कविता

डाॅ. सीमा शाहजी, सहायक प्राध्यापक हिन्दी, 

थांदला, जिला झाबुआ म.प्र. 457777, मो. 9165387771



ओ! गौरेय्या कहाँ गई तुम...?

फुदक-फुदक कर 

आती थी तुम 

सखियों के संग

गाती थी तुम

ची...ची...ची...ची... करके 

हमको रोज

बुलाती थी तुम

ओ! गौरेय्या

कहाँ गई तुम...?


तुम रोटी पर

चोंच मारती 

फूलों वाली

सोच मारती

तुम चूल्हे के

पास फुदकती

आटे में फिर पँख रगड़ती

तुम दर्पण से

रोज झगड़ती 

माँ के सुई-धागों से

घोंसले की दुनिया बुनती 

तिनका-तिनका चुनती

तुम्हें तलाशा घर-आँगन में

ओ ! गौरेय्या

कहाँ गई तुम...?


घर के बाहर

टंगा नन्हा सकोरा 

बूँद-बूँद पानी पर

तुम्हारा गहरा पहरा 

यही तुम्हारे सुकून की दुनिया

करती रहती ता... ता... थैइया 

तुम्हें तलाशा घर आँगन में 

ओ! गौरेय्या

कहाँ गई तुम...?


तुम थाली में

गोल नाचती

पर को अपने

खोल नाचती

तुम आँखों से 

बातें करती

खाली दिन में

सौगातें झरती

तुम्हें तलाशा हर चुप्पी में

घर-आँगन सहन में 

ओ! गौरेया

कहाँ गई तुम...।



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