ग़ज़ल


प्रो. कुलदीप सलिल, दिल्ली, मो. 9810052245


मेरे दिल से आपके दर तलक नहीं रास्ता है अगर कोई 

तो जरूर मेरी तड़प में ही कहीं रह गई कसर कोई


है ये काम या तो नसीब का तेरी बेरूख़ी की या इन्तहा

न ही चाह अपनी कारगर, न ही आह में है असर कोई


लो हज़ार नज़रें लपक पड़ीं, लगी तोहमतें हैं जो सो अलग

कभी भूले से भी जो आ गया है किसी ग़रीब के घर कोई 


जहाँ सहरा-सहरा गु़बार है, जहां बस्ती-बस्ती तपिश रही

कभी उस वतन से भी ले के आ, तू ऐ मेघदूत ख़बर कोई


तेरे क़ाबिल जब बजो नहीं रहे, तो हमारा इसमें क़सूर क्या

तेरे हुस्न को जो समेट ले, नहीं अब रही है नज़र कोई


कोई फूल-फल नहीं शाख़ पर, हैं बड़े मज़े के ये दिन सलिल

कोई ख़ौफ़ अब न ख़िजां का है, न बहार ही में है डर कोई।

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