं छोड़ते। उसका पति उस पर बार-बार आरोप लगाता है कि उसने उसका घर छुड़वा दिया। लेकिन पुनीता का धैर्य, समझदारी, त्याग और आत्मसंतोष इस हद तक बढ़ा हुआ है जिसका कोई जोड़ नजर नहीं आता है। सच्चाई तो यह है कि कुछ पृष्ठों के बाद पाठक उसके प्रति अपनी सहानुभूति छोड़कर चिढ़ने लगता है कि वह ऐसे पति एवं परिवार के साथ निभा ही क्यों रही है? खासकर जब उसका पति उस पर चारित्रिक लांछन लगाता है। खुद तो शारीरिक सुख दे नहीं पाता, दूसरों पर झूठा आरोप और मढ़ता रहता है। उसे लगता है कि हर स्वस्थ एवं सुंदर पुरुष जो उसकी पत्नी से मिलने आता है, उससे उसका शारीरिक संबंध है।

दुख की पराकाष्ठा तब हो जाती है जब उसका पति उसके पिता को गालियाँ देता है, उस पर स्वार्थी और बेटियों की कमाई खाने का इल्जाम मढ़ता है। जब वह सविता की आत्महत्या के बाद मायके जाना चाहती है और जाती है, उस समय भी उसके पति एवं ससुराल का रवैया नहीं बदलता। कई बार मन में प्रश्न उठता है कि यह किस कोटि का प्राणी है, मनुष्य कितना नीचे गिर सकता है!

पुनीता मेलजोल और चारित्रिक आरोपों के चलते कई बार किराए का मकान बदलती है। लेखिका दिखाना चाहती है कि एक औरत के लिए उसका घर बहुत बड़ा सपना होता है, बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। वह अपने घर, घर में अपने पति और भविष्य के सपने को लेकर हर सितम सहती जाती है। लेकिन दुख तब होता है जब पुरुष समाज उसके इस छोटे से सपने को समर्थन नहीं देता, जबकि इसमें उसका अपना सुख भी होता है। लेकिन संभवतः वह अपने स्वार्थ और दंभ से ऊपर नहीं उठ पाता।

नायिका एक बार अपने पति और घर को छोड़ने का प्रयास करती है। वह कहीं जाने के लिए अपना आरक्षण भी करवा लेती है। किंतु आखिरी समय में वह एक बार फिर व्यामोह में पड़ जाती है और पति को संकेत कर देती है। क्योंकि उसके लिए मायका भी लगभग बंद हो चुका है, वह एक आश्रम की ओर रुख करती है। पाठक राहत महसूस करता है कि शायद उसकी नायिका को दुखों से छुटकारा मिल जाएगा। किंतु उसका आशावाद उसकी कमजोरी बन जाता है और एक बार वह इस नरक से निकलते-निकलते रह जाती है। वह निकलती है, एक लेखिका के रूप में स्थापित हो जाती है, किंतु तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। ऐसे भयावह पारिवारिक जीवन से एकाकी या समाज के हित में समर्पित जीवन बेहतर होता है, यह सार्थक उद्देश्य देने में वह जरूर सफल होती है।

स्त्री के विरुद्ध ऐसे जीवंत अत्याचारों को उकेरता हुआ यह उपन्यास गहरा प्रभाव ही नहीं छोड़ता, स्त्री विमर्श के लिए मील का पत्थर भी साबित हो सकता था, किंतु भाषा-शैली और कुछ तकनीकी कमियों ने इसे कमजोर कर दिया। उपन्यास केवल एक लंबी कथा से नहीं बनता है, उसके लिए कहन शैली, भाषा, व्याकरण और योजनाबद्ध ढंग से प्रस्तुति की आवश्यकता होती है। पूरी थीम एक विवाहिता के दुखों की गहन पड़ताल है, जिसे बहुत 

अधिक खींच दिया गया है। आधी यात्रा कर लेने के बाद प्रताड़नाओं का ढूह देखकर पाठक ऊबने लगता है। इसे यदि पचास पृष्ठ कम रखा जाता तो बेहतर होता। 

एक और बहुत बड़ी कमी यह खटकती है कि पूरा उपन्यास केवल एक खंड में निबद्ध है। सीधी सी बात है, चार सौ पृष्ठों की इस कथा में एक भी पड़ाव नहीं है। इसमें अलग-अलग अध्याय या क्रमसंख्या के आधार पर विभाजन अवश्य होना चाहिए था। कम-से-कम मैंने अब तक इस प्रकार का एक भी उपन्यास नहीं पढ़ा जिसमें किसी-न-किसी प्रकार का विभाजन न हो। नायिका एक बार वृत्तांत सुनाना शुरू करती है तो फिर चुप ही नहीं होती। पूरा उपन्यास बिना ठहराव के समाप्त हो जाता है। पाठक रुके तो कहाँ रुके? लेखिका और प्रकाशक दोनों को ही इस तरफ ध्यान जरूर देना चाहिए था।

दूसरी प्रमुख कमी प्रूफ, वर्तनी और विराम चिह्नों के प्रयोग की है। आद्योपांत ‘महिलाएँ’ को ‘महिलाऐं’, ‘ध’ को ‘घ’, ‘एँ’ को ‘ऐं’, ‘रु’ को ‘रू’ लिखा हुआ है। हाइफन का प्रयोग तो हुआ ही नहीं है और कॉमा, वर्तनी की गलतियाँ असंख्य हैं। ये गलतियाँ बहुत खटकती हैं। एक साहित्यकार द्वारा लिखे उपन्यास में ऐसी गलतियाँ उपन्यास के स्तर पर सवालिया निशान लगाती हैं। सच तो यह है आम पाठक साहित्य की भाषा को मानक मानकर चलता है। एक-दो को तो कदाचित प्रूफ की गलती मानकर उपेक्षित किया जा सकता है, किंतु जब ये साहित्यिक कृति को चालू कृति बनाना शुरू कर दें तो खलता है। प्रकाशक ने इसे छापने के लिए किसी सुंदर फॉण्ट तलाशने तक की जहमत नहीं उठाई है।

लेखिका शुभदा मिश्र की कहानियाँ पढ़ने वाले जानते हैं कि उनका निरीक्षण बहुत सूक्ष्म होता है और वे अनुभूतियों को बहुत शिद्दत से पकड़ती हैं। उनका मनःशास्त्र बहुत मजबूत है। वे पुरुषों की मानसिक स्थित और अनुभूतियों पर जबरदस्त पकड़ रखती हैं, यहाँ तो वे स्त्री के दुखों और अनुभूतियों को अपने राडार पर रखे हुए हैं। पुनीता जिस प्रकार अपनी कथा कहती है, उसमें जिन अनुभूतियों एवं अंतद्र्वद्वों का चित्र उभारती है, वह अद्वितीय है। लेखिका बहुत सारे विषयों पर खुलकर चर्चा करती है। वे छोटी से छोटी बात को पकड़ लेती हैं। उसे भावों की अभिव्यक्ति देने को ढंग मालूम है, किंतु तकनीक, भाषायी गलतियों और उत्पाद की कमियों के कारण स्त्री जीवन की त्रासदी का जीवंत बयान करने वाला यह उपन्यास पीछे जरूर रह गया।

पुस्तक: स्वयंसिद्धा (उपन्यास)

लेखिका: शुभदा मिश्र

प्रकाशक: ब्लूरोज पब्लिशर्स

पृष्ठ: 388 मूल्य: रु 450/-

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आलेख

श्री हरिशंकर राढ़ी, वसंतकुंज एन्क्लेव (बी ब्लॉक) नई दिल्ली, मो. 9654030701 


रुद्रदेहा: गाथा युगनायिका नर्मदा की

हिंदी ही नहीं, समूचे विश्व साहित्य में पौराणिक कथाओं व मान्यताओं पर कथालेखन की समृद्ध परंपरा रही है। हाँ, शर्त यह कि उस भाषा की संस्कृति में समृद्ध पौराणिक अतीत व आख्यान रहे हों। 

पौराणिक कथाओं के बाद ऐतिहासिक घटनाओं का भी कथारूप में पर्याप्त पुनर्लेखन किया गया। इनमें महाकाव्य, खंडकाव्य, तथा उपन्यास विधा में लिखी अनेक कृतियाँ कालजयी हुईं। हिंदी साहित्य में पहले वृंदावनलाल वर्मा और अब नरेंद्र कोहली ने इस पर बहुत काम किया। वृंदावनलाल वर्मा के ऐतिहासिक उपन्यास तो आज तक अद्वितीय ही हैं। ‘मृगनयनी’ जैसी कृति को भूल पाना आसान नहीं। फिर जहाँ हर भौतिक व भौगोलिक क्रिया के साथ कोई न कोई मिथक जुड़ा हो, वहाँ लेखन के लिए पर्याप्त सामग्री उपलब्ध होना बहुत सहज होता है। यदि इन्हीं पौराणिक एवं ऐतिहासिक कथाओं को किंचित शोध के साथ लोकजीवन से जोड़कर लेखन का ताना-बाना बुना जाए तो एक प्रभावी कृति पैदा होने में संदेह नहीं।

मध्य भारत की नर्मदा के अवतरण को लेकर गाथाएँ बहुश्रुत हैं। भारतीय संस्कृति में नदियों को जीवंत ही नहीं माना गया है, उन्हे देवी और माँ का स्थान दिया गया है। उनके उद्भव के साथ दैवीय कथाएँ जुड़ी हैं। नर्मदा भी उन्हीं में एक है। नर्मदा को युगनायिका के रूप में प्रस्तुत करते हुए इधर एक ऐसे ही उपन्यास ‘रुद्रदेहा’ से गुजरना हुआ, जिसे प्रतिमा अखिलेख व अखिलेश सिंह श्रीवास्तव ‘दादूभाई’ ने संयुक्त रूप से लिखा है। अखिलेश दंपती की लेखनी से निकला यह उपन्यास नर्मदा पर न केवल अच्छा शोध है, अपितु यह पौराणिक उपन्यासों को परंपरा को पुनर्जीवित करता हुआ लगता है।

‘रुद्रदेहा’ नर्मदा के उस पक्ष का आख्यान है, जो संभवतः अबतक अकथित रह गया था। नर्मदा जहाँ-जहाँ जाती है, अपने प्रवाह से तटवासियों को जीवन ही नहीं, सभ्यता और संस्कार भी देती है। इतिहास बड़ी सुदृढ़ता से कहता है कि सर्वोत्तम मानव सभ्यताएँ नदीतटों पर विकसित हुई हैं। सभ्यता के विकास की प्रक्रिया निश्चित तौर पर 

धीरे-धीरे व स्वतः हुई होगी, किंतु उसमें नदियों के शीतल जल की उपलब्धता, सिंचन क्षमता व परिवहन सुगमता के कारण ही मनुष्य ने एक स्थान पर निवास करना सीखा होगा। इस प्रकार सभ्यता के विकास में नदियों के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। लेकिन साहित्य तथ्यों के साथ अपनी सोच एवं लोककल्याण का उद्देश्य भी लेकर चलता है। संभवतः यही कारण है कि लेखक अखिलेश दंपती ने नर्मदा का केवल मानवीकरण ही नहीं किया है, अपितु उसे देवीरूप में प्रतिष्ठापित करते हुए उसका यशोगान भी किया है। 

पुराणों में नर्मदा को कन्या के रूप में मान्यता प्रदान की गई है तथा लोक ने उसे कन्यारूप में पूजा है। इस उपन्यास के पृष्ठ भी यहीं से शुरू होते हैं। लेखकीय भूमिका तथा उपन्यास के प्रथम अध्याय के मध्य कुछ प्रस्तावना या नर्मदा का आत्मकथ्य-सा दिया गया है, जिसमें नर्मदा के अत्यंत संवेदनशील, आर्द्र हृदय, परदुखकातर एवं लोकसंवेदी होने का भाव प्रकट होता है। वह अपनी संघर्षोन्मुखी गाथा का संकेत वहीं कर देती है। लेखक दंपती कथानक को उस युग में ले जाते हैं, जब नर्मदा का बालपन प्रारंभ होता है। नर्मदा के पूर्व किशोरवय से उत्तर किशोरवय तक चलने वाली यह औपन्यासिक यात्रा एक विचारणीय, रोचक एवं सुखद प्रसंग है।

कथा के प्रारंभ अर्थात् पहले अध्याय ‘आम्रकूट में’  हमारा साक्षात्कार शांकरी नामक द्वादश वर्षीय बालिका से होता है, जो अपने बाबा (पालनहार पिता) मेकल से अपना वास्तविक परिचय जानना चाहती है। ऐसा प्रारंभ जिज्ञासा-

वर्धक और रोचक लगता है। भारतीय संस्कृति में नामो. का अपना प्रतीकात्मक अर्थ होता है। हो सकता है आम्रकूट आज का अमरकंटक हो जहाँ से नर्मदा निस्सरित होती है। लेखक दंपती ने इस उपन्यास में नामकरण की इस प्रतीकात्मक पद्धति का यथासंभव प्रयोग किया है। नर्मदा अपने बाबा मेकल से लंबा संवाद करती है। इसी संवाद में मेकल शांकरी को बताते हैं कि वह शिवतनया है तथा उसे शिव का आशीर्वचन प्राप्त है। भगवान शिव ने उसे वरदान दिया है कि वे उसके जल में सर्वदा कंकर रूप में उपस्थित रहेंगे। आज भी यह मान्यता है कि नर्मदा के जल में मिलने वाला कंकर या बेडौल पत्थर बिना प्राणप्रतिष्ठा के ही पूजनीय शिवलिंग होता है। उसे नर्मदेश्वर की उपाधि दी जाति है।

नर्मदा के अनेक नाम हैं। शंकर की तनया होने से उसे पूरे उपन्यास में शांकरी नाम से संबोधित किया गया है। उसका एक नाम मेकलसुता भी है, क्योंकि उसका लालन-पालन मेकल पर्वत की गोद में हुआ है। नदी जब तक पर्वतवाहिनी रहती है, तब तक वह तन्वंगी, टेढ़े-मेढ़े मार्ग पर चलने वाली, खेलती-उछलती व बलखाती दिखती है। वही उसका बालपन होता है, पर्वत उसके पिता का आँगन व द्वार होता है। वहाँ वह अल्हड़ बालिका-सी उन्मुक्त जीवन जीती है। मैदानी क्षेत्र में ही आते वह विस्तृत, गंभीर व मंदगामिनी हो जाती है। उसका रूप धीरे-धीरे माँ सदृश हो जाता है। मेकल नर्मदा का उद्भव है, आँगन है। समानांतर रूप से देखा जाए तो हिमालय को गंगा का क्रीडास्थल कहा जाता है। वह हिमसुता है।

गोस्वामी तुलसीदास ने भी रामचरित मानस में एक प्रसंग में नर्मदा को ‘मेकलसुता गोदावरि धन्या’ अर्द्धाली में मेकलसुता कहा है। नर्मदा का एक नाम रेवा है, जिसका उल्लेख करना लेखक दंपती नहीं भूलते। मेकल शांकरी को बताते हैं कि उन्होंने उसे गिरि-कंदरा में कन्यारूप में प्राप्त किया था। यदि कथा को प्रतीक मानते हुए सत्य की तलाश की जाए तो कहना नहीं होगा कि नदी का उद्गम स्थल गिरि-कंदरा ही होती है। सद्यःउत्सृत नदी किसी कन्या की भाँति ही पवित्र और मनमोहक होती है।

कथा शांकरी के वय व शारीरिक विकास के साथ ही बढ़ती है। उसके साथ उसके तमाम सहयात्री जुड़ते हैं जिनमें सखियाँ और सखा दोनों ही होते हैं। पद्म, चरू, जोहिला आदि ऐसे ही सहयात्री हैं। दूसरे अध्याय ‘असुरपुरी’ में लेखक दंपती असुरों की प्रकृति और परंपराओं का अच्छा परिचय देते हैं। कहीं न कहीं वे यह स्थापित करना चाहते हैं कि भारत में  असुरों का अस्तित्व आदिकाल से है। इसमें संदेह नहीं कि समाज में नकारात्मक शक्तियाँ प्रायः तभी से हैं, जबसे सभ्यता-संस्कृति का विकास प्रारंभ हुआ। नकारात्मक शक्तियाँ राजसत्ता, बलसत्ता एवं प्रभुत्व की चाह में सकारात्मक शक्तियों से लड़ती रही हैं, उनकी राह में रोड़े बिछाती रही हैं। यह असंभव नहीं कि इन शक्तियों ने नर्मदा या अन्य नदियों के मार्ग में बाधा पैदा करने की कोशिश की हो, जिसके प्रत्युत्तर में नदी (देवी) ने अपना मार्ग न छोड़ा हो।

‘नागासी’ और ‘मार्कण्डेय आगमन’ अध्यायों में नागों के राज्य, उनकी शक्ति तथा अन्य राज्यों से उनके संबंध का रोचक वर्णन किया गया है। मार्कण्डेय ऋषि का आगमन ज्ञान, शोध व नैतिक शक्तियों का आगमन है। ऋषि परंपरा में समाज कल्याण, ईश्वरीय सत्ता, नैतिक मूल्यों की स्थापना व राक्षसी शक्तियों का विनाश प्रमुख उद्देश्य रहा है। उन्हें एकांतवासी कहना सर्वथा अन्याय होगा, वे तो सत्यान्वेषी वैज्ञानिक थे जिन्होंने अपना सबकुछ मानव कल्याण हेतु अर्पित कर दिया। इस उपन्यास में ऋषि मार्कण्डेय के इसी रूप का चित्रण है। वे सदैव ही प्रकृति को पूजते रहे हैं। नर्मदा तो एक जीवंत प्रकृति है, वे प्राणपण से उसका समर्थन क्यों नहीं करेंगे?

नदियों का अवतरण भौतिक विज्ञान की दृष्टि से भले ही एक प्राकृतिक घटना हो, आर्ष परंपरा में इसे लोक कल्याण से जोड़ते हुए इसका सोद्देश्य मानवीकरण किया गया है। शुभा और प्रद्धयोजित से एक संवाद में नर्मदा कहती है- “मेरा लक्ष्य स्वयं का देवत्व सिद्ध करना नहीं अपितु लोक कल्याण हेतु सेवा करना है महाराज। इस 

जलधारा को विस्तृत करना है, बस। मैं अपना धर्म निभाने आई हूँ, प्रसिद्धि पाने नहीं। मुझे एक साधारण कन्या ही समझें।” स्पष्ट है कि यह अवधारणा हमारी आर्ष परंपरा का ही एक अंश है।

कथानक धीरे-धीरे गंभीर होता जाता है। कहा जाए तो लेखक दंपती ने इसमें महाकाव्य के अंश आरोपित करने का प्रयास किया है। वैसे तो नर्मदा जैसी किसी नदी का जीवन, उसकी यात्रा स्वयं में महाकाव्य है। प्रेम एवं युद्ध महाकाव्य के अंश हैं। उसमें पराभौतिक शक्तियाँ, अतुलनीय वीर-वीरांगनाएँ, करुण व शृंगार के तत्त्व, दैवीय-आसुरी शक्तियों में संघर्ष व युद्ध प्रायः अनिवार्य रूप में होते हैं। ‘रुद्रदेहा’ में भी ये महाकाव्यात्मक तत्त्व पूरी तरह उपस्थित हैं। 

छठे अध्याय ‘पे्रमाभास’ से नर्मदा के जीवन में शौण का प्रणयोदय होता है। अब नर्मदा अग्रिम किशारी हो गई है। लेखकद्वय उसे शांकरी के साथ-साथ नर्मदा का भी संबोधन देते रहते हैं। शौण के मुख से हम सुनते हैं कि नर्मदा का मुख पुष्पों से सुंदर है। वह षोडशी हो चुकी है तथा उसके तन-मन से यौवन झलक रहा है। वह प्रेमभरे गीत गुनगुना उठती है। यदि औपन्यासिक कसौटी पर देखा जाए तो बिना प्रेमप्रसंग उपन्यास अधूरा-सा लगता है। उसके बिना कथानक में कोई रस नहीं आता अथवा उपन्यास एक शुष्क वृत्तांतभर बनकर रह जाता है। केवल नर्मदा ही नहीं, उसकी कुछ सखियों के भी प्रेमप्रसंग यथाप्रसंग उपन्यास में मौजूद हैं। हाँ, गाथा शिवतनया नर्मदा की चल रही है तो मर्यादा का ध्यान रखना ही पड़ेगा। सुखद है कि लेखक दंपती ने इस मर्यादा को भाषा एवं कथ्य दोनों ही दृष्टियों से रखा है।

नर्मदा का चित्रण एक वीरांगना के रूप में किया गया है। वह संकटहारिणी है। जहाँ भी होती है, अपने पाल्यों एवं साथियों का जीवन अपने बल पर सुरक्षित रखती है। उसका संघर्ष आसुरी शक्तियों से है, जो केवल बलवान ही नहीं अपितु अविश्वसनीय भी हैं। शांकरी केवल अचूक लक्ष्यवेधिका ही नहीं है, अत्यंत मेधावी व गतिशील भी है। वह अपने वाहन कुंभी नामक मकर पर सवार होकर अपनी धारा में यात्राएँ करती रहती है। यह भी सांकेतिक रूप से महत्त्चपूर्ण है। नदी का सबसे शक्तिशाली प्राणी मकर होता है। स्वाभाविक है कि नदी की अधिष्ठात्री देवी मकर को ही अपना वाहन बनाएगी। वैसे, गंगा माँ का भी वाहन मकर ही है।

चैदहवें अध्याय ‘एक संस्कृति का अंत’ को उपन्यास चरमोत्कर्ष कहा जाना चाहिए। यहाँ तक की यात्रा में हम नर्मदा के परितः परिक्रमा लगाती हुई एक ठोसकथा विस्तार पाते हैं। नर्मदा का विवाह होने जा रहा है। शृंगार से युक्त वह नववधू बनी विवाह मंडप के लिए प्रस्थान को तैयार है। वह आगे आती ही है कि अपने प्रियतम शौण को जोहिला पर आसक्त पाती है। उनके बीच हो रहे संवाद को सुनती है, जिसमें वह स्वीकारता है कि नर्मदा उसे भाती है, फिर भी जोहिला के लिए उसका हृदय धड़कता है। वे आलिंगनबद्ध हो जाते हैं। नर्मदा यह सहन नहीं कर पाती। उसका प्रेम तार-तार हो जाता है। वह शौण को जोहिला से परिणयबद्ध होने के लिए छोड़ देती है। यह दृश्य बहुत ही मार्मिक है। यहीं वह प्रतिज्ञा लेती है- “मैं शांकरी..। आज आप सभी को, इस पावन जल और प्रकृति को साक्षी मानकर चिरकुँवारी रहने का प्रण लेती हूँ। प्राणांतक उस पूर्व दिशा में कभी पाँव न धरूँगी जहाँ शौण का निवास है।”

भारत की कुछ ही बड़ी नदियाँ पश्चिम वाहिनी हैं। यद्यपि इसके भौगोलिक कारण कुछ और हैं, फिर भी यह कल्पना चमत्कारिक है कि देवीरूप में प्रतिष्ठित एक नदी चिरकुँवारी रहने की प्रतिज्ञा लेती है। वह आपसी विश्वास के टूटने को बहुत गंभीरता से लेती है। अपने प्रणयी के आवास की दिशा का त्याग कर देती है, किंतु जीवन को प्रवाहित होने देती है। निश्चित ही पश्चिम को भी जल की आवश्यकता थी, जिसे उसने अपना हृदय विदीर्ण होने के बाद भी पूरा किया। इस बहाने से आर्य संस्कृति का उन्नत आदर्श दिखाना हमारे लोक कल्याण का उद्देश्य है, जिसे लेखक दंपती ने अव्यक्त रूप से कहने का प्रयास किया है।

उपन्यास के कुछ अध्याय बहुत ही रोचक हैं। 

ओमधाम तक नर्मदा की यात्रा बहुत अच्छी लगती है। संभवतः ओमधाम नर्मदा तट पर स्थित ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग होगा, जहाँ नर्मदा की धारा विस्तृत हो जाती है। महेश्वर तक उसका विस्तार सुदर्शन व गति मंथर है। पर्वतों के मध्य से होकर उसका निकलना नेत्रों को सुख देता है। आगे तक उसका प्रवाह ऐसा ही है। हो सकता है कि यहाँ का दृश्य कालिदास ने देखा हो। उनका नर्मदा से आत्मिक लगाव था। वे ‘मेघदूतम्’ में नर्मदा का उल्लेख करना नहीं भूलतेय बड़े सम्मान और काव्यात्मकता से करते हैं। कालिदास का प्रकृतिप्रेम विलक्षण था। उनका यक्ष मेघ से निवेदन करता है- हे मेघ! तुम आम्रकूट पर्वत पर क्षणभर ठहरकर, वर्षा कर लेने के बाद हल्के हो जाने के कारण विंध्याचल की तलहटी में छिन्न-भिन्न हुई रेवा नदी को देखना, जो हाथी के शरीर पर बनी रचनाओं के समान दिखेगी (मेघदूतम्, पूर्वमेघ- 19)।

भाषा और शैली की बात करें तो इसमें पौराणिक वातावरण ही नहीं, भाषा भी उस काल के अनुरूप है। लेखकद्वय का पूरा प्रयास रहा है कि नर्मदा के उद्भव काल की संस्कृति को उपन्यास में प्रस्तुत किया जाए। उन्होंने इसमें सफलता भी पाई है। संवाद से लेकर लेखकीय कथन तक तत्सम शब्दों का प्रयोग बहुतायत में है। कभी-कभी तो छायावादी शब्दावली के प्रयोग से छायावाद का दृश्य उपस्थित हो जाता है। कथा नर्मदा की है, इसलिए संस्कृतनिष्ठ पदावली स्वाभाविक ही नहीं लगती, अपितु उपन्यास को पौराणिक बनाने में बहुत सहायक लगती है।

किंतु कुछ कमियों पर ध्यान दिया गया होता तो उपन्यास निश्चित रूप से और अच्छा बन पड़ता। इसके पाठ से गुजरते समय वर्तनी और प्रूफ की गलतियाँ बहुत खटकती हैं। किसी भी साहित्यिक रचना को मानकों पर खरी उतरने के लिए यह आवश्यक होता है कि उसमें भाषायी त्रुटियाँ न हों। यह सच है कि उपन्यास में तत्सम पदावली है, किंतु उससे बड़ा सच यह भी है कि पृष्ठ-दर-पृष्ठ वर्तनी एवं प्रूफ की गलतियाँ इसे नीचे की ओर धकेलती रहती हैं। कई स्थलों पर विराम चिह्नों का प्रयोग भी अनुचित ढंग से किया गया है। दूसरी कमी का उल्लेख करें तो तीसरे चतुर्थांश में जाकर कथानक का बिखरना या अनावश्यक खिंचना है। जहाँ यह रेवा के विवाहभंग तक पाठक को बाँधे रहती है, वहीं इसके आगे रोचकता कम होने लगती है। आद्योपांत पठनीयता उपन्यास की प्रारंभिक शर्तों में एक है। अमी एवं कुछ अन्य अध्याय या तो न होते, या किंचित कसे हुए होते तो बेहतर होता। यदि कसावट करते हुए लगभग पचास पृष्ठ कम कर दिए जाते तो इसकी पठनीयता बढ़ जाती।

नर्मदा का एक प्राचीन नाम रेवा है। उसका अविवाहित रहकर प्रवाहित होते रहना दैवीय गुण है। इसीलिए नर्मदा कन्यारूप में पूजित है। मध्य भारत को यह अपने जल से जीवन देती है। धार्मिक दृष्टि से इसे गंगा से बड़ी पापनाशिनी माना गया है-

सद्यः पापहरा गंगा सप्ताहेन कलिंदजा।

त्र्यहात्सरस्वति रेवे त्व तु दर्शनमात्रतः ।।

अर्थात् गंगा त्वरित पापहारिणी है, यमुना सप्ताहभर में पाप हरती है, सरस्वती तीन दिन में किंतु रेवा तो दर्शनमात्र से ही पाप हर लेती है। ऐसी नर्मदा की जीवनगाथा लिखना लेखक दंपती का उद्देश्य था। इसका उल्लेख वे अपनी भूमिका में ही कर जाते हैं। जब वे नर्मदासेवी अमृतलाल वेगड़ से मिलने गए तो वे और उनकी पत्नी ने उन्हंे नर्मदा पर लिखने का आग्रह किया। उस आग्रह को मानकर लेखक दंपती ने नर्मदा की यात्रा की, विचार-विमर्श किया तथा उपलब्ध स्रोतों से शोध करके इस उपन्यास को लिखा। कहने की आवश्यकता नहीं कि नदियों को प्रेम व सम्मान दिलाने में साहित्यिक योगदान की चर्चा हो तो इस उपन्यास की गणना जरूर की जानी चाहिए। 

पुस्तक का नाम: रुद्रदेहा (गाथा युगनायिका नर्मदा की) (उपन्यास)

लेखक: प्रतिमा अखिलेश, अखिलेश सिंह श्रीवास्तव ‘दादूभाई’

प्रकाशक: उत्कर्ष प्रकाशन, 142, शाक्यपुरी, कंकरखेड़ा, मेरठ - 250001, पृष्ठ: 295, मूल्य: रु 250


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आलेख

सुश्री शीना वी. के. सह आचार्य, हिन्दी विभाग, सरकारी ब्रेन्नन काँलेज, तलश्शेरी


कबीरदास-साहित्यिक विशेषताएँ

कबीरदास हिन्दी साहित्य के महान कवि चिंतक और समाज सुधारक थे। वे भक्तिकाल के प्रमुख कवि है। उन्होंने समाज में प्रचलित जाति व्यवस्था भेद-भाव ऊँच नीच, अंधविश्वास अनाचार के विरुद्ध साहित्य निर्माण किया। उनकी भाषा में ब्रजभाषा, हरियाणवी, पंजाबी, हिन्दी, अवधी, राजस्थानी समेत खडीबोली का प्रयोग है। संत कबीरदास का जन्म 1398 में काशी के लहरतारा ताल में हुआ। उनके माता पिता नीमा और नीरु थे। पत्नी का नाम लोई था। बच्चे है कमाल और कमाली। उनकी मृत्यु 1518 में मगहर उत्तर प्रदेश में हुई।

कबीरदास की रचनाएँ बीजक नामक ग्रंथ में संकलित है। इस के तीन भाग है साखी सबद और रमैनी। साखी का संस्कृत अर्थ है साक्षी। इसमें कबीरदासने अपने आस पास के वातारण से प्रत्यक्ष रूप से भोगे हुए अनुभव को शब्दों से दोहों में प्रकट किया है। अनुभूति की सच्चाई पर उन्होंने बल दिया।

सबद का अर्थ है शब्द, आवाज किसी महात्मा की वाणी या भजन। रमैनी का अर्थ है ईश्वर की प्राप्ति से मोक्षप्रप्ति या ज्ञान प्राप्ति से आत्मा का रमना आंनदित होना। इसमें दोहे चैपाईयों का 86 संग्रह मिलते हैं। संसार में जीवों का रमण अर्थत् राम के चितंन मनन रम के वृत्त में रमण करना आदि। रामायण से मिलता जुलता शब्द है रमैनी। लोकोपचार इन कविताओं का प्रमुख विषय है। रमैनी का अर्थ है साहित्यिक रचना।

कबीरदास हिन्दी स्ताहित्य के महत्वपूर्ण व्यक्तित्व थे। कबीरदास के गुरु थे रामानंद। कासी, में हम प्रकटभये हैं रामानंद चेताये।

ऐसे उनके अन्तर्साक्ष्र्य में मिलते हैं। कबीरदास ने पुस्तक ज्ञान को महत्वं नहीं दिया - उन्होंने कहा था कि मसि कागद छूवो नहीं कलम गही नंहि हाथ।

कबीरदास हिन्दी सहित्य के भक्तिकाल के अन्तर्गत निर्गुण भक्तिधारा के ज्ञानाश्रयी शाखा के अन्तर्गत आनेवाले महत्तपूर्ण सतं कवि हैं। कबीरदास के साहित्य के बीजक ग्रंथ के तीन भाग महत्वपूर्ण है। कंबीरदास की भाषा में विभिन्न भाषा के शब्दों का मिश्रित रूप है। कबीरदास पर आध्यात्मिक प्रभाव भी मिलते हैं। मनः साधना, नामस्मरण, सदाचार की भावना जनभाषा का प्रयोग, मायातत्व की भावना भावात्मक स्थान, सिद्ध नाथ पंथी योगियों का प्रभाव, बाहयाडंबर का विरोध, रहस्यवाद भाषा में नवीन प्रयोग आदि मिलते हैं।

1. अद्वैतवाद का प्रभाव अद्वैतवाद प्रभाव कबीर को उपनिषद् ग्रंथों से प्राप्त हुआ है। वैदिक अद्वैतवाद का प्रभाव कबीर साहित्य पर मिलते हैं। कबीर का ब्रहमा उपनिषद् के ब्रहमा के समान इंद्रियातीत अगप्य अगोचर अनिर्वचनीय तत्व रूप है।

भरी कहुँ तो बह डरौं हलका कहूँ तो झूठ मैं का जानूँ राम कू नैनन कब हँ न दीठा। कबीर ने मनः साधना पर बल दिया जो उपनिषद् के प्रभाव से उत्पन्न है। उपनिषद् ग्रंथों में मन की चंचलता पर नियंत्रण रखने के लिए कहा है। मन की चंचलता विरागी को रागी और सन्यासी को गृहस्थ बना देती है।

कबीर मन ही गयन्द है आँकुस दै दै राखि विष की बेलि परिहरो अमृत के फल चाखि।

2. नामस्मरण - कबीर में वैदिक साहित्य के प्रभाव से नामस्मरण को महत्व मिला है।

3. वैष्णव प्रभाव - वैष्णव धर्म की प्रेमभावना भक्ति की विचारधारा ने कबीर को प्रभावित किया है। रामानंद से उन्हें यह भक्ति भावना प्राप्त हुई। उनका राम निर्गुण निराकारहै।

4. जातिव्यवस्था के प्रति विरोध: कबीर ने जाति व्यवस्था, जातिभेद का विरोध किया। जाति के बन्धनों में बन्धे रखने का विरोध किया। कबीर के अनुसार जाति पाँति पूछे नही कोई हरि को भजे सो हरि का होई।

5. जनभाषा का प्रयोग: कबीर साहित्य में जनभाषा का उपयोग मिलता है। कबीरदास के अनुसार ‘‘संस्कृत है कूपजल भाषा बहता नीर”।

6. माया तत्व: कबीर पर वैष्णवधर्म के मायातत्व की विचारधारा मिलती है। वैष्णवधर्म में प्रभुभक्ति में माया को 

बाधक माना है। माया को साधना में दृर्गम प्यारी दोय माना है।

7. भावात्मक स्थान का उल्लेख: वैष्णव धर्म में प्रचलित स्थानों का उल्लेख कबीर ने अपने साहित्य में किया है। जैसे अमरपुरी, इंद्रपुरी विष्णुलोक आदि स्थल का उल्लेख किया है।

8. बौद्ध महायान शाखा का प्रभाव: कबीर पर बौद्धधर्म का प्रभाव पडा है। जीवन की नश्वरता, मध्यम मार्ग शारीरिक कष्ट का विरोध आदि बातें कबीर में महायान के प्रभाव से आया है। योगसाधना, कुण्डलिनी साधना इडा पिगंला, सुषुप्ना का समन्वय इन बातों में शारीरिक साधना के तत्व आते हैं।

9. सिद्ध नाथ योगियों का प्रभाव: कबीर में सिद्धनाथ योगियों का प्रभाव मिलता है। बौद्धधर्म के वज्रयान, सहजयान, शाखाओं के सिद्धों का प्रभाव कबीर पर पड़ा है। सिद्धों की तरह सुसंस्कृत परंपरा नाथों में मिलती है। योगसाधना, षड्चक्र, इडा, पिगला सुषुप्ना, आदि का वर्णन साधना का रूप बताया है। कबीर सिद्ध नाथ आदि में इसके प्रभाव है। कबीर में प्रेमभक्ति वैष्णव धर्म से प्रभावित है।

10ण् गुरु महत्व - गुरु की महिमा की भावना कबीर को सिद्ध योगियों से प्राप्त हुई। साधक, साधन अवस्था की जटिलता से निराश होता है तब मार्गदर्शन केलिए गुरु के पास जाता है। कबीर के अनुसार गुरु गोविन्द दोनों खड़े काके लागू पाय बलिहारि गुरु आपने जिन गोविन्द दियोबताय।

11. बाह्याडंबरों का विरोध: कबीर ने बाहयाडंबर, जातिव्यवस्था आदि का खण्डन किया और तार्किक विश्लेषण के द्वारा समज के बाहयाडंबर पर कठोर प्रहार किये हैं। सिद्धों नाथों के समय में ही बाह्याडंबर, पाखण्डता आदि पर विरोधी भावना मिलती है। मुल्ला की बाँग और हिन्दुओं की पितल पिटन्त पर अनेक उक्तियाँ कही हैं व्यंग्य आदि किये हैं।

12. रहस्यवाद: कबीर के रहस्यवाद उलटबाँसी प्रतीकों का मूल यही है। कबीर के अनुसार आत्मा स्त्री परमात्मा पुरुष है। कबीरदास ने उलटबाँसी रूपक आदि का प्रयोग काव्य में किया है।

13. भाषा: कबीरदास की भाषा में विभावना, उलटबाँसी, विरोधाभास आदि अलंकार समान रूप से प्राप्त होते हैं।

14. सूफी साधना का प्रभाव: कबीर पर सूफी साधना का प्रभाव पडा था। ग्रीक, फारसी, बौद्धधर्म की विचाराधारा ने मिलकर इस्लाम की रहस्यवादी विचारधारा को प्रभावित किया।

15. प्रेम पीर की भावना: कबीर की प्रेम पीर 

वैष्णवधर्म के प्रभाव की देन मानते हैं। कबीरदास ने ईश्वर को मात्र प्रिय के रूप में अंगीकार किया था। माता पिता गुरु स्वामी आदि रूपों में उसको कबीर ने चित्रित किया था।

कबीर के ब्रहमा की सौदंर्य भावना सूफी भत से प्रभावित है।

16. कबीर की भक्ति पद्धति: वैष्णव विचार धारा का प्रभाव कबीरदास की भक्ति पद्धति में मिलता है। कबीर में गुरु भक्ति भी मिलती है। कबीर दास की भक्ति पावन पवित्र है। कबीर के दोहे काफी लोकप्रिय है।

जल में कुंभ कुंभ में जल है बाहर भीतर पानी फूटा कुंभ जल जलहि समाना इहि तथ्त कहयो ग्यानि है। थोडे शब्द में अधिक सार्थक भावों का प्रयोग मिलता है।

कबीर के अनुसार सत्गुरु की महिमा अनगिनत है। गुरु ने ईश्वर को दिखा दिया है। गुरु ने अनतं उपकार किया है ज्ञानचक्षु खोलकर ईश्वर को दिखानेवाला है गुरु।

सत्गुरु की महिमा अनतं अनतं किया उपकार लोचन अनतं उघाडिया अनतं दिखावणहार निम्न वस्तु में भी शक्ति होती है।

माटी कहे कुम्हार से तू क्यों रौंदो मोहि एक दिन ऐसा आयेगा मैं रूदूँगी तोय।

मिट्टी से कुम्हार विभिन्न वेस्तुएँ बनाते हैं। मिट्टी रौंदकर कुम्हार शिल्प बर्तन आदि बनाते हैं। मिट्टी कुम्हार से कहती है कि एक दिन मैं तुझे रौंद डालूँगी। अर्थत् सब जीव एक न एक दिन मृत्यु प्राप्त करते हैं और मिट्टी में मिल जाते हैं। मानव को मृत्यु के बाद मिट्टी में गाड़ते हैं और मिट्टी के ऊपर घास उग आते हैं।

कबीरदास की रचनाएँ अत्यंत श्रेष्ठ गरिमायुक्त है। वे आज भी प्रासंगिक है। समकालीन समस्याएँ उन रचनाओं में अभिव्यक्त हुई है जो प्रौढ़ स्तरीय हैं। सतं कबीरदास घुमक्कड थे इस कारण से उनकी भाषा में विभिन्न प्रदेशों की भाषाएँ मिली हुई है और मिश्रित भाषा बन गई है। कबीर में साधनात्मक प्रेम अवस्था है जबकि सूफियों में भावनात्मक प्रेम अवस्था है। कबीर का रहस्यवाद सूफियों के रहस्यवाद से अन्तर रखता है। सूफी लोग परमात्मा को स्त्री मानते हैं आत्मा को पुरुष जबकि कबीर ने आत्मा को स्त्री और परमात्मा को पुरुष मानता है। कबीर आदि सतं कवियों ने खण्डन मण्डन पद्धति के 

द्वारा हिन्दु मुस्लिम जनता में एकता की स्थापना करना चाहा। सूफियों ने प्रेमात्मकता से हिन्दु मुस्लिम में एकता की स्थापना की। कबीर ने माया, स्त्री, आदि का विरोध किया था। कबीर का साहित्य अत्यंत लोकप्रिय साहित्य है। लोग आज भी उनकी रचनाएँ बडे चाव से पढ़ते हैं जो अनुपम है। 

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आलेख



समी. श्री मुकेश इंदोरी, इंदौर 452009, मो. 9993771730

ले. श्री नलिन खोईवाल


पिचर पिचर टू द ओसियन

राष्ट्र का नव निर्माण करने में सहायक है नलिन खोईवाल की पुस्तक ‘‘पिचर पिचर टू द ओसियन‘‘

वरिष्ठ कवि, लेखक, चिंतक नलिन खोईवाल एक स्थापित साहित्यकार हैं। तीन दशकों से अधिक साहित्य साधनारत नलिनजी के लेख, कविताएँ, गीत, गजल,व्यंग्य देश-विदेश की प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। इनकी रचनाओं में चिंतन-मनन परिलक्षित होता है। नलिन हर विषय, घटना दृश्य को एक अलग नजरिए से देखते हैं।

यह आलेख संग्रह 2017 में प्रकाशित कृति गागर-गागर से महासागर का अंग्रेजी अनुवाद है। जिसे साहित्य जगत में काफी सराहा गया। इस संग्रह के कई आलेख देश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। इस संग्रह की ख्याति को देखते हुए ही इस संग्रह के फलक को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार देने के उद्देश्य से ही मैंने नलिनजी को इसके हिन्दी से अंग्रेजी में अनुवाद करने का सुझाव दिया जिसे नलिनजी ने सहर्ष स्वीकार किया। पिचर पिचर टू द ओसियन इसी का अंग्रेजी में अनुवादित संग्रह है। ये शीर्षक बड़ा ही चुम्बकीय प्रभाव लिए आकर्षक है जो सीधे दिलो दिमाग पर दस्तक देता है।

संग्रह में 51 अति महत्वपूर्ण प्रेरणादायी, ज्ञानवर्धक, जिन्दगी का फलसफा, आध्यात्मिकता, नैतिकता, सभ्यता, संस्कृति, संस्कार, प्रकृति, राष्ट्रीय चिंतन, अनुशासन, समय 

प्रबंधन इन सभी विषयों को रेखांकित करते हुए वे नव युवाओं में एक नई उर्जा, नया जोश सकारात्मक चिंतन के साथ भरना चाहते हैं, उनके प्रेरणापुंज बनकर उनका मार्गदर्शन करना चाहते हैं जो कि वर्तमान परिवेश में नितांत आवश्यक है। इनके पीछे उद्देश्य साफ है एक नए युवा भारत का सपना। इसके साथ ही इनकी रचनाधर्मिता में भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, बाजारवाद, अनुशासनहीनता आदि जैसे तमाम स्थापित विषयों पर व्यंग्यात्मक चिंतन के साथ उसके उन्मूलन के उपाय भी बताये गए हैं जो इन बुराइयों को दूर कर नव राष्ट्र निर्माण करने में सहायक है।

संग्रह की शुरुआत जिंदगी का फलसफा बयां करते आलेख एक उत्सव है। जीवन संघर्ष जो हमें निरशावादी दौर में भी जीवन जीने का संबल देता है। सुख-दुख तो जीवन के दो पहिए की तरह है इन्हीं पे सवार होकर जीवन चलता रहेगा। हमें जीवन को एक उत्सव की तरह इस सफर का आनंद लेते हुए जीवन जीना चाहिए। सबसे अनमोल है उत्तम चरित्र यही संदेश  बयां करता आलेख है निर्धन का धन है उत्तम चरित्र जो युवाओं के लिए अत्यंत प्रेरणादायी है।

आलेख दृढ़ संकल्प शक्ति मंजिल तक पहुँचाती है, विश्वास से होती है हर क्षेत्र में विजय , समय का सदुपयोग सफलता का मूल मंत्र, सफलता का गहना है प्रेरणा, जीवन जीने की सीख देते हैं संस्कार आदि प्रेरणादायी एवं 

ज्ञानवर्धक आलेख हैं जो वर्तमान परिवेश में पथभ्रष्ट युवा पीढ़ी का मार्गदर्शन करने के लिए नितांत आवश्यक है। नलिनजी बहुत अच्छे व्यंग्यकार भी हैं और बड़ी बेबाकी से व्यंग्य करते हुए आईना दिखाते हैं इसकी बानगी आलेख- ह्रास-परिहास का एक पिकनिक स्पॉट-मुक्तिधाम और दफ्तर में लेट जाना तो हमारी आदत है। खबर से बेखवर हो रहे अखबार , बाजारवाद के दौर में शोषण का शिकार आदमी में देखी जा सकती है।

आज तक नारी ने कई दंभ सहे हैं। आज भी नारी की दशा में काफी सुधार की आवश्यकता है। कोई भी राष्ट्र नारी को शिक्षित और अपनी मातृभाषा का सम्मान किये बिना समुचित तरक्की नहीं कर सकता। यही संदेश देता आलेख है जरुरी है स्त्री शिक्षा व मातृभाषा का सम्मान। राष्ट्र के लिए अभिशाप बन गया भ्रष्टाचार पर भी विचारपरख एवं शोधपरख आलेख है।

भ्रष्टाचार के मूल कारण एवं उन्मूलन के उपाय जिस पर निःसंदेह ईमानदारी और गंभीरता से सोचने एवं विचार कर इसको जड़ से समाप्त करने की आवश्यकता है। अहंकार आदमी का सबसे बड़ा दुश्मन है एक अपराध की तरह है जो पल में सब कुछ तबाह कर सकता है इसी से बचने और सचेत रहने की सलाह देता आलेख है- एक अक्षम्य अपराध- अहं की भावना। इस संग्रह में हमारे जीवन से जुड़े दैनिक विषयों को लिया गया है और उन पर बड़ी सहजता ,सरलता से शोधपरख विचारों को प्रस्तुत किया है यही इस संग्रह की विशेषता है। नलिनजी ने केवल कलम चलाई नहीं है पहले समाज की, राष्ट्र की दुखती रग को जाना, रीढ़ की हड्डी को पहचाना उस पर गहन चिंतन मनन करने के बाद विषयों का चयन करके उन पर शोध करके फिर अपनी कलम की धार को पैनी करके कागज पर चलाई है। उनके इस भागीरथी प्रयास की छवि स्पष्ट परिलक्षित होती है इन आलेखो में जो निःसंदेह इस संग्रह में गंगा को अवतरित कर लाई है जो हमें, हमारे राष्ट्र को तार देगी, द्र्वंंद्व के घोर अंधकार में प्रेम और शांति के दीप जलाते हुए संपूर्ण विश्व को आलौकित करेगी।

निः संदेह ये अंग्रेजी में अनुवादित संग्रह अपना एक नया फलक स्थापित करेगा ऐसा हमारा दृढ़ विश्वास है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सबका ध्यानाकर्षण कर अपनी एक अलहदा पहचान भी बनाएगा। उम्मीद की जाए कि लेखक अपनी पैनी कलम लेकर फिर से हमारे बीच जल्द ही मौजूद होगा।

पुस्तक: पिचर पिचर टू द ओसियन

लेखक: नलिन खोईवाल

प्रकाशक: श्री विनायक प्रकाशन, इन्दौर

मूल्य: तीन सौ रुपये

अनुवाद एवं समीक्षक:  मुकेश इन्दौरी



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समीक्षा


डाॅ. रमेश यादव


सुश्री वंदना यादव, मुंबइ, मो. 9820759088/7977992381

‘ये इश्क है...’ 

हाल ही में वन्दना यादव द्वारा सृजित काव्य संग्रह - ‘ये इश्क़ है‘ प्रकाशित हुआ। दिल्ली के अद्विक पब्लिकेशन ने इसे सुंदर किताबी जामा पहनाया है। जितना लुभावन शीर्षक है, उतना ही आकर्षक मुखपृष्ठ भी है जो सिरजना कौर के सिद्ध हाथों से मुखरित हुआ है। सबसे पहले तीनों का हार्दिक अभिनंदन।

‘अपनी बात’ में वंदना जी पुस्तक की संकल्पना के बारे में लिखते हुए अंतिम पंक्तियों में लिखती हैं- ‘ये इश्क़ है‘-अब आपका हुआ अर्थात इसे पाठकों को समर्पित करते हुए वे उन्हें पुस्तक के इश्क़ में विहंगम करने के लिए मुक्ताकाश प्रदान करती हैं। भूमिका के तौर पर वरिष्ठ साहित्यकार लक्ष्मीशंकर बाजपेयी, नरेंद्र पुंडरीक और कवयित्री किरण यादव ने अपना स्नेह बरसाया है। अब बारी पाठकों की है। 

‘ये इश्क़ है‘ शीर्षक पढ़ते ही स्वाभाविक रूप से कई तरह की भाव-भावनाएं मन में तरंगित होने लगती हैं, जिसकी कसौटी लौकिक और अलौकिक हो सकती है। जी हां, इश्क़ की इन्हीं लहरों पर सवार होकर 93 कविताएं अपनी रूहानी तान छेड़ती हैं। कई रचनाएं पहली नज़र में सतही और निरागस लगती हैं मगर अंतर्मन से देखने पर प्रेम की पराकाष्ठा को छूती नजर आती हैं। ये इश्क़ उस बृहत प्रेम का प्रतीक है, जिसे शब्दों और सीमाओं में बांधना कठिन है। ये क्षणिक भाव- भावनाओं और शृंगार रस से परे वो जड़ें हैं जो बहुत गहराई तक जाती हैं और इबादत की मंजिल खड़ी करती हैं। इश्क़ अर्थात प्रेम-प्यार, मोहब्बत जो अपने आपमें बड़ा ही व्यापक और गहन अर्थ समेटे हुए हैं। 

प्रेम जीवन का अत्यंत ही महत्वपूर्ण घटक है। इसे पाने के लिए लोग सकारात्मकता एवं नकारात्मकता की कई हदें पार कर जाते हैं। इसे व्यक्त करने की सबकी अपनी-अपनी शैली होती है। अक्सर लोग इसकी अभिव्यक्ति में गजल और शायरी विधा का प्रयोग करते हैं। मगर वन्दना जी ने इसे मुक्त छंद में कलात्मक-सौंदर्यबोध के साथ प्रस्तुत किया है जिसे अनूठा प्रयोग भी कह सकते हैं। कवयित्री इश्क़ में है। उसका इश्क़ उथला पानी नहीं है बल्कि समुंदर की गहराई है। वह वेलेंटाइन वाली बात कहीं नहीं करती, बल्कि संस्कृति और प्रकृति के सहारे सूफियाना अंदाज में बड़ी सादगी से दिल, दुनिया, जहां की बात करती है। क्योंकि उसे इश्क़ है- बचपन की गलियारों से, गाँव-घर आँगन चूल्हे, खेत-खलिहानों से, प्रकृति, पहाड़ों-पगडंडियों से, अपने घर-परिवार, माता-पिता, बेटियों और पति से, पुरानी चिट्ठियों, मित्रों और सहेलियों के रस रंग से, पठन-पाठन और शब्दों के सृजन से। उन तमाम मीठी यादों और उनके इश्क़ के गिरफ्त से वह रिहा नहीं होना चाहती। बनिस्पद पार कर लेना चाहती है भवसागर इन्हीं यादों के सहारे। बानगी के तौर पर ये पंक्तियां देखें- ‘एक दिन खाली बैठे / जब जी रही थी बीते लम्हे / एक मुस्कान-सी फैल गई चेहरे पर / उन पलों में / पूछने पर मेरे अपनों के -क्या हुआ? / जवाब था - कुछ नहीं! / मैं मुस्कुरा देती हूँ / इस कुछ नहीं सी मुस्कुराहट में / दफन हैं ना जाने कितने रिश्ते.’ ये तेवर हैं इन कविताओं के।  

इश्क़ की ये वो शक्तियां हैं जो कवयित्री को जीवन में आगे बढ़ने का हौसला देती हैं और दुनिया से बाख़बर होते हुए भी बेख़बर रहने का हुनर सिखाती हैं। बीते लम्हों की कसक भले साथ हैं पर उन्हें याद करते हुए वह जीने का संबल भी प्राप्त करती हैं कुछ पंक्तियां देखें-‘मन मयूर झनझना उठा है मदमस्त मस्ताना सा / इठलाया बौराया -सा / बावरा भीज-भीज थिरकने लगा है / इस बार आशाओं की चादर में / सपनों की गागर में / डूबने लगा है मन मेरा / सपनों की- अपनों की चाह में।’ 

प्रेम व्यक्त करने की अपनी एक गरिमा होती है, एक पर्दादारी होती है, जिसमें शिद्दत की गहराई और असीम ऊंचाई होती है। पहाड़ को प्रतीक बनाकर कवयित्री लिखती है- ‘इस बार जब मैं मिलने गई थी उससे / वह पूछता रहा हाल, बार-बार ! / कैसे बिताई बरसातें? / सौंधी खुशबू जब आई माटी की / जब बही नदियां में पानी और घिरी घटा सुहानी / जब चहचहाए पंछी / कहीं कूक सुनी कोयल की / तब.., सच कहना क्यूं भीग गई थीं पलकें तुम्हारी?/’इस तरह की और भी कई कविताएं हैं जो दिल को अंदर तक छू लेती हैं। इतना आसान नहीं होता है प्रेम के आसमान को छू लेना! संग्रह की कुछ कविताएं हमें अपने बीते दिनों की यादों में सराबोर कर देती हैं। अपना बचपन किसे प्यारा नहीं लगता? किसे अपनी बचकानी हरकतों से इश्क़ नहीं होता ? हम कितने भी बड़े क्यों ना हो जाएं लेकिन अपने भीतर के बच्चे को जो जिंदा रखता  है, वही खुशदिल इंसान होता है। हंसते, खिलखिलाते, चहकते गुलाब-सा होते हैं ऐसे इंसान। कवयित्री अपने बचपन के दिनों से हद से ज्यादा इश्क़ करती है इसलिए ‘छोटा- सा बचपन’ जो कि संग्रह की बड़ी ही प्यारी रचना है, उसमें सुहानी यादों का जिक्र करते हुए लिखती है- मेरे अंदर आज भी एक छोटा- सा बच्चा है / वो झिझकता है, पिछड़ता है / मां का आंचल छूट जाने से डरता है / शरारतें करता है, आग में कूदता है/वादियों में चलता है / बहता है नदी की धारा में / पानी में कंकड फेकता है..../ सुबह से शाम और शाम से सुबह तक / सपनों में रहता है / मेरे अंदर आज भी.../ इस इश्क़ के आगे दुनिया का हर नशा फीका लगता है। 

इश्क़ में हारकर जीतना ही सफलता का फलसफा होता है। ‘जायका’ कविता में कवयित्री लिखती है- उस रोज जब / चूल्हे पर सिंक रही थी रोटी / और मैं / जल्दबाजी में छोड़ आई थी उसे बिना चखे / उसका जायका / आज भी ताजा है जुबान पर / उतना ही / जितनी तवे पर सिंकती / कंडों पर फूलती / रोटी थी / उस दिन। कुछ नहीं बोलती है यह कविता, पर अपने भीतर एक गहरा अर्थ लिए चलती है। प्रेम पाना नहीं बल्कि खोना ही उसकी नियति है। इसमें मंजिल की बजाय खुरदुरे रास्तों पर चलना ही बड़ा सुखदायी होता है। बड़े-बड़े शायरों नें प्रेम को अपनी जुबान दी है। वन्दना जी की अपनी विशेष बोली-भाषा है।                  

इस तरह संग्रह की कई कविताएं हैं जो इश्क़ की रवानगी पेश करती हैं। बानगी के तौर पर संग्रह की- ‘यूँ ही सा ख़याल, दरवाजा और इन्तिजार, पगडंडी, दोपहर बाद की धूप, एक क़तरा, हम-तुम, मन मेरा भीगने लगा है, पंखुड़ियां, चाय का प्याला, सीढ़ियां, लम्हें, बंद दरवाजों वाला घर’ आदि को पढ़ा जा सकता है। शाम होने लगी है - संग्रह की अंतिम और बड़ी कविता है जो भावुक कर देती है। सुबह, दोपहर, शाम और उसके बाद अंधेरी रात की दस्तक। जीवन के इस संध्या छाया में हर इंसान पीछे मुड़कर देखता है और अपने आधे-अधूरे, पीछे छूट गए ख्वाबों को एक नया आकार देना चाहता है। जैसे कवयित्री पुनः उन आरजूओं को जीते हुए लिखती है- दिन ढल चुका, शाम होने लगी है / जो भी दौड़-भाग थी, अब थमने लगी है / कुछ देर विश्राम कर, अपने को ताजादम कर लूँ / खींचू एक लंबी सांस, अपने से बात कर लूँ / थामूँ मैं हाथ अपना, खुद को बांहों में भर लूँ/आंखें मूंद कुछ देर, नज़रें खुद से ही दो चार कर लूँ.../ इन पंक्तियों के माध्यम से कवयित्री ने अपने नकाब को उतारकर स्वत्व को पेश किया है।

इश्क़ रूपी मयावी जाल को बेहद ही सरल और सहज शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है, इसे संग्रह को पढ़ते हुए महसूस किया जा सकता है। ये कविताएं अपने भीतर कई प्रतीकों और भाव सौंदर्यों को समेटे हुए हैं। इन्हें समझने के लिए पाठकों को अपने भीतर उतरकर गहराई में गोते लगाना होगा। तब किसी को भी इस पुस्तक से इश्क हो जाएगा, इसमें कोई दो राय नहीं है।  

पुस्तक - ‘ ये इश्क़ है ’  ( कविता संग्रह )

रचनाकार - वन्दना यादव 

प्रकाशक: अद्विक पब्लिकेशन, दिल्ली 

मूल्य: रु. 199 केवल 



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चर्चा के बहाने


डाॅ. रेनू यादव

असिस्टेंट प्रोफेसर, भारतीय भाषा एवं साहित्य विभाग

गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय, यमुना एक्सप्रेस-वे,  गौतम बुद्ध नगर, ग्रेटर नोएडा, 

ई-मेल- renuyadav0584@gmail.com


पुस्तक :  मैं फिर मिलूँगी...

लेखक :  उमा त्रिलोक

विधा :  उपन्यास

संस्करण :  प्रथम, 2019

प्रकाशक :  सभ्या प्रकाशन, दिल्ली

मूल्य :  300/-         


‘‘अगर तुम सोचते हो जांबाज होना खतरनाक है

तो दस्तूर से चल कर देख लो,

वह जानलेवा हो सकता है’’।

प्रेम परंपरागत लीक तोड़ने का साहस देता है और एक नई लीक बनाने का धैर्य और तड़प भी। मोह से मुक्त प्रेम चेतना का विस्तार करता है और मानवता की ओर ले जाता है। विशुद्ध प्रेम या प्रेम को यूटोपिया के रूप में कल्पित कर प्राचीन काल से अब तक अनेक आख्यान लिखे गए हैं और लिखे जा रहे हैं। ‘मैं फिर मिलूँगी...’ उपन्यास की कथा भी यथार्थ के गुलाबी लड़कपन से निकलकर यूटोपिया की ओर पहुँच जाती है जो परंपरागत लीक तोड़कर प्रेम को साध्य बना लेता है। जाति, धर्म एवं संप्रदाय का दंश सहन करने के बाद असलम गजाला से निकाह को ठुकरा कर देश से दूर चला जाता है, गजाला असलम के निकाह को खुद से कुबूल कर उसके बच्चे को जन्म देती है किंतु तनु गजाला और असलम के बच्चे कबीर को अपनाकर मानवीयता एवं त्याग का परिचय देती है। गजाला एवं तनु की मृत्यु इस उपन्यास को दुखान्तक बनाती है लेकिन यह कहानी देवदास की मृत्यु की भाँति देर तक पाठक के अंदर कौंधती नहीं रहती, इसका कारण कबीर का अपने पिता के मिलना भी हो सकता है। जो तनु की मृत्यु की पीड़ा को थोड़ा कम करने में सहायक होता है।       

हाथ में चाकू या बन्दूक लेकर घूमने या तेजाब का भय दिखाने वाले असफल प्रेमियों के रौबदार दौर में ऐसा प्रेम जीवन में उजास की भाँति लगता है। प्रेम के उजास को देखते हुए देवेन्द्र कुमार बहल जी लिखते हैं, “तनु पूजा है तो असलम नमाज, गजाला एक गहरी सोच और कबीर उस जज्बाए मोहब्बत का निशाने मील है, जो मंज़िल नहीं ढूँढता- वह ढूँढ़ता है एक मन जहाँ वह एक दीया बन कर चेतना के अंतरिक्ष को उदीप्त कर सके...”।  

इस उपन्यास में नायक नायिका का दुबारा मिलना एक सुखद संयोग ही प्रतीत होता है परंतु कथानक में सिंगल मदर का पक्ष और भी सशक्त हो सकता था।  समाज बदल चुका है किंतु सिंगल मदर हमेशा तलवार की धार पर चलती है। समाज की कनखियों पर टिकी अकेली माँ बच्चे के संपूर्ण व्यक्तित्व को लगातार पोष रही होती है, जिसमें सहायिका और सहेलियों की भूमिका अत्यंत अहम् होती है। व्यवसाय एवं घर के बीच उलझी माँ सहायिका एवं सहेलियों से सहायता लेते हुए भी मानसिक एवं भौतिक रूप से बार बार हारती हुई-सी नजर आती है, किंतु एक स्त्री हार सकती है पर एक माँ नहीं। यदि माँ हार गई तो बच्चा हार जायेगा इसलिए माँ को बच्चे के लिए संघर्ष करना ही होगा, उसे हाशिए की दुनियाँ जीतकर मुख्य धारा में जगह बनानी होगी। तनु भी एक ऐसी ही माँ है। वह समाज में शादी-शुदा होने का भ्रम बनाकर जी रही होती है किंतु उसके लिए अपने माता-पिता का सामना करना अत्यंत मुश्किल होता है। माता-पिता को अपनी पुत्री का लीक से हटकर चलना अंधकारमय प्रतीत होता है, वे उसके भविष्य की चिंता में कबीर की अवहेलना करने से नहीं चूकते। यदि इस कथानक में कबीर विवाहित तनु का पुत्र होता तो वह नाना-नानी के प्रेम और सहानुभूति का भागीदार होता। किंतु विवाह का ठप्पा न होने पर संघर्ष की परतें बढ़ जाती हैं। बच्चे पर पड़ते मानसिक दबाव और प्रेम, परिवार, समाज एवं व्यवसाय में उलझी एक अविवाहित माँ की चुनौतियों के लिए उमा त्रिलोक का वाक्य सटिक बैठता है। 

‘‘बदलाव का दर्द सह जाओ या यूँ रहते ही सहते जाओ’’


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