ग़ज़ल
प्रो. कुलदीप सलिल, दिल्ली, मो. 9810052245
बुझी चिंगारियाँ सुलगा रहे हैं,
हम इस माहौल को गरमा रहे हैं।
जिए जिनके सहारे आज तक हम,
वही कुछ ख़्वाब अब तड़पा रहे हैं।
यहाँ पर भी बरस जा, दूर मत जा,
यहाँ भी फूल कुछ मुरझा रहे हैं।
कोई रस्ता तो हो अन्धी गली से
हज़ारों लोग घिरते जा रहे हैं।
नहीं होता गुंज़रना ठीक हद से,
हमें वो, दिल को हम, समझा रहे हैं।
वही दिल है, जिगर वो ही, वही हम,
वही मसले अभी सुलझा रहे हैं।
बुझी वो एक चिंगारी सलिल क्या,
सितारे हैं कि बुझते जा रहे हैं।