साहित्य नंदिनी फरवरी 2023






प्रिय अश्विन,

सुनते ही आई थी कि प्रेम एक अद्भुत एहसास है। मैं भी इस अहसास से गुज़रना चाहती थी। मेरे किस्मत की किताब तो खूब लिखी नियति ने, जिस पृष्ठ पर ‘प्रेम’ लिखा था उस पृष्ठ को जोड़ना ही भूल गई! मैं प्रेम ही लिखना चाहती थी। कितना कुछ था मेरे पास प्रेम लिखने के लिए, नहीं थे तो बस तुम! कैसे भूल सकती हूँ मैं मेरी उम्र का सोलहवाँ साल। वर्ष 1972, अहमदाबाद की भवन्स कॉलेज में मेरा पहला वर्ष। तुम्हें कॉलेज के बाहरी गेट से, भवन्स के गेट तक आते हुए देखने के लिए मैं कॉलेज की तीसरी मंज़िल के कोरिडोर में खड़ी रहती। तुम्हारा व्यक्तित्व इतना आकर्षक था कि मैं खुद को तुम्हारे सामने कहीं भी नहीं रख पाती थी। तुम्हारे प्रति मेरी बढ़ती दीवानगी के एहसास को शब्दों में बयां करना संभव नहीं है। साबरमती नदी के तट पर खड़ी यह कॉलेज मुझे किसी प्रेम की इमारत से कम न लगती! 

तुम एक अभिनेता थे। यूथ फेस्टिवल के कार्यक्रमों में तुम्हें स्टेज पर पर्फोंम करते देखना मेरे लिए एक रोमांचकारी अनुभव था। तुम नाटकों में, टीवी सीरियलों में, टेलीफिल्म्स में अभिनय करते इसलिए नियमित रूप से कॉलेज नहीं आ पाते। पढ़ाई में तुम्हारा दिल नहीं लगता, इसलिए तो मुझसे सात साल बड़े होकर भी तुम मेरे सहाध्यायी थे! जिस दिन तुम नहीं आते, मेरी निगाहें तरसती रह जाती तुम्हारे इंतज़ार में! मेरे सहाध्यायी थे तुम, कभी-कभी तुमसे कुछ औपचारिक बातें हो पाई तुमसे, लेकिन कभी भी अपने मन की बात कहने का साहस नहीं जुटा पाई। कॉलेज की अवधि समाप्त हो गई और तुम्हें नज़र भर देखने का कोई उपाय नहीं बचा। 

मेरे एकतरफा प्रेम ने मेरे अस्तित्व पर हमला किया, लेकिन मेरे दर्द ने कभी शोर नहीं मचाया। तुम्हें देख पाने का एक मात्र ज़रिया कॉलेज की “आकार” पत्रिका थी, जिसमें एक अभिनेता के रूप में तुम्हारी तस्वीरें थी। मैंने उस पत्रिका को अपने पास सुरक्षित रखा। मंज़िल का पता नहीं था, जो राह मिली उस पर मैं चलती रही। मैंने अकेले प्यार किया, अकेले ही इंतज़ार किया। धीरे-धीरे तुम्हारे प्रति मेरा आकर्षण समाप्त हो गया और वहीं से तुम्हारे लिए मेरा प्रेम शुरू हुआ, इतना ही नहीं लगातार हावी होता चला गया। कितना गुणा-भाग, जोड़-घटाव कर लिया, पर तुम्हारा नाम मेरे दिल से नहीं मिटा पाई। 

देखो, क्या चमत्कार हुआ! नियति ने फिर से मेरे जीवन की किताब खोली और उस गुमशुदा पृष्ठ को जोड़ दिया! वह पृष्ठ जो बरसों तक हवाओं में, फिज़ाओं में तिनके की तरह उड़ता रहा, लेकिन मिटा नहीं। मेरे सपने भी कहाँ मिटे थे जो ‘प्रेम’ से जुड़े थे? वर्ष 2018, कॉलेज की अवधि समाप्ति के लगभग इकतालीस वर्ष के बाद, सोशल मीडिया फेसबुक पर तुम्हें देखा! 

तुम्हें पाकर मेरे दिल में ख़ामोशी का आवरण ओढ़े, दफन प्रेम का बाँध ऐसे टूटा कि मेरा समूचा अस्तित्व केवल एक स्त्री के रूप में उभरकर आया। एक नया रूप जो न माँ थी न बेटी थी, न बहन थी न पत्नी। केवल एक स्त्री, सभी सांसारिक बन्धनों से मुक्त। प्रेम का वह शिलाखंड जो युगों से मेरे हृदय की सूखी सतह पर खड़ा था, पिघलने लगा और प्रेम की वह पवित्र धारा बह निकली, जो मेरे सारे पथरीले अस्तित्व को पिघलाकर अपने साथ ले चली! 

आज तक तुम मौन बनकर मेरे हृदय में छुपे रहे, मैं भी ख़ामोश रही। जब तुम शब्दों के रूप में मेरे सामने आए, मैं भी तुम्हारे शब्दों की मिठास में घुलकर वाचाल होती चली। दिल को यह एहसास हुआ कि सपने तो कई थे मेरे पास, कभी उन सपनों को सजाने का अवसर नहीं मिला। याद किया तो याद आया, न जाने कितने सपने बिखर चुके हैं। कुछ टूटे हैं, कुछ छूटे हैं। न जाने क्यों, तुम्हें अपने मन की बात कहने का एक असंभव सपना मेरे दिल के वीराने में अब भी कहीं साँस ले रहा था! 

तुम मिले इतना ही नहीं, अतीत में लौटकर मुझे अहमदाबाद की उसी भवन्स कॉलेज के प्रांगण में ले गए, जहाँ मैं सोलह वर्ष की मुग्धा बन खड़ी थी! तुमने मेरी पीड़ा को महसूस किया और मुझे इस पीड़ा से मुक्ति दिलाने हेतु सारे सांसारिक बंधनों को लाँघकर मेरे प्रेम को स्वीकार किया। साथ ही मुझे इस बात से भी अवगत कराया कि जीवन में प्रेम ही एक ऐसा अनुभव है जहाँ समय और स्थान दोनों व्यर्थ हो जाते हैं। प्रेम ने हमारे बीच 13500 कि.मी. की दूरी और इकतालीस वर्ष के समय को मिटा दिया। 

तुम्हारे संवादों में प्रेम का ऐसा अद्भुत अहसास हुआ जिसे शब्दों में बयां करना नामुमक़िन है। तुम्हारी मासूमियत, तुम्हारी शरारत, तुम्हारा अल्हड़पन, तुम्हारा प्यार, तुम्हारा दुलार... उम्र के उस नाज़्ाुक मोड़ पर खड़ी कौन युवती नहीं चाहेगी ऐसा युवक! तुम्हारे कारण मेरे वजूद में आमूल परिवर्तन आया। तुम काल के महासागर में डूबकी लगाकर उन सारे उत्सर्जित सपनों को, जिनकी अब कोई अहमियत नहीं थी, मेरे वर्तमान की सतह पर ले आए, और उन सपनों में जैसे जान डाल दी। 

हमने अपने जीवन की अपूर्णता को अपने शब्दों में खोजा। हमने हमारा बचपन साथ जिया, किशोरावस्था में गोते लगाये, युवावस्था के झंझावातों की बातें की। कभी आम लोगों की तरह व्यवहार किया, कभी अल्हड़ बन गए, कभी गंभीर हो गए। शब्दों की ताक़त कितनी हसीन होती है! प्रेम, सौन्दर्य, देवत्व और सत्य की उस अनंत मधुरता का पूर्ण स्वाद मुझे संवाद से ही प्राप्त हुआ। तुमसे बात करते हुए हर बार मुझे लगा, जैसे मैं बादलों, नदियों, महासागरों, पहाड़ों, पंछियों, तितलियों, फूलों की वादियों, चांद- सितारों से बात कर रही हूँ। तुम ही हो जिसने मुझे इस सृष्टि में हर जगह बिखरे प्रेम की अतुलनीय सुंदरता से परिचित कराया। हम दोस्ती के उस शिखर पर पहुँच गए जहाँ प्यार का सर्वोच्च रूप होता है। 

हमने हर परिस्थिति में हमारे जीवन साथी का साथ भी उतनी ही इमानदारी से निभाया, हमारे भीतर मौजूद प्रेम की तीव्र भावना ने ही हमारे बंधन और साहचर्य को मज़बूत बनाया। हमने लाख मुश्किलें सहकर भी अपने दिमाग़ को कभी अपने दिल पर हावी नहीं होने दिया! जीवन में गहन उदासी के पलों में भी हम मुस्कुराते रहे। हमारा प्रेम असीम था लेकिन हमारी मुस्कुराने की सीमा तय थी दोस्त! 

वह दिन भी आ गया जब तुम यह नहीं कह पाए, ‘कल फिर मिलेंगे कोई नई बात लेकर।’ सोशल मीडिया पर मुझसे मिलने से तीन महीने पहले तुम्हारा कोलोन कैंसर का ऑपरेशन हुआ था। तुमने यह भी लिखा था कि अड़सठ साल का हो गया हूँ, अब ज़िंदगी का कोई भरोसा नहीं रहा। मुझे भरोसा था, लेकिन पता नहीं था कि नियति ने मेरे जीवन की किताब में उस गुमशुदा पृष्ठ को जोड़ते हुए हमारी साथ चलने की यात्रा की अवधि भी लिख दी थी। मैं हैरान हूँ कि तुमने अपनी यात्रा के अंतिम चरण को कितनी सिफत से उत्सव बना दिया!

जनवरी 2020 से ही तुम फिर से उस महा रोग की चपेट में आने लगे। डॉक्टर ने इस बात की जानकारी दी थी कि तुम्हारा कैंसर अब स्टमक में फैल गया है। तुम मुझसे बिलकुल स्वाभाविक रूप से बात करते रहे, लेकिन मेरे दिलमें भी आँखें हैं, दोस्त! तुम्हें अपना हाल बताना पड़ा। तुम खा नहीं पा रहे थे, तुम्हारा वज़न कम होने लगा था। अब मुझसे बात करने का समय कम होता जा रहा था क्योंकि तुम्हारे गले में भी दर्द बढ़ रहा था। तुम्हारा परिवार हर पल तुम्हारे साथ था, लेकिन कोरोना महामारी के कारण अमेरिका जैसे विकसित देश में भी तुम्हारे इलाज में कई समस्याएं आने लगीं। तुम्हारी बेटी हीरवा ने जी जान से कोशिश की।

तुम्हें पता चल चुका था कि तुम्हारी सेहत के बारे में जानकर मैं टूट चुकी हूँ। जब भी मैंने फोन पर पता लगाने की कोशिश की, तुमने कहा कि कोई और बात करो। मैं दिल पर पत्थर रखकर यहाँ हो रही विभिन्न साहित्यिक गतिविधियों के बारे में बात करती। घोर निराशा में भी मेरे हृदय में आशा की एक किरण बची थी, ऐश। मुझसे बात करते-करते एक बार अपनी जन्मभूमि को देखने की तुम्हारी इच्छा तीव्रतर हो चली थी। पिछले तैंतीस साल से तुम अपने शहर अहमदाबाद नहीं आ सके थे। तुम मौत से नहीं डरते थे, बस एक बार अपनी मातृभूमि की ज़मीन को छूना चाहते थे। यह तुम्हारा आखिरी सपना था, जिसे मैं पूरा करना चाहती थी। पर नियति कुछ और चाहती थी। 10 जून शाम को तुमने लिखा, ‘अब मुझे पानी पीने में भी दिक्क़त हो रही है। इज़ वाटर थिकर देन ब्लड?’ 

‘हिम्मत रखो दोस्त, तुम बहुत स्ट्रोंग हो।‘ मैंने लिखा लेकिन रातभर मैं तुम्हारे गले में हो रहे भयानक दर्द को महसूसती रही।   

‘मेरे लिए उम्मीद न छोड़ना। मैं अभी बहुत जीऊंगा, देख लेना।’ दूसरे दिन मिले तुम्हारे जवाब से मैं आश्वस्त हुई थी। सारी मेडिकल कार्रवाई के बाद तुम्हें हॉस्पिटल में भर्ती होना पड़ा। दो दिन तुम्हारी तरफ से कोई कॉल या मैसेज नहीं आया। मैं गुड मॉर्निंग, गुड नाईट लिखती रही।

22 जून 2020 को हम मिले! यहाँ की सुबह 4.50 बजे तुमने मुझे वीडियो कॉल किया। मेरा दिल धक् से रह गया! इन दो साल में यह तुम्हारा पहला वीडियो कॉल था! मैंने रिसीव किया। मेरे कमरे में नाइट लैम्प की धुँधली रौशनी थी। आज तक तुम्हें डर था कि अगर मैं तुम्हारा बुढ़ापा देख लूँ तो मेरे मन में अंकित तुम्हारी वह तस्वीर खंडित हो जायेगी जो पिछले पैंतालीस साल से मेरी आँखों में कैद है, मेरे दिल में सुरक्षित है। ये भी हो सकता है, तुम्हारे प्रति मेरा प्रेम भी न रहे। आज तुम्हें डर क्यों नहीं लगा, अश्विन?

मैं उठकर बैठ गई और कहा, ‘तुम कॉल काटना नहीं, मैं लाईट ऑन करती हूँ।’ मैंने कमरे की मुख्य लाइट जलाई और फोन स्टैंड पर रख दिया। हम स्क्रीन पर मिले, कैसे हमने एक-दूसरे को देखा ऐश! मैं अहमदाबाद में एक घर में, साधारण से गाउन में, नींद को तरसती बोझिल आँखे, बिखरे बाल... और तुम कैलिफोर्निया के शहर लॉस एंजेलिस में एक मरीज़ के रूप में हॉस्पिटल के एक कमरे में...! इस पल हमारे बीच कोई नहीं था सिवाय सन्नाटे के! तुम्हें अंदाजा था ही कि उस पल मेरे मन में क्या चल रहा था! 

कुछ पल के बाद मैंने पूछा, ‘क्या बात है, तुमने आज वीडियो कॉल किया?‘

‘ऐसे ही मुझे लगा कि पिछले दो दिनों से मैंने तुमसे बात नहीं की है। तुम नाराज़ न हो जाओ।’ 

‘मैं नाराज़ क्यों होऊँ, अश्विन? क्या मुझे नहीं पता, तुम हॉस्पिटल में हो। तुम्हारी सर्जरी होने वाली है।’

कुछ पल के लिए हम दोनों के बीच ख़ामोशी छा गई। बस मैं इतना ही कह पाई, ‘तुम बहुत वीक दिख रहे हो।’ 

‘कवि हूँ, इसलिए वीक हूँ।’ 

‘उफ्फ!’ मैंने मन ही मन यह शब्द कहा। तुमने मोबाइल का कैमरा घुमाया और मुझे अपना कमरा दिखाया, फिर कैमरा अपनी तरफ ले आये। तुम्हारे निस्तेज चेहरे के साथ-साथ तुमने मुझे अपने शरीर पर लगे सारे उपकरण भी दिखाए। तुम्हारे गले में लगी उस फीडिंग मशीन को देखकर मेरे गले में जो दर्द उठा था! अभी तो दो मिनट ही हुए होंगे कि तुमने कहा, ‘मैं फोन हाथ में नहीं पकड़ पा रहा हूँ, साइड में रखता हूँ। तुम कुछ बात करो।’  

मेरे प्रेम की ये कैसी परीक्षा थी, अश्विन? तुमने फोन को साइड में रख दिया था। कैमरे में तुम मुझे छत की तरफ तकते हुए दिखाई दे रहे थे। पहली बार ऐसा हुआ कि तुमसे बात करने के लिए एक शब्द भी नहीं मिल रहा था! सदमें से सारे शब्द स्तब्ध थे, फिर भी मैं बोलती चली। मुझे याद नहीं कि मैं किस बारे में बात कर रही थी। नर्स तुम्हारे कमरे में आईं और तुमने फोन काट दिया। मैंने समय देखा, कुल मिलाकर तुमने 6 मिनट 39 सेकेंड तक बात की। तुम्हें पता चल गया था कि अब तुम्हें अपनी अंतिम यात्रा पर निकलना है और अब तुम अपने वतन नहीं आ पाओगे। तुम एक अभिनेता थे, ऐश। कैमरे पर ही सही, मुझे देखकर तुमने अपनी जन्मभूमि को मिलने की ख्वाहिश पूरी कर ली।

22 जून 2022 की रात, तुमने सिर्फ 29 सेकंड बात की, यह कहने के लिए कि तुम्हें न्युमोनिया का असर है और सर्जरी तीन दिनों के लिए पोस्टपोन हुई है। मैंने तुम्हें डिस्टर्ब करना उचित नहीं समझा। 

23 जून 2022 का दिन, दोपहर के करीब 12.43 का समय था यानी एल.ए. में रात के 12.13 बजे थे। मेरा कंप्यूटर ऑन था, स्क्रीन पर नज़र थी और दिमाग में उथल पुथल मची थी। तभी मैसेंजर में फोन की रिंग बजी। मैं हैरान थी, इतनी रात तक तुम कभी नहीं जागते। पहले की तरह बुलंद आवाज़ में तुमने पूछा, ‘क्या कर रही हो?’ आज तुम्हारी आवाज़ में गले का कोई दर्द भी नहीं था! 

अपने मन पर काबू रखते हुए मैंने कहा, ‘क्या बात है, इतनी रात को जाग रहे हो तुम? 

तुमने अपनी दिलकश आवाज़ में कहना शुरू किया, ‘मन हुआ कि तुमसे थोड़ी बात करूँ...’ इस बार तुम ही बोल रहे थे, मैं सुन रही थी। तुमने तुम्हारी जीवन संगिनी स्मृति, बेटियाँ हीरवा और प्रिया के बारे में लगातार बात की और मुझे अपने परिवार के संपर्क में रहने के लिए कहा। साथ ही कहा कि मैं हमारे हिन्दी चैट उपन्यास का गुजराती भाषा में अनुवाद करवाऊँ। उपन्यास का दूसरा भाग प्रकाशित करने में जल्दबाज़ी न करूँ....मैं दुविधा में थी अश्विन, उस दिन तुम कुछ अलग तरह की बात कर रहे थे। तुम्हारी आवाज़ बहुत साफ थी और मानो दूर से गूँज रही हो!

पता नहीं क्यों, तुम्हारी सारी बातें सुनने के बाद मैंने तुमसे कहा, ‘अश्विन, आज एक वाक्य कहने का मन हो रहा है, जो मैंने अपने जीवन में कभी किसी से नहीं कहा।‘

तुमने पूछा, ‘क्या?’ 

‘आई लव यू’ 

यह सुनकर तुमने अपने सुहाने अंदाज में कहा, ‘ये हुई न बात!’ 

प्रेम के ढाई आखर समेटे ये तीन शब्द, मैं सिर्फ और सिर्फ तुमसे कहना चाहती थी। मैंने ये शब्द हमारी चैट के दौरान कभी लिखे भी लेकिन अपनी ज़्ाुबान से कभी नहीं कहा। फिर 23 जून 2020 को ऐसा क्या हुआ कि मैं अचानक फिर भवन्स कॉलेज के प्रांगण में पहुँच गई? वह दिन 23 जून 1972 जैसा हो गया! मैं कॉलेज की तीसरी मंजिल के कोरिडोर में खड़ी हूँ। तुम ठीक मेरे सामने खड़े हो। मुझे ऐसा लग रहा था कि ‘आई लव यू’ की गूँज अनन्त आसमान में फैल रही है! क्या यही मेरे प्रेम की पराकाष्ठा थी, ऐश?

उस दिन तुमने मुझसे दस मिनट और चार सेकण्ड तक बात की, जबकि तुम एक मिनट भी बात करने की स्थिति में नहीं थे! देर रात तुम्हारे प्रिय मित्र संजीव भाई ने मुझे मैसेज भेजा कि तुम कोमा में चले गए हो और वेंटीलेटर पर हो। मैंने यह मैसेज सुबह पढ़ा। समय का अनुमान लगाकर मैं स्तब्ध थी! मुझसे बात करने के कुछ देर बाद ही तुम्हारे साथ यह हादसा हुआ था। तुमने आखिरी बात मुझसे की थी, इसकी पुष्टि बाद में संजीव भाई और तुम्हारी बेटी हीरवा ने भी की। 

मेरे अजीज़, मुझे ‘आई लाइक यू‘ से ‘आई लव यू‘ तक पहुँचने में पैंतालीस साल लग गए, जब बीच में केवल एक शब्द बदलना था। इस एक शब्द का भार क्या इतना ज्यादा था कि इसे सुनकर तुम कुछ ही पल में अपनी अनन्त यात्रा पर निकल पड़े? 

कितने करीने से उम्मीद बनकर, तुम्हारी पलकों को सजाया मैंने, / कितने सलीके से तसल्ली बनकर, मेरी आँखों को हँसाया तुमने। / किस्मत की लकीरों में है, धरती के किसी छोर पर मिलेंगे हम, / दूरियाँ भी हैं शर्मिंदा, रूहानी रिश्ते को इस क़दर निभाया हमने! 

फिर ये लक़ीरें किसने मिटा दी अश्विन? मैं बहुत देर तक सोचती रही, बस सोचती ही रही। अपनी अंतरात्मा से मिला जवाब सुनकर तुम भी हैरान रह जाओगे। मैं तुमसे प्रेम करती थी, लेकिन मैं तुम्हारे प्रेम को पूर्ण रूप में पाना चाहती थी। यह एक असंभव सी चाहत थी, पर यही मेरा सपना था। नियति ने मेरी वही प्रार्थना कबूल की थी, जो मैंने चाहती थी!

तुम्हारे लिए मेरा प्रेम जैसे भीतर से प्रकट हुआ था। मेरे इस प्रेम को देह के धरातल पर पाकर मैं इसे कोई रिश्ते का रूप नहीं देना चाहती थी, मैं अपने मन की एक अवस्था के रूप में प्रेम को पाना चाहती थी। हम किसी भी मानवीय संबंध में प्रेम के अस्तित्व से इनकार नहीं कर सकते हैं, लेकिन अनजाने में ही सही, मानवीय संबंधों के पार भी प्रेम के लिए कोई संभावना हो, मैं खोजना चाहती थी। मेरी इस खोज को परिपूर्ण करने ही तुम मुझे मिले अश्विन और प्रेम पूर्ण होने की मेरी खोज में मेरा साथ दिया। तुमने मुझे एहसास कराया कि प्रेम चेतना की अवस्था है और 24 जून 2020 को ही तुमने इस जहाँ को अलविदा कह दिया। 

तुमसे बात करते हुए मैंने प्रेम में पूर्णता पा ली। तुम मुझे प्रेम के उस अंतिम छोर तक ले गए जहाँ पहुँचकर सब कुछ मिट जाता है। पूर्ण प्रेम और पूर्ण समर्पण। मुझे यह अनुभूति हुई कि प्रेम, आत्मा की तरह अमर है। हमारा आत्मबंधन एक रहस्य रहा है और रहेगा क्योंकि इस बंधन को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। अगर किया भी तो जो लोग प्रेम नहीं जानते, वो इसे समझ नहीं पायेंगे। 

असल में, मैं राधा या मीरा की तरह प्रेम करना चाहती थी। देखो, तुम्हें प्रेम करने की मेरी यात्रा राधा से मीरा बनने की रही। मेरा एकतरफा प्रेम भी रहा तो राधा का ही। मैं स्थान और समय की दूरी, दोनों के पार हो गयी। आज मैं मीरा बन गई, ऐश! अब तुम चांद-तारों के पार हो, फिर भी मेरे साथ हो। मेरी आँखों में कैद उस तस्वीर में, मैं तुम्हारी आँखों से टपकते प्रेम को महसूस कर सकती हूँ। न तुम्हारा प्रेम कभी मर सकता है, न तुम। जिन्होंने तुम्हें चाहा, वे सब तुम्हारे इस प्रेम को महसूस कर चुके हैं। 

ओशो ने कहा कि मैं मृत्यु सिखाता हूँ, तुमने कहा कि मैं जीवन सिखाता हूँ। और देखो, मैंने मृत्यु को जीना सीख लिया! अब मैं तुम्हारी मृत्यु को जी रही हूँ, दोस्त। जब तक जीवन है, मैं तुम्हारी मृत्यु को जीऊँगी। मैं तुम्हें लिखती रहूंगी, मैं प्रेम लिखती रहूंगी। तुम्हें चाहकर मेरा जीवन सार्थक हो गया। तुम्हारा प्रेम मेरे साथ रहेगा और मेरी मौत भी सार्थक होगी। 

हम फिर मिलेंगे, ईश्वर के उस बगीचे में जहाँ प्रेम के सिवा कुछ नहीं। इस बार हमारे बीच समय और स्थान का कोई फासला नहीं होगा। ‘न भूत न भविष्य’ अनंत आसमा में वर्तमान का बस एक स्थिर क्षण होगा। सितारे बनकर हम इस मैत्री को ब्रह्मांड में अनंत काल तक बनाए रखेंगे। हमारा अस्तित्व प्रेम बन जाएगा और आसमान की अनंतता में बिखर जाएगा। प्रेम के अर्थ तक पहुँचने के बाद हमने जिस प्रेम की आध्यात्मिकता का अनुभव किया, वह प्रेम आज मेरी प्रार्थना बन गया है और ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग भी। मैं अनंत से जुड़ गई! आई लव यू अश्विन, आई लव यू। मल्लिका 

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समीक्षा

सुश्री प्रीति ‘अज्ञात’, मो.  97270 69342 

ई.मेल: preetiagyaat@gmail.com

लेखक, ब्लॉगर, संस्थापक एवं संपादक ‘हस्ताक्षर’ मासिक वेब

पत्रिका, अहमदाबाद, गुजरात   


प्रेम को जीना इसे कहते हैं!

प्रेम की कोई एक स्थायी परिभाषा कभी बनी ही नहीं। यह संभवतः चंद मखमली शब्दों में लिपटी गुदगुदाती, नर्म कोमल अनुभूति है। आँखों के समंदर में डूबती कश्ती की गुनगुनाती पतवार है। एकाकी उदास रातों में अनगिनत तारे गिनती, स्मृतियों के ऊँचे पहाड़ों के पीछे डूबती साँझ है। प्रसन्नता के छलकते मोती हैं या फूलों में बसी सुगंध है। अनायास उभरी चेहरे को लालिमा की चादर ओढ़ाती मधुर मुस्कान है।

क्या पल भर की मुलाकात, चंद बातें और एक प्यारी-सी हँसी भी प्रेम की परिभाषा हो सकती है? होती ही होगी...वरना कोई इतने बरस, किसी के नाम यूँ ही नहीं कर देता! आप इसे इश्क़/मोहब्बत/प्यार/प्रेम या कोई भी नाम क्यों न दे दें, इसका अहसास वही सर्दियों की कोहरे भरी सुबह की तरह गुलाबी ही रहेगा। इसकी महक जीवन के तमाम झंझावातों, तनावों और दुखों के बीच भी जीने की वजह दे जाएगी।

प्रत्येक प्रेम कहानी का प्रारंभ प्रायः एक सा ही होता है। भीड़ के बीच दो किरदार मिलते हैं, कभी कहानी बनती है तो कभी बनते-बनते रह जाती है। सारा खेल कह देने और न कहने के मध्य तय होता है। जीवन की दौड़ और समय के बहाव में कोई एक किरदार इतना आगे निकल जाता है कि पलटकर आता ही नहीं और एक मौन कहानी ठिठककर, सकुचाई-सी वहीं खड़ी रह जाती है। उसके बाद की गाथा समाज तय करता है, ‘दुखांत‘, ‘सुखांत‘ या ‘एकांत‘!

इन दिनों सोशल मीडिया और इस पर फलते-फूलते आभासी प्रेम की सैकड़ों कहानियाँ पढ़ने को मिलती हैं। पानी के बुलबुले-सा जीवन जीती ये तथाकथित प्रेम कहानियाँ लाइक, कमेंट, इनबॉक्स से होती हुई देह तक पहुँचती हैं और कुछ ही माह पश्चात् आरोप-प्रत्यारोप, स्क्रीन शॉट और ब्लॉक की गलियों में जाकर बेसुध दम तोड़ देती है। इन्हीं ख़्यालों से गुज़रते हुए जब मैं उपन्यास ‘यू एंड मी...द अल्टिमेट ड्रीम ऑफ लव‘ से रूबरू होती हूँ, तो यही सोशल मीडिया ईश्वर के दिए किसी वरदान सरीखा प्रतीत होता है।

कॉलेज छोड़ने के इकतालीस साल बाद सोशल मीडिया की इसी आभासी दुनिया में इस उपन्यास के लेखकद्वय मल्लिका और अश्विन का मिलना, किसी खोए हुए स्वप्न को खुली आँखों में भर लेने जैसा है। वो अनकही प्रेम-कहानी, जो अपने समय में जी ही न जा सकी, जब पुरानी स्मृतियों के पृष्ठ पलटती है तो सृष्टि के सब से सुन्दर और सुगंधित पुष्प आपकी झोली में आ गिरते हैं। इनकी महक और भावुकता में डूबा हृदय दुआओं से भर उठता है और प्रेम के सर्वोत्कृष्ट रूप से आपका मधुर साक्षात्कार होता है।

यह प्रेम कहानी भी बनते बनते, एक अंतहीन प्रतीक्षा की चैखट पर उम्र भर बाट जोहती अधूरी ही रह जाती है। लेकिन जीवन तब भी उसी निर्बाध गति से चलायमान रहता है। जब कहीं रिक्त स्थान छूट जाता है या छोड़ दिया जाता है तो उम्मीद की सबसे सुनहरी किरण ठीक वहीं से प्रस्फुटित होती है तभी तो एक दिन अचानक वो बचा, छूटा हुआ हिस्सा ही सौभाग्य का चेहरा बन नायिका के मन के द्वार को कुछ इस तरह से खटखटाता है कि उस की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहता! यही प्रेम की वह उत्कृष्टतम अवस्था है, जहाँ प्रिय से अपने हृदय की बात कह पाना और उसकी स्वीकारोक्ति ही सर्वाधिक मायने रखती है। यहाँ न मिलन की कोई अपेक्षा है और न ही समाज का भय। आँसू से भीगे मन और खोई हुई चेतना है! वो प्रेम जो दर्द बनकर वर्षों से नायिका के सीने में घुमड़ रहा था, उसकी अभिव्यक्ति अपने प्रिय के समक्ष कर देना ही सारी पीड़ा को पल भर में हर लेता है। उसके बाद जो नर्म अहसास शेष रहता है, वही प्रेम का चरम सुख है।

प्रेम की महत्ता पाने से कहीं अधिक उसे खोकर जीने में है। अश्विन और मल्लिका के संवाद से गुजरते हुए इन्हीं गहन सुखद अनुभूतियों से पाठक का साक्षात्कार होता है कि सच्चा प्रेम कभी नहीं हारता, बल्कि शाश्वतता की ओर बढ़ता चला जाता है! यह उपन्यास प्रेम पर टिके हर विश्वास को और गहरा करता है, साथ ही समाज के उस कुरूप चेहरे को भी बेपर्दा करता है जहाँ खोखली परम्परा और मान्यता के नाम पर बनाए खाँचे में फिट होने पर ही किसी रिश्ते को सर्वमान्य किया जाता है।

साधारण रंगरूप की नायिका, नायक से अथाह प्रेम करने के बाद भी उससे अपने दिल की बात यह सोचकर नहीं कह पाती कि भला इतना सुदर्शन युवक उसकी प्रेमपाती क्यों पढ़ेगा? फिर समाज ने तो धर्म के चश्मे से ही दिलों को परखा है धड्कनों को गिनना तो वह आज तक नहीं सीख पाया! किशोरी नायिका का यह भय स्वाभाविक ही था कि हिन्दू लड़की और ईसाई युवक का संबंध यह रूढ़िवादी समाज कभी स्वीकार नहीं करेगा।

परिवार के प्रति अपने कत्र्तव्यों का पूर्ण एवं बेहतरीन तरीके से निर्वहन करते हुए भी कथा नायिका चार दशकों से भी ज्यादा समय तक न केवल अपने कॉलेज काल के प्रिय साथी की स्मृतियों को जीवंत बनाए रखती है अपितु उससे जुड़ी तमाम तस्वीरें भी अपने पास सुरक्षित रख पाती है। फिर एक दिन उसे सोशल मीडिया पर ढूँढ निकालती है। अपने संक्षिप्त परिचय के साथ जब वह उसकी दुनिया में प्रवेश करती है, हजारों मील दूर बसा नायक खुले दिल से अपनी गलतियों को स्वीकार करते हुए संवाद के जरिये, अपने समस्त दुःख एवं अस्वस्थता भुला, खुलकर बातें करता है। अपने खोए हुए शौक को जीवंत करते हुए संगीत, शेरो-शायरी के बीच अपनी आपबीती कहता है। लोग सही कहते हैं कि यदि आपके साथ एक भी इंसान ऐसा है, जिससे आप अपने सारे दुःख-सुख साझा कर सकते हैं तो आपका जीवन सार्थक है। दिल से जुड़े हुए लोग परस्पर दर्द जैसे सोख लेते हैं।

प्रेम के बीज से अंकुरित इस उपन्यास को प्रेम कहानी भर कह देना इसके साथ अन्याय होगा क्योंकि यह कई सामाजिक विसंगतियों की ओर ध्यान आकर्षित करता है। यह धर्म के नाम पर उठाई गईं दीवारों को तोड़ देने की बात करता है। नई पीढ़ी के युवाओं को महिलाओं के प्रति सम्मान की भावना बनाए रखने का अनुरोध करता है। हमारी शिक्षा-व्यवस्था पर भी कई गहन संवाद करता है। विदेशों में रहने वाले भारतीयों को लेकर हमारे समाज में जो भ्रांतियाँ स्थापित की गईं हैं, यह उपन्यास उन पर भी करारा प्रहार करता है। विदेश जाने वाले अधिकांश भारतीयों को किस-किस तरह की विपरीत परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है उसकी सटीक विवेचना करता है। अपने वतन से बिछड़ने का दर्द भी जाहिर करता है।

अपने-अपने जीवनसाथी से रिश्तों की मजबूती निभाते हुए, अपने परिवार के प्रति सम्पूर्ण समर्पित होते हुए भी मल्लिका जी और अश्विन जी ने अपने-अपने जीवन की सच्ची दास्तान लिखने का जो साहस दर्शाया है, आप उसकी प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकते। कथा नायक अश्विन और उसकी पत्नी के रिश्ते को भी बहुत सुन्दर तरीके से बताया गया है कि करीब चार साल तक विवश हो अलग रहने और तमाम कठिनाइयों का सामना करने के बाद अंततः वह अपनी पत्नी और बेटी के पास अमेरिका पहुँच ही जाता है। ठीक उसी तरह कथा नायिका मल्लिका भी एक सहपाठी के साथ दोस्ती और प्रेम की भूलभुलैया में उलझकर चरम मानसिक संघर्ष से गुज़रती है तभी एक अत्यधिक सुलझा हुआ, संवेदनशील एवं समझदार इंसान उसे जीवनसाथी के रूप में मिल जाता है, जिससे वह अपने दिल की सारी बातें बेझिझक साझा कर सकती है।

मुझे पूरा विश्वास है कि चैट पर आधारित यह उपन्यास प्रेम के शाश्वत रूप को और भी गहराई से स्थापित करेगा तथा पाठकों तक यह संदेश भी पहुँचाएगा कि जब किसी से प्रेम हो तो उस पक्ष को अपनी बात निस्संकोच कह ही देना चाहिए। अधिक से अधिक क्या होगा? ‘न’ हो सकता है और क्या? प्रणय निवेदन न कर पाने का उम्र भर दुःख मनाने से कहीं श्रेष्ठ है उसे कह देने की प्रसन्नता पाना।

थोथी इज़्ज़त के नाम पर घृणा और हिंसा में डूबते समाज में ढाई आखर के प्रेम की यह गाथा शीतल बयार की तरह है। इन गाथाओं का जीवित रहना और बार-बार कहे जाना नितांत आवश्यक है कि मानवीय संवेदनाओं का मान बना रहे और प्रेम को उसकी शाश्वतता के कारण चिरकाल तक बिसराया न जा सके।

स्थल और काल से परे, प्रेम को परिभाषित करती इस उपन्यास की कहानी, वर्तमान पीढ़ी के लिए भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी कि आज से पैंतालीस वर्ष पूर्व थी। युवाओं को यह भी सीखने को मिलेगा कि देह से इतर प्रेम कितना खूबसूरत और परिपक्वता लिए होता है। समाज के बनाए हुए निरर्थक नियमों के चलते अथाह पीड़ा से गुज़रकर, नियमों के दायरे को तोड़कर, प्राप्य की इच्छा से कोसों दूर आत्मिक श्रेष्ठता की अनुभूति कर पाना वास्तव में प्रेम का चरम बिंदु है।

मैं नहीं चाहती कि इस श्लाघनीय उपन्यास में आपके आनन्द में रत्ती भर भी कमी आये और दोहराव लगे, इसीलिए मैं संवादों को यहाँ लिखने से बच रही हूँ। अंत में पाठकों से इतना ही कहूँगी, अपनी-अपनी कहानी का अंतिम पृष्ठ हमारे भरने के लिए ही होता है, आप भी उसे इंद्रधनुषी रंगों से सराबोर कर दीजिए! 

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समीक्षा

डॉ. रानू मुखर्जी, वरिष्ठ साहित्यकार, अनुवादक, वडोदरा, गुजरात, मो. 98257 88781


सपनों की यथार्थवादी व्याकुलता

मल्लिका मुखर्जी और अश्विन मैकवान, लेखकद्वय ने संवाद के रूमानियत अंदाज को अपने उपन्यास “यू एंड मी...” का आधार बनाया है। भाषा की सरलता, रवानगी और साधारण नौजवान हौसला- सब को उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति का औजार बनाया। उनके उपन्यास में भारतीय जीवन दर्शन, परिवर्तन की अहंकार विहीन आस्था, सामाजिक जीवन, जीवन के संकल्प, मानवीय पीड़ा और भविष्य की दृष्टि हर कहीं तरंगायित है। उपन्यास के तथ्य उनके अंतर की कथा को, जागरण की आस्था को और प्रेम की भाव धारा को समेटे हुए है। वास्तविकता का सुन्दर चित्र। 

नायिका के मुग्धावस्था का प्रेम पत्थर पर कुरेदकर लिखने जैसा है। अनकहा फिर भी यह अहसास शाश्वत है। ऐसे ही कहे अनकहे आत्मीय प्रेम के उतार चढाव पर, 13500 कि.मी. दूरी तय करने में इकतालीस साल लग गए! दोनो विवाहित, संसारी, पर नायिका का पहला प्रेम अपनी जगह पर स्थिर। अनुभवजन्य भावों को ही इतनी सार्थकता के साथ चित्रित किया जा सकता है! यह उपन्यास दिल को झकझोर कर रख देता है।

इस चैट उपन्यास का स्वर न केवल अतीत की शक्तिमय चेतना की स्वरलिपि है, बल्कि अपने समय में संघर्षो और आहत सपनो की मर्म भेदी पुकार भी है। नायक अश्विन की अस्वस्थता के बारे में जानकर मल्लिका कातर हो उठती है। सुदूर विदेश में स्थित उनके कोलोन कैन्सर के दर्द को अपने आँसुओ की अंजली देकर कम करना चाहती है। मल्लिका के पति पार्थो, उनकी आन्तरिक शक्ति, साहस, उत्साह, एक अविचल हिमालय है! अपने पूर्ण मानवीय तेजस्विता के साथ वे पत्नी के साथ खड़े हैं। 

मल्लिका की कलम से भारतीय आत्मा का पुनराविष्कार हुआ है। आध्यात्मिकता उनकी सबसे बडी ताकत है, जो परंपरा के आवरण को चीरकर जागृत प्रेरणा बन जाती है। निश्चित ही संवाद की शैली में लिखा गया यह उपन्यास हिन्दी साहित्य को एक अनमोल तोहफा है।

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समीक्षा

श्री सुभाष यादव, बस्ती, उत्तर प्रदेश


प्रेम की ऐसी भी कोई कहानी हो 

लैला-मजनू, हीर-रांझा का मैं बहुत सम्मान करता हूँ उनके अंतिम समर्पण के लिए, पर ऐसी  कहानियाँ मुझे डराती भी है। मैं चाहता था, प्रेम की ऐसी कोई कहानी हो जिसमें प्रेम करनेवाले भले ही किसी मंजिल तक न पहुँचे हों, फिर भी उनके बीच शुद्ध प्रेम शेष हो। जिस कहानी में जिंदगी हो, प्यार भरी बातें हो, जो हमें सच्चे प्रेम की परिभाषा बताएँ। हिन्दी चैट उपन्यास “यू एंड मी...” बिल्कुल वैसा ही उपन्यास है, जैसा मैं पढ़ना चाहता था। यह सत्य कथा सच्चा प्रेम करने वालों में विश्वास जगाती है और उन्हें अपने प्यार और अपनी जिम्मेदारी के साथ खुशी से कैसे जीना यह भी सिखाती है। ऐसा प्रेम जो हमें भावनात्मक रूप से, मानसिक रूप से तथा आध्यात्मिक रूप से विकसित करता है। 

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समीक्षा

सुश्री मीनाक्षी मैनन, अध्यापिका/कवयित्री/काउन्सलर/एंकर 

होशियारपुर, पंजाब, मो. 94174 77999


बेमिसाल मोहब्बत की दास्तान 

वी ऑल हेव स्टोरीज बट हू इज लकी इनफ लाइक यू टू लिव देम एंड टू पूट देम इन ब्लैक एंड व्हाइट! आप दोनों की सच्चे दिल से लिखी इस नॉवल “यू एंड मी...” की समीक्षा तो नहीं कर सकती मैं। हाँ, आपकी कहानी, आपकी मोहब्बत, आपकी इबादत, आपकी दीवानगी जीना चाहूँगी आपके साथ। आपको पता है क्या ? इस कहानी को जीकर आपने दुनिया भर के उन सच्चे प्रेमियों को प्रेम के इल्ज़ाम से बरी कर दिया, उन मुकदमों से जो चलते रहते हैं दिल, दिमाग और समाज की सोच की उन अदालतों में, जहाँ प्रेम गुनाह माना जाता है। 

इकतालीस साल के लंबे अंतराल के बाद मिलते हैं। एक दूसरे की कमज़ोरी नहीं बल्कि ताकत बनते हैं और लौटाते हैं, एक दूसरे को वो मुस्कुराहटें, वो पल, वो साल, वो दिन-महीने जो अचानक से समय की किसी गलत करवट के कारण मिस-प्लेस हो गए थे। बालू की तरह समय बंद मुट्ठी से सरकता है- सुना था मैंने। लेकिन ये बालू के कण, जन्म लेते हैं एक अंतराल के बाद ख़ूबसूरत तराशे हुए कीमती मोतियों की शक्ल में, मैं न जानती थी। यह मोती तभी संभव हो सके कि आपकी यादों की सीप में वह हाथों से छूटी बालू पड़ी रही, प्रेम सागर में हिलोरे लेती, इंतजार करती रही सही पल का। और मेरी प्यारी दोस्त, तूने साबित कर दिया तेरी मोहब्बत ने कि पाक मोहब्बत का एक लम्हा, सोलह बरस की बाली उमर की एक मासूम सी चाहत, भारी पड़ सकती है इकतालीस सालों पर! 

हारमोनियम पर चलने वाली उँगलियों को तंदूर में झोंककर, स्मृति मैम के प्यार और बलिदान के आगे नतमस्तक वो शख़्स, इनाम का हकदार तो था मल्लिका कि कॉलेज में एक उत्सव के दिन, रिमझिम बरसात में जिन हाथों में अबीर लिए वह आप तक पहुँचा था, आज उन वक्त की गर्दिश की भट्टी में तपे हाथों पर आप अपने स्नेहिल स्पर्श का मरहम लगातीं। क्या खूब मरहम लगाया आपने, उस चुप शख्स को अपना मन कहना सिखाया, बहना सिखाया, उसके गुनगुनाते अतीत से मिलवाया, वर्तमान को संवारा और भविष्य को एक राधा से मुलाकात की उम्मीद के सिरे से बांध दिया!

आपके प्यार को, जज्बे को, इस सुरीली चैट को सलाम करती हूँ जिसमें रूमानियत के साथ साथ जीवन के कई पहलुओं पर चर्चा हुई। आपका नॉवल पढ़ना जैसे एक जिंदगी जीना था, आपकी सादगी भरी चुलबुली-सी ईमानदार मोहब्बत के साथ।

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समीक्षा

सुश्री अन्नदा पाटनी

वरिष्ठ प्रवासी साहित्यकार, मैरीलैंड, यू.एस.ए. 

ईमेल: annada.patni@gmail.com


प्रेम का एक अनोखा और अनछुआ पहलू 

लेखक मल्लिका मुखर्जी तथा अश्विन मैकवान के इस चैट उपन्यास “यू एंड मी...” ने मन को इस क़दर झकझोर दिया कि शब्द कहीं खो गए। भावनाओं के उठते गिरते ज्वार-भाटे, स्मृतियों से सजे गलियारे, उनमें टंगे अनेक चित्र और मानस पटल पर उन चित्रों से जुड़े निरंतर चलते चलचित्र! 

राहें अलग हुई तो क्या? अपने परिवार में हर भूमिका को ईमानदारी से निभाते हुए भी अपने छोटे से दिल के किसी अछूते कोने में नायिका का उस अनकहे प्रेम को इतने लंबे समय तक सहेजे, इतना सहज रह पाना चकित कर देता है! बिना पते के इस विशाल दुनिया में नायक का पता लगाना आसान नहीं बल्कि नामुमकिन सा था। सलाम, प्यार के जज्बे के उन धागों को जिन्होंने आशा और विश्वास को मजबूती से पिरोए रखा। पैंतालीस वर्षों के दीर्घ अंतराल के बाद सोशल मीडिया पर नायिका का नायक को ढूँढ़ पाना, किसी चमत्कार से कम नहीं है!

दोनों के बीच हजारों मील की लंबी दूरी के रहते, चैट के माध्यम से वार्तालाप शुरू हुआ। आपसी बातचीत में दोनों कैसे तो अंतर की गहराई से निकले उद्गारों और एहसासों को शब्दों में पिरोते हैं! प्रेम को ऊंचाई, गहराई और परिपक्वता प्रदान करते हैं। प्रेम जैसे निर्मल भाव पर तनिक सी भी आँच नहीं आने देते। यही कारण है कि ये संवाद कभी मन को गुदगुदाते हैं, कभी आँसुओं से भिगो देते हैं। जीवन में बीती एक दूजे की परेशानियों में कुछ न कर पाने की तड़पन को महसूस कराते हुए, हमें अपने साथ बहा ले जाते हैं।

अपने अपने परिवार का दायित्व पूरी निष्ठा से निभाते, अपने परिवार के प्रति समर्पित रहते हुए ही लेखक ने अपने बीच हुए वार्तालाप को चैट उपन्यास के रूप में सार्वजनिक करने का साहसिक कदम उठाया और 

संकीर्ण समाज की खोखली मानसिकता को उजागर किया। तर्क-वितर्क को ताक में रख, संकुचित मानसिकता की परिधि से निकलकर इस अनूठी प्रेम कहानी का स्वागत किया जाए, तो मुझे यकीन है कि यह चैट उपन्यास निश्चित रूप से हर पाठक के मन को छू जाएगा।

वरिष्ठ साहित्यकार सुश्री नीलम कुलश्रेष्ठ के साथ सुश्री मल्लिका मुखर्जी 

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समीक्षा

श्री प्रबोध कुमार गोविल, वरिष्ठ साहित्यकार, पूर्व प्रोफेसर व निदेशक, 
ज्योति विद्यापीठ महिला विश्वविद्यालय, जयपुर, राजस्थान मो. 94140 28938


बस आप कह सकते हैं- ‘अल्टिमेट !’ 

प्यार सर्वोच्च हो या न हो, प्यार का सपना तो अंततः सर्वोच्च हो ही सकता है। किसी के सपने पर किसका अख़्तियार है? मल्लिका मुखर्जी और अश्विन मैकवान का चैट उपन्यास ‘‘यू एंड मी...द अल्टिमेट ड्रीम ऑफ लव‘‘ पढ़ा। ये एक अद्भुत प्रयोग है! यदि किसी लेखक या प्रकाशक द्वारा ऐसा दावा किया जाय कि जो कुछ है, सब सत्य या वास्तविक है तो इस बात में वक्त गंवाना फिजूल है कि क्या कैसा है! तुरंत पढ़ने बैठ जाना चाहिए। और पढ़ने के बाद? 

पढ़ने के बाद तो सब कुछ इतना आसान हो जाता है कि इस उपन्यास को एक लफ्ज़ में भी बयां किया जा सकता है, बस आप कह सकते हैं- ‘‘अल्टिमेट‘‘! ये उपन्यास आपको यक़ीन दिलाता है कि ज़िन्दगी खो जाए तो मिल जाती है। सपने फट जाएं तो सिल जाते हैं। सुख मुरझा जाए तो फिर खिल जाता है!

बस शर्त यही है कि कुछ ‘‘सुन्दर‘‘ हमारे रास्ते में आ जाए, हम ‘‘शिव‘‘ होकर उसे चाहें और उसे काल ‘‘सत्य‘‘ का प्रतिबिंबन बना लें। जिन्दगी के रास्ते में ख़ूबसूरती भी दौड़ी चली आती है, अगर हीरे सी दमकती आँखों से उसे तलाशा जाए। सब संभव है, मीठी बातें तो करो मुझसे!

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समीक्षा

सुश्री नृति शाह, 
युवा  साहित्यकार, अनुवादक, 
अहमदाबाद, गुजरात, मो. 98246 60648

प्रीत ऐसी कभी न जानी

हम सभी के जीवन में कुछ अनुभव हमेशा यादगार होते हैं। मेरे लिए, लेखक आदरणीय सुश्री मल्लिका मुखर्जी और आदरणीय श्री अश्विन मैकवान द्वारा लिखित हिन्दी चैट उपन्यास “यू एंड मी...” पढ़ने का अनुभव बहुत रोमांचक था। मैंने वास्तव में इस पुस्तक का आनंद लिया। मानव जीवन के वास्तविक अनुभवों का सटीक वर्णन करने वाली इस पुस्तक ने मुझे इतना छुआ कि मनमें एक विचार आया कि यदि मुझे अनुवाद करने का अवसर मिले तो?

उन्होंने तुरंत मेरे विचार का स्वागत किया और आदरणीय सुश्री स्मिता ध्रुव के साथ मुझे भी इस दिलचस्प उपन्यास के आधे हिस्से का अनुवाद करने का अवसर मिला। लेखकद्वय जीवन गाथा को मार्मिक संवादों के साथ प्रस्तुत करता, साहित्य जगत में नई धूम मचाने वाले इस अनूठे उपन्यास का मैं भी एक हिस्सा बनी, इसका मुझे गर्व है! ईश्वर की इच्छा से ही यह संभव हुआ।

कई किताबें मेरे दिल के करीब रही हैं, लेकिन किसी ने भी मेरे मानस पटल पर इतनी गहरी छाप नहीं छोड़ी, जितनी इस संवाद कथा ने। जिस बात ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया वह यह है कि एक बार कॉलेज के सहपाठी, लंबे अंतराल के बाद, सोशल मीडिया पर मिलते हैं और एक लिखित वार्तालाप के माध्यम से एक-दूसरे के विचारों को इतनी आसानी से आत्मसात कर लेते हैं। बीते समय में वापस जाकर वह उस समय को भोलेपन से जीते हैं। एक-दूजे में अपनी जिंदगी को नए सिरे से जीने का उत्साह भर रहे हैं। प्रेम कहने या सुनने का एहसास नहीं है, बल्कि समझने और महसूसने का एहसास है, इस बात को यहाँ तीव्रता से महसूस किया जा सकता है। 

हिन्दी के साथ-साथ गुजराती में भी यह पहला ऐसा उपन्यास है, जो आत्मकथात्मक है और संवाद की शैली में लिखा गया है। यह गुजराती साहित्य जगत के लिए गर्व की बात है। मैंने इस उपन्यास को अपने जीवन की सबसे खूबसूरत, यादगार किताबों में शामिल किया है। मैं कामना करती हूँ कि यह उपन्यास प्रत्येक पाठक के हृदय में एक विशेष स्थान बनाए।    

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समीक्षा

सुश्री स्मिता ध्रुव, बहुभाषी साहित्यकार, अनुवादक 

अहमदाबाद, मो. 98240 26179

ईमेल: smita.dhruv@gmail.com


प्रेम, आसमान में एक झरोखा

‘प्रेम‘ सबका पसंदीदा विषय है, लेकिन जब प्रेम के अनंत विस्तार का बोध होता है, तो दो लोगों के बीच की सोशल मीडिया चैट को आधुनिक समय का प्रतिनिधित्व करने वाली किताब में बदलना संभव हो जाता है! कुछ ऐसा ही महसूस हुआ लेखक सुश्री मल्लिका मुखर्जी और श्री अश्विन मैकवान द्वारा लिखित हिन्दी चैट उपन्यास ‘‘यू एंड मी...‘‘ को पढ़ते हुए। जीवन की अतुलनीय घटनाओं में कहीं न कहीं ईश्वर का हाथ रहता है। अलौकिक प्रेम की अवर्णनीय अनुभूति को शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है और वह अनायास ही एक पुस्तक का रूप ले लेती है, यह कोई छोटा चमत्कार नहीं है!

दोनों एक ही कॉलेज में सहपाठी, सिर्फ चार साल साथ बिताए और वो भी बिना ज्यादा बातचीत के! लगभग 41 साल बाद सोशल मीडिया ‘फेसबुक‘ पर उनका मिलना, अश्विन के लिए मल्लिका का अवर्णनीय प्यार, अश्विन के लिए अपने प्यार को कबूल करने की उनकी इच्छा जो वर्षों से उनके दिल में में सुरक्षित है, और स्वीकारोक्ति के बाद अश्विन का अपार आश्चर्य, पाठक के मन में भी उतना ही आश्चर्य पैदा करता है!

कॉलेज के दिनों की खट्टी-मीठी यादों से लेकर उनके वैवाहिक जीवन के बारे में उनकी स्पष्ट बातें, उनके दिलधड़क और बहादुरी भरी स्वीकारोक्ति और उनके रिश्ते की मासूमियत, मैं मंत्रमुग्ध थी! मैंने उनकी जीवन यात्रा को बहुत करीब से महसूस किया। अमेरिका में अश्विन के बेहद संघर्षपूर्ण प्रारंभिक जीवन के बारे में पढ़कर दिल दहल उठा। जीवन से जुड़े विभिन्न विषयों पर चर्चा और ‘डाउन द मेमोरी लेन‘ की बातों ने बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया।

अनुवाद करते समय मुझे कथानायक अश्विन और कथानायिका मल्लिका की भावनाओं को फिर से बहुत करीब से अनुभव करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। करीब चार दशक पहले का उनका औपचारिक रिश्ता, 13500 किमी की दूरी मिटा कर अब कितना सरल, प्रफुल्लित करने वाला और मज़ाकिया हो गया है! सांसारिक बंधनों के दायरे से बाहर, मात्र संवाद के माध्यम से एक-दूसरे की देखभाल करने की कोमलता, दिल को विशाल एकता की अनुभूति करवाती है, और प्यार के मनोवैज्ञानिक महत्व को भी समझाती है।

इस किताब को पढ़ते हुए मुझे हँसी-मजाक, व्यवहारिकता, शोक और दर्शन आदि भाव क्षण-क्षण अनुभूत होते थे। मैंने यह भी महसूस किया कि दुनिया की सभी भावनाओं और अनुभवों को सिर्फ ढाई अक्षर के शब्द ‘प्रेम‘ में समेटा जा सकता है। यथार्थ के धरातल पर संवाद की नई शैली में लिखे गए इस उपन्यास के लिए मैं गुजराती साहित्य जगत में अपार सफलता की कामना करती हूँ। 

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आलेख

सुश्री मल्लिका मुखर्जी, अहमदाबाद, मो. 97129 21614


बंगाल की संस्कृति में बाउल परम्परा

‘बंगाल की संस्कृति में बाउल परंपरा’ विषय पर इंटरनेट पर कई लेख और सामग्री उपलब्ध है, लेकिन मैं सहज सरल भाषा में बाउल संस्कृति का परिचय देना चाहूंगी। बाउल बंगाल के एक विशेष साधक संप्रदाय का नाम है, मूल रूप से ग्रामीण बंगाल की संस्कृति का हिस्सा है। जब मैं ‘बंगाल‘ कहती हूँ तब मैं देश विभाजन से पहले अविभक्त बंगाल की बात कर रही हूँ। पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले के साथ-साथ, उस समय के पूर्वी बंगाल में बाउल संप्रदाय अधिक प्रचलित था, जो अब बांग्लादेश है। नोआखली, सिल्हट, चटगाँव, खुलना, मयमनसिंह, कोमिल्ला, मुंशीगंज, बोरिसाल, कुष्टिया, पाबना, ये सारे शहर अब बांग्लादेश में हैं।

यह स्पष्ट नहीं है कि ‘बाउल’ शब्द ने अपना साम्प्रदायिक महत्त्व कब लिया, इस संप्रदाय की स्थापना में किसी व्यक्ति विशेष का नाम उपलब्ध नहीं है। लेकिन सोलहवीं शताब्दी के बंगाल के कृष्णदास कविराज रचित ग्रंथ ‘चैतन्यचरितामृत‘ और वृन्दावनदास ठाकुर रचित ग्रंथ ‘चैतन्य भागवत’ में ‘बाउल‘ शब्द पाया जाता है। शांतिपुर के नरोत्तमदास ने पहले चैतन्य देव को ‘बाउल‘ कहा। गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के संस्थापक आचार्य चैतन्य देव भी स्वयं को बाउल कहते थे। ‘बाउल‘ का संस्कृत अर्थ ‘व्याकुल‘ है। ‘बाउल’ के सन्दर्भ में ‘व्याकुल‘ का अर्थ है ‘पागल’ यानी ईश्वर के प्रेम में पागल।

बाउल परंपरा के इतिहास की तरफ देखें तो बाउल-साधना की निकटता को ‘चर्यागीत’ (आचरण या व्यवहार) के कई छंदों में पाया जा सकता है। आठवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच सहजिया बौद्ध सिद्धों द्वारा रचित ‘चर्यापद’ बंगाल का सबसे प्राचीन बांग्ला लोक साहित्य है।  सहजिया बौद्ध सिद्ध शरीर के भीतर ही अशरीरी को पाने की साधना करते हैं। ठीक उसी तरह बाउल के दर्शन में भी देह-तत्त्व मुख्य है। बाउल साधक भी संगीत साधना के माध्यम से देह-साधना करते हैं। अर्थात साकार देह में में निराकार आत्मा की प्राप्ति। वे देह को ही मंदिर मानते हैं। देह के भीतर ही आत्मा का वास है। आत्मा हमारे भीतर का परमेश्‍वरीय तत्त्व है, एक चैतन्य शक्त्ति है जो निरंतर आनंदावस्था में रहती है। बाउल के अनुसार, आत्मा के साथ मानव शरीर को जब ‘मनुष्य‘ कहा जाता है, तो पूर्ण आत्मा या परमात्मा को मनुष्य कहने में कोई बाधा नहीं है। 

बाउल साधना का मूल मंत्र है- जाति, धर्म, नस्ल से ऊपर मनुष्य से मनुष्य का प्रेम। प्रेम तत्त्व ही उनकी साधना का केन्द्र है। उनका धार्मिक अनुष्ठानों, पूजा-पाठ, कर्मकांडों से कोई लेना-देना नहीं है। बाउल गीतों का उद्देश्य आध्यात्मिक खोज है। यह खोज इतनी व्यक्तिगत और स्वतंत्र है कि किसी भी धर्मं, संप्रदाय, धर्मगुरु या धर्मस्थान मदद नहीं कर सकता। यह सारे माध्यम अक्सर सत्य की खोज में अवरोध पैदा करते हैं।

अब होता क्या है कि मानव शरीर में आत्मा के साथ मन और बुद्धि भी निवास करते हैं। ये दोनों अक्सर विपरीत दिशा में काम करते हैं, मन कुछ कहता है और बुद्धि कुछ और। मन में भाव होते हैं जो सदा निश्छल होते हैं और दिमाग में विचार होते हैं जो तर्क करते रहते हैं, तर्क के साथ ही अहम पैदा होता है। एक सामान्य मानव अपने मन, बुद्धि और अहम् के बीच तालमेल नहीं बिठा पाता। आत्मा तक पहुँचने के लिए मानव शरीर में मन और बुद्धि का सामंजस्य अति आवश्यक है। बाउल मानव के स्थूलदेह एवं मनोदेह से उपर उठने की बात करते हैं। आत्मसमर्पण की बात करते हैं।

 उनका वाद्य यंत्र इकतारा है, लेकिन बाद में डुगडुगी, खमक, ढोलक, दोतारा जैसे वाद्ययंत्र भी जोड़े गए। लोक संगीत में वे मुख्य रूप से दादरा, कहरवा, जुमूरताल, जपताल आदि का प्रयोग करते हैं। बाउलों द्वारा रचित गीत की गहराई, गीत की धुन का माधुर्य, शब्दों की सार्वभौमिक मानवीय अपील दुनिया को महामिलन के मंत्र की ओर ले जाती है।

अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि बाउल संगीत को लोक संगीत के तहत शामिल नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि लोक संगीत मुख्य रूप से मनुष्य की स्थितियों और परिस्थितियों से संबंधित है और बाउल संगीत जीवन पर एक आध्यात्मिक पहलू का प्रतिनिधित्व करता है। हक़ीक़त में  बाउल संगीत सबसे निश्चित रूप से लोक संगीत के रूप में योग्य है क्योंकि बाउल संगीत मनुष्य की स्थितियों और परिस्थितियों के साथ-साथ मनुष्य की आत्मा के उत्थान की बात भी करता है। ईश्वरीय मिलन में पूर्णता की तलाश करना ही बाउल का मुख्य उद्देश्य है और इस उद्देश्य की प्राप्ति के बाद बाकी सब कुछ गौण है।

परमात्मा के साथ संवाद करते हुए बाउल गायक अपने गीत में प्रकृति से जुड़े प्रतीकों का प्रयोग करते हैं, जैसे- फूल, पानी, नदी, सागर चन्द्र आदि। वे मानते हैं कि मानव प्रकृति का हिस्सा है। प्रकृति हमें सृष्टि के करीब ले जाती है। सृष्टि अर्थात ईश्वर की श्रेष्ठ रचना, समूचा ब्रह्माण्ड। इन गीतों में प्रयुक्त प्रतीकात्मक भाषा को सतही स्तर पर नहीं समझा जा सकता। उनके आंतरिक अर्थ को समझने के लिए उन शब्दों की गहराई में जाना पड़ता है। एक गीत का उदाहरण देना चाहूंगी। पार्वती बाउल के स्वर में यह गीत यूट्यूब पर भी उपलब्ध है।

किछु दिन मोने मोने घोरेर कोने,

शैमेर पिरीत राख गोपोने

इशाराए कोईबी कोथा गोठे- माठे,

देखीश जेनो केऊ ना जाने केऊ ना बोझे केऊ ना शोने...

कुछ दिन तो श्याम की प्रीत को मनमें रखना, गुप्त रखना- मतलब मन की अतल गहराइयों में रखना.. श्याम के साथ इशारों में ऐसे बात करना कि कोई जान न पाए, समझ न पाए और सुन न पाए।

इसी गीत में एक अंतरा है-

शैम शायोरे नाइते जाबि, 

बोली गायेर बॉशॉन भिजबे केने! 

शायोरे शातार दिए आशबि फिरे, 

बोली गायेर बॉशॉन भिजबे केने!

श्याम के सागर में नहाने जाओगे तो वस्त्र क्यों भीगेंगे? बिना वस्त्र भिगोये ही सागर में तैरकर वापस आना है। यहाँ इन्गितार्थ में यह कहा गया है कि श्याम के प्रेम को पाना है तो शरीर को नहीं मन को भिगोना है। भक्तिरस में भीगने से ही श्याम को पाया जा सकता है।

बाउल गीत विभिन्न धर्मों से भी प्रभावित हैं, प्यार के इस राग में हिंदू-मुसलमान दोनों समुदायों के लोगों को जगह मिली है। हिंदू ‘सहजिया‘ बाउल और मुस्लिम ‘सूफी‘ या ‘फकीर‘ बाउल। हिंदू बाउल गीतों में ‘वैष्णव तत्व‘ और मुस्लिम बाउल में ‘औलिया तत्व‘ पाया जाता है। फिर भी दोनों एक दूसरे की साधना की शब्दावली का प्रयोग करते हैं। इनमें कभी कोई अंतर नहीं होता क्योंकि बाउल तत्व इस भेद को मिटाने का काम करता है। उनका ध्यान, मंत्र, साधना मानव समाज को वैश्विक भाईचारे का संदेश देता है।

पूरी तरह समझ में न आने पर भी ये गीत जनसाधारण में काफी हद तक स्वीकार किए गए हैं क्योंकि उनकी भावनाएं वास्तविक और सहज हैं। इन गीतों की धुन और लय स्थानीय संस्कृति की गायक परंपरा के अनुसार होती है। जैसे कीर्तन गान, झुमुर गान, धामाइल गान (सिल्हट), भाटियाली गान (मैमनसिंह, ढाका, कोमील्ला के भाटी विस्तार), आलकाप गान (मुर्शिदाबाद, बीरभूम और राजशाही) आदि।

सामाजिक दृष्टि से बाउल साधकों की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं है। वे किसी भी व्यक्ति को अपनी आंतरिक भावनाओं को प्रकट नहीं करते। बाउल गीत बरसों से एक मौखिक परंपरा के रूप में चले आ रहे हैं, इसलिए बाउल की साधना में गुरु-शिष्य की परंपरा जारी है। बाउल साधक के लिए गुरु सर्वोत्तम है। शरीर साधना के लिए आवश्यक ज्ञान और मार्गदर्शन उन्हें गुरु से ही मिलता है। उनके मुख्य दो वर्ग हैं। तपस्वी बाउल जो पारिवारिक जीवन को  अस्वीकार करते हैं और भिक्षा पर जीवित रहते हैं। उनके पास कोई निश्चित निवास स्थान नहीं होता। वे एक अखाड़े से दूसरे अखाड़े में जाते रहते हैं। दूसरे जो अपने परिवार के साथ रहते हैं। उनकी पोशाक भी बहुत साधारण, एक भगवा लुंगी और घुटनों से परे एक लंबा भगवा गाउन होता है। 

बाउल गीतों के रचयिताओं की बात करें तो कुष्टिया जिले के सिराज सांई के गीत अठारहवीं शताब्दी में लोकप्रिय थे। लेकिन उन्नीसवीं सदी में लालन फकीर के बाउल गाने बहुत लोकप्रिय हुए। लालन फकीर ने सिराज सांई से दीक्षा ग्रहण की थी। उनके गीत वैष्णववाद और सूफीवाद दोनों से प्रभावित हैं। लालन फकीर एक दार्शनिक, गीतकार, संगीतकार, गायक, एक ऐसे बाउल साधक थे जिन्होंने मानवता को सर्वोच्च स्थान दिया। लालन को सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ बाउल साधक माना जाता है। ऐसा अनुमान है कि उन्होंने लगभग दो हजार बाउल गीतों की रचना की। उन्होंने कहा कि प्रत्येक मनुष्य के भीतर ‘मनेर मानुष‘ यानि ‘मन का मीत’- ईश्वर का वास है। इस शब्द से बाउल परम तत्व को छूते हैं।

लालन फकीर के बाद, पांडु शाह, दुग्ध शाह, भोला शाह, पागला कानाई, राधारमण दत्त, कांगाल हरिनाथ मजूमदार, नवकांत चट्टोपाध्याय, सरला देवी, इंदिरा देवी, हसन राजा, अतुल प्रसाद, विजय सरकार, द्विजदास, जलाल खान, वकील मुंशी, शाह अब्दुल करीम, रवींद्रनाथ टैगोर, काजी नजरूल इस्लाम सभी ने इस पारंपरिक लोक गीत को समृद्ध किया।

पूर्ण दास बाउल, ‘बाउल संप्रदाय’ के अंतिम सर्वश्रेष्ठ गायक माने जाते हैं। वे बाउल को आधुनिक दुनिया का हिस्सा बनानेवाले पहले व्यक्ति थे। 1962 में, पूर्ण दास ने विश्व युवा महोत्सव में हेलसिंकी में प्रदर्शन किया। उन्होंने विश्व के अनेक देशों में अपने गीतों को प्रस्तुत किया और बाउल का संदेश पहुँचाया। वर्ष 2013 में उन्हें भारत सरकार द्वारा ‘पद्मश्री’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

गुरुदेव टैगोर का उल्लेख किये बिना मेरी बात अधूरी रह जायेगी। गुरुदेव बाउल संगीत से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने बाउल गीतों में उपनिषदों के स्वर और तत्वों को पाया, जो मनुष्य के भीतर ईश्वर को खोजने की बात करते हैं। इस बात को खुद गुरुदेव टैगोर ने खुलकर स्वीकार किया है। इतना ही नहीं खुद को ‘रवींद्र-बाउल’ भी कहने लगे थे। गुरुदेव के दादा जी ज्योतीन्द्रनाथ टैगोर लालन फकीर से परिचित थे। बाद में गुरुदेव का परिचय लालन के शिष्य गगन हरकारा से हुआ। वे गगन हरकारा से बहुत प्रभावित थे। गुरुदेव की रचनाओं और संगीत पर भी बाउल गीतों और उन गीतों की धुनों का प्रभाव स्पष्ट दिखता है। गगन हरकारा के गीत ‘आमि कोथाय पाबो तारे, आमार मोनेर मानुष जे रे‘ की धुन पर ही उन्होंने ‘आमार शोनार बांग्ला‘ गीत की रचना की, जो बाद में बांग्लादेश का राष्ट्रगीत बना। बाउल साधक संप्रदाय पर गुरुदेव ने तीन ग्रंथ लिखे हैं। ‘हारामनी‘, ‘मानुषेर धर्म‘ और ‘बाउलेर गान‘।

गुजराती भाषा के गणमान्य कवि लेफ्टिनेंट डॉ. सतीश चंद्र व्यास ‘शब्द‘ की पुस्तक ‘बाउलनां गीतो’ पर भी अपनी बात रखूंगी। यह पुस्तक इस बात का प्रमाण है कि साहित्य, कला और संस्कृति को किसी भी सीमा में बांधा नहीं जा सकता। बंगाल के दूरदराज के गांवों में जाकर, बाउल संस्कृति, उनके गीत, संगीत का अध्ययन करते हुए उन गीतों का संकलन और गुजराती में उन्हीं गीतों का समगानी अनुवाद गुजराती साहित्य में लाना, दर्शाता है कि सतीश चंद्र जी ने इस विषय को आत्मसात किया है। इतना ही नहीं, बाउल गायकों द्वारा गाए 109 गीतों के शास्त्रीय राग और ताल की जानकारी के साथ, साउंडट्रैक के क्यूआर कोड भी उपलब्ध करवाए हैं। प्रसिद्ध चित्रकार श्री अंकुर सूचक ने पुस्तक में शामिल प्रत्येक गीत के अनुरूप अद्भुत रेखाचित्र बनाए हैं। बंगाल के जिन कवियों ने इन पारंपरिक बाउल गीतों को समृद्ध किया उनमें मैं गुजराती कवि आदरणीय डॉ. सतीश चंद्र व्यास ‘शब्द’ का नाम जोड़ना चाहूंगी। 

आधुनिक काल में बाउल साधक संप्रदाय के अतिरिक्त एक बाउल गायक संप्रदाय भी अस्तित्व में आया है, जिसका साधना से कोई लेना-देना नहीं है, फिर भी हमें इस परंपरा को जनता के सामने लाने के लिए उनका स्वागत करना चाहिए, बशर्ते वे उन गीतों के भावों को न बदलें।

इस महत्वपूर्ण जानकारी के साथ मैं अपनी बात को विराम देती हूँ कि वर्ष 2006 में, यूनेस्को ने बंगाल के बाउल गान को मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत के प्रतिनिधि के रूप में सूचीबद्ध किया है। हम भारतीयों के लिए यह निश्चित ही गर्व की बात है। 

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समीक्षा

समी. श्री अवधेश प्रीत

समी. अवधेश प्रीत, वरिष्ठ कथाकार, पटना, बिहार,  

समीक्ष्य कृति: मेरा स्वर्णिम बंगाल-यात्रा संस्मरण  

प्रकाशक: मातृभारती डॉट कॉम, अहमदाबाद

ले. सुश्री मल्लिका मुखर्जी, अहमदाबाद, मो. 97129 21614


मेरा स्वर्णिम बंगाल: अतीत और इतिहास की अंतर्यात्रा

देश विभाजन भारतीय उपमहाद्वीप की एक ऐसी त्रासदी है, जिसकी पीड़ा पीढ़ियों तक महसूस की जायेगी। इस विभाजन ने सिर्फ सरहदें ही नहीं खींचीं, बल्कि सामाजिक समरसता और साझा संस्कृति की विरासत को भी तहस-नहस कर दिया। राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की भेंट चढ़ा दी गई मनुष्यता को, मानव इतिहास कभी माफ नहीं कर पायेगा। वजह है, विभाजन से उपजा विस्थापन। संबंधों का विस्थापन, जड़ों से विस्थापन और संरक्षा-सुरक्षा के भरोसे का विस्थापन। इन कही-अनकही पीड़ाओं को इतिहास ने आंकड़ों में, तथ्यों में चाहे जितना दर्ज किया हो, लेकिन अपनों को सदा के लिए खो देने का गम, भीतर-ही-भीतर सूख चुके आँसुओं का गीलापन और यादों में दर्ज अपने वतन का नक्शा इतिहास में दर्ज नहीं होता। इस कमी को साहित्य पूरा करता है। हिन्दी साहित्य में भारत-पाक विभाजन पर काफी कुछ लिखा गया है। इस पुस्तक में भारत-पाक विभाजन से उपजी विस्थापन की पीड़ा और स्मृतियों के साथ-साथ भारत-पाक युध्द के परिणाम स्वरूप पाकिस्तान के विभाजन और विस्थापन की पीड़ा और स्मृतियाँ भी केंद्रित हैं। आशय यह कि पाकिस्तान से अलग होकर बने बांग्लादेश (तब पूर्वी पाकिस्तान) और उससे पैदा हुई विस्थापन की त्रासदी का हिन्दी में कोई यादगार उल्लेख नहीं मिलता। यह अकारण तो नहीं हुआ होगा? क्या यह सांस्कृतिक दूरी थी? हिन्दी भाषी लेखन से दूरी थी या पश्चिम और पूरब के प्रति हमारा विभेदपरक नजरिया? जो भी हो, हिन्दी में यह अभाव सालता तो है। ऐसे में संवेदनशील लेखिका मल्लिका मुखर्जी की बांग्लादेश से जुड़ी यह पुस्तक ‘मेरे स्वर्णिम बंगाल’ इस दिशा में देर आए दुरुस्त आए ही सही, एक सार्थक और बहुप्रतीक्षित पहल है।

यह पुस्तक यात्रा-वृतांत नहीं है, बल्कि उस अतीत और इतिहास की अंतर्यात्रा है, जिसे विभाजन के बाद एक पीढ़ी ने भुगता और उसकी संततियों ने अपनी रगों में महसूस किया। अपनी मिट्टी से मोह ,जड़ों से जुड़ाव और उससे सदा के लिए जुदा हो जाने का दर्द क्या होता है, यह कोई विस्थापित शरणार्थी ही समझ सकता है। मल्लिका जी ने विस्थापन की इस पीड़ा को अपने पिता, अपनी नानी और प्रकारांतर से कई परिजनों की स्मृतियों में अनवरत महसूस किया है। उनकी कही-अनकही बेचैनियों को करीब से जाना है। जाहिरन, इनसे होकर गुजरना, उसी पीड़ा और बेचैनियों में उतरना है। मल्लिका जी ने अपनी इस पुस्तक में आज के बांग्लादेश और कल के पूर्वी पाकिस्तान की एक साथ यात्रा की है। यह दोहरी पीड़ा की यात्रा है। यह एक भू-क्षेत्र के सौभाग्य-दुर्भाग्य की आंखमिचैली को जानने-समझने की कोशिश है। यह यात्रा जितनी निजी है, उतनी ही सार्वजनीन। दरअसल, यह एक आम आदमी की निजी यात्रा है, जिसमें अपने पुरखों की छूटी जन्मभूमि को देखने की भावुकता है। यह किसी संस्था, राज्य प्रायोजित यात्रा नहीं है। इस यात्रा में कोई गाइड नहीं है, कोई सुनियोजित कार्यक्रम नहीं है। यह एक ऐसी यात्रा है, जिसकी प्रेरणा पिता की स्मृतियाँ हैं और संबल उस देश में रह गये कुछ अपने-बेगानों के होने-मिलने की आस। इन्हीं संयोगों और सुयोगों का योग है यह पुस्तक। मल्लिका जी ने इस पुस्तक में पुरखों के घर-गाँव की तलाश करते हुए उस इतिहास की भी तलाश की है, जो किसी इतिहास की किताब में दर्ज नहीं। यह रिश्तों की पड़ताल है।

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समीक्षा

समी. डॉ. प्रणव भारती, वरिष्ठ साहित्यकार, अहमदाबाद, मो. 9940516484

ले. सुश्री मल्लिका मुखर्जी, अहमदाबाद, मो. 97129 21614


एक बार फिर: नयी बयार, स्नेह की बौछार!

‘एक बार फिर’ के रूप में श्रीमती मल्लिका मुखर्जी का दूसरा काव्य-संग्रह हमारे समक्ष है। ‘एक बार फिर’ मल्लिका की स्मृतियों की खिड़की से प्रसरित काव्य-पुष्पों ने वातावरण को सुरभित किया है। स्नेह, प्रेम व कोमलता की अनुभूतियों से भरी ये संवेदनशील कवयित्री की रचनाएँ उनकी ‘सकारात्मक सोच‘ को प्रस्तुत करती हैं -

‘मैं तुममें, तुम  मुझमें प्रिय,

नहीं जानती परिचय है क्या?’

कविता का अपना परिचय स्वयं कवि होता है, जिसके हृदय के उदगार उसे शब्दों के माध्यम से कभी कोमलता की अनुभूति कराते हैं, कभी पीड़ा के बादल बनकर उसके मन के आँगन में पसरने लगते हैं, कभी ये मेघ शीतल फुहार के साथ ऐसी विद्युत किरण से मन को आलोकित कर देते हैं कि वीराने और अंधकार में भी बहार आ जाती है।

प्रेम ऐसी सौगात है जो मनुष्य को जिलाए रखती है। प्रेमी हृदय मन-तंत्र के तार छेड़ता हुआ कभी भटकाव के द्वार पर आकर स्थित हो जाता है तो कभी स्थितप्रज्ञ की भांति जो चलता है उसे चुपचाप महसूसता रहता है। कविता वास्तव में दीपक की वह लौ है जो धीमे-धीमे जलती हुई कवि-मन को तो रोशन करती ही है, वह कविता-प्रेमियों के मन में एक शीतल बयार का झोंका लेकर उन्हें शीतलता की छुअन दे जाती है। मल्लिका की कविता मौन से मुखरित होकर अपने चहूँ वातावरण को शीतलता से भर चुकी है और अब ‘एक बार फिर’ के रूप में पुनः आलोक लेकर प्रस्तुत हुई है।

इस संग्रह में कवयित्री की प्रथम रचना एक प्रश्न के रूप में समक्ष आई है। प्रथम रचना ‘ऐसा क्या है तुममें’ में उनके मन का संशय उन्हें एक ऐसे रिश्ते की कोमल सनातन डोर में बांधता प्रतीत होता है जिसका साक्षी इस सृष्टि का प्रत्येक व्यक्ति है। वास्तव में संबंधों की यह गुहार नित नए सपनों को जन्म देती है। मनुष्य इन्हीं सपनों को देखते हुए अपना जीवन व्यतीत करता है। इन संबंधों के कोई नाम होने जरूरी नहीं होते, बस ये होते हैं। आगे बढ़ते हुए कवयित्री के मन की दुविधा ‘क्यों?’ में सिमटी प्रदर्शित होती है। प्रेम जो एक शाश्वत सत्य है इस भौतिक परिवेश में न जाने कितने प्रश्नों को लेकर खड़ा है ! 

मल्लिका की कविताएँ रेशम की एक डोर से बांधी गई प्रतीत होती हैं, जिसका उन्हें यदा-कदा यह भी अहसास सा होता रहता है कि कहीं वह डोर उनके हाथ से फिसल न जाए। एक कोमल नारी मन की अभिव्यक्ति ‘सौहार्द’ में ऐसा सरल प्रश्न लेकर उपस्थित होती है जिसका उत्तर संभवतः मौन में ही मुखरित होता है। कवयित्री पूछती हैं -

छा गया तन पर तुम्हारा अनोखापन,

दोषी हूँ क्या मैं, बताओ मुझे?

स्मृतियाँ सदा संवेदनशील मानव-मन को झकझोरती हैं। मल्लिका ‘तुम्हारी याद‘ में अपनी स्मृतियों की पगडंडी पर चलती हैं। इस रचना की पंक्तियाँ एक कोमल गीत को प्रतिबिंबित करती है-

कमल की पंखुड़ियों पर 

रुकी ओस की बूँद में 

या सरोवर की सतह पर ठहरी

भोर की धुंध में,

कोयल के अस्फुट गान में 

या भँवरे की मीठी तान में

हर जगह पाया मैंने 

तुम्हारे स्पर्श का आह्लाद !

कहाँ-कहाँ से मिटाती मैं 

तुम्हारी याद ?

‘अनुबंध‘ हो अथवा ‘आत्मनिवेदन‘ कविता की संवेदनशीलता आकर सिमट जाती है ‘कोई ऐसा पल‘ में जिसमें वह उस सुख की छाँह में साँस लेना चाहती है जिस पल में उनका प्रिय उनके साथ हो -

आँखों में मस्ती,

निगाहों में छल हो,

समय से चुराया कोई ऐसा पल हो!

और फिर ‘दीवानी मीरा‘ में आकर  वे एक मीठे उलाहने के साथ  प्रश्नों की पगडंडी पर आकर खड़ी हुई  नजर आती हैं -

गिरधर बनना भी नहीं था 

तुम्हारे बस में 

फिर दीवानी मीरा क्यों  बनाया मुझे?      

‘अहसास‘ हो अथवा ‘अनमोल वरदान‘ कवयित्री के मन का शृंगार काव्य में छलकता है। ‘अहसास‘ में वे कहती हैं -

छू लो मुझे, एक बार फिर 

पाषाण में प्राण भर दो ।

चेतना का संचार कर 

रोम-रोम पुलकित कर दो ।

थोड़ी-सी जगह दे दो 

अपने हृदय के आसपास,

महसूस तो हो मुझे 

मेरे होने का अहसास !  

‘अनमोल वरदान’ में उनका धन्यवाद-अर्पण का सुख कितना सुहाना है ! 

मेरे हृदय की अतल गहराई में 

छुप जाओ तुम,

तुम्हीं हो मेरा अंतिम चरण!     

संग्रह की पैंसठ रंग-बिरंगी रचनाओं में केवल प्रेम के नाजुक क्षण ही कैद नहीं हैं, उनमें एक स्मृति के रूप में कविताएँ निहित हैं जिनमें ‘नव वर्ष का पहला दिन’, ‘मक्के की रोटी’, ‘चिड़िया’, ‘पगडंडी’ ‘व ‘पता ही न चला’ जैसी रचनाओं के माध्यम से मन में उठने वाले प्रश्नों को मानवीय संवेदना के माध्यम से कविता ‘सामूहिक’, ‘अबला’, ‘चक्रव्यूह’, ‘बँटवारा’, ‘विडंबना’, ‘क्षमा करो प्रभु’, ‘जिंदगी’, ‘मृत्यु’ आदि अन्य अनेकों चित्रों को बनाती हुई ‘यही सच है’ की दहलीज पर आ ठिठकती है, फिर आगे बढ़ जाती है।

मल्लिका की कविता-यात्रा केवल शिकवे-शिकायतों व आमंत्रण-निमंत्रण के मार्ग पर ही नहीं चलती किन्तु ‘खूँटी’ जैसी नन्ही सी रचना के माध्यम से भी बहुत कुछ कह जाती है। ‘नजरिया’ के माध्यम से बेटी की शिक्षा पर भी यथोचित भार देती हुई दिखाई देती हैं।

माता-पिता, बंधु-बांधवों यानी रिश्तों की लड़ी में भी पिरोई हुई और कभी टूटती हुई भी दिखाई देती हैं। कविताओं के इस संग्रह में स्नेह का झरना बहता है, प्रेम की स्वीकारोक्ति, स्मृतियाँ, सूरज का पश्चिम से निकलना जैसी असंभावित भावना को सहेजती हुई लहरों के दर्द के साथ चलती हुई रचनाएँ आध्यात्म को भी छूती नज़र आती हैं। वास्तव में आध्यात्म का प्रथम सोपान संवेदनशीलता ही तो है।

मुख्य रूप से प्रेम की डगर पर चलने वाली मल्लिका के संवेदनशील  मन में उमड़ते हुए भाव विभिन्न प्रकार के लिबास पहनकर सतरंगी वातावरण तैयार कर देते हैं, और कविता की व्याख्या चरितार्थ होने लगती है। वास्तव में कविता मन में घूमती हुई, झूमती हुई अनेकों प्रश्न प्रस्तुत करती है। कविता ने कई बार मेरे मन में भी कितने ही प्रश्न प्रस्तुत किए हैं।

कविता पायल की  है रुनझुन,

कविता करती मन में गुनगुन। 

कविता  रोती, कविता  गाती,

कविता मन ही मन मुस्काती। 

कविता  है मन का  प्रेम-राग,

कविता  दीवाली, यही  फाग। 

मल्लिका की कविताएँ इसी प्रकार हरेक रंग में रंगी हुई हैं। उनका रंगों से सराबोर मन मुस्काता हुआ पाठक को अपनी रचनाओं को पढ़ने का निमंत्रण देता है। आशा है ‘एक बार फिर‘ की ये रंग-बिरंगी कविताएँ पाठकों में नयी सुरभि फैलाएंगी तथा नवीन आलोक से रोशन करेंगी। मैं मल्लिका को उनके कविता संग्रह ‘एक बार फिर‘ के लिए बधाई देती हूँ और अभ्यर्थना करती हूँ कि उनकी कविताओं में उत्तरोत्तर चमक आये, साहित्य-जगत में उनका स्वागत हो और वे सदा स्वयं को शब्दों के माध्यम से प्रतिबिम्बित करती रहें।

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रिपोर्ट 

सुश्री मल्लिका मुखर्जी, अहमदाबाद, मो. 97129 21614


‘अहमदाबाद इंटरनेशनल लिटरेचर फेस्टिवल’ (2022) 

  में निभाई वक्ता और मीडिया कोऑर्डिनेटर की भूमिका

भारत के सबसे प्रतिष्ठित विषय-उन्मुख साहित्य उत्सव के रूप में मान्यता प्राप्त, ‘अहमदाबाद इंटरनेशनल लिटरेचर फेस्टिवल’ (सातवाँ संस्करण) टैग लाइन ‘डिस्कस, डिबेट, डीकंस्ट्रक्ट‘ के साथ 8 और 9 अक्टूबर 2022 को, अहमदाबाद स्थित सुरम्य और प्राकृतिक स्थल, ‘पर्यावरण शिक्षा केंद्र‘ (CEEमें आयोजित किया गया। इस सीजन का थीम था ‘ह्युमन्स, नेचर एंड द फ्यूचर‘। 

फेस्टिवल के संस्थापक/निदेशक श्री उमाशंकर यादव ने इस वर्ष चर्चा के लिए प्रकृति, संस्कृति, गीत, कथा, जीवनी, क्षेत्रीय साहित्य, रक्षा कथाएं, जलवायु और वन, महिलाओं के मुद्दे, बाल साहित्य, सिनेमा, लोककथाओं, कविता, नाटक, विश्व साहित्य, आदिवासी साहित्य और अन्य कई विषयों को केन्द्र में रखा, जिसमें 80 से अधिक वक्ताओं ने हिस्सा लिया जो अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि थी। इसके अलावा पुस्तक लोकार्पण, पुरस्कार, प्रस्तुतियाँ, पाठ्येतर गतिविधियाँ, बहुभाषी कविता के साथ संगीत संध्या, नाटक जैसे अन्य कार्यक्रम भी थे। 

वक्ताओं में ‘गिनीज बुक ऑफ वल्र्ड रिकॉर्ड’ होल्डर, प्रसिद्ध गीतकार समीर अन्जान, हिन्दी फिल्म अभिनेता, निर्माता और लेखक श्री तुषार कपूर, भारत के सबसे कम उम्र के परमवीर चक्र पुरस्कार विजेता, ‘द हीरो ऑफ टाइगर हिल‘ के लेखक, ऑनररी कैप्टन योगेन्द्र सिंह यादव, आदिवासी साहित्य के महान प्रतिपादक डॉ. भगवानदास पटेल, ऑस्ट्रेलियाई कवि, लेखक और मल्टी-मीडिया कलाकार कैथरीन हम्मेल, आयरिश दूतावास मुंबई के उप महावाणिज्य दूत, एलिसन रेली, इंफाल (मणिपुर) के युवा और सम्मानित कवि श्री वांगथोई खुमान, पद्मश्री कार्तिकेय साराभाई, कवि और अभिनेता श्री रवि यादव, लेखक डॉ. हीरा लाल (आईएएस) जैसे कई गणमान्य लेखक तथा दूरदराज के क्षेत्रों से अनेक उभरते लेखक भी वक्ता के रूप में शामिल थे। 

गुजरात को अपनी कर्मभूमि बनाने वाले श्री उमाशंकर यादव जी, अपने व्यवसाय के साथ-साथ साहित्यिक गतिविधियों में भी उतनी ही रुचि लेते रहे हैं। उनका कहना है कि साहित्य का समाज पर सकारात्मक असर होना भी उतना ही जरूरी है। AILF की स्थापना का उनका उद्देश्य भी यही है कि साहित्य के माध्यम से लोग न केवल हर राज्य के बल्कि विभिन्न देशों के साहित्य और कला यानी ‘संस्कृति’ से परिचित हो। प्रत्येक वक्ता को अपने रचनात्मक हिस्से को लोगों के सामने पेश करने का मौका मिलता है। ऐसे आयोजनों से देश में एक कल्चरल इन्फ्रास्ट्रक्चर (सांस्कृतिक आधारभूत संरचना) तैयार होता है। दर्शकों को यह महसूस होता है कि संस्कृति, भावनात्मक एकता को कैसे प्रोत्साहित करती है, जिसमें सभी धर्मों, जातियों और सीमाओं के भेद मिट जाते हैं। एक सुंदर समाज का निर्माण होता है। इस फेस्टिवल के आयोजन से न केवल गुजरात टूरिजम को प्रोत्साहन मिलता है, बल्कि रचनात्मक उद्योग (creative industry) के लोग जो इस कार्यक्रम के आयोजन में जुड़ते हैं, उन्हें भी प्रोत्साहन मिलता है। 

‘आइकॉन एजुकेशन फाउंडेशन‘ की पहल और ‘आइकॉन बारकोड’ द्वारा संचालित यह फेस्टिवल गुजरात के लोगों में साहित्य के प्रति रुचि पैदा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस फेस्टिवल में आम तौर पर संस्कृति, विरासत, समाज, पर्यावरण और मानवीय मुद्दों के आधार पर विषयों का चयन किया जाता है, ताकि दर्शकों को इन विषयों को बेहतर ढंग से समझने और समाज की भलाई के लिए उन्हें डिकोड करने में मदद मिल सके। 

वर्ष 2016 में इसकी स्थापना के बाद से इसे कई सरकारी और निजी संगठनों से लगातार समर्थन मिल रहा है। इस संस्करण में टूरिज्म कॉरपोरेशन ऑफ गुजरात लिमिटेड संरक्षक है और जीएमडीसी ‘सिल्वर प्रायोजक’ है।

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सत्र-पाँच                                                                               विषय: क्षेत्रीय साहित्यः एक कलात्मक ख़जाना

सुश्री मल्लिका मुखर्जी, अहमदाबाद, मो. 97129 21614


अहमदाबाद इंटरनेशनल लिटरेचर फेस्टिवल (2022)  

9 अक्टूबर 2022 को सेंटर फॉर एनवायरनमेंट एजुकेशन (CEE), अहमदाबाद में आयोजित “अहमदाबाद इंटरनेशनल लिटरेचर फेस्टिवल” (सातवाँ संस्करण) के पाँचवें सत्र का विषय था ‘क्षेत्रीय साहित्यः एक कलात्मक ख़जाना’। इस सत्र के वक्ता, भारत के अलग अलग राज्यों के थे। शिक्षाविद, लेखक, संपादक, अनुवादक, श्रीमती एस. आर. मेहता आर्ट्स कॉलेज, अहमदाबाद के सेवानिवृत्त प्राचार्य तथा भारतीय भाषा संस्कृति संस्थान, गुजरात विद्यापीठ के निदेशक डॉ. इंदिरा नित्यानंदम (तमिलनाडु), गुजरात के केंद्रीय विश्वविद्यालय, गांधीनगर, भारत में डायस्पोरा अध्ययन में सहायक प्रोफेसर और सेंटर फॉर एशियन अमेरिकन स्टडीज, इलिनोइस विश्वविद्यालय, यूएसए में विजिटिंग फेलो डॉ. सजाउद्दीन एन. छप्परबन (महाराष्ट्र), ‘‘साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार‘‘ से सम्मानित हो चुके कवि/लेखक, वर्तमान में मणिपुर युनिवर्सिटी के अंग्रेजी और सांस्कृतिक अध्ययन विभाग में ‘लोक-साहित्य’ विषय पर पीएचडी कर रहे श्री वांगथोई खुमान (मणिपुर), और मॉडरेटर की भूमिका में, कार्यालय प्रधान निदेशक लेखापरीक्षा, गुजरात, अहमदाबाद से सेवानिवृत्त वरिष्ठ लेखापरीक्षा अधिकारी तथा बहुभाषी लेखक मल्लिका मुखर्जी (बंगाल) थे। 

शिक्षाविद, लेखक, एडिटर, अनुवादक डॉ. रईसा उस्मानी के स्वागत से कार्यक्रम की शुरुआत हुई। उन्होंने गीतांजलि श्री के हिंदी उपन्यास ‘‘रेत समाधि‘‘ के अनुवाद ‘‘टॉम्ब ऑफ सैंड‘‘, जिसे अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार मिला है, यह कहकर संदर्भ दिया कि क्षेत्रीय साहित्य भी अंतर्राष्ट्रीय मंच पर स्थान पा सकता है। मंच पर उपस्थित सभी स्पीकर्स का परिचय दिया और कार्यक्रम का संचालन मॉडरेटर मल्लिका मुखर्जी को सौंपा। AILF संस्थापक/निदेशक उमाशंकर यादव जी का आभार व्यक्त करते हुए मल्लिका मुखर्जी ने बहुभाषी लेखक होने के नाते एक घटना का ज़िक्र करते हुए कार्यक्रम की शुरुआत की। कुछ साल पहले सुप्रसिद्ध कथाकार डॉ. रानू मुखर्जी के प्रस्ताव पर मुंबई युनिवर्सिटी के गुजराती विभाग के अध्यक्ष डॉ. उर्वशी पंड्या ने ‘साहित्यिक कृतिओं के सामाजिक-सांस्कृतिक विश्लेषण और सिनेमा में उनका रूपांतरण’ विषय पर आयोजित होने वाले सेमीनार के लिए उन्हें साउथ की किसी भाषा का उपन्यास और उस पर बनी फिल्म के बारे में लिखने को कहा था। उन्होंने इस चेलेंज को स्वीकारते हुए एम. ए. के अभ्यासक्रम में पढे, साहित्यकार तकषी शिवशंकर पिल्लै द्वारा लिखित मलयालम उपन्यास ‘चेम्मीन’ और उस पर उसी नाम से बनी फिल्म देखकर उस पर आलेख लिखा था, जिसे सराहा गया। 

मल्लिका ने कहा भारत दुनिया में सबसे अधिक भाषाई विविधता वाले देशों में से एक है। भारतीय साहित्य को किसी एक भाषा में अंकित नहीं किया जा सकता। प्राचीनता, विविधता, गुणवत्ता में समृद्ध भारत की प्रत्येक भाषा के साहित्य की अपनी विशिष्ट और गहन विशेषता है और अनुवाद भारतीय साहित्य की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। हिन्दी या अंग्रेजी में अनूदित होकर प्रांतीय भाषाओं के लेखन को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक आधार मिल रहा है। इससे पता चलता है कि क्षेत्रीय भाषाओं के साहित्य का महत्व भी कम नहीं है। 

उन्होंने यह भी कहा कि गुजराती साहित्य भारत की अन्य भाषाओं के साहित्य जितना समृद्ध है, लेकिन राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसे उतना मंच नहीं मिला, जितना मिलना चाहिए था। अर्वाचीन साहित्य की बात करें तो नर्मद, दलपत राम के बाद कलापी, नरसिंहराव दिवेटिया, उमाशंकर जोशी, कनैया लाल मुंशी, गोवर्धनराम त्रिपाठी, पन्नालाल पटेल, धूमकेतु जैसे अनेक नाम हैं। गुजराती लोकसाहित्य के विशेषज्ञ झवेर चंद मेघाणी को हम नहीं भूल सकते। 

गुजरात की धरती पर आयोजित इस उत्सव में उन्होंने सत्र की शुरुआत गुजराती कवि ध्रुव भट्ट के एक गीत की दो पंक्तियों से की-

ओचिंतु कोई मने रस्ते मळे ने कदी धीरेथी पूछे के केम छे? 

आपणे तो कहिए के दरिया शी मोजमां ने उपरथी कुदरतनी रहेम छे।

सर्व प्रथम उन्होंने डॉ. सजाउद्दीन जी से यह जानना चाहा कि क्षेत्रीय साहित्य के बारे में उनकी क्या राय है? डॉ. सजाउद्दीन ने कहा कि क्षेत्रीय साहित्य एक विशिष्ट क्षेत्र के पात्रों, बोली, रीति-रिवाजों, स्थलाकृति और अन्य विशेषताओं पर केंद्रित होता है। हम रीजनल लैंग्वेज या लिटरेचर को रीजन की हद तक ही देखते हैं। हकीकत में हमारे देश के हर रीजन में भी अनेक बोलियाँ हैं। कुछ गिनी हुई है और बाकी की गिनती में भी नहीं है। अगर महाराष्ट्र की बात करें तो वहाँ मराठी, कोंकणी, दक्षिणी, मराठवाड़ी और उर्दू जबान के साथ साथ अन्य कई क्षेत्रीय व जनजातीय भाषाओं का प्रयोग होता है। इनमे से कई भाषाओं में साहित्य लिखा गया है, लेकिन बाहर नहीं आया।

डॉ. सजाउद्दीन की बात का समर्थन करते हुए मल्लिका ने कहा कि भारत के किसी भी राज्य में शिष्ट साहित्य के साथ-साथ लोक-साहित्य भी है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लोक-साहित्य को ‘जनपद का हृदय-कलरव’ कहा है। उन्होंने बंगाल के लोक साहित्य को इकट्ठा करने, संरक्षित करने और मूल्यांकन करने के अपना बहुमूल्य योगदान देने वाले साहित्यकार गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर, दिनेश चंद्र सेन, आशुतोष भट्टाचार्य,  मुहम्मद मंसुरुद्दीन, डॉ. अशरफ सिदिक्की आदि का जिक्र किया और कहा कि सभी भारतीय भाषाओं में लोक तत्त्व की प्रधानता है। भारतीय साहित्य में लोक नायक के रूप में जिन दो नायक चरित्रों ने हमारे जातीय चरित्र पर सर्वाधिक प्रभाव डाला है वे हैं श्रीराम और श्रीकृष्ण। गोस्वामी तुलसीदास के ‘रामचरित मानस’ के रचनाकाल से लगभग सौ वर्ष पूर्व पन्द्रहवीं शताब्दी में बंग-भाषा के आदिकवि संत कृत्तिवास ओझा ने बांग्ला में ‘कृत्तिवासी रामायण’ की रचना की। यह मूल रामायण का शब्दानुवाद नहीं है, बल्कि इसमें लेखक ने मध्यकालीन बंगाल के सामाजिक रीति-रिवाजों, संस्कृति को भी सम्मिलित किया है। उदाहरणार्थ श्री राम ने युद्ध जीतने के लिए दुर्गा पूजा की। 

चर्चा को आगे बढ़ाते हुए मल्लिका ने नारायण देसाई की ‘गांधी कथा‘ का गुजराती से अंग्रेजी में अनुवाद करने वाले डॉ. इंदिरा नित्यानंदम जी से पूछा कि साहित्य कहीं का भी हो, अनुवाद के माध्यम से ही विश्व से जुड़ सकता है। साहित्यिक अनुवाद में सबसे बड़ी चुनौती मूल की भव्यता को खोए बिना पूरी तरह से अनुवादित कृति का निर्माण करना है। कभी-कभी एक शब्द भी परेशान कर सकता है। क्या किसी कृति का अनुवाद करते समय उन्हें किसी परेशानी का सामना करना पड़ा?

प्रतिक्रया में डॉ. इंदिरा जी ने सर्वप्रथम तमिल कविता की दो पक्तियाँ सुनाई जो उनके प्रदेश प्रेम को अभिव्यक्त कर रही थी-

चेन्दमिझ नाड़ेनुम पोदिनिले

इन्ब तेन वंदु पायदु कादिनिले

जिसका अर्थ है-

जब मैं तमिल भूमि (चेन्दमिझ नाडु) शब्द सुनता हूँ, 

मधुर शहद मेरे कानों में घुल जाता है। 

फिर उन्होंने आदिकवि संत कृत्तिवास ओझा रचित बांग्ला ‘कृत्तिवासी रामायण’ के संदर्भ में तमिल साहित्य की सर्वोत्कृष्ट कृति “कम्ब रामायण” की बात की। मध्ययुगीन तमिल कवि कम्बन द्वारा रचित इस रामायण का कथानक वाल्मीकि रामायण से लिया गया है, परन्तु कम्बन ने भी अपनी मान्यता के अनुसार विविध परिस्थितियों के प्रस्तुतीकरण, घटनाओं के चित्रण, पात्रों के संवाद में परिवर्तन किए हैं। इस रामायण के बारे में एक बहुत गलतफहमी चल रही है कि इसके लेखक द्रविडियन है, इसलिए उन्होंने रावण को हीरो के रूप में चित्रित किया है। हकीकत में ऐसा नहीं है। रावण ने एक भूल की, लेकिन उनमें अनेक हीरोइक क्वालिटीज थीं और कम्बन ने रावण का चरित्र ठीक उसी तरह लिखा है। 

अनुवाद के अनुभवों के बारे में इंदिरा जी ने कहा कि उन्हें शब्दों के अनुवाद में उतनी तकलीफ नहीं हुई जितना गांधीजी के अनुभवों से हुई। भारत आने से पहले गांधीजी अफ्रीका में थे और वहीं उनकी प्रयोगशाला भी थी। एक अनुभव जो उन्होंने लिखा है कि एक बार वे एक ग्रुप के साथ जंगल के रास्ते जा रहे थे। रास्ते में एक झरना आया जिसमे पानी तेजी से बह रहा था। इसे कूद कर पार करना था। ग्रुप में एक महिला भी थी, उसकी गोद में 3 या 4 महीने का एक शिशु था। झरने को कूदकर पार करते हुए शिशु, बहते पानी में गिरकर बहने लगा। सब रुक गए कि अब क्या किया जाए? वह महिला बोली, ‘जो गया वह तो वापस नहीं आएगा, चलो हम हमारे काम में आगे बढ़ते हैं।’ इस पंक्ति को पढ़कर वे बहुत रोई और नारायण देसाई से मिली। उन्होंने कहा कि इस पंक्ति का अनुवाद वे नहीं कर पा रही हैं। कहने का मतलब यह है कि अनुवाद सिर्फ़ शब्दों का अनुवाद नहीं है, एक कल्चर उसमें बसे लोगों के अनुभवों का अनुवाद है। इसीलिए कहा जाता है कि एक लेखक राष्ट्रीय साहित्य की रचना करता है तो एक अनुवादक विश्व साहित्य की रचना करता है। अनुवाद के इस अनुभव को सुनकर उपस्थित श्रोता गण और मंचासीन लेखक गण भावुक हो गए। 

मणिपुर से पधारे युवा कवि श्री वांगथोई खुमान जी को चर्चा में शामिल करते हुए मल्लिका ने  उनसे मणिपुरी आदिवासी साहित्य, उनकी लिपियों के बारे में जानना चाहा। श्रोताओं को यह जानकारी भी दी कि मणिपुरी भाषा का साहित्य समृद्ध है। 1973 से आज तक 39 मणिपुरी साहित्यकारों को साहित्य अकादमी पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। खुमान जी भी वर्ष 2014 में ‘‘साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार‘‘ से सम्मानित हो चुके हैं। वे मणिपुर युनिवर्सिटी में ‘लोक-साहित्य’ विषय पर पीएचडी कर रहे हैं।

खुमान जी ने कहा, ‘मणिपुरी साहित्य बहुत पुराना है, लेकिन  मणिपुर में आदिवासी साहित्य लिखित रूप में अधिक मात्रा में उपलब्ध नहीं है। अभी भी यह मौखिक एवं श्रुति परम्परा पर आधारित रहा है। एक मात्र मैतेई कम्युनिटी के पास लिखित में है। अन्य जन जातियों की अलग अलग भाषाएँ हैं, लेकिन मैतैलोन या मणिपुरी भाषा ही राज्य की संपर्क भाषा है। इसे भारत की राष्ट्रीय भाषाओं में से एक के रूप में मान्यता प्राप्त है। इस भाषा में लिखा साहित्य भारत की अन्य भाषाओं में लिखे साहित्य जितना ही समृद्ध है। मैतेई भाषा की वर्णमाला लिपि ह्यूमन बॉडीज के अवयवों पर बनी है। दसवीं कक्षा तक शिक्षा के माध्यम में इसी भाषा का प्रयोग होता है। पढ़ाई के कोर्स में रोमन अल्फाबेट का उपयोग भी होता है। 

चर्चा का दौर आगे बढ़ा और डॉ. सजाउद्दीन जी से पूछा गया कि भारत का क्षेत्रीय साहित्य प्रत्येक राज्य की स्थानीय संस्कृति की विशेषताओं को व्यक्त करता है। क्या भारत के क्षेत्रीय साहित्य में अपनी राष्ट्रीय पहचान से ऊपर उठने और दुनिया भर के पाठकों को आकर्षित करने की क्षमता है?

डॉ. सजाउद्दीन ने कहा कि अगर ‘गीतांजलि’ का अंग्रेजी में अनुवाद नहीं होता तो दुनिया टैगोर की कविताओं से वंचित रह जाती और टैगोर को नोबेल पुरस्कार नहीं मिल पाता। 32 मिलियन लोग भारत के बाहर रहते हैं, अर्थात भारत का साहित्य दुनिया के कई देशों में बिखरा हुआ है, जिसे हम प्रवासी साहित्य कह सकते हैं। 1920 के दौरान साउथ अफ्रीका की जो करेंसी थी उस पर अंग्रेजी, अरेबिक तथा गुजराती लिपि में लिखा होता था। स्वतंत्रता के बाद, प्रवासी भारतीयों में एक सांस्कृतिक पुनरुत्थान हुआ और उन्होंने अपनी भाषाओं को बचाने के लिए विदेशों में तमिल संगम, उड़िया समाज, बंगाली समाज, गुजराती समाज नाम से अपनी कम्युनिटी के ग्रुप बनाएं। साउथ ईस्ट एशिया में भी इसी तरह भारतीय साहित्य उपलब्ध है। इजराइल में भी मराठी लिटरेचर उपलब्ध है।

उनके जवाब का समर्थन करते हुए मल्लिका ने बंगाल के बाउल संप्रदाय की जानकारी दी। बाउल संप्रदाय मूल रूप से ग्रामीण बंगाल की संस्कृति का हिस्सा है। बाउल साधक संगीत साधना के माध्यम से देह-साधना करते हैं। बाउल संप्रदाय के सर्वश्रेष्ठ गायक पद्मश्री पूर्ण दास बाउल इस संगीत को आधुनिक दुनिया का हिस्सा बनानेवाले पहले व्यक्ति थे। 1962 में, पूर्ण दास ने विश्व युवा महोत्सव में हेलसिंकी में प्रदर्शन किया। उन्होंने विश्व के अनेक देशों में अपने गीतों को प्रस्तुत किया और बाउल का संदेश पहुँचाया। वर्ष 2006 में, यूनेस्को ने बंगाल के बाउल गान को मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत के प्रतिनिधि के रूप में सूचीबद्ध किया है। 

दुनिया के हाशिए पर पड़े वर्ग से संबंधित दलित साहित्य भी क्षेत्रीय साहित्य का एक अंग है। दलित साहित्य की चर्चा अब विश्व स्तर पर हो रही है। एक अनुवादक के रूप में डॉ. इंदिरा नित्यानंदम जी ने तमिल कविताओं और तमिल दलित लघु कथाओं के संग्रह का गुजराती में अनुवाद और प्रकाशन किया है। वे एक तमिल दलित उपन्यास का गुजराती में अनुवाद कर रही हैं। यह जानकर ये जिज्ञासा हुई कि इंदिरा जी को ‘दलित साहित्य का अनुवाद करना क्यों पसंद है?’ 

जवाब में इंदिरा जी ने कहा कि वे 40 साल तक अंग्रेजी की प्रोफेसर रही हैं और अंग्रेजी साहित्य में उन्होंने ब्लैक लिटरेचर पढ़ा है, जो अश्वेत लोगों की दुर्दशा का वर्णन करता है। वे हिंसक नस्लवाद का सामना करते हैं। उन्हें विचार आया कि क्या हमारे देश में भी ऐसा कोई लिटरेचर है जिसमें इतनी पीड़ा, इतनी यातना हो? उन्होंने पाया कि भारत के क्षेत्रीय साहित्य में ऐसा साहित्य उपलब्ध है, जिसे हम दलित साहित्य कह सकते हैं। उन्होंने दलित साहित्य के अनुवाद के दो कारण बताए। एक, वे उस समुदाय की पीड़ा को बाँटना चाहती थीं और यह भी चाहती थी कि उनकी पीड़ा को राज्य से बाहर ले जाया जाए। उन्होंने महसूस किया कि इस साहित्य का हिंदी या अंग्रेजी में अनुवाद करने से पहले भारतीय भाषाओं में अनुवाद होना बहुत जरूरी है। शिष्ट साहित्य का अनुवाद करने की अपेक्षा दलित साहित्य का अनुवाद करना अधिक कठिन है। भाषा तमिल है लेकिन उनके पास कुछ विशेष शब्द हैं जिनके लिए उन्हें नीचे फुटनोट देने होते हैं।

चर्चा का रुझान अब मणिपुरी साहित्य की ओर बढ़ा। वांगथोई खुमान जी से पूछा गया कि मणिपुरी साहित्य में दलित साहित्य उपलब्ध नहीं है, उसका कारण क्या है? उनसे पता चला कि वास्तव में मणिपुरी सामाजिक व्यवस्था में हिंदू सामाजिक व्यवस्था जैसी वर्ण और जाति व्यवस्था कभी नहीं रही। वहाँ न पहले छुआछूत या जातिगत भेदभाव था और न ही आज है। उत्पीड़ित वर्ग यहाँ भी है लेकिन उसे दलित विमर्श के तहत नहीं रखा जा सकता। मणिपुर में शोषण/उत्पीड़न का इतिहास समाजशास्त्र के बजाय राजनीति और प्रशासन से प्रेरित है। आरक्षण की राजनीति के बावजूद रोटी-बेटी का रिश्ता समाज के सभी वर्गों के बीच मौजूद है।

कई सुप्रसिद्ध हिन्दी लेखकों की रचनाओं का मणिपुरी भाषा में अनुवाद कार्य किया गया है। मुंशी प्रेमचन्द की रचनाएँ तो उच्च स्तरीय मणिपुरी पाठ्यक्रम में भी स्थान पा चुकी हैं। बंगाली, संस्कृत, कन्नड, हिन्दी, मराठी, अंग्रेजी, असमिया साहित्य का भी मणिपुरी में अनुवाद हुआ है। अनुवाद से संबंधित कुछ जानकारी के साथ अपने आप में एक अनूठा सत्र समाप्त हुआ। 

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सत्र-दस                                                            विषय: लोककथाएँ: गुजरात के तराई क्षेत्रों की अमर कहानियाँ

सुश्री मल्लिका मुखर्जी, अहमदाबाद, मो. 97129 21614

 

अहमदाबाद इंटरनेशनल लिटरेचर फेस्टिवल (2022)

9 अक्टूबर 2022 को सेंटर फॉर एनवायरनमेंट एजुकेशन (CEE), अहमदाबाद में आयोजित “अहमदाबाद इंटरनेशनल लिटरेचर फेस्टिवल” (सातवाँ संस्करण) के दसवें सत्र का विषय था ‘लोककथाएँः गुजरात के तराई क्षेत्रों की अमर कहानियाँ’ इस सत्र के वक्ता थे आदिवासी लोकसाहित्यकर, संपादक, लेखक डॉ. भगवान दास पटेल, गुजरात कॉलेज के असिस्टेंट प्रोफेसर निसर्ग आहिर और मॉडरेटर एक उत्साही पाठक और साहित्यिक उत्साही जिग्नेश परमार वर्तमान में ‘जलसो’ म्यूजिक ऐप, अहमदाबाद में एक सामग्री निर्माता और शोधकर्ता। सुश्री निराली त्रिवेदी ने आदरणीय वक्ताओं का स्वागत करते हुए चर्चा की डोर जिग्नेश परमार को सौंपी। 

डॉ. भगवान दास का परिचय देते हुए जिग्नेश जी ने कहा कि भगवान दास जंगल में जी रही मानव जाति के साथ घुलमिल गए हैं। गुजरात से आदिवासी समाज में प्रचलित ‘डाकन प्रथा’ को दूर करने में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। यह एक ऐसी कुप्रथा थी जिसमें कुछ महिलाओं पर चुड़ैल अथवा डाकन होने का आरोप लगता कि वे अपनी तांत्रिक शक्तियों से नन्हें शिशुओं को मार देती है। झाड़फूँक करने वाले ओझा, तांत्रिक या भोपा जब किसी स्त्री के डाकन होने की पुष्टि कर देता तब अंधविश्वास के कारण उसे जलाकर या पीट-पीटकर मार डाला जाता था। भगवान दास जी ने इस प्रथा संबंधित अनेक लोकप्रिय नाटक लिखें और उस समाज में ही उसकी प्रस्तुति करते रहे। लोगों में उसका असर भी हुआ। गुजरात सरकार भी उनकी बात से कनेक्ट हुई और ये प्रथा दूर हुई। 

उनकी इस लोक यात्रा के बारे में जिग्नेश परमार ने उनके द्वारा संपादित महाकाव्यों के बारे में जानना चाहा। भगवान दास जी ने कहा कि उनकी यह लोक यात्रा 1980 से शुरू हुई। मुख्यतया उत्तर गुजरात के खेडब्रह्मा और दाँता तालुका में रहने वाले डूंगरी भील समाज में वे घूमते रहे। उन्होंने कहा कि लोक साहित्य का लोगों की संस्कृति और समाज के जीवन मूल्यों से आविर्भाव होता है। बरसों तक उस समाज में घूमकर उन्होंने मौखिक परंपरा से पीढ़ी दर पीढ़ी संरक्षित चले आ रहे साहित्य की अलग-अलग विधाओं के पंद्रह सौ ऑडियो कैसेट, पचास वीडियो कैसेट तैयार किए। इस तरह उन्होंने आदिवासी कंठ परंपरा का दस्तावेजीकरण किया। 

उनका संपादन करके पचास ग्रंथ प्रकाशित किए, जिसमें एक हजार लोकगीत, पूरा कथाएँ, लोक कथाएँ, इक्कीस लोकाख्यान और चार महाकाव्य “रॉम सीतमानी वारता’ (भीली रामायण), ‘भीलोनु भारथ’ (भीली महाभारत), ‘गुजरांनो अरेलो’ और ‘राठोरवारता’ शामिल है। यह बताता है कि आदिवासियों के पास भी अपनी लोक संस्कृति के प्रतीक रूप महाकाव्य हैं। एक बात यहाँ मैं जोड़ना चाहूँगी कि उनकी किताब ‘भीलोनु भारथ‘ का सुश्री मृदुला पारिख ने हिन्दी में, डॉ. गणेश देवी ने अंग्रेजी में और सुश्री जया मित्रा ने बांग्ला भाषा में अनुवाद किया है। यह साहित्य अब विश्व तक पहुँचा है और कई विश्वविद्यालयों की पढ़ाई में भी इसे शामिल किया गया है।

प्रोफेसर निसर्ग आहिर ने कहा कि आदि गाथा सिर्फ आदिवासी का साहित्य नहीं। पहले बात हुई फिर वार्ता बनी। ये हकीकत में दो गाथाएं हैं, ग्राम संस्कृति गाथा और अरण्य संस्कृति गाथा। लोक संस्कृति से ही नगर संस्कृति का विकास हुआ है। लोक शास्त्र में से ही क्लासिक शास्त्र बना है। नींव में लोक है।

‘आदि महाकाव्यों की प्रस्तुति कैसे होती है?’ इस प्रश्न के जवाब में भगवान दास ने कहा कि भाद्र महीने में महा मार्गी पाठ का अवसर आता है। उत्तर गुजरात के डूंगरी भील समाज की बात करते हुए उन्होंने कहा कि अपने आसपास बैठे (रागिया) अपना स्थान ग्रहण कर लें बाद में साधु महाकाव्य गाने के लिए सर्वप्रथम सोये हुए वाद्य यंत्र ‘तंबूर’ को जगाने के लिए मंत्र बोलते हैं, फिर उसे अपनी गोद में लेकर मनाने का मंत्र बोलते हैं। तंबूर उनके लिए जीवंत देवता है। तंबूर के साथ संधान स्थापित होने के बाद ही वे अपनी कथा उस पर गाते हुए शुरू करते हैं।

उन्होंने कथा के साथ गायक के रिश्ते के बारे में भी बताया। सर्जक अपनी अनुभूतियों को कृति के माध्यम से, मौखिक परंपरा से अपने चित्त में स्थिर करता है, और जीवन भर उसके साथ ही जीता है। जो भी सर्जन होता है उसे समाज को अर्पित कर देता है। उन्होंने खेडब्रह्मा तालुका के एक गाँव पंथाल की हरमो बहन नामक एक आदिवासी महिला की एक रसप्रद घटना का भी जिक्र किया। उनकी आवाज में एक कथा गीत का रिकॉर्डिंग पंद्रह दिनों तक चला।

अंत में उन्होंने उस महिला से पूछा, ‘यह गीत क्या आप रोज गाते हैं?’

महिला ने भावुक होकर कहा, ‘नहीं, अगर रोज गाएंगे तो देवता दुःखी हो जाएंगे। सुनने वाले भी दुःखी हो जाएंगे, क्योंकि इसमें करुण प्रसंग होते हैं। हम किसी का दुःख देख नहीं सकते।

‘लेकिन मेरे सामने तो आप पंद्रह दिनों से यह गीत गा रही हैं।’

जवाब में उस महिला ने कहा, ‘मेरे पाँच बेटे हैं, लेकिन वे मेरे पाप से पैदा हुए हैं। तू मेरा धर्म का बेटा है। सत्य का बेटा है। तू जब आता है, तब बारिश के आते ही जैसे हरा घास डोलने लगता है, उस तरह मेरी आत्मा डोलने लगती है। इसलिए मैं यह गीत गाती हूँ।‘

जिग्नेश परमार ने जानना चाहा कि लोक कथा और लोक संस्कृति को प्रतिपादित करने में स्थापत्य का कितना योगदान है? भगवान दास ने कहा, ‘स्थापत्य और लोक साहित्य अलग चीजें हैं, उसकी तुलना नहीं हो सकती। उनकी बातों के समर्थन में कला मर्मज्ञ प्रो. निसर्ग आहिर ने कहा कि मानवी ने मन को विकसित किया है और मन के भाव व्यक्त करने के लिए भाषा है। लोक कथाओं में भाव और मूल्य साथ-साथ चलते हैं। कितनी ही कथाएं मिलती है। कथाओं में बोलना और सुनना दोनों होता है। बहुत सारी कथाओं का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि भाषा के इस दोनों बिंदु पर एक विश्व की रचना होती है। इन कथाओं में प्रेम, शौर्य, समर्पण, उदारता, धैर्य, मैत्री भाईचारा, सेवा- इन सब मूल्यों का चित्रण हुआ है।

‘लोक-कथाओं में ऐसा कौनसा तत्व है, जो आप को आकर्षित करता है?’ जिग्नेश परमार के इस प्रश्न के जवाब में निसर्ग जी ने कहा, ‘लोक कथाओं की कथनकला अद्भुत होती है। अद्भुत वर्णन से कथाकार श्रोताओं को एक रस से दूसरे रस में ले जाता है और नवरस का आस्वाद कराता है। लोक-कथाओं में प्रकृति के तत्व शामिल है। एक ही दायरे में जीने वाले लोग, जिनका व्यवहार आसपास के दो चार गाँवों तक ही सीमित है, फिर भी उनका जीवन खुशहाल होता है। नदी, रण, पशु, जंगल से उनका रिश्ता होता है। आदिवासी लोग एक वृक्ष काटने से पहले भी वे उस वृक्ष से क्षमा याचना करते हैं। उनके बीच जाति भेद नहीं होता। उदारता उनके लहू में हैं। हम सभ्य मानव समाज, उस तत्व तक पहुँचे ही नहीं हैं।’

महाराष्ट्र के आदिवासी जिव्या सोमा म्हसे, जिन्हें 2011 में वारली पेंटिंग में उनके योगदान के लिए पद्मश्री से सन्मानित किया गया था, उन्हें भी भगवानदास ही सामने लाए थे।

निसर्ग जी को पूछा गया कि आदि गाथा को कैसे देखते हैं। उनका जवाब था, ‘आदि गाथा में शब्दों की जीवंतता है जो मुझे बहुत अच्छी लगती है।’ एक दोहा भी सुनाया।

कागा सब तन खाइयो, के चुन चुन खाइयो माँस,

दो नैना मत खाइयो, मोहे पिया मिलन की आस।

‘युवा पीढ़ी के लिए कनेक्टिविटी कैसे खोजनी है?’ उस पर निसर्ग जी ने डॉ. भगवान दास से पूछा कि नई पीढ़ी को हम इस साहित्य से कैसे जोड़ सकते हैं? तब उन्होंने कहा कि हर युग के संदर्भ के अनुसार साहित्य को ढालना पड़ता है। वर्तमान में हमें सोशल मीडिया का ही सहारा लेना पड़ेगा। मैं भी 1500 ऑडियो रिकॉर्डिंग के माध्यम से ही आदिवासी साहित्य को समाज के सामने रख पाया हूँ।

निसर्ग जी से पूछा गया, ‘आप शिल्प साहित्य को कैसे देख सकते हैं?’ उन्होंने कहा, ‘भाषा का ज्ञान न हो तो हम साहित्य को समझ नहीं पाएंगे। शिल्प, स्थापत्य और चित्र यह यूनिवर्सल लैंग्वेज है, जिसे भाषा नहीं आती वह भी समझ सकता है। प्राचीन गुफा चित्र, चित्र कलाएं क्लासिकल टच वाले श्रेष्ठ शिल्प, हमारी आदि कला है। लोक कलाकार के पास चेतना है। सारे शिल्प क्लासिकल टच वाले हैं। खजुराहो में उत्तम शिल्प हैं। पटचित्रों की बात कही। उस समय मानव समाज टोटालिटी में ही जीता था।’ 

अंत में कथाओं के साथ गायक का रिश्ता बताते हुए भगवान दास ने कहा कि लोक गायक कथा के आरंभ करने से पहले माँ सरस्वती का भजन गाता है, और उन्हें जगाता है। उनकी माँ सरस्वती का रिश्ता पुस्तक के साथ नहीं, परंतु कंठ के साथ है। वे पाताल में रहती हैं, क्योंकि उनका संबंध जमीन यानी प्रकृति के साथ है।

‘भीलोंनु भारथ’ पुस्तक के बारे में उन्होंने रसप्रद बातें बताई। भील जाति में मातृसत्ता समाज हमारे पितृसत्ता समाज की तरह ही विद्यमान है। पति के संपत्ति की मालकिन वही होती है। स्त्री अगर विधवा हुई तो वह दूसरी शादी कर सकती है। उसी घर में रहकर भी वह दूसरा पति ला सकती है। नए पति को जातीय संबंध बांधना और बच्चों का लालन पालन करना, इसके सिवाय और कोई हक नहीं मिलता। वह चाहे तो इस पति को छोड़ भी सकती है। इस पुस्तक में मातृसत्ता का जीवन दर्शन दर्शाती पांडु की एक रसप्रद कहानी बताकर उन्होंने अपनी बात समाप्त की।


डॉ. भगवान दास पटेल का सम्मान कर रहे श्री उमाशंकर यादव जी



‘भीलोनु भारथ‘ पुस्तक का सुश्री जया मित्रा ने बांग्ला में अनुवाद किया।



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