ग़ज़ल
प्रो. कुलदीप सलिल, दिल्ली, मो. 9810052245
है जो कुछ पास अपने सब लिए सरकार बैठे हैं,
जो चाहें आप ले जाएँ, सरे-बाज़ार बैठे हैं।
मनाओ जश्न मंज़िल पर पहुँच जाने का तुम लेकिन
ख़बर उनकी भी लो यारो, जो हिम्मत हार बैठे हैं।
तू अब उस शहर भी जाकर सुकूँ पाएगा क्या आख़िर,
वहाँ भी कौन-से ऐ दिल, तेरे ग़मख़्वार बैठे हैं।
न तू आया, न याद आई तेरी इक लम्बे अरसे से,
हज़ारों काम होने पर भी, हम बेकार बैठे हैं।
उन्हीं से नाम है तेरा, न भूल इतना तो ऐ साक़ी,
तेरे मयख़ाने में अब भी कुछ-इक ख़ुद्दार बैठे हैं।
गए वो वक़्त कहते थे कि इतने दोस्त हैं अपने,
मुकद्दर जानिए अच्छा, अगर दो-चार बैठे हैं।
किसी भी वक़्त आ सकता है अब पैग़ाम बस उसका
सुना जिस वक़्त से हमने, सलिल तैयार बैठे हैं।