कविता, बसंत काल : संतोष श्रीवास्तव


संतोष श्रीवास्तव, मोबाइल-9769023188


 बसंत काल


एक बसंत बचपन की जेब में हंसता दौड़ते थे तितलियों के पीछे 
अच्छी लगती थीं बेर तोड़ती 
उंगलियों की खरोंचे
सूंघते थे बौर को हथेली पर रगड़ 
पा लेते थे गारंटी स्वस्थ रहने की

एक बसंत यौवन की डायरी में शर्माता
वासंती नभ को छूने को आतुर 
सपनों संग दौड़ लगाता 
प्यार की धूप-छाँव से
पोर-पोर गरमाता 
होता था रतजगा पूरे बसंत 

एक बसंत दहलीज से झाँकता
करता गुहार ,आने दो अंदर 
मत सोचो जीवन की संध्या को
सहला लो 
डायरी के पन्नों में दबे 
अहसासों को
भीग जाओ मुझमें
आता रहूंगा हर बरस 

Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य