कविता

डाॅ. उमा त्रिलोक, मोहाली, पंजाब, मो. 9811156310 

लहर हूँ


उमड़ती, उचकती, हिलोरती, 

किलोलती सागर में

लहर हूँ


तिलस्मी रूप-रंग बदल-बदल

इठलाती, इतराती, लहराती, सागर मंे

लहर हूँ


‘‘तुम स्वयं तो कुछ भी नहीं’’

बोला था कोई

‘‘और, सागर है वह

हो गया शान्त जो

तब क्या करोगी?’’


‘‘भूलते हो तुम’’

बोली थी मैं

‘‘मैं न उमड़ी, मैं न उभरी

मैं न उसरी

तो विशालता उसकी

सिमट जायेगी एक ताल में’’


‘‘मैं न गाई, मैं न नाची

नृत्यांगना इस रास में

तो भव्यता, उसकी सिमट जायेगी

एक ताल में


मैं ही हूँ उसकी भव्यता

मैं ही हूँ उसकी विशालता

मैं ही हूँ गति उसकी उल्लास में’’



मैं ही हूँ सागर

सागर में

लहर हूँ


Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य