कविता
सहायक प्राध्यापक हिन्दी, थांदला, जिला झाबुआ म.प्र. 457777, मो. 9165387771
फाग की वह लकीर
पता नही
किस फाग का हिस्सा थी
वह "होली "
अभी गदराना शुरू ही हुआ था
भाल
लगा गई कोई उंगली
गुलाल भरी लकीर ,
एक लकीर कब
शरीर से मन तक का
सफर पूरा कर गई ,
बैठ गई मन के आसन पर
पद्मासन धारण कर ,
रोज रोज न जाने कितनी ही बार
धुल चुका है भाल ...
मास दर मास
बीत चुके हैं
कितने ही साल ....
कितनी होली
कितने तिलक
तिरोहित हो गए
उम्र के पैमाने पर ....
पर फीकी नही पड़ी
वह " लकीर "
होली - दर - होली
आती है
लकीर को ओर चमका जाती है ,
मन खोजने लगता है
उन उंगलियों को
होली आती है अब भी ,
रंग आते हैं
चले जाते हैं ,
पर ,अब कोई लकीर
मन की यात्रा नही करती .....
रंगों में स्थिरता अब नहीं आती
एक लकीर पर
अब कोई फाग नही ठहरता
लगता है
फाग की उसी लकीर से
मन की होली
हो .. ली ...