ग़ज़ल


प्रो. कुलदीप सलिल, दिल्ली, मो. 9810052245


मौसम का रंगए वक्त की रफ़तार देखकर

बदला बयान यारों ने दरबार देखकर


गहराई जैसे दरिया की मझदार देखकर

हम जानते हैं शख्स को किरदार देखकर


तुम जा रहे हो रौनके-बाज़ार देखने

मैं आ रहा हूँ सूरते-बाजार देखकर


रोके कहाँ तलक कोई दिल नामुराद ये

मचला है फिर से कूचा-ए-दिलदार देखकर


है आसमानों पर नज़र तो खूब आपकी 

लेकिन कभी तो नीचे भी सरकार देखकर


मुँह तकते हैं हमारा जो दिन-रात, देखना

मुँह फेर लेंगे हमको वो इस बार देखकर


हम मर रहे थे दर्द की शिद्दत से जब सलिल

वो मुतमइन थे हालते-बीमार देखकर।

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