ग़ज़ल
प्रो. कुलदीप सलिल, दिल्ली, मो. 9810052245
जो मिला था काम मुझको वही काम कर रहा हूँ
मैं किसी की जुस्तजू में यूँ ही उम्र भर रहा हूँ
मेरी ज़िन्दगी का हासिल मेरी मुस्कुराहटें हैं
तेरे साथ-साथ मैं भी निखर-सँवर रहा हूँ
है ये ख़्वाब या हकीक़त, तेरे साथ हूँ कि तनहा
ये गुलों की वादियों में मैं कहाँ विचर रहा हूँ
तू समेट लेना मुझको ज्यों समेटती है खुशबू
तेरे आस-पास मैं भी, ऐ सबा बिखर रहा हूँ
न लपेट लें तुझे भी मेरी क़िस्मतों के साये
यही सोच-सोच कर मैं, मेरे दोस्त डर रहा हूँ
यों हज़ार बार जाना हुआ आसमां पे लेकिन
कभी हाल से ज़मीं के नहीं बेख़बर रहा हूँ
हो मेरी नसीब मंज़िल या कि गर्द रास्ते की
ये सफ़र है आरजू का जिये तय मैं कर रहा हूँ
है तलाश किसकी मुझको, ये सलिल जुनूँ है कैसा
कि सँभाला होश जब से यूँही दर-बदर रहा हूँ