परवलय

 

\अशोक गुजराती, ठाणे, महाराष्ट्र, मो. 99717 44164


परवलय

लंगड़ी हो गई है वह, उसके घुटनों में दर्द है 
कतिपय नहीं मानेंगे हार- शमशेर की मानिन्द
ये जो उम्र है, इसे जियेंगे ही
पगडण्डी समझ कर ही करेंगे पार 
दूसरी तरफ़ वे हैं, लम्बा रास्ता है उनकी
सुरक्षा-सुविधा से जुड़ा, चाहते हैं जिसे भुनाना
उनकी आयु को न घुटने सताते हैं
ना जोड़ों का दर्द
काल भी हो जाता है उनके मुक़ाबिल सर्द
और अचानक बन भी जाता है मर्द
अलावा वे जो हो चुके पराजित
ना कोई आकांक्षा ना हेतु, उनसे रूठी रहती मौत
बनी रहती दूर की कौड़ी छकाती-सी प्रेयसी
आराधना से अविचलित
कैसा तो खेल यह
जीत में निराशा, हार भी नहीं देती आशा
मछली-सी तड़प रेत में
ज्यों आयी तो आयी, न भी आयी फ़सल खेत में
यह चिड़िया है
अभी रही फुदक
और लो, उड़ भी गयी अब
उसकी आज़ादी को नहीं कर पाया
इनसान कभी ज़ब्त
अपने ग़लत इरादों की तरह
सबसे क़ामयाब वे, जो भले-चंगे सोये रात में 
न उठ पाये सुबह- क्या तो लेना-देना
इस पार्थिव संसार से
किसी निरासक्त साधु जैसा
उनको कैसे भुलाएं सपने जिनके चकनाचूर
कर देती मात्र एक दुर्घटना बुलबुले-सी ध्वस्त  
मौसम की अकाली मार फीकी जिसके आगे
आतंकवादी के निर्घृण आक्रमण को लजाती
ज़िन्दगी का सच यही है!

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