कविता

 

प्रकाश मनु

545 सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008

मो. 09810602327, ईमेल – prakashmanu333@gmail.com

चलो ऐसा करते हैं


चलो, ऐसा करते हैं

अपनी-अपनी पीठ पर से उतारकर

उम्र की गठरियाँ

बरसों का भारी बोझ

फिर से हो जाते हैं हलके और तरोताजा

हवा से खींचते हैं भरी-पूरी साँस

और हाथ में हाथ पकड़कर सामने के खुले मैदान

में दौड़ लगाते हैं

 

दूर, इतनी दूर तक अँधेरे और उजाले की हदों को छू आते हैं

कि फिर कभी किसी के हाथ न आएँ,

कुछ नए ही अचंभों भरे क्षितिजों पर चले जाएँ

चलो, ऐसा करते हैं!

 

चलो, ऐसा करते हैं

सामने की सड़क पर से कुछ बढ़िया गोल

सुडौल कंकड़ बीनते हैं

और आज दिन भर कुछ और नहीं, बस गुट्टे खेलते हैं

नहीं, गुट्टे नहीं, पतंगें...

तुम्हें पतंग उड़ानी आती है सुनीता?

अच्छा, चलो छुड़ैया ही देना

इतना तो सिखाया ही होगा तुम्हें तुम्हारे बचपन ने!

 

या फिर तुम बताओ जरा तफसील से अपने बचपन के खेल

और मैं अपने

याद कर-कर के वही खेलते हैं

 

तुम्हें याद है एक होती थी पंचगुट्टी

ईंट के जरा-जरा से टुकड़ों पर टुकड़े जमाकर

तुमने खेली थी कभी

कभी गेंद मारकर गिराई थीं पंचगुट्टियाँ?

चलो, तनिक छोटी सी नीली एक गेंद ले आए

जो छूट गई थी कहीं बचपन में

 

चलो, आज वही खेलते हैं।

 

चलो, ऐसा करते हैं कि

धीमे-धीमे ताप से धीमी करते बातें

टहलते हैं

और टहलते-टहलते कहीं दूर निकल जाते हैं

समय की सारी सरहदें पीछे छोड़ जाते हैं

 

पीछे छोड़ जाते हैं दुनिया के सारे नियम

और कायदे

और बौने लोगों की बौनी दुनिया के नुकसान और फायदे

किसी और दुनिया में चलते हैं जहाँ भाषा इतनी थकाने वाली न हो

लोग इतना अधिक बोलते और घूरते और

इधर-उधर सूँघते और किकियाते न हों

न हो इतने चिड़चिडे़पन का बोझ आत्मा पर

चलो कहीं चलते हैं।

 

चलो, ऐसा करते हैं कि घूमते-घामते

शहर से बाहर इतिहास के उस खँडहर में

आ जाते हैं

(राम जाने वह कोई किला था, महल या बावड़ी!)

उसकी सामने की जो उजड़ी हुई भीत है

चूने और ककैया ईंटों की

उस पर किसी गँवार बच्चे द्वारा उकेरी गई

बुढ़िया-बुड्ढे की शक्लों में

हम बदल जाते हैं

और वहीं टिककर बरसों जमाने के

हवा, पानी, धूप और मेंह का सामना करते हैं

 

वहीं देखते हैं काल को कालातीत होते

और फिर एकाएक मिट्टी के एक ढूह में बदलते

वहीं तुम मेरी ओर कोई छिपा इशारा

करके मुसकराना

मैं तुम्हें सुनाऊँगा किसी पुरानी सी

नज्म का कोई टुकड़ा

कोई शेर मीर कि गालिब का, अपनी पसंद का!

 

समय के साथ धीरे-धीरे खिरेगी दीवार

समय के साथ धीरे-धीरे हम ढहेंगे

और मिट्टी में मिट्टी होकर समा जाएँगे

घास में घास

पत्ती में पत्ती

आकाश में आकाश

धूप में धूप

और मेंह में मेंह होकर समा जाएँगे।

 

और फिर हम न होकर भी

इसी दुनिया में रहेंगे

इसे भीतर से सुंदर बनाएँगे।

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