कविता
डॉ. निशा नंदिनी भारतीय, तिनसुकिया, असम,
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बल्मीक नहीं वाल्मीकि बनो
पुस्तक को चाटने से
कुछ भी नहीं होगा,
उसे मन,मस्तिष्क में
प्रेम से सहेजना होगा।
दीमक को नहीं आता है पढ़ना
खा जाती है पूरी किताब,
पर मस्तिष्क रह जाता है
बिल्कुल खाली का खाली।
कम पढ़ो,सार्थक पढ़ो
जितना पढ़ो,उतना गुनों,
शांत चित्त होकर पढ़ो
दिल,दिमाग दोनों से पढ़ो।
आंखों से देखो,मुख से पढ़ो
हृदय में रखो,कर्म में उतारो।
सीख कर जीने की कला
जीवन अर्थपूर्ण कर डालो।
बल्मीक बनकर कुछ ना होगा
वाल्मीकि होने का प्रयत्न करो,
राम-नाम का लेकर साथ
उचित दिशा में रथ को हांको।
मात-पिता, गुरु के संग से
संस्कार की डोर पकड़ो,
सत्संग का लेकर सहारा
सद्गति की ओर बढ़ो।