साहित्य नंदिनी मार्च 2023




 समीक्षा

श्री प्रफुल्ल सिंह, युवा लेखक/स्तंभकार/साहित्यकार, लखनऊ, उत्तर प्रदेश, मो. 6392189466


आलोचना मानव जीवन का एक अभिन्न गुण

आलोचना मानव जीवन और व्यवहार की एक अभिन्न विशेषता है। यही कारण है कि मनुष्य अपने जीवन में सही और गलत चीजों को सत्यापित करने और निरंतर सीखने की प्रवृत्ति को बनाए रखने में सफल होता है। दुनिया में सबसे अच्छे लोगों की आलोचना की गई है। उन्होंने अपने जीवन से मिली सीख को आत्मसात किया है, लेकिन सभी लोग आलोचना से नहीं सीख सकते। आलोचना बदलती भी है। यह रचनात्मक या नकारात्मक हो सकता है। जब हम आलोचना के बारे में बात करते हैं, तो हमारे मन में अक्सर नकारात्मक भावनाएं होती हैं और हम रक्षात्मक होते हैं, लेकिन यह स्थिति हमेशा अच्छी नहीं होती है। प्रतिक्रिया करने से पहले आलोचना की प्रकृति को समझना आवश्यक है।

नकारात्मक आलोचना हमेशा आत्म-सम्मान को नुकसान पहुंचाने, अपमानित करने या आत्मविश्वास को कम करने के उद्देश्य से अज्ञानता या ईर्ष्या से जुड़ी है। इसलिए, एक व्यक्ति को धैर्यपूर्वक अनदेखा किया जाना चाहिए और अनदेखा किया जाना चाहिए क्योंकि अधिकांश पेड़ एक ही पेड़ में मारे जाते हैं, जो अधिक फल देता है। दूसरी ओर, व्यक्ति के समर्थन के उद्देश्य से सकारात्मक या रचनात्मक आलोचना की जाती है। इस आलोचना को एक सीमित दायरे में व्यक्ति के आत्म-सम्मान को नुकसान पहुंचाए बिना किसी व्यक्ति की गलतियों, विफलताओं और दोषों को ठीक करने के सुझाव के रूप में समझा जाता है, जो एक प्रेरक के रूप में भी कार्य करता है। इस आलोचना से प्राप्त प्रेरणा व्यक्ति के भीतर एक सकारात्मक भावना पैदा करती है जो विश्वास को मजबूत करती है। इससे व्यक्ति की हीनता, विश्वास और कार्यक्षमता में गिरावट नहीं होती है।

रचनात्मक आलोचना से आशय की आलोचना के बजाय कार्य और शैली की आलोचना होती है, और महान आत्मसम्मान वाला व्यक्ति हमेशा नकारात्मक आलोचना को नजरअंदाज करके रचनात्मक आलोचना स्वीकार करना सीखता है।

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आलेख

डाॅ. मेधावी जैन, लेखिका, रिसर्चर, पॉडकास्टर,
नई दिल्ली, मो। 9811200773

रेत समाधी

हाल ही में गीतांजलि श्री जी की अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार से सम्मानित रचना ‘रेत समाधि‘ समाप्त की। माननीया लेखिका की गूढ़ बुद्धिमत्ता मेरे लिए अनिर्वचनीय है। प्रत्येक वाक्य प्रतीत होता है जैसे अपने आप में एक व्यथा मिश्रित अनुसंधान से उपजा है। पुस्तक में कही गई प्रत्येक बात एक गहरा अर्थ संप्रेषित करती है जिसमें कहीं दर्शन है, कहीं पीड़ा, कहीं मानव मन की विचित्र विडंबनाएं तो कहीं समाज का गहन अवलोकन। यहां तक कि मुख्य पृष्ठ पर बनी कलाकृति भी अंत तक पढ़ते-पढ़ते समूची पुस्तक के सार को एक साथ कहती पता लगती है। सच कहूं तो मेरे चिंतन एवं ज्ञान का स्तर अभी इतना परिपक्व नहीं हुआ कि लेखिका द्वारा रचित प्रत्येक वाक्य को समझ पाए। तनिक भी अंदाजा नहीं लगता कि यह पुस्तक अंततः उस गहरे दंश की पीड़ा को दर्शाएगी जिससे न सिर्फ इतिहास में लाखों लोग गुजरे हैं बल्कि जिसका कभी न भरने वाला घाव आज भी लाखों के हृदय में है। उनमें से एक मैं भी हूं एवं बेहतरीन साहित्य के माध्यम से उस दंश की गहराई को बेहतर समझ पाई हूं क्यूंकि मेरे नाना-नानी भी पार्टीशन के समय सरगोधा जिले से अपनी जान बचाते भारत आए थे। आखिर कैसे अलगाव इतना सरल हो सकता है? निश्चिततः आपकी यह पुस्तक वर्तमान के साथ-साथ इतिहास में दर्ज होने योग्य भी है। शायद जब हमारी भावी पीढ़ियां अपनी जड़ें खोजने को आतुर होंगी और जब नफरत से अटे मन शांति तलाशेंगे तब यह पुस्तक बेशक उन्हें उनके इतिहास से परिचित करवा पाएगी एवं बताएगी कि घृणा में कभी किसी को कुछ नहीं मिला। मिला है तो कला, साहित्य, संगीत एवं दर्शन की शरण में। 

Sharing what is written on the back cover of the book, with which I completely agree too :

अस्सी की होने चली दादी ने विधवा होकर परिवार से पीठ कर खटिया पकड़ ली। परिवार उसे वापस अपने बीच खींचने में लगा। प्रेम, वैर, आपसी नोकझोंक में खदबदाता संयुक्त परिवार। दादी बज़िद कि अब नहीं उठूँगी। फिर इन्हीं शब्दों की ध्वनि बदलकर हो जाती है अब तो नई ही उठूँगी। दादी उठती है। बिलकुल नई। नया बचपन, नई जवानी, सामाजिक वर्जनाओं-निषेधों से मुक्त, नए रिश्तों और नए तेवरों में पूर्ण स्वच्छन्द। हर साधारण औरत में छिपी एक असाधारण स्त्री की महागाथा तो है ही रेत-समाधि, संयुक्त परिवार की तत्कालीन स्थिति, देश के हालात और सामान्य मानवीय नियति का विलक्षण चित्रण भी है। और है एक अमर प्रेम प्रसंग व रोजी जैसा अविस्मरणीय चरित्र। कथा लेखन की एक नयी छटा है इस उपन्यास में। इसकी कथा, इसका कालक्रम, इसकी संवेदना, इसका कहन, सब अपने निराले अन्दाज में चलते हैं। हमारी चिर-परिचित हदों-सरहदों को नकारते लाँघते। जाना-पहचाना भी बिलकुल अनोखा और नया है यहाँ। इसका संसार परिचित भी है और जादुई भी, दोनों के अन्तर को मिटाता। काल भी यहाँ अपनी निरंतरता में आता है। हर होना विगत के होनों को समेटे रहता है, और हर क्षण सुषुप्त सदियाँ। मसलन, वाघा बार्डर पर हर शाम होनेवाले आक्रामक हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी राष्ट्रवादी प्रदर्शन में ध्वनित होते हैं ‘कत्लेआम के माजी से लौटे स्वर’, और संयुक्त परिवार के रोजमर्रा में सिमटे रहते हैं काल के लम्बे साए। और सरहदें भी हैं जिन्हें लाँघकर यह कृति अनूठी बन जाती है, जैसे स्त्री और पुरुष, युवक और बूढ़ा, तन व मन, प्यार और द्वेष, सोना और जागना, संयुक्त और एकल परिवार, हिन्दुस्तान और पाकिस्तान, मानव और अन्य जीव-जन्तु (अकारण नहीं कि यह कहानी कई बार तितली या कौवे या तीतर या सडक या पुश्तैनी दरवाजे की आवाज में बयान होती है)। 

मेरी भी अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित हुईं हैं जिनमें अधिकांशतः हिंदी कविताओं की एवं अन्य लघु कथाओं इत्यादि की एवं सबसे अंतिम ‘कोरोना कथा- उड़ना तुझे अकेला है’ है जिस पर मुझे भी नाज है। यह पुस्तक पढ़ने के पश्चात् अभिलाषा है कि फिलहाल अपना लेखन स्थगित कर दूं एवं अपने अनुसंधान को गीतांजलि श्री जी की ही भांति और गूढ़ बनाऊं, जीवन में और अनुभव एकत्रित करती चलूं। इस कदर कि जब लेखनी चले तो उसमें से या तो महाकाव्य की सरिता बहे अथवा ठीक इतने ही उम्दा उपन्यास की बयार। 

साथ ही मैं अपने ऑनलाइन मित्र राजमुंद्री, आंध्र प्रदेश के निवासी श्रीमान GSRD प्रसाद का हृदय से धन्यवाद देना चाहती हूं जिन्होंने मूलतः हिंदी भाषी न होते हुए भी, हिंदी साहित्य के प्रति मेरी लगन को देखते हुए, यह पुस्तक मुझे भेंट स्वरूप भिजवाई। 

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समीक्षा

मानवोचित दस्तूर की ग़ज़लें: रास्ता दिल का

हिंदी भाषा-संस्कार से गुजरती हुई, ग़ज़ल जन सरोकार से जुड़ती चली गई। पारिवारिक हर्ष-विषाद से लेकर खेत-खलिहान, गाय-गोरू और बथान तक इसकी पहुंच हो गई। ग़ज़ल जहां-जहां गई, लोगों ने इसे हाथों-हाथ लिया।

‘रास्ता दिल का‘ डॉ. ऋषिपाल धीमान का भारतीय ज्ञानपीठ से सद्य प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह है। इसमें डॉ. ऋषिपाल धीमान ने अपने लेख ‘समकालीन हिंदी ग़ज़ल का परिदृश्य में ग़ज़ल की परिभाषा देते लिखा है:

‘‘ग़ज़ल के शेर का भाव या विषय कुछ भी हो सकता है परंतु कहन में महबूब से गुफ्तगू जैसी नफासत की दरकार है।‘‘

यह बात महत्वपूर्ण है यह ग़ज़लकार की शिल्प के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाता है। शिल्प की प्रतिबद्धता, अनुशासन और शिष्टाचार का परिचायक है और यही बात ग़ज़ल को अन्य विधाओं से अलग बनाती है। इस अनुशासन का सरोकार आम आदमी से है:

चलता हूँ इसके साथ इसे काटता नहीं,

इस वास्ते ही वक्त मुझे काटता नहीं।

ग़ज़ल पर कुछ भी तब्सिरा करना ग़ज़ल के साथ बदतमीज़ी होगी क्योंकि यह खुद एक मुक़म्मल बयान है। इसके अशआर को व्याख्या की कोई ज़रूरत नहीं:

सोंचे बिन हद से हम गुज़र बैठे,

और अब हैं पकड़ के सर बैठे। 

हमने बाज़ार का न मुँह देखा, 

आफतें मोल ली हैं घर बैठे ।

घर के होते भी लगे बेघर हूँ, 

जब से पुश्तैनी ठिकाना छूटा।

डॉ. ऋषिपाल धीमान के शेरों में वो शेरियत, वो तगज़्जल है जो कहीं और देखने को नहीं मिलता।

मृत्यु आज भी अनुत्तरित है। चारों वेद, अठारहों पुराण और एक सौ आठों उपनिषद खंगालने के बाद भी मृत्यु अपरिभाषित ही रही। इसलिए डॉ. ऋषिपाल धीमान का यह शेर मृत्यु को देखने की एक अलग दृष्टि देता है:

ये रात होते ही सो जाती है बिलानागा,

कि जिंदगी की इसी लत को मौत कहते हैं।

व्यष्टि और समष्टि के अंतर्सम्बन्धों को देखने की दृष्टि प्रदान करता हुआ ये शेर:

दरअस्ल वो ही वो है फकत और कुछ नहीं,

दुनिया तमाम सिर्फ दिमागी फितूर है।

घर ईट-पत्थर, गारे-चूने या सीमेंट- सरिया से नहीं बनता है। घर बनता है उसमें रहने वाले लोगों के अंतर- संबंधों सेः

घर नहीं बन सका, बना तो था,

घर का नक्शा मकान से पहले।

मानव मूल्यों का क्षरण ऐसे नहीं हुआ। यह एक बहुत बड़ी साजिश के तहत हुआ है - मानवीयता को हतोत्साहित किया गया और अमानवीयता का महिमामंडन:

फरिश्ते जैसे कुछ लोगों को दुनिया से मिले पत्थर,

कई दुष्टों के नामों के नगर में लग गए पत्थर ।

बाजारवाद पर डॉ ऋषिपाल धीमान का एक जबरदस्त शेर देखें कि:

खरीदे कोई मेरा सामान क्योंकर,

मैं लागत से भी दाम कम बोलता हूँ।

और अशआर,

हर शख्स बेचने को है तैयार कुछ न कुछ, 

रिश्तों रिफाकतों को भी पेशा बना दिया। 

चारागरी के माने था खिदमत अवाम की,

अब तो हिदायतों को भी पेशा बना दिया।

डॉ. ऋषिपाल धीमान के अशआर में जीवन-दर्शन मुखर है। यह किसी एक जन्म का प्रतिफल तो नहीं लगता। बुद्धत्व प्राप्ति में कई जन्मों के ज्ञान का समावेश होता है। इनके कुछ अशआर यूँ हैं कि,

हक़ीकत से चुराओगे नज़र ऐ हमनशीं कब तक,

क़दम का साथ देगी यह ख़्यालों की ज़मीं कब तक।

ज़माने पर, मुक़द्दर पर, क़यामत पर बहस अब भी, 

बदल जिसको नहीं सकते हो उसके नुक़्तचीं कब तक। 

किराए पर हुआ रहना अब अपने घर चला जाए।

बदन के घर में आखिर हम रहें बनकर मक़ीं कब तक। 

और भी कुछ अशआर यूँ हैं कि-

गौर आँसू पर, हँसी पर गौर कर,

जिंदगी की मसखरी पर गौर कर।

कब तलक आखिर मनेगा जन्मदिन,

अब तो गाफिल ! रुख़्सती पर गौर कर ।

डॉ. ऋषिपाल धीमान वैज्ञानिक हैं। इसलिए दुनिया को देखने का दृष्टिकोण भी वैज्ञानिक है। सूर्य है तो सब है, सूर्य नहीं तो कुछ भी नहीं। यह शेर किसी मंत्र से कम नहीं जान पड़ता:

दुनिया को रोशनी नहीं, देता है जिंदगी,

सूरज का नाम लीजिए क़िब्ला अदब के साथ।

ग़ज़ल की फितरत कुछ ऐसी है कि यह हर पढ़ने वाले की हो जाती है। यह इसका चमत्कारिक रूप

है और शायद उत्कृष्ट उपयोगिता भी। कुछ अशआर यूँ हुए हैं:

मेरी सीरत पर यूं संजीदगी का रंग है तारी,

मेरी सूरत भी दर्पण से कभी हंसकर नहीं मिलती।

और भी,

मांगा हिसाब जब किसी बेटे ने बाप से,

आई न नींद फिर किसी बूढ़े को रात भर ।

डॉ. ऋषिपाल धीमान की ग़ज़लें मानवोचित दस्तूर के लिए नारा बुलंद करती हैं जिसमें एक भरोसा है, एक आत्मविश्वास है। यह आत्मविश्वास अपनी संस्कृति और परंपरा पर है:

इंसानियत की बात पुरानी ज़रूर है,

लेकिन ये बात सबको बतानी ज़रूर है। 

कोई इसे सुने न सुने, ज़ोर शोर से,

आवाज़ सच के हक़ में उठानी ज़रूर है।

इनकी ग़ज़लें निश्चित रूप से हिंदी साहित्य को समृद्धि प्रदान कर रही हैं और इनके मूल्यांकन के

बिना समकालीन कविता का मूल्यांकन अधूरा है।

पुस्तक का नाम: रास्ता दिल का (ग़ज़ल संग्रह )

लेखक: डॉ. ऋषिपाल धीमान, मो. 94283304903

म्उंपस रू तपेीप507कीपउंद/हउंपसण्बवउ

प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली

प्रकाशन वर्ष: 2022

मूल्य: 240 रु.

समीक्षक: संजीव प्रभाकर

Sanjeevprabhakar2010@gmail.com



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समीक्षा


सुश्री अन्नदा पाटनी

कुछ दिल ने कहा...

आदरणीय देवेंद्र भैया,

               सादर नमस्कार।

नववर्ष की अनेक शुभकामनाएँ। आपको जानकर हर्ष होगा कि विगत वर्ष में मेरी दो पुस्तकें उपन्यास ‘तेरे लिए’ तथा एक कविता संग्रह ‘कुछ दिल ने कहा’ छः महीने के अंतराल में वनिका पब्लिकेशंस द्वारा प्रकाशित हुईं। उपन्यास ‘तेरे लिए’ की समीक्षा आपकी पत्रिका में छपी, यह मेरे लिए और भी प्रसन्नता की बात है। 

अब कवितासंग्रह ‘कुछ दिल ने कहा’ की लब्धप्रतिष्ठित साहित्यकार आदरणीय लक्ष्मीशंकर वाजपेयी जी द्वारा लिखित समीक्षा  भेज  रही हूँ। साथ ही अहमदाबाद की प्रसिद्ध लेखिकाद्वय निशा चंद्रा तथा नीता व्यास की प्रभावशाली प्रतिक्रिया भी। आशा है आप अभिनव-इमरोज़ में अवश्य स्थान देंगे। आशा है आपका स्वास्थ्य पहले से बेहतर होगा। अनेक शुभकामनाओं सहित  जी हाँ, कुछ दिल ने कहा और बात बन गई। संवेदना के स्वर भावनाओं और शब्दों की लय ताल पर थिरकते हुए जब मन के तारों को झंकृत कर जाते हैं तो दिल कुछ कहने लगता है। तब कविता जन्म लेती है।

संवेदनशील व्यक्ति अपने आसपास घटित घटनाओं से प्रभावित होता है। यही कारण है कि साहित्यकार का लेखन विविध विषयों पर आधारित होता है। मैंने साहित्य की लगभग सभी विधाओं कविता, कहानी, निबंध, लेख, समीक्षा, लघुकथाएं, व्यंग्य, गीत, गजल, दोहे, आदि में लिखने का प्रयास किया है। प्रारंभ कविता से किया तो आज तक सबसे अधिक उसी से जुड़ी हूँ। परिणामतः अपनी कविताओं का गुलदस्ता आप सबको भेंट कर पाई हूँ। 

मेरे इस काव्यसंग्रह में अपनी सांस्कृतिक धरोहर, देशभक्ति, दर्शन, प्रकृति, बुजुर्गों से मिली विरासत, तथा अन्य मिले जुले विषयों से संबंधित रचनाओं का समावेश है। इसलिए कह सकती हूँ कि कहीं भी एकरसता और नीरसता के दर्शन आपको नहीं होंगे।

आदरणीय लक्ष्मीशंकर वाजपेयी जी ने इस कवितासंग्रह के विषय में अपने विचार लिखे है। मेरे विदेश प्रवास में मेरी मनोभावनाओं को उन्होंने मेरे सृजन के माध्यम से बड़ी सूक्ष्मता से समझा है। इतनी अधिक व्यस्तता के बावजूद बाजपेई जी समय निकाल पाए, टाइपिंग के बजाय अपनी हस्तलिखित प्रतिक्रिया प्रेषित  की, यह उनकी महानता को सिद्ध करता है। प्रस्तुत है आदरणीय लक्ष्मीशंकर बाजपेई जी की समीक्षा। उनका आभार किन शब्दों में व्यक्त करूँ!     अन्नदा पाटनी

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समीक्षा

डाॅ. लक्ष्मी शंकर बाजपेई, नई दिल्ली, मो. 98998 44933


भारत की चिंता में डूबे शब्द

अन्नदा पाटनी...! लॉकडाउन के दिनों में वरदान बनकर उभरे ‘फेसबुक लाइव’ के साहित्यिक कार्यक्रमों में एक नाम बार-बार ध्यान आकर्षित करने लगा था। पता चला कि अन्नदा जी अमेरिका से हैं! अमेरिका में रहते हुए इतना प्रगाढ़ साहित्य प्रेम! फिर पता चला कि वह पद्मश्री से सम्मानित कीर्तिशेष गांधीवादी लेखक यशपाल जैन जी की बेटी हैं। यशपाल जी से मुझे मिलने का सौभाग्य मिला था इसलिए उन पर केंद्रित एक फेसबुक लाइव में भागीदारी के कारण अन्नदा जी से परिचय और बढ़ा। लगभग डेढ़ वर्ष चली कविता की पाठशाला में अन्नदा जी ने नियमित रूप से भाग लिया तथा कितनी ही काव्य विधाओं में लिखने का प्रयास किया। इसी प्रकार पूरे दो वर्ष चले एक अन्य साप्ताहिक फेसबुक लाइव में भी सबसे पहले उपस्थित होने का एक कीर्तिमान सा बनाया अन्नदा जी ने। उनके स्वयं के साक्षात्कार कार्यक्रमों से उनके बहुआयामी प्रतिभा का भी परिचय मिला।

जब अन्नदा जी ने अपने कविता संग्रह के प्रकाशन की सूचना दी तो यह मेरे लिए व्यक्तिगत रूप से भी बहुत खुशी की बात थी। अन्नदा जी के संग्रह से एक कविता के अंश साझा करता हूं- 

छिटक कर आतीं वातायन से किरणें सूरज की...

कमरे की दीवार पर बनाती हुई आकृति...

जैसे चिढ़ा रही हो ‘सिंगट्टा’ का

ये कहना कठिन है कि भारत की युवा पीढ़ी में कितने लोग ‘सिंगट्टा’ शब्द से परिचित होंगे। बायां अंगूठा दिखाकर चिढ़ाने के लिए प्रयोग होने वाला ‘सिंगट्टा’ सात समुंदर पार स्मृतियों में सुरक्षित है। अन्नदा जी की कविताओं में आपको ग्रामीण भारत की अनेक छवियां मिलती हैं। मध्यमवर्गीय संयुक्त परिवारों के रोजमर्रा के जीवन के शब्दचित्र भी बहुत अपने से लगते हैं-

“अभी अभी तो दाल पीसकर मंगोड़ी रखी थी सूखने धूप में 

आम का ताजा अचार मर्तबान में

आलू के चिप्स सूख रहे थे धूप में 

तभी शुरू हो गई आंख मिचैनी धूप छांव की 

लग गई झड़ी बारिश की बूंदों की...!”

भारत के महानगरों नगरों की व्यस्त दिनचर्या में कामकाजी महिलाएं अब मंगोड़ी, अचार, पापड़, चिप्स तो क्या ही बनाएंगी किंतु यह स्मृतियां सुख देती हैं। अन्नदा जी की कविताओं का मुख्य स्वर, भारत की चिंताओं पर केंद्रित है...। अपनी एक कविता में वे अमेरिका जैसे विकसित देश की संपन्नता और सुविधाओं का परिचय देते हुए, भारत की अनेकानेक समस्याओं का जिक्र करती हैं तो भी भारत की संस्कृति, भारत के जीवन मूल्य, आदर्श और भारत की मिट्टी का जादू उन्हें भारत की श्रेष्ठता का बोध कराता है। महान संस्कृति वाले भारत में तरह-तरह की विकृतियां, नष्ट-भ्रष्ट होते जीवन मूल्य, टूटते रिश्ते-नाते, बढ़ती घृणा, हिंसा, अपराध, अन्याय, अत्याचार... आदि उन्हें बेचैन करते हैं जिन्हें वे कविताओं में व्यक्त करती है- 

“जहां दूध दही की नदियां बहती थीं...!

वहां खून की नदियां बहती हैं... 

सर्वधर्म समभाव ने जहां मानव को मानव से जोड़ा था.. 

वहीं राजनीति ने जाल फैला कर मानव को मानव से तोड़ा है...”

अनियंत्रित शहरीकरण, झुग्गी बस्तियां, सांस लेने को शुद्ध हवा का संकट, कवयित्री की दृष्टि  हर ओर जाती है-

उर्वर धरा को बंजर बना कर ऊँची अट्टालिकाएं, फैक्ट्रियाँ खड़ी कर रहे हैं... 

चिमनियों से निकलता धुआँ और गंदगियां वायु, जल और पर्यावरण प्रदूषित कर रहे हैं।

धन लोलुपता करवा रही है मनमानियाँ...

प्रस्तुत संग्रह की कविताओं में विषय वस्तु का संसार बहुत व्यापक है... जीवन का हर क्षेत्र समाहित है... रिश्ते-नाते, घर-परिवार, समाज, देश-दुनिया, प्रकृति, मौसम, त्योहार, राजनीति, लोकतंत्र व्यवस्था... फिर इनसे आगे जाकर दर्शन और अध्यात्म से जुड़े प्रश्न! जीवन और जीवन दर्शन तथा सभ्यता संस्कृति से जुड़े अनेक सवाल दो पात्रों के आपसी संवाद के माध्यम से कविता का रूप ले लेते हैं। धर्म और दुआ, दिया और बल्ब या जिंदगी से वार्तालाप... या फिर स्वयं वृक्ष अथवा अन्य जीवों का कुछ कहना कविताओं को और रोचक बनाता है। 

पूरा कविता संग्रह भारत की ही गाथा है और वर्तमान समय में अत्यंत प्रासंगिक भी है जब संवाद हीनता, संवेदनहीनता और अमानवीयता निरंतर पाँव पसारते जा रहे हैं। भारतीय जीवन मूल्यों की पुनर्प्रतिष्ठा को समर्पित, इस काव्य संग्रह का पाठक स्वागत करेंगे ऐसी अपेक्षा भी है, कामना भी। 

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समीक्षा

सुश्री निशा चंद्रा, अहमदाबाद, मो. 9662095464


कुछ दिल ने कहा

एक बार पहले भी मैं यह बात लिख चुकी हूं कि किसी भी कविता के लिए प्रतिक्रिया देना मेरे लिए उतना ही कठिन कार्य है, जितना कविता लिखना। मुझे लगता है कहानी लिखना ज़्यादा सरल है, कविता लिखने से।

एक बार फिर मेरे हाथ में एक काव्य संग्रह है। मेरी प्रिय लेखिका अन्नदा पाटनी जी का।

‘कुछ दिल ने कहा‘ शीर्षक पढ़ते ही पहले दिल 

धड़का। फिर आंखें सपनीली हुई। फिर पंखुरी-पंखुरी सपने खिले। फिर दिल से निकल कर हवा में बिखरे और...और..फिर पुस्तक खोली गई। नौ भागों में बुना गया एक अलग प्रकार का कविता संग्रह। जहां बावरा मन भी है, देश के प्रति सम्मान भी है, जहां हिंदी भी पूर्ण गरिमा से खिल उठी है, त्यौहारों और मौसम की रौनक भी है और कुछ दिल ने कहा के रोमांटिक पल भी हैं। मंझी हुई भाषा में गुंथे हुए शब्द विन्यास में शौर्य भी है, संवेदना भी है, कोमलता भी है और आक्रोश भी है।

इसी के साथ मां और पिता के लिए लिखी गई कविता में एक कोमल सी अनुभूति है।

मां के लिए कविता और स्वयं के मातृत्व में सराबोर  होने की परिकल्पना, दोनों में फर्क स्पष्ट नज़र आता है। स्वयं मां होने का गर्व और अपनी मां के लिए अश्रुपूरित भीगी यादें

‘वह तुम्हारे माथे पर बड़ी सी लाल गोल बिंदी‘

जन्मदात्री के प्रति कृतज्ञता, एक असीम प्रेम से मन को भर देती है।

वहीं पिता के लिए सम्मान, आदर, यादें, श्रद्धांजलि अर्पित करते भाव भीने शब्द मन, आत्मा भिगो देते हैं,

‘श्वेत धवल तन पर परिधान

बोलती आंखें,उन्नत ललाट

ओजस्वी चेहरा, देवालय समान

ये है मेरे बाबूजी की पहचान‘

श्रद्धेय, पद्मश्री यशपाल जैन जी को उनकी पुत्री की तरफ से उन्हें चढ़ाए गए इस से बेहतर श्रद्धा सुमन और हो ही क्या सकते हैं।

ये इतनी सुंदर पंक्तियां हैं कि इन्हें पढ़ते हुए मुझे कविवर जयशंकर प्रसाद जी की याद आ गई।

मन मेरा बावरा, जिन्दगी मेरी धड़कन, मेरा देश है यह,मेरी मातृभाषा हिंदी, प्रकृति पर्यावरण ये हरियाली, हमारे त्यौहार और मौसम, वार्तालाप, आक्रोश, नारी तेरे रूप अनेक‘।  

इस प्रकार नौ भागों में कविता संग्रह को समेट लिया गया है। सारे फूलों के गुलदस्ते एक से बढ़कर एक, सब फिज़ा में अपनी महक बिखेरते हुए। 

मन क्या चाहता है, मन क्या सोचता है। मन कितनी बातें अपने अंदर समेटे है और यह मन ही तो है जो ऊंचे विस्तृत नभ को भी नाप आता है, जो समुंदर की गहराइयों में भी छलांग लगा आता है।

मन बावरा में लेखिका ने बखूबी इन कविताओं के ज़रिए मन के रहस्यों के दर्शन करा दिए हैं।

ज़िन्दगी से साक्षात्कार, जिन्दगी में स्मृतियों से भरा संदूक, जिन्दगी का सारा हिसाब किताब ‘ज़िन्दगी मेरी 

धड़कन‘ में समाहित है।

उसी प्रकार सभी कविताओं में पर्यावरण, त्यौहार, मौसम, हिंदी की महत्ता, देश प्रेम सभी को एक पिटारे में कैद कर लिया गया है। कुल मिलाकर  यह संग्रह अनुभूति,वात्सल्य, संवेदना की अभिव्यक्ति का एक ऐसा पिटारा है, जिसमें अन्नदा पाटनी नाम की जादूगरनी ने अपने शब्दों के जाल से ऐसा भरा है कि जब पिटारा खुलता है तो उसमें हमें जगमगाते हुए शब्दों रूपी रत्नों के दर्शन होते हैं। जिसे पढ़ते हुए कोई भी सम्मोहित हुए बिना नहीं रह सकता। इतना सुंदर संग्रह हमें देने के लिए अन्नदा पाटनी जी बधाई की पात्र हैं।

साथ ही वनिका पब्लिकेशन की संपादिका डॉक्टर नीरज शर्मा भी बधाई की पात्र हैं, जिन्होंने अपने संपादन में इतनी सुंदर पुस्तक हमें दी। सुंदर कविताओं को, पुस्तक  रूप में बांध कर उन्होंने एक अमूल्य रत्न जड़ित पिटारा हमें थमाया है।

उस पिटारे में से कुछ अनमोल रत्न यहां बिखेरते हुए मैं पाठकों को  उनके साथ छोड़े जा रही हूं।

‘‘मैंने कुछ चित्र

यादों के गलियारे में 

मन के खूंटों पर टांग रखे हैं ‘

ये चित्र मेरे लिए बड़े अनमोल हैं

मैं इन्हें सदा अपने साथ रखती हूं

जब मन हुआ देखने को

अंदर झांक कर देख लेती हूं’’


‘ज़िन्दगी का संदूक

भर गया है इतना कि

बंद नहीं हो रहा

कुछ सामान तो निकालना होगा

नहीं तो ये बंद कैसे होगा

किसको रखें,किसको निकालें

सबका महत्व है अपना

योगदान है भारी ‘

.............   .... ....... .... ........ ....   

दिल की अगर जुबां होती 

तो अनर्थ हो गया होता

जो ढका छुपा था अब तक

सब उघड़ गया होता ‘


अंत में,

कुछ तेरे दिल ने कहा...  

कुछ मेरे दिल ने सुना ...  


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समीक्षा


सुश्री नीता व्यास, अहमदाबाद, मो. 9429521857, ई मेलः neetajayeshvyas@gmail.com


कविता संग्रह-‘‘कुछ दिल ने कहा’’

इस कविता संग्रह की कौन सी कविता के बारे में लिखूं? क्या प्रतिक्रिया दूं? एक एक भाव जैसे मेरे ही मन से उठाकर पिरोए गए हों प्रत्येक रचना में। उनके पिता श्री परम श्रद्धेय पद्म श्री यशपाल जैन जी एवं आदरणीय माता जी के प्रति सम्मान व्यक्त करती रचनाओं में मुझे मेरे माता पिता की छवि याद आ गई और आंखें धुंधला गई। रहन-सहन और विचारों में कितना साम्य होता था उस वक्त हम सब के माता-पिता के आदर्शों में। ‘‘जिंदगी का संदूक‘‘पढ़कर ऐसा महसूस हुआ कि जब मैं उनसे मिलने पहुंची तब उनके और मेरे पास अपनी अपनी जिंदगी की यादों के संदूक नहीं पिटारे भरे पड़े हैं जो हमें एक दूसरे के साथ बांटने हैं।

‘‘सहयात्री‘‘इस रचना को पढ़कर मैं, अन्नदा दीदी आप को सलाम किए बिना नहीं रह सकती। उम्र के इस पड़ाव पर जहां आप खड़ी हैं मैंने लोगों को रोते सिसकते और केवल शिकायतें करते हुए देखा है। फिजूल के रिश्तांे में अपनापन ढूंढते हुए लोगों को महसूसा है और आपने अकेलापन और उदासी को भूलने के लिए परम पवित्र मां वीणापाणि के मुखारविंद से अवतरित ‘‘शब्द ब्रह्म‘‘ को अपने सहयात्री के रूप में चुना। आप जिसकी उपासिका हो ऐसी व्यक्ति कि मैं भी प्रशंसिका हुए बिना कैसे रह सकती हूं?

ईश्वर ,माता पिता ,पुत्री ,पुत्र, नारी, प्रकृति, भाषा, 

संस्कृति, रीति रिवाज पर्यावरण, किसकी आराधना करना भूली हैं आप इस संग्रह में? तो कहीं आक्रोश, गुस्सा और खीज भी बिखेर रही है अपनी रचनाओं में।

भारत की धरा पर जीवन बिता, अब परदेस में बस कर भी अपनी कर्मभूमि के रूप में आपने वहां की संस्कृति के प्रति भी कितनी सहजता और आदर दर्शाया है। इतने समय से आपकी रचनाएं फेसबुक पर पढ़ रही हूं, कार्यक्रमों में सुन रही हूं और अब यह दोनों किताबें पढ़कर आपके भीतर अभी भी धड़क रहे भारत देश के प्रति प्रेम की धड़कन सुन रही हूं, महसूस कर रही हूं।

इतने वर्षों से अपनी जड़ों से दूर रहकर भी आप शब्दों एवं संस्मरणों से काव्य  एवं उपन्यास के पात्रों द्वारा  मातृभूमि के संस्कार एवं विचारों को सिंचित कर रही हैं। नए परिवेश नई संस्कृति में बस कर ,इतनी उम्र में गुजरे वक्त को सकारात्मक रूप देकर लेखनी में ढालना आपके उम्दा व्यक्तित्व को उजागर करता है।

प्रेम भावना, संवेदनशीलता  एवं पवित्र मन की स्याही में डुबोकर सच्चाई की कलम से अवतरित विराट रचनाओं की प्रतिक्रिया व्यक्त करने में अपने आप को लघु महसूस कर रही हूं।

किताब की अंतिम रचना ‘‘मां बेटे के संबंध के दोहे‘‘ की चंद पंक्तियां इसलिए प्रस्तुत करना चाहूंगी क्योंकि मैं भी अमेरिका बसे अपने बेटे से कितने सालों बाद मिली।

‘‘मां बेटे के बीच का, रिश्ता कितना ख़ास।

बंधन यह अनमोल है, मीठा सा एहसास।

बरसों में मिलना हुआ, बही आंख से धार।

मां के आंचल में मिला, बेटे को संसार।‘‘

दोनों किताबें आकर्षक मुख्य पृष्ठ के साथ ‘‘वनिका पब्लिकेशंस‘‘से प्रकाशित की गई है।

कमाल की कलम , सुंदर और शानदार लेखन के लिए अन्नदा दीदी आप को हार्दिक बधाई। आगामी नवसृजन के लिए हृदय से शुभकामनाएं।  

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आलेख

श्री पंकज सुबीर, सीहोर, मो. 99778 55399

दादा लखमी- मन पर गहरी लकीर छोड़ती फिल्म

भोपाल के केपिटल मॉल के आईनॉक्स में प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता यशपाल शर्मा द्वारा निर्देशित राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित हरयाणवी फिल्म ‘दादा लखमी‘ के विशेष शो को  देखने का अवसर मिला। सबसे पहले तो यह कि फिल्म भले ही हरयाणवी है लेकिन बहुत अच्छे से भाषा समझ में आ रही थी। इतनी हरयाणवी तो हम दंगल जैसी फिल्मों में सुन चुके हैं। फिल्म के बारे में क्या कहूँ, ज़्यादा कहूँगा तो लगेगा कि अपने मित्र की प्रशंसा कर रहा हूँ। लेकिन सच कह रहा हूँ कि मैंने बरसों बाद कोई ऐसी फिल्म देखी जो पूरे समय बाँध के रखती हो। इतना कसा हुआ निर्देशन, संपादन कि कुर्सी से हिलने का अवसर भी न मिले। यशपाल शर्मा ने अपनी पहली ही फिल्म से बहुत बड़ी लकीर खींच दी है। उनके अभिनय का तो मैं हमेशा कायल रहा लेकिन इस फिल्म को देख कर मुझे लगा कि उनके अंदर का निर्देशक शायद उनके अंदर के अभिनेता से कहीं ज़्यादा अच्छा है। बहुत चुनौतीपूर्ण है इस तरह की फिल्म बनाना और ऐसी बनाना कि दर्शकों को बाँध कर रख ले। आज के दर्शक को, जो कुछ ज़्यादा ही व्यस्त हो गया है। यशपाल शर्मा ने न केवल इस चुनौती को स्वीकार किया है, बल्कि उसे पूरा भी कर के दिखाया है। मेरा बस चले तो इस वर्ष के सारे पुरस्कार इस निर्देशक के नाम लिख दूँ। पिछले वर्ष हिन्दी फिल्म उद्योग का सबसे असफल वर्ष रहा है, हिन्दी फिल्में एक के बाद एक फ्लाप हुई हैं। हिन्दी फिल्म वालों को दादा लखमी देखना चाहिए, उनको समझ आएगा कि दर्शक क्या चाहता है। फिल्म हरयाणा में लगातार हाउसफुल चल रही है, जबकि रिलीज हुए दो माह से भी ज़्यादा हो चुका है।

उतना ही शानदार कलाकारों का अभिनय। किसी कलाकार का नाम लूँ... लखमी की माँ के रूप में मेघना मलिक का बेजोड़ अभिनय, मेघना मलिक जब भी परदे पर आती हैं, दर्शक मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। और उतना ही कमाल का अभिनय है उस बच्चे का जिसने बाल लखमी की भूमिका अदा की है। शायद योगेश वत्स नाम है उस बालक का। और राजेन्द्र गुप्ता जी... जिन्होंने नेत्रहीन गायक गुरु मान सिंह की भूमिका अदा की है, गजब... उनके अभिनय का तो मैं पहले से ही कायल हूँ लेकिन इस फिल्म में तो उन्होंने कमाल ही किया है। यशपाल शर्मा के फिल्म में बस शुरुआत में ही दो दृश्य हैं और दोनों में उन्होंने दादा लखमी को जीवंत कर दिया है। ऐसा लगता है जैसे दादा लखमी ऐसे ही रहे होंगे। उस मस्ती, उस बेफिक्री और उस कलंदरपन को क्या साकार किया है यशपाल शर्मा ने, हालाँकि उसके बाद फिर फिल्म में उनका रोल नहीं है, अब जब दादा लखमी का भाग 2 आएगा तो उसमें उनका रोल प्रारंभ होगा। यह फिल्म बाल लखमी और युवा लखमी की कहानी है। इंटरवाल से पहले बाल और उसके बाद युवा। युवा लखमी का रोल भी हितेश शर्मा ने बहुत अच्छे से किया है, लेकिन इंटरवल से पहले जो अभिनय बाल लखमी के रूप में योगेश वत्स ने किया, वह दर्शकों के दिमाग से उतर नहीं पाता।

बहुत दिनों बाद कोई फिल्म देखी जो दर्शकों को इमोशनली कनेक्ट कर रही थी। मेरे पास की सीट पर वरिष्ठ कवि, कथाकार, उपन्यासकार आदरणीय संतोष चैबे जी बैठे थे, उन्होंने भी कहा कि फिल्म ने इमोशनल कर दिया। फिल्म इतनी साफ सुथरी है कि कोई असहजता नहीं पैदा करती। और सबसे बड़ी बात यह है कि फिल्म में कोई फूहड़ हास्य के दृश्य या संवाद नहीं हैं, लेकिन उसके बाद भी फिल्म ख़ूब गुदगुदाती है हँसाती है। और फिर अगले ही दृश्य में आपकी पलकें भी नम कर देती है। मेघना मलिक और योगेश वत्स के बीच के संवाद, उनके बीच माँ और बेटे के रिश्ते की जो धूप-छाँव दिखाई गई है, वह दर्शकों को ख़ूब गुदगुदाती है। स्थिति यह है कि कोई संवाद नहीं है, बस माँ बेटे को देख रही  है और दर्शक हँस-हँस के लोटपोट हो रहे हैं। अपनी कहूँ तो बहुत दिनों बाद किसी फिल्म को देखते हुए हँसा। नहीं तो फूहड़ हास्य कार्यक्रमों और फिल्मों ने दिमाग की ऐसी हालत कर दी है कि कॉमेडी देखते हुए रोना आता है। यशपाल शर्मा ने निर्देशन में एक बड़ा कमाल यह किया है कि परिस्थितिजन्य हास्य पैदा किया है, जिन दृश्यों में हास्य है, उनमें वह दृश्य में ही अंतर्निहित है, बाहर से ठूँसा नहीं गया है।

इस फिल्म का एक और बहुत सशक्त पक्ष इस फिल्म की फोटोग्राफी और इसके सेट्स हैं। क्या कमाल है। 1900 के आस पास का हरयाणा का गाँव साकार कर दिया है। बहुत अच्छे मित्र और चित्रकार भाई जयंत देशमुख को भी बहुत-बहुत बधाई । कैमरे और सेट्स ने मिल कर एक अलग ही दुनिया रच दी है फिल्म में। जयंत देशमुख जी इस तरह का कमाल करते रहते हैं, लेकिन इस फिल्म में गाँव की, घर की, वस्तुओं की डिटेलिंग देखने लायक है। मैं तो कई बार फिल्म को छोड़कर सेट्स की बारीकी में उलझ जाता था।यह फिल्म एक बार फिर उस तथ्य को स्थापित कर देती है कि फिल्म एक ऐसी विधा है जो कई सारे गुणीजनों के एक साथ मिलने पर बनती है, न कि आजकल की तथाकथित फिल्मों की तरह, जिनमें एक निर्देशक और एक सुपर स्टार मिल कर सोचते हैं कि हम ही सब कुछ कर लेंगे। यह फिल्म सामूहिक प्रभाव का महत्त्व भी बताती है कि केवल अच्छे दृश्य से सब कुछ नहीं होगा, उसके साथ अच्छा अभिनय भी होना जरूरी है। बस कुछ सामूहिक प्रभाव से होता है। सरशार सैलानी की गजल का मतला है न- चमन में इख्तिलात-ए-रंग-ओ-बू से बात बनती है, हम ही हम हैं तो क्या हम हैं तुम ही तुम हो तो क्या तुम हो।

अब बात करते हैं संगीत की। चूँकि यह फिल्म एक गायक, एक कवि के जीवन पर आधारित है, इसलिए इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण संगीत कभी भूमिका होगी यह तो तय ही था। उस पर संगीत निर्देशक भी कौन ? मेरे प्रिय उत्तम सिंह, दिल तो पागल है से लेकर दुश्मन फिल्म का चिट्ठी न कोई संदेश रचने वाले उत्तम सिंह। क्या संगीत दिया है फिल्म में उन्होंने। गजब। आप यदि उत्तम सिंह का संगीत पहले से भी सुनते रहे हैं तो आप पाएँगे कि उनके संगीत में बहुत अलग बीट्स होती हैं ताल वाद्यों की, और उनके संगीत में एक गूँज होती है। वह गूँज इस फिल्म में जैसे ब्रह्माण्ड का नाद बन कर उपस्थित है। क्या कमाल के गाने बनाए हैं, वाह और उतने ही कमाल के शब्द तथा गायकी भी। एक गीत पर राजेन्द्र गुप्ता जी ने नेत्रहीन गायक के रूप में गजब किया है। इस फिल्म के गाने बहुत दिनों तक दिमाग में रहेंगे।

कुल मिलाकर बात यह कि अगर आपको भी एक साफ सुथरी फिल्म देखनी हो, एक सचमुच की फिल्म देखनी हो तो दादा लखमी जरूर देखिए। दुख की बात है कि ऐसी फिल्में पूरे भारत में रिलीज नहीं हो पातीं। लेकिन आप के आस पास अगर यह फिल्म लगी हो तो जरूर जा कर देखिए। यह फिल्म चंदन धूप की गंध की तरह देर तक आपको सुवासित करती रहेगी। आप इसके प्रभाव से निकल ही नहीं पाएँगे। जबकि यह फिल्म अभी तो अधूरी है, केवल पहला पार्ट ही है फिल्म का। उसके बाद भी मन पर गहरी लकीर छोड़ कर फिल्म समाप्त होती है। बहुत दिनों बाद किसी फिल्म में दर्शकों की तालियाँ बजती देखीं। फिर कभी अवसर होगा तो इस फिल्म पर विस्तार के साथ बात करूँगा, फिलहाल तो बस इतना ही है। अंत में एक बात जो बाहर आते समय कवि विनय उपाध्याय जी ने कही- पंकज भाई क्या कमाल का निर्देशन है, बस यह निर्देशक मुंबई की मुंबइया फिल्मों में न उलझ जाए।

सलाम यशपाल शर्मा...

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आलेख

प्रो. योगेश्वर कौर, ढकौली, मो. 09417394849, 
E-mail : phulchandmanav@gmail.com


शब्दों का जादूगर - कमलेश्वर

नये हिन्दी साहित्य का इतिहास जब भी लिखा जाएगा तो कमलेश्वर का नाम सुनहरी अक्षरों में अंकित होगा। कमलेश्वर के व्यक्तित्व के कई ऐसे पहलू हैं, जिनकी मिसाल वह स्वयं थे। कहानी के क्षेत्र में, हिंदी उपन्यास संसार में, मीडिया जगत में और साहित्यिक पत्रकारिता में उनकी देन अद्वितीय है। इसीलिए कमलेश्वर एक व्यक्ति नहीं, एक संस्था का नाम है। नए लेखकों को प्रेरणा देने के क्षेत्र में ‘सारिका‘ मासिक और पाक्षिक से लेकर, ‘समान्तर‘, ‘गंगा‘ जैसी पत्रिकाओं के लिए उन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता। अपने सम्पादन में जब कभी भी कमलेश्वर ने मोहर लगाई तो रचना पाठकों को बार-बार पसंद आयी।

आओ, मैं अब उनके उपन्यास संसार की बात करती हूं। ‘एक सड़क सतावन गलियां‘ हो या ‘मांस का दरिया‘, ‘तीसरा आदमी‘ हो या ‘काली आंधी‘। कमलेश्वर ने अपने उपन्यासों में यथार्थ को जगह दी है। लेखक ने पात्रों का चरित्र चित्रण करते चलचित्र या फोटोग्राफी की तरह ही नहीं, बल्कि किसी पेंटिंग के सृजन की तरह भी अपनी लेखनी का प्रयोग किया है। ‘समुन्दर में खोया हुआ आदमी‘ उपन्यास हो या ‘कितने पाकिस्तान‘ कमलेश्वर की गंभीर दृष्टि, इतिहास, समाज, मनुष्य और उसकी आर्थिक दशा को टटोलती है।

कमलेश्वर के उपन्यासों में नर और नारी पात्र आम लोगों में से लिए गए हैं, जैसे हमारे आस-पास ही विचरण करते हों। प्यार, रोमांस, घृणा, मोह या अपनत्व का वर्णन करता उपन्यासकार कमलेश्वर, पात्रों की आपबीती बता रहा होता है। सहजता और सजीवता से जब कथानक का सृजन होता है, तो वह पाठकों के भीतर तक एक छाप छोड़ जाता है। कमलेश्वर का हासिल यह है कि वह भोगे हुए यथार्थ को अपने उपन्यासों के माध्यम से प्रत्यक्ष दिखा रहे हैं। आमतौर पर पाठक की रुचि कमलेश्वर की भाषा के कारण कथानक के प्रत्येक मोड़ के साथ-साथ चलती दिखाई देती है। महानगर, शहर, कस्बा या गांव स्थान कोई भी हो, कमलेश्वर ने मनुष्य की सोच को व्यावहारिक रूप दिया है। इसीलिए मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव के साथ कमलेश्वर, इस तिकड़ी का वह प्रत्यक्ष हस्ताक्षर है जो ‘यारों का यार और दुश्मनों का दुश्मन‘ जाना जाता रहा है।

चलो, कमलेश्वर की कहानीकला की बात करें। ‘नयी कहानी की भूमिका‘ पुस्तक की रचना करते उसके सामने जो समय था, वह मध्य वर्गीय चेतना तथा उथल-पुथल के इतिहास का वर्णन करता है। ‘राजा निरवंशिया‘, ‘मांस का दरिया‘, ‘कस्बे का आदमी‘ जैसी कहानियां उसी दौर की श्रेष्ठ रचनाएं हैं। जब भीष्म साहनी, उपेन्द्रनाथ अश्क, कृष्णा सोबती कहानी के क्षेत्र में अपना सिक्का जमा रहे थे, तब कमलेश्वर कहानीकार, सम्पादक और चिंतक के रूप में एक अलग भूमिका अदा कर रहे थे। उनका चिंतन गंभीर था। विचारों में ताजगी थी और समय के मुहावरे को पकड़ने में वह निपुण थे। ‘रातें‘, ‘नीली झील‘ या ‘नागमणि‘‘ जैसी कहानियों से कमलेश्वर की पीछे की दो पीढ़ियों के लेखक प्रेरणा ले रहे हैं। कमलेश्वर की कहानी हथियार का काम करती थी। मनुष्य मन के भीतर तक झांक कर कमलेश्वर जैसा कलाकार, समाज का सौंदर्य दिखाने की चेष्टा करता है। कहानी में नाटकीयता न हो तो पाठकों के लिए जिज्ञासा नहीं रहती। कुछ कहानियों में कमलेश्वर ने ऐसे ट्विस्ट दिए हैं, जो वही दे सकते थे।

अब मैं कमलेश्वर के सम्पादक के दिनों को याद करती हूं। ‘सारिका‘ और ‘धर्मयुग‘ ऐसी पत्रिकाएं थी जो प्रत्येक पाठक की प्रिय और हरेक घर का शृंगार समझी जाती थी। धर्मवीर भारती साप्ताहिक धर्मयुग के एडीटर थे, तो मासिक ‘सारिका‘ की एडीटरी के लिए कमलेश्वर को दिल्ली से मुंबई बुलाया गया। उन्हीं दिनों खुशवंत सिंह ‘इलैस्ट्रेटिड वीकली‘ के सम्पादक थे। मुझे याद है ‘सारिका‘ मासिक की प्रतीक्षा, हर महीने बड़ी बेसब्री से, रेलवे स्टेशन के बुक स्टालों पर, लाइब्रेरियों में, पाठकों और लेखकों को बनी रहती थी। सम्पादकीय टीम में कमलेश्वर ने नौजवानों को लिया हुआ था। तरह-तरह के प्रयोग सारिका ने किए। भारतीय भाषाओं की कहानियों के अंक निकाले गए तो दलित पैन्थर विशेषांक, विदेसी सिरमौर लेखकों के विषय में अंक, पत्र विशेषांक, प्यार विशेषांक, देह व्यापार विशेषांक आदि दर्जनों अंक आज भी, गंभीर पाठकों ने जिल्दें बंधवा कर संभाल कर रखे हुए हैं।

फिर सारिका पाक्षिक हो गयी और इसका रूप बहुत चर्चित तथा सर्वप्रिय हो गया। कामता नाथ, मधुकर सिंह, मृदुला गर्ग, मैरुनिस्सा परवेज, ममता कालिया, देवकी अग्रवाल जैसे हिंदी के लेखक सारिका में गर्व से छपते थे। पंजाबी कथाकारों में राम सरूप अणरवी, जसवंत सिंह विरदी, जगजीत बराड़, प्रेमप्रकाश, गुरपाल सिंह लिट्, कृपाल कजाक और त्रिलोक सिंह आनंद जैसे लेखक हिंदी संसार में सारिका के माध्यम से प्रसिद्धि पा सके। कई बार कमलेश्वर पूरा अंक ही हिन्दी या किसी अन्य भाषा के उपन्यास को समर्पित कर देते थे। सारिका का कवर, रेखांकन और अन्दर की तस्वीरें भी कहानियों की तर्जुमानी करती थीं।

ऐसे ही ‘गंगा‘ मासिक, ‘समानांतर‘ जैसी हिन्दी पत्रिकाओं के बाद, दैनिक पत्रकारिता के इतिहास में भी कमलेश्वर ने, नए कीर्तिमान स्थापित किए। दैनिक ‘भास्कर‘ और दैनिक ‘जागरण‘ के सम्पादक- सलाहकार के रूप में काम करते कमलेश्वर ने पत्रकारिता को फिर एक नया मोड़ दिया। नए-नए फीचर, पन्ने, परिशिष्ट शुरू किए तथा फोटो पत्रकारिता को महत्त्व दिया गया। विद्यार्थियों, नौजवानों के साथ-साथ फैशन प्रेमियों, फिल्म प्रेमियों और स्वास्थ्य प्रेमियों की भूख भी इन पृष्ठों ने पूरी की। कमलेश्वर स्वयं अंतिम सांस तक अपने लेख, चिंतन, रचनाएं आदि समाज को देते रहे।

कमलेश्वर की जिन्दगी में संघर्ष, कशमकश, उतार- चढ़व महत्व रखते थे। ‘मैनपुरी‘ से आरंभ होकर उसकी यात्रा दिल्ली और मुंबई के रास्ते फिर दिल्ली तक आ पहुंचती है। कमाल है, कमलेश्वर ‘परिक्रमा‘, ‘एक और कहानी‘ जैसे धारावाहिकों से जहां आम आदमी के अंदर तक उतर रहे थे, वहीं उसने फिल्मी संसार में भी अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाया। ‘आंधी‘ और ‘मौसम‘ जैसी ट्रेंड सैट कर देने वाली फिल्मों ने इंडस्ट्री को नया मोड़ दिया। अनेक फिल्मों की कहानियां लिखीं तो चुस्त-दुरुस्त संवादों के माध्यम से कई फिल्मों को निखारा तथा सफलता दी। उपेन्द्र नाथ ‘अश्क‘, कृष्ण चन्दर, मंटों, बेदी, अब्बास, भगवती चरण वर्मा जैसे अनेक नाम ‘माया नगरी‘ बम्बई से जुड़े, पर प्रमुख काम कमलेश्वर का भी माना गया है।

गंभीर अध्ययन, विशाल अनुभव और भाषा की ताजगी के साथ कमलेश्वर ने आम पात्रों के साथ आम लोगों की बात की और 28 जनवरी 2007 को वह अचानक सब छोड़कर इस दुनिया से विदा हो गए। साहित्य संसार, मीडिया, पत्रकारिता, सिनेमाजगत और छोटे पर्दे का संसार, शब्दों के जादूकर कमलेश्वर को सदैव याद करेगा।

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समीक्षा


सुश्री वंदना सिंह, शोधार्थी, कलकत्ता विश्वविद्यालय,
हुगली, मो. 6291188177


राष्ट्रीय बलिदान को आकती कलम

जो न करेगा सीना आगे, पीठ उसे खींचेगी पीछे
जो ऊपर को उठ न सकेगा, उसको जाना होगा नीचे
अस्थिर दुनिया में थिर होकर, कोई वस्तु नहीं रहती है
हे मन के अंगार, अगर तुम लौ न बनोगे क्षार बनोगे।

हम स्वतंत्रता प्राप्ति के 75वें वर्ष को अमृत महोत्सव के रूप में मना रहे है जिसमें कुछ लोग ऐसे हैं जिन्होंने स्वाधीनता संग्राम को अपने आँखों द्वारा देखा है। यह हमारा भाग्य ही है कि उनके द्वारा स्वाधीनता आंदोलन का ऑखों देखा हाल हम सुन और पढ़ पा रहे है। ‘‘स्वाधीनता आन्दोलन और साहित्य‘‘ नामक पुस्तक के सम्पादक श्यामबाबू शर्मा जी है जिन्होंने स्वाधीनता संग्राम में शामिल हुए बलदानियों तथा विभिन्न भाषाओं के लोगों के योगदान को एक जगह संग्रह करने की कोशिश की है। इस पुस्तक में कुल 37 आलेख है, जो स्वाधीन भारत के स्वाधीनता आन्दोलन और साहित्य से जुड़ी हुई है। इस पुस्तक में साहित्यकारों के संक्षिप्त परिचय से भी पाठक को अवगत करवाया गया है। साथ विभिन्न भाषा-भाषी साहित्यकारों के आन्दोलन को दिखाया गया है। यह पुस्तक 292 पृष्ठ की एक ज्ञानवर्धक पुस्तक है, जो पाठकों को स्वाधीनता आन्दोलन और साहित्य का ज्ञान विस्तारपूर्वक करवाती नजर आ रही है। इस पुस्तक की भाषा सरल सहज है जो पाठकों को सहजता से समझने में आसानी होती है।

पुस्तक की भूमिका के रूप में कुमार दिनेश प्रियमन जी ने महत्वपूर्ण विषय पर अपनी दृष्टि डाली है, जिसे पढ़ते ही सम्पादित पुस्तक के उद्देश्य और स्वाधीनता आन्दोलन और साहित्य के प्रति लोगों की रूचि का पता लगता है। उन्होंने यह भी बताना चाहा है कि भारत एक समृद्धशाली देश था जिसे सोने की चिड़िया कहा जाता था लेकिन जब प्लासी की दूसरी लड़ाई में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को परास्त किया, तब से अंग्रेजों ने दो सौ सालों तक हमारे भारत को लूटा अपने देश, अपने सम्मान और संसाधनों की रक्षा के लिए सबने अत्याचार का विरोध किया, लड़ाई लड़ी। कैसे हमारी माँ भारती ने 1857 से 1947 तक का संघर्ष झेला। भारत माँ ने अपने लाखों पुत्रों की कुर्बानियाँ देखीं। तब हमारे देश को आज़ादी मिली, इस आज़ादी में कवियों, लेखकों, रंगकर्मियों, लोक-गायकों व पत्रकारों ने भी इस लड़ाई में अपनी लेखनी द्वारा संघर्ष किया। उन्होंने भूमिका में लिखा है-

‘‘स्वतंत्रता आन्दोलन का समूचा काल-खंड भारतीय भाषाओं के साहित्य की विविध-विधाओं का अविस्मरणीय दस्तावेज है, जो हमारी प्ररेणा भी है, पुरस्कार भी और हमारा इतिहास भी।‘‘ भारत के स्वाधीनता के 75 वर्ष पूरे होने की खुशी पूरे भारत वर्ष के लिए अद्भुत खुशी की बात है। कहीं न कहीं इस खुशी और गौरव को ही डॉ. श्यामबाबू शर्मा ने अपने इस सम्पादित पुस्तक में दिया है।

इस ज्ञानवर्धक पुस्तक के प्रत्येक लेख में जन-जन की पुकार, स्वाधीनता संग्राम का इतिहास और मानव हृदय की भावनाओं पर आधारित है। शोषण का विरोध, स्वाधीन चेतना है, जन-संघर्ष है। यह पुस्तक स्वाधीनता भारत की जनता की जीजिविषाओं को फलीभूत करने में पूर्णरूप से सार्थक है।

वहीं पुस्तक के सम्पादक श्यामबाबू शर्मा ने पुस्तक की भूमिका में यह बताया है कि केवल अंग्रेज ही नहीं, फ्रांसीसी, पुर्तगाली और डच लोग भी यहाँ व्यापार करने आए। लेकिन अंग्रेजों की अपेक्षा वे छोटे और सीमित समूह में ही रहें है। अंग्रेजों के शासन काल में किसानों और मजदूरों को भरपेट भोजन तक दुभर था। सामान्य जन-जीवन अंग्रेजी साम्राज्य से हताश था। तभी पूरे देश में देशभक्ति के स्वर गूँजे और राष्ट्रीय चेतना ने साहित्य को भी नया स्वर प्रदान किया। इस पुस्तक में हिंदी, संस्कृत, मराठी, बांग्ला, कन्नड़, मलयालम, तमिल, तेलगू, असमिया, मणिपुरी, गुजराती, पंजाबी, सिंधी, कश्मीरी, उड़िया, संथाली जैसी भाषाओं को इसमें केंद्रित किया जा सका है। इस पुस्तक में लोक साहित्य संस्कृति के साथ सिनेमा और पत्रकारिता को भी समझाने का प्रयास किया गया है। यह पुस्तक देश की जनता के समर्पण और स्वतंत्रता आन्दोलन के संघर्ष की विशेषता को दिखाता है। इस पुस्तक के लेख भारत की प्रतिष्ठा, और चेतना को उजागर करते है। सम्पादक श्यामबाबू शर्मा के इस समृद्धशाली कार्य की प्रशंसा के लिए मेरे पास शब्द ही नहीं है। विष्णुकांत शास्त्री की कुछ पंक्तियाँ है-

‘‘बड़ा काम कैसे होता है

पूछा मेरे मन ने

बड़ा लक्ष्य हो, बड़ी तपस्या

बड़ा हृदय मृदुवाणी।’’

आज इस पुस्तक रूपी बड़े लक्ष्य की प्राप्ति हुई श्यामबाबू शर्मा जी को बसंत निरगुणे जी ने अपने लेख में झाँसी की रानी की शहादत ने राष्ट्रीय चेतना को जगाया। गाँधी जी के विचारों और आदेशों ने समाज में कैसे राष्ट्रीय चेतना को बढ़ाया इसकी बात की गई है। गाँधी के अमूल्य विचारों से अवगत करवाने की पहल की गई है- ‘‘लक्ष्य प्राप्ति के लिए प्रयुक्त साधन शुद्ध होना चाहिए क्योंकि गलत साधनों से मिली सफलता खरी और टिकाऊ नहीं हो सकती। साध्य ही नहीं साधन भी पवित्र हो।‘‘ बसंत निरगुणे जी ने भारतीय अस्मिता की पहचान को और भी उभारा है, और बहुत स्पष्ट और सरल भाषा में गाँधी जी के गुणों का बखान किया है, वे हर छोटी-छोटी बातों और कथनों द्वारा गाँधी जी के विचारों को उद्घाटित करते हैं। वे सोहनलाल द्विवेदी के कुछ कथनों को भी अपने आलेख में दिखाते है कि-

‘‘चल पड़े जिधर दो डग मग में

चल पड़े कोटि पग उसी ओर

पड़ गयी जिधर भी एक दृष्टि

गड़ गये कोटि दृग उसी ओर।।‘‘

बसंत निरगुणे जी ने कवियों, लेखकों, साहित्यकारों की लेखनी और राष्ट्र तथा देश को समर्पित राष्ट्रीय गीत के स्वर को उद्घटित किया है। इन्होंने यह भी बताना चाहा है कि कैसे इस समय कुछ कविताएं लोकगीत बन गई, कुछ कालजयी बनीं। गाँधी जी को लोक चेतना के विस्तार ने देश को अंग्रेजों के चंगुल से छुड़ाने में बड़ी भूमिका अदा की। उस समय जन-जन के कंठों से गीत फूट पड़े थे। जो एक तरफ उनकी अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष करने की जीवनी शक्ति का रूप धारण किए हुए थी।

वही डॉ. सुरेश कुमार केसवानी ने ‘राष्ट्रीय चेतना के परिप्रक्ष्य में सिन्धी साहित्य’ में कैसे सिन्धी साहित्य में राष्ट्रीय स्वर उद्घोषित हुआ, इसे बड़े ही सरल शब्दों में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते नजर आते हैं। वे साफ रूप में बताते है कि जैसे राष्ट्रीय झंडे की तीन रंगें हमें अलग-अलग संदेश देती है ठीक उसी प्रकार सिन्धी साहित्य में भी राष्ट्रीय झंडे और चरखे को पूर्ण सम्मान के साथ अपनाया और अपनी भाषा में कविता को राष्ट्रीय चेतना के लिए उद्घटित किया।

‘काजल सूरी’ के ‘‘कश्मीरियत और आज़ादी का उत्सर्ग‘‘ नामक आलेख में कश्मीर के गौरवशाली अतीत पर चर्चा की गई तथा आज़ादी में कश्मीर के योगदान पर भी चर्चा की गई। इस आलेख में यह भी बताया गया कि धर्म गुरू शंकराचार्य जी द्वारा कैसे देव मंदिर भव्य शिवलिंग और मठ की स्थापना की गई। आयुर्वेद शास्त्र ने कैसे पूरे विश्व में जड़ जमाये। आचार्य अभिनव गुप्त, आचार्य चरक नें आयुर्वेद को कैसे अपने प्रयत्न और कठोर परिश्रम द्वारा समृद्धि तक पहुँचाया। आज विश्व में आयुर्वेद को सबसे अच्छा उपचार माना जाता है, उस वेद ग्रंथ को कश्मीर में ही लिखा गया। इसके बाद बौद्धों का कश्मीर में आना हुआ, कश्मीर में सैकड़ों विद्वानों ने ज्ञान लिया, और इस ज्ञान को विश्व भर में फैलाया। अपनी इस गौरवमयी प्रतिभा के लिए कश्मीर का इतिहास पूरे भारतीय इतिहास में विशेष महत्व रखता है। ‘काजल सूरी’ जी ने इस आलेख में कल्हण के राजतरंगिणी की भी चर्चा की है। कश्मीर के योगदान की बारिकी से चर्चा की गई है। ऐसे-ऐसे मुद्दों पर पाठकों के ध्यान को केन्द्रित किया गया है जो हमें कुछ नये ऐतिहासिक मुद्दों से वाकिफ करवाती नजर आ रही है। हिन्दू और मुस्लिम में भेद करने वालों को भी काजल सूरी जी ने आलेख में स्थान दिया है। मुस्लिम कवि माँ लल्ल की कुछ पँक्तियाँ है जिसे पढ कर यह पता चलता हैं कि देश की एकता में हिंदू-मुस्लिम का कोई भेद नहीं था, लेकिन कुछ राजनैतिक नेता और मुख्य रूप से अंग्रेजों ने ही भेद के बीज को बो दिया। माँ लल्ल की कुछ पंक्तियाँ है-

‘‘थल-थल में बसते हैं शिव ही

भेद न कर क्या हिन्दू-मुसलमां

ज्ञानी है तो स्वयं को जान

वहीं है साहिब से पहचान।।‘‘

कश्मीर के नौजवान ‘द हीरो ऑफ बारामूला’ शहीद मकबूल शेरवानी जैसे देशभक्तों की कुर्बानी और बहादुरी, साहस का ही नतीजा है कि आज जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। उन्होंने यह भी बताया कि 1942 - 1946 में भारत छोड़ो आन्दोलन में भी कश्मीर के सेनानियों का अमूल्य योगदान रहा, और न जाने ऐसे कितने वीरों के इतिहास को इस आलेख में संचित किया गया है।

हम यह कह सकते हैं कि सम्पादक श्यामबाबू शर्मा जी द्वारा सम्पादित यह पुस्तक हमें बहुमूल्य घटनाओं परिस्थितियों से अवगत करवाती है। जिस घटनाओं का अभी तक कोई विवरण नहीं हुआ, उन घटनाओं, एतिहासिक विषयों के विषय में पाठक पढ़ और स्थितियों का पता लगा पा रहे हैं। आज़ादी के 75वें वर्ष में इस बहुमूल्य पुस्तक का सम्पादन सच में भारत को एक अनुपम भेंट है। इस पुस्तक को पढ़ने वाला हर पाठक भाग्यशाली ही है जिसे अपने मूल्यवान अतीत को पढ़ने और जानने का सुअवसर प्राप्त हुआ। मैं भी इस पुस्तक को पढ़कर कुछ ऐसा ही महसूस कर पा रहीं हूँ। स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए कैसे हमारे वीर सेनानियों, वीरों, कवियों, लेखकों, मजदूरों ने अपना योगदान दिया, इसे एक साथ एक सूत्र में पिरोने का काम श्यामबाबू शर्मा जी के हाथों हुआ। यह पुस्तक अमूल्य है इसकी प्रशंसा के लिए शब्द छोटे पर जाते हैं।              

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समीक्षा

डाॅ. अर्चना सिंह, एम. ए. एम. फिल. पी. एच. डी.,
शोध-छात्रा- कलकत्ता विश्वविद्यालय (हिंदी विभाग),
श्यामनगर, उत्तर 24 परगना, पश्चिम बंगाल, मो. 8777478126


साहित्य, संस्कृति और स्वाधीनता।

पुस्तक - स्वाधीनता आंदोलन और साहित्य। 

संपादक - श्यामबाबू शर्मा।

प्रकाशक - अनुज्ञा बुक्स, शाहदरा दिल्ली - 110032 

संस्करण - प्रथम संस्करण 2023.

देश की आज़ादी को 75 वर्ष पूरे हो चुके है और हम भारत की 137 करोड़ जनता आजाद भारत की भूमि पर आज़ादी को जी रहे हैं, महसूस कर रहे हैं। ऐसे में आज़ादी के बीतें वर्षो में साहित्य और समाज, कलम और क्रांति, संस्कृति और परंपरा, सड़क और रंगमंच से जुड़े अविस्मरणीय घटनाओं और उनको लोकमानस के बीच लानेवाले माध्यमों व स्त्रोतों को तलाशना जरुरी था। कहना न होगा कि  आज़ादी की इन छोटी-बड़ी परन्तु ऐतिहासिक एवं महत्वपूर्ण इकाइयों को शोध कर सबके सामने लाने का अद्वितीय कार्य -‘‘स्वाधीनता आंदोलन और साहित्य‘‘  नामक पुस्तक ने बखूबी किया है। इस पुस्तक में कूल 37 लेखकीय दस्तावेज हैं जो स्वतंत्रता काल की ऐसी कहानियाँ बयां करती है जो अब तक चर्चा से दूर थी। ग्रन्थ में स्वतंत्रता की अवधारणा, भारतीय दर्शन, भारतीय नवजागरण, महात्मा गाँधी के दर्शन के  साथ -साथ तत्कालीन समय में प्रचलित विविध वाद, मत एवं विचारधाराओं के आलोक में उस समय के सामाजिक ऊहापोह को समझने का प्रयास है। पुस्तक न केवल ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ने वाली तमाम ताकतों की तलाश करती है बल्कि उसके सामाजिक महत्व को भी समझाते हुए चलती है। इसमें संकलित विषय केवल एक भाषा या कुछ क्षेत्रीय संस्कृति तक सिमित नहीं रह जाते बल्कि उस समय के अनेक भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के योगदान को भी रेखांकित करते है। भारतवर्ष की संवेदना हीं इस पुस्तक की भी संवेदना है। एक और विशिष्ट बात इस पुस्तक को महत्वपूर्ण बनाती है जिसके तहत इसमें लोकप्रिय विधाओं के साथ-साथ लोकप्रिय मंच को शामिल करना है। 

तत्कालीन समय में किस प्रकार भारतीय सिनेमा मनोरंजन का दृश्य-श्रव्य माध्यम होते हुए भी आंदोलन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है और लोगों में जन जागृति का सन्देश पहुँचाता है, इस विषय में विस्तार से बताया गया है। मंचित होने वाले नाटकों, नुक्कड़ नाटकों की आंदोलनकारी भूमिका को केंद्र में रखकर भी लेख संकलित है। विधाओं में उपन्यास, नाटक, काव्य, कथा-साहित्य आदि के अवदान पर भी लेख है। ग्रन्थ में अवधि, उर्दू, असमिया, उड़िया, काश्मीरी, गुजराती, तमिल, तेलुगु, पंजाबी, बघेली, बुंदेलखंडी, बांग्ला, निमाड़ी, मणिपुरी, मराठी, मलयालयम, संथाली, संस्कृत, सिंधी, हिंदी सहित भारतीय भाषाओं के साहित्य, उनके लोक साहित्य, लोक बोलियों, लोक गीतों को शामिल किया गया है हीं इसमें प्रवासी, क्रांतिकारी, आदिवासी, जब्दशुदा साहित्य के अनसुने प्रसंगो और उनकी साहित्यिक सामजिक भूमिका पर विस्तार से लिखा गया है।

37 महत्वपूर्ण लेख में संपादक महोदय श्यामबाबू शर्मा जी का भी एक लेख है-‘‘कलम आज उनकी  बोल‘‘ जिसमें उन्होंने विस्तार से भारत के राष्ट्र बनने के अतीतकालीन सफर को उसके भौगोलिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, धार्मिक व जातिगत परिप्रेक्ष्य में समझने समझाने का प्रयास किया है। वहीं बांग्ला कलम की भूमिका पर बात करते हुए ‘‘वन्देमातरम-वन्देमातरम‘‘ लेख में रेशमी पांडा मुखर्जी बंगाल भूमि पर बांग्ला उपन्यासों की क्रांतिकारी भूमिका को संदर्भो और उदाहरणों के साथ समझाती  हैं। इसी के अंतर्गत वे यह भी बताती है कि कैसे युगांतकारी गीत ‘‘वन्देमातरम‘‘ की उत्पत्ति हुई। विजयदत्त श्रीधर द्वारा लिखा गया आलेख ‘‘स्वाधीनता आंदोलन और भारतीय पत्रकारिता‘‘ अपने अर्थों में महत्वपूर्ण है जिसमें उन्होंने तत्कालीन पत्रकारिता को दो रूपों में समझने का प्रयास किया है। पहली थी- मुख्य धारा की पत्रकारिता, दूसरी थी- हुकूमत की आलोचना करने वाली पत्रकारिता। इस आलेख में पत्रिकाओं पर प्रतिबन्ध, उसके जब्तीकरण, सम्पादकों पत्रकारों की हत्या और अखबारों के बंद होने तक के संघर्ष पर विस्तृत चर्चा है। हरिराम मीणा जी के आलेख ‘‘आज़ादी और आदिवासी‘‘ में स्वाधीनता आंदोलन में बिरसा मुंडा और टंट्या मामा के बलिदान के स्वर्णिम इतिहास का लेखा जोखा है, पलामू आंदोलन ने कैसे विद्रोह की नींव रखी इसे अनसुने प्रसंगो द्वारा रखा गया है। इसी प्रकार राष्ट्रीय चेतना से अनुप्राणित उपन्यास साहित्य पर योगेंद्र नाथ शुक्ल का आलेख, अवधि कविता पर डॉ संतलाल का आलेख, संथाली साहित्य पर महेंद्र बेसरा का आलेख, आज़ादी के दौरान प्रतिबंधित जब्त तरानों पर डॉ हरेराम पाठक का आलेख ऐसे हीं कुछ महत्वपूर्ण आलेख हैं  जिन्हें  नामजद  किया  जा  सकता हैं ।  कुल मिलाकर हम यह निश्चित तौर पर कह सकते हैं की यह पुस्तक स्वतंत्रता काल का साहित्यिक कोष है। इस पुस्तक में आज़ादी के अफसानों से महकती मिटटी की खुशबू है। पुस्तक पठनीय, चिंतनीय व माननीय है जो न केवल आम पाठकों बल्कि शोधार्थियों व् शिक्षकों को भी लाभान्वित करेगी। वर्तमान के विमर्शों को केंद्र में रखकर लिखे गए आलेख भी हैं। लोकगीत, लोकनाटकों द्वारा क्रांति के उस दौर को समझना एक अद्वितीय कार्य है। इस पुस्तक में साहित्य है, इतिहास है, दर्शन है, और हमारा बहुसांस्कृतिक, बहुभाषिक समाज है जो अपनी-अपनी रंगतों के साथ चित्रित हुआ है। 

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आलेख


सुश्री रश्मि रमानी, इंदौर, मो. 9827261567


भारत का विभाजन

(सिन्धी नागरिकों के विस्थापन के सन्दर्भ में)

मानवता के इतिहास में भारत का स्वातंत्र्य संघर्ष अपने ढंग का अनूठा था, जिसमें कभी सूर्यास्त न होने वाले विश्वव्यापी ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ़, भारत की नंगी-भूखी, निहत्थी जनता केवल अपने आत्म-बल के सहारे विद्रोह में उठ खड़ी हुई थी। लेकिन स्वतंत्रता मिलने के कुछ पहले से ब्रिटिश हुक्मरानों ने देश के कुछ प्रतिक्रियावादी तत्वों से सांठ-गांठ कर देश का विभाजन करा ही दिया। विभाजन के प्रमुख प्रवक्ता थे मुहम्मद अली जिन्ना, जो धर्म के आधार पर नया राष्ट्र बनाने के ब्रिटिश षडयंत्र के अलमबरदार बने। आज आज़ादी और विभाजन के 75 वर्ष बाद पाक़िस्तान में उस सिद्धांत का खोखलापन नुमायां हो गया। प्रसिद्ध इतिहासविद् द्वारिका प्रसाद शर्मा अपनी पुस्तक ‘प्राचीन सिन्धु सभ्यता’ के प्राक्कथन में इस विभाजन का विरोध करते हुए लिखते हैं-‘‘भारत की स्वतंत्रता के लिये, देश-विभाजन के सिद्धान्त को स्वीकार करना कहाँ तक बुद्धिमता और दूरदर्शितापूर्ण था, इस प्रश्न का उत्तर भारत का भविष्य ही दे सकेगा। किन्तु इस प्राचीन और महान राष्ट्र का अंग-भंग कर, जिस सिन्ध प्रदेश को आज पाकिस्तान में मिला दिया गया, वह भारत का वह महत्वपूर्ण और गौरवमय अंग था, जिसने ईसा के तीन-चार हज़ार वर्ष पूर्व, आधुनिक, सभ्य और विज्ञानमय, संसार को स्तंभित करने वाली एक अद्वितीय संस्कृति प्रदान की।’’

सिन्ध की संस्कृति बहुत पुरानी है। कई बार आक्रमणकारियों ने इस देश पर आक्रमण कर, उसे तहस-नहस करने की कोशिश की है, लेकिन यहांँ के महान विचारकों ने सदा अपनी मिलीजुली संस्कृति को बनाये रखा। सिन्ध में शाह लतीफ़ जैसे महान उदार कवि हुए तो, सचल जैसे विद्रोही कवियों ने भी जन्म लिया, और सामी जैसे वेदांती कवि ने भी इस सांस्कृतिक परंपरा को समृद्ध किया।

वस्तुतः सदियों से सिन्ध का इतिहास, दूसरे क्षेत्रों से भिन्न और उतार-चढ़ावों से भरपूर रहा है। यहाँँ कितनी ही जातियों और समुदायों के लोग आये और यहीं के होकर रह गये। संतों और सूफ़ियों ने आत्मज्ञान प्राप्त कर, उन्हें स्वयं को पहचानने का संदेश सुनाकर, एकात्मकता के सूत्र में पिरो दिया। सांप्रदायिक कट्टरता नफ़रत के बीज बोती है; किन्तु सिन्ध में सदैव मज़हब से ज़्यादा तहज़ीबी एकता पर बल दिया गया। इसके चलते जो मनुष्यता को ही सच्चा धर्म मानता है वह हर इन्सान से इन्सान होकर जीने का सबक़ सिखाता है। सिन्ध की मिट्टी में सदैव इन्सानी भाईचारे एवं शान्ति की सुगंध रही है, यहाँ सदियों से हिन्दू-मुसलमान, ताने-बाने की तरह साथ में जुड़े रहे हैं, जिसके कारण उनकी पहचान सिन्धी क़ौम के रूप में क़ायम रही। इसी को सियासी साज़िश की दोधारी तलवार ने द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत के नाम पर काट कर अलग कर दिया, आज़ादी के बाद उनके सारे सपने और आदर्श चूर-चूर हो गये, उनके भीतर की वेदना का अनुभव सिर्फ़ वे ही कर सकते हैं जो इस भयावह दौर से गुज़रे थे।

भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास मंे, यह एक उल्लेखनीय तथ्य है कि सिन्ध, भारत का पहला प्रदेश था, जो विदेशियों से आक्रान्त हुआ था, और सबसे आखिरी प्रदेशों सिन्ध और पंजाब मे से एक था, जिस पर अंग्रेज़ों का आधिपत्य हुआ, इतना ही नहीं, यह वही प्रदेश था, जो द्विराष्ट्रवाद के सिद्धान्त पर हुए देश-विभाजन का संपूर्ण रूप से शिकार हुआ। सदियों से सिन्ध प्रान्त के मूल निवासी रहे, एक तेजस्वी जाति और महान् सभ्यता और संस्कृति से संबंध रखने वाले सिन्धी, द्विराष्ट्रवाद के सिद्धान्त पर आधारित, भारत-विभाजन के पश्चात् विस्थापित होकर, विश्व के अनेक स्थानों पर बिखर गये। प्रख्यात साहित्यकार तथा भारत में सिन्धी हलचल के प्रवर्तक कीरत बाबाणी पुरखों की धरोहर से वंचित होने की वेदना को कुछ इस तरह प्रकट करते हैं, ‘‘हमने पूर्वजों से प्राप्त हज़ारों वर्षों की विरासत वाली अपनी जन्मभूमि का समूचा भू-भाग ही समर्पित कर दिया। एक अंश भी बचाकर नहीं रखा कि हम कह सकें कि पुरखों की धरोहर से कुछ हिस्सा तो सुरक्षित रखा है, तथा उनकी अमानत का भी मान-सम्मान रखा है।’’

विभाजन के समय, बंगाल और पंजाब दो भागों में विभक्त हुए, किन्तु सिन्ध पूरा का पूरा पाकिस्तान में चला गया, प्रख्यात लेखक रामधारीसिंह दिनकर ने कहा-‘‘विभाजन के पश्चात् बांगला और पंजाबी भाषाओं को दो-दो प्रान्त नसीब हुए, किन्तु सिन्धी भाषा का घर उजड़ गया। भाषा को जड़ों से उखाड़ा गया। किसी भी क़ौम के अस्तित्व को मटियामेट करना हो तो उसका संहार करने के लिये, शस्त्रों की आवश्यकता नहीं है। केवल उस क़ौम की भाषा को नष्ट कर दो तथा, उसकी नई पीढ़ी से उसकी सांस्कृतिक धरोहर को छीन लो। वह स्वतः ही शनैः शनैः धरती से लुप्त हो जायेगी।’’ भारत-विभाजन के समय कुटिल एवं निर्दयी राजनीतिज्ञों ने बिना सोचे-विचारे, समूचे सिन्ध प्रान्त की बलि चढ़ा दी, और सिन्धुजनों से अनेक जन्मों का प्रतिशोध लिया। उनके प्राचीन एवं समृद्ध सांस्कृतिक, साहित्यिक व भाषाई विरासत के वटवृक्ष को एक ही झटके से जड़ों सहित उखाड़ दिया। आज जहाँ देश में हर वर्ष बड़े हर्षोल्लास के साथ, स्वाधीनता समारोह आयोजित किये जाते हैं, वहांँ कुटिल सियासतदानों के षडयंत्रों से विचलित प्रबुद्ध सिन्धुजन, भारत-विभाजन के कुकृत्य की भत्र्सना करते हुए, अपनी जननी जन्मभूमि सिन्ध का पुण्य-स्मरण करते हैं।

हिन्दी के दो दिग्गज रचनाकारांे श्री रामधारीसिंह दिनकर एवं श्री हरिवंशराय बच्चन ने भी सिन्धी भाषा के साथ हुए अन्याय के विरोध स्वरूप अपनी संवेदनाएं व्यक्त कीं। श्री हरिवंशराय बच्चन ने स्पष्ट शब्दों में कहा-‘‘सिन्धी भाषा से अपनी ज़मीन छीन ली गयी है, उसकी जड़ें कट गयी हैं। मुझे शंका है कि यह भाषा अपना अस्तित्व कायम रख पायेगी। यह दुर्भाग्य का विषय है कि जिस ‘सिन्ध’ से ‘हिन्द’ को अस्तित्व मिला, उसी प्राचीन भाषा को उजाड़ा गया। जो व्यक्ति घरों में अपने बच्चों और सगे-संबंधियों से सिन्धी भाषा में बोलते हैं वे अवश्य सिन्धी भाषा की सेवा करते हैं, किन्तु कोई प्रान्त, कोई ज़मीन इनके लिये आवश्यक है, जहांँ सिन्धी भाषी बड़ी संख्या में एक साथ रह सकें। अन्यथा भाषा का विकास होना असंभव है, भाषा को सदैव के लिये सुरक्षित रखना कठिन है। अगर सिन्धी भाषी वर्तमान परिस्थितियों में अपनी भाषा को बचा सकते हैं तो यह साहसी कदम होगा। सिन्धी जनों के समक्ष एक बड़ी चुनौती है और मैं देख रहा हूं कि उन्होने यह चुनौती स्वीकार कर ली है।’’

भारत-विभाजन ने, सिन्धु धरा के सपूतों की झोली में, मातृभूमि से विस्थापन का उपहार डाल दिया। इसके परिणामस्वरूप, सिन्ध के निवासी सोना उगलने वाले हरे-भरे खेत और खलिहान, पुरखों की उत्कृष्ट धरोहर, पवित्र वेदों और महान मोअन जो दड़ो की गौरवमयी पुण्य भूमि त्याग कर, पूरे विश्व में अन्न के दानों की तरह बिखर गये, और अब अपनी परम्पराओं, विरासत और संस्कृति से कटते जा रहे सिन्धी, अपने आप से अजनबी हो रहे हैं। सिन्धियों के लिये, ‘सिन्ध’ शब्द आज एक प्रतीक मात्र रह गया है। हमारे राष्ट्रगान का अटूट अंश ‘सिन्ध’ किसी भी सिन्धी के लिये उसके मन, प्राण और अभिमान से जुड़ा है, भले ही भौगोलिक और ऐतिहासिक दृष्टि से यह उनसे वक़्त के बेरहम हाथों छिना जा चुका है।

आज तक अपनी एक अलग पहचान बना कर रखने के लिये प्रयत्नशील, सिन्धी भाषा और समुदाय की बहुत बड़ी विडम्बना यह रही कि भारत में भाषायी आधार पर बने राज्यों में इन्हें कोई स्थान नहीं मिला, और राज्य-विहीन सिन्धियों को विभाजन का यह दंश नासूर की तरह रिसता है। भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में सबसे बड़ी दुर्घटना थी, बीसवीं सदी में भारत देश का विभाजन। अंग्रेज़ों ने 15 अगस्त 1947 में स्वतंत्रता तो दी किन्तु, इसके साथ उन्होंने इस देश को भोंथरी तलवार से दो भागों में बाँट दिया, जिन्हें भारत और पाकिस्तान के नाम से जाना जाता है। पाकिस्तान की रचना ‘दो राष्ट्र’ के मिथ्या सिद्धान्त के आधार पर हुई थी। आयन स्टीफेंसन ने अपनी पुस्तक ‘पाकिस्तान-प्राचीन देश, नया राष्ट्र’ मंे लिखा है-‘यद्यपि हिन्दुत्व और इस्लाम के बीच गहन संघर्ष रहा, फिर भी अंग्रेज़ी शासनकाल और अकबर और शाहजहांँ के शासनकाल में संभवतः और भी स्पष्ट रूप में, एक हिन्दू-मुस्लिम अथवा भारतीय संस्कृति अस्तित्व में थी।’’ इस विशाल भारतीय संस्कृति के अंतर्गत, एक स्वतंत्र इकाई के रूप में, सिन्धी संस्कृति को मुस्लिम शासन काल में भी मान्यता प्राप्त थी। सक्खर के पास सिन्धु नदी के तट पर स्थित ‘साधुबेला’ का प्राचीन तीर्थ सिन्ध की सभी जातियों एवं धर्मावलंबियों का तीर्थस्थल रहा है। शेख़ अयाज़ और सिन्ध के अन्य बुद्धिजीवी मीरा, कबीर, विद्यापति एवं रवीन्द्रनाथ टैगोर को अपनी सांस्कृतिक विरासत का अभिन्न अंग मानते हैं......’’

विभाजन का दंश भारत ने झेला और लाखों लोग बेघर हुए, कई जानें गयीं, अनेक महिलाएं अपमानित हुईं। क्रूर राजनीतिज्ञों के घिनौने कुचक्रों के कारण, इतना कुछ भयावह घटित हुआ जिसके बारे में सपने में भी नहीं सोचा गया था। सिन्धियों ने न सिर्फ़ अपनी मातृभूमि को खोया, वरन् सिन्धु-घाटी-सभ्यता से अपना प्राचीन संबंध रखने वाली एक सभ्य, सुसंस्कृत जाति ने जानवरों की तरह, चारे की तलाश में भटकते हुए, सामाजिक और आर्थिक उत्पीड़न सहने के साथ-साथ, अपनी जातीय अस्मिता, पहचान, भाषा और खानपान पर जो आघात सहे वे सिन्धी साहित्य में वर्णित होते गये। साहित्यकार नार्विन अख़्तर कहते हैं-‘‘विभाजन के आधार पर भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश के लेखकों ने साहित्य की एक ऐसी विधा तैयार की है, जिसमें विभाजन की पुरानी यादें (नाॅस्टेल्जिया) एक शक्तिशाली विषय के रूप में उभरा है।’’

जिस भाषा ने संपूर्ण स्वाधीनता आंदोलन में सक्रियता के साथ, भारतीय ध्वज को मुक्त गगन में सम्मान के साथ फहराने के लिये संघर्ष किया, उसका आज अपनी अस्मिता और अस्तित्व के लिये संघर्ष विचित्र नियति है। भारत में सिन्धी भाषा का भविष्य धूमिल हो रहा है, क्योंकि सिन्धी युवा वर्ग अरबी-फारसी लिपि पर आधारित सिन्धी साहित्य, सिन्धी भाषा की लिपि नहीं जानने के कारण पढ़ नहीं पाता। सिन्धी साहित्य का पर्याप्त अनुवाद न होने के कारण, एवं अनुदित साहित्य के प्रकाशन में होने वाली कठिनाईयों के कारण, अन्य भारतीय भाषाओं के पाठक भी इस भाषा के साहित्य से अधिक परिचित नहीं हैं। विभाजन के बाद भारत पहुंँची सिन्धी जाति के लिये वरिष्ठ आलोचक (स्व.) हीरो शेवकाणी के शब्दों में, “सामाजिक सौमनस्य के मुस्लिम बहुल समाज में सौहार्द्र के साथ रहने वाली एक ऐसी जाति थी, जो सापेक्ष रीति से कट्टरता-मुक्त, गुणग्राही और प्रगतिशील और सामंजस्योन्मुख जाति थी, जिसकी प्रजातीय वर्गगत और वर्णगत लाक्षणिकताएं, ऐतिहासिक आघातों से इस हद तक बदल चुकी थीं कि उनका मूल धुन्ध में खो-सा गया लगता है। वास्तव में भारत-विभाजन से सिन्धियों के संास्कृतिक जीवन पर एक बड़ा आघात लगा था। 

सिन्धी साहित्यकारों, प्रकाशकों, शिक्षा-शास्त्रियों में एक विचित्र प्रकार की शिथिलता और गतिरोध आ गया था। 

सिंधी भाषा के कवि अबन हयात पंव्हर ने अपनी एक कविता में कहा-‘‘ऐ सिन्ध के सौदागरों, तुम पर हज़ारों-लाखों लानतें, तुमने ज़िल्लत का व्यापार किया है।’’

वरिष्ठ कवि कृष्ण राही ने अपनी मातृभूमि से उखड़ने तथा बेगानियत की व्यथा को प्रकट करते हुए लिखा-‘‘एक सियासी बंटवारे से सिन्धी जाति, भाषा, साहित्य और संस्कृति का भी विभाजन हो गया। जो सिन्धुजन सिन्ध (पाकिस्तान) में रहे, उनके पास भूमि तो रही, किन्तु उस पर उनका अधिकार नहीं रहा, जो सिन्धुजन भारत में बस गये, उन्हें अधिकार तो मिला किन्तु भूमि नहीं मिली। जैसे-जैसे 

सिन्धुजन यहाँ बसते गये, उन्हें लगा कि वे हर जगह थे, किन्तु फिर भी वे कहीं न थे।’’

’’इतिहास का/यह कैसा परिहास ?/सिन्ध-/जिसने ग़ैरों को आश्रय दिया !/आज उसकी संतान/

सिन्धी/कृ़ित्रम विभाजन से/अपनी ही धरा से/होकर जुदा/अपने वतन से/हुए बेवतन !’’/ -कृष्ण राही।

महान क्रांतिकारी और विचारक श्री जी.एम. सैयद ने, भारत विभाजन के कारण हुए सिन्धियों के विस्थापन को लेकर लिखा है-‘‘हिन्दुओं से रहित सिन्ध सूना नज़र आता है। श्रेष्ठ वैज्ञानिक, इंजीनियर, प्रोफ़ेसर, डाॅक्टर, व्यापारी, सिन्धी साहित्य के माहिर तथा सूफ़ियों से हम हाथ धो बैठे हैं। अनेक कारखाने, पाठशालाएं, विद्यालय, प्रेस, वाचनालय एवं धर्मशालाएं आज वीरान पड़ी हैं। सिन्धी जहां भी हों, ख़ुश हों, आबाद हों, परन्तु हम उन्हें कदापि नहीं भूल पायेंगे। उनका भी कर्तव्य है कि वे अपने प्यारे सिन्ध को न भूलें।’’

विभाजन के समय, सिन्ध मंे दूसरे प्रान्तों की तुलना में हिंसा की घटनाएं काफ़ी कम हुईं, जो हुईं वे भी बाहर से आये लोगों के आने के कारण, बिगड़े हालातों के कारण हुईं। सिन्धी मुसलमानों ने अपने हिंदू भाईयों को वतन न छोड़कर जाने की सलाह दी, किन्तु चारों तरफ़ फैले भय, आतंक और असुरक्षा के कारण, न चाहते हुए भी सिन्धी हिन्दुओं ने वहाँ से चले आना उचित समझा। कई हिंदुओं ने अपने घर की चाबियां मुसलमान भाईयों को देकर वतन वापसी का वायदा किया। मुसलमानों ने भी अपने इन हिन्दू भाईयों की सुरक्षा का न केवल ध्यान रखा, बल्कि अपनों से बिछुड़ने और परायों के आने की पीड़ा भी सही। विभाजन की पीड़ा सिर्फ़ भारत आये सिन्धियों ने ही नहीं सही, सिन्ध में रहने वाले उनके साथियों ने भी इसे अनुभव किया और सिन्ध और भारत के सिन्धी साहित्य में इस विकलता को अभिव्यक्त किया।

“मानसिक विकलताओं के प्रति समय प्रायः उदासीन रहता है, किन्तु विभिन्न अंतर्धाराओं में विभक्त होने पर भी जातीय अस्मिता से जुड़े एक सूत्र ने अपनी मातृभूमि और जातीय परिवेश से कटी, अजनबीपन, दमन और तिरस्कार झेलती, आजीविका और छोटी-छोटी जरूरतों के लिये जूझती जाति में किसी भी वर्ग का व्यक्ति कोई भी व्यवसाय, काम-धन्धा या मजदूरी तक अपना लेने में आत्म-सम्मान तो देखता है, पर इस आत्म-सम्मान का जिसे यह स्वावलंबन कहता है, अपमान उसके लिये असहनीय हो उठता है।’’ भारत-विभाजन से, सिन्धियों की अलग भाषा, साहित्य, संस्कृति परंपराएं, समस्याएं और आकांक्षाएं बुरी तरह प्रभावित हुईं। भारत को आज़ादी तो मिली किन्तु विस्थापित सिन्धियों के सामाजिक, व्यक्तिगत बेहतरी और ख़ुशहाली के सारे सपने टूट गये थे। सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक जीवन में अराजकता, दुवर््यवस्था, सभी क्षेत्रों में तेज़ी से गिरते चरित्रों और मूल्यों, ढोंग, बहुरूपियापन, रिश्वतखोरी आदि नकारात्मक पहलुओं के कारण, लोगों का ख़ास तौर पर युवा पीढ़ी का बुरी तरह से मोहभंग हो गया। उनकी अंतरात्मा चीख़ उठी, कईयों की सुबकियां उनके कंठ में ही घुटकर रह गयीं। स्वयं के अन्दर एक ही समय चिढ़, गुस्सा, आक्रोश, उदासीनता, हिकारत, स्वयं से अजनबियत, नापसन्दगी इत्यादि अनुभूतियां सिन्धियों के अस्तित्व को छेदती रहीं। तमाम विडम्बनाओं के बावजूद, सिन्धियों ने विभाजन के घावों को अदम्य साहस के साथ झेला है। विस्थापित सिन्धियों ने ‘शरणार्थी’ संबोधन को अपनी लगन और मेहनत के बल पर शीघ्र ही ‘पुरूषार्थी’ में बदल दिया। वे सही मायनों में भारतीय जीवन-धारा में समाकर, देश की समृद्धि में अपना महत्वपूर्ण योगदान देने लगे, किन्तु जीवन जीने के संघर्ष और धन कमाने की अंधी दौड़ में शामिल होने की कितनी बड़ी क़ीमत सिन्धियों ने चुकाई, इसका अन्दाज़ा उन्हें स्वयं भी नहीं हो सका है। 

सिन्धी के वरिष्ठ लेखक और भाषाविद् डाॅ. सतीश रोहड़ा ने एक पूर्ण जाति के विभाजन पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखा-‘‘भारत-विभाजन, विश्व इतिहास की प्रमुख घटना हो या न हो, किन्तु यह सिन्धी जाति के जीवन में घटित एक अहम और दर्दनाक़ घटना है, जिसने सिन्धी जाति को दो हिस्सों में विभाजित कर, दो देशों में बांट दिया है, तथा सभ्यतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से एक ‘पूर्ण जाति’ को दो अपूर्ण जातियों में विभक्त कर दिया है।’’

निर्भीक सिन्धी लेखिका प्रो. पोपटी हीरानंदाणी ने अपने कविता संग्रह ‘मां सिन्धिण’ की एक कविता में लिखा-

‘‘आज राजनीतिज्ञ/मुझे वहाँ पदापर्ण नहीं करने देते/विधिवेत्ता/उसे ग़ैर बता कर/मुझे रूला रहे हैं/और कुछ सिरफिरे/धर्म की देकर दुहाई/डरा रहे हैं मुझे/किन्तु/कौन है/जो मुझसे/यह कहने का/अधिकार छीन सके/कि वही/मेरी जन्मभूमि है ?’’

भारत-विभाजन इतिहास का ऐसा परिहास था जिससे त्रस्त होकर लेखक अर्जन शाद ने अपने कविता संग्रह 

‘अंधो दूंहों’ में जड़ों से कटने की व्यथा पर एक लंबी कविता लिखी, जिसका एक अंश इस प्रकार है-

‘‘धरती के टुकड़े करना/आसान है/हृदय को तोड़ने से/बिजली का क़हर/पैदा होता है/भूकम्प आ सकता है/यह जो जलावतनी है/उसमें वतन तो दूर रहा/इतिहास और सभ्यता की/हज़ारों वर्षों की तस्वीर को ही/मुझसे छीन लिया गया है !/मैं एक सियासी अनाथ बन कर/कभी इस पथ पर/तो कभी उस पथ पर/भटकता रहा हूंँ/आख़िर न जाने/क्या होगा अंजाम इसका !’’

देवयानी सेनगुप्ता ने भारत विभाजन के संदर्भ में एक स्थान पर लिखा है-‘‘1947 के भारत-विभाजन को हम जब देखते हैं, फिर जो अर्थ मिलता है, वह यह है कि दक्षिण एशिया के नक्शे को फिर से बनाना, जिसने नयी सीमाओं और सीमा क्षेत्रों का निर्माण और जिसके परिणामस्वरूप भारत और पाकिस्तान के नये स्वतंत्र राष्ट्र, राज्यों की इन सीमाओं के पार बड़े पैमाने पर जनसंख्या प्रवास हुआ।लाखों हिन्दुओं, सिखों और मुसलमानों ने नयी परिभाषित सीमाओं को पार किया। अकेले पश्चिम बंगाल में अनुमानित 30 लाख हिन्दू शरणार्थियों ने 1960 तक प्रवेश किया, जबकि 7 लाख मुसलमान पूर्वी पाकिस्तान के लिये रवाना हुए। विभिन्न सांप्रदायिक दंगों में 10 लाख से अधिक लोग मारे गये, जिसमें प्रमुख समुदाय के रूप में हिंदू, मुसलमान और सिख शामिल थे। भारत और पाकिस्तान में 80 हज़ार से अधिक महिलाएं अपहरण और यौन हिंसा की शिकार हुई।’’

सिन्धी के महान कवि, क्रांतिकारी, सामाजिक कार्यकर्ता शेख़ अयाज़ ने बंबई आने पर लिखा-

कहीं किसी की बेटी/शादी का गीत गा रही है/और मेरी सिन्धी भाषा/समुद्र के शोर में घुल-मिल गयी है।/यह शादी का गीत/शायद किसी की बेटी ने/‘‘कींझर’’ के किनारे गाया होगा/या सांझ के समय/उसकी मिठास/ठण्डे झकोरों मेें मिलकर/कियामाड़ी से ‘मन्होड़े’ तक पहुंची होगी।

इस शादी के गीत को झुला कर देखिए/यह एक पालना है/जो कराची से बंबई तक झूल रहा है/और जिसमें/सिन्धु देश की मासूम मुहब्बत/सोयी है।’’

भारत-विभाजन के कारण, सिन्धियों के विस्थापन और उससे उपजी मानसिकता को लेकर सिन्धी के ख्यात लेखक डाॅ. प्रेम प्रकाश ने एक स्थान पर लिखा है-

‘‘सिन्धी जाति की संवेदना, अनुभव, सोच, फ़िक्र को सहज ही अलग महसूस किया जा सकता है। उनका एकाकीपन, अजनबियत, परायापन, असुरक्षा-बोध, खोई हुई/जाती हुई पहचान, भटकाव, प्रान्तीय एवं राजनैतिक शक्ति की ग़ैर मौजूदगी कुछ ऐसे नुकीले निजी अहसास हैं जो तीव्रतर होते रहे हैं। वे आधुनिक समय के इन्सान जैसे तो हैं ही, किन्तु उनमें क़ौम की विशेष स्थिति/हालत के कारण जन्म लेने वाला अहसास भी जुड़ा हुआ है, यह दोहरी मार है, जो क़ौम अथवा क़ौम के लोग खा रहे हैं।’’

विस्थापन दरअसल एक उलझी हुई प्रक्रिया है। इसका समाधान सिर्फ़ दूसरी जगह पर घर बनाने, नगद पैसा देने और कुछ ज़मीन का टुकड़ा देने भर से नहीं हो जाता। विस्थापित लोग जहाँ जायेंगे, वहाँ पहले के लोग होंगे, वहाँ के जंगल और संसाधनों पर अतिरिक्त जनसंख्या का दबाव बढ़ेगा, जो एक ओर पहले से रह रहे लोगों के मन में असंतोष को जन्म देगा, तो वहीं विस्थापितों के बीच निराशा और उदासी को जन्म देगा। अपर्याप्त संसाधनों और आपाधापी के कारण, सिन्धियों को जीवन-यापन की अपरिहार्य आवश्यकताओं के लिये तो संघर्ष करना पड़ा ही, उन्हें अपने ही देश में शरणार्थी का अपमानजनक संबोधन भी मिला, जिससे आहत होकर, कथाकार मोहन कल्पना ने लिखा-‘‘देश की स्वतंत्रता सिन्धी हिन्दुओं को भारत में शरणार्थी बना कर लाई। मुझे शरणार्थी शब्द पर घोर आपत्ति है। कोई भी मानव अपने ही देश में शरण नहीं लेता। उस समय हमें निम्न स्तर के लोगों की भांति वापस लौटे अंग्रेज़ों की फ़ौजी छावनियों में धकेल दिया गया। किसी भी पूर्व नियोजित योजना के सिवाय हमें भारत के कोने-कोने में डाल दिया गया।’’

सिन्धियों का विस्थापन, भारत-विभाजन के ख़ूनी खेल से जुड़ा हुआ है, जिसे राजनीतिज्ञों ने खेला। सिन्धियों के मन में देश के बँटने की पीड़ा, और अपनी मातृभूमि को खोने का दर्द नासूर की तरह रिसता है, और बरसों बीतने पर भी वे अपने आपको भारत में अजनबी महसूस करते हैं, यही नहीं भारत में रहने वाले अन्य जातियों और समुदायों के लोग भी उनसे पूरी तरह समरस नहीं हो पाये हैं और, सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक स्थानों पर सिन्धियों को न उचित सम्मान मिलता है न समान अधिकार ! सांस्कृतिक, शैक्षणिक, सामाजिक, राजनैतिक तथा अन्य कई क्षेत्रों मे भी सिन्धुजनों की उपेक्षा की जा रही है। वे कई सुविधाओं तथा मूल अधिकारों तक से वंचित हैं। चाहे भारत उत्सव हो या उत्तर-पश्चिम सांस्कृतिक संस्थान, गणतंत्र दिवस समारोह हो या स्वाधीनता दिवस, सर्वभाषा कवि सम्मेलन हों या अल्पसंख्यक आयोग, लोक-नृत्य संगीत उत्सव हों या दूरदर्शन के राष्ट्रीय प्रसारण, विदेश जाने वाले सांस्कृतिक मंडल हों अथवा राष्ट्रपति द्वारा दिये जाने वाले राष्ट्रीय अलंकरण, राज्यसभा में बिना प्रदेश के समुदाय के विशिष्ट व्यक्तियों का मनोनयन सर्वत्र सिन्धियों के साथ यह सौतेला, अन्यायपूर्ण एवं असहिष्णु व्यवहार देखकर, कभी-कभी यह शंका होती है कि क्या सिन्धुजन इस स्वतंत्र भारत के नागरिक हैं जिसके लिये उन्होंने इतनी कुर्बानियां दी थीं ?

भारत का विभाजन और सिन्धियों का विस्थापन आपस में इस तरह जुड़े हुए हैं कि इन्हें एक त्रासद सच्चाई के रूप में देखा जा सकता है। कथित विकास के हाशिये पर जीने को अभिशप्त एक ऐसा समुदाय जिसकी पीड़ा और त्रासद जीवन स्थिति के बारे में सत्ता के आततायी और असंवेदनशील चरित्र के बारे में चुप्पी ओढ़ ली गयी, और सिन्धियों ने इस स्थिति को अपनी नियति मान लिया, भले ही उनकी स्थिति नदी किनारे रेत में छटपटाती भीगी हुई मछलियों के जैसी क्यों न हो गयी।

व्यक्ति और समाज की मानसिक वेदना को लेकर इतिहास भी प्रायः उदासीन रहता है भारत विभाजन को लेकर काफ़ी कुछ लिखा गया किन्तु अपनी जन्मभूमि छोड़कर, संस्कृति से कटकर दूर कहीं किसी अनजान जगह जाकर विस्थापित के रूप में बसने का दंश और उपेक्षा झेलने वाले सिन्धियों की पीड़ा को प्रतिनिधि स्वर नहीं मिला। न मानवीय संवेदना, न गरिमा ! इसके उलट कटाक्ष और अपमान के कड़वे घूंँट। अपनी जन्मभूमि तजकर उन्होने भारत की आज़ादी की बहुत बड़ी क़ीमत चुकाई। विभाजन की त्रासदी बच्चों के लिये भी कम पीड़ादायक नहीं होती, क्योंकि विस्थापित होने वाले दूसरे लोगों की तरह जब बच्चे कहीं से विस्थापित होते हैं, तो वे सिर्फ़ उस जगह से ही विस्थापित नहीं होते हैं, बल्कि बचपन की स्मृतियों से जुड़ी एक-एक चीज़ से बेदख़ल हो जाते हैं।

विभाजन को लेकर सिन्धी कवि मोहन कल्पना ने एक स्थान पर लिखा है-

‘‘मैंने अपने हक़ में नहीं जाना मौत क्या है ?/किन्तु विभाजन में लगा था/कुछ मरा है महान !’’

सिन्धी के वयोवृद्ध साहित्यकार तीर्थ बसन्त के शब्दों में-‘‘मैं कहता हूंँ कि हम लोगों से किसी ने नहीं पूछा कि पाकिस्तान बने। ख़ुदा की ख़ुदाई में ऐसा कानून ही नहीं है कि रातों-रात लाखों इंसानों को अपने देश से निष्कासित कर दिया जाये।’’

पाकिस्तान की वरिष्ठ एवं र्चिर्चत लेखिका माहताब महबूब जब भारत आईं तो यहाँ सिन्धियों की हाल देखकर 

उद्वेलित हो उठीं, उन्हांेने अपने यात्रा-संस्मरण ‘अंदर जिनीं उञ’ (भीतर जिनके प्यास) में अपने मार्मिक उद्गार व्यक्त करते हुए लिखा, ‘‘भारत में सिन्धी भाषा की कोई राष्ट्रीय पहचान नहीं रही है। यह न तो दफ़्तरों में काम आती है, न कोर्ट में, न डाक-तार में, न ही व्यापार आदि में, इसलिये परिश्रमी एवं पुरूषार्थी किन्तु असहाय एवं विवश सिन्धुजन अपने अस्तित्व को स्थापित करने हेतु स्वयं र्को आिर्थक तौर पर, सुदृढ़ करने के प्रयास में हिन्दी और अंग्रज़ी की ओर बढ़े हैं। इससे र्वे आिर्थक तौर पर अवश्य मज़बूत होंगे। इनके घरों की छतें सोने की बनेंगी, दीवारों पर नोटों के वाॅल-पेपर लगेंगे। इनके फ़र्श चांदी के बनेंगे, किन्तु हर क़ौम केवल अपने साहित्य, कला, सभ्यता संस्कृति के निरंतर विकास और प्रगति के कारण जीवित रहती है।’’

वास्तव में भारत-विभाजन आधुनिक दक्षिण एशिया के इतिहास के सबसे संवेदनशील विषयों में से एक है, इसमें ख़ुशी, दुख, क्रोध, घृणा और विविध भावनाओं के क्षण दर्ज हैं, लेखकांे और कवियों के मन में आज भी भारत विभाजन और विस्थापन की वे भावुक यादें हैं जो उन्हें चित्रित करने को विवश करती हैं। हमें मानवता के प्रति और अधिक संवेदनशील होने की आवश्यकता है ताकि विश्व को दूसरे विभाजन की विभीषिका न झेलनी पड़े। 

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रिपोर्ट

‘स्वाधीनता आन्दोलन और साहित्य’ पुस्तक का लोकार्पण

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा 1936 में स्थापित राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के प्रांगण में विश्व हिंदी दिवस की पूर्व संध्या पर ‘स्वाधीनता आन्दोलन और साहित्य’ पुस्तक का लोकार्पण प्रसिद्ध स्वाधीनता संग्राम सेनानी एवं गांधी विचारक  लीलाताई चितळे (नागपुर) के कर कमलों से हुआ। कार्यक्रम के आरंभ में सभी अतिथियों के हाथों द्वीप प्रज्ज्वलन कर पूज्य महात्मा गांधीजी की प्रतिमा पर माल्यार्पण किया गया। तत्पश्चात राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के किशोर  हिंदी विद्यालय की छात्राओं ने अपने मधुर कंठ से स्वागत गीत प्रस्तुत कर अतिथियों का स्वागत किया। 

कार्यक्रम का प्रस्तावना पाठ राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के प्रधानमंत्री डॉ. हेमचन्द्र वैद्य ने किया। विश्व हिंदी दिवस की महत्ता पर अपनी बात रखते हुए उन्होंने कहा कि ‘अपनी बात या तो आप अपनी मातृभाषा में या राष्ट्रभाषा में जितनी अच्छी तरह से रख सकते हो किसी दूसरी भाषा में नहीं या किसी विदेशी भाषा में नहीं जैसे की अंग्रेजी या अन्य। हमारे सोचने या विचार करने की भाषा अपनी मातृभाषा होती है। आज देशवासी यह जानकर गर्व अनुभव करते हैं कि हिंदी को यूनो में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्य भाषा बनाना आज आवश्यक बन गया है लेकिन उसके लिए हमें नए-नए देशी-विदेशी, तकनीकी तथा अन्य भाषाओं के शब्दों को सरलता के साथ हिंदी में गढ़कर उनका प्रयोग करना होगा। उन्होंने आगे कहा कि राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के महाविद्यालय में उत्तर-पूर्वांचल से आए छात्र-छात्राएँ अपनी हिंदी की पढ़ाई करके रोजगार के अवसर प्राप्त कर रहे हैं। आज़ादी के हीरक महोत्सव पर स्वाधीनता आन्दोलन और साहित्य पुस्तक का लोकार्पण राष्ट्रपिता की कर्मभूमि में होना सुखद है।‘ संपादक डॉ. श्यामबाबू शर्मा ने पुस्तक की भूमिका पर प्रकाश डालते हुए कहा कि ‘स्वाधीनता आंदोलन स्व के अस्तित्व की खोज था, अनुसंधान था। स्व के पुनर्जागरण का सृजन था। आज़ादी के अमृत महोत्सव के पवित्र अनुष्ठान पर देश की अस्मिता और अस्तित्व के आख्यान को राष्ट्र के सम्मुख रखना ही इस ग्रंथ का उपजीव्य है। उन तथ्यों विचारों, प्रसंगों को सामने लाना आवश्यक जान पड़ा जिनके माध्यम से हम जान सकें कि भारत को आज़ादी कितने लंबे संघर्ष के बाद प्राप्त हुई। भारत की विभिन्न भाषाओं की समृद्ध परंपरा ने यहां के सामाजिक, नैतिक, आर्थिक और राजनैतिक क्षेत्र को हमेशा संबल दिया है और सभ्यता, जीवन-मूल्य तथा परंपरा की रक्षा की है। इसने प्राणि मात्र के मानस पटल पर राष्ट्रीयता की भावना को सुदृढ़ एवं व्यापक स्वरूप प्रदान किया है। इसमें अवधी, उर्दू, असमिया, उड़िया, कन्नड़, कश्मीरी, गुजराती, तमिल, तेलुगु, पंजाबी, बघेली, बुंदेलखंडी, बांग्ला, निमाड़ी, मणिपुरी, मराठी, मलयालम, संथाली, संस्कृत, सिंधी, हिन्दी सहित कश्मीर से कन्याकुमारी तक की विविध भाषाओं के साहित्य और उनके लोक साहित्य, लोक बोलियों लोक गीतों के साथ-साथ क्रांतिकारी साहित्य, प्रवासी साहित्य, नाटक-रंगमंच, सिनेमा और हिन्दी साहित्य की विविध विधाओं इत्यादि के माध्यम से स्वाधीनता के प्रति जो बिगुल फूंका गया उसका पद्मश्री और साहित्य अकादमी सहित प्रतिष्ठित सम्मानों से विभूषित विद्वानों द्वारा दस्तावेजीकरण ही नहीं वरन उन अनछुए प्रसंगों का शोध अनुशीलन-भी है जो अभी तक अनुद्घाटित रहे हैं।‘ डॉ. सतीश पावडे ने पुस्तक लोकार्पण कार्यक्रम के बीजवक्तव्य में प्रतिपादित किया कि, ‘जब-जब जरूरत पड़ी है तब-तब कलमकारों ने अपने लेखन से देश की परम्परा, संस्कृति, शौर्य, आस्था और इतिहास की विशेषता को वर्णित किया है। ऐसे में हमारा मन गर्वित हो उठता है। एक धरातल पर, एक विषय को कई रूपों में, कई स्तर पर वर्णित करना एक सफल चिंतक का परिचायक है।  आज यह अत्यंत आवश्यक है कि हम सिर्फ हमारे युवाओं को ही नहीं देश के प्रत्येक व्यक्ति को इस शौर्य गाथा से परिचित करवाएं। समय आ गया है अपने स्वाभिमान को देश के अस्तित्व के साथ जोड़ने का। आज़ादी के मूल्य को बताने और समझाने का। अपने वीर शहीदों के योगदान को सहेजने, समेटने और अमर बनाये रखने का। इसी संदर्भ में ‘स्वाधीनता आंदोलन और साहित्य‘ पुस्तक में हमारे देश की स्वाधीनता के संघर्ष से लेकर स्वाधीनता प्राप्ति तक की यात्रा में विभिन्न भारतीय भाषाओं और साहित्यिक विधाओं की भूमिका को वर्णित किया गया है। कार्यक्रम की मुख्य अतिथि प्रसिद्ध स्वाधीनता संग्राम सेनानी एवं गांधी विचारक  लीलाताई चितळे (नागपुर) ने कहा,‘‘स्वाधीनता मनुष्य की मुलभूत प्रेरणा है। इसे नैतिकता के साथ अक्षुण्ण रखना, रखा जाना आवश्यक है। इसके लिए इसे केवल सौगात नहीं अपितु कर्तव्य और जिम्मेदारी भी समझना होगा। स्वाधीनता और संविधान के द्वैत को भी हमें समझना होगा। संविधान होगा तो स्वाधीनता होगी। इसलिए हमें संविधान का आदर, सम्मान, कर्तव्य भावना के साथ अनुपालन करना चाहिए। भारत का स्वतंत्रता संग्राम एक प्रेरणादायी संग्राम है। लाखों-करोड़ों भारतीयों की आहुति से यह सिद्ध हुआ है। इसका मूल्य प्रत्येक भारतीय ने समझना चाहिए। स्वाधीनता का तात्पर्य और उसके प्रति हमारी निष्ठा को ‘स्वाधीनता आंदोलन और साहित्य‘ पुस्तक प्रभावी पद्धति से रेखांकित करती है। मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि सुदूर पूर्वोत्तर भारत से युवा लेखक ने भारत की सभी भाषाओं के अवदान और इतिहास पर महत्वपूर्ण पहल की है। इस उपलब्धि के लिए मैं सम्पादक डॉ. श्यामबाबू शर्मा को बधाई व शुभकामनाएं देती हूं। यह पुस्तक प्रासंगिक है और नई पीढ़ी को दिशा देने के लिए उपयुक्त है। यह पुस्तक स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास का एक मौलिक दस्तावेज है।‘‘ कार्यक्रम की अध्यक्षता अमरावती के सामाजिक कार्यकर्ता एवं उद्यमी चंद्रकुमार जाजोदिया ने की। उन्होंने कहा कि आज भूमंडलीकरण के दौर में विश्व की सबसे सरल भाषा के रूप में हिंदी को लोग स्वीकार करने लगे हैं। बाजारवाद की धड़कनों को समझने के लिए हिंदी एक प्रमुख भाषा भी है। आज़ादी के अमृत महोत्सव पर प्रकाशित यह ग्रंथ हमें हमारी भाषाओं की अस्मिता और उनके योगदान को याद दिलाता है। इस अवसर पर स्वाधीनता संग्राम सेनानी, गांधी विचारक लीलाताई चितळे, पुस्तक के सम्पादक डॉ. श्यामबाबू शर्मा एवं कार्यक्रम के अध्यक्ष चंद्रकुमार जाजोदिया का स्मृतिचिह्न, शाल एवं सम्मान पत्र देकर विशेष सत्कार-सम्मान किया गया।

डॉ. राम प्रकाश (अकोला) ने पुस्तक पर अपना समीक्षात्मक वक्तव्य देते हुए कहा कि, ‘स्वाधीनता आन्दोलन समवेत रूप में 1857 में प्रारंभ हुआ। कुछ विद्वान इसे सिपाहियों तथा चुनिंदा लोगों द्वारा किया गया संग्राम बताते हैं जबकि वास्तविकता इससे भिन्न थी। इसमें अमीर-गरीब तथा सभी जातियों-धर्मों के लोगों ने अपना योगदान दिया है। आदिवासियों, किसानों, मजदूरों की सहभागिता कहीं कम न थी। अन्य मार्क्सवादियों से भिन्न रहकर रामविलास शर्मा ने इस बात को स्वीकारा है। इस पुस्तक में सभी तबकों के स्वाधीनता संग्राम में अवदान का दस्तावेजीकरण किया गया है। संपादक ने अथक प्रयास से राष्ट्रीयता की भावनाओं को नई पीढ़ी तक पहुंचाने का अहम कार्य किया है। अमृत महोत्सव में यह पुस्तक विभूति सिद्ध हो रही है।‘ कुमार दिनेश प्रियमन (उन्नाव) ने अपनी बात रखते हुए कहा कि आज़ादी के कथित अमृत महोत्सव काल में ‘स्वाधीनता आन्दोलन और साहित्य‘ के संपादन-प्रकाशन से लेखक व अध्येता डॉ श्यामबाबू शर्मा ने अपने सांस्कृतिक दायित्व को पूरा किया है। इसमें उस समय की सभी भारतीय भाषाओं में रचे गए साहित्य की हर विधा के लेखन का संकलन करना तो है ही, स्वतंत्रता के संघर्ष व मूल्यों की  पुनस्र्थापना का लक्ष्य भी याद दिलाता है। विश्व भाषा दिवस पर राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के परिसर में यह पुस्तक लोकार्पण ऐतिहासिक है। इस सुअवसर पर प्रो. प्रतापराव कदम (खंडवा) ने अपनी समोलचनात्मक टिप्पणी में कहा कि, ‘स्वाधीनता आंदोलन में साहित्यकारों का योगदान बहुत महत्वपूर्ण था। इसमें गहराई से उतरने पर भारत ही नहीं भारत के बाहर का भी आज़ादी के संग्राम का साहित्यिक तापमान नापा जा सकता है।‘लोकार्पण कार्यक्रम का संचालन डॉ. रत्ना-चैधरी नगरे ने किया। अंत में आभार ज्ञापन महेश अग्रवाल द्वारा किया गया। 

आज़ादी के पचहत्तर वर्ष, विश्व हिंदी दिवस और राष्ट्रभाषा की महत्ता के परिप्रेक्ष्य में  समारोह की अगली कड़ी में राष्ट्रीय काव्यपाठ का आयोजन हुआ। जिसकी अध्यक्षता सेवाग्राम के डॉ. ओ. पी. गुप्ता ने की। इस काव्यपाठ में डॉ राम प्रकाश (अकोला), कुमार दिनेश प्रियमन (उन्नाव), प्रो. प्रतापराव कदम (खंडवा), डॉ श्यामबाबू शर्मा (शिलांग), डॉ. अनुपमा गुप्ता (सेवाग्राम), डॉ. मीरा निचळे, डॉ. रत्ना चैधरी (वर्धा), सुमन गोपाल दुबे (हिंगोली), अनिकेत तापड़िया (वर्धा), प्रो. वसंत लोटिया (वर्धा), डॉ. हेमचन्द्र वैद्य आदि कविगण सहभागी हुए। सभी कवियों को स्मृति चिन्ह से सम्मानित किया गया। काव्यपाठ का सफल मंच संचालन डॉ प्रमोद शुक्ला (अकोला) ने तथा महेश अग्रवाल (मुंबई) ने आभार माना।  राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत सभी कविताएँ श्रोताओं द्वारा सराही गईं। 

कार्यक्रम में प्रो. कुसुम त्रिपाठी, अनिकेत राव (मुंबई), समिति के पदाधिकारी, अधिकारी, कार्यकर्ता, राष्ट्रभाषा महाविद्यालय की प्राचार्या एवं अध्यापिकाएँ, किशोर भारती हिंदी विद्यालय तथा राष्ट्रभाषा माध्यमिक विद्यालय के मुख्याध्यापक एवं शिक्षक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ. सतीश पावडे सहित अन्य     प्राध्यापक, शोध छात्र, विद्यार्थी एवं शहर के गणमान्य श्री नवतन नाहर, अंबिका प्रसाद तिवारी, मनीष जालान, मुरलीधर बेलखोडे, डॉ. अनुपमा गुप्ता, प्राचार्य अशोक मेहरे, श्रीराम टावरी, अजय राठी, श्रीकांत गांधी, लाभे सर, धाबे सर, प्रा. रूपाली म्हस्के, बावीस्कर सर, मिश्रा जी, राजू बावणे, नरेश वाघ, राजेश बालसराफ, अश्विनी रोकडे, डॉ. मीरा निचळे पद्माकर बाविस्कार, सोहम पंड्या आदि मान्यवर उपस्थित थे।  

प्रस्तुतिः डॉ सरलता 

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रिपोर्ट

डॉ. श्यामबाबू शर्मा राष्ट्रभाषा भूषण सम्मान से सम्मानित

राष्ट्रभाषा सेवी समाज विदर्भ, अकोला (महाराष्ट्र) 

द्वारा विगत कई दशकों से पूर्वोत्तर भारत में राष्ट्रभाषा की सेवा करने वाले डॉ श्यामबाबू शर्मा को विश्व हिंदी दिवस के पावन अवसर पर वर्ष 2021 का राष्ट्रभाषा भूषण सम्मान प्रदान किया गया। उन्हें शॉल, श्रीफल, प्रमाण पत्र व सम्मान चिन्ह भेंट किया गया। डॉ शर्मा ने राष्ट्रभाषा हिन्दी के सतत उत्थान हेतु अब तक पंद्रह पुस्तकों के माध्यम से अपना रचनात्मक अवदान दिया है। जिसमें ‘पूर्वोत्तर की लोक संस्कृति‘ , ‘राजभाषा हिंदी‘, ‘इक्कीसवीं सदी का लोक‘ एवं ‘स्वाधीनता आन्दोलन और साहित्य‘ प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं।

इस अवसर पर मंच पर सत्कारमूर्ति शिलांग (मेघालय) के डॉ. श्यामबाबू शर्मा, संस्थाध्यक्ष डॉ. रामप्रकाश, संस्था के विशेष सहयोगी कमल शर्मा हरितवाल प्रमुखता से उपस्थित थे। कार्यक्रम की प्रस्तावना डॉ. रामप्रकाश ने रखते हुए संस्था की साहित्यिक गतिविधियों के बारे में जानकारी दी। उन्होंने बताया कि विगत वर्षों में देश के विविध क्षेत्रों में राष्ट्रभाषा के विकास में योगदान देने वाले  साहित्यकारों को सम्मानित किया जा चुका है। राष्ट्रभाषा के प्रति अपने उद्गार व्यक्त करते हुए उन्होंने आगे कहा कि राष्ट्र और संस्कृति को बचाने के लिए भाषा को बचाने की आवश्यता है। देश की सांस्कृतिक विरासत को बचाए रखने के लिए ऐसे साहित्य की नितांत आवश्यकता है।

डॉ श्यामबाबू शर्मा ने आभार व्यक्त करते हुए कहा कि उच्च विचार एवं औदात्य सोच के बिना श्रेष्ठ साहित्य की रचना नहीं हो सकती है। इसका कोई शार्टकट नहीं होना चाहिए। साहित्य तपस्या है और श्रेष्ठ सहित्य विपुल चिंतन की देन है। जो साहित्यकार भारत के लोकजीवन से विरक्त है वह सजग साहित्यकार नहीं बन सकता। साहित्यकार का दायित्व है कि वह समय के प्रति सचेत होकर समाज को भी जाग्रत करे। साहित्य में गिरते मूल्यों पर उन्होंने चिंता व्यक्त की। राष्ट्रभाषा सेवी समाज विदर्भ को आभार व्यक्त करते हुए उन्होंने यह सम्मान अपने माता पिता को समर्पित किया।

समारोह के   प्रथम सत्र का संचालन डॉ. निशाली पंचगाम तथा आभार प्रदर्शन डॉ. राजेश्वर बुंदेले ने किया जबकि अतिथि परिचय प्रो. कोमल श्रीवास ने करवाया। समारोह के दूसरे सत्र में काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया। इस अवसर पर साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं की धूप से गुलाबी-सी ठंड में सभी को गर्माहट का अहसास कराया. इसमें डॉ. श्यामबाबू, शर्मा, डॉ. प्रतापराव कदम, डॉ. प्रमोद शुक्ल, घनश्याम अग्रवाल, प्रेमा शुक्ल, डॉ. रामप्रकाश वर्मा, दिनेश शुक्ल, डॉ. आनंद चतुर्वेदी, महेश शुक्ल, दत्ताभाऊ शेलके उर्फ सागर, खामगांव के हितेष सोनी, प्रो. कोमल श्रीवास, तुलसीराम बोबड़े, मदन राठी, डॉ. राजेश्वर बुंदेले, मोनिष चैबे, राजश्री राठी सहित अनेक साहित्यकारों ने अपनी रचनाएं सुनाकर उपस्थितों को मंत्रमुग्ध किया। समारोह के दूसरे सत्र का संचालन डॉ. प्रमोद शुक्ल ने किया। तृतीय सत्र में डॉ. श्यामबाबू शर्मा ने हिन्दी में रोजगार के अवसर विषय में विद्यार्थियों का मार्गदर्शन कर हिन्दी अधिकारी, हिन्दी अनुवादक पद के लिए ली जाने वाली परीक्षाओं की जानकारी दी. 

इस अवसर पर डॉ. सुरेश कुमार केसवानी, शंकर शर्मा, विनोद डिडवाणीया, सुशील पाटील, विजय देशमुख नानासाहेब पाटील, सर्वेशचन्द्र कटियार, सुभाष श्रावगी, चेतन पांडेय, अभिलाष बाजपेई, महावीर यादव, महेश शुक्ल, सुनील कर, मोहम्मद जामिद, रमेश तोरावत जैन, प्रो. सारिका अग्रवाल, रश्मि झंवर, एम.पी. पांडे, महेश शुक्ल, राजन शर्मा, जयंत वोरा, पवन ठाकुर, आशुतोष शर्मा साहित साहित्यप्रेमी बड़ी संख्या में उपस्थित थे।  

प्रस्तुति डॉ. निशाली पंचगाम

अभिनव इमरोज़ एवं साहित्य नंदिनी परिवार की ओर से 
डॉ. श्याम बाबू को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ: -संपादक

  


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