‘साहित्य नंदिनी’ दिसम्बर 2022



समीक्षा

डाॅ. अवधबिहारी पाठक, सेेवढ़ा, जिला दतिया, (म.प्र.), मो. 9826546665

डाॅ. सुदर्शन प्रियदर्शिनी

पश्चाताप - वक़्त से झुलसी एक रुह का 


अहले जिन्दा की ये मजलिस है सबूत इसका है फिराक

बिखर कर भी सी राजा परेशां न हुआ। -फिराक

पिछले दिनों डाॅ. सुदर्शन प्रियदर्शनी लिखित एक गद्य रचना से गुजरा। यह रचना न व्यवस्थित जीवन है और न आत्मकथ्य यह वस्तुतः अतीत की स्मृतियों का जीवन की एक खास स्थिति में खड़े होकर उनको फिर से याद करना है। ब्रिटिश लेखिका अगाथा क्रिस्ट्री ने एक जगह कहा है कि ‘‘मुझे स्मृतियों के साथ रहना है मुझे जो याद हैं और याद रखना चाहती हूँ।’’ लेखिका की स्थिति भी यही है यह यादों की चिंदियों को फिर से जोड़कर पढ़ने की कोशिश है। लेखिका ने इसे स्मृतियों की तलछट कहा है। बचा हुआ कुछ वजनदार वजन, तरहल जो था वह तो जिन्दगी की आपाधापी में बह गया। अब यह तलछट हृदय पर आरूढ़ एक बोझ है। अकड़ता सा बेनाम और बेकाम यादों की कीलें छिदतीं हैं यह कथ्य उन स्मृतियों का लाइलाज इलाज करने की कोशिश है। आत्म तो उन्होंने जिया ही नहीं केवल चलना लक्ष्य रहा कहाँ कैसे कब। आज यह चलना स्मृतियों का संगठित पश्चाताप सा लगता है यहाँ यादों का जमघट नहीं उनके बीच कारण कार्य और परिणाम भी झाँक जाते हैं, एक व्यतीत आत्म के साथ। जीवनदर्शन की झलक है जो आदर्श जिन्दगी को आगे ठेलते रहे। रचना में कही बात को निम्न बिन्दओ को देखने की कोशिश है।

1. ग्रन्थिल मनोदशा- लेखिका ने स्वयं यह स्वीकार किया है कि ‘मुझ में कुछ ग्रंथिया बन गई’ (पृष्ठ 91)। उनका बड़ा परिवार, पिता, दादा, माँ का कड़ा अनुशासन इन्हीं अनचाहे प्रसंग, स्थितियाँ और व्यक्ति के प्रसंग से उनके मन में एक मजबूत गाँठ सी बनी जो, बचपन से लेकर आज तक कोई डर सा समाया हुआ है (पृष्ठ 71)। रचना में तमाम ऐसे प्रसंग है जो उनके अच्छे भले क्रिया कलापों व्यवहारों को प्रभावित करते रहे। निराशा से घिरे भाव ने मन को एकान्तिक रूप दे दिया। सुगम मार्ग भी उन्हें दिशाहीन लगा। मेरी दृष्टि से यह खुद पर आत्मविश्वास न होने की दृष्टि है। याद रखना चाहिए उनके साहस की नजीरें हैं। परन्तु विश्वास बाहरी प्रतिघातों से छरित होता रहा। परिणाम यह है कि वे सही रास्ते चलकर भी भ्रमित रहीं। यह मनोग्रन्थि ने उन्हें सब कुछ कहकर भी बेआवाज कर दिया।

2. विस्थापन जिन्दगी की कथा- विस्थापन शब्द खतरनाक ही नहीं प्रणान्तक भी है जिसे लेखिका ने जिन्दगीभर झेला शुरू से देखें, अभिभाजित भारत के लाहौर में जन्म, बँटवारे बाद शिमला में रहना, एक बड़े परिवार से पृथक पिता की नौकरी में विस्थापन, खान-पान, वेश-भूषा, सामाजिक परम्पराओं का भी विस्थापन, विवाह होने पर परिवार से और नई जगह में ढलने का द्वन्द्व, शासकीय सेवा काॅलेज की नौकरी, यहाँ भी मनोदशाओं का विस्थापन, स्थानीयता से जद्दोजहद, भारत की नौकरी छोड़कर अमेरिका में वसना, एक बड़ा भारी तूफानी विस्थापन। परिवेश, संस्कृति, व्यवहार और अपनी जमीन से अलग होने का दर्द, जहाँ से पीछे लौटना कठिन था। इसके बाद एक भूचाल अपनी नितान्त वैयक्तिक, निजता से भी विस्थापन’’ (पृष्ठ 67)। और आगे दो फाँक होना जहाँ उनकी अनुभूति थी, किन्हीं हालात के कड़वे अतीत से हम भागते हैं और शर्मिन्दा होते हैं। तुम भी शर्मिन्दा थे क्येांकि तुम मेरे पास आये थे तुमने स्वयं पहल की थी। तुमने स्वयं ही मुझसे मिलने की राह निकाली’ (पृष्ठ 55)। दुनिया में सब पराये हो गए। कोई अपना नहीं, तो तुम कौन से अलग थे जो अपने रहते एक भयावह जो अन्दर बाहर घेरे रहता है’ (पृष्ठ 57)। कुछ स्थितियों में विस्थापन सहनीय है परन्तु नितान्त निजी, नितान्त अभिन्न रही वह निजता भी जब घायल होकर विस्थापन की स्थिति का सामना करने को विवश हो, तब जिन्दगी का अराग बन उसे बेतरतीब नहीं करेगा, निश्चित ही करेगा और उससे आगे जाकर अपरिचित, अर्थ केन्द्रित, बनावटी व्यवहारों वाले संवेदना शून्य देश में खुद को खड़ा करने की जिसकी सामने समस्या हो वहाँ तो विस्थापन काल-कराल रूप में दिखेगा ही। परन्तु इसके वाबजूद लेखिका का हौंसला ही था कि बकौल फिराक ‘‘उसका सी राजा विखर कर भी परेशां न हुआ और आगे चल ही निकला’’।

3. अतीत से निजात कहाँ- रचना में अतीत फैला है वर्तमान उसका लक्ष्य है परन्तु अतीत एक भयानक शै है मानव जीवन की। इसमें हमें हारना पड़ता है ‘हम शरीर से हार जाते हैं’ (पृष्ठ 91)। उनके ही उपन्यास पात्र पारो की उन्हें याद आती है। जहाँ वह इधर हुई न उधर की। लेखिका खुद से पूछती है- ‘यह पीड़ता आधीरात को ही क्यों सालती है’’ (पृष्ठ 61)। उनकी मनोदशा वे जाने। मेरे ख्याल से पूरी रचना में एक खालीपन व्याप्त है चाहे क्रिया हो, घटना या पात्र। यह अभ्यंतर की रिक्तता विश्वासघात और इतर के नितान्त पाशविक व्यवहारों के सामने घुटने न टेकने से उपजा दर्द है और यह हर उस व्यक्ति को होता है जो अपना कर्तव्यबोध, दायित्वबोध को पूरा करने को तत्पर हो परन्तु सामने वाला ही यदि व्यवहारों के सारे लौकिक खाते बन्द कर दे तब मन से कराह के साथ धिक्कार ही न निकलेगा। जो एक ओर खुद कुछ गलत करने का पश्चाताप है तो दूसरी ओर उपेक्षा का दंश। यह उपेक्षित व्यक्ति की नहीं, सारी स्त्री जाति की गाथा है जहाँ पुरुष का दम्भ ही जीतता है और नारी इसे कभी सहन नहीं करती है, क्योंकि हार में भी उसकी जीत का आश्वासन छिपा होता है। अस्तु यह आधीरात का दर्द अपनी पराजय की गहन अनुभूति का है। जिसे सहन करने को विवश है।

4. स्वाभिमान- अपने अहमन्यता के दौर में लेखिका को याद आती है सीता, सावित्री, अहिल्या की स्थिति जहाँ सम्पूर्ण समर्पण को भी पुरुष सत्ता द्वारा नकारा गया। पुरुष का अन्तर अपने अन्तर के चिपचिपेपन को अपनी हठ 

धर्मिता के बल पर स्त्री को नकार देता है। ‘‘तुम्हारे घर कोई मर गया था जैसे वाक्य जरा देर से भोजन बनने के कारण सुनने पड़े।’’ ऐसे में स्त्री का दर्द भी खड़ा होता दिखा है सारी पुस्तक में अनेक स्थल हैं, जहाँ नितान्त एकान्त में भी नारी जाति का स्वाभिमान बरकरार रखने की लेखिका ने कोशिश की है।

5. वह जो अनकहा रहा- लेखिका ने अनुभूति में सारे अहसास को जगह दी परन्तु कुछ अबोला ही रहा यथा अपनी शिक्षिका के आचार, विचार, व्यवहार और व्यक्तित्व के रहस्य जिन्हें जानकर भी वह कह न पायी। अपनी जिन्दगी में सारे व्यतिक्रमों को कोई भी नाम न दे पाना क्या उसके अनाम दर्द की अभिव्यक्ति समझा जावे। परन्तु मुझे ऐसा नहीं लगता, मन का मौन हो जाना, किन्हीं जमी हुई ग्रन्थियों की शिनाख्त करता है जिनको पढ़कर भी उसने बेपढ़ा रखा और सबको ‘जो ठीक है या फिर समझौता नहीं किया’ एक नियतिवादी दर्शन का नाम देकर दर्द को यथास्थिति सहने की कोशिश की जो किसी भी जिन्दगी का अप्रितम उदाहरण है।

6. दर्शन पक्ष- जो होता है वह होता ही है उसका जीवन दर्शन है। जो उसके ऊपर गौतम बुद्ध की चिन्तन का प्रभाव हो सकता है अपनी निजता को उसने गहरे से दफन कर अपने अन्तरतम में वर्तमान उजास के सहारे खड़ा रखने की कोशिश की है परन्तु सामने वाले की क्रिया-कलापों के प्रति उसका ट्रीटमेण्ट क्या था। जिन्दगीभर इसके बारे में चुप्पी सधी रही और यह उसके पुरुषार्थ और आँधी में खड़े रहने के साहस को कमजोर तो कर ही देता है। गौतम बुद्ध के शिष्य आनन्द की तरह वह होनी को ही विश्व का नियंत्रक मानती है, जो उसके हिसाब से शायद ठीक हो। परन्तु हर घटना व्यक्ति, परिस्थिति को होनी के साथ संयुक्त कर देना क्या बुद्धिवाद को चुनौती नहीं देता।

7. कुल मिलाकर रचना- उजाड़ जिन्दगी में लेखन के माध्यम से तरलता को खोजने वाला दस्तावेज है जो उन लहरों की प्रतीक्षा में है जो उसे एक अनाम अतल में लेजाकर डुबा दे। जहाँ अपना और गैर मिलकर एक ऐसा विराट एकत्व खड़ा कर दे जो कि उसकी नियति है।



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समीक्षा

जनाब सागर सियालकोटी, लुधियाना, मो. 98768 65957

डाॅ. उमा त्रिलोक, मोहाली, पंजाब, मो. 98111 56310


‘मैं फिर मिलूंगी’: डाॅक्टर उमा त्रिलोक

मैं अपनी बात खलील जिब्रान के इस कथन से करुंगा:-

Speak to us Love "

It has to be noted that a woman can ask about love. Man wants to know God or to become God. There are power trips. Love is not a power trip . Love is the only experience in which you become humble, simple and innocent. Love is both a crowning and a crucifixion.

Ref from"Reflections on Kahlil Gibran's The Prophet,"page 73

‘मैं फिर मिलूंगी’ डाॅक्टर उमा त्रिलोक द्वारा लिखित उपन्यास। Prose की बजाए Poetry की शक्ल में पेश किया गया है बहुत ही अच्छा लगा। कबीर एक माध्यम है जो बाकी किरदारों को जिंदा रखता है। ख़ास कर तनु के लिए जो उसकी मां की भूमिका में है। दोनों की बात चीत बहुत ही खूबसूरत और सटीक है। तनु अपने माता पिता के प्रति संवेदनशील होते हुए भी आज्ञा चक्र के घेरे में है। पिता की तंग सोच के आगे अपनी भावनाओं का दमन करती है। एक भारतीय नागरिक के आदर्श को दर्शाता है इस के बर अक्स असलम के प्रति अपने प्रेम की कुर्बानी कर देना बहुत बड़ी बात है। तनु एक सरापा नियाज मुजस्समे की तरह अपने अहसास को परवान चढ़ा देती है।

असलम ने जो गजाला के साथ किया वो आदमी की गलीज जहिनयत का सबूत है। और एक सवालिया निशान भी। इस उपन्यास में हरीश के किरदार को भी नजर अंदाज नहीं किया जा सकता क्योंकि वो दोनों के बीच एक कड़ी का काम करता है। उपन्यास का अंत बहुत ही मार्मिक ढंग से किया गया है।

यदि मैं थोड़े शब्दों में कहूं तो डाक्टर साहिबा ने Plot Construction का बहुत ध्यान रखा है। Sequences of plots are also very good.  उपन्यास पाठक को बांधे रखता है। ये लेखन की सबसे बड़ी 

कला/चुनौति है। ये दास्ताने मुहब्बत के किस्से चलते आए हैं चलते रहेंगे। मैं डाॅक्टर साहिबा को दिली मुबारकबाद पेश करता हूं। उनकी अच्छी सेहत के लिए दुआ गो हूं।

कोई गलत लफ्ज़ इबारत हो गया हो तो माफ का हकदार हूं।

सागर सियालकोटी लुधियाना

You have crystallised the crux of the whole in a capsule when you refer to the lines on page 98. And further the last share.

Wah!

Your treatment of the book reminds me a sho

awarded the first prize

I am thankful for the remarks.

1 She lives on .....Dr Uma Trilok


2 एक कतआ अमृता के नाम’’ डाॅक्टर उमा त्रिलोक

मैं अपनी बात का आगाज अपने ही एक शेर से करता हूं-

सफर इक रात का था इंतजार सदियों का

इबादत में नहीं देखा उजाला ‘राबिया‘ ने

(राबिया एक बहुत बड़ी सूफी संत थीं )

डाॅक्टर उमा त्रिलोक का लेखन प्रेम रस से लबालब है और इश्क़े मिजाजी और इशक़े हक़ीक़ी का अनूठा संगम है। भाषा की सरलता हृदयग्राही संवाद, पात्रों की सादगी और मासूमियत उनके लेखन के मूल तत्व हैं ‘‘अभिनव इमरोज़।

ऊपर लिखित दोनों किताबों में इमरोज की प्रेम कहानी का जिक्र है।‘‘सुनहडे‘‘ किताब में जो प्रेम पत्र साहिर के लिए लिखा गया है वह भी जुदाई के रंगों में रंगा हुआ है पन्ना संख्या 12 पर। इसी प्रकार पन्ना संख्या 19 पर सब नियम तोड़ डाले, सिख हो कर सिगरेट पीया मन हुआ तो एक आध पैग भी लगा लिया। डाॅक्टर साहिबा मैं ऐसी 

कई उदाहरण पेश कर सकता हूं। जब कोई व्यक्ति वास्तव में इश्क़े हक़ीक़ी तक पहुंच जाता है तो ये बातें कोई मायने नहीं रखतीं। बुल्ले शाह ने कुरान का विरोध किया। मैं आप की इस बात से असहमत हूं कि वो सिख होने के बावजूद सिगरेट पीती थी। ऐसा कुछ नहीं है। हिंदू मुसलमां सिख इसाई तो हम बाद में बनाए जाते हैं। पैदाइशी तौर पर तो इंसान पैदा होते हैं। हर इंसान की एक जाति ज़िन्दगी होती है दूसरी बात वो एक रुह होती है औरत या मर्द नहीं। औरत या मर्द ये हमारा एक समाजिक ढांचा है। इस लिए उस आत्मा की अपनी एक जाती जिन्दगी होती है जिसे हम Liberty कहते हैं न कि Freedom अमृता जी ने समाजिक बंधनों की प्रवाह किये बगैर अपनी ज़िन्दगी जी। मैं इस टौपिक पर बहुत विस्तार से कह सकता हूं, मगर वक्त इजाज़त नहीं देता अभी इमरोज,साहिर, मोहन सिंह और सज्जाद हैदर पर भी बात करनी है।

पेज 61 और 63 पर आप लिखती हैं ‘मोहन सिंह जी मैं आपकी दोस्त हूं आप का आदर करतीं हूं। आप और क्या चाहते हैं। ये अध्याय तब ख़त्म हुआ जब लेखक कपूर सिंह ने कहा था Mohan Singh do not misunderstand her. She doesn't love you.  इसी तरह आप ने सज्जाद हैदर का जिक्र किया। और साहिर के बारे में में भी। मैं लम्बी कहानियों में न जाता हुआ जिससे हम लोग वाकिफ हैं। अपनी बात थोड़े शब्दों में कहने की कोशिश करुंगा। मेरा मानना है कि हर दौर में। tug of war is continue, between the contemporaries regarding, either of the sex in human being. ये कोई नहीं बात नहीं है। समय स्थान और परिस्थितयों को देखा जाए तो अमृता जी का ये एक Bold step था एक औरत के लिए। मेरा ये मानना है अमृता जी का किसी के साथ कोई प्रेम नई नहीं था वो एक वक्ति ज़रुरत और साहित्यक एहसासात थे। मगर उन्होंने प्रेम सिर्फ और सिर्फ इमरोज़ से किया। और किसी से नहीं आखिरी सांस तक और पल पल जिया और निभाया। आप के लेखन को सलाम करता हूं और अपनी बात को ओशो के इन शब्दों से विराम देता हूं।ः-

Life doesn't recognize that which is dead. But man goes on missing such a simple truth. He even tries to purchase love, otherwise there would not have been prostitutes. And it is not only a question of prostitutes. Why are your marriages - a permanent institution of prostitution.

मेरे टाइप करने में यकीनन कुछ कमी और खामियां हों गीत मैं उम्मीद करता हूं कि आप माफ कर दें गे। शुक्रिया

Not at all

You have not hurt me at all

What I wanted to reiterate was that we can not give a minus point to her just because she smoked or drank.

That was her life and she had all the right to live as she liked.,,,

I was simply talking to those people who did not like life style…

Please please do not misunderstand.

I am sure you also believe in giving the women this much freedom.

My regards to you . 



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समीक्षा



डॉ. सारिका मुकेश, प्रोफेसर, अंग्रेजी विभाग वी.आई. टी., बेल्लौर (तमिलनाडु), मो. 8124163491


जनाब सागर सियालकोटी, लुधियाना, मो. 98768 65957


‘मौत पर हक़ है, कफ़न पर शक़ है’ (कहानी संग्रह)

सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री अमृता प्रीतम जी ने कहीं लिखा है, ‘प्राचीन काल में एक ऋषि हुए, जिन्होंने ईश्वर से सिर्फ एक ही वरदान

माँगा कि मैं जो कुछ भी दो हाथों से अर्जित करूँ, उसे हजार हाथों से बाँट दूँ।‘ अगर गौर से देखा जाए तो एक लेखक भी तो न केवल अपने बल्कि तमाम दुनिया के दुःख-दर्दों को अपने दोनों हाथों से अर्जित करता है और फिर हजार हाथों से शब्दों की शक्ल में बाँट देता है। तभी तो एक लेखक तमाम असहाय और निरुपाय लोगों की आवाज बन जाता है और उनके दिलों में बस जाता है।

शायरी और गजल के क्षेत्र में एक सशक्त हस्ताक्षर के रूप में चिरपरिचित सागर सियालकोटी जी भी इन्हीं लेखकों में से हैं। सागर जी समाज की तमाम विसंगतियों पर अपने अलग ढंग से प्रहार करते हैं। और हमें सोचने को मजबूर कर देते हैं। अभी हाल ही में प्रकाशित उनके नये कहानी संग्रह ‘मौत पर हक़ है, कफ़न पर शक़ है’ के साथ हम आपसे रू-ब-रू हो रहे हैं। इसके पूर्व भी इनके तीन गजल संग्रह और एक कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। सागर जी की कहानियों में हिन्दी के साथ-साथ पंजाबी, उर्दू और फारसी के शब्दों की आवाजाही बराबर बनी रहती है। कहानियों के अंत में आवश्यकतानुसार इन शब्दों के अर्थ दिए गए हैं, जिससे पाठकों को नए शब्दों को जानने की सुविधा है। सआदत हसन मंटो को समर्पित यह कहानी संग्रह अपने में सत्रह कहानी समेटे हुए है। इसकी पहली शीर्षक कहानी किन्नरों के दुःख भरे जीवन की करुण गाथा है, जिसमें हमें उनके जीवन से जुड़ी कई नयी जानकारियाँ मिलती हैं। शबिस्ता कोहिस्तानी के यह शब्द नये नज़रिए को जन्म देते हैं, ‘साहब एक बात याद रखना मुखन्नस खुदा के नूर से ही पैदा होता है। साइंस मुअन्नस (स्त्रीलिंग) या मुज़कर (पुलिंग) पैदा करने के वसाइल पैदा कर सकती है पर मुखन्नस (न मर्द न औरत) के नहीं, आप इसे कुदरत का करिश्मा कहें या खुदा का नूर. हमारी कोई ज़ात, मजहब नहीं होता, अगर कुछ है तो बस इंसानी रिश्ता । मेरी गुरू बताती है जब कोई ख्वाजा सरा मरता है तो उसे रात के अँधेरे में दफ़न किया जाता है। कौन कफ़न देता है और कौन दफ़न करता है, पता नहीं। लेकिन ये बात सच है, हमारा मौत पर हक़ है, कफ़न पर शक़ है।‘ इसी के साथ कहानी तो ख़त्म हो जाती है। पर हमारे मन में विचारों की श्रृंखला देर तक चलती रहती है। इसी तरह संग्रह की अंतिम कहानी ‘हमसाया‘ बँटवारे की पीड़ा और देश के बीच इन्सानियत और फर्ज़ की उम्दा मिसाल कायम करती है, जिसे पूरे का पूरा मंज़र कहानी की इन अंतिम पंक्तियों से स्पष्ट हो जाएगा, ...बड़े मामा शिवदयाल उनकी पत्नी, नानी जी और मासी लाजवंती एक काफिले में राजोकी गाँव की तरफ चल पड़े रास्ते में दंगाई लूटमार करते हुए आगे बढ़ रहे थे.. वो किसी तरह डॉ. मुहम्मद बशीर के घर तक पहुँच गए... दिन बाद एक ट्रक आया जिसमें सभी लोग बैठ गए। ट्रक चल पड़ा और पीछे मुहम्मद बशीर अलविदा कहते हुए वापस पैदल आ रहा था.. गाँव के बदमाश गामी ने कहा-बशीर आपने काफिरों का साथ देकर अच्छा नहीं किया और बशीर पर तलवार से वार कर दिया.. बशीर अल्लाह को प्यारा हो गया‘ कहानी समाप्ति पर कई संदेश दे जाती है। हैवानियत किसी धर्म में नहीं बल्कि खुद आदमी के भीतर होती है. अंत में हम सबका जीवन एक कहानी बनकर रह जाता है, हम बशीर के रूप में याद किए जाना पसंद करते हैं या गामी के, यह फैसला हमें खुद करना है।

संग्रह की अन्य कहानियाँ भी अच्छी हैं पर समयाभाव और स्थानाभाव के कारण सबका जिक्र कर पाना संभव नहीं है। सागर जी की कहानियाँ उनके अपने अनुभवों से जुड़ी हैं और हम सबके आसपास भी अक्सर घटित होती रहती हैं। मानवीय संबंध, प्रेम, भाईचारा और एकता उनकी कहानियों के केन्द्रीय तत्व कहे जा सकते हैं। यह पुस्तक उन पुस्तकों में से है, जिन्हें हम सँजोकर रखते हैं। इस संग्रह से गुजरते हुए मिया काउटो की पंक्तियाँ जहन में उबर आयीं, ‘लिसेन, एंड यू विल रियलाइज दैट वी आर मेड नॉट फ्रॉम सेल्ज़ और फ्रॉम एटम्स वी आर मेड फ्रॉम स्टोरीज‘ अर्थात् सुनो, और तुम पाओगे कि हम कोशिकाओं से या परमाणुओं से नहीं बने हैं। हम कहानियों से बने हैं। हमें आशा है कि उनकी इस अक्षर यात्रा से गुज़रकर आप खुद को नये अनुभवों से भरा-भरा महसूस करेंगे। श्री सागर सियालकोटी जी को इस कृति के सृजन हेतु हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं देते हुए हम उन्हीं के इन शेरों के साथ आपसे विदा लेते हैं- ‘हवा का रुख तो जैसा भी रहा था रास्ते में मैं चलता ही गया सब कुछ सहा था रास्ते में/जमाने में सभी तन्हा कोई खुद से कोई सब से, बशर तन्हा, शजर तन्हा खड़ा था रास्ते में।‘ 

पुस्तक का नाम-मौत पर हक है, कफन पर शक है (कहानी संग्रह) लेखक- सागर सियालकोटी प्रकाशक- निखिल पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, आगरा-282 010 (उ.प्र.), संस्करण प्रथम, 2022/मूल्य 150/- (पेपरबैक), /पृष्ठ-104

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रामकिशोर मेहता कृत

प्रो. मोहिनी शारदा, जलंधर, मो. 9877482727

‘अक्ष्मय’: एक विवेचन

रामकिशोर मेहता का लेखन और साहित्य पुरुष वर्चस्ववादी सोच पर कड़ा प्रहार है। उनका उपन्यास ‘अक्ष्मय‘, इसकी पुष्टि करता है।

लेखक ने एक नई नजर, नए नजरिए से रूढ़ीवादी परंपराओं, धारणाओं और पक्षधरताओं की एक सृजनात्मक पुर्नव्याख्या की है। उनकी साहित्यक दृष्टि के केंद्र-बिंदु में हाड़ मांस के ही नारी पात्र नहीं अपितु वो भी मिथकीय पौराणिक नारी पात्र हैं, जैसे कैकई, शूर्पनखा और अंबा, जिन्हें अनादि काल से तिरस्कार, परिहास, उपहास और घृणा का सुपात्र समझा गया। डा पुष्पा गर्ग के शब्दों में ‘‘मिथक किसी भी संस्कृति का प्राणतत्व है। समुद्र की भांति गहन और समृद्ध मिथक अपनी समग्रता में जीवन का ज्ञानात्मक संवेदन है। जो देश और काल से अतीत होकर भी सार्थक और प्रांसिगिक है‘‘। मेहता जी ने एक ओर पौराणिक नारी पात्रों की मनोवैज्ञानिक विवेचना कर स्त्री अधिकार के लिए संघर्ष को एक नई धार दी है तो दूसरी और ‘अक्ष्मय‘ में सामयिक समाज में अपने व्यक्तित्व, अस्तित्व और अस्मिता को चुनौती देती हुई पितृसत्तात्मक सोच के विरुद्ध संघर्षरत नारी का संजीव चित्रण कर स्त्री अधिकार के प्रयास को एक नई दिशा भी दी है। अतः यहां तक नारी संदर्भ की बात है मेहता जी ने पौराणिक पात्रों, सोच एवं घटनाओं को वर्तमान समय के साथ जोड़ा है। स्त्रियों के रक्तरंजित घावों से पीड़ित लेखक की अन्तसः की बेचैनी ही है जो नारी को उसके हिस्से का आधा आसमान दिलाने के लिए कृतसंकल्प है।

बात द्वापर युग की हो, त्रेता युग की या आज के समय की, लेखक एक जागृत समावेशी सामाजिक सोच के साथ उस अवधारणा के विरुद्ध प्रखर आवाज उठाता है जिसमें फेमिनिस्ट जूलिया क्रिस्टीवा के कथनानुसार समाज औरत को कोई स्थान देता भी है तो केवल परिवारिक, सामाजिक हाशिये पर जीवन जीने का सीमित अधिकार। टोरिल मोए, प्रख्यात फेमिनिस्ट समीक्षक अपने आलेख में समाज में प्रचलित उन बाईनरीज की ओर ध्यान आकर्षित करती हैं जो समाज की रुढ़ - प्रारूप सोच को उद्घाटित करते हैं। जिन अनुसार पुरुष दिन है तो स्त्री रात, पुरुष विवेक है तो स्त्री अविवेक, पुरुष सूर्य तो स्त्री चंद्रमा है। ऐसी सामाजिक सोच का लेखक पूर्णतया बहिष्कार करता है।

यथार्थ की धरती पर नारी आज भी शहर में हो या ग्रामीण परिवेश में अपने स्वाभिमान के लिए संघर्षरत है। आर्थर मिलर की नायिका नोरा टोरवाल्ड का अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए अपने घर के सुरक्षित, संरक्षित जीवन को यकायक त्यागकर, आधी रात को बर्फबारी के समय, एक बार भी पीछे मुड़कर ना देखे बगैर, सब छोड़कर चले जाने का निर्णय आधुनिक भारतीय समाज में अकल्पनीय तो नहीं पर एक अपवाद जरूर है। 

नारी का चिरकालीन संघर्ष ‘अक्ष्मय‘ की नायिका प्रिया को भी परिभाषित करता है। एक पुरातनपंथी, रूढ़िवादी अंग्रेजी के प्रोफेसर के घर जन्मी ननिहाल में पली-बढ़ी प्रिया को अदृश्य संघर्ष की अग्नि उसी दिन से तपाना शुरु करती है जिस दिन उसके पिता उसकी सगी मौसी को ब्याह कर घर ले आते हैं। पिता की अवहेलना, तिरस्कार का दंश कभी अनायास तो कभी सयास उसे अपनी हीनता का बोध कराता है। पिता-पुत्री में एक पीड़ादायक संवादहीनता है। जिसे प्रिया की मां का अग्नि स्नान (शायद कम दहेज लाने के कारण) एक कभी ना भरने वाली खाई में परिवर्तित कर देता है।

बदलती हुई जीवन परिस्थितियों के संदर्भ में समय समय पर मूल्यों की प्रासंगिकता को आंकना अनिवार्य है। ‘अक्ष्मय‘ में भी राकेश मेहता ने भौतिकवादी मूल्यों को प्रश्रय देने वाले आधुनिक युग में प्रेम के बदले स्वरूप का यथार्थवादी एंव मनोविज्ञानिक चित्रण उपस्थित किया है। ‘अक्ष्मय‘ भी एक 66 वर्षीय अधेड़ नायक की कुछ संकुचित, कुछ एकतरफा प्रेम कहानी की तरह आधुनिक युग के पर्याय व्हाट्सएप की दीर्घापटल पर पोस्ट हुई प्रेमप्रवण भाषा से भीगी कविताओं एंव क्षणिकाओं से उदघाटित होती है। ये कविताएं पुरुष पात्र राकेश के मनोवेगों की प्रतिध्वनि है। मन से उपजी मस्तिष्क के अतिक्रमण से मुक्त एवं रचनाकार की विचारधारा से अनछुई। राकेश के शुरुआती अस्वीकृत प्रेम का मुख्य कारण प्रिया का सामाजिक डर है। लोग क्या कहेंगे ? ‘‘कुछ नितान्त अपने और कुछ तथाकथित अपने ‘‘ परन्तु नायक समाज की प्रवृति को सही से जांचने और समझने का दम रखता है और समाज के भय से अन्जान तो नहीं पर बेफिक्र जरुर है।

अपने जीवन के खालीपन को भरने के लिए राकेश, प्रिया का साथ चाहता है। दोनों अपने बच्चों एवं फैमिली पैंशन खो देने के डर के कारण वश सार्वजनिक विवाह नही कर सकते। प्रिया लिव इन में रहने से साफ इनकार कर देती है तो बात समय≤ पर इकट्ठे घूमने के विकल्प पर ही पक्की हो जाती है। ‘अक्ष्मय‘ में मेहता जी का कमिटमेंट किसी वाद या विचारधारा से नहीं अपितु अपने समय और जीवन के साथ है। सहित्य स्तंम्भ मोहन राकेश की भांति उनका सीधा संबध उनके यर्थाथ से है। और यर्थाथ मोहन राकेश के शब्दों में है ‘‘मेरा समय और परिवेश - व्यक्ति से परिवार, परिवार से राष्ट्र और राष्ट्र से मानव समाज तक का पूरा परिवेश ‘‘। राम किशोर मेहता जी ने भी समय, समाज, राष्ट्र को एक सहज सहित्यकार की तरह एक आधुनिक बोध संपन्न दृष्टि और बौद्धिक जागरूकता से एक संवेदनापरक ढंग से हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है। अपने समय के स्वर को सम्यक अभिव्यक्ति दी है। इस परिपेक्ष्य में लेखक ने जीवन के नित बदलते रंगों को नए संदर्भों में व्यक्त भी किया है। बात भले ही भोपाल गैस त्रासदी से क्षण प्रतिक्षण तड़पते, इलाज के लिए तरसते दम तोड़ते लोगों की हो या कोरोना काल की अव्यवस्था के चलते, लाशों के अंबार की, लेखक ने जीवन की समानांतर स्थितियों में संदर्भों की 

खोज को अपनी सहज भाषा से अभिव्यक्ति दी है। यही उनके लेखन को वर्तमान प्रासंगिकता एवं बल भी प्रदान करता है।

कोई भी भाषा एक स्थिर निश्चित और अंतिम रूप में अवतरित नहीं होती। समय के संस्कार से अपने को बदलती रहती है। जब नहीं बदल पाती तो वह संजीव अभिव्यक्ति की भाषा नहीं रह जाती। इस उपन्यास की भाषा संप्रेषण समर्थ भाषा है संप्रेषणीयता को कायम रखने के लिए मेहता जी ने अपने भाषा शिल्प में जन भाषा का प्रयोग एक उपकरण के तौर पर किया है। हां, फारसी शब्द तो नहीं परंतु अंग्रेजी शब्द जैसे क्राईसिज आफ आईडेंटिटी, एक्सप्लोजन, इंप्लॉजन, कंसेप्ट, रिस्पेक्ट, जेनेटिक मैटेरियल इत्यादि शब्द जो अब जन भाषा के अंग बन चुके हैं उनका प्रचुर प्रयोग किया है। जन भाषा का उपयोग कर लेखक ने इस स्वरूप की संभावनाओं को भी टटोलने का काम किया है। कहावतें जैसे दाल-भात में मूसलचंद, मुहावरे जैसे सूत न कपास जुलाहे से लठ्ठम- लठ्ठा, उनकी भाषा को गांव की मिट्टी की मीठी सुगंध सा महकाते हैं। लेखक ने तटस्थवादी या पवित्रतावादी बन कर भाषा की संजीवता को समाप्त नहीं किया अपितु लोकप्रिय अंग्रेजी शब्दों का सटीक इस्तेमाल कर अपनी भाषा में स्वभाविकता लाने के लिए आम बोलचाल की भाषा का उपयोग किया है। उनकी भाषा एक समर्थ रचनाकार की समृद्ध भाषा है जिसके सीधे- साधे किंतु अर्थगर्भित शब्द यथार्थ की अनुभूति के तप संताप को बखूबी प्रस्तुत करते हैं।

संक्षेप में राम किशोर जी ने इस उपन्यास में नर-नारी संबंधों को पारंपरिक कसौटी से न परखते हुए इन्हें बदलती परिस्थितियों, परिवेशों और एक अलग दृष्टिकोण से चित्रित किया है। यौन- नैतिकता और यौन शुचिता को लेकर किसी कुंठा का अनुभव ना होना भी एक नई सामाजिक चेतना का पनपना है। इस उपन्यास में रामकिशोर मेहता जी अपने समय और समाज की नवीन संवेदना, मूल्यबोध एवं वैचारिक क्षमता के प्रवक्ता के रूप में उभर कर आते हैं।

निष्कर्षतः इस उपन्यास में अनुभूति की गहराई, वातावरण का निर्माण करने वाली भाषा का सुमिश्रण है जिससे संवादों को भाषाई आकर्षण मिलता है। इस आत्मकथात्मक रचना में राकेश और प्रिया कुछ समय उपरांत मिलते ही नही। उनमें पसरी भौगोलिक दूरी उनके संबंधों की ऊष्मा को ठंडा कर देती है। पाठक उनके मिलन की आस लगाकर अंतिम पृष्ठ तक पहुंचता तो है परंतु राकेश का प्रिया के साथ संपूर्णता प्राप्त करने का स्वप्न एक मृगतृष्णा ही साबित होता है। आखिर हम जीवन के कटु यथार्थ का उन्मूलन साहित्य में ही क्यों खोजते हैं? सहित्य भी तो जीवन का ही दर्पण है।

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समीक्षा




सुश्री सोनिया वर्मा, रायपुर, मो. 8357803400

जी भर बतियाने के बाद

आप छोटे हों या बड़े, मेहनत, लगन और निरंतर अभ्यास से ही कामयाबी मिलती है। सतत प्रयत्न ही मात्र एक ऐसा साधन है, जिसके माध्यम से आप उच्च शिखर तक पहुँच सकते हैं। फिर उस मुकाम पर कायम रहने की जद्दोजहद शुरू हो जाती है। यह लिखने या सुनने में जितना आसान लग रहा है, उतना है नहीं। आप संभल नहीं पाए, थोड़ी-सी भी चूक आपकी कामयाबी के रास्ते की रूकावट बन जाएगी। मुकाम पाना जितना कठिन है। उससे कहीं ज्यादा कठिन है उस मुकाम पर कायम रहना। साहित्य जगत में नित नये-नये प्रयोग हो रहें हैं। आगे निकलने की होड़ लगी हुई है। ऐसे में खुद की पहचान बनाए रखना मुश्किल लगता है। निरन्तर खुद को तराशते हुए, नये-नये प्रयोग करते हुए अपना नाम सबकी जुबां पर लाने वाले ग़ज़लकार हैं के० पी० अनमोल। कामयाबी पाने का हुनर इनसे ब-खूबी सीखा जा सकता है।

वर्ष 2019 में के० पी० अनमोल का दूसरा ग़ज़ल संग्रह आया था ‘कुछ निशान कागज पर‘ और हाल में प्रकाशित इनका तीसरा ग़ज़ल संग्रह है ‘जी भर बतियाने के बाद‘। अनमोल की ग़ज़लों से अनमोल की उम्र का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता क्योंकि इनके शेर बहुत सलीके से अपनी बात रखते हैं। ऐसा इनकी उम्र के बहुत कम लोग कर पाते हैं।

साहित्य की दुनिया में अपना नाम बनाने की चाह में कुछ भी कर गुजरने वाले लोगों के लिए अनमोल का यह शेर अच्छी सीख देता नजर आता है। अधिकतर युवा मंजिल पाने की चाहत में बस दौड़ते ही जा रहे हैं। दो पल रूककर सही और गलत का विचार भी नहीं करते। अनमोल अपनी कामयाबी की वजह कहीं न कहीं ठहराव को ही मानते हैं-

हमारे जेहन को ठहराव है पसंद ‘अनमोल’ 

नशे में मस्त ये रफ़्तार हम न झेलेंगे

जीवन-रेस में दौड़ें, खूब दौड़ें मगर बस इतना ध्यान रहे कि कोशिश हजार करे कोई हराने की मगर कभी हार न मानें। कुछ इस ही तरह की  सीख देता यह शेर देखें-

अगर तू रेस में उतरे तो फिर ये ध्यान रहे

थकान लाख हो लेकिन बदन की हार न हो

रास्ते की हर एक कठिनाई को सहकर निरंतर चलने वाले व्यक्ति के कदमों में कामयाबी होती है और वह जिन-जिन राहों से गुजरता है वह औरों का मार्ग-दर्शन करती है। मेहनत करने वालों को इसलिए कभी हार न मानने की सीख देता शेर-

मेहनत करने वालो! मेहनत वाले का

वक़्त के पन्ने पर सिग्नेचर रहता है

दूसरों की कामयाबी से जलने वाले, गलत रास्ता बताने वाले बहुत लोग हैं पर सही रास्ता बताने वाले लोग बहुत कम। ऐसे लोगों के कारण ही इस दुनिया में थोड़ी अच्छाई बची हुई है। सभी दोष से मुक्त समाज का सपना देखना कोई गलत बात तो नही है, इसकी कोशिश हम में से ही किसी न किसी को करनी होगी।दोष मुक्त समाज का सपना साकार करने के लिए शायर के० पी० अनमोल का मन भी मचलता है, वे कहते हैं कि

कब तक समझ न पाएँगे इक-दूसरे को हम

कब तक जड़े रहेंगे अंधेरे उजास पर

पसरी हैं आसपास में जितनी बुराइयाँ

मिलकर अगर लड़े तो उन्हें मार देंगे हम

अपना काम निकालने के लिए लोग इधर-उधर की बातें, दूसरों की चापलूसी करने से भी बाज नहीं आते। इन्हीं लोगों के लिए अनमोल ने कहा है कि

हमारे कान कोई डस्टबिन हैं

जो इनमें फेंक दो बेकार बातें

यह कुछ ऐसा समय है जहाँ जीवन में थोड़ी-सी कठिनाई आते ही लोग आत्महत्या कर लेते हैं या करने की सोचने लगते हैं। आजकल ऐसा हर उम्र के लोग करते नजर आ रहे हैं। वर्तमान में यह समस्या एक भयावह रूप लेती जा रही है। छोटी-सी अनबन हो, माता-पिता की डांट, टीचर की डांट हो या कोई हार, लोग अपना जीवन समाप्त कर लेते हैं। यह दर्शाता है कि वर्तमान में लोगों की मानसिक स्थिति कितनी कमजोर होती जा रही है और सहनशक्ति बिल्कुल खत्म हो गयी है। इसलिए लोगों को हर समस्या का समाधान आत्महत्या ही लगता है। यह बात अनमोल के मन को किस तरह आहत करती है, उनके शेर से आप समझ सकते हैं-

सहसा यूँ क्या हुआ कि ये मरने के फलसफे

जितने कठिन थे उतने ही आसान हो गये

उक्त शेर शायर की मार्मिक स्थिति का परिचय करवाता है। अपने मन की बात, अपनी उलझनें किसी को कह न पाने की अवस्था अवसाद को जन्म देती है। अकेले रहना इसकी सबसे बड़ी वजह है। भागती-दौड़ती जिंदगी से अपने या अपनों के लिए दो पल का समय निकालना बहुत मुश्किल है। यह बात हम सभी जानते हैं, समझते हैं और कहीं न कहीं महसूस भी करते हैं। वक्त रेत की मानिंद फिसलता जा रहा है और हम कुछ कर भी नहीं सकते। अनमोल चाहते हैं कि थोड़ा रुकें और विचार करें अपने रिश्तों के बारे में-

आजकल वक़्त की चाहत के हैं मारे रिश्ते

किसको फुरसत कि घड़ी भर को निहारे रिश्ते

हम सभी समाज में रहते हैं तो हमारा संबंध समाज की हर एक चीज से होता है, चाहे वे जीव-जंतु हों या पेड़- पौधे। आप इन संबंधों को मानें या न मानें, निभाएँ या न निभाएँ पर संबंध तो बन जाता है। हम अपने आसपास को कितनी बारिकी से देखते हैं। अपनी प्रकृति को कितना समझते हैं और इसका कितना और किस तरह से ध्यान रखते हैं। अनमोल के शेरों से यह तो ज्ञात होता है कि वे प्रकृति प्रेमी, जीव प्रेमी तो हैं ही साथ ही उनके रख-रखाव व बचाव का पूरा ध्यान भी रखते हैं। जंगल और जीव-जंतु किस तरह गमलों और जंगल सफारी, चिड़ियाघरों में सिमटकर रह गये हैं, इन शेरों में देखें-

काश कभी हम दो पल फुरसत में सोचें

हाल धरा का क्या से क्या बन रक्खा है

कैसे गज भर छाँव सड़क तक आयेगी

गमलों में जब सारा ही वन रक्खा है

एक रिश्ता और है समाज में मालिक और नौकर का, जो सदियों से वैसे के वैसा ही है। चंद रुपयों की खातिर कैसा भी काम मालिक अपने मुलाजिम से करवा लेता है। नौकर चाहे या न चाहे उसे करना ही होता है। एक नौकर का दर्द बयान करता शेर-

आप मालिक हैं कहें जो भी हमें करना है

आपके सुर में हमें सुर भी मिलाने होंगे

जमाना चाँद तक पहुँच गया पर कुछ लोगों की सोच टस से मस नहीं हुई। पुरानी परम्पराओं और धारणाओं को गाँठ बाँधे उसी पर चलने वाले लोग कूप-मंडूक बने हुए आज भी हैं। ऐसा कोई न कोई व्यक्ति आपको आसपास मिल ही जाएगा। जिस प्रकार ठहरा पानी बदबू देने लगता है, वही हाल सोच का भी है-

बहुत बेचैन करती है सड़न की बू मेरे मन को

किसी की सोच के भीतर अगर ठहराव दिखता है

आप कहीं भी चले जाइए, अपने वतन की, अपने देश की मिट्टी की महक आती रहेगी। कमाने-खाने के मोहवश लगभग हर एक इंसान खानाबदोश वाला जीवन जी रहा है। केवल विदेशों में जाने वाले ही नहीं बल्कि नौकरीपेशा लोगों की भी यही दास्तान है। इस दर्द को अनमोल ने जिया है। इस टीस को दर्शाता उनका एक शेर-

गाँव को अपने भीतर हर दम पाते हैं

परदेसी बस परदेसी कहलाते हैं

उम्र की इक सीमा के बाद, जीवन की उलझनों से जुझने के बाद, दुख-दर्द सहने के बाद समाज और परिवार का मोह जाता रहता है। नश्वर शरीर इक दिन मिट्टी हो जाएगा, फिर क्या बचेगा? यह इक प्रश्न मनुष्य को आध्यात्म की और ले जाता है। के० पी० अनमोल बहुत सरल हृदय के व्यक्ति हैं। प्रकृति, पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं से इन्हें कितना भी लगाव हो पर सब नश्वर है, इसका भान इन्हें रहता ही है। स्थूल देह भी साथ छोड़ देती है। इनकी इसी आध्यात्मिक सोच का 

परिणाम है यह निम्न शेर-

किसको होता है मोह मिट्टी से

कौन रखता है ध्यान मिट्टी का

अस्ल में चाँद-तारे मिट्टी हैं

यानी है हर गुमान मिट्टी का

साहित्य से जुड़ा व्यक्ति अपने अनुभव, अपनी व्यथा, अपनी आप-बीती, सामाजिक व्यथा और थोड़ी-सी काल्पनिकता का समावेश कर अपने शेर कहता है। अनमोल के अधिकतर शेर अनुभव वाले लगते हैं, जिन्हें वे मात्र शब्दों का जामा पहनाकर बहर में व्यवस्थित करने का काम करते हैं। अनमोल की सहृदयता और कोमलता है औरतों को समाज में पुरूषों के समान स्थान और हक देने की बात करना। औरतों पर होने वाले अत्याचारों पर वे कहते हैं कि

वो कर सकेगा अदब औरतों का क्या ‘अनमोल‘

जो आँख ही से बदन नोंचता निकलता है

एहसान औरतों का, मानो कभी तो मर्दो!

वरना कहाँ थे तुम यह, संसार देखने के

अपने घरों की औरतों का एहतराम कर 

इनकी वजह से ही तो तेरा ख़ानदान है

तमाम बोझ तले दबा हो इंसान पर जीवन में कोई न कोई ऐसा व्यक्ति अवश्य होता है, जो उसे दो पल का सुकून दे सके। अनमोल सूक्ष्म भावों को भी शेर में ढालने का हुनर जानते हैं यह इनकी बड़ी खूबी है। प्यार अनमोल के जीवन का एक अहम हिस्सा है, जो इन्हें तमाम कठिनाइयों से जूझने की ताकत देता है। अपनी उसी ताकत के लिए अनमोल कहते है कि

काम के बोझे में तेरे कॉल ऐसे हैं कि ज्यूँ

रेल के लम्बे सफर में खिड़कियाँ रक्खी गयीं

इस शेर को आध्यात्मिक शेर भी कह सकते हैं और दूसरे अर्थ में एक प्रेमी का भाव लिए शेर भी अर्थात द्विअर्थी शे‘र है यह-

हराम करके हर इक रंग ख़ुद पे दुनिया का

कुबूल कर लिया है इक तेरे ख़याल का रंग

अनमोल की शायरी में हर प्रकार का फ्लेवर आपको मिलेगा, जैसे प्रकृति, आध्यात्म, जीवन की जद्दोजहद, सामाजिक विद्रुपताएँ, राजनीतिक पक्ष, प्रेम इत्यादि जो यह दर्शाता है कि अनमोल एक चिंतनशील रचनाकार है। इन्होंने विडियो कॉल, ब्लैक एंड व्हाइट जैसे अंग्रेजी शब्दों का भी अच्छा प्रयोग किया है। मोबाइल के माध्यम से नयी और पुरानी पीढ़ी को जोड़ता एक शेर देखें-

ब्लैक एण्ड व्हाइट नानी हो उठती है रंगीन / जाने कितने रंग नवासी भर जाती है 

के० पी० अनमोल के पहले ग़ज़ल संग्रह में जो थोड़ी प्रींटिंग की गलतियाँ रह गयी थीं, उसकी इन्होंने दूसरे संग्रह में कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी है बल्कि इसके शेर और पुष्ट और सूक्ष्म भाव लिए हुए हैं। बेहतरीन कहन और सरल सहज व आम बोल-चाल की भाषा का प्रयोग पाठक को बाँधे रखता है। अंत की छः ग़ज़लों में अनमोल ने नये प्रयोग किये हैं अर्थात अनमोल को प्रयोगधर्मी ग़ज़लकार कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। नित नये प्रयोग अनमोल के नाम को ग़ज़लों की दुनिया में स्थायीत्व प्रदान करने वाले हैं। अनमोल स्वयं भी इच्छा रखते हैं कि

जिक्र भले छोटा हो लेकिन हो ‘अनमोल‘/ रामकथा में ज्यूँ किस्सा केवट का है 

इनके नये प्रयोग ग़ज़ल की दुनिया में केवट की तरह तो नही परंतु हनुमान की तरह इन्हें अवश्य स्थान दिलाएँगे। नये सीखने वालों के लिए इस संग्रह में बहुत कुछ सीखने-समझने लायक है। कहन की सरलता आम पाठक के दिलो-दिमाग पर अपना प्रभाव छोड़ती है। कुछ बहुत अच्छे आजाद शेर भी पुस्तक के अंत में दिये गये हैं। पुस्तक की छपाई बहुत अच्छी व साफ-सुथरी है इसके लिए श्वेतवर्णा प्रकाशन को बहुत बधाई। पुस्तक का कवर नाम के अनुरूप है, अच्छा है। पुस्तक के नाम की बात करूँ तो कुछ हद तक ठीक ही है की अनमोल या कोई भी शायर अपने शेरों से ही बात करता रहता है। पुस्तक की सभी ग़ज़लें बहुत अच्छी हैं। नये प्रयोग की दृष्टि से पुस्तक सभी को एक बार जरूर पढ़नी चाहिए। यह पुस्तक संग्रहणीय है। ‘जी भर बतियाने के बाद‘ ग़ज़ल की बेहतरीन पुस्तकों में अपना स्थान बना पाए, इसी कामना के साथ के० पी० अनमोल को इस पुस्तक के लिए बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।

समीक्ष्य पुस्तक- जी भर बतियाने के बाद / विधा- ग़ज़ल / रचनाकार- के० पी० अनमोल / प्रकाशक- ‘

श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली / मूल्य- 150 रुपये / पृष्ठ संख्या- 99

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समीक्षा


श्री तेजस पूनियाँ, गंगानगर, राजस्थान, मो. 9166373652



श्री शरद दत्त


‘भारतीय सिनेमा- साहित्य, संस्कृति और परिदृश्य’ 

पुस्तक समीक्षा: ‘भारतीय सिनेमा- साहित्य, संस्कृति और  परिदृश्य’ क्षेत्रीय सिनेमा के महत्व को प्रतिपादित करती है।

शरद दत्त वरिष्ठ सिने लेखक, आलोचक पिछले दिनों जब दक्षिण भारत में बनी आर, आर आर, के.जी.फ के दो सीजन, पुष्पा और कांतारा को दर्शकों ने सिनेमा घरों और ओटीटी प्लेटफार्म पर देखा और सराहा भी, इन फिल्मों के प्रदर्शन के बाद दर्शक कहने लगे कि क्या बॉलीवुड फिल्म बनाना भूल गया है। इसमें दो राय नहीं हो सकती कि आज क्षेत्रीय सिनेमा हिंदी फिल्मों से बेहतर है। पिछले दिनों तेजस पूनियां की दो पुस्तकों के लोकापूर्ण में, दिल्ली के हिमाचल भवन में जाने का अवसर मिला। जिसका श्रेय मेरे मित्र प्रहलाद अग्रवाल को जाता है। इस समारोह में दो पुस्तको का विमोचन हुआ। एक उनका कहानी संग्रह ‘रोशनाई’ था और दूसरी संपादित किताब ‘भारतीय सिनेमा साहित्य सस्कृति और परिदृश्य’। यह पुस्तक क्षेत्रीय सिनेमा पर केन्द्रित है। इसमें विभिन्न लेखकों के उपअध्याय हैं। 

बंगाली, मलयालम, कन्नड़ और मराठी फिल्मों का प्रदर्शन दिल्ली की विभिन्न सिने सोसाईटी करती रहती हैं। लेखक, संपादक एवं युवा फिल्म समीक्षक तेजस ने इस विषय पर महत्वपूर्ण काम किया है। इनमें कुछ ऐसी फिल्मों भाषाओं पर बनी फिल्मों की जानकारी है जिससे इस किताब के महत्वपूर्ण होने का पता चलता है। लेखक मूलतः राजस्थान से है। इसलिए उन्होंने राजस्थानी, हिमाचली, भोजपुरी और छत्तीसगढ़ तथा उत्तराखंडी में बनी फिल्मों का विश्लेषण इस किताब में समायोजित किया है। खास करके ऐसी फिल्में जिन्हें देखने का अवसर कम मिलता है। 

इन लेखों से क्षेत्रीय सिनेमा की झलक तो मिलती ही है साथ ही पुस्तक में संपादक का स्वयं का लेख ‘राजस्थानी सिनेमा वाया ‘नमक’, ‘मूसो’ और ‘सांकल’ का इतना सजीव चित्रण किया गया है मानों आपके सामने यह फिल्में आप पर्दे पर देख रहे हैं। हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं में  दलित साहित्य पर बहुत साहित्य लिखा गया है। पुस्तक में डॉ. रास भरोसे के लेख से फिल्मों में दिखाए दलित पात्रों का फिल्मांकन पाठकों को महत्वपूर्ण जानकारियां देता है। गांव आज फिल्मों से लुप्त हो चला है। गांव और किसानों पर अनेक फिल्में बनी जरुर हैं लेकिन गाहे-बगाहे ही। विमल राय ने बम्बई में पहले अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में फिल्में देखने के बाद ही ‘दो बीघा जमीन’ जैसी फिल्म बनाई थी। राजकपूर ने भी तभी फिल्म ‘बूट पॉलिश’ का निर्माण किया।

उत्तराखंडी सिनेमा पर डॉ. भावना का लेख ‘उत्तराखंडी सिनेमा: रंगीले गढ़वाल-छबीले कुमाऊं की छवियाँ’ में ग्रामीण अंचल में बनी फिल्मों के बारे विस्तृत चर्चा है। ‘गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो’ भोजपुरी की पहली फिल्म थी। आज बिहार हालांकि भोजपुरी फिल्मों का गढ़ बन गया है। आज अमिताभ बच्चन और मिथुन चक्रवती जैसे कलाकार भी इनमें काम करने से गुरेज नहीं करते। डॉ. अंगद कुमार का लेख ‘भोजपुरी फिल्मों का भविष्य: एक विमर्श’ में उन्होंने भोजपुरी फिल्मों की विषय-वस्तु और कलाकारों के बारे में अपने लेख में महत्वपूर्ण जानकारी दी है। 

वहीं हिमाचली फिल्मों के बारे जानकारी लगभग नगण्य के बराबर है लेकिन इस लेख के फिल्म निर्देशक चूँकि स्वयं फिल्म निर्देशक, निर्माता है और हिमाचल से आते हैं तो इसी नाते पवन कुमार ने हिमाचली सिनेमा के माध्यम से कुछ जरूरी मुद्दे व सवाल उठाये हैं। उन्होंने हिमाचल के सिनेमा की सार गर्भित विवेचना भी की है। उनका मानना है कि सही मायनों में हिमाचल किसे कहेंगे? क्या कांगड़ी बोली में बनाई गई कई फिल्में उस अंचल के सिनेमा का हिस्सा नहीं? ऐसे ही उन्होंने कुछ और जरूरी सवाल भी अपने लेख के माध्यम से उठाये हैं। उनका मानना है कि हिमाचल में कई बोलियाँ बोली जाती हैं। कलना,  सिरगेोरी और सिरजी बोलियों के साथ अन्याय होगा अगर उन्हें हिमाचली सिनेमा ना कहा जाए तो, लेखक का ऐसा सवाल जायज भी बनता है। इसके साथ ही क्या हिमाचली वेशभूषा, परिधान, हिमाचली पहाड़ी में बोले गए संवाद, वहाँ का लोकसंगीत, हिमाचली संस्कृति को इससे अलग करके देखा जा सकता है? इसलिए उन्हें भी हिमाचल का सिनेमा कहना उचित होगा, जैसी बातें लेख में जायज और तर्कपूर्ण लगती हैं।

कोरोना के संक्रमण काल में ओटीटी यानी ‘ओवर द टॉप प्लेटफार्म’ सिनेमा हॉल के बंद हो जाने के कारण यह दर्शकों के लिए वरदान साबित हुआ। इस प्लेटफार्म पर सेंसर की से प्रमाण पत्र की जरूरत नहीं थी इसलिए इस पर प्रसारित होने वाले धारावाहिक तथा फिल्में, वेब सीरीज आदि बहुत लोकप्रिय साबित हुए। इनमें दिखाए गए सीरियल फिल्मों का कंटेंट भी काफी आगे का था। इनमें हिंसा और सेक्स अपने बोल्डनेस दृश्य के साथ थियेटर फिल्मों को भी पीछे छोड़ गया।  मिर्जापुर के दो सीजन इसका उदाहरण है। दर्शकों ने भी इसका खुलेमन से स्वागत किया। तथा ओटीटी ने क्षेत्रीय फिल्मों को प्राथमिकता दी। राष्ट्रीय फिल्म समारोह से पुरस्कृत फिल्मों को देखने के लिए भी अब आम दर्शक इनका इंतजार या तो ओटीटी पर आने का करते हैं या फिर वे फिल्में भी अब सीधे ओटीटी पर रिलीज हो जाती हैं। इन फिल्मों के लिए भी ओ.टी.टी महत्वपूर्ण साबित हुआ है। 

इस पुस्तक के पृष्ठ 98 पर तेजेंद्र शर्मा का एक लेख है जिसमें उन्होंने सुंदर भाषाई प्रयोग करते हुए राजेन्द्र कृष्ण पर लिखा है। तेजेंद्र आजकल लंदन में प्रवास कर रहे हैं। इस पुस्तक के लोकार्पण में वे भी साथ रहे।  कोरोना के बाद के दौरान सिने प्रेमी क्षेत्रीय सिनेमा को देखने से जो वंचित हुए थे उन्होंने ने भी ओटीटी का सार्थक इस्तेमाल किया। ऐसे में सिनेमा प्रेमियों के सिनेमा प्रेन्योर डॉट कॉम जैसी वेब साईट उनकी पसंदीदा फिल्में देखने का अवसर देगी। 

अमिताभ बच्चन, आयुष्मान खुराना, आलिया भट्ट, अक्षय कुमार, वरुण धवन फरहान अख्तर तक भी आज अपनी फिल्में ओटीटी प्लेटफार्म पर ला रहे हैं। सबको अब ओ.टी.टी का भी समझ आ रहा है और सिनेमा के भविष्य का भी। ऐसे में डॉ. रक्षा गीता का लेख महत्वपूर्ण बन पड़ा है। जिसमें वे लिखती हैं एक रिपोर्ट के अनुसार 2023 तक इंडिया में इस प्लेटफार्म पर 50 करोड़ सबक्राइबर हो जायेंगे। इसी लेख में वरिष्ठ सिने समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज के माध्यम से भी एक बात का उल्लेख है जिसमें वे कहते हैं भारत में इतने सिनेमाघर हैं जिनमें पिछले दिनों बाहुबली को पांच करोड़ दर्शकों ने देखा। जबकि आने वाले तीन सालों में ओ. टी. टी का बाजार 12 करोड़ तक हो जाएगा। इस लेख में रक्षा ने कुछ जरुरी और जाने पहचाने ओ.टी.टी प्लेटफार्म का स्थान सहित नामोल्लेख भी किया है। 

कुलमिलाकर लेखक, संपादक का क्षेत्रीय सिनेमा पर पुस्तक संपादित करना महत्वपूर्ण कार्य है। यकीनन यह पुस्तक क्षेत्रीय सिनेमा में रुचि रखने वाले पाठकों, 

शोधार्थियों के लिए मार्गदर्शन का कार्य करेगी और संदर्भ ग्रंथ की भूमिका निभाएगी। यह पुस्तक अमेजन और फ्लिपकार्ट पर उपलब्ध है जिसे प्रकाशित किया है जाने-माने प्रकाशक अमन प्रकाशन, कानपुर ने। 

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पुस्तक लोकार्पण


श्री अशुमन ‘कुठियाला’, शिमला, मो. 8628817851

शहर में शायर की शादी की सालगिरह

दिनांक 08-11-2022 को शिमला के ऐतिहासिक गेयटी थियेटर के कान्फ्रेंस हाल में दोपहर तीन बजे श्री अंशुमन कुठियाला की पुस्तक ‘शहर में शायर की शादी की सालगिरह‘ का लोकार्पण वरिष्ठ साहित्यकार एवं पूर्व भारतीय प्रशासनिक अधिकारी श्री के. आर. भारती, भाषा एवं संस्कृति विभाग के निदेशक डा. पंकज ललित, रंगमंच और साहित्य के पुरोधा श्रीयुत एस. एन. जोशी, कवि एवं शिक्षाविद् श्री रोशन जसवाल, साहित्यकार एवं सह आचार्य, डाॅ. प्रियंका वैद्य के द्वारा किया गया।

इस अवसर पर रौशन जस्वाल जी ने पुस्तक की समीक्षा करते हुए उसकी विविधता तथा रोचकता को उल्लेखित किया और लेखक द्वारा माँ, हिंदी और हिंदुत्व जैसे विषयों पर लिखी रचनाएं उद्धृत कीं। इसके पश्चात डॉ. प्रियंका वैद्य ने पुस्तक का वर्णन एक गुलदस्ते के रूप में किया जिसमें गद्य और पद्य समाहित हैं। इसके अलावा सुश्री प्राची ने ‘‘काले हिरन‘‘ रचना पढ़ी, श्री राहुल ने सेक्युलर का सर्कुलर रचना पढ़ी। 

सुश्री शिवाली शर्मा ने कहा कि ये किताब अपने पाठकों को संक्षिप्त एवं सरल भाषा में युवा जीवन के विभिन्न चरणों से आमुख करवाती है। श्रीयुत श्रीनिवास जोशी जी ने लेखक को आशीर्वाद देते हुए कहा कि वह अपने स्वर्गीय नाना जी की इच्छानुसार महान आदमी बनें। डॉ. पंकज ललित ने भी लेखक को बधाई देते हुए कहा कि उन्होंने साहित्य को जो उन्हें विरासत में मिला है उसे सहेजकर कर रखा है और पुस्तक में सरल भाषा में गहरी बात कही है। 

वहीं के. आर. भारती जी ने ये उल्लेखित किया कि ग़ज़ल एक मुश्किल विधा है जिसमें काफिया, रदीफ और बहर का विशेष ध्यान रखना होता है तथा इसमें सुधार की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है। भारती कुठियाला जी ने कवि श्री गणेश गनी जी का वक्तव्य पढ़ा जिसमें उन्होंने अंशुमन को बहुधा विधाओं के रचनाकार के रूप में वर्णित किया। अजय विचलत ने कार्यक्रम का संचालन करते हुए, कीकली चैरिटेबल ट्रस्ट की संस्थापक सुश्री वन्दना भागड़ा का लेखकों को मंच प्रदान करने हेतु धन्यवाद ज्ञापित किया।

वहीं लेखक रमेश डडवाल जी कार्यक्रम के पश्चात पुस्तक पढ़कर कहा कि एक ही किताब में 12 विधाएं समाहित की हैं। यादों को सहेजना, फिर उनका प्रस्तुतिकर्ण मेहनत मांगता है। अंशुमन ने ख़्याल खूबसूरती से पिरोये हैं:-

‘‘दिल की बात जुबाँ पे ला के कर दी,

एक गलती मैंने तुझे चाह के कर दी...‘‘

शहर में शायर की शादी की सालगिरह, निखिल पब्लिशर्ज, आगरा द्वारा 2021 में प्रकाशित हुई है जिसमें गल्प को समग्रता से प्रस्तुत करते हुए गद्य और पद्य में नवीन प्रयोग किये गए हैं। 

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समीक्षा

सुश्री प्रियंका साह


 आज का अनाज और कृषक रूदन

‘का बरसा जब कृषि सुखानी’- इस लोकोक्ति को याद दिलाते हुए मिथिलेश्वर जी ग्रामीण जीवन और कृषक समाज का संवेदनशील चित्रण करते हुए अपने इस उपन्यास ‘तेरा संगी कोई नहीं’ में कृषि व्यवस्था पर व्यंग्य करते दिखाई देते है। सच पुछा जाय तो भारत की कृषि व्यवस्था की दुर्गति होने में शहरी सभ्यता और वैज्ञानिक तकनीकी विकास का सबसे बङा हाथ रहा है। वो कहा जाता है ना कि जो दशा बिना हाथ के व्यक्ति की रहती है और वह किसी काम का नही रहता , वही दशा आज के किसानों की हो चुकी है। मिथिलेश्वर अपने सातवें उपन्यास ‘तेरा संगी कोई नहीं’ में आज के कृषक की व्यथा और उसकी त्रासदी दिखलाए है। उनका इसके पूर्व के उपन्यास ‘यह अंत नहीं’ में भी ग्रामीण जीवन से सम्बन्धित और शहरी राजनीति का चित्रण था । कुल मिलाकर देखा जाय तो वरिष्ठ कथाकार अब तक के अपने उपन्यासों में एक नवीन विषय को उभारे है, आज के युग की भारतीय कृषि व्यवस्था और नित् परिवर्तन हो रहे आर्थिक नीतियाँ एक मध्यमवर्गीय कृषक को किस प्रकार मानसिक द्वन्द्ध में डालती है और इसका परिणाम किस प्रकार दुःखद स्थिति में पहुँचता है, इसका चित्रण सहज व सरल भाषा शैली में प्रस्तुत हुआ है।

उपन्यास ‘तेरा संगी कोई नहीं’ का नायक एक कृषक है, बिहार प्रांत के भोजपुर जिले में पड़नें वाला बलिहारी गाँव को केन्द्र में रखकर उपन्यास का कैनवास रचा गया है। उपन्यास एकरेखीय नही चला। अपने आसपास की इतर घटनाओं, पात्रों से कथा में क्रमबद्धता रही और शिल्प को धार प्रदान भी किया गया। उपन्यास में वहाँ के खेत-खलिहान, कुआँ, रोजमर्रा की नित्यक्रिया-कर्म, वहाँ के दालान में बैठक, समस्या एवं समाधान, एक समग्र वातावरण का शैलीगत रचाव। किसान समुदाय के भारतीय आर्थिक गतिविधियाँ और इन सब का कृषक समाज पर प्रभाव आदि भी जुङा है। यही कारण है कि उपन्यास के अधिकांश पात्र तत्कालिक उभरती स्थितयों को झेलते, सहते और विरोध करते हुए दिखता है और मुख्य पात्र ही केवल के रूप में स्वाभिमानी, साहसी, सहनशील और जवाबदेही के रूप में अपने टूटते-उखङते वर्तमान को सुवासित करने की चेष्टा करता हैं। जहाँ तक उपन्यास के सृजनात्मकता का प्रश्न है तो यह उपन्यास सर्वव्यापी सार्वभौमिक विचारधारा को केन्द्र में रखकर आगे बढा है। स्थानीयता को प्रमुखता देता हुआ यह उपन्यास किसानों द्वारा ली गई आत्महत्याओं और उनके जीवन त्रासदी पर केन्द्रित है। जहाँ उपन्यास में देहाती समाज के साथ शहरी चकाचैंध को भी पाठकों के समक्ष रखा गया है, वहीं कृषक, कृषक-मजदूर और उनसे सम्बन्धित समस्याओं को भी मूल वैश्विक चिंतन के रूप में प्रस्तुत किया गया है। 

उपन्यास बङे ही सहज ढंग से बलिहारी गावँ के बलेसर (मुख्य पात्र) के ‘बत्तीस बिगहवा’ जमीन से शुरू होता है। रोज सुबह की तरह बलेसर अपने ‘बत्तीस बिगहवा’ की ओर जाते है। कथ्य का पूरा केन्द्रीकरण एक परिवार है और उस परिवार का हर सदस्य एक दूसरे को प्रभावित करते दिखाई दिये है। कहानी की शुरूवात बलहारी के पश्चिमी बधार में पास के नहर के सरकारी पानी की चोरी के काण्ड में पास के सवारी गावँ के किसानों के हाथों हो जाती है। वह कहते है न ‘जल ही जीवन है, पानी की समस्या को लेकर उठी समस्या, परन्तु इसके साथ ही लेखक ने अपने समय के विराट प्रश्नों को भी जोड़ दिया है। उपन्यास का मुख्य पात्र बलेसर कथा के आरम्भ से ही अपनी पुश्तैनी जमीन को लेकर चिंतित दिखाई दिया है और उसके इस चिंता का कारण उसके तीनों पुत्र ही हैं। मुख्यमत्रीं सचिवालय में सहायक की नौकरी करने वाला बङा पुत्र कुलराखन का प्रभाव उसके दोंनों छोटे भाइयों मनराखन और जगपूरन पर पड़ा, वे दोनों भी शहर जाकर शिक्षा किये और नौकरी भी। शहरी सभ्यता, रहन-सहन और भौतिक सुख-सुविधाओं की चर्चा करता हुआ जगपूरन अपनी माँ से कहता है - हमारे गावँ की तुलना में वहाँ शहर का जीवन बहुत अच्छा है माँ। यहाँ जैसी उबङ-खाबङ टूटीं हुई सङके नही चमचमाती सङकें है जिस पर फर्राटें से सवारियाँ दौड़ती रहती है। वहाँ जब जिस चीज की जरूरत पड़ जाय, निकट के मार्केट में सब उपलब्ध। (पृ. 17) आधुनिकता और शहरी चकाचैंध ने ग्रामीण इलाकों की नवयुवा पीढ़ी को इस प्रकार से अपने मोहजाल में फँसाकर रखा है कि वह शहरी सभ्यता को अपनाने में तथा शहरी काम-काज चाहे वह छोटा ही क्यों न हों, करने को राजी है, युवा पीढ़ीं का अपनी पारम्परिक कृषि कर्म को छोङकर पलायन करना, कृषक समाज के लिए अभिशाप के रूप में बन गया है। मिथिलेश्वर ने ‘तेरा संगी कोई नहीं’ उपन्यास के जरिये जिन कृषि 

सम्बन्धी समस्यओं को उभारा है वह शायद पूर्व के किसी भी उपन्यास में सम्भवतः हो। उपन्यास की सबसे बङी विडम्बना इस बात में है कि एक ऐसा स्वाभिमानी कृषक जो अपनी पुत्री के विवाह के लिए अनेक प्रकार से तरकीबें लगाते है, उनका अपनी बात मनवाने के लिए बलेसर पर मानसिक दबाव पूरा रहता है। 

कथ्य में गाढ़ापन तो किसानों, उनके फसलों और कृषि व्यवस्था से सम्बन्धित समस्याओं को लेकर अनेक प्रकार की असुविधाओं से गुजरना पड़ा था, इस वर्ष तो पानी और खाद को लेकर सबसे बङा प्रश्न उठ गया था। ग्रामीण इलाकों में बिजली की समस्या उभर कर आती है। यह सिर्फ बलेसर की समस्या नही थी वरन् गाँव के प्रायः सभी किसानों की समस्या बन गई थी, इन सब के समाधान के लिए गाँव में दालान पर बैठक का भी निर्धारण कर दिया गया था। लेखक की स्थापना है कि दुनिया की वर्चस्ववादी शक्तियाँ हमेशा से ही गरीबों-दलितों के विनाश के मसलों पर सक्रिय रही है, उनके लिए जनकल्याण तो महज ढोंग और दिखावा ही रहा है। जरिया चाहे कोई भी सरकारी कर्मचारी या उच्च पद में प्रतिष्ठित व्यक्ति अपने ओहदे का गलत फायदा उठाकर मध्य-निम्नवर्ग को हमेशा से ही प्रताड़ित करता आया है। उपन्यास के एक अंश में हर किसानों ( किसान पात्रों ) के मत व विचार को बखूबी रखने में मिथिलेश्वर कोई कसर नही छोड़ें। 

स्पष्ट रूप से कहा जाय तो यह उपन्यास का भारतीय आर्थिक नीतियों पर तीखी टिप्पणी है और इसमें बहुत वजन भी है। सिचांई से सम्बन्धित समस्या विशेषतः खाद और पानी को लेकर जो गाँव में सामूहिक निर्णय लिया गया, उससे बलेसर थोड़े आश्वस्त हो गये थे, परन्तु एक समस्या और गम्भीर रूप से भयावह होती जा रही थी, वह यह थी किसान और खेत-मजदूरों का शहरों के तरफ पलायन और यह सब नक्सलवाद का ही अभिशाप था। गाँव के मास्टर साहब जिनकों समाचार पत्र आदि से जानकारियाँ भी मिलती थीं, वे भारत की कृषि-व्यवस्था के सम्बन्ध में दालान पर ग्रामीण किसानों के लिए एक सर्वेक्षण भी प्रस्तुत करते है- “हमारे देश की चैपट होती कृषि व्यवस्था को लेकर पिछले दिनों एक समाचार पत्र ने यह आकड़ाँ प्रकाशित किया कि वर्ष 1995 से 2015 तक के बीच गिरते हुए जलस्तर, बढ़ती महँगाई, सूखते कुएँ एवं तालाब तथा कीड़ों से फसलों के भारी नुकसान और क्षति को लेकर भारत में 2,96,3,48 (दो लाख छियानबे हजार तीन सौ अङतालीस) किसान आत्महत्या कर चुके है।” ( पृ.- 58 )

सचिवालय में नौकरी प्राप्त करने के उपरान्त बलेसर का बड़ा पुत्र आये हुए अनेक विवाह प्रस्तावों को टालने लगता है और सचिवालय के किसी आप्त सचिव की पुत्री से विवाह कर लेता है। बलेसर ने कुलराखन का विवाह दबंग बादल सिंह की बेटी से तय किये रहते है और रिश्ता तोङने का मुआवजा बलेसर खेत को दावँ में लगाकर चुकाते है। बादल सिंह रिश्ता टूटने का बदला बलेसर के बत्तीस बिगहवा खेत में आग लगाकर उनके धान के फसल को बर्बाद करके लेता है। वहीं मनराखन और जगपूरन भी अपने बड़े भाई कुलराखन के नक्शे कदम में चलते हुए अपनी इच्छानुसार प्रेम कर लेते है। 

परिवार में दो पीढ़ियों के वैचारिक मतभेद और उसका परिणाम अत्यन्त शोचनीय ढंग से होता है। आज के युग की युवा पीढ़ीं अधिक सजग व जागरूक होने के साथ मानवीय मूल्यों को अपने पैरो तले कुचलती हुई आगे अग्रसर हो रही । अधुनातन चिंतन और वैज्ञानिक जीवन दृष्टि, आधुनिकीकरण, औधोगिकरण एवं उच्च शैक्षिक स्तर के प्रभाव में मानवीय सम्बन्धों के धरातल में परिवर्तन आया है, जिसका रूपायन इस उपन्यास में मिथिलेश्वर ने अत्यन्त सजीवता या यों कहें एकदम जेन्यूइन ढंग से किया है। 

175 पृष्ठों का यह उपन्यास छोटे-छोटे उपकथाओं को लेकर गढ़ा हुआ है और मिथिलेश्वर ने कुछ इस प्रकार कथा-विस्तार पर समय की सापेक्षता को देखते हुए रचना की है कि जिससे यह ज्ञात हो जाता है कि नवीन प्रयोग की दृष्टि से यह सार्थक रूप से सफल उपन्यास है।

रचना की सफलता उसके किरदार हुआ करते है। लेखक ने अपने पात्रों के साथ, ऐसा लगता है कि अपना खुद का जीवन जिया हो। इस विकास के दौर में आज का भारतीय कृषक अनेक समस्याओं का सामना करता हुआ अभिशापित जीवन जीने को मजबूर है। कथा-नायक का चरित्र सम्पर्ण उपन्यास में एक ऐसे कथा संसार की रचना करता है जिसमें एक कृषक का आत्महत्या वरण करना अंतिम परिणति के रूप में सबके समक्ष है। प्रेमचन्द के किसान तो अत्यन्त सकरात्मक चरित्र के रूप में उभर कर दिखाई दिये, परन्तु आज का कृषक वर्तमानकालीन उपन्यासों में असहाय और निर्बल कृषक के रूप उपस्थित हुआ। प्रेमचन्द का यही किसान भारत को कृषि प्रधान देश बनाता था। आजादी के पहले भारत की अर्थव्यवस्था, समाजव्यवस्था और धर्मव्यवस्था को बनाने में गांवो की भूमिका आज शहर की अपेक्षा ज्यादा बङी थी। परन्तु आज के दौर में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का हस्तक्षेप और भारतीय आर्थिक गतिविधियाँ शहरी-ग्रामीण मानव सभ्यता पर एक अलग तरीके से प्रभाव डाल रही हैं। इंसानी सभ्यता का भविष्य खतरे में हैं, बदलने के नाम पर उनमें गरीब के शोषण के तरीके बदले है और विकास के नाम पर उनमें शहर और उसकी बहुविध विकृतियाँ पहुँची है। बाजार में आये नये बीज, रासायनिक कीटनाशक दवा और नयी कृषि व्यवस्था ने पारम्परिक कृषि व्यवस्था व शैली को पूरी तरफ से खत्म कर दिया है। यहाँ तक कि ऋणग्रस्त कृषक वर्ग आत्महत्या करने को मजबूर हो गया है, इसका समाधान न के बराबर ।

 कुल मिलाकर देखा जाय तो भारतीय कृषि व्यवस्था अत्यन्त जटिल और भयावह स्थिति से गुज़र रही है और बलेसर जैसा कृषक अपने को निर्बल पा रहा है। एक कृषक जिन सकंटो और विषमताओं को झेलता है उसका पूर्ण स्वच्छ स्वरूप बलेसर नामक कृषक चरित्र में चित्रांकन हुआ है। 

 उपन्यास के अन्त में बलेसर बीमार पत्नी की बिमारी और विस्थापन को लेकर जूझते नज़र आते है। नयी और पूरानी पीढ़ी के बीच चल रहे आत्मीय संवाद, शहरी रहन-सहन, दिनचर्या आदि को न अपनाते हुए बलेसर को अपने हृदय में पत्थर रखकर इतना कुछ सहना पड़ जाता है। गांव और शहर के बीच यातायत करते, पत्नी और बत्तीस बिगहवा में तैयार फसल की कटनी की चिंता करते बलेसर मानसिक व शारीरिक पीड़ा के शिकार हो जाते हैं। अनिद्रा के शिकार बलेसर के लिए एक-एक दिन पहाड़ की भाँति लगने लगता है। वह कहते है ना चिंता चिता के समान होता है, उपन्यास की परिणति भी दुखद ही होती है। जीवन भर की कमाई और पुश्तैनी जमीन के हित को लेकर चिंतित बलेसर का जीवन समापन उनके जीवन का आधार बत्तीस बिगहवा उनके अपने हरे-भरे फसलों के बीच ही होता है। 

 175 पृष्ठों के इस उपन्यास के कथानक की पृष्ठभूमि नक्सलवाद व उग्रवाद के समय की है मतलब कि 1990-2000 के बाद के समय का भारतीय वातावरण उपस्थित किया गया है।

 समग्र रूप से यह उपन्यास हिन्दी साहित्य जगत में प्रेमचन्द के ‘गोदान’ और रेणु के ‘ मैला आँचल ’ के विषय से बिल्कुल भिन्न विषय को उभारने में अपनी अलग पहचान रखने में सफल रहा है। यह उपन्यास किसानों को आत्महत्या करने पर रोकथाम लगाने का आह्वान करता है और निरंतर संघर्ष करते रहने और आशावादी बने रहने को ही सशक्त मार्ग दिखलाता है। मिथिलेश्वर इस उपन्यास में ग्राम जीवन की समस्याओं को उजागर कर पारदर्शी समाधान रखने का प्रयास भी करते है। उनकी भाषा के स्वर-ताल, शिल्पगत सरलता तथा भावपूर्ण व्यंजना मिथिलेश्वर की लेखनी के नये रचाव शैली को दिखलाती है।

 कुल मिलाकर यह उपन्यास मिथिलेश्वर की भारतीय कृषि व्यवस्था पर शोध-वृति की सर्चलाइट और लगन का परिणाम है। इतना विशद होते हुए भी यह उपन्यास अपनी मार्मिकता से प्रारम्भ से अंत तक पाठक को बांधे रखने में पूर्णतः समर्थ है। 

 समीक्षित पुस्तक: तेरा संगी कोई नही ’ मिथिलेश्वर, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण 2018

ले. अतिथि प्रवक्ता, शिवानाथ शास्त्री कालेज, कोलकाता, मो. 9903576056



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समीक्षा


डाॅ. धर्मपाल ‘साहिल’, होशियापुर, मो. 9876156964


ख्वाबों के पेड़ तले: जनाब जाहिद अबरोल

नोबेल पुरस्कार विजेता रविन्द्र नाथ टैगोर लिखते हैं- ‘‘लफ़्जों की कतार कविता नहीं होती। पहले इसे ख्याल दो, फिर उसमें रंग भरो। फिर सुगंध भरो, फिर नज़रिया दो। फिर जीवन दर्शन डालो। इतना कुछ रचना पड़ता है लफ्जों में तब जा कर कहीं कविता का सृजन होता है। तब जा कर कोई सृर्जक दानिश्वर कहलाता है।’’

टैगोर के उक्त कथन का अक्स जनाब जाहिद अबरोल के नवीनतम काव्य संग्रह ‘ख़्वाबों के पेड़ तले’ की एक नज़्म, एक-एक सतर, एक-एक लफ्ज के आईने में देखा जा सकता है। ‘‘ख्वाबों के पेड़ तले से पूर्व उन के ‘अंधा खुदा’, ‘एक सफल पुरनम’, ‘फ़रीदनामा’ तथा ‘दरिया दरिया साहिल साहिल’, आदि काव्य संग्रहों का गंभीर पाठकों तथा विश्व प्रसिद्ध ऊर्दू आलोचकों द्वारा जबरदस्त नोटिस लिया जा चुका है।

जनाब ज़ाहिद अबरोल की नज़्मों में कुछ तो ख़ास है जो उन की रचनाओं को बाकी रचनाकारों से अलग करता है उनसे विशिष्ट पहचान बनाने में मदद्गार साबित होता है। विज्ञान का यह विद्यार्थी शायर ‘इन्सानी रिश्तों के साल्ट की यथार्थ की टैस्टट्यूब में डालकर उन की परख करता है। ऐसा करते समय उनकी नज़्मों के स्पैक्ट्रम में केवल इन्द्रधनुषीय सात रंग हो नहीं दिखाई देते, बल्कि अल्ट्रावायलेट एवं इन्फ्रारेड किरणों का प्रभाव तथा प्रसार भी महसूस होता है। अर्थात् इनकी नज़्मों जजबातों और शब्दों से पार जा कर अर्थों को उजाकर करने का प्रयास करती हैं। ऐसी नज़्मों की अनुगूँज की हरारत पाठक की रगों में दौड़ते लहू के कतरे-कतरे में महसूस होती है।

जनाब ज़ाहिद अबरोल ने अपनी नज़्मों में जिस परिवेश का चित्रण किया है। यह उस समाज का हिस्सा है जहां आदमी एक घोर अनिश्चितता के वातावरण में जा रहा है वहाँ वह हालात के हाथों एक यंत्र बन कर रह गया है तथा यंत्रवत सी दिनचर्या उस के जीवन का असल और अमल है। जहां उसे हर घड़ी, हर पल किसी भी अनहोनी के लिए तैयार रहना पड़ता हैं जहां उसकी बुद्धि और विवेक कुंद हो कर रह जाते हैं। वक्त के धारे में तिनके की मानिंद बहते जा रहे समाज के संग उसका अपना वजूद जैसे अर्थहीन, मूल्यहीन व अस्तित्व विहीन हो कर रह गया है। हर तरफ फैली धुंध, कोहरे से जनित अंधेरे में यह समाए जा रहा है। बानगी देखें-‘‘मगर धुआं ही धुआं छा गया है चार तरफ/कहीं से उभरे हैं कुंहरे के अनागिनत बदल। क़जा-ए-शहर को इक धुंध खाए जाती है। कि तीरगी में हर इक शै समाए जाती है।’’

इस संग्रह की नज़्मों की दूसरी विशेषता है, इनमें अपनी सरजमीं की प्राचीनतम संस्कृति का आधुनिक प्रसंग में उपस्थित होना। शायर ने पहली नज़्म से लेकर संग्रह की अन्य कई नज़्मों में हिन्दोस्तानी संस्कृति, सभ्यता तथा उसके धर्मों की कथाओं को काव्यकथा के रूप में प्रस्तुत किया है, जो इन नज़्मों में रवानगी के साथ-साथ रोचकता तथा आंखों से दिल में उतरने का सामथ्र्य रखती है। इन नज़्मों में हिन्दोस्तान के इतिहास, भूगोल, तथा सभ्यता की झलक, इन नज़्मों में अपनी मिट्टी से जुड़ी होने का पुख्ता प्रमाण देती है। देखिए ये पंक्तियां-‘‘हाथ में लेकर छड़ी। कब से खड़ी है माँ यशोधा। सोच में डूबा हुआ है कृष्ण। अब के किस तरह। माँ को दिखा पाएगा वो ब्रह्मांड अपनी सोच का’’ (यशोधा)

इन नज़्मों का तीसरा रंग है नज़्मों की काव्यकथा के रूप में पेश होना। इन नज़्मों में निहित कथा उनका स्वयं से संवाद भी है यानि व्यक्तिगत भी है और सामूहिक भीं उनका यह संवाद व्यक्ति और समाज के बीच एक पुल का कार्य करता है। इन नज़्मों में शायर की उपस्थिति, नज़्मों को आत्मकथात्मक स्वरूप प्रदान करती है और बकौल जाहिद अबरोल, ‘‘इस संग्रह द्वारा मेरा अंदरून बहुत ही जाहिर और बेपर्दा हो गया है।’’ इस कथन की झलक इन पंक्तियों में देखी जा सकती है-

‘‘एक पत्थर को/खुदा का नाम देना/मैंने सिखलाया तुझे/इस ख़ुदा को। किस तरह मिलते हैं पत्थर के नसीब/तू मुझे दिखला गई’’ (शिक्स्त) या फिर-

अब तो ता ‘मीर के अमृत से ही खींचूँगा हयात,

तब कहीं जा के मैं पाऊँगा ग़म-ए-दिल से नज़ात।’’

संग्रह की नज़्मों का चैथा रंग है, नज़्मों के कथ्य में शायर का सुकरात की तरह सत्य के लिए ज़हर का प्याला पी जाना। शिव की भांति समुन्द्र मंथन से निकले विष को दूसरों की खातिर कंठ में धारण कर नीलकंठ बन जाना। ऐसी कैफीयत के बिना नज़्में अक्सर (शिव (कल्याणकारी)) न होकर शव (मृत) हो जाया करती है। बेशक इन नज़्मों में प्रगतिवादियों की तरह किसी जुल्म अथवा अत्याचार के खिलाफ रोष अथवा विद्रोह का परचम नहीं लहराया गया है, लेकिन शायर अपने भीतर चल रहे महाभारत में स्वयं ही अर्जुन, स्वयं ही कृष्ण, स्वयं ही दुर्योधन बनकर अपने बुद्धि और विवेक के गांडीव को उठा कर कर्म सिद्धान्त का पैग़ाम तो देता ही है। इन अवांछनीय परिस्थितियों के विरुद्ध खड़े होने के लिए ज़मीन तो तैयार करता ही है। लेकिन शायर ऐसी अभिव्यक्ति करते समय अदब की शिष्टता, शालीनता तथा प्रभाविकता की पतवार अपने हाथों से छूटने नहीं देता। इसीलिए इन नज़्मों का पाठ करते हुए यह कमी महसूस नहीं होती कि शायर ने ये नज्में अपनी अक्ल के ज़ोर से पैदा की है, बल्कि लगता है कि ये किसी इल्हाम की भांति कागज़ के कैनवास पर उतरी हैं और फिज़ा में इन्द्रधनुषीय छटा बिखेर गई हैं। बानगी देखें-‘‘इस पौधे को जड़ से उखाड़ों/वरना घर की दीवारें तकाहिल जाएँगी। पीपल की पूजा करने वालों ने लेकिन। इन लोगों की बात नहीं मानी। अपनी छत पर इस पौधे को बढ़ने दिया है। अपना ही घर। कुर्बानी पर चढ़ने दिया है।’’ (अब भी वक्त।)

जनाब जाहिद अबरोल की नज़्मों का पाँचवां रंग है, हिन्दोस्तानी संस्कृति के पौराणिक मिथकों की तोड़ना तथा पुनः परिभाषित करने का प्रयास वरना जो किताब की पहली ही नज़्म ‘‘माँ यशोधा’’ से लेकर सत्यम् शिवम् सुन्दम्, अब भी वक्त है, भस्मासुर, अंधा ख़ुदा, लोरी, आदि नज़्मों में दिखाई देता है। निम्न पंक्तियाँ इस तथ्य का प्रमाण है-‘‘वो दुनिया का ठुकराया हुआ, तो सोचता है। अब के खुलवाया जो माँ ने मुँह। तो कह दूँगा उसे/जिंदगी के इस महाभारत में उस का कृष्ण कब का खो चुका है अब वो जीता जागता इक बुत है जो उससे खाली हो चुका है। (माँ यशोधा)

जाहिद अबरोल के पास ख्वाबों का ज़खीरा है। ख्वाबों के स्रोत हैं। उन्हें ख्वाबों के उद्गम स्थल का पता है। इन ख्वाबों को देखने और उन से हुए अनुभवों को अपनी नज़्मों में समेट कर पाठकों में बांटने की इच्छा ने ही ‘ख्वाबों के पेड़ तले’ नज़्म संग्रह ने जन्म लिया है। इन ख्वाबों के दर्पण में, पाठकों को अपने जज़्बातों के अक्स की झलक पानी  में लरजते चाँद की भांति दिखाई देती है। जनाब जाहिद को ख्वाबों के हश्र का भी पता है, तभी तो वह अपनी नज़्म ‘मोम के पँख’’ में फरमाते हैं।

‘‘हाय! इक ख्वाब मिरा। अपने शानों पे कहीं भूले से। मोम के पँख लगा बैठा है। जब वो पहुँचेगा। किसी आग उगलते हुए सूरज के करीब। उस के शानों पे लगे। मोम के पँख पिघल जाएँगे। (मोम के पंख)

जनाब जाहिद के ख्वाब कभी दुल्हन का रूप धारण कर लेते हैं और यहां भी ख्वाबों की त्रासदी को कुछ इस तरह से बयान करते हैं- ‘‘मेर ख्वाबों की दुल्हन रंज से है बेकाबू। उस के अहसास के जख़्मों से रिसता है लहू। मेरे गीतों से उसी खून की बास आती है। मेरे नगमे उसी मंज़र ही की तस्वीर हैं (ख्वाबों की दुल्हन) इस प्रकार ‘‘कार्ल मार्कस’’ नज़्म में तो इन ख्वाबों की हकीकत की चट्टान से टकरा कर चकनाचूर हो जाने की प्रचंडता और भी उदास कर देने वाली है तथा जिंदगी की सख्त पथरीलली जमीन पर खड़े होकर इन ख्वाबों के सच को जानने-पहचानने का बोध कराती हैं तथा इन ख्वाबों की यह होनी महज ज़ाहिद अबरोल की न होकर समूचे समुदाय, समुचे समाज की हो जाती है। इस सन्दर्भ में ‘‘कार्लमाक्र्स’’ तथा काॅफी हाउस’’ नज़्में उल्लेखनीय हैं। ‘‘हमारे ख्वाब। जो माँ की मुहब्बत। बाप की शफाकत के साये में पले थे। जो फक्त बाद-ए-सबा की। नर्म हल्की थपकियों के आशना थे। वो घरो से ज्यूँ ही निकले। तेज आंधी में बिखरते ही गये। (काफी हाउस)

इस संग्रह के मुहब्बत भाग में बचपन की मासूम मुहब्बत से लेकर, माता-पिता की निःस्वार्थ मुहब्बत, प्रेमिका की रुहानी मुहब्बत, पत्नी और बच्चों की उपस्थिति से महकते घर संसा की मुहब्बत तथा ईश्वर से एक तरफा मुहब्बत इन सभी मुहब्बतों के रंगों को कागज़ के कैनवास पर उतारा गया है। पाठक हर रंग में डूबकर, इन मुहब्बतों के रंग में रंगता चला जाता है। वह शायर के बहाने सजीव हुए अपने अतीत, वर्तमान के हसीन पलों से जुड़ जाता है। यहाँ शायर की जादूगरी कहो या परिपक्वता वह पहली से आखरी मुहब्बत तक के सफर केा बहुत ही सलीके और शालीनता के वस्त्र पहना कर पेश करता है कि उसकी नज़्मों पर न तो कोई कच्चेपन की अंगुलि उठा पाता है और न ही अपने अन्दर-बाहर में कोई अन्तर दिखाने का मौका देता है। ‘‘आज तक मुझको न भूली है न भूलेगी कभी। एक इक बात जो दोनों में हुआ करती थी। प्यार एक बाब था जो मेरे लिए गीता का/कैसे कह दूँ कि वो इक भूल लड़कपन की थी।’’ (सर गुज़श्त)

इस किताब को पढ़ते हुए पाठक जब ‘‘ज़िंदगी’’ पड़ाव पर पहुँचता है तो महसूस होता है कि ख्वाबों के सिलसिले का ही दूसरा नाम है जिंदगी। क्या बंद और क्या खुली आँखों से देखे जाते ख्वाबों की भीड़ में डूबा है आदमी। कभी भारत-पाक दुश्मनी के दरमयान मित्रता का ख्वाब, कहीं साम्प्रदायिक दंगों की जगह साम्प्रदायिक सद्भावना एवं अमन का ख्वाब, कहीं जात-पात-कौम से उठ कर समानता एवं समरसता वाली भावना वाले ख्वाब इन नज़्मों में बुने गये हैं। इस सन्दर्भ में मिरे भाई, सिद्धपुर, अजनबी, बड़ी सोच, अंधा खुदा, शिकस्ता, यादों के खंडहर, वो पेड़ अपना शहर पराए लोग आदि नज़्में उल्लेखनीय हैं।

पंजाब के संकटकालीन दौर में हुई कत्लोगारत और उस के फलस्वरूप फैले सिक्ख विरोधी दंगों की दर्द भरी दास्तां के गहरे जख्मों पर मरहम लगाने वाला ख्वाब है। ‘एक सफा पुरनम’’ की नज़्में। इधर पंजाब में और उधर राजधानी में हजारों मासूम, निर्दोष, बेगुनाह लोग केवल धर्म विशेष से जुड़े होने के कारण कत्लोगारत के शिकार हुए। फिरका पस्ती के इस तांडव के कारण जानें गवां चुके, हजारों इन्सानों से दुखी जाहिद अबरोल की कलम इस साम्प्रदायिकता की जानलेवा जकड़ से मुक्ति का ख्वाब देखती है। इन में पीड़ित पक्ष के प्रति सहानुभूति का सैलाब है। तो इस सब के लिए ज़िम्मेदार लोगों के प्रति प्रचंड आक्रोश भी झलकता है। ज़ाहिद अबरोल की खून टपकती आँखों से देखे गये ख़्वाब की तासीन तीखे तेवरों वाली है तथा अमन, शांति व सद्भाव के लिए पुकारती शायर की क़लम की आवाज़ से आवाज़ मिलाने का आह्वाहन करती है। शायर के जबदस्त उलाहने भरे शब्द देखिए- ‘‘ख़बीसो! कुछ तो सोचो। हमारी बूढ़ी माँए रो रही हैं। बद्दुआएं दे रही हैं। तुम को भी। खुद को भी। रब को भी। और उस रब के। इस भाग की नज़्मों की भावनाओं का प्रवेग, दहशत का भय, खून के आँसुओं तथा खौलते लावे से लबरेज है। सहम भरे ख्वाब शायर की इन नज़्मों में स्पष्ट देखे जा सकते हैं।

इसी प्रकार ‘‘याद-ए-रफतगा’’ वाले सफहों में शायर के निकटतम दोस्तों की रूखस्ती को समर्पित नज़्में हैं। जिन में कृष्ण अदीब, प्रेम कुमार सूद, हबीब देहलवी, विनोद लखनपाल, निसार नेपाली तथा परमिंदरजीत सरीखे अदबी दोस्तों को अपनी नज़्मों के ख्वाबों में समा कर उनहें अमरत्व प्रदान किया है। इन बिछड़े मित्रों की लासनी शख्सियत लफ्जों के रूप में धड़कती दिखाई देती है। ये खूबसूरत शब्द शिव उम के लिए सच्ची श्रद्धांजलि भी है तथा उन की बिछुड़ी रूहों से गुफ्तगू करने का जरिया भी तथा उन के साथ गुजरी रूहों के ख्वाब भी है।

इस नज़्म संग्रह के छटे अध्याय में कतआ तथा सातवें भाग में दोहे/माहिये, दुआहये, तजमीन, गीत तथा कुछ काव्यानुवाद (पंजाबी से ऊर्दू) भी संकलित किये गये हैं। जो शायर की, शायरी की इन उपविधाओं पर पकड़ की खूबसूरत उदाहरण है। धार्मिक उन्माद के भयानक हश्र को जाहिद अबरोल अपने कतआ में कुछ यू प्रकट करते हैं-

‘‘राम सेवक हो कि अल्ला के गुलाम/तेग का हो वार या त्रिशुल का/आँसुओं में डूब जाता है चमन/सर कलम का हो जब किसी फूल का।

इसी प्रकार दोहों में मिथकों का प्रयोग आधुनिक प्रसंग में कितनी खूबसूरती से हुआ है बानगी देखें-

‘‘धन का रावण, लांघ सका कब प्यार की लक्ष्मण रेखा

जब भी देखो ‘सीता’ ही को बाहर आते देखा’’

यूँ ही माहिये मै कायनात का दर्द कुद यूँ समेटा गया है-

‘‘यह बात बता साईं। बिना उसे याद किये। आँखें क्यूं भर आईं। तज़मीन पर गज़ल, दुष्यत कुमार की शायरी को लेकर एक नया सफल प्रयोग किया है जनाब जाहिद अबरोल ने इस प्रकार जाहिद अबरोल ने अपनी खुशी से और ग़मी से दोनों ही हालात में भीगी आँखों से बुनकर जिस ख्वाबों के पेड़ को तसव्वुर किया है, वह पेड़ एक प्रकार से बोधिवृक्ष बन गया है, जिस के तले बैठ कर महात्मा बुद्ध को  ज्ञान प्राप्त हुआ था। 


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एक मौलिक और अप्रकाशित समीक्षात्मक आलेख

डॉ. कृष्ण भावुक, -गुरुनानक नगर, पटियाला, मो. 98151-65210.

मोहन राकेश के एकांकी ‘अण्डे के छिलक’ में 

अन्तर्वस्तु एवं रंग-चेतना

एकांकी ‘अण्डे के छिलके‘ मोहन राकेश द्वारा रचित है। यह सामाजिक सरोकार से सम्बद्ध और हास्य-व्यंग्य-प्रधान एक प्रगतिशील नाटक है। कथ्य के साथ-साथ इस एकांकी नाटक का शिल्प भी राकेश जी के अन्य नाटकों और एकांकियों से विलक्षण और परम्परा से हटकर ही है और इसी नाते इस विशिष्ट नाट्य-रचना का पुनर्मूल्यांकन किया जाना अपेक्षित है।

सबसे पहले संक्षेप में इसकी कथा प्रस्तुत है।-जमुना का बड़ा बेटा श्याम बरसाती ओढ़े मुँह से सीटी बजाते हुए आता है। कमरे के अंदर से गोपाल की पत्नी वीना उससे बातें करती हैं। श्याम फिर दुबारा बरसाती पहन कर चाय के साथ कोई चीज बाजार से लाने के लिए जाना चाहता है, तो वीना श्याम से कहती है कि वह छह अण्डे खरीद कर लाए, ताकि वह उसके लिए ‘ऑमलेट‘ भी बना सके। बातों-बातों में वह यह भी बता देता है कि वह और राधा दोनों चोरी-छिपे कच्चे आम लाते हैं और कच्चे ही खाया करते है। वीना श्याम से कहती है कि वह थोड़ी-सी किशमिश भी लाए। श्याम के जाने के बाद खूँटी से कपड़े उतारते समय वीना के हाथ अण्डों के छिलकों से भरी एक जुराब हाथ लगती है। वीना पति के द्वारा ऐसे छिलके इकट्ठे करके डिब्बे में भर कर बाहर ले जाने की आदत पर बुरी तरह झल्लाती है। फिर मौजे को कोने में ही रख देती है। वीणा राधा के कमरे में पानी लेने जाती है। पानी लेते समय ‘चन्द्रकांता‘ उपन्यास मिलने पर वह हँसती है। राधा उससे वह पुस्तक छीनने की कोशिश करती है। वीना राधा से पूछती है कि वह इस तरह छिपा कर ऐसी पुस्तक क्यों पढ़ती है ? राधा वीना को बताती है कि पड़ौसन सहेली कौशल्या ने ही यह पुस्तक उसे पढ़ने को दी है। वैसे भी काम-काज से छुट्टी मिलने पर वह कभी-कभार ‘गुटका रामायण‘ पढ़ लेती है। राधा फिर वीना से पुस्तक के कुछ प्रसंगों के बारे में पूछती है। वीना राणा को सुझाती है कि ‘चन्द्रकांता‘ उपन्यास की सारी कहानी जानने के लिए वह सबके सो जाने पर रात को मोमबत्ती जला कर पढ़े। वीना स्टोव पर केतली रख कर बटन ‘ऑन‘ कर देती है। तभी गोपाल आता है। वह राधा को ‘देवी माँ की प्रतिमा‘ कहता है और वीना को ‘सन्ज एंड लवर्ज‘ (अंग्रेजी की एक कामोत्तेजक पुस्तक) पढ़ने वाली घोषित करता है। गोपाल राधा के सामने सिगरेट पीते रहने की बात छेड़ता है और उसके अतिरिक्त किसी और के सामने सिगरेट के द्वारा इस प्रकार चुपके-चुपके सिगरेट पीने की उसने श्याम तक को नहीं बताई है। श्याम वीना के सामने छह अण्डे निकाल कर रख देता है। राधा श्याम से व्यंग्यपूर्ण कहती है कि उसे उसकी हर बात का पता है। वह उसके दूध वाले गिलास को मेहरी से अलग से साफ करवाती है, क्योंकि वे बुखार -मिक्सचर के नाम पर उसके बीच जो मिलाया करते थे, उसे उसका भी पूरी तरह से पता है। फिर राधा 15 रुपये वाली शीशी की बात गोपाल को बताती है।

ठीक उसी समय जुमना (सास) बीना को पुकार कर पूछती है कि गोपाल आया है कि नहीं ? गोपाल शीघ्र ही वीना का जम्पर उठा कर अण्डे के छिलकों की ओट चीनी की प्लेट से फ्राइंग-पेन को ढँकता है। श्याम को दरवाजा रोक कर खड़े होने का कारण पूछती है, सभी उसे टालते हैं। ‘ऑमलेट‘ को ‘पुलटिस‘ की उपाधि देते हैं। वीना के हाथ जलने की बात की जाती है। इस पर सास कहती है कि वह तो पहले ही कहती थी कि इस ‘बिजली के चूल्हे‘ को घर में न लाओ, क्योंकि यह या तो ‘करंट‘ मारेगा या किसी का हाथ जलायेगा। राधा श्याम के टखने पर गेंद लगने से हुई चोट के लिए ‘पुलटिस‘ बनाने की झूठी बात कहती है। सास स्वयं ही ‘पुलटिस‘ बाँधने के लिए कोई पुराना कपड़ा माँगती है, मेज से जम्पर उठाना चाहती है, तो गोपाल उसे ‘मैला कपड़ा‘ कह कर एक और झूठ बोलता है। माँ श्याम के हाथ से पुस्तक ले कर पूछती है, तो पहले वह उसे और झूठ बोलता है। माँ श्याम के हाथ से पुस्तक लेकर पूछती है, तो पहले वह उसे अपने कोर्स की ओर बाद में ‘गुटका रामायण‘ कहता है।

गोपाल और माँ के कमरे से बाहर जाते ही श्याम गोपाल के आने का इन्तिजार नहीं करता, बल्कि अण्डे के ‘हलवे‘ पर टूट पड़ता है तथा चम्मच में भर कर उसे अपने मुँह में डालने लगता है। गोपाल आता है। वह जम्पर को परे करके अण्डों के छिलकों को किसी मोजे में डालने को कहता है। अब माधव आ जाते हैं। वे श्याम की पोल खोलते हुए कहते हैं कि उन्हें पता है कि वह क्या खा कर मुँह पोंछ रहा है।

माधव कहता है - ‘‘गोपाल, तुम ये छिलके जेब में क्यों भरते हो ? बाहर जाकर इन्हें नाली में

डाल दो। आगे से डिब्बे में भर कर बाहर ले जाने की जरूरत नहीं।‘‘

आखिर में माधव कहते हैं:-‘‘अम्मा तो शायद मेरी ये बातें भी जानती हैं, जो मैं समझता हूँ कि वे नहीं जानती। (हँस कर) आज से छिलके नाली में डाल दिया करो, इनके लिए डिब्बा रखने की जरूरत नहीं।...... और जहाँ तक अम्माँ का सवाल है, अम्मा इन्हें नाली में पड़े हुए भी नहीं देखेंगी ।‘‘

इस प्रकार हल्की-हल्की हँसी के साथ यह एकांकी समाप्त हो जाता है।

1. अन्तर्वस्तु: साहित्यिक विधा में रची गई प्रत्येक सफल और सशक्त रचना की बुनावट का कुछ-न-कुछ उद्देश्य अवश्य होता है। इसी दृष्टिविन्दु से मोहन राकेश द्वारा रचित एकांकी ‘अण्डे के छिलके‘ भी एक सोद्देश्य रचना ही ठहरती है। इस एकांकी में लेखक ने स्पष्ट किया है कि प्राचीन एवं नवीन विचारों वाले लोगों को स्वयं समय के साथ बदल जाना चाहिए, तभी जा कर घर-घर में होने वाली कलह-क्लेशों से बचा जा सकता है।

इस एकांकी के रचना-विषयक प्रयोजनों या प्रतिपाद्यों पर आगे कतिपय शीर्षकों के अंतर्गत सोदाहरण विचार किया जा रहा है

1. संयुक्त परिवार-प्रथा की उत्तमता: एकांकीकार ने एकांकी में घटित घटना के द्वारा नए एकल परिवारों की जगह भारत की पुरानी संयुक्त परिवार-प्रणाली को अपनाने पर ही बल दिया है। एकांकीकार ने संयुक्त परिवार-प्रणाली को नए एकल-परिवार से उत्तम माना है। प्रस्तुत एकांकी में कुल 6 पात्र हैं, जोकि एक एकल परिवार-

प्रणाली से सम्बन्ध रखते हैं। इसमें बूझी माँ जमुना, उसके तीन पुत्र- माधव, श्याम और गोपाल, साथ दो पुत्रवधुएँ - राधा (जिसके पति श्याम हैं) और वीना (पति गोपाल) हैं। वे एक ही घर में, एक ही छत के नीचे रहते हैं। उनमें एक दूसरे के प्रति ‘परस्पर समझ पाई जाती है, इसीलिए वहाँ कोई कलह-क्लेश कभी नहीं होता है। अतः यह कहा जा सकता है कि एकांकीकार ने प्राचीन संयुक्त परिवार-प्रणाली की ही प्रशंसा करते हुए इसे आजकल की ‘न्यूक्लियर फैमिली‘ से कहीं उत्तम ठहराया है। 

2. पुरानी पीढ़ी की दूरदर्शिता एवं अनुभव: एकांकीकार नवीन पीढ़ी के व्यक्तियों को अनुभवशून्य, अपरिपक्व एवं अदूरदर्शिता से परिपूर्ण मानता है। मोहन राकेश ने एकांकी के माध्यम से यह स्पष्ट कर दिया है कि पुरानी पीढ़ी दूरदर्शी, परिपक्व एवं अनुभवी होती है। नई पीढ़ी के लोगों से तो पुरानी पीढ़ी के लोग ही उत्तम हैं। प्राचीन पीढ़ी को हर काम का अनुभव होता है। भूतकाल में संचित ज्ञान को ‘अनुभव‘ कहते हैं। प्राचीन पीढ़ी के लोग, चाहें तो घरों में होने वाले छोटे-मोटे झगड़ों को तुरंत हल कर सकते हैं। इस एकांकी में माधव एवं जमुना प्राचीन पीढ़ी से सम्बन्ध रखते हैं, जबकि राधा, वीना, श्याम और गोपाल नई पीढ़ी का प्रतिनिधित्प करते हैं। जमुना और उसका पुत्र माधव दोनों ही चुस्त और फुर्तीले हैं, परंतु बातों से वे अपने स्वभाव को कभी भी प्रकट नहीं करते हैं।

3. चोरी-छिपे कार्य करने का निषेध: एकांकीकार एकांकी के कार्य-कलाप द्वारा यह भी स्पष्ट कर देना चाहता है कि नयी पीढ़ी के लोगों को पुरानी पीढ़ी के लोगों से चोरी-छिपे कोई कार्य नहीं करना चाहिए । एकांकी से पता चलता है कि नई पीढ़ी का गोपाल सबसे छिपा कर सिगरेट पीता है। श्याम दूध में 15 रुपये, की शीशी का द्रव्य पदार्थ पीता है। राधा ‘चन्द्रकांता‘ सरीखे वर्जित उपन्यास सबके सो जाने पर रात्रि को मोमबत्ती जला कर पढ़ती है। श्याम और वीना (गोपाल की पत्नी) द्वारा अण्डों का ‘ऑमलेट‘ बना कर कमरे में चोरी-छिपे खाया जाता है। एकांकीकार चाहता है कि नई पीढ़ी को ये सब काम सरेआम ही करने चाहिएँ और प्राचीन पीढ़ी के लोगों का पूरा आदर-सम्मान भी करना चाहिए। नई पीढ़ी के लोग यदि ये सब काम चोरी-छिपे ही करते रहेंगे तो एक-न-एक दिन उनकी चोरी अवश्य पकड़ ली जाएगी और उनका बहुत अपमान होगा।

वीना तर्क देती हुई गोपाल से कहती है - ‘‘आपको जब दीदी से सिगरेट का छिपाव नहीं है, तो अण्डे का छिपाव रखने की क्या जरूरत है ?‘‘

इसी प्रकार राधा से वीना ‘चंद्रकांता‘ उपन्यास के बारे में कहती है - ‘‘मगर इसमें इस तरह छिपा कर पढ़ने की क्या बात है ?‘‘

इसी तरह वीना श्याम से कहती है ‘‘भई, तुम लोगों की यह बात मेरी समझ में बिलकुल नहीं आती। अगर खाना ही है, तो उसमें छिपाने की क्या बात है ? सबके सामने खाओ। माँ जी नहीं खातीं, इसलिए रसोई घर की बजाय यहाँ कमरे में बना लेते हैं ।‘‘

4. पुरानी पीढ़ी की उदारता की आवश्यकता: इस एकांकी में पुरानी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व जमुना और माधव करते हैं, जबकि श्याम, गोपाल, वीना और राधा नये विचारों वाली नवीन पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं। एकांकी के आखिर में नई पीढ़ी को पता चलता है कि जमुना और माधव को पहले से ही सब पता है। जमुना और माधव जानते हैं कि गोपाल को सिगरेट पीने की लत है, राधा ‘चन्द्रकांता‘ उपन्यास पढ़ती है और घर में चोरी-छिपे अण्डों का आमलेट बनाया जाता है। जमुना और माधव पुरानी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व अवश्य करते हैं, परंतु उनके विचारा पर्याप्त उदार हैं। एकांकी के आखिर में माधव जब अपने आप माँ की इस उदारहृदयता की बात बताता है, तो बाकी चारों अत्यंत लज्जित होते हैं । यथा:-- माधवः ‘‘अम्मा, तो शायद मेरी वे बातें भी जानती हैं, जो मैं समझता हूँ कि नहीं जानतीं (हँस कर ) आज से छिल्के नाली में डाल दिया करो, इसके लिए डिब्बा रखने की जरूरत नहीं । और जहाँ तक अम्मा का सवाल है, अम्माँ इन्हें नाली में पड़े हुए भी नहीं देखेगी।‘‘

इस एकांकी के माध्यम से एकांकीकार यह कहना चाहता है कि पुरानी पीढ़ी के लोगों द्वारा नई पीढ़ी की भर्त्सना करने के स्थान पर उनकी बातों और भूलों को उदार हृदय से क्षमा कर देना चाहिए, ताकि घर में किसी प्रकार का कलह-क्लेश न हो। इस प्रकार पुरानी पीढ़ी के लोगों द्वारा उदारहृदयता अपनाने की आवश्यकता पर ही बल देना भी प्रस्तुत एकांकी का एक प्रमुख प्रतिपाद्य माना जा सकता है। इस प्रकार ‘अण्डे के छिलके‘ एक उद्देश्यपूर्ण एकांकी है। इसमें बताया गया है कि रूढ़िवादी एवं प्राचीन विचारधारा वाले लोगों को समय के साथ-साथ स्वयं को बदलना जरूरी है, तभी घर में हासेने वाले झगड़ों से बचा जा सकता है। एकांकी का सारा क्रियाकलाप इसी बात की शिक्षा देता है कि नवीन पीढ़ी के व्यक्तियों को प्राचीन एवं रूढ़िवादी पीढ़ी के व्यक्तियों से चोरी-छिपे कोई काम नहीं करना चाहिए, बल्कि उन्हें बता देना चाहिए ।

आजकल यह समझा जाता है कि नई पीढ़ी के व्यक्ति दूरदर्शी होते हैं, परंतु एकांकीकार मोहन राकेश ने यह बात गलत सिद्ध कर दी है। उनके अनुसार नई पीढ़ी के व्यक्तियों की तुलना में प्राचीन समय के वयस्क पुरुष-स्त्रियाँ कहीं अधिक अनुभव एवं दूरदर्शिता रखते हैं। प्राचीन पीढ़ी के नोग यदि चाहें तो घर में होने वाले झगड़ों को चुटकियों में सुलझा सकते हैं।

इस एकांकी का एक उद्देश्य घटना के माध्यम से नए एकल परिवारों के स्थान पर भारतीय प्राचीन संयुक्त प्रणाली को उत्तम ठहराना है। एकांकी में जमुना, उसके तीनों बेटे माधव, गोपाल एवं वीना और राधा (पुत्रवधूएँ) ये छह एक ही घर में एक ही छत के नीचे रहते हैं और उनमें परस्पर समझ के कारण कभी भी कोई लड़ाई-झगड़ा नहीं होता ।

एकांकी का एक अन्य उद्देश्य प्राचीन पीढ़ी द्वारा उदारहृदयता अपनाने की जरूरत पर बल देना भी स्वीकार किया जा सकता है।

अभिनेयता और रंग-चेतना: ‘अण्डे के छिलके‘ मोहन राकेश द्वारा रचित एक हास्य-व्यंग्य प्रधान सामाजिक एकांकी नाटक है। इसकी शैली प्रयोगमूलक है। रंगमंचीयता के आधार पर इस एकांकी की समीक्षा इस प्रकार की जा सकती है:

1. मंच की साज-सज्जा: इस एकांकी में केवल छह पात्रों द्वारा एक ही प्रमुख घटना को आगे बढ़ाया गया है। संवाद छोटे-छोटे और पात्रानुकूल हैं। एकांकी में शुरू से लेकर आखिर तक जिज्ञासा बनी रहती है। बरसाती, बिजली की स्टोव, फ्राइंग-पेन, परदा, अण्डे, बिस्तर, चाय की केतली, बिजली का बटन, ‘चन्द्रकांता’ उपन्यास आदि मंचीय संपत्ति के पदार्थ सरलता से दिखाए जा सकते हैं। अन्दर वाले कमरों की ओर खुलने वाले दरवाजे और गैलरी आदि भी प्रदर्शित किए जा सकते हैं। गोपाल का गीले कपड़ों में प्रवेश,

बिजली बनाने वाले स्टोव पर केतली रख कर चाय तथा फ्राइंग-पेन में अण्डे का हलवा (ऑमलेट) बनाना भी प्रस्तुत किया जा सकता है। एकांकीकार ने एकांकी में पात्रों के हाव-भावों, मुद्राओं आदि के बारे में जो निर्देश कोष्ठकों में दिए हैं, उनसे निर्देशकों को इस एकांकी को मंच पर प्रस्तुत करने में पर्याप्त सहायता मिलेगी। कुछ रंगमंचीय संकेत इस प्रकार हैं, जोकि एकांकी की क्षमता को बढ़ाते हैं:-

1. गोपाल: (कुछ हैरान हो कर) पन्द्रह रुपये वाली ।

2. श्याम: (चैक कर) मेरी किस करतूत का तुम्हें पता है ?

3. वीना उधर से आती है।

4. अन्दर आ कर वह इधर-उधर नजर दौड़ाता है।

5. फिर पीछे से खुद ही उसकी बरसाती उतारने लगती है।

6. कपड़ा उतारते हुए मोजे का एक जोड़ा नीचे जा गिरता है। अतः यह कहा जा सकता है कि इस एकांकी का रंगमंच यथार्थवादी और वास्तविक है। एकांकी को पूर्वलिखित आधार पर पूरी तरह अभिनेय और रंगमंचीय कहा जा सकता है।

2. पात्रों के हाव-भाव और वेशभूषा-विषयक-निर्देश: पात्रों की वेशभूषा-सम्बन्धी रंग-संकेतों के बारे में एकांकीकार ने कहीं भी कुछ विशेष नहीं कहा या लिखा है। ऐसा प्रतीत होता है, मानो उसने पात्रों की वेशभूषा का निर्णय भी पूरी तरह से निर्देशक पर ही छोड़ दिया है। पात्रों की मनःस्थिति, अन्तर्द्वन्द्व और स्थिति के आधार पर एकांकीकार ने अनेक रंग-निर्देश या संकेत कोष्ठकों में अवश्य दिए हैं।

कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं - (सहसा चैंक कर सफाई देता हुआ), (अनमने स्वर से), (पास जाती हुई), (राधा से), (वीना से), (दबे स्वर में), (बात काट कर), (चिढ़ कर), (जेब से सिगरेट की डिब्बी निकालता हुआ), (किताब देती हुई), (जरा खंखार कर), (श्याम से) आदि संक्षिप्त रंग-निर्देश हैं। लम्बे रंग-संकेत ये हैं:--

1. बाहर से गोपाल आता है। वर्षा की फुहार से उसके कपड़ें जरा-जरा भीग रहे हैं।

2. श्याम बरसाती की जेबों में हाथ डाले हुए बाहर से आता है।

3. केतली स्टोव पर रख कर स्विच ऑन कर देती है। बाहर से गोपाल आता है।

4. वीना एक हाथ में पानी की केतली और दूसरे हाथ में एक किताब लिए हँसती हुई उधर से आती है। राधा झपट कर किताब उसके हाथ से छीनना चाहती है, मगर वीना उसे झाँसा देकर उसके पास से निकल जाती है। केतली मेज पर रख कर वह किताब पीछे छिपा लेती है। राधा पास आ कर किताब उससे छीनने का प्रयत्न करती है।

5. अतः कहा जा सकता है कि एकांकीकार ने रंगमंचीय संकेतों द्वारा सहजता के साथ-साथ रोचकता एवं जिज्ञासा भी उत्पन्न की है।


3. अधूरे वाक्यों का प्रयोग: इस एकांकी में अधूरे वाक्यों का भी समुचित प्रयोग किया गया है। इन वाक्यों को जान-बूझ कर या स्थिति के अनुसार बोलते-बोलते पात्र बीच में ही छोड़ देते हैं, लेकिन पाठक स्वयं उस रिक्त स्थान पर अपनी ओर से कुछ शब्द जोड़ कर उसे पूरा कर सकते हैं और उस वाक्य का पूरा और सही अर्थ उनकी समझ में आ सकता है। इस प्रकार नाटकीयता एवं रोचकता की दृष्टि से अधूरे वाक्यों की यह योजना एकांकी को रंगशिल्प की दृष्टि से अर्थगर्भित बनाती है।

इस एकांकी में कुछ अधूरे वाक्य ये हैं:-

1. श्लोक: ‘अरे, बड़ी भाभी जी यहाँ पर हैं ? अब तो..

2. श्याम: ‘वह बात तो ठीक है भाभी, मगर............।‘

3 गोपाल: ‘कुछ नहीं अम्मा, इनमें कुछ खास खीज नहीं है। वह श्याम जरा कह रहा था, तो उसके लिए.

4. गोपाल: ‘मुझे पता थोड़े ही था कि इसकी वजह से.......... ।‘

5. गोपाल: ‘जी हाँ... जी नहीं मजाक नहीं..... .मेरा मतलब यह है कि.............।‘‘

6. गोपाल: (श्याम से) ‘अण्डे का हलुवा, यह तुम्हें क्या सूझी है ? मैंने तुम्हें अच्छी तरह समझा दिया था, फिर भी तुम.....।‘

इस प्रकार एकांकीकार ने अधूरे वाक्यों की योजना द्वारा विशेष नाटकीयता की सृष्टि की है। 

4. संवाद और भाषा की मंचानुकूलता: इस एकांकी की संवाद-योजना एवं भाषा दोनों ही पात्रों की मनःस्थिति, अन्तर्द्वन्द्व, स्थिति, घटना आदि के सर्वथा अनुकूल है। कथ्य को संवादों, कथनों और अधूरे वाक्यों के प्रयोग से गहराया गया है। संवाद-योजना से नाटकीयता के गुण में और वृद्धि हुई है।

पात्रों के सरल, स्पष्ट और रोचक कथनों से एकांकी में दर्शन या दार्शनिक चिन्तन-मनन को बढ़ावा तो मिला है, इसके साथ-साथ मंचानुकूल रोचकता भी बढ़ी है। इस एकांकी की भाषा सरल, सरस और रंगमंचीय अपेक्षाओं के सर्वथा अनुकूल है। भाषा में कौतुहल एवं जिज्ञासा के भाव विद्यमान हैं, जिससे यह एकांकी अंत तक दर्शकों की रुचि बनाए रखता है।

उदाहरणस्वरूप कुछ संवाद प्रस्तुत हैं:-

1. गोपाल: ‘देखो, हमारी भाभी के लिए कुछ मत कहना। हमारी भाभी देवी की प्रतिमा है, तुम्हारी तरह नहीं है। तुम तो दिन भर बैठी ‘सन्ज एंड लर्वस‘ पढ़ती रहती हो और भाभी पढ़ती है ‘रामायण‘, ‘महाभारत‘ ।‘ 

2. राधा: ‘‘न भइया न ! हम माँ जी के सामने ऐसी चीज कभी नहीं पढ सकते। कोई खराब बात चाहे न हो, मगर माँ जी देखेंगी तो क्या सोचेंगी कि रामायण नहीं महाभारत नहीं, दिन भर बैठ कर ऐसे किस्से ही पढ़ा करती है। और हम पढ़ते भी कहाँ हैं ? हम को तो कौशल्या भाभी ने जबर्दस्ती दे दी तो हम उठा लाए, नहीं हम तो ऐसी चीजें कभी नहीं पढ़ते।”

यह रंग-भाषा पूर्णतः बोधगम्य है। पात्रानुकूल भाषा का ही सर्वत्र प्रयोग किया गया है। यह पात्रों की अनुभूतियों को पूरी तरह प्रकट करने में सफल रही है। इसमें प्रवाहमयता का गुण भी विद्यमान है।

स्पष्ट है कि संवादों की कलात्मक योजना, भाषा की प्रवाहपूर्णता एवं रोचकता-ये सब रंगधर्मी विशेषताएँ एकांकी के मंचन में पूरी तरह सहायक सिद्ध होती हैं। कुल मिला कर कहा जा सकता है कि यह एकांकी अभिनेयता एवं रंगमंचीयता के गुणों से पूरी तरह ओतप्रोत है, इसी कारण इसे ‘रंगमंचीय एकांकी‘ कहने में किसी को कोई आपत्ति नहीं है। अतः यह नाट्य रचना (ड्रामा क्तंउं) तो है ही, इसके साथ इसमें रंगमंच के अनुकूल अधिकाधिक रंगयुक्तियाँ मिलने के कारण इसे हम एक सफल और सशक्त ‘रंग-नाटक‘ (प्ले च्संल ) की श्रेणी में भी सहजता से रख सकते हैं। नवीन एवं प्राचीन दोनों ही पीढ़ी के लोगों के साथ सामंजस्य स्थापित करने के कारण यह एकांकी अन्तर्वस्तु के धरातल या निकष पर भी पूरी तरह रंगमंचीय ठहरता है, ऐसा कहा जाए, तो इसमें कोई भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। 

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चर्चा के बहाने



डाॅ. रेनू यादव

असिस्टेंट प्रोफेसर

भारतीय भाषा एवं साहित्य विभाग

गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय, 

यमुना एक्सप्रेस-वे,  गौतम बुद्ध नगर, ग्रेटर नोएडा, 

ई-मेल- renuyadav0584@gmail.com


ब्रेक ‘फॉर ग्रांटेड’ बनने से बचा सकता है

लघु फिल्म: घर की मूर्गी (2020)

लेखक: नितेश तिवारी 

निर्देशक: अश्विनी अय्यर तिवारी

कलाकार: साक्षी तन्वर, अनुराग अरोड़ा


‘‘मुझे ब्रेक चाहिए... घर पर रहने से ब्रेक चाहिए मुझे’’ - नायिका सीमा

‘ब्रेक’ मात्र एक शब्द नहीं बल्कि एक एहसास है जो हर व्यक्ति को चाहिए, लेकिन ‘घरेलू श्रम का अवमूल्यन’ के कारण प्रायः अधिकतर घरेलू महिलाओं को इस एहसास से वंचित रखा जाता है अथवा रहना पड़ता है।  बहुत बार अकेले सब-कुछ वहन करने की विवशता या उत्तरदायित्त्वों का एकमात्र निर्वाहक होने का जज्बा अपने कंधों पर खुशी खुशी झेल ले जाने की अतिउत्साहित चाह भी होती है (इसके पीछे वर्चस्ववादीसत्ता द्वारा लम्बी कंडीशनिंग भी होती है) जिससे ब्रेक लेना भी चाहें तो नहीं ले सकतें, जो कि इस लघु फिल्म में नायिका भी करती हैं। मोह और प्रेम के बीच की उलझी बारीक रेखा जिम्मेदारियों से लकदक दबी होती हैं, जिससे उबरना (घर को घर बनाए रखना तथा घर बचा लेने की चाह में) मुश्किल होता है।    

रोजमर्रा के जीवन में उलझी स्त्रियों की इस कहानी में कुछ नया नहीं है, यह प्रत्येक स्त्री के जीवन का किस्सा है। इस किस्से को अत्यंत सरल, सहज और यथार्थ रूप से प्रस्तुत करती यह लघु फिल्म स्त्री-मन की कहानी होने के कारण अपने आप में विशिष्ट है। इसकी विशिष्टता इसलिए भी है कि प्रेम में निछावर होने वाला व्यक्ति प्रेमियों द्वारा ही ‘फॉर ग्रांटेड’ लिया जाता है। सीमा भी अपने पति, बच्चों एवं सास-ससूर द्वारा ‘फॉर ग्रांटेड’ ली जाती रही है। उसका पार्लर में काम (जो पति के लिए हास्यास्पद एवं टाइम-पास होता है) करते हुए अर्थात् अपने आर्थिक मजबूती को ध्यान में रखते हुए घर को अपना श्रम देकर अतिरिक्त खर्च से बचा लेना मात्र एक ‘ब्रेक’ की घोषणा से उसकी महत्ता साबित कर देता है।   

प्रायः ‘फॉर ग्रांटेड’ बन जाना या लिया जाना श्रम का अवमूल्यन, मानसिक प्रताड़ना तथा हिंसा का कारक भी बनता है। यह मात्र वैवाहिक संबंधों में ही नहीं बल्कि विवाह से परे अन्य संबंधों (जिसमें प्रेम में निःस्वार्थ निछावर होने की भावना निहित होती है) जैसे कि वात्सल्य प्रेम, मातृ एवं पितृ प्रेम, भगिनी प्रेम, भातृ प्रेम, मित्रवत् प्रेम आदि में भी दिखाई देता है। वर्तमान समय में दिल्ली के महरौली केस में श्रद्धा हत्याकांड का केस प्रेम में ‘फॉर ग्राण्टेड’ ही तो है। किसी भी कानूनी एवं सामाजिक बंधन से दूर सहज भाव से साथ रहने (लिव-इन-रिलेशन) के निर्णय में श्रद्धा की भावनाएँ ‘फॉर ग्राण्टेड’ बन गई। अपने घर वालों से विरोध कर आफताब के साथ किसी भी हाल में रहना (किसी घटना के कई पक्ष होते हैं, मात्र एक पक्ष हत्या का कारण नहीं हो सकता और न ही हत्या तथा ऐसा क्रूरतम अपराध किसी समस्या का समाधान हो सकता है) उसके प्रति हिंसा का कारण बन जाता है। हिंसा पहले ही कदम पर रूक जाना चाहिए था, किंतु प्रेम में हिंसा को भी ‘आज नहीं तो कल’ सब ठीक हो जाने के इंतजार में ‘फॉर ग्रांटेड’ बना देते हैं।     

ऐसा नहीं कि निःस्वार्थ प्रेम गलत है किंतु निःस्वार्थ प्रेम के नाम पर अपने आपको प्रयोग होने देना ही ‘फॉर ग्रांटेड’ होने की शुरूआत है। बेहतर होगा कि शुरूआत में ही एक छोटा ‘ब्रेक’ ले लेना अथवा आवश्यकतानुसार ब्रेक को ब्रेकप में बदल देना। अपने स्वाभिमान को बचाते हुए प्रेम करना तथा समय रहते स्वयं को अवमूल्यन होने से बचा लेने में ही समझदारी है।   



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