कविता

डाॅ. उमा त्रिलोक, मोहाली, पंजाब, मो. 9811156310

तुम आना


सर्दी में, 

खिड़की के पर्दों से छन-छन कर

आती है जैसे धूप

उसी गुनगुनी गर्माहट से

छू जाना मुझे


तुम आना वैसे ही

जैसे बरसातों में अचानक होने लगती है

बूंदाबांदी

गरज़्ाते है बादल और कड़कती हैं

बिजलियाँ

उन्हीं बिजलियों के खौफ़ से बचाने 

चुपके से आकर

मेरा कंधा सहलाना


हौले से आना

फिर बैठना सट कर 

मेरे ही हाथों की कलम को लेकर

मेरी ही लिखी 

अधूरी सतर को

पूरा कर जाना


जानती हूँ

तुम्हें भरी गर्मी में भी

चाय बहुत भाती है

तुम आना

मेज़्ा पर रखी 

मेरी ही प्याली से, दो घूँट 

चाय चुरा लेना


तुम्हारे आते ही 

मैं 

कट जाऊँगी दुनिया से

समेट लूँगी 

इन पलों को अपने ही दायरे में

जहाँ, सिर्फ 

तुम्हारे और मेरे लिए ही जगह होगी

तुम 

इन्हीं लम्हात के पहलू में समा जाना


तुम आना

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