कविता
सुश्री निरुपमा सिंह, बिजनौर, ईमेल: nirupma.singh32@gmail.com
"पलाश के वो फूल"
पलाश के वो फूल
जो बिखर गए थे
बेतरतीब होकर
चारों ओर धरा पर
बन कर सेज सपनों की
लुभाते अक्सर मुझे
आज अंजुरी में भर कर
सहेज लिए हैं मैंने सभी
कोमलता से बटोर कर
बाँध लिए हैं मजबूती से
अपने कोरे आँचल में
पलाश के सुर्ख-श्वेत फूल
मानों श्वेत-लालिमा युक्त
बेल बूटियों से सुसज्जित
चद्दर बिछा दी हो प्रेमी ने
प्रेयसी की प्रतीक्षा में ।
वहीं दूसरे छोर पर बेबस
हरसिंगार चला रहा बैन
बुला रहा इशारे से
उसकी मोहक अदाएं
बरबस खींच रहीं अपनी ओर
दोनों का ही आकर्षण
चरम सीमा पर
दोनों ही मनमोहक
इत जाऊँ या उत जाऊँ
वाह! प्रकृति के इशारे
कुछ भी समझ न पाऊँ।।