ग़ज़ल

प्रो. कुलदीप सलिल, दिल्ली, मो. 9810052245



दिन फु़र्सतों के, चाँदनी की रात बेचकर

हम कामयाब हो गए जज़बात बेचकर


हमने भी पीली कर दिए हैं बेटियों के हाथ

थोड़ी-बहुत बची थी जो औक़ात बेचकर


मरती है धरती प्यास से, रूंधने लगे गले

कुछ लोग मालामाल हैं बरसाल बेचकर


सोचा है अब ख़रीद लें कुछ चाँद पर ज़मीन

भाई का हिस्सा, बाप के जज़बात बेचकर


तुर्रा है सर पे, या कि है दो-चार मन का बोझ

रुतबा मिला है, चैन के दिन-रात बेचकर


फूले नहीं समा रहे मुख़बिर चमन में आज

गुलशन का राज़ दुश्मनों के हाथ बेचकर


लगता है अहले-दुनिया को अब पाना है सलिल

ओहदा ख़ुदा का आदमी ज़ात बेचकर

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