ग़ज़ल
प्रो. कुलदीप सलिल, दिल्ली, मो. 9810052245
तेरे शहर की वो फ़िज़ा हुई कोई दहशतों से ही मर गया
मिला दिल धड़कता ही सदा कभी देर से जो मैं घर गया
तेरी जुस्तजू में जहाँ से भी तेरा नाम लेके गुज़र गया
मेरे शौक़ की थी ये इन्तहा मिला तू ही तू मैं जिधर गया
मेरे रंग-रूप की बात क्या, कि तमाम तेरा ही अक्स था
तू हुआ खफ़ा तो बुझा-बुझा, तू जो ख़ुश हुआ, तो निखर गया
मेरे दिल-जिगर, मेरी आँख के, वो जो मुझसे ज़्यादा करीब था
तुझे है पता, ऐ ख़ुदा बता, मेरा राज़दार किधर गया
मैं ये सोच-सोच के रो दिया, हुआ कैसे हाय ये क्या किया
कि न ज़िन्दगी कभी अपनी जी, कि पराई मौत ही मर गया
जिसेे कहता था मैं सितम कभी, वो करम था मेरे तईं तेरा
पड़ी चोट, चोट पे इस तरह, मेरा बिगड़ा रूप संवर गया
कई रास्ते थे मना मुझे, कई काम मेरे ही नाम थे
ये सितम तो देखो नसीब का, कहाँ जाना था मैं किधर गया
मिली साहिलों की सहूलतें, मिली रोशनी तो उन्हें सलिल
उसे मोतियों का नाम मिला, जो समुन्दरों में उतर गया।