अभिनव इमरोज़ फरवरी 2023





कविताएँ

सुश्री मल्लिका मुखर्जी, अहमदाबाद, मो. 97129 21614


मुझे मिल गए कैसे तुम

चलते-चलते एक मोड़ पर, 

मुझे मिल गए कैसे तुम!


एक नया अधिकार मिला है, 

आज मिट गए सारे ग़म।

संग बदरिया झूम रही मैं, 

जैसे फूलों पर शबनम।

छूकर मुझको हवा चली है,

  मुझे छू गए जैसे तुम!

सप्त रंग हैं खिले क्षितिज पर, 

हुआ धरा-नभ का संगम। 

स्वप्नलोक में पहुँच गई मैं, 

आसमान पर रखे क़दम।

शाम सुहानी लगती है हर,

रंग भर गए ऐसे तुम!


सारी ख़ुशियाँ है दामन में, 

बाँहों में है आज गगन। 

भीगी-भीगी है ख़ामोशी, 

बरस रहा है जो सावन।

मौन रहकर भी तो ज़ुबाँ से, 

बहुत कह गए वैसे तुम!


अनुबंध

अनुबंध नहीं था कोई 

हमारे बीच 

फिर

क्यों बँधी रही जीवनभर 

मैं तुम्हारे साथ?

मूक समर्थन था तुम्हारा

या

मौन सहमति थी मेरी?  

‘प्रेम’- करता रहा 

मनुहार, 

कभी तुमसे

कभी मुझसे  

सहता रहा दुत्कार।

यह भी अनुभव रहा ‘प्रेम’ का 

हम से मिलकर 

रह गया अकेला 

जीवनभर! 


आत्मनिवेदन

क्या-क्या न लिखा 

ज़िंदगी की रेत पर 

तुम्हारे नाम!

तुम,

मेरे पास न होकर भी 

चलते रहे मेरे साथ 

हर पल, हर घड़ी।

कैसे भूलती मैं उन पलों को 

जो तुम्हारे खयालों में बीते,

जिन्हें मैंने महसूस किए।  

तुम्हारा मुखरित मौन 

और ख़ामोश जज़्बात, 

अब भी सुरक्षित है 

मेरे मन के 

एक अछूते कोने में!


आवागमन

मेरे जीवन में आए तुम 

दबे पाँव 

कुछ इस तरह - 

न किसी को सुनाई दी तुम्हारी पदचाप,

न ही किसी ने देखे तुम्हारे पदचिह्न!

लहलहाने लगी प्रेम की फसलें 

मेरे अस्तित्व की ज़मीं पर,

उम्मीदों के परिन्दे मँडराने लगे 

मेरे आसमाँ में। 

आँख-मिचैली खेलने लगी 

चाहत की बिजलियाँ 

मेरे क्षितिज की सीमा पर। 


एक दिन फिर

चले भी गए तुम ऐसे 

दबे पाँव 

कुछ इस तरह-

न किसी को सुनाई दी तुम्हारी पदचाप,

न ही किसी ने देखे तुम्हारे पदचिह्न!


उजड़ गई 

लहलहाती प्रेम की फसलें,

तोड़ दिया दम 

उम्मीदों के परिंदों ने।

चाहत की बिजलियों ने 

अपनी प्रचंड ताकत से 

छलनी कर दिया मेरे सीने को,

समय थम गया वहीं!

ख़्वाब और हक़ीक़त के बीच का 

फ़र्क बता गया,

मेरे जीवन में

तुम्हारा आवागमन! 


एक समय ऐसा भी था


एक समय ऐसा भी था, जब बड़े मधुर थे रिश्ते सारे,

संग-संग पापा के मेरे, मुझको प्यार बुआ करती थी!


मैं तो थी उपवन की तितली, संग पवन के करती फेरा,

रिश्ता मेरा कलियों से था, फूलों से  था नाता  मेरा।

लताकुंज पर मंडराती मैं, कभी इधर तो कभी उधर भी,

तन-मन सदा तरंगित मेरे, हर डाली पर था जो डेरा।


पंखों पर थी बिछी लालिमा, निखर रहे थे रंग नये भी, 

रंग-बिरंगी दुनिया मेरी, पहले कभी हुआ करती थी!


मैं तो थी बस वन की हिरणी,  आँखे मेरी तरल नशीली, 

रोम-रोम  पुलकित था मेरा,  काया मेरी  बड़ी लचीली।

मंज़िल की थी चाह नहीं, पर तेज क़दम चलती थी हरदम

लगता था हर मोड़ नया,  औ’ पगडंडी भी बड़ी लजीली!


साथ मगर तब थे तुम मेरे, महक बसी थी मिट्टी में भी,

बात करूँ क्या मृदुल हवाएँ,  कैसे मुझे छुआ करती थीं!


मैं तो थी मधुबन की मैना, सपने बुनती मुग्ध नयन में,

पंख चपल फैला कर अपने, उड़ती थी बस नील गगन में।

सावन जब आता था घिरकर, नव सिंगार सजती थी धरती,

गीत नवल गा-गाकर मैं तो, लहराती थी मस्त पवन में।


दूर हुए हो जब तुम मुझसे,  काट लिए हैं पंख समय ने,

बिछड़ गई वो दुनिया ही, जो मेरे लिए दुआ करती थी!


ऐसा क्या है तुममें


तुम्हारे अपनों की सूची में

कहीं भी 

अंकित नहीं है मेरा नाम,

तुम्हारे घर से निकला कोई रास्ता 

मेरे घर तक नहीं आता। 

कोई वादा 

नहीं किया तुमने 

कि मेरे साथ चलोगे तुम, 

फिर 

ऐसा क्या है तुममें

कि 

रच लिए मैंने 

इतने सपने नयन में?



खूब मिले हम


फूल  बने  हम  लहराए हर एक चमन में, 

हर मौसम में खूब खिले हम वन-उपवन में! 

लक्ष्य एक था  हम दोनों का ख़ुशियाँ पाना,

खुश्बू  बनकर खूब बहे हम  मस्त पवन में! 


गीत बने हम, चहक उठे हर इक आंगन में, 

हर डाली पर खूब मिले हम उस कानन में! 

लक्ष्य एक था हम दोनों का मंज़िल पाना, 

पंछी बनकर खूब उड़े हम नील गगन में!


लहर बने हम समा गए नदिया के तन में, 

हर सावन में खूब सजे हम मत्स्य नयन में! 

लक्ष्य एक था हम दोनों का अमृत पाना,

मन्थन बनकर खूब घुले हम सिन्धु अयन में!


तुमसे मिलना ज़रूरी नहीं रहा

हमारी आभासी बातचीत के दौरान,

तुम मुझसे बार-बार पूछते थे, 

‘तुम भुला तो नहीं दोगी मुझे?’ 

शायद इसी वजह से 

इस दुनिया को अलविदा कहते हुए 

तुमने 

मुझसे अपनी एक मुलाकात उधार रख ली, 

क्योंकि तुम जानते थे कि 

उधार लेने वालों को लोग भुला नहीं पाते। 

हालांकि मैंने कई कर्ज़दारों को भुला दिया है, 

लेकिन तुम्हारी बात अलग है।

पिछले इकतालीस सालों में

कभी हमारी मुलाक़ात नहीं हुई, 

फिर भी तुम्हें भुलाया नहीं गया 

तो अब क्यों भूलेंगे? 

तुम मुलाक़ात से कहीं ऊपर उठ गए हो। 

तुम्हें याद करने के लिए 

तुमसे मिलना ज़रूरी नहीं रहा! 

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          संपादकीय 

‘‘हम फिर मिलेंगे, ईश्वर के उस बगीचे में जहाँ प्रेम के सिवा कुछ नहीं। इस बार हमारे बीच समय का कोई फासला नहीं होगा। न भूत न भविष्य, अनंत आसमा में वर्तमान का बस एक स्थिर क्षण होगा। सितारे बनकर हम इस मैत्री को ब्रह्मांड में अनंत काल तक बनाए रखेंगे। हमारा अस्तित्व प्रेम बन जाएगा और आसमान की अनंतता में बिखर जाएगा। प्रेम के अर्थ तक पहुँचने के बाद हमने जिस प्रेम की आध्यात्मिकता का अनुभव किया, वह प्रेम आज मेरी प्रार्थना बन गया है और ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग भी। मैं अनंत से जुड़ गई! आई लव यू अश्विन, आई लव यू।’’  मल्लिका

मल्लिका से प्रेरित होकर याद आ गई एक बहुत पुरानी कविता- उसी के अंश प्रस्तुत हैं। उस समय मेरी दोस्त 70वां जन्मदिन मनाने जा रही थीं-

वैलेंटाइन दिवस की शुभकामनाओं के साथ-

सोलहवीं सालगिरिह

...........

आओ पहना कर आएं- हरे पत्ते

उन सूखे दरख्तां को-

जिनके साए में दो बेबस पंछी-

प्यार से रहते थे, लिए पनाहे-हौंसला,

उग रही थी मासूमियत की पौध आस पास,

उम्मीदों के सिलसिले, ख़्वाब दर ख़्वाब,

तामीर हो रहे थे दिन रात,

अफ़सोस... किस्मत में न था छोटा सा घोंसला,

पर यख़वस्तः हो चुके थे, उड़ान भर न सके।


बस एक बार हो कर आएं

उस शिवमन्दिर की दहलीज़ पर

लेकर आएं अपनी मिन्नतों और मन्नतों का हिसाब

क्या कमी थी हमारी आस्था में ?

पंडित जी मिलें तो पूछें-

कौन दोष थे ग्रहों के ?

मेरा मंगल भारी था या शनि अशुभ ?

क्या पटारे से सब उपाय उड़ चुके थे

... शायद मुक़्क़दर ही न था हक़ में,

तुम तो पार्वती ही रहीं

मैं शिव बन न सका।


बस एक बार मेरी तसल्ली के लिए-

चल कर आएँ उन सड़कों पर-

जो आज भी बिछी बैठी हैं, हमारे इन्तज़ार में

फिर एक बार जी कर आएं उन फिज़ाओं में,

कुछ सांसे समेट लाएं उन्हीं हवाओं से,

चुरा लाएं चांदनी उस चांद की,

जो तुम्हारे घर से उदय होकर,

मेरे घर के ऊपर से निकल जाया करता था

मैं तरसता रह गया, वो मेरे यहाँ उतर न सका।

तुम तो चाँदनी की चाँदनी ही रही

मैं चाँद बन न सका।


बस..........बस..........सिर्फ़.........एक.........बार

मेरी हम नफस

बस..........बस..........सिर्फ़.........एक.........बार


दोहराकर जी लेने दो वो सब जो मेरा हो न सका।


सोलहवीं सालगिरिह मुबारक हो,

चैंकना मत, मैं मजबूर हूँ,

क़मज़ोरी-ए-ज़हन समझो,

या समझो असरे पहली मुलाक़ात

जो है बरकरार आज तक,

गिनती मुझे सोलह तक ही आती है,

तुम मेरे लिए इससे ऊपर जा न सकीं

और मैं ये सालगिरिह कभी भुला न सका

ख़ुदा हाफिज़

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कविताएँ

सुश्री मल्लिका मुखर्जी, अहमदाबाद, मो. 97129 21614


पापा, अनमोल रतन 

ढूँढ रही मैं आज क़सम से, प्यारा वो माहौल कहाँ है?

पापा, तुमसे बढ़कर जग में एक रतन अनमोल कहाँ है!


सुबह सवेरे मुझे उठाते, नाद मधुर जब घड़ी सुनाती,

छुप जाती मैं तो लिहाफ़ में, सोचूँ-रोज सुबह क्यों आती।

 

‘आज पढ़ाई खास नहीं है।’ कर लेती मैं नया बहाना,

एक झूठ कहकर तुमसे मैं करवट लेकर फिर सो जाती। 


पूछ रही मैं-अरी बावरी, खोया स्नेह टटोल कहाँ है?

पापा, तुमसे बढ़कर जग में एक रतन अनमोल कहाँ है!


देर रात तक पढ़ती जब मैं, जागे बैठे रहते थे तुम,

‘रात बहुत बीती है बेटी, सो जाओ अब’ कहते थे तुम। 


कैसे भूलूँ दिन बचपन के, बीत गया जो समय सुहाना,

फुरसत जब भी मिलती तुमको, एक कहानी कहते थे तुम। 


बरसातें आती-जाती है, लेकिन वो हिल्लोल कहाँ है?

पापा, तुमसे बढ़कर जग में एक रतन अनमोल कहाँ है!


गलती से भी तुमने मुझको किसी बात पर डाँट दिया गर,

सजल तुम्हारी आँखें देखी, गुस्सा मुख पे छलक रहा पर। 


सर पर रखकर हाथ प्यार से, पलभर में तुम मुझे मनाते,

‘माँ’ कहकर मुझको पुकारते, कानों में है गूँज रहा स्वर।

 

दौलत भी है शोहरत भी है, पर वो मीठे बोल कहाँ है?

पापा तुमसे बढ़कर जग में एक रतन अनमोल कहाँ है!


सच्चाई को गले लगा कर मार बड़ी खाई थी तुमने,

याद मुझे अब भी है, लेकिन जीत सदा पाई थी तुमने।


जितनी  भी  बाधाएँ  आईं,  सारी  तुमने  पार  कराई,

साथ चले मेरे तुम हरदम, क़सम यही खाई थी तुमने।


सच की राहें भले नुकीली, सच का कोई मोल कहाँ है?

पापा तुम से बढ़कर जग में एक रतन अनमोल कहाँ है!


पूरब की खिड़की

ग्रीष्म के आगमन से पहले ही 

शयनकक्ष में

खिड़की के ठीक ऊपर

ए.सी. लगाया गया,

स्मृतिपटल पर उभर आई अचानक 

गाँव की पुरानी कोठी के 

पूरब दिशा में स्थित 

उस छोटे से कमरे की खिड़की।

रोमांचकारी विश्व दृश्यमान होता 

जब भी नज़र दौड़ाती मैं 

खिड़की के पार! 

उगते सूरज की 

रेशमी किरणों की मुस्कान,

कंचे खेल रहे

बच्चों की खिलखिलाहट।

दूर पोखर किनारे 

आक के पौधों पर

झूमते सफेद-बैंगनी फूल,

उधर पीलू वृक्ष की छाँव तले 

बर्तन माँज रही नवोढ़ा के 

अधखुले घूँघट से 

झाँकता अप्रतिम सौंदर्य!


निःसीम थी दुनिया मेरी 

उस खिड़की के पार!

और भीतर?

शाम होते ही 

पीली रोशनी बिखेरता

धुंधला-सा बल्ब जल उठता।

बैठ जाती मैं 

पढ़ाई के बहाने 

खिड़की से सटी उस चैकी पर।

नोटबुक के 

आखिरी पृष्ठ पर 

सपने बुनती रोमानी भविष्य के।


मेरा प्रेम कब पनपा 

एक वट-वृक्ष की तरह

कब बदल गया ठूँठ में,

किसी ने न जाना, 

सिवा उस पूरब दिशा में 

खुलने वाली खिड़की के!    


संबंध

मेरे आँसुओं,

मेरे चिर-परिचित साथियों,

नयनों की अतल गहराई में 

डेरा डाले 

गुमसुम पड़े रहते हो तुम। 

मेरे हृदय की धरती पर जब 

कराहने लगती हैं व्यथाएँ

अकाल बनकर,

तब रूप धर सैलाब का 

चले आते हो तुम 

मेरे नयनों के धरातल पर!


तुम्हें रोकने की कोशिश में 

टूट जाते हैं 

मेरी नाज़ुक पलकों के किनारे,

पर 

विचलित नहीं होती हूँ मैं। 

किन्हीं कोमल हाथों का 

शीतल स्पर्श पाने को तरसते 

उन तपते सहरा-से मेरे गालों पर

बहने लगते हो तुम!


तुम्हारी ऊष्मा से ही सही 

व्यथाओं का धधकता अंगार

जब बुझ जाता है,

मेरे आकुल हृदय की धरती पर 

फिर से पनपती है 

उपजाऊ जमीं 

और मैं बुनने लगती हूँ सपना 

फिर 

एक नई फसल उगाने का!


सकारात्मक सोच

मुद्दत के बाद,

आज अचानक

राह चलते

नज़र पड़ी,

धरती का सीना चीरकर

निकलने वाली

उन हरी-हरी कोपलों पर!


सोच रही हूँ,

यह प्रकृति की उदारता है,

मेह का स्नेह है

या

बीज का साहस 

जो धरती की गोद में छिपकर

राह तक रहा था

सही समय का?


छलछलाते जा रहे 

तितलियाँ मंडरा रही, गुल खिलखिलाते जा रहे, 

और उनके संग भँवरे गुनगुनाते जा रहे।


भोर की किरणें ज़मीं पर उतर कर इठला रहीं,

और पंछी पंख अपने फड़फड़ाते जा रहे।

 

कूकती कोयल यहाँ पर, गीत गाती सारिका,

और बादल आसमाँ में मुस्कुराते जा रहे।


चाँद ही के संग देखो चाँदनी इतरा रही,

तारकों के साथ जुगनू जगमगाते जा रहे।


रातरानी की महक से रात  बहकी जा रही,

याद आए आप, आँसू छलछलाते जा रहे। 


सामंजस्य

कितना सामंजस्य है 

सपनों और वृक्षों में!

दोनों 

कतार में सजना पसंद करते हैं।

कितना भी काटो-छाँटों

उनकी टहनियाँ,

तोड़ लो सारे फल चाहे  

नोंच लो सारी पत्तियाँ,

मसल दो फूल और कलियाँ

फिर भी पनपते रहते हैं 

असीम जिजीविषा के साथ

जब तक उन्हें 

जड़ से न उखाड़ दिया जाए।  

बचा हो ज़हन में बीज तो 

अवसर मिलते ही 

फिर बेताब हो उठते हैं,

अपनी-अपनी ज़मीं पर 

अंकुरने के लिए! 

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पेशे से प्लास्टिक सर्जन, कवि, गायक, संगीतकार डॉ. श्यामल मुंशी की गुजराती कविता का हिन्दी  भावानुवाद - 

मल्लिका मुखर्जी , अहमदाबाद, मो.  97129 21614


आग 

बिंदी, मेहंदी, हल्दी का तो रंग बड़ा था कच्चा, 

आज बदन पर लगा जो काला, रंग वही है सच्चा।

आजकल की बात नहीं कि मैं अचानक जली, 

जलन तो थी यह बरसों की, आज ही ठंडक मिली।

बेटा होती जन्म से गर मैं, अलग ही होती बात, 

मिली मुझे है चकमक जैसी ज्वलनशील यह जात। 

दहेज के गहरे कुएँ में बापू ने लगाई डुबकी, 

उस पल मेरे अंतर में पहली चिंगारी भड़की। 

रंग बिरंगी सपने मेरे जले फिर बन गए राख,

खुली पलकें चुपके से रोती, फिर जलती रहती आँख।

सुलह की सारी लपटों ने जब अरमानों को छुआ,

दिल में मेरे आग जली, फिर धीरे उठा धुआँ।

रोक-टोक के धुएँ में जब साँसे घुटती जातीं, 

हर उच्छवास में तब मेरी ये छाती जलती जाती।

जलते हुए संपीड़न में खो गया मेरा अस्तित्व,

धीरे-धीरे बाष्पित होता चला मेरा व्यक्तित्व।

गलतफहमियाँ, टूटा भरोसा, सिकुड़ गया था साथ, 

बिना प्यार के शुष्क बने जब, मैंने जलाए हाथ।

रोज़ हताशा रोज़ निराशा, रोज़ रोज़ का ईंधन

टूट गया जल कर आखिर में, मन का था जो बंधन। 

सदियों की यह परम्परा है, मैंने भी रीत निभाई,

मिट्टी का तेल छिड़क दिया और सारी आग बुझाई!


कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर की बांग्ला प्रेम कविता ‘कुआर धारे’ का भावानुवाद- मल्लिका मुखर्जी, अहमदाबाद,
मो.  97129 21614


कुएँ के पास 

खड़ी रही मैं पास कुएँ के, नीम वृक्ष की छाया में,

भरी गगरिया सखियाँ लौटी जब निज गृह की माया में। 

बोली थीं वे समय बह चला, सोच रही क्या खड़ी खड़ी,

गूँथ रही थी मैं तो मन में, प्रेम फूल की लड़ी लड़ी!


दबे पाँव कब आ पहुँचे तुम, नीम पर्ण भी डोल रहे,

‘पथिक तृषातुर हूँ मैं‘- थे तुम क्लांत स्वर में बोल रहे। 

पास वहीं पर ऊंघ रही थी पगडंडी भी पड़ी पड़ी,

गूँथ रही थी मैं तो मन में, प्रेम फूल की लड़ी लड़ी!


नज़र झुका कर भरी गगरिया अंजलि में बस धार किए, 

तृषा बुझाई पथिक तुम्हारी, दिल के भीतर प्यार लिए। 

दोपहरी में कोयलिया भी कुक रही थी घड़ी घड़ी,

गूँथ रही थी मैं तो मन में, प्रेम फूल की लड़ी लड़ी!


‘नाम तुम्हारा क्या है बाला?’ नज़र मिलाकर पूछा जब,

बोल न पाई थी मैं कुछ भी, झुके नयन थे मेरे तब। 

मन-सागर में उमड़ रही थीं लहरें जैसे बड़ी बड़ी,

गूँथ रही थी मैं तो मन में, प्रेम फूल की लड़ी लड़ी!


माँग न पाई थी कुछ तुमसे, नाम भी न कह पाई थी,

दूर हुए जब नज़रों से तुम, मन ही मन शरमाई थी।

नीरवता की वाणी में, पर गूंज रही थी कसक बड़ी,

गूँथ रही थी मैं तो मन में, प्रेम फूल की लड़ी लड़ी!


पास कुएँ के खड़ी रही मैं, आसमान में धूप खिली, 

कोयलिया की स्वर लहरी भी आ धड़कन में खूब मिली। 

ख़्वाब सजा क्यों खुली आँख में जोड़ रही थी कड़ी कड़ी,

गूँथ रही थी मैं तो मन में, प्रेम फूल की लड़ी लड़ी!

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लघुकथाएँ

सुश्री मल्लिका मुखर्जी, अहमदाबाद, मो. 97129 21614

आभूषण

सेवानिवृत्त अधिकारी ने अपनी पेंशन की कुछ जमा राशि में से आने वाले त्यौहार के अवसर पर अपनी बेटी और चार बहुओं को एक-एक सोने का आभूषण भेंट करने का मन बनाया। 

उन्होंने त्यौहार के मौके पर विदेश से आई बेटी को यह ज़िम्मेदारी सौंपने का फैसला किया, और अपने बैंक अकाउंट से पर्याप्त राशि निकाल ली। घर आकर बेटी को रक़म देते हुए कहा, ‘तुम्हारे लिए और हर बहू के लिए एक-एक सोने का आभूषण बनवा लो।

राशि हाथ में लेते हुए बेटी ने एक पल सोचा, फिर बोली, ‘पापा, आपकी दो बहुएँ उच्च पदों पर कार्यरत हैं, आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं। मुझे नहीं लगता कि उन्हें कोई आभूषण देने की ज़रूरत है।‘

परिवार की बहू

आरिका एक पारिवारिक शादी में मुंबई आई है। देवर के बेटे की शादी का प्रसंग बखूबी सम्पन्न हुआ। दिसम्बर का महिना, सुबह का समय। हाउसमेड सब के लिए चाय-नाश्ता परोसकर अपने घर के लिए रवाना हो गई और परिवार के सभी सदस्य लिविंग रूम में बैठकर चाय-नाश्ते का लुत्फ़ उठाते हुए हल्के-फुल्के मूड में बातें करने लगे।

गपशप में क़रीब एक घंटा बीत गया। अचानक प्यारी ननद ने, परिवार की मझली बहू आरिका को आदेश दिया, ‘आरिका, एक बार फिर सबके लिए चाय बना दो।‘

दीदी का आदेश पाकर तुरंत आरिका के पति उठे और किचन की ओर बढ़ने लगे।

यह देखकर दीदी झुँझला उठी और बोलीं, ‘तू क्यों किचन में जा रहा है? चाय बनाने के लिए मैंने तेरी बीवी को बोला है, तुझे नहीं।’

आरिका के पति शांत स्वर में बोले, ‘पिछले बाईस साल से हमारे घर पर चाय मैं ही बनाता हूँ।’

‘अपने घर पर बनाता है तो क्या हुआ? आरिका इस परिवार की बहू है। यहाँ पर तो वो ही बनाएगी।’

‘नहीं, आप जानते हैं कि कार्यालय में उच्च पद पर कार्यरत होने के कारण कार्यालय में उसकी ज़िम्मेदारियाँ मेरे कार्यालय के काम से कहीं अधिक है। हमने घर के कामों को भी बराबर बाँट लिया है। मैं इसमें कोई फ़र्क नहीं करना चाहता।’ कहते हुए वे किचन में पहुँच गए। 

आरिका यह कहते हुए उठ खड़ी हुई, ‘मैं किचन में जाकर देखती हूँ कि चाय-चीनी के डिब्बे कहाँ रखे हैं।’ 

हैसियत 

वंदना कामकाजी महिला है। एक नामी संस्था में उच्च पद पर कार्यरत है। आज छुट्टी के दिन सुबह-सुबह उसकी माताजी हर बार की तरह अपना छोटा-सा एयरबैग लेकर आ पहुँची। वैसे तो माँ बेटे के परिवार के साथ रहती हैं, लेकिन अक्सर बहू से किसी बात पर विवाद होने के बाद बेटी वंदना के घर आ जाती हैं। वंदना हमेशा उनका गर्मजोशी से स्वागत करती है। वे जितना मर्ज़ी, अपनी बेटी के साथ पास रहती हैं  और फिर अपने बेटे के घर लौट जाती हैं। 

आज बैठक खंड में बैठते ही माँ बोलीं, ‘आज जब वहाँ से निकल रही थी, बहू ने मुझे यह सुना दिया कि बेटी के घर क्या मरने जा रही हैं? उसकी क्या हैसियत है? नौकरीपेशा बेटी है, क्या खाक़ सेवा करेगी आपकी?‘

‘आपने क्या कहा?’ वंदना ने पूछा। 

‘मैंने बस इतना कहा कि मैं अपनी बेटी के घर मरने ही जा रही हूँ। तुम्हारे ससुर की मृत्यु भी बेटी के घर में हुई थी। वह कामकाजी महिला ज़रूर है, फिर भी अपने दायित्व बोध से कभी पीछे नहीं हटीं। उसने तन, मन और धन से अपने पापा की सेवा की थी, इतना याद है।‘

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कहानी


सुश्री मल्लिका मुखर्जी, अहमदाबाद, मो. 97129 21614


दायरे से बाहर 

मुंबई की ओर जानेवाली ‘गुजरात क्वीन‘, अहमदाबाद रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर एक से अपने सही समय पर, शाम को ठीक 6ः10 बजे रवाना हुई। हर दिन एक ही ट्रेन से आवाज़ाही करने वाले लोगों का एक ग्रुप बन गया था। तनीषा काॅलेज की छात्रा थी और इस मित्र ग्रुप की सबसे छोटी सदस्या थी। अविनाश और मानिता भी इसी ग्रुप के सदस्य थे। अविनाश फैमिली बिज़नेस संभालते थे, मानिता अहमदाबाद के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर थीं। प्रेम विवाह के बंधन में बंधे संपन्न परिवार के इस जोड़े को ग्रुप में सबसे ख़ूबसूरत माना जाता था। क़रीब बारह लोगों के इस ग्रुप में युवा से लेकर बुजुर्ग तक, हर उम्र के सदस्य थे। महिलाएँ थीं तो पुरुष भी थे। कोई विद्यार्थी, कोई नौकरीशुदा, कोई व्यापारी। हँसी-मजाक के साथ-साथ कभी-कभी पार्टी भी आयोजित की जाती। ट्रेन ने रफ़्तार पकड़ी तो समूह के सदस्य दिनकर जी दबी आवाज़ में बोले, ‘अविनाश अब इस दुनिया में नहीं रहे।‘ 

 ‘क्या...?’ सभी एक साथ बोल उठे। सुनकर तनीषा का दिल धक् से रह गया। 

‘हाँ’

‘क्या हुआ था?’

‘हार्ट अटैक। परसों रात को ही उनका निधन हो गया।’

‘ओह...’ तनीषा इतना ही कह पाई। उसकी आवाज़ ट्रेन के शोर में डूब गई। अविनाश की मृत्यु की खबर से ग्रुप में गमगीनी छा गई। तनीषा को अब पता चला कि मानिता मैम आज सुबह की ट्रेन में क्यों नहीं दिखी। आज सोमवार था। शनिवार को ही यह हादसा हुआ था। 

ट्रेन की रफ़्तार के साथ तनीषा की सोच ने भी रफ़्तार पकड़ी। दृश्यपटल पर मानिता मैम के साथ विशाखा की छवि उभर आई। अविवाहित विशाखा, जो निसंतान मानिता मैम की ख़ुशी के लिए, उन्हीं की सहमति से अविनाश जी के बच्चे की माँ बनी थी! अविनाश जी के परिवार से विशाखा एक ऐसे रिश्ते से जुड़ी, जिसका कोई नाम देना इस युग में संभव नहीं था। क्या अविनाश जी के मौत की ख़बर विशाखा को दी गई होगी? वह आ पाएगी उनके अंतिम दर्शन करने? अगर आएगी भी तो क्या युवा बेटे सौम्य से उसका सामना होगा? सौम्य अपनी जन्मदात्री के रूप में उसे पहचानेगा? अनगिनत प्रश्नों के बादल उमड़ने लगे तनीषा के हृदयाकाश में। 

जीवनरूपी कागज़ के हाशिये पर खिसकते जा रहे मानवीय रिश्तों के बीच कुछ ऐसे लोग भी हैं जो औरों की ख़ुशी के लिए अपना सब कुछ दाँव पर लगा देते हैं! विशाखा उन्हीं लोगों में से एक थी। अविनाश जी और मानिता मैम अपनी उम्र के चालीस वर्ष पार कर चुके थे। दोनों के बीच असीम प्यार था। सारी ख़ुशियाँ थीं जीवन में, सिवा संतान सुख के! संयुक्त परिवार था। अविनाश जी की माताजी किसी बच्चे को गोद लेने के पक्ष में नहीं थीं, बल्कि बेटे के दूसरे विवाह के पक्ष में थीं। माँ के विचार से अविनाश जी सहमत नहीं थे। उस वक्त बच्चे के जन्म के लिए आईवीएफ तकनीक का आविष्कार तो हो चुका था, पर माँ को यह समझा पाना मुश्किल था। 

ऐसे में यह दंपति और उनकी युवा मित्र विशाखा के बीच क्या संवाद हुए किसी ने न जाना। विशाखा का यह क्रांतिकारी निर्णय उसके निश्छल प्रेम को, धर्म के नाम पर अपने पैरों तले कुचल देने वाले समाज के मुँह पर एक करारा तमाचा था! मानिता मैम के सूने जीवन में ख़ुशियाँ लाने हेतु विशाखा अविनाश जी के बच्चे की माँ बनी थी। किसी को पता न चले इसलिए बैंक से छुट्टी लेकर एक वर्ष तक मुंबई में रही और बच्चे के जन्म के कुछ ही समय बाद अपने किसी दूर के रिश्तेदार की मदद से बैंक की नौकरी छोड़कर संयुक्त राज्य अमरीका के न्यूयोर्क राज्य के रोचेस्टर शहर में पहुँच गई। अपने बेटे सौम्य को अपनी छाया तक से दूर रखा। अविनाश जी और मानिता मैम ही सौम्य के माता-पिता बने रहे। 

तनीषा की विचारधारा ने अब वर्षा की तेज बूंदों का रूप धर लिया, विचारों की बौछारों से आहत होने लगा मन। हर दंपति अपने ही अंश को अपनी संतान के रूप में देखना चाहते हैं, ये तो ठीक है, पर इसी कारण कितनी ही महिलाएँ बरसों तक अपना इलाज करवाती रहती हैं, कितनी शारीरिक एवं मानसिक यातनाओं से गुज़रती हैं, उनके दर्द की अनुभूति क्या परिवार में किसी को भी न होती होगी? 

सरोगेसी के बारे में कुछ इस तरह पढ़ा था तनीषा ने-- ट्रेडिशनल सरोगेसी पद्धति में संतान सुख के इच्‍छुक दंपत्ति में से पिता के शुक्राणुओं को एक स्‍वस्‍थ महिला के अंडाणु के साथ प्राकृतिक रूप से निषेचित किया जाता है। शुक्राणुओं को सरोगेट मदर के नेचुरल ओव्‍युलेशन के समय डाला जाता है। इसमें जेनेटिक संबंध सिर्फ़ पिता से होता है। जेस्‍टेशनल सरोगेसी पद्धति में माता-पिता के अंडाणु व शुक्राणुओं का मेल परखनली विधि से करवा कर भ्रूण को सरोगेट मदर की बच्‍चेदानी में प्रत्‍यारोपित कर दिया जाता है। इसमें बच्‍चे का जेनेटिक संबंध माँ और पिता दोनों से होता है। प्रजननहीनता कि जटिल स्थितियों में कृत्रिम गर्भाधान के ये तरीके सही है या नहीं इन बातों में पड़ना नही चाहती तनीषा। 

तनीषा की सोच एक नए मोड़ पर पहुँच गई। क्या भारत के ड़ॉ सुभाष मुखोपाध्याय या अमरीका के ड़ॉ रोबर्ट इडवर्डस यह महसूस कर पाए थे कि माँ बनना स्त्री के लिए स्वर्गिक अनुभूति से कम नही है? चिकित्सा विज्ञान में चमत्कार के फल स्वरूप ही अमरीका में 25 जुलाई 1978 के दिन इन विट्रों-फटिर्लाइजेशन (आईवीएफ) पद्धति से पहले टेस्ट ट्यूब बेबी का जन्म हुआ, उसके ठीक 67 दिन बाद 3 अक्टूबर 1978 के दिन भारत के कोलकाता में भारत की टेस्ट ट्यूब बेबी दुर्गा का जन्म हुआ। डॉ. एडवर्ड को मेडीसीन का नोबल पुरस्कार मिला और ड़ॉ. सुभाष मुखोपाध्याय अपनी उपलब्धि को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नही पहुँचा पाए और हताशा में उन्होने 19 जून 1981 को आत्महत्या कर ली! तनीषा की पलकें भीग गईं। 

अब तनीषा के लिए मुश्किल हो रहा था वह साँवली-सी लड़की विशाखा को अपनी नज़र से दूर करना। वह तनीषा से थोड़ी सीनियर थी। एक राष्ट्रीयकृत बैंक में कार्यरत थी। उसी ट्रेन की सहप्रवासिनी थी, पर ग्रुप से जुड़ी नहीं थी। कभी कभार आती और सब से हाय-हैलो कहकर चली जाती, अपनी अंतरंग सहेली रुखसाना के साथ। उसकी ख़ामोशी हर किसी का ध्यान आकर्षित करती। इस ख़ामोशी के पीछे की दर्दनाक कहानी तनीषा ने अपने ग्रुप की एक सदस्या से ही सुनी थी। 

कुछ वर्ष पहले तक विशाखा तितली सी चंचल नवयौवना थी। मुग्धावस्था की दहलीज़ पार करते ही उसके हृदय में विश्व के सबसे चर्चित शब्द ‘प्रेम’ का आर्विभाव हुआ। वह युवक विजातीय-धर्म का था और रुखसाना का सगा भाई था। यह बात अधिक दिनों तक छिपी न रह सकी। समाज में तहलखा मच गया। माता-पिता, भाई-बहन, सगे-संबंधी, समाज के सभी हितेच्छुओं ने इसका पूरज़ोर विरोध किया। प्रेमी युगल पर मिलने की पाबंदी लग गई। 

एक दिन विशाखा को ख़बर मिली कि जिस के साथ प्रेम की बुलंदी पर पहुँचकर जीवन में ‘स्वीटहोम’ बसाने की कल्पना किया करती थी वह इस जुदाई को सह न सका और ख़ुदकुशी के ज़रिए दुनिया ही छोड़ गया। सिहर उठा था विशाखा का अंतरमन। वह नितांत अकेली हो गई। उसके शाश्वत प्रेम का अंजाम इतना दर्दनाक होगा कभी सोचा ही न था। विशाखा के आँसू पलकों पर ही सूख गए। वह पत्थर बन चुकी थी। उसके बाद से किसी ने उसे मुस्कुराते हुए नहीं देखा। इस घटना से भी उसकी और रुखसाना की दोस्ती में कोई फ़र्क नहीं पड़ा। दोनों साथ ही नज़र आते। 

तनीषा की आँखों के सामने एक बार दोनों सहेलियों की तस्वीर घूम गई। विशाखा के इस निर्णय के पीछे कहीं उसकी चरम हताशा तो नहीं थी? उसके अविवाहित माँ बनने के क्रांतिकारी निर्णय से रुखसाना अनजान नहीं हो सकती। क्या मानिता मैम की ख़ुशी के लिए, अपने निरर्थक जीवन को एक उमदा कार्य से जोड़कर अपना मातृत्व न्यौछावर कर दिया विशाखा ने? अविनाश के मौत की ख़बर पाकर कैसी उथलपुथल मची होगी विशाखा के मन-मस्तिष्क में? 

उसके अँधियारे दिशाहीन जीवन की कितनी राते यूँ ही गुज़र गई होगी। वर्षा के दिनों में हरे पत्तों के आँचल में खिली हुई कलियाँ देखकर न जाने कितनी बार उसने सौम्य को याद किया होगा और आँखों से लुढ़कते आँसुओं को चुपके से खुद ही पोंछ लिया होगा! इस दंभी समाज ने तो क़दम-क़दम पर विशाखा के स्त्रीत्व का अपमान किया, उसके अस्तित्व को नकार दिया। पर बेटा? क्या विशाखा के हृदय के किसी अछूते कोने में अब भी बेटे से रूबरू होने की आशा का एक दीपक टिमटिमाता होगा?  

अचानक तनीषा के नज़र समक्ष एक दृश्य तादृश हो उठा। अहमदाबाद से हज़ारों मील दूर रह रही विशाखा के निवास स्थान के दरवाज़े पर कॉल बेल बज उठी। आवाज़ सुनकर, ‘कौन होगा इस वक्त?’ सोचते हुए विशाखा दरवाज़े तक पहुँची। दरवाज़ा खोलते ही सुनाई दिया समस्त ब्रह्मांड को हिला देने की क्षमता रखनेवाला एक शब्द, ‘माँ..।’ 

एक सुदर्शन नौजवान खड़ा है दरवाज़े पर। पल भर की भी देर न लगी उसे बेटे को पहचानने में! उम्र की ढलान पर खड़ी, समाज से तिरस्कृत एक बेबस माँ अनिमेष नयनों से निहार रही है अपने नौजवान बेटे को! लड़खड़ाते क़दमों से थोड़ा आगे बढ़ी कि थाम लिया सौम्य ने उसे अपनी बाँहों में यह कहते हुए, ‘मैं तुम्हें लेने आया हूँ माँ...’ अपनी फैली हुई निगाहों से, आँसू भरी आँखों से तनीषा देख रही है माँ-बेटे का मिलन! 

बेटे के शब्दों से विशाखा की नज़रें स्थिर हो गई है, काँपते होंठ कुछ कहने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन सौम्य ने उसके लबों पर अपनी हथेली रखकर कहा, ‘कुछ मत कहो माँ। मैं जानता हूँ तुम क्या कहना चाहती हो। सगी, सौतेली, विवाहिता, अविवाहिता, विधवा, त्यक्ता आदि विशेषणों में मुझे कोई दिलचस्पी नही है। मैं तो बस इतना ही जानता हूँ कि माँ सिर्फ़ माँ होती है।’ इस संकीर्ण समाज का दायरा तोड़कर उसका बेटा उसे अपना हक़ दिलाने आया है, यह जानकर विशाखा ने गर्व से सिर उठाया। दृढ़ क़दमों से वह आगे बढ़ी और सौम्य का माथा चूम लिया! 

माँ का संबंध स्त्री की चरम गरिमा से है। अविनाश भले ही नहीं रहे, पर अब मानिता मैम और विशाखा को एक सूत्र में बाँधकर रखेगा उनका बेटा सौम्य। दुनिया की कोई ताक़त इस रिश्ते को तोड़ न पाएगी कभी, तभी तो सार्थक होगा दोनों का त्याग! अब दोनों नारियाँ अपने मातृत्व के सर्वोत्तम क्षणों की अनुभूति कर सकेंगी एक साथ! आगे का दृश्य सोचते हुए तनीषा की आँखें छलक उठीं। नडियाद स्टेशन आ गया था। ट्रेन रुक चुकी थी। 

पास बैठे साथी ने तनीषा से कहा, ‘अरे मैम, किस सोच में डूब गईं आप? आपका स्टेशन आ गया।’ 

‘ओह!’ कहकर जल्दी से उठ खड़ी हुई तनीषा। ट्रेन से उतरकर वह धीरे-धीरे घर की ओर चलने लगी, उसकी निगाहें अभी भी न्यूयॉर्क में विशाखा के घर के दरवाज़े पर टिकी थीं।


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पत्र लेखन 


प्रिय बापू को पत्र

                                                         प्रिय बापू, 

                                                                                 सादर प्रणाम! 

कैसी थी आपकी जीवन यात्रा कि आपकी पहचान विश्वपटल पर उभर कर आई? इस वर्ष जब सारे विश्व में आपकी 150वीं जयंती के वर्ष को धूमधाम से मनाया जा रहा है, मैं आपके राजनीतिक जीवन से साथ-साथ आपके निजी जीवन का लेखा-जोखा करते हुए, देश की नई पीढ़ी को यह पत्र समर्पित करना चाहती हूँ। मैं चाहती हूँ कि वे आपके जीवन को पढ़ें। भारत का आम आदमी, भारत के राजनीतिज्ञ, भारत के पत्रकार, भारत के न्यूज़ चैनल्स या सोशल मीडिया, जो भी आप पर अपना अभिमत व्यक्त करना चाहते हैं, करें। ज़रूरी यह है कि आप पर अपनी राय देने से पहले वे आपके जीवन के हर पहलुओं के बारे में जानें। उन लोगों के बारे में क्या कहूँ बापू, जो सत्य और अहिंसा पर आपके विचारों को बेईमानी के मसालों में लपेटकर, झूठ के तंदूर पर, हिंसा की अंगीठी में भूना रहे हैं? आपने कहा, ‘सत्य से भिन्न कोई परमेश्वर है, ऐसा मैंने कभी अनुभव नहीं किया।’ इन्होंने सत्य और परमेश्वर के बीच असत्य की लम्बी और गहरी खाईयाँ पाट दी है!

2 अक्टूबर, 1869 को गुजरात के पोरबंदर नगर में करमचंद गाँधी के घर आपने जन्म लिया, मोहनदास नामकरण हुआ। उसके ठीक पचहत्तर वर्ष बाद 2 अक्टूबर, 1944 को आपके 75वें जन्मदिवस पर महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने, आपको भेजे गए सन्देश में लिखा- ‘आने वाली पीढ़ियाँ मुश्किल से विश्वास कर पाएँगी कि हाड-माँस का बना कोई ऐसा इंसान भी कभी इस धरती पर हुआ था।’ ठीक पचहत्तर साल बाद, अल्बर्ट आइंस्टीन की भविष्यवाणी सही प्रतीत हो रही है! 

आपने बचपन में ‘राजा हरिश्चंद्र’ नाटक देखा और सत्य को ही अपना परमेश्वर मानने का निश्चय किया। आपने अपनी आत्मकथा ‘‘सत्य के प्रयोग‘‘ में लिखा है कि यथार्थ वर्णन करने में आपने कोई क़सर नहीं छोड़ी है। सही कहा बापू, सत्य लिखना इतना आसान नहीं। पुस्तक में आपने अपनी गलतियों के बारे में बेझिझक लिखा। जीवन में आपने स्वयं को खूब मापा। बारह तेरह साल की उम्र में, आपको एक रिश्तेदार के साथ बीड़ी पीने का शौक लगा। पास में पैसा नहीं था, आपने बीड़ी खरीदने के लिए नौकर की जेब से पैसे चुराने शुरू कर दिए। अपराधबोध के कारण आपने आत्महत्या करने की भी सोची, फिर बीड़ी न पीने और चोरी न करने की प्रतिज्ञा कर इन सभी अपराधों से छुटकारा पा लिया। 

आपने गुप्त रूप से मांस भी खाया। मांसाहारी दोस्तों का कर्ज़ चुकाने के लिए आपने, भाई के हाथ में पहने सोने के कड़े से थोड़ा सोना काटकर बेच दिया! पिता को पत्र लिखकर माफ़ी माँगी! दोस्तों ने आपको वेश्यावृत्ति के लिए भी तैयार किया लेकिन आप बचकर भाग निकले। ऐसी अनगिनत गलतियों से सीखने के बाद, आप तय कर पाए कि जीवन में क्या स्वीकार्य है और क्या अस्वीकार्य। जीवन में घटी सभी घटनाओं को आत्मसात करने के बाद, आप सच्चाई के मार्ग पर चल पड़े। सत्य के यही प्रयोग आपको राजनीति में खींच लाए, वरना आप कहाँ राजनीति के व्यक्ति थे, बापू!

दक्षिण अफ्रीका में रहते आपने वहाँ के भारतीय समुदाय के अधिकारों हेतु सत्याग्रह किया। वर्ष 1915 में दक्षिण अफ्रीका से स्वदेश लौटकर आपने यहाँ के किसानों, मजदूरों और शहरी श्रमिकों को एकजुट किया। अहमदाबाद में श्रमिकों के अधिकार के लिए ‘मजूर महाजन संघ’ की स्थापना की। सत्य और अहिंसा को अपना शस्त्र बनाकर अंग्रेज शासन के विरुद्ध अपनी लड़ाई छेड़ी। 

गोपाल कृष्ण गोखले आपके राजनैतिक गुरु थे तो रूसी लेखक टॉलस्टॉय आपके आध्यत्मिक गुरु थे। उनकी किताब ‘द किंगडम ऑफ गॉड इज विदीन यू’ ने आप की ज़िंदगी बदल दी। सामाजिक जीवन में आप उनके विचारों को मूर्त रूप देने लगे। इसके विपरीत, महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन आपके जीवन दर्शन से बहुत प्रभावित थे। एक दिन उन्होंने अपने कमरे में दो महान वैज्ञानिकों आइजक न्यूटन और जेम्स मैक्सवेल के चित्र हटाकर महान मानवतावादी अल्बर्ट श्वाइटजर और आपकी तस्वीर टाँग दी! 

बापू, भारत की नई पीढ़ी के कितने लोग ये जानते होंगे कि दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला, म्यामांर की आंन सांग सू ची, यासर अराफात तथा अमेरिका के प्रथम अश्वेत राष्ट्रपति रह चुके बराक हुसैन ओबामा जैसे लोगों ने भी आपके मार्ग को ही अंततः मनुष्यता का विकल्प बताया है। अमेरिका के ‘गाँधी’ कहे जाने वाले, अमेरिकी नागरिक अधिकारों के संघर्ष के प्रमुख नेता डॉ. मार्टिन लूथर किंग, जूनियर भी आपको अपना मार्गदर्शक मानते थे। संयुक्त राष्ट्र संघ भी आपकी जयंती को ‘अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस’ के रूप में मनाता है। 

बिहार के चंपारण का ‘नील सत्याग्रह’ हो या गुजरात खेड़ा का ‘किसान सत्याग्रह, ‘असहयोग आंदोलन’ हो या दांडी का ‘नमक सत्याग्रह’, ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ हो या ‘भारत छोड़ो आंदोलन’, शांति और अहिंसा के मार्ग पर चलकर ही आपने भारतीय प्रजा में राष्ट्रीय चेतना जगाई। आपने तो अपना ध्यान भारत के सामाजिक परिवर्तन में भी लगाया। अहिंसा से आपका अभिप्राय है, ‘समस्त हिंसक वृत्तियों का त्याग। किसी को भी मन, वचन, कर्म से तकलीफ़ नहीं पहुँचाना।’ आप मानते थे कि अहिंसा के बिना सत्य की खोज करना संभव नहीं है। 

 वर्ष 1909 में आपने ‘हिन्द स्वराज’ लिखा। इस पुस्तक में आपने आज़ादी के प्रति जो नैतिक रवैया दर्शाया वो तो शासक-वर्ग के अहंकार से जा टकराया! स्थानिक नेताओं की महत्वाकांक्षाओं से भी टकराया क्योंकि आपका स्वराज वास्तव में सत्ता की मूल प्रकृति को ही चुनौती देता था! आपने एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था का बीड़ा उठाया, जो सरकार पर निर्भर न हो। वह दिशा दिखाई जिसमें लोग स्वावलंबी बनें। स्वराज का वह ख़्वाब आज भी अधूरा ही दिखता है, बापू!  स्वराज के व्यक्तिगत और आध्यात्मिक आदर्श को न हम समझ पाए, न अपने जीवन में उतारने का आत्मविश्वास हासिल कर सके।

आपने आदर्श समाज को ‘राम-राज्य’ का नाम दिया और कहनेवालों ने ‘राम-राज्य‘ का अर्थ निकाला, ‘हिन्दुओं का शासन’! ऐसी भ्रांतियों के निवारण के लिए आपको अपनी पत्रिका ‘नवजीवन’ में ‘स्वराज्य और रामराज्य’ शीर्षक से एक लेख लिखना पड़ा। आपने कुछ इस प्रकार कहा, ‘मेरे स्वराज्य का अर्थ है रामराज्य। यदि किसी को ‘रामराज्य’ शब्द बुरा लगे तो मैं उसे ‘धर्मराज्य’ कहूँगा। ‘रामराज्य’ शब्द का भावार्थ यह है कि उसमें गरीबों की संपूर्ण रक्षा होगी, सब कार्य धर्मपूर्वक किए जाएँगे और लोकमत का हमेशा आदर किया जाएगा।’

प्रिय बापू, एक बात का जिक्र किए बिना यह पत्र अधूरा रह जाएगा। ‘मेरा जीवन ही मेरा सन्देश है।’ आपके इस जीवनमंत्र को मेरे पापा क्षितीश चन्द्र भौमिक ने दिल से अपनाया। आपकी जीवन शैली से वे इतने प्रभावित थे कि उन्होंने हमें सिखाया कि हम उन्हें ‘बापू’ कहकर 

संबोधित करें। हम उन्हें ‘बापू’ कहकर ही संबोधित करते। इसका कारण हमें बहुत बाद में पता चला। 

कार्यस्थल पर भी सत्य का समर्थन करते पापा को काफ़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। सजा के रूप में हर वर्ष उनका स्थानांतरण होता रहा। ग्यारहवीं कक्षा में पहुँचते-पहुँचते मुझे नौ स्कूल बदलने पड़े। इन मुश्किलों को माँ और हम बच्चों ने भी सकारात्मक रूप से लिया, 

परिणामस्वरूप हमें हर विपरीत परिस्थिति में लड़ने की ताकत मिली। आपके सादगी भरे जीवन से प्रभावित पापा ने हमें सिखाया कि सत्य के मार्ग पर चलना बहुत मुश्किल है, असंभव नहीं। 

आप सदा अमर रहें, बापू। 

23 नवम्बर 2019


सुश्री मल्लिका मुखर्जी


चित्रांकन: मल्लिका मुखर्जी


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पत्र लेखन 


सुश्री मल्लिका मुखर्जी, अहमदाबाद, मो. 9712921614


पापा, आप-सा कोई नहीं

प्रिय पापा,

आज आपको पत्र लिखते हुए एक सवाल जो मन में तीर की तरह चुभ रहा है, संतानें माता-पिता के जीते जी उनके प्रति अपने प्रेम को शब्दों में व्यक्त क्यों नहीं कर पाते? मैंने आपको बेइंतहा चाहा, पापा। काश! आप के रहते मैं कभी कह पाती, ‘पापा आप सा कोई नहीं!’ आप न केवल अपने व्यवहार से बल्कि शब्दों से भी हम संतानों के प्रति अपना प्यार जताते रहे। आप हमारी शक्ति के स्त्रोत बने रहे, हमारे विश्वास को बल देते रहे। हमारे सफल जीवन की कामना करते रहे। हम चार भाई-बहनों में से शायद ही कोई आप से यह कह पाया कि हम भी आप से उतना ही प्यार करते हैं, जितना आप हमसे करते हैं! आज जब मेरे जीवन में आपकी भूमिका के बारे में सोचती हूँ, तो मुझे लगता है कि मुझे आपको हर पल धन्यवाद देना चाहिए था। आपने हमारी ख़ुशियों की खातिर अपना जीवन न्यौछावर किया। हर परिस्थिति में हमारा मनोबल बढ़ाते हुए, हमारे साथ चलते रहे। क्या लिखूँ, क्या याद करूँ पापा? ऐसा कहा जाता है कि लगभग चार वर्ष की आयु से, बच्चों के मन में घटनाएँ अंकित होने लगती हैं। मुझे लगता है, तीन वर्ष की आयु से ही मेरे स्मृति पटल पर यादें अंकित होनी शुरू हो गई थीं। शुरू में धुंधली हो सकती हंै, पर फिर स्पष्ट रूप से अंकित होने लगी थीं।

देश विभाजन के परिणामस्वरूप, आपकी जन्मभूमि पूर्वी बंगाल, पाकिस्तान के हिस्से में चला गया और आपको किशोरावस्था में ही अपनी जन्मभूमि छोड़कर हिन्दुस्तान के पश्चिम बंगाल में आना पड़ा। पश्चिम रेलवे के बड़ौदा डिवीजन में नौकरी पाने के बाद आप पश्चिम बंगाल से गुजरात (तब बॉम्बे स्टेट) आए। माँ का परिवार  भी पूर्वी बंगाल से आया था, लेकिन माँ मैमनसिंह जिले के रायजान गाँव के ज़मींदार की बेटी थीं। माँ की परवरिश आलिशान ढंग से हुई थी। ताऊजी और नानी माँ के परिवार को जानने वाले एक गृहस्थ ही आपके लिए यह रिश्ता लेकर नानी माँ के पास पहुँचे थे। उन्होंने कहा था, ‘लड़का मेट्रिक पास है, बॉम्बे स्टेट के रेलवे विभाग में काम करता है, सुशील है और  सुन्दर भी है, बस रंग थोड़ा साँवला है। उसे कोई दहेज नहीं चाहिए।’ शादी के बाद माँ भी यहाँ आई थीं। ये सारी बातें मैंने नानी माँ से, माँ से और आपसे ही सुनी थीं।

जो घटनाएँ मन पर गहरा असर छोड़ती हैं, उन्हें भुलाया नहीं जाता, पापा! आपकी यादों से जुड़ी कई घटनाएँ आज भी स्मृति पटल पर ठीक वैसे ही अंकित है, जैसे घटी थीं। आपसे जुड़ी मेरी यादें गुजरात के छोटा उदयपुर जिले के ‘तेजगढ़’ गाँव से शुरू होती हैं। वह छोटा गाँव जहाँ आदिवासी आबादी बड़ी संख्या में थी। वह छोटा सा रेलवे स्टेशन, जहाँ आपकी पोस्टिंग थी। बड़ौदा-छोटा उदयपुर, नैरोगेज रेलवे लाइन पर, एक ट्रेन सुबह बड़ौदा से छोटा उदयपुर तक आती थी और शाम को वही ट्रेन बड़ौदा लौट जाती। रेलवे कवार्टर से स्टेशन कुछ ही दूरी पर था। मेरी उम्र तीन-साढ़े तीन साल होगी। शायद आप मुझे यही सोचकर अपने साथ स्टेशन ले जाते कि माँ को थोड़ा आराम मिलेगा। मैं स्टेशन के बाहर खुली जगह में खेलती रहती। ट्रेन के समय के अलावा वहाँ कोई भी इन्सान न दीखता। कभी आप एक छोटी सी मशीन पर टक टक आवाज़ करते, मुझे गोद में उठाकर वो आवाज़ भी सुनाते। मेरी समझ में कुछ न आता। उस समय मुझे कहाँ पता था कि रेलवे विभाग में बात करने का माध्यम टेलिग्राफ था! माँ के लिए आपका प्यार भी अपने आप में एक मिसाल था, पापा। नौकरी के साथ-साथ आप घर के कामों में भी माँ की मदद करते।

मुझे याद है, 23 मार्च 1963 को, जब मैं सिर्फ़ साढ़े छह वर्ष की थी, घर पर ही मेरे छोटे भाई का जन्म हुआ था। हम तीन भाई-बहन बड़े ख़ुश थे। एक सप्ताह ही हुआ था कि मुझे तेज बुखार हो गया। शुष्क कफ के साथ सिरदर्द और समस्या हुई, फिर पूरे शरीर में लाल पानी से भरे दाने उभर आए। आपने डभोई स्थित रेलवे विभाग के हॉस्पिटल से डॉ. दास को बुलाया, जो आपके क़रीबी दोस्त भी थे। मेरी जाँच करते हुए, दास अंकल ने कहा कि मुझे चिकन-पॉक्स का प्रकोप है। उन्होंने आपको हिदायत दी कि घर में नवजात शिशु भी है, बच्ची को घर के अन्य लोगों से दूर रखें। ध्यान रखें, बच्ची इन फोड़ों को खरोंचे नहीं, वरना ये अधिक फैल सकते हैं। दर्द बढ़ सकता है। 

रेलवे क्वार्टर में केवल दो कमरे थे। एक कमरे में, नवजात भाई के साथ माँ का बिछौना था, दूसरे कमरे में मेरा बिछौना एक चैकी पर लगाया गया था। माँ मेरे पास बिलकुल नहीं आ सकती थी। आपके सर पर दोहरी जिम्मेदारी थी पापा! हम सबके लिए खाना बनाना, हम तीनों भाई-बहनों का ख्याल रखना, जिनमें मैं एक ऐसी मरीज़ थी कि कोई भी मेरे पास नहीं आ सकता। गाँव के लोग बहुत मिलनसार थे। उन्होंने मदद की। मेरे बिस्तर के चारों ओर रखने के लिए वे नीम की नाज़्ाुक टहनियाँ ले आए। बिस्तर के नीचे भी नीम की पत्तियाँ बिछा दी गई। मेरे पूरे शरीर पर फफोले पड़ गए थे। डॉक्टर अंकल के आदेशों का पालन करते हुए, आपने मेरी दोनों हथेलियों को सफेद मुलायम कपडे में लपेटकर, उन्हें हलके से बाँध दिया था ताकि मैं फोड़ों को खरोंच न सकूँ। तेज खुजली आती। मैं रातभर चिल्लाती रहती और खाँसती रहती। 

आज याद करती हूँ तो मेरी आँखे छलकने लगती है, पापा। आप कितने स्नेह से ‘आमार सोना मेये’ (मेरी प्यारी बिटिया) संबोधित करते हुए नीम की नाजुक टहनियों से बनाये गये गुच्छे से मेरे शरीर को सहलाते रहते ताकि मुझे आराम मिले। गाँव में बिजली भी तो नहीं थी। रात भर मेरे सिरहाने बैठे, हाथ पंखा झेलते रहते कि मुझे गरमी न लगे। मुझे ये भी समझाते रहते कि फफोलों को खरोंचने से दर्द और भी बढ़ सकता है। आपके धैर्य की मिसाल नहीं पापा! क़रीब इक्कीस दिनों के बाद, पानी में नीम की पत्तों को उबालकर, उस पानी से मुझे नहलाया गया। फिर घर पर ही नाई को बुलाकर, पिछले आँगन में खड़े जुड़वाँ आम्रवृक्षों के तले बिठाकर मेरे बाल मुंडवाए गए। 

हमारे मुर्गे मोती को कैसे भूल सकती हूँ, पापा! हमें ताजा अंडे मिल सकें, इसलिए आपने कुछ मुर्गियाँ पाल रखी थीं। एक रंगबिरंगी पंखोवाला निहायत ख़ूबसूरत मुर्गा, ‘मोती’ मेरा पक्का दोस्त था। स्कूल से आते ही मैं उसे गोद में उठा लेती। देर तक उसके सिर को सहलाती और वो आँखें मूंदे चुपचाप बैठा रहता। एक बार स्कूल में समर वेकेशन के चलते, आपके दोस्त शैलेन चैधरी अंकल सपरिवार हमारे मेहमान बने। मोती को देखते ही वे आपसे बोले, ‘अरे भौमिक, यह मुर्गा तो बड़ा सुन्दर है और तगड़ा भी है। क्यों न आज शाम इसकी मिजबानी की जाए?’ मैं पास ही में खेल रही थी। सुनकर मेरा दिल कितनी जोर से धड़क उठा था, पापा! उसी पल आपने मेरी ओर देखा था, आपकी निगाहों में मुझे एक भरोसा दिखाई दिया था। आप जानते थे कि मुझे मोती से बेहद लगाव है। आपने अंकल को कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। मोती के कत्ल होने के डर से मेरा मन छटपटा रहा था। मैंने पेट दर्द का बहाना बनाया। सारा दिन सोई रही। आप पर मुझे पूरा भरोसा था, लेकिन अंकल पर जरा भी नहीं था। जैसे जैसे दिन ढलने लगा, मेरे मन को गहरे विषाद ने घेर लिया।

मोती को बचाने के लिए मैं जोर-जोर से रोने लगी। माँ बहुत घबरा गई, लेकिन आप समझ गए थे। आपने मेरे सिर पर हाथ रखा, प्यार से पूछा, ‘‘बताओ क्या हुआ, बेटा।‘‘ मेरी हिचकी के बीच से निकलने वाली आवाज़ थी, ‘मोती ...‘ बाकी शब्द गले में अटक गए थे। आपके वो शब्द अभी भी मेरे कानों में गूंजते हैं पापा, ‘अरे! तुमि आमार सोना मेये, आमि आछी तो। किछु होबेना, मोती तोमारइ थाकबे।’ (मेरी प्यारी बिटिया, मैं हूँ ना! मोती को कुछ न होगा, वह तुम्हारा ही रहेगा।)  मैं चुप हो गई। सोने का अभिनय करने लगी। चैधरी अंकल को यह बात बिल्कुल पसंद नहीं आई। वे बोले, ‘तुमने बच्ची को लाड़ प्यार से बिगाड़ा है।’ आप चुप रहे। 

मुझे नींद नहीं आ रही थी। मैं सोने का नाटक कर रही थी। घर के बाकी लोग बातें कर रहे थे, क़रीब आधे घंटे बाद मुझे अंकल की आवाज़ सुनाई दी, ‘भौमिक, अब तेरी बेटी सो गई है, क्यों न इस मौके का फायदा उठाया जाए?’ मेरी उम्र इतनी छोटी थी कि विरोध जताने की मेरी क्षमता न के बराबर थी। आपका जवाब सुनने को मन अधीर हो उठा। आपने कहा, ‘शैलेन, मैं अपनी बेटी को दुखी नहीं देख सकता। वह सो गई है तो क्या हुआ, सुबह आँख खुलते ही वह मोती को ढूंढेगी। बुरा मत मानना दोस्त, मैं कतई तुम्हारी बात नहीं मान सकता। मैंने उसे वचन दिया है।’ न जाने फिर भी मैं कितनी देर तक जागती रही! पौ फटने से पहले ही मोती की बांग सुनाई दी, मैं दौड़कर उसके पास पहुँच गई। आपने अपना वायदा निभाया था, पापा। आप मेरे हीरो बन गए। 

आपने परोक्ष रूप से नीतिमत्ता के सारे पाठ भी हमें बचपन में ही पढ़ाए। तेजगढ़ में ही, आपने स्टेशन मास्टर प्राणलाल जोशी की चोरी पकड़ी थी और उनकी शिकायत रेलवे प्राधिकरण को भेजने की पूरी तैयारी कर ली। मुझे नहीं पता था कि चोरी क्या थी, लेकिन जोशी अंकल इतना डर गए थे कि उन्होंने अपनी पत्नी के साथ आत्महत्या करने की योजना बनाई। मुझे अच्छी तरह से याद है जब पोर्टर ने आकर आपको सूचित किया कि जोशी साहब और उनकी पत्नी कटोरे में ज़हर लेकर बैठे हैं, आप और माँ लगभग दौड़ते हुए उनके घर पहुँचे और उन्हें ज़हर खाने से रोका। आपके सामने दोनों बहुत रोए थे और बच्चों की क़सम खाकर इस बार के लिए उन्हें माफ़ करने का अनुरोध भी किया था। जोशी अंकल ने यह भी कहा था कि वे अपनी गलती कभी नहीं दोहराएंगे। उनके किशोरवय के दोनों बेटों के बारे में सोचते हुए, आपने उन्हें माफ़ कर दिया था पापा। ‘चोरी’, ‘ज़िंदगी’, ‘मौत’, ‘आत्महत्या’, ‘क़सम’, ‘माफ़ी’ इन शब्दों का अर्थ कहाँ पता था? आपकी और माँ की बातों से जितना पता चला था, आप मेरे आदर्श बन गए थे। 

मैं कैसे भूल सकती हूँ, आपने ही मुझे साहित्य-जगत से जोड़ा है! माँ अपने विवाह में उपहार के रूप में मिली सारी किताबें अपने साथ लाई थीं। जब मैं आपसे बांग्ला सीख रही थी, तो आपने सबसे पहले मुझे कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर से मिलवाया। उनके काव्य-संग्रह ‘संचयिता‘ में से आप कितनी कविताएँ मुझे गाकर सुनाईं, कविता के अर्थ भी बताये। भारतीय समाज में प्रचलित कुप्रथाओं पर प्रहार करती कविता, ‘माँ केंदे कॉय, मंजुलि मोर ओई तो कोचि मेये।‘ आज तक याद है। मेरी हिन्दी लेखन यात्रा भी कविगुरु की कविता ‘सागर संगमेर मेला‘ के हिन्दी अनुवाद से हुई! आप चाहे हमें अधिक भौतिक सुख-सुविधा न दे पाए, लेकिन हमें अपने जीवनानुभवों के माध्यम से, साहित्य के माध्यम से मानव धर्म का पालन करने की नैतिक शिक्षा दी।

1972-73 में रेलवे क्वार्टर न मिलने के कारण, हम बारेजड़ी गाँव में पेपर मिल के क्वार्टर में रह रहे थे। बारिश के मौसम में, गाँव का तालाब भारी बारिश के कारण फट गया था और हमारा इलाका तालाब के लेवल से कहीं नीचा होने के कारण जलमग्न हो गया था। क्वार्टर्स की 3 सीढ़ियां तक डूब गई थी! अलसुबह सभी को अपना क्वार्टर छोड़कर आश्रय के लिए पेपर मिल के मालिक के बंगले में जाना पड़ा। जल स्तर और बढ़ने की संभावना थी। उस दिन को कैसे भूल सकती हूँ पापा कि सारा इलाका एक बड़े तालाब में तब्दील हो गया था, फिर भी आप घर पर ही रुके रहे थे! आपने कहा था, ‘मुझे हमारी बकरी और उसके दो बच्चों का ध्यान रखना पड़ेगा। मुझे तैरना आता है, इसलिए चिंता की कोई बात नहीं है।’ आपने उन्हें रसोईघर में रखकर, पुराने कपड़ों को लगाकर दरवाज़े को कस कर बंद कर दिया ताकि पानी रसोईघर में प्रवेश न करे। उन निरीह प्राणियों की जान की खातिर आप दिन-रात वहीं रुके रहे। जल स्तर में वृद्धि के कारण, घर के भीतर भी पानी एक फुट की ऊँचाई तक घुस गया था, लेकिन हमारी बकरियों को आपने सुरक्षित रखा। 

अहमदाबाद की भवन्स कॉलेज से बी.ए. करने के बाद जब मैंने एम. ए. करना चाहा, तब इतने आर्थिक संकट के चलते भी आपने मुझे आगे पढ़ने की अनुमति दी। आप कितने ख़ुश हुए थे पापा, गुजराती मीडियम की स्नातक होते हुए भी मैंने अंग्रेजी माध्यम से अर्थशास्त्र में एम.ए. किया, वह भी स्कूल मेरिट स्कॉलरशिप के साथ! सिर्फ़ पढ़ाई में ही नहीं, आपने हमारी दूसरी ख़ुशियों का भी कितना ख़्याल रखा! अहमदाबाद के सरदार पटेल स्टेडियम, नवरंगपुरा में ‘रफ़ी नाइट’ का आयोजन किया गया था, जब मेरी एम.ए. पार्ट 2 की परीक्षा चल रही थी। अंतिम पेपर दो दिन बाद दिया जाना था। मैंने दो सहेलियों के साथ इस कार्यक्रम देखने की योजना बनाई और डरते हुए आपसे पूछा। आप मेरी फाइनल एग्जाम को लेकर चिंतित थे लेकिन जैसे ही मैंने कहा, ‘पापा मैं आपसे वादा करती हूँ कि मैं परीक्षा में भी अच्छा ही करूंगी।’ आप तुरंत मान गए। आपने टिकट का दाम पूछा। स्टेडियम की गैलेरी में बैठने का टिकट रु.15 का था, लेकिन हमें ग्राउन्ड में बिछी कुर्सियों पर बैठना था ताकि हम रफ़ी साहब को क़रीब से देख सकें। उस सीट का टिकट रु.30 का था। उस ज़माने में यह बड़ी रकम थी, फिर भी आपने मुझे रु.50 दिए। आपने मेरे बहुत पसंदीदा गायक रफ़ी साहब को सुनने का मौका दिया। मैं अपने जीवन की इन  अनमोल घड़ियों को आज तक नहीं भूल पाई हूँ। 

एक और बात का ज़िक्र करना भी उतना ही ज़रूरी है, पापा। मैंने आपसे वादा किया था कि मैं परीक्षा में भी अच्छा करुँगी, लेकिन रातभर रफ़ी साहब का कार्यक्रम देखने के बाद परीक्षा के लिए एक ही दिन मिला था। मैं देर रात तक पढ़ती रही। बारेजड़ी रेलवे स्टेशन से पौने पाँच बजे की ट्रेन से अहमदाबाद जाना था। भोर पौने चार बजे का अलार्म सेट किया गया। एलार्म बजते ही मैंने उठना चाहा, पर ये क्या? पल में ही मैं बिस्तर पर गिर पड़ी। मेरे सिरमें कुछ धूमता-सा लग रहा था। एक बार और उठने की कोशिश की, पर सफलता न मिली। माँ के साथ आप भी जाग गए थे। गाँव के डॉक्टर को बुलाया गया। उन्होंने दवाइयाँ, इंजेक्शन दिए। परीक्षा ग्यारह बजे शुरू होने वाली थी। थोड़ा ठीक लग रहा था। नौ बजे की लोकल ट्रेन से आप भी मेरे साथ हो लिए। परीक्षा हॉल के बाहर, एक पेड़ के नीचे तीन घंटे तक खड़े रहकर, हॉल की खिड़की से मुझे देखते रहे कि मैं ठीक तो हूँ! एक बार भी मुझे यह नहीं कहा कि मुझे ‘रफ़ी नाइट’ नहीं देखना चाहिए था! 

हमारे पास जीवन की हर कठिन परिस्थिति से लड़ने की शक्ति हो, इसीलिए आप हमें अच्छी शिक्षा देना चाहते थे। आप ही ने मुझे बताया था कि चूल्हे के धुएँ के कारण आपकी दादी की आँखें चली गई थीं क्योंकि विधवा दादी के लिए बने अलग रसोईघर में एक खिड़की भी नहीं थी! आप बेटों के साथ बेटियों को भी ख़ुशहाल ज़िंदगी देना चाहते थे। जब भी माँ मुझे डाँटती कि मैं घर का काम नहीं सीख रही हूँ, तो आप माँ को भी प्यार से समझा देते कि जब शादी होगी और ससुराल जाएगी, तो सारे काम खुद ही सीख जाएगी, अब बेटियों की पढ़ने की उम्र है, उन्हें पढ़ने दो। 

क्या लिखूँ, कितना लिखूँ पापा? आप की यादों से जुड़ी असंख्या घटनाएँ हैं, जो मुझे आपसे एक अनोखे बंधन में जोड़ती है। पिता के साथ बेटी का रिश्ता, स्नेह का रिश्ता। आप कुछ अलग ही मिट्टी के बने थे। आपने स्वयं अपार कठिनाइयों का सामना किया। संघर्षपूर्ण जीवन जीते हुए भी हमें एक अच्छी ज़िंदगी देने की चाह रखी। देश विभाजन की त्रासदी को सहकर भी अपने जीवन को बचाए रखने में कामयाब रहे। हमें भी इस काबिल बनाया कि हम अपने जीवन में सफलता हासिल कर सकें। आप एक योद्धा थे जिन्हें असामयिक मृत्यु ने हरा दिया। जो कार्य आप खुद नहीं कर पाए, उसे अगली पीढ़ी के लिए छोड़ गए। आज मुझे कहने दीजिए- 

दौलत भी है, शोहरत भी है, पर वो मीठे बोल कहाँ है, 

पापा तुमसे बढ़कर जग में एक रतन अनमोल कहाँ है!

आप सुन रहे हैं न, पापा? मेरा यह पत्र आप तक अवश्य पहुँचेगा। आप मुस्कुराते हुए बोल उठेंगे, ‘आमार सोना मेये...केमोन आछो?’ 

भाई-बहन के साथ पापा

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पत्र लेखन 

सुश्री मल्लिका मुखर्जी, अहमदाबाद, मो. 9712921614


माँ, मैं तुम्हारी लक्ष्मी बिटिया

प्रिय माँ,

                  सादर प्रणाम।

आज 11 मई, 2014 है, मातृदिवस। आज समाचार पत्र में इस विशेष दिन पर कई लेख पढ़े। कितनी बेटियों के अपनी माँ के साथ बिताए स्वर्णिम पलों की अनुभूतियों को पढ़ा। आज भले ही इस पत्र को भेजने के लिए तुम्हारा कोई पता नहीं है मेरे पास माँ, फिर भी तुम्हारे रहते जो कभी नहीं कह पाई, इस पत्र के माध्यम से मैं तुम्हें कहना चाहती हूँ। नादानी में तुम्हारे प्रति किये गए दुव्र्यवहार के लिए आज मैं लिखकर प्रायश्चित करना चाहती हूँ, माँ। 

तुमसे ही सुना था मैंने कि युवावस्था में क़दम रखते ही तुम्हें भारत के विभाजन की गहनतम पीड़ा झेलनी पड़ी थी। पूर्व बंगाल, जो अब पाकिस्तान का हिस्सा बन चुका था (अब बांग्लादेश), वहाँ से पश्चिम बंगाल में आकर तुम्हें अपने परिवार के सदस्यों के साथ कुछ महीने अपने रिश्तेदार के घर रहना पड़ा था। फिर हूगली जिले में स्थित चंदननगर टाउन के किराये के उस छोटे से मकान में न जाने कितने दिन, तुमने परिवारजनों के साथ आधे पेट या भूखे रहकर बिताये! मैमनसिंह जिले के रायजान गाँव के ज़मींदार, नाना जी इस उम्मीद में वहीं रह गए थे कि विभाजन ज़्यादा दिनों तक नहीं रहेगा, देश फिर एक हो जाएगा! 

तुम्हारे बचपन के ऐश्वर्य, मुग्धावस्था के वैभव और यौवन के अति संघर्षपूर्ण जीवन का मैं अंदाज़ा ही न लगा पाती कभी, अगर मुझे फरवरी, 2013 में लेखा मौसी के साथ बांग्लादेश का दौरा करने का मौका न मिलता! तुम्हारी पीड़ा की अनुभूति मैं तब ही कर पाई जब मैंने बांग्लादेश के मैमनसिंह जिले के तुम्हारे पुश्तैनी गाँव रायजान में क़दम रखा। नाना जी की आलिशान हवेली जहाँ थी, वो जगह देखी। नानाजी तो वहीं रह गए, 1964 में वहीं उनकी मृत्यु हुई। उनका सपना ‘देश फिर एक हो जाएगा’ उनके साथ ही भस्म हो गया। नाना जी की सारी जमीं-जायदाद आज तुम्हारे ममेरे भाइयों के कब्जे में है जो देश विभाजन के बाद वहीं रह गए। 

वहाँ के चैकीदार ने जब कहा, ‘दीदी, यहाँ से पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण चारों दिशा में जहाँ तक आपकी नज़र पहुँच रही, सब धर महाशय की जमीं है।’ मैं देखती रह गई माँ, चारों ओर धान के खेत लहरा रहे थे! तुम रायजान गाँव के जमींदार बीरेन्द्रचन्द्र धर की पहली संतान थी माँ, एक अति संपन्न परिवार की बेटी जो अपने ननिहाल पालकी में बैठकर जाती! स्कूल में तुम्हारा नाम ‘रेखा’ था, पर परिवार में प्यार से सब तुम्हें ‘रूबी’ पुकारते। काश, एक बार तुम्हारे भव्य अतीत की अनुभूति मैं कर पाती! किसी भी व्यक्ति में स्वभावगत कोमलता या कठोरता जन्मगत होती है लेकिन अहम चीज़ है संवेदनशीलता। जब मैंने खुद को तुम्हारे स्थान पर रखा तब ही तुम्हारी अनुभूतियों तक पहुँच पाई माँ! 

पश्चिम बंगाल में दूर एक एक रिश्तेदार की मध्यस्थी से, पापा से तुम्हारे विवाह हुआ। वे भी तुम्हारी तरह ही देश विभाजन की पीड़ा के भुक्तभोगी थे। वे गुजरात (उस समय का बॉम्बे स्टेट) के रेलवे विभाग में नौकरी कर रहे थे। दहेज के खिलाफ थे, नानी माँ ने तुरंत हाँ कर दी। तुम्हारी मर्जी पूछी नहीं गई, पर तुम भाग्यवती थी माँ कि तुम्हें पापा जैसे सज्जन व्यक्ति पति के रूप में मिले। पापा मेरे फ्रेंड, फिलोसोफर और गाइड थे। जितने प्यारे पिता उतने ही प्यारे पति।  

आज मुझे वे सारे पल याद आ रहे हैं जो तुमने मुझे समर्पित किए। तेजगढ़ गाँव के सरकारी बालविहार का वह पहला दिन, जब तुम मेरा हाथ थामकर मुझे ले गईं। महज़ चार वर्ष की उम्र थी मेरी, मैं अपने विरोध में ज़ोर ज़ोर से रो रही थी। वहाँ की साहिबा मुझे हाथ पकड़कर कक्षा में ले गईं। मैं लगातार तुम्हें देख रही थी कि तुम मुझे छोड़कर चली न जाओ। उस समय बालविहार में आने वाले बच्चों को एक प्लेट दूध दिया जाता। तुम्हारी तरफ़ देखते हुए प्लेट में मिला दूध पीकर मैं दौड़कर बाहर आ गई और तुम्हें अपनी बाँहों में भरते हुए बोली, ‘मामोनी घर चलो, मैंने दूध पी लिया।’ मेरे बाल मन ने यह अंदाज़ा लगाया था कि यहाँ आकर झटपट दूध पी लेने से मैं अपनी माँ के साथ ही घर लौट सकूँगी! जब तक मैं वहाँ के दूसरे बच्चों के साथ घुलमिल न गई, तुम रोज मुझे प्यार से समझाकर यहाँ ले आती और कमरे के बाहर बैठकर मेरा इन्तज़ार करती रहती। 

बड़ौदा (अब वड़ोदरा) जिले का तेजगढ़, आदिवासियों का गाँव, रेल्वे स्टेशन पर पापा की ड्यूटी। गाँव में न बिजली न पानी। शाम होने से पहले ही तुम कोयले से सिगड़ी जलाती, उस पर हम सब का खाना बनाती। फिर लालटेन जला देती। उस धुंधले से उजाले में दूसरे काम निबटाती। रेल्वे स्टाफ के एक पोर्टर की पत्नी गंगाबहन तुम्हें नज़दीक के कुएँ से पीने का पानी ला देती, कुछ रुपयों के बदले वो घर का छोटा-मोटा काम भी करती। समय के साथ तुम्हारी व्यस्तता बढ़ने लगी। मेरी छोटी बहन माला के बाद और दो भाइयों का जन्म हुआ, हम चार भाई-बहन और महज 25 वर्ष की तुम्हारी उम्र! बरसों तक तुम्हारा जीवन एक ही ढाँचे में ढला रहा माँ, सुबह उठकर अपनी दिनचर्या से निपटकर अपनी संतानो की देखभाल में अपना समय व्यतीत करना। उन्हें नहलाना, उनके लिए भोजन बनाना, उन्हें स्कूल भेजने की तैयारी करना। कोई छुट्टी नहीं, कोई आराम नहीं! तुम अपने हिस्से का सुख हमें देती रही। आश्चर्य होता है माँ, तुम कैसे सम्हालती थी अपना परिवार! तुम्हारा दिल शुद्ध सोने जैसा खरा था, बस मैंने कभी पहचाना नहीं। 

मैं कैसे भूल सकती हूँ माँ कि अपने हिस्से की नींद भी तुमने मुझे दी! न सिर्फ़ बचपन में, यौवन में भी। उन दिनों हमारे घर ए.सी. नहीं था, न ही रेफ्रिजरेटर। गर्मी के दिनों में देर रात को जब मुझे प्यास लगती तो मैं बिस्तर से खुद न उठकर तुम्हें पुकारती, ‘मामोनी, जॉल खाबो।’ तुम तुरंत उठकर पानी का ग्लास लाकर मुझे बिस्तर पर देती। मैंने कभी नहीं सोचा कि तुम दिनभर काम करके कितना थक जाती होंगी! पापा तुम्हारे हर काम में हाथ बँटाते, छोटी बहन माला भी तुम्हें यथासंभव मदद करती, सिर्फ़ मैंने ही कभी यह ज़रूरी नहीं समझा। स्कूल के बाद मैं चाहती तो गृहकार्य में थोड़ा बहुत हाथ बँटा सकती थी, पर मेरा ध्यान खेलकूद या पढाई में लगा रहता। परिवार में गृहकार्य की भी एक अहम् भूमिका है, इस बात से ही मैं अनभिज्ञ रही! 

पापा अपनी बेटियों को समाज में समान हक़ दिलाने के पक्ष में थे। वे हमें अच्छी शिक्षा देना चाहते थे और तुम इसी बात से डरती थी! मैं कॉलेज जाना चाहती थी। पापा भी मुझे उच्च शिक्षा दिलाने के पक्ष में थे और तुम चाहती थी, मेरा ब्याह हो जाए। तुमने खुद मेट्रीक्युलेट तक शिक्षा ली थी फिर भी तुम मानती थी कि बेटियों को उच्च शिक्षा देना खतरे से खाली नहीं। आज़ादी मिलने से बेटियाँ ससुराल में अपना दायित्व ठीक से नहीं निभा पातीं। पापा जैसे आदर्श पति पाने के बावजूद भी तुम अपने सामाजिक दायरे से बाहर निकल नहीं पाई माँ। यहीं से हमारा द्वंद्व शुरू हुआ। 

मैं अपनी ज़िद्द पर अड़ी रही, इस बात को लेकर मैंने न जाने कितनी बार अपने कटु वचनों से तुम्हें ठेस पहुँचाई। आज सोचकर भी शर्म आती है। तुम्हारी सोच अपनी जगह ठीक थी माँ क्योंकि बहुत कम उम्र में तुमने जीवन के उतार-चढ़ाव के दो अंतिम बिंदुओ को छू लिया था हमारी सोच में अंतर था लेकिन उससे हमारे माँ-बेटी के रिश्ते में तो कोई अंतर नहीं होना चाहिए था! यह बात मेरी समझ में क्यों नहीं आई? विचारों में अंतर होने के बावजूद पापा के तुम्हारे प्रति व्यवहार में असीम प्रेम ही छलकता था। पापा के इतने क़रीब होते हुए भी इस सत्य की अनुभूति मुझे क्यों नहीं हुई?

आखिर पापा ने तुम्हें मना ही लिया। मैंने अहमदाबाद की भवन्स कॉलेज में दाखिला लिया। तुम्हारी नाराज़गी अब पहले जैसी नहीं थी क्योंकि मेरे प्रति तुम्हारा प्रेम असीम था। पापा का पोस्टिंग तब बारेजड़ी रेल्वे स्टेशन पर थी। मॉर्निंग कॉलेज थी, मुझे प्रातः पौने पाँच बजे की ट्रेन पकड़नी होती। तुम सुबह चार बजे उठकर मेरे लिए केरोसिन के स्टोव पर चाय बनाती। तब हमारे घर गेस स्टोव भी तो नहीं था। बारह बजे की ट्रेन से मैं वापस आती तो खाना तैयार होता और तुम मेरा इंतज़ार करती मिलती। मेरे पढ़ाई काल के छः वर्षों में कभी तुमने इस कार्य से छुट्टी नहीं ली। कैसे मैंने ये सब अपना अधिकार मान लिया था, माँ? मुझे यह सत्य कहने में कोई संकोच नहीं कि तुम्हारे रहते मैं तुम्हारी दुनिया से अलिप्त रही। 

हमारे रिश्तों में एक अंतर बना रहा, पर साहित्य में हमारी रुचि एक समान थी। तुम्हें साहित्य में बेहद रुचि थी। तुम्हारे विवाह में उपहार स्वरूप मिलीं सारी बांग्ला किताबें तुम अपने साथ लेकर आई थीं। पढ़ लेने के बाद तुमने वह सम्हालकर रखी हुई थीं। पापा तुम्हारे लिए ‘देश’ नामक एक बांग्ला पत्रिका भी मंगवाते थे। पापा से बांग्ला सीखने के बाद मैंने वे सारी किताबें पढ़ ली थी, जिसमें गुरुदेव टैगोर का काव्य संग्रह ‘संचयिता’ मेरा मुख्य आकर्षण था। अनजाने में तुमने ही मुझमें उच्च शिक्षा के सपने जगाए थे माँ! मैं कॉलेज की लाइब्रेरी से तुम्हारे लिए हिन्दी, गुजराती और अंग्रेज़ी किताबें लाती, तुम्हें बड़ी ख़ुशी होती। तुमने ये तीनों भाषाएँ सीख ली थीं। 

किताबों से मेरी दोस्ती करवाकर तुम्हीं ने तो मुझे एक ऐसे जीवन की कल्पना करना सिखाया था माँ कि मैं अपनी पहचान खुद बना सकूँ! मैंने बनाई भी। अर्थशास्त्र में मास्टर डिग्री लेने के बाद मुझे भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक के आंचलिक कार्यालय, अहमदाबाद में ऑडिटर के पद पर नियुक्ति मिली। शादी भी हो गई। पार्थो भी पापा की तरह दहेज प्रथा के खिलाफ थे फिर भी विवाह की परंपरा निभाते हुए तुमने मेरे गहने बनवाने में अपनी दो सोने की चूड़ियाँ जोड़ी। 

शादी के बाद मैं अहमदाबाद आ गई। नौकरी के साथ घर सम्हालना मेरे बस की बात नहीं थी। मुझे चावल तक पकाने नहीं आते थे। हमारे देश में महिलाएँ कितनी भी आगे बढ़ जाएँ, वे परिवार की धरोहर होती हैं, घर-परिवार उनकी प्रथम प्राथमिकता होनी चाहिए, यही तो समझाना चाहती थी माँ तुम मुझे! हर बार की तरह इस बार भी बिना कुछ कहे तुमने मेरे विवाहित जीवन की  मुश्किलें कम कीं। हर वीक एंड में तुम हम दोनों को बुला लेती। हर तीज त्यौहार में हम तुम्हारे साथ होते। अक्सर तुम हमारा पसंदीदा खाना लेकर बारेजड़ी से अहमदाबाद ट्रेन से आती और हमारे घर पहुँचने से पहले मालिक मकान के पास टिफिन छोड़ जातीं क्योंकि तुम्हारी वापसी की ट्रेन का समय हो जाता। मैंने तुम्हें कभी ‘थैंक्स’ भी नहीं कहा। इतनी खुदगर्ज़ मैं कैसे बनी माँ? 

एक बात तुमने अपनी संतानों से छुपाई थी माँ जो मुझे बरसों बाद पता चली। सिर्फ़ दो वर्ष की थी तुम, जब मेलिग्नेन्ट मलेरिया से नानी माँ की मौत हुई जो सिर्फ़ अठारह वर्ष की थी। तुम्हारी परवरिश का जिम्मा तुम्हारी विधवा दादी माँ को सौंपा गया था। तत्कालीन सामाजिक नियमों के अनुसार विधवा होने के नाते उनका रसोईघर अलग था। वे अपना शाकाहारी खाना खुद पकाती। मांसाहार वर्ज्य था। उन्हें प्याज-लहसुन खाने की भी इजाज़त नहीं थी।  विधवाओं का जीवन तब एक अभिशाप से कम न था। इससे दुखद परिस्थिति और क्या हो सकती थी माँ कि जिस उम्र में तुम शाही  भोजन लेने की हक़दार थी, तुम्हें विधवा दादी के लिए बना सादा भोजन खाना पड़ता। तुमसे ये तो बहुत बार सुना था कि तुम्हारी परवरिश दादी माँ ने की, पर कभी कोई संदेह पैदा नहीं हुआ क्योंकि इतने बड़े संयुक्त परिवार में यह होना स्वाभाविक ही था। 

क़रीब पाँच वर्ष के बाद 26 वर्ष के नाना जी का पुनर्विवाह स्कूल में पढ़ रही तुम्हारी सिर्फ़ तेरह वर्ष की आभा मौसी के साथ कर दिया गया जो अब मेरी नानी माँ थी। तुम दोनों के बीच उम्र का फासला सिर्फ़ सात वर्ष का था। सुनकर एक सिहरन-सी दौड़ गई थी मेरे बदन में। सोचकर भी अजीब लगता है, 13 वर्ष की नई माँ ने तुम्हारे प्यारे नाम “रूबी” से पुकारकर धीरे-धीरे तुमसे बेटी का रिश्ता कायम किया। न बातों में, न व्यवहार में कभी मुझे इस सत्य का अंदेशा मिला, न ही ननिहाल के किसी भी सदस्य से यह जानकारी मिली। नानी माँ और भाई बहनों के साथ जिस तरह प्यार के रिश्ते से तुमने खुद को जोड़ा था किसी ने ‘सौतेला’ शब्द से उस रिश्ते की तौहीन करना शायद उचित नहीं समझा था। तुम्हारा और नानीमाँ का प्यार हमारे समाज में, रिश्तेदारों में एक उत्तम मिसाल थी। एक बार तुम माँ-बेटी के रिश्ते की उस गहराई को महसूसना चाहती हूँ माँ! 

मैंने तुमसे ही सीखा था माँ कि मुश्किल से मुश्किल परिस्थितियों में भी माता-पिता को अपने परिवार का हिस्सा बनाए रखना चाहिए। बेटों की तरह बेटियाँ भी माता-पिता के प्रति अपना कर्तव्य पूर्ण रूप से निभा सकती है। मेरे विवाह के दो वर्ष पश्चात ही पापा बीमार हुए। पापा मेरे अज़ीज़, परिवार में एक मात्र उपार्जन करने वाले थे। मेरी शिक्षा व्यर्थ नहीं थी माँ। मैंने उनकी चिकित्सा और सेवा में कोई क़सर न छोड़ी, लाख कोशिश के बावजूद हम उन्हें स्वस्थ नहीं कर पाए। पापा के जाने के बाद तुम्हारा संसार एक तरह से बिखर ही गया। तुम्हें और छोटे भाई-बहन को अपने परिवार के साथ रखते हुए मैंने हर तरह से तुम्हारा साथ दिया। मैं ख़ुशक़िस्मत थी कि इस कार्य में पार्थो का पूर्ण सहयोग मिला। मोड़ आते गए, समय बीतता गया। हम सभी भाई-बहन अपने अपने परिवार में व्यस्त हो गए।

बुढ़ापे के अंतिम छोर पर पहुँचते-पहुँचते अपने दोनों बेटों के परिवारों में तुम कब बँट गई, न तुम्हें पता चला न मुझे। देश के बँटवारे की पीड़ा तो तुम झेल गई माँ, पर ये बँटवारे की यातना तुम सह नहीं पाई। वर्ष 2010 में तुम एक बार फिर मेरे पास आई, एक भरोसा लेकर। दिसम्बर शुरू होनेवाला था। इस बार तुमने तय कर लिया था, तुम मेरे साथ ही रहोगी। पता नहीं क्यों माँ, तुम्हारे गहन मौन ने मुझे भीतर तक झकझोर कर रख दिया। 

निस्संगता से तुम टूट चुकी थी। अलमाईजर की बीमारी की वजह से तुम्हारी याददाश्त कमज़ोर होती जा रही थी। शारीरिक रूप से तुम पहले से ही बहुत कमज़ोर हो गई थी। तुम्हारा व्यवहार बिलकुल बच्चों-सा हो गया था। कुछ ही दिनों में तुम शय्याग्रस्त हो गई। डॉक्टर ने जवाब दे दिया। तुम्हारी देखभाल में मैंने कोई क़सर नहीं छोड़ी। पूर्ण ईमानदारी से तुम्हारी देखभाल की। इस बार भी पार्थो का सम्पूर्ण सहयोग मिला। मैं तुम्हें अपने हाथों से दवाई देती, तुम्हारे वस्त्र एवं शरीर की साफ-सफाई का ध्यान रखती, तुम्हारे लिए संतुलित आहार बनाती, तुम्हें अपने हाथों से खाना खिलाती। खाते वक्त तुम मुझे एक टक देखा करती जैसे कुछ कहना चाहती हो। 

ठण्ड का मौसम था। उस दिन जब मैं तुम्हारे चेहरे पर कोल्ड क्रीम लगा रही थी कि अचानक तुमने अपना दायाँ हाथ ऊपर उठाया मेरे सिर पर रखने की कोशिश की। दुर्बलता की वजह से तुम्हारा हाथ फिसलने लगा, मैंने झट से थाम लिया। धीमी आवाज़ में तुम इतना ही कह पाई, ‘तू तो मेरी लक्ष्मी बिटिया है।’ तुम्हारा हाथ अब भी मेरे हाथों में था, इतना शीतल स्पर्श! उस पल की अनुभूति ऋजु फिर भी कितनी तीव्र थी, माँ। मुझे याद नहीं, आखिरी बार कब तुमने मुझे छुआ था, मेरा हाथ थामा था, मुझे गले लगाया था! तुम्हारी हथेली को अपने चेहरे से लगाए हुए देर तक रोती रही मैं! देखती रही तुम्हारी हथेली की रेखाएँ, तुम्हारी नाजुक उँगलियाँ! शब्दों में जो तुम कभी नहीं कह पाई मुझे, वह सब कुछ तुमने अपने स्पर्श से कह दिया। तुम्हारे कोमल हाथों के स्पर्श से मेरी बरसों से सोई हुई संवेदना जाग उठी। सारे गिले-शिकवे मिट गए, मैं इतना ही कह पाई, ‘मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ माँ, हर जन्म में मैं तुम्हारी बेटी बनूँगी माँ।’ 

विधि की यही विडम्बना थी कि आज मैं तुम्हारे इतने क़रीब आ गई थी और तुमने मुझसे बहुत दूर जाने का, कभी न लौटने का फैसला कर लिया था। तुम्हारी रंग हीन आँखें अपनी बेबसी बयान कर रही थी फिर भी उन आँखों में मुझे एक चमक-सी दिखाई दी! 27 जनवरी 2011 की शाम को ठीक सात बजे तुम हमें छोड़ गईं हमेशा के लिए। जीवन के अंतिम दिनों में अगर तुम मेरे पास न आती माँ तो तुम्हारे निश्छल प्रेम की अनुभूति मैं कैसे कर पाती? अपने सीमित सामाजिक दायरे के भीतर रहकर एक माँ अपनी संतानों की परवरिश करने में, परिवार के प्रति अपना दायित्व निभाने में पता नहीं कितनी बार मरती है, इस बात का अहसास जिस पल हुआ, मैं अपराधबोध के अगाध जल में डूबी जा रही हूँ! मुझे विश्वास है, यह पत्र तुम तक पहुँचेगा, तुम इसे पढ़ोगी, मुझे क्षमा कर दोगी क्योंकि तुम माँ हो। देखो, आज मैं तुम्हारी प्यारी बिटिया बन गई। आज फिर मुझे कहने दो, ‘हर जन्म में मैं तुम्हारी बेटी बनूँगी माँ।’ 

तुम्हारी लक्ष्मी बिटिया  


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सुश्री मल्लिका मुखर्जी,  अहमदाबाद, मो. 97129 21614


 मल्लिका मुखर्जी की कार्यालयीन गतिविधियाँ 

मल्लिका मुखर्जी ने एक हायर सेकेंडरी स्कूल में अध्यापक के रूप में दो वर्ष और प्रधान महालेखाकार, गुजरात के कार्यालय में ऑडिटर के पद से विभागीय परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद पदोन्नत होकर सीनियर ऑडिट ऑफिसर के पद पर छत्तीस वर्ष तक अपनी सेवाएँ दी। 

‘भारतीय लेखा परीक्षा और लेखा सेवा’ एक भारतीय केन्द्रीय सरकारी सेवा है जो भारत के नियन्त्रक एवं महालेखापरीक्षक (सीएजी) के अधीन है और एक स्वतंत्र प्राधिकरण है। सी.ए.जी. को भारत सरकार, सभी प्रादेशिक सरकारें तथा सरकार के स्वामित्व वाली कम्पनियों के सभी तरह के अकाउन्ट्स (लेखों) का ऑडिट (अंकेक्षण) करने के अधिकार प्राप्त हैं। ऑडिट रिपोर्ट के माध्यम से इन सभी की सार्वजनिक धन खर्च करने की जवाबदेही सुनिश्चित की जाती है और यह जानकारी जनसाधारण को दी जाती है। सी.ए.जी. का मुख्यालय दिल्ली में हैं, लेकिन सभी राज्यों में उनके शाखा कार्यालय हैं।

उन्होंने गुजरात के कार्यालय में ज्यादातर मुख्यालय, अहमदाबाद में कार्य किया, लेकिन फील्ड ऑडिट ने उन्हें विभिन्न ऑडिट यूनिट्स की कार्य प्रणाली के बारे में जानने का अवसर दिया। कार्यालय में स्टाफ की कमी के कारण उन्हें गुजरात में स्वायत्त निकायों (ऑटोनॉमस बॉडीज) की लेखापरीक्षा करने का अवसर मिला। इनमें आईआईएम (अहमदाबाद), एनआईडी (अहमदाबाद), आईआईटी (गांधीनगर), इंफलिबनेट (गांधीनगर), एसवीएनआईटी (सूरत), केन्द्रीय युनिवर्सिटी गुजरात (गांधीनगर), केन्द्रीय विद्यालय संगठन के तहत आते केन्द्रीय विद्यालय तथा नवोदय विद्यालय समिति, नई दिल्ली द्वारा चलाए जा रहे विद्यालय शामिल हैं।

वर्ष 2016-17 में, भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक ने पूरे भारत में ‘निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा विधेयक, 2009’ के कार्यान्वयन से संबंधित एक ऑल इंडिया रिव्यू करने का निर्णय लिया। उस समय वे गुजरात में क्षेत्रीय कार्यालय, प्रधान निदेशक (केन्द्रीय) के ‘व्यय विभाग’ में नियुक्त थीं। उनकी ऑडिट टीम को केन्द्र शासित प्रदेश ‘दादरा और नगर हवेली’ तथा ‘दमन और दीव’ के लिए रिव्यू का कार्य सौंपा गया। 

वे कहती हैं, ‘मेरी कारकिर्दगी जो अध्यापन से शुरू हुई थी, शिक्षण संस्था के ऑडिट तथा शिक्षण के रिव्यू पर समाप्त हुई। जया नायर, रश्मिकांत यादव और मैं, हम तीनों की मेहनत रंग लाई। सीएजी मुख्यालय से हमारी रिपोर्ट को सराहा गया।’    

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कहानी


सुश्री मल्लिका मुखर्जी,  अहमदाबाद, मो. 97129 21614

दंश 

हतप्रभ-सी रह गई सुनयना! उसके चरित्र पर अपने ही बेटे द्वारा यह आक्षेप! जिसे नौ महीने तक अपने गर्भ में पाला, जो जीवनभर उसकी आशा की ज्योति बना रहा, उसके रक्त-मांस से बना उसका अपना बेटा ईशान, क्या दंश दिया, काटने का निशान तक नहीं और शरीर नील खा गया! पाँव लड़खड़ाने लगे, आँखों के सामने अँधेरा छाने लगा, उफ! इससे बड़ा सर्वनाश और क्या हो सकता था उसका! सीने में धधकती आग पर किस तरह तो काबू पाया सुनयना ने, अपने कमरे में जाते ही बिस्तर पर ढ़ेर हो गई। 

कितना गर्व था उसे अपने बेटे ईशान पर! आज वह सुशिक्षित है, प्रतिष्ठित है, सफलता के सर्वोच्च शिखर पर विराजमान है। अब सुनयना इतमीनान से अपने बेटे से अपनी अंतरव्यथा साझा कर सकती है, पर यह क्या हुआ? सुनयना, ईशान को बताना चाहती थी की बेटे के उज्ज्वल भविष्य के लिए वह किस तरह हर विषम परिस्थितियों से जीवनभर जुझती रही, कैसी विडम्बनापूर्ण ज़िंदगी बिताई, कितनी अवहेलना, कितनी प्रताड़ना सही! समाज के ठेकेदारों ने कितनी बार उसे तिरस्कृत किया! हमेशा जनचर्चा का विषय बनी, पर विचलित नहीं हुई। जीवन की उद्दाम लालसा का केन्द्रबिंदु ईशान ही तो था, जिसकी खातिर जीवन में अधूरेपन का अहसास लिए हुए आज उम्र की इस ढलान पर आकर ठहरी है वह! 

कहाँ कमी रह गई अपने बेटे की परवरिश में? कहाँ मात खाई उसने? क्या ईशान ने एक बार भी सोचा होगा कि चरित्रवान व्यक्ति किसे कहते है? सुनयना इतनी पढ़ी-लिखी नहीं है, पर उसे पता है कि जिस व्यक्ति का आचार, विचार, वाणी और व्यवहार पवित्र हो वही चरित्रवान व्यक्ति है। 

आक्रंद कर उठा सुनयना का अंतरतम- ‘हे सृष्टि के सर्जनहार! तुम्हारा बनाया हुआ यह विश्व कितना सुंदर है, और मानव द्वारा बनाई गई यह समाज व्यवस्था कितनी घिनौनी! जीवन के हर उतार-चढ़ाव का मैंने अपनी समस्त ताकत से मुकाबला किया, क्या मिला मुझे? क्या मेरी हृदयविदारक त्रासदी का कभी अंदाज़ा भी लगा पाएगा ईशान?’ 

सुनयना सोच रही थी। उसका अतीत विषाक्त था, वर्तमान अंधकारमय था, पर वह ईशान के भविष्य को उज्ज्वल देखना चाहती थी। तभी तो समाज और परिवार की सुदृढ़ प्राचीरों को उसने कभी नहीं तोड़ा। उसके अचेतन मन का डर आज सही निकला! स्मृतियों के झरोखे से जब उसने झाँका, पता चला काल के प्रवाह में कितने पल बह गए थे यूँ ही!

पश्चिम बंगाल के हुगली जिले का आलताला गाँव, जिसमें प्रकृति की उदारता कूट-कूटकर भरी थी। नारियल के पत्तों से बने छोटे-छोटे कच्चे घर, चारों और नारियल और सुपारी के वृक्षों के झुंड और गाँव के क़रीब बहती हुगली नदी की कल-कल आवाज़! इसी गाँव की गरीब माँ-बाप की बेटी सुनयना-हिरनी-सी चंचल, अद्भुत सौंदर्य की स्वामिनी! बेहद निखार था उसके चेहरे पर, चाल में एक गज़ब की कशिश, जैसे किसी गिरिशिखर से उछलता-कूदता एक झरना वादियों से गुज़र कर एक नदी का रूप धारण करने को बेताब हो! निराला अंदाज था उसके  जीने का। उसके लिए हर सुबह एक नई सुबह होती जो ख़ुशहाली लेकर आती। 

वह हमेशा गाँव की टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों पर रंग-बिरंगी तितलियों की तरह फुदकती रहती। नदी के घाट पर जाकर, पानी में पाँव डुबोकर बैठे-बैठे झाल-मुड़ी खाना उसका सबसे बड़ा शौक था। नदी तो जैसे सुनयना की अंतरंग सहेली थी। कभी-कभी सब सहेलियाँ मिलकर स्नान के लिए नदी में उतरती और पानी के बहाव के साथ तैरते हुए दूर तक निकल जातीं। बाकी सहेलियों के चिल्लाने पर सुनयना कहती, ‘तुम सब तो डरपोक हो, मुझे तो खतरों से खेलना अच्छा लगता है, मैं नहीं डरती।’ सब सहेलियाँ मिलकर देर तक पानी में अठखेलियाँ करती रहतीं।

एक दिन इसी तरह भीगे हुए कपडों में लिपटी सुनयना घाट की सीढ़ियाँ चढ़ रही थी, अचानक उसने देखा गाँव के मुखिया का नौजवान बेटा सुधांशु घाट के उपरी हिस्से में बैठा उसे एक टक निहार रहा है। उसकी निगाहों का सामना करने में असमर्थ, वह लड़खड़ाते क़दमों से सीढ़ियाँ पार कर अपने घर की ओर भागी। घर के पिछवाड़े बने बाथरूम में जो चटाई के छोटे मोटे परदों से बना था, चली गई। जोरों से धड़क रहा था सुनयना का दिल! सोलह साल की उम्र में यह पहला विजातीय आकर्षण था जो उसने सुधांशु के प्रति महसूस किया था।

अक्सर सुधांशु घाट पर आता, सुनयना भी खिंची चली आती। सुधांशु ही बोलता, वह अधिकतर चुप ही रहती। अब वह अपने दिल की धड़कन सुन पाती थी। फिर एक दिन सुनसान दोपहरी में जब सुनयना घाट पर बैठी कुछ सोच रही थी, तो लगा कि एक छाया आकर रुक गई है, उसने मुड़कर देखा तो सुधांशु था। वह सुनयना से सटकर बैठ गया। सुनयना ने उठकर भागना चाहा, लेकिन उसके पैर जैसे जमीन में गड़ गए थे। 

सुधांशु कहने लगा, ‘सुनयना, आज मैं तुमसे एक बात पूछना चाहता हूँ।’

‘..................’

‘मुझसे विवाह करोगी ।’

‘.................’

‘मैं तुम्हें अपना जीवनसाथी बनाना चाहता हूँ सुनयना। कल मैं शहर जा रहा हूँ। कॉलेज कल से शुरू हो रहा है। मेरी पढ़ाई खत्म होने में सिर्फ़ दो साल बाकी हैं। वापस आने के बाद मैं अपने माता-पिता को इस शादी के लिए राजी कर लूँगा। हम शहर में रहेंगे। मुझे आज ही बता दो, तुम्हारी हाँ सुनकर मैं आश्वस्त हो जाऊँगा।’ 

सुधांशु ने बड़ी शालीनता से अपनी बात रखी। कैसे तो सुनयना ने दोनों हाथों से अपना चेहरा ढ़क लिया और ‘हाँ’ में सिर हिला दिया। यौवन की पहली वसंत की पहली प्रीत! सुनयना का मुग्ध मन सतरंगी सपने देखने लगा। हवा का मंद-मंद शोर, नदी की कल-कल आवाज़, सब एक सुमधुर संगीत में बदल गया। हर वक्त उछल-कूद करती मुग्धा आज नवयौवना बन गई। पहली बार दुनिया उसे  इतनी ख़ूबसूरत लगी!  

किन्तु हर किसी के जीवन में सब कुछ तो इच्छित ढंग से नहीं होता न! 

एक दिन किवाड़ की ओट से सुनयना ने सुना कि माँ और पिताजी पास ही के गाँव सुभाषपल्ली के एक परिवार में उसका विवाह तय कर आए हैं। अगले महिने की सत्रह तारीख को विवाह है। निहायत गरीब माँ-बाप की बेटी सुनयना, कब तक उसका बोझ उठाए रखते? फिर दहेज भी तो नहीं माँगा था उन्होंने। आक्रंद कर उठा सुनयना का मन। पल भर में सुनयना के सपनों का महल ढह गया। हृदय में एक टीस-सी उठी, जैसे समन्दर में बहती तेज पानी की लहरें किनारों से सिर पटकने लगीं! उज्ज्वल मुसकुराहट गायब हो गई। 

माता पिता के आज्ञा का उल्लंघन करना सुनयना के बस की बात नहीं थी। वह विद्रोह नहीं कर पाई। एक बार फिर मूक प्रेम समाज की वेदी पर बलि चढ़ गया। विवाह हो गया। घर-परिवार ठीक-ठाक था। सुनयना ने अपने आपसे समझौता किया। कम से कम उसे दारुण गरीबी से तो मुक्ति मिलेगी। दिन बीतते गए। एक बेटे की माँ बनी। उसे आज भी याद है वह दिन जब उसने अपने बेटे को जन्म दिया था। बेटे का चेहरा देखते ही जीवन के सारे गिले-शिकवे दूर हो गए थे। 

सुनयना को कहाँ पता था कि आगे क्या घटने वाला है? अचानक एक ऐसी हृदयविदारक घटना घटी।, सुनयना दिशाहीन हो गई। उसके पति शंभुनाथ अपने माता-पिता के साथ तीर्थ यात्रा पर जगन्नाथपुरी गए थे। बेटा छोटा होने के कारण सुनयना घर पर ही थी। वापस लौटते समय रास्ते में उनकी बस भयानक दुर्घटना का शिकार हो गई।। माता-पिता की घटनास्थल पर ही मौत हो गई, शंभुनाथ बुरी तरह घायल हो गए।

सुनयना को जब खबर मिली, वह आसमान की ओर ताकती रह गई। तेईस साल की कमसिन उम्र और इतनी डरावनी वास्तविकता! लाख कोशिश करने पर भी डॉक्टर शंभुनाथ के पैर ठीक नहीं कर पाए। शंभुनाथ सदा के लिए अपाहिज हो गए। सुनयना का अंतर जलता रहा। उसने किसी को यह महसूस नहीं होने दिया। वह ईशान के मासूम चेहरे को देखती और एक नई सुबह के सपने में खो जाती। समय बीतता गया। सुनयना ने अपना खोया हुआ आत्मविश्वास पुनः प्राप्त किया। अपने पति को भी आश्वस्त किया जब तक वह है, वे कोई चिंता न करें। उसने हर प्रतिकूल परिस्थिति से जुझने का निर्णय लिया। 

दो साल बीत गए। शंभुनाथ अपाहिज थे, व्यापार में ठीक से ध्यान नहीं दे पाते थे। घाटा होने लगा। साथियों ने धोखा दिया, पूरा रोजगार चैपट हो गया। सुनयना ने पाया कि अब उसे आर्थिक अभाव के रहते वही संघर्ष करना पड़ेगा जो उसने अपने माता-पिता के घर देखा था। वह हिम्मत नहीं हारी। उसने अपने एक दूर के रिश्तेदार से कहा कि एक कमरा खाली है, अगर कोई किराएदार मिल जाए तो उसे बताएँ।

एक दिन एक सुदर्शन युवक उसके द्वार पर खड़ा उन्हीं का पता पूछ रहा था। उम्र होगी पचीस-छब्बीस साल। नाम था आकाश। दूर का रहनेवाला था। पास के शहर की एक कंपनी में इंजीनियर के पद पर नियुक्त हुआ था। नई नौकरी थी। शहर में रहने की कोई व्यवस्था नहीं हो रही थी। सोचा कि पास के किसी गाँव में रहने की व्यवस्था हो जाए तो खर्चा भी कम होगा। सुनयना ने अपना परिचय दिया और उसे बैठक कक्ष में बिठाया। सुनयना के व्यवहार से वह काफ़ी प्रभावित हुआ। उसे तो विश्वास ही नहीं हो रहा था कि यह अद्भुत सुंदर महिला इतना संघर्षमय जीवन बीता रही है। सुनयना ने जब अपने पति शंभुनाथ से परिचय करवाया तो आकाश को एक और झटका लगा। इतना साधारण-सा दिखनेवाला, अपाहिज, कृशकाय पुरुष इस सुंदरतम महिला का पति! उसने मन ही मन अपने आप को डाँटा कि वह किसी की निजी ज़िंदगी के बारे में जानने के लिए इतना उत्सुक क्यों हैं? 

ख़ैर, बात-चीत तय हुई। रहने को एक कमरा मिलेगा। सुबह का चाय-नाश्ता, दो वक्त का खाना, कुल मिलाकर पाँच हजार रुपए महीना तय हुआ। आकाश ने सहमति दी। कुछ ही दिनों में वह रहने आ गया। दिन बीतते चले। पता नहीं क्यों, आकाश को रह-रहकर सुनयना की निश्छल मुस्कान याद आ जाती। 

उसे खुद भी अजीब लगता, ऐसा क्यों हो रहा है? वह सोचता, नियति ने सुनयना के साथ इतना बड़ा अन्याय क्यों किया? काश! वह उसके लिए कुछ कर पाता! सुनयना जब भी उसे ख़ाना परोसती, वह न जाने क्या सोचता रहता। कुछ महिने बीत गए। उसने मन-ही-मन एक निश्चय किया। 

एक दिन शाम का खाना खाते वक्त, मौका देखकर उसने धीरे से पुकारा, ‘सुनयना....’ 

विवाह के बाद, किसी पराए पुरुष ने पहली बार उसका नाम लेकर पुकारा था। वह हड़बड़ा गई।

‘जी.....’

‘मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूँ। मुझे गलत मत समझिएगा। आप की दुर्दशा मुझसे देखी नहीं जाती। इतनी कम उम्र में इतनी यातना! आप चाहें तो अपना जीवन 

सुधार सकती हैं।’

‘माने?’

आकाश जैसे अपने होश खो बैठा था। वह कहता चला गया, ‘मैं आपका साथ दे सकता हूँ। आप अगर मेरे साथ चलने को राजी हों तो, मैं जीवनभर आपका साथ निभा सकता हूँ। जिस दिन से आपको देखा है, न जाने क्यों... मुझे गलत मत समझना प्लीज, मैं खुद नहीं जानता कि मैं क्या कह रहा हूँ, लेकिन मैं खुद को रोक नहीं पा रहा- नहीं पा रहा....’ 

शांत सरोवर में जैसे किसी ने कंकड़ फेंक कर अंतहीन वलय रचा दिए। चैंक गई सुनयना! उसने पल में ही खुदको संभाल लिया, ‘आप खाना खाइए, मुझे देर हो रही है।’ 

आकाश चुपचाप खाना खाकर चला गया। सुनयना जल्दी से सब काम निबटाकर अपने कमरे में चली गई। मन अस्वस्थ हो गया। सुखमय जीवन बिताने की प्रबल इच्छाशक्ति जैसे प्रज्वलित हो उठी। जीवन के सर्वोत्तम सुख के प्रलोभन ने एक बार तो उसके आत्मविश्वास को डगमगा दिया।

‘हे प्रभु! तुम बार-बार मेरी इतनी कठोर परीक्षा क्यों ले रहे हो? नहीं .. नहीं ... मुझे किसी की सहानुभूति नहीं चाहिए। मैं बुज़दिल नहीं हूँ, मैं स्वार्थी नहीं हूँ। अपने निजी सुख की  खातिर मैं अपने परिवार के साथ इतना बड़ा छल नहीं कर सकती। मैं एक परिणीता हूँ, एक माँ हूँ, मैं इस घर की चैखट पार नहीं कर सकती।’ 

सुनयना ने निद्रा ग्रस्त बेटे ईशान पर नज़र डाली तो जैसे सब्र का बाँध टूट गया। उसने अपने बेटे को गोद में उठाया और पागलों की तरह उसे चूमने लगी। उफ! वह क्या सोच रही थी! कैसे ईशान का मासूम चेहरा उसके दिल को एक अवर्णनीय आह्लाद से भर देता है! बेटे की भोली मुस्कान के सामने तो दुनिया का हर सुख तुच्छ है। 

‘अन्जाने सुख की लालसा से तो अच्छा है, मैं वर्तमान को मान कर चलूँ।’ यह सोचते ही उसका मन हल्का हो गया। 

सुबह सुनयना ने आकाश के लिए चाय बनाई। आकाश चुप-चाप सर झुकाकर चाय पी रहा था। तभी धीरे से सुनयना ने कहा, ‘आकाशबाबू, कल शाम आपने जो कुछ कहा, मैं रातभर सोचती रही। मैं आपकी भावनाओं की कद्र करती हूँ, लेकिन आप अच्छी तरह जानते हैं कि हमारी सामाजिक परंपरा में कोई चाहे भी तो किसी की जीवन-दिशा इतनी आसानी से नहीं बदल सकता। यह बात सच है कि मैं बड़ा संघर्षपूर्ण जीवन जी रही हूँ, पर भौतिक सुख ही तो सब कुछ नहीं है न? समय ने मेरे पति के साथ छल किया है, उनका मेरे सिवा इस दुनिया में कोई नहीं है। मैं आशा करती हूँ कि आप मुझे समझ पाएँगे।’ 

‘मुझे क्षमा कर दो सुनयना। तुम्हें सुखी देखने की चाहत ने मुझे रास्ता भूला दिया। मैं वादा करता हूँ, फिर कभी इस तरह पेश नहीं आऊँगा। तुम स्त्री नहीं, एक देवी हो। आज तुमने मुझे अंतद्र्वंंद्व से मुक्त कर दिया।’ 

किवाड़ की ओट से सुन रहे शंभुनाथ की आँखे नम हो गईं। इस विश्व की कोई ताकत उन्हें सुनयना से जुदा नहीं कर सकती। इस घटना के बाद आकाश सदा सुनयना और उसके परिवार का शुभचिंतक बना रहा। शहर में रहने की व्यवस्था होते ही वह चला गया। कभी-कभी आकर खोज-खबर लेता रहता। अब शंभुनाथ भी आकाश के अच्छे दोस्त बन गए थे। आकाश ने एक संस्था से सुनयना को ऋण पर एक सिलाई मशीन दिलवाने की व्यवस्था भी कर दी। सुनयना को उपार्जन का एक साधन मिला। आर्थिक संकट टल गया। ईशान पढ़ाई में तेज था। स्कूली शिक्षा समाप्त होते ही आकाश ने शहर में ईशान के उच्च शिक्षा की सारी व्यवस्था भी करवा दी। 

बीते हुए जीवन के दो और दिन नहीं भूल सकती सुनयना। एक, जिस दिन ईशान का बी.ई. (मिकेनीकल) के अंतिम वर्ष का परिणाम घोषित हुआ और दूसरा, जिस दिन उसके पति शंभुनाथ की मृत्यु हुई। अख़बार के पहले पृष्ठ पर ईशान की तस्वीर छपी थी। वह युनिवर्सिटी में प्रथम आया था। बरसों से रोके हुए आँसू समन्दर बनकर उफन पडे थे, सुनयना की साधना सफल हुई थी, आकाश का त्याग सार्थक हुआ था। एक साल पहले जब शंभूनाथ का दिल का दौरा पड़ने से निधन हुआ तब भी आकाश सुनयना का मानसिक संबल बना रहा। 

सुनयना अतीत के सागर में गोते लगाते-लगाते वर्तमान की सतह पर आ गई। इस संवेदनहीन समाज में एक मानव की दूसरे मानव के प्रति सहदयता, उदारता, सौजन्यता क्या अपराघ है? जीवन पथ पर कई बार सुख का प्याला उसके होठों तक पहुँच कर छिन गया। 

उसे याद आया कि एक बार सुधांशु ने उससे कहा था, ‘तुम तो संगेमरमर से तराशी हुई वह प्रतिमा हो, जिसे मैं अपने हृदय-मंदिर में स्थापित करना चाहता हूँ। काश!  जीवन के ऐसे मधुर क्षण स्थिर हो पाते! आज वह नहीं जानती, उसका पहला प्रेम सुधांशु कहाँ है? बेटे ईशान ने जिस तरह आज आकाश के साथ अपने संबंध को लेकर सुनयना को अपमानित किया, अच्छा हुआ आकाश ने नहीं सुना और शंभुनाथ यह दिन देखने से पहले ही चल बसे! सुनयना पर इतना बड़ा लांछन वे कभी भी सह नहीं पाते। सोचते-सोचते सुनयना की आँखें भर आईं। 

सुबह ईशान जल्दी उठ गया। हक़ीक़त में वह रातभर सो ही न पाया था। रोज की तरह आज रसोईघर से कोई आवाज़ भी नहीं आ रही थी। उसने झाँककर देखा, रसोईघर में कोई नहीं था। कल उसने जिस तरह माँ से बात की, बड़ा अफसोस हो रहा था। उसकी नौकरी की खबर सुनकर माँ का चेहरा कैसा खिल उठा था, ‘मेरे सोना बेटे, हम दोनों शहर चलेंगे ताकि तुम्हें कोई असुविधा न हो।’ उसने क्या किया? माँ को साथ ले जाने में अपनी असहमति जता दी, आकाश अंकल का वास्ता देकर!

एक अनजाने डर से मन घबराने लगा। माँ के कमरे में गया, माँ वहाँ भी नहीं थी। अचानक टेबल पर रखे कागज़ पर नज़र गई। लिखावट तो माँ की ही थी। ईशान ने झट से कागज़ हाथ में लिया। माँ ने लिखा था-  

ईशान बेटे, 

कितने छलनामय होते हैं मानवीय संबंध! लहु के संबंध से भी बड़ा होता है विश्वास का संबंध। काश! तुम मेरे और आकाश बाबू के तर्कानीत संबंध को समझ पाते! तुम्हारे सुख की खातिर जिस घर की चौखट को मैंने कभी पार नहीं किया, आज तुम्हारे ही सुख की खातिर उसी चौखट को पार कर रही हूँ, सदा के लिए। इस पृथ्वी पर हर संबंध, हर परिचय ऋणात्मक होता है। तुम्हारे रचाए ख़ुशियों के महल में मुझे अगर नींव की ईंट का स्थान भी मिल जाए तो मैं कृतार्थ हूँ।

तुम्हारी माँ सुनयना

चिट्ठी पढ़ते ही ईशान को जैसे अपने आप से घृणा होने लगी। उसे लगा इतना विद्वान होकर भी वह कितना छोटा है। उसने तो कभी आकाश बाबू को माँ के साथ आपत्तिजनक व्यवहार करते नहीं देखा, न ही पिताजी को कभी उनके संबंध को लेकर विक्षिप्त देखा, फिर किसी की बात सुनकर वह क्यों भड़क उठा? उसका मन आगे कुछ सोच नहीं पा रहा था। वह पागलों की तरह बाहर की ओर दौड़ा। उसे याद आया माँ अक्सर नदी के घाट पर जाकर बैठती है। अब भी शायद वहीं हो। वह दौड़ता हुआ घाट पर पहुँचा। देखा कि अभी-अभी जिस नाव ने उस पार जाने के लिए घाट छोड़ा, सुनयना उसी नाव में सवार थी। 

ईशान चिल्लाने लगा,‘माँझी नाव रोको....’

‘इस नाव में अब जगह नहीं है बाबू, अगली खेप में ले जाऊँगा।’ ईशान जैसे पागल हो उठा। 

‘माँझी, नाव रोको, तुम नहीं जानते, तुम कुछ भी नहीं जानते...इस नाव में मेरा सर्वस्व जा रहा है, वापस लाओ, नाव को वापस लाओ। अगर ये नाव वापस नहीं आई तो मेरा सब कुछ खत्म हो जाएगा माँझी...’ 

ईशान की चीख-पुकार हुगली नदी के शोर में विलीन हो गईं। वह घाट के पत्थर पर सिर पटक-पटक कर रोने लगा। पत्थर भी जैसे उसे कह रहे थे, ‘कितने भाग्यहीन हो तुम! माँ के हृदय से अविरत बहती वात्सल्य धारा को महसूस ही न कर पाए! तुम्हें रोने का भी अधिकार नहीं है, चले जाओ, चले जाओ यहाँ से...’  

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आलेख

सुश्री मल्लिका मुखर्जी,  अहमदाबाद, मो.: 91 97129 21614


 मलयालम उपन्यास ‘चेम्मीन’ का सामाजिक-सांस्कृतिक विश्लेषण 

मलयालम साहित्य के सुप्रसिद्ध लेखक तकषी शिवशंकर पिल्लै (17 अप्रैल, 1912-10 अप्रैल, 1999) ऐसे संक्रांति काल के साहित्यकार है, जब केरल ‘मालाबार’, ‘कोच्ची’ और ‘तिरुविन्ताकूर’ नामक तीन अलग अलग राज्यों में बँटा हुआ था। सामंती शासन का ही बोलबाला था। मलयाली समाज साहूकारी सामंतवादी, जमींदारी व्यवस्था के साथ-साथ छुआछूत की गंभीर व्याधि से ग्रस्त था। समाज में भूस्वामी, धनी और पुरोहित वर्ग के लोग निर्धन वर्ग का शोषण करते थे। 

संपूर्ण भारत में स्वतंत्रता आंदोलन एवं सामाजिक आंदोलन अपने चरम पर था। उस समय मलयालम लेखक सामाजिक संरचना और मूल्य व्यवस्था का विरोध नहीं करते थे। उपन्यास में स्वच्छंदतावाद या यथार्थवाद दिखाई नहीं देता था। दूसरी पीढ़ी में नवोत्थान विचारधारा उभर कर आई। इस नए मार्ग में साहित्यकारों ने सामाजिक असमानता, शोषण, अनीति आदि को अपनी रचनाओं का विषय बनाया। उन्होंने लेखन में यथार्थवादी शैली पसंद की और सामाजिक लक्ष्य को महत्व दिया। 

नवोत्थान काल के लेखकों में तकषी शिवशंकर पिल्लै का महत्वपूर्ण स्थान है। उनका वास्तविक नाम के.के. शिवशंकर पिल्लै हैं। तकषी शिवशंकर पिल्लै उनका साहित्यिक नाम है। उनका जन्म केरल के आलप्पुषा जिले में स्थित ‘तकषी’ नामक गाँव में हुआ था। तकषी ने हमेशा समाज के बेहद सामान्य चरित्रों को ही अपनी रचनाओं के केंद्र में रखा। उनके संघर्ष, उनकी जिजीविषा, उनकी पीड़ा का बखूबी वर्णन किया। उन्हें मलयालम उपन्यास का 'प्रेमचंद' कहा जाता है। उनकी रचनाएं भारतीय साहित्य की धरोहर हैं। उन्होंने 48 उपन्यास और 500 के क़रीब कहानियाँ लिखी।

तकषी का बचपन समुद्र तट पर ही बीता। उन्होंने मछुआरों के जीवन को क़रीब से देखा। उनके संघर्षपूर्ण जीवन के बारे में जाना। मार्क्सवाद के प्रति उनके रुझान का, उनके साहित्यिक व्यक्तित्व के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान रहा। उनकी सारी कृतियों का मुख्य संदेश यही है कि भूखंड, वंश, वर्ग, व्यवसाय, धर्म आदि का भेद निरर्थक है। यह भेद मानव को सामान्य मानवता से दूर ले जाता है। 

‘चेम्मीन’ उनके उत्कृष्ट उपन्यासों में से एक है। वर्ष 1956 में लिखे गए इस उपन्यास का श्रीमती भारती विद्यार्थी ने हिन्दी अनुवाद किया जिसे वर्ष 1959 में साहित्य अकादमी, दिल्ली ने ‘मछुआरे’ नाम से प्रकाशित किया। इस उपन्यास का मुख्य विषय है प्रेम, लेकिन समानांतर रूप से केरल के समुद्र तट पर मछली पकड़कर जीवन निर्वाह करने वाले गरीब मछुआरों के जीवन परिवेश का चित्रण भी उतनी ही शिद्दत से किया गया है। ‘चेम्मीन’ शब्द का अर्थ है छोटी झींगा मछली, जो तटीय क्षेत्रों के पास पाई जाती है। उपन्यास का शीर्षक इस मायने में महत्वपूर्ण है। समुद्र मछुआरों की सभी इच्छाओं को पूरा करता है, इसलिए वे समुद्र को अपनी माता मानते हैं। उनका मानना है कि ‘मदर सी’ यानी ‘देवी कडलम्मा’ समुद्र की अथाह गहराइयों में बसती है और उनके सारे कार्यकलापों पर नज़र रखती हैं।

उपन्यास की कथा मछुआरे समाज में प्रचलित एक मिथक के सहारे कही गई है। समुद्र की विशाल ताकत से बचने के लिए यह मिथक प्रचलित है, जो मछुआरे समाज के अस्तित्व का आधार है। मिथक कहता है कि मल्लाह की असली संपत्ति मल्लाहिन की पवित्रता है। पत्नी की शुद्धता से ही उसके मछुआरे पति का जीवन सुरक्षित रहता है। इन्हीं विश्वासों के सहारे नाविक निडर होकर समुद्र मंथन करते हैं। इसी मिथ को कथासूत्र में पिरोकर तकषी यह असाधारण प्रेम कथा कहते हैं। 

सामाजिक अस्तित्व को मजबूत बनाना ही इस मिथ का सामुहिक उद्देश्य है। मछुआरों का मानना है कि एक मछुआरे को सख्त सामाजिक परंपराओं की सीमाओं के भीतर जीवन जीना पड़ता है। इस समाज के निवास स्थान, जीवन शैली, परिस्थिति, धारणाएं, आचार विचार आदि का संबंध सागर से है। वे सागर को माता मानते हैं और सागर किनारे ही सागर तट पर छोटी-छोटी झोपड़ियों में रहते हैं। उनके लिए सागर ही पाठ्यपुस्तक है। सागर के शांत-रौद्र भाव, भंवर, तरंग, आवर्तन, चाकरा के लक्षण, आदि का ज्ञान प्राप्त कर वे सागर को साधते है।

मिथक को तकषि ने प्रथम अध्याय में ही लिख दिया है। कथा नायिका करुथम्मा, कथा नायक परीक्कुट्टी का सहज प्रेम, प्रेम में मिली असफलता, प्रियजनों द्वारा धोखा, आर्थिक अभाव, उनके जीवन की बरबादी आदि का संकेत हमें प्रथम अध्याय में ही मिलता है। केरल के नीर्कुन्नम समुद्री तट प्रदेश में एक मछुआरा परिवार रहता है।  परिवार में चार सदस्य हैं। चेंपनकुंजु, उसकी पत्नी चक्की, बड़ी बेटी करुथम्मा और छोटी बेटी पंचमी। उसी समुद्री तट से मछली खरीद कर बेचने के लिए एक मुसलमान व्यक्ति अपने बेटे परीक्कुट्टी के साथ आया करता था। करुथम्मा और परीक्कुट्टी, दोनों को बचपन से एक दूसरे को जानते थे। मुलाकातों के जरिए दोनों की दोस्ती अंततः प्यार में बदल जाती है।  

करुथम्मा की माँ चक्की को परीक्कुट्टी के साथ अपनी बेटी के प्रेम संबंध के बारे में पता चलता है। चक्की अपनी बेटी को सख्त सामाजिक परंपराओं की याद दिलाते हुए, इस तरह के रिश्ते से दूर रखने की चेतावनी देती हैं। वह अपनी बेटी को समझाती है कि मछुआरों का जीवन वास्तव में तट पर रहने वाली उनकी स्त्रियों के हाथ में ही है। समुद्र माता अपनी संतान को सब कुछ देती है, लेकिन क्रोध आ जाने पर एक साथ सब कुछ नष्ट कर देती है। परीक्कुट्टी के बारे में वे कहती हैं कि वह तो विधर्मी है उसे इन बातों की क्या परवाह होगी। करुथम्मा ने ऐसी बात पहले भी कई बार सुनी थी। उसे आश्चर्य होता है कि परीक्कुट्टी के साथ हंसकर बात करने में क्या बुराई है? अभी तक उसे किसी मछुआरे का जीवन तो सौंपा नहीं गया था। जब सौंपा जाएगा तब वह उसकी रक्षा करेगी। 

चक्की तट पर रखी गई नावों की आड़ और वहाँ की झाड़ियों को बहुत खतरनाक जगह बताते हुए बेटी को सावधान करती है कि अब वह छोटी बच्ची नहीं है, एक मल्लाहिन हो गई है। छाती भर आई है। चेहरा मोहरा सब हृष्ट-पुष्ट बन गया है। हो सकता है नासमझ जवान लड़के उसकी ओर नज़र गड़ा कर देखें। एक मान्यता यह भी है कि यदि कोई छाती की ओर या नितंबों की ओर आँखे गड़ा कर देखें तो वह बात समुद्र माता के संतान की मर्यादा के विरुद्ध होगी। 

एक और तपस्या का पाठ समुद्र माता (कदलम्मा) की हर पुत्री को पढ़ाया जाता है- प्रथम मल्लाह जब पहले पहल लकड़ी के एक टुकड़े पर चढ़कर समुद्र की लहरों और ज्वार भाटे का अतिक्रमण करके क्षितिज के उस पार गया तब उसकी पत्नी ने तट पर व्रत निष्ठा के साथ पश्चिम की ओर देखकर खड़े-खड़े तपस्या की। समुद्र में तूफान उठा और शार्क मुँह बाए नाव के पास पहुँचे, व्हेल ने नाव को पूँछ से मारा और जल की अंतरधारा ने नाव को एक भंवर में खींच लिया, लेकिन आश्चर्यजनक रीति से वह मल्लाह सब संकटों से बचकर एक बड़ी मछली के साथ किनारे पर लौट आया। यह सब समुद्र तट पर खड़ी उस पतिव्रता नारी की तपस्या का ही फल था।

करुथम्मा मछुआरों की ‘नैतिकता’ की अवधारणा के साथ बड़ी हुई है। वह जानती है कि समुद्र माता की संतान होने के नाते, वह परम्पराओं की ऊँची इमारत के अंदर कैद है, जिसे वह कभी भेद नहीं सकती। परीक्कुट्टी से अनहद प्यार करते हुए भी वह उसे पा नहीं सकती। 

करुथम्मा का पिता चेम्पनकुंजु एक मछुआरा है और चतुर नाविक भी है। मछुआरों की दो ही संपत्ति है नाव और जाल। चेम्पनकुंजु भी नाव खरीदना चाहता है, लेकिन सभी जाति के मछुआरे नाव नहीं खरीद सकते। ‘धीवर’ जाति का मछुआरा ही समुदाय के मुखिया की अनुमति के बाद नाव और जाल खरीद सकता है, जबकि चेम्पनकुंजु पोतकार जाति का मछुआरा है। इस अभिलाषा की बात वह अपनी पत्नी से कहता है, जो करुथम्मा सुन लेती है। वह उसके पिता की जाल और नाव खरीदने की ख्वाहिश के बारे में परीक्कुट्टी को बताती है। इस कार्य के लिए परीक्कुट्टी से कुछ रुपए भी उधार मांगती है। उपन्यास का प्रारंभ ही इसी वार्तालाप से होता है।

इस बात का पता चलते ही चक्की अपने पति को बताती है और चेम्पनकुंजु यह निर्णय लेता है कि वह परीक्कुट्टी से ही रुपए उधार लेगा। यह जानकर करुथम्मा को बहुत सदमा पहुँचता है क्योंकि वह जानती थी कि किसी और से पैसे उधार लेने पर उसके पिता को उसे ब्याज समेत लौटाना होगा लेकिन अगर परीक्कुट्टी से लेता है तो उसे आसानी से धोखा दिया जा सकता है। चेम्पनकुंजु सयानी लड़की के ब्याह की चिंता नहीं करता। मुखिया की अनुमति भी नहीं लेता। परीक्कुट्टी से एक बड़ी राशि का ऋण लेकर नाव और जाल खरीदता है। 

परीक्कुट्टी, करुथम्मा से बेहद प्यार करता है। जब जब चेम्पनकुंजु को ज़रूरत होती है वह उसे पैसे देता है, लेकिन चेम्पनकुंजु नाव खरीदकर अच्छी कमाई होने पर भी परीक्कुट्टी को पैसे वापस नहीं देता, उसके साथ व्यापार भी नहीं करता। उसका लालच बढ़ता जाता है। वह परीक्कुट्टी से उसके भण्डार की सूखी मछलियाँ भी ले लेता है। दूसरी नाव भी खरीदता है पर परीक्कुट्टी के पैसे नहीं लौटाता। तकषी ने करुथम्मा के पिता चेम्पनकुंजु का अमीर बनने का अदम्य लालच, माता चक्की की सुख लोलुपता भी प्रारंभ में ही बताई है।

अमीर बनने के बाद चेम्पनकुंजु धनी जीवन शैली अपना लेता है। वह पैसे बचाना शुरू कर देता है। समुद्र तट का एक नियम यह भी था कि मल्लाह जो कमाएगा  वह जमा नहीं कर पाएगा। इसका कारण यह है कि वह जो कमाता है वह पानी में स्वतंत्र जीवन बिताने वाली असंख्य मछलियों को धोखे से मारकर कमाता है। ऐसी जीव हत्या से होने वाली कमाई कभी टिकने वाले नहीं हो सकती। उसे कोई जमा नहीं कर सकता।

धीरे-धीरे वह अधिक लालची हो जाता है, समुद्र तट की परंपरा और रीति-रिवाजों की परवाह करना बंद कर देता है। एक जाल वाले को रुपए उधार देता है और फिर उसकी चीनी नाव हड़प लेने के सपने भी देखता है। पोला के समय पानी का रंग बदल जाता है। इसे लोग समुद्र माता के ऋतुमति होने का लक्षण मानते हैं। ऐसे समय में कोई मछलियां मारने समुद्र में नहीं जाता। उस समय भी वह मछली मारने के लिए समुद्र में जाता है। 

जून में वर्षा ऋतु के शुरू होने पर चाकरा के मौसम में जब समुद्र में उथल-पुथल मच जाती है, जल की सतह से 5 फीट नीचे तीन-चार मील लंबे चैड़े क्षेत्र में मिट्टी की तह जम जाती है। समुद्र शांत हो जाता है और मछलियों की भरमार हो जाती है। नियमानुसार मछुआरा एक दिन में एक ही बार मछली मारने के लिए जा सकता है, लेकिन चेम्पन उस समय दिन में दो बार मछली मारने के लिए जाना चाहता है। इधर परीक्कुट्टी अपना दिया हुआ ऋण वापस न मिलने की वजह से सब काम धंधा गँवाकर निराधार हो जाता है। करुथम्मा, परी की बरबादी की वजह खुदको मानने लगती है। 

चाकरा के सिलसिले में आये पलनी नामक एक शक्तिशाली पर अनाथ मछुआरे से चेम्पन अपनी बेटी करुथम्मा का विवाह तय करता है। माँ चक्की भी स्वयं को मारने की धमकी देकर बेटी को पलनी से विवाह के लिए राजी कराती है। व्यापार शिथिल हो जाने पर मारा मारा फिर रहा है छोटे मियां, परीक्कुट्टी। विवाह से पहले, करुथम्मा चाहती है कि पिता द्वारा लिया गया परीक्कुट्टी का कर्ज़ चुका दिया जाए। उसने अपनी माँ चक्की के साथ मिलकर चेम्पनकुंजु की पेटी भी खोली और चोरी की, लेकिन वे परिकुट्टी का कर्ज़ नहीं चुका पाए।

शादी के एक दिन पहले वह परीक्कुट्टी से मिलती है और यह आश्वासन भी देती है कि उसका कर्जा चुकाने के बाद ही वह शादी करके यहाँ से जाएगी। ‘क्या सब संबंध तोड़ कर जाओगी?’ परीक्कुट्टी के इस प्रश्न का जवाब देना करुथम्मा के लिए बड़ा मुश्किल था। यह कहते हुए वह परीक्कुट्टी से विदा लेती है कि तुम्हारा भला हो। यह इस कहानी का पहला क्लाइमेक्स है। इस विदाई दृश्य में, आर्य नारी की चरित्र शुद्धि की अवधारणा उभरती है। वह परीक्कुट्टी को प्राणों से भी अधिक चाहती है फिर भी दोनों एक हाथ की दूरी पर खड़े रहकर ही बिदा होते हैं।

पलनी, तृक्कुन्नपुषा तट प्रदेश में पला है जो अनाथ है पर एक शक्तिशाली मछुआरा है। चेम्पन स्त्री धन दिए बिना ही पलनी से बेटी करुथम्मा का विवाह कर देता है। विवाह के बाद करुथम्मा तृक्कुन्नपुषा तट प्रदेश पर रहने चली जाती है। ससुराल आकर वह एक अच्छी पत्नी बनने का प्रयास करती है। अब सिर्फ़ पलनी का प्यार चाहती है। उसने एक पुरुष से प्रेम किया था, लेकिन उस पुरुष को स्पर्श करने का अवसर उसने कभी नहीं खोजा था। सागर तट के नियमों का उल्लंघन कभी नहीं किया था। तकषी की भाषा में, शादी के बाद अपने पति के स्पर्श के अनुभव में उसे गज़ब की आनंदानुभूति हुई। एक पुरुष से प्रेम करने पर भी, ऐसी दम घुटाने वाली आनंदानुभूति उसे दूसरे पुरुष के दृढ़ आलिंगन में मिली और वह इस पुरुष की स्त्री थी। उसका शरीर इसी के लिए बना था इसीलिए उसने अपना शरीर अब तक पवित्र बनाए रखा था। करुथम्मा अब सिर्फ़ पलनी का प्यार चाहती है। मन ही मन सोचती है कि अब वह एक जिम्मेवार पत्नी बनकर रहेगी, पलनी को एक योग्य मल्लाह बनाएगी।

समाज की विडम्बना ही कहें कि तट प्रदेश के लोग धीरे-धीरे उनके वैवाहिक जीवन में दखल देना शुरू कर देते हैं कि इतने धनी मछुआरे ने अपनी बेटी को एक अनाथ के हाथों क्यों सौंपा? निश्चय ही लड़की में कुछ गड़बड़ी है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह थी कि करुथम्मा की शादी के दिन ही माँ चक्की ने खाट पकड़ ली थी और उन्हें छोड़कर वह ससुराल आ गई थी। इसी कारण पिता चेम्पन ने उससे नाता तोड़ लिया था। किसी को यह नहीं पता था कि माँ ने ही परीक्कुट्टी के प्रेम का वास्ता देकर उसे ससुराल भेज दिया है! करुथम्मा को धीरे-धीरे पलनी के व्यवहार से जीवन की सुरक्षा का एहसास होने लगा, उसे सुकून मिला। वह एक बेटी की माँ बनी।

होनी को कोई नहीं टाल सकता। परीक्कुट्टी का जीवन तहस-नहस हो गया। वह, बस एक प्रेमी बनकर रह गया। सागर तट पर गीत गा गा कर भटक रहा है। चक्की की बीमारी के बारे में सुनकर एक दिन वह उनसे मिलने आ जाता है। चक्की अपनी बेटी के प्रेम प्रकरण के बारे में जानते हुए भी परीक्कुट्टी को अनुरोध करती है कि करुथम्मा का ब्याह हो गया है, उसे कष्ट मत देना। उसे अब उसका सगा भाई बनकर रहने के लिए भी कहती है। चक्की की मौत हो जाती है और पत्नी की अकाल मृत्यु का कारण चेम्पन, बेटी करुथम्मा को ही मानता है। उसे खबर देने से भी मना करता है, लेकिन परीक्कुट्टी यह समाचार लेकर पलनी के गाँव पहुँचता है। 

एक मल्लाहिन के मरने की खबर देने के लिए एक मुसलमान के आने के कारण पलनी के दोस्तों ने संदेह प्रकट करते हैं। उस पर अलग-अलग आरोप लगाते हैं और उसे नावों में ले जाने पर रोक लगाते हैं। दोनों तिरस्कृत होने लगते हैं। पलनी बुरी तरह टूट जाता है। ‘तुम भ्रष्टा हो इसलिए मैं समुद्र में जाने के लायक नहीं रहा।’ पलनी की यह बात सुनकर करुथम्मा स्तंभित रह जाती है। पूछने पर करुथम्मा कह देती है कि वह अब भी परीक्कुट्टी से प्यार करती है। वह पलनी को वचन भी देती है कि समुद्र में तूफान उठाने वाला व्यवहार उसका नहीं होगा, वह समुद्र तट के अयोग्य कभी नहीं होगी। वह सोचती है कि शादी से पहले अगर किसी से प्यार किया तो इसमें क्या गलती है? इसी बीच उसने अनुभव किया कि पलनी का प्यार अब कम होता जा रहा है। करुथम्मा और पलनी के रिश्ते में दरार पड़ जाती है। यहाँ पर लेखक ने तृक्कुन्नपुषा के समुद्र का स्वरूप रौद्र दर्शाया है। यहाँ की लहरें करुथम्मा और उसके पति पलनी के जीवन में अविश्वास और नाराजगी पैदा कर देती है।

चक्की की मौत के बाद चेम्पनकुंजु दूसरी शादी कर लेता है। पत्नी पाप्पी बड़ी स्वार्थी महिला है। चेम्पन के नावों की मरम्मत के लिए जो कर्ज़ लिया था उसमें से पैसे चुराकर अपने बेटे गंगादत्त को दे देती है। पंचमी उसके दुव्र्यवहार से व्यथित होकर अपनी दीदी के पास आ जाती है। चेम्पन को जब पाप्पी से पता चलता है कि करुथम्मा के प्रति प्रेम के कारण ही परीक्कुट्टी ने उसे कर्ज़ दिया था तब वह उसे लौटाने के लिये व्यग्र हो उठता है। परीक्कुट्टी के पास जाकर उसे कुछ रूपये थमाकर उस पर अपनी बरबादी का इल्जाम भी लगाता है।  

एक  दिन आँधी तूफान के चलते भी पलनी नाव खेने चला जाता है। यह झकझोरने वाला तूफान और भारी वर्षा जैसे करुथम्मा और पलनी की मनोदशा के प्रतीक थे। करुथम्मा देर रात तक अपनी बहन से बात करती रहती है। उसे नींद नहीं आती। अचानक हवाओं में बहता एक स्वर सुनाई देता है, लगता है कि कोई उसे नाम लेकर पुकार रहा है। इतनी रात को पलनी ही आकर उसे पुकारता है और दरवाज़ा खोलने को भी कहता है, लेकिन इस बार दरवाज़ा खोलने के लिए नहीं कहा गया। बाहर किसी को ना देख कर वह घर के पश्चिम में समुद्र की तरफ़ देखने जाती है, वहाँ परीक्कुट्टी खड़ा है। करुथम्मा ने देखा वह पहले से बहुत दुबला हो गया है। वह धीरे-धीरे उसके पास आता है, परीक्कुट्टी को अपने पास देख कर भी करुथम्मा को डर नहीं लगता। अब उसे किसी प्रकार का डर नहीं लगता। उसे लगता है कि परीक्कुट्टी के सर्वनाश का कारण वह खुद है। परीक्कुट्टी हमेशा से उसको प्रेम करता है, करता रहेगा। करुथम्मा में छुपी एक प्रेमिका जाग उठती है और पत्नी का पराजय हो जाता है। वह सिर्फ़ एक स्त्री बनकर रह जाती है, पुरुष को प्रेम करने वाली स्त्री। जाति, धर्म, विचार सब मिलकर भी उसमें जगे प्रेमभाव को पराजित नहीं कर पाते। वह उसकी छाती से लग जाती है, दोनों एक दूसरे के गाढ़ आलिंगन में बंध जाते हैं। 

उधर पलनी शार्क मछली के पीछे भाग रहा है। एक हाथ से कांटे की रस्सी पकड़े और दूसरे हाथ से डांड संभालते हुए नाव में बढ़ रहा है। अचानक उसकी  नाव एक भंवर में फंस जाती है। नाव भंवर में डूब जाने को हुई तो पलनी जोर से चिल्लाता है - करुथम्मा। अब वही मल्लाह की रक्षा कर सकती है, लेकिन करुथम्मा अपनी मर्यादा खो चुकी है। पलनी की नाव डूब जाती है। दूसरी सुबह शांत है। पंचमी तट पर करुथम्मा की बच्ची को गोद में लिए रो रही है। बच्ची भी रो रही है। करुथम्मा दिखाई नहीं देती, पलनी भी नहीं लौटता। दो दिन बाद आलिंगनबद्ध करुथम्मा और परीक्कुट्टी के मृत शरीर किनारे लग जाते हैं। तट पर एक कांटा निकला हुआ शार्क भी किनारे लगता है। पलनी का मृत शरीर समुद्र से बाहर भी नहीं आता।

तकषी ने विशिष्ट मनोदशा वाले कथा पात्रों की सृष्टि करते हुए मिथक की शक्ति के तिरस्कार की क्षमता दिखाई है। कहानी के केन्द्र में करुथम्मा एवं परीक्कुट्टी का प्रेम है। करुथम्मा और परीक्कुट्टी के माध्यम से प्रेम के उस तत्व पर प्रकाश डाला है कि प्रेम में डूबे व्यक्ति समाज द्वारा निर्मित जाति और धर्म बंधनों की परवाह नहीं करते। 

तकषी का प्रेम दर्शन असाधारण है। जिस रात करुथम्मा को देख लेने की आशा लेकर परीक्कुट्टी जब उसकी झोपड़ी तक पहुँचता है, उससे पहले करुथम्मा पलनी को अपने प्यार के बारे में बता चुकी थी। उसे पता था कि पलनी के जीवन में अब उसका कोई स्थान बचा नहीं रहेगा। परीक्कुट्टी की आवाज़ सुनते ही उसकी मानसिक स्थिति में जबरदस्त बदलाव आया। वह पलनी की पत्नी न रही और परीक्कुट्टी की प्रेमिका बन गई। वह परीक्कुट्टी से मिलने के लिए बढ़ी। यहां पर लेखक ने कथा पात्रों को समाप्त करने के लिए आवश्यक पृष्ठभूमि भी तैयार की है।

तकषी ने कहानी को घटनाओं के बीच में कथा पात्रों को खड़ा करके उनकी प्रतिक्रियाओं से ही प्रस्तुत किया है। नारी स्वभाव के अनेक रूपों को व्यक्त करते हुए नारी मनोविज्ञान को भी आत्मसात किया है। सीमित शब्दों में भी बड़ी से बड़ी बात कह दी है। उनकी वाक्य रचनाएं सहज और सरल है। उनका वाक्य विन्यास सहज और सरल है। जीवन की गहरी भावनाओं को रोमांटिक चरित्र के साथ चित्रित किया गया है। वर्णन की शैली भी बहुत आकर्षक है। मछुआरों के जीवन में व्याप्त संघर्ष का भी, चेम्पनकुंजु के जीवन द्वारा, सविस्तार चित्रण किया गया है।

इस उपन्यास में, सामुदायिक, आर्थिक और पारिस्थितिक क्षेत्र का एक विशेष संबंध है। लेखक का जीवन दृष्टिकोण दृढ़ और स्पष्ट है। मनुष्य की स्वाभाविकता को महत्व दिया जाता है। मिथक के सृजन से ही पौराणिक मान्यताओं की वास्तविकता पर प्रहार किया गया है। मानव जीवन के सभी क्षेत्रों से संबंधित बिम्बों का प्रयोग इस उपन्यास में किया गया है, जिनमें सबसे सार्थक बिंब है, ‘कडलम्मा’ यानी ‘समुद्री माता’, दूसरा है नाव और जाल। इन संकेतों के संयोग और वियोग से, मछुआरों के जीवन में अर्थ और अनर्थ संभव होता है।

हमें ऐसा भी लग सकता है कि समुद्र तट के कायदे कानून के विरुद्ध चला इसलिये चेम्पनकुंजु का दुखांत हुआ। वास्तव में चेम्पनकुंजु के माध्यम से लेखक यह बताना चाहते हैं कि आर्थिक शोषण किसी भी रूप में हो, उसका 

परिणाम ऐसा हो सकता है। उसने अपनी बेटी के प्रेमी से धन उधार लिया और उसे वापस नहीं किया। पैसे की लालच में ही चेम्पन ने पलनी को अपना जमाई बनाया। स्त्री धन तो दिया ही नहीं, एक भारी रकम ‘दुल्हिन शुल्क’ के रूप में मांगी। इसी आघात में पत्नी चक्की बीमार हो गई। पत्नी चक्की की मौत के बाद उसने दूसरी शादी रचाई। दूसरी पत्नी ने अपने बेटे के लिए चोरी की। आर्थिक रूप से वह बरबाद हो गया। 

‘चेम्मीन’ उपन्यास की नायिका करुथम्मा जैसी नायिका मलयालम उपन्यास में दूसरी नहीं है। तकषी ने नीर्कुन्नम  तट प्रदेश में जन्मी एक साधारण मछुआरिन के मन में प्यार भर दिया और उसे एक असाधारण नारी बना दिया। करुथम्मा में अनेक प्रकार के गुण हैं, फिर भी तृक्कन्नपुषा के लोगों ने उसके  चरित्र पर लांछन लगाकर उसे  पीड़ा दी। विवाह के पहले उसने एक पुरुष से प्यार किया था उसमें उसका क्या दोष था? यह प्रश्न व्यक्तिगत स्वतंत्रता का प्रकटीकरण है। ऐसे हादसों की जिम्मेदारी उस समाज की है, जो ऐसे लोगों को जीने की इजाज़त नहीं देता, जो जाति और धर्म से ऊपर उठकर जीना चाहते हैं। 

कहानी के अंत में करुथम्मा और परीक्कुट्टी इस मिथकीय विश्वास का विरोध करते हुए ही प्रेम की शक्ति का प्रदर्शन करते हैं और जल में अपना जीवन खो देते हैं। भयानक आँधी में जानबूझकर ही पलनी नाव खेने चला जाता है और भंवर में फंसकर डूब जाता है। पलनी भी मिथकीय विश्वास का विरोध करता नज़र आता है। पर्यावरणीय मुद्दों के साथ-साथ, लेखक ने और समाज के माध्यम से, भारतीय समाज में स्त्री को वश में रखने की पुरुष वर्ग की सदियों पुरानी मानसिकता को भी उजागर किया है कि कैसे समाज की झूठी नैतिकता व्यक्ति, परिवार और समाज की जीवन प्रणाली को नष्ट कर देती है। 

विश्व उपन्यासों की अग्रणी श्रेणी में स्थान पाने वाले तकषी के उत्कृष्ट उपन्यास ‘चेम्मीन’ पर इसी नाम से, मलयालम भाषा में ही फिल्म बनी, जो 19 अगस्त 1965 को रिलीज हुई। इस फिल्म को तकनीकी रूप से और कलात्मक रूप से एक शानदार फिल्म कह सकते हैं। इस फिल्म ने मलयालम सिनेमा में उत्कृष्ट मुकाम हासिल किया। कई पुरस्कार जीतने  वाली यह फिल्म आईबीएन लाइव द्वारा 100 सबसे बड़ी भारतीय फिल्मों की सूची में शामिल हुई। 

संदर्भ सूत्र: ‘चेम्मीन’ उपन्यास का श्रीमती भारती विद्यार्थी द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद

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साक्षात्कार - हैलो गुजरात


श्री सरस्वतीचंद्र आचार्य

सुश्री मल्लिका मुखर्जी,  अहमदाबाद, मो.: 91 97129 21614

हौसला बुलंद हो तो कामयाबी क़दम चुमेगी - मल्लिका मुखर्जी  

‘दीर्घा मीडिया’ गुजरात स्थित समाचार सामग्री प्रदान करने वाली एक एजेंसी है जो 1999 में शुरू हुई थी। यह गुजरात के जाने माने पत्रकार युगल श्री सरस्वतीचंद्र आचार्य और सुश्री मनीषा शर्मा ने इस एजेंसी की स्थापना की है। ‘हैलो गुजरात’, दीर्घा मीडिया का ही हिस्सा है। अपने-अपने कार्यक्षेत्र में श्रेष्ठ योगदान देनेवाले गुजराती महानुभावों के साक्षात्कार ‘हैलो गुजरात’ टीवी सीरीज के तहत दूरदर्शन पर और बाद मे वेब साइट, फेसबुक, यूट्यूब चैनल पर प्रस्तुत हुए। उन्हीं साक्षात्कारों को पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने की एक शृंखला वर्ष 2010 से शुरू हुई। वर्ष 2021 में प्रकाशित पुस्तक ‘हैलो गुजरात‘ में गुजरात को अपनी कर्मभूमि बनाने वाली बहुभाषी लेखक मल्लिका मुखर्जी के साक्षात्कार के कुछ महत्वपूर्ण अंश-

प्रश्न: आपकी प्रोफाइल दर्शाती है कि एक सफल गृहिणी की भूमिका निभाने के अलावा आपने और भी कई क्षेत्रों में विभिन्न भूमिकाएँ सफलतापूर्वक निभाई हैं, अपनी जीवन यात्रा के बारे में कुछ और बताएँ।

उत्तरः सबसे पहले मैं मनीषा शर्मा और सरस्वतीचन्द्र के ‘हैलो गुजरात‘ के तहत प्रेरक साक्षात्कार श्रृंखला बनाने के विचार का स्वागत करती हूँ। हमारे आसपास कई ऐसे लोग हैं जिनका जीवन हमें प्रेरणा देता है। मैं एक बहुत ही 

साधारण व्यक्ति हूँ, फिर भी इस श्रृंखला के लिए मेरा नाम चुनने के लिए मैं ‘हैलो गुजरात‘ को धन्यवाद देती हूँ। मुझे उम्मीद है कि दर्शक मेरे जीवन के अनुभव सुनना पसंद करेंगे।

मेरे माता-पिता के व्यक्तित्व का मेरे जीवन पर सबसे बड़ा प्रभाव रहा है। मेरे पिता अखंड भारत के पूर्वी बंगाल में कोमिल्ला जिले के मोईनपुर गाँव में एक मध्यमवर्गीय कृषक परिवार के पुत्र थे। देश के बँटवारे के कारण पूर्वी बंगाल पाकिस्तान का हिस्सा बना। उन्हें अपने बड़े भाई के परिवार के साथ पश्चिम बंगाल आना पड़ा। माँ पूर्वी बंगाल के मैमनसिंह जिले के रायजान गाँव के जमींदार की बेटी थीं। देश के बँटवारे के कारण उनकी जन्मभूमि पूर्वी बंगाल भी पाकिस्तान हिस्सा बना और उन्हें कई अन्य परिवारों की तरह युवावस्था में अपने परिवार के साथ पश्चिम बंगाल आना पड़ा।

मैट्रिक पास होने के कारण पिताजी को बॉम्बे स्टेट (अब गुजरात) के वेस्टर्न रेलवे में नौकरी मिल गई। माँ की शादी अब जमींदार परिवार में होने की कोई संभावना नहीं थी, इसलिए एक मध्यस्थ की मदद से उनकी शादी तय हुई। उन्होंने भी मेट्रिकयुलेशन किया था। शादी के बाद, माँ पापा के साथ बॉम्बे स्टेट के बरोड़ा जिले के एक छोटे से रेलवे स्टेशन ‘ओड’ में आ गईं। 

हम चार भाई-बहन हैं। पापा ने फैसला किया कि वे जहाँ रहेंगे, उसी गाँव की स्कूल में उनके बच्चे पढ़ेंगे। मेरी पढ़ाई गुजराती मीडियम से शुरू हुई। पिताजी ने न केवल हमें गुजराती सीखने के लिए ट्यूशन दिलवाया बल्कि गुजराती अख़बार भी लेने लगे। बार-बार तबादलों के कारण मैंने एस.एस.सी. तक सात स्कूलों में पढ़ाई की, जो सरकारी स्कूल थे। मैंने बारेजड़ी गाँव की सार्वजनिक विद्यालय से एस.एस.सी. किया, मेरे पापा तब बारेजड़ी रेलवे स्टेशन पर स्टेशन मास्टर थे। मैंने कॉलेज जाने की इच्छा जताई। माँ बहुत उत्सुक नहीं थी, लेकिन पापा मेरे साथ थे। मैंने भवन्स कॉलेज, अहमदाबाद से अर्थशास्त्र में स्नातक और गुजरात विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में एम.ए. किया। 

प्रश्न: अपने प्रोफेशन के बारे में कुछ विवरण दें।

उत्तरः बीए करने के बाद से ही ‘इम्प्लॉयमेन्ट न्यूज़’ पत्रिका में विज्ञापन देखकर नौकरी के लिए आवेदन करना शुरू कर दिया था। एमए करने के बाद आईएएस परीक्षा की तैयारी के लिए मैंने आणंद शहर के सरदार पटेल विश्वविद्यालय में चल रही कोचिंग कक्षा में एक वर्ष का कोचिंग भी लिया। इस बीच, मैंने ‘गुजरात समाचार’ अख़बार में महेसाणा जिले के खेरवा गाँव के हायर सेकेंडरी स्कूल ‘जयकोरबाई विद्यामंदिर’ में अर्थशास्त्र के अध्यापक के लिए एक विज्ञापन देखा, अर्थशास्त्र में मास्टर डिग्री होना आवश्यक योग्यता थी क्योंकि उस समय शिक्षा में 10 प्लस 2 का नया ढाँचा अस्तित्व में आया था। मैंने आवेदन किया और 22 साल की उम्र में मुझे इस स्कूल में अर्थशास्त्र के अध्यापक की नौकरी मिल गई।

नौकरी के लिए मैं अलग-अलग प्रतियोगी परीक्षा दे रही थी। उनमें से ‘स्टाफ़ सिलेक्शन कमीशन’ की परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ और मुझे अहमदाबाद में प्रधान महालेखाकार के कार्यालय में ‘लेखा परीक्षक’ के रूप में नियुक्त किया गया। मैंने अध्यापन की नौकरी छोड़कर इस कार्यालय में नौकरी स्वीकार कर ली। मैं विभागीय परीक्षा देकर वरिष्ठ लेखापरीक्षा अधिकारी के पद तक पहुँची। मेरे कार्यालय की बात करूँ यह भारतीय लेखापरीक्षा एवं लेखा विभाग के अधीन कार्य करता है। यह विभाग भारत का सर्वोच्च लेखापरीक्षा संस्थान तथा एक स्वतंत्र प्राधिकरण है।      

प्रश्नः इतने लंबे समय तक आपने गृहिणी और कामकाजी महिला की दोहरी भूमिका निभाई। ऑफिस और घर के बीच संतुलन कैसे बनाए रखा?

उत्तरः एक गृहिणी के रूप में परिवार की ज़िम्मेदारी और अपने कार्यक्षेत्र में घर से बाहर काम करने की ज़िम्मेदारी दोनों को सफलतापूर्वक निभाना किसी भी महिला के लिए बहुत चुनौतीपूर्ण होता है। आज भी हमारा परिवार या समाज एक महिला के नौकरी या व्यवसाय के कारण उसके पारिवारिक जीवन में आए बदलावों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होता। पति या परिवार का सहयोग न मिले तो कामकाजी महिला का मानसिक तनाव बढ़ जाता है। इसका सीधा असर उसके बाहरी काम पर पड़ता है।

मेरा एकल परिवार था। मेरे पति मेरी परेशानी समझते थे। मैं ऑफिस में एक ज़िम्मेदार पद पर थी। वे गृहिणी के रूप में मेरे दायित्वों में मेरी सहायता करते थे, आज भी करते हैं। दूसरा, मेरा भाई अपने परिवार और माँ के साथ बगल के फ्लैट में रहते थे, मेरे बेटे के स्कूल से लौटने के बाद उसकी देखभाल वे करते थे। बाकी, मैंने अपने ऑफिस में ऐसी कई महिला कर्मचारियों को देखा है जिन्हें गृहिणी होने की जिम्मेदारी से कोई छूट नहीं थी। उनकी आय को परिवार की आय के रूप में गिना जाता था, लेकिन वे स्वतंत्र रूप से कोई आर्थिक निर्णय नहीं ले सकती थीं। यहाँ मैं समाज की मध्यमवर्गीय कामकाजी महिलाओं की बात कर रही हूँ, जिनकी तादाद सबसे ज्यादा है।

प्रश्न: क्या आपको कार्यस्थल पर एक महिला होने के नाते किसी कठिनाई का सामना करना पड़ा?

उत्तरः कार्यक्षेत्र कोई भी हो, वह समाज का अंग है और समाज में व्याप्त बुराइयाँ या अवगुण हर कार्यक्षेत्र में देखने को मिलती हैं। पहली बात तो यह है कि अगर कोई महिला घर से बाहर किसी भी क्षेत्र में काम करती है, तो उसकी तमाम क्षमताओं के बावजूद उसे आसानी से स्वीकार नहीं किया जाता है। अक्सर आप जो मेहनत कर रहे हैं और अच्छा कर रहे हैं उसकी कतई सराहना नहीं की जाती है। खुद मेरे ऐसे अनगिनत अनुभव हैं। 

एक घटना के बारे में बताने से पहले मैं सरकारी तंत्र की कार्यप्रणाली के बारे में बताना चाहूँगी। यहाँ नौकरशाही का सिस्टम काम करता है। जिसे हम अंग्रेजी में ‘ब्यूरोक्रेसी’ कहते हैं। इसमें प्रत्येक कर्मचारी एवं अधिकारी अपने पद के क्रमानुसार कार्य करता है। इस प्रणाली का उद्देश्य व्यवस्थित रूप से कार्य करना है। लेकिन जब शीर्ष नौकरशाह अपनी शक्ति का दुरुपयोग करना शुरू करते हैं, तभी परेशानी शुरू होती है।

वर्ष 2009 में, मुझे लेखापरीक्षा अधिकारी के रूप में पदोन्नत किया गया और प्रशासन में ‘ड्रॉइंग एंड डिसबर्सिंग ऑफिसर’ (डीडीओ) के रूप में नियुक्त किया गया, जहाँ कार्यालय के बजट और व्यय खातों को संभाला जाता है। हर कर्मचारी का आयकर काटने की जिम्मेदारी भी डीडीओ की होती है। अगर इसमें कोई गलती हुई तो उस पर सीधे रु.10,000 का जुर्माना लगाया जाता है।

2011 में, बार-बार याद दिलाने के बावजूद मेरे इमिडीएट बॉस, प्रशासन विंग के हेड, उप महालेखाकार ने उनकी आय के सामने दिखाए गए निवेश के दस्तावेज प्रस्तुत नहीं किए। फरवरी का महीना, टैक्स काटने का आखिरी महीना था। मैंने उनकी सैलरी से रु.17000 बकाया टैक्स काट लिया।

अब उनकी बारी थी। उन्होंने मेरी वार्षिक मूल्यांकन रिपोर्ट में 10 में से 5 ग्रेड दिए, यानी औसत से भी कम! साथ में यह टिप्पणी भी लिखी कि मैं डीडीओ का काम नहीं जानती। मजे की बात यह थी कि वर्ष 2009 में मुझे तत्कालीन महालेखाकार महोदय से मेरे सराहनीय कार्य के लिए योग्यता प्रमाण पत्र मिला था! मैंने दिल्ली में स्थित हमारे मुख्यालय, सीएजी ऑफिस को अपने पूरे साल के काम का ब्यौरा लिखा और ग्रेड में सुधार करवाया। ऐसी लड़ाई के लिए आपका अपने काम में परफेक्ट होना बहुत ज़रूरी है।

प्रश्न: इस कार्यालय का कोई यादगार अनुभव जिसे आप हमारे दर्शकों के साथ साझा करना चाहेंगे?

उत्तरः बिल्कुल हैं। एजी ऑफिस में कई अच्छे अनुभव भी हैं। मैं यहाँ एक खास अनुभव के बारे में बात करूंगी। वर्ष 2016 में, हमारे मुख्यालय ने ‘शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009‘ के कार्यान्वयन पर ‘अखिल भारतीय समीक्षा‘ करने का निर्णय लिया। मेरे रिटायरमेंट में एक साल से भी कम समय बचा था। यह काम मुझे सौंपते हुए हमारे प्रधान निदेशक, डी.पी. यादव सर ने मुझे कहा, ‘मैडम, नियमानुसार किसी ऐसे अधिकारी को रिव्यू का कार्य नहीं दिया जा सकता है जिसकी सेवानिवृति में एक वर्ष से कम समय बचा हो, क्योंकि प्रतिवेदन के प्रधान कार्यालय में पहुँचने, स्वीकृत होने, छपने और संसद में प्रस्तुत होने तक की जिम्मेदारी उस निरीक्षण दल की होती है। इस नियम से परे जाकर मैं यह काम आपको सौंपना चाहता हूं। पहला कारण यह है कि हमारे पास पर्याप्त फील्ड स्टाफ़ नहीं है। दूसरा कारण यह है कि आपके पास अध्यापन कार्य का अनुभव है। आप शिक्षा से जुड़े मुद्दों को बेहतर ढंग से समझ पाएंगे।’ 

जब कोई आप पर विश्वास करता है और आपसे 100% उम्मीद रखता है, तो आप उनकी बात को टाल नहीं सकते। मेरी टीम को केंद्र शासित प्रदेशों ‘दादरा-नगर हवेली‘, ‘दमन-दीव‘ की रिपोर्ट तैयार करनी थी। हमने इन दोनों यूटी के तीन जिलों से में से रैंडम सैंपलिंग मेथड से नब्बे स्कूलों का चयन किया। छह महीने में इन सभी स्कूलों का दौरा किया। उनकी सभी समस्याएँ सुनी। रिपोर्ट में लगभग सभी बिंदुओं को कवर कर लिया। यह हमारा टीम वर्क था, मेरी टीम के सदस्य रश्मिकांत यादव और जया नायर ने मेरे साथ समान रूप से मेहनत की। रिपोर्ट सीएजी कार्यालय पहुँची। यादव सर ने हमारी ऑडिट टीम को विशेष रूप से बधाई दी कि सीएजी कार्यालय हमारी रिपोर्ट को बहुत सराहा है। मुझे संतोष का एक अद्भुत एहसास हुआ कि मेरे बॉस ने मुझ पर जो भरोसा जताया था, मैं उस पर खरी उतरी थी।

प्रश्न: आपने एक अध्यापक के रूप में भी काम किया है, तो नई शिक्षा नीति के बारे में आपके क्या विचार हैं?

उत्तरः बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न पूछा आपने। 34 साल की लंबी अवधि के बाद आखिरकार नई शिक्षा नीति आ रही है। दरअसल यह शिक्षा नीति 1986 में तैयार की गई थी। जुलाई 2020 में कई सुधारों के साथ नई शिक्षा नीति को मंजूरी दी गई। महर्षि अरविन्द, महात्मा गांधी, स्वामी विवेकानंद, गुरुदेव टैगोर जैसे विचारकों ने हमारे देश की प्रकृति और संस्कृति के अनुरूप हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था की जो कल्पना की थी, वो अब संभव होगी। 

उदाहरण के लिए, स्वामी विवेकानंद ऐसी शिक्षा चाहते थे जिससे बच्चे का सर्वांगीण विकास हो सके। महर्षि अरविन्द का मानना था कि प्रत्येक विद्यार्थी को उसकी व्यक्तिगत योग्यता के अनुसार शिक्षित किया जाना चाहिए। टैगोर का मानना था कि शिक्षा को अधिक अर्थपूर्ण बनाने के लिए पहला क़दम बच्चे को प्रकृति के संपर्क में लाना है। महर्षि अरविन्द और  टैगोर की तरह गांधीजी भी मातृभाषा में शिक्षा के समर्थक थे। गांधीजी कहा करते थे कि विदेशी मीडिया बच्चों को नकल करने के लिए प्रोत्साहित करता है और उनमें मौलिकता का अभाव पैदा करता है। मुझे लगता है कि नई शिक्षा नीति में लगभग सब कुछ शामिल कर लिया गया है। 

नई शिक्षा नीति में कक्षा एक से पाँच तक स्थानीय या मातृभाषा में शिक्षा देने पर जोर दिया गया है। मौजूदा नीति की शैक्षिक जड़ता को हटा दिया गया है। छात्र अपनी रुचि के अनुसार विषय चुन सकते हैं। बहु कौशल वाले युवाओं की एक पीढ़ी तैयार की जा सकती है। जो छात्र किसी कारणवश उच्च शिक्षा में प्रवेश लेने के बाद पाठ्यक्रम पूरा नहीं कर पाते हैं। वे जब चाहें वहाँ से दोबारा शुरू कर सकते हैं। कार्यान्वयन पहली बार में चुनौतीपूर्ण हो सकता है, लेकिन सकारात्मक बदलाव का हमेशा स्वागत किया जाना चाहिए।

प्रश्न: नई शिक्षानीति के बारे में बहुत सुंदर जानकारी दी आपने। आपने एक कामकाजी महिला होने के साथ-साथ लेखन में भी रुचि विकसित की है। आपने गुजराती, बांग्ला और हिन्दी कैसे सीखी और आपको लिखने की प्रेरणा कहाँ से मिली?

उत्तरः वैसे तो हर किसी में लेखक बनने की क्षमता होती है। प्रेरक कारकों के संयोजन से व्यक्ति लेखक बन सकता है। हमारे घर में पहले से ही साहित्यिक माहौल था। बंगाल में शादी के मौके पर दोस्त किताबों का तोहफा देते हैं। मेरी माँ शादी में उपहार के रूप में मिली सभी बांग्ला किताबें साथ लाई थीं। मेरी पढ़ाई गुजराती मीडियम से शुरू हुई। गुजराती और बांग्ला इन दो भाषाओं के बीच संघर्ष तब शुरू हुआ जब पिताजी ने मुझे घर पर बांग्ला पढ़ाना शुरू किया।

धीरे-धीरे भाषा का गणित समझ में आने लगा। पिताजी मुझे टैगोर के बांग्ला काव्य संकलन ‘संचयिता‘ से कविताएँ सुनाया करते थे। प्रेरक कहानियाँ भी सुनाते। स्कूल में आने वाली गुजराती पत्रिकाओं के साथ धीरे-धीरे मैंने बांग्ला किताबें पढ़ना शुरू किया। जब मैं दसवीं कक्षा में थी, हम बारेजड़ी में रहते थे। मैंने अपनी एक मित्र फिलोमिना से हिन्दी पुस्तकें पढ़ना सीखा। वह हमारे पड़ोसी डिसिल्वा अंकल की बेटी थी। अंकल का परिवार मुंबई रहता था। फिलोमिना कुछ दिनों के लिए मुंबई से आई थी। उसके पास गुलशन नंदा की हिन्दी पॉकेट बुक्स थीं, जिन्हें पढ़कर मेरी हिन्दी भाषा में रुचि विकसित हुई। आगे चलकर कॉलेज के पुस्तकालय से कई गुजराती और हिन्दी पुस्तकें पढ़ने का अवसर मिला। किशोरावस्था से ही मैं गुजराती में डायरी लिखती थी। शायद व्यापक पठन और डायरी लेखन से ही मुझे मौलिक लेखन की प्रेरणा मिली।

प्रश्न: आप गुजराती, बांग्ला और हिन्दी, तीनों भाषाओं में लिखने की गतिविधि से कैसे जुड़े?

उत्तरः यह प्रश्न बड़ा रोचक है। मैं अंग्रेजी में भी लिखती हूँ। दफ्तर का सारा काम भी अंग्रेजी में होता था। मैं इन चार भाषाओं को सीखने का सारा श्रेय मेरे पापा को देती हूँ। जैसे-जैसे मैंने हिन्दी साहित्य की किताबें पढ़ीं, वैसे-वैसे हिन्दी लेखन में मेरी रुचि भी बढ़ती गई। मेरी लेखन यात्रा की शुरुआत ही हिन्दी लेखन से हुई। मेरी पहली रचना कार्यालय की हिन्दी पत्रिका ‘आरोहण‘ में प्रकाशित हुई थी। मैं ज्यादातर हिन्दी में रचनाएँ लिखती हूँ। 

मैं अनुवाद के माध्यम से बांग्ला और गुजराती लेखन से जुड़ी। मैं बांग्ला एकांकी ‘अनात्मज’ का मैंने गुजराती अनुवाद किया, फिर गुजरात की जानी मानी साहित्यकार स्मृति ध्रुव की गुजराती किताब ‘भारतनी आज़ादीना अनामी शहीदो‘ का हिन्दी में अनुवाद किया। मैंने दो बांग्ला एकांकी नाटकों का हिन्दी में अनुवाद किया, पहला गौतम राय का ‘चक्षुदान‘ और महाश्वेता देवी के उपन्यास ‘हजार चैरासी की माँ‘ पर आधारित इसी नाम के शांति चट्टोपाध्याय का नाट्य रूपांतरण। मैंने ‘चक्षुदान‘ नाटक का गुजराती में अनुवाद भी किया है। बांग्ला लिखने का अवसर मुझे हिन्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. अंजना संधीर ने दिया। उन्होंने माननीय प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी द्वारा लिखित गुजराती कविता संग्रह ‘आंख आ धन्य है‘ का हिन्दी में ‘आँख ये 

धन्य है‘ के नाम से अनुवाद किया है। उन्होंने मुझे बांग्ला अनुवाद का काम सौंपा जो ‘नयन जे धन्य’ नाम से प्रकाशित हुआ। मैंने हिन्दी के वरिष्ठ कथाकार श्री प्रबोध गोविल के उपन्यास ‘जल तू, जलाल तू‘ का बांग्ला अनुवाद ‘जलेर ओपारे’ नाम से किया।

प्रश्न:  आपने अभी कहा कि आप अंग्रेजी में भी लिखते हैं। इसके बारे में बताएँ। 

उत्तरः मेरी स्कूली शिक्षा सरकारी स्कूलों में हुई है। जहाँ आठवीं कक्षा से अंग्रेजी की पढ़ाई शुरू होती थी, लेकिन पापा ने पाँचवीं कक्षा से ही मुझे घर पर ही अंग्रेजी पढ़ाना शुरू कर दिया। मुझे अंग्रेजी बहुत कठिन भाषा लगती थी और घर में अंग्रेजी का माहौल नहीं था। एसएससी में मुझे अंग्रेजी विषय में 100  में से 36 अंक मिले तब भी ख़ुशी हुई थी कि फेल तो नहीं हुई! कॉलेज में भी अंग्रेजी विषय में पासिंग मार्क्स मिलते। असली लड़ाई तब शुरू हुई जब मैंने एमए (अर्थशास्त्र) में दाखिला लिया। प्रोफेसर सभी व्याख्यान पूरी तरह से अंग्रेजी में देते, मुझे कुछ भी समझ में न आता। मैंने सेकेंड हैंड ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी खरीदी और खुद ही अंग्रेजी सिखी। ऑफिस में 36 साल तक मैंने अंग्रेजी में ही काम किया। सर्व प्रथम मैंने अपनी मित्र रीना अभ्यंकर की एक अंग्रेजी पुस्तक की अंग्रेजी में समीक्षा लिखी। अब अंग्रेजी में कविताएँ लिखती हूँ। अंग्रेजी में लघुकथाएँ लिख रही हूँ। 

प्रश्न: आप साहित्य की किन विधाओं में लिखते हैं? दर्शकों को अपने रचना संसार के बारे में बताएँ।

उत्तरः मैं गद्य और पद्य दोनों में लिखती हूँ। किशोरावस्था से मैं गुजराती में डायरी लिखती थी और ए.जी. ऑफिस में मेरा लेखन कार्यालयीन हिन्दी पत्रिका ‘आरोहण’ तक ही सीमित था। मैं किताबें बहुत पढ़ती थी, लेकिन मैंने लेखन को कभी गंभीरता से नहीं लिया था। फिर एक समय ऐसा आया जब काम के अत्यधिक दबाव में तनाव दूर करने के लिए मैं कविताएँ लिखने लगी।

मुझे छंदों का ज्ञान नहीं था, इसलिए मैं छन्द मुक्त  कविताएँ लिखती। मुझे छन्दोबद्ध कविता सीखने की प्रेरणा हिन्दी साहित्य के वरिष्ठ कवि आदरणीय डॉ. किशोर काबरा जी से मिली। बावन साल की उम्र में मैंने उनसे छन्द सीखे और 2010 में मेरा पहला हिन्दी कविता संग्रह ‘मौन मिलन के छन्द‘ प्रकाशित हुआ जिसमें 67 कविताएँ हैं। 54 साल की उम्र में मेरा लेखन सार्वजनिक हुआ। 2015 में मेरा एक और कविता संग्रह ‘एक बार फिर’ प्रकाशित हुआ, जिसमें 65 कविताएँ हैं। इस कविता संग्रह के लिए मुझे केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय से प्रशस्ति पत्र और एक लाख रुपये का नकद पुरस्कार मिला।

2018 में मैंने अपनी बांग्लादेश यात्रा पर एक यात्रा संस्मरण लिखा, ‘मेरा स्वर्णिम बंगाल‘। यह पुस्तक मातृभारती वेब साइट पर भी उपलब्ध है। मेरे माता-पिता की जन्म भूमि जो अब बांग्लादेश है। इस पुस्तक में उनके वतन छोड़ने की पीड़ा का मार्मिक चित्रण है। 

2019 में मैंने अपने कॉलेज के सहपाठी अश्विन मैकवान के साथ आत्मकथात्मक शैली में हिन्दी चैट उपन्यास लिखा। पहला भाग ‘यू एंड मी... द अल्टीमेट ड्रीम ऑफ लव‘ तथा दूसरा भाग ‘यू एंड मी... इन द वैली ऑफ मैमरीज‘ है। हम दोनों इस उपन्यास के मुख्य पात्र हैं और लेखक भी। हमारे निजी जीवन की सच्ची घटनाओं पर आधारित इस चैट उपन्यास के केन्द्र में प्रेम है, साथ में समाज की संकीर्णता का मार्मिक चित्रण भी है।

मेरे अनुवाद कार्य के बारे में मैं पहले ही बता चुकी हूँ। 

प्रश्न: आप इस समय क्या लिख रहे हैं?

उत्तरः मेरे मित्र और हिंदी चैट उपन्यास के मेरे सह-लेखक अश्विन का 24 जून 2020 को निधन हो गया। वे कैंसर सरवाइवर थे। मैं उनकी गुजराती कविताओं का संकलन तथा सम्पादन कर रही हूँ। दूसरे, डायरी में आज तक जो भी लिखा था उनको विषयानुसार संकलित कर रही हूँ। एक आलेख संग्रह, एक संस्मरण संग्रह, एक कहानी संग्रह और एक कविता संग्रह भी है।

प्रश्न: आपने नाटकों में अभिनय भी किया है। इसके बारे में कुछ कहें। 

उत्तरः यह मेरी चैथे मोर्चे की लड़ाई थी। छोटी थी तब मुझे सभी एक्टिविटीज पसंद थीं। खेलकूद, कढ़ाई, बुनाई, ड्राइंग, पेंटिंग, गीत-संगीत, अभिनय, गरबा सब कुछ। मैं स्कूल में इन सभी एक्टिविटीज में हिस्सा लेती। यहाँ एक बात विशेष रूप से कहने की आवश्यकता है कि उस समय मुझे हार-जीत की ज्यादा परवाह नहीं थी, हिस्सा लेने में जो आनंद आता था वही महत्वपूर्ण था। कॉलेज में एडमिशन लेने के बाद मुझे सिर्फ़ पढ़ाई पर ध्यान देना पड़ा। बारेजड़ी गाँव से अहमदाबाद के भवन्स कॉलेज में आने-जाने में छह घंटे लग जाते थे, इसलिए किसी और गतिविधि में हिस्सा लेने की कोई संभावना नहीं थी। ए.जी. ऑफिस में आकर, मुझे नाटक के प्रति अपने जुनून को पुनर्जीवित करने का अवसर मिला। ऑफिस के ‘साहित्य एवं मनोरंजन क्लब‘ द्वारा आयोजित वार्षिकोत्सव में 1982 से 2014 तक लगातार गुजराती और हिन्दी नाटकों में अभिनय किया।

हमारे नाट्य ग्रुप ने दूरदर्शन के लिए एक गुजराती एकांकी नाटक ‘संघर्ष‘ किया, जिसे दूरदर्शन के पीज केन्द्र से प्रसारित किया गया और सराहा भी गया। उस वक्त इसकी शूटिंग अहमदाबाद में इसरो के स्टूडियो में हुई थी। मैंने दो हिन्दी नाटकों में भी अभिनय किया। एक था ‘तेरी भी चुप, मेरी भी चुप‘ और दूसरा 2014 के वार्षिक उत्सव में महाश्वेता देवी के बांग्ला पर आधारित हिन्दी नाटक उपन्यास ‘हजार चैरासी की माँ‘ था।  इस नाटक में मेरा अंतिम प्रदर्शन था, जिसमें मैंने सुजाता की मुख्य भूमिका निभाई थी।

‘ऑल इंडिया सिविल सर्विसिस ड्रामा कॉमपीटीशन’ में हमारी टीम ने मुंबई, दिल्ली, त्रिचूर, नागपुर जैसे शहरों में आयोजित ड्रामा कॉम्पिटिशन में हिस्सा लिया और पुरस्कार भी जीते।

प्रश्न: आपकी पसंदीदा पुस्तकें कौन सी हैं?

उत्तरः मैंने कॉलेज काल में गुजराती, बांग्ला और हिन्दी में कई किताबें पढ़ी हैं। फिर बीच में एक बड़ा गैप आ गया। मुझे ऐसी किताबें पसंद हैं जिनके केंद्र में प्रेम है। प्रेम एक ऐसा विषय है जिसे हर कोई पसंद करता है, लेकिन कोई भी इसे सही मायने में समझ नहीं पाया है। जो समझ चुके हैं, समाज ने उन्हें आख़िरी पायदान पर खड़ा कर दिया है। यहाँ मैं एक महिला और एक पुरुष के बीच के प्रेम के बारे में नहीं, बल्कि प्रेम के सभी रूपों के बारे में बात कर रही हूँ। व्यक्ति से प्रेम, प्रकृति से प्रेम, देश से प्रेम, कला-संस्कृति से प्रेम, त्योहारों से प्रेम... ऐसी अनेक पुस्तकें हमारी प्रत्येक क्षेत्रीय भाषाओं में लिखी गई हैं। गुरुदेव टैगोर का ‘गोरा‘, पन्नालाल पटेल का ‘मानवीनी भवाई‘, ताराशंकर बंदोपाध्याय का ‘सप्तपदी‘, तकषि  शिवशंकर पिल्लै का ‘चेम्मीन‘, यू. आर. अनंतमूर्ति का ‘संस्कार‘, , मैत्रेयी देवी का ‘न हन्यते‘, अमृता प्रीतम का ‘पिंजर‘, प्रभा खेतान का ‘छिन्नमस्ता‘, प्रेमचंद का ‘रंगभूमि‘ ऐसे कई उपन्यास हैं जिनमें हमें प्रेम के विभिन्न रूप और समाज द्वारा उसे मिथ्या सिद्ध करने की लड़ाई देखने को मिलती है। महाश्वेता देवी की किताब ‘झाँसी की रानी‘ भी रानी के देश प्रेम और पुत्र प्रेम का श्रेष्ठ उदाहरण है। 

प्रश्न: नए लेखकों को आप क्या संदेश देना चाहेंगे?

उत्तरः वैसे तो मैं अभी भी लिखना सीख रही हूँ तो क्या कहूँ? इतना कहूँगी कि गम्भीर लेखन की पहली योग्यता यह है कि लेखक अपने विवेक का अनुसरण करे। वर्तमान में सोशल मीडिया समाज और साहित्य के बीच एक मजबूत कड़ी साबित हो रहा है। समाज में व्याप्त विसंगतियों पर लोग खूब लिखते हैं। लेकिन कभी-कभी मुझे उनके लेखन में सही शब्दों की कमी नज़र आती है। ड्राइंग या पेंटिंग की तरह लेखन भी एक कला है। साहित्य का भाषा से सीधा संबंध है।

रचनात्मक लेखन के लिए शब्दों का चुनाव बहुत महत्वपूर्ण है। दोष पूर्ण शब्दों से वाक्यों की गलत व्याख्या होती है। वाक्यों को सार्थक तरीके से व्यवस्थित किया जाना चाहिए। अन्यथा प्रस्तुति प्रभावी नहीं हो पाती और साहित्य का उद्देश्य खो जाता है।

दूसरा, लिखने के साथ-साथ पढ़ना भी उतना ही ज़रूरी है। जितना अधिक आप अन्य लेखकों को पढ़ेंगे, उतना ही बेहतर आप लिख पाएंगे। यदि आप अन्य लेखकों को पढ़ते हैं, तो आप अपने लेखन का मूल्यांकन कर सकेंगे।

प्रश्न: आज के दर्शकों को आप क्या संदेश देना चाहते हैं?

उत्तरः मैं जो भी संदेश दूंगी वह मेरे जीवन के अनुभवों का अंश है। सबसे पहले तो मैं यही कहूंगी कि इस धरती पर आज भी कुछ अच्छा है जो जीवन जीने की वजह और प्रेरणा देता है। जीवन हमारे भीतर की जीवंत ऊर्जा है, जीवन को नदी की तरह बहने दें। जीवन में हर चुनौती का सामना करें, अपनी कमजोरियों को जानें और उन्हें दूर करने का प्रयास करें। हमेशा सकारात्मक सोचें। 

दूसरा, किताब से अच्छा कोई दोस्त नहीं है। अपने परिवार के सदस्यों, विशेषकर अपने बच्चों में किताबें पढ़ने की आदत डालें। अच्छी किताबें पढ़ने से सकारात्मक सोच विकसित होती है और जीवन के प्रति आपका नजरिया बदल जाता है। अपने बच्चों में विशेष रूप से डायरी लिखने की आदत डालें। डायरी लेखन में ईमानदारी होती है, व्यक्ति को उसके चरित्र में छिपे गुण-दोषों की पहचान हो जाती है।

तीसरा, अपने सपनों की लौ जलाए रखें, और कोशिश करते रहें। सैंतीस वर्ष की आयु में मैं विभागीय परीक्षा देकर ऑडिटर से ऑफिसर बनी। बावन साल की उम्र में मैंने छन्द सीखे। इकसठ की उम्र में इग्नू से हिन्दी साहित्य में एमए किया, बासठ साल की उम्र में पहला चैट उपन्यास लिखा। इन सबके केंद्र में पुरुषार्थ है। तभी यह कहा जा सकता है, ‘हौसला बुलंद हो तो कामयाबी क़दम चुमेगी।‘ 

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साक्षात्कार 

सुश्री मल्लिका मुखर्जी,  अहमदाबाद, मो.: 91 97129 21614


लेख- थैंक्सगिविंग डे

अमेरिका में ‘थैंक्सगिविंग डे’ को बेहद खास माना जाता है। हर वर्ष नवंबर के चैथे गुरुवार का दिन क्रिसमस की तरह धूमधाम से मनाया जाता है जो एक तरह का फसल पर्व है। अब तो विश्व के कई देशों में यह त्यौहार मनाया जाता है। इस दिन लोग अपने जीवन के खास लोगों यानी दोस्तों और रिश्तेदारों को धन्यवाद प्रदान करते हैं। 

इस त्यौहार के बारे में जब मैंने केलिफोर्निया निवासी मेरे मित्र अश्विन मैकवान से जाना, मुझे लगा कि इस दिन ऐसे लोगों के प्रति हमे आदर और अपनापन दिखाना चाहिए जिन्होंने हमारे जीवन को सही दिशा देने में मदद की और हम सफलता की मंज़िल को छू सके। ‘थैंक्स’ शब्द कहने के लिए भले ही बहुत छोटा लगता हो पर अपने आप में यह बहुत खास होता है। मात्र एक थैंक्स से लोगों के बीच आपसी प्रेम व सम्‍मान की भावना मन में प्रबल हो जाती है। 

आपके और हमारे जीवन में ऐसे कई लोग होते हैं, जो पूरी तन्मयता के साथ हमारे जीवन को बेहतर बनाने के लिए बहुत कुछ करते हैं। अक्सर हमारी किसी भी सफलता के पीछे एक टीम होती है। ये वो लोग होते हैं, जो सही मायने में आभार के हक़दार होते हैं। आज मैं ऐसी ही एक सफलता के लिए, आई.आई.एम., अहमदाबाद में वर्ष 2016 में हिन्दी अधिकारी का पदभार संभाल रहे डॉ. मुकेश शर्मा, मेरी ऑडिट टीम के तत्कालीन साथी अधिकारी राजू सिंह और मेरे जीवन साथी पार्थो को दिल से धन्यवाद प्रदान करती हूँ। 1978 में गुजरात युनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र में एम.ए. करने के क़रीब 38 वर्षो के बाद इग्नू से हिन्दी साहित्य में एम.ए. करने का सपना साकार करने में आप सभी मेरे पथ प्रदर्शक बने। 

कॉलेज में भी हिन्दी साहित्य ही पसंदीदा विषय था, लेकिन सही मार्गदर्शन नहीं मिला। अर्थशास्त्र नया विषय लगा तो वो ही चुना और साहित्य की राह मुड़ गई अर्थशास्त्र में। अध्यापन का सपना ऑडिट के गलियारों में जाकर मुँह चिढ़ाता रहा! सपनों के बीज तो अब भी सुरक्षित थे मन के किसी कोने में, बस सही मौसम की तलाश थी। उस मौसम ने दस्तक दी जब देश की प्रतिष्ठित संस्था आई.आई.एम., अहमदाबाद में ओडिट का अवसर मिला। मेरे साथ मेरे टीम मेम्बर युवा अधिकारी राजू सिंह थे। राजू की एक बड़ी विशेषता यह थी कि जिस ऑडिटी यूनिट में हम जाते, वे मेरा परिचय वहाँ के अधिकारी से एक लेखक के रूप में भी करवाते। आई.आई.एम. में जाकर भी उन्होंने डॉ. मुकेश शर्मा से मेरा परिचय ऐसे ही करवाया।  दूसरे दिन आई.आई.एम. की लाइब्रेरी के लिए मैंने मेरे दोनों काव्य-संग्रह एक पत्र के साथ भेज दिए। डॉ. मुकेश शर्मा मेरी दी हुई किताबों की रिसिप्ट का एक सुंदर पत्र लेकर मुझसे मिलने आए। बातों बातों में मैंने उन्हें हिन्दी साहित्य में एम.ए. करने के मेरे सपने की बात कही। उन्होंने तुरंत कहा, ‘मैडम, इग्नू से फॉर्म भरने की प्रक्रिया चल रही है, आप एम.ए. के लिए फॉर्म भर दीजिए।’ मैंने सारी जानकारी उनसे ली, और फॉर्म भर दिया। 

फिर ‘राइट टू एज्युकेशन एक्ट, 2009’ (निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा) के कार्यान्वयन के ऑडिट के लिए, टीम मेम्बर्स रश्मिकांत यादव और जया नायर के साथ केंद्र शासित प्रदेश दीव-दमण, दादरा नगर हवेली की लगातार यात्रा, 90 स्कूलों का प्रत्यक्ष निरीक्षण, शिक्षा विभागों में जाकर शिक्षा से संबंधित हो रहे कार्यों का जायजा लेना, रिपोर्ट बनाना और साथ में एम.ए. के लिए पढना आसान बिलकुल नहीं था। 

क़रीब अड़तीस वर्ष के बाद फिर से विद्यार्थिनी बन अहमदाबाद के एल. डी. आर्ट्स कॉलेज की सीढियाँ चढते हुए जो रोमांच महसूस हो रहा था, शब्द नहीं है मेरे पास! दृढ़ संकल्पशक्ति, कठिन परिश्रम और मेरे सभी शुभचिंतकों की शुभकामनाओं का परिणाम था कि बरसों पुराना एक सपना साकार हुआ।     

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परिचय

मल्लिका मुखर्जी- बहुभाषी लेखक और अनुवादक


       सुश्री मल्लिका मुखर्जी

23 अक्टूबर, 1956 को चंदननगर (पश्चिम बंगाल) में जन्मी मल्लिका मुखर्जी की शिक्षा गुजरात में हुई। उन्होंने गुजरात विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में एम.ए. तथा ‘इग्नू’ से हिन्दी साहित्य में एम.ए. किया। कार्यालय प्रधान महालेखाकार, गुजरात, अहमदाबाद से वरिष्ठ लेखापरीक्षा अधिकारी पद से सेवानिवृत्ति के बाद अब स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। 

साहित्यिक उपलब्धियाँ 

  1. “मौन मिलन के छन्द”- काव्य-संग्रह
  2. “एक बार फिर” - काव्य-संग्रह 
  3. “यू एंड मी...द अल्टिमेट ड्रीम ऑफ लव” (भाग-1) तथा “यू एंड मी...इन द वैली ऑफ मैमरीज” हिन्दी चैट उपन्यास भाग-2 - हिन्दी चैट उपन्यास, सह लेखक श्री अश्विन मैकवान 
  4. “मेरा स्वर्णिम बंगाल” - यात्रा संस्मरण 
  5. “जीवन एक अनुबंधन” संस्मरण संग्रह 
  6.  “अक्षरों में ढल गया मन” आलेख संग्रह 

प्रकाशित अनुवाद कार्य

  1. “नयन जे धन्य”, माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के गुजराती काव्य-संग्रह “आँख आ धन्य छे” का बांग्ला  काव्यानुवाद, 
  2. “भारत की आज़ादी की लड़ाई के अमर शहीद”, वरिष्ठ गुजराती साहित्यकार सुश्री स्मिता ध्रुव की गुजराती पुस्तक “भारतनी आज़ादीना अनामी शहीदो” का हिन्दी अनुवाद
  3. “जलेर ओपारे”, सुप्रसिद्ध कथाकार श्री प्रबोध गोविल के हिन्दी उपन्यास “जल तू जलाल तू” का बांग्ला अनुवाद 
  4. श्री निरुप मित्र द्वारा लिखित बांग्ला एकांकी नाटक “अनात्मज” का गुजराती अनुवाद तथा श्री गौतम राय लिखित बांग्ला एकांकी नाटक “चक्षुदान” का हिन्दी और गुजराती अनुवाद   

प्रकाशित सम्पादन कार्य

  • “नीरखुं तने मारी कवितानी केडीए” अश्विन मैकवान लिखित गुजराती कविताओं का संकलन एवं सम्पादन (अंग्रेजी अनुवाद-स्मिता ध्रुव) 
  • सात साझा कहानी संकलन, कविता संकलन, और आलेख संकलन में कहानी, कविता और आलेख का प्रकाशन। विभिन्न पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रकाशित होती रहती हैं।

सम्मान

  • वर्ष 2008 में गुजरात राज्य, हिन्दी साहित्य परिषद द्वारा आयोजित ‘काव्य  प्रतियोगिता’ में द्वितीय स्थान तथा वर्ष 2010 में ‘कहानी प्रतियोगिता’ में प्रथम स्थान प्राप्त करने पर प्रशस्ति पत्र एवं रजतपदक से सम्मानित।
  • मानव संसाधन विकास मंत्रालय के केंद्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा संचालित ‘हिन्दीतर भाषी हिन्दी लेखक पुरस्कार’ योजना के अंतर्गत काव्य-संग्रह “एक बार फिर” को वर्ष 2016 के लिए रु. 1,00,000/- का नकद पुरस्कार तथा प्रशस्ति पत्र से सम्मानित। 
  • गुजरात साहित्य अकादमी, गांधीनगर द्वारा संचालित हिन्दी साहित्य अकादमी द्वारा वर्ष 2019 में श्रेष्ठ पुस्तक पारितोषिक की मौलिक गद्य लेखन श्रेणी में उनके हिन्दी चैट उपन्यास “यू एंड मी...द अल्टिमेट ड्रीम ऑफ लव” के लिए रु. 7,000/- का नकद पुरस्कार, ट्रॉफी तथा प्रशस्ति पत्र से सम्मानित।  

मो. 97129 21614, ई मेल: mukherjee.mallika@gmail.com

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