अभिनव इमरोज़ मार्च 2023



***********************************************************************************


श्री देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव,  बस्ती, मो. 7355309428


कविताएँ

शहरों में ‘नारी दिवस’...

प्रत्येक वर्ष आठ मार्च को 

'अंतर्राष्ट्रीय नारी दिवस' मनाया जाता है

शहरों में मंचों को सजाया जाता है

बड़े-बड़े नेताओं का होता है उद्बोधन

मेरे शहर में भी हुआ नारी दिवस का आयोजन

मैं भी इस आयोजन में शामिल हुआ

मैंने भी महिलाओं के सम्मान में कसीदे गढ़ें

उनके अधिकारों की खूब बात कही

नारियों को मिले उनके हक की सौगात

मैंने भी कहा कि नारियाँ खूब आगे बढ़े

महिलाएँ और बेटियाँ चाँद पर चढ़ें

खूब तालियां बजीं...

शहर की कुछ जागरूक महिलाओं को

किया गया सम्मानित

उन्हें फूलमाला दिए गए

तारीफ के पुल बांध दिए गए

उसी दिन बच्चों के साथ मैं अपने गाँव गया

मैं और मेरे बच्चे घर में चाची दादी 

घर में काम करने वाली काकी से बोले

‘‘नारी दिवस की शुभकामनाएँ‘‘

गाँव में भी कई महिलाओं से नमस्ते कर हमने

नारी दिवस की शुभकामनाएँ व बधाईयाँ दी

पर गाँव की उन महिलाएँ

‘नारी दिवस‘ का अर्थ समझ ही नहीं सकी

पूछी ये क्या होता है ये बचवा ?

वो तो अपने चूल्हे चैके, कटाई मड़ाई

गोबर सानी पानी में व्यस्त थीं

घर परिवार के रोजमर्रा कामों में मस्त थीं

मैंने उन्हें नारी दिवस के बारे में बताया

उन्हें उनके कुछ अधिकारों के बारे में समझाया...

पर वो हँसने लगी

मैंने कई महिलाओं से बात की

कइयों ने आज तक बड़े शहर को नहीं देखा

कइयों की बेटियाँ अभी भी अनपढ़ 

या पाँच या आठ तक पढ़ी हैं

ऐसे में शहरों में धूमधाम से आयोजित किए जाने वाले

‘नारी दिवस‘ का का मतलब क्या है ?

पहले बेटियाँ और महिलाओं को शिक्षा दिलाइए

उन्हें अच्छे से पढ़ाइए लिखाइए

उन्हें खूब जागरूक बनाइए

तब ‘नारी दिवस‘ मनाइए...


माँ और नई साड़ी...

मेरे पिता गाँव में रहने वाले 

एक साधारण किसान थे

हमारे पास दो बैल और एक गाय भी थी

खेती किसानी से ही हमारा घर चलता था

हम लोगों की पढ़ाई लिखाई, दवा का खर्चा 

इसी खेती किसानी पर पलता था 

पिता जी का सपना था 

हम लोग पढ़ लिख कर कोई नौकरी पा जाएँ

घर की दशा और दिशा बदल जाए...

मेरी माँ साधारण पढ़ी लिखी गृहिणी थी

पिता जी को खर्च से परेशान देख 

माँ अपने लिए कभी कुछ नहीं कहती थी

कभी साड़ी, क्रीम, पावडर या अन्य 

मेकअप के सामानों की डिमांड

पिता जी से नहीं करती थी

छोटे मामा की इस बार जून माह में शादी थी

माँ को नई साड़ी खरीदने की इच्छा थी

पिता जी को बमुश्किल अपनी इच्छा बताया...

पिता जी ने वादा किया कि 

गेहूँ की फसल पक कर तैयार है

कटते ही गेहूँ बेचकर साड़ी लाऊँगा

इस बार पक्का इरादा है, कि वादा निभाऊँगा

गेहूँ कटते ही जिस दिन पिता जी गेहूँ बेचने वाले थे

और माँ के लिए नई साड़ी खरीदकर लाने वाले थे...

उसी दिन गाय पड़ गई बीमार

गाय का बिन पैसे कैसे हो उपचार

गेहूँ बेचकर पैसा आया

माँ के लिए साड़ी लाएँ या गाय की दवा कराएँ

इतना पैसा नहीं था कि दोनों काम हो जाएँ

पिता जी बड़े असमंजस में थे

माँ ने पिता जी के चिंता को देख झट निर्णय लिया

गाय बेजुबान है, दवा न कराने पर बेजान हो जाएगी

साड़ी तो फिर कभी खरीद ली जाएगी

गाय की जान बच जाएगी

माँ ने पिता जी से कहा

वो छोटे मामा की शादी में 

पुरानी साड़ी ही पहन कर चली जाएगी...


किसानों और मजदूरों के घर की औरतें

हमारे देश में अक्सर गाँवों में किसानों  

और मजदूरों के घर की औरतें 

घर के भीतर का काम निपटाने के बाद 

बाहर के भी कामों को देती हैं अंजाम

घर के चूल्हे-चैके से लेकर खेती-किसानी

कंडा-गोबर के साथ बीतती रहती है जिंदगानी

कभी उफ्फ नहीं करती कितनी भी हो परेशानी...

महीनों बीत जाते हैं चेहरे पर कभी क्रीम पाउडर

या सौंदर्य प्रसाधन का दिखता न निशान

कभी नहीं उनके चेहरों पर दिखती मुस्कान

देश-दुनिया के खबरों से वो रहती हैं अनजान

घर से बाहर तक के कार्यों में वो रहती हैं परेशान

कभी तीज-त्यौहार या किसी के घर हो शादी-ब्याह

तब एकत्रित होती हैं ये औरतें

एक-दूसरे को सुनाती हाल-चाल

बताती है घर की समस्याएँ और जंजाल

हँसती, बोलती और थोड़ी सा मुस्कराती हैं

अपने दिल के हाल बताती हैं

बच्चों और पति के अच्छाइयों और बुराइयों को 

सिलसिलेवार कहती जाती हैं...

कभी किसानों और मजदूरों के घर की औरतें

शहर या महानगरों में कुछ खरीदने जाती हैं

बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं, दुकान-माल को 

देखकर हैरान रह जाती हैं

पति जो कहता है, वो बिना कुछ कहे मान जाती हैं

सच में ये औरतें बिना दिखावट या आडंबर के 

कितना सरल, सहज और सुंदर जीवन बिताती हैं

यही औरतें सामान्य रूप में अपना कर्तव्य निभाती हैं

ऐसी औरतें आज भी पूज्य कहलाती हैं...

***********************************************************************************

डाॅ. संजय कुमार सिंह, पूर्णिया, मो. 9431867283

दिलग्गी

तुम्हारी गोद का वह सुख कहाँ मिलेगा?/वह हँसी-ठिठोली?/वह झगड़ा?/यह लाओ,/वह लाओ.../यह करो/वह करो।

डाॅयबिटीज से ऐंठती एड़ी और उंगलियों पर दवा का लेप मैं ठीक हो जाऊँ, इस खयाल और आह्लाद से तुम्हारा बिगड़ना/मिठाई खिलाने वाली माँ, मिठाई हाथ में देख कर तुम्हारा बुरी तरह  नाराज होना/मेरी लापरवाहियों पर हमेशा इलाज की चिंता करना/कहीं जाकर बड़े डाॅक्टर से दिखाने की सलाह देना...

अब जब तुम रोज दूर होती जा रही हो

अनंत में विलीन हो रहा है मेरा सुख-स्वप्न...

मैं जानता हूँ कितना दरिद्र हो जाऊँगा एक दिन मैं

कितना अकेला और उदास

कि मैं खुद को कैसे टटोल कर कहूँगा

यह मैं हूँ और यह तुम...

अभी तुुम्हें  बीस वर्षों तक और जीना है

समझी कि नहीं?

ठीक से समझ लो!

ताकि मैं रो सकूँ ...

तुम मेरे दुख को कैसे समझोगी?

मेरे एक-एक रन्ध्र में है दुःख!

आत्मा पर पसरा है निराशा का अमरबेल

धंस गया है कोई किरचा हृदय में।

यह खबर मात्र नहीं है,

मेरे आप्त-लोक का विघटन है

अब मैं किससे बोलूँगा, किससे बतियाऊँगा?

कितना झूठ बोल कर मैंने उसे संजीवित रक्खा?

बतरस में रोज लक्ष्मण-बूटी घोर कर पिलाया।

अब जब कई दावेदार हैं उस दुख और सुख के

तो  मैं चुप हूँ, एक गहरी उदास घाटी की तरह

अनंत वीरानेपन और विराग से आकुल-व्याकुल

अपने अवसाद को अकेले पी गया हूँ।

नहीं कोई शब्द नहीं है मेरे पास,

निःशब्द हूँ मैं, स्तब्ध!

हँसी तुम आओ, खुशी तुम आओ

कुछ भी आओ

ताकि मैं रो सकूँ !

***********************************************************************************

सुश्री कुमुद वर्मा, अहमदाबाद, मो. 9898633354

कविताएँ

हर दिन होली खेलती हूँ मैं

दशकों से मैं केवल लिखती हूँ,

भावों को पकड़ शब्द गढ़ती हूँ,

इतने सारे रंगों के हैं ये,

इनसे ही होली खेलती हूँ मैं।


रंग दुःख का काला लगता मुझे,

क्या यह रंग दिया कभी मैंने तुझे?

रंग ख़ुशी की तरह गुलाबी हूँ मैं,

होली का रंग नहीं छूती हूँ मैं।


श्वेत रंग की पवित्रता पहन कर,

सुनहरे रंग की आभा में जाकर,

आसमानी चादर को ही ढाँपे,

भावों को बस लपेट लेती हूँ मैं।


लाल, हरे, नीले, गुलाबी व पीले,

क्या फर्क पड़ता है अगर न हों गीले,

ईश्वरीय रंगों को ही चुनती हूँ,

अन्य रंग से नहीं रंगती हूँ मैं।


लगता नहीं अच्छा मुझे भीग जाना,

बैठ बाद में सतही रंगों को छुड़ाना,

ध्यान में ही सभी रंगों को छूकर,

अब हर दिन होली खेलती हूँ मैं। 


***********************************************************************************

कविता

प्रो. योगेश्वर कौर, जीरकपुर, मो. 9417394849


बंद लिफाफों-सी यह दुनिया...

बंद लिफाफों सी यह दुनिया रोती गाती है 

सपने लेती चैन से सोती क्यों चिल्लाती है।

जीवन में मनचाही चिट्ठी कब किसको आई 

जिसने जैसी चाही खुशियां कब कब हैं पाई ? 

यह पथ एक दुरंगी बस्ती, वेग दिखाती है। 

बंद लिफाफों सी यह दुनिया रोती गाती है।

अपना होना, रोना धोना सब सह पाएंगे 

फिर भी यादों के दीपक उस पार लिवाएंगे 

दोराहे की बत्ती भी यह जंग सिखाती हैं। 

बंद लिफाफों सी यह दुनिया रोती गाती है।

अंदर हंसना जग में फसना जीवन लीला है 

खेल अजब यह रंगमंच पर क्या जोशीला है 

आने जाने की लय इसमें हर सुख पाती है। 

बंद लिफाफों सी यह दुनिया रोती गाती है।

मैं उछली, जग क्यों फिसला, जो जाग नहीं पायी 

संकट की घड़ियों में बैठी, भाग नहीं पायी 

मस्ती, मौज, मनोबल मनमानी महकाती है। 

बंद लिफाफों सी यह दुनिया रोती गाती है। 

अखबारों सी अलग सुर्खियां नित्य यहां मिलती 

हेलमेल के चैराहे पर नूतनता खिलती 

पैसा ही क्यों प्रथम ! प्रेम की गरिमा जाती है। 

बंद लिफाफों सी यह दुनिया रोती गाती है।

तुम होंगे, सपने न रहेंगे ठोस धरा होगी 

हंसमुख चेहरों की नगरी में सफल सभा होगी 

आती जाती सांस, सनातन सत्य सुझाती है। 

बंद लिफाफों सी यह दुनिया रोती गाती है।

***********************************************************************************

संपादकीय


सामान्यतः पिता की भावनाओं को कठोर माना जाता है। पिता के मजबूत चट्टानी कर्तव्य के नीचे तरल हृदय का अनुमान लगाने से लोग हिचकते हैं तथा यदि अनुमान लग भी जाए तो पिता अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने से गुरेज करते हैं। साहित्य में बेटियों के प्रति भावनाओं की अभिव्यक्ति तो बहुत दिखाई देती है लेकिन बेटों के प्रति अपेक्षित कविताएँ नहीं हैं, जिसमें से राष्ट्रहित, जगहित के लिए समर्पित कविताएँ शायद ही कहीं हों। माँ के लिए ममता शब्द का प्रयोग होता है, किंतु यहाँ पिता की ममता देखने योग्य है। जिस पिता में अपने पुत्र के लिए इतनी सकारात्मक भावनाएँ हों तथा अथाह प्रेम हों, उसका पुत्र ही सकारात्मकता एवं प्रेम का संचार कर सकता है और सच्चे मन से देश-सेवा भी...।


अभिनव इमरोज़ और साहित्य परिवार की ओर से
स्व. श्री फूलचंद यादव जी को शत् शत् नमन, संपादक


एक पिता का पुत्र के लिए उद्गार


पुत्र सुभाष के जन्मोपरांत


ऐ मेरे तन मन जीवन-धन ।

तेरा नमन हो तेरा वंदन तेरा स्वागत तेरा अभिनंदन,

पाकर तुझको खुशियाँ लौटीं दूर हुआ सब सूनापन,

स्वस्थ सुरक्षित और सुसेवित प्रमुदित विकसित अपनापन,

आने से तेरे ऐ मेरे तन धन, चहक उठा मेरा मन कानन,                 

मन की सुप्त चेतना जागृत महक उठा मेर घर आँगन,

विघ्न तुझे सोपान सरीखे विष विषधर जैसे हरिहर,

तेरा जीवन जगहित अर्पित तुझे समर्पित तन मन धन ।


पुत्र सुभाष का देश सेवा हेतु ITBP में चयन के पश्चात् 

(वर्तमान समय में सुभाष चन्द्र यादव कमाण्डेंट पद पर सेवारत् हैं)

 

 मेरे प्यारे युग युग जियो, जीवन पथ निर्माण करो ।

अपने तन मन बुद्धि विवेक से, प्रतिपल जगहित कर्म करो ।।

 

जगहित में ही निज हित समझो,

सदा सुरक्षित रह निश्चिन्त ।

कभी न ताप लगे तन मन पर,

तन मन शीतल पावन चित्त ।

राष्ट्रभूमि हित हर्षित अर्पित, उत्तम पथ निर्माण करो ।।

 

तप्त धरा पर वर्षा जल सम,

मेरे जीवन में आकर ।

भूख प्यास पीड़ा कलेश सब,

दूर हुए तुमको पाकर ।

पास पड़ोस प्रफुल्लित प्रतिपल, ज्येष्ठ श्रेष्ठ निर्माण करो ।।

 

सद्गुरू कृपा से प्रतिपल सिंचित,

कभी नहीं सद्मार्ग से विचलित ।

कर्म मार्ग पर  सदा समर्पित,

जीवन निधि से हर्षित पुलकित ।

भाई, बन्धु व सहपाठी हित, श्रेष्ठ मार्ग निर्माण करो ।।

 

जीवन में जो जहाँ भी आये,

उन्हें अंग स्वीकार करो ।

उनके सुख दुख समझ के अपना,

यथा साध्य सन्तुष्ट करो ।

सभी राष्ट्रहित एक इकाई, यही भाव उत्पन्न करो ।।

 

जहाँ भी रहो अपने गुण का,

सुन्दरतम विस्तार करो ।

सभी हो हर्षित और प्रफुल्लित,

ऐसा सद्-व्यवहार करो ।

चहुँदिशि सभी काल में चर्चित, सत् शिव सुन्दर काज करो ।।

 

भारत माता, माँ हैं तेरी,

संविधान है पिता समान ।

सभी नागरिक बन्धु तुम्हारे,

उनका सुख दुख अपना मान ।

सब जन एक नेक होकर, अब श्रेष्ठ राष्ट्र निर्माण करो ।।

मेरे प्यारे युग युग जीवो, जीवन पथ निर्माण करो ।

-कॉलेज केबिन रोड, मुंडेरवाँ, जिला - बस्ती  

**********************************************************************************************************



कहानी


सुश्री नीता व्यास, अहमदाबाद, मो. 91 9429521857
ई मेलः neetajayeshvyas@gmail.com


मेरी पहली होली

पिताजी यूनियन बैंक के मैनेजर थे। बड़ा रुतबा था उनका, घर में भी और ऑफिस में भी। दमदार शख्सियत के मालिक, हमेशा सूट, बूट, टाई और कोट मैं सज्ज होकर ही ऑफिस जाते। हम तीनों बहनों  के हँसी और ठहाकों से घर गूँजता। गुल्लू और मन्नू स्कूल की पढ़ाई और दोस्तों के साथ खेलने में इतने व्यस्त रहते कि घर में उनकी हाज़िरी न के बराबर लगती। माँ थी सादगी की मूर्ति। वे देश की आज़ादी की क्रांति के दौरान महिला क्रांतिकारियों की टोली में भी शामिल थीं। घर में एक बड़ा चरखा था। उन्होंने रोज़ शाम को एक घंटा सूत कातने का व्रत ले रखा था।

सारा दिन वे खुद को किसी न किसी कार्य में व्यस्त रखतीं। ईश्वर में अपार आस्था होते हुए भी वह अपनी पूजा में कम से कम समय लगातीं और दूसरों की सेवा में लगी रहतीं। सुबह सबसे पहले जागने वाली माँ रात को सबके सोने के बाद ही बिस्तर पर जातीं। माँ और मैं, मानो दो जिस्म एक जान थे। उनका एक ही सपना था, मैं कॉलेज जाऊँ और खूब पढ़ूँ, क्योंकि वे कभी कॉलेज नहीं गई थीं। दोनों बहनों को भी अच्छे रिश्ते मिल जाने से कॉलेज की पढ़ाई अधूरी छोड़नी पड़ी थी। मुझे भी खूब पढ़ना था और वक़ालत करने की चाहत थी। वैसे भी पिताजी की किसी भी बात पर बहस करना और उनसे सबूत माँगना मेरी आदत थी, इसलिए उन्होंने पहले से ही मुझे ‘‘अपनी माँ की वक़ील‘‘ नाम दे दिया था।

उस दिन जब माँ बाजार से लौटी तो उन्हें बहुत थकान महसूस हुई। कुछ दिनों से उन्हें कमज़ोरी की शिक़ायत हो रही थी, लेकिन हर महिला की सेहत के प्रति लापरवाही कभी-कभी उनकी जान का दुश्मन साबित हो जाती है। कुछ ऐसा ही मेरी माँ के साथ हुआ। डॉक्टर, अस्पताल, चेकअप, फिर रिपोर्ट में थर्ड स्टेज का कैंसर अलक्षित हुआ। ‘‘कैंसर यानी कैंसल‘‘, क्योंकि उस वक्त इसका कोई इलाज नहीं था। माँ बिस्तर में थी और मुझ पर थी छोटे भाई गुल्लू और मन्नू की ज़िम्मेदारी। दीदियाँ ससुराल से बारी-बारी से आतीं, कुछ दिन रुक कर वापस चली जातीं। ऐसे में मैं ही जानती हूँ कि मैंने मैट्रिक की परीक्षा कैसे पास की।

रंगों से और जीवन की रंगीनियों से कैसे मैं परहेज़ करती चली गई मुझे ख़्याल ही नहीं रहा। माँ को पता चल चुका था कि वे कुछ दिन की ही मेहमान हैं। हर रात वे अपने बिस्तर के पास पिताजी को बुलाती और हाथ में हाथ लेकर उनसे प्रण लेने के लिए कहतीं कि मैं रहूँ या न रहूँ, तुम निम्मी को कॉलेज जरूर भेजना और उसे वक़ील बनाना। पिताजी ईश्वर को साक्षी रखकर वादा भी करते।

मैट्रिक के रिजल्ट से तीन दिन पहले माँ हम सबके बीच अपना नश्वर देह छोड़कर स्वर्ग के रास्ते निकल पड़ी। मैं स्तब्ध थी। उनके जाने के बाद भी मैं घर के हर कोने में उनकी रुह को महसूसती। तीन दिन बाद रिजल्ट आया और मैं फर्स्ट क्लास में उत्तीर्ण हुई। मैंने अपनी मार्कशीट माँ की फोटो के पास रखी और मन ही मन अपने भविष्य के लिए उनका आशीर्वाद माँगा।

वेकेशन ख़त्म हो चुका था। कॉलेज में एडमिशन का समय था। सारी सहेलियाँ होम साइंस में दाखिला ले रही थीं, लेकिन मैं वक़ील बनने की ज़िद्द पर अड़ी थी। पर यह क्या? पिताजी का अटल फैसला था मुझे कॉलेज न भेजने का! इस डर से कि बिन माँ की बेटी, कहीं भटक ना जाए। हालांकि वे खुद पोस्ट ग्रेजुएट थे और माँ मैट्रिक पास। मैंने भी अनशन किया। तीन दिन तक न तो खाना खाया और न ही पानी पिया। पड़ौसी ने आकर खूब मिन्नतें कीं, तब कहीं जाकर पिताजी ने आगे की पढ़ाई के लिए हामी भरी।

माँ को गए एक साल हो गया था। बड़ी मौसी साल में दो-तीन बार बीकानेर से आतीं, घर को ठीकठाक करतीं और ढेर सारा प्यार देकर चली जातीं। इस बार जब वे आईं तो अपने साथ करीबी रिश्तेदारों को लेकर आईं। कई दिनों बाद, मौसी के साथ आए मेहमानों से घर में हँसी-खुशी का माहौल बना। कुछ दिनों बाद मेरी शादी समीर से हो गई, जो मौसा जी के मामा के बेटे थे। 

मैंने अपनी कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर ली थी और एक शिक्षित पति पाकर खुश थी। छत्तीसगढ़ के छोटे से गाँव दर्री में एक बड़ा परिवार और पचास एकड़ की खेती थी। खेती का काम पसंद न होने के कारण समीर ने बर्मा शेल रिफाइनरी लिमिटेड में नौकरी ले ली। कुछ दिन परिवार के साथ रहने के बाद हम दोनों रामनगर आ गए। समीर को कंपनी की ओर से एक बहुत अच्छी कॉलोनी में मकान मिला जिसका किराया कंपनी ही देती थी।

नया घर, नए पड़ोसी और नई जगह। उनकी भाषा, रहन-सहन और रीति-रिवाजों से अनजान मैं, हमेशा सहमी सी रहती। समीर के ऑफिस चले जाने के बाद हमेशा डर के मारे दरवाज़ा बंद रखती। मुझे शास्त्रीय संगीत का बहुत शौक था। माँ मुझे संगीत क्लास में भी भेजती थी और जब मैं कोई नया राग सीखकर घर आती तो हम साथ में रियाज़ करते। आज अचानक उनकी याद आ गई और मैं खिड़की के पास बैठकर उनका मनपसंद गीत ‘फागुन के दिन चार रे... होली खेल मना रे...’ गुनगुनाने लगी।

कुछ देर पश्चात सितार पर राग पहाड़ी की धुन सुनाई दी। साथ में कोई दादरा की थाप दे रहा था। मुझे सुखद आश्चर्य हुआ। शाम को किसी ने दरवाज़े पर दस्तक दी। दरवाज़ा खोला तो सामने सफेद कलकत्ती धोती और हल्के पीले रंग का कुर्ता पहने, लंबे, छरहरे, दुबली कद-काठी लिए एक बुज़ुर्ग खड़े थे। मैंने उनका अभिवादन किया और उन्हें अंदर बुलाया। बरामदे के झूले पर बैठ कर वे बोले, ‘बेटी क्या मधुर आवाज़ है तुम्हारी!’

अपना परिचय देते हुए आगे कहा, ‘मैं देवव्रत बनर्जी, तुम्हारे घर के बगल वाले घर में रहता हूँ। आज आपका गीत सुनकर, मैंने बहुत दिनों के बाद अपना सितार छेड़ी।’ कुछ देर बात करने के बाद वे चले गए।

मन में माँ की कमी खटकती रहती। पिताजी और भाई बहनों की याद आती रहती। फिर धीरे धीरे कॉलोनी में सबसे परिचय, मेल-मिलाप और आना-जाना शुरू हुआ तो पता चला यहाँ के लोग कितने मिलनसार है।

सामने वाले बड़े से मकान में मनसुख लाल और मधुरी मौसी अपने बड़े परिवार के साथ रहते थे। उनका कपड़े का कारोबार था। तीन बेटों और दो बेटियों के साथ परिवार बहुत सुखी और समृद्ध था। मैं जब भी उनके घर जाती, मुझे अपनी माँ और परिवार की बहुत याद आती। मौसी समझ जाती। उनकी गोद में सर रखकर मैं दो बूँद आँसू बहाती।

कॉलोनी में सभी तीज त्योहार मिलजुल कर मनाये जाते। मौसी का परिवार मुझे अपनी बेटी की तरह प्यार करता। होली का त्यौहार आने वाला था। मुझे याद आने लगे होली के वे रंगीन दिन जब बच्चों की होली आठ दिन पहले से शुरू हो जाती थी। रंग, पिचकारी और किलकारी। मुझे दोनों भाई गुल्लू और मुन्नू की बहुत याद आने लगी। आँखों में आँसू तो छुपा लेती थी, पर मन की बात मौसी से छिप न पाती थी। होली का दिन भी आ गया। होलिका दहन की रात पूजा-अर्चना के बाद देर रात तक खाना-पीना और गाना-बजाना चलता रहा। सुशांत, मनीष, कमल, दीना और तनु, मौसी के बेटे-बेटियों ने बातों बातों में जान लिया कि कल कुछ भी हो जाए, मैं रंग खेलने के लिए घर का दरवाज़ा नहीं खोलूँगी।

अगले दिन सुबह समीर ने बड़े प्यार से मुझे अपने आगोश में लेकर प्रेम के रंगों से सराबोर कर दिया। शादी के बाद पहली होली थी न? दरवाज़े पर जोर से दस्तक हुई। बच्चे, बड़े सभी रंगों में सराबोर थे। मैंने समीर को जबरदस्ती धक्का देकर घर से बाहर कर दिया और दरवाजा अंदर से बंद कर लिया, तब जाकर राहत की साँस ली। आखिर सबने मुझसे हार मान ली।

बगल वाले नाडकर्णी साहब के घर तो खूब भांग पीसी गई। ताँबे के सिक्के के साथ पीसी हुई भांग को पी कर सब एक के दो, दो के चार होने लगे। मैं खिड़की से झाँक कर मजे लेती रही। शाम को थक-हारकर, नहा-धोकर घर में सब आराम फरमा रहे थे कि मौसी ने दरवाजा खटखटाया। कहा’ ‘निम्मी, बेटा आज शाम खाना मत बनइओ, बच्चों ने गच्छी पर भेल पकोड़ी खाने का प्रोग्राम बनाया है, तुम और समीर आ जाना।’

‘ठीक है मौसी।’ मैंने सोचा, चलो शाम को खाना बनाने की झंझट छुट्टी।

मौसी के आवास की तल मंज़िल विशाल थी। ऊपरी मंज़िल पर एक बड़ी गच्छी और एक बड़ा सा कमरा था जिसकी सीढ़ियाँ और दरवाज़ा घर के बाहर से था। रात को खुले आसमान के नीचे पूर्णिमा की शीतल चांदनी में सभी ने सबसे पहले मधुर संगीत का लुत्फ उठाया, बच्चों ने गीत-नृत्य के साथ खूब हुड़दंग मचाया। हँसी-ठहाको से वातावरण उल्लासित हो गया। भेल पकौड़ी के साथ-साथ मेरी बनाई हुई गुझिया की ज़ियाफत उड़ाई गई।

फिर धीरे-धीरे रंगीन पानी से भरी बाल्टियाँ लाई गईं। रात के करीब ग्यारह बजे मुझ पर इतने रंग उंडेले गए कि साँस लेना दुभर हो गया। मैं भाग नहीं सकती थी क्योंकि नीचे का दरवाजा बाजू वाले करीम चाचा ने बाहर से बंद कर दिया था। मारे झूंझलाहट के मैं समीर के पास गई तो वे भी मंद मंद मुस्काए रहे थे क्योंकि इस खेल में सबके साथ वे भी शामिल थे।

मुझे कुछ साल पहले अपने भाई-बहनों के साथ खेली हुई होली याद आ गई। मैंने भी जी भर के सबको रंगा और खुद भी रंग गई सब के प्यार में।

होली के रंग तो दो-तीन दिन में फीके पड़ गए, लेकिन हमारी प्यारी पड़ोसन मौसी और उनके पूरे परिवार के प्यार का रंग चालीस साल बाद भी फीका नहीं पड़ा, बल्कि और गहरा होता गया! शादी के बाद की मेरी पहली होली अधूरी रह जाती अगर मौसी का परिवार न होता।


***********************************************************************************


सुश्री नमिता सिंह ‘आराधना’ 

अहमदाबाद, ईमेल: nvs8365@gmail.com

 

कविता

तेरी यादों से लिपटी एक शाम

तेरी यादों से लिपटी इक शाम

वर्षों से सहेजे रखा है इक किताब में

हर रोज ख्वाब का एक सितारा

टाँक देती हूँ मैं उसमें

ताकि मुरझा न जाए वो शाम

तेरे लंबे इंतजार में।

दिन में कई दफा

चूमती पुचकारती हूँ उस शाम को

प्यार से सहलाती हूँ

फिर सहेज देती हूँ किताब में

खो जाती हूँ कल्पना में

कि जब तुम आओगे

मुझे आगोश में लेकर

जड़ दोगे चुंबन मेरे माथे पर

और फिर घंटों बतिआएँगे हम

यूँ ही एक दूसरे में खो कर।

आजकल अक्सर वह शाम

बड़ी बेचैन सी हो जाती है

अकुला सी जाती है

शायद दम घुटने लगा है उसका

सपना टूटने लगा है उसका

आखिर सब्र की भी एक हद होती है

इंतजार की भी एक जद होती है।

आखिर एक दिन

तेरी यादों से लिपटी उस शाम ने

दम तोड़ ही दिया।

हो गई बेरंग और निष्प्राण

मुरझा गई तेरी यादें और

टूट गए मेरे सारे ख्वाब भी

तेरे अंतहीन इंतजार में। 

***********************************************************************************

आलेख


डाॅ. चेतना उपाध्याय, कुन्दन नगर, अजमेर (राज.) 305001, 

मो. 9828186706, 8094554488


भारतीय राजनीति में सरदार पटेल

लौह पुरूष सरदार पटेल का नाम लेते ही उनका एक विशेष बिम्ब अनायास ही मनःपटल पर साकार हो उठता है। आप सच्चे अर्थों में भारत राष्ट्र निर्माता थे। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को वैचारिक एवं क्रियात्मक रूप में एक नई दिशा देने के कारण सरदार पटेल ने राजनीतिक इतिहास में एक 

गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त किया। वास्तव में वे आधुनिक भारत के शिल्पी थे। उनके कठोर व्यक्तित्व में विस्मार्क जैसी संगठन कुशलता, कौटिल्य जैसी राजनीति, सत्ता तथा राष्ट्रीय एकता के प्रति अब्राहम लिंकन, जैसी अटूट निष्ठा थी। जिस अदम्य उत्साह, असीम शक्ति से उन्होंने नवजात गणराज्य की प्रारम्भिक कठिनाईयों का समाधान किया उसके कारण विश्व के राजनीतिक मानचित्र में उन्होंने अमिट स्थान बना लिया।

31 अक्टूबर 1875 को जन्मे व 15 दिसम्बर 1950 तक इस पावन धरा की पवित्रता को अक्षुण्ण बनाए रखने वाले स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी के रूप में विश्व के मानस पटल पर आपकी विशिष्ट पहचान आज भी कायम है। भारत के लिए उनके, महनीय योगदान को अच्छे से समझना हो तो उसे बड़ी आसानी से दो भागों में बांटा जा सकता है। (1) स्वाधीनता प्राप्ति हेतु किया गया संघर्ष और (2) 

स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात् राष्ट्र के एकीकरण में भूमिका। दोनों ही काल में आपकी निःस्वार्थ निष्ठा काबिल-ए-गौर रही। नागपुर और बारदोली सत्याग्रह स्वाधीनता प्राप्ति पूर्व में खेड़ा संघर्ष नागपुर और बारदोली सत्याग्रह आपके लिए विशिष्ट उपलब्धि रहा।

खेड़ा संघर्ष

स्वतन्त्रता आन्दोलन में सरदार पटेल का सबसे पहला और बड़ा योगदान खेड़ा संघर्ष में हुआ। यो तो पटेल प्रारम्भ से ही किसानों को उत्पीड़न से मुक्ति प्रदान करवाना चाहते थे। किसानों की विकट स्थिति आपको कतई स्वीकार न थीं गुजरात का खेड़ा खण्ड (डिवीजन) उन दिनों भयंकर सूखे की चपेट में था। अतः किसानों ने अंग्रेज सरकार से भारी कर में छूट की मांग की। जब यह स्वीकार नहीं किया गया तो आपने अप्रेल 1917 में गांधी जी के साथ गांव-गांव जाकर किसानों में सत्याग्रह का प्रचार किया। आपने गांवों में किसानों का नेतृत्व कर उन्हें अंग्रेजी हुकूमत को कर न देने के लिये प्रेरित किया इस सत्याग्रह के परिणामस्वरूप अंत में सरकार को झुकना पड़ा व उस वर्ष किसानों पर बढ़ा हुआ कर समाप्त कर दिया गया। इससे किसानों को बड़ी राहत प्राप्त हुई। यह सरदार पटेल की पहली सफलता थी। आपके इस कार्य से गांधीजी बड़े प्रभावित हुए। 29 जून 1917 को खेड़ा सत्याग्रह की सफलता के उपलक्ष्य में आयोजित सभा में गांधी जी ने कहा था- ‘‘यदि मुझे वल्लभ भाई न मिलते तो यह कार्य न हुआ होता।’’ अतः इस सफलता का पूरा श्रेय वल्लभ भाई को ही जाता है। 

नागपुर सत्याग्रह

01.05.1923 को नागपुर के कलेक्टर ने कांग्रेस जुलूस में झण्डा लेकर चलने पर रोक लगा दी। कांग्रेसियों के लिए यह प्रतिष्ठा का प्रश्न था। अतः उन्होंने सत्याग्रह प्रारम्भ किया। नेतृत्व कर्ता के रूप में सेठ जमनालाल बजाज को उस वक्त बंदी बना लिया गया जिसके 

परिणामस्वरूप सत्याग्रह का नेतृत्व वल्लभ भाई ने सम्भाला। 

इसे अवैधानिक घोषित कर देने के बावजूद भी रूकने नहीं दिया गया। अन्ततः गर्वनर ने सरदार पटेल को वार्ता के लिए आमन्त्रित किया। इसके परिणामस्वरूप 09.04.1923 के सभी बन्दी सत्याग्रही बिना शर्त मुक्त कर दिये गये। निश्चय ही यह घटना सरदार पटेल के नेतृत्व में हिन्दुस्तानियों की एक बहुत बड़ी विजय थी।

बारदोली सत्याग्रह

वैसे तो इस सत्याग्रह से पूर्व ही आप अनेकों आंदोलनों में सफलता हासिल कर चुके थे। व मात्र बैरिस्टर ही नहीं एक सच्चे समाज सेवक के रूप में आपकी पहचान बन चुकी थी जो कि समय के साथ-साथ महान राजनीतिक नेता के रूप में आपको स्थापित करने में कामयाब हुई।

बारदोली की उपजाऊ भूमि यहां के कृषक वर्ग हेतु अभिशाप सिद्ध हो रही थी कारण कि इस क्षेत्र हेतु सरकारी नियम यह था कि प्रति तृतीय वर्ष यहां के भूमिकर का पुननिक्र्षण किया जाए व आवश्यकतानुसार वृद्धि-कमी होती रहे। भूमि की ऊर्वरा शक्ति व किसानों की निरन्तर मेहनत के सुखद संयोग से भूमिकर निर्धारित प्रारूप में बढ़ता हुआ 30 प्रतिशत हो गया। विरोध स्वाभाविक ही था। उस वक्त पटेल ने बैठक बुलाकर कहा - कृषि भूमि हमारी है। हम उसे जोत कर अन्न उपजाते हैं अतः कृषक अन्नदाता है। सरकारी साहूकार का किराएदार नहीं। पटेल के इन शब्दों से किसानों में नवीन चेतना का संचार हुआ। इस सभा में सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया कि कृषक भूमिकर देना बंद कर दे। बम्बई की एक सार्वजनिक सभा में किसी नेता ने उनके कार्य की प्रशंसा में उन्हें बारदोली का सरदार कह कर सम्बोधित किया। सरदार शब्द गांधी जी को आपके लिए सर्वथा उचित जान पड़ा। तभी से आप वल्लभ भाई पटेल की बजाए सरदार वल्लभ भाई पटेल के रूप में पहचाने जाने लगे।

अक्टूबर 1928 को बारदोली सत्याग्रह पूर्ण रूप से सफल हो गया। कृषक सरकारी हठधर्मिता से कुचले जाने से बच गए। परिणामस्वरूप हिन्दुस्तानी जनता सरदार वल्लभ भाई पटेल को विशिष्ट राजनेता के रूप में स्वीकारने लगी। जब देश की अखण्डता व एकता को बनाए रखने के लिए लोग अपनी जान तक की परवाह नहीं करते थे, उस दौर की राजनीति के प्रमुख चेहरे रहे सरदार वल्लभ भाई पटेल ऐसे ही व्यक्ति थे। जिन्होंने अपनी विवेकशीलता और निर्णय लेने की क्षमता की वजह से हर बार देश और अपने ओहदे के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का प्रदर्शन किया। आजादी के बाद विभिन्न रियासतों में बिखरे भारत के भू-राजनीतिक एकीकरण में केन्द्रीय भूमिका निभाने के लिए पटेल को भारत का बिस्मार्क और लौह पुरूष भी कहा जाता है।

स्वाधीनता प्राप्ति पश्चात् राष्ट्रीय एकीकरण में प्रमुख भूमिका-

यों तो पटेल ने आजादी के ठीक पूर्व संक्रमण काल में ही पी.वी. मेनन के साथ मिलकर कई देशी राज्यों को भारत में मिलाने के लिये कार्य प्रारम्भ कर दिया था। आपने देशी राजाओं को बहुत समझाया कि उन्हें स्वायत्ता मिलना राज हित में नहीं है। अतः वह मिलना अब संभव नहीं है। इसके परिणामस्वरूप मात्र तीन को छोड़कर शेष सभी रजवाड़ों ने स्वेच्छा से भारत में विलय का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। आपने स्वतन्त्र भारत की लगभग 562 रियासतों का भारतीय संघ में विलय कर भारत की एकता को एक नया आयाम दिया था। सरदार पटेल से पहले कोई भी इन रियासतों का विलय कर पाने में सक्षम नहीं हो पाया था। लेकिन उनकी सूझबूझ और काबिलियत के बल पर सरदार पटेल की वजह से रियासतों का विलय हो पाना संभव हुआ।

केवल काश्मीर, जूनागढ़ एवं हैदराबाद, के राजाओं ने विलय करना नहीं स्वीकारा। जूनागढ़ नवाब के विरूद्ध जब बहुत विरोध हुआ तो वह भागकर पाकिस्तान चला गया और जूनागढ़ भी भारत में मिल गया।

सरदार वल्लभ भाई पटेल

भारत में एक रियासत विभाग की स्थापना की गई थी। लेकिन अचानक सरदार पटेल को पता चला कि बस्तर रियासत क्षेत्र के अन्तर्गत एक ऐसा स्थान है। जहां भारी मात्रा में कच्चा सोना उपलब्ध है। और इस भूमि को हैदराबाद के निजाम पट्टे पर खरीदना चाहते हैं तथा विलय हेतु किसी भी कीमत पर तैयार नहीं है। पटेल तुरंत बी.पी. मेनन को साथ लेकर उड़ीसा पहुंच गए। फिर यहां के 38 राजाओं से मिले। इन्हें सेल्यूट स्टेट कहा जाता था। यानी जब कोई इनसे मिलने जाता था, तो तोप छोड़कर सलामी दी जाती थी। पटेल ने इन राज्यों की बादशाहत को आखिरी सलामी दी। फिर काठियावाड़ पहुंचे। वहां लगभग 250 रियासतें थी कुछ तो केवल 20-20 गांव की ही थी। सबका एकीकरण किया। आस-पास के राजाओं से बातचीत की व उनकी राजसत्ता के विलय सम्बन्धी स्वीकार्यता प्राप्त कर आगे बढ़ गए। फिर हैदराबाद सेना भेज कर वहां के निजाम को भी आत्म समर्पण करवा पाने में कामयाबी हासिल की। अब सिर्फ कश्मीर शेष बचा था। आपके प्रयास इस क्षेत्र में जारी थे। किन्तु तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमान् नेहरू जी ने कश्मीर को यह कहकर अपने पास रख लिया कि यह समस्या एक अन्तर्राष्ट्रीय समस्या है।

भारत की स्वाधीनता के दो माह बाद 20 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया। कश्मीर के पास कोई विशेष सेना न थी। पाकिस्तान के कबाइली राज्य की सीमा में प्रवेश कर गये और विनाश लीला करने लगे। भावी विपत्ति का अनुमान लगा कश्मीर नरेश को भागकर दिल्ली में शरण लेनी पड़ी। अब उसके पास विलय के समझौते पर हस्ताक्षर करने के अतिरिक्त दूसरा कोई चारा न था। 26 अक्टूबर को उसने भी विलय के समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए। तब कश्मीर की रक्षा के लिए सेना भेजी गई, फिर भी कश्मीर के एक बहुत बड़े भू-भाग पर पाकिस्तान ने अधिकार कर लिया था। सरदार पटेल ने सैन्यशक्ति से उक्त भाग पर पुनः अधिकार करना चाहा किन्तु सफल नहीं हो पाया यह मामला संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् में पहुंचा, जहां इग्लैण्ड और अमेरिका ने पाकिस्तान का पक्ष लिया, फलस्वरूप हमें (हिन्दुस्तान को) यथास्थिति पर समझौता करना पड़ा। तब से उक्त भू-भाग पाकिस्तान के ही नियंत्रण में है। सभी जानते हैं कि उस वक्त यदि सरदार पटेल की बात स्वीकार ली जाती तो यह समस्या पैदा ही नहीं होती जो कि आज भी हम हिन्दुतानियों के गले की हड्डी में फांस बन अटकी हुई है।

सरदार पटेल कई विषयों में गांधी जी से भिन्न विचार रखते हुए भी एक सच्चे गांधीवादी थे। मातृभूमि की स्वाधीनता हेतु आपके प्रयत्नों के प्रति हिन्दुस्तान सदैव नतमस्तक रहेगा। व आपका यह योगदान इतिहास में चिरस्मरणीय रहेगा।

संदर्भ:

1. इन्टरनेट

2. सरदार वल्लभ भाई पटेल, डॉ. भवानी सिंह राणा, भारतीय ग्रन्थ निकेतन नई दिल्ली

***********************************************************************************

कविता


डॉ.निशा नंदिनी भारतीय, तिनसुकिया, 

असम, ईमेल: nishaguptavkv@gmail.com  


बल्मीक नहीं वाल्मीकि बनो

पुस्तक को चाटने से 

कुछ भी नहीं होगा, 

उसे मन, मस्तिष्क में 

प्रेम से सहेजना होगा।

दीमक को नहीं आता है पढ़ना 

खा जाती है पूरी किताब,

पर मस्तिष्क रह जाता है

बिल्कुल खाली का खाली।


कम पढ़ो,सार्थक पढ़ो 

जितना पढ़ो, उतना गुनों,

शांत चित्त होकर पढ़ो

दिल, दिमाग दोनों से पढ़ो।

आंखों से देखो,मुख से पढ़ो

हृदय में रखो, कर्म में उतारो।

सीख कर जीने की कला

जीवन अर्थपूर्ण कर डालो।


बल्मीक बनकर कुछ ना होगा

वाल्मीकि होने का प्रयत्न करो,

राम-नाम का लेकर साथ 

उचित दिशा में रथ को हांको।

मात-पिता, गुरु के संग से 

संस्कार की डोर पकड़ो,

सत्संग का लेकर सहारा

सद्गति की ओर बढ़ो।

***********************************************************************************

कहानी

सुश्री सुषिमा मुनीन्द्र, सतना (म.प्र.), मो. 08269895950


इन्हीं राहों पर चलना है

पद्मावती जानती है, लुम्मेर वाहन चलाने का चस्का नहीं छोड़ेगा लेकिन जब भी बुकिंग पर जाने लगता है, दोहराती है -

‘‘रास्ता बड़ा कठिन है। ड्राइवरी छोड़ दो। दूसरा काम पकड़ो।’’ लुम्मेर भड़क जाता है ‘‘निकालो पूँजी। सब्जी या किराने की दुकान लगा लूँ।’’

‘‘पूँजी नहीं है।’’

‘‘तब गाड़ी चलाने दो।’’

लुम्मेर के पिता टैक्सी चलाते थे। हफ्ता-दस दिन तक घर न लौटते। लुम्मेर कल्पना करता पिता सेठ की कीमती गाड़ी चलाते हुये खूब मौज-मजा करते होंगे। होटेल में खाते होंगे। बड़ा होकर वह भी कीमती गाड़ी चलायेगा। पिता को गाड़ी चलाते देख कर लुम्मेर बिना प्रशिक्षण के स्वतः गाड़ी चलाना सीख गया। पिता ने नहीं पूँछा - गाड़ी चलाना कब सीखा ? और उसने नहीं बताया - यूँ ही सीख लिया। पिता टैक्सी चलाते हुये दुर्घटनाग्रस्त होकर जब बोमडिला की सात हजार फीट गहरी घाटी में विलय हुये, वाहन चालन में दक्ष लुम्मेर बीस-इक्कीस साल का लम्बा युवक हो चुका था। आज ड्राइवरी करते हुये उसे दस बरस हो रहे हैं। एक सेठ की बुलेरो (टैक्सी) चलाता है। चालक सीट पर बैठते ही खुद को पायलेट समझने लगता है। हाव-भाव में एक किस्म की बादशाही तारी हो जाती है। हैसियत कुछ नहीं है लेकिन अच्छे पिकअप के साथ संतुलित गति से वाहन चलाने को हैसियत बल्कि उपलब्धि बल्कि गौरव की तरह लेता है। गौरव उसकी उत्सवी हॅंसी और चपल मुद्राओं से निःस्त्रत होता रहता है। पर्यटक समूह में यदि लड़कियॉं हैं उनका ध्यान खींचने के लिये हरकतें तेज़ कर लेता है। भूल जाता है उसका दो बच्चियों वाला परिवार है। इस बीच उसके सेलफोन पर पद्मावती का कॉल आजाये तो उसका जोश और जज़्बा खंडित होने लगता है। दरअसल पर्यटक समूह के साथ हफ्ता-दस दिन बिताते हुये उसे उनके साथ रहने की आदत हो जाती है। उनसे विदा लेते हुये निराशा सी होती है। घर पहँुच कर लगता है एक अच्छी दुनिया से कम अच्छी दुनिया में आ गया है। पर्यटक समूह में लड़कियाँ हों तब तो निराश बढ़ जाती है। पद्मावती का पतला मुख देखता है तो लगता है - एक अच्छा सपना देख रहा था जो ठीक अभी टूट गया। पर्यटक समूह कृपण हो, यथोचित बख्शीश न दे, इसके बताये होटेल में न ठहरकर इसके कमीशन में बट्टा लगाये तब उनसे विदा लेते हुये यह निराश नहीं कुपित हो जाता है। कितने बेवकूफ लोग हैं। मॅंहगे होटेल में ठहरते थे लेकिन बख्शीश देते हुये प्राण सूख रहे थे। 

ऑफ सीजन होने से इन दिनों लुम्मेर की व्यस्तता कम है। यही वक्त होता है जब वह अतिरिक्त आय कर सकता है। ऐसे लोगों, जिनके पास वाहन हैं लेकिन चालक नहीं हैं, को उसने अपना सेल नम्बर दे रखा है। लोग इसे यात्रा के लिये दैनिक भत्ते पर नियुक्त कर लेते हैं। एक मारवाड़ी परिवार को लेकर एक सप्ताह के लिये अरुणाचल प्रदेश जाना है और मालिक अचानक बता रहा है तेजपुर से तवांग के लिये बुकिंग हुई है। लुम्मेर ने तारीखों का हिसाब लगाया। तेजपुर की पार्टी को आठवें दिन वापस लायेगा तब बींच में दो दिन शेष होंगे। नींद पूरी कर लेगा फिर मारवाड़ी परिवार के साथ चला जायेगा। ..........लुम्मेर निर्धारित तिथि पर पर्यटक परिवार को लेकर तेजपुर से तवांग की यात्रा पर चला। परिवार के मुखिया शर्मा जी, लुम्मेर के साथ आगे वाली सीट पर विराजमान हुये। बीच की सीट पर उनकी पत्नी राजसी, युवा पुत्रियाँ मराल व मृणाल बैठीं। पीछे की सीट पर राजसी के छोटे भाई छैल बिहारी व कुंज बिहारी सामान सहित अॅंट गये। युवतियाँ का दीदार होते ही लुम्मेर स्फूर्त हो उठा। वाहन यूँ हिफाजत और नफासत से चलाना चाहता था कि युवतियों को छोटा सा धक्का न लगे। लेकिन दुर्गम पहाड़ी पथ पर हिफाज़त-नफासत काम नहीं आती। छैल बिहारी बोला ‘‘बहुत खराब रास्ता है।’’

लुम्मेर को लगा उसकी ड्राइविंग की आलोचना हो गई है। बोला - ‘‘पहाड़ पर कैसा रास्ता होगा ? आपको तवांग तक फिसलन, चढ़ाई, लैण्ड स्लाइड और खराब रास्ता ही मिलेगा।’’

सुनकर मराल घबरा गई ‘‘पापा, हम लोगों ने तवांग घूमने के लिये गलत समय चुना। कल रात बारिश हुई। बहुत फिसलन है।’’

शर्मा जी ने पीछे मुड़ कर सालों को देखा ‘‘तुम्हारे मामा कुसूरवार हैं। तेजपुर आये और तुम्हारी माँ ने जिद पकड़ ली, मेरे भाई तवांग घूमने आये हैं।’’

लुम्मेर ने चैंका दिया ‘‘आप सही समय पर आया है। ऑफ सीजन है। कम पइसा में तवांग देख लेगा। सीजन (अक्टूबर से मई) में आपको हमारा गाड़ी तीस-पैंतीस हजार में मिलता। अक्टूबर के लिये होटेल में रूम का बुकिंग शुरू हो गया होगा।’’

मराल और मृणाल परस्पर मुस्कुराईं। खुद को बड़ा हुड़-हुड़ दबंग समझ रहा है।

बहुत नीचे उतर आये मेघ, मार्ग में गुबार सा बनाये हुये हैं। धुँधलके में कहीं कोई सुंदर पक्षी बैठा होता है और लड़कियाँ चमत्कृत हो जाती हैं -

‘‘देख, देख, बर्ड। कैमरा आँन कर।’’

लुम्मेर का चित्त लड़कियों में लगा है ‘‘लो, बर्ड उड़ गया। फोटो नहीं खींच पाया न ? आगे बहुत याक मिलेगा। मिथुन भी।’’

मृणाल बोली ‘‘एनीमल देखते ही आप गाड़ी रोक लेना। मुझे बहुत फोटो लेने हैं।’’

‘‘हौ, हौ।’’

छैल को यात्रा में बहुत भूख लगती है ‘‘एक भी ढाबा नहीं है कि थोड़ा कुछ खा लें।’’

झोल-झटके से आँतों में होती हलचल के कारण राजसी को बोलने में अड़चन हो रही है लेकिन बोली ‘‘ऐसे सुनसान रास्ते में ढाबा कौन बनायेगा छैल ? इतना खराब रास्ता। लगता है सड़क सुधार का काम कभी नहीं होता।’’

लुम्मेर ने पीछे मुड़कर भली प्रकार युवतियों के दीदार किये ‘‘पूरा साल काम चलता है। पहाड़ पर इतना टूट-फूट होता है कि काम दिखाई नहीं देता। वह देखिये, लेबर काम कर रहा है।’’

सड़क के किनारे बैठी चार-पाँच मजदूरिनें तन्मयता से गिट्टियाँ तोड़ रही थीं। शर्माजी हैरत में -

‘‘मजदूरिनें हैं। मजदूर नहीं दिख रहे हैं।’’

प्रश्नों का उत्तर देने की नैतिक जिम्मेदारी लुम्मेर ने ले रखी है ‘‘यहाँ औरतें अधिक काम करती हैं। आदमी जुआ खेलते, सराब पीते, घर में बैठे रहते हैं।’’

मराल, मजदूरिनों की फोटो लेने लगी ‘‘ये लोग बस्ती से इतनी दूर कैसे आती हैं ?’’

‘‘छोटे ट्रक इन्हें बस्ती से लाते, ले जाते हैं।’’

‘‘इनका फैशन तो देखो। कमीज पहने हैं। सिर पर स्कार्फ, आँखों में काजल। मैंने ऐसी शौकीन मजदूरिनें नहीं देखी।’’

मृणाल की बात पर लुम्मेर खुल कर हॅंसा ‘‘यहाँ औरतें यही पहनता है ........ अच्छा, आगे भालूक पोंग है। वहाँ इनर लाइन परमिट बनेगा। अरुणाचल प्रदेश जाने के लिये परमिट बनवाना पड़ता है। यदि चेकिंग होगी, परिमट दिखाना होगा।’’

भालूक पोंग।

मुख्य पथ पर दोनों ओर दुकानें और परमिट बनाने वाला दुकाननुमा छोटा सा सरकारी दफ्तर। लुम्मेर द्रुत गति से गया और द्रुत गति से लौटा ‘‘साहब, बच्चे को स्कूल से लाने गया है। रुकना पड़ेगा।’’

शर्मा जी उकता गये ‘‘यह कैसा ऑफीसर है ?’’

लुम्मेर ने युवतियों पर नज़र डाली ‘‘ऑफीसर ऐसा ही होता है। साहब को आप कुछ दे दोगे तो परमिट जल्दी बनेगा। नहीं तो कोई कमी बताकर आपको परेसान करेगा।’’

प्रति व्यक्ति सौ रुपिया नजराना देकर परमिट प्राप्त हुआ। चाय वगैरह पीकर शर्मा परिवार लौटा। बोलेरो की बीच वाली सीट पर लुम्मेर निद्रालीन था। चार पहिये के साथ बसर करते हुये यह इसी तरह अपनी नींद और भूख का प्रबंध करता होगा। कुंज कहने लगा ‘‘इसने बड़ी अच्छी नींद पाई है। परेशानी में भी सो लेता है।’’

छैल बोला ‘‘अभ्यस्त और अनभ्यस्त में यही फर्क है। हमारे लिये जो अनुभव अनोखे हैं, इसके लिये काँमन हैं। हम जिस तरह परेशानी महसूस कर रहे हैं, यह न करता होगा। इसे उठाना पड़ेगा .........लुम्मेर जी .........।’’ 

लुम्मेर स्प्रिंग की तरह उछल कर बैठ गया ‘‘अच्छा नींद आया। फ्रेस हो गया।’’

यात्रा पुनः शुरू हुई।

लेकिन पहाड़ की यात्रा सुगम नहीं होती। भू स्खलन के कारण लुम्मेर ने वाहन रोक लिया -

‘‘परमिट बनवाने में टाइम वेस्ट हुआ अब यह लैंड स्लाइडिंग।’’

मराल के चेहरे पर कौतुक ‘‘गॉड। पहली बार लैंड स्लाइड देख रही हूँ।’’

लुम्मेर, मराल का कौतुक देख मुग्ध हो गया ‘‘अभी हम बिहार की पार्टी के साथ जा रहा था। बहुत बड़ा लैण्ड स्लाइड हो गया। अॅंधेरा हो चुका था। अॅंधेरे में मलबा हटाने का काम नहीं होता है। बिहारी बाबू बोला वापिस चलो। रात भर यहाँ नहीं रह सकते। हम वापिस लौटे। उधर भी लैंण्ड स्लाइड हो गया था। दोनों तरफ रास्ता बंद। हम लोग रात भर गाड़ी में पड़ा रहा।’’

राजसी दहशत में ‘‘अभी जहाँ हम हैं, वहाँ लैण्ड स्लाइड हो जाये तो कहाँ भागेंगे ? आगे-पीछे इतनी गाड़ियाँ लगी हैं कि कहीं नहीं जा सकते।’’

लुम्मेर निर्भीक बना रहा ‘‘ऐसा डेथ होना है तो होगा। हम तो रोज इसी रास्ते पर चलता है। डरेगा तो पेट कैसे भरेगा ?’’

शर्माजी असहज थे ‘‘रास्ता सॅंकरा है। गाड़ियाँ कैसे क्राँस होंगी ?’’

लुम्मेर को लगा उसका अवमूल्यन किया जा रहा है ‘‘हमारा रोज का प्रैक्टिस है। हम देखता हूँ रास्ता साफ होने में कितना वक्त लगेगा।’’

लुम्मेर लंगूर की तरह वाहन से कूद कर उतर गया।

‘‘मामा, मैं भी लैण्ड स्लाइड देखूँगी।’’

मराल के प्रस्ताव पर लुम्मेर उत्सुक हो गया ‘‘आइये। तमाम लोग देख रहे हैं।’’

शर्मा जी और राजसी वाहन में बैठे रहे। लुम्मेर के नेतृत्व में मराल, मृणाल, कुंज, छैल चले और एक दूरी से दृश्य देखने लगे। दक्ष चालकों द्वारा चलाये जा रहे क्रेन और जे.सी.बी. की मदद से चट्टानों को ठेल कर घाटी में फेंका जा रहा था। वहाँ से गुज़र रहा केनवाय (फौजी ट्रकों का समूह) भी भू स्खलन के कारण रुका हुआ था। फौजी तत्परता से निर्देश दे रहे थे और मलबा हटाने में सहायता कर रहे थे। मृणाल के लिये बहुत नया अनुभव था -

‘‘मैं पहली बार फौजियों को इतने पास से और इस तरह काम करते देख रही हूँ।’’

लुम्मेर ने बात लपक ली ‘‘हौ, हौ। दिरांग, टैंगा, सिरसा, मुन्ना, लोहू, जंग कई जगह मिलिट्री बेस हैं। बरसात में यहाँ बहुत जोंक हो जाता है। फौजियों का सिस्टेमेटिक तरीके से काम करने का आदत होता है, इसलिये ये लोग कहीं भी रहने में घबराता नहीं है।’’

काम तेजी से चल रहा था फिर भी मार्ग खुलने तक अॅंधेरा होने लगा।

बोमडिला पहॅुचने तक गहन अॅंधेरा हो चुका था। मुख्य पथ से लगे होटेल के सम्मुख वाहन रोक कर लुम्मेर, शर्मा जी से बोला -

‘‘रूम देख लीजिये।’’

होटेल में होटेल मालकिन और दो सहायक युवतियाँ टी0वी0 देख रही थीं। लुम्मेर ने अपनी क्षेत्रीय बोली में होटेल मालकिन को प्रयोजन बताया। अच्छी हिंदी जानने वाली मालकिन, शर्मा जी से सम्बोधित हुई -

‘‘रूम रेंट सात सौ रुपिया। कितना रूम चाहिये ?’’

‘‘दो।’’

‘‘कितने लोग हैं।’’

‘‘छह।’’

‘‘तीन रूम लो।’’

लुम्मेर अड़ गया ‘‘एक्स्टाª बेड डाल देना। एक रूम में तीन लोग रह लेंगे।’’

‘‘ऑफ सीजन है। तुम कहते हो तो एडजस्ट हो जायेगा।’’

श्रेय ग्रहण कर लुम्मेर सहायक युवती से बोला ‘‘सामान रूम में रखवाओ और साहब लोगों को चाय पिलाओ।’’

युवती ने सादगी से कहा ‘‘काली चाय। दूध नहीं है।’’

लुम्मेर ने मराल और मृणाल को बारी-बारी से विलोका ‘‘मिल्क पाउडर क्यों नहीं रखती ?’’

राजसी बोल पड़ी ‘‘काली चाय रहने दो। खाना तो मिलेगा ?’’

मालकिन ने आश्वस्त किया ‘‘लड़कियाँ दाल, चावल, सब्जी बना देंगी।’’

सुबह पूरी बाँह की साफ धुली टी शर्ट में लुम्मेर खुद को तरोताजा और व्यवस्थित महसूस कर रहा था। उसने मराल और मृणाल को मुस्कुरा कर देखा -

‘‘नींद आया ? ठंड लगा ? हम एक पार्टी को यहाँ ठहराया था। उन लोगों ने बहुत हल्ला किया कि इतना ठंड है और गीजर नहीं है। जबकि मैडम (मालकिन) नहाने के लिये गरम पानी देता है। आपको दिया न ? यह जगह सेफ है। तभी हम आप लोगों को लाया। दिक्कत तो नहीं हुआ ?’’

जवाब युवतियों ने नहीं, शर्मा जी ने दिया ‘‘नहीं। चलने की तैयारी करो। तवांग दूर है।’’

‘‘हौ, हौ।’’

दुर्गम पथ।

लुम्मेर की कमेंटरी जारी रही ‘‘उधर कमेंग दी देखिये। आपको कमेंग और लैंड स्लाइड कभी भी, कहीं भी मिल जायेगा। फौजी मिलेगा और झरना मिलेगा। ........... 

उधर पहाड़ से पानी गिर रहा है। मैडम फोटो लो। यह सब बार-बार देखने को नहीं मिलता।’’

मराल ने अचानक कहा -

‘‘गाड़ी रोको। झरने के पानी में औरतें बरतन धो रही है। उनकी तस्वीर खींचना है।’’

लुम्मेर ने वाहन रोक दिया ‘‘बादल हैं। रोशनी कम है। फोटो अच्छा हो न हो, यादगार होगा।’’

मृणाल जैसे स्वयं से कह रही हो ‘‘सचमुच बादल बहुत नीचे आ गये हैं। कहानियों में पढ़ती थी परियाँ बादलों के देश में रहती हैं। आज हम लोग बादलों की सैर कर रहे हैं।’’

कुंज ने हस्तक्षेप किया ‘‘बादलों की सैर में इतने धक्के लग रहे हैं कि आँते कमजोर हो जायेंगी। हो सकता है मैं अस्पताल में भर्ती किया जाऊॅं।’’

मराल ने तंज कसा ‘‘मामा, तुमने ही इंटरनेट पर सर्च कर तवांग को डेस्टीनेशन बनाया है। मजा लीजिये।’’

लुम्मेर ने रुचि दिखाने में चूक नहीं की ‘‘हौ, हौ। तवांग देखेगा तो सचमुच मजा लीजियेगा।’’

नूरा, सेलापास, जसवंतगढ़, जंग होते हुये तवांग पहुँचने तक अॅंधेरा होने लगा। तवांग पहुँचने से पहले लुम्मेर ने मुख्य पथ से लगे एक घर से वाहन में डीजल भरवाया। शर्मा जी ने पॅूछा -

‘‘यह कैसा फिलिंग स्टेशन है ?’’

लुम्मेर ने स्पष्ट किया ‘‘यहाँ कुछ लोग चोरी से डीजल बेचता है। थोड़ा भरवा लिया। बीच में डीजल चुक जाये तो दिक्कत होता है।’’

तवांग।

मार्ग की दुरुहता और लुम्मेर की वाचाल वृत्ति ने शर्मा परिवार को यूँ पस्त किया कि होटेल पहुँचते ही वे जल्दी सो गये। सुबह माधुरी झील देखने गये। माधुरी झील का मार्ग सामरिक क्षेत्र से होकर गया है। लुम्मेर मुस्तैदी से जानकारी देता रहा -

‘‘ .............. देखिये बंकर। यहाँ खच्चर सामान पहुँचाता है ............... इधर गोलाबारी का प्रैक्टिस होता .............. इगलू देखिये ............ ना, ना, फोटो नहीं लेना। मना है। ड्यूटी दे रहा फौजी देखेगा तो झंझट करेगा .......... जाइये, माधुरी लेक देखिये ............ मौसम खराब है ............. जल्दी लौटना है .............।’’

शर्मा परिवार ने माधुरी झील में एक घंटा बिताया। इस एक घंटे में बहुत कुछ बदल गया। उन लोगों ने लौट कर देखा लुम्मेर के हाव-भाव पूरी तरह बदल कर रहस्यमय हो गये हैं। यह लुम्मेर वह नहीं है, जो अब तक था। छह सदस्यीय परिवार को घाटी में संकट की अनुगूँज सुनाई देने लगी। दुर्घटनायें इसी तरह होती हैं। सम्पूर्ण एंकांत क्षेत्र। दूर तक कोई नजर नहीं आ रहा है। न रास्ता मालूम है, न मंजिल का पता। यदि इसने दुर्भावनावश कुछ षडयंत्रकारियों को बुलाया होगा और वे आकर पूरे परिवार को हजारों फीट की गहराई में फेंक दें तो किसी को ज्ञात न होगा यह दुर्घटना है या षडयंत्र।

‘‘आप लोग लौट आया ?’’

पूँछता हुआ लुम्मेर संदिग्ध लग रहा है। इसे शायद उम्मीद थी देर से लौटेंगे, तब तक इसके लोग आ जायेंगे।

शर्मा जी ने साहस किया ‘‘मौसम खराब है। वापस चलो।’’

लुम्मेर कुछ न बोला। पुतलियाँ तेजी से घुमाते हुये शर्मा जी, छैल, कुंज को देखता रहा। उसका चेहरा परेशान बल्कि बदहवास था। जैसे यह परिवार घेर कर उसे घाटी में फेकेगा और बुलेरो लेकर फरार हो जायेगा। यदि ऐसा होता है तो पूरी ताकत लगा कर भी वह तीन बलिष्ठ पुरुषों की पकड़ से खुद को छुड़ा नहीं पायेगा। शर्मा जी नहीं जानते क्यों पॅंूछ रहे हैं लेकिन पूछा -

‘‘परेशान लग रहे हो।’’

‘‘हमारा मालिक का गाड़ी चोरी हो गया।’’

‘‘कैसे ?’’

‘‘एक पार्टी मणिपुर के लिये गाड़ी बुक किया था। ड्राइवर को मार कर रास्ते में फेंक दिया और गाड़ी ले गया।’’

‘‘किसने बताया ?’’

‘‘अभी मालिक का मेरे मोबाइल पर कॉल था।’’

शर्मा जी की नसों का तनाव कम हुआ। ‘‘गाड़ी कौन बुक कर रहा है, कैसे लोग हैं, मालूम होना चाहिये।’’

‘‘हमारा औकात क्या है जो हम टूरिस्ट से कहें अपना आई. डी. प्रूफ दिखाओ। आपसे कहता तो आप बुरा मानता न। मालिक जहाँ कहें, हमको जाना पड़ता है।’’

‘‘ओह .........।’’

‘‘आप लोगों को तवांग बौद्ध मठ और वार मेमोरियल दिखा दूँ। बैठिये।’’

वातावरण नकारात्मक हो गया।

चुस्ती-फुर्ती, बुलंदी, गौरव खोकर शिथिल हुआ लुम्मेर ऐसा मौन हो गया जैसे दुर्गम पथ पर वाहन चलाना वीरता का काम बिल्कुल नहीं है। उसे शिद्दत से लगने लगा दुर्गम पथ पर ऊर्जा खोते हुये शक्तिहीन होता जा रहा है। नींद पूरी नहीं होती है। वाहन चलाते हुये एक झपकी आ जाये कि घाटी में समाधि बन जाये। पद्मावती और बच्चियों को कभी इस तरह उसके मरने की खबर मिले तो उनकी क्या दशा होगी ?

तवांग मठ, वार मेमोरियल, बाजार आदि देखने के उपरांत शर्मा जी लुम्मेर से बोले ‘‘कल बूमला (चाइना बार्डर) देखेंगे।’’

लुम्मेर अन्यमनस्क बना रहा ‘‘मालिक परेसान है। जल्दी लौटने को बोला है।’’

‘‘बुकिंग के समय मालिक को बताया था बूमला जायेंगे।’’

‘‘सरकारी ऑंफिस जाना पड़ेगा। बूमला के लिये परमीसन लेना पड़ता है।’’

लुम्मेर ने कोई तर्क नहीं किया। जानता था, शनिवार होने से कार्यालय आज आधा दिन ही खुला रहा होगा। कल रविवार की छुट्टी। सोमवार को वापसी है। शाम साढ़े चार बजे शर्मा परिवार को लेकर कार्यालय पहॅुचा। कार्यालय बंद मिला। मराल ने उदास होकर सीधे लुम्मेर से पूँछा -

‘‘हम बूमला नहीं देख सकेंगे ?’’

‘‘नहीं।’’

लुम्मेर ने दिलचस्पी नहीं दिखाई। लड़कियों को प्रभावित करने का जज्बा खत्म। ये लड़कियॉं एक अच्छा सपना हैं, बस।

वापसी। 

लुम्मेर अप्रतयाशितरूप से चुप है। इतना चुप है कि सबको लगने लगा यह इतना न बोलता तो दुर्गम पथ की अड़चनें अधिक महसूस होतीं। बहुत बोल कर वस्तुतः यह माहौल बना दिया करता है। यह इतना चुप है कि पानी की अड़चनें बहुत साफ नज़र आ रही हैं। प्रेरित करने पर भी लुम्मेर चुप रहा। जितनी जल्दी हो सके वह तेजपुर पहुँचना चाहता था।

तेजपुर प्रायः पच्चीस किलोमीटर की दूरी पर था। पीछे से तेज गति से आ रही टाटा सूमो ने ओवर टेक कर लुम्मेर को रोक लिया। सूमो में सामने की सीट पर बैठे यातायात पुलिस के सिपाही को देख लुम्मेर का चेहरा एक बार फिर बदहवास हो गया। सिपाही ने सूमो से उतर कर लुम्मेर से क्षेत्रीय बोली में क्या पूँछा, लुम्मेर ने क्या जवाब दिया, शर्मा परिवार नहीं समझ सका। अब सिपाही ने 

सीधे शर्मा जी से पूँछा -

‘‘कहाँ जा रहे हैं ?’’

‘‘तेजपुर।’’

‘‘गाड़ी आपकी है ?’’

‘‘टैक्सी।’’

‘‘नम्बर प्लेट का रंग टैक्सी का नहीं है। ड्राइवर तुम गाड़ी के पेपर्स और अपना ड्राइविंग लाइसेंस दिखाओ।’’

‘‘हम तो ड्राइवर हैं मालिक।’’ कहते हुये लुम्मेर ने कागजात और लाइसेंस दिखाया।

सिपाही भड़क गया ‘‘प्राइवेट गाड़ी को टैक्सी में चलाते हो ?’’

‘‘हमारा मालिक ........

‘‘मालिक को मैं देख लूँगा।’’ कहते हुये लुम्मेर को उपेक्षित कर सिपाही, शर्मा जी की ओर मुड़ा ‘‘हम यह गाड़ी रिक्‍वीजीशन (त्मुनपेपजपवद) में ले रहे हैं। आपको तकलीफ होगा लेकिन जंगल में सर्चिंग के लिये हमको ऐसा करना पड़ता है। उग्रवादी सरकारी गाड़ी को पहचान लेते हैं और एलर्ट हो जाते हैं। आप लोग सूमो में आ जायें। ड्राइवर तेजपुर पहुँचा देगा।’’

वरदी पहने हुये, सूमो में बैठे फौजी सिपाही, शर्मा परिवार को अपहरणकर्ता लग रहे थे। अगवा कर पूरे परिवार को कहाँ ले जायेंगे ? 

शर्मा जी विनम्र हुये -

‘‘हम तेजपुर पहुँच जायें फिर आप यह गाड़ी लें।’’

सिपाही ने आग्रह स्वीकार न किया ‘‘मेरा सेल नम्बर नोट करें। कोई दिक्कत हो तो मुझे कॉल कीजिये। मजबूरी में हमको यह सब करना पड़ता है।’’

सूमो का चालक, शर्मा जी का सामान सूमो में रखने लगा। फौजी अपना सामान बुलेरो में ले गये। बदहवास लुम्मेर ने मोबाइल पर मालिक से बात की। पद्मावती से बात की। फिर सिपाही के आगे हाथ जोड़े -

‘‘हमको भूख लगा है। दो रात से सोया नहीं। थका है साहब।’’

सिपाही ने लुम्मेर को बिल्कुल महत्व नहीं दिया।

सूमो, शर्मा परिवार को लेकर तेजपुर की ओर चल दी। राजसी ने पीछे मुड़कर लुम्मेर को देखा ‘‘बेचारा थका होगा। इतनी अच्छी गाड़ी चलाता है। कहीं नहीं लगा संतुलन खो रहा है ......... सोचती थी घर पहुँच कर हजार रुपये दे दूँगी पर ...........।’’

उधर लुम्मेर के जेहन में न मराल थी, न मृणाल। पद्मावती थी, बच्चियाँ थी। भूख थी, नींद थी, थकान थी, जोखिम था, अनिश्चय था। वही पथ था जिस पथ से ठीक अभी आया था।           

***********************************************************************************

प्रसंगवश

सुश्री रश्मि रमानी, इंदौर, 9827261567


भण्डारा कहां है ?

इस भयावह कोरोना काल में जहां रोज सब्जी रोटी या दाल चावल भर नसीब होना, नेमत और किस्मत से कम नहीं, वहां बाबा रामदेव का इतना कहना भर कि ‘हम क्या भण्डारा खाने आये हैं‘। दुखती रग पर हाथ रखने जैसा है। अभी तक तो अस्पतालों की लूटपाट, नकली दवाईयों की भरमार और मरने पर ढंग का क्रियाकर्म नहीं होने पर भी, एलोपैथिक डाॅक्टरों का रुतबा देवदूतों का ही बना हुआ है। ठीक है कितनों ने मरीजों से भर - भर कर फीस वसूली, बिना देखे या दूर से देखकर, कुछ तो भी दवाईयां भी दे दीं, पर सद्भावना मरीज के ठीक होने की ही रखी, मरने की नहीं। दवा - दारू वाले तो विदेश भाग गये, यहां तो डाॅक्टरों और दुआओं का ही आसरा है, अब आम व्यक्ति तो नहीं न जानता कि भगवान् की बनाई इस जटिल देह संरचना को कौन बेहतर जानता है? दर्द कहां है? मर्ज क्या है? और इलाज क्या होगा? इन यक्ष प्रश्नों का उत्तर सिर्फ और सिर्फ डॉक्टरों के पास होता है, इलाज डाॅक्टर करता है ठीक भगवान, कभी-कभी यमराज बीच में आ जाते हैं और ढाई ढुस (खेल खतम) हो जाती है, पर जैसे जनम मरण का संबध सनातन है, वैसे ही डाॅक्टर और मरीज की डोर एक दूसरे से जुड़ी हुई है। कोरोना ने कईयों की जान ली तो कितने डाॅक्टर भी तो मरीजों का ऊपर भी इलाज करने चले गये। कितने तो ऐसे भी सेवाभावी भये कि न दिन देखा न रात, न अपनी तबियत, न रिश्ते नाते, बस समर्पित भाव से अपनी जिम्मेदारी निभाते- निभाते चल दिये! अब ऐसों को ‘डाॅक्टर टर्र टर्र‘ टर्राने तक तो ठीक था, बेइज्जती का दर्द सहकर भी डाॅक्टर चुप रहे पर जब आत्ममुग्धता और आयुर्वेद का अहम सिर चढ़कर बोला तो गुर्राते हुए  डाॅक्टरों ने भी आंखें तरेरीं, बांहें चढ़ाई और अपने सर्जरी के औजार संभालकर, सर्जिकल स्ट्राइक की ठान ली। मानहानि का नोटिस जारी किया और राष्ट्र द्रोह के मुकदमें की मांग करके हाथ धोये ही थे कि नया फोड़ा फूटा कि ऐलोपैथी अगर कुछ है तो आयुर्वेद भी कम है क्या? ऐलोपैथी में गोलियों के पत्ते और दवाओं की भरमार के साथ सर्जरी की दरकार है तो आयुर्वेद में भी चूरण, फंकी, पुड़िया, जड़ी बूटी, घुट्टी वटी और भी पता नहीं क्या- क्या है उसी के बूते तो पता नहीं कितने नीम हकीमों तक का कारोबार सरपट दौड़ रहा है। अरे कोरोना से ऐलोपैथी भला क्या  दो दो हाथ करेगी? सफेद कोट पहनकर नब्ज  देखने वाले नहीं जानते कि नाड़ी भगवाधारी आयुर्वेद के एजेंट के हाथ में है। तू - तू, मैं मैं कुछ ज़्यादा ही बढ़ी और फिसलती जुबान से निकली बात अखाड़े से भंडारे तक जा पहुंची तो, बहुतों के कान खड़े हुए, नींद टूटी और जीभ पर भंडारे के खाने का स्वाद और भंडारे का विहंगम दृश्य याद आया, इस महान भारत देश में जहां विपुल जनसंख्या के साथ देवी देवता भी तैंतीस करोड़ हों, वोटदानियों को भंडारे में भरपेट खिलाकर दक्षिणा देनेवाले ढेरों ढेर जनसेवक और दानवीर कर्ण की सी मानसिकता वाले मुट्ठी भर ही क्यों न हों वहां भण्डारों की क्या कमी? बिरला ही होगा कोई जिसने भंडारे के भोजन का स्वाद न चखा होगा। यह भंडारे की ही महिमा है कि सारी लाज - शरम, तमीज- तहजीब छोड़ कर लोग ऐसे खाने पर टूट पड़ते हैं कि जैसे यह उनके जीवन का अंतिम महाभोज है, खाने को वैसे ही स्वाद लेकर खाते हैं, जैसे बच्चे अन्नप्राशन की खीर चाटते हैं। लूट की तरह हासिल किये गये भंडारे के खाने में सारे  व्यंजन भले ही विरोधी पार्टियों के नेताओं की तरह गले क्यों न मिल जायें, पर खाने के प्रति उनके आदर में कोई कमी नहीं आती। कुर्सी ही एकमात्र लक्ष्य की तरह भंडारे का भोजन चखना उनका अभियान होता है। भंडारे के उत्साही आयोजन कर्ता भी अपना काम बड़ी निष्ठा और सेवा भाव के साथ करते हैं, क्योंकि कितने ही ऐसे लोग होते हैं, जिनके लिये भंडारे का भोजन अलभ्य होता है। डायबिटीज, ब्लडप्रेशर, अस्थमा से पीड़ित कितने भाग्यशाली होते हैं जिन्हें घर पर अचार, चटनी, चावल, रायता, पूड़ी, नुक्ती, आलू की रसीली चटपटी सब्जी और पापड़ मिलता है? जबकि ये भंडारे का तयशुदा मेनू है। तो फिर कौन सिरफिरा होगा जो भंडारे को नकारेगा, संसार त्यागी सन्यासी भगवा वेश वाले भी परम भाव से भंडारे में पधारते हैं और जब तक पेट खाने को न धकियाये, जीभ की ही सुनते हैं। 

भंडारे की महिमा अपरंपार है और इसका अस्तित्व युगों प्राचीन। इस महामारी के कठिन समय में जब बहुत कुछ सिमट सिकुड़ गया है, भंडारे की भीड़ और विशाल तंबू दिवास्वप्न की तरह दिख रहा है। कोरोना काल के कठिन समय में याद आ रहा है बीते दिनों के भंडारे का अपवित्र, बिना सैनेटाईज किये हाथों से बना पवित्र भोजन, भगवान के भोग की तरह। जिसे खाकर न कोई मरा न बीमार हुआ। न डाॅक्टर आया न बाबा को बुलाया। कोई परम धाम को पधारा तो सबने कहा, ‘बड़भागी जो प्रभु का प्रसाद पाया।‘ ‘हे भगवान इस महामारी से मुक्ति दे दो ताकि हमें भंडारे की नुक्ती मिले। भला हो बाबा रामदेव का जो बीमारी के अखाड़े में आयुर्वेद की लाठी भांज रहे हैं, योग को परशुराम के फरसे की तरह लहरा रहे हैं, और ‘हाजमोला‘ खाकर बुद्धि के अपच और अक्ल के अजीर्ण का इलाज उन्हें बता रहे हैं, जो भरपेट खाकर ‘जेलुसिल‘ का डोज ले चुके हैं।‘ 

***********************************************************************************

कहानी

सुश्री दीपक शर्मा, लखनऊ, मो. 98391 70890

दई की घाली

देहली के एक बडे़ हॉल में अगले माह मेरे चित्रों की एक एकल प्रदर्शनी आयोजित की जा रही थी।

उस शाम मैं एक महत्वपूर्ण चित्र पर काम कर रहा था। एक टूटे दर्पण में एक साबुत मानवी चेहरे के विभिन्न खण्ड उतार कर।

तत्पर घोड़ों की मानिन्द मेरे हाथ मेरे कैनवस पर दौड़ रहे थे।

सरपट।

फिर अचीते ही वह बिदक लिए।

मैंने उन्हें लाख एड़ी देनी चाही किन्तु उनकी दुलकी ने रफ्तार पकड़ने से साफ इनकार कर दिया।

बिगड़ैल घोड़ों की मानिन्द।

क्या उन्हें बाबूजी ने एड़ी लगाई थी ?

अथवा जिज्जी ने ?

काम रोककर मैं अपने स्कूटर पर बैठा लिया।

साधन सम्पन्न मेरे एक मित्र ने विशाल अपने बंगले के एक कमरे को मुझे मेरे स्टूडियो के लिए दे रखा था और पिछले कुछ महीनों की अपनी अतिव्यस्तता के कारण रात में भी मेरा अपने घर जाना बहुत कम हो गया था।

अजीब और अटपटा तो जरूर लगता था कि एक ही शहर में अरे-परे एक भरी-पूरी रौनकी सड़क पर मेरे पास मंगलप्रद एवं सुविधाजनक अपना यह अस्थाई ठौर था और सरासर बोझिल एक संकरी रेलवे कालोनी में रेल की धमक और धुएँ से शापित एवं कष्टप्रद वह स्थाई ठिकाना। एक आवास में प्रतापी और प्रतिष्ठित मेरे मित्र थे, सावकाश और मिलनसार उनकी पत्नी थी प्रफुल्लित और स्फूर्तिगत, उनकी दो बेटियाँ थीं- सलोनी और दूसरे निवास पर व्यग्र और रूग्ण बाबूजी थे तथा विषाद प्रवण और अन्तर्ग्रस्त जिज्जी !

और यह बात भी कम हैरत की नहीं थी जो इस छोर से गुज़रती हुई हवा उधर मेरे स्टूडियो में अक्सर आ धमकती थी और इस घर की धड़कनें मुझे अपने स्टूडियो में साफ सुनाई दे जाती थीं और बिना किसी दूर-भाष अथवा दूर-संचार के बाबूजी और जिज्जी के दूर-संवेदी संदेश मुझ तक हमेशा पहुंच लेते थे और मैं इधर की तरफ उड़ आता था।

हमेशा की तरह उस शाम भी सोलह सीढ़ियों पर बैठे मेरे घर ने मुझे देखते ही अपना ज्वारनदमुख खोल दिया।

’किशोरी लाल जी आए हैं ?’ मेरे स्कूटर की आवाज सुनते ही बाबूजी उसके मुहाने पर आ खड़े हुए।

इधर अपनी सेवा-निवृत्ति के बाद से मेरे संग बाबूजी अपने व्यवहार में औपचारिक बाह्याचार बरतने लगे थे।

’हाँ’, यथा नियम मैंने भी हाजिरी भरी, ’मैं, किशोरीलाल।’ 

’इन्दु बीमार है,’ सीढ़ियाँ पार कर जैसे ही मैं बाबूजी के पास पहुँचा बाबूजी ने मुझे चेताया, ’अच्छा किया जो आज आप इधर चले आए...बेचारी तीन दिन से मुँह औंधे बिस्तर पर पड़ी है...अपने काम पर नहीं जा रही...’

पिछले पाँच वर्षों से जिज्जी रेलवे स्टेशन पर उद्घोषक का काम कर रही थीं।

अपनी सेवा-निवृत्ति से एक साल पहले ही जिज्जी को बाबूजी ने यह नौकरी दिला दी थी। अपने रेलवे क्वार्टर को अपने अधिकार में रखने हेतु।

’मलेरिया न हो ?’ दो कमरों के उस मकान में रसोई की बगल वाले कमरे में जिज्जी अपनी चारपाई पर लेटी रहीं।

’हो सकता है,’ बाबूजी की आवाज उनके हाथों के संग-संग कांपी-इधर कुछ समय से वे पारकिनसनिज़्म डिजीज के तेजी से शिकार हो रहे थे। ’बुखार के साथ-साथ कँपकँपी रहती है...’

’क्या बात है जिज्जी ?’ मैंने जिज्जी का कंधा हिलाया, ’डॉक्टर बुलाऊँ क्या ?’’

जिज्जी ने सिर हिलाया।

तिरछी दिशा में।

किसी कठपुतली की ऐंठन के साथ।

अल्पभाषी जिज्जी बीमारी में अपनी जुबान पर ताला लगा लिया करतीं।

’मैं डॉक्टर ला रहा हूँ’ मैंने कहा।

जिज्जी की आँखों में आँसू तैर आए।

इस रेलवे कालोनी का दूसरा सिरा गोटे बाजार में खुलता था।

उधर गए मुझे एक अरसा बीत चला था और उस शाम मैंने उसी तरफ अपना स्कूटर बढ़ाया।

गोटे बाजार के बाद की गली चूड़ियों की रही और उससे अगली जेवरात की। उसके बाद एक तिराहा आया जिसका एक रास्ता प्लास्टिक की बालटियों से भरा रहा और दूसरा स्टोव आदि की मरम्मत करने वाली दुकानों से।

मैं तीसरे दुकान परचून की थी, दूसरी अचार-मुरब्बे की और तीसरी एक डॉक्टर की।

बोर्ड पर डॉक्टर का नाम सूर्यपाल वशिष्ठ लिखा था और नीचे मिलने के घन्टे दर्ज थे, सुबह आठ से दोपहर एक बजे तथा शाम पाँच से आठ बजे।

उस समय मेरी घड़ी पौने छः बजा रही थी। 

मैंने अपना स्कूटर उसी दुकान पर रोक लिया।

’आप रजिस्टर्ड डॉक्टर हैं क्या ?’ डॉक्टर की कुरसी पर बैठा युवक मुश्किल से चैबीस का रहा होगा। लगभग मेरी ही उम्र का।

’नहीं मैं अभी पढ़ रहा हूँ। मेडिकल कालेज के फोर्थ ईयर में। यह दुकान मेरे पिता की है। इधर कुछ महीनों से वे अस्वस्थ चल रहे हैं और मैं उनके मरीजों को देखने चला जाता हूँ।’

’आपको अपने घर ले जाना चाहता हूँ,’ मैंने कहा, ’मेरी बहन बीमार है...’

घर जाने की हम दुगुनी फीस लेते हैं, अस्सी रूपया...’

’आइए, मेरे पास स्कूटर है....’

युवक ने मेज की दराज से स्टेथोस्कोप निकाला, आलमारी से कुछ दवाइयाँ लीं और अचार-मुरब्बे वाली दुकान के काउंटर पर बैठे अधेड़ व्यक्ति को आवाज दी ’चाचा कोई आए तो उसे बैठा लीजिएगा, मैं जल्दी ही लौट आऊँगा।’

’ठीक है,’ अधेड़ ने मुँह छिपाकर अपनी हँसी दबाने का प्रयत्न किया, ’बिल्कुल ठीक।’

’ये आपकी बहन हैं ?’ जिज्जी पर आँख पड़ते ही युवक ने अपनी आँखें फैला लीं।

निस्संदेह जिज्जी की दयनीय अवस्था न्यायतः किसी भी अजनबी की आँखों में चुभ सकती थी। जिस पर उस समय की उनकी रोगजनक अस्तव्यस्तता मेरे बढ़िया 

परिधान के कारण हमारे बीच के अन्यत्व को कुछ ज़्यादा ही उजागर कर रही थीं। 

’आप अपनी सिगरेट बन्द कीजिए,’ अपने स्टेथोस्कोप से जिज्जी की जाँच करने के बाद युवक ने मुझसे कहा, ’मरीज की हालत अच्छी नहीं। इनके नाक से लहू टपक रहा है। चमड़ी के नीचे गाँठें बंध रही हैं, बुखार बहुत तेज है और इनका दिल जोर से कलकला रहा है।’

’अब क्या करना होगा ?’ मैंने अपनी सिगरेट तत्काल बुझा दी।

’मुझे बर्फ ला दीजिए। मरीज का बुखार उतरना बेहद जरूरी है।’

बर्फ की सभी पट्टियों का हिसाब युवक ने स्वयं रखा।

माथे की पट्टियाँ.....

पेट की पट्टियाँ...

पैर की पट्टियाँ.....

सभी पट्टियाँ युवक ने स्वयं भिगोयीं, लगाईं और हटायीं। बाबूजी और मैं पेशेवर उसकी ऊर्जस्विता को ताकते रहे।

निःशब्द।

बीच में दो एक बार जब भी मैंने अपनी सिगरेट सुलगाने की चेष्टा की तो युवक ने इशारे से मुझे रोक दिया।

अंततः जिज्जी ने अपनी आँखे खोलीं।

युवक ने उस समय उनके पेट की पट्टियाँ बदल डालीं।

एक उत्सुकता ने अनवरत उनकी टकटकी को विराम देकर उनकी आँखें मिचका दीं...

बारहमासी उनकी त्यौरी के बल उनके माथे से उतार दिए...

और दबी हुई एक हँसी उनकी गालों के गड्ढों को गुदगुदा गई।

मानो उनकी तरूणाई के मूक आवेग ने चिहुँक कर उन्हें अन्दर तक झकझोर दिया।

’हाँ’, युवक प्रेमभाव से मुसकराया।

’आप जिज्जी को जानते हैं ?’

’ये मेरी दुकान पर आ चुकी हैं...’

युवक मुझे बाहर सीढ़ियों पर ले आया।

’ये बीमार हैं...ज्यादा बीमार हैं...बहुत ज्यादा बीमार है...’

’ऐसी क्या बीमारी हैं ?’

’इनके दिल के अन्दर लहू रिसता रहता है। बराबर। लगातार। डॉक्टरी भाषा में इसे रिगरजिटेशन कहते हैं। इन्हें आपरेशन की सख़्त ज़रूरत है...’

’दिल के आपरेशन की ?’

’हाँ। इनके दिल की जो वाल्व इनके लहू को इनके दिल के अन्दर उल्टा बहा रहा है, आपरेशन से वह वाल्व दुरूस्त की जा सकती है।’

’महंगा आपरेशन है ?’ मैंने अपनी अपनी सिगरेट सुलगा ली।

’शहर के एक बड़े सर्जन मेरे गुरू हैं,’ युवक ने अपनी थूक निगली, ’मेरा कहना वे टाल नहीं सकते। मैं उन्हें कहूँगा तो वे इस आपरेशन की फीस न लेंगे...’

जिज्जी के साथ इतनी रियायत ?

यह रियायत आनुषंगिक थी अथवा दैवकृत ?

जिज्जी उसकी सहानुभूति का पात्र थीं ? अथवा कौतूहल का विषय ?

’आपरेशन के लिए दो एक महीने रूका जा सकता है क्या ? इधर मैं बहुत व्यस्त हूँ...’’

’रूकना चाहिए तो नहीं...’

’ठीक है। आप आपरेशन की व्यवस्था कीजिए। जो भी बाबूजी से बन पड़ेगा वे आप को ज़रूर दे देंगे....’

जिज्जी के आपरेशन के दिन मैं देहली में था।

मेरी एकल प्रदर्शनी सफल रही थी और आज-कल-परसों की मेरी वापसी यात्रा डेढ़ महीने तक निरन्तर टलती चली गई थी।

अपनी वापसी पर स्टेशन से मैं सीधा अपने स्टूडियो ही गया।

कमरा खोलते ही सामने लगे कैलेन्डर के एक पुराने महीने की किसी एक तारीख पर मेरे हाथ से बने गोले के अन्दर ’जिज्जी’ लिखा देखकर मुझे ध्यान आया उनका आपरेशन हो चुका होगा।

मगर अभी मैं थोड़ा आराम करना चाहता था। देहली से लाई कीमती सिगरेट के जायके का लुत्फ उठाना चाहता था।

निर्विघ्न।

’ठक-’ मेरी तीसरी सिगरेट पर मेरे दरवाजे पर दस्तक हुई।

’ठक...ठक...’

’आइए,’ दरवाज़े पर मेरे मित्र की पत्नी रहीं।

’कैसे कहूँ ?’ अपनी किशोर बेटियों की तरह बात करते समय अपना नाक सिकोड़ने की उन्हें आदत रही, ’अच्छा ठीक है। पहले तो आपको बधाई ही दे दूँ। पिछले दिनों की कई अखबारों में आप की पेंटिंग्ज की समीक्षाएं देखने को मिलीं....बहुत अच्छा लगा....’

’जी हाँ,’ मैं हँसा, ’इक्कीस में से मेरी अठारह पेंटिंग्ज तो बिक ही गई हैं....और वे भी अच्छी कीमत पर।’

’अब दूसरी बात पर आती हूँ’, वे गम्भीर हो गईं, ’आपको शायद मालूम नहीं आपकी बहन बहुत बुरी किस्मत लेकर आई रहीं...’

’कैसे ?’ मैं काँपने लगा।

’आप एकदम कुछ नहीं जानते क्या ? आपके पिता आपको ढूँढ़ते हुए तीन बार यहाँ आए। पहली बार वे आपकी बहन के आपरेशन के परचे के साथ आए। फिर दूसरी बार उनकी मृत्यु की सूचना के साथ और फिर तीसरी बार किसी मकान के ऋणपत्र के साथ....’

’हँ...हँ...’ मेरा गला सूखने लगा।

’आप कलाकार लोग भी अजीब मिट्टी के बने होते हैं। आप देहली जा रहे हैं यह तो आप बताकर गए लेकिन आप देहली में कहाँ मिलेंगे यह आपने बताया ही नहीं...’

’ऊँह,’ मैंने आह भरी।

’मैं आपको फिर बाद में मिलती हूँ।’

’ठीक है, धन्यवाद,’ दरवाज़े की सिटकिनी चढ़ाते समय सहसा मेरी।रूलाई छूट गई।

जिज्जी।

बेचारी जिज्जी।

मेरी प्यारी जिज्जी।

अट्ठाइस साल क्या किसी के मरने की उम्र है ?

लपक कर अपने पुराने सामान से मैं वे कापियाँ खोजने लगा जिनमें मैंने अपने बचपन और कैशोर की जिज्जी दर्ज कर रखी थी। मृदुल और चंचल। हँसमुख और तन्दुरूस्त।

कब और कैसे और क्यों जिज्जी का लवण शोरे के तेजाब की मानिन्द खारा हो गया था और जिज्जी की मिठास कास्टिक सोडे की मानिन्द खट्टी ?

कब और कैसे और क्यों जिज्जी के दिल के कपाट उनके रिसते लहू को सम्भालने में असमर्थ रहे थे ? 

कारण क्या माँ की कैन्सर से मृत्यु रही ? बाबूजी का बिगड़ता स्वास्थ्य रहा ? अथवा मेरा यह नया ठिकाना ?

या फिर जिज्जी को दई लग गई ?

दई की दंड-संहिता ?

असमय और अकारण !

याइच्छिक, मगर अनर्जित !!

***********************************************************************************

सिंधी कहानी 


अनु. देवी नागरानी, मुंबई, ईमेल: dnangrani@gmail.com

ले. शौकत हुसैन शोरो

गैरतमंद

सुबह का समय था। गाँव के लोग जो खेतों में गए हुए थे, वे यह कहते हुए भागते हुए आए कि बाढ़ आ रही है। हर एक आदम थोड़ा-सा सामान लेकर गाँव से निकलने की भागम-भागी में लग गया। आरिब और उसका छोटा भाई कासिम भी भागते हुए घर आए।

‘जल्दी करो, कपड़े लत्ते, थोड़ा जरूरी सामान जो ले सको, लेकर निकलें। बाढ़ बस आई कि आई!’

कासिम की पत्नी ज़रीना पेट से थी। आठवाँ महीना चल रहा था। वह उठी और सामान समेटने लगी।

‘सफूरान कहाँ है?’ आरिब ने पूछा।

‘कुछ देर पहले बाहर गई है।’ ज़रीना ने जवाब दिया।

‘उसे भी अभी बाहर जाना था। लोगों की भागम-भाग मची हुई है। ऐसी क्या जरूरत थी उसे बाहर जाने की...।’ आरिब ने गुस्से से कहा।

‘मैं देखकर आता हूँ!’ कहकर कासिम जल्दी बाहर निकल गया। बाहर आकर आसपास नज़र फिराई, पर वह कहीं नज़र नहीं आई। वह घूमकर घर के पिछवाड़े की ओर गया। कुछ दूरी पर सफूरान रमजान के साथ बातें कर रही थी। उसे देखकर कासिम का पारा चढ़ गया। उसकी रमजान के साथ वैसे ही अनबन थी और अब जो उसे भाभी के साथ इतनी नज़दीकी में बात करते देखा, तो वह आग-बबूला हो उठा। कासिम कुल्हाड़ी लेकर उनकी ओर दहाड़ा। रमजान ने उसे दूर से आते देखा, तो वह छू-मंतर हो गया। सफूरान पथरा-सी गई। कासिम ने एक पल की देर न की, ‘तुम काली हो’ कहते हुए कुल्हाड़ी का जोरदार वार उसकी गर्दन पर किया। वह धड़ाम से नीचे गिरी। कासिम उल्टे पाँव घर की ओर लौटा, एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। खून से सनी कुल्हाड़ी लेकर घर पहुँचते ही अपने भाई आरिब के सामने रख दी। आरिब हक्का-बक्का रह गया।

‘यह क्या कर आए?’ आरिब की चीख निकल गई।

‘भौजाई का कत्ल कर आया हूँ।’ कासिम की आवाज़ के साथ साथ उसकी शक्ल में भी एक वहशियत थी। ज़रीना काँपने लगी, खून से रँगी कुल्हाड़ी देखकर उसका दिल मचलने लगा। आरिब का छः साल का बेटा और चार साल की बेटी, दोनों भयभीत होकर पिता और चाचा को देखने लगे।

‘क्यों किया?’ आरिब ने डूबती आवाज़ में पूछा।

‘पिछवाड़े में रमजान के साथ उसे देखा!’ कासिम ने कहा।

‘ऐसा क्या देखा...?’ आरिब ने फिर सवाल किया।

‘दोनों एक-दूसरे के नज़दीक खड़े थे। मुझे देखकर रमज़ान भाग गया और भौजाई...।’ कासिम ने बात अधूरी छोड़ दी।

‘फिर बिना किसी पूछताछ के तुम उसे मार आए।’ आरिब की चीख निकल गई।  ‘वह मेरी औरत थी, मुझे बताते! तुम्हें क्या हक था उसे मारने का?’ आरिब ने गुस्से से लाल-पीला होते हुए कहा।

बच्चे जो अब तक भय से थरथरा रहे थे, अब ‘अम्मा अम्मा’ कहकर रोने लगे थे।

कासिम ने आगे बढ़कर ज़मीन पर पड़ी कुल्हाड़ी उठाते हुए कहा, ‘भाई मेरी गैरत जाग उठी। ठीक है, मैं थाने जाकर खुद को समर्पित करता हूँ।’ वह जाने लगा। ज़रीना ने घबराकर कासिम की ओर फिर आरिब की ओर देखा।

‘ठहरो!’ आरिब ने चिल्लाते हुए कहा, कुल्हाड़ी मुझे दे दो।’

उसने आगे बढ़कर कासिम के हाथों से कुल्हाड़ी छीन ली और जोर से बहुत दूर फेंक दी।

‘थाने जाने की कोई जरूरत नहीं है, चलो मेरे साथ।’ आरिब ने गुस्से से कहा।

बाढ़ का पानी अब गाँव तक आ पहुँचा था। आरिब ने कंधों पर बेटे को बिठाया और बेटी को गोद में लिया। 

‘जल्दी करो, चलो नहीं तो डूब जाएँगे।’ बढ़ता हुआ पानी अब उनकी कमर तक पहुँच गया था। उमड़ते पानी के बीच से रास्ता चीरते वे बाँध पर आकर पहुँचे। वहाँ लोगों की भीड़ जमा थी।

आस-पास के गाँव के लोग भी वहाँ जमा हुए थे। सभी अपनी-अपनी चिंता और परेशानी की चादर ओढ़े हुए थे।

आरिब के परिवारवालों ने वह रात बाँध पर गुज़ारी। दूसरे दिन उन्हें एक ट्रैक्टर-ट्राली में सवारी मिल गई। बाढ़ से पीड़ित और लोगों के साथ वे ‘सरवर’ आ पहुँचे। कैंप में ऊधम मचा हुआ था। बच्चों और औरतों के साथ मर्दों की आवाज़ें भी थीं। आरिब बच्चों को अपने साथ सटाकर बैठ गया। ज़रीना भी सामान को सरकाकर वहाँ आकर बैठी। गाँव से निकलने के पश्चात आरिब बिल्कुल चुप था।

‘मैं देखकर आता हूँ, कहीं कोई रहने का ठिकाना मिल जाए।’ कहते हुए कासिम लोगों के हुजूम में खो गया। रात बहुत देर गए वह वापस लौटा।

‘नाम लिखवाकर आया हूँ। हमें एक तंबू भी मिला है। चलो चलते हैं।’ कासिम ज़रीना के साथ सामान लेकर आगे बढ़ा। आरिब बच्चों को लेकर चुपचाप उनके पीछे जाने लगा। तंबू में आकर ज़रीना ने सामान सहेजकर रखा। वह अपने साथ कुछ बर्तन भी ले आई थी। कासिम उनमें से एक हाँडी लेकर बाहर चला गया। दिन-भर के भूखे-प्यासे बच्चे अब रोने लगे थे। कासिम दलिए से आधी भरी हाँडी लेकर भीतर आया।

‘यहाँ खाना लेना नहीं पड़ता, भीख में माँगना पड़ता है।’ कहते हुए उसने हाँडी नीचे रख दी। ज़रीना ने दो थालियों में दलिया परोसकर दोनों भाइयों के सामने रखा। आरिब बच्चों को खिलाने लगा। ‘भैया बच्चों को मैं खिलाती हूँ, यह आप खा लो।’ ज़रीना ने आरिब से कहा।

आरिब ने कोई जवाब नहीं दिया। ज़रीना ने कासिम की ओर देखा जैसे आँखों ही आँखों से शिकवा करते हुए कह रही हो, ‘देखा कैसा क़हर कर दिया तुमने!’

आरिब ने बच्चों को खिलाकर, उन्हें लिटाया और खुद भी लेट गया। नींद तो किसी को भी नहीं आ रही थी। ज़रीना ने सोने के लिए आँखें मूदीं, तो उसके आगे खून से सनी कुल्हाड़ी घूम गई। सफूरान थी तो उसकी जेठानी, पर वह उसकी सास बनकर उसे दुलारती और प्यार करती। ज़रीना अभी दस साल की ही थी कि उसकी माँ मर गई। उसके पिता की संगत चोर-डाकुओं के साथ थी। वह कभी जेल में होता, तो कभी बाहर। ज़रीना कभी नानी के पास तो कभी पराए दरों की ठोकर खाती रही। सात-आठ साल यूँ ही गुज़र गए। उसके पिता एक दिन अपने बचपन के दोस्त आरिब के पास गए और ज़रीना को शादी के बंधन में बाँधने की बात की, ताकि वह इस जवाबदारी से मुक्त हो सके। आरिब को भी अपने छोटे भाई कासिम के लिए एक रिश्ते की तलाश थी। ज़रीना सुंदर भी थी और गुणवान भी। सफूरान ने उसे अपनी छोटी बहन की तरह समझा और माना था। ज़रीना का दिल अचानक भर आया और उसकी सिसकी बँध गई। वह दुपट्टा मुँह में ठूँसकर रोने लगी। कासिम समझ गया कि वह रो रही है। वह खुद भी तो उसके बाजू में बुत बना लेटा रहा। उसका दिमाग बिल्कुल खाली व सुन्न था।

फिर न जाने कब उन दोनों की आँख लग गईं। जब वे सुबह उठे, तो तंबू में न आरिब था, न बच्चे! उन्होंने सोचा शायद आरिब बच्चों को बाहर ले गया होगा। जब कुछ देर गुज़री, तो कासिम उन्हें ढूँढने के लिए बाहर निकला। उसने सारा कैंप छान मारा, पर आरिब व बच्चे कहीं भी नहीं मिले। आखिर भटकने के बाद वह अकेला ही तंबू में लौट आया। ज़रीना जो इंतज़ार में बैठी थी, कासिम को अकेला आते देखकर व्याकुल हो गई. ‘क्या हुआ, भाई आरिब नहीं मिले?’

‘नहीं, सारा कैंप घूम आया हूँ, पर वे कहीं भी नज़र नहीं आए।’ कासिम ने मायूसी-भरे लहज़े में कहा।

ज़रीना हैरत-भरी निगाहों से कासिम की ओर देखती रही। ‘आखिर वे कहाँ गए होंगे?’ लगता है भैया बच्चों को लेकर किसी और जगह चले गए हैं।’ कासिम ने कहा।

ज़रीना के हृदय को आघात पहुँचा। वह समझ गई कि आरिब उनसे जुदा होकर, बच्चों को लेकर कहीं निकल गए हैं।

‘अब तो हम बिल्कुल अकेले हो गए हैं।‘ ज़रीना जैसे अपने-आपसे बतियाने लगी। कासिम ने भी कुछ नहीं कहा।

‘अब हम खुद भी क्या करेंगे?’ ज़रीना ने कुछ देर बाद कासिम की ओर देखते हुए कहा।

‘क्या करेंगे।’ अभी तो यहाँ कैंप में बैठे हैं।’ उसने बगल की जेब में हाथ डालकर सिगरेट का पैकेट निकाला। सिर्फ एक सिगरेट बचा था। उसने पैकेट फेंककर, सिगरेट सुलगाया और कश लेने लगा।

‘खाने का वक़्त हो गया है। हाँडी दे दो तो देखता हूँ। खाना लेने के लिए भी लंबी कतार...’

ज़रीना ने चुपचाप हाँडी लाकर उसे दी। कासिम बाहर निकला। वह जब लौटा तो उसकी कमीज़ फटी हुई थी।

‘खाना लेने के लिए तो तौबा...तौबा...एक तरफ पुलिसवालों की लाठियाँ, दूसरी तरफ लोगों की धक्का-

धुक्की...’ उसने गुस्से से कहा।

एक हफ़्ता-भर गुज़रा, तो कासिम बाहर से परेशानी वाली हालत में भीतर आया।

‘कह रहे हैं कि कल से मुफ्त का खाना बंद है। हर एक अपना बंदोबस्त खुद करे।’

‘फिर?’ ज़रीना भी परेशान हो उठी।

‘मेरे पास तो कुल मिलाकर तीन सौ रुपए होंगे। तुम्हारे पास कुछ पैसे हैं?’ कासिम ने ज़रीना से पूछा।

ज़रीना चुपचाप उठी, एक गठरी में से पाँच सौ रुपए निकालकर कासिम को दिए।

‘बस इतने!’ कासिम ने उन पैसों की ओर देखते हुए कहा। ‘इनमें से कितने दिन गुज़ारा होगा। ये ख़त्म हो गए तो फिर...?’

‘जजकी में भी अब कुछ दिन ही बाकी हैं। उसके लिए भी चार पैसे पास हों, तो अच्छा होगा।’ ज़रीना ने जैसे उसे याद दिलाते हुए कहा। कासिम खाना खाना भूल गया। वह परेशान हो उठा।

‘भैया के पास कुछ पैसे थे, पर वे हमें अकेला छोड़कर चले गये.’ कासिम ने शिक़ायती लहज़े में कहा।

‘किस मुँह से भैया पर इल्ज़ाम लगा रहे हो!’ ज़रीना ने पहली बार कासिम के मुँह पर सच कहने की हिमाक़त की। कासिम ने नज़रें उठाकर उसकी ओर देखा, जैसे कुछ कहना चाहता हो, पर चुप रहा।

रात को वे देर तक सोचते रहे, पर समस्या का कोई भी समाधान नज़र नहीं आ रहा था।

‘देखो शहर में अगर कोई नौकरी मिल जाए?’ ज़रीना ने सलाह दी।

‘यहाँ कैंप में हजारों लोग आए हैं, सभी भटक रहे हैं। क्या सिर्फ मुझे ही नौकरी मिलेगी?’ कासिम ने चिड़ते हुए कहा।

ज़रीना ने चुप रहना बेहतर समझा। कुछ देर बाद वह सोने की कोशिश करने लगी। कासिम को अचानक मौसी भागल याद आ गई, जो हैदराबाद में रहती थी। मौसी का पति ‘जानूं’ जाना-माना डकैत था। कई लोगों के साथ मिलकर उसने एक सूबेदार को भी मारा था, पर फिर वह उन डकैतों की टोली से जुदा हो गया। स्थापन के दिनों उसने मौसी भागल से शादी की और हैदराबाद में कासिमाबाद के इलाके में एक जगह ले ली। वहीं पर उसे एक बेटा भी पैदा हुआ। किसी जान-पहचान वाले ने उसे कासिमाबाद में देख लिया और जाकर पुलिस में चुगली लगाई। एक रात पुलिस की टीम ने उसके घर पर धावा बोल दिया और उसे गिरफ्तार करके ले गए। मौसी भागल ने बहुत यत्न किए, कोर्ट में केस भी चला, वकील भी किए, पर जानू को फाँसी की सजा से कोई न बचा पाया। उन दिनों कभी आरिफ कभी कासिम माँ के साथ मिलकर कासिमाबाद जाते, उसकी मदद करते। जानूं को फाँसी हुई तो वो मौसी के साथ जाकर जानूं की लाश गाँव लिवाकर ले आए।

माँ के गुज़र जाने के बाद मौसी के पास उनका आना-जाना कम हो गया था। अब तो बरसों बीत गए थे। उनका मौसी के साथ कोई रिश्ता ही न रहा। कासिम को यकीन था कि वह अगर मौसी के पास जाएगा, तो वह ज़रूर उसका लिहाज़ करेगी। कासिम ने सोचा, ‘और कोई चारा भी नहीं, ये बचे-खुचे पैसे भी ख़त्म हो जाएँगे, तो कोई ख़ैरात भी नहीं देगा।’ उसे कोई और रास्ता नज़र नहीं आया तो उसने मौसी के पास जाने का फैसला किया। इस फैसले से जैसे उसके मन से भारी बोझ उतर गया।

सुबह उठते ही उसने यह बात ज़रीना को बताई। नाश्ता करके, सामान साथ लेकर वे कैंप छोड़कर सरवर स्टेशन पर आए। कासिम ने हैदाराबाद की दो टिकटें लीं और वे गाड़ी में रवाना हुए।

‘मेरे ख्याल में तो भैया आरिब भी भागल के पास गए होंगे।’ कासिम ने अंदाज़ा लगाते हुए कहा।

‘पता नहीं, वहाँ चलेंगे तो मालूम पड़ेगा।’ ज़रीना ने जवाब दिया।

‘तय है वहीं होगा, और कहाँ गया होगा।’ कासिम ने खातिरी के साथ कहा।

कासिम और ज़रीना जब कासिमाबाद, मौसी भागल के घर पहुँचे, तब उनकी बहू नसरीन ने आकर दरवाज़ा खोला। कासिम ने इससे पहले उसे कभी नहीं देखा था।

‘मौसी भागल घर में हैं?’ कासिम ने पूछा।

‘कौन मौसी भागल?’ नसरीन ने हैरत से पूछा।

कासिम कशमकश में पड़ गया, ‘यह घर मौसी भागल का है न?’

‘नहीं, यह मौसी अमीना का घर है!’ इतना कहकर नसरीन दरवाज़ा बंद करने ही वाली थी कि मौसी ने पास आकर पूछा, ‘कौन है?’

उसकी नज़र कासिम पर पड़ी, तो खुशी से चिल्ला उठी, ‘कासिम ‘तुम?’

वह कासिम और ज़रीना को अंदर ले आई।

‘शाबास है बेटे! मौसी को तो बिल्कुल ही भुला बैठे। मैं टी॰वी॰ पर बाढ़ की खबरें देखकर चिंता में पड़ गई कि मेरे यतीम भांजों का न जाने क्या हाल हुआ होगा? अच्छा किया आ गए, पर आरिब और उसके बच्चे कहाँ हैं?’ मौसी ने शिकायत के साथ हमदर्दी जताते हुए कहा।

‘कैंप में तो साथ थे, फिर अचानक भैया हमें बताए बिना बच्चों को लेकर न जाने कहाँ चले गए। हमने समझा वो आपके पास आए होंगे...’

मौसी ने हैरानी से कासिम और ज़रीना की ओर देखते हुए कहा, ‘यहाँ तो नहीं आया।’ 

‘मौसी आप तो खुश हैं न?’ कासिम ने बात का रुख बदलते हुए पूछा। 

‘बस बेटा! मालिक की मेहरबानी है, गुज़र-बसर हो रहा है। जो जमा-पूँजी थी, वह तुम्हारे मौसा पर खर्च हो गई। फिर भी शुक्र है, यह घर बच गया। अपनी छत की छाँव है।’

घर काफी अच्छा था-तीन कमरे थे, आँगन और अलग रसोईघर। एक कमरे में सदीक, उसकी पत्नी और बच्चा रह रहा था। दूसरे कमरे में मौसी भागल, जो आजकल मौसी अमीना के नाम से जानी जाती थी। तीसरा कमरा छोटा था, जिसमें घर का सामान रखा हुआ था। मौसी ने उस कमरे में कासिम और ज़रीना को पनाह दे दी।

दूसरे दिन सुबह नाश्ता करते समय कासिम ने सदीक से कहा, ‘भाई सदीक, तुम्हें अगर कोई नौकरी सूझे तो मुझे दिला देना। किसी न किसी रोज़गार से लग जाऊँ, तो अच्छा होगा।’

सदीक हँसने लगा, ‘नौकरियाँ इतनी आसानी से मिलतीं, तो मैं क्यों बेरोज़गार बैठा होता। मैट्रिक पास हूँ, पर चैकीदार की नौकरी भी नहीं मिलती।’

‘बेटा, नौकरियाँ मिलनी मुश्किल हैं। कहीं अगर मज़दूरी मिल जाए, तो और बात है।’ मौसी अमीना ने कहा।

सदीक नाश्ता करके, तैयार होकर, घर के बाहर खड़ी नई मोटर साइकिल पर सवार होकर कहीं चला गया। कासिम ने सोचा कि उसे खुद ही कोशिश करके रोज़गार ढूँढना पड़ेगा। इतना बड़ा शहर है, कहीं कोई मज़दूरी तो ज़रूर मिल जाएगी।’

कासिम कई दिन भटकता रहा। आफिसों में, दुकानों में, होटलों में, जहाँ भी गया उसे दो टूक जवाब मिला। ऊपर से ज़रीना की जजकी के दिन भी पास आने लगे।

मौसी ने जजकी का सारा भार खुद पर ले लिया। कहीं से दाई का इंतज़ाम किया। ज़रीना ने बेटे को जन्म दिया। मुबारकबाद का आदान-प्रदान हुआ, खुशियाँ मनाई गईं।

एक दिन ज़रीना ने बच्चे को सुलाते हुए कहा, ‘मौसी ने हम पर बहुत मेहरबानी की है। नहीं तो कौन किसी का इतना ख़्याल रखता है और घर में बिठाकर खिलाता-पिलाता है, पर हम आखिर कब तक मौसी पर बोझ बने बैठे रहेंगे?’ चिंता में डूबी ज़रीना ने कहा।

‘फिर क्या करें?’ कासिम बोल उठा, उसे खुद भी इस बात का अहसास था।

‘तुम थोड़ा कुछ ही कमाकर ले आओ, तो हम भी सर उठाने जैसे हों।’ ज़रीना ने कहा।

‘तुम क्या समझती हो कि मैं कमाने से कतराता हूँ? पूरा महीना भटका हूँ, कहीं मज़दूरी भी नहीं मिली। बाकी भीख माँगने का काम बचा है, कहो तो वह भी करके देखूँ।’ कासिम ने चिढ़ते हुए कहा।

‘आहिस्ता बोलो, मौसी सुन लेगी। मैंने कब कहा कि भीख माँगने का काम करो!’ ज़रीना ने वापस चिढ़ते हुए कहा।

‘तुम बात ही ऐसी करती हो ! अपनी ओर से मैंने पूरी कोशिश की।’ कासिम ने उसके कान के पास जाते हुए 

धीरे से कहा, ‘मेरी बात तो सुनो...।’

ज़रीना ने सवाली नज़रों से उसकी ओर देखा।

‘ये हर रोज़ शाम ढले मौसी के घर न जाने कौनसी लड़कियाँ सजी हुई आ जाती हैं। ये हैं कौन? मौसी के घर में क्या करती हैं?

‘मुझे क्या पता कौन हैं? मैं भी तुम्हारी तरह देख रही हूँ!’ ज़रीना ने जवाब दिया।

‘रात होते ही मौसी के पास फोन आने शुरू हो जाते हैं। वह फोन पर धीरे से बात करती है और फिर लड़कियों को साथ लेकर निकल जाती है। यह क्या माजरा है?’ कासिम ने हैरत जाहिर करते हुए कहा।

‘यह उसकी मर्ज़ी, तुम क्यों सिरदर्द मोल ले रहे हो। हमें पनाह दी है, तीन बार खाना देती है। हम पर उसका यह अहसान कम है कि तुम बैठे-बैठे मौसी की जासूसी कर रहे हो।’ ज़रीना ने कासिम को हल्के से डाँटा।

‘जासूसी नहीं कर रहा, सामने मंज़र देख रहा हूँ, इसलिए पूछ लिया।’

‘चलो अब ज़्यादा दिमाग़ मत लड़ाओ, चुप करके सो जाओ।’ ज़रीना ने उसकी ओर पीठ करते हुए कहा।

एक दिन रात के वक़्त ज़रीना मौसी के पास बैठी थी कि एक फोन आया।

‘हाँ रईस! मैं खुश हूँ, गाँव से कब लौटे?’ मौसी ने पूछा और फिर बात सुनते ही हँसकर कहा, ‘आते ही इतनी बेताबी! अच्छा देखती हूँ अगर वह घर में है, तो लेकर आती हूँ।’

फिर मौसी ने किसी को फोन करके कहा, ‘रईस ने बुलाया है, तुम तैयार हो जाओ, तो मैं रिक्शा में तुम्हें लेने आती हूँ।’

मौसी ने ज़रीना की ओर देखा, ‘तुम चलोगी घूमने?’

‘कहाँ मौसी...?’ ज़रीना ने पूछा। वैसे भी वह कभी-कभी मौसी के साथ बाज़ार में घर के सौदे के लिए जाया करती थी।

‘बस यूँ ही चलो चक्कर लगा आते हैं!’ मौसी ने मुस्कराते हुए कहा।

‘मेरा ...बच्चा...!’

‘नसरीन जो बैठी है।’ मौसी ने नसरीन को बुलाकर ज़रीना के बच्चे की देखभाल करने की हिदायत दी। नसरीन ने मुस्कराकर ज़रीना की ओर देखा। वह शक्ल-सूरत में सादी थी, पर दिल की अच्छी थी। ज़रीना को वह बहुत चाहती थी। घर का तमाम भार नसरीन पर था, पर अब ज़रीना भी उसके काम में हाथ बँटाती थी। मौसी अमीना तो फक़त हुकुम चलाया करती। वह थोड़ी- थोड़ी देर में पुकारकर नसरीन को चाय बनाने के लिए कहती। उसे चाय पीने व सिगरेट फूँकने के सिवा दूसरा कोई काम न था।

‘तो फिर चलें?’ मौसी ने ज़रीना से पूछा।

ज़रीना ने हामी भरी, तो मौसी ने उसकी ओर देखा और हँसते हुए कहा, ‘इस हाल में बाहर चलोगी क्या? कपड़े तो ढंग के पहन लो।’

ज़रीना ने भीतर जाकर कपड़े बदले और बाल ठीक करके बाहर आई। मौसी ने चाहत भरी नज़रों से उसकी ओर देखा और बाहर आकर हाथ के इशारे से एक रिक्शे को रोका। रिक्शेवाले से दो जगहों पर रुकने के पैसे तय करके ज़रीना के साथ भीतर बैठ गई। रिक्शा एक गली में किसी मकान के पास रुका। मौसी ने फोन से एक मिस्ड कॉल किया। तुरंत चादर में लिपटी लड़की बाहर आई और रिक्शे में बैठ गई। सिंधी मुस्लिम सोसाइटी में एक बँगले के बाहर आकर रिक्शा रुकी, तो मौसी ने उसका किराया चुकाया। आगे जाकर उसने घर की कॉलबेल बजाई। तुरंत ही नौकर ने आकर गेट खोला। मौसी को देखते ही मुस्कराकर एक तरफ खड़ा हो गया। मौसी दोनों लड़कियों को लेकर बँगले में भीतर गई और ड्रांइगरूम में जाकर बैठ गई। ज़रीना को महसूस हुआ कि मौसी का वहाँ आना-जाना लगा रहता है। ज़रीना ने ज़िंदगी में पहली बार इतने बड़े बँगले को देखा था। वह बहुत खुश हुई। साथ आई लड़की ने अपनी चादर उतारकर पास ही सोफे पर रख दी। लड़की जवान थी और दिलकश भी। कुछ ही पलों में वह रईस भीतर आया और उसने मौसी की ओर मुस्कराकर पूछा, ‘अमीना क्या हाल है? फिर उसने लड़की की और साथ बैठी ज़रीना की ओर देखा। उसकी आँखें ज़रीना पर ठहर गईं। ज़रीना को शर्म आने लगी, उसने अपनी आँखें नीची कर लीं।

‘रईस यह मेरी भांजी है। बाढ़ की वजह से यह लोग गाँव से मेरे पास आए हैं।’ मौसी ने ज़रीना का परिचय कराते हुए कहा, और फिर दूसरी लड़की की ओर देखते हुए कहा, ‘तुम्हारी फरमाइश पर शमाइला को लेकर आई हूँ।’

रईस ने मुस्कराते हुए शमाइला की ओर देखा, ‘कैसी हो?’

‘जी ठीक हूँ।’ शमाइला ने मुस्कराकर जवाब दिया।

रईस कुछ सोचते हुए उठा और मौसी की ओर देखते हुए कहा, ‘अमीना यहाँ आओ तो...।’ मौसी उठकर उसके पीछे दूसरे कमरे में गई। रईस बिस्तर पर बैठा और उसने मौसी को अपने साथ बिठाया। वह मौसी के कंधे पर अपनी बाँह रखकर उसे देखने लगा।

‘क्या देख रहे हो रईस?’ मौसी हँसने लगी, ‘मैं तो अब बूढ़ी हो गई हूँ।’

‘मैं भी कौन सा जवान हूँ, अमीना? साठ साल का हो गया हूँ।’

‘नहीं रईस, मर्द और घोड़ा दोनों कभी बूढ़े नहीं होते।’ मौसी की बात सुनकर रईस ने ठहाका लगाया।

‘तुम्हारी यही बातें तो मुझे भली लगती हैं।’ रईस ने हँसते हुए कहा। पल- भर रुककर फिर कहा, ‘अमीना जवानी में तुम भी कहर ढाती थीं, पर तुम्हारी भांजी भी गज़ब की है। मैं तो उस पर फिदा हो गया हूँ।’

मौसी ने रईस की बाँह अपने कंधे से हटाते हुए कहा, ‘नहीं रईस! ज़रीना मेरे भांजे की बीबी है, मेरे पास मेहमान बनकर आई है। यह बात शोभा नहीं देती। तुम इस बात को जहन से निकाल दो। मैं तुम्हें ज़रीना से ज़्यादा सुंदर लड़की ढूँढकर दूँगी।’

‘नहीं!’ रईस ने नकारात्मक ढंग से गर्दन हिलाते हुए कहा, ‘मुझे तो वह भा गई है। चाहिए, तो बस यही चाहिए।’ उसने ज़िद्द करने की कोशिश की।

‘रईस, मेरी बात सुनो और समझो, मैं तो इसे यूँ ही घुमाने ले आई थी। मुझे क्या पता कि इसे देखते ही अपने होश खो बैठोगे!’ मौसी ने हँसते हुए उसे समझाने की कोशिश की।

रईस ने मौसी के सामने दोनों हाथ जोड़ दिए, ‘देखो अमीना तुम कुछ भी करो, पर यह काम कर दो।’

मौसी ने तुरंत उठकर रईस के हाथों को अपने हाथों में थामा, ‘यह क्या कर रहे हो रईस! अच्छा, कुछ दिन सब्र करो, तो मैं कोई हल निकालने की कोशिश करती हूँ।’

रईस ने मौसी को आगोश में लेकर उसका गाल चूम लिया, ‘बस अब सब तुम्हारे हाथ में है। कुछ करना, वर्ना मैं मर जाऊँगा।’

‘अच्छा, अच्छा अब ज़्यादा अदाकारी दिखाने की ज़रूरत नहीं है। मैं तुम्हें जानती हूँ।’ मौसी जी ने उसे टोकते हुए कहा।

रईस ने बटुए से हजारझार के दो नोट निकालकर मौसी को दिए।

‘यह एक हजार तुम्हारा और एक हजार ज़रीना का।’ उसने फिर तीसरा नोट निकालते हुए कहा, ‘यह शमाइला को दे देना और उसे अपने साथ लेते हुए जाना अभी मेरा मन नहीं है।’

‘नहीं रईस, यह बात ठीक नहीं! तुम्हारे कहने पर ही उसे ले आई हूँ। अब कैसे कहूँ कि वापस चलो?’ मौसी ने ऐतराज़ करते हुए कहा।

‘अच्छा ठीक है! आई है, तो उससे दिल बहला लेता हूँ। वर्ना तुम भी बुरा मान जाओगी...’ रईस ने मौसी की बात मानते हुए कहा।

दोनों ड्राइंगरूम में लौटे, तो मौसी ने ज़रीना को चलने के लिए कहा।

‘ठहरो तुम्हें मेरी गाड़ी छोड़कर आती है।’ मौसी के मना करने के बावजूद वे दोनों रईस की गाड़ी में सवार होकर रवाना हुईं। घर से कुछ दूरी पर दोनों कार से उतरकर घर आईं। ज़रीना अपने कमरे में गई, तो देखा कि बच्चा सो रहा था। कासिम अभी तक नहीं लौटा था। इतने में मौसी उसके कमरे में आई।

‘अरी पगली! रईस तुझे देखकर पागल हो गया है।’ मौसी ने उसके पास बैठते हुए कहा।

‘मौसी तुम मुझे गैर मर्द के पास क्यों लेकर चलीं?’ ज़रीना ने शिक़ायत-भरे लहज़े में कहा।

‘इसलिए ले चली कि तुम थोड़ा घूम-फिर आओ। मुझे क्या पता था कि वह तुझ पर लट्टू हो जाएगा।’ मौसी ने हज़ार का नोट उसकी ओर बढ़ाते कहा, ‘ये लो रईस ने तुझे खुशी से बख़्शीश दी है।’

ज़रीना हैरानी से उस नोट को देखती रही।

‘नहीं, मौसी नहीं! कासिम पूछेगा कि पैसे कहाँ से लाई, तो क्या जवाब दूँगी। तुम्हें पता नहीं कासिम कितना खड़ूस है...।’ फिर उसने सफूरान के क़त्ल की सारी वारदात मौसी को बता दी।

मौसी के तो जैसे होश उड़ गए, ‘यह ज़ालिम तो खूनी है। मैं भी सोचूँ कि आरिब छोटे भाई को छोड़कर कैसे चला गया होगा? अच्छा, तो यह बात है...।’ उसने हज़ार का नोट अपने पास रखते हुए कहा, ‘हाँ सच में वह पैसे देखकर शक़ करेगा। तुम्हारे पैसे मैं अपने पास अमानत के तौर रखती हूँ।’

‘मौसी वैसे भी तुम्हारा ही तो खा रहे हैं...।’ ज़रीना ने शुक्रगुज़ारी की रस्म निभाते हुए कहा।

‘नहीं पगली नहीं! हर एक अपने नसीब का खाता है...।’ मौसी ने हँसते हुए कहा। ‘तुम्हें पता है घर का इतना खर्च किस तरह चलता है। सदीक बाल-बच्चों वाला हो गया है, पर घर की ज़िम्मेदारी बिल्कुल पूरी नहीं कर पाता। माँ जो कमा रही है। पिता के पैसे सब मुकदमों में खर्च हो गए। खुद तो फाँसी पर चढ़ गया, पीछे रह गई मैं। सदीक तब बच्चा था। मेरे पास अपनी जवानी के सिवा कुछ न था।’

मौसी ने गहरी साँस लेते हुए कहा, ‘तुम्हें क्या पता, अकेली औरत ज़ात होकर मैंने किस तरह गुज़ारा किया। पापी पेट को टुकड़ा तो चाहिए न...।’ मौसी का गला भर आया। वह रोने लगी।

‘मैंने यह काम खुशी से नहीं किया। मुझे अपना और अपने बच्चे का पेट पालना था। बस, इस दलदल में उतरी तो फिर बाहर न आ पाई...।’

मौसी को रोता देखकर, ज़रीना का दिल भर आया।

‘दुनिया बड़ी ज़ालिम है ज़रीना। किसी-न-किसी ढंग से उससे जूझना तो है ही।’ मौसी ने दुपट्टे से आँसू पोंछते हुए कहा।

ज़रीना मौसी की बातें सुनकर दंग रह गई।

एक रात कासिम ने यूँ ही बात निकाली, ‘अब मुझे मौसी के पास रहना अच्छा नहीं लगता।’

‘क्यों? क्या हुआ?’ ज़रीना ने हैरानी से पूछा।

‘मुझे मौसी के आसार अच्छे नहीं लगते।‘ कासिम ने कहा।

ज़रीना सकते में आ गई, ‘तुमने ऐसे कैसे सोच लिया?’ उसने धीमी आवाज़ में कहा।

‘सदीक सारा दिन मोटर साइकिल पर घूमता रहता है। कोई काम भी नहीं करता, तो फिर घर में इतना पैसा कहाँ से आता है? मौसी कोई अच्छा काम नहीं कर रही है, इतना तो मैं भी समझ गया हूँ।’ उसने गर्दन हिलाते हुए कहा।

‘पता नहीं।’ ज़रीना ने नर्म लहज़े में कहा, ‘फिर तुम्हारी क्या मर्ज़ी है?’

‘कोई चारा हो तो यहाँ से निकल चलें।’ कासिम ने कहा।

‘मर्द आदमी हो, कोई रास्ता ढूँढ निकालो।’

‘सुबह से शाम तक रोज़गार के पीछे भागता फिरता हूँ। बस दुआ कर!’ कासिम ने बेबसी की छटपटाहट से जूझते कहा।

‘खुदा करे अपने रोज़गार का कोई रास्ता निकल आए।’ ज़रीना ने कहा।

शायद ज़रीना की दुआ कबूल हुई, कासिम को एक होटल में काम मिल गया, पर वह काम उसके लिए नया भी था और कठिन भी। एक तो उसके शरीर में फुर्तीलापन नहीं था, दूसरे कभी उसके हाथ से प्लेट गिर जाती, तो कभी गिलास टूट जाता। ग्राहकों की बातें सुननी पड़तीं और साथ में होटल के मालिक की सख्ती सहनी पड़ती। वह एक हफ्ता भी नहीं टिक पाया। आखिर होटल के मालिक ने उसे नौकरी से निकाल दिया। ज़रीना ने सुना, तो उसने दोनों हाथों से अपना माथा पीट लिया।

‘तुमसे यह काम भी नहीं हो पाया, तो दूसरा कौन सा काम करोगे?’ उसने गुस्से से कहा।

‘लोगों की बातें सुनकर, सख्ती सहकर भी काम कर रहा था। होटल मालिक ने खुद जवाब दिया। इसमें मेरा क्या दोष?’ कासिम ने कहा।

‘आखिर तुम क्या करोगे? अगर तुमसे कुछ नहीं होता, तो फिर मुझे रिहा करो, तो मैं मौसी के साथ बाहर निकलूँ...।’ ज़रीना ने चिढ़ते हुए कहा। कासिम ने झपटकर उसे गर्दन से पकड़ लिया।

‘फिर अगर ऐसी बात की है, तो तेरे टुकड़े-टुकड़े कर दूँगा...।’ गुस्से से उसकी मुट्ठियाँ बँध गईं। 

‘भड़वों के साथ रहकर तुम भी उन जैसी हो गई हो।’ उसने ज़रीना की गर्दन पकड़ते हुए उसे धक्का मारा। ज़रीना कमरे की दीवार से टकराकर नीचे गिर पड़ी। कासिम तेजी से बाहर निकल गया। शोर सुनकर मौसी कमरे में आई। उसने ज़रीना को गले लगाकर उसे ज़मीन से उठाया। ज़रीना मौसी से लिपटकर रोने लगी।

‘हम भड़वे हैं और खुद गैरतमंद है, तो यहाँ क्यों बैठा है?’ मौसी बहुत गुस्से में थी। ‘मुझे तुम्हारा और छोटे बच्चे का ख़्याल न होता, तो अभी का अभी कासिम को घर से बाहर निकाल फेंकती। खुद को समझता क्या है?’

उसने अपने दुपट्टे से ज़रीना के आँसू पोंछे। फिर पानी का ग्लास भरकर उसे पिलाया, ‘यह पानी पीले, ये मर्द सब होते हैं कुत्ते! झूठे, मक्कार, ग़ैरतमंद! इनका बस चले, तो औरत का मांस तो मांस, उनकी हड्डियाँ भी चबा डालें...।’ मौसी ने गुस्से-भरे उबाल से कहा।

रात को कासिम देर से घर आया। ज़रीना ने चुपचाप खाना लाकर उसके सामने रखा और खुद बच्चे के पास लेट गई। खाना खाकर कुछ वक़्त कासिम चुप बैठा रहा। वह चाहता था कि ज़रीना से बात करे। उसने ज़रीना की बाँह पर हाथ रखा, पर ज़रीना ने उसका हाथ परे झटक दिया। अब कासिम ज़मीन पर बिछे अपने बिस्तर पर जाकर लेट गया।

मौसी और ज़रीना जबसे रईस के पास से लौटी थीं, शाम होते ही वह रोज़ मौसी को दो-तीन बार फोन करता।

‘क्या हुआ? मेरी रातों का सुख-चैन सब खो गया है। कब परिंदे को लेकर आ रही हो?’

‘रईस, ज़रीना कोई गुलाब नहीं, जो खुशबू के साथ तुम्हारे पास ले आऊँ, पर तुम्हारे कारण मैं भरपूर कोशिश करूँगी।’ मौसी रईस की उम्मीद बँधाती और अपनी जान छुड़वा लेती। जब रईस की बेसब्री हद से ज़्यादा बढ़ी, तो मौसी ने उससे फोन पर पूछा, ‘अच्छा यह तो बताओ, ज़रीना को किसी तरह ले भी आई तो दोगे क्या?’

‘जो तुम कहोगी।’ रईस ने तुरंत जवाब दिया।

‘ज़रीना तुम्हारे पास महीने में चार बार आएगी। तुम उसके चालीस हजार महीने के बाँध दो...।’ मौसी ने अपना पासा फेंका।

‘ये लो अमीना, तुम तो पहाड़ की चोटी पर चढ़ गईं।’ रईस की जैसे चीख निकल गई।

‘अगर रईसों के अदब-आदाब अपनाने हैं, तो खर्चा तो करना पड़ेगा।’

‘मैं हर महीने तीस हजार रुपए दूँगा, पर एक शर्त पर...।’

‘कैसी शर्त?’ मौसी ने पूछा।

‘वह मेरे सिवा किसी और के पास नहीं जाएगी।’ रईस ने शर्त सामने रखी।

‘वाह साँई, वाह! तीस हजार देकर परिंदे को पिंजरे में बंद करके रखोगे। अगर ऐसा शौक है, तो लाख रुपए महीने का दो, नहीं तो ऐसी पाबंदी कबूल नहीं।’ मौसी ने रूखा-सा जवाब दिया।

‘ऐसी जोर जबरदस्ती मत करो अमीना! तुम्हें पता है मेरे और भी कई खर्च हैं।’

‘तो फिर ऐसी शर्त भी मत रखो।’

‘चलो फिर मैंने शर्त को रद्द कर दिया। अब तो मान जाओ...।’ रईस जैसे बेबस हो गया था।

‘ठीक है रईस, देखती हूँ। मैं क्या कर सकती हूँ।’ मौसी ने कोई भी वादा न करते हुए कहा।

‘हाय! अब भी देखोगी? तब तक मैं मर जाऊँगा।’ रईस ने जैसे बेहताशा होकर चिल्लाते हुए कहा।

‘ये वाक्यांश किसी और को सुनाओ, मरता-वरता कोई नहीं।’ मौसी ने हँसते हुए कहा, ‘ज़रीना को हासिल करना इतना आसान नहीं। मुझे थोड़ा वक़्त दो अपने घर को तो बाँध लूँ।’

‘बस अमीना, अब तुम्हारी मर्जी! हम तो अब तेरे बस में हैं।‘ रईस ने ठंडी आह भरते हुए फोन बंद कर दिया।

‘मौसी तुमने यह क्या किया?’ ज़रीना के चेहरे पर डर और परेशानी के बादल उमड़ आए।

‘पगली! रईस के साये में तुम बस जाओगी।’ मौसी ने उसे समझाते हुए कहा।

‘नहीं मौसी नहीं..., डर से मेरा हृदय काँप रहा है। कासिम को तो तुम जानती हो।’ इतना कहकर ज़रीना हक़ीक़त में काँपने लगी थी।

‘इतना डरने की बात नहीं। मैं भी इस बात को समझती हूँ। बात बनी तो बनी, नहीं बनी, तो खैर है। मैंने तो ऐसे ही रईस से जानना चाहा कि वह देगा क्या?’

मौसी ने ज़रीना को दिलासा बँधाया!

कुछ दिनों तक कासिम से न ज़रीना ने बात की, और न ही मौसी उसके मुँह लगी। कासिम को मौसी की ओर से अधिक चिंता थी। अगर मौसी ने घर से निकाला, तो कहाँ जाएँगे? इस ख़्याल से वह और अधिक भयभीत हो जाता। अब गाँव में भी उसके लिए कुछ न बचा था। एक बड़ा भाई था, उसने भी उससे नाता तोड़ दिया था। कैंपों में खैरात पर आखिर आदमी कब तक पड़ा रहेगा। एक दिन उसने ज़रीना को बात करते हुए मिन्नत की, ‘अब गुस्से को थूक भी दो, क्या सारी उम्र बात नहीं करोगी?’

‘क्या बात करूँ? बात करती हूँ, तो गला दबा देते हो...।’ ज़रीना ने अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए कहा।

‘तुमने बात ही ऐसी की। क्या गुस्सा नहीं आएगा?’

‘यानि, तुम्हें मेरा बात करना पसंद नहीं है? तो फिर बात न करूँ तो ही ठीक है।’

‘घर में दो बर्तन होंगे, तो जरूर टकराएँगे। इसमें बड़ी बात कौन सी है?’

‘बड़ा आया है बर्तन...।’ ज़रीना की हँसी छूट गई।

‘गनीमत है, तुम हँसी तो सही।’

‘मेरी तो ख़ैर है, पर मौसी बहुत गुस्से में है।’ ज़रीना ने कासिम के अंदर खौफ को फूँक दिया।

‘हाँ, मैं भी देख रहा हूँ, वह घास ही नहीं डाल रही। तुम उससे बात करो, तो शायद उसकी नाराज़गी कम हो।’

‘मौसी तुम्हारी है और कहा मेरा मानेगी?’

‘हाँ... पर...।’ कुछ कहते-कहते कासिम चुप हो गया।

दूसरे दिन शाम को मौसी के घर दो लड़कियाँ आईं। रात होते ही मौसी के पास फोन आने लगे। मौसी दोनों लड़कियों को लेकर घर से निकली। गली से निकलकर रोड पर आई, तो एक कार उनका इंतजार कर रही थी। कार ने उन्हें लेकर एक बँगले के सामने छोड़ा। अंदर साहब अपने एक दोस्त के साथ बैठा था। उनके सामने व्हिस्की के भरे गिलास रखे थे। मौसी और लड़कियों को देखकर दोनों ने मिला-जुला नारा लगाया-‘मौसी जिन्दाबाद।’ मौसी ने लड़कियों को छोड़कर लौटना चाहा, पर साहब और उसके दोस्त ने मौसी को अपने साथ बिठाया और व्हिस्की का एक गिलास मौसी को पेश किया। 

‘चीयर्स’ कहकर उन्होंने अपने गिलास मौसी के गिलास से टकराए। मौसी भी दो पेग पीकर, मदहोशी में अपने घर लौटी। उस वक़्त तक ज़रीना व कासिम जाग रहे थे। मौसी ने ज़रीना को अपने कमरे में बुलवाया।

‘कर खबर? तुम्हारा मर्द रास्ते पर आया है या नहीं?’ मौसी ने ज़रीना से पूछा।

‘थोड़ा बहुत...। कहता है मौसी को मनवाओ।’ ज़रीना ने हँसते हुए कहा।

‘अच्छा, जाओ उसे ले आओ।’ मौसी जैसे आलीशान मूड में थी।

कुछ देर में ज़रीना लौट आई और उसके पीछे सहमा-सहमा सा कासिम भी भीतर आया।

‘बैठो मियां कासिम खान।’ मौसी ने तंज-भरे लहज़े में कहा, ‘दबंग जान हो।’

‘नहीं मौसी, तुम्हारा बच्चा हूँ।’ बैठते हुए कासिम ने नर्मी से कहा।

‘मेरी स्वर्गवासी बहन के बेटे हो, इसीलिए मैंने भी तुम्हें अपना खून समझकर घर में रखा। बाकी तुम मुझे अगर बुरा समझते हो, तो दरवाज़ा खुला पड़ा है। जाना चाहो, तो खुशी से जा सकते हो।’ मौसी ने उस पर सीधा वार किया।

‘नहीं मौसी, तुम भी मेरी माँ समान हो। तुम्हें बुरा क्यों समझूँगा। तुम्हारे सिवा हमारा है ही कौन?’ कासिम की आवाज़ में पशेमानी थी। मौसी ने पर्स में से पाँच सौ वाले चार नोट निकालकर आगे रखे।

‘मेरी इस कमाई पर सारा परिवार चलता है। कुछ छिपा नहीं रही। मेरा धंधा तेरे सामने है।‘ उसने पाँच सौ का एक नोट कासिम की ओर बढ़ाते कहा, ‘हाँ, ये मेरी ओर से जेबखरची है।’

‘नहीं, नहीं, मौसी, तुम्हारा दिया खा रहे हैं, मेरे लिए इतना ही काफी है।’ कासिम ने पैसे लेने से इंकार करते हुए कहा।

‘अब ले भी लो, मौसी का दिया हुआ लौटा रहे हो।’ ज़रीना ने जोर दिया।

कासिम ने जैसे लाचारी के तहत नोट लेकर जेब में डाला।

‘कासिम, अब मेरी बात ठंडे दिमाग़ से सुनो। कोई जोर जबरदस्ती नहीं है। अपनी मर्ज़ी वाले हो। अगर तुम्हें यह बात अच्छी न लगे, तो जहाँ चाहो अपना रास्ता पकड़कर चले जाना।’ मौसी ने ग़ौर से कासिम की ओर देखा। कासिम बिल्कुल चुप था।

‘क्या कहते हो? बात चलाऊँ?’ मौसी ने कहा।

‘जी मौसी!’ कासिम के गले से घुटी-घुटी-सी आवाष निकली।

‘तुम्हारी पत्नी और बच्चे का खर्च मुझ पर है। तुम उनसे आज़ाद हो। तुम्हें हर महीने पाँच हजार जेब खर्च मिलेगा। बस! ज़रीना की बाँह मेरे हवाले कर दो।’

कासिम के दिमाग की नसें तन गईं और उसका जिस्म पथरा गया। मौसी ने देखा कि उसकी आँखें लाल हो गई थीं।

‘तुम भले अभी जवाब मत दो। एक-दो दिन ठंडे दिमाग़ से सोच- विचार करो। फिर जो तुम्हारी मर्ज़ी।’ मौसी ने उनींदी आँखों से उनकी ओर देखते हुए कहा, ‘अब जाकर सो जाओ।’

कासिम अपने पथराए शरीर को ढोकर बाहर निकल गया। मौसी ने मुस्कराकर ज़रीना को आँख मारी और उसे कासिम के पीछे जाने को कहा।

कासिम जाते ही अपने बिस्तरे पर ढेर हो गया। उस रात दोनों ने एक- दूसरे से एक शब्द भी नहीं कहा और न ही दो-तीन दिनों तक मौसी वाली बात छेड़ी।

दो-तीन दिन गुज़र गए। कासिम दोपहर का खाना खाकर बाहर जाने लगा, तो ज़रीना ने उससे कहा, ‘सुनो आज शाम जल्दी घर आना, काम है।’

‘क्या काम है?’ कासिम ने हैरत से पूछा।

‘तुम आओ फिर बताऊँगी।’

कासिम कुछ समझ नहीं पाया। बेचैन मन में न जाने कितने सवालों ने उसका बाहर रहना मुहाल कर दिया। शाम होते ही घर लौट आया। ज़रीना कमरे में नहीं थी। वह बैठ गया। कुछ देर के बाद ज़रीना कमरे में भीतर आई, तो कासिम उसे देखकर दंग रह गया। उसने इतनी सजी-

धजी ज़रीना कभी नहीं देखी थी। पहली बार ज़रीना उसे इतनी सुंदर लगी।

‘अब कहो, इजाज़त दो तो मौसी के साथ जाऊं ?’ कासिम का तन एक बार फिर पथरा-सा गया।

एक क्षण के लिए रुककर ज़रीना ने कहा, ‘क्या कहते हो, तुम्हारी मर्ज़ी नहीं है, तो मैं नहीं जाती।’ ज़रीना उसकी ओर देखती रही और कासिम की गर्दन झुक गई। कुछ देर के बाद उसने ज़रीना की ओर देखे बिना फुसफुसाहट के लहज़े में कहा, ‘चली जाओ...!’

ज़रीना ने गर्दन मोड़ ली। एक तंज-भरी मुस्कराहट को होंठों पर सजाए वह कमरे से बाहर निकल गई।

***********************************************************************************

कहानी


डाॅ. कुसुम अंसल, नई दिल्ली, मो. 98100 16006

गति

‘‘यह पराइवेसी क्या होती है ?’’

‘‘एकांत ‘‘प्राइवेसी का अर्थ है अकेलापन, पर क्यों मौसीजी ?‘‘ ‘वैसे ही पूछा था बेटी ‘‘ये रोज़ कहते हैं, जब से बहू आई है, हमारी प्राइवेसी चली गई है। देख न, रोज़ लुंगी पर बनियान डालकर बाहर बगीचे में फूल-पत्ती उगाते थे। थोड़ी सब्जी-भाजी हो जाती थी। अब इस तरह बाहर नहीं निकलते। कहते हैं कि बहू थल-थल करती घूमती है। हमें शर्म आती है ‘‘चलो सिर पर दुपट्टा न सही, गले में डाल लो पर नहीं और फिर पैंट, हे भगवान्! बहुएँ क्या ऐसी होती हैं। तू भी तो बहू है ‘‘दरवाजे के भीतर से ही तेरा आदर हम तक आता है।‘‘ ‘‘हरदम पड़ोसियों से शिक़ायत। कैसी गली-मुहल्ले वाली मैंटेलिटी है आपकी।‘‘ जादुई धमाके सी अनीता बाहर आ गई थी।

‘‘दीवारें जुदा होने से कोई पड़ोसी नहीं हो जाता।‘‘ वह बोली।

‘बस-बस रहने दें मैं जानती हूँ आप मुझे हर किसी के सामने ज़लील करना चाहती हैं। ‘‘

‘‘जीत, हर कोई नहीं है। जबसे ब्याह के आई है, अपनों से ज़्यादा पूछती है मुझे।‘‘

‘हम तो आपके हैं नहीं, यही कहना चाहती हैं न आप।‘‘ धम-धम करती अनीता चली गई और पीछे वीरो मौसी भी। भागवंती झाड़ दे रही थी, कहने लगी, ‘‘ अजय बाबू को पता नहीं क्या सूझी, पढ़ते-पढ़ते छमकछल्लो ब्याह लाए। होगी तो मामूली घर की, पर नखरे तो देखो। बाप रे, कपड़े भी ऐसे पहनती है कि एक-एक नस गिन लो, और जबान ऐसी कि दिल जला के राख कर दे।‘‘ ‘‘बस तू चल अपना काम कर भागवंती। तुझे क्या ? कोई अपने घर में कुछ भी करे।‘‘

ब्याह कर लेना तो बड़ी आम बात है। पड़ोस की वीरो मौसी के अजय का मेडिकल की दुरूह पढ़ाई के बीच ब्याह कर लेना भी उतनी ही आम बात थी, पर मौसी से जैसे बरदाश्त नहीं हो रहा था, रो-रोकर कहतीं, ‘‘क्या ज़रूरत थी, इतनी जल्दी ब्याह की, न कमाई, न कामकाज, इतनी मुश्किल डॉक्टरी की पढ़ाई भी अभी बाकी है, अज्जू को घर की हालत पता थी, फिर भी ब्याह लाया यह सब्ज परी, कनक में प्याजी आ मिली है।‘‘ वे अनीता को सब्जपरी कहतीं। वह साँवली थी, पर नैन-नक्श तीखे थे। ऊपर से बहुत तराशा हुआ जिस्म, जिस पर एक लुनाई थी। ऐसा आकर्षण, जो किसी को भी बाँध लेता था। अनीता कपड़े भी इतने चुस्त-दुरुस्त पहनती कि आँखें अटक जातीं। अनीता को मुझसे भी कोई लगाव नहीं था। उसे सब देहाती लगते, हिंदी-पंजाबी बोलने वाले जलंधरी। वह कभी मेरे पास आती तो शिकायत साथ लाती। मुझसे कहती, ‘‘आप पता नहीं कैसे रहती हैं अपनी ज्वॉइंट फैमिली में, मेरा तो दम घुटता है - यह मत करो, वह मत करो ‘‘यह मत पहनो, वह मत पहनो, एकदम देहाती मैंटेलिटी। आपको नहीं लगता कि दिल्ली और जालंधर में दो सदियों का फर्क है। ‘‘

असल में यहाँ लोग सीधे-सादे हैं।‘‘ मैं बोली, ‘‘मौसीजी की जैसी आमदनी थी, उसी के अनुरूप अजय और अनूप को पढ़ा-लिखाकर इनसान बनाने में लगे रहे। इस बीच संसार के परिवर्तनों से उनका सरोकार रहा नहीं। बस, तुम्हें लगता है पुराने खयालात के हैं।‘‘

आपको शायद पता नहीं जीत दीदी, इनकी गरीबी एक दिखावा है। अजय बता रहे थे, उनके पास मलेरकोटला में बहुत ज़मीन है, जहाँ से बाऊजी जाकर फसल के पैसे लाते हैं और अनाज भी, पर बुड्ढा-बुड्ढी दोनों बहुत कंजूस हैं, कुछ खर्चना नहीं चाहते। अजय ने बाऊजी को बहुत समझाया कि वहाँ मलेरकोटला में इंडस्ट्रियल एरिया बन रहा है, ज़मीन बेच दो, सोने के दाम बिकेगी, पर बाऊजी क्यों बेचने लगे, हमारी सलाह उन्हें अच्छी थोड़े ही लगती है। ‘‘

दूसरे दिन फिर बरामदे में शोर था। भागवंती मुझे बुला ले गई। अनीता जोर-जोर से चिल्लाकर मुझसे बोली, ‘‘जीत दीदी, आप ही फैसला कीजिए। माँजी अजय से कह रही हैं कि यही जुराब पहनो, इसी को बाऊजी पहनते हैं। हद है न जहालत की। इन लोगों को पता ही नहीं कि कुछ चीजें पर्सनल होती हैं। मैं आई तो तौलिए अलग हुए, नहीं तो बाप-बेटे एक ही तौलिए से बदन पोंछते थे। ‘‘

‘‘तुझे क्या पता हमने कैसे पाला बच्चों को। अपना पेट काटकर इन्हें खिलाया, इनकी नींद सोए, इनकी नींद जागे। अब, अब इनसान बने तो तू सँभाल बैठी। बड़े नुक्स निकाल रही है न, जैसे बाप के घर से जायदाद नाम कराके आई हो। बड़ी कायदे-कानूनवाली बनती है, लाव-लश्कर दहेज देना तो तू छोड़, तेरे बाप ने सीधे मुँह बात भी नहीं की।‘‘

‘दहेज दहेज लेना जुर्म है वीरो। दहेज की बात इस घर में कभी मत उठाना।‘‘ मौसाजी बीच में गुर्राए, ‘‘मेरे भी कुछ उसूल हैं।‘‘

‘‘हाँ करो बात उसूलों की, भूखे नंगे हैं तुम्हारे उसूल। सारी उम्र इन्हीं उसूलों की सूली पर चढ़े रहे। मिला क्या ? इसमें नई बात क्या है, सारी बहुएँ थोड़ा-बहुत दहेज लाती हैं। यह सब्जपरी शुक्रगुज़ार है क्या तुम्हारी, इतने दुःख- कष्ट में भी हँसकर, जो सिर-आँखों पर बिठाया।‘‘

‘‘उसके अलावा तो आपके पास जगह भी नहीं थी बैठने को, न सोफे, न कुरसियाँ, न कायदे का पलंग।‘‘

हँसी इतनी ढीठ, इतनी क्रूर हो सकती है, मैंने जाना नहीं था, पर अनीता की वह हँसी खिड़कियों, दरवाजों से निकलकर मेरी दहलीज, मेरे आँगन तक बिखर जाती। इसी चख चख में तीन साल निकल गए। इसी बीच अजय की पढ़ाई खत्म हो गई, एक दिन अनीता आई तो कहने लगी, ‘‘जीत दीदी, हम लोग लंदन जा रहे हैं, अजय को जॉब मिल गया है।‘‘

‘‘अरे नहीं अनीता, इतनी दूर क्यों जाते हो ? अजय तो डॉक्टर है, यहाँ क्या कमी है मरीजों की, अस्पतालों की।‘‘

‘‘एक मामूली डॉक्टरी से हिंदुस्तान में मिलता ही क्या है ? यहाँ हमारा क्या फ्यूचर है, मामूली सा पैसा, मिडिल क्लास लिविंग, ऊपर से ज्वॉइंट फैमिली। न बाबा, न! मैंने बहुत बरदाश्त किया, अब नहीं करूँगी। वहीं सबकुछ मिलेगा, पूरी आजादी और रहने का स्टैंडर्ड एकदम हाई। उसके अलावा अजय को भी जॉब सैटिस्फैक्शन मिलेगा।‘‘

मौसी रो-रोकर बताती रहीं, ‘‘अजय की और अनीता के टिकट की खातिर आधी ज़मीन बेच देनी पड़ी। बस अब अनूप के सपनों का आधार बच रहा था, सो बाकी ज़मीन उसके नाम कर दी मौसा ने। ‘‘

बाद में लंदन से आए अजय के पत्रों से पता चलता कि वह खुश है। अच्छी नौकरी मिल गई है और एक बेटा भी जनमा है सब्जपरी ने। वीरो मौसी का मन बच्चे के लिए हुमकता, कहतीं, ‘‘है नी, वहाँ जापे में तकलीफ नहीं होती

क्या ? न कोई सास, ना माँ पास, अकेले कैसे सँभालती होगी। मेरी सास ने तो अजय की बारी मुझे सौर की कोठड़ी से सवा महीना बाहर ही नहीं आने दिया था। तेरे मौसाजी ने फुल्लियाँ छोलेवाले दिन अजय का मुँह देखा था।‘‘ कभी कहतीं, ‘‘कैसा होगा मरजाना ‘‘मेरे अजय पर गया तो चिट्टा होगा, सब्जपरी पर गया तो रब्ब ही राखे। ‘‘

अनूप भी सपनों की डोर पर उतना खरा नहीं उतरा। एम.ए. के बाद होशियारपुर में साधारण सी नौकरी मिल गई थी। स्कूल में पढ़ाने लग गया था। हर शनिवार को बस में बैठकर आता, सोमवार मुँह अँधेरे चला जाता।

एक दिन वीरो मौसी बोलीं, “जीत बेटी, अनूप के लिए कोई अच्छी सी लड़की देख न ! न हो तो अपने चाचा की बेटी से ही अनूप का रिश्ता करा दे, रोटी की बड़ी तकलीफ होती है बेचारे को।‘‘

मैं हँस दी, ‘‘मेरे घर में रिश्ता करेंगी मौसीजी ? हम सिख, आप ठहरे मोने। ‘‘

‘‘लो, फिर क्या हुआ ? मुझे अच्छी लगती है ‘‘तेरी बहन। चाँद जैसा चेहरा है, गोरी-चिट्टी हाथ लगाए मैली होती है।‘‘

अनूप से मेरे चाचा की बेटी का रिश्ता तय हो गया। मौसीजी बहुत खुश। अजय को बार-बार लिखतीं, ‘‘तू आ बेटा ‘‘पैसे भी भेज, एक शादी में तो रीझें पूरी कर लें। गाना बैठाऊँ मिठाइयाँ बाँटूँ ‘‘बेटे को घोड़ी चढ़ता देखूँ, चाँद सी बहू घर आ रही है। तेरे बाऊजी दहेज नहीं लेते, न लें, तू इत्ता कमाता है हमें क्या कमी है। औलाद के सिर पर ही तो अरमान पूरे होते हैं। तू आ बेटा, मैं पोते का मुँह देखूँ। वारी वारी जाऊँ।‘‘

पर न पैसा आया, न अजय ही और न पोते का मुँह देखा मौसीजी ने। मौसाजी के बहुत मना करने पर मेरे बहुत समझाने पर भी मौसी नहीं मानीं। अनूप को मलेरकोटला भेज दिया कि जा ज़मीन बेच आ, मैं सारी उम्र के अरमान तो पूरे कर लूँ।

अनूप ज़मीन बेचकर लौट रहा था कि मलेरकोटला में दंगा हो गया। सेहरे की जगह कफन बाँधकर लौटा अनूप। ज़मीन गई, पैसा गया, बेटा गया। दोनों घरों में कोहराम मच गया। जवान लाश एक दिन रही। मैंने खुद लंदन में अनीता से बात की, पर अजय की व्यस्तताओं की एक लंबी लिस्ट गिना दी उसने। हारकर मौसाजी, मौसीजी को समझाना पड़ा। दुःख से सन्न बेहोश बेचारे सँभाले नहीं जा रहे थे। अब मेरे पति इंदर ने ही उनको तसल्ली दी। अनूप का क्रिया- करम अपने हाथ से कर दिया। मैं ही उन्हें चाय-पानी पिलाती, दिलासा देती। फूल चुनने के दिन पत्थर हो रहे थे मौसाजी। इनसे बोले, ‘‘इंदर बेटा, तुम्हीं करना हमारा क्रिया- करम। न हो तो म्यूनिसपैलिटी में लिखा देना हमारा नाम, लावारिस लाशों में हमें भी फूँक दें, पर देखो अजय को खबर न देना।‘‘

मौसाजी जब अनूप की अस्थियाँ लेकर हरिद्वार जाने लगे तो मौसीजी भी बहुत जिद करके साथ जाने को तैयार हो गईं, सुबह के समय में बैठाकर मैंने उन्हें खाने की टोकरी भी पकड़ा दी, ‘‘मौसीजी ‘‘कुछ खा लेना ‘‘शरीर में दम न हो तो रोया भी नहीं जाता।‘‘

वह रोने लगीं, ‘‘एक हाथ में बेटे की राख, दूसरे में रोटी रखकर कैसे खा लूँगी।‘‘

इसका उत्तर मेरे पास नहीं था। उनकी बात मुझे सारा दिन उदास किए रही, मन बात-बात पर काँपता। जाने क्यों उनका उदास चेहरा आस-पास मँडराता रहता। शाम को भागवंती दौड़ती आई, ‘‘अरे टेलीविजन लगाओ बीबीजी ! सुना है हरिद्वारवाली बस के सारे मुसाफिरों को आतंकवादियों ने गोलियों से भून डाला है।‘‘

मैं चिल्लाई, ‘‘हाय रब्बा, उसमें तो मौसाजी भी थे। वाहेगुरु खैर करी। ‘‘ टेलीविजन पर वही बस, वही मुसाफिर, टूटे बेजान चेहरे, जिन्हें मैं सुबह विदा देके आई थी। मरनेवालों में मौसीजी का नाम था, घायलों में मौसाजी का। इंदर उसी वक्त टैक्सी करके गए, होनी को यही मंजूर था। मौसीजी का क्रिया- करम उन्हें ही करना पड़ा, मौसाजी को हाथ में गोली लगी थी, उनका इलाज चल रहा था कि अचानक एक दिन आधी रात को अजय आ गया, बोला, ‘‘टेलीविजन में देखा सबकुछ, लाशों के ढेर अपनी माँ का मरा हुआ चेहरा, सहा नहीं गया तो चला आया। ‘‘

अजय जितने दिन रहा, सीधे मुँह नहीं बोला। बाऊजी एकाएक चुप हो गए थे, पत्थर की मूर्ति की तरह। वह हमें सुनाकर कहता, ‘‘अब यहाँ धरा भी क्या है, मकान बेचकर बाऊजी को साथ ले जाऊँगा। इस ज़मीन का क्या भरोसा, जब सारे पंजाब का भविष्य ही अनिश्चय में डूबा है तो यहाँ क्या भविष्य तलाशे कोई ? ऊपर से हवाओं में आतंकवाद और भय के सिवा हिंदुस्तान में बचा क्या है। पहले दूसरों के हाथों मारे जाते थे, अब अपने ही अपनों के दुश्मन हो गए, दोष दें भी तो किसे ?‘‘

कभी मौसा जी से कहता, ‘‘वहाँ इंग्लैंड में ब्रिटिश नेशनल के डिपेंडेंट माँ-बाप को साठ साल की उम्र के बाद एलाउंस मिलता है-काफी अच्छी रकम और एक मुफ्त का ‘पास‘ भी, जिससे जहाँ चाहे, बस या रेल में फ्री जाया जा सकता है।‘‘ ‘‘ साठ साल की उम्र के बाद इन बातों का अर्थ ही कितना बचता है अजय खैर, तुम्हारी मरजी, जो चाहो करो। ‘‘

मौसाजी मेरे पास आए तो बोले कुछ नहीं, पर उनकी आँखों के डबडबाएपन में कुछ था, जो संप्रेषित हो रहा था। उनके काँपते हाथ छूकर मैंने ही कहा, ‘‘हो आइए मौसाजी, इतने बड़े कांड के बाद यहाँ मन भी तो नहीं लगेगा, वहाँ पोते के साथ मन बहल जाएगा।‘‘

लंदन से लेस्टर तक पहुँचने में दो घंटे लगे। इतने सालों बाद हम लोग अजय से मिलने जा रहे थे। वह हमें स्टेशन पर लेने आया हुआ था। हमसे प्यार से मिला तो जान में जान आई। खूबसूरत सी कॉटेज का दरवाजा अनीता ने खोला। वह जींस पर कसा हुआ ब्लाउज पहने थी। उसकी ‘हेलो‘ में स्वागत नहीं था, एक ठंडापन था, जो सीले हुए रिश्ते की गंध से पगा हुआ था। वह हमें भीतर ले गई। चाय के दो मग बना लाई। मैं मौसाजी से मिलने को बेताब . थी। लंदन से यहाँ तक आने का और कोई अर्थ भी तो नहीं था, पर वातावरण के बनावटीपन में डर सा गुँथ गया था।

एकाएक दरवाजे के शीशे पर एक छाया सी नजर आई। मौसाजी का मटमैला सा साफा मुझे दिखाई दिया तो बाथरूम जाने के बहाने मैं उठ गई। दरवाजा खोलकर भीतर चली गई तो धक् से रह जाना पड़ा। एक दीवार से लगे खड़े थे मौसाजी। कमजोर हड्डियों का ढाँचा।

बड़ी-बड़ी आँखों में रीतापन, चुप्पी, उदासियों का 

धुआँ।

‘‘मौसाजी!‘‘ मैंने पैर छुए तो उनके बेजान जिस्म में जैसे लहर दौड़ गई। सूखे होंठों पर मुसकान तैर गई, पर जो अनिश्चय आँखों में उतर आया था, वैसा ही टिका रहा, “इंदर आया है ?‘‘

‘‘हाँ, जी।‘‘

‘‘बाल-बच्चे राजी ?‘‘

‘‘जी आप कैसे हैं ?‘‘

‘‘लो विलायत में रहता हूँ, अच्छा नहीं रहूँगा भला ?‘‘

अनीता पीछे आ खड़ी हुई। मुझे इशारे से समझाने लगी कि इनका दिमाग कुछ खराब हो गया है। इंदर के आने पर कहने लगे, ‘‘मलेरकोटला गया काका हरिद्वार ‘‘मैं तो दोनों को बीच में छोड़ आया। ‘‘

अनीता ने फिर कनपटी के पास उँगली घुमाई। समझाने लगी, ‘‘दिमाग चल गया है इनका, किसी को पहचानते नहीं। ‘‘

‘‘चलिए मौसाजी, चाय पी लीजिए।‘‘

‘‘रोटी।‘‘ अनीता को देखकर उनकी आँखों में दहशत सी उतर आई। एक सब्ज परछाईं, जो चेहरे से होकर वातावरण में घुल रही थी। अनीता ने खाने की ट्रे रख दी। चार मोटी रोटियाँ, दाल और एक बदरंग सी सब्जी। वह झुककर जल्दी-जल्दी खाने लगे, जैसे बहुत भूखे हों।

अजय ने आवाज दी, “आइए जीत भाभी, समोसे खाइए! अनीता ने बनाए हैं, बड़ी कुकिंग करती है। ‘‘

मोटी रोटी और ठंडी दाल में डुबाकर खाते मौसाजी सड़प-सड़प कर रहे थे। उस आवाज को छुपाता सा अजय उनकी ओर देखकर कहने लगा, “बाकी सारा कुछ ठीक है। बस बाऊजी की वजह से बड़ी परेशानी है। उनकी वजह से हमारी अपनी प्राइवेसी बिल्कुल नहीं है। पगला गए हैं न! बाहर भी नहीं निकलते, घूमने नहीं जाते, बस घर में बंद रहते हैं। ‘‘

“पर वहाँ तो सैर करने जाते थे, बड़ा पक्का नियम था।‘‘ मैंने कहा।

‘‘यहाँ भी जाते थे शुरू-शुरू में। मैंने रोका, लुंगी पहनकर बाहर मत निकलिए, पैंट पहनिए या पाजामा, उस दिन से घर में बैठे रहते हैं। न कहीं बाहर जाते हैं, न किसी से बोलते-चालते हैं, हमें तंग करना है और क्या।‘‘

‘बोलेंगे कैसे, अंग्रेजी तो आती नहीं।‘‘ कमरे में अनीता का बेटा आया था, काला बदसूरत दाँतों पर तार के ब्रेसस, कचड़-कचड़ च्युइंगम खाता हुआ। ‘‘ पर अंग्रेजी तो मौसाजी को आती है।‘‘ मैंने कहा।

अंग्रेजी, माई फुट। उनकी अंग्रेजी में जालंधरी की बू आती है, इतनी गँवारू कि शर्म आ जाए।‘‘ अजय ने इस तरह कहा कि उसका विलायती बेटा जोर-जोर से हँसा और उसके दाँतों की कचड़ कचड़ च्युइंगम बाहर आ गिरी।

‘‘ आप चाहें तो मौसाजी को मेरे साथ भेज दें।‘‘ मैंने हिम्मत करके कहा।

‘क्या बात करती हैं आप, अब तो हम इन्हें ‘ओल्ड होम‘ में भरती कराने जा रहे हैं। वहाँ और बहुत बुड्ढे - बुड्डियाँ रहते हैं। वहाँ इन्हें अच्छी कंपनी मिल जाएगी, दिमाग भी ठिकाने आ जाएगा।‘

अच्छा अब चलें जीत, ‘‘ इंदर ने बड़े आहत स्वर में कहा।

‘‘ चलिए। ‘‘ मैं उठ खड़ी हुई। अंदर मौसाजी से मिलने गई तो मेरे हाथ में कपड़े का एक टुकड़ा देकर बोले, “जीत, मेरे साफे का टुकड़ा है। हरिद्वार गई तो बहा देना गंगा में। मेरा तो और कुछ पहुँचनेवाला नहीं वहाँ, इसी से मेरी गति होगी।‘‘

मैंने उनके पैर छुए तो भरे गले से बोले, ‘‘सुखी वस्य जीऊँदी रह। आई तो आत्मा में ठंड पड़ी, जैसे जालंधर की हवा की खुशबू साथ आई हो।‘‘ मेरे सिर पर उनका हाथ काँप रहा था।          

***********************************************************************************

कविता

सुश्री अरूणा शर्मा, दिल्ली, मो. 92124 52654


कुछ डर बेहतर होते हैं

कुछ डर बेहतर होते हैं जीवन जीने के लिए 

देते है हौसला उस पार जाने के लिए 

तैरने व डूबने के बीच 

अंतर्मन में निरन्तर होते हैं द्वंद्व युद्ध 

पार लगाती हैं दुआएँ अपनों की ही...

साथ चलती हैं दुआएं उनके साथ

जीवन भर जो सीमा रेखा के भीतर रहतें है... 

उड़ान भरने की लालसा हरेक के मन में है 

जो छू लेते हैं आसमां और लौट आते हैं वापिस,

जो जमीनी होते हैं...

जानते हैं वो कि बसेरा नामुमकिन है वहां...

हाथ खुले रखना लेने के लिए दुआएं 

व देने के लिए भी

याद रख, दुआएं हैं सब कुछ!!     

होती हैं तुम्हारे संग, 

दृश्य अदृश्य रूप में 

चलती हैं संग संग... 

अंधेरे घने जंगलों में 

और फिसलन से भरी घाटियों में 

बनाती हैं पद चिन्ह तुम्हारे लिए...

यही देती है बहुत सकून महकाती है 

मन खुशबूदार हवा बनकर...   

देती है खुदी पर यकीं रखने की ताकत भी... 

बढ़ाती हैं हौसला इस पार से उस पार जाने के लिए 

हवाएँ उड़ाती हैं सहलाती नहीं 

जानना ज़रूरी है सभी के लिए 

कुछ डर बेहतर है जीने के लिए 

***********************************************************************************कहानी 

सुश्री निशिगन्धा, 

गुमशुदा

थी मंज़िल की तलाश न मिली दहर में

और गुम हुई ज़िंदगी एक अजनबी से शहर में।

तन्हा थे तन्हा रहे न वफा मिली.....

नहीं साथी कोई ज़िन्दगी के किसी भी पहर में

दीदावर नहीं मिला कोई कि जाते ठहर 

हसरतें दिल में लिए किसी रह गुज़र में।

किस से शिक़वा करें और किससे शिक़ायत

हुई नाकाम कोशिशें न हुई तेरी रहमत महर में

चलते-चलते थके कदम और लंबी डगर

न मिली मज़िल न ही सहर इस अजनबी शहर में

यह कहानी उस लड़की की है जो गुम हो कर रह गई एक अजनबी से शहर में। लड़की.. हां लड़की ही कहूंगी उसे क्योंकि जब वह इस शहर में आई थी तो वह कम उम्र लड़की सी ही दिखाई देती थी और वह भी अकेली। चाहे आज वह उम्र के चार दशक पार कर चुकी थी पर अब भी वह कम उम्र लड़की सी ही दिखती थी पर इन वर्षों उसने स्वयं को संभाल लिया था चाहे दुनिया व उसके परिजनों ने उसके वजूद को सदा कुचलने की कोशिश की थी।

कहते हैं जब कोई गुम हो जाता है तो उसकी तलाश शुरू हो जाती है। उसके परिजन उसकी पहचान बता उसे खोजने का प्रयत्न करते हैं। पर शैला.. शैला को कोई ढूंढने आयेगा क्या कभी? शायद हां। शायद नहीं।

स्वार्थ परक दुनिया के स्वार्थी जन शायद उसकी तलाश में निकल ही पड़ें, जब वह एक बार फिर अपने पांव जमाने में सफल हो जाएगी इस अजनबी से शहर में और एक बार फिर से स्वाबलंबी हो जाएगी। वर्षों वह अपनी त्रासद परिस्थितियों से जूझ चुकी थी।

जब वह इस शहर में आई थी एक अजीब सी सोच ने उसके भीतर जन्म ले उसे एक अजीब सी सिहरन से भर दिया था। क्या.. क्या वह गुमशुदा थी..? यानि वह गुम हो चुकी थी और शायद उसे अब कोई तलाश करने नहीं आएगा। और उसकी इसी सोच के साथ सिलसिला शुरू हो गया था जीने का ज़रिया तलाशने का और यहीं से एक बार फिर शुरू होती है शैला के संघर्ष भरे जीवन की कहानी या कहो उसकी स्वयं की तलाश की शुरुआत।

यूं मेहनतकश इंसान को जीने का ज़रिया तो कहीं भी मिल ही जाता है पर वह अपनों को ढूंढ कर कहां से लाएगी। अपने तो कब के पीछे छूट चुके थे और वह कब से नितांत अकेली थी। काम भी मिला तो नाटक कंपनी में जहां लोगों की भीड़ थी साथ ही रंगमंच का शोर भी। पर.. हृदय के सन्नाटे..? फिर इंसानी सोच, जिनके साथ काम शुरू किया था उन्हें ही अपना मान ले। पर वे सब उसे क्यों अपनाएंगे? इन्हीं सवालों के बीच घिरे दिन सरकने लगे और धीरे-धीरे शैला उस शोर के बीच भी हृदय बीच समाये सन्नाटे को चीरने का अकेले ही प्रयास करने लगी।

वह जब भी अपनी जिंदगी में एक आशा की किरण देखती तो पुराने रिश्ते जाने कैसे हर बार ही उसके सामने उसके नए सपनों को बिखेर देने का प्रयत्न करते। उसे कुछ और ही दिखाने लगते। रिश्तों की दुहाई देने लगते। और वह भी उनकी बातों को हर बार ही सच मान बच्चों के मुख देखने लगती और समझ नहीं पाती वह क्या करे..? क्या एक बार फिर से स्वीकार ले उन रिश्तों को जो उसके द्वार पर एक बार फिर से दस्तक दे रहे थे।

क्या अपने नए जीवन को मिथ्या मान एक बार फिर इन नाशुक्रे रिश्तों को अपना ले जिन्होंने सदा अपने स्वार्थ के पंजों में उसके जीवन को दबोचने का प्रयास किया था। आज अपने श्रम से जिस मुक़ाम पर वह एक बार फिर से पहुंची थी उसी को देख शायद उनकी लार फिर टपक रही थी। समझ तो सब रही थी वह पर घर आए अपना कहलाए जाने वाले उन परायों को वह कैसे फेरती? कैसे उन्हें बाहर का द्वार दिखाती? आज वे फिर से अपना प्यार दिखा रहे थे। बच्चों को पूछ कर रहे थे। वह भी बच्चों के मुख देख उनकी खुशी के लिए एक बार फिर चुप हो गई। उसे भी लगने लगा जीवन में यदि कभी वह न रही तो शायद यह अपने उसके बच्चों के काम आए। ऐसा सोच उसने अपने घर के द्वार एक बार फिर उन सब के लिए खोल दिए और वे सब उसके घर के मुख्य द्वार से अपना साजो-सामान लिए एक बार फिर से भीतर आ गए। घर की शांति और बच्चों की खुशी के लिए अपनी भावनाओं की उसने एक बार फिर से हवि दे दी। उन्हें एक बार फिर से अपना लिया।

आज वे फिर कहने लगे थे, वे उसके अपने थे और वह भी एक बार फिर पिघल गई और उनकी कही हुई बातों पर अमल करने लगी। उस पर आश्रित वे सब उस पर और अधिकार जमाने लगे और वह मिटती रही उन सब के लिए जब तक उसके हाथ-पांव शिथिल न हो गए। पर अपना कहलाए जाने वाले वे पराये जिन्हें वह हर बार अपना समझ बैठती थी एक बार फिर उसे निरीह व बीमार देख चुपचाप उसके घर का सारा कीमती सामान समेट उसे बिन बताए चुपचाप चले गए। वह फिर रह गई अकेली।

इस उम्र में कहां चली जाती वह यूं अकेले बीमार सी बच्चों को लेकर बिना किसी काम के बिना किसी आश्रय के। नाटक कंपनी का मकान उसे खाली करना ही होगा। कुछ दिन जैसे-तैसे बिताये पर फिर भी हिम्मत कर स्वयं को किसी तरह थोड़ा स्वस्थ कर एक बार फिर वह चल दी उस बड़े शहर की सड़क पर अकेली काम की तलाश में। वह समझ पा रही थी, लोग मिट्टी से मूर्ति बनाते हैं उसमें रंग भर प्राण फूंकने की कोशिश करते हैं पर फिर भी मिट्टी की काया एक दिन मिट्टी में ही मिल जानी है पर उसे जीना है जब तक काया है। उसे स्वयं अपनी काया को सजाना है, संवारना है, संभालना है, तलाश करना है एक बार फिर से अपना अस्तित्व। भुलाना होगा उसे वह सब जो बीत गया। भुलाना होगा उन सब को जो हर बार यूं ही चले आते हैं उसे धोखा देने उसका जीवन अस्त-व्यस्त करने। बस अब और नहीं। कोई भ्रम नहीं बनानी होगी उसे अपनी पहचान एक बार फिर से रहना होगा उसे गुम होकर उन रिश्तों के लिए गुम या कहो गुमशुदा। साथ ही कायम रखना होगा अपना अस्तित्व। उसमें आज भी साहस था अदम्य साहस। वह यह सब कर सकती थी।

अंततः चाहे वह इंसानों की शैतानी फितरत बखूबी समझ चुकी थी पर फिर भी जाने किस खुदाई की तलाश में वह घर से एक बार फिर से निकल पड़ी थी। शायद उसे अब भी तलाश थी इंसानों की इंसानियत की। उनमें छिपी ख़ुदा की खुदाई की। और साथ ही एक सोच जो उसकी अपनी थीः

जाने कौन नदी हूं मैं

जाने कौन मेरा किनारा

जाने स्रोत कहां है मेरा

जाने कहां गिरे जलधारा।

***********************************************************************************

श्री अशोक गुजराती, ठाणे, महाराष्ट्र, मो. 9971744164

सहचर

भयंकर दर्द था बायें पैर में

सूजन आ गयी थी पंजे में 

उसे कुछ ऊंचाई पर रखने के इरादे से

मैंने टेबिल का सहारा लिया

मेरे जाने-अनजाने

दाहिना पांव उठा और उसके

समकक्ष जा टिका

थोड़ी ही देर में वह बायें से यूं जा लिपटा

ज्यों प्रेमिका का आलिंगन कर रहा हो प्रेमी

हौले-हौले लगा सहलाने 

उसकी उंगलियों को 

फिर नीचे टखने तक

बायां पंजा भी उसे मानो दे रहा था

स्पर्श का जवाब मौन प्रेयसी-सा

उनका यह आपसी प्यार देख कर

चकित था मैं

हालांकि ये सारी क्रियाएं

करा रहा था मेरा ही अवचेतन मस्तिष्क

गोया वह उनका ईश्वर हो!

***********************************************************************************

कहानी


सहायक प्राध्यापक हिन्दी, थांदला

जिला झाबुआ म.प्र. 457777, मो. 9165387771


किसना कानू और भगोरिया

कहानी की भूमिका

विश्व के अन्यान्य आदिम समुदायों की भांति ही मध्यप्रदेश का झाबुआ अंचल और वहां के भील जनजाति का वृहद समुदाय, धर्मप्रधान एवं उत्सव प्रिय है। हालांकि यहाँ की धरती हर कहीं विन्ध्य की छोटी बड़ी पहाड़ी शृंखलाओं से घिरी-भरी है। इन्होंने ही रचा गढ़ा है भीलों के प्रारब्ध को। इस धरती का ओर-छोर पथरीला है, उबड़-खाबड़ है जगह-जगह छोटे-बड़े नदी नालो, खाईयो एवं गड्डो से युक्त है।

निश्चय ही यह भौगोलिक सरंचना इस आदिम समुदाय को एक दुरूह दुधर्ष जीवन जीने को बाध्य करती है व्यष्टी और समष्टि दोनों ही स्तरों पर।

जैसा कि सामाजिक मनोविज्ञान का सर्वमान्य सिद्धांत है कि जिस समाज या जाति का जीवन जितना ही संधर्षशील होता है उतने ही अनुपात में वह मनोरंजन के साधन और माध्यम जुटा लेती है। ताकि उसकी जीजिविषा एवं अस्मिता कभी भी निःशेष न हो। यहां का वन्य जीवन उद्यमी और उन्नत है। देवी देवता परंपराओ धर्म को टोने टोटके तंत्र मंत्र जादू मे इतना समेट लिया है कि धर्म और अंधविश्वास में कोई विभेद नहीं रह गया है और इन सबकी धुरी बना हुआ है इनका परंपरागत ‘बड़वा’ (ओझा) जो जादू टोने तंत्र मंत्र, आधि-व्याधि और भूत-प्रेतों तथा जड़ी बूटियों की जानकारी में पारंगत होता है। एक साथ ही वह भविष्य वक्ता कुशल चिकित्सक और भूत प्रेतों की बाधाओ को हरने वाला होता है। एक तरह से संकट मोचकⓈक्तिक जीवन का भी और सामूहिक जीवन का भी। मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले के वनप्रांतर में भील भिलाला-पटलिया व उनकी उपजातियां निवास करती हैं। यहां भारत के तीसरे क्रम का एक बड़ा आदिम समाज अपनी पुरातन परंपराओ के साथ वर्तमान में भविष्य को संघर्ष एवं समस्याओं के साथ भी उर्जस्विता की विशेषताओं से चमत्कृत कर रहा है। महिलाएं पुरूष वृद्ध युवा युवतियां बच्चे परिवारों की सामाजिकता श्रम का आर्थिक विभाजन उन सभी में समूह की एकता व सभ्यता का एक अलग वितान गढ रहे हैं।

इस भील जनजाति का अपना शब्द संसार है, जो वाचिक रूप में पीढीयों के संस्कार, संस्कृति, पीढियों के अनुभवों को, मिथक परम्पराओं को एक पीढ़ी मे दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित करता है। देश की आज़ादी के बाद शासन की योजनाएँ इनके जीवन मे काफी बदलाव की बयार लेकर आई। शिक्षा कृषि पद्धति जीवन रहन सहन आदि में अंशतः ही सही, लेकिन इस कर्मपुत्र को अपनी योग्यता निखारने का मौका मिला। साथ ही महिलाएं शिक्षित होकर भी पुरातन परिवेश व खेती बाड़ी सम्हाल रही है। इनके समुदाय में उच्च पदस्थ नौकरीयों में होना हम भारतवासियों के लिए गर्व की बात है। वनांचल की इस आदिम जनजाति ने पुरातन के साथ अधुनातन लक्ष्य को छूने की दुःसाहस भरी कोशिश तो की। उन सभी श्रमवीरों, पुरूषार्थी कर्म वीरों को नमन।

--------

यह कहानी झाबुआ जिले के सुदूर वनांचल की है जहाँ किसना भाबोर और कानू भूरिया बडे हुए। खेतो मे जंगलों में बकरीयाँ चराते हुए परंपरागत रिती रिवाजों, तीज त्यौहारों मेलों मे मिलते रहे कुर्राटियां भरते रहे। गीत-संगीत और भीली दुनिया के अनूठे संसार से कब वे विद्यालय की शिक्षा पूरी कर कॉलेज के परिसर मे आ गए पता ही नहीं चला।

कॉलेज में किसना भाबोर को जब स्कॉलरशीप स्वीकृत हो गई तो उसकी उच्च शिक्षा का सपना साकार होता नज़र आया। वह गांव परिवार खेत-खलिहान छोड़ शहर आ गया। शिक्षा पूर्ण होने के बाद उसे एक अच्छी नौकरी मिल गई। कानू भूरिया ने भी मेहनत और लगन से अपनी शिक्षा पूरी की साथ ही बी.एड भी कर लिया और एक शिक्षिका के रूप मे अनेक बच्चों में ज्ञान का आलोक फैला रही है।

यह कहानी किसना भाबोर या कानू भूरिया की नहीं है बल्कि झाबुआ जिले के वनांचल में बसे गांवों अंचलों के उन युवाओ की है जो अपने पुरातन परम्पराओ को, भीली संस्कृति को मौलिकता को अपने से अलग नहीं पाते और आधुनिकता के दंश को भी झेल नहीं पाते। यही द्वंद और अंर्तद्वंद का शोर इस कहानी का मूल उत्स है।

भील घने जंगलों में अपने टापरे (झोपड़े) बनाकर रहते है। प्रति सप्ताह इनकी आवश्यकताओ की पूर्ति हेतु कस्बों में हाट बाज़ार लगता है। भील इन हाटों में एकत्रित होते है तथा आपसी आदान-प्रदान लेनदेन की प्रथा से प्रफुल्लित जीवन यापन करते हैं।

होली भीलों के नाच गाने, मौज मस्ती का सर्वोतम पर्व है। ऋतुराज बसंत का आव्हान इनमे असीम उन्माद आल्हाद जागृत कर थिरकने को मजबूर कर देता है। वनश्री की 

सुधराई जब शतधा होकर उफन पड़ती है बसंत की सुमधुर बयार कोकिल की मधुर मादक कूक भौरों की गुनगुनाहट मन मोह लेती है तब भील बड़े-बड़े ढोल मंजीरो व बासुरी की धुन पर थिरकते हुए फूले नहीं समाते।

नशे में डूबे वनांचल के लोग फाग गाती युवतियां, टेसू खिले-खिले वन प्रांतर रंगो गीतों कुर्राटियो से छब जाता है वातावरण और इनका घर आंगन। इस जनजाति मे भगोरिया पर्व होली के एक सप्ताह पूर्व में हर गांव हर कस्बे में सोल्लास ढोल ढमाकों के साथ मनाया जाता है। जिस-जिस कस्बे में जहां पर बाज़ार भरते हंै, वे एक मेले का रूप ले लेते हैं। भगोरिया हाटो मे होटले तरह तरह की दुकाने जन कलरव, लाउडस्पीकरों का शोर भीलों की ढोल मादल की थाप पर नृत्य लीन इन्द्रधनुषी टोलियां और झूलो चकरीयों की चरल चूं जो सुबह से शुरू होती है तो शाम घिरने तक अपनी पराकाष्ठा पर पहुचं कर ढलान पर आ जाती है। भगोरिया कोई पृथक आयोजन नहीं यह तो परंपरागत हाटों का विशालतम एक भव्य रूप ही तो है।

शरीर पर हल्दी लगाकर माथे पर गुलाल मुंह में पान की गिलोरियाँ चबाए हाट में ये रंगीले युवक घुमते हैं। युवतियाँ भी श्रृगांर करके पान को मुंह में दबाकर कानों में झेले झूमके गले मे तागली बाहों मे बास्टिया चांदी की चूड़िया, रंगीन चटख परिधान पहन गालो एवं ठोढी मे गोदने गुदाए भगोरियाँ मेले में नाचती है गाती हैं।

गरबा पाली व घोर तीनों प्रकार के नृत्य भगोरिया में देखने को मिलते हैं। मुस्कानों इशारो व छेड़छाड़ के बाद आदिवासी प्रेमी युवक अपनी चहेती प्रेमिका को पान खिलाता है। यदि नवयुवती उसके हाथ से पान खा लेती है तो प्रणय की पुष्टि परिणाम की स्वीकृति समझी जाती है।

झाबुआ अंचल के भगोरिया हाटो में आल्हाद, ढोल ढमाके, युवक युवतियों के मिलने प्रेम व्यक्त करने या भगा ले जाने, बांसुरी बनाने, झूला झूलने, शर्बत पीने मौज मस्ती व कुर्राटियां भरने से लेकर गाने के असीम उल्लास का त्यौहार है। पान के बीड़े गाल पर गुलाल के साथ प्रेम का इज़हार होता है। भील युवक युवतियाँ भगोरियाँ मे प्रणय प्रसंग की भावना से ही एकत्रित होते है।

एकाकी खेत खलिहानों चरागाहों राहों पगडंडीयांे अथवा हाट बाजारांे में ये भील युवक युवतियां एक दूजे के निकट आते हैं। यह सामीप्य ही धीरे-धीरे प्रणय मे परिवर्तन होता है भगोरिया हाट में परिणय मे परिणत हो जाता है। कई बार इस प्रणय प्रसंग मे कोई आड़े आता है तो वो युवक सामाजिक श्रृंखलाओ को तोड़ युवती को भगाने में अपहरण विवाह को अंजाम दे देता है।

पान के बीडे को मुंह में खिलाकर और गालो पर गुलाल मलकर प्रेम की यह रंगीन स्वीकृति इस समाज में अनूठी ही है। बाजार में खाने से लेकर जीवन उपयोगी वस्तुएँ क्रय-विक्रय कर हाट बाजारों की समृद्धता को देखा जा सकता है। आधुनिकता के स्पर्श और सुदृढ़ आर्थिक परिस्थितियों ने पुरानी परम्पराओं को बदलने के प्रयास में भगोरिया पर्व को भी आधुनिकता में रंग लिया है। फिर भी पर्व का मूल उत्स रीत रिवाज़ आज भी जिं़दा है। इस वर्ष मार्च में होली पर्व पर भगोरिया में शामिल होने किसना भी आया था।

झाबुआ अंचल के प्रणय पर्व भगोरिया में किसना भाबोर अपनी मित्र मंडली के साथ घूम रहा था कानू भूरिया से मिलने की चाह प्रबलतम थी। योग-संजोग से कानू भूरिया भी अपनी सखी सहेलियो के साथ देखती है तो किसना उसके गदराए यौवन और रूप सौंदर्य को एकटक देखता ही रह जाता है बहुत समय बाद कानू को देखना और मिलना किसना का सौभाग्य बन जाता है।

किसना उसे मेले में घुमाता है पुरानी स्मृतियो में जो प्रणय के बीज बोए थे शायद उन्हे पुष्पित पल्लवित होने का ठीक समय आ गया था। कानू को पान का बीड़ा खिलाना और गालो पर गुलाल लगा देना। कानू की खिलखिलाहट स्वीकृति में बदल गई थी।

किसना और कानू के परिवार वाले एक दूसरे से अच्छी तरह परिचित थे। अतः इस प्रणय प्रसंग पर परिवार की सहमति की भी मोहर लग गई। किसना की सर्विस शहर मे किसी बडी कंपनी में थी अतः कानू को भी अपने पति के साथ शहर आना पड़ा।

एक अदद बंगला, नौकर, गाड़ी सब भौतिक संसाधन जो वनांचल मे सिर्फ कल्पनाओ में संजोए लेकिन धीरे -धीरे कानू का मन उचटने लगा। यथार्थ थे। कानू भूरिया मिसेस कानू भाबोर बन गई थी। पर कदम जलने लगे। किसना की ऊँची आवाज़, खाने में परंपरागत भोजन को नकार देना नशे में बहक कर कानू के शरीर को नोचना.. ..अंधी 

अधुनातन भोजन शैली अपनाना.. रात-रात पार्टियों सभी से कानू तंग आ गई। जैसे उड़ने वाली तितली को किसना ने कैद कर लिया हो।

वन मे कुलांचे भरने वाली हिरनी कलरव करने वाली चिड़िया गीत संगीत की कुर्राटियों से उर्जस्विता हासिल करने वाली कानू अब खामोश हो गई थी। खुशी और आनंद का लास्य तिरोहित हो चला था।

कानू और किसना के विवाह को वनाचंल में कई रीत रीवाजों मान्यताओ - परंपराओ के साथ संपन्न किया था और कानू को खुशी-खुशी विदा किया था।

लेकिन कुछ ही समय के बाद किसना कानू को असभ्य. . फटीचर - टीचर...... आदि संबोधन से ही बुलाता और अंततः किसना एक दिन गालियो की बौछार कर. लांछन लगा देता है और घर से बाहर निकाल देता है।

कानू की डिग्री एवं शैक्षणिक उपलब्धियां और शिक्षिका की नौकरी का परिचय पत्र सभी गांव में पिता के घर पर ही रह गए थे। अब करे तो क्या करें कानू...।

खैर कानू ने हार नहीं मानी वह मज़दूरी करती है, लेकिन उसकी योग्यता नम्रता और उसमे छिपे हुनर की काबिलियत को देखकर जंहा वह मज़दूरी करती है वंहा के मालिक ने उसे नारी निकेतन भेज दिया।

कानू को नारी निकेतन में जीवन उपयोगी सुविधाएं दी गई थी क्योकि शिक्षा के साथ बचपन में जो मांडने बनाए थे वह कला फिर से हाथो की उंगलियो से जीवंत हो उठी। नारी निकेतन की चेयरमेन ने उसकी कला को परखा पहचाना और उसे आगे बढ़ने की प्रेरणा भी दी।

कानू ने एक समूह बनाया और भीली चित्रकला को सिखाने की उद्यमता से उनकी कला को कई युवतियों ने सीखा। बचपन में इस नन्ही कानू ने आदिवासी घरो मे घट्टी के थालों पर कलात्मक फूल पत्तियां बनाई थीं। घरों की दीवारों पर मोर, शेर और शिकार करने वाले परंपरागत चित्रो के। अकड़ कर कुर्सी पर बैठा अधिकारी डंडा घुमाता पुलिस वाला रेल की छत बारिश श्रृंगार करती बालों मे किलिप लगाती युवती, ये सब कुछ वह समूह में ऐसे सिखाती है कि जैसे वह इस कला की विशेषज्ञ हो, कलात्मकता के साथ जब इनमें रंग भरे जाते तो कला का सौंदर्य और चित्र साकार रूप में एक अप्रतिम कृति का आकार पा जाते। इसके अलावा कानू की स्मृतियो में विवाह के समय घर की दीवार पर गोतरेज बनाना भी याद आ गया जिनमें पुरखों के नाम पर टिके लगाए जाते हैं यह टिके एक निश्चित आकर और रंग विन्यास के कारण सुंदर दिखते हैं। इसके अलावा उसे पिथौरा कला का भी थोड़ा ज्ञान था वनांचल की पिथौरा कला विश्व प्रसिद्ध है! कानू का ननिहाल आलिराजपुर के सुदूर वनांचल में था लकिन अपनी माँ और नानी की बनाई पिथौरा कलाकृतियां आज भी उसके मन में आकार पाने को मचल उठीं।

पिथौरा आदिवासी मन की कल्पनाओ और भावनाआंे का दर्पण होता है। इसमें घोड़े मारकर लाने के दृश्य बिना सिर का इन्सान चांद - सूरज का घोंसला यानि आदिवासी भील जीवन से जुड़ी और उपयोगी लगभग हर वस्तु होती है।

कानू भाबोर अब वापस अपने को कानू भूरिया ही कहती। भाबोर को वह किसना के घर ही छोड़ आई थी। अब वह अपनी कला के अध्यवसाय से जीवन का नया अध्याय रचती चली जा रही थी एक के बाद एक कई कलाकार इस कला से जुड़कर अपने को अहोभागी समझने लगे थे।

इस आदिवासी कला के लिए कलाकार को बाज़ार नहीं जंगलो से रंग व सामग्री जैसे कुकुंम हल्दी, चावल सिंदूर, मेंहदी पोवड्या बालोड के पत्ते और चूना पत्थर एकत्रित करके अपनी कला को रंगों व आकृतियों से संजोना होता है ये इनकी चित्रकारी के रंग है। धीरे-धीरे कानू भुरिया देश के विख्यात चित्रकारों में शामिल हो गई। चेयरपर्सन नारी निकेतन की निवेदिता की सिफारिश पर राष्ट्रपति भवन की दीवारो पर अपने समूह के साथ झाबुआ अंचल की चित्रकला को ऐसा उकेरा कि उसे सराहने के लिए कई हाथ आगे आए। प्रसिद्धि और पैसा अब कानू भूरिया का भाग्य लिख रहे थे।

एक दिन पेपर में राष्ट्रपति से पुरस्कार लेते हुए कानू अपनी परंपरागत भीली पोशाक में पूरे आत्मविश्वास से खड़ी है। कानू का फोटो और पुरस्कार पूरे अंचल में गौरव का विषय बन गया है। इसके बाद तो कई शहरों में उसकी कला को पुरस्कृत किया गया। आश्चर्य तो उसे तब हुआ जब झाबुआ में उसके गृह नगर में उसके स्वागत और पुरस्कार देने की घोषणा हुई तब खुशी-खुशी वह अपनी जन्मभूमि को नमन करने के भाव को लेकर वहाँ गई। 

अधिकारियों और कलेक्टर सा. एवं प्रशसंकों से घिरी कानू के लिए अनाउंस होता है कि झाबुआ की गौरव चित्रांकन पंरपरा के लिए, वनांचल संस्कृति को जीवंत रखने के लिए, कानू भुरिया का चयन कर पुरस्कृत किया जाता है। एक लाख रूपये नकद। शॉल कलेक्टर द्वारा दिये जाते हैं। फोटो के फ्लेश चमकते हैं। यकबयक किसना उसे दिख जाता है, बे हिचक किसना से वह मिलती है। वह चरण में गिर जाता है। तारीफ की बात यह कि जिस संस्था द्वारा पुरस्कृत किया गया था उसी की व्यवस्था देखने के लिए किसना भाबोर को नियुक्त किया गया था।

किसना के लाख अनुनय करने पर भी कानू भूरिया पीछे मुड़कर नहीं देखती है और अपने अधूरे चित्रों में इन्द्रधनुषी रंग भर कर लक्ष्य के पायदान पार करती जाती है।

हिन्दुस्तान की बेटी कानू भूरिया तुम्हारी चमकती आंखो को सलाम। तुम्हारे हृदय की रिद्ममयी संवेदनाओं को नमन। और तुम्हारी हाथों की उंगलियों की उर्जस्विता को श्रद्धा और विश्वास का आचमन। तुम्हारे पैरों की कदमताल इस कला की परंपरा को नए आयाम देने के लिए लक्ष्य बिंदुतक चलती रहे यही हम सभी की शुभकामनाएं है तुम्हारे लिए......।

***********************************************************************************

कविता

डाॅ. मीरा रामनिवास, गांधीनगर, मो. 99784 05694

‘‘सागर’’

अथाह जलराशि अंक में समेटे

सागर निरंतर गतिमान है

अनवरत उमंगित कुलांचे भरते

सागर निरंतर प्रवाहमान है

किनारे आये लोगों का स्वागत करता है

लोगों से बतियाने उछलता चला आता है

पर लोग कहां उसे सुनते हैं

सब लोग लहरों से खेलते हैं

सागर को बहुत कुछ कहना है

सागर को दिल हल्का करना है

समुद्र मंथन की गाथा रामसेतु की कथा

आंखों देखी सुनाना चाहता है

द्वारिका में डूबे हुए 

श्री कृष्ण के महल की कथा सुनाना चाहता है

हर बार किनारे पर आता है

कोई श्रोता न मिल पाता है

श्री राम व रावण की युद्ध विभीषिका को

उसने देखा है

लक्ष्मण को तीर लगने पर श्री राम को

रोते उसने देखा है

दिन में सूरज की किरणों से खेलता है

रात में चांद को चूमने उछलता है

पानी में चांद का अक्श देख

रातभर उछल कर शिथिल हो जाता है

सुबह सूरज के आते ही स्फूर्त हो जाता है

जैसे भृगु की लात से विष्णु हृदय विचलित नहीं होता 

वैसे ही विशाल जहाजों के ह्रदय पर चलने से सागर उफ नहीं करता

खारा है पानी कोई पी न पाए

नमक बन औषधि बन जाए

सोचती हूं किसी सुबह समुद्र के पास बैठूं 

सूरज साक्षी सागर वक्ता और मैं श्रोता बनूं।।

***********************************************************************************

कविता


सुश्री निरुपमा सिंह, बिजनौर, ईमेल: nirupma.singh32@gmail.com


अनछुए-पल

बाहें पसारे धरा खड़ी

विचलित हुई है 

आज फिर से

कुछ तो कह दो स्पर्श से


कभी तो मिलो 

जैसे मिलते दोनों पहर 

बन प्रहरी प्रकृति के

छुने चली हूं उस नीलांबर को

जिसका एक सिरा इस ओर 

तो दूजा है उस ओर

जो न आया कभी

हाथ किसी के


कहीं तो होगा सिरा कोई 

जो छूट रहा है करतल से

बस प्रतिक्षा ही है समाधान

ये शब्द नहीं, भाव हैं मन के

जो अश्रु बन आज हैं छलके 

मेरी शुष्क अंखियों से


धूमिल हुयी दृष्टि,

कंपकंपाती जिह्वा,

लड़खड़ाते शब्द मन के

नीर बरसेगा विह्वल होकर

बिछड़ कर अपने अम्बर से

आ मिलेगा अपनी धरा से

बन आवरण अवनि का

भर देगा दामन आद्रता से

लहलहा उठेगी प्रकृति

मिल कर अपने प्रियवर से !

शब्द मेरे-भाव मेरे

ये शब्द नहीं, भाव हैं मन के

जो अश्रु बन आज हैं छलके 

मेरी शुष्क अंखियों से


धूमिल हुई दृष्टि,

कंपकंपाती जिह्वा,

लड़खड़ाते शब्द मन के


नीर बरसेगा विह्वल होकर

बिछड़ कर अपने अम्बर से

आ मिलेगा अपनी धरा से


बन आवरण अवनि का

भर देगा दामन आद्रता से

लहलहा उठेगी प्रकृति

मिल कर अपने प्रियवर से!

***********************************************************************************

कविता

शीला चित्रवंशी, नोएडा

‘‘ मैं और तुम’’

अपना अपना करके हमने त्याग दिया सब कुछ अपना

केवल‘‘मैं‘‘ ही अपना बाकी है सीमित हो जाते शब्द यहाँ

दिल ही दिल की बातों से दिल न सम्भलता है लेकिन



संगी साथी साथ के हो दिल कह जाता है सब कुछ

तुम धीर सतह समुंदर जैसे मैं गागर से सागर भरती

तुम सागर में नदिया जैसी तुम स्थिर मैं हलचल उसकी

बहती नदिया की धार हूँ मैं कल कल करती आवाज़ हूँ मैं

तूफानों विपदाओ का मैं भार सम्भाले रहती हूँ

माँ का नाम जुड़ा मुझसे माँ तले दबी ही रहती हूँ

नील गगन धरती पर झुकता दूर दृष्टि से कभी कभी

तब कुछ-कुछ सोच अलग हो जाती समझूँ भी मैं कैसे उसे

धरा तो हूँ धरती का बोझ उठाए रहती हूँ

माँ का नाम जुड़ा मुझसे माँ तले दबी ही रहती हूँ

नील गगन के साये में जन जीवन चलता रहता है

पर मेरे बिना क्या सम्भव है जीवन-यापन चलना-फिरना

आकाश में पक्षी उड़ते हैं पर करते हैं विश्राम यहाँ

ऋषि, मुनी, तपस्वी, योगी, करते हैं सब ध्यान यहाँ

गत वर्ष बीती बातों को समझाऊँ मैं किसे-किसे

यही विधा है यहीं सुधा है यह बिसराऊँ भी तो कैसे

आकाश में पक्षी उड़ते है

यह बिसराऊँ भी कैसे.......

गत वर्ष बीती बातों को समझाऊँ भी..

***********************************************************************************

कविता

सुश्री मधुकमल जैन, गुरुग्राम, मो. 9350010586

कोई लौटा दे

कोई लौटा दे

मेरे बचपन की होली।

वो टेसू के फूल

वो सखियों की टोली।

वो हंसना हंसाना,

वो छुपना छुपाना,

और फिर चुपके से

रंगों का मल जाना।

याद आता है आज भी

वह जीया ज़माना,

कोई लौटा दे मेरा वह 

अनमोल खज़ाना,

वह टेसू के फूल

वही सखियों की टोली,

कोई लौटा दे

मेरे बचपन की होली

आज तो खिलती है

मेरे देश में हर रोज ही होली,

खुले आम घूमती है

अपराधियों, आंतकवादियों की टोली

खेल जाती है मासूमों से रक्त की होली

छीन लेती है घरों से

उनकी हंसी व ठिठोली

मिटा जाती है बहनों की

मांगों की रोली,

सूनी कर जाती है

माँ की ममता की झोली

नहीं चाहिए नहीं चाहिए

मुझे ऐसी रक्त की होली,

कोई लौटा दे मुझे

वैसी ही रंगों की होली,

जैसे की थी मेरे

बचपन की होली,

वो टेसू के फूल

वो सखियों की टोली।                    

***********************************************************************************

कविता

जनाब ओसाफ़ उभय, देवास, मो.  9039914142

कसौटी

अब, जबकि सन्नाटा छाया हुआ है

गुमसुम, उदास हो गया है हर कोई !


मेरे आस पास

बिखरा हुआ है प्रश्नचिन्हों का कचरा

और - मेरा अस्तित्व

किसी महात्मा की मूर्ति-सा

जिं़दगी के चैराहे पर खड़ा है!

कुछ सोच रहा है।


इस घनघोर अंधकार में

सांय सांय में

पूरी ताक़त /पूरी ऊर्जा के साथ

अपनी अवाज़ें बुलन्द कर रहे हैं-

झींगुर!


मगर, यह तो तय है

ठीक उसके निर्धारित समय पर

आशा का सूर्योदय होगा।

उत्साह/उल्लास/उमंगों से भरपूर

सवेरा प्रकट होगा।


तो प्रश्नचिन्हों में घिरा ‘‘मैं’’ और

‘‘मेरा अस्तित्व’’

मैं तुम्हें प्रस्तुत करूँ-

कि मैं तुम्हें प्रस्तुत करूँ?


कसौटी है-

तपना तो होगा

कुछ खोट है-

तो उसे जलना तो होगा

खरा है-

तो उसे तपकर निखरना होगा।


सत्य तो सत्य है

मिथ्या हो नहीं सकता।

और, जो मिथ्या है

वह मिथ्या के अतिरिक्त

कुछ और हो नहीं सकता।


इस मिथ्यामयी ताने-बाने को

इस स्थित किन्तु अस्थिर

चक्रव्यूह को तोड़ना तो होगा।


अब ‘‘मैं’’ तुम्हें प्रस्तुत करूँ-

कि मैं तुम्हें प्रस्तुत करूँ ?


इसमें कहीं कोई शक की गुंजाइश नहीं

क़तई संदेह/क़तई संशय नहीं

तुम ऊर्जावान हो

प्राणवान हिमालय हो

तुम्हारे ढह जाने का-

तो प्रश्न ही नहीं उठता!


तुमने साक्षात् देखा है

तुम्हारे अपने ऊँचे-ऊँचे

क़द्दावर दरख़्तों को

उन पर फूल भी थे

और फलों से लदी हुई शाख़ें भी

मज़बूत जड़ें भी थीं

और समृद्ध अस्तित्व भी।


अब इसे महज़ एक संयोग जानो

समय की एक आँधी ने

उन्हें धराशायी कर दिया।


सब कुछ मेरे वश में नहीं है

सब कुछ तुम्हारे वश में भी नहीं

सब कुछ सब इन्सानों के वश में-

होता भी नहीं है

यह कहना नितान्त ज़रूरी है-’

जो कुछ अच्छा हुआ।

आगे भी अच्छा होगा

ंउत्साह ही जीवन है

और निराशा - मृत्यु।

परिवर्तन

सृष्टि का सार्वभौमिक नियम है

और, नियम से ही जीवन

नियमित और संयमित होता है

यही आस्था और विश्वास

हमें पुनः स्थापित करेगा।

पुनः प्रतिष्ठित करेगा।


हमारे लिये ‘‘मानववीय मूल्य’’

हमारी आस्था

और विश्वास का प्रतीक है।

हमें पुनः दृढ़-निश्चयी होना होगा।

हमें पुनः दृढ़ संकल्पित होना होगा।


श्रम, सफलता की कुुंजी है

और सफलता सद्लक्ष्यों की दासी


मुझे, मेरा अंतरात्मा कहता है-

न मैं तुम्हारी परीक्षा लँू-

न मैं परीक्षा दूँ

न मैं इनकी परीक्षा लूँ

न मैं उनकी परीक्षा लूँ


तुम मेरे हाथ - मेरी भुजाएँ हो

तुम मेरी आँखें - मेरी दृष्टि हो

तुम मेरा शरीर - मेरी ऊर्जा हो

तुम मेरा संकल्प - मेरा आत्मबल हो

तुम्हारा सजग और सुरक्षित रहना

नितान्त आवश्यक है- देश-धरती के लिये।


अब मेरे लिये

आवश्यक हो गया है

समय आ गया है

क्यों न मैं अपने आप को प्रस्तुत करूँ ?


*‘‘जीना यहाँ

मरना यहाँ

इसके सिवा

जाना कहाँ ?’’

*  कालजयी गीतकार एवं कालजयी कलाकार से क्षमा-याचना के साथ

***********************************************************************************

कविता

डॉ. प्रदीप उपाध्याय, देवास, म. प्र. मो. 9425030009

उदास है गाय

उदास है गाय

उसके पैर उठ चले हैं

वापसी के लिए

बंधने खूंटे से

उदास मन से

वह लौट रही है

अपने मालिक के घर की ओर

उसे मालूम है कि

उसके घर पहुंचते ही

बांधेगा खूंटे से और

दुहेगा उसे

बछिया को दूध पिलाई की

रस्म अदा कर, मुंह से

छुड़ा लेगा भरे हुए थनों को

नोंच लेगा आंचल को

दूध की अंतिम बुंद तक

हां, वह लौट चली है

उदास मन से

अपने आवारा होने के

तमगे के साथ

कभी उसने भी

किसी से सुना था

गांवों में होती थीं

चरनोई भूमि

और होता था ग्वाला

गांव भर के ढोर-डंगर

साथ-साथ जाते

ग्वाले के इशारे पर

चरनोई भूमि पर

चारा चरकर

नदी-नालों का पानी पीकर

गोधूली में लौटते 

गले में लटकी

घंटियों की समवेत

स्वरलहरियों के साथ

मदमस्त होकर

कहीं कोई उदासी नहीं

सीधे खूंटे पर पहुंचते

परन्तु

फैलती बस्तियां,घटते खेत

सिकुड़ती चरनोई,फटती मेढ़े

कैसे लौटें आखिर

पुराने खुशहाली के दिन

अब तो वही

सुबह का दूध दुहाना

और छोड़ दिया जाना

सड़कों-गलियों में

पेट भरने के लिए

इधर-उधर मुंह मारने

घर-घर से रोटी की खातिर

मुंह तकने के लिए

सड़ा-गला खाने और

गंदगी से 

पेट की अगन बुझाने

लगता है उसे

उदास कदमों से निकलना

और लौटना

शायद यही नियति है

और कहलाती वह गौमाता

उदास है गाय।

***********************************************************************************



Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य