कविता : एक अजन्मी बेटी का खत
कविता
545 सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008
मो. 09810602327, ईमेल – prakashmanu333@gmail.com
एक अजन्मी बेटी का खत
मैं तो हूँ पापा तुम्हारे आँगन की चिड़िया
जिसे तुम्हीं ने दर-बदर किया
तुम्हीं ने किया अपनी दुनिया से खारिज
और कसकर अर्गला लगा दी!...
वरना कैसे तुमसे अलग रहती मैं पापा
तुम पुकारते तो मैं दौड़ी-दौड़ी आती
और कुहक-कुहककर पूरे आँगन को गुँजा देती।
तुम पुकारते तो मैं आती
और पूरे घर को ताजा उछाह से भर देती
तुम पुकारते तो मैं आती सुंदर सपनों और रंगों के साथ
और घोर अँधियारों के बीच
तुम्हारे घर के किसी कोने में
एक रोशनी का फूल बनकर खिल जाती!
तुम एक बार पुकारते तो सही पापा...
बिन कारण, बिन अपराध
मुझे घर निकाला देने से पहले!
तुमने एक बार सिर्फ एक बार
प्यार भरी आँखों से मुझे देखा होता
तो मेरी सरल पानीदार मुसकान में
मिल जाते तुम्हें अपनी मुश्किलों और परेशानियों के जवाब।
मैं तुम्हारे दुख बढ़ाने नहीं
घटाने आती पापा
मैं तुम्हारे पूरे घर को अपने कंधों पर उठाने आती पापा
मैं प्यार के घुँघरुओं की तरह खनकती
और बेला के फूलों-सी महकती।
मैं आती और पापा
तुम्हारे दुख और चिंताओं के दशमलब बिंदु
अपनी कापी पर उतारकर हल करती
तुम्हारी किताबें करीने से रखती
उनकी धूल झाड़ती
मोती जैसे सुलेख में लिख देती तुम्हारी कविताएँ और निबंध
जहाँ तुम अटकते
वहाँ खोज देती कोई अचीन्ही राह
जहाँ तुम भटकते
वहाँ रास्ता दिखाती दीया-बाती बन जाती मैं
और कभी-कभी तो
एक सधी उँगली : बन जाती मैं दिशा-निर्देशक तुम्हारी!
मैं न बहुत खर्च कराती पापा
मैं न बनती भार तुम्हारे कंधों का
मैं तो पापा यों ही, बस यों ही रह
लेती
जैसे सुबह के आसमान से उतरी एक नन्ही किरन
चुपके से, दबे पाँव घर में आती
और बस जाती है घर की पुरानी भीतों में!
मैं तो ऐसे ही रह लेती पापा
जैसे फूल में रहती है फूल की सुवास
सुच्चे मोतियों से लिपटी उनकी सुच्ची आबदार हँसी
कि जैसे चाँद की चाँदनी में उसकी शीतलता।
मैं तो ऐसे रह लेती पापा
जैसे पेड़ों-पत्तों में रहती है उनकी हरियाली
जैसे धरती में धरती का धैर्य
जैसे अंबर में अंबर का अथाह नीलापन...
मैंने कब माँगे थे तुमसे पापा कीमती डिजाइनदार कपड़े-गहने
सोफा, डाइनिंग टेबल, कालीन
मैं तो देहरी पर हवा के झोंके के साथ आ पड़े
पीपर पात की तरह रह लेती
मैं तो काँटों में खिले भटकटैया के फूल की तरह ही
साँस लेती और हँसती
हँसती और बातें करती और
तुम्हारी थकान उतारती पापा
तुम थककर दफ्तर से आते तो हँस-बोलकर
ठुम्मक-ठुम्मक नाच, तुम्हारा जी
बहलाती
तुम्हारे माथे के दर्द के लिए बादामरोगन हो जाती!
नन्हे हाथों से थपक-थपक तुम्हारा माथा दबाती
और तुम्हें सुख-चैन देकर पापा
सुख पाती मुसकराती
मेरे जिस छोटे भाई की प्रतीक्षा में तुमने
मुझे किया दर-बदर—अपनी दुनिया और इतिहास से बाहर...
क्या पता पापा
मैं उससे बढक़र तुम्हारा सुख तुम्हारी खुशी
तुम्हारे हाथों की लाठी हो जाती
तुम्हें निश्चिंतता देने की खातिर
खुशी-खुशी खुद तपती
और कभी न करती किसी कमी की शिकायत!
पर अब तो पापा बेकार हैं ये बातें
जबकि मैं अब एक जिंदा लड़की नहीं
हवा में भटकती एक पागल पुकार हूँ
जो धरती से आसमान तक हर चीज से टक्करें खाती
सिर धुनती और फफकती है
उस धृष्ट कर्म के लिए जिसमें मेरा कोई हाथ नहीं।
यों ही टक्करें खाती रहूँगी मैं कभी यहाँ कभी वहाँ
शायद इसी तरह थोड़ा चैन पड़े
पर यह भी अपनी जगह तय बिल्कुल तय है पापा
कि जब तक हूँ अपनी चीख के साथ
मैं धरती से आकाश तक भटकती टक्करें खाती
तब तक न मिलेगा तुम्हें तिल भर भी चैन पापा
मैं चाहूँ तब भी नहीं!
तुम कितने ही सख्त और कठ-करेज क्यों न हो पापा
नहीं रह पाओंगे शांति से
क्योंकि कोई कितना ही हो बली, क्रूर हमलावर
हर हत्या उसे भीतर से कमजोर करती है!
और तुमने तो एक नहीं कईं हत्याएँ की है पापा
क्या मैं एक-एक सपने का लहू दिखाऊँ तुम्हें
कहाँ-कहाँ दोगे हिसाब पापा?
तुम्हें कहाँ से मिलेगा सुख-चैन
जब तक मैं यों ही चीखती-पुकारती रहूँगी पापा
धरती और आकाश के बीच!
और मैं न चीखूँ तो रहूँ कैसे पापा
कैसे भूलूँ कि मैं न मारी गई होती
तो होती मैं धरती पर सुंदरता से थिरकती
लाखों खिलखिलाती लड़कियों सी
एक सुंदर लड़की, रंगदार तितली
आँगन की कुहकती चिड़िया
पंख खोलकर उड़ती और तुम्हें चकित करती!
अफसोस!
तुमने पंख नोचे और मुझे दर-ब-दर किया
और बिना बात बिन कसूर कुचला गया वजूद मेरा
मारी गई मैं बेदर्दी से...!
उफ, पापा...
मेरी आवाज अब रुँध रही है
रुँध रहा है गला
कलम अब साथ नहीं देती...
तो यह चिट्ठी यहीं खत्म करती हूँ पापा
पर आँखों में दो आँसू भरकर इसे पढ़ना जरूर
ताकि तुम्हें रोकर
कम से कम दो घड़ी तो चैन आ ही जाए!
*